पानी मिलता रिश्ता- भाग 3: क्या परिवार को मना पाई दीप्ति

कल सुबह उसे उदयपुर के लिए निकलना है. वह असमंजस में थी कि कदम का सामना कैसे करेगी. अनमनी सी दीप्ति अपना सामान जमा रही थी कि तभी मनीष की मां की आवाज सुन कर बाहर आई,
“अरे दीप्ति बेटा, कैसी है तू? कब आई? तेरी मां ने तो तुझे बता ही दिया होगा कि मनीष ने क्या कांड किया है,” मनीष की मम्मी ने अपना दुखड़ा रोया. दीप्ति क्या कहती, फीकी सी हंसी हंस दी.

“मनीष की पत्नी लाख भली होगी लेकिन अपने संस्कारों का क्या करूं? चाहे यह छुआछूत आज के जमाने में न होता होगा लेकिन संस्कारों के बीज तो सदियों पुराने हैं न… कैसे एकदम से उखाड़ कर फेंक दूं? जब भी मेरे सामने आती है, आशीर्वाद देने का मन होते हुए भी मैं उसे आशीर्वाद नहीं दे पाती. तू ही बता, मैं क्या करूं?” अपनी सफाई देतेदेते अचानक मनीष की मम्मी ने दीप्ति से प्रश्न किया. वह अचकचा गई. एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा तो काम का बहाना कर के वहां से खिसक ली.

मन ही मन एक फैसला ले कर वह उदयपुर आ गई. कदम को देखा तो लगा मानों 3 दिन में ही मुरझा गया है. लग रहा था कि उस की गैरमौजूदगी में उस ने शेव तक नहीं बनाई होगी. दीप्ति को देखते ही कदम उस की तरफ लपका, “यों अचानक बिना बताए क्यों चली गई थी? कोई परेशानी थी तो हम मिलबैठ कर सुलझा सकते थे न…” कदम ने बेचैन होते हुए कहा.

“कुछ परेशानियां अकेले ही भुगतनी होती हैं,” दीप्ति ने सहजता से मुसकराते हुए कहा.

“तो क्या फैसला है तुम्हारा?” कदम अधीर हो रहा था.

“न चाहते हुए भी कुछ फैसले हमें अपने विरुद्ध लेने पड़ते हैं क्योंकि हम पर केवल हमारा ही अधिकार तो नहीं होता न?” दीप्ति ने कहा. कदम कुछ समझा नहीं. वह मुंह खोले उस की बात पूरी होने की प्रतीक्षा कर रहा था.

“यदि हम एकदूसरे को चुनते हैं तो अपनेअपने परिवार और समाज में एकदूसरे को इज्जत दिलवाना हमारी अपनी निजी जिम्मेदारी हो जाती है. और मुझे लगता है कि मैं तुम्हारे लिए यह नहीं कर पाऊंगी. यदि मैं तुम्हें अपने परिवार में तुम्हारा सही स्थान नहीं दिला पाती तो मुझे कोई अधिकार नहीं है कि हर सामाजिक कार्यक्रम में तुम्हें नीचा देखने की स्थिति में लाऊं. मैं तुम्हारी बहुत इज्जत करती हूं और समाज में उसे बरकरार रखना चाहती हूं. फिर चाहे मुझे न चाहते हुए भी समाज के बकवास नियम मानने ही क्यों न पड़ें,” दीप्ति ने आंखों की नमी छिपाते हुए कहा.

“मैं जानता हूं कि एक पल में कुछ भी नहीं बदलेगा. न लोग और न ही उन की मान्यताएं… लेकिन आज यदि हमने एकदूसरे के हाथ नहीं थामे तो फिर वक्त हमें दूसरा मौका नहीं देगा और उस मलाल के सामने जिंदगी का हर हासिल कम रह जाएगा,” कदम लगभग गिड़गिड़ा ही उठा.

आंखें तो दीप्ति की भी भर आई थीं लेकिन वह सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही. कदम उस की मन की स्थिति भलीभांति समझ रहा था लेकिन मजबूर था. उस ने दीप्ति के कंधे थपथपाए और उस के निर्णय का सम्मान करता हुआ अपने केबिन में चला गया. उस ने तय कर लिया था कि वह इंतजार करेगा. मगर किस का? दीप्ति के मन को बदलने का या समाज की धारणा को बदलने का? जो भी हो… दोनों में ही वक्त लगने वाला था.

कदम ने हालांकि अपना मन बहुत कड़ा कर लिया था लेकिन मन अपने बस में रहता कहां है? रातभर दीप्ति और उस का निर्णय ही उस के दिमाग में हलचल मचाए हुए था. ऐसा ही कुछ हाल दीप्ति का भी था. उस के सामने भी रहरह कर कदम का निराशहताश चेहरा घूम रहा था. अपने घर पर उस ने जो फैसला किया था वह कदम की बेगुनाह मोहब्बत के सामने कमजोर पड़ता नजर आ रहा था. लेकिन दीप्ति इतनी जल्दी कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. आखिरकार उस ने अपने मन को कठोर कर लिया.

दूसरे दिन दीप्ति औफिस नहीं गई. उस ने कदम को व्हाट्सऐप पर मैसेज भेजा,”मिलना है तुम से. घर आ जाओ,” कदम ने मैसेज को देखा लेकिन कोई जवाब नहीं दिया.

दीप्ति ने आधा घंटा बाद फिर से मेसैज भेजा,”मैं इंतजार कर रही हूं.” कदम ने पढ़ा. और कोई दिन होता तो वह सिर के बल दौड़ा चला जाता लेकिन वह परिस्थितियों को भी समझ रहा था और दीप्ति की मनःस्थितियों को भी. वह दीप्ति की दुविधाएं बढ़ाना नहीं चाहता था लेकिन पांव उस के रोके नहीं रुके और अगले 15 मिनट में वह दीप्ति के फ्लैट की घंटी बजा रहा था. इन 15 मिनट में वह सोच चुका था कि उसे दीप्ति को सांत्वना कैसे देनी है. कैसे उस के टूटे दिल को ढांढस बंधाना है.
घंटी बजने से पहले ही दीप्ति ने दरवाजा खोल दिया मानों खिड़की में बैठी उसी की राह देख रही थी. कदम ने देखा आज दीप्ति ने वही मोरपंखी रंग की साड़ी पहनी थी जो उस ने उसे पिछली दीवाली पर उपहार में दी थी.

कानों में मैचिंग लटकन और हाथों में चूड़ियां भी उसी की लाई हुई ही पहनी थी. हलका मेकअप कर के दीप्ति बहुत खूबसूरत लग रही थी. कदम तड़प कर रह गया.

‘सदमे के कारण बेचारी के दिमाग का संतुलन बिगड़ गया शायद,’ सोचते हुए कदम उस की तरफ बढ़ा लेकिन यह क्या? दीप्ति तो खिलखिलाती हुई उस से लिपट गई. कदम सकपका गया.

“हम शादी करेंगे. क्या तुम तैयार हो? यदि तुम्हारे घर वाले भी राजी न हों तब भी?” दीप्ति ने उस के सीने से सिर हटा कर अपनी आंखें उस के चेहरे पर गड़ा दीं.

“लेकिन कल तक तो माहौल कुछ और ही था. आज अचानक?” कदम ने पूछा. उसे अब भी दीप्ति के प्रस्ताव पर यकीन नहीं हो रहा था.

“बहुत सोचा मैं ने. और मंथन का नतीजा यह निकला,” दीप्ति ने कहा.

“क्या?” कदम ने पूछा.

“मांपापा सारी उम्र तो साथ नहीं रहेंगे न? आखिर तो जीवनसाथी ही काम आता है. यदि वही अपनी पसंद का न हो तो जिंदगी नरक नहीं बन जाएगी? देरसवेर घर वाले भी राजी हो ही जाएंगे. वैसे भी क्या तुम्हारे प्यार की लाश पर मैं अपना आशियाना बना पाऊंगी? और फिर तुम से शादी कर के मैं अपनी भावी संतानों को एक बेहतरीन भविष्य भी तो दे पाऊंगी… उन्हें भी तो आरक्षित श्रेणी के पिता की संतान होने के नाते आरक्षण मिलेगा,” अंतिम बात कहतेकहते दीप्ति के होंठों पर मुसकान थिरक उठी. कदम भी मुसकरा दिया.

“ओहो, तो यह बात है. जो अभी दुनिया में आया भी नहीं उस के भविष्य की चिंता की जा रही है और जो सामने खड़ा है उस के वर्तमान का क्या?” कदम ने शरारत से कहा.

“उस के लिए यह,” कहते हुए दीप्ति ने अपने होंठों से कदम का मुंह बंद कर दिया. पानी मिले या न मिले लेकिन दो दिल मिल चुके थे.

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स्मिता तुम फिक्र मत करो- भाग 4: क्या वापस लौटी खुशियां

चिराग का घर वाकई खूबसूरत था. वह लौन की तरफ गई, जहां सिर्फ 10-12 बच्चे थे. बच्चों को दूरदूर बैठा कर फन एक्टिविटी कराई जा रही थी. वह नजरें घुमा कर अवि को देख रही थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘हैलो, आप शायद अवि की मदर हैं.’’ स्मिता ने पलट कर देखा, लगभग 35-37 वर्षीय पुरुष, जिस का व्यक्तित्व आकर्षक कहा जाए तो गलत न होगा, खड़ा था.

‘‘जी, और आप?’’ स्मिता ने पूछा.

‘‘मैं चिराग का पापा अनुराग. आप को कई बार पेरैंट्स मीटिंग में देखा है अवि के साथ.’’

‘‘अच्छा, तभी सोच रही थी, कैसे मु झे पहचाना. वह क्या है कि अवि चिराग का गिफ्ट घर पर भूल आया था, देने चली आई. इधर कुछ काम भी था, सोचा, वह भी कर लूंगी.’’

‘‘गिफ्ट कोई इतना जरूरी तो नहीं था.’’

‘‘क्यों नहीं, बर्थडे पर बच्चों को अपने गिफ्ट देखने का ही शौक होता है.’’

‘‘यह तो आप सही कह रही हैं. अब आ ही गई हैं तो केक खा कर जाइए.’’ वेटर केक रख कर ले आया था.

‘‘थैंक्स, मैं चलती हूं. अवि अभी यहीं हैं. काफी एंजौय कर रहा है.’’

‘‘लाइफ में एंजौयमैंट बहुत जरूरी है, बच्चों के लिए भी और बड़ों के लिए भी,’’ अनुराग ने कुछ गंभीर हो कर कहा तो स्मिता ने एक बार उस की तरफ देखा. आंखें जैसे कहीं शून्य में खो गई थीं.
‘‘जी?’’

‘‘जी, कुछ नहीं. आइए आप को बाहर तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘जी शुक्रिया, आप मेहमानों को देखिए. अच्छा, नमस्ते.’’
‘‘नमस्ते.’’

अवि और चिराग वीडियो कौलिंग करते थे. कभीकभी स्कूल के असाइनमैंट वर्क को ले कर अनुराग स्मिता से बात कर लेता था. अनुराग पेशे से प्रोफैसर था. पत्नी से तलाक हो चुका था. उस की अपनी महत्त्वाकांक्षाएं थीं जिन्हें पूरा करने के लिए उस ने पति और बेटे को पीछे छोड़ दिया था. चिराग की पूरी देखभाल अनुराग के सिर थी और अनुराग की मां भी चिराग का पूरापूरा खयाल रखती थीं.

एक दिन अनुराग अपने पुत्र चिराग को अवि से मिलवाने के लिए ले कर आया था. स्मिता घर पर ही थी. अनुराग को देख उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई थी जिसे सोमा काकी ने पढ़ लिया था. स्मिता ने अपने भाव छिपाते हुए अनुराग को बैठने के लिए कहा. चिराग और अवि खेलने ऊपर के कमरे में चले गए थे.
‘‘आप के लिए कुछ लाऊं?’’ सोमा काकी के चेहरे पर उत्साह की  झलक थी.
‘‘जी नहीं, मैं ठीक हूं,’’ अनुराग ने जवाब दिया.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है कि आप बिना कुछ लिए चले जाएं. मैं दोनों के लिए ही चाय बना कर लाती हूं,’’ बीच में ही सोमा काकी बड़े अधिकार से बोलीं और किचन की ओर बढ़ गईं.

‘‘आज काकी को न जाने क्या हो गया है. वे तो किसी को मेरे पास फटकने नहीं देतीं,’’ स्मिता का यह कहनाभर था कि अनुराग के चेहरे पर मुसकान आ गई, जिसे देख स्मिता को अच्छा लगा.
‘‘क्या कर रही हैं आजकल आप, कुछ नया?’’ अनुराग ने प्रश्न किया.
‘‘कुछ खास नहीं, फैक्ट्री का काम अच्छा चल ही रहा है, तो कोई दिक्कत नहीं.’’
‘‘मैं आप के बारे में पूछ रहा था फैक्ट्री के नहीं,’’ अनुराग ने स्मिता की आंखों में देखते हुए कहा.
‘‘मेरे बारे में जानने जैसा कुछ है ही नहीं,’’ स्मिता ने नजरें अनुराग के चेहरे से हटाते हुए कहा.
‘‘मु झे ऐसा नहीं लगता.’’

सोमा काकी चाय ले आईं. सोमा काकी वहीं पास खड़ी थीं और लगातार अनुराग को ताक रही थीं. उन्हें अनुराग के चेहरे पर एक अपनापन नजर आया था जो उन्होंने किसी और पुरुष के चेहरे पर नहीं देखा था. अनुराग का व्यक्तित्व उस के अच्छे इंसान होने की गवाही दे रहा था. सोमा काकी कमरे से बाहर गईं तो शामू काका से अनुराग को ले कर चर्चा करने लगीं.
‘‘प्रोफैसर साहब को ले कर तुम्हारा क्या खयाल है?’’ सोमा काकी ने पूछा.
‘‘अच्छे इंसान मालूम पड़ते हैं,’’ शामू काका ने जवाब दिया.
‘‘मु झे भी. बिटिया का चेहरा कितने दिन बाद इतना खिला हुआ दिख रहा है, है न?’’
‘‘पता नहीं, लेकिन तुम कह रही हो तो ऐसा ही होगा.’’
‘‘हां.’’

अनुराग चिराग को ले कर जाने लगा तो उस के चेहरे पर स्मिता से मिलने की चाह साफ नजर आ रही थी. अनुराग के जाते ही स्मिता सोफे पर बैठी हुई थी जब सोमा काकी उस के पास आ कर बैठ गईं.
‘‘मु झे तो प्रोफैसर साहब अच्छे लगे, और बिटिया तुम्हें?’’
‘‘हां, मु झे भी,’’ कहते ही स्मिता को खयाल आया कि उस ने अचानक क्या कह दिया. ‘‘क्या? ऐसा तो कुछ नहीं है, मेरा मतलब, हां, अच्छे व्यक्ति हैं,’’ कह कर उस ने नजरें दूसरी तरफ कर लीं.
‘‘मेरी तो हां हैं और शामू की भी,’’ कह कर सोमा काकी उठ कर जाने लगीं.
स्मिता उन की बात सुन कर  झेंप गई, बोली, ‘‘कुछ भी कहती हो आप.’’

अवि और चिराग आपस में बात करना चाहते थे तो स्मिता के फोन पर अनुराग का मैसेज आ जाता था. पर अब वह चिराग और अवि की बात कराने के लिए नहीं बल्कि खुद स्मिता से बात करने के लिए मैसेज करने लगा. धीरेधीरे अनुराग ने स्मिता से मोबाइल पर बात करनी शुरू कर दी. दो दुखी दिल, दो तन्हा इंसान ही एकदूसरे की पीड़ा सम झ सकते हैं. अनुराग ने अपनी पत्नी से तलाक के बाद दूसरी शादी के बारे में सोचा तक नहीं था. लेकिन, अपनी तरह ही स्मिता को देख वह उस के प्रति आकर्षित होने लगा था.

स्मिता और अनुराग जब बात करते थे, उन्हें लगता था उन के मन की पीड़ा कम हो गई है. दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त बन गए थे. अनुराग का यह कहना, ‘स्मिता, तुम फिक्र मत करो. मैं हूं न. सब ठीक हो जाएगा,’ स्मिता की सब पीड़ा हर लेता.

सोमा काकी ने महसूस किया था जब से अनुराग स्मिता की जिंदगी में आया है, स्मिता के जीवन में आया खालीपन भरने लगा था. दोनों अपनीअपनी तकलीफ एकदूसरे से बांट कर जिंदगी की उल झनों को सुल झा रहे थे. बेशक वे एकदूसरे से दूर रहे थे लेकिन मन का जुड़ाव हो चुका था. मन से मन का मिलन कुछ कम तो नहीं होता.

दोनों की अपनीअपनी जिंदगी थी. दोनों पर अपने बच्चों की जिम्मेदारी थी. वे उन्हें अच्छी तरह निभा रहे थे. लेकिन दोनों के पास आज एकदूसरे का मानसिक संबल था जो शारीरिक संबल से भी जरूरी है. वक्त की धारा में दोनों बह रहे थे.

‘‘स्मिता बिटिया, किस सोच में हो, तुम्हारा खूबसूरत भविष्य तुम्हारा इंतजार कर रहा है. शादी के बारे में क्यों नहीं सोचतीं,’’ सोमा काकी ने एक दिन कहा.
‘‘डर लग रहा है काकी. समाज क्या कहेगा, बच्चे क्या सोचेंगे कि उन की मां को शादी की पड़ी है.’’
‘‘बच्चे छोटे हैं स्मिता, वे पिता की कमी महसूस करते हैं जो प्रोफैसर साहब पूरी कर सकते हैं. वे भी तुम से शादी करना चाहते हैं, उन की बातों से, उन की आंखों से साफ  झलकता है.’’
‘‘पूछा था अनुराग ने मु झ से, मैं ने ही मना कर दिया था.’’
शामू काका भी वहां आ चुके थे.

‘‘स्मिता बिटिया, सोमा सही कह रही है, समाज हमारे साथ ऐसा करता ही क्या है जो हम उस के बारे में सोचें, अपने दिल की सुनो बिटिया. बच्चों को पिता भी मिल जाएगा.’’
शामू काका और सोमा काकी के जाने के बाद स्मिता सोच में डूब गई. सुमित को याद करने लगी, अपने वे दिन याद करने लगी जब लोगों की नजरें उसे तारतार करने की कोशिश करती थीं. अनुराग से मिलने से पहले कितना दर्द था उस के दिल में. सब स्मिता की आंखों के आगे नाचने लगा.
स्मिता ने फोन उठाया और अनुराग को कौल किया.
‘‘हैलो, अनुराग.’’
‘‘हां स्मिता, कहो?

‘‘मैं तुम्हारा हाथ थाम कर आगे बढ़ना चाहती हूं. ऐसा लगता है कि हम साथ होंगे तो सब उलझनें सुलझ जाएंगी.’’
‘‘स्मिता, मैं तुम से वादा करता हूं कि तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं आने दूंगा कभी.’’ अनुराग के इन शब्दों से स्मिता का रोमरोम पुलकित हो उठा था.

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बदलते मूल्य: बाप-बेटे का बदलता रिश्ता

बाप और बेटों का रिश्ता संक्रमण काल से गुजर रहा है. पहले बाप बेटे की विश्वसनीयता एवं चरित्र पर शंका किया करते थे, अब बेटे भी बाप को शंकालु दृष्टि से देखने लगे हैं. वे बचपन से ही प्रेम को आत्मसात करतेकरते मूंछ की रेख आने तक पूर्ण परिपक्व हो जाते हैं और उन्हें यौवन पार करतेकरते पिताश्री की गतिविधियां संदिग्ध लगने लगती हैं. अब प्यार और विवाह में आयु का बंधन नहीं रहा. 60 के आसपास के चार्ल्स अभी भी राजकुमार हैं और वह आयु में अपने से बड़ी राजकुमारी कैमिला पार्कर को ब्याह कर राजमहल ले आए. पिता की शादी में युवा पुत्रों-हैरी और विलियम्स ने उत्साह से भाग लिया और आशीर्वाद…क्षमा करें, शुभकामनाएं दीं. कैमिला की बेटी लारा पार्कर नवयुगल को निहारनिहार कर स्वप्नलोक में खोती रही. वर्तमानकाल में सांस्कृतिक, सामाजिक व पारिवारिक मूल्य तेजी से बदल रहे हैं. ऐसे सामाजिक संक्रांतिकाल खंड में एक बेटे ने बाप से पूछा, ‘‘पापा, आज आप बडे़ स्मार्ट लग रहे हैं. कहां जा रहे हैं?’’

‘‘कहीं नहीं, बेटा,’’ बाप नजरें चुराते हुए बोला.

‘‘मेरी हेयरक्रीम से आप की चांद चमक रही है. अब समझ में आया. क्रीम जाती कहां है. मम्मी की नजरें बचा कर आईब्रो पेंसिल से मूंछें काली करते हैं. कहते हैं, कहीं नहीं जा रहे. क्या चक्कर है पिताश्री?’’ बेटे ने फिर पूछा.

‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं,’’ बाप सकपकाया जैसे चोरी पकड़ी गई हो. फिर बोला, ‘‘बेटा, तुम तो फालतू में शक वाली बात कह रहे हो.’’

‘‘फालतू में नहीं, पापा, जरूर दाल में कुछ काला है. मम्मी सही कहती हैं, आप के लक्षण ठीक नहीं. मैं ने भी टीवी सीरियल देखे हैं. आप के कदम बहक गए हैं. आप को परलोक की चिंता नहीं. मुझे अपने भविष्य की है,’’ बेटा गंभीरता से बोला.

‘‘तुम्हारा भविष्य तुम्हारे हाथ में है. बेटा, पढ़नेलिखने में दिल लगाओ,’’ बाप ने समझाया.

‘‘मैं पढ़ने में दिल लगाऊं और आप…’’ कहतेकहते बेटा रुक गया.

बाप सोच रहा था. बेटे को डांटूं या समझाऊं. तभी उस की निगाह बेटे के पैर पर गई. अपना नया जूता बेटे के पैर में देख पहले तो उसे क्रोध आया पर अगले पल ही यह सोच कर रह गया कि बाप का जूता बेटे के पैर में आने लगा है. समझाने में ही भलाई है. फिर बोला, ‘‘तुम क्या कहना चाहते हो, बेटा?’’

बेटा मन ही मन सोच रहा था, ‘मेरा बाप बेकहम की तरह करोड़पति तो है नहीं, जो मुआवजा दे सके. न कोई सेलिब्रेटी है जिस का बदनाम हो कर भी नाम हो, न मैं आमिर की तरह अमीर हूं जो बाप से नाता तोड़ सकूं. पिताश्री घर में रहें इसी में परिवार की भलाई है. यह अकसर पैसा खींचने के लिए अच्छा है?’

प्रगटत: बेटे ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, पापा, बाहर जा रहा था. 100 रुपए दे दीजिए.’’

‘‘100 रुपए,’’ बाप दम साध कर बोला, ‘‘कल ही तो दिए थे. अब फिर…’’ पर उस ने समझौता करने में ही भलाई समझी. 100 रुपए देते हुए उस ने मुसीबत से छुटकारा पाया.

अब जेब खाली थी. अपना कार्यक्रम स्थगित किया, शयनकक्ष में झांका. पत्नी दूरदर्शन देखने में व्यस्त थी. पत्नी के मनोरंजन कार्यक्रम में व्यवधान डालने के परिणाम की कल्पना कर ही वह सिहर उठा. वह बाप से पति बनने की प्रक्रिया से गुजर रहा था. चुपचाप किचन में चाय बनाने लगा. पत्नी के व्यस्त कार्यक्रम के मध्य उसे चाय पिला कर पतिधर्म निभाने का विचार करने लगा. तभी बरतन गिरने की आवाज से चौंकी पत्नी की चिल्लाहट गूंजी, ‘‘पप्पू, क्या खटरपटर मचा रखी है? क्लाइमेक्स बरबाद कर दिया.’’

‘‘जी, पप्पू नहीं पप्पू का पापा,’’ पति ने भय से उत्तर दिया.

‘‘कितनी बार मना किया कि किचन में संभल कर काम करो. 20 साल में कुछ नहीं सीख पाए. तुलसी की साड़ी देखो, एक एपीसोड में 6 बदलती है और मैं 6 माह से यही रगड़ रही हूं. मेरे भाग्य में तुम्हीं लिखे थे,’’ पत्नी ने विषय बदल दिया.

‘‘अरे भाग्यवान, क्यों नाराज होती हो. लो, मेरे हाथ की चाय पियो,’’ पति चापलूसी के स्वर में बोला.

‘‘हाय राम, पूरा दूध डाल दिया. फिर भी चाय है या काढ़ा,’’ पत्नी चाय सुड़कते हुए बोली.

‘‘दवा समझ कर पी लो, मैं तो 20 साल से पी रहा हूं.’’

‘‘मेरे हाथ की चाय तुम्हें काढ़ा लगती है, तो कल से तुम्हीं बनाओ.’’

‘‘बुरा मान गईं. मैं तो रोज बनाता हूं. क्या देख रही हो, कुमकुम…’’

‘‘सीरियल का नाम भी याद है. मुझे बदनाम करते हो, देख लो मजेदार है.’’

‘‘नहीं, मुझे काम है,’’ कहते हुए पति कमरे से बाहर निकलने लगा.

‘‘कांटा लगा…देखोगे?’’

जब से आकाशीय तत्त्व ने दूरदर्शन के माध्यम से गृहप्रवेश किया है, दिन में चांद दिखने लगा है और रात में सूरज या यों कहें कि दिन में सोते हैं, रात में टीवी देखते हैं. घर में सभी की समयसारणी निश्चित है कि कौन कब क्या देखेगा. बच्चे पढ़ाई सीरियल के हिसाब से करते हैं. खाने का समय बदल ही गया है. जब पत्नी के जायके का सीरियल नहीं आता तभी खाना मिलता है. खाने का जायका भी सीरियल के जायके पर निर्भर हो गया है. रसपूर्ण सीरियल के मध्य ठंडा व नीरस और नीरस सीरियल के मध्य गरम और रसपूर्ण भोजन मिलता है. दूरदर्शन ने नई पीढ़ी को अत्यधिक समझदार बना दिया है. वे मम्मी से मासूमियत से माला-डी के बारे में पूछते हैं. वयस्कों के चलचित्र भोलेपन से देखते हैं.

हमारी कथा के नायक पति, जो कभीकभी बाप बन जाते हैं, क्रोधित होते हुए घर में प्रवेश करते हैं, ‘‘कहां है पप्पू, सूअर का बच्चा?’’

‘‘मैं यहां हूं, पापा.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ? क्यों आसमान सिर पर उठाए हो?’’ पत्नी ने हस्तक्षेप किया.

‘‘पूछो इस से, मोटरसाइकिल पर लिए किसे घुमा रहा था?’’

‘‘किसे घुमा रहा था. मेरी सिस्टर थी ललिता,’’ बेटे ने निर्भीक हो कर उत्तर दिया.

‘‘लो, एक नई सिस्टर पैदा हो गई. मुझे तो मालूम नहीं, तुम्हारी मम्मी से ही पूछ लेते हैं,’’ बाप ने बेटे की मां की ओर देखा.

‘‘हाय राम, यह भी दिन देखने थे. पहले बेटे पर, अब मुझ पर शक करते हो? मेरी भी अग्निपरीक्षा लोगे? यह सब सुनने के पहले मैं मर क्यों नहीं गई,’’ पत्नी ने माथे पर हाथ मारते हुए कहा.

‘‘देखो मम्मी, पापा की बुद्धि कुंठित है, सोच दकियानूसी है, पुराने जमाने के आदमी हैं, दुनिया मंगल पर पहुंच रही है और आप हैं कि चांद पर अटके हैं. जरा आंखें खोलिए, पापा,’’ बेटे ने समझाया.

‘‘तुम ने मेरी आंखें खोल दीं, बेटे, अभी तक अंधा था. अब समझ आया, साहिबजादे क्या गुल खिला रहे हैं.’’

‘‘पापा, अब गुल नहीं खिलते, ईमेल खुलते हैं, चैटिंग होती है. सुपर कंप्यूटर के जमाने में आप स्लाइड रूल खिसका रहे हैं. बदलिए आप. मुझ से चाहते क्या हैं?’’ बेटे ने पूछा.

‘‘मैं क्या चाहूंगा? तुम अच्छी तरह पढ़लिख कर नाम कमाओ, बस.’’

‘‘पढ़लिख कर आप जैसी नौकरी करूं, यही न?’’

‘‘मैं ने यह नहीं कहा. कुछ भी अच्छा करो, कोई रोलमाडल चुनो. कुछ सभ्यता सीखो,’’ बाप ने समझाया.

‘‘आप की पीढ़ी से किसे चुनूं? गांधी, नेहरू, सुभाष, शास्त्री देखे नहीं. जे पी, विवेकानंद के बारे में बस, सुना है. आप के जमाने के रोलमाडल कौन हैं? फिल्म वाले, डकैत, पैसे वाले, रसूख वाले, दोहरे चरित्र के नेता, अफसर…आप बताएं किस जैसा बनूं?’’

‘‘तुम बहुत बातें करने लगे हो, यही सीखा है. तुम्हारे दादा के सामने मेरी आवाज नहीं निकलती थी.’’

‘‘आप कुछ नहीं कहते थे…क्यों?’’ बेटे ने प्रश्न किया.

‘‘मैं अनुशासित था.’’

‘‘आप यह नहीं कहेंगे, दादाजी अनुशासनप्रिय थे. आप के सामने बात करता हूं तो आप कहते हैं, मैं उद्दंड हूं. यह नहीं कहते कि आप अनुशासनप्रिय नहीं. आप की पीढ़ी अनुशासनप्रिय नहीं. परिणाम हमारी पीढ़ी है,’’ बेटे ने अपना पक्ष रखा.

‘‘कहां की बकबक लगा रखी है?’’ बाप खीजते हुए बोला.

‘‘आप कहें तो प्रवचन. हम कहें तो बकबक. यही आप की पीढ़ी का दोहरा चरित्र है. आप विचार करें, मैं बाहर मूड फे्रश कर के आता हूं,’’ कहता हुआ बेटा उठा और बाहर चला गया.

बाप सोच रहा था, ‘नई पीढ़ी में गजब का आत्मविश्वास है. पप्पू बात सही कह रहा था या गोली खिला कर चला गया?’

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दरबदर- भाग 1: मास्साब को कौनसी सजा मिली

इस बार मायके गई तो छोटी बहन ने समाज की खासखास खबरों के जखीरे में से यह खबर सुनाई, ‘‘बाजी, आप के सईद मास्साब की मृत्यु हो गई.’’

‘‘कब? कैसे?’’

पिछले महीने की 10 तारीख को. बड़ी तकलीफ थी उन्हें आखिरी दिनों में. पीठ में बैडसोर हो गए थे. न लेट पाते थे न सो पाते थे. रातरातभर रोतेरोते अपनी मौत का इंतजार करते पूरे डेढ़ साल बिताए थे उन्होंने.

इस दर्दनाक मौत की खबर ने मुझे रुला दिया. मैं ने आंसू पोंछते हुए पूछा, ‘‘लेकिन उन की तो 4-4 बीवियां, 6 बच्चे और एक छोटा भाई भी तो था न?’’

‘‘बाजी, जब बुरे दिन आते हैं न, तो साया भी साथ छोड़ देता है. उन की पहली बीवी तो 3 साल पहले ही

दुनिया से चली गई थी. दूसरी, तीसरी, चौथी बीवियों ने झांक कर भी नहीं

देखा. आखिरी वक्त में भाई ही भाई के काम आया.’’

यह सुन कर मुझे दिली तकलीफ पहुंची.

सईद मास्साब 10वीं क्लास में अंजुमन स्कूल में मेरे इंग्लिश के टीचर थे. लंबेचौड़े सांवले रंग के मास्साब के फोटोजैनिक चेहरे पर मोटे फ्रेम के चश्मे के नीचे बड़ीबड़ी आंखों में चमक हमेशा सजी रहती. अपने हेयरस्टाइल आर ड्रैसिंग सैंस के लिए स्टूडैंट्स के बीच बेहद लोकप्रिय थे वे. लड़कियां अकसर आपस में शर्त लगातीं, ‘देखना, सईद मास्साब आज कुरतापजामा के साथ कोल्हापुरी चप्पल पहन कर आएंगे.’ सुन कर दूसरी लड़की झट बात काटती हुई कहती, ‘नहीं, आज मास्साब जरूर पैंटशर्ट के साथ बूट पहन कर आएंगे.’ कोईर् कहती, ‘नहीं, मास्साब आज सलवारकुरते के साथ काली अचकन और राजस्थानी जूतियां पहन कर आएंगे चर्र…चूं करने वाली.’

जो लड़की शर्र्त हार जाती वह इंटरवल में पूरे ग्रुप को गोलगप्पे खिलाती. मास्साब इतने खुशमिजाज थे कि दर्दीली पोयम पढ़ाते वक्त भी उन के होंठों पर मुसकान की लकीर दिखाई पड़ती. लेकिन जब हम डिक्शनरी में वर्डमीनिंग देखते और गाइड में उस का अनुवाद पढ़ते तो मास्साब की मुसकान के पीछे छिपे गूढ़ अर्थ को समझने में महीनों सिर खपाते रहते.

‘मास्साब, आज मैं घर से बटुआ लाना भूल गई. घर वापस जाने के लिए रिकशे के पैसे नहीं…’ कोई लड़की कहती.

‘कोई बात नहीं, ये लीजिए 5 रुपए, ठीक से जाइएगा, समझीं,’ कहते हुए अपने पर्स की जिप खोलने लगते.

‘मास्साब, मेरे अब्बू के गैरेजमालिक की मां मर गई. मेरे अब्बू को तनख्वाह नहीं मिल सकी, इसलिए फीस नहीं ला सका.’ कोई लड़का हकलाते हुए यह कहता तो मास्साब कौपियों से सिर उठाए बिना, उस की सूरत देखे बगैर ही कहते, ‘कोई बात नहीं, मैं भर दूंगा, आप की फीस. नाम क्या है?’

‘फैयाज मंसूरी.’

‘ठीक है, जब अब्बू को तनख्वाह मिले तब ले आना,’ कह कर मास्साब चपरासी को बुला कर उस लड़के की फीस औफिस में उसी वक्त जा कर जमा करने के लिए नोट थमा देते. लेकिन पूरे साल लड़के के अब्बू को न तो तनख्वाह मिलती, न मास्साब को कभी अपने दिए गए पैसे याद रहते.

इंग्लिश के अच्छे टीचर के अलावा सईद मास्साब स्कूल की कल्चरल, स्पोर्ट्स और सोशल ऐक्टिविटीज में हमेशा आगे रहते. नौजवान खून में ऊंचे ओहदे की बुलंदियां छू लेने के लिए मेहनतकशी को हथियार बनाने की पुख्ता सोच उन के हर काम के लिए तत्पर रहने वाले किरदार से साफ झलकती. साइंस एग्जीबिशन में अपने मौडल ले कर दूसरे स्कूल जाना है बच्चों को, तो सईद मास्साब बस के इंतजाम से ले कर मौडल्स पैक करने, उन के डिटेल्स को टाइप कराने तक के पूरे काम अपने सिर ले लेते.

बच्चों को किसी टुर्नामैंट में जाना है तो सईद मास्साब बच्चों के स्पोर्ट्स ड्रैस, किट्स, फर्स्टएड बौक्स खरीदते हुए घर आने में लेट हो जाते तो मुंह फुला कर बैठी बीवी की तानाकशी भी झेलते. ‘पिं्रसिपल के बराबर तनख्वाह मिलती तो भी सब्र आ जाता. चौबीसों घंटे, घरबार, बच्चे सौदासुलूफ को भूले… आप बस, अंजुमन स्कूल के ही हो कर रह गए हैं. घर, बच्चों का तो खयाल ही नहीं.’

जुलाई के महीने में एक नई टीचर ने जौइन किया था. वह कुंआरी थी. कुछ महीनों के बाद पता चला उस की शादी तय हो गई. स्कूल में वह हाथ भरभर कर हरी रेशमी चूडि़यां और कुहनी तक मेहंदी लगा कर आईर् थी.

सालभर भी नहीं गुजरा, दुबई गए उस के शौहर ने दुबई से स्काईप पर ही टीचर को तलाक कह दिया तीन बार. रोतीबिलखती टीचर को सईद मास्साब जैसे हमदर्द का ही कंधा मिला पूरे स्कूल में दर्द का पहाड़ पिघलाने के लिए.

स्टाफरूम में अब सईद मास्साब को देख कर कानाफूसी शुरू होने लगी. ‘सुना है सईद सर जुलेखा मैडम से निकाह करने वाले हैं.’

‘तभी तो उन्हें रोज स्कूल से घर लाते, ले जाते हैं. कमाने वाली औरत पर ही सईद मास्साब पूरी हमदर्दी लुटाते हैं.’

‘क्या कह रहीं है आप?’ नसरीन मैडम चौंकी. ‘हां, सच कह रही हूं,’ आयशा मैडम बोली, ‘देखिए उन की पहली बीवी सरकारी स्कूल में टीचर हैं. दोनों की कमाई है. घर में हर तरह का ऐशोआराम है. अब मजहब के नाम पर बेसहारा को सहारा देने के बहाने सईद मास्साब को फिर एक कमाऊ औरत मिल गई है. और दूसरी बीवी पर खर्च तो करना नहीं पड़ेगा, बल्कि जरूरत पर जुलेखा मैडम उन के अकाउंट में पैसे डाल देगी.’

मुझे नजमा मैडम ने स्टाफरूम में मेरी क्लास की नोटबुक लाने भेजा था, तभी टीचर्स की ये बातें मेरे कानों में पड़़ीं तो सहज विश्वास नहीं हुआ. आता भी कैसे? हमारे बालमन पर सईद मास्साब की छवि आदर्श टीचर की छपी हुई थी.

मैं ने 12वीं पास कर ली. मेरी 2 छोटी बहनें, उस के बाद एक भाई है. मेरे अब्बू की मनिहारी की दुकान है. घर की खस्ता माली हालत ने मुझे एक प्राइवेट स्कूल में नर्सरी की टीचर बना दिया. उन्हीं दिनों मेरी स्कूल में लीव वैकैंसी पर नई टीचर आयरीन सहर ने जौइन किया. घुंघराले बालों वाली छरहरे बदन की भोले से चेहरे पर खड़ी नाक और सुडौल जिस्म वाली यह टीचर इतनी कमाल की आर्टिस्ट थी कि मिनटों में शिक्षापयोगी सहायक सामग्री बना कर क्लासरूम के शीशे वाली अलमारी में सजा देती. हम दोनों हमउम्र थे, इसलिए हाफटाइम में दोनों टिफिन के साथसाथ दिल की बातें भी शेयर करते. कुछ महीनों के बाद मैं ने गौर किया कि वह अपने पहनावे और जिस्मानी खूबसूरती के लिए बतलाए गए टिप्स पर संजीदगी से अमल करती और उस के फायदे बतला कर मुझे भी वैसा करने को कहती.

एक दिन वह स्कूल में नौर्मल दिनों से कहीं ज्यादा सजधज कर आईर् थी. मिलते ही चहकने लगी, ‘आज मेरा बौयफ्रैंड मुझे पिक करने आ रहा है,’ आयरीन ने बताया.

छुट्टी के बाद मुझे हैडमिस्ट्रैस ने बुलवा लिया. छुट्टी के आधे घंटे बाद मैं अपना बैग ले कर सड़क की तरफ बढ़ने लगी. तभी सामने का दृश्य देख कर आश्चर्यचकित रह गई. आयरीन जिन की मोटरसाइकिल पर बैठ रही थी, वे सईद मास्साब थे.

ममता का डौलर: क्या हुआ आनंदी के साथ

पलंग पर चारों ओर डौलर बिखरे हुए थे. कमरे के सारे दरवाजे व खिड़कियां बंद थीं, केवल रोशनदान से छन कर आती धूप के टुकड़े यहांवहां छितराए हुए थे. डौलर के लंबेचौड़े घेरे के बीच आनंदी बैठी थीं. उन के हाथ में एक पत्र था. न जाने कितनी बार वे यह पत्र पढ़ चुकी थीं. हर बार उन्हें लगता कि जैसे पढ़ने में कोईर् चूक हो गई है, ऐसा कैसे हो सकता है. उन का बेटा ऐसे कैसे लिख सकता है. जरूर कोई मजबूरी रही होगी उस के सामने वरना उन्हें जीजान से चाहने वाला उन का बेटा ऐसी बातें उन्हें कभी लिख ही नहीं सकता. हो सकता है उस की पत्नी ने उसे इस के लिए मजबूर किया हो.

पर जो भी वजह रही हो, सुधाकर ने जिस तरह से सब बातें लिखी थीं, उस से तो लग रहा था कि बहुत सोचसमझ कर उस ने हर बात रखी है.

कितनी बार वे रो चुकी थीं. आंसू पत्र में भी घुलमिल गए थे. दुख की अगर कोई सीमा होती है तो वे उसे भी पार कर चुकी थीं.

ताउम्र संघर्षों का सामना चुनौती की तरह करने वाली आनंदी इस समय खुद को अकेला महसूस कर रही थीं. बड़ीबड़ी मुश्किलें भी उन्हें तोड़ नहीं सकी थीं, क्योंकि तब उन के पास विश्वास का संबल था पर आज मात्र शब्दों की गहरी स्याही ने उन के विश्वास को चकनाचूर कर दिया था. बहुत हारा हुआ महसूस कर रही थीं. यह उन को मिली दूसरी गहरी चोट थी और वह भी बिना किसी कुसूर के.

हां, उन का एक बहुत बड़ा कुसूर था कि उन्होंने एक खुशहाल परिवार का सपना देखा था. उन्होंने ख्वाबों के घोंसलों में नन्हेंनन्हें सपने रखे थे और मासूम सी अपनी खुशियों का झूला अपने आंगन में डाला था. उमंगों के बीज परिवारनुमा क्यारी में डाले थे और सरसों के फूलों की पीली चूनर के साथ ही प्यार की इंद्रधनुषी कोमल पत्तियां सजा दी थीं. पर धीरेधीरे उन के सपने, उन की खुशियां, उन की पत्तियां सब बिखरती चली गईं. खुशहाल परिवार की तसवीर सिर्फ उन के मन की दीवार पर ही टंग कर रह गई. अपनी मासूम सी खुशियों का झूला जो बहुत शौक से उन्होंने अपने आंगन में डाला था, उस पर कभी बैठ झूल ही नहीं पाईं वे. हिंडोला हिलता रहता और वे मनमसोस कर रह जातीं.

शादी एक समझौता है, यह बात उन की मां ने उन की शादी होने से बहुत पहले ही समझानी शुरू कर दी थी. पर वे हमेशा सोचती थीं कि समझौता करने का तो मतलब होता है कि चाहे पसंद हो या न हो, चाहे मन माने या न माने, जिंदगी को दूसरे के हिसाब से चलने दो. फिर प्यार, एहसास, एकदूसरे के लिए सम्मान और समपर्ण की भावना कैसे पनपेगी उस बंधन में.

आनंदी को यह सोच कर भी हैरानी होती कि जब शादी एक बंधन है तो उस में कोईर् खुल कर कैसे जी सकता है. एकदूसरे को अगर खुल कर जीने ही नहीं दिया जाएगा या एक साथी, जो हमेशा पति ही होता है, दूसरे पर अपने विचार, अपनी पसंदनापसंद थोपेगा तो वह खुश कैसे रह पाएगा.

मां डांटतीं कि बेकार की बातें मत सोचा कर. इतना मंथन करने से चीजें बिगड़ जाती हैं. मां को उन्होंने हमेशा खुश ही देखा. कभी लगा ही नहीं कि वे किसी तरह का समझौता कर रही हैं. पापामम्मी का रिश्ता उन्हें बहुत सहज लगता था. फिर बड़ी दीदी और उस के बाद मंझली दीदी की शादी हुई तो उन को देख कर कभी नहीं लगा कि वे दुखी हैं. आनंदी को तब यकीन हो गया था कि उन्हें भी ऐसा ही सहज जीवन जीने का मौका मिलेगा. सारे मंथन को विराम दे, वे रंजन के साथ विवाह कर उन के घर में आ गईर् थीं.

शुरुआती दिन घोंसले का निर्माण करने के लिए तिनके एकत्र करने में फुर्र से उड़ गए, खट्टेमीठे दिन, थोड़ीबहुत चुहलबाजी, दैहिक आकर्षण और उड़ती हुई रंगबिरंगी तितलियों से बुने सपनों के साथ. समय बीता तो आनंदी को एहसास होने लगा कि रंजन और वे बिलकुल अलग हैं. रंजन रिश्ते को सचमुच बंधन बनाने में यकीन रखते हैं. खुल कर सांस लेना मुश्किल हो गया उन के लिए.

दरवाजे पर खटखट हुई तो आनंदी सोच और डौलरों के घेरे से हिलीं. अंधेरा था कमरे में. दोपहर कब की शाम की बांहों में समा गई थी. लाइट जलानी ही पड़ी उन्हें.

‘‘मांजी दूध लाया हूं. आप डेयरी पर नहीं आईं तो मैं ही देने चला आया. एकदम ताजा निकाल कर लाया हूं.’’

चुपचाप दूध ले लिया उन्होंने. वरना अन्य दिनों की तरह कहतीं, ‘बहुत पानी मिलाने लगे हो आजकल.’ जब मेरा बेटा आएगा न, तब एकदम खालिस दूध लाना या तब ज्यादा दूध देना पड़ेगा तुझे. मेरे बेटे को दूध अच्छा लगता है. बड़े शौक से पीता है.

कमरे में आईं तो रोशनी आंखों को चुभने लगी. निराशा की परतें उन के चेहरे पर फैली हुई थीं. ऐसा लग रहा था कि मात्र कुछ घंटों में ही वे 2 साल बूढ़ी हो गई हैं. उदास नजरों से उन्होंने एक बार फिर डौलरों को देखा. पलकें नम हो गईं. नहीं देखना चाहतीं वे इन डौलरों को. क्या करेंगी वे इन का. जीरो वाट का बल्ब जलाया उन्होंने. लेकिन धुंधले में भी डौलर चमक रहे थे. उन के भीतर जो पीड़ा की लपटें सुलग रही थीं, उन की रोशनी से खुद को बचाना उन के लिए ज्यादा मुश्किल था.

रंजन के साथ लड़ाई होना आम बात हो गई थी. वे कुछ फैसला लेतीं, उस से पहले ही उन्हें पता चला कि उन के अंदर एक अंकुर फूट गया है. सचमुच समझौता करने लगीं वे उस के बाद. उम्मीद भी थी कि रंजन घर में बच्चा आने के बाद सुधर जाएंगे. ऐयाशियां, दूसरी औरतों से संबंध रखना और शराब पीना शायद छोड़ दें, पर वे गलत थीं.

बच्चा आने के बाद रंजन और उग्र हो गए और बोलने लगे, बहुत कहती थी न कि चली जाएगी. अकेले बच्चे को पालना आसान नहीं. हां, वे जानती थीं इस बात को, इसलिए सहती रहीं रंजन की ज्यादतियों को.

तब मां ने समझाया, तू नौकरी करती है न, चाहे तो अलग हो जा रंजन से. हम सब तेरे साथ हैं. वह नहीं मानी. जिद थी कि समझौता करती रहेंगी. सुधाकर पर रंजन का बुरा असर न पड़े, यह सोच कर दिल पर पत्थर रख कर उसे होस्टल में डाल दिया.

उन की सारी आस, उम्मीद अब सुधाकर पर ही आ कर टिक गई थी. बस, वे चाहती थीं कि सुधाकर खूब पढे़ और रंजन के साए से दूर रहे. वैसे भी रंजन के सुधाकर को ले कर न कोई सपने थे न ही वे उस के कैरियर को ले कर परेशान थे. संभाल लेगा मेरा बिजनैस, बस वे यही कहते रहते. आनंदी नहीं चाहती थीं कि सुधाकर उन का बिजनैस संभाले जो लगभग बुरी हालत में था. उन का औफिस दोस्तों का अड्डा बन चुका था.

वे कभी समझ ही नहीं पाईं रंजन को. कोई अपने परिवार से ज्यादा दोस्तों को महत्त्व कैसे दे सकता है, कोई अपनी पत्नी व बेटे से बढ़ कर शराब को महत्त्व कैसे दे सकता है, कोई परिवार संभालने की कोशिश कैसे नहीं कर सकता. पर रंजन ऐसे ही थे. जिम्मेदारी से दूर भागते थे. कमिटमैंट तो जैसे उन के लिए शब्द बना ही नहीं था.

यह तो शुक्र था कि सुधाकर मेहनती निकला. लगातार आगे बढ़ता गया. रंजन उन दोनों को छोड़ कर किसी और औरत के पास रहने लगे. सुधाकर अकसर दुखी रहने लगा. बिखरे हुए परिवार में सपने दम न तोड़ दें, यह सोच कर आनंदी ने अपनी जमापूंजी की परवा न कर उसे विदेश भेज दिया. वे चाहती थीं कि बेटा विदेश जाए, खूब पैसा और नाम कमाए ताकि उन के जीवन की काली परछाइयों से दूर हो जाए. उसे उन के जीवन की कड़वाहट को न झेलना पड़े. पतिपत्नी के रिश्तों में आई दीवारों व अलगाव के दंश उसे न चुभें.

मां से अलग होना सुधाकर के लिए आसान न था. उस ने देखा था अपनी मां को अपने लिए तिलतिल मरते हुए, उस की खुशियों की खातिर त्याग करते हुए. वह नहीं जाना चाहता था विदेश, पर आनंदी पर जैसे जिद सवार हो गई थी. सब ने समझाया था कि ऐसा मत कर. बेटा विदेश गया तो पराया हो जाएगा. तू अकेली रह जाएगी. पर वे नहीं मानीं.

वे सुधाकर को कामयाब देखना चाहती थीं. वे उसे रंजन की परछाईं से दूर रखना चाहती थीं, मां की ममता तब शायद अंधी हो गईर् थी, इसीलिए देख ही नहीं पाईं कि बेटे को यह बात कचोट गई है.

पिता का प्यार जिसे न मिला हो और जो मां के आंचल में ही सुख तलाशता हो, जिस के मन के तार मां के मन के तारों से ही जुड़े हों, उस बेटे को अपने से दूर करने पर आनंदी खुद कितनी तड़पी थीं, यह वही जानती हैं. पर सुधाकर भी आहत हुआ था.

कितना कहा था उस ने, ‘मां, तुम मेरे बिना कैसे रहोगी. मैं यहीं पढ़ सकता हूं.’ पर वे नहीं मानीं और भेज दिया उसे आस्ट्रेलिया. फिर उसे वहीं जौब भी मिल गई. वह बारबार उन्हें बुलाता रहा कि मां अब तो आ जाओ. और वे कहती रहीं कि बस 2 साल और हैं नौकरी के, रिटायर होते ही आ जाऊंगी. वे जाने से पहले सारे लोन चुकाना चाहती थीं. बेटे पर कोई बोझ डालना तो जैसे आंनदी ने सीखा ही नहीं था. फिर विश्वास भी था कि बेटा तो उन्हीं का है. एक बार सैटल हो जाए तो कह देंगी कि आ कर सब संभाल ले. बुला लेंगी उसे वापस. कामयाबी की सीढि़यां तो चढ़ने ही लगा है वह.

नहीं आ पाया सुधाकर. जौब में उलझा तो खुद की जड़ें पराए देश में जमाने की जद्दोजेहद में लग गया. फिर उस की मुलाकात रोजलीना से हुई और उस से ही शादी भी कर ली. मां को सूचना भेज दी थी. पर इस बार आने का इसरार नहीं किया था. रोजलीना का साथ पा कर उस के बीते दिनों के जख्म भर गए थे. अपने परिवार को सींचने में वह मां के त्याग को याद रखना चाह कर भी नहीं रख पाया.

रोजलीना ने साफ कह दिया था कि वह किसी तरह की दखलंदाजी बरदाश्त नहीं कर सकती. वैसे भी वह मानती थी कि इंडियन मदर अपने बेटों को ले कर बहुत पजैसिव होती हैं, इसलिए वह नहीं चाहती थी कि आनंदी वहां उन के साथ आ कर रहें.

सुधाकर मां से यह सब नहीं कह सकता था. मां की तकलीफें अभी भी उसे कभीकभी टीस दे जाती थीं. पर अब उस की एक नई दुनिया बस गई थी और वह नहीं चाहता था कि मांपापा की तरह उस के वैवाहिक जीवन में भी कटुता की काली छाया पसरे.

रोजलीना को वह किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता था. एक सुखद वैवाहिक जीवन की राह न जाने कब से उस के भीतर पलती आईर् थी. बहुत कठिन था उस के लिए मां और पत्नी में से एक को चुनना, पर मां के पास वह वापस लौट नहीं पा रहा था और पत्नी को छोड़ना नहीं चाहता था.

वैसे भी मां का उसे अपने से दूर करने की टीस भी उसे अकसर गहरी पीड़ा से भर जाती थी. पिता के प्यार से वंचित सुधाकर मां से दूर नहीं रहना चाहता था. भले ही मां ने उसे भविष्य संवारने के लिए अपने से उसे दूर किया था, पर फिर भी किया तो, अकसर वह यही सोचता. ऐसे में रोजलीना का पलड़ा भारी होना स्वाभाविक ही था.

आनंदी को लगा जैसे उन का गला सूख रहा है, पर पानी के लिए वे उठीं नहीं. रात गहरा गईर् थी. वे समझ चुकी थीं कि सुधाकर को विदेश भेजने की उन की जिद ने उन के जीवन में भी इस रात की तरह अंधेरा भर दिया है. बेटे की खुशियां चाहना क्या सच में इतना बड़ा कुसूर हो सकता है या नियति की चाल ही ऐसी होती है. शायद अकेलापन ही उन के हिस्से में आना था. वे जान चुकी थीं कि वह जा चुका है कभी न लौटने के लिए. उन्होंने एक बार और पत्र पढ़ा.

लिखा था, ‘‘मां, आई एम सौरी. मैं आप से दूर नहीं जाना चाहता था पर मुझे जाना पड़ा और अब चाह कर भी मैं स्वदेश वापस लौटने में असमर्थ हूं. आप के त्याग को कभी भुलाया नहीं जा सकता और इस बात की ग्लानि भी रहेगी कि मैं आप के प्रति कोई फर्ज न निभा सका. शायद पापा से विरासत में मुझे यह अवगुण मिला होगा. जिम्मेदारी नहीं निभा पाया, तभी तो डौलर भेज रहा हूं और आगे भी भेजता रहूंगा. पर मेरे लौटने की उम्मीद मत रखना. अब मैं इस दुनिया में बस गया हूं, यहां से बाहर आ कर फिर भारत में बसना मुमकिन नहीं है. आप भी ऐसा ही चाहती थीं न.’’

आनंदी ने डौलरों पर हाथ फेरा. पूरी ममता जिस बेटे पर लुटा दी थी, उस ने कागज के डौलर भेज उस ममता के कर्ज से मुक्ति पा ली थी.

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आप कौन हैं सलाह देने वाले: दर्द भरी कहानी

अभी उस दिन एक बहुत पुरानी मित्र बाजार में मिल गई. हम दोनों अंबाला में साथसाथ रहे थे. पता चला, पिछले दिनों उन का तबादला भी इसी शहर में हो गया है.

उस दिन बाजार में भीड़भाड़ कुछ कम थी. मुझे देखते ही मीना सड़क के किनारे खींच ले गई और न जाने कितना सब याद करती रही. हम दोनों कुछ बच्चों की, कुछ घर की और कुछ अपनी कहतेसुनते रहे.

‘‘आप की बहुत याद आती थी मुझे,’’ मीना बोली, ‘‘आप से बहुत कुछ सीखा था मैं ने…याद है जब एक रात मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई थी तब आप ने कैसे संभाला था मुझे.’’

‘‘मैं बीमार पड़ जाती तो क्या तुम न संभालतीं मुझे. जीवन तो इसी का नाम है. इतना तो होना ही चाहिए कि मरने के बाद कोई हमें याद करे…आज तुम किसी का करो कल कोई तुम्हारा भी करेगा.’’

मेरा हाथ कस कर पकड़े थी मीना. उम्र में मुझ से छोटी थी इसलिए मैं सदा उस का नाम लेती थी. वास्तव में कुछ बहुत ज्यादा खट्टा था मीना के जीवन में जिस में मैं उस के साथ थी.

‘‘याद है दीदी, वह लड़की नीता, जिस ने बुटीक खोला था. अरे, जिस ने आप से सिलाई सीखी थी. बड़ी दुआएं देती है आप को. कहती है, आप ने उस की जिंदगी बना दी.’’

याद आया मुझे. उस के पति का काम कुछ अच्छा नहीं था इसलिए मेरी एक क्लब मेंबर ने उसे मेरे पास भेजा था. लगभग 2 महीने उस ने मुझ से सिलाई सीखी थी. उस का काम चला या नहीं मुझे पता नहीं, क्योंकि उसी दौरान पति का तबादला हो गया था. वह औरत जब आखिरी बार मेरे पास आई थी तो हाथों में कुछ रुपए थे. बड़े संकोच से उस ने मेरी तरफ यह कहते हुए बढ़ाए थे:

‘दीदी, मैं ने आप का बहुत समय लिया है. यह कुछ रुपए रख लीजिए.’

‘बस, तुम्हारा काम चल जाए तो मुझे मेरे समय का मोल मिल जाएगा,’ यह कहते हुए मैं ने उस का हाथ हटा दिया था.

सहसा कितना सब याद आने लगा. मीना कितना सब सुनाती रही. समय भी तो काफी बीत चुका न अंबाला छोड़े. 6 साल कम थोड़े ही होते हैं.

‘‘तुम अपना पता और फोन नंबर दो न,’’ कह कर मीना झट से उस दुकान में चली गई जिस के आगे हम दोनों घंटे भर से खड़ी थीं.

‘‘भैया, जरा कलमकागज देना.’’

दुकानदार हंस कर बोला, ‘‘लगता है, बहनजी कई साल बाद आपस में मिली हैं. घंटे भर से मैं आप की बातें सुन रहा हूं. आप दोनों यहां अंदर बेंच पर बैठ जाइए न.’’

क्षण भर को हम दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगीं. क्या हम इतना ऊंचाऊंचा बोल रही थीं. क्या बुढ़ापा आतेआते हमें असभ्य भी बना गया है? मन में उठे इन विचारों को दबाते हुए मैं बोली, ‘‘क्याक्या सुना आप ने, भैयाजी. हम तो पता नहीं क्याक्या बकती रहीं.’’

‘‘बकती नहीं रहीं बल्कि आप की बातों से समझ में आता है कि जीवन का अच्छाखासा निचोड़ निकाल रखा है आप ने.’’

‘‘क्या निचोड़ नजर आया आप को, भाई साहब,’’ सहसा मैं भी मीना के पीछेपीछे दुकान के अंदर चली गई तो वह अपने स्टूल पर से उठ कर खड़ा हो गया.

‘‘आइए, बहनजी. अरे, छोटू…जा, जा कर 2 चाय ला.’’

पल भर में लगा हम बहुत पुराने दोस्त हैं. अब इस उम्र तक पहुंचतेपहुंचते नजर पढ़ना तो आ ही गया है मुझे. सहसा मेरी नजर उस स्टूल पर पड़ी जिस पर वह दुकानदार बैठा था. एक सवा फुट के आकार वाले स्टूल पर वह भारीभरकम शरीर का आदमी कैसे बैठ पाता होगा यही सोचने लगी. इतनी बड़ी दुकान है, क्या आरामदायक कोई कुरसी नहीं रख सकता यह दुकानदार? तभी एक लंबेचौड़े लड़के ने दुकान में प्रवेश किया. मीना कागज पर अपने घर का पता और फोन नंबर लिखती रही और मैं उस ऊंचे और कमचौड़े स्टूल को ही देखती रही जिस पर अब उस का बेटा बैठने जा रहा था.

‘‘नहीं भैयाजी, चाय मत मंगाना,’’ मीना मना करते हुए बोली, ‘‘वैसे भी हम बहुत देर से आप के कान पका रहे हैं.’’

‘‘बेटा, तुम इस इतने ऊंचे स्टूल पर क्या आराम से बैठ पाते हो? कम से कम 12 घंटे तो तुम्हारी दुकान खुलती ही होगी?’’ मेरे होंठों से सहसा यह निकल गया और इस के उत्तर में वह दुकानदार और उस का बेटा एकदूसरे का चेहरा पढ़ने लगे.

‘‘तुम्हारी तो कदकाठी भी अच्छी- खासी है. एक 6 फुट का आदमी अगर इस ऊंचे और छोटे से स्टूल पर बैठ कर काम करेगा तो रीढ़ की हड्डी का सत्यानाश हो जाएगा…शरीर से बड़ी कोई दौलत नहीं होती. इसे सहेजसंभाल कर इस्तेमाल करोगे तो वर्षों तुम्हारा साथ देगा.’’

बेटे ने तो नजरें झुका लीं पर बाप बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगा.

‘‘मेरे पिताजी भी इसी स्टूल पर पूरे 50 साल बैठे थे उन की पीठ तो नहीं दुखी थी.’’

‘‘उन की नहीं दुखी होगी क्योंकि वह समय और था, खानापीना शुद्ध हुआ करता था. आज हम हवा तक ताजा नहीं ले पाते. खाने की तो बात ही छोडि़ए. हमारे जीने का तरीका वह कहां है जो आप के पिताजी का था. मुझे डर है आप का बेटा ज्यादा दिन इस ऊंचे स्टूल पर बैठ कर काम नहीं कर पाएगा. इसलिए आप इस स्टूल की जगह पर कोई आरामदायक कुरसी रखिए.’’

मैं और मीना उस दुकान पर से उतर आए और जल्दी ही पूरा प्रसंग भूल भी गए. पता नहीं क्यों जब भी कहीं कुछ असंगत नजर आता है मैं स्वयं को रोक नहीं पाती और अकसर मेरे पति मेरी इस आदत पर नाराज हो जाते हैं.

‘‘तुम दादीअम्मां हो क्या सब की. जहां कुछ गलत नजर आता है समझाने लगती हो. सामने वाला चाहे बुरा ही मान जाए.’’

‘‘मान जाए बुरा, मेरा क्या जाता है. अगर समझदार होगा तो अपना भला ही करेगा और अगर नहीं तो उस का नुकसान वही भोगेगा. मैं तो आंखें रहते अंधी नहीं न बन सकती.’’

अकसर ऐसा होता है न कि हमारी नजर वह नहीं देख पाती जो सामने वाली आंख देख लेती है और कभीकभी हम वह भांप लेते हैं जिसे सामने वाला नहीं समझ पाता. क्या अपना अहं आहत होने से बचा लूं और सामने वाला मुसीबत में चला जाए? प्रकृति ने बुद्धि दी है तो उसे झूठे अहं की बलि चढ़ जाने दूं?

‘‘क्या प्रकृति ने सिर्फ तुम्हें ही बुद्धि दी है?’’

‘‘मैं आप से भी बहस नहीं करना चाहती. मैं किसी का नुकसान होता देख चुप नहीं रह सकती, बस. प्रकृति ने बुद्धि  तो आप को भी दी है जिस से आप बहस करना तो पसंद करते हैं लेकिन मेरी बात समझना नहीं चाहते.’’

मैं अकसर खीज उठती हूं. कभीकभी लगने भी लगता है कि शायद मैं गलत हूं. कभी किसी को कुछ समझाऊंगी नहीं मगर जब समय आता है मैं खुद को रोक नहीं पाती हूं.

अभी उस दिन प्रेस वाली कपड़े लेने आई तो एक बड़ी सी गठरी सिर पर रखे थी. अपने कपड़ों की गठरी उसे थमाते हुए सहसा उस के पेट पर नजर पड़ी. लगा, कुछ है. खुद को रोक ही नहीं पाई मैं. बोली, ‘‘क्यों भई, कौन सा महीना चल रहा है?’’

‘‘नहीं तो, बीबीजी…’’

‘‘अरे, बीबीजी से क्यों छिपा रही है? पेट में बच्चा और शरीर पर इतना बोझ लिए घूम रही है. अपनी सुध ले, अपने आदमी से कहना, तुझ से इतना काम न कराए.’’

टुकुरटुकुर देखती रही वह मुझे. फिर फीकी सी हंसी हंस पड़ी.

‘‘पूरी कालोनी घूमती हूं, किसी ने इतना नहीं समझाया और न ही किसी को मेरा पेट नजर आया तो आप को कैसे नजर आ गया?’’

पता नहीं लोग देख कर भी क्यों अंधे बन जाते हैं या हमारी संवेदनाएं ही मर गई हैं कि हमें किसी की पीड़ा, किसी का दर्द दिखाई नहीं देता. ऐसी हालत में तो लोग गायभैंस पर भी तरस खा लेते हैं यह तो फिर भी जीतीजागती औरत है. कुछ दिन बाद ही पता चला, उस के घर बेटी ने जन्म लिया. धन्य हो देवी. 9 महीने का गर्भ कितनी सहजता से छिपा रही थी वह प्रेस वाली.

मैं ने हैरानी व्यक्त की तो पति हंसते हुए बोले, ‘‘अब क्या जच्चाबच्चा को देखने जाने का भी इरादा है?’’

‘‘वह तो है ही. सुना है पीछे किसी खाली पड़ी कोठी में रहती है. आज शाम जाऊंगी और कुछ गरम कपड़े पड़े हैं, उन्हें दे आऊंगी. सर्दी बढ़ रही है न, उस के काम आ जाएंगे.’’

‘‘नमस्कार हो देवी,’’ दोनों हाथ जोड़ मेरे पति ने अपने कार्यालय की राह पकड़ी.

मुझे समझ में नहीं आया, मैं कहां गलत थी. मैं क्या करूं कि मेरे पति भी मुझे समझने का प्रयास करें.

कुछ दिन बाद एक और समस्या मेरे सामने चली आई. इन के एक सहयोगी हैं जो अकसर परिवार सहित हमारे घर आते हैं. 1-2 मुलाकातों में तो मुझे पता नहीं चला लेकिन अब पता चल रहा है कि जब भी वह हमारे घर आते हैं, 1 घंटे में लगभग 4-5 बार बाथरूम जाते हैं. बारबार चाय भी मांगते हैं.

बाथरूम जाना या चाय मांगना मेरी समस्या नहीं है, समस्या यह है कि उन के जाने के बाद हमारा बाथरूम चींटियों से भर जाता है. सफेद बरतन एकदम काला हो जाता है. हो न हो इन्हें शुगर हो. पति से अपने मन की बात बता कर पूछ लिया कि क्या उन से इस बारे में बात करूं?

‘‘खबरदार, हर बात की एक सीमा होती है. किसी के फटे में टांग मत डाला करो. मैं ने कह दिया न.’’

‘‘एक बार तो पूछ लो,’’ मन नहीं माना तो पति से जोर दे कर बोली, ‘‘शुगर के मरीज को अकसर पता नहीं चलता कि उसे शुगर है और बहुत ज्यादा शुगर बढ़ जाए तभी पेशाब में आती है. क्या पता उन्हें पता ही न हो कि उन्हें शुगर हो चुकी है.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है और तुम ज्यादा डाक्टरी मत झाड़ो. दुनिया में एक तुम ही समझदार नहीं हो.’’

‘‘उन्हें कुछ हो गया तो… देखो उन के छोटेछोटे बच्चे हैं और कुछ हो गया तो क्या होगा? क्या उम्र भर हम खुद को क्षमा कर पाएंगे?’’

अपने पति से जिद कर मैं एक दिन जबरदस्ती उन के घर चली गई. बातोंबातों में मैं ने उन के बाथरूम में जाने की इच्छा व्यक्त की.

‘‘क्या बताऊं, दीदी, हमारा बाथरूम साफ होता ही नहीं. इतनी चींटी हैं कि क्या कहूं इतना फिनाइल डालती हूं कि पूछो मत.’’

‘‘आप के घर में किसी को शुगर तो नहीं है न?’’

‘‘नहीं तो, आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?’’

अवाक् रह गई थी वह. धीरे से अपनी बात कह दी मैं ने. रो पड़ी वह. मैं ने कहा तो मानो उसे भी लगने लगा कि शायद घर में किसी को शुगर है.

‘‘हां, तभी रातरात भर सो नहीं पाते हैं. हर समय टांगें दबाने को कहते हैं. बारबार पानी पीते हैं… और कमजोर भी हो रहे हैं. दीदी, कभी खयाल ही नहीं आया मुझे. हमारे तो खानदान में कहीं किसी को शुगर नहीं है.’’

उसी पल मेरे पति उन को साथ ले कर डाक्टर के पास गए. रक्त और पेशाब की जांच की. डाक्टर मुंहबाए उसे देखने लगा.

‘‘इतनी ज्यादा शुगर…आप जिंदा हैं मैं तो इसी पर हैरान हूं.’’

वही हो गया न जिस का मुझे डर था. उसी क्षण से उन का इलाज शुरू हो गया. मेरे पति उस दिन के बाद से मुझ से नजरें चुराने से लगे.

‘‘आप न बतातीं तो शायद मैं सोयासोया ही सो जाता…आप ने मुझे बचा लिया, दीदी,’’ लगभग मेरे पैर ही छूने लगे वह.

‘‘बस…बस…अब दीदी कहा है तो तुम्हारा नाम ही लूंगी…देखो, अपना पूरापूरा खयाल रखना. सदा सुखी रहो,’’ मैं उसे आशीर्वाद के रूप में बोली और अपने पति का चेहरा देखा तो हंसने लगे.

‘‘जय हो देवी, अब प्रसन्न हो न भई, तुम्हारा इलाज हफ्ता भर पहले भी शुरू हो सकता था अगर मैं देवीजी की बात मान लेता. आज भी यह जिद कर के लाई थीं. मेरा ही दोष रहा जो इन का कहा नहीं माना.’’

उस रात मैं चैन की नींद सोई थी. एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि उन पर मैं कोई कृपा, कोई एहसान कर के लौटी हूं. बस, इतना ही लग रहा था कि अपने भीतर बैठे अपने चेतन को चिंतामुक्त कर आई हूं. कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी निभा आई हूं.

अगले दिन सुबहसुबह दरवाजे पर एक व्यक्ति को खड़ा देखा तो समझ नहीं पाई कि इन्हें कहां देखा है. शायद पति के जानकार होंगे. उन्हें भीतर बिठाया. पता चला, पति से नहीं मुझ से मिलने आए हैं.

‘‘कौन हैं यह? मैं तो इन्हें नहीं जानती,’’ पति से पूछा.

‘‘कह रहे हैं कि वह तुम्हें अच्छी तरह पहचानते हैं और तुम्हारा धन्यवाद करने आए हैं.’’

‘‘मेरा धन्यवाद कैसा?’’ मैं कुछ याद करते हुए पति से बोली, ‘‘हां, कहीं देखा तो लग रहा है लेकिन याद नहीं आ रहा,’’ रसोई का काम छोड़ मैं हाथ पोंछती हुई ड्राइंगरूम में चली आई. प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखा.

‘‘बहनजी, आप ने पहचाना नहीं. चौक पर मेरी दुकान है. कुछ समय पहले आप और आप की एक सखी मेरी दुकान के बाहर…’’

‘‘अरे हां, याद आया. मैं और मीना मिले थे न,’’ पति को बताया मैं ने.

‘‘कहिए, मेरा कैसा धन्यवाद?’’

‘‘उस दिन आप ने मेरे बेटे से कहा था न कि वह ऊंचे स्टूल पर न बैठे. दरअसल, उसी सुबह वह पीठ दर्द की वजह से 7 दिन अस्पताल रह कर ही लौटा था. डाक्टरों ने भी मुझे समझाया था कि उस स्टूल की वजह से ही सारी समस्या है.’’

‘‘हां तो समस्या क्या है? आप कुरसी नहीं खरीद सकते क्या?’’

‘‘कुरसी तो लड़का 6 महीने पहले ही ले आया था, जो गोदाम में पड़ी सड़ रही है. मैं ही जिद पर अड़ा था कि वह स्टूल वहां से न हटाया जाए. वह मेरे पिताजी का स्टूल है और मुझे वहम ही नहीं विश्वास भी है कि जब तक वह स्टूल वहां है तब तक ही मेरी दुकान सुरक्षित है. जिस दिन स्टूल हट गया लक्ष्मी भी हम से रूठ जाएगी.’’

हम दोनों अवाक् से उस आदमी का मुंह देखते रहे.

‘‘मेरा बच्चा रोतापीटता रहा, मेरी बहू मेरे आगे हाथपैर जोड़ती रही लेकिन मैं नहीं माना. साफसाफ कह दिया कि चाहो तो घर छोड़ कर चले आओ, दुकान छोड़ दो पर वह स्टूल तो वहीं रहेगा.

‘‘मैं तो सोचता रहा कि लड़का बहाना कर रहा होगा. अकसर बच्चे पुरानी चीज पसंद नहीं न करते. सोचा डाक्टर भी जानपहचान के हैं, उन से कहलवाना चाहता होगा लेकिन आप तो जानपहचान की न थीं. और उस दिन जब आप ने कहा तो लगा मेरा बच्चा सच ही रोता होगा.

‘‘एक दिन मेरा बच्चा ही किसी काम का न रहा तो मैं लक्ष्मी का भी क्या करूंगा? पिताजी की निशानी को छाती से लगाए बैठा हूं और उसी का सर्वनाश कर रहा हूं जिस का मैं भी पिता हूं. मेरा बच्चा अपने बुढ़ापे में मेरी जिद याद कर के मुझे याद करना भी पसंद नहीं करेगा. क्या मैं अपने बेटे को पीठदर्द विरासत में दे कर मरूंगा.

‘‘उसी शाम मैं ने वह स्टूल उठवा कर कुरसी वहां पर रखवा दी. मेरे बेटे का पीठदर्द लगभग ठीक है और घर में भी शांति है वरना बहू भी हर पल चिढ़ीचिढ़ी सी रहती थी. आप की वजह से मेरा घर बच गया वरना उस स्टूल की जिद से तो मैं अपना घर ही तोड़ बैठता.’’

मिठाई का एक डब्बा सामने मेज पर रखा था. उस पर एक कार्ड था. धन्यवाद का संदेश उन महाशय के बेटे ने मुझे भेजा था. क्या कहती मैं? भला मैं ने क्या किया था जो उन का धन्यवाद लेती?

‘‘आप की वह सहेली एक दिन बाजार से गुजरी तो मैं ने रोक कर आप का पता ले लिया. फोन कर के भी आप का धन्यवाद कर सकता था. फिर सोचा मैं स्वयं ही जाऊंगा. अपने बेटे के सामने तो मैं ने अपनी गलती नहीं मानी लेकिन आप के सामने स्वीकार करना चाहता हूं, अन्याय किया है मैं ने अपनी संतान के साथ… पता नहीं हम बड़े सदा बच्चों को ही दोष क्यों देते रहते हैं? कहीं हम भी गलत हैं, मानते ही नहीं. हमारे चरित्र में पता नहीं क्यों इतनी सख्ती आ जाती है कि टूट जाना तो पसंद करते हैं पर झुकना नहीं चाहते. मैं स्वीकार करना चाहता हूं, विशेषकर जब बुढ़ापा आ जाए, मनुष्य को अपने व्यवहार में लचीलापन लाना चाहिए. क्यों, है न बहनजी?’’

‘‘जी, आप ठीक कह रहे हैं. मैं भी 2 बेटों की मां हूं. शायद बुढ़ापा गहरातेगहराते आप जैसी हो जाऊं. इसलिए आज से ही प्रयास करना शुरू कर दूंगी,’’ और हंस पड़ी थी मैं. पुन: धन्यवाद कर के वह महाशय चले गए.

पति मेरा चेहरा देखते हुए कहने लगे, ‘‘ठीक कहती हो तुम, जहां कुछ कहने की जरूरत हो वहां अवश्य कह देना चाहिए. सामने वाला मान ले उस की इच्छा न माने तो भी उस की इच्छा… कम से कम हम तो एक नैतिक जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं न, जो हमारी अपनी चेतना के प्रति होती है. लेकिन सोचने का प्रश्न एक यह भी है कि आज कौन है जो किसी की सुनना पसंद करता है. और आज कौन इतना संवेदनशील है जो दूसरे की तकलीफ पर रात भर जागता है और अपने पति से झगड़ा भी करता है.’’

पति का इशारा मेरी ओर है, मैं समझ रही थी. सच ही तो कह रहे हैं वह, आज कौन है जो किसी की सुनना या किसी को कुछ समझाना पसंद करता है?

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तलाक के बाद- भाग 1: क्या स्मिता को मिला जीवनसाथी

आखिरकार 11 साल बाद कोर्ट का फैसला आ ही गया. वह जो चाहती थी, वही हुआ था. उसे अपने पति से तलाक मिल गया था. लेकिन 11 साल बाद अब इस तलाक का क्या औचित्य था. जब उस ने तलाक के लिए अदालत में मुकदमा दायर किया था, तब वह 25 वर्ष की यौवन के भार से लदी सुंदर युवती थी. अब वह 36 साल की प्रौढ़ा हो चुकी थी. चेहरे पर उम्र की परतों को दिखाने वाली मोटी चरबी चढ़ गई थी, जिस पर झुर्रियां पड़ने लगी थीं. बाल सफेद होने की यह कोई उम्र तो नहीं थी, लेकिन गमों के सायों ने उस पर सफेदी फेरनी शुरू कर दी थी.

यौवन पता नहीं कब चला गया था. हर सालज़्उसे वसंत का इंतजार रहता कि अब उस के जीवन में भी फूल खिलेंगे. न जाने कितने वसंत उस के जीवन में आए और गुजर गए, लेकिन उस के मन की बगिया में फूल नहीं खिले. हवा में खुशबू नहीं फैली. 36 वसंत देखने के बाद भी उसे लगता कि उस के जीवन में कोई वसंत नहीं आया था. दूरदूर तक, जहां तक नजर जाती थी, पतझड़ ही पतझड़ दिखता था और आंखों में रेगिस्तान था. उस के जीवन के गुजरे साल सूखे पत्तों की तरह हवा में उड़ते हुए उस के दिल में भयावह सन्नाटे का एहसास करा रहे थे.

इतने सालों बाद तलाक का आदेश पा कर वह गुम सी हो गई थी. आज वह यह सोचने पर मजबूर हो गई थी कि पति से तलाक तो मिल गया, लेकिन अब आगे क्या होगा?

वह बिलकुल अकेली है. मां कई साल पहले गुजर गई थीं. पिता उसी की चिंता में घुलते रहे और इसी कारण वे भी जल्दी मौत को गले लगा चले गए. मांबाप की मृत्यु के बाद बड़े भाई ने उस से किनारा कर लिया. भाभी से हमेशा 36 का आंकड़ा रहा. उस को ले कर भैयाभाभी में अकसर तनातनी चलती रहती. वह सब देखती थी, लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी. उस का भार, उस के मुकदमे का भार, कौन कब तक उठाता. वह एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी. उस से केवल उस के मुकदमे का ही खर्चज़्निकल पाता था. अब वह किराए के एक छोटे से कमरे में रहती थी.

बवंडर की तरह विचार उस के मस्तिष्क में उमड़घुमड़ रहे थे. विचारों में खोई वह अदालत की सीढि़यां उतर कर नीचे आई. चारों तरफ  लोगों की भीड़ और चीखपुकार मची थी. आज का शोर उस के कानों में बम के धमाकों की तरह गूंज रहा था. लग रहा था, शोर की अधिकता से उस के कान बहरे हो गए थे. किसी तरह वह कोर्टज़्परिसर से बाहर आई और बेमकसद एक तरफ चल दी.

जनवरी का महीना था और धूप में तीव्रता का एहसास होने लगा था. चलतेचलते वह एक छोटे से पार्कज़्के पास पहुंची, तो उस के अंदर चली गई. कुछ लड़केलड़कियां वहां बैठ कर चुहलबाजी कर रहे थे. उस ने उन की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और एक पेड़ के नीचे जा कर बैठ गई. वहां वह धूपछांव दोनों का आनंद ले सकती थी, लेकिन उस के जीवन में आनंद कहां था?

जिन प्रश्नों पर वह कई बार विचार कर चुकी थी, वही बारबार उस के दिमाग में आ रहे थे. आज से 11 साल पहलेज़् जब उस की शादी हुई थी, तब वह नहीं जानती थी कि एक दिन वह बिलकुल अकेली होगी, एक तलाकशुदा स्त्री, जिस के जीवन में पतझड़ की वीरानी के सिवा और कुछ नहीं होगा.

शादी से पहलेज़्उस की सहेलियां उस से कहती थीं कि वह घमंडी और अपनी खूबसूरती के मद में चूर लड़की है. वह नहीं जानती थी कि उस के स्वभाव में ये सारे अवगुण कैसे आए थे. ये जन्म से थे या हालात के तहत उस के स्वभाव में समा गए थे. तब वह जवानी और अपनी खूबसूरतीज़्के मद में चूर थी, इसलिए अपने इन अवगुणों की तरफ देखने, सोचने व उन में सुधार लाने की तरफ उस का ध्यान नहीं गया. मांबाप ने भी कभी उसे नहीं टोका कि उस में कोई ऐसा अवगुण है जो उस के जीवन को बरबाद कर देगा. भाई को उस से कोई मतलब नहीं था.

शादी के समय मां ने उसे सीख दी थी, ‘बेटी, अब तुम्हारे जीवन का दूसरा पक्ष शुरू होने जा रहा है. यह बहुत महत्त्वपूर्णज़् है और इस में यदि तुम ने सोचसमझ कर कदम नहीं रखा तो जीवनभर पछताने के अलावा और कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं आएगा. पति को काबू में रखना, सासससुर को दबा कर रखना, उन के रिश्तेदारों को भाव न देना वरना सब आएदिन तुम्हारे ऊपर बोझ बन कर खड़े रहेंगे. कोशिश करना कि सासससुर से अलग रह कर अपना स्वतंत्र जीवन बिताओ. इस के लिए हर समय पति को टोकते रहना. एक न एक दिन वह तुम्हारी बात मान कर अलग रहने लगेगा.’

मां की बात उस ने गांठ बांध ली और शादी के एक हफ्ते बाद ही अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए. सब से पहले तो उस ने सास की बातों की तरफ ध्यान देना बंद किया. सास कुछ कहती तो वह न सुनने का बहाना बनाती. सास पास आ कर कहती, तो वह चिड़चिड़ा कर कहती, ‘आप नहीं कर सकतीं क्या इतना छोटा सा काम? जब देखो, तब मेरे सिर पर खड़ी रहती हैं. मैं जब इस घर में नहीं थी तो क्या ये काम आप नहीं करती थीं.’

वह जानबूझ कर कोई न कोई हंगामा खड़ा कर देती. फिर भी सास उस से तकरार न करती. कुछ ही दिनों बाद उस ने खाने को ले कर घर में हंगामा खड़ा कर दिया, ‘मुझे रोजरोज दालचावल अच्छे नहीं लगते. आप को खाने हों तो बनाइए. मैं अपना अलग खाना बना लिया करूंगी, नहीं तो होटल से मंगा लूंगी.’

पति राजीव ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘तुम को जो पसंद हो, बना लिया करो. कोई मना करता है क्या?’

वह फास्टफूड की शौकीन थी. चाइनीज और कौंटिनैंटल खाना उसे पसंद था. वह जानती थी, ये चीजें घर में नहीं बनाई जा सकती थीं और अगर कोई बना भी ले, तो किचन की गरमीज़्में फुंकने से अच्छा है होटल से मंगा कर खा ले. इसीलिए उस ने इतना नाटक किया था कि घर में खाना बनाने का झंझट न करना पड़े. फिर भी उस ने साफसाफ कह दिया कि वह खाना नहीं बनाएगी.

वह फोन पर और्डर कर के बाहर से अपने लिए खाना मंगवाने लगी थी. इस सब का एक ही मकसद था कि वह राजीव को अपने मांबाप से अलग कर सके. यही नहीं, हर रविवार जिद कर के वह राजीव को बाहर भी ले जाती और महंगे रैस्तरां में खाना खा कर आती. जब भी दोनों बाहर से खाना खा कर आते, वह देखती कि राजीव का मूड उखड़ाउखड़ा सा रहता. लेकिन वह ध्यान नहीं देती.

एक दिन राजीव ने कह ही दिया, ‘स्मिता, अब ये महंगे शौक छोड़ दो. कुछ जिम्मेदारी भी समझो. मेरी पगार इतनी नहीं है कि मैं तुम्हारे लिए रोजाना बाहर से खाना मंगवा कर खिला सकूं. अपने हाथ से बनाना सीखो.’

‘मैं पूरे घर के लिए खाना नहीं बना सकती. मैं तुम्हारी पत्नी बन कर आई हूं, तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं. मांबाप से अलग रहो तो मैं घर में खाना बनाऊंगी वरना बाहर से ही मंगवा कर खिलाओ.’

वैधव्य से मुक्ति: खुश्बू ने क्या किया था

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तलाक के बाद- भाग 2: क्या स्मिता को मिला जीवनसाथी

राजीव तिलमिला कर रह गया था. फिर भी वह शांत भाव से बोला, ‘मांबाप हमारे ऊपर बोझ नहीं हैं. यह हमारा पुश्तैनी घर है. उन से अलग रह कर मेरा खर्च दोगुना हो जाएगा. यह बात तुम्हारी समझ में नहीं आती?’

‘तो क्या तुम मेरा और अपना खर्चज़्नहीं उठा सकते?’

‘उठा सकता हूं, मगर अलग रह कर नहीं,’ राजीव ने साफसाफ कहा.

‘तुम मेरा खर्च नहीं उठा सकते तो शादी क्यों की थी? समझ में नहीं आता, लोग कमाते एक धेला भी नहीं, लेकिन सुंदर पत्नी की कामना करते हैं. इस से अच्छा तो कुंआरे रहते?’

‘स्मिता, तुम बात का बतंगड़ क्यों बना रही हो. मेरे पापा को इतनी पैंशन मिलती है कि वे अपना खर्चज़्खुद उठा सकें. वे मेरी तनख्वाह का एक पैसा नहीं लेते, लेकिन जो शौक तुम ने पाल रखे हैं, उन में मेरी तनख्वाह 15 दिन भी नहीं चलती. बाक़ी महीने का खर्च कहां से आएगा. खाने के अलावा घर के और भी खर्चेज़्हैं.’

‘यह तुम जानो, यह तुम्हारा घर है. घर का खर्चज़्चलाना भी तुम्हारा काम है.’

‘सही है, लेकिन अनापशनाप खर्चों से घर नहीं चलता, बल्कि बरबादी आती है.’

‘तो मैं अनापशनाप खर्चज़्करती हूं, खाना ही तो खाती हूं, और क्या? मैं सब समझती हूं, पैसे बचा कर मांबाप को देते हो. अब ऐसा नहीं चलेगा. आइंदा से तनख्वाह मेरे हाथ में रखा करोगे, तब मैं देखती हूं, घरखर्चज़्कैसे नहीं चलता.’

राजीव मान गया. उस ने अगले महीने की पूरी तनख्वाह स्मिता के हाथ में रख दी, ‘यह लो, इस में 5 हजार रुपए निकाल देना. मैं ने एक पौलिसी ले रखी है. इस के अलावा मेरा स्कूल आनेजाने का खर्च 3 हजार रुपए है. बाकी तुम रख लो और घर चलाओ.’

राजीव को 8 हजार रुपए दे कर बाकी पैसे स्मिता ने रख लिए. पैसे हाथ में आते ही वह मनमानी पर उतर आई. बिना कुछ सोचेविचारे उस ने खानेपीने की चीजों और अपने लिए कपड़े खरीद कर एक हफ्ते में ही राजीव की पूरी तनख्वाह खत्म कर दी.

‘तुम्हें तनख्वाह इतनी कम मिलती है, मुझे पता नहीं था. वह तो एक हफ्ते भी नहीं चली,’ स्मिता ने जैसे राजीव पर एहसान करते हुए कहा, ‘बाकी महीना कैसे चलेगा?’

राजीव ने तब भरी निगाहों से उसे देखा था, ‘40 हजार रुपए कम नहीं होते. इतने में 10 आदमी बड़े आराम से एक महीना दालरोटी खा सकते हैं. लेकिन तुम्हारी बेवकूफी से 40 हजार रुपए एक हफ्ते में खर्च हो गए. अब घर में बैठ कर दालरोटी खाओ.’

राजीव की आवाज सख्त नहीं थी, लेकिन उस में थोड़ी तल्खी थी. उसे लगा कि राजीव उसे डांटेगा, इसलिए वह पहले ही लगभग चीख कर बोली, ‘पता नहीं कैसे भिखमंगों के घर में मांबाप ने मुझे ब्याह दिया. इतने अच्छेअच्छे रिश्ते मेरे लिए आए थे, लेकिन उन्हें यह टुटपुंजिया स्कूलमास्टर पसंद आया.’

‘स्मिता, तुम हालात को समझने की कोशिश करो. अमीर से अमीर आदमी भी होटल का खाना खाने से एक दिन कंगाल हो जाता है. तुम घर में खाना बना लिया करो.’

‘मैं इस घर के किचन में अपनी आंखें नहीं फोड़ूंगी. मुझे कहीं से भी पैसे ला कर दो, लेकिन मुझे पैसे चाहिए. मैं एक भिखारिन की तरह इस घर में नहीं रह सकती,’ और वह पैर पटकती हुई बैडरूम में चली गई.

रात में राजीव उसे मना रहा था, ‘स्मिता, मैं समझ सकता हूं कि शादी के पहले तुम्हारी अलग जिंदगी थी, लेकिन शादी के बाद हर लड़की को ससुराल की हालत के अनुसार खुद को ढालना पड़ता है.’

‘मुझे उपदेश देने की जरूरत नहीं है. अगर तुम मेरा खर्च नहीं उठा सकते तो मुझे तलाक दे दो. अभी भी मुझे अच्छा घरवर मिल जाएगा,’ स्मिता ने एेंठ कर कहा.

राजीव तब सन्न रह गया था. इस मुद्दे पर उस ने स्मिता से कोई बहस नहीं की.

स्मिता रोज राजीव से पैसे की मांग करती, लेकिन वह मना कर देता.

एक दिन खीझ कर स्मिता ने कहा, ‘कंगाल आदमी, लो संभालो अपना घर, मैं जाती हूं.’ उस ने तैश में अपने कपड़ेलत्ते समेटे और जातेजाते फिर बोली, ‘जिस दिन मेरे खर्चज़्लायक कमाने लगो, मुझे विदा कराने आ जाना, लेकिन उस के पहले मांबाप से अलग रहने का इंतजाम कर लेना.’

राजीव और उस की मां ने उसे कितना मनाने की कोशिश की, यह याद आते ही स्मिता की आंखों में आंसू आ गए. सोचसोच कर वह दुखी होने लगी, लेकिन अब दुखी होने से क्या फायदा? आज जिस हालत में वह थी, उस की जिम्मेदार तो वह खुद थी.

पार्क की बैंचों पर और पेड़ों के नीचे अब लड़केलड़कियों की तादाद बढ़ने लगी थी. स्मिता ने अपने चारों तरफ  निगाह डाली. लड़के और लड़कियां खुले प्यार का आदानप्रदान कर रहे थे. उस ने एक लंबी सांस ली. उसे कुछ अजीब सा लगने लगा था और वह उठ कर पार्क के बाहर आ गई. शाम होने में अभी थोड़ी देर थी. उस ने अपने घर की तरफ का रुख किया.

रास्ते पर चलते हुए वह फिर उन्हीं विचारों में खो गई, जिन विचारों के दरिया से वह न जाने कितनी बार तैर कर बाहर आई थी.

पति का घर छोड़ कर अपने मायके आई तो मांबाप को बहुत हैरानी हुई. भाई भी परेशान हो गया. सब ने मिलबैठ कर उस से कारण पूछा, तो उस ने बस इतना कहा, ‘अब मैं उस कंगाल घर में नहीं जाऊंगी. आप लोगों ने अपने मन की कर ली, मुझे ब्याह कर आप लोग अपनी जिम्मेदारी से फ्री हो गए. लेकिन अब मुझे अपने ढंग से जीवन जीने दो. मैं राजीव से तलाक चाहती हूं.’

‘तलाक…’ सब के मुंह से एकसाथ निकला. कुछ देर सब मुंहबाए स्मिता का मुंह देखते रहे. फिर मां ने पूछा, ‘ऐसा क्या हो गया तुम्हारे साथ ससुराल में, जो 2 महीने बाद ही तुम तलाक लेने पर उतर आई?’

‘यह पूछो कि क्या नहीं हुआ? छोटे और गरीब लोगों के घर में मुझे ब्याहते हुए आप को शर्म नहीं आई? आप ने यह तक नहीं सोचा कि उस घर में आप की बेटी गुजारा कैसे करेगी? इतने प्यार से मुझे पालपोस कर बड़ा किया. मेरी हर जरूरत पूरी की, ऊंची शिक्षा दी. इस के बाद भी क्या मेरी जिंदगी में वही टुच्चा घर बचा था.’

‘बेटा, यह क्या कह रही हो? वे तुम्हारा खर्च क्यों नहीं उठा पा रहे हैं. तुम्हारे ऐसे कौन से खर्चे हैं, जो उन के बूते में नहीं हैं. अच्छाखासा खातापीता परिवार है,’ उस के पिता ने पूछा.

‘बेटी, ऐसी क्या बात हो गई जो तुम अपने पति से तलाक लेना चाहती हो? हमें कुछ बताओ तो हमें पता भी चले. मैं ने तुम्हें यह शिक्षा तो नहीं दी थी. बस, अलग रहने के लिए कहा था,’ उस के जवाब देने के पहले ही मां ने सवाल दाग दिया.

‘मैं ने कह दिया कि मुझे उस घर में अब लौट कर नहीं जाना, बस. मैं तलाक ले कर दूसरी जगह शादी करूंगी, इस बार खुद घरबार देख कर,’ उस ने अपना अंतिम फैसला सुना दिया. उस ने न किसी की सुनी, और न किसी की चलने दी. तब उस के पिता नौकरी करते थे, भाई भी नौकरी करने लगा था. मां गृहिणी थी. उस के खानेपीने की कोई परेशानी नहीं थी.

मायके लौटने के दूसरे महीने ही उस ने वकील से सलाह ले कर कोर्टज़्में तलाक का मुकदमा दायर कर दिया. नोटिस मिलने पर राजीव उस से मिलने आया था. वह उस से घर लौट कर चलने के लिए बहुत मिन्नत कर रहा था, लेकिन स्मिता ने उस से साफसाफ कह दिया था, ‘क्या आप ने अलग घर ले लिया है?’

‘नहीं स्मिता, मैं अपने मांबाप से अलग रहने के बारे में सोच भी नहीं सकता. बचकानी हरकत मत करो. इस से हम दोनों का जीवन बरबाद हो जाएगा.’

लेकिन उस ने समझने की कोशिश नहीं की. ऐंठ कर बोली, ‘तो फिर तलाक के लिए तैयार रहो.’

आगे पढ़ें- स्मिता तब यह बात नहीं समझी थी…

कोरोना के बहाने: पति-पत्नी शोध का प्रबंध

‘तुम को सौगंध है कि आज मोहब्बत बंद है…’, ‘शायद मेरी शादी का खयाल दिल में आया है इसीलिए मम्मी ने मेरी तुम्हें चाय पे बुलाया है…’ फिल्म ‘आप की कसम’ की मोहब्बत भी क्वारंटीन यानी संगरोध में हो कर बंद होगी. और फिल्म ‘सौतन’ के गीत में तो राजेश जी को पंछी अकेला देख कर चाय पर बुलाया गया था, लेकिन आजकल छींक, खांसी और किसी के नजदीक जा कर बात तक करना किसी सौतन से कम नहीं है.

जो मित्र बातबात पर मिलते ही गले लग कर हग करते थे, वह भी आजकल दूर से ही ‘नमस्ते जी’ कह कर पास से निकल जाते हैं.

अब नकारा लोगों को तो छींक मारने जैसा एक अहिंसक हथियार मिल गया है, वह अपने बौस के पास जा कर बस छींक या खांस देते हैं तो बौस खुद अपनी जेब से नया रूमाल निकाल कर दूर से पकड़ाते हुए उन्हें अपने चैंबर से बिना कुछ कहे तुरंत बाहर भेज देते हैं. खुद ही उन के घर पर रहो और ‘वर्क फ्राॅम होम’ का आर्डर भी निकाल देते हैं.

कोरोना संपर्क में आने पर मार डालता है, पत्नी संपर्क में आ कर मरने नहीं देती. जिन्हें घर से बाहर रह कर हाथ साफ करने की आदत थी, वह भी अब घर पर रह कर पत्नी से नजरें मिलते ही हाथ धोने बाशरूम में भाग जाते हैं, क्योंकि आंखों का पुराना इशारा कहीं उन्हें भावनाओं में बहा कर नजदीक ला कर गले न मिला दे.

आपने  सुना ही होगा, -‘पति, पत्नी और वो’. तो जनाब, ये कोरोना भी पति, पत्नी को ‘वो‘ की तरह ही परेशान करता है.

मगर यहां एक नई परेशानी यह है कि यह ‘वो’ ऐसी है जो किसी को भी कहीं भी दिखती ही नहीं ससुरी. अदृश्य रहती है.

कोरोना के सामने सांस लेना दूभर होता है, तो पत्नी के सामने बात करना. ऐसे में किसी की पत्नी यदि चिड़चिड़ी, तुनकमिजाज हो तो उस बेचारे को तो दूर से ही बातबात पर एक के बाद एक इतने आदेश मिलते हैं कि वह उस के आदेशानुसार प्रत्येक काम  करने के बाद खुद ही बारबार कई बार हाथ धोता है. वह सारे झूठे बरतन और बाथरूम के सेनेटरी पाॅट भी खुद धोता है. बाद में बारबार हाथ धोता है. सेनेटाइजर लगाता है, जनाब.

आजकल कोरोना ने पतियों को घर में क्वारंटाइन कर रखा है, तो पत्नियां तो पहले भी बातबात पर अपने पति से नाराज हो कर अपनेआप को धाड़ से तुनक कर शयन कक्ष में बंद कर लेतीं थीं यानी जबतब शयन कक्ष का ‘कोप पलंग’  उन्हें अपने आगोश में शांत रखता था. और फिर घर का कामकाज बेचारे पति को ही संभालना पड़ता था.

हां, यह बात अलग है कि इस बार क्वारंटाइन में रह कर समस्त पति प्रजाति अपने नाकमुंह को मास्क से ढक कर व कानों में मोबाइल का ईयर फोन ठूंस कर गीतसंगीत सुनते हुए आराम से चुपचाप एकांतवास फीलिंग में काम कर रही है. बेचारे पति जाएं भी तो जाएं कहां. घर में तुनकमिजाज पत्नी है, बाहर जानलेवा कोरोना. दोनों तरफ ही उस की जान पर बन आई है, जी. बस, उस ने अपने कोरोनाघात निरोध के लिए सेनेटाइजर की बोतल को अपनी जेब में सुरक्षित कर रखा है और दिनभर में कई बार अपने हाथों पर मल कर भविष्य हेतु पुनः समर्थ और सुरक्षित महसूस करता है.

लौकडाउन अवस्था में क्वारंटाइन में रह कर भी मोहब्बत बंद है. एकांतवास में रह कर सबकुछ डाउन है, इसलिए पहले अपनेअपने फेफड़ों और सांसों को बचाने का लगाव है. क्या करें, जान है तो जहान है, न जनाब मेरे भाई.

कोरोना से बचने का सही और सुरक्षित इलाज है कि लौकडाउन में रहते हुए पत्नी से भी 1 मीटर की शारीरिक दूरी बनानी बहुत जरूरी है.

वैसे जो समझदार अच्छे पति हैं, वह पत्नी के नजदीक खास मौके पर पहले ही सुरक्षित हो कर आते हैं या सुरक्षित साधनों को जेब में रख कर ही उन के नजदीक आते हैं. सावधानी हटी, परिवार बढ़ा का सिद्धांत यहां लगता है.

समझदार पति तो प्रत्येक माह की पहली और दूसरी तारीख को अपनी पत्नी के नजदीक बिलकुल भी नहीं फटकना चाहता. फिर भी पत्नी समझदार होती है, इसलिए वह इन दिनों में पति से ज्यादा उस के बटुए पर अपनी पैनी नजर रखती है. कार्यालय से पति बेचारे को घर पहुंचते ही अपनी तनख्वाह से हाथ धोना पड़ता है.

समझदार पत्नी कुछ रुपए तो घरेलू मासिक खर्च के नाम पर ले लेती हैं और कुछ अच्छे सौंदर्य प्रसाधनों की खरीद के नाम पर. वह बेचारा पति इसलिए भी दे देता है कि आज नहीं तो कल जब नजदीकियां बढ़ेंगी तो इन के सौंदर्य प्रसाधन काम तो मेरे ही आने हैं. वह जानता है कि अच्छा सौंदर्य प्रसाधन पत्नी के चेहरे की सुंदरता के साथसाथ पति के स्वास्थ्य को भी नुकसान नहीं पहुंचाता.

वैसे, कोराना ने परमाणु बमों की ताकत को भी बौना बना दिया. कोराना अदृश्य दानव बन कर सामने आया तो हम सब उस से बचने के लिए अपनेअपने घरों में छिपने लगे. घरों में ही रहना एकमात्र सहारा बताया गया. बाहर निकले तो हमारी सांसों पर ऐसा आक्रमण हो सकता है कि सांसें फूल कर समाप्त हो सकती हैं और हमारी विश्व रंगमंच की पात्रता एकदम समाप्त हो सकती है. रोल खत्म हो सकता है यानी खेल समाप्त न हो, इसलिए बड़ेबड़े परिवारों तक में लोग ‘दालरोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ को अब फोलो कर रहे हैं. यहां ’बने रहो अपनी कुटिया में वरना दिखाई दोगे लुटिया में‘ का कोरोनायुग नवसिद्धांत जगहजगह लागू हो गया है.

कुल मिला कर, हमारे फेफड़ों पर हुआ इस भयानक वायरस का आक्रमण हमें अपने परस्पर मानवीय मूल्यों, आपसी संबंधों, जीवजंतुओं, पेड़पौधों और तरहतरह के भूगर्भ वैज्ञानिकी शोध, रहस्य और विज्ञान को फिर से समझने का मौका दे गया.

आज नहीं तो कल कोरोनासुन वापस जाएंगे और हम पुनः नवसंदर्भों के साथ जीवनयापन फिर शुरू कर देगें. जो इस बार तामसिक नहीं, पवित्र और सात्विक होगा. और मेरा विश्वास है कि मेरे नव शोध प्रबंध को भी जरूर गति मिलेगी.

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