Serial Story: अपनी मंजिल (भाग-2)

पूर्व कथा

बदहवास सी अमिता ट्रेन की जनरल बोगी में चढ़ कर घबरा जाती है. तभी टिकट चैकर आता है तो वह उस से झूठ बोलती है कि वह इंटरव्यू देने टाटानगर जा रही है. वह उसे फर्स्ट क्लास में जगह दिला देता है. अमिता रात को पुरानी बातें याद करने लगती है.

होस्टल में पलीबढ़ी अमिता के मम्मीपापा का तलाक हो चुका था. हर साल छुट्टियों में वह घर न जा कर कहीं न कहीं कैंप में चली जाती और पापा भी उसे भेजने को राजी हो जाते. हालांकि पापा उसे बहुत प्यार करते थे, पर मां की कमी उसे महसूस होती. इस बार छुट्टियों में आतंकवादी गतिविधियों के कारण उन का कैंप रद्द हो गया तो वह पापा को सरप्राइज देने के लिए अकेली ही दिल्ली चली गई. पापा उसे देख कर पसोपेश में पड़ गए. तभी एक युवती से उस का सामना हुआ. तब उसे पता चला कि उन्होंने तो शादी कर के दुनिया ही बसाई हुई है. वह उलटे पांव वहां से लौट गई. अमिता फिर अपनी मां के पास कानपुर चली गई.

अब आगे…

अमिता के सामने एक पल में सारा संसार सुनहरा हो गया. मां कभी बच्चे से दूर नहीं जा सकती. पापा ने बहुत कुछ किया पर मां संसार में सर्वश्रेष्ठ आश्रय है.

‘इतने दिनों के बाद मेरी याद आई तुझे?’ उन्होंने फिर चूमा उसे.

‘चल…अंदर चल.’

‘बैठ, मैं चाय बनाती हूं.’

बैग को कंधे से उतार कर नीचे रखा और सोफे पर बैठी. घर में पता नहीं कौनकौन हैं? वे लोग उस का आना पता नहीं किसकिस रूप में लेंगे. मम्मी अपनी हैं पर बाकी से तो कोई रिश्ता नहीं, तभी अमिता चौंकी. अंदर कर्कश आवाज में कोई गरजा.

‘8 बज गए, चाय बनी कि नहीं.’

‘बनाती हूं, बिट्टू आई है न इसलिए देर हो गई.’

‘कौन है यह बिट्टू? सुबह किसी के घर आने का यह समय है क्या?’

‘धीरे बोलो, वह सुन लेगी. मेरी बेटी है अमिता,’ मां के स्वर में लाचारी और घबराहट थी.

‘तुम्हारी बेटी, वह होस्टल वाली न. मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा. जाने के लिए कह दो.’

‘अरे, मुझ से मिलने आई होगी. 2-4 दिन रहेगी फिर चली जाएगी पर तुम पहले से हल्ला मत करो.’

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मां के शब्दों में अजीब सी याचना और विनती थी. आंखों के सामने उजली सुबह स्याह हो गई. ये उस को नहीं रखेंगे तो अब क्या करेगी? पापा होटल में रख रहे थे वह फिर भी अच्छा था. किसी की दया का पात्र तो नहीं बनती.

परीक्षाफल आने में अभी पूरा एक महीना पड़ा है. उस के बाद ही तो वह कहीं नौकरी तलाश कर सकती है पर तब तक का समय? होस्टल खुला होता तो लौट जाती. वहीं कोई छोटामोटा काम देख लेती पर कानपुर तो नई और अनजान जगह है. कौन नौकरी देगा?

तभी सुनीता ट्रे में रख कर चाय ले आईं. पीछेपीछे एक गैंडे जैसा आदमी चाय पीता हुआ लुंगी और बनियान में आ गया. लाललाल आंखें, मोटे लटके होंठ, डीलडौल मजदूरों जैसा, भद्दा हावभाव. उस की आंखों के सामने सौम्य, भद्र व्यक्तित्व वाले उस के पापा आ गए. मम्मी की रुचि इतनी विकृत हो गई है. छि:.

‘चाय ले, ये सतीशजी हैं मेरे पति.’

मन ही मन अमिता ने सोचा यह आदमी तो पापा के चपरासी के समान भी नहीं है. उस ने बिना कुछ बोले चाय ले ली. गैंडे जैसे व्यक्ति ने स्वर को कोमल करते हुए कहा, ‘अरे, तुम मेरी बेटी जैसी हो. हमारे पास ही रहोगी.’

सुनीता का चेहरा खुशी से खिल उठा.

‘यही तो मैं कह रही थी. तेरे 2 छोटे भाई भी हैं. अच्छा लगेगा तुझे यहां.’

अमिता उस व्यक्ति की आंखों में लालच और भूख देख सिहर उठी. बिना सोचेसमझे वह कहां आ गई. मम्मी खुशी से फूली नहीं समा रहीं.

‘चाय समाप्त कर, चल तेरा कमरा दिखा दूं. साथ में ही बाथरूम है. नहाधो कर फ्रैश हो ले. मैं नाश्ता बनाती हूं. भूख लगी होगी.’

सुनीता बेटी को उस के कमरे में छोड़ आईं. मां के बाहर जाते ही उस ने अंदर से कुंडी लगा ली. उस की छठी इंद्री उसे सावधान कर रही थी कि वह यहां पर सुरक्षित नहीं है. उस का मन पापा का संरक्षण पाने के लिए रो उठा.

नहाधो कर अमिता बाहर आई तो 2 कालेकलूटे, मोटे से लड़के डाइनिंग टेबल पर स्कूल ड्रैस में बैठे थे. अमिता को दोनों एकदम जंगली लगे. सतीश नाश्ता कर रहा था. उसे फिर ललचाई नजरों से देख कर बेटों से बोला, ‘बच्चो, यह तुम्हारी दीदी है. अब हमारे साथ ही रहेगी और तुम लोग इस से पढ़ोगे,’ फिर पत्नी से बोला, ‘सुनो सुनीता, आज से ही टीचर की छुट्टी कर देना.’

‘टीचर की छुट्टी क्यों?’

‘अब इन बच्चों को यह पढ़ाएगी. 500 रुपए महीने के बचेंगे तो इस का कुछ तो खर्चा निकलेगा.’

अमिता ने सिर झुका लिया. सुनीता लज्जित हो गईं.

अमिता ने इस से पहले इतने भद्दे ढंग से बात करते किसी को नहीं देखा था और मम्मी यह सब झेल रही हैं. जबकि यही मम्मी पापा का जरा सा गरम मिजाज नहीं झेल सकीं और इस मूर्ख के आगे नाच रही हैं. उन की जरा सी जिद पर चिढ़ जाती थीं और अब इन दोनों जंगली बच्चों को झेल रही हैं और चेहरे पर शिकन तक नहीं है. यही मम्मी हैं कि आज सतीश को खुश करने में कैसे जीजान से लगी हैं जबकि पापा की नाक में दम कर रखा था.

एक खटारा सी मारुति में दोनों बेटों को ले कर सतीश चला गया. बच्चों को स्कूल छोड़ खुद काम पर चला जाएगा. लंच में आते समय ले आएगा. सुनीता ने फिर 2 कप चाय का पानी चढ़ा दिया.

अमिता को अब मां से बात करना भी अच्छा नहीं लग रहा था. इस समय वह अपने भविष्य को ले कर चिंतित थी.

‘तू तो लंबी छुट्टी में कैंप में जाती थी… इस बार क्या हुआ?’

‘कैंप रद्द हो गया. जहां जाना था वहां माओवादी उपद्रव मचा रहे हैं.’

‘पापा के पास नहीं गई थी?’

अमिता को लगा कि हर समय सही बात कहना भी मूर्खता है. इसलिए वह बोली, ‘नहीं, अभी नहीं गई.’

‘तू ने कब से अपने पापा को नहीं देखा?’

‘क्या मतलब, हर दूसरेतीसरे महीने हम मिलते हैं.’

यह सब जान कर सुनीता बुझ सी गईं.

‘अच्छा, मैं सोच रही थी कि बहुत दिनों से…’

‘होस्टल का खर्चा भी कम नहीं. पापा ने कभी हाथ नहीं खींचा,’ बेटी को अपलक देखती हुई सुनीता कुछ पल को रुक कर बोलीं, ‘अब तो तू अपने पापा के साथ रह सकती है?’

अमिता ने सीधे मां की आंखों में देखा और पूछ बैठी, ‘क्यों?’

सुनीता की नजरें झुक गईं. उन्होंने मुंह नीचा कर मेज से धूल हटाते हुए कहा, ‘मेरा मतलब…अब पढ़ाई तो पूरी हो गई, तुम्हारे लिए रिश्ता देखना चाहिए.’

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अमिता के मन में कई बातें कहने की इच्छा हुई कि तुम तो बच्ची को एक झटके में छोड़ कर चली आई थीं. 12 साल में पलट कर भी नहीं देखा. अब बेटी के रिश्ते की चिंता होने लगी? पर अपने को संभाला. इस समय उस के पैरों के नीचे जमीन नहीं है. आगे के लिए बैठ कर सोचने के लिए एक आश्रय तो चाहिए. अत: वह चुप ही रही. इस के बाद सुनीता ने बातचीत चालू रखने का प्रयास तो किया पर सफल नहीं हो पाईं. बेटी उठ कर अपने कमरे में चली गई.

ठीक 2 बजे सतीश अपनी खटारा गाड़ी में दोनों बच्चों को ले कर वापस आया. अमिता को फिर अपने पापा की याद आई. वह सारा दोष पापा को नहीं देती है. ढलती उम्र में स्त्री अकेली रह लेती है पर आदमी के लिए रहना कठिन है. वह कुछ सीमा तक असहाय हो जाता है. पापा का दोष इतना भर है कि अपनी पत्नी से बेटी की बात छिपाई और बेटी से अपने विवाह की वरना पापा ने पैसों से कभी हाथ नहीं खींचा.

मैं ने 100 रुपए मांगे तो पापा ने 500 दिए. साल में कई बार मिलते रहे. मेरी पढ़ाई की व्यवस्था में कोई कमी नहीं होने दी. उन का व्यवहार अति शालीन है. उन के उठने, बैठने, बोलने में शिक्षा और कुलीनता साफ झलकती है. इस उम्र में भी वे अति सुदर्शन हैं. एक अच्छे परिवार की उन में छाप है और यह भौंडा सा व्यक्ति..छि:…छि:. मां की रुचि के प्रति अमिता को फिर से घृणा होने लगी.

उसे पूरा विश्वास है कि यह व्यक्ति व्यसनी, व्यभिचारी और असभ्य है. किसी अच्छे परिवार का भी नहीं है. उस व्यक्ति का सभ्यता, शालीनता से परिचय ही नहीं है. पहले मजदूर होगा, अब सुपरवाइजर बन गया है. इस आदमी के हावभाव देख कर तो यही लगता है कि यह आदमी मां की पिटाई भी करता होगा जबकि पापा ने कभी मां पर हाथ नहीं उठाया बल्कि मम्मी ही गुस्से में घर में तोड़फोड़ करती थीं. अब इस के सामने सहमीसिमटी रहती हैं. अब इस समय अमिता को मां की हालत पर रत्तीभर भी तरस नहीं आया. जो जैसा करेगा उस को वैसा झेलना पड़ेगा.

रात को सोने से पहले अमिता ने कमरे का दरवाजा अच्छी तरह चैक कर लिया. उसे मां के घर में बहुत ही असुरक्षा का एहसास हो रहा था. मां का व्यवहार भी अजीब सा लग रहा था.

उस ने रात खाने से पहले टैलीविजन खोलना चाहा तो मां ने सिहर कर उस का हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘सतीशजी को टैलीविजन का शोर एकदम पसंद नहीं. इसलिए जब तक वे घर में रहते हैं हम टैलीविजन नहीं चलाते. असल में फैक्टरी के शोर में दिनभर काम करतेकरते वे थक जाते हैं.’

अमिता तुरंत समझ गई कि टैलीविजन चलाने के लिए इस घर में सतीश की आज्ञा चाहिए. मन में विराग का सैलाब उमड़ रहा था. यहां आना उस के जीवन की सब से बड़ी भूल है. अब सहीसलामत यहां से निकल सके तो अपने जीवन को धन्य समझेगी, पर वह जाएगी कहां? उसे याद आया कि इसी मां के धारावाहिकों के चक्कर में पापा का मैच छूट जाता था पर मम्मी टैलीविजन के सामने जमी रहती थीं.

इंसान हालात को देख कर अपने को बदलता है, पर इतना? यह समझौता है या पिटाई का आतंक? पूरे दिन मां यही समझाने का प्रयास करती रहीं कि सतीश बहुत अच्छे इंसान हैं. ऊपर से जरा कड़क तो हैं पर अंदर से एकदम मक्खन हैं. उस को चाहिए कि उन से जरा खुल कर मिलेजुले तभी संपर्क बनेगा.

 

अमिता के मन में आया कि कहे मुझे न तो यहां रहना है और न ही अपने को इस परिवार से जोड़ना है. तो फिर क्यों इस के लिए खुशामद करूं.

रात को पता नहीं कैसे चूक हो गई कि खाना खा कर अपने कमरे में आ कर अमिता को कुंडी लगाने का ध्यान नहीं रहा. बाथरूम से निकल कर बिस्तर पर बैठ क्रीम का डब्बा अभी खोला भी नहीं था कि सतीश दरवाजा धकेल कर कमरे में आ गया. अमिता को अपनी गलती पर भारी पछतावा हुआ. इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई पर अब तो भूल हो ही गई थी. उस ने सख्ती से पूछा, ‘कुछ चाहिए था क्या?’

गंदे ढंग से वह हंसा और बोला, ‘बहुत कुछ,’ इतना कह कर वह सीधे बिस्तर पर आ कर बैठ गया, ‘अरे, भई, जब से तुम आई हो हमारा ठीक से परिचय ही नहीं हो पाया. अब समय मिला है तो सोचा जरा बातचीत ही कर लें.’

अमिता को खतरे की घंटी सुनाई दी. दोनों बेटे सोने गए हैं. मम्मी रसोई समेट रही हैं सो उन के इधर आने की संभावना नहीं है. उस के पैरों तले धरती हिल रही है. वह अमिता के नजदीक खिसक आया और उस के हाथ उसे दबोचने को उठे. अमिता की बुद्धि ने उस का साथ नहीं छोड़ा. उस ने यह जान लिया था कि इस घर में चीखना बेकार है. मम्मी दौड़ तो आएंगी पर साथ सतीश का ही देंगी. अमिता को जरा भी आश्चर्य नहीं होगा अगर मम्मी उस के सामने यह समझाने का प्रयास करेंगी कि यह तो प्यार है, उसे बुरा नहीं मानना चाहिए.

सतीश की बांहों का कसाव बढ़ रहा था. वैसे भी उस में मजदूर लोगों जैसी शक्ति है. पर शायद सतीश को यह पता नहीं था कि जिसे मुरगी समझ कर वह दबोचने की कोशिश में है, वह लड़की अभीअभी ब्लैकबैल्ट ले कर आई है. हर दिन कैंप से पहले 10 दिन की ट्रेनिंग खुद के बचाव के लिए होती थी.

अमिता का हाथ उठा और सतीश पल में दीवार से जा टकराया. अमिता उठी, सतीश के उठने से पहले ही उस के पैर  पूरे ताकत से सतीश के शरीर पर बरसने लगे. वह निशब्द थी पर सतीश जान बचाने को चीखने लगा. सुनीता दौड़ कर आईं. वह किसी प्रकार लड़खड़ाता खड़ा ही हुआ था कि अमिता के हाथ के एक भरपूर वार से वह फिर लुढ़क गया.

‘थैंक्यू पापा,’ अमिता के मुंह से अनायास निकला. पैसे की परवा न कर के आप ने मुझे एक अच्छे कालेज में शिक्षा दिलवाई नहीं तो मैं आज अपने को नहीं बचा पाती.’

सुनीता रोतेरोते हाथ जोड़ने लगीं, ‘बस कर बिट्टू. माफ कर दे. इन के मुंह से खून आ रहा है.’

‘मम्मी, ऐसे कुत्तों को जीना ही नहीं चाहिए,’ दांत पीस कर उस ने कहा.

‘बेटी, मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. माफ कर दे.’

मौका देख सतीश कमरे से भाग गया. सुनीता ने अमिता का हाथ पकड़ कर उसे समझाने का प्रयास किया तो अमिता गरजी, ‘रुको, मुझे छूने की कोशिश मत करना. मेरे पापा का जीना तुम ने मुश्किल कर दिया था. अच्छा हुआ तलाक हो गया क्योंकि तुम उस सुख भरी जगह में रहने के लायक ही नहीं थीं. नाली का कीड़ा नाली में ही रहना चाहता है. आज से मैं तुम्हारे साथ अपने जन्म का रिश्ता तोड़ती हूं.’

‘बिट्टू… मेरी बात तो सुन.’

‘मुझे अब आप की कोई बात नहीं सुननी. मुझे तो अपने शरीर से घिन आ रही है कि तुम्हारे शरीर से मेरा जन्म हुआ है. तुम वास्तव में एक गिरी औरत हो और तुम्हारी जगह यही है.’

दिमाग में ज्वालामुखी फट रहा था. उस ने जल्दीजल्दी सामान समेट बैग में डाला. जो छूट गया वह छूट गया. घर से निकल पड़ी और टैक्सी पकड़ कर सीधे स्टेशन पहुंची. वह इतनी जल्दी और हड़बड़ी में थी कि उस ने यह भी नहीं देखा कि कौन सी गाड़ी है. कहां जा रही है. वह तो भला हो कोच कंडक्टर का जो इस कोच में उसे जगह दे दी.

रात भर अमिता बड़ी चैन की नींद सोई. जब आंख खुली तब धूप निकल आई थी. ब्रश, तौलिया ले वह टायलेट गई. फ्रेश हो कर लौटी. बाल भी संवार लिए थे. ऊपर की दोनों सीट खाली थीं. सामने एक वयोवृद्ध जोड़ा बैठा था. पति समाचारपत्र पढ़ रहे हैं और पत्नी कोई धार्मिक पुस्तक.

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अमिता ने बिस्तर समेट कर ऊपर डाल दिया फिर सीट उठा कर आराम से बैठी. खिड़की का परदा हटा कर बाहर देखा तो खेतखलिहान, बागबगीचे यहां तक कि मिट्टी का रंग तक बदला हुआ था. यह अमिता के लिए नई बात नहीं क्योंकि हर साल वह दूरदूर कैंप में जाती थी, आसाम से जैसलमेर तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक का बदलता रंगढंग उस ने देखा है. राजस्थान  की मिट्टी से मेघालय की तुलना नहीं तो ‘गोआ’ से ‘चंडीगढ़’ की तुलना नहीं.

चाय वाले को बुला कर अमिता ने चाय ली और धीरेधीरे पीने लगी. आराम- दायक बिस्तर और ठंडक से अच्छी नींद आई थी तो शरीर की थकान काफी कम हो गई थी. सामने बैठे वृद्ध दंपती के संपूर्ण व्यक्तित्व से संपन्नता और आभिजात्यपन झलक रहा था. देखने से ही पता चला रहा था कि वे खानदानी अमीर परिवार से हैं. महिला 60 के आसपास होंगी तो पति 65 को छूते.

– क्रमश:

Serial Story: अपनी मंजिल (भाग-1)

अमिता दौड़ती सी जब प्लेटफार्म पर पहुंची तो गाड़ी चलने को तैयार थी. बिना कुछ सोचे जो डब्बा सामने आया उसी में वह घुस गई. अमिता को अभी तक रेल यात्रा करने का कोई अनुभव नहीं था. डब्बे के अंदर की दुर्गंध से उसे मतली आ गई. भीड़ को देखते ही उस के होश उड़ गए.

‘‘आप को कहां जाना है?’’ एक काले कोट वाले व्यक्ति ने उस से पूछा.

चौंक उठी अमिता. काले कोट वाला व्यक्ति रेलवे का टीटीई था जो अमिता को घबराया देख कर उतरतेउतरते रुक गया था. अब वह बुरी तरह घबरा गई. रात का समय और उसे पता नहीं जाएगी कहां? उसे तो यह तक नहीं पता था कि यह गाड़ी जा कहां रही है? वह स्तब्ध सी खड़ी रही. उसे डर लगा कि बिना टिकट के अपराध में यह उसे पुलिस के हाथों न सौंप दे.

‘‘बेटी, यह जनरल बोगी है. इस में तुम क्यों चढ़ गईं?’’ टीटीई ने सहानुभूति से कहा.

‘‘समय नहीं था अंकल, जाना जरूरी था तो मैं बिना सोचेसमझे ही…यह डब्बा सामने था सो चढ़ गई.’’

‘‘समझा, इंटरव्यू देने के लिए जा रही हो?’’

‘‘इंटरव्यू?’’ अमिता को लगा कि यह शब्द इस समय उस के लिए डूबते को तिनके का सहारा के समान है.

‘‘अंकल, जाना जरूरी था, गाड़ी न छूट जाए इसलिए…’’

‘‘गाड़ी छूटने में अभी 10 मिनट का समय है.’’

टीटीई के साथ नीचे उतर कर अमिता ने पहले जोरजोर से सांस ली.

‘‘रिजर्वेशन है?’’

‘रिजर्वेशन?’ मन ही मन अमिता घबराई. यह कैसे कराया जाता है, उसे यही नहीं मालूम तो क्या बताए. पहले कभी रेल का सफर किया ही नहीं. छुट्टी होते ही पापा गाड़ी ले कर आते और दिल्ली ले आते. छुट्टी के बाद अपनी गाड़ी से पापा उसे फिर देहरादून होस्टल पहुंचा आते. जब मम्मी थीं तब वह उन के साथ मसूरी भी जाती तो अपनी ही कार से और पापा 2-4 दिन में घूमघाम कर दिल्ली लौट जाते. मम्मी के बाद पापा अकेले ही कार से उसे लेने आते और छुट्टियां खत्म होने के बाद फिर छोड़ आते. रेल के चक्कर में कभी पड़ी ही नहीं.

12 साल हो गए, मम्मी का आना बंद हो गया, क्योंकि मम्मीपापा दोनों तलाक ले कर अलग हो गए हैं. कोर्ट ने आर्थिक सामर्थ्य का ध्यान रखते हुए उस की कस्टडी पापा को सौंप दी. वैसे मां ने भी उस को साथ रखने का कोई आग्रह नहीं किया. मां के भेजे ग्रीटिंग कार्ड्स व पत्रों से ही उसे पता चला कि उन्होंने शादी कर ली है और अब कानपुर में हैं.

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आज 12 साल से उस का जीवन एकदम होस्टल का है क्योंकि गरमी की लंबी छुट्टियों में स्कूल की ओर से कैंप की व्यवस्था की जाती है. वह वहीं चली जाती. उसे अच्छा भी लगता क्योंकि दोस्तों के साथ अमिता खूब मौजमस्ती करती. पापा तो 1-2 महीने में आ कर उस से मिल जाते पर मम्मी नहीं. मां के अलग होने के बाद घर का आकर्षण भी नहीं रहा तो कोई समस्या भी नहीं हुई. पर इस बार कुछ अलग सा हो गया.

‘‘क्या हुआ मैडम, रिजर्वेशन नहीं है क्या?’’ यह सुनते ही अमिता अपने खयालों से जागी.

‘‘जी, अंकल इतनी जल्दी थी कि…’’

‘‘क्या कोई इंटरव्यू है?’’

‘‘जी…जी अंकल.’’

‘‘मेरा भतीजा भी गया है,’’ वह टिकट चैकर बोला, ‘‘टाटा कंपनी में उसे इंटरव्यू देना है पर वह तो सुबह की गाड़ी से निकल गया था. तुम को भी उसी से जाना चाहिए था. नई जगह थोड़ा समय मिले तो अच्छा है, पर यह भी ठीक है. इंटरव्यू तो परसों है. जनरल बोगी में तुम नहीं जा पाओगी. सेकंड एसी में 2-3 बर्थ खाली हैं. चलो, वहां तुम को बर्थ दे देता हूं.’’

साफसुथरे ठंडे और भीड़रहित डब्बे में आ कर अमिता ने चैन की सांस ली. नीचे की एक बर्थ दिखा कर टिकट चैकर ने कहा, ‘‘यह 23 नंबर की बर्थ तुम्हारी है. मैं इस का टिकट बना रहा हूं.’’

पैसे ले कर उस ने टिकट बना दिया. 4 बर्थों के कूपे में अपनी बर्थ पर वह फैल कर बैठ गई. तब अमिता के मन को भारी सुकून मिला था.

 

अपनी बर्थ पर कंबल, चादर, तौलिया, तकिया रखा देख उस ने बिस्तर ठीक किया. भूख लगी तो कूपे के दरवाजे पर खड़ी हो कर वैंडर का इंतजार करने लगी. तभी हाथ में बालटी लिए एक वैंडर उधर से निकला तो उस ने एक पानी की बोतल और एक कोल्डडिं्रक खरीदी और बर्थ पर बैठ कर पीने लगी. वैंडर ने ही उसे बताया था कि यह ट्रेन टाटा नगर जा रही है.

आरामदेह बर्थ मिल गई तो अमिता सोचने लगी कि कौन कहता है संसार में निस्वार्थ सेवा, परोपकार, दया, सहानुभूति समाप्त हो गई है? भले ही कम हो गई हो पर इन अच्छी भावनाओं ने अभी दम नहीं तोड़ा है और इसलिए आज भी प्रकृति हरीभरी है, सुंदर है और मनुष्यों पर स्नेह बरसाती है. यदि सभी स्वार्थी, चालाक और गंदे सोच के लोग होते तो धरती पर यह खूबसूरत संसार समाप्त हो जाता.

अमिता कोल्डडिं्रक पी कर लेट गई और चादर ओढ़ कर आंखें बंद कर लीं. इस एक सप्ताह में उस के साथ जो घटित हुआ उस पर विचार करने लगी.

इस बार भी कैंप की पूरी व्यवस्था रांची के जंगलों में थी. कुछ समय ‘हुंडरू’ जलप्रपात के पास और शेष समय ‘सारांडा’ में रहना था. स्कूल की छुट्टियां होने से पहले ही पैसे जमा हो गए थे. उस ने भी अपना बैग लगा लिया था. गरमी की छुट्टियों का मजा लेने को कई छात्र तैयार थे कि अचानक कार्यक्रम निरस्त कर दिया गया, क्योंकि वहां माओवादियों का उपद्रव शुरू हो गया था और वे तमाम टे्रनों को अपना निशाना बना रहे थे. ऐसे में किसी भी पर्यटन पार्टी को सरकार ने जंगल में जाने की इजाजत नहीं दी. अब वह क्या करती. होस्टल बंद हो चुका था और ज्यादातर छात्र अपनेअपने घर जा चुके थे. जो छात्र कैंप में नहीं थे, वे तो पहले ही अपनेअपने घरों को जा चुके थे और अब कैंप वाले भी जा रहे थे.

अमिता ने सोचा दिल्ली पास में ही तो है. देहरादून से हर वक्त बस, टैक्सियां दिल्ली के लिए मिल जाती हैं. इसलिए वह अपनेआप घर जा कर पापा को सरप्राइज देगी. पापा भी यह देख कर खुश होंगे कि बेटी बड़ी व समझदार हो गई है. अब अकेले भी आजा सकती है और फिर पापा भी तो अकेले हैं. इस बार जा कर उन की खूब सेवा करेगी, अच्छीअच्छी चीजें बना कर खिलाएगी. उन को ले कर घूमने जाएगी. उन के लिए अपनी पसंद के अच्छेअच्छे कपड़े सिलवाएगी.

संयोग से सहारनपुर आ कर उस की बस खराब हो गई और ठीक होने में 2 घंटे लग गए. अमिता घर पहुंची तो रात के साढ़े 9 बजे थे. उस ने घंटी बजाई और पुलकित मन से सोच रही थी कि पापा उसे देख कर खुशी में उछल पड़ेंगे. परीक्षा का नतीजा आने में अभी 1 महीना पड़ा है. तब तक मस्ती ही मस्ती.

दरवाजा पापा ने ही खोला. उस ने सोचा था कि पापा उसे देखते ही खुश हो जाएंगे लेकिन उन्हें सहमा हुआ देख कर वह चिंतित हो गई.

‘तू…? तेरा कैंप?’ भौचक पापा ने पूछा.

बैग फेंक कर वह अपने पापा से लिपट गई. पर पापा की प्रतिक्रिया से उसे झटका लगा. चेहरा सफेद पड़ गया था.

‘तू इस तरह अचानक क्यों चली आई?’

अमिता को लगा मानो उस के पापा अंदर ही अंदर उस के आने से कांप रहे हों. उस ने चौंक कर अपना मुंह उठाया और पापा को देखा तो वे उसे कहीं से भी बीमार नहीं लगे. सिल्क के गाउन में वे जंच रहे थे, चेहरे पर स्वस्थ होने की आभा के साथ किसी बात की उलझन थी. अमिता ने बाहर से ही ड्राइंगरूम में नजर दौड़ाई तो वह सजाधजा था. तो क्या उस के घर आने से पापा नाराज हो गए? पर क्यों? वे तो उसे बहुत प्यार करते हैं.

‘पापा, होस्टल बंद हो गया. सारी लड़कियां अपनेअपने घरों को चली गईं. मैं अकेली वहां कैसे रहती? मैस भी बंद था. खाती क्या?’

‘वह तुम्हारा कैंप? पैसे तो जमा कर आया था.’

‘इस बार कैंप रद्द हो गया. जहां जाना था वहां माओवादी उपद्रव मचा रहे हैं.’

‘शिल्पा के घर जा सकती थी. कई बार पहले भी गई हो.’

शिल्पा उस की क्लासमेट के साथ ही रूममेट भी है और गढ़वाल के एक जमींदार की बेटी है.

‘पापा, उस के चले जाने के बाद कैंप रद्द हुआ.’

उस के पापा ने अभी तक उसे अंदर आने को नहीं कहा था. बैग ले कर वह दरवाजे के बाहर ही खड़ी थी. वह खुद ही बैग घसीट कर अंदर चली आई. उसे आज पापा का व्यवहार बड़ा रहस्यमय लग रहा था.

‘बेटी, यहां आने से पहले मुझ से एक बार पूछ तो लेती.’

अमिता ने आश्चर्य के साथ पापा को देखा. क्या बात है? खुश होने की जगह पापा नाराज लग रहे हैं.

‘जब मुझे अपने ही घर आना था तो फोन कर के आप को क्या बताती? आप की बात मैं समझ नहीं पा रही. पापा, क्या मेरे आने से आप खुश नहीं हैं?’

पापा असहाय से बोल उठे, ‘ना…ना… खुश हूं…मैं अगर बाहर होता तो…? इसलिए फोन की बात कही थी.’

पापा दरवाजा बंद कर के अंदर आए. अमिता उन के गले से लग कर बोली, ‘पापा, अब मैं रोज अपने हाथों से खाना बना कर आप को खिलाऊंगी.’

‘क्यों जी, खाना खाने क्यों नहीं आ रहे? बंटी सो जाएगा,’ यह कहते हुए एक युवती परदा हटा कर अंदर पैर रखते ही चौंक कर खड़ी हो गई. लगभग 35 साल की सुंदर महिला, साजशृंगार से और भी सुंदर लग रही थी. भड़कीली मैक्सी पहने थी. पापा जल्दी से हट कर अलग खड़े हो गए.

‘दिव्या, यह…यह मेरी बेटी अमिता है.’

‘बेटी? और इतनी बड़ी? पर तुम ने तो कभी अपनी इस बेटी के बारे में मुझे नहीं बताया.’

पापा हकलाते हुए बोले, ‘बताता…पर मुझे मौका नहीं मिला. यह होस्टल में रहती है. इस साल बीए की परीक्षा दी है.’

‘तो क्या अब इसे अपने साथ रहने को बुला लिया?’

उस महिला के शब्दों से घृणा टपक रही थी. अमिता ने अपने पैरों के नीचे से धरती हिलती हुई अनुभव की.

‘नहीं…नहीं. यह यहां कैसे रहेगी?’

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पापा के चेहरे पर भय, घबराहट देख अमिता को उन पर दया आई. अब तक वह अपने पापा को बहुत बहादुर पुरुष समझा करती थी. पर दिव्या नाम की इस औरत के सामने पापा को मिमियाते देख अमिता को अंदर से भारी कष्ट हो रहा था. उस ने अपना बैग उठाया और दिव्या की तरफ बढ़ कर बोली, ‘सुनिए, मैं इन की बेटी अमिता हूं. पापा ने मुझे साथ रहने के लिए नहीं बुलाया. छुट्टियां थीं तो मैं ही उन को बिना बताए चली आई. असल में मुझे पता नहीं था कि यहां आप मेरी मां के रूप में आ चुकी हैं. आप परेशान न हों, मैं अभी चली जाती हूं.’

पापा छटपटा उठे. मुझे ले कर उन के मन की पीड़ा चेहरे पर झलक आई. बोले, ‘इतनी रात में तू कहां जाएगी. चल, मैं किसी होटल में तुझे छोड़ कर आता हूं.’

‘पापा, आप जा कर खाना खाइए. मैं जाती हूं. गुडनाइट.’

गेट से बाहर निकलते ही खाली आटो मिल गया, जिसे पकड़ कर वह बस अड्डे आ गई जहां से उस ने कानपुर जाने की बस पकड़ ली.

कानपुर तक का टिकट बनवा कर कोच की आरामदायक बर्थ पर बैठी तो अमिता को सोचने का समय मिला कि आगे उसे करना क्या है? उचित क्या है?

अमिता को आज वह दिन याद आ रहा है जब उस ने पापा का हाथ पकड़ कर देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में कदम रखा था. फिर पापा जब होस्टल में उसे छोड़ लौटने लगे तो वह कितना रोई थी. उन के हर उठते कदम के साथ उसे आशा होती कि वह दौड़ कर लौट आएंगे और उसे गोद में उठा कर अपने साथ वापस ले जाएंगे. मम्मी भी आएंगी और उसे अपने सीने से लगा लेंगी. पर उन दोनों में से कोई नहीं आया और बढ़ते समय के साथ 6 साल की वह बालिका अब 20 साल की नवयौवना बन गई. मम्मी नहीं आईं पर अब वही उन के पास जा रही है. पता नहीं वहां उस के लिए कैसे हालात प्रतीक्षा कर रहे हैं.

मां साल में 2 बार कार्ड भेजती थीं. इसलिए अमिता को उन का पता पूरी तरह याद था. घर खोजने में उसे कठिनाई नहीं हुई. आटो वाले ने आवासविकास कालोनी के ठीक 52 नंबर घर के सामने ले जा कर आटो रोका. मां का एमआईजी घर ठीकठाक है. सामने छोटा सा लौन भी है. दरवाजे पर चमेली की बेल और पतली सी क्यारी में मौसमी फूल. गेट खोल अंदर पैर रखते ही अमिता के मन में पहला सवाल आया कि क्या मम्मी उसे पहचान पाएंगी? 6 साल की बेटी की कहीं कोई भी झलक क्या इस 20 वर्ष की युवती के शरीर में बची है. पापा तो 1-2 महीनों में मिल भी आते थे. उसे धीरेधीरे बढ़ते भी देखा है पर मम्मी ने तो इन 12 सालों में उसे देखा ही नहीं. अब उस की समझ में बात आई कि अपनी बेटी से मिलने के लिए पापा को औफिस के काम का बहाना क्यों बनाना पड़ता था.

 

उस दिन पापा का हाथ पकड़े एक नन्ही बच्ची फ्राक में सुबक रही थी और आज जींसटौप में वही बच्ची जवान हो कर खड़ी है. मां पहचानेंगी कैसे? वह गेट से बरामदे की सीढि़यों तक आई तभी दरवाजे का परदा हटा कर एक महिला बाहर आई. 12 वर्ष हो गए फिर भी अमिता को पहचानने में देर न लगी. अनजाने में ही उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘म…मम्मी…’’

मां, संसार का सब से निकटतम रिश्ता जिस के शरीर को निचोड़ कर ही उस का यह शरीर बना है.

उस का मन कर रहा था कि मां से लिपट जाए. सुनीता नहीं पहचान पाईं. सहम कर खड़ी हो गई.

‘‘आप?’’

आंसू रोक अमिता रुंधे गले से बोली, ‘‘मम्मा, मैं…मैं…बिट्टू हूं.’’

अपने सामने अपनी प्रतिमूर्ति को देख कर सुनीता सिहर उठीं. फिर दोनों बांहों में भर कर उसे चूमा, ‘‘बिट्टू…मेरी बच्ची… मेरी गुडि़या…मेरी अमिता.’’

– क्रमश:

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Serial Story: तिलिस्मी के सफर में- जब कोरोना के कहर ने तोड़े पूर्बा के सपने

Serial Story: तिलिस्मी के सफर में (भाग-3)

आज के इस मौडर्न जमाने में पापा जैसे मीडियोकर लोग दो पैसे के लिए घर को अशांति का अखाड़ा बनाए रहते हैं, उन्हें आगे बढ़ने, सपनों का पीछा करने से कोई मतलब नहीं है. बस हमेशा आटेदाल का भाव ही गिनते रह जाएंगे. दुर्बा भी तो वैसी है. पूर्बा इतनी करीबी और तंगहाली में नहीं जी सकती. उसे लाट साहेबी ही पसंद है, चाहे ये लोग कितना ही उस का मजाक बनाएं.

इन दिनों पूर्बा धूप में रंग उड़े खाली टीन के डब्बे की तरह हो गई है. ऊपर से पीटो तो ढेर सारी निरर्थक आवाजें, अजूबा बातें ही उस का सहारा थीं इन दिनों, ‘‘बस कुछ दिन और देखना अमुक अभिनेता, अमुक राजनेता, अमुक सैलिब्रिटी मु झे अपने पास बुला लेंगे. मैं अब कुछ दिन में ही मैनेजर बन जाने वाली हूं. फिर छोटे से कमरे में चिकचिक करने वाली बहन के साथ मु झे कैद नहीं रहना होगा. फ्लैट का सार सामान ले कर मैं उस से बड़े फ्लैट में शिफ्ट हो जाऊंगी,’’ अनर्गल, अविराम वह खुद को तसल्ली देती रहती.

दुर्बा एक दिन खासा गुस्सा हो गई, ‘‘सारा दिन घर के लिए हम खट मरें और यह महारानी खाट पर पड़े अंशुल से अपनी सेवा कराए. उठो महारानी दीदी. अंशुल को  झूठी माया के मोहजाल में फांस तुम ने उसे पढ़ाई से दूर किया तो अब मैं तुम्हारी दुश्मन. पापा कुछ सालों में रिटायर हो जाएंगे. अंशुल को जिम्मेदारी न सम झा कर उसे हवा में उड़ा रही हो. बिस्तर पर पड़ेपड़े गाना सुनने के बजाय उठ कर घर में कुछ हाथ बंटाओ.’’

‘‘तू बड़ी है कि मैं बड़ी?’’

‘‘जिम्मेदारी कौन उठा रहा है? परिवार के कामों में कौन हाथ बंटा रहा है? भाई को पढ़ने में मदद कौन कर रहा है? तुम्हारी यहां नहीं चलेगी दीदी महारानी. पापा का और्डर है वरना घर से बाहर जाने को तैयार रहो.’’

‘‘इस लौकडाउन में?’’

अब तक आशुतोषजी सारा वार्त्तालाप सुन रहे थे, वे खुद को अब रोक नहीं पाए, ‘‘हां इसी लौकडाउन में ही. तभी तो बात बाहर जाएगी और पुलिस आएगी और तभी गरीब अनुशासनप्रिय पिता अपना दुख बता सकेगा. अभी से इस घर में सादी जिंदगी से तालमेल बैठाओ… यहां तुम्हारी मनमानी नहीं चलेगी.’’

झल्लाते हुए पूर्बा ने उस वक्त बिस्तर तो छोड़ दिया, लेकिन गहरे सागर में औक्सीजन खत्म हो गए तैराक की स्थिति थी उस की.

ऐसी जिंदगी उसे पसंद नहीं जहां इतना हिसाबकिताब चलता हो. सुखसुविधाओं पर 1-1 पाई गिन कर खर्चना पड़े. एक घेरे के अंदर सांसें आतीजाती रहें बस. यह कोई जिंदगी है. उसे चाहिए तेज रोशनी का सफर. अनंतअंतहीन एक चमचमाता आलोकवर्ष सा जीवन और वह भी आसान रास्तों से, जहां मधुमालती की लताओं में वसंत का गान छिड़ा हो. जहां पुरवाई की मीठी बयारों ने स्वप्नराज्य तैयार कर दिया हो, जहां उस पर कोई सवाल खड़ा करने की गुंजाइश न हो.

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एक और चांस… पूर्बा ने पहचान के सारे सैलिब्रिटी और उस से लाभान्वित होने

वाले उम्मीदवारों को बारीबारी फोन लगा लिया. कहीं फोन बंद, कहीं नंबर बदली, कहीं फोन बज कर खत्म और कहीं पहचानी नहीं गई वह.

कैसे ये इतने बेरहम हो सकते हैं? किसी तरह अपने पास बुला लेते… उन की बातों से आशाएं जगतीं, इस घर से निकलने की उम्मीद बंधती. पता नहीं, लौकडाउन खुलने के बाद भी होटल में सब को काम पर बुलाया जाएगा या नहीं. इस घर की चारदीवारी में तो जैसे पापा और दुर्बा का भुतहा साया चेंप गया है. कुछ भी करो उन का ही डर मंडराता रहता है. पूर्बा बेइंतहा परेशान सी सोचती जा रही थी.

‘‘निहार,’’ अचानक जैसे उसे बंद गुफा का द्वार मिल गया हो. उस के पापा का इसी शहर में घरेलू साजोसामान का अच्छा बड़ा ऐंपोरियम है. सुना है अभी अपने बड़े भैया के साथ वह भी सा झेदारी में दुकान चलाता है.

अगर इस वक्त वह जल्दी निर्णय नहीं ले पाई तो उस का क्व2-4 लाख की शादी में निबटान कर दिया जाएगा. फिर तो जिंदगी का बेड़ा गर्क हो जाएगा. निहार तब तक अच्छा विकल्प है जब तक उसे बड़ा ब्रेक न मिल जाए. ऐसे भी वह काफी सीधासादा है और उस के प्रेम में भी था. उसे न तो शादी के लिए मनाने में दिक्कत आएगी और न ही बाद में किसी बड़े औफर के लिए छोड़ कर जाने में.

निहार ने फोन जल्दी उठा लिया जिसे से पूर्बा काफी उत्साहित हो उठी.

‘‘निहार, मैं ने तुम्हें इन दिनों बहुत याद किया. मैं तुम्हें याद नहीं आई?’’

‘‘क्यों अकेला मैं ही बचा था, हाई क्लास सोसाइटी के तुम्हारे ढेर सारे दोस्त कहां गए? फिर इंस्ट्राग्राम के फौलोवर्स? वे अब कसीदे नहीं बरसाते तुम पर?’’

‘‘ऐ निहार, तुम इतने बदले से क्यों लग रहे हो? तुम मेरे सच्चे दोस्त हो न? वे सब गए. अब कहां इन बदरंग दीवारों वाले कमरों में इंस्ट्राग्राम के लिए तसवीरें खिंचवाऊंगी. पार्लर भी बंद और ब्यूटी प्रोडक्ट्स की दुकानें भी. पर तुम्हारा प्यार तो इन सब का मुहताज नहीं न… अब तो बस तुम और मैं. निहार, मु झे तुम्हारी जरूरत है. कहो कब आऊं तुम्हारे पास?’’

‘‘मैं नहीं बदला पूर्बा, जरूरत के हिसाब से तुम बदल गई हो. मैं खुद को सम झ चुका हूं और तुम्हें भी. सच्चे प्यार की दुहाई तुम मत दो. मेरा रास्ता अब तुम्हारी गली से हो कर नहीं जाता. आगे फोन मत करना.’’

खुद से दूर फोन फेंक कर पूर्बा निराश सी औंधे मुंह बिस्तर पर गिर पड़ी. हार मानी पूर्बा सिसक पड़ी.

अचानक सिर पर किसी के हाथ का स्पर्श मालूम हुआ. धीरेधीरे

उस के बालों में हाथ फेरता हुआ यह स्पर्श उसे प्रेम और विश्वास के आश्वासन से सराबोर करने लगा. उलटी लेटी पूर्बा सीधी हो गई. दुर्बा को सिर पर हाथ फेरते देख अवाक सी रह गई. वह तो मां की सोच रही थी.

‘‘दुर्बा,’’ वह दुर्बा की गोद में अपना मुंह छिपा कर बिलख पड़ी. क्या दुर्बा अंतर्यामी है. कैसे वह निराशा की घड़ी में साथ हो गई.

‘‘तुम निराश क्यों होती हो दी? तुम इस परिवार की जड़ों में पानी दो, बदले में यह तुम्हें हमेशा छांव देगा. घर के कामों में हाथ बंटाने के बाद बाकी बचे समय में तुम गाने की औनलाइन क्लास शुरू करो, मैं अपने दोस्तों और उन के छोटे भाईबहनों को सूचित कर दूंगी. बस फीस जरा कम रखना. आगे जब तुम्हारे लिए नौकरी की राह आसान होगी तो अपने काम के साथ गाना भी जारी रखना. देखना रोशनी तुम्हारे साथ चलेगी, तुम्हारे सपने पूरे होंगे, लेकिन मेहनत के बल पर.’’

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चौबीस घंटे दुश्मन की तरह सिर पर सवार रहने वाली दुर्बा अचानक कैसे बदल गई? क्या यह वही दुर्बा है? पूर्बा सोच में पड़ गई.

उसे यों एकटक देखती पा कर दुर्बा उस के गाल पर लाड़ से प्यारी सी चपत लगा कर बोली, ‘‘मैं क्या दुश्मन हूं तुम्हारी?’’

पूर्बा ने उठ कर दुर्बा के गाल पर नेह के उत्ताप से भरा एक गहरा चुंबन आंक दिया.

Serial Story: तिलिस्मी के सफर में (भाग-1)

‘‘फिरआज जातेजाते ढाई हजार का उधार ठोंक कर गई तुम्हारी पनौती बेटी पूर्बा.’’ किराना सामान रख कर बापदादा के समय के छोटी से डाइनिंगटेबल से लगी लकड़ी की कुरसी पर बैठते हुए आशुतोष बाबू ने रूमाल से अपने चेहरे का पसीना पोंछा. पूर्बा की मां बिना कुछ कहे घर के काम में जुटी रही.

एक तो उमस भरी गरमी की शुरुआत और यह कोल्हू की चक्की. 3-4 साल जो भी बचे हैं नौकरी के, क्लर्की में ही निकलेंगे वह तो पता है, लेकिन तब तक पसीने में तब्दील होता गाढ़ी कमाई का खून कितना बचा रहेगा सवाल यह है. वही सुबह वही जरा सा अखबार और ढेर सारी मनहूस खबरें. और फिर छूटते ही बड़ा सा बाजार का थैला, नून लाओ तो तेल खत्म, तेल लाओ तो आटा, दाल, प्याजआलू. जिंदगी के साथसाथ एडि़यां घिस गईं. लेकिन चप्पलें वही चलती ही जा रही हैं, वरना खुद के लिए एक बनियान नहीं खरीद पाता.

फटी बनियान वाले बगल को कमीज के नीचे दबा कर वर्षों चला लेते हैं यहां, अच्छी चप्पलों का शौक कहां से पालें. वह बीवी बेचारी अड़ोसपड़ोस की महिलाओं के लिए साड़ी में फौल, पिको सिलने का काम कर लेती है, घर की साफसफाई, रसोई आदि में छोटी बेटी दुर्बा अपनी 12वीं की पढ़ाई के साथ हाथ बंटाती है, तो बचत के फौर्मूले और छोटीछोटी कमाई के भरोसे क्लर्की के वेतन से घर की चक्की जैसेतैसे चल रही है. छोटा बेटा अंशुल अभी 10वीं से 11वीं में गया है और इस में अगर उस के 80% आए हैं तो यह आशुतोष बाबू की छोटी बेटी दुर्बा का ही हाथ माना जाएगा. ये तो जनाब बाल संवारने और कमीज बदलबदल कर आईने के सामने खड़े होने में ही आधी जिंदगी निकाल दें.

‘‘खाना तैयार है पापा. और क्या कह रहे थे आप? दीदी ने फिर उधारी की?’’

‘‘हफ्तेभर पहले दिल्ली जाते वक्त वह ढाई हजार के हेयर जेल, बौडी लोशन, हेयर स्प्रे कई सौ की क्रीम लिपस्टिक, दुनियाभर के चोंचले वाले प्रोडक्ट ले कर गई है. भई मु झे मालूम है वह होटल इंडस्ट्री में है, उसे रिसैप्शन में ड्यूटी बजाते वक्त इन सारी चीजों की जरूरत हो सकती है, लेकिन उसे अपने परिवार की स्थिति को सम झते हुए जरूरत से बाहर की चीजों को अभी खरीदने से बचना चाहिए. नहीं, बस दूसरों की देखादेखी उसे सबकुछ चाहिए. फिर अपने वेतन से ले न. हम बड़ी मुश्किल से यहां परिवार का खर्चा चलाते हैं जब भी आती है हम उसे खाली हाथ भी नहीं जाने देते. अभी अंशुल के स्कूल और कोचिंग की तगड़ी फीस भरनी पड़ी, आगे की पढ़ाई बची है, तेरी पढ़ाई है, शादी का खर्चा, हमारा बुढ़ापा. लेदे कर मेरे दादाजी का यह पुस्तैनी मकान हमारी शरणस्थली बनी हुई है वरना हमारी तो नैया ही डूब जाती. कुछ सम झना ही नहीं चाहती.’’

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‘‘पापा, आप दीदी के खर्चे के बारे में जानते ही कितना हो? वह अपने वेतन के पैसे अपने खानेपीने, विलास वैभव, घूमनेफिरने, पार्टीशार्टी और दिखावे पर खर्च करती है, इसलिए तो नौकरी के बावजूद हमें यहां कुछ मदद करना तो दूर, महीने के जरूरी खर्चे के लिए हम से ही उम्मीद बांधती है. सालभर की नौकरी है 25 हजार उस के होटल की तरफ से दिए फ्लैट के किराए में ही चले जाते, जबकि चाहती तो दूसरों के साथ शेयर वाले फ्लैट में भी रह सकती थी. उसे कटौती नहीं खर्चे सम झ आते हैं, कर्तव्य नहीं अधिकार सम झ आते हैं.’’

‘‘रात को वीडियो कौल कर के कहना उस से कि हर बार उस के दिल्ली जाते ही यहां किराना दुकान से पता चलता है कि फलांफलां सामान की उधारी चढ़ी है. अब हम से यह बरदाश्त नहीं होगा.’’

रात वीडियो कौल तक अगर दुर्बा बिफरती रही तो दुर्बा की मां बड़ी बेटी पूर्बा की ओर से ऐसे कई तर्क रखती गईं जो पूर्बा को भी खयाल न आता. मसलन, उस की सुंदरता और सफलता पर सब जलते हैं. इस खानदान में ऐसी बेटी कभी आज तक हुई है. स्मार्ट खूबसूरत, ऊंची सोसाइटी में रहने वाली, बड़ेबड़े लोगों से मिलनेजुलने वाली. सुंदरता में मु झ पर गई है तो तुम लोगों के पापा चिढ़े रहते हैं. मैं तो कमा कर कुछ दे रही न घर में, फिर मेरी बड़ी न दे तो क्या.’’

‘दीदी सिर्फ सुंदरता में ही नहीं सबकुछ में तुम पर गई है मां,’’ मन ही मन बुदबुदा कर रह गई दुर्बा.

वीडियो कौल उठा ली थी पूर्बा ने. सुंदर आधुनिक छोटे से फ्लैट में अपने बिस्तर पर पूर्बा पसरी पड़ी थी.

सोने का यह कमरा आधुनिक साजोसामान से सुसज्जित था. पूर्बा अपना फोन ले कर बगल वाले हौल में गई. रसाई से लगे डाइनिंग स्पेस में नया फ्रिज दिखाते हुए उस ने बता दिया कि यह उस की तनख्वाह से है और पापा के बिना उस ने यह खरीदा है. रसोई में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवैव, यहां तक कि नया डाइनिंग सैट जो पूर्बा ने उस के किसी हाई प्रोफाइल दोस्त के गिफ्ट चैक से लिया था, दुर्बा को दिखाया.

दुर्बा की दृष्टि तेज थी, ‘‘अरे यह विंड चाइम? यह कब लिया?’’

‘‘मेरा एक दोस्त है निहार, उस ने दिया है. निहार हमेशा ही कुछ न कुछ देना चाहता है, मैं ही उसे ज्यादा भाव नहीं देती. जब हमारे होटल में आए दिन बड़ेबड़े नेता, अभिनेता, गायक और अन्य सैलिब्रिटीज आते हैं और मेरे बिना उन का काम चलता भी नहीं, मैं निहार को भाव दे कर अपना भाव क्यों गिराऊं?’’

‘‘दी, आप से एक बात है…’’

‘‘अरे रुकरुक, अभी फोन रखती हूं, दरवाजे पर कोई है, मैं बाद में बात करूंगी,’’ पूर्बा ने फोन काटा और उठ कर दरवाजा खोलने चली गई.’’

‘‘निहार. ड्यूटी खत्म हो गई क्या?’’

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‘‘देखो क्या लाया हूं तुम्हारे लिए. ‘लजानिया’. इटैलियन डिश मैं ने बनाई है… आज होटल मेन्यू में थी, मेरी जिम्मेदारी में, काम खत्म होते ही मैं ने इसे तुम्हारे लिए पैक किया और दौड़ा आया. चीज और सौस का बढि़या कौंबिनेशन बना कर ओवन में रख इस के कई लेयर्स डाले हैं. तुम ने एक बार खाने की इच्छी जताई थी… यह पकड़ो, मैं जा रहा रहा हूं, अभी ड्यूटी बाकी है मेरी.’’

‘‘अरे कमाल करते हो, थैंक्यू. मैं खाना आर्डर करने ही वाली थी.’’

आगे पढ़ें- रिसैप्शन के काउंटर में 10 घंटे खड़ेखड़े….

Serial Story: तिलिस्मी के सफर में (भाग-2)

‘‘ड्यूटी के वक्त होटल का खाना खाती ही हो, क्यों अपने सैलिब्रिटीज सैफ के दिए माइक्रोवैव में नहीं बनाना?’’

‘‘रिसैप्शन के काउंटर में 10 घंटे खड़ेखड़े हड्डी पसली चूर हो जाती है, कौन छुट्टी में खाना बनाए. ऐसे भी ड्यूटी न भी करूं तो भी खाना बनाना मु झे पसंद नहीं. ये चीजें तो शौक की वजह से लीं.’’

‘‘मैं निकलता हूं, कल बताना कैसी लगी तुम्हें डिश, वैसे कल मैं व्यस्त रहूंगा, बड़ा कोई सिंगर रुक रहा है हमारे होटल में, कौंटिनैंटल डिश की जिम्मेदारी रहेगी मेरी.’’

‘‘अरे हां, उन्हें अटैंड करने की जिम्मेदारी तो मेरी ही रहेगी, ठीक है मैं फोन कर लूंगी तुम्हें.’’

दोनों एक ही बड़े होटल प्रौपर्टी से जुड़े थे. इंडियन इंस्टिट्यूट औफ होटल मैनेजमैंट से पढ़ कर निकलते ही कैंपस सिलैक्शन में दोनों का एकसाथ इस बड़े होटल गु्रप में हो गया था. निहार का फूड ऐंड ब्रेवरेज डिपार्टमैंट में और पूर्बा का बतौर ट्रेनी मैनेजर. कस्टमर और सैलिब्रटी गैस्ट की ओर से अगर बढि़या फीडबैक रहा तो होटल उसे सालभर में पदोन्नति दे कर मैनेजर बना सकता है. पूर्बा आगे बढ़ने के लिए, अपने ऐशोआराम को बढ़ाते रहने के लिए हाई प्रोफाइल लोगों को खुश करने में गुरेज नहीं करती.

22 साल की सुंदर पूर्बा 5 फुट 5 इंच की हाइट और खूबसूरत फिगर के साथ इस होटल

गु्रप की शान ही थी. कस्टमर उस के साथ ज्यादा वक्त बिताना चाहते और यह बात पूर्बा बखूबी सम झती थी. पूर्बा तो निहार को भी सम झती थी. आज से नहीं कालेज से ही. लेकिन चतुर पूर्बा निहार के साथ जुड़ने के आखिरी अंजाम से भी वाकिफ थी. ज्यादा से ज्यादा क्या एक बिना घूंघट वाली, बिना परदे वाली दुलहन? उस के सपने बड़े हैं. निहार मगर ज्यादा कहां सम झता था पूर्बा को? उसे बस यही लगता था कि सारी कायनात उस के लिए बारबार संयोग पैदा करती है ताकि वह अपने मनमीत से मिल सके. 23 साल का यह नौजवान अपनी रौ में इतना मतवाला था कि पूर्बा को टटोलने की भी उस ने कभी जहमत नहीं उठाई.’’

रोबदार, रसूखदार चमचमाते पैसों की खनक वाले हाई प्रोफाइल लोगों की दीवानी पूर्बा अपनी पुरानी पहचानको भुला कर तिलिस्मी रोशनी के सफर में निकल पड़ी थी.

उसे गिफ्ट अच्छे लगते हैं, महंगे, बेशकीमती आधुनिक सामान की वह शौकीन है और वह भी इतना कि कोई भी कीमत इस के लिए भारी नहीं. घर की याद यानी क्लर्क पापा की तंगहाली की कहानी. घर यानी मां की दो पैसे बचाने की जद्दोजहद और निहार मतलब एक और घर एक और सम झ कर खर्च करने की कसमसाहट.

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निहार उसे अब अच्छा नहीं लग रहा था. वह जानती थी एक बार वह निहारकी हो गई, तो वह उस पर खर्चना बंद कर देगा, दुनियाभर की सारी रौनकें अपना रास्ता बदल लेंगी. निहार अपने गिफ्ट के बदले 2-4 बार सान्निध्य मांग लेता तो शायद पूर्बा उसे निराश नहीं करती. इतनी भी संगदिल नहीं वह और न ही संस्कार का लबादा चढ़ा रखा उस ने. उस की पसंद की जिंदगी इन राहों से हो कर गुजरती नहीं, उसे मालूम है. लेकिन निहार तो उसे ही चाहता है पूरापूरा. उसे हंसी आती है उस पर. ये छोटीछोटी मासूम अनुभूतियां अगर उसे गुलाम बना सकतीं तो वह यों बड़ेबड़े सम झौते नहीं करती. खैर, निहार की मरजी, जब तक लुटाना चाहे लुटाए.

पूर्बा का एक सिंगर के साथ आजकल कुछ ज्यादा उठनाबैठना था, इतना कि यह गायक अकसर होटल के बदले उस के फ्लैट में रुक जाता. इस की संगति में पूर्बा को महसूस हुआ कि वह अच्छा गाती भी है तो उस नामी सिंगर के अधिक निकट रहने की लालसा ने उसे भरसक गाने की प्रेरणा दी.

कुछ दिनों बाद सिंगर विदेश गया, पूर्बा की लाख कोशिशों के बावजूद उस के साथ संपर्क साधा न जा सका और कुछ ही दिनों में उस गायक की शादी की खबर आई.

पूर्बा बुरी तरह  झुं झला गई, लेकिन ऐसी मनमानी तो अब उस की जीवनधारा का हिस्सा है. किनकिन पर खफा हो. जल्द ही उस गायक की यादों से उबर कर एक 50 साल के रसूखदार राजनेता के संपर्क में आ गई थी वह. हीरे की बेशकीमती हार के ले कर जिंदगी को जीने के वादे थे इस बार उस के लिए.

सपने फिर  झील में कमल की तरह खिलने लगे, इस राजनेता का जैक जगा कर इस बार मैनेजर का पद ले लेने की मंशा थी उस की, अचानक देशविदेश में कोरोना की खबरों ने चौंकाना शुरू किया. खबरें थी कि अपना देश भी बंद हो सकता है. सोशल डिस्टैंसिंग की बात के जोर पकड़ते ही उस के सारे हाईप्रोफाइल संपर्क कट गए. जो जहां था थमने लगा. उस ने कई बड़े लोगों से संपर्क करना चाहा, लेकिन हर ओर से उपेक्षा ही हाथ आई. आशाहीन अनिश्चितता  में उस ने फिलहाल घर लौटने का मन बनाया.

होटल वालों ने अपने कुछ स्टाफ को छोड़ बाकी सारे नए स्टाफ को अनिश्चित समय के लिए छुट्टी दे दी थी. अंदर की बात यह थी कि इन्हें फ्लैट भी खाली कर देने का अल्टिमेटम था. पूर्बा को 15 सौ किलोमीटर दूर घर लौटना था.

2 दिन की शुरुआती जनता कर्फ्यू लगने से पहले उस ने निहार को कौल लगाया. निहार ने फोन उठा लिया. पता चला वह घर आ गया है.

‘‘मु झे बताया नहीं,’’ उलाहना दिया पूर्बा ने.

‘‘तुम्हें फुरसत नहीं ऊंचे लोगों के बीच उठनेबैठने से, हमारी क्या बिसात. इसलिए डिस्टर्ब नहीं किया,’’ निहार का टका सा जवाब मिला उसे.

सरकारी वाहन बंद थे, प्राइवेट वाहन का अतिरिक्त खर्च सहते हुए वह घर पहुंची किसी तरह.

घर उसे मुरगीखाने से कुछ कम नहीं लगता था, तिस पर पापा और दुर्बा तो किसी जेलर की तरह हर वक्त हमला बोले रहते. दिनभर सीखों और उलाहनों की बरसात. ऐसा लगता जैसे कोई कीचड़ फेंक कर मार रहा हो. पूर्बा न  झगड़ा करती थी और न ही उन पर उस की कुछ बोलने की ही इच्छा होती, बस ये लोग इस की नजर में न आएं उस की इतनी भर तो इच्छा थी जो पूरी नहीं हो सकती थी. मां की तो पापा के सामने कोई आवाज ही नहीं थी और भाई अंशुल उसे बस ‘दीदी मौडल बनवा दो’, ‘फलाने से एक बार मेरी बात करवा दो’, ‘दीदी एक जींस दिलवा देना,’ ‘दीदी मु झ पर कौन सा हेयर कट सूट करेगा’, ‘जरा इन गूगल की तसवीरों को देख कर बताना.’

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यद्यपि भाई को हाथ में रखने के लिए उसे सब्जबाग दिखाना पड़ता, लेकिन पूर्बा जानती थी कि उसे कितना संघर्ष करना पड़ रहा है अपने बड़े सपनों को सच करने में, तो क्या वह भाई के लिए कुछ कर पाएगी.

आगे पढें- इन दिनों पूर्बा धूप में रंग उड़े खाली टीन के डब्बे की तरह…

Serial Story: गर्लफ्रैंड (भाग-3)

लेखिका-  रेणु सिंह

‘‘क्या… पुलिस हमारे घर… क्यों… क्या हुआ?’’

‘‘क्या हुआ? नाक कटा दी तू ने हमारी और भोला बन कर पूछ रहा है क्या हुआ? कहां है वह लड़की?’’ पापा ने जोर से एक थप्पड़ मार कर पूछा.

‘‘क… कौन लड़की? क्या किया है मैं ने?’’

‘‘नाटक कर रहा है? मैं ने क्या समझा था तुझे और तू क्या निकला. रोमा कहां है? कहां छिपाया है तू ने उसे?’’ तूफान की तरह कमरे में संजीव घुसा और उसे घसीटते हुए कमरे से बाहर ले गया. बाहर का दृश्य देख कर कुंदन के पैरों तले जमीन खिसक गई.

बरामदे में इंस्पैक्टर 2 सिपाहियों के साथ खड़ा था. रोमा की मां जलती नजरों से उसे घूर रही थी. उस का परिवार घबरायासहमा सा खड़ा था और पूरा महल्ला उस के गेट पर खड़ा अंदर झांक रहा था.

‘‘इंस्पैक्टर साहब, गिरफ्तार कर लीजिए इसे. इस ने मेरी बेटी को फुसला कर घर से भगा लिया है. जाने कहां छिपा दिया है उसे. रात को वह घर नहीं लौटी. मोबाइल भी बंद है उस का और जिस सहेली के घर जाने के बहाने यह उसे ले गया, वह कहती है कि रोमा उस के घर आई ही नहीं. जाने किस हाल में है मेरी बेटी. कहां रखा है तू ने उसे?’’ रोमा की मां गरजी.

‘‘म… मैं ने कहीं नहीं रखा. मैं तो कल उसे नर्मदा के घर दयाल कालोनी छोड़ कर वापस आ गया था.’’

‘‘झूठ बोलता है ये. नर्मदा दयाल कालोनी नहीं इंद्रपुर में रहती है. कहीं इस ने गहनों और पैसों के लालच में उसे मार तो नहीं दिया?’’ संजीव ने पूछा.

‘‘गहने, पैसे? कैसे पैसे? मैं ने कुछ नहीं लिया,’’ घबरा कर कुंदन बोला.

‘‘कैसे पैसे? वही जो रोमा तेरे साथ भागते समय साथ ले गई थी. इंस्पैक्टर साहब, घर से मां के गहने और 25 हजार रुपए कैश गायब है.  इस ने रोमा को बेवकूफ बना कर घर में चोरी कराई और माल हथिया कर उसे ठिकाने लगा दिया.’’

‘‘यह झूठ है… मैं ने कुछ नहीं किया. रोमा ने बताया था कि वह सहेली की सगाई में पहनने के लिए कपड़े ले जा रही है. मैं ने देखा भी नहीं, आंटी, आप के सामने ही तो कहा था उस ने,’’ कुंदन ने गिड़गिड़ा कर रोमा की मां से कहा.

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‘‘और तुम ने क्या कहा था? सुरक्षित वापस ले आऊंगा? बता कहां है मेरी बेटी?’’

‘‘मैं… मैं नहीं जानता. मुझे तो उस ने यही कहा था कि वह नर्मदा के घर जा रही है और उस के पापा उसे घर छोड़ देंगे. उस के बाद वह कहां गई, मुझे नहीं मालूम.’’

‘‘नहीं मालूम? 17-18 साल उम्र होगी और यह करतूत? लड़की भगाता है. चल हवालात, बेटा, 2 डंडे तबीयत से मारूंगा न तो सब याद आ जाएगा,’’ इंस्पैक्टर उसे घसीट कर जीप की ओर ले जाता हुआ बोला. उस के लाख रोनेपीटने और घर वालों की मिन्नतों का पुलिस पर कोई असर नहीं हुआ और वे कुंदन को पुलिस स्टेशन ले गए. 2 दिन हवालात में बंद रहने के बाद उसे छोड़ दिया गया. रोमा रोहित से शादी करने के बाद घर वापस आ गई थी.

‘‘पर… पर यह कैसे हो सकता है? उस का तो रोहित से ब्रेकअप हो गया था. वे दोनों तो एकदूसरे से बात तक नहीं करते थे, फिर शादी… कहीं रोहित ने जबरदस्ती तो नहीं की उस के साथ?’’ स्नेहा और सुनील के मुंह से समाचार सुनते ही कुंदन तैश में आ गया.

‘‘शांत हो जा रोमियो, तुझे बेवकूफ बनाया गया है. गर्लफ्रैंड के चक्कर में तू ऐसा अंधा हुआ है कि सीधीसादी बात समझ में नहीं आती तुझे. नर्मदा दयाल कालोनी में नहीं रहती, फिर भी रोमा झूठ बोल कर तुझे वहां ले गई. अपने साथ वह घर के गहने और सारे पैसे लपेट कर ले गई और तुझे बताया गया कि चेंज करने के लिए ड्रैस रखी है. इतनी मोटी अक्ल है तेरी कि समझ नहीं रहा. उस ने रोहित के साथ मिल कर इस्तेमाल किया है तेरा. भागी रोहित के साथ और अंदर तुझे करा दिया. वह कमीना वहीं कहीं छिपा होगा. तेरी बाइक से उतर कर वह उस के साथ चली गई.

हर कोई तेरे पीछे हैरानपरेशान था और वह आराम से रोहित के साथ शादी कर रही थी. रोहित तो सारी घटना में कहीं था ही नहीं, इसलिए किसी ने उसे खोजने की कोशिश नहीं की और उन दोनों ने बिना किसी बाधा के आराम से मंदिर में और फिर अगले दिन कोर्ट में शादी कर ली,’’ स्नेहा ने झल्ला कर कहा तो कुंदन सिर पकड़ कर बैठ गया.

‘‘तुम ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया रोमा?’’ एक दिन रोमा को कालेज आया देख कुंदन ने मौका पाते ही उस से पूछा.

‘‘आई एम वैरी सौरी कुंदन. मेरे पास और कोई रास्ता ही नहीं था. मेरे घर वालों को मेरे और रोहित के बारे में पता चल गया था. वे रोहित को बिलकुल पसंद नहीं करते थे.

भैया मेरे ऊपर नजर रखने लगा था ताकि मैं उस से न मिलूं. मेरे कहीं आनेजाने पर रोक लग गई थी. मेरा फोन भी ले लिया गया था. एक दिन रोहित ने तुम्हें अपने दोस्तों से बातें करते सुन कर अंदाजा लगाया कि तुम्हें गर्लफ्रैंड का बड़ा क्रेज है तो हम ने यह प्लान बनाया. सहेलियों से बातें करने के बहाने तुम्हारे ही फोन से मैं उस से बातें कर प्लानिंग करती थी. मेरे घर वाले भी मुझे तुम्हारे साथ देख कर निश्चिंत थे कि अब मैं रोहित के साथ नहीं हूं.

‘‘उन्हें मेरे स्वभाव से पता था कि तुम्हारे साथ मैं कोई रिलेशनशिप नहीं बनाऊंगी. इस का फायदा उठा कर मैं तुम्हारे साथ घर से भाग गई. तुम नहीं होते तो मां किसी भी तरह भैया के न रहने पर मुझे जाने नहीं देती और भैया ने मेरी सारी सहेलियों के घर देख रखे हैं.

‘‘उसे मैं बेवकूफ नहीं बना सकती थी. फिर मेरे भागते ही भैया पुलिस को ले कर रोहित के घर आ धमकता और जो तुम्हारे साथ हुआ वह उस के साथ होता. तब हमारा शादी करना असंभव था. इसलिए हम ने तुम्हारी मदद ली. मैं तुम्हारे साथ गई तो किसी ने रोहित पर शक तक नहीं किया. आई एम सौरी कुंदन, बट एज यू नो एवरी थिंग इज फेयर इन लव ऐंड वार.’’

‘‘रिलैक्स यार, तुम्हें तो खुश होना चाहिए तुम ने 2 प्रेमियों को मिलवाने में मदद की है. अपनी गर्लफ्रैंड को इस से अच्छा मैरिज गिफ्ट कोई दे सकता है क्या?’’ रोहित ने पीछे से आ कर उस के कंधे पर हाथ रख कर कहा तो वह उसे आंखें तरेर कर देखने लगा और चुपचाप वहां से चला गया.

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‘सालों ने लड़की भगाने और चोरी के इल्जाम में मुझे अंदर करा दिया और बेशर्मी से कहते हैं कि गर्लफ्रैंड को मैरिज गिफ्ट दिया है,’ अपनी सीट पर बैठ कर भुनभुनाता हुआ कुंदन बोला.

‘‘वैसे ठीक ही तो कह रहे हैं, तेरे जैसा बौयफ्रैंड मिलना आसान है क्या, जिस ने लड़की भी भगाई, पुलिस के डंडे भी खाए और लड़की भी नहीं मिली,’’ सुनील के कहने पर स्नेहा खिलखिला कर हंस दी.

‘‘और ताने देने की जरूरत नहीं, मुझे सबक मिल गया है. आज से दूसरों की देखादेखी गर्लफ्रैंड बनाने के चक्कर में किसी भी लड़की के पीछे आंख मूंद कर नहीं चलूंगा,’’ सिर झुका कर कुंदन बोला.

‘‘इतना निराश होने की जरूरत नहीं. लड़केलड़कियों में दोस्ती में कुछ गलत नहीं. गलती तब होती है जब तुम स्टाइल और दिखावे के चक्कर में इसे दोस्ती की हद से बाहर ले जाने की कोशिश करते हो.’’

‘‘हां, अब मैं भी समझ गया हूं. यह मेरी अपनी बेवकूफी का नतीजा था. दूसरों के सामने खुद को मौर्डन दिखाने के चक्कर में मैं ने बिना सोचेसमझे खुद को मुसीबत में डाल दिया. अब से ऐसा नहीं होगा,’’ स्नेहा के समझाने पर कुंदन ने मुसकरा कर कहा.

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Serial Story: गर्लफ्रैंड (भाग-2)

लेखिका-  रेणु सिंह

‘‘हां… हां… रोहित नहीं दिख रहा है कहीं,’’ उस ने इधरउधर देखते हुए पूछा.

‘‘नाम मत लो उस का. मेरा उस से ब्रेकअप हो गया है. एक नंबर का फ्लर्ट है वह. भैया ठीक कहता था कि वह लड़का मेरे लिए ठीक नहीं था. वैसे तुम्हारे बारे में उस की राय सही है.’’

‘‘मेरे बारे में?’’ कुंदन चौंक गया.

‘‘हां, ऐडमिशन के दिन उस ने मुझे तुम्हारे साथ बातें करते देखा था. कह रहा था कि तुम स्कूल में उस के जूनियर थे. मुझे घर ड्रौप कर दो, इसी बहाने भैया से भी मिल लेना.’’

‘‘हांहां… आओ, बैठो,’’ कुंदन की तो बांछें खिल गईं. उस की मनचाही मुराद पूरी हो रही थी. कालेज की सब से हसीन और स्मार्ट लड़कियों में गिनी जाने वाली रोमा उस की बाइक पर, उस की कमर में हाथ डाले हुए थी.

उस दिन के बाद दोनों कभी कैंटीन तो कभी लाइब्रेरी में साथसाथ दिखते. कभीकभी वह उसे घर भी ड्रौप कर देता. पूरे कालेज में दोनों बौयफ्रैंड गर्लफ्रैंड के रूप में मशहूर हो गए.

‘‘कमाल है उस के घर वाले कुछ नहीं कहते तुझे उस के साथ देख कर?’’  एक दिन सुनील ने कुंदन से पूछा.

‘‘कहेंगे क्या, वे तो खुश हैं कि उस लफंगे रोहित से उस का पीछा  छूटा. मैं ने खुद सुना था, संजीव अपनी मां से कह रहा था, ‘अच्छा हुआ रोमा ने कुंदन से दोस्ती कर ली. मैं उसे स्कूल से जानता हूं. घर भी देखा है उस का. अच्छे लोग हैं. उस के साथ रहेगी तो उस लफंगे रोहित की बुराइयां खुद ही समझ में आने लगेंगी इसे और वह भी दूसरे लड़के के साथ देख कर इस के पीछे नहीं पड़ेगा. एकदम से छोड़ देने पर वह लफंगा क्या कर दे कुछ भरोसा नहीं. कम से कम एक लड़के को साथ देख कर उस की रोमा को नुकसान पहुंचाने की हिम्मत नहीं होगी.’’

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‘‘बहुत अच्छा. और अगर उस ने तुम्हें नुकसान पहुंचाने का इरादा कर लिया तो क्या करोगे?’’ स्नेहा ने पूछा.

‘‘वह कुछ नहीं करेगा. आजकल अपने लिए नई गर्लफ्रैंड ढूंढ़ने में बिजी है. मेरी या रोमा की तरफ देखने की तो फुरसत ही नहीं है उसे. आजकल तो दूसरी लड़कियों के आसपास चक्कर लगाता रहता है वह.’’

‘‘तब तो तेरी पांचों उंगलियां घी में हैं. बैठेबिठाए एक अदद गर्लफ्रैंड मिल गई. कहां तो लड़कियों को फंसाने के लिए एक से एक पैंतरे बदल रहा था और कहां मछली खुद ही आ कर जाल में फंस गई.’’

‘‘बस, सब स्टाइल का खेल है मेरे भाई. तुझ से भी कहता हूं कि इस स्कूलबौय वाली इमेज से बाहर निकल. यही तो दिन हैं दुनिया की रंगीनियों के मजे लेने के,’’ सुनील ने छेड़ा तो कुंदन ने गरदन टेढ़ी कर प्रवचन दे डाला.

‘‘अब बाकी रंगीनी क्लास में चल कर करना. वैसे भी रोमा तो तुम्हारे बगल में ही बैठती है,’’ स्नेहा ने कहा.

‘‘आज क्लास अटैंड करने का मूड नहीं है. मैं और रोमा इंगलिश मूवी देखने जा रहे हैं,’’ कुंदन ने कहा.

‘‘अच्छा, अगले साल अपनी गर्लफ्रैंड के साथ ये क्लास कर लेना, क्योंकि तुम दोनों को देख कर लगता तो नहीं कि इस साल पास करने का इरादा है. दोनों क्लास में कम और कैंटीन में ज्यादा दिखते हो.’’

‘‘हैलो कुंदन, क्या तुम अभी फ्री हो?’’ रोमा का फोन आया.

‘‘तुम्हारे लिए तो चौबीसों घंटे फ्री हूं मेरी जान, तुम बस हुक्म करो.’’

‘‘आज मेरी सहेली नर्मदा की सगाई है. भैया बैंकिंग की परीक्षा देने दूसरे शहर गया है. नर्मदा का घर काफी दूर है. शाम को रिकशे या आटो से उतनी दूर अकेले जाने में डर लगता है. क्या तुम मुझे वहां ले जाओगे? मां ने भी कह दिया है तुम साथ रहोगे तभी मुझे जाने देंगी.’’

‘‘अरे, मेरे होते हुए तुम अकेली कैसे हो गई. तैयार हो जाओ, मैं 15 मिनट में पहुंचता हूं.’’

‘‘अरे, तुम तैयार नहीं हुई, सगाई में जींस पहनोगी,’’ रोमा को सादे कपड़ों में देख कुंदन ने पूछा.

‘‘डोंट बी रिडिकुलस कुंदन. वैसी भड़कीली ड्रैस पहन कर बाइक पर चलूंगी तो सारे रास्ते लोग घूरेंगे मुझे. मैं ने अपनी ड्रैस रख ली है, वहीं जा कर तैयार हो जाऊंगी,’’ रोमा ने अपने हाथ में पकड़ा बड़ा सा बैग दिखा कर कहा और बाइक पर उस के पीछे बैठ गई.

‘‘आप बेफिक्र रहिए आंटी. मैं इसे सेफली ले जाऊंगा और वापस भी पहुंचा दूंगा,’’ उस ने रोमा की मां से कहा और बाइक स्टार्ट कर चल दिया.

‘‘बसबस, यहीं रोक दो. यहां से मैं पैदल ही चली जाऊंगी,’’ रोमा ने दयाल कालोनी के पास पहुंचते ही कहा तो उस ने मोटरसाइकिल रोक दी.

‘‘यहां? यहां सुनसान जगह पर क्यों उतर रही हो? कालोनी तो आगे है.’’

‘‘तुम नहीं समझोगे, नर्मदा की फैमिली बड़ी कंजरवेटिव है. उन्हें पता चल गया कि मैं अपने बौयफ्रैंड के साथ आई हूं तो अजीबोगरीब सवाल पूछ कर मुझे पागल कर देंगे. मैं पैदल चली जाऊंगी. तुम चले जाओ.’’

‘‘जो हुक्म सरकार का. लेने कब आ जाऊं?’’

‘‘लेने आने की जरूरत नहीं है. मैं ने बताया न कि वे कंजरवेटिव लोग हैं. नर्मदा के पापा मुझे घर छोड़ने जाएंगे. देर हुई तो रात को यहीं रुक जाऊंगी.’’

‘‘पर मैं ने तो तुम्हारी मां को कहा था…’’

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‘‘ओ… तुम उन की चिंता मत करो स्वीटहार्ट, उन्हें पता है,’’ रोमा ने फ्लाइंग किस दे कर कहा और अपना बड़ा सा बैग ले कर पैदल कालोनी की ओर चल दी. देर तक कुंदन उसे जाते देखता रहा फिर जब वह कालोनी में चली गई तब वापस लौट आया.

‘कैसे दकियानूसी लोग हैं. आज के जमाने में भी लड़केलड़की को साथ देखा कि कानाफूसी करने लगेंगे. समझते नहीं जमाना बदल गया है. आज के जमाने में जिस लड़के की गर्लफ्रैंड न हो या जिस लड़की का बौयफ्रैंड न हो उसे लल्लू समझते हैं लोग. सुनील और स्नेहा की तरह. कोई स्टाइल नहीं, कोई खूबी नहीं, तभी तो कोई ध्यान नहीं देता.

‘इस उम्र में लड़कालड़की में एकदूसरे के लिए आकर्षण होना तो आम बात है. सभी जानते हैं इस फैक्ट को, पर मान नहीं सकते. रोमा का परिवार ही समझदार है, वरना यहां मां को पता लग गया तो कल ही घर में तूफान खड़ा कर देंगी, कालेज में लड़के नहीं जाते, जो लड़की से दोस्ती कर ली?’ रात बिस्तर पर लेटेलेटे कुंदन ने सोचा.

‘‘कुंदन, अरे ओ कुंदन… घोड़े बेच कर सो रहा है? उठ पुलिस आई है,’’ सुबह पापा ने गुस्से से उसे झिंझोड़ कर जगाया.

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Serial Story: गर्लफ्रैंड (भाग-1)

लेखिका-  रेणु सिंह

’कोई न कोई चाहिए प्यार करने वाला…’

‘‘यार, तू पिटवाए बिना मानेगा नहीं क्या? जहां भी कोई लड़की पास से गुजरती है तू बेहूदे गाने बुदबुदाने लगता है. कल जब उस द्वितीय वर्ष की शीला ने कालर पकड़ लिया था तो कैसे घिग्घी बंध गई थी तेरी. तू अपनी आदत सुधार ले, वरना मैं तेरे साथ उठनाबैठना भी बंद कर दूंगा. तेरे साथ रहने के कारण मुझे भी लोग ब्लैक लिस्ट में डाल देंगे. लफंगा समझेंगे मुझे. ’’ कुंदन को धीमे से गाते सुन कर सुनील झल्ला गया तो वह ढिठाई से मुसकरा दिया.

‘‘अरे यार, ब्लैक नहीं स्मार्ट लिस्ट में आ जाएगा तू. अब कालेज में आ गया है, बड़ा हो गया है. क्या अभी भी स्कूल जाने वाले बच्चे की तरह नजरें नीची किए नाक की सीध में क्लास में आताजाता है? ऐसे तो लोग तुझे बबुआ समझेंगे. जमाना स्टाइल का है यार, यहां स्मार्ट लोगों की कद्र होती है. तेरे जैसे सीधेसादे लड़कों को देख लड़कियां मुंह दबा कर हंसती हैं और पीठ पीछे खिल्ली उड़ाती हैं. शीला ने मेरा कालर झगड़ा करने के इरादे से नहीं, बल्कि मुझे गौर से देखने के लिए पकड़ा था, वरना सोच उस ने फिर अपनेआप कालर छोड़ कैसे दिया? वापस जाते समय शरमा कर मुसकराई भी थी वह.’’

‘‘बस, वह मुसकराना तुझे ही दिखाई दिया था, वरना सारे कालेज ने उसे जलती नजरों से तुझे घूरते हुए ही देखा था. उस का भाई बौक्सर है. अगर उसे पता चल गया तो फिर तुझे भी शरमाना पड़ेगा.’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा मेरे भाई, तू शर्त लगा ले. अब ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्मों का जमाना नहीं है. अब लड़कियां बोल्ड होती हैं और उन्हें बोल्ड माचोमैन टाइप के लड़के अच्छे लगते हैं. देखा है, अजीत, कुणाल और संजय को? कपड़ों की तरह गर्लफ्रैंड बदलते रहते हैं. स्टाइल से चश्मा लगाए बाइक धड़धड़ाते आते हैं तो सारी लड़कियों की नजरें उधर ही घूम जाती हैं.’’

‘‘और तुम्हारे जैसे नकलची बंदरों की नजरें भी उठ जाती हैं. उन का रिपोर्ट कार्ड देखा है कभी? हर क्लास में डबल शिफ्ट लगाते हैं.’’

‘‘उफ, तुम्हें समझाना नामुमकिन है. यार, यही तो दिन हैं मस्ती करने के. अब हम बच्चे नहीं रहे, जवान हो रहे हैं. पढ़ाईलिखाई अपनी जगह सही है, पर ये सुनहरे दिन भी तो लौट कर दोबारा नहीं आने वाले. अभी इन का मजा नहीं लिया तो कब लेंगे? साथ में अगर एक हसीन स्मार्ट गर्लफ्रैंड हो, तब देखो, पूरे कालेज में तुम्हारा दबदबा कैसे बनता है. बस, इसी इंतजार में हूं कि उन मोटरसाइकिल सवार हीरो लड़कों की तरह मेरी भी गोटी फिट हो जाए कहीं. पापा को हाथपैर जोड़ कर एक बाइक के लिए मना भी लिया है मैं ने,’’ सरसरी नजर से सीढ़ी पर बैठ कर गप्पें मार रही लड़कियों को देख कर वह बोला.

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‘‘तुझे गर्लफ्रैंड की क्या जरूरत है. मैं तो हूं ही तेरी फ्रैंड और गर्ल भी हूं,’’ स्नेहा पास आ कर बोली.

‘‘तेरे जैसी गर्लफ्रैंड हों तो लड़के जेब में राखियां ले कर घूमेंगे. तुम कपड़े ऐसे पहनती हो जैसी हमारी मांएं अपने जमाने में पहना करती होंगी. क्लास में पूरे वक्त किताब में नजरें गड़ाए बैठी रहोगी. अरे यार, एक पल नजरें उठा कर अगर आसपास के लोगों को एक स्माइल दे दोगी तो कोई भयंकर पाप हो जाएगा और यदि गलती से किसी लड़के ने कंधे पर हाथ रख दिया तो सीधे चप्पल निकाल लोगी.’’

‘‘साले, तेरी पिटाई तो पक्की होगी मेरे हाथ से किसी दिन,’’ स्नेहा बुदबुदाते हुए अपनी क्लास में चली गई.

कुंदन मुसकराते हुए स्टाइल से पास खड़ी लड़की की ओर बढ़ा, जो अपने मोबाइल पर बारबार कहीं फोन लगाने की कोशिश कर रही थी और फोन कट जा रहा था. उस ने जेब से फोन निकाल कर उस की ओर बढ़ाया, ‘‘नैटवर्क नहीं मिल रहा होगा, मेरा फोन ट्राइ करो. कहीं से भी कभी भी लग जाएगा.’’

‘‘ओह, थैंक्यू. ऐक्चुअली मां को बताना था कि मुझे घर आने में देर हो जाएगी, अचानक आर्ट गैलरी जाने का प्रोग्राम बन गया.’’

‘‘वह हाईफाई मौल वाली? बहुत अच्छी है, यू शुड गो. आज तो मैं भी वहां जाने वाला था. तुम्हारा तो लड़कियों का ग्रुप होगा…’’

‘‘नहीं… निखिल और रवि भी हैं.’’

सुनते ही कुंदन का मुंह उतर गया. अगले दिन जब वह काला चश्मा लगाए बाइक धड़धड़ाता हुआ आया तो स्नेहा ने उसे देख कर मुंह बिचका लिया.

‘‘उंह, लंगूर के मुंह में अंगूर.’’

‘‘मैं जानता था कि तू जलभुन जाएगी. नजर मत लगा, तुझे भी लिफ्ट दे दूंगा कभी.’’

‘‘ऐक्सक्यूज मी, तुम्हारे पास ऐक्स्ट्रा पैन है? मेरे पैन का रिफिल खत्म हो गया है और मेरी क्लास है अभी,’’ एक खूबसूरत लड़की ने कैंटीन में कुंदन के पास आ कर पूछा.

‘‘हांहां, है न…’’ कुंदन ने जेब से पैन निकाल कर झट से उस की तरफ बढ़ा दिया.

‘‘थैंक्स, मैं क्लास के बाद लौटा दूंगी. तुम्हें अर्थशास्त्र की क्लास में देखा है मैं ने.’’

‘‘मैं ने भी देखा है तुम्हें… बाइ द वे मेरा नाम कुंदन है, तुम…’’

‘‘मैं रोमा हूं,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और अपनी क्लास में चली गई.

‘‘कमाल है, इतनी सारी सहेलियां हैं इस की, उन के पास पैन नहीं मिला इसे, जो कैंटीन में तुझे खोज कर तेरे से मांगने आई है?’’ सुनील ने अचरज से कहा.

‘‘जल गए न? यह सब स्टाइल का कमाल है मेरे दोस्त. मेरी बाइक देख कर वह इंप्रैस हो गई होगी.’’

‘‘और तू उसे देख कर इंप्रैस हो गया. पैन निकाल कर तू ने एकदम पेश कर दिया. अब क्लास में क्या नाखून से लिखेगा?’’ स्नेहा ने मुंह बना कर पूछा.

‘‘तुम दोनों अपनी बकवास बंद करो.’’

‘‘कुंदन तुझे पता भी है कि वह कौन है? हमारे सीनियर संजीव की बहन है वह. तू उसे अपनी बाइक पर बिठाने का ख्वाब भूल जा. सारा कालेज जानता है कि वह रोहित की गर्लफ्रैंड है,’’ सुनील ने बताया.

‘‘हाय, कुंदन घर जा रहे हो?’’ 2 दिन बाद कालेज की सीढि़यां उतरते कुंदन को रोमा ने टोका.

‘‘हां.’’

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‘‘तुम यहां किस का इंतजार कर रही हो?’’

‘‘रिकशे का, घर जाना है न, पर अब सोचती हूं क्यों न तुम्हारे साथ ही चलूं. बड़ी शानदार बाइक है. मुझे एक राइड दोगे?’’

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Serial Story: उत्तरजीवी (भाग-2)

लेखक- के मेहरा

मैं डर जाती. अगर उसे ऐसावैसा कुछ हो जाता तो तुम्हारी बहन चिल्लाती, ‘क्या कर दिया उसे करमजली. जब से पांव धरा है, घर में रोज लड़का बीमार हो जाता है. पहले छठेछमासे अटैक होता था, अब आएदिन पड़ जाता है. अपने मौजमजे के मारे प्राण लेगी क्या?’

किस की मौज, किस का मजा. उस की कमजोरी मुझे खाने लगी. मैं ने तुम से एक दिन दोटूक बात की कि मुझे वापस भेज दो, जहां से लाए थे. तुम कुटिलाई से मुसकरा कर बोले, ‘पहले अपनी मां से पूछ ले फूलवती, फिर बोल. तेरे बाप को बराबर 500 रुपए महीना भिजवा रहा हूं.’

गोया मैं कोई नौकरानी थी और जैसे तुम मेरी तनख्वाह भेज रहे थे मेरे गांव. मेरा बाप, क्या तुम्हारे लकड़ी के ठेके नहीं पूरा कर रहा था? माल तो वही भिजवाता था जिस से तुम हजारों कमाते थे.

मुझे तो नहीं, अलबत्ता 1 हफ्ते बाद तुम ने राजरानी को उस के मायके जयपुर भेज दिया. तुम ने कहा कि तुम्हें बलूत की लकड़ी लाने असम जाना पड़ेगा. 2-4 महीने का चक्कर लगेगा. अंधा क्या मांगे दो आंखें. राजरानी क्या मांगे, अपना मायका.

उसे भेजने में तो तुम्हारा लाभ ही लाभ था. हर बार वह ढेर सारे सामान से लदीफंदी लौटती थी.

वह चली गई तो सारा काम मेरे जिम्मे. ऊपर से हुकूमत तुम्हारी बहन की. तुम झूठे, न कहीं जाना न आना. बिशन तुम्हारे लालच से चिढ़ता था. एकएक कर के सारे कीड़े रेंगरेंग कर बाहर आ रहे थे.

एक दिन मुझ पर जैसे पागलपन सवार हो गया. मैं आंगन में सिर झटकझटक कर नाचने लगी. मेरा पति चिल्लाता रहा मगर मुझे रोक नहीं पाया. तब तुम ने आ कर मुझे अपनी बलिष्ठ गिरफ्त में थाम लिया. मैं वहीं सब के सामने तुम से लिपट कर फूटफूट कर रोई.

बिशनदास तुम्हारे दफ्तर में कागजपत्तर संभालता था. रोज सुबह सफेद कमीज और सफेद पतलून पहन कर, काला बैग ले कर वह औफिस में जा बैठता था. खाना खाने के लिए 1 बजे घर आता था. अकसर उसी के रिकशे में देशी सौदासुलफ लाने बाजार चली जाती थी. घर पर मैं अकेली रहती थी.

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उस दिन भी सुबह की रसोई समेट कर मैं छत पर चली गई. धूप में टंकी के पास बैठ कर कपड़े धोए और नहाई. छत के दरवाजे की ओर मेरी पीठ थी. तुम चुपके से आए और दरवाजे की सांकल लगा दी. मैं मुड़ कर देखती इस के पहले ही तुम ने मुझे गोद में उठा लिया. मैं चिल्लाई तो हथेली से मुंह दबा दिया.

‘चिल्लाचिल्ला…और जोर से चिल्ला. सुन कौन रहा है तेरी? देशी सुनेगी, प्यारेलाल सुनेगा. हां, मगर वे क्या तेरी तरफदारी करेंगे? तुझे ही इलजाम लगेगा. सोच ले. उन का दानापानी तो मुझ से है.’

मैं छटपटाती रही मगर छूट न पाई. फिर यह हरकत रोज का किस्सा बन गई. जितना ही मैं डरती, बचती उतना ही तुम रंग दिखाते. किसी को पता नहीं चला. मगर मैं मुंहजोर हो गई. एकदम निर्भीक. देशी की गालियों का मुंहतोड़ जवाब देती. प्यारेलाल पर रौब से हुक्म चलाती. जब मरजी घूमनेफिरने बाजार चली जाती. मुझे लगता था सब मेरे गुनाहगार थे, अव्वल दरजे के मक्कार.

बस, बिशन से दोस्ती बनाए रखी. उस पर मेरा हक था. वह सीधासादा मासूम इंसान था. तुम्हारे हथकंडों से बेखबर. मुझे सिनेमा ले जाता था. सोने की चूडि़यां बनवा दीं. उस के प्यार करने में आग नहीं थी मगर सुकून तो था, जो मुझे अपनी नियति समझ आती थी. मैं उसे ठग रही थी मगर तुम्हारी मरजी से. बेबस जो थी.

राजरानी वापस आई. मैं ने सोचा, चलो जान छूटी. मगर तुम घाघ थे. कोई न कोई मौका जुटा ही लेते. पहले मैं राजरानी से डरती रही, फिर वह डर भी निकल गया. तुम चोर थे तो मैं सीनाजोर.

मेरे हावभाव देख राजरानी का माथा ठनका. उस ने तुम पर अपनी गिरफ्त कस ली. जाने कैसे, शादी के वर्षों बाद उसे गर्भ रह गया. तुम फूले न समाए. तुम्हारा सारा ध्यान राजरानी पर केंद्रित हो गया. मैं गई भाड़ में. जलन ने मुझे कुटिल बना दिया. ऊपरऊपर से मैं खुशी दिखाती, अंदरअंदर कुढ़ती. मुझे बच्चा चाहिए था. अपना बच्चा, बिशनदास का बच्चा. बहुत जतन किए. कुछ नहीं हुआ.

राजरानी जचगी के लिए मायके चली गई. उसे वहां छोड़ कर तुम वापस आए तो तुम्हें फिर से मेरी तलब लगी. मन में आया कि तुम पर थूक दूं, मगर मुझे बच्चा चाहिए था, कैसे भी. मैं मुसकरा कर फिर से तुम्हारी हो ली. बच्चा आया, मेरा मन गुलजार हो गया. मैं ने चुपके से तुम्हें बताया पर तुम्हारे तो चेहरे का रंग फीका पड़ गया.

‘निकलवा, अभी गिरवा दे इसे.’

‘नहीं, हरगिज नहीं. कोई नहीं जानता कि यह तुम्हारा है. सब इसे बिशन का ही मानेंगे. नहीं गिरवाऊंगी.’

‘सब बिशन का ही मानेंगे इसे, सिवा बिशन के.’

‘क्या मतलब?’

‘बिशन बच्चा नहीं पैदा कर सकता और यह बात उसे पता है. सुन फूलवती, तू उस की दूसरी बीवी है. उस की पहली को जब पता चला, वह वापस नहीं आई. किसी और के संग जा बैठी. इसीलिए बिशन शुरूशुरू में तुझ से हाथ समेट कर बैठा रहा. जब तू पहली बार मायके जा कर लौट आई तब उस ने तुझे अपनाया, याद कर. बिशन को अगर पता चला कि तू पेट से है तो वह समझ जाएगा कि तू क्या कर रही है.’

मेरे हाथ के तोते उड़ गए यह कहानी सुन कर. मुझे तुम्हारे घर आए तीसरा साल था. इतना बड़ा किस्सा और मुझ से ही छिपा कर रखा तुम सब ने, राजरानी ने भी. तभी तुम ने यह भी बताया कि बिशनदास तुम्हारा जुड़वां भाई था, तुम से 2 घंटे छोटा. पैदाइश के समय सिर्फ डेढ़ किलो वजन था उस का. हजारों तकलीफें उठा कर उसे तुम्हारी मां ने पाला था और अब यह रोल तुम्हारी बहन अदा कर रही है.

‘कितने बेईमान हो तुम सब? कितने झूठे. ऐसे आदमी की शादी ही क्यों की?’

‘तुझे यहां कैसे लाता? तेरा रूप जो डंक मार गया. फूलवती, तू बेहद सुंदर जो थी.’

‘ओ हो, तो फिर राजरानी पर क्यों इतना लुटे जाते हो?’

‘अब पैसा भी तो कोई चीज है न. बस, तू अपनी जगह वह अपनी जगह. तू मुझे खुश रख, मैं हमेशा तेरा खयाल रखूंगा. पर तू यह बच्चेवच्चे का चक्कर छोड़ दे.’

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मैं मरती क्या न करती. रोरो कर अंधी हो गई. मेरी अंदर की व्यथा कौन समझता. दुख जैसेतैसे छिपाया. कहा कि नजला हुआ है. बदले में तुम ने मुझे जड़ाऊ टीका और कंधे तक लटकते झुमके बनवा दिए. बड़ी चालाकी से तुम ने वे गहने अपने भाई को दिए और जताया कि बेटे होने की खुशी में उपहार दे रहे हो. बिशनदास खुश हो गया. खुद अपने हाथ से उस ने मुझे पहनाए और फिर मेरे साथ फोटो खिंचवाई. मैं फूली न समाई.

लकड़ी के ठेके से तुम ने हजारों कमाए मगर मेरे नाम कोई रकम जमा नहीं की जो मैं जिंदगीभर खाती. बिशनदास को तुम क्या देते थे? सिर्फ 250 रुपए महीना.

हमारा राज कब तक छिपा रहता? जिस दिन पकड़ा गया, तुम्हारे भाई ने जहर खा लिया. मैं विधवा हो गई. तुम्हारे खोटे करम एक अच्छेभले इंसान को खा गए. कितना शरीफ था. कुदरत ने भी क्या बंटवारा किया जुड़वां बच्चों में. एक को सारे सद्गुण, विद्या, लगन, कलाप्रियता, संवेदना सब दे कर सेहत छीन ली और दूसरे को सेहत दे कर मतलबी, बेईमान और ऐय्याश बना दिया. भाईबहन तुम्हें बहुत प्यारे थे, मगर अपनी ऐय्याशी सब से ज्यादा.

बिशनदास ने मरतेमरते मुझ से बदला लिया. उस ने अपना सारा हिस्सा देशी के नाम लिख दिया. तुम्हारे मांबाप उस की सेहत की चिंता के मारे अपनी पुरानी हवेली उसी के नाम कर गए थे. तुम ने बेसाख्ता उस की अंतिम इच्छा का मान रखा. दसियों छोटेमोटे किराएदार उस में बसे थे. वह किराया देशी को मिलने लगा. मुझे? मुझे क्या मिला, ठेंगा. मैं और भी निहत्थी और बेबस हो गई.

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