पति-पत्नी और वो: साहिल ने कौनसा रास्ता निकाला

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दरबदर- भाग 2: मास्साब को कौनसी सजा मिली

रेलवे अधिकारी की एकलौती बेटी के साथ मोहब्बत की पींगे बढ़ा कर सईद मास्साब ने पहले उस के साथ कोर्टमैरिज की, फिर उस के दादादादी के पास कर्नाटक जा कर निकाह किया और ससुराल वालों के चहेते दामाद बन गए. आयरीन के  अब्बू ने शहर से दूर नए विकसित इलाके में एक आलीशान डुप्लैकस घर खरीदा था. आयरीन उन्हीं के साथ रह रही थी.

लाखों की आबादी वाले शहर और 30 किलोमीटर से ज्यादा के क्षेत्रफल वाले शहर के आखिरी छोरों पर रहने वालों को सईद मास्साब की असलियत का पता कैसे चलता? मीठी बातों के चलते नौकरीपेशा दामाद की छानबीन करने की जरूरत ही नहीं समझी रेलवे अधिकारी ने. दक्षिण भारत में बेटी की शादी में लगने वाले लाखों के दहेज और कई तोले सोना देने से वे बच गए थे, यही क्या कम था. कहां मिलते हैं ऐसे नेक लड़के आजकल के जमाने में. जब आयरीन के अम्मीअब्बू ने सईद मास्साब के बारे में कुछ जानने की जरूरत नहीं समझी, तो मैं ने भी कुछ बतलाने की पहल नहीं की.

आयरीन की मुसकराहट अब खिलखिलाहट में बदल गई थी. अब सईद मास्साब ने उस के लिए कार खरीद दी तो वह शीशे चढ़ा कर खुद ड्राइव कर के स्कूल आने लगी. ‘बहुतबहुत प्यार करते हैं मुझे मेरे हस्बैंड. स्कूल के बाद शाम तक मेरे साथ ही रहते हैं. रात को कोचिंग क्लास पढ़ाते हैं. देररात को 30-40 किलोमीटर आनाजाना मुश्किल होता है, इसलिए शहर में ही रुक जाते हैं.’

यह सुन कर मुझे तरस आता आयरीन के भोलेपन पर. कितनी खूबसूरती से छली जाती हैं ये पढ़ीलिखी बेवकूफ औरतें? लोभी, फरेबी और मक्कार मर्द की शहद टपकती जबान से निकली कोरी जज्बाती बातों में आ कर अपना सबकुछ लुटा बैठती हैं.

सईद मास्साब ने शहर की 3 दिशाओं में 3 गृहस्थियां बसा ली थीं. दिन के चौबीस घंटों को इतनी खूबसूरती से बांटा कि किसी भी बीवी को शिकवाशिकायत तो दूर, उन के किरदार पर शक करने की गुंजाइश ही नहीं बचती. मुसलिम औरत शौहर की हर बात पत्थर की लकीर की तरह सच मान कर नेक बीवियां बने रहने की मृगतृष्णा में फंसी मास्साब की तीनों बीवियां मास्साब की ईमानदारी के प्रति पूरी तरह से संतुष्ट थीं.

मैं ने नौकरी के साथसाथ बीए की पढ़ाई पूरी कर के एमए उर्दू में ऐडमिशन ले लिया. कालेज 12 बजे लगता था. मैं स्कूल से सीधे कालेज जाने लगी. अब्बू की मौत के बाद उन की नौकरी भाई को मिल गई थी. घर के हालात सुधरने लगे थे.

रफीका मैडम एमए क्लास की लैक्चरर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की डिगरी होल्डर थीं. लंबीचौड़ी, मामूली शक्लोसूरत की तेजतर्रार रफीका मैडम को एक दिन मैं ने मौल से बाहर निकलते देखा. उन के पीछे सईद मास्साब दोनों हाथों में बड़ेबड़े प्लास्टिक बैग संभालते हुए सड़क के किनारे खड़ी कार की तरफ बढ़ रहे थे. मैं उन के बाजू से निकल गई, मगर दोनों ने मुझे पहचाना नहीं, क्योंकि मैं ने परदा कर रखा था.

अधेड़ उम्र की कमाऊ, कुंआरी लैक्चरर सईद मास्साब का नया शिकार थी. शहर से दूर यूनिवर्सिटी कैंपस में रफीका मैडम बिलकुल अकेली रहती थीं. यूनिवर्सिटी कैंपस में सिक्योरिटी इतनी सख्त थी कि परिंदा पर भी नहीं मार सकता था. सईद मास्साब का रफीका मैडम के शौहर की हैसियत से आईडैंटिटी कार्ड बन गया था, इसलिए उन का बेरोकटोक मैडम के पास आनाजाना होता रहता.

सईद मास्साब बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन के व्यक्तित्व का आकर्षण सब को बांध लेता था. लेकिन जेहन और मेहनत के साथ चापलूसी ने पहले उन्हें राज्य शिक्षा परिषद का इंस्टैटिव अवार्ड दिलवाया. फिर 2 साल बाद ही उन का नाम नैशनल अवार्ड के लिए चुन लिया गया. सईद मास्साब ने अलगअलग वक्त में एकएक कर के सभी बीवियों और बच्चों को अपनी कामयाबी के जश्न में शामिल कर के दिल खोल कर खुशियां मनाईं.

लेकिन रफीका मैडम की प्रतिक्रिया नकारात्मक रही. वे मुंहफुला कर बोलीं, उर्दू डिपार्टमैंट में रीडर की पोस्ट खाली है, मगर आप अपनी कामयाबी व शोहरत के नशे में इतने चूर हैं कि बीवी की तरक्की का खयाल ही जेहन में नहीं आता. यह नहीं कि अपने रसूख का फायदा उठा कर मेरी पोस्ंिटग करवा दें.

‘मेरे खयाल से रीडर पोस्ट के लिए आप का ऐक्सपीरियंस कम है,’ मास्साब ने सहज भाव से कह दिया.

‘अच्छा तो आप को जो खिताब मिले हैं, वे आप की काबिलीयत की वजह से मिले हैं या चमचागीरी की वजह से मिले हैं, क्या मैं नहीं जानती. और आप ने भी तो नैशनल अवार्ड के लिए मोटी रकम… खैर, इस जमाने में पैसे से क्या नहीं खरीदा जाता. यूनिवर्सिटी के वाइसचांसलर से ले कर चपरासी तक बिकते हैं. मगर मेरी तरक्की की बात तो आप सोच ही नहीं सकते,’ बड़ा बुरा सा मुंह बना कर व्यंग्य से बोलीं रफीका मैडम.

रफीका मैडम सईद मास्साब के कंधे को सीढि़यां बना कर आसमान में छेद करना चाहती थीं.

‘आप गलत कह रही हैं. मैं समाज के उन लोगों में से हूं जो मुसलमान औरतों की खुदमुख्तारी की पैरवी करते हैं. मैं भला आप की तरक्की क्यों नहीं चाहूंगा.’ मास्साब ने बात संभालने की कोशिश की लेकिन रफीका मैडम तो जैसे खार खाए बैठी थीं, चिढ़ कर बोलीं, ‘बस, रहने दीजिए, रहने दीजिए बनावटी बातें. आप मेरे लिए कुछ नहीं करेंगे. मुझे ही स्टेट एजुकेशन मिनिस्टर से मिलना पड़ेगा. आप मेरे लिए कुछ भी नहीं करेंगे, इतना मैं समझ गई हूं.’

‘क्या समझ गई हैं आप? आप समझती हैं कि मिनिस्टर इतना बड़ा बेवकूफ होगा कि आप के तजरबे की प्रोफाइल देखे बगैर आप को रीडर बना देगा. हंसीखेल है क्या. उसे भी सरकार को जवाब देना होता है. और बाई द वे, रीडर का चुनाव वाइसचासंलर एजुकेशन बोर्ड के साथ मिल कर करता है. बड़ी तीसमारखां समझती हैं अपनेआप को. हम भी देखते हैं कब तक बनती हैं आप रीडर,’ मर्दाना अहं सिर चढ़ कर बोलने लगा, ‘पैर की जूती पैर में ही रहे तो ठीक लगती है. लैक्चररशिप मिल गई तो समझती हैं बड़ा भारी तीर मार लिया. शरीफ बीवियां शौहरों की बराबरी नहीं करतीं. जरा सी छूट क्या मिल गई, लगी मर्दों के कद से कद मिलाने,’ मास्साब ने रफीका मैडम को लताड़ा.

‘माइंड योर लैंग्वेज. काबिलीयत के बल पर लैक्चरर बनी हूं. आप की तरह मिठाइयों के डब्बे और तोहफों की चमचागीरी के बलबूते पर नहीं. और हां, मैं कमाऊ औरत हूं. आप के  ऊपर डिपैंड नहीं हूं जो आप की ऊलजलूल बातें बरदाश्त कर लूं. जाइए आप, मैं अकेले भी रह सकती हूं,’ रफीका मैडम का नारीत्व और आत्मनिर्भरता का दंभ सिर चढ़ कर बोलने लगा.

‘तो ठीक है, रह लो अकेली,’ कह कर सईद मास्साब गुस्से से जूते पहन कर निकल गए उन के घर से.

सईद मास्साब की पहली और दूसरी बीवियों की बेटियां शादी के लायक हो गई थीं. उन्होंने जानबूझ कर दूसरे शहरों में रिश्ता किया और वहीं ले जा कर बेटियों का निकाह कर दिया.

बेवजह दिखावा या शोशा न करने की दलील दे कर केवल बीवियों के मायके वालों को जबरदस्त दावतें खिला कर रुखसत कर दिया.

तीसरी बीवी आयरीन निसंतान थी. खर्चीले इलाज से पता चला कि प्रजनन करने वाली गर्भाशय कि एक नली बंद है. मास्साब ने तीनों बीवियों की कमाई और जमा पूंजी से शहर से दूर 10 एकड़ जमीन खरीद कर सीनियर सैकंडरी स्कूल की तामीर का काम शुरू कर दिया. उन का लाखों का अलगअलग बैंकों में बैंकबैलेंस, शेयर, सोने की गिन्नियां लौकर्स में महफूज थीं.

सईद मास्साब का रिटायरमैंट भी गुपचुप तरीके से हो गया. खानदान में कैजुअल्टी हो गई है, हमारा जश्न मनाना इंसानियत के खिलाफ है,’ कह कर मास्साब ने बड़ी खूबसूरती से रिटायरमैंट के फंड्स का बंटवारा रोकने की सोचीसमझी प्लानिंग के तहत सारे मंसूबे हल कर दिए. तीनों बीवियों, बच्चों को अपनी बीमा पौलिसीज और जमा धनराशि से दूर रखने के लिए अपनी जायदाद का किसी को वारिस नहीं बनवाया. हां, छोटे भाई के नाम वसीयत कर के अपनी पूरी जायदाद का मालिकाना हक उसे दे दिया.

बहार: भाग 2- क्या पति की शराब की लत छुड़ाने में कामयाब हो पाई संगीता

लेखिका- रिचा बर्नवाल

अपने पति के कटाक्ष को नजरअंदाज कर आरती ने मुसकराते हुए संगीता से कहा, ‘‘मुझे चाट खाने का शौक था और इन्हें एसिडिटी हो जाती थी बाहर का कुछ खा कर… तुम्हें एक घटना सुनाऊं?’’

‘‘सुनाइए, मम्मी,’’ संगीता ने फौरन उत्सुकता दिखाई.

‘‘तेरे ससुर शादी की पहली सालगिरह पर मुझे आलू की टिक्की खिलाने ले गए. टिक्की की प्लेट मुझे पकड़ाते हुए बड़ी शान से बोले कि जानेमन, आज फिर से करारी टिकियों का आनंद लो. तब मैं ने चौंक कर पूछा कि मुझे आप ने पहले टिक्की कब खिलाई? इस पर जनाब बड़ी अकड़ के साथ बोले कि इतनी जल्दी भूल गई. अरे, शादी के बाद हनीमून मनाने जब मसूरी गए थे, क्या तब नहीं खिलाई थी एक प्लेट टिक्की?’’

आरती की बात पर संगीता और रवि खिलखिला कर हंसे. रमाकांत झेंपेझेंपे अंदाज में मुसकराते रहे. शरारत भरी चमक आंखें में ला कर आरती उन्हें बड़े प्यार से निहारती रहीं.

अचानक रमाकांत खड़े हुए और नाटकीय अंदाज में छाती फुलाते हुए रवि से बोले, ‘‘झठीसच्ची कहानियां सुना कर मेरी मां मेरा मजाक उड़ा रही है यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता.’’

‘‘आप को इस बारे में कुछ करना चाहिए, पापा,’’ रवि बड़ी कठिनाई से अपनी आवाज में गंभीरता पैदा कर पाया.

‘‘तू अभी जा और पूरे सौ रुपए की टिक्कीचाट ला कर इस के सामने रखे दे. इसे अपना पेट खराब करना है, तो मुझे क्या?’’

‘‘बात मेरी चाट की नहीं बल्कि संगीता के फिल्म न देख

पाने की चल रही थी, साहब,’’ आरती ने आंखें मटका कर उन्हें याद दिलाया.

‘‘रवि,’’ रमाकांत ने सामने बैठे बेटे को उत्तेजित लहजे में फिर से आवाज दी.

‘‘जी, पिताजी,’’ रवि ने फौरन मदारी के जमूरे वाले अंदाज में जवाब दिया.

‘‘क्या तू जिंदगीभर अपनी बहू से फिल्म न दिखाने के ताने सुन कर अपमानित होना चाहेगा?’’

‘‘बिलकुल नहीं.’’

‘‘तब 4 टिकट फिल्म के भी ले आ, मेरे लाल.’’

‘‘ले आता हूं, पर 4 टिकट क्यों?’’

‘‘हम दोनों भी इन की खुशी की खातिर 3 घंटे की यातना सह लेंगे.’’

‘‘जी,’’ रवि की आवाज कुछ कमजोर पड़ गई.

‘‘अपने घटिया मुकद्दर पर आंसू वहां लेंगे.’’

‘‘जी.’’

‘‘कभीकभी आंसू बहाना आंखों के लिए अच्छा होता है, बेटे.’’

‘‘जी.’’

‘‘जा फिर चाट और टिकट

ले आ.’’

‘‘लाइए, पैसे दीजिए.’’

‘‘अरे, अभी तू खर्च कर दे. मैं बाद में दे दूंगा.’’

‘‘उधार नहीं चलेगा.’’

‘‘मेरे पास सिर्फ 2-2 हजार के नोट हैं.’’

‘‘मैं तुड़ा देता हूं.’’

‘‘मुझ पर विश्वास नहीं तुझे?’’

रवि मुसकराता हुआ खामोश खड़ा रहा. तभी संगीता और आरती ने ‘‘कंजूस… कंजूस,’’ का नारा बारबार लगाना शुरू कर दिया.

रमाकांत ने उन्हें नकली गुस्से से घूरा, पर उन पर कोई असर नहीं हुआ. तब वे अचानक मुसकराए और फिर अपने पर्स से निकाल कर उन्होंने 5 सौ के 2 नोट रवि को पकड़ा दिए.

संगीता और आरती अपनी जीत पर खुश हो कर खूब जोर से हंसीं. उन की हंसी में रवि और रमाकांत भी शामिल हुए.

उस रात संगीता और रवि एकदूसरे की बांहों में कैद हो कर गहरी नींद सोए. उन का वाह रविवार बड़ा अच्छा गुजरा था. एक लंबे समय के बाद रवि ने दिल की गहराइयों से संगीता को प्रेम किया था. प्रेम से मिली तृप्ति के बाद उन्हें गहरी नींद तो आनी ही थी.

अगले दिन सुबह 6 बजे

के करीब रसोई से आ रही खटपट की आवाजें सुन कर संगीता की नींद टूटी. वह देर तक सोने की आदी थी. नींद जल्दी खुल जाए

तो उसे सिरदर्द पूरा दिन परेशान करता था.

सुबह बैड टी उसे रवि ही

7 बजे के बाद पिलाता था. उसे अपनी बगल में लेटा देख संगीता ने अंदाजा लगाया कि उस के सासससुर रसोई में कुछ कर रहे हैं.

संगीता उठे या लेटी रहे की उलझन को सुलझ नहीं पाई थी कि तभी आरती ने शयनकक्ष का दरवाजा खटखटाया.

दरवाजा खोलने पर उस ने अपनी सास को

चाय की ट्रे हाथ में लिए खड़ा पाया.

‘‘रवि को उठा दो बहू और दोनों चाय पी लो. आज की चाय तुम्हारे ससुर ने बनाई है. वे नाश्ता बनाने के मूड में भी हैं,’’ ट्रे संगीता के हाथों में पकड़ा कर आरती उलटे पैर वापस चली गईं.

संगीता मन ही मन कुढ़ गई. रवि को जागा हुआ देख उस ने मुंह फुला कर कहा, ‘‘नींद टूट जाने से सारा दिन मेरा सिरदर्द से फटता रहेगा. अपने मातापिता से कहो मुझे जल्दी न उठाया करें.’’

रवि ने हाथ बढ़ा कर चाय का गिलास उठाया और सोचपूर्ण लहजे में बोला, ‘‘पापा को तो चाय तब बनानी नहीं आती थी. फिर वे आज नाश्ता बनाएंगे? यह चक्कर कुछ समझ में नहीं आया.’’

संगीता और सोना चाहती थी, पर वैसा कर नहीं सकी. रमाकांत और आरती ने रसोई में खटरपटर मचा कर उसे दबाव में डाल दिया था. बहू होने के नाते रसोई में जाना अब उस की मजबूरी थी.

चाय पीने के बाद जब संगीता रसोई में पहुंची, तब रवि उस के पीछपीछे था.

रसोई में रमाकांत पोहा बनाने की तैयारी में लगे थे. आरती एक तरफ स्टूल पर बैठी अखबार पढ़ रही थीं.

उन दोनों के पैर छूने के बाद संगीता ने जबरन मुसकराते हुए कहा, ‘‘पापा, आप यह क्या कर रहे हैं? पोहा मैं तैयार करती हूं… आप कुछ देर बाहर घूम आइए.’’

रमाकांत ने हंस कर कहा, ‘‘तेरी सास

से मैं ने 2-4 चीजें बनानी

सीखी हैं. ये सब करना मुझे अब बड़ा अच्छा लगता है. बाहर घूमने का काम आज तुम और रवि कर आओ.’’

‘‘मां, पापा ने रसोई के काम कब सीख लिए और उन्हें ऐसा करने की जरूरत क्या आ पड़ी थी?’’ रवि ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘तेरे पिता की जिद के आगे किसी की चलती है क्या? पतिपत्नी को घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां आपस में मिलजुल कर निभानी चाहिए, यह भूत इन के सिर पर अचानक कोविड-19 के लौकडाउन के दौरान चढ़ा और सिर्फ सप्ताहभर में पोहा, आमलेट, उपमा, सूजी की खीर, सादे परांठे और आलू की सूखी सब्जी बनाना सीख कर ही माने,’’ आरती ने रमाकांत को प्यार से निहारते हुए जवाब दिया.

‘‘यह तो कमाल हो गया,’’ रवि की आंखों में प्रशंसा के भाव उभरे.

‘‘जब तक मैं यहां हूं, तुम सब को नाश्ता कराना अब मेरा काम है,’’ रमाकांत ने जोशीले अंदाज में कहा.

‘‘आज पोहा खा कर ही हमें मालूम पड़ेगा कि रोजरोज आप का बनाया नाश्ता हम झेल पाएंगे या नहीं,’’ अपने इस मजाक पर सिर्फ रवि ही खुद हंसा.

‘‘आप रसोई में काम करें, यह ठीक नहीं है,’’ संगीता ने हरीमिर्च काट रहे रमाकांत के हाथ से चाकू लेने की कोशिश करी.

‘‘छोड़ न, बहू,’’ आरती ने उठ कर उस का हाथ पकड़ा और कहा, ‘‘ये रवि करेगा अपने पिता की सहायता. चल तू और मैं कुछ देर सामने वाले पार्क में घूम आएं. बड़ा सुंदर बना हुआ है पार्क.’’

संगीता ‘न… न,’ करती रही, पर आरती उसे घुमाने के लिए घर से बाहर ले ही गईं. इधर रमाकांत ने रवि को जबरदस्ती अपनी बगल में खड़ा कर पोहा बनाने की विधि सिखाई.

आगे पढ़ें- अचानक आरती ताली बजाती हुई…

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नए साल के नए संकल्प

अपनी जिंदगी के 30-35 वसंत देखने के बाद भी हमारी बेसिक प्रौब्लम अभी तक सौल्व नहीं हो पाई है. हमारी समस्या है, नए साल पर नएनए संकल्प लेने और फिर शीघ्र ही उन्हें तोड़ डालने की. ज्यों ही नया साल आने को होता है, लोग न्यू ईयर सेलिब्रेशन की तैयारियों में डूब जाते हैं, किंतु हमें तो हमारी प्राथमिक समस्या सताने लगती है.

हम आदत से मजबूर हैं. संकल्प लेना हमारा जनून है तो उन्हें तोड़ना हमारी आदत या मजबूरी है. संकल्प लिए बिना हम नहीं रह सकते. भला नए साल का स्वागत बिना रिजोल्यूशन के कैसे संपन्न हो सकता है? हम अल्पमात्रा में ही सही, लेकिन अंगरेजी पढ़ेलिखे हैं. 10वीं की परीक्षा, अंगरेजी की असफलता के कारण, 10 बार के सतत प्रयासों के बाद पास की है. अंगरेजी का महत्त्व हम से ज्यादा कौन समझेगा भला?

जब हम ने जवानी की दहलीज पर पहला कदम रखा, तब हम ने जमाने के साथ कदमताल मिलाते हुए, नए साल के स्वागत के लिए अपने पारिवारिक पैटर्न को ‘आउटडेटेड’ समझ कर त्याग दिया. हमारे दादा, पिताश्री तो जमाने के हिसाब से निश्चित रूप से बैकवर्ड रहे होंगे. तभी तो वे फाइवस्टार कल्चर के अनुरूप मदिरा से थिरकते, लड़खड़ाते कदमों से कभी भी ‘न्यू ईयर सेलिब्रेशन’ के महत्त्व को नहीं समझ पाए. वे लोग तो ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि, पूजाअर्चना, देव आराधना, दानदक्षिणा या गरीबों की सहायता कर के नए साल की शुरुआत करते थे. हम ने ‘सैल्फ डिपैंडेंट’ होते ही ऐसे दकियानूसी खयालातों को तुरंत छोड़ने में ही अपनी समझदारी समझी. अंगरेजी कल्चर के चार्म से हम अपनेआप को कैसे दूर रख सकते थे?

हमें याद है कि नए साल पर संकल्प लेने का फैशन आज से 20 बरस पहले भी था. उस समय लड़कपन में हमारे ऊपर भी यह शौक चढ़ा और आज तक यह कायम है.

अगले नववर्ष पर हमारा संकल्प था- समयबद्धता. हम ने निश्चय किया कि हम नए साल में सब कुछ समय से करेंगे. समय का सदुपयोग करने का जनून चढ़ चुका था. आननफानन में हम ने अपने लिए एक आदर्श दिनचर्या निर्धारित कर डाली. इसे तैयार करने हेतु न जाने कितने महापुरुषों की जीवनियों का गहन अध्ययन करना पड़ा. लेकिन शीघ्र ही हमें एहसास हो गया कि महापुरुषों की  नकल करने में हमारा जीवन तो मशीन जैसा कृत्रिम बन चुका था.

हम गच्चा खा गए थे. शीघ्र ही हमारा टाइमटेबल गड़बड़ाने लगा. सुबह की सैर से ले कर स्टडी तक सब कुछ तो था, लेकिन मनोरंजन का तो नामोनिशान ही न था. जीवन बेहद बोरिंग लगने लगा. 2-4 दिनों बाद ही हमारे ऊपर से महापुरुष बनने का जनून उतर चुका था. कुछ दिन बाद ही हमारा जीवन पुराने ढर्रे पर उतर आया. सुबह लेट उठने में हमें तो स्वर्गिक आनंदानुभूति होती थी, इसलिए शीघ्र ही इस संकल्प से पीछा छुड़ाने की युक्ति खोज डाली गई.

युवा थे, इसलिए हमारे ऊपर देशभक्ति का जनून सवार था. अब तीसरे वर्ष हम ने एक ऐसा संकल्प चुना, जो यूनीक और सकारात्मक सोच से परिपूर्ण था. हमारा संकल्प था- ‘नए वर्ष से अब समाचारपत्र उसी दिन पढ़ेंगे, जिस दिन फ्रंट पेज पर हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार की खबरें न छपी होंगी.’

घर में अनेक अखबार आने के बाद भी हम उन्हें पढ़ने में असमर्थ थे. कारण, हमेशा फ्रंट पेज ऐसी खबरों से भरा पड़ा रहता था, जिन से हमें एलर्जी थी अर्थात जिन्हें न पढ़ने का हम ने संकल्प ले रखा था. बड़े दुख के साथ यह संकल्प भी छोड़ना पड़ा.

चौथा संकल्प लेने वाले नए साल तक हमारा विवाह संपन्न हो चुका था. उस वर्ष हम ने ‘मृदु भाषण’ का संकल्प ले डाला. इस संकल्प में हमें कोई ‘साइड इफैक्ट’ नहीं दिख रहा था. लेकिन यह संकल्प तो शीघ्र ही समस्या की जड़ बन गया. आफिस हो या घर, भला हमारे ‘मृदु भाषणों’ को कौन सुनता? पत्नीजी हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर ही शक करने लगीं. विवश हो कर हमें इस संकल्प से भी मुक्त होना पड़ा.

5वें वर्ष हम ने अपनी पत्नीजी को केंद्रित करते हुए संकल्प लिया कि उन पर कभी गुस्सा नहीं करेंगे. लेकिन इस संकल्प की भी हवा निकलते देर न लगी. पहले दिन से ही ठंडी चाय और गरम झिड़की ने हमारा सारा जोश ठंडा कर दिया. संकल्प का नशा उन की तनी हुई भृकुटियां देख कर ही रफूचक्कर हो गया. अंत में हमें उन के आगे नतमस्तक हो कर अपना संकल्प छोड़ना पड़ा.

छठे वर्ष हमारा संकल्प था- ‘मातापिता की सेवा में नववर्ष बिताना.’

यह संकल्प हमें सामाजिक, पारिवारिक और धार्मिक विचार से अत्यंत श्रेष्ठ लग रहा था. लेकिन कुदरत को शायद हमारी सफलता मंजूर ही न थी. हमारे संकल्प से पत्नीजी का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा. उन के तानों और व्यंग्यबाणों की अटूट वर्षा होने लगी, ‘अपने मातापिता का इतना खयाल? कभी सासससुर की सुध भी ली होती. बेचारे कितना प्रेम करते हैं आप से. वे तो पराए हैं न.’

7वें वर्ष एक बार फिर नववर्ष की तैयारियां होने लगीं. घरपरिवार से मुक्त हो कर हम ने अपने संकल्प का दायरा विस्तृत करते हुए ‘समाज सुधार’ पर केंद्रित किया. अब समाज सुधार का बीड़ा उठाते हुए हम नए साल पर लोगों को धूम्रपान, मदिरापान न करने की सलाह देने लगे. अब चूंकि हमारे अंदर तो कोई भी व्यसन था नहीं, इसलिए दूसरों पर सुधार पहल ही हमारा संकल्प था.

उस वर्ष नववर्ष की पूर्व संध्या पर आयोजित पार्टी से ही हम ने अपने महान संकल्प की घोषणा कर डाली. लेकिन हमारे सारे जोश, उत्साह से पार्टी के रंग में भंग पड़ गया. हमें पागल, सनकी समझ कर पार्टी से बाहर कर दिया गया. शीघ्र ही कालोनी वाले हमारा बहिष्कार करने लगे. कोई हमारी भावना समझने को तैयार नहीं था, इसलिए इस संकल्प ने भी शैशवावस्था में ही दम तोड़ दिया.

 

हम ने नियमित रूप से ‘डायरी लेखन’ का संकल्प शुरू किया. हम गंभीरतापूर्वक प्रतिदिन अपने दिल की बात सत्यानुरागी की तरह अपनी पर्सनल डायरी में लिखने लगे. लेकिन हमारी साफगोई, हमारी सचाई लोगों के लिए सिरदर्द बन गई. डायरी में वर्णित काल्पनिक प्रेमानुभूति और अपने शृंगाररस की पंक्तियों ने पत्नीजी के कान खड़े कर दिए. उन के द्वारा हमारी डायरी पढ़ते ही भूचाल आ गया. गृहस्थी टूटने के कगार पर जा पहुंची. इसलिए समझदारी का परिचय देते हुए हम ने तुरंत इस संकल्प की इतिश्री कर दी.

रचनात्मक कार्य करने के जनून के तहत हम ने 11वें संकल्प के रूप में अपनी कालोनी में सफाई अभियान चलाने का संकल्प लिया. हम ने लोगों को घरघर जा कर अच्छा नागरिक बनने और डस्टबिन में कूड़ा डालने के उपदेश देने शुरू किए. लेकिन इस कृत्य का परिणाम यह हुआ कि लोग हमें ही कूड़ाकचरा संग्रहकर्ता समझने लगे.

12वें वर्ष हम ने अपनी कालोनी में ‘योगा क्लासेज’ शुरू करने का संकल्प धारण किया. हम निशुल्क ही लोगों को बौडी फिटनैस के गुर सिखाने लगे. लेकिन हमारा यह संकल्प भी खतरे में पड़ गया. हमारे कैंप में महिलाओं की अपार भीड़ ने पत्नीजी का दिमाग घुमा कर रख दिया. इसलिए पत्नीजी की कृपा से यह संकल्प भी टूट कर बिखर गया.

13वें वर्ष में हमारा संकल्प था- ‘सब की सेवा करना.’ लेकिन सेवा से मेवा तो दूर, हम तो कंगाली के कगार पर जा पहुंचे, क्योंकि

लोग हमारी भावना को समझते हुए हमें बेवकूफ बनाने का प्रयास करने लगे. यह संकल्प भी असफल हो कर इतिहास की गाथा बन कर रह गया.

अब हमें लगता है कि हमारे संकल्प संभवत: होते ही तोड़ने के लिए हैं. हम प्रयास कर के भी उन्हें पूरा नहीं कर पा रहे हैं.

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जय हो खाने वाले बाबा की

घरपहुंचते ही हम ने देखा कि हमारी श्रीमतीजी अपने सामने छप्पन भोग की थाली लिए गपागप खाए जा रही थीं.

हम उन्हें देख कर खुशी से गुब्बारे की तरह फूल गए. हमारी श्रीमतीजी इतनी दुबलीपतली हैं कि एक बार उन्हें ले कर हम रेलवे स्टेशन पर गए तो वहां कमाल हो गया. वहां तोलने वाली मशीन पर उन्होंने अपना वजन जानने की जिद की तो हम ने मशीन में 1 रुपए का सिक्का डाला और उन को मशीन पर खड़ा कर दिया. थोड़ी देर में मशीन से टर्रटर्र की आवाज आई और एक टिकट निकल कर बाहर आया. उस पर लिखा था कि मुझ से मजाक मत करो. पहले मशीन पर खड़े तो हो जाओ. हम ने माथा ठोंक लिया.

श्रीमतीजी कहने लगीं, ‘‘यह मशीन झूठ बोलती है. आप खड़े हो जाइए, फिर देखते हैं कि मशीन क्या बोलती है.’’

हम ने 1 रुपए का सिक्का पुन: डाला. टर्रटर्र की आवाज के साथ एक टिकट निकला, जिस पर लिखा था कि 2 व्यक्ति एकसाथ खड़े न हों.

गुस्से में हम ने सोचा कि एक लात मशीन को मार दें, लेकिन हम जानते थे कि चोट हमारे ही पांव में लगेगी. इसलिए हम अपनी श्रीमतीजी को प्लेटफार्म घुमा कर लौट आए.

घर आ कर हम ने उन से खूब कहा कि आप खाना खाया करो, टौनिक पीया करो, लेकिन उन्होंने मुंह फेरते हुए कहा, ‘‘मेरी बिलकुल भी इच्छा नहीं होती है खाना खाने की.’’

हम उन के इस तरह दुबले होने से बेहद चिंतित थे लेकिन एक दिन जब हम शाम को घर आए और अपने सामने छप्पन भोग लगाए उन्हें गपागप खाते देखा तो हमारी बड़ी इच्छा हुई कि नाचने लगें, लेकिन शांति बनाए रहे.

प्रसन्न मुद्रा में हम ने श्रीमतीजी को देखा तो उन्होंने हमें भी छप्पन भोग खाने के लिए इशारा किया. हम ने शरीफ पति की तरह मना कर दिया. तभी परदे की ओट से किसी की हंसी की आवाज आई. हम तो डर ही गए. फिर देखा तो सामने सासूमां खड़ी थीं.

‘‘अरे, आप कब आईं?’’

‘‘आप जब सुबह औफिस गए थे, तब आई थी.’’

‘‘आप ने आने की खबर क्यों नहीं दी?’’

‘‘सोचा सरप्राइज दूंगी,’’ कह कर वे पुन: जोर से हंस पड़ीं.

‘‘अचानक कैसे आना हुआ?’’

‘‘अपने भाई के घर जा रही थी, सोचा सरला से भी मिलती चलूं… यह तो बहुत ही दुबली हो गई है.’’

‘‘फिर आप ने ऐसा क्या किया कि छप्पन भोग बनाते ही इन्हें भूख लग आई?’’ हम ने आगे बात को जोड़ते हुए कहा.

‘‘आप की यही बहुत बुरी बात है कि आप किसी की सुनते नहीं. हमारी बात खत्म तो हो जाने देते,’’ उन्होंने तनिक नाराजगी के साथ कहा.

‘‘आप ही बात पूरी कर लीजिए,’’ कहते हुए हम सोफे पर पसर गए.

सासूमां ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘मैं सुबह आई तो सरला को इतना दुबला देख कर

चकित रह गई. मैं ने इस से पूछा भी कि आखिर बात क्या है? तो इस ने कहा कि कुछ भी नहीं. मैं बड़ी परेशान थी. अचानक मुझे ध्यान आया कि आप के शहर में खाने वाले बाबा का बड़ा नाम है.’’

‘‘खाने वाले बाबा?’’ हम ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘जी हां, खाने वाले बाबा. उन का बड़ा प्रताप है. उन के पास सभी प्रकार की समस्याओं के लिए एक ही इलाज होता है.

यदि किसी की ग्रहदशा खराब हो तो वे कुत्ते से ले कर सूअर तक को खाना खिलाने को कहते हैं…’’

वे कुछ और कहतीं कि हम ने बीच में बात काट दी, ‘‘सासूमां, कुत्ता तो गले से उतर रहा है, लेकिन सूअर वाली बात…’’

‘‘आप भी क्या दामादजी बाल की खाल निकालते हैं,’’ कह कर वे झेंप गईं. फिर कहने लगीं, ‘‘बस मैं सरला को ले कर बाबाजी के दरबार में गई. पूरे 2,100 रुपए की 2 रसीदें कटवाईं और उन के सामने हाजिर हो गई. उन्होंने हमें 3 मिनट का समय दिया. वाह, क्या दरबार भरा था. होंगे हजार लोग, सब हाथ जोड़े खाने वाले बाबा की महिमा का गुणगान कर रहे थे.

‘‘एक ने बताया कि बाबाजी आप ने कहा था कि कौओं को हलवा खिलाओ, इसलिए 1 दर्जन कौओं को खोज कर 3 किलोग्राम असली घी का हलवा खिला दिया. लेकिन बाबाजी सुबह वे सब मर गए.

‘‘बाबाजी जोर से हंस दिए और कहने लगे कि बेटा, तेरे दुखदरिद्र खत्म हो गए. अब तेरी विजय ही विजय है. वह भक्त वहीं खड़ाखड़ा कांपते हुए नाचने लगा.

‘‘अगले भक्त ने बताया कि बाबाजी आप ने मुझे पड़ोसी को भोजन कराने की सलाह दी थी. कहा था पकौड़े खिलाना.

‘‘‘खिलाए या नहीं?’

‘‘‘खिलाए बाबाजी.’

‘‘‘फिर क्या हुआ?’

‘‘‘बाबाजी उस ने सुबह आ कर खूब जूते मारे.’

‘‘‘क्यों?’

‘‘‘पूरे घर वालों को दस्त लग गए थे.

वह बहुत गुस्से में था. मैं ने चुपचाप जूते खा लिए बाबाजी.’

‘‘‘ठीक किया. बेटा, ये जूते तुझे नहीं उस प्रेत आत्मा को पड़े जो तुझे आगे बढ़ने से रोक रही थी. अब वह चली गई है. तेरा भाग्य उदय होने को है, समझा? वह भक्त भी तक धिना तक कह के नाचने लगा.

‘‘जब हमारी बारी आई तो मैं ने बताया कि मेरी बेटी सरला के पास सब कुछ है, फिर भी इसे भूख नहीं लगती. यह ठीक से कुछ खाती नहीं है.

‘‘बाबाजी ने मुझ से कहा कि माताजी पूरे छप्पन मीठे भोग बना कर 2 दिनों तक खिलाओ, उस के बाद प्रताप देखना.

‘‘बाबाजी की जय हो, कह कर हम मांबेटी ने 1 मिनट तक वहां भरतनाट्यम किया और फिर घर आ गईं.

‘‘घर आ कर मैं ने छप्पन भोग बनाए और बाबाजी का चमत्कार देखिए कि बेटी कैसे गपागप चट कर रही है. जय हो खाने वाले बाबाजी की,’’ कह कर सासूमां ने आंखें बंद कीं और हाथ जोड़ लिए.

‘‘तो 1 सप्ताह तक छप्पन भोग बनेंगे?’’

‘‘1 सप्ताह नहीं, मात्र 2 दिनों तक,’’ हमारी सासूमां ने कहा.

छप्पन भोग का सेवन करती हुई श्रीमतीजी को देख कर हमारी खुशी का ठिकाना न रहा. हमारा मन बारबार खाने वाले बाबा की जय करने को हो रहा था. वास्तव में देश में, परिवार में ऐसे चमत्कार बाबा और सिर्फ बाबा ही कर सकते हैं.

रात में सासूमां ने हमें नींद से जगाया और घबराए स्वर में कहने लगीं, ‘‘सरला बेटी अजीबोगरीब हरकतें कर रही है.’’

नागिन की तरह फर्श पर बलखाती श्रीमतीजी को देख कर हम दंग रह गए.

‘‘क्या हो गया प्रिय?’’ हम चीखे.

उन्होंने हमें फटीफटी आंखों से ऐसे देखा जैसे कोई इच्छाधारी नागिन हो. अचानक हमें ध्यान आया कि यही इच्छाधारी नागिन हमारी श्रीमतीजी के पेट में थी, जो खानेपीने नहीं दे रही थी. सासूमां अगरबत्ती जला लाई थीं. श्रीमतीजी अभी भी ऐंठ रही थीं.

हमें कुछ शक हुआ कि मामला कुछ उलटा है. हम ने अपने घर के फैमिली डाक्टर को फोन लगाया तो वे बेचारे तुरंत आ गए. श्रीमतीजी को अस्पताल में भरती कर जांच की गई. पता चला कि इतना खाने की आदत नहीं थी.

बाबाजी के आदेश के चलते जबरदस्ती खा लिया इसलिए बदहजमी हो गई. शुगर टैस्ट किया तो श्रीमतीजी डायबिटीज की मरीज भी निकलीं. मीठा खाने से शुगर लैवल अत्यधिक बढ़ गया था.

वह तो भला हो डाक्टर झटका का, जिन्होंने सही समय पर चिकित्सा कर दी. सब से बुरी स्थिति तो हमारी सासूमां की थी, जो एक ओर मुंह पर पल्ला किए खाने वाले बाबा को कोस रही थीं.

यदि उन की बेटी को कुछ हो जाता तो बाबा यही कहते कि प्रेत उसे ले गया. लेकिन हमारी श्रीमतीजी और एक मां की इतनी बड़ी, पलीपलाई बेटी खो जाती.

श्रीमतीजी पूरे 1 सप्ताह अस्पताल में रह कर लौटीं. अब हम ने कान पकड़ लिए हैं कि हमें कभी उन्हें ऐसे बाबाओं के चक्कर में हम उन्हें नहीं पड़ने देंगे.

कल टीवी पर देखा था कि ऐसे 1 दर्जन डायबिटीज के मरीजों ने थाने में खाने वाले बाबा के नाम शिकायतें दर्ज करवाई हैं. अब आएगा मजा जब बाबाजी थाने और जेल में अपनी ग्रहदशा को सुधारेंगे. सही कहा न हम ने?

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वैधव्य से मुक्ति: भाग 3- खूशबू ने क्या किया था

कहानी- लक्ष्मी प्रिया टांडि

‘बेटी, तब मैं तुम्हारी मदद कर दिया करूंगी. पहले भी तो मैं रसोई का काम किया करती थी,’ मैं ने उसे समझाने की गरज से कहा.

‘न…बाबा…न. मेरे पापा को पता चलेगा तो मुझे बहुत डांट पड़ेगी कि मैं आप से काम करवाती हूं. फिर जब मैं आप से ही मदद नहीं ले सकती तो बूआजी और बड़ी मां से कैसे लूं? वे तो आप से भी बड़ी हैं. एक काम किया जा सकता है. सभी के लिए एक जैसा भोजन बनाया जा सकता है. इस से मुझे भी दिक्कत नहीं होगी और सभी लोग एक जैसे भोजन का आनंद ले सकेंगे.’

‘क्यों न कल से मां के लिए सभी के जैसा खाना बनाया जाए? क्योंकि सिर्फ मां को ही मांसाहारी भोजन से परहेज है, पर बाकी लोग तो खुशी से शाकाहारी भोजन खा सकते हैं,’ खुशबू ने कहा तो सब के चेहरों की मुसकान गायब हो गई.

करीबकरीब हर रोज मांसाहारी भोजन का स्वाद लेने वाली जेठानी और ननद की जबान यह सुन कर अकुला उठी. ननद ने कहा, ‘अरे, ऐसा कैसे हो सकता है. हम रोज घासफूस नहीं खा सकते.’

‘क्यों नहीं खा सकते?’ खुशबू ने जोर दे कर कहा, ‘जिस भोजन की कल्पना से आप लोग घबरा उठी हैं वही खाना मां इतने सालों से खाती आ रही हैं, यह विचार भी कभी आप लोगों के दिलों में आया है?’

खुशबू के इस तर्क पर जेठानी ने होशियारी दिखाते हुए बात संभालने की गरज से कहा, ‘तू ठीक कहती है, बहू, खानेपीने में क्या रखा है, यह तो लता ही कहती है कि तामसिक भोजन से मन में विकार उत्पन्न होता है. इसलिए विधवा को सात्विक भोजन करना चाहिए,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई ठसक से बोलीं, ‘देख लता, अब तेरी यह जिद नहीं चलने वाली. तुझे भी वही खाना पड़ेगा जो हम सब खाते हैं. बहू ठीक ही तो कहती है.’

इस पर ननद ने भी अनिच्छा से समर्थन जताया क्योंकि उन की चटोरी जबान सागसब्जी खा कर तृप्त नहीं हो सकती थी. सालों बाद मैं ने अपना पसंदीदा भोजन किया. मेरा दिल खुशबू को लाखलाख दुआएं देता रहा था.

मेरे साथ प्रतिबंध और नियमकानून का आखिरी दौर निशा की शादी में खत्म हुआ. शादी से एक दिन पहले निशा जोरजोर से रोए जा रही थी. पहले तो सब ने यह समझा कि मायके से बिछुड़ने का गम उसे सता रहा है पर बात कुछ और थी. खुशबू के बहुत पूछने पर निशा ने बताया कि उसे इस बात का दुख है कि मां चाहते हुए भी उस की शादी नहीं देख पाएंगी. पिता तो थे नहीं, मां भी शादी के मंडप में मौजूद नहीं होंगी.

जब खुशबू ने घर में ऐलान किया कि निशा की शादी के मंडप में मां भी बैठेंगी तो घर में मौजूद स्त्रियां भड़क उठीं कि विधवा की मौजूदगी से शुभ काम में अमंगल होगा.

ननद ने कहा, ‘बहू, तुम्हारी हर उलटीसीधी बात मैं अब तक मानती रही हूं पर इस बार तुम चुप ही रहो तो अच्छा है क्योंकि तुम्हें इस घर के रीतिरिवाजों का पता नहीं है. अपनी मर्यादा में रहा करो और मुझे अपने एस.पी. पापा के ओहदे की धौंस मत दिखाओ. हद हो गई…’

बस, यह चिनगारी काफी थी. निशा को बैठा छोड़ खुशबू तन कर खड़ी हो गई और जो बोलना शुरू किया तो सभी को काठ मार गया. बोली, ‘आप ने सही कहा, बूआजी. आज तो सच में हद हो गई. यह सही है कि मैं ठीक से आप के रस्मोरिवाजों को नहीं जानती पर मैं खुद एक औरत हूं. इसलिए एक औरत की भावना को अच्छी तरह समझ सकती हूं.

‘छोटा मुंह बड़ी बात कह रही हूं. इसलिए माफ कीजिएगा. मैं यह कहे बिना नहीं रह सकती कि जो नियम और कायदेकानून मां पर लागू होते हैं वे सब आप पर भी लागू होते तो ज्यादा बेहतर होता. मां विधवा होने का जो कष्ट भोगती  आ रही हैं, उस में उन की कहीं कोई गलती नहीं है क्योंकि यह कुदरत का नियम है कि जो जन्मा है उसे मरना है. पर आप तो जीतेजी फूफाजी और अपने बच्चों को छोड़ आई हैं. आप न तो अच्छी मां साबित हुईं न ही एक अच्छी पत्नी. फिर भी आप के लिए संसार की हर सुखसुविधा, साजशृंगार, खानपान और आमोदप्रमोद वर्जित नहीं हैं, क्यों? सिर्फ इसलिए कि आप की मांग में सुहागन होने का लाइसेंस चमक रहा है.’

सभी जड़ हो कर खुशबू के तर्क को सुन रहे थे. यद्यपि मेरे हितों के लिए वह सब को चुनौती दे रही थी फिर भी मैं ने उसे चुप होने के लिए कहा, ‘खुशबू, बेटी, बस कर, तू भी…’

इशारे से मुझे खामोश करते हुए खुशबू बोली,  ‘मां, बस, आज भर मुझे कहने से मत रोको. आज के बाद मैं इन से कुछ नहीं कहूंगी. बड़ी मां और बड़े पापा, आप लोगों ने भी बूआजी को सही रास्ता न दिखा कर उलटे उन्हीं का पक्ष  लिया. दुख तो इस बात का है कि हम यह समझ ही नहीं पाते कि पति के गुजरने के बाद तो वैसे भी औरत जीतेजी मर जाती है. जो थोड़ाबहुत सुख उसे मिल सकता है उस से भी हम धर्म और परंपरा के नाम पर यह कह कर उसे वंचित कर देते हैं कि यह सब विधवाओं के लिए नहीं है.’

फिर ननद की ओर देखती हुई बोली, ‘बूआजी, मैं ने अपनी मर्यादा और हदों को कभी पार नहीं किया और न ही कभी करूंगी परंतु इस का उल्लंघन भी अपनी ससुराल को छोड़ कर आप ही ने किया है. मेरे लिए यह खुशी की बात हो सकती है कि मेरे पापा एक नामी एस.पी. हैं पर न तो इस वजह से मैं ने किसी पर रौब गांठा है अगर मेरी कही बातें आप लोगों को गलत लगी हों तो मैं हाथ जोड़ कर आप सभी से माफी मांगती हूं.’

सहसा तालियों की आवाज से मैं वर्तमान में आ गई, मैं ने देखा कि समधीजी हमारे बीच खड़े हुए थे. उन्होंने आगे बढ़ कर खुशबू के सिर पर हाथ रखा, ‘‘बेटी, तू धन्य है. मुझे गर्व है कि ऐसे परिवार से हमारा रिश्ता जुड़ गया है जहां इतने अच्छे विचारों वाली लड़की रहती है. मैं ने सब सुन लिया है और यह मेरा वादा है कि आज से तुम्हारी सास इस घर में होने वाले हर मांगलिक कार्य में सब से पहले भाग लेंगी और यथायोग्य आशीर्वाद भी देंगी.’’

इस तरह उस दिन के बाद से मैं विधवा तो थी पर वैधव्य के कष्ट से मुझे मुक्ति मिल गई. मेरी ननद पर खुशबू की बातों  का ऐसा असर हुआ कि वह अगले दिन ही पहली गाड़ी से अपनी ससुराल रवाना हो गईं.

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