टेढ़ा है पर मेरा है

नेहा को सारी रात नींद नहीं आई. उस ने बराबर में गहरी नींद में सोए अनिल को न जाने कितनी बार निहारा. वह 2-3 चक्कर बच्चों के कमरे के भी काट आई थी. पूरी रात बेचैनी में काट दी कि कल से पता नहीं मन पर क्या बीतेगी. सुबह की फ्लाइट से नेहा की जेठानी मीना की छोटी बहन अंजलि आने वाली थी. नेहा के विवाह को 7 साल हो गए हैं. अभी तक उस ने अंजलि को नहीं देखा था. बस उस के बारे में सुना था.

नेहा के विवाह के 15 दिन बाद ही मीना ने ही हंसीहंसी में एक दिन नेहा को बताया था, ‘‘अनिल तो दीवाना था अंजलि का. अगर अंजलि अपने कैरियर को इतनी गंभीरता से न लेती, तो आज तुम्हारी जगह अंजलि ही मेरी देवरानी होती. उसे दिल्ली में एक अच्छी जौब का औफर मिला तो वह प्यारमुहब्बत छोड़ कर दिल्ली चली गई. उस ने यहीं हमारे पास लखनऊ में रह कर ही तो एमबीए किया था. अंजलि शादी के बंधन में जल्दी नहीं बंधना चाहती थी. तब मांजी और बाबूजी ने तुम्हें पसंद किया… अनिल तो मान ही नहीं रहा था.’’

‘‘फिर ये विवाह के लिए कैसे तैयार हुए?’’ नेहा ने पूछा था.

‘‘जब अंजलि ने विवाह करने से मना कर दिया… मांजी के समझाने पर बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था.’’

नेहा चुपचाप अनिल की असफल प्रेमकहानी सुनती रही थी. रात को ही अंजलि का फोन आया था. उस का लखनऊ तबादला हो गया था. वह सीधे यहीं आ रही थी. नेहा जानती थी कि अंजलि ने अभी तक विवाह नहीं किया है.

मीना ने तो रात से ही चहकना शुरू कर दिया था, ‘‘अंजलि अब यहीं रहेगी, तो कितना मजा आएगा नेहा, तुम तो पहली बार मिलोगी उस से… देखना, कितनी स्मार्ट है मेरी बहन.’’

नेहा औपचारिकतावश मुसकराती रही. अनिल पर नजरें जमाए थी. लेकिन अंदाजा नहीं लगा पाई कि अनिल खुश है या नहीं. नेहा व अनिल और उन के 2 बच्चे यश और समृद्धि, जेठजेठानी व उन के बेटे सार्थक और वीर, सास सुभद्रादेवी और ससुर केशवचंद सब लखनऊ में एक ही घर में रहते थे और सब की आपस में अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी. सब खुश थे, लेकिन अंजलि के आने की खबर से नेहा कुछ बेचैन थी. अंजलि सुबह अपने काम में लग गई. मीना बेहद खुश थी. बोली, ‘‘नेहा, आज अंजलि की पसंद का नाश्ता और खाना बना लेते हैं.’’

नेहा ने हां में सिर हिलाया. फिर दोनों किचन में व्यस्त हो गईं. टैक्सी गेट पर रुकी, तो मीना ने पति सुनील से कहा, ‘‘शायद अंजलि आ गई, आप थोड़ी देर बाद औफिस जाना.’’

‘‘मुझे आज कोई जल्दी नहीं है… भई, इकलौती साली साहिबा जो आ रही हैं,’’ सुनील हंसा.

अंजलि ने घर में प्रवेश कर सब का अभिवादन किया. मीना उस के गले लग गई. फिर नेहा से परिचय करवाया. अंजलि ने जिस तरह से उसे ऊपर से नीचे तक देखा वह नेहा को पसंद नहीं आया. फिर भी वह उस से खुशीखुशी मिली.

जब अंजलि सब से बातें कर रही थी, तो नेहा ने उस का जायजा लिया… सुंदर, स्मार्ट, पोनीटेल बनाए हुए, छोटा सा टौप और जींस पहने छरहरी अंजलि काफी आकर्षक थी. जब अनिल फ्रैश हो कर आया, तो अंजलि ने फौरन अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘हाय, कैसे हो?’’

अनिल ने हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘मैं ठीक हूं, तुम कैसी हो?’’

‘‘कैसी लग रही हूं?’’

‘‘बिलकुल वैसी जैसे पहले थी.’’

नेहा के दिल को कुछ हुआ, लेकिन प्रत्यक्षतया सामान्य बनी रही. सुभद्रादेवी और केशवचंद उस से दिल्ली के हालचाल पूछते रहे. मीना व अंजलि के मातापिता मेरठ में रहते हैं. नेहा के मातापिता नहीं हैं. एक भाई है जो विदेश में रहता है.

नाश्ता हंसीमजाक के माहौल में हुआ. सब अंजलि की बातों का मजा ले रहे थे. बच्चे भी उस से चिपके हुए थे. यश और समृद्धि थोड़ी देर तो संकोच में रहे, फिर उस से हिलमिल गए. नेहा की बेचैनी बढ़ रही थी. तभी अंजलि ने कहा, ‘‘दीदी, अब मेरे लिए एक फ्लैट ढूंढ़ दो.’’

मीना ने कहा, ‘‘चुप कर, अब हमारे साथ ही रहेगी तू.’’

सुनील ने भी कहा, ‘‘अकेले कहीं रहने की क्या जरूरत है? यहीं रहो.’’

सुनील और अनिल अपनेअपने औफिस चले गए. केशवचंद पेपर पढ़ने लगे. सुभद्रादेवी तीनों से बातें करते हुए आराम से बाकी काम में मीना और नेहा का हाथ बंटाने लगीं.

नेहा को थोड़ा चुप देख कर अंजलि हंसते हुए बोली, ‘‘नेहा, क्या तुम हमेशा इतनी सीरियस रहती हो?’’

मीना ने कहा, ‘‘अरे नहीं, वह तुम से पहली बार मिली है… घुलनेमिलने में थोड़ा समय तो लगता ही है न…’’

अंजलि ने कहा, ‘‘फिर तो ठीक है वरना मैं ने तो सोचा अगर ऐसे ही सीरियस रहती होगी तो बेचारा अनिल तो बोर हो जाता होगा. वह तो बहुत हंसमुख है… दीदी, अनिल अब भी वैसा ही है शरारती, मस्तमौला या फिर कुछ बदल गया है? आज तो ज्यादा बात नहीं हो पाई.’’

मीना हंसी, ‘‘शाम को देख लेना.’’

नेहा मन ही मन बुझती जा रही थी. लंच के बाद अपने कमरे में थोड़ा आराम करने लेटी तो विवाह के शुरुआती दिन याद आ गए. अनिल काफी सीरियस रहता था, कभी हंसताबोलता नहीं था. चुपचाप अपनी जिम्मेदारियां पूरी कर देता था. नवविवाहितों वाली कोई बात नेहा ने महसूस नहीं की थी. फिर जब मीना ने अनिल और अंजलि के बार में उसे बताया तो उस ने अपने दिल को मजबूत कर सब को प्यार और सम्मान दे कर सब के दिल में अपना स्थान बना लिया. अब कुल मिला कर उस की गृहस्थी सामान्य चल रही थी, तो अब अंजलि आ गई. नेहा यश और समृद्धि को होमवर्क करवा रही थी कि अंजलि उस के रूम में आ गई.

नेहा ने जबरदस्ती मुसकराते हुए उसे बैठने के लिए कहा, तो वह सीधे बैड पर लेट गई. बोली, ‘‘नेहा, अनिल कब तक आएगा?’’

‘‘7 बजे तक,’’ नेहा ने संयत स्वर में कहा.

‘‘उफ, अभी तो 1 घंटा बाकी है… बहुत बोर हो रही हूं.’’

‘‘चाय पीओगी?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘नहीं, अनिल को आने दो, उस के साथ ही पीऊंगी.’’

नेहा को अंजलि का अनिल के बारे में बात करने का ढंग अच्छा नहीं लग रहा था. लेकिन करती भी क्या.

 

कुछ कह नहीं सकती थी  अनिल आया, तो अंजलि चहक उठी फिर ड्राइंगरूम में सोफे पर अनिल के बराबर में बैठ कर ही चाय पी. घर के बाकी सभी सदस्य वहीं बैठे हुए थे. अंजलि ने पता नहीं कितनी पुरानी बातें छेड़ दी थीं.

नेहा का उतरा चेहरा देख कर अनिल ने पूछा, ‘‘नेहा, तबीयत तो ठीक है न? बड़ी सुस्त लग रही हो?’’

‘‘नहीं, ठीक हूं.’’

यह सुन कर अंजलि ने ठहाका लगाया. बोली, ‘‘वाह अनिल, तुम तो बहुत केयरिंग पति बन चुके हो… इतनी चिंता पत्नी की? वह दिन भूल गए जब मुझे जाता देख कर आंहें भर रहे थे?’’

यह सुन कर सभी घर वाले एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

तब मीना ने बात संभाली, ‘‘क्या कह रही हो अंजलि… कभी तो कुछ सोचसमझ कर बोला कर.’’

‘‘अरे दीदी, सच ही तो बोल रही हूं.’’

नेहा ने बड़ी मुश्किल से स्वयं को संभाला. दिल पर पत्थर रख कर मुसकराते हुए चायनाश्ते के बरतन समेटने लगी. सब थोड़ी देर और बातें कर के अपनेअपने काम में लग गए. डिनर के समय भी अंजलि अनिलअनिल करती रही और वह उस की हर बात का हंसतेमुसकराते जवाब देता रहा. अगले दिन अंजलि ने भी औफिस जौइन कर लिया. सब के औफिस जाने के बाद नेहा ने चैन की सांस ली कि अब कम से कम शाम तक तो वह मानसिक रूप से शांत रहेगी.

ऐसे ही समय बीतने लगा. सुबह सब औफिस निकल जाते. शाम को घर लौटने पर रात के सोने तक अंजलि अनिल के इर्दगिर्द ही मंडराती रहती. नेहा दिनबदिन तनाव का शिकार होती जा रही थी. अपनी मनोदशा किसी से शेयर भी नहीं कर पा रही थी. कुछ कह कर स्वयं को शक्की साबित नहीं करना चाहती थी. वह जानती थी कि उस ने अनिल के दिल में बड़ी मेहनत से अपनी जगह बनाई थी. लेकिन अब अंजलि की उच्छृंखलता बढ़ती ही जा रही थी. वह कभी अनिल के कंधे पर हाथ रखती, तो कभी उस का हाथ पकड़ कर कहीं चलने की जिद करती. लेकिन अनिल ने हमेशा टाला, यह भी नेहा ने नोट किया था. मगर अंजलि की हरकतों से उसे अपना सुखचैन खत्म होता नजर आ रहा था. क्या उस की घरगृहस्थी टूट जाएगी? क्या करेगी वह? घर में सब अंजलि की हरकतों को अभी बचपना है, कह कर टाल जाते.

नेहा अजीब सी घुटन का शिकार रहने लगी.

एक रात अनिल ने उस से पूछा, ‘‘नेहा, क्या बात है, आजकल परेशान दिख रही हो?’’

नेहा कुछ नहीं बोली. अनिल ने फिर कुछ नहीं पूछा तो नेहा की आंखें भर आईं, क्या अनिल को मेरी परेशानी की वजह का अंदाजा नहीं होगा? इतने संगदिल क्यों हैं अनिल? बच्चे तो नहीं हैं, जो मेरी मनोदशा समझ न आ रही हो… जानबूझ कर अनजान बन रहे हैं. नेहा रात भर मन ही मन घुटती रही. बगल में अनिल गहरी नींद सो रहा था.

एक संडे सब साथ लंच कर के थोड़ी देर बातें कर के अपनेअपने रूम में आराम करने जाने लगे तो किचन से निकलते हुए नेहा के कदम ठिठक गए. अंजलि बहुत धीरे से अनिल से कह रही थी, ‘‘शाम को 7 बजे छत पर मिलना.’’

अनिल की कोई आवाज नहीं आई. थोड़ी देर बाद नेहा अपने रूम में आ गई. अनिल आराम करने लेट गया. फिर नेहा से बोला, ‘‘आओ, थोड़ी देर तुम भी लेट जाओ.’’

नेहा मन ही मन आगबबूला हो रही थी. अत: जानबूझ कर कहा, ‘‘बच्चों के लिए कुछ सामान लेना है… शाम को मार्केट चलेंगे?’’

‘‘आज नहीं, कल,’’ अनिल ने कहा.

नेहा ने चिढ़ते हुए पूछा, ‘‘आज क्यों नहीं?’’

‘‘मेरा मार्केट जाने का मूड नहीं है… कुछ जरूरी काम है.’’

‘‘क्या जरूरी काम है?’’

‘‘अरे, तुम तो जिद करने लगती हो, अब मुझे आराम करने दो, तुम भी आराम करो.’’

नेहा को आग लग गई. सोचा, बता दे उसे पता है कि क्या जरूरी काम है… मगर चुप रही. आराम क्या करना था… बस थोड़ी देर करवटें बदल कर उठ गई और वहीं रूम में चेयर पर बैठ कर पता नहीं क्याक्या सोचती रही. 7 बजे की सोचसोच कर उसे चैन नहीं आ रहा था… क्या करे, क्या मांबाबूजी से बात करे, नहीं उन्हें क्यों परेशान करे, क्या कहेगी अंजलि अनिल से, अनिल क्या कहेंगे… उस से बातें करते हुए खुश तो बहुत दिखाई देते हैं.

7 बजे के आसपास नेहा जानबूझ कर बच्चों को पढ़ाने बैठ गई. मांबाबूजी पार्क में टहलने गए हुए थे. मीना और सुनील अपने रूम में थे. उन के बच्चे खेलने गए थे. तनाव की वजह से नेहा ने यश और समृद्धि को खेलने जाने से रोक लिया था. बच्चों में मन बहलाने का असफल प्रयास करते हुए उस ने देखा कि अनिल गुनगुनाते हुए बालों में कंघी कर रहा है. उस ने पूछा, ‘‘कहीं जा रहे हैं?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाल ठीक कर रहे हैं.’’

अनिल ने उसे चिढ़ाने वाले अंदाज में कहा, ‘‘क्यों, कहीं जाना हो तभी बाल ठीक करते हैं?’’

‘‘आप हर बात का जवाब टेढ़ा क्यों देते हैं?’’

‘‘मैं हूं ही टेढ़ा… खुश? अब जाऊं?’’

नेहा की आंखें भर आईं, कुछ बोली नहीं. यश की नोटबुक देखने लगी. अनिल सीटी बजाता हुआ रूम से निकल गया.

5 मिनट बाद नेहा बच्चों से बोली, ‘‘अभी आई, तुम लोग यहीं रहना,’’ और कमरे से निकल गई. अनिल छत पर जा चुका था. उस ने भी सीढि़यां चढ़ कर छत के गेट से अपना कान लगा दिया. बिना आहट किए सांस रोके खड़ी रही.

तभी अंजलि की आवाज आई, ‘‘बड़ी देर लगा दी?’’

‘‘बोलो अंजलि, क्या बात करनी है?’’

‘‘इतनी भी क्या जल्दी है?’’

नेहा को उन की बातचीत का 1-1 शब्द साफ सुनाई दे रहा था.

अनिल की गंभीर आवाज आई, ‘‘बात शुरू करो, अंजलि.’’

‘‘अनिल, यहां आने पर सब से ज्यादा खुश मैं इस बात पर थी कि तुम से मिल सकूंगी, लेकिन तुम्हें देख कर तो लगता है कि तुम मुझे भूल गए… मुझे तो उम्मीद थी मेरा कैरियर बनने तक तुम मेरा इंतजार करोगे, लेकिन तुम तो शादी कर के बीवीबच्चों के झंझट में पड़ गए. देखो, मैं ने अब तक शादी नहीं की, तुम्हारे अलावा कोई नहीं जंचा मुझे… क्या किसी तरह ऐसा नहीं हो सकता कि हम फिर साथ हो जाएं?’’

‘‘अंजलि, तुम आज भी पहले जैसी ही स्वार्थी हो. मैं मानता हूं नेहा से शादी मेरे लिए एक समझौता था, अपनी सारी भावनाएं तो तुम्हें सौंप चुका था… लगता था नेहा को कभी वह प्यार नहीं दे पाऊंगा, जो उस का हक है, लेकिन धीरेधीरे यह विश्वास भ्रम साबित हुआ. उस के प्यार और समर्पण ने मेरा मन जीत लिया. हमारे घर का कोनाकोना उस ने सुखशांति और आनंद से भर दिया. अब नेहा के बिना जीने की सोच भी नहीं सकता. जैसेजैसे वह मेरे पास आती गई, मेरी शिकायतें, गुस्सा, दर्द जो तुम्हारे लिए मेरे दिल में था, सब कुछ खत्म हो गया. अब मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. मैं नेहा के साथ बहुत खुश हूं.’’

गेट से कान लगाए नेहा को अनिल की आवाज में सुख और संतोष साफसाफ महसूस हुआ.

अनिल आगे कह रहा था, ‘‘तुम भाभी की बहन की हैसियत से तो यहां आराम से रह सकती हो लेकिन मुझ से किसी भी रिश्ते की गलतफहमी दिमाग में रख कर यहां मत रहना… मेरे खयाल में तुम्हारा यहां न रहना ही ठीक होगा… नेहा का मन तुम्हारी किसी हरकत पर आहत हो, यह मैं बरदाश्त नहीं करूंगा. अगर यहां रहना है तो अपनी सीमा में रहना…’’

इस के आगे नेहा को कुछ सुनने की जरूरत महसूस नहीं हुई. उसे अपना मन पंख जैसा हलका लगा. आंखों में नमी सी महसूस हुई. फिर वह तेजी से सीढि़यां उतरते हुए मन ही मन यह सोच कर मुसकराने लगी कि टेढ़ा है पर मेरा है.

प्यार की पहली किस्त: सायरा का क्या था असली चेहरा

बेगम रहमान से सायरा ने झिझकते हुए कहा, ‘‘मम्मी, मैं एक बड़ी परेशानी में पड़ गई हूं.’’

उन्होंने टीवी पर से नजरें हटाए बगैर पूछा, ‘‘क्या किसी बड़ी रकम की जरूरत पड़ गई है?’’

‘‘नहीं मम्मी, मेरे पास पैसे हैं.’’

‘‘तो फिर इस बार भी इम्तिहान में खराब नंबर आए होंगे और अगली क्लास में जाने में दिक्कत आ रही होगी…’’ बेगम रहमान की निगाहें अब भी टीवी सीरियल पर लगी थीं.

‘‘नहीं मम्मी, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप ध्यान दें, तो मैं कुछ बताऊं भी.’’

बेगम रहमान ने टीवी बंद किया और बेटी की तरफ घूम गईं, ‘‘हां, अब बताए मेरी बेटी कि ऐसी कौन सी मुसीबत आ पड़ी है, जो मम्मी की याद आ गई.’’

‘‘मम्मी, दरअसल…’’ सायरा की जबान लड़खड़ा रही थी और फिर उस ने जल्दी से अपनी बात पूरी की, ‘‘मैं पेट से हूं.’’

यह सुन कर बेगम रहमान का हंसता हुआ चेहरा गुस्से से लाल हो गया, ‘‘तुम से कितनी बार कहा है कि एहतियात बरता करो, लेकिन तुम निरी बेवकूफ की बेवकूफ रही.’’

बेगम रहमान को इस बात का सदमा कतई नहीं था कि उन की कुंआरी बेटी पेट से हो गई है. उन्हें तो इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि उस ने एहतियात क्यों नहीं बरती.

‘‘मम्मी, मैं हर बार बहुत एहतियात बरतती थी, पर इस बार पहाड़ पर पिकनिक मनाने गए थे, वहीं चूक हो गई.’’

‘‘कितने दिन का है?’’ बेगम रहमान ने पूछा.

‘‘चौथा महीना है,’’ सायरा ने सिर झुका कर कहा.

‘‘और तुम अभी तक सो रही थी,’’ बेगम रहमान को फिर गुस्सा आ गया.

‘‘दरअसल, कैसर नवाब ने कहा था कि हम लोग शादी कर लेंगे और इस बच्चे को पालेंगे, लेकिन मम्मी, वह गजाला है न… वह बड़ी बदचलन है. कैसर नवाब पर हमेशा डोरे डालती थी. अब वे उस के चक्कर में पड़ गए और हम से दूर हो गए.’’

रहमान साहब शहर के एक नामीगिरामी अरबपति थे. कपड़े की कई मिलें थीं, सियासत में भी खासी रुचि रखते थे. सुबह से शाम तक बिजनेस मीटिंग या सियासी जलसों में मसरूफ रहते थे.

बेगम रहमान भी अपनी किटी पार्टी और लेडीज क्लब में मशगूल रहती थीं. एकलौती बेटी सायरा के पास मां की ममता और बाप के प्यार के अलावा दुनिया की हर चीज मौजूद थी, यारदोस्त, डांसपार्टी वगैरह यही सब उस की पसंद थी.

हाई सोसायटी में किरदार के अलावा हर चीज पर ध्यान दिया जाता है. सायरा ने भी दौलत की तरह अपने हुस्न और जवानी को दिल खोल कर लुटाया था, लेकिन उस में अभी इतनी गैरत बाकी थी कि वह बिनब्याही मां बन कर किसी बच्चे को पालने की हिम्मत नहीं कर सकती थी.

‘‘तुम ने मुसीबत में फंसा दिया बेटी. अब सिवा इस बात के कोई चारा नहीं है कि तुम्हारा निकाह जल्द से जल्द किसी और से कर दिया जाए. अपने बराबर वाला तो कोई कबूल करेगा

नहीं. अब कोई शरीफजादा ही तलाश करना पड़ेगा,’’ कहते हुए बेगम रहमान फिक्रमंद हो गईं.

एक महीने के अंदर ही बेगम रहमान ने रहमान साहब के भतीजे सुलतान मियां से सायरा का निकाह कर दिया.

सुलतान कोआपरेटिव बैंक में मैनेजर था. नौजवान खूबसूरत सुलतान के घर जब बेगम रहमान सायरा के रिश्ते की बात करने गईं, तो सुलतान की मां आब्दा बीबी को बड़ी हैरत हुई थी.

बेगम रहमान 5 साल पहले सुलतान के अब्बा की मौत पर आई थीं. उस के बाद वे अब आईं, तो आब्दा बीबी सोचने लगीं कि आज तो सब खैरियत है, फिर ये कैसे आ गईं.

जब बेगम रहमान ने बगैर कोई भूमिका बनाए सायरा के रिश्ते के लिए सुलतान का हाथ मांगा तो उन्हें अपने कानों पर यकीन नहीं आया था.

कहां सायरा एक अरबपति की बेटी और कहां सुलतान एक मामूली बैंक मैनेजर, जिस के बैंक का सालाना टर्नओवर भी रहमान साहब की 2 मिलों के बराबर नहीं था.

सुलतान की मां ने बड़ी मुश्किल से कहा था, ‘‘भाभी, मैं जरा सुलतान से बात कर लूं.’’

‘‘आब्दा बीबी, इस में सुलतान से बात करने की क्या जरूरत है. आखिर वह रहमान साहब का सगा भतीजा है. क्या उस पर उन का इतना भी हक नहीं है

कि सायरा के लिए उसे मांग सकें?’’ बेगम रहमान ने दोटूक शब्दों में खुद ही रिश्ता दिया और खुद ही मंजूर कर लिया था.

चंद दिनों के बाद एक आलीशान होटल में सायरा का निकाह सुलतान मियां से हो गया. रहमान साहब ने उन के हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड के एक बेहतरीन होटल में इंतजाम करा दिया था. सायरा को जिंदगी का यह नया ढर्रा भी बहुत पसंद आया.

हनीमून से लौट कर कुछ दिन रहमान साहब की कोठी में गुजारने के बाद जब सुलतान ने दुलहन को अपने घर ले जाने की बात कही तो सायरा के साथ बेगम रहमान के माथे पर भी बल पड़ गए.

‘‘तुम कहां रखोगे मेरी बेटी सायरा को?’’ बेगम रहमान ने बड़े मजाकिया अंदाज में पूछा.

‘‘वहीं जहां मैं और मेरी अम्मी रहती हैं,’’ सुलतान ने बड़ी सादगी से जवाब दिया.

‘‘बेटे, तुम्हारे घर से बड़ा तो सायरा का बाथरूम है. वह उस घर में कैसे रह सकेगी,’’ बेगम रहमान ने फिर एक दलील दी.

सुलतान को अब यह एहसास होने लगा था कि यह सारी कहानी घरजंवाई बनाने की है.

‘‘यह सबकुछ तो आप को पहले सोचना चाहिए था,’’ सुलतान ने कहा.

इस से पहले कि सायरा कोई जवाब देती, बेगम रहमान को याद आ गया कि यह निकाह तो एक भूल को छिपाने के लिए हुआ है. मियांबीवी में अभी से अगर तकरार शुरू हो गई, तो पेट में पलने वाले बच्चे का क्या होगा.

उन्होंने अपने मूड को खुशगवार बनाते हुए कहा, ‘‘अच्छा बेटा, ले जाओ. लेकिन सायरा को जल्दीजल्दी ले आया करना. तुम को तो पता है कि सायरा

के बगैर हम लोग एक पल भी नहीं रह सकते.’’

सुलतान और उस की मां की खुशहाल जिंदगी में आग लगाने के लिए सायरा सुलतान के घर आ गई.

2 दिनों में ही हालात इतने खराब हो गए कि सायरा अपने घर वापस आ गई. मियांबीवी की तनातनी नफरत में बदल गई और बात तलाक तक पहुंच गई, लेकिन मसला था मेहर की रकम का, जो सुलतान मियां अदा नहीं कर सकते थे.

10 लाख रुपए मेहर बांधा गया था. आखिर अरबपति की बेटी थी. उस के जिस्म को कानूनी तौर पर छूने की कीमत 10 लाख रुपए से कम क्या होती.

एक दिन मियांबीवी की इस लड़ाई को एक बेरहम ट्रक ने हमेशा के लिए खत्म कर दिया.

हुआ यों कि सुलतान मियां शाम को बैंक से अपने स्कूटर से वापस आ रहे थे, न जाने किस सोच में थे कि सामने से आते हुए ट्रक की चपेट में आ गए और बेजान लाश में तबदील हो गए.

सायरा बेगम अपने पुराने दोस्तों के साथ एक बड़े होटल में गपें लगाने में मशगूल थीं, तभी बीमा कंपनी के एक एजेंट ने उन्हें एक लिफाफे के साथ

10 लाख रुपए का चैक देते हुए कहा, ‘‘मैडम, ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पहली किस्त जमा करने के बाद ही हादसे का शिकार हो जाए.

‘‘सुलतान साहब ने अपनी तनख्वाह में से 10 लाख रुपए की पौलिसी की पहली किस्त भरी थी और आप को नौमिनी करते समय यह लिफाफा भी दिया था. शायद वह यही सोचते हुए जा रहे थे कि महीने के बाकी दिन कैसे गुजरेंगे और ट्रक से टकरा गए.’’

सायरा ने पूरी बात सुनने के बाद एजेंट का शुक्रिया अदा किया और होटल से बाहर आ कर अपनी कार में बैठ कर लिफाफा खोला. यह सुलतान का पहला और आखिरी खत था. लिखा था :

तुम ने मुझे तोहफे में 4 महीने का बच्चा दिया था, मैं तुम्हें मेहर के 10 लाख रुपए दे रहा हूं.

तुम्हारी मजबूरी सुलतान.

सायरा ने खत को लिफाफे में रखा और ससुराल की तरफ गाड़ी को घुमा लिया.

वह होटल आई थी अरबपति रहमान की बेटी बन कर, अब वापस जा रही थी एक खुद्दार बैंक मैनेजर की बेवा बन कर.

भूल किसकी

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बिचौलिए- भाग 1: क्यों मिला वंदना को धोखा

सोमवार की सुबह सीमा औफिस पहुंची तो अपनी सीट की तरफ जाने के बजाय वंदना की मेज के सामने जा खड़ी हुई. उस के चेहरे पर तनाव, चिंता और गुस्से के भाव अंकित थे. अपना सिर झुका कर मेज की दराज में से कुछ ढूंढ़ रही वंदना से उस ने उत्तेजित लहजे में कहा, ‘‘वंदना, वह तुझे बेवकूफ बना रहा है.’’ वंदना ने झटके से सिर उठा कर हैरान नजरों से सीमा की तरफ देखा. उस के कहे का मतलब समझने में जब वह असमर्थ रही, तो उस की आंखों में उलझन के भाव गहराते चले गए. कमरे में उपस्थित बड़े बाबू ओमप्रकाश और सीनियर क्लर्क महेश की दिलचस्पी का केंद्र भी अब सीमा ही थी.

‘‘क….कौन मुझे बेवकूफ बना रहा है, सीमा दीदी?’’ वंदना के होंठों पर छोटी, असहज, अस्वाभाविक मुसकान उभर कर लगभग फौरन ही लुप्त हो गई.

‘‘समीर तुझे बेवकूफ बना रहा है. प्यार में धोखा दे रहा है वह चालाक इंसान.’’

‘‘आप की बात मेरी समझ में कतई नहीं आ रही है, सीमा दीदी,’’ मारे घबराहट के वंदना का चेहरा कुछ पीला पड़ गया.

‘‘मर्दजात पर आंखें मूंद कर विश्वास करना हम स्त्रियों की बहुत बड़ी नासमझी है. मैं धोखा खा चुकी हूं, इसीलिए तुझे आगाह कर भावी बरबादी से बचाना चाहती हूं.’’

‘‘सीमा दीदी, आप जो कहना चाहती हैं, साफसाफ कहिए न.’’ ‘‘तो सुन, मेरे मामाजी के पड़ोसी हैं राजेशजी. कल रविवार को समीर उन्हीं की बेटी रजनी को देखने के लिए अपनी माताजी और बहन के साथ पहुंचा हुआ था. रजनी की मां तो पूरे विश्वास के साथ सब से यही कह रही हैं कि समीर ही उन का दामाद बनेगा,’’ सीमा  की बात का सुनने वालों पर ऐसा प्रभाव पड़ा था मानो कमरे में बम विस्फोट हुआ हो.

ओमप्रकाश और महेश अब तक सीमा के दाएंबाएं आ कर खड़े हो गए थे. दोनों की आंखों में हैरानी, अविश्वास और क्रोध के मिश्रित भाव झलक रहे थे.

‘‘मैं आप की बात का विश्वास नहीं करती, जरूर आप को कोई गलतफहमी हुई होगी. मेरा समीर मुझे कभी धोखा नहीं दे सकता,’’ अत्यधिक भावुक होने के कारण वंदना का गला रुंध गया.

‘‘मेरी मां कल मेरे मामाजी के यहां गई थीं. उन्होंने अपनी आंखों से समीर को राजेशजी के यहां देखा था. समीर को पहचानने में वे कोई भूल इसलिए नहीं कर सकतीं क्योंकि उसे उन्होंने दसियों बार देख रखा है,’’ सीमा का ऐसा जवाब सुन कर वंदना का चेहरा पूरी तरह मुरझा गया. उस की आंखों से आंसू बह निकले. किसी को आगे कुछ भी टिप्पणी करने का मौका इसलिए नहीं मिला क्योंकि तभी समीर ने कमरे के भीतर प्रवेश किया. ‘नमस्ते,’  समीर की आवाज सुनते ही वंदना घूमी और उस की नजरों से छिपा कर उस ने अपने आंसू पोंछ डाले. उस के नमस्ते के जवाब में किसी के मुंह से कुछ नहीं निकला. इस बात से बेखबर समीर बड़े बाबू ओमप्रकाश के पास पहुंच कर मुसकराता हुआ बोला, ‘‘बड़े बाबू, यह संभालिए मेरा आज की छुट्टी का प्रार्थनापत्र, इसे बड़े साहब से मंजूर करा लेना.’’

‘‘अचानक छुट्टी कैसे ले रहे हो?’’ उस के हाथ से प्रार्थनापत्र ले कर ओमप्रकाश ने कुछ रूखे लहजे में पूछा.

‘‘कुछ जरूरी व्यक्तिगत काम है, बड़े बाबू.’’

‘‘कहीं तुम्हारी सगाई तो नहीं हो रही है?’’ सीमा कड़वे, चुभते स्वर में बोली, ‘‘ऐसा कोई समारोह हो, तो हमें बुलाने से…विशेषकर वंदना को बुलाने से घबराना मत. यह बेचारी तो ऐसे ही किसी समारोह में शामिल होने को तुम्हारे साथ पिछले 1 साल से प्रेमसंबंध बनाए हुए है.’’

‘‘यह…यह क्या ऊटपटांग बोल रही हो तुम, सीमा?’’ समीर के स्वर की घबराहट किसी से छिपी नहीं रही.

‘‘मैं ने क्या ऊटपटांग कहा है? कल राजेशजी की बेटी को देखने गए थे तुम. अगर लड़की पसंद आ गई होगी, तो अब आगे ‘रोकना’ या ‘सगाई’ की रस्म ही तो होगी न?’’

‘‘समीर,’’ सीमा की बात का कोई जवाब देने से पहले ही वंदना की आवाज सुन कर समीर उस की तरफ घूमा.

वंदना की लाल, आंसुओं से भरी आंखें देख कर वह हड़बड़ाए अंदाज में उस के पास पहुंचा और फिर चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘तुम रो रही हो क्या?’’

‘‘इस मासूम के दिल को तुम्हारी विश्वासघाती हरकत से गहरा सदमा पहुंचा है, अब यह रोएगी नहीं, तो क्या करेगी?’’ सीमा का चेहरा गुस्से से लाल हो उठा.

‘‘यह आग तुम्हारी ही लगाई लग रही है मुझे. अब कुछ देर तुम खामोश रहोगी तो बड़ी कृपा समझूंगा मैं तुम्हारी,’’ सीमा  को गुस्से से घूरते हुए समीर नाराज स्वर में बोला.

‘‘समीर, तुम मेरे सवाल का जवाब दो, क्या तुम कल लड़की देखने गए थे?’’ वंदना ने रोंआसे स्वर में पूछा.

‘‘अगर तुम ने झूठ बोलने की कोशिश की, तो मैं इसी वक्त तुम्हें व वंदना को राजेशजी के घर ले जाने को तैयार खड़ी हूं,’’ सीमा ने समीर को चेतावनी दी. सीमा के कहे पर कुछ ध्यान दिए बगैर समीर नाराज, ऊंचे स्वर में वंदना से बोला, ‘‘अरे, चला गया था तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा है? मांपिताजी ने जोर डाला, तो जाना पड़ा मुझे मैं कौन सा वहां शादी को ‘हां’ कर आया हूं. बस, इतना ही विश्वास है तुम्हें मुझ पर. खुद भी खामखां आंखें सुजा कर तमाशा बन रही हो और मुझे भी लोगों से आलतूफालतू की बकवास सुनवा रही हो.’’ समीर की क्रोधित नजरों से प्रभावित हुए बगैर सीमा व्यग्ंयभरे स्वर में बोली, ‘‘इश्क वंदना से कर रहे हो और सुनते हो मातापिता की. कल को जनाब मातापिता के दबाव में आ कर शादी भी कर बैठे, तो इस बेचारी की तो जिंदगी बरबाद हो जाएगी या नहीं?’’

‘‘समीर, तुम गए ही क्यों लड़की देखने और मुझे बताया क्यों नहीं इस बारे में कुछ?’’ वंदना की आंखों से फिर आंसू छलक उठे.

‘‘मुझे खुद ही कहां मालूम था कि ऐसा कुछ कार्यक्रम बनेगा. कल अचानक ही मांपिताजी जिद कर के मुझे जबरदस्ती उस लड़की को दिखाने ले गए.’’

‘‘झूठा, धोखेबाज,’’ सीमा बड़बड़ाई और फिर पैर पटकती अपनी सीट की तरफ बढ़ गई.

‘‘सीमा की बातों पर ध्यान न देना, वंदना. तुम्हारी और मेरी ही शादी होगी…जल्दी ही मैं उचित माहौल बना कर तुम्हें अपने घरवालों से मिलाने ले चलूंगा. अभी जल्दी में हूं क्योंकि बाहर मांपिताजी टैक्सी में बैठे इंतजार कर रहे हैं मेरा. कल मिलते हैं, बाय,’’  किसी और से बिना एक भी शब्द बोले समीर तेज चाल से चलता हुआ कक्ष से बाहर निकल गया. उस के यों चले जाने से सब को ही ऐसा एहसास हुआ मानो वह वहां से उन सब से पीछा छुड़ा कर भागा है. ओमप्रकाश और महेश रोतीसुबकती वंदना को चुप कराने के प्रयास में जुट गए. सीमा क्रोधित अंदाज में समीर को भलाबुरा कहती लगातार बड़बड़ाए जा रही थी.

भूल किसकी- भाग 4:

प्रिंस जैसेजैसे बड़ा हो रहा था पापाजी उतने ही छोटे बनते जा रहे थे. दिनभर उस के साथ खेलना, उस के जैसे ही तुतला कर उस से बात करना. आज रीता की किट्टी पार्टी थी. प्रिंस को खाना खिला कर पापाजी के पास सुला कर वह किट्टी में जाने के लिए तैयार होने लगी. वैसे भी प्रिंस ज्यादा समय अपने दादाजी के साथ बिताता था, इसलिए उसे छोड़ कर जाने में रीता को कोई परेशानी नहीं थी.

जिस के यहां किट्टी थी उस के कुटुंब में किसी की गमी हो जाने की वजह से किट्टी कैंसिल हो गई और वह जल्दी घर लौट आई. बाहर तुषार की गाड़ी देख आश्चर्य हुआ. आज औफिस से इतनी जल्दी कैसे आना हुआ… अगले ही पल आशंकित होते हुए कि कहीं तबीयत तो खराब नहीं है, जल्दीजल्दी बैडरूम की ओर बढ़. दरवाजे पर पहुंचते ही ठिठक गई.

अंदर से रीमा की आवाजें जो आ रही थीं. रीमा को तो इस समय कालेज में होना चाहिए. यहां कैसे? कहीं पापाजी की बात सही तो नहीं है? गुस्से में जोर से दरवाजा खोला. अंदर का नजारा देखते ही उस के होश उड़ गए. तुषार तो रीता को देखते ही सकपका गया पर रीमा के चेहरे पर शर्मिंदगी का नामोनिशान नहीं था.

गुस्से से रीता का चेहरा तमतमा उठा. आंखों से अंगारे बरसने लगे. पूरी ताकत से रीमा को इसी समय कमरे से और घर से जाने को कहा. तुषार तो सिर  झुकाए खड़ा रहा पर रीमा ने कमरे से बाहर जाने से साफ इनकार कर दिया. रीता ने बहुत बुराभला कहा पर रीमा पर उस का कुछ भी असर नहीं हुआ.

हार कर रीता को ही कमरे से बाहर आना पड़ा. उस की रुलाई थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. बड़ी मुश्किल से अपनेआप को संभाला और फिर हिम्मत कर तुषार से बात करने कमरे में गई और बोली ‘‘तुषार इस घर में या तो रीमा रहेगी या मैं,’’ उसे लगा यह सुन कर तुषार रीमा को जाने के लिए कह देगा.

मगर वह बोला, ‘‘रीमा तो यहीं रहेगी, तुम्हें यदि नहीं पसंद तो तुम जा सकती हो.’’

तुषार से इस जवाब की उम्मीद तो रीता को बिलकुल नहीं थी. अब उस के पास कहने को कुछ नहीं था.

सुचित्रा और शेखर ने भी रीमा को सम झाने की बहुत कोशिश की, पर अपनी जिद पर अड़ी रीमा किसी की भी बात सुनने को तैयार नहीं थी. अभी तक जो काम चोरीछिपे होता था अब वह खुल्लमखुल्ला होने लगा. रीता को तो अपने बैडरूम से भी बेदखल होना पड़ा. जिस घर में हंसी गूंजती थी अब वीरानी सी छाई थी. आखिर कोई कब तक सहे. इन सब का असर रीता की सेहत पर भी होने लगा. सुचित्रा और शेखर ने तय किया कि रीता उन के पास आ कर रहेगी वरना वहां रह कर तो घुटती रहेगी.’’

तुषार को प्रमोशन मिली थी. आज उस ने प्रमोशन की खुशी में पार्टी रखी थी. रीता जाना ही नहीं चाहती थी, लोगों की नजरों और सवालों से बचना जो चाहती थी. पार्टी में वह रीमा को ले कर गया.

पापाजी बहुत परेशान थे. उन्हें सम झ ही नहीं आ रहा था इस मामले को कैसे सुल झाया जाए. वे किसी भी कीमत पर रीता और प्रिंस को इस घर से जाने नहीं देना चाहते थे. उन के जाने के बाद वे कैसे जीएंगे. पर रोकें भी तो कैसे? इसी उधेड़बुन में लगे थे कि अचानक उन्होंने एक ठोस निर्णय ले ही लिया.

रीता का कमरा साफ करते हुए सुचित्रा ने शेखर से कहा, ‘‘पता नहीं मु झ से रीमा की परवरिश में कहां चूक हो गई.’’

‘‘कितनी बार तुम से कहा अपनेआप को दोष मत दिया करो सुचित्रा.’’

‘‘नहीं शेखर, यदि बचपन में ही उस की जिद न मानी होती तो शायद यह दिन न देखना पड़ता. जब भी उस ने रीता की किसी चीज पर हक जमाया हम ने हमेशा यह कह कर रीता को सम झाया कि छोटी बहन है दे दो, पर इस बार उस ने जो चीज लेनी चाही है वह कैसे दी जा सकती है?

‘‘सपने में भी नहीं सोचा था. रीमा रीता का घर ही उजाड़ देगी, काश मैं ने रीमा पर नजर रखी होती, उसे इतनी छूट न दी होती. ये सब मेरी भूल की वजह से हुआ.’’

रीता बैग में कपड़े रखते हुए सोच रही थी कि उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह दिन भी देखना पड़ेगा. तुषार भी बदल जाएगा. काश मैं ने पापाजी की बात को सीरियसली लिया होता. उन्होंने तो मु झे बहुत बार आगाह किया पर मैं सम झ ही नहीं पाई. जो कुछ हुआ उस में मेरी ही गलती है.

पापाजी के मन में उथलपुथल मची थी. वे रीता के पास जा कर बोले, ‘‘कपड़े वापस अलमारी में रखो. तुम कहीं नहीं जाओगी.’’

‘‘पर पापाजी मैं यहां रह कर क्या करूंगी जब तुषार ही नहीं चाहता?’’

‘‘क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं? इस घर को घर तो तुम ने ही बनाया है. तुम चली जाओगी तो वीराना हो जाएगा. मैं कैसे जीऊंगा तुम्हारे और प्रिंस के बिना. अब तुम अपने बैडरूम में जाओ. यह घर तुम्हारा है.’’

‘‘जी पापाजी,’’ कह वह प्रिंस को ले कर सोने चली गई.

रात के 2 बज रहे थे. तुषार और रीमा अभी तक नहीं आए थे. पापाजी की आंखों की नींद उड़ गई थी. वे सोच रहे थे कि मैं तो बड़ा और अनुभवी था जब मु झे आभास हो गया था तो चुप क्यों बैठा रहा. सारी मेरी गलती है.

हरकोई इस भूल के लिए अपनेआप को दोषी ठहरा रहा था, जबकि जो दोषी था वह तो अपनेआप को दोषी मान ही नहीं रहा था. घड़ी ने 12 बजा दिए. पापाजी ने अंदर से दरवाजा लौक किया और आंखें बंद कर दीवान पर लेट गए. मन में विचारों का घुमड़ना जारी था. गेट खुलने की आवाज आते ही पापाजी ने खिड़की से देखा, तुषार गाड़ी पार्क कर रहा था. दोनों हाथों में हाथ डाले लड़खड़ाते हुए दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे.

तुषार ने इंटर लौक खोला पर दरवाजा नहीं खुला, ‘‘यह दरवाजा क्यों नहीं खुल रहा?’’

‘‘हटो, मैं खोलती हूं.’’

पर रीमा से भी नहीं खुला.

‘‘लगता है किसी ने अंदर से बंद कर दिया है.’’

‘‘अरे, ये बैग कैसे रखे यहां?’’

‘‘रीता के होंगे. वह आज मम्मी के घर जा रही थी न.’’

तुषार ने दरवाजा कई बार खटखटाया पर कोई उत्तर न आने पर रीता को आवाज लगाई. पर तब भी कोई जवाब नहीं.

‘‘लगता है रीता गहरी नींद में है, पापाजी को आवाज लगाता हूं.’’

‘‘यह दरवाजा नहीं खुलेगा,’’ अंदर से ही पापाजी ने जवाब दिया.

‘‘देखो, दरवाजे पर ही एक तुम्हारा और एक रीमा का बैग रखा है.’’

‘‘यह घर मेरा है मु झे अंदर आने दीजिए.’’

‘‘बरखुरदार, तुम भूल रहे हो मैं ने अभी यह घर तुम्हारे नाम नहीं किया है.’’

‘‘पापाजी मैं इस समय कहां जाऊंगी?’’

‘‘यह फैसला भी तुम्हें ही करना है… इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं. जब तुम्हें पूरी तरह सम झ आ जाए कि तुम क्या कर रहे हो और कुछ ऐसा कि इस दरवाजे की एक और चाबी तुम्हें मिले, तब तक यह दरवाजा बंद सम झो.’’

दोनों का नशा काफूर हो चुका था. थोड़ी देर इंतजार किया कि शायद पापाजी दरवाजा खोल दें. मगर जब दरवाजा नहीं खुला तो गाड़ी स्टार्ट करते हुए बोला, ‘‘रीमा, चलो गाड़ी में बैठो.’’

रीमा ने कहा, ‘‘तुषार, मु झे घर पर उतार दो. तुम्हें तो रात को शायद होटल में रहना पड़ेगा,’’ रीमा को मन में खुशी भी थी कि बहन का घर तोड़ दिया पर यह डर भी था कि तुषार जैसा वेबकूफ पार्टनर कहीं हाथ से न निकल जाए.

‘‘तुषार भी शादी के दिन इतना सुंदर नहीं लगा था जितना आज लग रहा था.

कहते हैं जब व्यक्ति खुश होता है तो चेहरे पर चमक आ ही जाती है…’’

भूल किसकी- भाग 3

पापाजी सभी मेहमानों का स्वागत उत्साहपूर्वक कर रहे थे. बीचबीच में शाम के प्रोग्राम की भी जानकारी ले रहे थे.

बहुत ही शानदार आयोजन था. लाइटें इतनी कि आंखें चौंधिया जाएं. कई व्यंजन, लजीज खाना… सभी तारीफ कर रहे थे.

तुषार भी शादी के दिन इतना सुंदर नहीं लगा था जितना आज लग रहा था. कहते हैं जब व्यक्ति खुश होता है तो चेहरे पर चमक आ ही जाती है. रीमा को तो तुषार का साथ वैसे भी अच्छा लगता था और आज उस की नजरें तुषार के चेहरे से हट ही नहीं रही थीं.

पापाजी ने सभी मेहमानों का आभार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘मैं ने सुना भर था कि बिन घरनी घर भूत का डेरा पर अब उस का अनुभव भी कर लिया. मेरा घर भूत के डेरे के समान ही था पर रीता ने आ कर उसे एक खूबसूरत और खुशहाल घर बना दिया. रीता ने घर ही नहीं घर में रहने वालों की भी काया पलट दी. मैं बहुत खुश हूं जो रीता जैसी बहू हमारे घर आई.’’

‘‘मेरे लिए भी घर एक सराय जैसा था जहां मैं रात गुजारने आता पर उस सराय को एक घर बनाने का श्रेय रीता को जाता है,’’ कहते हुए तुषार ने रीता का हाथ अपने हाथों में ले लिया.

सभी ने रीता की खूब तारीफ की. तभी अचानक रीता को चक्कर आ गया. वह गिरती उस के पहले ही तुषार ने संभाल लिया. सभी घबरा गए. डाक्टर को बुलाया गया. जितने लोग उतनी बातें. कोई बोला काम की अधिकता की वजह से चक्कर आया तो किसी ने कहा नींद पूरी नहीं हुई होगी, कोई कह रहा था ठीक से खाना नहीं खाया होगा. महिलाओं में एक अलग ही खुसरफुसर थी. सब से ज्यादा चिंता पापाजी और तुषार के चेहरे पर थी.

डाक्टर ने जैसे ही रीता के पैर भारी होने की सूचना दी मुर झाए चेहरे खिल उठे. पापाजी तो इतने खुश हुए जैसे खजाना हाथ लग गया हो. रीमा, रीता की खुशी में खुश नहीं थी वरन उसे इस बात की जलन हो रही थी कि तुषार जैसा जीवनसाथी उसे क्यों नहीं मिला. वह तुषार की ओर खिंचाव सा महसूस करने लगी थी. वह तुषार के करीब आने का कोई न कोई बहाने ढूंढ़ती रहती थी. रीता की तबीयत के बहाने उस घर में उस का आनाजाना बढ़ गया था. घर का माहौल पूरी तरह पलट गया था. अभी तक रीता तुषार और पापाजी का खयाल रखती थी. अब ये दोनों मिल कर रीता का खयाल रख रहे थे. कभीकभी मजाक में रीता पापाजी से बोल भी देती थी कि आप तो ससुर से सासूमां बन गए.

जैसेजैसे समय नजदीक आ रहा था पापाजी की चिंता बढ़ती जा रही थी. अब तो वे रीता की हर गतिविधि पर नजर रख रहे थे.

उस दिन सुबह से रीता अनमनी सी थी. बारबार लेट जाती थी. पापाजी ने तुषार को औफिस जाने से मना किया. ऐसा पहले भी हुआ जब पापाजी ने उसे औफिस जाने से मना किया और उस ने हर बार उन की बात मानी.

दोपहर होतेहोते रीता को दर्द शुरू हो गया. हालांकि डाक्टरों ने जो तारीख दी थी उस में अभी 7 दिन बाकी थे. मगर वे कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे, इसलिए तुरंत अस्पताल पहुंचे.

रीता डिलिवरीरूम में थी. बाहर पापाजी और तुषार चहलकदमी कर रहे थे.

नर्स ने कई बार टोका, ‘‘आप लोग आराम से बैठ जाएं डिलिवरी में अभी टाइम है.’’

वे 2 मिनट बैठते फिर चहलकदमी शुरू कर देते. जितनी बार नर्स बाहर आती उतनी ही बार पापाजी उस से पूछते कि रीता तो ठीक है न और वह हर बार मुसकरा कर जवाब देती, ‘‘सब ठीक है.’’

आखिर वह घड़ी आ ही गई जिस का उन्हें बेसब्री से इंतजार था. नर्स ने जैसे ही खबर दी पापाजी ने उस से पूछा, ‘‘रीता तो ठीक है न?’’

‘‘हां बिलकुल ठीक है पर आप ने यह नहीं पूछा कि बेटा हुआ या बेटी…’

‘‘उस से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. बस दोनों स्वस्थ होने चाहिए.’’

नर्स ने उन्हें अचरज से देखा और फिर अंदर चली गई.

अब चहलकदमी बंद हो गई थी. थोड़ी ही देर में नर्स कपड़े में लिपटे नवजात को ले कर बाहर आई. फिर तुषार को देते हुए बोली, ‘‘बेटा हुआ है.’’

तुषार ने पापाजी की ओर इशारा कर कहा कि पहला हक इन का है.

जैसे ही पापाजी ने उसे हाथों में लिया एकटक देखते रहे. उन्होंने कोशिश तो बहुत की, पर आंसुओं को न रोक पाए.

‘‘पापाजी क्या हुआ?’’ तुषार परेशान हो उठा.

बच्चे को तुषार को सौंपते हुए बोले, ‘‘कुछ नहीं आंखों से कुछ नहीं छिपा सकते… ये आंसू खुशी के हैं. मैं इतना खुश तो तेरे पैदा होने पर भी नहीं हुआ था जितना आज हूं. कभीकभी डर भी लगता है कहीं इन खुशियों पर किसी की नजर न लग जाए.’’

‘‘मूल से ब्याज जो प्यारा होता है,’’ तुषार ने हंस कर जवाब दिया.

‘‘अब बेबी मु झे दीजिए वैक्सिनेशन करना है.’’

‘‘सिस्टर, हम रीता से कब मिल सकते हैं?’’

‘‘थोड़ी देर बाद हम उसे रूम में शिफ्ट कर देंगे. तब मिल लेना.’’

‘‘8 नंबर रूम में जा कर आप लोग रीता से मिल सकते हैं,’’ थोड़ी देर बाद आ कर नर्स बोली.

पापाजी ने सम झदारी दिखाते हुए पहले तुषार को रीता से मिलने भेजा.

रीता का हाथ अपने हाथ में लेते तुषार ने कहा, ‘‘कैसी हो? थैंक्स मु झे इतना प्यारा गिफ्ट देने के लिए.’’

रीता ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘पापाजी कहां हैं?’’

‘‘बाहर हैं, अभी बुलाता हूं.’’

अंदर आते ही पापाजी ने रीता के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा, ‘‘ठीक तो हो न?’’

आज घर को फूलों से सजाया गया था. दरवाजे पर सुंदर सी रंगोली भी बनाई

गई थी. रीता अस्पताल से घर जो आने वाली थी. रीता और बच्चे का स्वागत पापाजी ने थाली बजा कर किया. पापाजी ने तो उस का नामकरण भी कर दिया ‘प्रिंस.’

रीता को देखभाल की जरूरत थी. सुचित्रा ने कुछ दिन यहीं रुकने का निश्चय किया तो रीमा की तो मन की मुराद ही पूरी हो गई. तुषार के साथ रहने का मौका जो मिल गया. ऐसा नहीं कि तुषार कुछ सम झता नहीं था. वह हमेशा कोशिश करता कि रीमा से दूर रहे. किसी से कुछ कह भी तो नहीं सकता था. वह जितना दूर होता रीमा उतना ही उस के करीब आने की कोशिश करती. उस की तो जिद थी कि तुषार को पाना है. पर तुषार तो रीता से खुश और संतुष्ट था. वह किसी भी कीमत पर उसे धोखा नहीं देना चाहता था.

प्रिंस के आने से पापाजी का बचपना लौट आया था. उन्हें तो मानो एक खिलौना मिल गया था, जिसे वे अपनी आंखों से एक पल के लिए भी ओ झल नहीं होना देना चाहते थे. नैपी बदलना, पौटी साफ करने जैसे कामों में भी कोई हिचक नहीं थी.

समय बीतते देर नहीं लगती. प्रिंस 1 साल का हो गया था. अब तो वह चलने भी लगा था. प्रिंस को खेलाने के बहाने रीमा का आना जारी था. दिनभर प्रिंस के पीछेपीछे पापाजी भागते रहते. रीता ने कई बार टोका भी कि पापाजी आप थक जाएंगे, आप के घुटनों का दर्द बढ़ जाएगा पर उन की दुनिया तो प्रिंस के इर्दगिर्द ही थी. वे पहले से ज्यादा खुश और स्वस्थ नजर आते थे.

आखिर जिस की उम्मीद नहीं थी वही हुआ. रीमा अपने मकसद में कामयाब हो गई. उस का छुट्टी के दिन आना और घंटों बतियाना, कभीकभी एक ही थाली में खाना खाना पापाजी की अनुभवी आंखों से छिप न सका. उन्हें आने वाले तूफान का आभास होने लगा था. उन्होंने इशारेइशारे में रीता को कई बार सम झाने की कोशिश की पर रीता को तो तुषार और रीमा पर इतना विश्वास था कि वह इसे पापाजी का वहम मानती.

आज फिर पापाजी ने रीता से बात की.

‘‘पापाजी, जीजासाली में तो मजाक चलता है. आप बेकार में परेशान होते हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है उन दोनों के बीच.’’

एक मौका और दीजिए- भाग 3: बहकने लगे सुलेखा के कदम

सुलेखा ने डाक्टर को दिखाने की बात कही तो वह टाल गया. आखिर बीमारी मन की थी, तन की नहीं, डाक्टर भी भला क्या कर पाएगा. रात का खाना भी नहीं खाया. सुलेखा के पूछने पर कह दिया कि बस, एक गिलास दूध दे दो, खाने का मन नहीं है. सुलेखा दूध लेने चली गई. उस के कदमों की आहट सुन कर उसे न जाने क्या सूझा कि अचानक अपनी छाती को कस कर दबा लिया तथा दर्द से कराहने लगा.

दर्द से उसे यों तड़पता देख कर उस ने दूध मेज पर रखा तथा उस के पास ‘क्या हुआ’ कहती हुई आई. उस के आते ही उस ने हाथपैर ढीले छोड़ दिए तथा सांस रोक कर ऐसे लेट गया मानो जान निकल गई हो. वह बचपन से तालाब में तैरा करता था, अत: 5 मिनट तक सांस रोक कर रखना उस के बाएं हाथ का खेल था.

सुलेखा ने उस के शांत पड़े शरीर को छूआ, थोड़ा झकझोरा, कोई हरकत न पा कर बोली, ‘‘लगता है, यह तो मर गए…अब क्या करूं…किसे बुलाऊं?’’

मनीष को उस की यह चिंता भली लगी. अभी वह अपने नाटक का अंत करने की सोच ही रहा था कि सुलेखा की आवाज आई :

‘‘सुयश, हमारे बीच का कांटा खुद ही दूर हो गया.’’

‘‘क्या, तुम सच कह रही हो?’’

‘‘विश्वास नहीं हो रहा है न, अभीअभी हार्टअटैक से मनीष मर गया. अब हमें विवाह करने से कोई नहीं रोक पाएगा…मम्मी, पापा के कहने से मैं ने मनीष से विवाह तो कर लिया पर फिर भी तुम्हारे प्रति अपना लगाव कम नहीं कर सकी. अब इस घटना के बाद तो उन्हें भी कोई एतराज नहीं होगा.

‘‘देखो, तुम्हें यहां आने की कोई आवश्यकता नहीं है. बेवजह बातें होंगी. मैं नीलेश भाई साहब को इस बात की सूचना देती हूं, वह आ कर सब संभाल लेंगे…आखिर कुछ दिनों का शोक तो मुझे मनाना ही होगा, तबतक तुम्हें सब्र करना होगा,’’ बातों से खुशी झलक रही थी.

‘पहले दूध पी लूं फिर पता नहीं कितने घंटों तक कुछ खाने को न मिले,’ बड़बड़ाते हुए सुलेखा ने दूध का गिलास उठाया और पास पड़ी कुरसी पर बैठ कर पीने लगी.

मनीष सांस रोके यह सब देखता, सुनता और कुढ़ता रहा. दूध पी कर वह उठी और बड़बड़ाते हुए बोली, ‘अब नीलेश को फोन कर ही देना चाहिए…’ उसे फोन मिला ही रही थी कि  मनीष उठ कर बैठ गया.’

‘‘तुम जिंदा हो,’’ उसे बैठा देख कर अचानक सुलेखा के मुंह से निकला.

‘‘तो क्या तुम ने मुझे मरा समझ लिया था…?’’ मनीष बोला, ‘‘डार्लिंग, मेरे शरीर में हलचल नहीं थी पर दिल तो धड़क रहा था. लेकिन खुशी के अतिरेक में तुम्हें नब्ज देखने या धड़कन सुनने का भी ध्यान नहीं रहा. तुम ने ऐसा क्यों किया सुलेखा? जब तुम किसी और से प्यार करती थीं तो मेरे साथ विवाह क्यों किया?’’

‘‘तो क्या तुम ने सब सुन लिया?’’ कहते हुए वह धम्म से बैठ गई.

‘‘हां, तुम्हारी सचाई जानने के लिए मुझे यह नाटक करना पड़ा था. अगर तुम उस के साथ रहना चाहती थीं तो मुझ से एक बार कहा होता, मैं तुम दोनों को मिला देता, पर छिपछिप कर उस से मिलना क्या बेवफाई नहीं है.

‘‘10 महीने मेरे साथ एक ही कमरे में मेरी पत्नी बन कर गुजारने के बावजूद आज अगर तुम मेरी नहीं हो सकीं तो क्या गारंटी है कल तुम उस से भी मुंह नहीं मोड़ लोगी…या सुयश तुम्हें वही मानसम्मान दे पाएगा जो वह अपनी प्रथम विवाहित पत्नी को देता…जिंदगी एक समझौता है, सब को सबकुछ नहीं मिल जाता, कभीकभी हमें अपनों के लिए समझौते करने पड़ते हैं, फिर जब तुम ने अपने मातापिता के लिए समझौता करते हुए मुझ से विवाह किया तो उस पर अडिग क्यों नहीं रह पाईं…अगर उन्हें तुम्हारी इस भटकन का पता चलेगा तो क्या उन का सिर शर्म से नीचा नहीं हो जाएगा?’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मनीष. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई,’’ सुलेखा ने उस के कदमों पर गिरते हुए कहा.

‘‘अगर तुम इस संबंध को सच्चे दिल से निभाना चाहती हो तो मैं भी सबकुछ भूल कर आगे बढ़ने को तैयार हूं और अगर नहीं तो तुम स्वतंत्र हो, तलाक के पेपर तैयार करवा लेना, मैं बेहिचक हस्ताक्षर कर दूंगा…पर इस तरह की बेवफाई कभी बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा.’’

उसी समय सुलेखा का मोबाइल खनखना उठा…

‘‘सुयश, आइंदा से तुम मुझे न तो फोन करना और न ही मिलने की कोशिश करना…मेरे वैवाहिक जीवन में दरार डालने की कोशिश, अब मैं बरदाश्त नहीं करूंगी,’’ कहते हुए सुलेखा ने फोन काट दिया तथा रोने लगी.

उस के बाद फिर फोन बजा पर सुलेखा ने नहीं उठाया. रोते हुए बारबार उस के मुंह से एक ही बात निकल रही थी, ‘‘प्लीज मनीष, एक मौका और दे दो…अब मैं कभी कोई गलत कदम नहीं उठाऊंगी.’’

उस की आंखों से निकलते आंसू मनीष के हृदय में हलचल पैदा कर रहे थे पर मनीष की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उस की बात पर विश्वास करे या न करे. जो औरत उसे पिछले 10 महीने से बेवकूफ बनाती रही…और तो और जिसे उस की अचानक मौत इतनी खुशी दे गई कि उस ने डाक्टर को बुला कर मृत्यु की पुष्टि कराने के बजाय अपने प्रेमी को मृत्यु की सूचना  ही नहीं दी, अपने भावी जीवन की योजना बनाने से भी नहीं चूकी…उस पर एकाएक भरोसा करे भी तो कैसे करे और जहां तक मौके का प्रश्न है…उसे एक और मौका दे सकता है, आखिर उस ने उस से प्यार किया है, पर क्या वह उस से वफा कर पाएगी या फिर से वह उस पर वही विश्वास कर पाएगा…मन में इतना आक्रोश था कि वह बिना सुलेखा से बातें किए करवट बदल कर सो गया.

दूसरा दिन सामान्य तौर पर प्रारंभ हुआ. सुबह की चाय देने के बाद सुलेखा नाश्ते की तैयारी करने लगी तथा वह पेपर पढ़ने लगा. तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा मनीष ने खोला तो सामने किसी अजनबी को खड़ा देख वह चौंका पर उस से भी अधिक वह आगंतुक चौंका.

वह कुछ कह पाता इस से पहले ही मनीष जैसे सबकुछ समझ गया और सुलेखा को आवाज देते हुए अंदर चला गया, पर कान बाहर ही लगे रहे.

सुलेखा बाहर आई. सुयश को खड़ा देख कर चौंक गई. वह कुछ कह पाता इस से पहले ही तीखे स्वर में सुलेखा बोली, ‘‘जब मैं ने कल तुम से मिलने या फोन करने के लिए मना कर दिया था उस के बाद भी तुम्हारी यहां मेरे घर आने की हिम्मत कैसे हुई. मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखना चाहती…आइंदा मुझ से मिलने की कोशिश मत करना.’’

सुयश का उत्तर सुने बिना सुलेखा ने दरवाजा बंद कर दिया और किचन में चली गई. आवाज में कोई कंपन या हिचक नहीं थी.

वह नहाने के लिए बाथरूम गया तो सबकुछ यथास्थान था. तैयार हो कर बाहर आया तो नाश्ता लगाए सुलेखा उस का इंतजार कर रही थी. नाश्ता भी उस का मनपसंद था, आलू के परांठे और मीठा दही.

आफिस जाते समय उस के हाथ में टिफिन पकड़ाते हुए सुलेखा ने सहज स्वर में पूछा, ‘‘आज आप जल्दी आ सकते हैं. रीजेंट में बाबुल लगी है…अच्छी पिक्चर है.’’

‘‘देखूंगा,’’ न चाहते हुए भी मुंह से निकल गया.

गाड़ी स्टार्ट करते हुए मनीष सोच रहा था कि वास्तव में सुलेखा ने स्वयं को बदल लिया है या दिखावा करने की कोशिश कर रही है. सचाई जो भी हो पर वह उसे एक मौका अवश्य देगा.

प्रतिकार

रात में मां का फोन आया था कि वह सुबह आ रही हैं. उन्हें स्टेशन से लेने के लिए वह निकल ही रही थी कि फोन की घंटी बज उठी. उस ने रिसीवर उठाया तो पता चला कि फोन अस्पताल के आपातकालीन विभाग से आया था और उसे जल्दी पहुंचने के लिए कहा गया था.

कई महीनों के बाद तो उस ने छुट्टी ली थी. मां उस से मिलने आ रही हैं. पिछली बार जब वह घर गई थी तब केवल 4 दिन की छुट्टियां ली थीं. मां ने उस से पूछा था, ‘अब फिर कब आओगी’ तो उस ने कहा था, ‘मां, अब तुम मुझ से मिलने आना. मेरा आना संभव नहीं हो पाएगा.’

तब मां ने कहा था, ‘तुम छुट्टी लोगी, तभी मैं वहां आऊंगी. स्टेशन से ले जा कर घर बिठा देती हो… अकेले घर में मन ही नहीं लगता. कम से कम उस दिन तो छुट्टी ले ही लिया करो.’

यही सोच कर उस ने मां को अपनी छुट्टी की खबर दी थी और मां आ रही थीं. पर अचानक अस्पताल से फोन आने के बाद उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. वह जानती थी कि अकेले भी मां को स्टेशन से घर आने में कितनी तकलीफ होगी. भैयाभाभी जानेंगे तो अलग गुस्सा होंगे कि यदि उस के पास मां के लिए इतना भी समय नहीं है तो वह उन्हें अपने पास बुलाती ही क्यों है.

जल्दी में कुछ और उपाय नहीं सूझा तो उस ने डा. कपिल के पापा से मां को स्टेशन से लाने के लिए अनुरोध किया. वह जानती थी कि मां को लाने और घर तक छोड़ने में कम से कम डेढ़ घंटा तो लग ही जाएगा. उधर अस्पताल से दूसरी बार फोन आ चुका था. मां पहली बार जब आई थीं तब कपिल के पापा से उन की मुलाकात

हुई थी इसलिए परेशानी की कोई बात नहीं थी.

ताला लगा कर चाबी उस ने कपिल के पापा को दे दी. उन की इस असुविधा के लिए उस ने पहले ही फोन पर उन से क्षमा मांग ली थी. तब उन्होंने फोन पर हंस कर कहा था, ‘‘तुम्हारी मां के आ जाने से मुझ बुड्ढे को भी कोई बात करने वाला मिल जाएगा.’’

उन की बात सुन कर वह भी खिलखिला कर हंस पड़ी थी.

अस्पताल पहुंचते ही वह डा. सिद्धांत के कमरे में गई. उन्होंने ही उसे फोन कर के बुलाया था. मरीज की प्राथमिक चिकित्सा कर दी गई थी पर आपरेशन की तुरंत आवश्यकता थी. समय पर आपरेशन न करने से मरीज की जान को खतरा था.

उस ने देखा कि आपरेशन थिएटर के बाहर एक औरत बुरी तरह से रोते हुए नर्स से कह रही थी, ‘‘सिस्टर, मैं अभी पूरे पैसे जमा नहीं करा सकती पर मैं जल्दी ही बिल चुका दूंगी.’’

सिस्टर ने झिड़कते हुए कहा था, ‘‘पैसा नहीं है तो किसी सरकारी अस्पताल में ले जाओ. इसे यहां क्यों ले कर आई हो?’’

‘‘यहां के डाक्टर योग्य हैं. मेरा इस अस्पताल पर विश्वास है. मैं जानती हूं कि डा. आराधना और डा. सिद्धांत मेरे पति को बचा लेंगे इसीलिए मैं यहां आई हूं. सिस्टर, मैं एकएक पैसा चुका कर ही यहां से जाऊंगी.’’

नर्स से बात करने के बाद वह औरत उस के पास आ कर रोतेरोते कह रही थी, ‘‘प्लीज, मेरे पति को बचा लीजिए. मुझे पता है कि आप मेरे पति को बचा सकती हैं. बचा लेंगी न आप?’’

उस ने उस औरत को सांत्वना दी, ‘‘देखिए, अपनी ओर से डाक्टर पूरा प्रयत्न करता है. यह उस का कर्तव्य होता है. आप चिंता न करें. सब ठीक हो जाएगा. क्या हुआ था आप के पति को?’’

‘‘पता नहीं डाक्टर, रात पेट में दाईं ओर दर्द होता रहा. सुबह उठते ही खून की उलटी हो गई. मैं घबराहट में कुछ कर ही नहीं सकी. जो रुपए घर में रखे थे उन्हें भी नहीं ला सकी. डाक्टर, आप इन का इलाज शुरू कीजिए, मैं घर जा कर पैसे ले आऊंगी.’’

नर्स ने फार्म पर हस्ताक्षर कराते समय उस औरत से पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे पति शराब पीते हैं?’’

‘‘हां, सिस्टर, बहुत अधिक पीते हैं. यह शराब ही इन्हें ले डूबी है. शराब के नशे में क्याक्या नहीं किया इन्होंने. सारी संपत्ति गंवा दी. अच्छाखासा कारोबार था, सब समाप्त हो गया. सासससुर बेटे के गम में ही चल बसे. मैं अकेली औरत क्याक्या करूं. कोई संतान भी नहीं हुई जो उस से मेरा जीवन अच्छा कट जाता,’’ कह कर वह औरत फिर रोने लगी.

वह उन की बातों को सुन रही थी लेकिन उस का ध्यान मरीज की ओर था जो अभी भी बेहोशी की हालत में था. डा. सिद्धांत भी आ गए थे. वह उन के साथ ही मरीज के पास आ गई. उस ने नब्ज देखी. ब्लडप्रेशर चेक किया. उस समय सबकुछ सामान्य था.

‘‘आपरेशन किया जा सकता है डा. सिद्धांत,’’ यह कह कर उस ने मरीज की ओर ध्यान से देखा. चेहरा कुछ जाना- पहचाना सा लग रहा था. उस चेहरे की प्रौढ़ता के पीछे वह मरीज की युवावस्था का चेहरा ढूंढ़ने लगी तो उस चेहरे को क्षणांश में ही पहचान गई. उस ने मरीज को फिर से देखा. उस की नजरें धोखा नहीं खा सकतीं. 20 बरसों के बाद भी वह उसे पहचान गई.

एक पल को उसे जोर का झटका लगा. उस के कदम आपरेशन थिएटर की ओर नहीं बढ़ सके. कमरे में जा कर वह कुरसी पर धम से बैठ गई. थोड़ा पानी पीने के बाद उस ने कुरसी के पीछे सिर टिका कर आंखें मूंद लीं.

तब वह 12-13 साल की थी और दीदी 17 की रही होंगी. वह 7वीं कक्षा में थी और दीदी 12वीं में, शिवांक सब से छोटा था. दोनों बहनें एक ही स्कूल में पढ़ने जाती थीं. स्कूल दूर नहीं था इसलिए दोनों पैदल ही जाया करती थीं. मां सुबह उठ कर नाश्ता तैयार करतीं. पापा कभीकभी उन को स्कूटर से भी स्कूल छोड़ आते थे.

दीदी पढ़ने में बहुत तेज थीं. पापा भी उन का पूरा ध्यान रखते थे. शाम को आफिस से आ कर दोनों की पढ़ाई के बारे में, स्कूल की अन्य गतिविधियों के बारे में पूछते रहते और जो भी कठिनाई होती उसे दूर करते थे. चूंकि पापा आफिस के साथसाथ दीदी को नियमित नहीं पढ़ा पाते थे अत: दीदी को विज्ञान पढ़ाने के लिए ट्यूशन लगा दी थी. वह चाहते थे कि दीदी अच्छे अंकों से पास हों क्योंकि पापा दीदी को डाक्टर बनाना चाहते थे.

दीदी भी पापा की इच्छाओं को समझती थीं. वह आज्ञाकारी बेटी बन उन की हर बात को मानती थीं. स्कूल में दीदी एक आदर्श विद्यार्थी मानी जाती थीं और परीक्षा में टौप करेगी ऐसी सभी आशा करते थे.

दीदी स्कूल से आ कर ट्यूशन के लिए जाती थीं. शाम को मां दीदी को अपने साथ लाती थीं. उस दिन शिवांक को बहुत तेज बुखार था. इसलिए मां ने उन दोनों बहनों को एकसाथ भेज दिया था ताकि वापसी में दोनों एकसाथ आ सकें.

जनवरी का महीना था. दोनों बहनें घर की ओर आ रही थीं कि वह अनहोनी हो गई जिस ने उस के घर को तिनकातिनका कर बिखेर दिया. उस अंधेरे ने जीवन में जो अंधकार भर दिया उस की पीड़ा वह आज भी महसूस करती है.

ट्यूशन पढ़ाने वाले अध्यापक के घर से निकल कर वे कुछ दूर ही पहुंची थीं कि एक कार तेजी से उन के पास आ कर रुकी और वे कुछ संभल पातीं कि कार खोल कर उतरे युवकों ने उन्हें कार में धकेल दिया. कार चल पड़ी तो उन दोनों युवकों ने अपनी हथेलियों से उन का मुंह जोर से बंद कर दिया ताकि वे चिल्ला न सकें.

तीनों युवकों ने उन्हें ले जा कर एक कमरे बंद कर दिया था. फिर कुछ देर बाद तीनों युवक दोबारा वहां आए. वह डरीसहमी कोने में दुबक  कर खड़ी देखती रही. उस के सामने ही उस की दीदी को नंगा कर दिया गया. एक ने दीदी के बाजू पकड़ लिए और दूसरे ने टांगें और फिर तीसरा…वह राक्षस, दीदी छटपटाती रहीं, चिल्लाती रहीं लेकिन उन के रोने को किसी ने नहीं सुना. वह दीदी को बचाने गई तो एक ने ऐसे जोर से धक्का दिया कि वह दीवार से जा टकराई और बेहोश हो गई.

जब होश आया तो सबकुछ समाप्त हो चुका था. वे तीनों दरिंदे कमरे से जा चुके थे. दीदी बेहोश पड़ी थीं. बाहर निकल कर उस ने देखा तो उस की समझ में नहीं आया कि कौन सी जगह है. सारी रात वह यह सोच कर रोती रही कि उस की मां और पापा कितने परेशान हो रहे होंगे.

सुबह होने पर वह कमरे से बाहर निकल कर आई और किसी तरह अपने घर पहुंच कर मां व पापा को सारी बात बताई. जब उन्हें यह सब पता चला तो उन के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई. वे उसे ले कर वहां गए जहां दीदी को वह बेहोश छोड़ कर आई थी. दीदी अभी भी बेहोश पड़ी थीं. पापा दीदी को ले कर अस्पताल गए तो डाक्टरों ने इलाज से ही पहले ढेरों प्रश्न कर डाले. पापा ने जाने कैसेकैसे कह कर सिफारिश कर उस का इलाज शुरू करवाया था. लेकिन तब तक दीदी बहुतकुछ खो चुकी थीं. मानसिक रूप से विक्षिप्त दीदी थोड़ीथोड़ी देर बाद चीखने लगतीं, कपड़े फाड़ने लगतीं.

परीक्षाएं शुरू हुईं और समाप्त भी हो गईं. दीदी बेखबर थीं और फिर एक दिन इसी बेखबरी में दीदी चल बसीं. पापा ने ठान लिया था कि वह इस का बदला ले कर रहेंगे. उन्होंने अपने जीवन का जैसे उद्देश्य ही बना लिया था कि अपराधियों को उस के किए की सजा दिला कर रहेंगे. पुलिस में रिपोर्ट तो लिखाई ही थी. उस की पहचान पर पुलिस ने उन युवकों को पकड़ भी लिया. अदालत में मुकदमा चला, जज के सामने भी उस ने चिल्ला कर उस युवक के बारे में बताया था लेकिन उन लोगों ने ऐसेऐसे गवाह पेश कर दिए जिस से यह साबित हो गया कि वह तो घटना वाले दिन शहर में था ही नहीं. अमीर पिता का बिगड़ा बेटा था सो पैसे के बल पर छूट गया. बाकी दोनों युवकों को 3-3 माह की सजा हुई, बस.

पापा टूट तो पहले ही गए थे, फैसला आने के बाद तो जैसे बिखर ही गए. उन्होंने उस शहर से अपना ट्रांसफर करवा लिया लेकिन वहां भी वह संभल नहीं पाए. दीदी की मृत्यु वह सहन नहीं कर पाए और एक दिन उन्होंने हम सब को छोड़ कर आत्महत्या कर ली.

पापा ने एक मकान ले रखा था. मां उसी में आ कर रहने लगीं. उन्होंने एक कमरा अपने पास रखा और बाकी कमरे किराए पर चढ़ा दिए.

पापा और दीदी की मौत ने उसे कुछ ही समय में बड़ा कर दिया. वह शांत, चुप रहने लगी. पढ़ाई में उस ने मन लगाना शुरू कर दिया. चूंकि पापा दीदी को डाक्टर बनाना चाहते थे इसलिए उस ने ठान लिया था कि वह पापा की इच्छा को अवश्य पूरी करेगी. वह दीदी जैसी प्रतिभावान नहीं थी पर अपनी लगन और दृढ़ निश्चय के कारण वह सफलता की सीढि़यां चढ़ती गई और एक दिन उस ने डाक्टर बन कर दिखा ही दिया. आज वह एक सफल डाक्टर है और लोग उसे

डा. आराधना के रूप में जानते हैं. इस इलाके में उस का नाम है.

मां विवाह के लिए पिछले 5 सालों से जिद कर रही हैं लेकिन वह ऐसा सोच भी नहीं सकती. वह मानसिक रूप से इस के लिए खुद को तैयार नहीं कर पाती. शायद दूसरी वजह यही है कि बचपन में जो वीभत्स दृश्य उस ने देखा था उस कुंठा से वह निकल नहीं पाई है. हार कर मां ने शिवांक का विवाह कर दिया और उसी के पास वह रहती है.

आज जिस पुरुष को अभी देख कर वह आई है, वह कोई और नहीं बल्कि वही दरिंदा था जिस ने उस के सामने ही उस की दीदी की इज्जत से खेल कर उन्हें मौत के मुंह में धकेल दिया था और दीदी को न्याय नहीं दिला पाने की पीड़ा में पापा ने आत्महत्या कर ली थी.

उस के मन में उबाल उठ रहा था, जो न्याय दीदी को पापा नहीं दिला पाए थे वह दिलवाएगी. वह उस व्यक्ति से अवश्य प्रतिकार लेगी. तभी दीदी और पापा की आत्मा को शांति मिल सकेगी. वह उस का इलाज नहीं करेगी जो इस समय जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा है.

वह निश्ंिचत हो कर वैसे ही कुरसी पर सिर टिकाए बैठी रही पर उस के मन को अभी भी कुछ कचोट रहा था. उसे लगा जैसे कुछ गलत हो रहा है.

जब वह कोई निर्णय नहीं ले पाई तो उस ने अपने घर आई मां को फोन किया. बड़ी देर तक फोन की घंटी बजती रही, किसी ने रिसीवर उठाया ही नहीं. फिर उस ने कपिल के घर फोन किया. फोन कपिल के पापा ने उठाया. उस ने छूटते ही पूछा, ‘‘अंकल, मां नहीं आईं क्या? घर पर फोन किया था. किसी ने रिसीवर उठाया ही नहीं.’’

‘‘च्ंिता न करो, बेटी, तुम्हारी मां मेरे घर में हैं. तुम थीं नहीं सो इधर ही उन्हें ले कर चला आया.’’

‘‘अंकल, मां से बात कराएंगे?’’

‘‘क्यों नहीं, अभी करवा देता हूं.’’

‘‘हैलो, मां कैसी हैं आप, सौरी, मैं आप को लेने नहीं आ सकी.’’

‘‘कोई बात नहीं, बेटी. मैं तुम्हारी मजबूरी को समझती हूं. तुम च्ंिता मत करो. चाय पी कर मैं घर चली जाऊंगी. तुम अपना काम कर के ही आना.’’

‘‘मां, आप अस्पताल में आ सकती हैं?’’

‘‘क्यों, क्या बात है, बेटी? तुम्हारी आवाज भर्राई हुई क्यों है?’’

‘‘कुछ नहीं, मां. बस, आप यहां आ जाओ,’’ उस ने छोटे बच्चों की तरह मचलते हुए कहा.

‘‘अच्छा, मैं अभी आ रही हूं,’’ कहते हुए उस ने फोन काट दिया.

मां जब अस्पताल पहुंचीं तब भी वह अपने कमरे में निश्चल बैठी थी. मां को देखते ही वह उन से लिपट कर रोने लगी. मां उसे भौचक देखती रहीं, सहलाती रहीं. थोड़ा मन शांत हुआ तो मां से अलग हो कर फिर से कुरसी पर आंखें मूंद कर बैठ गई. लग रहा था जैसे उस में खड़े होने की शक्ति ही नहीं रही.

मां ने च्ंितित स्वर में पूछा, ‘‘आराधना, क्या बात है. सबकुछ ठीक तो है न, बोल क्यों नहीं रही बेटी.’’

वह फिर से रोने लगी और रोतेरोते उस ने मां को उस व्यक्ति के बारे में सबकुछ बता दिया.

मां भी सकते में आ गईं. जरा संभलीं तो बोलीं, ‘‘मत करना उस का आपरेशन, मरने दे उसे. यही उस की सजा है. मेरा घर बरबाद कर के वह अभी तक जीवित है. हमें कानून से न्याय नहीं मिला, अब समय है, तू बदला ले सकती है. तभी साधना और तुम्हारे पिता की आत्मा को शांति मिलेगी. कुछ सोचने की जरूरत नहीं. चुपचाप घर चल, तू ने छुट्टी तो ले ही रखी है.’’

वह उसी तरह कुरसी पर सिर टिकाए बैठी रही. तभी नर्स ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘डाक्टर, आपरेशन की तैयारी पूरी हो गई है. आप भी जाइए.’’

नर्स तो कह कर चली गई पर वह मां की ओर देखने लगी. मां ने उस से फिर कहा, ‘‘देख ले, आराधना, अच्छा अवसर मिला है. मत जा, कोई और यह आपरेशन कर लेगा.’’

‘‘मां, यह आपरेशन मैं ही कर सकती हूं, इसीलिए तो घर से बुलवाया गया था.’’

‘‘सोच ले.’’

‘‘मैं अभी आती हूं,’’ कह कर वह अपने कमरे से बाहर आ गई. मरीज के साथ आई औरत वहीं खड़ी थी. उस का दिल चाहा कि वह उस से सबकुछ बता दे कि उस के पति ने क्याक्या किया था. पर इस में उस औरत का क्या दोष है.

वह बिना कुछ बोले आपरेशन थिएटर में चली गई. देखा तो वह व्यक्ति अचेतावस्था में आपरेशन टेबल पर लेटा हुआ था. उस की मनोस्थिति से बेखबर यदि और थोड़ी देर उस का आपरेशन नहीं किया गया तो वह बच नहीं पाएगा. वह इस वहशी का अंत देखना चाहती है. वह पापा और दीदी की मृत्यु का बदला लेना चाहती है. लेकिन उस के मन की दृढ़ता पिघलने क्यों लगी है? कभी उस औरत का दारुण रुदन सुनाई देने लगता तो कभी उस का गिड़गिड़ाता हुआ चेहरा सामने आ जाता तो कभी दीदी और पापा सामने आ जाते. कभी मां के शब्द कानों में गूंजने लगते. यह कैसा अंतर्द्वंद्व है. वह बदला ले या अपना कर्तव्य निभाए. मन दीदी का साथ दे रहा था तो अंतरात्मा उस का.

वह थोड़ी देर खड़ी रही. खाली- खाली आंखों से उस व्यक्ति को देखती रही. उस के चेहरे पर भाव आजा रहे थे.

नर्स हैरानी से उसे देख रही थी. बोली, ‘‘डाक्टर, सब ठीक है न?’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर वह ग्लव्स और ऐप्रेन पहनने लगी.

2 घंटे के अथक परिश्रम के बाद आपरेशन पूरा हो गया. वह निढाल सी हो कर बाहर आई. वह औरत उस की ओर बढ़ी पर उस से वह कुछ कह नहीं पाई. उस के कंधे पर हाथ रख वह अपने कमरे की ओर चली आई थी. मां अभी तक वहीं थीं. वह उन की गोद में सिर रख कर फफकफफक कर रो पड़ी. मां उस के सिर को सहलाते हुए खुद भी रो पड़ीं. उन दोनों की आंखों से अब आंसू के रूप में अतीत का दर्द बह रहा था.

नया सफर: ससुराल के पाखंड और अन्धविश्वास के माहौल में क्या बस पाई मंजू?

करीब 3 माह के इलाज के बाद आज दिनकर को मैंटल हौस्पिटल से छुट्टी मिलने वाली थी. उसे जबरदस्त मानसिक आघात की वजह से आगरा के मैंटल हौस्पिटल में भरती कराया गया था. जब हौस्पिटल से सूचना मिली कि वह अब पूरी तरह से ठीक है और उसे घर ले जाया जा सकता है, तो उस की पत्नी, बेटाबहू और 3 साल का पोता विनम्र उसे लेने आए थे. हौस्पिटल की औपचारिकताएं पूरी करने में 2-3 घंटे का समय लग गया. फिर दिनकर जैसे ही वार्ड से बाहर आया उसे लेने आए सभी की आंखों में चमक दौड़ गई. खुशी के मारे सभी के आंसू छलक पड़े. दिनकर ने जैसे ही बांहें फैलाईं सब के सब दौड़ कर लिपट गए. नन्हा विनम्र दिनकर के गले से लिपट गया और दादूदादू कह कर प्यार से अपने कोमल हाथ उस के चेहरे पर फिराने लगा. दिनकर की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. विनम्र आंखें पोंछने लगा दादू की. बड़ा भावपूर्ण दृश्य था.

पत्नी कविता भी रह नहीं पाई, दिनकर के पांवों में गिर पड़ी, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए,’’ कह कर बिलख पड़ी.

दिनकर ने दोनों हाथ आगे बढ़ा कर उसे उठाया, फिर कहा, ‘‘चलो चलते हैं.’’

सरिता को ले कर दिनकर को मानसिक आघात लगा था, जिस के इलाज के लिए वह अस्पताल में था. सरिता से उस की मुलाकात 15 साल पहले एक रिश्तेदार की शादी में हुई थी. उसे जो भी देखता, देखता ही रह जाता. गजब का आकर्षण था उस में. उस की शादी को 10 बरस हो गए थे, लेकिन आज भी ऐसा लगता था जैसे जवानी की दहलीज पर कदम रखा है. किसी को विश्वास ही नहीं होता था कि 30 वसंत देख चुकी सरिता 2 बच्चों की मां भी है. शादी में कविता ने दिनकर से सरिता का परिचय कराया.

‘‘ये मेरी फ्रैंड है सरिता और रिश्ते में बहन भी. और सरिता, ये मेरे हसबैंड दिनकर.’’

‘‘हैलो जीजू, हाऊ आर यू?’’ सरिता ने हाथ आगे बढ़ाया.

‘‘फाइन,’’ दिनकर ने हाथ मिला कर संक्षिप्त सा जवाब दिया.

अपने आप में सिमट कर रहने वाला दिनकर कुछ शर्मीले स्वभाव का था, लेकिन सरिता बिलकुल विपरीत. एकदम बिंदास. सरिता और कविता शादी के उस माहौल में एकदूसरे से बतियातीं अपने बचपन की यादें ताजा कर रही थीं और दिनकर बीचबीच में कुछ बोल लेता.

‘‘अरे जीजू, आप तो कुछ बोल ही नहीं रहे. क्या बात है कविता, बोलने पर पाबंदी लगा कर आई हो क्या? हमारे पतिदेव तो ऐसे नहीं है, भई.’’

‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं है. बस थोड़ा कम बोलते हैं,’’ कविता ने कहा.

सरिता कविता से बातें कर रही थी, लेकिन उस की नजरें बारबार दिनकर से टकरा रही थीं. लगता था उस की दिलचस्पी कविता में कम दिनकर से बात करने में ज्यादा थी. दिनकर स्मार्ट और अच्छी कदकाठी का धीरगंभीर था. जबकि कविता थुलथुल काया की थी. वह कब क्या बोल दे, कब कटाक्ष कर दे और कब बातोंबातों में किसी का अपमान कर दे कोई भरोसा नहीं रहता था. कविता और सरिता 10-12 साल बाद इस शादी में मिल रही थीं, इसलिए देर तक बात करती रहीं. फिर एकदूसरे को अपनेअपने शहर में आने का निमंत्रण भी दिया. कुछ दिनों बाद नववर्ष का आगमन हुआ तो दिनकर के मोबाइल फोन पर बधाइयों, शुभकामनाओं का दौर चल रहा था. दिनकर ने सब को नववर्ष की शुभकामनाएं एसएमएस से भेजीं. तभी अचानक दिनकर के मोबाइल की घंटी बजी तो मोबाइल स्क्रीन पर सरिता, मुंबई का नाम दिखाई दिया. दिनकर ने जैसे ही मोबाइल औन किया, ‘‘हैलो जीजू, आप को नववर्ष बहुतबहुत मुबारक हो. आप के लिए ढेरों खुशियां ले कर आए वह,’’ एक सांस में सरिता बोल गई.

‘‘आप को भी मुबारक हो,’’ दिनकर ने कहा.

‘‘आप का एसएमएस मिला. मुझे तो करना आता नहीं, सोचा बात ही कर लेती हूं.’’ और उस दिन नववर्ष की वह बातचीत लंबी चली. दिनकर को भी अच्छा लगा सरिता से बातें कर के. दिनकर को शेरोशायरी के शौक था. वह मोबाइल पर अपने दोस्तों से शेरों का आदानप्रदान करता था. उस दिन के बाद उस ने सरिता को भी उन्हें भेजना शुरू कर दिया. और सरिता तो जैसे मौके की तलाश में ही रहती. जैसे ही एसएमएस मिलता, दिनकर को फोन कर लेती. एक नया सिलसिला चल पड़ा दोनों के बीच. घंटों बातें होतीं. सरिता अपनी लाइफ की हर छोटीबड़ी बात उस से शेयर करने लगी. फिर उस ने एसएमएस करना भी सीख लिया.

‘‘दिनकरजी, आप मुंबई आइए न कभी. आप से मिलने को बड़ा मन कर रहा है,’’ एक दिन सरिता ने अपने दिल की बात कही.

‘‘मन तो मेरा भी बहुत कर रहा है सरिताजी. आप से मिलने का.’’

‘‘आप सरिताजी क्यों बोलते हैं? मैं आप से छोटी हूं. सरिता कह कर बोलेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा. और हां, ये आपआप कहना भी बंद कीजिए. तुम बोलिए.’’

उस दिन सरिता ने दिनकर को यह अधिकार दे दिया तो वह उसे सरिता और तुम ही बोलने लगा. एक दिन दिनकर को अपने कारोबार के सिलसिले में मुंबई जाने का अवसर मिला तो उस ने सरिता को बताया.

वह खुशी से झूम उठी और बोली, ‘‘आप सीधे मेरे घर ही आओगे. किसी होटलवोटल में नहीं जाना.’’

‘‘अरे भई, मैं ने कहा न कि मैं काम से आ रहा हूं. दिन में काम निबटा कर तुम से और तुम्हारे पतिदेव से मिलने आ जाऊंगा.’’

‘‘ऐसा बिलकुल नहीं चलेगा. आप एअरपोर्ट से सीधे मेरे घर आओगे.’’

‘‘अच्छा बाबा देखता हूं. पर यार बड़ा अजीब लगेगा. तुम्हारे पति व बच्चे तो अनकंफर्टेबल महसूस करें.’’

‘‘नहीं करेंगे. सब ठीक होगा तभी तो आप को घर आने के लिए कह रही हूं न. आप तो बस एअरपोर्ट पर पहुंच कर मुझे फोन कर देना. हमारा ड्राइवर आप को मिल जाएगा.’’

सरिता ने आखिर दिनकर को घर आने के लिए मना लिया. फिर मुंबई एअरपोर्ट पर उसे सरिता का कार ड्राइवर मिल गया तो कुछ समय बाद वह सरिता के घर के सामने था. घर की बालकनी में खड़ी सरिता ने हाथ हिला कर दिनकर का अभिवादन किया. ऐसा लग रहा था कि वह बड़ी बेसब्री से दिनकर का इंतजार कर रही थी. उस के बच्चे स्कूल जा चुके थे और पति विजय सो रहे थे.

‘‘आइए दिनकरजी, हम यहां गैस्टरूम में बैठते हैं, आप चाय लेंगे या कौफी?’’ सरिता ने पूछा.

‘‘जो भी मिल जाए,’’ दिनकर ने कहा.

‘‘बस 5 मिनट में आई, तब तक आप फ्रैश हो लें,’’ सरिता ने किचन में जाते हुए कहा.

थोड़ी देर बाद गरमगरम चाय की चुसकियां लेते हुए सरिता ने कहा, ‘‘आखिर आप आ ही गए यहां.’’

‘‘आना तो था ही, तुम ने जो बुलाया था.’’

‘‘अच्छा जी. वैसे हम आप के होते कौन हैं?’’ सरिता ने शरारती अंदाज में पूछा.

‘‘सब कुछ. मेरी दुनिया, मेरी सांसें, मेरा जीवन, क्या नहीं हो तुम.’’

दिनकर की बातों के इस अंदाज से सरिता मुंह फाड़ कर दिनकर को देखने लगी. फिर दिनकर की आंखों में झांकते हुए बोली, ‘‘जानती हूं मिस्टर, लेकिन सरिता के लिए भी आप बहुत कुछ हो.

‘‘विनय कुछ देर में उठने वाले हैं, आप तब तक तैयार हो जाइए, मैं नाश्ता तैयार करती हूं,’’ कह कर सरिता ने उठना चाहा तो दिनकर ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘बैठो न कुछ देर, क्या जल्दी है?’’

दिनकर का हाथ थामना और प्रेमपूर्वक आग्रह करना सरिता को अच्छा लगा. पर बातों में पता ही नहीं चला कि विजय कब उठ कर फ्रैश हो चुका था. उस ने अचानक कमरे में प्रवेश किया.

‘‘ओहो विजय, आप उठ गए?’’ सरिता ने संभलते हुए कहा. फिर, ‘‘विजय ये दिनकर हैं. आप से मैं ने जिक्र किया था न,’’ कह कर दिनकर से परिचय कराया.

‘‘हैलो.’’ विजय ने हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा.

‘‘बहुत खुशी हुई विजयजी आप से मिल कर,’’ दिनकर ने कहा.

‘‘और मुझ से मिल कर नहीं?’’ सरिता ने तपाक से कहा तो तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

उस दिन विजय को औफिस जाना था. उस ने सरिता से कहा, ‘‘मुझे तो औफिस जाना है. तुम दिनकरजी को जहां जाना है गाड़ी से छोड़ देना.’’

‘‘ठीक है, बस मैं भी तैयार होती हूं. फिर इन्हें जहां कहेंगे छोड़ दूंगी.’’

विजय के जाने के बाद सरिता को दिनकर से खुल कर बातें करने का वक्त मिल गया. घर में दोनों अकेले थे इसलिए खूब बातें कीं. दिनकर ने दिल खोल कर रख दिया, तो सरिता भी पीछे न रही. दोनों ने अपनेअपने दर्द बयां किए तो दोनों एकदसरे के हमदर्द बन गए और हमदर्दी पा कर प्यार की कोंपलें फूटने लगीं. दोनों को लगा कि कुदरत ने हमारे लिए जीवनसाथी बनाते समय हमारे साथ अन्याय किया है.

सरिता ने दिन भर दिनकर को शहर में घुमाया. दिनकर ने अपने जरूरी काम निबटाए फिर सरिता से कहा, ‘‘अब मैं तुम्हारे हवाले हूं मैडम, जहां मरजी ले चलो.’’

‘‘भगा ले चलूं तो…,’’ सरिता ने कार चलाते हुए कहा.

‘‘मैं तैयार हूं भागने को.’’

दिनकर के कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि दोनों खिलखिला कर हंस पड़े. फिर दिन भर घूमने के बाद शाम को दोनों घर लौट आए.

बच्चे स्कूल से आने वाले थे. विजय डिनर के वक्त ही घर आता था. दिनकर की फ्लाइट देर रात की थी पर सरिता चाहती थी कि कैसे भी हो दिनकर विजय के घर लौटने से पहले ही एअरपोर्ट चला जाए. जबकि दिनकर चाहता था कि कुछ समय और सरिता के साथ गुजारे.

‘‘आप अभी एयरपोर्ट चले जाइए न दिनकरजी,’’ सरिता ने विचलित भाव से कहा.

‘‘पर क्यों, अभी तो बहुत देर है फ्लाइट में, पहले जा कर क्या करूंगा?’’

‘‘यहां ट्रैफिक जाम रहता है, कहीं जाम लग गया तो आप की फ्लाइट मिस हो जाएगी.’’

‘‘नहीं होगी और अगर हो भी जाएगी तो क्या है कल चला जाऊंगा,’’ दिनकर ने टालते हुए कहा.

कुछ बोल नहीं पाई सरिता लेकिन उस के हावभाव से लग रहा था कि कुछ बात जरूर है, नहीं तो दिन भर साथ रहने वाली सरिता यों पीछा छुड़ाने का प्रयास न करती. अचानक डोर बैल बजी. सुन कर आशंकित सी हो उठी सरिता. चेहरे के भाव बदल गए. दरवाजा खोला तो विजय सामने खड़ा था. उस की शर्ट कहीं, टाई कहीं जा रही थी. उस के मुंह से तेज भभका ज्योंही सरिता के नाक तक पहुंचा वह बोली, ‘‘विजय, आप पी कर आए हैं न? आज तो न पीते दिनकर आए हुए हैं.’’

‘‘तेरा मेहमान आया है तो मैं क्या करूं? हट पीछे. तू तो जब देखो तब रोती रहती है,’’ विजय ने लड़खड़ाते कदमों से घर में प्रवेश किया.

‘‘प्लीज, विजय धीरे बोलिए, दिनकर अंदर हैं,’’ सरिता ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

दिनकर ने सारा ड्रामा देखा और सुना तो सहम गया. पता नहीं सरिता के साथ कैसा व्यवहार करेगा विजय, कहीं मुझ से ही न उलझ जाए? विजय सीधा बैडरूम में गया और जैसे आया था वैसे ही कपड़े और जूते पहने बिस्तर पर लुढ़क गया. सरिता देखती रह गई. उस की आंखों से आंसू छलक पड़े. दिल का दर्द बह निकला. दिनकर दूर खड़े हो कर सब नजारा देख चुका था. सरिता ने दिनकर को देखा तो खुद को रोक नहीं पाई. दिनकर से लिपट कर सुबक पड़ी.

‘‘बस करो सरिता, हिम्मत रखो,’’ कह कर दिनकर ने प्यार से सरिता की पीठ पर हाथ फिराया तो सरिता को अपनत्व का एहसास हुआ.

‘‘मुझे भी साथ ले चलो दिनकर, मुझे यहां नहीं रहना,’’ सरिता ने सुबकते हुए कहा तो दिनकर अवाक रह गया. यों कहां ले जाए, कैसे ले जाए, किस रिश्ते से ले जाए? अनेक सवाल कौंध गए दिनकर के मन में. ‘‘सब ठीक हो जाएगा,’’ इतना ही बोल पाया दिनकर. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि इस हालत में सरिता को छोड़ कर कैसे जाए, लेकिन फ्लाइट का टाइम हो रहा था, इसलिए निकल पड़ा.

दिनकर अपने शहर तो आ गया, लेकिन सरिता का चेहरा बारबार उस की आंखों के सामने घूम रहा था. उस ने सरिता को फोन किया, ‘‘हैलो सरिता, कैसी हो?’’

‘मैं बिलकुल ठीक हूं. आप बताइए, कैसे हैं?’’

‘‘तुम्हें ही याद कर रहा था. बहुत चिंता हो रही थी.’’

‘‘अरे आप टैंशन न लें. वह सब तो मेरी लाइफ बन चुका है.’’

‘‘मैं तो डर गया था तुम्हारी हालत देख कर.’’

‘‘मत सोचिए ज्यादा, मैं तो बस आप को देख कर थोड़ा इमोशनल हो गई थी,’’ सरिता ने कहा.

दिनकर और सरिता एकदूसरे के और करीब आते गए. दिनकर का आनाजाना और सरिता से मिलनाजुलना बढ़ गया. दोनों का यह मेलमिलाप कविता को फूटी आंख नहीं सुहाता था. दिनकर के प्रति उस का व्यवहार और रूखा हो गया. इस से कविता से दूर और सरिता के और करीब होता गया दिनकर. फिर एक वक्त ऐसा आया कि सरिता और दिनकर 1 घंटा भी अपनेअपने शहर में इधरउधर होते तो आशंकित हो उठते. कहां हो, क्या कर रहे हो? जैसे दोनों के सवालजवाब का आदानप्रदान होता तो उन्हें चैन मिलता. दोनों का प्यार चरम पर था. दिनकर के साथ और उस की हौसला अफजाई से सरिता में निखार आता चला गया. उस ने अपने पति विजय को भी संभाला लेकिन दिनकर से वह बहुत प्यार करती थी.

विजय का व्यवहार सरिता के प्रति धीरेधीरे ठीक होता जा रहा था, लेकिन दिनकर कविता से दूर होता जा रहा था. कविता का व्यवहार दिनकर के प्रति इस कदर रूखा और बदतमीजी वाला हो गया था कि दिनकर का जीना दूभर हो गया था. इस बीच दिनकर के बेटे की शादी भी हो गई. बहुत समझदार और सुशील बहू पा कर दिनकर ये उम्मीदें करने लगा कि कविता में कुछ सुधार हो जाएगा, लेकिन सारी उम्मीदें सिर्फ ख्वाब बन कर रह गईं. बहू ने पुत्र के रूप में नया वारिस भी दे दिया. दिनकर और सरिता के अनाम रिश्तों को 15 साल होने जा रहे थे कि अचानक सरिता के व्यवहार में परिवर्तन आ गया. वह दिनकर को कम तो विजय को ज्यादा वक्त देने लगी. सरिता के इस तरह के व्यवहार से दिनकर विचलित हो गया. उसे लगा कि सरिता उस के साथ धोखा कर रही है. साथसाथ जीनेमरने की कसम खाने वाली सरिता क्यों बदल रही थी यह बात दिनकर समझ नहीं पा रहा था. वह स्वयं को अकेला महसूस करता. कविता तो उस की हो नहीं पाई. अब सरिता भी साथ छोड़ने की ओर कदम बढ़ा रही थी.

सरिता ने आखिर वह बात कह दी जो दिनकर ने कभी सोची ही नहीं थी, ‘‘मुझे भूल जाइए दिनकर. मैं आप का साथ नहीं दे सकती.’’

‘‘पर सरिता मैं कहां जाऊं, क्या करूं?’’ दिनकर ने रुंधे गले से कहा.

‘‘मुझे माफ कर दीजिए दिनकर, मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं. मैं यह दोहरा जीवन नहीं जी पा रही.’’

‘‘मुझे किस बात की सजा दे रही हो सरिता? मुझ में अचानक क्या कमी आ गई?’’

‘‘आप में कोई कमी नहीं दिनकरजी. मैं ने आप से ही जीना सीखा है. आज जो भी हूं आप की वजह से हूं,’’ कहते हुए सरिता की आंखें भर आईं.

‘‘हमारा रिश्ता इतने सालों से चल रहा है तो बाकी जिंदगी भी कट जाएगी, सरिता.’’

‘‘नहीं दिनकर, हमारे रिश्ते का कोई नाम नहीं है. यह सामाजिक और कानूनी दोनों रूप से ठीक नहीं है.’’

‘‘इस से क्या होता है सरिता, हम कौन सा किसी को नुकसान पहुंचा रहे हैं?’’

‘‘नहीं अब नहीं चलेगा. अब तक हम दुनिया की नजरों में नहीं आए तो इस का मतलब यह नहीं कि चोरीछिपे जो कर रहे हैं कभी लोग समझ नहीं पाएंगे,’’ सरिता ने सख्त लहजे में कहा तो दिनकर को लगा उस के साथ बहुत बड़ा धोखा कर रही है सरिता. उस को गहरा धक्का लगा.

‘‘तो अब तक तुम जो मेरे साथ रहीं वह वैध था? तब समाज का डर नहीं लगा तुम्हें? अब तुम्हारा पति ठीक हो गया तो तुम बदल रही हो,’’ चिल्ला पड़ा दिनकर. गुस्से से लाल हो गया उस का चेहरा.

सरिता भी कम न थी. बोली, ‘‘तो जबरदस्ती का प्यार करोगे क्या? जो चीज संभव नहीं उस की कोशिश मत करो.’’

सरिता का बदला रंग देख कर दिनकर डिप्रैस हो गया. एक ही औरत के कई रंग देख लिए थे उस ने. प्यार में मिले आघात से वह मानसिक संतुलन खो बैठा. कामकाज छोड़ दिया. रात को नींद आनी बंद हो गई. अजीब सी बातें और हरकतें करने लगा. दिन में बड़बड़ाने लगा. हर किसी को मारने दौड़ता. बातबात पर गुस्सा और आपे से बाहर होने लगा. और एक दिन ऐसी स्थिति आई कि वह हिंसक हो उठा. कविता से किसी बात पर कहासुनी हो गई तो बजाय शांत करने के कविता ने उसे और भड़का दिया. तब कोई तीखी चीज ले कर दिनकर ने कविता पर हमला करना चाहता तो बेटे ने बड़ी मुश्किल से काबू किया. उसे तुरंत डाक्टर के पास ले जाया गया. डाक्टर ने बताया कि दिनकर को किसी बात से गहरा मानसिक आघात लगा है. इसे मैंटल हौस्पिटल में इलाज की जरूरत है. इलाज लंबा भी चल सकता है. तब तय हुआ कि अपने शहर के बजाय आगरा हौस्पिटल में इलाज लेना बेहतर होगा. आज हौस्पिटल से निकले जिंदगी के 50 वसंत देख चुके दिनकर के जीवन की एक नई शुरुआत होने जा रही थी. वह अपनी पिछली जिंदगी भूल कर कविता के साथ नई जिंदगी गुजारने को तैयार था.

भूल किसकी- भाग 2

खिड़कियों से आती हवा और धूप ने जैसे कमरे को नया जीवन दिया. सफाई होते ही कमरा जीवंत हो उठा. रीता ने एक लंबी सांस ली. बदबू अभी भी थी. उसे उस ने रूम फ्रैशनर से दूर करने की कोशिश की.

कमरे में आते ही पापाजी ने मुआयना किया. खुली खिड़कियों से आती हवा और रोशनी से जैसे उन के अंदर की भी खिड़की खुल गई. चेहरे पर एक मुसकराहट उभर आई. पलट कर रीता की ओर देखा और फिर धीरे से बोले, ‘‘थैंक्स.’’

पापाजी को कोई बीमारी नहीं थी. वे मम्मीजी के जाने के बाद चुपचाप से हो गए थे. खुद को एक कमरे तक सीमित कर लिया था.

तुषार भी दिनभर घर पर नहीं रहता था और नौकरों से ज्यादा बात नहीं करता था. उस के चेहरे पर अवसाद साफ दिखाई देता था. ये सब बातें तुषार उसे पहले ही बता चुका था.

कमरे की तो सफाई हो गई, अब एक काम जो बहुत जरूरी था या वह था पापाजी को अवसाद से बाहर निकालना. वह थक गई थी पर इस थकावट में भी आनंद की अनुभूति हो रही थी. भूख लगने लगी थी. फटाफट नहाधो कर लंच के लिए डाइनिंगटेबल पर पहुंची.

‘‘उफ, कितनी धूल है इस टेबल पर,’’ रीता खीज उठी.

‘‘बहूरानी इस टेबल पर कोई खाना नहीं खाता इसलिए…’’

‘‘अरे रुको पारो… यह थाली किस के लिए ले जा रही हो?’’

‘‘पापाजी के लिए… वे अपने कमरे में ही खाते हैं न… हम वहां खाना रख देते हैं जब उन की इच्छा होती है खा लेते हैं.’’

‘‘लेकिन तब तक तो खाना ठंडा हो जाता होगा? 2 रोटियां और थोड़े से चावल… इतना कम खाना?’’

‘‘पापाजी बस इतना ही खाते हैं.’’

रीता की सम झ में आ गया था कि कोई भी अकेले और ठंडा बेस्वाद खाना कैसे खा सकता है. इसलिए पापाजी की खुराक कम हो गई है. उन की कमजोरी की यह भी एक वजह हो सकती है.

‘‘तुम टेबल साफ करो, पापाजी आज से यहीं खाना खाएंगे.’’

‘‘बहुरानी, कमरे से बाहर नहीं जाएंगे.’’

‘‘आएंगे, मैं उन्हें ले कर आती हूं.’’

पापाजी बिस्तर पर लेटे छत की ओर एकटक देख रहे थे. रीता के आने का उन्हें पता ही नहीं चला.

पापाजी, ‘‘चलिए, खाना खाते हैं.’’

‘‘मेरा खाना यहीं भिजवा दो,’’ वे धीरे से बोले.

‘‘पापाजी मैं तो हमेशा मांपापा और रीमा के साथ खाना खाती थी. यहां अकेले मु झ से न खाया जाएगा,’’ रीता ने उन के पलंग के पास जा कर कहा.

पापाजी चुपचाप आ कर बैठ गए. सभी आश्चर्य से कभी रीता को तो कभी पापाजी को देख रहे थे.

खाने खाते हुए रीता बातें भी कर रही थी पर पापाजी हां और हूं में ही जवाब दे रहे थे. रीता देख रही थी खाना खाते हुए पापाजी के चेहरे पर तृप्ति का भाव था. पता नहीं कितने दिनों बाद गरम खाना खा रहे थे. खाना भी रोज के मुकाबले ज्यादा खाया.

फिर रीता ने थोड़ी देर आराम किया. शाम के 6 बजे थे. फटाफट तैयार हुई. कमरे के इस बदलाव पर तुषार की प्रतिक्रिया जो देखना चाहती थी. बारबार नजर घड़ी पर जा रही थी. तुषार का इंतजार करना उसे भारी लग रहा था.

डोरबैल बजते ही मुसकराते हुए दरवाजा खोला. तुषार का मन खिल उठा. कौन नहीं चाहता घर पर उस का स्वागत मुसकराहटों से हो.

‘‘सौरी, देर हो गई.’’

‘‘कोई बात नहीं.’’

कमरे में पैर रखते हुए चारों ओर नजर घुमाई और फिर एक कदम पीछे हट गया.

‘‘क्या हुआ?’’ रीता ने पूछा.

‘‘शायद मैं गलत घर में आ गया हूं.’’

रीता ने हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहा, ‘‘हां, आप मेरे घर में आ गए हो,’’ और फिर दोनों की सम्मिलित हंसी से कमरा भी मुसकरा उठा. रीता को अपने काम की प्रशंसा मिल चुकी थी.

पलंग पर बैठ कर तुषार जूते उतार कर हमेशा की तरह जैसे ही उन्हें पलंग के नीचे खिसकाने लगा रीता बोल पड़ी, ‘‘प्लीज, जूते रैक पर रखें.’’

‘‘सौरी, आगे से ध्यान रखूंगा,’’ कहते हुए उस ने जूते रैक पर रख दिए.

आदतें एकदम से नहीं बदलतीं. उन्हें समय तो लगता ही है. जैसे ही तुषार ने कपड़े उतार कर बिस्तर पर रखे रीता ने उठा कर हैंगर पर टांग दिए. बारबार टोकना व्यक्ति में खीज पैदा करता है, यह बात रीता बहुत अच्छी तरह सम झती थी. आदतन बाथरूम से निकल कर तौलिया फिर बिस्तर पर… जब मुसकराते हुए रीता उसे बाथरूम में टांगने गई तो तुषार को अपनी इस हरकत पर शर्म महसूस हुई. तभी उस ने तय कर लिया कि वह भी कोशिश करेगा चीजें व्यवस्थित रखने की.

‘‘अच्छा बताओ ससुराल में आज का दिन कैसे बिताया? मैं भी न… मु झे दिखाई दे रहा है दिनभर तुम ने बहुत मेहनत की.’’

‘‘पहली बात तो यह है यह ससुराल नहीं मेरा अपना घर है. इसे व्यवस्थित करना भी तो मेरा ही काम है.

फिर रीता ने पापाजी के कमरे की सफाई, पापाजी का डाइनिंग टेबल पर खाना खाना सारी बातें विस्तार से बताईं. तुषार को खुद पर नाज हो रहा था कि इतनी सुघड़ पत्नी मिली.

‘‘अरे, 9 बज गए. समय का पता ही नहीं चला. डिनर का भी समय हो गया. आप पहुंचिए मैं पापाजी को ले कर आती हूं.’’

फिर उन के कमरे में जा कर बोली, ‘‘पापाजी, चलिए खाना तैयार है.’’

इस बार पापाजी बिना कुछ कहे डाइनिंगटेबल पर आ गए.

‘‘पापाजी, मु झे अभी आप की और तुषार की पसंद नहीं मालूम, इसलिए आज अपनी पसंद से खाना बनवाया है.’’

‘‘तुम्हारी पसंद भी तुम्हारी तरह अच्छी ही होगी. क्यों पापाजी?’’

तुषार की इस बात का जवाब पापाजी ने मुसकराहट में दिया.

रीमा को घर के कामों से कोई मतलब नहीं था. रीता की शादी के बाद पापा को सारे काम अकेले ही करने पड़ते थे.

शादी को 1 साल होने वाला था. पापाजी अवसाद से बाहर आ गए थे. उन की दवाइयां भी बहुत कम हो गई थीं. अब वे कमरे में सिर्फ सोने जाते थे.

जैसे एक छोटा बच्चा दिनभर मां के आगेपीछे घूमता है वही हाल पापाजी का भी था. थोड़ी भी देर यदि रीता दिखाई न दे तो पूछने लग जाते. 1 साल में मुश्किल से 1-2 बार ही मायके गई थी. पापाजी जाने ही नहीं देते थे. वह स्वयं भी पापाजी को छोड़ कर नहीं जाना चाहती थी. मायका लोकल होने के कारण मम्मीपापा खुद ही मिलने आ जाते थे.

पापाजी अस्वस्थ होने के कारण अपने बेटे की शादी ऐंजौय नहीं कर पाए थे, इसलिए वे शादी की पहली सालगिरह धूमधाम से मनाना चाहते थे. इस के लिए वे बहुत उत्साहित भी थे. सारे कार्यक्रम की रूपरेखा भी वही बना रहे थे. आखिर जिस दिन का इंतजार था वह भी आ गया.

सुबह से ही तुषार और रीता के मोबाइल सांस नहीं ले पा रहे थे. हाथ में ऐसे चिपके थे जैसे फैविकोल का जोड़ हो. एक के बाद एक बधाइयां जो आ रही थीं. घर में चहलपहल शुरू हो गई थी. मेहमानों का आना शुरू था. कुछ तो रात में ही आ गए थे.

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