family story in hindi
family story in hindi
आती है तो खोईखोई सी रहती है, भाईबहन के साथ की वह धींगामस्ती भी अब नजर नहीं आती. छोटे भाईबहन को कभीकभार आइसक्रीम खिलाने ले जाना, कोई पिक्चर दिखाना या शापिंग के लिए ले जाना, सब ‘रुटीन वे’ में होता है. आज तो उस ने हद ही कर दी. मैं उस की पसंद का मूंग की दाल का हलवा बनाने में व्यस्त थी तभी मैं ने सुना वह अपनी छोटी बहन भावना से कह रही थी, ‘‘भानु, अब की बार मैं जल्दी चली जाऊंगी. तेरे जीजाजी आने वाले हैं. कैंटीन का खाना उन को बिलकुल सूट नहीं करता. आज शाम को बाजार चलते हैं, मुझे मम्मीजी की साड़ी भी लेनी है.’’
यह मम्मीजी कौन हैं? आप को बताने की जरूरत नहीं है. वही हैं जो ससुराल जाने पर हर लड़की की अधिकारपूर्वक मम्मीजी बन जाती हैं, चाहे वह उसे असली मम्मी की तरह मानें या न मानें.
मैं गलत नहीं कह रही हूं. पिछले 10 दिनोें से मुझे वायरल फीवर भी था. थोड़ी कमजोरी भी महसूस कर रही थी, पर उस कालिज से, जहां मैं पढ़ा रही थी, मैं ने छुट््टी ले ली थी. मुझे बस एक ही धुन थी कि बेटी को वह सब चीजें खिला दूं जो उसे पसंद थीं और वह थी कि अपनी बहन से जाने की जल्दी बता रही थी. जैसे मैं अब उस के लिए कुछ नहीं थी.
तभी मैं ने यह भी सुना, ‘‘भानु, इस सितार पर तो धूल जम गई है, तू क्या इसे कभी नहीं बजाती? मैं तो पहले ही जानती थी कि तू साइंस की स्टूडेंट है, भला तुझे कहां समय मिलेगा सितार बजाने का? मां से कह कर मैं इस बार यह सितार लेती जाऊंगी. मैं वहां क्लास ज्वाइन कर के सितार बजाना सीख लूंगी, वैसे भी अकेले बोर होती हूं.’’
हलवा बन चुका था पर कड़ाही कपड़े से पकड़ कर उतारना भूल गई तो उंगलियां जल गईं. अब किसी को बुला कर सितार पैक कराना होगा, जिस से लंबे सफर में कुछ टूटेफूटे नहीं. बेटी है न, उस के जाने के खयाल से ही मेरी आंखें भर आई थीं. मैं ने जल्दी से आंखें आंचल से पोंछ लीं. लगता है, मेरी बेटी अपनी सारी चीजें जिन से मेरी यादें जुड़ी हुई हैं, मुझ से दूर कर ही देगी.
पिछली बार जब वह आई थी, मैं उस के रूखे, घने, लंबे केशों में तेल लगा रही थी कि अचानक ही मैं ने सुना, ‘मां, मैं वह मसूरी वाली ‘पोट्रेट’ ले जाऊं जो आप ने ‘एम्ब्रायडरी कंपीटीशन’ के लिए बनाई थी. वही वाली जो आप ने प्रथम पुरस्कार पाने के बाद मुझे मेरे जन्मदिन पर प्रेजेंट कर दी थी. मम्मीजी उसे देख कर बहुत खुश होंगी. आप ने कितनी सुंदर कढ़ाई की है. पहाड़ लगता है बर्फ से भरे हैं.’’
मैं हां कहने में थोड़ी हिचकिचाई. कितने पापड़ बेलने पड़े थे उस तसवीर को काढ़ने में. कितने प्रकार की स्टिचेज सीखनी पड़ी थीं उसे पूरा करने में, और वह मुझ से ले कर उसे अपनी उन मम्मीजी को दे देगी. पर कोई बात नहीं, मैं तो उसे खुश देखने के लिए अपनी कोई भी प्रिय वस्तु देने को तैयार थी, यह तो फ्रेम में जड़ी केवल एक तसवीर ही थी.
अनुराग उसे लेने सुबह ही आ गया था. शाम को जब मैं दोनों को चाय के लिए बुलाने गई तो देखा दोनों दीवार से तसवीर उतार कर यत्नपूर्वक ब्राउन पेपर के ऊपर अखबार लपेट रहे थे.
मैं ने दीवार की तरफ देखा, कितनी सूनी, बदरंग सी लग रही थी. ठीक उसी तरह जैसे कामना के चले जाने के बाद उस का कमरा लगता था. मैं बिना कुछ बोले तेज कदमों से वापस लौट आई. कब सुबह हुई, जल्दीजल्दी नाश्ता हुआ फिर साथ ले जाने का खाना पैक हुआ और कामना विदा हो गई, पता ही न चला. भावना सिसक रही थी, ‘‘दीदी, जल्दी आना.’’ मैं चुपचाप उसे देखती रही जब तक कि वह आंखों से ओझल न हो गई.
हर बार की तरह तीसरेचौथे महीने कामना नहीं आई. मैं सोचसोच कर परेशान थी कि क्या कारण हो सकता है उस के न आने का. तभी उस की मम्मीजी का एक छोटा सा पत्र मुझे मिला.
‘अत्यंत प्रसन्नता से आप को सूचित कर रही हूं कि हम दोनों की पदोन्नति हो गई है, यानी कि आप नानी और मैं दादी बनने वाली हूं. कामना को एकदम डाक्टर ने बेड रेस्ट बताया है, इसलिए कुछ महीने बाद ही जा सकेगी वह. हां, गोदभराई के लिए आप को हमारे यहां आना होगा क्योंकि हमारे घर की परंपरा है कि पहला बच्चा ससुराल में ही होता है. अत: डिलीवरी भी यहीं होगी. आप बिलकुल निश्ंिचत रहिएगा क्योंकि मैं भी तो कामना की मम्मी हूं.’
पत्र पढ़ कर कामना के न आने का दुख तो मैं भूल ही गई और खुशी से भावना को जोर से आवाज दी. खबर सुन कर वह भी नाच उठी. घर में कितनी ही देर तक हर्षोल्लास का वातावरण बना रहा. कामना के पापा जहां पोस्टेड थे वहां से घर वह छुट््टियों में ही आते थे. इस बार हमसब एकसाथ गए रस्म अदा करने. बेटी को देख कर उतनी ही खुशी हुई जितनी अपने हाथों से लगाए वृक्ष को फूलतेफलते देख कर होती है.
रस्म अदा करने के बाद कामना मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘मां, चलो, तुम्हें कुछ दिखाते हैं.’’
एक कमरे के पास आ कर वह रुक गई और बोली, ‘‘देखो मां, यह बच्चे की नर्सरी है.’’ अंदर जा कर मैं चकित रह गई. दीवार पर हलके रंग का प्लास्टिक पेंट, फूलपत्तियां बनी हुईं, छोटेछोटे बच्चे ऐंजेल बने हुए थे. एक तरफ ‘क्रिब’ में बिछी हुई गुलाबी प्रिंटेड और गुलाबी उढ़ाने की चादर भी. दूसरे कोने में तरहतरह के खिलौने, नर्सरी राइम्स की किताबें करीने से सजी हुईं.
‘‘मां, तुम मेरी वह छोटी कुरसीमेज भेज देना जिस पर मैं बचपन में पढ़ती थी.’’
मैं ने प्यार से उस के गाल पर हलकी सी चपत लगाई, ‘‘हां, मैं जाते ही शिबू से तुम्हारी मेजकुरसी पहुंचवा दूंगी.’’
कहना नहीं होगा, शिबू ही उस की देखभाल करता था जब मैं कालिज पढ़ाने चली जाती थी. घर पहुंचते ही कामना का कमरा खोला, दीवार पर उस के बचपन की कितनी ही तसवीरें लगी हुई थीं. एक कोने में उस की छोटी कुरसीमेज, मेज पर उस का एक छोटा सा बाक्स भी रखा हुआ था. बाक्स नीचे रखा और कुरसीमेज पेंट करा के उसे कामना की ससुराल पहुंचाने की बात मैं ने शिबू को बताई.
वह दिन भी आया कि कामना अपने छोटे से बेटे को साथ लिए आई. साथ में उस का पति अनुराग भी था. मैं तो कब से तीनों की राह देखती दरवाजे पर खड़ी थी. आगे बढ़ कर मैं ने बच्चे को गोद में ले लिया और चूम लिया.‘‘मां, तुम मुझे प्यार करना भूल गईं.’’
‘‘अब तुम बड़ी जो हो गई हो,’’ मैं ने हंस कर कहा.
हंसीखुशी के बीच महीना कैसे बीत गया, पता ही न चला. कामना अकसर बच्चे को अपने कमरे में ले जाती, खिलाती, सुलाती.
कल ही उस की ट्रेन थी. मैं बरामदे की आरामकुरसी पर लेटी ही थी कि कामना आ पहुंची.
‘‘मां, बहुत थक गई हो न. लाओ न पैर दबा दूं थोड़ा,’’ और हाथ में ली हुई फाइल उस ने पास की कुरसी पर रख दी, पर मैं ने अपने पैर समेट लिए थे.
‘‘अरे, मैं तो ऐसे ही लेट गई थी’’ तभी बेटे के रोने की आवाज सुन कर वह चल दी. उत्सुकतावश मैं ने फाइल उठा ली. देखने में पुरानी किंतु नए रंगीन ग्लेज पेपर, रिबन से बंधी हुई. मैं सीधे बैठ गई. अंदर लिखाई जानीपहचानी सी लग रही थी. फाइल में कितनी ही कटिंग थीं, समाचारपत्रों की, कालिज की पत्रिकाओं की. मेरी लिखी हुई टिप्पणियां भी थीं.
हां, वह पहली कटिंग भी थी जब कामना 8वीं में पढ़ती थी. मुझे याद आ गया, कामना 100 मीटर की रेस में भाग लेने वाली थी, कितनी ही बार वह खेलों में भाग ले कर पुरस्कार भी पा चुकी थी. पर उस दिन उस के पैर में भयानक दर्द था. कुछ मलहम मला, सिंकाई की, दवाई खिलाई, पैर में कस कर पट््टी बांध दी, पर उस के पैर के ‘क्रैंप’ न गए. उधर उस की जिद थी कि वह रेस में भाग जरूर लेगी. मुझे भी अपने कालिज पहुंचना जरूरी था. मैं ने शिबू द्वारा थर्मस में गरम दूध में कौफी डाल कर और एक नोट लिख कर भेजा, ‘बेटी कामना, रेस में हार कर दुखी मत होना. जीवन में ऐसी बहुत सी रेस आएंगी और तुम जरूर ही जीतोगी. तुम मेरी रानी बेटी हो न, हारने पर मन छोटा मत करना.’
मैं जब कालिज का काम खत्म कर कामना के स्कूल के सालाना स्पोर्ट्स देखने पहुंची तो कामना अपनी कक्षा की लड़कियों के साथ पिरामिड बनाने में लगी थी. सब से ऊपर वही थी. तालियों से मैदान गूंज उठा.
मुझे सुकून हुआ कि मेरी बेटी हार कर भी निराश नहीं थी. खेल खत्म होने पर जब वह मेरे पास आई तो उस की आंसू भरी आंखों को मैं ने चूम लिया था, इस की कटिंग भी थी.
ऐसी ही कितनी कटिंग काट कर उस ने संजो कर करीने से लगाई थीं. अकसर हम दोनों ही व्यस्त हो जाते थे, दूर हो जाते. मैं कभी परीक्षा लेने दूसरे शहर चली जाती तो मेरी अनुपस्थिति में उसे ही घर सुचारु रूप से चलाना है, मैं उसे लिख कर भेजती. लौट कर देखती कि वह थोड़े ही दिनों में और भी बड़ी हो गई है. किसी को मेरी याद तक न आती थी. कामना, जो घर में थी उन्हें संभालने के लिए.
मैं तल्लीन हो कर पेज पलटने में लगी थी तभी कामना आ पहुंची. एक शरारत भरी हंसी उस के अधरों पर फैल गई, ‘‘मां, अपनी फाइल ले जाऊं मैं,’’ मैं ने उठ कर कामना को सीने से लगा लिया. कौन कहता है कि बेटियां अपने उस घर के लिए बटोरती ही रहती हैं? सच तो यह है कि ये बेटियां ही तो मांबाप की सिखाई हुई अच्छीअच्छी बातों की विरासत से अपने उस दूसरे घर को भी प्रकाशमान करती हैं. मेरी इस बेटी ने इस विरासत को अपना कर मेरा सिर कितना ऊंचा कर दिया था.
पूरा घर ही रमादेवी को अस्तव्यस्त महसूस हो रहा है. सोफे के कुशन बिखरे हुए, दीवान की चादर एक कोने से काफी नीची खिंची हुई मुड़ीतुड़ी और फर्श पर खुशबू व पिंकू के खिलौने बिखरे हुए थे. काम वाली महरी नहीं आई, इसीलिए घर की ऐसी हालत बनी हुई थी. वैसे, उन का दिल तो चाह रहा था कि उठ कर सब कुछ व्यवस्थित कर दें, लेकिन यह घुटने का दर्द…उफ, किसी दुश्मन को भी यह बीमारी न लगे. हड़बड़ाती सी सुलभा औफिस जाने के लिए तैयार हो कर आई. सामान सहेजते हुए वह निर्देश भी देती जा रही थी, ‘‘मांजी, खुशबू को दूधभात खिला दिया है और पिंकू को दूध पिला कर सुला दिया है. उसे याद से 3-3 घंटे बाद दूध दे देना. आया आज छुट्टी पर है. सब्जी मैं ने बना दी है, फुलके बना लेना. अब मुझे समय नहीं है.’’
हवा की गति से सुलभा कमरे से बाहर चली गई और पति आलोक के साथ अपने दफ्तर की ओर रवाना हो गई. रमादेवी सबकुछ देखतीसुनती ही रह गईं. बोलने का अधिकार तो वह स्वयं ही अपनी जिद के कारण खो चुकी थीं. सच, वे कितनी बड़ी भूल कर बैठीं. अपनी झूठी शान के लिए लोगों पर प्रभाव डालने के प्रयास में उन्होंने कितना गलत निर्णय ले लिया. विचारों के भंवर में डूबतीउतराती वे पिंकू के रोने की आवाज सुन कर चौंकीं. पलंग से उतरने की प्रक्रिया में ही उन्हें 2-3 मिनट लग गए. घुटने को पकड़ कर शेष टांग को दूसरे हाथ से धीरेधीरे मलते हुए वे पैर को जमीन पर रखतीं. बहुत दर्द होता था, कभीकभी तो हलकी सी चीख भी निकल जाती. पैर घसीटते हुए वे पिंकू के पास पहुंचीं. कहना चाहती थीं, ‘अरे, राजा बेटा, इतनी जल्दी उठ गया?’ लेकिन दर्द से परेशान खीजती हुई बोल पड़ीं, ‘‘मरदूद कहीं का, जरा आराम नहीं लेने देता, सारा दिन इस की ही सेवाटहल में लगे रहो.’’
पिंकू, दादी की गोद में बैठ कर हंसनेकिलकने लगा तो रमादेवी को अपने कहे शब्दोें पर ग्लानि हो आई, ‘इस बेचारी नन्ही जान का क्या कुसूर. दोष तो मेरा ही है. मेरे ही कारण बहू अपने नन्हे बच्चों को रोता छोड़ नौकरी पर जाती है. मेरी ही तो जिद थी.’ अपनी इकलौती संतान आलोक की रमादेवी ने बहुत अच्छी परवरिश की थी. मांबाप के प्रोत्साहन से सफलता की सीढि़यां चढ़ते हुए इंजीनियरिंग की डिगरी प्राप्त की थी. जल्दी ही उसे एक प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छे पद पर नौकरी मिल गई थी. आलोक की शादी के लिए रमादेवी ने जो सपने बुने थे उन में से एक यह भी था कि वह नौकरी करने वाली बहू लाएंगी. जब पति ने तर्क रखा कि उन्हें आर्थिक समस्या तो है नहीं, फिर बहू से नौकरी क्यों करवाई जाए, तो वे उत्साह से बोली थीं, ‘आप को मालूम नहीं, नौकरी करने वालों का बड़ा रोब रहता है. अपने महल्ले की सुमित्रा की बहू नौकरी करती है. सभी उसे तथा उस की सास को इतना सम्मान देते हैं मानो उन की बराबरी का हमारे महल्ले में कोई हो ही न.’
‘लेकिन उन की तो आर्थिक स्थिति कमजोर है. सुमित्रा के पति भी नहीं हैं तथा उन के बेटे की कमाई भी इतनी नहीं कि परिवार का खर्च आसानी से चलाया जा सके. मजबूरन आर्थिक सहायता के लिए उन की बहू नौकरी करती है. दोहरे कर्तव्यों के बोझ से वह बेचारी कितना थक जाती होगी. उस की कर्तव्यपरायणता के कारण ही सब उस की तारीफ करते हैं,’ पति ने समझाया था. ‘यह आप का खयाल है. मैं कुछ और ही सोचती हूं. हमारे खानदान में किसी की भी बहू नौकरीपेशा नहीं है. सोचो जरा, सभी पर हमारी धाक जमेगी कि हम कितने खुले विचारों वाले हैं, आधुनिक हैं, बहू पर कोई बंधन नहीं लगाते. इस का रोब लोगों पर पड़ेगा.’
‘तुम्हारी मति मारी गई है. लोगों पर रोब जमाने की धुन में अपने घर को कलह, तनाव का मैदान बना लें? सोचो, अगर बहू सारा दिन बाहर रहेगी तो तुम्हें उसे लाने का क्या फायदा होगा? न वह तुम्हारे साथ बैठ कर ठीक से हंसबोल सकेगी और न घर के कामों में मदद कर सकेगी,’ पति ने फिर से समझाने की कोशिश की. ‘घर के काम के लिए नौकरानी रख लेंगे. रही बात हंसनेबोलने की, तो शाम 6 बजे से रात तक क्या कम समय होता है?’
‘तुम से तो बहस करना ही व्यर्थ है’, कह कर पति चुप हो गए. आलोक के लिए लड़कियां देखने की प्रक्रिया जारी थी. रमादेवी ने कई अच्छी, शिक्षित लड़कियों को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे नौकरी नहीं करती थीं. आरंभ से ही घर में रमादेवी का दबदबा था, इसलिए पति व पुत्र उन के हर प्रस्ताव को मानने में ही अपनी खैर समझते थे. संयोग से जीवन बीमा कंपनी में कार्यरत सुलभा सभी को पसंद आ गई. रमादेवी को तो मानो मुंहमांगी मुराद मिल गई. खूबसूरत, कुलीन घर की बेटी और फिर अच्छी नौकरी पर लगी हुई. आननफानन बात पक्की कर दी गई. खूब धूमधाम से शादी हुई. सुलभा ने महीनेभर की छुट्टियां ली थीं. नवदंपती शादी के बाद 15 दिनों के लिए मधुमास मनाने पहाड़ों पर चले गए.
घर लौटने पर एक दिन रमादेवी ने कहा, ‘सुलभा, पहली तारीख से तुम अपनी ड्यूटी शुरू कर लो,’ उन के आदेश से सभी चौंक गए. सभी का विचार था, वे अपनी जिद भूल चुकी होंगी, लेकिन उन का सोचना गलत निकला. ‘मांजी, आप को तकलीफ होगी. मैं सवेरे 10 बजे से शाम 6 बजे तक बाहर रहूंगी. घर का सारा काम…आप के अब आराम के दिन हैं. मैं आप की सेवा करना चाहती हूं,’ पति के सुझाए विचार सुलभा ने व्यक्त कर दिए. आलोक व पिता ने सोचा, अब रमादेवी अपनी जिद छोड़ निर्णय बदल लेंगी लेकिन जब उन्होंने उन का उत्तर सुना तो मन मार कर रह गए. वे बोलीं, ‘बहू, तुम मेरी तकलीफ की चिंता मत करो. मैं घर के सारे कार्यों के लिए नौकरानी का प्रबंध कर लूंगी. तुम बेफिक्र हो कर नौकरी करो. आजकल तो अच्छी नौकरी प्रतिष्ठा का प्रतीक है. हमारा भी तो मान बढ़ेगा.’
सभी को हथियार डालने पड़े थे. सुलभा पूर्ववत नौकरी पर जाने लगी थी. ‘सुलभा, कमाल है. इतने संपन्न घराने में ब्याह होने के बाद भी तुझे नौकरी की जरूरत है, समझ नहीं आता,’ औफिस में एक दिन वीणा ने कहा. ‘हां भई, अब तो नौकरी का चक्कर छोड़ो और अपने मियां तथा सासससुर की सेवा करो. इकलौती बहू हो,’ कल्पना ने भी मजाक किया. जब सुलभा ने उन्हें असलियत बताई तो वे हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताकने लगीं कि अजीब सनकी सास है. लेकिन प्रत्यक्ष में वीणा बोली, ‘हाय सुलभा, तेरी सास तो बड़ी दिलेर है, जो सारी जिम्मेदारियां स्वयं उठा कर तुझे 8 घंटे के लिए आजाद कर देती है.’
‘हां, इस के तो मजे हैं…न खाना बनाना, न घर के कामों की चखचख. शान से औफिस आओ और घरवालों पर रोब जमाओ.’ लेकिन सुलभा को उन की बातों से कोई प्रसन्नता नहीं हुई. न चाहते हुए भी उसे मजबूरी में यह नौकरी करनी पड़ रही थी. शाम को थकहार कर जब वह लौटती तो दिल करता कि कुछ देर पलंग पर लेट कर आराम करे लेकिन संकोच के मारे ऐसा न कर पाती कि सास, पति क्या सोचेंगे? शादी से पहले वक्त काटने के लिए वह नौकरी करती थी. घर लौटते ही मां चाय की प्याली व कुछ नाश्ते से उस की दिनभर की थकान दूर कर देती थीं. कुछ देर आराम करने के पश्चात वह किसी भी सहेली के घर गपशप के लिए चली जाती थी. मां ही सारी रसोई संभालती थी. लेकिन मायके तथा ससुराल के रीतिरिवाजों, कार्यप्रणाली वगैरा में काफी फर्क होता है, यहां तो 8 बजे ही रात का खाना भी खा लिया जाता था, सो रसोई में मदद करना जरूरी था.
शादी से पहले सुलभा का विचार था कि संपन्न घराने में तो उस से नौकरी करवाने का प्रश्न ही नहीं उठेगा. फिर वह अपने सारे शौक पूरे करेगी, घर को अपनी पसंद के अनुसार सजाएगी, बगीचे को संवारेगी, अपने चित्रकारी के शौक को उभारेगी. पति व सासससुर की सेवा करेगी. एक आदर्श पत्नी और बहू बन कर रहेगी. लेकिन यहां तो उसे किसी भी शौक को पूरा करने का समय ही नहीं मिलता था, फिर धीरेधीरे नौकरी की मजबूरी एक आदत सी बनती चली गई. खुशबू के जन्म के समय कंपनी की
ओर से 3 महीने की छुट्टियां मिली थीं, सुलभा का जी चाहता रहा कि मांजी कहें, ‘अब नौकरी को छोड़ो अपनी गृहस्थी को संभालो.’ लेकिन उस की आस दिल में ही रह गई, जब रमादेवी ने घोषणा की, ‘खुशबू के लिए आया का प्रबंध कर दिया है, वैसे मैं भी सारा दिन उस के पास ही रहूंगी.’ दिन सरकते गए. बेशक खुशबू के लिए आया रखी गई थी, लेकिन उसे संभालती तो रमादेवी स्वयं ही थीं. आया तो उसे नहलाधुला, दूध पिला, घर का ऊपरी काम कर देती थी.
पोती को हर समय उठाए रमादेवी इधरउधर डोलती रहतीं. महल्ले में घूमघूम कर सब पर रोब डालतीं, ‘मेरी बहू तो हर पहली को 2 हजार रुपए मेरे हाथों में सौंप देती है. हम ने तो उसे बेटी की तरह पूरी सुखसुविधाएं और आजादी दे रखी है. आखिर बहू भी किसी की बेटी होती है. हम भी उसे क्यों न बेटी मानें?’ खुशबू के नामकरण के अवसर पर एक बड़ी पार्टी का आयोजन किया गया था, जिस में शहर के प्रतिष्ठित लोगों के साथसाथ समाज, बिरादरी, महल्ले के तथा सुलभा के सहकर्मियों को भी आमंत्रित किया गया. रमादेवी समारोह में पूरी तरह से इस प्रयास में लगी रहीं कि उन की बहू की अच्छी नौकरी से अधिकाधिक लोग प्रभावित हों और उन का रोब बढ़े. सुलभा अब नौकरीपेशा जीवन की अभ्यस्त हो गई थी, बल्कि अब उसे नौकरी करना अच्छा लगने लगा था, क्योंकि सुबहशाम खाने का पूरा काम मांजी व आया मिल कर कर लेती थीं. घर लौटने पर चाय पी कर वह खुशबू के साथ मन बहलाव करती. उसे दुलारती, तोतली भाषा में उस से बतियाती, अपनी ममता उस पर लुटाती. घर में खुशबू एक खिलौना थी, जिस से सारे सदस्य अपना मन बहलाते.
2 वर्ष पश्चात पिंकू का जन्म हुआ तो जैसे घर दोगुनी खुशियों से आलोकित हो उठा. रमादेवी तो जैसे निहाल हो उठीं. पहले पोती और अब पोता, उन की मनोकामनाएं पूर्ण हो गई थीं. जैसे संसारभर की खुशियां सिमट कर उन के दामन में आ गई हों. सुलभा के औफिस जाने पर अब वे पोते को गोद में ले कर, खुशबू की उंगली पकड़ घूमतीं. उन्हें खिलातीपिलातीं, बतियातीं. कुछ उम्र का तकाजा और कुछ शारीरिक थकान, अधिक काम की वजह से अब रमादेवी जल्दी थकने लगीं. एक दिन दोनों बच्चों को लिए सीढि़यां उतर रही थीं कि पैर फिसल गया. यह तो गनीमत रही कि बच्चों को ज्यादा चोट नहीं आई, लेकिन उस दिन से उन के घुटने का दर्द ठीक नहीं हुआ. हर तरह की दवा ली, मालिश की, सेंक किया, लेकिन दर्द बना ही रहा. अब तो बच्चों को संभालना भी मुश्किल सा हो गया. आया आती तो थी लेकिन अपनी मनमरजी से ही कार्य करती थी. कभी पिंकू भूख से बिलबिलाता तो दूध ही नदारद होता. कभी खुशबू की खिचड़ी की मांग होती और आया आगे दलिया रख छुट्टी कर जाती. बच्चे चीखतेचिल्लाते तो रमादेवी स्वयं उठ कर उन्हें खिलाना चाहतीं लेकिन घुटने के दर्द से कराह कर फिर बैठ जातीं.
जिस दिन घर के काम के लिए महरी भी न आती उस दिन तो पूरा घर ही अस्तव्यस्त हो जाता. आया तो मुश्किल से बच्चों का ही काम निबटाती थी. उस की मिन्नतें कर के थोड़ाबहुत काम वे करवा लेतीं. शेष तो सुलभा को ही करना पड़ता. रमादेवी अब अकसर सोचतीं, ‘बहू बेचारी भी क्याक्या करे. दफ्तर संभाले, बच्चों की देखरेख या नौकरी करे?’ रमादेवी ने सोचा, अगर पति या बेटा कहे अथवा बहू खुद ही नौकरी छोड़ने की बात करे तो वे फौरन तैयार हो जाएंगी. लेकिन कोई इस प्रश्न को उठाता ही नहीं. शायद उन की परीक्षा ले रहे हैं या उन की जिद, झूठी प्रतिष्ठा का परिणाम उन्हें दिखाना चाहते थे. अब उन्हें स्वयं की भूल महसूस हो रही थीं. सुलभा के बच्चों की परवरिश ठीक ढंग से नहीं हो रही है, यह भी वे समझ रही थीं. मां के होते भी बच्चे उस का पूरा स्नेह, दुलार नहीं पा रहे थे. उस के औफिस से लौटने पर पिंकू अकसर सोया हुआ मिलता. खुशबू भी आया के साथ कहीं घुमने या बगीचे में गई होती. यह तो एक तरह से अन्याय था. बच्चों के प्रति मां को अपने कर्तव्यों से विमुख कराना अपराध ही तो था.
नहीं, अब और अन्याय वे नहीं होने देंगी. उन की तानाशाही के कारण ही सभी सदस्य चुपचाप अपने मानसिक तनावों में ही जबरन घुटघुट कर जी रहे हैं. उन के सामने कोई कुछ नहीं प्रकट करता, लेकिन वे इतने समय तक कैसे नहीं समझ पाईं? अचानक औफिस से लौटती सुलभा का कुम्हलाया चेहरा आंखों के सामने घूम गया. बेचारी को व्यर्थ ही नौकरी के जंजाल में फंसा दिया. यही तो उस के हंसनेखेलने के दिन हैं, लेकिन उन्होंने उसे बेकार के मानसिक तनावों में उलझा दिया. रमादेवी ने निर्णय ले लिया कि अब वे अपनी झूठी प्रतिष्ठा, रोबदाब को तिलांजलि देंगी. शाम सुलभा के औफिस से लौटने पर कह देंगी, ‘अब अपना घर, बच्चे संभालो. नौकरी की कोई आवश्यकता नहीं है.’ उन के निर्णय से सभी को आश्चर्य तो होगा ही, साथ ही शायद सभी सोचेंगे, वे हार गई हैं, उन का निर्णय गलत था. लेकिन इस हार से उन्हें कोई अफसोस या ग्लानि नहीं होगी, क्योंकि इस हार से सभी को लाभ होगा, उन्हें खुद भी.
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ओमा का यह नित्य का नियम बन गया था. दोपहर के 2 बजते ही वे घर के बाहर पड़ी आराम कुरसी पर आ कर बैठ जातीं. वजह, यह लीसा के आने का समय होता.
5 साल की लीसा किंडरगार्टन से छुट्टी होते ही पीठ पर स्कूल बैग लादे तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ती. कुछ दूरी तक तो उस की सहेलियां साथसाथ चलतीं, फिर वे अपनेअपने घरों की ओर मुड़ जातीं.
लीसा का घर सब से आखिर में आता. डेढ़ किलोमीटर चल कर आने में लीसा को एक या दो बार अपनी पानी की बोतल से 2-3 घूंट पानी पीना पड़ता. उस के पैरों की गति तब बढ़ जाती जब उसे सौ मीटर दूर से अपना घर दिखाई देने लगता.
तीनमंजिला मकान के बीच वाले तल्ले में लीसा अपने पापा व मम्मा के साथ रहती है. नीचे वाले तल्ले में ओमा रहती हैं (जरमनी में ग्रैंड मदर को ओमा कहते हैं) और सब से ऊपर वाली मंजिल में रूबिया आंटी व मोहम्मद अंकल रहते हैं.
ओमा इस मकान की मालकिन की मां हैं. मकान मालकिन, जिन्हें सभी किराएदार ‘लैंड लेडी’ कह कर संबोधित करते हैं, इस तीनमंजिला मकान से 3 घर छोड़ कर चौथे मकान में रहती हैं.
80 साल की ओमा यहां अकेली रहती हैं. जरमनी में 80 साल के वृद्ध महिलापुरुष उतने ही स्वस्थ दिखते हैं जितने भारत में 60-65 के. वे अपने सभी काम खुद करती हैं. वैसे भी, इस देश में घरेलू नौकर जैसी कोई व्यवस्था नहीं है.
सूरज निकलने के पहले ओमा रोजाना उठती हैं और दिन की शुरुआत अपने बगीचे की साफसफाई से करती हैं. वे चुनचुन कर मुर झाई पत्तियों को पौधों से अलग करतीं, खुरपी से पौधों की जड़ों के आसपास की मिट्टी को उथलपुथल करतीं और अंत में एकएक पौधे को सींचतीं.
सुबह के 8 बजते ही वे अपनी साइकिल उठातीं और 2 किलोमीटर दूर बेकरी से ताजी ब्रैड व अंडे लातीं. इस देश में साइकिल 3 साल के छोटे से बच्चे से ले कर 90-95 साल तक के बुड्ढे सभी चलाते हैं.
साढ़े 11 बजे से साढ़े 12 बजे तक का दोपहर वाला समय उन का पार्क में चहलकदमी में गुजरता. पार्क से आ कर वे लंच लेतीं, फिर लीसा के आने के इंतजार में बाहर आ कर कुरसी पर बैठ जाती हैं.
लीसा के पापा अर्नव और मम्मा चित्रा 10 वर्ष पहले जरमनी आए थे. उन्हें उन की भारतीय कंपनी की ओर से एक साल के प्रशिक्षण कार्यक्रम में बेंगलुरु से वोल्डार्फ भेजा गया था, तब उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि उन के टैलेंट को देखते हुए जरमन कंपनी उन्हें यहीं रख लेगी.
चित्रा और अर्नव ने भी अन्य भारतीयों की तरह शहर में रहने के बजाय दूर गांव में रहना पसंद किया. इस की मुख्य वजह शहर की तुलना में गांव में आधे किराए में अच्छा मकान मिल जाना तो था ही, साथ ही साथ गांव का शांत व स्वच्छ पर्यावरण भी था.
वैसे यहां के गांव भी शहरों की तरह सर्वसुविधा संपन्न हैं. व्यवस्थित रूप से आकर्षक बसाहट, स्वच्छ व चिकनी सड़कें, चौबीसों घंटे शुद्ध ठंडा व गरम पानी, चारों तरफ हरियाली और उत्तम ड्रेनेज सिस्टम. कितनी भी तेज बारिश हो, न तो कभी पानी भरेगा और न ही कभी बिजली जाएगी.
हारेनबर्ग नाम के इस गांव में किंडरगार्टन के अतिरिक्त 8वीं जमात तक का स्कूल, छोटा सा अस्पताल, खेल का मैदान, जिम्नेजियम और 2 बड़े सुपर मार्केट हैं, जिन में जरूरत की सभी चीजें मिल जाती हैं.
हारेनबर्ग की दोनों दिशाओं में 10-12 किलोमीटर की दूरी पर 2 छोटे शहर हैं, जहां अच्छी मार्केट, बड़ा अस्पताल, सैलून व पैट्रोल पंप हैं.
चित्रा और अर्नव को अभी जरमन नागरिकता नहीं मिली है. लीसा को जन्म लेते ही यहां की नागरिकता मिल चुकी है. जिले के मेयर लीसा के लिए स्वयं उपहार ले कर बधाई देने घर आए थे. यहां
की प्रथा है, जरमन शिशु के जन्म होने पर उस की नागरिकता संबंधी समस्त औपचारिकताएं तत्क्षण पूरी हो जाती हैं और उस जिले के मेयर को सूचित किया जाता है, फिर मेयर स्वयं उपहार के साथ शिशु से मिलने आते हैं.
लीसा के जन्म के समय ओमा और लैंड लेडी ने चित्रा की वैसी ही सेवा की थी, जैसी एक मां अपनी बेटी की गर्भावस्था के दौरान करती है.
इस देश में अगर किसी बाहरी व्यक्ति को किसी परेशानी का सामना करना होता है तो वह है, यहां की डाइश भाषा. सभी जरमन डाइश में ही बात करना पसंद करते हैं. चित्रा और अर्नव ने शुरुआती परेशानी के बाद जल्दी ही डाइश भाषा की कोचिंग लेनी शुरू कर दी थी. नतीजा रहा कि वे अब तीनों स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके हैं और डाइश बोलने लगे हैं. लीसा अभी है तो 5 साल की, पर वह डाइश, अंगरेजी और हिंदी तीनों भाषाएं अच्छी तरह से बोल लेती है.
किंडरगार्टन से लौट कर आने पर वह ओमा की टीचर बन जाती है और ओमा बन जाती हैं किंडरगार्टन की स्टूडैंट. ओमा जानबू झ कर गलतियां करती हैं, ताकि लीसा से प्यारभरी डांट खा सकें.
ओमा की फ्रिज में वे सभी तरह की आइसक्रीम और जूस रखे होते हैं जो लीसा को पसंद हैं.
किंडरगार्टन से लौटने पर लीसा जैसे ही घर के पास पहुंचने को होती, ओमा को बाहर इंतजार करते बैठे देख, मुसकराते हुए दौड़ लगाती और पीठ से बैग उतार कर ओमा की गोदी में फेंक, सीधे उन की रसोई में घुस जाती. फिर अपनी मनपसंद आइसक्रीम फ्रिज से निकाल कर डाइनिंग टेबल पर आ कर खाने बैठ जाती.
ओमा लीसा के आने के पहले ही डाइनिंग टेबल पर सारे व्यंजन सजा कर रख देती हैं. लीसा या तो औमलेट या अपनी पसंद का कोई अन्य आइटम खाती, फिर अपनी सहेलियों के बारे में ओमा को विस्तार से बताना शुरू कर देती. शाम 4 बजे तक लीसा की धमाचौकड़ी चलती जब तक चित्रा औफिस से नहीं आ जाती. चित्रा की कार पोर्च में पार्क होते ही लीसा अपना बैग उठा कर अपने घर की सीढि़यां चढ़ने लगती.
ओमा का यह समय आराम करने का होता. शाम को वे या तो घूमने निकलतीं या फिर अपने बगीचे में बैठ कर सामने खेल रहे बच्चों को निहारती रहती हैं. जब कभी लीसा की सहेलियां खेलने के लिए नहीं आतीं, तब लीसा के साथ उस के पापा अर्नव खेल रहे होते हैं.
ओमा को शायद खाली बैठना पसंद ही नहीं था. वे बगीचे में बैठीं या तो स्वेटर बुन रही होतीं या मोजे बना रही होतीं. उन्होंने लीसा के लिए अनेक रंगबिरंगे स्वेटर और मोजे बना कर चित्रा को दिए हैं.
चित्राअर्नव की शादी की सालगिरह पर उन्होंने क्रोशिया से खूबसूरत मेज कवर बना कर चित्रा को भेंट किया था. केक बनाने में तो वे माहिर हैं. सप्ताह में 2-3 दिन उन के बनाए हुए स्वादिष्ठ केक चित्रा और अर्नव को भी खाने को मिलते हैं. ओमा और लीसा की जुगलबंदी देख लैंड लेडी कहती हैं, जरूर इन दोनों का कोई छिपा रिश्ता होगा. चित्रा को वे दिन नहीं भूलते जब 3 माह पहले अगस्त के महीने में लीसा बीमार पड़ी थी. इतना तेज बुखार था कि उस का पूरा बदन जल रहा था. ओमा भी बहुत चिंतित थीं.
एक दिन एक विशेषज्ञ डाक्टर से लीसा की हालत बयान कर उन के दिए लिक्विड को ले कर ओमा आई थीं. उस लिक्विड को लीसा के माथे पर देर तक वे लगाती रही थीं. उस दवा ने असर दिखाया और अगले दिन लीसा ठीक हो चली थी.
नवंबर माह के तीसरे सप्ताह में इस बार यहां का तापमान माइनस में पहुंचने लगा था. बर्फबारी भी शुरू हो गई थी. औरों की तरह चित्रा और अर्नव ने भी अपनीअपनी कारों के समर टायर बदलवा कर विंटर टायर लगवा लिए थे.
यूरोपियन देशों में बर्फ गिरने के पहले टायर बदलना अनिवार्य होता है. सर्दी के लिए अलग टायर होते हैं जो बर्फ पर फिसलन रोकते हैं.
इधर ओमा ने अभी से क्रिसमस की तैयारियां शुरू कर दी थीं. इस बार उन्होंने लीसा के लिए कुछ सरप्राइज सोच रखा था. क्रिसमस पर पूरा हारेनबर्ग सज कर तैयार हो जाता है ठीक उसी तरह जैसे दीवाली पर भारत के शहर सज जाते हैं.
लीसा भी क्रिसमस को ले कर बेहद उत्साहित है. किंडरगार्टन के सारे बच्चे अब क्रिसमस की ही बातें करते हैं. अर्नव और चित्रा अगले रविवार को क्रिसमस मेला देखने जाने की योजना बना ही रहे थे, तभी चित्रा के पास मां का फोन आया. भाई की शादी की खुशखबरी थी. मां ने बड़े प्यार से आग्रह किया था कि यदि वे लोग जल्दी पहुंच सकें तो सभी तैयारियों में बड़ी मदद मिल जाएगी.
चित्रा और अर्नव ने देर तक सलाहमशवरा उपरांत भारत यात्रा को अंतिम रूप दिया. एक माह की यात्रा में 15 दिन चित्रा को मां के पास भोपाल में रहना था और बाकी के 15 दिन ससुराल में.
लीसा उदास थी, क्योंकि उस का क्रिसमस सैलिब्रेशन छूट रहा था. ओमा भी निरुत्साहित हो गईं, उन की प्रिय लीसा एक माह के लिए उन से दूर जा रही थी.
भोपाल पहुंच कर चित्रा भाई की शादी की तैयारियों में जीजान से लग गई.
जलवायु परिवर्तन का सब से अधिक असर बच्चों पर पड़ता है, उन्हें नई जगह के वातावरण से सामंजस्य बनाने में समय लगता है. लीसा को अगले सप्ताह ही सर्दीजुकाम के साथ बुखार आ गया. जरमनी में होते तो वहां डाक्टर बच्चों को तुरंत कोई दवा नहीं देते, 3 दिन तक इंतजार करने को कहते हैं. बुखार ज्यादा बढे़ तो ठंडे पानी की पट्टी रखने को कहते हैं. पर यहां उस की नानी परेशान हो उठीं.
चित्रा ने मां को आश्वस्त किया. चित्रा अपने साथ पैरासिटामोल दवा ले कर आई थी, किंतु अर्नव ने एक दिन और इंतजार करने को कहा. चित्रा की मां का देसी उपचार में विश्वास था, सो वे काढ़ा बना कर ले आईं. लीसा ने किसी तरह एक घूंट गटका, फिर उसे और पिलाना मुश्किल हो गया.
देररात लीसा सपने में जोर से चीखी, फिर बैठ कर रोने लगी. चित्रा और अर्नव भी उठ कर बैठ गए.
चित्रा ने जब लीसा को सीने से लगाते हुए प्यार किया, तब उस का सिसकना बंद हुआ. लीसा पसीने से भीगी हुई थी, पर उस का बुखार उतर चुका था. कुछ देर बाद चित्रा ने लीसा से प्यार से पूछा, ‘‘लीसा, तुम कोई सपना देख रही थीं? सपने में ऐसा क्या देखा कि इतनी जोर से चीखीं?’’
‘‘मैं और ओमा जंगल में जा रहे थे, तभी एक टाइगर आ गया. टाइगर मेरे ऊपर झपटा, तो मु झे बचाने के लिए बीच में ओमा आ गईं. तभी टाइगर उन का एक हाथ मुंह में दबा कर ले गया और उन के कटे हुए हाथ से खून बह रहा था.’’
‘‘तुम ने कल टाइगर वाला कोई टीवी सीरियल देखा था क्या?’’
‘‘हां, पर उस में 2 टाइगर आपस में फाइट कर रहे थे.’’
‘‘चलो, कोई बात नहीं, सपना था. ओमा बिलकुल ठीक हैं, कल वीडियोकौल पर तुम्हारी बात भी करा देंगे. मैं दूसरे कपड़े लाती हूं, इन्हें बदल देते हैं, पसीने से भीग गए हैं.’’
अगले दिन लीसा ने जिद पकड़ ली कि उसे ओमा से बात करनी है. चित्रा ने ओमा को कई बार फोन लगाया, पर हर बार उन का मोबाइल स्विच औफ बता रहा था. अर्नव ने चित्रा से कहा, ‘‘मैं मोहम्मद को फोन लगाता हूं, वह नीचे जा कर ओमा से बात करा देगा.’’
मोहम्मद ने फोन पर बताया कि वह अपने देश तुर्की आया हुआ है और उसे ओमा के बारे में कोई जानकारी नहीं है.
चित्रा ने कहा, ‘‘मैं लैंड लेडी को फोन लगाती हूं. हो सकता है, ओमा अपनी बेटी के यहां गई हों.’’
लैंड लेडी ने जो बताया, उस से चित्रा की चीख निकल गई.
‘‘चित्रा, बड़ी दुखद सूचना है, ओमा घरेन के सिटी अस्पताल में एडमिट हैं. 2 दिन पहले रात में उन्होंने कोई सपना देखा था कि लीसा दरवाजे पर खड़ी उन्हें आवाज दे रही है. वे हड़बड़ा कर उठीं तो लड़खड़ा कर गिर पड़ीं. उन का बायां हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया है. आवाज भी साफ नहीं निकल रही है. लीसा को बारबार याद कर रही हैं. डाक्टर ने बोला है, ठीक हो जाएंगी, पर कुछ माह लगेंगे.’’
चित्रा ने लीसा को सिर्फ यही बताया कि ओमा अभी वीडियोकौल पर नहीं आ सकतीं, उन की तबीयत ठीक नहीं है, डाक्टर ने आराम करने को कहा है.
एक माह बाद जब चित्रा और अर्नव लीसा के साथ वापस जरमनी पहुंचे, तो लीसा ओमा से मिलने की खुशियोंभरी कल्पना में डूबी हुई थी. फ्रैंकफर्ट हवाईअड्डे से बाहर निकल कर कार में बैठते ही उसे लग रहा था कि काश, कुछ ऐसा हो जाए कि उस की कार उड़ कर ओमा के पास पहुंच जाए.
उधर, ओमा की दुनिया पूरी तरह उलटपुलट हो चुकी थी. कभी खाली न बैठने वाली ओमा अब व्हीलचेयर पर गुमसुम सी बैठी रहतीं. उन के साथ अब चौबीसों घंटे केयरटेकर रोमानियन महिला डोरोथी रहती.
डोरोथी ओमा के सारे काम करती, उन्हें उठानेबिठाने से ले कर खाना खिलाने, सुलाने तक के. एक प्रकार से ओमा अब डोरोथी पर ही पूरी तरह से निर्भर थीं.
चित्रा के कार से उतरने के पहले ही लीसा दौड़ कर ओमा के बंद दरवाजे को खटखटा रही थी. डोरोथी ने जब दरवाजा खोला, तो लीसा उसे देख कर वहीं ठिठक गई. तब तक चित्रा ने वहां पहुंच कर डोरोथी को पूरी बात सम झाई.
अंदर बिस्तर पर लेटी ओमा को देख लीसा मुसकराई तो ओमा के होंठों पर भी मुस्कान झलकी व उन के मुख से अस्पष्ट सी आवाज निकली, ‘‘ली…सू…’’ और आंखों से आंसू बह चले.
चित्रा ने अपनी हथेली से उन के आंसू पोंछे और लीसा का हाथ उन के हाथ में पकड़ा दिया.
‘अरे, यह अर्चना है?’ नीरा आश्चर्य व्यक्त करते हुए प्रसन्न हो उठी, ‘तुम दोनों ने मिल कर मुझे बेवकूफ बनाया. आओ अर्चना,’ नीरा ने उसे प्यार से अपने पास बैठा लिया, ‘कहां से घूम कर आ रहे हो तुम दोनों?’
‘भाभी, आज मैं औफिस से जल्दी आ गया था. अर्चना को तुम से मिलवाने लाना था न.’
‘यह तुम ने बहुत अच्छा किया, यतीन. मैं तो स्वयं ही तुम से कहने वाली थी.’
अर्चना करीब 2 घंटे वहां बैठी रही. नीरा ने उस से बहुत सी बातें कीं. जब यतीन उसे छोड़ कर वापस आया तो नीरा ने कहा, ‘लड़की मुझे पसंद है. अपने लिए मुझे ऐसी ही देवरानी चाहिए.’
‘सच, भाभी,’ प्रसन्नता के अतिरेक में यतीन चहक उठा, ‘बस फिर तो भाभी, बाबूजी और भैया को ऐसी पट्टी पढ़ाओ कि वे लोग तैयार हो जाएं.’
‘परंतु अर्चना राजपूत है और हम लोग ब्राह्मण. मुझे डर है, बाबूजी इस रिश्ते के लिए कहीं इनकार न कर दें.’
‘सबकुछ तुम्हारे हाथ में है, भाभी. तुम कहोगी तो बाबूजी मान जाएंगे.’
किंतु बाबूजी सहमत न हुए. नरेन को तो नीरा ने तुरंत राजी कर लिया था मगर बाबूजी के समक्ष उस की एक न चली. एक दिन रात को नरेन और नीरा ने जब इस विषय को छेड़ा तो बाबूजी ने क्रोधित होते हुए कहा, ‘तुम लोगों ने यह सोच भी कैसे लिया कि मैं इस रिश्ते के लिए सहमत हो जाऊंगा. यतीन के लिए मेरे पास एक से एक अच्छे रिश्ते आ रहे हैं.’
‘वह भी बहुत अच्छी लड़की है, बाबूजी. आप एक बार उस से मिल कर तो देखिए. सुंदर, पढ़ीलिखी और अच्छे संस्कारों वाली लड़की है.’
‘किंतु है तो राजपूत.’
‘जातिपांति सब व्यर्थ की बातें हैं, बाबूजी, हमारे ही बनाए हुए ढकोसले. अगर लड़के और लड़की के विचार मेल खाते हों, दोनों एकदूसरे को पसंद करते हों तो मेरे विचार में आप को आपत्ति नहीं होनी चाहिए,’ नरेन पिताजी को समझाते हुए बोले.
‘लड़के और लड़की की पसंद ही सबकुछ नहीं होती. कभी सोचा है, लोग क्या कहेंगे? रिश्तेदार क्या सोचेंगे? आखिर रहना तो हमें समाज में ही है न. आज तक इस खानदान में दूसरी जाति की बहू नहीं आई है.’
‘रिश्तेदारों की वजह से क्या आप अपने बेटे की खुशियां छीन लेंगे?’
‘मुझ से बहस मत करो, नरेन. मैं किसी की खुशियां नहीं छीन रहा. तुम मुझे नहीं यतीन को समझाओ. यह प्रेम का चक्कर छोड़ कर जहां मैं कहूं वहां विवाह करे. उस के लिए अर्चना से भी अच्छी लड़की ढूंढ़ना मेरा काम है. व्यर्थ की भावुकता में कुछ नहीं रखा.’
बाबूजी उठ कर बाहर चले गए. इस का मतलब था, अब वे इस विषय पर और बात नहीं करना चाहते थे.
नीरा परेशान रहने लगी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस समस्या को कैसे सुलझाए. एक ओर बाबूजी का हठी स्वभाव, दूसरी ओर यतीन की कोमल भावनाएं. दोनों में सामंजस्य किस प्रकार स्थापित करे.
जब से यतीन को बाबूजी के इनकार के विषय में बताया था, वह खामोश रहने लगा था. उस का अधिकांश समय घर से बाहर व्यतीत होता था. नीरा को भय था कि कहीं यह खामोशी आने वाले तूफान की सूचक न हो.
एक दिन नीरा रसोई में खाना बना रही थी. यतीन वहीं आ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘भाभी, मैं आप से कुछ कहना चाहता हूं.’ नीरा का हृदय जोरजोर से धड़कने लगा कि न जाने यतीन क्या कहने वाला है. उस ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उस की ओर देखा.
‘मैं ने अर्चना से विवाह कर लिया है,’ यतीन नीरा से नजरें चुराते हुए बोला.
नीरा सन्न रह गई. कुछ पलों के लिए तो जैसे होश ही न रहा. इतने में उसे रोटी जलने की गंध आई. उस ने फुरती से गैस बंद की और पलट कर यतीन का चेहरा देखने लगी, ‘यह तुम ने क्या किया?’
‘मैं मजबूर था, भाभी. मैं स्वयं ऐसा कदम नहीं उठाना चाहता था किंतु क्या करता, अर्चना को क्या छोड़ देता? पिछले 4-5 वर्षों से उस की और मेरी मित्रता है.’
‘तुम कुछ समय तक प्रतीक्षा कर सकते थे. मैं और नरेन बाबूजी को मनाने का दोबारा प्रयास करते.’
‘कोई फायदा नहीं होता, भाभी. मैं जानता हूं, वे मानने वाले नहीं थे. उधर अर्चना के घर वाले विवाह के लिए जल्दी मचा रहे थे इसलिए विवाह में विलंब नहीं हो सकता था वरना वे लोग उस का अन्यत्र रिश्ता कर देते.’
‘अब क्या होगा, यतीन? अर्चना को तुम घर कैसे लाओगे?’ नीरा बुरी तरह घबरा रही थी.
‘मैं अर्चना को तब तक घर नहीं लाऊंगा जब तक बाबूजी उसे स्वयं नहीं बुलाएंगे. अब वह मेरी पत्नी है. उस का अपमान मैं हरगिज सहन नहीं कर सकता,’ यतीन दृढ़ स्वर में बोला.
‘फिर उसे कहां रखोगे?’
‘फिलहाल कंपनी की ओर से मुझे फ्लैट मिल गया है. मैं और अर्चना वहीं रहेंगे,’ यतीन धीमे स्वर में बोला और वहां से चला गया.
पिछले कुछ दिनों से यतीन कितना परेशान था, यह तो उस का दिल ही जानता था. भैयाभाभी और बाबूजी से अलग रहने की कल्पना उसे बेचैन कर रही थी. वह किसी को भी छोड़ना नहीं चाहता था किंतु परिस्थितियों के सम्मुख विवश था.
इस के बाद के दिनों की यादें नीरा को अंदर तक कंपा देतीं. बाबूजी को जब यतीन के विवाह के विषय में पता चला तो वे बुरी तरह से टूट गए. उन की हठधर्मी बेटे को विद्रोही बना देगी, इस का उन्हें स्वप्न में भी गुमान न था. उन्होंने बेटों को पालने में बाप की ही नहीं, मां की भूमिका भी निभाई थी. बेटों के पालनपोषण में स्वयं का जीवन होम कर डाला था. किंतु एक लड़की के प्रेम में पागल बेटे ने उन के समस्त त्याग को धूल में मिला दिया था.
अब बाबूजी थकेथके और बीमार रहने लगे थे. नीरा के आने से घर की जो खुशियां पूर्णिमा के चांद के समान बढ़ रही थीं, यतीन के जाते ही अमावस के चांद की तरह घट गईं. नीरा की दशा उस चिडि़या की तरह थी जिस के घोंसले का तिनका बिखर कर दूर जा गिरा था. वह उस तिनके को उठा लाने की उधेड़बुन में लगी रहती थी.
आज जब उस ने बाबूजी को यतीन की फोटो के समक्ष रोते देखा तो विकलता और भी बढ़ गई. अगले दिन नीरा बाजार गई हुई थी. जब लौटी, उस के साथ एक अन्य युवती भी थी. बाबूजी बाहर लौन में बैठे थे.
सुबह से ही नीरा का मन बेहद उदास था. यतीन को घर से गए हुए पूरे 2 माह बीत चुके थे. इस अवधि में कोई दिन ऐसा न था जब उस ने यतीन के घर लौट आने की बात न सोची हो, वक्त की आंधी के थपेड़ों से बिखर गए इस घर को सहेजने की न सोची हो किंतु उसे प्रतीक्षा थी सही वक्त की.
सुबह जब नीरा नाश्ते के लिए बाबूजी को बुलाने गई तो देखा, वे यतीन की फोटो के समक्ष खड़े चुपचाप उसे निहार रहे हैं. यद्यपि उसे देखते ही वे वहां से हट गए किंतु अश्रुपूर्ण नेत्रों में उतर आई व्यथा को उस से न छिपा पाए. नीरा ने एक बार गहरी दृष्टि से उन्हें देखा, फिर रसोई में चली गई.
नीरा का विवाह हुए 5 वर्ष बीत गए थे. सुहागरात को उस के पति नरेन ने कहा था, ‘बचपन में मेरी मां चल बसी थीं. बाबूजी, यतीन और मैं ने अत्यंत कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत किया है. घर में एक स्त्री का अभाव सदैव खटका है. मैं चाहता हूं, अपने स्नेह एवं अपनत्व के बल पर तुम इस अभाव की पूरक बनो. इस घर के प्रति तुम्हारी निष्ठा में कभी कमी न आए.’
नीरा ने अपना कांपता हुआ हाथ पति के हाथ पर रख कर उसे अपनी मौन स्वीकृति दी थी. अगले दिन नरेन ने हनीमून के लिए नैनीताल चलने का प्रस्ताव रखा तो नीरा ने इनकार कर दिया और कहा था, ‘नहीं, नरेन, नए जीवन की शुरुआत के लिए स्वजनों को छोड़ कर इधरउधर भटकने की आवश्यकता नहीं. हनीमून हम अपने घर पर रह कर मनाएंगे. यतीन की परीक्षाओं के बाद हम सब इकट्ठे नैनीताल चलेंगे.’
यतीन तो बिलकुल अपनी भाभी का दीवाना था. भाभी के रूप में मानो उस ने अपनी मां को पा लिया था. छोटेबड़े हर काम में वह भाभी पर निर्भर हो गया था. यहां तक कि अकसर वह अपने नोट्स तैयार करने में भी नीरा की सहायता लेने लगा था. परीक्षाओं के बाद वे तीनों नैनीताल चले गए. वहां के प्राकृतिक सौंदर्य ने उन के मन को बांध लिया था. ऐसा प्रतीत होता था मानो सारे संसार से अलगथलग यह छोटा सा शहर अपनेआप में कोई रहस्य समेटे हुए हो.ताल के किनारे बने हुए होटल में वे ठहरे थे. लगभग नित्य ही शाम को वे बोटिंग करते थे. उस समय नरेन और यतीन ताल की लहरों के साथ कोई न कोई गीत छेड़ देते. दोनों भाइयों को संगीत से बेहद लगाव था.
एक दिन वे बहुत सवेरे स्नोव्यू और चाइना पीक के लिए रवाना हो गए. मार्ग में चीड़ व देवदार के वृक्ष और उन से छन कर आती हुई सूर्य की किरणों का नृत्य सम्मोहित कर रहा था. बीचबीच में रुकते, हंसते, बातें करते हुए वे तीनों चाइना पीक तक पहुंच गए. वहां से समूचे नैनीताल का विहंगम दृश्य दिखाई दे रहा था. समय मानो वहां आ कर थम गया था. वातावरण में एक गहरी निस्तब्धता रचीबसी हुई थी.
कुछ देर के लिए नीरा प्राकृतिक सौंदर्य में खो गई. उस समय वह स्वयं को प्रकृति के काफी निकट महसूस कर रही थी. उसे पता नहीं चला कब नरेन पास बने हुए रेस्तरां में चाय का और्डर देने चले गए. उस समय चौंकी जब यतीन ने उस से खोईखोई आवाज में कहा, ‘कभीकभी ऐसा क्यों होता है भाभी, किसी विशेष इंसान की स्मृतिमात्र ही वातावरण में खुशियों का उजाला भर देती है?’
नीरा ने एक गहरी दृष्टि यतीन की ओर डाली, ‘आखिर कौन है वह विशेष इंसान, मैं भी तो सुनूं?’
यतीन खामोश रहा. नीरा समझ गई, वह उस से संकोच कर रहा है. तब उस ने कहा, ‘अपनी भाभी को भी नहीं बताओगे.’
यतीन कुछ पल खामोश रहा, फिर बोला, ‘उस का नाम अर्चना है. वह मेरे साथ कालेज में पढ़ती थी. बहुत अच्छी लड़की है. तुम मिलोगी, अवश्य पसंद करोगी.’
‘अच्छा, तो कब मिलवा रहे हो?’
‘जब तुम चाहो, परंतु भैया को इस विषय में तभी कुछ बताना जब तुम लड़की पसंद कर लो और मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं,’ यतीन यह बात कह ही रहा था तभी नरेन वहां आ गए और वह खामोश हो गया.
चाय पी कर वे लोग वहां से लौट पड़े. अगले दिन नैनीताल से वे वापस आ गए थे. कुछ दिन नीरा को घर व्यवस्थित करने में लगे. यतीन नौकरी के लिए जगहजगह इंटरव्यू दे रहा था. 2-3 जगह उसे आशा भी थी. दीवाली में 15 दिन शेष थे. नीरा के घर से उस के पिताजी का पत्र आया कि वे उसे दीवाली पर लेने आ रहे हैं. पत्र पढ़ने के बाद उस के ससुर ने बुला कर कहा, ‘बेटी, अपने जाने की तैयारी कर लो. तुम्हारे पिताजी तुम्हें लेने आ रहे हैं.’
सुन कर नीरा खामोश खड़ी रही. बाबूजी ने उसे देखा और बोले, ‘क्या बात है, बेटी, किस सोच में डूब गईं?’
‘बाबूजी, आप पिताजी को पत्र लिख दीजिए, वे दीवाली के बाद ही मुझे लेने के लिए आएं.’
‘क्यों?’ बाबूजी अचंभित रह गए.
‘बात यह कि वहां पिताजी के पास अन्य बच्चे भी हैं. मेरे न जाने से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ने वाला. किंतु यहां मेरे जाने से आप लोग अकेले पड़ जाएंगे. नहीं, बाबूजी, अपने घर की रोशनी फीकी कर के मैं कहीं नहीं जाऊंगी. आप पिताजी को
दीवाली के बाद आने के लिए लिख दें,’ इतना कह कर नीरा चली गई.
दीवाली से 2 दिन पहले यतीन का नियुक्तिपत्र आ गया तो दीवाली की खुशी दोगुनी हो गई. उसे एचएएल में बहुत अच्छी नौकरी मिली थी.
एक दिन दोपहर के समय नीरा घर पर अकेली थी. सब अपनेअपने काम पर गए हुए थे. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने उठ कर दरवाजा खोला तो देखा सामने एक लड़की खड़ी थी. उस के हाथ में एक ब्रीफकेस था. वह नीरा से बोली, ‘नमस्ते दीदी. मैं एक साबुन कंपनी की तरफ से आई हूं. आप अपने घर में कौन सा साबुन इस्तेमाल करती हैं?’
नीरा उस समय गाजर का हलवा बना रही थी. वह बोर सी होती हुई बोली, ‘देखो, फिर कभी आना. इस समय मैं बहुत व्यस्त हूं. वैसे भी हमारे घर में साबुन और अन्य वस्तुएं कैंटीन से आती हैं.’
‘मैं आप का अधिक समय नहीं लूंगी. आप बस एक नजर देख लीजिए.’
‘नहींनहीं, अभी तो बिलकुल समय नहीं है,’ कह कर नीरा अंदर जाने को मुड़ी कि तभी न जाने कहां से यतीन प्रकट हो गया. वह हंसते हुए नीरा की बांह पकड़ कर बोला, ‘2 मिनट तो ठहरो भाभी, ऐसी भी क्या जल्दी है. साबुन न भी देखो, अर्चना को तो देख लो.’
नीरा ने उस का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘बाबूजी, यह मेरी सहेली पूजा है. हम दोनों एक ही साथ पढ़ती थीं. इस का इस शहर में विवाह हुआ है. आज मुझे अचानक बाजार में मिल गई तो मैं इसे घर ले आई.’’
पूजा ने आगे बढ़ कर बाबूजी के पांव छू लिए. बाबूजी ने उस के सिर पर हाथ रख कर पास पड़ी कुरसी पर बैठ जाने का इशारा करते हुए कहा, ‘‘बैठो बेटी, कहां काम करते हैं तुम्हारे पति?’’
‘‘जी, एचएएल हैदराबाद में.’’
‘‘अभी पूजा यहां अकेली है, बाबूजी. जब इस के पति को वहां कोई अच्छा मकान मिल जाएगा, वे इसे ले जाएंगे,’’ नीरा ने कहा.
बाबूजी एचएएल का नाम सुन कर खामोश हो गए. यतीन भी तो यहां इसी फैक्टरी में काम करता था. दर्द की एक परछाईं उन के चेहरे पर से आ कर गुजर गई किंतु शीघ्र ही उन्हें पूजा की उपस्थिति का भान हो गया और उन्होंने स्वयं को संभाल लिया. इस के बाद वे, पूजा और नीरा काफी देर तक बातचीत करते रहे.
जब पूजा जाने लगी तो बाबूजी ने कहा, ‘‘बेटी, अब तो तुम ने घर देख लिया है, आती रहना.’’
‘‘जी बाबूजी, अब जरूर आया करूंगी. मैं भी घर में अकेली बोर हो जाती हूं.’’
इस के बाद पूजा अकसर नीरा के घर आने लगी. धीरेधीरे वह बाबूजी से खुलने लगी थी. वे तीनों बैठ कर विभिन्न विषयों पर बातचीत करते, हंसते, कहकहे लगाते और कभीकभी ताश खेलते.
पूजा ने अपने स्वभाव और बातचीत से बाबूजी का मन मोह लिया था. बाबूजी भी उसे बेटी के समान प्यार करने लगे थे. वह 3-4 दिनों तक न आती तो वे उस के बारे में पूछने लगते थे. पूजा नीरा को घर के कामों में भी सहयोग देने लगी थी.
कुछ दिनों बाद न जाने क्यों पूजा एक सप्ताह तक न आई. एक दिन बाबूजी नीरा से बोले, ‘‘पूजा आजकल क्यों नहीं आ रही है?’’
‘‘मैं आप को बताना भूल गई बाबूजी, कल पूजा का फोन आया था. वह बीमार है.’’
‘‘बीमार है? और तुम मुझे बताना भूल गईं. तुम से ऐसी लापरवाही की उम्मीद न थी. जाओ, उसे देख कर आओ. उसे किसी चीज की आवश्यकता हो तो लेती जाना. आखिर हमारा भी तो उस के प्रति कुछ फर्ज बनता है.’’
बाबूजी की पूजा के प्रति इस ममता को देख कर नीरा मुसकरा उठी. पूजा ने बाबूजी के मन में अपना स्थान बना लिया था, फिर भी यतीन का अभाव उन्हें खोखला बना रहा था. नरेन, नीरा और पूजा के अथक प्रयासों के बावजूद उन का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था.
एक रात बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा. वे बेहोश हो गए. नरेन ने यतीन को भी फोन कर दिया था. वह और अर्चना तुरंत अस्पताल पहुंचे. सारी रात आंखों में ही कट गई.
यतीन की दशा सब से खराब थी. वह बारबार रो पड़ता था. नीरा ही उसे तसल्ली दे रही थी. सुबह के समय बाबूजी को होश आया. समय पर डाक्टरी चिकित्सा मिल जाने के कारण खतरा टल गया था. बाबूजी के होश में आने पर यतीन सामने से हट गया. सोचा, हो सकता है उस को देख कर उन के दिल को धक्का लगे और उन की दशा फिर से बिगड़ जाए.
10 दिनों तक बाबूजी अस्पताल में रहे. नरेन और नीरा उन की सेवा में जुटे रहे. घर का सारा काम पूजा ने संभाला. जिस दिन बाबूजी को घर आना था, पूजा ने सारा घर मोमबत्तियों से सजा दिया था. जिस समय वे कार से उतरे, उस ने आगे बढ़ कर बाबूजी के चरण स्पर्श किए. नरेन और नीरा उन्हें अंदर ले आए.
‘‘बाबूजी, पूजा ने आप की बहुत सेवा की है,’’ नीरा ने उन्हें पलंग पर बैठाते हुए कहा.
‘‘हमेशा सुखी रहो बेटी. वे लोग कितने सुखी होंगे जिन्हें तुम्हारे जैसी बहू मिली है,’’ बाबूजी एक क्षण खामोश रहे. फिर आह सी भरते हुए दुखी स्वर में बोले, ‘‘नरेन ने मेरी पसंद से विवाह किया, देखो कितना खुश है. नीरा हजारों में एक है. काश, यतीन ने भी कहा माना होता तो उस की बहू भी तुम दोनों जैसी होती.’’
नीरा को लगा, यदि अब उस ने बाबूजी से अपने मन की बात न कही तो फिर बहुत देर हो जाएगी. जीवन में अनुकूल क्षण बारबार नहीं आते. वह उन के समीप जा बैठी. उस ने आंखों ही आंखों में नरेन से अनुमति मांगी और बोली, ‘‘आप की इस बेटी से बहुत बड़ा अपराध हो गया है बाबूजी. मुझे क्षमा कर दीजिए.’’
‘‘कौन सा अपराध?’’ बाबूजी हैरान हो उठे.
नीरा ने उन के घुटनों पर सिर रख दिया और डरतेडरते बोली, ‘‘पूजा जिस घर की बहू है, वह घर यही है, बाबूजी. यह पूजा नहीं, आप की दूसरी बेटी अर्चना है.’’
‘‘अर्चना यानी यतीन की पत्नी? इतने दिनों तक तुम मुझ से…’’
‘‘बाबूजी, मैं ने यह अपराध आप को धोखा देने या दुख पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया. मैं और नरेन चाहते हैं, हम सब आप की छत्रछाया में रहें. यह घर एक घोंसले के समान है, बाबूजी. इस के तिनके को बिखरने मत दीजिए, इन्हें समेट लीजिए,’’ कहतेकहते नीरा रोने लगी.
बाबूजी की आंखों में भी आंसू आ गए. कुछ तो नीरा की निष्ठा और कुछ अर्चना का सरल स्वभाव व सेवाभावना उन्हें कमजोर बना रही थी. साथ ही, हालात ने उन के और यतीन के बीच जो दूरी पैदा कर दी थी उस ने उन की हठधर्मिता को कमजोर बना डाला था. उन्होंने स्नेहपूर्वक नीरा को उठाया फिर अर्चना को अपने पास बैठा लिया और अर्चना की तरफ देख कर कहा, ‘‘बेटी, जीवन में यदि किसी को अपना आदर्श बनाना तो नीरा को ही बनाना. इस के प्रयत्नों के फलस्वरूप इस घर की खुशियां वापस आई हैं,’’ फिर उन्होंने नरेन को यतीन को बुलाने भेज दिया.
वास्तव में व्यक्ति अपने झूठे अहंकार के दायरे में कैद रह कर स्वयं ही अपने जीवन में दुखों का समावेश कर लेता है. बाबूजी ने सोचा, यदि वे अपने इस अहं के दायरे से बाहर आ कर भावनाओं के साथसाथ विवेक से भी काम लेते तो उन बीते दिनों को भी आनंदमय बना सकते थे जो उन्होंने और उन के परिवार ने दुखी रह कर गुजारे थे. उन्होंने खिड़की में से देखा, यतीन नरेन के साथ कार से उतर रहा है. बाहर मोमबत्तियों की झिलमिलाती लौ भविष्य को अपने प्रकाश से आलोकित कर रही थी.
अभय डाक्टर बन गया तो घर में उस के लिए रिश्तों की बाढ़ आ गई. किसीकिसी दिन तो एकसाथ 2-2 लड़की वाले आ कर बैठ जाते. अपनीअपनी बेटियों की प्रशंसा के पुल बांधते, लड़की की योग्यता के प्रमाणपत्रों की फोटोस्टेट कापियां दिखलाते, लड़की दिखाने का प्रस्ताव रखते और विभिन्न कोणों से खींची गई लड़की की दोचार रंगीन तसवीरें थमा कर, बारबार नमस्कार कर के, उम्मीदें बांध कर चले जाते थे.
शिखा की समझ में नहीं आ रहा था, इन रंगीन तसवीरों के समूह में से किस लड़की को अपनी देवरानी बनाए. किसे पसंद करे. सभी तसवीरें एक से बढ़ कर एक फिल्म अभिनेत्रियों जैसे अंदाज व लुभावने परिधानों में थीं.
शिखा ने अपने पति दिनेश से पूछा. उस ने कह दिया, ‘‘अभय से पूछो, विवाह उसे करना?है. लड़की उस की पसंद की होनी चाहिए.’’
शिखा ने सभी तसवीरें और प्रमाणपत्रों की फोटोस्टेट कापियां अभय के सामने रख दीं. अभय ने उड़ती सी निगाह डाल कर सभी तसवीरें सामने से हटा दीं और बोला, ‘‘जो लड़की तुम्हें पसंद आए उसी को बहू बना कर ले आओ, भाभी. मुझे लडकी के रंगरूप से क्या लेनादेना. जो लड़की मेरी मां समान भाभी की सेवा व सम्मान कर सके, दोनों भाइयों में फूट न डलवाए, सुख का नया संसार बनाने में मदद करे, वही मुझे स्वीकार होगी.’’
‘लेकिन तसवीर से कैसे पता लग सकता?है कि लड़की का स्वभाव कैसा है? गुणों के साथ सुंदरता भी तो चाहिए. बहू घर की शोभा होती है,’ शिखा सोचती रह गई थी.
दिनेश व अभय ने गृहस्थी के अन्य कामों की तरह लड़की पसंद करने की जिम्मेदारी भी शिखा के कंधों पर डाल दी थी.
उस ने सभी तसवीरों में से एक तसवीर छांट कर, अभय को जबरदस्ती लड़की देखने भेज दिया. अभय ने लौट कर बतलाया कि लड़की के सामने के दांत काफी उभरे, चौड़ेचौड़े लग रहे थे. हंसने पर पूरी बत्तीसी बाहर आ जाती थी.
2 जगह दिनेश को भेजा. वह दोनों लड़कियां भी पसंद नहीं आईं. फिर दोचार जगह शिखा भी अभय व दिनेश को साथ ले कर लड़की देख आई. पर जो बात तसवीरों में थी, वह लड़कियों में नहीं थी.
तसवीरों व प्रमाणपत्रों के आधार पर कोई लड़की कैसे पसंद की जा सकती थी? झुंझला कर शिखा ने तसवीरें वापस भेज दीं. अकारण जगहजगह लड़की देखने जा कर लड़की वालों को परेशान करना उचित नहीं था. अपना वक्त भी बरबाद होता?था. घर में अकेले बच्चे भी दुखी हो जाते?थे.
शिखा को लड़की पसंद करने का काम पहाड़ पर चढ़ने जैसा लग रहा था. फिर भी लड़की तो पसंद करनी ही थी. इकलौते देवर के गले में कोई ऐसीवैसी थोड़े ही बांधी जा सकती थी?
एक दिन एक सज्जन अपनी भांजी का रिश्ता ले कर आए. एक सीधीसादी तसवीर, बस. न प्रमाणपत्रों की गठरी न प्रशंसा के पुल और न दहेज का लालच.
लड़की इसी शहर में डाक्टरी पढ़ रही थी. लड़की डाक्टरी पढ़ती है, सुन कर दिनेश भी दिलचस्पी लेने लगा. अभय से पूछा तो उस ने वही वाक्य दोहरा दिया, ‘‘लड़की?भाभी की पसंद की होनी चाहिए.’’
दिनेश व शिखा लड़की देखने चले गए. शिल्पी ने अपने व्यवहार, सुघड़ता व भोलेपन से दोनों का मन मोह लिया. दिनेश के इशारे पर शिखा शिल्पी को अंगूठी भेंट कर रिश्ता पक्का कर आई.
सूचना पा कर अन्य शहर में रहने वाले शिल्पी के पिता, सौतेली मां, सौतेले भाईबहन आ गए. सादे समारोह में विवाह संपन्न हो गया.
शिल्पी का मधुर स्वभाव व अच्छा व्यवहार देख कर अभय शिखा की प्रशंसा करता रहता, ‘‘मैं जानता था, भाभी मेरे लिए लाखों में एक छांट कर लाएंगी. शिल्पी मेरी उम्मीदों से बढ़ कर है.’’
शिखा खुश थी. देवर ने उस का मान तो रखा ही, सराहना भी की.
अभय जब से चिकित्सा के क्षेत्र में आया था तभी से निजी नर्सिंग होम खोलने का सपना देखता रहता था. अब शिल्पी के आ जाने से उस की यह इच्छा और बलवती हो उठी थी. घर में 2 डाक्टर हो गए. अपना नर्सिंग होम होता तो प्रतिभा दिखलाने के अधिक अवसर मिलते. अधिक लाभ उठाया जा सकता था.
लेकिन नर्सिंग होम दूर की चीज थी. दिनेश के पास इतने भी रुपए नहीं थे कि इकलौते भाई के लिए कोई अच्छा सा दवाखाना खुलवा दे. न उस की पहुंच कहीं ऊपर तक थी कि अभय को नौकरी दिलवा पाता.
किसी अच्छी सिफारिश के अभाव में काफी भागदौड़ कर के भी अभय किसी अस्पताल में नौकरी नहीं पा सका तो उस ने एक किराए की दुकान ले कर प्रैक्टिस शुरू कर दी.
अनुभव व आवश्यक डाक्टरी उपकरण पास में न होने के कारण अभय का चिकित्सालय कम चलता था. जो आमदनी होती वह दुकान का किराया, कंपाउंडर की तनख्वाह व स्कूटर के पेट्रोल में खर्च हो जाती थी. इतनी बचत नहीं थी कि वह कुछ रुपए घर में दे पाता.
शिल्पी ने पढ़ाई पूरी की. नौकरी पाने का प्रयास किया तो उस की नौकरी एक स्थानीय अस्पताल में लग गई.
शिल्पी ने अपना पहला वेतन ला कर शिखा के हाथ में रखा तो शिखा ने नम्रता से इनकार कर दिया, ‘‘क्या यह अच्छा लगता है कि घर की बहू से खानेरहने के पैसे लिए जाएं? तुम इस घर की बहू हो. तुम्हें घर में रहनेखाने का पूरा अधिकार है.’’
अभय ने भी शिल्पी के वेतन को हाथ नहीं लगाया. भारी स्वर में बोला, ‘‘पत्नी की कमाई खा कर क्या मैं मर्दों की जमात में सिर नीचा कर लूं? कायदे से तो मुझे तुम्हारा खर्च उठाना चाहिए था.’’
दिनेश ने शिल्पी को समझाया, ‘‘देखो बहू, तुम बचपन से अपने मामा के घर में पली हो. उन्होंने तुम्हारे पालनपोषण, शिक्षा आदि का भार उठाया है. तुम्हारे मामा की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है. अपने वेतन से तुम्हें उन की सहायता करनी चाहिए.’’
‘‘लेकिन भैया, मेरा इस घर के लिए भी तो कुछ फर्ज है?’’ उलझन में पड़ी शिल्पी ने पूछा.
‘‘इस घर के खर्चे की चिंता मत करो. मैं इतना तो कमा लेता हूं, जिस से सब का खानापीना चलता रहे.’’
दिनेश ने शिल्पी के नाम से बैंक में खाता खुलवा दिया और कह दिया, ‘‘जो रुपए बचें वे नर्सिंग होम बनवाने के लिए जमा करती जाओ.’’
धीरेधीरे अभय की डाक्टरी चल निकली. उस ने घर में रुपए देने चाहे तो दिनेश ने मना कर दिया. अभय को अपने लिए नर्सिंग होम कोठी बनवाने व कार खरीदने के लिए भी तो रुपए चाहिए. डाक्टर हो कर इस पुराने छोटे से घर में रहेगा तो लोग क्या कहेंगे. अभी से रुपए जोड़ना शुरू करेगा तो वर्षों में जुड़ पाएंगे.
शिल्पी की तरह फिर अभय ने भी चुप लगा ली. दोनों पतिपत्नी कभीकभार कुछ नाश्ते का सामान, फल, सब्जी वगैरा खरीद कर ले आते थे.
शिल्पी के पांव भारी हुए तो शिखा ने उसे सुबह का नाश्ता बनाने से भी रोक दिया. अस्पताल में तो सुबह से शाम तक मरीजों से सिर मारना ही पड़ता है. घर में तो आराम मिल जाए.
शिल्पी मां बनी तो शिखा ने उस के बेटे डब्बू को पालने का पूरा भार अपने कंधों पर ले लिया. वह डब्बू के पोतड़े भी हंसीखुशी धोती थी.
शिल्पी व अभय दोनों ने डब्बू की देखरेख के लिए कोई आया रखने की पेशकश की तो शिखा ने मना कर दिया. क्या यह उचित लगता है कि उस के रहते डब्बू आया की गोद में पले? नवजात शिशु के लालनपालन के लिए आया पर विश्वास भी तो नहीं किया जा सकता. जरा सी असावधानी शिशु के लिए जानलेवा बन सकती है.
शिल्पी 2 माह के डब्बू को जेठानी की गोद में सौंप कर निश्चिंत हो कर पुन: अस्पताल जाने लगी.
शिखा के तीनों बच्चे हर वक्त डब्बू के इर्दगिर्द मंडराते रहते. डब्बू सभी के हाथों का खिलौना बन गया था. दिनेश भी रात को दुकान से आ कर डब्बू को उछालउछाल कर खूब हंसाता और अपने पूरे दिन की थकावट भूल जाता था.
अब तक अभय अपनी डाक्टरी में इतना अधिक व्यस्त हो चुका था कि अपने बेटे को गोद में ले कर पुचकारनेदुलारने का वक्त भी नहीं निकाल पाता था.
शिखा का बड़ा बेटा गौरव 3 वर्ष से लगातार इंजीनियरिंग की प्रतियोगिता में बैठता आ रहा था. गौरव की योग्यता देख कर सभी को उस के प्रतियोगिता में आ जाने की उम्मीद थी. पर पता नहीं क्यों गौरव को इस बार भी असफलता ही मिली.
तीसरी बार असफल हो कर गौरव पूरी तरह से निराश हो उठा. इंजीनियर बनने की इच्छा पूरी होने के आसार नजर नहीं आए तो गौरव का मन क्षुब्ध हो उठा. पढ़ाई से जी उचटने लगा.
गौरव को दुखी देख कर शिखा व दिनेश का मन भी बेचैन रहने लगा. दोनों वर्षों से बेटे को इंजीनियर बनाने के सपने देखते आए थे.
लेकिन सपने क्या आसानी से सच हुआ करते हैं? घर में आर्थिक अभाव हो तो छोटेछोटे खर्चे भी पहाड़ मालूम पड़ने लगते हैं.
गौरव के एक मित्र ने चंदा दे कर किसी इंजीनियरिंग कालिज में दाखिला करा देने का प्रस्ताव रखा तो पहली बार दिनेश को अपनी आर्थिक अक्षमता का बोध हुआ.
कहां से लाए वह 30-35 हजार रुपए? फिर गौरव की पढ़ाई और छात्रावास का खर्चा. कैसे पूरा कर सकेगा वह?
दोनों बेटियां भी तो विवाह योग्य होती जा रही थीं और घर का दिनप्रतिदिन बढ़ता हुआ हजारों का खर्चा.
गौरव ने पहले तो चंदा दे कर दाखिला लेने से इनकार कर दिया. उस की नजरों में चंदा देना रिश्वत देने के समान था.
लेकिन जब उस ने अपने मित्रों को चंदा दे कर, दाखिला लेते देखा तो वह तैयार हो गया.
दिनेश ने जब शिखा को बतलाया कि वह गौरव की पढ़ाई का खर्चा उठाने में असमर्थ है तो चिंता के कारण शिखा की भूखप्यास मिट गई. उस ने पहली बार पति के सामने जबान खोली, ‘‘जब भाई को डाक्टरी पढ़ाई थी, तब उस का हजारों का खर्च भारी नहीं लगा था. आज मेरे बेटे की पढ़ाई बोझ लगने लगी है.’’
‘‘गौरव अकेला तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी तो बेटा है, शिखा. मेरी बात समझने की कोशिश करो. जब अभय पढ़ रहा था तब घर में अधिक खर्चा नहीं था. मेरी दुकान में उस वक्त अधिक आमदनी हुआ करती थी,’’ दिनेश के स्वर में विवशता थी.
‘‘तो अभय से मांग लो. उस की डाक्टरी तो अब खूब चलने लगी है.’’
‘‘अभय के पास इस वक्त इतने रुपए नहीं होंगे. कुछ दिन पहले उस ने नए डाक्टरी उपकरण खरीदे हैं, दुकान का फर्नीचर बनवाया है.’’
‘‘शिल्पी से मांग लो.’’
‘‘मुझे किसी से कुछ मांगना अच्छा नहीं लगता, शिखा. शिल्पी क्या सोचेगी? जेठजेठानी दो वक्त का साधारण भोजन खिलाते हैं और बदले में हजारों रुपए मांग रहे हैं. हो सकता?है नाराज हो कर वह अलग घर में रहना शुरू कर दे.’’
‘‘तुम्हें दूसरों की चिंता अधिक है. अपने इकलौते बेटे का बिलकुल खयाल नहीं है. आखिर गौरव की पढ़ाई का क्या होगा?’’
दिनेश के पास शिखा की बात का कोई उत्तर नहीं था.
आक्रोश से भरी शिखा अंदर ही अंदर गीली लकड़ी की भांति सुलगती. उस के मन में बारबार एक ही विचार पनप रहा था. क्या अभय व शिल्पी का कोई फर्ज नहीं है? दोनों अपनेअपने पैरों पर खड़े हैं. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. क्या अपना खुद का खर्चा भी नहीं उठा सकते?
उसे अपने ऊपर भी बेहद क्रोध आ रहा था. उस की अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे जब उस ने शिल्पी को घर में खर्चा देने से रोक दिया था?
सिर्फ एक ही बार तो रोका था. शिल्पी ने दोबारा खर्चा देने की पेशकश क्यों नहीं की? वह घर की स्थिति से अनजान तो नहीं है. रुपयों की कमी के कारण त्योहारों पर भी बच्चों के कपड़े नहीं बन पाते. वर्षों से शिखा मामूली साडि़यों में गुजारा कर रही है. क्या शिल्पी को यह सब दिखाई नहीं देता?
शिखा के जी में आ रहा था, शिल्पी को खूब खरीखोटी सुना कर मन की भड़ास निकाल ले. रूठ कर शिल्पी अलग हो जाएगी तो हो जाए. साथ में रह कर ही वह किसी का क्या भला कर रही है. कभी यह भी नहीं सोचती, जेठानी को थकान लग रही होगी. चाय बना कर पिला दे. थोड़ाबहुत घर के कामों में हाथ बंटा दे. आते ही बिस्तर पर पसर जाती है.
अभय ही कौन सा दूध का धुला है? घर के खर्चे का बोझ हलका करना चाहता तो क्या कोई उस का हाथ पकड़ लेता? सिर्फ झूठमूठ का खर्चा देने का नाटक किया था. परंतु डब्बू का?भोला चेहरा देखते ही शिखा के विचार बदल गए. मांबाप के स्वार्थ की सजा डब्बू को क्यों मिले?
अगर अभय, शिल्पी अलग रहने लगे तो यह मासूम नौकरों का मुहताज बन जाएगा. इस की परवरिश कैसे हो पाएगी? जैसे गौरव उस का बेटा है, वैसे डब्बू भी है. शिल्पी ने उसे जन्म दिया है तो क्या हुआ. ममता, स्नेह, दुलार दे कर तो वह ही पाल रही है.
शिखा ने देवरदेवरानी को इस बारे में अनभिज्ञ रखना ही उचित समझा. अकारण घर में कलह हो या वे दोनों कुछ गलत अर्थ लगा बैठें इसलिए उस ने रुपयों की कमी की या गौरव की पढ़ाई की किसी प्रकार की चर्चा घर में नहीं की.
लेकिन रुपयों की कमी की वजह से गौरव के मन को ठेस पहुंचाना भी उचित नहीं था. उत्साह भंग हो जाने से महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति न हो पाने के कारण गौरव का मानसिक संतुलन भी बिगड़ सकता था.
शिखा को अपने दोचार सोने के आभूषणों का खयाल हो आया. आभूषण बेटे से अधिक कीमती थोड़े ही थे? बेटे की खुशियों के लिए शिखा अपना जीवन तक बलिदान करने को तत्पर थी. फिर बेजान आभूषण क्या माने रखते थे?
वह घर में सब से छिपा कर आभूषण बेच रुपए ले आई. चंदे का, किराए का, इंतजाम तो हो ही चुका था. गौरव के मासिक खर्चे की इतनी फिक्र नहीं थी. जिस तरह से पेट काट कर अभय को डाक्टर बनाया था उसी प्रकार गौरव की पढ़ाई चल सकती थी.
शिखा तरहतरह की गुडि़या बनाने में पारंगत थी. घर के कामों से अवकाश पा कर व वक्त का सदुपयोग कर आसानी से वह 200-300 रुपए महावार कमा सकती थी.
दिनेश चकित रह गया. शिखा के पास इतना रुपया कहां से आ गया? हकीकत जानने, समझने का वक्त नहीं था. गौरव के जाने में सिर्फ एक दिन का वक्त ही तो बाकी बचा था.
बड़े उत्साह से शिखा गौरव के साथ रखने के लिए मठरी, पापड़ी तल रही थी. बेटे से लंबे अर्से तक अलग रहने के खयाल से उस की आंखें बारबार भर आती थीं. दोनों बेटियां भी बारबार आंखें पोंछ रही थीं.
शिल्पी आज कुछ देर से घर लौटी. बड़ी परेशान, गंभीर लग रही थी. आते ही सिर थाम कर कुरसी पर बैठ गई.
कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? शिखा का दिल आशंकाओं से धड़क उठा. उस ने प्रतिदिन की भांति चाय बना कर शिल्पी को दी तो वह फूट पड़ी, ‘‘भाभी, तुम मुझे कब तक पराया समझती रहोगी? क्या मैं इस घर की बहू नहीं हूं?’’
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘भाभी, घर में रुपए की कमी थी तो अभय से या मुझ से क्यों नहीं कहा? चुपचाप बाजार जा कर अपने आभूषण क्यों बेच दिए?’’
शिखा घबरा गई. आभूषण बेचने की बात कानों में पड़ने से कहीं गौरव इंजीनियरिंग पढ़ने का इरादा न बदल डाले. उस ने शीघ्रता से कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. फिर शिल्पी से चुप हो जाने का आग्रह करने लगी.
शिल्पा कहे जा रही?थी, ‘‘यह तो अच्छा हुआ, वह सर्राफ मामाजी का परिचित था. वह आप को जानता था. उस ने मामाजी से यह बात बतला दी. मामाजी घबराए हुए अस्पताल में मेरे पास पहुंचे, मुझे खूब लताड़ा. ऊंचनीच समझाई कि मैं बहुत लापरवाह हूं, घर का ध्यान नहीं रखती, जेठजेठानी को सता रही हूं, घर में डाक्टर बहू लाने का उन्हें क्या लाभ रहा. मुझे माफ कर दो भाभी. सचमुच मुझ से बहुत भारी भूल हो चुकी है.’’
शिल्पी की आंखों से पश्चात्ताप के आंसू बहने लगे थे. ‘‘अरेअरे, यह क्या करती है? बच्चों की तरह रोने बैठ गई. थकीहारी आई है, ले चाय पी, ठंडी हुई जा रही है,’’ शिखा द्रवित हो कर शिल्पी के आंसू पोंछने लगी.
‘‘मैं आप के सभी आभूषण वापस ले आई हूं, भाभी. मेरे खाते में जितने रुपए जमा थे वे भी निकाल कर ले आई हूं. आप ने कभी कुछ नहीं मांगा, न कभी रुपए लिए. मामाजी ने भी मुझ से कोई आर्थिक सहायता स्वीकार नहीं की. उलटे डांट पिलाई. बताओ भाभी, आखिर मैं इन रुपयों का क्या करूं?’’
‘‘इतने ढेर सारे रुपए निकाल कर ले आई. यह क्या नादानी की तू ने? रास्ते में कोई गुंडा पर्स पार कर देता तो? इन रुपयों को वापस बैंक में जमा कर आना. तुम दोनों को नर्सिंग होम और अपनी कोठी भी तो बनवानी है. मेरे आभूषण ले आई, तेरा यह एहसान ही क्या कम है, मेरे ऊपर?’’
‘‘भाभी, पराएपन की बातें करोगी तो मैं फिर से रोना शुरू कर दूंगी. जिस तरह से डब्बू आप का बेटा है, क्या गौरव मेरा बेटा नहीं है? गौरव को लिखानेपढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी है, आप की नहीं.’’
एहसानों के भार से शिखा का सिर झुका जा रहा था. वह भरे गले से बोली, ‘‘तुम्हें भी तो रुपए चाहिए. अपने गाढ़े परिश्रम की कमाई हमारे ऊपर खर्च कर डालोगी तो तुम्हारी कोठी कैसे बनेगी? यह गंदा महल्ला, पुराना मकान किसी डाक्टर के रहने के योग्य कहां है?’’
‘‘आप को छोड़ कर हम कहीं नहीं जाएंगे, भाभी. हमारा मन नहीं लगेगा. डब्बू भी आप के बिना नहीं रह पाएगा. अगर कभी कोठी बनेगी तो सभी के लिए बनेगी. सब इकट्ठे रहेंगे.’’
शिखा को लगा, इस पुराने मकान की दीवारें अब और अधिक मजबूत हो उठी हैं. उस ने शिल्पी को समझने में बहुत बड़ी भूल की थी.
अगर वह सहनशीलता से काम न ले कर शिल्पी से तकरार कर बैठती तो? वर्षों से एकसूत्र में बंधा परिवार तिनकेतिनके हो कर बिखर जाता.
पर शिखा के धैर्य, संयम व गुणवती शिल्पी की बुद्धिमता, साथ ही दोनों के आपसी प्यार ने सुख के नए संसार का सृजन कर डाला.
कामवाली बाई चंदा से गैस्टरूम की सफाई कराते समय जैसे ही नीरा ने डस्टबिन खोला, उस में पड़ी बीयर की बोतलों से आ रही शराब की बदबू उस के नथुनों में जा घुसी. इस से उस का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा. वह तमतमाती हुई कमरे से बाहर निकली और जोर से चिल्लाई, ‘‘रोहन…रोहन, जल्दी नीचे आओ. मुझे अभी तुम से बात करनी है.’’ उस का तमतमाया चेहरा देख कर चंदा डर के कारण एक कोने में खड़ी हो गई. रोहन के साथसाथ दोनों बेटियां 9 वर्षीया इरा और 12 वर्षीया इला भी हड़बड़ाती सी कमरे से बाहर आ गईं. ‘‘ये बीयर की बोतलें घर में कहां से आईं रोहन?’’ नीरा ने क्रोध से पूछा.
‘‘आशीष लाया था, पर तुम इतने गुस्से में क्यों हो? आखिर हुआ क्या?’’ हमेशा शांत और खुश रहने वाली नीरा को इतना आक्रोशित देख कर रोहन ने हैरान होते हुए पूछा. ‘‘ये बीयर की बोतलें मेरे घर में क्यों आईं और किस ने डिं्रक की?’’ नीरा ने फिर गुस्से से चीखते हुए पूछा.
‘‘अरे, कल तुम मम्मी के यहां गई थीं न, तब मेरे कुछ दोस्त यहां आ गए. उन में से एक का जन्मदिन था. तो खापी कर चले गए. पर इस में इतना आसमान सिर पर उठाने की क्या बात है?’’ रोहन ने तनिक झुंझलाते हुए कहा. ‘‘रोहन, तुम्हें पता है कि मुझे ये सब बिलकुल भी पसंद नहीं है. और मेरे ही घर में, मेरा ही पति.’’ नीरा चीखती हुई बोली और जोरजोर से रोने लगी. नीरा का रौद्र रूप देख कर सभी हैरान थे. थोड़ी देर बाद इरा और इला चुपचाप तैयार हो कर अपने स्कूल चली गईं. नाश्ता कर के रोहन औफिस जाने से पहले नीरा से बोला, ‘‘चंदा के जाने के बाद तुम थोड़ा आराम कर लेना, तुम्हारी तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही.’’
नीरा बिना कोई उत्तर दिए शांत बैठी रही. चंदा के जाने के साथ ही घर का काम भी खत्म हो गया. डायनिंग टेबल पर खाना लगा कर नीरा आंखें बंद कर के लेटी ही थी कि बड़ी बेटी इला स्कूल से आ गई. दरवाजा खोल कर वह फिर बिस्तर पर आ लेटी. इला अपना खाना ले कर मां के पास ही आ कर बैठ गई.
नीरा का मूड कुछ ठीक देख कर वह धीरे से बोली, ‘‘मां, सुबह आप को इतना गुस्सा क्यों आ गया था. इतना गुस्सा होते मैं ने आप को कभी नहीं देखा.’’
‘‘तो इस से पहले तुम्हारे पापा ने भी तो ऐसा काम नहीं किया था,’’ नीरा दुखी होती हुई बोली. ‘‘मम्मा, पापा तो कभी नहीं पीते, हो सकता है कोई और ले कर आ गया हो. आजकल तो यह फैशन माना जाता है, मां.’’
‘‘फैशन को स्थायी आदत बनते देर नहीं लगती, बेटा. अब तू जा और अपनी पढ़ाई कर. तेरी इस सब में पड़ने की उम्र नहीं है,’’ नीरा ने इला को टालने की गरज से कहा. ‘‘मां, आप भी न,’’ इला ने तुनक कर कहा और अपने रूम में चली गई.
नीरा सोचने लगी, इला को तो उस ने समझा दिया, वह बहल भी गई पर अपने मन के उस कोने को वह कहां ले जाए जहां सिर्फ दुख ही दुख था. वह अपने बचपन में बहुत कुछ देख चुकी थी. उस के पापा रेलवे में थे और कभीकभार पीना उन के शौक में शामिल था. वे जब भी पी कर आते, मम्मीपापा दोनों में जम कर लड़ाई होती. 7 साल की बच्ची नीरा डर कर एक कोने में खड़ी हो कर दोनों को झगड़ते देखती और फिर सो जाती. अगली सुबह मांपापा को प्यार से बातें करते देखती तो फिर खुश हो जाती. धीरेधीरे नीरा को समझ आने लगा था कि मां को पापा का शराब पीना बिलकुल भी पसंद नहीं था. पापा मां से कभी न पीने का प्रौमिस करते और कुछ दिनों बाद फिर पी कर आ जाते और मां गुस्से से पागल हो जातीं.
उस समय वह 10 साल की थी जब मामा की शादी में वे लोग आगरा गए थे. पापा उस दिन कुछ ज्यादा ही पी कर आ गए थे, इतनी कि उन से ठीक से खड़ा भी नहीं हुआ जा रहा था. नाना के घर में ये सब मना था. मामा और नाना की आंखों से मानो क्रोध के अंगारे निकल रहे थे. मां एक कोने में खड़ी आंसू बहा रही थीं. आज तक उन्होंने मायके में किसी को पापा के शराब पीने के बारे में नहीं बताया था. पर आज पापा ने उन्हें सब के सामने बेइज्जत कर दिया था. मामा किसी तरह उन्हें बैड पर लिटा कर आ गए थे. तब से उस के मन में भी शराब के प्रति नफरत भर गई थी.
अचानक इला की आवाज से वह पुरानी बातों से बाहर निकली. ‘‘मां, पापा आ गए हैं, चाय बना दी है, आप भी आ कर पी लीजिए.’’
वह उठ कर डायनिंग टेबल पर आ कर बैठ गई और खामोशी से चाय पीने लगी.
‘‘कैसी तबीयत है अब नीरा?’’ रोहन ने प्यार से पूछा. ‘‘मेरी तबीयत को क्या हुआ है?’’ नीरा तुनक कर बोली.
‘‘वह सुबह, तुम…’’ रोहन कुछ बोलता उस से पहले ही नीरा ने रोहन का हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोली, ‘‘रोहन, प्लीज दोबारा ऐसा मत करना. तुम तो कभी नहीं पीते थे, फिर अब ये दोस्तों को घर ला कर पीनापिलाना कैसे शुरू कर दिया?’’ ‘‘अरे, मैं कहां पीता हूं. आज शादी को 15 साल हो गए, तुम्हें कभी शिकायत का मौका मिला? पर हां, परहेज भी नहीं है. कालेज में कभीकभार पी लेता था. तुम्हें तो पता ही है कि पिछले महीने मेरा कालेज का दोस्त आशीष तबादला हो कर यहीं आ गया है. उसे लगा कि मैं अभी भी…सो, वही ले कर आ गया. कुछ और मित्र भी थे उस के साथ. तुम थीं नहीं तो यहीं खापी कर चले गए. झूठ नहीं कहूंगा, उन के साथ मैं ने भी थोड़ी सी ली थी. पर मुझे नहीं लगता कि वह इतनी बड़ी बात है जिस के लिए तुम इतनी ज्यादा परेशान हो,’’ रोहन ने प्यार से नीरा को समझाने की कोशिश करते हुए यह कहा तो नीरा की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे.
वह भर्राए हुए स्वर में बोली, ‘‘रोहन, आज तक कभी ऐसा अवसर आया ही नहीं जो मैं तुम्हें बताती कि इस शराब के कारण मेरा बचपन, मेरे मातापिता का प्यार सब गुम हो गया और मैं समय से बहुत पहले ही बड़ी हो गई.’’ ‘‘क्या मतलब, पापाजी?’’ रोहन हैरानी से बोला.
‘‘हां रोहन, पापा डिं्रक करते थे, पर कभीकभार. मां ने अपने घर में कभी ऐसा कुछ नहीं देखा था. पर फिर भी शुरू में उन्होंने अनदेखा किया और पापा से शराब छोड़ने के लिए कहा. पहले जब भी पापा पी कर आते थे, तो चुपचाप आ कर सो जाते थे. धीरेधीरे पापा का पीना बढ़ता गया. जब भी पापा पी कर आते, मां का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचता. दोनों में जम कर बहस होती और हमारा घर महाभारत का मैदान बन जाता था,’’ कहते हुए नीरा एक बार फिर अतीत में पहुंच गई. ‘‘तुम्हें पता है रोहन, जब मैं 12वीं की फाइनल परीक्षा दे रही थी तो एक दिन पापा पी कर घर आ गए. मम्मीपापा में उस दिन बात हाथापाई तक पहुंच गई. पापा गुस्से में घर से बाहर चले गए और रातभर वापस नहीं आए. दोनों को याद भी नहीं रहा कि कल उन की बेटी का एग्जाम है. नतीजा यह हुआ कि अगले दिन होने वाला मेरा कैमिस्ट्री का पेपर शराब की भेंट चढ़ गया. मैं पूरी रात रोती ही रही,’’ नीरा ने उदासी भरे स्वर में कहा.
‘‘ओह, तो इसलिए तुम सुबह गुस्से में थीं. पर आज तक तुम ने इस बारे में कभी बताया ही नहीं,’’ रोहन ने गंभीर स्वर में कहा. ‘‘मैं जब शादी के बाद यहां आई तो सब से ज्यादा खुश इसी बात से थी कि तुम्हारे यहां शराब को कोई हाथ भी नहीं लगाता था. मैं तुम्हें ये बातें बता कर अपने पापा की इमेज खराब नहीं करना चाहती थी. पर आज…’’ नीरा ने गहरी सांस लेते हुए बात अधूरी ही छोड़ दी.
‘‘चलो, अब दुख देने वाली यादों को दिल से निकाल दो. ये बंदा तुम्हारा दीवाना है, जो तुम कहोगी वही करेगा. चलो, हम दोनों मिल कर डिनर की तैयारी करते हैं,’’ रोहन ने हंसते हुए कहा और नीरा को ले कर किचन में चला गया. ‘‘रोहन, तुम सच कह रहे हो न?’’ पहले के अनुभवों से डरी नीरा गैस पर कुकर चढ़ाती हुई बोली.
‘‘हां भई, हां. पर एक बात कहूं नीरा, बुरा मत मानना. चूंकि तुम्हारे पापाजी तो हमारी शादी के 6 माह बाद ही गुजर गए थे पर जितना मैं ने उन्हें तुम्हारे बाबत जाना है, उस से लगता है कि वे सुलझे हुए इंसान थे. फिर उन को पीने की इतनी लत कैसे लग गई कि वे छोड़ ही नहीं पाए. जरूर तुम्हारी मम्मी तुम्हारे पापा को अपना दीवाना नहीं बना पाई होंगी. देखो, तुम ने कैसे मुझे अपने प्यार के जाल में बांध रखा है,’’ रोहन ने माहौल को हलका करने की गरज से नीरा को छेड़ते हुए कहा. ‘‘हां, रोहन, तुम काफी हद तक सही हो. मां ने पापा को कभी समझने की कोशिश नहीं की. पापा अपने परिवार को बहुत चाहते थे और मां उन के परिवार से उतनी ही नफरत करती थीं. अकसर इन्हीं मुद्दों पर बहस शुरू होती, जो झगड़े का रूप ले लेती. पापा गुस्से में घर से बाहर चले जाते और शराब का सहारा ले लेते. हमारे घर में रुपयापैसा सबकुछ था. बस, शांति नहीं थी.
‘‘इसीलिए तो मैं कह रही थी रोहन कि कभीकभार पीना कब हमेशा की लत बन जाती है, इंसान को पता ही नहीं चलता. तुम्हें ताज्जुब होगा कि पापा मेरी शादी के दिन भी खुद को कंट्रोल नहीं कर पाए थे और विदाई से पहले पी कर आए थे. उन का अंत भी शराब से ही हुआ. एक रात नशे में गाड़ी चला कर आ रहे थे कि एक ट्रक ने टक्कर मार दी. उस समय चूंकि मेरी नईनई शादी हुई थी, इसलिए उन की मौत को सिर्फ दुर्घटना के रूप में ही प्रस्तुत किया गया. परंतु सचाई यह थी कि वे शराब के नशे में गाड़ी चला रहे थे,’’ बोलतेबोलते नीरा सिसकने लगी. ‘‘बस, अब और दुखी होने की जरूरत नहीं है. खाना खाते हैं चल कर,’’ रोहन ने नीरा का मूड बदलने की कोशिश करते हुए कहा.
‘‘हां, इला और इरा को भी आवाज लगा दो, तब तक मैं खाना लगाती हूं,’’ नीरा ने आंसू पोंछते हुए कहा और टेबल पर खाना लगाने लगी. ‘‘अरे वाह, आलू के परांठे,’’ इरा कैसरोल में आलू के परांठे देख कर खुशी से चहकती हुई बोली.
‘‘वेरी अनएक्सपैक्टिड, वरना मां का सुबह से मूड देख कर तो मुझे लगा था कि आज खाने में खिचड़ी या दलिया ही मिलने वाला है. पापा, आप ने खाना बनाया?’’ इरा ने मुसकराते हुए तिरछी नजरों से रोहन की ओर देखते हुए पूछा. ‘‘अरे, नहीं भाई, तुम्हारी मम्मी ने ही बनाया है. तुम्हारी मम्मी की यही तो खासियत है कि परिस्थितियां कैसी भी हों, यह अपने बच्चों और पति को नहीं भूलती. क्यों, है न नीरा?’’ रोहन ने मुसकराते हुए उस की ओर देखते हुए कहा तो वह भी अपनी मुसकान को नहीं रोक सकी.
दोनों बेटियां खाना खा कर चली गईं तो रोहन ने नीरा का हाथ अपने हाथ में ले लिया और प्यार से बोला, ‘‘मेरे दिल की रानी, इतनी पीड़ा, इतना दुख अपने मन में समेटे थी और मुझे आज तक आभास ही नहीं हुआ. कैसा पति हूं मैं?’’ रोहन ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.
‘‘नहीं रोहन, ऐसा मत कहो. खुद को जरा भी दोष मत दो. तुम्हारे जैसा समझदार और प्यार करने वाला पति, फूल सी प्यारी 2 बेटियां और इतने अच्छे सासससुर को पा कर मैं अपनी दुखतकलीफ भूल गई थी. पर आज ये बोतलें देख कर लगा कि अतीत की काली परछाइयां एक बार फिर मुझे घेरने आ गई हैं,’’ नीरा गंभीर स्वर में बोली. ‘‘आज से, बल्कि अभी से ही यह बंदा तुम से प्रौमिस करता है कि शराब या उस से जुड़ी किसी भी चीज को ताउम्र हाथ नहीं लगाएगा. खुश…’’ रोहन ने प्यार से नीरा के गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘दरअसल नीरा, हम पुरुष बड़े अलग मिजाज के होते हैं. हम से जो काम प्यार से करवाया जा सकता है, वह गुस्से और अहं से बिलकुल मुमकिन नहीं है. बस, शायद मम्मीजी से यहीं चूक हो गई. वे प्यार और समझदारी से काम लेतीं तो शायद बात कुछ और होती. वे पापा को समझ नहीं पाईं, पर इस का मतलब यह भी नहीं कि पापा शराब पी कर घर के माहौल को और खराब करते. कभी अच्छे पलों में वे भी तो मां को समझाने की कोशिश कर सकते थे. उन्होंने खुद कभी इसे छोड़ने के बारे में क्यों नहीं सोचा?’’ रोहन बरतन सिंक में रखते हुए धीरे से बोला.
‘‘ऐसा नहीं है रोहन, पापा ने कई बार छोड़ने की कोशिश की पर शायद उन्हें घर में वह कोना ही नहीं मिल पाता था जहां वे सुकून तलाशते थे. दादी, चाचा, बूआ या परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए जब भी पापा कुछ करना चाहते, मां बिफर जातीं. पापा घर से दूर और शराब के नजदीक होते गए. न मां खुद को बदल पा रही थीं और न पापा. ऐसा नहीं कि दोनों में प्यार की कोई कमी थी, बस, जैसे ही शराब बीच में आ जाती, घर का पूरा माहौल ही बदल जाता था.’’ ‘‘अरे, बाप रे, 12 बज गए. सुबह मुझे औफिस भी जाना है,’’ कह कर रोहन उसे बैडरूम में ले गया.
जब वह बिस्तर पर लेटी तो रोहन ने उस का सिर अपने सीने पर रख लिया और बोला, ‘‘आज के बाद इस घर में ऐसी कोई चर्चा नहीं होगी.’’ नीरा बरसों से मन में दबी कड़वाहट, दुख, तकलीफ सब भूल कर चैन की नींद सो गई.
मेरेजीवन में तुम वसंत की तरह आए और पतझड़ की तरह चले गए. तुम ने न तो मेरी भीगी आंखों को देखा और न ही मेरी आहों को महसूस किया.
यदि मैं चाहती तो तुम्हें बता देती कि तलाक लेना इतना भी आसान नहीं जितनी आसानी से मैं ने तुम्हारे उन तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए, जिन्होंने मेरी वजूद की नींव को ही हिला दिया.
यदि मैं चाहती तो अपनी इस टूटीबिखरी जिंदगी का मुआवजा तुम से जीवनभर वसूलती रहती पर मेरे अंदर की औरत को यह कतई मंजूर नहीं था, क्योंकि जिस रिश्ते को अंजाम तक पहुंचना ही नहीं था उसे एक खूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ने में ही मुझे अपनी और तुम्हारी भलाई दिखी थी.
मगर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ चंद्र? हमतुम प्यार करते थे न? तुम ने मेरी नौकरी के साथ ही मुझे अपनाया था न? फिर शादी के बाद ऐसा क्या हुआ जो तुम आम मर्दों की तरह अपनी जिद को मुझ पर लादने लगे?
अब तुम्हें क्या पता कि यह नौकरी मुझे कितनी मुश्किल से मिली थी पर तुम ने तो बिना सोचेसमझे ही फैसला कर लिया और हुक्म दे दिया कि यह नौकरी छोड़ दो निर्मला.
चंद्र तुम्हें क्या पता कि मुश्किलों से मिली चीज को आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता. फिर यह तो मेरी नौकरी थी न. तुम ने मुझे एक बेटी दी. याद है उस के जन्म पर हम दोनों कितने खुश थे पर तुम्हारी जिद ने इस खुशी के एहसास को भी कम कर दिया. तुम्हारा कहना था कि औरत का काम घर और बच्चे संभालना है. मैं हैरान थी. तुम कितने बदल गए थे. धीरेधीरे मुझे लगने लगा था कि तुम्हारे साथ मेरा कोई भविष्य नहीं है. तुम मेरी सोच को दबा कर मुझ पर हुकूमत करना चाहते थे.
आखिर हमारे तलाक का मुकदमा अदालत में आ ही गया. 5 साल तक हर तारीख पर मैं अदालत की सीढि़यां चढ़तीउतरती रही. दिलदिमाग सब सुन्न पड़ गए थे. कभीकभी सोचती पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा, पर आखिर छुटकारा मिल ही गया. जब 2 लोग आपसी तालमेल से साथ नहीं रह सकते तो कानून भी आखिर कब तक उन्हें बांध कर रख सकता था. पर जिस दिन तलाक मिल गया उस दिन लगा जैसे सबकुछ टूट कर बिखर गया और एक डर ने धड़कनें बढ़ा दीं. जब एक दिन चंद्र ने कानून के जरीए प्रिया को पाने की कोशिश की.
मगर तुम ने पास आ कर कहा, ‘‘निर्मला प्रिया तुम्हारे पास ही रहेगी, पर कभी यह मत भूलना कि वह मेरी भी बेटी है. मैं उस से मिलने आता रहूंगा, उस की चिंता रहेगी मुझे.’’
मैं क्या कहती. सबकुछ तो टूट गया था. पहले चंद्र से प्यार हुआ, फिर परिवार से बगावत कर के उस से शादी हुई. बच्ची पैदा हुई और फिर अकेली हो गई. नौकरी और चंद्र में से मुझे किसी एक को चुनना था और मैं ने नौकरी को चुन लिया. जानती थी सरकारी नौकरी थी. मरते दम तक साथ देगी पर चंद्र? उस ने तो बीच चौराहे पर अकेला छोड़ दिया था.
जख्म ताजा था, दर्द भी काफी था पर समय के साथसाथ हर जख्म भर जाता है,
ऐसा सुना था और सोचा मेरा भी भर ही जाएगा.
चंद्र और प्रिया के बीच एक डेट फिक्स हो गई थी. हर महीने का एक दिन उस ने प्रिया के नाम किया था. उस दिन का इंतजार प्रिया भी बेसब्री से करती. चंद्र आता और प्रिया को ले जाता. शाम को जब प्रिया वापस आती तो उस के पास ढेर सारे गिफ्ट होते. वह कहती कि मां पापा कितने अच्छे हैं, मेरा कितना खयाल रखते हैं और मैं… मेरे दिल में एक हूक सी उठती. इस बात का जवाब मुझे कभी नहीं मिलता कि मैं कैसी मां हूं.
प्रिया का कहना भी ठीक था. चंद्र ने न तो वह घर मुझ से वापस लिया, न ही अपनी बेटी, फिर मैं उस पर क्या इलजाम लगाऊं.
तलाक के बाद चंद्र ने कहा, ‘‘निर्मला, तुम प्रिया के साथ इसी घर में रहोगी.’’
मगर वह जैसे ही जाने लगा प्रिया उस से लिपट गई. पापा, मैं आप के साथ जाऊंगी.
5 साल की बच्ची की यह जिद मुझे अखर गई और मैं ने उसे कस कर तमाचा जड़ दिया. उसी दिन से हम मांबेटी के बीच एक हलकी सी दरार पैदा हो गई और फिर धीरेधीरे चौड़ी होती गई.
मैं कभीकभी सोचती कि क्या सारी गलती मेरी थी? क्या मुझे अपने पति को उस के दंभ के साथ अपनाए रखना चाहिए था? आखिर चंद्र ने क्यों मेरी नौकरी छुड़ानेकी जिद ठान ली थी? यह तो ठीक था कि नौकरी छोड़ने के बाद मैं चैन की जिंदगी गुजारती, एक आम औरत की तरह औरतों के साथ मेलजोल बढ़ाती, किट्टी पार्टियों में हिस्सेदारी करती और महल्ले में क्याक्या हो रहा है उस की पूरीपूरी जानकारी रखती. रोज पति से गहनों कपड़ों की फरमाइश करती. मगर मैं एक आम औरत से हट कर थी. मैं कैसे अपने अंदर की क्षमता को मार कर एक आम औरत बन जाती? क्या पुरुष की दासी बनने के बाद ही उस की गृहस्थी पर राज करने का अधिकार औरत को मिल सकता है?
विचारों की यह कशमकश हर पल, हर घड़ी मन में कुहराम मचाए रखती पर समझ में नहीं आता कि गलती किस की थी?
मैं एक मध्यवर्गीय परिवार की बेटी थी. पिता रिटायर्ड अध्यापक थे. उन के पास 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट था. एक कमरे में पापामम्मी और दूसरे में भाईभाभी और उन के बच्चे रहते थे. तलाक के मुकदमे के दौरान ही भाभी के तेवर बदलने लगे थे. उस ने एक दिन कह ही डाला, ‘‘तलाक के बाद तुम प्रिया के साथ कहां रहोगी निर्मला?’’
यानी एक तलाकशुदा लड़की को अपने पिता के घर में कोई जगह नहीं थी. आज सोचती हूं तो मन कांप उठता है. यदि चंद्र ने मुझे यह मकान रहने को न दिया होता तो?
पिछले 12 सालों से दिलोदिमाग घटनाओं के चक्रव्यूह में फंसा था कि अचानक जिंदगी में कुछ बदलाव आया. दफ्तर में नया बौस आ गया था. काम के दौरान अकसर फाइलें ले कर बौस के पास जाना पड़ता. बौस का नाम था शेखर.
धीरेधीरे मुझे महसूस होने लगा कि शेखर मुझ में कुछ ज्यादा ही रुचि लेने लगा है.
एक दिन शेखर ने कहा, ‘‘पता चला है कि आप का अपने पति से तलाक हो गया है?’’
‘‘जी हां,’’ मैं ने धीरे से कहा और फिर फाइल उठा कर चलने लगी तो शेखर ने फिर कहा, ‘‘मैं आप की तकलीफ को समझता हूं, क्योंकि मैं भी इस दर्द से गुजर चुका हूं.’’
मेरे दिल की धड़कनें तेज होने लगीं. मैं उन के कैबिन से बार आ गई.
एक लंबे अरसे से मर्द से दूर रहने के बाद मैं पत्थर की शिला सी बन गई थी पर अब आतेजाते शेखर की नजरों का सेंक मेरे अंदर की रूखीसूखी औरत को पिघलाने लगा था.
एक दिन आईने के सामने बैठ कर मैं ने खुद को गौर से देखा. मुझे लगा मेरा खूबसूरत चेहरा अभी भी वैसा ही है. चंद्र अकसर कहा करता था, ‘‘तुम कितनी सुंदर हो निर्मला.’’
बरसों बाद अचानक मेरी सोच ने करवट ली कि निर्मला तू क्यों खुद को मिटा रही है? खुद को संभाल निर्मला.
मैं अगले दिन जब दफ्तर पहुंची तो साथ काम करने वाली महिलाओं ने कहा, ‘‘वाऊ… निर्मला आज तो जंच रही हो.’’
मैं ने पुरुष सहकर्मियों की आंखों में भी अपने लिए प्रशंसा के भाव देखे.
उस दिन शाम को छुट्टी के बाद बस स्टौप पर पहुंची तो अचानक शेखर की गाड़ी पास आ खड़ी हुई, ‘‘निर्मलाजी गाड़ी में बैठिए. मैं ड्रौप कर दूंगा.’’
‘‘नहीं सर मैं चली जाऊंगी.’’
‘‘जानता हूं आप रोज ही जाती हैं बस से, पर देख रही हैं काले बादल कैसे गरज रहे हैं… लगता है जल्दी बारिश शुरू होने लगेगी. फिर आप की बेटी भी तो आप का इंतजार कर रही होगी.’’
प्रिया का खयाल आते ही मैं गाड़ी में बैठ गई. लेकिन घर पहुंचतेपहुंचते तेज बरसात होने लगी थी. घर के सामने शेखर ने गाड़ी रोकी तो मैं ने कहा, ‘‘सर, बारिश तेज हो गई है. आप अंदर आ जाइए. बारिश बंद होने के बाद चले जाना.’’
शेखर मेरे साथ अंदर आ गए. प्रिया मोबाइल पर किसी से बात कर रही थी. उस ने शेखर को हैरानी से देखा तो मैं ने कहा, ‘‘प्रिया, ये शेखर सर हैं हमारी कंपनी के बौस.’’
प्रिया ने शेखर को नमस्ते की और फिर अपने कमरे में चली गई. मैं ने महसूस किया कि प्रिया को शेखर का आना अच्छा नहीं लगा.
मैं ने कौफी बनाई और प्याला शेखर को थमा दिया. कुछ देर तक शेखर हमारे बारे में कुछ पूछते रहे, फिर बरसात के रुकते ही चले गए.
शेखर के जाने के बाद प्रिया मेरे पास आई और बोली, ‘‘मम्मा, मुझे तुम्हारा गैरों से मेलजोल पसंद नहीं है.’’
मेरे मुंह से अचानक निकला, ‘‘कोई अपना भी तो नहीं है.’’
प्रिया ने मुझे घूर कर देखा और फिर चली गई. लेकिन उस दिन के बाद मुझे लगा कि शेखर मुझ में दिलचस्पी लेने लगे हैं. उन्होंने एक दिन अपने बारे में बताया कि न चाहते हुए भी उन्हें अपनी पत्नी से तलाक लेना पड़ा.
अब कभीकभी शेखर मुझे अपनी गाड़ी में खाने पर ले जाते. धीरेधीरे मुझे उन का साथ अच्छा लगने लगा और हम दोनों और करीब आने लगे. मुझे लगने लगा कि मेरे मन का सूना कोना अब भरने लगा है. जबतब शेखर को भी मैं घर खाने पर बुलाने लगी थी. लेकिन मुझे यह बात अच्छी तरह समझ में आ रही थी कि यदि मैं ने शेखर के साथ रिश्ते में एक कदम आगे बढ़ाया तो यह बात प्रिया को कतई मंजूर नहीं होगी.
शेखर अब इस रिश्ते को नाम देना चाहते थे. वे मुझे से शादी करना चाहते थे
पर प्रिया… उस का क्या होगा? वह बहुत संवेदनशील है… इस रिश्ते को कभी नहीं कुबूलेगी. लेकिन शेखर कहते कि माना प्रिया बड़ी संवेदनशील है, पर धीरेधीरे सौतेले पिता को कुबूल कर लेगी मगर मैं जानती थी शेखर के मामले में मैं उसी दो राहे पर आ खड़ी हुई थी जहां 17 साल पहले खड़ी थी. तब मुझे नौकरी और पति दोनों में से एक को चुनना था और अब मुझे शेखर और प्रिया दोनों में से एक को चुनना होगा, क्योंकि प्रिया किसी भी कीमत पर सौतेले पिता को कुबूल नहीं करेगी.
एक दिन प्रिया जब चंद्र से मिल कर आई तो गुस्से में भरी थी. उस ने आते ही अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. मैं देर तक दरवाजा खुलवाने की कोशिश करती रही, लेकिन प्रिया ने कोई जवाब नहीं दिया. मैं डर गई कि कहीं प्रिया कुछ ऐसावैसा न कर ले. मगर 1 घंटे बाद जब वह बाहर आई तो बहुत उदास थी. मैं उस का हाथ पकड़ अपने कमरे में ले आई और फिर खींच कर अपनी गोद में लिटा लिया और पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा?’’
प्रिया फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मम्मा, पापा ने शादी कर ली है.’’
उफ, अपने आदर्श पिता की जो तसवीर बेटी के मन में बसी थी वह टूट गईं. मेरे अंदर भी कुछकुछ टूटने लगा. चंद्र काफी दूर था… मेरे और उस के बीच कुछ भी नहीं था पर उस की शादी की बात सुन कर दर्द फिर हिलोरें लेने लगा.
मैं ने प्रिया को अपनी बांहों में बांध कर उस का दर्द कम करने की कोशिश की. फिर उठ कर चाय बना लाई. वह चुपचाप चाय पीने लगी. पर मेरे अंदर एक डर समाया था. शेखर जल्द ही शादी की तारीख तय करने वाले थे… यदि प्रिया ने कोई सीधा सवाल मुझ से पूछ लिया तो?
मैं उठी और आईने के सामने खड़ी हो कर कई सवाल किए. फिर मुझे अपने सवालों के जवाब मिल गए और मैं प्रिया के पास आ गई.
इस से पहले कि प्रिया मुझ से कुछ कहती मैं ने कहा, ‘‘प्रिया, पापा ने शादी कर ली है तो क्या… तुम्हारी ममा है न तुम्हारे साथ… तुम्हारी ममा सिर्फ तुम्हारी है.’’
यह सुनते ही प्रिय मेरे सीने से लग गई.
इस के बाद मैं ने शेखर से कह दिया कि हम केवल दोस्त हो सकते हैं, और किसी रिश्ते में नहीं बंध सकते. शेखर काफी समझदार थे. उन्होंने सहज रूप से इसे स्वीकार लिया.
हर बार की तरह उस दिन भी चंद्र की गाड़ी आ खड़ी हुई और चंद्र हौर्न बजाने लगा. लेकिन प्रिया ने कहा, ‘‘नहीं जाना ममा मुझे.’’
तब तक चंद्र दरवाजे पर आ गया था.
पिता को देख कर प्रिया भड़क गई. बोली, ‘‘कौन हैं आप?’’
चंद्र ने हैरानी से प्रिया को देखा. उस के तेवरों की तपिश को महसूस किया. फिर चुपचाप सीढि़यां उतर लौट गया.
मैं ने हैरानी से प्रिया को देखा, तो वह बोली, ‘‘वह एक अजनबी है ममा.’’
प्रिया की बात सुन कर एक फीकी सी मुसकराहट मेरे होंठों पर आ गई और फिर मैं किचन में चली गई.
सतही तौर पर तो लगता था कि सबकुछ ठीक हो गया है, पर ऐसा कुछ था नहीं. मैं और प्रिया दोनों ही सहज नहीं हो पा रही थीं.
मैं प्रिया को आश्वस्त करना चाहती थी और इसीलिए शेखर से भी दूरियां बना ली थीं. लेकिन मैं महसूस कर रही थी कि कोई अपराधबोध प्रिया को अंदर ही अंदर खल रहा है.
एक दिन प्रिया कालेज से लौटी तो मुझे घर में देख कर बोली, ‘‘ममा, आप आज औफिस नहीं गईं?’’
‘‘मन कुछ ठीक नहीं था, इसलिए सोचा घर पर ही रह कर कुछ पढूंलिखूं तो शायद…’’
‘‘ममा, क्या मैं बहुत बुरी बेटी हूं?’’ प्रिया ने पूछा.
‘‘ओह नो… तुम तो मेरी प्यारी बेटी हो. ऐसा क्यों सोचती हो तुम?’’
‘‘ममा, पिछले कुछ दिनों से जो कुछ घटित हो रहा है उस ने मुझे कुछ सोचने को मजबूर कर दिया है.’’
प्रिया को मैं ने घूर कर देखा तो लगा कि वह छोटी बच्ची नहीं रही. उस की बातों
से लगने लगा था कि हालात ने उसे गंभीर बना दिया है.
तभी प्रिया बोली, ‘‘ममा, मैं आप की उदासी का कारण समझ सकती हूं कि पापा ने आप को कितना दर्द दिया है.’’
मैं ने टालने की गरज से कहां, ‘‘चलो हाथमुंह धो लो… देखो तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’
‘‘नहीं ममा मैं अब यह समझने लगी हूं कि अकेलापन इंसान को किस कदर आहत कर देता है… शायद इसीलिए पापा ने भी शादी कर ली.’’
मैं ने प्रिया को हैरानी से देखा और समझा कि वह कुछ कहना चाहती है पर शायद संकोच के कारण कह नहीं पा रही. मैं ने चाय का प्याला उस के सामने रखा और खुद भी खोमोशी से चाय पीने लगी.
तभी प्रिया ने कहा, ‘‘ममा, मैं आज आप के औफिस गई थी.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘शेखर अंकल से मिलने… सच कहूं तो कभीकभी हम अपनेआप में इतने खो जाते हैं कि सामने वाले को समझ ही नहीं पाते.’’
‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’
‘‘यही कि शेखर अंकल अच्छे इंसान हैं.’’ प्रिया ने यह कहा तो मेरे दिल की धड़कने बढ़ने लगीं. मैं उस के अगले किसी भी सवाल के लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही थी.
तभी प्रिया ने कहा, ‘‘क्या आप शेखर अंकल को पसंद करती हैं?’’
शेखर का उदास चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया और फिर मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया, ‘‘हां.’’
प्रिया खिलखिला कर हंसने लगी. फिर बोली, ‘‘तो फिर आप उन से शादी क्यों नहीं कर लेतीं?’’
‘‘मगर तुम… नहीं प्रिया यह नहीं हो सकता,’’ मैं ने कहा.
‘‘क्यों नहीं हो सकता बल्कि मैं तो कहती हूं यही होगा. आप ने बहुत दुख झेले हैं ममा… अब आप को जीवनसाथी मिलेगा और मुझे अपना पापा.’’
मैं प्रिया के इस बदले मिजाज से हैरान थी.
तभी दरवाजे पर आहट हुई. शेखर थे. उन्होंने अंदर आ कर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘प्रिया बिलकुल ठीक कह रही है निर्मला… सही फैसले सही समय पर ले लेने में ही बुद्धिमत्ता होती है.’’
मैं ने प्रिया की ओर देखा. उस की आंखों में इस रिश्ते के लिए स्वीकृति थी और फिर मैं ने भी शेखर को अपनी स्वीकृति दे दी.
‘‘मुझे यह बात अच्छी तरह समझ में आ रही थी कि यदि मैं ने शेखर के साथ रिश्ते में एक कदम आगे बढ़ाया तो यह बात प्रिया को कतई मंजूर नहीं होगी…’’