शह और मात: भाग-2

पल्लवी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गई. वहां रुक कर करती भी क्या, संजीव को शराब पीने के बाद होश ही कहां रहता था. वैसे भी अब तो उस की इच्छा पूरी हो गई थी. उस के हाथ में रुपए पहुंच गए थे. इसलिए वह कम से कम 2-4 दिन तो शांति से जी सकती थी.

कुछ देर बाद रसोई में खाना पकाते समय पल्लवी अपनी नियति के बारे में सोच रही थी. उसे वह दिन याद आ रहा था जब उस के परिवार वालों को उस के और पड़ोस में रहने वाले संजीव के रिश्ते के बारे में पता चला था. घर में कुहराम मच गया था. एक तो संजीव उस समय बेरोजगार था, ऊपर से पल्लवी के मातापिता और भाई की नजरों में उस की छवि कुछ खास अच्छी नहीं थी. उस समय पल्लवी की हालत चक्की के 2 पाटों के बीच पिसते गेहूं की तरह हो गई थी. एक तरफ पापा ने साफ कह दिया था कि वह अपनी बेटी का हाथ संजीव के हाथों में कभी नहीं देंगे. दूसरी तरफ संजीव उस पर शादी करने का दबाव बना रहा था.

पल्लवी समझासमझा कर‌ थक गई थी, मगर पापा और संजीव में से कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं हुआ. दोनों ने पल्लवी को जल्दी ही कोई निर्णय लेने के लिए कहा था.

इसलिए पल्लवी ने निर्णय ले लिया. उस ने अपने मातापिता और परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर संजीव का हाथ थाम लिया. उसे संजीव पर इतना भरोसा था कि वह बिना कुछ सोचेसमझे अपना घर छोड़ कर उस के साथ चली आई. उस के मातापिता ने उसी समय उस से रिश्ता तोड़ लिया था. मां ने जातेजाते उस से कहा था कि एक दिन वह अपने इस फैसले पर जरूर पछताएगी.

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घर छोड़ने के बाद दोनों दिल्ली आ गए जहां उन्होंने शादी कर ली. संजीव को नौकरी भी मिल गई थी. शादी के बाद कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा. पल्लवी अपने प्यार को पा कर बहुत खुश थी. लेकिन जैसेजैसे उस के सिर से नई शादी का खुमार उतरना शुरू हुआ, उसे संजीव का असली चेहरा नजर आने लगा. संजीव को शराब की लत थी. वह अकसर शराब के नशे में उस पर हाथ भी उठाने लगा था. सिर्फ यही नहीं, वह पैसे कमाने के लिए उलटेसीधे काम करने से भी बाज नहीं आता था. उस ने बहुत लोगों को चूना लगाया था. इन्हीं आदतों के चलते उस की नौकरी भी चली गई थी.

एक बार काम से निकाले जाने के बाद संजीव ने नौकरी ढूंढ़ने की जहमत नहीं उठाई.

तब घर चलाने के लिए पल्लवी ने एक औफिस में नौकरी कर ली. उसे सारी तनख्वाह ला कर संजीव के हाथों पर रखनी पड़ती. लेकिन उस से भी संजीव का पेट नहीं भरता. वह आएदिन उस से रुपए मांगता और जब पल्लवी उस की फरमाइशें पूरी नहीं कर पाती तो वह उसे रूई की तरह धुन देता. अगले दिन वह उस से माफी मांग लेता और‌ पल्लवी उसे माफ भी कर देती. वह किसी भी कीमत पर संजीव से अलग नहीं होना चाहती थी. वापस लौट कर मांपिता के घर भी तो नहीं जा सकती थी.

जिंदगी इसी तरह ऊबड़खाबड़ रास्तों पर चल रही थी. समय के साथ संजीव की फरमाइशें बढ़ती जा रही थीं. जब उस के लिए पल्लवी की तनख्वाह कम पड़ने लगी तो उस ने एक रास्ता निकाला. वह चाहता था कि पल्लवी किसी आदमी को अपने प्रेमजाल में फंसा कर उस से ठगी करे. पल्लवी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. उसे हैरानी हो रही थी कि कोई पति अपनी पत्नी से ऐसा करने के लिए भी कह सकता है. लेकिन उसे कुछ ही दिनों में अपना फैसला बदलना पड़ा.

एक दिन जब संजीव लहूलुहान हालत में घर आया, तब उसे पता चला कि उस ने शराब और जुए के लिए कुछ गलत लोगों से बहुत मोटा कर्ज ले रखा है और वे लोग अपना पैसा वापस लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. जब उन लोगों से बचने और‌ उन का कर्ज चुकाने का और कोई रास्ता नजर नहीं आया, तो पल्लवी ने मजबूरन वही किया जो संजीव ने उसे करने के लिए कहा था.

पल्लवी का एक सहकर्मी दिनेश उसे पसंद करता था और यह बात उस से छिपी नहीं थी. पल्लवी ने पहले उस से दोस्ती की और फिर उसे अपनी दुखभरी दास्तान सुना कर धीरेधीरे उस के साथ नजदीकियां बढ़ाने लगी.

थोड़े ही दिनों में दिनेश उस की खातिर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हो गया. यहां से झूठीसच्ची कहानियां सुना कर पैसे ऐंठने का सिलसिला शुरू हो गया. दिनेश उस के झूठों को सच मान कर उस पर विश्वास करता गया. इस तरह कुछ महीनों में संजीव का सारा कर्ज उतर गया. लेकिन पल्लवी के लिए दिनेश को संभालना मुश्किल होता जा रहा था. वह उस से शादी करना चाहता था और कई बार उस के घर तक पहुंच गया था. अगर उसे सचाई पता चल जाती तो उन के लिए बड़ी मुसीबत हो जाती. पल्लवी उस के लाखों रुपए कहां से लौटाती.

अपनी पोल खुलने से बचाने के लिए संजीव और पल्लवी ने रातोरात शहर बदल लिया. शहर बदलने के बाद भी संजीव में कोई बदलाव नहीं आया. पल्लवी ने यहां भी नौकरी कर ली थी. वह संजीव से भी नौकरी ढूंढ़ने के लिए कहती‌ थी. लेकिन संजीव के दिमाग में तो कोई और ही खिचड़ी पक रही थी. कुछ ही दिनों में वह फिर से कर्ज में डूब गया था और उस ने पल्लवी पर दोबारा वही खेल खेलने का‌ दबाव बनाना शुरू कर दिया था. पल्लवी ने फिर से उस की बात मान ली.

बस इसी तरह शहर बदलबदल कर लोगों के साथ ठगी करना उन का पेशा बन गया था. लेकिन इस पेशे के भी कुछ नियम थे जो संजीव ने बनाए थे. उसे हर वक्त यह शक होता कि कहीं पल्लवी अपने शिकार के ज्यादा नजदीक तो नहीं जा रही है. और इस बात की झुंझलाहट वह उस पर हाथ उठा कर निकालता. कभीकभी पल्लवी को लगता था कि वह एक अंधे कुएं में गिरती जा रही है. वह जब भी संजीव से ऐसा करने के लिए मना करती, वह उस से वादा करता कि बस यह आखिरी बार है. इस के बाद वह खुद को पूरी तरह से बदल लेगा और वे दोनों एक नई जिंदगी की शुरुआत करेंगे.

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पल्लवी न चाहते हुए भी उस पर भरोसा कर बैठती थी. उसे लगता था कि संजीव पर भरोसा करने के अलावा उस के पास विकल्प भी क्या था? अपने सारे रिश्तेनाते तो वह खुद ही पैरों तले रौंद आई थी.

कुछ महीने पहले इंदौर आने के बाद भी संजीव ने उस से वादा किया था कि वह अब सुधर जाएगा. लेकिन हुआ क्या, अब वह पैसों के लिए शरद जैसे शरीफ और अच्छे आदमी को बेवकूफ बना रही थी. इस बार भी संजीव ने वादा किया था कि यह उन की आखिरी ठगी है, क्योंकि नई जिंदगी शुरू करने के लिए रुपयों की जरूरत तो पड़ेगी ही.

उसे अकसर यह महसूस होता था कि वे पुरुष मूर्ख नहीं हैं जिन्हें उस ने ठगा है, असल में वह खुद मूर्ख है जो बारबार संजीव की बात मान लेती है.

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शह और मात: भाग-4

अपने इनकार का खामियाजा पल्लवी को कई बार भुगतना पड़ा. संजीव बातबात में राई का पहाड़ बना कर उस पर हाथ उठाने लगा. उसे शक था कि पल्लवी उसे धोखा दे रही है. जब शरद ने उस के जिस्म पर पड़े निशानों को देखा तो वह अपने आपे से बाहर हो गया.

“आज मैं संजीव को‌ छोड़ूंगा नहीं. उसे ऐसा सबक सिखाऊंगा कि वह जिंदगी भर याद रखेगा,” शरद ने गुस्से मैं दांत पीसते हुए कहा और बाहर जाने लगा.

“नहीं शरद, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे,” पल्लवी ने उसे रोका.

“इतना कुछ होने के बाद भी उस आदमी की तरफदारी कर रही हो?” शरद ने आश्चर्य से पूछा.

“मैं किसी की तरफदारी नहीं कर रही हूं शरद. मैं बस इतना चाहती हूं कि तुम संजीव से दूर रहो. तुम नहीं जानते हो कि वह कितना घटिया आदमी है. कैसेकैसे लोगों के साथ उस का उठनाबैठना है,” पल्लवी ने उसे समझाया.

“मैं किसी से डरता नहीं हूं पल्लवी,” शरद जोश में आ गया था.

“लेकिन मैं तो डरती हूं. अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी,” पल्लवी ने सिर झुका कर कहा तो शरद ने उसे सीने से लगा लिया, “ओह पल्लवी, मैं तुम्हें इस हाल में नहीं देख सकता. तुम संजीव को छोड़ क्यों नहीं देतीं ? मैं ने पहले भी कहा था पल्लवी, मैं हमेशा तुम्हारा खयाल रखूंगा, बस एक बार मेरा हाथ थाम लो.”

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“संजीव मेरी जान ले लेगा, मगर मुझे तलाक नहीं देगा. मैं ने देखा है कि वह किस हद तक‌ जा सकता है. शरद मैं चाह कर भी उसे नहीं छोड़ सकती हूं,” पल्लवी की आंखों से आंसू टपक पड़े.

“क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?”

“हां शरद. मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.”

“तो फिर मेरे साथ भाग चलो.”

“शरद, यह तुम क्या कह रहे हो? यह मजाक का वक्त नहीं है,” पल्लवी हैरान हो गई.

“मेरी आंखों में देखो पल्लवी, क्या तुम्हें लगता है कि मैं मजाक कर रहा हूं? मुझ पर भरोसा करो, बस एक बार हां कह दो. फिर हम दोनों यहां से बहुत दूर चले जाएंगे, जहां तुम पर उस संजीव का साया तक नहीं पड़ेगा,” शरद ने पल्लवी की आंखों में झांकते हुए कहा.

शरद की आंखों में अपने लिए प्यार की गहराई देख कर पल्लवी सिहर उठी. उस से कुछ कहते नहीं बना. उस ने शरद से सोचने के लिए कुछ वक्त मांगा और घर चली आई.

कुछ दिन बीत जाने के बाद भी पल्लवी ने शरद को जवाब नहीं दिया था. संजीव ने उसे जलील करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी. एक रात जब उस के कोप का भाजन बनने के बाद पल्लवी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी, उस वक्त उस के कानों में शरद की कही बातें गूंज रही थीं. सालों पहले उस ने अपने मातापिता की बात न मान कर जो गलती की थी, उस की कीमत वह आज तक चुका रही थी. संजीव पर भरोसा कर के उस ने अपनी जिंदगी की सब से बड़ी गलती की थी इसलिए आज वह शरद पर भरोसा करने से भी डर रही थी. हालांकि उस ने शरद की आंखों में अपने लिए जितना प्यार देखा था, उस का आधा भी उसे संजीव की आंखों में कभी नजर नहीं आया था. मगर अब वह कोई भी कदम उठाने से पहले पूरी तरह निश्चिंत हो जाना चाहती थी.

वह जानती थी कि इस तरह संजीव को धोखा दे कर शरद के साथ भागना गलत होगा. लेकिन अगर वह संजीव से अलग होने या तलाक लेने की कोशिश करेगी तो शरद के सामने उन की सारी असलियत आ जाएगी. शरद को पता चल जाएगा कि पल्लवी उसे किस तरह मूर्ख बना कर उस से पैसा ऐंठती रही और वह उस से नफरत करने लगेगा. नहीं, वह किसी भी कीमत पर शरद को खोना नहीं चाहती थी. आज तक उस ने गलत काम के लिए झूठ और धोखे का सहारा लिया, तो अब एक आखिरी बार अपने प्यार को पाने के लिए ही सही.

पल्लवी के दिल से डर खत्म हो गया था. वह शरद को पाने की खातिर किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थी. वह कई सालों से जिस पिंजरे में कैद थी, अब वह उसे तोड़ कर उड़ जाना चाहती थी.

पल्लवी ने धीरे से मोबाइल उठा कर शरद का नंबर डायल किया और उस के फोन उठाने पर बस इतना कहा, “मैं तैयार हूं.”

अगले दिन पल्लवी शरद की बताई जगह पर उस से मिलने गई. शरद ने उसे पूरी योजना बताई. पल्लवी ने अपनी सहमति दे दी और घर वापस आकर सामान्य व्यवहार करने लगी जिस से संजीव को उस के ऊपर जरा भी शक न हो.

3 दिन बाद शरद के कहे अनुसार पल्लवी ने अपने कपड़े, कुछ जरूरी कागजात और कुछ रुपए एक बैग में रख लिए. उस ने बैग को पलंग के नीचे छिपा कर रख दिया. उस रात भी संजीव रोज की तरह नशे में धुत्त हो कर घर आया. पल्लवी ने कुछ मीठे बोल बोल कर उसे थोड़ी और शराब पिला दी. थोड़ी ही देर बाद संजीव बेसुध हो गया. पल्लवी ने धीरे से अपना बैग निकाला और घर के बाहर चली आई. बाहर आ कर वह रेलवे स्टेशन के लिए टैक्सी में बैठ गई. कुछ दूर तक वह बारबार पीछे मुड़ कर देखती रही. उसे डर था कि कहीं संजीव उस का पीछा तो नहीं कर रहा है. रेलवे स्टेशन पहुंच कर उस की जान में जान आई.

उस ने अंदर जा कर देखा तो पाया कि शरद पहले से ही वहां उस का इंतजार कर रहा था. उस ने अगली ट्रेन की 2 टिकटें भी ले ली थीं.

“तुम ठीक हो न?” शरद ने पूछा.

“मैं ठीक हूं शरद. हम कहां जा रहे हैं?”

“बस कुछ ही मिनटों में जम्मू जाने वाली ट्रेन आती होगी. मैं ने उसी की 2 टिकटें ले ली हैं. कुछ दिन वहीं रहेंगे, बाद में कोई और इंतजाम कर लूंगा. तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं है न?”

“शरद हम दोनों साथ हैं, बस मुझे और कुछ नहीं चाहिए.”

तभी ट्रेन भी आ गई. पल्लवी और शरद ट्रेन में चढ़ कर एक खाली बर्थ पर बैठ गए.

“तुम सो जाओ पल्लवी. जब सुबह तुम्हारी आंखें खुलेंगी तो एक नया सवेरा तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा,” शरद‌ ने मुसकराते हुए कहा.

पल्लवी ने उस के कंधे पर सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं. वह कुछ ही देर में नींद के आगोश में समा गई.

सुबह जब पल्लवी की आंख खुली तो ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी हुई थी और शरद उस के पास नहीं था. उसे लगा कि वह शायद स्टेशन से कुछ लाने के लिए उठा होगा. लेकिन जब कुछ मिनटों के बाद भी शरद वापस नहीं आया तो पल्लवी घबरा गई. उस ने पूरे डिब्बे में देख लिया, लेकिन शरद वहां नहीं था.

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“शरद…शरद…” वह खिड़की से बाहर झांक कर उसे पुकारने लगी. उस ने पर्स से मोबाइल निकाल कर शरद का नंबर डायल किया तो उस का फोन बंद आ रहा था.

पल्लवी बुरी तरह से घबरा गई. वह घबरा कर इधरउधर देख ही रही थी कि उस की नजर सीट पर रखे अपने बैग के नीचे दबे एक कागज पर पड़ी.

पल्लवी ने कांपते हाथों से कागज उठाया और खोल कर पढ़ना शुरू किया. वह उसके नाम शरद का पत्र था. उस में लिखा था-

‘पल्लवी,

जब तक तुम्हारी आंखें खुलेंगी, मैं तुम से बहुत दूर जा चुका होऊंगा. हां, तुम्हारा डर बिलकुल सही है. मैं ने तुम्हें धोखा दिया है. तुम्हें सुंदर भविष्य के सपने दिखा कर बीच रास्ते में तुम्हारा साथ छोड़ दिया है. मगर यह धोखा उस धोखे के आगे कुछ भी नहीं है जो तुम ने मुझे दिया. अब तुम सोच रही होगी कि मुझे तुम्हारी असलियत के बारे में कैसे पता चला? पल्लवी, जिस दिन मैं ने तुम्हें ₹1 लाख दिए थे, उस दिन तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारी बहुत फिक्र हो रही थी. मुझे डर था कि कहीं संजीव तुम से वे रुपए न छीन ले जो तुम्हारी मां की जान बचा सकते हैं. लेकिन तुम्हारे घर के बाहर आ कर मुझे कुछ और ही सचाई नजर आई. उस दिन मैं ने तुम्हारी और संजीव की सारी बातें सुन ली थीं. मुझे पता चल गया था कि किस तरह तुम दोनों पतिपत्नी मुझे पैसों के लिए बेवकूफ बना रहे हो. सिर्फ मुझे ही नहीं तुम ने न जाने कितने लोगों को अपने प्यार के जाल में फंसा कर लूटा होगा.

‘पल्लवी, मैं तुम से बहुत प्यार करता था. लेकिन तुम ने मेरे साथ क्या किया? तुम ने मेरे जज्बातों के साथ खिलवाड़ किया. मेरे प्यार का मजाक बनाकर रख दिया. मैं ने सोच लिया था कि मैं तुम्हें सबक जरूर सिखाऊंगा, इसलिए मैं ने तुम से अपने साथ भाग चलने के लिए कहा ताकि तुम्हें पता चले कि दिल टूटने पर कितना दर्द होता है. अब जिंदगी भर सोचना कि तुम ने कितने लोगों के साथ कितना गलत किया. और हां, घर वापस जाने के बारे में मत सोचना. मैं ने संजीव को चिट्ठी लिख कर उसे सब बता दिया है. अब तुम्हारे लिए उस घर में भी कोई जगह नहीं है.

‘मैं तुम से सच्चा प्यार करता था पल्लवी. मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार था. लेकिन शुक्र है कि सही समय पर मेरी आंखें खुल गईं. तुम्हें लोगों को शतरंज के मुहरे बना कर उन के साथ खेल खेलने का बहुत शौक था न पल्लवी. आज मैं ने तुम्हें तुम्हारे ही खेल में अपने दांव से मात दे दी है. हो सके तो जो तुम ने मेरे साथ किया वह आइंदा किसी के साथ मत करना…

शरद’

पल्लवी की आंखों से आंसू टपकटपक कर चिट्ठी पर गिर रहे थे. झूठ और धोखे का सहारा ले कर वह आज कहीं की भी नहीं रही थी. वह भूल गई थी कि छल के सहारे शतरंज की चाल भले ही जीती जा सकती थी, किसी का प्यार नहीं.

उस के मुंह से हौले से वे शब्द निकले जो शरद चिट्ठी के आखिर में लिखना भूल गया था,’शह और मात’.

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जीवन की नई शुरुआत: भाग-2

दिनभर का थकाहारा रघु मुन्नी को देखते ही उत्साह से भर उठता और मुन्नी भी रघु को देखते बौरा जाती. भूल जाती  दिनभर के काम को और अपनी मां की डांट को भी.  एकदूसरे को देखते ही दोनों सुकून से भर उठते थे.

18 साल की मुन्नी और 22 साल के रघु के बीच कब और कैसे प्यार पनप गया, उन्हें पता ही नहीं चला. इश्क परवान चढ़ा तो दोनों कहीं अकेले मिलने का रास्ता तलाशने लगे. दोनों बस्ती के बाहर कहीं गुपचुप मिलने लगे. मोहब्बत की कहानी गूंजने लगी, तो बात मुन्नी के मातापिता तक भी पहुंची और मुन्नी के प्रति उन का नजरिया सख्त होने लगा, क्योंकि मुन्नी के लिए तो उन्होंने किसी और को पसंद कर रखा था.

इसी बस्ती का रहने वाला मोहन से मुन्नी के मातापिता उस का ब्याह कर देना चाहते थे और वह मोहन भी तो मुन्नी पर गिद्ध जैसी नजर रखता था. वह तो किसी तरह उसे अपना बना लेना चाहता था और इसलिए वह वक्तबेवक्त मुन्नी के मांबाप की पैसों से मदद करता रहता था.

मोहन रघु से ज्यादा कमाता तो था ही, उस ने यहां अपना दो कमरे का घर भी बना लिया था. और सब से बड़ी बात कि वह भी नेपाल से ही था, तो और क्या चाहिए था मुन्नी के मांबाप को? मोहन बहुत सालों से यहां रह रहा था तो यहां उस की काफी लोगों से पहचान भी बन गई थी. काफी धाक थी इस बस्ती में उस की. इसलिए तो वह रघु को हमेशा दबाने की कोशिश करता था. मगर रघु कहां किसी से डरने वाला था.  अकसर दोनों आपस में भिड़ जाते थे. लेकिन उन की लड़ाई का कारण मुन्नी ही होती थी.

मोहन को जरा भी पसंद नहीं था कि मुन्नी उस रघु से बात भी करे. दोनों को साथ देख कर वह बुरी तरह जलकुढ़ जाता.

मुन्नी के कच्चे अंगूर से गोरे रंग, मैदे की तरह नरम, मुलायम शरीर, बड़ीबड़ी आंखें, पतले लाललाल होंठ और उस के सुनहरे बाल पर जब मोहन की नजर पड़ती, तो वह उसे खा जाने वाली नजरों से घूरता.

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मुन्नी भी उस के गलत इरादों से अच्छी तरह वाकिफ थी, तभी तो वह उसे जरा भी नहीं भाता था. उसे देखते ही वह दूर छिटक जाती. और वैसे भी कहां मुन्नी और कहां वह मोहन, कोई मेल था क्या दोनों का? कालाकलूटा नाटाभुट्टा वह मोहन मुन्नी से कम से कम 14-15 साल बड़ा था. उस की पत्नी प्रसव के समय सालभर पहले ही चल बसी थी. एक छोटा बेटा है, उस के ऊपर पांचेक साल की एक बेटी भी है, जो दादी के पास रहती है.  वही दोनों बच्चों की अब मां है.

वैसे भी पीनेखाने वाले मोहन की पत्नी मरी या उस ने खुद ही उसे मार दिया क्या पता? क्योंकि आएदिन तो वह अपनी पत्नी को मारतापीटता ही रहता था. राक्षस है एक नंबर का. अब जाने सचाई क्या है, मगर मुन्नी को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था.

उसे देखते ही मुन्नी को घिन आने लगती थी. मगर उस के मांबाप जाने उस में क्या देख रहे थे, जो अपनी बेटी की शादी उस से करने को आतुर थे? शायद पैसा, जो उस ने अच्छाखासा कमा कर रखा हुआ था.

लेकिन मुन्नी का प्यार तो रघु था. उस के साथ ही वह अपने आगे के जीवन का सपना देख रही थी और उधर रघु भी जितनी जल्दी हो सके उसे अपनी दुलहन बनाने को व्याकुल था. अपनी मां से भी उस ने मुन्नी के बारे में बात कर ली थी.  मोबाइल से उस का फोटो भी भेजा था, जो उस की मां को बहुत पसंद आया था. कई बार फोन के जरीए मुन्नी से उन की बात भी हुई थी और अपने बेटे के लिए मुन्नी उन्हें एकदम सही लगी थी.

एक शाम… मुन्नी की कोमलकोमल उंगलियों को अपनी उंगलियों के बीच फंसाते हुए रघु बोला था, “मुन्नी, छोड़ दे न लोगों के घरों में काम करना. मुझे अच्छा नहीं लगता.”

“छोड़ दूंगी, ब्याह कर ले जा मुझे,” मुन्नी ने कहा था.

“हां, ब्याह कर ले जाऊंगा एक दिन. और देखना, रानी बना कर रखूंगा तुम्हें. मेरा बस चले न मुन्नी तो मैं आकाश की दहलीज पर बनी सात रंगों की इंद्रधनुषी अल्पना से सजी तेरे लिए महल खड़ा कर दूं,” कह कर मुसकराते हुए रघु ने मुन्नी के गालों को चूम लिया था.  लेकिन उन के बीच तो जातपांत और पैसों की दीवार आ खड़ी हुई थी. तभी तो मुन्नी के घर से बाहर निकलने पर पहरे गहराने लगे थे. जब वह घर से बाहर जाती तो किसी को साथ लगा दिया जाता था, ताकि वह रघु से मिल ना सके, उस से बात ना कर सके. लेकिन हवा और प्यार को भी कभी किसी ने रोक पाया है? किसी ना किसी वजह से दोनों मिल ही लेते.

इधर मुन्नी के मांबाप जितनी जल्दी हो सके, अपनी बेटी का ब्याह उस मोहन से कर देना चाहते थे. वह मोहन तो वैसे भी शादी के लिए उतावला हो रहा था. उसे तो लग रहा था शादी कल हो, जो आज ही हो जाए.

इधर रघु जल्द से जल्द बहुत ज्यादा पैसे कमा लेना चाहता था, ताकि मुन्नी के मांबाप से उस का हाथ मांग सके. और इस के लिए वह दिनरात मेहनत भी कर रहा था. दिन में वह  मिस्त्री का काम करता, तो रात में होटल में जा कर प्लेटें धोता था.

लेकिन अचानक से कोरोना ने ऐसी तबाही मचाई कि रघु का कामधंधा सब छूट गया. कुछ दिन तो रखे धरे पैसे से चलता रहा. इस बीच वह काम भी तलाशता रहा, लेकिन सब बेकार. अब तो दानेदाने को मोहताज होने लगा वह.  कर्जा भी कितना लेता भला. भाड़ा न भरने के कारण मकान मालिक ने भी कोठरी से निकल जाने का हुक्म सुना दिया.

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इधर, उस मोहन का मुन्नी के घर आनाजाना कुछ ज्यादा ही बढ़ने लग गया, जिसे मुन्नी चाह कर भी रोक नहीं पा रही थी. आ कर ऐसे पसर जाता खटिया पर, जैसे इस घर का जमाई बन ही गया हो. चिढ़ उठती मुन्नी, पर कुछ कर नहीं सकती थी. लेकिन मन तो करता उस का मुंह नोच ले उस मोहन के बच्चे का या दोचार गुंडे से इतना पिटवा दे कि महीनाभर बिछावन पर से उठ ही न पाए.

दर्द एक हो तो कहा जाए. यहां तो दर्द ही दर्द था दोनों के जीवन में. जिस दुकान से रघु राशन लेता था, उस दुकानदार ने भी उधार में राशन देने से मना कर दिया.

उधर गांव से खबर आई कि रघु की चिंता में उस की मां की तबीयत बिगड़ने लगी है, जाने बच भी पाए या नहीं. मकान मालिक ने कोरोना के डर से जबरदस्ती कमरा खाली करवा दिया. अब क्या करे यहां रह कर और रहे भी तो कहां? इसलिए साथी मजदूरों के साथ रघु ने भी अपने घर जाने का फैसला कर लिया.

रघु के गांव जाने की बात सुन कर मुन्नी सहम उठी और उस से लिपट कर बिलख पड़ी यह कह कर कि ‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रघु, मैं घुटघुट कर मर जाऊंगी. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती. मुझे मंझदार में छोड़ कर मत जाओ.’

मुन्नी की आंखों से बहते अविरल आंसुओं को देख, रघु की भी आंखें भीग गईं, क्योंकि वह जानता था, मुन्नी और उस का साथ हमेशा के लिए छूट रहा है. उस के जाते ही मुन्नी के मांबाप मोहन से उस का ब्याह कर देंगे. लेकिन फिर भी कुछ क्षण उस के बालों में उंगलियां घुमाते हुए आहिस्ता से रघु ने कहा था, वह जल्द ही लौट आएगा.

मुन्नी जानती थी कि रघु झूठ बोल रहा है, वह अब वापस नहीं आएगा. लेकिन यह भी सच था कि वह रघु की है और उस की ही हो कर रहेगी, नहीं तो जहर खा कर अपनी जान खत्म कर लेगी. लेकिन उस अधेड़ उम्र के दुष्ट मोहन से कभी ब्याह नहीं करेगी.

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जीवन की नई शुरुआत: भाग-3

मुन्नी के मांबाप ने जब उस दिन मोहन से उस की शादी का फरमान सुना दिया था, तब मुन्नी ने दोटूक भाषा में अपना फैसला दे दिया था कि वह किसी मोहनफोहन से ब्याह नहीं करेगी, वह तो रघु से ही ब्याह करेगी, नहीं तो मर जाएगी.

उस के मरने की बात पर मांबाप पलभर को सकपकाए थे, लेकिन फिर आक्रामक हो उठे थे. ‘उस रघु से ब्याह करेगी, जिस का ना तो कमानेखाने का ठिकाना है और ना ही रहने का. क्या खिलाएगा और कहां रखेगा वह तुम्हें ?’

मां ने भी दहाड़ा था कि ‘कल को कोई ऊंचनीच हो गई तो हमें मुंह छिपाने के लिए जगह भी नहीं मिलेगी. और बाकी चार बेटियों का कैसे बेड़ा पार लगेगा ?

‘लड़की की लाज मिट्टी का सकोरा होत है, समझ बेटियां तू’ मगर मुन्नी को कुछ समझनाबुझाना नहीं था.
दांत भींच लिए थे उस ने यह कह कर, “अगर तुम लोगों ने जबरदस्ती की तो मैं अपनी जान दे दूंगी सच कहती हूं,” और अपनी कोठरी में सिटकिनी लगा कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

मुन्नी की मां का तो मन कर रहा था बेटी का टेंटुवा ही दबा दे, ताकि सारा किस्सा ही खत्म हो जाए. ‘हां, क्यों नहीं चाहेगी, आखिर बेटियों से प्यार ही कब था इसे. हम बेटियां तो बोझ हैं इन के लिए’ अंदर से ही बुदबुदाई थी मुन्नी. ‘देखो इस कुलच्छिनी को, कैसे हमारी इज्जत की मिट्टी पलीद कर देना चाहती है. यह सब चाबी तो उस रघु की घुमाई हुई है, वरना इस की इतनी हिम्मत कहां थी. अरे नासपीटी, भले हैं तेरे बाप… कोई और होता तो दुरमुट से कूट के रख देता. मेरे भाग्य फूटे थे जो मैं ने तुझे पैदा होते ही नमक न चटा दिया’

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खूब आग उगली थी उस रात मुन्नी की मां. उगले भी क्यों न, आखिर उसे अपने हाथ से तोते जो उड़ते नजर आने लगे थे. एक तो कमाऊ बेटी, ऊपर से पैसे वाला दामाद, जो हाथ से सरकता दिखाई देने लगा था. सोचा था, बाकी बेटियों का ब्याह भी मोहन के भरोसे कर लेगी, मगर यहां तो… ऊंचा बोलबोल कर आवाज फट चुकी थी मुन्नी की मां की, मगर फिर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ा था. उस की जिद तो अभी भी यही थी कि वह रघु की है और उस की ही रहेगी.

रात में सब के सो जाने के बाद रघु को फोन लगा कर कितना रोई थी वह. उस के जाने के बाद उस के साथ क्याक्या हुआ, सब बताया और यह भी कि अगर वह उस की नहीं हो सकी, तो किसी की भी नहीं हो सकेगी. फिर कई बार रघु ने फोन लगाया, पर बंद ही आ रहा था.

कहते हैं, सारी मुसीबत एक बार आ धमकती है इनसान की जिंदगी में और यह बात आज रघु को सही प्रतीत पड़ रही थी.

कोरोना महामारी के कारण एक तो कामकाज और शहर छूटा, फिर पता चला कि वहां मां बीमार है और अब यह सब… कहीं मुन्नी ने कुछ कर लिया तो… सोच कर ही रघु का खून सूखा जा रहा था. लेकिन क्या करे वह भी? यहां से भाग भी तो नहीं सकता है? इसलिए उस ने भी अपनी जान खत्म करने की सोच ली थी. ना जिएगा, ना इतनी मुसीबत झेलनी पड़ेगी.

आज उसे मुन्नी का वह उदास चेहरा और थकी आंखें याद आ रही थीं. मन कर रहा था, करीब होती तो उस के अधरों पर अपने होंठ रख सारी उदासी सोख लेता.

मुसकरा भी पड़ा था वह दिन याद कर के, जब पहली बार मुन्नी को आलिंगन में भर कर उस के अधरों को चूम लिया था और लजा कर वह रघु के सीने में सिमट गई थी. जीवन में पुरुष के साथ उस का यह पहला भरपूर आलिंगन था. मुन्नी की रीढ़ में हलकी सी झुरझुरी दौड़ गई थी. दोनों को एकदूसरे की छूती हुई परस्पर आकर्षण की हिलोरें का एहसास था, तभी तो दोनों एकदूसरे के करीब आते चले गए थे बिना जमाने की परवाह किए. लतावितान के भीतर यह अनुभूति गहराई थी, जब रघु ने उस के होठों पर तप्त दबाव बढ़ाया था. योवन वेग के अनेक स्पंदन अचानक देह में चमक उठे थे. इस आलिंगन और चुंबन की अवधि दिनप्रतिदिन बढ़ती ही चली गई थी. लेकिन जमाने ने और कुछ इस कोरोना ने उन्हें जुदा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

रघु की कहानी सुन कर जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई कि एक गरीब इनसान को प्यार करने का भी हक नहीं होता? बुझीबुझी सी उम्मीदों पर कोरोना का खौफ सब की आंखों में साफ दिखाई दे रहा था. ख्वाहिशों व उम्मीदों को समेटे लोग खुश हो कर दूसरे शहरों में कमानेखाने गए थे? लेकिन एक वायरस ने इन का सबकुछ छीन लिया. इन गरीब मजदूरों ने जिस शहर को सजायासंवारा, उसी ने इन्हें गैर बना दिया. अब तो बस दर्द ही याद है’ अपने मन में ही सोच मनोज को उन मजदूरों  पर दया आ गई कि आखिर गरीब लोग ही हमेशा क्यों मारे जाते हैं? वे ही क्यों दरदर भटकने को मजबूर हो जाते हैं? सब से ज्यादा तो उन्हें रघु पर दया आ रहा था कि उस का प्यार भी छिन गया. लेकिन उन्होंने भी सोच लिया कि जहां तक हो सकेगा, वह इन मजदूरों की सहायता जरूर करेंगे.

इधर मोहन से शादी के जोर पड़ने पर मुन्नी धीरेधीरे टूटने लगी थी. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, कैसे इस शादी को रोके? मन तो कर रहा था कि धतूरे का बीज खा कर अपनी जान खत्म कर ले. लेकिन ऐसा भी वह नहीं कर सकती थी. क्योंकि मरना तो कायरता है. किसी चीज को हासिल करने के लिए लड़ना पड़ता है और वह लड़ेगी अपने मांबाप से भी और इस जमाने से भी. सोच लिया उस ने और अपने मन में ही एक फैसला ले लिया. रात में सोने से पहले उस ने तकिए में मुंह छिपा कर रघु का नाम लिया. उस का चुंबन याद आया और वह पुरानी सिहरन शरीर में झनझना गई.

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अपने प्लान के अनुसार, सुबह मुंहअंधेरे ही वह घर से निकल गई और पैदल चल रहे मजदूरों के संग हो ली. जानती थी पैदल चल कर रघु से मिलना इतना आसान नहीं होगा. पर अपने प्यार के लिए वह कुछ भी करेगी. हजारों क्या, लाखों किलोमीटर चलना पड़े तो चल कर अपने प्यार को पा कर रहेगी. यह भी जानती थी कि उसे घर में ना पा कर गुस्से से सब बौखला जाएंगे. जहां तक होगा, उसे ढूंढ़ने की कोशिश की जाएगी. लेकिन कोई फायदा नहीं, क्योंकि तब तक वह काफी दूर निकल चुकी होगी. रघु के गांवघर का पता तो उसे मालूम ही था, फिर डर किस बात का था.

5 दिन बाद थकेहारे कदमों से, मगर विजयी मुसकान के साथ वह अपने रघु के सामने खड़ी थी. रघु को तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था.  उसे तो लग रहा था, जैसे वह कोई सपना देख रहा हो. मगर यह सच था, मुन्नी उस के सामने खड़ी थी. दोनों बालिग थे, इसलिए उन की शादी में रुकावट की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. क्वारंटीन अवधि पूरी होते ही जिलाधिकारी मनोज ने अपनी देखरेख में दोनों की शादी ही नहीं करवाई, बल्कि एक भाई की तरह मुन्नी को विदा भी किया. रघु को उन्होंने रोजगार दिलाने में भी मदद की, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके और अपनी जिंदगी अपने अनुसार जिए.

इस कोरोना काल में रघु ने बहुत मुसीबतें झेलीं, पर कहते हैं न, अंत भला तो सब भला.  रघु और मुन्नी के जीवन की नई शुरुआत हो चुकी थी.

देहरी के भीतर: भाग-2

लेखिका: नीलम राकेश

परिवार का हर सदस्य किसी न किसी बहाने से मुझे ऊपर की मंजिल दिखाने से कतरा जाता था. ऐसा मुझे लग रहा था. मैं भी बारबार नहीं कह पा रही थी. पर मेरा डर और जिज्ञासा दोनों ही बढ़ती जा रही थी.
उस दिन सुबहसुबह मैं बीच के दालान में आई तो पहली मंजिल पर रहने वाली लीना मिल गई.
“भाभी, मैं आप को ही बुलाने आ रही थी. आज आप लंच मेरे साथ करिएगा तो मुझे खुशी होगी. जब से

आप की शादी हुई है मैं आप को बुलाना चाह रही थी.”
“मैं मां से…”
मेरी बात बीच में काट कर लीना बोली, “आंटीजी से व तारा से मेरी बात हो गई है. मैं आप की प्रतीक्षा करूंगी. मैं ने आप के लिए कुछ खास बनाया है.”
“ठीक है‌.” मैं मुसकराई.

हम तीनों गपशप के साथ पिज्जा का आनंद ले रहे थे कि कमरे का दरवाजा अचानक धीरे से खुला और एक हाथ जिस में एक डब्बा और फूलों का गुलदस्ता था दिखाई दिया. मेरी तो सांस ही अटक गई. लीना और तारा ने एकदूसरे की ओर देखा. तब तक उस हाथ से जुड़ा शरीर भी सामने आ गया और लीना व तारा दोनों एक साथ बोलीं, “ओह तुम हो. डरा ही दिया था.”
सौम्य, जो कि इसी मंजिल पर दूसरी ओर रहता था हड़बड़ाया सा खड़ा था.
“यह…मैं…” वह कुछ बोल नहीं पा रहा था.
“हां, हां, सौम्य लाओ. भाभी यह गुलदस्ता मैं ने आप के लिए मंगाया था. आप पहली बार आई हैं न.” लीना ने बात संभाली और आगे बढ़ कर सौम्य से सामान ले लिया.
“ये…इमरती…” अटकता हुआ सौम्य बोला.
दोनों की हड़बड़ाहट छिपाए नहीं छिप रही थी.

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“आओ बैठो सौम्य.” तारा बोली.
“भाभी, यहां की इमरती मशहूर है. इसलिए खास आप के लिए मंगवाई है.” कहते हुए लीना ने दोनों चीजें मुझे पकड़ा दीं.
हम चारों थोड़ी देर बातें करते रहे. पर सौम्य सामान्य नहीं हो पा रहा था . उस की नजर मेरे पास रखे गुलदस्ते पर बारबार जा कर अटक रही थी. चलती हुई जब मैं ने गुलदस्ता उठाया तो उस से लटकता हुआ छोटा सा कार्ड उन की चुगली कर गया, जिसे मैंने धीरे से निकाल लिया और लीना को गले लगा कर धीरे से सब की नजर बचा कर उस के हाथ में पकड़ा कर बोली, “यह तुम्हारे लिए है.”
कार्ड पर लिखा था, फौर माई लव.”

धीरेधीरे तीनों किराएदार मुझ से खुलने लगे थे. लीना और सौम्य तो अपनेअपने हिस्से में अकेले ही रहते थे और उन के बीच पक रही खिचड़ी अब मेरे सामने थी. दूसरी मंजिल पर ही एक बड़े हिस्से में मोहन रहता था जो किसी बैंक में काम करता था. उस के साथ उस की माताजी रहती थीं.
दिन के खाली समय में मैं अब अकसर उन के पास थोड़ी देर के लिए चली जाती. सासूमां आजाद खयाल की थीं. ज्यादा टोकाटाकी नहीं करती थीं. बस अपने काम से काम . राजसी ठसक में ही रहती थीं. घर में भी जेवरों से लदी रहती थीं. तारा कालेज चली जाती और मांजी आराम करने तो मैं ऊपर वाली माताजी के पास जा धमकती. उन के पास ढेरों किस्से थे.
“बहु तुम तीसरी मंजिल पर गईं कभी?” एक दिन अचानक उन्होंने पूछा.
“नहीं माताजी. कोई ले ही नहीं जाता मुझे.” मेरा लहजा शिकायती भरा था.
“जाना भी मत बहू.”
“ऐसा क्या है वहां?” मैं ने पूछा तो वे अजीब निगाहों से मुझे देखने लगीं.
“बताइए न,” मैं ने जोर दिया.
“फिर कभी बताऊंगी बहू, अभी तो मुझे आराम करना है.”
मैं चली तो आई पर मुझे ऊपरी मंजिल का रहस्य जानने का रास्ता मिल गया था.

मेरे बारबार कुरेदने पर उस दिन माताजी बोलीं, “देखो बहू, किसी से कहोगी नहीं तो तुम्हें बताऊं.”
“नहीं माताजी, आप की बात मैं किसी को क्यों बताने लगी भला.” मैं उत्साहित थी.
“जानती हो ऊपर की मंजिल पर न, रात में कुछ लोग आते हैं.”
“कौन लोग? और क्यों आते हैं माताजी?”
“पता नहीं पर आते तो हैं.” माताजी बोलीं.
“आप ने देखा है?’ मैं सीधे माताजी की आंखों में देख रही थी.
“और क्या, यहां सब ने देखा है. तुम्हें  भी दिख जाएंगे जल्दी ही.” माताजी के स्वर में विश्वास था.
उसी समय लीला के कमरे की खुलने की आवाज आई.
“सुन बहू, यह लीना तुम्हें कैसी लगती है?”
“बहुत मस्त लड़की है. मुझे अच्छी लगती है.”
“बता तो जरा मेरे मोहन के लिए कैसी रहेगी?” अब माताजी मेरी आंखों में देख रही थीं.
“माता जी, आजकल शादीब्याह में बच्चों की पसंद का ध्यान रखना चाहिए. उन से ही पूछना चाहिए. आप मोहन से बात करिए. क्या पता उसे कोई लड़की पसंद हो.”
“पसंद है, तभी तो तुम से पूछ रही हूं.” माता जी बोलीं.

“मतलब, मोहन ने आप को बताया है कि उसे लीना पसंद है? उन दोनों के बीच कुछ चल रहा है?” मैं ने आश्चर्य से पूछा.
“नहीं, ऐसे कौन बताता है. मां हूं न. उस का मन पढ़ सकती हूं.” स्नेह उन की आंखों में तैर रहा था.
“फिर…?”
“तुम तो अभी बच्ची हो. पता है मोहन को हमेशा लीना की फिक्र रहती है. कुछ भी फलवल लाता है तो लीना को देने को कहता है. और यह जो दूसरा लड़का रहता है न, मुझे तो फूटी आंख नहीं भाता. जाने क्या नाम है.”
“सौम्य…”
“हां, जो भी है.” रोष स्पष्ट था.
मैं उठने लगी तो माताजी बोलीं, “सुनो, अपनी सास से कह कर इस सौम्य को निकलवा दो. मैं न बहुत अच्छा किराएदार दिलवा दूंगी. किराया भी मोटी देगा. तुम बात करो उन से.”
“अरे मैं क्या कहूंगी?” मैं चकित थी.
“कहना क्या है. कह देना तारा को गलत नजर से देखता है. तुरंत हटा देंगी.”

“पर यह सच नहीं है. बरसों से तारा से राखी बंधवाता है. बहुत मानता है उसे. सुना भी है और देखा भी है मैं ने.” मैं ने स्पष्ट किया.
“अरे तो तुम झूठ कहां बोलेगी. बस लीना की जगह तारा का नाम बदल देना.” माताजी फिर से बोलीं.
“नहींनहीं यह मुझ से नहीं होगा. मैं चलती हूं.” मैं झटके से उठ भागी और हड़बड़ाहट में सामने से आ रहे पतिदेव से टकरा गई. पूरी बात सुन कर वे बोले, “अच्छा चलो तुम्हें तीसरी मंजिल दिखाता हूं.”
मैं काफी डरीडरी ऊपर पहुंची. मेरा चेहरा देख कर पतिदेव खिलखिलाए, “इतना डरती हो, तो देखने की जिद क्यों?”
“सच बताइए इस में भूत है क्या?”
“नहीं यार, सब बकवास है. भूत होता तो मैं तुम्हें यहां लाता? भूतवूत कुछ नहीं होता…” कहते हुए उन्होंने कमरे के विशाल दरवाजे को धक्का दिया. दरवाजा आवाज के साथ खुल गया. घबराहट में मैं ने पति की कमीज पीछे से पकड़ ली. वे मुसकराए और मेरा हाथ थाम कर अंदर बढ़े. अंदर आते ही आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. मैं एक बड़ी लाइब्रेरी के अंदर खड़ी थी. लकड़ी की नक्काशीदार अलमारियों के ऊपर खूबसूरत फ्रेम में महान क्रांतिकारियों की अनेक फोटो लगी थीं. कुछ को मैं पहचान रही थी और ज्यादातर को नहीं. एक किनारे पर मोटा गद्दा बिछा था जिस पर खूबसूरत कालीन बिछी थी और कई तकिए रखे हुए थे. मैं कल्पना कर सकती थी कि यहीं पर सब बैठते और बातचीत करते होंगे. आगे बढ़ कर पतिदेव ने एक अलमारी का दरवाजा खोल दिया. अंदर किताबें भरी पड़ी थीं.

“यह हमारे परिवार का गौरवपूर्ण इतिहास का पन्ना है जिस पर हम सब को गर्व है. यह वह स्थान है जहां नेहरू, गांधी, पटेल सरीखे महान नेता आते थे और आजादी की योजना बनाते थे. हमारे पर बाबा आजादी की लड़ाई के एक सैनिक थे. इस कमरे में कैद उन की यादें हमारी बेशकीमती धरोहर हैं.”
“और यह भूत वाली बात?”
“सब बकवास है. पहले सामने वाले भाग में दूसरे किराएदार थे.  बहुत पुराने. पर उन की नियत में खोट आ गया था. लोगों को डराने के लिए वही ऐसी अनर्गल बातें फैलाते रहते थे कि सफेद धोतीकुरते में कुछ लोग रात में तीसरी मंजिल पर आते हैं. जब पानी सिर के ऊपर हो गया तब हम ने उन्हें निकाल दिया. जब से लीना और सौम्य आए हैं सब ठीक है.”
“पर माता जी…” मैं ने बात अधूरी छोड़ दी.

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“हां माताजी थोड़ा इधरउधर की बातें करती हैं. पर उन का ज्यादा किसी से मिलनाजुलना नहीं है और उन का बेटा मोहन बहुत नेक इंसान है. सब की मदद को हमेशा तैयार रहता है. और उस के पिता, बाबूजी के अच्छे मित्र थे इसलिए…”
मैं सबकुछ ध्यान से सुन रही थी.
“अच्छा श्रीमतीजी, आप का डर और भ्रम दूर हुआ या फिर भूत को बुलाऊं?” हंसते हुए वे बोले.
“मैं यहां से किताबें ले कर पढ़ सकती हूं न?” अपनी झेंप छिपाते हुए मैं ने पूछा.
“हांहां, तुम मालकिन हो यहां की. सुना था तुम्हें पढ़ने का शौक है. खूब पढ़ो. चाहो तो यहां की सफाई करा के यहीं बैठ कर पढ़ो.”
“नहीं,अपने कमरे में ही पढ़ूंगी. यहां ज्यादा एकांत है.”
“ठीक है. हां एक बात याद रखना. यह सौम्य, लीना और मोहन की प्रेम कहानी उन्हें ही सुलझाने देना, तुम बीच में मत पड़ना.”
और हम एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले नीचे की ओर चल दिए, डर का भूत भाग गया था.

देहरी के भीतर: भाग-1

लेखिका: नीलम राकेश

मेरी शादी क्या तय हुई घर जैसे खुशियों से खिल उठा. जिसे देखो वह शादी की ही बातें करता दिखाई देता. मां तो जैसे खुशी से बौखला ही गई थीं. पिताजी खुशी के साथसाथ तनाव में थे कि जमींदारों के घर रिश्ता जुड़ रहा है कहीं कोई चूक न हो जाए. सब कुछ उन की हैसियत के अनुरूप करना चाहते थे. बाहर की तैयारियों की भागदौड़ के बीच भी मां को बताना नहीं भूले, “देखो, अपनी लाड़ली को पारंपरिक भोजन  बनाने की खूब प्रैक्टिस करा दो. हमारी लाडो किसी परीक्षा में असफल नहीं होनी चाहिए.”
पति की ओर देख कर मां मुसकराईं, “आप अपनी तैयारियां ठीक से करो जी, हमारी बिट्टो को पा कर समधियाने के लोग बेहद खुश होंगे. आप चिंता मत करो. यों तो उसे सबकुछ आता है फिर भी मैं रोज उस से कुछ न कुछ बनवाती रहूंगी.”

शादी की तैयारियां जोरों पर थीं और मेरे मन में धुकधुक हो रही  थी. बचपन से लखनऊ में जन्मी, पलीबड़ी मैं अचानक से जौनपुर में जा कर कैसे बस जाऊंगी? यह कैसा शहर होगा? कैसे लोग होंगे? जमींदार परिवार का क्या अर्थ है? मैं मन ही मन समझने की कोशिश करती. पर किसी से कुछ पूछ नहीं पाती. सोचती कि यदि भाई की शादी हो गई होती तो कम से कम भाभी से मन की बात तो कर सकती थी. मेरे मन में जौनपुर, जौनपुर वासियों और होने वाले परिजनों को ले कर अनेक प्रश्न सिर उठा रहे थे.
इतिहास मेरा पसंदीदा विषय कभी नहीं रहा फिर भी उस के पन्ने पलट कर जानने की कोशिश की तो पता चला जौनपुर मध्यकालीन भारत का एक स्वतंत्र राज्य था. जो शर्की शासकों की राजधानी हुआ करता था. यह कलकल बहती गोमती नदी के तट पर बसा है.
इसी सब उधेड़बुन के बीच विवाह की तिथि भी आ गई. एक शानदार आयोजन के साथ मैं विवाह बंधन में बंध कर विदा हो गई.

कार एक झटके के साथ रुकी तो मेरी तंद्रा टूट गई. हड़बड़ा कर मैं ने सिर से सरका अपना पल्लू संभाला. बगल में बैठे पति धीरे से फुसफुसाए, “हम घर पहुंच गए गए हैं.”
मैं ने कार की खिड़की के बाहर नजर दौड़ाई. चारों और दुकानें ही दुकानें दिखाई दीं. मेरे मन के दौड़ते घोड़े को लगाम लगी. यह कैसा रजवाड़ा, यह तो कसबे की बाजार सा लग रहा है. बस दुकानें बड़ीबड़ी लग रही थीं.
तभी औरतों का एक झुंड आया और जाने कौनकौन सी रस्में होने लगीं. रबर की गुड़िया की मानिंद मैं उन के आदेशों का पालन करती जाती.

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“बहू जीने पर ऊपर चलो,” कहने के साथ भद्र महिला ने मेरा लहंगा संभाला और मैं धीरेधीरे जीने पर बढ़ने लगी. ऊपर पहुंच कर मैं ने नज़रे चारों ओर घुमाईं. बड़ा सा चौड़ा दालान था. दालान के अंत में सामने नक्काशीदार बड़ा सा विशालकाय दरवाजा था. मैं नजर झुकाए धीरेधीरे उस दरवाजे तक पहुंची. द्वार के बीचोबीच चौक बना कर उस के बीच रखे कलश को देख कर लगा हां, आई तो मैं किसी रजवाड़े में ही हूं. बड़ा सा चांदी का कलश जो बेलबूटों से सजा था, चावलें भरकर नई बहू के गृहप्रवेश हेतु रखा गया था. चावलें लुढ़का कर मैं एक हौल में आ गई. मुझे एक सोफे पर बैठाया गया. शानदार नक्काशी वाला सोफा, सोफा कम सिंहासन ज्यादा लग रहा था. उस विशाल हौल में कई सोफे रखे थे जिन के हत्थे शेर या हाथी जैसे थे. मुझे अपने मायके का इकलौता नक्काशीदार सैंटर टेबल याद आया, जो पिताजी सहारनपुर से लाए थे और हम उसे कितना सहेजते रहते थे. यहां तो फर्नीचर, दरवाजे सब नक्काशी के शानदार नमूने लग रहे थे.
3 दालान पार कर थोड़ी देर बाद मुझे एक कमरे में पहुंचाया गया.
“भाभी, यह मेरा कमरा है. आप यहां आराम कीजिए. आप का कमरा अभी सज रहा है,” कह कर मेरी ननद तारा शरारत से मुसकराई.
“यह घर तो बहुत बड़ा है. आप लोग खो नहीं जाते इस में?” मुसकान के साथ मैं ने पूछा.
तारा खनकती हुई प्यारी हंसी के साथ खिलखिलाई फिर मेरा हाथ पकड़ कर बोली,”भाभी, पहला वाला दालान और बैठक मेहमानों के लिए है. दूसरा दालान और उस के चारों ओर बने कमरों में रसोई, खाने का कमरा, मेहमान खाना और कुछ फालतू कमरे हैं. इस तीसरे दालान के चारों और हम सब के कमरे हैं. पर तीसरे दालान में आने की इजाजत केवल चमेली और इन्ना को ही है. धीरेधीरे आप सब जान जाएंगी. आप आराम करिए मैं मेहमानों को देख लूं. थोड़े दिनों में यहां की कमान आप के ही हाथों में ही होगी.”

शाम से ही मेरी ननदें मुझे सजाने में लग गईं. उन की चुलबुली छेड़छाड़ मन को गुदगुदाती तो मैं मुसकरा देती. वे निहाल हो जातीं. मेरी लंबी चोटी खोल कर वे मेरे केशों की तारीफ में कसीदे पढ़ने लगीं.
“हाय भाभी, भैया तो इन केशों में खो ही जाएंगे.” एक ने मुझे कुहनी मारी,
“हां, भैया के काम का क्या होगा? इन से बंधे वे तो कहीं जा ही नहीं पाएंगे.” और कमरा उन की खिलखिलाहटों से भर गया.
तभी सासूमां आईं. उन के पीछेपीछे चमेली एक बड़ा सा थाल थामी हुई थी. वह साटन के लाल गोटेदार कपड़े से ढका था.
“बहुरानी, यह हमारा खानदानी लहंगा है. सच्चे काम का, मतलब सोनेचांदी के तारों से काम है इस में. थोड़ा भारी है पर हमारे घर की परंपरा है. आज के दिन इस परिवार की कुलवधू इसे ही पहनती हैं.”
“जी,” मेरे उत्तर के साथ ही वे जितने ठसके के साथ आई थीं, उतनी ही ठसक से चली गईं. लहंगे को देख कर तो मेरी आंखें चुंधिया गईं. उस प्राचीन लहंगे की क्या बेहतरीन कारीगरी थी. शादी के लिए लखनऊ जैसे शहर में कितने ही लहंगे देखे थे मैं ने, पर इस के आसपास भी कोई टिक जाए ऐसा एक लहंगा मेरी नजरों के सामने नहीं आया था.
“भाभी, ऐसे क्या देख रही हैं? थोड़ा भारी तो है पर पहनना तो पड़ेगा ही.” तारा ने मुझे हिलाया.
“हां बहुत सुंदर है.” मैं ने आंखें झपकाईं तो सब फिर खिलखिला उठीं.

तैयार हो कर जब आदमकद आईने में स्वयं को देखा तो एक पल को तो भ्रम ही हो गया कि आईने में कोई महारानी खड़ी है. बिन बोले ही मैं मुसकरा दी. थोड़ी देर में सब मुझे मेरे कमरे में पहुंचा कर चली गईं. उन के जाते ही मैं ने अपने कमरे को निहारा. कमरा, नहींनहीं उसे हौल ही कहना सही होगा. ‘यह विशाल हौल मेरा है’ सोच कर ही मैं रोमांचित हो उठी. ऐसा तो कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी. बीच कमरे में लकड़ी का विशाल नक्काशीदार पलंग पड़ा हुआ था, जिस के सिरहाने पर नक्काशी की हुई थी. पलंग को फूलों से सजाया गया था. कमरे में एक और बड़ा सा सोफा पड़ा हुआ था जिस पर सुंदर कारीगरी से कमल के फूल उकेरे गए थे. जमीन पर मोटी पर्शियन कालीन बिछी हुई थी. अचानक मेरी निगाह छत पर गई और मेरी आंखें फटी की फटी की रह गईं. पूरी छत काले, नीले, सफेद रंग की चित्रकारी से सजी हुई थी. 2 विशाल झाड़फानूस लटक रहे थे. अभी मैं देख ही रही थी कि कमरे के दरवाजे पर आहट हुई और मैं संभल कर बैठ गई.
नीले रंग की शेरवानी पर नारंगी साफा बांधे, गले में मोती की माला पहने, मेरे पति कमरे में दाखिल हुए. ‘यह पुरुष अब मेरा है’ सोच कर मन प्रसन्नता से खिल उठा.

कुछ दिन यों ही गहमागहमी रही फिर एक दिन सासूमां बोलीं, “तारा, अभी तक बहुरानी ने अपना पूरा घर नहीं देखा है. इसे पूरा घर दिखा दो.”
मैं और तारा हवेली भ्रमण पर निकल गईं. जितना तारा उत्साहित थीं उस से ज्यादा मैं उत्सुक थी. जिसे तारा ड्योढ़ी कह रही थी वह कलाकारी का उत्कृष्ट नमूना था. मैं पूर्वजों की कला के आगे नतमस्तक थी.
“तारा हम ऊपर नहीं जाएंगे?” मैं ने तारा से पूछा.
“भाभी, ऊपर की मंजिल को हम ने किराए पर दे रखा है. हमारी पहली मंजिल पर 3 किराएदार हैं. ऐसे जाना ठीक नहीं होगा.”
“किराएदार? लेकिन क्यों?” बरबस मेरे मुंह से निकला.
“भाभी, इतने बड़े घर का रखरखाव आसान नहीं होता.” आश्चर्य से मेरी ओर देख कर तारा बोली.
“मेरा मतलब वह नहीं था.” मैं बुरी तरह हड़बड़ा गई थी.
“कोई बात नहीं भाभी. वह स्वाभाविक प्रश्न था.” मेरे कंधे पर हाथ रख कर तारा मुझे आश्वस्त करते हुए बोली, “इस के ऊपर भी एक मंजिल है. पर मैं वहां नहीं जाती . आप भैया के साथ जा कर देख लीजिएगा.”
“आप नहीं जातीं, मतलब?”
“भाभी, आप तो जानती ही हैं, पुरानी हवेलियों के साथ कितने किस्से जुड़े रहते हैं. तो हमारी हवेली भी इस का अपवाद नहीं है.” तारा ने समझाया.
“मतलब…भ…भूत…”
“हां ऐसा ही कुछ…” तारा की आंखों में शरारत थी.
“सच बताइए न?”
“हां सच…” तारा ने अपनी बात पर जोर दिया और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पीछे की बगिया में ले गई और एकएक कर हर पेड़ से मेरा परिचय कराने लगी कि कौन सा पेड़ कब और किस ने लगाया था.
उसी समय चमेली आई,”भाभी, आप को भैया बुला रहे हैं.”
“भैया बुला रहे हैं” दोहराते हुए तारा ने मुझे शरारत से कुहनी मारी.
मैं लजाईलजाई सी चमेली के पीछे चल दी. पतिदेव तो जैसी मेरी प्रतीक्षा में ही बैठे थे. देखते ही बोले, “चलो तुम्हें गोमती नदी की सैर कराता हूं. वहां सूर्यास्त का नजारा देखना मजा आ जाएगा.”

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कुछ ही समय में हम कलकल बहती गोमती नदी के ऊपर बने शाही पुल पर थे. लाल रंग का ऐतिहासिक पुल अपनी पूरी भव्यता से मेरा मन मोह रहा था. पतिदेव गर्व से बता रहे थे कि इसे अकबर के आदेश पर मुनइन खानखाना ने बनवाया था. और मां और तारा के साथ तुम जिस शाही किले को देखने गई थीं उस का निर्माण फिरोजशाह ने कराया था.”
अचानक मेरे मुंह से निकला, “मुझे अपनी कोठी की ऊपरी मंजिल कब दिखाएंगे आप?”
पतिदेव कुछ पल मुझे निहारते रहे फिर बोले, “तुम्हें ऊपरी मंजिल देखनी है?”
“हां”
“ठीक है दिखा दूंगा. चलो घर चलते हैं.”

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Serial Story: फैसला (भाग-3)

लेखक- सुशील कुमार भटनागर

ब्याह के बाद रंजना और निखिल शिमला चले गए थे घूमने. वहां से लौटने के बाद रंजना अपने पति निखिल के साथ ही आई थी अजमेर. निखिल का चेहरा मुरझाया हुआ था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसे अपने विवाह की कतई खुशी नहीं है. सुबह नाश्ते के बाद अनायास ही मुझ से वह पूछ बैठा था, ‘पापाजी, यदि आप बुरा न मानें तो एक बात पूछ सकता हूं आप से?’

‘हां बेटा, क्या बात है, पूछो?’

‘पापाजी, मुझे ऐसा लगता है जैसे रंजना मेरे साथ खुश नहीं है.’

‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है बेटा. रंजना ने तो खुद ही तुम्हें पसंद किया है?’ रीना बीच में ही बोल पड़ी थी.

‘नहीं, मम्मीजी, रंजना का कहना है कि वह किसी और से प्यार करती है. उस की शादी मेरे साथ उस की इच्छा के विपरीत जबरदस्ती कराई गई है.’

निखिल की बात सुन कर हम दोनों के चेहरे उतर गए थे.

‘अरे बेटा, रंजना कालेज में नाटकों में भाग लिया करती थी सो मजाक करती होगी तुम से. वैसे भी बड़ी ही चंचल और मजाकिया स्वभाव की है हमारी रंजना. उस की किसी भी बात को कभी अन्यथा मत लेना. बड़े लाड़प्यार में पली है न, सो शोखी और नजाकत उस की आदतों में शुमार हो गई है,’ रंजना की मां ने बड़ी सफाई से बात टाल दी थी.

‘पर मम्मीजी, अभी हमारी शादी को 1 महीना ही तो हुआ है. रंजना जबतब मुझ से जिद करती रहती है कि मैं उसे उस के फ्रैंड से मिलवा दूं जिस से वह प्यार करती है, नहीं तो वह आत्महत्या कर लेगी. कभी यह कहती है कि आप क्यों मेरे साथ नाहक अपना जीवन बरबाद कर रहे हो, क्यों नहीं मुझे तलाक दे कर दूसरा ब्याह कर लेते? यह सब सुनसुन कर तो मेरे होशोहवास गुम हो जाते हैं.’

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‘बहुत बुरी बात है बेटा, मैं उसे समझा दूंगी. तुम थके होगे, आराम कर लो कुछ देर,’ कहती हुई रंजना की मां कांपते कदमों से रसोई की ओर बढ़ गई थीं. मौके की नजाकत भांपते हुए मैं भी बाहर आंगन में आ कर अखबार खोल कर बैठ गया था.

रंजना निखिल के साथ ससुराल जाने को अब कतई तैयार नहीं थी. रीना और मैं ने उसे खूब समझाया था. रंजना की मां यह कहते हुए रो पड़ी थीं, ‘अब क्यों अपने मांबाप की लाशें देखना चाहती है तू? क्यों जान लेने पर तुली है हमारी? तू यही चाहती है न कि तेरी करतूतें जगजाहिर हों और हम कहीं के न रहें, बिरादरी में नाक कट जाए हमारी. अपनी इज्जत की खातिर जहर खा कर मर जाएं हम.’

‘बेटी, तेरी शादी हो गई, तेरा घर बस गया. इतना अच्छा, सुंदर, समझदार पति और इज्जतदार ससुराल मिली है तुझे, उस के बाद भी ऐसी बेवकूफी करने पर तुली है तू. जरा अक्ल से काम ले, अपना जीवन देख, अपना भविष्य देख, अपनी गृहस्थी देख. क्यों मूर्खताभरी बातें करती है? जो संभव नहीं है उस के लिए क्यों सोचती है? हम तेरे भले के लिए कह रहे हैं, और इसी में सीमा की भी भलाई है. तू अब यह फिल्मी प्यारमोहब्बत का चक्कर छोड़ और अपना घर व अपनी मानमर्यादा देख.

‘सीमा तेरी सगी बड़ी बहन है. अभी तक उसे कुछ भी पता नहीं चला है. तू ही सोच जब उसे पता चलेगा इन सब बातों का तो उस का क्या हाल होगा? भूचाल सा आ जाएगा उस की हंसतीखेलती जिंदगी में,’ मैं गिड़गिड़ाते हुए रो पड़ा था.

हमारे समझाने पर रंजना अपनी ससुराल चली गई थी पर 5वें दिन ही निखिल का पत्र मिला. लिखा था, ‘पापाजी, रंजना का फिर वही हाल है. कहती है, मैं बंधुआ मजदूर हूं आप की, दासी हूं आप की, नौकरानी हूं आप की पर पत्नी किसी और की हूं. छोड़ दो मुझे और मुक्त हो जाओ वरना मैं घर से किसी दिन भाग जाऊंगी या आत्महत्या कर लूंगी, फिर तुम सब लोग कोर्टकचहरी के चक्कर में फंस जाओगे. हम सब बहुत तनाव में हैं, आप पत्र मिलते ही फौरन चले आइए.’

हम निखिल के पत्र पर कोई कदम उठा पाते इस के पहले ही हमें खबर मिल गई थी कि रंजना ने अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा ली थी. जब तक हम जयपुर पहुंचे तब तक सारा खेल खत्म हो चुका था. वह जल कर मर चुकी थी.

रंजना की पार्थिव देह देख कर मन हुंकार कर उठा था. ऐसा जी चाह रहा था कि नरेंद्र की जान ले लूं. यह सब नरेंद्र की वजह से ही हुआ था. पर मैं मजबूर था, ऐसा नहीं कर सकता था. एक तरफ रंजना की पार्थिव देह थी तो दूसरी तरफ नरेंद्र, मेरी बड़ी बेटी सीमा का सुहाग था. और फिर जिस राज को जान कर सीमा का घर बरबाद न हो, यह सोच कर छिपाए बैठे थे हम, उसे यों ही आवेश में आ कर उजागर कर देना मूर्खता ही होती.

‘नहीं, नहीं, यह राज दफन कर दूंगा मैं अपने सीने में,’ मैं बुदबुदा उठा था.

पुलिस केस बना था रंजना की मौत पर. पुलिस ने मुझ से, रंजन से और रंजना की मां से भी पूछताछ की थी पर हम ने स्पष्ट कह दिया था कि हमें कुछ भी पता नहीं कि रंजना की मौत किन परिस्थितियों में हुई है. अभी हम कुछ भी बता पाने की स्थिति में नहीं हैं. और फिर रंजना के दाहसंस्कार के बाद हम अजमेर चले आए थे. उस के बाद क्या हुआ, कुछ पता नहीं. साले साहब से इतना जरूर पता चला था कि पुलिस ने दहेज हत्या का केस बना कर गिरफ्तार कर लिया था रमानाथजी के पूरे परिवार को. उस के बाद क्या हुआ हम ने कभी जानने की कोशिश भी नहीं की थी. रंजना की यादें उस पुराने मकान में सताती थीं इसलिए हम ने उस मकान से दूर नया मकान खरीद लिया था और नए मकान में आ गए थे.

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प्रकरण की सुनवाई हेतु हमें कोर्ट से भी कोई नोटिस नहीं मिला था. पर आज आरती को इस हाल में देख कर अपराधबोध हुआ था मुझे और मैं सिहर उठा था किसी अनजाने भय से.

दीवारघड़ी ने रात के 2 बजने की सूचना दी तो मेरी तंद्रा भंग हो गई. अपनी उंगलियों में फंसी हुई समाप्तप्राय सिगरेट को खिड़की से बाहर उछाल दिया और पलट कर पुन: पलंग पर लेट कर अपनी आंखें मूंद लीं मैं ने.

‘‘जीजाजी, दरवाजा खोलिए, चाय लाई हूं मैं,’’ सलहज साहिबा ने दरवाजा खटखटाया तो मेरी आंख खुल गई. मैं ने नजर उठा कर दीवारघड़ी की ओर देखा, सुबह के 6 बज रहे थे. रीना भी जाग गई थी दरवाजे पर थाप की आवाज सुन कर. मैं ने दरवाजा खोला तो सलहज साहिबा मेरा चेहरा देख कर बोलीं, ‘‘लगता है जीजाजी रात भर सोए नहीं.’’

‘‘हां, आज रात जाग कर एक बहुत महत्त्वपूर्ण फैसला किया है मैं ने.’’

‘‘क्या?’’ वह आश्चर्य से मेरे चेहरे पर अपनी नजरें टिकाते हुए पूछ बैठी.

‘‘यही कि रिश्ते के नाम पर कलंक हूं मैं. जब मेरी गरज थी, रंजना को ब्याहना था तब तो रमानाथजी के हाथ जोड़े फिरता था मैं, और जब रंजना ने गलत कदम उठा कर अपनी ससुराल में आत्मदाह कर लिया तो उन निर्दोष लोगों की सुध तक नहीं ली कभी मैं ने. मैं अपने फर्ज से, अपने कर्तव्य से विमुख हो गया. क्या रंजना के मरने से रिश्ता भी मर गया? नहीं, रिश्ते तो प्रीत की डोर के पक्के बंधन होते हैं, ये यों ही नहीं टूट जाया करते.

आज आएदिन अखबारों में दहेज और दहेज हत्याओं के प्रकरण प्रकाशित होते रहते हैं. मैं यह तो नहीं कह सकता कि उन में से कितने सही होते हैं पर इतना जरूर कह सकता हूं कि उन में से ज्यादातर मामले में मेरे जैसे कायर पिता और आजकल की रंजना जैसी नादान और बेवकूफ लड़कियां होती हैं जो विवाह पूर्व के प्रेमप्रसंग, स्वतंत्र और उन्मुक्त जीवन की चाह में अपनी ससुराल में अपने संबंध बिगाड़ लेती हैं.

इस तरह पैदा हुई कलह पर अपना पूरा जोर दिखाने के लिए दहेज विरोधी कानून का सहारा ले कर अपने जीवन को या तो तलाक के कगार तक पहुंचा देती हैं या जीवनभर के लिए अपने पति और ससुराल वालों से रिश्तों में विष घोल लेती हैं और या फिर रंजना की तरह ही आत्महत्या कर लेती हैं.

पर अब मैं चुप नहीं रहूंगा. मैं अगर अब भी चुप रहा तो चैन से मर भी न सकूंगा. यह बोझ अब और नहीं ढो पाऊंगा. जो इस समाज के डर से, अपनी इज्जत के डर से अब तक ढोता आ रहा हूं. पर अब मैं कोर्ट में अपना बयान दूंगा. जज साहब को रंजना की मौत के सभी सत्य तथ्यों से अवगत करा दूंगा और निखिल का वह पत्र भी अजमेर से ला कर सौंप दूंगा जो उस ने मुझे रंजना के आत्मदाह से पूर्व लिखा था. हम अब रमानाथजी और उन के परिवार को रंजना का हत्यारा होने के गलत आरोप से बचाएंगे. यह हमारा फर्ज है, और अटल फैसला भी.’’

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Serial Story: फैसला (भाग-1)

लेखक- सुशील कुमार भटनागर

ब्लौक शिक्षा अधिकारी के पद पर पदोन्नति के साथ ही मेरा तबादला अजमेर से जयपुर की आमेर पंचायत समिति में हो गया था. मेरे साले साहब जयपुर में रहते हैं. वे यहां के एक बड़े अस्पताल में डाक्टर हैं. पिछले माह मेरे बेटे रंजन को भी उदयपुर से एमबीबीएस करने के बाद चिकित्साधिकारी के पद पर आमेर के ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर प्रथम नियुक्ति मिली थी इसलिए जयपुर में अपने मामा के पास ही रह रहा था वह. मेरे रिटायरमैंट में अभी 2 साल बाकी थे. सोचा, चलो मन को तसल्ली तो रहेगी कि 32 साल सरकार की सेवा करने के बाद कम से कम अधिकारी पद से तो सेवानिवृत्त हुए. मन के किसी कोने में अधिकारी बनने का सपना भी था.

बड़ी बेटी सीमा के पैदा होने के 2 साल बाद रंजन और रंजना जुड़वां बच्चे हुए थे. 6 माह पहले बेटी रंजना के अपनी ससुराल में आत्मदाह कर लेने के बाद दिल और दिमाग को कुछ ऐसा झटका लगा कि शरीर घुल सा गया था मेरा. पत्नी रीना तभी से मेरे पीछे पड़ी थी कि अब मैं स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लूं. बीमार शरीर को क्यों और बीमार बना रहा हूं. घर में रहूंगा तो आराम मिलेगा और स्वास्थ्य में भी कुछ सुधार ही होगा पर मैं हमेशा यह कह कर टाल देता था कि चलताफिरता रहूंगा तो ठीक रहूंगा और अगर घर में बैठ गया तो रहासहा शरीर भी बेकार हो जाएगा और जल्दी ही प्राण खो बैठूंगा. वह मेरे इस जवाब से चिढ़ जाती थी.

रीना के साथ अपनी कार से जयपुर पहुंचने पर साले साहब को बहुत खुशी हुई थी. रंजन तो पहले से यहां था ही, अब मैं और रीना भी आ गए थे उन के आलीशान बंगले में. साले साहब के 2 ही लड़के थे. बड़ा बेटा शादी कर अमेरिका में सैटल हो गया था और छोटा बेटा एमबीए कर दिल्ली की किसी प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर हो गया था. घर में बस ये 2 ही प्राणी थे, साले साहब और सलहज साहिबा.

हमें आया देख सलहज साहिबा तो खुशी के मारे जैसे पागल ही हुई जा रही थीं. कार से उतरते ही मेरे हाथ से सूटकेस झपट कर नौकर को पकड़ाते हुए बोली थीं, ‘‘जीजाजी, सच पूछिए तो आप लोगों के आने से मेरा तो जैसे सेरों खून बढ़ गया है. आप लोगों के साथ मेरा मन भी लगा रहेगा. इन्हें और रंजन को तो अपने मरीजों और अस्पताल से ही फुर्सत नहीं मिलती. मैं अकेली पड़ीपड़ी सड़ती रहती हूं घर में. भला अखबार, पत्रिकाओं, टीवी और इंटरनैट से कब तक जी बहलाऊं? मैं तो बोर हो गई इन सब से. अब आप लोग आ गए हैं तो देखना कैसी चहलपहल और रौनक हो जाएगी घर में. खाने और पकाने में भी अब मजा आएगा,’’ कहते हुए वे तेज कदमों से ड्राइंगरूम की ओर बढ़ गईं. यह रात का खाना खा कर मैं सो गया और रीना अपने भैयाभाभी के साथ गपशप में व्यस्त हो गई.

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दूसरे दिन सुबह औफिस बड़े हर्षोल्लास से जौइन किया मैं ने. अभी अपने स्टाफ से मेरा परिचय का सिलसिला चल ही रहा था कि सहसा  मेरी मृत बेटी रंजना की विधवा ननद आरती को देख कर मैं सकपका गया.

आरती किसी मूर्ति की भांति नजरें झुकाए औफिस में आई, हाजिरी रजिस्टर खोल कर अपने हस्ताक्षर किए, एक क्षण अपनी पलकें उठा कर निरीह दृष्टि से मुझे देखा जैसे कह रही हो, ‘किस जुर्म की सजा दे रहे हो हम सब को. हमारा हंसताखेलता घरसंसार उजाड़ दिया तुम ने. आग लगा दी हमारे चमन में. जीतेजी मार डाला हम सब को.’ और फिर सिर झुकाए चुपचाप वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद बड़े बाबू ने बताया, ‘‘सर, इस का नाम आरती है. यहीं औफिस के पीछे ही किराए का एक कमरा ले कर रह रही है. बड़ी अभागी है बेचारी. शादी होने के सालभर बाद ही विधवा हो गई. विधवा कोटे में तृतीय श्रेणी अध्यापिका के पद पर 2 वर्ष पहले नियुक्त हुई थी.

‘‘कोई 6 महीने पहले इस की भाभी ने दहेज की मांग, पति और ससुराल वालों की मारपिटाई से तंग आ कर अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा ली थी और फिर अस्पताल ले जाते समय ही उस ने अपने प्राण त्याग दिए थे. पुलिस केस बन गया था. पुलिस इस के भाई और बूढ़े मातापिता को गिरफ्तार कर ले गई थी.

‘‘आरती अपनी भाभी की मौत का वीभत्स दृश्य नहीं देख सकी थी और बेहोश हो गई थी. 3 दिन बाद तबीयत कुछ सामान्य हुई और अस्पताल से छुट्टी मिली तो पुलिस ने इसे भी गिरफ्तार कर लिया था. आरती के स्कूल स्टाफ ने अच्छा वकील किया और जैसेतैसे कोर्ट से इस की जमानत करवा ली पर आरती के भाई और बूढ़े मातापिता की जमानत की अरजी  दहेज हत्या के गंभीर मामले को देखते हुए जज ने खारिज कर दी. अपने बचाव में बेचारे कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं. आज तक इस के घर वाले जेल की सलाखों के पीछे कैद हैं. आरती भी पुलिस हिरासत में 10 दिन रहने और पुलिस केस होने के कारण सस्पैंड चल रही है. आरती का कहना है कि पुलिस ने झूठा केस बनाया है.

‘‘वैसे सर, आरती के आचरण को देख कर लगता तो नहीं कि ये लोग ऐसा कर सकते हैं. लोगबाग इस के परिवार को भी बड़ा अच्छा समझते हैं. फिर ये सब. न जाने असलियत क्या है?

पुलिस, कोर्ट- कचहरी के चक्करों में कौन पड़ता है नाहक, इसीलिए कोई इन की मदद को भी आगे नहीं आता, बदनामी अलग.’’

बड़े बाबू की बात ने मुझे भीतर तक झकझोर डाला था. अधिकारी पद का मेरा पहला दिन ही मन में इतनी कड़वाहट घोल देगा, मैं ने कभी सोचा भी न था.

शाम को औफिस से निकल कर मैं अपनी कार से मुख्य सड़क पर पहुंचा ही था कि बीच रास्ते में भीड़ देख कर मैं रुक गया. कार से उतर कर भीड़ को चीर कर देखा तो सन्न रह गया. जर्जर और कमजोर आरती बीच सड़क पर बेहोश पड़ी थी. उस के कपड़े अस्तव्यस्त हो गए थे. एक ओर सब्जी का थैला लुढ़का पड़ा था जिस में से कुछ भाजी लुढ़क कर सड़क पर बिखर गई थी.

एक क्षण गौर से आरती के चेहरे पर नजर डाल कर मैं मन ही मन बुदबुदा उठा, ‘क्या हाल हो गया है आरती का? सालभर में ही हड्डियों का ढांचा भर रह गई है. हाथों में नीली नसें उभर आई हैं. चेहरा निस्तेज हो गया है. रंजना के ब्याह के समय विधवा होने के बावजूद कैसी चिडि़या सी चहकती, फुदकती रहती थी.’

सच पूछा जाए तो रंजना की शादी अपने बड़े भाई निखिल से शीघ्र करवाने में आरती की ही अहम भूमिका रही थी, फिर निखिल के वृद्ध मातापिता ने भी सोचा था कि घर में विधवा बेटी की हमउम्र बहू आ जाएगी तो उस के साथ आरती का थोड़ा मन बहल जाया करेगा.

‘‘भाई साहब, जरा मदद करेंगे आप. ये बहनजी हमारे बच्चों को पढ़ाती हैं, बड़ी अच्छी हैं. प्लीज, अपनी कार में इन्हें यहीं पास के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचा दीजिए, आप की बड़ी मेहरबानी होगी,’’ पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा.

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‘‘हां, हां, क्यों नहीं. वहां मेरा बेटा डाक्टर है, आप घबराओ मत, वह सब संभाल लेगा. पर मैं नया हूं यहां, मुझे रास्ता पता नहीं है, तुम बताते जाना,’’ मैं बोला.

उस आदमी ने सड़क पर बेहोश पड़ी आरती को अपनी गोद में उठाया और कार की पिछली सीट पर लिटा दिया. फिर उस ने सड़क पर बिखरी हुई सब्जी आरती के थैले में भरी और कार की पिछली सीट पर रखी और आरती का सिर अपनी गोद में बड़े प्यार से रख कर बैठ गया.

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Serial Story: फैसला (भाग-2)

लेखक- सुशील कुमार भटनागर

मैं ने कार आगे बढ़ा दी. मेरे विचारों की शृंखला सक्रिय हो गई, ‘मैं गुनाहगार हूं इस के परिवार का. आरती, निखिल, उस के पिता रमानाथ और उस की मां गीता का. मेरी कायरता की ही सजा भुगत रहे हैं आज ये सब लोग. सच कहने से डर गया, समाज के सामने अपनी जबान खोलने से भयभीत हो गया, मैं ने रंजना की मौत का राज पुलिस के सामने खोल दिया होता तो आज मेरे मन पर इतना भारी बोझ न होता. मैं ने तबाह कर दिया इन निर्दोष, भोलेभाले और शरीफ लोगों को. इन के सर्वनाश का कारण मैं हूं.’

रात गहरा गई थी. ठंड भी बढ़ गई थी. सारा शहर नींद के आगोश में समाया हुआ था पर मेरी आंखों से तो नींद कोसों दूर जा चुकी थी. बाहर रहरह कर कुत्ते अपना बेसुरा राग अलाप रहे थे. आरती को मैं रंजन की देखरेख में स्वास्थ्य केंद्र छोड़ आया था.

मैं हौले से बिस्तर से उठा और खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. पलट कर मैं ने रीमा पर एक नजर डाली, वह ख्वाबों की दुनिया में बेसुध खोई हुई थी. मैं ने टेबल पर पड़ी सिगरेट की डब्बी उठाई और सिगरेट सुलगा कर धुएं के छल्ले खिड़की से बाहर हवा में उछालने लगा. रहरह कर बस एक ही सवाल किसी भारी हथौड़े की भांति मेरे दिलोदिमाग पर पड़ रहा था, ‘क्यों चुप्पी साध रखी है मैं ने? क्यों नहीं मैं अपने समधी रमानाथजी और उन के परिवार को उन की बहू रंजना की दहेज हत्या के आरोप से मुक्त करा देता? मेरा शरीर भी अब साथ नहीं देता, अगर मुझे कुछ हो गया तो कब तक अपनी बहू की हत्या का कलंक अपने माथे पर लगाए जेल की सलाखों के पीछे सड़ते रहेंगे ये लोग? समाज की वर्जनाओं और मर्यादा का उल्लंघन तो मेरी बेटी रंजना ने किया है, फिर उस के किए की सजा ये निर्दोष क्यों भुगतें? वह तो मर कर चली गई पर जीतेजी मार गई इन सब को.’

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मैं अतीत में खो गया. उस रात रंजना की मां ने मेरे कान में फुसफुसा कर जो रहस्योद्घाटन किया था, उसे सुन कर चक्कर सा आ गया था मुझे. मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा उठा था और फिर वहीं मैं अपना सिर पकड़ कर धम से बैठ गया था. रंजना को उलटियां हो रही थीं. रंजना गर्भवती थी. रंजना के गर्भ में उस की बड़ी बहन सीमा के पति नरेंद्र का बच्चा पल रहा था. यह सब कैसे हो गया अचानक? सीधासादा और भोला सा दिखने वाला मेरा दामाद नरेंद्र अपने जमीर से इतना नीचे गिर जाएगा, अपनी साली रंजना के साथ ही ऐसा कुकर्म कर बैठेगा वह, मैं ने तो कभी सपने में भी न सोचा था.

जीजासाली में अकसर मीठी छेड़छाड़ तो चलती रहती थी पर यह छेड़छाड़ ऐसा गुल खिलाएगी, मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. अभी 2 महीने पहले रंजना अपनी बड़ी बहन सीमा की डिलीवरी के समय महीना भर को वहां रह कर आई थी. शायद तब से ही रंजना और नरेंद्र के बीच यह दुश्चक्र शुरू हो गया था.

यह सब सोच कर खून खौल उठा था मेरा. एक झटके से उठ कर मैं सीधा रंजना के कमरे में गया था और एक जोरदार थप्पड़ उस के मुंह पर मारा था. रंजना की नाक से खून की धार फूट पड़ी थी. ‘कमीनी, करमजली, बेहया, शर्म नहीं आई तुझे. अपने बाप की, अपने खानदान की सब की नाक कटा दी तू ने. क्या इसीलिए जन्म लिया था तू ने हमारे घर में, कलंकिनी?’

मेरे सामने कभी मुंह नहीं खोलने वाली रंजना किसी शेरनी की भांति गरज उठी थी उस दिन, ‘मैं ने प्यार किया है नरेंद्र से. आप चाहें तो मुझे जान से मार दें. मेरी बोटीबोटी काट डालें पर मैं मर कर भी उन्हें नहीं भूल सकती. दीदी चाहे मुझे अपने घर में रखें या न रखें, मैं कहीं भी रह कर अपना गुजारा कर लूंगी पर उन्हें नहीं छोड़ सकती.’

‘अरे नालायक, सारा जहां छोड़ कर अपनी बहन का घर उजाड़ने की सूझी तुझे? सारे जहां के और लड़के मर गए थे क्या? इतना ही प्यार का भूत सवार था तेरे ऊपर तो कम से कम अपनी बहन का घर छोड़ देती. नरेंद्र के बजाय तू जिस के साथ कहती हम उसी के साथ तेरा ब्याह रचा देते, पर तू ने तो अपनी ही बहन के घर में आग लगा दी, नागिन बन कर अपनी ही बहन को डस लिया तू ने.’

मेरा रोमरोम गुस्से की आग में जल उठा था. कमरे में दरवाजे के पीछे रखा डंडा उठा कर मैं उस की ओर बढ़ा ही था कि रंजना की मां झूल गई थी मेरे हाथों से लिपट कर, ‘नहीं, मैं आप के पांव पड़ती हूं. मर जाएगी यह, कुछ तो सोचो रंजना के बापू. यह समय मारपिटाई का नहीं है, सोचने का है, संयम से काम लेने का है. मामला अपने ही घर का है, बात फैली तो दुनिया तमाशा देखेगी. सीमा का घर, उस की गृहस्थी उजड़ कर रह जाएगी. सीमा कभी माफ नहीं करेगी नरेंद्र को और बदनामी के मारे हमारे आगे तो जहर खा कर अपनी जान देने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं रह जाएगा. इस तरह तो गुस्से की आग दोनों घरों को जला डालेगी,’ उस की आंखों से आंसू ढुलक आए.

रंजना को उस के कमरे में ही रोता छोड़ और जोर से उस के सामने डंडा पटक कर मैं अपने कमरे में पांव पटकता आ गया. मेरे पीछे ही रीना भी अपने आंसू पोंछती चली आई. मुझे इस अप्रत्याशित, अमर्यादित और घिनौनी घटना के बाद कुछ सूझ ही नहीं रहा कि अब किया क्या जाए? रंजन उदयपुर में इंटर्नशिप कर रहा था उस वक्त, उसे इन सब बातों का कुछ पता न था.

‘आप कहें तो मैं भैया से जयपुर फोन पर बात करूं, वे डाक्टर हैं, रंजना का गर्भ तो गिराना ही पड़ेगा. भैया के यहां ही यह काम हो तो किसी को खबर भी नहीं होगी,’ रीना बोली थी.

‘ठीक है, तुम फोन पर बात कर लो,’ मैं ने तमक कर कहा. रीना ने शायद उचित ही सलाह दी थी. रीना अपने भाई को फोन मिलाने लगी थी और मैं बाहर आ कर सिगरेट सुलगाने लगा था. दूसरे दिन सुबह रंजना को ले कर हम जयपुर आ गए थे. रंजना गर्भ गिराने को कतई तैयार नहीं थी पर अपने मामाजी, मामीजी और हम सब के दबाव में आ कर ज्यादा प्रतिवाद नहीं कर सकी.

रंजना का गर्भ समापन हो जाने के बाद हम मातापिता उसे दुश्मन से लगने लगे थे. रंजना ने अब घर में बात करना भी बंद कर दिया था. उदास, गुमसुम रंजना को देख कर मन ही मन हम भी बेहद दुखी थे.

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कोई 3 माह बाद ही दौड़धूप कर मैं ने रंजना की शादी जयपुर में ही निखिल से तय कर दी थी. बहुत अच्छी ससुराल मिली थी रंजना को. बहुत छोटा और इज्जतदार परिवार था रंजना के ससुर रमानाथजी का. यह एक इत्तेफाक ही था कि रमानाथजी हमारे पैतृक गांव के निकले. मैं ने और रमानाथजी ने गांव में एकसाथ ही मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी. उस के बाद उन के घर वाले गांव छोड़ कर शहर आ गए थे. उस के बाद रंजना के रिश्ते के सिलसिले में ही रमानाथजी से मुलाकात हुई थी और रमानाथजी ने अपने बेटे निखिल के लिए रंजना का रिश्ता तुरंत ही स्वीकार कर लिया था. रमानाथजी के निखिल और आरती, बस 2 ही बच्चे थे.

रमानाथजी सरकारी स्कूल में संस्कृत के लेक्चरर थे. अभी 4 वर्ष और थे उन के रिटायरमैंट में. निखिल कनिष्ठ लेखाकार के पद पर कलक्टरी में कार्यरत था और निखिल की बहन आरती अपने पति की दुर्घटना में मृत्यु के बाद से मायके में ही रह रही थी. रमानाथजी ने जैसेतैसे कोशिश कर के उसे विधवा कोटे में सरकारी स्कूल में तृतीय श्रेणी अध्यापिका के पद पर नियुक्त करवा दिया था.

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