चलो एक बार फिर से: भाग-1

समर्थको कविताओं का बहुत शौक था. कविताएं पढ़ता, कुछ लिखता, लेकिन एक कविता उसे खास पसंद थी. वह अकसर गोपालदास ‘नीरज’ की कविता मीनल को सुनाया करता-

‘‘छिपछिप अश्रु बहाने वालो, मोती व्यर्थ बहाने वालो,

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है,

कुछ दीपों के बुझ जाने से आंगन नहीं मरा करता है…’’

उस के चले जाने के बाद मीनल ने इसी कविता को अपने जीवन का मंत्र बना लिया.

माना कि समर्थ उसे बीच जीवन की मझदार में अकेला छोड़ गया, ऊपर से उस की बुजुर्ग मां और 2 नन्हें बच्चों की जिम्मेदारी भी आन पड़ी. मगर कौन खुशी से इस दुनिया को अलविदा कहना चाहता है?

समर्थ भी नहीं चाहता था. जो हुआ उस पर किसी का जोर न था. समर्थ की मजबूरी थी. बिगड़ते स्वास्थ्य के आगे हार मानना और मीनल की मजबूरी थी अपनी एक मजबूरी छवि कायम रखना. यदि वह भी बिखर जाती तो इस अधूरी छूटी गृहस्थी को कौन पार लगाता? तब बच्चे केवल 8 व 10 साल के थे. कर्मठता और दृढ़निश्चय से लबरेज मीनल ने उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ा. बीए, बीएड, एनटीटी तो वह शादी से पहले ही कर चुकी थी. पहले नर्सरी टीचर, फिर सैंकडरी और फिर धीरेधीरे अपने अथक परिश्रम के बल पर वह आज वाइस प्रिंसिपल बन चुकी थी.

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नौकरी करते हुए उस ने एमएड की शिक्षा उत्तीर्ण की. अध्यापन के अलावा प्रशासनिक कार्यभार संभालने के अवसर मिलने से उस की तरक्की का मार्ग प्रशस्त होता गया. कार्यकारी जीवन में परिश्रम करने से वह कभी पीछे नहीं हटी. उस की सास सुनयना देवी ने घर व बच्चों की जिम्मेदारी बखूबी निभाई. बच्चों के प्रति उसे कभी कोई चिंता नहीं करनी पड़ी. सासबहू की ऐसी जोड़ी कम ही देखने को मिलती है.

अब बच्चे किशोरावस्था में आ चुके थे. बेटी अनिका 16 और बेटा विराट

14 साल हो चुका था. दादी को भी काफी जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल चुकी थी. दोनों बच्चे अपने कार्य स्वयं ही संभाल लिया करते. कर्मठ और जीवट मां व दादी की जोड़ी ने बच्चों में भी उच्चाकांक्षा और आगे बढ़ने की प्रेरणा का संचार किया था. अपने परिवार में एकता और सहयोग देखने के कारण अनिका और विराट में भी संवेदना व प्रेमपूर्ण भावों की कमी न थी. वे मां और दादी दोनों का भरपूर खयाल रखना चाहते थे. दोनों ने जीवन में जिन कठिनाइयों का सामना किया था, उन से वे परिचित थे और यही चाहते थे कि बड़े हो कर उन्हें सुख प्रदान कर सकें. सकारात्मक वातावरण में पलने का प्रभाव पूर्णरूप से उन के व्यक्तित्व में झलकने लगा था.

‘‘मम्मा, कल हमारे स्कूल से जो ऐजुकेशनल ऐक्सकर्शन में जा रहे हैं, उन्हें पिकअप करने पेरैंट्स को म्यूजियम पहुंचना होगा. आप याद से आ आना,’’ रात को याद दिला कर सोए थे अनिका और विराट.

अगले जब मीनल म्यूजियम के गेट पर प्रतीक्षारत थी, तो उसे आभास हुआ

जैसे कोई उस का नाम पुकार रहा हो. संशय में उस ने मुड़ कर देखा. एक बलिष्ठ पुरुष माथे पर कुछ बल लिए खड़ा उसी को ताक रहा था, ‘‘मीनल?’’

‘‘जी? पर आप?’’ मीनल के प्रश्न पर वह कुछ सकुचा गया.

‘‘पहचाना नहीं… मैं आहाद. हम दोनों एक ही क्लास में थे कालेज में.’’

‘‘ओह एय, आहाद, औफ कौर्स… अरे वाह, इतने सालों बाद… कैसे हो? यहां कैसे?’’ पुराने मित्र के यों अचानक मिल जाने से मीनल पुलकित हो उठी.

‘‘मेरी भतीजी यहां ऐजुकेशनल ऐक्सकर्शन के लिए आई है. उसी को लेने आया हूं. और तुम? कैसी हो? कहां हो आजकल?’’

आहाद के पूछने पर मीनल ने उसे अपनी स्थिति बताई और अपने घर आमंत्रित किया, ‘‘इसी वीकैंड आना होगा. कोई बहाना नहीं चलेगा. और परीजाद कैसी है? तुम दोनों ने तो शादी कर ली थी न…उसे जरूर ले कर आना…’’

वह आगे कहती तभी अनिका और विराट आ गए. उधर आहद की भतीजी भी आ गई, जो अनिका की क्लास में पढ़ती थी. बच्चों को यह जान कर बहुत खुशी हुई कि उन के बड़ी भी क्लासमेट थे. संडे की दुपहर को मिलना तय हो गया.

संडे की सुबह से ही मीनल काफी उल्लसित लग रही थी. खुशी से लंच की तैयारी की.

‘‘आज न जाने कितने समय बाद अपने किसी मित्र से मिलूंगी, मां,’’ सुनयना देवी द्वारा बहू को खुशदेख इस का कारण पूछने पर मीनल ने बताया.

अपनी बहू को खुश देख भी खुश थीं. तय समय पर आहाद पहुंच गया, हाथों में एक गुलदस्ता लिए. बच्चों के लिए चौकलेट और कुकीज भी लाया था.

‘‘अरे, लंच पर मैं ने बुलाया है और तुम इतना सामान ले आए… इस सब की क्या जरूरत थी?’’ उस के हाथ में उपहारों के पैकेट देख मीनल ने टोका, ‘‘और अकेले क्यों आए…परीजाद कहां रह गई?’’

‘‘अंदर तो आने दो, सब बताता हूं,’’ आहाद ने सुनयना देवी का अभिवादन किया और फिर लिविंगरूम में विराजमान हो गया. पानी पीने के बाद उस ने बताया कि परीजाद का उन की शादी के केवल 2 साल बाद एक कार ऐक्सीडैंट में देहांत हो गया. यह कहते हुए आहाद की नजरें शून्य में अटक कर रह गईं.

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बिना किसी की ओर देखे, भावशून्य ढंग से कही इस बात ने कमरे में शोक बिखेर दिया. आहाद के चेहरे से साफ झलक रहा था कि वह इतने सालों बाद भी परीजाद की यादों से बाहर नहीं आ सका है. कमरे में उपस्थित सभी चुप हो गए.

सुनयना देवी ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘मीनल, चाय नहीं पिलाएगी अपने मेहमान को?’’

मीनल चायनाश्ता ले कर आई तब तक आहाद बच्चों से उन की क्लास, उन की रुचियां आदि पूछने लगा. माहौल थोड़ा लाइट हो चुका था. कैसी अजीब बात है, मीनल सोचने लगी, जीवनसाथी से कितनी उम्मीदों से जुड़ते हैं, किंतु जीवनसफर में वह भी कितनी जल्दी अकेली रह गई और उस का दोस्त भी. अकेलापन भी एक प्रकार का सहचर बन सकता है, यह बात इन दोनों से बेहतर कौन जान सकता था. इसी साझे तार ने मीनल और आहाद को पुन: जोड़ दिया. अनिका और विराट भी आहाद अंकल को बहुत पसंद करने लगे.

मीनल के घर में कोई पुरुष नहीं था और आहाद के घर में कोई स्त्री. गृहस्थी के ऐसे कार्य जो मर्दऔरत के हिस्सों में बंटे रहते हैं, अब ये एकदूसरे के लिए सहर्ष करने लगे. आहाद, मीनल की कई क्षेत्रों में सहायता करने लगा. मसलन, बिजलीपानी गैस जैसी छोटीछोटी मरम्मतें, कोई खास वस्तु किसी खास बाजार से खरीद लाना, मां के लिए किसी खास दवा का इंतजाम करना आदि.

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गहराइयां: भाग-1

विवान की बांहों से छूट कर शैली अभी किचन में घुसी ही थी कि हमेशा की तरह फिर से आ कर उस ने उसे पीछे से पकड़ लिया और फिर उस के गालों को चूम लिया. शैली ने खुद को विवान की बांहों से छुड़ाने की भरसक कोशिश की, लेकिन जब उस ने उसे और जोर से अपनी बांहों में भर लिया तो मन ही मन चिढ़ उठी. बोली, ‘‘छोड़ो न विवान… वैसे भी आज उठने में काफी देर हो गई और ऊपर से तुम हो कि… क्या आज औफिस नहीं जाना है?’’

‘‘हूं, जाना तो है पर रहने दो… मैं दोपहर में आ जाऊंगा खाना खाने और इसी बहाने…’’ बात अधूरी छोड़ एक और किस शैली के गाल पर जड़ दिया. किसी तरह खुद को विवान से छुड़ाते हुए बोली, ‘‘कोई जरूरत नहीं है घर आने की. मैं नाश्ता बना रही हूं. खा कर जाना और लंच भी ले जाना.’’

‘‘तो फिर ठीक है लाओ मैं सब्जी काट देता हूं. तब तक तुम चाय बनाओ,’’ कह कर विवान सब्जी काटने लगा. वह सोचता ऐसा क्या करे, जिस से उस की शैली हमेशा हंसतीखिलखिलाती रहे. वह अपनी शैली को दुनिया की हर खुशी देना चाहता, पर वह थी कि बातबात पर अपने पति को झिड़कते रहती. हर बात में उस की बुराई निकालना जैसे उस की आदत सी बन गई थी. उसे लगता सब के पतियों की तरह उस का पति क्यों नहीं है? क्यों हमेशा रोमांटिक बना फिरता है? अरे, जिंदगी क्या सिर्फ प्यार से चलती है? और भी तो कई जिम्मेदारियां हैं घरगृहस्थी की, पर यह सावन के अंधे को कौन समझाए.’’

मगर विवान कहता, ‘‘जिंदगी तो जिंदादिली का नाम है जानी, मुरदे क्या खाक जीया करते हैं और वैसे भी जिंदगी 4 दिनों की होती है तो फिर क्यों न जीएं मौज से?’’

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उस की इसी बात पर शैली भड़क उठती, ‘‘मौज का मतलब यह नहीं होता कि हर वक्त पतिपत्नी चोंच से चोंच सटाए रखें और रोमांटिक गाने गुनगुनाते रहें… और भी बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं जीवन में समझे?’’

शैली की बात पर विवान हंस कर उसे चूम लेता और कहता, ‘‘तुम्हें जो सोचना है सोचो पर मैं तो ऐसा ही रहूंगा.’’

विवान बहुत ही रंगीन मिजाज का इंसान था. वह पत्नी को दिल की गहराइयों से प्यार करता था. लेकिन शैली को उस के प्यार की जरा भी कद्र नहीं थी. उसे लगता प्यार के नाम पर वह सिर्फ बकवास और दिखावा करता रहता है. उस की सारी सहेलियां इस बात को ले कर खूब चुटकी लेतीं. कहतीं, ‘‘अरे भई, हम भी तो शादीशुदा हैं. इस का यह मतलब थोड़े ही न है कि हर वक्त बस पति की बांहों में समाए रहो.’’

उन की बातें सुन कर वह खीसें निपोर लेती… मन ही मन यह सोच कर कुढ़ जाती कि अब ऐसा ही पति मिला है तो क्या करे?

गुस्से से हांफती और जबान से जहर उगलती शैली ने विवान के हाथ से चाकू छीन लिया और सारा गुस्सा सब्जी पर उतारने लगी. मन तो किया उस का कि सारी सब्जी उठा कर कचरे के डब्बे में फेंक दे और कहे कि कोई जरूरत नहीं बारबार घर आ कर मुझे परेशान करने की. उस का तो मन करता कि कैसे जल्दी विवान औफिस चला जाए और उस की जान छूटे.

विवान को औफिस भेजने के बाद घर के बाकी काम निबटा कर अभी शैली बैठी ही थी कि उस का फोन घनघना उठा. विवान का फोन था और यह सिलसिला भी सालों से चलता आ रहा था. मतलब, औफिस पहुंचते ही सब से पहले वह शैली को फोन लगा कर जब तक उस से बात न कर लेता उसे चैन नहीं पड़ता था और इस बात पर भी शैली को काफी चिढ़ होती थी. कभीकभी तो उस का मन करता कि फोन को बंद कर के रख दे ताकि विवान उसे फोन ही न कर पाए, पर यह सोच कर वह ऐसा नहीं करती कि पिछली बार की तरह फिर वह दौड़ताभागता घर पहुंच जाएगा और बेवजह महल्ले में उस का तमाशा बन जाएगा.

एक बार ऐसा ही हुआ था. किसी कारणवश गलती से शैली का फोन बंद हो गया

और उसे इस बात का पता नहीं चला. लेकिन विवान के कई फोन लगाने पर भी जब उस का फोन बंद ही आया तो उसे लगा कि शैली को कुछ हो गया है. दौड़ताहांफता घर पहुंच गया और जोरजोर से दरवाजा पीटने लगा. आवाज सुन कर आसपड़ोस के लोग इकट्ठे हो गए. बाहर लोगों का शोर सुन जब शैली की आंख खुली और उस ने दरवाजा खोला तो विवान उसे पकड़ कर कहने लगा, ‘‘शुक्र है शैली तुम ठीक हो… तुम्हारा फोन नहीं लग रहा था, इसलिए मैं घबरा गया था,’’ कह कर वह सब के सामने शैली को गले से लगा कर चूमने लगा था. देखा तो सच में फोन बंद था. बैटरी खत्म हो गई थी. शैली शर्मिंदा हो उठी कि उस के कारण… पर फिर यह सोच कर मन ही मन फूले नहीं समाई कि उस का पति उसे कितना प्यार करता है. दौड़ताभागता घर पहुंच गया.

मगर अब उसी विवान का प्यार उसे बंधन सा प्रतीत होने लगा था. उसे लगता जैसे वह एक सोने के पिंजरे में कैद है. जिस विवान के प्यार पर कभी वह इतराती थी अब उसी प्यार से वह ऊबने लगी थी. दम घुटने सा लगा था उस का. विवान का उसे हर पल निहारते रहना, जब मन आए उसे अपनी गोद में उठा कर चूमने लगना, उस की हर छोटीछोटी चीजों का भी खयाल रखना, कभी अपनेआप से दूर न होने देना अब उसे गले का फंदा लगने लगा था. प्यार वह भी करती थी अपने पति से पर एक हद में. उस का सोचना था कि पतिपत्नी हैं तो क्या हुआ, आखिर उन्हें भी तो अपने जीवन में थोड़ी स्पेस चाहिए, जो उसे मिल नहीं रही थी. मगर उस की सोच से अनजान विवान बस हर पल उसी के खयालों में खोया रहता था.

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इसी बात को ले कर शैली की दोनों भाभियां उस का मजाक बनातीं. कहतीं कि उस का पति तो उस के बिना एक पल भी नहीं रह पाता. एक बच्चे की तरह उस के पीछेपीछे घूमता रहता है. उन की कही बातें शैली को अंदर तक भेद जातीं. उसे लगता उस की भाभियां उस पर तंज कस रही हैं, उस का मजाक उड़ा रही हैं. लेकिन उसे यह नहीं पता था कि वे उस से जलती हैं. उन्हें बरदाश्त नहीं होता कि शैली का पति उस पर अपनी जान छिड़के.

विवान को कोई लड़की पसंद न आने की वजह से उस के मातापिता काफी परेशान रहने लगे थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आखिर विवान को कैसी लड़की चाहिए? आखिर एक दिन उसे अपनी पसंद की लड़की मिल ही गई. दरअसल, विवान अपने एक दोस्त की शादी में गया था वहीं उस ने शैली को देखा तो देखता ही रह गया. उस की खूबसूरती पर वह ऐसे मरमिटा जैसे चांद को देख कर चकोर. कब नेत्रों के रास्ते शैली उस के मन में समा गई उसे पता ही नहीं चला. उस से अपनी शादी के बारे में सोच कर ही उस का मनमयूर नाच उठा. जब उस के मातापिता को यह बात मालूम पड़ी तो उन्होंने जरा भी देर न कर अपने बेटे की शादी शैली के साथ तय कर दी.

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चलो एक बार फिर से: भाग-2

इसी प्रकार मीनल भी आहद की किचन में जरूरी सामान भरवा देती, कभी उस के लिए मेड खोज कर उसे काम समझा देती, तो कभी उस की अलमारी ही संवार देती.

अनिका और विराट इस तालमेल से बेहद प्रसन्न थे. उन की याद में उन्होंने अपने पापा नहीं देखे थे. पापा का सुख, एक पुरुष की गृहस्थी में उपस्थिति उन्हें बहुत भा रही थी. एक रात सोने से पहले थोड़ी गपशप लगाते हुए विराट बोला पड़ा, ‘‘कितना अच्छा होता न अगर आहाद अंकल ही हमारे पापा होते. वैसे उन की फैमिली तो है नहीं.’’

‘‘क्या तू भी वही सोचता है जो मैं?’’ उस की बात सुन अनिका बोली और फिर दोनों ने गुपचुप योजना बनानी शुरू कर दी. जब भी घर में कुछ अच्छा पकता तो अनिका जिद करती कि वे उस डिश को आहाद तक पहुंचा कर आएं.

‘‘कम औन मम्मा, आहाद अंकल आपके फ्रैंड हैं और आप उन के लिए इतना भी नहीं कर सकतीं?’’

एक दिन खेलते समय विराट के पैर की हड्डी टूट गई. मीनल उस दिन अपने

स्कूल में थी, किंतु उसे फोन पर बताने के बजाय विराट ने झट आहाद को फोन मिला दिया. ‘‘अंकल, मेरे पैर में काफी चोट लग गई है, आप प्लीज आ जाओ न… मम्मी भी नहीं हैं घर पर.’’

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आहाद फौरन उन के घर पहुंचा और अस्पताल ले जा कर विराट को पलस्तर चढ़वाया. जब बाद में मीनल को सारा प्रकरण पता चला तो विराट और अनिका दोनों ही आहाद अंकल के गुणगान करते नहीं थके, ‘‘देखा मम्मा, कितने ज्यादा अच्छे हैं आहाद अंकल.’’

‘‘हांहां, मुझे पता है कि तुम दोनों आजकल आहाद अंकल के फैन बने हुए हो,’’ हंसते हुए मीनल बोली.

‘‘काश, आहाद अंकल ही हमारे पापा होते,’’ विराट के मुंह से निकल गया. लेकिन मीनल ने ऐसे बरताव किया जैसे उस ने यह बात सुनी नहीं. विराट भी फौरन चुप हो गया.

मीनल समझने लगी थी कि बच्चों के मन में क्या चल रहा है, परंतु अपने मन में ऐसी किसी भावना को वह हवा नहीं देना चाहती थी. ऐसा नहीं है कि वह आहाद को पसंद नहीं करती थी. आहाद पहले से ही एक सुलझे हुए शांत व्यक्तित्व का स्वामी था. इतने वर्षोंपरांत पुन: मिलने पर मीनल ने पाया कि समय के अनुभवों ने उस के स्वभाव को और भी चमका दिया है.

आहाद भी मीनल के जीवट व्यक्तित्व, सकारात्मक स्वभाव व बौद्धिक क्षमता से प्रभावित था. कह सकते हैं कि पारस्परिक प्रशंसा दोनों में आकर्षण को जन्म देने लगी थी, किंतु यह बात अभी यहीं पर विराम थी. यह एक बेहद जटिल विषय था. न जाने कितने समय बाद मीनल की जिंदगी में एक मित्र का आगमन हुआ था. ऐसी किसी भी एकतरफा भावना से वह इस दोस्ती को खोना नहीं चाहती थी और फिर पुनर्विवाह, वह भी बच्चों के बाद… हमारे संस्कार ऐसी बात सोचते समय ही मनमस्तिष्क की लगाम कसने लगते हैं.

औरतों को शुरू से ही संस्कार के नाम पर कमजोर करने वाले विचार सौंपे जाते हैं जो उन की शक्ति कम और बेडि़यां अधिक बनते हैं. आत्मनिर्भर सोच रखने वाली लड़की भी कठोर कदम उठाने से पहले परिवार तथा समाज की प्रतिक्रिया सोचने पर विवश हो उठती है. एक ओर जहां पुरुष पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी राय देता है, पूरी बेबाकी से आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत रखता है, वहीं दूसरी ओर एक स्त्री छोटे से छोटे कार्य से पहले भी अपने परिवार की मंजूरी चाहती है.

उस शाम आहाद मीनल के घर आया हुआ था, ‘‘इस फ्राइडे ईवनिंग को

मूवी का प्रोग्राम बनाएं तो कैसा रहे? बच्चों को पसंद आएगी ‘एमआईबी’ वह भी ‘थ्री डी’ में.’’ आहाद के पूछने पर दोनों बच्चे तालियां बजा कर अपना उल्लास दर्शाने लगे तो मीनल और सुनयना देवी भी हंस पड़ीं.

आहाद ने सभी के लिए टिकट बुक करवा दिए. तय हुआ कि आहाद और मीनल अपनेअपने कार्यस्थल से और बच्चे और उन की दादी घर से सीधा मूवीहौल पहुंचेंगे.

मगर हुआ कुछ और ही. जब मीनल और आहाद मूवीहौल के बाहर बच्चों की प्रतीक्षा करते हुए थक गए तब उन्होंने सुनयना देवी को फोन कर के पूछा कि आने में और कितनी देर लगेगी?

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‘‘बच्चे कह रहे हैं कि तुम दोनों अंदर चल कर बैठो, कहीं पिक्चर न निकल जाए. हमारे पास अपने टिकट हैं, हम आ कर तुम्हें जौइन कर लेंगे,’’ सुनयना देवी के कहने पर मीनल और आहाद मूवीहौल के अंदर चले गए.

पिक्चर शुरू हो गई पर बच्चों का कोई अतापता न था. कुछ देर में दोबारा फोन करने पर पता चला कि अनिका का पेट खराब हो गया है, इसलिए थोड़ी देरी से आ पाएंगे.

‘‘न… न… तुम्हें वापस आने की कोई जरूरत नहीं है. तुम अपनी पिक्चर क्यों खराब करते हो, यहां मैं संभाल रही हूं,’’ दादी ने आश्वासन दिया.

इधर घर में अनिका को ले कर सुनयना देवी काफी परेशान हो रही थीं, ‘‘क्या डाक्टर के पास ले चलूं?’’

उन के प्रश्न पर अनिका और विराट का एकदूसरे की ओर देख कर आंखोंआंखों में की गई इशारेबाजी सुनयना देवी ने देख ली. बोली, ‘‘अब तुम दोनों यह बेकार की उलझन खत्म करो और असली मुद्दे पर आओ. आखिर मैं ने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किए. क्या खिचड़ी पका रहे हो तुम दोनों.’’

दादी के वर्षों के अनुभव तथा पारखी नजर पर दोनों बच्चे हैरान रह गए. फिर खिसियानी हंसी के साथ उन्होंने बात आगे बढ़ाई, ‘‘दादी, हम जानबूझ कर आज मूवी देखने नहीं गए. हम चाहते थे कि मम्मी और आहाद अंकल को अकेले पिक्चर देखने भेजें,’’ फिर कुछ रुक कर बच्चे आगे कहने लगे, ‘‘दादी, हमें आहाद अंकल बहुत अच्छे लगते हैं. और हम सोच रहे हैं कि कितना अच्छा हो अगर अंकल हमारे पापा बन जाएं.’’

बच्चों का हर्षोल्लास देख दादी ने उन्हें टोका नहीं. नन्हें बच्चों के अबोध मन में अपने पिता के रिक्त स्थान में आहाद की छवि दिखने लगी थी.

‘‘बोलो न दादी, हम सही सोच रहे हैं न? ऐसा हो सकता है क्या?’’ अनिका पूछने लगी.

विराट भी उत्साहित था. बोला, ‘‘कितना मजा आएगा न. मम्मा की शादी… हमारे फ्रैंड्स की तरह हमारे भी पापा होंगे. व्हाट अ थ्रिल,’’ बच्चे अपनी मासूमियत में अपने मन की बात कहे जा रहे थे. न कोई झिझक, न कोई संकोच.

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चलो एक बार फिर से: भाग-3

मूवी खत्म होने पर मीनल और आहाद घर की ओर निकलने को थे कि आहाद ने कौफी पीने की गुजारिश की, ‘‘मैं समझता हूं मीनल कि तुम्हें अनिका के पास जाने की जल्दी हो रही होगी पर आज हम दोनों अकेले हैं तो… दरअसल, कई दिनों से तुम से कुछ कहना चाह रहा हूं पर हिम्मत साथ नहीं दे रही…’’

‘‘ऐसी क्या बता है, आहाद? चलो, पास के कैफे में कुछ देर बैठ लेते हैं,’’ कहते हुए मीनल ने अपने घर फोन कर निश्चित कर लिया कि अनिका की तबीयत अब ठीक है.

कैफे में आमनेसामने बैठ कर कुछ न बोल कर आहाद बस चुपचाप मीनल को देखता रहा. आज उस की नजरों में एक अजीब सा आकर्षण था, एक खिंचाव था जिस ने मीनल को अपनी नजरें झुकाने पर विवश कर दिया.

बात को सहज बनाने हेतु वह बोल पड़ी, ‘‘आहाद, परीजाद को गए इतना वक्त गुजर गया… इतने सालों में तुम ने पुनर्विवाह के बारे में क्यों नहीं सोचा?’’

‘‘तुम से मुलाकात जो नहीं हुई थी.’’

आहाद के कहते ही मीनल अचकचा कर खड़ी हो गई. ऐसा नहीं था कि उसे आहाद के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. संभवत: उस का मन यही बात आहाद से सुनना चाहता था. वह तो यह भी जानती थी कि उस के बच्चे भी ऐसा ही चाहते हैं. पर आज यों अचानक आहाद के मुंह से ऐसी बात सुनने की अपेक्षा नहीं थी. खैर, मन की बात कब तक छिप सकती है. भला. आहाद की बात सुन कर मीनल के नयनों में लज्जा और अधरों पर मुसकराहट खेल गई. दोनों की नजरों ने एकदूसरे को न्योता दे दिया.

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मीनल की हंसी के कारण आहाद की हिम्मत थोड़ी और बढ़ी, ‘‘मैं तुम्हें पसंद करने लगा हूं और लगता है कि अनिका और विराट भी मुझे स्वीकार लेंगे. वे मुझ से अच्छी तरह हिलमिल गए हैं. बस एक बात की टैंशन है कि हमारे धर्म अलग हैं. यह बात मेरे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है… लेकिन हो सकता है कि तुम्हारे लिए हो. मेरे लिए धर्म बाद में आता है और कर्म पहले… हम इस जीवन में क्या करते हैं, किसे अपनाते हैं, किस से सीखते हैं, इन सभी बातों में धर्म का कोई स्थान नहीं है. हमारे गुरु, हमारे मित्र, हमारे अनुभव, हमारे सहकर्मी, जब सभी अलगअलग धर्म का पालन करने वाले हो सकते हैं तो हमारा जीवनसाथी क्यों नहीं… मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के कारण आकर्षित हुआ हूं और धर्म के कारण मैं एक अच्छी संगिनी को खोना नहीं चाहता. आगे तुम्हारी इच्छा.’’

हालांकि मीनल भी आहाद के व्यक्तित्व और आचारविचार से बहुत प्रभावित थी, किंतु धर्म एक बड़ा प्रश्न था. जीवन के इस पड़ाव पर आ कर मिली इस खुशी को वह खोना नहीं चाहती थी. खासकर यो जानने के बाद कि आहाद भी उसे पसंद करता है. मगर इतना बड़ा निर्णय वह अकेली नहीं ले सकती थी. सुनयना देवी से पूछने की बात कह मीनल घर लौट आई.

अगले दिन मीनल ने स्कूल से छुट्टी ले ली. जब बच्चे स्कूल चले

गए तब नाश्ते की टेबल पर मीनल ने सुनयना देवी से बात की. इतने सालों में इन दोनों का रिश्ता सासबहू से बढ़ कर हो गया था. मीनल ने जिस सरलता से आहाद के मन की बात बताई उसी रौ में अपने दिल क बात भी साझा की. आहाद द्वारा कही अंतरधर्म की शंका भी बांटी, ‘‘आप क्या सोचतीं इस विषय में मां?’’

कुछ क्षण दोनों के दरमियान चुप्पी छाई रही. मुद्दा वाकई गंभीर था. दूसरे प्रांत या दूसरी जाति नहीं वरन दूसरे धर्म का प्रश्न था. कुछ सोच कर मां ने प्रतिउत्तर में प्रश्न किया, ‘‘क्या तुम आहाद से प्यार करती हो?’’

मनील की चुप्पी में मां को उत्तर दे दिया. बोली, ‘‘देखो मीनल,समर्थ के जाने के बाद तुम ने किन परिस्थितियों का सामना किया यह मुझे भी पता है और तुम्हें भी. अब तक तुम अकेली ही जूझती आई. मैं चाहती हूं कि तुम्हारा घर बसे, तुम्हारा जीवन भी प्रेम से सराबोर हो, तुम एक बार फिर से गृहस्थी का सुख भोगो. तुम जो भी निर्णय लोगी, मैं तुम्हारे साथ हूं.’’

सुनयनादेवी के लिए मीनल के प्रति उन का प्यार हर मुद्दे से ऊपर आता था, ‘‘चलो, कल तुम्हारे मातापिता से मिल कर आगे की बात तय कर लेते हैं.’’

अगले दिन आहाद ने बच्चों को मूवी और मौल घुमाने का कार्यक्रम बनाया और मीनल व सुनयना देवी चल दीं उस के मायके.

‘‘भाईसाहब और बहनजी, हमारी मीनल के जीवन में एक बार फिर से बहार दस्तक दे रही है. इसी के कालेज में पढ़ा एक लड़का इस से शादी करना चाहता है. हम इस विषय में आप की राय चाहते हैं. मोहम्मद आहाद नाम है उस का. मुझे और बच्चों को भी वह लड़का बहुत पसंद आया. सब से अच्छी बात यह है कि धर्म की दीवार इन दोनों के प्यार के आढ़े नहीं आई. दोनों को अपने संस्कारों, अपनी संस्कृतियों पर गर्व है. कितना सुदृढ़ होगा वह परिवार जिस में 2-2 धर्मों, भिन्न संस्कृतियों का मेल होगा.’’

सुनयना देवी के कहते ही मीनल के मायके वालों ने हंगामा खड़ा कर डाला.

‘‘शर्म नहीं आई अपनी ही दूसरी शादी की बात करते और वह भी एक अधर्मी से.’’ बस इतना ही प्यार था समर्थ जीजाजी से? अरे, डायन भी 7 घर छोड़ देती है पर तुम ने ही घर वालों को नहीं बख्शा, मीनल का भाई गरजने लगा.

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भाभी भी कहां पीछे रहने वाली थीं, ‘‘मैं क्या मुंह दिखाऊंगी अपने समाज में? मेरे मायके में मेरी छोटी बहन कुंआरी है अभी. उस की शादी कैसी होगी यह बात खुलने पर.’’

धम्म से जमीन पर गिरते हुए मां अपने पल्लू से अपने आंसू पोंछने में व्यस्त हो गई. तभी मीनल की बड़ी विवाहित बहन पास के अपने घर से आ पहुंची. उसे भाई ने फोन कर बुलवाया था. बहन ने आ कर मां के आंसू पोंछने शुरू कर दिए,‘‘अरे, ऐसी कुलच्छनी के लिए क्यों रोती हो, मां? एक को खा कर इस का पेट नहीं भरा शायद… इस उम्र में ऐसी जवानी फूट रही है कि जो सामने आया उसी से शादी करने को मचलने लगी? यह भी नहीं सोचा कि एक मुसलमान लड़का है वह. ऐसे लोग ही लव जिहाद को हवा देते हैं’’, कहते हुए बहन ने घूणास्पद दृष्टि मीनल पर डाली.

उस का मन हुआ कि वह इसी क्षण यहां से कहीं लुप्त हो जाए.

‘‘सौ बात की एक बात मीनल कि यह शादी होगी तो मेरी लाख के ऊपर से होगी. अब तेरी इच्छा है. अपनी डोली चाहती है या अपनी मां की मांग का सिंदूर’’, पिता की दोटूक बात पर मां का रुदन और बढ़ गया.

मीनल बेचारी सिर झुकाए चुपचाप रोती रही.

इतने कुहराम और कुठाराघात की मारी मीनल धम से सोफे पर गिर पड़ी. ठंड में भी उस के माथे से पसीना टपकने लगा. उस के पैर कंपकंपाने लगे, गला सूख गया, आंखें छलछला गईं. ऐसा लग रहा था कि उस के मन की कमजोरी उस के तन पर भी उतर आई है, ‘‘पापा, प्लीज अब रहने दीजिए’’, पता नहीं मीनल की आवाज में कंपन मौसम के कारण था या मनोस्थिति के कारण. इस बेवजह के तिरस्कार से वह थक गई. ‘‘गलती हो गई जो मैं ने ऐसा सोचा. मुझे कोई शादीवादी नहीं करनी है.’’

अपेक्षा विपरीत मीनल के पुनर्विवाह न करने का निर्णय उस के मायके वालों को स्वीकार्य था, लेकिन दूसरे धर्म के नेक, प्यार करने वाले लड़के से शादी नहीं.

अचानक सुनयना देवी खड़ी हो गईं, ‘‘मीनल एक शिक्षित, सुसंस्कारी, समझदार स्त्री है. जब से इस की शादी समर्थ से हुई, तब से यह मेरे परिवार का हिस्सा है. यह मेरी जिम्मेदारी है… हम कब तक अपनी मार्यादाओं के संकुचित दायरों में रह कर अपने ही बच्चों की खुशियों का गला घोंटते रहेंगे? जब हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षादीक्षा प्रदान करते हैं तो उन के निर्णयों को मान क्यों नहीं दे सकते?’’ फिर मीनल की ओर रुख करते हुए कहने लगीं, ‘‘मीनल, तुम मन में कोई चिंता मत रखो. तुम आज तक बहुत अच्छी बहूबेटी बन कर रहीं. अब हमारी बारी है. आज यदि तुम्हें कोई ऐसा मिला है जिस से तुम्हारा मन मिला है तो हम तुम्हारी खुशी में रोड़े नहीं अटकाएंगे. मैं तुम्हारे हर निर्णय में तुम्हारे साथ हूं.’’

फिर कुछ देर रुक कर मीनल का हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए सुनयना देवी बोली, ‘‘मीनल, याद है वह कविता जिसे समर्थ अकसर सुनाया करता था-’’

‘‘कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पण नहीं मरा करता है,

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है.’’

मां के अडिग, अटल समर्थन ने सब को चुप करवा दिया.

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रिश्ता और समझौता: भाग-3

जेनिफर अंदर आई और बेकाबू हो कर बिलखबिलख कर रोने लगी. सुमन समझ नहीं पा रही थी कि कैसे रिएक्ट करें. फिर उस ने खुद को संभाला और पूछा, ‘‘क्या हुआ जेनी तुम रो क्यों रही हो? कुछ तो बताओ… क्या मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकती हूं?’’ सुमन ने जेनिफर को गले लगाते हुए कहा.

‘‘सुमन मेरा बौयफ्रैंड अव्वल नंबर का धोखेबाज निकला. उस का किसी दूसरी लड़की के साथ अफेयर चल रहा है. उस ने मुझ से यह बात छिपाई और ऊपर से मेरे सारे पैसे उस लड़की पर खर्च कर दिए. अब मैं बिलकुल कंगाल हूं. जब मैं ने उस से पूछा तो उस ने कहा कि हम दोनों अलग हो जाएंगे. हम कानूनी रूप से विवाहित तो नहीं जो मैं अदालत से मदद ले सकूं… गुजाराभत्ता के रूप में मोटी रकम ले सकूं. अगर इस में एक व्यक्ति दगाबाज निकले तो दूसरा कुछ भी नहीं कर सकता और मैं उसी हालत में हूं. मेरी सारी बचत को उस ने लूट लिया.’’

सुमन उसे सांत्वना देने की कोशिश कर रही थी. जेनिफर ने पूछा, ‘‘क्या मैं आप लोगों के साथ तब तक रह सकती हूं जब तक कि मुझे एक और अपार्टमैंट और रूममेट नहीं मिलता है?’’

सुमन ने कहा, ‘‘बेशक

जेनी यह भी कोई पूछने वाली बात है क्या?’’

जेनिफर की हालत देख कर क्लारा को भी तरस आ गया और उसे अपने साथ रहने की इजाजत दे दी.

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शाम को दफ्तर से आने पर राधिका ने पूरी कहानी सुनी. उसे अजीब सी बेचैनी हुई कि एक आदमी इतना मतलबी कैसे हो सकता है और उस के साथ ऐसा व्यवहार भी कर सकता है, जो उस से प्यार कर के उस के साथ रहने आई थी. वह सोच भी नहीं सकती कि एक इंसान इतनी ओछी हरकत कर सकता है. तीनों सहेलियां एकसाथ खाना खा कर इसी बारे में बात करती रहीं.

बातोंबातों में क्लारा ने अपनी समस्या बताई, ‘‘मैं भी ऐसी मुश्किल घड़ी से गुजर चुकी हूं. जब मैं अपने बौयफ्रैंड से ब्रेकअप कर के बाहर आई थी तो पूरी तरह टूट चुकी थी और मेरा बैंक बैलेंस भी शून्य था. हमारे देश में यह एक मामूली समस्या बन चुकी है. ऐसा नहीं है कि केवल लड़के ही धोखा देते हैं. कभीकभी लड़कियां भी ऐसी गिरी हरकत करती हैं. इस तरह के रिश्ते की नींव आपसी विश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है और अकेले ही इस स्थिति का सामना करना पड़ता है.

‘‘एक तरह से मुझे लगता है कि आप का देश अच्छा है सुमन. आप की शादियों में सभी बुजुर्ग और परिवार के अन्य सदस्य शामिल होते हैं और यह 2 व्यक्तियों का नहीं, बल्कि 2 परिवारों का मिलन बन जाता है. हमारे मामले में हम इस बड़ी दुनिया में अकेले हैं. 18 साल की उम्र में हम अपने परिवारों से बाहर आते हैं और हमें अकेले ही दुनिया का सामना करना पड़ता है. मेरे 3 ब्रेकअप हो चुके हैं और तुम जानती हो कि हर ब्रेकअप कितना दर्दनाक होता है… एक बार मैं एक गहरे मानसिक अवसाद में चली गई और अभी भी उस अवसाद के लिए गोलियां ले रही हूं… अब मैं अकेली हूं. वास्तव में मैं अब एक नए रिश्ते से डर रही हूं कि इस बार भी मुझे प्यार के बदले में छल ही मिलेगा,’’ और फिर क्लारा ने लंबी सांस भरी.

‘‘सुमन हर हफ्ते आप के मातापिता आप से बात करते हैं और यह एक अच्छा एहसास है कि इस दुनिया में कोई है, जो आप को बहुत प्यार देता है और आप की चिंता करता है. जब मैं 10 साल की थी तब मेरे मातापिता अलग हो गए थे और इस से मैं बहुत परेशान थी. मुझे अपनी मां के नए प्रेमी को स्वीकारने में बहुत समय लगा. मेरे पिताजी समय मिलने पर कभी फोन किया करते थे, लेकिन कभी भी मेरे साथ समय नहीं बिताया. मेरे 2 सौतेली बहनें और 2 सौतेले भाई हैं. मेरे पिता के अन्य महिलाओं के माध्यम से बच्चे हैं और मेरी मां के भी अन्य पुरुषों के साथ बच्चे हैं. मेरी मां कभी हम सब को मिलने के लिए बुलाती है. उस समय हम एकदूसरे से मिलते हैं… वह अवसर बहुत औपचारिक होता था,’’ क्लारा ने दुखी मन से बताया.

‘‘हमारे गुजाराभत्ता कानून महिलाओं के लिए बहुत सख्त और अनुकूल है और यही कारण है कि ज्यादातर अमीर पुरुष कानूनी शादी पसंद नहीं करते हैं. अगर हम शादीशुदा हैं और अलग हो गए हैं तो उन्हें हमारे द्वारा लिए गए पैसे वापस करने होंगे और गुजाराभत्ता के रूप में मोटी रकम भी चुकानी होगी. अब इस प्रकार के संबंधों में कानून कोई भूमिका नहीं निभाता है. हमें इसे अकेले ही निबटना होगा.

‘‘हर बार जब रिश्ते में धोखा खाते हैं तो लड़कियां हमेशा के लिए टूट जाती हैं. मुझे एक गहरी प्रतिबद्धता के साथ संबंध पसंद हैं. सुमन जब मैं आप की मां को आप से बात करते हुए देखती हूं, हालांकि मुझे आप की भाषा नहीं पता, मगर उन की अभिव्यक्ति से पता चलता है कि वे आप से कितना प्यार करती हैं… आप की खातिर किसी भी तरह का दुख भोगने के लिए तैयार हैं… हमारे देश में ऐसा नहीं है. यहां हर किसी को एक अलग व्यक्ति माना जाता है,’’ क्लारा की इस बात पर जेनिफर ने भी हामी भर ली.

राधिका सुमन की तरफ देख कर मुसकराई. सुमन समझ सकती थी कि वह क्या कहना चाहती है. सुमन को लगा कि हर जगह समस्याएं हैं. लिव इन रिलेशनशिप भी इतना आसान नहीं है, जितना हरकोई कल्पना करता है. भारतीय परिस्थितियों और भारतीय पुरुषों के साथ तो यह और भी कठिन है.

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सुमन सोच में पड़ गई. एक बात उस की समझ में आई कि यदि आप के पास कानूनी सुरक्षा है, तो आप एक तरह से सुरक्षित हैं कि आप से आप का पैसा नहीं छीना जाएगा और ब्रेकअप के बाद आदमी को मुआवजा देना होगा और फिर जब आप विवाहित होते हैं तो आप की सामाजिक स्वीकृति भी होती है.

उस रविवार को जब उस के मातापिता लाइन पर आए तो सुमन ने अपने पिताजी से

कहा, ‘‘मैं अब उलझन में नहीं हूं पापा… ऐसा लग रहा है कि ऐसा कोई भी तरीका नहीं है, जो बिलकुल सही या बिलकुल गलत है.’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो बेटा. कोई भी व्यवस्था हर माने में सही या गलत नहीं हो सकती… हमें ही समझदारी के साथ काम करना पड़ेगा.

‘‘बेटा कोई भी शादी या रिश्ता इस दुनिया में ऐसा नहीं चाहे वह न्यूयौर्क हो या मुंबई ऐसा नहीं जो सौ फीसदी परफैक्ट हो. कोई न कोई कमी तो होती ही है और उसे नजरअंदाज कर के आगे बढ़ने में ही बेहतरी होती है. किसी भी रिश्ते की सफलता के लिए हर किसी को कुछ देना पड़ता है. तुम ही एक उदाहरण हो. तुम शुद्ध शाकाहारी हो मगर क्लारा के साथ एक ही रसोई को साझा कर रही हो क्यों? क्योंकि तुम क्लारा को ठेस पहुंचाना नहीं चाहती और उस से भी बढ़ कर तुम क्लारा से अपने रिश्ते का मूल्य समझती हो और उस की इज्जत करती हो, है न? जीवन भी इसी तरह है. अगर आप रिश्ते को बनाए रखना चाहते हैं तो मुकाम पर आप को हर हाल में समझौता करना होगा.’’

‘‘हर संस्कृति की अपनी ताकत और कमजोरी होती है. अमेरिकी संस्कृति की अपनी ताकत है कि यह हर व्यक्ति को मजबूत और आत्मनिर्भर बनाती है और वह कम उम्र में ही दुनिया से अकेले लड़ने की सीख देती है. मगर उस के लिए उन लोगों को किनकिन कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है यह आप ने खुद देख लिया.

‘‘हमारी भारतीय संस्कृति हमेशा परिवार की अवधारणा में विश्वास करती है और रिश्ते हमेशा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता रहे हैं. इस में कुछ ताकत और कमजोरी हो सकती है. समझौता हर रिश्ते का एक अभिन्न हिस्सा है, चाहे 2 लोग दोस्त हों या विवाहित.’’

अपने पिता से बात करने के बाद सुमन बहुत हलका महसूस कर रही थी. ‘जब वह एक रूममेट के लिए समझौता कर सकती है, वह भी एक विदेशी से तो फिर उस आदमी के लिए क्यों नहीं जो जीवनभर उस का साथी बनने वाला है, जो उस की सफलताओं और असफलताओं में उस के जीवन का हिस्सा बनने जा रहा है… वह है उस के जीवन का एक हिस्सा… यदि उस के लिए नहीं तो फिर वह किस के लिए समझौता करेगी,’ सुमन सोच रही थी.

अब सुमन ने फैसला कर लिया. वह आशीष से शादी करने के लिए तैयार थी और उस के साथ आने वाले समझौतों के लिए भी आशीष को वह मनाएगी ही क्योंकि 2 साल से वह भी उसी का इंताजर कर रहा है. आखिर समझौते के बिना जिंदगी ही क्या है.

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तसवीर: भाग-1

‘‘मुझे कल तक तुम्हारा जवाब चाहिए,’’ कह कर केशवन घर से बाहर जा चुका था. मालविका में कुछ कहनेसुनने की शक्ति नहीं रह गई थी. वह एकटक केशवन को जाते तब तक देखती रही, जब तक उस की गाड़ी आंखों से ओझल नहीं हो गई.

उस ने सपने में भी न सोचा था कि एक दिन वह इस स्थिति में होगी. केशवन ने उस से शादी का प्रस्ताव रखा था. उस के मन की मुराद पूरी होने जा रही थी. लेकिन एक तरफ उस का मन नाचनेगाने को कर रहा था, तो दूसरी तरफ वह अपने घर वालों की प्रतिक्रिया की कल्पना कर के परेशान हो रही थी.

जब वे सुनेंगे कि मालविका वापस इंडिया लौट कर नहीं आ रही है, तो पहले तो आश्चर्य करेंगे, भुनभुनाएंगे और जब जानेंगे कि वह शादी करने जा रही है तो गुस्से से फट पड़ेंगे.

‘अरे इस मालविका को इस उम्र में यह क्या पागलपन सूझा?’ वे कहेंगे, ‘लगता है कि यह सठिया गई है. इस उम्र में घरगृहस्थी बसाने चली है…’

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लोग एकदूसरे से कहेंगे, ‘कुछ सुना तुम ने? अपनी मालविका शादी कर रही है. बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम. पता नहीं किस आंख के अंधे और गांठ के पूरे ने उस को फंसाया है. सचमुच शादी करेगा या शादी का नाटक कर के उसे घर की नौकरानी बना कर रखेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.’

मालविका अपनेआप से तर्क करती रही. क्या केशवन सचमुच उस से प्यार करने लगा था? वह ऐसी परी तो है नहीं कि कोई उस के रूप पर मुग्ध हो जाए.

उस की नजर सामने दीवार पर टंगे आदमकद आईने पर पड़ी. उस का चेहरा अभी भी आकर्षक था पर समय चेहरे पर अपनी छाप छोड़ चुका था. आंखें बड़ीबड़ी थीं पर बुझी हुईं. उन में एक उदास भाव निहित था. उस का शरीर छरहरा और सुडौल था पर उस की जवानी ढलान पर थी. वह हमेशा इसी कोशिश में रहती थी कि वह किसी की आंखों में न गड़े, इसलिए वह हमेशा फीके रंग के कपड़े पहनती थी. गहने भी नाममात्र को पहनती थी. वह इतने सालों से एक अनाम जिंदगी जीती आई थी. उस की कोई शख्सीयत नहीं थी, कोई अहमियत भी नहीं थी. बड़ी अदना सी इंसान थी वह. वह अभी भी समझ नहीं पा रही थी कि केशवन ने उस में ऐसा क्या देखा कि वह उस की ओर आकर्षित हो गया. अगर वह चाहता तो उसे एक से बढ़ कर एक सुंदर लड़की मिल सकती थी.

उस ने फिर से वह लमहा याद किया जब केशवन ने उस से शादी का प्रस्ताव रखा था. वह उस पल को बारबार जीना चाहती थी.

‘मालविका, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. क्या तुम मेरी बनोगी?’ उस ने कहा था.

‘यह क्या कह रहे हैं आप?’ वह स्तब्ध रह गई थी, ‘आप मुझ से शादी करना चाहते हैं?’

‘हां.’

‘लेकिन आप को लड़कियों की क्या कमी है? एक इशारा करेंगे तो उन की लाइन लग जाएगी.’

‘हां, लेकिन तुम ने यह कहावत सुनी है न कि दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. एक बार शादी कर के मैं धोखा खा गया. दोबारा यहां की लड़की से शादी करने की हिम्मत नहीं होती.’

फिर उस ने उसे अपनी पहली शादी के बारे में विस्तार से बताया था.

‘नैन्सी उसी अस्पताल में नर्स थी, जिसे मैं ने यहां आ कर जौइन किया

था. मैं इस शहर में बिलकुल अकेला था. न कोई संगी न साथी. नैन्सी ने दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया तो मुझे अच्छा लगा. मैं उस के यहां जाने लगा और धीरेधीरे उस के करीब आता गया. एक दिन हम ने शादी करने का निश्चय कर लिया.

‘पहले 4 वर्ष अच्छे गुजरे पर धीरेधीरे नैन्सी में बदलाव आया. वह बेहद आलसी हो गई. दिन भर सोफे पर पड़ी टीवी देखती रहती थी. नतीजा वह मोटी होती चली गई. उसे खाना बनाने में भी आलस आता था. जब मैं थकामांदा घर लौटता तो वह मुझे फास्ट फूड की दुकान से लाया एक पैकेट पकड़ा देती. घर की साफसफाई करने से भी वह कतराती थी. यहां तक कि वह हमारी नन्ही बच्ची की ओर भी ध्यान नहीं देती थी. जब मैं कुछ कहता तो हम दोनों में जम कर लड़ाई होती.

‘आखिर तलाक की नौबत आ गई. चूंकि हमारी बेटी कुल 3 साल की ही थी, इसलिए उसे मां के संरक्षण में भेजा गया. धीरेधीरे नैन्सी ने मेरी बेटी के कान भर कर उसे मेरे से दूर कर दिया व उस ने दूसरी शादी कर ली. अब मैं अपने एकाकी जीवन से तंग आ गया हूं. मुझे यह शिद्दत से महसूस हो रहा है कि जीवन के संध्याकाल में मनुष्य को एक साथी की जरूरत होती है.’

‘लेकिन,’ उस ने कहा, ‘आप को मालूम है कि मैं 40 पार कर चुकी हूं.’

‘तो क्या हुआ? चाहत में उम्र नहीं देखी जाती. इस देश में तुम्हारी उम्र की औरतें अभी भी बनठन कर और चुस्तदुरुस्त रहती हैं और भरपूर जिंदगी जीती हैं. मैं तुम्हें सोचने के लिए 24 घंटे का समय देता हूं. अभी मैं अस्पताल जा रहा हूं. कल सुबह तक मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए,’ केशवन ने मुसकरा कर कहा.

मालविका ने खिड़की के बाहर आंखें टिका दीं. मन अतीत की गलियों में भटकने लगा. उसे अपना गांव याद आया जहां उस का बचपन गुजरा था. घर में सम्मिलित परिवार की भीड़. सहेलियों के साथ धमाचौकड़ी मचाना. त्योहारों पर सजनाधजना. वह दुनिया ही अलग थी. वे दिन बेफिक्री और मौजमस्ती के दिन थे. फिर अचानक उस की शादी की बात चली और देखते ही देखते तय भी हो गई. घर में मेहमानों की गहमागहमी थी. सारा वातावरण पकवानों की खुशबू और फूलों की महक से ओतप्रोत था. द्वार पर बंदनवार सजे थे. अल्हड़ युवतियों की खिलखिलाहट गूंजने लगी. सखियां चुहल करने लगीं. सब एक सपने जैसा लग रहा था.

फेरे हो चुके थे. मृदंग की थाप और शहनाई की ऊंची आवाज के बीच शादी की पारंपरिक रस्में जोरशोर से हो रही थीं.

बात विदाई की होने लगी तो वर के पिता अनंतराम मालविका के पिता की ओर मुड़े और बोले, ‘श्रीमानजी, पहले जरा काम की बात की जाए.’

वे उन्हें एक ओर ले गए और बोले, ‘हां, अब आप हमें वह रकम पकड़ाइए, जो आप ने देने का वादा किया था.’

नारायणसामी मानो आसमान से गिरे, ‘कौन सी रकम? मैं कुछ समझा नहीं.’

‘वाह, आप की याददाश्त तो बहुत कमजोर मालूम देती है. आप को याद नहीं जब हम लोग सगाई के लिए आए थे तो आप ने कहा था कि आप क्व2 लाख तक खर्च कर सकते हैं?’

‘ओह अब समझा. श्रीमानजी, मैं ने कहा था कि मैं बेटी की शादी में क्व2 लाख लगाऊंगा क्योंकि इतने की ही मेरी हैसियत है. मैं ने यह तो नहीं कहा था कि मैं यह रकम दहेज में दूंगा.’

‘बहुत खूब. अब हमें क्या मालूम कि आप का क्या मतलब था. हम तो यही समझ बैठे थे कि आप हमें क्व2 लाख वरदक्षिणा देने के लिए राजी हुए हैं. तभी तो हम ने इस रिश्ते के लिए हामी भरी.’

नारायणसामी ने हाथ जोड़े, ‘मुझे क्षमा कीजिए. मुझे सब कुछ साफसाफ कहना चाहिए था. मुझ से भारी गलती हो गई.’

‘खैर कोई बात नहीं. शायद हमारे समझने में ही भूल हो गई होगी. पर एक बात मैं बता दूं कि दहेज की रकम के बिना मैं यह रिश्ता हरगिज कबूल नहीं कर सकता. मेरे डाक्टर बेटे के लिए लोग क्व10-10 लाख देने को तैयार थे. वह तो मेरे बेटे को आप की बेटी पसंद आ गई थी, इसलिए हमें मजबूरन यहां संबंध करना पड़ा. अब आप जल्द से जल्द पैसों का इंतजाम कीजिए.’

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नारायणसामी ने गिड़गिड़ा कर कहा, ‘इतने रुपए देना मेरे लिए असंभव है. मैं ठहरा खेतिहर. इतनी रकम कहां से लाऊंगा? मुझ पर तरस खाइए. मैं ने शादी में अपनी सामर्थ्य से ज्यादा खर्च किया है. और पैसे जुटाना मेरे लिए बहुत कठिन होगा.’

‘अरे, जब सामर्थ्य नहीं थी तो अपनी हैसियत का रिश्ता ढूंढ़ा होता. मेरे बेटे पर क्यों लार टपकाई?’

नारायणसामी कातर स्वर में बोले, ‘ऐसा अनर्थ न करें. मैं वादा करता हूं कि जितनी जल्दी हो सकेगा मैं पैसों का इंतजाम कर के आप तक पहुंचा दूंगा.’

‘ठीक है. आप की बेटी भी तभी विदा होगी.’

तभी मालविका के तीनों भाई अंदर घुस आए.

‘आप ऐसा नहीं कर सकते,’ वे भड़क कर बोले.

‘क्यों नहीं कर सकता?’ अनंतराम ने अकड़ कर कहा.

‘हमारी बहन की आप के बेटे से शादी हो चुकी है. अब वह आप के घर की बहू है. आप की अमानत है.’

‘तो हम कब इनकार कर रहे हैं?’

‘लेकिन इस समय दहेज की बात उठा कर आप क्यों बखेड़ा कर रहे हैं बताइए तो? क्या आप को पता नहीं कि दहेज लेना कानूनन जुर्म है? अगर हम पुलिस में खबर कर दें तो आप सब को हथकडि़यां पड़ जाएंगी.’

‘पुलिस का डर दिखाते हो. अब तो मैं हरगिज बहू को विदा नहीं कराऊंगा. कर लो जो करना हो. न मुझे तुम्हारे पैसे चाहिए और न ही तुम्हारे घर की बेटी. मैं अपने बेटे की दूसरी शादी कराऊंगा, डंके की चोट पर कराऊंगा.’

‘हांहां, जो जी चाहे कर लेना. यह धमकी किसी और को देना. हमारी इकलौती बहन हमें भारी नहीं है कि हम उस के लिए आप के सामने नाक रगड़ेंगे. हम में उसे पालने की शक्ति है. हम उसे पलकों पर बैठा कर रखेेंगे.’

‘ठीक है, तुम रखो अपनी बहन को. हम चलते हैं.’

मालविका के मातापिता समधी के हाथपैर जोड़ते रहे पर उन्होंने किसी की एक न सुनी. वे उसी वक्त बिना खाएपिए बरातियों समेत घर से बाहर हो गए.

‘अरे लड़को, तुम ने ये क्या कर डाला?’ शारदा रो कर बोलीं, ‘लड़की के फेरे हो चुके हैं. अब वह पराया धन है. अपने पति की अमानत है. उसे कैसे घर में बैठाए रखोगे?’

‘फिक्र न करो अम्मां. उस धनलोलुप के घर जा कर हमारी बहन दुख ही भोगती. वे उसे दहेज के लिए सतातेरुलाते. अच्छा हुआ कि समय रहते हमें उन लोगों की असलियत मालूम हो गई.’

‘लेकिन अब तुम्हारी बहन का क्या होगा? वह न तो इधर की रही न उधर की. विवाहित हो कर भी उस की गिनती विवाहित स्त्रियों में नहीं होगी. बेटा, शादी के बाद लड़की अपनी ससुराल में ही शोभा देती है. चाहे जैसे भी हो समधीजी की मांगें पूरी करने की कोशिश करो और मालविका को ससुराल विदा करो.’

‘अम्मां तुम बेकार में डर रही हो. हम समधीजी की मांगें पूरी करते रहे तो इस सिलसिले का कभी अंत न होगा. एक बार उन के आगे झुक गए तो वे हमें लगातार दुहते रहेंगे. हमें पक्का यकीन है कि देरसवेर वे अपनी गलती मान लेंगे और मालविका को विदा करा के ले जाएंगे.’

‘पर वे अपने बेटे की दूसरी शादी की धमकी दे कर गए हैं.’

‘अरे अम्मां, अगर लड़के वाले अपने बेटे का पुनर्विवाह करेंगे तो हम भी अपनी मालविका का दूसरा विवाह रचाएंगे.’

यह कहना आसान था पर कर दिखाना बहुत मुश्किल. दिन पर दिन गुजरते गए और मालविका के लिए कोई अच्छा वर नहीं मिला. कोई लड़का नजर में पड़ता तो वही लेनदेन की बात आड़े आती. किसी दुहाजू का रिश्ता आता तो वह उन को न जंचता. जब मालविका की उम्र 30 के करीब पहुंची तो रिश्ते आने बंद हो गए.

उस की मां उस की चिंता में घुलती रहीं. वे बारबार अपने पति से गिड़गिड़ातीं, ‘अजी कुछ भी करो. मेरे गहने बेच दो. यह मकान या जमीन गिरवी रख दो पर लड़की का कुछ ठिकाना करो. जवान बेटी को कितने दिन घर में बैठा कर रखोगे. मुझ से उस की हालत देखी नहीं जाती.’

एक बार नारायणसामी लड़कों से चोरीछिपे समधी के घर गए भी पर अपना सा मुंह ले कर वापस आ गए. अनंतराम ने बताया कि उन का बेटा पढ़ाई करने के लिए अमेरिका जा चुका है और उस के शीघ्र लौटने की कोई उम्मीद नहीं है. उन्होंने दोटूक शब्दों में कह दिया कि अच्छा होगा कि आप लोग अपनी बेटी के लिए कोई और वर देख लें.

अब रहीसही आशा भी टूट चुकी थी. नारायणसामी गुमसुम रहने लगे. एक दिन उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे.

उन के तीनों बेटे शहर में नौकरी करते थे, ‘अम्मां,’ उन्होंने कहा, ‘तुम्हारा और मालविका का अब यहां गांव में अकेले रहना मुनासिब

नहीं. बेहतर होगा कि तुम दोनों हमारे साथ चल कर रहो.’

बड़े बेटे सुधीर को मुंबई में रेलवे विभाग में नौकरी मिली थी. रहने को मकान था. मांबेटी अपना सामान समेट कर उस के साथ चल दीं.

मां ने जाते ही बेटे के घर का चूल्हाचौका संभाल लिया और मालविका के जिम्मे आए अन्य छिटपुट काम. उस ने अपने नन्हे भतीजेभतीजी की देखरेख का काम संभाल लिया.

कुछ दिन बाद उस के मझले भाई का फोन आया, ‘मां, तुम्हारी बहू के बच्चा होने वाला है. तुम तो जानती हो कि उस की मां नहीं है. उसे तुम्हें ही संभालना होगा. हम तुम्हारे ही भरोसे हैं.’

‘हांहां क्यों नहीं,’ मां ने उत्साह से कहा और वे तुरंत जाने को तैयार हो गईं. मालविका को भी उन के साथ जाना पड़ा.

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अब उन की जिंदगी का यही क्रम हो गया. बारीबारी से तीनों भाई मांबेटी को अपने यहां बुलाते. मां के देहांत के बाद भी मालविका इसी ढर्रे पर चलती रही. उस के मेहनती और निरीह स्वभाव से सब प्रसन्न थे. उस की अपनी मांगें अत्यंत सीमित थीं. उसे किसी से कोई अपेक्षा नहीं थी. उस की कोई आकांक्षा नहीं थी. उस के जीवन का ध्येय ही था दूसरों के काम आना. वह हमेशा सब की मदद करने को तत्पर रहती थी.

उस के भाइयों की देखादेखी उस के अन्य सगेसंबंधी भी उसे गरज पड़ने पर बुला लेते. हर कोई उस से कस कर काम लेता और अपना उल्लू सीधा करने के बाद उसे टरका देता.

मालविका के दिन किसी तरह बीत रहे थे. कभीकभी वह अपने एकाकी जीवन की एकरसता से ऊब जाती. जब वह अपनी हमउम्र स्त्रियों को अपनी गृहस्थी में रमी देखती, उन्हें अपने परिवार में मगन देखती, तो उस के कलेजे में एक हूक उठती. लोगों की भीड़ में वह अकेली थी. जबतब उस का मन अनायास ही भर आता और जी करता कि वह फूटफूट कर रोए. पर उस के आंसू पोंछने वाला भी तो कोई न था.

उस के ससुर की धनलोलुपता और उस के भाइयों की हठधर्मिता ने उस की जिंदगी पर कुठाराघात किया था. अब वह एक बिना साहिल की नाव के मानिंद डूबउतरा रही थी. उद्देश्यहीन, गतिहीन…

क्रमश:

तसवीर: भाग-2

पूर्व कथा

केशवन का प्रस्ताव सुन कर मालविका चौंक उठी थी. उस ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि इस उम्र में कोई उस के सामने शादी का प्रस्ताव रखेगा. उस के सामने पूरा अतीत नाच उठा, जब दहेज की वजह से बरात दरवाजे से लौट गई थी. फिर मालविका के लिए कोई वरघर न मिला तो वह अपनी मां के साथ बारीबारी से तीनों भाइयों के पास रह कर नाव की तरह डूबउतरा रही थी.

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मालविका के बड़े भाई सुधीर की बेटी उषा की शादी हो गई और वह अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में जा बसी. जब वह गर्भवती हुई तो उसे मालविका की याद आई, तो वह अपने पापा से बोली, ‘पापा, आप किसी तरह बूआजी को यहां भेज दो तो मेरी मुश्किल हल हो जाएगी. वे घर भी संभाल लेंगी और बच्चे को भी देख लेंगी. यहां के बारे में तो पता है न आप को? बेबी सिटर और नौकरानियां 1-1 घंटे के हिसाब से चार्ज करती हैं. इस से हमारा तो दीवाला ही निकल जाएगा.’

‘हांहां तुम्हारे लिए मालविका कभी मना नहीं करेगी. पर कुछ दिनों से वह गठिया के दर्द से परेशान है. अगर तुम लोग उस के लिए मैडिकल इंश्योरैंस करा लो तो अच्छा रहेगा. सुना है कि उस देश में बीमार पड़ने पर अस्पताल और डाक्टरों के इलाज में बड़ा भारी खर्च होता है.’

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‘हांहां क्यों नहीं. ये कौन सी बड़ी बात है. बूआ का बीमा करा लिया जाएगा. बस आप उन्हें जल्द से जल्द रवाना कर दें.’

मालविका अमेरिका के लिए रवाना हो गई. उस की भतीजी उसे एअरपोर्ट पर लेने आई थी.

‘बेटी, तेरे देश में तो बड़ी ठंड है,’ मालविका ने ठिठुरते हुए कहा, ‘मेरी तो कंपकंपी छूट रही है.’

उषा हंस पड़ी, ‘अरे बूआजी, अपना घर वातानुकूलित है. बाहर निकलो तो कार में हीटर लगा हुआ है. शौपिंग मौल में भी टैंप्रेचर गरम रखा जाता है. फिर सर्दी से क्यों घबराना? हां, एक बात का खयाल रखना बाहर कदम रखो तो बर्फ में पांव फिसलने का डर रहता है, इसलिए जरा संभल कर रहना.’

फिर उस ने मालविका के गले लग कर कहा, ‘बूआजी तुम आ गईं तो मेरी सब चिंता दूर हो गई. अब तुम मुझे वे सभी चीजें बना कर खिलाना जिन्हें खाने के लिए मेरा मन ललचाता है.’

घर पहुंच कर उषा ने कहा, ‘बूआ, आप का बिस्तर बेबी के रूम में लगा दिया है. जब बेबी पैदा होगा तो शायद रात में एकाध बार बच्चे को दूध की बोतल देने के लिए उठना पड़ेगा और हां, सुबह रस्टी को जरा बाहर ले जाना होगा, क्योंकि आप को

तो पता है मेरी नींद आसानी से नहीं खुलती.’

‘ये रस्टी कौन है?’

‘अरे रस्टी हमारा छोटा सा कुत्ता है. कल ही दिलीप उसे खरीद कर लाए हैं. हम ने सोचा है कि बच्चे को उस का साथ अच्छा लगेगा.’

‘पर बेटी, इतने नन्हे बच्चे के साथ कुत्ता पालना अक्लमंदी है क्या? जानवर का क्या ठिकाना, कभी बच्चे को नुकसान पहुंचा दे तो?’

‘अरे नहीं बूआ, ऐसा कुछ नहीं होगा. आप नाहक डर रही हैं. वैसे दिलीप जब घर में होंगे तो वे ही कुत्ते का सब काम देखेंगे.’

कुछ समय बाद उषा ने एक बालक को जन्म दिया. मालविका ने घर का काम संभाल लिया और बच्चे की जिम्मेदारी भी ले ली. वह दिन भर बहुत सारे काम करती और रात को निढाल हो कर बिस्तर पर पड़ जाती. काम वह इंडिया में भी करती थी पर वहां और लोग भी थे उस का हाथ बंटाने के लिए. यहां वह अकेली पड़ गई थी.

एक दिन सुबह वह बच्चे का दूध बना रही थी कि रस्टी दरवाजे के पास आ कर कूंकूं करने लगा. ‘ओह तुझे भी अभी ही जाना है मुए,’ वह झुंझलाई.

जब रस्टी ने कूंकूं करना बंद न किया तो मालविका ने बच्चे को पालने में डाला और एक शौल लपेट कर रस्टी की चेन थामे घर से निकली.

पिछली रात बर्फ गिरी थी. सीढि़यों पर बर्फ जम गई थी और सीढि़यां कांच की तरह चिकनी हो गई थीं. मालविका ने हड़बड़ी में ध्यान न दिया और जैसे ही उस का पांव सीढ़ी पर पड़ा वह फिसल कर गिर पड़ी.

उस ने उठने की कोशिश की तो उस के पैर में भयानक दर्द हुआ. उस के मुंह से चीख निकल गई. उसे लगा उस भीषण ठंड में धरती पर पड़ेपड़े उस का शरीर अकड़ जाएगा और उस का दम निकल जाएगा.

काफी देर बाद उषा ने द्वार खोला तो उसे पड़ा देख कर उस के मुंह से भी चीख निकल गई, ‘ये क्या हुआ बूआ? तुम कैसे गिर पड़ीं? मैं ने तुम्हें आगाह किया था न कि बर्फ पर बहुत होशियारी से कदम रखना वरना पैर फिसलने का डर रहता है.’

‘अब मैं जान कर तो नहीं गिरी,’ उस ने कराह कर कहा, ‘जल्दीबाजी में पांव फिसल गया.’ उषा व उस का पति दिलीप उसे अस्पताल ले गए.

डाक्टर ने मालविका की जांच कर के बताया कि इन का टखना टूट गया है. औपरेशन करना होगा और हड्डी बैठानी होगी और इस में 10 हजार डौलर का खर्चा आएगा.

10 हजार सुन कर मालविका की सांस रुकने लगी, ‘उषा, तू ने मेरा मैडिकल बीमा करा लिया था न?’

‘मैं ने दिलीप से कह तो दिया था. क्यों जी, आप ने बूआजी का बीमा करा लिया था न?’

‘ओहो, ये बात तो मेरे ध्यान से बिलकुल उतर गई.’

उषा अपने हाथ मलने लगी, ‘ये आप ने बड़ी गलती की. अब इतने सारे पैसे कहां से आएंगे?’

वे इधरउधर फोन घुमाते रहे. आखिर उन्हें एक डाक्टर मिल गया जो मालविका का औपरेशन 3 हजार डौलर में करने को तैयार हो गया.

प्लास्टर उतरने वाले दिन उषा अपनी बूआ को अस्पताल ले गई. प्लास्टर उतरने के बाद जब मालविका ने पहला कदम उठाया तो देखा कि उस का टूटा हुआ पैर सीधा नहीं पड़ रहा था. उस के पैर डगमगाए और वह कुरसी में गिर पड़ी.

‘हाय ये क्या हो गया?’ उस के मुंह से निकला.

डाक्टर ने पैर की जांच की और बोले, ‘लगता है पैर सैट करने में जरा गलती हो गई. अब जब आप चलेंगी तो आप का एक पैर थोड़ा टेढ़ा पड़ेगा. आप को छड़ी का सहारा लेना होगा और कोई चारा नहीं है.’

मालविका की आंखों से झरझर आंसू बह निकले. हाय वह अपाहिज हो गई. अब वह बैसाखियों के सहारे चलेगी. बुढ़ापे में उसे दूसरों के आसरे जीना होगा.

तभी एक नर्स उस के पास आई, ‘मैडम, आप ओपीडी में चलिए. हमारे अस्पताल में न्यूयार्क से एक विजिटिंग डाक्टर आए हैं, जो आप के पैर की जांच करना चाहते हैं?’

‘कौन डाक्टर?’ मालविका ने अपना आंसुओं से भीगा चेहरा ऊपर उठाया.

‘डाक्टर केशवन.’

‘केशवन? यह कैसा नाम है?’

‘वे आप के ही देश के ही हैं. चलिए, मैं आप को व्हीलचेयर में ले चलती हूं.’

मालविका का हृदय जोरों से धड़क उठा. क्या ये वही थे? नहीं, उस ने अपना सिर हिलाया. इस नाम के और भी तो डाक्टर हो सकते हैं. पर डाक्टर को देखते ही उस का संशय दूर हो गया. वही हैं, वही हैं उस के हृदय में एक धुन सी बजने लगी. हालांकि मालविका उन्हें पूरे 20 साल बाद देख रही थी पर उन्हें पहचानने में उसे एक पल की देरी भी नहीं हुई. केशवन का बदन दोहरा हो गया था और सिर के बाल उड़ गए थे. पर चेहरामोहरा वही था.

ये छवि तो उस के हृदय में अंकित थी, उस ने भावुक हो कर सोचा. इन की तसवीर तो उस ने सहेज कर अपने बक्से में रखी हुई थी. वह हर रोज अकेले में तसवीर को निकालती, उसे निहारती और उस पर 2-4 आंसू बहाती. ये तसवीर उन दोनों की मंगनी के अवसर पर ली गई थी. एक प्रति मालविका ने सब की नजर बचा कर चुरा कर अपने पास रख ली थी.

उस ने सुना था कि केशवन अमेरिका जा कर वहीं के हो गए थे. उस ने एक उड़ती हुई खबर यह भी सुनी थी कि केशवन ने एक गोरी मेम से शादी कर ली थी और इस बात से उस के मातापिता बहुत दुखी थे. डाक्टर केशवन कैबिन में आए. मालविका ने उन पर एक भेदी नजर डाली. क्या उन्होंने उसे पहचान लिया था? शायद नहीं. उन्होंने उस का पैर जांचा.

‘आप का औपरेशन सही तरीके से नहीं किया गया है, इसीलिए आप की चाल टेढ़ी हो गई है. दोबारा हड्डी तोड़ कर फिर से जोड़नी पड़ेगी.’

‘ओह इस में तो भारी खर्च आएगा,’ मालविका चिंतित हो उठी.

‘डाक्टर, हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ उषा बोल उठी,

‘हम सोच रहे हैं कि इन्हें वापस इंडिया भेज दें. वहां पर इन का इलाज हो जाएगा.’

‘पैसे की आप चिंता न करें,’ केशवन ने कहा, ‘मैं इन का इलाज अपनी क्लीनिक में करा दूंगा,

एक भारतीय होने के नाते हमें परदेश में एकदूसरे की मदद तो करनी ही चाहिए.’

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‘ओह डाक्टर साहब आप ने हमें उबार लिया,’ उषा बोली.

‘मैं कल न्यूयार्क वापस जा रहा हूं. आप कहें तो इन्हें साथ ले जाऊंगा. औपरेशन के बाद इन्हें थोड़ा आराम की जरूरत है फिर ये इंडिया जा सकती हैं.’

आगे पढ़ें- औपरेशन होने के बाद केशवन ने पूछा, ‘अब आप क्या करना चाहेंगी?

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: भाग-4

रीतिका और कनिष्क की दोस्ती हर बीतते दिन के साथ गहरी होती जा रही थी. कनिष्क डिबेट कंपीटिशंस में जाता रहता था जिस के लिए उसे रिसर्च से हट कर भी सामग्री की जरूरत होती थी. रीतिका क्रिएटिव राइटिंग करती थी, इसलिए वह कनिष्क के हर कंपीटिशन या क्लास रिप्रैजेंटेशन से पहले उस के साथ बैठ उस की मदद किया करती थी. कभी देररात तो कभी अपनी क्लास छोड़ कर उस के लिए लिखा करती थी. एक बार कनिष्क ने उस से कहा भी था, ‘‘तू न होती तो क्या होता मेरा,’’ जिस पर रीतिका ने जवाब दिया, ‘‘तेरा सिर थोड़ा कम दर्द होता.’’

दोनों एकदूसरे के जीवन में अपनीअपनी जगह बना चुके थे. रीतिका कनिष्क के मैसेज का इंतजार किया करती तो कनिष्क उस से बात किए बिना खुद को अधूरा समझने लगता. रीतिका और कनिष्क एकदूसरे के आदी होते जा रहे थे और इस बीच, न उन्हें किसी साथी की जरूरत महसूस होती न किसी के साथ रिलेशनशिप में आने की. दोनों ही कभी सीरियस रिलेशनशिप में नहीं रहे थे. एकदूसरे के बारे में कुछ महसूस करते भी थे तो अब कहने का मन नहीं था, मन में डर था कि कहीं यह दोस्ती खराब न हो जाए.

दोनों लड़ते भी बहुत थे लेकिन जब दोनों में से कोई एक मनाने आता तो दूसरा बचकाने अंदाज में शिकायत करने लगता और दोनों, लड़ाई का मसला क्या था वह ही भूल जाते. एक बार कनिष्क ने मजाक में रीतिका को बिजी होने के चलते मैसेज नहीं किया और रीतिका ने भी मैसेज करने के बजाय उस के पहले मैसेज करने का इंतजार किया. इस के चलते 2 दिनों बाद कनिष्क ने रीतिका को यह कह दिया कि वह घमंडी है. और यह सुन कर रीतिका ने उसे मतलबी कह दिया. दोनों ने एकदूसरे से पूरा हफ्ता बात नहीं की.

होली आ चुकी थी. होली के दिन कनिष्क ने रीतिका को मैसेज किया, ‘हैप्पी होली, अब तू तो कहेगी नहीं, तो मैं ने सोचा मैं ही गुस्सा थोड़ा किनारे कर मैसेज कर दूं.’

‘फालतू में गुस्सा करेगा तो गुस्सा किनारे भी तो खुद ही को करना पड़ेगा न,’ रीतिका ने रिप्लाई किया.

‘तुझ से तो प्यार करता हूं मैं, गुस्सा नहीं कर सकता क्या?’

‘हां तो, मैं गुस्सा नहीं कर सकती तुझ पर?’ रीतिका ने लिखा.

‘क्यों? तुझे भी मुझ से प्यार है क्या?’

‘और क्या.’

‘कितना?’

‘तुझ से तो ज्यादा ही.’

‘रहने दे, तुझे मेरी याद नहीं आई.’

‘थोड़ी सी तो आई थी,’ रीतिका ने लिखा और हंसने वाली ईमोजी भेज दी. रिप्लाई में कनिष्क ने भी हंसने वाली ईमोजी भेज दी.

बात प्यार शब्द तक आई जरूर थी पर वह दोस्ती के लिए थी या उस से ज्यादा के लिए, यह एकदूसरे से पूछना मुश्किल था दोनों के लिए.

दोनों के थर्डईयर के आखिरी 3 महीने बचे थे. एंट्रैंस की तैयारियां और कालेज के प्रोजैक्ट्स में ही दोनों का वक्त बीत रहा था. कनिष्क के कालेज से ट्रिप जा रही थी शिमला. कनिष्क हर साल ट्रिप पर जाता ही था. पहले जब भी गया था तो आ कर सारी फोटो रीतिका को दिखाई थीं. रीतिका के कालेज से भी ट्रिप जाने वाली थी लेकिन उदयपुर. कनिष्क ने रीतिका से पूछा क्या वह उस के साथ ट्रिप पर चलेगी. कनिष्क की अपने डिपार्टमैंट में इतनी तो चलती ही थी कि वह एकदो लोगों को साथ ला सके. उस ने सुमित को बताया कि वह रीतिका को भी साथ लाना चाहता है तो सुमित खुश हुआ लेकिन वह इस बात को ले कर चिंतित था कि कोई कहीं रीतिका का चेहरा देख उसे कुछ कह न दे. इस पर कनिष्क ने कहा, ‘‘अगर किसी ने रीतिका से कुछ कहा तो उसे जवाब देना आता है. वैसे भी वह जितनी बार भी कालेज आई है किसी ने उसे अटपटा महसूस नहीं कराया, तो अब क्यों कराएगा. चिल्ल कर.’’

रीतिका ने ट्रिप के बारे में सुना तो खुश हो गई. उस ने घर से परमिशन ले ली, ट्रिप के पैसे जमा करा दिए, अपनी सहेली निशा को भी साथ चलने के लिए मना लिया. ट्रिप सुबह 6 बजे कालेज से निकलने वाली थी और अगले 4 दिनों तक सभी को साथ रहना था. बस में रीतिका और निशा एक सीट पर बैठी थीं और कनिष्क उन की बगल वाली सीट पर सुमित के साथ. कनिष्क की नजरें न चाहते हुए भी बारबार रीतिका की तरफ जा रही थीं जिसे सुमित ने नोटिस कर लिया था.

‘‘तू ने उसे बताया या नहीं?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘क्या बताया या नहीं, किस को?’’ कनिष्क ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘तू पसंद करता है न उसे, बता क्यों नहीं देता.’’

‘‘यार, उस ने मना कर दिया तो? मतलब मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूं, कैसे कहूं. वह अच्छी लड़की है, समझदार है, तेजतर्रार है, इतनी खूबियां हैं उस में. फिर भी मैं ने उस के साथ इतना बुरा बिहेव किया था शुरू में, याद है न तुझे? अगर हमारी दोस्ती खराब हो गई तो? बहुत मुश्किल है कुछ कह पाना,’’ कनिष्क धीमी आवाज में सुमित से कहने लगा.

‘‘तू अब तक उस बात को ले कर बैठा है? देख, अगर तू उसे उस नजर से देखता है तो बता दे अपने दिल की बात, वह क्या कहती है वह तो उस की मरजी है न.’’

‘‘ठीक है, देखता हूं.’’

शिमला ट्रिप के पहले 3 दिन किसी एडवैंचर से कम नहीं थे. दिन कभी माल रोड पर तसवीरें खींचते बीतता तो कभी कहीं और घूमते. रात में बोनफायर और एक लड़की को ऐसा लगा… तो कभी शाम भी कोई जैसे है नदी बहबहबहबह रही है… जैसे गाने गाते. सब मिल कर नाचे भी तो कितना थे. ट्रिप पर गए प्रोफैसरों से छिपतेछिपाते सब ने बीयर भी तो पी थी. एक दिन तो ग्रुप की एक लड़की तान्या रिज रोड पर इतना तेज गिरी कि उस के दाएं पैर में मोच आ गई. रीतिका उस पूरा दिन उस के पास ही रही उसे सहारा देते हुए. सब जब यहां से वहां घूम रहे थे तो रीतिका तान्या के साथ बैंच पर बैठ उसे हंसाने की कोशिश में लगी हुई थी. कनिष्क उसे देखता तो उस की नादानियों पर तो कभी उस के निस्वार्थ भाव को देख कर मुसकरा देता.

ट्रिप के आखिरी दिन यानी चौथे दिन की रात सभी नाचनेगाने में मग्न थे. होटल की छत पर बड़े स्पीकर्स लगे हुए थे. सभी ने ड्रैसेस पहनी हुई थीं. रीतिका ने ब्लैक पैंसिल ड्रैस पहनी थी जो उस पर बहुत सुंदर लग रही थी. जब स्लो सौंग बजा और सभी कपल डांस करने लगे तो कनिष्क ने रीतिका का हाथ पकड़ उसे अपने पास खींच लिया. उस का एक हाथ रीतिका के हाथों में था तो दूसरा उस की कमर पर. उन दोनों की आंखें एकदूसरे की आंखों में समाई हुई थीं.

कनिष्क और रीतिका छत के कोने में थे. कनिष्क ने कहा, ‘‘यह सब कितना अलग है न, शहर व भीड़ से दूर.’’

‘‘हां, अच्छा महसूस हो रहा है, काश कि वक्त यहीं थम जाए और हम वापस न जाएं.’’

‘‘रीतिका…’’ कनिष्क ने गहरी आवाज में कहा, गाने के मद्धम शोर के बावजूद वे एकदूसरे को अच्छी तरह सुन पा रहे थे.

‘‘हां?’’ रीतिका ने कहा.

‘‘आई लव यू, बस… कब हुआ, कैसे हुआ पता नहीं, लेकिन तुम से प्यार हो गया है मुझे. तुम्हारे साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहता हूं मैं, हमेशा तुम्हारे साथ रहना चाहता हूं. लड़नाझगड़ना चाहता हूं तुम से, मनाना चाहता हूं तुम्हें. क्या तुम्हें मंजूर है मेरा प्यार?’’ कनिष्क अपने प्यार का इजहार कर चुका था.

‘‘कनिष्क…’’ रीतिका ने हैरान होते हुए कहा.

‘‘कहो…’’ कनिष्क की आंखों में सवाल थे.

‘‘मैं भी तुम्हारे लिए यही सब महसूस करती हूं और यकीन मानो, मैं खुश भी हूं, लेकिन मैं अभी तैयार नहीं हूं,’’ रीतिका ने कुछ सोचते हुए कहा.

‘‘मतलब?’’

‘‘मैं ग्रैजुएशन के बाद दिल्ली से बाहर जा रही हूं पढ़ने. या शायद देश से ही बाहर. वक्त बहुतकुछ बदल देता है कनिष्क. अभी तुम मेरे लिए प्यार महसूस कर रहे हो, कल जब मैं तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी तो तुम अकेले पड़ जाओगे या हमारे बीच जो कुछ है उसे रिश्ते का नाम दे कर खराब क्यों करना. हम एकदूसरे के जितने करीब हैं उतने हमेशा रहेंगे. मैं, बस, समय मांग रही हूं तुम से. बताओ, करोगे मेरा इंतजार?’’

‘‘हमेशा.’’

अटूट बंधन: भाग-3

 विशू ने निर्णय ले लिया और निर्णय के बाद अपने को जहां पाया उस से उस के होश उड़ गए. उस का अपना कुछ है ही नहीं. यह कंपनी का लग्जरी फर्निश्ड फ्लैट नहीं गुड़गांवदिल्ली सीमा पर बागबगीचों से सजी सुंदर कोठी है.

गांव की मिट्टी में पले विशू को 9 मंजिल पर टंगे रहना अच्छा नहीं लगता था. तब इतनी आबादी भी नहीं थी. इधर तो सस्ते में जमीन मिल गई फिर मनपसंद नक्शे से घर बनवा लिया. कुशल माली के साथ खड़े हो पेड़पौधे लगवाए जो अब बड़े हो गए हैं. लौन में आगरा से मंगवा कर कारपेट घास लगवाई पर यह कुछ भी उस का अपना नहीं है. पूरा का पूरा घर रीमा के नाम है. उस ने सारे बैंक खाते, निवेश के कागज देखे. सब कुछ रीमा के नाम है. कहीं भी कुछ भी उस अकेले के नाम नहीं. हां, एक खाता उस अकेले के नाम अवश्य है, जहां उस का वेतन जमा होता है. उसे खोल देखा तो उस में मात्र 55 हजार रुपए पड़े हैं. चलो, भागते भूत की लंगोटी संकटकालीन समय को पार कर देगी. 5 हजार पर्स में हैं. और हां, आज 17 तारीख है, कल रविवार गया है. 15 तारीख शनिवार को त्यागपत्र दिया है शाम को 4 बजे, मतलब उस दिन तक का वेतन तो मिलेगा ही.

पर वह जानता है कि हफ्ते दो हफ्ते से ज्यादा बेरोजगार नहीं रहने वाला. बस, यह बीच का समय काटने के लिए एक सुरक्षित और शांतिपूर्ण जगह चाहिए.

वह अटैची में जरूरी कागजपत्तर रख रहा था तभी ध्यान आया, एक पौलिसी और है जिस में रीमा का नहीं एक ट्रस्ट का नाम है. 20 लाख की पौलिसी है. विशू ने वह पौलिसी निकाली, 5 दिन बाद वह मैच्योर हो रही है. चैन की सांस ली कि चलो 20 लाख रुपए हाथ में रहेंगे.

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अब उसे कोई चिंता नहीं. उस ने पौलिसी अटैची में संभाल कर रख ली. इस के बाद कपड़ेलत्ते बैग में डाले. बैग को नौकर से गाड़ी में रखवा दिया. नौकर ने नाश्ता लगा दिया. नहातेनहाते ही उस ने फैसला कर लिया था कि भरपेट नाश्ता कर के ही निकलेगा. अभी तक तो रीमा के घर में रोटी उसी की कमाई की है. नाश्ता कर लैपटौप उठा चलतेचलते एक पल रुका, एक कसक यहां छोड़ कर जा रहा है, दोनों बच्चे. पलकें गीली हो उठीं पर जाना तो पड़ेगा ही.

आज उस ने सब से पहले अपने निजी खाते से 9 हजार निकाल पर्स में रखे फिर गाड़ी से नगरनिगम सीमा पार की. अपने गांव की सड़क पर गाड़ी जब उतारी तब अचानक याद आया, 13 वर्ष हो गए घर आए. एक युग बीत गया, जाने कितना परिवर्तन हो चुका होगा. एक परिवर्तन तो अभी देख रहा है विशू. पहले गांव जाने की सड़क चौड़ी तो इतनी ही थी पर कच्ची थी. बारहों महीना धूल उड़ाती, बरसात में कीचड़ भरी.

अब काले कोलतार की साफसुथरी सड़क. चमचमाती नागिन सी पड़ी है. उस पर टैंपो भी चल रहे हैं. उस की गाड़ी फिसलती चली जा रही है. गांव की सीमा में एक चाय की दुकान. दुकान क्या, जरा सी आड़ बना रखी थी. वहां एक तख्त पर 2 युवतियां. सामने एक मेज पर स्टोव, केतली, दूध का भगौना, कांच के जार में सस्ते बिस्कुट, नमकीन और ब्रैड्स. ग्राहक शून्य दुकान थी. उस ने गति धीमी की, उतर पड़ा. एक युवती सलवारसूट में थी, दूसरी साड़ी में. उस के उतरते ही सलवार वाली युवती चहक उठी, ‘‘बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने जल्दी से पल्ला खींच सिरमुंह ढक लिया. यह सहज संकोच, सम्मान प्रदर्शन आज शिक्षित, शहरी समाज में जड़ से उखड़ एकदम समाप्त हो गया है, उस का मन जुड़ा गया. युवती की ओर देखा, ‘‘तू? तू मुन्नी है क्या?’’

‘‘जी, बड़े भैया.’’

साड़ी वाली युवती ने तब तक आ कर उसे प्रणाम किया. विशू का समाज बदल गया है. वह हाय, हैलो तो जानता है पर आशीर्वाद में क्या कहे, नहीं जानता. इसलिए चुप ही रहा. मुन्नी ने कहा, ‘‘भाभी, बड़े भैया के साथ मैं घर जा रही हूं. तुम दुकान बढ़ा कर जल्दी से घर आ जाओ.’’

वक्त क्याक्या दिखाएगा मुझे. इन के मुंह का निवाला छीन कर उस ने अपने ऊपर चढ़ने की सीढ़ी बनवाई थी. वह तो ऊपर की चोटी पर चढ़ कर आराम से बैठ गया पर उस का मूल्य चुकाना कितना भारी पड़ा इस निर्धन परिवार को. पंडित केशवदास तिवारी, जिन को जिलाधिकारी तक सम्मान की दृष्टि से देखते थे, उन की बहूबेटी दो रोटी जुटाने के लिए चाय की दुकान खोले बैठी हैं. पर दीनू तो था, वह कहां गया? क्या कमाता नहीं है, आवारा हो गया है…या…इतना अमंगल नहीं हुआ होगा, बहू के हाथों में सुहाग की प्रतीक लाल कांच की चूडि़यां हैं.

घर एकदम खंडहर हो चुका है. मिट्टी का ही घर था पर एकदम मजबूत, लिपापुता, सूई भी गिरे तो उठा लो. छत इतनी मजबूत थी कि वह दोस्तों के साथ दिनभर छत पर पतंग उड़ाया करता था. और घर भले ही कच्चा हो जमीन काफी थी. पंडितजी ने बांस का बेड़ा बना रखा था पूरी सीमा को घेर, जिसे बाउंडरी वौल कहते हैं. अब तक बांस के टुकड़ों का भी नामोनिशान नहीं, सब बराबर हो गया है.

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उसी के कोने में चाय की दुकान है. आंगन में आते ही मुग्ध हो गया. एक छोटा सा लंगड़ा आम का पौधा लगाया था उस ने आंगन के बीचोंबीच. अब वह महावृक्ष बन गया है, मजबूत शाखाएं फैलाए खड़ा है. मुन्नी ने उस के पैर रुकते देख हंस कर कहा, ‘‘बड़े भैया, यह तुम्हारा लगाया पेड़ है. अम्मा कहती हैं, देखो कितना बड़ा हो गया है. छवड़ा भरभर मीठे आम उतरते हैं. सावनभर पूरे महल्ले की औरतें इस पर झूला झूलने आती हैं.’’

यह सच है कि निर्मला ने अपना सारा स्नेह, प्यार उस पर पहले ही दिन से न्यौछावर किया पर विशू ने कभी उस को मां नहीं समझा, उस के साथ उस का व्यवहार सदा ही औपचारिक रहा. लड़ाई या अपमान भी नहीं किया कभी. पर आज उस ने मन से जा कर उस के धूल भरे, गंदे पैरों को छू कर प्रणाम किया. निर्मला ने अपने दुर्बल हाथों में उसे छाती पर खींच लिया, माथे को चूमा, ‘‘मेरा विशू, मेरा बेटा, कितने दिनों में आया रे तू?’’

दंग रह गया वह, एक अनपढ़, निर्धन महिला जो सौतेली मां है, अपने स्वार्थ के लिए इन की मुंह की रोटी तक छीन कर ले उड़ा, आज तक पलट कर देखा भी नहीं. अपनी पत्नी जिस के ऊपर अपना सर्वस्व लुटाता रहा, उस से करारा थप्पड़ न खाता तो आज भी इधर की दिशा नहीं लेता. उस निर्मला की आंसूभरी आंखों में कोई क्रोध, कोई विराग नहीं, कोई शिकायत नहीं. है तो बस स्नेह, ममता की अमृतधारा.

‘‘अम्मा, कैसी हो तुम?’’

‘‘बस ठीक हूं, तू खुश है, बड़ा आदमी बन गया है, यह क्या कम सुख है.’’

आंचल से तख्त पोंछा, ‘‘बैठ बेटा, मुन्नी, भैया के लिए पानी ला.’’

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Serial Story: उड़ान (भाग-1)

घर्रघर्र की आवाज करती बस कच्ची सड़क पर बढ़ती जा रही थी. उस में बैठी अरुणा हिचकोले खाती बाहर का दृश्य एकटक देख रही थी. नारियल के पेड़ों के झुंड, कौफी के बागान, अमराइयां, सुपारी के पेड़, लहलहाते धान के खेत, चारों तरफ हरियाली और प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य देख कर अरुणा की आंखें भर आईं.

बचपन में यही सफर वह बैलगाड़ी में तय करती थी. उस के गांव तिरुपुर में तब बस और मोटरें नहीं चलती थीं. आसपास के गांवों तक लोग बैलगाड़ी में ही आयाजाया करते थे.

अरुणा की आंखें शून्य में जा टंगीं. वह अतीत की यादों में खो गई.

वह अभी 16 साल की थी कि उस के मातापिता ने उस का ब्याह तय कर दिया. उस ने बहुत नानुकुर की पर उस की एक न चली. उस का मन आगे पढ़ने का था पर पिता बोले, ‘आगे पढ़ कर क्या करना है, वही चूल्हाचक्की न. बस, बहुत हो गया.’

इस बात की जानकारी जब उस के चाचा गोविंद को हुई तो वे शहर से दौड़े चले आए.

‘अन्ना, यह क्या करते हो? इतनी छोटी उम्र में बेटी की शादी?’

‘अरे, मेरा बस चलता तो इसे छुटपन में ही ब्याह देता,’ कृष्णस्वामी बोले, ‘लड़की रजस्वला हो उस से पहले उस का विवाह होना कल्याणकारी होता है. ऐसे ही विवाह को  ‘गौरी कल्याणम’ कहा जाता है और इसे बहुत श्रेष्ठ माना जाता है.’

‘लेकिन आजकल ये सब कौन करता है. अरुणा को आगे पढ़ने दीजिए.’

‘देखो गोविंद, बेटी को आगे पढ़ाने का मतलब है उसे शहर भेजना, क्योंकि हमारे गांव में कालेज तो है नहीं.’

‘इसे मेरे पास बेंगलुरु भेज दीजिए.’

‘नहीं, तुम्हारा अपना परिवार है.

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तुम उस को देखो. अरुणा मेरी जिम्मेदारी है. उस के लिए अच्छा घरवर ढूंढ़ लिया है. और फिर अरुणा ठिकाने से लगेगी तभी न उस की छोटी बहनों के लिए रास्ता खुलेगा.’

शादी के 1 वर्ष बाद ही अरुणा के पति की एक ट्रेन दुर्घटना में मृत्यु हो गई. उस के ससुराल वालों का तो उस पर कहर ही टूट पड़ा, ‘अरे, कैसी सत्यानाशी, कुलक्षणी लड़की निकली यह जो आते ही हमारे बेटे को खा गई. हमें नहीं चाहिए यह मनहूस कुलनाशिनी,’ ससुराल में उस का जीना दूभर कर दिया गया.

पिता उसे ससुराल से घर ले आए.

‘तू फिक्र न कर मेरी बच्ची,’ उन्होंने उसे दिलासा दिया था, ‘जब तक

मांबाप का साया तेरे सिर पर है, तुझे किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं. हम हैं न तेरी सरपरस्ती के लिए.’

‘हां अक्का,’ छोटे भाई राघव ने आश्वासन दिया, ‘मैं और केशव भी हैं जो आजन्म तुम्हें संभालेंगे.’

लेकिन क्या इन खोखले शब्दों से उस के आंसू थमने वाले थे? मांबाप का संरक्षण था, पर साथ ही बंदिशें भी थीं. उसे अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता था.

पिता कृष्णस्वामी के धर्मगुरु स्वामी अनंताचार्य घर आए. पूरा घर हाथ जोड़े उन के स्वागत में लग गया.

‘यजमान, तुम्हारी बेटी के बारे में सुना, बड़ा दुख हुआ. पर होनी को कौन टाल सकता है. अब तुम लोगों को चाहिए कि बिटिया को धैर्य बंधाओ. पिछले जन्म के कर्मों की सजा इस जन्म में मिल रही है. इस जन्म में नेमधरम से रहेगी तभी अगला जन्म संवरेगा. हां, तो बिटिया के केशकर्तन कब करवा रहे हो?’

कृष्णस्वामी भारी सोच में पड़ गए. बेटी का उदास चेहरा, सूना माथा और  गला देख कर ही उन का कलेजा मुंह को आता था. उस के केश उतारे जाने की कल्पना से वे थर्रा गए.

अरुणा ने सुना तो वह बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘पिताजी, मेरे केश मत उतरवाओ. मैं यह सह नहीं पाऊंगी.’

उस के लिए यही क्या कम था कि भरी जवानी में वैधव्य दुख भोग रही थी. पति के मरते ही उस की चूडि़यां तोड़ दी गई थीं. मंगलसूत्र गले से उतार लिया गया था. उसे सादे कपड़े पहनने के लिए बाध्य कर दिया गया था. माथे से सुहाग का चिह्न पोंछ दिया गया था सौंदर्य प्रसाधन, आमोदप्रमोद सब वर्जित हो गए. जब उस की सखीसहेलियां शादीब्याह में बनठन कर अठखेलियां करतीं तो वह उपेक्षित सी घर में मुंह लपेट कर पड़ी रहती.

उस के गोविंद चाचा जब शहर से गांव आए तो देखा कि सारा घर शोक में डूबा हुआ था.

‘यह क्या अन्ना, हमारे धर्मशास्त्रों में लिखा है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता बसते हैं. लेकिन तुम्हारे घर की स्त्रियों की दयनीय दशा देखी नहीं जाती. एक तरफ भाभी रो रही हैं. बेटी अलग अपने गम में घुलती जा रही है और तुम हो कि उन की ओर से बिलकुल उदासीन हो.’

‘मैं क्या करूं गोविंद, मुझे तो कुछ सूझता नहीं है,’ कृष्णस्वामी ने बुझे हुए स्वर में कहा.

‘तुम अब अरुणा को मेरे जिम्मे छोड़ दो. मैं उसे शहर ले जाऊंगा. उसे कालेज में भरती कराऊंगा. बिटिया वहीं पढ़ाई करेगी.’

‘लेकिन…’

‘अब लेकिनवेकिन नहीं. मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा.’

मांबाप ने भारी मन से अरुणा को विदा किया. सौ हिदायतें दीं. घर में थी तो बात और थी. वे उस के ऊपर कड़ा नियंत्रण रखते. पगपग पर टोकाटाकी करते. जवान लड़की के कहीं कदम बहक न जाएं, इस बात का उन्हें हमेशा डर लगा रहता.

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अरुणा के चाचा उसे बेंगलुरु ले कर चले गए. उसे कालेज में दाखिला दिला दिया.

इस दौरान एक दिन अरुणा की मुलाकात श्रीकांत से हुई. वह पास के कालेज में पढ़ता था. सुदर्शन और मेधावी था. लड़कियां उस के पीछे दीवानी थीं. पर उस ने सब को छोड़ अरुणा को चुना था. वे चोरीछिपे मिलने लगे.

एक दिन श्रीकांत बोला, ‘तुम ने उडुपी कृष्णभवन का मसाला डोसा खाया है कभी?’

‘नहीं.’

‘चलो, आज चलते हैं.’

‘नहीं बाबा, तुम्हारे साथ रेस्तरां गई और किसी ने देख लिया तो?’

‘देख ले, हमारी बला से. कोई हमारा क्या कर लेगा? हम दोनों तो शादी करने वाले हैं.’

‘शादी,’ उस का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘श्रीकांत, यह तुम क्या कह रहे हो? क्या तुम जानते नहीं कि मैं विधवा हूं?’

‘जानता हूं. पर वह तुम्हारा गुजरा हुआ कल था. मैं तुम्हारा आने वाला कल हूं.’

उस के प्यार की भनक आखिर एक दिन घरवालों को लग ही गई. उस दिन घर में एक तूफान आ गया था.

‘विधवा का पुनर्विवाह,’ पिताजी गरजे थे, ‘असंभव. अरे पगली, तू उस देश में जन्मी है जहां स्त्रियां पति की चिता पर सहगमन करती थीं. हमारे वंश में न कभी ऐसा हुआ न कभी होगा. हम लोग ऐसेवैसे नहीं हैं. हम उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं. मेरे दादा मैसूर महाराजा के राजपुरोहित थे. सभी काम नेमधरम से करते थे तब कहीं जा कर राजकाज संभालते थे. और तुझे मेरी मां की याद है?’

‘हां,’ उस ने अस्फुट स्वर में कहा.

अरुणा को अपनी दादी भलीभांति याद हैं. 20 साल की आयु में विधवा हुईं. घुटा हुआ सिर, एकवसना, एक जून खाना.

8 गज की तांत की साड़ी में अपना तन और सिर ढकतीं. हमेशा नेमधरम से रहतीं. वे सांध्य बेला में मंदिर जाना नहीं भूलतीं. एक दिन मंदिर में ही एक खंभे के सहारे बैठेबैठे, प्रवचन सुनते हुए उन के प्राणपखेरू उड़ गए थे.

आगे पढ़ें- लेकिन जैसे अरुणा का मन अंदर से चीख उठा था…

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