Mother’s Day Special: मुक्ति-भाग 1

टनटनटन मोबाइल की घंटी बजी और सुनील के फोन उठाने के पहले ही बंद भी हो गई. लगता है यह फोन भारत से आया होगा. भारत क्या, रांची से, शिवानी का. शिवानी, वह मुंहबोली भांजी, जिस के यहां वह अपनी मां को अमेरिका से ले जा कर छोड़ आया था. वहां से आए फोन के साथ ऐसा ही होता रहता है. घंटी बजती है और बंद हो जाती है, थोड़ी देर बाद फिर घंटी बज उठती है.

सुनील मोबाइल पर घंटी के फिर से बजने की प्रतीक्षा करने लगा है. इस के साथ ही उस के मन में एक दहशत सी पैदा हो जाती है. न जाने क्या खबर होगी? फोन तो रांची से ही आया होगा. बात यह थी कि उस की 90 वर्षीया मां गिर गई थीं और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. सुनील को पता था कि मां इस चोट से उबर नहीं पाएंगी, इलाज पर चाहे कितना भी खर्च क्यों न किया जाए और पैसा वसूलने के लिए हड्डी वाले डाक्टर कितनी भी दिलासा क्यों न दिलाएं. मां के सुकून के लिए और खासकर दुनिया व समाज को दिखाने के लिए भी इलाज तो कराना ही था, वह भी विदेश में काम कर के डौलर कमाने वाले इकलौते पुत्र की हैसियत के मुताबिक.

वैसे उस की पत्नी चेतावनी दे चुकी थी कि इस तरह हम अपने पैसे बरबाद ही कर रहे हैं. मां की बीमारी के नाम पर जितने भी पैसे वहां भेजे जा रहे हैं उन सब का क्या हो रहा है, इस का लेखाजोखा तो है नहीं? शिवानी का घर जरूर भर रहा है. आएदिन पैसे की मांग रखी जाती है. हालांकि यह सब को पता था कि इस उम्र में गिर कर कमर तोड़ लेना और बिस्तर पकड़ लेना मौत को बुलावा ही देना था.

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शिवानी ने सुनील की मां की देखभाल के नाम पर दिनरात के लिए एक नर्स रख ली थी और उन्हीं के नाम पर घर में काफी सुविधाएं भी इकट्ठी कर ली थीं, फर्नीचर से ले कर फ्रिज, टीवी और एयरकंडीशनर तक. डाक्टर, दवा, फिजियोथेरैपिस्ट और बारबार टैक्सी पर अस्पताल का चक्कर लगाना तो जायज बात थी.

सुनील की पत्नी को इन सब दिखावे से चिढ़ थी. वह कहती  थी कि एक गाड़ी की मांग रह गई है, वह भी शिवानी मां के जिंदा रहते पूरा कर ही लेगी. कमर टूटने के बाद हवाखोरी के लिए मां के नाम पर गाड़ी तो चाहिए ही थी. सुनील चुप रह जाता. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता था कि शिवानी की मांगें बढ़ी हुई लगती थीं किंतु उन्हें नाजायज नहीं कहा जा सकता था.

शिवानी अपनी हैसियत के मुताबिक जो भी करती वह उस की मां के लिए काफी नहीं होता. मां के लिए गांवों में चलने वाली खाटें तो नहीं चल सकती थीं, घर में सीमित रहने पर मन बहलाने के लिए टीवी रखना जरूरी था, फिर वहां की गरमी से बचनेबचाने को एक एनआरआई की मां के लिए फ्रिज और एसी को फुजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता था.

अब यह कहां तक संभव या उचित था कि जब ये चीजें मां के नाम पर आई हों तो घर का दूसरा व्यक्ति उन का उपयोग ही न करे? पैसा बचा कर अगर शिवानी ने एक के बदले 2 एसी खरीद लिए तो इस के लिए उसे कुसूरवार क्यों ठहराया जाए? फ्रिज भी बड़ा लिया गया तो क्या हुआ, क्या मां भर का खाना रखने के लिए ही फ्रिज लेना चाहिए था?

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आखिर मां की जो सेवा करता है उसे भी इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए थी. पर उस की पत्नी को यह सब गलत लगता था. सामान तो आ ही गया था, अब यह बात थोड़े थी कि मां के मरने के बाद कोई उन सब को उस से वापस मांगने जाता?

सुनील के मन के किसी कोने में यह भाव चोर की तरह छिपा था कि यह फोन शिवानी का न हो तो अच्छा है, क्योंकि वहां से फोन आने का मतलब था किसी न किसी नई समस्या का उठ खड़ा होना. साथ ही, हर बार शिवानी से बात कर के उसे अपने में एक छोटापन महसूस हुआ करता था.

अपनी बात के लहजे से वह उसे बराबर महसूस कराती रहती थी कि वह अपनी मां के प्रति अपने कर्तव्य का ठीक से पालन नहीं कर रहा. केवल पैसा भेज देने से ही वह अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता था, भारतीय संस्कृति में पैसा ही सबकुछ नहीं होता, उस की उपस्थिति ही अधिक कारगर हो सकती थी. और यहीं पर सुनील का अपराधबोध हृदय के अंतराल में एक और गांठ की परत बना देता. इस से वह बचना चाहता था और शायद यही वह मर्मस्थल भी था जिसे शिवानी बारबार कुरेदती रहती थी.

शिवानी का कहना था कि उसे तथा उस के पति को डाक्टर डांट कर भगा देते थे, जबकि सुनील की बात वे सुनते थे. सुनील का नाम तथा उस का पता जान कर ही लोग ज्यादा प्रभावित होते थे, न कि मात्र पैसा देने से. आजकल भारत में भी पैसे देने वाले कितने हैं, पर क्या अस्पताल के अधिकारी उन लोगों की बात सुनते भी हैं? सुनील फोन पर ही उन लोगों से जितनी बात कर लेता था वही वहां के अधिकारियों पर बहुत प्रभाव डाल देती थी.

इस के अतिरिक्त उस का खुद का भारत आना अधिक माने रखता था, मां की तसल्ली के लिए ही सही. थोड़ी हरारत भी आने पर मां सुनील का ही नाम जपना शुरू कर देती थीं.

शिवानी को लगता कि वह अपना शरीर खटा कर दिनरात उन की सेवा करती रहती है, जबकि उसे पैसे के लालच में काम करने वाली में शुमार कर के मां ही नहीं, परोक्ष रूप से सुनील भी उस के प्रति बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. यह खीझ शिवानी मां पर ही नहीं, बल्कि किसी न किसी तरह सुनील पर भी उतार लेती थी.

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कुछ ही महीने पहले की बात थी. जिस दिन मां की कमर की हड्डी टूटी थी, अस्पताल में जब तक इमरजैंसी में मां को छोड़ कर शिवानी और उस के पति डाक्टर के लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे कि फोन पर इस दुर्घटना की खबर मिलने पर सुनील ने अमेरिका में बैठेबैठे न जाने किसकिस डाक्टर के फोन नंबर का ही पता नहीं लगा लिया बल्कि डाक्टर को तुरंत मां के पास भेज भी दिया. ऐसा क्या वहां किसी अन्य के किए पर हो सकता था?

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Mother’s Day 2020: मां जल्दी आना

नानी का प्रेत: भाग-2

अकसर बैडरूम और खिड़की के आसपास डस्टिंग करते हुए एक शलवार कमीज पहने लाल बालों वाली एक डैनिश महिला दिखती. हर बार जब वह दिखती, तो सुषमा सोचती अगर इस वक्त कौसर दिखे तो वह उस से यह पूछने में नहीं चूकेगी कि आखिर यह महिला है कौन.

एक दिन कौसर बाहर निकल कर आ भी गई. वह लाल बालों वाली मैडम इस समय भी डस्टिंग में लगी थी. सुषमा ने दुनियाभर की बातें कर डालीं, तब तक डेजी भी आ गई थी. अचानक कौसर बोल उठी, ‘‘वैसे हसबैंड के बजाय आप ने कपड़े कैसे फैलाने शुरू कर दिए?’’

पहले तो सुषमा थोड़ी सहमी, फिर बोली, ‘‘हमारे यहां हर काम बांट कर करते हैं. इस में क्या खराबी है?’’

उस का इतना कहना  था कि डेजी ने फौरन अपना सुर्रा छोड़ दिया, ‘‘हांहां, आप ने हसबैंड का हाथ बंटाया, इस में क्या खराबी हो सकती है?’’ और दोनों औरतें खिलखिला कर हंसने लगीं.

सुषमा को उन का हंसना अच्छा नहीं लगा. उस की नजर एक बार फिर उस लाल बालों वाली महिला पर पड़ी और वह पूछ बैठी, ‘‘आप के कमरे में कौन सफाई कर रही हैं?’’

खिसियाने की अब इन दोनों की बारी थी. किस मुंह से कहतीं, जब ब्याह कर कौसर कोपनहेगन आई थी तो घर में मियां और देवर के अलावा, इन लाल बालों वाली को भी पाया था. डेजी तो चुप रही. अपनी खनकती आवाज में कौसर ने ही जवाब दिया, ‘‘ये तो मेरी आपा हैं.’’

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एक और सबक जो नानी ने सुषमा को सिखाया, वह था कि सुंदर तो तुम हो लेकिन असली सुंदरी वह है जो अंगअंग से सुंदर हो, हर तौर से सुंदर. जो बात बोले, ऐसे जोर दे कर बोले कि सुनने वाले को उस का परम दरजा महसूस हो. नाक उठा कर बोले, जब बोले, ‘मैं लेडी श्रीराम कालेज का माल हूं,’ तो यह लगे कि सामने मिसेज प्रसाद नहीं वरन शंभु नाम के बंदर के साथ खुद लेडी श्रीराम खड़ी हैं.

‘ज्यादा खुश न दिखा करो. थोड़ा चिड़चिड़ाना सीखो,’ नानी ने उस के दिमाग में यह बात भी डालनी शुरू कर दी. वह पूछेगा, ‘अब क्या हुआ जानी.’

तुम उस को जवाब घूर कर देना. ऐसे घूरना कि वह वहीं का वहीं गड़ा रहे. थोड़ा रुक कर ही कहना, ‘दिनभर खुद तो मटरगश्ती करते हो और मैं घर में पड़ेपड़े सड़ती रहती हूं.’

उस ने ऐसा ही किया. शंभु ने इस पर बड़े प्यार से, जानीजानू कह कर उस से कहा, ‘‘तुम यहां की कम्यून द्वारा चलाई गई डैनिश भाषा की क्लासेस में क्यों नहीं जातीं? कुछ यहां की भाषा भी सीख लोगी और नए लोगों से मिलोगी तो मन बहला रहेगा.’’

इस पर सुषमा ने जो जवाब दिया उस पर गौरव महसूस किया नानी ने, ‘‘क्यों, मुफ्त वाली क्लासें क्यों जौइन करूं मैं? क्या मैं किसी गएगुजरे खानदान से आई हूं कि अनपढ़गंवार इमिग्रेंट लोगों के साथ बैठ कर क्लास में जाऊं? याद रखो, मैं लेडी श्रीराम की पढ़ी हूं.’’

शंभु की इतनी हैसियत नहीं थी कि सुषमा को प्राइवेट क्लास के लिए भेज पाता, सो अपना सा मुंह ले कर औफिस चला गया.

सुषमा ने यह पाठ ठीक से सीख लिया था और अकसर ऐसे ही तुनक कर बोलती थी. शंभु पर भी लगता है इस का असर हुआ. बेहतर, ज्यादा कमाई वाला काम ढूंढ़ने में लग गया. अमेरिका में भी काम की खोज शुरू कर दी. इधर बिना कुछ कहे, सुषमा ने कम्यून की क्लासें लेनी शुरू कर दीं. नए दोस्त बने. जिम भी जाने लगी. जीवन में काफी सुधार आ गया. मगर शंभु के साथ तुनकमिजाजी बरकरार रही.

एक बार तो शंभु के साथ अपने नए डैनिश मित्रों के यहां गई. उन के यहां के कुत्ते को बड़े प्यार से पुचकारने लगी, उस को दुलारने लगी. फिर एक नजर शंभु पर डाली. उसे कुत्तों से डर लगता था. दूर, सीधा सा खड़ा था. डैनिश मित्रों ने कहा कि हम कुत्ते को बाहर कर देते हैं तो जोर से सुषमा बोली, ‘‘अरे, क्या बात कर रहे हैं? यह हमारा घर है या कुत्ते का? कुत्ता क्यों बाहर जाएगा? नहीं, इसे बाहर न करिए,’’ फिर शंभु पर नजर फेंक कर जोर से हंसने लगी, ‘‘वह देखिए, कैसे पथरा गया है शंभु?’’

अब शंभु पिटापिटा सा दिखने लगा था. रोज औफिस जाता, ज्यादा काम करने लगा था, देर से वापस आता, चुप सा, डरा सा रहता. सुषमा को बातबात पर उस का मजाक उड़ाने का चसका लग गया. नानी को वह पलपल की खबर देती. नानी को सुकून मिलता कि उस की सुषमा तैयार हो गई.

नानी ने उसे एक और सीख दी कि ‘‘बेटा, जो भी हो, है तो तेरा पति. तू ने पति को अंगूठे के नीचे रखना सीख लिया. अच्छा है. मगर ऐसा न होने देना, मेरी बेबी, कि वह तुझ से नफरत करने लगे. औरत के जीवन में भावों के थान भरे हैं. प्रेम तो सिर्फ एक कतरन है. इस के लत्ते उड़ जाएं, कुछ ज्यादा नुकसान नहीं होता. मगर इस कतरन में एक डोरा है जो काम का है, वह है वासना वाला डोरा. वह गोश्त के उस रेशे की तरह होता है जो महीन होने के बावजूद, दांत से काटो, नहीं कटता. बस, वह वासना वाला डोरा संभाल के रखना.’’

यह बात सुषमा ने ठीक से नहीं सुनी क्योंकि इस बात पर वह जोर से हंस दी.

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शंभु पर तो सुषमा ने नानी का फार्मूला आजमाया नहीं पर कहीं और चल गया. शंभु के औफिस जाने के बाद वह देर तक कटोरे में परसे कौर्नफ्लैक्स को देखती और मंदमंद मुसकराती रहती. अब वह बहुत बेचैनी से इंतजार करती कि कब जिम जाने का टाइम हो, कपड़े बदले. जिम के लिए निकलते समय लगता मानो वह उड़ रही हो.

हुआ यह कि एक दिन जिम में बड़ी देर से वह साइकिल चला रही थी. किताब जो अब हरदम साथ रखती है, उसे पढ़ रही थी. तभी जिम सहायक 35-40 साल के एक अंधे आदमी को सहारा देते हुए उस ट्रेडमिल पर ले आया जो सुषमा की साइकिल के बगल में थी. उसे थोड़ी हैरानी हुई, सोचा कि एक अंधा आदमी ट्रेडमिल पर चढ़ेगा? थोड़ी देर उस की गति ही देखती रही. अभी 5 मिनट भी नहीं बीते होंगे उसे शुरू हुए, अचानक वह बोला, ‘‘इतनी अच्छी महक, लगता है आज मेरा लकी डे है. मिस वर्ल्ड के निकट रहने को मिल रहा है.’’

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नानी का प्रेत: भाग-1

सुषमा की शादी हुई थी और वह पहुंच गई थी मानव लोक के डैनमार्क देश की खूबसूरत कोपनहेगन नगरी में. शुरू में इस गजब के शहर में पहुंच कर वह अपना अहोभाग्य ही मानती रही. चारों तरफ लंबे, सुनहरे बालों वाली जलपरियों समान लड़कियां, लंबेतड़ंगे गबरू जवान, हंसों से लदे तालाबों वाले हरेहरे उपवन, मजबूत खड़े मकान, चौड़ी मगर खाली सड़कें. धूप हो, पानी बरसे या बर्फ गिरे, यहां के लोगों को अपनी साइकिलें ऐसी प्यारी हैं जैसे पुराने जमाने के राजपूतों को अपनेअपने चेतक थे. पता चला कि इतनी आराम की जिंदगी बिताते हैं ये डैनिश लोग कि यहां के हर 10वें आदमी को शराब की लत लगी हुई है और हर दूसरा जोड़ा बिना मनमुटाव के शादी तोड़ देता है. मालूम चला कि यहां शादियां इस वजह से टूटती हैं कि यहां की औरतें अपने जीवनकाल में अन्य आदमी भी आजमाना चाहती हैं.

सुषमा सुंदर तो थी ही, जब उस की शादी उस लड़के से तय हुई जो दूसरे देश में इंजीनियर था तो सब ने खुशी जाहिर की थी. पर कोपनहेगन आ कर उसे कुछ ही दिनों में पता चल गया कि वह ऐसे देश में है जहां की बोली उस के लिए गिटपिट है.

पढ़ीलिखी होने के बावजूद वह न काम कर सकती है न बाहर जा कर लोगों से बातें. पति शंभु और उस के परिवार वालों पर सुषमा को बड़ा गुस्सा आया. सुषमा के लिए कई अच्छे रिश्ते आए थे और दोएक अमेरिका के भी थे. उसे लगने लगा कि उन लोगों ने लड़की ले कर ठग लिया था और जो हुआ था वह घाटे का सौदा था.

सुषमा ने नानी को फोन किया. वे थीं तो पुराने जमाने की पर थीं बहुत ही चतुर. उन्होंने सुषमा के पिता को जीवनभर मां की जीहुजूरी के लिए मजबूर किया. उन्हें कम पढे़लिखे होने के बावजूद जिंदगी का पूरा अनुभव था. सुषमा के नाना उन के इशारों पर नाचते थे और पिता ही नहीं सुषमा के दादादादी भी उन के हाथों नाचते रहे. ऊपर से मौसियां भी, जिन्होंने मां को औरत के सब हथियार सिखाए. नानी ने तय कर लिया कि सुषमा को जरूरत है अपनी जिंदगी को पूरी तरह अपने वश में करने की. सो, उन्होंने सोचा कि अपनी बिटिया को खुद्दारी का पाठ सिखाने का वक्त आ गया है.

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‘‘वह मर्द है तो क्या हुआ. तेरे पास औरत वाले हथियार हैं. उन का इस्तेमाल कर,’’ नानी ने कहा.

मर्द को नामर्द कैसे बनाते हैं, यह नानी ने सुषमा को सिखाने की ठान ली.

पहली बात जो सिखाई वह यह कि चाहे कुछ हो जाए, अपने पति की तारीफ कभी न कर. यह पाठ उसे घुट्टी में घोल कर ऐसा पिलाया कि जब कोई इन दोनों से मिलने आता तो बात करतेकरते न जाने कैसे बात को घुमा देती और शुरू हो जाती नानी की लाड़ली अपने पापा की तारीफ के पुल बांधने.

‘‘गाड़ी तो मेरे पापा की तरह कोई चला ही नहीं सकता. कैसी नक्शेबाजी से चलाते हैं.’’

और जब शुरू हो जाती तो वह बोलती चली जाती. मेहमान शालीनता से सुनते रहते और जमाईजी का सिर धीरेधीरे झुकता जाता. सूरजमुखी को पानी यदि मिलना कम हो जाए तो उस का फूल झुकता जाता है, फिर वह फूल ऐसी तेज प्यास से तड़पता है कि अचानक लुढ़क जाता है. ठीक वैसे ही दामादजी भी अपने ससुर की तारीफ सुनतेसुनते एकाएक लुढ़क जाते. सिर को वहीं मेहमान के सामने सुषमा की गोद में टिका कर कहते, ‘‘पापा के लिए इतना कुछ और मुझ में तुम्हें तारीफ लायक एक चीज नहीं दिखती?’’

फिर, ‘‘ग्रो अप शंभु,’’ कह कर नानी की चतुर चेली संभाल कर उस का सिर गोद से हटा देती.

एक सबक और दिया नानी ने, उसे याद दिलाया कि तुम औरत हो, यही तुम्हारा सब से बड़ा हथियार है. कह दो कि इतना काम बिना नौकरचाकर के अकेले कैसे होगा.

एक दिन इतने कपड़े इकट्ठे हो गए कि औफिस जाने से पहले शंभु दूसरे कमरे से चिल्लाया, ‘‘सुषमा, मेरी गुलाबी वाली कमीज नहीं मिल रही है…और अगर अंडरवियर मिल जाता तो…’’

उस दिन सुषमा को नानी का सिखाया हुआ बोलने में थोड़ी दिक्कत हुई. वह मात्र इतना बोल पाई कि वे सब चीजें लौंड्री में होंगी. अभी थोड़ी तबीयत खराब है, जब ठीक हो जाएगी तो वह लौंड्री कर लेगी.

शंभु चुपचाप औफिस चला गया. वापस आया तो पूरी लौंड्री की. फिर अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर पिछवाड़े में अरगनी पर कपड़े फैला दिए. फिर तो रोज औफिस से लौट कर कपड़े धोना, बाहर फैलाना और सूखने पर उन्हें वापस लाना और तह कर के ड्रैसर में सही जगह रखना उस का काम बन गया. बस, कपड़ों की इस्त्री नहीं करता था, यह बात नानी ने सुषमा के जेहन में डालने की बड़ी कोशिश की, मगर वह ऐसी गाय थी कि वह शंभु से इस्त्री करने को न कह सकी.

खिड़की से अकसर सुषमा नीचे देखती थी कि शंभु जब अरगनी से कपड़े उठाता था, तो पड़ोस की और औरतें भी आ कर कपड़े फैलाने या उठाने में लग जातीं, साथ में उस से बतियाती भी थीं. जल्द ही कांप्लैक्स की कई औरतों के साथ शंभु की खासी दोस्ती हो गई.

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जुलाई के महीने में एक दिन बड़ी बढि़या धूप खिली थी. शायद कौंप्लैक्स की डैनिश औरतों को इसी दिन का इंतजार था. तितलियों की तरह अपनेअपने फ्लैटों से बाहर पिछवाड़े में निकल आईं और लगीं उतारने ऊपर के अपने सब कपड़े. बदन पर क्रीम मलने के बाद पूरे 2 या 3 घंटे लेटी रहीं, धूप सेंकती रहीं.

शंभु को बड़ा मजा आया खिड़की से यह नजारा देख कर. इस बात पर सुषमा उत्तेजित हो रही थी. गुस्से में नीचे उतरी और सारे कपड़े उठा कर ले आई. उस दिन के बाद से कपड़ों का काम उस ने फिर अपने जिम्मे ले लिया. किसी हाल में वह शंभु को इन औरतों के पास फटकने नहीं देना चाहती थी. समय के साथ ये औरतें भी सुषमा की सहेलियां बन गईं.

नीचे के फ्लैट में 2 पाकिस्तानी भाइयों के परिवार रहते थे. सुषमा की दोनों भाइयों की बीवियों से दोस्ती भी हो गई. कौसर और डेजी नाम थे उन के. अरगनी कौसर के बैडरूम के एकदम सामने थी.

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नानी का प्रेत: भाग-3

सुषमा ने किताब से मुंह उठा कर उस आदमी से डैनिश में पूछा,

‘‘क्या आप ने मुझ से कुछ कहा?’’

‘‘वाह, क्या आवाज है? और वह ऐक्सैंट. क्या आप भारत की रहने वाली हैं?’’

सुषमा ने सिर हिला दिया. फिर यह सोच कर कि भला सिर का हिलाना इसे क्या दिखाई देगा, बोली, ‘‘हां, मैं भारत से हूं,’’ कह कर साइकिल का पैडल तेज चलाने लगी.

‘‘आह,’’ बड़ी लंबी आह ली थी उस ने, ‘‘भारत तो मेरा सब से प्रिय देश है. मेरे लिए भारत साल में एक बार जाना जरूरी है. हर साल जाता हूं.’’

‘‘हैं…’’ विश्वास नहीं हुआ सुषमा को. यह हर साल वहां करता क्या है? एक अंधे आदमी के लिए भारत जाना या चीन जाना तो एक ही बात हुई न. दिखता तो कुछ है नहीं इन लोगों को. तो भला क्यों कोई पैसा बरबाद करे इन दूरदराज देशों में जा कर.

सुषमा इस अचंभे में ही थी. उस ने कई सवाल दाग दिए. इतने सवाल सुन कर वह हंस दिया, बोला, ‘‘अगर आप बुरा न मानें तो कहीं बैठ कर बातें करें. आप को अपने सवालों के जवाब मिल जाएंगे, मुझे यह कहने को मिल जाएगा कि आज मैं ने एक भारतीय राजकुमारी के साथ बैठ कर कौफी पी.’’

उस निगोड़े के बस 3 शब्दों से सुषमा की बाछें खिल गईं. एक अनजान आदमी के साथ वह कौफी पीने को तैयार भी हो गई. सुषमा बोली, ‘‘ठहरिए, मैं जरा क्विक शावर ले लूं. आई ऐम स्ंिटकिंग.’’

वह हलका सा हंसा और कहने लगा, ‘‘पता नहीं, आप समझ पाएं या नहीं, लेकिन जैसे अकसर लोग कहते हैं, नैचुरल ब्यूटी इस द रीयल ब्यूटी, उसी तरह हम ब्लाइंड लोग कहते हैं, नैचुरल स्मैल इस द रीयल स्मैल. इसे आप धोइए नहीं, प्लीज.’’

इस वार्त्तालाप को सुन कर सुषमा सिहर उठी.

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वे दोनों उस दिन मिले. खूब बातें कीं. वह स्कूल में टीचर था. सुषमा को हैरानी हुई कि इस देश में आंखों से गए आदमी के लिए भी काम है, मगर सुषमा जैसी पढ़ीलिखी, अच्छीखासी, भले नाकनक्श वाली के लिए कुछ उपलब्ध नहीं.

उस ने सुषमा को बताया कि हर गरमी व जाड़ों की छुट्टियों में वह दुनिया के किसी न किसी कोने में जाता है. वहां की आवाजें, ‘‘उफ वह बछड़ों का मिमियाना, वह हाथियों की चिंघाड़, वह चिडि़यों की चींचीं, मोरों की चीख, वे आवाजें जब मेरे कानों पर पड़ती हैं, तो निकाल लेता हूं मैं अपनी बांसुरी, और मिला देता हूं उस उन्माद में अपने भी राग. मुझे तो तुम्हारे देश की टिड्डों की चरमराहट, गायों की रंभाहट, कबूतरों की गुटरगूं और आदमियों की अजीब फुसफुसाहट, गीत और वार्त्तालाप सुनते ही जैसे कुछ हो जाता है.’’

सुषमा किसी और ही दुनिया में खो चुकी थी जबकि वह अपनी बात जारी रखे था.

‘‘ओह, एअरपोर्ट पर उतरते ही जब फिनौल में सींची हवा मेरी नाक में घुसती है तो मुझे लगता है पूरा हिंदुस्तान मुझे आलिंगन में भर रहा है. फिर बाहर निकल कर प्लास्टिक और कागज जल कर मेरा भरपूर स्वागत करते हैं, मैं खुश हो जाता हूं. रास्ते चलते पेशाब और पसीने की बू के बीच, अचानक चमेली की सुगंध उड़ के आती है और मैं समझ जाता हूं कि एक भारतीय हसीना नजदीक से गुजरी है. कहीं प्याज भुन रहा है, घर की महिला खाना तैयार करने में लगी है, मांस जलने की बू आती है तो मैं गंगाजी का किनारा ढूंढ़ने लगता हूं. अगरबत्ती की महक आते ही तो मैं हाथ जोड़ कर जिसे भारत में भगवान कहा जाता है, नमस्कार कर लेता हूं. साफस्वच्छ जगह ढूंढ़ कर बैठ जाता हूं. नई कविता लिखने लगता हूं. तुम्हारे देश में कितना जादू है, सुषमा.’’

एक शादीशुदा औरत और अंधे आदमी के बीच बातचीत खुशनुमा माहौल में होती रही. बाद में सुषमा ने नानी को बात बताई तो उन्होंने माथा ऐसे पीटा कि सुषमा को फोन पर ही पता चल गया.

महीना बीत गया, दोनों यों ही मिलते रहते हैं. वह सुषमा को दुनियाभर की बातें बताता रहता है. हांहां, उस ने दुनिया जो खूब देख रखी है. और सुषमा चुपचाप उस की वीरान, पोली आंखों में डूबने की कोशिश करती रहती है.

नानी से यह अधर्मी बात नहीं देखी जाती. कितनी शान से नानी ने अपनी बिरादरी का होनहार लड़का ढूंढ़ कर इसे घर से विदा किया था. अब तो शंभु की शक्ल से ही इसे नफरत हो गई है. वैसे ही देर से लौट कर आता है बेचारा, अगर वह सोती हुई न मिले तो मुंह से सुर्रे छोड़ती है, ‘क्या, तुम फिर वापस आ गए?’ बेचारे शंभु का बुरा हाल हो रहा था.

नानी को अब अफसोस हो रहा था. हालांकि सुषमा का सारा घाघपना उन का ही सिखाया हुआ है.

इधर कुछ दिनों से शंभु, जो बहुत ही भोला है, को सुषमा पर शक होने लगा है. मच्छर से भी छोटी एक आवाजभर थी, उसे भी इस लड़की ने अपनी उंगलियों के बीच मसल कर रख दिया. फिलहाल, शंभु ने समझना चाहाभर ही था कि मामला खुदबखुद सामने आ गया. दरअसल, सुषमा के होश ऐसे गुम हुए हैं कि वह खुलेआम उस अंधे के साथ घूमती है, घर भी ले आती है.

एक दिन शंभु औफिस से दोपहर को ही वापस आ गया. घर में पराए मर्द को देख कर बौखला गया. जब वह आदमी चला गया तो शंभु फूटफूट कर रोने लगा, बोला, ‘‘मैं तुम्हारे पापामम्मी को फोन करने जा रहा हूं.’’

सुषमा ने बड़ी क्रूरता से कहा, ‘‘मेरे सामने बिलखने से मन नहीं भरा, अब दुनिया के सामने गिड़गिड़ाने का जी कर रहा है. फोन करना है तो करो, मुझे क्यों बता रहे हो?’’

पता नहीं उस दिन शंभु ने फोन क्यों नहीं किया? करता, तो शायद बात थोड़ी सुधर जाती.

एक दिन हाथ में हाथ डाल कर जा रहे थे ये लैलामजनूं. सामने से कौसर और डेजी आंख चुरा कर निकल गईं, फिर भी उस बेशर्म लड़की ने जोर से उन दोनों को ‘हाय’ कर दिया. पीछे से शायद डेजी से रहा नहीं गया. चिल्ला कर हिंदी में पूछ बैठीं, ‘‘मुझे तो यह समझ नहीं आता कि आप के हसबैंड यह सब बरदाश्त कैसे कर लेते हैं?’’

यह सुनना भी काफी नहीं था सुषमा के लिए, छूटते ही कह दिया, ‘‘मेरे हसबैंड यह सब वैसे ही बरदाश्त कर लेते हैं जैसे आप की कौसर दीदी उन लाल बालों वाली मैडम को बरदाश्त कर लेती हैं.’’

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एक दिन शंभु बड़ा खुश, धड़ल्ले से घर में घुसा. सुषमा सिगरेट फूंक रही थी. फिर भी, वैसे ही हंसतेहंसते उस भले लड़के ने उसे खींच कर उठाया और कहा, ‘‘चलो, सुषमा. हमारी सारी मुश्किलें खत्म हो गईं. यह देखो, टिकट. हम आज ही अमेरिका जा रहे हैं. मुझे वहां बड़ी अच्छी नौकरी मिल गई है. देखना, अब सब ठीक हो जाएगा.’’

सुषमा की आंखों में घृणाभरी थी. धक्का दे कर चिल्लाई, ‘‘तुम मुझ से दूर ही रहो तो अच्छा होगा. मुझे नहीं जाना अमेरिका. मैं तो यहीं रहूंगी. तुम्हें जाना है तो जाओ.’’

फिर पास की दराज खींच कर कागज निकाला और बोली, ‘‘लेकिन जाने से पहले इस पर अपने साइन कर के जाना.’’

वह कागज तलाकनामे का था. उस में लिखा था कि शंभु प्रसाद और सुषमा प्रसाद खुशीखुशी अपनी शादी रद्द करना चाहते हैं.

कागज देख कर शंभु की आंखें भर आईं. मुंह से सिर्फ ‘नहीं’ ही निकल पाया. नजरें उठा कर जब सुषमा को देखा तो शक्ल देख कर कांप गया. एकदम खूंखार लग रही थी. हाथ में पैन पकड़े हुई थी. आंखें फाड़फाड़ कर सिगनल भेज रही थी कि फौरन साइन करो.

शंभु ने अपने हस्ताक्षर उस कागज पर कर दिए और कागज ले कर व पर्स उठा कर वह बाहर निकल गई. शंभु बिस्तर पर लेट कर देर तक रोता रहा.

शाम को जब वह वापस आई तब शंभु एक छोटे से बक्से में अपनी एक गुलाबी और एक पीली कमीज, 4-5 अंडरवियर, एक स्वेटर और जींस रख घर से निकल रहा था. सुषमा ने एक नजर उस पर डाली पर एक शब्द तक नहीं कहा.

हवाई जहाज में वह रास्तेभर सामने की ट्रे पर सिर टिकाए रोए जा रहा था. पास में बैठा यात्री तक शर्मिंदा हो रहा था.

सुषमा ने नानी को फोन कर पूरी बात बता दी. और यह भी कि नानी अब उस के फोन का इंतजार न करें क्योंकि जिस के साथ वह रहने जा रही है, वह आंखों वाला न हो कर भी बहुत कुछ जान लेता है. उसे वह भरपूर तरह से जीना चाहती है, बिना नानी के प्रेत के साथ.

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डायरी: भाग-2

कालेज की अन्य सहेलियां मानसी की नजरों में विपुल के प्रति उठ रहे जज्बातों को पढ़ने में सक्षम होने लगी थीं. वे अकसर मानसी को विपुल के नाम से छेड़तीं. कुछ लड़कियां विपुल को मानसी का बौयफ्रेंड तक बुलाने लगी थीं. ऐसी संभावना की कल्पना मात्र से ही मानसी का मन तितली बन उड़ने लगता. चाहती तो वह भी यही थी मगर कहने में शरमाती थीं. सहेलियों को धमका कर चुप करा देती. बस चोरीछिपे मन ही मन फूट रहे लड्डुओं का स्वाद ले लिया करती.

“कल मूवी का कार्यक्रम कैसा रहेगा?”, मानसी के प्रश्न उछालने पर अनुजा इधरउधर झांकने लगी.

विपुल बोला, “कौन सी मूवी चलेंगे? मुझे बहुत ज्यादा शौक नहीं है फिल्म  देखने का.”

“लगता है तुम दोनों पिछले जन्म के भाईबहन हो. अनुजा को भी मूवी का शौक नहीं. उसे तो बस कोई किताबें दे दो, तुम्हारी तरह. लेकिन कभीकभी दोस्तों की खुशी के लिए भी कुछ करना पड़ता है तो इसलिए इस शनिवार हम तीनों फिल्म देखने जाएंगे, मेरी खुशी के लिए”, इठलाते हुए मानसी ने अपनी बात पूरी की.

विपुल के चले जाने के बाद अनुजा, मानसी से बोली, “तुम दोनों ही चले जाना फिल्म देखने. तुम्हारे साथ होती हूं तो लगता है जैसे कबाब में हड्डी बन रही हूं.”

“कैसी बातें करती हो? ऐसी कोई बात नहीं है. हम दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त हैं,” मानसी ने उसे हंस कर टाल दिया.

जब तक विपुल के मन की टोह न ले ले, मानसी अपने मन की भावनाएं जाहिर करने के लिए तैयार नहीं थी.

 

“जो कह रही हूं, कुछ सोचसमझ कर कह रही हूं. तेरी आंखों में विपुल के प्रति आकर्षण साफ झलकता है. पता नहीं उसे कैसे नहीं दिखा अभी तक”, अनुजा की इस बात सुन कर मानसी के अंदर प्यार का वह अंकुर जो अब तक संकोचवश उस के दिल की तहों के अंदर दब कर धड़क रहा था, बाहर आने को मचलने लगा.

विपुल को देख कर उसे कुछ कुछ होता था, पर यह बात वह विपुल को कैसे कहे, इसी उधेड़बुन में उस का मन भटकता रहता.

‘अजीब पगला है विपुल. इतने हिंट्स देती हूं उसे पर वह फिर भी कुछ समझ नहीं पाता. क्या मुझे ही शुरुआत करनी पड़ेगी…’, मानसी अकसर सोचा करती.

*आजकल* मानसी का मन प्रेम हिलोरे खाने लगा था. विपुल को देखते ही उस के गालों पर लालिमा छा जाती. अब तो उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल भी न लगता. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ प्यारभरी मीठी बातें करे. जब भी वह विपुल से मिलती, चहक उठती. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ ही रहे, छोड़ कर न जाए. आजकल वह प्रेमभरे गीत सुनने लगी थी और अपने कमजोर शब्दकोश की सहायता से प्यार में डूबी कविताएं भी लिखने लगी थी. लेकिन यह सारे राज उस ने अपनी निजी डायरी में कैद कर रखे थे. विपुल तो क्या, अनुजा भी इन गतिविधियों से अनजान थी.

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*उस* शाम जब अनुजा किसी काम से बाहर गई हुई थी तो विपुल रूम पर आया. मानसी तभी सिर धो कर आई थी और उस के गीले बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे. मानसी अकसर अपने बालों को बांध कर रखा करती थी मगर आज उस के सुंदर केश बेहद आकर्षक लग रहे थे.

“आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो. अपने बालों को खोल कर क्यों नहीं रखतीं?” विपुल ने मुसकराते हुए कहा.

“केवल मेरे बाल अच्छे लगते हैं, मैं नहीं?”, मानसी ने खुल कर सवाल पूछे तो उत्तर में विपुल शरमा कर हंस पड़ा.

दोनों नोट्स पूरे करने बैठ गए.

“ओह, कितनी सर्दी हो रही है आजकल. यहां बैठना असहज हो रहा है. चलो, अंदर हीटर चला कर बैठते हैं”, कहते हुए मानसी विपुल को बैडरूम में चलने का न्योता देने लगी.

“आर यू श्योर?”, विपुल इस से पहले कभी अंदर नहीं गया था. जब भी आया बस लिविंगरूम में ही बैठा.

“हां.. हां…. चलो अंदर आराम से बैठ कर पढ़ेंगे. फिर मैं तुम्हें गरमगरम कौफी पिलाऊंगी.”

विपुल और मानसी दोनों बिस्तर पर बैठ कर पढ़ने लगे. मानसी ने तह कर रखी रजाई पैरों पर खींच लीं. दोनों सट कर बैठे पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली कड़कने लगी. हलकी सी एक चीख के साथ मानसी विपुल से चिपक गई, “मुझे बिजली से बहुत डर लगता है. जब तक अनुजा वापस नहीं आ जाती प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाना.”

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“ठीक है, नहीं जाऊंगा. डरती क्यों हो? मैं हूं न”, विपुल उस की पीठ सहलाते हुए बोला.

फिर एक बात से दूसरी बात होती चली गई. बिना सोचे ही विपुल और मानसी एकदूसरे की आगोश में समाते चले गए. कुछ ही देर में उन्होंने सारी लक्ष्मणरेखाएं लांघ दीं. बेखुदी में दोनों जो कदम उठा चुके थे उस का होश उन्हें कुछ समय बाद आया.

बाहर छिटपुट रोशनी रह गई थी. सूरज ढल चुका था. कमरे में अंधेरा घिर आया. मानसी धीरे से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. विपुल भी चुपचाप बाहर आया और कुरसी खींच कर बैठ गया. दोनों एकदूसरे से कुछ कह पाते इस से पहले अनुजा वापस आ गई. उस के आते ही विपुल “देर हो रही है,” कह कर अपने घर चला गया. जो कुछ हुआ वह अनजाने में हुआ था मगर फिर भी मानसी आज बेहद खुश थी. उसे अपने प्यार का सानिध्य प्राप्त हो गया था. आगे आने वाले जीवन के सुनहरे स्वप्न उस की आंखों में नाचने लगे. आज देर रात तक उस की आंखों में नींद नहीं झांकी, केवल होंठों पर मुस्कराहट  तैरती रही.

“क्या बात है, आज बहुत खुश लग रही हो?” अनुजा ने पूछा तो मानसी ने अच्छे मौसम की ओट ले ली.

*अगले* दिन विपुल मानसी के रूम पर उसे पढ़ाने नहीं आया बल्कि कालेज में भी कुछ दूरदूर ही रहा. करीब 4 दिनों के बाद मानसी कालेज कैंटीन में बैठी चाय पी रही थी कि अचानक विपुल आ कर सामने बैठ गया. उसे देखते ही मानसी का चेहरा खिल उठा.

“हाय, कैसे हो?”, मानसी ने धीरे से पूछा.

पर विपुल को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह पतला हो गया हो.

‘तो क्या विपुल बीमार था, इस वजह से दिखाई नहीं दिया’, मानसी सोचने लगी, ‘और मैं ने इस का हालतक नहीं पूछा. मन ही मन मान लिया कि उस दिन की घटना के कारण शायद विपुल सामना करने में असहज हो रहा हो.’

“मानसी, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं. उस शाम हमारे बीच जो कुछ हुआ वह… मैं ने ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था. बस यों ही अकस्मात हालात ऐसे बनते चले गए. प्लीज, हो सके तो मुझे माफ कर दो और इस बात को यहीं भूल जाओ. मैं भी उस शाम को अपनी याददाश्त से मिटा दूंगा.”

‘तो इस कारण विपुल पिछले कुछ दिनों से रूम पर नहीं आया.’ मानसी का शक सही निकला. उस दिन की घटना के कारण ही विपुल मिलने नहीं आ रहा था.

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उस शाम मानसी को विपुल का साथ अच्छा लगा था. वह पहले से ही विपुल की ओर आकर्षित थी. अब यदि उस का और विपुल का रिश्ता आगे बढ़ता है तो मानसी को और क्या चाहिए. वह खुश थी मगर आज विपुल की इस बात पर उस ने ऊपर से केवल यही कहा, “मैं ने बुरा नहीं माना, विपुल. मैं तो उस बात को एक दुर्घटना समझ कर भुला भी चुकी हूं. तुम भी अपने मन पर कोई बोझ मत रखो.”

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डायरी: भाग-3

मानसी चाहती थी कि अब उसका और विपुल का प्यार आगे बढ़े, पहली सोपान चढ़े और धीरेधीरे गहराता जाए. इसलिए विपुल को किसी भी तनाव में रख कर इस रिश्ते के बारे में सोचा नहीं जा सकता, यह बात वह अच्छी तरह समझ चुकी थी. प्यार की क्यारी को पनपने के लिए जो कोमल मिट्टी मन के आंगन में चाहिए उसे अब वह अपनी सहज बातों और मीठे व्यवहार की खुरपी से रोपना चाहती थी.

इस घटना का जिक्र मानसी ने केवल अपनी डायरी में किया. अनुजा को उस शाम के बारे में कुछ नहीं पता था.

तीनों एक बार फिर पुराने दोस्तों की तरह मिलनेजुलने लगे. विपुल फिर सै रूम पर आने लगा. तीनों घूमनेफिरने जाने लगे. अब तक विपुल और अनुजा की भी अच्छी निभने लगी. एक तरफ विपुल के लिए मानसी की चाहत तो दूसरी तरफ विपुल से अनुजा की बढ़ती मित्रता, इस तिगड़ी में सभी बेहद प्रसन्न रहने लगे.

*एक* शाम जब अनुजा रूम पर आई तो मानसी ने हड़बड़ा कर अपनी डायरी जिस में वह कुछ लिख रही थी, बंद कर किताबों के पीछे छिपा दी.

“मुझे सब पता है क्या लिखती रहती हो तुम इस डायरी में”, अनुजा ने चुटकी ली.

“ऐसा कुछ नहीं है. तुम न जाने क्याक्या सोचती रहती हो…” मानसी हंसी और कमरे से बाहर निकल गई. अनुजा उस के पीछेपीछे आई और कहने लगी, “मानसी, अगर विपुल आगे नहीं बढ़ पा रहा तो तुम्हें शुरुआत करनी चाहिए. मुझे लगता है अब समय आ गया है. हम तीनों की दोस्ती को 1 साल होने को आया है. हम एकदूसरे को अच्छी तरह समझने लगे हैं. अब ज्यादा सोचविचार में और समय मत गंवाओ. विपुल जैसा अच्छा लड़का सब को नहीं मिलता…आगे बढ़ो और अपने मन की बात विपुल से कह डालो.”

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अनुजा ने मानसी को समझाया तो वह विपुल से अपने दिल की बात करने को राजी हो गई. अनुजा ने सुझाव दिया कि निकट आते वैलेंटाइन डे पर मानसी विपुल से अपने दिल की बात कह दे, मगर  वैलेंटाइन डे से पहले रोज डे पर विपुल ने अनुजा को लाल गुलाब दे कर अचानक प्रपोज कर दिया. ऐसे किसी कदम की उसे उम्मीद न थी. अनुजा हक्कीबक्की रह गई. कुछ कहते न बना. बस खामोशी से गुलाब हाथ में लिए वह रूम पर लौट आई. जब मानसी को इस घटना के बारे में पता लगा तो उसे अनुजा से भी ज्यादा ठेस लगी. वह तो विपुल को अपना बनाने की ख्वाब संजो रही थी लेकिन विपुल ने तो बाजी ही पलट दी.

अनुजा जानती थी कि मानसी के मन में विपुल को ले कर आकर्षण पनप रहा है. वह तो स्वयं ही मानसी को विपुल की ओर धकेल रही थी. मगर विपुल ने आज जो किया उस के बाद अनुजा मानसी से नजरें मिलाने में भी सकुचाने लगी.

‘न जाने मेरी सहेली मेरे बारे में क्या सोचेगी?’ अनुजा मन ही मन परेशान होने लगी. उस की बेचैनी उस के चेहरे पर साफ झलकने लगी.

मानसी ने अनुजा के अंदर उठ रहे तूफान को पढ़ लिया. आखिर दोनों बचपन से एकदूसरे का साथ निभाती आई थीं. भावनाएं बांटती आई थीं. अनुजा के चेहरे पर उठ रहे व्यग्रता के भावों को देख मानसी ने अपने चेहरे पर जरा भी व्याकुलता नहीं आने दी. एक सच्ची सहेली की तरह उस ने अनुजा के सामने स्वयं को उस की खुशी में प्रसन्न दर्शाया. उस ने अनुजा को यह कह कर समझाया कि जो कुछ वह सोच रही थी, ऐसा कुछ नहीं था. वे तीनों अच्छे मित्र हैं और मानसी के मन की भावनाएं केवल अनुजा की कल्पना मात्र हैं. विपुल की तरफ से कभी भी इस प्रकार का न तो कोई संदेश आया, न ही इशारा. वह दोनों केवल अच्छे दोस्त रहे.

“तुम्हें गलतफहमी हो गई थी, मेरी जान. विपुल मुझे नहीं तुम्हें पसंद करता है और इस का साक्षी है उस का दिया यह गुलाब का फूल. अब खुशी से फूल को अपनाओ और विपुल के साथ एक सुखी जीवन बिताओ. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं”, मानसी ने कहा तब जा कर अनुजा को थोड़ी शांति मिली.

मानसी ने यह सब केवल अनुजा को शांत करने के लिए कहा, मगर उस के अंदर जो ज्वालामुखी फट रहे थे उस का सामना करना उस के लिए कठिन हो रहा था. विपुल ने उसे धोखा दिया है. वह उस के साथ ऐसा कैसे कर सकता है? क्या मानसी की आंखों में विपुल ने कभी कुछ नहीं पढ़ा? और उस शाम का क्या जो उन दोनों ने एकदूसरे की बांहों में गुजारीं? मानसी को इन सभी सवालों के दैत्य घेरने लगे. वह भीतर ही भीतर सुलगने लगी. अपनी सब से प्यारी सहेली की खुशी में वह बाधा नहीं बनना चाहती पर दिल का क्या करे.

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अगला पूरा हफ्ता इसी उहापोह में बीता. अनुजा के समक्ष ऊपर से शांत और प्रसन्न दिखने वाली मानसी अंदर ही अंदर घुल रही थी.

आखिर दिल पर दिमाग हावी हो ही गया. इतने दिनों से चल रही मगजमारी में मानसी का शैतानी मन उस के शांत मन से जीत गया. उस ने ठान लिया कि वह विपुल को सबक सिखा कर रहेगी और उस की सचाई अनुजा के सामने खोल देगी. इसी आशय से उस ने सुबूत के तौर पर अपनी डायरी उठाई और तैयार हो कर कालेज चली गई. आज वह इस डायरी में बंद हर राज को अनुजा के समक्ष रख देगी.

*कालेज* में हर जगह लाल रंग की लाली छाई हुई थी. आज वैलेंटाइन डे था. हर ओर लाल गुब्बारे, दिल की शेप के कटआउट, लाल रिबन, लड़कियां भी लाललाल पोशाकों में सजी हुईं अपने अपने बौयफ्रैंड के साथ इठलाती घूम रही थीं. कहां आज ही के दिन मानसी ने विपुल से अपने दिल की बात कहने की सोची थी और कहां आज वह विपुल और अनुजा के बनते हुए रिश्ते को तोड़ने जा रही है.

मानसी ने कैफेटेरिया में विपुल और अनुजा को एकसाथ बैठे देख लिया. उस की तरफ उन दोनों की पीठ थी. सधे हुए तेज कदमों से बढ़ती हुई वह उन की तरफ लपकी. इस से पहले कि वह उन्हें आड़े हाथों लेती उस के कानों में उनका वार्तालाप सरक गया.

“अनुजा, तुम मुझे पहले ही दिन से पसंद आ गई थीं. तुम्हारा मितभाषी स्वभाव मेरे अपने अंतर्मुखी स्वभाव से मेल खाता है”, विपुल बोला.

“हां, और देखो न हमारे स्वाद, हमारी इच्छाएं और आकांक्षाएं भी कितनी मिलतीजुलती हैं. सच कहूं तो मैं ने तुम्हें कभी उस नजर से देखा नहीं था”, अनुजा कह रही थी, “बल्कि मैं तो कुछ और ही समझती रही थी अब तक,” संभवतया अनुजा का इशारा मानसी की ओर था.

“समझने में मुझे भी कुछ समय जरूर लगा. कभीकभी मन में कुछ संशय भाव भी उभरे. पर यह निर्णय मैं ने बहुत सोचसमझ कर किया है. जीवन में गलती सभी से हो जाती है मगर समझदार वही व्यक्ति है जो अपनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़ता है”, विपुल ने अपनी बात पूरी की.

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पीछे खड़ी मानसी सब सुन रही थी. ‘सच ही तो कह रहे हैं दोनों. एकदूसरे के लिए यही बने हैं. दोनों के स्वभाव एकदूसरे के अनुकूल हैं. क्या एक बार सोने से प्यार हो जाता है? नहीं न… विपुल और उस के बीच जो हुआ वह प्यार का नहीं जवानी के आकर्षण व जोश का परिणाम था, जो शायद किसी के भी साथ हो सकता है. एक बार हुई ऐसी घटना के बलबूते पूरे जीवन के निर्णय नहीं लिए जा सकते और न ही लेने चाहिए. विपुल ने सही निर्णय लिया जो सोचसमझ कर अपने अनुरूप साथी का चयन किया. दोनों साथ में कितने खुश हैं. मेरे दोस्त हैं. क्या इन की खुशी पर वज्रपात कर के मैं खुश रह पाऊंगी? क्या ऐसा करने के बाद मैं स्वयं को कभी माफ कर पाऊंगी? निर्णय वही लेना चाहिए जिस से जीवन सुखी हो. आज भावेश में आ कर मैं यह क्या करने जा रही थी…’, मानसी ने अपने कदम रोक लिए. अपनी डायरी को उस ने वापस अपने बैग में छिपा दिया. अब इसकी जरूरत कभी नहीं पड़ेगी.

नभ में छाई घटाएं खुलने लगीं. बसंत के मध्यम सूरज की सुहानी किरणें हर ओर उजाले की बौछारें करने लगीं. मानसी के मन के अंदर भी यह उजाला उतरने लगा. उस के चेहरे पर मुसकराहट आने लगी.

“अच्छा बच्चू, मुझ से गुपचुप यहां अकेले पार्टी करने का प्रोग्राम है. तुम दोनों भले ही एक कपल बन गए हो पर मैं कबाब में हड्डी बनने से संकोच नहीं करूंगी. मुझे भी तुम्हारे साथ पार्टी करनी है”, कहते हुए मानसी ने अपनी दोनों बांहें पसार दीं.

अनुजा और विपुल ने भी हंसते हुए उसे अपनी बांहों में ले लिया. तीनों ने कौफी और केक का और्डर दिया. अनगिनत बातों का पिटारा फिर खुलने लगा.

गहराइयां: भाग-4

स्वीटी की बातें सुन शैली हक्कीबक्की रह गई. सोचने लगी कि उस की बहन के साथ इतना कुछ हो गया और उसे खबर तक नहीं? जो शैली अभी कुछ देर पहले तक गुमान में फूल रही थी उसी की अब हवा निकलती साफ उस के चेहरे पर दिख रही थी.

अचानक आधी रात को शैली की नींद टूट गई. बराबर में स्वीटी गहरी नींद में सो रही थी. वह भी फिर से सोने की कोशिश करने लगी पर नींद न जाने कहां रफूचक्कर हो गई थी. उठ कर उस ने एक गिलास पानी पीया और सोचा सो जाए, पर कहां… नींद तो जैसे कोसों दूर चली गई थी. आज अपनी ही कही बातें याद कर वह क्षुब्ध हो उठी. बेचैनी से कमरे के बाहर निकल आई. देखा तो दूर तक सन्नाटा पसरा था. घबरा कर फिर घर के अंदर आ गई. आज न तो उसे घर के अंदर और न घर के बाहर चैन पड़ रहा था. बारबार विवान का खयाल उस के जेहन में आ जा रहा था.

सोचने लगी जो विवान उस पर अपनी जान छिड़कता था उसी विवान को वह झिड़कती रही. और तो और अपने मायके वालों के सामने भी उस की बेइज्जती कर डाली… यह भी न सोचा कि उस के दिल पर क्या बीती होगी उस वक्त. आज वह मानसिक और शारीरिक दोनों स्तर पर खुद को अधूरा महसूस रही थी. जिस विवान के स्पर्श से उसे चिढ़ होने लगी थी आज उसी स्पर्श को पाने के लिए बेचैन हो उठी.

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‘हां मुझ से बहुत बड़ी गलती हुई और शायद उस बात के लिए विवान मुझे माफ न करे या हो सकता है घर के अंदर भी न आने दे, पर मैं तब तक अपने पति के ड्योढ़ी नहीं छोड़ूंगी जब तक वह मुझे माफ नहीं कर देता,’ मन में ही विचार कर शैली सोने की कोशिश करने लगी और फिर जाने कब आंख लग गई. सुबह सब से विदा ले कर वह अपने घर चल दी.

अपने घर पहुंचने पर शैली को कुछ भी पहले जैसा नहीं लगा. लग रहा था जैसे उस के पीछे बहुत कुछ बदल गया है. जो विवान पहले टाइम से औफिस जाता था और घर भी वक्त पर आ जाता था अब ऐसा नहीं था. पूछने पर जवाब देना भी जरूरी नहीं समझता था. लेकिन शैली को लगता अभी गुस्से में है, इसलिए ऐसे बात कर रहा. जब गुस्सा उतर जाएगा, सब ठीक हो जाएगा.

जो विवान शैली को अपनी बांहों में भर कर ही सोता था वही अब उस से दूर रहने लगा. विवान का उसे पकड़ना, उसे चूम लेना, उसे गोद में उठा कर प्यार करने लगना, उसे याद आने लगा. उसे लगता जैसे घर का एकएक कोना उस का मुंह चिढ़ा कह रहा हो कि ठीक किया विवान ने तेरे साथ, बहुत घमंड था तुम्हें अपने रूप पर… तो ले अब तेरे उसी रूप को विवान देखना भी पसंद नहीं करता.

एक रोज यह कह कर विवान जल्दी घर से निकल गया कि आज उस की जरूरी मीटिंग है. वह उस का इंतजार न करे. लेकिन संयोग ही कहिए कि उसी रोज शैली भी अपनी एक सहेली के साथ उसी कौफी हाउस पहुंच गई जहां विवान आयुषी की आंखों में आंखें डाले उसे प्यार से निहार रहा था. दोनों को उस अवस्था में देख विस्मय से उस की पुतलियां चौड़ी हो गईं. दिल धड़क उठा और आंखें डबडबा गईं. छलकते नयनों का उलाहना विवान से भी छिपा न रह पाया, पर उस ने उसे देख कर भी अनदेखा कर दिया. यह बात भी शैली के दिल को तीर की तरह चुभी.

आखिर क्यों विवान ने फिर से उसे काम पर रख लिया और क्या दोनों… कई सवाल पूछने थे उसे विवान से पर पूछती किस मुंह से? क्या वह यह नहीं कहेगा कि उस ने ही तो कहा था कि हर इंसान को अपने जीवन में थोड़ी स्पेस चाहिए होती है… करवटें बदलते उस ने पूरी रात निकाल दी. सुबह भी फिर वही सबकुछ. कुछ समझ में नहीं आ रहा था उसे कि करे तो क्या करे… अगर अपनी मां को अपना दर्द बताती तो वे उसे भी वही सलाह देतीं जो स्वीटी को दी और भाभियों से तो कुछ बोलना ही बेकार था.

शैली को बिना बताए ही विवान घर से निकल जाता और जब मन होता आता. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उस के ऐसे आचरण से शैली के दिल पर क्या बीतती होगी, बल्कि उसे तो ऐसा सब कर के मजा आ रहा था जैसे… भले ही विवान उस से बात न करता, पर उस का फोन उठा लेता यही उस के लिए काफी था. लेकिन विवान की बेवफाई और अवहेलना अब शैली के दिलोदिमाग पर असर करने लगी. ठीक से न खानेपीने के कारण दिनप्रतिदिन उस का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और अब तो वह ज्यादा किसी से बात भी नहीं करती थी. कई दिनों से विवान को भी फोन करना छोड़ दिया था.

इधर कई दिनों से शैली का फोन न आया देख विवान को थोड़ी फिक्र तो होने लगी पर सोचता जाने दो. लेकिन जब एक दिन शैली की मां का फोन आया और उस ने पूछा कि शैली कहां है और वह अपना फोन क्यों नहीं उठा रही है तो विवान को सच में फिक्र होने लगी. फिर उस ने भी फोन लगाया, पर हर बार फोन बंद पा कर विवान बहुत घबरा गया.

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‘‘अरे, कहां जा रहे हो?’’ विवान को अपने कपड़े समेटते देख हैरानी से आयुषी बोली.

‘‘घर.’’

‘‘पर विवान, हम तो यहां मीटिंग अटैंड करने आए हैं न और भी इंपौर्टैंट काम है…?’’

जल्दीजल्दी अपना जरूरी सामान बैग में रखते हुए विवान बोला, ‘‘तुम अटैंड कर लेना और मीटिंग से भी ज्यादा इंपौर्टैंट है वह मेरे लिए.’’

समझ गई आयुषी कि वह किस की बात कर रहा है. तैश में आते हुए बोली, ‘‘तुम ऐसा कैसे कर सकते हो विवान? क्या भूल गए कि मैं और तुम…’’

विवान ने आयुषी को घूर कर देखा और फिर कड़कती आवाज में बोला, ‘‘पहले तो तुम तमीज से बात करो. मैं तुम्हारा बौस हूं और रही बात हमारे संबंध की तो क्या मुझे नहीं पता कि उस रोज कौफी में तुम ने क्या मिलाया था और तुम्हारा इरादा क्या था?’’

सुन कर आयुषी की जबान उस के हलक में ही अटक गई.

‘‘तुम्हारी भलाई इसी में है कि चुप रहो,’’ अपने होंठों पर अपनी उंगली रख विवान बोला और फिर वहां से चलता बना.

घर आ कर जब उस ने देखा तो शैली अचेत पड़ी थी. जल्दी से डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने जांच कर बताया, ‘‘कोई ऐसी बात है जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रही है और अगर यही हाल रहा तो उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ जाएगा. ध्यान रखिए इन का और हो सके तो कहीं बाहर ले जाएं,’’ दवा के साथ यह हिदायत दे कर डाक्टर चले गए. विवान खुद को कोसते हुए कहने लगा, ‘‘ये सब मेरी वजह से हुआ है. शैली सही कहा था तुम ने कि मैं प्यार का दिखावा करता हूं. हां, शैली तुम सही कहती थी मैं अच्छा इंसान नहीं हूं,’’ बोल वह रो पड़ा और फिर शैली को सीने से लगा कर चूमने लगा.

जिस शैली ने पलभर के लिए भी किसी के सामने आंसू न बहाए थे, आज विवान को अपने इतने पास देख कर उसी शैली की बड़ीबड़ी आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई. रोतेरोते ऐसी हिचकी बंधी कि बोल नहीं पा रही थी. लेकिन दोनों अपने किए पर पश्चात्ताप कर रहे थे और मन ही मन एकदूसरे से माफी भी मांग रहे थे. दोनों को देख कर लग रहा था कि भले ही कितने उतारचढ़ाव आए इन के जीवन में पर एकदूसरे को दिल की गहराइयों से प्यार करते हैं.

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गहराइयां: भाग-3

अपनी आदतानुसार औफिस पहुंच जैसे ही विवान शैली को फोन मिलाने लगा कि फिर उस की कही बातें उस के कानों में गूंजने लगी कि अरे, तुम में तो स्वाभिमान नाम की कोई चीज ही नहीं है वरना यों यहां न चले आते… जानते हो मैं यहां क्यों आई ताकि कुछ दिनों के लिए तुम से छुटकारा मिले. हथेलियों से अपने दोनों कान दबा कर विवान ने अपनी आंखें मूंद लीं और मन ही मन जैसे कोई निश्चय कर बैठा.

एक रोज, ‘‘सर, आ… आप और यहां?’’ विवान को मार्केट में देख कर आयुषी, जो कभी उस की पीए हुआ करती थी और अपनी पत्नी के कहने पर ही उस ने उसे काम से निकाला था. ‘‘सौरी सर, पर आप को इतने साल बाद देखा तो रहा नहीं गया और आवाज दे दी.’’

‘‘नो… नो… इट्स ओके. और बताओ?’’ विवान ने आयुषी को ताड़ते हुए पूछा.

‘‘बस सर सब ठीक ही है. आप सुनाएं?’’

‘‘सब ठीक ही है, बोल कर विवान

मुसकरा दिया.’’

आयुषी बोली, ‘‘मेरा घर यहीं पास में ही है. प्लीज, आप घर चलें.’’

‘‘फिर कभी,’’ कह विवान जाने को हुआ.

‘‘तभी आयुषी बोली, सर प्लीज, सिर्फ 5 मिनट के लिए चलिए.’’

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आयुषी इतना आग्रह करने लगी कि विवान न नहीं कर पाया.

चाय पीतेपीते ही विवान ने उस के पूरे घर का मुआयना किया. बुरा लग रहा था उसे देख कर कि आयुषी इतने छोटे से घर में और अभावों में जी रही है.

‘‘अरे, सर आप ने तो कुछ लिया ही नहीं… यह टेस्ट कीजिए न,’’ आयुषी की आवाज से विवान चौंका, ‘‘बसबस बहुत हो गया… सच में चाय बहुत अच्छी बनी थी. वैसे अभी तुम कर क्या रही हो, मेरा मतलब कहां जौब कर रही हो?’’

‘‘कहीं नहीं सर… घर में ही बैठी हूं… अच्छा ये सब छोडि़ए, बताइए और क्या खाएंगे आप?’’

‘‘नहींनहीं कुछ नहीं, अब घर जाऊंगा,’’ विवान बोला और फिर घर चल दिया. रास्तेभर वह यही सोचता रहा कि आखिर क्या गलती थी आयुषी की? बस यही न कि वह मुझ से खुल कर हंसबोल लेती थी और काम के ही सिलसिले में कभी मुझे फोन कर लेती थी. हां, याद है मुझे उस रोज भी एक जरूरी फाइल पर आयुषी मेरे साइन लेने मेरे घर आ गई थी और उसी बात को ले कर शैली ने कितना हंगामा मचा दिया था. यह कह कर कि वह मुझ पर डोरे डाल रही है… जानबूझ कर मेरे करीब आने की कोशिश करती है. उस वक्त मैं उस के प्यार में पागल था, इसलिए सहीगलत का अनुमान नहीं लगा पाया और उस के जोर डालने पर आयुषी को नौकरी से निकाल दिया. क्यों कर उस वक्त मैं ने शैली की बात मानी थी? क्या मैं कोई दूध पीता बच्चा था? खैर, गलती तो सुधारी भी जा सकती है न और फिर उसी वक्त विवान ने आयुषी को फोन लगा कर कल सुबह 10 बजे अपने औफिस बुला लिया.

अपने हाथ में नियुक्ति पत्र देख आयुषी की आंखें छलक आईं. आभार प्रकट

करते हुए कहने लगी, ‘‘अब मैं पहले से भी ज्यादा सक्रिय हो कर काम करूंगी और कभी किसी शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘न पहले मुझे तुम से कोई शिकायत थी और न अब है… बस समझ लो एक गलतफहमी के कारण… खैर अब छोड़ो वे सब पुरानी बातें… जाओ अपना काम करो. और हां, मुझे तुम्हारे हाथ के वे मूली के परांठे खाने हैं… क्या मिलेंगे?’’ विवान ने हंसते हुए कहा.

सुन कर आयुषी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. यह जान कर कि शैली अभी यहां नहीं है तो रोज वह कोई न कोई व्यंजन बना कर विवान के लिए ले आती और खूब आग्रहपर्वूक उसे खिलाती… अब तो यह रोज का सिलसिला बन गया था.

एक रोज यह बोल कर आयुषी ने विवान को अपने घर खाने पर आमंत्रित किया कि आज उस का जन्मदिन है.

‘‘तो फिर पार्टी मेरी तरफ से,’’ विवान बोला.

आयुषी मना नहीं कर पाई.

तोहफे के तौर पर जब विवान ने आयुषी को स्मार्टफोन और एक सुंदर ड्रैस गिफ्ट की तो वह उस का आभार प्रकट किए बिना नहीं रह पाई.

‘‘इस में आभार कैसा? अरे, यह तो तुम्हारा हक है,’’ वह हमेशा की तरह उस रोज भी विवान उसे उस के घर तक छोड़ने गया और फिर आयुषी के आग्रह करने पर कौफी पीने बैठ गया. लेकिन उस रोज कौफी पीते ही उसे खुमारी सी आने लगी और वह वहीं सो गया. सुबह जब उस की आंखें खुलीं और अपनी बगल में आयुषी को देखा तो वह हैरान रह गया, ‘‘तुम यहां और मैं यहां कैसे?’’ अचकचाया सा विवान कहने लगा.

अपने कपड़े ठीक करते हुए रोनी सी सूरत बना कर आयुषी कहने लगी कि रात में उस ने उसे शैली समझ कर उस के साथ…

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‘‘उफ, यह मुझ से क्या हो गया?’’ उस के मुंह से निकला. मगर फिर सोचने लगा कि गलत क्या किया मैं ने? कहा था उस ने कि मुझ में स्वाभिमान नाम की कोई चीज नहीं है और वह मेरे प्यार से उकता गई है… तो अब मैं बताऊंगा उसे. तरसेगी मेरे प्यार के लिए देखना… फिर उस ने आयुषी को अपने सीने से लगा लिया. कहा कि जो हुआ अच्छा हुआ. उस के बाद तो जैसे यह सिलसिला सा बन गया और इस बात का विवान को कोई मलाल भी नहीं था.

अब शैली अपने घर आने की सोचने लगी पर हैरानी उसे इस बात की हो रही थी कि उसे यहां आए महीना हो चला पर विवान ने न तो उसे एक बार भी फोन किया और न ही फिर पलट कर आया… लेकिन जाएगा कहां? क्या मेरे बिना रह पाएगा? अपने गुमान में फूलती शैली ने अपनेआप से कहा. लेकिन उसे यह नहीं पता कि उस का विवान अब पहले वाला विवान नहीं रहा… जो उस के आगेपीछे एक पागल प्रेमी की तरह मंडराता फिरता था.

इन्हीं खयालों में खोई शैली को भान नहीं रहा कि उस ने चूल्हे पर दूध चढ़ाया है. लेकिन चौंकी तो तब जब उस की बहन स्वीटी ने तेज स्वर में कहा, ‘‘अरे ध्यान कहां है तुम्हारा? देख तो दूध उफन रहा है,’’ कह कर उस ने झट से आंच बंद कर दी.

‘‘उफ, आप ने बचा लिया दीदी वरना आज तो सारा दूध बरबाद हो जाता,’’ स्वीटी का एहसान मानते हुए शैली बोली.

‘‘सही कहा तुम ने पर दूध तो दोबारा आ सकता है, लेकिन अगर जिंदगी बरबाद हो जाए तो? तो क्या उसे दोबारा संवारा जा सकता है?’’

स्वीटी की बात पर शैली ने उसे अचकचा कर देखा.

‘‘शायद इस बात का तुम्हें अंदाजा भी नहीं है कि तुम ने विवान को कितनी चोट पहुंचाई है… ऐसा क्या कर दिया उस ने जो तुम ने उस के साथ इतना खराब व्यवहार किया? यह भी नहीं सोचा कि घर में इतने सारे मेहमान हैं तो वे क्या सोचेंगे विवान के बारे में? अरे, इतना स्नेह करने वाला पति मुश्किल से ही मिलता है शैली… एक मेरा पति है जिसे दुनिया की हर औरत अच्छी लगती है सिवा मेरे और एक तेरा पति है जो तेरे सिवा किसी को नजर उठा कर भी नहीं देखता. जानती है शैली, अब मुझे पता चला कि मेरे पति का अपने ही औफिस की एक लड़की के साथ प्रेम संबंध चल रहा है तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई. सिसकते हुए जब मैं ने यह बात अपनी सास को बताई यह सोच कर कि एक औरत का दर्द एक औरत ही समझ सकती है तो पता है उन्होंने क्या कहा? कहने लगीं कि वह मर्द है जो चाहे कर सकता है और यह भी कहा कि अगर यह बात बाहर गई तो लोग मुझ पर ही ऊंगली उठाएंगे. कहेंगे कि मुझ में ही कोई कमी रही होगी, इसलिए मेरा पति किसी दूसरी औरत के पास चला गया. तो जैसे चल रहा है चलने दे.

‘‘जब मां को अपना दुखड़ा सुनाने गई तो वे कहने लगीं कि एक औरत का अकेले इस दुनिया में कोई वजूद नही होता. हर मर्द ऐसी औरत को लोलुपता भरी नजरों से देखता है. वह उसे पा लेने वाली वस्तु के रूप में देखने लगता है. क्या मैं चाहती हूं कि मेरी भी वही स्थिति हो? यह भी कहा मां ने कि मायके वाले कब तक मुझे अपने पास रख पाएंगे… अगर मैं वहां न भी जाऊं न, तो मेरे पित को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. लेकिन मेरे और मेरे बच्चे के लिए उस घर के सिवा क्या और कोई ठौरठिकाना है?

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‘‘बस मौका मिलना चाहिए मर्दों को, उन्हें फिसलते जरा भी देर नहीं लगती शैली. इसलिए छोड़ यह जिद और जा अपने घर. नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि तू भी मेरी तरह…’’

आगे पढ़ें- स्वीटी की बातें सुन शैली हक्कीबक्की रह गई….

गहराइयां: भाग-2

एकदूसरे की बांहों में शादी का 1 साल कब बीत गया उन्हें पता ही नहीं चला.

लोगों का कहना है कि जैसेजैसे शादी पुरानी होती जाती है, पतिपत्नी के प्यार में भी गिरावट आने लगती है. मतलब उन के बीच पहले जैसा प्यार नहीं रह जाता. मगर विवान और शैली की शादी जैसेजैसे पुरानी होती जा रही थी उन का प्यार और भी गहराता जा रहा था. लेकिन जिस विवान का प्यार शैली को हरी दूब का कोमल स्पर्श सा प्रतीत होता था, अब वही प्यार उसे कांटों की चुभन जैसा लगने लगा था. उस का दीवानापन अब उसे पागलपन लगने लगा था. उसे लगता या तो कुछकुछ दिनों के अंतराल पर विवान औफिस के काम से कहीं बाहर चला जाया करे या फिर उसे अकेले मायके जाने दिया करे ताकि खुल कर अपने मनमुताबिक जी सके.

आखिर कुछ दिनों के लिए उसे विवान से अलग रहने का मौका मिल ही

गया. ऐसे जाना कोई जरूरी नहीं था, पर वह जाएगी ही, ऐसा उस ने अपने मन में निश्चय कर लिया.

‘‘शादी में… पर जानू,’’ विवान अपनी पत्नी को प्यार से कभीकभी जानू भी बुलाता था, ‘‘वे तो तुम्हारे दूर के रिश्तेदार हैं न और तुम ने ही तो कहा था कि तुम्हारा जाना कोई जरूरी नहीं?’

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‘‘हांहां कहा था मैं ने, पर है तो वह मेरी बहन ही न और सोचो तो जरा कि अगर मैं नहीं आऊंगी तो चाचाजी को कितना बुरा लगेगा, क्योंकि कितनी बार फोन कर के वे मुझे आने

के लिए बोल चुके हैं… प्लीज विवान, जाने

दो न… वैसे भी यह मेरे परिवार की अंतिम

शादी है और मैं वादा करती हूं शादी खत्म होते

ही आ जाऊंगी.’’

अब शैली कुछ बोले और उस का विवान उसे न कह दे, यह हो ही नहीं सकता था. अत: बोला, ‘‘ठीक है तो फिर मैं कल ही छुट्टी

की अर्जी…’’

अचकचा कर शैली बोली, ‘‘अर्जी… प… पर क्यों? मेरा मतलब है तुम्हें वैसे भी छुट्टी की प्रौब्लम है और कहा न मैं ने मैं जल्दी आ जाऊंगी.’’

न चाहते हुए भी विवान ने शैली को जाने की अनुमति दे तो दी, पर सोचने लगा कि अब उस के इतने दिन शैली के बिना कैसे बीतेंगे? जाते वक्त बाय कते हुए शैली ने ऐसा दुखी सा मुंह बनाया जैसे उसे भी विवान से अलग होने का दुख हो रहा है पर जैसे ही ट्रेन सरकी वह खुशी से झूम उठी. लगा उसे कि जैसे वह आसमान में उड़ रही हो. उस के अकेले मायके पहुंचने पर नातेरिश्तेदार सब ने पूछा कि विवान क्यों नहीं आया? तो कहने लगी कि विवान को छुट्टी नहीं मिली. इसलिए अकेले ही आना पड़ा.

वैसे उस की भाभियां सब समझ रही थीं. चुटकी लेते हुए कहने लगीं, ‘‘ऐसे कैसे दामादजी ने आप को अकेले छोड़ दिया ननद रानी, क्योंकि वे तो आप के बिना रह ही नहीं सकते,’’ कह कर दोनों ठहाका लगा कर हंस पड़ी.

उधर शैली के बिना न तो विवान का घर में मन लग रहा था और न ही औफिस में. हर वक्त बस उसी के खयालों में खोया रहता. उसे लगता या तो किसी तरह शैली उस के पास आ जाए या फिर वह खुद ही उस के पास चला जाए.

उस के मन की बात उस के दोस्त अमन से छिपी न रह पाई. पूछा, ‘‘क्या बात है, बड़े देवदास बने बैठे हो? लगता है भाभी के बिना मन नहीं लग रहा है? अरे, तो चले जाओ न वहीं.’’

अमन की बातें सुन वह अपनेआप को वहां जाने से रोक न पाया.

‘‘उफ, आ गए मजनू… क्यों रहा नहीं गया अपनी लैला के बिना?’’ विवान को आए देख शैली की छोटी भाभी ने चुटकी लेते हुए कहा.

अचानक विवान को अपने सामने देख पहले तो शैली का दिल धक्क रह गया, ऊपर से उस की भाभी का यह कहना उस के तनबदन को आग लगा गया.

उस ने विवान को घूर कर देखा. गुस्से से उस की आंखें धधक रही थीं. यह भी न सोचा कि मेहमानों का घर है तो कोई सुन लेगा. कर्कशा आवाज में कहने लगी, ‘‘जब मैं ने तुम से बोल दिया था कि आ जाऊंगी जल्दी, तो क्या जरूरत थी यहां आने की? क्या कुछ दिन चैन से अकेले जीने नहीं दे सकते?’’

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विवान झेंपते हुए कहने लगा, ‘‘न…नहीं शैली ऐसी बात नहीं है. वह क्या है कि छुट्टी मिल गई तो सोचा… और वैसे भी तुम्हारे बिना घर में मन ही नहीं लग रहा था तो आ गया.’’

‘‘मन नहीं लगा रहा था… तो क्या मैं तुम्हारे मन लगाने का साधन हूं? अरे, कैसे इंसान हो तुम जो अपना कामकाज छोड़ कर मेरे पीछे पड़े रहते हो? मैं पूछती हूं तुम में स्वाभिमान नाम की कोई चीज है कि नहीं? जताते हो कि तुम मुझ से बहुत प्यार करते हो? अरे, नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा प्यार. सच में, उकता गई हूं मैं तुम से और तुम्हारे प्यार से… जानते हो मैं यहां क्यों आई… ताकि कुछ दिनों के लिए तुम से छुटकारा मिले, पर नहीं… तुम्हारे इस छिछले व्यवहार के कारण मेरी सारी सहेलियां और भाभियां मुझ पर हंसती हैं… अब जाओ यहां से… मुझे जब आना होगा खुद आ जाऊंगी समझे?’’ अपने दोनों हाथ जोड़ कर शैली चीखते हुए बोली.

शैली का ऐसा रूप देख विवान हैरान रह गया. उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उस की शैली उस के बारे में ऐसा सोचती है. जिस शैली को वह अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता है और जिस की खातिर वह भागता हुआ यहां तक आ गया, वह इतने लोगों के सामने उस की बेइज्जती कर देगी, उस ने सपने में भी नहीं सोचा था.

फिर बोला, ‘‘ठीक है तो फिर अब मैं यहां कभी नहीं आऊंगा… बुलाओगी तो भी नहीं,’’ अचानक विवान का कोमल स्वर कठोर हो गया और फिर वह एक पल भी वहां न ठहरा. शैली की कड़वी बातों ने आज उस के दिल के टुकड़ेटुकड़े कर डाले थे.

इधर शैली की मांबहन, भाई सब ने उसे इस बात के लिए बहुत दुत्कारा पर उसे अपनी कही बातों का जरा भी पछतावा नहीं हुआ, बल्कि दिल को ठंडक पहुंची थी अपने मन की भड़ास निकाल कर. घमंड में चूर शैली को यह भी समझ नहीं आ रहा था कि उस ने एक ऐसे इंसान का दिल तोड़ा जो उस का पति है और उसे बेइंतहा प्यार करता है.

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घर पहुंचने के बाद रात्रि के 2 पहर बीत जाने के बाद भी विवान के आंखों में नींद नहीं थी. अब भी शैली की कही बातें उस के कानों में गूंज रही थीं.

आगे पढ़ें- जैसे ही विवान शैली को फोन मिलाने लगा कि….

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