बेस्ट बहू औफ द हाउस- भाग 1: कैसा था श्रद्धा का ससुराल

अमन ने श्रद्धा को सब से पहले एक बसस्टौप पर देखा था. सिंपल मगर आकर्षक गुलाबी रंग के टौप और डैनिम में दोस्तों साथ खड़ी थी. दूसरों से बहुत अलग दिख रही थी. उस के चेहरे पर शालीनता थी. खूबसूरत इतनी कि नजरें न हटें. अमन एकटक उसे देखता रहा जब तक कि वह बस में चढ़ नहीं गई. अगले दिन जानबूझ कर अमन उसी समय बसस्टौप के पास कार खड़ी कर रुक गया. उस की नजरें श्रद्धा को तलाश रही थीं. थोड़ी दूर पर उसे श्रद्धा नजर आ गई. आज उस ने स्काई ब्लू रंग की ड्रैस पहनी थी, जिस में वह बहुत जंच रही थी.

 

ऐसा दोतीन दिनों तक लगातार होता रहा. अमन समय पर उसी बसस्टौप पर पहुंचता. एक दिन बस आई और जब श्रद्धा उस में चढ़ने लगी तो अचानक अमन  ने भी अपनी कार पार्क की और तेजी से बस में चढ़ गया. श्रद्धा बाराखंबा मैट्रो स्टेशन की बगल वाले बसस्टैंड पर उतरी और वहां से वाक करते हुए सूर्यकिरण बिल्डिंग में घुस गई. पीछेपीछे अमन भी उसी बिल्डिंग में घुसा. वह लड़की सीढ़ियां चढ़ती हुई तीसरेफ्लोर पर जा कर रुकी. वहां एक एडवरटाइजिंग कंपनी का बड़ा सा औफिस था. लड़की उस औफिस में दाखिल हो गई.

अमन कुछ देर बाहर टहलता रहा. फिर उस ने बाहर खड़े गार्ड से पूछा, “भैया, अभी जो मैडम अंदर गई हैं, वे यहां की मैनेजर हैं क्या?””जी, वे यहां डिजिटल मार्केटिंग मैनेजर और कौपी एडिटर हैं. आप को क्या काम है? क्या आप श्रद्धा मैडम से मिलना चाहते हैं?”

“जी हां, मैं मिलना चाहता हूं,” अमन ने कहा.”ठीक है. मैं उन्हें खबर दे कर आता हूं,”  कह कर गार्ड अंदर चला गया और कुछ ही देर में निकल आया.

उस ने अमन को अंदर जाने का इशारा किया. अमन अंदर पहुंचा तो चपरासी उसे श्रद्धा के केबिन तक ले गया. केबिन बहुत आकर्षक था. सारी चीजें करीने से रखी हुई थीं. एक कोने में छोटेछोटे गमलों में कुछ पौधे भी थे. अमन को बैठने का इशारा करते हुए श्रद्धा उस की तरफ मुखातिब हुई. अमन उसे देखता रह गया. दिल का प्यार आंखों में उभर आया. श्रद्धा अमन से पहली बार मिल रही थी.

उस ने सवालिया नजरों से देखते हुए पूछा, “जी हां, बताइए मैं आप की क्या मदद कर सकती हूं?” “ऐक्चुअली मेरी एक कंपनी है. हम स्नैक्स आइटम्स बनाते हैं. मैं आप से अपने प्रोडक्ट्स की ब्रैंडिंग और ऐड कैंपेन के सिलसिले में बात करना चाहता था. आप कौपी एडिटर भी हैं, सो, आप से  ऐड भी लिखवाना था.”

“मगर मैं ही क्यों?” श्रद्धा ने कहा, तो अमन को कोई जवाब नहीं सूझा.फिर कुछ सोचता हुआ बोला, “दरअसल, मेरे एक दोस्त ने आप का नाम रेफर किया था. इस कंपनी के बारे में भी बताया था. काफी तारीफ़ की थी.”

“चलिए ठीक है. हम इस सिलसिले में विस्तार से बात करेंगे. अपने कुछ सहयोगियों के साथ मैं आप के मैनेजर की एक मीटिंग फिक्स कर देती हूं. आप या आप के मैनेजर मीटिंग अटेंड कर सकते हैं.”जी, मीटिंग में मैनेजर नहीं, बल्कि मैं खुद ही आना चाहता हूं. मैं इस तरह के कामों को खुद ही हैंडल करता हूं. मैं तो चाहूंगा कि आप भी उस मीटिंग में जरूर रहें, प्लीज.”

“ग्रेट. तो ठीक है. अगले मंडे हम मीटिंग कर लेते हैं.”अमन ने खुश हो कर हामी में सिर हिलाया और वापस लौट आया. मगर अपना दिल श्रद्धा के पास ही छोड़ आया. उस की आंखों के आगे श्रद्धा का ही शालीन और खूबसूरत चेहरा घूमता रहा. वह बेसब्री से अगले मंडे का इंतजार करने लगा.

अगले मंडे समय से पहले ही वह मीटिंग के लिए पहुंच गया. श्रद्धा को देख कर उस के चेहरे पर मीठी मुसकान खिल गई थी. श्रद्धा के साथ 2 और लोग थे. ऐड कैंपेन के बारे में डिटेल में बातें हुईं. मीटिंग के बाद श्रद्धा के दोनों सहयोगी चले गए. अमन अभी श्रद्धा के पास ही बैठा रहा. कोई न कोई बात निकालता रहा.

2 दिनों बाद वह फिर काम की प्रोग्रैस के बारे में जानने के बहाने श्रद्धा के पास पहुंच गया. अब तक अमन के व्यवहार और बातचीत के लहजे से श्रद्धा को महसूस होने लगा था कि अमन के मन में क्या चल रहा है. अमन के लिए भी अपनी फीलिंग अब और अधिक छिपाना कठिन हो रहा था.

अगली दफा वह श्रद्धा के पास एक कार्ड ले कर पहुंचा. कार्ड देते हुए अमन ने हौले से कहा, “इस कार्ड में लिखी एकएक बात मेरे दिल की आवाज है. प्लीज, एक बार पूरा पढ़ लो, फिर जवाब देना.”

श्रद्धा ने कार्ड खोला और पढ़ने लगी. उस में लिखा था, “मैं लव ऐट फर्स्ट साइट पर विश्वास नहीं करता था. मगर बसस्टैंड पर तुम्हें पहली नजर देखते ही दिल दे बैठा हूं. तुम्हारे लिए जो महसूस कर रहा हूं वह आज तक जिंदगी में किसी के लिए भी महसूस नहीं किया. रियली, आई लव यू. क्या तुम्हें हमेशा के लिए मेरा बनना स्वीकार होगा?”

श्रद्धा ने पलकें उठाईं और अमन की तरफ मुसकरा कर देखती हुई बोली, “बसस्टैंड से मेरे औफिस तक का आप का सफर कमाल का रहा. मुझे भी इतने प्यार से कभी किसी ने अपना बनने की इल्तिजा नहीं की. मैं आप का प्रपोजल स्वीकार करती हूं,” कहते हुए श्रद्धा की आंखें शर्म से झुक गईं और अमन का चेहरा खुशी से खिल उठा.

अमन ने अपने घर में श्रद्धा के बारे में बताया, तो सब दंग रह गए कि अमन जैसा शर्मीला लड़का लव मैरिज की बात कर रहा है. यानी, लड़की में कुछ तो खास बात जरूर होगी. अमन के घर में मांबाप के अलावा 2 बड़े भाई, भाभियां और एक बहन तुषिता थे. भाइयों के 2 छोटेछोटे बच्चे भी थे. उन के परिवार की गिनती शहर के जानेमाने रईसों में होती थी. जबकि, श्रद्धा एक गरीब परिवार की लड़की थी. उस ने अपनी काबिलीयत और लगन के बल पर ऊंची पढ़ाई की और एक बड़ी कंपनी में ऊंचे ओहदे तक पहुंची. उस के अंदर स्वाभिमान कूटकूट कर भरा था. वह मेहनती होने के साथ ही जिंदगी बहुत व्यवस्थित ढंग से जीना पसंद करती थी

जल्द ही दोनों के परिवार वालों की रजामंदी मिल गई और अमन ने श्रद्धा से शादी कर ली.शादी के बाद पहले दिन जब वह किचन की तरफ बढ़ी तो सास ने उस से कहा, “बेटा, रिवाज है कि नई बहू कुछ मीठा बनाती है. जा तू हलवा बना ले. उस के बाद तुझे किचन में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. बहुत सारे कुक हैं हमारे पास.”

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अपराजिता- भाग 3: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

उस दिन अपराजिता शाम को बैंक से थकीहारी वापस आई ही थी कि बड़े भाई ने उस के पास आ कर बैठते हुए उस का पर्स उठा लिया और उस में कुछ तलाशने लगा.

यह देख कर वह चिल्लाई, ‘‘भैया, मेरा पर्स रखो. क्या चाहिए आप को?’’

‘‘छुटकी, मुझे 3 हजार रुपए चाहिए. ये रहे 3 हजार,’’ अपराजिता के पर्स में रखे रुपयों की एक गड्डी से 3 हजार रुपए गिन कर निकालते हुए बड़े भाई ने कहा.

‘‘भैया…’’ वह क्रोध से चीखी, ‘‘ये  रुपए मुझे मां को देने हैं घर खर्च के लिए. इन्हें मत लो,’’ लेकिन उस के चिल्लाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ा और वह कुटिल भाव से मुसकराते हुए  कमरे से बाहर निकल गया, यह कहते हुए, ‘‘इतने रुपए कमाती है. थोड़े हमें दे देगी तो तेरा क्या घट जाएगा?’’

भाई की बात ने उस के क्रोध में आहुति

का काम किया और वह गुस्से में फनफनाती

हुई फिर से चीखी, ‘‘आप दोनों मौजमस्ती

करते रहो, यारीदोस्ती में पैसे उड़ाते रहो और

मैं आप को पैसे देती रहूं? खान लग रही है न

मेरे पास?’’

तभी मां हमेशा की तरह बेटे के पक्ष में बोल पड़ीं, ‘‘अरे छुटकी, क्या हुआ जो थोड़े रुपए ले गया तो? भाई है तेरा, कल को वह कमाएगा तो तू ले लेना उस से.’’

‘‘वह दिन कभी नहीं आएगा मां… इन दोनों के यही लक्षण रहे तो इन की नौकरी तो लगने से रही.’’

‘‘तू तो जब बोलेगी अशुभ ही बोलेगी.  ऐसी बहन न देखी मैं ने जो भाइयों को कोसे. यह तू अच्छा नहीं कर रही छुटकी.’’

मां का यों भाई का गलत बात पर पक्ष लेते देख उस की आंखों में पानी भर आया. तभी छोटा भाई आ कर बोला, ‘‘ज्यादा हवा में मत उड़ छुटकी. दो पैसे क्या कमाने लगी है,  खुद को तीस मार खां समझने लगी है. अरे तू इस घर में रहती है, खाती है तो क्या इस घर के लिए, हमारे लिए तेरा कोई फर्ज नहीं बनता?’’

तभी मां भी बोल पड़ी, ‘‘छुटकी, भाई कह तो ठीक रहा है. जब से तू कमाने लगी है, तू आसमान में उड़ने लगी है. जरा धरती पर रह छुटकी. इतना घमंड अच्छा नहीं. रहती, खाती भी तो है न तू घर में. तो थोड़े पैसे हम पर खर्च कर देती है तो ऐसा कौन सा एहसान कर देती है तू हम पर? कोई पेड़ से तो नहीं टपकी तू… अभी तक तेरे खर्चे झेले ही हैं न हम ने.’’

दोनों भाइयों और मां की यह जलीकटी सुन उस का मन छलनी हो आया और फिर क्रोध से सुलगते हुए बोली, ‘‘ठीक है मां, वादा रहा जो आप की इतनी बातें सुन कर भी मैं इस घर में रहूं और खाऊं. आप लोगों को मुझ से नहीं मेरे पैसों से प्यार है. तो ठीक है मैं जल्द ही अपने रहने व खाने का इंतजाम और कहीं कर लूंगी,’’ कहते हुए वह बैंक चली गई.

उस दिन पूरे दिन वह आपे में नहीं रही. मां और भाइयों के जहर बुझे बोल उस के मन को चीरे जा रहे थे. उस ने घर से अलग होने के मुद्दे पर बहुत सोचा.

मां और भाइयों के अपने साथ के व्यवहार पर बहुत चिंतन के बाद वह इस निष्कर्ष पर

पहुंची कि मां और दोनों भाई महज उस के पैसों से प्यार करते हैं. उन्हें उस के सुखदुख, उस की भावनाओं की कोई परवाह नहीं. तो ऐसे स्वार्थी रिश्तों से बंध कर उस घर में रहने का कोई मतलब नहीं.

पिछले कुछ समय से काव्या के मातापिता और भाई का उस के प्रति केयरिंग व्यवहार

देख उसे अपने जीवन में इन सब की कमी

का एहसास शिद्दत से होता. उस के जीवन से अपने जीवन की तुलना करने को विवश हो

जाती और पाती कि उसे न तो काव्या की तरह

मां और भाइयों का प्यारदुलार मिला, न ही परवाह. तो ऐसे रिश्तों से चिपके रहने का क्या औचित्य है, जिन का आधार खुदगर्जी और

स्वार्थ हो?

इस मुद्दे पर गंभीरता से सोच उस ने घर से अलग होने का निर्णय लिया. जल्द ही उसे घर के पास एक स्टाफ क्वार्टर मिल गया और वह उस में शिफ्ट हो गई.

आज नए घर में उस की पहली सुबह थी. परदों की ओट से सवेरे का उजास छनछन कर

आ रहा था. अपने नए घर में वह बेहद सुकून महसूस कर रही थी. न मां की खिटपिट न भाइयों की चिकचिक.

उसे अपने घर में आए अभी 1 सप्ताह ही हुआ था कि मां का फोन आ गया. वह

रोतेरोते कहने लगीं, ‘‘बेटा, तू तो हम सब से

रूठ कर चली गई. दोनों भाई मुझे बहुत तंग करते हैं. तू पैसे देती थी तब घर में रोजाना सब्जी बन पाती थी. किराए की आमदनी से रोजरोज सब्जी का जुगाड़ नहीं हो पाता. दोनों भाइयों ने बहुत क्लेश कर रखा है. कल मैं ने बस दाल के साथ रोटी परोसी तो बड़े ने मेरा हाथ गुस्से में झटक कर थाली फेंक दी. मेरा हाथ अभी तक दुख

रहा है. छोटे ने भी बहुत झकझक के बाद दाल से रोटी खाई.’’

‘‘ये सब आप के अंधे प्यार का नतीजा है. अब मैं क्या कहूं? आप चाहो तो मेरे घर आ जाओ.’’

‘‘न बेटा, वहां आ गई तो दोनों भाइयों को रोटी बना कर कौन खिलाएगा? मैं उन्हें छोड़ कर नहीं आ सकती न.’’

‘‘अब मैं क्या कहूं? दोनों की इतनी उम्र हो आई अभी तक अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाए. चलो मैं थोड़े रुपए आप को अभी देते हुए बैंक निकल जाऊंगी.’’

अपराजिता ने घर जा कर मां के हाथों में

2 हजार रुपए रखे.

2-3 दिनों बाद ही मां का फोन फिर आ गया, ‘‘बेटा, कुछ रुपए दे जा… जो दे गई थी, खत्म हो गए.’’

‘‘खत्म हो गए? अभी 3 दिन पहले ही तो मैं ने आप को 2 हजार रुपए दिए थे. 2-3 दिनों में ही खर्च हो गए?’’

‘‘बेटा, दोनों रोना रो रहे थे. तेरे बाबूजी को याद कर रहे थे कि आज वे होते तो हम दोनों की कहीं न कहीं नौकरी जरूर लगवा देते. बेटा मुझ से उन का रोना देखा नहीं गया तो मैं ने दोनों को 5-5 सौ रुपए दे दिए.’’

‘‘आप भाइयों को कोई नौकरी ढूंढ़ने के लिए कहने के बदले मेरी खूनपसीने की कमाई उन्हें गुलछर्रे उड़ाने के लिए दे रही हो, यह ठीक नहीं मां. अब से मैं आप को पैसे नहीं देने वाली. आप जानो आप का काम जाने,’’ कहते हुए अपराजिता ने गुस्से से फोन काट दिया.

मां का फोन शाम को फिर आया. घंटी बजे जा रही पर अपराजिता ने उसे सुन कर भी अनसुना कर दिया.

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अपराजिता- भाग 2: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

मातापिता और भाइयों के हाथों सतत अपमान और अवमानना से उस में उन सब के सामने अपने वजूद की सार्थकता सिद्ध करने की चाह जगी.

वह दिनरात पढ़ाई में जुटी रहती. अपनी कक्षा में हमेशा प्रथम स्थान पर आती. जहां दोनों भाई कभी 50-55% से अधिक अंक नहीं ला पाते, वह हमेशा 90% से अधिक अंक लाती.

घर में जहां उसे लड़की होने की वजह से भाइयों की अपेक्षा हेय और कमतर समझा जाता, वहीं स्कूल में उस के शिक्षकशिक्षिकांएं उस की पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन एवं मृदु स्वभाव के कारण उसे बेहद प्यार करते. उस पर जान छिड़कते.

उस के घर की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत न थी. पिता एक निजी कंपनी में क्लर्क थे. उन  की तनख्वाह 5 प्राणियों के परिवार की जरूरतों को पूरा करने में ही खर्च हो जाती.

उसे याद नहीं मांपिता ने उस के निजी खर्च के लिए कभी 10 रुपए उस के हाथ में रखे हों.  10वीं कक्षा के बाद से ही वह अपने खर्चों के लिए अपने पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी, जो अभी तक जारी था. पिछले कुछ वर्षों से तो वह अपनी ट्यूशन की कमाई से कुछ रुपए हर महीने मां को भी देने लगी थी, जो हमेशा पैसों की तंगी से जूझती रहती थीं.

वक्त के साथ शिक्षा का पायदान उत्तरोत्तर चढ़ते हुए उस ने अपनी पोस्ट ग्रैजुएशन पूरी की और फिर विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी.  उन्ही दिनों उस के पिता का अचानक हार्ट अटैक से देहांत हो गया.

पिता की मृत्यु के बाद घर का माहौल और तंगहाल हो गया. पिता की नियमित आय बंद होने से घर में पैसों की बेहद कमी हो गई.

उन के बापदादों के जमाने के घर का एक हिस्सा किराए पर उठा था. उस के किराए से बड़ी मुश्किल से दालरोटी भर चल पाती.

उस तनाव भरे दौर में भी अपराजिता ने अपने हालात के सामने घुटने नहीं टेके और पूरी तैयारी से अनेक प्रतियोगी परीक्षाएं देती रही. उन्ही दिनों उस की प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ और वह पहली बार में ही सफल रही.

तभी उस की सोच में व्यवधान डालते हुए काव्या का फोन आ गया. उस ने उस से कहा कि वह शाम के 7 बजे तक बबल्स जरूर पहुंच जाए.

बबल्स उस के घर के पास ही था. अत: 7 बजतेबजते वहां पहुंच गई.

‘‘अरे अपराजिता बिटिया, बहुतबहुत बधाई, पहली बार में ही कंपीटीशन ऐग्जाम क्लियर करने के लिए,’’ काव्या की मम्मी ने उसे बड़े स्नेह से गले लगाते हुए कहा.

‘‘थैंक यू सो मच आंटी.’’

‘‘बधाई बेटा,’’ काव्या के पापा भी बोल पड़े.

‘‘बधाई दीदी,’’ काव्या का छोटा भाई बोला.

‘‘थैंक यू सो मच अंकल. थैंक यू अभी.’’

‘‘भई, मैं तो इस बात से बहुत खुश हूं कि हमारी सीतागीता की जोड़ी यूनिवर्सिटी के बाद भी कायम रहेगी. तुम दोनों ने एकसाथ पढ़ाई की, अब नौकरी में भी दोनों साथसाथ रहोगे. बहुत बढि़या बच्चो,’’ काव्या के पापा ने कहा.

तभी काव्या की मम्मी बोलीं, ‘‘बेटा, तेरे होते मुझे काव्या की बिलकुल फिक्र नहीं होती.’’

‘‘ओ मम्मा, कम औन, अब यह अपनी इस हैलिकौप्टर पेरैंटिंग पर ब्रेक लगाओ. मैं अब बच्ची नहीं रही, जो मुझे अभी भी अपराजिता की जरूरत हो,’’ काव्या ने तनिक बनावटी गुस्से से कहा.

‘‘यह तो तू गलत कह रही है मेरी लाडो. तू तो मेरे लिए हमेशा बच्ची ही रहेगी.’’

‘‘50 साल की हो जाऊंगी तब भी,’’ काव्या ने अपनी बड़ीबड़ी आंखों को चौड़ा करते हुए इठलाते हुए कहा.

इस पर उस की मां ने प्यार से उसे गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘हां बिट्टो रानी, तू

50 साल की हो जाएगी तब भी.’’

तभी काव्या के पापा बोले, ‘‘हां तो भई, हमारी यह सीतागीता की जोड़ी बैंक पर धावा बोलने कब जा रही है?’’

उन की इस बात पर इस बार अपराजिता मुसकराते हुए बोली, ‘‘अंकल हम दोनों की जौइनिंग एक ही दिन है. पहली मार्च की

जौइनिंग है.’’

‘‘बढि़या, बहुत बढि़या. शायद इन बैंक वालों को भी खबर लग गई कि ये दोनों इकट्ठी अपनी बैस्ट परफौर्मैंस देती हैं.’’

इस पर अपराजिता ने तनिक मुसकराते हुए उन्हें जवाब दिया, ‘‘जी अंकल, साथसाथ तो हम अच्छेअच्छों की छुट्टी कर दें.’’

तभी काव्या की मां अपराजिता से बोलीं, ‘‘बेटा, तेरे होते हुए मुझे इस की बिलकुल चिंता नहीं होती. फिर भी बेटा, इस का ध्यान रखना. तुझे तो पता है तेरी यह सहेली खाने की बड़ी

चोर है. दोनों एकसाथ लंच करना और यूनिवर्सिटी की तरह इस से इस का पूरा लंच खत्म करवा दिया करना.’’

‘‘जी… जी… आंटी, मेरे होते हुए आप को बिलकुल चिंता करने की जरूरत नहीं है. आई प्रौमिस, मैं इस का पूरापूरा ध्यान रखूंगी.’’

अपराजिता की वह पूरी शाम गप्पों, हंसीमजाक में बेहद खुशगवार गुजरी.

वह जब काव्या के परिवार से मिलती, तो जहां एक ओर उन सब का अपने प्रति गर्मजोशी भरा आत्मीय व्यवहार उसे भीतर तक अभिभूत कर देता, वहीं दूसरी ओर काव्या के प्रति उन सब का बेशर्त, भरपूर लाड़दुलार देख मन ही मन एक अजीब से खालीपन की अनुभूति से भी भर उठती.  आज भी यही हुआ था.

काव्या की फैमिली के बारे में सोचतेसोचते रात को कब वह नींद के आगोश में समा गई, उसे पता भी नहीं चला.

बैंक जौइनिंग का वक्त करीब आता जा रहा था और नियत दिन उस ने अपनी नौकरी जौइन  कर ली. उसे नौकरी करते 1 माह होने को आया.

उस दिन वह बहुत खुश थी. उस के अकाउंट में उस की पहली तनख्वाह आई थी. वह और काव्या दोनों साथसाथ अपनी  पहली सैलरी से अपनेअपने घर वालों के लिए गिफ्ट्स लेने बाजार गईं.

अपराजिता और काव्या दोनों ने अपनेअपने पेरैंट्स और

भाइयों के लिए बढि़या कपड़े खरीदे और फिर दोनों खुशीखुशी अपनेअपने घर लौटीं.

‘‘लो मां, यह साड़ी आप के लिए, हां बड़े भैया, यह शर्टपैंट आप के लिए, छोटे भैया, यह आप के लिए.’’

‘‘अरे वाह छुटकी, तेरे तो ठाट हो गए. अब हर महीने तेरे बैंक में 70 हजार रुपए आ जाएंगे?’’

‘‘हां भैया, वह तो है. भैया जरा मन लगा कर पढ़ाई कर लो, तो आप की भी जिंदगी बन जाएगी.’’

‘‘बस, बस कर छुटकी, ज्यादा भाषण मत झाड़. नौकरी ही लगी है, कोई खजाना हाथ नहीं लगा, जो सुबह से प्रवचन दे रही है.’’

‘‘आप दोनों 30 बरस के होने को आए और अभी तक मां को और मुझे आप दोनों के खर्चे उठाने पड़ते हैं. अपने दिल पर हाथ रख कर बोलिए, क्या यह सही है?’’

‘‘बस कर छुटकी. जल्द ही हमारे दिन भी आएंगे. ऐग्जाम दे रहे हैं न हम दोनों भी. अब हम दोनों मांगलिक हैं तो इस में हमारा क्या कुसूर?’’

‘‘भैया, फालतू के बहानेबाजी तो करो मत. पढ़ाई करो पढ़ाई,’’ लेकिन उन दोनों को अकल  नहीं आनी थी और नहीं आई.

अपराजिता की नौकरी लगे 1 साल होने को आया. दोनों भाइयों की यारीदोस्ती, मौजमस्ती बदस्तूर जारी रही.

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अपराजिता- भाग 1: क्या रिश्तों से आजाद हो पाई वह

‘‘हैलो अपराजिता, अभीअभी मेल आया है. मुझे यूनीयन बैंक की नेहरू पैलेस वाली ब्रांच में एक तारीख को जौइन करना है.  हम सब शाम को बबल्स जा रहे हैं पार्टी करने. तू 7 बजे तक वहां जरूर पहुंच जाना,’’ काव्या ने नौकरी मिलने की खुशी में चहकते हुए अपनी जिगरी सहेली अपराजिता से कहा.

‘‘क्या तुझे भी नेहरू पैलेस ब्रांच जौइन करना है? मुझे भी वहीं का अपौइंटमैंट लैटर आया है.’’

‘‘ओ…’’ वह खुशी से चीखी, ‘‘यार हम ने एक स्कूल में पढ़ाई की, एक ही कालेज, यूनिवर्सिटी में साथ रहे और अब एक ही जगह नौकरी. मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा. मैं अभी जा कर मम्मापापा को बताती हूं. वे भी बहुत

खुश होंगे. चल शाम को देर मत करना. टाइम पर पहुंच जाना. आज तो डबल धमाका करेंगे,’’ अपूर्व खुशी से उछलते हुए काव्या ने अपराजिता से कहा.

फोन रख कर अपराजिता तनिक उदास हो उठी. घर में ऐसा कोई भी तो नहीं है, जिस से वह खुल कर अपने मन की खुशी बांट पाए. कहने को 2 बड़े भाई हैं, लेकिन उन का होना न होने के ही बराबर है. उन दोनों की जिंदगी में उस की कोई अहमियत ही नहीं. बस अपनाअपना राग अलापते रहते हैं दोनों.

मां को भी उस की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं. उन की नजरों में उस की खुशियोंगमों का कोई मोल नहीं. उन्हें तो दोनों भाइयों के आगे कुछ दिखता ही नहीं.

अनायास आंखों के सामने काव्या का खिलाखिला चेहरा कौंध उठा

कि कितनी खुश है काव्या… जान छिड़कने वाले पेरैंट्स और एक छोटा भाई. उन के घर पर तो काव्या की बैंक जौइनिंग को ले कर जश्न मन

रहा होगा.

तभी उस की मां वहां आईं, ‘‘अरे छुटकी,  जरा कुछ रुपए तो देना. बड़ा भाई रुपए मांग

रहा है. उस के जूते टूट गए हैं. उसे नए जूते खरीदने हैं.’’

अपराजिता के मन की कड़वाहट जबान पर उतर आई, ‘‘मां, भैया से कहो अपने खर्चे खुद झेला करें. कल सहेलियों की पार्टी करी थी नई नौकरी की.  इस महीने के सारे ट्यूशन के रुपए खर्च हो गए.’’

‘‘अरे करम जली, पार्टी में सारे रुपए खर्च कर दिए? इतने में तो बड़ा भाई के जूते आ जाते. बिचारा टूटे जूतों से काम चला रहा है. क्या जरूरत थी भला पार्टी करने की? नौकरी ही तो लगी है. कोई राजपाट नहीं मिल गया जो पैसे उड़ाती फिर रही है. भाई चाहे जीए या मरे, इन महारानी को पार्टी करनी है.’’

मां के कड़वे बोलों से अपराजिता की आंखों में आंसू डबडबा आए. उन्हें रोकने का प्रयास करते हुए वह  बोली, ‘‘अभी पिछले

महीने ही भैया ने मुझ से पैसे ले कर अपने

बर्थडे की पार्टी की थी. उस से पिछले महीने

छोटे भैया ने  पिकनिक पार्टी में मेरे पूरे 5 हजार रुपए उड़ा डाले थे. उन से तो आप कुछ नहीं बोलतीं. मैं ने अपने ही पैसों से जरा पार्टी क्या कर दी, आप टोकाटाकी कर रही हैं. हद है मेरे

ही पैसों पर मेरा कोई हक नहीं. मां यह बात

सही नहीं.’’

‘‘चल, चल, चुप रह. ज्यादा जबान न चला. जरा दो पैसे क्या कमाने लग गई, जमीन पर तेरे पैर ही नहीं रहे. आसमान में उड़ने लगी है. अपनी हद में रह लड़की.’’

‘‘हमेशा भाइयों का ही पक्ष लेती हो आप. आप की इसी तरफदारी और अंधे प्यार की वजह से दोनों आज तक सही ढंग से सैट नहीं हो पाए हैं. मैं दोनों से इतनी छोटी हूं और मेरी बैंक में नौकरी लग गई. ये दोनों अभी तक नौकरी की तलाश में जूते घिस रहे हैं.’’

‘‘बस, बस कर छुटकी. तेरी जबान बहुत लंबी हो आई है आजकल. कोशिश कर तो रहा हूं. कहीं न कहीं नौकरी लग ही जाएगी,’’ बड़े भाई ने  तनिक तैश में आते अपराजिता से कहा.

‘‘भैया, आप बैठ कर ढंग से पढ़ाई तो

करते नहीं. दिन भर दोस्तों के साथ बाहर रहते

हो. बिना पढ़ाई करे कोई बढि़या नौकरी नहीं मिलती. नौकरी के लिए बहुत मेहनत करनी

पड़ती है. देखा नहीं? पूरा साल कितनी कड़ी मेहनत की मैं ने तब जा कर यह ऐग्जाम क्लियर कर पाई.’’

तभी बड़े भैया का पक्ष लेते हुए मां फिर

से बोलीं, ‘‘अरे, दोनों भाई भारी मांगलिक हैं

और मांगलिक बच्चों के हर काम देर से होते हैं. दोनों को नौकरी मिलने में देर जरूर हो रही है, लेकिन मेरी बात गांठ बांध ले लड़की जल्द ही तुझ से भी बढि़या नौकरी लगेगी मेरे दोनों कुंवरों  की.’’

‘‘हां मां, दिन भर यारदोस्तों के साथ रह कर नौकरी लग जाती तो आज कोई बेरोजगार ही नहीं होता. लेकिन आप सब को यह बात समझ में आए तब तो. नौकरी नहीं लगी तो मांगलिक होने की वजह से. वाह वाह क्या लौजिक है,’’ अपराजिता ने मां को पलट कर जवाब दिया और फिर खिन्न मन से अपने कमरे में चली गई.

उस ने एक बार फिर से अपना लैपटौप औन कर मेल खोल कर अपना अपौइंटमैंट लैटर देखा. उसे करीब 70 हजार रुपए सैलरी मिलेगी. इतना बढि़या वेतन देख कर मन की भीतरी तह तक  मानो गहरा सुकून पहुंचा. वह आंखें बंद कर पलंग पर लेट गई.  मन पखेरू कब वर्तमान से अतीत में जा कर फुदकने लगा पता ही नहीं चला.

उस ने एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में अपने मातापिता की सब से छोटी संतान के रूप में जन्म लिया था. उस से बड़े 2 भाई थे. पुरातनपंथी सोच वाले मातापिता ने हमेशा उसे भाइयों की तुलना में कमतर आंका. मांपिता ने बचपन से उस के लड़की होने की वजह से उस से भेदभाव किया.

हर कदम पर उसे एहसास दिलाया जाता कि लड़की होने की वजह से वह दोयम दर्जे पर है. मातापिता का लाड़प्यार क्या होता है, उस ने कभी महसूस ही नहीं किया. उन का सारा दुलार दोनों भाइयों के हिस्से में आता. उन की हर जरूरत का ध्यान रखा जाता. उन की हर छोटीबड़ी, जायजनाजायज मांग पूरी की जाती. खानेपीने, पहननेओढ़ने सब में उन दोनों और उस के बीच साफसाफ फर्क दिखता. उन की हर बात को तवज्जो दी जाती. दोनों भाई हमेशा मातापिता की गोद में चढ़ेचढ़े इठलाते, जबकि वह तृषित  निगाहों से उन्हें देखती.

अपराजिता के मासूम कोमल मन पर मातापिता के इस भेदभाव भरे रवैए ने बहुत गलत प्रभाव डाला. दिनरात मातापिता और भाइयों की उपेक्षा की शिकार वह उन सब के इस रवैए से अपनी ही खोल में सिमटती गई. अंतर्मुखी बन गई. बहुत कम बोलती.

उसे सुकून मिलता तो मात्र किताबों में. किताबों के काले अक्षरों में रम वह दीनदुनिया भूल जाती. अपना दर्द भूल जाती. दुनिया में कोई रोशन कोना था तो वह था उस का स्कूल.

जहां घर में उसे उपेक्षा मिलती, वहीं  स्कूल में उस की पढ़ाकू प्रवृत्ति ने उसे सभी शिक्षकशिक्षिकाओं की आंखों का तारा बना दिया.

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इसमें बुरा क्या है: क्यों किया महेश और आभा ने वह फैसला

महेश और आभा औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि आभा का मोबाइल बज उठा. आभा ने नंबर देखा, ‘रुक्मिणी है,’ कहते हुए फोन उठाया. कुछ ही पलों बाद ‘ओह, अच्छा, ठीक है,’ कहते हुए फोन रख दिया. चेहरे पर चिंता झलक रही थी. महेश ने पूछा, ‘‘कहीं छुट्टी तो नहीं कर रही है?’’

‘‘3 दिन नहीं आएगी. उस के घर पर मेहमान आए हैं.’’ दोनों के तेजी से चलते हाथ ढीले पड़ गए थे. महेश ने कहा, ‘‘अब?’’

‘‘क्या करें, मैं ने पिछले हफ्ते 2 छुट्टियां ले ली थीं जब यह नहीं आई थी और आज तो जरूरी मीटिंग भी है.’’

‘‘ठीक है, आज और कल मैं घर पर रह लेता हूं. परसों तुम छुट्टी ले लेना,’’ कह कर महेश फिर घर के कपड़े पहनने लगे. उन की 10वीं कक्षा में पढ़ रही बेटी मनाली और चौथी कक्षा में पढ़ रहा बेटा आर्य स्कूल के लिए तैयार हो चुके थे. नीचे से बस ने हौर्न दिया तो दोनों उतर कर चले गए. आभा भी चली गई. महेश ने अंदर जा कर अपनी मां नारायणी को देखा. वे आंख बंद कर के लेटी हुई थीं. महेश की आहट से भी उन की आंख नहीं खुली. महेश ने मां के माथे पर हाथ रख कर देखा, बुखार तो नहीं है?

मां ने आंखें खोलीं. महेश को देखा. अस्फुट स्वर में क्या कहा, महेश को समझ नहीं आया. महेश ने मां को चादर ओढ़ाई, किचन में जा कर उन के लिए चाय बनाई, साथ में एक टोस्ट ले कर मां के पास गए. उन्हें सहारा दे कर बिठाया. अपने हाथ से टोस्ट खिलाया. चाय भी चम्मच से धीरेधीरे पिलाई. 90 वर्ष की नारायणी सालभर से सुधबुध खो बैठी थीं. वे अब कभीकभी किसी को पहचानती थीं. अकसर उन्हें कुछ पता नहीं चलता था. रुक्मिणी को उन्हीं की देखरेख के लिए रखा गया था. रुक्मिणी के छुट्टी पर जाने से बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाती थी. इतने में साफसफाई और खाने का काम करने वाली मंजू बाई आई तो महेश ने कहा, ‘‘मंजू, देख लेना मां के कपड़े बदलने हों तो बदल देना.’’

मां का बिस्तर गीला था. मंजू ने ही उन्हें सहारा दे कर खड़ा किया. बिस्तर महेश ने बदल दिया. ‘‘मां के कपड़े बदल दो, मंजू,’’ कह कर महेश कमरे से बाहर गए तो मंजू ने नारायणी को साफ धुले कपड़े पहनाए और मां को फिर लिटा दिया.

नारायणी के 5 बेटे थे. सब से बड़ा बेटा नासिक के पास एक गांव में रहता था. बाकी चारों बेटे मुंबई में ही रहते थे. महेश घर में सब से छोटे थे. नारायणी ने हमेशा महेश के ही साथ रहना पसंद किया था. महेश का टू बैडरूम फ्लैट एक अच्छी सोसाइटी में दूसरे फ्लोर पर था. एक वन बैडरूम फ्लैट इसी सोसाइटी में किराए पर दिया हुआ था. पहले महेश उसी में रहते थे पर बच्चों की पढ़ाई और मां की दिन पर दिन बढ़ती अस्वस्थता के चलते बाकी भाइयों के आनेजाने से वह फ्लैट काफी छोटा पड़ने लगा था. तो वे इस फ्लैट में शिफ्ट हो गए थे. मां की सेवा और देखरेख में महेश और आभा ने कभी कोई कमी नहीं छोड़ी थी. कुछ महीनों पहले जब नारायणी चलतीफिरती थीं, रुक्मिणी का ध्यान इधरउधर होने पर सीढि़यों से उतर कर नीचे पहुंच जाती थीं. फिर वाचमैन ही उन्हें ऊपर तक छोड़ कर जाया करता था. महेश के सामने वाले फ्लैट में रहने वाले रिटायर्ड कुलकर्णी दंपती ने हमेशा महेश के परिवार को नारायणी की सेवा करते ही देखा था. उन के दोनों बेटे विदेश में कार्यरत थे. आमनेसामने दोनों परिवारों में मधुर संबंध थे. पर जब से नारायणी बिस्तर तक सीमित हो गई थीं, सब की जिम्मेदारी और बढ़ गई थी.

बच्चे स्कूल से वापस आए तो महेश ने हमेशा की तरह पहले मां को बिठा कर अपने हाथ से खिलाया. उस के औफिस में रहने पर रुक्मिणी ही उन का हर काम करती थी. फिर बच्चों के साथ बैठ कर खुद लंच किया. मां की हालत देख कर महेश की आंखें अकसर भर आती थीं. उसे एहसास था कि उस के पैदा होने के एक साल बाद ही उस के पिता की मृत्यु हो गई थी. पिता गांव के साधारण किसान थे. 5 बेटों को नारायणी ने कई छोटेछोटे काम कर के पढ़ायालिखाया था. अपने बच्चों को सफल जीवन देने में जो मेहनत नारायणी ने की थी उस के कई प्रत्यक्षदर्शी रिश्तेदार थे जिन के मुंह से नारायणी के त्याग की बातें सुन कर महेश का दिल भर आता था. यह भी सच था कि जितनी जिम्मेदारी और देखरेख मां की महेश करते थे उतनी कोई और बेटा नहीं कर पाया था. शायद, इसलिए नारायणी हमेशा महेश के साथ ही रहना पसंद करती थीं.

नारायणी को एक पल के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा जाता था, यहां तक कि घूमनेफिरने का प्रोग्राम भी इस तरह बनाया जाता था कि कोई न कोई घर पर उन के पास रहे. मनाली की इस साल 10वीं बोर्ड की परीक्षा थी. तो वह अपनी पढ़ाई में व्यस्त थी. शाम को महेश के बड़े भाई का फोन आया कि वे होली पर मां को देखने सपरिवार आ रहे हैं. मनाली के मुंह से तो सुनते ही निकला, ‘‘पापा, उस दौरान बोर्ड की परीक्षाएंशुरू होंगी. मैं सब लोगों के बीच कैसे पढ़ूंगी?’’ ‘‘ओह, देखते हैं,’’ महेश इतना ही कह पाए. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था पर आजकल मां को देखने के नाम पर जो भीड़ अकसर जुटती रहती थी उस से महेश और आभा को काफी असुविधा हो रही थी. हर भाई के 2 या 3 बच्चे तो थे ही, सब आते तो उन की आवभगत में महेश या आभा को औफिस से छुट्टी करनी ही पड़ती थी, ऊपर से बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ता. मां को देखने आने का नाम ही होता, उन के पास बैठ कर उन की सेवा करने की इच्छा किसी की भी नहीं होती. सब घूमतेफिरते, अच्छेअच्छे खाने की फरमाइश करते. भाभियां तो मां के गीले कपड़े बदलने के नाम से ही कोई बहाना कर वहां से हट जातीं. आभा ही रुक्मिणी के साथ मिल कर मां की सेवा में लगी रहती. अब महेश थोड़ा चिंतित हुए, दिनभर सोचते रहे कि क्या करें, मां की तरफ से भी लापरवाही न हो, बच्चों की पढ़ाई में भी व्यवधान न हो.

महेश और आभा दोनों ही मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पदों पर थे. आर्थिक स्थिति अच्छी ही थी, शायद इसलिए भी दिनभर कई तरह की बातें सोचतेसोचते आखिर एक रास्ता महेश को सूझ ही गया. रात को आभा लौटी तो महेश, भाई के सपरिवार आने का और मनाली की परीक्षाओं का एक ही समय होने के बारे में बताते हुए कहने लगे, ‘‘आभा, दिनभर सोचने के बाद एक बात सूझी है. मैं दूसरा फ्लैट खाली करवा लेता हूं. मां को वहां शिफ्ट कर देते हैं. मां के लिए किसी अतिविश्वसनीय व्यक्ति का उन के साथ रहने का प्रबंध कर देते हैं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो महेश? मां अकेली रहेंगी?’’

‘‘अकेली कहां? हम वहां आतेजाते ही रहेंगे. पूरी नजर रहेगी वहां हमारी. जो भी रिश्तेदार उन्हें देखने के नाम से आते हैं, वहीं रह लेंगे और यहां भी आने की किसी को मनाही थोड़े ही होगी. मैं ने बहुत सोचा है इस बारे में, मुझे इस में कुछ गलत नहीं लग रहा है. थोड़े खर्चे बढ़ जाएंगे, 2 घरों का प्रबंध देखना पड़ेगा, किराया भी नहीं आएगा. लेकिन हम मां की देखरेख में कोई कमी नहीं करेंगे. बच्चों की पढ़ाई भी डिस्टर्ब नहीं होने देंगे.’’

‘‘महेश, यह ठीक नहीं रहेगा? मां को कभी दूर नहीं किया हम ने,’’ आभा की आंखें भर आईं.

‘‘तुम देखना, यह कदम ठीक रहेगा. किसी को परेशानी नहीं होगी. और अगर किसी को भी तकलीफ हुई तो मां को यहीं ले आएंगे फिर.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम्हें ठीक लगे.’’

अगला एक महीना महेश और आभा काफी व्यस्त रहे. दूसरा फ्लैट बस 2 बिल्ंडग ही दूर था. किराएदार भी महेश की परेशानी समझ जल्दी से जल्दी फ्लैट खाली करने के लिए तैयार हो गए. महेश ने स्वयं उन के लिए दूसरा फ्लैट ढूंढ़ने में सहयोग किया. महेश की रिश्तेदारी में एक लता काकी थीं, जो विधवा थीं, जिन की कोई संतान भी नहीं थी. वे कभी किसी रिश्तेदार के यहां रहतीं, कभी किसी आश्रम में चली जातीं. महेश ने उन की खोजबीन की तो पता चला वे पुणे में किसी रिश्तेदार के घर में हैं. महेश खुद कार ले कर उन्हें लेने गए. नारायणी जब स्वस्थ थीं, वे तब कई बार उन के पास मिलने आती थीं. महेश को देख कर लता काफी खुश हुईं और जब महेश ने कहा, ‘‘बस, मैं आप पर ही मां की देखभाल का भरोसा कर सकता हूं काकी, आप उन के साथ रहना, घर के कामों के लिए मैं एक फुलटाइम मेड का प्रबंध कर दूंगा,’’ लता खुशीखुशी महेश के साथ आ गईं.

दूसरा फ्लैट खाली हो गया. एक फुलटाइम मेड राधा का प्रबंध भी हो गया था. एक रविवार को मां को दूसरे फ्लैट में ले जाया जा रहा था. महेश और आभा ने उन के हाथ पकड़े हुए थे. वे बिलकुल अंजान सी साथ चल रही थीं. सामने वाले फ्लैट के मिस्टर कुलकर्णी पूरी स्थिति जानते ही थे. वे कह रहे थे, ‘‘महेशजी, आप ने सोचा तो सही है पर आप की भागदौड़ और खर्चे बढ़ने वाले हैं.’’

‘‘हां, देखते हैं, आगे समझ आ ही जाएगा, यह सही है या नहीं?’’ आभा ने वहां किचन पूरी तरह से सैट कर ही दिया था. लता काकी को सब निर्देश दे दिए गए थे. महेश ने उन्हें यह भी संकेत दे दिया था कि वे उन्हें हर महीने कुछ धनराशि भी जरूर देंगे. वे खुश थीं. उन्हें अब एक ठिकाना मिल गया था. सोसाइटी में पहले तो जिस ने सुना, हैरान रह गया. कई तरह की बातें हुईं. किसी ने कहा, ‘यह तो ठीक नहीं है, बूढ़ी मां को अकेले घर में डाल दिया.’ पर समर्थन में भी लोग थे. उन का कहना था, ‘ठीक तो है, मां जी को देखने इतना आनाजाना होता है, लोगों की भीड़ रहती थी, यह अच्छा विचार है.’ महेश और बाकी तीनों भी मां के आसपास ही रहते, जिस को समय मिलता, वहीं पहुंच जाता. मां अब किसी को पहचानती तो थीं नहीं, पर फिर भी सब ज्यादा से ज्यादा समय वहीं बिताते. वहां की हर जरूरत पर उन का ध्यान रहता. मिस्टर कुलकर्णी ने अकसर देखा था महेश सुबह औफिस जाने से पहले और आने के बाद सीधे वहीं जाते हैं और छुट्टी वाले दिन तो अकसर सामने ताला रहता, मतलब सब नारायणी के पास ही होते. 3 महीने बीत गए. होली पर भाई सपरिवार आए. पहले तो उन्हें यह प्रबंध अखरा पर कुछ कह नहीं पाए. आखिर महेश ही थे जो सालों से मां की सेवा कर रहे थे. मनाली की परीक्षाएं भी बिना किसी असुविधा के संपन्न हो गई थीं. मां की हालत खराब थी. उन्होंने खानापीना छोड़ दिया था. डाक्टर को बुला कर दिखाया गया तो उन्होंने भी संकेत दे दिया कि अंतिम समय ही है. कभी भी कुछ हो सकता है. बड़ी मुश्किल से उन के मुंह में पानी की कुछ बूंदें या जूस डाला जाता. लता काकी को इन महीनों में एक परिवार मिल गया था.

मां को कुछ होने की आशंका से लता काकी हर पल उदास रहतीं और एक रात नारायणी की सांसें उखड़ने लगीं तो लता काकी ने फौरन महेश को इंटरकौम किया. महेश सपरिवार भागे. मां ने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं. सब बिलख उठे. महेश बच्चे की तरह रो रहे थे. आभा ने सब भाइयों को फोन कर दिया. सुबह तक मुंबई में ही रहने वाले भाई पहुंच गए, बाकी रिश्तेदारों का आना बाकी था. सोसाइटी में सुबह खबर फैलते ही लोग इकट्ठा होते गए. भीड़ में लोग हर तरह की बातें कर रहे थे. कोई महेश की सेवा के प्रबंध की तारीफ कर रहा था, वहीं सोसाइटी के ही दिनेशजी और उन की पत्नी सुधा बातें बना रहे थे, ‘‘अंतिम दिनों में अलग कर दिया, अच्छा नहीं किया, मातापिता बच्चों के लिए कितना करते हैं और बच्चे…’’

वहीं खड़े मिस्टर कुलकर्णी से रहा नहीं गया. उन्होंने कहा, ‘‘भाईसाहब, महेशजी ने अपनी मां की बहुत ही सेवा की है, मैं ने अपनी आंखों से देखा है.’’

‘‘हां, पर अंतिम समय में दूर…’’

‘‘दूर कहां, हर समय तो ये सब उन के आसपास ही रहते थे. उन की हर जरूरत के समय, वे कभी अकेली नहीं रहीं, आर्थिक हानिलाभ की चिंता किए बिना महेशजी ने सब की सुविधा का ध्यान रखते हुए जो कदम उठाया था, उस में कुछ भी बुरा नहीं है. आप के बेटेबहू भी तो अपने बेटे को ‘डे केयर’ में छोड़ कर औफिस जाते हैं न, तो इस का मतलब यह तो नहीं है न, कि वे अपने बेटे से प्यार नहीं करते. आजकल की व्यस्तता, बच्चों की पढ़ाई, सब ध्यान में रखते हुए कुछ नए रास्ते सोचने पड़ते हैं. इस में बुरा क्या है. बातें बनाना आसान है. जिस पर बीतती है वही जानता है.  महेशजी और उन का परिवार सिर्फ प्रशंसा का पात्र है, एक उदाहरण है.’’ वहां उपस्थित बाकी लोग मिस्टर कुलकर्णी की बात से सहमत थे. दिनेशजी और उन की पत्नी ने भी अपने कहे पर शर्मिंदा होते हुए उन की बात के समर्थन में सिर हिला दिया था.

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इल्जाम- भाग 2: किसने किए थे गायत्री के गहने चोरी

कामिनी जी ने यह बात स्वीकार कर ली.सही मौका देख कर रिसेप्शन का आयोजन किया गया. कामिनी ने इस में अपनी सारी अधूरी तमन्नाऐं पूरी कीं. खानपान और सजावट का शानदार प्रबंध किया गया. नए कपड़े, गहने और रिश्तेदारों की जमघट के बीच वह पुराने दर्द भूल गईं. कई दिनों तक मेहमानों का आनाजाना लगा रहा. हंसीठहाकों की मजलिस के बीच घर में एक नए माहौल की शुरुआत हुई.

भवानी प्रसाद को लगने लगा कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा. उन की तरह कामिनी भी समीक्षा को दिल से स्वीकार कर लेगी. समीक्षा के घर वालों से मेलजोल बढ़ाने और कामिनी के फूले मुंह को छिपाने के लिए भवानी प्रसाद ने समीक्षा के भाईबहन को 7-8 दिनों के लिए घर में ही रोक लिया.

समीक्षा का भाई अनुज काफी मजाकिया स्वभाव का था तो वहीं बहन दिशा डांस गाने में बहुत होशियार थी. मयंक की बहन दीक्षा और भाई विक्रांत भी अनुज और दिशा के साथ खूब मस्तीधमाल करते. 3 -4 दिन इसी तरह धमालमस्ती में बीत गए. समीक्षा और मयंक भी नए माहौल का मजा ले रहे थे. कामिनी भी नार्मल रहने लगी थी. सब कुछ अच्छा चल रहा था कि इसी बीच गहनों की चोरी वाली घटना ने सब को सकते में डाल दिया. हंसीखुशी और मस्ती का माहौल कुछ ही देर में तनावपूर्ण हो गया था.

अनुज और दिशा उसी शाम अपने घर चले गए थे और समीक्षा बिल्कुल खामोश सी हो गई थी. कामिनी का बड़बड़ाना चालू रहा जब कि मयंक समीक्षा को नार्मल करने के प्रयास में लगा रहता. भवानी प्रसाद अपने कमरे में उदास से बैठे रहते. उन्होंने सोचा था घर में हंसीखुशी आएगी पर हो गया था उलटा. वक्त के साथ जख्म भरते गए. कामिनी और समीक्षा सामान्य व्यवहार करने लगी थीं मगर एकदूसरे के प्रति उदासीनता लंबे समय तक कायम रही.

करीब 6-7 माह का समय इसी तरह गुजर गया. एक दिन मयंक घर लौटा तो चेहरे पर एक अलग ही तरह के सुकून और खुशी के भाव थे.

आते ही उस ने समीक्षा से कहा, मैं ने बताया था न कि मुंबई में एक जगह खाली है और उस के लिए मैं ने महीनों पहले ट्रांसफर की अर्जी दी थी. वह आज अप्रूव हो गई. इस महीने की 25 तारीख को मुझे वहां की ब्रांच ऑफिस को ज्वाइन करना है.”

सुन कर समीक्षा का चेहरा भी खिल उठा. मयंक ने अपनी मां को यह बात बताई तो उन्होंने सवालिया नजरों से बेटे की तरफ देखा और फिर उदास हो कर पलकें झुका लीं. भवानी प्रसाद ने भी उदास हो कर अपने बेटे की तरफ देखा. दोनों समझ रहे थे कि मयंक के इस फैसले की वजह क्या है. पर वे कहते भी तो क्या.

मयंक और समीक्षा मुंबई शिफ्ट हो गए. इस के एकदो साल बाद ही मयंक के भाई विक्रांत को पुणे यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया. वह एमबीए पढ़ने वहां चला गया और जल्द ही वहीँ उसे जॉब भी मिल गई. 2 -4 साल में छोटी बहन की शादी हो गई. अब घर में केवल भवानी प्रसाद और कामिनी ही रह गए थे.

वक्त इसी तरह गुजरता गया. मयंक और समीक्षा को मुंबई आए करीब 10 साल बीत चुके थे. उन को एक प्यारा सा बेटा भी हुआ जो अब 6 साल का हो चुका था.

एक दिन मयंक के पास भवानी प्रसाद का फोन आया. वह काफी दुखी स्वर में बोल रहे थे,” बेटा तेरी मां की तबियत सही नहीं है. उसे कैंसर…,” कहतेकहते भवानी प्रसाद रो पड़े.

“यह क्या कह रहे हैं पापा, सही से बताइए क्या हुआ मां को? पापा प्लीज रोइए मत.””बेटा उसे आंतों का कैंसर हो गया है. कुछ दिनों से न ढंग से खापी रही है और न कोई काम कर पाती है. तुरंत उल्टी हो जाती है. खून भी निकलता है. इतनी कमजोर हो गई है कि क्या बताऊं. डॉक्टर ने सर्जरी और कीमोथेरपी के लिए कहा है पर बेटा मैं अकेला सब कुछ कैसे संभालूं?”

“चिंता मत करो पापा. मैं कुछ करता हूं. पहले आप यह बताओ कि विक्रांत ने क्या कहा? क्या वह आ सकता है ?””नहीं बेटा वह कह रहा है कि उस के ऑफिस में अभी 4 महीने की ट्रेनिंग है. मैं ने कहा कि बहू को भेज दे तो कह रहा है कि वह भी तो वर्किंग है. ऑफिस छोड़ कर कैसे आएगी. हम ने दीक्षा से भी कहा था पर उस के दोनों बच्चे अभी बहुत छोटे हैं. कह रही थी कि बच्चे मां को परेशान करेंगे.”

“कोई बात नहीं पापा आप चिंता न करो. मैं समीक्षा से बात करता हूं. हो सका तो वह अपने स्कूल से एक महीने की छुट्टी ले कर मां के पास पहुंच जाएगी. ”

“बेटा देख ले हमें अभी किसी की जरूरत तो बहुत है पर बहू भी तो स्कूल टीचर है, वर्किंग है. उस के जॉब पर असर न पड़े तभी भेजना. वैसे भी बहू के साथ हम ने जो सलूक किया था उस के बाद हमारा कोई हक नहीं कि हम उसे बुलाएं.”

“डोंट वरी पापा मैं बात कर के बताता हूं.”अगले दिन ही मयंक ने फोन कर के बताया,” पापा समीक्षा ने मां की सेवा के लिए एक माह की छुट्टी ले ली है. जरूरत पड़ी तो छुट्टी आगे बढ़ा लेगी. मैं भी 1 सप्ताह के लिए आ रहा हूं.”

2 दिन बाद ही मयंक समीक्षा के साथ घर पहुंच गया. कामिनी जी बेड पर थीं. नौकर भी छुट्टी पर जा चुका था. समीक्षा ने सब से पहले नहाधो कर पूरे घर की साफसफाई की. फिर सास को अच्छी तरह नहला कर कपड़े बदले. उन के बेड का कवर, पिलो कवर आदि निकाल कर धो दिए. नए बेडशीट बिछाए. परदे आदि धोए. अगले दिन ही मयंक मां को ले कर अस्पताल पहुंचा. संभावित इलाजों के बारे में बात की. अभी मां को कीमो सेशन दिए जा रहे थे. मयंक ने डॉक्टर से हर मसले पर सलाहमशवरा कर बेहतर इलाज का इंतजाम कराया. एक सप्ताह रुक कर वह वापस चला गया और समीक्षा दिल लगा कर सास की सेवा करती रही.

कामिनी जी फिलहाल निजी काम करने में भी समर्थ नहीं थीं. कई बार कपड़े में उल्टी कर देतीं तो कभी कपड़े गंदे हो जाते. खुद पर कंट्रोल नहीं रख पातीं. पर समीक्षा हर तरह की परेशानियों में सास के साथ खड़ी रहती. उन की बैसाखी बन कर वह इस तकलीफ के समय में उन का सहारा बनी हुई थी. हमेशा उन्हें खुश रखने की कोशिश करती. शरीर की तकलीफ़ों के साथसाथ मन की तकलीफें भी घटाने के प्रयास में लगी रहती. कभी मालिश करती तो कभी चंपी.

समय इसी तरह गुजरता रहा. कामिनी जी समीक्षा को दिनरात आशीर्वाद देती रहतीं. उन को अपने किए पर बहुत शर्मिंदगी महसूस होती कि जिस बहू के परिवार पर चोरी का इल्जाम लगा दिया था आज केवल वही उन के काम आ रही थी. वह चाहती तो दूसरों की तरह आने से इनकार भी कर सकती थी पर उस ने ऐसा नहीं किया. वह घर को और सास को ऐसे संभाल रही थी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.

एक दिन कामिनी जी बैठीबैठी रोने लगीं. समीक्षा ने बहुत पूछा कि आखिर रोने की वजह क्या है मगर वह केवल रोती रहीं. उन्हें बहुत देर तक फफकफफक कर रोता देख समीक्षा बेचैन हो गई. वह ससुर को बुला कर लाई.

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यह कैसा धर्म है: क्या दूर हुआ संजय का अंधविश्वास

‘‘यह क्या? इस उम्र में प्याज और अंडा खाने लगी हो, प्रभु के चरणों में ध्यान लगाओ, सारे पाप दूर हो जाएंगे,’’ संजय ने अपनी पत्नी को ताना मारा, ‘‘सारी उम्र तो तुम ने इन चीजों को हाथ नहीं लगाया और अब न जाने कैसे इन का स्वाद आने लगा है तुम्हें. पहले जब मैं खाता था तो तुम्हें ही इस पर आपत्ति होती थी. अब तुम कहां इन चक्करों में पड़ रही हो. ईश्वरभक्ति करो, बस. सारी बीमारियां दूर हो जाएंगी.’’ ‘‘मेरी मजबूरी है, इसलिए खा रही हूं. यह बात तुम्हें भी पता है कि डाक्टर ने कहा है कि शरीर में विटामिन सी और डी की कमी हो गई है. जिस से हड्डियों में इन्फैक्शन हो गया है.

घुटनों और कमर में दर्द की वजह से ठीक से चल तक नहीं पाती हूं. वैजिटेरियन डाइट से ये विटामिन कहां मिलते हैं. आप जानते हुए भी ताना देने से बाज नहीं आ रहे हैं. प्याज और अंडा खाना अगर पाप होता तो दुनियाभर के अधिकांश लोग पापी कहलाते. इस बात का प्रभुभक्ति से क्या ताल्लुक? ‘‘वैसे, आप मुझे बताओगे कि मैं ने कौन से पाप किए हैं? रही बात प्रभु के चरणों में ध्यान लगाने की और तुम यह कहो कि सारा दिन बैठ कर भजन करूं या तुम्हारी तरह टीवी पर आने वाले बाबाओं के प्रवचन या उन का कथावाचन सुनूं तो मैं इसे जरूरी नहीं समझती.

निठल्ले लोग धर्म की आड़ में अपने दोषों को छिपाने के लिए सारे दिन ऐसे प्रोग्राम देख खुद को जस्टिफाई करने की कोशिश करते हैं.’’ शगुन लगातार बोलती गई, मानो आज वह मन में बरसों से दबाए ज्वालामुखी को फटने देने के लिए तैयार हो. ‘‘शगुन, कुछ ज्यादा नहीं बोल रही हो तुम?’’ चिढ़ते हुए संजय ने कहा, ‘‘मुझ से ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं है. मुझे पता है कि क्या सही है और क्या गलत. कितना ज्ञान और सुकून प्राप्त होता है प्रवचन सुन कर. प्रवचनों को सुनने से ही तो पापों से मुक्ति मिलती है.’’ ‘‘तो मानते हो न कि तुम ने पाप किए हैं?

झूठ बोलना, किसी का दिल दुखाना या बुरे काम करना जितना पाप है उतना ही अपनी जिम्मेदारियां न निभाना भी पाप है. सच बात तो यह है कि इस तरह से तुम्हारा टाइम पास हो जाता है और अपने को झूठा दिलासा भी दे लेते हो कि मैं तो सारा दिन ईश्वरभक्ति में लीन रहता हूं. अपने आलसी स्वभाव की वजह से तुम तो सारे काम छोड़ कर बैठ गए हो. बिजनैस पर ध्यान देना तक छोड़ दिया, तो वह चौपट होना ही था. ‘‘मेरी नौकरी से घर चल रहा है. लेकिन आजकल एक व्यक्ति की कमाई से क्या होता है. जब तक बच्चे सैटल नहीं हो जाते, तब तक तो उन्हें संभालना तुम्हारी ही जिम्मेदारी है.

मेरी जिम्मेदारी तो खैर तुम क्या उठाओगे. क्या तुम्हारा भगवान कहता है कि तुम उस की पूजा करना चाहते हो तो सब काम छोड़ कर बैठ जाओ. सबकुछ अपनेआप मिल जाएगा.’’ ‘‘ज्यादा भाषण न झाड़ो, अपनी औकात में रहो. और जो तुम कमाने का ताना दे रही हो, तो इस के लिए तुम्हें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है, भगवान सब संभाल लेंगे.’’ संजय ने आज से पहले शगुन की बात कब सुनी थी जो अब सुनते. वे तो सदा ही उस की अवमानना करते आए थे. शगुन की बातबात पर बेइज्जती करना, बच्चों के सामने उस की खिल्ली उड़ाना और बाहर वालों के सामने उस का अपमान करना तो जैसे उन के लिए आम बात थी. शादी के बाद ही शगुन को पता चल गया था कि संजय रुढि़वादी सोच का व्यक्ति है जो कामचोर होने के साथसाथ बीवी की कमाई पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है पर उसे समान दर्जा देने में उस का अहम आड़े आता है. शादी के बाद तो संजय अकसर उस पर हाथ भी उठा देते थे.

गालियां देना, उस के हर काम में कमियां निकालना तो जैसे वे अपना हक समझते थे. ‘पुरुष हूं, जो चाहे कर सकता हूं’ की सोच ही उन्हें शायद घुट्टी में पिलाई गई थी. न खुद हंसना, न ही किसी की खुशी उन्हें बरदाश्त थी. यहां तक कि वे बच्चों के साथ मजाक तक करने से कतराते थे. शगुन के अंदर बीतते वक्त के साथ एक खीझ भरती गई थी कि आखिर संजय क्यों नहीं आम लोगों की तरह व्यवहार करते हैं. होटल में खाना खाना हो या कभी मूवी देखने जाना हो या घर पर किसी मेहमान को ही आना हो, हर बात उन्हें खलती थी. किसी के घर या फंक्शन में जाने की बात सुन कर ही चिढ़ जाते.

अपनी बात जारी रखते हुए संजय आगे बोले, ‘‘रोजरोज मुझ से इस बात पर बहस करने की जरूरत नहीं और न ही काम करने के लिए कहने की, मैं अपने और भगवान के बीच किसी को नहीं आने दूंगा. वही सब संभालेंगे.’’ ‘‘हां हां, सब भगवान ही संभालेंगे, पर उन को जिंदा रखने के लिए कर्म भी हम मनुष्यों को ही करना पड़ता है. मंदिरमसजिद क्या अपनेआप पेड़ों की तरह उग आते हैं. रोटी सामने रखी हो पर निवाला तभी मुंह में जाएगा जब उसे खुद तोड़ कर खाया जाए. संजय, अब भी संभल जाओ. अभी हमारी उम्र ही क्या हुई है. तुम 49 के हो और मैं 45 की. हमारी शादीशुदा जिंदगी को अपनी पलायन करने वाली सोच से बरबाद मत करो. पलायन करने से कोई मोक्षवोक्ष नहीं मिलता.

कर्म करने से ही मुक्ति मिलती है. ‘‘मैं तो अपनी नौकरी, बीमारी और घर के कामों की वजह से ज्यादा समय नहीं निकाल सकती, पर तुम तो सारा दिन घर में बैठे रहते हो. तुम बच्चों पर थोड़ा ध्यान दो वरना उन का कैरियर बरबाद हो जाएगा. उन के साथ बात किया करो, हंसा करो और उन्हें टीवी पर इन बाजारू प्रवचनों को देखने के लिए उकसाना बंद करो. नीरज को देखो, वह भी तुम्हारे साथ टीवी देखता रहता है या सोता रहता है. इस बार इसे 12वीं का एग्जाम देना है, पढ़ेगा नहीं तो पास कैसे होगा. कहीं ऐडमिशन कैसे होगा. आजकल कंपीटिशन कितना टफ हो गया है.’’ ‘‘उस की चिंता तुम मत करो. भगवान उसे पास कर देंगे. तुम्हारी बेटी नीरा तो दिनरात पढ़ती है, उसी से तुम तसल्ली रख लो.

नीरज के मामले में दखल मत दो. नहीं पढ़ेगा तो मेरा बिजनैस संभाल लेगा.’’ ‘‘बस करो संजय, यह राग अलापना. अरे, पढ़ेगा नहीं तो भगवान क्या आ कर उस के पेपर सौल्व कर देंगे. क्यों मूर्खों जैसी बातें करते हो. तुम्हें पढ़नेलिखने या तरक्की करने की इच्छा नहीं है तो नीरज को भी अपने जैसा क्यों बनाना चाहते हो, कैसे पिता हो तुम.’’ शगुन का मन कर रहा था कि वह संजय को झ्ंिझोड़ डाले, आखिर क्यों वे अपने ही बच्चों को अंधविश्वास के कुएं में ढकेलना चाहते हैं. ‘‘बेकार की बातों में उलझने के बजाय मेरे साथ वृंदावन चला करो. वहां घर इसीलिए तो बनाया है ताकि वहां जा कर मैं प्रभु के चरणों में पड़ा रहूं और अपना आगे का जीवन सुधार सकूं. यह जन्म तो कट गया, अगला जन्म सुधारना है, तो बस सारे दिन ईश्वर की पूजा किया करो, तुम्हें भी मैं यही सलाह दूंगा.’’ ‘‘मैं भी वृंदावन चली गई तो बिना नौकरी के घर कैसे चलेगा? बेटी की शादी कौन करेगा? बेटे को कौन संभालेगा?

तुम्हारे खर्चे कौन उठाएगा? तुम्हें रोज शराब पीने की लत है, उस के लिए भी पैसे क्या भगवान देगा? रोज शराब पीते हो तो क्या तुम्हारा ईश्वर इस की तुम्हें इजाजत देता है. वृंदावन जाते हो तो कौन सा शराब पीना छोड़ देते हो. बस, तुम्हें तो अपने दायित्वों से भागने का बहाना चाहिए. ‘‘सब से बड़ी बात तो यह है कि ईश्वर से लौ लगाने वाले शांत रहते हैं, उन्हें क्रोध नहीं आता, वे किसी पर चिल्लाते नहीं हैं या उन का अपमान नहीं करते हैं. इतने सालों से तुम बाबाओं के प्रवचन सुन रहे हो, पर तुम में तो रत्तीभर भी बदलाव नहीं आया. गुस्सा करना और हमेशा चिढ़े रहना कहां छोड़ा है तुम ने. क्या फायदा ऐसे धर्म का जो दूसरों को दुख पहुंचाए या कर्तव्यों से विमुख करे.

‘‘धर्म के नाम पर तुम दान करते हो कि पुण्य मिलेगा, पर सोचा है कि बच्चों की कितनी जरूरतों का तुम गला घोंटते हो. और देखा जाए तो धर्म के नाम पर जो लाखों रुपए का चढ़ावा चढ़ाया जाता है, भला उस की क्या जरूरत है. भगवान को सोने का मुकुट दे कर आखिर इंसान क्या साबित करना चाहता है? अपनी बेवकूफी और क्या. धर्म के नाम पर चढ़ाए गए चढ़ावे अगर हम अपनी जरूरतों पर खर्च करें तो ज्यादा सुख मिलेगा. धार्मिक स्थलों पर जा कर देखो तो, आजकल सब पंडेपुजारी कारोबारी हो गए हैं.’’ ‘‘मम्मी, रहने दो न. बेकार बहस करने से क्या फायदा. पापा इस समय होश में नहीं हैं,’’ नीरज ने बात बढ़ती देख बीचबचाव करने की कोशिश की.

‘‘बेटा, तुझे ले कर मैं कितनी परेशान रहती हूं, यह नहीं बता सकती. डर लगता है कि कहीं तू अपने पापा के कदमों पर न चले,’’ शगुन की आंखें भर आई थीं. ‘‘चुप हो जा, तेरी जबान कुछ ज्यादा ही चलने लगी है. मुझे नहीं रहना तेरे साथ. जब देखो तब भूंकती रहती है. चला जाऊंगा हमेशा के लिए वृंदावन, फिर संभाल लेना बच्चों को. अपनेआप को कुछ ज्यादा ही स्मार्ट व पढ़ीलिखी समझती है,’’ संजय का तेज थप्पड़ शगुन के गाल पर पड़ा. संजय के इस व्यवहार से थरथरा गई शगुन. शराब पीने से हुई उस की लाल आंखें और डगमगाते कदमों को देख उस के दोनों बच्चे कांप गए. आखिर वे धर्म का ही पालन कर रहे थे कि औरत पाप की गठरी है, पैरों की जूती है. संजय का वीभत्स रूप और निरंतर उस के मुंह से निकलती गालियां सुन नीरा चुप न रह सकी. ‘‘अच्छा यही होगा पापा कि आप यहां से चले जाओ. जहां मन है, चले जाओ. आप के इस रूप को देख धर्म और ईश्वर पर से हमारा विश्वास उठ गया है.

प्यार की जगह आप ने हम में जो घृणा भर दी है, उस से हम दूर ही रहना चाहते हैं,’’ नीरा बोल पड़ी. ‘‘तू भी अपनी मां की जबान बोलने लगी है,’’ संजय ने उसे मारने के लिए हाथ उठाया ही था कि नीरज ने उस का हाथ पकड़ लिया. ‘‘खबरदार पापा, जो आप ने दीदी या मम्मी पर हाथ उठाया,’’ नीरज क्रोधित होते हुए बोला. ‘‘अरे, तू तो मेरा राजा बेटा है न, चल हम बापबेटे दोनों यहां नहीं रहेंगे,’’ संजय की आवाज की लड़खड़ाहट की वजह से उन से ठीक से बोला नहीं जा रहा था. वे बिस्तर पर गिर गए. ‘‘मुझे कहीं नहीं जाना. पर बेहतर यही होगा कि आप यहां से चले जाएं.

हमें आप के झूठे पाखंडों और धर्म के नाम पर बनाए खोखले आदर्शों के साए तले नहीं जीना. आप जैसे जीना चाहते हैं, जिएं, पर अपनी बेकार की बातों को हम पर थोपने की कोशिश न करें. अब बहुत हो गया. और नहीं सहेंगे हम,’’ नीरज ने शगुन और नीरा को कस कर अपने से चिपका लिया था मानो वह उन्हें चिंतामुक्त रहने का आश्वासन दे रहा हो.

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अपराजिता

मेरे जागीरदार नानाजी की कोठी हमेशा मेरे जीवन के तीखेमीठे अनुभवों से जुड़ी रही है. मुझे वे सब बातें आज भी याद हैं.

कोठी क्या थी, छोटामोटा महल ही था. ईरानी कालीनों, नक्काशीदार भारी फर्नीचर व झाड़फानूसों से सजे लंबेचौड़े कमरों में हर वक्त गहमागहमी रहती थी. गलियारों में शेर, चीतों, भालुओं की खालें व बंदूकें जहांतहां टंगी रहती थीं. नगेंद्र मामा के विवाह की तसवीरें, जिन में वह रूपा मामी, तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों व उच्च अधिकारियों के साथ खडे़ थे, जहांतहां लगी हुई थीं.

रूपा मामी दिल्ली के प्रभावशाली परिवार की थीं. सब मौसियां भी ठसके वाली थीं. तकरीबन सभी एकाध बार विदेश घूम कर आ चुकी थीं. नगेंद्र मामा तो विदेश में नौकरी करते ही थे.

देशी घी में भुनते खोए से सारा घर महक रहा था. लंबेचौड़े दीवानखाने में तमाम लोग मामा व मौसाजी के साथ जमे हुए थे. कहीं राजनीतिक चर्चा गरम थी तो कहीं रमी का जोर था. नरेन मामा, जिन की शादी थी, बारबार डबल पपलू निकाल रहे थे. सभी उन की खिंचाई कर रहे थे, ‘भई, तुम्हारे तो पौबारह हैं.’

नगेंद्र मामा अपने विभिन्न विदेश प्रवासों के संस्मरण सुना रहे थे. साथ ही श्रोताओं के मुख पर श्रद्धामिश्रित ईर्ष्या के भाव पढ़ कर संतुष्ट हो चुरुट का कश खींचने लगते थे. उन का रोबीला स्वर बाहर तक गूंज रहा था. लोग तो शुरू से ही कोठी के पोर्टिको में खड़ी कार से उन के ऊंचे रुतबे का लोहा माने हुए थे. अब हजारों रुपए फूंक भारत आ कर रहने की उदारता के कारण नम्रता से धरती में ही धंसे जा रहे थे.

यही नगेंद्र मामा व रूपा मामी जब एक बार 1-2 दिन के लिए हमारे घर रुके थे तो कितनी असुविधा हुई थी उन्हें भी, हमें भी. 2 कमरों का छोटा सा घर  चमड़े के विदेशी सूटकेसों से कैसा निरीह सा हो उठा था. पिताजी बरसते पानी में भीगते डबलरोटी, मक्खन, अंडे खरीदने गए थे. घर में टोस्टर न होने के कारण मां ने स्टोव जला कर तवे पर ही टोस्ट सेंक दिए थे, पर मामी ने उन्हें छुआ तक नहीं था.

आमलेट भी उन के स्तर का नहीं था. रूपा मामी चाय पीतेपीते मां को बता रही थीं कि अगर अंडे की जरदी व सफेदी अलगअलग फेंटी जाए तो आमलेट खूब स्वादिष्ठ और अच्छा बनता है.

यही मामी कैसे भूल गई थीं कि नाना के घर मां ही सवेरे तड़के उठ रसोई में जुट जाती थीं. लंबेचौडे़ परिवार के सदस्यों की विभिन्न फरमाइशें पूरी करती कभी थकती नहीं थीं. बीच में जाने कब अंडे वाला तवा मांज कर पिताजी के लिए अजवायन, नमक का परांठा भी सेंक देती थीं. नौकर का काम तो केवल तश्तरियां रखने भर तक था.

दिन भर जाने क्या बातें होती रहीं. मैं तो स्कूल रही. रात को सोते समय मैं अधजागी सी मां और पिताजी के बीच में सोई थी. मां पिताजी के रूखे, भूरे बालों में उंगलियां फिरा रही थीं. बिना इस के उन्हें नींद ही नहीं आती थी. मुझे भी कभी कहते. मैं तो अपने नन्हे हाथ उन के बालों में दिए उन्हीं के कंधे पर नींद के झोंके में लुढ़क पड़ती थी.

मां कह रही थीं, ‘पिताजी को बिना बताए ही ये लोग आपस में सलाह कर के यहां आए हैं. उन से कह कर देखूं क्या?’

‘छोड़ो भी, रत्ना, क्यों लालच में पड़ रही हो? आज नहीं तो कुछ वर्ष बाद जब वह नहीं रहेंगे, तब भी यही करना पडे़गा. अभी क्यों न इस इल्लत से छुटकारा पा लें. हमें कौन सी खेतीबाड़ी करनी है?’ कह कर पिताजी करवट बदल कर लेट गए.

‘खेतीबाड़ी नहीं करनी तो क्या? लाखों की जमीन है. सुनते हैं, उस पर रेलवे लाइन बनने वाली है. शायद उसे सरकार द्वारा खरीद लिया जाएगा. भैया क्या विलायत बैठे वहां खेती करेंगे.’

मां को इस तरह मीठी छुरी तले कट कर अपना अधिकार छोड़ देना गले नहीं उतर रहा था. उत्तर भारत में सैकड़ों एकड़ जमीन पर उन की मिल्कियत की मुहर लगी हुई थी.

भूमि की सीमाबंदी के कारण जमीनें सब बच्चों के नाम अलगअलग लिखा दी गई थीं. बंजर पड़ी कुछ जमीनें ‘भूदान यज्ञ’ में दे कर नाम कमाया था. मां के नाम की जमीनें ही अब नगेंद्र मामा बडे़ होने के अधिकार से अपने नाम करवाने आए थे. वैसे क्या गरीब बहन के घर उन की नफासतपसंद पत्नी आ सकती थी?

स्वाभिमानी पिताजी को मिट्टी- पत्थरों से कुछ मोह नहीं था. जिस मायके से मेरे लिए एक रिबन तक लेना वर्जित था वहां से वह मां को जमीनें कैसे लेने देते? उन्होंने मां की एक न चलने दी.

दूसरे दिन बड़ेबडे़ कागजों पर मामा ने मां से हस्ताक्षर करवाए. मामी अपनी खुशी छिपा नहीं पा रही थीं.

शाम को वे लोग वापस चले गए थे.

अपने इस अस्पष्ट से अनुभव के कारण मुझे नगेंद्र मामा की बातें झूठी सी लगती थीं. उन की विदेशों की बड़बोली चर्चा से मुझ पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ा. पिताजी शायद अपने कुछ साहित्यकार मित्रों के यहां गए हुए थे. लिखने का शौक उन्हें कोठी के अफसरी माहौल से कुछ अलग सा कर देता था.

मुझे यह देख कर बड़ा गुस्सा आता था कि पिताजी का नाम अखबारों, पत्रिकाओं में छपा देख कर भी कोई इतना उत्साहित नहीं होता जितना मेरे हिसाब से होना चाहिए. अध्यापक थे तो क्या, लेखक भी तो थे. पर जाने क्यों हर कोई उन्हें ‘मास्टरजी’ कह कर पुकारता था.

सब मामामौसा शायद अपनी अफसरी के रोब में अकड़े रहते थे. कभी कोई एक शेर भी सुना कर दिखाए तो. मोटे, बेढंगे सभी कुरतापजामा, बास्कट पहने मेरे छरहरे, खूबसूरत पिताजी के पैर की धूल के बराबर भी नहीं थे. उन की हलकी भूरी आंखें कैसे हर समय हंसती सी मालूम होती थीं.

अनजाने में कई बार मैं अपने घर व परिस्थितियों की रिश्तेदारों से तुलना करती तो इतने बडे़ अंतर का कारण नहीं समझ पाई थी कि ऊंचे, धनी खानदान की बेटी, मां ने मास्टर (पिताजी) में जाने क्या देखा कि सब सुख, ऐश्वर्य, आराम छोड़ कर 2 कमरों के साधारण से घर में रहने चली आईं.

नानानानी ने क्रोध में आ कर फिर उन का मुंह न देखने की कसम खाई. जानपहचान वालों ने लड़कियों को पढ़ाने की उदारता पर ही सारा दोष मढ़ा. परंतु नानी की अकस्मात मृत्यु ने नाना को मानसिक रूप से पंगु सा कर दिया था.

मां भी अपना अभिमान भूल कर रसोई का काम और भाईबहनों को संभालने लगीं. नौकरों की रेलपेल तो खाने, उड़ाने भर को थी.

नानाजी ने कई बार कोठी में ही आ कर रहने का आग्रह किया था, परंतु स्वाभिमानी पिताजी इस बात को कहां गवारा कर सकते थे? बहुत जिद कर के  नानाजी ने करीब की कोठी कम किराए पर लेने की पेशकश की, परंतु मां पति के विरुद्ध कैसे जातीं?

फिर पिताजी की बदली दूसरे शहर में हो गई, पर घर में शादी, मुंडन, नामकरण या अन्य कोई भी समारोह होने पर नानाजी मां को महीना भर पहले बुलावा भेजते, ‘तुम्हारे बिना कौन सब संभालेगा?’

यह सच भी था. उन का तर्क सुन कर मां को जाना ही पड़ता था.

असुविधाओं के बावजूद मां अपना पुराना सा सूटकेस बांध कर, मुझे ले कर बस में बैठ जातीं. बस चलने पर पिताजी से कहती जातीं, ‘अपना ध्यान रखना.’

कभीकभी उन की गीली आंखें देख कर मैं हैरान हो जाती थी, क्या बडे़ लोग भी रोते हैं? मुझे तो रोते देख कर मां कितना नाराज होती हैं, ‘छि:छि:, बुरी बात है, आंखें दुखेंगी,’ अब मैं मां से क्या कहूं?

सोचतेसोचते मैं मां की गोद में आंचल से मुंह ढक कर सो जाती थी. आंख खुलती सीधी दहीभल्ले वाले की आवाज सुन कर. एक दोना वहीं खाती और एक दोना कुरकुरे भल्लों के ऊपर इमली की चटनी डलवा रास्ते में खाने के लिए रख लेती. गला खराब होगा, इस की किसे चिंता थी.

कोठी में आ कर नानाजी हमें हाथोंहाथ लेते. मां को तो फिर दम मारने की भी फुरसत नहीं रहती थी. बाजार का, घर का सारा काम वही देखतीं. हम सब बच्चे, ममेरे, मौसेरे बहनभाई वानर सेना की तरह कोठी के आसपास फैले लंबेचौड़े बाग में ऊधम मचाते रहते थे.

आज भी मैं, रिंपी, डिंकी, पप्पी और अन्य कई लड़कियां उस शामियाने की ओर चल दीं जहां परंपरागत गीत गाने के लिए आई महिलाएं बैठी थीं. बीच में ढोलकी कसीकसाई पड़ी थी पर बजाने की किसे पड़ी थी. पेशेवर गानेवालियां गा कर थक कर चाय की प्रतीक्षा कर रही थीं.

सभी महिलाएं अपनी चकमक करती कीमती साडि़यां संभाले गपशप में लगी थीं. हम सब बच्चे दरी पर बैठ कर ठुकठुक कर के ढोलकी बजाने का शौक पूरा करने लगे. मैं ने बजाने के लिए चम्मच हाथ में ले लिया. ठकठक की तीखी आवाज गूंजने लगी. नगेंद्र मामा की डिंकी व रिंपी के विदेशी फीते वाले झालरदार नायलोनी फ्राक गुब्बारे की तरह फूल कर फैले हुए थे.

पप्पी व पिंकी के साटन के गरारे खेलकूद में हमेशा बाधा डालते थे, सो अब उन्हें समेट कर घुटनों से ऊपर उठा कर बैठी हुई थीं. गोटे की किनारी वाले दुपट्टे गले में गड़ते थे, इसलिए कमर पर उन की गांठ लगा कर बांध रखे थे.

इन सब बनीठनी परियों सी मौसेरी, ममेरी बहनों में मेरा साधारण छपाई का सूती फ्राक अजीब सा लग रहा था. पर मुझे इस का कहां ज्ञान था. बाल मन अभी आभिजात्य की नापजोख का सिद्धांत नहीं जान पाया था. जहां प्रेम के रिश्ते हीरेमोती की मालाओं में बंधे विदेशी कपड़ों में लिपटे रहते हों वहां खून का रंग भी शायद फीका पड़ जाता है.

रूपा मामी चम्मच के ढोलकी पर बजने की ठकठक से तंग आ गई थीं. मुझे याद है, सब औरतें मग्न भाव से उन के लंदन प्रवास के संस्मरण सुन रही थीं. अपने शब्द प्रवाह में बाधा पड़ती देख वह मुझ से बोलीं, ‘अप्पू, जा न, मां से कह कर कपडे़ बदल कर आ.’

हतप्रभ सी हो कर मैं ने अपनी फ्राक की ओर देखा. ठीक तो है, साफसुथरा, इस्तिरी किया हुआ, सफेद, लाल, नीले फूलों वाला मेरा फ्राक.

किसी अन्य महिला ने पूछा, ‘यह रत्ना की बेटी है क्या?’

‘हां,’ मामी का स्वर तिरस्कारयुक्त था.

‘तभी…’ एक गहनों से लदी जरी की साड़ी पहने औरत इठलाई.

इस ‘तभी’ ने मुझे अपमान के गहरे सागर में कितनी बार गले तक डुबोया था, पर मैं क्या समझ पाती कि रत्ना की बेटी होना ही सब प्रकार के व्यंग्य का निशाना क्यों बनता है?

समझी तो वर्षों बाद थी, उस समय तो केवल सफेद चमकती टाइलों वाली रसोई में जा कर खट्टे चनों पर मसाला बुरकती मां का आंचल पकड़ कर कह पाई थी, ‘मां, रूपा मामी कह रही हैं, कपड़े बदल कर आ.’

मां ने विवश आंखों में छिपी नमी किस चतुराई से पलकें झपका कर रोक ली थी. कमरे में आ कर मुझे नया फ्राक पहना दिया, जो शायद अपनी पुरानी टिशू की साड़ी फाड़ कर दावत के दिन पहनने के लिए बनाया था.

‘दावत वाले दिन क्या पहनूंगी?’ इस चिंता से मुक्त मैं ठुमकतीकिलकती फिर ढोलक पर आ बैठी. रूपा मामी की त्योरी चढ़ गईं, साथ ही साथ होंठों पर व्यंग्य की रेखा भी खिंच गई.

‘मां ने अपनी साड़ी से बना दिया है क्या?’ नाश्ते की प्लेट चाटते मामी बोलीं. वही नाश्ता जो दोपहर भर रसोई में फुंक कर मां ने बनाया था. मैं शामियाने से उठ कर बाहर आ गई.

सेहराबंदी, घुड़चढ़ी, सब रस्में मैं ने अपने छींट के फ्राक में ही निभा दीं. फिर मेहमानों में अधिक गई ही नहीं. दावत वाले दिन घर में बहुत भीड़भाड़ थी. करीबकरीब सारे शहर को ही न्योता था. हम सब बच्चे पहले तो बैंड वाले का गानाबजाना सुनते रहे, फिर कोठी के पिछवाड़े बगीचे में देर तक खेलते रहे.

फिर बाग पार कर दूर बने धोबियों के घरों की ओर निकल आए. पुश्तों से ये लोग यहीं रहते आए थे. अब शहर वालों के कपड़े भी धोने ले आते थे. बदलते समय व महंगाई ने पुराने सामंती रिवाज बदल डाले थे. यहीं एक बड़ा सा पक्का हौज बना हुआ था, जिस में पानी भरा रहता था.

यहां सन्नाटा छाया हुआ था. धोबियों के परिवार विवाह की रौनक देखने गए हुए थे. हम सब यहां देर तक खेलते रहे, फिर हौज के किनारे बनी सीढि़यां चढ़ कर मुंडेर पर आ खडे़ हुए. आज इस में पानी लबालब भरा था. रिंपी और पप्पी रोब झाड़ रही थीं कि लंदन में उन्होंने तरणताल में तैरना सीखा है. बाकी हम में से किसी को भी तैरना नहीं आता था.

डिंकी ने चुनौती दी थी, ‘अच्छा, जरा तैर कर दिखाओ तो.’

‘अभी कैसे तैरूं? तैरने का सूट भी तो नहीं है,’ पप्पी बोली थी.

‘खाली बहाना है, तैरनावैरना खाक आता है,’ रीना ने मुंह चिढ़ाया.

तभी शायद रिंपी का धक्का लगा और पप्पी पानी में जा गिरी.

हम सब आश्वस्त थे कि उसे तैरना आता है, अभी किनारे आ लगेगी, पर पप्पी केवल हाथपैर फटकार कर पानी में घुसती जा रही थी. सभी डर कर भाग खड़े हुए. फिर मुझे ध्यान आया कि जब तक कोठी पर खबर पहुंचेगी, पप्पी शायद डूब ही जाए.

मैं ने चिल्ला कर सब से रुकने को कहा, पर सब के पीछे जैसे भूत लगा था. मैं हौज के पास आई. पप्पी सचमुच डूबने को हो रही थी. क्षणभर को लगा, ‘अच्छा ही है, बेटी डूब जाए तो रूपा मामी को पता लगेगा. हमारा कितना मजाक उड़ाती रहती हैं. मेरा कितना अपमान किया था.’

तभी पप्पी मुझे देख कर ‘अप्पू…अप्पू…’ कह कर एकदो बार चिल्लाई. मैं ने इधरउधर देखा. एक कटे पेड़ की डालियां बिखरी पड़ी थीं. एक हलकी पत्तों से भरी टहनी ले कर मैं ने हौज में डाल दी और हिलाहिला कर उसे पप्पी तक पहुंचाने का प्रयत्न करने लगी. पत्तों के फैलाव के कारण पप्पी ने उसे पकड़ लिया. मैं उसे बाहर खींचने लगी. घबराहट के कारण पप्पी डाल से चिपकी जा रही थी. अचानक एक जोर का झटका लगा और मैं पानी में जा गिरी. पर तब तक पप्पी के हाथ में मुंडेर आ गई थी. मैं पानी में गोते खाती रही और फिर लगा कि इस 9-10 फुट गहरे हौज में ही प्राण निकल जाएंगे.

होश आया तो देखा शाम झुक आई थी. रूपा मामी वहीं घास पर मुझे बांहों में भरे बैठी थीं. उन की बनारसी साड़ी का पानी से सत्यानास हो चुका था. डाक्टर अपना बक्सा खोले कुछ ढूंढ़ रहा था. मां और पिताजी रोने को हो रहे थे.

‘बस, अब कोई डर की बात नहीं है,’ डाक्टर ने कहा तो मां ने चैन की सांस ली.

‘आज हमारी बहादुर अप्पू न होती तो जाने क्या हो जाता. पप्पी के लिए इस ने अपनी जान की भी परवा नहीं की,’ नगेंद्र मामा की आंखों में कृतज्ञता का भाव था.

मैं ने मां की ओर यों देखा जैसे कह रही हों, ‘तुम्हारा दिया अपराजिता नाम मैं ने सार्थक कर दिया, मां. आज मैं ने प्रतिशोध की भावना पर विजय पा ली.’

शायद मैं ने साथ ही साथ रूपा मामी के आभिजात्य के अहंकार को भी पराजित कर दिया था.

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मेरी सास: कैसी थी उसकी सास

कहानियों व उपन्यासों का मुझे बहुत शौक था. सो, कुछ उन का असर था, कुछ गलीमहल्ले में सुनी चर्चाओं का. मैं ने अपने दिमाग में सास की एक तसवीर खींच रखी थी. अपने घर में अपनी मां की सास के दर्शन तो हुए नहीं थे क्योंकि मेरे इस दुनिया में आने से पहले ही वे गुजर चुकी थीं.

सास की जो खयाली प्रतिमा मैं ने गढ़ी थी वह कुछ इस प्रकार की थी. बूढ़ी या अधेड़, दुबली या मोटी, रोबदार. जिसे सिर्फ लड़ना, डांटना, ताने सुनाना व गलतियां ढूंढ़ना ही आता हो और जो अपनी सास के बुरे व्यवहार का बदला अपनी बहू से बुरा व्यवहार कर के लेने को कमर कसे बैठी हो. सास के इस हुलिए से, जो मेरे दिमाग की ही उपज थी, मैं इतनी आतंकित रहती कि अकसर सोचती कि अगर मेरी सास ही न हो तो बेहतर है. न होगा बांस न बजेगी बांसुरी.

बड़ी दीदी का तो क्या कहना, उन की ससुराल में सिर्फ ससुरजी थे, सास नहीं थीं. मैं ने सोचा, उन की तो जिंदगी बन गई. देखें, हम बाकी दोनों बहनों को कैसे घर मिलते हैं. लेकिन सब से ज्यादा चकित तो मैं तब हुई जब दीदी कुछ ही सालों में सास की कमी बुरी तरह महसूस करने लगीं. वे अकसर कहतीं, ‘‘सास का लाड़प्यार ससुर कैसे कर सकते हैं? घर में सुखदुख सभीकुछ लगा रहता है, जी की बात सास से ही कही जा सकती है.’’

मैं ने सोचा, ‘भई वाह, सास नहीं है, इसीलिए सास का बखान हो रहा है, सास होती तो लड़ाईझगड़े भी होते, तब यही मनातीं कि इस से अच्छा तो सास ही न होती.’

दूसरी दीदी की शादी तय हो गई थी. भरापूरा परिवार था उन का. घर में सासससुर, देवरननद सभी थे. मैं ने सोचा, यह गई काम से. देखें, ससुराल से लौट कर ये क्या भाषण देती हैं. दीदी पति के साथ दूसरे शहर में रहती थीं, यों भी उन का परिवार आधुनिक विचारधारा का हिमायती था. उन की सास दीदी से परदा भी नहीं कराती थीं. सब तरह की आजादी थी, यानी शादी से पहले से भी कहीं अधिक आजादी. सही है, सास जब खुद मौडर्न होगी तो बहू भी उसी के नक्शेकदमों पर चलेगी.

दीदी बेहद खुश थीं, पति व उन की मां के बखान करते अघाती न थीं. मैं ने सोचा, ‘मैडम को भारतीय रंग में रंगी सास व परिवार मिलता तो पता चलता. फिर, ये तो पति के साथ रहती हैं. सास के साथ रहतीं तब देखती तारीफों के

पुल कैसे बांधतीं. अभी तो बस आईं

और मेहमानदारी करा कर चल दीं.

चार दिन में वे तुम से और तुम उन से क्या कहोगी?’

बड़ी दीदी से सास की अनिवार्यता और मंझली दीदी से सास के बखान सुनसुन कर भी, मैं अपने मस्तिष्क में बनाई सास की तसवीर पूरी तरह मिटा न सकी.

अब मेरी मां स्वयं सास बनने जा रही थीं. भैया की शादी हुई, मेरी भाभी की मां नहीं थी. सो, न तो वे कामकाज सीख सकीं, न ही मां का प्यार पा सकीं. पर मां को क्या हो गया? बातबात पर हमें व भैया को डांट देती हैं. भाभी को हम से बढ़ कर प्यार करतीं?. मां कहतीं, ‘‘बहू हमारे घर अपना सबकुछ छोड़ कर आई है, घर में आए मेहमान से सभी अच्छा व्यवहार करते हैं.’’

मां का तर्क सुन कर लगता, काश, सभी सासें ऐसी हों तो सासबहू का झगड़ा ही न हो. कई बार सोचती, ‘मां जैसी सासें इस दुनिया में और भी होंगी. देखते हैं, मुझे कैसी सास मिलती है.’

इसी बीच, एक बार अपनी बचपन की सहेली रमा से मुलाकात हुई. मैं उस के मेजर पति से मिल कर बड़ी प्रभावित हुई, उस की सास भी काफी आधुनिक लगीं, पर बाद में जब रमा से बातें हुईं तो पता लगा उन का असली रंग क्या है.

रमा कहने लगी, ‘‘मैं तो उन्हें घर के सदस्या की तरह रखना चाहती हूं पर वे तो मेहमानों को भी मात कर देती हैं. शादी के इतने सालों बाद भी मुझे पराया समझती हैं. मेरे दुखसुख से उन्हें कोई मतलब नहीं. बस, समय पर सजधज कर खाने की मेज पर आ बैठती हैं. कभीकभी बड़ा गुस्सा आता है. ननद के आते ही सासजी की फरमाइशें शुरू हो जाती हैं, ‘ननद को कंगन बनवा कर दो, इतनी साडि़यां दो.’ अकेले रमेश कमाने वाले, घर का खर्च तो पूरा नहीं पड़ता, आखिर किस बूते पर करें.

‘‘रमेश परेशान हो जाते हैं तो उन का सारा गुस्सा मुझ पर उतरता है. घर का सुखचैन सब खत्म हो गया है. रमेश अपनी मां के अकेले बेटे हैं, इसलिए उन का और किसी के पास रहने का सवाल ही नहीं है. पोतेपोतियों से यों बचती हैं गोया उन के बेटे के बच्चे नहीं, किसी गैर के हैं. कहीं जाना हुआ तो सब से पहले तैयार, जिस से बच्चों को न संभालना पड़े.’’

रमा की बातें सुन कर मैं बुरी तरह सहम गई. ‘‘अरे, यह तो हूबहू वही तसवीर साक्षात रमा की सास के रूप में विद्यमान है. अब तो मैं ने पक्का निश्चय कर लिया कि नहीं, मेरी सास नहीं होनी चाहिए. लेकिन होनी, तो हो कर रहती है. मैं ने सुना तो दिल मसोस कर रह गई. अब मां से कैसे कहूं कि यहां शादी नहीं करूंगी. कारण पूछेंगी तो क्या कहूंगी कि मुझे सास नहीं चाहिए. वाह, यह भी कोई बात है.

मन ही मन उलझतीसुलझती आखिर एक दिन मैं डोली में बैठ विदा हो ही गई. नौकरीपेशा पिता ने हम भाईबहनों को अच्छी तरह पढ़ायालिखाया, पालापोसा, यही क्या कम है.

मेरी देवरानियांजेठानियां सभी अच्छे खातेपीते घरों की हैं, मैं ने कभी यह आशा नहीं की कि ससुराल में मेरा भव्य स्वागत होगा. ज्यादातर मैं डरीसिमटी सी बैठी रहती. कोई कुछ पूछता तो जवाब दे देती. अपनी तरफ से कम ही बोलती. रिश्तेदारों की बातचीत से पता चला कि सास पति की शादी कहीं ऊंचे घराने में करना चाहती थीं. लेकिन पति को पता नहीं मुझ में क्या दिखा, मुझ से ही शादी करने को अड़ गए. लेनदेन से सास खुश तो नजर नहीं आईं, पर तानेबाने कभी नहीं दिए, यह क्या कम है.

मैं ने मां की सीख गांठ बांध ली थी कि उलट कर जवाब कभी नहीं दूंगी. पति नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर में रहते थे. मैं उन्हीं के साथ रहती. बीचबीच में हम कभी आते. मेरी सास ने कभी भी किसी बात के लिए नहीं टोका. मुझ से बिछिया नहीं पहनी गई, मुझे उलटी मांग में सिंदूर भरना कभी अच्छा नहीं लगा, गले में चेन पहनना कभी बरदाश्त न हुआ, हाथों में कांच की चूडि़यां ज्यादा देर कभी न पहन पाईं. मतलब सुहाग की सभी बातों से किसी न किसी प्रकार का परहेज था. पर सासजी ने कभी जोर दे कर इस के लिए मजबूर नहीं किया.

दुबलीपतली, गोरीचिट्टी सी मेरी सास हमेशा काम में व्यस्त रहतीं. दूसरों को आदेश देने के बजाय वे सारे काम खुद निबटाना पसंद करती थीं. बेटियों से ज्यादा उन्हें अपनी बहुओं के आराम का खयाल था.

इस बीच, मैं 2 बेटियों की मां बन चुकी थी. समयसमय पर बच्चों को उन के पास छोड़ जाना पड़ता तो कभी उन के माथे पर बल नहीं पड़ा. मेरे सामने तो नहीं, पर मेरे पीछे उन्होंने हमेशा सब से मेरी तारीफ ही की. मेरी बेटियां तो मुझ से बढ़ कर उन्हें चाहने लगी थीं. मेरी असली सास के सामने मेरी खयाली सास की तसवीर एकदम धुंधली पड़ती जा रही थी.

इसी बीच, मेरे पति का अपने ही शहर में तबादला हो गया. मैं ने सोचा, ‘चलो, अब आजाद जिंदगी के मजे भी गए. कभीकभार मेहमान बन कर गए तो सास ने जी खोल कर खातिरदारी की. अब हमेशा के लिए उन के पास रहने जा रहे हैं. असली रंगढंग का तो अब पता चलेगा. पर उन्होंने खुद ही मुझे सुझाव दिया कि 3 कमरों वाले उस छोटे से घर में देवरननदों के साथ रहना हमारे लिए मुश्किल होगा. फिर अलग रहने से क्या, हैं तो हम सब साथ ही.

मेरी मां मुझ से मिलतीं तो उलाहना दिया करतीं. ‘‘तुझे तो सास से इतना प्यार मिला कि तू ने अपनी मां को भी भुला दिया.’’

शायद इस दुनिया में मुझ से ज्यादा खुश कोई नहीं. मेरे मस्तिष्क की पहली वाली तसवीर पता नहीं कहां गुम हो गई. अब सोचती हूं कि टीवी सीरियल व फिल्मों वगैरा में गढ़ी हुई सास की लड़ाकू व झगड़ालू औरत का किरदार बना कर, युवतियां अकारण ही भयभीत हो उठती हैं. जैसी अपनी मां, वैसी ही पति की मां, वे भला बहूबेटे का अहित क्यों चाहेंगी या उन का जीवन कलहमय क्यों बनाएंगी. शायद अधिकारों के साथसाथ कर्तव्यों की ओर भी ध्यान दिया जाए तो गलतफहमियां जन्म न लें. एकदूसरे को दुश्मन न समझ कर मित्र समझना ही उचित है. यों भी, ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती.

मेरी सास मुझ से कितनी प्रसन्न हैं, इस के लिए मैं लिख कर अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनना चाहती, इस के लिए तो मेरी सास को ही एक लेख लिखना पड़ेगा. पर उन की बहू अपनी सास से कितनी खुश है, यह तो आप को पता चल ही गया है.

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जिंदगी के रंग

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