रिश्ता और समझौता: भाग-1

अमेरिका के जेएफके अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे में सारी औपचारिकताओं को पूरा कर के जब अपना सामान ले कर सुमन बाहर आई तो उस ने अपनी चचेरी बहन राधिका को हाथ लहराते देखा. सुमन बड़ी मुसकान के साथ उस की ओर बढ़ी और फिर दोनों एकदूसरे से गले मिलीं.

‘‘अमेरिका के न्यूयौर्क में आप का स्वागत है सुमन,’’ कह कर राधिका ने सुमन के गाल पर किस किया.

सुमन ने भी उसे गले लगाया और फिर दोनों निकास द्वार की ओर बढ़ने लगीं.

राधिका, सुमन की चाची की बेटी है. वे लगभग हमउम्र हैं. दोनों का बचपन इंदौर में अपने नानाजी के घर में एकसाथ गुजरा था. हर छुट्टी पर परिवार के सभी सदस्य अपने नाना के घर इंदौर में इकट्ठा होते थे और उन दिनों की खूबसूरत यादें सुमन के दिमाग में अभी भी ताजा हैं. अपने नानानानी की मृत्यु के बाद सुमन की मां ने अपनी बहनों से अपना संपर्क बनाए रखा और वे अकसर मुंबई आती थीं. राधिका ने खुद सुमन के घर में रह कर मुंबई में ही कैमिस्ट्री में पौस्टग्रैजुएशन किया था और उस समय सुमन भी कंप्यूटर साइंस में पोस्ट ग्रैजुएशन कर रही थी. राधिका नौकरी के सिलसिले में न्यूयौर्क चली गई और सुमन को मुंबई में एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी मिल गई.

‘‘चाची और चाचा कैसे हैं,’’ गाड़ी को पार्किंग से बाहर निकालते हुए राधिका ने पूछा.

सुमन मुसकराते हुए बोली, ‘‘वे ठीक हैं.’’

अब दोनों ओर से चुप्पी थी. अमेरिकी धरती पर उतरते ही सुमन से कोई भी निजी सवाल पूछ कर राधिका उसे उलझन में नहीं डालना चाहती थी. इसी बीच सुमन का फोन बजा. आशीष का था. सुमन को झिझक हुई तो राधिका ने कहा, ‘‘तुम कौल लेने में क्यों संकोच कर रही हो?’’

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तब सुमन ने कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हाय स्वीट हार्ट,’’ दूसरी ओर से आशीष की आवाज थी,‘‘तम न्यूयौर्क पहुंच गई हो… यात्रा कैसी रहीं. कोई कठिनाई तो नहीं हुई?’’ उस की आवाज में चिंता बहुत स्पष्ट थी.

‘‘हां आशीष मैं बिना किसी दिक्कत के न्यूयौर्क पहुंच चुकी हूं… सफर अच्छा था… बस थोड़ी थकान महसूस कर रही हूं.  मेरी बहन राधिका हवाईअड्डे मुझे लेने आ गई थीं. अब हम अपने घर जा रही हैं… मैं तुम्हें बाद में फोन करूंगी,’’ और फिर फोन काट दिया.

फिर घंटी बजी. सुमन की मां थीं. मां ने पूछा, ‘‘बेटा, तुम ठीक हो? क्या राधिका एअरपोर्ट आ गई थी? सुमन ने फोन राधिका को पकड़ा दिया. राधिका बोली, ‘‘मौसी मैं एअरपोर्ट कैसे नहीं आती… आप सुमन की चिंता न करो… वह यहां बिलकुल सुरक्षित है. हम घर पहुंच कर आप को फोन करते हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ कह सुमन की मां ने फोन काट दिया.

राधिका का तीसरी मंजिल पर

3 बैडरूम वाला अपार्टमैंट था.

जैसे ही राधिका और सुमन ने घर में प्रवेश किया एक फिरंगी लड़की एक बैडरूम से बाहर आई और सुमन को गले लगा कर मुसकराते हुए उस का अभिवादन करते हुए बोली, ‘‘यूएस में आप का स्वागत है और आशा है कि आप मेरे साथ रहना पसंद करेंगी.’’

सुमन सोच में पड़ गई कि राधिका अकेली रह रही है तो यह लड़की कौन?

राधिका उसे कौफी का कप पकड़ाते हुए बोली,

‘‘सुमन यह जेनिफर है. हम ने इस अपार्टमैंट को मिल कर किराए पर लिया है. वह एक सौफ्टवेयर कंपनी में काम करती है और वे ही अपनी कंपनी में तुम्हें नौकरी दिलाने में मदद करने वाली है… न्यूयौर्क बहुत महंगा शहर है… हम इस तरह एक अपार्टमैंट अकेले किराए पर नहीं ले सकते. वह बहुत व्यस्त रहती है, इसलिए ज्यादातर खाना बाहर से मंगवाती है… हमारे बीच कोई समस्या नहीं. अब तुम भी आ गई तो हम तीनों अपार्टमैंट साझा कर सकती हैं,’’ राधिका ने कौफी पीते हुए कहा.

सुमन चुप रही. वैसे भी वह केवल 2 साल के लिए अमेरिका आई है और फिर भारत अपने प्रेमी आशीष के पास वापस चली जाएगी. इस बीच जब जेनिफर उन दोनों के पास आई तो वह औफिस जाने के लिए पूरी तरह तैयार थी. उस ने एक ईमेल आईडी देते हुए सुमन से कहा,‘‘राधिका ने मुझे बताया था कि आप को सौफ्टवेयर सैक्शन में नौकरी की जरूरत है और मैं उसी फील्ड में काम करती हूं… वास्तव में मेरी खुद की टीम में एक शख्स की जरूरत है. आज ही अपना सीवी इस आईडी पर भेजें ताकि जल्दी आप की नियुक्ति हो जाए. बाय… शाम को मिलते हैं,’’ और फिर राधिका को गले लगा अपनी गाड़ी की चाबी ले कर दफ्तर के लिए निकल गई.

‘‘तो क्या चल रहा है? सुमन तुम मुझ से दिल खोल कर बात कर सकती हो, क्योंकि हम केवल चचेरी बहनें ही नहीं बचपन की दोस्त भी हैं. याद है तुम्हें हम उन छोटेछोटे रहस्यों को कैसे साझा करते थे… मैं ने आज छुट्टी ले ली है ताकि तुम्हारे साथ समय बिता सकूं और तुम्हारी चीजों को व्यवस्थित करने के लिए मदद कर सकूं,’’ राधिका ने कहा.

सुमन ने लंबी सांस ली. मुंबई में अच्छी सैलरी वाली नौकरी से इस्तीफा दे कर

अमेरिका क्यों आई है, राधिका को यह बताने के लिए सुमन ने खुद को तैयार किया.

कुछ दिन पहले ही सुमन ने मां को पिता की मौजूदगी में बताया था.

‘‘सुमन तुम यह क्या कह रही हो? तुम

ऐसे सोच भी कैसे सकती हो,’’ उस की मां चिल्लाई थीं.

‘‘क्या आप ने सुना है कि आप की बेटी एक ऐसे लड़के से प्यार करती है, जो हमारी बिरादरी का नहीं है और इस से भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि वह उस के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहना चाहती है ताकि वे एकदूसरे को बेहतर तरीके से समझ सकें. फिर वे तय करेंगे कि शादी करनी है या नहीं,’’ यह कहते हुए सुमन की मां मुश्किल से सांस ले पा रही थीं.

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सुमन की मां हर छोटी सी छोटी बात पर भी भावुक हो जाती है, उस के विपरीत उस के पिता एक संतुलित व्यक्ति हैं. उन्होंने ध्यान से अपनी बेटी की बात सुनी.

सुमन ने कहा, ‘‘पापा, आशीष और मैं एकदूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन हम शादी में जल्दबाजी नहीं करना चाहते. मेरे अपने दफ्तर में 4 मित्र जोड़ों ने जल्दबाजी में शादी कर ली और फिर 1 साल के भीतर ही उन की शादी टूट गई. ऐसा इसलिए क्योंकि वे एकदूसरे को ठीक से समझे बगैर शादी कर बैठे. हम यह गलती नहीं दोहराना चाहते हैं. इन दिनों मुंबई में लिव इन रिलेशनशिप में रहना आम बात है. मेरे अपने दोस्त ऐसे ही रहते हैं. ऐसे साथ रहने से हम अपने साथी की ताकत और कमजोरी को समझ सकते हैं और एकदूसरे को बेहतर तरीके से जान सकते हैं. फिर तय कर सकते हैं कि एकदूसरे के लिए सही हैं या नहीं, हमारी शादी सफल हो सकती है या नहीं,’’ सुमन ने समझाया.

आगे पढ़ें- सुमन की मां बेशक सदमे की स्थिति में थीं, लेकिन…

रिश्ता और समझौता: भाग-2

सुमन की मां बेशक सदमे की स्थिति में थीं, लेकिन उस के पिता हमेशा की तरह शांत थे. उन्होंने सुमन को अपनी बगल में बैठाया और फिर बोले, ‘‘तुम्हारे दोस्तों की शादियां टूट गईं और तुम्हें लगता कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने एकदूसरे को समझे बिना जल्दबाजी में शादी की. इस मामले में मेरा खयाल है कि तुम दोनों 1-2 साल के लिए अपनी दोस्ती बरकरार रख कर एकदूसरे को समझने की कोशिश करो और फिर शादी कर लो. यह लिव इन रिश्ता क्यों?’’ रामनाथ ने पूछा.

सुमन ने कहा, ‘‘पापा यही समस्या है. दरअसल, जब हम दोस्त होते हैं तो हम हमेशा दूसरे व्यक्ति को केवल अपना बेहतर पक्ष दिखाते हैं. हम सभी का एक और पक्ष है, जिसे हम जानबूझ कर दूसरों से छिपाते हैं. विवाह में ऐसा नहीं है. आप को अपने पूरे जीवन में एक व्यक्ति के साथ मिलजुल कर रहना होगा और आप को छोटी सी छोटी चीजें जैसे खाने से ले कर पैसे तक बड़े मामलों पर दोनों के बीच सहमति की जरूरत होती है.

‘‘उदाहरण के लिए मेरी एक दोस्त ने अपने बौयफ्रैंड से 4 साल तक डेटिंग करने के बाद शादी की. लेकिन शादी के बाद ही उसे समझ में आ गया कि जिस से उस ने ब्याह किया वह एक पुरुषवादी व्यक्ति है. यद्यपि मेरी सहेली उस से अधिक कमा रही थी, फिर भी उस के पति ने उस के साथ बदसलूकी की और पुराने जमाने की पत्नियों की तरह अपने परिवार की सेवा करने के लिए उसे मजबूर किया. इस के अलावा मेरी सहेली से उस की कमाई का हिस्सा मांगा… दुख की बात तो यह है कि उस लड़के ने मेरी सहेली की अपने मातापिता को किसी भी रूप से सहायता करने से सख्त मनाकर दिया. जब हम दोस्त होते हैं तब हमें एक मर्द के इस पहलू को नहीं जान सकते, क्योंकि उस वक्त सभी इंसान अपना अच्छा पक्ष ही दिखाएगा,’’ सुमन ने बताया.

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थोड़ी देर रुक वह आगे बोली, ‘‘पापा, आज भी बहुत से भारतीय पुरुष हैं जो सोचते हैं कि वे घर के बौस हैं. पत्नी को केवल उन की आज्ञा का पालन करना चाहिए. स्त्री को उचित अधिकार और सम्मान नहीं दिए जाने की वजह से ही इन दिनों कई भारतीय शादियां टूट रही हैं. मैं नहीं चाहती कि मेरे साथ भी ऐसा हो. मैं ने सोचा कि जब हम एकसाथ रहते हैं तो हमारी सचाई एकदूसरे के सामने आती है तब हमें पता चलता है कि हम एकदूसरे के लिए सही हैं या नहीं.’’

रामनाथ ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘तुम सही हो और मैं इस विषय में तुम से पूरी तरह सहमत हूं, लेकिन यह लिव इन रिलेशनशिप भी उतनी आसान नहीं जितना तुम समझ रही हो. यह भी बहुत सारी समस्याओं को जन्म देती है. तुम एक शिक्षित लड़की हो और मुझे तुम्हें बहुत समझाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम स्मार्ट और बुद्धिमान हो. शादी जैसे बंधन के बिना लड़का और लड़की पतिपत्नी की तरह रहने से भी समस्याएं हो सकती हैं. पहली बात यह है कि दोनों तरफ कोई प्रतिबद्धता नहीं है और यह किसी भी रिश्ते के लिए अच्छा नहीं है.

‘‘अगर इस तरह साथ रहने में जिन दिक्कतों का लड़का और लड़की को सामना करना पड़ता है, उन के बारे में मैं कहूं तो तुम समझोगी कि मैं पिछली पीढ़ी का बूढ़ा आदमी हूं और लिव इन रिलेशनशिप के खिलाफ कहता हूं. इसलिए मेरे पास एक सुझाव है. लिव इन रिलेशनशिप की अवधारणा पश्चिमी देशों से आई है न? लेकिन अब वे महसूस कर रहे हैं कि शादी की हमारी परंपरा बेहतर है. हमारी राधिका न्यूयौर्क में है और तुम वहां जा कर काम करो और पश्चिमी लोगों के साथ काम करते दौरान उन के जीवन को करीब से देखो. तब तुम अपने लिए क्या सही है यह निर्णय करने की स्थिति में होगी और वह तुम्हारे लिए बेहतर होगा.’’

सुमन को भी लगा कि यह एक अच्छा विचार है.

‘‘तो मैं अब अमेरिका में हूं, जहां लिव इन रिलेशनशिप की संस्कृति को समझना है,’’ सुमन ने हंसते हुए कहा.

राधिका भी हंस पड़ी, ‘‘तुम्हें पता है कि जेनिफर अगले हफ्ते वास्तव में अपने बौयफ्रैंड के साथ इसी बिल्डिंग में एक और फ्लैट में जाने की योजना बना रही है. एक नई लड़की क्लारा हमारी रूममेट होगी,’’ कह कर राधिका चाय के कप रखने चल दी और सुमन खिड़की से नीचे चल रही गाडि़यों की जलूस देखने लगी.

धीरेधीरे 3 साल बीत गए. हर हरिवार को सुमन के मातापिता उस से कम

से कम 2 घंटे तक इंटरनैट पर बात करते थे. इकलौती औलाद होने के नाते सुमन के मातापिता उस पर अपनी जान छिड़कते थे. खासकर सुमन की मां जो अपनी बेटी से अलग नहीं रह पा रही थी. उन्होंने अपने पति से कहा कि वे अमेरिका जाएं अपनी बेटी के पास.

रामनाथ ने उन्हें यह कहते हुए रोक दिया, ‘‘नहीं हम वहां नहीं जा रहे हैं. हम ने सुमन को वहां संस्कृति का निजी ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजा है, जिस की भारतीय युवा पीढ़ी इतने उत्साह से पीछा कर रही हैं.’’

सुमन की मां के पास इसे मानने के अलावा कोई और चारा नहीं था.

आशीष हर हफ्ते उस से इंटरनैट पर बात करता था, क्योंकि उसे भी सुमन से अलग रहना अच्छा नहीं लग रहा था. जब उस ने भी यूएस आने का प्रस्ताव रखा तो सुमन ने तुरंत मना कर दिया और कहा, ‘‘मैं ने अपने पिताजी से वादा किया है कि मैं आप को यहां नहीं बुलाऊंगी… और मैं अपना वादा नहीं तोड़ूंगी.’’

आशीष मान गया.

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नौकरी भी अच्छी चल रही थी. न्यूयौर्क एक तेजी से आगे बढ़ने वाला शहर है, जो उस के मुंबई से भी ज्यादा तेज है. सुमन को सुबह 8 बजे अपने दफ्तर में पहुंचना है और वह जिस फ्लैट में रह रही है, वहां से पहुंचने में समय लगता. लेकिन न्यूयौर्क में आवागमन करना कोई समस्या नहीं है.

सुमन हर सुबह अपने और राधिका के लिए भारतीय नाश्ता बनाती और लंच भी पैक कर के औफिस के लिए निकल जाती.

एक रिसर्च स्कौलर होने के कारण राधिका की नौकरी लैब में थी और उस के काम का निश्चित समय नहीं था. कभीकभी 3-3 दिन तक घर नहीं आती और इस की सूचना सुमन को पहले ही दे देती थी ताकि वह उस का इंतजार न करे.

अब तक सुमन और क्लारा अच्छे दोस्त बन गए थे. सुमन को लगा कि क्लारा एक अच्छी लड़की है. लेकिन उस के साथ एकमात्र समस्या यह थी कि वह हर रविवार को कुछ मांसाहारी भोजन बनाती थी. उस की गंध को बरदाश्त करना शाकाहारी सुमन के लिए बहुत मुश्किल था. लेकिन धीरेधीरे सुमन उस गंध की आदी हो गई.

सुमन को रविवार को भी जल्दी उठना पड़ता था, क्योंकि क्लारा के रसोई में आने से पहले ही सुमन अपना और राधिका का खाना बना सके.

एक रविवार सुमन टीवी देख रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला तो सामने जेनिफर थी, जो अब उस की सहकर्मी है. उस के पास एक बैग था और उस की आंखें सूजी थीं. उस का हुलिया देख कर सुमन हैरान हो गई.

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Serial story: प्यार को प्यार ही रहने दो…

प्यार को प्यार ही रहने दो : भाग-1

सैंट्रल पार्क में फिर मेला चल रहा था. बड़ेबड़े झूले, खानेपीने की बेहिसाब वैरायटी लिए स्टालें, अनगिनत हस्तकला का सामान बेचती अस्थाई रूप से बनाई हुई छोटीछोटी टेंट की दुकानें, और इन दुकानों में बैठे हुए अलगअलग राज्यों व क्षेत्रों से आए हुए व्यापारी.

हर कोई अपनी दीवाली अच्छी बनाने की आशा में ग्राहकों की बाट जोह रहा था. हर साल दीवाली के आसपास यहां यही मेला लगा करता है. और हर साल की तरह इस साल भी निरंजना मेले में जाने के लिए उत्सुक थी.

शाम को जब रजत औफिस से वापस आया, तो निरंजना को तैयार खड़ा देख समझ गया कि आज मेले में जाने का कार्यक्रम बना बैठी है.

रजत मुसकरा कर कहने लगा, ‘‘तुम दिल्ली के आलीशान मौल भी घूमना चाहती हो और गलीमहल्ले के मेले भी. ठीक है, चलेंगे. पर मैं पहले थोड़ा सुस्ता लूं. एक कप चाय पिला दो, फिर चलते हैं मेले में.‘‘

शादी के पांच वर्षों के साथ में निरंजना उसे इतना समझ चुकी थी कि वह कब किस चीज की इच्छा रख सकता है, सो पहले ही चाय तैयार कर चुकी थी. शायद इसे ही मन से मन के तार जुड़ना कहते हैं.

आधा घंटे बाद दोनों मेले के ग्राउंड में खड़े थे. हर ओर शोर, हर ओर उल्लास, और उत्साहित भीड़.

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मेले में पहुंच कर निरंजना एक अल्हड़ किशोरी सा बरताव करने लगती. कभी किसी झूले में बैठने की जिद करती, तो कभी कालाखट्टा बर्फ का गोला खाने की, तो कभी कुम्हार द्वारा बनाया हुआ सुंदर फूलदान खरीदने की. किंतु मौत के कुएं का खेल देखना वह कभी नहीं भूलती. कुछ और हो ना हो, परंतु मौत का कुआं में सब से आगे खड़े हो कर कुएं में दौड़ रही मोटरसाइकिल व कार को देख कर पुलकित होना अनिवार्य था.

रजत को चाहे यह कितना भी बचकाना लगे, किंतु वह निरंजना के हर्षोल्लास पर कभी ठंडे पानी की फुहार नहीं फेरता था. वह सच्चे मन से यह मानता था कि यदि गृहस्थी को सुखी रखना है, तो उसे चलाने वाली गृहिणी का पूरा ध्यान रखना होगा. यदि घर की स्त्री खुश रहेगी, तभी घर और परिवार के सभी सदस्य खुश रह सकेंगे.

आज भी कुछ झूलों में झूलने के बाद और जीभ को रंगबिरंगे स्वादों से रंगने के बाद दोनों मौत का कुआं की टिकट ले कर सब से आगे वाली रिंग में खड़े हो गए.

खेल शुरू हुआ. घुप अंधेरे भरे गहरे गड्ढे में जगमगाती रोशनी लिए मोटरसाइकिल व कार एकदूसरे से उलट दिशाओं में दौड़ने लगीं.

दर्शकों की भीड़ में कई बच्चे व किशोर खेल देख कर उत्तेजित हो रहे थे. उतनी ही उत्साहित निरंजना भी थी.

मौत के कुएं के इस खेल में लोगों को क्या आकर्षित करता है – खतरों से खेलने का जज्बा, या यह भावना कि हम स्वयं खतरे को देख तो रहे हैं, किंतु उस की पकड़ से बहुत दूर हैं, या फिर जीत का एहसास.

जो भी था, निरंजना हर साल दीवाली के इस मेले में मौत के कुएं का खेल अवश्य देखती थी. उसे देखने के बाद वह काफी देर तक प्रसन्नचित्त रहती. आज भी खेल खत्म होने पर रजत ने कुछ खाने के लिए उस से आग्रह किया.

‘‘हां, चलो, गोलगप्पे के स्टाल पर चलते हैं.‘‘

‘‘अरे, मैं तो कुलफी खाने के मूड में हूं.‘‘

‘‘पहले गोलगप्पे खाएंगे, फिर जीभ पर फूटते पटाखों को शांत करने के लिए कुलफी. कैसा रहेगा?‘‘ खुशी से दोनों ने मेले का आनंद उठाया और देर रात अपने घर लौट आए.

‘‘काफी थक गया हूं आज,‘‘ सोते समय रजत ने कहा.

‘‘गुड नाइट,‘‘ संक्षिप्त उत्तर दे कर निरंजना ने कमरे की बत्ती बुझा दी. किंतु आज नींद उस की अपनी आंखों से कुछ दूर टहल रही थी. शायद अब भी दीवाली के उस मेले से लौटी नहीं थी. थकान और विचारों को एकसाथ मथती निरंजना समय से पीछे अपनी किशोरावस्था की गलियों में दौड़ने लगी.

निरंजना हर लिहाज से आकर्षक थी – खूबसूरत नैननक्श, चंदनी चितवन और प्रखर बुद्धि. उस को देख कर कोई भी अपना दिल हार सकता था, किंतु वह ठहरी बेहद अंतर्मुखी व्यक्तित्व की स्वामिनी. हर कक्षा में फर्स्ट आती, खेलकूद में भी मेडल जीतती. किंतु दोस्त बनाने में पीछे रह जाती.

सहमी, सकुचाई सी रहने वाली निरंजना की अपने जीवन से कई आशाएं थीं, जिन में से एक थी प्रगति पथ पर आगे बढ़ने की.

जब निरंजना कालेज पहुंची, तो वहां कुछ ऐसा हुआ जो उस के साथ अब तक कभी नहीं हुआ था.

क्लास में एक लड़का था, जिस की तरफ निरंजना अनचाहे ही आकर्षित होने लगी, खिंचने लगी. उस ने कई बार उस की आंखों को भी इसी ओर देखते पकड़ा था. किंतु कुछ कहने की हिम्मत न इस तरफ थी, न उस तरफ.

क्लास काफी बड़ी थी, इसलिए निरंजना उस का नाम तक नहीं जानती थी. किंतु यह उम्र ही ऐसी होती है, जिस में विपरीत सैक्स के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक है. उस को देख कर निरंजना के अंदर एक अजीब सी भावना हिलोरे लेती. कभी शरीर में सुरसुरी दौड़ जाती, तो कभी स्वयं ही नजरें झुक कर अपने दिल का हाल छुपाने लगतीं.

अर्जुन के लक्ष्य की तरह निरंजना के मन को भी एक ध्येय मिल गया था. आमनासामना तो नजरों का होता, लेकिन सिहरन पूरे बदन में होती. सारी रात बिस्तर पर वह करवटें बदलती रहती थी. यह सिलसिला कई महीनों तक चला. क्या करती, हिम्मत ही नहीं थी जो बात आगे बढ़ा पाती.

वह ठहरी अंतर्मुखी और वो जनाब बहिर्मुखी प्रतिभा के धनी. उन के ढेरों दोस्त, हर किसी से बातचीत. जिस महफिल में जाएं, रंग जमा दे.

हालांकि देखने में वह कुछ खास नहीं था, किंतु उस का व्यक्तित्व एक चुंबक की तरह था, और निरंजना संभवतः उस के आगे एक लोहे की गोली, जो उस की तरफ खिंची चली जाती थी.

होस्टल के पास वाले मैदान में जब दशहरे पर मेला लगा था, तब उन की पूरी क्लास ने वहां चलने का कार्यक्रम बनाया.

वहां जाते हुए निरंजना एक योजना के तहत उस जनाब के आसपास भटकती रही. तभी उस के मुंह से सुना था कि उस का पसंदीदा खेल है मौत का कुआं. बस, फिर क्या था, उस मौत के कुएं में भागती हुई गाड़ियों के साथसाथ निरंजना का दिल भी गोते लगाने लगा.

आगे पढ़ें- कालेज का आखरी साल आ गया….

प्यार को प्यार ही रहने दो : भाग-3

दोनों ने अपनेअपने धर्मों को निभाते हुए किसी के भी धर्म में दखलअंदाजी न करने की कसम भी उठा ली थी. सोच लिया था कि रजिस्टर्ड विवाह ही करेंगे. जब मातापिता से बात करेंगे तो धर्म की बात ना आए, इस बात का खयाल रखते हुए दोनों ने काफी प्लानिंग कर ली थी. लेकिन होता वही है, जो समय को मंजूर होता है.

जब निरंजना ने अपने मातापिता से नसीम के बारे में बात की, तो आसमान में छेद हो गया. मां ने रोरो कर घर में गंगाजल का छिड़काव शुरू कर दिया और स्वयं को कोसने लगी कि क्यों लड़की को पढ़ने आगे भेजा, वह भी दूसरे शहर, अपनी नजरों से दूर.

मां का विलाप बढ़ता ही जा रहा था. जोरजोर से वे कहने लगीं, ” ‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने, पुत्रो रक्षति वार्धक्ये न स्त्री स्वातंत्र्य मरहति.‘ मतलब जानते हो ना इस का?

‘‘हमारे ग्रंथी मूर्ख नहीं थे, जो मनु कह गए कि स्त्री को स्वतंत्र नहीं छोड़ा जाना चाहिए. बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति और उस के बाद पुत्र के अधीन रखना चाहिए. हम से बहुत बड़ी गलती हो गई, जो इस की बातों में आ कर दूसरे शहर इसे पढ़ने जाने की अनुमति दे दी.

‘‘देखो, अब क्या गुल खिला कर आई है. अपना मुंह तो काला कर ही आई है, हमारी भी नाक कटवा दी. कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.‘‘

पिता तो जैसे सदमे में आ कर कुरसी से हिलना ही भूल गए थे. शाम तक वह उन्हें मनाती रही. तरहतरह की दलीलें देती रही. लेकिन जब एकबारगी खड़े हो कर पिता ने यह कह दिया कि शायद इसे हम दोनों की झूलती लाशें देख कर ही सुकून मिलेगा, तो उस के आगे निरंजना विवश हो गई. अब कहनेसुनने को कुछ शेष नहीं बचा था.

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जिस समाज ने सती की छवि रखने वाली अपनी देवी सीता को नहीं बख्शा, वह निरंजना जैसी साधारण स्त्री को कैसे माफ कर देगा? जब उस के मातापिता ही उस के निर्णय को नहीं अपनाएंगे तो और किसी से वह क्या उम्मीद रखे? आखिर अपने मातापिता की अर्थियों के ऊपर वह अपना आशियाना तो बना नहीं सकती थी.

आश्चर्य तो इस बात का हुआ कि नसीम की ओर से भी कोई संदेश नहीं आया. संभवतः उसे भी ऐसे ही किसी दृश्य का सामना करना पड़ा होगा.

आज निरंजना उसे माफ कर चुकी है. शादी कर के आगे बढ़ चुकी है. पूरी ईमानदारी से रजत के साथ अपने रिश्ते को निभा रही है. किंतु आज भी जब कभी हवा में नमी होती है, और आकाश में पीली रोशनी छाती है तो ना जाने क्यों उस का दिल पुरानी करवट बैठने को मचलने लगता है.

टूटे हुए दिल ने कई बार खुद से प्रश्न किया कि यदि यह सच है तब वह क्या था? फिर इसी दिल ने उसे समझाया कि वह भी सच था, यह भी सच है. मातापिता की बात मानने और स्वीकारने के बदले सांत्वना पुरस्कार के रूप में उसे रजत का प्यार मिला है.

एकबारगी रजत से शादी के लिए हामी भर कर वह नसीम के प्यार को अपनी खोटी किस्मत मान कर आगे बढ़ चुकी थी. लेकिन फिर उलटपलट कर आती यादों ने उसे चैन कब लेने दिया. वह तो भला हो मार्क जुकरबर्ग का, जो बिछुड़े हुए दिलों को मिलाने का नेक काम करता है.

आज निरंजना फिर अपने लैपटौप के सामने बैठ गई. आज फिर फेसबुक पर जा कर नसीम को ढूंढेगी. शायद उस से मिल कर एक बार अपनी सफाई दे कर निरंजना के दिल को चैन मिलेगा.

उधर औफिस में मीटिंग के बाद रजत को अपने सचिव के पद के लिए आए बायोडाटा में से छंटनी करनी थी. एचआर डिपार्टमैंट ने उसे काफी सारे रिज्यूम भेज दिए थे, साथ ही, एक नोट भी छोड़ा था, ‘सर, आप जिन प्रत्याशियों को चयनित करेंगे, उन्हें हम आप से साक्षात्कार के लिए बुलवा लेंगे. फिर आप जिस का चुनाव करेंगे, वही आप के सचिव के पद के लिए रख दिया जाएगा.‘

बायोडाटा पढ़ते समय रजत की नजर एक रिज्यूम पर अटक गई – नाम की जगह पर श्वेता सिंह लिखा था और स्थान की जगह आगरा पढ़ने पर रजत का दिल एक ही राग अलापने लगा, ‘कहीं यह वही तो नहीं…?’

‘श्वेता सिंह और वह भी आगरा से…’ उत्सुकतावश उस ने आगे का बायोडाटा पढ़ना शुरू किया. कालेज का नाम पढ़ने के बाद उसे विश्वास हो गया कि यह वही श्वेता है, जिसे वह अपना दिल हार चुका था.

औफिस की सीट पर बैठेबैठे रजत का मन अपने मातापिता के घर आगरा की गलियों में विचरने लगा.

रजत जब अपने मातापिता के साथ गांव से आगरा आया था, तब वह सातवीं कक्षा में पढ़ता था. नया स्कूल, नया परिवेश, नए सहपाठी. ऐसे में क्लास में पढ़ रही एक लड़की की ओर अनायास ही आकर्षित होने लगा. किशोरावस्था ही ऐसी होती है, जिस में हार्मोंस के कारण मन उद्विग्न रहता है, भावनाएं मचलती रहती हैं, और जी चाहता है कि सबकुछ हमारी इच्छानुसार होता रहे.

रजत उस लड़की के प्यार में खुद को सातवें आसमान पर अनुभव करने लगा. भले ही यह एकतरफा प्यार था, किंतु रजत को विश्वास हो गया था कि यही वह लड़की है, जिस के साथ वह अपना पूरा जीवन व्यतीत करना चाहता है.

स्कूल में श्वेता को देखने पर रजत की आंखों की पुतलियां फैल जाती थीं. एक बार उस के एक दोस्त ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या यही है तेरे सपनों की रानी, रजत?‘‘

रजत ने उस का जवाब देते हुए कहा था, ‘‘यह मेरी ड्रीम गर्ल नहीं हो सकती, क्योंकि मैं इतने अच्छे ख्वाब भी नहीं देख सकता. यह तो परफैक्ट है. और कहां मैं. ना मेरा जीवन में कोई उद्देश्य है और ना ही मैं इस की तरह परिश्रमी हूं,‘‘ बात को खत्म कर रजत वहां से चला गया था. वह नहीं चाहता था कि स्कूल में श्वेता के लिए कोई भी कुछ गलत बात करे. जिस से वह प्यार करता था, उसे बदनाम करने की कैसे सोच सकता था.

लेकिन सच तो यह था कि रजत को श्वेता के सिवा और कोई नजर ही नहीं आता था.

उसे आज भी याद है वह पहला दिन, जब उस ने श्वेता को देखा था, दो चोटियां, उन में रिबन, साफसुथरी टनाटन स्कूली यूनिफार्म, सलीकेदार और आकर्षक व्यक्तित्व.

रजत भले ही श्वेता पर दिलोजान से मरने लगा था, किंतु यह कहने की हिम्मत कभी नहीं कर पाया.

खैर, अल्हड़ बचपन से अल्हड़ जवानी तक रजत श्वेता को ही निहारता रहा. अब वह गजब के सौंदर्य की मालकिन हो गई थी. जब दोनों ने एक ही कालेज में दाखिला ले लिया, तब रजत की हिम्मत थोड़ी बढ़ी.

दोनों की दोस्ती तो स्कूल के दिनों से ही हो चुकी थी. किंतु अपने दिल की बात जबान तक लाने की हिम्मत रजत में नहीं थी. कहीं ऐसा ना हो, इस चक्कर में श्वेता उस से दोस्ती भी तोड़ बैठे.

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लेकिन श्वेता उसे अपना एक अच्छा दोस्त समझती थी. कालेज में आने के बाद श्वेता ने ही उस से अपने दिल की बात कही, ‘‘रजत, मैं तुम से कुछ कहना चाहती हूं. और चाहती हूं कि यह बात सिर्फ हम दोनों के बीच रहे.‘‘

रजत का दिल बल्लियों उछलने लगा. शायद यही वह मौका था, जिस का उसे हमेशा से इंतजार था.

आगे पढ़ें- रजत के दिल का हाल उस के चेहरे पर…

प्यार को प्यार ही रहने दो : भाग-4

‘‘अरे, यह क्या हो रहा है तुम्हें? पसीना पोंछ लो, आराम से बैठो, फिर बताती हूं.‘‘

रजत के दिल का हाल उस के चेहरे पर झलकने लगा. अपने दिल को बमुश्किल थामे वह श्वेता के मन की बात सुनने बैठ गया. पर फिर जो श्वेता ने बताया, उसे सुन कर रजत का दिल छन्न से बिखर कर रह गया था.

‘‘मेरा एक बौयफ्रैंड है, जो जयपुर में रहता है. हम दोनों औरकुट के जरीए मिले और हमें प्यार हो गया. मुझे नहीं पता कैसे. हम आज तक एकदूसरे से मिले भी नहीं हैं. पर मेरा दिल जानता है कि मैं उस के बिना नहीं जी सकती…‘‘ आगे न जाने क्याक्या कहती गई श्वेता, लेकिन रजत के कानों ने सुनना बंद कर दिया था.

रजत का चेहरा मलिन हो उठा, मानो चेहरे पर दोपहरी की साएंसाएं में लिपटा सूनापन और वीराना छा गया हो. वह भीतर ही भीतर सुलगने लगा. मगर शायद प्यार आप को बेहतरीन अभिनय करना भी सिखा देता है.

श्वेता की बात पर पूरा ध्यान देते हुए, चेहरे पर मुसकान लिए कोई नहीं बता सकता था कि अंदर ही अंदर रजत कितना टूट रहा था. लेकिन प्यार में पड़े किसी मूर्ख की तरह ऊपर से यही बोलता रहा, ‘‘तुम्हें मुझ से जो मदद चाहिए, मैं करूंगा. आखिर तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है. हम दोस्त जो हैं.‘‘

लेकिन रजत का दिल घायल हो चुका था. कालेज पूरा होतेहोते रजत ने श्वेता से काफी दूरी बना ली. करता भी क्या, उस का दिल हर बार उसे देख मचल उठता. हर बार मचलते दिल को संभालना कोई हंसीखेल नहीं. कालेज के बाद दोनों भिन्न शहरों में आगे की शिक्षा प्राप्त करने चले गए.

अलगअलग शहरों में दोनों की डिजिटल दोस्ती कायम रही. श्वेता के जयपुर वाले अफेयर को बचपन की भटकन की संज्ञा दे, रजत ने एक बार फिर प्रयास करने का निर्णय किया. परंतु इस बार वह खुद को ‘फ्रैंडजोन‘ होने से बचाना चाहता था, सो इस बार उस ने सोशल मीडिया के अपने अकाउंट पर श्वेता के साथ फ्लर्टिंग से शुरुआत की.

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ऐसा देख उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब दूसरी ओर बैठी श्वेता ने उस की बातों का बुरा नहीं माना, बल्कि कभीकभी उसे यों लगता जैसे श्वेता भी ऐसा ही चाहती है. वह भी हंसीमजाक से उस की फ्लर्टिंग का जवाब देती.

रजत अब अपने और श्वेता के रिश्ते को अगले कदम तक पहुंचाना चाहता था, किंतु श्वेता अकसर उसे ‘दोस्त‘ या ‘बडी‘ कह कर पुकारा करती. फिर भी श्वेता के दिल में क्या है, इस को ले कर रजत अकसर उलझन में रहता, क्योंकि उस ने क्या खाया, कब खाया, कितना सोया, पढ़ाई कर ली या नहीं आदि प्रश्नों से श्वेता उसे बमबार्ड करती रहती. इस का निष्कर्ष उस का मन यही लगाता कि श्वेता भी उस की ओर आकर्षित है. शायद यह प्यार एकतरफा नहीं.

रजत इस रिश्ते को आगे बढ़ाने के ख्वाब सजा ही रहा था कि एक दिन श्वेता ने उसे बताया कि उस की शादी होने वाली है. उस ने बताया कि उस के परिवार वालों ने उस के लिए एक लड़का देखा है और अगले साए में उस की शादी कर दी जाएगी.

एक बार फिर रजत का दिल टूटा था, वह भी उसी लड़की के हाथों. इस बार रजत खुद को संभालने में स्वयं को विफल पाने लगा. उस ने ठान लिया था कि अब वह श्वेता से कोई सरोकार नहीं रखेगा.

अगर श्वेता उस की हो गई होती, तो उस की राह में वह असंभव को भी संभव बना देता. उस को दुनिया की हर खुशी देता, चाहे इस के लिए उसे पूरे संसार से लोहा लेना पड़े. प्यार ने उसे एक लड़के से एक पुरुष में तबदील कर दिया था.

एक पुरुष के लिए उस का पहला प्यार अविस्मरणीय, अतुलनीय होता है. एक प्रेमी अपनी महबूबा को वह स्थान देता है, जो उस ने आज तक किसी को नहीं दिया, शायद अपने परिवार और अपने दोस्तों से भी ऊपर. उस के लिए प्यार स्वार्थरहित व शर्तरहित होता है.

उसे आज भी याद है, स्कूल में उस के दोस्तों ने उसे समझाया था, ‘‘अरे यार, किसी पर इतना भी फिदा ना हो जा कि उस के परे दुनिया ही ना रहे. संसार में कुछ भी स्थायी नहीं. चेंज इज द ओनली कौंस्टेंट. जब तक वह तुम्हारे पास है उसे प्यार करो, लेकिन जब वह बिछुड़ जाए तो उसे जाने दो.‘‘

हमारे समाज की एक विडंबना यह भी है कि मर्द को दर्द नहीं होता. बेचारा अंदर से कितना भी टूट रहा हो, ऊपर से उसे अपनी मैचोमैन इमेज बना कर रखनी ही पड़ती है. स्वयं को मजबूत और भावनाहीन दिखाना मर्द होने की निशानी बन जाता है.

इसी चक्रव्यूह में फंस कर रजत भी ऊपर से शांत बना रहा. यह तो उस का दिल ही जानता है कि आज भी उस के एटीएम का पिन नंबर श्वेता के जन्म की तारीख है, क्योंकि आज भी वह श्वेता से ही प्यार करता है. जहां भी जाता है लगता है श्वेता उस के साथ है. जबकि एक बार ठान लेने के बाद उस ने कभी श्वेता को ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की. वह तो बस अपनी यादों में उस के साए के साथ ही खुश रहा.

शादी भी उस ने परिवार की रजामंदी से कर ली और निरंजना को भी पूरी ईमानदारी से चाहने लगा. श्वेता के प्यार का साया, जो उस के दिल में आज भी लहराता है, वो कभी भी निरंजना के प्रति किसी दुराव का कारण नहीं बना. इस के पीछे का कारण शायद यह है कि कुछ घटनाएं हमारे जीवन को प्रमुख हिस्सों में बांट देती हैं. फिर उन से बाहर निकलना बेहद मुश्किल हो जाता है.

उस की शादी को पांच साल बीत चुके हैं और श्वेता से दूर हुए लगभग सात साल. लेकिन फिर भी उसे ऐसा लगता है, जैसे कल ही की बात हो. श्वेता की झलक, उस की हंसी, उस का आंखें सिकोड़ना, उस के अपने मन में श्वेता के प्रति पुलकित होती भावनाएं… सबकुछ कल की ही बात लगती है.

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तभी तो आज श्वेता का नाम अपनी नजरों के सामने आने पर उस के मन की आर्द्र पुकार कहने लगी कि यही है, जिस का बायोडाटा उस को चयनित करना है.

अगले कुछ दिनों तक रजत एचआर डिपार्टमैंट के पीछे लगा रहा कि क्यों नहीं वो चयनित प्रत्याशियों का साक्षात्कार करवा रहे. उस की जिद थी कि सारे काम छोड़ कर पहले उस के सचिव पद की नियुक्ति की जाए.

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प्यार को प्यार ही रहने दो : भाग-2

कालेज का आखरी साल आ गया.  ‘‘अगर अभी नहीं बोली तो कब बोलेगी?‘‘ निरंजना की अंतरात्मा उसे धिक्कारती. उस के प्रति उत्तर में सब से पहले निरंजना ने अपनी सीट बदली, और उस के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठने लगी.

उस दिन शुक्रवार था. दोपहर की क्लास के बाद वह अपने सहपाठी से बोला, ‘‘नमाज पढ़ कर आता हूं.‘‘

इतना कह कर वह चला गया. निरंजना ने जो सुना, उस के बाद डर के मारे उस की घिग्घी बंध गई. दिमाग में हजारों विचारों के घोड़े दौड़ने लगे. कभी मां कहतीं, ‘जल्दी से जल्दी इस की शादी कर दो,‘ तो कभी पिता धर्म का वास्ता दे कर कहते, ‘कोई और नहीं मिला था तुझे?‘

लेकिन, इस बीच अपने अंतर्मुखी चोले को उतार निरंजना खुद कहती, ‘मैं नहीं मानती धर्म और जाति को. यह तो इनसानों की बनाई हुई बेड़ियां हैं. मैं केवल अपने दिल की बात सुनूंगी. मैं पीछे नहीं हटूंगी.‘

सपनों में इतना कहना है तो जब असल जिंदगी में बात बाहर आएगी, तब क्या होगा.

खैर, निरंजना केवल सपनों से डरना नहीं चाहती थी. धर्म की इस मोटी मजबूत दीवार के बावजूद उस ने नसीम से मित्रता कर ली.

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नसीम के अनेक दोस्तों में अब निरंजना का भी नाम जुड़ चुका था. अब निरंजना का उद्देश्य था कि नसीम के मन में अपने लिए प्यार की लौ जलाना.

जो भावना वह नसीम के लिए रखती थी, उसी का सिला यदि दूसरी तरफ से नहीं मिला तो मिलन पूरा कैसे होगा?

आजकल निरंजना इसी उधेड़बुन में रहने लगी थी. नसीम के मन में प्यार जब हिलोरे लेगा तब लेगा, लेकिन निरंजना का मन उसे देख कर ही बागबाग हो उठता. उस के दिल ने भविष्य को ले कर न जाने कितने सुनहरे सपने सजा लिए, जिन में वह थी और उस का नसीम था.

पहले प्यार को दिल कभी नहीं भूलता. संभवतः उसे याद करते रहने में भी कोई बुराई नहीं है. सच्चा प्यार ना कभी कम होता है और ना मरता है. वह तो बस समय की गर्त में नीचे, कहीं नीचे, दिल की सतहों में दफन हो कर रह जाता है. लेकिन वह बंधन, जो पहले प्यार का दिल से होता है, उस गिरह को खोल पाना शायद मुमकिन नहीं.

पहले प्यार की याद आती है, लेकिन एक प्रसन्नता भरी लहर की तरह, न कि मायूसी भरी तरंग बन कर. पहले प्यार की याद में यदि मिलन की आशा नहीं, तो छूट जाने की निराशा भी नहीं. वह अपनेआप में पर्याप्त है दिल में खुशियां भर देने के लिए. तभी तो आज निरंजना के दिल में मीठी यादें एक बार फिर अंगड़ाई ले रही थीं. उन्हीं यादों को सीने से लगाए निरंजना नींद की आगोश में समा गई.

‘‘आज मीटिंग है दफ्तर में, इसलिए थोड़ा जल्दी निकलूंगा,‘‘ कहते हुए रजत अखबार की सुर्खियों में खो गया.

‘‘ठीक है, जल्दी नाश्ता तैयार कर देती हूं,‘‘ निरंजना किचन की ओर बढ़ गई. दोनों की गृहस्थी में वह सब था, जो एक आदर्श युगल जोड़े में होना चाहिए – एकदूसरे के प्रति प्यार, सम्मान व विश्वास.

रजत और निरंजना की शादी को पांच साल बीत चुके हैं और इन पांच सालों में दोनों ने एकदूसरे को अच्छी तरह समझ लिया है और एकदूसरे की खूबियों व कमियों के साथ स्वीकार लिया है. तभी तो दोनों इतने खुश रहते हैं. दोनों की ही माताएं अब अपनी गोद में एक नन्हे को खिलाने की चाह प्रकट करती रहती हैं, लेकिन यह इन दोनों की समझदारी है कि यह अपनी जिंदगी के निर्णय अपने हिसाब से करते हैं.

शादी के समय ही इन्होंने यह सोच लिया था कि परिवार आगे तभी बढ़ाएंगे जब हम चाहेंगे, ना कि जब सामाजिक दबाव पड़ने लगेगा.

आज निरंजना ने नाश्ते में ब्रेड पकोड़े बनाए. नसीम को ब्रेड पकोड़े बहुत पसंद थे. जब कभी उस का दिल नसीम को याद करता है, वह उस की पसंद का खाना बना कर रजत को खिलाती है. और उस की आंखें रजत के रूप में नसीम को बैठा पाती हैं.

निरंजना का मन इस भावना को किसी बेवफाई के रूप में नहीं देखता. वह तो पूरी तरह रजत की है. बस, दिल का एक टुकड़ा है, जो अभी भी नसीम के नाम पर धड़कता है. उस ने कई बार स्वयं से यह प्रश्न भी किया कि ऐसा क्यों?

पहला प्यार शायद इसलिए भी नहीं भूलता, क्योंकि यही वह इनसान है जिस ने आप के दिल के कोरे कागज पर पहला हर्फ लिखा. उस के बाद तो इस दिल के कागज पर जो भी कुछ लिखा गया, उस ने कहानी को आगे ही बढ़ाया, शुरुआत नहीं की. दिल का जो टुकड़ा पहले प्यार में पड़ा वह मासूम था, अनजाना था, अनभिज्ञ था. भविष्य में यह दिल जिस के भी पास जाए, उस पर एक छाप लग चुकी होती है.

पहला प्यार, पहला स्पर्श, पहला चुंबन… वह तारों को गिनना, वो सपनों में मुसकराना, वह प्रीतम की याद आने पर आंखों का स्वतः आर्द्र हो उठना… दिल पर पहली दस्तक की बात ही कुछ और है. उस के बाद तो जो हुआ, वह एक अनुभवी दिल पर गुजरने वाले तजरबे की तरह है.

रजत के औफिस चले जाने के बाद निरंजना ने घर का कामकाज निबटाया, फिर नहाधो कर हाथों में क्रीम लगाते हुए जब वह ड्रेसिंग टेबल के आईने में खुद को निहार रही थी, तो अचानक उस की उंगलियां शादी की अंगूठियों में घूमने लगीं.

कुछ याद करते हुए वह फौरन अपनी अलमारी की ओर लपकी. अपने लौकर में से उस ने एक चांदी का छल्ला निकाला, जिस पर हरा पत्थर बखूबी खिल रहा था. अनायास ही वह यह धुन गुनगुनाने लगी, ‘‘मैं ता कोल तेरे रहना… ‘‘

यही वह अंगूठी थी, जो नसीम ने निरंजना को अपने प्यार का इजहार करते हुए दी थी. उस दिन निरंजना के पैर जमीन पर नहीं पड़े थे. शायद उड़ ही रही थी वह.

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इस बार जब वह होस्टल की छुट्टियों में घर जाएगी, तो अपने मम्मीपापा से नसीम के बारे में बात करेगी. यही वादा नसीम ने भी उसे दिया था. दोनों साथसाथ समय गुजारते और भविष्य के सपने संजोते. कभी यह सोचते कि किस शहर में अपना घर बनाएंगे, तो कभी यह सोचते कि बच्चों के नाम क्या होंगे.

आगे पढ़ें- दोनों ने अपनेअपने धर्मों को निभाते हुए…

जरा सी आजादी: भाग-3

पैनी नजर रखी शुभा ने क्योंकि रसोई में चाकू भी थे. तेज धार चाकू उस ने उठा कर छिपा दिए थे जिस पर नेहा ने आवाज दी. ‘‘दीदी, आप का चाकू आलू तक तो काटता नहीं है, आप इस से काम कैसे करती हैं?’’

‘‘आज बाजार चलेंगे, नेहा. कुछ सामान लाना है. चाकू भी लाने वाले हैं.’’

आधे घंटे के बाद नेहा ने नाश्ता मेज पर सजा कर रख दिया. आलूटमाटर की सब्जी और पूरी. खातेखाते नेहा ने कहा, ‘‘दीदी, आप का घर कितना खुलाखुला है. ऐसा लगता है सांस आती भी है और जाती भी है. मेरे घर में सामान ही इतना है कि…’’

‘‘पुराना सामान निकाल देते हैं. थोड़ा सा बदलाव करते हैं. तुम्हारा घर भी खुलाखुला हो जाएगा. आज बाजार चलते हैं न. चलो, अभी चलें. दोपहर का लंच बाहर ही करेंगे.’’

‘‘कुछ रुपए दिए हैं ब्रजेश ने. अपने लिए जो चाहूं खरीदने को कहा है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास भी कुछ रुपए हैं. जरूरत पड़ी तो बैंक से निकाल लेंगे. तुम जो चाहो, ले लेना.’’

‘‘अरे नहीं बाबा, मुझे क्या ताजमहल खरीदना है जो इतने रुपए चाहिए. न सोना चाहिए न महंगी साड़ी. कुछ भी भारीभरकम नहीं चाहिए. कुछ हलकाफुलका चाहिए जिस का मेरी छाती पर कोई बोझ न हो.’’

अभियान शुरू किया नेहा की रसोई से. दुनियाजहान के पुराने बरतन, जिन्हें कभी अपना घर बनाने पर निकाल देंगे, पुराना फ्रिज, पुराना टीवी, रेडियो, पुरानी प्रैस, पुराना लोहा, पुरानीपुरानी किताबें, पुराना फर्नीचर, पुराने परदे, पुराने कपड़े, पुरानी तसवीरें, पुरानी साडि़यां, और भी बहुतकुछ था जिसे बदलने की आवश्यकता थी.

‘‘कल जब अपना घर होगा तब ले लेना नया सब.’’

‘‘अपना घर होगा जब रिटायरमैंट होगा और उस में अभी 4 साल पड़े हैं. तब तक तो मन भी मर जाएगा. कल का इंतजार कब तक, दीदी?’’

‘‘कल का इंतजार तुम अपने हाथों समाप्त कर लो, नेहा.’’

‘‘ब्रजेश औफिस के काम से बाहर जाने वाले हैं इस सोमवार, कह रहे हैं मुझे साथ लेते जाएंगे.’’

‘‘तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘क्या करूंगी, होटल में सड़ूंगी और क्या.’’

‘‘तो मत जाओ. मैं कागजकलम देती हूं, सामान की लिस्ट बनाओ जिसे बदलना चाहती हो. वे बाहर रहेंगे तो हम आराम से सफाई अभियान पूरा कर लेंगे.’’

‘‘घर में तांडव हो जाएगा. मेरी इतनी औकात कहां.’’

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‘‘तुम घर की मालकिन हो न. अपनी इच्छा का मान भी करना सीखो. घर के बरतन बदलने में भी तुम ब्रजेशजी का मुंह देखती हो. उन्हें उन के औफिस तक ही रहने दो न.’’

‘‘नहीं रहते न औफिस तक. रसोई के चम्मच तक में उन की मरजी होती है. घर में ऐसा कुहराम मचेगा कि मुझे सांस तक लेना मुश्किल हो जाएगा,’’ खीज पड़ी थी नेहा, ‘‘कल मेरी सास की मरजी थी, अब पति की है. कल बहू की होगी, मेरी मरजी शायद अगले जन्म में होगी.’’

‘‘अगला जन्म किस ने देखा है, पगली. कल क्या होगा कौन जानता है. आज देखो. ब्रजेश को मैं और विजय समझा लेंगे. आज भी शायद विजय ने समझाया होगा.’’

‘‘तो क्या इसीलिए आज बारबार मुझ से कह रहे थे कि मेरा जो जी चाहे मैं करूं, वे मना नहीं करेंगे. कुछ अजीबअजीब सी बातें कर तो रहे थे.’’

‘‘तुम्हारी मरजी की बात अजीबअजीब सी लगी तुम्हें?’’

‘‘जो कभी नहीं हुआ वह एक दिन होने लगे तो अजीब ही लगेगा न.’’

नेहा की बातों में शुभा दिलचस्पी ले रही थी.

‘‘मेरी मरजी, मेरी इच्छा, मेरी सोच, अजीब तो है ही. मेरा घर कहीं नहीं है, दीदी. शादी से पहले अपना घर सजाने का प्रयास करती थी तो मां कहती थीं, अभी पढ़ोलिखो. सजा लेना अपना घर जब अपने घर जाओगी. शादी कर के आई तो ब्रजेश ने ढेर सारी जिम्मेदारियां दिखा दीं. एक बेटी की इच्छा थी, वह भी पूरी नहीं होने दी ब्रजेश ने. पिता की बेटियों को निभातेनिभाते अपनी बेटी के लिए कुछ बचा ही नहीं. अब इस उम्र में कुछ बचा ही नहीं है जिसे कहूं, यह मेरा शौक है. मेरा घर तो सब का घर ही सजाने में कहीं खो गया. बच गया है कबाड़खाना, जिसे हर 3 साल के बाद ब्रजेश ढो कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाते हैं.’’

मन भर आया शुभा का.

‘‘मन भर गया है, दीदी. अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चलो, पहले इस कागज पर लिखो तो सही, क्या बदलना चाहती हो. ब्रजेश ने मुझे कहा है न कि मैं तुम्हारी सहायता करूं. वे कुछ कहेंगे तो मुझे बताना. इल्जाम मुझ पर लगा देना, कहना कि मैं ने कहा था बदलने को.’’

सोमवार को ब्रजेश 3 दिन के लिए बाहर गए और सचमुच नेहा को साथ नहीं ले गए. शुभा ने वास्तव में नेहा का घर बदल दिया.

पुराने सारे बरतन निकाल दिए और थोड़े से पैसे और डाल कर रसोई चमचमा गई. 10 हजार रुपए का लोहाकबाड़ बिक गया जिस में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवेव आ गया. रद्दी सामान और पुराना फर्नीचर निकाला जिस में छोटा सा कालीन नए परदे और 2 नई चादरें आ गईं.

3 दिन से दोनों रोज बाजार आजा रही थीं और इस बीच शुभा बड़ी गहराई से नेहा में धीरेधीरे जागता उत्साह देख रही थी. उस ने चुनचुन कर अपने घर का सामान खरीदा, कटोरियां, प्लेटें, गिलास, चम्मच, दालों के डब्बे, मसालों की डब्बियां, रंगीन परदे, लुभावना कालीन, सुंदर चादरें, चार चूल्हों वाली गैस, सुंदर फूलों की झालरें, छोटा सा माइक्रोवेव, सुंदर तोरण और बंदनवार.

हर रात या तो शुभा उस के घर सोती थी या उसे अपने घर पर सुलाती थी. घर सज गया नेहा का. बुझीबुझी सी रहने वाली नेहा अब कहीं नहीं थी. मुसकराती, अपना घर सजा कर बारबार खुश होती नेहा थी जिस की दबी हुई छोटीछोटी खुशियां पता नहीं कहांकहां से सिर उठा रही थीं. बहुत छोटीछोटी सी थीं नेहा की खुशियां. बाहर बालकनी में चिडि़यों का घर और उन के खानेपीने के लिए मिट्टी के बरतन, बालकनी में बैठ कर चाय पीने के लिए 4 प्लास्टिक की कुरसियां और मेज.

‘‘दीदी, वे नाराज तो नहीं होंगे न?’’

‘‘उन के लिए भी कुछ ले लो न. कोई शर्ट या टीशर्ट या पाजामाकुरता. कुछ बहू के लिए भी तो लो. बेटी की इच्छा पूरी तो हो चुकी है तुम्हारी. वह तुम्हारी बच्ची है न. उसे भी अच्छा लगेगा जब तुम उस के लिए कुछ लोगी. तुम्हें शौक पूरे करने को कुछ नहीं मिला क्योंकि जिम्मेदारियां थीं. तुम बहू का शौक तो पूरा कर दो. अब क्या जिम्मेदारी है? जो तुम्हें नहीं मिला कम से कम वह अपनी बहू को तो दे दो.’’

‘‘उसे पसंद आएगा, जो मैं लाऊंगी?’’

‘‘क्यों नहीं आएगा. मेरे पास कुछ रुपए हैं. मुझ से ले लो.’’

‘‘अपने हाथ से इतने रुपए मैं ने कभी खर्च ही नहीं किए. अजीब सा लग रहा है. पता नहीं, क्याक्या सुनना पड़ेगा जब ब्रजेश आएंगे. दीदी, आप पास ही रहना जब वे आएंगे.’’

‘‘कितने पैसे खर्च किए हैं तुम ने? कबाड़खाने से ही तो सारे पैसे निकल आए हैं. जो रुपए ब्रजेश दे कर गए थे उस से ब्रजेश के लिए और बच्चों के लिए कुछ ले लो. टीशर्ट और शर्ट खरीद लो, बहू के लिए कुरती ले लो, आजकल लड़कियां जींस के साथ वही तो पहनती हैं.’’

बुधवार की शाम ब्रजेश आने वाले थे. बड़े उत्साह से घर सजाया नेहा ने. चाय के साथ पकौड़ों का सामान तैयार रखा. रात के लिए मटरपनीर और दालमखनी भी रसोई में ढकी रखी थी. शुभा के लिए भी एक प्रयोग था जिस का न जाने क्या नतीजा हो. पराई आग में जलना उस का स्वभाव है. आज पराया सुख उसे सुख देगा या नहीं, इस पर भी वह कहीं न कहीं आश्वस्त नहीं थी. पुरानी आदतें इतनी जल्दी साथ नहीं छोड़तीं, पत्नी को दी गई आजादी कौन जाने ब्रजेश सह पाते हैं या नहीं?

द्वारघंटी बजी और शुभा ने ही दरवाजा खोला. ब्रजेश के साथ शायद बेटा और बहू भी थे. बड़े प्यारे बच्चे थे दोनों. उसे देख दोनों मुसकराए और झट से पैर छूने लगे.

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‘‘आप शुभा आंटी हैं न. पापा ने बताया सब. मम्मी खुश हैं न?’’ बहुत धीरे से बुदबुदाया वह लड़का.

एक ही प्रश्न में ढेर सारे प्रश्न और आंखों में भी बेबसी और डर. कुछ खो देने का डर. मंदमंद मुसकरा पड़ी शुभा. ब्रजेश आंखें फाड़फाड़ कर अपना सुंदर सजा घर देख रहे थे. आभार था जुड़े हाथों में, भीग उठी पलकों में, शायद आत्मग्लानि की पीड़ा थी. ऐसा क्या ताजमहल या कारूं का खजाना मांगा था नेहा ने. छोटीछोटी सी खुशियां ही तो और कुछ अपनी इच्छा से कर पाने की आजादी.

‘‘नेहा, देखो तुम्हारी बेटी आई है,’’ शुभा ने आवाज दी.

पलभर में सारा परिवार एकसाथ हो गया. नेहा भागभाग कर उन के लिए संजोए उपहार ला रही थी. बेटे का सामान, बहू का सामान, ब्रजेश का सामान.

‘‘मम्मी, आप ने घर कितना सुंदर सजाया है. परदे और कालीन दोनों के रंग बहुत प्यारे हैं. अरे, बाहर चिडि़या का घर देखो, पापा. पापा, चाय बाहर बालकनी में पिएंगे. बड़ी अच्छी हवा चल रही है बाहर. पूरा घर कितना खुलाखुला लग रहा है.’’

नेहा की बहू जल्दी से कुरती पहन भी आई, ‘‘मम्मी, देखो कैसी है?’’

‘‘बहुत सुंदर है बच्चे. तुम्हें पसंद आई न?’’

धन्यवाद देने हेतु बहू ने कस कर नेहा के गाल चूम लिए. ब्रजेश मंत्रमुग्ध से खड़े थे. अति स्नेह से उस के सिर पर हाथ रख पूछा, ‘‘अपने लिए क्या लिया तुम ने, नेहा?’’

‘‘अपने लिए?’’ कुछ याद करना चाहा. क्या याद आता, उस ने तो बस घर सजाया था, अपने लिए अलग कुछ लेती तो याद आता न. बस, गरदन हिला कर बता दिया कि अपने लिए कुछ नहीं लिया.

‘‘देखो, मैं लाया हूं.’’

बैग से एक सूती साड़ी निकाली ब्रजेश ने. तांत की क्रीम साड़ी और उस का खूब चौड़ा लाल सुनहरा बौर्डर.

शुभा को याद आया ब्रजेश को सूती साड़ी पहनना पसंद नहीं जबकि नेहा की पहली पसंद है कलफ लगी सूती साड़ी. खुशी से रोने लगी नेहा. ब्रजेश जानबूझ कर 3 दिन के लिए आगरा बेटे के पास चले गए थे. पलपल की खबर विजय और शुभा से ले रहे थे. शुभा की तरफ देख आभार व्यक्त करने को फिर हाथ जोड़ दिए. अफसोस हो रहा था उन्हें. क्यों नहीं समझ पाए वे, खुशी भारी साड़ी या भारी गहने में नहीं, खुशी तो है खुल कर सांस लेने में. छोटीछोटी खुशियां जो वे नेहा को नहीं दे पाए.

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एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: भाग-1

उस ने उसे देखा तो बस देखता ही रह गया. कितने दिनों बाद किसी की आंखों में डूब जाने का मन हुआ था उस का. ऐसा लग रहा था जैसे इतने दिन इस पूरे चांद की आस में ही अधूरी चांदनी रातें गुजारी थीं उस ने. कनिष्क मैट्रो में सामने बैठी उस लड़की को पिछले कुछ मिनटों से देख रहा था, कभी पलकें झुकाता तो कभी उठाता. उस लड़की के चेहरे पर मास्क लगा हुआ था. आखिर लगा क्यों न होता, लगभग सभी ने मास्क पहना हुआ था, कोरोना का डर अभी तक गया जो नहीं था. कनिष्क का मास्क से दम घुटने लगा था और इसीलिए उस ने अपना मास्क उतार लिया था. उस ने अपने बगल में दाएंबाएं देखा तो बगल में बैठे दोनों ही लड़के अपने फोन की स्क्रीन में घुसे हुए थे. उस ने अपने हाथों में पकड़े फोन का कैमरा खोला और उस लड़की की फोटो खींचने लगा.

उस लड़की के हाथ में किताब थी. उस की नजरें अपनी किताब से हर आने वाले स्टेशन पर उठतीं और सामने खिड़की से बाहर देखने लगतीं. शायद उसे लगता हो कि उस का स्टेशन किताब के चक्कर में छूट न जाए. जब वह सामने की ओर देखती तो कनिष्क को लगता जैसे उसे देख रही हो. वह खुश हो जाता. अचानक उस लड़की के सामने एक वृद्ध अंकल आ कर खड़े हुए तो कनिष्क की ताकाझांकी में खलल पड़ गया. वह मन ही मन उन अंकल को दोतीन अपशब्द कहता, उस से पहले ही वह लड़की अपनी सीट से उठ गई और अंकल उसे थैंक्यू कहते हुए उस की सीट पर बैठ गए. कनिष्क को एक पल लगा कि उठ कर उस लड़की को अपनी सीट दे दे, लेकिन वह सोच में पड़ गया कि उठे या नहीं. वह लड़की जब खड़ी हुई तो राजेंद्र प्लेस आ चुका था. जैसे ही अगला स्टेशन करोल बाग आने वाला था, कनिष्क के बगल की सीट पर बैठा लड़का उठ खड़ा हुआ और वह कनिष्क के बगल में आ कर बैठ गई.

कनिष्क के मन में तो जैसे प्रेमगीत

गुनगुनाने लगे थे. वह उस लड़की के इतना करीब बैठा था लेकिन उस से कुछ कहने की उस की हिम्मत नहीं हुई. होती भी कैसे? आखिर उस लड़की को बुरा लग गया और उस ने मैट्रो में कोई तमाशा कर दिया तो? कनिष्क अपने सुंदर से चेहरे को उस लड़की के हाथों थप्पड़ खा कर लाल नहीं कराना चाहता था. वह लड़की अपनी किताब में खोई हुई थी कि अचानक उस के बैग में रखे फोन से नोटिफिकेशन की आवाज सुनाई दी. उस लड़की ने बैग से फोन निकाला. कनिष्क की नजरें भी उस के फोन पर जा अटकीं. स्क्रीन पर लिखा था, ‘नीतिका हैज मेंशंड इन अ स्टोरी’. यह इंस्टाग्राम का नोटिफिकेशन था जिस पर उस लड़की ने झट इंस्टाग्राम खोल लिया. उस का इंस्टाग्राम खुला और कनिष्क की नजर सब से ऊपर कोने में दिख रहे उस के यूजरनेम पर गई. यूजरनेम था ‘टोस्का’. कनिष्क ने यह शब्द ही पहली बार सुना था तो झट अपना इंस्टाग्राम खोल टोस्का टाइप कर उस लड़की  को ढूंढ़ने लगा कि तभी अनाउंसमैंट हुआ कि अगला स्टेशन राजीव चौक है. लड़की  झट उठी और बैग में किताब डालते हुए गेट पर जा खड़ी हुई. कनिष्क के देखते ही देखते गेट खुला और वह लड़की भी भीड़ में कहीं ओझल हो गई.

टोस्का….टोस्का…टोस्का….कनिष्क अपनी क्लास में बैठ अब भी उसी लड़की के बारे में सोच रहा था. लौकडाउन के बाद कालेज खुलने का यह तीसरा दिन ही था और सभी अपने क्वारंटाइन के दिनों की बातें करने में बिजी थे. कनिष्क बीएससी जूलोजी का सैकंड ईयर का स्टूडैंट था. तेजतर्रार डिबेटिंग सोसाइटी का मैंबर, वुमैन डेवलपमैंट सोसाइटी, बोटानिकल सोसाइटी, स्पिक मेके, लगभग हर करीकुलर एक्टिविटी से वह जुड़ा हुआ था.

वह स्कूलटाइम से ही कई रिलेशनशिप्स में रहा था. लेकिन कोई भी बहुत सीरियस कभी नहीं हुई थी और कालेज में पिछले एक साल में उस ने एकदो लड़कियों को डेट किया ही था. आज जब उस लड़की को देखा तो उसे लगा जैसे उसे कुछ महसूस हुआ है, कुछ नौर्मल से हट कर. हर मिनट वह इंस्टाग्राम पर चैक करता कि उस ने अब तक उस की फौलोरिक्वैस्ट एक्सैप्ट की है या नहीं. उस लड़की की प्रोफाइल प्राइवेट थी यानी डिस्प्ले पिक्चर के अलावा कनिष्क को कुछ भी नहीं दिख रहा था. डिस्प्ले पिक्चर में भी उस का चेहरा साफ नहीं था, उस ने अपने मुंह पर हाथ रखा हुआ था. कनिष्क बेताब हुआ जा रहा था उन हाथों के पीछे छिपे उस के खूबसूरत चेहरे को देखने के लिए. कनिष्क को इस तरह कशमकश में देख उस का दोस्त सुमित उस के बगल में आ कर बैठ गया.

‘‘कुछ बात है क्या,’’ सुमित ने सवाल किया.

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुमित उठ ही रहा था कि कनिष्क बोल पड़ा, ‘‘कभी ऐसा हुआ है कि तू ने कोई लड़की देखी हो मैट्रो में और तुझे उस पर क्रश टाइप कुछ आ गया हो?’’

‘‘रोज ही आता है नया क्रश तो,’’ सुमित ने कहा और ठहाका मार हंसा.

‘‘फिर आगे? तू बात करता है उस से जा कर या कभी इंस्टाग्राम या फेसबुक पर मिली वह?’’

‘‘पागल है क्या? मैट्रो में देख कर उस का नाम थोड़ी पता चल जाता है. और वैसे भी, आजकल हर लड़की का बौयफ्रैंड होता ही है. सो, बिना जाने उसे अप्रोच करने का कोई फायदा नहीं है,’’ सुमित ने कहा.

‘‘ओह.’’

‘‘तुझे कौन पसंद आ गई?’’

‘‘नहीं, कोई नहीं,’’ कनिष्क ने बताया.

‘‘अब बता भी.’’

‘‘यार, एक लड़की दिखी थी आज मैट्रो में मास्क पहने हुए. महरून टौप, ब्लू जींस, लंबेघने बाल, स्पोर्टशूज पहने हुए थी. उस की आंखें इतनी सुंदर थीं कि क्या बताऊं. उस ने हैंडबैग ले रखा था और किताब पढ़ रही थी मुराकामी की, मतलब समझदार किस्म की थी. एक तो इतनी पतली थी, ऊपर से पर्सनैलिटी इतनी अच्छी, उठनेबैठने का तरीका इतना अच्छा था. देख, मैं ने उस की फोटो भी ली थी. चेहरा नहीं दिख रहा लेकिन पर्सनैलिटी देख यार,’’ कहते हुए कनिष्क सुमित को उस लड़की की तसवीर दिखाने लगा.

‘‘तो तू ने बात नहीं की?’’ सुमित बोल उठा.

‘‘नहीं न, यही तो प्रौब्लम है. लेकिन मैं ने उस का इंस्टा यूजरनेम देखा था और उसे रिक्वैस्ट भी भेज दी. अब वह एक्सैप्ट कर ले, तो कुछ बात बने.’’

‘‘हम्म, लेट्स सी.’’

आगे पढ़ें- कनिष्क पूरा दिन इंतजार करता रहा. लेकिन…

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: भाग-3

वह कालेज पहुंचा और अपनी कैंटीन में जा कर बैठ गया. उस का अब क्लास में जाने का भी मन नहीं था. कुछ मिनटों बाद ही सुमित वहां आ गया.

‘‘यार, बड़ी गड़बड़ हो गई,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘क्या हो गया?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘वह लड़की याद है कल वाली, उस से मिला आज मैं.’’

‘‘ओहहो, यह कैसे हो गया, कैसा रहा सब. नाम क्या है उस का? नंबर लिया या नहीं?’’ सुमित एक के बाद एक सवाल करने लगा.

‘‘रीतिका नाम है उस का और नंबर मांगता मैं आज लेकिन… यार उस का चेहरा… यह देख,’’ कनिष्क ने फोन खोल रीतिका की इंस्टा पर जितनी तसवीरें थीं सुमित को दिखाईं.

तसवीरें देख कर सुमित का मुंह भी खुला का खुला रह गया. उस के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘‘भाईसाहब यह क्या है, कैसे, क्यों, मतलब यह कैसे हुआ?’’

‘‘यार, मुझे क्या पता. मैं बस उस की शक्ल नहीं देख पा रहा अब. मुझे कल ही उस की शक्ल दिख जाती तो ऐसा नहीं होता न.’’

‘‘तो कल तू ने शक्ल कैसे नहीं देखी? इंस्टाग्राम पर तो तुझे कल भी शक्ल दिख ही गई होगी.’’

‘‘उस ने मुझे फंसाया है,’’ कनिष्क बोल उठा.

‘‘क्या मतलब?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘पहले तो उस ने मेरी रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की ताकि मैं उस की शक्ल न देख पाऊं, फिर इतनी मीठीमीठी बातें कीं मुझ से, लेकिन यह नहीं बताया कि उस की शक्ल ऐसी है. अब तो मुझे लग रहा है कल मेरे बगल में भी वह जानबूझ कर ही बैठी होगी और अपना यूजरनेम भी जान कर ही दिखाया होगा. आजकल की लड़कियां इतनी चालाक हैं न कि क्या बताऊं…’’ कनिष्क लगातार बोले ही जा रहा था कि उस के फोन पर इंस्टाग्राम का नोटिफिकेशन आ गया.

उस ने फोन खोला तो देखा रीतिका का मैसेज था, ‘‘हाय, मुझे तुम्हें देख कर लगा था तुम अलग हो पर तुम भी सब की तरह ही निकले. सौरी, मुझे तुम से बात करने से पहले अपनी शक्ल दिखा देनी चाहिए थी ताकि आज सुबह जो हुआ वह न होता. मेरी शक्ल के आगे तुम मेरी सारी खूबियां भूल गए होगे, है न? तुम पहले नहीं हो जिस ने ऐसा किया है. मेरा चेहरा बचपन से ही ऐसा है और यकीन मानो, मेरे लिए भी इसे देखना एक वक्त पर बहुत मुश्किल था, लेकिन अब नहीं है. तुम्हें मुझ से बात करने की या मुझे आगे जाननेसमझने की कोई जरूरत नहीं है, एक दिन में कौन सा तुम और मैं एकदूसरे को इतना जानते ही हैं जो किसी तरह की कोई मुश्किल होगी. चिल्ल करो.’’

कनिष्क और सुमित दोनों ने ही यह मैसेज पढ़ा. कनिष्क ने मैसेज पढ़ कर रिप्लाई किए बिना ही फोन बंद कर दिया.

‘‘तू रिप्लाई नहीं करेगा?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ कनिष्क बोला.

‘‘पर क्यों नहीं?’’ सुमित हैरान था.

‘‘तू ने देखा नहीं? एक तो इस की शक्ल इतनी बुरी है ऊपर से इतना घमंड, इतना एटीट्यूड, किस बात का? पहले खुद मुझे फंसाने की कोशिश की अब मुझे इमोशनल करने की कोशिश कर रही है अपना दुखड़ा सुना कर. ‘मुझे लगा तुम अलग हो’ इस का क्या मतलब है. खुद की शक्ल ऐसी है तो मैं क्या करूं. मुझे न इस से कोई बात करनी है न इस को देखना है. पता नहीं कौन सी घड़ी में मुझे यह अच्छी लग गई,’’ कनिष्क जिस मुंह से कल तक फूल गिरा रहा था, आज जहर उगल रहा था.

‘‘तू यह बोल क्या रहा है, कुछ सोच भी रहा है? तू उस के पीछे था, तू ने उसे सामने से अप्रोच किया, अब तू कह रहा है कि उस में सैल्फरिस्पैक्ट तक नहीं होनी चाहिए क्योंकि उस की शक्ल बुरी है. तू ही था न जिस ने पिछले साल एसिड अटैक पर भाषण दिया था स्टेज पर और कहा था कि खूबसूरती सीरत में होती है सूरत में नहीं, अब अपनी बात से ऐसे कैसे पलट रहा है.’’

‘‘यार, तू मेरा दोस्त है या उस का?’’ कनिष्क ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘हूं तो तेरा ही पर अब लग रहा है कि क्यों हूं. तेरी सारी खूबियां तेरी घटिया सोच के आगे फीकी पड़ गई हैं और यकीन मान, तू परफैक्ट नमूना है इस बात का कि लोग शक्ल से सुंदर हों तो जरूरी नहीं मन से भी हों.’’

‘‘मुझ से इस तरह बात करने की कोई जरूरत नहीं है सुमित,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘मेरे आगे किसी के बारे में इस तरह की बात करने की तुझे भी कोई जरूरत नहीं है. मैं तेरा दोस्त हूं, इस का मतलब यह नहीं तेरी हर गलतसलत बातें सुनूंगा. और पता है, मैं खुश हूं कि वह लड़की  बच गई. क्या कौन्फिडैंस है उस में. तुझ जैसे लड़के की गर्लफ्रैंड बनती तो आत्मग्लानि और इंसिक्योरिटी से भर जाती.’’ सुमित अपनी बात कह कर चला गया और कनिष्क गुस्से से भर गया. उस ने फोन उठाया और इंस्टाग्राम से रीतिका को ब्लौक कर दिया.

उस शाम कनिष्क न चाहते हुए भी बारबार रीतिका के बारे में ही सोच रहा था. उसे सुमित की कही बातें भी याद आ रही थीं. कनिष्क ने फोन उठाया और रीतिका को अनब्लौक कर मैसेज टाइप किया, ‘सौरी, मैं ने इतनी बुरी तरह बिहेव किया.’ कनिष्क के मैसेज भेजने के कुछ ही सैकंड्स में उसे रीतिका का रिप्लाई आया, ‘कोई बात नहीं.’

कनिष्क के चेहरे पर एक बार फिर मुसकराहट लौट आई थी. एक बार फिर उन दोनों की बातों का सिलसिला चल पड़ा था.

‘अपना नंबर ही दे दो, मुझ से इंस्टाग्राम पर बात करना बहुत बोरिंग लगता है,’ कनिष्क ने कहा तो रीतिका ने उसे अपना नंबर दे दिया. उन दोनों ने फिर कभी उस सुबह की बात नहीं की लेकिन फिर कभी मैं और तुम से हम होने का खयाल भी दोनों के जेहन में नहीं आया. कनिष्क इस बारे में बात नहीं करना चाहता था और रीतिका की अब हिम्मत नहीं थी इस बारे में कुछ कहने की. वह चाहे जितनी भी मजबूत थी लेकिन रिजैक्शन सहने का डर उस में अंदर तक घर कर चुका था. खैर, दोनों को ही एक नया दोस्त मिल चुका था. कभीकभी दोनों साथ मैट्रो से राजीव चौक तक जाते तो ढेरों बातें किया करते, उस के बाद अपनेअपने कालेज के रूट पर निकल जाया करते.

‘‘तू ने वह सीरीज देखी जो मैं ने रात में बताई थी?’’ कनिष्क मैट्रो में रीतिका से पूछने लगा.

‘‘हां, उस लड़की  का कैरेक्टर कितना मजबूत था न, मैं तो इंप्रैस हो गई उस से,’’ रीतिका उत्सुकता से भर कर कहने लगी.

‘‘तू भी तो वैसी ही है, मजबूत और नकचढ़ी,’’ कनिष्क कह कर हंसने लगा.

‘‘नकचढ़ी और मैं? तू न, जलता है मुझ से, बस, आया बड़ा,’’ रीतिका झूठा गुस्सा दिखाने लगी.

‘‘तुझ से जलूंगा मैं, हाहा, रहने दे सुबहसुबह हंसा मत.’’

‘‘चल जा न, तंग मत कर मुझे अब.’’

‘‘तुझे तंग नहीं करूंगा तो दिन कैसे कटेगा मेरा,’’ कनिष्क ने कहा तो रीतिका और वह दोनों ही हंस पड़े.

‘‘मैं आज राइटिंग कंपीटिशन में जा रही हूं. जीत गई तो तेरी पार्टी पक्की.’’

‘‘पिज्जा से कम कुछ नहीं चलेगा, पहले ही बता रहा हूं.’’

‘‘हां भुक्खड़, खा लियो पिज्जा.’’

आगे पढ़ें- रीतिका और कनिष्क की दोस्ती हर बीतते दिन के साथ गहरी होती…

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