लूट सके तो लूटो

धर्म एक लूट का धंधा है, यह तो हम अरसे से कह ही रहे हैं पर हर अंधभक्त यह जानता है कि धर्म के नाम पर वह पगपग पर लुटता है और फिर भी उस का ब्रेनवाश इस कदर किया जाता है कि धर्म में लूट को भाग्य का फल मानता है और कहीं पूजापाठ के बाद उसे कोई लाभ हो जाए तो वह धर्म का कमाल मानता है.

चारधामों का प्रचार हाल में खूब जोरशोर से किया गया है और लाखों धर्मांधों को पर्यटन और पूजापाठ के दोहरे गुण गिना कर उन्हें इन स्थलों पर भेजा जा रहा है. अब पता चला है कि चारधाम के नाम पर लूट बाकायदा कंप्यूटर विज्ञान के साथ होने लगी है और अंतर्यामी चारधामों के देवता इसे रोकने में हमेशा की तरह असफल हैं.

साइबर ठगों ने चारधामों की यात्राओं की बुकिंग करने के लिए फर्जी वैबसाइटें बना रखी हैं जो गूगल को पैसे देने पर सब से ऊपर आ जाती हैं. लोग इन वैबसाइटों पर हर तरह की सुविधा, पक्की बुकिंग, टाइम, दाम, जगह जब पाते हैं तो उन्हें विश्वास हो जाता है और नैटवर्किंग या क्रैडिट कार्ड से भुगतान कर डालते हैं.

ये शातिर लोग हैलिकौप्टर बुकिंग, मंदिर टिकट बुकिंग, ट्रैवल बुकिंग, होटल बुकिंग, पंडित बुकिंग, स्वास्थ्य सेवा बुकिंग करते हैं और पैसे पहले रखा लेते हैं. शुरू में इन्हें सेवा लेने के जम कर फोन भी आते हैं और एक बार पैसे खाते से गए नहीं कि सन्नाटा छा जाता है. बेईमानीईमानदारी का चोलीदामन का साथ है. दोनों साथ चलते हैं पर जिस धर्म को जीवन को सुधारने, शराफत सिखाने, कल्याण करने और लक्ष्मी बरसाने वाला कह कर रातदिन प्रचारित किया जाता है वहीं पहले कदम पर लूट होनी शुरू हो जाए तो आश्चर्य तो नहीं लगता पर धर्म की पोल जरूर खोलता है.

धर्म का बाजार लूटता है. दुनियाभर में भव्य चर्च, मसजिदें, बौध बिहार, गुरुद्वारे, मंदिर उस चंदे और दान से बने हैं जो काल्पनिक वादों के बल पर वसूला गया है. हर धर्म में पोल ही पोल हैं और इसीलिए हर धर्म पोल खोलने को ईशनिंदा कहता है और राजाओं व सरकारों को पटा कर ईशनिंदा को धार्मिक भावनाएं भड़काने का नाम दे कर अपराध घोषित कर रखा गया है.

जो वैबसाइटें बेईमानी कर के पैसा लूट रही हैं वे असल में तो चंदा और दान ही जमा कर रही हैं. क्व10 हजार चढ़ाओ अवश्य संतान होगी. अदालत में केस डालेंगे, शेयरों के दाम बढ़ेेंगे, जल्दी शादी होगी और हैलिकौप्टर बुकिंग मिलेगी, टैक्सी स्टेशन पर खड़ी मिलेगी, गाइड हर जगह मिलेगा के  झूठों में आखिर अंतर क्या है. न पहले मामले में कुछ मिलता है न दूसरे में. धर्मांध तो खोएगा ही, चाहे मूर्ति के आगे खोए या मूर्ति के असलीनकली एजेंट के आगे.

गलत है जैंडर के हिसाब से न्याय

दिसंबर, 2017 में एक आदमी की शादी हुई पर उस की पत्नी से नहीं बनी. 1 साल के भीतर ही ऐसे हालात हो गए कि उसे लगा इस रिश्ते में रहा तो मर जाएगा. इसलिए उस ने पत्नी से अलग होने का फैसला ले लिया और कोर्ट जा कर तलाक की अपील की. वह इंसान 10 साल तक केस लड़ता रहा, लेकिन इस दौरान उस पर क्या कुछ गुजरा वह बता नहीं सकता.

पत्नी ने 498-ए का केस कर दिया. वह जेल चला गया. लेकिन किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि सच क्या है. कहीं यह मुकदमा झठा तो नहीं है. खैर, किसी तरह उसे कोर्ट से जमानत मिली तो उस ने अपना केस खुद लड़ने का फैसला किया. फिजियोथेरैपिस्ट की नौकरी छोड़ कर उस ने वकालत की पढ़ाई की ताकि खुद को बेगुनाह साबित कर सके.

उस की मेहनत रंग लाई और वह बाइज्जत बरी हो गया. पत्नी से उसे तलाक भी मिल गया. लेकिन उसे पत्नी से आजाद होने की भारी कीमत चुकानी पड़ी. समय और पैसे की बाबादी हुई वह अलग.

टूट गया सब्र का बांध

ऐसा ही एक और मामला है जहां तलाक के बाद भी पत्नी ने अपने पति का पीछा नहीं छोड़ा. वह पति के औफिस जा कर हंगामा शुरू कर देती, उसे गालियां देती, शोर मचाती. आजिज आ कर वह इंसान नौकरी छोड़ कर भाग गया, तो वह उसे व्हाट्सऐप पर मैसेज कर परेशान करने लगी. उसे लोगों से पिटवाया, उसे अगवा करवा कर अपने घर में ला कर बंद कर दिया. फिर 100 नंबर पर कौल कर के पुलिस को बुला कर कहा कि वह उस का रेप करने की कोशिश कर रहा था. रेप केस में उस इंसान को जेल हो गई.

जेल से निकल कर जब वह फिर से जिंदगी जीने की कोशिश करने लगा तो वह फिर आ धमकी और उसे गालियां बकने लगी, मारा भी. अब उस इंसान के सब्र का बांध टूट गया था इसलिए उस ने 24 पन्ने का लंबा सुसाइड नोट लिख कर आत्महत्या कर ली.

आखिर उस इंसान की गलती क्या थी? पुरुष होने की? क्या कोर्ट को उस की बात नहीं सुननी चाहिए थी और क्या समाज का यह फर्ज नहीं बनता था कि वह दोनों का पक्ष सुने?

मेरठ की एक महिला ने सरकारी अस्पताल से फर्जी मैडिकल सर्टिफिकेट बनवा कर अपने पति के खिलाफ थाने में मुकदमा दर्ज करवाया. महिला की बातों में आ कर पुलिस ने उस के पति को गिरफ्तार भी कर लिया. लेकिन बाद में इस मामले की जांच में पता चला कि महिला का किसी गैरमर्द से नाजायज संबंध था और पति इस पर एतराज करता था. अपने पति को रास्ते से हटाने के लिए महिला ने यह योजना बनाई और पति को झूठे केस में फंसा कर उसे जेल करवा दी.

पुरुष भी होते हैं घरेलू हिंसा के शिकार

घरेलू हिंसा और शोषण की बात वैसे तो घर की चारदीवारी से बहुत मुश्किल से बाहर आ पाती है और अगर आती भी है तो अमूमन समझ जाता है कि पीडि़त महिला ही होगी. लेकिन कई बार पुरुष भी चुप रह कर यह सबकुछ झेलते हैं. शर्मिंदगी, समाज के डर के कारण वे अपना दर्द बयां नहीं कर पाते हैं और अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं.

हौलीवुड सुपर स्टार जौनी डेप के साथ भी यही हुआ कि पत्नी के हाथों घरेलू हिंसा के शिकार होते हुए भी वे चुप रहे कि लोग और समाज उन के बारे में क्या कहेंगे.

जौनी डेप की ऐक्स वाइफ ऐंबर डेप ने उन पर घरेलू हिंसा का आरोप लगाते हुए कहा था कि नशे की हालत में डेप उस का यौन उत्पीड़न करते हैं और उसे मारने की धमकी देते हैं. ऐंबर की तरफ से उस की डाक्टर ने भी गवाही दी थी कि शराब के नशे में जान उस के साथ जबरन संबंध बनाने की कोशिश करते हैं और उस के साथ मारपीट भी करते हैं.

डाक्टर ने गवाही में यह भी कहा कि एक बार जौनी इतने हिंसक हो गए थे कि वे ऐंबर के प्राइवेट पार्ट में कोकीन ढूंढ़ने की कोशिश करने लगे. मगर तमाम गवाहों, सुबूतों, वीडियो, औडियो और सैकड़ों मैसेज खंगालने के बाद यही पता चला कि जान डेप पर लगाए गए सारे इलजाम झूठे थे.

कोरोनाकाल में पूरे देश में लौकडाउन के चलते लोग अपनेअपने घर में कैद हो कर रह गए थे. उस दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में भी काफी बढ़ोतरी हुई थी. लेकिन उस दौरान सिर्फ महिलाएं ही घरेलू हिंसा की शिकार नहीं हुईं, बल्कि कई पुरुष भी घरेलू हिंसा के शिकार हुए थे. यह बात अलग है कि भारत में अभी तक ऐसा कोई सरकारी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं हुआ जिस से इस बात का पता चल सके कि घरेलू हिंसा में शिकार पुरुषों की तादाद कितनी है. लेकिन कुछ गैरसंस्थान इस दिशा में जरूर काम कर रहे हैं.

दुनियाभर में केवल महिलाओं और बच्चों के साथ ही नहीं, बल्कि पुरुषों के साथ भी अत्याचार के मामले सामने आ रहे हैं. सिर्फ भारत में हर साल लगभग 65 हजार से अधिक शादीशुदा पुरुष खुदकुशी कर लेते हैं, जिस का कारण उन पर दहेज, घरेलू हिंसा, रेप जैसे झूठे मुकदमों का दर्ज होना है.

महिलाओं की सुरक्षा के लिए बलात्कार, दहेज आदि कानून जरूरी हैं, लेकिन कहीं न कहीं इन कानूनों को हथियार बना कर कुछ महिलाएं इन का दुरुपयोग भी कर रही हैं. ऐसे केसों में जो पुरुष फंसे या फंसाए जा रहे हैं, उन की इज्जत, समय और जो पैसों की बरबादी होती है उस की भरपाई कौन करेगा? कानून का आज जो दुरुपयोग किया जा रहा है उसे रोकना बहुत जरूरी है नहीं तो निर्दोष पुरुषों की जिंदगी झूठे केसों में फंसती चली जाएगी.

हंसी के पात्र बन जाते हैं

‘सेव इंडिया फैमिली फाउंडेशन’ और ‘माई नेशन’ नाम की गैरसरकारी संस्थाओं के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि भारत में 90 फीसदी से कहीं ज्यादा पति 3 साल की रिलेशनशिप में कम से कम एक बार घरेलू हिंसा का सामना कर चुके होते हैं. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि पुरुष जब अपनी शिकायतें पुलिस या फिर किसी और प्लेटफौर्म में करनी चाहीं तो लोगों ने उन की बातों पर विश्वास नहीं किया, बल्कि वे और हंसी के पात्र बन गए.

एक स्टडी कहती है कि जीवन में कभी न कभी अपने पार्टनर के हाथों हिंसा ?ोलने में महिलाओं और पुरुषों की तादाद लगभग बराबर है. हालांकि गंभीर हिंसा के मामले पुरुषों में महिलाओं के मुकाबले थोड़े कम होते हैं.

झूठे रेप केस में फंसते पुरुष

दिल्ली के आत्मा राम सनातन धर्म कालेज की आर्ट्स की स्टूडैंट आयुषी भाटिया ने पिछले 1 साल में 7 रेप केस अलगअलग पुलिस स्टेशनों में दर्ज कराए. लेकिन ये सारे फाल्स रेप केस थे. सख्ती करने पर पुलिस के सामने आयुषी ने स्वीकार किया कि वह लड़कों पर रेप के झूठे आरोप लगा कर उन से जबरन पैसे वसूलती थी.

उस ने बताया कि कैसे वह जिम, इंस्टा, औनलाइन डेटिंग ऐप पर 20 से 22 साल के लड़कों से दोस्ती करती और फिर उन से मिलती थी. लड़के के साथ फिजिकल रिलेशनशिप और किसी के साथ प्यार के वादे के बाद वह उस पर रेप का आरोप लगा दिया करती थी. सब से अजीब बात तो यह कि उस ने 1 साल में 7 झूठे रेप केस पुलिस स्टेशन में दर्ज करवाए.

बलात्कार एक घिनौना अपराध तो है ही, लेकिन उस से भी ज्यादा घिनौना अपराध यह है कि एक निर्दोष व्यक्ति पर बलात्कारी होने का ठप्पा लग जाना क्योंकि यहां पर एक निर्दोष व्यक्ति के मानप्रतिष्ठा दांव पर लग जाती है, साथ में उस की जिंदगी भी नर्क बन जाती है.

कुछ सालों पहले नई दिल्ली के करावल नगर के इब्राहिम खान पर बलात्कार का आरोप लगा था और आरोप भी किसी गैर ने नहीं, बल्कि उस की खुद की सगी बेटी ने लगाया था. संगीन आरोप था कि उस ने अपनी बेटी का रेप किया जिस से वह गर्भवती हो गई. इस आरोप के बाद इब्राहिम का सामाजिक बहिष्कार तो हुआ ही उसे जेल भी हुई. जेल में भी उसे कैदियों ने पीटा.

7 साल जेल में रहने के बाद साबित हुआ कि उस की बेटी ने उस पर झूठा इलजाम लगाया था क्योंकि वह बेटी के देह व्यापार में बाधक बन रहा था. बेटी के पेट में जो बच्चा था वह भी उस का नहीं था. अदालत ने इब्राहिम को बेगुनाह साबित होने पर उसे छोड़ तो दिया मगर तब तक उस की पूरी दुनिया तबाह हो चुकी थी.

एमपी में दर्ज हो रहे झूठे रेप केस

मध्य प्रदेश में सरकारी मुआवजा प्राप्त करने के लिए रेप केस के कई मामले दर्ज कराए गए. हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि अधिकतर केस झूठे और सरकारी मुआवजा लेने के लिए किए गए. दरअसल, एमपी में राज्य सरकार एससीएसटी एट्रोसिटी एक्ट के तहत पीडि़त महिला को 4 लाख रुपए का मुआवजा देती है. मामले में एफआईआर होने पर 1 लाख और कोर्ट में चार्ज शीट पेश होने पर 2 लाख रुपए दिए जाते हैं यानी 3 लाख रुपए तो सजा होने के पहले ही दे दिए जाते हैं. अगर आरोपी को सजा होती है तो 1 लाख रुपए और दिए जाते हैं. सजा न भी हो तो पहले दिया गया मुआवजा वापस नहीं मांगा जाता. यह प्रावधान केवल एससीएसटी वर्ग के लिए ही है, अन्य को नहीं.

झूठे रेप केस की अफवाह क्यों उठी

सागर की रहने वाली एक महिला ने एक व्यक्ति पर अपनी बेटी के बलात्कार का मामला दर्ज कराया. जब आरोपी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और कोर्ट में मामले की सुनवाई शुरू हुई तब दलित महिला ने ट्रायल कोर्ट में कबूला कि साधारण ?ागड़े में उस ने आरोपी पर अपनी नाबालिग बेटी से रेप का झूठा केस दर्ज करवाया था. यहां मुआवजे का लालच इस हद तक बढ़ चुका है कि झूठे आरोप लगा कर सरकारी मुआवजा हासिल किया जा रहा है.

यूपी के बरेली शहर की नेहा गुप्ता और साफिया नाम की 2 लड़कियां पैसे के लिए पुरुषों को फंसाने का रैकेट चला रही थीं. वे कई लड़कों पर बलात्कार के झूठे केस कर के पैसे हड़पने के बाद पकड़ी गईं.

बलात्कार की परिभाषा, जहां एक महिला के साथ उस की इच्छा के विरुद्ध, उस की सहमति के बिना, जबरदस्ती, गलत बयानी या धोखाधड़ी द्वारा या फिर ऐसे समय में जब वह नशे में या ठगी गई हो अथवा अस्वस्थ मानसिक स्वास्थ्य की हो और किसी भी मामले में यदि वह 18 साल से कम उम्र की हो, बलात्कार माना जाता है. लेकिन कुछ महिलाएं अपने लिए बनाए गए कानून का फायदा उठा कर पुरुषों को बदनाम करने का काम कर रही हैं.

पीडि़तों पर बुरा असर

उत्तरी इंगलैंड की रिसर्चर एलिजाबेथ बेट्स बताती हैं कि समाज पुरुषों को अपराधी मनाने में बिलकुल देर नहीं लगाता, लेकिन उन्हें पीडि़त मानने में उसे बड़ी दिक्कत होती है. वे कहती हैं टीवी पर कौमेडी शो में कई बार लोगों को हंसाने के लिए पुरुष पर अत्याचार होते दिखाया जाता है. इसलिए किसी महिला के हाथों पुरुष की पिटाई होते देख हमारा समाज हंसता है, जिस का अकसर पीडि़तों पर बुरा असर पड़ता है.

कई बार इस से जुड़ी शर्मिंदगी और मजाक उड़ाए जाने के डर से पुरुष सामने नहीं आते, हिंसा झूठलते हैं और मदद मांगने से शरमाते हैं. बेट्स की रिसर्च दिखाती है कि समाज में इसे जिस तरह से देखा जाता है उस का असर घरेलू हिंसा के शिकार पुरुषों पर पड़ता है. ऐसे पीडि़तों में हिंसा ?ोलने के कारण कई लौंग टर्म मानसिक और शारीरिक समस्याएं सामने आती हैं.

हमारे देश में जहां हर 15 मिनट पर एक रेप की घटना दर्ज होती है, हर 5वें मिनट में घरेलू हिंसा का मामला सामने आता है, हर 69वें मिनट में दहेज के लिए दुलहन की हत्या की जाती है और हर साल हजारों की संख्या में बेटियां पैदा होने से पहले ही मां के गर्भ में मार दी जाती हैं, ऐसे सामाजिक परिवेश में दीपिका नारायण भारद्वाज, जो कभी इन्फोसिस में सौफ्टवेयर इंजीनियर थी और फिर अपनी नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता में आ गईं वह डौक्यूमैंटरी फिल्म भी बनाती हैं उन का कहना है कि क्या मर्द असुरक्षित नहीं हैं? क्या उन्हें भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता है? क्या वे पीडि़त नहीं हो सकते?

दीपिका ने 2012 में पुरुष पक्षधर के इस मुद्दे पर रिसर्च शुरू की थी और पाया कि ज्यादातर दहेज प्रताड़ना केस झूठे होते हैं. झूठे आरोप में फंसाए जाने के कारण कई बेटों के मातापिता ने बदनामी के डर से आत्महत्या कर ली. वह पहली महिला हैं जिन का कहना है कि भारत में असली प्रताड़ना पुरुष झेल रहे हैं. हालांकि ऐसी बात नहीं है. महिलाएं भी कम प्रताडि़त नहीं हो रही हैं.

दीपिका नारायण का कहना है कि बदलाव लाना है तो पुरुषों के सहयोग की जरूरत है, न कि कुछ प्रतिशत पुरुषों के दुर्व्यवहार का उदाहरण दे कर पूरी पुरुष जाति को आपराधिक मानसिकता का ठहरा देना. उन का कहना है कि ऐसे ज्यादातर संगठनों का नेतृत्व कर रही महिलाएं खुद को महान कहलवाने, दूसरों के किए कामों में मुफ्त की स्पोर्टलाइट लेने, कानून, संविधान और सरकार को अपनी तरफ झकाने ताकि बैठेबैठाए बिना कुछ किए मुफ्त की रोटी और तारीफ मिलती रहे, हमारी सामाजिक बनावट में गलत हस्तक्षेप कर रही हैं. उन के हठ से तमाम घर बरबाद हो रहे हैं.

पुरुष ही शोषक नहीं

यह बात सच है कि दुनिया की आधी आबादी आज भी हर स्तर पर संघर्ष कर रही है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उसे वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जिस की वह अधिकरिणी है. लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि समानता के इस संघर्ष के बीच एक ऐसी धारा बह निकली जहां पुरुषों को सदैव शोषक और महिलाओं को शोषित के रूप में दिखाया जाता रहा है. लेकिन सत्य तो यह है कि ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, प्रेम, जैसे मानवीय अमनीभव पुरुष और स्त्री में समान रूप से प्रभावित होते हैं तो सिर्फ पुरुष ही शोषक कैसे हो सकता है.

यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आमजन से ले कर हमारी न्यायिक व्यवस्था पुरुषों की पीड़ा की उपेक्षा करती है. घरेलू हिंसा, दहेज, यौन उत्पीड़न अधिनियम महिलाओं की सुरक्षा और सम्मानपूर्वक जीवन देने के लिए बनाए गए हैं. ये लैंगिक समानता को स्थापित करने के लिए आवश्यक भी हैं. लेकिन जब एक के साथ न्याय और दूसरे के साथ अन्याय हो तो समाज ही बिखर कर रह जाएगा.

कुछ महिलाएं इन कानूनों का इस्तेमाल अपने निजी हितों के लिए करने लगी हैं. वे इन्हें पुरुषों से बदला लेने का रास्ता समझने लगी हैं. 2005 में उच्चतम न्यायालय ने इसे कानूनी आतंकवाद की संज्ञा दी थी, वहीं विधि आयोग ने अपनी 154वीं रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट शब्दों में स्वीकारा था कि आईपीसी की धारा 498ए का दुरुपयोग हो रहा है.

ट्रेड वाइफ साजिश या मजबूरी

आजकल ट्रेड वाइफ बनने का चलन सुर्खियों में है. ट्रेड वाइफ यानी वह ट्रैडिशनल या पारंपरिक बीवी जिसे घर की जिम्मेदारी संभालना पसंद हो. यह चलन पश्चिमी देशों से शुरू हुआ है. जिस तरह 50 के दशक की महिलाएं घर में रह कर अपनी किचन के काम करने, बच्चों को संभालना और पति को खुश रखने में अपनी खुशी समझती थी वही दौर अब फिर से दोहराया जाने लगा है.

लेकिन यदि कोई महिला अपना कैरियर भी साथ में संभालना चाहती है, मगर दोहरी जिंदगी का तनाव सहतेसहते थक जाती है तो मजबूरन उसे अपने कैरियर के साथ सम?ाता करना पड़ता है जो कतई सही नहीं है क्योंकि 21वीं सदी के इस दौर में आज भी जब हम बात करते हैं महिलाओं के कामकाजी या गृहिणी होने के बारे में तो अधिकतर पुरुषों का रु?ान गृहिणी होने पर अधिक होता है और यदि कामकाजी होना भी बेहतर माना जाता है तो उस के लिए अच्छी गृहिणी होने का गुण सर्वप्रथम माना जाता है.

तभी गृहिणी एक बेहतर स्त्री होने का सम्मान मिलता है वरना समाज की नजरों में यह सम्मान पाने का उस का सपना सपना ही रह जाता है. कई बार महिलाएं ऐसी सोच के चलते अपना अच्छाखासा कैरियर छोड़ कर घर में रहना ही पसंद करती हैं क्योंकि वे दोहरी जिंदगी जीतेजीते ऊब जाती हैं. कठपुतली नहीं है औरत

एक पढ़ीलिखी महिला होने के बावजूद अधिकतर महिलाओं को अपने पति या ससुराल वालों के हाथों की कठपुतली बनते आसानी से देखा जा सकता है क्योंकि शादी के बाद उन्हें कई चीजों के साथ सम?ाता करना पड़ता है और शादी के बाद उन का ध्यान खुद से हट कर अपनी गृहस्थी को संवारने में लग जाता है.

शादी से पहले जैसे खिलखिलाती चिरैया की तरह चहकते रहना उन्हें पसंद हुआ करता था वहीं अब वह हसीं सिर्फ मुसकराहट में बदल जाती है.

शादी के बाद कहीं भी आनेजाने से पहले सासससुर और पति की इजाजद लेना उन की मजबूरी बन जाती है. छोटी से छोटी बात में भी उन की मरजी जाननी पड़ती है. कोई भी निर्णय लेने के लिए वे उन सभी पर डिपैंड होने लगती हैं.

एक महिला अपना जैसे वजूद ही भूलने लगती है. यदि कोई महिला कामकाजी हो तो उस से उम्मीद की जाती है कि वह अपने काम के साथसाथ एक सफल गृहिणी का भी पूरा फर्ज अदा करे. यदि ऐसा करने में वह असफल हो जाए या वह पूरा समय अपने परिवार को न दे पाए तो उसे कई बार मानसिक तनाव से भी गुजरना पड़ता है.

दांव पर कैरियर

शादी के बाद लड़की की प्राथमिकता उस के पति, सास, ससुर और बच्चों की खुशी बनने लगती है. वह उन की पसंद का खयाल रखती है. वह खुद से पहले परिवार की चिंता करती है. यहां तक कि औफिस और घर के कामकाज में सारा दिन खटने के बाद भी वह कई बार घर वालों की आलोचनाओं का सामना करतेकरते थक जाती है और अंत में अपने कैरियर के साथ समझता कर परिवार की खुशी को अपनी खुशी मानने लगती है और खुद को ट्रेड वाइफ के टैग से नवाजने लगती है.

असल में यह एक महिला की खुद की पसंद है कि उसे घर के कामों मे व्यस्त रह कर खुश रहना है या वह अपने कैरियर को संवारते हुए अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती है. मगर कई बार ट्रेड वाइफ बनना उस की मजबूरी बन जाती

है और मजबूरी अपने ग्रहस्थ जीवन को बेहतर बनाने की.

इसीलिए वह भी एक जिम्मेदारी निभा कर सुकून में रहना पसंद करने लगती है. उसे इस बात का कोई पछतावा भी नहीं होता क्योंकि वह इसी में खुश होती है. पहले जहां कैरियर को ले कर उत्सुकता बनी रहती थी वहीं अब उसे किट्टी पार्टियों या भजनकीर्तनों को समय देना रास आने लगता है.

अधिकतर घरों में आज भी शादी के बाद लड़कियों का यही हाल है. आज भी हमारे समाज में लड़कियों के लिए शादी समझौते का दूसरा नाम है.

मुद्दा न वोट का न नोट का

इस में अब संदेह नहीं रह गया है कि जनता के हित के जो काम वोटों से चुन कर आई सरकारों को करने चाहिएअदालतें उन्हीं सरकारों के बनाए कानूनों की जनहित व्याख्या करते हुए काम करने लगी है. अदालतों ने साबित कर दिया है कि हमारी सरकारों के पास या तो मंदिर बनाने का काम रह गया है या ठेके देने का. दोनों में जनता का गला घोंट कर पैसा छीन कर लगाया जा रहा है. सरकारों को आम जनता के दुखदर्द की चिंता कम ही होती है जब मामला टैक्स का हो या वोट का या फिर धर्म का.

चैन्नई उच्च न्यायालय ने एक अच्छे फैसले में कहा है कि हालांकि एक मुसलिम औरत को खुला प्रथा के अनुसार तलाक लेने का पूरा हक है पर इस का सर्टिफिकेट कोईर् भी 4 जनों की जमात नहीं दे सकती. अब तक शरीयत कोर्ट’ ऐसे सर्टिफिकेट देती थी जिन्हें कैसे बनाया जाता था और उन के तर्कवितर्क क्या होते थेवहीं रिकौर्ड नहीं किए जाते थे. उच्च न्यायालय ने कहा कि औरतों को फैमिली कोर्ट जा कर अपना सर्टिफिकेट लेना चाहिए जहां उस के खाविंद की भी सुनी जाएगी.

इसी तरह सेना में ऐडल्ट्री यानी पतिपत्नी में से एक का किसी दूसरे से सैक्स संबंध इंडियन पीनल कोड में अब आपराधिक गुनाह नहीं रह गया होसेनाओं में सेना कानूनों के हिसाब से चलता रहेगा. यह बहुत जरूरी है क्योंकि सैनिकों को महीनों घरों से बाहर रहना पड़ता है और उन के पास उन के पीछे बीवियों के गुलछर्रे उड़ाने की खबरें आती रहती हैं.

इसी तरह महीनों पत्नी से दूर रहे सैनिक पति कहीं किसी लोकल औरत से संबंध न बना लेंइस गम में पत्नियां घुलती रहती हैं.

अपराधी होने का साया दोनों को काबू में रख सकता है. सैनिक युद्ध में बिना घर की फिक्र किए तैनात रहेंयह देश की सुरक्षा के लिए जरूरी है.

केंद्र सरकार मुसलिम कानून में 3 तलाक को बैन करने का ढोल बजाती रहती है पर उसे इन लाखों हिंदू औरतों की चिंता नहीं है जो तलाकों के मुकदमों के लिए अदालतों के गलियारों में चप्पलें घिस रही हैं.

अगर पति या पत्नी में से कोई 1 मिनट पर अड़ जाए तो तलाक महीनोंबरसों टलता रहता है. जैसे हिंदू कानून में शादी मिनटों में कोई भी तिलकधारी करा सकता हैतो तलाक भी क्यों नहीं हो सकताहांअगर हिंदू औरतें इतनी पतिव्रताधर्मकर्मजन्मजन्मांतरों को मानने वाली हों तो बात दूसरी होती. वे तो आम दुनियाभर की औरतों की तरह जिन्हें तलाक की तलवार के नीचे आना पड़ सकता हैसरकार उन्हें तरसातरसा कर तलाक दिलवाती है. सरकार कानून में रद्दोबदल करने में कोई इंटरैस्ट ही नहीं लेती क्योंकि यह मुद्दा न तो वोट का है न नोट का. चैन्नई की अदालत ने सही किया है या गलत अभी कहना पक्का नहीं?

हक की लड़ाई

इस में अब संदेह नहीं रह गया है कि जनता के हित के जो काम वोटों से चुन कर आई सरकारों को करने चाहिए, अदालतें उन्हीं सरकारों के बनाए कानूनों की जनहित व्याख्या करते हुए काम करने लगी है. अदालतों ने साबित कर दिया है कि हमारी सरकारों के पास या तो मंदिर बनाने का काम रह गया है या ठेके देने का जिन में जनता का गला घोंट कर पैसा छीन कर लगाया जा रहा है, सरकारों को आम जनता के दुखदर्द की ङ्क्षचता दाव ही होती है जब मामला टैक्स का हो या वोट का या फिर धर्म का.

चेन्नै उच्च न्यायालय ने एक अच्छे फैसले में कहा है कि हालांकि एक मुसलिम औरत को खुला प्रथा के अनुसार तलाक लेने का हक पूरा है पर इस का सॢटफिकेट कोर्ई भी 4 जनों की जमात नहीं दे सकती. अब तक शरीयत कोर्ट ऐसे सॢटफिकेट देती थी जिन्हें कैसे बनाया जाता था और उन के तर्कवितर्क क्या होते थे, वहीं रिकार्ड नहीं किए जाते थे. उच्च न्यायालय ने औरत को फैमिली कोर्ट जा कर अपना सॢटफिकेट लेना चाहिए जहां उस के खाङ्क्षवद की भी सुनी जाएगी. इसी तरह सेना में एउल्ट्री यानी पतिपत्नी में से एक का किसी दूसरे से सैक्स संबंध इंडियन पील्ल कोर्ड में अब आपराधिक गुनाह नहीं रह गया हो, सेनाओं में सेना कानूनों के हिसाब से चलता रहेगा. यह बहुत जरूरी है क्योंकि सैनिकों को महीनों घरों से बाहर रहना पड़ता है और उन के पास उन के पीछे वीबियों के गुलछर्रे उड़ाने की खबरें आती रहती हैं.

इसी तरह महीनों पत्नी से दूर रहे सैनिक पति कहां किसी……….औरत से संबंध न बना लें, इस गम में पत्नियां घुलती रहती हैं. अपराधी होने का साया देशों के काबू में रख सकता है. सैनिक युद्ध में बिना घर की फिक्र किए तैनात रहे पर देश की सुरक्षा के लिए जरूरी है. केंद्र सरकार मुसलिम कानून में 3 तलाक को बैन करने का ढोल बजाती रहती है पर उसे इन लाखों ङ्क्षहदू औरतों की ङ्क्षचता नहीं है जो तलाकों के मुकदमों के अदालतों के गलियारों में चप्पलें घिस रही हैं. अगर पति या पत्नी में से एक मीनिट पर अड़ जाए से तलाक महीनों बरसों टलता रहता है. जैसे ङ्क्षहदू कानून शादी मिनटों में कोई भी तिलकधारी करा सकता है, तलाक भी क्यों नहीं हो सकता.

हां, अगर ङ्क्षहदू औरतें इतनी पतिव्रता, धर्मकर्म, जन्मजन्मांतरों को मानने वाली वो बात दूसरी होती. वे तो आम दुनिया भर की औरतों की तरह जिन्हें तलाक की तलवार के नीचे आता पड़ सकता है. सरकार उन्हें तरसातरसा कर तलाक दिलवाती है, सरकार कानून में रद्दोबदल करने में कोई इंटरेस्ट ही नहीं लेती क्योंकि यह मुद्दा न तो वोट का है न नोट का.

क्यों जरूरी है स्कूल टाइमिंग में बदलाव

बहुत से वर्किंग मातापिता की चिंता होती है कि नौकरी के साथ बच्चों के स्कूल की टाइमिंग को कैसे संभालेंगे. जब बच्चे छोटे होते हैं तो यह दिक्कत ज्यादा होती है. इस कारण कई बच्चे देर से स्कूल जाते हैं, तो कई बार मां को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है. जो महिलाएं प्राइवेट सैक्टर में हैं शादी के बाद उन पर यह दबाव रहता है कि नौकरी छोड़ दें. कई महिलाओं को ऐसा करना भी पड़ता है, जिस के कारण वे वर्किंग लेडी से हाउसवाइफ बन जाती हैं. इस से महिलाओं की पूरी क्षमता का लाभ देश, समाज और घरपरिवार को नहीं मिल पाता है.

आज लड़कियों की शिक्षा में भी अच्छाखासा पैसा खर्च होता है. इस के बाद शादी कर के वे हाउसवाइफ बन कर रह जाएं तो वह शिक्षा बेकार हो जाती है. महिला सशक्तीकरण के लिए जरूरी है कि महिलाएं अपनी क्षमता भर काम करें. इस के लिए देश और समाज को भी ऐसे वातावरण को तैयार करना चाहिए, जिस से घरपरिवार  बच्चों के साथ महिलाएं अपना कैरियर भी देख सकें. स्कूल की टाइमिंग में बदलाव इस दिशा में एक क्रांतिकारी बदलाव होगा.

औफिस और स्कूल का समय एक हो

अगर स्कूल के समय और औफिस वर्किंग आवर्स में समानता हो तो महिलाओं के लिए काम के साथसाथ बच्चों को स्कूल छोड़ने में दिक्कत नहीं होगी. स्कूल की टाइमिंग सुबह 10 बज कर 30 मिनट से शुरू हो और शाम 5 बजे बंद हो. यही समय औफिस का भी हो, जिस से कोई भी वर्किंग महिला अपने साथ बच्चे को ले जाकर स्कूल छोड़ सके और जब औफिस से आए तो स्कूल से वापस घर ला सके.

ऐसे में महिलाओं का औफिस और जाते समय यह चिंता नहीं होगी कि वह नहीं रहेगी तो बच्चे की देखभाल कैसे होगी?

आज के समय में बच्चों का स्कूल सुबह 7 बज कर 30 मिनट से होता है. 1 से 2 बजे के बीच बच्चों की छुट्टी हो जाती है. बच्चे घर आते हैं. अगर घर में कोई देखभाल करने वाला नहीं है तो मातापिता को इस बात की चिंता होती है कि बच्चा घर में अकेले कैसे रह रहा होगा. कोई ऐसा काम न कर बैठे जो उस के लिए गलत हो जाए. कई लोग इस के लिए नौकरों और घरपरिवार वालों का सहयोग लेते हैं.

सुरक्षित रहेंगे बच्चे

कुछ मातापिता बच्चों को क्रेच में छोड़ते हैं. कई स्कूलों में यह व्यवस्था होती है कि स्कूल के बाद भी कुछ बच्चे जब तक मातापिता लेने न आएं स्कूल में रुके रहते हैं. यह हर व्यवस्था स्थायी और अच्छी नहीं होती है. नौकरों के भरोसे छोड़ने में दिक्कत होती है. उन को अलग से पैसा भी देना पड़ता है. क्रेच में अधिकतर जगहों पर होते नहीं हैं. जहां हैं भी बहुत अच्छे नहीं होते. छुट्टी के बाद स्कूलों में बच्चे बहुत सुरक्षित नहीं रहते हैं.

इन समस्याओं का एक ही हल है कि बच्चों के स्कूल का समय बदला दिया जाए. स्कूल और औफिस का समय एकसाथ कर दिया जाए, जिस से औफिस जाते समय मातापिता बच्चों को स्कूल जा कर छोड़ दें और जब औफिस से घर आएं तो बच्चों को स्कूल से साथ लेते हुए घर आएं.

इस के 2 लाभ होंगे- एक तो बच्चे को रोकने के लिए कोई पैसा खर्च नहीं होगा उस के साथ ही साथ औफिस में काम कर रहे मातापिता इस चिंता से भी मुक्त रहेंगे और औफिस में सही तरह से काम कर सकेंगे.

बच्चों के स्कूल टाइमिंग को बदलने से कोई दिक्कत नहीं होगी. स्कूल अपनी समय सीमा में ही खुलेंगे. अंतर केवल इतना होगा कि वे सुबह नहीं खुलेंगे. बच्चे सब से अधिक मातापिता के साथ ही सुरक्षित होते हैं. ऐसे में जब मातापिता ही घर से स्कूल छोड़ेंगे और वे ही छुट्टी के बाद घर लाएंगे तो किसी को कोई असुविधा नहीं होगी.

हिंदी में मैडिकल शिक्षा

मैडिकल एजुकेशन अब हिंदी में देने की कोशिश की जा रही है. हो सकता है सरकार कोशिश न कर के कुछ जगह इसे थोपे. जिन पुस्तकों के कवर दिखे हैं उन से लगता है यह एक्सपैरिमैंट बहुत बुरा नहीं है क्योंकि मैडिकल कालेज उस शुद्ध हिंदी में नहीं दी जा रही है जिसे पंडित, आचार्य रघुवीर ने देश पर थोपा था और आम बोलचाल की भाषा हिंदी का संस्कृतीकरण कर दिया था. एनेटौमी को एनेटौमी ही लिख कर ‘व्ययच्छेद विधा’ न लिख कर सही कदम उठाया है. हिंदी का गुण रहा है कि यह सामान्य बोलचाल की भाषा रही है और सभी भाषाओं के शब्द आसानी से एडजस्ट करती रही है. रघुवीर ने हिंदी का संस्कृतीकरण कर डाला था ताकि यह केवल ऊंची जातियों वाले उन बच्चों तक लिमिटेड रह जाए जो किसी पंडित को टीचर की तरह रख सकें. हिंदी के नाम पर एक जाति ने हिंदी से आम आदमी को दूर कर डाला. वह हिंदी थोप दी गई जो बोली ही नहीं जाती थी जिस की अमिताभ बच्चन व धमेंद्र की फिल्म ‘चुपकेचुपके’ में कस कर पोल खोली गई.

जब भारतीय स्टूडैंट चीन, कजाकिस्तान, यूक्रेन में मैडिकल एजुकेशन के लिए जा सकते हैं और वहां की भाषाओं में लिखी किताबों और इंग्लिश की किताबों के सहारे मैडिकल एजुकेशन पूरी कर सकते हैं तो यहां क्यों नहीं संभव है.

दिक्कत इस बात की है कि यह स्टैप केवल पौलिटिकल है, ???…आईकार्ड…??? है. न अमित शाह न शिवराज सिंह चौहान को हिंदी में मैडिकल एजुकेशन देने में कोई रुचि है न उन्हें ???…कला…??? मालूम है. इन दोनों के निकट संबंधी विदेशों में अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं. उन्हें हिंदी से, बस, इतना प्रेम है कि वे घर के नौकरों और ड्राइवरों से बात कर सकें. वरना ये न हिंदी पढ़ते हैं और न चाहते हैं. 97 एक्सपर्ट्स ने जो टैस्ट दवाएं तैयार की हैं उन में इंग्लिश को अनटचेबल नहीं माना गया है. लैंग्वेज पूरी तरह मिक्स्ड है. इन्हें पढऩे में उन को आसानी होगी जिन की इंग्लिश कमजोर है.

कठिनाई यह है कि इन कम नंबर लाने वाले स्टूडैंट्स को तो देश के कालेजों में एडमिशन मिलता ही नहीं है. मध्यप्रदेश राज्य सरकार ने अगर अपने मैडिकल कालेजों में इसे लागू भी किया तो ये टैस्टबुक्स केवल सजावटी बना कर रह जाएंगी क्योंकि 90-98 फीसदी नंबर लाने वाले इन्हें छुएंगे भी नहीं. फिर जिन की मदरलैंग्वेज हिंदी नहीं है, वे एडमिशन तो ले लेंगे पर पढ़ेंगे इंग्लिश किताबें. वे जानते हैं कि मरीजों को चाहे इंग्लिश न आती हो, वे रिपोर्ट और प्रिस्क्रिप्शन इंग्लिश वाला ही चाहते हैं. सो, हिंदी वाले झोलाछाप बन कर रह जाएंगे.

अपने से कम ना समझें महिलाओ को

अफगानिस्तान के नए शासकों की लड़कियों की पढ़ाई को पूरी तरह बंद कर देने पर किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. अगर ईरान, सऊदी अरब, यूएई, कतर, इराक, लीबिया के बस में होता तो वे बरसों पहले यह कर देते पर इन तेल बेचने वाले देशों को पश्चिमी देशों को खुश रखना था और इसलिए उन्होंने आधाअधूरा इस्लामिक देश बनाए जिन में औरतों को कुछ छूट दी गई.

अफगानिस्तान के पास न अब तेल है, न वह रूस या चीन की सेना के लिए जरूरी है और इसलिए वह पूरा इस्लामिक देश बन गया है और इसलाम या किसी भी धर्म की पहली शर्त यही रहती है कि औरतें पढ़ें नहीं. सिर्फ बच्चे पैदा करें और धर्म की सेवा करें. ईसाई संसार में सदियों यही होता रहा पर वहां ङ्क्षप्रङ्क्षटग प्रेस आने के बाद नई सोच की लहर आई जिस से तकनीक बड़ी, रहने का ढंग सुधरा और साथ में औरतों को आजादी मिली. अफगानिस्तान को कुछ नहीं चाहिए. वे अपनी भेड़ों, पहाड़ों में होने वाली फसलें, इबादत और खूनखराबे में खुश हैं्र्र. तालिबानी लड़ाकू वहां न पढऩालिखना जानते हैं न कुछ बनाना. वे बस मारना जानते है. किसी तरह उन्होंने आधुनिक हथियारों को चलाना जरूर सीख लिया है. जितना पैट्रोल बंदूकें, तोपों, गाडिय़ां, टैंक, बारूद उन्हें चाहिए होता है वह उन्हें खेतों से निकली मादक दवाओं को और कालीन आदि बेंच कर मिल जाता है, वे आज कच्ची सडक़ों, कच्चे मकानों, हाथ के बुने कपड़ों में खुश हैं तो पश्चिमी देश हो या चीन, पाकिस्तान, रूस उन को किसी भी तरह समझाबुझा नहीं सकते.

यह नहीं भूलना चाहिए आज वहां जो औरतों के साथ हो रहा है उस के पीछे औरतों का ही हाथ है. मांए अपने लडक़ों को मरनेमारने के लिए पहले दिन से तैयार कर देती हैं. लडक़ों की मौत को अल्लाह की मर्जी मान लेती हैं. उन के कई बच्चे होते है, 2-4 मारे जाते हैं तो गम क्या. वे अपनी लड़कियों को खुद धर्म की कट्टरता के हमले करती हैं, उन की आजादी छीनती हैं, उन के बाहर निकलते पैरों को तोड़ डालती हैं. वे तालिबानियों लड़ाकों का सब से बड़ा सहारा है.

अफगान औरतों के सहारे अफगानिस्तान की इकौनोमी चलती है. वे कालीन बुनती है. फसल को संभालती है, जानवरों को पालती हैं. वे गुलाम है पर उन की और दूसरी औरते को गुलाम बनाए रखती हैं. लड़कियों को स्कूल न भेजने के फैसले के पीछे औरतें ही ज्यादा हैं. वे इस फैसले का विरोध करतीं तो मजाल है तालिबानी मर्द कुछ कर पाते. औरतों को सरेआम मारने पर बहुत औरतें तालियां बजाती है, वे ही उन औरतों की शिकायत करती हैं जिन्होंने गला घोंट राज का जरा सा भी विरोध करना चाहा. हर प्रौढ़, बूढ़ी औरत हर जवान औरत को समय से पहले ही बांध कर बूढ़ा कर देना चाहती है.

भारत में यही कोशिश रातदिन हो रही है, लड़कियां क्या पहनें, क्या खाएं. कहां घूमें, किसे दोस्त बनाएं, किस तरह आदी करें, किस तरह की बीवी बन कर रहे यह सब औरतें ही तय करती हैं, वे औरतें जो रातदिन धर्म की माला जपती है, हिंदू राष्ट्र के नाम पर वोट देती हैं. इस का आखिरी पढ़ाव अफगानिस्तान ही है, यह वे न भूलें.

ङ्क्षहदू राष्ट्र का मतलब मुसलिम मुक्त देश नहीं है, पंडा युक्त देश है जहां औरत को जब चाहे भगा लिया जाए, जब चाहे उस के नाककान काट लिए जाए. जब चाहो उस पर गंदे आरोप लगा दो, जब चाहो रेप कर दो, जब चाहे टुकड़ेटुकड़े कर दो, जब चाहो उसे खुद जमीन में धसने को मजबूर कर दो. तालिबानी सिर्फ काले रंग में नहीं होते. वे भगवा और सफेद में भी होते है.

दवाइयों के नाम पर पैसा कमा रहीं है कंपनियां

सरकार को नियंत्रित करना चाहिए ड्रग व्यापार पर वह लगी धर्म बचाने में. सरकारी मशीनरी को कफ सिरप और आई ड्रोपों से होने वाली मौतों की ङ्क्षचता नहीं, एक ङ्क्षहदू लडक़ी के धर्म परिवर्तन कर के मुसलिम लडक़े से शादी करने पर ङ्क्षचता होती रहती है.

पहले जोविया से खबरे आईं कि वहां सैंकड़ों बच्चों की मौत हरियाणा की एक कंपनी का कफ सीरप पीने से हुई. फिर उजबेकिस्तान से आई. अब डेलसम फार्मा के आई ड्रौप से होने वाली अंधेपन के मामले सामने आ रहे हैं. यह दवा अमेरिका के कर्ईशहरों में बिक रही है.
भारतीय फर्मा कंपनियां आजकल बहुत पैसा बना रही है. दुनिया भर की सस्ती, कौंप्लैक्स दवाएं बेचने में भारत ने एक खास जगह बना ली है. भारत में बनी दवाओं को भारतीय पर प्रयोग करना बहुत आसान है क्योंकि यहां की जनता वैसे ही भभूत, मंत्रों, हवनों में विश्वास करने वाली है और यदाकदा जब वे कैमिस्ट से किसी रोग की दवा लेते हैं तो होने वाले नुकसान पर सरकारी हस्पताल के डाक्टर ङ्क्षचता नहीं करते. वे एक और जने की आसमय मौते या गंभीर नुकसान को कंधे उचका कर टाल देते हैं.

जो देश आयुर्वेद होम्योपैथी, यूनानी, और्गेनिक, योगासनों को और पूजापाठ इलाज मानता हो और मौत या शारीरिक नुकसान को लिखा हुआ मानता है जो होना ही है, वहां किसी ड्रग का ट्रायल तो जरूरी ही नहीं है, यहां दवाएं टिन शेड वाले कारखानों में मैलेकुचैले मजदूरों के हाथों से बनती हैं, हां बाहर के दफ्तर में सफेद कोट पहने लोग मंडराते दिख जाएंगे. अब पैङ्क्षकग भी बढिय़ा है. सरकारी एजेंसियां सॢटफिकेट एप्लीकेशन पर रखे पैसों के हिसाब से देती हैं, दवाओं की क्वालिटी पर नहीं. डेलसम फार्मा के बने आई ड्रौपों को लुब्रीकेशन और…..रोकने के लिए किया जाता है पर वह बैक्टिरिया वाला आई ड्रौप है जो नैसल कैविटी के लंग्स तक बैक्टीरिया को ले जाता है और लंग्स में इंफैक्शन हो जाता है. आंख की रोशनी अलग चली जाती है.

इस पर न धर्म संसद बैठेंगी, न भगवाई मोर्चा निकलेगा क्योंकि उन्हें तो दान दक्षिणा से मतलब है और वे मौत व बीमारी को भगवान का आदेश मानते हैं. सरकार इस काम और अंधविश्वास को फैलो में पूरा सहयोग दे रही है. जगहजगह मंदिर घाट बन रहे हैं जिन में बढिय़ा पत्थर लग रहा है, लान बन रहे है. दवा फैक्ट्रियों की ङ्क्षचता किसे है. कितने भारतीय इन नकली या खराब दवाओं से मरते हैं, इस के तो आंकड़े भी कलेक्ट नहीं हो पाते.

सेहत का दुश्मन ऑनलाइन फूड

फ्रूड होम डिलिवरी सॢवस स्वीगी का इस साल का नुकसान 3629 करोड़ है. उस के साथ काम कर रही जामाटो भी भारी नुकसान में है और उस से 550 करोड़ की सहायता अभी किसी फाइनैंशियल इनवैस्टर से भी है. स्वीगी को पिछले साल 1617 करोड़ का नुकसान था पर फिर भी उस का मैनेजमैंट धड़ाधड़ पैसा खर्च करता रहा और अब यह नुकसान दोगुना से ज्यादा हो गया.

स्वीगी की डिलिवरी से फूले नहीं समा रहे ग्राहक यह भूल रहे हैं कि इस नुकसान की कीमत उन से आज नहीं तो कल वसूली ही जाएगी. जितनी भी ऐप बेस्ड सेवाएं हैं वे मुफ्त या सस्ती होने के कारण भारी नुकसान कुछ साल चलती हैं पर जब वे मार्केट पर पूरी तरह कब्जा कर लेती हैं तो खून चूसना शुरू कर देती हैं. स्वीगी अब धीरेधीरे छोटे रेस्तरांओं का बिजनैस खत्म कर रही है वह क्लाइड किचनों से काम करा रही है. वह अब डिलिवरी बौयज को दी गई शर्तों पर काम करने को मजबूर कर रही है. स्वीगी से जो रेस्तरां नहीं जुड़ता वह देरसबेर बंद हो जाता है चाहे उस की रेस्तरां की सेवा कितनी ही अच्छी हो. स्वीगी न घरों की औरतों को काम न करने का नशा डाल दिया है और इस के लिए एक साल का 3600 करोड़ रुपए का खर्च सस्ता है. अगर औरतें घरों की किचन में नहीं घुसेंगी तो उन्हें देरसबेर वही खाना पड़ेगा जो स्वीगी या उस जैसा कोई ऐप मुहैया करेगा. घरों में से किचन गायब हो जाएगी तो लोग दानेदाने के लिए किसी ऐप को तलाशेंगे.

जैसे किराने की दुकानों को अमेजन व जियो भारी नुकसान सह कर बंद करा रहे हैं वैसे ही स्वीगी लोगों का स्वाद बदल रही है. आप वह खाइए जो मां या पत्नी ने नही बनाया और डिलिवर हुआ. मां या पत्नी का प्रेम उस खाने से पैदा होता है जो वे प्रेम से बनाती हैं. खिलाती हैं. जब इस प्रेम की ही जरूरत नहीं होगी तो घर की छतें टूटने लगेंगी. यह बड़ी कौरपोरेशनों के लिए अच्छा है. सदियों तक राजा और धर्मों के ठेकेदार घरों से आदमियों को निकाल कर पैसा या धर्म प्रचार में लगाते रहे हैं और दोनों काम करने वालों को जम कर लूटते रहे थे. उन की औरतें बेबस, अनचाही, केवल बच्चे पैदा करने वाली मशीनें बन कर रह जाती थीं. अब इन औरतों को भी कौरपोरेशनों ने खापना शुरू कर दिया है और उन से किचन छीनवा दी है, सैनिकों या धर्म के सेवकों की तरह मैसों व लंगरों में खाना खाना पड़ता था, एक जैसा. वही स्वीगी करेगा. दिखावटी, नकली सुगंध वाला खाना जिस में सस्ती सामग्री लगे लेकिन पैङ्क्षकग बढिय़ा हो और दाम इतने कि न दो तो खाना मिले ही नहीं.

भारत में नए साल पर स्वीगी ने 13 लाख खाने डिलिवर किए क्योंकि इतने घरों की औरतों ने खाना बनाने से इंकार कर दिया. इस डिलिवरी में कौन लगा था. स्वीगी की एलेब लेबर जो भीड़ में गर्म खाना डिलिवर करने में लगी थी. उन के लिए न अब दीवाली त्यौहार रह गया है, न नया साल. 3600 करोड़ का खर्च इतनी बड़ी जनता को घरों में कैद करने में या मोटरबाइक पर गुलामी करने में कुछ ज्यादा नहीं है. इस का फायदा कोई तो उठा रहा है चाहे आप को वह दिखे न.

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