Serial Story: विषपायी (भाग-2)

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आशीष पेशे से एक डाक्टर थे. उन की शादी नंदिता नाम की एक लड़की से हुई, जो खुद एक अच्छी कंपनी में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्य कर रही थी. शादी के बाद आशीष पत्नी नंदिता की उदासी से परेशान थे. बिस्तर पर भी नंदिता एक संपूर्ण स्त्री की तरह आशीष से बरताव नहीं करती थी. एक दिन आशीष ने नंदिता से जोर दे कर कारण पूछा, तब नंदिता ने बताया कि वह एक व्यक्ति से प्रेम करती है और उस के प्यार में पागल है. आश्चर्य की बात तो यह थी कि जिस व्यक्ति से नंदिता प्रेम करती थी वह शादीशुदा था. यह सुन कर आशीष के पैरों तले जमीन खिसक गई. एक दिन क्लीनिक पर उस से एक महिला मिलने आई.

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आशीष ने काफी सोचविचार किया. ऐसी परिस्थिति में उन के पास बस 2 ही विकल्प थे-नंदिता को पूरी तरह से आजाद कर दें ताकि वह अपने ढंग से अपनी जिंदगी निर्वाह कर सके या फिर उसे अपने साथ रख कर उस का किसी मनोवैज्ञानिक से इलाज करवाएं. यह स्थिति उन के लिए काफी कठिन और यंत्रणादायी होती.  वे तिलतिल कर घुटते और नंदिता का छल उन के मन में एक कांटे की तरह आजीवन खटकता रहता. फिर भी नंदिता को सुधरने का मौका दे कर वे महान बन सकते थे. वे इतने दयालु तो थे ही, परंतु सब कुछ करने के बाद भी अगर वह नहीं ठीक हुई तो… तब वे अपनेआप को किस प्रकार संभाल पाएंगे. यह क्या कम दुखदाई है कि उन की पत्नी किसी परपुरुष के साथ पूरी ऊष्मा के साथ पूरा दिन बिताने के बाद उन के साथ रात में बर्फ की सिला की तरह लेट जाती है जैसे उस का कोई वजूद ही नहीं है, पति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है.

इस स्थिति को क्या वे अधिक दिन तक बरदाश्त कर पाएंगे? और जब कभी उन के बच्चे होंगे, तो क्या वे अपनेआप को समझा पाएंगे कि वे बच्चे उन के ही वीर्य से उत्पन्न हुए हैं? यह जांचने के लिए वे डीएनए तो नहीं करवाते फिरेंगे? जीवन भर वे संशय और अनजानी चिंता के भंवर में डूबतेउतराते रहेंगे.

पत्नी के परपुरुष से संबंध कितने कष्टदाई होते हैं, यह केवल डाक्टर आशीष समझ रहे थे. यह एक ऐसी सजा होती है, जो मनुष्य को न तो मरने देती है और न ही जीने.  आशीष ने कहा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? सब कुछ मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूं. अगर तुम अपने को सुधार सको, तो मैं तुम्हें अपने साथ रखने को तैयार हूं. अगर नहीं तो तुम मेरी तरफ से स्वतंत्र हो. जो चाहे कर सकती हो.’’  नंदिता ने निर्णय लेते हुए कहा, ‘‘मैं प्रयास करती हूं. हालांकि आप से रिश्ता तय होने के बाद भी मैं ने प्रयास किया था और आप से शादी होने के बाद भी मैं उस के साथ अपना संबंध तोड़ने की जद्दोजहद करती रही हूं. यही कारण था कि मैं घर में आप से सामान्य व्यवहार न कर सकी. देखती हूं, शायद मैं उस से छुटकारा  पा सकूं.

दोनों का रिश्ता कुछ दिन तक टूटने से बच गया. नंदिता ने अपने औफिस से लंबी छुट्टी ले ली ताकि वह उस व्यक्ति से दूर रह सके. परंतु आधुनिक युग के संचार माध्यमों के कारण आदमी की निजता काफी हद तक समाप्त हो गई है. नंदिता ने कोशिश की कि वह घर के कामों में अपने को व्यस्त रखे. टीवी देख कर अपने मन को इधरउधर भटकने से रोके और पुस्तकें पढ़ कर समय गुजारे, परंतु मोबाइल की दुनिया में उस के लिए यह संभव नहीं था.  उस व्यक्ति का पहली बार फोन आया तो उस ने नहीं उठाया, उस ने एसएमएस किया, तो भी ध्यान नहीं दिया, परंतु कब तक? लगातार कोई फोन करे, एसएमएस करे, तो दूसरा व्यक्ति उस से बात करने के लिए बाध्य हो ही जाता है.

उस ने बात की तो उधर से आवाज आई, ‘‘क्या बात है? क्या हो गया है तुम्हें? न फोन उठाती हो न स्वयं फोन करती हो? कोई जवाब नहीं? आखिर हो क्या गया है तुम्हें? स्वर में अधिकार भाव था.  ‘‘प्रजीत, तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते? अब मैं शादीशुदा हूं. मेरे लिए अब इस संबंध को आगे कायम रख सकना संभव नहीं है.’’

उधर कुछ देर चुप्पी रही. फिर स्वर उभरा, ‘‘अच्छा, एक बार मिल लो, फिर मैं सोचूंगा.’’

‘‘पक्का, तुम मेरा पीछा छोड़ दोगे?’’ नंदिता चहक कर बोली.

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‘‘हां,’’ उधर से भी प्रसन्नता भरी आवाज आई, ‘‘मैं तुम्हें इसी तरह चहकते हुए देखना चाहता हूं.’’

दिन का समय था. आशीष अपने अस्पताल में थे. नंदिता के पास काफी समय था. वह तैयार हो कर गई, परंतु जब उस व्यक्ति से मिल कर लौटी, तो वह खुश नहीं थी. वह अंदर से टूट गई थी. रो रही थी, परंतु उस का रोना किसी को दिखाई नहीं दे रहा था. रात में आशीष को बिना बताए पता चल गया कि नंदिता के साथ दिन में बहुत कुछ घट  चुका है. उस रात आशीष ने उस के साथ संबंध बनाते हुए अपने को रोक लिया. वह शौक जैसी स्थिति में थी. पूछा, ‘‘तुम उस के पास गई थीं?’’  नंदिता खुद को रोक नहीं सकी. फफक कर रो पड़ी, ‘‘आप जो चाहें मुझे सजा दें. मैं आप की गुनहगार हूं, परंतु सच यह है कि मैं उसे नहीं छोड़ सकती और न ही वह मुझे छोड़ सकता है.’’

‘‘तो फिर तुम मुझे छोड़ दो,’’ आशीष ने अंतिम निर्णय लेते हुए कहा.

नंदिता ने कोई उत्तर नहीं दिया. बस भीगी आंखों से आशीष के चेहरे को देखती रही. आशीष समझ नहीं पा रहा था, नंदिता किस तरह की औरत है और उस के मन में क्या है? क्यों वह जानबूझ कर आग में कूद रही है? कोई इस तरह अपने जीवन को बरबाद करता है क्या?

‘‘ठीक है,’’ अंत में नंदिता ने कहा. उस के स्वर में कोई अपराधबोध नहीं था. संभवतया उस ने स्वयं आशीष से पीछा छुड़ाने का निर्णय ले लिया, परंतु उसे आशा नहीं थी कि आशीष इतनी आसानी से उसे छोड़ने पर मान जाएंगे.

उन दोनों ने आपस में सलाह ली और परिजनों एवं खास रिश्तेदारों की मौजूदगी में बिना वास्तविक कारण बताए तलाक की सहमति पर मुहर लगा दी.  नंदिता से अलग हो आशीष टूटे नहीं, परंतु जहर का एक लंबा कड़वा घूंट पी कर रह गए. नंदिता के जहर को वे पी तो गए, परंतु उस का असर उन के दिलोदिमाग में अभी तक छाया था. बहुत कोशिश की उबरने की, परंतु उबर नहीं पाए. वे गुड़गांव की नौकरी छोड़ कर लखनऊ चले आए. कुछ दिन तक घर पर बिना किसी काम के रहे. मातापिता ने भी उन्हें कुछ करने की सलाह नहीं दी, परंतु कोई भी व्यक्ति निष्क्रिय रह कर जीवन नहीं गुजार सकता, चाहे कितना ही साधनसंपन्न क्यों न हो. निष्क्रियता मनुष्य को बीमार बना देती है.

आशीष कुछ सामान्य हुए तो मातापिता की सलाह पर अपना एक क्लीनिक खोल लिया. वह चल निकला तो फिर दूसरी शादी के लिए मातापिता जोर देने लगे. वे दूसरी बार जहर पीने के लिए तैयार नहीं थे, परंतु मातापिता ने उन्हें दुनिया की ऊंचनीच समझाई. समाज में रहते हुए व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता. पेड़ केवल तने के सहारे नहीं जी सकता. उसे सहारे के लिए चारों तरफ फैली शाखाएं,  पत्ते और फूल चाहिए. उसी तरह मनुष्य का जीवन है. उसे अपने जीवन में खुशियों के लिए आमदनी के साथसाथ परिवार भी चाहिए, जिस में पत्नी के साथसाथ हंसतेखिलखिलाते बच्चे भी चाहिए. संसार में सभी जीवजंतुओं का यही जीवनचक्र है.

आशीष स्वभाव के पेचीदे नहीं थे. जीवन को सरल और सहज भाव से जीना जानते थे. मातापिता की सलाह से उन्होंने दोबारा शादी कर ली. इस बार इतना ध्यान रखा कि लड़की कामकाजी न हो, बस पढ़ीलिखी हो.  दिव्या उस समय एलएलबी कर रही थी जब आशीष के लिए उस के रिश्ते की मांग किसी रिश्तेदार के माध्यम से पहुंची. दिव्या को आशीष के साथ रिश्ते में कोई एतराज नहीं था. बस वह चाहती थी कि कभी जरूरत पड़ी तो उसे वकालत की प्रैक्टिस करने से मना न किया जाए. यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं था. जरूरत पर पतिपत्नी एकदूसरे का साथ देते हैं और पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथसाथ आर्थिक जिम्मेदारी भी वहन करते हैं.

आज आशीष अपनी पत्नी और एक बेटे के साथ खुश हैं. बेटा लगभग 5 साल का है और स्कूल जाने लगा है. दिव्या परिवार और बच्चे की जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभा रही है. आशीष के मातापिता लखनऊ में ही अपने पुश्तैनी मकान में अलग रहते हैं. जबकि आशीष अपनी पत्नी और बच्चे के साथ गोमती नगर में अपने बनाए मकान में रहते हैं.  वे सभी एकसाथ रह सकते थे और इस में किसी को कोई एतराज भी नहीं था, परंतु आशीष के मम्मीपापा चाहते थे कि बड़े हो कर बच्चे अपने ढंग से स्वतंत्र रूप से रहें तो उन में आत्मविश्वास और जीवन के प्रति सजगता आती है. पर किसी मुसीबत की घड़ी में वे सब  एकसाथ होते.

दिव्या के साथ 8 साल के उन के दांपत्य जीवन में कभी कटुता के क्षण नहीं आए थे. दिव्या से शादी के 2 वर्ष पूर्व उन्होंने जो जहर पीया था, उस का असर धीरेधीरे कम हो गया था, परंतु आज 10 साल बाद जब वे अपने सुखमय जीवन में पत्नी और बेटे के साथ खुश और प्रसन्न थे कि अचानक वह जहर की शीशी फिर से उन के हाथ में आ गई थी.  नंदिता आज उन से मिलने आई थी, किसलिए…? क्या चाहती है वह उन से? उन  का अब एकदूसरे से क्या संबंध है? किस  कारण उस ने उन के पास आने की हिम्मत  बटोरी है? कोई न कोई खास बात अवश्य होगी. जब तक नंदिता के मन को वे फिर से नहीं पढ़ेंगे, उन के मन में उठने वाले सवालों के जवाब नहीं मिल पाएंगे.

वे चाहते तो नंदिता से मिलने के लिए साफसाफ मना कर देते, परंतु वे इतने कोमल मन हैं कि अपने कातिल का भी दिल नहीं दुखा सकते. वे साफ मन से नंदिता से मिलने के लिए तैयार थे, उस की बात सुनना चाहते थे और जानना चाहते थे कि वह उन से क्या चाहती है? शाम को 6 बजे जब आशीष अपने क्लीनिक पहुंचे तो नंदिता वहां पहले से मौजूद  थी. उन्हें देखते ही उस के चेहरे पर अनोखी चमक आ गई. वे भी हलके से मुसकराए और अपने कैबिन में चले गए. पीछेपीछे नंदिता को आने का इशारा किया.

वे अपनी कुरसी पर बैठ गए तो नंदिता भी बेतकल्लुफी से उन के सामने वाली कुरसी पर बैठ गई. इस समय उस के चेहरे पर उदासी की कोई छाया नहीं थी. वह बनसंवर कर भी आई  थी और सुंदर लग रही थी. उस की चमकती आंखों में एक प्यास सी जाग उठी थी. यह कैसी प्यास थी, डाक्टर आशीष समझ न पाए. वे समझना भी नहीं चाहते थे. अत: उन्होंने उस के चेहरे से नजरें हटा कर पूछा, ‘‘हां, कहो कैसी हो?’’

नंदिता ने एक ठंडी सांस ली और फिर कशिश भरी आवाज में बोली, ‘‘अभी भी आप को मेरी चिंता है?’’  नंदिता का यह प्रश्न व्यर्थ था. उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हें मेरा पता कहां से मिला?’’ अब वे अनौपचारिक हो गए थे और नंदिता को तुम कह कर बुलाने लगे थे.

‘‘आज के जमाने में यह कोई मुश्किल काम नहीं है. लगभग हर पढ़ालिखा व्यक्ति सोशल मीडिया में घुसा हुआ है. फेसबुक से आप का पता मिला और फिर…’’

‘‘अच्छा बताओ, क्यों मिलना चाहती थी?’’ उन्होंने बिना किसी लागलपेट के पूछा.

नंदिता ने अपनी आंखें झुका कर कहा, ‘‘आप अन्यथा मत लेना, परंतु मेरे पास और कोई चारा नहीं था. मैं ने आज यह समझ लिया है, जो व्यक्ति अपनी जवानी में अनैतिक कार्य करता है, समाज के नियमों के विपरीत कदम उठाता है, परिवार और दांपत्य जीवन की निष्ठा को नहीं समझ पाता, वह एक न एक दिन अवश्य घोर कष्ट उठाता है.

‘‘अपनी जवानी के नशे में चूर मैं जिसे सोना समझती थी, वह मिट्टी का ढेला निकला. जिस के लिए मैं ने आप को, अपने मम्मीपापा और सभी रिश्तों को ठुकरा दिया, वही एक दिन मुझे ठुकरा कर चला गया. क्यों गया, यह कहना बेमानी है.

इस जगत में जिन रिश्तों का कोई आधार नहीं होता, वे बहुत जल्दी टूट जाते हैं. उसे लगा कि उस ने मेरे सौंदर्य और यौवन का सारा रस चूस लिया है, तो वह मुझ से अलग होने के तमाम बहाने गढ़ने लगा और एक दिन ऐसा आया कि उस ने साफसाफ कह दिया कि वह मुझ से कोई संबंध नहीं रखना चाहता. आज मेरे पास नौकरी नहीं है, पैसा नहीं है. उस के चक्कर में सब कुछ गंवा बैठी. बताओ, अब मैं कहां जाती?’’

आशीष ने उस के विगत जीवन के बारे में नहीं पूछा था. न वे पूछना चाहते थे. नंदिता के जीवन से उन्हें क्या लेनादेना था. वह उन की कौन थी. कोई भी तो नहीं, बस देखा जाए तो उन के बीच मानवीय संबंधों के अलावा और कोई संबंध नहीं था.  नंदिता अपने विगत के बारे में स्वयं बता रही थी, यह उस की इच्छा थी. उन्होंने चुपचाप सुन लिया, कोई टिप्पणी नहीं की. नंदिता को ठोकर लगने के बाद अगर अक्ल आई है, तो इस का अब कोई मतलब नहीं है.  एक बार रिश्ते बिगड़ जाते हैं, तो वे बनते नहीं हैं. अगर बनते भी हैं, तो कोई न कोई गांठ उन के बीच में पड़ जाती है, जो निरंतर खटकती रहती है. क्या नंदिता उन के पास पुराने रिश्तों को जोड़ने आई थी या ठोकर खा कर सहानुभूति प्राप्त करने? उन की सहानुभूति से वह क्या हासिल करना चाहती?

उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया, नंदिता स्वयं बताती रही, ‘‘अपनी परेशानियों के बारे में बहुत ज्यादा बता कर मैं आप को परेशान नहीं करूंगी. बस इतना कहने के लिए आई हूं कि अब मैं इस भरे संसार में अकेली हूं. मम्मीपापा ने तभी मुझ से संबंध तोड़ लिया था, नातेरिश्तेदार मुझे फूटी आंख नहीं देखना चाहते. यारदोस्त भी अलग हो गए. उस ने मेरी नौकरी भी छुड़वा दी थी.

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दिल्ली में चारों तरफ मुझे अंधेरे के सिवा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. वहां जब मुझे कोई किनारा नहीं मिला तो मुझे आप की याद आई. मैं मानती हूं कि मैं ने आप को बहुत दुख दिया, इतना बड़ा दुख पा कर कोई किसी को माफ नहीं कर सकता, परंतु मुझे आप के मन की विशालता का पता है. आप ने भले ही मेरे कृत्यों के लिए मुझे माफ न किया हो, परंतु आप के दिल में मेरे प्रति कोई कटुता नहीं हो सकती. इसीलिए मैं हिम्मत कर के आप से मिलने आई हूं.’’  आशीष का दिल कराह उठा. क्या सचमुच नंदिता के मन में कोई अफसोस का भाव है? वह अपनी गलती का प्रायश्चित्त करने के लिए आई है? उन्होंने नंदिता को देखा जैसे कह रहे हों कि कहीं भी जाती, परंतु मेरे पास क्यों? प्रायश्चित्त  तो कहीं भी किया जा सकता है?  पर प्रत्यक्ष में कहा, ‘‘मुझे नहीं पता तुम्हारे मन में क्या है, परंतु दिल्ली बहुत बड़ी है. वहां प्रतिदिन लाखों लोग बिना किसी सहारे के अपनी आंखों में उम्मीदों के चिराग जला कर आते हैं. उन का कोई ठिकाना नहीं होता, शहर में कोई परिचित नहीं होता, फिर भी वे अपने लिए कोई न कोई ठिकाना ढूंढ़ लेते हैं.

तुम तो दिल्ली में पैदा हुई. न जाने कितने परिचित, दोस्त और रिश्तेदार हैं. सारे परिचित और रिश्तेदार इतने क्रूर और कठोर नहीं हो सकते कि तुम्हें सहारा न दे सकें. न भी देते तो तुम स्वयं इतनी पढ़ीलिखी हो, सक्षम हो कि अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी.’’

नंदिता ने आशीष को कुछ इस तरह देखा जैसे वे उस पर अविश्वास कर रहे हों. वह बोली, ‘‘आप शायद मेरा विश्वास न करें, परंतु मैं जानबूझ कर आप के पास आई हूं.’’

‘‘इस का कोई न कोई कारण अवश्य होगा?’’

‘‘हां, फिलहाल तो मुझे एक सहारे की जरूरत है. इस शहर में कहीं मेरा ठिकाना नहीं है. मैं आप को बहुत ज्यादा तकलीफ नहीं दूंगी. मैं स्वयं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं. आप को मेरी थोड़ी मदद करनी होगी. दूसरा कोई मेरी मदद नहीं कर सकता. मुझे विश्वास है, आप मेरी जरूर मदद करेंगे.’’

‘‘कैसी मदद?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘बस, रहने के लिए एक छोटा सा फ्लैट या मकान और जीविका के लिए एक

नौकरी? मैं अकेले अपना जीवन गुजार लूंगी.’’

‘‘अकेले गुजार लोगी?’’ वे शंकित थे.

‘‘कोशिश करूंगी, शादी नाम की संस्था मेरे लिए नहीं है और पुरुषों पर से मेरा विश्वास उठा चुका है.’’

आशीष ने उस की इस बात का कोईर् जवाब नहीं दिया, परंतु वे अच्छी तरह जानते थे कि पुरुषों पर से उस का विश्वास नहीं उठना चाहिए. उस ने तो स्वयं किसी पुरुष का विश्वास तोड़ा है, वह भी अपने पति का. अब वह पुरुषों पर अविश्वास का दोष नहीं लगा सकती. इतना आत्मबल कहां से लाएगी?

‘‘अभी कहां रुकी हो?’’

‘‘कहीं नहीं, मैं आज ही लखनऊ आई हूं.’’

‘‘कहां रुकोगी?’’

‘‘नहीं जानती. आप मेरे लिए कोई व्यवस्था कर दीजिए,’’ नंदिता के स्वर में अधिकारभाव था जैसे वह अभी भी उन की पत्नी हो या पूर्व पत्नी के नाते वह अपने अधिकार का प्रयोग करने आई हो अथवा आशीष के सरल स्वभाव का फायदा उठाने आई हो. कहा नहीं जा सकता था कि उस के मन में कौन सा अधिकारभाव था.

आशीष ने एक पल उसे देखा, उस की आंखों में याचना से अधिक प्रतिवेदन का भाव था. नंदिता के किसी भाव से वे प्रभावित नहीं हुए. उन के मन में बस यही बात थी कि नंदिता मुसीबत में है और उन्हें उस की मदद करनी है.  इस बात की सचाई जानने की उन्होंने कोई कोशिश नहीं की कि वह सचमुच मुसीबत में है या जानबूझ कर उन के सामने अपनी मजबूरी की कोई कहानी गढ़ रही है. इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उन का दयालु स्वभाव सभी तरह के तर्कों और वितर्कों से उन्हें दूर रखता.  उस दिन उन्होंने नंदिता के रहने की व्यवस्था अपने एक मित्र के गैस्ट हाउस में करवा  दी. फिर अगले कई दिनों तक वह नंदिता के लिए मकान और नौकरी की व्यवस्था में लगे रहे. इस वजह से उन का क्लीनिक लगभग उपेक्षित रहा और घर की तरफ भी ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए.

बेटा शिकायत करता, ‘‘पापा, आप इतना ज्यादा काम क्यों करते हैं? हमारे लिए भी आप के पास समय नहीं है.’’

दिव्या समझदार थी. वह जानती थी, मैडिकल एक ऐसा पेशा है जिस में समयअसमय नहीं देखा जाता. फिर भी उन दिनों आशीष के चिंतित चेहरे को देख कर उस ने शिकायत की, ‘‘इतना काम भी क्यों करते हैं कि आप को आराम करने का मौका न मिले?’’ ‘‘दिव्या, कोई खास बात नहीं है. बस कुछ दिनों की बात है, फिर सब सामान्य हो जाएगा.’’

‘‘क्या कोई खास बात है, जो आप को परेशान कर रही है?

‘‘नहीं,’’ उन्होंने टालने के लिए कह दिया, ‘‘तुम परेशान न हो. कोई बात होती तो मैं तुम्हें जरूर बताता.’’

‘‘दिव्या आश्वस्त हो जाती. पति पर शंका करने का कोई कारण उस के पास नहीं था.’’

गोमती नगर में ही एक एलआईजी मकान मिल गया. नंदिता के लिए पर्याप्त था. जब अग्रिम किराया और डिपौजिट देने की बात आई तो आशीष ने उस की तरफ देखा. नंदिता ने मुंह झुका लिया. कुछ बोली नहीं तो आशीष को पूछना ही पड़ा, ‘‘तुम्हारे पास पैसे हैं?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने धीमे स्वर में कहा.

आशीष को बहुत आश्चर्य हुआ. नंदिता एक बड़ी कंपनी में काम करती थी. उस की तनख्वाह भी अच्छीखासी थी. फिर उस की तनख्वाह का पैसा कहां गया?  नंदिता जैसे आशीष का मंतव्य समझ गई, ‘‘आप को मैं कैसे बताऊं? उस ने न केवल मेरा शरीर चूसा है, बल्कि मेरी कमाई पर भी खूब ऐश की. उस ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा.’’  आशीष ने बिना कोई प्रश्न किए पैसे भर दिए. यही नहीं, घर का सारा सामान भी भरवाया, फर्नीचर से ले कर बरतन और राशन तक. इस में कई लाख रुपए खर्च हो गए उन के. परंतु कोईर् मलाल नहीं था उन्हें. बस एक कचोट थी कि ये सब वे अपनी पत्नी से छिपा कर कर रहे.

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इस के बाद अपने रसूख और पेशे का  कुछ लाभ लेते हुए उन्होंने नंदिता को एक  होटल में असिस्टैंट मैनेजर की जौब दिलवा दी. हालांकि होटल मैनेजमैंट का कोई अनुभव उस के पास नहीं था, परंतु मैनेजमैंट की डिग्री उस के पास थी और एक कंपनी में काम करने का पिछला अनुभव था. इसी आधार पर उसे नौकरी मिल गई.  जिस दिन उसे नौकरी मिली, नंदिता ने आशीष से कहा, ‘‘क्या मिठाई खाने के  लिए शाम को घर आ सकते हो.’’

‘‘घर पर क्यों? मिठाई तो कहीं भी खाई जा सकती है,’’ उन्होंने हलकेफुलके मूड में कहा.

‘‘तो फिर किसी रैस्टोरैंट में चलते हैं,’’ नंदिता ने तपाक से कहा.

वे सोच में पड़ गए. फिर बोले, ‘‘यह संभव नहीं होगा. मरीजों को देखतेदेखते काफी समय निकल जाता है. रात में देर हो जाएगी… समय नहीं मिल पाएगा.’’

‘‘तो फिर आप क्लीनिक से सीधे घर आ जाइए,’’ उस ने जोर दे कर कहा.

‘‘देखता हूं, शाम को ज्यादा मरीज नहीं हुए तो आ जाऊंगा.’’

‘‘मैं इंतजार करूंगी,’’ उस के स्वर से लग रहा था कि उसे विश्वास था, आशीष अवश्य आएंगे और सचमुच वे आए. नंदिता उस दिन बहुत खुश लग रही थी. वह आशीष के स्वागत के लिए बिलकुल तैयार थी. उस ने एक विवाहिता की तरह शृंगार किया था. बस बिंदी नहीं लगाई थी.

साड़ी में उस का नैसर्गिक सौंदर्य निखर रहा था. मनुष्य के जीवन में जब खुशियां आती हैं, तो उस के अन्य गुण भी दिखाई देने लगते हैं.

– क्रमश:

Serial Story: विषपायी (भाग-3)

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आशीष पेशे से एक डाक्टर थे. उन की शादी नंदिता नाम की एक लड़की से हुई, जो खुद एक अच्छी कंपनी में सीनियर मैनेजर के पद पर कार्य कर रही थी. शादी के बाद आशीष पत्नी नंदिता की उदासी से परेशान थे. बिस्तर पर भी नंदिता एक संपूर्ण स्त्री की तरह आशीष से बरताव नहीं करती थी. एक दिन आशीष ने नंदिता से जोर दे कर कारण पूछा, तब नंदिता ने बताया कि वह एक व्यक्ति से प्रेम करती है और उस के प्यार में पागल है. आश्चर्य की बात तो यह थी कि जिस व्यक्ति से नंदिता प्रेम करती थी वह शादीशुदा था. यह सुन कर आशीष के पैरों तले जमीन खिसक गई. एक दिन क्लीनिक पर उस से एक महिला मिलने आई.

नंदिता से तलाक के बाद आशीष ने दिव्या से दूसरी शादी कर ली थी. दिव्या के साथ 8 साल के उन के दांपत्य जीवन में कभी कटुता के क्षण नहीं आए थे. पर 8 साल बाद जब अचानक नंदिता उन से मिलने क्लीनिक पहुंची तो सीधेसादे आशीष नंदिता की बातों में आ गए. वह अब खुद को दीनहीन और असहाय बता रही थी और बारबार आशीष से अपनी गलती के लिए माफी मांग कर खुद के लिए सहानुभूति चाह रही थी. नंदिता के बारबार अनुरोध करने पर आशीष उस की मदद को तैयार हो गए. आशीष ने नंदिता को न सिर्फ पैसे दिए, किराए पर एक फ्लैट भी दिला दिया.

एक दिन नंदिता ने आशीष को अपने फ्लैट पर अकेले आने को कहा. बारबार आग्रह करने पर आशीष शाम को नंदिता के पास पहुंचा तो नंदिता सजधज कर उसी का इंतजार कर रही थी.

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उसके सौंदर्य से आशीष अभिभूत हो गए. यह सौंदर्य कभी उन का था और अगर नंदिता ने थोड़ी समझदारी और संयम से काम लिया होता तो आज भी वह उन की होती, परंतु नंदिता अब उन की नहीं है. सच तो यह है कि अब वह किसी की नहीं है और देखा जाए तो वह स्वतंत्र है और जिसे चाहे पसंद कर सकती है, प्यार कर सकती है. उस के जीवन में किसी भी पुरुष के लिए उतनी ही जगह है, जितनी प्यार करने के लिए किसी को हो सकती है.

‘‘आइए, मुझे विश्वास था, आप अवश्य आएंगे,’’ वह इठलाती हुई बोली. उस के चेहरे की चंचलता से अधिक उस के शरीर की

चंचलता बोल रही थी. उस का बदन मछली की तरह तड़प रहा था. वह जानबूझ कर ऐसा कर रही थी या आशीष के आने की खुशी में भावविह्वल हुई जा रही थी, समझ नहीं आ रहा था. उस के व्यवहार से ऐसा नहीं लग रहा था जैसे उन के संबंधों के बीच में कभी दरार आई हो और वे हमेशा के लिए एकदूसरे से जुदा हो गए हों. जो भी देखता, यही कहता नंदिता उन की पत्नी है. नंदिता के खुलेपन से आशीष के मन में कुछ डोल गया. वे पुरुष थे और किसी भी पुरुष का मन नारी की सुंदरता और चंचलता देख कर डोल जाता है. इस में अस्वाभाविक कुछ भी नहीं था. नंदिता उन की पूर्व पत्नी थी और उन्होंने उस के प्रत्येक अंग को देखा था. अब इतने अंतराल के बाद उन्होंने उसे फिर सौंदर्य के रंग बिखेरते देखा था तो क्यों न मन में लहरें उठतीं?

उन्होंने ऊपर से कुछ जाहिर नहीं किया और नजरें चुराते हुए अंदर आ कर बैठ गए. नंदिता ने अपने घर को बहुत सुंदर तरीके से सजा दिया था. घर छोटा था, पर अगर गृहिणी में समझ हो तो छोटी सी जगह को भी सुंदर बनाया जा सकता है. नंदिता का यह गुण आशीष को पता नहीं था, क्योंकि दोनों की शादी के बाद नंदिता मन से उन के घर में थी ही नहीं, बस उस का तन मौजूद रहता था. वह दूसरी ही दुनिया में विचरण कर रही थी, तो आशीष के घर की तरफ कैसे ध्यान देती? चाय पी कर आशीष घर चलने लगे तो नंदिता ने उन का हाथ पकड़ लिया और उत्साह से बोली, ‘‘किन शब्दों में आप का धन्यवाद करूं?’’

आशीष के शरीर में एक झनझनी सी दौड़ गई. नंदिता का स्पर्श उन के लिए अनचाहा नहीं था, परंतु उन्हें लगा जैसे नंदिता उन्हें पहली बार स्पर्श कर रही हो और यह स्पर्श अनोखा ही नहीं उत्तेजित कर देने वाला था. 10 साल बाद नंदिता के सौंदर्य में अगर कोई कमी आई थी तो वह उम्र की थी, जिस में 10 साल बढ़ गए थे वरना वह आज भी वैसी ही सुंदर और दिलकश थी. आज भी वह किसी मर्द के दिल को घायल करने का सौंदर्य अपने अंदर समेटे थी.

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आशीष ने बिना उस की तरफ देखे अपने हाथ को छुड़ा लिया और कहा, ‘‘इस में धन्यवाद की कोई बात नहीं है. मनुष्य ही मनुष्य के काम आता है.’’ मनुष्य सौंदर्य प्रेमी होता है. हर तरह का सौंदर्य उसे प्रभावित करता है, आकर्षिक करता है. भोगा हुआ भी और नया भी. नंदिता का सौंदर्य आशीष के लिए नया नहीं था, परंतु आज वह बिलकुल नई और अलग दिख रही थी. नारी का सौंदर्य इसीलिए मनुष्य को आकर्षित करता है, क्योंकि वह प्रतिपल अपने नए रूप और नए अंदाज में दिखती है.

आशीष थोड़ा विचलित हो गए थे. घर आ कर उन्होंने दिव्या को भरपूर निगाहों से देखा. वह भी उन्हें बिलकुल नईनई सी लगी. सुबह की नर्म धूम में नहाई सी, खिलते फूलों की रंगत लिए. एक बच्चे की मां थी, फिर भी उस के सौंदर्य में कोई कमी नहीं आई थी. वह एक डाक्टर की पत्नी थी. उस ने अपने को संभाल कर रखा था. वह तुलना करने लगे नंदिता और दिव्या में. दोनों का सौंदर्य एकदूसरे से अलग था. एक अपने परिवार के प्रति पूरी तरह समर्पित थी तो दूसरी स्वच्छंद उड़ने वाली तितली… परंतु दोनों ही मनमोहक थीं. नंदिता को उन्होंने एक स्थायित्व प्रदान किया था, इस बात से उन्हें संतुष्टि प्राप्त होती थी, परंतु इस एहसान का बदला लेने का उन के मन में कोई विचार कभी नहीं आया था. वे उसे अपनी तरफ से फोन भी नहीं करते थे, परंतु नंदिता जब तक दिन में 3-4 बार उन्हें फोन न कर लेती, उसे चैन न पड़ता. वह मीठीमीठी बातें करती, कई बार पुरानी बातें खोद कर उन से माफी मांगती, यह जताने की कोशिश करती कि वह उन के प्रति ऋणी है और उन के एहसानों का बदला चुकाना चाहती है. वे हंस कर टाल जाते और अपनी तरफ से कोई प्रतिक्रिया जाहिर न करते जिस से कि नंदिता को यह लगे कि वे उस से प्रतिदान की अपेक्षा रखते हैं.

नंदिता लगभग रोज उन्हें अपने घर आमंत्रित करती. उस की बातों में कुछ ऐसा इसरार होता कि आशीष मना न कर पाते या वे उस का दिल दुखाना नहीं चाहते थे. नंदिता अकेली है, इस शहर में उस का कोई सगासंबंधी नहीं है, इस नाते वे उसे खुश करने के लिए रोज तो नहीं, परंतु दूसरेतीसरे दिन उस के घर चले जाते. नंदिता गर्मजोशी से उन का स्वागत करती, चायकौफी के साथ कुछ खाने के लिए बना लेती. वे कुछ देर बैठ कर उस की बकबक सुनते और चले आते.

एक दिन नंदिता उन की बगल में सोफे पर बैठ गई. वह चौंक से गए और हलका सा खिसक कर अपने बदन को सिकोड़ लिया. वह हंस कर बोली, ‘‘आप मुझ से इतना दूर क्यों जा कर बैठ गए? आखिर मैं आप की पत्नी रह चुकी हूं… अभी भी हमारे रिश्ते में आत्मीयता है… इतनी दूरी क्यों?’’

आशीष उस की बात का क्या जवाब देते. बस इतना कहा, ‘‘मैं ठीक हूं.’’

‘‘परंतु मैं ठीक नहीं हूं,’’ वह फिर से उन की तरफ खिसक गई, ‘‘मेरे मन में अपराधबोध है. मैं ने आप को कितने दुख दिए, आप ने कभी मुझे न तो डांटा, न मारापीटा. सहज भाव से आप सब कुछ सहते गए. मैं तब भी इस बात को नहीं समझ पाई कि आप जैसे शरीफ इनसान को कष्ट दे कर मैं अपने जीवन को नर्क बना रही हूं. तब अगर आप ने मेरे साथ सख्ती की होती, डांटा होता तो संभवतया मैं आप को छोड़ने की गलती कभी नहीं करती. मैं अपने अपराधबोध से कैसे छुटकारा पाऊं?’’

उन्हें क्या पता वह अपने अपराधबोध से कैसे छुटकारा पा सकती थी. यह उस का निजी मामला था. इस में वे नंदिता की क्या मदद कर सकते थे?

‘‘मैं लखनऊ इसलिए नहीं आई थी कि आप के माध्यम से कोई नौकरी प्राप्त कर लूं और हंसीखुशी जीवन व्यतीत करूं … यह काम तो मैं दिल्ली में रह कर भी कर सकती थी… जो नौकरी छोड़ दी थी वही प्राप्त कर लेती या दूसरी कर लेती… इस में कोई परेशानी नहीं थी.’’

आज उस ने अपने दिल की बात कही थी. आशीष चौंक गए, तो क्या वह केवल उन के लिए यहां आई थी. उसे कोई दुख और परेशानी नहीं थी?

‘‘अच्छा… तो फिर…’’ उन्होंने असहज भाव से पूछा. वे आगे बहुत कुछ पूछना चाहते थे, पर नहीं पूछा. वे जानते थे कि उन के बिना पूछे ही वह सब कुछ उन्हें बता देगी. नंदिता का स्वभाव बहुत चंचल था. वह बहुत दिनों तक कोई बात अपने मन में छिपा कर नहीं रख सकती थी. नंदिता ने अपना दायां हाथ उन की बाईं जांघ पर रख दिया और उसे हौलेहौले सहलाने लगी. आशीष को संभवतया इस बात का भान नहीं हुआ था. वे अन्य विचारों में खोए थे.

‘‘जब तक आदमी को दुख नहीं मिलता वह दूसरों के दुख को नहीं महसूस कर पाता… जब उस ने मुझे ठुकरा दिया तो मुझे एहसास हुआ कि मेरी बेवफाई से आप को कितना मानसिक कष्ट हुआ होगा. जब मेरा दिल तारतार हुआ और मैं दुनिया को मुंह दिखाने लायक नहीं रही तो लगा जैसे मेरे लिए डूब मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है.

‘‘फिर मैं ने सोचा मेरे कारण आप ने इतना दुख सहा, मेरा दिया सारा जहर पी गए, विषपायी बन गए, तो फिर मैं जी कर दूसरों के दिए जहर को क्यों नहीं पी सकती. मैं ने तय किया कि अगर आप मिल गए और आप ने मुझे क्षमा कर दिया तो मेरा दुख कम हो जाएगा. अब आप मुझे मिल गए हैं और मैं देख रही हूं कि मेरे प्रति आप के मन में कोई कटुता नहीं. इस से न केवल मेरा दुख कम हुआ है, बल्कि मैं सुख के सागर में डूबनेउतराने लगी हूं. जीवन के प्रति मेरा मोह बढ़ गया है. मैं बहुत कुछ पा लेना चाहती हूं… वह भी जो बहुत पहले मेरी नादानी के कारण मेरे हाथों से फिसल गया था.’’

आशीष चुपचाप उस की बातें सुनते जा रहे थे.

‘‘आप ने मेरे अपराध क्षमा कर दिए, मेरे दुख हर लिए, परंतु मेरा प्रायश्चित्त अभी बाकी है.’’

‘वह क्या?’ आशीष ने अपनी निगाहों को उठा कर नंदिता की आंखों में देखा. उस की आंखें भीगी थीं, इस के बावजूद उन में अनोखी चमक थी जैसे उसे विश्वास था कि उस की कोई बात आशीष नहीं टालेंगे.

नंदिता ने भावुक हो कर उन के दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मैं जानती हूं, आप बहुत बड़े दिल के आदमी हैं. इसीलिए आप से याचना कर रही हूं. मेरा प्रायश्चित्त यही है कि मैं जीवन भर आप के साथ रहूं?’’

आशीष को एक झटका सा लगा. उन्होंने अपने हाथ छुड़ा लिए और उठ कर खड़े हो गए, ‘‘क्या?’’

वह भी उठ कर खड़ी हो गई, ‘‘आप इस तरह क्यों चौंक गए? मैं ने कोई अनहोनी बात नहीं कही है. इस दुनिया में बहुत सारे लोग बिना शादी के एकदूसरे के साथ रहते हैं, मैं तो आप की परित्यक्ता पत्नी हूं. मेरा आप पर कोई हक नहीं है, परंतु मैं अपना पूरा जीवन आप के लिए समर्पित करना चाहती हूं.’’

आशीष की आवाज लड़खड़ा गई, ‘‘यह कैसे संभव हो सकता है?’’

‘‘सब कुछ संभव है, बस मन को समझाने की बात है.’’

‘‘परंतु मैं शादीशुदा हूं, घर में पत्नी और 1 बेटा है. मैं तुम्हारे साथ कैसे रह सकता हूं?’’

‘‘जिस प्रकार आप मेरे दिए कष्ट का जहर पी कर रह सकते हैं, उसी प्रकार खुशीखुशी मेरे साथ रह सकते हैं. मैं आप के प्रति समर्पण चाहती हूं. किसी और चीज की मुझे आप से अपेक्षा नहीं है. मैं आप से कोईर् और हक नहीं मांगूंगी, न बच्चों की कामना न संपत्ति का अधिकार. मुझे बस आप का साथ चाहिए, कभीकभी संसर्ग चाहिए और कुछ नहीं…’’ आशीष का दिमाग चकरा गया. वे 1 डाक्टर थे, सुलझे हुए व्यक्ति थे. कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी नहीं घबराते थे. जब परपुरुष के साथ नंदिता के संबंधों का उन्हें एहसास हुआ था तब भी वे इतना विचलित नहीं हुए थे. सोचा था कि इस स्थिति से किसी तरह निबट लेंगे. परंतु आज उन्हें लग रहा था कि इस स्थिति से कुदरत भी नहीं निबट सकती.

नंदिता जो चाहती थी, वह कभी पूरा नहीं हो सकता था. कम से कम उन के लिए यह असंभव था. एक बार उन्होंने विष पीया था, परंतु दूसरी बार नहीं पी सकते थे, जानबूझ कर तो कतई नहीं. नंदिता उन के बदन से सट गई. लगभग उन्हें अपनी बांहों में समेटती हुई बोली, ‘‘देखिए मना मत कीजिएगा. मैं बड़ी उम्मीदों से आप के पास आईर् हूं. मेरा यहां आने का यही एक मकसद था कि पूरा जीवन आप के चरणों में समर्पित कर के मैं अपनी गलतियों से छुटकारा पा सकूंगी. मेरे अपराधों का प्रायश्चित्त हो जाएगा. ‘‘आप के सिवा अब मैं किसी और को नहीं चाह सकती. अगर आप मुझे नहीं स्वीकार करेंगे, तो भी मैं जीवन भर अविवाहित रह कर आप का इंतजार करूंगी,’’ उस की आवाज में बेबसी की गिड़गिड़ाहट भरती जा रही थी और ऐसा लग रहा था जैसे नंदिता जमाने भर की सताई हुई औरत हो. आशीष ने उसे नहीं संभाला तो वह टूट जाएगी, बरबाद हो जाएगी.

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परंतु आशीष को नंदिता की गिड़गिड़ाहट, उस का रोना प्रभावित नहीं कर पा रहा था. उन के दिमाग की नसें फट रही थीं. उन्हें लग रहा था, चारों ओर धमाके हो रहे थे. यह दीवाली या किसी शादीब्याह के मौके पर होने वाले आतिशबाजी के धमाके नहीं थे. यह उन के जीवन को तहसनहस करने वाले धमाके थे. हड़बड़ाहट में वे बाहर जाने के लिए मुड़े. नंदिता ने उन्हें पकड़ लिया. वे ठिठक गए.

‘‘आप जा रहे हैं, मैं आप को नहीं रोकूंगी, पर यह वादा करती हूं कि इसी शहर में रह कर आप की प्रतीक्षा करूंगी. आप का जो निर्णय हो बता दीजिएगा.’’ वे बिना कुछ कहे बाहर निकल आए. बाहर घना अंधेरा पसरा था जैसे पूरे शहर की बिजली चली गई हो. परंतु ऐसा नहीं था, सभी घरों में बिजली थी. बस सड़क की बत्तियां नहीं जल रही थीं. सड़कें अंधेरी थीं, परंतु उन्हें लग रहा था जैसे पूरे शहर में अंधेरे की लंबीलंबी गुफाएं फैली हैं. जिस के अंदर से वे गुजर रहे हैं. इन कालीअंधेरी गुफाओं का कोई अंत नहीं था और उन की यात्रा का भी कोई अंत नहीं था.

उन के साथ ऐसा क्यों हो रहा था. दुख को चुपचाप सहन करना क्या दुखों को निमंत्रण देना होता है? वे किसी को कष्ट नहीं देते हैं, परंतु बदले में उन्हें क्यों कष्ट झेलने पड़ते हैं? नंदिता के घर के बाहर खड़ी अपनी गाड़ी को जब उन्होंने स्टार्ट किया तब भी उन्हें होश नहीं था और जब गाड़ी मुख्य सड़क पर ला कर अपने घर की तरफ मोड़ी तब भी उन्हें कुछ होश नहीं था. उन का शरीर कांप रहा था, परंतु हाथपैर काम कर रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे कोई अन्य व्यक्ति रिमोट कंट्रोल से उन के अंगों को संचालित कर रहा है. उन की अपनी सोच कहीं गुम हो गई थी. वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन के दिमाग को संचालित करने वाला यंत्र उन के नियंत्रण में क्यों नहीं है?

वे गाड़ी चला रहे थे, परंतु उन्हें स्वयं पता नहीं था कि वह किस शक्ति से नियंत्रित हो रही है. सामने से आ रही गाडि़यों का प्रकाश उन की आंखों में आतिशबाजी की रोशनी की तरह चुभ रहा था और वे बारबार अपनी आंखें झपक रहे थे. घर पहुंचतेपहुंचते उन्होंने स्वयं को काफी हद तक संयत कर लिया था. दिमाग की झनझनाहट कम हो गई थी. शरीर का कंपन बंद हो गया था. मन संयत हो चुका था, परंतु चेहरे की उड़ी रंगत उन के अंदर अभीअभी गुजरे तूफान की कहानी बयां कर रही थी.

वे चुपचाप घर के अंदर प्रवेश कर गए. वे चाहते थे कि एकदम से दिव्या का सामना न हो, परंतु वह उन्हीं का इंतजार कर रही थी. रात काफी हो चुकी थी. बेटा सो चुका था. दिव्या के पास उन के इंतजार के सिवा और कोई काम नहीं था. उन की पस्त हालत देख कर दिव्या तत्काल उठी और उन को सहारा दे कर सोफे तक लाई, ‘‘आप बहुत थक गए हैं.’’

उस की आवाज में चिंता झलक रही थी. उस ने पति को सोफे पर बैठा दिया. आशीष ने एक नजर दिव्या के चेहरे पर डाली और फिर आंखें बंद कर के सोफे पर सिर टिका दिया. दिव्या दौड़ कर उन के लिए पानी ले आई. पानी का गिलास उन के हाथ में थमाते हुए बोली, ‘‘लीजिए, पानी पी लीजिए. आप किसी की नहीं सुनते हैं. कितनी बार कहा कि कम मेहनत किया करो. मरीजों का आना कभी खत्म नहीं हो सकता, आप चाहे सारी रात क्लीनिक खोल कर बैठे रहें… क्या उन के चक्कर में खुद मरीज बन जाएंगे? आप की सेहत ठीक नहीं रहेगी, तो मरीजों को कैसे ठीक करेंगे और फिर हम लोग कैसे खुश रह सकते हैं?’’ वह उन के माथे को सहला रही थी. आशीष को अच्छा लग रहा था.

‘‘देखिए तो चेहरे पर कैसी मुर्दनी छाई हुई है जैसे 10 दिनों से खाना न खाया हो.’’ आशीष चुपचाप आंखें मूंदे रहे. दिव्या की 1-1 बात उन के कानों में पड़ रही थी. वे उस की बातों को सुन सकते थे, परंतु उत्तर नहीं दे सकते थे. उस बेचारी को क्या पता कि आशीष ने अभीअभी कौन सा तूफान अपने सीने के अंदर झेला? वह कभी नहीं समझ पाएगी, क्योंकि जो कुछ उन के साथ हुआ था, उस के बारे में दिव्या को बता कर वह उस की खुशी नहीं छीन सकते थे.

दिव्या का इस प्रसंग में कहीं कोई हाथ नहीं था. दूसरों की करनी की सजा वह क्यों भुगते? जो जहर वे पी रहे थे, उस की 1 बूंद भी वह दिव्या के होंठों पर नहीं रख सकते थे. उन्हीं को सारी उम्र जहर पीना था. वे विषपायी हो गए थे. उन के अंदर अब इतना जहर समा चुका था कि किसी और जहर का उन के अंदर असर नहीं होने वाला था. वह रात किसी तरह गुजर गई. अगली सुबह पहले जैसी सामान्य थी जैसे पिछली रात कहीं कुछ नहीं हुआ. आशीष निश्चिंत भाव से उठ कर तैयार हुए. ऊपर से वे बहुत शांत और गंभीर थे, पर अंदर ही अंदर उन के मन में एक मंथन चल रहा था. उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें क्या करना है. आज ही सब कुछ तय हो जाना है. वे इंतजार नहीं कर सकते और न ही किसी और को दुविधा में रख सकते.

दिव्या किचन में व्यस्त थी. वे नहाधो कर तैयार हो गए. क्लीनिक जाने में अभी देर थी. वे अपने कमरे से मोबाइल ले कर बैठक में आए. रात उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. उन के फोन पर बहुत सारे मैसेज आए थे. उन्होंने खोल कर देखा. उन में से एक मैसेज नंदिता का था. उस ने लिखा था, ‘‘आप घर पहुंच गए? ठीक तो हैं? मुझे आप की चिंता है?’’

उन्होंने उसी मैसेज पर उत्तर दिया, ‘‘मैं ठीक हूं और उम्मीद करता हूं कि तुम भी ठीक होगी. नंदिता मैं ने अपने जीवन में बहुत जहर पीया है. मैं सचमुच विषपायी हूं. यह जहर किस के कारण मैं ने पीया, इन सब बातों पर जाने का अब कोई औचित्य नहीं है. मैं तुम से केवल इतना कहना चाहता हूं कि अब और ज्यादा जहर पीने की क्षमता मुझ में नहीं है. मेरी सहनशीलता समाप्त हो चुकी है. अब अगर मैं ने 1 भी बूंद जहर पीया तो मैं मर जाऊंगा. आशा है, तुम मेरा आशय समझ गई होगी. मुझे अपनी बीवी और बेटे से प्यार है और शांतिपूर्वक उन के साथ जीना चाहता हूं, मुझे जीने दो. मेरी तुम्हारे लिए नेक सलाह है कि अब तुम भी भागना छोड़ दो और किसी अच्छे लड़के के साथ घर बसा कर खुशी से जीवन व्यतीत करो. अब मुझ से मिलने का प्रयास न करना. आशीष!’’

नंदिता को मैसेज भेजने के बाद एक भारी बोझ उन के मन से उतर गया. उन के मन में अब कोई संशय और चिंता नहीं थी. उन को ऐसा लग रहा था जैसे उन के अंदर जो विष का घड़ा 10 साल से रिसरिस कर बह रहा था, वह अचानक फूट कर बह गया और उस का जहर उन के शरीर से बाहर फैल गया. अब वह उन के शरीर पर असर नहीं कर रहा था. तभी मुसकराती हुई दिव्या नाश्ता ले कर आ गई. बोली, ‘‘आइए, नाश्ता कर लीजिए.’’

वह नहाधो चुकी थी. साधारण कपड़ों में भी किसी परी सी लग रही थी. उन्होंने एक प्यारी मुसकराहट के साथ दिव्या को देखा. फिर मन ही मन खुश होते हुए डाइनिंग टेबल पर जा बैठे.

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रेत का समंदर: जब जूलिया मार्टिन की हरीश से हुई मुलाकात

Serial Story: रेत का समंदर (भाग-3)

आधापौना घंटा उन्होंने आराम किया होगा कि अम्माजी ने उन को बाजरे की रोटी और गुड़ की डली थमा दी. साथ में रेगिस्तानी इलाके में मिलने वाली झाड़ी की चटनी भी थी. ऐसा खाना उन के लिए निहायत रूखासूखा था, लेकिन भूख सख्त लगी होने से उन को वह बहुत स्वादिष्ठ लगा. खाना खाने के बाद दोनों पुआल के उसी ढेर पर सो गए.

वह झोंपड़ा रहमत अली खान का था. वह इलाके का जमींदार था. रेगिस्तानी इलाके में खेती कहींकहीं होती थी. शाम ढलते ही रहमत अली खान और उस के चार बेटे ढाणी में आए. एक अनजान ऊंट को, जिस की पीठ पर 2 आदमियों के बैठने वाली कीमती काठी बंधी थी, झोंपड़े के एहाते में चारा खाते देख चौंके.

कौन आया था ढाणी में, कोई पाक रेंजर या सेना का अफसर, लेकिन यहां क्यों आया?

रहमत अली ने झोंपड़े के दरवाजे की सांकल बजाई. अपने बेटे को देखते ही अम्माजी ने उस को अंदर आने का इशारा किया. पुआल पर सो रहे जोड़े को देख कर रहमत अली चौंका, ‘‘कौन हैं ये दोनों?’’

‘‘परली तरफ से भटक कर आया जोड़ा है. रात को चली आंधी में ऊंट भटक गया. सरहद पर लगी बाड़ की तार उखड़ गई होगी.’’

बातचीत की आवाज से जोड़े की नींद खुल गई. दोनों उठ कर बैठ गए.

‘‘सलाम साहब. सलाम मेमसाहब.’’

‘‘सलाम.’’

‘‘यह पाकिस्तानी इलाका है. यह ढाणी मेरी है.’’

‘‘हम भटक कर इधर आ गए.

अब आप ही हमें कोई रास्ता बता दीजिए,’’ हरीश ने विनम्रतापूर्वक उस से कहा.

‘‘अब तो रात होने वाली है. कल सुबह आप को अपने साथ ले चलूंगा,’’ रहमत अली ने उसे आश्वासन देते हुए कहा.

‘‘ठीक है, मेहरबानी,’’ हरीश ने उम्मीद भरी आंखों से देख कर कहा.

रात को उन की अच्छी आवभगत हुई. सुबह अभी पौ भी नहीं फटी थी कि पाकिस्तानी रेंजरों का एक दस्ता ऊंटों पर सवारी करता ढाणी के समीप आ कर रुका. रहमत अली से कइयों का परिचय था. कई बार वे उस के आतिथ्य का आनंद ले चुके थे.

ऊंटों की हुंकार सुन कर रहमत अली के साथ परिवार के कई और लोगों की भी नींद खुल गई. आंखें मलता रहमत अली बाहर आया.

‘‘सलाम, हुजूर.’’

‘‘सलाम, रहमत अली. कैसे हो?’’

ऊंट से उतरते सुपरिंटेंडैंट रेंजर ने पूछा.

‘‘आप की दुआ से सब खैरियत है. बहुत दिनों बाद दीदार हुए आप के. क्या हालचाल हैं?’’

‘‘सब खैरियत है.’’

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सारे रेंजर ढाणी में चले आए. उन की आवभगत हुई, जलपान का इंतजाम हुआ, तभी अहाते में बंधे ऊंटों में हड़कंप सा मच गया. रहमत अली के ऊंटों में एक नया ऊंट आया था. उस अजनबी ऊंट को अपने रेवड़ में शामिल होना ऊंटों को शायद सहन नहीं हुआ था.

‘‘क्या हुआ?’’ सुपरिंटेंडैंट ने पूछा.

‘‘ऊंट शायद लड़ पड़े हैं.’’

‘‘कोई ऊंट किसी ऊंटनी पर आशिक हुआ होगा. उस का दूसरा आशिक उस से लड़ पड़ा होगा.’’

सब खिलखिला कर हंस पड़े. सब उठ कर ऊंटों के रेवड़ तक पहुंचे. एक ऊंट की पीठ पर कीमती काठी बंधी थी.

‘‘इतनी बढि़या काठी तो अमीरलोग या सैरसपाटा करने वाले सैलानियों के ऊंटों पर होती है. यह ऊंट किस का है?’’

रहमत अली हकबकाया, फिर संभल गया.

‘‘हुजूर, कल रात मेरा भतीजा आया था. उस को ऊंट की सवारी का शौक है. ऊंट मेरा है. काठी वह खुद लाया था. कराची में काम करता है.’’

‘‘ओह. अच्छा रहमत अली, खुदा हाफिज.’’

रेंजर ऊंटों पर सवार हुए और चले गए. रहमत अली और सब की जान में जान आई. अगर हरीश और मेमसाहब के बारे में पता चल जाता तो वे पकड़े जाते, साथ में पनाह देने के इलजाम में रहमत अली भी फंसता.

तब तक सब जाग चुके थे. रेंजर के बारे में पता चलने पर हरीश और जूलिया भी चिंता में पड़ गए.

‘‘मेरे पास पाकिस्तान का वीजा तो है लेकिन सब कागजात तो रिसोर्ट के कमरे में हैं,’’ जूलिया ने कहा.

‘‘मेमसाहब, रेंजर अब इलाके में गश्त पर हैं. दिन में बाहर निकलना खतरनाक है. आप को शाम ढलने पर बाहर ले जा सकते हैं,’’ हरीश ने कहा.

‘‘रात के अंधेरे में फिर रास्ता भटक गए तो?’’ हरीश ने घबरा कर पूछा.

‘‘तसल्ली रखो साहब, इलाके का चप्पाचप्पा मेरा पहचाना हुआ है.’’

 

शाम ढल गई. 2 ऊंट ढाणी से बाहर निकले. एक पर हरीश और मेमसाहब सवार थे, दूसरे पर रहमत अली. ऊंट भारतीय सीमा की दिशा में चल पड़े. शाम का धुंधलका अंधेरे में बदल चुका था. गरमी का अब कोई असर नहीं था. मौसम धीरेधीरे ठंडा होता जा रहा था. दोनों ऊंट अपने रास्ते पर चलते लगातार मंजिल की तरफ बढ़ रहे थे.

‘‘सफर कितना बाकी है?’’ जूलिया ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘सिर्फ 1 घंटा और लगेगा,’’ रहमत अली ने कहा.

आंखों पर अंधेरे में भी दिख जाने वाली दूरबीन चढ़ाए पाक रेंजर चौकी के आसपास और भारतीय सीमा की तरफ नजर गड़ाए हुए थे.

‘‘सर, 2 ऊंट भारतीय सीमा की तरफ बढ़ रहे हैं,’’ एक सिपाही ने दूरबीन पर निगाह गड़ाए हुए कहा.

‘‘कौन हो सकते हैं?’’

‘‘पता नहीं, सर, एक ऊंट पर 2 सवार बैठे हैं, दूसरे पर केवल 1 सवार है.’’

‘‘वार्निंग के लिए फायर करो.’’

एक हवाई फायर हुआ. रहमत अली समझ गया. अब उस का देखा जाना खतरे से खाली नहीं था. उस ने बगैर एक क्षण गंवाए अपना ऊंट मोड़ लिया.

‘‘साहब, मैं अब वापस जाता हूं. मैं देख लिया गया तो मुश्किल में पड़ जाऊंगा. अब आप खुद आगे जाओ, खुदा हाफिज.’’

रहमत अली ने ऊंट को एड़ लगाई, ऊंट दौड़ चला.

‘‘अब क्या करें?’’ जूलिया ने सहमी आवाज में पूछा.

‘‘हौसला रखो,’’ हरीश ने कहा और ऊंट की पहले रस्सी खींची और फिर ढीली करते हुए उसे टहोका दिया. ऊंट सरपट रेत पर दौड़ पड़ा.

‘‘सर, एक ऊंट वापस दौड़ गया, दूसरा भारतीय सीमा की तरफ दौड़ रहा है,’’ निगहबानी करने वाले सिपाही ने अपने अधिकारी से कहा.

‘‘वापस जाने वाला सवार और ऊंट तो काबू में नहीं आ सकते, कोई लोकल ही होगा. तुम आगे जा रहे ऊंट और उस पर सवार जोड़े को काबू करो.’’

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पहले एक हवाई फायर हुआ. फिर जमीनी फायरों का सिलसिला शुरू हुआ. उस के बाद कई रेंजर अपनेअपने ऊंटों पर सवार हो उस तरफ लपक पड़े.

चांद आसमान पर चढ़ रहा था. रेत का समंदर चांदनी में ऐसे चमक रहा था जैसे चांदी की चादर बिछी हो. 2 सवारों को रात की पिछली पहर से अपनी पीठ पर ढो रहे ऊंट को जैसे खतरे की गंभीरता का एहसास हो चुका था, वह तेजी से सरपट दौड़ रहा था.

‘‘साहब, कमाल की बात है?’’ एक पाक रेंजर ने अपने साथ दौड़ रहे ऊंट पर सवार अफसर से हैरत में कहा.

‘‘क्या?’’

‘‘भाग रहा ऊंट दोदो सवार उठाए हुए है, लेकिन फिर भी काबू में नहीं आ रहा. हम अकेले सवार हैं लेकिन हमारे ऊंट की स्पीड इतनी नहीं है.’’

‘‘अरे भाई, मौत का डर हर किसी को कुछ ज्यादा ताकत और जोश दिला देता है.’’

भारतीय सीमा में बीती रात को ढह गई तार की बाड़ को भारतीय फौजी ठीक कर रहे थे. उन्होंने हवाई फायरों और फिर जमीनी फायरों की लगातार आवाजें सुनीं. उन्होंने आंखों पर रात के अंधेरे में दिखने वाली दूरबीनें लगा कर देखा. एक ऊंट पर 2 सवार सामने से आ रहे थे.

फौजियों को ध्यान आया कि कल रात से ऊंट पर सवार एक टूरिस्ट जोड़ा लापता था. उन को सारा मामला समझ में आ गया. धीरेधीरे पाक रेंजर पीछा करते आ रहे थे.

भारतीय फौजियों ने फौरन अपना मोरचा संभाल लिया. ऊंट पर सवार जोड़े ने जैसे ही सीमा को पार कर भारतीय सीमा में प्रवेश किया, उन्होंने पहले हवाई फायर किया, फिर सर्चलाइट का प्रकाश फेंका.

पाक रेंजर वापस लौट गए. हरीश और जूलिया देर रात को सेना  की मदद से सुरक्षित अपने रिसोर्ट में पहुंच गए. अपने कमरे में पहुंच उन्होंने राहत की सांस ली. पर तब तक रेत के इस समंदर में सैर करतेकरते जूलिया हरीश को अपना दिल दे चुकी थी. हरीश को भी जूलिया भा गई थी. जब दोनों जयपुर लौटे, हरीश ने अपने घर में दिल की बात कह दी. हरीश के मातापिता सब समझ गए. जूलिया मार्टिन का भी पूरा परिवार भारत आया. दोनों की शादी बहुत धूमधाम से हुई.

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Serial Story: रेत का समंदर (भाग-2)

दृश्य रोमांटिक था. जूलिया ऊंट वाले की आंखों की चमक से उस की शरारत को समझ गई और मुसकराई. हरीश भी मुसकराया. दोनों एक ही ऊंट पर सवार हो गए. ऊंट वाला ऊंट की रस्सी थामे आगेआगे चला. ऊंट हिचकोले खाता, दोनों के शरीर आपस में टकराते, पहले थोड़ा संकोच हुआ फिर दोनों को मजा आने लगा.

ऊंट वाला तजरबेकार था. जोड़ों का इस तरह मौजमस्ती करना और अठखेलियां करना उस का देखाजाना था.

‘‘साहब, ऊंट इस इलाके को पहचानता है. मैं एक जगह बैठ जाता हूं, यह आप को घुमाता रहेगा. इस को बिठाना हो तो इस के कंधे को पांव से हलका टहोका देना. यह बैठ जाएगा. खड़ा करना हो तब भी ऐसा ही करना.’’

ऊंट वाला रस्सी जूलिया को थमा कर एक तरफ चला गया. ऊंट गोलाकार घूमता हुआ एक दायरे से दूसरे दायरे में चलता रहा. दूरदूर तक रेत किसी समंदर के पानी की तरह फैला हुआ था. टिब्बों के पीछे जोड़े एकदूसरे में खोए हुए थे.

हिचकोले लगने से जूलिया और हरीश के शरीर आपस में टकराते, पीछे हटते फिर टकराते. जूलिया एकाएक उचकी और पलट कर सीधी हो हरीश की तरफ मुंह कर के बैठ गई. अब दोनों आमनेसामने थे. सीने से सीना टकरा रहा था. थोड़ी देर ऐसा चला, फिर जूलिया ने बांहें फैला हरीश को अपनी बांहों में भर लिया. हरीश ने ऊंट को पांव का टहोका दिया, वह बैठ गया.

दोनों नीचे उतर रेत के नरम बिस्तर पर जा लेटे. दोनों के हाथ एकदूसरे की तरफ बढ़े, आंखें एकदूसरे में कुछ ढूंढ़ रही थीं दोनों दीनदुनिया से बेखबर धीरेधीरे एकदूसरे में समाते गए.

आसमान में सीधा दिखता चांद धीरेधीरे पश्चिम दिशा की तरफ उतरने लगा. रात गहरी और ठंडी होती गई. देह की उत्तेजना थम चुकी थी. दोनों एकदूसरे की बांहों में समाए मीठी नींद के आगोश में थे. ऊंट भी सो गया था.

शांत शीतल रात के आखिरी पहर में हवा अचानक तेज हो गई. मीठी नींद का आनंद लेते जोड़े अचकचा कर उठ बैठे. सब अपनेअपने कपड़े संभालते ऊंटों पर सवार होने लगे. अनुभवी ऊंट वाले मौसम का रुख समझ गए. रेगिस्तानी आंधी आ रही थी. कइयों ने अपनेअपने ऊंट बिठा दिए और सवारियों को उन के पीछे आंधी थम जाने तक ओट में बैठे रहने को कहा.

जूलिया और हरीश के ऊंट वाले का कहीं पता नहीं था. आंधी अभी बहुत तेज नहीं हुई थी.

‘‘हम ऊंट पर सवार हो कर चलते हैं. गोल चक्कर काट लेते हैं. ऊंट वाला शायद इधरउधर ही हो,’’ जूलिया ने कहा.

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ऊंट धीरेधीरे दायरे में चलने लगा. तभी आंधी एकदम तेज हो गई. घबरा कर ऊंट सरपट दौड़ पड़ा. हरीश ने टहोके पर टहोके दिए. लेकिन थमने के बजाय वह तो तेजी से दौड़ने लगा. हरीश के पीछे बैठी जूलिया ने उस को पीछे से बांहों में कस कर जकड़ लिया.

आंधी का वेग बढ़ता गया. सुहानी चांदनी रात रेतीली अंधियारी रात में बदल गई. तेज अंधड़ का यह भयावना रूप जूलिया को बेसब्र बना रहा था.

वह ऊंची आवाज में लगातार बोले जा रही थी, ‘‘ऊंट को बिठाने की कोशिश करो.’’

हरीश ने रस्सी  कस कर खींची, टहोका दिया. ऊंट धीरेधीरे थमने लगा. सामने एक जंगली झाड़ दिखा. ऊंट वहीं रुक गया. फिर से टहोका देने पर वहीं बैठ गया. दोनों उतर गए. आंधी शांत हो रही थी.

रात बीत चुकी थी. मौसम साफ था. दोनों उठे और ऊंट पर सवार हो गए. ऊंट खड़ा हो चलने लगा. दोनों ने बेचैन नजरों से इधरउधर देखा. हर तरफ जैसे रेत का समंदर फैला था. कहींकहीं रेतीला सपाट मैदान था तो कहीं ऊंचेनीचे रेत के टिब्बे. कहीं भी कोई आबादी, जानवर, आदमी या पेड़पौधे कुछ भी नहीं. सब तरफ रेत ही रेत.

‘‘हम रिसोर्ट से किस दिशा में हैं?’’ जूलिया ने भरसक अपनी घबराहट को काबू में रखते हुए कहा.

जूलिया के इस सवाल का जवाब हरीश क्या देता. उस ने ऊंट की रस्सी को एक बार खींचा और ढीला छोड़ दिया. ऊंट हिचकोले देता धीरेधीरे चल पड़ा. हालात समझ से बाहर थे.

परिस्थिति जो कराए, यही भावना दोनों के भीतर भर रही थी. ऊंट जाने कहां किस लक्ष्य की ओर चल रहा था. दोनों चुपचाप बैठे चारों तरफ देख रहे थे. प्यास से गला सूख रहा था, भूख भी लग आई थी. रात के रोमांस, उमंग और उत्तेजना का अब कहीं कोई वजूद नहीं था, मानो नींद में कोई सुंदर सपना देख लिया हो.

‘‘सुना है इस इलाके के साथ पाकिस्तान का इलाका लगा हुआ है,’’ काफी देर बाद खामोशी तोड़ते हुए जूलिया ने कहा.

‘‘हां, साथ का इलाका पाकिस्तान का है लेकिन सीमा पर कांटेदार बाड़ है.’’

‘‘रेत के तूफान में बाड़ उजड़ भी तो सकती है,’’ जूलिया की आवाज में डर छिपा था.

‘‘आप का मतलब है हम कहीं भटक कर पाकिस्तान की सीमा में तो प्रवेश नहीं कर गए?’’ हरीश चौंका.

‘‘मेरा अंदाजा तो यही है. ऊंट को चलतेचलते 3-4 घंटे हो चुके हैं. अगर हम रिसोर्ट के करीब होते या भारतीय सीमा में होते तो अब तक कहीं न कहीं तो पहुंच गए होते,’’ जूलिया ने बहुत इत्मीनान से परिस्थिति को समझने की कोशिश की.

‘‘थोड़ा आगे चलो, फिर ऊंट की दिशा मोड़ते हैं. पाकिस्तान भारत के पश्चिम में है. सूरज हमारे पूर्व से अब सीधा आसमान में हमारे सिर के ऊपर है. इस हिसाब से हम जैसलमेर के उस टूरिस्ट रिसोर्ट से पश्चिम में हैं. पाकिस्तान में न भी हों, तब भी पश्चिम दिशा में काफी दूर चले आए हैं,’’ अब जैसे हरीश की चेतना भी जगी.

ऊंट आगे बढ़ता रहा.

‘‘प्यास से मेरा गला सूख रहा है,’’ हरीश ने बर्दाश्त न कर पाने की दशा में कह ही दिया.

‘‘अपनी उंगली से अंगूठी उतार कर चूस लो,’’ जूलिया को व्यावहारिक समझ अधिक थी.

हरीश ने ऐसा ही किया. जूलिया भी अपनी उंगली मुंह में डाल कर चूसने लगी. थूक और लार गले की खुश्की को दूर करने लगे. तभी कुछ देख कर हरीश चौंका और जोर से बोला, ‘‘सामने कोई गांव है.’’

कुछ नजदीक पहुंचने पर मिट्टी की कच्ची दीवारों और बांस व पेड़ की डालियों से बने झोपड़े दिखने लगे. वह गांव पाकिस्तानी था या भारतीय, अभी यह समझ में नहीं आ रहा था. सीमा के दोनों तरफ के गांव, खासकर रेगिस्तानी इलाके के गांव एकसमान ही हैं. आखिर भारत और पाकिस्तान कभी एक देश ही तो थे.

‘‘यह गांव भारतीय है या पाकिस्तानी?’’ जूलिया ने पूछा.

‘‘रेगिस्तानी इलाके में जहांतहां ऐसे कुछेक झोंपड़े बने होते हैं, इन को ढाणी कहा जाता है, गांव नहीं. ढाणी भारतीय इलाके में हो या पाकिस्तानी इलाके में, एक समान ही दिखते हैं. यहां के लोगों का पहनावा, खानपान और बोली सब एक जैसी होती है.’’

‘‘अगर यह ढाणी पाकिस्तान में हुई तो?’’

‘‘देखा जाएगा. प्यास से गला खुश्क है, भूख से अंतडि़यां सूख रही हैं. ऊंट भी प्यासा है, अब वहीं चलते हैं.’’

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ऊंट ढाणी के करीब पहुंचा. आसमान पर चढ़ता सूरज आग बरसा रहा था. दोपहर अभी चढ़ी नहीं थी लेकिन गरमी से धरती और आसमान सब तप रहा था.

ढाणी में मुश्किल से 10-12 झोपडि़यां थीं. सब के दरवाजे बंद थे. एक बड़े एहाते में एक बड़ा पोखर था जिस में जमा पानी का रंग लगभग हरा था. उस के किनारों पर काई जमा थी.

ऊंट पानी देखते ही मचला. हरीश ने टहोका दिया. ऊंट बैठ गया. दोनों के उतरते ही ऊंट पानी के पोखर की तरफ लपका और सड़ापसड़ाप की आवाज के साथ पानी गटकने लगा.

प्यास से गला तो जूलिया और हरीश का भी सूख रहा था, लेकिन दोनों ऊंट की तरह पोखर का पुराना, काई वाला पानी कैसे पीते?

दोनों ने चारों तरफ नजर दौड़ाई. पोखर के चारों तरफ झोंपडि़यों के दरवाजे बंद थे. किस का दरवाजा खटखटाएं. तभी सामने की झोंपड़ी का दरवाजा खुला. एक वृद्धा ने, जिस ने झालरचुनटदार घाघरा व चोली पहन रखी थी और सिर पर दुपट्टा डाल रखा था, दरवाजे से बाहर झांका.

एक वृद्धा को यों देख हरीश उस के घर के दरवाजे के सामने गया और बोला, ‘‘अम्माजी, पांय लागूं.’’

‘‘जीते रहो, बेटा. यहां कैसे आए?’’

‘‘आंधी में ऊंट रास्ता भटक कर इधर चला आया.’’

‘‘कहां से आए हो?’’

‘‘जैसलमेर से.’’

‘‘हाय रब्बा, यह तो मुन्ना बाओ का इलाका है, पाकिस्तान है. यहां रेंजरों ने तुम्हें देख लिया तो गोली मार देंगे. जल्दी से अंदर चले आओ.’’

जूलिया मार्टिन का अंदाजा सही था. रेत के तूफान में ऊंट रास्ता भटक कर पाकिस्तान में प्रवेश कर गया था. अब सामने हर पल खतरा दिख रहा था.

‘‘ऊंट को दरवाजे के खंभे के साथ बांध दो और जल्दी से अंदर आ जाओ,’’ अनजान वृद्धा ने चाव और अपनेपन से  कहा.

दोनों ऐसा ही कर जल्दी से झोंपड़े के अंदर चले गए. मिट्टी या गारे की दीवारों से बने उस झोंपड़े में गरमी के मौसम में भी ठंडक थी. मटके का पानी बर्फ के समान शीतल था. गड़वा के बाद गड़वा, लगातार कई गड़वे पानी दोनों ने पिया. फिर अम्माजी ने उन को गुड़ का मीठा ठंडा शरबत पीने को दिया. दोनों फर्श पर पड़े फूस के ढेर पर जा लेटे. अम्माजी बाहर जा कर ऊंट को पुआल और चारा डाल आईं.

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Serial Story: रेत का समंदर (भाग-1)

हवामहल से बाहर आ कर जूलिया मार्टिन ने इधरउधर देखा, थोड़ी दूर पर आटोरिकशा स्टैंड था, जहां पर काले रंग पर पीली पट्टी वाले कई आटोरिकशा कतार में खड़े थे. सधे कदमों से चलती वह वहां तक पहुंची.

सलवारकमीज पहने और कंधे पर खादी का झोला लटकाए एक अंगरेज मेमसाहब को अपने आटो के समीप आते देख जींस और टीशर्ट पहने दरम्यानी कदकाठी और चुस्त शरीर वाला चालक अपने आटो से बाहर आ गया.

‘‘फोर्ट औफ आमेर,’’ जूलिया ने केवल इतना कहा.

हामी में सिर हिलाते चालक ने पिछली सीट पर बैठने का इशारा किया. सवारी के बैठते ही वह आटो ले कर चल पड़ा.

जूलिया मार्टिन इंगलैंड से भारत घूमने के लिए आई थी. कई शहरों और दर्शनीय स्थलों से घूमघाम कर अब वह जयपुर और राजस्थान के दूसरे दर्शनीय स्थलों को देखने आई थी.

आटोरिकशा को आमेर के किले के बाहर इंतजार करने को कह कर वह किला देखने अंदर चली गई. 2 घंटे बाद बाहर आई तो उस ने देखा आटो चालक पिछली सीट पर अधलेटा सो रहा था. एक बार उस ने सोचा कि उस को झिंझोड़ कर उठा दे. फिर यह सोच कर कि नींद से जगाना ठीक नहीं, वह चालक वाली सीट पर बैठ कर इंतजार करने लगी. और उसे पता भी नहीं चला कि कब वह ऊंघतेऊंघते सो गई.

किले से बाहर आते पर्यटकों ने इस अजीब नजारे को हैरत से देखा. यात्री तो चालक सीट पर बैठा हैंडल पर सिर रखे सो रहा था जबकि चालक पिछली सीट पर अधलेटा सो रहा था.

पहले कौन जागा पता नहीं. घंटेभर बाद दोनों की नींद टूटी. गरम दोपहरी, हलकी-हलकी हवा देती शाम में बदल गई थी.

‘‘मेमसाहब,’’ थोड़ा सकुचाते हुए आटो चालक यानी हरीश बोला.

‘‘डोंट माइंड, आई वाज आल्सो टायर्ड.’’

टूटीफूटी अंगरेजी बोलने और काम  लायक समझने वाला हरीश मुसकराया. जूलिया मार्टिन भी मुसकराई. वह हंसते हुए पिछली सीट पर आ बैठी. आटो स्टार्ट कर हरीश ने सिर घुमा कर उस की तरफ सवालिया लहजे में देखा.

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‘‘बैक टू जयपुर.’’

आटोरिकशा के जयपुर पहुंचतेपहुंचते शाम का अंधेरा छा गया था. उस के बताए लौज के बाहर आटो रोक हरीश ने उस की तरफ देखा.

‘‘कितना चार्ज हुआ?’’

हरीश हिसाब लगाने लगा. आनेजाने का किराया उतना नहीं था जितना समय का चार्ज था. लेकिन वह खुद भी तो झपकी लगतेलगते सो गया था.

‘‘मेमसाहब, जो ठीक समझें, दे दें.’’

इस सादगी भरे जवाब में जूलिया मुसकराई. अभी तक उस का वास्ता ज्यादा पैसा ऐंठने वाले आटो चालकों और दुकानदारों से पड़ा था. उस ने 500-500 रुपए के 2 नोट निकाले और उस की तरफ बढ़ाए. सकुचाते हुए हरीश ने एक नोट थाम लिया और कहा, ‘‘इतना काफी है.’’

हरीश के व्यवहार ने जूलिया मार्टिन को बहुत ही प्रभावित किया.

‘‘कल सुबह यहां आ जाना, 10 बजे,’’ कहती हुई जूलिया मार्टिन लौज के अंदर चली गई. हरीश भी आटो आगे बढ़ा ले चला. अब उस का दिल और अधिक दिहाड़ी बनाने का नहीं था. वह सीधे अपने घर पहुंचा.

उस की मां ने उस को जल्दी आया देख कर पूछा, ‘‘आज जल्दी आ गया?’’

‘‘आज एक अंगरेज मेमसाहब मिल गई थी. उस से सारे दिन की दिहाड़ी बन गई,’’ फिर उस ने सारा वाकेआ बताया. मां के साथ उस के वृद्ध पिता और छोटी बहन भी खिलखिला कर हंस पड़ी.

अगले दिन हरीश 10 बजे लौज के बाहर आटोरिकशा ले कर जा पहुंचा. जूलिया जैसे उसी का इंतजार कर रही थी. वह लपकती सी बाहर चली आई.

‘‘आज कहां?’’ हरीश ने पूछा.

‘‘सारा जयपुर.’’

‘‘ठीक है. तेल का खर्चा आप का, मेरी दिहाड़ी 500 रुपए.’’

‘‘ऐसा हिसाब हमारे यहां नहीं होता.’’

‘‘तब कैसा होता है?’’

‘‘वहां तो काफी महंगा पड़ता है. चालक और गाड़ी का किराया अलग, तेल व मरम्मत खर्च अलग.’’

‘‘मैडम, मैं तो सोचता हूं कि भारत के बनिए ही पैसा ऐंठने में चालाक हैं, अब आप के हिसाब से तो आप अंगरेज ज्यादा चालाक हैं.’’

‘‘बातें बढि़या करते हो. आटो चलाओ, सारा दिन तुम्हारी बातें सुनूंगी,’’ जूलिया मार्टिन ने हंसते हुए कहा.

हरीश भी हंसा. आटो पूरे दिन जयपुर के छोटेबड़े बाजार, हर टूरिस्ट स्पौट पर घूमता रहा. सुबह हरीश ने टंकी फुल भरवा ली थी. शाम को जूलिया ने दोबारा टंकी फुल भरवा दी और भुगतान कर दिया.

दिनभर उन के बीच हलकाफुलका हंसीमजाक होता रहा. दोनों ने साथसाथ कभी ढाबे में, कभी होटल में खायापिया. उस के इसरार पर हरीश उस के साथ टूरिस्ट स्पौट भी देखने गया. हरीश उस शाम भी जल्दी घर लौट आया. अगले दिन जयपुर के बाहरी इलाकों वाले टूरिस्ट स्पौट्स देखने का कार्यक्रम बना. 3-4 दिनों तक यही सिलसिला चला.

‘‘हरीश, वह मेमसाहब तेरे पीछे पड़ गई है क्या?’’ मां ने पूछा.

‘‘पता नहीं, एक सवारी है. जहां वह कहती है, उसे घुमा देता हूं.’’

‘‘शहर में और भी तो आटोरिकशा वाले हैं?’’

हरीश खामोश रहा.

अगले दिन जूलिया मार्टिन ने उस को अपने लौज के कमरे में बुलाया.

‘‘आप के परिवार में कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरे मातापिता हैं. छोटी बहन है. बात क्या है?’’

‘‘मैं समाज विज्ञान के एक टौपिक पर शोध कर रही हूं, जिस का ताल्लुक भारतीय समाज से है. इसी सिलसिले में भारत घूमने आई हूं. तथ्य इकट्ठे करने के लिए आप के परिवार से मिलना चाहती हूं.’’

हरीश को बात समझ में आ गई. वह जूलिया को अपने घर ले गया. एक अंगरेज युवती को पंजाबी सलवारकमीज पहने और चुन्नी डाले देख हरीश की

मां बड़ी हैरान हुईं. उन को यह जान कर हैरानी हुई कि वह एक रिसर्च स्कौलर थी.

भारतीय परिवार कैसे होते हैं? रहते कैसे हैं? हालांकि उन की जीवनशैली पर सैकड़ों शोध पहले हो चुके थे लेकिन अब जूलिया भी इस विषय पर रिसर्च कर रही थी.

जूलिया का हरीश के घर आनाजाना शुरू हो गया. हरीश के साथ उस का जयपुर की गलियों, महल्लों में घूमनाफिरना भी होने लगा.

‘‘आप मेरे साथ राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में घूमने चलोगे?’’ एक शाम जूलिया ने पूछा.

‘‘जरूर चलूंगा,’’ हरीश कह तो आया, लेकिन घर में मां ने पूछा, ‘‘तेरी दिहाड़ी का क्या होगा?’’

पहले तो हरीश अचकचाया, फिर जवाब दिया, ‘‘मेमसाहब देंगी.’’

‘‘घुमानेफिराने के लिए गाइड होते हैं?’’

‘‘वह मुझे गाइड ही बनाना चाहती है.’’

‘‘भैया, गाइड बनतेबनते कुछ और न बन जाना,’’ छोटी बहन शरारती लहजे  में बोली.

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टूरिस्ट बस ने जूलिया और उस के गाइड हरीश को जैसलमेर के रेगिस्तानी इलाके में एक टूरिस्ट रिसौर्ट के पास उतार दिया. वहां का प्रति यात्री किराया हरीश को हैरानपरेशान कर देने वाला था, लेकिन मेमसाहब के लिए यह सामान्य बात थी.

मौजमस्ती के कार्यक्रमों में ऊंटों पर रेगिस्तान के सुदूरवर्ती इलाकों का भ्रमण और खानापीना, यही वहां का मुख्य आकर्षण था.

गोरी मेमों को ऊंटों पर बिठा कर चांद की रोशनी में रेत के विशाल मैदान दिखाना, जो किसी समंदर के समान दिखते थे, अलगअलग दिशाओं में सैर करवाना, उन्हें राजस्थानी लोकगीत व नृत्य सुनाना, दिखाना वहां के ऊंट वाले और स्थानीय निवासी बड़े उत्साह से करते. पर्यटक भी शांत व ठंडी हवा में टिब्बों की आड़ में मौजमस्ती करने का अवसर पा कर विशेष उत्साहित होते थे.

‘‘आप इस इलाके में कभी आए हो?’’

‘‘नहीं, मैं ने सारा राजस्थान नहीं देखा,’’ हरीश ने कहा.

‘‘मेमसाहब, आप और साहब अलगअलग ऊंट ले कर क्या करेंगे? एक ही ऊंट काफी है,’’ किराए पर ऊंट देने वाले ने कहा.

‘‘एक ऊंट पर दोनों कैसे बैठेंगे?’’

‘‘वह देखिए, सामने कई जोड़े एक ही ऊंट पर बैठे चले जा रहे हैं,’’ रेत के विस्तार में हौलेहौले जा रहे ऊंटों पर सवार जोड़ों की तरफ इशारा करते हुए ऊंट वाले ने कहा.

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दो बहनें: क्या हुआ शीला और प्रीति के बीच?

Serial Story: दो बहनें (भाग-3)

‘‘तुम इतनी घबरा क्यों रही हो? तुम कांप रही थीं, इसलिए मैं ने तुम्हें पकड़ा था,’’ सिड बोला.

‘सिड, वह पहले ही तुम पर शक करती है, अब तो बात और भी बिगड़ जाएगी,’ वह बुदबुदाई, ‘क्या शीला कहीं से देख रही है?’

‘‘पार्टी कैंसिल करनी पड़ेगी, सिड. मेरा मन नहीं है,’’ प्रीति अब शीला की बात से डर रही थी. कहीं वह सचमुच न आ जाए. कहीं रहस्य खुल न जाए.

साल का आखिरी दिन था. शाम के 7 बजे थे, फिर भी प्रीति ने सभी नौकरों को छुट्टी दे दी थी. पीछे मंद स्वर में म्यूजिक औन था. सिड किचन काउंटर के बगल में एक ऊंचे स्टूल पर बैठा मार्टीनी की छोटीछोटी चुस्कियां ले रहा था और पिछले 15 मिनटों से प्रीति की किचन में आगेपीछे चलने की कदमताल सुन रहा था. लेकिन उस की नजरें बाहर फाटक पर टिकी हुई थीं. प्रीति घड़ीघड़ी रुकती, आह भरती और उस के कंधे पर अपना सिर रख देती. सिड तब हलके से उस का सिर थपथपाता, दिलासा देता.

‘‘ओह, कितना अनप्लेजेंट लग रहा है,’’ वह कहती, ‘‘उसे हमारे मजे वाले दिन को खराब कर के क्या मिला? हाऊ सैल्फिश.’’

सिड की समझ में नहीं आ रहा था कि प्रीति को हुआ क्या है?

‘‘तुम्हारे लिए कुछ लाया हूं, बेबी. ऊपर रखा है, बैडरूम में,’’ कह कर सिड ने उस का माथा चूम लिया.

प्रीति अपनी धुन में बोले जा रही थी, ‘‘फिर भी, मेरा 16वां जन्मदिन ही बैस्ट था. शुरू से अंत तक शीला का प्लान किया हुआ.’’

घड़ी ने 8 बजे का घंटा बजाया और उस ने सोचा, ‘मुझे नहीं लगता कि अब वह आएगी.’

‘‘चलो, किसी की नई साल की पार्टी में ही चलते हैं,’’ कह कर वह ऊपर कपड़े बदलने चली गई. कमरे में जब उसे ज्यादा ठंड महसूस हुई, उसे लगा कि सामने वाली खिड़की खुली है. सिड की लापरवाही पर सिर हिलाते हुए वह उसे बंद करने के लिए बढ़ी तो देखा कि खिड़की बंद थी. इधर उस के नथुने फड़फड़ाने लगे.

‘यह क्या? शैनल नंबर फाइव, तो यह था मेरा सरप्राइज?’

वह इसी विचार में डूबी हुई थी जब उस की नजर सामने रखी आरामकुरसी पर पड़ी. शीला उस में धंस के बैठी  सिगरेट फूंक रही थी और प्रीति को देख कर मुसकरा रही थी.

‘‘मैं ने सुना, तुम बता रही थीं सिड को अपने 16वें जन्मदिन के बारे में. तुम्हें याद रहा. दैट वाज स्वीट.’’

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प्रीति उसे फटी आंखों से देख रही थी, ‘‘मैं ने तुम्हें अंदर आते हुए नहीं देखा. तुम अंदर कब आईं?’’

‘‘काफी देर हो गई आए हुए. आंख भी लग गई थी. जगी तब जब तुम ने नौकरों को दफा करना शुरू किया.’’

सिगरेट का धुआं हवा में सांप की भांति उठ रहा था, ‘‘ओह यस, इट इज योर बर्थडे टुडे. तुम जियो हजारों साल साल के दिन हों पचास हजार.’’

‘‘यह तुम किस से बातें कर रही हो, डार्लिंग?’’ आवाज सुन कर सिड भी आ गया. शीला को देखते ही उस का चेहरा तमतमा उठा, ‘‘तुम?’’

‘‘क्यों? चौंक गए.’’

सिड कुछ बुदबुदा रहा था, मगर आवाज गले में फंस सी गई थी.

शीला का चेहरा भी कुछ पीला सा हो गया था.

‘‘सिड, तुम ने मुझे मारना क्यों चाहा?’’ शीला बोली, ‘‘मैं ने तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा था.’’

‘‘सिड ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा है कि मैं चुपचाप खड़े हो कर तुम्हारी यह बकवास सुन रही हूं. तुम को अपने सब से प्यारे पति से ऐसे बोलने दे रही हूं,’’ शीला पर नजर गड़ाते हुए प्रीति बोली.

‘‘और तुम कर भी क्या सकती हो?’’ फिर सिड को देखते हुए जोरदार आवाज में बोली, ‘‘जब तक मुझे अपने सवाल का जवाब नहीं मिलेगा, मैं वापस नहीं जाऊंगी,’’ शीला उसी आरामकुरसी पर वैसे ही बैठी रही थी.

सिड अब नौर्मल हो गया था. वह प्रीति के कंधों को पकड़े खड़ा था.

‘‘नो बेबी, माई हाउस, माई रूल्स, माई वे. यहां बस मेरी चलती है. मुझे किसी बात का जवाब देने की जरूरत नहीं और तुम तो अब खुशीखुशी वापस जाओगी,’’ यह कह कर प्रीति ने पर्स से रिवाल्वर निकाल कर शीला पर तान दिया और कहा, ‘‘और मेरे पास तुम्हें वापस भेजने का बड़ा अच्छा रास्ता भी है.’’

सिड भौचक्का सा देख रहा था कि प्रीति को हुआ क्या है. क्या बोल रही है?

वह घबरा गया और दो कदम पीछे हट गया. फिर बुदबुदाया, ‘शीला को मारने का प्लान मैं ने और प्रीति ने खुद बनाया था पर क्या किसी को पता चल गया? प्रीति बारबार शीलाशीला क्यों कर रही है. क्यों उस कुरसी की ओर नजरें गड़ाए हुए है.’

‘‘जल्दी खत्म करो, प्रीति. प्लीज,’’ सिड कह रहा था.

‘‘पागल हो गई हो क्या?’’ अपनी घनी बरौनियों के पीछे से शीला उन दोनों को देख रही थी और धीमेधीमे मुसकरा रही थी, ‘‘तुम मुझे, अपनी बहन को मारोगी?’’ यह कह कर उस ने फिर अपनी सिगरेट का कश लिया. उस की सिगरेट की आदत काफी बढ़ गई थी. पहले वह सिर्फ स्टाइलिश लगने के लिए कभीकभार ही सिगरेट फूंकती थी. अब, एक सिगरेट खत्म होती नहीं थी कि दूसरी जल जाती थी.

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प्रीति ने अपनी उंगली रिवाल्वर के घोड़े पर घुमाई और अगले क्षण जोर से धमाका हुआ. शीला के मुंह से निकला हुआ आखिरी शब्द था, ‘‘बाय.’’

धूल और धुएं के बादलों में लिपटी हुई, वह चली गई. न कोई चीख निकली, न कोई पुकार, लेकिन प्रीति को लगा कि धमाके के बाद उस ने उस की खिंचती हुई आवाज यह कहते हुए सुनी, ‘‘जब तक मुझे अपने सवाल का जवाब नहीं मिलेगा, मैं वापस नहीं जाऊंगी.’’

धूल थम गई. धुआं खिड़की से बाहर चला गया. न जाने फिर लाश क्यों नहीं मिली?

प्रीति ने देखा कुरसी पर खून के निशान भी न थे. हां, सीट पर गोली फंसी थी. सिड जोरजोर से चीख रहा था, ‘‘यह क्या हो गया है तुम्हें प्रीति. प्रीति होश में आओ. प्रीति, यू स्वीट गर्ल. प्रीति, यू आर बिग बिच.’’

बड़ा अजीब है यह मियाबीवी का जोड़ा, कैसे तुनकमिजाज हो गए हैं ये. बातबात में लोगों को काटने को दौड़ते हैं. बेवजह बहस करते हैं. खरगोश की तरह अचानक चौंक जाते हैं, बौराए से घूमते हैं. दोस्त हों या दुश्मन, अब सब इन से कतराते हैं.

हर साल प्रीति की हालत बद से बदतर होती जा रही है. सोना भी कम हो गया है. एक और अजीब आदत है प्रीति की कि वह किसी को ढूंढ़ती रहती है. उस को लगता है कि उस के आसपास कोई बैठा है, आरामकुरसी में लेटे हुए या बारस्टूल पर बैठे हुए या किचन के काउंटर पर टिके हुए कोई औरत, ऐंठती, सिगरेट फूंकती, टांग हिलाती, देख रही है, मुसकरा रही है, किसी सवाल के जवाब का इंतजार कर रही है.

प्रीति का यह बदला रुख देख कर सिड भी परेशान है. वह भी आपा खोता सा दिख रहा है.

सिड शीला के नाम पर फिल्म बनाना चाहता था पर प्रीति और सिड दोनों ने ही उस प्रसिद्ध अभिनेत्री को भगा दिया था, चिल्लाचिल्ला कर. प्रीति चीखी थी, ‘‘शीला पर फिल्म उस के मरने के बाद बनेगी. अभी वह काम बाकी है.’’

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Serial Story: दो बहनें (भाग-2)

‘‘कितनी भली लग रही हो, मेरी जान,’’ ऐसा कह कर वह एक लंबी हंसी हंसी. फिर उस ने अपनी सिगरेट का कश लिया. इस बीच, उस ने अपनी नजर प्रीति के चेहरे से नहीं हटाई.

‘‘क्या हुआ माई स्वीटनैस,’’ अपनी खनकती आवाज में वह बोलती रही, ‘‘मुझे देख कर खुश नहीं हुई?’’

प्रीति शीला को विस्फारित नेत्रों से देख रही थी. उस का मुंह एकदम सूख गया था. एक शब्द भी निकालना मुश्किल हो गया था.

‘‘नहीं,’’ आखिर एक शब्द निकल ही आया, ‘‘हमें तो लगा था कि ऐक्सिडैंट.

शीला ने धुएं का छल्ला बनाते हुए कहा, ‘‘ऐक्सिडैंट? कैसा ऐक्सिडैंट? कोई ऐक्सिडैंट नहीं हुआ था. वह तो मुझे मारने की कोशिश की गई थी जो नाकामयाब रही. हूं न तुम्हारे सामने, माई डार्लिंग,’’ वह फिर हंस दी.

लेकिन जब प्रीति उस से गले मिलने उस की तरफ बढ़ी, तो उस ने अपना हाथ उठा कर उसे आगे बढ़ने से रोक दिया, ‘‘नहीं, वहीं रहो. तुम्हें क्या लगता है, मैं भूल गई हूं, कैसी एलर्जी हो जाती है तुम्हें, मेरी सिगरेट के धुएं से. लेकिन फिर भी,’’ मुंह से धुएं का बड़ा सा बादल निकालते हुए वह बोली, ‘‘फिर भी तुम्हारा हर आशिक चेन स्मोकर था. हाऊ आइरौनिक.’’ फिर वह जोरजोर से हंसने लगी और हंसतेहंसते उस ने अपनी सिगरेट बुझा दी.

प्रीति की नजरें शीला पर से अब जा कर हट पाई थीं. गरमियों की छुट्टियों में दोनों बहनें किसी नई जगह जाती थीं, शिमला, नैनीताल, मसूरी आदि. इन की मम्मी को असल में हिलस्टेशन बहुत पसंद थे. जहां भी ये बहनें जातीं, हालात कुछ ऐसे बनते कि ये हमेशा अपने चारों तरफ अपने हमउम्र नौजवानों को पातीं. शीला से तो इन नौजवानों को डर लगता था. वह उन्हें घास भी नहीं डालती थी. मगर प्रीति का हर गरमी में एक नया अफसाना हो ही जाता था.

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‘‘मुझे तुम्हारे सभी आशिक पसंद थे, लेकिन पिन्का सब से अच्छा था. याद है?’’

खयालों में खोई प्रीति मुसकरा रही थी.

अब भी उसे याद था वह दृश्य. ऊंचाई इतनी थी कि बादल जमीन पर आ गए थे. मोटरसाइकिलों पर सवार कई सारे नौजवान दूर से आतेआते, उन तक पहुंच कर आगे निकल गए थे. बस, एक रुक कर देर तक दोनों बहनों को घूरघूर कर देख रहा था. उस के घूरने में कोई छिछोरापन नहीं था. ‘ऐसी होती हैं दिल्ली की लड़कियां,’ वह यह सोच रहा था, बाद में उस ने खुद ही यह बात प्रीति को बताई थी. वह था पिन्का. उस गरमी की छुट्टियों में पूरा शिमला प्रीति ने उस की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ कर देखा.

प्रीति ने आखिर कह ही दिया, ‘‘हां, मुझे अपने सभी आशिक पसंद थे, सिर्फ आखिरी वाला कभी नहीं अच्छा लगा. लेकिन मजेदार बात यह है कि बस, एक वही स्मोक नहीं करता था. जस्ट नौट माई टाइप. काश, तुम ने उस से शादी नहीं की होती,’’ सूखते गले और होंठों को गीला करने की असफल कोशिश करने लगी वह.

शीला ने एक और सिगरेट जला ली थी और बड़े ध्यान से प्रीति को देख रही थी.

‘‘सिड में बहुत सी अच्छी क्वालिटीज हैं. तुम ने उसे ठीक से नहीं समझा,’’ प्रीति बोली.

गहरी सांस लेते हुए वह बोली, ‘‘शायद, तुम ठीक कह रही हो. लेकिन उस ने मेरी कार क्यों टैंपर की?’’

प्रीति का मुंह फक् पड़ गया. बड़ी मुश्किल से वह बस इतना ही कह पाई, ‘‘ऐसा मत कहो. यह सच नहीं है. सिड तुम्हें बहुत चाहता है.’’

‘‘मैं तुम्हें बहुत कंट्रोल करती हूं, यही कह कर वह तुम्हें ले गया था न? अब वह तुम्हें कंट्रोल करता है. मुझे लगता है तुम्हें शौक है किसी न किसी के कंट्रोल में रहने का. गड़बड़ तुम में है, प्रीति.’’

वह फिर जोर से हंसने लगी. प्रीति को फिक्र हो रही थी कि आसपास वाले कहीं शिकायत न करने लगें. लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा. सब या तो खा रहे थे या बस उसे ही देख रहे थे. शीला की तरफ किसी का ध्यान न था. उस को लगा कि उस की आवाज ही नहीं निकलेगी. बड़ी मुश्किल से वह हिम्मत जुटा पाई, ‘‘शीला, यह सच नहीं है कि सिड ने तुम्हारी कार के साथ टैंपर किया था.’’

‘‘सच?’’ कुरसी से उठते हुए शीला बोली, ‘‘देखो तो. यहां मैं बातों में उलझ गई, वहां मेरा इंतजार हो रहा है. पता नहीं वह वेटर मेरा दोसा ले कर क्यों नहीं आया. बैठा होगा कहीं, इधरउधर, अपने प्यारे नेपाल के खयालों में खोया हुआ. खैर, कोई बात नहीं. आज बिना खाने के ही काम चलाना पड़ेगा. तुम से मैं बाद में मिलूंगी.’’

‘‘रुको, शीला, तुम यों नहीं जा सकतीं.’’

‘‘तुम्हारी पार्टी में आऊंगी. परसों है न? योर बर्थडे बैश.’’

प्रीति ने हौले से अपना सिर हिला दिया.

एक सुंदर हंसिनी की भांति इठलाती हुई शीला दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी. प्रीति ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘सुनो, क्या तुम वाकई सोचती हो…मेरा मतलब है, सिड और तुम्हारी कार…तुम बिना बात के शक कर रही हो…सोचो, कोई तुम्हें क्यों मारना चाहेगा?’’

यह सुनते ही शीला अपनी हील की नोक पर घूम गई. उस ने सिगरेट का गहरा कश लिया और प्रीति की ओर देखते हुए उसे आंख मारी और फिर बोली, ‘‘कई वजहें हो सकती हैं, माई इनोसैंट सिस्टर. पैसा, यश, रौब वगैरह सब काम की चीजें हैं, चाहे वे अपनी मेहनत की हों. या किसी और की,’’ यह कहने के साथ ही उस ने प्रीति को एक फ्लाइंग किस दिया.

‘‘सच, अब और नहीं रुक सकती. काम है. तुम्हें मैं कल 10 बजे फोन करूं?’’ जवाब का इंतजार किए बिना शीला वहां से चली गई. वापस मुड़ने पर प्रीति ने देखा कि उस का खाना कब का आ कर ठंडा भी हो गया था.

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‘‘क्या बात है, मेम साब? खाना अच्छा नहीं लगा? छुआ तक नहीं. कुछ और लाऊं?’’ वेटर ने बड़े अदब से कहा.

जो लोग बैठे थे वे प्रीति को घूर रहे थे. उन की चहेती शीला की बड़ी बहन है. कुछकुछ तो शीला जैसी ही है पर शीला वाली बात कहां है उस में, हर आंख में यही कथन था. यही बात प्रीति को वर्षों से सालती रही है.

अगले दिन औफिस में प्रीति बड़ी कसमसाहट महसूस कर रही थी. वैसे उस का मोबाइल नंबर नया था इसलिए शीला के फोन के आने की संभावना थी ही नहीं. फिर भी, मन बेचैन था. अभी 10 बजे ही थे कि फोन की घंटी बज उठी. बहुत सहम कर उस ने फोन उठाया.

‘‘हैलो.’’

उधर से जानीपहचानी सी आवाज सुनाई दी. इस से पहले कि वह आगे कुछ कह पाती, पीछे से 2 हाथों ने उस के कंधे पकड़ लिए. जब तक वह यह देखने के लिए मुड़ी कि कौन है, फोन ही कट गया. वह कोई और नहीं, सिड था.

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Serial Story: दो बहनें ( भाग-1)

उस का नाम प्रीति नहीं था. उस की मां ने उस का नाम प्रतिमा रखा था. मगर प्रीति नाम में कुछ अलग ही खनक थी. जब लोग उसे इस नाम से पुकारते थे तो उसे लगता था कि वह खूबसूरत है. इसीलिए उस ने अपना नाम प्रीति कर लिया था. वह साल के आखिरी दिन पैदा हुई थी, उसे इस में तारों की साजिश लगती थी. उस के पैदा होने का कोई न कोई खास मतलब जरूर है, ऐसा उसे लगता था.

उस के परिवार की असली हीरोइन शीला थी. उम्र में उस से 1 साल छोटी उस की बहन शीला और कोई नहीं ‘सिल्क शीला’ के नाम से मशहूर अभिनेत्री थी. देश का चमकता तारा थी वह. शान, शोहरत तो उस के पांव पर पड़े थे. ओह, क्या नहीं था उस में.

शीला हवा में उड़ती, आसमान को छूती, बादल जैसी थी और खुद प्रीति जमीन पर पड़ी हुई, उस बादल की स्लेटी परछाईं के नीचे दबी हुई, अपनी नीरस जिंदगी जी रही थी. यह थी उस की हकीकत और यह बात प्रीति को काफी सताती थी.

एक दिन प्रीति के लिए अचानक धूप निकल आई. शीला एक कार ऐक्सिडैंट में मारी गई. एक अजीब हादसा था. लाश घाटी में कहीं गिर गई थी. शीला के लाखों फैंस की दुनिया में मातम की लहर छा गई. मायूसी ने उन्हें उस की इकलौती जीवित बहन प्रीति की तरफ मोड़ दिया. प्रीति के चेहरे में उन्हें अपनी परमप्रिय शीला की झलक दिखाई दी. उस से वे शीला के बारे में जानना चाहते थे. कैसी थी वह, उस के बचपन के किस्से, उस की छोटीमोटी आदतें, उस की पसंदनापसंद, सब कुछ जानना चाहते थे वे.

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आने वाले दिनों और महीनों में प्रीति को लोगों ने अपने सिरआंखों पर बिठा लिया और वह उन के विस्मित ध्यान में लोटने लगी. दोनों बहनों का बचपन कैसे व्यतीत हुआ, इस पर एक नामी लेखक के साथ किताब लिखने का प्लान भी बनने लगा. और केक के ऊपर लगे हुए लाल चैरी के बारे में तो पति सिड हरदम याद दिलाता था. तमाम कानूनी कागजात पूरे हो जाने के बाद प्रीति को इंश्योरैंस कंपनी में नौकरी मिल गई थी और कंपनी की तरफ से जो पैकेज मिला था वह भी कम भारी नहीं था.

प्रीति अब संपूर्ण स्वतंत्रता के साथ एक मिड लेवल कौर्पोरेट औरत की जिंदगी व्यतीत कर रही थी. उस ने अपना कैरियर बड़े धीरज और मेहनत के साथ बनाया था. लेकिन अपनी मशहूर बहन के सामने उसे अपनी सब सफलताएं फीकी लगती थीं. अब उस की छोटी बहन इस दुनिया में नहीं रही. बस, उस की यादें ही बची थीं और उन यादों की हिफाजत करना उस के जिम्मे था. और क्या चाहिए था उसे. अवसर का पासा खुदबखुद गिर कर सही दाने दिखा रहा था. सही कहा गया है, दुनिया में देर है लेकिन अंधेर नहीं.

एक दिन प्रीति दफ्तर में बहुत व्यस्त थी. उसे अपनी असिस्टैंट लतिका से कोई जरूरी काम था इसलिए वह उसे ढूंढ़ रही थी. डैस्क पर उसे न पा कर उस ने अनुमान लगाया कि हो न हो वह प्रोग्राम मैनेजर रैंबो के औफिस में गई है. वह रैंबो के औफिस में गई. औफिस का दरवाजा अंदर से बंद था. परदे भी गिरे हुए थे.

‘तो यह बात है. कितना मजा आएगा उस की रोंदी सूरत देखने में जब वह उस रिपोर्ट को पढ़ेगी जो इस वक्त मैं अपने मन में लिख रही हूं. ‘आई जस्ट कांट वेट,’ मन ही मन बड़बड़ाते हुए पैर घसीट कर वह वापस अपने औफिस में आ गई. यह काम बेशक उसे ध्यान से करना पड़ेगा, क्योंकि जहां औफिस की टीम का हर सदस्य उस के अंडर में था और वे सभी इस बात से डरते थे कि प्रीति मैडम उन की रिपोर्ट में क्या लिखेंगी, उस की अपनी रिपोर्ट की इंक रैंबो के पैन से निकलती थी.

‘थोड़ी ताजी हवा ले ली जाए,’ यह सोचते हुए वह औफिस से बाहर आ गई. उस के पास अकसर औफिस वालों के साथ शेयर करने के लिए कई सारी रसदार बातें हुआ करती थीं, लेकिन उस दिन वह अलग मूड में थी.

‘मैं अब काफी आगे बढ़ गई हूं. वे सब कैम्पेनशैम्पेन जो चलते रहते हैं अंदर, अब मुझे उन में शामिल होना शोभा नहीं देता,’ वह सोच रही थी.

उस के लिए पदोन्नति अकस्मात, अनचाहे ट्रांसफर की चिंताएं, ये सब पुरानी बातें हो गई थीं. औरों को बस काटना, उन का मजाक उड़ाना, बौस के कान में औरों की एकाएक पदावनति का कीड़ा डालना, या फिर मिल कर किसी एक के चक्कर दिलाने वाले पतन की कल्पना करना, ये सब बातें अब उसे थका देने वाली लगने लगी थीं.

आज बाहर निकल कर उस ने चैन की सांस ली थी. उसे बड़ा अच्छा लग रहा था. पास के एक कैफे में अर्ली लंच के लिए घुस गई. वेटर गोरखा था. उस के मुसकराते चेहरे की हर शिकन से गरमाहट रिस रही थी. और्डर लेने के बाद वह चला गया, बड़े हिचकिचाते हुए वह चारों ओर देखने लगी. लोगों की उस पर टिकी हुई नजरों को खोजना, यह उस का नया शौक बन गया था. वह सैलिब्रिटी जो बन गई थी शीला के कारण. लेकिन उस वक्त कैफे खाली था.

अचानक उसे पीछे से सरसराहट की आवाज आई, सिल्क साड़ी की सरसराहट, लेकिन उस ने उसे नजरअंदाज कर दिया. पर जब सिगरेट की हलकी, मिंट वाली बू उस तक पहुंची उस के बदन में जैसे बिजली सी दौड़ पड़ी. एक जानीपहचानी सी महक उस के नथुनों ने महसूस की. उस ने एक गहरी सांस ली. इस में कोई शक नहीं था कि जो सिगरेट फूंकने वाली महिला उस के पीछे बैठी थी, उस ने वही फरफ्यूम लगाया था जो उस की बहन का फेवरिट हुआ करता था.

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रोज सुबह तैयार होने के बाद, शीला शनैल नंबर फाइव की 5 बूंदें ठीक उनउन जगहों पर लगाती थी जहांजहां वह अपने चहेतों से चुंबन चाहती थी. प्रीति खयालों में खो गई. तभी किसी औरत के पहले जोर से हंसने और फिर बोलने की आवाज आई, ‘‘चाहे मेरे हजार टुकड़े कर के चारों तरफ बिखेर दिए जाएं, लेकिन मेरी बहन मुझे इगनोर करे, ऐसा कदापि न हो.’’

प्रीति से न रहा गया. उस ने  तेजी से पलट कर देखा. सामने बैठी थी सर्वांग सुंदर, मूर्तिनुमा, हवा में उठी 2 तिरछी उंगलियों में सिगरेट दबाए, रेशमी साड़ी पहने मुसकराती उस की बहन शीला. बड़े अंदाज से उस ने अपना सिर एक तरफ टेढ़ा किया हुआ था. वह (शीला) उसे अजीब नजरों से घूर रही थी. प्रीति को लगा मानो 2 छुरियों ने उसे पकड़ रखा है.

आगे पढ़ें- प्रीति शीला को विस्फारित नेत्रों से देख रही थी….

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