हैप्पी एंडिंग: भाग-3

मां मेरे गले लगने आई मैं एक कदम पीछे हट गई, आसपास रिश्तेदारों की भीड़ थी इसलिए थोड़ा पास आ कर मैं ने उन से कहा ‘‘आज कसम ले कर जा रही हूं, पीछे मुड़ कर नहीं देखूंगी, आज के बाद आप लोग मुझ से मिलने की कोशिश मत करना, खत्म हुआ इस घर से

मेरा रिश्ता.’’

फिर मैं ने मुड़ कर नहीं देखा, हेमंत ने शादी तो की लेकिन पति बनने की कोशिश नहीं की… मुझ से दूर रहते थे… पहले तो मुझे लगा शायद मेरी बेरुखी और उदास रवैए की वजह से मुझ से दूर है, मगर मेरी यह गलतफहमी अमेरिका जाने के बाद दूर हुई… वहां पता चला हेमंत पहले से शादीशुदा है, मुझ से शादी उस ने घर वालों के लिए किया है, मुझे ये सुन कर बहुत खुशी हुई क्योंकि मैं खुद इस रिश्ते के बंधन से आजादी चाहती थी, मैं सिर्फ सुमित की थी मरते दम तक उसी की रहूंगी लेकिन मेरी मजबूरी थी कि मैं हेमंत के साथ रहूं, उस की पत्नी जेनी का मेरे साथ व्यवहार अच्छा था.

कुछ दिनों के बाद उस ने तलाक देने की बात कर मुझे इस मुश्किल परिस्थिति से अपना रास्ता निकालने का उपाय दे दिया… मैं ने एक शर्त रखी, ‘‘तलाक देने के लिए मैं तैयार हूं, बस मुझे यहां रहने और अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए सपोर्ट करो. लेकिन सपोर्ट मुझे लोन की तरह चाहिए क्योंकि मैं वापस भारत नहीं जाना चाहती, मेरी पढ़ाई पूरी होते ही सारे पैसे चुका दूंगी.’’

वे दोनों मान गए और शुरू हुई मेरी एक नई कहानी… वह कहते हैं जो होता है अच्छे के लिए होता है, यह मेरे लिए अच्छा था… चार्टड एकाउंटैंट बनने का मेरा सपना पूरा हुआ, अमेरिका में मेरा खुद का लौ फर्म है, कुछ साल काम करने के बाद हेमंत का एकएक पैसा मैं ने वापस कर दिया था, लेकिन उस का एहसान नहीं भूल सकती. जब सारे रास्ते बंद थे तब हेमंत और जेनी ही मेरे साथ थे… बीते इन सालों में हेमंत का परिवार ही मेरा परिवार था, उस की पत्नी जेनी मेरी बैस्ट फ्रैंड बन गई थी. सुमित की बहुत याद आती थी. उस से बात करने के लिए न जाने कितनी बार फोन उठाया पर हिम्मत नहीं कर पाई… अनजाने में ही सही मैं अपनी प्रेम कहानी में गलत बन गई.

सालों के बाद काम की वजह से भारत आई तो यहां आने से खुद को रोक नहीं

पाई. खुद को दी कसम मैं भूलना चाहती हूं.

‘‘रीवा… तुम रीवा हो न, कितनी खूबसूरत हो गई हो, सुंदर पहले से थी लेकिन अब नूर टपक रहा है तुम पर’’ बीना आंटी सब्जियों की थैलियों को संभालते हुए मेरे सामने खड़ी थीं.

‘‘जी, आंटी… रीवा हूं. कैसी हैं आप’’ उन को देख कर मुझे कोई खुशी नहीं हुई जो उन्हें समझ आ गया था.

‘‘रीवा, मैं जानती हूं तुम मुझे कभी माफ नहीं करोगी, सुमित ने भी आज तक मुझे माफ नहीं किया, तुम दोनों के बीच संवाद का सूत्र मैं थी लेकिन तुम्हारे दिए गए खत सुरेखा भाभी के कहने पर मैं ने भेजना बंद कर दिया और सुमित को कुछ नहीं बताया.’’

‘‘आंटी, अब इन सभी बातों का कोई फायदा नहीं… जो मेरी किस्मत में था वह मिला मुझे’’

‘‘रीवा… तू यहां… कितनी बदल गई है.’’

बड़ी चाची भी सब्जी ले कर आ रही थीं.

‘‘चाची नमस्ते… आप सब्जी लेने आई हैं?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अब सब बदल गया बिटिया. घर के 6 हिस्से हो गए सब अपनी जिंदगी अपने अनुसार जीते हैं, अब कोई रोकटोक नहीं, तुम्हारी शादी की सचाई सुन कर भाभी तो जैसे पत्थर हो गई हैं, माताजी का रौब धीरेधीरे खत्म हो गया, अब तो बेटा… सब बदल गया’’ चाची ने एक सांस में घर की सारी कहानी बता दी.

‘‘अच्छा… चाची, बीना आंटी… मुझे कुछ काम है, कल घर आऊंगी.’’

मुझे निकलना था वहां से, अभी मां को फेस करने की हिम्मत नहीं थी मुझ में, आज मुझे अपनी गलती का एहसास हो रहा था. उस समय मेरा दिल टूटा था, गुस्से में थी लेकिन बाद में कई मौके थे जब मैं मां से बात कर सकती थी, गुस्से में लिए मेरे एक फैसले के कारण मेरी मां अपराधबोध में जीवन जी रही है… तड़प उठी मैं, मां से मिलने की इच्छा तीव्र हो रही थी, किसी तरह रात गुजरी, सूरज की किरणों के निकलने से पहले मैं हवेली के गेट के सामने खड़ी थी. मेरे आने की सूचना घर के अंदर पहुंच चुकी थी, सभी नींद से उठ कर बाहर निकल आए थे… ड्योढ़ी में दादी मिल गईं. मुझे अपनी बाहों में ले कर रोने लगी… यह मेरे लिए नया अनुभव था, आज तक मुझे कभी दादी की गोद नसीब नहीं हुई और अब इतना प्यार… सच कहा था चाची ने… सब बदल गया है.

मेरी आंखें मां को ढूंढ़ रही थी, पिताजी के पास गई उन्होंने सिर पर हाथ रखते हुए कहा ‘‘अच्छा किया बिटिया… घर आ गई, सुना है बड़ी अफसर बन गई है… जीती रहो, दुनिया भर की खुशियां मिलें तुम्हें.’’

‘‘पिताजी, मां कहां है?’’

‘‘बिटिया… वह अपने कमरे से बाहर नहीं निकलती, जाओ उस के पास, हो सकता है तुम्हें देख कर ठीक हो जाए.’’

मैं भारी कदमों से कमरे में पहुंची… मां बिस्तर के एक कोने में सिर टिकाए छत को घूर रही थी, निस्तेज आंखें, उन का गोरा सुंदर चेहरा फीका पड़ा था. मां को ऐसे देख मेरा दिल तड़प उठा.

‘‘मां… देखो मैं आ गई, तुम मुझे कैसे भूल गई. माना मैं नाराज थी, तुम ने भी कभी मिलने की कोशिश नहीं की, ऐसे यहां आराम से बैठी हो. इतनी दूर से आई हूं, अपनी रीवा को कुछ खिलाओगी नहीं.’’

जैसेतैसे खुद को सयंत करते हुए मां से बात करने लगी.

‘‘रीवा… मुझे माफ कर दे मेरी बच्ची… बहुत अन्याय किया मैं ने तेरे साथ.’’

मां ने कहा.

मेरी आंखें आज वर्षों बाद आंसुओं से भीग गईं. दोनों गले लग कर खूब रोए… आंसुओं के साथ गिलेशिकवे दूर हो रहे थे, 10 वर्षों के बाद आज मांबेटी का मिलन हो गया, मेरी मां आज मुझे वापस मिल गई. जिन रिश्तों से मुंह मोड़ कर में चली गई थी आज वो रिश्ते पहले से कहीं ज्यादा प्यार के साथ एक सुखद बदलाव के साथ मिले. कुछ नए रिश्ते भी… इस घर में आई बहुएं जो आजाद थीं, अपनी मर्जी की जिंदगी जी रही थीं, वे खुश थीं… जिंदगी में बदलाव हर लिहाज से अच्छा होता है.

शाम को सब से नजरें छिपाते मैं फिर मुंडेर पर आ गई… सब से मिल कर भी मेरे दिल का एक कोना उदास था.

‘‘सुमित… इतने वर्ष बीत गए अब तो तुम मुझे भूल गए होगे’’ बुदबुदाते हुए मैं मुंडेर पर बैठ गई.

‘‘ऐसा सोच भी कैसे लिया रीवा… तुम्हारा सुमित तुम्हें भूल जाएगा’’ सुमित की आवाज सुन कर मैं मुंडेर से कूद पड़ी.

‘‘संभल कर उतरो, चोट लग जाएगी.’’

सुमित ही है… मेरे सुमित, कितने बदल गए हैं. लड़कपन की छवि से निकल कर धीरगंभीर बेहद खूबसूरत प्रभावशाली व्यक्ति के मालिक सुमित मेरे सामने है. मैं स्तब्ध थी. वाकई क्या

वही है या मेरी आंखों को छलावा हुआ. मुझे

न मेरी आंखों पर भरोसा था न कानों पर. वो मुसकान कैसे भूल सकती हूं जिस के सहारे इतने वर्ष बिता दिए, मेरा वजूद उस के पास होने के अनुभव मात्र से परिपूर्ण हो रहा था. रिक्तता भरने लगी, दिल के उस दर्द भरे हिस्से को जैसे अमृत मिल गया हो.

‘‘रीवा… तुम ठीक हो, बूआ ने फोन किया कि तुम वापस आ गई हो. मैं जानता था एक न एक दिन तुम मेरे पास आओगी. जब प्रेम सच्चा हो तो मिलन जरूर होता है देर से ही सही,’’ मेरा हाथ उस ने अपने हाथों में ले लिया. उस की बातें, उस के स्पर्श से मैं भीग रही थी.

‘‘तुम सच में मेरे पास हो’’मेरे शब्दों में कंपन था, चेतना खो रही थी… मैं बेसुध हो उस की बाहों में झूल गई.

आंख खुली तो सभी घरवाले मुझे घेर कर खड़े थे, बीना आंटी, मां एकदूसरे का

हाथ थामे मुसकरा रही थीं.

सुमित मेरे सिरहाने बैठे थे.

मैं ने हैरत से सब को देखा सब के चेहरे पर सहमति दिख रही थी, सुमित का हाथ मैं ने अपने हाथों में थाम लिया… आखिरकार मेरे प्यार की हैप्पी ऐंडिंग हो ही गई.

नो एंट्री- भाग 3 : ईशा क्यों पति से दूर होकर निशांत की तरफ आकर्षित हो रही थी

मगर वह जवानी ही क्या जो रास्ता ना भटके. जवानी में हमारे हारमोंस हमसे वह सब करवा जाते हैं जिसको बाद में स्वीकारना तक कठिन हो जाए. युवावस्था ऐसा काल है जिसमें केवल वर्तमान होता है, ना भूत, ना भविष्य. आज जो कदम हम उठा रहे हैं उसका कल हमें क्या भुगतान करना पड़ सकता है, यह सोचना जवानी का काम नहीं.

कॉलेज के आखिरी साल में एक दिन ईशा अपने हॉस्टल के कमरे से बाहर आ रही थी कि हेमंत वहाँ आ गया. उसने अचानक उसका हाथ पकड़ लिया, “ईशा, मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं.”

“क्या हुआ?”, ईशा अचकचा गई.

“ईशा, मैंने तुम्हारी आंखों में अपने लिए कुछ पढ़ा है लेकिन अफसोस तुम मेरी आंखों में झांकने से चूक गईं.”

“यह कैसी बात कर रहे हो, हेमंत? तुम सागरिका के बॉयफ्रेंड हो.”

“क्या केवल एक दिन के लिए… आज के लिए तुम यह बात भूल नहीं सकती? क्या मैं तुम्हें क्यूट नहीं लगता? क्या तुम मुझे पसंद नहीं करती? अगर मैं झूठ बोल रहा हूं तो बेशक तुम फौरन इस कमरे से चली जाओ.”

ईशा का दिमाग यह कह रहा था कि यह सागरिका के साथ धोखा होगा परंतु उसका मन इस बात से हर्षित होने लगा कि जिस हेमंत को वह मन ही मन चाहती थी, वो भी उसे अपने समीप लाना चाहता है. आखिर दिल दिमाग पर हावी हो गया. उस दिन ईशा और हेमंत अपनी सीमाएं लाँघते हुए एक दूसरे की आगोश में समा गए. जवानी का उबाल दूध की तरह उफनने लगा. दोनों ने सारी हदें पार कर दीं.

जब यह तूफान शांत हुआ तब ईशा का ध्यान सागरिका की ओर गया. अपने दिल की बात सुनकर क्षणिक सुख की खातिर ईशा ने हेमंत के साथ जो किया उसके कारण अब उसका मन ग्लानि से भरने लगा. अपनी सबसे प्यारी सखी को धोखा देकर वह बहुत पछताने लगी. उस घटना के पश्चात जब कभी ईशा, सागरिका के सामने आती, उसे धोखा देने का घाव एक बार फिर हरा हो जाता. इससे बचने हेतु ईशा, सागरिका से नजरें चुराती, उससे ना मिलने के बहाने खोजती फिरती. अपने बचपन की सहेली को यूँ खो बैठने का दुख ईशा को बहुत सताता किन्तु सागरिका की आँखों में देखकर बात करने की हिम्मत अब ईशा खो चुकी थी. यहाँ तक कि अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के पश्चात उसने माता पिता के सुझाए रिश्ते के लिए फौरन हामी भर दी. ईशा का विवाह हो गया और वह अपनी नई दुनिया में खो गई.

आज सागरिका को पुनः मिलने के कारण ईशा के सामने सारा अतीत फिर से तनकर खड़ा हो गया. उस समय ईशा किसी से जुड़ी नहीं थी. उसके जीवन में किसी के प्रति कोई जवाबदेही नहीं थी. हेमंत ने भी यही कहकर उसके मन में उठ रहे संदेह को दबा दिया था, “तुम किसी प्रकार की ग्लानि क्यों ओढ़ती हो? आखिर तुम तो किसी से कमिटेड नहीं हो. यदि किसी को आपत्ति होनी चाहिए तो वह मैं या सागरिका हैं. मुझे कोई परेशानी नहीं, और सागरिका को इस बात की भनक भी नहीं पड़ने दूंगा.” हेमंत उसके अंदर चल रहे द्वंद को कुचलने में सफल रहा था. परंतु आज स्थिति विलग है.

चाहने, ना चाहने की ये लकीर चाकू की धार से भी ज्यादा पेनी होती है. कुछ कट जाने का डर होता है. ईशा वही गलती दोहराना नहीं चाहती थी. सागरिका उसकी सहेली थी इसलिए वो उससे दूरी बना पायी, किन्तु यदि मयूर को उसपर शक हो गया या उसे निशांत से उसके चोरी-छुपे मिलने-जुलने के बारे में पता चल गया तो क्या वह अपने चंचल मन की खातिर अपनी बसी-बसाई गृहस्थी तोड़ सकेगी? क्या वह इतनी बड़ी कीमत चुकाने को तैयार है?

घर लौटते हुए ईशा का सिर दर्द से फटने लगा. विचारों के अनगिनत घोड़े उसके दिलो-दिमाग को रौंदने लगे.  घर पहुँचकर ईशा ने माथे पर बाम लगाया और बिस्तर पर ढेर हो गई. शाम घिर आई थी. छुटपुट अंधेरा होने लगा. किंतु ईशा का मन आज घर की बत्तियां जलाने का भी नहीं हुआ. यूं ही बैठे-बैठे वह बाहर के वातावरण से मेल खाते अपने हृदय के अंधेरों में भटकने लगी. क्या करे उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था, “कितनी बड़ी बेवकूफ हूँ मैं जो अपने सुनहरे जीवन में खुद ही आग लगाने का काम कर बैठी.” उसका मन दो भागों में बट गया और दोनों ही पलड़े अपनी-अपनी ओर झुकने लगे. एक मन कहता कि जो हो गया सो हो गया. आगे नहीं होगा. इस अध्याय को यहीं समाप्त करो. दूसरा मन कहता कहीं निशांत ने मयूर को बता दिया तो उसकी गृहस्थी का क्या होगा! क्या जवाब देगी वो मयूर को! सिर पकड़कर बैठी ईशा, मयूर के घर लौटने से चेती.

“क्या हुआ? अंधेरे में क्यूँ बैठी हो?”, मयूर ने घर में प्रवेश करते ही पूछा.

“सिर में दर्द है इसलिए रोशनी में जाने की इच्छा नहीं की”, ईशा ने उदासीन सुर में उत्तर दिया.

मयूर ने ईशा के सिर को दबाया, खाना बनाया, फिर उसे दवाई देकर जल्दी सोने भेज दिया. “कितनी बड़ी गलती कर बैठी मैं जो इतना खयाल रखने वाले पति के होते हुए बाहर भटकने लगी. क्या प्यार करने वाले जीवनसाथी के बावजूद मुझे बाहर वालों की प्रशंसा की इतनी लालसा है कि उसके बदले मैं अपना बसा-बसाया जीवन बर्बाद कर दूँ? अपने पीछे चाहनेवालों की कतार की लौलुपता इतनी तीव्र हो गयी कि मैं अपना वर्तमान भुला बैठी. ये कितना बड़ा अनर्थ करने जा रही थी मैं!”, ईशा मानो निद्रा से जाग गयी. केवल बंद नयनों में ही नींद नहीं आती, कितनी बार वो जागृत अवस्था को भी शिथिल बनाने के योग्य होती है. किन्तु जब जागो तभी सवेरा. ईशा के मन-मस्तिष्क में छाया अब हर धुंधलका साफ हो गया.

ईशा एक सुखमय विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए अपने मन पर कोई अनावश्यक बोझ नहीं चाहती थी. उसने निशांत से अपने बढ़ रहे संबंधों की इति करने का निश्चय कर लिया. वैसे भी अभी देर नहीं हुई. उन दोनों के मध्य कोई ऐसा अध्याय नहीं खुला था जिसकी कीमत उसे अपना स्वर्णिम कल देकर चुकानी पड़े.

अब जब कभी निशांत ने ईशा के घर आना चाहा, या फिर उसे बाहर मिलने का न्यौता दिया, ईशा ने हर बार कोई न कोई बहाना बना दिया. हर बार वो अबाध गति से स्थिति से निकलने में सफल रही. किन्तु बारंबार ऐसा होने पर निशांत को संदेह होना स्वाभाविक था.

“मुझे ऐसा क्यों लग रहा है जैसे तुम मुझसे मिलना नहीं चाहती. कोई भूल हो गयी क्या मुझसे?”, उसे ईशा की उपेक्षा खलने लगी. वह ईशा की विमुखता का कारण जानना चाहता था.

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं. तुम तो जानते हो कि मैं एक विवाहिता स्त्री हूँ. घर-गृहस्थी के चक्करों में बेहद व्यस्त रहती हूँ”, ईशा गृहस्थ जीवन की व्यस्तता का बहाना देकर सभ्यतः बच गई. “मयूर के साथ आओ कभी घर पर, या फिर किसी संडे हम दोनों आते हैं तुम्हारे घर.”

निशांत एक शातिर लड़का था. ईशा के जवाबों और प्रतिक्रियाओं से उसे समझते देर न लगी कि अब इस इस गली में उसका प्रवेश निषेध है. आखिर ‘नो एंट्री’ के बोर्ड के आगे वो कितनी देर अपनी गाड़ी का हॉर्न बजाता रहता.

मन के दर्पण में– भाग 1

‘केवल मरी मछली ही धारा के साथ बहती हुई ऊपर तैरती है मृदुला, जीवित मछलियां पानी के भीतर और धारा के विपरीत भी उतनी ही ऊर्जा से तैरती हैं जितनी धारा के अनुकूल,’ कंपनी बाग में घुसते ही ललितजी का यह वाक्य अनायास ही मृदुला को याद हो आया. क्या कहना चाहते थे वे इस वाक्य के माध्यम से? सोचती हुई मृदुला की निगाहें बगीचे में लगी सीमेंट की बैंचों पर केंद्रित हो गईं. आज चौथा दिन है, ललितजी दिखाई नहीं दिए, वरना अकसर वे किसी न किसी बैंच पर बैठे दिखाई दे जाते हैं. बीमार पड़ गए हों, यह खयाल आते ही मृदुला का दिल आशंका से धड़कने लगा. हो सकता है, पैर में तकलीफ बढ़ गई हो, इस कारण सुबह सैर को न आ पाते हों.

पति ने ही ललितजी से यहां, बगीचे में उस का परिचय कराया था. उन के दफ्तर के साथी, हंसमुख, जिंदादिल, दुखतकलीफों को हंसतेहंसते झेलने वाले ललितजी अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे. मृदुला के पति की बीमारी के समय अस्पताल में ललितजी ने मृदुला की हर तरह मदद की थी. उन्हीं की सलाह पर मृदुला ने नौकरी से 2 साल पहले ही वी.आर.एस. ले लिया था. दफ्तरी किचकिच से फुर्सत पा ली थी और अस्पताल में पति की देखरेख करती रही थीं.

 

डायबिटीज के कारण पति का हृदय और गुर्दे जवाब दे गए थे. आंखें लगभग अंधी हो चुकी थीं. पांव के नासूर ने विकराल रूप धारण कर लिया था. सुबह की सैर डाक्टर ने जरूरी बताई थी, कहीं रास्ते में गिर न पड़ें इसलिए मृदुला उन के संग आने लगी थीं. बगीचे में मृदुला के पति ने बताया था कि ललितजी की पत्नी अरसे पहले ब्रेस्ट कैंसर से मर गईं. बेटीदामाद के साथ रहते हैं यहां. स्कूटर ऐक्सीडैंट में कूल्हे की हड्डी टूट गई थी. पांव में रौड पड़ी है इसलिए लंगड़ा कर चलते हैं.

टहलती हुई मृदुला सोचे जा रही थीं कि मन भी तो इसी तन का एक हिस्सा होता है. क्या मन हमें चैन लेने देता है? ललितजी से सुबह यहां इस बगीचे में रोज मिलना क्यों अच्छा लगता है उन्हें? जिस दिन वे नहीं मिलते उस दिन क्यों उदास रहती हैं वे? क्यों सबकुछ सूनासूना, बुराबुरा, खालीखाली सा लगता है? क्या लगते हैं ललितजी उन के?

आज चौथा दिन है जब वे यहां नहीं दिखाई दे रहे. किस से पूछें? किसी आदमी से पूछेगी तो पता नहीं वह उन के बारे में क्या सोचे, क्या धारणा बनाए? स्त्रीपुरुष किसी भी उम्र के हों, उन के रिश्तों को ले कर लोग हमेशा शंकाग्रस्त रहते हैं. और रहें भी क्यों नहीं? स्त्रीपुरुष के बीच लगाव, प्रेम, रागविराग किसी भी उम्र में हो सकता है. लड़का बता रहा था कि अमेरिका में तो लोग बुढ़ापे में भी विवाह कर लेते हैं…अकेलापन सब को खलता है.

ऐसा नहीं है कि मृदुलाजी अपने पति को भूल पाई हों. अपना घर छोड़ कर वे बेटा या बेटी के पास इसलिए रहने नहीं जातीं कि यहां, इस घर में उन के पति की यादें कणकण में बिखरी हुई हैं. विदेश में वे बेटे के साथ पता नहीं किस मंजिल पर आसमान में टंगी रहें. हैदराबाद में बेटीदामाद जिस फ्लैट में रहते हैं वह भी 13वीं मंजिल पर है. नीचे किसी काम से जाना नहीं होगा और ऊपर अकेली दिन भर उन के सुनसान फ्लैट में वे क्या करेंगी? आसपास वाले भी सब नौकरी- पेशा लोग. सुबह ही ताले लगा चले जाने वाले और देर रात काम से लौटने वाले. न किसी से मिलनाजुलना न बोलना- बतियाना.

यहां कम से कम बरसों पुराने परिचित परिवार हैं. मृदुलाजी उन सब को जानती हैं. सब उन्हें जानते हैं. सब के सुखदुख में शामिल होती हैं. मन होता है तो कहीं भी पासपड़ोस में जा बैठती हैं. वहां किस के पास उठेंगीबैठेंगी? कौन उन की सुनेगा, किसे फुर्सत है.

और सब से ऊपर ललितजी…पति के पांव का घाव जब गैंगरीन में बदल गया तो महीनों अस्पताल में रहे. मृदुला पति के साथ ही अधिक वक्त अस्पताल में बिताती थीं. जरूरत की चीजें और दवाएं ललितजी नियमित रूप से लाते रहते थे. कैसे उऋण हो पाएंगी वे ललितजी से? अपने सगेसंबंधी भी इतनी भागदौड़ और सेवाटहल नहीं कर सकते जितनी ललितजी ने उन के पति की की. पता नहीं सिर्फ अपने दोस्त से दोस्ती के कारण या फिर मृदुलाजी के किसी अनजाने आकर्षण के कारण…मृदुलाजी न चाहते हुए भी मुसकरा दीं…किस से पूछें, ललितजी क्यों नहीं आ रहे हैं?

‘हर नई पहल अंधेरे में एक छलांग होती है…अचानक, अनियोजित और नतीजों से अनजानी. परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी…पर विकास या प्रगति के लिए ऐसी नई पहल जरूरी भी होती है.’ बगीचे में घूमती मृदुलाजी सोचे जा रही थीं.

सहसा ‘राजधानी एक्सप्रेस’ के नाम से बगीचे में प्रसिद्ध रिटायर्ड फौजी महाशय अपने सफेद निकर और टीशर्ट पहने हमेशा की तरह तेजतेज चलते उन की बगल से गुजरे. इन्हें राजधानी एक्सप्रेस नाम ललितजी ने ही दिया है. उन्हीं के पड़ोसी हैं. यहां उन से बातचीत कम ही हो पाती है, कारण है उन की बेहद तेज गति…

‘‘सर, ललितजी 3-4 दिन से नहीं आ रहे हैं. बीमार हो गए हैं क्या?’’ बगल से गुजरते फौजी महोदय से मृदुला ने पूछ ही लिया. अब वे चाहे जो समझें पर वे पूछने से अपने को रोक नहीं पाईं. नतीजा चाहे जो हो.

‘‘आप को नहीं पता?’’ उन्होंने अपनी गति मृदुला के समान मंद की और बोले, ‘‘पैर में रौड पड़ी थी. पकावहो गया. मवाद पड़ गया. अस्पताल में भरती हैं. यहां से सीधा उन्हीं के पास अस्पताल जाता हूं. जरूरत की चीजें दे आता हूं डाक्टरों ने आपरेशन कर के रौड निकाल दी है. डाक्टर कहते हैं कि अगर तुरंत आपरेशन कर रौड न निकाली जाती तो सैप्टिक होने का खतरा था और उस से आदमी की मृत्यु भी हो सकती है.’’

मौत. सुनते ही बुरी तरह डर गईं मृदुला. अस्पताल का नाम, वार्ड आदि की जानकारी ले कर वे बिना देरी किए तुरंत बगीचे से अस्पताल को चल दीं. ललितजी ने उन्हें खबर क्यों नहीं की? इतना पराया क्यों मान लिया उन्होंने? क्या सिर्फ पारंपरिक संबंध ही संबंध होते हैं? बाकी के संबंध अर्थहीन होते हैं?

 

संदेह के बादल- भाग 1

सारी रात सुरभि सो नहीं पाई थी. बर्थ पर लेटेलेटे ट्रेन के साथ भागते अंधकार को कभीकभी निहारने लगती. इतने समय बाद अपने पति प्रारूप से मिलने की सुखद कल्पना से उस के शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी. गाड़ी ठीक सुबह 5 बजे स्टेशन पर आ गई थी. कुली बुलवा कर उस ने सामान उतरवाया और उनींदे मृदुल को गोद में

ले कर स्टेशन पर उतर कर अपने पति प्रारूप को ढूंढ़ने लगी. चिट्ठी तो समय पर डाल दी थी उस ने, फिर क्यों नहीं आए? कहीं डाक विभाग की लाखों चिट्ठियों में उस की चिट्ठी खो तो नहीं गई? वरना प्रारूप अवश्य आते.

हवा में काफी ठंडक थी. सर्दी अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी. उस शीतल बयार में भी पसीने के कुछ कण उस के माथे पर उभर आए थे. नया शहर, नए लोग, अनजान जगह. ऐसे में अपना घर ढूंढ़ भी पाएगी या नहीं. उस ने पर्स खोल कर पते की डायरी निकाली और पास खड़े रिकशे वाले को कस्तूरबा गांधी मार्ग चलने का निर्देश दे कर पहले रिकशे में सामान रखवाया और फिर गोद में मृदुल को ले कर खुद भी बैठ गई. कैसी अजीब सवारी है यह रिकशा भी? उस ने सोचा, हर समय गिरने और फिसलने का डर बना रहता है. 2 लोग भी कितनी मुश्किल से बैठ पाते हैं. दिल्ली में होती तो अपनी गाड़ी को दौड़ाती हुई अब तक कई किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी होती.

शहर की सुनसान सड़कें लांघता हुआ रिकशा एक बंगले के पास आ कर रुक गया था. बाहर नेमप्लेट पर अधिशासी अभियंता प्रारूप कुमार का नाम पढ़ कर उसे अपने गंतव्य तक पहुंचने की सूचना मिल गई थी. चारों ओर से भांतिभांति के पेड़ों से घिरे छोटे से बंगले तक पहुंचने के लिए उस ने रिकशे वाले को बाहर गेट पर ही पैसे दे कर विदा किया और हाथ में बैग पकड़ कर बंगले के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी. पहले का समय होता तो सीढि़यां लांघती हुई, संभवतया धड़धड़ाती हुई अब तक घर के अंदर पहुंच चुकी होती, पर इस समय एक अव्यक्त संकोच उस के पांव जकड़ रहा था. घर तो उस का ही है. प्रारूप के घर को वह अपना ही तो कहेगी, लेकिन पिछले कई दिनों से उन के बीच एक दीवार सी खिंच गई थी, जिसे बींघने का प्रयत्न दोनों ही नहीं कर पा रहे थे. अब तो काफी दिनों से न तो कोई पत्रव्यवहार उन दोनों के बीच था और न ही बोलचाल. उस ने अपने आगमन की सूचना भी मृदुल से करवाई थी. वह बेला, चमेली की झाडि़यों के बीच काफी देर तक यों ही सूटकेस थामे खड़ी रही.

‘‘सुरभि.’’

चिरपरिचित आवाज पर वह पीछे मुड़ गई थी, जैसे मुग्धावस्था से चौंकी हो. इतने समय बाद प्रारूप को देख कर वह किसी अमूल्य निधि को पा लेने की सुखद अनुभूति से अभिपूरित हो उठी थी. उन्हें एकटक निहारती रह गई थी. रंग पहले से अधिक खिल उठा था. शरीर छरहरा पर चुस्तदुरुस्त. हां, कनपटियों पर चांदी के तार खिल आए थे. सुबह की सैर से लौटे थे  शायद.

‘‘चलो, अंदर चलो. यहां क्यों खड़ी हो?’’ अपने कंधे पर कोमल स्पर्श पा कर वह चौंकी.

‘‘शीतला, सामान उठा कर अंदर रखवा दो,’’ आदेश दे कर उन्होंने मृदुल को गोद में उठा लिया और पत्नी से प्रश्न किया, ‘‘चिट्ठी लिख देतीं, मैं तुम्हें लेने स्टेशन आ जाता.’’

‘‘लिखी तो थी, फोन भी करवाया था. पता चला दौरे पर गए हुए थे तुम,’’ उस ने रुकरु क कर कहा.

‘‘अच्छा, शायद शीतला डाक देना भूल गई है. पिछले दिनों काफी व्यस्त रहा,’’ वे अपने विभाग के कई किस्से सुनाते रहे थे, पर उसे लगा, प्रारूप जानबूझ कर टाल गए हैं.

तभी शीतला ट्रे में प्रारूप के लिए नीबूपानी, उस के लिए चाय और मृदुल के लिए गिलास में दूध व कुछ बिस्कुट रख गई थी. पितापुत्र बातों में ऐसे व्यस्त हो गए जैसे सबकुछ एक ही दिन में जान, समझ लेंगे.

चाय की चुस्कियां लेते वह झाड़ू लगाती हुई शीतला को देखने लगी. सांवला चेहरा, कुमकुम की बिंदी, लाल बौर्डर की तांत की साड़ी और कोल्हापुरी चप्पल, छरहरा शरीर जैसे उस की अपनी थुलथुल काया का परिहास कर रहा था. गजब का आकर्षण है इस तरुणी में, चेहरे पर कुटिल मुसकान घिर आई थी. मां को काफी जतन करना पड़ा होगा इसे ढूंढ़ने में? सुरभि ने मन ही मन सोचा था.

चाय की चुस्कियां लेते हुए उस ने चोर दृष्टि से घर के हर कोने की टोह ले ली. घर का हर हिस्सा साफसुथरा और सुव्यवस्थित था. कमरे में नीले रंग के परदे और बरामदे में रखे सुंदर क्रोटोन विगत के कई दृश्यों को सजीव कर गए थे. लाल रंग सुरभि को पसंद था, जबकि प्रारूप को हलका नीला आसमानी रंग भाता था. वे कहते, खुले उन्मुक्त आकाश का परिचय देता है यह रंग, पर उन की कहां चली थी. सुरभि ने ज्यों ही लाल रंग के परदों से अपनी बैठक को सजाया, प्रारूप ने वहां बैठना बंद कर दिया था. उन्होंने खुद को अपने कमरे में कैद कर लिया था.

एक बार यों ही रंगबिरंगे क्रोटोन के कुछ गमले ला कर प्रारूप ने बरामदे में सजाए, तो भी सुरभि का पारा 7वें आसमान पर पहुंच गया था, ‘छोटी सी बालकनी है, 2 आदमी तो ढंग से खड़े नहीं हो सकते, गमले कहां रखोगे?’

उस ने घड़ी की ओर दृष्टि घुमाई. 9 बजने को आए थे. प्रारूप के दफ्तर जाने का समय हो गया था. यह सोच वह नाश्ता बनाने के लिए उठने लगी तो उन्होंने सबल रोक दिया, ‘‘जब से बीमार हुआ हूं, गरिष्ठ भोजन सुबहसुबह पचता नहीं है. शीतला को मां सब समझा गई हैं. वही बना कर ले आएगी, तुम आराम से बैठो.’’

मेज पर रखे बरतनों की खनखनाहट सुन कर उस की नजर उस ओर चली गई थी. इलायची का छौंक लगा कर बनी खिचड़ी की सोंधी महक कमरे में फैल गई थी. नाश्ता कर के दफ्तर जाते समय प्रारूप उस से कहते गए, ‘‘जो भी काम हो, शीतला से कह देना. यह सब काम बड़े सलीके से करती है.’’

अनायास कहे पति के वाक्य उसे अंदर तक बींध गए. वह खुद पर तरस खा कर रह गई थी. ब्याह के बाद कुछ ही दिनों में पतिपत्नी के बीच संबंधों की खाई इसी बात पर ही तो गहराती गई थी. प्रारूप ऐसी सहभागिता, सहधर्मिणी चाहते थे जो ढंग से उन की गृहस्थी की सारसंभाल करती, उन की बूढ़ी मां की सेवा करती और जब वे थकेहारी दफ्तर से लौटे तो मृदु मुसकान चेहरे पर फैला कर उन का स्वागत करती. लेकिन सपनों की दुनिया में विचरण करने वाली, स्वप्नजीवी सुरभि के लिए ये सब बातें दकियानूसी थीं. वह तो पति और सास को यही समझाने का प्रयत्न करती रही कि औरत की सीमाएं घरगृहस्थी की सारसंभाल और पति व सास की सेवा तक ही सीमित नहीं हैं. नौकरी कर के चार पैसे कमा कर जब वह घर लाती है, तभी उसे पूर्णता का एहसास होता है.

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संदेह के बादल- भाग 2

प्रारूप समझाते रह गए थे कि उन की खासी कमाई है, सिर पर छत है, जिम्मेदारी कोई खास नहीं, और जो है भी, उस का निर्वहन करने में वे पूर्णरूप से सक्षम हैं.

?पर महत्त्वाकांक्षी सुरभि के ऊपर से सबकुछ जैसे चिकने घड़े पर पड़े पानी सा उतर गया. अम्मा सोचतीं कि एक बार मातृत्व बोध होने पर खुद ही घरगृहस्थी में रम जाएगी पर वहां भी निराशा ही हाथ लगी. मृदुल की किलकारियां दादी और पिता ने ही सुनी थीं. उन्हीं दोनों की छत्रछाया में वह पलाबढ़ा था. कुछ समय बाद प्रारूप को पदोन्नति मिली जिस से तनख्वाह भी बढ़ी और रहनसहन का स्तर भी. उन्होंने मृदुल का दाखिला एक अच्छे पब्लिक स्कूल में करवा दिया था. कभी किसी चीज की कमी नहीं थी. एक बार फिर उन्होंने सुरभि को नौकरी छोड़ने के लिए कहा था, समझाया था कि बच्चे की सही परवरिश के लिए मां का घर पर होना बहुत जरूरी है. पर भौतिकवाद में विश्वास करने वाली पत्नी ने उन्हें यह कह कर चुप करवा दिया कि यह परवरिश तो आया और शिक्षिका भी कर सकती हैं. और फिर, दोहरी आय से ये सुविधाएं तो आसानी से जुटाई जा सकती हैं.

नन्हें मृदुल के मुंह में जब आया निवाला डालती तो प्रारूप क्षुब्ध हो उठते. बूढ़ी अम्मा को घर के काम में जुटा देखते तो मन रुदन कर उठता कि उन्होंने ब्याह ही क्यों किया? इस बात का जवाब अपने मन में ढूंढ़ना खुद उन के लिए बहुत बड़ा संघर्ष था. एक बोझ की मानिंद सारे कार्यकलाप निबटाते रहते, पर अपनी सहधर्मिणी से वे कभी लोहा नहीं ले पाए. उन में अपने बिफरते मन को संभालने की अद्भुत क्षमता थी. उन के मन की गहराइयों में जब भी उथलपुथल मचती, लगता ज्वालामुखी फट पड़ेगा, लावा निकलने लगेगा. मनप्राण जख्मी हो कर छटपटाने जरूर लगते थे, पर उन के मुंह से बोल नहीं फूटते थे. शायद समझ गए थे, कुछ भी कह कर अपमानित होने से अच्छा है होंठ सी कर रहा जाए.

उन्हीं दिनों उन का स्थानांतरण दार्जिलिंग हो गया. प्रारूप वहां जाना नहीं चाहते थे.

इसलिए नहीं कि उन्हें दिल्ली से विशेष लगाव था, बल्कि इसलिए कि वे जानते थे कि सुरभि कभी भी उन के साथ चलने को तैयार नहीं होगी और न ही नौकरी से त्यागपत्र देगी. ऐसे में अम्मा और मृदुल को अकेले भी नहीं छोड़ सकते और स्वयं रुक भी नहीं सकते. इसलिए अकेले ही जाने का निश्चय कर के उन्होंने अपना यह निर्णय जब अम्मा को सुनाया तो उन के धैर्य का बांध ढहने लगा. वे उन्हें वहां अकेले कैसे जाने देतीं? कौन उन की देखभाल करेगा?

मां ने सुरभि को समझाया था, ‘पतिपत्नी को एक ही देहरी में रहना होता है. जनमजनम का साथ होता है दोनों का,’ पर सुरभि ने मां की बात समझने के बदले, समझाना उचित समझा था. अपनी ओर से खुद ही सफाई दे कर उस ने पलभर में अपना निर्णय सुना दिया था, ‘3 ही बरस की तो बात है, पलक झपकते ही गुजर जाएंगे. अब तो मृदुल भी अच्छे स्कूल में जाने लगा है. अच्छे स्कूलों में दाखिले आसानी से तो मिलते नहीं. एक बार पूरा तामझाम समेटो और फिर वापस आओ, मुझ से नहीं होगा यह सब.’

वे अपनी अर्धांगिनी से इस से अधिक आशा कर भी नहीं सकते थे. प्रारूप ऐसे मौकों पर गजब की चुप्पी इख्तियार कर लेते थे. वैसे भी, जहां मन की संधि न हो, पतिपत्नी साथ रह कर भी एक दूरी पर ही वास करते है. अम्मा परेशान हो उठी थीं. बेटे से बहू के अलग रहने का खयाल उन्हें सिर से पैर तक हिला गया, पर क्या कर सकती थीं सिवा चुप्पी साधने के.

‘‘बीबीजी, दोपहर में क्या खाना बनाऊं?’’

शीतला के प्रश्न पर अतीत की खोह से निकल कर वह वर्तमान में लौट आई थी.

‘‘साहब क्या खाते हैं इस समय?’’

‘‘आज तो साहब बाहर गए हैं, इसीलिए डब्बा साथ में ही दे दिया. वैसे तो घर में ही आ कर खाते हैं.’’

उसे उस की मासूमियत पर चिढ़ हो आई. वह चिढ़ते हुए सोचने लगी कि अपने पति की पसंदनापसंद भी इस गंवार से पूछनी पड़ रही है. उसे अपना अधिकार छिनता सा लगा. फिर भी शीतला को आलूमटर की सब्जी बनाने का आदेश दे कर वह अपने शयनकक्ष में आ करलेट गई. थकान से पलकें बोझिल थीं, पर नींद कोसों दूर थी.

शीतला मटर छील रही थी. मृदुल उस की पीठ पर झूला झूल रहा था. वह ज्यों ही झुकती, गहरे गले की चोली में से उस का गदराया शरीर दिखाई देता, जिसे लाख प्रयत्न करने के बावजूद उस की साड़ी का झीना आवरण छिपाने में असमर्थ था. सुरभि के मन में कई प्रश्न कुलबुलाने लगे कि कहीं शीतला के मदमाते यौवन और गदराए शरीर ने प्रारूप की संयमित चेतना को छितरा तो नहीं दिया? जब विश्वामित्र जैसे तपस्वी की चेतना को मेनका ने भंग कर दिया था तो प्रारूप तो साधारण पुरुष है. अम्मा ने बताया था. शीतला का पति अपाहिज है, उधर प्रारूप भी तो इतने बड़े बंगले में एकाकी जीवन बिता रहे हैं. 2 युवा प्राणी क्या स्वयं को संयमित कर पाए होंगे.

जब से अम्मां ने उसे प्रारूप के यहां शीतला की नियुक्ति की बात बताई थी, वह परेशान हो उठी थी. उस के मन में शंकाओं के जाल फैलने लगे थे. अपनी कल्पना में कभी वह शीतला और प्रारूप को आलिंगनबद्ध देखती तो कभी उसे मृदुल और प्रारूप के बीच बैठे देखती. कई दिनों से कोरे पड़े दिमाग पर जैसे भावों और विचारों का रेला आ गया हो.

‘यह क्या कर गईं अम्मा?’ उस ने मन ही मन सोचा था. किसी पुरुष को नियुक्त करतीं. आदमी आखिर आदमी होता है और औरत, औरत. इन के आदिम और मूल रिश्तों पर किसीकिसी का ही बस चलता है. उस के पिता ने भी तो यही किया था. मृत्युशय्या पर पड़ी हुई उस की मां की सेवा के लिए नियुक्त नर्स को अपनी अर्धांगिनी बना  कर अपनी वफादारी का सुबूत दिया था.

अम्मा बाबूजी का कितना ध्यान रखती  थीं, उन्हें खिलाए बगैर नहीं खाती थीं. जब तक वे सोते नहीं थे, तब तक खुद भी नहीं सोती थीं और अगर वह देर से उठते तो क्या मजाल, घर में जरा सा भी शोर कर दे कोई. कहतीं, बाबूजी की नींद में खलल पड़ेगा. उन की कितनी सेवा करती थीं, पर एक बार बिस्तर पर पड़ीं तो बाबूजी की सारी ईमानदारी आंधी में उड़ने वाले तिनके समान उड़ गई थी. मां लाख सिर पटकती रही थीं, पर मुट्ठी में बंद रेत की तरह सबकुछ फिसल कर रह गया था.

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संदेह के बादल- भाग 3

अम्मा तो दोषी नहीं थीं. हारीबीमारी पर किसी का जोर नहीं चलता है, पर सुरभि ने तो खुद मुसीबत को न्योता दिया था. ब्याह के बाद से आज तक उस ने पति की सेवा करना तो दूर, कभी उस के दिल में झांकने की भी चेष्टा नहीं की थी. यहां आने के लिए अम्मा ने उस पर कितना जोर डाला था. पर वही नहीं मानी थी. प्रारूप जब भी अपनी परेशानियों की चर्चा उस से करते, वह सुनीअनसुनी कर देती. अम्मा के कानों तक ये बातें न पहुंचें, यही प्रयत्न रहता था उस का. डरती थी कि अम्मा उसे जबरन प्रारूप के पास भेज देंगी, फिर उस की नौकरी का क्या होगा, उज्जवल भविष्य का क्या होगा?

धीरेधीरे प्रारूप दिल्ली कम आने लगे थे. एक तो लंबा सफर उन के तनमन को शिथिल करता, ऊपर से पत्नी की तटस्थता और अवहेलना आहत कर जाती थी. बस, मां का प्यार और मृदुल का दुलार ही उन्हें शांति प्रदान करता था. फोन पर अकसर बात कर लेते थे. वह भी ज्यों ही सुरभि फोन उठाती, उन्हें कई काम याद आ जाते थे. कहनेसुनने को रहा भी क्या था? उन का भावुक मन कहां आहत हुआ था, इस की तो महत्त्वाकांक्षी सुरभि कल्पना भी नहीं कर पाई होगी.

पिछली बार उन्होंने अम्मा को फोन पर बताया था कि वे काफी दिनों से बीमार थे, उन्हें अतिसार हो गया था. अन्न का एक दाना भी नहीं पचता था. बेटे की बीमारी की खबर सुन कर मां सुलग उठी थीं. उन्होंने अपने जमाने की कई पतिव्रता औरतों के उदाहरण दे डाले थे कि ऐसे समय में पत्नी ही तो पति की सेवा करती है. बीमार इंसान दवा के साथसाथ प्यार व सहानुभूति की भी आशा रखता है. पर सुरभि के समक्ष सुनहरा भविष्य और शानदार कैरियर एक बार फिर मुंहबाए खड़ा हो गया था. उन दिनों दफ्तर में पदोन्नति की नई सूची बन रही थी. ऐसे में उस का कहीं भी जाना नामुमकिन था. यों उस ने फोन पर पानी उबाल कर पीने और समय पर दवा लेने की हिदायतें दे कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी थी. बेटे के पास अम्मा ही पहुंची थीं. अम्मा ने ही पूरी तरह से उन की देखभाल की थी. जब लौटने लगीं तो शीतला को प्रारूप की देखभाल के लिए नियुक्त कर आई थीं.

घर लौट कर उन्होंने शीतला की प्रशंसा में जमीनआसमान एक कर दिया था. अब यह प्रशंसा बहू को कुढ़ाने के लिए करती थीं या उस के मन में पति के प्रति प्रेम का बीज अंकुरित करने के लिए, यह तो वही जानें, पर सुरभि इस अनदेखी महिला के प्रति ईर्ष्यालु हो उठी थी. शीतला के रूप में उस के समक्ष मानो एक पत्थर की दीवार खड़ी हो गई थी. ठोस, ठंडी और पथरीली दीवार जिस पर वह मुट्ठियां पटकती रहती, पर कोई उत्तर नहीं मिलता था. पतिपत्नी के अंतरंग संसार को नष्टभ्रष्ट करता कोई तीसरा वहां पसर जाए, इस से पहले ही वह यहां आ पहुंची थी.

उसे यहां आए हुए 8 दिन हो गए थे, पर वह पूरी तरह से अपनी गृहस्थी संभाल नहीं पा रही थी. दैनिक दिनचर्या की छोटीछोटी परेशानियों में उस ने कभी दिलचस्पी नहीं ली थी. सभी शीतला कर रही थी.

उस दिन रविवार था. सभी बाहर आंगन में बैठ कर सर्दी की कुनकुनाती धूप का आनंद ले रहे थे. शीतला कपड़े धो रही थी. मृदुल बालटी में से पानी निकाल कर शीतला पर उलीचता जा रहा था और खिलखिलाता भी जा रहा था.

प्रारूप मंत्रमुग्ध से पूरे दृश्य का आनंद ले रहे थे. बोले, ‘‘कुछ ही दिनों में शीतला ने मृदुल को अपने वश में कर लिया है.’’

‘‘हां, बच्चों के साथ बड़ों को भी अपने वश में करने की अद्भुत क्षमता है इस में,’’ प्रारूप तल्खीभरे स्वर में छिपे पत्नी के व्यंग्य को भली प्रकार समझ गए थे.

जब पति की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला तो क्रोधावेश में उस ने रस्सी पर प्रारूप की कमीज फैलाते हुए शीतला के हाथों से कपड़े छीन लिए और उसे अंदर जा कर रसोई का काम संभालने का आदेश दिया था.

इस अप्रत्याशित व्यवहार से शीतला कांप कर रह गई थी. वह सोचने लगी थी कि न जाने क्या अपराध हो गया उस से? मालकिन के मन में उठ रहे अंतर्द्वंद्व से पूर्णतया अनिभज्ञ शीतला अंदर जा कर हैंगर उठा लाई और सुरभि से बोली, ‘‘बीबीजी, यह साहब की कमीज हैंगर पर फैला दीजिए.’’

ईर्ष्या का नाग जैसे फन फैला कर खड़ा हो गया. न जाने कितनी देर तक उस की गिद्धदृष्टि शीतला के शरीर पर रेंगती रही. फिर उस के हाथ से हैंगर ले कर सुरभि ने जमीन पर पटक दिया.

प्रारूप कुछ परेशान हो उठे थे, बोले, ‘‘क्या बिगाड़ा  है इस गरीब अबला ने तुम्हारा, जो उसे यों अपमानित करने पर तुली हो?’’

‘‘तुम्हारी देखभाल किस तरह करनी है, यह क्या मुझे इस से सीखना पड़ेगा?’’

वह यों अकस्मात उमड़ आए पत्नीप्रेम पर विस्मित रह गए थे.

सुरभि का तीव्र स्वर दोबारा सुनाई पड़ा, ‘‘अब मैं यहां आ गई हूं. शीतला की क्या जरूरत है यहां?’’ उस की आवाज में दांपत्य के दर्पभरे अधिकार का बोध था.

‘‘तुम चली जाओगी, फिर कौन संभालेगा यह घर?’’ प्रारूप का स्वर कहीं दूर से आता लगा.

‘‘मैं दीर्घावकाश ले कर आई हूं. जब तक तुम्हारा तबादला वापस दिल्ली नहीं हो जाता, मैं और मृदुल यहीं रहेंगे, तुम्हारे पास.’’

‘‘तुम्हारे कैरियर और मृदुल के स्कूल का क्या होगा?’’ फिर अपनी तरफ से सही निर्णयात्मक ढंग से बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘गरीब, लाचार औरत है बेचारी, आदमी कमाता नहीं है, 3-3 बच्चों का भरणपोषण इसी के जिम्मे है. यहीं काम करने दो इसे. बेचारी तुम्हारी मदद भी करती रहेगी.’’

‘‘दुनियाभर के गरीबों का जिम्मा हम ने तो नहीं ले रखा?’’ बड़बड़ाती हुई पैर पटकती वह घर के अंदर चली गई थी. प्रारूप शायद सुन नहीं पाए थे या सुन कर भी अनसुना कर गए थे. ‘कितनी हमदर्दी है शीतला से,’ सुरभि बड़बड़ाती रही. उस के मन में शंका की लहरें फिर से हिलोरें लेने लगीं कि कहीं उन के हृदय के साम्राज्य पर यह शीतला अपना आधिपत्य तो नहीं जमाती जा रही? संदेह के बीज ने उसे ऐसा कुंठित किया कि वह दिग्भ्रमित सी हो उठी.

रसोई में आ कर उस ने ऊंचे स्वर में शीतला को पुकारा तो बेचारी कांप कर रह गई. हाथ में पकड़ा विदेशी कांच का गिलास धम्म से जमीन पर गिर कर चटक गया. अब तो सुरभि की पराकाष्ठा देखने के काबिल थी. जैसे बेचारी से ड्राइंगरूम का कोई कीमती फानूस टूट गया हो.

शीतला की दबीसहमी सिसकियां सुन कर प्रारूप को यह समझते देर नहीं लगी थी कि वह आक्रोश अपरोक्ष रूप से उन पर ही बरसाया जा रहा है. शीतला की श्रद्धा और स्वामिभक्ति को उस ने दैहिक संबंधों के पलड़े पर ला पटका था. आत्मिक अनुभूतियों का मोल सुरभि कभी नहीं समझ पाएगी क्योंकि यह अनुभूति चेष्टा कर के नहीं लाई जा सकती. इन का संबंध मन की गहराई से होता है. तभी तो कभीकभी अपने, पराए बन जाते हैं और पराए, अपनों से भी अधिक प्रिय लगने लगते हैं. प्रारूप यह सब जानतेसमझते थे.

उस के बाद तो जैसे दोषारोपों का सिलसिला ही शुरू हो गया था. इस घटना को घटे हफ्ताभर भी नहीं बीता था कि एक दिन जब प्रारूप औफिस से शाम को कुछ जल्दी घर लौट आए तो देखा कि घर में कुहराम मचा हुआ था. सुरभि ने रोरो कर पूरा घर सिर पर उठा रखा था. मृदुल सहमा सा खड़ा था. पूछने पर पता चला कि सुरभि की सोने की चेन गुम हो गई थी. सुन कर वे हतप्रभ रह गए.

आगे पढ़ें- सुरभि को शक निश्चित रूप से…

फौरगिव मी: भाग 1- क्या मोनिका के प्यार को समझ पाई उसकी सौतेली मां

रात के 12 बजे थे. मैं रोज की तरह अपने कमरे में पढ़ रही थी. तभी डैड मेरे कमरे में आए. मु झे देख कर बोले, ‘‘पढ़ रही हो क्या, प्रिया?’’

मैं ने उन की तरफ बिना देखे कहा, ‘‘आप को जो कहना है कहिए और जाइए.’’

मैं जानती थी कि डैड इस समय मेरे कमरे में सिर्फ तुम पढ़ रही हो क्या, पूछने तो नहीं आए होंगे. जरूर कुछ और कहने आए होंगे और भूमिका बांध रहे हैं. भूमिकाओं से मु झे खासी नफरत है. यह वजह काफी थी मु झे क्रोध दिलाने के लिए.

डैड ने सिर  झुका कर कहा, ‘‘अब उसे माफ कर दो प्रिया… वैसे भी वह हमें छोड़ कर जाने वाली है.’’

‘‘माफ… माई फुट, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकती,’’ मैं ने गुस्से को रोकते हुए कहा.

‘‘आखिर वह तुहारी मौम है.’’

डैड के ये शब्द मु झे अंदर तक तोड़ गए. मैं गुस्से में चीख पड़ी, ‘‘डैड, वह आप की वाइफ हो सकती है. मेरी मौम नहीं है और न ही वह कभी मेरी मौम की जगह ले सकती है. दुनिया की कोई भी ताकत ऐसा नहीं करवा सकती है.’’

‘‘पर प्रिया…’’

डैड का वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं ने अपनी किताब जमीन पर फेंक दी, ‘‘जाइए… जाइए यहां से… जस्ट लीव मी अलोन.’’

डैड मेरा गुस्सा देख कर चले गए और मैं देर तक सुबकती रही. मैं भले ही सिर्फ 15 साल की थी पर परिस्थितियों ने मु झे अपनी उम्र से काफी बड़ा कर दिया था. रोतेरोते अचानक मु झे डैड के शब्द ध्यान आए कि वह हमें छोड़ कर जाने वाली है… और मेरे दिमाग ने इस का सीधासादा मतलब निकाल लिया कि डैड और मोनिका का तलाक होने वाला है. क्या सच? क्या इसीलिए डैड दुखी थे? मेरे चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई. मैं अपने दोनों कानों पर हाथ रख कर चिल्लाई, ‘‘ओह, ग्रेट.’’

दूसरे दिन मैं खुशीखुशी स्कूल गई. मैं ने अपनी सहेलियों को कैंटीन में ले जा कर ट्रीट दी. हालांकि सब खानेपीने में मस्त थीं पर नैन्सी ने पूछ ही लिया, ‘‘प्रिया, आखिर यह ट्रीट किस खुशी में दी जा रही है?’’

मैं ने चहकते हुए कहा, ‘‘फाइनली… फाइनली ऐंड फाइनली मोनिका और मेरे डैड में तलाक होने वाला है और वह हमें छोड़ कर जाने वाली है.’’

अपनी स्टैप मौम मोनिका के लिए मेरे मन में इतनी नफरत थी कि मैं ने उसे कभी मौम नहीं कहा. मैं हमेशा उसे मोनिका ही कहती रही, डैड के लाख सम झाने के बावजूद. वैसे भी खुली संस्कृति वाले अमेरिका में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

तभी रीता ने कोक का घूंट गटकते हुए पूछा, ‘‘प्रिया, क्या तुम्हारे डैड और स्टैप मौम में काफी  झगड़े होते हैं?’’

‘‘नहीं तो?’’

इस बात का उत्तर देने के साथ ही मैं अतीत में पहुंच गई…

जब मैं छोटी थी तब मेरी मौम और डैड में बहुत  झगड़े होते थे. उन को  झगड़ता देख कर मैं रोने लगती. थोड़ी देर के लिए दोनों चुप हो जाते पर फिर  झगड़ना शुरू कर देते. उन के  झगड़े में बारबार मेरा नाम भी शामिल होता. दोनों कहते कि अगले की वजह से मेरा जीवन खराब हो

रहा है. मैं बहुत सहम जाती थी. मैं मौम या डैड में से किसी एक को चुनना नहीं चाहती थी. इसी कारण कई बार नींद खुल जाने के कारण भी मैं आंखें बंद किए पड़ी रहती कि कहीं मु झे रोता देख कर दोनों एकदूसरे पर मु झे रुलाने का कारण न थोपने लगें.

कई बार भय से मेरा टौयलेट बिस्तर पर ही छूट जाता और मौम मु झे बाथरूम में ले जा कर शावर के नीचे बैठा देतीं. रात में ही बैडशीट बदली जाती. मु झे थोड़ा पुचकार कर फिर दोनों  झगड़ने लगते. पर बात संभलते न देख कर दोनों की सहमति से मु झे दूसरे कमरे में सुलाया जाने लगा. अफसोस,  झगड़े की आवाजों ने यहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा. मैं कानों पर तकिया रख कर जोर से दबाती पर आवाजें मेरा पीछा न छोड़तीं. मैं रोज कामना करती कि मेरे मौमडैड

के बीच सब ठीक हो जाए. हम भी ‘हैपी फैमिली’ की तरह रहें. मगर मेरी कामना कभी पूरी नहीं हुई.

मु झे आज भी वे दिन अच्छी तरह याद हैं. मैं 6 साल की थी. मौम ने मु झे गुलाबी रंग का फ्रौक पहनाया और खूब प्यार किया. मौम बहुत रोती जा रही थीं. रोतेरोते ही उन्होंने मु झ से कहा, ‘‘प्रिया, मैं केस हार गई हूं, तुम्हारी कस्टडी पापा को मिली है. मैं वापस इंडिया जा रही हूं. तुम्हें यहां अमेरिका में रहना है, अपने पापा के साथ. हो सकता है आगे तुम्हारी कोई स्टैप मौम आए, पर तुम संयत रहना. बड़ा होने पर मैं कैसे भी तुम्हें ले जाऊंगी.’’

मौम चली गईं और मैं रह गई डैड के साथ अकेली. पहले 2 सालों में डैड मु झे इंडिया ले कर गए. मौम से भी मिलाया, पर उस के बाद यह संपर्क टूट गया. हां, कभीकभी मौम से फोन पर बात होती. उन के आंसू मु झे अंदर तक चीर देते थे. मैं इमोशनल सपोर्ट के लिए डैड पर निर्भर होती जा रही थी.

मेरा 8वां बर्थडे था जब मोनिका डैड की जिंदगी में आई. वह पार्टी में इनवाइटेड

गैस्ट्स में थी. डैड उस से बहुत हंसहंस कर बातें कर रहे थे. मु झे उस का डैड के साथ इस तरह घुलमिल कर बातें करना बिलकुल अच्छा नहीं लगा. अलबत्ता उस के बेटे जौन के साथ मेरी अच्छी जमी. हम ने कई खेल साथ खेले. उस के बाद मोनिका अकसर हमारे घर आने लगी. डैड का टाइम जो मेरे लिए था उस पर वह कब्जा जमाने लगी. उसे डैड के साथ देख कर मेरे मन में न जाने कैसे आग सी लग जाती. मु झे लगता डैड के इतने पास कोई नहीं बैठ सकता. वह जगह मेरी मौम की थी, जिसे कोई नहीं ले सकता. मैं तरकीबें सोचती कि कैसे डैड को उस से दूर रखूं. पर डैड और मोनिका के प्रेम के बहाव के आगे मेरी छोटी नादान सारी तरकीबें बह गईं. प्रेम अंधा होता है और स्वार्थी भी. डैड को मोनिका को अपनी प्राथमिकताओं की लिस्ट में पहला स्थान देते समय मेरी बिलकुल याद नहीं आई. कुछ ही महीनों में दोनों ने शादी कर ली.

मोनिका के साथ उस का बेटा जौन भी हमारे घर आ गया. जौन के रूप में मु झे सौतेला ही सही पर छोटा भाई तो मिल ही गया. मगर मोनिका को मैं कभी माफ नहीं कर सकी. न ही कभी अपनी मौम की जगह दे सकी.

वैडिंग गाउन में जब मोनिका ने हमारे घर में प्रवेश किया था तो मेरा गुस्से से भरा चेहरा देख कर उस के पहले शब्द यही निकले थे, ‘‘प्रिया, जिंदगी एक बहाव है. जीवननदी कैसे बहती है कोई नहीं जानता. यह नदी कभी पत्थरों को साथ बहा ले जाती है, तो कभीकभी बड़े पर्वत को काट देती है, तो कभी मन बना लेती है कि उसे पर्वत से नहीं टकराना और फिर चुपचाप अपना रास्ता बदल लेती है. अब यह पता नहीं कि नदी ये सब अपनी इच्छा से करती है या सबकुछ पूर्वनियोजित होता है. फिर भी हम किसी सूरत से नदी को दोष नहीं दे सकते. तुम्हारे जीवन में मैं आ गई हूं. मैं जानती हूं तुम मु झे पसंद नहीं करती हो. सबकुछ अचानक हुआ, यह पूर्व नियोजित नहीं था. फिर भी अगर तुम मु झे गलत सम झती हो तो प्लीज फौरगिव मी. अब हम एक फैमिली हैं और मैं कोशिश करूंगी कि हम एक अच्छी फैमिली के रूप में आगे बढ़ें.’’

मु झे उस की बात में दम लगा था. मैं भी एक अच्छी जिंदगी जीना चाहती थी. शायद मैं उसे माफ कर देती पर मेरी मां के आंसू मु झे ऐसा करने से रोक रहे थे. मैं ने अपनेआप को संयत किया. ‘ओह, कितनी चालाक है, अपना ज्ञान बघार रही है, पर मु झे इंप्रैस नहीं कर सकती,’ सोचते हुए मैं ने उस का हाथ  झटक दिया और अपने कमरे में चली गई.

 

सजा: तरन्नुम ने आखिर असगर को किस बात की दी थी सजा

मन के दर्पण में– भाग 2

अस्पताल पहुंच कर ललितजी से बोलीं, ‘‘यह क्या हरकत की आप ने…’’ एकदम क्रुद्ध हो उठीं मृदुला, ‘‘फौजी महोदय रोज आते हैं, उन से कहलवा नहीं सकते थे आप? फोन नहीं कर सकते थे? इतना पराया समझ लिया आप ने मुझे…’’ बरसती चली गईं मृदुलाजी.

हंस दिए ललितजी, ‘‘तुम्हें तकलीफ नहीं देना चाहता था,’’ आवाज में लापरवाही थी, ‘‘असल बात यह है कि तुम्हें पता चलता तो तुम मुझ से ज्यादा परेशान हो जातीं. तुम्हारी परेशानी से मेरा मन ज्यादा दुखी होता…अपना दुख कम करने के लिए तुम्हें नहीं सूचित किया.’’

‘‘बेटीदामाद नहीं आते यहां? उन में से किसी को यहां रहना चाहिए,’’ मृदुला बोलीं.

‘‘सुबहशाम आते हैं. जरूरत की हर चीज दे जाते हैं. नर्स और डाक्टरों से सब पूछ लेते हैं. नौकरी करते हैं दोनों. कहां तक छुट्टियां लें? फिर वे यहां रह कर भी क्या कर लेंगे? इलाज तो डाक्टरों को करना है,’’ ललितजी ने बताया.

‘‘अब मैं रहूंगी यहां…’’ मृदुलाजी बोलीं तो हंस दिए ललित, ‘‘क्या करोगी तुम यहां रह कर? नर्स साफसफाई करती है. डायटीशियन निश्चित खाना देती है. नर्सें ही डाक्टरों के बताए अनुसार वक्त पर दवाएं और इंजेक्शन देती हैं. सारा खर्च बेटीदामाद अस्पताल में जमा करते हैं…तुम क्या करोगी इस में? व्यर्थ लोगों की नजरों में आओगी और बेमतलब की बातें चल पड़ेंगी, जिन से मुझे ज्यादा तकलीफ होगी…तुम जानती हो कि मैं सबकुछ बरदाश्त कर सकता हूं पर तुम्हारी बदनामी कतई नहीं सह सकता… अपनेआप से ज्यादा मैं तुम्हें मानता हूं, यह तुम अच्छी तरह जानती हो…’’

‘‘इतना ज्यादा मानते हो कि मुझे सूचना तक देना जरूरी नहीं समझा,’’ कुपित बनी रहीं मृदुला, ‘‘आप कुछ भी कहें, मुझे आप की यह हरकत बहुत अखरी है. आप ने मुझे इस हरकत से एकदम पराया बना दिया,’’ आंसू आ गए मृदुला की पलकों पर.

‘‘सौरी, मृदुला…मैं नहीं समझता था कि तुम्हें मेरे इस व्यवहार से इतनी चोट पहुंचेगी…आइंदा ऐसा कोई काम नहीं करूंगा जो तुम्हें दुख पहुंचाए,’’ ललितजी अपलक मृदुला की तरफ ताकते हुए कहते रहे, ‘‘मुझे शायद विश्वास नहीं था कि तुम मुझ से इतनी गहराई तक जुड़ी हुई हो.’’

‘‘अगर कोई ऐसा तरीका होता कि मैं अपना कलेजा चीर कर दिखा सकती तो दिखाती कि भीतर दिल की जगह ललितजी ही धड़कते हैं, यह जानते हैं आप,’’ कहते हुए मृदुला लाल पड़ गईं. उन्हें लगा कि झोंक में क्या कह गईं.

अपना हाथ बढ़ा कर ललितजी ने मृदुला का हाथ थाम लिया, ‘‘बहुत अच्छा लगा सचमुच तुम्हारी यह अपनत्व भरी बातें सुन कर…अब तुम देखोगी कि मैं बहुत जल्दी अच्छा हो जाऊंगा. मैं समझता था कि अब मेरी किसी को जरूरत नहीं है…बेटीदामाद की अपनी दुनिया है और कोई है नहीं अपना जिसे परवा हो…आज पता चला कि कोई और भी है सगे- संबंधियों के अलावा, जिस के लिए मैं अब जरूर जिंदा रहना चाहूंगा…जल्दी से जल्दी अपनेआप को अच्छा करना और देखना चाहूंगा…जीने का मन हो गया सचमुच अब…’’

‘‘मरें आप के दुश्मन,’’ मृदुला बोलीं, ‘‘डाक्टर लोग कब छुट्टी देंगे?’’

‘‘बेटी को पता होगा. उसी से डाक्टर बात करते हैं.’’

‘‘अस्पताल से आप को सीधे मेरे घर चलना पड़ेगा,’’ कह गईं मृदुला.

‘‘पागल हो रही हो क्या? लोग क्या कहेंगे? पहले मैं बेटीदामाद के साथ जाऊंगा फिर बाद में सोचूंगा, मुझे क्या करना चाहिए…’’

‘‘पति का जी.पी.एफ. का पैसा अब तक निदेशालय से नहीं आया है,’’ ललितजी के स्वस्थ होने के बाद मृदुला ने एक दिन उन्हें बगीचे में बताया.

‘‘लखनऊ चलना पड़ेगा,’’ ललितजी बोले, ‘‘तुम उन की वास्तविक वारिस हो इस के प्रमाणपत्र दोबारा ले कर चलना होगा. तुम्हारी बेटी और बेटे ने जो अनापत्तिपत्र दिए हैं उन की मूलप्रतियां भी साथ में ले लेना.’’

‘‘हम कब चल सकेंगे?’’ मृदुलाजी ने पूछा.

ललितजी कुछ देर सोचते रहे फिर बोले, ‘‘दफ्तर से मुझे भी अपनी पैंशन संबंधी फाइल बनवा कर निदेशालय ले जानी है. तुम तो जानती ही हो कि आजकल हर दफ्तर में बाबू रूपी देवता की भेंटपूजा जरूरी हो गई है. जब तक उन्हें चढ़ावा न चढ़ाया जाए, कोई काम नहीं होता. सरकार कितने ही दावे करे पर इस देश की व्यवस्था का सब से बुरा पक्ष भ्रष्टाचार है.’’

‘‘भ्रष्टाचार नहीं, शिष्टाचार कहते थे मेरे पति,’’ हंस दीं मृदुला, ‘‘आप की फाइल कब तक तैयार हो जाएगी?’’

‘‘बहुत जल्दी है क्या तुम्हें? अगर पैसे की जरूरत हो तो मुझे बताओ…मैं इंतजाम कर दूंगा.’’

‘‘नहीं, वह बात नहीं है,’’ सकुचा गईं मृदुला, ‘‘हमारा पैसा सरकार के पास क्यों बना रहे? हमारे काम आए…अब हमारी जिंदगी ही कितनी बची है? पैसा मिल जाए तो उस का कोई सही उपयोग करूं.’’

‘‘जहां इतने महीने सब्र किया, एकडेढ़ सप्ताह और सही…फाइल ले कर तुम्हारे साथ चलूंगा तो लोगों को बातें बनाने का मौका नहीं मिलेगा…’’

‘‘लोगों को क्यों बीच में लाते हैं आप? यह क्यों नहीं कहते कि बेटीदामाद का डर है आप को. उन के कारण ही आप खुलेआम मुझ से मिलने से कतराते हैं.’’

यह सुन कर हंसते रहे ललितजी, फिर झेंप कर बोले, ‘‘जब सबकुछ जानतीसमझती हो तो पूछती क्यों हो?’’

मुसकराती रहीं मृदुलाजी, ‘‘चलिए, आप के संकोच और भय को माने लेती हूं. एकडेढ़ सप्ताह बाद क्या फिर आप से पूछना पड़ेगा?’’

‘‘नहीं. फाइल तैयार होते ही तुम्हें बता दूंगा, बल्कि शताब्दी में टिकटें भी रिजर्व करवा लूंगा…तुम सारे कागजों के साथ अपनी अटैची तैयार रखना,’’ ललितजी हंसते हुए बोले.

वह लखनऊ का एक पांचसितारा होटल था जिस में ललितजी मृदुला को ले कर पहुंचे. होटल की सजधज देख कर मृदुला सकुचा सी गईं, ‘‘इसी होटल में क्यों?’’ सहसा सवाल पूछा मृदुला ने.

‘‘दो कारणों से. एक तो यहां से निदेशालय पास है, दूसरे, जब मैं विश्व- विद्यालय में पढ़ता था और शोध कर रहा था तब इस होटल में अपनी किसी महिला दोस्त के साथ यहां आ कर ठहरा था और आज वही सब किसी दूसरे के साथ मैं दोबारा जीना चाहता हूं.’’

‘‘ऐ जनाब, बदमाशी नहीं चलेगी. गलत हरकत करेंगे तो पुलिस को फोन कर दूंगी. आप जानते हैं कि लखनऊ में एक पुलिस अफसर है मेरा रिश्तेदार. एक फोन पर आप को हवालात की हवा खानी पड़ेगी.’’

‘‘तुम्हारे लिए तो हवालात क्या, फांसी पर चढ़ने को तैयार हूं. लगवा दो फांसी. तुम्हारे सब खून माफ,’’ हंसते रहे ललितजी.

होटल के एक ही कमरे में अपना सामान रख वे जल्दी से फ्रेश हो कागजात और फाइल ले टैक्सी से निदेशालय चले गए. वहां से लौटने में शाम हो गई.

मन के दर्पण में– भाग 3

‘‘अब?’’ मृदुला ने ललितजी की आंखों में मुसकराते हुए ताका.

‘‘अपनी मुमताज बेगम के साथ अब हजरतगंज में हजरतगंजिंग करेंगे,’’ ललितजी आदत के अनुसार हंसे, ‘‘बेगम तैयार हैं गंजिंग करने के लिए या नहीं? हम लोग जब यहां पढ़ते थे तो हजरतगंज में घूमने को गंजिंग कहा करते थे.’’

‘‘टेलीविजन पर एक विज्ञापन आता है जिस में मुमताज बेगम को अपने बूढ़े शाहजहां पर विश्वास नहीं है कि वे उन के लिए ताजमहल बनवाएंगे, क्योंकि उन्होंने ताजमहल के लिए आगरा में कहीं जमीन नहीं खरीदी है,’’ मृदुलाजी ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम्हें बूढ़े शाहजहां दिखाई दिए लेकिन झुर्रियों से छुआरे की तरह सिमटीसिकुड़ी मुमताज बेगम दिखाई नहीं दी?’’ ललितजी हंस कर बोले.

‘‘औरत अपनेआप को कभी बूढ़ी नहीं मान पाती मेरे आका,’’ हजरतगंज की चौड़ी सड़क पर बिना किसी की परवा किए मृदुला ने ललितजी का हाथ थाम लिया.

मृदुला को पास खींचते हुए ललितजी मुसकराए और बोले, ‘‘उस विज्ञापन में मुमताज बूढ़ी जरूर है पर यहां इस हजरतगंज में इस हजरत के संग जो मुमताज बेगम है वह एकदम ताजातरीन और कमसिन युवती है.’’

‘‘पानी पर मत चढ़ाओ, बह जाऊंगी,’’ लज्जित सी मृदुलाजी हंस कर बोलीं, ‘‘उम्र का असर हर किसी पर होता है…आदमी पर भी, औरत पर भी.’’

‘‘पर महबूबा हमेशा जवान रहती है बेगम,’’ ललितजी बोले.

‘‘किस के साथ ठहरे थे उस होटल में?’’ अचानक मृदुला ने पूछा तो ललितजी उन के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगे…फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘सफी…उमेरा बानू सफी…कश्मीर की रहने वाली थी. मेरे साथ ही शोधकार्य कर रही थी विश्वविद्यालय में.’’

‘‘संग में शोध करतेकरते उस के संग होटल में शोध करने आ गए?’’ चुहल भरे अंदाज में पूछा मृदुला ने.

‘‘हम होटल में ही नहीं आए थे, बल्कि एक युवक युवती के साथ जो करता है वह सब भी हुआ था,’’ दंभ भरे स्वर में कहा उन्होंने.

‘‘बिलकुल गलत…एक मुसलमान लड़की, एक हिंदू के साथ इस तरह न तो होटल में जा सकती है, न इस सब के लिए राजी हो सकती है,’’ मृदुला हंसते हुए बोलीं, ‘‘मुझे तो लगता है कि तुम सचमुच डींग हांक रहे हो.’’

‘‘तो एक हिंदू पुरुष, एक हिंदू स्त्री के साथ होटल में टिक कर तो यह सब राजीबाजी से कर सकता है? बोलो?’’ शरारत थी ललितजी के चेहरे पर.

‘‘इस वक्त मैं मुसलमान मुमताज बेगम हूं और आप वे शाहजहां हैं जिन्हें ताजमहल के लिए कहीं आगरा में जमीन नहीं मिली.’’

हजरतगंज घूम कर वापस होटल के कमरे में आने पर सकुचाते हुए ललितजी ने मृदुला के सीने के उभारों को भर नजर ताकना शुरू किया तो उम्र के बावजूद मिर्च की तरह लाल पड़ गईं मृदुलाजी, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं आप? जानते हैं, ऐसी प्यारी नजरों का कितना मारक असर होता है किसी औरत पर.’’

‘‘मेरे मन में अरसे से एक गहरी प्यास है मृदुला,’’ जिन तृषित शब्दों में ललितजी ने कहा उस से मृदुला का पूरा बदन सिहर उठा.

‘‘मैं बाथरूम में स्नान के लिए जा रही हूं. आप की शेष बातें शेष रहेंगी,’’ प्यार की एक चिकोटी सी मृदुला ने ललितजी के गाल पर ली और पलंग से उठ गईं.

हाथ पकड़ लिया ललितजी ने, ‘‘सुनो तो सही. नहाने जा रही हो तो यह पैकेट अपने साथ बाथरूम में लिए जाओ… मैं चाहता हूं कि यही पहन कर तुम बाथरूम से बाहर आओ जो इस पैकेट में है.’’

लजा सी गईं मृदुला, ‘‘मुझे क्या आप ने वही पुरानी उमेरा बानू सफी समझ लिया है?’’

‘‘नहीं, शाहजहां की प्यारी मुमताज. वह ताजमहल जितना कीमती तोहफा तो नहीं है, पर मैं चाहता हूं कि मेरी इच्छा की पूर्ति तुम जरूर करो.’’

पैकेट लिए, शरारती नजरों से ललितजी को देखती मृदुला बाथरूम में चली गईं. स्नान के बाद जब पैकेट खोल कर देखा तो सन्न रह गईं.

बाथरूम से बाहर आते मृदुला को अपलक ताकते रह गए ललितजी और झेंपती रहीं मृदुलाजी. उन की तरफ देखने का साहस नहीं जुटा पा रही थीं. अरसे बाद तमाम चीजें फिर से जीवन में हो रही थीं. अंधेरे में एक नई छलांग…पता नहीं क्या परिणाम होगा इस छलांग का.

‘‘गुरुदत्त की पुरानी फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ देखी होगी मृदुला तुम ने. उस का प्रसिद्ध गीत आज मुझे बरबस याद आ रहा है तुम्हें देख कर. चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो.’’

‘‘इस उम्र में हमें क्या यह सब शोभा देता है?’’ झेंप रही थीं मृदुलाजी.

‘‘इश्क कभी बूढ़ा नहीं होता मृदुला…उम्र का असर शरीरों पर हो सकता है, मन पर नहीं होता. अपने मन के दर्पण में झांक कर देखो, वहां भी यही सच होगा.’’

फिर कुछ ठहर कर ललितजी बोले, ‘‘मेरी पत्नी की मृत्यु कैंसर से हुई थी. उस के दोनों स्तन डाक्टरों ने काट कर निकाल दिए थे, जबकि मेरे लिए उत्तेजना का केंद्र स्त्री के यही जीवंत अंग हैं. सपाट सीना लिए वह कुछ ही समय जी सकी. बीमारी ने बाद में उस का पूरा शरीर ही जकड़ लिया और वह नहीं रही. बरसों पुरानी तमन्ना तुम ने पूरी की है आज मेरी लाई हुई यह ब्रा और यह झीनी रेशमी दूधिया मैक्सी पहन कर. सचमुच पूरी परी लग रही हो तुम इस वक्त मुझे.’’

पता नहीं मृदुला को क्या हुआ कि ललितजी को बांहों में समेट लिया और देर तक पागलों की तरह उन पर चुंबनों की बौछार करती रहीं.

आवेग संयत होने पर उन की आंखों में ताकती हुई बोलीं, ‘‘अकेली नहीं रह पा रही सच…मेरे साथ रहेंगे?’’ फिर कुछ सोच कर पूछा, ‘‘बेटी मानेगी आप की?’’

‘‘तुम बताओ, तुम्हारे बच्चे मानेंगे?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘लड़का तो वापस इस देश में आएगा नहीं. लड़की और दामाद अपने में मगन हैं. शायद होहल्ला न मचाएं. आप बताइए, आप की बेटी मानेगी?’’

‘‘बेटी शायद मान जाए पर दामाद को लग सकता है कि ससुर का पैसा उस के हाथ नहीं आएगा,’’ वे बोले.

‘‘हो सकता है पैसा कारण न बने, मानसम्मान आड़े आए…यहीं रहते हैं. मेरी बेटीदामाद हैदराबाद में रहते हैं. दूर रहने के कारण उन के मानसम्मान का प्रश्न नहीं उठेगा, पर आप के…’’

‘‘देखा जाएगा…अभी तो हम इस पल को जी भर कर जिएं, मृदुला,’’ ललितजी ने मृदुला को अपनी बांहों में भर लिया और पलंग पर धीरे से लिटा कर उस रूपराशि को वे अपलक ताकते रहे फिर अपनी उंगलियों से उस के तन को सहलाने लगे…मृदुला का बदन अरसे बाद सितार के तारों की तरह झनझनाता रहा…

मन के दर्पण में रहरह कर पति के साथ बिस्तर पर बिताए गए रागात्मक क्षण याद आते फिर एकाएक ललितजी को उस दर्पण में देखने लगती. ‘यह सब क्या है?’ मृदुला सोचतीं, ‘क्यों हो रहा है यह सब? क्या शरीर में स्थित मन की यह चंचल स्थिति हर किसी को ऐसे छलती है?’ वे चाहती थीं कि पति का बिंब दर्पण में स्थायी बना रहे.  पर वह धुंधला जाता और उस कुहासे में ललितजी का बिंब स्पष्ट उभर आता.

जो आज है वह सच है. जो बीत गया है, उसे वापस नहीं लाया जा सकता, न फिर पाया जा सकता है. तब…तब क्या करना चाहिए? क्या इस आज के सुखद क्षणों को जी भर जी लेना चाहिए? एक क्षण को अपराध बोध उत्पन्न होता पर दूसरे क्षण ही मन उसे झटक देता. इस में गलत क्या है? क्या ललितजी अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद औरत के इस सुख को पाने के लिए अब तक तृषित नहीं रहे? क्या उन का यह प्रेम उन की पत्नी के साथ दगा है? देहों का सच क्या सच नहीं होता?

‘‘कहां खो गईं यार?’’ ललितजी ने उन के अधर चूम लिए, ‘‘मैं समझ सकता हूं तुम्हारे मन के इस अंतर्द्वंद्व को… महिलाएं बहुत भावुक होती हैं. इस में गलत क्या है. हम कहां किसी के साथ दगा कर रहे हैं? जो इस संसार में नहीं हैं, उन के लिए जीवन भर क्यों रोतेकलपते रहें? एक वाक्य होता है नाटकों में, ‘शो मस्ट गो औन.’ लोग कहते थे, आफ्टर नेहरू हू? इंदिरा इज इंडिया…अब दोनों नहीं हैं…क्या दोनों के बाद यह देश नहीं चल रहा है? लोग नहीं जी रहे हैं? भावनाएं अपनी जगह हैं, सोचविचार और जीवन का कटु सत्य अपनी जगह है. दोनों में तालमेल बैठाना ही जीवन है.’’

सुन कर निर्द्वंद्व मन से मृदुलाजी ललितजी की बांहों में समा गईं.

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