भूल: शिखा के ससुराल से मायके आने की क्या थी वजह

मेरीसास सुचित्रा देवी विधवा हैं और स्कूल में पढ़ाती हैं. इकलौती ननद अर्चना मायके में रह रही है. उस की ससुराल में निभी नहीं. पति शराब पी कर मारपीट करता था. उस ने तलाक लेने की प्रक्रिया शुरू कर रखी है.

शिखा के देवर संजीव की शादी अपने बड़े भाई राजीव की शादी के 3 साल बाद हुई. उस की देवरानी रितु के आते ही हम मांबेटी ने उस के घर से अलग होने का अभियान तेज कर दिया.

मुझे अपनी छोटी बेटी की सुंदरता पर नाज है. राजीव उस के रंगरूप का दीवाना है. शादी के साल भर बाद 1 बेटे की मां बनने के बावजूद शिखा गजब की खूबसूरत नजर आती है. घरगृहस्थी तब पनपी जब मैं संयुक्त परिवार से अलग हुई. सच, मनचाहे ढंग से जिंदगी जीने का अपना अलग ही मजा है.

अपनी दोनों बेटियों की खुशियों को ध्यान में रखते हुए मैं ने हमेशा चाहा कि वे भी जल्दी से जल्दी ससुराल से अलग हो कर रहने लगें.

मेरी बड़ी बेटी सविता ने अपनी शादी की पहली वर्षगांठ अपने फ्लैट में मनाई थी. उस की नौकरी अच्छी है, इसलिए अलग होने में उसे ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा.

छोटी बेटी शिखा ज्यादा पढ़ी नहीं है. वह शादी से पहले एक कंपनी में रिसैप्शनिस्ट थी. अपनी सास व पति की इच्छा को ध्यान में रख कर उस ने शादी के बाद नौकरी नहीं की. उस की सास सुचित्रा देवी विधवा हैं और स्कूल में पढ़ाती हैं. इकलौती ननद अर्चना मायके में रह रही है. उस की ससुराल में निभी नहीं. पति शराब पी कर मारपीट करता था. उस ने तलाक लेने की प्रक्रिया शुरू कर रखी है.

शिखा के देवर संजीव की शादी अपने बड़े भाई राजीव की शादी के 3 साल बाद हुई. उस की देवरानी रितु के आते ही हम मांबेटी ने उस के घर से अलग होने का अभियान तेज कर दिया.

मुझे अपनी छोटी बेटी की सुंदरता पर नाज है. राजीव उस के रंगरूप का दीवाना है. शादी के साल भर बाद 1 बेटे की मां बनने के बावजूद शिखा गजब की खूबसूरत नजर आती है.

मेरी चांद सी सुंदर बेटी संयुक्त परिवार में पिसती रहे, यह न उसे स्वीकार था, न मुझे. हम दोनों ने राजीव पर घर से अलग होने के लिए बड़ी होशियारी से दबाव बनाना शुरू कर दिया.

मेरी सलाह पर शिखा ने ससुराल में घर के कामों से हाथ खींचना शुरू कर दिया. सास सुचित्रा ने उसे डांटा, पर वह खामोश रही. जिस दिन उस की ननद अर्चना उस पर चिल्लाई, शिखा उस से खूब झगड़ी और खूब रोई.

ऐसे झगड़े 2-4 बार हुए, तो शिखा तबीयत खराब होने का बहाना बना कर कमरे से नहीं निकली. सास, ननद व देवरानी ने उस की उपेक्षा की, तो वह जिद कर के अपने पति के साथ मायके मेरे पास आ गई. उस के यहां आने के बाद राजीव को किराए के मकान में अलग रहने के लिए राजी करना हम दोनों के लिए आसान हो गया.

‘‘मम्मी, हमारे घर में न जगह की कमी है, न सुखसुविधाओं की. अपनी विधवा मां को छोड़ कर अलग होते हुए मुझे दुख होगा,’’ राजीव की ऐसी दलीलों की काट मुझे अच्छी तरह से मालूम थी.

मेरी जिम्मेदारी थी राजीव को पूरा मानसम्मान देते हुए उस की खूब खातिर करना. शिखा उस के मनोरंजन, सुख और खुशियों का पूरा ध्यान रखती. मेरे घर में उस का बड़ा अच्छा समय व्यतीत होता. इसी कारण वह हर दूसरीतीसरी रात ससुराल में बिताता.

मेरी बड़ी बेटी सविता और उस के पति अरुण ने भी राजीव का मन बदलने में अपना पूरा योगदान दिया. अपने घर में रहने के फायदे गिनाते दोनों की जबान न थकती.

करीब महीना भर मायके में रह कर शिखा ससुराल लौट गई. उस का यह कदम हमारी योजना का ही हिस्सा था. आगामी 3 महीनों में वह लड़ाईझगड़ा कर के 4 बार फिर मायके भाग आई. इस के बाद दोनों तरफ की सहनशक्ति जवाब दे गई.

घर की सुखशांति के लिए सुचित्रा ने अपने बड़े बेटे को किराए के मकान में जाने की इजाजत दे दी. अपने देवर की शादी के मात्र 6 महीनों के बाद शिखा मेरे घर के बहुत नजदीक एक किराए के मकान में रहने आ गई. सिवा शिखा के पिता के हम सब खूब खुश हुए. वे जरा भावुक किस्म के इंसान हैं… आज की दुनिया की चाल को कम समझते हैं.

‘‘हमारी शिखा घरगृहस्थी के कामों में कुशल नहीं है. उसे बस हवा में उड़ना आता है. तुम ने उसे अलग करवा कर ठीक नहीं किया, शोभा,’’ उन्हें यों परेशान देख कर मैं मन ही मन हंस पड़ी थी.

शिखा की घरगृहस्थी अच्छी तरह से जमाने के लिए मैं ने खुशीखुशी अपनी जेब से खर्चा किया. राजीव और नन्हे रोहित को कोई शिकायत या परेशानी न हो, इस का मैं ने विशेष ध्यान रखा. अपनी बेटी का कामकाज में हाथ बंटाने मैं रोज ही उस के घर चली जाती थी.

राजीव कुछ दिनों तक बुझाबुझा और नाराज सा रहा, पर फिर सहज व सामान्य हो गया. अब स्वतंत्र जीवन जी रही शिखा का खिला चेहरा देख मैं खूब प्रसन्न होती.

शिखा ससुराल बहुत कम जाती. उस का अपनी नईपुरानी सहेलियों के साथ ज्यादा समय गुजरता. रोहित को तब मुझे संभालना पड़ता. मैं यह काम खुशीखुशी करती, पर उस का बढ़ता चिड़चिड़ापन कभीकभी मुझे बहुत परेशान कर डालता.

जी भर के घूमनाफिरना कर लेने के बाद शिखा के सिर पर नौकरी करने का भूत सवार हुआ. मैं ने उस के इस कदम का दबी जबान से विरोध किया, पर उस का कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि उस ने राजीव को राजी कर लिया था.

अपने आकर्षक व्यक्तित्व के कारण शिखा फिर से अपनी पुरानी कंपनी में रिसैप्शनिस्ट का पद पा गई. सप्ताह में 6 दिन रोहित को मैं संभालने लगी. अपनी बेटी की खुशी की खातिर मैं ने इस जिम्मेदारी को खुशीखुशी निभाना शुरू कर दिया.

मुझे लग रहा था कि मेरी छोटी बेटी की विवाहित जिंदगी में सब कुछ बढि़या चल रहा है, पर मेरा यह अंदाजा रोहित के तीसरे जन्मदिन की पार्टी के दौरान गलत साबित हुआ.

पार्टी का सारा मजा रोहित के लगातार रोतेकिलसते रहने से किरकिरा हो गया. वह अपनी मां से चिपटा रहना चाहता था, पर शिखा को और भी कई काम थे.

शिखा की ससुराल से सब लोग आए जरूर, पर किसी ने पार्टी के आयोजन में सक्रिय हिस्सा नहीं लिया. सारी देखभाल सविता और मुझे करनी पड़ी. शिखा अपने औफिस के सहयोगियों की देखभाल में बेहद व्यस्त रही.

शिखा की कंपनी के मालिक के बड़े बेटे तरुण विशेष मेहमान के रूप में आए. रोहित के लिए वह छोटी साइकिल का सब से महंगा उपहार दे कर गए. अपने हंसमुख, सहज व्यवहार से उन्होंने सभी का दिल जीत लिया. शिखा और राजीव दोनों ही उन के सामने बिछबिछ जा रहे थे.

तरुण के आने से पहले राजीव और शिखा के बीच में मैं ने अजीब सा तनाव महसूस किया था. मेरे दामाद की आंखों में अपनी पत्नी के लिए भरपूर प्यार के भाव कोई भी पढ़ सकता था, पर शिखा जानबूझ कर उन भावों की उपेक्षा कर रही थी.

अपने पति को देख कर वह बारबार मुसकराती, पर उस की मुसकराहट आंखों तक नहीं पहुंचती. कोई ऐसी बात जरूर थी, जो शिखा को बेचैन किए हुए थी. उस बात की मुझे कोई जानकारी न होना मेरे लिए चिंता का कारण बन रहा था.

तरुण को विदा करने के लिए राजीव और शिखा दोनों बाहर गए. मैं पहली मंजिल की खिड़की से नीचे का सारा दृश्य देख रही थी.

तरुण की कार के पास पहुंचने के बाद शिखा ने राजीव से कहा, तो वह लौट पड़ा.

शिखा कार से सट कर खड़ी हो गई. तरुण उस के नजदीक खड़े थे. दोनो हंसहंस कर बातें कर रहे थे.

उन्हें कोई भी देखता तो किसी तरह के शक का कोई कारण उस के मन में शायद पैदा न होता, लेकिन मेरे मन में कोई शक नहीं रहा कि मेरी बेटी का तरुण के साथ अवैध प्रेम संबंध कायम हो चुका है.

मैं ने साफ देखा कि तरुण का एक हाथ कार से सट कर खड़ी शिखा की कमर व कूल्हों को बड़े मालिकाना अंदाज में सहला रहा था.

तरुण की इस हरकत को सामने से आता इंसान नहीं देख सकता था, पर पहली मंजिल की खिड़की से मुझे सब साफ नजर आया.

कुछ देर बाद राजीव मिठाई का छोटा डब्बा ले कर उन के पास पहुंचा. तरुण ने अपनी गलत हकरत रोक कर अपने हाथ छाती पर बांध लिए. राजीव को उन के गलत रिश्ते का अंदाजा होना असंभव था.

उस रात मैं बिलकुल नहीं सो पाई. राजीव शिखा को बहुत प्यार करता था. शिखा के तरुण के साथ बने अवैध प्रेम संबंध को वह कभी स्वीकार नहीं कर पाएगा, मुझे मालूम था.

अवैध प्रेम संबंध को छिपाए रखना असंभव है. देरसवेर राजीव को भी इस के गलत संबंध की जानकारी होनी ही थी.

‘तब क्या होगा?’ इस सवाल का जवाब सोच कर मेरा कलेजा कांप उठा.

राजीव अपनी जान दे सकता था, तो शिखा की जान ले भी सकता था. कम से कम तलाक तो दोनों के बीच जरूर होगा, अपनी बेटी के घर के बिखरने की यों कल्पना करते हुए मैं रो पड़ी.

शिखा ससुराल से अलग न हुई होती, तो यह मुसीबत कभी न आती. अलग होने के इस बीज के अंकुरित होने में मेरा अहम योगदान था. उस रात करवटें बदलते हुए मैं ने खुद को अपनी उस गलत भूमिका के लिए खूब कोसा. मैं ने कभी नहीं चाहा था कि मेरी बेटी का तलाक हो और वह 40 साल के अमीर विवाहित पुरुष की रखैल के रूप में बदनाम हो.

मेरी मूर्ख बेटी अपनी विवाहित जिंदगी की सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे को समझ नहीं रही थी. उसे सही राह पर लाने की जिम्मेदारी मेरी ही थी और इस कार्य को पूरा करने का संकल्प पलपल मेरे मन में मजबूती पकड़ता गया.

मैं ने राजीव की मां से फोन पर बातें कीं, ‘‘बहनजी, मैं ने कल की पार्टी में रोहित को पूरा समय रोते ही देखा. उस का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. वह दुबला भी होता जा रहा है,’’ ऐसी इधरउधर की कुछ बातें करने के बाद मैं ने वार्त्तालाप इच्छित दिशा में मोड़ा.

‘‘यह सब तो होना ही था, क्योंकि आप की बेटी के पास उस का उचित पालनपोषण करने के लिए समय ही नहीं है,’’ सुचित्रा की आवाज में फौरन शिकायत के भाव पैदा हो गए.

‘‘उस के पास न समय है और न ही बच्चे को सही ढंग से पालने की कुशलता.’’

‘‘यह बात आप को बड़ी देर से समझ आई,’’ सुचित्रा की आवाज में रोष के साथसाथ हैरानी के भाव भी मौजूद थे.

‘‘ठीक कह रही हैं आप. हम सब की गलती का एहसास मुझे अब है, बहनजी. मेरी एक प्रार्थना आप स्वीकार करेंगी?’’

‘‘कहिए,’’ उन का स्वर कोमल हो उठा.

‘‘मेरी मूर्ख बेटी को वापस अपने पास आने की इजाजत दे दीजिए,’’ अपना गला रुंध जाने पर मुझे खुद को भी काफी हैरानी हुई.

‘‘यह घर उसी का है, पर उस ने लौटने की इच्छा मुझ से जाहिर नहीं की.’’

‘‘वह ऐसा जल्दी करेगी… मैं उसे समझाऊंगी.’’

‘‘उस का यहां हमेशा स्वागत होगा, बहनजी. हम सब को बहुत खुशी होगी,’’ इस बार भावावेश के कारण सुचित्रा का गला रुंध गया.

उस पूरे हफ्ते मैं ने अपनी बेटी की जासूसी की. उस ने 2 बार रेस्तरां में तरुण के साथ कौफी पी. 1 बार लंच के बाद छुट्टी कर के शहर के बाहरी हिस्से में बने सिनेमाहौल में फिल्म देखी. इन अवसरों पर तरुणउसे घर से दूर मुख्य सड़क पर कार से छोड़ गया.

इन 5 दिनों तक रोहित के नाना ने उसे संभाला. मेरे घर से गायब रहने की चर्चा शिखा या राजीव से हम दोनों ने बिलकुल नहीं की.

आगामी सोमवार की सुबह शिखा के औफिस जाने के बाद राजीव जब रोहित को मेरे घर छोड़ने आया, तो मैं ने उसे रोक कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘मैं तुम से कुछ जरूरी बात करना चाहती हूं, बेटा,’’ मैं ने गंभीर लहजे में उस से वार्त्तालाप शुरू किया.

राजीव का सारा ध्यान फौरन मुझ पर केंद्रित हो गया.

‘‘मेरी दिली इच्छा है कि तुम दोनों अपने घर लौट जाओ.’’

‘‘शिखा तैयार नहीं होगी लौटने को,’’ अपनी हैरानी को छिपाते हुए राजीव ने जवाब दिया.

‘‘तुम तो लौटना चाहते हो न?’’

‘‘बिलकुल.’’

‘‘तब मुझे सहयोग करो. शिखा नौकरी भी छोड़ देगी और लौटने के लिए भी राजी हो जाएगी. मेरी समझ से उसे सारा ध्यान रोहित के उचित पालनपोषण पर लगाना चाहिए.’’

‘‘जी बिलकुल.’’

‘‘मैं जो कहूंगी, वह करोगे?’’

‘‘मुझे क्या करना है?’’

‘‘तुम रोहित को आज चिडि़याघर दिखा लाओ. शाम को लौटना और यहां आने से पहले मुझे फोन कर लेना. ध्यान बस इसी बात का रखना कि तुम्हें शिखा से कोई संपर्क नहीं रखना है. तुम्हारे सारे सवालों के जवाब मैं शाम को दूंगी.’’

कुछ देर खामोश रह कर उस ने सोचविचार किया और फिर मेरी बात मान ली.

कुछ देर बाद बापबेटा चिडि़याघर घूमने निकल गए. उन के जाने के बाद मैं ने शिखा को औफिस में फोन किया और भय से कांपती आवाज से बोली, ‘‘बेटी, तू इसी वक्त घर आ जा. हम सब बड़ी मुसीबत में हैं.’’

‘‘रोहित को कुछ हुआ है क्या?’’ वह फौरन घबरा उठी.

‘‘रोहित को भी… और राजीव को भी… तू फौरन यहां पहुंच और देख, उस तरुण से न इस बात की चर्चा करना, न उस के साथ आना वरना सब बहुत गड़बड़ हो जाएगा. बस, फौरन आ जा,’’ और मैं ने फोन काट दिया. करीब 15 मिनट के अंदर शिखा घर आ गई.

वह मेरे सामने पहुंची, तो मैं ने गुस्से से घूरना शुरू कर दिया.‘‘क्या हुआ है? मुझे ऐसे क्यों देख रही हैं?’’ उस की घबराहट और बढ़ गई.

‘‘अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर तुझे क्या मिला है, बेवकूफ? मैं ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि मेरी बेटी चरित्रहीन निकलेगी,’’ क्रोधावेश के कारण मेरी आवाज कांप उठी.

‘‘यह क्या कह रही हैं आप?’’ मन में चोर होने के कारण उस का चेहरा फौरन पीला पड़ गया.

‘‘राजीव को सब पता लग गया है, बेहया…’’

‘‘क्या पता लग गया है उन्हें?’’ पूरा वाक्य मुंह से निकले में वह कई बार अटकी.

‘‘तरुण और तुम्हारे गलत संबंध के बारे में.’’

‘‘हमारे बीच कोई गलत संबंध नहीं है,’’ उस ने आवाज ऊंची कर के अपने इनकार में वजन पैदा करना चाहा.

‘‘तू क्या सोमवार और बुधवार को उस के साथ रेस्तरां में नहीं गई थी?’’

‘‘नहीं… और अगर गई भी थी तो इस से यह साबित नहीं होता कि तरुण और मेरे…’’

‘‘पिछले शुक्रवार को तुम दोनों ने क्या फिल्म नहीं देखी थी?’’

‘‘नहीं,’’ उस ने झूठ बोला.

मैं ने आगे बढ़ कर एक जोर का तमाचा उस के गाल पर जड़ा और चिल्लाई, ‘‘यों झूठ बोल कर तू अब अपने माथे पर लगा कलंक का टीका साफ नहीं कर पाएगी, मूर्ख लड़की. राजीव रोहित को तुझ से दूर ले गया है. उस ने तुम्हें अपनी व अपने बेटेकी जिंदगी से बाहर निकाल फेंकने का निर्णय ले लिया है… हमारी नाक कटा दी तू ने और अपनी तो जिंदगी ही बरबाद कर ली.’’

मेरे चांटे का फौरन असर हुआ. वह झूठ बोल कर अपना बचाव करना भूल गई. अपने हाथों में उस ने अपना मुंह छिपाया और रो पड़ी.

‘‘अब क्यों रो रही है?’’ मैं ने उस पर चोट करना जारी रखा, ‘‘राजीव से तलाक मिल जाएगा तुझे. जा कर उस तरुण से बात कर कि वह भी अब अपनी पत्नी से तलाक ले कर तुझे अपनाए.’’

‘‘मैं रोहित से दूर नहीं रह सकती हूं,’’ अपनी इच्छा बता कर वह और जोर से रो पड़ी.

‘‘रोहित के पिता को धोखा दे कर… उस के प्रेम को अपमानित कर के तू किस मुंह से रोहित को मांग रही है? अब तू उन्हें भूल जा और उस तरुण के साथ…’’

‘‘उस का नाम मत लो, मां,’’ वह तड़प उठी, ‘‘मैं उस से आगे कोई संबंध नहीं रखूंगी. मैं भटक गई थी… मुझे उन दोनों के साथ ही रहना है, मां.’’

‘‘अब यह नहीं हो सकता, बेटी.’’

‘‘मां, कुछ करो, प्लीज,’’ वह मेरे गले लग कर बिलखने लगी.

मैं ने मन ही मन राहत की सांस ली. शिखा की प्रतिक्रिया से साफ जाहिर था कि तरुण और उस के बीच अवैध संबंध नहीं था.

मेरी मूर्ख बेटी ने ससुराल में मिली आजादी का गलत फायदा उठाया था. अपने पति के प्रेम का नाजायज फायदा उठाते हुए वह नासमझी में भटक गई थी.

मैं बंदर के हाथ उस्तरा देने की कुसूरवार थी. मुझे पता था कि मेरी बेटी सुंदर ज्यादा है और गुणवान कम. ऐसी लड़कियां संयुक्त परिवार की सुरक्षा में ज्यादा सुखी रहती हैं. उसे परिवार से अलग कर मैं ने भारी भूल की थी.

जिस भय, चिंता व तनाव भरी मनोदशा का शिखा शिकार थी, उस के चलते उस से अपनी हर बात मनवाना मेरे लिए कठिन नहीं था. राजीव और रोहित को पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार थी.

मैं ने आसानी से उसे फौरन नौकरी छोड़ने व ससुराल लौटने को तैयार कर लिया.

‘‘बेटी, जगह की कमी, ससुराल वालों के दुर्व्यवहार या किसी अन्य मजबूरी के कारण बहुएं संयुक्त परिवार को छोड़ देती हैं, पर तू सिर्फ जिम्मेदारियों से बचने के लिए अलग हुई. तुझे गलत शह देने की कुसूरवार मैं भी हूं. तू ससुराल लौट कर ही सुखी रहेगी, इस में कोई शक नहीं. तू मुझ से एक वादा कर,’’ मैं बहुत गंभीर हो गई.

‘‘कैसा वादा?’’ उस ने आंसू पोंछते हुए पूछा.

‘‘यही कि इस बार लौट कर तुम अपने उत्तरदायित्वों को सही तरह से निभाओगी… अपने संयुक्त परिवार की मजबूत कड़ी बनोगी.’’

‘‘बनूंगी, मां,’’ उस ने जोर से कहा.

मैं ने आगे झुक कर उस का माथा चूमा और भावुक लहजे में बोली, ‘‘अब सच बात सुन. जिस व्यक्ति ने मुझे तरुण और तुम्हारे बारे में बताया है, वह राजीव नहीं है और उस ने भूल सुधार फौरन न होने की स्थिति में सब कुछ राजीव को बताने की धमकी भी दी है.’’

‘‘क…कौन है वह व्यक्ति?’’ उस ने परेशान लहजे में पूछा.

‘‘उस का नाम मत पूछ. बस, अपनेआप को बदल डाल, बेटी और अपने विवाहित जीवन की सुरक्षा व खुशियों को फिर कभी अपनी मूर्खता व नासमझी द्वारा दांव पर मत लगाना. इस बार तुम बच जाओगी, पर भविष्य में…’’

उस ने मेरे मुंह पर हाथ रख कर मजबूत स्वर में जवाब दिया, ‘‘भविष्य में ऐसी भूल कभी नहीं दोहराऊंगी, मां. पर तुम्हें विश्वास है कि सब जानने वाला वह इंसान अपना मुंह बंद रखेगा?’’

‘‘हां, बेटी,’’ मैं ने उसे अपनी छाती से लगाया और मौन आंसू बहाने लगी, क्योंकि अपने द्वारा की गई भूलों का कड़वा पल सामने आया देख मैं खुद को काफी शर्मिंदा महसूस कर रही थी.

 

बदलती दिशा: क्या गृहस्थी के लिए जया आधुनिक दुनिया में ढल पाई

जया ने घड़ी देखी और ब्रश पकड़े हाथों की गति बढ़ा दी. आज उठने में देर हो गई है. असल में पिं्रस की छुट्टी है तो उस ने अलार्म नहीं लगाया था. यही कारण है कि 7 बजे तक वह सोती रह गई. प्रिंस तो अभी भी सो रहा है.

कल रात जया सो नहीं पाई थी, भोर में सोई तो उठने का समय गड़बड़ा गया. वैसे आज प्रिंस को तैयार करने का झमेला नहीं है. बस, उसे ही दफ्तर के लिए तैयार होना है.

अम्मां ने चलते समय उसे टिफिन पकड़ाया और बोलीं, ‘‘परांठा आमलेट है, बीबी. याद से खा लेना. लौटा कर मत लाना. सुबह नाश्ता नहीं किया…चाय भी आधी छोड़ दी.’’

अम्मां कितना ध्यान रखती हैं, यह सोच कर जया की आंखों में आंसू झिलमिला उठे. यह कहावत कितनी सही है कि अपनों से पराए भले. अपने तो पलट कर भी नहीं देखते लेकिन 700 रुपए और रोटीकपड़े पर काम करने वाली इस अम्मां का कितना ध्यान है उस के प्रति. आज जया उसे हटा दे तो वह चली जाएगी, यह वह भी जानती है फिर भी कितना स्नेह…कैसी ममता है.

ढलती उमर में यह औरत पराए घर काम कर के जी रही है. भोर में आ कर शाम को जाती है फिर भी जया के प्रति उस के मन में कितना लगावजुड़ाव है. और पति रमन…उस के साथ तो जन्मजन्मांतर के लिए वह बंधी है. तब भी कभी नहीं पूछता कि कैसी हो. इतना स्वार्थी है रमन कि किसी से कोई मतलब नहीं. बस, घर में सबकुछ उस के मन जैसा होना चाहिए. उस के सुखआराम की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए. वह अपने को घर का मालिक समझता है जबकि तनख्वाह जया उस से डबल पाती है और घर चलाती है.

अच्छे संस्कारों में पलीबढ़ी जया मांदादी के आदर्शों पर चलती है…उच्च पद पर नौकरी करते हुए भी उग्र- आधुनिकता नहीं है उस के अंदर. पति, घर, बच्चा उस के प्राण हैं और उन के प्रति वह समर्पित है. उसे बेटे प्रिंस से, पति रमन से और अपने हाथों सजाई अपनी गृहस्थी से बहुत प्यार है.

बचपन से ही जया भावुक, कोमल और संवेदनशील स्वभाव की है. पति उस को ऐसा मिला है, जो बस, अपना ही स्वार्थ देखता है, पत्नी बच्चे के प्रति कोई प्यारममता उस में नहीं है.  जया तो उस के लिए विलास की एक वस्तु मात्र है.

जया घर से निकली तो देर हो गई थी. यह इत्तेफाक ही था कि घर से निकलते ही उसे आटो मिल गया और वह ठीक समय पर दफ्तर पहुंच गई.

कुरसी खींच कर जया सीट पर बैठी ही थी कि चपरासी ने आकर कहा, ‘‘मैडम, बौस ने आप को बुलाया है.’’

जया घबराई…डरतेडरते उन के कमरे में गई. वह बड़े अच्छे मूड में थे. उसे देखते ही बोले, ‘‘जया, मिठाई खिलाओ.’’

‘‘किस बात की, सर?’’ अवाक् जया पूछ बैठी.

‘‘तुम्हारी सी.आर. बहुत अच्छी गई थी…तुम को प्रमोशन मिल गया है.’’

धन्यवाद दे कर जया बाहर आई, फिर ऐसे काम में जुट गई कि सिर उठाने का भी समय नहीं मिला.

दफ्तर से छुट्टी के बाद वह घर आ कर सीधी लेट गई. प्रिंस भी आ कर उस से लिपट गया. अम्मां चाय लाईं.

‘‘टिफन खाया?’’

‘‘अरे, अम्मां…आज भी लंच करना ध्यान नहीं रहा. अम्मां, ऐसा करो, ओवन में गरम कर उसे ही दे दो.’’

‘‘रहने दो, मैं गरमगरम नमक- अजवाइन की पूरी बना देती हूं…पर बीबी, देह तुम्हारी अपनी है, बच्चे को पालना है. ऐसा करोगी तो…’’

बड़बड़ाती अम्मां रसोई में पूरी बनाने चली गईं. जया कृतज्ञ नजरों से उन को जाते हुए देखती रही. थोड़ी ही देर में अचार के साथ पूरी ले कर अम्मां आईं.

‘‘रात को क्या खाओगी?’’

‘‘अभी भर पेट खा कर रात को क्या खाऊंगी?’’

‘‘प्रिंस की खिचड़ी रखी है,’’ यह बोल कर अम्मां दो पल खड़ी रहीं फिर बोलीं, ‘‘साहब कब आएंगे?’’

‘‘काम से गए हैं, जब काम खत्म होगा तब आएंगे.’’

रात देर तक जया को नींद नहीं आई. अपने पति रमन के बारे में सोचती रही कि वह अब कुछ ज्यादा ही बाहर जाने लगे हैं. घर में जब रहते हैं तो बातबात पर झुंझला पड़ते हैं. उन के हावभाव से तो यही लगता है कि आफिस में शायद काम का दबाव है या किसी प्रकार का मनमुटाव चल रहा है. सब से बड़ी चिंता की बात यह है कि वह पिछले 4 महीने से घर में खर्च भी नहीं दे रहे हैं. पूछो तो कहते हैं कि गलती से एक वाउचर पर उन से ओवर पेमेंट हो गई थी और अब वह रिफंड हो रही है. अब इस के आगे जया क्या कहती…ऐसी गलती होती तो नहीं पर इनसान से भूल हो भी सकती है…रमन पर वह अपने से ज्यादा भरोसा करती है. थोड़ा सख्त मिजाज तो हैं पर कपटी नहीं हैं. सोचतेसोचते पता नहीं कब उसे नींद आ गई.

अगले दिन दफ्तर में उस के प्रमोशन की बात पता चलते ही सब ने उसे बधाई दी और पार्टी की मांग की.

लंच के बाद जम कर पार्टी हुई. सब ने मिल कर उसे फूलों का गुलदस्ता उपहार में दिया. जया मन में खुशी की बाढ़ ले कर घर लौटी पर घर आ कर उसे रोना आया कि ऐसे खुशी के अवसर पर रमन घर में नहीं हैं.

अम्मां के घर मेहमान आने वाले हैं इसलिए वह जल्दी घर चली गईं. ड्राइंगरूम में कार्पेट पर बैठी वह प्रिंस के साथ ब्लाक से रेलगाड़ी बना रही थी कि रमन का पुराना दोस्त रंजीत आया.

रंजीत को देखते ही जया हंस कर बोली, ‘‘आप…मैं गलत तो नहीं देख रही?’’

‘‘नहीं, तुम सही देख रही हो. मैं रंजीत ही हूं.’’

‘‘बैठिए, वीना भाभी को क्यों नहीं लाए?’’

‘‘वीना क ा अब शाम को निकलना कठिन हो गया है. दोनों बच्चों को होमवर्क कराती है…रमन आफिस से लौटा नहीं है क्या?’’

‘‘वह यहां कहां हैं. आफिस के काम से बंगलौर गए हैं.’’

रंजीत और भी गंभीर हो गया.

‘‘जया, पता नहीं कि तुम मेरी बातों पर विश्वास करोगी या नहीं पर मैं तुम को अपनी छोटी बहन मानता हूं इसलिए तुम को बता देना उचित समझता हूं…और वीना की भी यही राय है कि पत्नी को ही सब से पीछे इन सब बातों का पता चलता है.’’

जया घबराई सी बोली, ‘‘रंजीत भैया, बात क्या है?’’

‘‘रमन कहीं नहीं गया है. वह यहीं दिल्ली में है.’’

चौंकी जया. यह रंजीत कह रहा है, जो उन का सब से बड़ा शुभचिंतक और मित्र है. ऐसा मित्र, जो आज तक हर दुखसुख को साथ मिल कर बांटता आया है.

‘‘जया, तुम्हारे मन की दशा मैं समझ रहा हूं. पहले मैं ने सोचा था कि तुम को नहीं बताऊंगा पर वीना ने कहा कि तुम को पता होना चाहिए, जिस से कि तुम सावधान हो जाओ.’’

‘‘पर रंजीत भैया, यह कैसे हो सकता है?’’

‘‘सुनो, कल मैं और वीना एक बीमार दोस्त को देखने गांधीनगर गए थे. वीना ने ही पहले देखा कि रमन आटो से उतरा तो उस के हाथ में मून रेस्तरां के 2 बड़ेबड़े पोलीबैग थे. उन को ले वह सामने वाली गली के अंदर चला गया. मैं बुलाने जा रहा था पर वीना ने  रोक दिया.’’

जया की सांस रुक गई. एक पल को लगा कि चारों ओर अंधेरा छा गया है फिर भी अपने को संभाल कर बोली, ‘‘कोई गलती तो…मतलब डीलडौल में रमन जैसा कोई दूसरा आदमी…’’

‘‘रमन मेरे बचपन का साथी है. उस को पहचानने में मैं कोई भूल कर ही नहीं सकता.’’

‘‘पर भैया, उन्होंने आज सुबह ही बंगलौर से फोन किया था. रोज ही करते हैं.’’

‘‘उस का मोबाइल और तुम्हारा लैंडलाइन, तुम को क्या पता कहां से बोल रहा है?’’

जया स्तब्ध रह गईर्. रमन निर्मोही है यह तो वह समझ गई थी पर धोखा भी दे सकता है ऐसा तो सपने में भी नहीं सोचा था.

रंजीत गंभीर और चिंतित था. बोला, ‘‘तुम्हारे पारिवारिक मामलों में मेरा दखल ठीक नहीं है फिर भी पूछ रहा हूं. रमन तुम को अपनी तनख्वाह ला कर देता है या नहीं?’’

‘‘तनख्वाह तो कभी नहीं दी…हां, घरखर्च देते थे पर 4 महीने से एक पैसा नहीं दिया है. कह रहे थे कि गलती से ओवर पेमेंट हो गई, सो वह रिफंड हो रही है. उस में आधी तनख्वाह कट जाती है.’’

‘‘जया, तुम पढ़ीलिखी हो, समझदार हो, अच्छे पद पर नौकरी कर रही हो, घर के बाहर का संसार देख रही हो फिर भी रमन ने तुम्हें मूर्ख बनाया और तुम बन गईं. यह कैसा अंधा विश्वास है तुम्हारा पति पर. सुनो, अपना भला और बच्चे का भविष्य ठीक रखना चाहती हो तो रमन पर लगाम कसो. अपने पैसे संभालो.’’

जया की नींद उड़ गई. चिंता से सिर बोझिल हो गया. वह खिड़की के सहारे बिछी आरामकुरसी पर चुपचाप बैठी रमन के बारे में मां की नसीहतों को याद करने लगी.

संपन्न मातापिता की बड़ी लाड़ली बेटी जया, रमन के लिए उन को भी त्याग आई थी.

रमन का हावभाव और उस के बात करने का ढंग कुछ इस तरह का रूखा था जो किसी संस्कारी व्यक्ति को पसंद नहीं आता था. इस के लिए जया, रमन को दोषी नहीं मानती थी क्योंकि उसे संस्कारवान बनाने वाला कोई था ही नहीं. जिस  समय रमन का उस के परिवार में आनाजाना था तब वह मामूली नौकरी करता था और जया ने लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर के अधिकारी के पद पर काम शुरू किया था. लेकिन तब जया, रमन के प्रेम में एकदम पागल हो गई थी.

मां ने समझाया भी था कि इतने अच्छेअच्छे घरों से रिश्ते आ रहे हैं और तू ने किसे पसंद किया. यह अच्छा लड़का नहीं है, इस के चेहरे से चालाकी और दिखावा टपकता है. तू क्यों नहीं समझ पा रही है कि यह तुझ से प्यार नहीं करता बल्कि तेरे पैसे से प्यार करता है.

जया तो रमन के कामदेव जैसे रूप पर मर मिटी थी, सो एक दिन घर में बिना बताए उस ने चुपचाप रमन के साथ कोर्ट मैरिज कर ली और दोनों पतिपत्नी बन गए. तब से मांबाप से उस का कोई संबंध ही नहीं रहा. अब इस शहर में उस का ऐसा कोई नहीं है जिस के सामने वह रो कर जी हलका कर सके. कोई विपदा आई तो कौन सहारा देगा उसे?

मां के कहे शब्द और रमन  के आचरण की तुलना करने लगी तो पाया कि जब से विवाह हुआ है तब से ले कर अब तक कभी रमन ने उस की इच्छाओं को मान्यता नहीं दी. कभी उसे खुश करने का प्रयास नहीं किया और वह इन सब बातों को नजरअंदाज करती रही, सोचती रही कि रमन का पारिवारिक जीवन कुछ नहीं था इसलिए यह सब सीख नहीं पाया.

शादी के बाद 2 बार घूमने गई थी पर दोनों बार रमन ने अपनी ही इच्छा पूरी की. पहली बार जया ‘गोआ’ जाना चाहती थी और रमन उसे ले कर ‘जयपुर’ चला गया. दूसरी बार वह ‘शिमला’ जाना चाहती थी तो जिद कर रमन उसे ‘केरल’ के कोच्चि शहर ले गया था.

प्रिंस के होने के बाद तो उस ने घूमने जाने का नाम ही नहीं लिया. मजे की बात यह कि दोनों यात्रा का पूरा पैसा रमन ने उस से कैश ले लिया. आश्चर्य यह कि रमन के ऐसे व्यवहार से भी जया के मन में उस के प्रति कोई विरूप भाव नहीं जागा.

अभी तक रमन पर जया को इतना विश्वास था कि पति पास रहे या दूर उस का सुरक्षा कवच था, ढाल था पर अब विश्वास टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखर गया…कहीं भी कुछ नहीं बचा. अब अपनी और बच्चे की रक्षा उस को ही करनी होगी.

रमन लौटा, एकदम टे्रन के निश्चित समय पर. जया ने उसे गौर से देखा तो उस के चेहरे पर कहीं भी सफर की थकान के चिह्न नहीं थे.

‘‘जया, जल्दी से नाश्ता लगवा दो. आफिस के लिए निकलना है.’’

अम्मां ने परांठासब्जी प्लेट में रख खाना लगा दिया. खाना खातेखाते रमन बोला, ‘‘200 रुपए मेरे पर्स में रख दो, स्कूटर में तेल डलवाना है. मेरा पर्स खाली है.’’

पहले कहते ही निहाल हो कर जया पैसे रख देती थी पर इस बार अभी से समेटना शुरू हो गया.

‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं. मेरी तनख्वाह एक हफ्ते बाद मिलेगी.’’

‘‘तो क्या मैं बस में जाऊं या पैदल?’’

‘‘वह समस्या तुम्हारी है मेरी नहीं.’’

रमन अवाक् सा उस का मुंह देखने लगा. जया  नहाने चली गई. नहा कर बाहर आई तो रमन तैयार हो रहा था.

‘‘सुनो, मुझे कुछ कहना है.’’

‘‘हां, कहो…सुन रहा हूं.’’

‘‘घर का पूरा खर्च मैं चला रही हूं… तुम देना तो दूर उलटे लेते हो. अगले महीने से ऐसा नहीं होगा. तुम को घरखर्च देना पड़ेगा.’’

‘‘पर मेरा रिफंड…’’

‘‘वह तो जीवन भर चलता रहेगा. ओवर पेमेंट का इतना सारा पैसा गया कहां? देखो, जैसे भी हो, घर का खर्च तुम को देना पड़ेगा.’’

‘‘कहां से दूंगा? मेरे भी 10 खर्चे हैं.’’

‘‘घर चलाने की जिम्मेदारी तुम्हारी है मेरी नहीं.’’

रमन खीसें निकाल कर बोला, ‘‘डार्लिंग, नौकरी वाली लड़की से शादी घर चलाने के लिए ही की थी, समझीं.’’

जया को लगा उस के सामने एक धूर्त इनसान बैठा है.

‘‘और सुनो, रात को खाने में कीमा और परांठा बनवाना.’’

‘‘डेढ़ सौ रुपए गिन कर रख जाओ कीमा और घी के लिए, तब बनेगा.’’

‘‘रहने दो, मैं सब्जीरोटी खा लूंगा.’’

उस दिन जया दफ्तर में बैठी काम कर रही थी कि उस के ताऊ की बेटी दया का फोन आया. घबराई सी थी. दया से उसे बहुत लगाव है. उस के साथ जया जबतब फोन पर बात करती रहती है.

‘‘जया, मैं तेरे पास आ रही हूं.’’

‘‘बात क्या है? कुशल तो है न?’’

‘‘मैं आ कर बताऊंगी.’’

आधा घंटा भी नहीं लगा कि दया चली आई. वास्तव मेें ही वह परेशान और घबराई हुई थी.

‘‘पहले बैठ, पानी पी…फिर बता हुआ क्या?’’

‘‘मेरी छोटी ननद का रिश्ता पक्का हो गया है, पर महज 50 हजार के लिए बात अटक गई. लड़का बहुत अच्छा है पर 50 हजार का जुगाड़ 2 दिन में नहीं हो पाया तो रिश्ता हाथ से निकल जाएगा. सब जगह देख लिया…अब बस, तेरा ही भरोसा है.’’

‘‘परेशान मत हो. मेरे पास 80 हजार रुपए पड़े हैं. तू चल मेरे साथ, मैं पैसे दे देती हूं.’’

दया को साथ ले कर जया घर आई. अलमारी का लौकर खोला तो वह एकदम खाली पड़ा था. जया को चक्कर आ गए. दया उस का चेहरा देख चौंकी और समझ गई कि कुछ गड़बड़ है. बोली, ‘‘क्या हुआ, जया?’’

‘‘40 हजार के विकासपत्र थे. पिछले महीने मेच्योर हो कर 80 हजार हो गए थे. सोच रही थी कि उठा कर उन्हें डबल कर दूंगी पर…’’

तभी अम्मां पानी ले कर आईं और बोलीं, ‘‘बीबीजी, एक दिन दोपहर में आ कर साहब अलमारी से कुछ कागज निकाल कर ले गए थे.’’

‘‘कब?’’

‘‘पिछली बार दौरे पर जाने से पहले.’’

जया सिर थाम कर बिस्तर पर बैठ गई. दया ने ढाढ़स बंधाया.

‘‘जाने दे, जया, तू परेशान न हो. कहीं न कहीं से पैसे का जुगाड़ हो ही जाएगा.’’

‘‘एक बार डाकघर चल तो मेरे साथ.’’

दोनों डाकघर आईं और बड़े बाबू से बात की तो उन्होंने कहा, ‘‘आप के पति 10-12 दिन पहले कैश करा कर रकम ले गए थे. आप को पता नहीं क्या?’’

दोनों चुपचाप डाकघर से निकल आईं. घर आ कर रो पड़ी जया.

‘‘धैर्य रख, जया,’’ दया बोली, ‘‘अब तू भी सावधान हो जा. जो गया सो गया पर अब और नुकसान न होने पाए. इस का ध्यान रख.’’

थोड़ी देर बाद वह फिर बोली, ‘‘जया, एक बात बता…तेरा प्यार अंधा है या तू रमन से डरती है.’’

‘‘अब तक मैं प्यार में अंधी ही थी पर अब मेरी आंख खुल गई है.’’

‘‘ऐसा है तो थोड़ा साहस बटोर. तू तो जो है सो है, प्रिंस के भविष्य को अंधेरे में मत डुबा दे. उसे एक स्वस्थ जीवन दे. अकेले उसे पालने की सामर्थ्य है तुझ में.

‘‘जया, मैं तुझे एक बात बताना चाहती थी, पर तुझे मानसिक कष्ट होगा यह सोच कर आज तक नहीं बोली थी. मेरी भानजी नैना को तो तू जानती है. पिछले माह उस की शादी हुई तो वह पति के साथ हनीमून पर शिमला गई थी. वहां रमन एक युवती को ले कर जिस होटल में ठहरा था उसी में नैना भी रुकी हुई थी.  नैना जब तक शिमला में रही रमन की नजरों से बचती रही पर लौट कर उस ने मुझे यह बात बताई थी.’’

अब सबकुछ साफ हो गया था. जया ने गहरी सांस ली.

‘‘हां, तू ठीक कह रही है…बदलाव से डर कर चुप बैठी रही तो मेरे साथ मेरे बच्चे का भी सर्वनाश होगा, मम्मी भी पिछले रविवार को आ कर यही कह रही थीं. कुछ करूंगी.’’

2 दिन बाद रमन लौटा. प्रिंस को बुखार था इसलिए जया उसे गोद में ले कर बैठी थी. रमन ने उस का हाल भी नहीं पूछा, आदत के मुताबिक आते ही बोला, ‘‘अम्मां से कहो, बढि़या पत्ती की एक कप चाय बना दें.’’

‘‘पहले बाजार जा कर तुम दूध का पैकेट ले आओ तब चाय बनेगी.’’

रमन हैरान हो जया का मुंह देखने लगा.

‘‘मैं… मैं दूध लेने जाऊं?’’

‘‘क्यों नहीं? सभी लाते हैं.’’

जया ने इतनी रुखाई से कभी बात नहीं की थी. रमन कुछ समझ नहीं पा रहा था.

‘‘अम्मां को भेज दो.’’

‘‘अम्मां के पास और भी काम हैं.’’

‘‘ठीक है, मैं ही लाता हूं, पैसे दे दो.’’

‘‘अपने पैसों से लाओ और घर का भी कुछ सामान लाना है…लिस्ट दे रही हूं, लेते आना.’’

‘‘रहने दो, चाय नहीं पीनी.’’

रमन बैठ गया. प्रिंस सो गया तो जया अखबार ले कर पढ़ने लगी. रमन तैयार होते हुए बोला, ‘‘100 रुपए दे देना, पर्स एकदम खाली है.’’

‘‘मैं एक पैसा भी तुम्हें नहीं दे सकती, 100 रुपए तो बड़ी बात है… और तुम बैठो, मुझे तुम से कुछ कहना है.’’

रमन बैठ गया.

‘‘विकासपत्र के 80 हजार रुपए निकालते समय मुझ से पूछने की जरूरत नहीं समझी?’’

‘‘पूछना क्या? जरूरत थी, ले लिए.’’

‘‘अपनी जरूरत के लिए तुम खुद पैसों का इंतजाम करते, मेरे रुपए क्यों लिए और वह भी बिना पूछे?’’

‘‘तुम्हारे कहां से हो गए…शादी में दहेज था. दहेज में जो आता है उस पर लड़की का कोई अधिकार नहीं होता.’’

‘‘कौन सा कानून पढ़ कर आए हो? उस में दहेज लेना अपराध नहीं होता है क्या? आज 5 महीने से पूरा घर मैं चला रही हूं, तुम्हारा पैसा कहां जाता है?’’

‘‘मैं कितने दिन खाता हूं तुम्हारा, दौरे पर ही तो रहता हूं.’’

‘‘कहां का दौरा? शिमला का या गांधीनगर का?’’

तिलमिला उठा रमन, ‘‘मैं कहीं भी जाता हूं…तुम जासूसी करोगी मेरी?’’

‘‘मुझे कुछ करने की जरूरत नहीं. इतने दिन मूर्ख बनाते रहे…अब मेरी एक सीधी बात सुन लो. यह मेरा घर है…मेरे नाम से है…मैं किस्त भर रही हूं…तुम्हारे जैसे लंपट की मेरे घर में कोई जगह नहीं. मुझे पिं्रस को इनसान बनाना है, तुम्हारे जैसा लंपट नहीं. इसलिए चाहती हूं कि तुम्हारी छाया भी मेरे बच्चे पर न पडे़. तुम आज ही अपना ठिकाना खोज कर यहां से दफा हो जाओ.’’

‘‘मुझे घर से निकाल रही हो?’’

‘‘तुम्हें 420 के अपराध में पुलिस के हाथों भी दे सकती थी पर नहीं. वैसे हिसाब थोड़ा उलटा पड़ गया है न.  आज तक तो औरतों को ही धक्के मारमार कर घर से निकाला जाता था…यहां पत्नी पति को निकाल रही है.’’

रमन बुझ सा गया, फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘मैं तुम्हारी शर्तों पर समझौता करने को तैयार हूं.’’

‘‘मुझे कोई समझौता नहीं चाहिए. तुम जैसे धूर्त व मक्कार पति की छाया से भी मैं अपने को दूर रखना चाहती हूं.’’

‘‘तुम घर तोड़ रही हो.’’

‘‘यह घर नहीं शोषण की सूली थी जिस पर मैं तिलतिल कर के मरने के लिए टंगी थी पर अब मुझे जीवन चाहिए, अपने बच्चे के लिए जीना है मुझे.’’

बात बढ़ाए बिना रमन ने अपने कपड़े समेटे और चला गया.

जया ने मां को फोन किया :

‘‘मम्मी, आप की सीता ने निरपराधी हो कर भी बिना विरोध किए अग्निपरीक्षा दी थी और मैं एक छलांग में आग का दरिया पार कर आई. रमन को घर से भगा दिया.’’

‘‘सच, कह रही है तू?’’

‘‘एकदम सच, मम्मी. मां के सामने जब बच्चे के भविष्य का सवाल आ कर खड़ा होता है तो वह संसार की हर कठिनाई से टक्कर लेने के लिए खड़ी हो जाती है.’’

‘‘तू मेरे पास चली आ. यहां ऊपर का हिस्सा खाली पड़ा है.’’

‘‘नहीं, मम्मी, अपने घर में रह कर ही मेरा प्रिंस बड़ा होगा. अम्मां अब मेरे साथ ही रहेंगी, घर नहीं जाएंगी.’’

‘‘जैसी तेरी इच्छा, बेटी,’’ कह कर जया की मां ने फोन रख दिया.

अटूट बंधन : विशू की पत्नी ने अपने रिश्ते को कैसे स्वार्थ में बदल दिया?

विशू  देर तक सोया पड़ा था. वैसे तो जल्दी ही उठ जाता है वह या कहें कि उठना पड़ता है. विश्वनाथ तिवारी, डिप्टी जनरल मैनेजर के पद पर एक मल्टीनैशनल कंपनी में रोबदाब के साथ 13 साल से काम कर रहा है. वह कंपनी के मालिक जालान का दाहिना हाथ है. आकाश चूमता वेतन,  साथ में अन्य सुविधाएं जैसे ड्राइवर, पैट्रोल समेत गाड़ी, फुल फर्निश्ड फ्लैट, मैडिकल और बच्चों की पढ़ाई का पैसा, साल में एक बार देश या विदेश में घूमने का खर्चा और पूरे विश्व में औफिशियल टूर का अलग पैसा. जब  इतनी सारी सुविधाएं देती है कंपनी तो काम भी दबा कर लेती है.

सच तो यह है कि उसी ने ही कंपनी को सफलता की चोटी पर बैठाया है. इस की टक्कर की जो दूसरी कंपनी हैं वे उस पर नजर लगाए हैं कि कब विश्वनाथ का जालान से मतभेद हो और कब वे उसे चारा फेंक, अपनी कंपनी में खींच लें. हां, तो यह भोर की नींद उसे बचपन से लुभाती है.

उस के पिता एक निष्ठावान ब्राह्मण पंडित केशवदास थे. गांव के छोटे से प्राइमरी स्कूल के हैडमास्टर, वेतन अनियमित. पहली पत्नी डेढ़ साल के विश्वनाथ को छोड़ कर दुनिया से चल बसी तो विशू की देखभाल के लिए ही गरीब ब्राह्मण कन्या निर्मला को ब्याह लाए थे वे. उस से 2 बच्चे, बेटा दीनानाथ और बेटी सुलक्षणा हैं. अपनी आय में गृहस्थी नहीं चलती पर 5 बीघा जमीन थी उन के पास. उसी से रोटीकपड़ा चल जाता. मिट्टी का कच्चा घर तो अपना था ही. पर उन के पास सब से बड़ी संपत्ति थी पूरे गांव का आदरसम्मान. भोर में 4 बजे वे उठ जाते. अपने साथ ही वे विशू को जगा कर पढ़ने बैठा देते. कहते, ‘‘ऊषाकाल का अध्ययन सब से श्रेष्ठ होता है, सूर्योदय तक बिस्तर पर रहना चांडालों का काम है.’’

बेचारा विशू, बचपन से ही भोर की मीठी नींद से वंचित रह गया. विद्यार्थी जीवन समाप्त होते ही कंधों पर आ बैठा ऊंचे पद का दायित्व. भोर की तो क्या रात की नींद भी छिन रही थी. पर रविवार के दिन विशू देर तक सोता है, रीमा भी नहीं जगाती, उलटे बच्चों को हल्लागुल्ला करने से रोकती है.

आज रविवार नहीं सोमवार है. हफ्तेभर काम करने का पहला दिन. विशू गहरी नींद में सो रहा था. इतनी निश्चिंत शांति की नींद वह वर्षों से नहीं सोया. बच्चे कब स्कूल चले गए, पता नहीं चला. पहली चाय रोज की तरह सिरहाने रख कर कब नौकर भी चला गया उस का भी पता नहीं चला. रीमा के जोरदार झकझोरने से उठा. हड़बड़ा कर देखा खिड़की के परदे हटा दिए गए हैं. फर्श पर धूप, सामने रीमा हाउसकोट पहने खड़ी हंस रही है.

‘‘उठिए साहब, पता है 8 बज गए. आज आस्ट्रेलिया की पार्टी से मीटिंग है न?’’

‘‘धत, नींद खराब कर दी मेरी.’’ रीमा बिस्तर पर बैठी प्यार से उस के बिखरे बालों को संवार रही थी और हंस रही थी.

‘‘बच्चों से कम नहीं हो तुम. वे भी तैयार हो, स्कूल चले गए. चलो, उठो.’’

वह फिर लुढ़कने को तैयार.

‘‘सोने दो मुझे.’’

‘‘अरे अरे, ठीक 11 बजे मीटिंग है तुम्हारी.’’

‘‘भाड़ में जाए मीटिंग. जालान का बच्चा संभाले अपनेआप.’’

‘‘क्या कह रहे हो?’’

‘‘ठीक ही कह रहा हूं. शनिवार को ही मैं रैजिगनेशन लैटर उस के मुंह पर मार आया हूं. आजाद हूं अब मैं.’’

‘‘क्या?’’

रीमा इस तरह छिटक कर खड़ी हो गई मानो हजार वोल्ट का झटका लगा हो.

‘‘नौकरी छोड़ दी तुम ने?’’

‘‘हां.’’

‘‘इतना बड़ा फैसला तुम ने मुझ से पूछे बिना लिया कैसे?’’

विशू ने देखा, एक क्षण पहले की रोमांसभरी मधुर मुसकान उस के मुख से गायब थी. अब वहां क्रोध की ज्वाला थी.

‘‘क्या? तुम से पूछता? यह तो मेरा व्यक्तिगत मामला है. मैं नौकरी करूंगा या नहीं, यह मेरा फैसला है.’’

गुस्से में हांफ रही थी रीमा, ‘‘तुम्हारा फैसला? वाह, बहुत बढि़या. अब तुम्हारा व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है जो अपनी मरजी से चलोगे. घरपरिवार वाले हो. तुम्हारे सबकुछ पर हमारा अधिकार है. तुम बिना पूछे इतना बड़ा फैसला कैसे ले सकते हो? सोने की खान जैसी नौकरी, जिस ने तुम को झोंपड़े से उठा कर राजमहल में बैठा दिया. समाज की सर्वोच्च सोसाइटी में तुम को पहचान दी, तुम उसी नौकरी को मिजाज दिखा छोड़ आए.’’

‘‘ऐ, हैलो, यह सब जो तुम मुझे गिना रही हो वह सब खैरात में नहीं दिया है किसी ने मुझे. अपनी योग्यता और ईमानदारी की बदौलत हासिल किया था मैं ने यह मुकाम. कैंपस सिलैक्शन में टौप किया था. एक पिछड़ी कंपनी को कहां से कहां पहुंचा दिया इन 13 वर्षों में. खरबों का मुनाफा कमा कर दिया कंपनी को, नहीं तो बड़ीबड़ी कंपनियों के सामने तिनके की तरह बह जाता जालान का बच्चा.’’

‘‘अपने मुंह मियांमिट्ठू तो बनो मत. तुम जैसे एमबीए आजकल क्लर्क का काम कर रहे हैं.’’

‘‘हां, कर रहे हैं पर 13 वर्ष पहले आज की तरह छवड़ा भरभर एमबीए नहीं निकलते थे प्रति वर्ष.’’

थोड़ी नरम दिखाई दी रीमा, ‘‘देखो, आपस में लड़ाई करने से किसी समस्या का समाधान नहीं होता. जालान साहब इतनी बड़ी कंपनी के मालिक हैं, कोई मूर्ख तो हैं नहीं. तुम से कंपनी को कितना फायदा है, यह वे भी समझते हैं. तुम इतने वर्षों से इस कंपनी के प्रतिनिधि हो. बहुत से देशों के लोग तुम को ही जानते हैं इस कंपनी के नाम से. तुम्हारे न रहने का मतलब है कंपनी का बहुत नुकसान हो सकता है. बहुत सारे बाहर के कस्टमर तुम्हारी जगह नया आदमी देख डील ही न करें. इस बात को जालान साहब भी जानते हैं.’’

विशू अवाक हो रीमा को देख रहा था. वह भी एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत है. 50 हजार रुपए से ऊपर ही वेतन लेती है. उस में इतनी प्रैक्टिकल समझ, व्यावसायिक बुद्धि है, यह तो उस ने सोचा ही नहीं था और ऐसा दांवपेंच तो इतने बड़ेबड़े डील कर के भी उस के मस्तिष्क में नहीं आया.

‘‘देखो, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा. जालान साहब मंजे हुए व्यापारी हैं. अपना फायदा अच्छी तरह समझते हैं. तुम्हारी जगह नए आदमी को ले कर उसे अपने हिसाब से तैयार करने में उन को वर्षों लग जाएंगे. कंपनी को बहुत नुकसान होगा. चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं. वे मुझे बेटी मानते हैं. तुम माफी मांग कर रैजिगनेशन वापस ले लो. आज की आस्ट्रेलिया वाली डील में सफल हो जाओगे तो वे औैर भी खुश हो जाएंगे. चलो, उठो, मैं भी तैयार होती हूं. तुम्हारी समस्या का समाधान कर मैं अपने औफिस चली जाऊंगी.’’

 

‘‘माफी मांगूंगा, मैं?’’

‘‘अरे, यह बस फौर्मेलिटी है. दो शब्द कह देने में क्या जाता है? उम्र में पिता समान हैं और मालिक हैं.’’

‘‘कभी नहीं…’’

पंडितजी का खून जाग उठा विशू की धमनियों में. वह पंडितजी जो आज भी न्याय, निष्ठा, सदाचार, सपाटबयानी व सत्यवचन के लिए जाने जाते हैं, उन की प्रथम संतान, इतना नहीं गिर सकती.

‘‘प्रश्न ही नहीं उठता माफी मांगने का. गलत वे हैं, मैं नहीं. माफी उन को मुझ से मांगनी चाहिए.’’

फिर से जल उठी रीमा, ‘‘तो तुम त्यागपत्र वापस नहीं लोगे, माफी नहीं मांगोगे?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं…’’

‘‘ठीक,’’ अनपढ़ गंवार महिलाओं की तरह मुंह बिदका कर रीमा चीखी, ‘‘तो अब मजे करो, बीवी की रोटी तोड़ो, उस की कमाई पर मौजमस्ती करो.’’

विशू का मुंह खुला का खुला रह गया. क्या स्वार्थ का नग्न रूप देख रहा है वह. पहले तो यही रीमा प्रेम में समर्पण, त्याग और मधुरता की बात करती थी पर उस के स्वार्थ पर चोट लगते ही क्या रूपांतरण हो गया. विशू की नजरों में सब से सुंदर मुख आज कितना भयंकर और कुरूप हो उठा है. वह अपलक उसे देखता रहा.

क्रोध में भुनभुनाती रीमा तैयार हुई. डट कर नाश्ता किया, गैराज से अपनी गाड़ी निकाल औफिस चली गई. अब लंच में लौटेगी बच्चों को स्कूल से ले कर 2 बजे. 3 बजे फिर जा कर फिर लौटेगी 5 बजे. रोज का यही रुटीन है उस का.

रीमा के जाने के बाद एक अलसाई अंगड़ाई ले विशू उठ बैठा. घड़ी ठीक 10 बजा रही थी. चलो, अब पूरे 4 घंटे हैं उस के हाथ में सोचविचार कर निर्णय लेने को. फ्रैश हो कर आते ही संतो ने ताजी चाय ला कर स्टूल पर रखी. उस ने चाय पी. रीमा से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. आज वह स्वयं समझा गई उस का रिश्ता बस स्वार्थ का रिश्ता है. इन्हीं सब उलझनों में फंसा वह अतीत में खो गया.

अपने पिता को वह कभीकभी आर्थिक चिंता करते देखता था तब निर्मला यानी सौतेली मां कभी डांट कभी प्यार जता उन को साहस जुटाती थी कि चिंता क्यों करते हो जी, सब समस्या का हल हो जाएगा. कभी भी आर्थिक दुर्बलता को ले कर पिता को ताने देते या व्यंग्य करते नहीं सुना. न ही कभी अपने लिए कुछ मांग करते.

अपनी मां की तो स्मृति भी नहीं है मन में, डेढ़ वर्ष की उम्र से ही उस ने निर्मला को अपनी मां ही जाना है और निर्मला ने भी उसे पलकों पर पाला है. दीनू से बढ़ कर प्यार किया है. उस का भी तो बाबा से वही रिश्ता था जो रीमा का उस के साथ है. फिर निर्मला हर संकट में बाबा के साथ रही, साहस जुटाया, मेहनत कर के सहयोग दिया और रीमा ने आज…उस की रोटी का एक कौर भी नहीं खाया अभी, फिर भी अपनी कमाई का ताना दे गई.

पति के मानसम्मान का कोई मूल्य नहीं, जो उसे पूरी तरह मिट्टी में मिलाने, माफी मंगवाने ले जा रही थी, उस झूठे और बेईमान जालान के पास. उस ने उस के आत्मसम्मान की प्रशंसा नहीं की. एक बार भी साहस नहीं बढ़ाया कि ठीक किया, चिंता क्यों करते हो, मेरी नौकरी तो है ही. दूसरी नौकरी मिलने तक मैं सब संभाल लूंगी. वाह, क्या कहने उच्च समाज की अति उच्च पद पर कार्यरत पत्नी की.

आज रीमा ने 13 वर्ष से पति से सारे सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, अपने हर शौक की पूर्ति, आराम, विलास का जीवन सबकुछ एक झटके में उठा कर फेंक दिया, अपनी जरा सी असुविधा की कल्पना मात्र से. एक बार भी नहीं सोचा कि पति के पास कितनी योग्यता है, कितना अनुभव है, और अपने क्षेत्र में कितना नाम है. वह दो दिन भी नहीं बैठेगा. दसियों कंपनी मालिक हाथ फैलाए बैठे हैं उसे खींच लेने के लिए, देश ही नहीं विदेशों में भी. और उस की सब से प्रिय पत्नी उस की तुलना कर गई डोनेशन वाले सड़कछाप एमबीए लोगों के साथ. बस, अब और नहीं. पार्लर ने जो सुंदर मुख दिया है रीमा को वह मुखौटा हटा कर उस के अंदर का भयानक स्वार्थी, क्रूर मुख स्वयं ही दिखा गई है वह आज. उस का सारा मोह भंग हो चुका है.

अपने ही प्रोफैसर की बेटी रीमा को पाने के लिए वह स्वयं कितना स्वार्थी बन गया था, आज उस बात का उसे अनुभव हुआ. एमबीए के खर्चे के लिए उस निर्धन परिवार के मुंह की रोटी 5 बीघा खेत तक बिकवा दिया.

पिता पर दबाव डाला. अपने 2 छोटेछोटे बच्चों की चिंता कर के भी सौतेली मां निर्मला ने एक बार भी बाबा को नहीं रोका. और उस ने इन 13 वर्षों में उधर पलट कर भी नहीं देखा क्योंकि उसे बहाना मिल गया था. जब नौकरी पा कर बाबा को सहायता करने का समय आया तब सब से पहले रीमा से शादी कर के अपने परिवार से पल्ला झाड़ने का बहाना खोजने लगा और मिल भी गया.

निष्ठावान स्वात्तिक ब्राह्मण पंडितजी ने ठाकुर की बेटी को अपने घर की बहू के रूप में नहीं स्वीकारा और वह खुश हो रिश्ता तोड़ आया. असल में उस के अंतरमन में भय था, आशंका थी कि इस निर्धन परिवार से जुड़ा रहा तो कमाई का कुछ हिस्सा अवश्य ही चला जाएगा इस परिवार के हिस्से. जब कि पिता छोड़ औरों से उस का खून का रिश्ता है ही नहीं. और पिता के प्रति भी क्या दायित्व निभाया.

दिल्ली से 40 मिनट या 1 घंटे का रास्ता है फूलपुर गांव का. ‘फूलपुर’ वह भी हाईवे के किनारे. गांव के चौधरी का बेटा महेंद्र मोटर साइकिल ले कर आया था उसे लेने. गेट पर ही मिल गया. एक जरूरी मीटिंग थी, इस के बाद ही प्रमोशन की घोषणा होने वाली थी. रीमा औफिस न जा कर घर में ही सांस रोके बैठी थी. वह औफिस ही निकल रहा था कि महेंद्र ने पकड़ा.

‘विशू, जल्दी चल पंडितजी नहीं रहे. अभी अरथी नहीं उठी, तू जाएगा तब उठेगी.’

उस के दिमाग में प्रमोशन की मीटिंग चल रही थी. इस समय यह झूठझमेला. खीज कर बोला, ‘दीनू है तो.’

मुंह खुल गया था महेंद्र का, ‘क्या कह रहा है, तू बड़ा बेटा है और तेरे पिता थे वे…’

‘देख, मेरे जीवन का प्रश्न है. आज मैं नहीं जा सकता, जरूरी काम है. आ जाऊंगा. तू जा.’

महेंद्र के खुले हुए मुंह के सामने वह औफिस चला गया था. 8 वर्ष पुरानी बात हो गई.

 विशू ने निर्णय ले लिया और निर्णय के बाद अपने को जहां पाया उस से उस के होश उड़ गए. उस का अपना कुछ है ही नहीं. यह कंपनी का लग्जरी फर्निश्ड फ्लैट नहीं गुड़गांवदिल्ली सीमा पर बागबगीचों से सजी सुंदर कोठी है.

गांव की मिट्टी में पले विशू को 9 मंजिल पर टंगे रहना अच्छा नहीं लगता था. तब इतनी आबादी भी नहीं थी. इधर तो सस्ते में जमीन मिल गई फिर मनपसंद नक्शे से घर बनवा लिया. कुशल माली के साथ खड़े हो पेड़पौधे लगवाए जो अब बड़े हो गए हैं. लौन में आगरा से मंगवा कर कारपेट घास लगवाई पर यह कुछ भी उस का अपना नहीं है. पूरा का पूरा घर रीमा के नाम है. उस ने सारे बैंक खाते, निवेश के कागज देखे. सब कुछ रीमा के नाम है. कहीं भी कुछ भी उस अकेले के नाम नहीं. हां, एक खाता उस अकेले के नाम अवश्य है, जहां उस का वेतन जमा होता है. उसे खोल देखा तो उस में मात्र 55 हजार रुपए पड़े हैं. चलो, भागते भूत की लंगोटी संकटकालीन समय को पार कर देगी. 5 हजार पर्स में हैं. और हां, आज 17 तारीख है, कल रविवार गया है. 15 तारीख शनिवार को त्यागपत्र दिया है शाम को 4 बजे, मतलब उस दिन तक का वेतन तो मिलेगा ही.

पर वह जानता है कि हफ्ते दो हफ्ते से ज्यादा बेरोजगार नहीं रहने वाला. बस, यह बीच का समय काटने के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण जगह चाहिए.

वह अटैची में जरूरी कागजपत्तर रख रहा था तभी ध्यान आया, एक पौलिसी और है जिस में रीमा का नहीं एक ट्रस्ट का नाम है. 20 लाख की पौलिसी है. विशू ने वह पौलिसी निकाली, 5 दिन बाद वह मैच्योर हो रही है. चैन की सांस ली कि चलो 20 लाख रुपए हाथ में रहेंगे.

अब उसे कोई चिंता नहीं. उस ने पौलिसी अटैची में संभाल कर रख ली. इस के बाद कपड़ेलत्ते बैग में डाले. बैग को नौकर से गाड़ी में रखवा दिया. नौकर ने नाश्ता लगा दिया. नहातेनहाते ही उस ने फैसला कर लिया था कि भरपेट नाश्ता कर के ही निकलेगा. अभी तक तो रीमा के घर में रोटी उसी की कमाई की है. नाश्ता कर लैपटौप उठा चलतेचलते एक पल रुका, एक कसक यहां छोड़ कर जा रहा है, दोनों बच्चे. पलकें गीली हो उठीं पर जाना तो पड़ेगा ही.

आज उस ने सब से पहले अपने निजी खाते से 9 हजार निकाल पर्स में रखे फिर गाड़ी से नगरनिगम सीमा पार की. अपने गांव की सड़क पर गाड़ी जब उतारी तब अचानक याद आया, 13 वर्ष हो गए घर आए. एक युग बीत गया, जाने कितना परिवर्तन हो चुका होगा. एक परिवर्तन तो अभी देख रहा है विशू. पहले गांव जाने की सड़क चौड़ी तो इतनी ही थी पर कच्ची थी. बारहों महीना धूल उड़ाती, बरसात में कीचड़ भरी.

अब काले कोलतार की साफसुथरी सड़क. चमचमाती नागिन सी पड़ी है. उस पर टैंपो भी चल रहे हैं. उस की गाड़ी फिसलती चली जा रही है. गांव की सीमा में एक चाय की दुकान. दुकान क्या, जरा सी आड़ बना रखी थी. वहां एक तख्त पर 2 युवतियां. सामने एक मेज पर स्टोव, केतली, दूध का भगौना, कांच के जार में सस्ते बिस्कुट, नमकीन और ब्रैड्स. ग्राहक शून्य दुकान थी. उस ने गति धीमी की, उतर पड़ा. एक युवती सलवारसूट में थी, दूसरी साड़ी में. उस के उतरते ही सलवार वाली युवती चहक उठी, ‘‘बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने जल्दी से पल्ला खींच सिरमुंह ढक लिया. यह सहज संकोच, सम्मान प्रदर्शन आज शिक्षित, शहरी समाज में जड़ से उखड़ एकदम समाप्त हो गया है, उस का मन जुड़ा गया. युवती की ओर देखा, ‘‘तू? तू मुन्नी है क्या?’’

‘‘जी, बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने तब तक आ कर उसे प्रणाम किया. विशू का समाज बदल गया है. वह हाय, हैलो तो जानता है पर आशीर्वाद में क्या कहे, नहीं जानता. इसलिए चुप ही रहा. मुन्नी ने कहा, ‘‘भाभी, बड़े भैया के साथ मैं घर जा रही हूं. तुम दुकान बढ़ा कर जल्दी से घर आ जाओ.’’

वक्त क्याक्या दिखाएगा मुझे. इन के मुंह का निवाला छीन कर उस ने अपने ऊपर चढ़ने की सीढ़ी बनवाई थी. वह तो ऊपर की चोटी पर चढ़ कर आराम से बैठ गया पर उस का मूल्य चुकाना कितना भारी पड़ा इस निर्धन परिवार को. पंडित केशवदास तिवारी, जिन को जिलाधिकारी तक सम्मान की दृष्टि से देखते थे, उन की बहूबेटी दो रोटी जुटाने के लिए चाय की दुकान खोले बैठी हैं. पर दीनू तो था, वह कहां गया? क्या कमाता नहीं है, आवारा हो गया है…या…इतना अमंगल नहीं हुआ होगा, बहू के हाथों में सुहाग की प्रतीक लाल कांच की चूडि़यां हैं.

घर एकदम खंडहर हो चुका है. मिट्टी का ही घर था पर एकदम मजबूत, लिपापुता, सूई भी गिरे तो उठा लो. छत इतनी मजबूत थी कि वह दोस्तों के साथ दिनभर छत पर पतंग उड़ाया करता था. और घर भले ही कच्चा हो जमीन काफी थी. पंडितजी ने बांस का बेड़ा बना रखा था पूरी सीमा को घेर, जिसे बाउंडरी वौल कहते हैं. अब तक बांस के टुकड़ों का भी नामोनिशान नहीं, सब बराबर हो गया

उसी के कोने में चाय की दुकान है. आंगन में आते ही मुग्ध हो गया. एक छोटा सा लंगड़ा आम का पौधा लगाया था उस ने आंगन के बीचोंबीच. अब वह महावृक्ष बन गया है, मजबूत शाखाएं फैलाए खड़ा है. मुन्नी ने उस के पैर रुकते देख हंस कर कहा, ‘‘बड़े भैया, यह तुम्हारा लगाया पेड़ है. अम्मा कहती हैं, देखो कितना बड़ा हो गया है. छवड़ा भरभर मीठे आम उतरते हैं. सावनभर पूरे महल्ले की औरतें इस पर झूला झूलने आती हैं.’’

यह सच है कि निर्मला ने अपना सारा स्नेह, प्यार उस पर पहले ही दिन से न्यौछावर किया पर विशू ने कभी उस को मां नहीं समझा, उस के साथ उस का व्यवहार सदा ही औपचारिक रहा. लड़ाई या अपमान भी नहीं किया कभी. पर आज उस ने मन से जा कर उस के धूल भरे, गंदे पैरों को छू कर प्रणाम किया. निर्मला ने अपने दुर्बल हाथों में उसे छाती पर खींच लिया, माथे को चूमा, ‘‘मेरा विशू, मेरा बेटा, कितने दिनों में आया रे तू?’’

दंग रह गया वह, एक अनपढ़, निर्धन महिला जो सौतेली मां है, अपने स्वार्थ के लिए इन की मुंह की रोटी तक छीन कर ले उड़ा, आज तक पलट कर देखा भी नहीं. अपनी पत्नी जिस के ऊपर अपना सर्वस्व लुटाता रहा, उस से करारा थप्पड़ न खाता तो आज भी इधर की दिशा नहीं लेता. उस निर्मला की आंसूभरी आंखों में कोई क्रोध, कोई विराग नहीं, कोई शिकायत नहीं. है तो बस स्नेह, ममता की अमृतधारा.

‘‘अम्मा, कैसी हो तुम?’’

‘‘बस ठीक हूं, तू खुश है, बड़ा आदमी बन गया है, यह क्या कम सुख है.’’

आंचल से तख्त पोंछा, ‘‘बैठ बेटा, मुन्नी, भैया के लिए पानी ला.’’

विशू ने देखा, छत पर अनगिनत दरारें, कहींकहीं तो दरार इतनी चौड़ी कि धूप का कतरा नीचे आ रहा है. साथ वाले कमरे की तो आधी छत ही गिर गई है. उस के ऊपर खुला आकाश. सिहर उठा वह, वहां बैठ बाबा अध्ययन किया करते थे, दूसरे कोने में उस के पढ़ने की मेज थी.

‘‘अम्मा, छत तो कभी भी गिर सकती है.’’

‘‘हां बेटा, पर करें क्या? दीनू को लाला की चीनी मिल में काम मिला था. 10वीं भी पास न कर पाया. बल्कि मुन्नी की बुद्धि अच्छी है, 10वां पास कर लिया. सोचा था, थोड़ाथोड़ा जोड़ छत की मरम्मत करवा लेंगे पर एक ट्रक ने टक्कर मार दी, आधा पैर काटना पड़ा. बैसाखी पर चलता है वह अब. नौकरी चली गई तो दानेदाने को तरस गए. तब बहू और मुन्नी ने सलाह कर चाय की दुकान खोली. उस से रूखासूखा ही सही, दो रोटी शाम को मिल जाती हैं.’’

स्तब्ध हो गया. उस किशोरी सी बहू के प्रति मन में आदर भर उठा. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद पति को दुत्कार उस से पल्ला नहीं झाड़ा, उस के साथ रही, उस को, उस के परिवार को सहारा दिया.

अपनी छोटी सी सीमित क्षमता के अनुसार और रीमा? इतनी बड़ी नौकरी, इतनी संपन्नता, उसी का ही दिया इतना सुख, आराम, संपन्नता में जरा सा अंतराल आएगा, सोच कर ही इतनी गुस्से में आ गई कि पति को ताने देते नहीं हिचकी. और यह छोटी सी निर्धन अनपढ़ लड़की.

मुन्नी पानी ले आई. नल का ताजा पानी. वर्षों से मिनरल वाटर छोड़ सादा पानी नहीं पीता है विशू. पर आज निश्चिंत हो कर नल का पानी पी गया और लगा बहुत देर से प्यासा था.

‘‘दीनू है कहां?’’

‘‘चौधरी के बेटे ने सड़क पर पैट्रोल पंप खोला है, तेल भराने जो गाडि़यां आती हैं उन में से कोईकोई सफाई भी करवाते हैं तो उस ने दीनू को लगा दिया है. कभीकभी 30-40 रुपए कमा लेता है, कभीकभी एकदम खाली हाथ. बेटा, तू हाथमुंह धो ले. मुन्नी ताजे पानी से बालटी भर दे. धुला तौलिया निकाल दे.’’

‘‘अम्मा, सड़क पर गाड़ी खड़ी है. मैं अंदर ले आता हूं.’’

निर्मला की आंखें फटी की फटी रह गईं, ‘‘तू गाड़ी लाया है.’’

‘‘हां, अम्मा.’’

आत्मग्लानि और अपराधबोध से विशू का मन भारी हो रहा था. आज लग रहा है कि उस दिन वह गलत था, बाबा कहते थे, ‘धनवान बनो या न बनो पर बच्चा, इंसान बनो, आदमी धन नहीं मन से बड़ा होना चाहिए.’ पर उन के दिए सारे संस्कारों को ठेंगा दिखा कर उस ने उस उपदेश को कभी न अपनाया. अपना स्वार्थ तो पूरा हो ही गया.

तभी वह सजग हुआ, सोचा, अरे, उस के पास अपना बचा ही क्या है, एक नाम और नाम के पीछे जुड़ा सरनेम ‘तिवारी’ छोड़ सारे अभ्यास, आत्मजन, घरद्वार, यहां तक कि सोच भी तो रीमा की है. उस के मम्मीपापा, उन के उपदेश, रीमा के भाईबहन, उस की आदतें, उठनाबैठना, समाज में परिचय तक रीमा का दिया है, रीमा का पति, मिस्टर सिन्हा का दामाद, गौतम साहब का जीजा.

पंडित केशवदास तिवारी का तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहा क्योंकि अपने सुपुत्र विश्वनाथ तिवारी ने स्वयं अपना अस्तित्व खो दिया. मिस्टर सिन्हा का दामाद, रीमा का पति नाम से ही तो जाना जाता है तो फिर पंडितजी का नाम चलेगा कैसे?

विशू ने गाड़ी ला कर खड़ी की. निर्मला ने आ कर गाड़ी को बड़ी ही सावधानी से छुआ, मुख पर गर्व का उजाला, ‘‘तेरे बाबा देख कर कितना खुश होते रे, मुन्ना.’’

अचानक ही विशू को लगा कि क्या होता अगर वह कैरियर के पीछे ऐसे सांस बंद कर न दौड़ता. बाबा सदा कहते थे सहज, सरल व आदरणीय बने रहने के लिए. पर उस ने तो स्वयं ही अपने जीवन को जटिल, इतना तनावपूर्ण बना लिया. वह मेधावी था, शिक्षा पूरी कर कोई नौकरी कर लेता, काम पर जाता फिर अपने आंगन में अपने प्रियजनों के बीच लौट खापी कर चैन की नींद सो जाता, खेतों की हरियाली, कोयल की कूक और माटी की सुगंध की चादर ओढ़. पर नहीं, उस ने जो दौड़ शुरू की है दूसरों को पीछे छोड़ आगे और आगे जा कर आकाश छूने की, उस में कोई विरामचिह्न है ही नहीं. बस, सांस रोक कर दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, गिर गए तो मर गए. दूसरे लोग तुम को रौंद आगे निकल जाएंगे.

आज इस निर्धन, थकेहारे परिवार को देख एक नए संसार की खोज मिली उस को. यहां पलपल जीवित रहने की लड़ाई लड़ते हुए भी ये लोग कितने सुखी हैं, कितनी शांति है आम की घनी छाया के नीचे, एकदूसरे के प्रति कितना लगाव है. कोई भी बुरा समय आए तो कैसे सब मिलजुल कर उस को मार भगाने को एकजुट हो जाते हैं. उस के जीवन में संपन्नता के साथ वह सबकुछ, सारी सफलताएं हैं जो आज के तथाकथित उच्चाकांक्षी लोगों का सपना हैं पर आज रीमा ने आंखों में उंगली डाल दिखा दिया कि उस के प्रति समर्पण किसी का भी नहीं.

‘‘चल बेटा, खाना खा ले. थोड़ा आराम कर के जाना. दिन रहते ही घर लौटना, समय ठीक नहीं. दीनू लौट कर दुखी होगा कि भैया से भेंट नहीं हुई.’’

एकएक शब्दों में उस मां, जिसे वह सौतेली मानता था, का स्नेह, ममता और संतान की चिंता देख विशू अंदर तक भीग उठा.

‘‘मैं नहीं जा रहा. कई दिनों की छुट्टी ले कर आया हूं. घर में रहूंगा.’’

बुरी तरह चौंकी निर्मला, ‘‘क्या, अरे रहेगा कहां? देख रहा है घरद्वार की दशा, कहां सोएगा, कहां उठेगाबैठेगा और नहानाधोना?’’

‘‘तुम लोग कैसे करते हो?’’

‘‘पागल मत बन. हमारी बात मान और…’’

‘‘क्यों? क्या मैं कोई आसमान से उतर कर आया हूं?’’

हंस पड़ी निर्मला. विशू ने देखा इतना आंधीतूफान झेल कर भी निर्मला की हंसी में आज भी वही शुद्ध पवित्र हृदय झांकता है, वही मीठी सहज सरल हंसी, ‘‘कर लो बात. तेरा घरद्वार है, रहेगा क्यों नहीं? पर तेरे रहने लायक भी तो हो.’’

‘‘तभी तो रहना है मुझे…इस को रहने लायक बनाने के लिए.’’

‘‘क्या कह रहा है तू?’’

‘‘अम्मा, नासमझ था जो अपनी जड़ अपने हाथों काट गया था. पर मजबूत जड़ काट कर भी नहीं कटती. एक टुकड़ा भी रह जाए तो पेड़ फिर से लहलहा उठता है. अम्मा, मैं समझ गया हूं कि मैं आज तक सोने के हिरन के पीछे दौड़ता रहा जो लुभाता जरूर है पर किसी का भी अपना नहीं होता. बस, तुम मुझे वह करने दो जो मुझे करना है.’’

‘‘वह क्या है, लल्ला?’’

‘‘इस मकान को मजबूत, पक्का घर बनाना है, 3 कमरे, 1 हाल, बिजली, पानी की व्यवस्था, रसोई, बाथरूम की सुविधा और आज से चाय की दुकान बंद. पंडितजी की बहूबेटी सड़क चलते लोगों को चाय बेचेंगी, यह तो बड़ी लज्जा की बात है. वहां एक बहुत बड़ी परचून की दुकान होगी. एक नौकर होगा, दीनू उस में बैठेगा.’’

‘‘पर वह तो… बहुत पैसों का…’’

‘‘अम्मा, याद है तुम बचपन में कहती थीं कि तेरा बेटा लाखों का नहीं करोड़ों का है. तुम पैसों की चिंता क्यों करती हो. मैं हूं तो.’’

रो पड़ी निर्मला, ‘‘मेरे बच्चे…’’

‘‘चलो अम्मा, रोटी खिलाओ, भूख लगी है.’’

मन एकदम नीले आकाश में जलहीन छोटेछोटे बादलों के टुकड़ों जैसा हलका हो गया. उसे चिंता नहीं इस समय पर्स में 35 हजार रुपए पड़े ही हैं, काम शुरू करने में परेशानी नहीं होगी. बीमा के 20 लाख रुपए हैं ही. उसे पता है कि वह 1 हफ्ता भी खाली नहीं बैठेगा. दूसरे लोगों की नजर वर्षों से उस पर है. उस की योग्यता और काम की निष्ठा से सब ललचाए बैठे हैं.

देश और विदेश की कंपनियों के कर्णधार, कई औफर इस समय भी उस के हाथ में हैं. बस, स्वीकार करने की देर है और वह करेगा भी. पर इस बार देश नहीं विदेश में ही जाने का मन बना लिया है. जहां रीमा की परछाईं भी नहीं हो. घर के ऊपर अपने लिए एक बड़ा सा पोर्शन बना लेगा जहां से हरेहरे खेत, गाती कोयल, आम के बाग और गांव के किनारेकिनारे बहती यमुना नदी दिखाई पड़ेगी.

एक बार जिस पेड़ की जड़ काट कर गया था, उस की जड़ के बचे हुए टुकड़े से पेड़ फिर लहलहाता वटवृक्ष बन गया है. अब दोबारा से उस जड़ को नहीं काटेगा. वर्ष में एक बार मां, भाईबहन के पास अवश्य आएगा.

बहुत दिनों बाद लौकी की सब्जी, चूल्हे की आंच में सिंकी गोलमटोल करारीकरारी रोटी पेट भर खा कर वह मूंज की बनी चारपाई पर दरी और साफ धुली चादर के बिछौने पर पड़ते ही सो गया. बहुत दिनों बाद गहरी, मीठी नींद आई है उसे.

 

 

प्रश्नचिह्न : अंबिका के प्यार यश के बदले व्यवहार की क्या थी वजह?

आयुष का बिलखने का स्वर सुन कर अंबिका लपक कर अपने ड्राइंगरूम में आई थी.

‘‘क्या हुआ, बेटे?’’ उस ने आयुष से पूछा.

‘‘पापा ने मारा,’’ आयुष गाल सहलाते हुए बोला.

‘‘यश, क्यों मारा तुम ने? 4 साल के बच्चे पर हाथ उठाते तुम्हें शर्म नहीं आई?’’ अंबिका गुस्से में पलटी, पर उस का स्वर तो मानो किसी पत्थर से टकरा कर लौट आया था. यश तक तो उस का स्वर शायद पहुंचा ही नहीं था.

एक क्षण के लिए अंबिका का मन हुआ कि बुरी तरह बिफर कर यश को इतनी खरीखोटी सुनाए कि वह फिर कभी नन्हे मासूम आयुष पर हाथ उठाने की बात सोच भी न सके. पर कुछ सोच कर चुप रह गई थी.

आयुष अब भी सिसक रहा था.

उस पर जान छिड़कने वाले पिता ने उसे क्यों मारा, यह बात उस की समझ से परे थी.

यश अपना फोन कान से लगाए न जाने किस से बातचीत में उलझा था. उस के लिए तो मानो अंबिका और आयुष हो कर भी नहीं थे वहां.

अंबिका ने आयुष को शांत कर के खिलापिला कर सुला तो दिया था पर उस के मुख पर चिंता की स्पष्ट रेखाएं थीं.

‘क्या हो गया था यश को? ऐसा तो नहीं था वह,’ अंबिका सोच में डूब गई.

परिवार का हीरेजवाहरात का पुराना कारोबार था जिसे यश और उस के बड़े भाई रतनराज मिल कर संभालते थे. उन के पिता ने घर और व्यापार का बंटवारा दोनों बेटों के बीच इतनी सावधानी से किया था कि दोनों के बीच मनमुटाव की गुंजाइश ही नहीं थी.

कारोबार में कुशल यश को जीवन की हर आकर्षक वस्तु से लगाव था. पार्टियां देना और पार्टियों में जाना हर रोज लगा ही रहता था, पर पिछले 3-4 माह से यश में आ रहे परिवर्तनों को देख कर वह हैरान थी. कभीकभी उसे लगता कि कहीं कुछ नहीं बदला, पर दूसरे ही क्षण वह कुछ घटनाओं को याद कर के घबरा उठती. हर क्षण उसे आभास होता कि यश अब पहले जैसा नहीं रहा, लेकिन बहुत सोचने पर भी उसे इस परिवर्तन का कारण समझ में नहीं आ रहा था.

कार स्टार्ट होने की आवाज सुनते ही अंबिका की तंद्रा टूटी थी. फोन पर हुई लंबी बातचीत के बाद यश कहीं चला गया था.

आयुष को उस के बिस्तर में सुला कर अंबिका बाहर निकली. वहां ड्राइवर माधव को चौकीदार से हंसीठिठोली करते देख हैरान रह गई.

‘‘तुम यहां बैठे हो, माधव? साहब की कार कौन चला कर ले गया है?’’

‘‘साहब अपनेआप चला कर ले  गए हैं. मुझे बुलाया ही नहीं,’’ माधव का उत्तर था.

‘‘तुम यहां रहते ही कब हो? पान खाने या सिगरेट पीने गए होगे. साहब कब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करते?’’ अंबिका का सारा गुस्सा माधव पर ही उतरा था.

‘‘मैं तो यहीं चौकीदार के पास बैठा था. कार स्टार्ट होने की आवाज सुन कर भाग कर उन के पास पहुंचा, पर साहब ने मेरी ओर देखा तक नहीं.’’

‘‘ठीक है,’’ अंबिका अंदर चली गई.

सोफे पर बैठ कर अंबिका देर तक शून्य में ताकती रही. यही सब बातें तो हैं जो उस के मन को खटकती हैं. यश का इस तरह उसे बिना बताए चले जाना, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ. भीड़भाड़ वाली सड़कों पर स्वयं कार चलाने से यश सदा बचता था. यदि माधव जरा भी इधरउधर चला जाए तो वह चीखचिल्ला कर घर सिर पर उठा लेता था. आज वही यश माधव को छोड़ कर स्वयं ही चला गया. अंबिका को चिंता होने लगी. उस ने यश को कौल किया पर यश ने मोबाइल फोन स्विच औफ कर रखा था.

अंबिका को अब पूरा विश्वास हो चला था कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. वह किसी से बात कर के अपने मन का बोझ हलका करना चाहती थी. अपने मातापिता को असमय फोन कर के वह परेशान नहीं कर सकती थी. यश के बड़े भाई रतनराज का विचार भी आया मन में, पर उन से फोन पर कुछ कहना ठीक न समझा. आखिर में उस ने अपनी प्रिय सहेली हर्षिता को फोन लगाया. हर्षिता उस की सब से करीबी सहेली तो थी ही, संकट की घड़ी में उस पर आंख मूंद कर विश्वास भी किया जा सकता था.

हर्षिता से फोन पर बात करते हुए अंबिका का गला भर आया, आवाज भर्रा गई.

‘‘क्या बात है, अंबिका? तुम इतनी परेशान हो और मुझे बताया तक नहीं. ये सब बातें फोन पर नहीं होतीं. तुम इंतजार करो. मैं 5 मिनट में तुम्हारे घर पहुंचती हूं,’’ हर्षिता ने आश्वासन दिया.

कुछ ही देर में हर्षिता उस के घर में थी. आते ही बोली, ‘‘अब विस्तार से बता, बात क्या है?’’

उत्तर में अंबिका उस के गले लग कर फूटफूट कर रो पड़ी.

‘‘पता नहीं हमारे हंसतेखेलते घर को किस की नजर लग गई, हर्षिता. यश को न अब मेरी चिंता है न आयुष की.’’

‘‘तुम ने उस से बात करने का प्रयत्न किया?’’

‘‘कई बार, पर यश कुछ बोलता ही नहीं. बस, मूक बन कर बैठा रहता है.’’

‘‘सारे लक्षण तो वही हैं, तुझे बहुत सावधानी से काम लेना पड़ेगा,’’ हर्षिता किसी बड़े विशेषज्ञ की तरह बोली.

‘‘कैसे लक्षण?’’

‘‘प्रेमरोग के लक्षण. मैं तो तुझे बहुत समझदार समझती थी, पर तू तो निरी बुद्धू निकली. मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि यश के जीवन में कोई और स्त्री आ गई है. उसी ने तुम लोगों के जीवन में उथलपुथल मचा दी है.’’

‘‘मैं नहीं मानती. यश में चाहे कितनी भी बुराइयां हों पर उस के चरित्र में कोई खोट नहीं है.’’

‘‘बड़ी भोली हो तुम. ऐसी स्त्रियां बहुत फरेबी होती हैं. इन के प्रभाव से तो विश्वामित्र जैसे ऋषिमुनि भी नहीं बच सके थे. यश तो फिर भी मनुष्य है.’’

‘‘ठीक है. मैं कल ही यश से बात करूंगी.’’

‘‘तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी. मैं ने कहा न, तुम्हें सावधानी से काम  लेना पड़ेगा.’’

‘‘तो क्या करूं?’’

‘‘तुम्हें यश की हर गतिविधि पर नजर रखनी होगी. अच्छा होगा कि एक डायरी बना लो और उस में प्रतिदिन की घटनाएं लिखती जाओ.’’

‘‘पर कौन सी घटनाएं?’’

 

‘‘यही कि यश कब आता है, कब जाता है, किसकिस से मिलताजुलता है. घर आने पर उस की हर चीज का ध्यान से निरीक्षणपरीक्षण करो. सब से बड़ी बात कि यश के विरुद्ध कुछ सुबूत इकट्ठा करो.’’

‘‘उस से क्या होगा, मैं कौन सा उस के विरुद्ध कोर्टकचहरी के चक्कर लगाऊंगी?’’ अंबिका बोली.

‘‘तुम कुछ समझती नहीं हो. जब तुम यश पर किसी और स्त्री के चक्कर में होने का आरोप लगाओगी तो सुबूत तो पेश करने ही होंगे.’’

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी. मुझे पूरा विश्वास है कि यश बेवफा हो ही नहीं सकता. तुम्हें तो स्वयं पता है कि यश किस तरह हमारा खयाल रखता था.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो. हम सब यश का उदाहरण देते थकते नहीं थे, पर अब तुम खतरे की घंटी स्वयं सुन रही हो तो तुम क्या अपने परिवार को सुरक्षित नहीं रखना चाहोगी?’’ हर्षिता ने प्रश्न किया.

‘‘क्यों नहीं, इसीलिए तो तुम्हें फोन किया था. पर मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती कि स्थिति और बिगड़ जाए.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. तुम्हें केवल थोड़ा सावधान रहना होगा. तुम कहती हो कि यश लंबे समय तक फोन पर बात करता है. कम से कम फोन नंबर पता करो. एक दिन जैसे ही यश घर से निकले, तुम पीछा करो. पता तो लगे कि सचाई क्या है?’’

‘‘मैं कोशिश करूंगी, हर्षिता, पर कोई वादा नहीं करती.’’

‘‘मेरे चाचाजी पुलिस में बड़े अफसर हैं. तुम चाहो तो हम उन की मदद ले सकते हैं. वे यश से बातचीत कर के कोई न कोई समाधान अवश्य निकाल लेंगे,’’ हर्षिता ने सुझाव दिया था.

‘‘नहीं, हर्षिता, यह परिवार के सम्मान की बात है. रतन भैया को सूचित किए बिना मैं ने ऐसा कुछ किया तो वे नाराज होंगे.’’

‘‘ठीक है, तुम अच्छी तरह सोचविचार लो. क्या करना है, यह निर्णय तो तुम्हें ही लेना होगा. पर तुम्हें जब भी मेरी मदद की जरूरत हो, मैं तैयार हूं. स्वयं को कभी अकेला मत समझना,’’ हर्षिता ने आश्वासन दे कर विदा ली.

अंबिका देर तक अकेली बैठी सोचती रही. कहीं से कोई प्रकाश की किरण नजर नहीं आ रही थी. तभी अचानक उसे याद आया कि 3 दिन बाद ही आयुष का जन्मदिन है. हर वर्ष आयुष का जन्मदिन वे बड़ी धूमधाम से मनाते रहे हैं. उसे लगा कि इतनी सी बात भला उसे समझ में क्यों नहीं आई. पिछले जन्मदिन पर सब ने कितना धमाल किया था.

पांचसितारा होटल में ऐसी शानदार थीम पार्टी का आयोजन किया था यश ने कि सब ने दांतों तले उंगली दबा ली थी.

अंबिका को बड़ी राहत मिली थी. यश अवश्य ही आयुष के जन्मदिन पर ‘सरप्राइज पार्टी’ का आयोजन कर रहा है. तभी तो उस ने कुछ बताया नहीं. आज आने दो घर, खूब खबर लूंगी. कम से कम गेस्ट लिस्ट के बारे में तो उस से सलाह लेनी ही चाहिए थी.

इसी ऊहापोह में कब आंख लग गई, अंबिका को पता ही नहीं लगा. पर जब नींद खुली और यश का बिस्तर खाली देखा तो वह धक् से रह गई. यश रात को घर लौटा ही नहीं था. यदि वह घर नहीं लौटा तो उसे वह कहां ढूंढ़ने जाए. फूटफूट कर रोने का मन हो रहा था पर इस कठिन समय में आंसू भी उस का साथ छोड़ गए थे.

उस ने मशीनी ढंग से आयुष को तैयार कर स्कूल भेजा. तभी यश की कार की आवाज आई तो वह लपक कर मुख्यद्वार पर पहुंची.

‘‘कहां थे अब तक? कम से कम एक फोन ही कर दिया होता. चिंता के कारण मेरा बुरा हाल था. कल शाम से खाना तो क्या, मुंह में पानी की बूंद तक नहीं गई है,’’ अंबिका एक ही सांस में बोल गई थी पर यश बिना कोई उत्तर दिए अंदर चला गया.

‘‘मैं कुछ पूछ रही हूं, यश. मुझे अपने प्रश्नों के उत्तर चाहिए.’’

‘‘बाहर नौकरों के सामने तमाशा करने की क्या जरूरत है? ये प्रश्न घर में आ कर भी पूछे जा सकते हैं,’’ यश बोला.

‘‘तो अब बता दो, यश. रातभर कहां थे तुम? और यह भी कि मुझ से ऐसा क्या अपराध हो गया है कि तुम ने इस तरह मुंह फेर लिया है? तुम बहुत बदल गए हो, यश.’’

‘‘समय के साथ हर व्यक्ति बदल जाता है. तुम्हें नहीं लगता कि तुम आजकल इतने प्रश्न पूछने लगी हो कि स्वयं एक प्रश्नचिह्न बन कर रह गई हो. बारबार मैं कहां गया था, क्यों गया था जैसे प्रश्न मत किया करो, क्योंकि मेरे पास इन के उत्तर हैं ही नहीं. तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो. कल से पानी भी नहीं पिया, जैसे ताने दे कर अपनी निरीहता भी मुझे मत दिखाओ. घर में क्या खाने का सामान नहीं है? मेरी 10 से 5 की नौकरी नहीं है. तुम लोगों के ऐशोआराम के लिए बहुत खटना पड़ता है. हर समय इन बातों का ब्योरा मत मांगा करो,’’ यश ने टका सा उत्तर दिया था. हालांकि मीठा बोल बोलने वाले यश ने अपना स्वर ऊंचा नहीं किया, पर उस की बातों से अंबिका का दिल छलनी हो गया.

अगले दिन आयुष का जन्मदिन था. सुबह से ही उसे शुभकामनाएं देने वालों के फोन आने लगे थे. पर यश भोर में ही उठ कर कहीं चला गया था. आयुष कई बार पूछ चुका था कि उस के जन्मदिन की पार्टी कहां होगी?

‘सरप्राइज पार्टी’ की प्रतीक्षा करते हुए शाम घिर आई थी. आयुष कंप्यूटर गेम्स खेलने में व्यस्त था. अपने जन्मदिन की बात शायद अब वह भूल ही गया था.

‘‘आयुष, कहां हो तुम? अंबिका, यश, घर में कोई है या नहीं?’’ जैसे प्रश्नों से सारा घर गूंज उठा था. यश के बड़े भाई रतनलाल, उन की पत्नी अंजलि व उन के दोनों बच्चे आए थे.

‘‘तुम लोग तो हमें याद करते नहीं, हम ने सोचा हम ही मिल आएं. आयुष बेटे, जन्मदिन मुबारक हो,’’ रतन ने बड़ा सा डब्बा आयुष को पकड़ा दिया.

‘‘इस की जरूरत नहीं थी, भाईसाहब. हम कोई पार्टी नहीं कर रहे,’’ अंबिका उदास स्वर में बोली.

‘‘पार्टी नहीं भी कर रहे तो क्या हुआ? आयुष को जन्मदिन का उपहार तो मिलना ही चाहिए,’’ अंजलि ने प्यार से आयुष का माथा चूम लिया.

‘‘यश कहां है? तुम लोग आजकल रहते कहां हो, महीनों से यश घर नहीं आया? तुम भी हमें भूल ही गई हो,’’ अंजलि ने उलाहना दिया.

उत्तर में अंबिका के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला. वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकी और फफक कर रो पड़ी.

‘‘क्या हुआ?’’ अंजलि और रतन ने हैरानपरेशान स्वर में पूछा. बच्चे भी टकटकी लगा कर अंबिका को ही घूर रहे थे.

‘‘तुम लोग अंदर जा कर खेलो,’’ रतन ने बच्चों से कहा.

अंबिका ने आंसुओं को संभालते हुए रतन और अंजलि को सबकुछ बता दिया.

‘‘यश के रंगढंग बदले हुए हैं, यह तो मुझे भी लगा था. आजकल उस की किसी काम में रुचि नहीं रही, पर तुम लोगों के घरेलू जीवन में ऐसी उथलपुथल मची हुई है, इस की तो हम ने कल्पना भी नहीं की थी.

‘‘चिंता मत करो, अंबिका. मैं एकदो दिन में सब पता कर लूंगा. पहले तो मैं कल ही बच्चू से सब उगलवा लूंगा. तुम जल्दी से तैयार हो जाओ. आज आयुष के जन्मदिन की पार्टी हम ‘इंद्रप्रस्थ रिजोर्ट’ में करेंगे,’’ रतन ने कहा.

इंद्रप्रस्थ रिजोर्ट में आयुष का जन्मदिन मना कर रात में देर से लौटी थी अंबिका. आयुष प्रसन्नता से झूम रहा था.

अगली सुबह अंबिका पर मानो वज्रपात हुआ. फोन की घंटी बजी तो उनींदी सी अंबिका ने फोन उठाया.

‘‘हैलो, क्या मैं अंबिका राज से बात कर सकती हूं?’’ दूसरी ओर से किसी स्त्री का स्वर गूंजा था.

‘‘बोल रही हूं,’’ अंबिका बोली.

‘‘तुम से अधिक बेशर्म स्त्री मैं ने दूसरी नहीं देखी. जब यशराज तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता तो क्यों उस के गले पड़ी हो? छोड़ क्यों नहीं देतीं उसे?’’

‘‘कौन हो तुम? और मुझ से इस तरह बात करने का साहस कैसे हुआ तुम्हारा?’’ अंबिका की नींद हवा हो गई थी. वह ऐसे तड़प उठी मानो किसी ने बिजली का नंगा तार छुआ दिया हो.

‘‘मैं कौन हूं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, मैं जो कह रही हूं वह महत्त्वपूर्ण है. यशराज तुम्हारे साथ नहीं, मेरे साथ जीवन बिताना चाहता है. अपना और अपने बेटे का भला चाहती हो तो तुरंत बिस्तर बांधो और मुक्त कर दो मेरे यश को.’’

‘‘नहीं तो क्या कर लोगी तुम?’’ अंबिका चीखी.’’

‘‘यह तो समय आने पर ही पता चलेगा,’’ दूसरी ओर से अट्टहास सुनाई दिया.

काफी देर तक अंबिका पत्थर की मूर्ति की भांति बैठी रह गई. धीरेधीरे दिन बीता, शाम आई. देर रात गए यश घर लौटा और सोफे पर ही पसर गया. वह अब भी गहरी नींद में था.

पर आज अंबिका के संयम का बांध टूट गया. उस ने झिंझोड़ कर यश को जगाया. हैरान यश आंखें मलते हुए उठ बैठा.

‘‘तुम्हारी प्रेमलीला इस सीमा तक पहुंच जाएगी यह तो मैं ने सोचा भी नहीं था. पर मेरे जीवन में जहर घोल कर तुम इस तरह चैन से नहीं सो सकते,’’ अंबिका बिफर उठी.

‘‘बात क्या है, अंबिका? इस तरह रोष में क्यों हो?’’

‘‘मेरे रोष का कारण जानना चाहते हो तुम? मुझ से मुक्ति चाहते हो? एक बार कह कर तो देखते, मैं यह उपकार भी कर देती. पर तुम ने तो अपनी प्रेमिका से कहलवा कर मुझे अपमानित करना ही उचित समझा.’’

‘‘किस ने अपमानित किया तुम्हें, अंबिका?’’ यश सन्न रह गया.

‘‘सबकुछ जानते हुए बनने का प्रयत्न मत करो. तुम्हारी सहमति के बिना किसी का मुझ से इस तरह बात करने का साहस नहीं हो सकता.’’

‘‘आओ, अंबिका, यहां बैठो मेरे पास. मैं तुम्हें सब सच बताऊंगा. मैं ने आज तक तुम्हें कुछ नहीं बताया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि जिस नर्क की आग में मैं जल रहा था, वह मेरे हंसतेखेलते परिवार को भस्म कर दे. पर अब शायद पानी सिर से गुजर गया है.’’

‘‘कौन है वह? मुझे इस तरह धमकी देने का साहस कैसे हुआ उस का?’’

‘‘वह? एक डांसर है. बार में, होटलों में और छोटेमोटे उत्सवों में नाचगा कर अपना काम चलाती है. मेरा परिचय उस से मेरे मित्र तेजाश्री ने कराया था. मैं भी शराब के नशे में शायद बहक गया था. तब से वह मुझे यह कह कर ब्लैकमेल करती रही कि मेरे संबंध के बारे में वह तुम्हें बता देगी, पत्रपत्रिकाओं में फोटो छपवा देगी. अब तक वह मुझ से लाखों रुपए ऐंठ चुकी है और अब उस ने मुझ पर दबाव डालना शुरू कर दिया कि तुम्हें छोड़ कर उस से विवाह कर लूं वरना अपने गुंडों से हमारे पूरे परिवार को तबाह करवा देगी.’’

‘‘इतना कुछ हो गया और तुम ने मुझे हवा तक नहीं लगने दी. पतिपत्नी यदि सुखदुख के साथी न हों तो दांपत्य जीवन का अर्थ ही क्या है?’’ अंबिका क्रोधित स्वर में बोली.

‘‘मुझे लगा था कि इस समस्या से मैं स्वयं निबट लूंगा पर मैं जितना इसे सुलझाने का प्रयत्न करता उतना ही उलझता जाता. अब यह नाराजगी छोड़ो और सोचो कि आगे क्या करना है,’’ यश याचनाभरे स्वर में बोला.

‘‘मैं रतन भैया को फोन कर के बुलाती हूं. रतन भैया और अंजलि भाभी कल आए थे. हम सब साथ गए थे आयुष का जन्मदिन मनाने. मैं ने उन्हें सब बता दिया था.’

रतनराज तुरंत चले आए थे. सारी बातें विस्तार से सुन कर उन के आश्चर्य की सीमा नहीं रही. यश ऐसी मुसीबत में फंस सकता है, यह उन की समझ से परे था. अंबिका ने हर्षिता को भी बुला लिया था. वे सब मिल कर हर्षिता के चाचाजी से मिलने गए.

‘‘यह तो सीधासादा ब्लैकमेल का चक्कर है. हमारे पास तो हरदिन ऐसी सैकड़ों शिकायतें आती हैं. आप मेरी मानें तो पुलिस में रपट कर दें. इन लोगों का साहस इतना बढ़ गया है कि अब ये बड़े मुरगों को फंसाने की ताक में रहते हैं,’’ हर्षिता के अंकल ने सलाह देते हुए कहा.

रतनराज और यशराज जैसे रसूख वाले परिवार के साथ ऐसा हो सकता है, यह सोच कर सभी हैरान थे.

रतन की सलाह से यश अपने परिवार के साथ विएना चला गया.

‘‘मैं यहां सब संभाल लूंगा. तुम वहां के कार्यालय की जिम्मेदारी संभालो. वैसे भी मैं तुम्हें कुछ समय के लिए विएना भेजने की सोच रहा था,’’ रतनराज ने कहा.

हवाई जहाज में बैठने के बाद यश ने चैन की सांस ली थी. आज उसे एहसास हुआ कि अपनी परेशानियों को परिवारजनों से न बांट कर न केव?ल उस ने भूल की थी बल्कि उन पर अन्याय भी किया था. अब उसे लग रहा था कि यह तो अक्षम्य अपराध था जिस ने उसे बरबादी के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया था.

जरा सी आजादी: सुखी परिवार होने के बावजूद क्यों आत्महत्या करना चाहती थी नेहा?

‘‘आखिर क्या कमी है जो तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा. तुम तो मुझे भी पागल कर के छोड़ोगी, नेहा. इतना समय नहीं है मेरे पास जो हर समय तुम्हारा ही चेहरा देखता रहूं.’’

एक कड़वी सी मुसकान चली आई नेहा के होंठों पर. बोली, ‘‘समय तो कभी नहीं रहा तुम्हारे पास. जब जवानी थी तब समय नहीं था, अब तो बुढ़ापा सिर पर खड़ा है जब अपने पेशे के शिखर पर हो तुम. इस पल तुम से समय की उम्मीद तो मैं कर भी नहीं सकती.’’

‘‘क्या चाहती हो? क्या छुट्टी ले कर घर बैठ जाऊं? माना आज बैठ भी गया तो कल क्या होगा. कल फिर तुम्हारा मन नहीं लगेगा, फिर क्या करोगी? कोई ठोस हल है?’’

तौलिया उठा कर ब्रजेश नहाने चले गए. आज एक मीटिंग भी थी. नेहा ने उन्हें जरूरी तैयारी भी करने नहीं दी. वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर वह चाहती क्या है. सब तो है. साडि़यां, गहने, महंगे साधन जो भी उन की सामर्थ्य में है सब है उन के घर में. अभी इकलौते बेटे की शादी कर के हटे हैं. पढ़ीलिखी कमाऊ बहू भी मिल चुकी है. जीवन के सभी कोण पूरे हैं, फिर कमी क्या है जो दिल नहीं लगता. बस, एक ही रट है, दिल नहीं लगता, दिल नहीं लगता. हद होती है हर चीज की.

जीवन के इस पड़ाव पर परेशान हो चुके हैं ब्रजेश. रिटायरमैंट को 3 साल रह गए हैं. कितना सब सोच रखा है, बुढ़ापा इस तरह बिताएंगे, उस तरह बिताएंगे. जीवनभर की थकान धीरेधीरे अपनी मरजी से जी कर उतारेंगे. आज तक अपनी इच्छा से जिए कब हैं? पढ़ाई समाप्त होते ही नौकरी मिल गई थी. उस के बाद तो वह दिन और आज का दिन.

पिताजी पर बहनों की जिम्मेदारी थी इसलिए जल्दी ही उन का सहारा बन जाना चाहते थे ब्रजेश. अपना चाहा कभी नहीं किया. पिता की बहनें और फिर अपनी बहनें… सब को निभातेनिभाते यह दिन आ गया. अपना परिवार सीमित रखा, सब योजनाबद्ध तरीके से निबटा लिया. अब जरा सुख की सांस लेने का समय आया है तो नेहा कैसी बेसिरपैर की परेशानी देने लगी है. नींद नहीं आती उसे, परेशान रहती है, अकेलेपन से घबराने लगी है. बारबार एक ही बात कहती है, उस का दिल नहीं लगता. उस का मन उदास होने लगा है.

कुछ दिन के लिए मायके भी भेज दिया था उसे. वहां से भी जल्दी ही वापस आ गई. पराए घर में वह थोड़े न रहेगी सारी उम्र. उस का घर तो यह है न, जहां वह रहती है. कुछ दिन बहू के पास भी रहने गई. वह घर भी अपना नहीं लगा. वह तो बहू का घर है न, वह वहां कैसे रह सकती है.

रिटायरमैंट के बाद एक जगह टिक कर बैठेंगे तब शायद साथसाथ रहने के लिए बड़ा घर ले लें. अभी जब तक नौकरी है हर 3-4 साल के बाद उन्हें तो शहर बदलना ही है. उस शहर में आए मात्र  4 महीने हुए हैं. यह नई जगह नेहा को पसंद नहीं आ रही. नया घर ही मनहूस लग रहा है.

‘‘अड़ोसपड़ोस में आओजाओ, किसी से मिलोजुलो. टीवी देखो, किताबें पढ़ो. अपना दिल तो खुद ही लगाना है न तुम्हें, अब इस उम्र में मैं तुम्हें दिल लगाना कैसे सिखाऊं,’’ जातेजाते ब्रजेश ने समझाया नेहा को.

हर रोज यही क्रम चलता रहता है. जीवन एकदम रुक जाता है जब ब्रजेश चले जाते हैं, ऐसा लगता है हवा थम गई है, इतनी भारी हो कर ठहर गई है कि सांस भी नहीं आती. छाती पर भी हवा ही बोझ बन कर बैठ गई है.

बेमन से नहाई नेहा, तौलिया सुखाने बालकनी में आई. सहसा आवाज आई किसी की.

‘‘नमस्कार, भाभीजी. इधर देखिए, ऊपर,’’ ताली बजा कर आवाज दी किसी ने.

नेहा ने आगेपीछे देखा, कोई नजर नहीं आया तो भीतर जाने लगी.

‘‘अरेअरे, जाइए मत. इधर देखिए न बाबा,’’ कह कर किसी ने जोर से सीटी बजाई.

सहसा ऊपर देखा नेहा ने. चौथे माले पर एक महिला खड़ी थी.

‘‘क्या हैं आप भी. इस उम्र में मुझ से सीटी बजवा दी. कोई अड़ोसीपड़ोसी देखता होगा तो क्या कहेगा, बुढि़या का दिमाग घूम गया है क्या. नमस्कार, कैसी हैं आप?’’

हंस रही थी वह महिला. नेहा से जानपहचान बढ़ाना चाह रही थी. कहां से आए हैं? नाम क्या है? पतिदेव क्या काम करते हैं?

‘‘आप से पहले जो इस फ्लैट में थे उन से मेरी बड़ी दोस्ती थी. उन का तबादला हो गया. आप से रोज मिलना चाहती हूं मैं, आप मिलती ही नहीं. वाशिंग मशीन पिछली बालकनी में रख लीजिए न. इसी बहाने सूरत तो नजर आएगी.

‘‘अरे, कपड़े धोते समय ही किसी का हालचाल पूछा जाता है. सारा दिन बोर नहीं हो जातीं आप? क्या करती रहती हैं? आज क्या कर रही हैं?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. आप आइए न मेरे घर.’’

‘‘जरूर आऊंगी. आज आप आ जाइए. एक बार बाहर तो निकल कर देखिए, आज मेरे घर किट्टी पार्टी है. सब से मुलाकात हो जाएगी.’’

कुछ सोचा नेहा ने. किट्टी डालना ब्रजेश को पसंद नहीं है. बिना किट्टी डाले वह कैसे चली जाए. चलती किट्टी में जाना अच्छा नहीं लगता.

‘‘आप मेरी मेहमान बन कर आइए न. इधर से घूम कर आएंगी तो फ्लैट नं. 22 सी नजर आएगा. चौथी मंजिल. जरूर आइएगा, नेहाजी.’’

हाथ हिला दिया नेहा ने. मन ही नहीं कर रहा था. साड़ी निकाल कर रखी थी कि चली जाएगी मगर मन माना ही नहीं, सो, वह नहीं गई. वह दिन बीत गया और भी कई दिन. एक शाम वही पड़ोसन दरवाजे पर खड़ी नजर आई.

‘‘आइए,’’ भारी मन से पुकारा नेहा ने.

‘‘अरे भई, हम तो आ ही जाएंगे जब आ गए हैं तो. आप क्यों नहीं आईं उस दिन? मन नहीं घबराता क्या? एक तरफ पड़ेपड़े तो रोटी भी जल जाती है. उसे भी पलटना पड़ता है. आप कहीं बाहर नहीं निकलतीं, क्या बात है? सामने निशा से पूछा था मैं ने, उस ने बताया कि आप उस से भी कभी नहीं मिलीं.’’

आने वाली महिला का व्यवहार नेहा को इतना अपनत्व भरा लगा कि सहसा आंखें भर आईं. रोटी भी एक ही तरफ पड़ेपड़े जल जाती है तो वह भी जल ही तो गई है न. क्या फर्क है उस में और एक जली रोटी में. जली रोटी भी कड़वी हो जाती है और वह भी कड़वी हो चुकी है. हर कोई उस से परेशान है.

‘‘नेहाजी, क्या बात है? कोई परेशानी है?’’

गरदन हिला दी नेहा ने, न ‘न’ में न ‘हां’ में. कंधे पर हाथ रखा उस ने. सहसा रोना निकल गया. उस के साथ ही चली आई वह भीतर.

‘‘घर इतना बंदबंद क्यों रखा है? खिड़कियांदरवाजे खोलो न. ताजी हवा अंदर आने दो. उस दिन आईं क्यों नहीं?’’ सहसा थोड़ा रुक कर पूछा.

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आंखें मिलीं नेहा से. भीगी आंखों में न जाने क्या था, न कुछ कहा न कुछ सुना. नेहा ने नहीं, शायद आने वाली महिला ने ही एक नाता सा बांध लिया.

‘‘मेरा नाम शुभा है. तुम मुझे जैसे चाहो पुकार सकती हो. दीदी कहो, भाभी कहो, नाम भी ले सकती हो. मेरी उम्र 53 साल है, हिसाब लगा लो, कैसे बुलाना चाहती हो. तुम छोटी लग रही हो मुझ से.’’

‘‘जी, मेरी उम्र 50 साल है.’’

‘‘वैसे किसी खूबसूरत महिला से उस की उम्र पूछनी तो नहीं चाहिए थी मगर महिला तुम जैसी हो तो कहना ही क्या, जो खुद अपने को 50 की बता रही हो. तुम इतनी बड़ी तो नहीं लगती हो. मैं नाम ले कर पुकारूं? नेहा पुकारूं तुम्हें?’’

‘‘जी, जैसा आप को अच्छा लगे.’’

‘‘मुझे अच्छा लगे क्यों. तुम्हें क्या अच्छा लगता है, यह तो बताओ.’’

चुप रही नेहा. शुभा ने कंधे पर हाथ रखा. झिलमिलझिलमिल करती आंखों में ढेर सारा नमकीन पानी शुभा को न जाने क्याक्या बता गया.

‘‘जो तुम्हें अच्छा लगे मैं वही पुकारूंगी तुम्हें. तुम से पहले जो इस घर में रहती थी उस से मेरा बहुत प्यार था. यह घर मेरे लिए पराया नहीं है, उसी अधिकार से चली आई हूं. मीरा नाम

था उस का जो यहां रहती थी. बहुत प्यारी सखी थी वह मेरी. तुम भी

उतनी ही प्यारी हो. जरा दरवाजे- खिड़कियां तो खोलो.’’

‘‘उन को दरवाजेखिड़कियां खोलना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘उन को किसी के साथ हंसनाबोलना भी पसंद है कि नहीं? उस दिन तुम किट्टी पार्टी में भी नहीं आईं.’’

‘‘उन्हें किट्टी डालना पसंद नहीं.’’

‘‘तुम्हारे बच्चे कहां हैं. बाहर होस्टल में पढ़ते हैं क्या?’’

‘‘एक ही बेटा है. अभी 4 महीने पहले ही उस की शादी हुई है.’’

‘‘अरे वाह, सास हो तुम. सास हो कर भी उदास हो. भई, बहू को 2-4 जलीकटी सुनाओ, अपनी भड़ास निकालो और खुश रहो. टीवी सीरियल में यही तो सिखाते हैं. शादी होती है, उस के बाद एक तो रोती ही रहती है, या बहू रुलाती है या सास. तुम्हारे यहां क्या सीन है?’’

‘‘मैं तो यहां अकेली हूं. बहू आगरा में है. दूरदूर रहना है जब, तब लड़ाई कैसी?’’

‘‘बहू तुम ने पसंद की थी या भाईसाहब ने?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. उन दोनों ने ही एकदूसरे को पसंद कर लिया था.’’

‘‘चलो, मेहनत कम हुई. मुझे तो अपने बच्चों के लिए साथी ही ढूंढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी. कहीं परिवार अच्छा नहीं था, कहीं लड़की पसंद नहीं आती थी.’’

शुभा ने धीरेधीरे घर की खिड़कियां खोलनी शुरू कर दीं. ताजी हवा घर में आने लगी.

‘‘आज खाने में क्या बनाया था तुम ने?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ नहीं, मतलब. भूखी हो सुबह से? अभी शाम के 6 बज रहे हैं. तुम ने कुछ भी खाया नहीं है.’’

शुभा ने हाथ पकड़ा नेहा का. रोक कर रखा बांध बह निकला. एक अनजान पड़ोसन के गले लग नेहा फूटफूट कर रो पड़ी. शुभा भी उस का माथा सहलाती रही.

‘‘चलो, तुम्हारी रसोई में चलें. बेसन है न घर में. पकौड़े बनाते हैं. आटा तो गूंध रखा होगा, चपाती के साथ पकौड़े और गरमगरम चाय पीते हैं.’’

आननफानन ही सब हो गया. आधे घंटे के बाद ही दोनों मेज पर बैठी चाय पी रही थीं.

‘‘क्यों इतना उदास हो, नेहा? खुश होना चाहिए तुम्हें. नए शहर में आई हो, उदासी स्वाभाविक है, मैं मानती हूं मगर इतनी नहीं कि भूखे ही मरने लगो. एक ही बच्चा है जिसे पालपोस दिया, उस का घर बसा दिया. तुम्हारा कर्तव्य पूरा हो गया, और क्या चाहिए?’’

‘‘बहुत खालीपन लगता है, दीदी. जी चाहता है कि अपने साथ कुछ कर लूं. जीवन और क्यों जीना, अब क्या करना है मुझे, किसे मेरी जरूरत है?’’

‘‘अपने साथ कुछ कर लूं, क्या मतलब?’’ शुभा का स्वर तनिक ऊंचा हो गया.

‘‘कुछ खा कर मर जाऊं.’’

‘‘क्या?’’ अवाक् रह गई शुभा. अनायास उस के सिर पर चपत लगा दी.

‘‘पागल हो क्या. अपने परिवार और अपनी बहू को सजा देना चाहती हो क्या? मर कर उन का क्या बिगाड़ लोगी. तुम्हें क्या लगता है वे उम्रभर रोते रहेंगे? जो जाएगा तुम्हारा जाएगा, किसी का क्या जाएगा.

खालीपन लगता है तो क्या मर कर भरोगी उसे? पति, बेटा और बहू के सिवा भी तुम्हारे पास कुछ है, नेहा. तुम्हारे पास तुम हो, अपनी इज्जत करना सीखो. पति को खिड़की खोलना पसंद नहीं तो तुम खिड़कीदरवाजे बंद कर के बैठी हो. पति को किट्टी डालना पसंद नहीं तो उस दिन तुम मेरे घर ही नहीं आईं. इतना कहना क्यों मान रही हो कि घुट कर मर जाओ?’’

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‘‘शुरू से… शुरू से ऐसा ही है. मैं चाहती थी दूसरा बच्चा हो, ये माने ही नहीं. जीवन में मैं ने तो कभी सांस भी खुल कर नहीं ली. सोचा था मनपसंद लड़की को बहू बना कर लाऊंगी, सोचा था बेटी की इच्छा पूरी हो जाएगी. बेटे ने अपनी पसंद की ढूंढ़ ली. मेरी पसंद मन में ही रह गई.’’

‘‘अच्छा किया बेटे ने. अपनी पसंद से तो जी रहा है न. क्या चाहती हो कि आज से 20-30 साल बाद वह भी वही भाषा बोले जो आज तुम बोल रही हो. तुम आज कह रही हो न अपने तरीके से जी नहीं पाई, क्या चाहती हो कि तुम्हारा बच्चा भी तुम्हारी तरह अपना जीवन खालीपन से भरा पाए. अपनी पसंद से जी नहीं पाई और मर जाना चाहती हो. क्या तुम्हारा बच्चा भी…’’

‘‘नहीं… नहीं तो दीदी,’’ सहसा जैसे कुछ कचोटा नेहा को, ‘‘मेरे बच्चे को मेरी उम्र भी लग जाए.’’

‘‘अपने बच्चे को अपनी उम्र देना चाहती हो लेकिन चैन से जीने देना नहीं चाहती. कैसी मां हो? मर कर उम्रभर का अपराधबोध देना चाहती हो. तुम तो मर कर चली जाओगी लेकिन तुम्हारा परिवार चेहरे पर प्रश्नचिह्न लिए उम्रभर किसकिस के प्रश्न का उत्तर देता रहेगा. अरे, मन में जो है आज ही कह कर भड़ास निकाल लो. सुन लो, सुना दो, किस्सा खत्म करो और जिंदा रहो.’’

सहसा शुभा का हाथ नेहा के हाथ पर पड़ा. कलाई में रूमाल बांध रखा था नेहा ने.

‘‘यह क्या हुआ, जरा दिखाना तो,’’ झट से रूमाल खींच लिया. हाथ सीधा किया, ‘‘अरे, यह क्या किया? यहां काटा था क्या? कब काटा था? ताजे खून के निशान हैं. क्या आज ही काटा? क्या अभी यही काम कर रही थीं जब मैं आई थी?’’

काटो तो खून नहीं रहा शुभा में. यह क्या देख लिया उस ने. यह अनजानी औरत जिस से वह पड़ोसी धर्म निभाने चली आई, क्या भरोसे लायक है? अभी अगर इस के जाने के बाद इस ने यह असफल प्रयास सफल बना लिया तो क्या से क्या हो जाएगा? आत्महत्या या हत्या, इस का निर्णय कौन करेगा? वही तो होगी आखिरी इंसान जो नेहा से मिली. कहीं उसी पर कोई मुसीबत न आ जाए.

‘‘नहीं तो दीदी. चूड़ी टूट कर लग गई थी.’’

‘‘भाईसाहब वापस कब आते हैं औफिस से?’’

‘‘वे तो 9-10 बजे से पहले नहीं आते. आजकल ज्यादा काम रहता है, मार्च का महीना है न.’’

‘‘तुम चलो मेरे साथ, मेरे घर. जब वे आएंगे, तुम्हें उधर से ही लेते आएंगे. तुम अकेली मत रहो.’’

‘‘मैं तो पिछले कई सालों से अकेली हूं. अब थक गई हूं. एक ही बेटे में सब देखती रही. आज वह भी मुझे एक किनारे कर पराई लड़की का हो गया. मैं खाली हाथ रह गई हूं, दीदी. पति तो पहले ही अपने परिवार के थे. मेरी इच्छा उन के लिए न कल कोई मतलब रखती थी न आज रखती है. बेटा अपनी पत्नी की इच्छा पर चलता है, पति अपने तरीके से चलते हैं. दम घुटता है मेरा. सांस ही नहीं आती. इन से कुछ कहती हूं तो कहते हैं, मेरा घर है, जैसा मैं कहता हूं वैसा ही होगा. बहू का घर उस का घर होना ही चाहिए. तो फिर मेरा घर कहां है, दीदी?

‘‘मायके जाती हूं तो वहां लगता है यह भाभी का घर है. वहां मन नहीं लगता. पति कहते हैं कि क्या कमी है, साडि़यां हैं, गहने हैं. भला साडि़यां, गहनों से क्या कोई सुखी हो जाता है? मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. मैं तो अपने घर में एक पत्ता भी हिला नहीं सकती. यह सोफासैट इधर से उधर कर लूंगी तो भी तूफान आ जाएगा. बेजान गुडि़या हूं मैं, जिसे चूं तक करने का अधिकार नहीं है.’’

अवाक् रह गई शुभा. नेहा की परेशानी समझ रही थी वह. इस की जगह अगर वह भी होती तो शायद उस की भी यही हालत होती.

‘‘कल सोफासैट से ही शुरुआत करते हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि अभी खिड़कियां खोली हैं न. इन्हें आज बंद मत करना. कहना मेरा दम घुटता है इसलिए इन्हें बंद मत करो. थोड़ा सा विरोध भी करो. कल बाई के साथ मिल कर जरा सा सामान अपनी मरजी से सजाना. कुछ कहेंगे तो कहना, तुम्हें इसी तरह अच्छा लगता है. अपनी भी कहना सीखो, नेहा. कई बार ऐसा भी होता है, हम ही अपनी बात नहीं कहते या हम ही अपनी इच्छा का सम्मान किए बिना दूसरे की हर इच्छा मानते चले जाते हैं, जिसे सामने वाला हमारी हां ही मानता है. इस में उन का भी क्या दोष.

‘‘इतने सालों में तुम ने अपने पति को कभी ‘न’ नहीं कहा और उन का अधिकार क्षेत्र तुम्हारी सांस तक पहुंच गया. 12 घंटे तुम इस बंद घर में इतनी भी हिम्मत नहीं कर सकती कि खिड़कियां ही खोल पाओ. जिंदा इंसान हो, तुम कोई मृत काया नहीं जिसे ताजी हवा नहीं चाहिए. सारा दोष तुम्हारा अपना है, तुम्हारे पति का नहीं. जिस की सांस घुटती है, विरोध भी उसी को करना पड़ता है. 4 दिन घर में अशांति होगी, होने दो मगर अपना जीवन समाप्त मत करो. शांति पाने के लिए कभीकभी अशांति का सहारा भी लेना पड़ता है. तुम्हारे पति को परेशानी तो होगी क्योंकि उन्होंने कभी तुम्हारी ‘न’ नहीं सुनी. इतने बरसों में न की गई कितनी सारी ‘न’ हैं जिन का उन्हें एकसाथ सामना करना होगा. अब जो है सो है. तब नहीं तो अब सही, जब जागे तभी सवेरा. अपना घर अपने तरीके से सजाओ.’’

नेहा आंखें फाड़े उस का चेहरा देखती रही.

‘‘घर में वह सामान जो बेकार पड़ा है, सब निकाल दो. कबाड़ी वाला मैं ले आऊंगी. गति दो हर चीज को. तुम भी रुकी पड़ी हो, सामान भी रुका पड़ा है. तुम मालकिन हो घर की, जैसा चाहो, सजाओ.’’

‘‘वही तो मैं भी सोचती हूं.’’

‘‘कुछ भी गलत नहीं सोचती हो तुम. इस घर में पतिदेव सिर्फ रात गुजारते हैं. तुम्हें तो 24 घंटे गुजारने हैं. किस की मरजी चलनी चाहिए?’’

शुभा को नेहा के चेहरे का रंग बदलाबदला नजर आया. आंखों में बुझीबुझी सी चमक, जराजरा हिलती सी नजर आई.

‘‘अच्छा, भाईसाहब का बिजनैस कार्ड देना जरा. मेरे पतिदेव को इनकम टैक्स की कोई सलाह लेनी थी. तुम चलो, अभी मेरे साथ. आज 31 मार्च है न. क्या पता रात के 12 ही बज जाएं. जब आएंगे, तुम्हें बुला लेंगे. अरे, फोन पर बात कर लेंगे न हम,’’ कहते हुए शुभा उस का हाथ थाम चलने के लिए खड़ी हो गई.

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि सबकुछ होने के बावजूद न जाने क्यों नेहा खुल कर सांस नहीं ले पाती थी. कई बार उस के मन में आत्महत्या करने तक का खयाल आया. पढि़ए अब आगे…

नेहा के ढेर सारे प्रतिरोध थे जिन्हें शुभा ने माना ही नहीं. हाथ पकड़ कर अपने साथ अपने घर ले आई और ड्राइंगरूम में बैठा दिया. नेहा ने देखा कमरा पूरी तरह से व्यवस्थित था.

‘‘आराम से बैठो. आजकल मेरे पतिदेव भी किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. मैं भी अकेली ही हूं. अगर भाईसाहब ज्यादा देर से आएं तो तुम यहीं सो जाना.’’

‘‘सोना क्या है, दीदी. मुझे तो सोए हुए हफ्तों बीत चुके हैं. जागना ही है. यहां जागूं या वहां जागूं.’’

‘‘तो अच्छी बात है न. हम गपशप करेंगे.’’ शुभा ने हंस कर उत्तर दिया.

उस के बाद शुभा ने टीवी चालू कर दिया पर नेहा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. किताबें लगी थीं रैक में. उस का ध्यान उधर ही था. नेहा की कटी कलाई पर शुभा की पूरी चेतना टिक चुकी थी. अगर वह उस के घर न गई होती तो क्या नेहा अपनी कलाई काट चुकी होती? उस के पति तो शायद रात 12 बजे आ कर उस का शव ही देख पाते. संयोग ही तो है हमारा जीवन.

वह भी आराम करने के लिए लेट ही चुकी थी. पता नहीं क्या हुआ था उसे जो वह सहसा उस के घर जाने को उठ पड़ी थी. शायद वक्त को नेहा को बचाना था इसलिए शुभा तुरंत उठ कर नेहा के घर पहुंच गई. शुभा ने घंटी बजा दी. शायद उसी पल नेहा का क्षणिक उन्माद चरम सीमा पर था.

क्षणिक उन्माद ही तो है जो मानवीय और पाशविक दोनों ही तरह के भावों के लिए जिम्मेदार है. क्षणिक सुख की इच्छा ही बलात्कारी बना डालती है और क्षणिक उन्माद ही हत्या और आत्महत्या तक करवा डालता है. कितना अच्छा हो अगर मनुष्य चरमसीमा पर पहुंच कर भी स्वयं पर काबू पा ले और अमूल्य जीवन नष्ट न हो. न हमारा न किसी और का.

रात 11:30 बजे नेहा के पति आए और उसे ले गए. विचित्र धर्मसंकट में थी शुभा. नेहा की हरकत उस के पति को बता दे तो शायद वे उस की मनोस्थिति की गंभीरता को समझें. कैसे समझाए वह उस के पति को कि उस की पत्नी की जान को खतरा है. किसी के घर का निहायत व्यक्तिगत मसला अनायास ही उस के सामने चला आया था जिस से वह आंखें नहीं मूंद पा रही थी. जीवनमरण का प्रश्न हो जहां वहां क्या अपना और क्या पराया.

दूसरे दिन करीब 11-12 बजे शुभा ने नेहा के घर पर कई बार फोन किया पर नेहा ने फोन नहीं उठाया. विचित्र सी कंपकंपी उस के शरीर में दौड़ गई. किसी तरह अपना घर बंद किया और भागीभागी नेहा के घर पहुंची. बेतहाशा उस के घर की घंटी बजाई.

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दरवाजा खुला और सामने उस के पति खड़े थे. अस्तव्यस्त कपड़ों में. नाराजगी थी उन के चेहरे पर. शायद उस ने ही बेवक्त खलल डाल दिया मगर सच तो सच था जिसे वह छिपा नहीं पाई थी.

‘‘आप घर पर होंगे, मुझे पता नहीं था. फोन क्यों नहीं उठाते आप? मैं समझी उस ने कुछ कर लिया. आप उस का खयाल रखिएगा. माफ कीजिएगा, कहां है नेहा?’’

सांस धौंकनी की तरह चल रही थी शुभा की. मन भर आया  था. पता चला, नेहा को नींद की दवा दे कर सुलाया है. आदि से अंत तक शुभा ने सब बता दिया ब्रजेश को. काटो तो खून नहीं रहा ब्रजेश में.

‘‘इसीलिए मैं कल अपने साथ ले गई थी. आप ने उस का घाव देखा क्या?’’

‘‘हां, देखा था मगर हैरान था कि सोने की चूड़ी से हाथ कैसे कट गया. कांच की चूड़ी तो उस ने कभी पहनी ही नहीं,’’ धम्म से बैठ गए ब्रजेश, ‘‘क्या करूं मैं इस का?’’

नजर दौड़ाई शुभा ने. सब खिड़कियां बंद थीं, जिन्हें कल खोला था.

‘‘बुरा न मानें तो मैं एक सुझाव दूं. आप उसे उस की मरजी से जीने दें कुछ दिन. जैसा वह चाहे उसे करने दें.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है उसे. वह जो चाहे करे.’’

‘‘ये खिड़कियां कल खुलवाई थीं मैं ने, आप ने शायद आते ही पहला काम इन्हें बंद करने का किया होगा. क्या आप ने सोचा, शायद उसे ताजी हवा पसंद हो?’’

‘‘अरे, खुली खिड़की से अंदर का नजर आता है.’’

‘‘क्या नजर आता है. आप की पत्नी कोई अपार सुंदरी है क्या जिसे देखने को सारा संसार खिड़की से लगा खड़ा है. अरे, जिंदा इंसान है वह, जिसे इतना भी अधिकार नहीं कि ताजी हवा ही ले सके. परदे हैं न…उसे उस के मन से करने दीजिए कुछ दिन. वह ठीक हो जाएगी. उस का दम घुट रहा है, जरा समझने की कोशिश कीजिए. नींद की दवा खिलाखिला कर सुलाने से उस का इलाज नहीं होगा. उसे जागी हालत में वह करने दीजिए जिस से उसे खुशी मिले,’’ स्वर कड़वाहट से भर उठा था शुभा का, ‘‘उस के मालिक मत बनिए. साथी बनिए उस के.’’

ब्रजेश सकपका से गए शुभा के शब्दों पर.  शुभा बोलती रही, ‘‘आप समझदार हैं. 55 साल तक पहुंचा इंसान बच्चा नहीं होता, जिसे कान पकड़ कर पढ़ाया जाए. अपनी गृहस्थी उजाड़ना नहीं चाहते तो एक बार नेहा का चाहा भी कर के देखिए. बताना मेरा फर्ज था और इंसानी व्यवहार भी. मैं चाहती हूं आप का घर फलेफूले. मैं चलती हूं.’’

ब्रजेश सकपकाए से खड़े रहे और शुभा घर लौट आई, पूरा दिन न कुछ खापी सकी न ठीक से सो सकी. नेहा एक प्रश्न बन कर सामने चली आई है जिस का उत्तर उसे पता तो है मगर लिख नहीं सकती. किसी का जीवन उस के हाथ का पन्ना नहीं है न, जिस पर वह सही या गलत कुछ भी लिख सके. उत्तर उसे शायद पता है मगर अधिकार की स्याही नहीं है उस के पास. क्या होगा नेहा का?

आत्महत्या का प्रयास भी तो एक जनून है जिसे अवसादग्रस्त इंसान बारबार कार्यान्वित करता है. बच जाने की अवस्था में उसे और अफसोस होता है कि वह बच क्यों गया? जीने में भी असफल रहा और अब मरने में भी असफल. जब वह फिर प्रयास करता है तब असफल हो जाने के सारे कारण बड़ी समझदारी से निबटा देता है. शुभा को डर है कि अब अगर नेहा ने कोई दुस्साहस फिर किया तो शायद सफल हो जाए.

पिछली बालकनी में खड़ी रही शुभा देर तक. नजर नेहा के घर पर थी. रोशनी जल रही थी. वहां क्या हाल है क्या नहीं, यह उसे बेचैन कर रहा था. तभी उस के पतिदेव विजय का फोन आया तो सहसा सारा किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है, विजय. अगर नेहा ने कुछ…’’

‘‘ब्रजेश को सब बताया है न तुम ने. अब वह देख लेगा न.’’

‘‘नहीं देखेगा. मुझे लगता है उसे पता ही नहीं कि उसे क्या करना चाहिए.’’

‘‘देखो शुभा, तुम अपना दिमाग खराब मत करो. तुम्हारा ब्लड प्रैशर बढ़ जाएगा और मैं भी वहां नहीं हूं. तुम कोई झांसी की रानी नहीं हो जो किसी की भी जंग में कूदना चाहती हो.’’

‘‘सवाल उस के जीनेमरने का है, विजय. अगर मेरे कूदने से वह बच जाती है तो मेरे मन पर कोई बोझ नहीं रहेगा और अगर उस ने कुछ कर लिया तो जीवनभर अफसोस रहेगा.’’

‘‘तुम ने ठेका ले रखा है क्या सब का? न जान न पहचान.’’

‘‘हम जिंदा इंसान हैं, विजय. क्या मरने वाले को लौटा नहीं सकते? मुझे लगता है मैं उसे मरने से रोक सकती हूं. आप एक बार ब्रजेश से बात कीजिए न. उस का फोन नंबर है मेरे पास, मैं आप को लिखवा देती हूं.’’

मंदमंद मुसकराने लगे विजय. जानते हैं अपनी पत्नी को. समस्या को सुलझाए बिना मानेगी नहीं और सच भी तो कह रही है. खिलौना टूट जाने के बाद कोई कर भी क्या लेगा? प्रयास का कोई भी औचित्य तभी तक है जब तक प्राण हैं. पखेरू के उड़ जाने के बाद वास्तव में उन्हें भी अफसोस होगा. शुभा का कहा मान लेना चाहिए, किसी के जीवन से बड़ा क्या होगा भला?

‘‘अच्छा बाबा, तुम जैसे कहो. नंबर दे दो, मैं एक बार ब्रजेश से बात करता हूं. शायद कोई रास्ता निकल ही आए.’’

विजय ने आश्वासन दिया और उस का रंग उसे दूसरी सुबह नजर भी आ गया. पूरे 10 बजे ब्रजेश नेहा को उस के पास छोड़ते गए.

‘‘आप पर भरोसा करना चाहता हूं जिस में मेरा ही फायदा होगा.’’

नेहा भीतर जा चुकी थी और जातेजाते कहा ब्रजेश ने, ‘‘शायद कहीं मैं ही सही नहीं हूं. आप मेरी बहन जैसी हैं. वह भी इसी तरह अधिकार से कान मरोड़ देती है. आप जैसा चाहें करें. मैं दखल नहीं दूंगा. बस, मेरा घर बच जाए. मेरी नेहा जिंदा रहे.’’

आभार व्यक्त किया ब्रजेश ने और यह भी बता दिया कि नेहा ने नाश्ता नहीं किया है अभी. एक पीड़ा अवश्य नजर आई उसे ब्रजेश के चेहरे पर और एक बेचारगी भी. ब्रजेश चले गए और शुभा भीतर चली आई.

‘‘नाश्ता क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आप ने कर लिया क्या?’’

‘‘अभी नहीं किया. बोलो, क्या खाएं? तुम्हारा क्या मन है, वही खाते हैं.’’

‘‘मैं बनाऊं क्या? आप पसंद करेंगी?’’

‘‘अरे बाबा, नेकी और पूछपूछ. ऐसा करती हूं, मैं जरा अपनी अलमारी ठीक कर लेती हूं. तुम्हारा मन जो चाहे बना लो.’’

पैनी नजर रखी शुभा ने क्योंकि रसोई में चाकू भी थे. तेज धार चाकू उस ने उठा कर छिपा दिए थे जिस पर नेहा ने आवाज दी. ‘‘दीदी, आप का चाकू आलू तक तो काटता नहीं है, आप इस से काम कैसे करती हैं?’’

‘‘आज बाजार चलेंगे, नेहा. कुछ सामान लाना है. चाकू भी लाने वाले हैं.’’

आधे घंटे के बाद नेहा ने नाश्ता मेज पर सजा कर रख दिया. आलूटमाटर की सब्जी और पूरी. खातेखाते नेहा ने कहा, ‘‘दीदी, आप का घर कितना खुलाखुला है. ऐसा लगता है सांस आती भी है और जाती भी है. मेरे घर में सामान ही इतना है कि…’’

‘‘पुराना सामान निकाल देते हैं. थोड़ा सा बदलाव करते हैं. तुम्हारा घर भी खुलाखुला हो जाएगा. आज बाजार चलते हैं न. चलो, अभी चलें. दोपहर का लंच बाहर ही करेंगे.’’

‘‘कुछ रुपए दिए हैं ब्रजेश ने. अपने लिए जो चाहूं खरीदने को कहा है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास भी कुछ रुपए हैं. जरूरत पड़ी तो बैंक से निकाल लेंगे. तुम जो चाहो, ले लेना.’’

‘‘अरे नहीं बाबा, मुझे क्या ताजमहल खरीदना है जो इतने रुपए चाहिए. न सोना चाहिए न महंगी साड़ी. कुछ भी भारीभरकम नहीं चाहिए. कुछ हलकाफुलका चाहिए जिस का मेरी छाती पर कोई बोझ न हो.’’

अभियान शुरू किया नेहा की रसोई से. दुनियाजहान के पुराने बरतन, जिन्हें कभी अपना घर बनाने पर निकाल देंगे, पुराना फ्रिज, पुराना टीवी, रेडियो, पुरानी प्रैस, पुराना लोहा, पुरानीपुरानी किताबें, पुराना फर्नीचर, पुराने परदे, पुराने कपड़े, पुरानी तसवीरें, पुरानी साडि़यां, और भी बहुतकुछ था जिसे बदलने की आवश्यकता थी.

‘‘कल जब अपना घर होगा तब ले लेना नया सब.’’

‘‘अपना घर होगा जब रिटायरमैंट होगा और उस में अभी 4 साल पड़े हैं. तब तक तो मन भी मर जाएगा. कल का इंतजार कब तक, दीदी?’’

‘‘कल का इंतजार तुम अपने हाथों समाप्त कर लो, नेहा.’’

‘‘ब्रजेश औफिस के काम से बाहर जाने वाले हैं इस सोमवार, कह रहे हैं मुझे साथ लेते जाएंगे.’’

‘‘तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘क्या करूंगी, होटल में सड़ूंगी और क्या.’’

‘‘तो मत जाओ. मैं कागजकलम देती हूं, सामान की लिस्ट बनाओ जिसे बदलना चाहती हो. वे बाहर रहेंगे तो हम आराम से सफाई अभियान पूरा कर लेंगे.’’

‘‘घर में तांडव हो जाएगा. मेरी इतनी औकात कहां.’’

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‘‘तुम घर की मालकिन हो न. अपनी इच्छा का मान भी करना सीखो. घर के बरतन बदलने में भी तुम ब्रजेशजी का मुंह देखती हो. उन्हें उन के औफिस तक ही रहने दो न.’’

‘‘नहीं रहते न औफिस तक. रसोई के चम्मच तक में उन की मरजी होती है. घर में ऐसा कुहराम मचेगा कि मुझे सांस तक लेना मुश्किल हो जाएगा,’’ खीज पड़ी थी नेहा, ‘‘कल मेरी सास की मरजी थी, अब पति की है. कल बहू की होगी, मेरी मरजी शायद अगले जन्म में होगी.’’

‘‘अगला जन्म किस ने देखा है, पगली. कल क्या होगा कौन जानता है. आज देखो. ब्रजेश को मैं और विजय समझा लेंगे. आज भी शायद विजय ने समझाया होगा.’’

‘‘तो क्या इसीलिए आज बारबार मुझ से कह रहे थे कि मेरा जो जी चाहे मैं करूं, वे मना नहीं करेंगे. कुछ अजीबअजीब सी बातें कर तो रहे थे.’’

‘‘तुम्हारी मरजी की बात अजीबअजीब सी लगी तुम्हें?’’

‘‘जो कभी नहीं हुआ वह एक दिन होने लगे तो अजीब ही लगेगा न.’’

नेहा की बातों में शुभा दिलचस्पी ले रही थी.

‘‘मेरी मरजी, मेरी इच्छा, मेरी सोच, अजीब तो है ही. मेरा घर कहीं नहीं है, दीदी. शादी से पहले अपना घर सजाने का प्रयास करती थी तो मां कहती थीं, अभी पढ़ोलिखो. सजा लेना अपना घर जब अपने घर जाओगी. शादी कर के आई तो ब्रजेश ने ढेर सारी जिम्मेदारियां दिखा दीं. एक बेटी की इच्छा थी, वह भी पूरी नहीं होने दी ब्रजेश ने. पिता की बेटियों को निभातेनिभाते अपनी बेटी के लिए कुछ बचा ही नहीं. अब इस उम्र में कुछ बचा ही नहीं है जिसे कहूं, यह मेरा शौक है. मेरा घर तो सब का घर ही सजाने में कहीं खो गया. बच गया है कबाड़खाना, जिसे हर 3 साल के बाद ब्रजेश ढो कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाते हैं.’’

मन भर आया शुभा का.

‘‘मन भर गया है, दीदी. अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चलो, पहले इस कागज पर लिखो तो सही, क्या बदलना चाहती हो. ब्रजेश ने मुझे कहा है न कि मैं तुम्हारी सहायता करूं. वे कुछ कहेंगे तो मुझे बताना. इल्जाम मुझ पर लगा देना, कहना कि मैं ने कहा था बदलने को.’’

सोमवार को ब्रजेश 3 दिन के लिए बाहर गए और सचमुच नेहा को साथ नहीं ले गए. शुभा ने वास्तव में नेहा का घर बदल दिया.

पुराने सारे बरतन निकाल दिए और थोड़े से पैसे और डाल कर रसोई चमचमा गई. 10 हजार रुपए का लोहाकबाड़ बिक गया जिस में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवेव आ गया. रद्दी सामान और पुराना फर्नीचर निकाला जिस में छोटा सा कालीन नए परदे और 2 नई चादरें आ गईं.

3 दिन से दोनों रोज बाजार आजा रही थीं और इस बीच शुभा बड़ी गहराई से नेहा में धीरेधीरे जागता उत्साह देख रही थी. उस ने चुनचुन कर अपने घर का सामान खरीदा, कटोरियां, प्लेटें, गिलास, चम्मच, दालों के डब्बे, मसालों की डब्बियां, रंगीन परदे, लुभावना कालीन, सुंदर चादरें, चार चूल्हों वाली गैस, सुंदर फूलों की झालरें, छोटा सा माइक्रोवेव, सुंदर तोरण और बंदनवार.

हर रात या तो शुभा उस के घर सोती थी या उसे अपने घर पर सुलाती थी. घर सज गया नेहा का. बुझीबुझी सी रहने वाली नेहा अब कहीं नहीं थी. मुसकराती, अपना घर सजा कर बारबार खुश होती नेहा थी जिस की दबी हुई छोटीछोटी खुशियां पता नहीं कहांकहां से सिर उठा रही थीं. बहुत छोटीछोटी सी थीं नेहा की खुशियां. बाहर बालकनी में चिडि़यों का घर और उन के खानेपीने के लिए मिट्टी के बरतन, बालकनी में बैठ कर चाय पीने के लिए 4 प्लास्टिक की कुरसियां और मेज.

‘‘दीदी, वे नाराज तो नहीं होंगे न?’’

‘‘उन के लिए भी कुछ ले लो न. कोई शर्ट या टीशर्ट या पाजामाकुरता. कुछ बहू के लिए भी तो लो. बेटी की इच्छा पूरी तो हो चुकी है तुम्हारी. वह तुम्हारी बच्ची है न. उसे भी अच्छा लगेगा जब तुम उस के लिए कुछ लोगी. तुम्हें शौक पूरे करने को कुछ नहीं मिला क्योंकि जिम्मेदारियां थीं. तुम बहू का शौक तो पूरा कर दो. अब क्या जिम्मेदारी है? जो तुम्हें नहीं मिला कम से कम वह अपनी बहू को तो दे दो.’’

‘‘उसे पसंद आएगा, जो मैं लाऊंगी?’’

‘‘क्यों नहीं आएगा. मेरे पास कुछ रुपए हैं. मुझ से ले लो.’’

‘‘अपने हाथ से इतने रुपए मैं ने कभी खर्च ही नहीं किए. अजीब सा लग रहा है. पता नहीं, क्याक्या सुनना पड़ेगा जब ब्रजेश आएंगे. दीदी, आप पास ही रहना जब वे आएंगे.’’

‘‘कितने पैसे खर्च किए हैं तुम ने? कबाड़खाने से ही तो सारे पैसे निकल आए हैं. जो रुपए ब्रजेश दे कर गए थे उस से ब्रजेश के लिए और बच्चों के लिए कुछ ले लो. टीशर्ट और शर्ट खरीद लो, बहू के लिए कुरती ले लो, आजकल लड़कियां जींस के साथ वही तो पहनती हैं.’’

बुधवार की शाम ब्रजेश आने वाले थे. बड़े उत्साह से घर सजाया नेहा ने. चाय के साथ पकौड़ों का सामान तैयार रखा. रात के लिए मटरपनीर और दालमखनी भी रसोई में ढकी रखी थी. शुभा के लिए भी एक प्रयोग था जिस का न जाने क्या नतीजा हो. पराई आग में जलना उस का स्वभाव है. आज पराया सुख उसे सुख देगा या नहीं, इस पर भी वह कहीं न कहीं आश्वस्त नहीं थी. पुरानी आदतें इतनी जल्दी साथ नहीं छोड़तीं, पत्नी को दी गई आजादी कौन जाने ब्रजेश सह पाते हैं या नहीं?

द्वारघंटी बजी और शुभा ने ही दरवाजा खोला. ब्रजेश के साथ शायद बेटा और बहू भी थे. बड़े प्यारे बच्चे थे दोनों. उसे देख दोनों मुसकराए और झट से पैर छूने लगे.

‘‘आप शुभा आंटी हैं न. पापा ने बताया सब. मम्मी खुश हैं न?’’ बहुत धीरे से बुदबुदाया वह लड़का.

एक ही प्रश्न में ढेर सारे प्रश्न और आंखों में भी बेबसी और डर. कुछ खो देने का डर. मंदमंद मुसकरा पड़ी शुभा. ब्रजेश आंखें फाड़फाड़ कर अपना सुंदर सजा घर देख रहे थे. आभार था जुड़े हाथों में, भीग उठी पलकों में, शायद आत्मग्लानि की पीड़ा थी. ऐसा क्या ताजमहल या कारूं का खजाना मांगा था नेहा ने. छोटीछोटी सी खुशियां ही तो और कुछ अपनी इच्छा से कर पाने की आजादी.

‘‘नेहा, देखो तुम्हारी बेटी आई है,’’ शुभा ने आवाज दी.

पलभर में सारा परिवार एकसाथ हो गया. नेहा भागभाग कर उन के लिए संजोए उपहार ला रही थी. बेटे का सामान, बहू का सामान, ब्रजेश का सामान.

‘‘मम्मी, आप ने घर कितना सुंदर सजाया है. परदे और कालीन दोनों के रंग बहुत प्यारे हैं. अरे, बाहर चिडि़या का घर देखो, पापा. पापा, चाय बाहर बालकनी में पिएंगे. बड़ी अच्छी हवा चल रही है बाहर. पूरा घर कितना खुलाखुला लग रहा है.’’

नेहा की बहू जल्दी से कुरती पहन भी आई, ‘‘मम्मी, देखो कैसी है?’’

‘‘बहुत सुंदर है बच्चे. तुम्हें पसंद आई न?’’

धन्यवाद देने हेतु बहू ने कस कर नेहा के गाल चूम लिए. ब्रजेश मंत्रमुग्ध से खड़े थे. अति स्नेह से उस के सिर पर हाथ रख पूछा, ‘‘अपने लिए क्या लिया तुम ने, नेहा?’’

‘‘अपने लिए?’’ कुछ याद करना चाहा. क्या याद आता, उस ने तो बस घर सजाया था, अपने लिए अलग कुछ लेती तो याद आता न. बस, गरदन हिला कर बता दिया कि अपने लिए कुछ नहीं लिया.

‘‘देखो, मैं लाया हूं.’’

बैग से एक सूती साड़ी निकाली ब्रजेश ने. तांत की क्रीम साड़ी और उस का खूब चौड़ा लाल सुनहरा बौर्डर.

शुभा को याद आया ब्रजेश को सूती साड़ी पहनना पसंद नहीं जबकि नेहा की पहली पसंद है कलफ लगी सूती साड़ी. खुशी से रोने लगी नेहा. ब्रजेश जानबूझ कर 3 दिन के लिए आगरा बेटे के पास चले गए थे. पलपल की खबर विजय और शुभा से ले रहे थे. शुभा की तरफ देख आभार व्यक्त करने को फिर हाथ जोड़ दिए. अफसोस हो रहा था उन्हें. क्यों नहीं समझ पाए वे, खुशी भारी साड़ी या भारी गहने में नहीं, खुशी तो है खुल कर सांस लेने में. छोटीछोटी खुशियां जो वे नेहा को नहीं दे पाए.

और्डर- नेहा ने अपनी खुशी को क्यों कुर्बान कर दी?

लेखिका- दीपा डिंगोलिया

‘‘सुनो, मुझे नया फोन लेना है. काफी टाइम हो गया इस फोन को. मैं ने नया फोन औनलाइन और्डर कर दिया है,’’ सुबह औफिस के लिए तैयार होते हुए मैं ने समीर से कहा.

‘‘हांहां, ले लो भई, लिए बिना तुम मानोगी थोड़ी. वैसे, इस फोन का क्या करोगी? इतना महंगा फोन है. बजट है इतना तुम्हारा कि तुम नया फोन अभी ले सको,’’ समीर ने नेहा से हंसते हुए कहा.

‘‘यह बेच कर 4-5 हजार रुपए और डाल कर नया ले लूंगी. तुम से कोई पैसा नहीं लूंगी, बेफिक्र रहो. अच्छा, सुनो, शाम को मुझे मां की तरफ जाना है, इसलिए आज थोड़ा लेट हो जाऊंगी. तुम वहीं से मुझे पिक कर लेना,’’ यह कह कर मैं जल्दी से घर से निकल ली.

औफिस से हाफ डे ले कर मां के घर पहुंची. मां के साथ खाना खा मैं बालकनी में आ कर खड़ी हो गई. मां के यहां बालकनी से बहुत ही खूबसूरत नजारा देखने को मिलता था. चारों ओर हरियाली और चिडि़यों की चहचहाहट. तभी मां भी चाय ले कर वहीं आ गईं. चाय पीतेपीते दूर से एक बुजुर्ग से अंकलजी आते हुए दिखे.

‘‘मां, ये अंकल तो जानेपहचाने से लग रहे हैं. देखो जरा, कौन हैं?’’

‘‘अरे, इन्हें नहीं पहचाना. गुड्डू के पापा ही तो हैं. गुड्डू तो अब विदेश चला गया न. ये यहीं नीचे वाले फ्लैट में अकेले रहते हैं. गुड्डू की मां तो रही नहीं और बहन भी कहीं बाहर ही रहती है,’’ मां ने बताया.

गुड्डू और मैं बचपन में एकसाथ खेलते हुए बड़े हुए थे. लेकिन मैं गुड्डू से ज्यादा नहीं बोलती थी. वैसे, बहुत ही अच्छा लड़का था गुड्डू, सीधासादा, होशियार.

‘‘मां, मैं जरा मिल कर आती हूं अंकल से,’’ कह कर मैं अपना बैग उठा कर नीचे अंकल के घर को चल पड़ी.

‘‘ठीक है, पर बेटा, जरा जल्दी आना,’’ मां ने कहा.

दरवाजे पर घंटी बजाई. अंकल बाहर आए.

‘‘नमस्ते अंकल, पहचाना?’’

‘‘आओआओ बेटी. अच्छे से पहचाना. बैठो. बहुत टाइम बाद देखा. कहां हो आजकल? तुम्हारे मम्मीपापा से तो मुलाकात हो जाती है. बहुत ही अच्छे लोग हैं. खैर, सुनाओ कैसे हैं सब तुम्हारे घरपरिवार में,’’ अंकलजी बहुत खुश थे मुझे देख कर और लगातार बोले जा रहे थे.

‘‘सब बढि़या. आप बताइए. गुड्डू और दीदी कैसे हैं?’’

‘‘सब ठीक हैं, बेटी. दोनों ही बाहर रहते हैं. आना तो कम ही होता है दोनों का. अब तो बस फोन पर ही बात होती है,’’ अंकल बहुत ही रोंआसी आवाज में बोले.

‘‘क्या बात है अंकलजी, सब ठीक है न?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब क्या बताऊं बेटे, कल रात फोन भी हाथ से छूट कर गिर गया और खराब हो गया,’’ मेरे हाथ में अपना फोन देते हुए अंकलजी बोले, ‘‘जरा देखना यह ठीक हो सकता है क्या? फोन के बिना मेरा गुजारा ही नहीं है. अब तो गुड्डू ही नया फोन भेजेगा.’’

‘‘अरे अंकलजी, गुड्डू को छोड़ें. फोन आने में तो बहुत टाइम लग जाएगा, तब तक आप परेशान थोड़े ही रहेंगे. यह लीजिए आप का फोन,’’ मैं ने बैग से निकाल कर अपना फोन अंकलजी के हाथ में दिया.

‘‘यह तो टचस्क्रीन वाला है. बहुत महंगा होता है यह तो. नहींनहीं, यह मैं नहीं ले सकता. मेरे लिए कोई पुराना सा फोन ही ला दो बेटे अगर ला सकती हो तो या इसी फोन को ठीक करवा कर दे देना. दोचार दिन काम चला लूंगा बिना फोन के,’’ अंकलजी बोले.

‘‘मैं ने आप की सिम इस में डाल दी है. यह लीजिए आप चला कर देखिए और आप का फोन ठीक कराने के लिए मैं ले जा रही हूं. अब आप इस फोन को बेफिक्र हो कर इस्तेमाल करिए.’’ अंकलजी ने झिझकते हुए मेरा फोन अपने हाथ में लिया और खुशी से चला कर देखने लगे. फोन हाथ में ले बच्चों की तरह खुश थे वे.

‘‘इस में गेम्स वगैरह भी खेल सकते हैं न? पर बेटे, गुड्डू मुझे बहुत डांटेगा. तुम रहने ही देतीं. मुझे मेरा फोन ठीक करवा कर दे देना,’’ अंकलजी थोड़ा घबराते हुए बोले.

‘‘अंकलजी, कभीकभी गुड्डू की जगह मुझ गुड्डी को भी अपना बेटा समझ कर अपनी सेवा करने दिया करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘जीती रहो बेटी, तुम ने मेरी सारी परेशानी खत्म कर दी,’’ अंकलजी खुशी से बोले.

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. मां इंतजार कर रही होंगी,’’ अंकलजी से बाय बोल कर मैं एक अलग ही अंदाज से घर पहुंची. मन में एक अनजानी संतुष्टि सी थी.

समीर शाम को लेने मां के घर पहुंचे और बोले, ‘‘बड़ी खुश लग रही हो आज मां से मिल कर.’’

मैं बस मुसकरा कर रह गई. घर पहुंच लैपटौप औन कर के नए फोन का और्डर कैंसिल कर दिया.

अंकलजी का फोन ठीक करवा कर अपने बैग में रख लिया. मन में एक खुशी थी. नए फोन की अब मुझे कोई ऐसी चाह नहीं थी.

घोंसले के पंछी: क्या मिल पाए आदित्य और ऋचा

आदित्य गुमसुम से खड़े थे. पत्नी की बात पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ. वे शब्दों पर जोर देते हुए बोले, ‘‘क्या तुम सच कह रही हो ऋचा?’’

‘‘पहले मुझे विश्वास नहीं था लेकिन मैं एक नारी हूं, जिस उम्र से अंकिता गुजर रही है उस उम्र से मैं भी गुजर चुकी हूं. उस के रंगढंग देख कर मैं समझ गई हूं कि दाल में कुछ काला है.’’

आदित्य की आंखों में एक सवाल था, ‘वह कैसे?’

ऋचा उन की आंखों की भाषा समझ गई. बोली, ‘‘सुबह घर से जल्दी निकलती है, शाम को देर से घर आती है. पूछने पर बताया कि टाइपिंग क्लास जौइन कर ली है. इस की उसे जरूरत नहीं है. उस ने इस बारे में हम से पूछा भी नहीं था. घर में भी अकेले रहना पसंद करती है, गुमसुम सी रहती है. जब देखो, अपना मोबाइल लिए कमरे में बंद रहती है.’’

‘‘उस से बात की?’’

‘‘अभी नहीं, पहले आप को बताना उचित समझा. लड़की का मामला है. जल्दबाजी में मामला बिगड़ सकता है. एक लड़का हम खो चुके हैं, अब लड़की को खो देने का मतलब है पूरे संसार को खो देना.’’

आदित्य विचारों के समुद्र में गोता लगाने लगे. यह कैसी हवा चली है. बच्चे अपने मांबाप के साए से दूर होते जा रहे हैं. वयस्क होते ही प्यार की डगर पर चल पड़ते हैं, फिर मांबाप की मरजी के बगैर शादी कर लेते हैं. जैसे चिडि़या का बच्चा पंख निकलते ही अपने जन्मदाता से दूर चला जाता है, अपने घोंसले में कभी लौट कर नहीं आता, उसी प्रकार आज की पीढ़ी के लड़के तथा लड़कियां युवा होने से पहले ही प्यार के संसार में डूब जाते हैं. अपनी मरजी से शादी करते हैं और अपना घर बसा कर मांबाप से दूर चले जाते हैं.

आदित्य और ऋचा के एकलौते पुत्र ने भी यही किया था. आज वे दोनों अपने बेटे से दूर थे और बेटा उन की खोजखबर नहीं लेता था. इस में गलती किस की थी? आदित्य की, उन की पत्नी की या उन के बेटे की कहना मुश्किल था.

आदित्य ने पहले ध्यान नहीं दिया था, इस के बारे में सोचा तक नहीं था परंतु आज जब उन की एकलौती बेटी भी किसी के प्यार में रंग चुकी है, किसी के सपनों में खोई है, तो वे विगत और आगत का विश्लेषण करने पर विवश हैं.

प्रतीक एम.बी.ए. कर चुका था. बेंगलूरु की एक बड़ी कंपनी में मैनेजर था. एम.बी.ए. करते समय ही उस का एक लड़की से प्रेम हुआ था. तब तक उस ने घर में बताया नहीं था. नौकरी मिलते ही मांबाप को अपने प्रेम से अवगत कराया. आदित्य और ऋचा को अच्छा नहीं लगा. वह उन का एकलौता बेटा था. उन के अपने सपने थे. हालांकि वे आधुनिक थे, नए जमाने के चलन से भी वाकिफ थे परंतु भारतीय मानसिकता बड़ी जटिल होती है.

हम पढ़लिख कर आधुनिक बनने का ढोंग करते हैं, नए जमाने की हर चीज अपना लेते हैं, परंतु हमारी मानसिकता कभी नहीं बदलती. हमारे बच्चे किसी के प्रेम में पड़ें, वे प्रेमविवाह करना चाहें, हम इसे बरदाश्त नहीं कर पाते. अपनी जवानी में हम भी वही करते हैं या करना चाहते हैं परंतु हमारे बच्चे जब वही सब करने लगते हैं, तो सहन नहीं कर पाते हैं. उस का विरोध करते हैं.

प्रतीक उन का एकलौता बेटा था. वे धूमधाम से उस की शादी करना चाहते थे. वे उसे कामधेनु गाय समझते थे. उस की शादी में अच्छा दहेज मिलता. इसी उम्मीद में अपने एक रिश्तेदार से उस की शादी की बात भी कर रखी थी. मामला एक तरह से पक्का था. मांबाप यहीं पर गलती कर जाते हैं. अपने जवान बच्चों के बारे में अपनी मरजी से निर्णय ले लेते हैं. उन को इस से अवगत नहीं कराते. बच्चों की भावनाओं का उन्हें खयाल नहीं रहता. वे अपने बच्चों को एक जड़ वस्तु समझते हैं, जो बिना चूंचपड़ किए उन की हर बात मान लेंगे. परंतु जब बच्चे समझदार हो जाते हैं तब वे अपने जीवन के बारे में वे खुद निर्णय लेना पसंद करते हैं. वे अपना जीवन अपने तौर पर जीना चाहते हैं.

जब प्रतीक ने अपने प्यार के बारे में उन्हें बताया तो उन के कान खड़े हुए. चौंकना लाजिमी था. बेटे पर वे अपना अधिकार समझते थे. आदित्य और ऋचा ने पहले एकदूसरे की तरफ देखा, फिर प्रतीक की तरफ. वह एक हफ्ते की छुट्टी ले कर आया था. मांबाप से अपनी शादी के बारे में बात करने के लिए. प्रेम उस ने अवश्य किया था परंतु वह उन की सहमति से शादी करना चाहता था. अगर वे मान जाते तो ठीक था, अगर नहीं तब भी उस ने तय कर रखा था कि अपनी पसंद की लड़की से ही शादी करेगा. जिस को प्यार किया था, उसे धोखा नहीं देगा. मांबाप माने या न मानें.

ऋचा ने ही बात का सिरा पकड़ा था, ‘‘परंतु बेटे, हम ने तो तुम्हारी शादी के बारे में कुछ और ही सोच रखा है.’’

‘‘अब वह बेकार है. मैं ने अपनी पसंद की लड़की देख ली है. वह मेरे अनुरूप है.

हम दोनों ने एकसाथ एम.बी.ए. किया था. अब साथ ही नौकरी भी कर रहे हैं, साथ ही जीवन व्यतीत करेंगे.’’

‘‘परंतु हमारे सपने…’’ ऋचा ने प्रतिवाद करने की कोशिश की परंतु प्रतीक की दृढ़ता के सामने वह कमजोर पड़ गईं. ऋचा की आवाज में कोई दम नहीं था. उसे लगा, वह हार जाएगी.

‘‘मम्मी, आप समझने की कोशिश कीजिए. बच्चे ही मांबाप का सपना होते हैं. अगर मैं खुश हूं तो आप के सपने साकार हो जाएंगे, वरना सब बेकार है.’’

‘‘बेकार तो वैसे भी सब कुछ हो चुका है. मैं बंसलजी को क्या मुंह दिखाऊंगा?’’ आदित्य ने पहली बार मुंह खोला, ‘‘उन के साथसाथ सारे नातेरिश्तेदार हैं. वे भी अलगथलग पड़ जाएंगे.’’

‘‘कोई किसी से अलग नहीं होता. आप धूमधाम से शादी आयोजित करें. रिश्तेदार 2 दिन बातें बनाएंगे, फिर भूल जाएंगे. प्रेमविवाह अब असामान्य नहीं रहे,’’ प्रतीक ने बहुत धैर्य से अपनी बात कही.

‘‘बेटे, तुम नहीं समझोगे. हम वैश्य हैं और हमारे समाज ने इस मामले में आधुनिकता की चादर नहीं ओढ़ी है. कितने लोग तुम्हारे लिए भागदौड़ कर रहे हैं. अपनी बेटी का विवाह तुम्हारे साथ करना चाहते हैं. जिस दिन पता चलेगा कि तुम ने गैर जाति की लड़की से शादी कर ली है, वे हमें समाज से बहिष्कृत कर देंगे. तुम्हारी छोटी बहन की शादी में तमाम अड़चनें आएंगी.’’

‘‘उस का भी प्रेमविवाह कर देना,’’ प्रतीक ने सहजता से कह दिया. परंतु आदित्य और ऋचा के लिए यह सब इतना सहज नहीं था.

‘‘बेटे, एक बार तुम अपने निर्णय पर पुनर्विचार करो. शायद तुम्हारा निश्चय डगमगा जाए. हम उस से सुंदर लड़की तुम्हारे लिए ढूंढ़ कर लाएंगे.’’

ये भी पढ़ें- बेईमानी का नतीजा: क्या हुआ बाप और बेटे के साथप्रतीक हंसा, ‘‘मम्मी, यह मेरा आज का फैसला नहीं है. पिछले 3 सालों से हम दोनों का यही फैसला है. अब यह बदलने वाला नहीं. आप अपने बारे में बताएं. आप हमारी शादी करवाएंगे या हम स्वयं कर लें.’’

किसी ने प्रतीक की बात का जवाब नहीं दिया. वे अचंभित, भौचक और ठगे से बैठे थे. वे सभ्य समाज के लोग थे. लड़ाईझगड़ा कर नहीं सकते थे. बातों के माध्यम से मामले को सुलझाने की कोशिश की परंतु वे दोनों न तो प्रतीक को मना पाए, न प्रतीक के निर्णय से सहमत हो पाए. प्रतीक अगले दिन बेंगलूरु चला गया. बाद में पता चला, उस ने न्यायालय के माध्यम से अपनी प्रेमिका से शादी कर ली थी.

वे दोनों जानते थे कि प्रतीक ने भले अपनी मरजी से शादी की थी. परंतु वह उन के मन से दूर नहीं हुआ था. बस उन का अपना हठ था. उस हठ के चलते अभी तक बेटे से संपर्क नहीं किया था. बेटे ने पहले एकदो बार फोन किया था. आदित्य और ऋचा ने उस से बात की थी, हालचाल भी पूछा परंतु उस को दिल्ली आने के लिए कभी नहीं कहा. फिर बेटे ने उन को फोन करना बंद कर दिया.

अब शायद वह हठ टूटने वाला था. अंकिता के साथ वह पहले वाली गलती नहीं दोहराना चाहते थे.

आदित्य ने शांत भाव से कहा, ‘‘ऋचा, हमें बहुत समझदारी से काम लेना होगा. लड़की का मामला है. प्रेम के मामले में लड़कियां बहुत नासमझी और भावुकता से काम लेती हैं. अगर उन्हें लगता है कि मांबाप उन के प्रेम का विरोध कर रहे हैं, तो बहुत गलत कदम उठा लेती हैं. या तो वे घर से भाग जाती हैं या आत्महत्या कर लेती हैं. हमें ध्यान रखना है कि अंकिता ऐसा कोई कदम न उठा ले.’’

ऋचा बेचैन हो गई, ‘‘क्या करें हम?’’

‘‘कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, बस उस से बात करो. उस की सारी बातें ध्यान से सुनो. उस के मन को समझने का प्रयास करो. शायद हम उस की मदद कर सकें. अगर वह समझ गई तो बहकने से बच जाएगी. उस के पैर गलत रास्ते पर नहीं पड़ेंगे. ये रास्ते बहुत चिकने होते हैं. फिसलने में देर नहीं लगती.’’

‘‘ठीक है,’’ ऋचा ने आश्वस्त हो कर कहा.

ऋचा ने देर नहीं की. जल्दी ही मौका निकाला. अंकिता से बात की. वह अपने कमरे में थी. ऋचा ने कमरे में घुसते ही पूछा, ‘‘बेटा, क्या कर रही हो?’’

अंकिता हड़बड़ा कर खड़ी हो गई. वह बिस्तर पर लेटी मोबाइल पर किसी से बातें कर रही थी. अंकिता के चेहरे के भाव बता रहे थे, जैसे वह चोरी करते हुए पकड़ी गई थी. ऋचा सब समझ गई, परंतु उस ने धैर्य से कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?’’

अंकिता बी.ए. के दूसरे साल में थी.

‘‘ठीकठाक चल रही है,’’ अंकिता ने अपने को संभालते हुए कहा. उस की आंखें फर्श की तरफ थीं.

वह मां की तरफ देखने का साहस नहीं जुटा पा रही थी.

अंकिता जिन मनोभावों से गुजर रही थी, ऋचा समझ सकती थी. उस ने बेटी को पलंग पर बैठाते हुए कहा, ‘‘बैठो और मेरी बात ध्यान से सुनो.’’

वह भी बेटी के साथ पलंग पर एक किनारे बैठ गई. उसे लग रहा था किसी लागलपेट की जरूरत नहीं, मुझे सीधे मुद्दे पर आना होगा.

अंकिता का हृदय तेजी से धड़क रहा था. पता नहीं क्या होने वाला था? मम्मी क्या कहेंगी उस से? उस की कुछ समझ में नहीं आ रहा था परंतु उस के मन में अपराधबोध था. मम्मी ने उसे फोन करते हुए देख लिया था.

ऋचा ने सीधे वार किया, ‘‘बेटी, मैं तुम्हारी मनोदशा समझ रही हूं. मैं तुम्हारी मां हूं. इस उम्र में सब को प्रेम होता है,’’ प्रेम शब्द पर ऋचा ने अधिक जोर दिया, ‘‘तुम्हारे साथ कुछ नया नहीं हो रहा है. परंतु बेटी, इस उम्र में लड़कियां अकसर बहक जाती हैं. लड़के उन को बरगला कर, झूठे सपनों की दुनिया में ले जा कर उन की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं. बाद में लड़कियों के पास बदनामी के सिवा कुछ नहीं बचता. वे बदनामी का दाग ले कर जीती हैं और मन ही मन घुलती रहती हैं.’’

अंकिता का दिल और जोर से धड़क उठा.

‘‘बेटी, अगर तुम्हारे साथ ऐसा कुछ हो रहा है, तो हमें बताओ. हम नहीं चाहते तुम्हारे कदम गलत रास्ते पर पड़ें. तुम नासमझी में कुछ ऐसा न कर बैठो, जो तुम्हारी बदनामी का सबब बने. अभी तुम्हारी पढ़ाई की उम्र है लेकिन यदि तुम्हारे साथ प्रेम जैसा कोई चक्कर है, तो हम शादी के बारे में भी सोच सकते हैं. तुम खुल कर बताओ, क्या वह लड़का तुम्हारे साथ शादी करना चाहता है? वह तुम को ले कर गंभीर है या बस खिलवाड़ करना चाहता है.’’

अंकिता सोचने लगी पर उस के मन में दुविधा और शंका के बादल मंडरा रहे थे.

बताए या न बताए. मम्मी उस के मन की बात जान गई हैं. कहां तक छिपाएगी? नहीं बताएगी तो उस पर प्रतिबंध लगेंगे. उस ने आगे आने वाली मुसीबतों के बारे में सोचा. उसे लगा कि मां जब इतने प्यार और सहानुभूति से पूछ रही हैं, तो उन को सब कुछ बता देना ही उचित होगा.

अंकिता खुल गई और धीरेधीरे उस ने मम्मी को सारी बातें बता दीं. गनीमत थी कि अभी तक अंकिता ने अपना कौमार्य बचा कर रखा था. लड़के ने कोशिश बहुत की थी, परंतु वह उस के साथ होटल जाने को तैयार नहीं हुई. डर गई थी, इसलिए बच गई. मम्मी ने इतमीनान की गहरी सांस ली और बेटी को सांत्वना दी कि वह सब कुछ ठीक कर देंगी. अगर लड़का तथा उस के घर वाले राजी हुए तो इसी साल उस की शादी कर देंगे.

अंकिता ने बताया था कि वह अपने साथ पढ़ने वाले एक लड़के के साथ प्यार करती है. उस के घरपरिवार के बारे में वह बहुत कम जानती है. वे दोनों बस प्यार के सुनहरे सपने देख रहे हैं. बिना पंखों के हवा में उड़ रहे थे. भविष्य के बारे में अनजान थे. प्रेम की परिणति क्या होगी, इस के बारे में सोचा तक नहीं था. वे बस एकदूसरे के प्रति आसक्त थे. यह शारीरिक आकर्षण था, जिस के कारण लड़कियां अवांछित विपदाओं का शिकार होती हैं.

ऋचा ने आदित्य को सब कुछ बताया. मामला सचमुच गंभीर था. अंकिता अभी नासमझ थी. उस के विचारों में परिपक्वता नहीं थी. उस की उम्र अभी 20 साल थी. वह लड़का भी इतनी ही उम्र का होगा. दोनों का कोई भविष्य नहीं था. वे दोनों बरबादी की तरफ बढ़ रहे थे. उन्हें संभालना होगा.

स्थिति गंभीर थी. ऋचा और आदित्य का चिंतित होना स्वाभाविक था. परंतु ऋचा और आदित्य को कुछ नहीं करना पड़ा. मामला अपनेआप सुलझ गया. संयोग उन का साथ दे रहा था. समय रहते अंकिता को अक्ल आ गई थी. उस की मम्मी की बातों का उस पर ठीक असर हुआ था.

ये भी पढ़ें- सनक: नृपेंद्रनाथ को हुआ गलती का एहसासअंकिता ने जब शिवम को बताया कि उस की मम्मी को उस के प्रेम के बारे में सब पता चल गया है तो वह घबरा गया.

‘‘इस में घबराने की क्या बात है? मम्मी ने तुम्हारे डैडी का फोन नंबर व पता मांगा है. वह तुम्हारे घर वालों से हमारी शादी की बात करना चाहती हैं.’’

‘‘अरे मर गए, क्या तुम्हारे पापा को भी पता है?’’ उस के माथे पर पसीने की बूंदें छलक आईं.

‘‘जरूर पता होगा. मम्मी ने बताया होगा उन को. परंतु तुम इतना परेशान क्यों हो रहे हो? हम एकदूसरे से प्रेम करते हैं, शादी करने में क्या हरज है? कभी न कभी करते ही, कल के बजाय आज सही,’’ अंकिता बहुत धैर्य से यह सब कह रही थी.

‘‘अरे, तुम नहीं समझतीं. यह कोई शादी की उम्र है. मेरे डैडी जूतों से मेरी खोपड़ी गंजी कर देंगे. शादी तो दूर की बात है,’’ वह हाथ मलते हुए बोला.

‘‘अच्छा,’’ अंकिता की अक्ल ठिकाने आ रही थी. वह समझने का प्रयास कर रही थी. बोली, ‘‘तुम मुझ से प्रेम कर सकते हो तो शादी क्यों नहीं. प्रेम मांबाप से पूछ कर तो किया नहीं था. अगर वे हमारी शादी के लिए तैयार नहीं होते, तो शादी भी उन से बिना पूछे कर लो. आखिर हम बालिग हैं.’’

‘‘क्या बकवास कर रही हो, शादी कैसे कर सकते हैं?’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘अभी तो हम पढ़ रहे हैं. मांबाप से पूछे बगैर हम इतना बड़ा कदम कैसे उठा सकते हैं?’’

‘‘अच्छा, मांबाप से पूछे बगैर तुम जवान कुंआरी लड़की को बरगला सकते हो. उस को झूठे प्रेमजाल में फंसा सकते हो. शादी का झांसा दे कर उस की इज्जत लूट सकते हो. यह सब करने के लिए तुम बालिग हो परंतु शादी करने के लिए नहीं,’’ वह रोंआसी हो गई.

उसे मम्मी की बातें याद आ गईं. सच कहा था उन्होंने कि इस उम्र में लड़कियां अकसर बहक जाती हैं. लड़के उन को बरगला कर, झूठे सपनों की दुनिया में ले जा कर उन की इज्जत से खिलवाड़ करते हैं. शिवम भी तो उस के साथ यही कर रहा था. समय रहते उस की मम्मी ने उसे सचेत कर दिया था. वह बच गई. अगर थोड़ी देर होती तो एक न एक दिन शिवम उस की इज्जत जरूर लूट लेता. कहां तक अपने को बचाती. वह तो उस के लिए पागल थी.

शिवम इधरउधर ताक रहा था. अंकिता ने एक प्रयास और किया, ‘‘तुम अपने घर का पता और फोन नंबर दो. तुम्हारे मम्मीडैडी से पूछ तो लें कि वे इस रिश्ते के लिए राजी हैं या नहीं.’’

‘‘क्या शादीशादी की रट लगा रखी है,’’ वह दांत पीस कर बोला, ‘‘हम कालेज में पढ़ने के लिए आए हैं, शादी करने के लिए नहीं.’’

‘‘नहीं, प्यार करने के लिए…’’ अंकिता ने उस की नकल की. वह भी दांत पीस कर बोली, ‘‘तो चलो, नाचेगाएं और खुशियां मनाएं,’’ अब उस की आवाज में तल्खी आ गई थी, ‘‘कमीने कहीं के, तुम्हारे जैसे लड़कों की वजह से ही न जाने कितनी लड़कियां अपनी इज्जत बरबाद करती हैं. मैं ही

बेवकूफ थी, जो तुम्हारे फंदे में फंस गई. थू है तुम पर.. भाड़ में जाओ. सब कुछ खत्म हो गया. अब कभी मेरे सामने मत पड़ना. गैरत हो तो अपना काला मुंह ले कर मेरे सामने से चले जाओ.’’

उस दिन शाम को अंकिता जल्दी घर पहुंच गई. बहुत दिनों बाद ऐसा हुआ था. ऋचा और आदित्य ने भेदभरी नजरों से एकदूसरे की तरफ देखा. अंकिता चुपचाप अपने कमरे में चली गई थी. आदित्य ने ऋचा को इशारा किया. वह पीछेपीछे अंकिता के कमरे में पहुंची. आदित्य भी बाहर आ कर खड़े हो गए थे.

‘‘आज बहुत जल्दी आ गईं बेटी,’’ ऋचा अंकिता से पूछ रही थी.

‘‘हां मम्मी, आज मैं अपने मन का बोझ उतार कर आई हूं. बहुत हलका महसूस कर रही हूं,’’ फिर उस ने एकएक बात मम्मी को बता दी.

मम्मी ने उसे गले से लगा लिया. उसे पुचकारते हुए बोलीं, ‘‘बेटी, मुझे तुम पर गर्व है. तुम्हारी जैसी बेटी हर मांबाप को मिले.’’

‘‘मम्मी यह सब आप की समझदारी की वजह से हुआ है. समय रहते आप ने

मुझे संभाल लिया. मैं आप की बात समझ गई और पतन के गर्त में जाने से बच गई. आप थोड़ा सी देर और करतीं तो मेरी बरबादी हो चुकी होती. मैं आप से वादा करती हूं कि मन लगा कर पढ़ाई करूंगी. आप की नसीहत और मार्गदर्शन से एक अच्छी बेटी बन कर दिखाऊंगी.’’

‘‘हां बेटी, तुम्हारे सिवा हमारा और कौन है? तुम चली जातीं तो हमारे जीवन में क्या बचता?’’

‘‘मम्मी, ऐसा क्यों कह रही हैं? मैं आप के साथ हूं और भैयाभाभी भी तो हैं.’’

ऋचा ने अफसोस से कहा, ‘‘वे अब हमारे कहां रहे? हम ने एकदूसरे को नहीं समझा और वे हम से दूर हो गए.’’

‘‘ऐसा नहीं है मम्मी, वे पहले भी हमारे थे और आज भी हमारे हैं.’’

‘‘ये क्या कह रही हो तुम?’’

‘‘मम्मी, मैं आप को राज की बात बताती हूं. भैया और भाभी से मैं रोज बात करती हूं. भाभी खुद फोन करती हैं. मैं ने उन्हें देखा नहीं है परंतु वे बातें बहुत प्यारी करती हैं. वे हम सब को देखना चाहती हैं. भैया तो एक दिन भी बिना मुझ से बात किए नहीं रह सकते. वे और भाभी यहां आना चाहते हैं लेकिन डैडी से डरते हैं, इसीलिए नहीं आते. मम्मी, आप एक बार…सिर्फ एक बार उन से कह दो कि आप ने उन्हें माफ किया, वे दौड़ते हुए आएंगे.’’

‘‘सच…’’ ऋचा ने उसे अपने सीने से लगा लिया, ‘‘बेटी, आज तू ने मुझे दोगुनी खुशी दी है,’’ वह खुशी से विह्वल हुई जा रही थी.

‘‘हां, मम्मी, आप उन्हें फोन तो करो,’’ अंकिता चहक रही थी, ‘‘मैं भाभी से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘अभी करती हूं. पहले उन को बता दूं. सुन कर वे भी खुशी से पागल हो जाएंगे. हम लोगों ने न जाने कितनी बार उन को बुलाने के बारे में सोचा. बस हठधर्मिता में पड़े रहे. बेटे के सामने झुकना नहीं चाहते थे परंतु आज हम बेटे के लिए और उस की खुशी के लिए छोटे बन जाएंगे. उसे फोन करेंगे.’’

वह बाहर जाने के लिए मुड़ी. कमरे के बाहर खड़े आदित्य अपनी आंखों से आंसू पोंछ रहे थे. आज उन्हें खोई हुई खुशी मिल रही थी. बेटी भी वापस अंधेरी गलियों में भटकने से बच गई थी. वह सहीसलामत घर लौट आई थी. बेटा भी मिल गया था. आज उन की हठधर्मिता टूट गई थी. उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था.

ऋचा ने आदित्य को बाहर खड़े देखा. वे समझ गईं कि अब कुछ कहने की जरूरत नहीं थी. वे सब सुन चुके थे. उन के पास जा कर भरे गले से बोली, ‘‘चलिए, बेटे को फोन कर दें और बहू के स्वागत की तैयारी

करें. आज हमें दोगुनी खुशी मिल रही है.

ऐसा लग रहा है, जैसे घोंसले के पंछी वापस आ गए हैं. अब हमारा आशियाना वीरान

नहीं रहेगा.’’

‘‘हां, ऋचा,’’ आदित्य ने उसे बांहों के घेरे में लेते हुए कहा, ‘‘घोंसले के पंछी घोंसले में ही रहते हैं, डाल पर नहीं. प्रतीक को वापस आना ही था. हमारी बगिया के फूल यों ही हंसतेमुसकराते रहें. उन की सुगंध चारों ओर फैले और वे अपनी महक से सब के जीवन को गुलजार कर दे.

 

दुस्वप्न: कैसा था संविधा का ससुराल

संविधा ने घर में प्रवेश किया तो उस का दिल तेजी से धड़क रहा था. वह काफी तेजतेज चली थी, इसलिए उस की सांसें भी काफी तेज चल रही थीं. दम फूल रहा था उस का. राजेश के घर आने का समय हो गया था, पर संयोग से वह अभी आया नहीं था. अच्छा ही हुआ, जो अभी नहीं आया था. शायद कहीं जाम में फंस गया होगा. घर पहुंच कर वह सीधे बाथरूम में गई. हाथपैर और मुंह धो कर बैडरूम में जा कर जल्दी से कपड़े बदले.

राजेश के आने का समय हो गया था, इसलिए रसोई में जा कर गैस धीमी कर के चाय का पानी चढ़ा दिया. चाय बनने में अभी समय था, इसलिए वह बालकनी में आ कर खड़ी हो गई.सामने सड़क पर भाग रही कारों और बसों के बीच से लोग सड़क पार कर रहे थे. बरसाती बादलों से घिरी शाम ने आकाश को चमकीले रंगों से सजा दिया था.

सामने गुलमोहर के पेड़ से एक चिड़िया उड़ी और ऊंचाई पर उड़ रहे पंछियों की कतार में शामिल हो गई. पंछियों के पंख थे, इसलिए वे असीम और अनंत आकाश में विचरण कर सकते थे.वह सोचने लगी कि उन में मादाएं भी होंगी. उस के मन में एक सवाल उठा और उसी के साथ उस के चेहरे पर मुसकान नाच उठी, ‘अरे पागल ये तो पक्षी हैं, इन में नर और मादा क्या? वह तो मनुष्य है, वह भी औरत.

सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना जाने वाला मानव अवतार उसे मिला है. सोचनेविचारने के लिए बुद्धि मिली है. सुखदुख, स्नेह, माया, ममता और क्रोध का अनुभव करने के लिए उस के पास दिल है. कोमल और संवेदनशील हृदय है, मजबूत कमनीय काया है, पर कैसी विडंबना है कि मनुष्य योनि में जन्म लेने के बावजूद देह नारी की है. इसलिए उस पर तमाम बंधन हैं.

संविधा के मन के पंछी के पंख पैदा होते ही काट दिए गए थे, जिस से वह इच्छानुसार ऊंचाई पर न उड़ सके. उस की बुद्धि को इस तरह गढ़ा गया था कि वह स्वतंत्र रूप से सोच न सके. उस के मन को इस तरह कुचल दिया गया था कि वह सदैव दूसरों के अधीन रहे, दूसरों के वश में रहे. इसी में उस की भलाई थी. यही उस का धर्म और कर्तव्य था. इसी में उस का सुख भी था और सुरक्षा भी.

शादी के 3 दशक बीत चुके थे. लगभग आधी उम्र बीत चुकी थी उस की. इस के बावजूद अभी भी उस का दिल धड़कता था, मन में डर था. देखा जाए तो वह अभी भी एक तरह से हिरनी की तरह घबराई रहती थी. राजेश औफिस से घर आ गया होगा तो…? तो गुस्से से लालपीला चेहरा देखना होगा, कटाक्ष भरे शब्द सुनने पड़ेंगे.

‘मैं घर आऊं तो मेरी पत्नी को घर में हाजिर होना चाहिए’, ‘इतने सालों में तुम्हें यह भी पता नहीं चला’, ‘तुम्हारा ऐसा कौन सा जरूरी काम था, जो तुम समय पर घर नहीं आ सकीं?’ जैसे शब्द संविधा पहले से सुनती आई थी.

वह कहीं बाहर गई हो, किसी सहेली या रिश्तेदार के यहां गई हो, घर के किसी काम से गई हो, अगर उसे आने में थोड़ी देर हो गई तो क्या बिगड़ गया? राजेश को जस का तस सुनाने का मन होता. शब्द भी होंठों पर आते, पर उस का मिजाज और क्रोध से लालपीला चेहरा देख कर वे शब्द संविधा के गले में अटक कर रह जाते. जब तक हो सकता था, वह घर में ही रहती थी.

एक समय था, जब संविधा को संगीत का शौक था. कंठ भी मधुर था और हलक भी अच्छी थी. विवाह के बाद भी वह संगीत का अभ्यास चालू रखना चाहती थी. घर के काम करते हुए वह गीत गुनगुनाती रहती थी. यह एक तरह से उस की आदत सी बन गई थी. पर जल्दी ही उसे अपनी इस आदत को सुधारना पड़ा, क्योंकि यह उस की सास को अच्छा नहीं लगता था.

सासूमां ने कहा था, ‘‘अच्छे घर की बहूबेटियों को यह शोभा नहीं देता.’’बस तब से शौक धरा का धरा रह गया. फिर तो एकएक कर के 3 बच्चों की परवरिश करने तथा एक बड़े परिवार में घरपरिवार के तमाम कामों को निबटाने में दिन बीतने लगे. कितनी बरसातें और बसंत ऋतुएं आईं और गईं, संविधा की जिंदगी घर में ही बीतने लगी.

‘संविधा तुुम्हें यह करना है, तुम्हें यह नहीं करना है’, ‘आज शादी में चलना है, तैयार हो जाओ’, ‘तुम्हारे पिताजी की तबीयत खराब है, 3-4 दिन के लिए मायके जा कर उन्हें देख आओ. 5वें दिन वापस आ जाना, इस से ज्यादा रुकने की जरूरत नहीं है’ जैसे वाक्य वह हमेशा सुनती आई है.

घर में कोई मेहमान आया हो या कोई तीजत्योहार या कोई भी मौका हो, उसे क्या बनाना है, यह कह दिया जाता. क्या करना है, कोई यह उस से कहता और बिना कुछ सोचेविचारे वह हर काम करती रहती.ससुराल वाले उस का बखान करते. सासससुर कहते, ‘‘बहू बड़ी मेहनती है, घर की लक्ष्मी है.’’

पति राजेश को भी उस का शांत, आज्ञाकारी, लड़ाईझगड़ा न करने वाला स्वभाव अनुकूल लगता था. पति खुशीखुशी तीजत्योहार पर उस के लिए कोई न कोई उपहार खरीद लाता, पर इस में भी उस की पसंद न पूछी जाती. संविधा का संसार इसी तरह सालों से चला आ रहा था.

किसी से सवाल करने या किसी की बात का जवाब देने की उस की आदत नहीं थी. राजेश के गुस्से से वह बहुत डरती थी. उसे नाराज करने की वह हिम्मत नहीं कर पाती थी.

बच्चे अब बड़े हो गए थे. पर अभी भी उस के मन की, इच्छा की, विचारों की, पसंदनापसंद की घर में कोई कीमत नहीं थी. इसलिए इधर वह जब रोजाना शाम को पार्क में, पड़ोस में, सहेलियों के यहां और महिलाओं के समूह की बैठकों में जाने लगी तो राजेश को ही नहीं, बेटी और बहुओं को भी हैरानी हुई.

आखिर एक दिन शाम को खाते समय बेटे ने कह ही दिया, ‘‘मम्मी, आजकल आप रोजाना शाम को कहीं न कहीं जाती हैं. आप तो एकदम से मौडर्न हो गई हैं.’’उस समय संविधा कुछ नहीं बोली. अगले दिन वह जाने की तैयारी कर रही थी, तभी बहू ने कहा, ‘‘मम्मी, आज आप बाहर न जाएं तो ठीक है. आप बच्चे को संभाल लें, मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘आज तो मुझे बहुत जरूरी काम है, इसलिए मैं घर में नहीं रुक सकती,’’ संविधा ने कहा.उस दिन संविधा को कोई भी जरूरी काम नहीं था. लेकिन उस ने तो मन ही मन तय कर लिया था कि अब उस से कोई भी काम बिना उस की मरजी के नहीं करवा सकता. उस का समय अब उस के लिए है. कोई भी काम अब वह अपनी इच्छानुसार करेगी. वह किसी का भी काम उस की इच्छानुसार नहीं करेगी. कोई भी अब उसकी मरजी के खिलाफ अपना काम नहीं करवा सकता, क्योंकि उस की भी अपनी इच्छाएं हैं. अब वह किसी के हाथ से चलने वाली कठपुतली बन कर नहीं रहेगी.

इसलिए जब उस रात सोते समय राजेश ने कहा, ‘‘संविधा टिकट आ गए हैं, तैयारी कर लो. इस शनिवार की रात हम काशी चल रहे हैं. तुम्हें भी साथ चलना है. उधर से ही प्रयागराज और अयोध्या घूम लेंगे.’’तब संविधा ने पूरी दृढ़ता के साथ कहा, ‘‘मैं आप के साथ नहीं जाऊंगी. मेरी बहन अणिमा की तबीयत खराब है. मैं उस से मिलने जाऊंगी. आप को काशी, प्रयागराज और अयोध्या जाना है, आप अकेले ही घूम आइए.’’

‘‘पर मैं तो तुम्हारे साथ जाना चाहता था, उस का क्या होगा?’’ राजेश ने झल्ला कर कहा.‘‘आप जाइए न, मैं कहां आप को रोक रही हूं,’’ संविधा ने शांति से कहा.‘‘इधर से तुम्हें हो क्या गया है? जब जहां मन होता है चली जाती हो, आज मुझ से जबान लड़ा रही हो. अचानक तुम्हारे अंदर इतनी हिम्मत कहां से आ गई? मैं ऐसा नहीं होने दूंगा. तुम्हें मेरे साथ काशी चलना ही होगा,’’ राजेश ने चिल्ला कर कहा.

गुस्से से उस का चेहरा लालपीला हो गया था. संविधा जैसे कुछ सुन ही नहीं रही थी. वह एकदम निर्विकार भाव से बैठी थी. थोड़ी देर में राजेश कुछ शांत हुआ. संविधा का यह रूप इस से पहले उस ने पहले कभी नहीं देखा था. हमेशा उस के अनुकूल, शांत, गंभीर, आज्ञाकारी, उस की मरजी के हिसाब से चलने वाली पत्नी को आज क्या हो गया है? संविधा का यह नया रूप देख कर वह हैरान था.

अपनी आवाज में नरमी लाते हुए राजेश ने कहा, ‘‘संविधा, तुम्हें क्या चाहिए? तुम्हें आज यह क्या हो गया है? मुझ से कोई गलती हो गई है क्या? तुम कहो तो…’’ राजेश ने संविधा को समझाने की कोशिश की.

‘‘गलती आप की नहीं मेरी है. मैं ने ही इतने सालों तक गलती की है, जिसे अब सुधारना चाहती हूं. मेरा समग्र अस्तित्व अब तक दूसरों की मुट्ठी में बंद रहा. अब मुझे उस से बाहर आना है. मुझे आजादी चाहिए. अब मैं मुक्त हवा में सांस लेना चाहती हूं. इस गुलामी से बेचैन रहती हूं.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं,‘‘ राजेश ने कहा, ‘‘तुम्हें दुख क्यों है? घर है, बच्चे हैं, पैसा है, मैं हूं,’’ संविधा के करीब आते हुए राजेश ने बात पूरी की.‘‘छोटी थी तो मांबाप की मुट्ठी में रहना पड़ा. उन्होंने जैसा कहा, वैसा करना पड़ा. जो खिलाया, वह खाया. जो पहनने को दिया, वह पहना. इस तरह नहीं करना, उस तरह नहीं करना, यहां नहीं जाना, वहां नहीं जाना. किस से बात करनी है और किस से नहीं करनी है, यह सब मांबाप तय करते रहे. हमेशा यही सब सुनती रही. शब्दों के भाव एक ही रहे, मात्र कहने वाले बदल गए. कपड़े सिलाते समय मां कहती कि लंबाई ज्यादा ही रखना, ज्यादा खुले गले का मत बनवाना. सहेली के घर से आने में जरा देर हो जाती, फोन पर फोन आने लगते, मम्मीपापा दोनों चिल्लाने लगते.

“इंटर पास किया, कालेज गई, कालेज का 1 ही साल पूरा हुआ था कि मेरी शादी की चिंता सताने लगी. पड़ोस में रहने वाला रवि हमारे कालेज में साथ ही पढ़ता था. वह मेरे घर के सामने से ही कालेज आताजाता था.”एक दिन मैं ने उसे घर बुला कर बातें क्या कर लीं, बुआ ने मेरी मां से कहा कि भाभी, संविधा अब बड़ी हो गई है, इस के लिए कोई अच्छा सा घर और वर ढूंढ़ लो. उस के बाद क्या हुआ, आप को पता ही है. उन्होंने मेरे लिए घर और वर ढूंढ़ लिया. उन की इच्छा के अनुसार यही मेरे लिए ठीक था.’’

एक गहरी सांस ले कर संविधा ने आगे कहा, ‘‘ऐसा नहीं था कि मैं ने शादी के लिए रोका नहीं. मैं ने पापा से एक बार नहीं कई बार कहा कि मुझे मेरी पढ़ाई पूरी कर लेने दो, पर पापा कहां माने. उहोंने कहा कि बेटा, तुम्हें कहां नौकरी करनी है… जितनी पढ़ाई की है, उसी में अच्छा लङका मिल गया है. अब आगे पढ़ने की क्या जरूरत है? हम जो कर रहे हैं, तेरी भलाई के लिए ही कर रहे है.”

पल भर चुप रहने के बाद संविधा ने आगे कहा, ‘‘जब मैं इस घर में आई, तब मेरी उम्र 18 साल थी. तब से मैं यही सुन रही हूं, ‘संविधा ऐसा करो, वैसा करो.’ आप ही नहीं, बच्चे भी यही मानते हैं कि मुझे उन की मरजी के अनुसार जीना है. अब मैं अपना जीवन, अपना मन, अपने अस्तित्व को किसी अन्य की मुट्ठी में नहीं रहने देना चाहती. अब मुझे मुक्ति चाहिए. अब मैं अपनी इच्छा के अनुसार जीना चाहती हूं. मुझे मेरा अपना अस्तित्व चाहिए.’’

‘‘संविधा, मैं ने तुम से प्रेम किया है. तुम्हें हर सुखसुविधा देने की हमेशा कोशिश की है.’’‘‘हां राजेश, तुम ने प्यार किया है, पर अपनी दृष्टि से. आप ने अच्छे कपड़ेगहने दिए, पर वे सब आप की पसंद के थे. मुझे क्या चाहिए, मुझे क्या अच्छा लगता है, यह आप ने कभी नहीं सोचा. आप ने शायद इस की जरूरत ही नहीं महसूस की.’’

‘‘इस घर में तुम्हें क्या तकलीफ है?’’ हैरानी से राजेश ने पूछा, ‘‘तुम यह सब क्या कह रही हो, मेरी समझ में नहीं आ रहा.’’

‘‘मेरा दुख आप की समझ में नहीं आएगा,’’ संविधा ने दृढ़ता से कहा, ‘‘घर के इस सुनहरे पिंजरे में अब मुझे घबराहट यानी घुटन सी होने लगी है. मेरा प्राण, मेरी समग्र चेतना बंधक है. आप सब की मुट्ठी खोल कर अब मैं उड़ जाना चाहती हूं. मेरा मन, मेरी आत्मा, मेरा शरीर अब मुझे वापस चाहिए.’’

शादी के बाद आज पहली बार संविधा इतना कुछ कह रही थी, ‘‘हजारों साल पहले अयोध्या के राजमहल में रहने वाली उर्मिला से उस के पति लक्ष्मण या परिवार के किसी अन्य सदस्य ने वनवास जाते समय पूछा था कि उस की क्या इच्छा है? किसी ने उस की अनुमति लेने की जरूरत महसूस की थी? तब उर्मिला ने 14 साल कैसे बिताए होंगे, आज भी कोई इस बारे में नहीं विचार करता. उसी महल में सीता महारानी थीं. उन्हें राजमहल से निकाल कर वन में छोड़ आया गया जबकि वह गर्भवती थीं. क्या सीता की अनुमति ली गई थी या बताया गया था कि उन्हें राजमहल से निकाला जा रहा है?

“मेरे साथ भी वैसा ही हुआ है. मुझे मात्र पत्नी या मां के रूप में देखा गया. पर अब मैं मात्र एक पत्नी या मां के रूप में ही नहीं, एक जीतेजागते, जिस के अंदर एक धड़कने वाला दिल है, उस इंसान के रूप में जीना चाहती हूं. अब मैं किसी की मुट्ठी में बंद नहीं रहना चाहती.’’‘‘तो अब इस उम्र में घरपरिवार छोड़ कर कहां जाओगी?’’ राजेश ने पूछा.

‘‘अब आप को इस की चिंता करने की जरूरत नहीं है. इस उम्र में किसी के साथ भागूंगी तो है नहीं. मुझे तो सेवा ही करनी है. अब तक गुलाम बन कर करती रही, जहां अपने मन से कुछ नहीं कर सकती थी. पर अब स्वतंत्र हो कर सेवा करना चाहती हूं.

“मेरी सहेली सुमन को तो तुम जानते ही हो, पिछले साल उन के पति की मौत हो गई थी. उन की अपनी कोई औलाद नहीं थी, इसलिए उन की करोड़ों की जायदाद पर उन के रिश्तेदारों की नजरें गड़ गईं. जल्दी ही उन की समझ में आ गया कि उन के रिश्तेदारों को उन से नहीं, उन की करोड़ो की जायदाद से प्यार है. इसलिए उन्होंने किसी को साथ रखने के बजाय ट्रस्ट बना कर अपनी उस विशाल कोठी में वृद्धाश्रम के साथसाथ अनाथाश्रम खोल दिया.

‘‘उन का अपना खर्च तो मिलने वाली पेंशन से ही चल जाता था, वद्धों एवं अनाथ बच्चों के खर्च के लिए उन्होंने उसी कोठी में डे चाइल्ड केयर सैंटर भी खेल दिया. वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम और चाइल्ड केयर सैंटर एकसाथ खोलने में उन का मकसद यह था कि जहां बच्चों को दादादादी का प्यार मिलता रहेगा, वहीं आश्रम में रहने वाले वृद्ध कभी खुद को अकेला नहीं महसूस करेंगे. उन का समय बच्चों के साथ आराम से कट जाएगा, साथ ही उन्हें नातीपोतों की कमी नहीं खलेगी,’’ इतना कह कर संविधा पल भर के लिए रुकी.

राजेश की नजरें संविधा के ही चेहरे पर टिकी थीं. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक संविधा एकदम से कैसे बदल गई. संविधा ने डाइनिंग टेबल पर रखे जग से गिलास में पानी लिया और पूरा गिलास खाली कर के आगे बोली, ‘‘दिन में नौकरी करने वाले कपल को अपने बच्चों की बड़ी चिंता रहती है. पर सुमन के डे चाइल्ड केयर सैंटर में अपना बच्चा छोड़ कर वे निश्चिंत हो जाते हैं, क्योंकि वहां उन की देखभाल के लिए दादादादी जो होते हैं. इस के अलावा सुमन की उस कोठी में बच्चों को खेलने के निए बड़ा सा लौन तो है ही, उन्होंने बच्चों के लिए तरहतरह के आधुनिक खिलौनों की भी व्यवस्था कर रखी है. दिन में बच्चों को दिया जाने वाली खाना भी शुद्ध और पौष्टिक होता है. इसलिए उन के डे चाइल्ड केयर सैंटर में बच्चों की संख्या काफी है. जिस से उन्हें वृद्धाश्रम और अनाथाश्रम चलाने में जरा भी दिक्कत नहीं होती. आज सुबह मैं वहीं गई थी. वहां मुझे बहुत अच्छा लगा. इसलिए अब मैं वहीं जा कर सुमन के साथ उन बूढ़ों की और बच्चों की सेवा करना चाहती हूं, उन्हें प्यार देना चाहती हूं, जिन का अपना कोई नहीं है.’’

राजेश संविधा की बातें ध्यान से सुन रहा था. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि वह जो सुन रहा है, वह सब कहने वाली उस की पत्नी संविधा है. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब सच है या दुस्वप्न.

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जीवन संध्या में: कर्तव्यों को पूरा कर क्या साथ हो पाए प्रभाकर और पद्मा?

तनहाई में वे सिर झुकाए आरामकुरसी पर आंखें मूंदे लेटे हुए हैं. स्वास्थ्य कमजोर है आजकल. अपनी विशाल कोठी को किराए पर दे रखा है उन्होंने. अकेली जान के लिए 2 कमरे ही पर्याप्त हैं. बाकी में बच्चों का स्कूल चलता है.

बच्चों के शोरगुल और अध्यापिकाओं की चखचख से अहाते में दिनभर चहलपहल रहती है. परंतु शाम के अंधेरे के साथ ही कोठी में एक गहरा सन्नाटा पसर जाता है. आम, जामुन, लीची, बेल और अमरूद के पेड़ बुत के समान चुपचाप खड़े रहते हैं.

नौकर छुट्टियों में गांव गया तो फिर वापस नहीं आया. दूसरा नौकर ढूंढ़े कौन? मलेरिया बुखार ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा है. एक गिलास पानी के लिए तरस गए हैं. वे इतनी विशाल कोठी के मालिक हैं, मगर तनहा जिंदगी बिताने के लिए मजबूर हैं.

जिह्वा की मांग है कि कोई चटपटा व्यंजन खाएं, मगर बनाए कौन? अपने हाथों से कभी कुछ खास बनाया नहीं. नौकर था तो जो कच्चापक्का बना कर सामने रख देता, वे उसे किसी तरह गले के नीचे उतार लेते थे. बाजार जाने की ताकत नहीं थी.

स्कूल में गरमी की छुट्टियां चल रही हैं. रात में चौकीदार पहरा दे जाता है. पासपड़ोसी इस इलाके में सभी कोठी वाले ही हैं. किस के घर क्या हो रहा है, किसी को कोई मतलब नहीं.

आज अगर वे इसी तरह अपार धनसंपदा रहते हुए भी भूखेप्यासे मर जाएं तो किसी को कुछ पता भी नहीं चलेगा. उन का मन भर आया. डाक्टर बेटा सात समुंदर पार अपना कैरियर बनाने गया है. उसे बूढ़े बाप की कोई परवा नहीं. पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने कितनी तकलीफ और यत्न से बच्चों को पाला है, वही जानते हैं. कभी भूल कर भी दूसरी शादी का नाम नहीं लिया. सौतेली मां के किस्से सुन चुके हैं. बेटी सालछह महीने में एकदो दिन के लिए आ जाती है.

‘बाबूजी, आप मेरे साथ चल कर रहिए,’ बेटी पूजा बड़े आग्रह से कहती.

‘क्यों, मुझे यहां क्या कमी है,’ वे फीकी हंसी हंसते .

‘कमी तो कुछ नहीं, बाबूजी. आप बेटी के पास नहीं रहना चाहते तो भैया के पास अमेरिका ही चले जाइए,’ बेटी की बातों पर वे आकाश की ओर देखने लगते.

‘अपनी धरती, पुश्तैनी मकान, कारोबार, यहां तेरी अम्मा की यादें बसी हुई हैं. इन्हें छोड़ कर सात समुंदर पार कैसे चला जाऊं? यहीं मेरा बचपन और जवानी गुजरी है. देखना, एक दिन तेरा डाक्टर भाई परिचय भी वापस अपनी धरती पर अवश्य आएगा.’

वे भविष्य के रंगीन सपने देखने लगते.

फाटक खुलने की आवाज पर वे चौंक उठे. दिवास्वप्न की कडि़यां बिखर गईं. ‘कौन हो सकता है इस समय?’

चौकीदार था. साथ में पद्मा थी.

‘‘अरे पद्मा, आओ,’’ प्रभाकरजी का चेहरा खिल उठा. पद्मा उन के दिवंगत मित्र की विधवा थी. बहुत ही कर्मठ और विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य न खोने वाली महिला.

‘‘तुम्हारी तबीयत अब कैसी है?’’ बोलते हुए वह कुरसी खींच कर बैठ गई.

‘‘तुम्हें कैसे पता कि मैं बीमार हूं?’’ वे आश्चर्य से बोले.

‘‘चौकीदार से. बस, भागी चली आ रही हूं. इसी से पता चला कि रामू भी घर चला गया है. मुझे  क्या गैर समझ रखा है? खबर क्यों नहीं दी?’’ पद्मा उलाहने देने लगी.

वे खामोशी से सुनते रहे. ये उलाहने उन के कानों में मधुर रस घोल रहे थे, तप्त हृदय को शीतलता प्रदान कर रहे थे. कोई तो है उन की चिंता करने वाला.

‘‘बोलो, क्या खाओगे?’’

‘‘पकौडि़यां, करारी चटपटी,’’ वे बच्चे की तरह मचल उठे.

‘‘क्या? तीखी पकौडि़यां? सचमुच सठिया गए हो तुम. भला बीमार व्यक्ति भी कहीं तलीभुनी चीजें खाता है?’’ पद्मा की पैनी बातों की तीखी धार उन के हृदय को चुभन के बदले सुकून प्रदान कर रही थी.

‘‘अच्छा, सुबह आऊंगी,’’ उन्हें फुलके और परवल का झोल खिला कर पद्मा अपने घर चली गई.

प्रभाकरजी का मन भटकने लगा. पूरी जवानी उन्होंने बिना किसी स्त्री के काट दी. कभी भी सांसारिक विषयवासनाओं को अपने पास फटकने नहीं दिया. कर्तव्य की वेदी पर अपनी नैसर्गिक कामनाओं की आहुति चढ़ा दी. वही वैरागी मन आज साथी की चाहना कर रहा है.

यह कैसी विडंबना है? जब बेटा 3 साल और बेटी 3 महीने की थी, उसी समय पत्नी 2 दिनों की मामूली बीमारी में चल बसी. उन्होंने रोते हुए दुधमुंहे बच्चों को गले से लगा लिया था. अपने जीवन का बहुमूल्य समय अपने बच्चों की परवरिश पर न्योछावर कर दिया. बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई, शादी की, विदेश भेजा. बेटी को पिता की छाया के साथसाथ एक मां की तरह स्नेह व सुरक्षा प्रदान की. आज वह पति के घर में सुखी दांपत्य जीवन व्यतीत कर रही है.

पद्मा भी भरी जवानी में विधवा हो गई थी. दोनों मासूम बेटों को अपने संघर्ष के बल पर योग्य बनाया. दोनों बड़े शहरों में नौकरी करते हैं. पद्मा बारीबारी से बेटों के पास जाती रहती है. मगर हर घर की कहानी कुछ एक जैसी ही है. योग्य होने पर कमाऊ बेटों पर मांबाप से ज्यादा अधिकार उन की पत्नी का हो जाता है. मांबाप एक फालतू के बोझ समझे जाने लगते हैं.

पद्मा में एक कमी थी. वह अपने बेटों पर अपना पहला अधिकार समझती थी. बहुओं की दाब सहने के लिए वह तैयार नहीं थी, परिणामस्वरूप लड़झगड़ कर वापस घर चली आई. मन खिन्न रहने लगा. अकेलापन काटने को दौड़ता, अपने मन की बात किस से कहे.

प्रभाकर और पद्मा जब इकट्ठे होते तो अपनेअपने हृदय की गांठें खोलते, दोनों का दुख एकसमान था. दोनों अकेलेपन से त्रस्त थे और मन की बात कहने के लिए उन्हें किसी साथी की तलाश थी शायद.

प्रभाकरजी स्वस्थ हो गए. पद्मा ने उन की जीजान से सेवा की. उस के हाथों का स्वादिष्ठ, लजीज व पौष्टिक भोजन खा कर उन का शरीर भरने लगा.

आजकल पद्मा दिनभर उन के पास ही रहती है. उन की छोटीबड़ी जरूरतों को दौड़भाग कर पूरा करने में अपनी संतानों की उपेक्षा का दंश भूली हुई है. कभीकभी रात में भी यहीं रुक जाती है.

हंसीठहाके, गप में वे एकदूसरे के कब इतने करीब आ गए, पता ही नहीं चला. लौन में बैठ कर युवकों की तरह आपस में चुहल करते. मन में कोई बुरी भावना नहीं थी, परंतु जमाने का मुंह वे कैसे बंद करते? लोग उन की अंतरंगता को कई अर्थ देने लगे. यहांवहां कई तरह की बातें उन के बारे में होने लगीं. इस सब से आखिर वे कब तक अनजान रहते. उड़तीउड़ती कुछ बातें उन तक भी पहुंचने लगीं.

2 दिनों तक पद्मा नहीं आई. प्रभाकरजी का हृदय बेचैन रहने लगा. पद्मा के सुघड़ हाथों ने उन की अस्तव्यस्त गृहस्थी को नवजीवन दिया था. भला जीवनदाता को भी कोई भूलता है. दिनभर इंतजार कर शाम को पद्मा के यहां जा पहुंचे. कल्लू हलवाई के यहां से गाजर का हलवा बंधवा लिया. गाजर का हलवा पद्मा को बहुत पसंद है.

गलियों में अंधेरा अपना साया फैलाने लगा था. न रोशनी, न बत्ती, दरवाजा अंदर से बंद था. ठकठकाने पर पद्मा ने ही दरवाजा खोला.

‘‘आइए,’’ जैसे वह उन का ही इंतजार कर रही थी. पद्मा की सूजी हुई आंखें देख कर प्रभाकर ठगे से रह गए.

‘‘क्या बात है? खैरियत तो है?’’ कोई जवाब न पा कर प्रभाकर अधीर हो उठे. अपनी जगह से उठ पद्मा का आंसुओं से लबरेज चेहरा उठाया. तकिए के नीचे से पद्मा ने एक अंतर्देशीय पत्र निकाल कर प्रभाकर के हाथों में पकड़ा दिया.

कोट की ऊपरी जेब से ऐनक निकाल कर वे पत्र पढ़ने लगे. पत्र पढ़तेपढ़ते वे गंभीर हो उठे, ‘‘ओह, इस विषय पर तो हम ने सोचा ही नहीं था. यह तो हम दोनों पर लांछन है. यह चरित्रहनन का एक घिनौना आरोप है, अपनी ही संतानों द्वारा,’’ उन का चेहरा तमतमा उठा. उठ कर बाहर की ओर चल पड़े.

‘‘तुम तो चले जा रहे हो, मेरे लिए कुछ सोचा है? मुझे उन्हें अपनी संतान कहते हुए भी शर्म आ रही है.’’

पद्मा हिलकहिलक कर रोने लगी. प्रभाकर के बढ़ते कदम रुक गए. वापस कुरसी पर जा बैठे. कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था.

‘‘क्या किया जाए? जब तुम्हारे बेटों को हमारे मिलनेजुलने में आपत्ति है, इस का वे गलत अर्थ लगाते हैं तो हमारा एकदूसरे से दूर रहना ही बेहतर है. अब बुढ़ापे में मिट्टी पलीद करानी है क्या?’’ उन्हें अपनी ही आवाज काफी दूर से आती महसूस हुई.

पिछले एक सप्ताह से वे पद्मा से नहीं मिल रहे हैं. तबीयत फिर खराब होने लगी है. डाक्टर ने पूर्णआराम की सलाह दी है. शरीर को तो आराम उन्होंने दे दिया है पर भटकते मन को कैसे विश्राम मिले?

पद्मा के दोनों बेटों की वैसे तो आपस में बिलकुल नहीं पटती है, मगर अपनी मां के गैर मर्द से मेलजोल पर वे एकमत हो आपत्ति प्रकट करने लगे थे.

पता नहीं उन के किस शुभचिंतक ने प्रभाकरजी व पद्मा के घनिष्ठ संबंध की खबर उन तक पहुंचा दी थी.

प्रभाकरजी का रोमरोम पद्मा को पुकार रहा था. जवानी उन्होंने दायित्व निर्वाह की दौड़भाग में गुजार दी थी. परंतु बुढ़ापे का अकेलापन उन्हें काटने दौड़ता था. यह बिना किसी सहारे के कैसे कटेगा, यह सोचसोच कर वे विक्षिप्त से हो जाते. कोई तो हमसफर हो जो उन के दुखसुख में उन का साथ दे, जिस से वे मन की बातें कर सकें, जिस पर पूरी तरह निर्भर हो सकें. तभी डाकिए ने आवाज लगाई :

‘‘चिट्ठी.’’

डाकिए के हाथ में विदेशी लिफाफा देख कर वे पुलकित हो उठे. जैसे चिट्ठी के स्थान पर स्वयं उन का बेटा परिचय खड़ा हो. सच, चिट्ठी से आधी मुलाकात हो जाती है. परिचय ने लिखा है, वह अगले 5 वर्षों तक स्वदेश नहीं आ सकता क्योंकि उस ने जिस नई कंपनी में जौइन किया है, उस के समझौते में एक शर्त यह भी है.

प्रभाकरजी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. उन की खुशी काफूर हो गई. वे 5 वर्ष कैसे काटेंगे, सिर्फ यादों के सहारे? क्या पता वह 5 वर्षों के बाद भी भारत आएगा या नहीं? स्वास्थ्य गिरता जा रहा है. कल किस ने देखा है. वादों और सपनों के द्वारा किसी काठ की मूरत को बहलाया जा सकता है, हाड़मांस से बने प्राणी को नहीं. उस की प्रतिदिन की जरूरतें हैं. मन और शरीर की ख्वाहिशें हैं. आज तक उन्होंने हमेशा अपनी भावनाओं पर विजय पाई है, मगर अब लगता है कि थके हुए तनमन की आकांक्षाओं को यों कुचलना आसान नहीं होगा.

बेटी ने खबर भिजवाई है. उस के पति 6 महीने के प्रशिक्षण के लिए दिल्ली जा रहे हैं. वह भी साथ जा रही है. वहां से लौट कर वह पिता से मिलने आएगी.

वाह री दुनिया, बेटा और बेटी सभी अपनीअपनी बुलंदियों के शिखर चूमने की होड़ में हैं. बीमार और अकेले पिता के लिए किसी के पास समय नहीं है. एक हमदर्द पद्मा थी, उसे भी उस के बेटों ने अपने कलुषित विचारों की लक्ष्मणरेखा में कैद कर लिया. यह दुनिया ही मतलबी है. यहां संबंध सिर्फ स्वार्थ की बुनियाद पर विकसित होते हैं. उन का मन खिन्न हो उठा.

‘‘प्रभाकर, कहां हो भाई?’’ अपने बालसखा गिरिधर की आवाज पहचानने में उन्हें भला क्या देर लगती.

‘‘आओआओ, कैसे आना हुआ?’’

‘‘बिटिया की शादी के सिलसिले में आया था. सोचा तुम से भी मिलता चलूं,’’ गिरिधरजी का जोरदार ठहाका गूंज उठा.

हंसना तो प्रभाकरजी भी चाह रहे थे, परंतु हंसने के उपक्रम में सिर्फ होंठ चौड़े हो कर रह गए. गिरिधर की अनुभवी नजरों ने भांप लिया, ‘दाल में जरूर कुछ काला है.’

शुरू में तो प्रभाकर टालते रहे, पर धीरेधीरे मन की परतें खुलने लगीं. गिरिधर ने समझाया, ‘‘देखो मित्र, यह समस्या सिर्फ तुम्हारी और पद्मा की नहीं है बल्कि अनेक उस तरह के विधुर  और विधवाओं की है जिन्होंने अपनी जवानी तो अपने कर्तव्यपालन के हवाले कर दी, मगर उम्र के इस मोड़ पर जहां न वे युवा रहते हैं और न वृद्ध, वे नितांत अकेले पड़ जाते हैं. जब तक उन के शरीर में ताकत रहती है, भुजाओं में सारी बाधाओं से लड़ने की हिम्मत, वे अपनी शारीरिक व मानसिक मांगों को जिंदगी की भागदौड़ की भेंट चढ़ा देते हैं.

‘‘बच्चे अपने पैरों पर खड़े होते ही अपना आशियाना बसा लेते हैं. मातापिता की सलाह उन्हें अनावश्यक लगने लगती है. जिंदगी के निजी मामले में हस्तक्षेप वे कतई बरदाश्त नहीं कर पाते. इस के लिए मात्र हम नई पीढ़ी को दोषी नहीं ठहरा सकते. हर कोई अपने ढंग से जीवन बिताने के लिए स्वतंत्र होता है. सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ना ही तो दुनियादारी है.’’

‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है, परंतु पद्मा और मैं दोनों बिलकुल अकेले हैं. अगर एकसाथ मिल कर हंसबोल लेते हैं तो दूसरों को आपत्ति क्यों होती है?’’ प्रभाकरजी ने दुखी स्वर में कहा.

‘‘सुनो, मैं सीधीसरल भाषा में तुम्हें एक सलाह देता हूं. तुम पद्मा से शादी क्यों नहीं कर लेते?’’ उन की आंखों में सीधे झांकते हुए गिरधर ने सामयिक सुझाव दे डाला.

‘‘क्या? शादी? मैं और पद्मा से? तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? लोग क्या कहेंगे? हमारी संतानों पर इस का क्या असर पड़ेगा? जीवन की इस सांध्यवेला में मैं विवाह करूं? नहींनहीं, यह संभव नहीं,’’ प्रभाकरजी घबरा उठे.

‘‘अब लगे न दुहाई देने दुनिया और संतानों की. यही बात लोगों और पद्मा के बेटों ने कही तो तुम्हें बुरा लगा. विवाह करना कोई पाप नहीं. जहां तक जीवन की सांध्यवेला का प्रश्न है तो ढलती उम्र वालों को आनंदमय जीवन व्यतीत करना वर्जित थोड़े ही है. मनुष्य जन्म से ले कर मृत्यु तक किसी न किसी सहारे की तलाश में ही तो रहता है. पद्मा और तुम अपने पवित्र रिश्ते पर विवाह की सामाजिक मुहर लगा लो. देखना, कानाफूसियां अपनेआप बंद हो जाएंगी. रही बात संतानों की, तो वे भी ठंडे दिमाग से सोचेंगे तो तुम्हारे निर्णय को बिलकुल उचित ठहराएंगे. कभीकभी इंसान को निजी सुख के लिए भी कुछ करना पड़ता है. कुढ़ते रह कर तो जीवन के कुछ वर्ष कम ही किए जा सकते हैं. स्वाभाविक जीवनयापन के लिए यह महत्त्वपूर्ण निर्णय ले कर तुम और पद्मा समाज में एक अनुपम और प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत करो.’’

‘‘क्या पद्मा मान जाएगी?’’

‘‘बिलकुल. पर तुम पुरुष हो, पहल तो तुम्हें ही करनी होगी. स्त्री चाहे जिस उम्र की हो, उस में नारीसुलभ लज्जा तो रहती ही है.’’

गिरिधर के जाने के बाद प्रभाकर एक नए आत्मविश्वास के साथ पद्मा के घर की ओर चल पड़े, अपने एकाकी जीवन को यथार्थ के नूतन धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए. जीवन की सांध्यवेला में ही सही, थोड़ी देर के लिए ही पद्मा जैसी सहचरी का संगसाथ और माधुर्य तो मिलेगा. जीवनसाथी मनोनुकूल हो तो इंसान सारी दुनिया से टक्कर ले सकता है. इस छोटी सी बात में छिपे गूढ़ अर्थ को मन ही मन गुनगुनाते वे पद्मा का बंद दरवाजा एक बार फिर खटखटा रहे थे.

छठी इंद्रिय- छोटी उम्र के प्रत्यूष के साथ गीत के रिश्ते की कहानी

अलार्मकी आवाज से गीत की नींद खुल गई. कल की ड्रिंक का हैंगओवर था, इसलिए सिर भारी था. उन्होंने ग्रीन टी बना कर पी और फिर मौर्निंग वाक के लिए चली गईं. सुबह की ठंडी हवा और कुछ लोगों से हायहैलो कर के ताजगी आ जाएगी. फिर तो वही रोज का रूटीन कालेज, लैक्चर बस…

कल से नैना उन की सहेली उन के मनमस्तिष्क से हट ही नहीं रही थी. उन की कहानियों की आलोचना करतेकरते कैसे अपना आपा खो बैठती थी.

‘‘गीत, तुम्हारी कहानी की नायिका पुरुष के बिना अधूरी क्यों रहती है?’’

‘‘नैना, मेरे विचार से स्त्रीपुरुष दोनों एकदूसरे के पूरक हैं. एकदूसरे के बिना अधूरे हैं.’’

वह नाराज हो कर बोली, ‘‘नहीं गीत, मैं नहीं मानती. स्त्री अपनी इच्छाशक्ति से आकाश को भी छू सकती है. सफल होने के लिए दृढ़इच्छा जरूरी है.’’

बड़ीबड़ी बातें करने वाली नैना पति का अवलंबन पाते ही सबकुछ भूल गई और पिया का घर प्यारा लगे कहती हुई चली गई.

नैना के निर्णय से गीत का मन खुश था. वे मन ही मन मुसकरा उठीं और फिर वहीं बैंच पर बैठ गईं. बच्चों को स्कैटिंग करता देखना उन्हें अच्छा लग रहा था. वे बच्चों में खोई हुई थीं, तभी बैंच पर एक आकर्षक युवक आ कर बैठ गया. उन्होंने उस की ओर देखा तो वह जोर से मुसकराया. उस की उम्र 30-32 साल होगी.

वह मुसकराते हुए बोला, ‘‘माई सैल्फ प्रत्यूष.’’

‘‘माई सैल्फ गीत.’’

‘‘वेरी म्यूजिकल नेम.’’

‘‘थैंक्यू.’’

उस का चेहरा और पर्सनैलिटी देख गीत चौंक उठी थीं, जिस पीयूष की यादों को वे अपने मन की स्लेट से धोपोंछ कर साफ कर चुकी थीं, उस व्यक्ति ने आज उन यादों को पुनर्जीवित कर दिया था.

वही कदकाठी, वही मुखाकृति, वही चालढाल, वही अंदाज और चेहरे पर लिखी मुसकान तथा वही लापरवाह अंदाज.

गीत डिगरी कालेज में लैक्चरर थीं. उम्र

38 साल थी, लेकिन लगती 30-32 की थीं. रूपमाधुर्य और सौंदर्य की वे धनी थीं. गोरा संगमरमरी रंग, गोल चेहरे पर कंटीली आकर्षक आंखें और होंठ के किनारे पर कुदरत प्रदत्त तिल उन के सौंदर्य को मादक बना देता था.

प्रत्यूष को देखते ही गीत को अपने कालेज के दिन याद आ गए. जब वे और पीयूष यूनिवर्सिटी की लवलेन में एकदूसरे से मिला करते थे. कौफीहाउस के कोने वाली मेज पर बैठ कर एक कौफी के कप के साथ घंटों गुजारा करते थे. कभी किसी पेपर के प्रश्न डिस्कस करते तो कभी अपने भविष्य के सपने संजोते. लेकिन एक हादसे ने क्षणभर में सबकुछ उलटपुलट कर दिया.

एक ऐक्सीडैंट में पापामम्मी दोनों ने एकसाथ दुनिया से विदा ले ली. उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा. वाणी 12वीं कक्षा में तो किंशुक 10वीं कक्षा में था. ऐसी स्थिति में भला वे अपनी खुशियों के बारे में कैसे सोच सकती थीं. उन्होंने पीयूष के प्यार को नकार दिया. यद्यपि वह उन के साथ जिम्मेदारी निभाने को तैयार थे.

अपने जीवन के लक्ष्य को बदल कर वे डिगरी कालेज में लैक्चरर बन गईं. कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गईं, कई पत्रिकाओं में नियमित कौलम लिखने लगीं. वाणी और किंशुक दोनों ही विदेश में सैटल हो गए. अब उन के लिए समस्या है उन के मन के रीतेपन की. उन्हें अपना अकेलापन सालता रहता है, अंदर ही अंदर कचोटता रहता है.

प्रत्यूष से रोज मिलनाजुलना होने लगा. मुसकराहट बातचीत में बदल गई. दोनों को एकदूसरे का साथ मनभावन लगने लगा. उस ने बातोंबातों में अपनी दर्दभरी कहानी बताई कि उस के पिता बचपन में ही एक ऐक्सीडैंट में उसे अकेला कर गए थे. मां ने दूसरी शादी कर ली. उन के पास पहले से एक बेटा था, इसलिए उसे न तो कभी मां का प्यार मिला और न पिता का. मां हर समय डरीसहमी रहतीं और वह स्वयं को अवाछिंत सा महसूस करता. हां, पढ़ने में तेज था, इसलिए इंजीनियर बन गया. यही उस के जीवन की पूंजी है. अब तो उन लोगों से उस का कोई रिश्ता नहीं है. इतनी बड़ी दुनिया में बिलकुल अकेला है, उस की आंखें डबडबा उठी थीं.

प्रत्यूष की कहानी सुन कर गीत के मन में उस के प्रति सहानुभूति और प्यार दोगुना बढ़ गया.

एक दिन उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारा फ्लैट किस फ्लोर में है?’’

‘‘अरे मेरा क्या? वन रूम फ्लैट किराए पर ले रखा है. शांतनु के साथ शेयर कर के रह रहा हूं.’’

पार्किंग में उसे किसी लड़के के साथ देख उस की बातों पर विश्वास हो गया था.

जौगिंग आपस में मिलने का बहाना बन गया. उन्हें अपनी जिंदगी हसीन लगने लगी थी. दोनों बेंच पर बैठ कर आपस में कुछ कहते, कुछ सुनते.

महानगरों की जीवनशैली है कि कोई किसी के व्यक्तिगत जीवन में रुचि नहीं लेता. छोटे शहरों में तुरंत लोगों को गौसिप का चटपटा विषय मिल जाता है और एकदूसरे से कहतेसुनते चरित्र पर लांछन तक बात पहुंच जाती है.

प्रत्यूष कभी लिफ्ट में तो कभी नीचे ग्राउंड में आ फिर पार्किंग में टकरा ही जाता. उस का आकर्षक व्यक्तित्व और निश्छल मुसकान से ओतप्रोत ‘हाय ब्यूटीफुल’, ‘हाय स्मार्टी’ सुन कर वे प्रसन्न हो उठतीं. फिर वे भी उसे ‘हाय हैंडसम’ कह कर मुसकराने लगी थीं.

यदि किसी दिन वह नहीं दिखाई देता तो उस दिन गीत की निगाहें प्रत्यूष को यहांवहां तलाशतीं. फिर उदास और निराश हो उठती थीं.

गीत समझ नहीं पा रही थीं कि उसे देखते ही वे क्यों इतनी खुश हो जाती हैं. 5-6 दिन से वह दिखाई नहीं दे रहा था. उन्हें न तो उस का फ्लैट का नंबर मालूम था और न हीं फोन नंबर. वे उदास थीं और अपने पर ही नाराज हो कर कालेज के लिए तैयार हो रही थीं.

तभी घंटी बजी. मीना किचन में नाश्ता बना रही थी. इसलिए गीत ने ही दरवाजा खोला. उसे सामने देख रोमरोम खिल उठा.

‘‘ऐक्सक्यूज मी, थोड़ी सी कौफी होगी? उस ने सकुचाते हुए पूछा.’’

‘‘आओ, अंदर आ जाओ.’’

अंदर आते ही ड्राइंगरूप में चारों ओर निगाहें घुमाते हुए बोला, ‘‘अमेजिंग, इट्स अमेजिंग, ब्यूटीफुल… आप जितनी सुंदर हैं, अपने फ्लैट को भी उतना ही सुंदर सजा रखा है.’’

‘‘थैंक्यू,’’ उन्होंने मुसकराते हुए औपचारिकता निभाई थी.

‘‘नाश्ता करोगे?’’

‘‘माई प्लैजर.’’

मीना ने आमलेट बनाया था. उस के लिए भी एक प्लेट में ले आईं. वह बच्चों की तरह खुश हो कर पुलक उठा, ‘‘वाउ, वैरी टेस्टी.’’

उसे अपने साथ बैठ कर नाश्ता करते देख गीत का मन उल्लसित हो उठा. उस का संगसाथ पाने के लिए वे उसी के टाइम पर जौगिंग पर जाने लगी थीं. अपना परिचय देते हुए उस ने बताया था कि वह इंजीनियर है और अमेरिकन कंपनी ‘टारगेट’ में काम करता है. वह चैन्नई से है… उसे हिंदी बहुत कम आती है, इसलिए कोई ट्यूटर कुछ दिनों के लिए बता दें.

गीत खुश हो उठीं. जैसे मुंह मांगी मुराद पूरी हो गई हो. जब उन्होंने बताया कि वे हिंदी में पत्रिकाओं में कहानियां, लेख और कौलम लिखती हैं.

यह सुन कर आश्चर्य से उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘आप इंग्लिश की लैक्चरर और हिंदी में लेखन, सो सरप्राइजिंग.’’

मुलाकातें बढ़ने लगीं. संडे को दोनों फ्री होते तो साथ में खाना खाते, बातें करते और शाम को लौंग ड्राइव पर जाते. हिंदी पढ़ना तो शायद बहाना था.

उन्हें साथी मिल गया था, जिस के साथ वे भावनात्मक रूप से जुड़ती जा रही थीं. उस की पसंद का स्पैशल नाश्ता, खाना, अपने हाथों से बनातीं और उसे खिला कर उन्हें आंतरिक खुशी मिलती.

वह आता तो अपनी मनपसंद सीडी लगाता, कौफी बनाता और फिर दोनों साथसाथ पीते. कभीकभी बीयर भी पी लेते.

वह अकसर गीत की हथेलियों को अपने हाथों से पकड़ कर बैठता. उस का स्पर्श उन्हें रोमांचित कर देता. कई बार उन के मन में खयाल आता कि उन्हें क्या होता जा रहा है… क्या उन्हें प्रत्यूष से प्यार हो गया है? वह उम्र में उन से छोटा है. लेकिन उसे देखते ही वे सबकुछ भूल जातीं. उस के प्यार में डूबती जा रही थीं. कई बार दोनों रोमांटिक धुन बजा कर डांस भी करते.

एक दिन उस ने थिरकतेथिरकते मदहोश हो कर उन्हें अपनी बांहों में भर कर किस कर लिया. यद्यपि वे संकोचवश शरमा कर उस से अलग हो गईं, पर सच तो यह था कि शायद इन पलों का वे कब से इंतजार कर रही थी.

काश, वह हमेशा के लिए उन की नजरों के सामने रहता. वे हर क्षण षोडशी की भांति उस की कल्पना में खोई रहतीं. इन क्षणों को अपनी मुट्ठी में, स्मृति में कैद कर लेना चाहती थीं.

एक दिन उन के लंबे बालों से खेलते हुए उस ने छोटे बालों के लिए अपनी पसंद जाहिर की.

वे पार्लर गईं और अपने लंबे बालों पर कैंची चलवा दी. नए हेयर कट में स्वयं को आईने में देख शरमा उठीं. जाने क्यों प्रत्यूष के प्रति उन के मन में दीवानापन बढ़ता ही जा रहा था.

गीत सहमी सी रहतीं कि कहीं प्रत्यूष उन्हें छोड़ कर दूसरी हमउम्र लड़की के साथ अपने प्यार की पींगें न बढ़ाने लगे.

उस दिन नीचे खड़ी लिफ्ट का इंतजार कर रही थीं, तभी वहां प्रत्यूष भी आफिस से लौट कर आ गया. उन के चेहरे पर उस की निगाह पड़ी तो मुंह खुला का खुला रह गया.

खुशी के मारे आज सब के सामने उस ने उन्हें अपनी बांहों के घेरे में जकड़ लिया.

गीत ने अपेन को छुड़ाते हुए प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘सब देख रहे हैं.’’

‘‘नाइस हेयर स्टाइल… लुकिंग सो स्वीट ऐंड यंग.’’

उस की आंखों में प्यारभरी खुशी का भाव दिखाई दे रहा था. उस की आंखों में उन के प्रति दीवानगी साफ दिखाई दे रही थी. शायद यही तो वे कब से चाह रही थीं.

‘‘आज शाम को क्या कर रही हो? फ्री हो तो शौपिंग पर चलते हैं.’’

गीत प्रत्यूष के साथ मौल गईं. अभी तक वे इंडियन ड्रैसेज ही पहनती थीं, लेकिन आज उस के आग्रह को नहीं टाल पाईं. ढेरों वैस्टर्न ड्रैसेज पसंद कर लीं. जब उन ड्रैसेज को ट्रायलरूम में पहन कर उसे दिखातीं तो उस की आंखें खुशी से चमक उठतीं.

वहीं कैफेटेरिया में दोनों कौफी का और्डर दे कर एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले बैठे थे.

‘‘गीत, तुम ने तो मुझे अपना दीवाना बना लिया है,’’ वह बोला.

गीत उस के चेहरे से अपनी नजरें नहीं हटा पा रही थीं. मुसकरा पड़ी थीं. लेकिन मन ही मन सोच रही थीं कि वह 38 साल की प्रौढ़ा और यह 28 साल का खूबसूरत स्मार्ट युवक जाने कब उन्हें छोड़ कर अकेला कर दे, इसलिए उन्हें अपने पर कंट्रोल करना होगा. गलत रास्ते पर कदम बढ़ाती चली जा रही हैं. उन्हें उस से दूरी बना कर अपनी पुरानी दुनिया में लौटना होगा.

मगर उसे देखते ही उन के इरादे रेत के महल की तरह ढह जाते और वे उस के प्यार में डूब जातीं. उस के साथ कभी पिक्चर, थिएटर, कभी ड्रामा, कभी डिनर तो कभी मौल… समय को पंख लग गए थे. इन मधुर पलों को वे अपनी स्मृतियों में संजो लेना चाहती थीं.

जब भी वह उन का हाथ पकड़ता, वे सिहर उठतीं, एक दिन फ्रिज से बीयर की बोतल निकाल कर बोला, ‘‘आज सैलिब्रेशन हो जाए.’’

‘‘किस बात की?’’

‘‘मेरीतुम्हारी दोस्ती के लिए.’’

मंदमंद संगीत, हलका सुरूर… वे मुसकरा उठी थीं. थिरकतेथिरकते वे उस की बांहों में खो गईं.

आज दोनों के बीच के सारे बंधन टूट गए. दोनों एकदूसरे में समा गए. वे गहरी निद्रा के आगोश में चली गईं.

जब आंख खुली, तो अपनी अस्तव्यस्त दशा देख एक क्षण को उन्हें झटका सा लगा कि उफ, उन्होंने यह क्या कर डाला. प्रत्यूष उन के बारे में क्या सोचेगा? शायद शरीर की चाहत के कारण वे बहक गई थीं.

वे तेजी से दूसरे कमरे में गई तो देखा प्रत्यूष आराम से सो रहा है. उन के अंदर उस से नजरें मिलाने का भी साहस नहीं हो रहा था.

रात्रि का खुमार नहीं उतरा था, चेहरे पर तृप्ति और संतुष्टि की मुसकान थी तो मन ही मन प्रत्यूष के रिएक्शन के प्रति डर और घबराहट भी थी. उन की निगाहें आकाश में उगते सूर्य के गोले को देख रही थीं. उगता सूर्य कितनों के जीवन में खुशियों का उजाला लाता है, तो कितनों को गम देता है. आज चिडि़यों का चहचहाना उन के कानों में मधुर संगीत का आभास दे रहा था. रोज की तरह उन्होंने उन के लिए दाना डाला.

प्रत्यूष की आहट से वे संकुचित हो उठी. वे उस का सामना करने से हिचक रही थीं. उस के हाथों में ग्रीन टी का कप था.

‘‘हैलो…’’ उस ने कप को मेज पर रखा और फिर घुटनों के बल उन का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मैं भी अकेला, तुम भी अकेलीं विल यू मैरी मी?’’

ये वे लफ्ज थे, जिन का गीत को बरसों से इंतजार था. आज पहली बार उन्होंने स्वयं उसे अपनी बांहों में भर लिया.

गीत खुशियों के झूले में झूल रही थीं. शादी कर के अपने रिश्ते को एक नाम देना चाहती थीं, वे अपने भाईबहन और करीबियों को बुला कर अपनी खुशी में शामिल करना चाहती थीं.

सब से पहले प्रत्यूष की मां से मिलने चलने का आग्रह उन्होंने उस से किया तो वह नाराज हो उठा. वह आर्यसमाज मंदिर में गुपचुप तरीके से शादी करने के पक्ष में था और वे कोर्ट के द्वारा रजिस्टर्ड मैरिज करना चाहती थीं. इसी विषय में दोनों के बीच थोड़ा तनाव भी हो गया. वह उन के लिए एक डायमंड की अंगूठी ले आया था, लेकिन उन की पारखी निगाहें पलभर में पहचान गईं कि यह नकली है.

कुछ दिन बाद ही उस ने बताया कि शांतनु उसे धोखा दे कर उस के पैसेकपड़े सबकुछ ले कर न जाने कहां चला गया. कमरे को भी छोड़ दिया है. उस के प्यार में पागल वे उस की बातों में आ गईं और दोनो लिवइन में रहने लगे. गीत ने उस पर विश्वास कर के हमदर्दी दिखाते हुए अपना एटीएम कार्ड दे दिया.

प्रत्यूष उन के पैसों पर ऐश करने लगा. कभी शौपिंग तो कभी पार्टी के बिल के मैसेज उन के फोन पर उन्हें मिलते रहते. जब एक दिन उन्होंने पूछा कि किस के संग पार्टी थी तो वह अकड़ कर बोला, ‘‘मेरी सैलरी आने वाली है… सारे पैसे चुका दूंगा.’’

उस के कहने का लहजा उन्हें अच्छा नहीं लगा. उन्होंने गौर किया कि जब भी कोई फोन आता तो वह उन के सामने बात नहीं करता. दूसरे रूम में भी नहीं वरन घर से बाहर जा कर घंटों लंबी बातें करता. उन्होंने उस का फोन या लैपटौप चैक करने की कोशिश की पर वह हरदम लौक लगा कर रखता और अपना पासवर्ड भी नहीं बताता.

उस की यह सब बातें उन्हें खटकने लगीं. उन्हें महसूस हुआ कि जरूर कहीं दाल में काला है. अचानक उन की छठी इंद्रिय जाग्रत हो उठी. उन्होंने चुपचाप से कई जगह स्पाई कैमरे लगवा दिए. फिर वे उस की असलियत पता लगाने में जुट गईं.

सोसायटी के वाचमैन और प्राइवेट डिटैक्टिव की सहायता से चंद दिनों में ही उन की आंखों के समक्ष उस के कुकर्मों की कुंडली खुल गई. वह स्वयं अपनी मृगमरीचिका में छले जाने से बच गईं  थीं.

प्रत्यूष इंजीनियर नहीं था वरन, एक गैंग का सदस्य था, जो अलगअलग शहरों में प्यार का जाल बिछा कर लड़कियों को फंसा कर उन की अस्मत से खेलता था और लौकर में रखी रकम लूटता था. इस में उस का भोलाभाला सुंदर चेहरा और धारा प्रवाह इंग्लिश बोलना बहुत काम आता था.

इस बार गीत को लूटने का जाल रचा था. उन के लौकर को मास्टर चाभी से खोलने की कोशिश करने की संदिग्ध हरकतें कैमरे में कैद थीं. वह उन का डायमंड सैट और कैश ले कर नौ दो ग्यारह होने की कोशिश में था.

पुलिस ने कैमरे के सुबूत के आधार पर उस के हाथों में हथकड़ी लगा दी.

गीत का प्यार का खुमार उतर चुका था. उसे इस हालत में देख उन की आंखें डबडबा उठीं थीं. जीवनसाथी की तलाश में वे अपने ही बुने जाल से मुक्त हो कर बहुत खुश थीं. वे अपने अनुभव को शब्दों के माध्यम से सब के सामने ला कर अपनी छठी इंद्रिय को बारबार धन्यवाद दे रही थीं.

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