लेखिका- रश्मि राठी
कितने चाव से इस घर में सुधांशी बहू बन कर आई थी. अपने मातापिता की इकलौती बेटी होने के कारण लाड़ली थी. उस के मुंह से बात निकली नहीं कि पूरी हो जाती थी. ज्यादा आजादी की वजह से बेपरवा भी बहुत हो गई थी. मां जब कभी पिताजी से शिकायत भी करतीं तो वे यही कह कर टाल देते, ‘‘एक ही तो है, उस के भी पीछे पड़ी रहती हो. ससुराल जा कर तो जिम्मेदारियों के बोझ तले दब ही जाना है. अभी तो चैन से रहने दो.’’
मां बेचारी मन मसोस कर रह जातीं.
आज उस ने अपनी ससुराल में पहला कदम रखा था. पति एक अच्छी फर्म में मैनेजर के पद पर कार्यरत थे. घर में एक ननद और सास थी.
शादी के बाद 1 महीना तो मानो पलक झपकते ही बीत गया. घर में सभी उसे बेहद चाहते थे. नईनवेली होने के कारण कोई उस से काम भी नहीं करवाता था. सुशांत भी उस का पूरा ध्यान रखता. उस की हर फरमाइश पूरी की जाती. सुधांशी भी नए घर में बेहद खुश थी. उस की ननद गरिमा दिनभर काम में लगी रहती, मगर भाभी से कभी कुछ नहीं कहती.
सुशांत का खयाल था कि धीरेधीरे सुधांशी खुद ही कामों में हाथ बंटाने लगेगी, लेकिन सुधांशी घर का कोई भी काम नहीं करती थी. उस की लापरवाही को देख कर सुशांत ने उसे प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो सुशी, गरिमा मेरी छोटी बहन है. उस के सिर पर पढ़ाई का बोझ है और फिर इस उम्र में मां से भी ज्यादा काम नहीं हो पाता. तुम कामकाज में गरिमा का हाथ बंटा दिया करो.’’
‘‘भई, मैं ने तो अपने मायके में कभी एक गिलास पानी का भी नहीं उठाया और फिर मैं ने नौकरानी बनने के लिए तो शादी नहीं की,’’ अदा से अपने बाल संवारती हुई सुधांशी ने जवाब दिया.
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सुशांत को उस से ऐसे जवाब की जरा भी उम्मीद न थी. फिर भी उस ने गुस्से पर काबू करते हुए कहा, ‘‘घर का काम करने से कोई नौकरानी नहीं बन जाती, फिर नारी का पूर्ण सौंदर्य तो इसी में है कि वह अपने साथसाथ घर को भी संवारे.’’
सुधांशी ने उस की बात का कोई जवाब न दिया और मुंह फेर कर सो गई. सुशांत ने चुप रहना ही उचित समझा. सुबह जब वह उठी तो सुशांत दफ्तर जा चुका था. सुधांशी को ऐसी उम्मीद तो जरा भी न थी. उस ने तो सोचा था कि सुशांत उसे मनाएगा. दिनभर बिना कुछ खाएपीए कमरा बंद कर के लेटी रही. गरिमा ने उसे खाना खाने के लिए कहा भी, मगर उस ने मना कर दिया.
‘‘भाभी सुबह से भूखी हैं, उन्होंने कुछ नहीं खाया,’’ शाम को सुशांत के लौटने पर गरिमा ने उसे बताया.
सुशांत तुरंत उस के कमरे में गया और स्नेह से सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘क्या अभी तक नाराज हो. चलो, खाना खा लो.’’
‘‘मुझे भूख नहीं है, तुम खा लो.’’
‘‘अगर तुम नहीं खाओगी तो मैं भी कुछ नहीं खाऊंगा. अगर तुम चाहती हो कि मैं भी भूखा ही सो जाऊं तो तुम्हारी मरजी.’’
‘‘अच्छा चलो, मैं खाना लगाती हूं,’’ मुसकराते हुए सुधांशी उठी. बात आईगई हो गई. इस के बाद तो जैसे उसे और भी छूट मिल गई. रोज नईनई फरमाइशें करती. खाली वक्त में घूमने चली जाती. घर का उसे जरा भी खयाल न था. कई बार सुशांत के मन में आता कि उसे डांटे लेकिन फिर मन मार कर रह जाता.
आज सुशांत को दफ्तर जाने में पहले ही देर हो रही थी. उस ने कमीज निकाली तो देखा, उस में बटन नहीं थे. झल्ला कर सुधांशी को आवाज दी, ‘‘तुम घर में रह कर सारा दिन आईने के आगे खुद को निहारती हो, कभी और कुछ भी देख लिया करो. मेरी किसी भी कमीज में बटन नहीं हैं. क्या पहन कर दफ्तर जाऊंगा?’’
‘‘लेकिन मुझे तो बटन लगाना आता ही नहीं. गरिमा से लगवा लो.’’
‘‘तुम्हें आता ही क्या है? सिर्फ शृंगार करना,’’ कह कर सुशांत बिना बटन लगवाए ही दफ्तर चला गया.
आज उस का मन दफ्तर में जरा भी नहीं लग रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि शादी कर के भी वह संतुलनपूर्ण जीवन नहीं बिता पा रहा है. उस ने जैसी पत्नी की कल्पना की थी उस का एक अंश भी उसे सुधांशी में नहीं मिल पाया था. दिखने में तो सुधांशी सौंदर्य की प्रतिमा थी. किसी बात की कोई कमी न थी, उस के रूप में. लेकिन जीवन बिताने के लिए उस ने सिर्फ सौंदर्य प्रतिमा की कल्पना नहीं की थी. उस ने ऐसे जीवनसाथी की कल्पना की थी जो मन से भी सुंदर हो, जो उस का खयाल रख सके, उस की भावनाओं को समझ सके.
‘‘अरे यार, क्या भाभी की याद में खोए हुए हो?’’ हर्षल की आवाज ने उसे चौंका दिया.
‘‘हां, नहीं, नहीं तो.’’
‘‘यों हकला क्यों रहे हो? क्या शादी के बाद हकलाना भी शुरू कर दिया?’’ हर्षल ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘कभी भाभीजी को घर भी ले कर आओ या उन्हें घर में छिपा कर ही रखोगे?’’
‘‘नहीं यार, यह बात नहीं है. किसी दिन समय निकाल कर हम दोनों जरूर आएंगे,’’ सुशांत ने उठते हुए कहा.
आज उस का मन घर जाने को नहीं हो रहा था. खैर, घर तो जाना ही था. बेमन से घर चल दिया.
‘‘भैया, तुम्हारे जाने के बाद भाभी मायके चली गईं,’’ घर पहुंचते ही गरिमा ने बताया.
‘‘बहू बहुत गुस्से में लग रही थी, बेटा, क्या तुम से कोई बात हो गई?’’ मां ने घबराते हुए पूछा.
‘‘नहीं, नहीं तो, यों ही चली गई होगी. बहुत दिन हो गए न उसे अपने मातापिता से मिले,’’ सुशांत ने बात संभालते हुए कहा.
‘‘भैया, तुम्हारा खाना लगा दूं?’’
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‘‘नहीं, आज भूख नहीं है मुझे,’’ कह कर सुशांत अपने कमरे की तरफ बढ़ गया. बिस्तर पर अकेले लेटेलेटे उसे सुधांशी की बहुत याद आ रही थी.
याद करने पर बीते हुए सुख के लमहे भी दुख ही देते हैं. ऐसा ही कुछ सुशांत के साथ भी हो रहा था. सुशांत जानता था कि जब तक वह सुशी को लेने नहीं जाएगा वह वापस नहीं आएगी. लेकिन वह ही उसे लेने क्यों जाए? गलती तो सुशी की है. जब उसे ही परवा नहीं, तो वह भी क्यों चिंता करे? लेकिन उस का मन नहीं मान रहा था. बिस्तर से उठ कर गैलरी में आ कर टहलने लगा.
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