Serial Story: उड़ान (भाग-2)

लेकिन जैसे अरुणा का मन अंदर से चीख उठा था, ‘वह जमाना और था’. उसे इस बात का ज्ञान था कि वह आज के युग की नारी है, उस में सोचनेसमझने की शक्ति है, वह अपना भलाबुरा जानती है. वह नियति के आगे सिर कैसे झुका दे. वह कैसे एक अज्ञात मनुष्य के नाम की माला जपते हुए अपने बचेखुचे दिन गुजार दे.

माना कि वह पुरुष उस का पति था. अग्नि को साक्षी मान कर उस ने उस के साथ सात फेरे लिए थे. पर था तो वह उस के लिए एक अजनबी ही. यह जानते हुए कि यही विधि का विधान है, वह मन मार कर नहीं रह सकती. उस का मन विद्रोह करना चाहता है.

उसे अपने हिस्से की धूप चाहिए. उसे वे सभी खुशियां, वे सभी नेमतें चाहिए जिन पर उस का जन्मसिद्ध अधिकार हैं. उसे एक जीवनसाथी चाहिए, एक सहचर जिस के साथ वह अपना सुखदुख बांट सके. जिस पर अपना प्यार लुटा सके, जिस पर वह अपना अधिकार जमा सके, उसे चाहिए एक नीड़ जहां बच्चों का कलरव गूंजे.

वह यह सब अपने मातापिता से कहना चाहती थी. पर उस के मांबाप पुरातनपंथी थे, रूढि़वादी थे, संकीर्ण विचारों वाले परले सिरे के अंधविश्वासी थे. पिता उग्र स्वभाव के थे जिन के सामने उस की जबान न खुलती थी. मां पिता की हां में हां मिलातीं. वे उस की सुनने को तैयार ही न थे. श्रीकांत का उन्होंने जम कर विरोध किया.

‘देख अरुणा, हम तुझे बताए देते हैं, इस लड़के से ब्याह का विचार त्याग दे. हमारे जीतेजी यह मुमकिन नहीं. हमें बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा. जाने कहां का आवारा, लफंगा तुझे अपने जाल में फंसाना चाहता है. हम ठहरे ब्राह्मण, वह नीच जाति का. मैं कहे देता हूं, यदि तू ने उस छोकरे से ब्याह करने की जिद ठानी तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा. मैं अपनी बात का धनी हूं. इस से पहले कि कुल पर आंच आए या कोई हम पर उंगली उठाए, हम मर जाएंगे. मैं कुएं में छलांग लगा दूंगा या आमरण अनशन करूंगा.’

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अरुणा सहम गई. मांबाप के प्रति विद्रोह करने की उस में हिम्मत न थी. उस ने श्रीकांत के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

स्वामी अनंताचार्य घर आए. उन्होंने अरुणा के बारे में सुना.

‘देख वत्स, इसीलिए मैं कहता था कि बिटिया के केश उतरवा दो. विधवाओं के लिए यह नियम मनुस्मृति में लिखा गया है. लेकिन उस वक्त तुम ने मेरी बात नहीं मानी. अब देख लिया न परिणाम? तुम्हारी बेटी का  रूप व घनी केशराशि देख कर ऋषिमुनियों के मन भी डोल जाएं, मनुष्य की बिसात ही क्या?’

उन्होंने अरुणा से कहा, ‘बेटी, अब ईश्वर में लौ लगाओ. रोज मंदिर जाओ. भगवत सेवा करो. वही मुक्तिमार्ग है.’

कुछ रोज तो वह मंदिर जाती रही पर सांसारिक मोहमाया न त्याग सकी. मंदिर में भी उस का मन भटकता रहता था. आंखें प्रतिमा पर टिकी रहतीं पर मन में श्रीकांत की छवि बसी थी. कानों में स्वामीजी के प्रवचन गूंजते और वह श्रीकांत के खयालों में खोई रहती.

समय सरकता रहा. उस के भाईबहन अपनेअपने परिवार को ले कर मगन थे. मातापिता का देहांत हो चुका था. अरुणा ने पढ़ाई पूरी कर के अपने ही कालेज में व्याख्याता की नौकरी कर ली थी. पठनपाठन में उस का मन लग गया था. किताबें ही उस की मित्र थीं. पर कभीकभी उस का एकाकी जीवन उसे सालता था.

बस अचानक एक झटके से रुकी और अरुणा वर्तमान में लौट आई. उस का गांव आ गया था. उस के भाई व भाभी ने उस का स्वागत किया.

‘‘आओ अक्का, अब तो वापस शहर नहीं जाओगी न?’’ राघव ने उस के हाथ से बैग लेते हुए कहा.

‘‘नहीं, नौकरी से रिटायर हो चुकी हूं. मैं काम करकर के थक गई थी. अब यहीं शांति से रहूंगी.’’

‘‘अच्छा किया, मुझे भी आप की मदद की जरूरत है,’’ नागमणि बोली, ‘‘आप तो जानती हैं कि श्रीधर की शादी तय हो गई है. उस की तैयारी करनी है. जया के भी पांव भारी हैं. वह भी जचकी के लिए आने वाली है. आप को ही सब करनाकराना है.’’

‘‘तुम सब कुछ मुझ पर छोड़ दो, भाभी. मैं संभाल लूंगी.’’

वह बड़े उत्साह से शादी की तैयारी में लग गई. वधू के लिए गहने गढ़वाना, मेहमानों के लिए पकवान बनाना, रंगोली सजाना आदि ढेरों काम थे.

बहू बिदा हो कर आई थी. घर में गांव की स्त्रियों का जमघट लगा हुआ था.

वरवधू द्वाराचार के लिए खड़े थे.

‘‘अरे भई, आरती कहां है? कोई तो आरती उतारो,’’ किसी ने गुहार लगाई.

अरुणा ने सुना तो थाल उठा कर दौड़ी.

नागमणि ने झटके से उस के हाथ से थाली छीन ली, ‘‘यह क्या कर रही हैं अक्का? आप को कुछ होश है कि नहीं? यह काम सुहागिनों का है. आप की तो छाया भी नववधू पर नहीं पड़नी चाहिए. अपशकुन होगा.’’

अरुणा पर घड़ों पानी पड़ गया. कुछ क्षणों के लिए वह भूल बैठी थी कि वह विधवा है. शुभ अवसरों पर उसे ओट में रहना चाहिए. उसे याद आया कि घर में जब भी पिता बाहर निकलते और वह उन के सामने पड़ जाती तो वे उलटे पैरों लौट आते और थोड़ी देर बैठ कर पानी पी कर फिर निकलते.

शहर में लोग इन बातों की परवा नहीं करते थे, पर गांव की बात और थी. यहां लोग अभी भी कुसंस्कारों में जकड़े हुए थे. लीक पीटते जा रहे थे.

कुछ दिनों बाद नागमणि ने फिर

उस के रहनसहन पर आपत्ति खड़ी कर दी.

‘‘अक्का, आप रसोईघर और पूजाघर में न जाया करें.’’

‘‘क्यों भला?’’

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‘‘स्वामी अनंताचार्यजी कह रहे थे कि आप ने विधवा हो कर भी केशकर्तन नहीं कराए जो हमारे शास्त्रों के विरुद्ध है और आप को अशुद्ध माना जा रहा है.’’

अरुणा के हृदय पर भारी चोट लगी. इतने सालों बाद यह कैसी प्रताड़ना? अभी भी उस के आचार पर लोगों की निगाहें गड़ी हैं. जीवन के संध्याकाल में इस दौर से भी गुजरना होगा, यह उस ने सोचा न था. उसे अपने ही लोगों ने अछूत की तरह जीने पर मजबूर कर दिया था. पगपग पर लांछन, पगपग पर तिरस्कार.

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Serial Story: प्रत्युत्तर (भाग-4)

लेखक- बिकाश गोस्वामी

मुन्नी ने आईटी में बीटेक किया है और पढ़ाई खत्म कर आज ही लौटी है. अब उस की इच्छा अमेरिका के एमआईटी से एमटेक करने की है. उस ने अप्लाई भी कर दिया है. उस को जो नंबर मिले हैं और उस का जो कैरियर है उस से उसे आसानी से दाखिला मिल जाएगा. शायद स्कालरशिप भी मिल जाए.

जानकी ने अभी हां या न कुछ भी नहीं कहा है. वे अजय के साथ बात करने के बाद ही कोई फैसला लेंगी. जानकी देवी के लिए आज की रात बहुत मुश्किल हो गई है. इतने वर्षों के अंतराल के बाद विजय का इस तरह आना उन्हें पुरानी यादों के बीहड़ में खींच ले गया है. अब रात काफी हो चुकी है. जानकी सोने की कोशिश करने लगीं.

3 दिन बीत चुके हैं. जानकी देवी का इन 3 दिनों में औफिस आना बहुत कम हुआ है. ज्यादातर वक्त अमृता के साथ ही कट रहा है. इधर, अजय ने हमीरपुर में एक इंगलिश मीडियम स्कूल खोला है. इन दिनों वे स्कूल चलाते हैं और साथ ही जानकी देवी के विधानसभा क्षेत्र की देखभाल करते हैं. वे भी गांव से यहीं चले आए हैं. अब यह घर, घर लगने लगा है.  वे अजय और अमृता के साथ शुक्रवार को देहरादून जा रही हैं ताकि शनिवार और इतवार, पूरे 2 दिन, सुजय अपने परिवार के साथ, खासकर अपनी दीदी के साथ, बिता सके.

बुधवार को सवेरे अचानक जानकी देवी के पास मुख्य सचिव का फोन आया, मुख्यमंत्री नोएडा विकास प्राधिकरण की फाइल के बारे में पूछ रहे हैं. उन्होंने तुरंत अपने सचिव को बुला कर वह फाइल मांगी. फाइल पढ़ने के बाद उन की आंखें खुली की खुली रह गईं. यह विजय ने किया क्या है? सारे अच्छे आवासीय और कमर्शियल प्लौट कई लोगों और संस्थाओं को, सारे नियम और कानून की धज्जियां उड़ाते हुए, 99 साल की लीज पर दे दिए हैं.

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सरकारी नुकसान लगभग कई सौ करोड़ का आंका गया है. सारे साक्ष्य और प्रमाण विजय के विरुद्ध जा रहे हैं. वे फाइल खोले कुछ देर चुपचाप बैठी रहीं. उन को समझ में नहीं आ रहा था, क्या करें. उसी वक्त अमृता का फोन आया. उस ने घर में अपने दोस्तों के लिए एक छोटी सी पार्टी रखी है. जानकी देवी का वहां कोई काम नहीं है, फिर भी उन का वहां रहना जरूरी है. सचिव से कहा कि फाइल को गाड़ी में रखवा दें, रात को एक बार फिर देखेंगी.

पार्टी खत्म होतेहोते रात के 10 बज गए, उस के बाद जानकी देवी ने अजय से कहा कि वे सो जाएं, उन का इंतजार न करें. इस के बाद वे स्टडी रूम में फाइल ले कर बैठीं. पूरी फाइल दोबारा पढ़ ली, विजय को बचाना मुश्किल जान पड़ा. सुबह उन्होंने अपने सचिव को फोन कर पूछा, ‘‘क्या आप विजय, नीलम तथा उन के बच्चों के नाम पर जो भी चल व अचल संपत्ति है, सब का ब्योरा मुझे हासिल करवा सकते हैं? अगर हासिल करवा पाएं तो बहुत अच्छा होगा और यह ब्योरा मुझे हर हाल में आज दोपहर तक चाहिए.

सचिव ने उन्हें वह रिपोर्ट दोपहर के 2 बजे दे दी. रिपोर्ट देख कर उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. विजय ने यह किया क्या है? उस ने अपने नाम और कुछ बेनामी भी, इस के अलावा ससुराल वालों के नाम से भी करोड़ों की संपत्ति जमा की है. अब उन के मन में कोई भी दुविधा नहीं थी. उन्होंने फाइल में सीबीआई से जांच कराए जाने की संस्तुति कर फाइल आगे बढ़ा दी.

देहरादून और मसूरी में 3 दिन देखते ही देखते कट गए. काफी दिनों बाद उन्होंने सही माने में छुट्टी मनाई थी. सुजय भी बहुत खुश हुआ. उसे अपनी दीदी काफी दिनों के बाद जो मिली थी. लेकिन जैसे दिन के बाद आती है रात, पूर्णिमा के बाद अमावस, ठीक वैसे ही खुशी के बाद दुख भी तो होता है. सुजय को होस्टल में छोड़ने के बाद जानकी देवी का मन भर आया. अजय को भी अगले दिन हमीरपुर जाना पड़ा. लखनऊ के इस बंगले में इस वक्त सिर्फ जानकी और अमृता हैं. लखनऊ वापस आए हुए आज 3 दिन हुए हैं.

शाम को सचिवालय से आ कर अभी चाय पी ही रही थीं कि रामलखन ने आ कर खबर दी कि विजय कुमार आप से मिलना चाहते हैं. जानकी को कुछ क्षण लगा यह समझने में कि असल में विजय उन से मिलने आया है. पहले सोचा कि नहीं मिलेंगे. क्या होगा मिल कर? उन के जीवन का यह अध्याय तो कब का समाप्त हो गया है. फिर मन बदला और कहा, ‘‘उन्हें बैठाओ, मैं आ रही हूं.’’

आराम से हाथमुंह धो कर कपड़े बदले और करीब 40 मिनट के बाद जानकी विजय से मिलने कमरे में आईं. वह इंतजार करतेकरते थक चुका था. जानकी देवी को देखते ही वह उठ कर खड़ा हो गया, गुस्से से उस का मुंह लाल था. उस ने जानकी से गुस्से में कहा, ‘‘तुम मेरा एक छोटा सा अनुरोध नहीं रख पाईं?’’

विजय का गुस्से से खड़ा होना और फिर उन के बात करने के लहजे से जानकी देवी को गुस्सा आया, पर वे अपने गुस्से को काबू कर बोलीं, ‘‘अनुरोध रखने लायक होता तो जरूर रखती.’’

‘‘क्या कहा? तुम्हें पता है, मुझे फंसाया गया है?’’

‘‘अच्छा, तुम ने क्या मुझे इतना बुद्धू समझ रखा है? मैं ने क्या फाइल नहीं पढ़ी है? और क्या मुझे यह पता नहीं है कि विजय कुमार को फंसाना इतना आसान नहीं है.’’

‘‘तो तुम भी यकीन करती हो कि मैं दोषी हूं?’’

‘‘प्रश्न मेरे यकीन का नहीं है. प्रश्न है साक्ष्य का, प्रमाण का. समस्त साक्ष्य और प्रमाण तुम्हारे विरुद्ध हैं. मैं अगर चाहती तो तुम्हारी सजा मुकर्रर कर सकती थी लेकिन मैं ने ऐसा नहीं किया. अपनेआप को निर्दोष साबित करने का मैं ने तुम्हें एक और मौका दिया है.’’

‘‘सुनो, मैं तुम से रिक्वेस्ट कर रहा हूं. प्लीज, अपने डिसीजन पर एक बार फिर विचार करो. मुझे पता है कि यह तुम्हारे अख्तियार में है. वरना मैं बरबाद हो जाऊंगा. मेरा कैरियर…’’

विजय की बात काट कर जानकी ने कहा, ‘‘अब यह मुमकिन नहीं है,’’ वे अपना धीरज खो रही थीं, ‘‘एक बात और, जालसाजी करते वक्त तुम्हें कैरियर की बात याद क्यों नहीं आई? तुम्हारे जैसे बड़े बेईमान और जालसाज लोगों को सजा मिलनी ही चाहिए.’’

‘‘क्यों, मैं बेईमान हूं? मैं जालसाज हूं? मैं ने जालसाजी की है?’’ विजय चिल्लाने लगा.

‘‘चिल्लाओ मत. नीची आवाज में बात करो. यहां शरीफ लोग रहते हैं. अच्छा, एक बात बताओ, दिल्ली के ग्रेटर कैलाश वाली तुम्हारी कोठी का दाम क्या है? नोएडा के प्राइम लोकेशन में तुम्हारे 4 प्लौट हैं. इस के अलावा गुड़गांव के सैक्टर 4 में तुम्हारी आलीशान कोठी है, देहरादून में फार्महाउस भी है, और बताऊं? तुम्हें कितनी तनख्वाह मिलती है, क्या यह मुझे नहीं पता? ये सारी संपत्ति क्या तुम दोनों की तनख्वाह की आमदनी से खरीदना संभव है? तुम क्या समझते हो, मैं तुम्हारी कोई खबर नहीं रखती हूं?’’

विजय को जानकी से इस तरह के उत्तर की उम्मीद नहीं थी. कुछेक पल के लिए तो वह भौंचक रह गया. उस के पास जानकी के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था. ऐसी सूरत में एक आम

आदमी जो करता है, विजय ने भी वही किया, वह गुस्से में उलटीसीधी बकवास करने लगा, ‘‘हां, तो अब समझ में आया कि इन सारी फसादों की वजह तुम ही हो.’’

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जानकी ने उसे फिर समझाने की कोशिश की, ‘‘तुम फिर गलती कर रहे हो. तुम्हारी इस हालत की जिम्मेदार मैं नहीं, तुम खुद हो. मैं तो इस घटनाक्रम में बाद में जुड़ी हूं. एक बात और, शायद तुम यह भूल गए हो कि जिंदगी की दौड़ में मैं तुम से बहुत आगे निकल आई हूं. तुम्हारे सीनियर मेरे अंडर में काम करते हैं. मैं जब तक बैठने को न कहूं, वे मेरे सामने खड़े रहते हैं. मैं भला तुम्हारी तरह के तुच्छ व्यक्ति के पीछे क्यों पड़ूंगी. इस से मुझे क्या हासिल होने वाला है?’’

विजय को यह सुन कर और भी ज्यादा गुस्सा आ गया. वह अपना संयम खो कर चिल्लाने लगा, ‘‘बस, अब और सफाई की जरूरत नहीं है. तेरा असली चेहरा अब दिखाई दे गया.’’

अचानक दरवाजे के पास से एक आवाज आई, ‘‘हाऊ डेयर यू? आप की हिम्मत कैसे हुई मेरी मां के साथ इस तरह से बात करने की?’’

आवाज सुन कर दोनों दरवाजे की तरफ पलटे और देखा कि अमृता दरवाजे के सामने खड़ी है.

‘‘मैं तब से सुन रही हूं, आप एक भद्र महिला के साथ लगातार असभ्य की तरह बात कर रहे हैं. और मां, पता नहीं तुम भी क्यों ऐसे बदतमीज लोगों को घर में घुसने देती हो, यह मेरी समझ से परे है. इन जैसे बदतमीजों को तो घर के अंदर ही नहीं घुसने देना चाहिए.’’

‘‘अमृता, तुम इन्हें पहचान नहीं पाईं. ये तुम्हारे पिता हैं.’’

अमृता कुछेक पल के लिए सन्न रह गई. फिर संयत स्वर में हर शब्द को आहिस्ताआहिस्ता, साफसाफ लहजे में कहा, ‘‘नहीं, इन के जैसा नीच, लोभी, स्वार्थी व्यक्ति के साथ मेरा कोई रिश्ता नहीं है. सिर्फ जन्म देने से ही कोई पिता नहीं बन जाता है. मेरे पिता का नाम अजय कुमार गौतम है. और आप? आप को शर्म नहीं आती? इसी महिला को अपनी पत्नी के रूप में पहचान देने में आप को शर्म महसूस हुई थी. इसीलिए एक असहाय महिला और 5 साल की बच्ची को त्याग देने में आप को जरा भी संकोच नहीं हुआ था, और आज उसी के पास आए हैं सहायता की भीख मांगने?

‘‘इन सब के बावजूद, वह आप को मिल भी जाती अगर आप उस के योग्य होते. योग्य होना तो दूर की बात, आप तो इंसान कहलाने के लायक भी नहीं हैं, आप तो इंसान के नाम पर कलंक हैं. निकल जाइए यहां से और आइंदा हम लोगों के नजदीक भी आने की कोशिश मत कीजिएगा, नहीं तो हम से बुरा कोई न होगा. नाऊ, गैट आउट, आई से, गैट आउट.’’

विजय धीरेधीरे सिर नीचा कर कमरे से निकल गया. जानकी देवी अवाक् थीं, वे तो बस अपनी बेटी का चेहरा देखती रहीं. उन्होंने अपनी लड़की का यह रूप कभी नहीं देखा था. उन की आंखों में गर्व और आनंद से आंसू भर आए. उन्हें एहसास हुआ कि इतने दिनों के बाद विजय को अपने किएधरे का प्रत्युत्तर आखिर मिल ही गया.

अमृता ने मां के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या मैं ने कोई गलत काम किया, मां? मैं ने ठीक तो किया न?’’

जानकी ने अमृता को बांहों में भर कर कहा, ‘‘हां, तुम ने बिलकुल सही किया, बेटी. उन की जिन बातों का मैं कोई जवाब नहीं दे सकी थी, तुम ने उन का सही प्रत्युत्तर दे दिया था.’’

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Serial Story: प्रत्युत्तर (भाग-3)

लेखक- बिकाश गोस्वामी

जानकी के कमरे में आते ही विजय ने कहा, ‘बैठो, तुम से बहुत जरूरी बात करनी है.’

‘एक काम करते हैं, मैं तुम्हारा खाना लगा देती हूं. तुम पहले खाना खा लो, फिर मैं इत्मीनान से बैठ कर तुम्हारी बातें सुनूंगी,’ जानकी ने कहा.

‘नहीं, बैठो. मेरी बातें जरूरी हैं,’ यह कह कर विजय ने जानकी की ओर देखा. जानकी पलंग के एक किनारे पर बैठ गई. विजय ने एक लिफाफा ब्रीफकेस से निकाला, फिर उस में से कुछ कागज निकाल कर जानकी को दे कर कहा, ‘इन कागजों के हर पन्ने पर तुम्हें अपने दस्तखत करने हैं.’

‘दस्तखत? क्यों? ये कैसे कागज हैं?’ जानकी ने पूछा.

विजय कुछ पल खामोश रहने के बाद बोला, ‘जानकी, असल में…देखो, मैं जो तुम से कहना चाह रहा हूं, मुझे पता नहीं है कि तुम उसे कैसे लोगी. देखो, मैं ने बहुत सोचसमझ कर तय किया है कि इस तरह से अब और नहीं चल सकता. इस से तुम्हें भी तकलीफ होगी और मैं भी सुखी नहीं हो सकता. मुझे उम्मीद है कि तुम मुझे गलत नहीं समझोगी, मुझे तलाक चाहिए.’

‘तलाक!’ जानकी के सिर पर मानो आसमान टूट कर गिर पड़ा हो.

‘हां, देखो, मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे और मेरे बीच जो मानसिक दूरियां हैं वे अब खत्म हो सकती हैं. और यह भी तो देखो कि मैं कितना बड़ा अफसर बन गया हूं. वैसे यह तुम्हारी समझ से परे है. इतना समझ लो कि अब तुम मेरे बगल में जंचती नहीं. यही सब सोच कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इस के अलावा अब कोई उपाय नहीं है,’ विजय ने कहा.

‘इस में मेरा क्या कुसूर है? मैं ने इंटर पास किया है. तुम मुझे शहर ले चलो, मैं आगे और पढ़ूंगी, मैं तुम्हारे काबिल बन कर दिखाऊंगी,’ कहतेकहते जानकी का गला भर आया था.

‘मैं मानता हूं कि इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं, पर अब यह मुमकिन नहीं.’

‘फिर मुझे सजा क्यों मिलेगी? मैं मुन्नी को छोड़ कर नहीं रह सकती.’

‘मुन्नी तुम्हारे पास ही रहेगी. मैं तुम्हें हर महीने रुपए भेजता रहूंगा. अगर तुम चाहो तो दोबारा शादी भी कर सकती हो. शादी का सारा खर्चा भी मैं ही उठाऊंगा.’

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जानकी समझ गई कि विजय के साथ उस का रिश्ता अब खत्म हो चुका है, भला कोई पति अपनी पत्नी को दूसरी शादी के लिए कभी कहता है? जो रिश्ते दिल से नहीं बनते, उन्हें जोरजबरदस्ती बना के नहीं रखा जा सकता है. यदि वह इस वक्त दस्तखत नहीं भी करती है तो भी विजय किसी न किसी बहाने से तलाक तो हासिल कर ही लेगा और उस से मन को और ज्यादा चोट पहुंचेगी.

अचानक उसे एहसास हुआ कि विजय ने उस से कभी भी प्यार नहीं किया. उस ने खुद से सवाल किया कि क्या वह विजय से प्यार करती है? दिल से जवाब ‘नहीं’ में मिला. फिर उस ने विजय से पूछा, ‘कहां दस्तखत करने हैं?’

विजय की बताई जगह पर उस ने हर पन्ने पर दस्तखत कर दिए. उस का हाथ एक बार भी नहीं कांपा.

विजय ने नहीं सोचा था कि काम इतनी आसानी से संपन्न हो जाएगा. उस ने सारे कागज समेट कर ब्रीफकेस में डालते हुए कहा, ‘मुझे अभी निकलना पड़ेगा. पहले ही काफी देर हो चुकी है.’

जानकी ने अचानक सवाल किया, ‘वह लड़की कौन है जिस के लिए तुम ने मुझे छोड़ा है? क्या वह मुझ से ज्यादा सुंदर है?’

विजय ठिठक गया. उस ने इस सवाल की उम्मीद नहीं की थी, कम से कम जानकी से तो नहीं ही. अब उसे एहसास हुआ कि जानकी काफी अक्लमंद है. उस ने कहा, ‘उस का नाम नीलम है. हां, वह काफी सुंदर है और सब से बड़ी बात यह है कि वह शिक्षित तथा बुद्धिमान है. वह भी मेरी तरह आईएएस अफसर है. हम दोनों एक ही बैच से हैं. तलाक होते ही हम शादी कर लेंगे.’

जानकी ने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा. विजय के कमरे से निकलते ही अम्मा ने पूछा, ‘तुम क्या अभी चले जाओगे?’

विजय ने जवाब दिया, ‘हां.’

तब अम्मा ने कहा, ‘छि:, तू इतना स्वार्थी है? तू ने अपने सिवा और किसी के बारे में नहीं सोचा?’

विजय समझ गया कि अम्मा ने उन दोनों की सारी बातें सुन ली हैं. अम्मा के चेहरे पर क्रोध की ज्वाला थी. वे लगातार बोले जा रही थीं, ‘अच्छा, हम लोगों की छोड़, तू ने अपनी लड़की के बारे में एक बार भी नहीं सोचा कि पिता के अभाव में परिवार में यह लड़की कैसे पलेगी? और जानकी का क्या होगा? तू इतना नीच है, इतना कमीना है?’

विजय कुछ कहने जा रहा था. उसे रोक उन्होंने कहा, ‘मुझे तुम्हारी सफाई नहीं चाहिए. याद रहे, आज अगर तुम चले गए तो सारी जिंदगी मैं तुम्हारा मुंह नहीं देखूंगी. यह जो जायदाद तुम देख रहे हो वह तुम्हारे बाप की नहीं है. यह सारी जायदाद मुझे मेरी मां से मिली है, इस की एक कौड़ी भी तुम्हें नहीं मिलेगी.’

विजय ने एक निगाह अम्मा पर डाली और फिर सिर नीचा कर के चुपचाप घर से चला गया. अम्मा रो पड़ी थीं, लेकिन जानकी नहीं रोई. उस के हावभाव ऐसे थे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो.

अम्मा अपनी जबान की पक्की थीं. महीना बीतने से पहले ही वकील बुलवा कर उन्होंने सारी जायदाद अपने छोटे बेटे और बहू जानकी के नाम बराबरबराबर हिस्सों में बांट दी. जानकी के पिता आए थे एक दिन जानकी को अपने साथ अपने घर ले जाने के लिए, लेकिन जानकी की सास ने जाने नहीं दिया. बंद कमरे में दोनों के बीच बातचीत हुई थी. किसी को नहीं पता. लगभग सालभर के बाद जानकी को तलाक की चिट्ठी मिली. उस के कुछ ही दिनों बाद जानकी की सास ने खुद खड़े हो कर अजय के साथ जानकी का विवाह कराया. अजय की बीवी उस के गौना के ठीक एक दिन पहले अपने प्रेमी के साथ भाग गई थी. उस के बाद अजय ने शादी नहीं की थी. वह बीए पास कर के गांव के ही स्कूल में अध्यापक की नौकरी कर रहा था और साथ ही साथ एक खाद की दुकान भी चला रहा था. उन के समाज में पुनर्विवाह के प्रचलन के कारण उन्हें कोई सामाजिक परेशानी नहीं उठानी पड़ी. सालभर के भीतर ही उन के बेटे सुजय का जन्म हुआ.

विजय फिर कभी गांव नहीं आया. वादे के अनुसार उस ने जानकी को मासिक भत्ता भेजा था, किंतु जानकी ने मनीऔर्डर वापस कर दिया था.

जानकी गांव की एकमात्र इंटर पास बहू थीं. वे गांव के विकास के कार्यों से जुड़ने लगीं. ताऊजी की मृत्यु के बाद वे गांव की प्रधान चुनी गईं. उसी समय उन की ईमानदारी और दूरदर्शिता की वजह से गांव का खूब विकास हुआ. नतीजा यह हुआ कि वे अपनी पार्टी के नेताओं की निगाह में आईं और उन्हें विधानसभा चुनाव की उम्मीदवारी का टिकट मिल गया. चुनाव में 50 हजार से भी ज्यादा वोटों से जीत कर वे विधानसभा सदस्य के रूप में चुनी गईं और मंत्री भी बनाई गईं.

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इन सब कामों में पति अजय का भरपूर सहयोग तो मिला ही, सास का भी समर्थन उन्हें मिलता रहा. मुन्नी की पढ़ाई पहले नैनीताल, फिर दिल्ली और अंत में बेंगलुरु में हुई. सुजय भी अपनी दीदी की तरह देहरादून के शेरवुड एकेडेमी के होस्टल में रह कर पढ़ रहा है.

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Serial Story: प्रत्युत्तर (भाग-2)

लेखक- बिकाश गोस्वामी

पढ़ाई का माध्यम हिंदी होने के कारण उस की अंगरेजी कमजोर थी. उस ने खूब मेहनत कर अपनी अंगरेजी भी सुधारी. बीए का इम्तिहान देने के बाद वह गांव न जा कर सीधा दिल्ली चला गया. विजय का परिवार अमीर नहीं था, लेकिन संपन्न था. घर में खानेपीने की कोई कमी नहीं थी. उसे हर जरूरत का पैसा घर से मिलता था, लेकिन वह पैसे की अहमियत को जानता था. वह फुजूलखर्ची नहीं था. वह दिल्ली में अपने इलाके के सांसद के सरकारी बंगले के सर्वेंट क्वार्टर में रहता और उन्हीं के यहां खाता था. इस के एवज में उन के 3 बच्चों को पढ़ाता था. खाली समय में वह अपनी पढ़ाई करता था. इस तरह, 1 साल के कठोर परिश्रम के बाद वह आईएएस की परीक्षा में सफल हुआ.

मसूरी में ट्रेनिंग पर जाने से पहले वह हफ्तेभर के लिए गांव आया. उसी समय उस ने अपनी लड़की को पहली बार देखा. जानकी ने हाईस्कूल में फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी. इसी वजह से उस ने पहले तो उसे बहुत डांटा फिर उस के साथ उस ने ठीक से बात भी नहीं की. यहां तक कि अपनी लड़की मुन्नी को उस ने एक बार भी गोदी में नहीं लिया.

जानकी ने हर तरह से विजय को खुश करने की कोशिश की लेकिन विजय टस से मस नहीं हुआ. किसी तरह वह 7 दिन काट कर मसूरी चला गया. जानकी कई दिनों तक गमगीन रही. फिर उसे सास और देवर ने समझाया कि वह बहुत बड़ा अफसर बन गया है और इसीलिए उस की पत्नी का पढ़ालिखा होना जरूरी है. मजबूर हो कर जानकी ने फिर पढ़ना शुरू किया. पहले हाईस्कूल फिर इंटरमीडिएट सेकंड डिवीजन में पास किया.

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विजय खत वगैरह ज्यादा नहीं लिखता था, लेकिन इस बार जाने के बाद तो एक भी खत नहीं लिखा. अचानक 3 साल बाद एक चिट्ठी आई, ‘अगले शनिवार को आ रहा हूं, 2 दिन रहूंगा.’ उस वक्त वह बदायूं का डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट था. घर के सब लोग बहुत खुश हुए. देखते ही देखते सारे गांव में यह खबर फैल गई. गांव वाले यह कहने लगे कि अब जानकी अपने पति के साथ शहर में जा कर रहेगी. पति बहुत बड़ा अफसर है, शहर में बहुत बड़ा बंगला है. अब जानकी की तकलीफें खत्म हुईं. लेकिन जानकी बिलकुल चुप थी, न वह ‘हां’ कह रही थी, न ‘ना’, असल में विजय से वह नाराज थी. उस ने विजय के जाने के बाद उस से माफी मांगते हुए कम से कम 6-7 चिट्ठियां लिखीं, हाईस्कूल और इंटरमीडिएट पास होने की खबर भी दी लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला. इंसान से क्या गलती नहीं होती है? गलती की क्या माफी नहीं मिलती है?

शनिवार के दिन घर के सभी लोग तड़के ही जाग गए. सारे घर को धो कर साफ किया गया. बगल के मकान में रहने वाले ताऊजी, जो गांव के मुखिया भी हैं, सुबह से ही नहाधो कर तैयार हो कर विजय की बैठक में बैठ गए. मुन्नी को नई फ्रौक पहनाई गई. होश में आने के बाद वह पहली बार अपने पापा को देखेगी. वह कभी घर के अंदर और कभी घर के बाहर आजा रही थी. उस की खुशी का ठिकाना नहीं था. पापा उस के लिए ढेर सारे खिलौने लाएंगे, नए कपड़े लाएंगे. उस ने एबीसीडी सीखी है, पापा को सुनाएगी, रात को पापा के साथ लेटेगी. सारे दोस्त घर के आसपास चक्कर लगा रहे थे.

धीरेधीरे दिन ढल गया. सुबह और दोपहर की बस आई और चली भी गई लेकिन विजय नहीं आया. ताऊजी इंतजार करकर के आखिर लगभग 2 बजे अपने घर चले गए. यारदोस्त भी सब अपने घर चले गए. सास ने जबरदस्ती मुन्नी को खिला दिया. लगभग 3 बजे देवर अजय और सास ने भी खाना खा लिया, लेकिन बारबार कहने के बाद भी जानकी ने नहीं खाया. उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘मुझे भूख नहीं है, जब भूख लगेगी तब मैं खुद खा लूंगी.’

सास ने भी ज्यादा जोर नहीं डाला. उन्हें जानकी की जिद के बारे में पता है. जबरदस्ती उस से कुछ नहीं कराया जा सकता है.

शाम ढलने को थी कि अचानक दूर से बच्चों के शोर मचाने की आवाज आई. कोई कुछ समझ सकता इस से पहले ही एक सफेद ऐंबेसेडर कार दरवाजे पर आ कर रुकी. उस में से विजय उतरा. उसे देखते ही देखते घर का गमगीन माहौल उत्सव में तबदील हो गया. सारा का सारा गांव विजय के दरवाजे पर इकट्ठा हो गया. इतना बड़ा अफसर उन्होंने कभी नहीं देखा था. जानकी रसोई में व्यस्त थी, चायनाश्ते का प्रबंध कर रही थी. बैठक में यारदोस्तों ने विजय को घेर रखा था. धीरेधीरे उसे थकान लगने लगी. करीब

7 बजे ताऊजी उठे और सभी से जाने को कहा. उन्होंने कहा, ‘अब विजय को थोड़ा आराम करने दो. वह पूरे रास्ते खुद ही गाड़ी चला कर आया है, जाहिर है कि थक गया होगा. फिर वह इतने दिनों के बाद घर आया है, उसे अपने घर वालों से भी बातें करने दो. अरे भाई, मुन्नी को भी तो मौका दो अपने पापा से मिलने का.’

अब सब न चाहते हुए भी जाने को मजबूर थे. विजय की जान में जान आई. विजय अपने साथ कोई सूटकेस वगैरह नहीं लाया बल्कि केवल एक ब्रीफकेस लाया था. अम्मा ने पूछा, ‘तू तो कोई कपड़े वगैरह साथ नहीं लाया. मुझे तो तेरा इरादा अच्छा नहीं लग रहा. मुझे सही बता, तेरा इरादा क्या है?’

विजय ने कहा, ‘मैं यहां रहने नहीं आया हूं. मैं तो यहां जरूरी काम से आया हूं. मुझे आज रात को ही वापस लौटना है. अगर रास्ते में गाड़ी खराब नहीं हुई होती तो इस वक्त मैं वापस जा रहा होता.’

अम्मा ने पूछा, ‘यह बता, ऐसा भी क्या जरूरी काम जिस के लिए तू सिर्फ कुछ घंटे के लिए आया? तुझे क्या हम लोगों की, अपनी बीवी की, मुन्नी की जरा भी याद नहीं आती?’

विजय ने इस प्रश्न का उत्तर न दे कर पूछा, ‘जानकी दिखाई नहीं पड़ रही, वह कहां है?’

अम्मा ने कहा, ‘चल, इतनी देर बाद उस बेचारी की याद तो आई. उसे मरने की भी फुरसत नहीं है. सारे मेहमानों के चायनाश्ते का इंतजाम वही तो कर रही है. इस वक्त वह रसोई में है.’

विजय ने कहा, ‘मैं हाथमुंह धो कर अपने कमरे में जा रहा हूं. तुम उसे वहीं भेज दो. उस से मुझे जरूरी काम है.’

‘‘मैडम, आज औफिस नहीं जाएंगी क्या? साढ़े 9 बजने वाले हैं,’’ रामलखन की आवाज सुन कर जानकी देवी की तंद्रा भंग हुई और वे वर्तमान में लौट आईं. बोलीं, ‘‘टेबल पर नाश्ता लगाओ, मैं आ रही हूं.’’

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साढ़े 10 बजे एक विभागीय मीटिंग थी, खत्म होतेहोते डेढ़ बज गया. बाद में भी कुछ अपौइंटमैंट थे. साढ़े 3 बजे अमृता उर्फ मुन्नी का फोन आया. काम में उलझे होने के कारण समय का खयाल ही नहीं रहा. निजी सचिव को कह कर सारे अपाइंटमैंट खारिज कर सीधे घर चली आईं जानकी देवी. अब आज और कोई काम नहीं. अमृता के साथ खाना खा कर उस के बेंगलुरु के किस्से सुनने बैठ गईं. एक बार खयाल आया कि विजय की बात अमृता से कहें, पर दूसरे ही क्षण मन से यह खयाल निकाल दिया, सोचा कि कोई जरूरत नहीं है. लेकिन रात को बिस्तर पर लेटते ही फिर पुरानी यादें ताजा हो गईं.

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Serial Story: प्रत्युत्तर (भाग-1)

लेखक- बिकाश गोस्वामी

घड़ी में 6 बजे का अलार्म बजते ही जानकी देवी की आंखें खुल गईं. उन्होंने हाथ बढ़ा कर अलार्म बंद कर दिया. फिर कुछ देर बाद वे बिस्तर से उठीं  और बाथरूम में घुस गईं. नहाधो कर जब वे बाहर निकलीं तो उन्हें हलकी सर्दी महसूस होने लगी. उन्होंने शाल को थोड़ा कस कर ओढ़ लिया.

आज वे काफी खुश थीं. उन की लड़की अमृता पढ़ाई पूरी कर वापस आ रही थी. वे बरामदे में कुरसी पर बैठ गईं. सामने मेज पर रखी गरम चाय और शहर से प्रकाशित सारे हिंदी व अंगरेजी के अखबार रखे थे. सुबह की चाय वे अखबार पढ़तेपढ़ते ही पीती थीं. यह उन की रोज की दिनचर्या थी.

जानकी देवी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री थीं. हालांकि वे कैबिनेट मंत्री नहीं थीं लेकिन राज्यमंत्री होते हुए भी उन का स्वतंत्र विभाग था, पंचायती राज और ग्रामीण उन्नयन विभाग. बुंदेलखंड क्षेत्र के हमीरपुर जिले के एक अविकसित और संरक्षित विधानसभा सीट से वे निर्वाचित हुईं, वह भी दूसरी बार. उन का जनाधार बहुत अच्छा था. दोनों बार वे 50 हजार से भी ज्यादा वोटों से जीतीं. उन की छवि एक ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और मेहनती मंत्री की थी.

आज जानकी देवी का मन अखबार में नहीं लग रहा था. बारबार निगाहें अपनेआप घड़ी की ओर चली जा रही थीं. 4 महीने हो गए थे उन्हें अमृता को देखे हुए. ऐसा लग रहा था मानो घड़ी की सूई अटक गई हो. ऐसे में घर के नौकर रामलखन ने आ कर खबर दी कि कोई मिस्टर विजय कुमार आए हैं और आप से मिलना चाहते हैं.

‘‘मिस्टर विजय कुमार? मैं किसी विजय कुमार को नहीं जानती. फिर उन का इतनी सुबह घर में क्या काम?’’

रामलखन ने जवाब दिया, ‘‘जी, उन्होंने कहा कि वे आप के पुराने परिचित हैं.’’

‘‘ठीक है, बैठाओ उन को.’’

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उन्होंने बैठाने को तो कह दिया पर वे समझ नहीं पाईं कि कौन आया है. उन्होंने स्लिप के ऊपर एक बार और निगाह दौड़ाई. हैंडराइटिंग कुछ जानीपहचानी सी लगी. कोशिश करने के बाद भी वे याद नहीं कर पाईं कि आगंतुक कौन है.

करीब 5 मिनट बाद जानकी देवी ड्राइंगरूम में आईं. विजय की पीठ उन की तरफ थी. फिर भी तुरंत उन्होंने उन्हें पहचान लिया. उन्हें देख कर जानकी देवी को थोड़ा आश्चर्य हुआ. अभी तक विजय उन्हें देख नहीं पाए थे. पहले खयाल आया कि नहीं मिलते हैं, फिर सोचा कि मिलने में हर्ज ही क्या है. जानकी देवी ने हलके से गला खंखारा. विजय घूमे, फिर हंस कर पूछा, ‘‘पहचाना?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. अभी तुम इतना भी नहीं बदले हो कि मैं तुम्हें पहचान न पाऊं. थोड़े मोटे जरूर हो गए हो और कुछ बाल पके हैं, बस.’’

‘‘लेकिन तुम काफी बदल गई हो.’’

‘‘हां, जिंदगी में आंधीतूफान काफी झेलना पड़ा, शायद इसी वजह से. लेकिन तुम? अचानक कैसे आना हुआ? आजकल कहां हो? नीलम कैसी है?’’

उसी वक्त रामलखन चाय की ट्रे ले कर अंदर आया. जानकी देवी ने एक कप विजय की ओर बढ़ा कर कहा, ‘‘लो, चाय पियो.’’

रामलखन के जाने के बाद विजय ने कहा, ‘‘मैं गाजियाबाद में हूं. नीलम अच्छी है. फिलहाल उस की पोस्टिंग गौतम बुद्ध नगर में है. 1 बेटा है और 1 बेटी है, दोनों दिल्ली में पढ़ते हैं. काफी दिनों से सोच रहा था कि तुम से मिलूं, पर वक्त नहीं निकाल पा रहा था. आज एक काम से लखनऊ आया था, सोचा कि मिल लूं. आज तो मुन्नी लौट रही है?’’

‘‘हां, पर अब उसे मुन्नी कह कर कोई नहीं बुलाता है. यह नाम उसे पसंद नहीं है. उस का नाम अमृता है. सब उसे इसी नाम से बुलाते हैं. तो तुम्हें इतने दिनों के बाद मुन्नी की याद आई?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है. याद नहीं आती हो, ऐसा भी नहीं. असल में व्यस्तता के कारण मैं वक्त नहीं निकाल पाता,’’ उन के लहजे में हकलाहट और संकोच साफ झलक रहा था.

अब जानकी देवी से रहा नहीं गया. उन्होंने पूछा, ‘‘सच बताओ, तुम्हारा असली मकसद क्या है? तुम ऐसे ही तो आने से रहे, क्या मैं तुम्हें पहचानती नहीं?’’

विजय समझ गए कि वे पकड़े गए हैं. कुछ सेकंड चुप रहने के बाद वे बोले, ‘‘मैं तुम्हारे पास एक काम से आया हूं.’’

‘‘मेरे पास? काम से? मुझ से तुम्हारा क्या काम?’’ जानकी देवी ने चकित हो कर पूछा.

‘‘असल में, कल शाम को तुम्हारे दफ्तर में एक फाइल आई है. आज तुम्हारी मेज पर रखी जाएगी.’’

‘‘तुम किस फाइल की बात कर रहे हो?’’ जानकी देवी ने फिर पूछा.

‘‘नोएडा विकास प्राधिकरण के प्लौट ऐलौटमैंट के ऊपर जो जांच आयोग बैठा है, उस की फाइल. इस केस में सभी लोगों ने मिल कर मुझे फंसाया है. जानकी, मेरा यकीन करो. अब तुम अगर थोड़ी सी भी कोशिश करो तो मैं छूट सकता हूं.’’

‘‘अच्छा तो यह बात है. अभी तक वह फाइल मैं ने देखी नहीं है और जब तक मैं फाइल देख नहीं लेती तब तक मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूं. हां, इतना जरूर कह सकती हूं कि यदि तुम निर्दोष हो तो कोई तुम्हें दोषी करार नहीं दे सकता.’’

यह कह कर उन्होंने घड़ी की ओर देखा. विजय समझ गए कि अब उठना पड़ेगा. वे उठ कर खड़े हो गए और बोले, ‘‘अब चलूंगा, लेकिन मैं बहुत उम्मीद ले कर जा रहा हूं. मैं तुम से फिर आ कर मिलूंगा.’’

विजय के जाते ही जानकी देवी के चेहरे पर नफरत की लहर दौड़ गई. उन की आंखों के सामने पुरानी स्मृतियां जाग उठीं.

जानकी समाज के एकदम निचले हिस्से से आती हैं. पहले उन लोगों को हरिजन कहा जाता था, पर अब दलित कहा जाता है. जानकी की शादी हुई थी 9 साल की उम्र में. पति विजय की उम्र उस वक्त 14 साल थी और वह कक्षा 8 में पढ़ता था. जानकी का गौना 13 साल की उम्र में हुआ और वह ससुराल आ गई. उस वक्त वह कक्षा 7 में पढ़ती थी.

जानकी का पढ़नेलिखने में मन नहीं लगता था. ससुराल में आ कर वह खुश थी. सोचा, चलो पढ़नेलिखने से अब छुटकारा मिला. लेकिन मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ और है. उस वक्त उस का पति विजय 12वीं कक्षा में था और वह पढ़ने में तेज था. उस की इच्छा थी कि उस की पत्नी जानकी भी पढ़े. सास को भी कोई आपत्ति नहीं थी, कहा, ‘तुम पढ़ो. मुझे कोई ऐतराज नहीं है.’

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इस तरह से शुरू हुई जानकी की बेमन की पढ़ाई. स्कूल घर के पास ही था. पढ़ाईलिखाई की देखरेख का दायित्व दिया गया देवर अजय को जो कक्षा 8 का छात्र था. पति विजय ने इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और डिगरी की पढ़ाई करने के लिए कानपुर चला गया. वहां के क्राइस्ट चर्च डिगरी कालेज में उसे दाखिला मिल गया. जिस साल विजय ने बीए पास किया उसी साल मुन्नी पैदा हुई और जानकी हाईस्कूल में फेल हो गई. उस वक्त जानकी की उम्र 17 साल थी. उसी वक्त से विजय में बदलाव आना शुरू हो गया. इस बदलाव को जानकी शुरू में भांप नहीं पाई और जब समझ में आया तब काफी देर हो चुकी थी.

छोटे से एक गांव का दलित लड़का विजय, जब कानपुर में पढ़ने गया तब हालांकि वह अन्य शहरी छात्रों से पढ़ने में तेज था लेकिन उस में शहरी तौरतरीकों का अभाव था. 6 महीने में ही उस ने अपना हावभाव, चालचलन, पोशाक सबकुछ बदल लिया. अब उसे देख कर कोई भी नहीं कह सकता था कि वह दलित जाति का ग्रामीण लड़का है. लेकिन इन सब के बावजूद उस ने अपनी पढ़ाई के साथ कोई समझौता नहीं किया. बीए की पढ़ाई करने के दौरान ही उस ने तय कर लिया था कि उसे आईएएस बनना है. इस की तैयारी उस ने तभी से शुरू कर दी. इन 3 सालों में उस ने गिनेचुने दिन ही गांव में बिताए.

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मां जल्दी आना: भाग-4

एक पति अपनी पत्नी से अपने मातापिता की सेवा करवाना तो पसंद करता है परंतु सासससुर की सेवा करने में अपनी हेठी समझता है. समाज की इस दोहरी मानसिकता से अमन भी अछूता नहीं था. यदि वह चाहता तो मां के साथ भलीभांति तालमेल बैठा कर नित नई उत्पन्न होने वाली समस्याओं को काफी हद तक कम कर सकता था. यों भी हम दोनों मिल कर अब तक के जीवन में आई प्रत्येक समस्या का सामना करते ही आए थे परंतु जब से मां आई हैं अमन ने उसे अकेला कर दिया. बीती यादों को सोचतेसोचते कब उस की आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

सुबह बैड के बगल की खिड़की के झीने परदों से आती सूरज की मद्धिम

रोशनी और चिडि़यों की चहचहाहट से उस की नींद खुल गई. तभी अमन ने चाय की ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया, ‘‘उठिए मैडम मेरे हाथों की चाय से अपने संडे का आगाज कीजिए.’’

‘‘ओह क्या बात है आज तो मेरा संडे बन गया,’’ मैं फ्रैश हो कर चाय का कप ले कर अमन के बगल में बैठ गई.

‘‘तो आज संडे का क्या प्लान है मैडम, मम्मी और अवनि भी आते ही होंगे.’’

‘‘मम्मा आज हम लोग वंडरेला पार्क चलेंगे फोर होल डे इंजौयमैंट. चलोगे न मम्मा और नानी भी हमारे साथ चलेंगी.’’ मां के साथ वाक करके  लौटी अवनि ने हमारी बातें सुन कर संडे का अपना प्लान बताया.

‘‘हांहां हम सब चलेंगे. चलो जल्दी से ब्रेकफास्ट कर के सब तैयार हो जाओ.’’ मेरे बोलने से पहले ही अमन ने घोषणा कर दी. पूरे दिन के इंजौयमैंट के बाद लेटनाइट जब घर लौटे तो सब थक कर चूर हो चुके थे सो नींद के आगोश में चले गए. मुझे लेटते ही वह दिन याद आ गया जब मां के आने के बाद एक दिन यूएस से अमन की मां ने फोन कर के बताया कि अगले हफ्ते वे इंडिया वापस आ रहीं हैं. 4 साल पहले अमन के पिता का एक बीमारी के चलते देहांत हो गया था. उस के बाद से उन की मां ने ही अपने दोनों बच्चों को पालपोस कर बड़ा किया. अमन 2 ही भाई बहन हैं जिन में दीदी की शादी एक एनआरआई से हुई तो वे विवाह के बाद से ही अमेरिका जा बसीं थी. पिछले दिनों उन की डिलीवरी के समय मम्मीजी वहां गई थीं और अब उन का वापसी का समय हो गया था सो आ रही थीं. दोनों बच्चे अपनी मां से बहुत अटैच्ड हैं. उस दिन मैं बैंक से वापस आई तो अमन का मुंह फूला हुआ था. जैसे ही मां सोसाइटी के मंदिर में गईं थी वे फट पड़े.

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‘‘अब बताओ मेरी मां कहां रहेंगी? क्या सोचेंगी वे कि मेरे बेटे के घर में तो मेरे लिए जगह तक नहीं है. आखिर इंडिया में है ही

कौन मेरे अलावा जो उन्हें पूछेगा. तुम्हारे तो

और भाईबहन भी हैं मैं तो एक ही हूं न मेरी मां के लिए.’’

‘‘अमन थोड़ी शांति तो रखो, आने दो मम्मीजी को सब हो जाएगा. मैं ने कहां मना किया है उन की जिम्मेदारी उठाने से पर अपनी मां की जिम्मेदारी भी है मेरे ऊपर. यह कह कर कि और भाईबहन उन्हें रखेंगे अपने पास मैं कैसे अकेला छोड़ दूं उन्हें. आखिर मेरा भी पालनपोषण उन्होंने ही किया है.’’

मेरी इतनी दलीलों में से एक भी शायद अमन को पसंद नहीं आई थी और वे अपने

फूले मुंह के साथ बैडरूम में जा कर टीवी देखने लगे थे. एक सप्ताह बाद जब सासू मां आईं तो मैं बहुत डरी हुई थी कि अब न जाने किन नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. यद्यपि मैं अपनी सास की समझदारी की शुरू से ही कायल रही हूं. परंतु मेरी मां को यहां देख कर उन की प्रतिक्रिया से तो अंजान ही थी.

मैं ने सासूमां के रहने का इंतजाम भी मां के कमरे में ही कर दिया था जो अमन को पसंद तो नहीं आया था परंतु 2 बैडरूम में फ्लैट में और कोई इंतजाम होना संभव भी नहीं था. मेरी मां की अपेक्षा सासू मां कुछ अधिक यंग, खुशमिजाज समझदार और सकारात्मक विचारधारा की थीं. मेरी भी उन से अच्छी पटती थी. इसीलिए तो उन के आने के दूसरे दिन अवसर देख कर अपनी सारी परेशानियां बयां करते हुए रो पड़ी थी मैं.

उन्होंने मुझे गले लगाया और बोलीं, ‘‘तू चिंता मत कर मैं कोई समाधान निकालती हूं. सब ठीक हो जाएगा.’’ उन की अपेक्षा मेरी मां का जीवन के प्रति उदासीन और नकारात्मक होना स्वाभाविक भी था क्योंकि पहले बेटे की चाह में बेटियों की कतार फिर बेटेबहू की उपेक्षा आखिर इंसान की सहने की भी सीमा होती है. परिस्थितियों ने उन्हें एकदम शांत, निरुत्साही बना दिया था. वहीं सासूमां के 2 बच्चे और दोनों ही वैल सैटल्ड.

दोचार दिन सब औब्जर्व करने के बाद उन्होंने अपने साथ मां को भी

मौर्निंग वाक पर ले जाना प्रारंभ कर दिया था. वापस आ कर दोनों एकसाथ पेपर पढ़ते हुए चाय पीतीं थी जिस से अमन और मुझे अपने पर्सनल काम करने का अवसर प्राप्त हो जाता था. दोनों किचन में आ कर मेड की मदद करतीं जिस से मेरा काम बहुत आसान हो जाता. जब तक मैं और अमन तैयार होते मां और सासूमां मेड के साथ मिल कर नाश्ता टेबल पर लगा लेते. हम चारों साथसाथ नाश्ता करते और औफिस के लिए निकल जाते. अपनी मां को यों खुश देख कर अमन भी खुश होते. कुल मिला कर सासूमां के आने से मेरी कई समस्याओं का अंत होने लगा था. सासूमां को देख कर मेरी मां भी पौजिटिव होने लगीं थी. एक दिन जब हम सुबह नाश्ता कर रहे थे तो सासूमां बोलीं, ‘‘विनीता आज से अवनि अपनी दादीनानी के साथ सोएगी. कितनी किस्मत वाली है कि दादीनानी दोनों का प्यार एक साथ लेगी क्यों अवनि.’’

‘‘हां मां, अब से मैं आप दोनों के नहीं बल्कि दादीनानी के बीच में सोऊंगी. उन्होंने मुझे रोज एक नई कहानी सुनाने का प्रौमिस किया है.’’ अवनि ने भी चहकते हुए कहा.

इस बात से अमन भी बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें उन का पर्सनल स्पेस वापस जो मिल गया था. सासूमां के आने के बाद मैं ने भी चैन की सांस ली थी. और बैंक पर वापस ध्यान केंद्रित कर लिया था. अब 3 माह तक हमारे बीच रह कर सासूमां वापस कुछ दिनों के लिए दिल्ली चलीं गई थीं. पर इन 3 महीनों में उन्होंने मेरे लिए जो किया वह मैं ताउम्र नहीं भूल सकती. सच में इंसान अपनी सकारात्मक सोच और समझदारी से बड़ी से बड़ी समस्याओं को भी चुटकियों में हल कर सकता है जैसा कि मेरी सासूमां ने किया था. मां के मेरे साथ रहने पर भी उन्होंने खुशी व्यक्त करते हुए कहा था.

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‘‘जब मेरी बेटी मेरा ध्यान रख सकती है तो मेरी बहू अपनी मां का ध्यान क्यों नहीं रख सकती और मुझे फक्र है अपनी बहू पर कि अपने 3 अन्य भाईबहनों के होते हुए भी उस ने अपनी जिम्मेदारी को समझा और निभाया.’’ तभी तो उन के जाने के समय मैं फफकफफक कर रो पड़ी थी और उन के गले लग के बोली थी, ‘‘मां जल्दी आना.’’

Serial Story: एहसास (भाग-3)

लेखिका- रश्मि राठी

सुधांशी उन दोनों को बहुत गौर से देख रही थी. आज उस का परिचय प्यार के एक नए रूप से हो रहा था. यह भी तो प्यार है कितना पवित्र, एकदूसरे के लिए समर्पण की भावना लिए हुए. उसे महसूस हो रहा था कि प्यार सिर्फ वह नहीं जो रात के अंधेरे में किया जाए. प्यार के तो और भी रूप हो सकते हैं. लेकिन उस ने तो कभी सुशांत की पसंद जानने की भी कोशिश न की. उस ने तो हमेशा अपनी आकांक्षाओं को ही महत्त्व दिया.

‘‘चलो, हम दूसरे कमरे में बैठ कर बातें करते हैं, ये लोग तो अपने दफ्तर की बातें करेंगे,’’ अमिता ने सुधांशी को उठाते हुए कहा.

अमिता और सुधांशी के विचारों में जमीनआसमान का फर्क था. अमिता घर के बारे में बातें कर रही थी, जबकि सुधांशी ने कभी घर के बारे में कुछ सोचा ही नहीं था. तभी अमिता ने कहा, ‘‘बड़ी सुंदर साड़ी है तुम्हारी, क्या सुशांत ने ला कर दी है?’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ चौंक सी गई सुधांशी, ‘‘मैं ने खुद ही खरीदी है.’’

‘‘भई, ये तो मुझे कभी खुद लाने का मौका ही नहीं देते. इस से पहले कि मैं लाऊं ये खुद ही ले आते हैं. लेकिन इस बार मैं ने भी कह दिया है कि अगर मेरे लिए साड़ी लाए तो बहुत लड़ूंगी. हमेशा मेरा ही सोचते हैं. यह नहीं कि कभी कुछ अपने लिए भी लाएं. इस बार मैं उन्हें बिना बताए उन के लिए कपड़े ले आई. दूसरों की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है वह अपनी इच्छाएं पूरी करने में नहीं है.’’

‘‘चलो, आज घर नहीं चलना है क्या?’’ सुशांत ने उस की बातों में खलल डालते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अब चलते हैं. किसी दिन आप लोग भी समय निकाल कर आइए न,’’ सुधांशी ने चलते हुए कहा.

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आज हर्षल के घर से लौटने पर सुधांशी के मन में हलचल मची हुई थी. उस के कानों में अमिता के स्वर गूंज रहे थे, ‘एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने में जितना मजा है, अपनी इच्छाएं पूरी करने में वह नहीं है.’

लेकिन उस ने तो कभी दूसरों की जरूरतों को जानना भी नहीं चाहा था. उस ने तो यह भी नहीं सोचा कि घर में किस चीज की जरूरत है और किस की नहीं? और एक अमिता है, सुंदर न होते हुए भी उस से कहीं ज्यादा सुंदर है. जिम्मेदारियों के प्रति अमिता की सजगता देख कर सुधांशी के मन में ग्लानि का अनुभव हो रहा था.

‘‘अमिता भाभी, बहुत अच्छी हैं न,’’ सुधांशी ने मौन तोड़ते हुए कहा.

‘‘हां,’’ सुशांत ने ठंडी आह छोड़ते हुए कहा.

उस रात सुधांशी चैन से सो न सकी. सुबह उठी तो उसे तेज बुखार था. सुशांत ने तुरंत डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने दवा दे दी. सुधांशी को आराम करने के लिए कह कर सुशांत दफ्तर चला गया. सुधांशी को बुखार के कारण सिर में बहुत दर्द था. तभी गरिमा लड़खड़ाते हुए आई, ‘‘कैसी तबीयत है, भाभी? लाओ, तुम्हारा सिर दबा दूं,’’ कह कर सिर दबाने लगी.

मां भी बहुत चिंतित थीं. समयसमय पर मां दवा दे रही थीं. आज सुधांशी को महसूस हो रहा था कि उस ने कभी भी इन लोगों की तरफ ध्यान नहीं दिया, लेकिन फिर भी उस के जरा से बुखार ने किस तरह सब को दुखी कर दिया. अपने पैर में चोट होने के बावजूद गरिमा उस का कितना ध्यान रख रही थी. मां भी कितनी परेशान थीं उस के लिए?

3-4 दिन में सुधांशी ठीक हो गई. आज वह सुशांत से पहले ही उठ गई थी. चाय बना कर सुशांत के पास आई, ‘‘उठिए जनाब, चाय पीजिए, आज दफ्तर नहीं जाना है क्या?’’

सुशांत को तो अपनी आंखों पर यकीन नहीं आ रहा था.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न, आज इतनी जल्दी कैसे जाग गईं?’’ उस ने हड़बड़ाते हुए पूछा.

‘‘जल्दी कहां, मेरी आंखें तो बहुत देर में खुलीं,’’ शून्य में देखते हुए सुधांशी ने कहा.

आज उस ने घर के सारे काम खुद ही किए थे. काम करने में मुश्किल तो बड़ी हो रही थी, मगर फिर भी यह सब करना उसे अच्छा लग रहा था. आज वह पहली बार नाश्ता बनाने के लिए रसोई में आई थी.

‘‘मांजी, आज से नाश्ता मैं बनाया करूंगी,’’ मांजी के हाथ से बरतन लेते हुए सुधांशी ने कहा.

‘‘बहू, तुम नाश्ता बनाओगी?’’ मां ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं जानती हूं, मांजी, मुझे कुछ बनाना नहीं आता, लेकिन आप मझे सिखाएंगी न? बोलिए न मांजी, आप सिखाएंगी मुझे?’’

‘‘हां बहू, अगर तुम सीखना चाहोगी तो जरूर सिखाऊंगी.’’

आज सुशांत को बड़ा अजीब लग रहा था. उस का सारा सामान उसे जगह पर मिल गया था. कपड़े भी सलीके से रखे हुए थे. जब तैयार हो कर नाश्ते के लिए आया तो सुधांशी को नाश्ता लाते देख चौंक गया.

‘‘आज तुम ने नाश्ता बनाया है क्या?’’

‘‘क्यों? मेरे हाथ का बना नाश्ता क्या गले से नीचे नहीं उतर पाएगा?’’ मुसकराते हुए सुधांशी बोली.

‘‘नहीं, यह बात नहीं है,’’ सैंडविच उठाते हुए सुशांत बोला, ‘‘सैंडविच तो बड़े अच्छे बने हैं. तुम ने खुद बनाए हैं?’’ सुशांत ने पूछा, फिर कुछ रुपए देते हुए बोला, ‘‘तुम कल अपनी साडि़यों के लिए पैसे मांग रही थीं न, ये रख लो.’’

सुशांत के दफ्तर जाने के बाद जब सुधांशी ने सैंडविच चखे तो उस से खाए नहीं गए. नमक बहुत तेज हो गया था. उसे सुशांत का खयाल आ गया, जो इतने खराब सैंडविच खा कर भी उस की तारीफ कर रहा था, शायद उस का दिल रखने के लिए सुशांत ने ऐसा किया था. उस की पलकें भीग गईं. प्यार की भावना को देख कर उस का मन श्रद्धा से भर उठा.

उस ने जल्दीजल्दी सारा काम खत्म किया. घर का काम करने में आज उसे अपनत्व का एहसास हो रहा था. फिर उसे सुशांत के दिए गए पैसों का खयाल आया. उस ने गरिमा को साथ लिया

और बाजार गई. सुशांत के दफ्तर से लौटने से पहले उस ने सारा काम निबटा लिया था.

‘‘अपनी साडि़यां ले आईं?’’ शाम को चाय पीतेपीते सुशांत ने पूछा.

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‘‘मेरे पास साडि़यों की कमी कहां है? आज तो मैं ढेर सारा सामान ले कर आई हूं,’’ इतना कह कर उस ने सारा सामान सुशांत के सामने रख दिया, ‘‘यह मां की साड़ी है, यह गरिमा का सूट और यह तुम्हारे लिए.’’

सुशांत उसे अपलक निहार रहा था. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह वही सुधांशी है, जिसे अपनी जरूरतों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था. आज उसे सुधांशी पहले से कहीं अधिक सुंदर लगने लगी थी.

‘‘अपने लिए कुछ नहीं लाईं?’’ प्यार से पास बिठाते हुए सुशांत ने पूछा.

‘‘क्या तुम सब लोग मेरे अपने नहीं हो? सच तो यह है कि आज पहली बार ही मैं अपने लिए कुछ ला पाई हूं. यह सामान ला कर जितनी खुशी मुझे हुई है उतनी कई साडि़यां ला कर भी न मिल पाती. सच, आज ही मैं प्यार का वास्तविक मतलब समझ पाई हूं.

‘‘प्यार एक भावना है, समर्पण की चेतना, खो जाने की प्रक्रिया, मिट जाने की तमन्ना. इस का एहसास शरीर से नहीं होता, अंतर्मन से होता है, हृदय ही उस का साक्षी होता है,’’ कह कर सुधांशी ने अपना सिर सुशांत के सीने पर रख दिया.

Serial Story: एहसास (भाग-2)

लेखिका- रश्मि राठी

सोचने लगा कि अगर वह सुशी की तरह जिद करेगा तो बात और बिगड़ जाएगी. अगर उसे अपने फर्ज का एहसास नहीं तो क्या वह भी अपना फर्ज भूल जाएगा? उसे सुशी के साथ किए गए अपने व्यवहार पर गुस्सा आने लगा था. इसी कशमकश में उसे पता ही नहीं चला कि सूरज निकल आया और उस ने पूरी रात यों ही काट दी.

आज उस का दफ्तर जाने को बिलकुल मन नहीं हो रहा था. मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वह सुधांशी को समझा कर वापस ले आएगा. सुशी के बिना उसे एकएक पल भारी पड़ रहा था. उसे लग रहा था कि उस की दुनिया एक वृत्त के सहारे घूमती रहती है, जिस का केंद्रबिंदु सुशी है.

उधर सुशी भी कम दुखी न थी. लेकिन उस का अहं उस के और सुशांत के बीच दीवार बन कर खड़ा था. उसे लग रहा था जैसे हर पल सुशांत उस का पीछा करता रहा हो या शायद वह ही सुशांत के इर्दगिर्द मंडराती रही हो. अपने खयालों में खोई हुई ही थी कि मां ने बताया, ‘‘नीचे सुशांत आया है. तुम्हें बुला रहा है.’’

उसे तो अपने कानों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. जल्दीजल्दी तैयार हो कर नीचे आई.

‘‘मैं तुम्हें लेने आया हूं. अगर तुम खुशी से अपने मांबाप के पास रहने आई हो, तो ठीक है, लेकिन अगर नाराज हो कर आई हो तो अपने घर वापस चलो,’’ सुशांत ने अधिकार से सुधांशी का हाथ पकड़ते हुए कहा.

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सुशांत को इस तरह मिन्नत करते देख उस के मन में फिर अहं जाग उठा, ‘‘मैं उस घर में बिलकुल नहीं जाऊंगी.

तुम इसलिए ले जाना चाहते हो ताकि अपनी मांबहन के सामने मुझे लज्जित कर सको.’’

‘‘तुम पत्नी हो मेरी और तुम्हारा पति होने के नाते इतना तो हक है मुझे कि तुम्हारा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती ले जा सकूं. बाहर तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं. अपना सामान बांध कर आ जाओ,’’ कह कर सुशांत कमरे से बाहर निकल गया.

जाने की खुशी तो सुधांशी को भी कम नहीं थी, वह तो सुशांत पर सिर्फ यह जताना चाहती थी कि उसे उस का घर छोड़ने का कोई अफसोस नहीं था.

घर पहुंच कर सुशांत ने सुधांशी को कुछ नहीं कहा. मामला शांत हो गया. अब तो सुशांत ने उसे टोकना भी बंद कर दिया था.

एक दिन सुशांत दफ्तर से लौटा तो देखा, मां रसोई में काम कर रही हैं. पूछने पर पता चला कि गरिमा काम करते हुए फिसल गई थी. पैर में चोट आई है. डाक्टर पट्टी बांध गया है.

‘‘सुधांशी कहां है, मां?’’ सुधांशी को घर में न देख कर सुशांत ने पूछा.

मां ने थोड़े गुस्से में कहा, ‘‘बहू तो सुबह से अपनी किसी सहेली के यहां गई हुई है.’’

शाम के 7 बज रहे थे और सुधांशी का कोई पता न था. तभी दरवाजे की घंटी बजी. उस ने दरवाजा खोला. सामने सुधांशी खड़ी थी.

‘‘अफसोस है, हम लोग फिल्म देखने चले गए थे. लौटतेलौटते थोड़ी देर हो गई. बहुत थक गई हूं आज,’’ पर्स कंधे से उतारते हुए सुधांशी ने कहा.

सुशांत चुप ही रहा. उस ने सुधांशी से कुछ नहीं कहा.

अगले दिन जब सुधांशी कमरे से बाहर आई तो डाक्टर को आते हुए देखा.

‘‘मांजी, अपने यहां कौन बीमार है?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘गरिमा के पैर में चोट लगी है,’’ मां ने सपाट लहजे में उत्तर दिया.

‘‘गरिमा को चोट लगी है और किसी ने मुझे बताया भी नहीं?’’

‘‘तुम्हें शायद सुनने की फुरसत नहीं थी, बहू,’’ मां के स्वर की तल्खी को सुधांशी ने महसूस कर लिया था.

वह तुरंत गरिमा के पास गई, ‘‘अब कैसी हो, गरिमा?’’

‘‘ठीक हूं, भाभी,’’ धीमे स्वर में गरिमा ने जवाब दिया.

‘‘मुझे तो तुम्हारे भैया ने भी कुछ नहीं बताया तुम्हारी चोट के बारे में,’’ सुधांशी ने थोड़ा झेंपते हुए कहा.

‘‘उन्होंने तुम्हें परेशान नहीं करना

चाहा होगा, भाभी,’’ गरिमा ने बात टालते हुए कहा.

मगर आज सुधांशी को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अजनबी हो कर रह गई है. शायद घर वालों की बेरुखी का कारण उसे मालूम था, लेकिन वह जानबूझ कर ही अनजान बनी रहना चाहती थी.

शाम को सुशांत लौटा तो उस ने शिकायत भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम ने मुझे बताया क्यों नहीं कि गरिमा को चोट लगी है?’’

‘‘तुम पहले ही थकी हुई थीं,’’ सुशांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘‘और हां, आज शाम को मेरे एक दोस्त ने हमें खाने पर बुलाया है. तैयार हो जाना.’’

घूमने की बात सुनते ही सुधांशी खुश हो गई. जल्दी से अंदर जा कर तैयार होने लगी. एक पल उसे गरिमा की चोट का खयाल भी आया मगर फिर उस ने नजरअंदाज कर दिया.

‘‘भई, खाने में मजा आ गया. भाभीजी तो बहुत अच्छा खाना पकाती हैं,’’ सुशांत ने उंगलियां चाटते हुए कहा, ‘‘तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो, हर्षल, जो तुम्हें इतना अच्छा खाने को मिल रहा है.’’

‘‘यार, तुम भी तो कम नहीं हो. इतनी सुंदर भाभी हैं हमारी. जितनी सुंदर वे खुद हैं उतना ही अच्छा खाना भी पकाती होंगी,’’ हर्षल ने हंसते हुए कहा, ‘‘अमिता, खाना तो हो गया है. अब जरा हम लोगों के लिए कुछ मिठाई भी ले आओ.’’

अमिता मिठाई लाने चली गई, ‘‘और भाभीजी, अब आप कब हमें अपने हाथ का बना खाना खिला रही हैं?’’ हर्षल ने सुधांशी से पूछा.

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सुधांशी ने सुशांत की तरफ देखा और झेंप गई. अमिता का घर देख कर उसे खुद पर शर्म आ रही थी. अमिता सांवली थी और दिखने में भी कोई खास न थी, लेकिन उस ने अपना पूरा घर जिस सलीके से सजा रखा था उस से उस की सुंदरता का परिचय मिल रहा था. सारा खाना भी अमिता ने खुद ही बनाया था. लेकिन उस ने तो कभी खाना बनाने की जरूरत ही नहीं समझी थी. सुशांत को इस तरह अमिता के खाने की प्रशंसा करते देख उसे शर्मिंदगी का एहसास हो रहा था. तभी अमिता मिठाई ले आई. सब को देने के बाद एक टुकड़ा फालतू बचा था, ‘‘लो हर्षल, इसे तुम ले लो,’’ अमिता ने मिठाई हर्षल को देते हुए कहा.

‘‘भई, नहीं, तुम ने इतनी मेहनत की है, इस पर तुम्हारा ही हक है,’’ इतना कह कर हर्षल ने मिठाई का टुकड़ा अमिता के मुंह में रख दिया.

आधा टुकड़ा अमिता ने खाया और आधा हर्षल को खिलाती हुई बोली, ‘‘मेरी हर चीज में आधा हिस्सा तुम्हारा भी है.’’

यह देख सभी लोग हंस पड़े.

आगे पढ़ें- सुधांशी उन दोनों को बहुत गौर से…

Serial Story: एहसास (भाग-1)

लेखिका- रश्मि राठी

कितने चाव से इस घर में सुधांशी बहू बन कर आई थी. अपने मातापिता की इकलौती बेटी होने के कारण लाड़ली थी. उस के मुंह से बात निकली नहीं कि पूरी हो जाती थी. ज्यादा आजादी की वजह से बेपरवा भी बहुत हो गई थी. मां जब कभी पिताजी से शिकायत भी करतीं तो वे यही कह कर टाल देते, ‘‘एक ही तो है, उस के भी पीछे पड़ी रहती हो. ससुराल जा कर तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दब ही जाना है. अभी तो चैन से रहने दो.’’

मां बेचारी मन मसोस कर रह जातीं.

आज उस ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था. पति एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर कार्यरत थे. घर में एक ननद और सास थी.

शादी के बाद 1 महीना तो मानो पलक झपकते ही बीत गया. घर में सभी उसे बेहद चाहते थे. नईनवेली होने के कारण कोई उस से काम भी नहीं करवाता था. सुशांत भी उस का पूरा ध्यान रखता. उस की हर फरमाइश पूरी की जाती. सुधांशी भी नए घर में बेहद खुश थी. उस की ननद गरिमा दिनभर काम में लगी रहती, मगर भाभी से कभी कुछ नहीं कहती.

सुशांत का खयाल था कि धीरेधीरे सुधांशी खुद ही कामों में हाथ बंटाने लगेगी, लेकिन सुधांशी घर का कोई भी काम नहीं करती थी. उस की लापरवाही को देख कर सुशांत ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुशी, गरिमा मेरी छोटी बहन है. उस के सिर पर पढ़ाई का बोझ है और फिर इस उम्र में मां से भी ज्यादा काम नहीं हो पाता. तुम कामकाज में गरिमा का हाथ बंटा दिया करो.’’

‘‘भई, मैं ने तो अपने मायके में कभी एक गिलास पानी का भी नहीं उठाया और फिर मैं ने नौकरानी बनने के लिए तो शादी नहीं की,’’ अदा से अपने बाल संवारती हुई सुधांशी ने जवाब दिया.

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सुशांत को उस से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद न थी. फिर भी उस ने गुस्से पर काबू करते हुए कहा, ‘‘घर का काम करने से कोई नौकरानी नहीं बन जाती, फिर नारी का पूर्ण सौंदर्य तो इसी में है कि वह अपने साथसाथ घर को भी संवारे.’’

सुधांशी ने उस की बात का कोई जवाब न दिया और मुंह फेर कर सो गई. सुशांत ने चुप रहना ही उचित समझा. सुबह जब वह उठी तो सुशांत दफ्तर जा चुका था. सुधांशी को ऐसी उम्मीद तो जरा भी न थी. उस ने तो सोचा था कि सुशांत उसे मनाएगा. दिनभर बिना कुछ खाएपीए कमरा बंद कर के लेटी रही. गरिमा ने उसे खाना खाने के लिए कहा भी, मगर उस ने मना कर दिया.

‘‘भाभी सुबह से भूखी हैं, उन्होंने कुछ नहीं खाया,’’ शाम को सुशांत के लौटने पर गरिमा ने उसे बताया.

सुशांत तुरंत उस के कमरे में गया और स्नेह से सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘क्या अभी तक नाराज हो. चलो, खाना खा लो.’’

‘‘मुझे भूख नहीं है, तुम खा लो.’’

‘‘अगर तुम नहीं खाओगी तो मैं भी कुछ नहीं खाऊंगा. अगर तुम चाहती हो कि मैं भी भूखा ही सो जाऊं तो तुम्हारी मरजी.’’

‘‘अच्छा चलो, मैं खाना लगाती हूं,’’ मुसकराते हुए सुधांशी उठी. बात आईगई हो गई. इस के बाद तो जैसे उसे और भी छूट मिल गई. रोज नईनई फरमाइशें करती. खाली वक्त में घूमने चली जाती. घर का उसे जरा भी खयाल न था. कई बार सुशांत के मन में आता कि उसे डांटे लेकिन फिर मन मार कर रह जाता.

आज सुशांत को दफ्तर जाने में पहले ही देर हो रही थी. उस ने कमीज निकाली तो देखा, उस में बटन नहीं थे. झल्ला कर सुधांशी को आवाज दी, ‘‘तुम घर में रह कर सारा दिन आईने के आगे खुद को निहारती हो, कभी और कुछ भी देख लिया करो. मेरी किसी  भी कमीज में बटन नहीं हैं. क्या पहन कर दफ्तर जाऊंगा?’’

‘‘लेकिन मुझे तो बटन लगाना आता ही नहीं. गरिमा से लगवा लो.’’

‘‘तुम्हें आता ही क्या है? सिर्फ शृंगार करना,’’ कह कर सुशांत बिना बटन लगवाए ही दफ्तर चला गया.

आज उस का मन दफ्तर में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि शादी कर के भी वह संतुलनपूर्ण जीवन नहीं बिता पा रहा है. उस ने जैसी पत्नी की कल्पना की थी उस का एक अंश भी उसे सुधांशी में नहीं मिल पाया था. दिखने में तो सुधांशी सौंदर्य की प्रतिमा थी. किसी बात की कोई कमी न थी, उस के रूप में. लेकिन जीवन बिताने के लिए उस ने सिर्फ सौंदर्य प्रतिमा की कल्पना नहीं की थी. उस ने ऐसे जीवनसाथी की कल्पना की थी जो मन से भी सुंदर हो, जो उस का खयाल रख सके, उस की भावनाओं को समझ सके.

‘‘अरे यार, क्या भाभी की याद में खोए हुए हो?’’ हर्षल की आवाज ने उसे चौंका दिया.

‘‘हां, नहीं, नहीं तो.’’

‘‘यों हकला क्यों रहे हो? क्या शादी के बाद हकलाना भी शुरू कर दिया?’’ हर्षल ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘कभी भाभीजी को घर भी ले कर आओ या उन्हें घर में छिपा कर ही रखोगे?’’

‘‘नहीं यार, यह बात नहीं है. किसी दिन समय निकाल कर हम दोनों जरूर आएंगे,’’ सुशांत ने उठते हुए कहा.

आज उस का मन घर जाने को नहीं हो रहा था. खैर, घर तो जाना ही था. बेमन से घर चल दिया.

‘‘भैया, तुम्हारे जाने के बाद भाभी मायके चली गईं,’’ घर पहुंचते ही गरिमा ने बताया.

‘‘बहू बहुत गुस्से में लग रही थी, बेटा, क्या तुम से कोई बात हो गई?’’ मां ने घबराते हुए पूछा.

‘‘नहीं, नहीं तो, यों ही चली गई होगी. बहुत दिन हो गए न उसे अपने मातापिता से मिले,’’ सुशांत ने बात संभालते हुए कहा.

‘‘भैया, तुम्हारा खाना लगा दूं?’’

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‘‘नहीं, आज भूख नहीं है मुझे,’’ कह कर सुशांत अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. बिस्तर पर अकेले लेटेलेटे उसे सुधांशी की बहुत याद आ रही थी.

याद करने पर बीते हुए सुख के लमहे भी दुख ही देते हैं. ऐसा ही कुछ सुशांत के साथ भी हो रहा था. सुशांत जानता था कि जब तक वह सुशी को लेने नहीं जाएगा वह वापस नहीं आएगी. लेकिन वह ही उसे लेने क्यों जाए? गलती तो सुशी की है. जब उसे ही परवा नहीं, तो वह भी क्यों चिंता करे? लेकिन उस का मन नहीं मान रहा था. बिस्तर से उठ कर गैलरी में आ कर टहलने लगा.

आगे पढ़ें- अगर उसे अपने फर्ज का एहसास नहीं तो क्या…

तसवीर: भाग-3

औपरेशन होने के बाद केशवन ने पूछा, ‘अब आप क्या करना चाहेंगी? न्यूजर्सी अपनी भतीजी के पास रहेंगी या…’

‘और कहां जाऊंगी? मेरा तो और कोई ठौर नहीं है,’ मालविका ने कहा.

‘मेरा एक सुझाव है. यदि अन्यथा न समझें तो आप कुछ दिन मेरे यहां रह सकती हैं.’

‘आप के यहां?’ मालविका चौंक पड़ी, ‘लेकिन आप की पत्नी, आप का परिवार?’

केशवन हंस दिया, ‘मैं अकेला हूं. विश्वास कीजिए मुझे आप के रहने से कोई दिक्कत नहीं होगी बल्कि इस में मेरा भी एक स्वार्थ है. मैं कभीकभी अपने देश का खाना खाने को तरस जाता हूं. हो सके तो मेरे लिए एकाध डिश बना दिया करिए और कौफी का तो मैं बहुत ही शौकीन हूं. दिन में 5-6 प्याले पीता हूं. आप बना दिया करेंगी न?’

वह हंस पड़ी. वह उस से ढेरों सवाल करना चाहती थी. वह अकेला क्यों था? उस की बीवी कहां थी? लेकिन वह अभी उस के लिए नितांत अजनबी थी इसलिए उस ने चुप्पी साध ली.

केशवन के घर पर आ कर उसे ऐसा लगा था कि वह अपने मुकाम पर पहुंच गई है.

उसे एक फिल्मी गाना याद आया. ‘जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते…’

2 माह में ही वह ठीक हो कर चलने लगी. इतने दिन में केशवन के घर का चप्पाचप्पा उस का हो गया. उस ने बड़ी जतन से उसे ठीक कर दिया. वह डाक्टर का एहसान सेवा से चुकाना चाहती थी, उधर केशवन की बात ने उसे अंदर तक हिला दिया.

लेकिन मालविका ने सोचा, आज उस के जीवन में ये अनहोनी घटी थी. उस का गुजरा हुआ मुकाम फिर लौट आया था. जिस आदमी की तसवीर को देखदेख कर उस ने इतने साल गुजारे थे वह आज उस के सामने खड़ा था और उसे अपनाना चाह रहा था. ये एक चमत्कार नहीं तो क्या था. उस ने अपने लिए थोड़ी सी खुशी की कामना की थी. केशवन ने उस की झोली में दुनिया भर की खुशी उड़ेल दी थी.

भला ऐसा क्यों होता है कि इस भरी दुनिया में केवल एक व्यक्ति हमारे लिए अहम बन जाता है? उस ने सोचा. ऐसा क्यों लगता है कि हमारा जन्मजन्मांतर का साथ है, हम एकदूसरे के लिए ही बने हैं. एक चुंबकीय शक्ति हमें उस की ओर खींच ले जाती है. हर पल उस मनुष्य की शक्ल देखने को जी करता है, उस से बातें करने के लिए मन लालायित रहता है. उस की हर एक बात, हर एक आदत मन को भाती है. उस के बिना जीवन अधूरा लगता है, व्यर्थ लगता है. उस की छुअन शरीर में एक सिहरन पैदा करती है, तनमन में एक मादक एहसास होता है और हमारा रोमरोम पुकार उठता है- यही है मेरे मन का मीत, मेरा जीवनसाथी.

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इस मनुष्य की तसवीर के सहारे उस ने इतने साल गुजार दिए थे. आज वह उस के सामने प्रार्थी बन कर खड़ा था. उस से प्यार की याचना करते हुए. क्या वह इस मौके को गवां देगी?

नहीं, उस ने सहसा तय कर लिया कि वह केशवन का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगी. अगर उस ने ये मौका हाथ से निकल जाने दिया तो वह जीवन भर पछताएगी. आज तक वह औरों के लिए जीती आई थी. अब वह अपने लिए जिएगी और रही उस के परिवार की बात तो चाहे उन्हें अच्छा लगे चाहे बुरा, उन्हें उस के निर्णय को स्वीकार करना ही होगा.

घड़ी का घंटा बज उठा तो उस की तंद्रा भंग हुई. ओह वह बीते दिनों की यादों में इतना खो गई थी कि उसे समय का ध्यान ही न रहा. वह उठी और उस ने एकएक कर के घर का काम निबटाना शुरू किया. उस ने कमरों की सफाई की. आज उसे इस घर में एक अपनापन महसूस हो रहा था. हर एक वस्तु पर प्यार आ रहा था. उस ने केशवन के कपड़े करीने से लगाए. बगीचे से फूल ला कर कमरों में सजाए.

उस की निगाहें घड़ी की ओर लगी रहीं. जैसे ही घड़ी में 10 बजे घर का मुख्य द्वार खुला और केशवन ने प्रवेश किया.

‘‘ओह,’’ वह एक कुरसी में पसर कर बोला, ‘‘आज मैं बहुत थक गया हूं. आज सुबह 3 औपरेशन करने पड़े.’’

मालविका के मन में केशवन पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया. उस ने कौफी का प्याला आगे बढ़ाया.

‘‘ओह, थैंक्स.’’

वह कौफी के घूंट भरता रहा और उसे एकटक देखता रहा.

वह तनिक असहज हो गई, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं?’’

‘‘तुम्हें देख रहा हूं. आज तुम्हारे चेहरे पर एक नई आभा है, एक लुनाई है, एक अजब सलोनापन है. ये कायापलट क्यों हुई?’’

वह लजा गई, ‘‘क्या आप नहीं जानते?’’

‘‘शायद जानता हूं पर तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं.’’

उस के मुंह से बोल न निकला.

‘‘मालविका, कल मैं ने तुम से कुछ पूछा था. उस का जवाब क्या है बोलो, हां कि ना?’’

मालविका ने धीरे से कहा , ‘‘हां.’’

केशवन ने उठ कर उसे अपनी बांहों में ले लिया.

‘‘मालविका, आज मैं बहुत खुश हूं मुझे मालूम था कि तुम मेरा प्रस्ताव नहीं ठुकराओगी. तभी मैं ने तुम्हारे लिए ये अंगूठी पहले से ही खरीद कर रखी थी.’’

उस ने जेब से एक मखमली डब्बी निकाली और उस में से एक हीरे की अंगूठी निकाल कर उस की उंगली में पहना दी.

‘‘मैं तुम्हें एक और चीज दिखाना चाहता था.’’

‘‘वह क्या?’’

‘‘केशवन ने अपना हाथ आगे किया. मालविका चिंहुक उठी. उसे लगा वह रंगे हाथों पकड़ी गई है.’’

‘‘अरे,’’ वह हकलाने लगी, ‘‘ये तसवीर तो मेरे बक्से में थी. ये आप को कहां से मिली?’’

‘‘ये तसवीर मैं ने आप के बक्से से नहीं ली मैडम. ये तो मेरे मेज की दराज में पड़ी रहती है.’’

‘‘मालविका अवाक उस की ओर देखने लगी. शर्म से उस की कनपटियां लाल हो गईं.’’

मालविका की प्रतिक्रिया देख कर केशवन हंस पड़ा, ‘‘अरे पगली, जिस तरह तुम ने हमारी मंगनी के अवसर पर ली गई ये तसवीर संभाल कर रखी थी, उसी तरह मैं ने भी एक तसवीर मौका पा कर उड़ा ली थी. इसे जबतब देख कर तुम्हारी याद ताजा कर लिया करता था.’’

वह झेंप गई. ‘‘ओह, तो आप जान गए थे कि मैं कौन हूं.’’

‘‘और नहीं तो क्या. तुम ने क्या सोचा कि मुझे अनजान लोगों का मुफ्त इलाज करने का शौक है? उस दिन अस्पताल में तुम्हें मैं पहली नजर में ही पहचान गया था. तुम्हें भला कैसे भूल सकता था? आखिर तुम मेरा पहला प्यार थीं.’’

‘‘और आप ने यह बात मुझ से इतने दिनों तक बड़ी होशियारी से छिपाए रखी,’’ उस ने मीठा उलाहना दिया.

‘‘और करता भी क्या. तुम्हारा आगापीछा जाने बगैर मैं अपना मुंह न खोलना चाहता था. मैं तो यह भी न जानता था कि तुम शादीशुदा हो या नहीं, तुम्हारे बालबच्चे हैं या नहीं. तुम्हें अचानक अपने सामने देख कर मैं चकरा गया था. जब तुम्हें रोते हुए देखा तो कारण जान कर तुम्हारी मदद करने का फैसला कर लिया.

‘‘जब हमारी बातों के दौरान यह पता चला कि तुम्हारी शादी नहीं हुई है और न ही तुम्हारे जीवन में और कोई पुरुष आया है तो मैं ने तुम्हें अपना बनाने का निश्चय कर लिया. मेरा तुम्हें अपने घर बुलाने का भी यही मकसद था. मैं तुम्हारा मन टटोलना चाहता था. मैं चाहता था कि हम दोनों में नजदीकियां बढ़ें. हम एकदूसरे को जानें और परखें और जब मैं ने जान लिया कि तुम्हारे मन में मेरे प्रति कोई कड़वाहट नहीं है, कोई मनमुटाव नहीं है तो मेरी हिम्मत बढ़ी. मैं ने तुम से शादी करने की ठान ली.’’

मालविका की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई. इतने बड़े संयोग की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

केशवन ने उसे बांहों में भींच लिया, ‘‘एक बार भारी गलती की कि अपने पिता का विरोध न कर तुम्हें खो दिया. शादी के बाद घर पहुंच कर मैं ने अपने पिता से बहुत बहस की पर वे यही कहते रहे कि उन्होंने मेरी पढ़ाई पर अपनी सारी पूंजी लगा दी है और ये रकम वे कन्या पक्ष से वसूल कर के ही रहेंगे. मैं ने भी गुस्से से भर कर अमेरिका जाने की ठान ली जहां से ढेर सारे डौलर कमा कर अपने पिता को भेज सकूं और उन की धनलोलुपता को शांत कर सकूं. उस के बाद नैन्सी मेरे जीवन में आई और मैं ने तुम्हें भुला देना चाहा.

‘‘मैं मानता हूं कि मैं ने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया. अब मैं तुम से शादी कर के इस का प्रतिकार करना चाहता हूं.

मालविका क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि हम दोनों का मिलन अवश्यंभावी था? किसी अज्ञात शक्ति ने हमें एकदूसरे से मिलाया है. नहीं तो न तुम अमेरिका आतीं और न हम यों अचानक मिलते.’’

उस ने मालविका के आंसू पोंछे, ‘‘यह समय इन आंसुओं का नहीं है. ये हमारी नई जिंदगी की शुरुआत है. मालविका, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. जो कुछ बीत गया उसे भुला दो और भावी जीवन की सोचो. हमें एकदूसरे का साथ मिला तो हम बाकी जिंदगी हंसतेखेलते गुजार देंगे, कल हम अपनी शादी के लिए रजिस्ट्रार औफिस जाएंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

‘‘फिर भी शादी के लिए हमें 2-4 चीजों की जरूरत तो पड़ेगी ही. मसलन, नई साड़ी, मंगलसूत्र वगैरह…’’

‘‘मंगलसूत्र मेरे पास है.’’

‘‘अरे वह कैसे?’’

‘‘मैं आप का दिया हुआ ये मंगलसूत्र हमेशा अपने गले में पहने रहती हूं. यह 20 साल से एक कवच की तरह मेरे गले में पड़ा हुआ है.’’

‘‘सच?’’ केशवन हंस पड़ा. उस ने झुक कर मालविका का मुंह चूम लिया.

मालविका का सर्वांग सिहर उठा. उसे ऐसा लगा कि उस का शरीर एक फूल की तरह खिलता जा रहा है. वह केशवन के आगोश में सिमट गई. उसे अपनी मंजिल जो मिल गई थी.

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