रेटिंगः साढ़े तीन स्टार
निर्माताः महेश बाबू और सोनी पिक्चर्स
निर्देशकः शशि किरण टिक्का
लेखकः अदिवी शेष
कलाकारः अदिवी शेष,सई मांजरेकर, शोभिता धूलिपाला,प्रकाश राज,रेवती, डॉ. मुरली शर्मा व अन्य
अवधिः दो घंटे 28 मिनट
26/11 को मुंबई में एक साथ कई जगह हुए आतंकवादी हमले में ताज होटल में छिपे आतंकियों से बेकसूर आम जनता को बचाने के लिए मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के नेतृत्व में एनएसजी कमांडो ताज होटल में घुसकर आतंकियों को ढूंढ ढूंढ़कर मार रहे थे. पर कुछ आतंकियों की घेरे बंदी में मेजर संदीप उन्नीकृष्णन इस कदर अकेले फंसे कि वह शहीद हो गए. ऐसे ही वीर के जीवन पर फिल्मकार शशि किरण टिक्का व लेखक व अभिनेता अदिवी शेष फिल्म ‘‘मेजर’’ लेकर आए हैं. जो कि तमिल, तेलगू मलयालम व हिंदी में एक साथ तीन जून को प्रदर्शित हुई है. पूरी फिल्म देखने के बाद एक बात उभर कर आती है कि यह फिल्म सिर्फ मेजर संदीप के बलिदानों के लिए श्रद्धांजलि नही है,बल्कि यह फिल्म एक अकेली पत्नी के बलिदानों और अपने बेटे को खोने वाले माता पिता के बलिदानों को भी श्रृद्धांजली है. फिल्म सैनिकों के परिवार की मनः स्थिति व दर्द का सटीक चित्रण करती है.
कहानीः
स्व. मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की बायोपिक फिल्म ‘‘मेजर’’ की कहानी की शुरूआत संदीप के बचपन से होती है,जिन्हे हर चीज से डर लगता है. लेकिन जब किसी की जिंदगी बचानी हो,तो वह खुद को नुकसान पहुंचाने से पहले दो बार नहीं सोचता. उसे वर्दी से प्यार है. इसलिए उसे जेल में खेलना पसंद है. उसे जेल में कैदियों से बात करना पसंद है. यही वजह है कि वह बचपन से ‘वर्दी’,‘नेवी’ व सैनिक की जीवन शैली से मोहित है. कालेज में पहुॅचने के बाद भी संदीप उन्नीकृष्णन (आदिवी शेष) के डीएनए में एक सुरक्षात्मक प्रवृत्ति अंतर्निहित है. स्कूल दिनों में ही संदीप की मुलाकात ईशा से हो जाती है,जो कि अपने माता पिता की व्यस्तता के चलते घर में अकेले पन के चलते दुःखी रहती है. . फिर दोनों के बीच प्यार पनपता है और विवाह भी करते हैं. संदीप के पिता चाहते है कि बेटा डाक्टर बने,मगर संदीप तो सैनिक बनना चाहता है. और उसका एनडीए की ट्रेनिंग के लिए चयन हो जाता है. ट्रेनिंग के बाद संदीप एनएसजी कमांडो बन जाता है. बहुत जल्द वह मेजर ही नहीं बल्कि नए एनसीजी कमांडो को टे्निंग देने लगते हैं. अचानक 2008 में मुंबई पर आतंकवादी हमला होता है. जब ताज होटल के लिए कमांडो रवाना होते हैं,तो मेजर संदीप खुद से उनका नेतृत्व करते हैं और महज 31 वर्ष की अल्प उम्र में वह वीरगति को प्राप्त होते हैं.
लेखन व निर्देशनः
इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यह है कि 26/11 के दुःखद आतंकवादी हमले (जिससे सभी परिचित हैं ) के गड़े मर्दे उखाड़ने में समय बर्बाद करने की बजाय लेखक अदिवि शेष व निर्देशक शशि किरण टिक्का अपना सारा ध्यान एक इंसान के तौर पर शहीद मेजर संदीप के ही इर्द गिर्द सीमित रखते हैं. लेकिन संदीप की अपने सेना के साथियों के बारे में कुछ ट्रैक अधूरे लगते हैं. फिल्म की पटकथा जिस अंदाज में लिखी गयी है,उसके चलते ढाई घ्ंाटे तक फिल्म दर्शकों को कुछ भी सोचने का वक्त नही देती. इंटरवल से पहले फिल्म कुछ ज्यादा ही फिल्मी हो गयी है. पर इंटरवल के बाद तो हर दृश्य कमाल का है. मगर संदीप और ईशा की पहली मुलाकात का दृश्य प्रभावित नहीं करता,यह कमजोर लेखन के साथ ही कमजोर निर्देशन की वजह से होता है. इतना ही नही संदीप व ईशा के रोमांस को ठीक से उकेरा नही गया. मतलब रोमांस को कुछ वक्त दिया जा सकता था. यह अलग बात है कि बाद में दोनों की कैमिस्ट्री कमाल की उभरकर आती है.
अमूमन इस तरह की युद्ध परक या सैनिक पर बनी फिल्मों में जबरन देशभक्ति को ठॅूंसा जाता है. मगर फिल्म ‘मेजर’ में कहीं भी उपदेशात्मक देशभक्ति नही है. फिल्म रोमांचक शैली में बनी है. रोमांच के पल व एक्शन दृश्य शानदार बन पड़े हैं. फिल्म तो मेजर के विचारों और उनकी बहदुरी का सेलीब्रेशन है. इतना ही नही फिल्म का क्लायमेक्स भी एकदम हटकर व शानदार है. यह फिल्म शहीद के पार्थिव शरीर के वक्त रूदन दिखाकर दर्शको को इमोशनल ब्लैकमेल नही करती है. क्लामेक्स में शहीद मेजर संदीप पिता के संवाद काफी प्रभाव छोड़ते हैं.
अक्षत अजय शर्मा के संवाद दिल तक पहुंचते हैं. कुछ जगहों पर श्रीचरण पकाला का संगीत कमजोर पड़ जाता है.
अभिनयः
फिल्म की कहानी व पटकथा लिखने के साथ ही चिकने चेहरे वाले किशोर संदीप के किरदार में अदिवि शेष ने जान डाल दी है. कहा जाता है कि जब अभिनेता खुद ही कहानी,पटकथा व किरदार लिखता है,तो वह किरदार लिखते लिखते उस किरदार का हिस्सा बन चुका होता है,उसके बाद उस किरदार को परदे पर पेश करना उसके लिए अति सहज होता है. कम से कम यह बात यहां अदिवि शेष के संदर्भ में एकदम सटीक बैठती है. जीवन से क्या चाहिए,इसकी समझ के साथ उसके लिए विपरीत परिस्थितियों में भी लड़ने को तैयार मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के किरदार को अपने अभिनय से अदिवी शेष ने जीवंतता प्रदान की है.
सही मायनों में देखा जाए तो सई मंाजरेकर को पहली बार एक बेहतरीन किरदार निभाने का अवसर मिला है. ईशा के किरदार में वह न सिर्फ खूबसूरत लगी हैं, बल्कि ईशा के अकेले मन की बेबसी को बहुत ही अच्छे ढंग से परदे पर उकेरने में सफल रही हैं. मगर भावनात्मक दृश्यों में वह विफल रही हैं और उनकी अनुभवहीनता उभरकर सामने आती है. इतना ही नही आर्मी आफिसर की पत्नी के दर्द को भी व्यक्त करने में वह बुरी तरह से असफल रही हैं. इस फिल्म की कमजोर कड़ी तो सई मांजरेकर ही हैं. एक बिजनेस ओमन व एक छोटी बच्ची की मां प्रमोदा के छोटे किरदार में शोभिता धूलिपाला अपनी छाप छोड़ जाती हैं. मुरली शर्मा भी छोटी सी भूमिका में याद रह जाते हैं.
संदीप के पिता के किरदार में प्रकाश राज और मंा के किरदार में रेवती ने अपनी तरफ से सौ प्रतिशत दिया है. वैसे भी यह दोनो माहिर कलाकार हैं. यह दोनों जिस तरह से अपने बेटे से प्यार करते हैं या उसकी मौत पर बारिश में भीगते हुए शोक करते हैं,यह दृश्य अति यथार्थ परक व दिल दहला देने वाले हैं. इन्हे रोते देख दर्शक की आंखे भी नम हो जाती हैं. मुरली शर्मा और अनीश कुरुविला का अभिनय ठीक ठाक है.
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