ऐसा भी होता है: लावारिस ब्रीफकेस में क्या था

‘‘भाई साहब, यह ब्रीफकेस आप का है क्या?’’ सनत कुमार समाचार- पत्र की खबरों में डूबे हुए थे कि यह प्रश्न सुन कर चौंक गए. ‘‘जी नहीं, मेरा नहीं है,’’ उन्होंने प्रश्नकर्त्ता के मुख पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली. उन से प्रश्न करने वाला 25-30 साल का एक सुदर्शन युवक था. ‘‘फिर किस का है यह ब्रीफकेस?’’ युवक पुन: चीखा था. इस बार उस के साथ कुछ और स्वर जुड़ गए थे.

‘‘किस का है, किस का है? यह पूछपूछ कर क्यों पूरी ट्रेन को सिर पर उठा रखा है. जिस का है वह खुद ले जाएगा,’’ सनत कुमार को यह व्यवधान अखर रहा था. ‘‘अजी, किसी को ले जाना होता तो इसे यहां छोड़ता ही क्यों? यह ब्रीफकेस सरलता से हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाला. यह तो हम सब को ले कर जाएगा,’’ ऊपरी शायिका से घबराहटपूर्ण स्वर में बोल कर एक महिला नीचे कूदी थीं,

‘‘किस का है, चिल्लाने से कोई लाभ नहीं है. उठा कर इसे बाहर फेंको नहीं तो यह हम सब को ऊपर पहुंचा देगा,’’ बदहवास स्वर में बोल कर महिला ने सीट के नीचे से अपना सूटकेस खींचा और डब्बे के द्वार की ओर लपकी थीं. ‘‘कहां जा रही हैं आप? स्टेशन आने में तो अभी देर है,’’ सनत कुमार महिला के सूटकेस से अपना पैर बचाते हुए बोले थे. ‘‘मैं दूसरे डब्बे में जा रही हूं…इस लावारिस ब्रीफकेस से दूर,’’ महिला सूटकेस सहित वातानुकूलित डब्बे से बाहर निकल गई थीं. ‘

लावारिस ब्रीफकेस?’ यह बात एक हलकी सरसराहट के साथ सारे डब्बे में फैल गई थी. यात्रियों में हलचल सी मच गई. सभी उस डब्बे से निकलने का प्रयत्न करने लगे. ‘‘आप क्या समझती हैं? आप दूसरे डब्बे में जा कर सुरक्षित हो जाएंगी? यहां विस्फोट हुआ तो पूरी ट्रेन में आग लग जाएगी,’’ सनत कुमार एक और महिला को भागते देख बोले थे. ‘‘वही तो मैं कह रहा हूं, यहां से भागने से क्या होगा. इस ब्रीफकेस का कुछ करो. मुझे तो इस में से टकटक का स्वर भी सुनाई दे रहा है. पता नहीं क्या होने वाला है. यहां तो किसी भी क्षण विस्फोट हो सकता है,’’ एक अन्य शायिका पर अब तक गहरी नींद सो रहा व्यक्ति अचानक उठ खड़ा हुआ था.

‘‘करना क्या है. इस ब्रीफकेस को उठा कर बाहर फेंक दो,’’ कोई बोला था. ‘‘आप ही कर दीजिए न इस शुभ काम को,’’ सनत कुमार ने आग्रह किया था. ‘‘क्या कहने आप की चतुराई के. केवल आप को ही अपनी जान प्यारी है… आप स्वयं ही क्यों नहीं फेंक देते.’’ ‘‘आपस में लड़ने से क्या हाथ लगेगा? आप दोनों ठीक कह रहे हैं. इस लावारिस ब्रीफकेस को हाथ लगाना ठीक नहीं है. इसे हिलानेडुलाने से विस्फोट होने का खतरा है,’’ साथ की शायिका से विद्याभूषणजी चिल्लाए थे. ‘‘फिर क्या सुझाव है आप का?’’

सनत कुमार ने व्यंग्य किया था. ‘‘सरकार की तरह हम भी एक समिति का गठन कर लेते हैं. समिति जो भी सुझाव देगी उसी पर अमल कर लेंगे,’’ एक अन्य सुझाव आया था. ‘‘यह उपहास करने का समय है श्रीमान? समिति बनाई तो वह केवल हमारे लिए मुआवजे की घोषणा करेगी,’’ विद्याभूषण अचानक क्रोधित हो उठे थे. ‘‘कृपया शांति बनाए रखें. यदि यह उपहास करने का समय नहीं है तो क्रोध में होशहवास खो बैठने का भी नहीं है. आप ही कहिए न क्या करें,’’ सनत कुमार ने विद्या- भूषण को शांत करने का प्रयास किया था.

‘‘करना क्या है जंजीर खींच देते हैं. सब अपने सामान के साथ तैयार रहें. ट्रेन के रुकते ही नीचे कूद पड़ेंगे.’’ चुस्तदुरुस्त सुदर्शन नामक युवक लपक कर जंजीर तक पहुंचा और जंजीर पकड़ कर लटक गया था. ‘‘अरे, यह क्या? पूरी शक्ति लगाने पर भी जंजीर टस से मस नहीं हो रही. यह तो कोई बहुत बड़ा षड्यंत्र लगता है. आतंकवादियों ने बम रखने से पहले जंजीर को नाकाम कर दिया है जिस से ट्रेन रोकी न जा सके,’’ सुदर्शन भेद भरे स्वर में बोला था. ‘‘अब क्या होगा?’’ कुछ कमजोर मन वाले यात्री रोने लगे थे.

उन्हें रोते देख कर अन्य यात्री भी रोनी सूरत बना कर बैठ गए. कुछ अन्य प्रार्थना में डूब गए थे. ‘‘कृपया शांति बनाए रखें, घबराने की आवश्यकता नहीं है. बड़ी सुपरफास्ट ट्रेन है यह. इस का हर डब्बा एकदूसरे से जुड़ा हुआ है. हमें बड़ी युक्ति से काम लेना होगा,’’ विद्याभूषण अपनी बर्थ पर लेटेलेटे निर्देश दे रहे थे. तभी किसी ने चुटकी ली, ‘‘बाबू, आप को जो कुछ कहना है, नीचे आ कर कहें, अब आप की बर्थ को कोई खतरा नहीं है.’’ ‘‘हम योजनाबद्ध तरीके से काम करेंगे,’’ नीचे उतर कर विद्याभूषण ने सुझाव दिया.

‘‘सभी पुरुष यात्री एक तरफ आ जाएं. हम 5 यात्रियों के समूह बनाएंगे. ‘‘मैं, सनत कुमार, सुदर्शन, 2 और आ जाइए, नाम बताइए…अच्छा, अमल और धु्रव, यह ठीक है. हम सब इंजन तक चालक को सूचित करने जाएंगे. दूसरा दल गार्ड के डब्बे तक जाएगा, गार्ड को सूचित करने, तीसरा दल लोगों को सामान के साथ तैयार रखेगा, जिस से कि ट्रेन के रुकते ही सब नीचे कूद जाएं. महिलाओं के 2 दल प्राथमिक चिकित्सा के लिए तैयार रहें,’’ विद्याभूषण अपनी बात समाप्त करते इस से पहले ही रेलवे पुलिस के 2 सिपाही, जिन के कंधों पर ट्रेन की रक्षा का भार था, वहां आ पहुंचे थे.

‘‘आप बिलकुल सही समय पर आए हैं. देखिए वह ब्रीफकेस,’’ विद्याभूषणजी ने पुलिस वालों को दूर से ही ब्रीफकेस दिखा दिया था. ‘‘क्या है यह?’’ एक सिपाही ने अपनी बंदूक से खटखट का स्वर निकालते हुए प्रश्न किया था. ‘‘यह भी आप को बताना पड़ेगा? यह ब्रीफकेस बम है. आप शीघ्र ही इसे नाकाम कर के हम सब के प्राणों की रक्षा कीजिए.’’ ‘‘बम? आप को कैसे पता कि इस में बम है?’’ एक पुलिसकर्मी ने प्रश्न किया था. ‘‘अजी कल रात से ब्रीफकेस लावारिस पड़ा है. उस में से टिकटिक की आवाज भी आ रही है और आप कहते हैं कि हमें कैसे पता? अब तो इसे नाकाम कर दीजिए,’’ सनत कुमार बोले थे.

‘‘अरे, तो जंजीर खींचिए…बम नाकाम करने का विशेष दल आ कर बम को नाकाम करेगा.’’ ‘‘जंजीर खींची थी हम ने पर ट्रेन नहीं रुकी.’’ ‘‘अच्छा, यह तो बहुत चिंता की बात है,’’ दोनों सिपाही समवेत स्वर में बोले थे. ‘‘अब आप ही हमारी सहायता कर सकते हैं. किसी भी तरह इस बम को नाकाम कर के हमारी जान बचाइए.’’ ‘‘काश, हम ऐसा कर सकते. हमें बम नाकाम करना नहीं आता, हमें सिखाया ही नहीं गया,’’ दोनों सिपाहियों ने तुरंत ही सभी यात्रियों का भ्रम तोड़ दिया था. कुछ महिला यात्री डबडबाई आंखों से शून्य में ताक रही थीं. कुछ अन्य बच्चों के साथ प्रार्थना में लीन हो गई थीं. ‘‘हमें जाना ही होगा,’’ विद्याभूषण बोले थे, ‘‘सभी दल अपना कार्य प्रारंभ कर दीजिए. हमारे पास समय बहुत कम है.’’

डरेसहमे से दोनों दल 2 विभिन्न दिशाओं में चल पड़े थे और जाते हुए हर डब्बे के सहयात्रियों को रहस्यमय ब्रीफकेस के बारे में सूचित करते गए थे. बम विस्फोट की आशंका से ट्रेन में भगदड़ मच गई थी. सभी यात्री कम से कम एक बार उस ब्रीफकेस के दर्शन कर अपने नयनों को तृप्त कर लेना चाहते थे. शेष अपना सामान बांध कर अवसर मिलते ही ट्रेन से कूद जाना चाहते थे. कुछ समझदार यात्री रेलवे की सुरक्षा व्यवस्था को कोस रहे थे, जिस ने हर ट्रेन में बम निरोधक दल की व्यवस्था न करने की बड़ी भूल की थी. गार्ड के डब्बे की ओर जाने वाले दल को मार्ग में ही एक मोबाइल वाले सज्जन मिल गए थे. उन्होंने चटपट अपने जीवन पर मंडराते खतरे की सूचना अपने परिवार को दे दी थी और परिवार ने तुरंत ही अगले स्टेशन के स्टेशन मास्टर को सूचित कर दिया था.

फिर क्या था? केवल स्टेशन पर ही नहीं पूरे रेलवे विभाग में हड़कंप मच गया. ट्रेन जब तक वहां रुकी बम डिस्पोजल स्क्वैड, एंबुलैंस आदि सभी सुविधाएं उपस्थित थीं. ट्रेन रुकने से पहले ही लोगों ने अपना सामान बाहर फेंकना प्रारंभ कर दिया और अधिकतर यात्री ट्रेन से कूद कर अपने हाथपांव तुड़वा बैठे थे. गार्ड के डब्बे की ओर जाने वाले दस्ते का काम बीच में ही छोड़ कर सनत कुमारजी का दस्ता जब वापस लौटा तो उन की पत्नी रत्ना चैन से गहरी नींद में डूबी थीं. सनत कुमार ने घबराहट में उन्हें झिंझोड़ डाला था : ‘‘तुम ने तो कुंभकर्ण को भी मात कर दिया. किसी भी क्षण ट्रेन में बम विस्फोट हो सकता है,’’ चीखते हुए अपना सामान बाहर फेंक कर उन्होंने पत्नी रत्ना को डब्बे से बाहर धकेल दिया था.

‘‘हे ऊपर वाले, तेरा बहुतबहुत धन्यवाद, जान बच गई, चलो, अब अपना सामान संभाल लो,’’ सनत कुमार ने पत्नी को आदेश दे कर इधरउधर नजर दौड़ाई थी. घबराहट में ट्रेन से कूदे लोगों को भारी चोटें आई थीं. उन की मूर्खता पर सनत कुमार खुल कर हंसे थे. इधरउधर का जायजा ले कर सनत कुमार लौटे तो रत्ना परेशान सी ट्रेन की ओर जा रही थीं. ‘‘कहां जा रही हो? ट्रेन में कभी भी विस्फोट हो सकता है. वैसे भी ट्रेन में यात्रियों को जाने की इजाजत नहीं है. पुलिस ने उसे अपने कब्जे में ले लिया है.’’ ‘‘सारा सामान है पर उस काले ब्रीफकेस का कहीं पता नहीं है.’’ ‘‘कौन सा काला ब्रीफकेस?’’ ‘‘वही जिस में मैं ने अपने जेवर रखे थे और आप ने कहा था कि उसे अपनी निगरानी में संभाल कर रखेंगे.’’ ‘‘तो क्या वह ब्रीफकेस हमारा था?’’ सनत कुमार सिर पकड़ कर बैठ गए.

‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘क्या होना है, तुम और तुम्हारी नींद, ट्रेन में इतना हंगामा मचा और तुम चैन की नींद सोती रहीं.’’ ‘‘मुझे क्या पता था कि आप अपने ही ब्रीफकेस को नहीं पहचान पाओगे. मेरी तो थकान से आंख लग गई थी ऊपर से आप ने नींद की गोली खिला दी थी. पर आप तो जागते हुए भी सो रहे थे,’’ रत्ना रोंआसी हो उठी थीं. ‘‘भूल जाओ सबकुछ, अब कुछ नहीं हो सकता,’’ सनत कुमार ने हथियार डाल दिए थे. ‘‘क्यों नहीं हो सकता? मैं अभी जा कर कहती हूं कि वह हमारा ब्रीफकेस है उस में मेरे 2 लाख के गहने हैं.’’

‘‘चुप रहो, एक शब्द भी मुंह से मत निकालना, अब कुछ कहा तो न जाने कौन सी मुसीबत गले पड़ेगी.’’ पर रत्ना दौड़ कर ट्रेन तक गई थीं. ‘‘भैया, वह ब्रीफकेस?’’ उन्होंने डब्बे के द्वार पर खड़े पुलिसकर्मी से पूछा था. ‘‘आप क्यों चिंता करती हैं? उस में रखे बम को नाकाम करने की जिम्मेदारी बम निरोधक दस्ते की है. वे बड़ी सावधानी से उसे ले गए हैं,’’ पुलिसकर्मी ने सूचित किया था.

रत्ना बोझिल कदमों से पति के पास लौट आई थीं. ट्रेन के सभी यात्रियों को उन के गंतव्य तक पहुंचाने का प्रबंध किया गया था. सनत कुमार और रत्ना पूरे रास्ते मुंह लटाए बैठे रहे थे. सभी यात्री आतंकियों को कोस रहे थे. पर वे दोनों मौन थे. विस्फोट हुआ अवश्य था पर ट्रेन में नहीं सनत कुमार और रत्ना के जीवन में.

हल: पति को सबक सिखाने के लिए क्या था इरा का प्लान

इराकल रात के नवीन के व्यवहार से बेहद गुस्से में थी. अब मुख्यमंत्री की प्रैस कौन्फ्रैंस हो और वह मुख्य जनसंपर्क अधिकारी हो कर जल्दी कैसे घर आ सकती थी. पर नहीं. नवीन कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. माना लौटने में रात के 11 बज गए थे, लेकिन मुख्यमंत्री को बिदा करते ही वह घर आ गई थी. नवीन के मूड ने उसे वहां एक

भी निवाला गले से नीचे नहीं उतारने दिया. दिनभर की भागदौड़ से थकी जब वह रात को भूखी घर आई, तो मन में कहीं हुमक उठी कि अम्मां की तरह कोई उसे दुलारे कि नन्ही कैसे मुंह सूख रहा है तुम्हारा. चलो हम खाना परोस दें. लेकिन कहां वह कोमलता और ममत्व की कामना और कहां वास्तविकता में क्रोध से उबलता चहलकदमी करता नवीन. उसे देखते ही उबल पड़ा, ‘‘यह वक्त है घर आने का? 12 बज रहे हैं?’’

‘‘आप को पता तो था आज सीएम की प्रैस कौन्फ्रैंस थी. आप की नाराजगी के डर से मैं ने वहां खाना भी नहीं खाया और आप हैं कि…’’ इरा रोआंसी हो आई थी.

‘‘छोड़ो, आप का पेट तो लोगों की सराहना से ही भर गया होगा. खाने के लिए जगह ही कहां थी? हम ने भी बहुत सी प्रैस कौन्फ्रैंस अटैंड की हैं. सब जानते हैं महिलाओं की उपस्थिति वहां सिर्फ वातावरण को कुछ सजाए रखने से अधिक कुछ नहीं?’’

‘‘शर्म करो… जो कुछ भी मुंह में आ रहा है बोले चले जा रहे हो,’’ इरा साड़ी हैंगर में लगाते हुए बोली.’’

‘‘इस घर में रहना है, तो समय पर आनाजाना होगा… यह नहीं कि जब जी चाहा घर से चली गई जब भी चाहा चली आई. यह घर है कोई सराय नहीं.’’

‘‘क्या मैं तफरीह कर के आ रही हूं? तुम इतने बड़े व्यापारिक संस्थान में काम करते हो, तुम्हें नहीं पता, देरसबेर होना अपने हाथ की बात नहीं होती?’’ इरा को इस बेमतलब की बहस पर गुस्सा आ रहा था.

गुस्से से उस की भूख और थकान दोनों ही गायब हो गई. फिर कौफी बना कप में डाल कर बच्चों के कमरे में चली गई. दोनों बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे.

इरा ने शांति की सांस ली. नवीन की टोकाटाकी उस के लिए असहनीय हो गई थी.

फोन किसी का भी हो, नवीन के रहते आएगा तो वही उठाएगा. फोन पर पूरी जिरह करेगा क्या काम है? क्या बात करनी है? कहां से बोल रहे हो?

लोग इरा का कितना मजाक उड़ाते हैं. नवीन को उस का जेलर कहते हैं. कुछ लोगों की नजरों में तो वह दया की पात्र बन गई है.

इरा सोच कर सिहर उठी कि अगर ये बातें बच्चे सुनते तो? तो क्या होती उस की छवि

बच्चों की नजरों में. वैसे जिस तरह के आसार हो रहे हैं जल्द ही बच्चे भी साक्षी हो जाएंगे ऐसे अवसरों के. इरा ने कौफी का घूंट पीते हुए

निर्णय लिया, बस और नहीं. उसे अब नवीन

के साथ रह कर और अपमान नहीं करवाना है. पुरुष है तो क्या हुआ? उसे हक मिल गया है

उस के सही और ईमानदार व्यवहार पर भी आएदिन प्रश्नचिन्ह लगाने का और नीचा दिखाने का…अब वह और देर नहीं करेगी. उसे जल्द

से जल्द निर्णय लेना होगा वरना उस की छवि बच्चों की नजरों में मलीन हो जाएगी. इसी ऊहापोह में कब वह वहीं सोफे पर सो गई पता ही नहीं चला.

अगले दिन बच्चों को स्कूल भेजा. नवीन ऐसा दिखा रहा था मानो कल की रात रोज गुजर जाने वाली सामान्य सी रात थी. लेकिन इरा का व्यवहार बहुत सीमित रहा.

इरा को 9 बजे तक घर में घूमते देख, नवीन बोला, ‘‘क्या आज औफिस नहीं जाना है? आज छुट्टी है? अभी तक तैयार नहीं हुई.’’

‘‘मैं ने छुट्टी ली है,’’ इरा ने कहा.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक लग रही है, फिर छुट्टी क्यों?’’ नवीन ने पूछा.

‘‘कभीकभी मन भी बीमार हो जाता है इसीलिए,’’ इरा ने कसैले स्वर में कहा.

‘‘समझ गया,’’ नवीन बोला, ‘‘आज तुम्हारा मन क्या चाह रहा है. क्यों बेकार में अपनी छुट्टी खराब कर रही हो, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘नहीं,’’ इरा बोली, ‘‘आज मैं किसी हाल में भी जाने वाली नहीं हूं,’’ इरा की आवाज में जिद थी. नवीन कार की चाबी उठाते हुए बोला, ‘‘ठीक है तुम्हारी मरजी.’’

बच्चों और पति को भेजने के बाद वह देर तक घर में इधरउधर चहलकदमी

करती रही. उस का मन स्थिर नहीं था. अगर नवीन की नोकझोंक से तंग आ कर नौकरी छोड़ भी दूं तो क्या भरोसा कि नवीन के व्यवहार में अंतर आएगा या फिर बात का बतंगड़ नहीं बनाएगा… लड़ने वाले को तो बहाने की भी जरूरत नहीं होती. नवीन के पिता के इसी कड़वे स्वभाव के कारण ही उस की मां हमेशा घुटघुट कर जी रही थीं. पैसेपैसे के लिए उन्हें तरसा कर रखा था नवीन के पिता ने.

अपनी मरजी से हजारों उड़ा देंगे. नवीन की नजरों में उस के पिता ही उस के आदर्श पुरुष थे और मां का पिता से दब कर रहना ही नवीन के लिए मां की सेवा और बलिदान था.

इरा जितना सोचती उतना ही उलझती

जाती, उसे लग रहा था अगर वह इसी तरह मानसिक तनाव और उलझन में रही तो पागल हो जाएगी. हर जगह सम्मानित होने वाली इरा अपने ही घर में यों प्रताडि़त होगी उस ने सोचा भी न था. असहाय से आंसू उस की आंखों में उतर आए. अचानक उस की नजर घड़ी पर पड़ी. अरे, डेढ़ बज गया… फटाफट उठ कर नहाने के लिए गई. वह बच्चों को अपनी पीड़ा और अपमान का आभास नहीं होने देना चाहती थी. नहा कर सूती साड़ी पहन हलका सा मेकअप किया. फिर बच्चों के लिए सलाद काटा, जलजीरा बनाया, खाने की मेज लगाई.

दोनों बेटे मां को देख कर खिल उठे. बिना छुट्टी के मां का घर होना उन के लिए कोई पर्व सा बन जाता है. तीनों ने मिल कर खाना खाया. फिर बच्चे होमवर्क करने लग गए. 5 बजे के लगभग इरा को याद आया कि उस की सहेली मानसी पाकिस्तानी नाटक का वीडियो दे कर गई थी. बच्चे होमवर्क कर चुके थे. इरा ने उन्हें नाटक देखने के लिए आवाज लगाई. दोनों बेटे उस की गोदी में सिर रख कर नाटक देख रहे थे. अजीब इत्तफाक था. नाटक में भी नायिका अपने पति की ज्यादतियों से तंग आ कर अपने अजन्मे बच्चे के संग घर छोड़ कर चली जाती है हमेशा के लिए. इरा की तरफ देख कर अपूर्व बोला, ‘‘मां, आप ये रोनेधोने वाली फिल्में मत देखा करो. मन उदास हो जाता है.’’

‘‘मन उदास हो जाता है इसीलिए नहीं देखनी चाहिए?’’ इरा ने सवाल किया.

‘‘बेकार का आईडिया है एकदम,’’ अपूर्व खीज कर बोला, ‘‘इसीलिए नहीं देखनी चाहिए?’’

‘‘अपूर्व,’’ इरा ने कहा, ‘‘समझो इसी औरत की तरह अगर हम भी घर छोड़ना चाहें तो तुम किस के साथ रहोगे?’’

‘‘कैसी बेकार की बातें करती हैं आप भी मां,’’ अपूर्व नाराजगी के साथ बोला, ‘‘आप ऐसा क्यों करेंगी?’’

‘‘यों समझो कि हम भी तुम्हारे पापा के साथ इस घर में नहीं रह सकते तो तुम किस के साथ रहोगे?’’ इरा ने पूछा.

‘‘जरूरी नहीं है कि आप के हर सवाल का जवाब दिया जाए,’’ 13 वर्ष का अपूर्व अपनी आयु से अधिक समझदार था.

‘‘अच्छा अनूप तुम बताओ कि तुम क्या करोगे?’’ इरा ने छोटे बेटे का मन टटोला.

अनूप को बड़े भाई पर बड़प्पन दिखाने का अवसर मिल गया. बोला, ‘‘वैसे तो हम चाहते हैं कि आप दोनों साथ रहें? लेकिन अगर आप जा रही हैं तो हम आप के साथ चलेंगे. हम आप को बहुत प्यार करते हैं,’’ अनूप बोला, ‘‘चल झूठे…’’ अपूर्र्व बोला, ‘‘मां, अगर पापा आप की जगह होते तो यह उन्हीं को भी यही जवाब देता.’’

‘‘नहीं मां, भैया झूठ बोल रहा है. यही पापा के साथ जाता. पापा हमें डांटते हैं. हमें नहीं रहना उन के साथ. आप हमें प्यार करती हैं. हम आप के साथ रहेंगे,’’ अनूप प्यार से इरा के गले में बांहें डालते हुए बोला.

‘‘डांटते तो हम भी है,’’ इरा ने पूछा, ‘‘क्या तब तुम हमारे साथ नहीं रहोगे?’’

‘‘आप डांटती हैं तो क्या हुआ, प्यार भी तो करती हैं, फिर आप को खाना बनाना भी आता है. पापा क्या करेंगे?’’ अगर नौकर नहीं होगा तो? अनूप ने कहा.

‘‘अच्छा अपूर्व तुम जवाब दो,’’ इरा ने अपूर्व के सिर पर हाथ रख कर उस का मन फिर से टटोलना चाहा.

इरा का हाथ सिर से हटा कर अपूर्र्व एक ही झटके में उठ बैठा. बोला, ‘‘आप उत्तर चाहती हैं तो सुन लीजिए, हम आप दोनों के साथ ही रहेंगे.’’

इरा हैरत से अपूर्व को देखने लगी. फिर पूछा, ‘‘अरे, ऐसा क्यों?’’

‘‘जब आप और पापा 15 साल एकदूसरे के साथ रह कर भी एकदूसरे के साथ नहीं रह सकते, अलग होना चाहते हैं तब हम तो आप के साथ 12 साल से रह रहे हैं. हमें आप कैसे जानेंगे? आप और पापा अगर अलग हो रहे हैं तो हमें होस्टल भेज देना, हम आप दोनों से ही नहीं मिलेंगे,’’ अपूर्व तिलमिला उठा था.

‘‘पागल है क्या तू?’’ इरा हैरान थी, ‘‘नहीं बिलकुल नहीं. इतने वर्षों साथ रह कर भी आप को एकदूसरे का आदर करना, एकदूसरे को अपनाना नहीं आया, तो आप हमें कैसे अपनाएंगे.

‘‘पापा आप का सम्मान नहीं करते तभी आप को घर छोड़ कर जाने देंगे. आप पापा को और घर को इतने सालों में भी समझा नहीं पाईं तभी घर छोड़ कर जाने की बात कर सकती हैं. इसलिए हम आप दोनों का ही आदर नहीं कर सकेंगे और हम मिलना भी नहीं चाहेंगे आप दोनों से,’’ अपूर्व के चेहरे पर उत्तेजना और आक्रोश झलक रहा था.

इरा ने अपूर्व के कंधे को कस कर पकड़ लिया. उस का बेटा इतना समझदार होगा उस ने सोचा भी नहीं था. नवीन से अलग हो कर उस ने सोचा भी नहीं था कि अपने बेटे की नजरों में वह इतनी गिर जाएगी. अगर नवीन उसे सम्मान नहीं दे रहा, तो वह भी अलग हो रही है नवीन का तिरस्कार कर के. इस से वह नवीन को भी तो अपमानित कर रही है. परिवार टूट रहा है, बच्चे असंतुलित हो रहे हैं. वह विवाहविच्छेद नहीं करेगी. उस के आशियाने के तिनके उस के आत्मसम्मान की आंधी में नहीं उड़ेंगे. उसे नवीन के साथ अब किसी अलग ही धरातल पर बात करनी होगी.

अकसर ही नवीन झगड़े के बाद 2-4 दिन देर से घर आता है. औफिस में अधिक काम का बहाना कर के देर रात तक बैठा रहता. उस की इस मानसिकता को अच्छी तरह समझती है.

इरा ने औफिस से 10 दिनों का अवकाश लिया. नवीन 2-4 दिन तटस्थता से इरा का रवैया देखता रहा. फिर एक दिन बोला, ‘‘ये बेमतलब की छुट्टियां क्यों ली जा रही हैं?’’ छुट्टियां खत्म हो जाएंगी तो हाफ पे ले लूंगी, जब औफिस जाना ही नहीं है तो पिछले काम की छुट्टियों का हिसाब पूरा कर लूं,’’ इरा ने स्थिर स्वर में कहा. ‘‘किस ने कहा तुम औफिस छोड़ रही हो?’’ नवीन ने ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘मैडम, आजकल नौकरी मिलती कहां है जो तुम यों आराम से लगीलगाई नौकरी को लात मार रही हो?’’ ‘‘और क्या करूं?’’ इरा ने सपाट स्वर में कहा, ‘‘जिन शर्तों पर नौकरी करनी है वह मेरे बस के बाहर की बात है.’’

‘‘कौन सी शर्तें?’’ ‘‘नवीन ने अनजान बनते हुए पूछा.’’

‘‘देरसबेर होना, जनसंपर्क के काम में सभी से मिलनाजुलना होता है, वह भी तुम्हें पसंद

नहीं. कैरियर या होम केयर में से एक का चुनाव करना था. सो मैं ने कर लिया. मैं ने नौकरी

छोड़ने का निर्णय कर लिया है,’’ इरा ने अपना फैसला सुनाया.

‘‘क्या बच्चों जैसी जिद करती हो,’’ नवीन झल्लाई आवाज में बोला, ‘‘एक जने की सैलरी में घरखर्च और बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी?’’

‘‘पर नौकरी छोड़ कर तुम सारा दिन करोगी क्या?’’ नवीन को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस तरह इरा का निर्णय बदले.

‘‘जैसे घर पर रहने वाली औरतें खुशी से दिन बिताती हैं. टीवी, वीडियो, ताश, बागबानी, कुकिंग, किटी पार्टी हजार तरह के शौक हैं. मेरा भी टाइम बीत जाएगा. टाइम काटना कोई समस्या नहीं है,’’ इरा आराम से दलीलें दे रही थी.

‘‘तुम्हारा कितना सम्मान है, तुम्हारे और मेरे सर्किल में लोग तुम्हें कितना मानते हैं. कितने लोगों के लिए तुम प्रेरणा हो, सार्थक काम कर रही हो,’’ नवीन ने इरा को बहलाना चाहा.

‘‘तो क्या इस के लिए मैं घर में रोजरोज कलहकलेश सहूं, नीचा देखूं, हर बात पर मुजरिम की तरह कठघरे में खड़ी कर दी जाऊं बिना किसी गुनाह के?

‘‘क्यों सहूं मैं इतना अपमान इस नौकरी के लिए? इस के बिना भी मैं खुश रह सकती हूं. आराम से जी सकती हूं,’’ इरा ने बिना किसी तनाव के अपना निर्णय सुनाया.

‘‘इरा आई एम वैरी सौरी, मेरा मतलब तुम्हें अपमानित करने का नहीं था. जब भी तुम्हें आने में देर होती है मेरा मन तरहतरह की आशंकाओं से घिर जाता है. उसी तनाव में तुम्हें बहुत कुछ उलटासीधा बोल दिया होगा. मुझे माफ कर दो. मेरा इरादा तुम्हें पीड़ा पहुंचाने या अपमानित करने का नहीं था,’’ नवीन के चेहरे पर पीड़ा और विवशता दोनों झलक रही थीं.

‘‘ठीक है कल से काम पर चली जाऊंगी. पर उस के लिए आप को भी वचन देना होगा कि इस स्थिति को तूल नहीं देंगे. मैं नौकरी करती हूं. मेरे लिए भी समय के बंधन होते हैं. मुझे भी आप की तरह समय और शक्ति काम के प्रति लगानी पड़ती है. आप के काम में भी देरसबेर होती ही है पर मैं यों शक कर के क्लेश नहीं करती,’’ कहतेकहते इरा रोआंसी हो उठी.

‘‘यार कह दिया न आगे से ऐसा नहीं करूंगा. अब बारबार बोल कर क्यों नीचा दिखाती हो,’’ इरा का हाथ अपने दोनों हाथों में थाम कर नवीन ने कहा.

इरा सोच रही थी कि रिश्ता तोड़ कर अलग हो जाना कितना सरल हल लग रहा था.

लेकिन कितना पीड़ा दायक.

परिवार के टूटने का त्रास सहन करना क्या आसान बात थी. मन ही मन वह अपने बेटे की ऋणी थी, जिस की जरा सी परिपक्वता ने यह हल निकाल दिया था, उस की समस्या का.

 

सोने का हिरण: क्या रजनी को आगाह कर पाई मोनिका

लिफ्ट से उतरते हुए मोनिका सोच रही थी कि इस बार भी वह रजनी से वे सब नहीं कह पाई जिसे कहने के लिए वह आज दूसरी बार आई थी. 8वीं क्लास से रजनी उस की दोस्त है. तेल चुपड़े बालों की कानों के ऊपर काले रिबन से बंधी चोटियां, कपड़े का बस्ता, बिना प्रैस की स्कूल ड्रैस, सहमी आंखें क्लास में उस के छोटे शहर और मध्यवर्गीय होने की घोषणा कर रहे थे. मोनिका को आज भी याद है कैसे क्लास की अभिजात्य वर्ग की लड़कियां उस से सवाल पर सवाल करती थीं. कोई उस की चोटी का रिबन खोल देती थी तो कोई उस का बैग कंधे से हटा देती थी. रजनी को तंग कर वे मजा लेती थीं.

ये वे लड़कियां थीं जो रिबन की जगह बड़ेबड़े बैंड लगाती थीं, जिन के सिर क्रीम और शैंपू की खुशबू से महका करते, जो कपड़े के बस्ते की जगह फैशनेबल बैग लाती थीं और पाबंदी होने के बावजूद उन के नाखून नित नई नेलपौलिश से रंगे होते थे. टीचर्स भी जिन्हें डांटनेडपटने के बदले उन से नए फैशन ट्रैंड्स की चर्चा किया करती थीं. रजनी की सहमी आंखों में सरलता का ऐसा सम्मोहन था कि मोनिका हर बार उस की मदद के लिए आगे बढ़ जाती थी. किशोरावस्था की उन की यह दोस्ती गहराने लगी. देह की पहेलियां, जीवन के अनसुलझे प्रश्न, भविष्य के सपने, महत्त्वाकांक्षाएं आदि पर घंटों बातें होती थीं उन की. समय ऐसे ही सरकता गया और डिग्री के बाद एमबीए की पढ़ाई के लिए मोनिका विदेश चली गई.

लौटने पर पता चला कि बैंक मैनेजर वसंत से विवाह रचा कर रजनी गृहस्थी में रम गई है. यह रजनी का स्वभाव था कि अपने आसपास जो और जितना भी मिला वह उस में खुश रहती थी. उस से आगे बढ़ कर कुछ और अधिक पाने की मृगतृष्णा में वह हाथ आई खुशियों को खोना नहीं चाहती थी. किंतु इस के विपरीत मोनिका अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के आकाश की ऊंचाई और विस्तार की सीमा को आगे बढ़ कर स्वयं तय करने में विश्वास करती थी. मोनिका ने बड़ी आईटी कंपनी जौइन कर ली थी. अब दोनों सखियां कम मिलती थीं पर फोन पर उन की बातों का सिलसिला जारी था. मोनिका कभी अपने मन का गुबार निकालने के लिए तो कभी कोई सलाहमशवरा लेने के लिए रजनी के घर का रुख करती थी.

हर परिस्थिति से तालमेल बैठा कर खुश रहने वाली रजनी अपने 2 बच्चों के साथ पूरी तरह गृहस्थी में रम गई थी. वसंत भी तो उस का पूरा खयाल रखता था. जन्मदिन हो या वर्षगांठ, वह कभी तोहफा देना नहीं भूलता था. महंगी साडि़यां, परफ्यूम, नैकलैस, जड़ाऊ गहनों के तोहफों को बड़े उत्साह से रजनी मोनिका को दिखाती. घूमनाफिरना, छुट्टी मनाने के लिए नई जगहों में घूमना सब कुछ तो हासिल था रजनी को. हर माने में वह एक सुखी जीवन जी रही थी.

पर उस दिन वसंत को मोनिका ने शौपिंग मौल में किसी और के साथ देखा था. मीडियम हाइट और घुंघराले बालों वाले वसंत को पहचानने में उस की आंखें धोखा नहीं खा सकती थीं. एक झोंके की तरह दोनों उस के पास से निकल गए थे. ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. जरूर उसे धोखा हुआ है,’’ यह कह कर उस ने इस बात को अपने मन से निकाल दिया था.

इस बात को अभी महीना भर भी नहीं हुआ था कि वसंत उसे कौफी शौप में मिल गया. शौपिंग मौल वाली उसी लड़की के साथ. नजरें टकराने पर कसी हुई कुरती और जींस पहने, छोटे बालों वाली 25-26 वर्षीय युवती का परिचय करवाया, ‘‘यह नीना है, मेरे बैंक में कैशियर…’’ एक ठंडा सा ‘हाय’ उछाल कर मोनिका वहां से खिसक गई. उस के दिमाग में कहीं कुछ खटक गया था पर जमाना तेजी से बढ़ रहा है…एक ही प्रोफैशन के लोग अकसर साथसाथ घूमते हैं. यह सोच उस ने इस बात को भी भुलाना चाहा, पर रजनी का मासूम चेहरा और सरल आंखें उस के सामने आ जातीं.

मोनिका के मन में आया कि वह रजनी से बात करे. फोन भी मिलाया उस ने, पर नंबर मिलते ही लाइन काट दी. उस ने अपने मन को मजबूत किया कि नहीं वह अपने दिमाग में कुलबुलाते वहम के कीड़े को नहीं पालेगी. उसे कुचलना ही होगा वरना वह काला नाग बन खुशियों को न डस ले. फोन पर रजनी से अब भी बातचीत होती. उस के स्वर में झलकने वाली खुशी से मोनिका अपनेआप को धिक्कारती कि वसंत के लिए उस ने न जाने क्याक्या सोच लिया.

गरमी के दिन थे. औफिस से निकलतेनिकलते आइसक्रीम खाने और समंदर के

किनारे टहलने का प्रोग्राम बना. समंदर की ठंडी हवाओं की थपथपाहट से दिन भर की थकान उतर गई. आइसक्रीम का लुत्फ उठाते, गपियाते हुए मोनिका संजना के साथ एक ओर बैठ गई. संजना को अचानक शरारत सूझी और थोड़ी दूर झाडि़यों के झुरमुट में बैठे जोड़े पर मोबाइल टौर्च से रोशनी फेंकी. मोनिका की आइसक्रीम कोन से पिघल कर उस की कुहनी तक बहने लगी. एकदूजे की बांहों में लिपटे वसंत और नीना का ही था वह जोड़ा.

‘अपनी खास सहेली के घर को वह अपनी आंखों के आगे उजड़ते नहीं देख सकती,’ यह सोच कर औफिस से छुट्टी ले कर वह दूसरे ही दिन रजनी के घर पहुंच गई. वह किचन में रजनी के पास खड़ी अपनी बात कहने का सिरा तलाश रही थी जबकि रजनी बड़े प्यार से वसंत की मनपसंद भिंडी फ्राई, दालमक्खनी, रायता और फुलके तैयार कर रही थी. मातृत्वसुख और वसंत के प्रेम में पगी रजनी की बातों के आगे मोनिका की बात का सिरा हर बार छूट जाता और आखिर बिना कुछ कहे ही वह उस दिन लौट गई.

आज दूसरी बार भी बिना कुछ बताए रजनी के घर से लौटते हुए वह सोच रही थी कि वसंत एक पति और पिता की भूमिका बखूबी निभा रहा है. गृहस्थी की लक्ष्मणरेखा के दायरे में मिलने वाले सुख से रजनी खुश और संतुष्ट है. लक्ष्मणरेखा के दूसरी ओर वाले वसंत के बारे में जानना रजनी के लिए सोने के हिरण को पाने जैसा होगा.

मोनिका भलीभांति जानती है कि मरीचिका के पीछे दौड़ कर उसे हासिल करने का साहस रजनी में नहीं और अपनी प्यारी सखी की सरल आंखों और उस के मासूम बच्चों की हंसी को उदासी में बदलने का साहस तो मोनिका में भी नहीं है.

तलाक के बाद: क्या स्मिता को मिला जीवनसाथी

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रसोई गैस: क्या काम आई मैनेजर ने तरकीब

श्रीमतीजी ताने देदे कर थक चुकी थीं और हम गैस एजेंसी के चक्कर लगालगा कर. हम जब भी जाते एक ही जवाब सुनने को मिलता कि गैस नहीं है… नहीं है… नहीं है… श्रीमतीजी बेचारी हीटर पर खाना बना रही थीं. बिजली का बिल 4 गुना से भी अधिक आ रहा था. बिजली विभाग वालों को भी शक हो रहा था कि कहीं घरेलू बिजली कनैक्शन की आड़ में कोई उद्योग तो नहीं चला रहा है. लेकिन हम क्या कर सकते थे. हम देख रहे थे कि शहर के होटलों में घरेलू गैस का उपयोग हो रहा है.

जब हम ने अपनी व्यथा अपने दोस्त से कही तो उस ने कहा, ‘‘एजेंसी का मैनेजर

मेरा दोस्त है. उस के घर चल कर बात कर लेते हैं. बातचीत से सभी समस्याएं सुलझ

जाती हैं वरना तुम्हारी यह रिपोर्ट प्रैस, पुलिस, उपभोक्ता फोरम के चक्कर में चकरघिन्नी बन कर रह जाएगी… पानी में रह कर मगरमच्छ से बैर ठीक नहीं. फिर तू आम आदमी है. अपनी औकात में रह… लड़नेझगड़ने से कुछ नहीं होगा.

‘‘कितने लोगों ने गैस एजेंसी पर पत्थरबाजी की… पुलिस के छापे पड़े… क्या हुआ? कुछ नहीं. उलटे शिकायत करने वाले नजरों में चढ़ गए… उन की तो हमेशा की परेशानी हो गई. नियम बताने को धमकी समझते हैं ये लोग. फिर एकाध बार की

बात नहीं है. पूरा जीवन जरूरत पड़ती है

गैस की. अकेला होता तो होटल में खा लेता. घरपरिवार बसा कर ये सब करना ठीक नहीं होगा.’’

हम समझ गए. अत: दोस्त के साथ गैस एजेंसी के मैनेजर के घरगए. उस के बच्चों के लिए मिठाई भी ले गए.

मैनेजर ने बड़े अदब से बैठाया और फिर पूछा, ‘‘कहिए, क्या काम है?’’

हम ने अपनी व्यथा बताई, ‘‘सर, गैस

बुक कराए कई दिन हो गए हैं, लेकिन गैस आज तक नहीं मिली… परची कटती है

457 की, लेकिन देने पड़ते हैं 460. हमें कहते हैं कि गैस अभी नहीं आई है, पर आप की एजेंसी की गैस बाजार में उपयोग हो रही है… जबकि नियम के अनुसार…’’

मैनेजर ने हमारी बात बीच ही में काटते हुए कहा, ‘‘देखिए, नियमकानून की ही बात करनी थी तो घर क्यों आए? एजेंसी में ही मिल लेते… रही रुपयों की बात तो खुले

457 दिया कीजिए… हम लोगों ने कोई रेजगारी की फैक्टरी तो खोल नहीं रखी है, जो हर आदमी 460 दे और हम 3 रुपए की रेजगारी देते रहें.’’

हमारे दोस्त ने बिगड़ती बात को संभालते हुए कहा, ‘‘नहीं यार, यह तो पुरानी बात हो गई… यह तो इस ने यों ही कह दिया… वर्तमान समस्या यह है कि इस के घर में 2 माह से गैस नहीं है… कुछ कर भाई… बड़ी दिक्कत में है बेचारा.’’

‘‘परची कब कटवाई थी?’’ मैनेजर ने पूछा.

‘‘2 माह पहले,’’ हम ने कहा.

‘‘वह तो अब लैप्स हो गई है.’’

‘‘सर, 21 दिन पहले फिर से कटवाई थी,’’ हम ने लपलपाती नजरों से मैनेजर की तरफ देखा.

‘‘आप के घर में कोई और साधन नहीं है. मसलन लकड़ी, कोयला, मिट्टी का तेल?’’

‘‘नहीं सर,’’ हम निराशा में गोते लगाने लगे.

‘‘तो एक और कनैक्शन क्यों नहीं ले लेते?’’

‘‘सर, एक और है पत्नी के नाम. लेकिन इस बार मेहमान आ गए… फिर ठंड होने के कारण पानी गरम करने के कारण भी… लेकिन सर हम नियमानुसार ही 2 कनैक्शन के हिसाब से ही…’’

मैनेजर फिर बात बीच ही में काट कर बोला, ‘‘यार, तुम नियमकानून बहुत बताते हो… एक बात बताइए, आप प्रेम में विश्वास रखते हैं या नियमों में?’’

हम ने झेंपते हुए कहा, ‘‘माफ करना सर, हम तो प्रेम में ही विश्वास रखते हैं.’’

‘‘तो फिर आप अपनी पत्नी से भी प्रेम करते होंगे?’’

‘‘जी,’’ कह हम ने सोचा कि यह कैसा प्रश्न है?

‘‘यदि पत्नी से प्रेम करते हैं तो उस से फिर किस बात का बदला ले रहे हैं? दहेज में कुछ कमी रह गई थी क्या?’’

‘‘नहीं तो सर… यह क्या कह रहे हैं आप?’’ हम ने मरियल आवाज में कहा.

 

मैनेजर ने गंभीरता से कहा, ‘‘अजीब बातहै, आप को दहेज भी मिला, पत्नी से

प्रेम भी करते हैं और घर में 2 माह से गैस नहीं है.’’

‘‘जी हम तो जाते हैं, लेकिन…’’

‘‘आप सैर करने जाते हैं या गैस लेने?’’ मैनेजर ने व्यंग्य से पूछा, ‘‘भाई, घर में गैस

2 माह से नहीं है. आप पहले नहीं आ सकते थे? आप एजेंसी के चक्कर तो ऐसे लगा रहे हैं जैसे प्रेमी अपनी प्रेमिका के चक्कर लगाता है… आम आदमी हो कर नियमों की बात तो ऐसे करते हो मानो कोई चूहा बिल्ली को खाने की सोच रहा हो… किस युग में रहते हैं आप?’’

हम खामोश सुनते रहे. क्या करते?

मैनेजर बोलता रहा, ‘‘यदि हम आप की तरह नियमकानून पर चलने लगे तो अब तक एजेंसी किसी और के पास चली गई होती. हम बेकार हो जाते… हमारी तकलीफ भी समझिए. हमें बड़े अधिकारियों के यहां उन के एक फोन पर 1 माह में कई सिलैंडर पहुंचाने पड़ते हैं. शहर के रसूखदारों, गुंडों से ले कर धार्मिक आयोजनों में जो लंगर लगते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, सब का ध्यान रखना पड़ता है. हम कमाएं कहां से? बाजारों, होटलों से ही हमारी कमाई होती है… आप तो हमारे ही पेट पर लात मारने लगे.’’

‘‘सर गलती हो गई, आप नाराज मत होइए… बस हमारी समस्या दूर कर दीजिए…’’

‘‘चलो, तुम घर आए हो, मेरे दोस्त के दोस्त हो, तुम्हें अपनी पत्नी से भी प्रेम है

और फिर यह एक दिन की बात तो है नहीं

कि लड़ कर, कानून बता कर गैस ले गए. जीवन भर गैस चाहिए… तुम क्व100 अतिरिक्त दे दिया करो, गैस तुम्हारे घर पहुंचाने की जिम्मेदारी हमारी… हमारे होते हुए आप चिंता क्यों करते हैं?’’

हमारे पास कोई चारा नहीं था. इस हाथ दे उस हाथ ले. न एजेंसी के चक्कर लगाने की जरूरत न गोदाम जा कर लाइन में खड़े होने की. और तो और न ही परची कटवाने की जरूरत. बस फोन किया, पैसे दिए और सिलैंडर ले लिए.

सुबह 10 बजे : मेघा की मां क्यों थी शादी के खिलाफ

मेघा आज फिर जाम में फंस गई थी. औफिस से आते समय उस के कई घंटे ऐसे ही बरबाद हो जाते हैं, प्राइवेट नौकरी में ऐसे ही इतनी थकान हो जाती है, उस पर इतनी दूर स्कूटी से आनाजाना.

मेघा लोअर व टौप ले कर बाथरूम में घुस गई, कुछ देर बाद कपड़े बदल कर बाहर आई. उस के कानों में अभी भी सड़क की गाडि़यों के हौर्न गूंज रहे थे. तभी उस ने लौबी में अपनी मां को कुछ पैकेट फैलाए देखा, वे बड़ी खुश दिख रही थीं. मेघा भी उन के पास बैठ गई. मम्मी उत्साह से पैकेट से साड़ी निकाल कर उसे

दिखाने लगीं, ‘‘यह देखो अब की अच्छी साड़ी लाई हूं.’’ पर मम्मी अभी कुछ दिन पहले ही तो 6 साडि़यों का कौंबो मैं ने और 6 का रिया ने तुम्हें औनलाइन मंगा कर दिया था.’’

‘‘वे तो डेली यूज की हैं. कहीं आनेजाने पर उन्हें पहनूंगी क्या? लोग कहेंगे कि 2-2 बेटियां कमा रही हैं और कैसी साडि़यां पहनती हैं,’’ कह कर उन्होंने प्यार से मेघा के गाल पर धीरे से एक चपत लगा दी. मेघा मुसकरा दी.

तभी वे फिर बोलीं, ‘‘और देख यह बिछिया… ये मैचिंग चूडि़यां और पायलें… अच्छी हैं न?’’

‘‘हां मां बहुत अच्छी हैं. आप खुश रहें बस यही सब से अच्छा है, अब मैं बहुत थक गई हूं. चलो खाना खा लेते हैं. मुझे कल जल्दी औफिस जाना है,’’ मेघा बोली.

‘‘ठीक है तुम चलो मैं आई,’’ कह कर मम्मी अपना सामान समेटने लगीं.

उन के चेहरे पर खिसियाहट साफ दिखाई दे रही थी. सभी ने हंसीमजाक करते हुए खाना खाया. फिर अपनेअपने बरतन धो कर रैक में रख दिए. उन के घर में शुरू से ही यह नियम है कि खाना खाने के बाद हर कोई अपने जूठे बरतन खुद धोता है.

खाना खा कर मेघा लेटने चली गई, पर आंखों से नींद कोसों दूर थी, वह सोचने लगी कि हर नारी अपने को किसी के लिए समर्पित करने में ही सब से बड़ी खुशी महसूस करती है. कल की ही बात है. मेघा की दोस्त सोनल उस से कह रही थी कि यार तू भी 30 पार कर रही है. क्या शादी करने का इरादा नहीं है? मगर मेघा उसे कैसे बताती कि जब से उस ने नौकरी शुरू की है घर थोड़ा अच्छे से चलने लगा है.

अब कोई उस की शादी की बात उठाता ही नहीं, क्योंकि उन्हें उस से ज्यादा घर खर्च की चिंता रहती है… छोटी बहनों की पढ़ाई कैसे होगी… वे 4 बहनें हैं. पापा का काम कुछ खास चलता नहीं है. इसलिए उन्होंने बचपन अभाव में काटा है. जब से मेघा से छोटी रिया भी सर्विस करने लगी है, मम्मी अपनी कुछ इच्छाएं पूरी कर पा रही हैं वरना तो घर खर्च की खींचतान में ही लगी रहती थीं.

मेघा की दोस्त सोनल की 2 साल पहले ही शादी हुई है. औफिस में वह मेघा की कुलीग है. उसे खुश देख कर मेघा को बड़ा अच्छा लगता है. कभीकभी उस का मन कहता है, मेघा क्या तू भी कभी यह जीवन जी सकेगी?

आज सोनल ने फिर बात उठाई थी, ‘‘मेघा पिछले साल हम लोग औफिस टूर पर बाहर गए थे तो मयंक तुझ से कितना मिक्स हो गया था… यार तेरी ही कास्ट का है. तुझ से फोन पर तो अकसर बात होती रहती है. अच्छा लड़का है… क्यों नहीं मम्मी से कह कर उस से बात चलवाती हो? अगर बात बन गई तो दहेज का भी चक्कर नहीं रहेगा. फिर मयंक की तुझ से अंडरस्टैंडिंग भी अच्छी है. अच्छा ऐसा कर तू पहले मयंक से पूछ. अगर वह तैयार हो जाता है, तो अपने घर वालों को उस के घर भेज देना.’’ मेघा को सोनल की बात में दम लगा.

1-2 दिन पहले ही उस की मयंक से बात हुई थी, तो वह बता रहा था कि घर वाले उस की शादी के मूड में हैं. हर दूसरे दिन कोई न कोई रिश्ता ले कर आ रहा है.

मेघा सोचने लगी, ‘कल मयंक से बात करती हूं. यह तो मुझे भी महसूस होता है कि शादी करना जीवन में जरूरी होता है, पर कोई अच्छा लड़का मिले. मुझे जीवन में खुशियां देने के साथसाथ मेरे घर वालों को भी सपोर्ट करे, तो इस से अच्छी और क्या बात होगी,’ सोचतेसोचते उसे नींद आ गई.

सुबह नींद खुली तो 7 बज रहे थे. उसे 8 बजे औफिस पहुंचना था. वह जल्दी से फ्रैश होने के लिए बाथरूम की ओर भागी. जब तक वह तैयार हुई तब तक मम्मी ने मेज पर नाश्ता लगा दिया. टिफिन भी वहीं रख दिया. मेघा ने दौड़तेभागते 2 ब्रैड पीस खा कर चाय पी और फिर स्कूटी निकाल औफिस के लिए निकल गई. काम के चक्कर में उसे कुछ याद ही नहीं रहा.

लंच के समय सोनल ने फिर वही बात छेड़ी तो उसे कल रात की बात याद आई. लंच खत्म कर के उस ने मयंक को फोन लगाया.

सोनल सामने ही बैठी थी. वह इशारे से कह रही थी कि शादी के लिए पूछ. मेघा ने हिम्मत कर के पूछा तो मयंक हंस दिया, ‘‘अरे यार तुझे पा कर कौन खुश नहीं होगा भला… तुम ने मुझे अपने लायक समझा तो संडे को अपने मम्मीपापा को मेरे घर भेजो, बाकी सब मैं देख लूंगा.’’

‘‘ठीक है कह कर मेघा ने फोन काट दिया और फिर सोनल को सब बताया तो वह भी बहुत खुश हुई.

‘‘पर सोनल मैं अपनी शादी के बारे में अपने मम्मीपापा से कैसे बात कर पाऊंगी?’’

मेघा को परेशान देख कर सोनल बोली, ‘‘तू घर पहुंच उन से मेरी बात करा देना.’’

मेघा शाम 4 बजे ही औफिस से चल दी. घर पहुंच चाय पी कर बैठी ही थी कि सोनल का फोन आ गया. उसे दिन की सारी बातें याद आ गई. उस ने फोन मम्मी की ओर बढ़ा दिया. सोनल ने मम्मी को सब बता उन्हें संडे को मयंक के घर जाने के लिए कहा.

मम्मी के चेहरे पर मेघा को कुछ खास खुशी की झलक नहीं दिख रही थी. वे केवल हांहां करती जा रही थीं.

फोन कटने पर वे मेघा की तरफ घूम कर बोलीं, ‘‘हम लोगों के पास तो दहेज के लिए पैसे नहीं हैं. फिर हम रिश्ता ले कर कैसे जाएं? तुम्हें पहले मुझ से बात करनी चाहिए थी.’’

यह सुन कर मेघा हड़बड़ा गई. बोली, ‘‘मैं ने कुछ नहीं कहा. सोनल ने ही मयंक से बात की थी… आप और पापा उस के घर हो आओ… देखो घर में और लोग कैसे हैं… मयंक तो बहुत सुलझा हुआ है.’’

तभी पापा भी आ गए. जब उन्हें सारी बात पता लगी तो उन के चेहरे पर खुशी के भाव आ गए, ‘‘ठीक है हम लोग संडे को ही मयंक के घर जाएंगे,’’ कह उन्होंने खुशी से मेघा की पीठ थपथपाई.

फिर सब बहनों ने मिल कर आगे की प्लानिंग की. यह तय हुआ कि सोनल के हसबैंड, मम्मीपापा और छोटी बहन मयंक के घर चले जाएंगे. छोटी बहन के मयंक के घर जाने से वहां क्या बात हुई, कैसा व्यवहार रहा, सब पता लग जाएगा. मम्मी से तो पूछते नहीं बनेगा. पापा से भी पूछने में संकोच होगा.

मेघा की छोटी तीनों बहनें मन से उस की शादी के लिए सोचती रहती थीं, पर आज की महंगाई और दहेज के बारे में सोच कर चुप हो जाती थीं. मयंक के बारे में सुन कर सब को जोश आ गया था.

‘‘मैं अब अपना पैसा बिलकुल खर्च नहीं करूंगी,’’ यह रिया की आवाज थी.

‘‘मुझे भी कुछ ट्यूशन बढ़ानी पड़ेंगी, तो बढ़ा लूंगी,’’ यह तीसरे नंबर की ज्योति बोली.

‘‘मैं भी अब कोई फरमाइश नहीं करूंगी,’’ छोटी कैसे पीछे रहती.

‘‘ठीक है ठीक है, सब लोगों को जो करना है करना पर पहले मयंक के घर तो हो आओ,’’ कह कर मेघा टीवी खोल कर बैठ गई.

संडे परसों था, पापा समय बरबाद नहीं करना चाहते थे. उन्होंने जाने की पूरी तैयारी कर ली. मम्मी ने भी कौन सी साड़ी पहननी है, छोटी क्या पहनेगी सब तय कर लिया.

दूसरे दिन शनिवार था. मेघा ने सोनल को बता दिया कि उस के हसबैंड को साथ जाना पड़ेगा.

वह तैयार हो गई. बोली, कोई इशू नहीं. एक अंकल का स्कूटर रहेगा एक इन की मोटरसाइकिल हो जाएगी… आराम से सब लोग मयंक के घर पहुंच जाएंगे.

मेघा ने फोन कर के मयंक से उस के पापा का फोन नंबर ले लिया. शाम को पापा ने मयंक के पापा को फोन कर के संडे को उन के घर पहुंचने का समय ले लिया. सुबह 10 बजे मिलना तय हुआ.

मेघा की मम्मी बड़ी उलझन में थी कि अगर वे लोग तैयार हो गए तो कैसे मैनेज करेंगे. कुछ नहीं पर अंगूठी तो चाहिए ही. मेरे सारे जेवर तो धीरेधीरे कर के बिक गए… बरात की खातिरदारी तो करनी ही पड़ेगी.

मेघा की मां को परेशान देख उस के पापा बोले, ‘‘अभी से क्यों परेशान हो? पहले वहां मिल तो आएं.’’

रविवार सुबह ही चुपके से मेघा ने मयंक को फोन मिला कर कहा, ‘‘मयंक, तुम घर में ही रहना… कोई बात बिगड़ने न पाए… सब संभाल लेना.’’

‘‘हांहां ठीक है. मेरे मम्मीपापा बहुत सुलझे हुए हैं… उन्हें अपने बेटे की खुशी के आगे कुछ नहीं चाहिए… जिस में मैं खुश उस में वे भी खुश.’’ मेघा बेफिक्र हो कर अंदर आ गई. देखा मम्मी तैयार हो गई थीं.

‘‘चलो, जल्दी लौट आएंगे वरना आज दुकान बंद रह जाएगी.’’ मेघा की मां बोली.

कुछ दिन पहले ही मेघा के पापा ने एक दुकान खोली थी. करीब 12 बजे सभी लौट आए. पापा बहुत खुश थे. सभी बातें कायदे से हुई थीं. बस मयंक के पापा कुंडली मिला कर बात आगे बढ़ाना चाहते थे. वे पापा से बोले कि आप बिटिया की कुंडली भिजवा देना.

जब सब लोग खाना खा कर लेट गए तो सब बहनों ने छोटी को बुला कर वहां का सारा हाल पूछा. छोटी ने वहां की बड़ी तारीफ की. बताया कि अगर कुंडली मिल गई तो शादी पक्की हो जाएगी.

मम्मी ने तो वहां साफसाफ कह दिया कि हम लोग पैसा नहीं दे सकते. किसी तरह जोड़ कर बरात की खातिरदारी कर देंगे. दहेज देने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है.

सुन कर रिया गुस्सा गई. बोली, ‘‘ये सब कहने की पहले ही दिन क्या जरूरत थी? आगे बात चलती तो बता देतीं.’’

‘‘दूसरे दिन मेघा की तबीयत ठीक नहीं थी. औफिस से छुट्टी ले कर जल्दी घर आ गई. दवा खा कर चादर ओढ़ कर लेट गई. थोड़ी देर बाद रिया और मम्मी की आवाज उस के कानों में पड़ी. रिया बोली, ‘‘दीदी की शादी फाइनल हो जाए तो मजा आ जाए. मयंक अच्छा लड़का है. एक बार मैं भी उस से मिली हूं.’’

मम्मी तुरंत बोली,‘‘अरे नहीं बहुत मौडर्न परिवार है. हम उन के स्तर का खर्च ही नहीं कर पाएंगे. तभी तो मैं उस दिन सब साफ कह आई थी. अगर मयंक मेघा से शादी का इच्छुक है, तो कुछ खर्च उसे भी तो करना चाहिए. सगाई, शादी सारे खर्च को आधाआधा बांट लें… जेवर भी… मैं ने कह दिया है हमारे पास नहीं हैं… जेवर तो आप को ही लाने पड़ेंगे… फिर मेरी तो 4 लड़कियां हैं. मुझे तो सब पर बराबर ध्यान देना पड़ेगा. आप के तो केवल एक लड़का है. आप को तो बस उसी के लिए सोचना है.’’

सुनते ही रिया गुस्सा हो गई, ‘‘मम्मी, आप को इस तरह नहीं बोलना चाहिए था. इस तरह तो शादी तय ही नहीं हो पाएगी.’’

‘‘तो न हो… कौन मेरी बेटी सड़क पर खड़ी भीग रही है. वह अपने घर में अपने मांबाप के साथ है. एक मयंक ही थोड़े हैं. हजार लड़के मिलेंगे. आखिर वह सर्विस कर रही है. हजार लड़के उस के आगेपीछे घूमेंगे.’’

‘‘मम्मी यह कहना आसान है, पर ऐसा संभव नहीं होता है,’’ रिया झल्ला कर बोली और फिर वहां से चली गई. मम्मी भी भुनभुनाती हुई किचन में चली गईं.

मेघा सारी बातें सुन कर सकपका गई कि आखिर मम्मी क्या चाहती हैं? क्या लड़की की शादी की बात करने जाने पर पहली बार ही इस तरह की बातें की जाती हैं… इस से तो इमेज खराब ही होगी. फिर मयंक भी कैसे बात संभाल पाएगा.

कल ही सोनल बता रही थी कि उस ने शादी के पहले 4 साल सर्विस की थी और उस की मम्मी ने उस की ही सैलरी से 2 अंगूठियां,

1 चेन और 1 जोड़ी पायल बनवा ली थीं. हर महीने कोई न कोई सामान उस के पीछे पड़ कर औनलाइन और्डर करा देती थी. साडि़यां, पैंटशर्ट, ऊनी सूट सब धीरेधीरे इकट्ठे कर लिए थे. बरतन, मिक्सी, बैडसीट्स कुछ भी शादी के समय नहीं खरीदना पड़ा था. सोनल के घर की हालत तो उन के घर से भी बदतर थी.

आज सोनल अपनी छोटी सी गृहस्थी में बहुत खुश है. एक प्यारा सा बेटा भी है. जीजाजी भी बहुत सुलझे हुए हैं. वे सोनल के मम्मीपापा का भी बहुत खयाल रखते हैं.

इसी बीच 8-10 दिन बीत गए. न यहां से किसी ने फोन किया, न मयंक के यहां से फोन आया. सोनल ने मेघा से पूछा तो वह बोली, ‘‘बारबार मेरा कहना अच्छा नहीं लगता.’’

तब सोनल ने ही मम्मी को फोन मिला कर पूछा तो वे बोलीं, ‘‘उन लोगों ने मेघा की कुंडली मांगी है… वह तो हम ने बनवाई नहीं… हमें कुंडली में विश्वास नहीं है.’’

तब सोनल बोली, ‘‘आंटी आप किसी से कुंडली चक्र बनवा कर भेज दीजिए. आप को तो वही करना पड़ेगा जो वे चाहते हैं. आखिर वे लड़के वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हमारी लड़की कमजोर है? वह भी कमाती है. हम उन के हिसाब से क्यों चलें? वे रिश्ता बराबरी का समझें तभी ठीक है.’’ सुन कर सोनल ने फोन काट दिया.

दूसरे दिन मयंक का फोन आया, ‘‘अरे यार अपनी कुंडली तो भिजवाओ. उस दिन तो मैं ने सब संभाल लिया था पर बिना कुंडली के बात कैसे आगे बढ़ाऊं?’’

मेघा ने पापा से कहा तो उन्होंने अगले दिन दे कर आने की बात कही. मेघा के मन में यह बात चुभ रही थी कि मम्मी के मन में क्या यह इच्छा नहीं होती कि उन की बेटियों की भी शादी हो… कल ही पड़ोस की आंटी आई थीं तो मम्मी उन से कह रही थीं, ‘‘मैं तो कहती हूं चारों बेटियां अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं… कमाएं और आराम से साथ रहें. क्या दुनिया में सभी की शादी होती है? अपनी कमाई से ऐश करें.’’

सुन कर मेघा के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई कि केवल उस को ही नहीं ये तो चारों बेटियों की शादी न करने के पक्ष में है. क्या कोई इतना स्वार्थी भी हो सकता है? उधर पापा जन्मकुंडली बनवा कर मयंक के घर दे आए.

4-5 दिन बाद मयंक के पापा का मेघा के पापा के पास फोन आया. उन्होंने कुंडली मिलवा ली थी. मिल गई थी. आगे की बात करने के लिए पापा को अपने घर बुलाया था.

पापा ने खुशीखुशी रात के खाने पर सब को यह बात बताई तो सभी बहनें खुशी से तालियां बजाने लगीं.

‘‘तो आप लोग कब जा रहे हैं? रिया ने पूछा.’’

‘‘आप लोग नहीं अकेले मैं जाऊंगा,’’ कह कर पापा खाना खाने लगे.

मम्मी हैरानी से उन का मुंह देखने लगीं. फिर बोली, ‘‘अकेले क्यों?’’

‘‘अभी भीड़ बढ़ाने से कोई फायदा नहीं. पता नहीं बात बने या नहीं. फिर

दुकान तुम देख लेना… बंद नहीं करनी पड़ेगी.’’

‘‘आप साफ बात कर भी पाएंगे?’’

मम्मी की आवाज सुन कर पापा खाना खातेखाते रुक गए. बोले, ‘‘हां, ऐसी साफसाफ भी नहीं करूंगा कि बात ही साफ हो जाए.’’

सुन कर हम बहनें हंस पड़ी. मम्मी गुस्सा कर किचन में चली गईं.

रात में फिर चारों बहनों की मीटिंग हुई. पापा अकेले मयंक के घर जाएंगे, इस बात से सभी बहुत खुश थीं.

गोधरा में गोदनामा : श्रीराम की पत्नी के जीने का सहारा कौन था

मरने के अलावा उसे और कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. जीने के लिए उस के पास कुछ नहीं था. न पत्नी न बच्चे, न मकान, न दुकान. उस का सबकुछ लुट चुका था. एक लुटा हुआ इंसान, एक टूटा हुआ आदमी करे भी तो क्या?

उस का घर दंगाइयों ने जला दिया था. हरहर महादेव के नारे श्रीराम पर भी कहर बरपा चुके थे. वह हिंदू था लेकिन उस की पत्नी शबनम मुसलमान थी. उस के बेटे का नाम शंकर था. फिर भी वे गोधरा में चली नफरत की आग में स्वाहा हो चुके थे.

श्रीराम अपने व्यापार के काम से रतलाम गया हुआ था. तभी अचानक दंगे भड़क उठे. जंगल की आग को तो बुझाया जा सकता है लेकिन आग यदि नफरत की हो और उस पर धर्म का पैट्रोल छिड़का जाता रहे, प्रशासन दंगाइयों का उत्साहवर्द्धन करता रहे तो फिर मुश्किल है उस आग का बुझना. ऊपर से एक फोन आया प्रशासन को. लोगों का गुस्सा निकल जाने दो. जो हो रहा है होने दो. बस, फिर क्या था? मौत का खूनी खेल चलता रहा. जिन दोस्तों ने श्रीराम का विवाह करवाया था वे अब कट्टरपंथी बन चुके थे.

दंगाई जब श्रीराम के घर के पास पहुंचे तो किसी ने कहा, ‘‘इस की पत्नी मुसलमान है. इसे मार डालना जरूरी है.’’

दंगाइयों में श्रीराम के दोस्त भी शामिल थे. उस के एक दोस्त ने कहा, ‘‘नहीं, वह श्रीराम की पत्नी है. इस नाते वह भी हिंदू हुई.’’

दंगाई बोले, ‘‘यह हिंदू नहीं मुसलमान है. यह अब भी नमाज पढ़ती है. रोजे रखती है. इस ने अपना नाम और सरनेम भी नहीं बदला. इस ने अपने बेटे का नाम जरूर शंकर रखा है किंतु उसे शिक्षासंस्कार इस्लाम के ही दिए हैं. इस तरह श्रीराम की पत्नी और बेटा मुसलमान ही हुए.’’

श्रीराम के एक दोस्त ने कहा, ‘‘कृपया यह घर छोड़ दीजिए. यह हमारे दोस्त का घर है. इस में उस की पत्नी और बच्चे रहते हैं. कल जब वह वापस आएगा तो हम उसे क्या जवाब देंगे.’’

दंगाई भड़क उठे, ‘‘श्रीराम जैसे मर्दों को जीने का कोई अधिकार नहीं है. मुसलिम औरत से विवाह किया था तो उसे हिंदू बनाना था. हिंदुओं की तरह रहना सिखाना था. ऐसे ही लोग मुसलमानों को बढ़ावा देते हैं. देखते क्या हो? खत्म कर दो सब को और आग लगा दो घर में.’’

थोड़ी ही देर में उस की पत्नीबच्चा आग के दावानल में घिर जल कर राख हो गए. घर से लगी हुई उस की दुकान लूट कर जला दी गई. जब वह वापस आया तो उस का सबकुछ लुट चुका था. वह बरबाद हो चुका था. वह मरने के लिए घर से निकल पड़ा. पहले उस ने ट्रेन के नीचे आ कर मरने की सोची किंतु भारतीय रेल की लेटलतीफी और दंगों के कारण रेल पुलिस भी सजग हो चुकी थी.

आत्महत्या करने के अपराध में कहीं उसे गिरफ्तार न होना पड़े, इसलिए उस ने फसलों की सुरक्षा के लिए कीटनाशक की शीशी खरीदी और पूरी की पूरी मुंह में उड़ेल ली. थोड़ी देर बाद उसे चक्कर आने लगे. वह बेहोश हो कर गिर पड़ा. होश आया तो उस ने स्वयं को अस्पताल में पाया. उस के दोस्त शर्मिंदगी के भाव लिए उस के पास खड़े थे. उस से माफी मांग रहे थे. किंतु उन के माफी मांगने से उस का परिवार तो जीवित होने से रहा. उसे कोई शिकायत भी नहीं थी किसी से. वह तो हर हाल में मरना चाहता था.

अस्पताल घायलों की चीखपुकार से गूंज रहा था. श्रीराम सोच रहा था कि रात को वह अपनी नस काट लेगा ताकि उसे इस अकेले और लुटे जीवन से मुक्ति मिल सके. बिना प्यार, बिना सहारे, बिना घर, बिना दुकान के वह जी कर क्या करेगा? उस की पत्नी, उस का बच्चा, घर… सब कितने प्रेम से संजोया था उस ने. शबनम से विवाह के कारण उस का अपना परिवार भी छूट गया था. क्या करेगा वह शबनम और शंकर के बिना जी कर?

जिस बैड पर वह लेटा था उस के बगल में एक मासूम बच्ची थी. घायल, चोटग्रस्त. उफ, दंगाइयों ने इसे भी नहीं छोड़ा. न जाने कैसे बच गई थी. बच्ची को होश आ चुका था. वह रोने लगी. श्रीराम ने उसे सांत्वना दी, सहलाया. उस से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम?’’

बच्ची ने कराहते हुए कहा, ‘‘शबाना, और आप का?’’

‘‘श्रीराम.’’

बच्ची के चेहरे पर घबराहट के भाव आ गए.

वह बोली, ‘‘आप हिंदू हो. मुझे भी मार डालोगे.’’

‘‘मैं तो खुद तुम्हारी तरह अस्पताल में भरती हूं. मैं तुम्हें क्यों मारूंगा?’’

‘‘आप तो हिंदू हैं. फिर आप को क्यों मारा?’’

श्रीराम की आंखों में आंसू आ गए.

उसे रोता देख बच्ची ने कहा, ‘‘सौरी, अंकल, आप को मुसलमानों ने मारा होगा. मेरा पूरा घर जला दिया. मेरे अम्मीअब्बू को भी मार डाला. पता नहीं, मैं कैसे बच गई?’’ यह कह कर 10 वर्ष की मासूम शबाना रोने लगी.

‘अब इस बच्ची का क्या होगा?

इसे कौन सहारा देगा? कौन इसे पालेगापोसेगा?’ श्रीराम सोचने लगा. उस ने डाक्टर से पूछा कि ठीक होने के बाद इस बच्ची का क्या होगा?

डाक्टर ने कहा, ‘‘अभी तक तो कोई रिश्तेदार आया नहीं. एकदो दिन देखते हैं, वरना यतीमखाने भिजवाना पड़ेगा.’’

श्रीराम सोचने लगा कि वह भी इस दुनिया में अकेला है और यह बच्ची भी. क्यों न इसी बच्ची को जीने का सहारा बनाया जाए. श्रीराम को शबाना में अपना बेटा शंकर दिखने लगा. उस का शबाना से मेलमिलाप बढ़ चुका था. उस ने शबाना से पूछा, ‘‘तुम मेरी बेटी बनोगी?’’

‘‘लेकिन आप तो हिंदू हैं.’’

‘‘ठीक है, तो मैं मुसलमान बन जाता हूं.’’

‘‘नहीं, अंकल, आप मुसलमान मत बनना. नहीं तो आप का भी घर जला देंगे.’’

‘‘तो तुम हिंदू बन जाओ.’’

‘‘नहीं, अंकल, मैं हिंदू नहीं बनूंगी. हिंदू लोग अच्छे नहीं होते. वे लोगों को मार डालते हैं. घर जला देते हैं.’’

‘‘तो फिर तुम्हीं बताओ, मेरी बेटी कैसे बनोगी?’’

शबाना ने दिमाग पर जोर लगाया, फिर कहा, ‘‘अंकल, आप हिंदू मैं मुसलमान. जब मुसलमान दंगे करेंगे तो मैं आप को बचाऊंगी और जब हिंदू दंगे करेंगे तो आप मुझे बचाना. क्यों, ठीक है न अंकल?’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कह कर श्रीराम उदास हो गया. वह कैसे समझाए इस मासूम को कि दंगाइयों का कोई धर्म नहीं होता. होता तो उस की पत्नी शबनम और बेटा शंकर जिंदा होते. शैतानों का कोई ईमान नहीं होता.

बहरहाल, हुआ यों कि श्रीराम ने आत्महत्या का विचार त्याग दिया और शबाना को अपनी गोद में लिए शेष जीवन जीने में जुट गया.

परिंदे को उड़ जाने दो: क्या मां से आजादी पाकर अपनी शर्तों पर जिंदगी जी पाई शीना?

पिपासा: कैसे हुई थी कमल की मौत

सुबह के तकरीबन 9 बजे होंगे. भैंसों को चारासानी, पानी कर के दूध दुह कर ग्राहकों को बांट कर मदन खाट पर जा कर लेट गया था. पल दो पल में ही धूप उस के बदन पर लिपट कर अंगअंग सहला कर गरमाहट बढ़ाने लगी. मदन को गुदगुदी सी होने लगी थी. वह जैसे अपनी दोनों बांहों में धूप को समेट कर हौले से मुसकरा उठा.

तीस साल का मदन इतना भी रूखा या पत्थरदिल नहीं था, मगर अभी तक किसी को अपने दिल की बात कह कर अपना बना ही नहीं सका था.

मदन का पूरा बदन धूप की शरारतों से इठला ही रहा था, तभी अचानक किसी ने बाहर खटखट की आवाज की. आवाज सुन कर मदन चौंक गया.

‘अब कौन आया होगा?’ यह सवाल खुद से करता हुआ वह झट से करवट बदल कर पलटा और खाट पर से उठ कर जमीन खड़ा हुआ. जल्दी से वह बाहर गया, तो देखते ही पहचान गया.

“अरे, चमेली तुम…?”

“हां, मैं चमेली,” कह कर उस युवती ने अपने पास खड़े 4-5 बरस के बालक की कलाई को झिंझोड़ कर कहा.

चमेली मदन की दूर की रिश्तेदार थी. उस का विवाह जिला गाजियाबाद में हुआ था. और इस समय कुछ तो ऐसा हुआ था कि सारी दुनिया छोड़ कर वह बस मदन के दरवाजे पर खड़ी थी.

मदन ने उसे भीतर बुला लिया. कुछ ही देर बाद मदन को बाहर कुछ आवाजें सुनाई देने लगी थीं. लोगों में खुसुरफुसुर होने लगी थी. पर, मदन अपनी मेहनत पर जीने वाला स्वाभिमानी युवक किसी बात से नहीं डरता था और न ही किसी की परवाह करता था.

चमेली ने भीतर आ कर मदन की तरफ याचनाभरी निगाह से देखा. इस से पहले मदन कुछ कहता, वह झुक कर उस के पैरों से लिपट गई.

चमेली के इस तरह लिपटते देख मदन को अभीअभी सेंकी हुई धूप की गरमाहट दोबारा महसूस होने लगी और वह रोमांचित सा हो रहा था, पर उधर इस सब से बेखबर चमेली उस से सुबकसुबक कर बोली, “मेरा पति हर बात पर शक करता था. मैं वहां से भाग आई. अब मैं वापस लौट कर नहीं जाना चाहती. आप मुझे अपनी शरण में ले लो, तो बची उम्र भी जैसेतैसे काट लूंगी.”

मदन उस के लगातार स्पर्श से यों भी मदहोश सा हुआ जा रहा था. वह अपनेआप को सहज करने की कोशिश करने लगा और उस ने बालक को प्यार से पुचकार कर कहा, “आओ ना… मेरे पास आओ.”

मदन के शब्दों ने उस बालक पर जादू सा काम किया. वह बालक शायद जन्मों से इस मनुहार की ही तो कामना कर रहा था, प्यार का संकेत मिला और वह मदन की छाती से लिपट गया. मदन ने आंखें बंद कर लीं. उस को एक पल के लिए ऐसा लगा, जैसे चमेली ने आ कर उसे जकड़ लिया हो.

कुछ पल के लिए वहां खामोशी सी छाई रही. पैरों पर चमेली और गोदी में मासूम बालक था. मदन इस आनंद को छक कर भोग रहा था.

अचानक चमेली ने उठ कर कहा,”कहीं आप को कोई दिक्कत तो नहीं.”

“अरे, नहीं. तुम आराम से यहां रहो,” मदन ने अपनी आवाज में प्यार छलकाते हुए कहा, तो चमेली के बदन में जैसे बिजली सी दौड़ गई. वह रास्ते की थकान भूल कर कच्चे मकान को देखती रही और इधरउधर जा कर उस ने रसोई खोज ली.

मदन ने कहा, “तुम थकी हुई हो. मैं कुछ चायदूध गरम करता हूं.”

चमेली मदन की ओर देख कर जोर से बोली, “बस, अब मैं सब कर लूंगी.”

मदन यह सुन कर निश्चिंत हो गया और वह बालक के साथ खेलने लगा.

चमेली जरा सी देर में चाय, दूध सब तैयार कर लाई. चमेली और मदन चाय की चुसकियां लेने लगे. बालक दूध का गिलास गटागट पी गया और शरीर में ताकत आते ही यहांवहां दौड़ने लगा.

मदन का सूना घर किलकारी से गूंज उठा, जैसे कोई उत्सव हो.

मदन के इस कच्चे मकान में रसोई और गोदाम के अलावा 3 कमरे और भी थे. एक कमरा चमेली ने ले लिया. इस दौरान 2-4 दिन गांव के लोगों ने किसी न किसी बहाने मदन के आंगन की ताकझांक भी कर ली. पर आखिरकार सब लोग समझ गए कि चमेली मदन की शरणागत है, और मदन को इस मामले में किसी की राय, सलाहमशवरा आदि कतई नहीं चाहिए.

चमेली को आए 7-8 दिन हो गए थे. वह अपने कच्चे मकान के उसी कमरे मे रहता, जहां चमेली रहती.

मदन चमेली के साथ जन्नत सा सुख पा रहा था, और वह कमरा मदन को किसी परीलोक से कम न लगता था. अब चमेली ने इतना प्यार लुटा दिया, तो मदन भी पीछे नहीं रहा. शहर से बादाम, काजू, अखरोट, कपड़ेलत्ते, मखमली बिस्तर और कई खिलौने ला कर उस ने चमेली के बालक को निहाल कर दिया था.

मदन ने उस बालक का नाम रखा था कमल. चमेली को कमल नाम इतना भाया कि वह अपने इस बालक का असली नाम बिलकुल ही भूल गई.

लगभग एक महीना हो गया था और अब हालात इतने हसीन थे कि चमेली सुबहशाम कुछ नहीं सोचती थी, जब भी तड़प कर मदन पुकार लगाता, चमेली उस के लिए गलीचा बनने में पलभर की देरी नहीं करती थी. चमेली ने तो उस का पुनर्जागरण कर दिया था. चमेली उस की मांग पर उफ न करती, तो मदन ने भी उसे सिरआंखों पर बिठाया.

इन दिनों मदन को यह पूरी दुनिया जैसे फूलों का बाग लगती थी. चमेली दो समय भोजन पकाती और बाकी का वक्त मदन उस को एक तिनका तक न तोड़ने देता था. भैसों का गोबर उठाने, वहां साफसफाई करने और रसोई के सब छोटेबड़े बरतन वह खुद खुशीखुशी मांजता था.

चमेली ने भी गांव में सहेलियां बना ली थीं. जब मदन गांव से बाहर होता तो चमेली का जी उचटने लगता और कभी कमल को ले कर तो कभी उस को सुला कर वह यहांवहां, इधरउधर आनेजाने लगी.

एक दिन मदन ने कमल को गांव की पाठशाला में दाखिला दिला दिया, वहीं सुबह दूध और दोपहर को बढ़िया खाना मिलता था. चमेली अब और खूबसूरत हो गई थी.

3 महीने गुजर गए. एक दिन मदन को सदमा लगा, जैसे वह आसमान से गिरा. हुआ यों कि चमेली रातोंरात गायब हो गई. खूब पता लगाया तो खबर मिली कि वह बगल गांव के एक छोरे के संग मुंबई भाग गई. दोनों अपनी मरजी से गए थे और चमेली मदन के घर से एक रुपया तक न ले गई, बस उस के दो समय के कपड़े वहां नहीं थे. घर पर सब सामान सहीसलामत पा कर मदन ने चैन की सांस ली, मगर अब वह और कमल अकेले रह गए.

चमली उसे धोखा दे गई, इसीलिए शोक करना मूर्खता ही होती. पर, जीवट वाले मदन ने हार नहीं मानी और उस ने कमल को ही अपना जीवन मान लिया.

मदन उसे खुद स्कूल छोड़ने और लाने जाता, बाकी समय उस की भैंसें तो थीं ही, जो उस को बिजी रखती थीं.

हौलेहौले मदन और बालक कमल एकदूजे की छवि बनते गए. बालक कमल दस वर्ष का हुआ, तो उस को नईनई बातें पता लगीं. वह पढ़ने में अच्छा था और मेवे, फलफूल खा कर मजबूत शरीर का धावक भी था.

एक दिन कमल मदन से सैनिक स्कूल में पढ़ने की जिद करने लगा. मदन ने उस की पूरी बात सुनी. मदन को कोई दिक्कत नहीं थी. यह तो गर्व की बात थी. मदन ने खुशीखुशी दौड़भाग कर सैनिक स्कूल का प्रवेशफार्म भर दिया. परीक्षा में कमल का चयन हो गया. मदन उस को छात्रावास छोड़ कर वापस लौटा और 1-2 दिन बेचैन रह कर फिर से खुद को यहांवहां उलझा कर भैसों के काम में मन लगाने लगा.

कमल और चमेली दोनों ही बारीबारी से मदन के सपनों में आते थे. वैसे, कमल की तो नियम से चिट्ठी और फोन भी आते थे. 2 महीने तक तो लंबे अवकाश में कमल उस के पास आ कर रहा.

कमल मदन को सैनिक स्कूल के कितने किस्से सुनाता रहता था. मदन को लगता कि चलो, जीवन सफल हो गया.

समय पंख लगा कर उड़ता रहा. कमल जब 14 वर्ष का हुआ, तो उसे वहां पर मेधावी छात्र की छात्रवृत्ति मिलने लगी. अब वह पढ़नेलिखने के लिए मदन पर कतई निर्भर नहीं था.

मदन इस साल इंतजार करता रहा, पर न तो कमल खुद ही आया और न ही उस का फोन आया. अब तो उस के चिट्ठीफोन आने सब बंद हो गए थे. मदन को अब कुछ अवसाद सा रहने लगा.

पर, वह चमेली के धोखे को
याद कर के कमल का यह व्यवहार झेल गया. अब उस को काम करने में आलस आने लगा था, खासतौर पर भोजन पकाने में, इसलिए कुछ सोच कर उस ने घरेलू काम में मदद के लिए एक कामवाली रख ली. वह मदन से कुछ अधिक उम्र की थी, और खाना बनाना, कपड़े धोना वगैरह सब काम करने लगी.

एक दिन खाट पर लेटा मदन सोच रहा था कि आज कमल होता तो 20 बरस का होता. और चमेली… चमेली कहां होगी, यही सोचते हुए वह अचानक खाट से उठ बैठा, तो सामने कामवाली को खड़ा पाया.

वह कामवाली एक गिलास चाय बना कर ले आई थी. मदन की आंख से आंसू बह रहे थे. उस ने नजदीक जा कर वह आंसू अपने आंचल से पोंछ दिए और मदन अचानक ही एकदम भावुक सा हो उठा. उस ने संकेत से कुछ याचना की, फिर दोनों गले लग कर काफी देर तक यों ही बैठे रहे.

मदन बहुत ही कोमल दिल वाला और बड़ा ही भावुक है, यह बात इन 3 महीनों में वह अनुभवी स्त्री भांप गई थी.

अब कुछ सिलसिला यों बनने लगा कि वह कामवाली चमेली के उस कमरे में ले जा कर मदन को कभीकभी सहला दिया करती, तो कभी प्यार से पुचकार देती और कभीकभी मदन के आग्रह पर सारा काम यों ही रहने देती. बस मदन को छाती से चिपटा कर उस का दुखदर्द पी जाती थी. उस दिन भोजन मदन पकाता और एक ही थाली में दोनों थोड़ाथोड़ा खा लेते, पर पूरे तृप्त हो जाते थे.

इसी तरह एक साल और गुजर गया. मदन अब फिर से आनंद में रहने लगा था. गाव वालों की खुसुरफुसुर और ताकझांक चल रही थी. पर, इस से वह न तो कभी घबराया था और न ही आगे डरने वाला था. उस की कामवाली तो अपने खूनपसीने की रोटी खा रही थी. वह किसी अफवाह पर कान तक न देती थी. हर समय मौज में रहती और मदन की मौज में तिल भर कमी न आने देती थी.

एक दिन सुबहसवेरे वह मदन को सहला कर चाय उबाल रही थी कि एक आहट हुई. मदन उठ कर बाहर गया, तो 2 लोग बाहर खड़े थे, एक कमल और गोदी में तकरीबन 2 साल का प्यारा सा बालक.

मदन ने मन ही मन सोचा कि वाह बेटा, नौकरीब्याह सब कर लिया और खबर तक नहीं दी. पर, वह सिर झटक कर अपने विचार बदलने लगा. उस का दयावान मन जाग गया.

मदन को कमल से नाराजगी तो थी, पर नफरत नहीं थी. वह बहुत ही प्यार से उसे भीतर लाया. कमल ने सब रामकहानी सुना दी. वह अफसर हो गया था, पर पत्नी बेवफा निकली. वह किसी रसोइए के साथ भाग गई थी. अब यह नन्हा बालक किस के भरोसे रहेगा, कह कर कमल सुबक उठा.

कुछ देर बाद कमल के हाथों में चाय का गिलास आ गया था और बालक को एक सुंदर पर अधेड़ महिला गोदी में खिला रही थी.

मदन से सौ झूठीसच्ची बातें कर के कमल उसी दिन वापस लौट गया. मदन का जीवन एक बार फिर रौनक से भर उठा था. कितने बरस बीतते गए और बूढ़ा मदन उस बालक को बचपन से किशोरावस्था में जाता देख रहा था. यह बालक तो कमल से कई गुना मेधावी था, पर वह गांव की मिट्टी से बहुत लगाव रखता था. गांव छोड़ना ही नहीं चाहता था. लगभग छप्पन बरस की बूढ़ी हो चली कामवाली अम्मां अब मदन के पास स्थायी रूप से रहने लगी थी.

अब मदन और वो उस बालक का जीवन आधार थे. उन का गांव तो अब बहुत बेहतरीन हो गया था. बहुत सारी सुविधाएं यहां पर थीं. एक दिन मदन अपनी कामवाली के साथ किसी सामाजिक समारोह में गया तो वहां एक फौजी मिला. बातों से बातें निकलीं तो खुलासा हुआ कि वह कमल को जानता था. उस ने कमल की हर काली करतूत बताई और खुलासा किया कि कमल न जाने कितनी औरतें बदल चुका है. वह अफसरों की कमजोर नस का फायदा उठाता है और खुद भी गुलछर्रे उड़ाता है. वह अनैतिक हो चुका है. इतना बुद्धिमान है, पर बहुत ही गलत रास्ते पर है.

मदन चुपचाप सुनता रहा. उस को सुकून मिला कि अच्छा हुआ, जो कमल का बेटा यहां पर नहीं है. सुनता तो कितना परेशान होता.

मदन को इस बात का अंदेशा था क्योंकि कमल ने कभी एक नया पैसा इस बालक के लिए नहीं भेजा, कभी एक फोन तक नहीं किया था.

मदन ने उस फौजी युवक को अपना फोन नंबर दिया और उस का नंबर भी ले लिया.

कुछ सप्ताह और बीत गए. एक दिन सुबहसुबह ही मदन के पास फोन आया कि कमल की किसी रहस्यमयी और अज्ञात बीमारी से अचानक मौत हो गई है.

मदन ने संदेश सुन कर फोन काट दिया. उस ने उस रोज अपना सारा काम उसी तरह से किया जैसे वह पहले किया करता था. बालक भी पाठशाला से लौट कर खापी कर खेलने चला गया. उस दिन मदन की शाम एक सामान्य शाम की तरह गुजरी. मदन ने एक पल को भी कमल का शोक नहीं मनाया. अब कमल और चमेली उस के लिए अजनबी थे.

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