Hindi Stories Online : रुक गई प्राची – क्या प्राची को उस का प्यार मिल पाया?

Hindi Stories Online : चंद्रभागा के तट पर खड़ी प्राची आंखों में असीम आनंद लिए विशाल समुद्र में नदियों का मिलन देख रही थी. तभी बालुई तट पर खड़ी प्राची के पैर सागर ने पखार लिए. असीम आनंद की अनुभूति गजब का आकर्षण होता है समुद्र का.

प्राची का मन किया कि वह समुद्र का किनारा छोड़ कर उतरती जाए, समाती जाए, ठीक समुद्र के बीचोंबीच जहां नीला सागर शांत स्थिर है. शायद उस के अपने मन की तरह. फिर मन ही मन सोचने लगी कि क्यों आई सब छोड़ कर, सब को छोड़ कर या फिर भाग कर… सागर देखने की उत्कंठा तो कब से थी. वह पुरी पहुंचने से पहले कुछ देर के लिए कोर्णाक गई थी, पर उस का मन तो सागर में बसा था. उसे पुरी पहुंचने की जल्दी थी.

मगर कल ऐसा क्या हुआ कि बौस के सामने छुट्टी का आवेदन दिया कि कल ही जाना जरूरी है. मां को ओडिसा घुमाने ले जाने के लिए. कल ही से छुट्टी चाहिए और वह भी कम से कम 5 दिनों की.

बौस के चेहरे से लग रहा था कि उन्हें प्राची की बात पर यकीन नहीं हुआ. मगर प्राची का चेहरा कह रहा था कि अगर छुट्टी नहीं मिली तो भी चली जाएगी विदआउट पे लीव पर या फिर नौकरी से इस्तीफा देना पड़े तब भी.

बौस ने छुट्टी सैंक्शन कर दी. प्राची के चेहरे पर सुकून आया. मगर उस ने यह बात सिर्फ अपनी सहेली निकिता से शेयर की, इस ताकीद के साथ कि औफिस के किसी भी सहयोगी को पता न चले कि वह कहां जा रही है. प्राची घर चल दी. कोलकाता शहर नियोन लाइट में जगमगा रहा था. प्राची की आंखों में भी आंसू झिलमिला गए. अचानक मानो नियोन लाइट से होड़ लगी हो.

कई सारे सवाल प्राची के मन में उमड़ रहे थे. वह जानती थी कि इन के जवाब उसे खुद

ही देने हैं. वह पूछना चाहती थी खुद से कि क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है? उसे पता था निखिल के सामने होने से यह संभव नहीं. वह सब भूल जाती है बस लगता है निखिल सामने रहे उस के बाद उसे दुनिया में किसी भी चीज की जरूरत नहीं.

सुबह के 4 बजे ही बिस्तर छोड़ दिया प्राची ने. एक एअरबैग में कुछ कपड़े रखे, मेकअप का जरूरी सामान लिया और जरूरत भर के पैसे ले कर वह बसस्टैंड की तरफ चल पड़ी.

वह चाहती थी कि रात होने से पहले पुरी पहुंच जाए. इस के पीछे 2 वजहें थीं. एक तो वह अंधेरा होने से पहले पहुंचना चाहती थी ताकि उसे होटल में कमरा मिलने में कोई परेशानी न हो और दूसरा अगर उसे होटल नहीं मिला तो उस के अंकल रेलवे में काम करते हैं. वहां रेलवे का गैस्टहाउस भी था. वहां कुछ इंतजाम हो जाता.

दूसरी अहम बात उस ने यह सुन रखी थी कि पूनम की रात समुद्र की लहरें काफी तेज उछलती हैं मानो चांद को छूना चाहती हों. उसे यह शानदार दृश्य देखना था और संयोग से उस दिन पूनम की रात भी थी.

जब वह समुद्र के तट पर पहुंची शाम ढल रही थी. समुद्र के दूसरी छोर से चांद निकल रहा था सफेद चमकीला. प्राची के कदम थम से गए. एक तरफ रेत के किनारे से बुलाता सागर तो दूसरी तरफ होटलों की कतार, जहां उसे कुछ दिन रहना था. वह सोचने लगी कि पहले होटल ले या समुद्र को छू ले. अगले ही पल अपने एअरबैग को रेत पर पटका उस ने और दौड़ गई समुद्र किनारे.

सूरज के ढलते ही अंधेरा हो गया. रात में समुद्र की आवाज एक भय पैदा कर रही थी. सिहरन सी होने लगी. अपने दोनों हाथों को सीने में बांध वह जाने लगी पास और पास हाहाकार करते समुद्र के. उसे लगा जैसे यह उस के ही दिल की आवाज हो.

दूर समुद्र के दूसरे छोर पर चांद रोशन था. गहन समुद्र… दूर तक पानी ही पानी. बस लहरें उठने के शोर से पता चलता था कि समय सरक रहा है. जी चाहा कि दूर समुद्र में उतरती जाए… चलती ही जाए जब तक कि पानी उस की सांसों की डोर न थामने लगे. मगर इस खयाल को परे झटका प्राची ने. सोचा यह तो आत्महत्या करने वाली बात होगी. उस ने ऐसा तो कभी नहीं चाहा. बहुत जीवट है उस में. जमाने से लड़ कर अपना मुकाम बना सकती है. प्राची लौट चली. पुकारते समुद्र की आवाज को अनसुना कर के. बैग को एक झटके से कंधे पर लटकाया और चल पड़ी. उसे होटल का कमरा भी लेना था. देर हो रही थी. अब सोचविचार का वक्त नहीं था.

अंधकार अपनी पूरी शिद्दत से पसर चुका था. वह चलतेचलते भीड़भाड़ वाले इलाके से दूर आ चुकी थी. सामने जो होटल आया उस ने रिसैप्शन पर जा कर सीधे पूछा कि कोई रूम खाली है? हां में जवाब मिलने पर वह कमरा देखने चली गई. सोचा जैसा भी हो आज रात रुक जाएगी. पसंद नहीं आएगा तो कल बदल लेगी. मगर कमरा खूबसूरत था.

सब से अच्छी बात यह कि उस की फेसिंग समुद्र की तरफ थी. वह अब पास जाए बिना भी समुद्र देख सकती है, जिस के लिए वह आई है. खुश हो कर प्राची ने कमरा ले लिया और खाने का और्डर दे कर फ्रैश होने चली गई. उस के आने तक डिनर भी आ गया. वह खाना खा कर बाहर बालकनी में बैठ गई, हाथ में कौफी का मग थामे. अब उस के पास तनहाई थी, समुद्र था और थी निखिल की यादें. वह इसी के लिए तो आई थी. खुद से बातें करने… जीवन की दिशा तय करने. वहां उस के आगे वह कुछ सोच पाने में असमर्थ जैसे कुछ सोच पाना उस के इख्तियार में नहीं.

हां, वह प्यार करती है निखिल को बेहद. उस के बिना जीने की कल्पना भी उसे पागल बना देती है. मगर निखिल का कुछ पता नहीं चलता. उस की आंखें तो कहती हैं वह भी आकर्षित है, मगर जबान कुछ कहना नहीं चाहती. वह चाहती है निखिल एक बार कहे. बहुत असमंजस में है प्राची. उस के सामने कैरियर है, प्यार है, वह क्या करे. डरती है, कहीं आगे बढ़ कर यह बात निखिल को बताई तो कहीं इनकार से दिल न टूट जाए. उस के बाद उस के साथ एक औफिस में काम करना संभव नहीं होगा. प्यार मिला, तो खजाना मिलेगा और न मिला तो जैसे सब छूट जाएगा, दिल टूटेगा, कैरियर भी समाप्त.

फिर क्या करेगी वह इस बड़े से शहर में. वापस घर जा कर सब लोगों को, दोस्तों को गांव के परिचितों को क्या बताएगी? बड़े दंभ के साथ वह घर छोड़ कर आई गांव से यहां तक. फिर 1 ही साल में अपने मांबाबूजी को भी शहर ले आई अपने साथ रखने के लिए गोया जता रही हो वह कि आज के दौर में वह किसी बेटे से कम नहीं उन के लिए. फिर उसे अपने पैरों पर खड़ा होना है. मुकाम हासिल करना है. प्यार करने तो नहीं आई इस कोलकाता जैसे शहर में. तो फिर निखिल उस का रहनुमां कैसे बन बैठा? क्यों वह चकोर की तरह बिहेव करती है? क्यों तकती है उस का रास्ता? इन्हीं सवालों के जवाब खोजने हैं आज उसे यहां. अब उसे फैसला लेना होगा. खुद को मजबूत बनाने ही तो यहां आई है.

प्राची जानती है कि निखिल को उस की केयर है. वह परेशान होगा. फिर भी उसे बता कर नहीं आई कि वह कहां जा रही है. उस ने अपना मोबाइल भी स्विचऔफ कर दिया ताकि कोई उसे डिस्टर्ब न कर सके. उसे फैसला लेना है जीवन का, प्यार का, कैरियर का.

अब रात ढल रही है. एकांत कमरे में प्राची सोने की कोशिश में है. पूरे चांद को और समुद्र की लहरों को देख उन का उछाल बारबार आंखों के सामने आ रहा है प्राची के… काश वह निखिल के साथ यहां आ पाती. उस के साथ जिंदगी बिताना कितना सुखद होता. यह सोच कर उसे रोमांच हो आया.

प्राची को याद है, वह रात को 10 बजे अपनी डैस्क का काम खत्म कर के घर आती है. उस के ऐडिटोरियल हैड उस के कार्यव्यवहार से बहुत संतुष्ट हैं. रात अपनी न्यूज स्टोरी की आखिरी कौपी उन को दे कर वह कैब से घर चली जाती है. जहां रोज की तरह छत वाले कमरे का अकेलापन उस का इंतजार कर रहा होता है.

मां पहले अकसर उस के लिए गरम खाना बनाती थी उस के आने के बाद, मगर बाद में उस ने जिद कर के मां को मना कर दिया. इस के 2 कारण थे- एक तो मां की बढ़ती उम्र की वजह से उन के घुटनों का दर्द और दूसरी वह खुद इतनी थकी होती कि खाने की हिम्मत नहीं होती. चाहती, बस कुछ ऐसा मिल जाए जिसे सीधे गटक लिया जाए हलक में दलिए की तरह. सो अब उसे खाना भी वहीं कमरे में रखा मिल जाता है जिसे नहाने के बाद प्राची जैसेतैसे निगलती है और फिर कुछ देर टीवी के बाद सीधे बिस्तर में.

वह कभी रात को किसी से भी फोन पर बात नहीं करती. मगर आज क्यों बारबार उसे लग रहा है कि बस एक बार निखिल की भारी आवाज सुन ले. बस एक बार फोन कर उस पार से आती उस की सांसें महसूस करे बस एक बार.

इसी असमंजस में उस ने हाथ बढ़ा कर पर्स में पड़ा अपना मोबाइल निकालने का उपक्रम किया. बस इतने में ही उस का दिल जोरों से धड़क उठा. जैसेतैसे उस ने उसे औन किया. इस के साथ ही उस के मन में हजारों खयाल एकसाथ उमड़ पड़े.

निखिल का उस के साथ ऐक्स्ट्रा अटैंटिव बरताव करना, उस की बातों में प्राची ने हमेशा एक सम्मान मिश्रित प्रेम अनुभव किया. प्राची ने कभी कोई हलकी बात उस के मुंह से नहीं सुनी किसी के लिए भी.

अपने कालेज के दिनों से ही प्राची अपने व्यक्तित्व के चलते हर जगह छाई रहती थी. पढ़ाई, संगीत, वादविवाद प्रतियोगिता हो या फिर फैशन डिजाइनिंग अथवा कालेज की छमाही पत्रिका में लेखन, संपादन हर जगह प्राची आगे… कालेज के लड़कों की ही नहीं लड़कियों की भी जैसे स्टार रही है वह.

उसे याद है कितने ही लड़के उस के आतेजाते रास्ते में खड़े उस की राह ताकते रहते. कुछ करीब आ कर बातें करने की कोशिश करते. कई बार उसे अब सोच कर हंसी आती है कि कैसे किसी भी साल रोज डे के दिन उस के कालेज पहुंचने से पहले ही उस की डैस्क गुलाबों से भरी होती, लाल, पीले, मैरून, पिंक… सब को पता था उसे गुलाबों से बेइंतहा लगाव है. हर बुके के साथ उस के लिए विश लिखी होती, साथ ही लिखा होता उस लड़के का नाम और एक दबा सा अस्पष्ट प्रीत निवेदन.

प्राची उन सब प्रीत निवेदन की परचियों को फाड़ कर फेंक देती और गुलाब रख लेती. उस का इतना प्रभावी व्यक्तित्व था कि लड़के उस के साथ रहते, मगर जो किला उस ने अपने चारों ओर बना रखा था उसे भेद कर भीतर आने की हिमाकत कोई नहीं कर पाया. और आज जैसे लग रहा है, उन दिनों में मजबूत रही प्राची खुद ही अपने बनाए किले की प्राचीरें तोड़ने को मजबूर है.

औफिस में भी एक निखिल को छोड़ कर उस ने लगभग सभी की आंखों में अपने लिए एक सवाल देखा. कभी वह ‘हम भी खड़े हैं राहों में’ वाले स्टाइल में होता, कभी केवल टाइमपास जैसा कहीं किसी सौदेबाजी की तरह. मगर वह कभी नहीं डगमगाई. नहीं झुकी किसी प्रलोभन के आगे. उस का काम बोलता था. उस की खबरों की रिपोर्टिंग में उस का नाम बोलता था.

मगर आज इस आधी रात को क्यों टूट रही है वह और वह भी एक ऐसे सहकर्मी के लिए जिस ने सामने से कभी कुछ कहा नहीं… उसे कोई इशारा भर भी नहीं किया. बस वह रोज उस का लंच टाइम में वेट करता. साथ चाय पीती उस के साथ. वहीं बहुत सी बातें होतीं. प्राची अब सोचती है बातें भी क्या. वह बस उसे सुनती मंत्रमुग्ध सी हो जाती उस की आवाज में. कुछ ही पलों में लगता जैसे समुद्र तट पर खड़ी है वह. अंधकार में स्वर की लहरों पर सवार है. बहा लिए जा रहा कोई उस के अनछुए मन को. सिहरन सी भर रहा है कोई उस अनछुए तन में.

अचानक तंद्रा भंग हुई उस की. उस ने देखा मोबाइल में पता नहीं कब उस की उंगलियां निखिल का नंबर ढूंढ़ लाईं जिसे उस ने ‘ऐ बेबी’ के नाम से सेव किया था.

सर्दी की यह रात तेजी से ढल रही थी. फोन हाथ में लिए प्राची उठी. दिल जोर से धड़क रहा था. खिड़की से समुद्र की ओर झांका जो इस वक्त हिलोरें ले रहा था. लहरों की आवाजें किनारों की चट्टानों से टकराने की… लग रहा था जैसे हजारों लहरों पर निखिल का नाम लिखा है और वह नाम उस की मन की कठोर चट्टानों को भिगो रहा है… तोड़ने की, भेदने की कोशिश कर रहा है… अचानक उसे खयाल आया निखिल सोते हुए कैसा लगता होगा और फिर यह सोचती सी प्राची एक षोडसी सी लजा उठी.

मगर इस खयाल से वह बेहद खुशी से भर उठी. उस ने फोन वापस औफ कर दिया. सोचा अगली सुबह निखिल से जरूर बात करेगी. अभी नहीं. इस निर्णय के बाद उसे लगा कि अब सो पाएगी वह. हालांकि सुबह होने को है, मगर कुछ घंटे चैन की नींद फ्रैश कर देती है उसे, यह वह जानती है.

उस ने अब तय किया कि सुबह उठ कर समुद्र के किनारे जब लहरें हौले से उस के पैरों को भिगो रही होंगी और समुद्र के ऊपर आसमान में निखिल को ले कर उस की कल्पनाओं की तरह असंख्य पंछी उड़ रहे होंगे तब ऐसे में वह निखिल को फोन से अपने मन की बात बता देगी. प्राची को ये सब सोचते हुए बेहद सुकून मिला और फिर पता ही नहीं चला कि वह कब अपने होंठों पर एक मुसकान लिए नींद के आगोश में चली गई.

करीब 2 घंटे की गहरी नींद के बाद प्राची जागी. खिड़की से बाहर झांका. सूर्य एक नारंगी रंग के गोले की तरह निकलने के उपक्रम में था. शांत समुद्र में बहुत हलकी सी चमकीली लहरें जैसे बुला रही थीं उसे.

प्राची जल्दी से अपना कैमरा उठा कर दौड़ पड़ी समुद्र की ओर… यही पल उसे कैद करने हैं… अपने जेहन में भी, अपने जीवन में भी. इन्हीं की साक्षी बन उसे निखिल को अपना फैसला बताना है.

नंगे पैरों को लहरें चूम रही थीं. प्राची ने वक्त के इस बेहद खास लमहे को पहले अपने कैमरे में कैद किया. फिर कांपते हाथों से पर्स से मोबाइल निकाल कर निखिल का नंबर मिलाया. धड़कते दिल से उस की रिंगटोन सुनती रही, ‘‘सुनो न, संगेमरमर की ये मीनारें.’’ यह सुनते हुए उसे लग रहा था जैसे दिल की धड़कनें कानों से कनपटियों के निचले हिस्से तक जमा हो रहीं… वह खोई थी लहरों में, गीत में… उस बेहद रोमानी आलम में अचानक फोन कनैक्ट हुआ.

‘‘हैलो… निखिल….’’ वह जोर से लगभग चिल्लाते हुए बोली पर दूसरी ओर से कोई रिप्लाई नहीं आया.

‘‘निखिल…’’ वह फिर से बोली.

‘‘हैलो, वे सोए हैं अभी… आप कौन?’’ आवाज निश्चित किसी लड़की की थी.

‘‘जी मैं उनके औफिस से बोल रही हूं,’’ किसी तरह रुकरुक कर प्राची ने बताया. दूसरी तरह चुप्पी छाई रही.

‘‘आप कौन?’’ अटकते हुए किसी तरह प्राची ने पूछ ही लिया.

‘‘मैं निखिल की पत्नी और आप?’’

प्राची के हाथ से फोन छूट कर गीले बालू पर गिर गया. हैरान खड़ी थी वह… लहरें अब भी प्राची के पैरों को, फोन को भिगो रही थीं… समुद्र की आवाज गूंज रही थी… लहरें आ रही थीं… जा रही थीं.

Hindi Kahaniyan : मन का मीत – क्या तान्या अपनी बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ बैठी?

Hindi Kahaniyan : मैं अमेरिका के शहर ह्यूस्टन में एक वीकैंड में पैटिओ में बैठी कौफी पी रही थी. तभी मेरी एक फ्रैंड का फोन आया. उस ने मुझ से आज का प्रोग्राम पूछा, तो मैं ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें ही याद कर रही थी. आज बिलकुल फ्री हूं. बोलो क्या बात है, निम्मो?’’

‘‘तान्या, आज थोड़ी अपसैट हूं, सारा दिन तेरे साथ बिताना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है जल्दी से आ जा और नरेश को भी लेती आना.’’

‘‘नहीं, मैं अकेली आऊंगी.’’

‘‘ओके, समीर भी यहां नहीं है, दोनों दिन भर खूब बातें करेंगी.’’

निम्मो को मैं, जब हम भारत में थे, रांची से ही जानती थी. मेरे पड़ोस में रहती थी. मुझ से 2 साल बड़ी होगी. उस ने अपनी पसंद के लड़के से मांबाप की मरजी के खिलाफ शादी कर ली थी. फिर पति नरेश के साथ मुझ से पहले ही अमेरिका आ गई थी.

निम्मो ने आते ही अपना बैग और मोबाइल टेबल पर रखा और फिर बोली, ‘‘चल कौफी पिला.’’

मैं ने कौफी बनाई. टेबल पर कौफी का कप रखते हुए पूछा, ‘‘आज तुम अपसैट क्यों लग रही हो और वीकैंड में तो अकसर नरेश के साथ आती थी, आज क्यों नहीं आया वह?’’

‘‘कल रात नरेश ने काफी डांटा है मुझे.’’

‘‘नरेश और तुम्हें डांटे… अभी तक तो मैं ने तुम्हें ही उसे डांटते हुए सुना है. जरूर तुम ने ही कोई गड़बड़ की होगी.’’

‘‘काहे की गड़बड़, नरेश चिंटू बेटे को ले कर दिन भर के लिए चैस टूरनामैंट में गया था. उस के दोस्त सचिन ने फोन कर उस के बारे में पूछा तो मैं ने नरेश का प्रोग्राम बता दिया. फिर

मैं ने पूछा कि क्या बात है, तो वह बोला कि कुछ खास नहीं, मूवी देखने जा रहा था सोचा तुम लोग भी चलते तो अच्छा होता.’’

‘‘फिर?’’

‘‘मैं भी दिन भर बोर होती. अत: मैं भी मूवी देखने चली गई. हालांकि मैं ने सचिन को इस बारे में कुछ नहीं बताया था. वह तो इत्तफाक से सिनेमाहौल में मिल गया और संयोग से मेरे साथ वाली उस की सीट थी. मूवी खत्म होने के बाद बाहर ही दोनों ने लंच किया. मैं ने नरेश और चिंटू के लिए भी पैक करा लिया.’’

‘‘तुम ने नरेश को मूवी के बारे में पहले बताया था?’’

‘‘नहीं बताया तो क्या हुआ. आने पर बता दिया न… इस पर बिगड़ बैठा और बोला कि तुम्हें बैचलर के साथ नहीं जाना चाहिए था. इसी को ले कर बात बढ़ती गई तो उस ने पूछा कि मुझे उस के साथ रहना है या नहीं. फिर मैं ने भी गुस्से में कह डाला कि नहीं रहना है. चलो, तलाक ले लेते हैं. अमेरिका में तलाक आसानी से मिल जाएगा.’’

मैं उस का मुंह देखने लगी. एक मैं हूं कि मम्मी ने पराए मर्द से स्पर्श होना भी गुनाह कहा था. जब हाई स्कूल में गई तभी मम्मी ने दिमाग में यह बात बैठा दी थी कि लव मैरिज बहुत बुरी चीज है और बेटी के मायके से डोली में विदा होने के बाद उस की अरथी ही ससुराल से निकलती है.

मैं ने ये बातें गांठ बांध कर रख लीं. एक निम्मो है जिस ने अपनी मरजी से शादी की और अब वह परदेश में तलाक तक की बात सोच रही है, भले तलाक ले या नहीं. इतना सोचना ही बड़ी बात है मेरे लिए. मुझे अपने पुराने दिन याद आने लगे. मैं भी थोड़ा बोल्ड होती तो अपना फैसला खुद ले सकती थी और आज समीर के साथ नहीं होती…

मेरा जन्म भारत के बिहार राज्य के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था. मेरा नाम तान्या है पर घर में मुझे प्यार से तनु कह कर बुलाते थे. प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई थी. उन दिनों मैं मम्मी के साथ गांव में थी. पापा की पोस्टिंग छोटे शहर में थी. जब पापा का प्रमोशन के साथ रांची ट्रांसफर हुआ तब हम लोग रांची चले आए.

मम्मी काफी पुराने विचारों वाली धर्मभीरु महिला थीं. उन्होंने शुरू से ही कुछ ऐसी बातें मेरे मन में भर दी थीं, जिन्हें मैं आज तक नहीं भूल पाई. लड़कों से दूर रहो, उन के स्पर्श से बचो आदिआदि. रांची आने पर मैं ने देखा कि यहां स्कूलकालेज में लड़केलड़कियां आपस में बातें करते घूमतेफिरते हैं.

मैं ने जब मम्मी से पूछा कि मुझे लड़कों के साथ बात करने की मनाही क्यों है, तो उन्होंने कहा था, ‘‘तनु बेटी, तुम नहीं समझती हो. तुम इतनी सुंदर हो कि मुझे हमेशा डर बना रहता है. शहर में तो और बच कर रहना है तुम्हें. किसी तरह बीए कर लो, इस के बाद एक अच्छा सा राजकुमार देख कर तेरी शादी कर दूं. बस मेरी जिम्मेदारी यहीं खत्म. वही तुम्हें आजीवन ढेर सारा प्यार देगा.’’

मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, मुझे बीए, एमए नहीं करना है. मैं इंजीनियर बन कर नौकरी करूंगी.’’

‘‘उस के लिए तुम्हें बहुत पढ़ाई करनी होगी, बहुत मेहनत करनी होगी, मेरी सुंदर बिटिया.’’

‘‘यह सब तुम मुझ पर छोड़ दो. मैं पढ़ूंगी और नौकरी भी करूंगी.’’

मैं ने उस दिन जाना कि मैं भी सुंदर हूं. मैं ने आईने में जा कर अपनी सूरत देखी. मुझे वैसा कुछ नहीं लगा जैसा मां कहती थीं. हर मां को शायद अपनी संतान सुंदर लगती होगी. खैर, देखतेदेखते मेरा मेसरा के बिरला इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी में ऐडमिशन हो गया और फिर 4 साल बाद मुझे कंप्यूटर साइंस की डिग्री भी मिल गई. फिर मैं ने मुंबई में एक कंपनी जौइन कर ली.

मेरी मम्मी को मेरे अकेले मुंबई रहने में समस्या दिख रही थी. अत: वे भी मेरे

साथ मुंबई आ गईं. मेरे पापा के बौस के बड़े भाई अमेरिकी नागरिक हैं. उन का बेटा अमेरिका में नौकरी करता था. उन्होंने अपने बेटे समीर के रिश्ते के लिए पापा से संपर्क किया. उन्होंने बताया कि समीर से शादी के बाद मुझे भी जल्द ही अमेरिका का ग्रीन कार्ड और नागरिकता मिल जाएगी. आननफानन में मेरी शादी हो गई. मैं अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में आ गई. फिर मुझे जल्द ही ग्रीन कार्ड भी मिल गया.

मेरे पति समीर गूगल कंपनी में काम करते थे. मुझे भी यहां नौकरी मिल गई. अमेरिका में काफी बड़ा बंगला, 4-4 महंगी गाडि़यां और अन्य सभी ऐशोआराम की सुविधाएं उपलब्ध थीं. मैं समीर की पत्नी भी बन गई और जब उस की मरजी होती उस के लिए पत्नी धर्म का पालन भी करती. पर मर्दों के प्रति जो मन में एक खौफ था बचपन से उस के चलते अकसर उदासीनता छाई रहती.

हम दोनों के विचार भी भिन्न थे. समीर शुरू से अमेरिकन संस्कृति में पलाबढ़ा था. यही कारण रहा होगा हम दोनों में असमानता का पर मैं ने महसूस किया कि आज तक उस ने कभी मुझे प्यार भरी नजरों से नहीं देखा, न ही मेरी तारीफ में कभी दो शब्द कहे. अपने साथ मुझे बाहर पार्टियों में भी वह बहुत कम ले जाता. मैं कभी कुछ कहना चाहती तो मेरी पूरी बात सुने बिना बीच में ही झिड़क देता या कभी सुन कर अनसुना कर देता. मेरी भावनाएं उस के लिए कोई माने नहीं रखतीं. काफी दिनों तक पति से हमबिस्तर होने पर भी मुझे वैसा कोई आनंद नहीं होता जैसा फिल्मों में देखती थी.

मेरे औफिस में एक नए भारतीय इंजीनियर ने जौइन किया था. पहले दिन उस का सब से परिचय हुआ, हर्षवर्धन नाम था उस का. उसे औफिस में सब हर्ष कहते थे. हम दोनों के कैबिन आमनेसामने थे. मैं ने महसूस किया कि अकसर वह मुझे देखता रहता. कभी मैं भी उस की तरफ देखने लगती. जब दोनों की नजरें मिलतीं, तो हम दोनों नजरें झुका लेते.

पर पता नहीं क्यों हर्ष का यों देखना मुझे बुरा नहीं लगता और मैं भी जब उसे देखती मन में खुशी की लहर सी उठती थी. मुझे लगता कि कोई तो है जिसे मुझ में कुछ तो दिखा होगा. अभी तक दोनों में वार्त्तालाप नहीं हुआ था. लंच टाइम में औफिस की कैंटीन में दोनों का आमनासामना भी होता, नजरें मिलतीं बस. कभी उस के चेहरे पर हलकी सी मुसकान होती जिसे देख कर मैं नजरें चुरा लेती.

इस बीच मैं प्रैगनैंट हुई. हर्ष और मैं दोनों उसी तरह से नजरें मिलाते रहे. मैं ने देखा कैंटीन

में कभीकभी उस की नजरें मेरे बेबीबंप पर जा टिकतीं तो मैं शर्म से आंखें फेर लेती या उस से दूर चली जाती. कभी बीचबीच में वह काम के सिलसिले में टूअर पर जाता तो मेरी नजरें उसे ढूंढ़तीं. कुछ दिनों बाद मैं मैटर्निटी लीव पर चली गई.

इसी बीच मैं ने फेसबुक पर हर्ष का फ्रैंडशिप रिक्वैस्ट देखा. पहले तो मुझे आश्चर्य हुआ कि न बोल न चाल और सीधे दोस्त बनना चाहता है. 2-3 दिनों तक मैं भी इसी उधेड़बुन में रही कि उस की रिक्वैस्ट स्वीकार करूं या नहीं. फिर मेरा मन भी अंदर से उसे मिस कर रहा था. अत: मैं ने उस की रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट कर ली. फौरन उस का पोस्ट आया कि थैंक्स तान्या. आई मिस यू.

मैं ने भी मी टू लिख दिया. फिलहाल मैं ने उस दिन इतने पर ही फेसबुक लौग आउट कर दिया. मैं आंखें बंद कर देर तक उस के बारे में सोचती रही.

पता नहीं क्यों आमनेसामने हर्ष को मुझ से या फिर मुझे भी हर्ष से बात करने में संकोच

होता, पर मुझे अब रोज हर्ष का फेसबुक पर इंतजार रहता. मेरा पति समीर भी जानता था मेरे एफबी फ्रैंड के बारे में, पर यह एक आम बात है. कोई शक या आश्चर्य की बात नहीं है. उसे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

इसी बीच हर्ष ने बताया कि वह बोकारो का रहने वाला है. बीटैक करने के बाद अमेरिका एक स्टूडैंट वीजा पर आया था और मास्टर्स करने के बाद ओपीटी पर है. अमेरिका में साइंस, टैक्नोलौजी, इंजीनियरिंग और मैथ्स (एसटीईएम) में स्नातकोत्तर करने पर कम से कम 12 महीने तक की औप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग (ओपीटी) का अवसर दिया जाता है जिस दौरान वे नौकरी करते हैं. अगर इसी बीच किसी कंपनी द्वारा उन्हें जौब वीजा एच 1 बी मिल जाता है तब वे 3 साल के लिए और यहां नौकरी कर सकते हैं वरना वापस अपने देश जाना पड़ता है.

हर्ष और मेरे बीच फेसबुक संपर्क बना हुआ था. इसी बीच मैं ने एक बेटे को जन्म दिया. हम लोगों ने उस का नाम आदित्य रखा, पर घर में उसे आदि कहते हैं. हर्ष ने मुझे और समीर को बधाई संदेश भेजा. मेरे घर पर पार्टी हुई पर मैं

हर्ष को चाह कर भी नहीं बुला सकी. औफिस कुलीग के लिए अलग से एक होटल में पार्टी दी गई. उस में हर्ष भी आमंत्रित था. उस ने आदि के लिए ‘टौएज रस’ और ‘मेसी’ दोनों स्टोर्स के 100-100 डौलर्स के गिफ्ट कार्ड दिए थे ताकि मैं अपनी पसंद के खिलौने व कपड़े आदि ले सकूं. पहली बार इस पार्टी में उस से आमनेसामने बातें हुईं.

उस ने मुझे बधाई देते हुए धीरे से कहा, ‘‘तान्या, तुम वैसे ही सुंदर हो पर प्रैगनैंसी में तो तुम्हारी सुंदरता में चार चांद लग गए थे. मैं तुम्हें मिस कर रहा हूं. औफिस कब जौइन कर रही हो?’’

मुझे हर्ष से यह उम्मीद नहीं थी, पर उस के मुंह से सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा और मन को अजीब सी शांति मिली. मुझे लगा समीर के लिए तो मैं टेकन फौर ग्रांटेड थी. उस ने मुझे कभी मिस किया हो उस की बातों से कभी मुझे प्रतीत नहीं हुआ. खैर, 2 महीने बाद मैं ने औफिस जाना शुरू किया. मेरी सास घर में रहती थीं और डे टाइम के लिए एक आया भी थी. इसलिए मैं आदि को उन के पास छोड़ कर औफिस जाने लगी. पर हर्ष से सीधे कोई बात नहीं होती थी, बस फोन पर मैसेज आदानप्रदान हो रहे थे और एकदूसरे को देखना होता था. लंच में मैं थोड़ी देर के लिए घर आ जाती थी बेटे आदि के पास. मेरा मन हर्ष से बात करने को तैयार था पर मेरे लिए बेटे को भी देखना जरूरी था.

एक बार औफिशियल मीटिंग में हम दोनों बगल में बैठे थे. उस ने धीरे से मेरे कान में कहा, ‘‘मुझ से बात करने से कतराती हो क्या?’’ मैं ने सिर्फ न में सिर हिला दिया. फिर बोला, ‘‘कभी शाम को साथ कौफी पीते हैं.’’

‘‘बाद में बात करते हैं,’’ मैं ने कहा. मैं उस से मिल सकती हूं, मुझे भी अच्छा लगेगा, पर वह मुझ से क्या चाहता है या मुझ में क्या ढूंढ़ रहा है मैं समझ नहीं पा रही हूं.

एक बार कंपनी को बड़ा और्डर मिलने की खुशी में पार्टी थी, सिर्फ औफिस के लोगों के लिए. इत्तफाक से उस दिन भी मैं और हर्ष एक ही टेबल पर बैठे थे.

उस ने कहा, ‘‘शुक्र है आज तुम्हारे साथ बैठ कर बातें करने का मौका मिल गया. बहुत अच्छा लग रहा है तुम्हारा सामीप्य.’’

‘‘अच्छा तो मुझे भी लगता है तुम से मिलना, पर क्यों मैं नहीं जानती… बस इट हैपंस सो. पर तुम्हें इस से क्या मिलता है?’’

मैं ने पूछा.

‘‘बस वही जो तुम्हें मिलता है यानी खुशी,’’ कह कर उस ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया.

उस का स्पर्श अच्छा लगा. उस दिन हम दोनों के लिए और सरप्राइज था. चिट ड्रा द्वारा मुझे हर्ष के साथ फ्लोर पर डांस करना था. हम दोनों ने कुछ देर एकसाथ डांस किया. मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गई थीं. मुझे ‘माई हार्ट इज बीटिंग…’ गाना याद आ गया.

डांस के बाद टेबल पर बैठते हुए उस ने बताया कि उस का एच 1 बी वीजा मंजूर हो गया है. मैं ने उसे हाथ मिला कर बधाई दी.

वह बोला, ‘‘मुझे इंडिया जाना होगा, पासपोर्ट पर वीजा स्टैंप के लिए, पर आजकल डर लगता है स्टैंपिंग में भी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पहले तो यह एक औपचारिकता थी पर आजकल नए प्रशासन में सुना है कि कौंसुलेट इंटरव्यू होता है. ये लोग अनावश्यक पूछताछ और अमेरिका से क्लीयरैंस आदि लेने में काफी वक्त लगा देते हैं.’’

‘‘कब जा रहे हो?’’

‘‘नैक्स्ट वीक जाऊंगा. तुम्हें बहुत मिस करूंगा. क्या तुम भी मुझे मिस करोगी?’’

‘‘हां भी नहीं भी,’’ कह कर मैं टाल गई और आगे बोली, ‘‘पर क्या तुम मेरे पापा से बात कर सकते हो… मैं उन का फोन नंबर दे देती हूं.’’

‘‘अगर थोड़ा संकोच करोगी तब मैं यही समझूंगा कि तुम्हारी नजर में मैं अजनबी हूं. फोन क्या बोकारो से रांची तो बस 120 किलोमीटर है. मैं खुद भी जा सकता हूं.’’

हर्ष इंडिया चला गया. मैं हमेशा उस के खाली कैबिन की ओर बारबार देखती और उस के लौटने की प्रतीक्षा करती.

हर्ष से इंडिया में फोन पर या कभी वीडियो चैटिंग होती थी. वह परेशान था. उस के वीजा स्टैंपिंग पर कौंसुलेट काफी समय लगा रहा था. हर्ष लगभग 2 महीने बाद अमेरिका आया. तब तक मैं ने दूसरी कंपनी में जौइन कर ली थी.

उस ने फोन पर कहा, ‘‘मुझे तुम से मिलना होगा. तुम्हारे पापा बोकारो आए थे. तुम्हारे मम्मीपापा ने तुम लोगों के लिए कुछ सामान भेजा है.’’

हम दोनों शाम को एक कौफी कैफे में मिले. वह बोला, ‘‘तुम ने जौब मुझ से पीछा छुड़ाने के लिए चेंज की है न?’’

मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘तुम मेरे बारे में ऐसा सोचोगे तो मुझे दुख होगा. यह कंपनी मेरे घर के बहुत पास है. इस से मैं बेटे आदि के लिए कुछ समय दे पा रही हूं.’’

सच तो यही था कि मैं भी उसे मिस कर रही थी पर मुझे तो मां का फर्ज भी निभाना था. एक शाम मैं हर्ष से मिली तो वह बहुत उदास था. मेरे पूछने पर नम आंखों से बोला, ‘‘मेरा औफिस में मन नहीं लग रहा है. आंखें तुम्हारे कैबिन की ओर बारबार देखती हैं. तुम

जब थीं तुम्हें देखने मात्र से एक अजीब सा सुकून मिलता था. अब मन करता है वापस इंडिया चला जाऊं.’’

‘‘ऐसी बेवकूफी मत करना. इतनी कठिनाई के बाद तो वीजा मिला है. कम से कम 6 साल तो पूरे कर लो. शायद इस बीच कंपनी तुम्हारा ग्रीन कार्ड स्पौंसर कर दे.’’

‘‘इस की उम्मीद बहुत कम है, खासकर भारतीय कंपनियां तो हमारी मजबूरी का फायदा उठाती हैं.’’

2-3 सप्ताह में 1 बार उस से समय निकाल कर मिल लेती थी. कुछ दिन बाद मेरी कंपनी में भी ओपनिंग थी. मैं ने पूछा, ‘‘तुम यहां आना चाहोगे? अगर वास्तव में रुचि हो तो बताना.

मैं रैफर कर दूंगी. तुम तो जानते हो बिना रैफर के यहां जौब नहीं मिलती और फिर रैफर करने वाले यानी मुझे भी 2-3 हजार डौलर इनाम मिल जाएगा.’’ 1 महीने के नोटिस के बाद अब हर्ष मेरी कंपनी में आ गया. हमारे कैबिन आमनेसामने तो नहीं थे, फिर भी हम दोनों एकदूसरे को आसानी से देख सकते थे.

एक दिन जब शाम को दोनों मिले तो उस ने कहा, ‘‘तुम से मिल कर क्यों इतना

अच्छा लगता है? मेरा बस चले तो तुम्हें देखता ही रहूं.’’

‘‘एक बात पूछूं? सचसच बताना. अब तो तुम सैटल हो. अपने लिए कोई अच्छी लड़की खोज कर शादी क्यों नहीं कर लेते हो?’’

‘‘अपनी ट्रू कौपी खोज कर लाओ. मैं शादी कर लूंगा.’’

‘‘मुझ में ऐसी क्या बात है?’’

‘‘सच बोलूं मैं ने क्या देखा है तुम में… तो सुनो, बड़े कमल की पंखुडि़यों के नीचे कालीकाली नशीली आंखें, बारीकी से तराशी गई पतली और लंबी भौंहें, नाक में चमकती

हीरे की कनी और गुलाबीरसीले होंठ और जब मुसकराती तो गोरेगोरे गालों में पड़ते डिंपल्स और…’’

‘‘बस करो. तुम जानते हो मैं एक पत्नी ही नहीं एक मां भी हूं. ज्यादा फ्लर्ट करने से भी तुम्हें कुछ मिलने से रहा.’’

‘‘मैं ने कब कहा है कि तुम पत्नी और मां नहीं हो. मैं तो बस तुम्हें देख कर अपना मन खुश कर लेता हूं.’’

उस की बातें मेरे दिल को स्पंदित कर रही थीं. मैं शरमा कर बोली, ‘‘मुझ से बेहतर यहीं सैकड़ों मिल जाएंगी.’’

‘‘मैं ने कहा न कि तुम्हारी ट्रू कौपी चाहिए. तुम से अच्छी भी नहीं चाहिए.’’

‘‘सच कहूं तो जब तक तुम शादी नहीं कर लेते मेरा मन तुम्हारे लिए भटकता रहेगा और तुम भी मृगतृष्णा में भटकते फिरोगे. मैं ऐसा नहीं चाहती.’’

‘‘ठीक है, मुझे कुछ समय दो सोचने का.’’

मैं ने सोचा हर्ष सोचे या न सोचे, मैं ने सोच लिया है. हर्ष से मिलना, बातें करना मुझे भी अच्छा लगता है पर अपनी खुशी के लिए मैं उसे अब और नहीं भटकने दूंगी.

2 सप्ताह के बाद मैं फिर हर्ष से मिली. उस का हाथ अपने हाथ में ले कर मैं ने कहा, ‘‘शादी के बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘मेरी शादी से तुम्हें क्या मिलेगा? मुझे तो बस तुम से मिल कर ही काफी खुशी होती है.’’

‘‘मिल कर मैं भी खुश होती हूं. तुम मेरे दिल में हमेशा रहोगे, भरोसा दिलाती हूं मेरा कहा मान लो और जल्दी शादी कर लो.’’

थोड़ी देर के लिए दोनों के बीच एक खामोशी पसर गई. वह उदास लग रहा था. उदास तो अंदर से मैं भी रहूंगी उस से दूर हो कर, पर जिस रिश्ते की कोई मंजिल न हो उसे कब तक ढोया जा सकता है.

मैं ने उसे समझाया, ‘‘यकीन करो, तुम मेरी यादों में रहोगे. मैं तुम से मिलती भी रहूंगी, पर इस तरह नहीं, अपनी बीवी के साथ मिलना. हां, पर कहीं ऐसा न होने देना कि उस समय भी तुम्हारी नजरें मुझ में कुछ ढूंढ़ने लगें. हम मिलेंगे, बातें करेंगे बस मैं इतने से ही संतुष्ट हो जाऊंगी और तुम से भी यही आशा करूंगी. हम अपने रिश्ते का गलत अर्थ निकालने का मौका किसी को नहीं देंगे.’’

‘‘एक शर्त पर? एक बार जी भर के गले मिल लूं तुम से,’’ उस ने कहा और फिर अपनी दोनों बांहें फैला दीं. मैं बिना संकोच उस की बांहों में सिमट गई.

उस ने कहा, ‘‘मैं इस पल को सदा याद रखूंगा. और अगर मैं तुम्हें अपनी गिरफ्त से आजाद न करूं तो?’’

‘‘और यदि मुझे आदि बुला रहा हो तो?’’

हर्ष ने तुरंत अपनी पकड़ ढीली कर दी. मैं उस से अलग हो गई. फिर मैं ने अपनी दोनों बांहें फैला दीं. हर्ष मेरी बांहों में था. मैं ने कहा, ‘‘मैं भी इस पल को नहीं भूल सकती.’’

मैं ने दिल से कामना की कि हर्ष की पत्नी उसे इतना प्यार दे कि उसे मेरे कैबिन की ओर देखने की जरूरत न पड़े. मैं ने भी अपने मन को समझा लिया था कि अब हर्ष को सिर्फ यादों में ही रखना है.

अचानक डोरबैल की आवाज सुन कर मैं चौंक उठी और खयालों की दुनिया से निकल कर वर्तमान में आ गई. दरवाजा खोला तो सामने नरेश खड़ा था. मैं ने उसे अंदर आने को कहा.

नरेश ने निम्मो से कहा, ‘‘जल्दी चलो, मैं वकील से टाइम ले कर आया हूं. हमारे तलाक के पेपर तैयार हैं. चल कर साइन कर दो.’’

मैं यह सुन कर अवाक रह गई. मैं ने डांटते हुए कहा, ‘‘नरेश, क्या छोटीछोटी बातों को तूल दे कर तलाक लिया जाता है?’’

‘‘तुम्हारी सहेली ने ही तलाक लेने को कहा था.’’

तभी निम्मो रोती हुई बोली, ‘‘मैं ने तो बस मजाक में कह दिया था.’’

‘‘तो मैं ने भी कहां सीरियसली कहा है… चलो घर चलते हैं,’’ नरेश बोला.

निम्मो दौड़ कर नरेश से लिपट गई. दोनों अपने घर चले गए.

कुछ देर बाद समीर आया. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारे बेटे का ऐडमिशन तुम जिस स्कूल में चाहती थी, हो गया है.’’

मैं ने मन में सोचा कि क्या बेटा सिर्फ मेरा ही है. हमारा बेटा भी तो कह सकता था समीर. वह स्कूल इस शहर का सर्वोत्तम स्कूल था. मारे खुशी के मैं दौड़ कर समीर से जा लिपटी. पर उस की प्रतिक्रिया में वही पुरानी उदासीनता थी. मैं ने व्यर्थ ही कुछ देर तक इंतजार किया कि शायद वह भी मुझे आगोश में लेगा.

फिर मैं भी सहज हो कर धीरे से उस  अलग हुई और वापस अपनी दुनिया में गई कि समीर से इस से ज्यादा अपेक्षा नहीं करनी चाहिए मुझे.

Best Hindi Stories : वह सांवली लड़की – चांदनी कैसे बनाई कालेज में अपनी पहचान?

Best Hindi Stories :  रंग पक्का सांवला और नाम हो चांदनी, तो क्या सोचेंगे आप? यही न कि नाम और रूपरंग में कोई तालमेल नहीं. जिस दिन चांदनी ने उस कालेज में बीए प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया, उसी दिन से छात्रों के जेहन में यह बात कौंधने लगी. किसी की आंखों में व्यंग्य होता, किसी की मुसकराहट में, कोई ऐसे हायहैलो करता कि उस में भी व्यंग्य जरूर झलकता था. चांदनी सब समझती थी. मगर वह इन सब से बेखबर केवल एक हलकी सी मुसकान बिखेरती हुई सीधे अपनी क्लास में चली जाती.

केवल नाम और रंग ही होता तो कोई बात नहीं थी, वह तो ठेठ एक कसबाई लड़की नजर आती थी. किसी छोटेमोटे कसबे से इंटर पास कर आई हुई. बड़े शहर के उस कालेज के आधुनिक रूपरंग में ढले हुए छात्रछात्राओं को भला उस की शालीनता क्या नजर आती. हां, 5-7 दिन में ही पूरी क्लास ने यह जरूर जान लिया  कि वह मेधावी भी है. बोर्ड परीक्षा की मैरिट लिस्ट में अपना स्थान बनाने वाली लड़की. इस बात की गवाही हर टीचर का चेहरा देने लगता, जो उस का प्रोजैक्ट देखते. वे कभी प्रोजैक्ट की फाइल देखते, तो कभी चांदनी का चेहरा.

रंगनाथ क्लास का मुंहफट छात्र था. एक दिन वह चांदनी से पूछ बैठा, ‘‘मैडम, क्या हमें बताएंगी कि आप कौन सी चक्की का आटा खाती हैं?’’

चांदनी कुछ नहीं बोली. बस, चुपचाप उसे देख भर लिया. तभी नीलम के मुंह से भी निकला, ’’हां, हां, जरूर बताना ताकि हम भी उसे खा कर अपने दिमाग को तरोताजा रख सकें.’’

रंगनाथ और नीलम की ये फबतियां सुन पूरी क्लास ठहाका मार कर हंसने लगी. लेकिन चांदनी के चेहरे का सौम्यभाव इस से जरा भी प्रभावित नहीं हुआ. वह मुसकरा कर केवल इतना बोली, ‘‘हां, हां, क्यों नहीं बताऊंगी, जरूर बताऊंगी,’’ फिर उस का ध्यान अपनी कौपी पर चला गया.

चांदनी गर्ल्स होस्टल में रहती थी. वह छुट्टी का दिन था. लड़कियां होस्टल के मैदान में वौलीबौल खेल रही थीं. कुछ हरी घास पर बैठी गपशप कर रही थीं, तो कुछ मिलने आए अपने परिजनों से बातचीत में व्यस्त थीं. साथ आए बच्चे हरीहरी घास पर लोटपोट हो रहे थे. वहीं कौरीडोर में एक किनारे कुरसी पर बैठी होस्टल वार्डन रीना मैडम सारे दृश्य देख रही थीं. उन के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी. इन सारे दृश्यों को देखते हुए भी उन की आंखें जैसे कहीं और खोई हुई थीं. उन का हमेशा प्रसन्न रहने वाला चेहरा, इस वक्त चिंता में डूबा हुआ था. कौरीडोर में लड़कियां इधर से उधर भागदौड़ मचाए हुए थीं. मगर शायद किसी का भी ध्यान रीना मैडम पर नहीं गया. अगर गया भी हो तो किसी ने उन के चेहरे की उदासी के बारे में पूछने की जरूरत नहीं समझी.

अचानक रीना मैडम के कंधे पर किसी का हाथ पड़ा. उन्होंने सिर उठा कर देखा, वह चांदनी थी, ‘‘कहां खोई हुई हैं, मैडम? आप की तबीयत तो ठीक है न,’’  चांदनी ने पूछा.

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. मैं ठीक हूं चांदनी,’’ रीना मैडम बोलीं.

‘‘नहीं मैडम. कुछ तो है. छिपाइए मत, आप का चेहरा बता रहा है कि आप किसी परेशानी में हैं.’’

रीना मैडम की आंखें नम हो आईं. चांदनी के शब्दों में न जाने कैसा अपनापन था कि उन से बताए बिना नहीं रहा गया. वे अपनी आंखों में छलक आए आंसुओं को आंचल से पोंछती हुई भरे गले से बोलीं, ‘‘चांदनी, कुछ देर पहले ही मेरे घर से फोन आया है कि मेरे बेटे की तबीयत ठीक नहीं है. वह मुझे बहुत याद कर रहा है. मैं कुछ समय के लिए उसे यहां लाना चाहती हूं. लेकिन यहां मैं हर समय तो उस के पास रह नहीं सकती. घर से कोई और आ नहीं सकता. ऐसे में कौन रहेगा, उस के पास?’’

‘‘बस, इतनी सी बात के लिए आप परेशान हैं. मैडम, बस समझ लीजिए कि आप की प्रौब्लम दूर हो गई. उदासी और चिंता को दूर भगाइए. घर जा कर बच्चे को ले आइए.’’

‘‘मगर कैसे?’’

‘‘मैं हूं न यहां,’’ चांदनी बोली.

रीना मैडम ने उस का हाथ पकड़ लिया. वे चकित हो कर उसे देखती भर रहीं. उन्हें अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. क्या होस्टल की एक सामान्य छात्रा इतना आत्मीय भाव प्रकट कर सकती है. आज ऐसा पहली बार हुआ था, पर चांदनी की आंखों से झांकती निश्छलता कह रही थी, ‘हां, मैडम, यह सच है. मुझे हर किसी के दर्द और चिंता की पहचान हो जाती है.’ रीना मैडम की आंखों में एक बार फिर आंसू छलक आए.

‘‘न…न…न… मैडम, आप की ये आंखें आंसू बहाने के लिए नहीं हैं. जो मैं ने कहा है उसे कीजिए,’’ चांदनी इस बार स्वयं अपने रूमाल से उन के आंसू पोंछती हुई बोली.

धीरेधीरे साल बीत गया. चांदनी बीए द्वितीय वर्ष में पहुंच गई. वह टैलेंटेड तो थी ही, उस के व्यवहार ने भी अब तक कालेज में उस की अपनी एक अलग पहचान बना दी थी. मगर रंगनाथ जैसे साहबजादों को अभी भी यह सब चांदनी का एक ढोंग मात्र लगता था. अब भी वे मौका मिलने पर उस पर व्यंग्य करने से नहीं चूकते थे.

नया सत्र शुरू होते ही हमेशा की तरह इस बार भी अपनीअपनी कक्षाओं में प्रथम आए छात्रों का सम्मान समारोह आयोजित करने की घोषणा हुई. इस में उन छात्रछात्राओं को अपने अभिभावकों को भी साथ लाने के लिए कहा जाता था. चांदनी अपनी कक्षा में प्रथम आई थी.

रंगनाथ के लिए चांदनी पर फबती कसने का यह अच्छा मौका था. उस ने अपने दोस्तों से कहा, ‘‘चलो, अच्छा है. इस बार हमें भी मैडम के मम्मीपापा के दर्शन हो जाएंगे.’’

मम्मीपापा, ‘‘अरे, बेवकूफ, मैडम तो गांव से आई हैं. वहां मम्मीपापा कहां होते हैं,’’ एक दोस्त बोला.

‘‘फिर?’’ रंगनाथ ने पूछा.

‘‘अपनी अम्मां और बापू को ले कर आएंगी मैडम,’’ दोस्त के इस जुमले पर पूरी मित्रमंडली खिलखिला पड़ी.

‘‘चलो, तब तो यह भी देख लेंगे कि मखमल की चादर पर टाट का पैबंद कैसा नजर आता है,’’ रंगनाथ इस पर भी चुटकी लेने से नहीं चूका.

समारोह के दिन प्राचार्य और स्टाफ के साथ शहर के कुछ गण्यमान्य लोग भी स्टेज पर बैठे हुए थे. प्राचार्य ने सब लोगों के स्वागत की औपचारिकता पूरी करने के बाद एकएक कर सभी कक्षाओं के सर्वश्रेष्ठ छात्रों को स्टेज पर बुलाना शुरू किया. चांदनी का नाम लेते ही पूरे कालेज की नजरें उधर उठ गईं.

चांदनी एक अधेड़ उम्र की औरत का हाथ पकड़ कर उसे सहारा देती हुई धीरेधीरे स्टेज की ओर बढ़ रही थी. वह एक सामान्य हिंदुस्तानी महिला जैसी थी. वहां उपस्थित दर्जनों सजीसंवरी शहरी महिलाओं से बिलकुल अलग. मगर सलीके से पहनी सफेद साड़ी, खिचड़ी हुए बालों के बीच सिंदूरविहीन मांग, थकी हुई दृष्टि के बावजूद सजग आंखें, चेहरे पर झलकता उस का आत्मविश्वास. लेकिन साधारण होते हुए भी उन के व्यक्तित्व में गजब का आकर्षण था. वह चांदनी की मां थी. वहां उपस्थित अभिभावकों में पहली ऐसी मां थीं, जिन्हें कोई छात्र अपने साथ स्टेज पर ले गया.

उन के स्टेज पर पहुंचते ही प्राचार्य ने खड़े हो कर उन का स्वागत किया. फिर एक कुरसी मंगा कर उन्हें बैठाया. अब आगे चांदनी को बोलना था. उस ने थोड़े से नपेतुले शब्दों में बताया, ‘‘ये मेरी मां हैं. गांव में रहती हैं. पिताजी के देहांत के बाद मुझे कभी उन की कमी महसूस नहीं होने दी. इन्होंने मां और पिता दोनों की जगह ले ली. मुझे पढ़ाने के इन के इरादों में जरा भी कमी नहीं आई. आज मैं जो आप लोगों के बीच हूं वह इन्हीं की बदौलत है.

‘‘काफी समय पहले मेरे कुछ मित्रों ने पूछा था कि मैं कौन सी चक्की का आटा खाती हूं. मैं ने उन से वादा किया था कि समय आने पर आप को जरूर बताऊंगी. आज वह वादा पूरा करने का समय आ गया है. मैं अपने उन प्रिय मित्रों को बताना चाहूंगी कि वह चक्की है, मेरी मां. तमाम मुश्किलों और तकलीफों में पिस कर भी इन्होंने मुझे कभी हताश नहीं  होने दिया. इन का प्रोत्साहन पा कर ही मैं आगे बढ़ी हूं. मेरा आज का मुकाम, आप के सामने है. इस से भी बड़े मुकाम को मैं हासिल करना चाहती हूं. उस के लिए मुझे आप की शुभकामनाएं चाहिए.’’

चांदनी के चुप होते ही पूरा हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. प्राचार्य ने स्वयं उठ कर उस की मां को स्टेज की सीढि़यों से नीचे उतरने के लिए सहारा दिया. रंगनाथ और उस के दोस्तों को आज पहली बार एहसास हुआ कि उस सांवली लड़की का नाम ही चांदनी नहीं है बल्कि उस के भीतर चांदनी सा उजला एक दिल भी है.

बाहर निकलते ही चांदनी को बधाई देने वाला पहला व्यक्ति रंगनाथ ही था, दोनों हाथ जोड़े और आंखों में क्षमायाचना लिए हुए, चांदनी ने गद्गद हो कर उस के जुड़े हुए हाथों को थाम लिया.

Famous Hindi Stories : प्यार के काबिल – जूही और मुकुल को परिवार से क्या सीख मिली?

Famous Hindi Stories : मुकुल और जूही दोनों सावित्री कालोनी में रहते थे. उन के घर एकदूसरे से सटे हुए थे. दोनों ही हमउम्र थे और साथसाथ खेलकूद कर बड़े हुए थे. दोनों के परिवार भी संपन्न, आधुनिक और स्वच्छंद विचारों के थे, इसलिए उन

के परिवार वालों ने कभी भी उन के मिलनेजुलने और खेलनेकूदने पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया था. इस प्रकार मुकुल और जूही साथसाथ पढ़तेलिखते, खेलतेकूदते अच्छे अंकों के साथ हाईस्कूल पास कर गए थे.

इधर कुछ दिनों से मुकुल अजीब सी परेशानी महसूस कर रहा था. कई दिन से उसे ऐसा एहसास हो रहा था कि उस की नजरें अनायास ही जूही के विकसित होते शरीर के उभारों की तरफ उठ जाती हैं, चाहे वह अपनेआप को लाख रोके. बैडमिंटन खेलते समय तो उस के वक्षों के उभार को देख कर उस का ध्यान ही भंग हो जाता है. वह अपनेआप को कितना भी नियंत्रित क्यों न करे, लेकिन जूही के शरीर के उभार उसे सहज ही अपनी ओर आकर्षित करते हैं.

जूही को भी यह एहसास हो गया था कि मुकुल की निगाहें बारबार उस के शरीर का अवलोकन करती हैं. कभीकभी तो उसे यह सब अच्छा लगता, लेकिन कभीकभी काफी बुरा लगता था.

यह सहज आकर्षण धीरेधीरे न जाने कब प्यार में बदल गया, इस का पता न तो मुकुल और जूही को चला और न ही उन के परिवार वालों को.

लेकिन यह बात निश्चित थी कि मुकुल को जूही अब कहीं अधिक खूबसूरत, आकर्षक और लाजवाब लगने लगी थी. दूसरी तरफ जूही को भी मुकुल अधिक स्मार्ट, होशियार और अच्छा लगने लगा था. दोनों एकदूसरे में किसी फिल्म के नायकनायिका की छवि देखते थे. बात यहां तक पहुंच गई कि

इस वर्ष वैलेंटाइन डे पर दोनों ने एकदूसरे को न सिर्फ ग्रीटिंग कार्ड दिए, बल्कि दोनों के बीच प्रेमभरे एसएमएस का भी आदानप्रदान हुआ.

इस के बाद तो एकदूसरे के प्रति उन की झिझक खुलने लगी. वे दोनों प्रेम का इजहार तो करने ही लगे साथ ही फिल्मी स्टाइल में एकदूसरे से प्रेमभरी नोकझोंक भी करने लगे. हालत यह हो गई कि पढ़ते समय भी दोनों एकदूसरे के खयालों में ही डूबे रहते. अब किताबों के पन्नों पर भी उन्हें एकदूसरे की तसवीर नजर आ रही थी.

इस के चलते उन की पढ़ाई पर असर पड़ना स्वाभाविक था. इंटर पास करतेकरते उन के आकर्षण और प्रेम की डोर तो मजबूत हो गई, लेकिन पढ़ाई का ग्राफ काफी नीचे गिर गया, जिस का असर उन के परीक्षाफल में नजर आया. नंबर कम आने पर दोनों के परिवार वाले चिंतित तो थे, लेकिन वे नंबर कम आने का असली कारण नहीं खोज पा रहे थे.

इंटर पास कर के मुकुल और जूही ने डिग्री कालेज में प्रवेश लिया तो उन के प्रेम को और विस्तार मिला. अब उन्हें मिलनेजुलने के लिए कोई जगह तलाशने की आवश्यकता नहीं थी. कालेज की लाइब्रेरी, कैंटीन और पार्क गपशप और उन के प्रेम इजहार के लिए उमदा स्थान थे.

इस प्रकार मुकुल और जूही का प्रेम परवान चढ़ता ही जा रहा था. किताबों में पढ़ कर और फिल्में देख कर वे प्रेम का इजहार करने के कई नायाब तरीके सीख गए थे.

इस बार वैलेंटाइन डे के अवसर पर मुकुल ने सोचा कि वह एक नए अंदाज में जूही से अपने प्रेम का इजहार करेगा. यह नया अंदाज उस ने एक पत्रिका में तो पढ़ा ही था, फिल्म में भी देखा था. उस ने पढ़ा था कि इस कलात्मक अंदाज से प्रेमिका काफी प्रभावित होती है और फिर वह अपने प्रेमी के खयालों में ही डूबी रहती है. इस कलात्मक अंदाज को उस ने इस वैलेंटाइन डे पर आजमाने का निश्चय किया. उस ने शीशे के सामने खड़े हो कर उस का खूब अभ्यास भी किया.

सुबहसुबह का समय था. मौसम भी अच्छा था. मुकुल का मन रोमानी था. उस ने हाथ में लिए गुलाब के खिले फूल को निहारा और फिर उसे अपने होंठों पर रख कर चूम लिया. अब उस से रहा न गया. उस ने अपने मोबाइल से जूही को छत पर आने के लिए एसएमएस किया.

जूही तो जैसे तैयार ही बैठी थी. मैसेज पाते ही वह चहकती हुई छत की तरफ दौड़ी. वह प्रेम की उमंग और तरंग में डूबी हुई थी और वैसे भी प्रेम कभी छिपाए नहीं छिपता.

जूही को इस प्रकार छत की ओर दौड़ते देख उस की मम्मी का मन शंका से भर उठा. वे सोचने लगीं, ‘इतनी सुबह जूही को छत पर क्या काम पड़ गया? अभी तो धूप भी अच्छी तरह से नहीं खिली.’ उन की शंका ने उन के मन में खलबली मचा दी. वे यह देखने के लिए कि जूही इतनी सुबह छत पर क्या करने गई है, उस के पीछेपीछे चुपके से छत पर पहुंच गईं. वहां का दृश्य देख कर जूही की मम्मी हतप्रभ रह गईं.

जूही के सामने मुकुल घुटने टेके गुलाब का फूल लिए प्रणय निवेदन की मुद्रा में था. वह बड़े ही प्रेम से बोला, ‘‘जूही डार्लिंग, आई लव यू.’’

जूही ने भी उस के द्वारा दिए गए गुलाब के फूल को स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘मुकुल, आई लव यू टू.’’

यह दृश्य देख कर जूही की मम्मी के पैरों तले जमीन खिसक गई, लेकिन छत पर कोई तमाशा न हो, इसलिए वे चुपचाप दबे कदमों से नीचे आ गईं. अब वे बहुत परेशान थीं.

थोड़ी देर बाद जूही भी उमंगतरंग में डूबी हुई, प्रेमरस में सराबोर गाना गुनगुनाती हुई नीचे आ गई. इस समय वह इतनी खुश थी, मानो सारा जहां उस के कदमों में आ गया हो. इस समय उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था.

उस की मम्मी को भी समझ नहीं आ रहा था कि वे उस के साथ कैसे पेश आएं? उन के मन में आ रहा था कि जूही के गाल पर थप्पड़ मारतेमारते उन्हें लाल कर दें. दूसरे ही पल उन के मन में आया कि नहीं,  इस मामले में उन्हें समझदारी से काम लेना चाहिए. उन्होंने शाम को जूही के पापा से ही बात कर के किसी निर्णय पर पहुंचने की सोची. उधर, आज दिनभर जूही अपने मोबाइल पर लव सौंग सुनती रही.

शाम को जब जूही की मम्मी ने जूही के पापा को सुबह की पूरी घटना बताई, तो वे भी सन्न रह गए. फिर भी उन्होंने धैर्य से काम लेते हुए कहा, ‘‘निशा, तुम चिंता मत करो. जूही युवावस्था से गुजर रही है और यह युवावस्था का सहज आकर्षण है. क्या हम ने भी ऐसा ही नहीं किया था?’’

‘‘राजेंद्र, तुम्हें तो हर वक्त मजाक ही सूझता है. यह जरूरी तो नहीं कि जो हम करें वही हमारी संतानें भी करें.’’

‘‘निशा, मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि बच्चों के भविष्य को ध्यान में रख कर कोई कदम ही न उठाया जाए. मैं आज ही मुकुल के पापा से बात करता हूं. बच्चों को समझाने से ही कोई हल निकलेगा.’’

जूही के पापा ने मुकुल के पापा से मिलने का समय लिया और फिर उन से मिलने उन के घर गए. फिर दोनों ने सौहार्दपूर्ण वातावरण में मुकुल और जूही के प्रेम व्यवहार और उन के भविष्य पर चर्चा की, जिस से वे दोनों कहीं गलत रास्ते पर न चल पड़ें. दोनों ने बातों ही बातों में मुकुल और जूही को सही मार्ग पर आगे बढ़ाने की योजना और नीति बना ली थी.

तब एक दिन मुकुल के पापा ने सही अवसर पा कर मुकुल को अपने पास बुलाया और उस से इस प्रकार बातें शुरू कीं जैसे उन्हें उस के और जूही के बीच पनप रहे प्रेम संबंधों के बारे में कुछ पता ही न हो.

उन्होंने बड़े प्यार से मुकुल से पूछा, ‘‘बेटा मुकुल, आजकल तुम खोएखोए से रहते हो. इस बार तुम्हारे नंबर भी तुम्हारी योग्यता और क्षमता के अनुरूप नहीं आए. आखिर क्या समस्या है बेटा?‘‘

मुकुल के पास इस प्रश्न का कोई सटीक उत्तर नहीं था. कभी वह प्रश्नपत्रों के कठिन होने को दोष देता, तो कभी आंसर शीट के चैक होने में हुई लापरवाही को दोष देता.

‘‘बेटा मुकुल, मुझे तो ऐसा लग रहा है कि तुम अपना ध्यान पढ़ाई में सही से लगा नहीं पा रहे हो. कोई इश्कविश्क का मामला तो नहीं है?’’

यह सुनते ही मुकुल को करंट सा लगा. उस के मुंह से तुरंत निकला, ‘‘नहीं पापा, ऐसी कोई बात नहीं है.’’

‘‘बेटा, यह उम्र ही ऐसी होती है. यदि ऐसा है भी तो कोई बुरी बात नहीं. मुझे अपना दोस्त समझ कर तुम अपनी भावनाओं को मुझ से शेयर कर सकते हो. एक पिता कभी अपने बेटे को गलत सलाह नहीं देगा, विश्वास करो.’’

लेकिन मुकुल अब भी कुछ बताने से झिझक रहा था. उस के पापा उस के चेहरे को देख कर समझ गए कि उस के मन में कुछ है, जिसे वह बताने से झिझक रहा है. तब उन्होंने उस से कहा, ‘‘मुकुल, कुछ भी बताने से झिझको मत. तुम्हारे सपनों को पूरा करने में सब से बड़ा मददगार मैं ही हो सकता हूं. बताओ बेटा, क्या बात है?’’

अपने पापा को एक दोस्त की तरह बातें करते देख मुकुल की झिझक खुलने लगी. तब उस ने भी जूही के साथ चल रही अपनी प्रेम कहानी को सहज रूप से स्वीकार कर लिया.

इस पर उस के पापा ने कहा, ‘‘मुकुल, तुम एक समझदार बेटे हो जो तुम ने सचाई स्वीकार की. मुझे जूही से तुम्हारी. बस, मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि यदि तुम जूही को पाना चाहते हो तो पहले उस के लायक तो बनो.

‘‘तुम जूही को तभी पा सकते हो, जब अपने कैरियर को संवार लो और कोई अच्छी नौकरी व पद प्राप्त कर लो. बेटा, यदि तुम अपना और जूही का जीवन सुखमय बनाना चाहते हो, तो तुम्हें अपना कैरियर संवारना ही होगा अन्यथा जूही के पेरैंट्स भी तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे. इस दुनिया में असफल आदमी का साथ कोई नहीं देता.’’

यह सुन कर मुकुल ने भावावेश में कहा, ‘‘पापा, हम एकदूसरे से सच्चा प्यार करते हैं. कभी हम एकदूसरे से जुदा नहीं हो सकते.’’

‘‘बेटा, तुम दोनों को जुदा कौन कर रहा है? मैं तो बस इतना कह रहा हूं कि यदि तुम जूही से जुदा नहीं होना चाहते तो उस के लिए कुछ बन कर दिखाओ. अन्यथा कितने ही सच्चे प्रेम की दुहाई देने वाले रिश्ते हों, अनमेल होने पर टूट और बिखर जाते हैं. यदि तुम ऐसा नहीं चाहते तो जूही की जिंदगी में खुशबू महकाने के लिए तुम्हें कुछ बन कर दिखाना ही होगा.’’

‘‘पापा, आप की बात मुझे समझ आ गई है. हम जिस चीज को चाहते हैं, उस के लिए हमें उस के लायक बनना ही पड़ता है. नहीं तो वह चीज हमारे हाथ से निकल जाती है.

‘‘अभी तक मैं अपना बेशकीमती समय यों ही गाने सुनने और फिल्में देखने में गवां रहा था. अब मैं अपना पूरा समय अपना कैरियर संवारने में लगाऊंगा. मुझे अपने प्यार के काबिल बनना है.’’

‘‘शाबाश बेटा, अपने इस जज्बे को कायम रखो. अपनी पढ़ाई में पूरा मन लगाओ. अपना कैरियर संवारो. मात्र सपने देखने से कुछ नहीं होता, उन्हें हकीकत में बदलने के लिए प्रयास और परिश्रम करना ही पड़ता है. जूही को पाना चाहते हो तो जूही के काबिल बनो.’’

‘‘पापा, आप ने मेरी आंखें खोल दी हैं. मैं आप से वादा करता हूं कि मैं ऐसा ही करूंगा.’’

‘‘ठीक है बेटा, तुम्हें मेरी सलाह समझ में आ गई. मैं एक दोस्त और मार्गदर्शक के रूप मे तुम्हारे साथ हूं.’’

इसी प्रकार की बातें जूही के पेरैंट्स ने जूही को भी समझाईं. इस का असर जल्दी ही देखने को मिला. मुकुल और जूही एकदूसरे को पाने के लिए अपनाअपना कैरियर संवारने में लग गए. अब वे दोनों अपनी पढ़ाई ध्यान लगा कर करने लगे थे.

जूही और मुकुल के पेरैंट्स भी यह देख कर काफी खुश थे कि उन के बच्चे सही राह पर चल पड़े हैं और अपनाअपना भविष्य उज्ज्वल बनाने में लगे हैं.

Interesting Hindi Stories : पुरवई

Interesting Hindi Stories : ‘‘सुनिए, पुरवई का फोन है. आप से बात करेगी,’’ मैं बैठक में फोन ले कर पहुंच गईथी.

‘‘हां हां, लाओ फोन दो. हां, पुरू बेटी, कैसी हो तुम्हें एक मजेदार बात बतानी थी. कल खाना बनाने वाली बाई नहीं आईथी तो मैं ने वही चक्करदार जलेबी वाली रेसिपी ट्राई की. खूब मजेदार बनी. और बताओ, दीपक कैसा है हां, तुम्हारी मम्मा अब बिलकुल ठीक हैं. अच्छा, बाय.’’

‘‘बिटिया का फोन लगता है’’ आगंतुक ने उत्सुकता जताई.

‘‘जी…वह हमारी बहू है…बापबेटी का सा रिश्ता बन गया है ससुर और बहू के बीच. पिछले सप्ताह ये लखनऊ एक सेमीनार में गएथे. मेरे लिए तो बस एक साड़ी लाए और पुरवई के लिए कुरता, टौप्स, ब्रेसलेट और न जाने क्याक्या उठा लाए थे. मुझ बेचारी ने तो मन को समझाबुझा कर पूरी जिंदगी निकाल ली थी कि इन के कोई बहनबेटी नहीं है तो ये बेचारे लड़कियों की चीजें लाना क्या जानें और अब देखिए कि बहू के लिए…’’

‘‘आप को तो बहुत ईर्ष्या होती होगी  यह सब देख कर’’ अतिथि महिला ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘अब उस नारीसुलभ ईर्ष्या वाली उम्र ही नहीं रही. फिर अपनी ही बेटी सेक्या ईर्ष्या रखना अब तो मन को यह सोच कर बहुत सुकून मिलता है कि चलो वक्त रहते इन्होंने खुद को समय के मुताबिक ढाल लिया. वरना पहले तो मैं यही सोचसोच कर चिंता से मरी जाती थी कि ‘मैं’ के फोबिया में कैद इस इंसान का मेरे बाद क्या होगा’’

आगंतुक महिला मेरा चेहरा देखती ही रह गई थीं. पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई. हां, मन जरूर कुछ महीने पहले की यादों मेंभटकने पर मजबूर हो गया था.  बेटा दीपक और बहू पुरवई सप्ताह भर का हनीमून मना कर लौटेथे और अगले दिन ही मुंबई अपने कार्यस्थल लौटने वाले थे. मैं बहू की विदाई की तैयारी कर रही थी कि तभी दीपक की कंपनी से फोन आ गया. उसे 4 दिनों के लिए प्रशिक्षण हेतु बेंगलुरु जाना था. ‘तो पुरवई को भी साथ ले जा’ मैं ने सुझाव रखा था.

‘मैं तो पूरे दिन प्रशिक्षण में व्यस्त रहूंगा. पुरू बोर हो जाएगी. पुरू, तुम अपने पापामम्मी के पास हो आओ. फिर सीधे मुंबई पहुंच जाना. मैं भी सीधा ही आऊंगा. अब और छुट्टी नहीं मिलेगी.’  ‘तुम रवाना हो, मैं अपना मैनेज कर लूंगी.’

दीपक चला गया. अब हम पुरवई के कार्यक्रम का इंतजार करने लगे. लेकिन यह जान कर हम दोनों ही चौंक पड़े कि पुरवई कहीं नहीं जा रहीथी. उस का 4 दिन बाद यहीं से मुंबई की फ्लाइट पकड़ने का कार्यक्रम था. ‘2 दिन तो आनेजाने में ही निकल जाएंगे. फिर इतने सालों से उन के साथ ही तो रह रही हूं. अब कुछ दिन आप के साथ रहूंगी. पूरा शहर भी देख लूंगी,’ बहू के मुंह से सुन कर मुझे अच्छा लगा था.

‘सुनिए, बहू जब तक यहां है, आप जरा शाम को जल्दी आ जाएं तो अच्छा लगेगा.’

‘इस में अच्छा लगने वाली क्या बात है मैं दोस्तों के संग मौजमस्ती करने या जुआ खेलने के लिए तो नहीं रुकता हूं. कालेज मेंढेर सारा काम होता है, इसलिए रुकता हूं.’

‘जानती हूं. पर अगर बहू शाम को शहर घूमने जाना चाहे तो’

‘कार घर पर ही है. उसे ड्राइविंग आती है. तुम दोनों जहां जाना चाहो चले जाना. चाबी पड़ोस में दे जाना.’

मनोहर भले ही मना कर गए थे लेकिन उन्हें शाम ठीक वक्त पर आया देख कर मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा.  ‘चलिए, बहू को कहीं घुमा लाते हैं. कहां चलना चाहोगी बेटी’ मैं ने पुरवई से पूछा.

‘मुझे तो इस शहर का कोई आइडिया नहीं है मम्मा. बाहर निकलते हैं, फिर देख लेंगे.’

घर से कुछ दूर निकलते ही एक मेला सा लगा देख पुरवई उस के बारे में पूछ बैठी, ‘यहां चहलपहल कैसी है’

‘यह दीवाली मेला है,’ मैं ने बताया.

‘तो चलिए, वहीं चलते हैं. बरसों से मैं ने कोई मेला नहीं देखा.’

मेले में पहुंचते ही पुरवई बच्ची की तरह किलक उठी थी, ‘ममा, पापा, मुझे बलून पर निशाना लगाना है. उधर चलते हैं न’ हम दोनों का हाथ पकड़ कर वह हमें उधर घसीट ले गई थी. मैं तो अवाक् उसे देखती रह गईथी. उस का हमारे संग व्यवहार एकदम बेतकल्लुफ था. सरल था, मानो वह अपने मम्मीपापा के संग हो. मुझे तो अच्छा लग रहाथा. लेकिन मन ही मन मैं मनोहर से भय खा रही थी कि वे कहीं उस मासूम को झिड़क न दें. उन की सख्तमिजाज प्रोफैसर वाली छवि कालेज में ही नहीं घर पर भी बनी हुईथी.

पुरवई को देख कर लग रहा था मानो वह ऐसे किसी कठोर अनुशासन की छांव से कभी गुजरी ही न हो. या गुजरी भी हो तो अपने नाम के अनुरूप उसे एक झोंके से उड़ा देने की क्षमता रखती हो. बेहद स्वच्छंद और आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी खुशमिजाज उन्मुक्त पुरवई का अपने घर में आगमन मुझेठंडी हवा के झोंके सा एहसास करा रहा था. पलपल सिहरन का एहसास महसूस करते हुए भी मैं इस ठंडे उन्मुक्त एहसास कोभरपूर जी लेना चाह रही थी.

पुरवई की ‘वो लगा’ की पुकार के साथ उन्मुक्त हंसी गूंजी तो मैं एकबारगी फिर सिहर उठी थी. हड़बड़ा कर मैं ने मनोहर की ओर दृष्टि दौड़ाई तो चौंक उठी थी. वे हाथ में बंदूक थामे, एक आंख बंद कर गुब्बारों पर निशाने पर निशाना लगाए जा रहे थे और पुरवई उछलउछल कर ताली बजाते हुए उन का उत्साहवर्द्धन कर रही थी. फिर यह क्रम बदल गया. अब पुरवई निशाना साधने लगी और मनोहर ताली बजा कर उस का उत्साहवर्द्धन करने लगे. मुझे हैरत से निहारते देख वे बोल उठे, ‘अच्छा खेल रही है न पुरवई’

बस, उसीक्षण से मैं ने भी पुरवई को बहू कहना छोड़ दिया. रिश्तों की जिस मर्यादा को जबरन ढोए जा रही थी, उस बोझ को परे धकेल एकदम हलके हो जाने का एहसास हुआ. फिर तो हम ने जम कर मेले का लुत्फ उठाया. कभी चाट का दोना तो कभी फालूदा, कभी चकरी तो कभी झूला. ऐसा लग रहा था मानो एक नई ही दुनिया में आ गए हैं. बर्फ का गोला चाटते मनोहर को मैं ने टहोका मारा, ‘अभी आप को कोई स्टूडेंट या साथी प्राध्यापक देख ले तो’

मनोहर कुछ जवाब देते इस से पूर्व पुरवई बोल पड़ी, ‘तो हम कोई गलत काम थोड़े ही कर रहे हैं. वैसे भी इंसान को दूसरों के कहने की परवा कम ही करनी चाहिए. जो खुद को अच्छा लगे वही करना चाहिए. यहां तक कि मैं तो कभी अपने दिल और दिमाग में संघर्ष हो जाता है तो भी अपने दिल की बात को ज्यादा तवज्जुह देती हूं. छोटी सी तो जिंदगी मिली है हमें, उसे भी दूसरों के हिसाब से जीएंगे तो अपने मन की कब करेंगे’

हम दोनों उसे हैरानी से ताकते रह गए थे. कितनी सीधी सी फिलौसफी है एक सरस जिंदगी जीने की. और हम हैं कि अनेक दांवपेंचों में उसे उलझा कर एकदम नीरस बना डालते हैं. पहला दिन वाकई बड़ी मस्ती में गुजरा. दूसरे दिन हम ने उन की शादी की फिल्म देखने की सोची. 2 बार देख लेने के बावजूद हम दोनों का क्रेज कम नहीं हो रहा था. लेकिन पुरवई सुनते ही बिदक गई. ‘बोर हो गई मैं तो अपनी शादी की फिल्म देखतेदेखते… आज आप की शादी की फिल्म देखते हैं.’

‘हमारी शादी की पर बेटी, वह तो कैसेट में है जो इस में चलती नहीं है,’ मैं ने समस्या रखी.

‘लाइए, मुझे दीजिए,’ पुरवई कैसेट ले कर चली गई और कुछ ही देर में उस की सीडी बनवा कर ले आई. उस के बाद जितने मजे ले कर उस ने हमारी शादी की फिल्म देखी उतने मजे से तो अपनी शादी की फिल्म भी नहीं देखीथी. हर रस्म पर उस के मजेदार कमेंट हाजिर थे.

‘आप को भी ये सब पापड़ बेलने पड़े थे…ओह, हम कब बदलेंगे…वाऊ पापा, आप कितने स्लिम और हैंडसम थे… ममा, आप कितना शरमा रही थीं.’

सच कहूं तो फिल्म से ज्यादा हम ने उस की कमेंटरी को एंजौय किया, क्योंकि उस में कहीं कोई बनावटीपन नहीं था. ऐसा लग रहा था कमेंट उस की जबां से नहीं दिल से उछलउछल कर आ रहे थे. अगले दिन मूवी, फिर उस के अगले दिन बिग बाजार. वक्त कैसे गुजर रहा था, पता ही नहीं चल रहाथा.  अगले दिन पुरवई की फ्लाइट थी. दीपक मुंबई पहुंच चुका था. रात को बिस्तर पर लेटी तो आंखें बंद करने का मन नहीं हो रहा था,क्योंकि जागती आंखों से दिख रहा सपना ज्यादा हसीन लग रहा था. आंखें बंद कर लीं और यह सपना चला गया तो पास लेटे मनोहर भी शायद यही सोच रहे थे. तभी तो उन्होंने मेरी ओर करवट बदली और बोले, ‘कल पुरवई चली जाएगी. घर कितना सूना लगेगा 4 दिनों में ही उस ने घर में कैसी रौनक ला दी है मैं खुद अपने अंदर बहुत बदलाव महसूस कर रहा हूं्…जानती हो तनु, बचपन में  मैं ने घर में बाबूजी का कड़ा अनुशासन देखा है. जब वे जोर से बोलने लगते थे तो हम भाइयों के हाथपांव थरथराने  लगते थे.

‘बड़े हुए, शादी हुई, बच्चे हो जाने के बाद तक मेरे दिलोदिमाग पर उन का अनुशासन हावी रहा. जब उन का देहांत हुआ तो मुझे लगा अब मैं कैसे जीऊंगा क्योंकि मुझे हर काम उन से पूछ कर करने की आदत हो गईथी. मुझे पता ही नहीं चला इस दरम्यान कब उन का गुस्सा, उन की सख्ती मेरे अंदर समाविष्ट होते चले गए थे. मैं धीरेधीरे दूसरा बाबूजी बनता चला गया. जिस तरह मेरे बचपन के शौक निशानेबाजी, मूवी देखना आदि दम तोड़ते चले गए थे ठीक वैसे ही मैं ने दीपक के, तुम्हारे सब के शौक कुचलने का प्रयास किया. मुझे इस से एक अजीब आत्म- संतुष्टि सी मिलती थी. तुम चाहो तो इसे एक मानसिक बीमारी कह सकती हो. पर समस्या बीमारी की नहीं उस के समाधान की है.

‘पुरवई ने जितनी नरमाई से मेरे अंदर के सोए हुए शौक जगाए हैं और जितने प्यार से मेरे अंदर के तानाशाह को घुटने टेकने पर मजबूर किया है, मैं उस का एहसानमंद हो गया हूं. मैं ‘मैं’ के फोबिया से बाहर निकल कर खुली हवा में सांस ले पा रहा हूं. सच तो यह है तनु, बंदिशें मैं ने सिर्फ दीपक और तुम पर ही नहीं लगाईथीं, खुद को भी वर्जनाओं की जंजीरों में जकड़ रखा था. पुरवई से भले ही यह सब अनजाने में हुआ हैक्योंकि उस ने मेरा पुराना रूप तो देखा ही नहीं है, लेकिन मैं अपने इस नए रूप से बेहद प्यार करने लगा हूं और तुम्हारी आंखों मेंभी यह प्यार स्पष्ट देख सकता हूं.’

‘मैं तो आप से हमेशा से ही प्यार करती आ रही हूं,’ मैं ने टोका.

‘वह रिश्तों की मर्यादा में बंधा प्यार था जो अकसर हर पतिपत्नी में देखने को मिल जाता है. लेकिन इन दिनों मैं तुम्हारी आंखों में जो प्यार देख रहा हूं, वह प्रेमीप्रेमिका वाला प्यार है, जिस का नशा अलग ही है.’

‘अच्छा, अब सो जाइए. सवेरे पुरवई को रवाना करना है.’

मैं ने मनोहर को तो सुला दिया लेकिन खुद सोने सेडरने लगी. जागती आंखों से देख रही इस सपने को तो मेरी आंखें कभी नजरों से ओझल नहीं होने देना चाहेंगी. शायद मेरी आंखों में अभी कुछ और सपने सजने बाकी थे.  पुरवई को विदा करने के चक्कर में मैं  हर काम जल्दीजल्दी निबटा रही थी. भागतेदौड़ते नहाने घुसी तो पांव फिसल गया और मैं चारोंखाने चित जमीन पर गिर गई. पांव में फ्रैक्चर हो गया था. मनोहर और पुरवई मुझे ले कर अस्पताल दौड़े. पांव में पक्का प्लास्टर चढ़ गया. पुरवई कीफ्लाइट का वक्त हो गया था. मगर  वह मुझे इस हाल में छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हो रही थी. उस ने दीपक को फोन कर के सब स्थिति बता दी. साथ ही अपनी टिकट भी कैंसल करवा दी. मुझे बहुत दुख हो रहा था.

‘मेरी वजह से सब चौपट हो गया. अब दोबारा टिकट बुक करानी होगी. दीपक अलग परेशान होगा. डाक्टर, दवा आदि पर भी कितना खर्च हो गया. सब मेरी जरा सी लापरवाही की वजह से…घर बैठे मुसीबत बुला ली मैं ने…’

‘आप अपनेआप को क्यों कोस रही हैं ममा यह तो शुक्र है जरा से प्लास्टर से ही आप ठीक हो जाएंगी. और कुछ हो जाता तो रही बात खर्चे की तो यदि ऐसे वक्त पर भी पैसा खर्च नहीं किया गया तो फिर वह किस काम का यदि आप के इलाज में कोई कमी रह जाती, जिस का फल आप को जिंदगी भर भुगतना पड़ता तो यह पैसा क्या काम आता हाथपांव सलामत हैं तो इतना पैसा तो हम चुटकियों में कमा लेंगे.’

उस की बातों से मेरा मन वाकई बहुत हल्का हो गया. पीढि़यों की सोच का टकराव मैं कदमकदम पर महसूस कर रही थी. नई पीढ़ी लोगों के कहने की परवा नहीं करती. अपने दिल की आवाज सुनना पसंद करती है. पैसा खर्च करते वक्त वह हम जैसा आगापीछा नहीं सोचती क्योंकि वह इतना कमाती है कि खर्च करना अपना हक समझती है.  घर की बागडोर दो जोड़ी अनाड़ी हाथों में आ गईथी. मनोहर कोघर के कामों का कोई खास अनुभव नहीं था. इमरजेंसी में परांठा, खिचड़ी आदि बना लेतेथे. उधर पुरवई भी पहले पढ़ाई और फिर नौकरी में लग जाने के कारण ज्यादा कुछ नहीं जानती थी. पर इधर 4 दिन मेरे साथ रसोई में लगने से दाल, शक्कर के डब्बे तो पता चले ही थे साथ ही सब्जी, पुलाव आदि में भी थोड़ेथोड़े हाथ चलने लग गए थे. वरना रसोई की उस की दुनिया भी मैगी, पास्ता और कौफी तक ही सीमित थी. मुझ से पूछपूछ कर दोनों ने 2 दिन पेट भरने लायक पका ही लिया था. तीसरे दिन खाना बनाने वाली बाई का इंतजाम हो गया तो सब ने राहत की सांस ली. लेकिन इन 2 दिनों में ही दोनों ने रसोई को अच्छीखासी प्रयोगशाला बना डालाथा. अब जबतब फोन पर उन प्रयोगों को याद कर हंसी से दोहरे होते रहते हैं.

तीसरे दिन दीपक भी आ गया था. 2 दिन और रुक कर वे दोनों चले गए थे. उन की विदाई का दृश्य याद कर के आंखें अब भी छलक उठती हैं. दीपक तो पहले पढ़ाई करते हुए और फिर नौकरी लग जाने पर अकसर आताजाता रहता है पर विदाई के दर्द की जो तीव्र लहर हम उस वक्त महसूस कर रहे थे, वह पिछले सब अनुभवों से जुदा थी. ऐसा लग रहा था बेटी विदा हो कर, बाबुल की दहलीज लांघ कर दूर देश जा रही है. पुरवई की जबां पर यह बात आ भी गई थी, ‘जुदाई के ऐसे मीठे से दर्द की कसक एक बार तब उठी थी जब कुछ दिन पूर्व मायके से विदा हुई थी. तब एहसास भी नहीं था कि इतने कम अंतराल में ऐसा मीठा दर्द दोबारा सहना पड़ जाएगा.’

पहली बार मुझे पीढि़यों की सोच टकराती नहीं, हाथ मिलाती महसूस हो रही थी. भावनाओं के धरातल पर आज भी युवा प्यार के बदले प्यार देना जानते हैं और विरह के क्षणों में उन का भी दिल भर आता है.पुरवई चली गई. अब ठंडी हवा का हर झोंका घर में उस की उपस्थिति का आभास करा जाता है.

Hindi Fiction Stories : बस तुम्हारी हां की देर है

Hindi Fiction Stories : अपनी शादी की बात सुन कर दिव्या फट पड़ी. कहने लगी, ‘‘क्या एक बार मेरी जिंदगी बरबाद कर के आप सब को तसल्ली नहीं हुई जो फिर से… अरे छोड़ दो न मुझे मेरे हाल पर. जाओ, निकलो मेरे कमरे से,’’ कह कर उस ने अपने पास पड़े कुशन को दीवार पर दे मारा. नूतन आंखों में आंसू लिए कुछ न बोल कर कमरे से बाहर आ गई.

आखिर उस की इस हालत की जिम्मेदार भी तो वे ही थे. बिना जांचतड़ताल किए सिर्फ लड़के वालों की हैसियत देख कर उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को उस हैवान के संग बांध दिया. यह भी न सोचा कि आखिर क्यों इतने पैसे वाले लोग एक साधारण परिवार की लड़की से अपने बेटे की शादी करना चाहते हैं? जरा सोचते कि कहीं दिव्या के दिल में कोई और तो नहीं बसा है… वैसे दबे मुंह ही, पर कितनी बार दिव्या ने बताना चाहा कि वह अक्षत से प्यार करती है, लेकिन शायद उस के मातापिता यह बात जानना ही नहीं चाहते थे. अक्षत और दिव्या एक ही कालेज में पढ़ते थे. दोनों अंतिम वर्ष के छात्र थे. जब कभी अक्षत दिव्या के संग दिख जाता, नूतन उसे ऐसे घूर कर देखती कि बेचारा सहम उठता. कभी उस की हिम्मत ही नहीं हुई यह बताने की कि वह दिव्या से प्यार करता है पर मन ही मन दिव्या की ही माला जपता रहता था और दिव्या भी उसी के सपने देखती रहती थी.

‘‘नीलेश अच्छा लड़का तो है ही, उस की हैसियत भी हम से ऊपर है. अरे, तुम्हें तो खुश होना चाहिए जो उन्होंने अपने बेटे के लिए तुम्हारा हाथ मांगा, वरना क्या उन के बेटे के लिए लड़कियों की कमी है इस दुनिया में?’’ दिव्या के पिता मनोहर ने उसे समझाते हुए कहा था, पर एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि दिव्या मन से इस शादी के लिए तैयार है भी या नहीं.

मांबाप की मरजी और समाज में उन की नाक ऊंची रहे, यह सोच कर भारी मन से ही सही पर दिव्या ने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी. वह कभी नहीं चाहेगी कि उस के कारण उस के मातापिता दुखी हों. कहने को तो लड़के वाले बहुत पैसे वाले थे लेकिन फिर भी उन्होंने मुंहमांगा दहेज पाया. ‘अब हमारी एक ही तो बेटी है. हमारे बाद जो भी है सब उस का ही है. तो फिर क्या हरज है अभी दें या बाद में’ यह सोच कर मनोहर और नूतन उन की हर डिमांड पूरी करते रहे, पर उन में तो संतोष नाम की चीज ही नहीं थी. अपने नातेरिश्तेदार को वे यह कहते अघाते नहीं थे कि उन की बेटी इतने बड़े घर में ब्याह रही है. लोग भी सुन कर कहते कि भई मनोहर ने तो इतने बड़े घर में अपनी बेटी का ब्याह कर गंगा नहा ली. दिल पर पत्थर रख दिव्या भी अपने प्यार को भुला कर ससुराल चल पड़ी. विदाई के वक्त उस ने देखा एक कोने में खड़ा अक्षत अपने आंसू पोंछ रहा था.

ससुराल पहुंचने पर नववधू का बहुत स्वागत हुआ. छुईमुई सी घूंघट काढ़े हर दुलहन की तरह वह भी अपने पति का इंतजार कर रही थी. वह आया तो दिव्या का दिल धड़का और फिर संभला भी़ लेकिन सोचिए जरा, क्या बीती होगी उस लड़की पर जिस की सुहागरात पर उस का पति यह बोले कि वह उस के साथ सबंध बनाने में सक्षम नहीं है और वह इस बात के लिए उसे माफ कर दे. सुन कर धक्क रह गया दिव्या का कलेजा. आखिर क्या बीती होगी उस के दिल पर जब उसे यह पता चला कि उस का पति नामर्द है और धोखे में रख कर उस ने उसे ब्याह लिया?

पर क्यों, क्यों जानबूझ कर उस के साथ ऐसा किया गया? क्यों उसे और उस के परिवार को धोखे में रखा गया? ये सवाल जब उस ने अपने पति से पूछे तो कोई जवाब न दे कर वह कमरे से बाहर चला गया. दिव्या की पूरी रात सिसकतेसिसकते ही बीती. उस की सुहागरात एक काली रात बन कर रह गई. सुबह नहाधो कर उस ने अपने बड़ों को प्रमाण किया और जो भी बाकी बची रस्में थीं, उन्हें निभाया. उस ने सोचा कि रात वाली बात वह अपनी सास को बताए और पूछे कि क्यों उस के जीवन के साथ खिलवाड़ किया गया?

लेकिन उस की जबान ही नहीं खुली यह कहने को. कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे कि करे तो करे क्या, क्योंकि रिसैप्शन पर भी सब लोगों के सामने नीलेश उस के साथ ऐसे बिहेव कर रहा था जैसे उन की सुहागरात बहुत मजेदार रही. हंसहंस कर वह अपने दोस्तों को कुछ बता रहा था और वे चटकारे लेले कर सुन रहे थे. दिव्या समझ गई कि शायद उस के घर वालों को नीलेश के बारे में कुछ पता न हो. उन सब को भी उस ने धोखे में रखा हुआ होगा.

पगफेर पर जब मनोहर उसे लिवाने आए और पूछने पर कि वह अपनी ससुराल में खुश है, दिव्या खून का घूंट पी कर रह गई. फिर उस ने वही जवाब दिया जिस से मनोहर और नूतन को तसल्ली हो. एक अच्छे पति की तरह नीलेश उसे उस के मायके से लिवाने भी आ गया. पूरे सम्मान के साथ उस ने अपने साससुसर के पांव छूए और कहा कि वे दिव्या की बिलकुल चिंता न करें, क्योंकि अब वह उन की जिम्मेदारी है. धन्य हो गए थे मनोहर और नूतन संस्कारी दामाद पा कर. लेकिन उन्हें क्या पता कि सचाई क्या है? वह तो बस दिव्या ही जानती थी और अंदर ही अंदर जल रही थी.

दिव्या को अपनी ससुराल आए हफ्ते से ऊपर का समय हो चुका था पर इतने दिनों में एक बार भी नीलेश न तो उस के करीब आया और न ही प्यार के दो बोल बोले, हैरान थी वह कि आखिर उस के साथ हो क्या रहा है और वह चुप क्यों है. बता क्यों नहीं देती सब को कि नीलेश ने उस के साथ धोखा किया है? लेकिन किस से कहे और क्या कहे, सोच कर वह चुप हो जाती.

एक रात नींद में ही दिव्या को लगा कि कोई उस के पीछे सोया है. शायद नीलेश है, उसे लगा लेकिन जिस तरह से वह इंसान उस के शरीर पर अपना हाथ फिरा रहा था उसे शंका हुई. जब उस ने लाइट जला कर देखा तो स्तब्ध रह गई, क्योंकि वहां नीलेश नहीं बल्कि उस का पिता था जो आधे कपड़ों में उस के बैड पर पड़ा उसे गंदी नजरों से घूर रहा था.

‘‘आ…आप, आप यहां मेरे कमरे में… क… क्या, क्या कर रहे हैं पिताजी?’’ कह कर वह अपने कपड़े ठीक करने लगी. लेकिन जरा उस का ढीठपन तो देखो, उस ने तो दिव्या को खींच कर अपनी बांहों में भर लिया और उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करने लगा. दिव्या को अपनी ही आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उस का ससुर ही उस के साथ… ‘‘मैं, मैं आप की बहू हूं. फिर कैसे आप मेरे साथ…’’ वह डर के मारे हकलाते हुए बोली.

‘‘ बहू,’’ ठहाके मार कर हंसते हुए वह बोला, ‘‘क्या तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें मुझ से ही वारिस पैदा करना है और इसीलिए ही तो हम तुम्हें इस घर में बहू बना कर लाए हैं.’’ सुन कर दिव्या को लगा जैसे किसी ने उस के कानों में पिघला शीशा डाल दिया हो. वह कहने लगी, ‘‘यह कैसी पागलों सी बातें कर रहे हैं आप? क्या शर्मोहया बेच खाई है?’’

पर वह कहां कुछ सुननेसमझने वाला था. फिर उस ने दिव्या के ऊपर झपट्टा मारा. लेकिन उस ने अपनेआप को उस दरिंदे से बचाने के लिए जैसे ही दरवाजा खोला, सामने ही नीलेश और उस की मां खड़े मिले. घबरा कर वह अपनी सास से लिपट गई और रोते हुए कहने लगी कि कैसे उस के ससुर उस के साथ जबरदस्ती करना चाह रहे हैं… उसे बचा ले. ‘‘बहुत हो चुका यह चूहेबिल्ली का खेल… कान खोल कर सुन लो तुम कि ये सब जो हो रहा है न वह सब हमारी मरजी से ही हो रहा है और हम तुम्हें इसी वास्ते इस घर में बहू बना कर लाए हैं. ज्यादा फड़फड़ाओ मत और जो हो रहा है होने दो.’’ अपनी सास के मुंह से भी ऐसी बात सुन कर दिव्या का दिमाग घूम गया. उसे लगा वह बेहोश हो कर गिर पड़ेगी. फिर अपनेआप को संभालते हुए उस ने कहा, ‘‘तो क्या आप को भी पता है कि आप का बेटा…’’

‘‘हां और इसीलिए तो तुम जैसी साधारण लड़की को हम ने इस घर में स्थान दिया वरना लड़कियों की कमी थी क्या हमारे बेटे के लिए.’’ ‘‘पर मैं ही क्यों… यह बात हमें बताई

क्यों नहीं गईं. ये सारी बातें शादी के पहले… क्यों धोखे में रखा आप सब ने हमें? बताइए, बताइए न?’’ चीखते हुए दिव्या कहने लगी, ‘‘आप लोगों को क्या लगता है मैं यह सब चुपचाप सहती रहूंगी? नहीं, बताऊंगी सब को तुम सब की असलियत?’’

‘‘क्या कहा, असलियत बताएगी? किसे? अपने बाप को, जो दिल का मरीज है…सोच अगर तेरे बाप को कुछ हो गया तो फिर तेरी मां का क्या होगा? कहां जाएगी वह तुझे ले कर? दुनिया को तो हम बताएंगे कि कैसे आते ही तुम ने घर के मर्दों पर डोरे डलने शुरू कर दिए और जब चोरी पकड़ी गई तो उलटे हम पर ही दोष मढ़ रही है,’’ दिव्या के बाल खींचते हुए नीलेश कहने लगा, ‘‘तुम ने क्या सोचा कि तू मुझे पसंद आ गई थी, इसलिए हम ने तुम्हारे घर रिश्ता भिजवाया था? देख, करना तो तुम्हें वही पड़ेगा जो हम चाहेंगे, वरना…’’ बात अधूरी छोड़ कर उस ने उसे उस के कमरे से बाहर निकाल दिया. पूरी रात दिव्या ने बालकनी में रोते हुए बिताई. सुबह फिर उस की सास कहने लगी, ‘‘देखो बहू, जो हो रहा है होने दो… क्या फर्क पड़ता है कि तुम किस से रिश्ता बना रही हो और किस से नहीं. आखिर हम तो तुम्हें वारिस जनने के लिए इस घर में बहू बना कर लाए हैं न.’’

इस घर और घर के लोगों से घृणा होने लगी थी दिव्या को और अब एक ही सहारा था उस के पास. उस के ननद और ननदोई. अब वे ही थे जो उसे इस नर्क से आजाद करा सकते थे. लेकिन जब उन के मुंह से भी उस ने वही बातें सुनीं तो उस के होश उड़ गए. वह समझ गई कि उस की शादी एक साजिश के तहत हुई है. 3 महीने हो चुके थे उस की शादी को. इन 3 महीनों में एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब दिव्या ने आंसू न बहाए हों. उस का ससुर जिस तरह से उसे गिद्ध दृष्टि से देखता था वह सिहर उठती थी. किसी तरह अब तक वह अपनेआप को उस दरिंदे से बचाए थी. इस बीच जब भी मनोहर अपनी बेटी को लिवाने आते तो वे लोग यह कह कर उसे जाने से रोक देते कि अब उस के बिना यह घर नहीं चल सकता. उन के कहने का मतलब था कि वे लोग दिव्या को बहुत प्यार करते हैं. इसीलिए उसे कहीं जाने नहीं देना चाहते हैं.

मन ही मन खुशी से झूम उठते मनोहर यह सोच कर कि उन की बेटी का उस घर में कितना सम्मान हो रहा है. लेकिन असलियत से वे वाकिफ नहीं थे कि उन की बेटी के साथ इस घर में क्याक्या हो रहा है…दिव्या भी अपने पिता के स्वास्थ्य के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती थी, इसलिए चुप थी. लेकिन उस रात तो हद हो गई जब उसे उस के ससुर के साथ एक कमरे में बंद कर दिया गया. वह चिल्लाती रही पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. क्या करती बेचारी? उठा कर फूलदान उस दरिंदे के सिर पर दे मारा और जब उस के चिल्लाने की आवाजों से वे सब कमरे में आए तो वह सब की नजरें बचा कर घर से भाग निकली. अपनी बेटी को यों अचानक अकेले और बदहवास अवस्था में देख कर मनोहर और नूतन हैरान रह गए, फिर जब उन्हें पूरी बात का पता चली तो जैसे उन के पैरों तले की जमीन ही खिसक गई. आननफानन में वे अपनी बेटी की ससुराल पहुंच गए और जब उन्होंने उन से अपनी बेटी के जुल्मों का हिसाब मांगा और कहा कि क्यों उन्होंने उन्हें धोखे में रखा तो वे उलटे कहने लगे कि ऐसी कोई बात नहीं. उन्होंने ही अपनी पागल बेटी को उन के बेटे के पल्ले बांध दिया. धोखा तो उन के साथ हुआ है.

‘‘अच्छा तो फिर ठीक है, आप अपने बेटे की जांच करवाएं कि वह नपुंसक है या नहीं और मैं भी अपनी बेटी की दिमागी जांच करवाता हूं. फिर तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा न? तुम लोग क्या समझे कि हम चुप बैठ जाएंगे? नहीं, इस भ्रम में मत रहना. तुम सब ने अब तक मेरी शालीनता देखी है पर अब मैं तुम्हें दिखाऊंगा कि मैं क्या कर सकता हूं. चाहे दुनिया की सब से बड़ी से बड़ी अदालत तक ही क्यों न जाना पड़े हमें, पर छोड़ूंगा नहीं…तुम सब को तो जेल होगी ही और तुम्हारा बाप, उसे तो फांसी न दिलवाई मैं ने तो मेरा भी नाम मनोहर नहीं,’’ बोलतेबोलते मनोहर का चेहरा क्रोध से लाल हो गया. मनोहर की बातें सुन कर सब के होश उड़ गए, क्योंकि झूठे और गुनहगार तो वे लोग थे ही अत: दिन में ही तारे नजर आने लगे उन्हें.

‘‘क्या सोच रहे हो रोको उसे. अगर वह पुलिस में चला गया तो हम में से कोई नहीं बचेगा और मुझे फांसी पर नहीं झूलना.’’ अपना पसीना पोछते हुए नीलेश के पिता ने कहा. उन लोगों को लगने लगा कि अगर यह बात पुलिस तक गई तो इज्जत तो जाएगी ही, उन का जीवन भी नहीं बचेगा. बहुत गिड़गिड़ाने पर कि वे जो चाहें उन से ले लें, जितने मरजी थप्पड़ मार लें, पर पुलिस में न जाएं.

‘कहीं पुलिसकानून के चक्कर में उन की बेटी का भविष्य और न बिगड़ जाए,’ यह सोच कर मनोहर को भी यही सही लगा, लेकिन उन्होंने उन के सामने यह शर्त रखी कि नीलेश दिव्या को जल्द से जल्द तलाक दे कर उसे आजाद कर दे. मरता क्या न करता. बगैर किसी शर्त के नीलेश ने तलाक के पेपर साइन कर दिए, पहली सुनवाई में ही फैसला हो गया.

वहां से तो दिव्या आजाद हो गई, लेकिन एक अवसाद से घिर गई. जिंदगी पर से उस का विश्वास उठ गया. पूरा दिन बस अंधेरे कमरे में पड़ी रहती. न ठीक से कुछ खाती न पीती और न ही किसी से मिलतीजुलती. ‘कहीं बेटी को कुछ हो न जाए, कहीं वह कुछ कर न ले,’ यह सोचसोच कर मनोहर और नूतन की जान सूखती रहती. बेटी की इस हालत का दोषी वे खुद को ही मानने लगे थे. कुछ समझ नहीं आ रहा था उन्हें कि क्या करें जो फिर से दिव्या पहले की तरह हंसनेखिलखिलाने लगे. अपनी जिंदगी से उसे प्यार हो जाए. ‘‘दिव्या बेटा, देखो तो कौन आया है,’’ उस की मां ने लाइट औन करते हुए कहा तो उस ने नजरें उठा कर देखा पर उस की आंखें चौंधिया गईं. हमेशा अंधेरे में रहने और एकाएक लाइट आंखों पर पड़ने के कारण उसे सही से कुछ नहीं दिख रहा था, पर जब उस ने गौर से देखा तो देखती रह गई, ‘‘अक्षत,’’ हौले से उस के मुंह से निकला. नूतन और मनोहर जानते थे कि कभी दिव्या और अक्षत एकदूसरे से प्यार करते थे पर कह नहीं पाए. शायद उन्हें बोलने का मौका ही नहीं दिया और खुद ही वे उस की जिंदगी का फैसला कर बैठे. ‘लेकिन अब अक्षत ही उन की बेटी के होंठों पर मुसकान बिखेर सकता था. वही है जो जिंदगी भर दिव्या का साथ निभा सकता है,’ यह सोच कर उन्होंने अक्षत को उस के सामने ला कर खड़ा कर दिया.

बहुत सकुचाहट के बाद अक्षत ने पूछा, ‘‘कैसी हो दिव्या?’’ मगर उस ने कोई जवाब नहीं दिया. ‘‘लगता है मुझे भूल गई? अरे मैं अक्षत हूं अक्षत…अब याद आया?’’ उस ने उसे हंसाने के इरादे से कहा पर फिर भी उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

धीरेधीरे अक्षत उसे पुरानी बातें, कालेज के दिनों की याद दिलाने लगा. कहने लगा कि कैसे वे दोनों सब की नजरें बचा कर रोज मिलते थे. कैसे कैंटीन में बैठ कर कौफी पीते थे. अक्षत उसे उस के दुख भरे अतीत से बाहर लाने की कोशिश कर रहा था, पर दिव्या थी कि बस शून्य में ही देखे जा रही थी.

दिव्या की ऐसी हालत देख कर अक्षत की आंखों में भी आंसू आ गए. कहने लगा, ‘‘आखिर तुम्हारी क्या गलती है दिव्या जो तुम ने अपनेआप को इस कालकोठरी में बंद कर रखा है? ऐसा कर के क्यों तुम खुद को सजा दे रही हो? क्या अंधेरे में बैठने से तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी या जिस ने तुम्हारे साथ गलत किया उसे सजा मिल जाएगी, बोलो?’’

‘‘तो मैं क्या करूं अक्षत, क्या कंरू मैं? मैं ने तो वही किया न जो मेरे मम्मीपापा ने चाहा, फिर क्या मिला मुझे?’’ अपने आंसू पोंछते हुए दिव्या कहने लगी. उस की बातें सुन कर नूतन भी फफकफफक कर रोने लगीं. दिव्या का हाथ अपनी दोनों हथेलियों में दबा कर अक्षत कहने लगा, ‘‘ठीक है, कभीकभी हम से गलतियां हो जाती हैं. लेकिन इस का यह मतलब तो नहीं है कि हम उन्हीं गलतियों को ले कर अपने जीवन को नर्क बनाते रहें… जिंदगी हम से यही चाहती है कि हम अपने उजाले खुद तय करें और उन पर यकीन रखें. जस्ट बिलीव ऐंड विन. अवसाद और तनाव के अंधेरे को हटा कर जीवन को खुशियों के उजास से भरना कोई कठिन काम नहीं है, बशर्ते हम में बीती बातों को भूलने की क्षमता हो.

‘‘दिव्या, एक डर आ गया है तुम्हारे अंदर… उस डर को तुम्हें बाहर निकालना होगा. क्या तुम्हें अपने मातापिता की फिक्र नहीं है कि उन पर क्या बीतती होगी, तुम्हारी ऐसी हालत देख कर. अरे, उन्होंने तो तुम्हारा भला ही चाहा था न… अपने लिए, अपने मातापिता के लिए, तुम्हें इस गंधाते अंधेरे से निकलना ही होगा दिव्या…’’

अक्षत की बातों का कुछकुछ असर होने लगा था दिव्या पर. कहने लगी, ‘‘हम अपनी खुशियां, अपनी पहचान, अपना सम्मान दूसरों से मांगने लगते हैं. ऐसा क्यों होता है अक्षत?’’ ‘‘क्योंकि हमें अपनी शक्ति का एहसास नहीं होता. अपनी आंखें खोल कर देखो गौर से…तुम्हारे सामने तुम्हारी मंजिल है,’’ अक्षत की बातों ने उसे नजर उठा कर देखने पर मजबूर कर दिया. जैसे वह कह रहा हो कि दिव्या, आज भी मैं उसी राह पर खड़ा तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं, जहां तुम मुझे छोड़ कर चली गई थी. बस तुम्हारी हां की देर है दिव्या. फिर देखो कैसे मैं तुम्हारी जिंदगी खुशियों से भर दूंगा.

अक्षत के सीने से लग दिव्या बिलखबिलख कर रो पड़ी जैसे सालों का गुबार निकल रहा हो उस की आंखों से बह कर. अक्षत ने भी उसे रोने दिया ताकि उस के सारे दुखदर्द उन आंसुओं के सहारे बाहर निकल जाएं और वह अपने डरावने अतीत से बाहर निकल सके. बाहर खड़े मनोहर और नूतन की आंखों से भी अविरल आंसू बहे जा रहे थे पर आज ये खुशी के आंसू थे.

Hindi Kahaniyan : दर्प – जब एक झूठ बना कविता की जिंदगी का कड़वा सच

Hindi Kahaniyan :  आज पूरे दफ्तर में अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी. कई हफ्तों से चल रही चटपटी गपशप को अचानक विराम लग गया था. सुबह दफ्तर में आते ही एकदूसरे से मिलने पर हाय, हैलो,  नमस्ते की जगह हर किसी की जबान पर निदेशक, महेश पुरी का ही नाम था. हर एक के हाथ में अखबार था जिस में महेश पुरी की आत्महत्या की खबर छपी थी. महेश पुरी अचानक ऐसा कदम उठा लेंगे, ऐसा न उन के घर वालों ने सोचा था न ही दफ्तर वालों ने.  वैसे तो इस दुनिया से जाने वालोें की कभी कोई बुराई नहीं करता, लेकिन महेश पुरी तो वास्तव में एक सज्जन व्यक्ति थे. उन के साथ काम करने वालों के दिल में उन के लिए इज्जत और सम्मान था. 30 वर्षों के कार्यकाल में उन से कभी किसी को कोई शिकायत नहीं रही. महेश पुरी बहुत ही सुलझे हुए, सभ्य तथा सुसंस्कृत व्यक्ति थे. कम बोलना, अपने मातहत काम करने वालों की मदद करना, सब के सुखदुख में शामिल होना तथा दफ्तर में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाए रखना उन के व्यक्तित्व के विशेष गुण थे.

लगभग 6 महीने पहले उन की ब्रांच में कविता तबादला हो कर आई थी. कविता ज्यादा दिनों तक एक जगह टिक कर काम कर ही नहीं सकती थी. वह अपने आसपास किस्से, कहानियों, दोस्तों और संबंधों का इतना मजबूत जाल बुन लेती कि साथ काम करने वाले कर्मचारी दफ्तर और घर को भूल कर उसी में उलझ जाते. लेकिन जब विभाग के काम और अनुशासन की स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती तो कविता का वहां से तबादला कर दिया जाता.  कविता जिस भी विभाग में जाती, वहां काम करने वाले पुरुष मानो हवा में उड़ने लगते. हंसहंस कर सब से बातें करना, चायपार्टियां करते रहना, अपनी कुरसी छोड़ कर किसी भी सीट पर जा बैठना कविता के स्वभाव में शामिल था. ऐसे में दिन का पता ही नहीं लगता कब पंख लगा कर उड़ जाता. कविता चीज ही ऐसी थी, खूबसूरत, जवान, पढ़ीलिखी तथा आधुनिक विचारधारा  वाली फैशनेबल लड़की.

नित नए फैशन के कपड़े पहन कर आना, भड़कीला मेकअप, ऊंची हील के सैंडिल, कंधों तक झूलते घने काले केश, गोराचिट्टा रंग, गठा शरीर और 5 फुट 3 इंच का कद, ऐसी मोहक छवि और ऐसा व्यवहार भला किसे आकर्षित नहीं करेगा?  सहकर्मी भी दिनभर उस से रस लेले कर बातें करते. कोई कितना भी कम बोलने वाला हो, कविता उसे कुछ ही दिनों में रास्ते पर ले आती और वह भी दिनभर बतियाने लगता. वह जिस की भी सीट पर जाती, उस सहकर्मी की गरदन तन जाती लेकिन शेष सहकर्मियों की गरदनें भले ही फाइलों पर झुकी हों परंतु उन के कान उन दोनों की बातों पर ही लगे रहते.

इतना ही नहीं, कविता जिस सैक्शन में होती वहां के काम की रिपोर्ट खराब होने लगती क्योंकि उस के रहते दफ्तर में काम करने का माहौल ही नहीं बन पाता. बस पुरुष कर्मचारियों में एक होड़ सी लगी रहती कि कौन कविता को पहले चाय क औफर करता है और कौन लंच का. किस का निमंत्रण वह स्वीकार करती है और किस का ठुकरा देती है.  हालांकि कविता को उस के इस खुले व्यवहार के बारे में समझाने की कोशिश बेकार ही साबित होती फिर भी उस की खास सहेली, रमा उसे अकसर समझाने की कोशिश करती रहती. लेकिन कविता ने कभी उस की एक नहीं सुनी. कविता का मानना था कि यह 21वीं सदी है, औरत और मर्द दोनों के बराबर अधिकार हैं. ऐसे में मर्दों से बात करना, उन के साथ चाय पीने, कहीं आनेजाने में क्या हर्ज है? आदमी कोई खा थोड़े ही जाते हैं? वह उन से बात ही तो करती है, प्यार या शादी के वादे थोड़े करती है जो मुश्किल हो जाएगी.  रमा का कहना था कि यदि ऐसी बात है तो फिर वह आएदिन किसी न किसी की शिकायत कर के अपना तबादला क्यों करवाती रहती है? कविता सफाई देते हुए कहती कि इस में उस का क्या कुसूर, पुरुषों की सोच ही इतनी संकुचित है, कोई सुंदर लड़की हंस कर बात कर ले या उस के साथ चाय पी ले तो उन की कल्पना को पंख लग जाते हैं फिर न उन्हें अपनी उम्र का खयाल रहता है न समाज का.

कविता को अपनी खूबसूरती का, उसे देख कर मर्दों के आहें भरने का, कुछ पल उस के साथ बिताने की चाहत का अंदाजा था तभी तो उस ने जब जो चाहा, वह पाया. आउट औफ टर्न प्रोमोशन, आउट आफ टर्न मकान और स्वच्छंद जीवन.  अगर कभी कोई उपहासपरिहास में मर्यादा की सीमाएं लांघ भी जाए तो भी कविता ने बुरा नहीं माना लेकिन कौन सी बात कविता को बुरी लग जाए और पुरुष सहकर्मी की शिकायत ऊपर तक पहुंच जाए, अनुमान लगाना कठिन था. परिणामस्वरूप कविता का तबादला दूसरी जगह कर दिया जाता. दफ्तर भी कविता की शिकायतें सुनसुन कर और तबादले करकर के परेशान हो गया था.

महेश पुरी के विभाग में कविता का तबादला शायद दफ्तर की सोचीसमझी नीति के तहत हुआ था. इधर पिछले कुछ वर्षों से कविता की शिकायतें बढ़ती जा रही थीं. दफ्तर के उच्च अधिकारियों के लिए वह एक सिरदर्द बनती जा रही थी. उधर, पूरे दफ्तर में महेश पुरी की सज्जनता और शराफत से सभी परिचित थे. कविता को उन के विभाग में भेज कर दफ्तर ने सोचा होगा कि कुछ दिन बिना किसी झंझट के बीत जाएंगे.  कविता भी इस विभाग में पहले से कहीं अधिक खुश थी. कविता की दृष्टि से देखा जाए तो इस के कई कारण थे. पहला, यहां कोई दूसरी महिला कर्मचारी नहीं थी. महिला सहकर्मी कविता को अच्छी नहीं लगती क्योंकि उस का रोकनाटोकना, समझाना या उस के व्यवहार को देख कर हैरान होना या बातें बनाना कविता को बिलकुल पसंद नहीं आता था. दूसरा मुख्य कारण था, इस ब्रांच के अधिकांश पुरुष कर्मचारी कुंआरे थे. उन के साथ उठनेबैठने, घूमनेफिरने, कैंटीन में जाने में उसे कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि उन्हें न अपनी बीवियों का डर होता और न ही शाम को घर भागने की जल्दी. अत: दोनों ओर से स्वच्छंदतापूर्ण व्यवहार का आदानप्रदान होता. यही कारण था कि कुछ ही दिनों में कविता जानपहचान की इतनी मंजिलें तय कर गई जो दूसरे विभागों में वह आज तक नहीं कर पाई थी.

एक दोपहर कविता महेश पुरी के कैबिन से बाहर निकली तो उस का चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ था. अपना आंचल ठीक करती, गुस्से से पैर पटकती, अंगरेजी में 2-4 मोटीमोटी गालियां देती वह कमरे से बाहर चली गई. पूरा स्टाफ यह दृश्य देख कर हतप्रभ रह गया. कोई कुछ भी न समझ पाया.  सब ने इतना अनुमान जरूर लगाया कि कविता ने दफ्तर के काम में कोई भारी भूल की है या फिर उस के खिलंदड़े व्यवहार और काम में ध्यान न देने के लिए डांट पड़ी है. दूसरी तरफ सब लोग इस बात पर भी हैरान थे कि साहब ने कविता को बुलाया तो था ही नहीं फिर उसे साहब के पास जाने की जरूरत ही क्या थी. फाइल तो चपरासी के हाथ भी भिजवाई जा सकती थी.

ब्रांच में अभी अटकलें ही लग रही थीं कि तभी कविता विजिलैंस के 3-4 उच्च अधिकारियों को साथ ले कर दनदनाती हुई अंदर आ गई. वे सभी महेश पुरी के कैबिन में दाखिल हो गए. मामला गंभीर हो चला था. कर्मचारियों की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. अधिकारियों का समूह अंदर क्या कर रहा था, किसी को कुछ पता नहीं लग रहा था? जैसेजैसे समय बीत रहा था, बाहर बैठे कर्मचारियों की बेचैनी बढ़ने लगी थी. वैसे तो वे सब फाइलों में सिर झुकाए बैठे थे, लेकिन ध्यान और कान दीवार के उस पार लगे थे.  कुछ देर बाद विजिलैंस अधिकारी बाहर, बिना किसी से कुछ बात किए, चले गए थे. उन के पीछेपीछे कविता भी बाहर आ गई. परेशान, गुस्से में लालपीली, बड़बड़ाती हुई अपनी सीट पर आ कर बैठ गई और कुछ लिखने लगी. किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि पूछे, आखिर हुआ क्या? पुरी साहब आखिर किस बात पर नाराज हैं? उन्होंने ऐसा क्या कह दिया?

कविता भी इस चुप्पी को सह नहीं पा रही थी. वह गुस्से से बोली, ‘समझता क्या है अपनेआप को? इस के अपने घर में कोई औरत नहीं है क्या?’

सुनते ही सब अवाक् रह गए. सब की नजरों में एक ही प्रश्न अटका था, ‘क्या महेश पुरी भी…?’ किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था. कविता फिर फुफकार उठी, ‘बहुत शरीफ दिखता है न? इस बुड्ढे को भी वही बीमारी है, जरा सुंदर लड़की देखी नहीं कि लार टपकने लगती है.’  इतना सुनते ही पूरी ब्रांच में फुसफुसाहट शुरू हो गई. कोई भी कविता की बात से सहमत नहीं लग रहा था. पुरी साहब किसी लड़की पर बुरी नजर रखें, यकीन नहीं हो रहा था, लेकिन कुछ लोग यह भी कह रहे थे कि कविता अकारण तो गुस्सा न करती.  कोई कारण तो होगा ही. पुरी के मामले में लोगों का यकीन डगमगाने लगा.  थोड़ी देर बाद मुंह नीचा किए महेश पुरी तेज कदमों से बाहर निकल गए और उस के बाद फिर कभी दफ्तर नहीं आए. उस दिन से प्रतिदिन दफ्तर में घंटों उस घटना की चर्चा होती. पुरी साहब और कविता के बारे में बातें होने लगीं. कविता के चाहने वाले भी दबी जबान में उस पर छींटाकशी करने से नहीं चूक रहे थे तो दूसरी तरफ वर्षों से दिल ही दिल में पुरी साहब को सज्जन मानने वाले भी उन पर कटाक्ष करने से नहीं चूक रहे थे. वास्तव में यह आग और घी का, लोहे और चुंबक का रिश्ता है, किसे दोष दें?

पुरी साहब तो उस दिन के बाद से कभी दफ्तर ही नहीं आए, लेकिन कविता शान से रोज दफ्तर आती, यहांवहां बैठती, जगहजगह पुरी साहब के विरुद्ध प्रचार करती रहती. दिन में कईकई बार वह इसी किस्से को सुनाती कि कैसे पुरी ने उस के साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश की. नाराज होते हुए सब से पूछती, ‘खूबसूरत होना क्या कोई गुनाह है?’ ‘क्या हर खूबसूरत लड़की बिकाऊ होती है?’ ‘नौकरी करती हूं तो क्या मेरी कोई इज्जत नहीं है?’ …वगैरह.   कविता की बातें मजमा इकट्ठा कर लेतीं. लोग पूरी हमदर्दी से सुनते फिर कुछ नमकमिर्च अपनी तरफ से लगाते और किस्सा आगे परोस देते. बात आग की तरह इस दफ्तर तक ही नहीं, दूर की ब्रांचों तक फैल गई. कविता के सामने हमदर्दी रखने वाले भी उस की पीठ पीछे छींटाकशी से बाज न आते.

दफ्तर में इस घटना के लिए एक जांच कमेटी नियुक्त कर दी गई थी. जांच कमेटी अपना काम कर रही थी. 1-2 बार पुरी साहब को भी दफ्तर में तलब किया गया. शर्मिंदगी से वे जांच कमेटी के आगे पेश होते और चुपचाप लौट जाते. वर्षों साथ रहे पुरी के पुराने दोस्तों की भी उन से बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी. किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि पुरी साहब से क्या कहें, क्या पूछें?  आज का अखबार पढ़ते ही रमा स्वयं को रोक न सकी और कविता के घर पहुंच गई. वह कुछ साल पहले महेश पुरी के साथ काम कर चुकी थी. कविता का चेहरा कुछ उतरा हुआ था. रमा को देख कर वह कुछ घबरा गई. गुस्साई रमा ने बिना किसी भूमिका के अखबार कविता के सामने पटकते हुए पूछा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘शर्म से मर गया और क्या?’’

‘‘कविता, तू कुछ भी कहती फिर, लेकिन मुझे लगता है उस दिन उस ने तेरी नहीं बल्कि तू ने उस की इज्जत पर हाथ डाला था. उस दिन से वह शर्मिंदा हुआ मुंह छिपाए बैठा था और तू है कि जगहजगह अपनी इज्जत आप उछालती फिर रही है.’’

‘‘मुंह क्यों नहीं छिपाता वह? उस ने काम ही ऐसा किया था?’’

‘‘क्या किया था उस ने?’’ पूछते हुए रमा ने अपनी आंखें कविता की आंखों में गड़ा दीं.

‘‘तुझे क्या लगता है, मैं झूठ बोल रही हूं?’’

‘‘नहींनहीं, इसीलिए तो पूछ रही हूं. आखिर क्या किया था उस ने?’’

‘‘उस ने…उस ने…क्या इतना काफी नहीं कि उस ने मेरी इज्जत पर हाथ डाला था. इस पर भी तू चाहती है कि मुझे चुप रहना चाहिए था? वह इज्जतदार था तो क्या मेरी कोई इज्जत नहीं है?’’

‘‘इसीलिए तो पूछ रही हूं कि आखिर उस ने किया क्या था?’’

‘‘अच्छी जिद है, तू नहीं जानती कि एक औरत की इज्जत क्या होती है?’’

‘‘इतना ही अपनी इज्जत का खयाल है तो उस दिन से जगहजगह…’’

‘‘फिर वही बात, अरे भई 21वीं सदी है. आज मर्द अपनी मनमानी करता रहे और औरत आवाज भी न उठाए?’’

‘‘21वीं सदी में ही क्यों अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का हक तो औरतों को हमेशा से है लेकिन कोई…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘लेकिन यह कि आवाज उठाने के लिए कोई बात तो हो? हवा देने के लिए चिंगारी तो हो.’’

‘‘रमा, तुझे तो हमेशा से मैं गलत ही लगती हूं. तू ही बता, एक औरत हो कर क्या मैं इतनी बड़ी बात कर सकती हूं?’’

‘‘यही तो मैं जानना चाहती हूं कि एक औरत हो कर तू कैसे…?’’

‘‘चल छोड़ रमा, अब तो वैसे भी किस्सा खत्म हो गया है.’’

‘‘एक भला आदमी अपने माथे पर कलंक ले कर जान देने पर मजबूर हो गया, उस का परिवार बेसहारा हो गया और तू कह रही है किस्सा खत्म हो गया?’’

‘‘बस कर रमा, मेरी दोस्त हो कर तुझे उस से हमदर्दी है? बस कर, मैं वैसे ही बहुत परेशान हूं.’’

‘‘तू क्यों परेशान होने लगी? उस दिन से आज तक दिन में बीसियों बार तू यही किस्सा तो सुना रही है. लोगों ने सुनसुन कर तिल का ताड़ बना दिया है. आज मैं पूछ रही हूं तो टाल रही है. बता तो सही, आखिर उस ने तेरे साथ क्या किया था?’’

‘‘उस ने वह किया था जो उसे नहीं करना चाहिए था,’’ कविता गुस्से से कांपने लगी.  ‘‘फिर भी क्या…?’’ रमा को जैसे जिद हो गई थी कि वह कविता के मुंह से सुन कर ही मानेगी.

कविता गुस्साई नागिन की भांति फुफकारने लगी.   रमा अभी भी निडर हो उस की आंखों में आंखें गड़ाए बैठी थी.

‘‘तू जानना चाहती है न उस ने मेरे साथ क्या किया था?’’

‘‘हां.’’

‘‘उस ने मेरा ऐसा अपमान किया था जो आज तक किसी मर्द ने नहीं किया. 6 महीने हो गए थे मुझे उस के सैक्शन में काम करते हुए, उस ने कभी आंख उठा कर मेरी तरफ नहीं देखा, इतनी उपेक्षा मेरे रंगरूप की, इतनी बेजारी मेरे बनावसिंगार से? जब से मैं ने होश संभाला है, मैं ने मर्दों को अपने पर मरते, फिदा होते पाया है. मैं जिस रास्ते से भी निकल जाऊं, मर्द मुझे मुड़ कर देखे बिना नहीं रहते. वह किस मिट्टी का बना हुआ था, मैं नहीं समझ पाई. अपना यह अपमान मैं नहीं सह पाई,’’ कविता एक सांस में कह गई.

‘‘क्या…?’’ रमा अवाक् रह गई.

‘‘जानती है उस दिन मैं ने नई डिजाइन की साड़ी पहनी हुई थी. सुबह से हर कोई मेरी तारीफ करता नहीं थक रहा था. मैं ने लंच तक 2 बार उस को बहाने से गुडमार्निंग की और वह बिना मेरी तरफ देखे जवाब में फुसफुसा कर चल दिया. लंच के बाद मैं एक जरूरी फाइल के बहाने से उस के कमरे में गई लेकिन उस ने आंख उठा कर नहीं देखा. अपने काम में व्यस्त बोला, रख दो.’’

‘‘कविता, तू पागल तो नहीं हो गई?’’ रमा लगभग चीख उठी.

‘‘तू नहीं समझेगी. पता है आज तक किसी ने मेरे साथ ऐसा नहीं किया.’’  चेतनाशून्य रमा वहां और खड़ी न रह सकी. काश कोई ऐसा आईना होता जो चेहरे के पीछे छिपी बदसूरती को दिखा पाता. आज कविता को उसी आईने की सख्त जरूरत है. कविता का यह कैसा प्रतिशोध था? रमा का जी चाह रहा था कि दफ्तर में जा कर जोरजोर से चिल्लाए और सब को बताए कि आखिर मरने वाले ने उस दिन कविता के साथ क्या किया था.  लेकिन कविता के झूठे आरोपों को महेश पुरी ने आत्महत्या कर के पुख्ता कर दिया था. कविता के झूठ को पुरी की आत्महत्या ने सच बना दिया था. झूठ इतना काला हो गया था कि अब उस पर सचाई का कोई भी रंग नहीं चढ़ सकता था. कहते हैं न, बारबार बोला गया झूठ भी सच लगने लगता है, कविता ने यह साबित कर दिया था.  देखना तो यह है कि झूठ के जिस बोझ को महेश पुरी नहीं उठा पाए, क्या कविता उसे उठा कर जी पाएगी?

Famous Hindi Stories : दूरियां – क्यों हर औलाद को बुरा मानता था सतीश?

Famous Hindi Stories : ‘‘सुरेखा, सुरेखा…’’ किचन में कुकर की सीटी की आवाज के आगे सतीश की आवाज दब गई. जब पत्नी ने पुकार का कोई जवाब नहीं दिया तो अखबार हाथ में उठा कर सतीश खुद अंदर चले आए.

हाथ का अखबार पास पड़ी कुरसी पर पटक कुछ जोर से बोले सतीश, ‘‘क्या हो रहा है? मैं ने कल की खबर तुम्हें सुनाई थी कि पिता के पैसों के लिए बेटे ने उस की हत्या की सुपारी अपने ही एक दोस्त को दे दी. देखा, कलियुगी बच्चों को…बेटाबेटी ने मिल कर अपने बूढ़े मातापिता को मौत के घाट उतार दिया, ताकि उन के पैसों से मौजमस्ती कर सकें. हद है, आज की पीढ़ी का कोई ईमान ही नहीं रहा.’’  सुरेखा ने उन्हें शांत करने की कोशिश की, ‘‘आप इन खबरों को पढ़ कर इतने परेशान क्यों होते हैं? यह भी देखिए कि ये बच्चे किस वर्ग के हैं और कितने पढ़ेलिखे हैं?’’

‘‘क्या कह रही हो तुम? ये बच्चे बाहर से एमबीए आदि पढ़लिख कर आए थे. जरा सोचो सुरेखा, इन की पढ़ाईलिखाई पर मांबाप ने कितना पैसा खर्च किया होगा. आजकल के बच्चे इतने नकारा हैं कि…’’

कहतेकहते हांफने लगे सतीश. सुरेखा पानी का गिलास ले कर उन के पास चली आईं, ‘‘आप रोजरोज इस तरह की खबरें पढ़ कर अपने को क्यों दुखी करते हैं? छोडि़ए न, हम तो अच्छेभले हैं. बस, 2 महीने रह गए हैं आप के रिटायरमैंट को. अपना घर है. पैंशन आती रहेगी. और क्या चाहिए हमें? जितना है वह अपने बच्चों का ही तो है.’’

सतीश पानी का एक घूंट ले कर कुछ रुक कर बोले, ‘‘बच्चों का क्यों? तीनों को पढ़ालिखा दिया. अब जो करना है, उन्हें खुद करना है. मैं एक पैसा किसी पर खर्च नहीं करने वाला.’’

सुरेखा चौंकीं, ‘‘अरे, यह क्या कह   रहे हैं? सिर्फ अमन की ही तो   शादी हुई है. अभी तो आभा की होनी है. आरुष भी आगे पढ़ाई करना चाहता है. फिर…’’

इस ‘फिर’ से बचते हुए सतीश बाहर निकल गए. दरअसल, जब से उन्होंने अपनी ही कालोनी में रहने वाले जगत को सुबहसुबह पार्क में फूटफूट कर रोते देखा तो उन की सोच ही बदल गई. जगत उम्र में उन से 10 साल बड़े थे. एक बेटा धनंजय और एक बेटी छवि. धनंजय को पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया. रिटायरमैंट में मिले फंड के पैसों से छवि की शादी कर दी. बचाखुचा पत्नी की बीमारी में निकल गया. बेटे की शादी के बाद वे साथ ही रहते थे. महीना भर पहले बेटे ने उन्हें घर से निकाल दिया. जगत की समझ में नहीं आ रहा था कि वे इस उम्र में जाएं तो कहां जाएं. अपनी पूरी कमाई बच्चों पर लगा दी. उन की पढ़ाई और शादी की वजह से अपना घर नहीं बना पाए. पैंशन नहीं, देखरेख करने वाला भी कोई नहीं.

सतीश, जगत का हाल सुन कर हिल गए. धनंजय को बचपन में देखा था उन्होंने. वह ऐसा निकलेगा, क्या कभी सोचा था?  सुरेखा को पता था कि सतीश एक बार जो ठान लेते हैं उस से पलटते नहीं हैं. कल रात ही आरुष ने उन से कहा था, ‘‘पापा, मैं आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जाना चाहता हूं. छात्रवृत्ति के लिए कोशिश तो कर रहा हूं, फिर भी 3 लाख तक का खर्च आ ही जाएगा.

पापा, क्या आप इतने पैसे उधार दे सकेंगे?’’

आरुष ने बिलकुल एक बच्चे की तरह कहा, ‘‘ममा, 2 साल बाद मेरा एमबीए हो जाएगा. इस के बाद मुझे कहीं अच्छी नौकरी मिल जाएगी. मैं पापा के सारे पैसे चुका दूंगा. आप बात कीजिए न उन से,’’ उस समय तो सुरेखा ने हां कह दिया था, पर अपने पति का रुख देख कर उसे शंका हो रही थी कि पता नहीं वे क्या जवाब देंगे.

घर का काम निबटा कर सुरेखा सतीश के कमरे में आईं, तो वे कंप्यूटर के सामने चिंता में बैठे थे. सुरेखा धीरे से उन के पीछे आ खड़ी हुईं. कुछ क्षण रुकने के बाद बोलीं, ‘‘यह क्या चिंता ले कर बैठ गए? बच्चे भी पूछने लगे हैं अब तो. खाना भी सब के साथ नहीं खाते और…’’  सतीश ने पलट कर सुरेखा की तरफ देखा, ‘‘मेरे पास उन से बात करने के लिए कुछ नहीं है. वे अपनी अलग दुनिया में जीते हैं सुरेखा. मैं साथ बैठता हूं तो सब असहज महसूस करते हैं.’’  ‘‘ऐसा नहीं है, सब आप की इज्जत करते हैं. अच्छा, कल बहू मायके जाने को कह रही है, भेज दें?’’

सतीश झल्ला गए, ‘‘तुम ये सब बातें मुझ से क्यों  पूछ रही हो, उन्हें तय करने दो. अमन जिम्मेदार शादीशुदा आदमी  है. उसे अपनी जिंदगी खुद जीनी चाहिए.’’ सुरेखा चुप हो गईं. ऐसे मूड में आरुष के विदेश जाने की बात करतीं भी कैसे?

अगले दिन नाश्ते के समय आरुष ने खुद बात छेड़ दी, ‘‘पापा, मैं ने आप को बताया था न कि एमबीए के लिए मेरा अमेरिका में एक यूनिवर्सिटी में चयन हो गया है. बस, पहले साल मुझे 40 प्रतिशत स्कौलरशिप मिलेगी. मैं सोच रहा था कि अगर आप…’’  सतीश एकदम से भड़क गए, ‘‘सोचना भी मत. तुम्हें इंजीनियर बना दिया, बस, अब इस से आगे मैं कुछ नहीं कर सकता. यही तो दिक्कत है तुम जैसी नई पीढ़ी की, बस अपनी सोचते हो. यह नहीं सोचते कि कल तुम्हारे मातापिता का क्या होगा? हम अपनी बाकी जिंदगी कैसे जिएंगे?’’

आरुष सकपका गया. अमन भी वहीं बैठा था. उस ने जल्दी से कहा, ‘‘पापा, आप ऐसा क्यों कहते हैं? हम लोग हैं न.’’  सतीश के होंठों पर व्यंग्य तिर आया, ‘‘तुम लोग क्या करोगे, यह मुझे अच्छी तरह पता है. मुझे तुम लोगों से कोई उम्मीद नहीं, तुम लोग भी मुझ से कोई उम्मीद मत रखना…’’ प्लेट छोड़ उठ खड़े हुए सतीश. सुरेखा को झटका सा लगा. अपने बच्चों के साथ ऐसा क्यों कर रहे हैं सतीश? आज तक बच्चों की परवरिश में कहीं कोई कमी नहीं रखी, अच्छे स्कूलकालेजों में पढ़ाया. अब अचानक उन के सोचने की दिशा क्यों बदल गई है?

अमन उठ कर सुरेखा के पास चला आया, ‘‘मां, पापा को आजकल क्या हो गया है? आजकल इतने गुस्से में क्यों रहते हैं?’’ अचानक सुरेखा की आंखों से आंसू निकल आए, ‘‘पता नहीं क्याक्या पढ़ते रहते हैं. सोचते हैं कि उन के बच्चे भी उन के साथ…’’

‘‘क्या मां, क्या लगता है उन्हें? हम उन के पैसों के पीछे हैं?’’ अमन ने सीधे पूछ लिया.

सुरेखा की हिचकी बंध गई, ‘‘पता नहीं बेटा, ऐसा ही कुछ भर गया है उन के दिमाग में. मैं तो समझासमझा कर हार गई कि सब घर एक से नहीं होते.’’

अमन ने सुरेखा के हाथ थाम लिए और धीरे से बोला, ‘‘इस में पापा की गलती नहीं है. आजकल रोज इस तरह की खबरें आ रही हैं. पहले भी आती होंगी, पर आजकल मीडिया कुछ ज्यादा ही सक्रिय है. आप जाने दीजिए मां, सब ठीक हो जाएगा. पापा से कह दीजिए कि हमें उन के पैसे नहीं चाहिए. बस, हमें चाहिए कि वे सुकून से रहें.’’

अमन और आरुष अपनेअपने रास्ते पर चले गए. आभा अब तक कालेज से नहीं आई थी. इस साल उस की पढ़ाई भी पूरी हो जाएगी. आभा चाहती थी कि वह नौकरी करे. सुरेखा को लगता था कि समय पर उस की शादी हो जानी चाहिए. पर उन की सुनने वाला घर में कोई नहीं था.  आरुष ने अमन की मदद से बैंक से लोन लिया और महीने भर बाद वह अमेरिका चला गया. आभा को भी कैंपस इंटरव्यू में नौकरी मिल गई. जब उस ने अपनी पहली तनख्वाह सतीश के हाथ में रखी तो वे निर्लिप्त भाव से बोले, ‘‘अपनी कमाई तुम अपने पास रखो, जमा करो. कल तुम्हारे काम आएगी.’’

सुरेखा ने समझ लिया था कि सतीश को समझाना बहुत मुश्किल है, लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि कम से कम बच्चे समझदार हैं. 6 महीने बाद अमन को भी मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई. अमन अपनी पत्नी के साथ मुंबई चला गया.  सुरेखा को घर का अकेलापन काटने लगा. आभा का काम कुछ ऐसा था कि दफ्तर से लौटने में देर हो जाती. सुरेखा टोकतीं तो आभा कहती, ‘‘मां, आजकल हर प्राइवेट नौकरी में यही हाल है. देर तक काम करना पड़ता है. कोई जल्दी घर जाने की बात नहीं करता तो मैं कैसे आऊं.’’  आभा इतनी व्यस्त रहती कि उसे खानेपीने की सुध ही नहीं रहती. सुरेखा चाहती थीं कि उन की युवा बेटी शादी कर के सुख से रहे. दूसरी लड़कियों की तरह सजेसंवरे, अपनी दुनिया बसाए. एक दिन वह सतीश के सामने फट पड़ीं, ‘‘आप को पता भी है कि आभा कितने साल की हो गई है? उस की शादी की बात आप चलाएंगे या मैं चलाऊं? मैं अपनी बेटी को खुश देखना चाहती हूं.’’

सतीश अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इतने रमे हुए थे कि बेटी का रिश्ता खोजना उन्हें भारी लग रहा था. पर सुरेखा के कहने पर वे कुछ चौकन्ने हुए. अखबार में देख कर एक सही सा लड़का ढूंढ़ा. आभा को यह बिलकुल पसंद नहीं था कि वह किसी के देखने की खातिर सजेसंवरे. बड़ी मुश्किल से वह लड़के वालों के सामने आने को तैयार हुई. सुरेखा उत्साह से तैयारी में जुट गईं. बेटी की शादी का सपना हर मां अपनी आंखों में संजोए रहती है.  आभा 2-3 बार उस से कह चुकी थी कि मां, अभी रिश्ता हुआ नहीं है. आप को ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं  है. बस, चाय और बिस्कुट रखिए मेज पर.  सुरेखा हंसने लगीं, ‘‘ऐसा कहीं होता है भला? जिस घर में तेरी शादी होनी है उस घर के लोगों की कुछ तो खातिरदारी करनी पड़ेगी.’’

आभा चुप हो गई. सुरेखा ने घर पर ही गुलाबजामुन बनाए, नारियल की बरफी बनाई, नमकीन में समोसे, कटलेट और पनीर मंचूरियन बनाया. साथ ही जलजीरा आदि तो था ही. चुपके से जा कर वे अपने होने वाले दामाद के लिए सोने की चेन भी ले आई थीं. रिश्ता पक्का होने के बाद कुछ तो देना पड़ेगा.

सतीश को जिस बात का अंदेशा था, आखिरकार वही हुआ. प्रमोद चार्टर्ड अकाउंटैंट था और आते ही उस की मां ने बढ़चढ़ कर बताया कि प्रमोद को सीए बनाने में उन्होंने कितने पापड़ बेले हैं.

सतीश ने कुछ देर तक उन का त्याग- मंडित भाषण सुना, फिर पूछ लिया, ‘‘देखिए मैडम, हर मातापिता अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए कुछ न कुछ त्याग तो करते ही हैं. मैं ने भी अपने बच्चों की शिक्षा पर बहुत खर्च किया है. आप कहना क्या चाहती हैं, यह स्पष्ट बताइए.’’

प्रमोद की मां सकपका गईं. बात प्रमोद के मामा ने संभाली, ‘‘आप तो दुनियादार हैं सतीशजी. बेटे की शादी भी कर रखी है. आप को क्या बताना.’’

सतीश गंभीर हो गए, ‘‘अगर बात लेनदेन की कर रहे हैं तो मैं आप से कोई संबंध नहीं रखना चाहूंगा.’’

सतीश की आवाज इतनी तल्ख थी कि किसी की कुछ बोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ी. इस के बाद बात बस, औपचारिक बन कर रह गई. उन के जाने के बाद सुरेखा अपने पति पर बरस पड़ीं, ‘‘लगता है, आप अपनी बेटी की शादी करना ही नहीं चाहते. आप का ऐसा रुख रहेगा, तो कौन आप से संबंध रखना चाहेगा भला?’’

सतीश ने अपनी पत्नी की तरफ निगाह डाली और शांत आवाज में कहा, ‘‘मैं ने अपनी बेटी को इसलिए नहीं पढ़ाया कि उस का रिश्ता ऐसे घर में करूं.’’

सुरेखा रोने लगीं, ‘‘आप पैसे के पीछे पागल हो गए हैं. अपनी बेटी की शादी में कौन पैसा खर्च नहीं करता.’’

सुरेखा के रोने का उन पर कोई असर नहीं पड़ा. वे वहां से चले गए. अचानक सुरेखा ने कंधे पर एक कोमल स्पर्श महसूस किया, आभा खड़ी थी. आभा धीरे से बोली, ‘‘मां, रोओ मत. पापा ने सही किया. मुझे खुद दहेज दे कर शादी नहीं करनी. मैं अपने लिए राह खुद बना लूंगी, तुम चिंता मत करो.’’

बेटी का आश्वासन भी सुरेखा को शांत न कर पाया.

6 महीने बाद आभा ने एक दिन सुरेखा से कहा, ‘‘मां, मैं किसी को आप से मिलवाना चाहती हूं.’’

सुरेखा को खटका लगा. पहली बार आभा उस से किसी को मिलवाने को कह रही है. कौन है?

शाम को आभा अपने से उम्र में काफी बड़े एक आदमी को घर ले कर आई, ‘‘मां, मेरे साथ काम करते हैं हरिहरण. बहुत बड़े साइंटिस्ट हैं और हम दोनों…’’

आभा की बात पूरी होने से पहले सुरेखा उसे खींच कर कमरे में ले गईं और बोलीं, ‘‘आभा, उम्र में इतने बड़े आदमी से…ऐसा क्यों कर रही है बेटी? ऊपर से साउथ इंडियन?’’

‘‘मां,’’ आभा ने सुरेखा का हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘हरी बेहद सुलझे हुए और इंटेलिजैंट व्यक्ति हैं. आजकल नार्थसाउथ में क्या रखा है मां? तुम्हें भी तो इडलीसांभर पसंद है. क्या तुम होटल जा कर रसम और चावल नहीं खातीं? हरि को तो अपनी तरफ का राजमा, अरहर की दाल और आलू के परांठे बहुत पसंद हैं. हम दोनों एकदूसरे को अच्छे से जाननेसमझने लगे हैं. मैं उन के साथ बहुत खुश रहूंगी मां,’’ कहतेकहते आभा की आंखों में पानी भर आया. सुरेखा ने उसे गले से लगा लिया, ‘‘आभा, मेरे लिए तेरी खुशी से बढ़ कर और कुछ नहीं है बेटी. पर एक मां हूं न, क्या करूं, दिल नहीं मानता.’’

आभा की पसंद के बारे में सतीश ने कुछ कहा नहीं. उन्हें हरिहरण अच्छे लगे. आभा ने कोर्ट में जा कर शादी की. सुरेखा कहती रह गईं कि पार्टी होनी चाहिए, पर हरि ने हंस कर कहा, ‘‘मिसेज सतीश, आप पैसा क्यों खर्च करना चाहती हैं? वह भी दूसरों को खिलापिला कर. सेव इट फौर टुमारो.’’

तीनों बच्चे अपनी जिंदगी में रम गए. गाहेबगाहे आते तो कुछ लेने के बजाय बहुत कुछ दे जाते. सतीश अब पहले से कम बोलने लगे. अब उन्हें भी बच्चों की कमी खलने लगी थी.

ऐसे ही चुपचाप एक दिन रात को जो वे सोए तो सुबह उठे ही नहीं. पहला दिल का दौरा इतना तेज था कि उन के प्राण निकल गए. सुरेखा अकेली रह गईं. आभा महीना भर आ कर उन के पास रह गई, पर उस की भी नौकरी थी, जाना तो था ही. अमन भी आरुष का साथ देने अमेरिका पहुंच गया और वहीं जा कर बस गया.

इतने बड़े घर में सुरेखा अब अकेली पड़ गईं, सतीश की पैंशन, उन के कमाए पैसों और अपने गहनों के साथ. रहरह कर उस के मन में टीस उठती कि समय पर अगर बच्चों की मदद कर दी होती तो आज यह पैसा बोझ बन कर उन के दिल को ठेस न पहुंचाता.

अमन से जब भी वे अपने दिल की बात करतीं, वह तुरंत जवाब देता, ‘‘मां, तुम सब छोड़छाड़ कर यहां आ जाओ हमारे पास. सब साथ रहेंगे. मेरी बेटी बड़ी हो रही है. उसे तुम्हारा साथ चाहिए.’’

बहुत सोचसमझ कर सुरेखा ने अपनी जायदाद के 3 हिस्से किए और कागजात साइन करवाने अमन, आभा और आरुष के पास भेज दिए. सप्ताह भर बाद अमन की लंबी चिट्ठी आई. चिट्ठी में लिखा था, ‘‘मां, हमें वहां से कुछ नहीं चाहिए. हम तीनों बच्चों को आप ने बहुत कुछ दिया है. आप अपना पैसा जरूरतमंदों में बांट दीजिए, किसी अनाथालय के नाम कर दीजिए. शायद इस से पापा की आत्मा को भी शांति मिलेगी. और हां, देर मत कीजिए, जल्दी आइए. अब तो कम से कम हम सब को साथ वक्त बिताना चाहिए.’’

सुरेखा फूटफूट कर रोने लगीं. काश, आज यह दिन देखने के लिए सतीश जिंदा होते. जिस पैसे की खातिर सतीश अपने बच्चों से दूर हो गए, वह पैसा आज उन के किसी काम का रहा नहीं.

Best Hindi Stories : छोटा सा घर

Best Hindi Stories :  ट्रेन तेज गति से दौड़ी चली जा रही थी. सहसा गोमती बूआ ने वृद्ध सोमनाथ को कंधे से झकझोरा, ‘‘बाबूजी, सुषमा पता नहीं कहां चली गई. कहीं नजर नहीं आ रही.’’

सोमनाथ ने हाथ ऊंचा कर के स्विच दबाया तो चारों ओर प्रकाश फैल गया. फिर वे आंखें मिचमिचाते हुए बोले, ‘‘आधी रात को नींद क्यों खराब कर दी… क्या मुसीबत आन पड़ी है?’’

‘‘अरे, सुषमा न जाने कहां चली गई.’’

‘‘टायलेट की ओर जा कर देखो, यहीं कहीं होगी…चलती ट्रेन से कूद थोड़े ही जाएगी.’’

‘‘अरे, बाबा, डब्बे के दोनों तरफ के शौचालयों में जा कर देख आई हूं. वह कहीं भी नहीं है.’’

बूआ की ऊंची आवाज सुन कर अन्य महिलाएं भी उठ बैठीं. पुष्पा आंचल संभालते हुए खांसने लगी. देवकी ने आंखें मलते हुए बूआ की ओर देखा और बोली, ‘‘लाइट क्यों जला दी? अरे, तुम्हें नींद नहीं आती लेकिन दूसरों को तो चैन से सोने दिया करो.’’

‘‘मूर्ख औरत, सुषमा का कोई अतापता नहीं है…’’

‘‘क्या सचमुच सुषमा गायब हो गई है?’’ चप्पल ढूंढ़ते हुए कैलाशो बोली, ‘‘कहीं उस ने ट्रेन से कूद कर आत्महत्या तो नहीं कर ली?’’

बूआ ने उसे जोर से डांटा, ‘‘खामोश रह, जो मुंह में आता है, बके चली जा रही है,’’ फिर वे सोमनाथ की ओर मुड़ीं, ‘‘बाबूजी, अब क्या किया जाए. छोटे महाराज को क्या जवाब देंगे?’’

‘‘जवाब क्या देना है. वे इसी ट्रेन के  फर्स्ट क्लास में सफर कर रहे हैं. अभी मोबाइल से बात करता हूं.’’

सोमनाथ ने छोटे महाराज का नंबर मिलाया तो उन की आवाज सुनाई दी, ‘‘अरे, बाबा, काहे नींद में खलल डालते हो?’’

‘‘महाराज, बहुत बुरी खबर है. सुषमा कहीं दिखाई नहीं दे रही. बूआ हर तरफ उसे देख आई हैं.’’

‘‘रात को आखिरी बार तुम ने उसे कब देखा था?’’

‘‘जी, रात 9 बजे के लगभग ग्वालियर स्टेशन आने पर सभी ने खाना खाया और फिर अपनीअपनी बर्थ पर लेट गए. आप को मालूम ही है, नींद की गोली लिए बिना मुझे नीद नहीं आती. सो गोली गटकते ही आंखें मुंदने लगीं. अभी बूआ ने जगाया तो आंख खुली.’’

छोटे महाराज बरस पड़े, ‘‘लापरवाही की भी हद होती है. बूआ के साथसाथ तुम्हें भी कई बार समझाया था कि सुषमा पर कड़ी नजर रखा करो. लेकिन तुम सब…कहीं हरिद्वार में किसी के संग उस का इश्क का कोई लफड़ा तो नहीं चल रहा था? मुझे तो शक हो रहा है.’’

‘‘मुझे तो कुछ मालूम नहीं. लीजिए, बूआ से बात कीजिए.’’

बूआ फोन पकड़ते ही खुशामदी लहजे में बोलीं, ‘‘पाय लागूं महाराज.’’

‘‘मंथरा की नानी, यह तो कमाल हो गया. आखिर वह चिडि़या उड़ ही गई. मुझे पहले ही शक था. उस की खामोशी हमें कभीकभी दुविधा में डाल देती थी. खैर, अब उज्जैन पहुंच कर ही कुछ सोचेंगे.’’

बूआ ने मोबाइल सोमनाथ की ओर बढ़ाया तो वे पूछे बिना न रह सके, ‘‘क्या बोले?’’

‘‘अरे, कुछ नहीं, अपने मन की भड़ास निकाल रहे थे. हम हमेशा सुषमा की जासूसी करते रहे. कभी उसे अकेला नहीं छोड़ा. अब क्या चलती ट्रेन से हम भी उस के साथ बाहर कूद जाते. न जाने उस बेचारी के मन में क्या समाया होगा?’’

थोड़ी देर में सोमनाथ ने बत्ती बुझा दी पर नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. बीते दिनों की कई स्याहसफेद घटनाएं रहरह कर उन्हें उद्वेलित कर रही थीं :

लगभग 5-6 साल पहले पारिवारिक कलह से तंग आ कर सोमनाथ हरिद्वार के एक आश्रम में आए थे. उस के 3-4 माह बाद ही दिल्ली के किसी अनाथाश्रम से 11-12 साल के 4 लड़के और 1 लड़की को ले कर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आश्रम में आया था. तब सोमनाथ के सुनने में आया था कि बदले में उस व्यक्ति को अच्छीखासी रकम दी गई थी. आश्रम की व्यवस्था के लिए जो भी कर्मचारी रखे जाते थे वे कम वेतन और घटिया भोजन के कारण शीघ्र ही भाग खड़े होते थे, इसीलिए दिल्ली से इन 5 मासूम बच्चों को बुलाया गया था.

शुरूशुरू में इस आश्रम में बच्चों का मन लग गया, पर शीघ्र ही हाड़तोड़ मेहनत करने के कारण वे कमजोर और बीमार से होते गए. आश्रम के पुराने खुशामदी लोग जहां मक्खनमलाई खाते थे, वहीं इन बच्चों को रूखासूखा, बासी भोजन ही खाने को मिलता. कुछ माह बाद ही चारों लड़के तो आसपास के आश्रमों में चले गए पर बेचारी सुषमा उन के साथ जाने की हिम्मत न संजो सकी. बड़े महाराज ने तब बूआ को सख्त हिदायत दी थी कि इस बच्ची का खास खयाल रखा जाए.

बूआ, सुषमा का खास ध्यान तो रखती थीं, पर वे बेहद चतुर, स्वार्थी और छोटे महाराज, जोकि बड़े महाराज के भतीजे थे और भविष्य में आश्रम की गद्दी संभालने वाले थे, की खासमखास थीं. बूआ पूरे आश्रम की जासूसी करती थीं, इसीलिए सभी उन्हें ‘मंथरा’ कह कर पुकारते थे.

18 वर्षीय सुषमा का यौवन अब पूरे निखार पर था. हर कोई उसे ललचाई नजरों से घूरता रहता. पर कुछ कहने की हिम्मत किसी में न थी क्योंकि सभी जानते थे कि छोटे महाराज सुषमा पर फिदा हैं और किसी भी तरह उसे अपना बनाना चाहते हैं. बूआ, सुषमा को किसी न किसी बहाने से छोटे महाराज के कक्ष में भेजती रहती थीं.

पिछले साल दिल्ली से बड़े महाराज के किसी शिष्य का पत्र ले कर नवीन नामक नौजवान हरिद्वार घूमने आया था. प्रात: जब दोनों महाराज 3-4 शिष्यों के साथ सैर करने निकल जाते तो सोमनाथ और सुषमा बगीचे में जा कर फूल तोड़ने लगते. 2-3 दिनों में ही नवीन ने सोमनाथ से घनिष्ठता कायम कर ली थी. वह भी अब फूल तोड़ने में उन दोनों की सहायता करने लगा.

28-30 साल का सौम्य, शिष्ट व सुदर्शन नौजवान नवीन पहले दिन से ही सुषमा के प्रति आकर्षण महसूस करने लगा था. सुषमा भी उसे चाहने लगी थी. उन दोनों को करीब लाने में सोमनाथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे. उन की हार्दिक इच्छा थी कि वे दोनों विवाह बंधन में बंध जाएं.

सोमनाथ ने सुषमा को नवीन की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में सबकुछ बता दिया था कि कानपुर में उस का अपना मकान है. उस की शादी हुई थी, लेकिन डेढ़ वर्ष बाद बेटे को जन्म देने के बाद उस की पत्नी की मृत्यु हो गई थी. घर में मां और छोटा भाई हैं. एक बड़ी बहन शादीशुदा है. नवीन कानपुर की एक फैक्टरी के मार्केटिंग विभाग में ऊंचे पद पर कार्यरत है. उसे 15 हजार रुपए मासिक वेतन मिलता है. इन दिनों वह फैक्टरी के काम से ज्यादातर दिल्ली में ही अपने शाखा कार्यालय की ऊपरी मंजिल पर रहता है.

1 सप्ताह गुजरने के बाद जब नवीन ने वापस दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाया तो ऐसा संयोग बना कि छोटे महाराज को कुछ दिनों के लिए वृंदावन के आश्रम में जाना पड़ा. उन के जाने के बाद सोमनाथ ने नवीन को 3-4 दिन और रुकने के लिए कहा तो वह सहर्ष उन की बात मान गया.

एक दिन बाग में फूल तोड़ते समय सोमनाथ ने विस्तार से सारी बातें सुषमा को कह डालीं, ‘बेटी, तुम हमेशा से कहती हो न कि घर का जीवन कैसा होता है, यह मैं ने कभी नहीं जाना है. क्या इस जन्म में किसी जानेअनजाने शहर में कोई एक घर मेरे लिए भी बना होगा? क्या मैं सारा जीवन आश्रम, मंदिर या मठ में व्यतीत करने को विवश होती रहूंगी?

‘बेटी, मैं तुम्हें बहुत स्नेह करता हूं लेकिन हालात के हाथों विवश हूं कि तुम्हारे लिए मैं कुछ कर नहीं सकता. अब कुदरत ने शायद नवीन के रूप में तुम्हारे लिए एक उमंग भरा पैगाम भेजा है. तुम्हें वह मनप्राण से चाहने लगा है. वह विधुर है. एक छोटा सा बेटा है उस का…छोटा परिवार है…वेतन भी ठीक है…अगर साहस से काम लो तो तुम उस घर, उस परिवार की मालकिन बन सकती हो. बचपन से अपने मन में पल रहे स्वप्न को साकार कर सकती हो.

‘लेकिन मैं नवीन की कही बातों की सचाई जब तक खुद अपनी आंखों से नहीं देख लूंगा तब तक इस बारे में आगे बात नहीं करूंगा. वह कल दिल्ली लौट जाएगा. फिर वहां से अगले सप्ताह कानपुर जाएगा. इस बारे में मेरी उस से बातचीत हो चुकी है. 3-4 दिन बाद मैं भी दिल्ली चला जाऊंगा और फिर उस के साथ कानपुर जा कर उस का घर देख कर ही कुछ निर्णय लूंगा.

‘यहां आश्रम में तो तुम्हें छोटे महाराज की रखैल बन कर ही जीवन व्यतीत करना पड़ेगा. हालांकि यहां सुखसुविधाओं की कोई कमी न होगी, परंतु अपने घर, रिश्तों की गरिमा और मातृत्व सुख से तुम हमेशा वंचित ही रहोगी.’

‘नहीं बाबा, मैं इन आश्रमों के उदास, सूने और पाखंडी जीवन से अब तंग आ चुकी हूं.’

अगले दिन नवीन दिल्ली लौट गया. उस के 3-4 दिन बाद सोमनाथ भी चले गए क्योंकि कानपुर जाने का कार्यक्रम पहले ही नवीन से तय हो चुका था.

एक सप्ताह बाद सोमनाथ लौट आए. अगले दिन बगीचे में फूल तोड़ते समय उन्होंने मुसकराते हुए सुषमा से कहा, ‘बिटिया, बधाई हो. जैसे मैं ने अनुमान लगाया था, उस से कहीं बढ़ कर देखासुना. सचमुच प्रकृति ने धरती के किसी कोने में एक सुखद, सुंदर, छोटा सा घर तुम्हारे लिए सुरक्षित रख छोड़ा है.’

‘बाबा, अब जैसा आप उचित समझें… मुझे सब स्वीकार है. आप ही मेरे हितैषी, संरक्षक और मातापिता हैं.’

‘तब तो ठीक है. लगभग 2 माह बाद ही छोटे महाराज, बूआ और इस आश्रम की 5-6 महिलाओं के साथ हम दोनों को भी हर वर्ष की भांति उज्जैन के अपने आश्रम में वार्षिक भंडारे पर जाना है. इस बारे में नवीन से मेरी बात हो चुकी है. इस बारे में नवीन ने खुद ही सारी योजना तैयार की है.

‘यहां से उज्जैन जाते समय रात्रि 10 बजे के लगभग ट्रेन झांसी पहुंचेगी. छोटे महाराज अपने 3 शिष्यों के साथ प्रथम श्रेणी के ए.सी. डब्बे में यात्रा कर रहे होंगे, शेष हम लोग दूसरे दर्जे के शयनयान में सफर करेंगे. तुम्हें झांसी स्टेशन पर उतरना होगा…वहां नवीन अपने 3-4 मित्रों के संग तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा. वैसे घबराने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि नवीन की बूआ का बेटा वहीं झांसी में पुलिस सबइंस्पैक्टर के पद पर तैनात है. अगर कोई अड़चन आ गई तो वह सब संभाल लेगा.’

‘क्या आप मेरे साथ झांसी स्टेशन पर नहीं उतरेंगे?’ सुषमा ने शंकित नजरों से उन की ओर देखा.

‘नहीं, ऐसा करने पर छोटे महाराज को पूरा शक हो जाएगा कि मैं भी तुम्हारे साथ मिला हुआ हूं. वे दुष्ट ही नहीं चालाक भी हैं. वैसे तुम जातनी ही हो कि बूआ, छोटे महाराज की जासूस है. अगर कहीं उस ने हम दोनों को ट्रेन से उतरते देख लिया तो हंगामा खड़ा हो जाएगा. तुम घबराओ मत. चंदन आश्रम में रह रहा राजू तुम्हारा मुंहबोला भाई है…उस पर तो तुम्हें पूरा विश्वास है न?’

‘हांहां, क्यों नहीं. वह तो मुझ से बहुत स्नेह करता है.’

‘कल शाम मैं राजू से मिला था. मैं ने उसे पूरी योजना के बारे में विस्तार से समझा दिया है. तुम्हारी शादी की बात सुन कर वह बहुत प्रसन्न था. वह हर प्रकार से सहयोग करने को तैयार है. वह भी हमारे साथ उसी ट्रेन के किसी अन्य डब्बे में यात्रा करेगा.

‘झांसी स्टेशन पर तुम अकेली नहीं, राजू भी तुम्हारे साथ ट्रेन से उतर जाएगा. मैं तुम दोनों को कुछ धनराशि भी दे दूंगा. यात्रा के दौरान मोबाइल पर नवीन से मेरा लगातार संपर्क बना रहेगा. राजू 3-4 दिन तक तुम्हारे ससुराल में ही रहेगा, तब तक मैं भी किसी बहाने से उज्जैन से कानपुर पहुंच जाऊंगा. बस, अब सिर्फ 2 माह और इंतजार करना होगा. चलो, अब काफी फूल तोड़ लिए हैं. बस, एक होशियारी करना कि इस दौरान भूल कर भी बूआ अथवा छोटे महाराज को नाराज मत करना.’

फिर तो 2 माह मानो पंख लगा कर उड़ते नजर आने लगे. सुषमा अब हर समय बूआ और छोटे महाराज की सेवा में जुटी रहती, हमेशा उन दोनों की जीहुजूरी करती रहती. छोटे महाराज अब दिलोजान से सुषमा पर न्योछावर होते चले जा रहे थे. उस की छोटी से छोटी इच्छा भी फौरन पूरी की जाती.

निश्चित तिथि को जब 8-10 लोग उज्जैन जाने के लिए स्टेशन पर पहुंचे तो छोटे महाराज को तनिक भी भनक न लगी कि सुषमा और सोमनाथ के दिलोदिमाग में कौन सी खिचड़ी पक रही है.

आधी रात को लगभग साढ़े 12 बजे बीना जंक्शन पर सोमनाथ ने जब छोटे महाराज को सुषमा के गायब होने की सूचना दी तो उन्होंने उसे और बूआ को फटकारने के बाद अपने शिष्य दीपक से खिन्न स्वर में कहा, ‘‘यार, सुषमा तो बहुत चतुर निकली…हम तो समझ रहे थे कि चिडि़या खुदबखुद हमारे बिछाए जाल में फंसती चली जा रही है, लेकिन वह तो जाल काट कर ऊंची उड़ान भरती हुई किसी अदृश्य आकाश में खो गई.’’

‘‘लेकिन इस योजना में उस का कोई न कोई साथी तो अवश्य ही रहा होगा?’’ दीपक ने कुरेदा तो महाराज खिड़की से बाहर अंधेरे में देखते हुए बोले, ‘‘मुझे तो सोमनाथ और बूआ, दोनों पर ही शक हो रहा है. पर एक बार आश्रम की गद्दी मिलने दो, हसीनाओं की तो कतार लग जाएगी.’’

 

उज्जैन पहुंचने पर शाम के समय बाजार के चक्कर लगाते हुए सोमनाथ ने जब नवीन के मोबाइल का नंबर मिलाया तो उस ने बताया कि रात को वे लोग झांसी में अपनी बूआ के घर पर ही रुक गए थे और सुबह 5 बजे टैक्सी से कानपुर के लिए चल दिए. नवीन ने राजू और सुषमा से भी सोमनाथ की बात करवाई. सोमनाथ को अब धीरज बंधा.

निर्धारित योजना के अनुसार तीसरे दिन छोटे महाराज के पास सोमनाथ के बड़े बेटे का फोन आया कि कोर्ट में जमीन संबंधी केस में गवाही देने के लिए सोमनाथ का उपस्थित होना बहुत जरूरी है. अत: अगले दिन प्रात: ही सोमनाथ आश्रम से निकल पड़े, परंतु वे दिल्ली नहीं, बल्कि कानपुर की यात्रा के लिए स्टेशन से रवाना हुए.

कानपुर में नवीन के घर पहुंचने पर जब सोमनाथ ने चहकती हुई सुषमा को दुलहन के रूप में देखा तो बस देखते ही रह गए. फिर सुषमा की पीठ थपथपाते हुए हौले से मुसकराए और बोले, ‘‘मेरी बिटिया दुलहन के रूप में इतनी सुंदर दिखाई देगी, ऐसा तो कभी मैं ने सोचा भी न था. सदा सुखी रहो. बेटा नवीन, मेरी बेटी की झोली खुशियों से भर देना.’’

‘‘बाबा, आप निश्ंिचत रहें. यह मेरी बहू ही नहीं, बेटी भी है,’’ सुषमा की सास यानी नवीन की मां ने कहा.

‘‘बाबा, अब 5-6 माह तक मैं दिल्ली कार्यालय में ही ड्यूटी बजाऊंगा.’’

नवीन की बात सुनते ही सोमनाथ बहुत प्रसन्न हुए, ‘‘वाह, फिर तो हमारी बिटिया हमारी ही मेहमान बन कर रहेगी.’’

फिर वे राजू की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘बेटे, अपनी बहन को मंजिल तक पहुंचाने में तुम ने जो सहयोग दिया, उसे मैं और सुषमा सदैव याद रखेंगे. चलो, अब कल ही अपनी आगे की यात्रा आरंभ करते हैं.’’

लेखक- अनिल मिश्रा

Famous Hindi Stories : आस्था का व्यापार

Famous Hindi Stories :  रमेश बाबू ने दफ्तर में घुसते ही सब को ताजा खबर यों सुनाई, ‘‘नरेंद्र को उस के बीवी-बच्चों ने घर से निकाल दिया.’’

‘‘3 दिन से दफ्तर भी नहीं आया,’’ राजेश ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘यह तो होना ही  था. गलत काम का परिणाम भी गलत ही होता है,’’ सुनील ने अपना ज्ञान प्रदर्शित किया.

‘‘आजकल नरेंद्र कहां रह रहा है?’’ सब ने एक स्वर में जिज्ञासा प्रकट की.

‘‘रहेगा कहां? सुनने में आया है कि वह आजकल एक ब्राह्मणी के चक्कर में था. उसी के यहां रह रहा है.  त्रिपाठी का पड़ोसी बता रहा था कि उसी विधवा ब्राह्मणी के कारण घर में झगड़ा हुआ.’’

‘‘यार, नरेंद्र ने तो हद ही कर दी, घर में जवान बेटेबहू होते हुए यह सब क्या अच्छा लगता है?’’ जितने मुंह उतनी बातें.

मैं अपनी फाइलों में सिर गड़ाए सब की बातें सुन रहा था. मुझे उन की बातों से जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ. मैं तो बहुत पहले से उस की करतूतों से परिचित था. शर्मा, ये लोग तो दफ्तर में बहुत बाद में आए. मैं ने और नरेंद्र ने बहुत लंबा समय साथसाथ बिताया है.

उन सब की बातें सुन कर मैं अतीत में खो गया.

तब मैं दफ्तर में नयानया आया था. कम उम्र, अनुभव शून्य. मैं बड़ा घबराया सा रहता था. काम में गलतियां होना आम बात थी. उस समय दफ्तर में 4-5 लोग ही थे. 3 बाबू, 1 बड़े बाबू तथा 1 चपरासी. तब नरेंद्र ने मुझे काम करना सिखाया. मुझ में आत्मविश्वास जगाया. तभी से मैं उन का सम्मान करने लगा.

कई बार वे मुझे अपने घर भी ले गए. बहुत ही साधारण रहनसहन था उन का. बिलकुल एक दफ्तर के बाबू की तरह. पूरे महीने काम करने पर जो तनख्वाह मिलती थी, वह सैकड़े में ही होती थी. आजकल की तरह उस समय वेतन हजारों में कहां मिलता था? खींचतान कर महीना पूरा होता था. उस समय दफ्तरों के बाबुओं की स्थिति बड़ी दयनीय थी. नरेंद्रजी का बड़ा परिवार था. सब बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना तो दूर रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना भी कठिन था. उन के 2 लड़के 10वीं पास कर के दुकानों में नौकरी करने लगे थे. जवान लड़की दहेज के अभाव के कारण घर में कुंआरी बैठी थी. उन्हीं दिनों नरेंद्रजी के रहनसहन में एक बदलाव दिखा. वे पैंटशर्ट के स्थान पर धोतीकुरता पहन कर दफ्तर आने लगे. माथे पर बड़ा सा चंदन का टीका लगाए रखते. पूछने पर कहने लगे, ‘हमारे घर के पास ही एक पुजारीजी का?घर है. वे वृद्ध हैं, अत: सुबह उठ कर उन की मदद कर देता हूं तो वे मुझे प्रेम से यह टीका लगा देते हैं. इस में मेरा भी लाभ है, उन का भी लाभ है.’ इतना बता कर वे मुसकराने लगे.

इस के बाद से ही धीरेधीरे उन के विषय में कई समाचार छनछन कर दफ्तर में आने लगे. वे अधिकतर अवकाश पर रहने लगे. कोई आ कर बताता कि नरेंद्रजी पुजारी के घर के मालिक बन गए हैं. कभी सुनने में आता कि बूढ़ा पुजारी लापता हो गया है. जितने मुंह उतनी बातें.

कई दिन बाद नरेंद्रजी दफ्तर आए. बड़े थकेथके से लग रहे थे. पूछने पर कहने लगे, ‘पुजारीजी बीमार हो गए. उन्हीं की सेवाटहल में लगा हुआ था. पिछले सप्ताह उन की मृत्यु हो गई. मृत्यु से पूर्व उन्होंने मंदिर की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी.

‘अब तो जैसे भी होगा मुझे ही यह कार्य संभालना है. इसी कारण दफ्तर नहीं आ पाया. कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा है कि दफ्तर एवं मंदिर दोनों का काम कैसे संभाल पाऊंगा.’

‘सब संभल जाएगा आप परेशान न हो,’ मैं ने उन्हें सांत्वना दी. ऐसे ही कई माह बीत गए. एक दिन सुनील ने आ कर बताया, ‘यार, यह नरेंद्र बड़ा चमत्कारी निकला. मंदिर में तो रौनक लगी ही रहती है. मंदिर के आसपास ‘मंगल बाजार’ लगने लगा है. बाजार का सारा नियंत्रण नरेंद्र के हाथ में है. वे दुकानदारों से कमीशन वसूलते हैं. पैसा बरस रहा है.’

कोई समाचार लाता, ‘अरे, पुजारी अपनी मौत थोड़े ही मरा है. उसे तो नरेंद्र ने कागजों पर अंगूठा लगवा कर मार डाला.’

क्या सच है, क्या झूठ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. जितने मुंह उतनी बातें.

एक दिन रास्ते से पकड़ कर नरेंद्रजी मुझे मंदिर ले गए और पूरा मंदिर दिखाया. मंदिर परिसर में पुजारी का आवास देख कर मैं चकित रह गया. पांचसितारा होटलों वाली सभी सुविधाएं वहां मौजूद थीं. वहां का वैभव देख कर मुझे जरा भी संशय नहीं रहा कि दफ्तर के लोग झूठी अफवाएं फैला रहे हैं. ‘करोड़ों की संपत्ति क्या कभी सही रास्ते से प्राप्त होती है?’ मैं भी सोचने लगा.

सोने की मोटी चेन, सिल्क का कुरतापाजामा, पशमीना शाल और माथे पर लाल चंदन का तिलक. इसी वेशभूषा में अब नरेंद्रजी नजर आते थे. पत्नी भी सोने के भारीभारी गहने पहन कर सुबहशाम 108 दीपकों की आरती करती. साथ में प्रसाद का थाल लिए बच्चे, भक्तों की भीड़ को संभाल रहे होते. हनुमान की असीम कृपा चढ़ावे के रूप में नरेंद्रजी के आंगन में बरस रही थी.

उन के दोनों बेटों की पत्नियां संपन्न परिवारों से आई थीं. 8वीं पास पुत्री का विवाह बनारस के संपन्न कर्मकांडी ब्राह्मण के इंजीनियर लड़के से हो गया था. बड़ा सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था उन का परिवार.

एक दिन दफ्तर आ कर नरेंद्रजी कहने लगे, अंगरेजी में एक विज्ञापन का मसौदा बना दो. जैसा प्राय: दक्षिण भारत के मंदिरों का इधर के अखबारों में छपता है : भगवान के चरणों में दक्षिणा भेजिए, दुखों से मुक्ति पाइए. बदले में मनीआर्डर प्राप्त होने पर कष्टों से मुक्ति के लिए भगवान के श्रीचरणों का प्रसाद एवं भभूति पार्सल द्वारा भेजी जाएगी. इस प्रकार का विज्ञापन लिखने को उन्होंने मुझ से कहा. मैं ने उन के निर्देशानुसार विज्ञापन का प्रारूप तैयार कर के उन्हें दे दिया.

जल्द ही उन का विज्ञापन दक्षिण भारत के अखबारों में छपने लगा. परिणामस्वरूप 100, 200 एवं 500 रुपए के मनीआर्डर प्राप्त होने लगे. आशीर्वाद स्वरूप नरेंद्रजी बजरंगबली का लाल चोला, सिंदूर, भक्तों को प्रसाद भिजवाने लगे. पूरी रात बैठ कर परिवार के लोग प्रसाद के पैकेट बनाते. हजारों की संख्या में मनीआर्डर आ रहे थे, उसी अनुपात में प्रसाद भेजा जा रहा था. जैसी दक्षिणा वैसा प्रसाद.

वे प्राय: मुझ से कहते कि इनसान को धोखा देना कितना सरल है. दुनिया में दुखी इनसान भरे पड़े हैं. हर दुखी व्यक्ति बस, एक बार मेरे झांसे में आ जाए, इस से ज्यादा की आवश्यकता नहीं है मुझे.

कई वर्ष तक उन का यह धंधा निर्बाध चलता रहा. आखिर में उन्होंने जब मनीआर्डर के बदले प्रसाद भेजना बंद कर दिया तब यह सिलसिला स्वत: ही बंद हो गया. उस समय तक वे अंधभक्तों को काफी लूट चुके थे.

नरेंद्रजी की बातें कभीकभी मुझे वितृष्णा से भर देतीं. मैं सोचता, ‘धर्म की आड़ में यह कैसा खेल खेला जा रहा है? आस्था के नाम पर लूटखसोट का व्यापार सदियों से चला आ रहा है. पाखंडी पंडेपुजारी बड़ी सफाई से इस खेल को खेल रहे हैं. दुखों में डूबा इनसान शांति पाने के लिए अपना सब कुछ लुटाने को तैयार रहता है. इसी का फायदा नरेंद्रजी जैसे अवसरवादी ब्राह्मण उठा रहे हैं.

नरेंद्रजी का रिटायरमैंट करीब आ रहा था. वे आजकल बहुत कम दफ्तर आते. उन्होंने अपने और भी काम फैला लिए थे. जैसे उन्होंने ब्राह्मणों की एक टीम बना ली थी जो घरघर जा कर पाठहवन आदि करवाते थे. तेरहवीं एवं बरसी पर जो दक्षिणा मिलती थी उस का बड़ा हिस्सा कमीशन के रूप में त्रिपाठीजी को मिलता था.

एक दिन दफ्तर में आ कर उन्होंने बताया कि उन्होंने जन्मपत्री बनाने का काम भी शुरू कर दिया है. कोई बनवाना चाहे तो बताना.

‘आप न तो संस्कृत जानते हैं न ज्योतिषशास्त्र, तब आप जन्मपत्री कैसे बना लेते हैं?’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

‘मैं एक ज्योतिषी से कमीशन पर जन्मपत्रियां बनवाता हूं. एक जन्मपत्री का 100 रुपए मुझे मिलता है. 25 रुपए पंडित को दे देता हूं. 4-5 जन्मपत्रियां हर रोज बनने के लिए आ जाती हैं. पूजापाठ के अन्य काम भी मंदिर के द्वारा ही आते हैं जो मैं अन्य ब्राह्मणों में बांट देता हूं. मेरा भी फायदा, उन का भी फायदा. है न फायदा ही फायदा,’ वे मुसकराने लगे.

उन की बातों से मैं स्तब्ध रह गया. इधर दफ्तर के लोग उन के निर्वासन को ले कर चर्चा करने में व्यस्त थे. मैं वर्तमान में लौट आया.

‘‘जिस विधवा ब्राह्मणी के कारण नरेंद्रजी घर से निकाले गए उस किस्से का ज्ञान मुझे बहुत पहले से था. वह विधवा और कोई नहीं, उन के परम मित्र की पत्नी है. यह बात भी नरेंद्रजी ने बहुत पहले मुझे बताई थी.

रघुवर दयाल मिश्र नाम था उन का. वे बहुत ही संपन्न परिवार से थे. संतानहीनता का दुख उन्हें चैन से न बैठने देता था. संतान के लिए क्या कुछ नहीं किया उन्होंने. पूजापाठ, तीर्थ, दानव्रत सभी कुछ कर चुके थे. संतान नहीं होनी थी, सो नहीं हुई. इसी दुख के कारण उन्होंने चारपाई पकड़ ली. बीमारी शारीरिक से अधिक मानसिक थी. कोई भी दवा कारगर नहीं हुई. रोग असाध्य हो गया जो उन की जान ले कर गया. उस समय नरेंद्रजी को मित्र की विधवा से बहुत सहानुभूति हुई. उन्हें सांत्वना देने वे प्राय: उन के घर जाते. सांत्वना कब आकर्षण में बदल गई, यह दोनों को ही बहुत बाद में पता चला.

दोस्त की पत्नी उन पर इतना विश्वास करने लगी कि उस ने अपना आलीशान मकान एवं जमाजमाया व्यवसाय नरेंद्रजी के नाम कर दिया. लोगों का क्या है वे तो यह भी कहने से नहीं चूके कि प्यार की आड़ में नरेंद्र ने विधवा को लूट लिया.

लोगों की बात गलत भी नहीं थी क्योंकि आजकल वे ज्यादातर उसी के घर पर रहते थे. पत्नी एवं बच्चों को उन का आचरण नागवार लगता था. आएदिन घर में कलह होती थी. उसी कलह का परिणाम था कि नरेंद्रजी को घर से निकाला गया. दरअसल, कोई भी स्त्री पति के सौ अपराध माफ कर सकती है पर अपने प्रति की गई उस की बेवफाई नहीं सह सकती.

‘अब क्या होगा नरेंद्र का?’ यह प्रश्न दफ्तर में सभी की जबान पर था. मैं चूंकि उन के काफी करीब था इसलिए इस का आभास मुझे पहले से ही था. परिणति तो अब जा कर हुई है.

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