उजली परछाइयां: अतीत के साए में क्या अंबर-धरा एक हो पाए?

लेखिका- महिमा दीक्षित

बीकानेर के सैंट पौल स्कूल के सामने बैठी धरा बहुत नर्वस थी. उसे वहां आए करीब 1 घंटा हो रहा था. वह स्कूल की छुट्टी होने और किट्टू के बाहर आने का इंतजार कर रही थी. किट्टू से उस का अपना कोई रिश्ता नहीं था, फिर भी उस की जिंदगी के बीते हुए हर बरस में किट्टू के निशान थे. अंबर का 14 साल का बेटा, जो अंबर के अतीत और धरा के वर्तमान के 10 लंबे सालों की सब से अहम परछाईं था. उसी से मिलने वह आज यहां आई थीं. आज वह सोच कर आई थी कि उस की कहानी अधूरी ही सही, लेकिन बापबेटे का अधूरापन वह पूरा कर के रहेगी.

करीब 10 साल पहले धरा का देहरादून में कालेज का सैकंड ईयर था जब धरा मिली थी मिस आभा आहलूवालिया से, जो उस के और अंबर के बीच की कड़ी थी. उस से कोई 4-5 साल बड़ी आभा कालेज की सब से कूल फैकल्टी बन के आई थी. वहीं, धरा में शैतानी और बेबाकपन हद दर्जे तक भरा था. लेकिन धीरेधीरे आभा और धरा टीचरस्टूडैंट कम रह गई थीं, दोस्त ज्यादा बन गईं. लेकिन शायद इस लगाव का एक और कारण था, वह था अम्बर, आभा का बड़ा भाई, जिस की पूरी दुनिया उस के इर्दगिर्द बसी थी और उसे वह अकसर याद करती रहती थी.

आभा ने बताया था कि अंबर ने करीब 5 साल पहले लवमैरिज की थी, बीकानेर में अपनी पत्नी रोशनी व 4 साल के बेटे किट्टू के साथ रह रहा था और 3-4 महीने में अपने घर आता था. आभा अकसर धरा से कहती कि उस की आदतें बिलकुल उस के भाई जैसी हैं.

ग्रेजुएशन खत्म होतेहोते आभा और धरा एकदूसरे की टीचर और स्टूडैंट नहीं रही थीं, अब वे एक परिवार का हिस्सा थीं. इन बीते महीनों में धरा उस के घर भी हो आई थी, भाई अंबर और बड़ी बहन नीरा से फेसबुक पर कभीकभार बातें भी होने लगी थीं और छुट्टियां उस के मम्मीपापा के साथ बीतने लगी थीं.

एग्जाम हो गए थे लेकिन मास्टर्स का एंट्रैंस देना बाकी था, इसलिए धरा उस समय आभा के घर में ही रह रही थी. तब अंबर घर आया था. बाहर से शांत लेकिन अंदर से अपनी ही बर्बादी का तूफान समेटे, जिस की आंधियों ने उस की हंसतीखेलती जिंदगी, उस का प्यार, सबकुछ तबाह कर दिया था. आभा के साथ रहते धरा को यह मालूम था कि अंबर की शादी के 2 साल तक सब ठीक था, फिर अचानक उस की बीवी रोशनी अपने मम्मी के घर गई, तो आई ही नहीं.

इस बार जब अंबर आया तो उस के हमेशा मुसकराते रहने वाले चेहरे से पुरानी वाली मुसकान गायब थी. धरा के लिए वह सिर्फ आभा का भाई था, जो केवल उतना ही माने रखता था जितना बाकी घरवाले. लेकिन 1-2 दिन में ही न जाने क्यों अंबर की उदास आंखों और फीकी मुसकान ने उसे बेचैन कर दिया.

करीब एक सप्ताह बाद अंबर ने बताया कि वह अपनी जौब छोड़ कर आया है क्योंकि उस के ससुराल वालों और पत्नी को लगता है कि वह पैसे के चलते वहां रहता है. अब वह यहीं जौब करेगा और कुछ महीनों के बाद पत्नी और बेटा भी आ जाएंगे. यह सब के लिए खुश होने की बात थी. लेकिन फिर भी, कुछ था जो नौर्मल नहीं था.

अंबर ने नई जौब जौइन कर ली थी. कितने ही महीने निकल गए, पत्नी नहीं आई. हां, तलाक का नोटिस जरूर आया. रोशनी ने अंबर से फोन पर भी बात करनी बंद कर दी थी और बेटे से भी बात नहीं कराती थी. इन हालात ने सभी को तोड़ कर रख दिया था. अंबर के साथ बाकी घर वालों ने भी हंसना छोड़ दिया.  उन के एकलौते बेटे की जिंदगी बरबाद हो रही थी. वह अपने बच्चे से बात तक नहीं कर पाता था. परिवार वाले कुछ नहीं कर पा रहे थे.

धरा सब को खुश रखने की कोशिश करती. कभी सब की पसंद का खाना बनाती तो कभी अंबर को पूछ कर उस की पसंद का नाश्ता बनाती. उसे देख कर अंबर अकसर सोचता कि यह मेरी और मेरे घर की कितनी केयर करती है. धरा आज की मौडर्न लड़की थी. लेकिन घरपरिवार का महत्त्व वह अच्छी तरह समझती थी. घर के काम करना उसे अच्छा लगता था. मन साफ सच्चा हो तो सूरत को भी हसीन बना देता है. धरा के चेहरे की खूबसूरती में गजब का आकर्षण था. अभी 23 वर्ष की पिछले महीने ही तो हुई थी. दूसरी ओर धरा जबजब अंबर को देखती तो सोचती थी कि कितना प्यार करता है अपनी बीवी को. काश, मुझे भी ऐसा ही कोई मिले. तलाक की बात सुन कर पहली बार अंबर को रोते देखा था धरा ने और उस के शब्द कानों में अब तक गूंज रहे थे कि ‘मर जाऊंगा लेकिन तलाक नहीं दूंगा. मैं नहीं रह सकता उस के बिना.’

अंबर की गहरी भूरी आंखों में दर्द भरा रहता था. 30 की उम्र हो गई थी लेकिन पर्सनैलिटी उस की ऐसी थी कि देखने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. धरा समझ नहीं पाती थी कि रोशनी को अंबर में ऐसी क्या कमी नजर आई थी जो उसे छोड़ गई.

जुलाई में धरा की दीदी देहरादून घूमने आई थी और उस की खूब खातिर की गई. देहरादून का मौसम खुशगवार था. इसलिए घूमनेफिरने का अलग मजा था. अंबर भी उसे पूछ कर ही सारे प्रोग्राम बना रहा था. प्राकृतिक सौंदर्य के लिए मसूरी, सहस्रधारा, चकराता, लाखामंडल तथा डाकपत्थर देखने का प्रोग्राम अंबर ने झटपट बना डाला. अंबर का किसी और को इंपौर्टेंस देते देख न जाने क्यों धरा के मन में जलन हुई और उसे पहली बार एहसास हुआ कि अनजाने में ही वह अंबर को चाहने लगी है. लेकिन क्यों, कब, कैसे, इस की वजह वह खुद नहीं जानती थी. इस की वजह शायद अंबर का इतना प्यारा इंसान होना था या फिर शायद इतनी गहराई से अपनी बीवी के लिए प्यार था कि धरा खुद उस के प्यार में पड़ गई थी.

धरा के दिल में अंबर ने अनजाने में जगह बना ली थी वहीं धरा जिस तरह सब का खयाल रखती और खुश रहती, वह अंबर के घर वालों को अपना बना रही थी. उस की ये आदतें सब के साथ अंबर को भी उस की तरफ खींच रही थीं. जब कोई चीज हमारे पास न हो तो उस की कमी ज्यादा ही लगती है, घर में भी सब को धरा को देख कर बहू की कमी कुछ ज्यादा ही अखरने लगी थी.

अंबर अकसर धरा को तंग करता रहता, कभी उलझे हुए बालों को खींचता तो कभी गालों पर हलकी चपत लगा देता. दोनों के दिलों में अनकही मोहब्बत जन्म ले चुकी थी जिस का एहसास उन्हें जल्दी ही हुआ. एक दिन धरा ने अंबर को छेड़ते हुए कहा, ‘मुझे तंग क्यों करते रहते हो, सब के लिए आप के दिल में प्यार है, फिर मुझ से ही क्या झगड़ा है?’ इस पर अंबर की मां ने जवाब दिया, ‘वह इसलिए गुस्सा करता है कि तू हमें पहले क्यों नहीं मिली.’ इन चंद शब्दों ने सब के दिलों का हाल बयां कर दिया था.

वह अचानक यह सुन कर बाहर भाग गई थी, बाहर बालकनी में रेलिंग पकड़ कर खड़ी थी. सांसें ऊपरनीचे हो रही थीं. अंबर ने पास आ कर कहा, ‘मैं ने और मेरे घर वालों ने तुम्हारी जैसी पत्नी और बहू का सपना देखा था.’ अंबर ने आगे कहा, ‘पता नहीं कब से, लेकिन मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. हां, मगर मैं तुम से शादी नहीं कर सकता क्योंकि अगर मैं ने ऐसा किया तो अपने बेटे को हमेशा के लिए खो सकता हूं.’

धरा का सुर्ख होता चेहरा सफेद पड़ गया था. उस ने नजरें उठा कर अंबर को देखा, तो अंबर की आंखों में आंसू थे, ‘मेरे पास जीने की वजह सिर्फ यह है कि कभी मेरा बेटा मुझे मिलेगा. मैं तुम से शादी नहीं कर सकता लेकिन अपना बुढ़ापा जरूर सिर्फ तुहारे साथ बिताना चाहूंगा. सुबहसुबह तुम्हारे हाथ की चाय पिया करूंगा,’ उस वक्त दोनों की सांसें महसूस कर सकती थी धरा जब अंबर ने ये शब्द कहे थे जिन्होंने एक पल में ही उस को आसमान पर ले जा कर वापस नीचे धरातल पर पटक दिया था.

एक पल को धरा को लगा यह कैसा प्यार है और कैसी बेतुकी बात कही है अंबर ने, लेकिन दूसरे ही पल उसे भविष्य में अंबर में एक हारा और टूटा हुआ पिता नजर आया जिस का बेटा उसे कह रहा था कि तुम ने दूसरी शादी के लिए मुझे और मेरी मां को छोड़ा. शायद सही भी थी अंबर की बात. 4 साल का बच्चा जब मां के साथ रहता है तो वह उतना ही सच समझेगा जितना उसे बताया जाएगा.

जिस से प्यार करती है उसे अपनी वजह से ही टूटा हुआ कैसे देखती धरा. अगर अंबर बेटे के लिए उस का इंतजार कर सकता है तो धरा भी तो अंबर का इंतजार कर सकती है. फिर अंबर मान भी जाता लेकिन अपने ही घर वालों को मनाना भी तो धरा के लिए आसान नहीं था.

अंबर का हाथ पकड़ कर धरा बोली, ‘अगर सच में हमारे बीच प्यार है तो एक दिन हम जरूर मिलेंगे. मैं इंतजार करूंगी उस दिन का जब सबकुछ सही होगा और रही शादी की बात, तो राधाकृष्णा की भी शादी नहीं हुई थी लेकिन आज भी उन का नाम साथ ही लिया जाता है.’

लेकिन शर्तें तो दिमाग लगाता है, दिल नहीं और सब हालात को जानतेसमझते भी उन दोनों के तनमन भी दूर नहीं रह सके. शादी की बात तो दोबारा नहीं हुई, लेकिन दोनों के ही घर वालों को उन के बीच पनपे रिश्ते का अंदाजा हो गया था. ऐसे ही साथ रहते 2 साल निकल गए थे. अब भी अंबर अपने बेटे किट्टू से बात करने को तरसता था. सबकुछ वैसा ही चल रहा था.

धरा ने जौब जौइन कर ली और एक फ्रैंड की शादी में गई थी. वहां से आ कर एक बार फिर उस के दिल में अंबर से शादी करने की चाहत करवट लेने लगी. बहुत मुश्किल था उस का अंबर के इतने पास होते हुए भी दूर होना और इसीलिए उस का प्यार और उस की छुअन को अपने एहसासों में बसा कर धरा देहरादून छोड़ मुंबई आ गई थी. अब एक ही धुन थी उसे, टीवी इंडस्ट्री में नाम की और बहुत सारे पैसे कमाने की जिस से शादी न सही कम से कम सफल हो कर अपने घर वालों के प्रति कर्तव्य निभा सके.

उस के बाद के अब तक के साल कैसे बीते, यह धरा और अंबर दोनों ही जानते हैं. दूर रह कर भी न तो दूर रह सके, न साथ रह सके दोनों. वे महीनों के अंतराल में मिलते, किट्टू के बड़े होने और साथ जीने के सपने देखते और एकदूसरे की हिम्मत बढ़ाते. लेकिन कभी उन की नजदीकियां ही जब उन्हें कमजोर बनातीं तो दोनों खुद ही टूटने भी लगते और फिर संभलते. रिश्तेदारों, पड़ोस, महल्ले वालों सब से क्या कुछ नहीं सुनना और सहना पड़ा था दोनों को. लेकिन, उन्होंने हर पल हर कदम एकदूसरे को सपोर्ट किया था. बस, कभी शादी की बात नहीं की.

धरा के घर वाले कुछ सालों तक शादी के लिए बोलते रहे. लेकिन बाद में उस ने अपने घर वालों को समझा लिया था कि वे जिस इंडस्ट्री में हैं, वहां शादी इतना माने नहीं रखती है और उस के सपने अलग हैं.  इस बीच, उस ने न कभी अंबर और उस के घर वालों का साथ छोड़ा, न किसी और से रिश्ता जोड़ा. वह अंबर से ले कर उस के बेटे किट्टू तक के बारे में सब खबर रखती थी.

‘‘छुट्टी का टाइम हो गया, मैडमजी,’’ चपरासी की आवाज से धरा की तंद्रा टूटी.

कुछ मिनटों बाद किट्टू को आता देख धरा ने उसे पुकारा, तो किट्टू के चेहरे पर गुस्से और नफरत के भाव उभर आए. फेसबुक पर देखा है उस ने धरा को. यही है वह जिस से शादी करने के लिए पापा हमें छोड़ कर चले गए, ऐसा ही कुछ सुनता आया है वह इतने सालों से मां और नानी से और जब बड़ा हुआ तो उस की नफरत और गुस्सा भी उतना ही बढ़ता गया. अंबर से कभीकभार फोन पर बात होती, तो, बस, हांहूं करता रहता था.

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कहानी- महिमा दीक्षित

‘‘तुम यहां क्या कर रही हो?’’ किट्टू गुस्से में घूरते हुए कहा.

‘‘जरूरी बात करनी है, तुम्हारे पापा से रिलेटेड है,’’ धरा ने शांत स्वर में कहा. 2 दिनों बाद तुम्हारे पापा का बर्थडे है, मैं चाहती हूं कि तुम उस दिन उन के पास रहो…’’

‘‘और मैं तुम्हारी बात क्यों सुनूं?’’ उस की बात पूरी होने से पहले ही किट्टू ने चिढ़ कर जवाब दिया.

‘‘क्योंकि वे भी इतने सालों से तुम्हें उतना ही मिस कर रहे हैं जितना कि तुम करते हो. यह उन की लाइफ का बैस्ट गिफ्ट होगा क्योंकि तुम उन के लिए सब से बढ़ कर हो,’’ धरा ने किट्टू से कहा, ‘‘क्या तुम मेरे साथ कल देहरादून चलोगे?’’

किट्टू का कोल्डड्रिंक जैसा ठंडा स्वर उभरा, ‘‘इतना ही कीमती हूं तो मुझे वे छोड़ कर क्यों गए थे? मैं उन से नहीं मिलना चाहता. वे कभी मेरे बर्थडे पर नहीं आए…या…या फिर तुम्हारी वजह से नहीं आए. मुझे तुम से बात ही नहीं करनी. तुम गंदी औरत हो.’’ अपना बैग उठाते हुए लगभग सुबकने वाला था किट्टू.

‘‘तुम जाना चाहते हो तो चले जाना लेकिन, बस, एक बार ये देख लो,’’ कह कर धरा ने सारे पुराने मैसेज और चैट के प्रिंट किट्टू के सामने रख दिए जिन में घूमफिर कर एक ही तरह के शब्द थे अंबर के कि ‘किट्टू से बात करा दो,’ या ‘मैं मिलने आना चाहता हूं’ या ‘डाइवोर्स मत दो.’ और रोशनी के भी शब्द थे, ‘मैं तुम्हारे परिवार के साथ नहीं रह सकती,’ या ‘शादी जल्दबाजी में कर ली लेकिन तुम्हारे साथ और नहीं रहना चाहती,’ ‘किट्टू से तुम्हें नहीं मिलने दूंगी…’ ऐसा ही और भी बहुतकुछ था.

किट्टू की तरफ देखते हुए धरा ने कहा, ‘‘मेरे पास कौल रिकौर्डिंग्स भी हैं. अगर तुम सुनना चाहो तो. तुम्हारे पापा कभी नहीं चाहते कि तुम अपनी मां के बारे में थोड़ा सा भी बुरा सोचो या सच जान कर तुम्हारा दिल दुखे. इसलिए आज तक उन्होंने तुम्हें सच नहीं बताया. लेकिन मैं उन्हें इस तरह और घुटता हुआ नहीं देख सकती. और हां, हम एकदूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन हम ने कभी शादी नहीं की. जानते हो क्यों? क्योंकि तुम्हारे पापा को लगता था कि शादी करने पर तुम उन्हें और भी गलत समझोगे.  क्या अब भी तुम मेरे साथ कल देहरादून नहीं चलोगे?’’ यह कह कर धरा ने हौले से किट्टू के सिर पर हाथ फेरा.

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‘‘चलो, चल कर मम्मी को बोलते हैं कि पैकिंग कर दें,’’ किट्टू को जैसे अपनी ही आवाज अजनबी लगी.

जब धरा के साथ किट्टू घर पहुंचा तो सभी की आंखें फैल गईं. नानी की तरफ देखते हुए किट्टू ने अपनी मां से कहा, ‘‘मैं पापा के बर्थडे पर धरा के साथ 2-3 दिनों के लिए देहरादून जा रहा हूं, मेरी पैकिंग कर दो.’’

रोशनी और बाकी सब समझ गए थे कि किट्टू अभी किसी की नहीं सुनेगा. सुबह उसे लेने आने का बोल धरा होटल के लिए निकल गई. पूरे रास्ते धरा सोचती रही कि आगे न जाने क्या होगा, किट्टू न जाने कैसे रिऐक्ट करेगा. वह अंबर से कैसे मिलेगा और अब क्या सबकुछ ठीक होगा? सुबह दोनों देहरादून की फ्लाइट में थे. किट्टू ने धरा से कोई बात नहीं की.

अगली सुबह का सूरज अंबर के लिए दुनियाजहान की खुशियां ले कर आया. किट्टू को सामने देख एकबारगी तो किसी को यकीन ही नहीं हुआ और अगले ही पल अंबर ने अपने बेटे को गोद में उठा कर कुछ घुमाया. जैसे वह अभी भी 14 साल का नहीं, बल्कि उस का 4 साल का छोटा सा किट्टू हो. पूरे 9 साल बाद आज वह अपने बच्चे को अपने पास पा कर निहाल था और घर में सभी नम आंखों से बापबेटे के इस मिलन को देख रहे थे.

अंबर का इतने सालों का इंतजार आज पूरा हुआ था, अंबर के साथ आज धरा को भी अपना अधूरापन पूरा लग रहा था. शाम में किट्टू ने बर्थडे केक अपने हाथ से कटवाया था और सब से पहला टुकड़ा अंबर ने किट्टू के मुंह में रखा, तो एक बार फिर अंबर और किट्टू दोनों की आंखें नम हो गईं. तभी किट्टू ने अंबर की बगल में खड़ी धरा को अजीब नजरों से देखा तो वह वहां से जाने लगी. अचानक उसे किट्टू की आवाज सुनाई दी, ‘‘पापा, केक नहीं खिलाओगे धरा आंटी को?’’ और धरा भाग कर उन दोनों से लिपट गई.

अगली सुबह धरा जल्दी ही निकल गई थी. उस ने बताया था कि कोई जरूरी काम है बस जाते हुए 2 मिनट को किट्टू से मिलने आई थी. दोपहर में अंबर को धरा का मैसेज मिला, ‘तुम्हें तुम्हारा किट्टू मिल गया. मैं कल आखिरी बार तुम से उस जगह मिलना चाहती हूं जहां हम ने चांदनी रात में साथ जाने का सपना देखा था.’

अंबर जानता था धरा ने उसे जबलपुर में धुआंधार प्रपात के पास बुलाया है. उस ने पढ़ा था कि शरद पूर्णिमा की रात चांद की रोशनी में प्रकृति धुआंधार में अपना अलौकिक रूप दिखाती है. तब से उस का सपना था कि चांदनी रात में नर्मदा की सफेद दूधिया चट्टानों के बीच तारों की छांव में वह अंबर के साथ वहां हो. अगली शाम में जब अंबर भेड़ाघाट पहुंचा तो किट्टू भी साथ था. वहां उन्हें एक लोकल गाइड इंतजार करता मिला जिस ने बताया कि वह उन लोगों को धुआंधार तक छोड़ने के लिए आया है.

करीब 9 बजे जब अंबर वहां पहुंचा तो धरा दूर खड़ी दिखाई दी. चांद अपने पूरे रूप में खिल आया था और संगमरमर की चट्टानों के बीच धरा, यह प्रकृति,? सब उसे अद्भुत और सुरमई लग रहे थे. वह धरा के पास पहुंचा और उस का हाथ पकड़ कर बेचैनी से बोला, ‘‘मुझे छोड़ कर मत जाओ, धरा. मैं नहीं रह सकता तुम्हरे बिना. अब तो सब ठीक हो चुका है. देखो, किट्टू भी तुम से मिलने आया है.’’

धरा ने धीरे से अपना हाथ अंबर के हाथ से छुड़ाया, तो अंबर के चेहरे पर हताशा फैल गई. किट्टू ने धरा की तरफ देखा और दोनों शरारत से मुसकराए. दूर क्षितिज में आसमान के तारे और शहर की लाइट्स एकसाथ झिलमिला रही थीं. तभी धरा ने एक गुलाब निकाला और घुटने पर बैठ कर कहा, ‘‘मुझे भी अपने परिवार का हिस्सा बना लो, अम्बर. क्या अब से रोज सुबह मेरे हाथ की चाय पीना चाहोगे?’’

खुशी और आंसुओं के बीच अंबर ने धरा को जोर से गले लगा लिया था और किट्टू अपने कैमरे से उन की फोटो खींच रहा था.

उन का इतने सालों का इंतजार आज खत्म हुआ था. अंबर के साथसाथ धरा का अधूरापन भी हमेशा के लिए पूरा हो गया था. आज उसे उस का वह क्षितिज मिल गया था जहां अतीत की गहरी परछाइयां वर्तमान का उजाला बन कर जगमगा रही थीं, वह क्षितिज जहां 10 साल के लंबे इंतजार के बाद अंबरधरा भी एक हो गए थे.

हल है न: शुचि ने कैसे की दीप्ति की मदद?

दीप्ति ने भरे मन से फोन उठाया. उधर से चहकती आवाज आई, ‘‘हाय दीप्ति… मेरी जान… मेरी बीरबल… सौरी यार डेढ़ साल बाद तुझ से कौंटैक्ट करने के लिए.’’

‘‘शुचि कैसी है तू? अब तक कहां थी?’’ प्रश्न तो और भी कई थे पर दीप्ति की आवाज में उत्साह नहीं था.

शुचि यह ताड़ गई. बोली, ‘‘क्या हुआ दीप्ति? इतना लो साउंड क्यों कर रही है? सौरी तो बोल दिया यार… माना कि मेरी गलती है… इतने दिनों बाद जो तुझे फोन कर रही हूं पर क्या बताऊं… पता है मैं ने हर पल तुझे याद किया… तू ने मेरे प्यार से मुझे जो मिलाया. तेरी ही वजह से मेरी मलय से शादी हो सकी. तेरे हल की वजह से मांपापा राजी हुए जो तू ने मोहसिन को मलय बनवाया. इस बार भी तू ने हल ढूंढ़ ही निकाला. यार मलय से शादी के बाद तुरंत उस के साथ विदेश जाना पड़ा. डेढ़ साल का कौंट्रैक्ट था. आननफानन में भागादौड़ी कर वीजा, पासपोर्ट सारे पेपर्स की तैयारी की और चली गई वरना मलय को अकेले जाना पड़ता तो सोच दोनों का क्या हाल होता.

‘‘हड़बड़ी में मेरा मोबाइल भी कहीं स्लिप हो गया. तुझ से आ कर मिलने का टाइम भी नहीं था. कल ही आई हूं. सब से पहले तेरा ही नंबर ढूंढ़ कर निकाला है. सौरी यार. अब माफ भी कर दे… अब तो लौट ही आई हूं. किसी भी दिन आ धमकूंगी. चल बता, घर में सब कैसे हैं? आंटीअंकल, नवल भैया और उज्ज्वल?’’ एक सांस में सब बोलने के बाद दीप्ति ने कोई प्रतिक्रिया न दी तो वह फिर बोली, ‘‘अरे, मैं ही तब से बोले जा रही हूं, तू कुछ नहीं कह रही… क्या हुआ? सब ठीक तो है न?’’ शुचि की आवाज में थोड़ी हैरानीपरेशानी थी.

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‘‘बहुत कुछ बदल गया है. शुचि इन डेढ़ सालों में… पापा चल बसे, मां को पैरालिसिस, नवल भैया को दिनरात शराब पीने की लत लग गई. उन से परेशान हो भाभी नन्ही पारिजात को ले कर मायके चली गईं…’’

‘‘और उज्ज्वल?’’

‘‘हां, बस उज्ज्वल ही ठीक है. 8वीं कक्षा में पहुंच गया है. पर आगे न जाने उस का भी क्या हो,’’ आखिर दीप्ति के आंसुओं का बांध टूट ही गया.

‘‘अरे, तू रो मत दीप्ति… बी ब्रेव दीप्ति… कालेज में बीरबल पुकारी जाने वाली, सब की समस्याओं का हल निकालने वाली, दीप्ति के पास अपनी समस्या का कोई हल नहीं है, ऐसा नहीं हो सकता… कम औन यार. यह तेरी ही लाइन हुआ करती थी कभी अब मैं बोलती हूं कि हल है न. चल, मैं अगले हफ्ते आती हूं. तू बिलकुल चिंता न कर सब ठीक हो जाएगा,’’ और फोन कट गया.

डोर बैल बजी थी. दीप्ति ने दुपट्टे से आंसू पोंछे और दरवाजा खोला. रोज का वही चिरपरिचित शराब और परफ्यूम का मिलाजुला भभका उस की नाकनथुनों में घुसने के साथ ही पूरे कमरे में फैल गया. नशे में धुत्त नवल को लादफांद कर उस के 4 दोस्त उसे पहुंचाने आए थे. कुछ कम तो कुछ ज्यादा नशे में डगमगाते हुए अजीब निगाहों से दीप्ति को निहार रहे थे. नवल को सहारा देती दीप्ति उन्हें अनदेखा करते हुए अपनी निगाहें झुकाए उसे ऐसे थामने की कोशिश करती कि कहीं उन से छू न जाए. पर वे कभी जानबूझ कर उस के हाथ पर हाथ रख देते तो किसी की गरम सांसें उसे अपनी गरदन पर महसूस होतीं. कोई उस का कंधा या कमर पकड़ने की कोशिश करता. पर उस के नवल भैया को तो होश ही नहीं रहता, प्रतिरोध कहां से करते. घुट कर रह जाती वह.

पिता के मरने के बाद पिता का सारा बिजनैस, पैसा संभालना नवल के हाथों में आ गया. अपनी बैंक की नौकरी छोड़ वह बिजनैस में ही लग गया. बिजनैस बढ़ता गया. पैसों की बरसात में वह हवा में उड़ने लगा. महंगी गाडि़यां, महंगे शौक, विदेशी शराब के दौर यारदोस्तों के साथ रोज चलने लगे. मां जयंती पति के निधन से टूट चुकी थी. नवल की लगभग तय शादी भी इसी कारण रोक दी गई थी. लड़की लतिका के पिता वागीश्वर बाबू भी बेटी के लिए चिंतित थे. सब ने जयंती को खूब समझाया कि कब तक अपने पति नरेंद्रबिहारी का शोक मनाती रहेंगी. अब नवल की शादी कर दो. घर का माहौल बदलेगा तो नवल भी धीरेधीरे सुधर जाएगा. उसे संभालने वाली आ जाएगी.

सोचसमझ कर निर्णय ले लिया गया. पर शादी के दिन नवल ने खूब तमाशा किया. अचानक हुई बारिश से लड़की वालों को खुले से हटा कर सारी व्यवस्था दोबारा दूसरी जगह करनी पड़ी, जिस से थोड़ा अफरातफरी हो गई. नवल और उस के साथियों ने पी कर हंगामा शुरू कर दिया. नवल ने तो हद ही कर दी. शराब की बोतल तोड़ कर पौकेट में हथियार बना कर घुसेड़ ली और बदइंतजामी के लिए चिल्लाता गालियां निकालता जा रहा था, ‘‘बताता हूं सालों को अभी… वह तो बाबूजी ने वचन दे रखा था वरना तुम लोग तो हमारे स्टैंडर्ड के लायक ही नहीं थे.’’

मां जयंती शर्मिंदा हो कर कभी उसे चुप रहने को कहतीं तो कभी वागीश्वर बाबू से क्षमा मांगती जा रही थीं.

दुलहन बनी लतिका ने आ कर मां जयंती के जोड़े हाथ पकड़ लिए, ‘‘आंटी, आप यह क्या कर रही हैं? ऐसे आदमी के लिए आप क्यों माफी मांग रही हैं? इन का स्तर कुछ ज्यादा ही ऊंचा हो गया है. मैं ही शादी से इनकार करती हूं.’’

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बहुत समझाबुझा कर स्थिति संभाली गई और लतिका बहू बन कर घर आ गई. पर वह नवल की आदतें न सुधार सकी. बेटी हो गई. फिर भी कोई फर्क न पड़ा. 2 सालों में स्थिति और बिगड़ गई. शराब की वजह से रोजरोज हो रही किचकिच से तंग आ कर लतिका अपनी 1 साल की बेटी पारिजात उर्फ परी को ले कर मायके चली गई. इधर मां जयंती को पैरालिसिस का अटैक पड़ा और वे बिस्तर पर आंसू बहाने के सिवा कुछ न कर सकीं.

होश में रहता नवल तो अपनी गलती का उसे एहसास होता. वह मां, दीप्ति, उज्ज्वल सभी से माफी मांगता. पर शाम को न जाने उसे क्या हो जाता. वह दोस्तों के साथ पी कर ही घर लौटता.
‘‘उज्ज्वल के बारे में नहीं सोचता तू नवल. बड़ा भाई है, घर में जवान बहन दीप्ति है. उस की शादी नहीं करनी क्या? कैसेकैसे दोस्त हैं तेरे? किस हालत में घर आता है? छोड़ क्यों नहीं देता उन्हें?’’ जयंती कभी धीरेधीरे बोल पातीं.

‘‘हजार बार कहा उन्हें कुछ मत कहिए मां. उन्होंने बाबूजी का बिजनैस संभालने में बहुत मदद की है वरना मुझे आता ही क्या था. उन्हीं सब की वजह से बिजनैस में इतनी जल्दी इतनी तरक्की हुई है.’’

वह भड़क उठता, ‘‘वे सब ऐसेवैसे थोड़े ही हैं. अच्छे घरों के हैं. थोड़ा तो सभी पीते हैं. आजकल वे सब कंट्रोल में रहते हैं. मुझे ही जरा सी भी चढ़ जाती है. कल से नहीं पीऊंगा. वे सभी तो उज्ज्वल को अपना छोटा भाई और दीप्ति को छोटी बहन मानते हैं… और आप क्या बातें करती हैं मां कि…’’ वह आगबबूला होने लगता.

दीप्ति कुछ कहने को होती तो नवल उसे भी झिड़क देता. उज्ज्वल भी सहम जाता. घर का सारा दारोमदार नवल पर था. दीप्ति अपना बीएड का कोर्स पूरा कर रही थी और उज्ज्वल 8वीं की परीक्षा की तैयारी. दोनों नवल के कुछ देर बाद शांत हो जाने पर अपनेअपने काम में अपने को व्यस्त कर लेते.

मां की अनुभवी आंखें हर वक्त नवल के दोस्तों का सच ही बयां करती रहती हैं. पर भैया को दिखता ही नहीं. कितनी बार उस ने नवल के दोस्तों की गंदी नजरें, गंदी हरकतें झेली हैं. नवल को थमाने के बहाने वे कहांकहां उसे छूने की कोशिश नहीं करते… कैसे भैया को विश्वास दिलाए… वे अपने दोस्तों के खिलाफ कुछ भी मानने को तैयार नहीं होते. उलटा उसे झाड़ देते. दीप्ति की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. आंसू निकलने लगते तो बाथरूम में बंद हो जी भर कर रो लेती.

शुचि अगले हफ्ते सच में आ धमकी. उस के गले लग कर दीप्ति खूब रोई और फिर अपना सारा दुख उसे बताया.

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शुचि ने नम आंखों से उसे धैर्य बंधाया, ‘‘दीप्ति सब सही हो जाएगा… हल है न. मैं तेरी ही जबान कह रही हूं… हार थोड़े ही मानते हैं ऐसे… चल, अब बहुत हो गया. आंसू पोंछ और हंस दे.

‘‘याद है जब मैं ने तुझे ‘गुटका खाए सैंया हमार’ वाली प्रौब्लम बताई थी तो तू ने जो मजाकमजाक में हल निकाला था तो वह बड़े काम का निकला था. मैं ने उस के अनुसार एक शादी में मलय की जेब में रखी गुटके की लड़ी को कंडोम की लड़ी में बदल दिया. फिर जब शादी में मलय ने जेब से गुटका निकाला तो पूरी कंडोम की लड़ी जेब से लटक गई. फिर

क्या था. यह देख लोग तो हंसहंस कर लोटपोट हो गए, मगर मलय बुरी तरह झेंप गए. उस दिन से उस ने जेब में गुटका रखना छोड़ दिया था. फिर तेरी ही सलाह पर हम उसे नशा मुक्ति केंद्र ले गए थे. धीरेधीरे मलय का गुटका खाने की लत छूट गई थी,’’ दीप्ति के आंसू रुके देख शुचि मुसकराई.

फ्रैश हो कर शुचि ने अपना बैग खोला और दीप्ति को दिखाते हुए बोली, ‘‘यह देख विदेश से तेरे लिए क्या लाई हूं. हैंडी वीडियो कैमरा.’’

‘‘इतना महंगा… क्या जरूरत थी इतना खर्च करने की?’’ दीप्ति ने प्यार से डांटा.

‘‘हूं, क्या जरूरत है,’’ कह शुचि ने उसे मुंह चिढ़ाया, ‘‘बकवास बंद कर और इस का फंक्शन देख क्या बढि़या वीडियो लेता है.’’

‘‘मेरी दीदी कितना बढि़या वीडियो कैमरा लाई हैं,’’ उज्ज्वल स्कूल से आ गया था.

‘‘हाय उज्ज्वल… कितना लंबा हो गया,’’ शुचि ने प्यार से उसे अपनी ओर खींचा.

‘‘मैं कपड़े चेंज कर के आता हूं दीदी. तब मेरा ब्रेक डांस करते हुए वीडियो बनाना,’’ कह वह चला गया.

‘‘मैं तो सोच रही हूं इस से तेरी समस्या का हल भी हो जाएगा.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘रात में भैया जब दोस्तों के साथ आएगा तो हम छिप कर सब शूट कर के सुबह टीवी से अटैच कर उन्हें पूरा वीडियो दिखा देंगे. तब वे अपने दोस्तों की ओछी हरकतों से वाकिफ हो जाएंगे. दोस्तों की असलियत जान कर वे उन्हें छोड़ेंगे नहीं.’’

रात के 10 बज रहे थे. शुचि और उज्ज्वल सीक्रेट ऐजेंटों की तरह परदे की आड़ में सही जगह पर कैमरा लिए तैयार खड़े थे. तभी घंटी बजी तो दीप्ति ने दम साधे दरवाजा खोला. रोज का सीन शुरू हो गया. शुचि ने डोरबेल बजते ही रिकौर्डर औन कर लिया था.

‘‘अरे, लो भई संभालो अपने भाई को सहीसलामत घर तक ले आए.’’

‘‘अरे हमें भी तो थाम लो भई,’’ उन में से एक बोला.

‘‘हम इतने भी बुरे नहीं चुन्नी तो संभालो अपनी,’’ कह एक चुन्नी ठीक करने लगा तो एक बहाने से उस की कमर में हाथ डालने लगा.

एक के हाथ उस के बाल और गाल सहलाने की कोशिश में थे, ‘‘ये तुम्हारे गालों पर क्या लग गया जानू,’’ वैसी ही बेहूदा हरकतें… सोफे पर एक ओर लेटे नवल को कोई होश न था कि उस के ये दोस्त उस की बहन के साथ क्या कर रहे हैं.

‘‘थोड़ी नीबू पानी हमें भी पिला दो दीपू… तुम्हें देख कर तो हमारा नशा भी गहरा हो रहा है.’’

दीप्ति उज्ज्वल के हाथ से पानी का गिलास ले कर नवल को पिलाने की कोशिश कर रही थी. उन में से एक दीप्ति से सट कर बैठ गया. दीप्ति ने उसे धक्का दे कर हटाने की कोशिश की.

‘‘डरती क्यों हो दीपू. हम तुम्हें खा थोड़े ही जाएंगे. जा बच्चे पानी बना ला हम सब के लिए,’’ कह वह दीप्ति के माथे पर झूल आई घुंघराली लट को फूंक मारने लगा.

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‘‘पहले आप दीदी के पास से उठो.’’ उज्ज्वल उसे खींचने लगा तो उस आदमी ने उसे परे धकेल दिया.

शुचि का मन किया कि कैमरा वहीं पटक जा कर तमाचे रसीद कर दे… कैसे रोजरोज बरदाश्त कर रही है दीप्ति ये सब… हद होती है किसी भी चीज की. ‘पुलिस को कौल करती हूं तो नवल भैया भी अंदर होता. क्या करें,’ शुचि सोच रही थी, फिर उस ने यह सोच कैमरा एक ओर रखा और हिम्मत कर के बाहर आ गई कि धमका तो सकती ही है उन्हें. प्रूफ भी ले लिया. फिर कड़कती आवाज में चीखते हुए बोली, ‘‘क्या बदतमीजी हो रही है? शर्म नहीं आती?
नवल भैया के दोस्त हो कर तुम सब छोटी बहन से ऐसी हरकतें कर रहे हो? आंटी बिस्तर से उठ नहीं सकतीं, उज्ज्वल छोटा है और भैया होश में नहीं… इस सब का फायदा उठा रहे हो… गैट आउट वरना अभी पुलिस को कौल करती हूं. यह रहा 100 नंबर,’’ मोबाइल स्क्रीन पर रिंग भी होने लगी. उस ने स्पीकर औन कर दिया.

रिंग सुनाई पड़ते ही सब नौ दो ग्याह हो लिए. तब उज्ज्वल ने लपक कर दरवाजा बंद कर दिया. शुचि ने फोन काट दिया. अचानक फिर फोन बज उठा, ‘‘हैलो पुलिस स्टेशन.’’

‘‘सौरी… सौरी सर गलती से दब गया था. थैंक्यू.’’

‘‘ओके,’’ फोन फिर कट गया. उस के बाद तीनों नवल को उस के बिस्तर तक पहुंचाने की कोशिश में लग गए.

सुबह करीब सात बजे नवल जागा. सिर अभी भी भारी था. उस ने अपना माथा सहलाया, ‘‘कल रात कुछ ज्यादा ही हो गई थी. थैंक्स राजन, विक्की, सौरभ और राघव का जो उन्होंने मुझे फिर घर पहुंचा दिया सहीसलामत.’’

उन्हें थैंक्स कहने के लिए नवल मोबाइल उठाया ही था कि शुचि सामने आ गई.

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‘‘अरे शुचि, तू कब आई? अचानक कहां चली गई थी तू? मोहसिन क्या मिल गया हम सब को ही भूल गई,’’ वह दिमाग पर जोर दे कर मुसकराया.

‘‘नमस्ते भैया. मैं मोहसिन नहीं मलय के साथ विदेश चली गई थी. डेढ़ साल के लिए… पर आप तो यहां रह कर भी यहां नहीं रहते… अपने घरपरिवार को ही जैसे भूल गए हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘बहुत बुरा लगा सब बदलाबदला देख कर… अंकल नहीं रहे, आंटी बैड पर हो गईं, भाभी परी को ले कर मायके चली गईं और आप…’’

‘‘हां शुचि वक्त ऐसे ही बदलता है… एक मिनट मैं ब्रश कर के आता हूं तू बैठ.’’

दीप्ति वहीं चाय ले कर चली आई थी. बाथरूम से जब नवल आया तब तक शुचि कैमरा उस के टीवी से अटैच कर चुकी थी. उस ने रिमोट नवल के हाथों में थमाते हुए कहा, ‘‘आप औन कर के देखो भैया, इस कैमरे से बहुत अच्छी वीडियो बनाया है. यह कैमरा दीप्ति के लिए विदेश से लाई हूं… मैं अभी आई भैया आप तब तक देखो.’’ और दोनों अंदर चली गईं.

‘‘वैरी गुड,’’ कह कर नवल तकिए के सहारे बैठ गया. और टीवी औन कर के चाय का कप उठाने लगा.

वीडियो चल पड़ा था. उस की नजर स्क्रीन पर गई, ‘अरे यह तो मैं, मेरे दोस्त मेरा ही वीडियो… ड्राइंगरूम… वही कपड़े यानी कल… वह वीडियो देखता गया और गुस्से और शर्म से भरता चला गया. छि… मैं उन्हें अपना अच्छा दोस्त समझता था… वे मेरी बहन दीप्ति के साथ शिट… शिट…’ उसे दोस्तों से ज्यादा अपनेआप पर क्रोध आने लगा. वह दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक अपनी शर्म और गुस्सा छिपाने का प्रयास करने लगा.

तभी शुचि आ गई. वीडियो खत्म हो चुका था.

‘‘भैया… भैया,’’ कह कर उस ने नवल के चेहरे से उस के हाथ हटा दिए, ‘‘दीप्ति और आंटी के लाख कहने पर भी आप अपने दोस्तों की असलियत जाने बिना उन के खिलाफ कुछ नहीं सुनते थे, इसलिए मुझे यह करना पड़ा… सौरी भैया.’

‘‘अरे तू सौरी क्यों बोल रही है… गलती तो मेरी है ही और वह भी इतनी बड़ी… सही किया जो मेरी आंखें खोल दीं. कितना जलील किया है मैं ने दीप्ति को. उज्ज्वल पर भी क्या असर पड़ता होगा और मां को तो मैं इस हालत में भी मौत की ओर ही धकेले जा रहा होऊंगा. शराब ने मुझे इतना गिरा दिया कि अपनों को छोड़ मैं गैरों पर विश्वास करने लगा. उन्हीं के बहकावे में मैं ने लतिका को भी घर से जाने के लिए मजबूर कर दिया. वह मेरी नन्ही परी को ले कर चली गई. वह सिसक उठा. रोज सुबह सोचता हूं नहीं पीऊंगा अब से पर कमबख्त लत है कि छूटती नहीं… शाम होतेहोते मैं… उफ,’’ उस का चेहरा फिर उस की हथेलियों में था.

‘‘छूटेगी जरूर भैया, अगर आप मन में ठान लें… चलेंगे भैया?’’

पूछने के अंदाज में उस ने सिर उठाया, ‘‘कहां?’’

‘‘चलिए आज ही चलिए भैया जहां मैं अपने मियांजी को ले गई थी उन के गुटके की आदत को छुड़वाने के लिए. मेरे घर के पास ही तो है नशामुक्ति केंद्र. मेरे कुलीग के भाई अमन हवां के हैड बन गए हैं,’’ कह कर वह मुसकराई थी, ‘‘चलेंगे न भैया.’’

नवल ने हां में सिर हिलाया, तो पास खड़ी दीप्ति नवल से लिपट खुशी से रो पड़ी. नवल ने उस के सिर पर हाथ फेरा और सीने से लगा लिया. शुचि भी नम आंखों से मुसकरा उठी.

शुचि की शादी की वर्षगांठ पर दीप्ति उस के घर आई थी.

‘‘अब तो नवल भैया ठीक हो गए हैं… अब उदास क्यों है? तेरी भाभी को भी अब जल्दी लाना होगा. तभी तो मैं अपनी भाभी को ला पाऊंगी… पर तू हां तो कर पहले.’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यह तू अमन को पसंद है. मैं ने बहुत पहले अमन से तेरा गुटका बदलने वाला उपाय शेयर किया था तो वे खूब हंसे थे. और तभी से वे तुम से यानी बीरबल से मिलना चाहते थे. वे भी आए हैं मिलेगी उन से?’’

 

‘‘तू पागल है क्या?’’ दीप्ति के लाज और संकोच से कान लाल हो उठे.

तभी अमन को वहां से गुजरते देख शुचि बोली, ‘‘अमन, अभीअभी मैं आप को ही याद कर रही थी… आप मिलना चाहते थे न मेरी बीरबल दोस्त से… यही है वह मेरी प्यारी दोस्त दीप्ति…’’

दीप्ति नमस्ते कर नजरें झुकाए खड़ी थी. अमन से नजरें मिलाने का साहस उस में न था. उस ने महसूस किया, अमन मंदमंद मुसकरा रहा है. सच जानने के लिए उस की पलकें अपनेआप उठीं फिर झुक गईं. अमन कभी दीप्ति को देखता तो कभी शुचि को और फिर मंदमंद मुसकराए जा रहा था. दीप्ति की धड़कनें तेज होने लगी थीं.

‘‘अरे अमन अब कुछ बोलो भी.’’

शुचि दीप्ति से अमन की ओर इशारा करते हुए बोली, ‘‘अब बता बनेगी मेरी भाभी?’’

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अमन ने खुशी को छिपाते हुए बनावटी गुस्से से शुचि को आंख तरेरीं तो उधर दीप्ति ने भी शरमा कर आंखें झुका लीं. शुचि के मुंह से अमन की तारीफें सुन कर और अपने भैया को ठीक करने वाले अमन को साक्षात देख कर वह पहले ही प्रभावित थी.

‘‘वाह, अब जल्दी से आंटी को खुशी की यह खबर देनी होगी,’’ कह कर शुचि ने दीप्ति को बांहों में भर लिया.

शर्वरी: बेटी की ननद को क्यों अपने घर ले आई महिमा

‘‘ओशर्वरी, इधर तो आ. इस तरह कतरा कर क्यों भाग रही है,’’ महिमा ने कांजीवरम साड़ी में सजीसंवरी शर्वरी को दरवाजे की तरफ दबे कदमों से खिसकते देख कर कहा था. ‘‘जी,’’ कहती, शरमातीसकुचाती शर्वरी उन के पास आ कर खड़ी हो गई.

‘‘क्या बात है? इस तरह सजधज कर कहां जा रही है?’’ महिमा ने पूछा. ‘‘आज डा. निपुण का विदाई समारोह है न, मांजी, कालेज में सभी अच्छे कपड़े पहन कर आएंगे. मैं ऐसे ही, सादे कपड़ों में जाऊं तो कुछ अजीब सा लगेगा,’’ शर्वरी सहमे स्वर में बोली. ‘‘तो इस में बुरा क्या है, बेटी. तेरी गरदन तो ऐसी झुकी जा रही है मानो कोई अपराध कर दिया हो. इस साड़ी में कितनी सुंदर लग रही है, हमें भी देख कर अच्छा लगता है. रुक जरा, मैं अभी आई,’’ कह कर महिमा ने अपनी अलमारी में से सोने के कंगन और एक सुंदर सा हार निकाल कर उसे दिया. ‘‘मांजी…’’ उन से कंगन और हार लेते हुए शर्वरी की आंखें डबडबा आई थीं. ‘‘यह क्या पागलपन है. सारा मुंह गंदा हो जाएगा,’’ मांजी ने कहा. ‘‘जानती हूं, पर लाख चाहने पर भी ये आंसू नहीं रुकते कभीकभी,’’ शर्वरी ने खुद पर संयम रखने का प्रयास करते हुए कहा. शर्वरी ने भावुक हो कर हाथों में कंगन और गले में हार डाल लिया.

‘‘कैसी लग रही हूं?’’ अचानक उस के मुंह से निकल पड़ा. ‘‘बिलकुल चांद का टुकड़ा, कहीं मेरी नजर ही न लग जाए तुझे,’’ वह प्यार से बोलीं. ‘‘पता नहीं, मांजी, मेरी अपनी मां कैसी थी. बस, एक धुंधली सी याद शेष है, पर मैं यह कभी नहीं भूलूंगी कि आप के जैसी मां मुझे मिलीं,’’ शर्वरी भावुक हो कर बोली. ‘‘बहुत हो गई यह मक्खनबाजी. अब जा और निपुण से कहना, मुझ से मिले बिना न चला जाए,’’ उन्होंने आंखें तरेर कर कहा. ‘‘जी, डा. निपुण तो खुद ही आप से मिलने आने वाले हैं. उन की माताजी आई हैं. वह आप से मिलना चाहती हैं,’’ कहती हुई शर्वरी पर्स उठा कर बाहर निकल गई थी.

इधर महिमा समय के दर्पण पर जमी अतीत की धूल को झाड़ने लगी थीं. वह अपनी बेटी नूपुर के बेटा होने के मौके पर उस के घर गई थीं. वह जा कर खड़ी ही हुई थी कि शर्वरी ने आ कर थोड़ी देर उन्हें निहार कर अचानक ही पूछ लिया था, ‘आप लोग अभी नहाएंगे या पहले चाय पिएंगे?’ वह कोई जवाब दे पातीं उस से पहले ही नूपुर, शर्वरी पर बरस पड़ी थीं, ‘यह भी कोई पूछने की बात है? इतने लंबे सफर से आए हैं तो क्या आते ही स्नानध्यान में लग जाएंगे? चाय तक नहीं पिएंगे?’ ‘ठीक है, अभी बना लाती हूं,’ कहती हुई शर्वरी रसोईघर की तरफ चल दी. ‘और सुन, सारा सामान ले जा कर गैस्टरूम में रख दे. अंकुश का रिकशे वाला आता होगा. उसे तैयार कर देना. नाश्ते की तैयारी भी कर लेना…’

‘बस कर नुपूर. इतने काम तो उसे याद भी नहीं रहेंगे,’ महिमा ने मुसकराते हुए कहा. ‘मां, आप नहीं जानती हैं इसे. यह एक नंबर की कामचोर है. एक बात कहूं मां, पिताजी ने कुछ भी नहीं देखा मेरे लिए. पतिपत्नी कैसे सुखचैन से रहते हैं, मैं ने तो जाना ही नहीं, जब से इस घर में पैर रखा है मैं तो देवरननद की सेवा में जुटी हूं,’ अब नूपुर पिताजी की शिकायत करने लगी. ‘ऐसे नहीं कहते, अंगूठी में हीरे जैसा पति है तेरा. इतना अच्छा पुश्तैनी मकान है. मातापिता कम उम्र में चल बसे तो भाईबहन की जिम्मेदारी तो बड़े भाईभाभी पर ही आती है,’ महिमा ने समझाते हुए कहा. ‘वही तो कह रही हूं. यह सब तो देखना चाहिए था न आप को. भाई की पढ़ाई का खर्च, फिर बहन की पढ़ाई. ऊपर से उस की शादी के लिए कहां से लाएंगे लाखों का दहेज,’ नूपुर चिड़चिड़े स्वर में बोली थी. ‘ठीक है, यदि मैं सबकुछ देख कर विवाह करता और बाद में सासससुर चल बसते तो क्या करतीं तुम?’ अभिजीत भी नाराज हो उठे थे.

महिमा ने उन्हें शांत करना चाहा. बेटी और पति के स्वभाव से वह अच्छी तरह परिचित थीं और उन के भड़कते गुस्से को काबू में रखने के लिए उन्हें हमेशा ठंडे पानी का कार्य करना पड़ता था. तभी चाय की ट्रे थामे शर्वरी आई थी. साथ ही नूपुर के पति अभिषेक ने वहां आ कर उस गरमागरम बहस में बाधा डाल दी थी. चाय पीते हुए भी महिमा की आंखें शर्वरी का पीछा करती रहीं. उस ने फटाफट अंकुश को तैयार किया,उस का टिफिन लगाया, अभिषेक को नाश्ता दिया और महिमा और उन के पति के लिए नहाने का पानी भी गरम कर के दिया. महिमा नहा कर निकलीं तो उन्होंने देखा कि शर्वरी सब्जी काट रही थी. वह बोलीं, ‘अरे, अभी से खाने की क्या जल्दी है, बेटी. आराम से हो जाएगा.’

‘मांजी, मैं सोच रही थी, आज कालेज चली जाती तो अच्छा रहता. छमाही परीक्षाएं सिर पर हैं. कालेज न जाने से बहुत नुकसान होता है,’ शर्वरी जल्दीजल्दी सब्जी काटते हुए बोली. ‘तुम जाओ न कालेज. मैं आ गई हूं, सब संभाल लूंगी. इस तरह परेशान होने की क्या जरूरत है. मुझे पता है, इंटर की पढ़ाई में कितनी मेहनत करनी पड़ती है,’ महिमा ने कहा. उन की बात सुन कर शर्वरी के चेहरे पर आई चमक, उन्हें आज तक याद है. कुछ पल तक तो वह उन्हें एकटक निहारती रह गई थी, फिर कुछ इस तरह मुसकराई थी मानो बहुत प्यासे व्यक्ति के मुंह में किसी ने पानी डाल दिया हो. दोनों के बीच इशारों में बात हुई व शर्वरी लपक कर उठी और तैयार हो कर किताबों का बैग हाथ में ले कर बाहर आ गई थी. ‘तो मैं जाऊं, मांजी?’ उस ने पूछा. ‘कहां जा रही हैं, महारानीजी?’ तभी नूपुर ने वहां आ कर पूछा. ‘कालेज जा रही है, बेटी,’ शर्वरी कुछ कहती उस से पहले ही महिमा ने जवाब दे दिया. ‘मैं ने कहा था न, एक सप्ताह और मत जाना,’ नूपुर ने डांटने के अंदाज में कहा. ‘जाने दे न नूपुर, कह रही थी, पढ़ाई का नुकसान होता है,’

महिमा ने शर्वरी की वकालत करते हुए कहा. ‘ओह, तो आप से शिकायत कर रही थी. कौन सी पीएचडी कर रही है? इंटर में पढ़ रही है और वह भी रोपीट कर पास होगी,’ नूपुर ने व्यंग्य के लहजे में कहा. महिमा का मन हुआ कि वे नूपुर को बताएं कि जब वह स्कूल में पढ़ती थी तो उसे कैसे सबकुछ पढ़ने की टेबल पर ही चाहिए होता था और तब भी वह उसी के शब्दों में ‘रोपीट कर’ ही पास होती थी, या नहीं भी होती थी, पर स्थिति की नजाकत देख कर वे चुप रह गई थीं. अभिजीत तो 2 दिन बाद ही वापस चले गए थे पर उन्हें नूपुर के पूरी तरह स्वस्थ होने तक वहीं उस की देखभाल को छोड़ गए थे. शर्वरी दिनभर घर के कार्यों में हाथ बंटा कर अपनी पढ़ाई भी करती और नूपुर की जलीकटी भी सुनती, पर उस ने कभी भी कुछ न कहा. अभिषेक अपने काम में व्यस्त रहता या व्यस्त रहने का दिखावा करता.

छोटे भाई रोहित ने, शायद नूपुर के स्वभाव से ही तंग आ कर छात्रावास में रह कर पढ़ने का फैसला किया था. वह मातापिता की चलअचल संपत्ति पर अपना हक जताता तो नूपुर सहम जाती थी, पर अब सारा गुस्सा शर्वरी पर ही उतरता था. कभीकभी महिमा को लगता कि सारा दोष उन का ही है. वे उसे दूसरों से शालीन व्यवहार की सीख तक नहीं दे पाई थीं. बचपन से भी वह अपने तीनों भाईबहनों में सब से ज्यादा गुस्सैल स्वभाव की थी और बातबात पर जिद करना और आपे से बाहर हो जाना उस के स्वभाव का खास हिस्सा बन गए थे. कुछ दिन और नूपुर के परिवार के साथ रह कर महिमा जब घर लौटीं तो उन के मन में एक कसक सी थी. वे चाह कर भी नूपुर से कुछ नहीं कह सकी थीं. 2 महीने तक साथ रह कर शर्वरी से उन का अनाम और अबूझ सा संबंध बन गया था. कहते हैं, ‘मन को मन से राह होती है,’

पहली बार उन्होंने इस कथन की सचाई को जीवन में अनुभव किया था, पर संसार में हर व्यक्ति को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है और वे चाह कर भी शर्वरी के लिए कुछ न कर पाई थीं. पर अचानक ही कुछ नाटकीय घटना घट गई थी. अभिषेक को 2 साल के लिए अपनी कंपनी की तरफ से जरमनी जाना था. शर्वरी को वह कहां छोड़े, यह समस्या उस के सामने मुंहबाए खड़ी थी. दोनों ने पहले उसे छात्रावास में रखने की बात भी सोची पर जब महिमा ने शर्वरी को अपने पास रखने का प्रस्ताव रखा तो दोनों की बांछें खिल गई थीं. ‘अंधा क्या चाहे दो आंखें,’ फिर भी अभिषेक ने पूछ ही लिया, ‘आप को कोई तकलीफ तो नहीं होगी, मांजी?’ ‘अरे, नहीं बेटे, कैसी बातें करते हो. शर्वरी तो मेरी बेटी जैसी है. फिर तीनों बच्चे अपने घरसंसार में व्यवस्थित हैं. हम दोनों तो बिलकुल अकेले हैं. बल्कि मुझे तो बड़ा सहारा हो जाएगा,’ महिमा ने कहा. ‘सहारे की बात मत कहो, मां. बहुत स्वार्थी किस्म की लड़की है यह सहारे की बात तो सोचो भी मत,’ नूपुर ने अपनी स्वाभाविक बुद्धि का परिचय देते हुए कहा था.

महिमा की नजर सामने दरवाजे पर खड़ी शर्वरी पर पड़ी थी तो उस की आंखों की हिंसक चमक देख कर वे भी एक क्षण को तो सहम गई थीं. ‘हां, तो पापा, आप क्या कहते हैं?’ उन्हें चुप देख कर नूपुर ने अभिजीत से पूछा था. ‘तुम्हारी मां तैयार हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. वैसे मुझे भी नहीं लगता कि कोई समस्या आएगी. शर्वरी अच्छी लड़की है और तुम्हारी मां को तो यों भी कभी किसी से तालमेल बैठाने में कोई परेशानी नहीं हुई है,’ अभिजीत ने नूपुर के सवाल का जवाब देते हुए कहा. इस तरह शर्वरी महिमा के जीवन का हिस्सा बन गई थी और जल्दी ही उस ने उन दोनों पतिपत्नी के जीवन में अपनी खास जगह बना ली थी. एक दिन शर्वरी कालेज से लौटी तो महिमा अपने बैडरूम में बेसुध पड़ी थीं. यह देख कर शर्वरी पड़ोसियों की मदद से उन्हें अस्पताल ले गई. बीमारी की हालत में शर्वरी ने उन की ऐसी सेवा की कि सब आश्चर्यचकित रह गए थे. ‘शर्वरी,’ महिमा ने हाथ में साबूदाने की कटोरी थामे खड़ी शर्वरी से कहा था. ‘जी.’ ‘तुम जरूर पिछले जन्म में मेरी मां रही होगी,’ महिमा ने मुसकरा कर कहा था. ‘आप पुनर्जन्म में विश्वास करती हैं क्या?’ शर्वरी ने पूछा. ‘हां, पर क्यों पूछ रही हो तुम?’

‘यों ही, पर मुझे यह जरूर लगता है कि कभी किसी जन्म में कुछ भले काम जरूर किए होंगे मैं ने जो आप लोगों से इतना प्यार मिला, नहीं तो मुझ अभागी के लिए यह सब कहां,’ कहते हुए शर्वरी की आंखें डबडबा गई थीं. ‘आज कहा सो कहा, आगे से कभी खुद को अभागी न कहना. कभी बैठ कर शांतमन से सोचो कि जीवन ने तुम्हें क्याक्या दिया है,’ महिमा ने शर्वरी को समझाते हुए कहा था. अभिजीत और महिमा के साथ रह कर शर्वरी कुछ इस कदर निखरी कि सभी आश्चर्यचकित रह गए थे. उस स्नेहिल वातावरण में शर्वरी ने पढ़ाई में अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. जब कठिनाई से पास होने वाली शर्वरी पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम आई थी तो खुद महिमा को भी उस पर विश्वास नहीं हुआ था. उसे स्वर्ण पदक मिला था. स्वर्ण पदक ला कर उस ने महिमा को सौंपते हुए कहा था,

‘इस का श्रेय केवल आप को जाता है, मांजी. पता नहीं इस का ऋण मैं कैसे चुका पाऊंगी.’ ‘पगली है, शर्वरी तू तो, मां भी कहती है और ऋण की बात भी करती है. फिर भी मैं बताती हूं, मेरा ऋण कैसे उतरेगा,’ महिमा ने उसे समझाते हुए कहा, ‘तेन त्यक्तेन भुंजीषा.’ ‘क्या?’ शर्वरी ने चौंकते हुए कहा, ‘यह क्या है? सीधीसादी भाषा में कहिए न, मेरे पल्ले तो कुछ नहीं पड़ा,’ कह कर शर्वरी हंस पड़ी. यह मजाक की बात नहीं है, बेटी. जीवन का भोग, त्याग के साथ करो और इस त्याग के लिए सबकुछ छोड़ कर संन्यास लेने की जरूरत नहीं है. परिवार और समाज में छोटी सी लगने वाली बातों से दूसरों का जीवन बदल सकता है. तुम समझ रही हो, शर्वरी?’ महिमा ने शर्वरी को समझाते हुए कहा था.

‘जी, प्रयास कर रही हूं,’ शर्वरी ने जवाब दिया. ‘देखो, नूपुर मेरी बेटी है, पर उस के तुम्हारे प्रति व्यवहार ने मेरा सिर शर्म से झुका दिया है. तुम ऐसा करने से बचना, बचोगी न?’ महिमा ने पूछा. ‘जी, प्रयत्न करूंगी कि आप को कभी निराश न करूं,’ शर्वरी गंभीर स्वर में बोली थी. शीघ्र ही शर्वरी की अपने ही कालेज में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति हो गई और अब तो उस का आत्मविश्वास देखते ही बनता था. उस की कायापलट की बात सोचते हुए उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकान तैर गई थी. ‘‘कहां खोई हो?’’ तभी अभिजीत ने आ कर महिमा की तंद्रा भंग करते हुए पूछा. ‘‘कहीं नहीं, यों ही,’’ महिमा ने चौंक कर कहा. ‘‘तुम्हारी तो जागते हुए भी आंखें बंद रहती हैं. आज लाइब्रेरी से निकला तो देखा शर्वरी डा. निपुण के साथ हाथ में हाथ डाले जा रही थी,’’ अभिजीत ने कहा. ‘‘जानती हूं,’’ महिमा ने उन की बात का जवाब दिया. ‘‘क्या?’’ अभिजीत ने पूछा. ‘‘यही कि दोनों एकदूसरे को बहुत चाहते हैं,’

’ उन्होंने बताया. ‘‘क्या कह रही हो, पराई लड़की है, कुछ ऊंचनीच हो गई तो हम कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे,’’ अभिजीत ने सकपकाते हुए कहा. ‘‘घबराओ नहीं, मुझे शर्वरी पर पूरा भरोसा है. उस ने तो अभिषेक को सब लिख भी दिया है,’’ महिमा बोलीं. ‘‘ओह, तो दुनिया को पता है. बस, हम से ही परदा है,’’ अभिजीत ने मुसकरा कर कहा था. थोड़ी ही देर में शर्वरी दरवाजे पर दस्तक देती हुई घर में घुसी. ‘‘मां, आज शाम को निपुण अपनी मां के साथ आप से मिलने आएंगे,’’ उस ने शरमाते हुए महिमा के कान में कहा. ‘‘क्या बात है? हमें भी तो कुछ पता चले,’’ अभिजीत ने पूछा. ‘‘खुशखबरी है, निपुण अपनी मां के साथ शर्वरी का हाथ मांगने आ रहे हैं. चलो, बाजार चलें, बहुत सी खरीदारी करनी है,’’ महिमा ने कहा तो शर्वरी शरमा कर अंदर चली गई. ‘‘सच कहूं महिमा, आज मुझे जितनी खुशी हो रही है उतनी तो अपनी बेटियों के संबंध करते समय भी नहीं हुई थी,’’ अभिजीत गद्गद स्वर में बोले. ‘‘अपनों के लिए तो सभी करते हैं पर सच्चा सुख तो उन के लिए कुछ करने में है जिन्हें हमारी जरूरत है,’’ संतोष की मुसकान लिए महिमा बोलीं.

मेरा पति सिर्फ मेरा है: अनुषा ने कैसे ठिकाने लगाई पति की प्रेमिका की अक्ल?

सुबह के 6 बज गए थे. अनुषा नहाधो कर तैयार हो गई. ससुराल में उस का पहला दिन जो था, वरना घर में मजाल क्या कि वह कभी 8 बजे सुबह से पहले उठी हो.

विदाई के समय मां ने समझाया था,”बेटी, लड़कियां कितनी भी पढ़लिख जाएं उन्हें अपने संस्कार और पत्नी धर्म कभी नहीं भूलना चाहिए. सुबह जल्दी उठ कर सिर पर पल्लू रख कर रोजाना सासससुर का आशीर्वाद लेना. कभी भी पति का साथ न छोड़ना. कैसी भी परिस्थिति आ जाए धैर्य न खोना और मुंह से कभी कटु वचन न कहना.”

“जैसी आप की आज्ञा माताश्री…”

जिस अंदाज में अनुषा ने कहा था उसे सुन कर विदाई के क्षणों में भी मां के चेहरे पर हंसी आ गई थी.

अनुषा ड्रैसिंग टेबल के आगे बैठी थी. बीती रात की रौनक उस के चेहरे पर लाली बन कर बिखरी हुई थी. भीगी जुल्फें संवारते हुए प्यार भरी नजरों से उस ने बेसुध भुवन की तरफ देखा.

भुवन से वैसे तो उस की अरैंज्ड मैरिज हुई थी. मगर सगाई और शादी के बीच के समय में वे कई दफा मिले थे. इसी दरमियान उस के दिल में भुवन के लिए प्यार उमड़ पड़ा था. तभी तो शादी के समय उसे महसूस ही नहीं हुआ कि वह अरैंज्ड मैरिज कर किसी अजनबी को जीवनसाथी बना रही है. उसे लग रहा था जैसे लव मैरिज कर अपने प्रियतम के घर जा रही है.

बाल संवार कर और सिर पर पल्लू रख कर अनुषा सीढ़ियों से नीचे उतर आई. सासससुर बैठक रूम में सोफे पर बैठे अखबार पढ़ते हुए चाय की चुसकियों का आनंद ले रहे थे. अनुषा ने उन को अभिवादन किया और किचन में घुस गई. उस ने अपने हाथों से सुबह का नाश्ता तैयार कर खिलाया तो ससुर ने आशीष स्वरूप उसे हजार के 5 नोट दिए. सास ने अपने गले से सोने की चेन निकाल कर दी. तब तक भुवन भी तैयार हो कर नीचे आ चुका था.

भुवन ने अनुषा को बताया था कि अभी औफिस में कुछ जरूरी मीटिंग्स हैं इसलिए 2-3 दिन मीटिंग्स और दूसरे काम निबटा कर अगले सप्ताह दोनों हनीमून के लिए निकलेंगे. इस के लिए भुवन ने 10 दिनों की छुट्टी भी ले रखी थी.

भुवन का औफिस टाइम 10 बजे का था. औफिस ज्यादा दूर भी नहीं था और जाना भी अपनी गाड़ी से ही था. फिर भी भुवन ठीक 9 बजे घर से निकल गया तो अनुषा को कुछ अजीब लगा. मगर फिर सामान्य हो कर वह खाने की तैयारी में जुट गई.

तब तक कामवाली भी आ गई थी. अनुषा को ऊपर से नीचे तक तारीफ भरी नजरों से देखने के बाद धीरे से बोली,” शायद अब भुवन भैया उस नागिन के चंगुल से बच जाएंगे.”

“यह क्या कह रही हो तुम?”  कामवाली की बात पर आश्चर्य और गुस्से में अनुषा ने कहा.

वह मुसकराती हुई बोली,” बस बहुरानी कुछ ही दिनों में आप को मेरी बात का मतलब समझ आ जाएगा. 2-3 दिन इंतजार कर लो,” कह कर वह काम में लग गई.

फिर अनुषा की तारीफ करती हुई बोली,” वैसे बहुरानी बड़ी खूबसूरत हो तुम.”

अनुषा ने उस की बात अनसुनी कर दी. उस के दिमाग में तो नागिन शब्द  घूम रहा था. उसे नागिन का मतलब समझ नहीं आ रहा था.

पूरे दिन अनुषा भुवन के फोन का इंतजार करती रही. दोपहर में भुवन का फोन आया. दोनों ने आधे घंटे प्यार भरी बातें कीं. शाम में भुवन को आने में देर हुई तो अनुषा ने सास से पूछा.

सास ने निश्चिंतता भरे स्वर में कहा,”आ रहा होगा. थोड़ा औफिस के दोस्तों में बिजी होगा.”

8 बजे के करीब भुवन घर लौटा. साथ में एक महिला भी थी. लंबी, छरहरी, नजाकत और अदाओं से लबरेज व्यक्तित्व वाली उस महिला ने स्लीवलैस वनपीस ड्रैस पहन रखी थी. होंठों पर गहरी लिपस्टिक और हाई हील्स में वह किसी मौडल से कम नहीं लग रही थी. अनुषा को भरपूर निगाहों से देखने के बाद भुवन की ओर मुखातिब हुई और हंस कर बोली,” गुड चौइस. तो यह है आप की बैटर हाफ. अच्छा है.”

बिना किसी के कहे ही वह सोफे पर पसर गई. सास जल्दी से 2 गिलास शरबत ले आई. शरबत पीते हुए उस ने शरबती आवाज में कहा,” भुवन जिस दिल में मैं हूं उसे किसी और को किराए पर तो नहीं दे दोगे?”

उस महिला के मुंह से ऐसी बेतुकी बात सुन कर अनुषा की भंवें चढ़ गईं. उस ने प्रश्नवाचक नजरों से भुवन की ओर देखा और फिर सास की तरफ देखा.

सास ने नजरें नीचे कर लीं और भुवन ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा,” यार टीना तुम्हारी मजाक करने की आदत नहीं गई.”

“मजाक कौन कर रहा है? मैं तो हकीकत बयान कर रही हूं. वैसे अनुषा तुम से मिल कर अच्छा लगा. आगे भी मुलाकातें होती रहेंगी हमारी. आखिर मैं भुवन की दोस्त जो हूं. तुम्हारी भी दोस्त हुई न. बैटर हाफ जो हो तुम उस की.”

वह बारबार बैटर हाफ शब्द पर जोर दे रही थी. अनुषा उस का मतलब अच्छी तरह समझ रही थी. टीना ने फिर से अदाएं बिखेरते हुए कहा,”आज की रात तो नींद नहीं, चैन नहीं, है न भुवन”

5 -10 मिनट रुक कर वह जाने के लिए खड़ी हो गई. भुवन उसे घर छोड़ने चला गया. अनुषा ने सास से सवाल किया,” यह कौन है मांजी जो भुवन पर इतना अधिकार दिखा रही है?”

“देखो बेटा, अब तुम भुवन की पत्नी हो इसलिए इतना तो तुम्हें जानने का हक है ही कि वह कौन थी? दरअसल, बेटा तुम्हें उस को भुवन की जिंदगी में स्वीकार करना पड़ेगा. हमारी मजबूरी है बेटा. हम सब को भी उसे स्वीकार करना पड़ा है बेटे.”

“पर क्यों सासूमां ? क्या भुवन का उस के साथ कोई रिश्ता है?”

“ऐसा कोई रिश्ता तो नहीं बहू पर बस यह जान लो कि उस के बहुत से एहसान हैं हमारे ऊपर. वैसे तो वह उस की बौस है मगर भुवन को इस मुकाम तक पहुंचाने में काफी मदद की है उस ने. अपने पावर का उपयोग कर भुवन को काफी अच्छा ओहदा दिया है. बस भुवन पसंद है उसे और कुछ नहीं.”

“इतना कम है क्या सासूमां ?”वह तो पत्नी की तरह हक दिखाती है भुवन पर.”

बहु कभीकभी हमें जिंदगी में समझौते करने पड़ते हैं. 1-2 बार भुवन ने जौब छोड़ने की भी कोशिश की. मगर उस ने आत्महत्या की धमकी दे डाली. भुवन के प्रति आकर्षित है इसलिए उस को अपने औफिस से निकलने भी नहीं देती.”
तब तक ससुरजी उसे समझाने आ गए, “सच कहूं बहू तो उस ने काफी कुछ किया है हमारे लिए. मेरे हार्ट की सर्जरी कराने में भी पानी की तरह पैसे बहाए. इन सब के बदले भुवन का थोड़ा वक्त ही तो लेती है. सुबह भुवन 1 घंटे जल्दी चला जाता है ताकि उस के साथ समय बिता सके और रात में थोड़ा अधिक रुक जाता है. बस, इतनी ही डिमांड है उस की.”

“यदि टीना को भुवन इतना ही पसंद था तो उसी से शादी क्यों नहीं करा दिया आप लोगों ने? मेरी जिंदगी क्यों खराब की?”

“बेटा टीना शादीशुदा है. उस की शादी भुवन से हो ही नहीं सकती.”

शादी के दूसरे दिन ही अपनी जिंदगी में आए इस कड़वे अध्याय को पढ़ कर अनुषा विचलित हो गई थी. सोचा मां को हर बात बता दे और सब कुछ छोड़ कर मायके चली जाए. मगर फिर मां की कही बातें याद आ गईं कि हमेशा धैर्य बनाए रखना.

आधे घंटे में भुवन वापस लौट आया. खापी कर और बरतन निबटा कर जब अनुषा अपने कमरे में पहुंची तो देखा भुवन टीना से बातें कर रहा है. अनुषा को देखते ही उस ने फोन काट दिया और अनुषा को बांहों में भरने लगा. अनुषा छिटक कर अलग हो गई और उलाहने भरे स्वर में बोली,” मेरी सौतन से बातें कर रहे थे?”

भुवन हंस पड़ा,”अरे यार सौतन नहीं है वह. बस मुझ पर मरती है और मैं भी उस के साथ थोड़ाबहुत हुकअप कर लेता हूं. बस और क्या. खूबसूरत है साथ चलती है तो अपना भी स्टैंडर्ड बढ़ जाता है. ”

बेशर्मी से बोलते हुए भुवन सहसा ही सीरियस हो गया,” देखो अनुषा, जीवनसाथी तो तुम ही हो मेरी. मेरे जीवन का हर रास्ता लौट कर तुम्हारे पास ही आएगा.”

‘वह तो ठीक है भुवन मगर ऐसा कब तक चलेगा? इस टीना को तुम में इतनी दिलचस्पी क्यों है ? कहीं न कहीं तुम भी उसे भाव देते होगे तभी तो उसे आगे बढ़ने का मौका मिलता है.”

“देखो यार, मेरा तो एक ही फंडा है, थोड़ी खुशी मुझे मिल जाती है और थोड़ी उसे. इस में गलत क्या हैऔफिस में मेरा पोजीशन बढ़ाती है और मैं उसे थोड़ा प्यार दे देता हूं. बस, इस से ज्यादा और कुछ नहीं. दिल में तो केवल तुम ही हो न…” कह कर भुवन ने लाइटें बंद कर दीं और न चाहते हुए भी अनुषा को समर्पण करना पड़ा.

समय इसी तरह निकलने लगा. लगभग रोजाना ही टीना घर आ धमकती.

वह जब भी आती भुवन के साथ फ्लर्ट करती, अदाएं बिखेरती और अनुषा पर व्यंग कसती.

एक दिन भुवन के बालों को अपनी उंगली में घुमाते हुए शोख आवाज में बोली,” एक राज बताऊं अनुषा, तुम्हारे काम आएगा. ”
अनुषा ने कोई जवाब नहीं दिया.

मगर टीना ने बोलना जारी रखा,” पता है, भुवन कब खुद पर काबू नहीं रख पाता?”

“कब?” भुवन ने टोका तो हंसते हुए टीना बोली, “जब कोई लड़की हलके गुलाबी रंग की नाइटी पहन कर उस के करीब जाए. फिर तो भुवन का खुद पर भी वश नहीं चलता.”

सुन कर भुवन सकपका गया और टीना हंसती हुई बोली, “वैसे अनुषा, एक बात और बताऊं,” भुवन के बिलकुल करीब पहुंचते हुए टीना ने कहा तो अनुषा का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा.

अनुषा को और भी ज्यादा जलाती हुई टीना बोलने लगी,” काले टीशर्ट और ग्रे जींस में तुम्हारा पति इतना हैंडसम लगता है कि बस फिर दुनिया का कोई भी पुरुष तुम्हारे पति के आगे पानी भरे. ”

अनुषा ने कोई जवाब नहीं दिया मगर टीना ने अपने फ्लर्टी अंदाज में बोलना जारी रखा,” जानते हो भुवन, तुम्हारी कौन सी अदा और कौन सी चीज मुझे अपनी तरफ खींचती है?”

अनुषा का गुस्सा देख भुवन टीना के पास से उठ कर दूर खड़ा हो गया तो नजाकत के साथ उस के करीब से गुजरती हुई टीना बोली,” यह तुम्हारा सब जान कर भी अंजान बने रहने की अदा. तोबा दिल का सुकून छिन जाता है जब तुम्हारी निगाहों में अपनी मोहब्बत देखती हूं. चलो अब चलती हूं मैं वरना कोई गुस्ताखी न हो जाए मुझ से…”

इस तरह की बेशर्मियां टीना अकसर करती.

हनीमून पर जाने से 2 दिन पहले की बात है. उस दिन रविवार था. भुवन सुबह से ही अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रहा था. अनुषा दोपहर के खाने की तैयारियों में लगी थी. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई तो अनुषा ने जा कर दरवाजा खोला. सामने टीना खड़ी थी. खुले बाल, स्लीवलैस बौडीहगिंग टौप और जींस के साथ डार्क रैड लिपस्टिक में उसे देख कर अनुषा का चेहरा बन गया.

टीना नकली हंसी बिखेरती अंदर घुस आई और पूछा,” नई दुलहन आप के श्रीमान जी कहां हैं?

“वे अपने कमरे में काम कर रहे हैं.”

“ओके मैं मिल कर आती हूं.”

“आप बैठिए मैं बुला कर लाती हूं.”

अनुषा के इस कथन पर टीना ठहाके मार कर हंसती हुई बोली,” आंटी, सुना आप ने? आप की बहू तो मुझ से औपचारिकताएं निभा रही है. उसे पता ही नहीं कि मैं इस घर में किसी भी कमरे में किसी भी समय जा सकती हूं,” कहते हुए वह भुवन के कमरे की तरफ बढ़ गई.

अनुषा ने सवालिया नजरों से सास की तरफ देखा तो सास ने नजरें नीची कर लीं. टीना ने भुवन के कमरे में जा कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. करीब 1 घंटे बाद उस ने दरवाजा खोला. उतनी देर अनुषा के सीने में आग आग जलती रही. उसी समय जा कर उस ने हनीमून के टिकट फाड़ डाले. रात तक अपना कमरा बंद कर रोती रही.

सास ने उसे समझाते हुए कहा,” देख बहू, पुरुषों द्वारा 2 स्त्रियों के साथ संबंध बना कर रखना कोई नई बात तो है नहीं. सदियों से ऐसी बातें चली आ रही है. यहां तक कि देवीदेवता भी इस से विमुख नहीं. कृष्ण का ही उदाहरण ले जिन की 16 हजार रानियां थीं. रानी रुक्मणी के साथसाथ राधा से भी उन के संबंध थे. पांडु और राजा दशरथ की 3-3 पत्नियां थीं तो इंद्र ने भी अहिल्या के साथ…”

“मांजी आप प्लीज अपनी दलीलें मुझे मत दीजिए. मुझे मेरे दर्द के साथ अकेला रहने दीजिए. एक बात बताइए मांजी, आप को इस में कुछ भी गलत नहीं लग रहा? अगर ऐसा है और यह घर टूटता है तो आप इस का इल्जाम मुझ पर मत लगाइएगा ”

आगे पढ़ें- रोती हुई अनुषा बाथरोती हुई अनुषा बाथरूम में जा कर मुंह धोने लगी तो सास ने दबी आवाज मे कहा,” मैं समझती हूं तुम्हारा दर्द. देखो मैं एक बाबा को जानती हूं. बहुत पहुंचे हुए हैं. वे भभूत दे देंगे या कोई उपाय बता देंगे. सब ठीक हो जाएगा. तुम चलो कल मेरे साथ.”

अनुषा को बाबाओं और पंडितों पर कोई विश्वास नहीं था. मगर सास समझाबुझा कर जबरन उसे बाबा के पास ले गई. शहर से दूर वीराने में उस बाबा का आश्रम काफी लंबाचौड़ा था. आंगन में भक्तों की भीड़ बैठी हुई थी. बाबा की आंखें अनुषा को शराब जैसी जहरीली लग रही थी. उस पर बारबार बाबा का भक्तों पर झाड़ू फिराना फिर अजीब सी आवाजें निकालना. अनुषा को बहुत कोफ्त हो रही थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि टीना को उस की जिंदगी से दूर करने में भला बाबा की क्या भूमिका हो सकती है? इस के लिए तो उसे ही कुछ सोचना होगा. वह चुपचाप बैठ कर आगे का प्लान अपने दिमाग में बनाने लगी.

इधर कुछ समय में उस का नंबर आ गया. बाबा ने वासना पूरित नजरों से उस की तरफ देखा और फिर उस के हाथों को पकड़ कर पास बैठने का इशारा किया. अनुषा को यह छुअन बहुत घिनौनी लगी. वह मुंह बना कर बैठी रही. सास ने समस्या बताई. बाबा ने झाड़ू से उस की समस्या झाड़ देने का उपक्रम किया.

फिर बाबा ने उपाय बताते हुए कहा, “बच्ची तुम्हें 18 दिन केवल एक वक्त खा कर रहना होगा और वह भी नमकीन नहीं बल्कि केवल मीठा. इस के साथ ही 18 दिन का गुप्त अनुष्ठान भी चलेगा. काली बाड़ी के पास वाले मंदिर में रोजाना 11बजे मैं एक पूजा करवाउंगा. इस में करीब ₹90,000 का खर्च आएगा.”

“जी बाबा जी जैसा आप कहें,” सास ने हाथ जोड़ कर कहा.

अनुषा उस वक्त तो चुप रही मगर घर आते ही बिफर पड़ी,” मांजी, मुझे ऐसे उलजलूल उपायों पर विश्वास नहीं. मैं कुछ नहीं करने वाली. अब मैं अपने कमरे में जा रही हूं ताकि कोई बेहतर ढूंढ़ सकूं.”

अनुषा का गुस्सा देख कर सास चुप रह गईं. इधर अनुषा देर रात तक सोचती रही. वह इतनी जल्दी अपनी परिस्थितियों से हार मानने को तैयार नहीं थी. उस ने काफी सोचविचार किया और फिर उसे रास्ता नजर आ ही गया.

अनुषा ने पहले टीना के बारे में अच्छे से खोजखबर ली ताकि उस की कमजोर नस पकड़ सके. सारी जानकारियां एकत्र की. जल्द ही उसे पता लग गया कि टीना का पति रैडीमेड कपड़ों का व्यापारी है और पास के मार्केट में उस की काफी बड़ी शौप भी है. बस फिर क्या था अनुषा ने अपनी योजना के हिसाब से चलना शुरू किया.

सब से पहले एक ड्रैस खरीदने के बहाने वह उस दुकान में गई. दुकान का मालिक यानी टीना का पति विराज करीब 40 साल का एक सीधासादा सा आदमी था, जिस के सिर पर बाल काफी कम थे. वैसे पर्सनैलिटी अच्छी थी. अनुषा ने बातों ही बातों में बता दिया कि वह भी विराज के शहर की है. फिर क्या था विराज उस पर अधिक ध्यान देने लगा.

अनुषा ने एक महंगा सूट खरीदा और घर चली आई. 2-3 दिन बाद वह फिर उसी दुकान में पहुंची और कुछ कपड़े खरीद लिए. विराज ने उस के लिए स्पैशल चाय मंगवाई तो अनुषा भी बैठ कर उस से ढेर सारी बातें करने लगी. धीरेधीरे उस ने यह भी बता दिया कि उस का पति भुवन टीना के औफिस में काम करता है. विराज टीना और भुवन के रिश्ते के बारे में पहले से जानता था. इसलिए अनुषा से और भी ज्यादा जुङाव महसूस करने लगा.

अनुषा अब अकसर विराज की शॉप पर जाने लगी और उसे देर तक बातें भी करती. जल्द ही विराज से उस की दोस्ती इतनी गहरी हो गई कि विराज ने उसे घर आने को भी आमंत्रित कर दिया.

अगले ही दिन अनुषा टीना की गैरमौजूदगी में विराज और टीना के घर पहुंच गई. विराज ने उस की काफी आवभगत की और दोनों ने दोस्त की तरह साथ समय व्यतीत किया. चलते समय अनुषा ने जानबूझ कर टीना के बैड पर कोने में अपना हेयर पिन रख दिया. रात में जब टीना ने वह हेयर पिन देखा तो बौखला गई और विराज से सवाल करने लगी. विराज ने किसी तरह बात को टाल दिया.

मगर 2 दिन बाद ही अनुषा फिर विराज के घर पहुंच गई. इस बार वह बाथरूम में अपना दुपट्टा लटका आई थी.

टीना ने जब लैडीज दुपट्टा बाथरूम में देखा तो आपे से बाहर हो गई और विराज पर उंगली उठाने लगी,” यह दुपट्टा किस का है विराज, बताओ किस के साथ रंगरेलियां मना रहे थे तुम?”

“पागल मत बनो टीना. मैं तुम्हारी तरह किसी के साथ रंगरेलियां नहीं मनाता,” विराज का गुस्सा भी फूट पड़ा.

“तुम्हारी तरह? क्या कहना चाहते हो तुम? भूलो मत मेरे पिता के पैसों पर पल रहे हो. मुझ को धोखा देने की बात सोचना भी मत.”

“देखो टीना मैं मानता हूं एक महिला से मेरी दोस्ती हुई है. अनुषा नाम है उस का. मगर वह घर पर सिर्फ चाय पीने आई थी. यकीन जानो हमारे बीच ऐसा कुछ नहीं है जिसे तुम रंगरेलियां मनाना कह सको. ”

अब टीना थोड़ी सावधान हो गई थी. उसे महसूस होने लगा था कि बदला लेने के लिए अनुषा उस के पति पर डोरे डाल रही है. टीना ने अब भुवन के घर आनाजाना कम कर दिया मगर उस के साथ वक्त बिताना नहीं छोड़ा.

इधर अनुषा फिर से विराज के घर पहुंची. इस बार वह विराज के लिए खूबसूरत सा गिफ्ट ले कर आई थी. यह एक खूबसूरत कविताओं का संग्रह था. विराज को कविताओं का बहुत शौक था. 2-3 घंटे दोनों कविताओं पर चर्चा करते रहे. इस बीच योजनानुसार अनुषा ने अपनी इस्तेमाल की हुई एक सैनिटरी नैपकिन टीना के बाथरूम के डस्टबिन में डाल दिया. फिर विराज से इजाजत ले कर वह घर लौट आई.

अनुषा को अंदेशा हो गया था कि आज रात या कल सुबह टीना कोई न कोई ड्रामा जरूर करेगी. हुआ भी यही. सुबहसुबह टीना अनुषा के घर धमक आई.

वह बाहर से ही चिल्लाती आ रही थी,” मेरे पति पर डोरे डाले तो अच्छा नहीं होगा अनुषा. मेरा पति सिर्फ मेरा है.”

हंसती हुई अनुषा किचन से बाहर निकली और बोल पड़ी,” मान लो मैं तुम्हारे पति पर डोरे डाल रही हूं. तो अब बताओ क्या करोगी तुम? मेरे पति पर डोरे डालोगी? वह तो तुम पहले ही कर चुकी हो. आगे बताओ और क्या करोगी?”

अनुषा का सवाल सुन कर वह बिफर पड़ी. चीखती हुई बोली,” खबरदार अनुषा मेरे पति की तरफ आंख उठा कर भी मत देखना. वरना तुम्हारे पति को नौकरी से निकाल दूंगी.”

“तो निकाल दो न टीना. मैं भी यही चाहती हूं कि वह तुम्हारे चंगुल से आजाद हो जाए. हंसी आती है तुम पर. मेरे पति के साथ गलत रिश्ता रखने में तुम्हें कोई दिक्कत नहीं. मगर तुम्हारे पति की और कोई देख भी ले तो तुम्हें समस्या हो जाती है. कैसी औरत हो तुम जो औरत का दर्द ही नहीं समझ सकतीं? दर्द तुम नहीं सह सकतीं वह दूसरों को क्यों देती हो?”

दूर खड़ा भुवन दोनों की बातें सुन रहा था. उस की आंखें खुल गई थीं. मन ही मन अनुषा की तारीफ कर रहा था. कितनी सचाई से उस ने गलत के खिलाफ आवाज उठाई थी.

अब तक टीना भी सब के आगे अपना मजाक बनता देख संभल चुकी थी. अनुषा की बातों का असर हुआ था या फिर खुद पर जब बीती तो उस जलन के एहसास ने टीना को सोचने पर विवश कर दिया था. उस के पास कोई जवाब नहीं था.

घर लौटते समय वह फैसला कर चुकी थी कि आज के बाद भुवन पर वह अपना कोई हक नहीं रखेगी.रूम में जा कर मुंह धोने लगी तो…

अजब मृत्यु: क्या हुआ था रमा के साथ

कितनी अजीब बात है न कि किसी की मौत की खबर लोगों में उस के प्रति कुछ तो संवेदना, दया के भाव जगाती है लेकिन जगत नारायण की मौत ने मानो सब को राहत की सांस दे दी थी. अजब मृत्यु थी उस की. पांडवपुरी कालोनी के रैजिडैंस वैलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष 75 वर्षीय सदानंद दुबेजी नहीं रहे. अचानक दिल का दौरा पड़ने से 2 दिन पहले निधन हो गया. सदा की तरह इस बार भी आयोजित शांतिसभा में पूरी कालोनी जुटी थी. दुबेजी की भलमनसाहत से सभी लोग परिचित थे. सभी एकएक कर के स्टेज पर आते और उन की फोटो पर फूलमाला चढ़ा कर उन के गुणगान में दो शब्द व्यक्त कर रहे थे.

कार्यक्रम समाप्त हुआ, तो सभी चलने को खड़े हुए कि तभी चौकीदार गोपी ने भागते हुए आ कर यह खबर दी कि बी नाइंटी सेवन फ्लैट वाले जगत नारायण 4 बजे नहीं रहे. सभी कदम ठिठक गए. भीड़ में सरगर्मी के साथ सभी चेहरों पर एक राहत की चमक आ गई. ‘‘अरे नहीं, वो नल्ला?’’ ‘‘सच में? क्या बात कर रहे हो.’’ ‘‘ऐसा क्या?’’ सभी तरहतरह से सवाल कर समाचार की प्रामाणिकता पर सत्य की मुहर लगवाना चाह रहे थे. लोगों के चेहरों पर संतोष छलक रहा था. ‘‘हांहां, सही में साब, वहीं से तो लौट रहा हूं. सुबह भाभीजी ने कहा तो भैयाजी लोगों के साथ क्रियाकर्म में गया. सब अभी लौटे हैं, उस ने अपनी चश्मदीद गवाही का पक्का प्रूफ दे दिया.

‘‘चलो, अच्छा हुआ. फांस कटी सब की.’’ ‘‘कालोनी की बला टली समझो.’’ ‘‘अपने परिवार वालों की भी नाक में दम कर रखा था कम्बख्त ने, ऐसा कोई आदमी होता है भला?’’ ‘‘तभी उस के परिवार का कोई दिख नहीं रहा यहां, वरना कोई न कोई तो जरूर आता. मानवधर्म और सुखदुख निभाने में उस के घर वाले कभी न चूकते.’’ सभी जगत नारायण से दुखी हृदय आज बेधड़क हो बोल उठे थे. वरना जगत जैसे लड़ाके के सामने कोई हिम्मत न जुटा पाता. अपने खिलाफ कुछ सुन भर लेता, तो खाट ही खड़ी कर देता सब की, उस की पत्नी नम्रता के लाख कहने पर भी वह किसी के मरने के बाद की शोकसभा आदि में कभी नहीं गया. नम्रता और उस के 3 बच्चे जगत से बिलकुल अलग थे. पास ही में अपने परिवार के साथ रहने वाली जगत की जुड़वां बहन कंचन अपने भाई से बिलकुल उलट थी.

अपने पति शील के साथ ऐसे मौके पर जरूर पहुंचती. ननदभाभी की एक ही कालोनी में रहते हुए भी, ऐसे ही कहीं बातें हो पातीं, क्योंकि जगत ने नम्रता को अपने घरवालों से बात करने पर भी पाबंदी लगा रखी थी. कहीं चोरीछिपे दोनों की मुलाकात देख लेता, तो दूर से ही दोनों को गालियां निकालना शुरू कर देता. पिछली बार हीरामल के निधन पर दोनों इकट्ठी हुई थीं. तभी लोगों को हीरामल का एकएक कर गुणगान करते देख नम्रता बोल उठी थी, ‘देख रही हो कंचन, भले आदमी को कितने लोग मरने के बाद भी याद करते हैं. तुम्हारे भैया तो तब भी उन्हें नहीं पूछते, उलटे गालियां ही निकालते हैं, इन के खयाल से तो इन के अलावा सारी दुनिया ही बदमाश है.’

‘नम्रता, भाई मत कहो. किसी से उस की बनी भी है आज तक? जब अम्माबाबूजी को नहीं छोड़ा. दोनों को जबान से मारमार कर हौस्पिटल पहुंचा दिया. खून के आंसू रोते थे वे दोनों, इस की वजह से. ‘शिव भैया और हम तीनों बहनें उस की शिकार हैं. समय की मारी तुम जाने कहां से पत्नी बन गई इस की. मैं तुम्हें पहले मिली होती तो तुम्हें इस से शादी के लिए मना ही कर देती. तुम्हारे सज्जन सीधेसादे पिता को इस ने धोखा दे कर तुम जैसी पढ़ीलिखी सिंपल लड़की से ब्याह रचा लिया, कि बस इसे ढोए जा रही हो आज तक. अरे कैंसर कोई पालता थोड़ी है, कटवा दिया जाता है. बच्चे भी कैसे निभा रहे हैं जंगली, घमंडी धोखेबाज बाप से. ‘क्या जिंदगी बना रखी है तुम सब की. कोई सोशललाइफ ही नहीं रहने दी तुम सब की. सब से लड़ाई ही कर डालता है. इस के संपर्क में आया कोई भी ऐसा नहीं होगा जिस से उस की तूतू मैंमैं न हुई हो. सब से पंगा लेना काम है इस का, फिर चाहे बच्चाबूढ़ाजवान कोई भी हो.

जब मरेगा तो कोई कंधा देने को आगे नहीं बढ़ेगा.’ सच ही तो था कामधाम कोई था नहीं उस के पास. फिर भी जाने किस अकड़ में रहता. सब से दोगुना पैसा वापस देने का झांसा दे कर टोपियां पहनाता रहता. वापस मांगने पर झगड़ा करता, मूल भी बड़ी मुश्किल से चुकाता. इसी से कोई भी उसे मुंह नहीं लगाना चाहता. पैसा जब तक कोई देता रहता तो दोस्त, वरना जानी दुश्मन. चाहे बहन की ससुराल का कोई हो, पड़ोसी, रिश्तेदार हो, पत्नी की जानपहचान का हो या बच्चों के फ्रैंड्स के पेरैंट्स. किसी से भी मांगने में उसे कोई झिझक न होती. यहां तक कि सब्जीवाले, प्रैसवाले, कालोनी के चौकीदार के आगे 10-20 रुपए के लिए भी उसे हाथ फैलाने में कोई शर्म न आती. बच्चे उस की हरकत से परेशान थे. नम्रता से कहते, ‘फार्म में पिता के व्यवसाय कालम में हमें यही डालना चाहिए लड़ना, झगड़ना टोपी पहनाना.’ ‘इन के कुहराम जिद और गालीगलौज से परेशान हो इन का झगड़ा सुलटाने चली जाती थी.

पर अब तो तय कर लिया, कोई इन्हें पीटे, तो भी नहीं जाऊंगी,’ नम्रता ने कहा. ‘बिलकुल ठीक, न इस के साथ जाने की जरूरत है न कोईर् पैसा देने की. झूठा एक नंबर का. गाता फिरता है कि कंपनी में इंजीनियर था, पैसा नहीं दिया उन लोगों ने तो उन की नौकरी को लात मार के चला आया. कहां का इंजीनियर, बड़ी मुश्किल से 12वीं पास की थी. अम्मा ने किसी तरह सिफारिश कर इसे कालेज में ऐडमिशन दिलाया था. 6 महीने में ही भाग छूटा वहां से, पर इस के सामने कौन कुछ कहे. सड़क पर ही लड़ने बैठ जाएगा. दिमाग का शातिर और गजब का आत्मविश्वासी. ‘देखदेख कर ठेकेदारी के गुर सीख गया. अपने को इंजीनियर बता कर ठेके पर काम हथिया लेता पर खुद की घपलेबाजी के चलते मेजर पेमेंट अटक जाती. फिर उन्हें गालियां बकता फिरता, ‘छोड़ूंगा नहीं सालों को, सीबीआई, कोर्ट, पुलिस सब में मेरी पहचान है. गौड कैन नौट बी चीटेड, उस का पसंदीदा डायलौग. पर सब से बड़ा चीटर तो वह खुद है. हम बहनें तो 10 सालों से इसे राखी तक नहीं बांधतीं, भैया दूज का टीका तो दूर की बात. तुम ने तो देखा ही है. ‘अरे उधर देखो नम्रता, वहां बैठा जगत कुछ खा रहा था. कोई मरे चाहे जिए, जन्म का भुक्खड़. फिर हमें साथ देख लिया तो हम दोनों की शामत. लड़ने ससुराल तक पहुंच जाएगा, नजरें बहुत तेज हैं शैतान की.

चलो बाय.’ कंचन कह कर चली गई थी. नम्रता और कंचन के इस वार्त्तालाप को अभी महीनाभर ही तो हुआ होगा कि कंचन के जगत के प्रति कहे हृदय उद्गार लोगों के मुख से सही में श्रद्धांजलि सुमन के रूप में निकल रहे थे. ‘‘हां भई, हां, सही खबर है. आज सुबह तड़के ही उस नामुराद, नामाकूल जगत ने आखिरी सांस छोड़ी. बड़ा बेवकूफ बनाया था उस ने सब को,’’ सिद्दीकी साहब ने यह कहा तो ललितजी मजे लेते हुए बोल उठे, ‘‘चलो अच्छा हुआ, बड़ा कहता फिरता था ब्रह्म मुहूर्त में पैदा हुआ हूं, कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. ब्रह्म मुहूर्त ने ही उसे मार डाला.’’ ‘‘कलेजे विच ठंड पै गई, मैनु इत्ता दुखी कीता इत्ता कि पुच्छो न. साडे वास्ते तो वडी चंगी गल हैगी,’’ गुरमीत साहब मुसकरा पड़े. जगत के घर से तीसरे घर में रहने वाले मिस्टर गौरव हैरान थे, बताने लगे, ‘‘अरे, कल ही तो शाम को देखा था उसे, गालियां निकालते, लंगड़ाते हुए अपने गेट में घुस रहा था. आंखों के नीचे बड़े काले निशान देख कर लग रहा था कि फिर कहीं से पिट कर आया है. उस की हालत देख कर मुझे हंसी आ रही थी, लेकिन कैसे पूछे कोई, कौन मुंह लगे, सोच मैं अंदर हो लिया.’’ ‘‘समझ नहीं आ रहा परिवार वालों को शोक संवदेना दें या बधाई,’

’ गणेश मुसकराते हुए बोले थे. ‘‘अजब संयोग हुआ, कहां नम्रता बिटिया कालेज की लैक्चरार, इतनी पढ़ीलिखी, समझदार, एक संभ्रांत परिवार से और कहां यह स्वभाव से उद्दंड, गंवार. जगत लगता ही नहीं था उस का पति किसी भी ऐंगल से. बिटिया के मांबाप तो पहले ही इस गम में चल बसे.’’ ‘‘नम्रता बहन की वजह से तीनों बच्चे पढ़ाई के साथसाथ संस्कारों में भी अच्छे निकल गए. बेटी स्टेट बैंक में पीओ हो गई, बेटा आस्तिक आईएस में सलैक्ट हो कर ट्रेनिंग पर जा रहा है, छोटी बेटी आराध्या बीटेक के आखिरी साल में पहुंच गई है,’’ ललितजी बोले थे. ‘‘बगैर उचित सुखसुविधाओं के, उस के आएदिन कुहराम के बीच बच्चों की मेहनत, काबिलीयत और नम्रता भाभी की मेहनत का फल है. वरना उस ने तो अपनी तरफ से बच्चे को लफडि़या बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी, पढ़ने नहीं देता उन को. कहता, इतना दिमाग खपाने की क्या जरूरत है, पैसे दे कर आराम से पास करा दूंगा,’’ गौरव ने टिप्पणी की. ‘‘वह तो कहो बापदादा का घर है, वरना तो जो कमाई बताता वह उस की लड़ाई के मारे हमेशा अटकी ही पड़ी रही.

परिवार को सड़क पर ही ले आता. बिटिया और बच्चों ने बड़ी ज्यादती बरदाश्त की इस की. अच्छा हुआ गया. बेचारों को चैन की सांस तो आएगी,’’ कह कर गणेश मुसकराए. ‘‘इसलिए, अब तय रहा शोकसंवेदना का कोई औचित्य नहीं. हम सब एकत्रित जरूर हैं लेकिन उस के प्रति अपनीअपनी भड़ास निकालने के लिए,’’ कह कर सोमनाथ मुसकराए थे. ‘‘अंकल, आप वहीं से बैठेबैठे कुछ बोलिए, जगत के पिता आप के अच्छे मित्रों में से थे,’’ सोमनाथ मिस्टर अखिलेश के पास अपना माइक ले आए थे. ‘‘अरे, जब वह छोटा था तब भी सब की नाक में दम कर रखा था उस ने. स्कूल, कालोनी में अकसर मारपिटाई कर के चला आता. टीचरों से भी पंगे लेता. कभी उन के बालों में च्यूइंगम तो कभी सीट पर उलटी कील ठोंक आता. उस से बेहद तंग आ कर पिता बद्री नारायण अपनी कच्ची गृहस्थी छोड़ कर चल बसे. पर 10-12 साल के जगत को कोई दर्द नहीं, उलटे सब से बोलता फिरता, ‘मर गए न, बड़ा टोकते थे खेलने से रोकेंगे और मना करें.’ एक साहित्यकार के बेटे ने जाने कहां से ये शब्द सीख लिए थे. ‘‘गुस्से के मारे उन की अंतिम विदाई में उन्हें अंतिम समय देखा तक नहीं और अंदर ही बैठा रहा, बाहर ही नहीं आया.

मां रमा रोतीपीटती ही रह गई थी. पहले मंदबुद्धि बड़े लड़के के बाद 2 लड़कियां, फिर जगत, 5वीं फिर एक लड़की. जगत के जन्म पर तो बड़ा जश्न मना. बड़ी उम्मीद थी उस से. पर जैसेजैसे बड़ा होता गया, कांटे की झाडि़यों सा सब को और दुखी करता गया.’’ अखिलेश अंकल बताए जा रहे थे. अखिलेश अंकल की बातें सुन कर कंचन बोल उठी, ‘‘आज मैं भी जरूर कुछ कहूंगी. अम्मा जब तक जिंदा थीं, आएदिन के अपने झगड़े से उन्हें परेशान कर रखा था उस ने. सब से लड़ताझगड़ता और मां बेचारी झगड़े सुलटाती माफी ही मांगती रहतीं. बाबूजी के दफ्तर में अम्मा को क्लर्क की नौकरी मिल गई थी. कम तनख्वाह से सारे बच्चों की परवरिश के साथ जगत की नितनई फरमाइशें करतीं लेकिन जब पूरी कर पाना संभव न हो पाता तो जगत उन की अचार की बरनी में थूक आता, आटे के कनस्तर में पानी, तो कभी प्रैस किए कपड़े फर्श पर और उन का चश्मा कड़ेदान में पड़े मिलते. ऊंची पढ़ीलिखी नम्रता से धोखे से शादी कर ली, बच्चे पढ़ाई में अच्छे निकल गए. वैसे वह तो सभी को अंगूठाछाप, दोटके का कह कर पंगे लेता रहता. उस के बच्चों पर दया आती,’’ अपनी बात कह कर कंचन ने माइक शील को दे दिया.

‘‘कुछ शब्द ऐसे रिश्तेदार को क्या कहूं. मेरे घर में तो घर, मेरी बहनों की ससुराल में भी पैसे मांगमांग कर डकार गया. कुछ पूछो तो कहता, ‘कैसे भूखेनंगे लोग हैं जराजरा से पैसों के लिए मरे जा रहे हैं. भिखारी कहीं के. चोरी का धंधा करते हो, सब को सीबीआई, क्राइम ब्रांच में पकड़वा दूंगा. बचोगे नहीं,’ उसी के अंदाज में कहने की कोशिश करते हुए शील ने कहा. उस के बाद कई लोगों ने मन का गुस्सा निकाला. सीधेसादे सुधीर साहब बोल उठे, ‘‘मुझ से पहले मेरा न्यूजपेपर उठा ले जाता. उस दिन पकड़ लिया, ‘क्या ताकझांक करता रहता है घर में?’ तो कहने लगा, ‘अपनी बीवी का थोबड़ा तुझ से तो देखा जाता नहीं, मैं क्या देखूंगा.’ ‘‘मैं पेपर उस के हाथों से छीनते हुए बोला, ‘अपना पेपर खरीद कर पढ़ा कर.’ तो कहता ‘मेरे पेपर में कोई दूसरी खबर छपेगी?’ मैं उसे देखता रह जाता.’’ कह कर वे हंस पड़े. अपनी भड़ास निकाल कर उन का दर्द कुछ कम हो चला था. ‘‘अजीब झक्की था जगत. मेरी बेटी की शादी में आया तो सड़क से भिखारियों की टोली को भी साथ ले आया. बरात आने को थी, प्लेटें सजासजा कर भिखारियों को देने लगा. मना किया तो हम पर ही चिल्लाने लगा, ‘8-10 प्लेटों में क्या भिखारी हो जाओगे.

आने दो बरातियों को, देखूं कौन रोकता है?’ ‘‘जी कर रहा था सुनाऊं उस को पर मौके की नजाकत समझ कर चुप रहना मुनासिब समझा.’’ उस दिन न कह पाने का मलाल आज खत्म हुआ था, जगत के फूफा रविकांत का और अपनी बात कह कर वह मुसकरा उठे थे. गंगाधर ने हंसते हुए अपनी घड़ी की ओर अचानक देखा और फिर बोले, ‘‘भाइयो और बहनो, शायद सब अब अपनेअपने मन को हलका महसूस कर रहे होंगे, हृदय को शांति मिल गई हो, तो सभा विसर्जित करते हैं.’’ सभी ने सहमति जाहिर की और एकएक कर खड़े होने लगे थे कि लगभग भागता हुआ चौकीदार गोपी आ गया. उस के पीछे दोतीन और आदमी थे. जिन के हाथों में चायपानी का सामान था. ‘‘सुनीता भाभीजी जो जगत के घर के बराबर में रहती हैं, ने सब के लिए चाय, नमकीन बिस्कुट व समोसे भिजवाए हैं. मुझे इस के लिए पैसे दे गई थीं कि समय से सब को जरूर पहुंचा देना. पर ताजा बनवाने व लाने में जरूर थोड़ी देर हो गई. सारा सामान माखन हलवाई से गरमागरम लाया हूं.’’ गोपी अपने बंदों के साथ सब को परोस कर साथियों संग खुद भी खाने लगा. ‘‘भई वाह, कमाल है, न बाहर किसी को न घर में किसी को अफसोस. उलटे राहत ही राहत सब ओर. ऐसी श्रद्धांजलि तो न पहले कभी देखी न सुनी हो.’’

सभी के चेहरों की मंदमंद हंसी धीरेधीरे ठहाकों में बदलने लगी थी.

शायद: क्या शगुन के माता-पिता उसकी भावनाएं जान पाए?

लेखिका- शशि उप्पल

शगुन स्कूल बस से उतर कर कुछ क्षण स्टाप पर खड़ा धूल उड़ाती बस को देखता रहा. जब वह आंखों से ओझल हो गई, तब घर की ओर मुड़ा. दरवाजे की चाबी उस के बैग में ही थी. ताला खोल कर वह अपने कमरे में चला गया. दीवार घड़ी में 3 बज रहे थे.

शगुन ने अनुमान लगाया कि मां लगभग ढाई घंटे बाद आ जाएंगी और पिता 3 घंटे बाद. हाथमुंह धो कर वह रसोईघर में चला गया. मां आलूमटर की सब्जी बना कर रख गई थीं. उसे भूख तो बहुत लग रही थी, परंतु अधिक खाया नहीं गया. बचा हुआ खाना उस ने कागज में लपेट कर घर के पिछवाड़े फेंक दिया. खाना पूरा न खाने पर मां और पिता नाराज हो जाते थे.

फिर शीघ्र ही शगुन कमरे में जा कर सोने का प्रयत्न करने लगा. जब नींद नहीं आई तो वह उठ कर गृहकार्य करने लगा. हिंदी, अंगरेजी का काम तो कर लिया परंतु गणित के प्रश्न उसे कठिन लगे, ‘शाम को पिताजी से समझ लूंगा,’ उस ने सोचा और खिलौने निकाल कर खेलने बैठ गया.

शालिनी दफ्तर से आ कर सीधी बेटे के कमरे में गई. शगुन खिलौनों के बीच सो रहा था. उस ने उसे प्यार से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया.

समीर जब 6 बजे लौटा तो देखा कि मांबेटा दोनों ही सो रहे हैं. उस ने हौले से शालिनी को हिलाया, ‘‘इस समय सो रही हो, तबीयत तो ठीक है न ’’

शालिनी अलसाए स्वर में बोली, ‘‘आज दफ्तर में काम बहुत था.’’

‘‘पर अब तो आराम कर लिया न. अब जल्दी से उठ कर तैयार हो जाओ. सुरेश ने 2 पास भिजवाए हैं…किसी अच्छे नाटक के हैं.’’

‘‘कौन सा नाटक है ’’ शालिनी आंखें मूंदे हुए बोली, ‘‘आज कहीं जाने की इच्छा नहीं हो रही है.’’

‘‘अरे, ऐसा अवसर बारबार नहीं मिलता. सुना है, बहुत बढि़या नाटक है. अब जल्दी करो, हमें 7 बजे तक वहां पहुंचना है.’’

‘‘और शगुन को कहां छोड़ें  रोजरोज शैलेशजी को तकलीफ देना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अरे भई, रोजरोज कहां  वैसे भी पड़ोसियों का कुछ तो लाभ होना चाहिए. मौका आने पर हम भी उन की सहायता कर देंगे,’’ समीर बोला.

जब शालिनी तैयार होने गई तो समीर शगुन के पास गया, ‘‘शगुन, उठो. यह क्या सोने का समय है ’’

शगुन में उठ कर बैठ गया. पिता को सामने पा कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई.

‘‘जल्दी से नाश्ता कर लो. मैं और तुम्हारी मां कहीं बाहर जा रहे हैं.’’

शगुन का चेहरा एकाएक बुझ गया. वह बोला, ‘‘पिताजी, मेरा गृहकार्य पूरा नहीं हुआ है. गणित के प्रश्न बहुत कठिन थे. आप…’’

‘‘आज मेरे पास बिलकुल समय नहीं है. कक्षा में क्यों नहीं ध्यान देता  ठीक है, शैलेशजी से पूछ लेना. अब जल्दी करो.’’

शगुन दूध पी कर शैलेशजी के घर चला गया. वह जानता था कि जब तक मां और पिताजी लौटेंगे, वह सो चुका होगा. सदा ऐसा ही होता था. शैलेशजी और उन की पत्नी टीवी देखते रहते थे और वह कुरसी पर बैठाबैठा ऊंघता रहता था. उन के बच्चे अलग कमरे में बैठ कर अपना काम करते रहते थे. आरंभ में उन्होंने शगुन से मित्रता करने की चेष्टा की थी परंतु जब शगुन ने ढंग से उन से बात तक न की तो उन्होंने भी उसे बुलाना बंद कर दिया था. अब भला वह बात करता भी तो कैसे  उसे यहां इस प्रकार आ कर बैठना अच्छा ही नहीं लगता था. जब वह शैलेशजी को अपने बच्चों के साथ खेलता देखता, उन्हें प्यार करते देखता तो उसे और भी गुस्सा आता.

शगुन अपनी गृहकार्य की कापी भी साथ लाया था, परंतु उस ने शैलेशजी से प्रश्न नहीं समझे और हमेशा की तरह कुरसी पर बैठाबैठा सो गया.

अगली सुबह जब वह उठा तो घर में सन्नाटा था. रविवार को उस के मातापिता आराम से ही उठते थे. वह चुपचाप जा कर बालकनी में बैठ कर कौमिक्स पढ़ने लगा. जब देर तक कोई नहीं उठा तो वह दरवाजा खटखटाने लगा.

‘‘क्यों सुबहसुबह परेशान कर रहे हो  जाओ, जा कर सो जाओ,’’ समीर झुंझलाते हुए बोला.

‘‘मां, भूख लगी है,’’ शगुन धीरे से बोला.

‘‘रसोई में से बिस्कुट ले लो. थोड़ी देर में नाश्ता बना दूंगी,’’ शालिनी ने उत्तर दिया.

शगुन चुपचाप जा कर अपने कमरे में बैठ गया. उस की कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रह गई थी.

दोपहर के खाने के बाद समीर और शालिनी का किसी के यहां ताश खेलने का कार्यक्रम था, ‘‘वहां तुम्हारे मित्र नीरज और अंजलि भी होंगे,’’ शालिनी शगुन को तैयार करती हुई बोली.

‘‘मां, आज चिडि़याघर चलो न. आप ने पिछले सप्ताह भी वादा किया था,’’ शगुन मचलता हुआ बोला.

‘‘बेटा, आज वहां नहीं जा पाएंगे. गिरीशजी से कह रखा है. अगले रविवार अवश्य चिडि़याघर चलेंगे.’’

‘‘नहीं, आज ही,’’ शगुन हठ करने लगा, ‘‘पिछले रविवार भी आप ने वादा किया था. आप मुझ से झूठ बोलती हैं… मेरी बात भी नहीं मानतीं. मैं नहीं जाऊंगा गिरीश चाचा के यहां,’’ वह रोता हुआ बोला.

तभी समीर आ गया, ‘‘यह क्या रोना- धोना मचा रखा है. चुपचाप तैयार हो जा, चौथी कक्षा में आ गया है, पर आदतें अभी भी दूधपीते बच्चे जैसी हैं. जब देखो, रोता रहता है. इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, बढि़या से बढि़या खिलौने ले कर देते हैं…’’

‘‘मैं गिरीश चाचा के घर नहीं जाऊंगा,’’ शगुन रोतेरोते बोला, ‘‘वहां नीरज, अंजलि मुझे मारते हैं. अपने साथ खेलाते भी नहीं. वे गंदे हैं. मेरे सारे खिलौने तोड़ देते हैं और अपने दिखाते तक नहीं. वे मूर्ख हैं. उन की मां भी मूर्ख हैं. वे भी मुझे ही डांटती हैं, अपने बच्चों को कुछ नहीं कहती हैं.’’

समीर ने खींच कर एक थप्पड़ शगुन के गाल पर जमाया, ‘‘बदतमीज, बड़ों के लिए ऐसा कहा जाता है. जितना लाड़प्यार दिखाते हैं उतना ही बिगड़ता जाता है. ठीक है, मत जा कहीं भी, बैठ चुपचाप घर पर. शालिनी, इसे कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दो. इसे बदतमीजी की सजा मिलनी ही चाहिए.’’

शालिनी लिपस्टिक लगा रही थी, बोली, ‘‘रहने दो न, बच्चा ही तो है. शगुन, अगले रविवार जहां कहोगे वहीं चलेंगे. अब जल्दी से पिताजी से माफी मांग लो.’’

शगुन कुछ क्षण पिता को घूरता रहा, फिर बोला, ‘‘नहीं मांगूंगा माफी. आप भी मूर्ख हैं, रोज मुझे मारती हैं.’’

समीर ने शगुन का कान उमेठा, ‘‘माफी मांगेगा या नहीं ’’

‘‘नहीं मांगूंगा,’’ वह चिल्लाया, ‘‘आप गंदे हैं. रोज मुझे शैलेश चाचा के घर छोड़ जाते हैं. कभी प्यार नहीं करते. चिडि़याघर भी नहीं ले जाते. नहीं मांगूंगा माफी…गंदे, थू…’’

समीर क्रोध में आपे से बाहर हो गया, ‘‘तुझे मैं ठीक करता हूं,’’ उस ने शगुन को कमरे में बंद कर के बाहर से ताला लगा दिया.

शगुन देर तक कमरे में सिसकता रहा. उस दिन से उस में एक अक्खड़पन आ गया. उस ने अपनी कोई भी इच्छा व्यक्त करनी बंद कर दी. जैसा मातापिता कहते, यंत्रवत कर लेता, पर जैसेजैसे बड़ा होता गया वह अंदर ही अंदर घुटने लगा. 10वीं कक्षा के बाद पिता के कहने से उसे विज्ञान के विषय लेने पड़े. पिता उसे डाक्टर बनाने पर तुले हुए थे. शगुन की इच्छाओं की किसे परवा थी और मां भी जो पिता कहते, उसे ही दोहरा देतीं.

एक दिन दफ्तर के लिए तैयार होती हुई शालिनी बोली, ‘‘शगुन का परीक्षाफल शायद आज घोषित होने वाला है…तुम जरा पता लगाना.’’

‘‘क्यों, क्या शगुन इतना भी नहीं कर सकता,’’ समीर नाश्ता करता हुआ बोला, ‘‘जब पढ़ाईलिखाई में रुचि ही नहीं ली तो परिणाम क्या होगा.’’

‘‘ओहो, वह तो मैं इसलिए कह रही थी ताकि कुछ जल्दी…’’ वह टिफिन बाक्स बंद करती हुई बोली.

‘‘तुम्हें जल्दी होगी जानने की…मुझे तो अभी से ही मालूम है, पर मैं फिर कहे देता हूं यदि यह मैडिकल में नहीं आया तो इस घर में इस के लिए कोई स्थान नहीं है.  जा कर करे कहीं चपरासीगीरी, मेरी बला से.’’

‘‘तुम भी हद करते हो. एक ही तो बेटा है, यदि दोचार होते तो…’’

‘‘मैं भी यही सोचता हूं. एक ही इतना सिरदर्द बना हुआ है. क्या नहीं दिया हम ने इसे  फिर भी कभी दो घड़ी पास बैठ कर बात नहीं करता. पता नहीं सारा समय कमरे में घुसा क्या करता रहता है ’’ एकाएक समीर उठ कर शगुन के कमरे में पहुंच गया.

शगुन अचानक पिता को सामने देख कर अचकचा गया. जल्दी से उस ने ब्रश तो छिपा लिया परंतु गीली पेंटिंग न छिपा सका. पेंटिंग को देखते ही समीर का पारा चढ़ गया. उस ने बिना एक नजर पेंटिंग पर डाले ही उस को फाड़ कर टुकड़ेटुकड़े कर दिया, ‘‘तो यह हो रही है मैडिकल की तैयारी. किसे बेवकूफ बना रहे हो, मुझे या स्वयं को  वहां महंगीमहंगी पुस्तकें पड़ी धूल चाट रही हैं और यह लाटसाहब बैठे चिडि़यातोते बनाने में समय गंवा रहे हैं. कुछ मालूम है, आज तुम्हारा नतीजा निकलने वाला है.’’

‘‘जी पिताजी. मनोज बता रहा था,’’ शगुन धीरे से बोला. उस की दृष्टि अब भी अपनी फटी हुई पेंटिंग पर थी.

‘‘मनोज के सिवा भी किसी को जानते हो क्या  जाने क्या करेगा आगे चल कर…’’ समीर बोलता चला जा रहा था.

शालिनी को दफ्तर के लिए देर हो रही थी. वह बोली, ‘‘शगुन, मुझे फोन अवश्य कर देना. तुम्हारा खाना रसोई में रखा है, खा लेना.’’

मातापिता के जाते ही शगुन एक बार फिर अकेला हो गया. बचपन से ही यह सिलसिला चला आ रहा था. स्कूल से आ कर खाली घर में प्रवेश करना, फिर मातापिता की प्रतीक्षा करना. उस के मित्र उन्हें पसंद नहीं आते थे. बचपन में वह जब भी किसी को घर बुलाता था तो मातापिता को यही शिकायत रहती थी कि घर गंदा कर जाते हैं. महंगे खिलौने खराब कर जाते हैं. अकेला कहीं वह आजा नहीं सकता था क्योंकि मातापिता को सदा किसी दुर्घटना का अंदेशा रहता था.

शगुन के कई मित्र स्कूटर, मोटर- साइकिल चलाने लगे थे, पर उस के पिता ने कड़ी मनाही कर रखी थी. बस जब देखो अपने घिसेपिटे संवाद दोहराते रहते थे, ‘हम तो 8 भाईबहन थे. पिताजी के पास इतने रुपए नहीं थे कि किसी को डाक्टर बना सकते. मेरी तो यह हसरत मन में ही रह गई, पर तेरे पास तो सबकुछ है,’ और मां सदा यही पूछती रहती थीं, ‘ट्यूटर चाहिए, पुस्तकें चाहिए, बोल क्या चाहिए ’

पर शगुन कभी नहीं बता पाया कि उसे क्या चाहिए. वह सोचता, ‘मातापिता जानते तो हैं कि मेरी रुचि कला में है, मैं सुंदरसुंदर चित्र बनाना चाहता हूं, रंगबिरंगे आकार कागज पर सजाना चाहता हूं. इस में इनाम जीतने पर भी डांट पड़ती है कि बेकार समय नष्ट कर रहा हूं. उन्होंने कभी मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं की.’

तभी मनोज आ गया. शगुन उस से बोला, ‘‘यार, बहुत डर लग रहा है.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है. ‘फाइन आर्ट्स’ ही तो करना चाहता है न ’’

‘‘मेरे चाहने से क्या होता है,’’ शगुन कड़वाहट से बोला, ‘‘मेरे पिता को तो मानो मेरी इच्छाओं का गला घोंटने में मजा आता है.’’

मनोज उस को समझ नहीं पाता था. उसे अचरज होता था कि इतना सब होने पर भी शगुन उदास क्यों रहता है.

स्कूल पहुंचते ही दोनों ने नोटिस बोर्ड पर अपने अंक देखे. अपने 54 प्रतिशत अंक देख कर मनोज प्रसन्न हो गया, ‘‘चलो, पास हो गया, पर तू मुंह लटकाए क्यों खड़ा है, तेरे तो 65 प्रतिशत अंक हैं.’’

शगुन बिना कुछ बोले घर की ओर चल दिया. वह मातापिता पर होने वाली प्रतिक्रिया के विषय में सोच रहा था, ‘मां तो निराश हो कर रो लेंगी, परंतु पिताजी  वे तो पिछले 2 वर्षों से धमकियां दे रहे थे.’

उस ने मां को फोन किया. चुपचाप कमरे में जा कर बैठ गया. शगुन रेंगती हुई घड़ी की सूइयों को देख रहा था और सोच रहा था. जब 5 बज गए तो वह झट बिस्तर से उठा. उस ने अलमारी में से कुछ रुपए निकाले और घर से बाहर आ गया.

समीर जब दफ्तर से लौटा तो शालिनी पर बरसने लगा, ‘‘कहां है तुम्हारा लाड़ला  कितना समझाया था कि मेहनत कर ले…पर मैं तो केवल बकता हूं न.’’

शालिनी वैसे ही परेशान थी. बोली, ‘‘आज उस ने खाना भी नहीं खाया. कहां गया होगा. बिना बताए तो कहीं जाता ही नहीं है.’’

जब रात के 9 बजे तक भी शगुन नहीं लौटा तो मातापिता को चिंता होने लगी. 2-3 जगह फोन भी किए परंतु कुछ मालूम न हो सका. शगुन के कोई ऐसे खास मित्र भी नहीं थे, जहां इतनी रात तक बैठता.

11 बजे समीर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा आया. शालिनी ने सब अस्पतालों में भी फोन कर के पूछ लिया. सारी रात दोनों बेटे की प्रतीक्षा में बैठे रहे. लेकिन शगुन का कुछ पता न चला. शालिनी की तो रोरो कर आंखें दुखने लगी थीं और समीर तो मानो 10 दिन में ही 10 वर्ष बूढ़ा हो गया था.

एक दिन शगुन की अध्यापिका शालिनी से मिलने आईं तो अपने साथ एक डायरी भी ले आईं, ‘‘एक बार शगुन ने मुझे यह डायरी भेंट में दी थी. इस में उस की कविताएं हैं. बहुत ही सुंदर भाव हैं. आप यह रख लीजिए, पढ़ कर आप के मन को शांति मिलेगी.’’

शालिनी ने डायरी ले ली परंतु वह यही सोचती रही, ‘शगुन कविताएं कब लिखता था  मुझ से तो कभी कुछ नहीं कहा.’

शाम को जब समीर आया तो शालिनी अधीरता से बोली, ‘‘समीर, क्या तुम जानते हो कि शगुन न केवल सुंदर चित्र बनाता था बल्कि बहुत सुंदर कविताएं भी लिखता था. हम अपने बेटे को बिलकुल नहीं जानते थे. हम उसे केवल एक रेस का घोड़ा मान कर प्रशिक्षित करते रहे, पर इस प्रयास में हम यह भूल गए कि उस की अपनी भी कुछ इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं. हम अपने सपने उस पर थोपते रहे और वह मासूम निरंतर उन के बोझ तले दबता रहा.’’

समीर ने शालिनी से डायरी ले ली और बोला, ‘‘आज मैं मनोज से भी मिला था.’’

‘‘वह तो तुम्हें कतई नापसंद था,’’ शालिनी ने विस्मित हो कर कहा.

‘‘बड़ा प्यारा लड़का है,’’ समीर शालिनी की बात अनसुनी करता हुआ बोला, ‘‘उस से मिल कर ऐसा लगा, मानो शगुन लौट आया हो. शालिनी, शगुन मुझे जान से भी प्यारा है. यदि वह लौट कर नहीं आया तो मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ समीर की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

‘‘नहीं, समीर,’’ शालिनी दृढ़ता से बोली, ‘‘शगुन आत्महत्या नहीं कर सकता, जो इतने सुंदर चित्र बना सकता है, इतनी सुंदर कविताएं लिख सकता है, वह जीवन से मुंह नहीं मोड़ सकता.’’

‘‘हां, हम ने उसे समझने में जो भूल की, वह हमें उस की सजा देना चाहता है,’’ समीर भरे गले से बोला.

शालिनी शगुन की डायरी खोल कर एक कविता की पंक्तियां पढ़ कर सुनाने लगी,

‘खेल और खिलौने, आडंबर और अंबार हैं.

बांट लूं किसी के संग उस पल का इंतजार है.’

उस समय दोनों यही सोच रहे थे कि यदि शगुन की कोई बहन या भाई होता तो वह शायद स्वयं को इतना अकेला कभी भी महसूस न करता और तब शायद.

भावनाओं के साथी: जानकी को किसका मिला साथ

जानकी को आज सुबह से ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा था. सिरदर्द और बदनदर्द के साथ ही कुछ हरारत सी महसूस हो रही थी. उन्होंने सोचा कि शायद काम की थकान की वजह से ऐसा होगा. सारे काम निबटातेनिबटाते दोपहर हो गई. उन्हें कुछ खाने का मन नहीं कर रहा था, फिर भी उन्होंने थोड़ा सा दलिया बना लिया. खा कर वे कुछ देर आराम करने के लिए बिस्तर पर लेट गईं. सिरदर्द कम होने का नाम नहीं ले रहा था. उन्होंने माथे पर थोड़ा सा बाम मला और आंखें मूंद कर बिस्तर पर लेटी रहीं.

आज उन्हें अपने पति शरद की बेहद याद आ रही थी. सचमुच शरद उन का कितना खयाल रखते थे. थोड़ा सा भी सिरदर्द होने पर वे जानकी का सिर दबाने लगते. अपने हाथों से इलायची वाली चाय बना कर पिलाते. उन के पति कितने अधिक संवेदनशील थे. सोचतेसोचते जानकी की आंखों से आंसू टपक पड़े. आंसू जब गालों पर लुढ़के तो उन्हें आभास हुआ कि तन का ताप कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. उन्होंने थर्मामीटर लगा कर देखा तो पारा 103 डिगरी तक पहुंच गया था. जैसेतैसे वे हिम्मत जुटा कर उठीं और स्वयं ही ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखने लगीं. उन्होंने सोचा कि अब ज्यादा देर करना ठीक नहीं रहेगा. रात हो गई है. अच्छा यही होगा कि वे कल सुबह अस्पताल चली जाएं.

कुछ सोचतेसोचते उन्होंने अपने बेटे नकुल को फोन लगाया. उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो मम्मी, आप ने कैसे याद किया? सब ठीक तो है न?’’

‘‘बेटे, मुझे काफी तेज बुखार है. यदि तुम आ सको तो किसी अच्छे अस्पताल में भरती करा दो. मेरी तो हिम्मत ही नहीं हो रही,’’ जानकी ने कांपती आवाज में कहा.

‘‘मम्मी, मेरी तो कल बहुत जरूरी मीटिंग है. कुछ बड़े अफसर आने वाले हैं. मैं लतिका को ही भेज देता पर नवल की भी तबीयत ठीक नहीं है,’’ नकुल ने अपनी लाचारी प्रकट की, ‘‘आप नीला को फोन कर के क्यों नहीं बुला लेतीं. उस के यहां तो उस की सास भी है. वह 1-2 दिन घर संभाल लेगी. प्लीज मम्मी, बुरा मत मानिएगा, मेरी मजबूरी समझने की कोशिश कीजिएगा.’’

जानकी ने बेटी नीला को फोन लगाया तो प्रत्युत्तर में नीला ने जवाब दिया, ‘‘मम्मी, मेरा वश चलता तो मैं तुरंत आप के पास आ जाती पर इस दीवाली पर मेरी ननद अमेरिका से आने वाली है, वह भी 3 सालों बाद. मुझे काफी तैयारी व खरीदारी करनी है. यदि कुछ कमी रह गई तो मेरी सास को बुरा लगेगा. आप नकुल भैया को बुला लीजिए. मेरी कल ही उन से बात हुई थी. कल शनिवार है, वे वीकएंड में पिकनिक मनाने जा रहे हैं. पिकनिक का प्रोग्राम तो फिर कभी भी बन सकता है.’’

जानकी बेटी की बात सुन कर अवाक् रह गईं. कितनी मायाचारी की थी उन के पुत्र ने अपनी जन्मदात्री से पर उन्होंने जाहिर में कुछ भी नहीं कहा. उन्होंने अब कल सुबह होते ही ऐंबुलैंस बुला कर अकेले ही अस्पताल जाने का निर्णय लिया. उन की महरी रधिया सुबह जल्दी ही आ जाती थी. उस की मदद से जानकी ने कुछ आवश्यक वस्तुएं रख कर बैग तैयार किया और अस्पताल चली गईं.

वे बुखार से कांप रही थीं. उन्हें कुछ जरूरी फौर्म भरवाने के बाद तुरंत भरती कर लिया गया. बुखार 104 डिगरी तक पहुंच गया था. डाक्टर ने बुखार कम करने के लिए इंजैक्शन लगाया व कुछ गोलियां भी खाने को दीं. पर बुखार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था. उन के खून की जांच करने के लिए नमूना लिया गया. रिपोर्ट आने पर पता चला कि उन्हें डेंगू है. उन की प्लेटलेट्स काउंट कम हो रही थीं. अब डेंगू का इलाज शुरू किया गया.

डाक्टर ने जानकी से कहा, ‘‘आप अकेली हैं. अच्छा यही होगा कि जब तक आप बिलकुल ठीक नहीं हो जातीं, अस्पताल में ही रहिए.’’

2 दिन बाद एक बुजुर्ग सज्जन ने नर्स के साथ उन के कमरे में प्रवेश किया. उन के हाथ में फूलों का बुके व कुछ फल थे. जानकी ने उन्हें पहचानने की कोशिश की. दिमाग पर जोर डालने पर उन्हें याद आया कि उक्त सज्जन को उन्होंने सवेरे घूमते समय पार्क में देखा था. वे अकसर रोज ही मिल जाया करते थे पर उन दोनों में कभी कोई बात नहीं हुई थी.

तभी उन सज्जन ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘मैं हूं नवीन गुप्ता. आप की कालोनी में ही रहता हूं. रधिया मेरे यहां भी काम करती है. उसी से आप की तबीयत के बारे में पता चला और यह भी कि आप बिलकुल अकेली हैं. इसलिए आप को देखने चला आया.’’

जानकी ने फलों की तरफ देख कर कमजोर आवाज में कहा, ‘‘इन की क्या जरूरत थी?’’

‘‘अरे भाई, आप को ही तो इस की जरूरत है, तभी तो आप जल्दी स्वस्थ हो कर घर लौट पाएंगी,’’ कहने के साथ ही नवीनजी मुसकराते हुए फल काटने लगे.

जानकी को बहुत संकोच हो रहा था पर वे चुप रहीं.

अब तो रोज ही नवीनजी उन्हें देखने अस्पताल आ जाते. साथ में फल लाना न भूलते. उन का खुशमिजाज स्वभाव जानकी को अंदर ही अंदर छू रहा था.

करीब 8 दिनों बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिली. शाम तक वे घर वापस आ गईं. वे अभी रात के खाने के बारे में सोच ही रही थीं कि तभी नवीनजी डब्बा ले कर आ गए.

जानकी सकुचाते हुए बोलीं, ‘‘आप ने नाहक तकलीफ की. मैं थोड़ी खिचड़ी खुद ही बना लेती.’’

नवीनजी ने खाने का डब्बा खोलते हुए जवाब दिया, ‘‘अरे जानकीजी, वही तो मैं लाया हूं, लौकी की खिचड़ी. आप खा कर बताइएगा कि कैसी बनी? वैसे एक राज की बात बताऊं, खिचड़ी बनाना मेरी पत्नी ने मुझे सिखाया था. वह रसोई के काम में बड़ी पारंगत थी. वह खिचड़ी जैसी साधारण चीज को भी एक नायाब व्यंजन में बदल देती थी,’’ कहने के साथ ही वे कुछ उदास से हो गए. इस दुनिया से जा चुकी पत्नी की याद उन्हें ताजा हो आई.

जीवनसाथी के बिछोह का दुख वे जानती थीं. उन्होंने नवीनजी के दर्द को महसूस किया व तुरंत प्रसंग बदलते हुए पूछा, ‘‘नवीनजी, आप के कितने बच्चे हैं और कहां पर हैं?’’

‘‘मेरे 2 बेटे हैं व दोनों अमेरिका में ही सैटल हैं,’’ उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया फिर उठते हुए बोले, ‘‘अब आप आराम कीजिए, मैं चलता हूं.’’

जानकी को लगा कि उन्होंने नवीनजी की कोई दुखती रग को छू लिया है. वे अपने बेटों के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताना चाहते.

अब तो अकसर नवीनजी जानकी के यहां आने लगे. वे लोग कभी देश के वर्तमान हालत पर, कभी समाज की समस्याओं पर और कभी टीवी सीरियलों के बारे में चर्चा करते पर अपनेअपने परिवार के बारे में दोनों ने कभी कोई बात नहीं की.

एक दिन नवीनजी और जानकी एक पारिवारिक धारावाहिक के विषय में बात कर रहे थे जिस में एक स्त्री के पत्नी व मां के उज्ज्वल चरित्र को प्रस्तुत किया गया था. नवीनजी अचानक भावुक हो उठे. वे आर्द्र स्वर में बोले, ‘‘मेरी पत्नी केसर भी एक आदर्श पत्नी और मां थी. अपने पति व बच्चों का सुख ही उस के जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता थी. अपने बच्चों की एक खुशी के लिए अपनी हजारों खुशियां न्योछावर कर देती थी. उस के प्रेम को व्यवहार की तुला का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था. दोनों बेटे पढ़ाई में बहुत ही मेधावी थे.

‘‘दोनों ने ही कंप्यूटर में बीई किया और एक सौफ्टवेयर कंपनी में जौब करने लगे. केसर के मन में बहू लाने के बड़े अरमान थे. वह अपने बेटों के लिए अपने ही जैसी, गुणों से युक्त बहू लाना चाहती थी. पर बड़े बेटे ने अपने ही साथ काम करने वाली एक ऐसी विजातीय लड़की से प्रेमविवाह कर लिया जो मेरी पत्नी के मापदंडों के अनुरूप नहीं थी. उसे बहुत दुख हुआ. रोई भी. फिर धीरेधीरे समय के मलहम ने उस के घाव भरने शुरू कर दिए.

‘‘कुछ समय बाद छोटा बेटा भी कंपनी की तरफ से अमेरिका चला गया. जाते वक्त उस ने अपनी मां से कहा कि वह उस के लिए अपनी मनपसंद लड़की खोज कर रखे. 1 साल बाद जब वह भारत लौटेगा तो शादी करेगा.

‘‘पर वह अमेरिका के माहौल में इतना रचाबसा कि वहां ही स्थायी रूप से रहने का निर्णय ले लिया और वहां की नागरिकता प्राप्त करने के लिए एक अमेरिकी लड़की से विवाह कर लिया.

‘‘केसर के सारे अरमान धूलधूसरित हो गए. वह बिलकुल खामोश रही और एकदम जड़वत हो गई. बस, अकेले ही अंदर ही अंदर वेदना के आसव को पीती रही. नतीजा यह हुआ कि वह बीमार पड़ गई और फिर एक दिन मुझे अपनी यादों के सहारे छोड़ कर इस संसार से विदा हो गई.’’

यह कहतेकहते नवीनजी की आवाज भर्रा गई. जानकी की आंखों की कोर भी गीली होने लगी. वे भीगे कंठ से बोलीं, ‘‘न जाने क्यों बच्चे अपने मांबाप के सपनों की समाधि पर ही अपने प्रेम का महल बनाना चाहते हैं?’’ फिर वे रसोईघर की तरफ मुड़ते हुए बोलीं, ‘‘मैं अभी आप के लिए मसाले वाली चाय बना कर लाती हूं. मूंग की दाल सुबह ही भिगो कर रखी थी. आप मेरे हाथ के बने चीले खा कर बताइएगा कि केसरजी के हाथों जैसा स्वाद है या नहीं.’’

नवीनजी के उदास मुख पर मुसकान की क्षीण रेखा उभर आई.

थोड़ी ही देर में जानकी गरमगरम चाय व चीले ले कर आ गईं. चाय का एक घूंट पीते ही नवीनजी बोले, ‘‘चाय तो बहुत लाजवाब बनी है, सचमुच मजा आ गया. कौनकौन से मसाले डाले हैं आप ने इस में. मुझे भी बनाना सिखाइएगा.’’

जानकी ने उत्तर दिया, ‘‘दरअसल, यह चाय मेरे पति शरदजी को बेहद पसंद थी. मैं खुद अपने हाथों से कूट कर यह मसाला तैयार करती थी. बाजार का रेडीमेड मसाला उन्हें पसंद नहीं आता था.’’

अपने पति का जिक्र करतेकरते जानकी की भावनाओं की सरिता बहने लगी. वे भावातिरेक हो कर बोलीं, ‘‘शरदजी और मुझ में आपसी समझ बहुत अच्छी थी. प्रतिकूल परिस्थितियों में सदैव उन्होंने मुझे संबल प्रदान किया. हम ने अपने दांपत्यरूपी वस्त्र को प्यार व विश्वास के सूईधागे से सिला था. पर नियति को हमारा यह सुख रास नहीं आया और मात्र 35 वर्ष की आयु में उन का निधन हो गया. तब नकुल 7 वर्ष का और नीला 5 वर्ष की थी. मैं ने अपने बच्चों को पिता का अभाव कभी नहीं खलने दिया. उन्हें लाड़प्यार करते समय मैं उन की मां थी व उन्हें अनुशासित करते समय एक पिता की भूमिका निभाती थी.

‘‘नकुल एक बैंक में अधिकारी है. उस की पत्नी लतिका एक कालेज में लैक्चरर है. नीला के पति विवेकजी इंजीनियर हैं. वे लोग भी इसी शहर में ही हैं. उन की एक बेटी भी है.

‘‘सेवानिवृत्त होने के बाद मैं फ्री थी. इसलिए जब कभी जरूरत पड़ती, नकुल और नीला मुझे बुलाते थे. पर बाद में काम निकल जाने के बाद उन दोनों के व्यवहार से मुझे स्वार्थ की गंध आने लगती थी. मैं मन को समझा कर तसल्ली देती थी कि यह मेरा कोरा भ्रम है पर सचाई तो कभी न कभी प्रकट हो ही जाती है.

‘‘बात उस समय की है जब लतिका दोबारा गर्भवती थी. तब मुझे उन लोगों के यहां कुछ माह रुकना पड़ा था. एक दिन नकुल मुझ से लाड़भरे स्वर में बोला, ‘मम्मी, आप के हाथ का बना मूंग की दाल का हलवा खाए बहुत दिन हो गए. लतिका को तो बनाना ही नहीं आता.’

‘‘मैं ने उत्साहित हो कर अगले ही दिन पीठी को धीमीधीमी आंच पर भून कर बड़े ही मनोयोग से हलवा तैयार किया. भले ही रात को हाथदर्द से परेशान रही. अब तो नकुल खाने में नित नई फरमाइशें करता और मैं पुत्रप्रेम में रोज ही सुस्वादु व्यंजन तैयार करती. बेटेबहू तारीफों की झड़ी लगा देते. पर मुझे पता नहीं था मेरे बेटेबहू प्रशंसा का शहद चटाचटा कर मेरा देहदोहन कर रहे हैं. एक दिन रात को मैं दही जमाना भूल गई. अचानक मेरी नींद खुली तो मुझे याद आया और मैं किचन की तरफ जाने लगी तो बहू की आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘सुनो जी, यदि मम्मी हमेशा के लिए यहीं रह जाएं तो कितना अच्छा रहे. मुझे कालेज से लौटने पर बढि़या गरमगरम खाना तैयार मिलेगा. कभी दावत देनी हो तो होटल से खाना नहीं मंगाना पड़ेगा और बच्चों की भी देखभाल होती रहेगी.’

‘‘‘बात तो तुम्हारी बिलकुल ठीक है पर 2 कमरों के इस छोटे से फ्लैट में असुविधा होगी,’ नकुल ने राय प्रकट की.

‘‘बहू ने बड़ी ही चालाकीभरे स्वर में जवाब दिया, ‘इस का उपाय भी मैं ने सोच लिया है. यदि मम्मीजी विदिशा का घर बेच दें और आप बैंक से कुछ लोन ले लें तो 3 कमरों का हम खुद का फ्लैट खरीद सकते हैं.’’

‘‘नकुल ने मुसकराते हुए कहा, ‘तुम्हारे दिमाग की तो दाद देनी पड़ेगी. मैं उचित मौका देख कर मम्मी से बात करूंगा.’

‘‘बेटेबहू का स्वार्थ मेरे सामने बेपरदा हो चुका था. मैं सोचने लगी कि अधन होने के बाद कहीं मैं अनिकेतन भी न हो जाऊं. बस, 2 दिन बाद ही मैं विदिशा लौट आई. नीला का भी कमोबेश यही हाल था. उस की भी गिद्ध दृष्टि मेरे मकान पर थी.

‘‘नवीनजी, मैं काफी अर्थाभाव से गुजर रही हूं. मैं ने बच्चों को पढ़ाया. नीला की शादी की. यह मकान मेरे पति ने बड़े ही चाव से बनवाया था. तब जमीन सस्ती थी. जब उन की मृत्यु हुई, मकान का कुछ काम बाकी था. मैं ने आर्थिक कठिनाइयों से गुजरते हुए जैसेतैसे इस को पूरा किया. अभी बीमार हुई तो काफी खर्च हो गया. मैं सोचती हूं कि कुछ ट्यूशंस ही कर लूं. मैं एक स्कूल में हायर सैकंडरी क्लास की कैमिस्ट्री की शिक्षिका थी.’’

नवीनजी ने जानकी की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘आप शुरू से ही शिक्षण व्यवसाय से जुड़ी हैं इसलिए इस से बेहतर विकल्प और कुछ नहीं हो सकता,’’ फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘‘क्यों न हम एक कोचिंग सैंटर खोल लें. मैं एक कालेज में गणित का प्रोफैसर था. मेरे एक मित्र हैं किशोर शर्मा. वे उसी कालेज में फिजिक्स के प्रोफैसर थे. वे मेरे पड़ोसी भी हैं. उन की भी रुचि इस में है. हम लोगों के समय का सदुपयोग हो जाएगा और आप को सहयोग. हां, हम इस का नाम रखेंगे, जानकी कोचिंग सैंटर क्योंकि इस में हम तीनों का नाम समाहित होगा.’’

जानकी उत्साह से भर गई और बोलीं, ‘‘2-3 विद्यालयों के पिं्रसिपल से मेरी पहचान है. मैं कल ही उन से मिलूंगी और विद्यालयों के नोटिसबोर्डों पर विज्ञापन लगवा दूंगी.’’

किशोरजी भी सहर्ष तैयार हो गए और जल्दी ही उन लोगों की सोच ने साकार रूप ले लिया. अब तो नवीनजी रोज ही जानकी के यहां आनेजाने लगे. कभी कुछ प्लानिंग तो कभी कुछ विचारविमर्श के लिए. वे काफी देर वहां रुकते. वैसे भी कोचिंग क्लासेज जानकी के घर में ही लगती थीं.

किशोरजी क्लास ले कर घर चले जाते क्योंकि उन की पत्नी घर में अकेली थीं. रोजरोज के सान्निध्य से उन लोगों के दिलों में आकर्षण के अंकुर फूटने लगे. वर्षों से सोई हुई कामनाएं करवट लेने लगीं व हृदय के बंद कपाटों पर दस्तक देने लगीं. जज्बातों के ज्वार उफनने लगे. आखिर उन्होंने एक ही जीवननौका पर सवार हो कर हमसफर बनने का निर्णय ले लिया.

ऐसी बातें भी भला कहीं छिपती हैं. महल्ले वाले पीठ पीछे जानकी और नवीनजी का मजाक उड़ाते व खूब रस लेले कर उलटीसीधी बातें करते. फिर ऐसी खबरों के तो पंख होते हैं. उड़तेउड़ते ये खबर नकुल और नीला के कानों में भी पड़ी. एक दिन वे दोनों गुस्से से दनदनाते हुए आए और जानकी के ऊपर बरस पड़े, ‘‘मम्मी, हम लोग क्या सुन रहे हैं? आप को इस उम्र में ब्याह रचाने की क्या सूझी? हमारी तो नाक ही कट जाएगी. क्या आप ने कभी सोचा है कि हमारा समाज व रिश्तेदार क्या कहेंगे?’’

जानकी ने तनिक भी विचलित न होते हुए पलटवार करते हुए उत्तर दिया, ‘‘और तुम लोगों ने कभी सोचा है कि मैं भी हाड़मांस से बनी, संवेदनाओं से भरी जीतीजागती स्त्री हूं. मेरी भी शिराओं में स्पंदन होता है. जिंदगी की मधुर धुनों के बीच क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि अकेलेपन का सन्नाटा कितना चुभता है? बेटे, बुढ़ापा तो उस वृक्ष की भांति होता है जो भले ही ऊपर से हरा न दिखाई दे पर उस के तने में नमी विद्यमान रहती है. यदि उस की जड़ों को प्यार के पानी से सींचा जाए तो उस में भी अरमानों की कलियां चटख सकती हैं.

‘‘जब तुम्हारे पापा ने इस संसार से विदा ली, मैं ने जीवन के सिर्फ 30 वसंत ही देखे थे. मुझे लगा कि अचानक ही मेरे जीवन में पतझड़ का मौसम आ गया हो तथा मेरे जीवन के सारे रंग ही बदरंग हो गए हों. मैं ने तुम लोगों के सुखों के लिए अपनी सारी आकांक्षाओं की आहुति दे दी. पर जवान होने पर तुम लोगों की आंखों पर स्वार्थ की इतनी गहरी धुंध छाई जिस में कर्तव्य और दायित्व जैसे शब्द धुंधले हो गए. जब मेरी तबीयत खराब हुई और मैं ने तुम लोगों को बुलाया तो तुम दोनों ने बहाने गढ़ कर अपनेअपने पल्लू झाड़ लिए.

‘‘ऐसे आड़े वक्त और तकलीफ में नवीनजी एक हमदर्द इंसान के रूप में मेरे सामने आए. उन्होंने मेरा मनोबल बढ़ा कर मुझे मानसिक सहारा दिया. वे मेरे दुखदर्द के ही नहीं, भावनाओं के भी साथी बने. अब मैं उन्हें अपने जीवनसाथी के रूप में स्वीकार कर एक नए जीवन की शुरुआत करने जा रही हूं.’’

नकुल और नीला को आत्मग्लानि का बोध हुआ. वे पछतावेभरे स्वर में बोले, ‘‘मम्मी, आज आप ने हमारी आंखें खोल कर हमें अपनी गलतियों का एहसास कराया है और जीवन के एक बहुत बड़े सत्य से भी साक्षात्कार करवाया है. मां का हृदय बहुत विशाल होता है. हमारी भूलों के लिए आप हमें क्षमा कर दीजिए. आप के जीवन में हमेशा खुशियों के गुलाब महकते रहें, ऐसी हम लोगों की मंगल कामना है.’’

अपनी संतानों की ये बातें सुन कर जानकी की खुशी दोगुनी हो गई.

लेखिका- उर्मिला फुसकेले

देर से ही सही: क्या अविनाश और सीमा की जिंदगी खुशहाल हो पाई

सीमा को लगा कि घर में सब लोग चिंता कर रहे होंगे. लेकिन जब वह घर पहुंची तो किसी ने भी उस से कुछ नहीं पूछा, मानो किसी को पता ही नहीं कि आज उसे आने में देर हो गई है. पिताजी और बड़े भैया ड्राइंगरूम में बैठे किसी मुद्दे पर बातचीत कर रहे थे. छोटी बहन रुचि पति रितेश के साथ आई थी. वह भी बड़ी भाभी के कमरे में मां के साथ बड़ी और छोटी दोनों भाभियों के साथ बैठी गप मार रही थी. सीमा ने अपने कमरे में जा कर कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और खुद ही रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. रसोई से आती बरतनों की खटपट सुन कर छोटी भाभी आईं और औपचारिक स्वर में पूछा, ‘‘अरे, सीमा दीदी…आप आ गईं. लाओ, मैं चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, मैं बना लूंगी,’’ सीमा ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया तो छोटी भाभी वापस चली गईं.

सीमा एक गहरी सांस ले कर रह गई. कुछ समय पहले तक यही भाभी उस के दफ्तर से आते ही चायनाश्ता ले कर खड़ी रहती थीं. उस के पास बैठ कर उस से दिन भर का हालचाल पूछती थीं और अब…

सीमा के अंदर से हूक सी उठी. वह चाय का कप ले कर अपने कमरे में आ गई. अब चाय के हर घूंट के साथ सीमा को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अकेली, कितनी उपेक्षित सी हो गई है.

चाय पीतेपीते सीमा का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा.

सीमा के पिताजी सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. स्कूल के बाद ट्यूशन आदि कर के उन्होंने अपने चारों बच्चों को जैसेतैसे पढ़ाया और बड़ा किया. चारों बच्चों में सीमा दूसरे नंबर पर थी. उस से बड़ा सुरेश और छोटा राकेश व रुचि थे, क्योंकि एक स्कूल के अध्यापक के लिए 6 लोगों का परिवार पालना और 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना आसान नहीं था अत: बच्चे ट्यूशन कर के अपनी कालिज की फीस और किताबकापियों का खर्च निकाल लेते थे.

सीमा अपने भाईबहनों में सब से तेज दिमाग की थी. वह हमेशा कक्षा में प्रथम आती थी. उस का रिजल्ट देख कर पिताजी यही कहते थे कि सीमा बेटी नहीं बेटा है. देख लेना सीमा की मां, इसे मैं एक दिन प्रशासनिक अधिकारी बनाऊंगा.

अपने पिता की इच्छा को जान कर वह दोगुनी लगन से आगे की पढ़ाई जारी करती. बी.ए. करने के बाद सीमा ने 3 वर्षों के अथक परिश्रम से आखिर अपनी मंजिल पा ही ली. और आज वह महिला एवं बाल विकास विभाग में उच्च पद पर कार्यरत है. सीमा के मातापिता उस की इस सफलता से फूले नहीं समाते.

‘सीमा की मां, अब हमारे बुरे दिन खत्म हो गए. मैं कहता था न कि सीमा बेटी नहीं बेटा है,’ उस की पीठ थपथपाते हुए जब पिताजी ने उस की मां से कहा तो वह गर्व से फूल गई थीं. वह अपना पूरा वेतन मांपिताजी को सौंप देती. अपने ऊपर बहुत कम खर्च करती. मांपिताजी ने बहुत तकलीफें सह कर ही गृहस्थी चलाई थी अत: वह चाहती थी कि अब वे दोनों आराम से रहें, घूमेंफिरें. अकसर वह दफ्तर से मिली गाड़ी में अपने परिवार के साथ बाहर घूमने जाती, उन्हें बाजार ले जाती.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. सुरेश और राकेश पढ़लिख कर नौकरियों में लग गए थे. उन की नौकरी के लिए भी सीमा को अपने पद, पहचान और पैसे का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ा था. सीमा की सारी सहेलियों की शादी हो गई. जब भी उन में से कोई सीमा से मिलती तो उस का पहला सवाल यही रहता, ‘सीमा, तुम शादी कब कर रही हो? नौकरी तो करती रहोगी लेकिन अब तुम्हें अपना घर जल्दी बसा लेना चाहिए.’

सुरेश का विवाह हुआ फिर कुछ समय बाद राकेश का भी विवाह हुआ. तब भी मांपिताजी ने उस के विवाह की सुध नहीं ली. समाज में और रिश्तेदारों में कानाफूसी होने लगी. रिश्तेदार जो भी रिश्ता सीमा के लिए ले कर आते, मांपिताजी या सुरेश उन सब में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा देते. इसी तरह समय बीतता रहा और घर में रुचि के विवाह की बात चलने लगी, लेकिन बड़ी बहन कुंआरी रहने के कारण छोटी के विवाह में अड़चन आने लगी. तभी सीमा के लिए अविनाश का रिश्ता आया.

अविनाश भी उसी की तरह प्रशासनिक अधिकारी था. उस में ऐसी कोई बात नहीं थी कि सीमा के घर वाले कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा पाते. रिश्तेदारों के दबाव के आगे झुक कर आखिर बेमन से उन्हें सीमा की शादी अविनाश से करनी पड़ी.

दोनों की छोटी सी गृहस्थी मजे से चल रही थी. शादी के बाद भी सीमा अपनी आधी से ज्यादा तनख्वाह अपने मातापिता को दे देती. एक ही शहर में रहने की वजह से अकसर ही वह मायके चली आती. घर में खाना बनाने के लिए रसोइया था ही इसलिए वह अविनाश के लिए ज्यादा चिंता भी नहीं करती थी. पर अविनाश को उस का यों मायके वालों को सारा पैसा दे देना या हर समय वहां चला जाना अच्छा नहीं लगता था. वह अकसर सीमा को समझाता भी था लेकिन वह उस की बातों पर ध्यान नहीं देती थी. आखिरकार, अविनाश ने भी उसे कुछ कहना छोड़ दिया.

अतीत की यादों से सीमा बाहर निकली तो देखा कमरे में अंधेरा हो आया था. पर सीमा ने लाइट नहीं जलाई. अब उसे एहसास हो रहा था कि उस के मातापिता ने अपने स्वार्थ के लिए उस की बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

सीमा के मातापिता को हर समय यही लगता कि आखिर कब तक सीमा उन की जरूरतें पूरी करती रहेगी. कभी तो अविनाश उसे रोक ही देगा. सीमा की मां और भाभियां हमेशा अविनाश के खिलाफ उस के कान भरती रहतीं. उसे कभी घर के छोटेमोटे काम करते देख कहतीं, ‘‘देखो, मायके में तो तुम रानी थीं और यहां आ कर नौकरानी हो गईं. यह क्या गत हो गई है तुम्हारी.’’

मातापिता के दिखावटी प्यार में अंधी सीमा को तब उन का स्वार्थ समझ में नहीं आया था और वह अविनाश को छोड़ कर मायके आ गई. कितना रोया था अविनाश, कितनी मिन्नतें की थीं उस की, कितनी बार उसे आश्वासन दिया था कि वह चाहे उम्र भर अपनी सारी तनख्वाह मायके में देती रहे वह कुछ नहीं बोलेगा. उसे तो बस सीमा चाहिए. लेकिन सीमा ने उस की एक नहीं सुनी और उसे ठुकरा आई.

भाभी के कमरे से अभी भी हंसीठहाकों की आवाजें आ रही थीं. सीमा को याद आया कि जब 4 साल पहले वह अविनाश का घर छोड़ कर हमेशा के लिए मायके आ गई थी तब सब काम उस से पूछ कर किए जाते थे, यहां तक कि खाना भी उस से पूछ कर ही बनाया जाता था.

और अब…अंधेरे में सीमा ने एक गहरी सांस ली. धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. रुचि की शादी हो गई. उस की शादी में भी उस ने अपनी लगभग सारी जमापूंजी पिता को सौंप दी थी. आज वही रुचि मां और भाभियों में ही मगन रहती है. अपने ससुराल के किस्से सुनाती रहती है. दोनों भाभियां, भैया, मां और पिताजी बेटी व दामाद के स्वागत में उन के आगेपीछे घूमते रहते हैं और सीमा अपने कमरे में उपेक्षित सी पड़ी रहती है.

रुचि के नन्हे बच्चे को देखते ही उस के दिल में एक टीस सी उठती. आज उस का भी नन्हा सा बच्चा होता, पति होता, अपना घर होता. सीमा दीवार से सिर टिका कर बैठ गई. तभी मां कमरे में आईं.

‘‘अरे, अंधेरे में क्यों बैठी है?’’ मां ने बत्ती जलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां, बस थोड़ा सिर में दर्द है,’’ सीमा ने दूसरी ओर मुंह कर के जल्दी से अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘सुन बेटी, मुझे तुझ से कुछ काम था,’’ मां ने अपने स्वर में मिठास घोलते हुए कहा.

‘‘बोलो मां, क्या काम है?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘रुचि दीवाली पर मायके आई है तो मैं सोच रही थी कि उसे एकाध गहना बनवा दूं. दामाद और नन्हे के लिए भी कपड़े लेने हैं. तुम कल बैंक से 15 हजार रुपए निकलवा लाना. कल शाम को ही बाजार जा कर गहने व कपड़े ले आएंगे.’’

‘‘ठीक है, कल देखेंगे,’’ सीमा ने तल्ख स्वर में कहा.

सीमा ने मां से कह तो दिया पर उस का माथा भन्ना गया. 15 हजार रुपए क्या कम होते हैं. कितने आराम से कह दिया निकलवाने को. इतने सालों से वह अपने पैसों से घरभर की इच्छाओं की पूर्ति करती आ रही है लेकिन आज तक इन लोगों ने उस के लिए एक चुनरी तक नहीं खरीदी. मां को रुचि के लिए गहनेकपड़े खरीदने की चिंता है लेकिन उस के लिए दीवाली पर कुछ भी खरीदना याद नहीं रहता.

दूसरे दिन दफ्तर में सीमा का मन पूरे समय अविनाश के इर्दगिर्द घूमता रहा. उसे अपने किए पर आज पछतावा हो रहा था. लंच में उस की सहेली अनुराधा उस के कमरे में आ बैठी. अकसर दोनों साथसाथ लंच करती थीं.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ अनुराधा ने कहा, ‘‘मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि तू बहुत ज्यादा परेशान लग रही है.’’

अनुराधा ने लंच करते समय जब अपनेपन से पूछा तो सीमा अपनेआप को रोक नहीं पाई. घर वालों के उपेक्षापूर्ण व स्वार्थी रवैए के बारे में उसे सबकुछ बता दिया.

‘‘देख सीमा, मैं ने तो पहले भी तुझे समझाया था कि अविनाश को छोड़ कर तू ने अच्छा नहीं किया पर तू मायके वालों के स्वार्थ को प्यार समझे बैठी थी और मेरी एक नहीं मानी. अब हकीकत का तुझे भी पता चल गया न.’’

‘‘मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ सीमा की आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अब जा कर आंखें खुली हैं तेरी लेकिन जब अविनाश ने तुझे मनाने और घर वापस ले जाने की इतनी बार कोशिशें कीं तब तो…बेचारा मनामना कर थक गया,’’ अनुराधा का स्वर कड़वा सा हो गया.

‘‘मैं अपनी गलती मानती हूं. अब बहुत सजा भुगत चुकी हूं मैं. मेरे पास अपना कहने को कोई नहीं रहा. मैं बिलकुल अकेली रह गई हूं, अनु,’’ इतना कह सीमा फफक पड़ी.

सीमा को रोते देख अनुराधा का मन पिघल गया. उसे चुप कराते हुए वह बोली, ‘‘देख, सीमा, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. हां, देर तो हो गई है लेकिन इस के पहले कि और देर हो जाए तू अविनाश के पास वापस चली जा. तेरा पति होगा, अपना घर, अपना बच्चा, अपना परिवार होगा,’’ अनुराधा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाया.

‘‘लेकिन क्या अविनाश मुझे माफ कर के फिर से अपना लेगा?’’ सीमा ने सुबकते हुए पूछा.

‘‘वह करे या न करे पर तुझे अपनी ओर से पहल तो करनी ही चाहिए और जहां तक मैं अविनाश को जानती हूं वह तुझे दिल से अपना लेगा, क्योंकि यह तो तुम भी जानती हो कि उस ने अब तक शादी नहीं की है,’’ अनुराधा ने कहा.

सीमा ने आंसू पोंछ लिए. आखिरी बार जब अविनाश उसे समझाने आया था तब जातेजाते उस ने सीमा से यही कहा था कि मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे और मैं जिंदगी भर तुम्हारा इंतजार करूंगा.

अनुराधा ने सीमा के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘जा, खुशीखुशी जा, बिना संकोच के अपने घर वापस चली जा. बाकी तेरी बहन की शादी हो चुकी है, भाई कमाने लगे हैं, पिताजी को पेंशन मिलती है. उन लोगों को अपना घर चलाने दे, तू जा कर अपना घर संभाल. एक नई जिंदगी तेरी राह देख रही है.’’

क्या करे क्या न करे? इसी ऊहापोह में दीवाली बीत गई. त्योहार पर घर वालों के व्यवहार ने सीमा के निर्णय को और अधिक दृढ़ कर दिया.

छुट्टियां बीत जाने के बाद जब सीमा आफिस गई तो मन ही मन उस ने अपने फैसले को पक्का किया. अपने जो भी जरूरी कागजात व अन्य सामान था उसे सीमा ने आफिस के अपने बैग में डाला और आफिस चली गई. आफिस में अनुराधा से पता चला कि अविनाश शहर में ही है टूर पर नहीं गया है. शाम को घर पर ही मिलेगा.

शाम को आफिस से निकलने के बाद सीमा ने ड्राइवर को अविनाश के घर चलने के लिए कहा. हर मोड़ पर उस का दिल धड़क उठता कि पता नहीं क्या होगा. सारे रास्ते सीमा सुख और दुख की मिलीजुली स्थिति के बीच झूलती रही. 10 मिनट का रास्ता उसे 10 साल लंबा लगा था. गाड़ी अविनाश के घर के सामने जा रुकी. धड़कते दिल से सीमा ने गेट खोला और कांपते हाथों से दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद ही अविनाश ने दरवाजा खोला.

‘‘सीमा, तुम…आज अचानक. आओआओ, अंदर आओ,’’ अविनाश सीमा को देखते ही खुशी से कांपते स्वर में बोला. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि सीमा को देख कर वह कितना खुश है.

‘‘मुझे माफ कर दो, अविनाश. घर वालों के झूठे मोह में पड़ कर मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ पहुंचाई है, बहुत दुख दिए हैं, पत्नी होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया मैं ने, लेकिन आज मेरी आंखें खुल गई हैं. क्या तुम मुझे फिर से…’’ सीमा ने अपना बैग नीचे रखते हुए पूछा तो आगे के शब्द आंसुओं की वजह से गले में ही फंस गए.

‘‘नहींनहीं, सीमा, गलती सभी से हो जाती है. जो बीत गया उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ. यह घर और मैं आज भी तुम्हारे ही हैं. देखो, तुम्हारा घर आज भी वैसे का वैसा ही है,’’ अविनाश ने सीमा को अपने सीने से लगा लिया.

सीमा का जब सारा गुबार आंसुओं में बह गया तो वह अविनाश से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने मायके वालों के प्रति अपना आखिरी कर्तव्य पूरा कर आती हूं.’’

‘‘वह क्या, सीमा?’’ अविनाश ने आश्चर्य और आशंका से पूछा.

‘‘उन्हें फोन तो कर दूं कि मैं अपने घर आ गई हूं, वे मेरी चिंता न करें,’’ सीमा ने हंसते हुए कहा तो अविनाश भी हंसने लगा.

‘‘हैलो, कौन…मां?’’ सीमा ने मायके फोन लगाया तो उधर से मां ने फोन उठाया.

‘‘हां, सीमा, तुम कहां हो…अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचीं?’’

‘‘मां, मैं घर पहुंच गई हूं, अपने घर…अविनाश के पास.’’

‘‘यह क्या पागलपन है, सीमा,’’ यह सुनते ही सीमा की मां बौखला गईं, ‘‘इस तरह से अचानक ही तुम…’’

मां और कुछ कहतीं इस से पहले ही सीमा ने फोन काट दिया. अपने नए जीवन की शुरुआत में वह किसी से उलटासीधा सुन कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. उसे प्यास लगी थी. पानी पीने के लिए सीमा रसोई में गई तो देखा एक थाली में अविनाश दीपक सजा रहा है.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अविनाश?’’ सीमा ने कौतूहल से पूछा.

‘‘दीये सजा रहा हूं.’’ अविनाश ने उत्तर दिया.

‘‘लेकिन दीवाली तो बीत चुकी है.’’

‘‘हां, लेकिन मेरे घर की लक्ष्मी तो आज आई है, तो मेरी दीवाली तो आज ही है. इसलिए उस के स्वागत में ये दीये जला रहा हूं,’’ अविनाश ने सीमा की तरफ प्यार से देखते हुए कहा तो सीमा का मन भर आया.

अब वह पतिपत्नी के इस अटूट स्नेह संबंध को हमेशा हृदय से लगा कर रखेगी, यह सोच कर वह भी दीये सजाने में अविनाश की मदद करने लगी. देर से ही सही लेकिन आज उन के जीवन में प्यार और खुशहाली के दीये झिलमिला रहे थे.

लंबी रेस का घोड़ा: अंबिका ने क्यों मांगी मां से माफी

‘‘हर्षजी, टीवी आप का ध्यान दर्द से हटाने के लिए चल रहा है पर मेरा ध्यान तो न बटाएं. आप को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए यह कसरतें दवा से भी अधिक आवश्यक हैं,’’ डा. अनुराधा अनमने स्वर में बोलीं.

‘‘सौरी, अनुराधाजी, कसरतों की जरूरत मैं भली प्रकार समझता हूं. मैं तो आप को केवल यह बताना चाह रहा था कि कभी मैं भी मैराथन रनर था.’’

‘‘अच्छा तो फिक्र मत करें, आप एक बार फिर दौड़ेंगे,’’ डा. अनुराधा मुसकराई थीं.

‘‘क्यों मजाक करती हैं, डा. साहिबा, उठ कर खडे़ होने का साहस भी नहीं है मुझ में और आप मैराथन दौड़ने की बात करती हैं. आप मेरे बारे में ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं,’’ हर्ष दर्द से कराहते हुए बोले.

‘‘मिस्टर हर्ष, कोई लक्ष्य सामने हो तो व्यक्ति बहुत जल्दी प्रगति करता है.’’

‘‘मेरे हाथों का हाल देखा है आप ने, कलाई से बेजान हो कर लटके हैं. अब तो मैं ने इन के ठीक होने की उम्मीद भी छोड़ दी है,’’ हर्ष ने एक मायूस दृष्टि अपने बेजान हाथों पर डाली.

‘‘जानती हूं मैं, आज आप छोटेछोटे कामों के लिए भी दूसरों पर निर्भर हैं पर पहले से आप की हालत में सुधार तो आया है, यह तो आप भी जानते हैं. छोटी दौड़ में हाथों का प्रयोग करने की तो आप को जरूरत नहीं होगी,’’ डा. अनुराधा इतना कह कर हर्ष को सोचता छोड़ चली गई.

‘‘क्या हुआ? कहां खोए हैं आप?’’ पत्नी टीना की आवाज से हर्ष की तंद्रा टूटी.

‘‘कहीं नहीं, टीना, अपनी यादों में खोया था. मेरे जैसे दीनहीन, अपाहिज के पास सोचने के अलावा

दूसरा विकल्प भी क्या है.

डा. अनुराधा ने कहा कि मैं भी अर्द्धमैराथन में भाग ले सकता हूं, जबकि मैं जानता हूं कि यह संभव नहीं,’’ हर्ष के स्वर में पीड़ा थी.

‘‘खबरदार, जो कभी स्वयं को दीनहीन और अपाहिज कहा तो. याद रखो, तुम्हें एक दिन पूरी तरह स्वस्थ होना ही होगा. वैसे भी डा. अनुराधा उन लोगों में से नहीं हैं जो केवल मरीज का मन रखने के लिए झूठे आश्वासन दें.’’

‘‘अच्छा छोड़ो यह सब और बताओ, बीमा एजेंट ने क्या कहा?’’ हर्ष ने टीना के चेहरे की गंभीरता को देख कर पूछा था.

‘‘वह कह रहा था, आप का व्यापार और उस में काम करने वाले कर्मचारी तो बीमा पालिसी के दायरे में आते हैं पर इस तरह असामाजिक तत्त्वों द्वारा किया गया हमला बीमा के दायरे में नहीं आता.’’

‘‘यानी बीमा से हमें फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी?’’ हर्ष उत्तेजित हो उठे.

‘‘लगता तो ऐसा ही है हर्ष,’’ टीना बोली, ‘‘वैसे गलती हमारी ही है जो हम ने समय रहते मेडीक्लेम पालिसी नहीं ली.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि मेरे साथ ऐसा भयंकर हादसा…’’ हर्ष का स्वर टूट गया.

‘‘छोड़ो, यह सब. आज की एक्सरसाइज पूरी हो गई हो तो घर चलें?’’ टीना ने बात टालते हुए कहा.

‘‘हां, डा. अनुराधा कह रही थीं कि आप अब एक दिन छोड़ कर आ सकते हैं, रोज आने की जरूरत नहीं.’’

टीना पहिए वाली कुरसी ले आई और उस की सहायता से हर्ष को कार में बैठाया फिर दूसरी ओर बैठ कर कार चलाने लगी. हर्ष पत्नी को सजल नेत्रों से कार चलाते देखता रहा.

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हर्ष ने अपने दोनों हाथों पर एक नजर डाली जो आज दैनिक जरूरत के काम भी पूरा करने के लायक नहीं थे. अब तो खाने और बटन लगाने से ले कर जूतों के फीते बांधने में भी दूसरों की सहायता लेनी पड़ती थी. कार चलाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. ऐसे अपाहिज जीवन का भी भला कोई मतलब है और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी जीवन- लीला समाप्त कर के वह अपने परिवार को मुक्ति तो दे ही सकता है.

दूसरे ही क्षण हर्ष चौंक गए कि यह क्या सोचने लगे वह. अपने परिवार को वह और दुख नहीं दे सकते.

‘‘क्या हुआ? बहुत दर्द है क्या?’’ टीना ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं, आज दर्द कम है. मैं तो बस, यह सोच रहा हूं कि मेरे इलाज में ही 6 लाख से ऊपर खर्च हो गए हैं. जमा पूंजी तो इसी में चली गई अब बीमे की राशि मिलेगी नहीं तो काम कैसे चलेगा? फ्लैट की किस्त, बच्चों की पढ़ाई, कार की किस्त और सैकड़ों छोटेबडे़ खर्चे कैसे पूरे होंगे?’’

‘‘मैं शाम को ट्यूशन ले लिया करूंगी. कुछ न कुछ पैसों का सहारा हो ही जाएगा.’’

‘‘ट्यूशन कर के कितना कमा लोगी तुम?’’

‘‘फिर तुम ही कोई रास्ता दिखाओ,’’ टीना मुसकराई.

‘‘मेरे विचार से तो हमें अपना फ्लैट बेच देना चाहिए. जब मैं ठीक हो जाऊंगा तो फिर खरीद लेंगे,’’ हर्ष ने सुझाव दिया.

उत्तर में टीना ने बेबसी से उस पर एक नजर डाली. उस की नजरों में जाने क्या था जिस ने हर्ष को भीतर तक छलनी कर दिया. इसी के साथ बीते समय की कुछ घटनाएं सागर की लहरों की भांति उस के मानसपटल से टकराने लगी थीं.

‘क्यों भाई, तुम्हारा मीटर तो ठीकठाक है?’ उस दिन आटोरिकशा से उतरते हुए हर्ष ने मजाक के लहजे में कहा था.

‘कैसी बातें कर रहे हैं साहब. मीटर ठीक न होता तो मैं गाड़ी सड़क पर उतारता ही नहीं,’ चालक ने जवाब दिया.

हर्ष ने अपना बटुआ खोल कर 75 रुपए 50 पैसे निकाले. इस से पहले कि वह किराया चालक को  दे पाते, किसी ने उन की कमर पर खंजर सा कुछ भोंक दिया.

दर्द से तड़प कर वह पीछे की ओर पलटे कि दाएं हाथ और फिर बाएं हाथ पर भी वार हुआ. वह कराह उठे. दायां हाथ तो कलाई से इस तरह लटक गया जैसे किसी भी क्षण अलग हो कर गिर पडे़गा.

हर्ष छटपटा कर जमीन पर गिर पडे़ थे. धुंधलाई आंखों से उन्होंने 3 लोगों को दौड़ कर कुछ दूर खड़ी कार में बैठते देखा.

‘नंबर….नंबर नोट करो,’ असहनीय दर्द के बीच भी वह चिल्ला पडे़े. आटोचालक, जो अब तक भौचक खड़ा था, कार की ओर लपका. उस ने तेजी से दूर जाती कार का नंबर नोट कर लिया.

‘मेरा बैग,’ कटे हाथों से हर्ष ने कार की तरफ संकेत किया. पर वे जानते थे कि इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा.

‘चलिए, आप को पास के दवाखाने तक छोड़ दूं,’ चालक ने सहारा दे कर हर्ष को आटोरिकशा में बैठाया तो उन्होंने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि चालक पर डाली और पीछे की सीट पर ढेर हो गए.

दिव्या नर्सिंग होम के सामने आटो रिकशा रुका तो उस से बाहर निकलने के लिए हर्ष को पूरी शक्ति लगानी पड़ी. उन को डर लग रहा था कि कहीं उन का दायां हाथ शरीर से अलग ही न हो जाए. आखिर बाएं हाथ से उसे थाम कर वे नर्सिंग होम की सीढि़यां चढ़ गए थे.

‘क्या हुआ? कैसे हुआ यह सब?’ आपातकक्ष में डाक्टर के नेत्र उन्हें देखते ही विस्फारित हो गए थे.

‘गुंडों ने हमला किया…तलवार और चाकू से.’

‘तब तो पुलिस केस है. हम आप को हाथ तक नहीं लगा सकते. आप प्लीज, सरकारी अस्पताल जाइए.’

हर्ष उलटे पांव नर्सिंग होम से बाहर निकल आए और सरकारी अस्पताल तक छोड़ने की प्रार्थना करते हुए उन्होंने आतीजाती गाडि़यों से लिफ्ट मांगी पर किसी ने मदद नहीं की.

वह अपने को घसीटते हुए कुछ दूर चले पर इस अवस्था में सरकारी अस्पताल पहुंच पाना उन के लिए संभव नहीं था.

तभी एक पुलिस जीप उन के पास आ कर रुकी. उन्होंने सहायता के लिए प्रार्थना नहीं की क्योंकि जिस से आशा ही न हो उस से मदद की भीख मांगने से क्या लाभ?

‘क्या हुआ?’ जीप के अंदर से प्रश्न पूछा गया. उत्तर में हर्ष ने अपना बायां हाथ ऊपर उठा दिया.

दूसरे ही क्षण कुछ हाथों ने उठा कर उन्हें जीप में बैठा दिया. बेहोशी की हालत में भी उन्होंने टूटेफूटे शब्दों में अनुनय किया था, ‘मुझे अस्पताल ले चलो भैया…’

जीप में बैठे सिपाही गणेशी ने न केवल उन्हें सरकारी अस्पताल पहुंचाया बल्कि उन की जेब से ढूंढ़ कर कार्ड निकाला और उन के घर फोन भी किया.

‘आप हर्षजी की पत्नी बोल रही हैं क्या?’

गणेशी का स्वर सुन कर टीना के मुख से निकला, ‘देखिए, हर्षजी अभी घर नहीं लौटे हैं. आप कल सुबह फोन कीजिए.’

‘आप मेरी बात ध्यान से सुनिए. हर्षजी यहां उस्मानिया अस्पताल में भरती हैं. वे घायल हैं और यहां उन का इलाज चल रहा है. उन के पास न तो पैसे हैं और न कोई देखभाल करने वाला.’

‘क्या हुआ है उन्हें और उन के पैसे कहां गए?’ टीना बदहवास सी हो उठी थी. रिसीवर उस के हाथ से छूट गया. अपने को किसी तरह संभाल कर टीना लड़खड़ाते कदमों से पड़ोसी दवे के घर तक पहुंची तो वह तुरंत साथ चलने को तैयार हो गए. टीना ने घर में रखे पैसे पर्स में डाल लिए. मन किसी अनहोनी की आशंका से धड़क रहा था.

अस्पताल पहुंच कर हर्ष को ढूंढ़ने में टीना को अधिक समय नहीं लगा. घायल अवस्था में अस्पताल आने वाले वही एकमात्र व्यक्ति थे.

‘आप के पति की किसी से दुश्मनी है क्या?’ टीना को देखते ही गणेशी ने प्रश्न किया.

‘नहीं तो, वह बेचारे सीधेसादे इनसान हैं. मैं ने तो उन्हें कभी ऊंची आवाज में किसी से बात करते भी नहीं सुना,’ उत्तर दवे साहब ने दिया था.

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‘तो क्या बहुत रुपए थे उन के पास?’

‘नहीं, उन का अधिकतर लेनदेन तो बैंकों के माध्यम से होता है.’

‘तो फिर ऐसा क्यों हुआ इन के साथ…?’ गणेशी ने प्रश्न बीच में ही छोड़ दिया था.

‘पर हुआ क्या है आप बताएंगे…?’ टीना अपना आपा खो रही थी.

‘गुंडों ने आप के पति पर जानलेवा हमला किया है. वह अभी तक जीवित हैं आप के लिए यह एक अच्छी खबर है,’  गणेशी ने सीधे सपाट स्वर में कहा.

हर्ष की दशा देख कर टीना और दवे दंपती सकते में आ गए थे.

‘गुंडों ने तलवार और छुरों से हमला किया था. कमर में बहुत गहरा जख्म है. हाथों को भारी नुकसान पहुंचा है. दायां हाथ तो कलाई से लगभग अलग ही हो गया है. मांसपेशियां, रक्तवाहिनियां सब कट गई हैं, इन का तुरंत आपरेशन करना पडे़गा,’ चिकित्सक ने सूचना दी थी.

हर्ष के मातापिता कुछ ही दूरी पर रहते थे. पिता को 2-3 वर्ष पहले पक्षाघात हुआ था पर मां अंबिका समाचार मिलते ही दौड़ी आईं.

‘मां, हर्ष को दूसरे अस्पताल ले जाएंगे, वहां के डा. मनुज रक्तवाहिनियों के कुशल शल्य चिकित्सक हैं,’ टीना बोली.

आपरेशन 4 घंटों से भी अधिक समय तक चला. 5 दिनों के बाद ही हर्ष को अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई थी. पट्टियां खुलने के बाद भी दोनों हाथ बेकार थे. छोटेमोटे कामों के लिए भी हर्ष दूसरों पर निर्भर हो गए.

कुछ ही दिनों में हर्ष के पैरों में इतनी ताकत आ गई कि वह बिना किसी सहारे के अस्पताल चले जाते थे. टीना के वेतन पर ही सारा परिवार निर्भर था अत: सुबह 10 से 3 बजे तक वह हर्ष के साथ नहीं रह पाती थी.

कार झटके से रुकी तो हर्ष वर्तमान में आ गया.

‘‘क्या बात है, ऐसी रोनी सूरत क्यों बना रखी है?’’ कार से उतरते टीना ने कहा, ‘‘क्या हुआ जो बीमे की राशि नहीं मिलेगी. कुछ ही दिनों में तुम पूरी तरह स्वस्थ हो जाओगे और अपना व्यापार संभाल लोगे.’’

हर्ष और टीना घर पहुंचे तो हर्ष की मां अंबिका वहां आई हुई थीं.

‘‘तुम्हारी पसंद का भोजन बनाया है आज. याद है न आज कौन सा दिन है?’’ टिफिन खोल कर स्वादिष्ठ भोजन मेज पर सजाते हुए मां अंबिका बोलीं, ‘‘हर्ष, आज मैं ने तेरी पसंद की मखाने की खीर और दाल की कचौडि़यां बनाई हैं.’’

हर्ष और टीना को याद आया कि वह अपने विवाह की वर्षगांठ तक भूल गए थे.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगी, घर में तेरे पापा अकेले हैं,’’  खाने के बाद चलने के लिए तैयार अंबिका ने कहा, ‘‘सब ठीक है ना हर्ष. तुम्हारा इलाज ठीक से चल रहा है न?’’

‘‘हां, सब ठीक है मां,’’ हर्ष ने जवाब दिया.

‘‘फिर तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है?’’

‘‘मां, मैं जिस बीमे की रकम की उम्मीद लगाए बैठा था वह अब नहीं मिलेगी,’’  इस बार उत्तर टीना ने दिया.

‘‘तो क्या सोचा है तुम ने?’’ अंबिका ने पूछा.

‘‘सोचता हूं मां, यह फ्लैट बेच दूं. बाद में फिर खरीद लेंगे,’’  हर्ष ने कहा.

‘‘मैं कई दिनों से एक बात सोच रही थी,’’  अंबिका गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘क्यों न तुम सपरिवार हमारे पास रहने आ जाओ. अपने फ्लैट को किराए पर उठाओगे तो किस्तों की समस्या हल हो जाएगी.’’

एकाएक सन्नाटा पसर गया था.

‘‘क्या हुआ?’’ मौन अंबिका ने ही तोड़ा. हर्ष ने कुछ नहीं कहा पर टीना रो पड़ी थी.

‘‘हम इस योग्य कहां मां, जो आप के साथ रह सकें. याद है जब पापा पर लकवे का असर हुआ था तो हम आप को अकेला छोड़ कर यहां रहने चले आए थे. तब लगा था कि वहां रहने पर हमें दिनरात की कुंठा और निराशा का सामना करना पडे़गा,’’  हर्ष ने ग्लानि भरे स्वर में कहा.

‘‘बेटा, मैं यह नहीं कहूंगी कि उस वक्त मुझे बुरा नहीं लगा था. पर मुसीबत का सामना करने के लिए मैं ने खुद को पत्थर सा कठोर बना लिया था. तुम लोग आज भी मेरे परिवार का हिस्सा हो और आज फिर मेरे परिवार पर आफत आई है,’’  अंबिका सधे स्वर में बोलीं.

‘‘मां, हो सके तो मुझे क्षमा कर देना. जो कुछ हुआ उस के लिए हर्ष से अधिक मैं दोषी हूं,’’ यह कह कर टीना अपनी सास के चरणों में झुक गई.

‘‘नदी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहती है बेटी. मातापिता कभी अपनी ममता का प्रतिदान नहीं चाहते. हम जितना अपनी संतान के लिए करते हैं मातापिता के लिए कहां कर पाते,’’ यह कहते हुए अंबिका ने टीना को गले से लगा लिया.

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‘‘आप जैसे मातापिता हों तो कोई भी औलाद बडे़ से बडे़ संकट से जूझ सकती है,’’  टीना बोली.

‘‘यह मत सोचना कि मेरा बेटा किसी से कम है. मैराथन का धावक रहा है मेरा बेटा. लंबी रेस का घोड़ा है यह,’’ अंबिका मुसकराईं.

‘‘अरे, हां, अच्छा याद दिलाया आप ने. शहर में अर्द्धमैराथन होने को है और हर्ष ने उस में भाग लेने का फैसला किया है,’’  टीना बोली.

‘‘सच? पर इस के लिए कडे़ अभ्यास की जरूरत होगी,’’ अंबिका ने कहा.

‘‘चिंता मत कीजिए दादी मां, हम दोनों भी पापा के साथ अभ्यास करेंगे,’’ कहते हुए ऋचा और ऋषि ने हाथ हवा में लहराए. आगे की बात उन सब की सम्मिलित हंसी में खो गई थी.

रागरागिनी: क्या रागिनी अधेड़ उम्र के अनुराग से अपना प्रेम राग छेड़ पाई?

आज सुबह से ही बारिश ने शहर को आ घेरा है. उमड़घुमड़ कर आते बादलों ने आकाश की नीली स्वच्छंदता को अपनी तरह श्यामल बना लिया है. लेकिन अगर ये बूंदें जिद्दी हैं तो रागिनी भी कम नहीं. रहरह कर बरसती इन बूंदों के कारण रागिनी का प्रण नहीं हारने वाला.

ग्रीन टी पीने के पश्चात रागिनी ट्रैक सूट और स्पोर्ट शूज में तैयार खड़ी है कि बारिश थमे और वह निकल पड़े अपनी मौर्निंग जौग के लिए.

कमर तक लहराते अपने केशों को उस ने हाई पोनी टेल में बांध लिया. एक बार जब वह कुछ ठान लेती है, तो फिर उसे डिगाना लगभग असंभव ही समझो.

पिछले कुछ समय से अपने काल सैंटर के बिजनेस को जमाने में रातदिन एक करने के कारण न तो उसे सोने का होश रहा और न ही खाने का. इसी कारण उस का वजन भी थोड़ा बढ़ गया. उसे जितना लगाव अपने बिजनेस से है, उतना ही अपनी परफेक्ट फिगर से भी. इसलिए उस ने मौर्निंग जौग शुरू कर दी, और कुछ ही समय में असर भी दिखने लगा.

लंबी छरहरी काया और श्वेतवर्ण बेंगनी ट्रैक सूट में उस का चेहरा और भी निखर रहा था. उस ने अपनी कार निकाली और चल पड़ी पास के जौगर्स पार्क की ओर.

यों तो रागिनी के परिवार की गिनती उस के शहर के संभ्रांत परिवारों में होती है. मगर उस का अपने पैरों पर खड़े होने का सपना इतना उग्र रहा कि उस ने केवल अपने दम पर एक बिजनेस खड़ा करने का बीड़ा उठाया. तभी तो एमबीए करते ही कोई नौकरी जौइन करने की जगह उस ने अपने आंत्रिप्रिन्यौर प्रोग्राम का लाभ उठाते हुए बिजनेस शुरू किया. बैंक से लोन लिया और एक काल सैंटर डालने का मन बनाया. उस का शहर इस के लिए उतना उचित नहीं था, जितना ये महानगर.

जब उस ने यहां अकेले रह कर काल सैंटर का बिजनेस करने का निर्णय अपने परिवार से साझा किया, तो मां ने भी साथ आने की जिद की.

“आप साथ रहोगी तो हर समय खाना खाया, आराम कर ले, आज संडे है, आज क्यों काम कर रही है, कितने बजे घर लौटेगी, और न जाने क्याक्या रटती रहोगी. इसलिए अच्छा यही रहेगा कि शुरू में मैं अकेले ही अपना काम सेट करूं,” उस ने भी हठ कर लिया. घर वालों को आखिर झुकना ही पड़ा.

इस महानगर में रहने के लिए उस ने एक वन बेडरूम का स्टूडियो अपार्टमेंट किराए पर ले लिया. हर दो हफ्तों में एकलौता बड़ा भाई आ कर उस का हालचाल देख जाता है और हर महीने वो भी घर हो आती है. इस व्यवस्था से घर वाले भी खुश हैं और वह भी.

पार्क के बाहर कार खड़ी कर के रागिनी ने आउटर बाउंडरी का एक चक्कर लगा कर वार्मअप किया, और फिर धीरेधीरे दौड़ना आरंभ कर दिया.

आज पार्क के जौगिंग ट्रैक पर भी कीचड़ हो रहा था. बारिश के कारण रागिनी संभल कर दौड़ने लगी. मगर इन बूंदों ने भी मानो आज उसे टक्कर देने का मन बना रखा था, फिर उतरने लगीं नभ से.

भीगने से बचने के लिए रागिनी ने अपनी स्पीड बढ़ाई और कुछ दूर स्थित एक शेल्टर के नीचे पहुंचने के लिए जैसे ही मुड़ी, उस का पैर भी मुड़ गया. शायद मोच आ गई.

“उई…” दर्द के मारे वह चीख पड़ी. अपने पांव के टखने को दबाते हुए उसे वहीं बैठना पड़ा. असहनीय पीड़ा ने उसे आ दबोचा. आसपास नजर दौड़ाई, किंतु आज के मौसम के कारण शायद कोई भी पार्क में नहीं आया था. अब वह कैसे उठेगी, कैसे पहुंचेगी अपने घर. वह सोच ही रही थी कि अचानक उसे एक मर्दाना स्वर सुनाई पड़ा, “कहां रहती हैं आप?”

आंसुओं से धुंधली उस की दृष्टि के कारण वह उस शख्स की शक्ल साफ नहीं देख पाई. वह कुछ कहने का प्रयास कर रही थी कि उस शख्स ने उसे अपनी बलिष्ठ बाजुओं में भर कर उठा लिया.

“मेरी कार पार्क के गेट पर खड़ी है. मैं पास ही में रहती हूं,” रागिनी इतना ही कह पाई.

रिमझिम होती बरसात, हर ओर हरियाली, सुहावना मौसम, शीतल ठंडी बयार और किसी की बांहों के घेरे में वह खुद – उसे लगने लगा जैसे मिल्स एंड बूंस के एक रोमांटिक उपन्यास का पन्ना फड़फड़ाता हुआ यहां आ गया हो. इतने दर्द में भी उस के अधरों पर स्मित की लकीर खिंच गई.

उस ने रागिनी को कार की साइड सीट पर बैठा दिया और स्वयं ड्राइव कर के चल दिया.

“आप को पहले नहीं देखा इस पार्क में,” उस शख्स ने बातचीत की शुरुआत की.

रागिनी ने देखा कि ये परिपक्व उम्र का आदमी है – साल्टपेपर बाल, कसा हुआ क्लीन शेव चेहरा, सुतवा नाक, अनुपम देहयष्टि, लुभावनी रंगत पर गंभीर मुख मुद्रा. बैठे हुए भी उस के लंबे कद का अंदाजा हो रहा था.

“अभी कुछ ही दिनों से मैं ने यहां आना आरंभ किया है. आप भी आसपास रहते हैं क्या?” रागिनी बोली. वह उस की भारी मर्दानी आवाज की कायल हुई जा रही थी.

“जी, मैं यहीं पास में सेल्फ फाइनेंस फ्लैट में रहता हूं. अभीअभी रिटायर हुआ हूं. अब तक काफी बचत की. उसी के सहारे अब जिंदगी की सेकंड इनिंग खेलने की तैयारी है,” उस के हंसते ही मोती सी दंतपंक्ति झलकी.

“उफ्फ, कौन कह सकता है कि ये रिटायर्ड हैं. इन का इतना टोंड बौडी, आकर्षक व्यक्तित्व, मनमोहक हंसी, और ये कातिलाना आवाज,” रागिनी सोचने पर विवश होने लगी.

“बस, पास ही है मेरा घर,” वह बोली. पार्क के इतना समीप घर लेने पर उसे कोफ्त होने लगी.

किंतु घर ले जाने की जगह पहले वे रागिनी को निकटतम अस्पताल ले चले, “पहले आप को अस्पताल में डाक्टर को दिखा लेते हैं.”

उन्होंने रागिनी को फिर अपनी भुजाओं में उठाया और बिना हांफे उसे अंदर तक ले गए. वहां कागजी कार्यवाही कर के उन्होंने डाक्टर से बात की और रागिनी का चेकअप करवाया. उस की जांच कर के बताया गया कि पैर की हड्डी चटक गई है. 4 हफ्ते के लिए प्लास्टर लगवाना होगा. सुन कर रागिनी कुछ उदास हो उठी.

“आप के परिवार वाले कहां रहते हैं? बताइए, मैं बुलवा लेता हूं,” उसे चिंताग्रस्त देख वे बोले.

“वे सब दूसरे शहर में रहते हैं. यहां मैं अकेली हूं.”

“मैं हूं आप के साथ, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए,” कहते हुए वे रागिनी को ले कर उस के घर छोड़ने चल पड़े.

घर में प्रवेश करते ही एक थ्री सीटर सोफा और एक सैंटर टेबल रखी थी. टेबल पर कुछ बिजनेस मैगजीन और सोफे पर कुछ कपड़े बेतरतीब पड़े थे.

घर की हालत देख रागिनी झेंप गई, “माफ कीजिएगा, घर थोड़ा अस्तव्यस्त है. वो मैं सुबहसुबह जल्दी में निकली तो…”

सोफे पर रागिनी को बिठा कर वे चलने को हुए कि रागिनी ने रोक लिया, “ऐसे नहीं… चाय तो चलेगी. मौसम की भी यही डिमांड है आज.”

“पर, आप की हालत तो अभी उठने लायक नहीं है,” उन्होंने कहा.

“डोंट वरी, मैं पूरा रेस्ट करूंगी. रही चाय की बात… तो वह तो आप भी बना सकते हैं. बना सकते हैं न?” रागिनी की इस बात पर उस के साथसाथ वे भी हंस पड़े.

रागिनी ने किचन का रास्ता दिखा दिया और उन्होंने चाय बनाना शुरू किया. दोनों ने चाय पी और एकदूसरे का नाम जाना. चाय पी कर वे लौटने लगे.

“फिर आएंगे न आप?” रागिनी के स्वर में थोड़ी व्याकुलता घुल गई.

“बिलकुल, जल्दी आऊंगा आप का हालचाल पूछने.”

“मुझे सुबह 7 बजे चाय पीने की आदत है,” जीभ काटते हुए रागिनी बोल पड़ी.

“हाहाहा…” अनुराग की उन्मुक्त हंसी से रागिनी का घर गुंजायमान हो उठा. “जैसी आप की मरजी. कल सुबह पौने 7 बजे हाजिर हो जाऊंगा.”

अनुराग से मिल कर रागिनी जैसे खिल उठी. आज उस का मन शारीरिक पीड़ा होने के बाद भी प्रफुल्लित हो रहा था. ऐसा क्या था आज की मुलाकात में जिस ने उस के अंदर एक उजास भर दिया. उस का चेहरा गुलाबी आभा से दमकने लगा. पैर के दर्द को भुला कर वह गुनगुनाने लगी, “मैं रंग शरबतों का, तू मीठे घाट का पानी, मुझ से खुद में घोल दे तो मेरे यार बात बन जानी…”

अगली सुबह जब तक अनुराग आए, रागिनी नहाधो कर अपने गीले केश लहराती किचन के पास आरामकुरसी डाल कर बैठ चुकी थी. उस का एक मन अनुराग के आकर्षण में बंधा प्रतीक्षारत अवश्य था, परंतु दूसरा मन उन के निजी जीवन में उपस्थित लोगों के प्रति चिंताग्रस्त था. उन का अपना परिवार भी तो होगा, यही विचार रागिनी के उफनते उत्साह पर ठंडे पानी के छींटे का काम कर रहा था.

“तो आप अर्ली राइजर हैं,” उसे एकदम फ्रेश देख कर अनुराग बोले.

“बस, आप का इंतजार कर रही थी, इसलिए आज जल्दी नींद खुल गई,” रागिनी की आंखों में अलग सा आकर्षण उतर आया. उस की भावोद्वेलित दृष्टि देख अनुराग कुछ विचलित हो गए. आगे बात न करते हुए वे चाय बनाने लगे.

“तो तय रहा कि अगले एक महीने तक आप यों ही रोज मेरे लिए चाय बनाएंगे,” रागिनी कह तो गई, पर सामने से कोई प्रतिक्रिया न आने पर संशय से घिर गई, “आप के घर वाले… आई मीन… आप की वाइफ और बच्चे… कहीं उन्हें बुरा तो नहीं लगा आप का मेरे घर इतनी सुबह आना.”

कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात अनुराग कहने लगे, “मेरे कोई बच्चा नहीं है. एक अदद बीवी थी, पर उस से तलाक हुए एक अरसा बीत चुका है. मैं यहां अकेला रहता हूं.”

“तो फिर कोई दिक्कत नहीं. आज से मौर्निंग टी हम दोनों साथ में पिएंगे. यही पक्का रहा…?” कहते हुए उस ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया. अनुराग ने भी खुश हो कर उस से हाथ मिला लिया.

“आप की जेनेरेशन की यही बात मुझे बेहद पसंद है – नई चीजें, नए आयाम करने में आप लोग घबराते नहीं हैं. एक हम थे – बस लकीर के फकीर बने रहे ताउम्र,” रागिनी के बिजनेस के बारे में जान कर अनुराग बोले.

“चलिए, आप की जेनेरेशन का एक गाना सुनाती हूं,” कहते हुए रागिनी ने यूट्यूब पर एक गाना लगा दिया, “मैं तेरी, तू मेरा, दुनिया से क्या लेना…” उस का विचार था कि संगीत वातावरण को और भी रूमानी और खुशनुमा बनाता है.

“ये भी मेरे जमाने का गाना नहीं है,” कह कर अनुराग हंस पड़े, “अपने जमाने का गाना मैं सुनाता हूं,” और वे गाने लगे, “जीवन से भरी तेरी आंखें, मजबूर करें जीने के लिए…”

उन की मदहोश करने वाली आवाज में किशोर कुमार का ये अमर गीत जादू करने लगा. सभवतः रागिनी की नजरों में उठतेगिरते भावों को पढ़ने में अनुराग सक्षम थे. उन्होंने अपनी बात गीत के जरीए रागिनी तक पहुंचा दी. गीत के बोलों ने पूरे समां को रंगीन कर दिया. आज की सुबह का नशा रागिनी पर शाम तक बना रहा.

अगले दिन सवेरे जब अनुराग आए तो देखा, रागिनी का बड़ा भाई आया हुआ है. उस के प्लास्टर की बात सुन कर वह उस की खैरखबर लेने आ पहुंचा.

“ये हैं मेरे भैया… और ये हैं अनुरागजी, मेरे दोस्त,” रागिनी ने दोनों का परिचय करवाया.

“अंकलजी, अच्छा हुआ कि आप पास में रहते हैं. आप जैसे बुजुर्ग की छत्रछाया में रागू को छोड़ने में हमें भी इस की चिंता नहीं रहेगी,” भाई ने बोला, तो रागिनी का मुंह बन गया.

“अनुरागजी, बैठिए न. आज चाय बनाने की जिम्मेदारी मेरे भैया की. आप बस मेरे साथ चाय का लुत्फ उठाइए,” उस ने फौरन बीच में बोला.

अनुराग रागिनी की बात का मर्म समझ गए शायद, तभी तो मंदमंद मुसकराहट के साथ उस के पास ही बैठ गए.

चाय पीने के बाद इधरउधर की बातें कर रागिनी के भैया ने कहा, “अंकलजी, कल मैं लौट जाऊंगा. प्लीज, रागू का ध्यान रखिएगा.”

“क्या बारबार अनुरागजी को अंकलजी बोल रहे हो, भैया,” इस बार रागिनी से चुप नहीं रहा गया. उस के दिल का हाल भैया की समझ से परे था, सो बड़े शहरों के चोंचले समझ कर चुप रह गए.

प्लास्टर बंधे 2 हफ्ते बीत चुके थे. अनुराग हर सुबह रागिनी के घर आते, चाय बनाते, कभीकभी नाश्ता भी, और दोनों एक अच्छा समय साथ बिताते.

अनुराग की मदद से रागिनी अपने कई काम निबटा लेती. दोनों का सामीप्य काफी बढ़ गया था. दोनों एकदूसरे के गुणोंअवगुणों से वाकिफ होने लगे थे. एक रिश्ते को सुदृढ़ बनाने के लिए ये आवश्यक हो जाता है कि एकदूसरे की खूबियां और कमियां पहचानी जाएं और पूरक बन कर एकदूजे की दुर्बलताओं की पूर्ति की जाए. जिन कामों में रागिनी अक्षम थी जैसे अच्छा खाना पकाना, उसे अनुराग सिखाते. और जिन कामों में अनुराग पीछे थे जैसे आर्थिक संबलता के काम उन में वे रागिनी से सलाह लेने लगे थे. दोनों को एकदूसरे पर विश्वास होने लगा था.

प्लास्टर लगा होने के कारण रागिनी अपने काल सैंटर नहीं जा पा रही थी. बिजनेस पर इस का प्रभाव पड़ने लगा.

रागिनी की परेशानी अनुराग के अनुभव भरे जीवन के तजरबों ने दूर कर दी. बिना किसी नियुक्तिपत्र या वेतन के अनुराग ने रागिनी के काल सैंटर जाना आरंभ कर दिया. अब वे प्रतिदिन तकरीबन 5-6 घंटों के लिए उस के औफिस जाने लगे. मालिक के आने से मातहतों की उत्पादकता में फर्क आना वाजिब है. काल सैंटर का बिजनेस पहले से भी बेहतर चलने लगा.

“आप के अनुभव मेरे बहुत काम आ रहे हैं. इस के लिए आप को ट्रीट दूंगी,” रागिनी अपनी बैलेंस शीट देख कर उत्साहित थी.

“क्या ट्रीट दोगी? मुझे कोई भजन की सीडी दे देना.”

“व्हाट? भजन… मेरे पापा भी भजन नहीं सुनते हैं. खैर, वो आप से उम्र में छोटे भी तो हैं,” कह कर रागिनी ने कुटिलता से मुसकरा कर अनुराग की ओर देखा. फिर पेट पकड़ कर वह हंसते हुए कहने लगी, “आप की लेग पुलिंग करने में बड़ा मजा आता है. पर अगर आप सीरियस हैं तो मैं आप को बिग बैंग थ्योरी पर एक वीडियो शेयर करूंगी, ताकि आप की सारी गलतफहमी दूर हो जाए कि ये दुनिया कैसे बनी.” “मैं मजाक कर रहा हूं. जानता हूं कि दुनिया कैसे बनी. मैं तो बस तुम्हें अपनी उम्र याद दिलाना चाह रहा था,” अनुराग अब भी गंभीर थे. शायद मन में उठती भावनाओं को स्वीकारना उन के लिए कठिन हो रहा था. परंतु रागिनी की इस रिश्ते को ले कर सहजता, सुलभता और स्पष्टता उन्हें अकसर चकित कर देती.

एक दिन रागिनी ने अनुराग को अपने घर लंच पर न्योता दिया, “हर बार आप के हाथ का इंडियन खाना खाते हैं. आज मेरा हाथ का लेबनीज क्विजीन ट्राई कीजिए. वीडियो देख कर सीखा है मैं ने.”

“तुम खाना पकाओगी?” अनुराग ने रागिनी की खिंचाई की.

“मैं तो पका लूंगी, पर तुम को पच जाएगा कि नहीं, ये नहीं कह सकती,” आज रागिनी अनुराग को ‘आप’ संबोधन से ‘तुम’ पर ले आई. समीप आने के पायदान पर एक और सीढ़ी चढ़ते हुए.

“क्यों नहीं पचेगा? मुझे बुड्ढा समझा है?” अनुराग ने ठिठोली में आंखें तरेरीं. “अर्ज किया है – उम्र का बढ़ना तो दस्तूरेजहां है, महसूस न करें तो बढ़ती कहां है.”

“वाह… वाह… तो शायरी का भी शौक रखते हैं जनाब. आई मीन, माई ओल्ड मैन,” हंसते हुए रागिनी कम शब्दों में काफी कुछ कह गई.

“चलो, तुम कहती हो तो मान लेता हूं. हो सकता है कि मैं सच में बूढ़ा हो गया हूं. तुम्हारे बड़े भैया तो मुझे अंकलजी पुकारते हैं.”

“ऊंह… उन का तो दिमाग खराब है. तुम्हें पता है उन की एक गर्लफ्रेंड है – फिरंगी. फेसबुक पर मुलाकात हुई. फिर भैया उस से मिलने उस के देश हंगरी भी गए. पता चला, उसे भैया पर तभी विश्वास हुआ जब भैया ने प्रत्यक्ष रूप से उसे विश्वास दिलाया कि वे उस से प्यार करते हैं. इस का कारण – वह प्यार में 2 बार धोखा खा चुकी है. एक फिरंगी लड़की प्यार में धोखा खाए, इस का मतलब समझते हो न? उन के यहां शादी बाद में होती है, बच्चे पहले. तो फिर हुई न वो 2 बार शादीशुदा… लेकिन, मेरी फैमिली को कोई एतराज नहीं है. मुझे भी नहीं है. पर यही आजादी मुझे अपनी जिंदगी में भी चाहिए. मैं समाज का दोगलापन नहीं सह सकती. मैं हिपोक्रेट नहीं हूं. जो मुझे पसंद आएगा, उसे मेरे परिवार को भी पसंद करना पड़ेगा. उस समय कोई अगरमगर नहीं चलने दूंगी,” रागिनी बेसाख्ता कहती चली गई. अपने विचार प्रकट करने में वह निडर और बेबाक थी. अनुराग इशारा समझ चुके थे.

“वो क्या कहती है तुम्हारी जेनेरेशन… इस बात पर तुम्हें हग करने को जी चाह रहा है,” अनुराग ने माहौल को हलका बनाते हुए कहा.

“ऐज यू प्लीज,” कहते हुए रागिनी ने अनुराग को गले लगा लिया. स्पर्श में अजीब शक्ति होती है, उसे शब्दों की आवश्यकता नहीं रहती. आलिंगनबद्ध होते ही दोनों एकदूसरे की धड़कन सुनने के साथसाथ, एकदूसरे का भोवोद्वेलन भी समझ गए. बात आगे बढ़ती, इस से पहले अनुराग ने रागिनी को स्वयं से दूर कर दिया.

“दिन में सपने देख रही हो?” अनुराग ने पूछ लिया.

“दिन में सपने देखने को प्लानिंग कहते हैं… और, मैं अपनी लाइफ की हीरो हूं, इसलिए इस के सपने भी मैं ही डिसाइड करूंगी,” रागिनी का अपने दिल पर काबू नहीं था. उस की चाहतों की टोह लेते हुए अनुराग को वहां से चले जाने में ही समझदारी लगने लगी.

अगले दिन जब अनुराग आए तो रागिनी के घर का नक्शा बदला हुआ था. लिविंग रूम के बीचोंबीच रखी सैंटर टेबल पर लाल गुलाबों का बड़ा सा गुलदस्ता सजा था. आसपास लाल रिबन से बने हुए ‘बो’ रखे थे. सोफे के ऊपर वाली दीवार पर एक कोने से दूसरे कोने तक एक डोरी में रागिनी की तसवीरें टंगी हुई थीं, जिन में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी.

अनुराग की नजर कभी किसी फोटो पर अटक जाती तो कभी दूसरी पर. हर तसवीर में एक से एक पोज में रागिनी की मनमोहक छटा सारे कक्ष को दीप्तिमान कर रही थी. आज कमरे के परदे खींच कर हलका अंधियारा किया हुआ था, जिन में दीवारों पर सजी फेयरी लाइट्स जगमगा रही थीं. पार्श्व में संगीत की धुन बज रही थी. शायद कोई रोमांटिक गीत का इंसट्रूमेंटल म्यूजिक चलाया हुआ था.

अनुराग अचकचा गए. आज ये घर कल से बिलकुल भिन्न था. “रागिनी,” उन्होंने पुकारा.

पिंडली तक की गुलाबी नाइटी में रागिनी अंदर से आई. उस के रक्ताभ कपोल, अधरों पर फैली मुसकान, आंखों में छाई मदहोशी, और खुले हुए गेसू – एक पल को अनुराग का दिल धक्क से रह गया. लगा जैसे वो उम्र के तीस वर्ष पीछे खिंचते चले गए हों. उन की नजर में भी एक शरारत उभर आई. नेह बंधन की कच्ची डोर ने दोनों को पहले से ही कस कर पकड़ना शुरू कर दिया था. आज के माहौल से आंदोलित हुई भावनाएं तभी थमीं, जब शरमोहया के सारे परदे खुल गए. आज जो गुजरा, उस के बारे में अनुराग ने सोचा न था. परंतु जो भी हुआ, दोनों को आनंदित कर गया.

अंगड़ाई लेते हुए रागिनी के मुंह से अस्फुट शब्द निकले, “आज सारे जोड़ खुले गए… कहीं कोई अड़चन नहीं बची.”

उसे प्रसन्न देख अनुराग भी प्रफुल्लित हो गए, “जानती हो रागिनी,” उस के बालों में उंगली फिराते हुए उन्होंने कहा, “मेरी शादी बहुत कड़वी रही. बहुत घुटन थी उस में. ऐसा तो नहीं हो सकता न कि हम सांस भी न लें और जिंदा भी रहें. खैर, मैं भी पता नहीं क्या बात ले बैठा… इस समय, तुम से… न जाने क्यों?”

“मुझे अच्छा लगा यह जान कर कि तुम ने मेरे समक्ष अपने दिल की परत खोली. प्रेम केवल अच्छी बातें, सुख और कामना नहीं. प्रेम में मन का कसेलापन भी शामिल होता है. प्रेम में हम दुखतकलीफें न बांट सकें तो फिर ये तकल्लुफ हुआ, प्यार नहीं,” रागिनी अनुराग के और निकट आ कर संतुष्ट हुई.

बाहर टिपटिप गिरती बूंदें एक राग सुनाने लगीं. कमरे के अंदर आती पवन चंपई गंध लिए थी. आज की खामोशी में एक संगीत लहरा रहा था. प्यार उम्र नहीं देखता, समर्पण चाहता है.

इस प्रकरण के बाद रागिनी और अनुराग के बीच एक अटूट रिश्ता बन गया. अब उन्हें बातों की आवश्यकता नहीं पड़ती. आंखों से संपर्क साधना सीख लिया था उन के रिश्ते ने. दोनों के बीच एक लहर प्रवाहित होती जो मौन में भी सबकुछ कह जाती. मन के सभी संशय मीठे अनुनाद में बदल चुके थे. यही तो सच्चा और अकूत प्रेम है.

जब रागिनी का प्लास्टर उतरा, तब वह पहली बार अनुराग के घर गई.

“तो यहां रहते हैं आप?” बिना किसी तसवीर या चित्रकारी के नीरस दीवारें, बेसिक सा सामान, पुराने बरतन, पुराना फर्नीचर. घर में कुछ भी आकर्षक नहीं था. लेकिन रागिनी चुप रही. हर किसी का जीने का अपना एक ढंग होता है. उस पर आक्रमण किसी को नहीं भाता. जो कुछ बदलाव लाएगी, वो धीरेधीरे.

“अपने फोटो एलबम दिखाइए,” रागिनी की डिमांड पर अनुराग कुछ एलबम ले आए. उन में अनुराग के बचपन की, जवानी की तसवीरें देख रागिनी हंसती रही.

“पहले मेरे बाल काफी काले थे,” अपने खिचड़ी बालों की वजह से सकुचाते हुए अनुराग बोले, “क्या फिर कलर कर लूं इन्हें?”

“नहीं, आप साल्ट एंड पेपर बालों में ही जंचते हैं. ये तो आजकल का फैशन है. मैच्यौर्ड लुक, यू सी,” रागिनी ने कहा. फिर मौके का फायदा उठाते हुए वह कहने लगी, “अगर कुछ चेंज करना ही है तो इस घर में थोड़े बदलाव कर दूं? यदि आप कहें?”

“मेरा सबकुछ तुम्हारा ही तो है. जो चाहो करो,” अनुराग से अनुमति पा कर रागिनी हर्षित हो उठी.

“ठीक है, तो कल से ही काम चालू,” कह कर रागिनी खिलखिला पड़ी.

अब रागिनी अकसर अनुराग के घर आती, और वो उस के. दोनों एकदूसरे के हो चुके थे – तन से भी, मन से भी और काम से भी. एक खुशहाल साथ बसर करते दोनों को कुछ हफ्ते बीत चुके थे कि एक दिन अनुराग कहने लगे, “ऐसे कब तक चलेगा, रागिनी? मेरा मतलब है कि बिना शादी किए हम यों ही…”

“क्यों, आप को कोई परेशानी है इस अरेंजमेंट से?”

“नहीं, मुझे गलत मत समझो रागिनी, तुम्हारे आने से मेरे मुरदा जीवन में जैसे प्राण आने लगे हैं. इस बेजान मकान को एक घर की सूरत मिलने लगी है. तुम ने इस की शक्ल बदल कर मुझ पर बड़ा एहसान किया है. पर तुम एक जवान लड़की हो, क्या तुम्हारे परिवार वाले मुझे स्वीकारेंगे?” अनुराग ने अपने मन में उठती शंकाओं के पट खोल दिए.

“शादी किसी रिश्ते को शक्ति व सामर्थ्य देने का ढंग है, बस. जब हम दोनों एकदूसरे के हो चुके हैं, तो फिर हमें किसी बाहरी ठप्पे की जरूरत नहीं है. हम जैसे हैं, खुश हैं.

“रही बात समाज की, तो समाज हम से ही बनता है. हमारी नीयत में जब खोट नहीं तो हम किसी से क्यों डरें?”

रागिनी के विचार सच में आज की पीढ़ी की बेबाक सोच प्रस्तुत कर रहे थे. जबकि अनुराग के विचार अपनी पीढ़ी के ‘लोग क्या कहेंगे’ की परिपाटी दर्शा रहे थे. यही तो फर्क है दोनों में. मगर जब सोच लिया कि साथ निभाना है तो फिर घबराना कैसा? मुश्किलों का आना तो पार्ट औफ लाइफ है. उन में से हंस कर बाहर आना, यही आर्ट औफ लाइफ है.

 

 

 

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