मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-3

विहाग ने एक बार फिर अपनी तरफ से क्वार्टर पाने की मुहिम तेज करते हुए पीडब्लूआई के सीनियर सिविल इंजीनियर के आगे अर्जी ले कर हाजरी दी.

बहुत व्यस्त इंसान, एक तरफ सरकार के घर कोई काम होता दूसरी ओर उन के घर में कोई नया वैभवविलास जुड़ जाता. यों करतेकरते एक मंजिल मकान अंदरूनी ठाठ के साथ तीन मंजिला विशाल बंगला तो बन ही चुका था, शहर के अंदरबाहर कई मालिकाना हस्ताक्षर थे उन के नाम. यानी बीसियों जगह उन की संपत्ति बिखरी पड़ी थी, तो स्वाभाविक ही था ऐसा इंसान उन्हें संभालने में व्यस्त रहेगा ही हरदम. खातेपीते चर्बी का प्रोडक्शन हाउस था उन का शरीर.

विहाग को इंजीनियर साहब ने बड़़े गौर से परखा. अनुभवी आंखों से कुछ क्षण स्कैन होता रहा विहाग का सर्वांग चेहरे से ले कर चप्पल तक. लड़का उन के हिसाब से जरा कम समझदार है. बोले, ‘‘तुम मेरे घर आओ, यहां बात नहीं हो सकती.’’

दूसरे दिन शाम को विहाग ने अपनी ड्यूटी का समय किसी दूसरे से बदल कर, ज्यादा दुरुस्त हो कर इंजीनियर साहब से कहे जाने वाले वाक्यों के विन्यासों पर मन ही मन नजर फरमा कर दरख्वास्त के कागजों के साथ उन के घर पहुंचा.

इंजीनियर उसे अपने आधुनिक सुसज्जित ड्राईंगरूम के गद्देदार सोफे पर बिठा कर अंदर चले गए. विहाग साभार धन्यवाद करते हुए कागजात की फाइल ले कर बैठा सामने दीवार पर टंगी घड़ी की सुई गिनने लगा. कभी सायास, कभी अनायास.

घड़ी दो घड़ी का कांटा जब घंटा भरभर का होने लगा और इंतजार नामुमकिन सा हो कर विहाग को बेबस करने लगा तब अंदर से परदा हटा कर एक गोरी सुंदर बहुत ही ज्यादा गोलमटोल मलाई में चुपड़ी सी मालपूए की काया वाली लगभग 30 वर्षीया बाला का पदार्पण हुआ. हाथ में उस के बड़ा सा ट्रे था जिस में सजे थे मनलुभावन मिठाइयां, नमकीन और शर्बत. विहाग सारे माजरे को भांप अंदर ही अंदर पसीने से तरबतर होने लगा.

क्वार्टर रिपेयर की बात कब होगी, कब रिपेयर शुरू होगा, कब वह शिफ्ट होगा और यह सब पिता द्वारा दी गई वैवाहिक वचन के रस्म के साथ कैसे तालमेल में सही बैठेगा.

इस बीच उस लड़की को फोन आया, उस ने ‘हां, हूं’ की और विहाग से लग कर बैठ गई. मनुहार के साथ उस की ओर मिठाईनमकीन की तश्तरियां एकएक कर आगे बढ़ाती रही.

इस कठपुतली नाच की डोर इंजीनियर साहब के उंगलियों में थी इस में अब विहाग कोे कोई शक नहीं था. वह सोफे के एक किनारे धंसा सा महसूस कर रहा था. जरा सी भी नानुकर से क्वार्टर का काम धरा रह जाएगा. इंजीनियर साहब न मुयायने के लिए कर्मचारी भेजेंगे, न रुपया सैंक्शन होगा, न मिस्त्री लगेंगे. फिर या तो अकेले खुद अपने हाथ से काई छीलो या फिर किराए के मकान में बीबी को ले कर बारबार उखड़ो और बसो. पौकेट पर वजन जो अलग आएगा उस का हिसाब तो कनाडा जाने वाले मांबाप को रखना नहीं है.

धर्मसंकट की घड़ी थी. बेमतलब बेवजह विहाग उस बाला से सवाल करता रहा ताकि अजीब सा लगने वाला यह वक्त कटे.

आखिर इंजीनियर साहब आए. इस हाथ ले, उस हाथ दे वाली मुखमुद्रा

बना कर सामने वाले सोफे पर धंस गए. बाला

की ओर उन्होंने देखा नहीं कि वह उठ कर खड़ी हो गई और जिधर से आई थी उधर ही विलीन

हो गई.

‘‘विहाग बाबू, इकलौती कन्या है, पढ़नेलिखने में मन नहीं था, मां इस की चल बसी थी, क्या कहें, सौतली मां से भी उसे सुख नहीं मिला, डिप्रैशन में रहती थी, ज्यादा ही खा पी गई.

लाडप्यार अब जो मैं ने दी तो घर का काम भी क्या करती, फिर मैं तो हीरे के सिंहासन में बिठा कर भेजूंगा उसे और आप जैसे हीरे के साथ रह कर बाकी तो सीख ही जाएगी. उम्र कुछ ज्यादा है, 30 की होने वाली है, लेकिन आप लोग इस जमाने के मौर्डन लड़के आप के लिए इन सब बातों का क्या मोल, तो मालिनी से आप की बात पक्की समझें?’’

‘‘सर मेरी अर्जी, वो क्वार्टर?’’ विहाग को बुक्का फाड़ कर रोने का मन हो रहा था, विहाग सा लड़का जिसे चाहिए एक आधुनिक सोच वाली धरती से जुड़ी लड़की, पढ़ीलिखी लेकिन गृहस्थी में रचीबसी बिलकुल तैयार गृहिणी. वह कल्पना के पंख से उड़े और जिंदगी को जोड़ने वाले तिनके दबा कर वापस आए, घर जोड़े, मन जोड़े, सप्रयास. यह मालपूए सी मालिनी जो हीरे के सिंहासन पर बैठ कर उस के घर (जो अब तक उखड़े प्लास्टर और काईयों का संगम ही था) आएगी और इस चर्बी के प्रोडक्शन हाउस के जरिए कठपुतली नाच नाचेगी. उस की बीबी बनेगी?

इंजीनियर ने दंभ से मुसकराते हुए कहा, ‘‘जिस घर में मेरी मालिनी जाएगी वह तुम्हारा जर्जर क्वार्टर नहीं होगा? तब तो मैं खुद उसे आलीशान घर दूंगा, जिस में तुम भी ऐश करोगे.’’

मुंह पर साफ कहने की आदत वाले विहाग की जबान ठिठक गई, गरम दिमाग विहाग को लगा कि एक चांटा रसीद दे उसे. जिस के लिए विलासिता के आगे मनुष्यता का पैमाना इतना छोटा है. लेकिन वक्त की कठिनाई उसे संयत रहने का हुनर सिखा रही थी.

‘‘सर, मैं वापस जा कर अपने पापा से बात करता हूं, उन्होंने एक जगह मेरी बात पक्की कर दी है, उन लोगों से भी बात करनी पड़ेगी. तब तक क्या मैं अपनी फाइल आप को दे जाऊं?’’

‘‘सीधी सी बात है, आप पापा से बात कर लें, और तब तक अपना कागज मेरे दफ्तर में फाइल की लाइन में लगा दें, जब इस शादी को हां हो जाए तो मुझे बता दीजिएगा, कोई कमी नहीं रहेगी, इतना कह सकता हूं.’’

सरकारी नियम कुछ भी हो, कुछ बातें विहाग के अख्तियार में तो नहीं थीं.

विहाग ने वापसी की. अब भी वह समझदार नहीं हुआ था, लेकिन समझ ही गया था. हफ्तेभर की नाइट ड्यूटी और कई दफा दिन की खलल वाली नींद के बाद वह एक मजदूर को ले कर क्वार्टर पर पहुंचा. इरादा था मजदूर के संग मिल कर क्वार्टर को घर बनाने की दिशा में कुछ कदम बढ़ाना, मसलन काइयों और झड़े प्लास्टर के साथ मकड़जाल की सफाई. यानी अपने खुद के ठिकाने की तरफ एक कदम.

बरामदे में पहुंचते ही चौंकने की बारी थी, अंदर कोलाहल सा था, दरवाजा अधखुला. बैडरूम से ठहाकों और अश्लील गालीगलौज की आवाजें आ रही थीं. जुए की बाजी बिछाए 30 के आसपास के 4 पुरुष और 2 बार गर्ल की वेशभूषा में इन चारों के साथ चिपकी बैठी शातिराना मुसकान बिखेर रही 20-22 साल की लड़कियां.

विहाग के तनबदन में आग लग गई, परेशान हो कर पूछा, ‘‘भाई लोग आप सब यहां कैसे?’’

तुरंत बात खींच ली हो जैसे, उन में से

एक आदमी ने छूटते ही कहा, ‘‘बाबू चाबी सिर्फ आप के पास ही नहीं थी, एक चाबी अभी भी सरकारी दराज में थी,’’ सभी भौंड़े तरीके से

हंसने लगे.

‘‘क्या मतलब?’’विहाग क्रोधित भी था और भौंचक भी. तुरंत एक कारिंदे ने कहा, ‘‘ए लिली, जा बाबू को मतलब समझा.’’

आगे पढ़ें- लड़कियां फुर्ती से आ कर विहाग से…

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-1

फौरीतौर पर देखा जाए तो मुझ जैसी स्टाइलिश लड़की के लिए वह बंदा इतना भी दिलचस्प नहीं था कि मैं खयालों के दीए गढूं और उन्हें अपने दिल में जलाए फिरूं. मगर जिंदगी बड़ी दिलचस्प चीज है. हम एक पल जिसे झुठलाते हैं, उसे ही दूसरे पल कबूलते हैं.

 

2 साल पहले की बात है मेरे पापा होमियोपैथी की प्रैक्टिस करते थे. अब तो उन की सेहत साथ नहीं देती, मगर एक समय था जब शहर में उन का बड़ा नाम था. रोज मरीज की लाइन लगी रहती थी. उस दिन मरीजों की कतार में एक दुबलापतला, लंबे कद वाला गेहूंए रंग का 26 वर्ष का लड़का बैठा था. हमारे 2 मंजिल के मकान के ऊपरी हिस्से में हमारा निवास था और नीचे पापा का क्लीनिक.

 

मैं उन दिनों एमबीए कर रही थी. उस दिन मुझे कालेज के लिए निकलना था. मैं ऊपर से नीचे आई. उसे मरीजों की लाइन में बैठा देखा. खैर, मैं अंदर पापा से कुछ कहने चली गई.

 

अभी मैं पापा से बात कर ही रही थी कि ये जनाब अंदर आए. पापा ने उसे कुछ ज्यादा ही इज्जत से बिठाया और मुझे रोक लिया. ‘‘देविका, ये विहाग हैं. हमारे यहां के नए स्टेशन मास्टर. पहली पोस्टिंग है. घरपरिवार से दूर हैं. अकेले हैं. तुम इन का साथ देना.’’

 

‘‘जी पापा.’’

 

‘‘तुम तो ट्रेन से कालेज जाती हो, इन से मिल कर मंथली पास बनवा लेना. मेरी इन से बात हो गई है.’’

 

‘‘जी पापा.’’

 

इस बीच उस ने अपनी बड़ीबड़ी आंखें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं. उस की आंखों में एक अजीब सी खुमारी थी और होंठों पर लरजती सी मुसकान. मेरी सारी स्मार्टनैस गायब हो गई, ‘‘जी, जी’’ करती मैं बुत सी बनी रह गई.

 

अचानक बंदे ने पापा की ओर देख कर कहा, ‘‘सर कई दिनों से मुझे सर्दी है, रात को बंद नाक के मारे सो नहीं पाता. काफी कफ जमा है सीने में. हमेशा घरघर की आवाजें आती हैं.’’

 

मेरे पापा को शायद यह उम्मीद नहीं थी कि एक 23 साल की सुंदर, आकर्षक लड़की के सामने वह सर्दी और सीने में जमे कफ की बात करेगा. उन्हें आशा थी कि अपनी बीमारी की बात करने पापा ने जैसे ही दवा लिखने के लिए पैन उठाया मैं चुपचाप वहां से निकल आई. मेरे मन की तितलियों के पंख उस की सर्दी में लिपपुत कर औंधे मुंह गिर पड़े थे.

 

हां, मगर न, न कर के भी एक बात स्वीकार करती हूं. मैं उसे जबजब सोचती, होंठों पर खुद ही मुसकान आ जाती डायरी में कुछ लिखने की कोशिश करती, लेकिन, उफ, उस का चेहरा याद आते ही सर्दी की याद आ जाती. उस की घनी मूंछों की जब भी याद आती बंद नाक भी साथ सामने आ जाता. उस के शर्ट के जरा से खुले हुए बटन के नीचे से झांकता घना रेशमी जंगल मेरे दिल को ज्यों धड़काने को होता सीने में जमा उस का कफ मेरे इरादों को तहसनहस कर देता. मैं डायरी के हर पन्ने पर तारीख लिखती, आड़ीतिरछी रेखाएं बना कर डायरी बंद कर देतीं. रेखाएं थीं बेजुबान, वरना न जाने क्याक्या कह देती मेरे बारे में.

 

 

मेरे मन में उस की चाह ऐसी थी जैसे कोई पपीहा सूने और घने वन की किसी डाली

 

की एक अकेली सी फुनगी पर बैठ राग अलाप कर उड़ जाता हो और पीछे रह जाती हो बीहड़ की निस्तब्धता.

 

दिन बीते, मैं ने उसे भुलाने की कोशिश की. वैसे उस का आना भी अब काफी कम हो गया था. शायद उस की तबीयत अब ठीक थी.

 

मेरी शादी की बात अब जोर पकड़ने वाली थी, क्योंकि मुंबई से मुझे जौब औफर था. 30 साल की मेरी दीदी जिन्हें शादी से परहेज था, मां की मृत्यु के बाद हमारी मां बनी रहती और हमारे साथ रह कर ही नौकरी करती थी, मेरे मन की टोह लेने में लगी थी.

 

आखिर न, न करते मेरे चेहरे के भाव ने बड़ी रुखाई से बिना मेरी राय की परवाह किए मेरे दिल को साझा करने की गुस्ताखी कर ही डाली. दीदी ने मेरे मन की बात पापा तक पहुंचा दी थी.

 

अब विहाग की उपस्थिति सीधे हमारे डाइनिंग में दर्ज होने लगी. पापा की यही मर्जी थी. हर बार वह आता, मुसकरा कर बात करता और खापी कर चला जाता.

 

दिन निकल रहे थे, मेरे मुंबई जाने का दिन नजदीक आ रहा था, लेकिन इस शर्मीले मगर नीरस युवक से हम दिल की बात नहीं कह पाए. अंतत: पापा को कमर कसनी पड़ी और उन्होंने सीधे ही उस से मेरी शादी की बात पूछ ली.

 

मेरे खयाल से अन्य कोई भी युवक होता तो इतनी बार हमारे साथ डाइनिंग साझा करने के बाद मना करने में ठिठक जाता, कुछ सोचता और बाद में जवाब देने की बात कह कर महीनों टालता. हम इंतजार करते और वह मुंह छिपाने की कोशिश करता. मगर यह था ही अलग. कहा न, बंदे ने दिलचस्पी जगा दी थी.

 

खाना खा कर जाते वक्त पापा ने ज्यों ही पूछा तुरंत उस ने जवाब दे दिया. वह यहां शादी नहीं कर सकता था. वह ऐसी जगह शादी नहीं करेगा जहां उस का ससुराल नजदीक हो, ससुराल वालों के अत्यधिक संपर्क में रहना पसंद नहीं था उसे.

 

मैं डायरी को अपने कमरे के सब से ऊपरी ताक पर सीलन के हवाले कर मुंबई रवाना हो गई.

 

सालभर बाद मैं घर वापस आई. कुछ वजहों ने बहाने दिए और मेरी खामोश डायरी फिर ताक से उतर कर बोल पड़ी.

 

विहाग इस मध्यम आकार के शहर में स्टेशन मास्टर था. उस के मातापिता उज्जैन में रहते थे.

 

2 बहनें थीं जिन की शादी हो गई थी. ये छोटे थे और आत्मनिर्भर भी. 26 वर्षीय विहाग जब स्टेशन मास्टर के रूप में पदस्थापित हो कर आया तो उस ने इस छोटे से स्टेशन के सामने बने छोटेछोटे लेकिन सामान्य सुविधा युक्त एक कमरे, एक हौल वाले क्वार्टरों में से एक के लिए आवेदन दिया. क्वार्टर तो नहीं मिल पाया मगर वह शादीशुदा नहीं था तो एक सहकर्मी के सा िकिराये का मकान साझा कर रहने लगा.

 

यह साल 2013 था और नए नियुक्त इन लड़कों की तनख्वाह कुल मिला कर 25 हजार के आसपास थी. स्टेशन मास्टर की ड्यूटी अगर छोटे या मध्यम आकार के स्टेशन में होती तो स्टाफ की कमी की वजह से उन्हें 12 घंटे की ड्यूटी अकसर ही करनी पड़ती है. नाइट ड्यूटी तो आए दिन की आम बात थी. स्टाफ की कमी के कारण सप्ताह की एक छुट्टी भी मुश्किल थी. बारिश का मौसम हो, हाड़ कंपाती ठंड की रात बिना नागा ड्यूटी पर हाजिर होना ही पड़ता. छुट्टी की गुंजाइश तभी थी जब इंसान बीमार पड़ कर बिस्तर पकड़ ले.

 

आगे पढ़ें- बारिश और जाड़े की रात बाइक से भीगभीग कर…

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-4

उन की तरफ के सारे लोग बेहूदगी से हंस पड़े और 2 लड़कियां फुर्ती से आ कर विहाग से लिपट गईं. तुरंत उन में से किसी ने छोटा सा कैमरा निकाल लड़कियों के साथ विहाग की तसवीरें लेने की कोशिश की. विहाग ने बिना वक्त गंवाए उस के हाथ से कैमरा झपट कर जमीन पर दे पटका. चारों तैश में आ गए. मिल कर उन्होंने विहाग को उठा लिया और बरामदे से नीचे घास की तीखी झाडि़यों में फेंक दिया. विहाग सा सख्त जान अब कमजोर पड़ने लगा था. बाकायदा आंसू आ गए थे उस की आंखों

में. उठ कर सामने अपने स्टेशन के प्लेटफौर्म के एक किनारे लगे पेड़ के नीचे बेंच पर बैठ गया. थोड़ी देर आंखें बंद किए बैठा रहा, अंदरूनी कोलाहल ने उस की विचारने की शक्ति छीन

ली थी.

अचानक आंखें खुली तो सामने मुझे बैठ उसे अपलक निहारता देख वह दंग रह गया, ‘‘सोचा भी नहीं था न. मुंबई वाली नौकरी छोड़ अब पापा के पास ही आ गई हूं. दीदी के औफिस से उसे जापान भेजा गया है, लगभग 3 साल उसे वहां रहना है. पापा अकेले न पड़ें इसलिए मैं वापस आई. 4 स्टेशन बाद एक जगह नौकरी करती हूं. अभी ही ट्रेन से उतर कर तुम्हें यों बेहाल बैठा देख…’’

विहाग मेरे सानिध्य में जाने कैसे अपनी तकलीफ और चिंताएं भूलने सा लगा. कहीं सच के संदूक में अगर वह ताकझांक कर लेता तो अपने मन को वह पहले ही जान पाता.

‘‘क्या हुआ? क्यों उदास से अमावस के चांद बने बैठे हो?’’

विहाग असमंजस में था. एक ओर सुंदर शालीन उस के सामने देविका यानी मैं और मेरा प्रफुल्लित करने वाला सरल सानिध्य, तो दूसरी ओर जिंदगी की कशमकश.

इतने दिनों बाद मुझे देख कर विहाग को अच्छा ही नहीं, बल्कि काफी सुकून सा महसूस हुआ लेकिन तब भी विहाग तो विहाग ही था.

मुझ पर सामान्य सी नजर डालते हुए वह उठ खड़ा हुआ और जाने की रुत में खड़ाखड़ा पूछा, ‘‘और कैसी हो? शादी नहीं की अब तक?’’

‘‘नहीं, अरे कहां चले?’’

‘‘चलूंगा देविका आता हूं.’’

सचमुच यह आदमी, मैं भी भुनभुनाती हुई उठ खड़ी हुई.

किराए के कमरे में वापस आ कर वह सूनी आंखों से सूने छत की ओर

ताकता बिस्तर पर पड़ा रहा बेचैन. अचानक उस ने अपनी जरूरी नंबरों की डायरी निकाली, रोज के कुछेक संपर्क नंबर ही उस के हैंडसेट में रहते थे, जिस संपर्क की उसे तलाश थी उसे उस के बाबूजी ने तब दिया था जब उन्होंने उस की क्वार्टर की समस्या से पल्ला झाड़ कर उसे‘‘ससुराल वालों से बुझ लाइयो’’ के अंदाज में टरकाया था. धकधकाती सी छाती लिए उस ने फोन मिला लिया, तैयारी यह थी कि फोन पर जो भी मिलेगा उसे उस के मंगेतर रेवती से बात करवाने की अपील करेगा.

रिंग जाती रही, किसी ने उठाया नहीं. हार कर विहाग ने अपना सोचा हुआ त्याग दिया.

दूसरे दिन जब वह स्टेशन में ड्यूटी पर था टिकट काउंटर पर मैं पहुंची. विहाग को ड्यूटी पर देख पहले तो मैं बड़ी खुश हुई, पल में ही विहाग की मेरे प्रति विरक्ति की बात सोच उदास भी हो गई.

‘‘अभी तक मंथली पास नहीं बनवाया? रोजरोज किराया भरती हो?’’ मदद की इच्छा मन में दबाए विहाग ने अपना काम निबटाते हुए कहा.

‘‘इसी महीने से आनाजाना कर रही हूं

न,’’ विहाग की मेरे प्रति रुचि देख मुझे बड़ी तसल्ली हुई.

‘‘ये फार्म ले जाओ, वापसी में मेरी ड्यूटी तो खत्म हो जाएगी, तुम मेरा घर आ कर फार्म देना चाहो तो दे सकती हो, मेरे घर वैसे तुम्हारे घर से नजदीक ही पड़ेगा. मेरा फोन नंबर ले लो.’’

ढेर सारी कोयल की कूंकें मेरे सीने की अनजानी कंदराओं में चहचहा उठीं. बड़ी सी उम्मीद भरी मुसकान लिए मैं ने कहा, ‘‘नजदीक न भी होता तब भी देने आ जाती.’’ उस ने मेरी ओर एक नजर देख, बिना किसी प्रतिक्रिया के अपना काम देखने लगा. बुझी सी मैं फिर भी उस के चेहरे पर एक रोशनी देख रही थी. शाम 6 बजे तक मैं विहाग के कमरे में थी. कुछ देर पहले ही विहाग भी औफिस से लौटा था और सांझ वाली रसोई में अपनी चाय बना रहा था. इसी बीच मैं आ पहुंची और उस के बैडरूम में रखी कुरसी पर अपना आसन जमा लिया. चाय बनाते हुए ही वह रसोई से ही बात भी करने लगा और मुझे कमरे में ही बैठने को कहा. बात मसलन ऐसी हो रही थी कि यहां 5 कमरे हैं, जिन में 2-2 लोग कमरे साझा कर के रहते हैं. विहाग के कमरे का किराया कुछ ज्यादा है मगर अकेले रहने की सहूलियत पाने के लिए इतना सा ज्यादा देना वह पसंद करता है. पर अभी भी समस्या साझा रसोई की है ही, इतने लोगों के बीच 2 ही रसोई अनगिनत समझौतों की मुश्किलें पैदा करती है.

विहाग 2 कप चाय और प्लेट में नाश्ता रख जब तक रसोई से कमरे में मेरे पास आता कमरे में रखा विहाग का फोन बजा. स्क्रीन पर नंबर था, नाम नहीं. मैं ने फोन उठा कर ‘हैलो’ कहा ही था कि फोन कट गया.

‘‘कौन था?’’

‘‘पता नहीं, फोन उठते ही तो काट दिया.’’

विहाग ने नंबर देखा, रेवती या होने वाले ससुराल से था. विहाग इस वक्त शायद वहां फोन करना नहीं चाहता था. उस ने मुझ से ही धीरेधीरे बात करना जारी रखा. ‘‘एक बड़ी समस्या है. मुझे रेलवे क्वार्टर तो मिला है लेकिन रिपेयर करवाने की बड़ी समस्या आ गई है और अब तो गुंडों का भी कब्जा हो गया है, मेरे साथ बदसुलूकी भी की उन्होंने अब.’’

‘‘ओह, क्या तुम मुझे अपना क्वार्टर नंबर बता पाओगे? मैं कुछ कोशिश कर सकती हूं.’’

‘‘अच्छा? क्वार्टर रिपेयर का बहुत सा काम पड़ा है, अब मेरी तनख्वाह इतनी भी नहीं कि

मन पसंद रिपेयर करवा सकूं. बाहर किराए पर मकान लूं तो बारबार घर बदलने की उठापटक.

इसी वजह पीडब्लूआई के इंजीनियर के पास

गया था, लेकिन उस ने पहले तो अपनी बेटी मालिनी को मेरे सिर मढ़ने की कई तिकड़मे की, और बाद में क्वार्टर में गुंडे बिठा दिए. इधर

नौकरी की परेशानियां और अब तक रहने का सही इंतजाम नहीं.’’

मैं ने जरा टोह ली तो मालिनी से ही ब्याह… ‘‘मेरे इतना भर कहने से ही वह परेशान सा इधरउधर देखता बात घुमाने की कोशिश सी

करने लगा कि अचानक जैसे उस का मेरी कही बात पर ध्यान गया हो. चौंक कर पूछा, ‘‘तुम कुछ कर पाओगी?’’

मैं समझ गई महाशय बड़े मासूम से टैक्निकल हैं, इन का रोमांस जीने की जुगत से शुरू हो कर इसी में खत्म हो जाता है. अगर मैं उस की जिंदगी में आ पाई तो तेलनून में ही फूलों की खुशबू पैदा कर दूंगी.

मन की प्रसन्नता को छिपाते हुए और विहाग की सकारात्मकता को भांपते हुए मैं ने

कहा, ‘‘यह मेरे लिए आसान है, तुम मुझ पर

छोड़ दो.’’

‘‘क्या तुम्हारी कोई जानपहचान है? गुंडों को हटाना क्या आसान होगा?’’

‘‘तुम एक बार चाबी दे दो न, कोशिश

तो करूं.’’

‘‘समझा, लेकिन यह सरकारी काम है. विभाग से ही होना चाहिए थे, लेकिन फाइल तो कतार में लगी है, सब की अपनीअपनी भूख.’’

‘‘फाइलें कतार में पड़ी रहें तो क्या हम भी ऐसे ही पड़े रहें. इतनी बंदिशों में रहोगे तो समस्या से मुक्ति कैसे मिलेगी? थोड़ा और प्रैक्टिकल सोचो विहाग, बल्कि सोचना ही काफी नहीं जब तक किसी समस्या का समाधान हमें न मिले प्रयास करते ही रहना चाहिए.’’

आगे पढ़ें- अमूमन आम भारतीय पुरुषवादी सोच इस ओर घूम जाती है कि लड़की…

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-2

ऐसी जद्दोजहद वाली ड्यूटी में स्टेशन से निवास स्थान की दूरी भी अच्छीखासी

परेशानी बन गई थी विहाग के लिए. बारिश और जाड़े की रात बाइक से भीगभीग कर ड्यूटी जाने के कारण छोटी सी सर्दी भी दमा बन जाती थी. वापस आ कर खाना बनाओ, घर के काम भी संभालो और परिवार वाले उस के पास आने के लिए उसे अपना एक अकेले का मकान लेने को उतावला करें, सो अलग निबटो. खैर, विहाग की परेशानी किसी तरह बड़े साहब तक पहुंचाई गई और काफी लिखापढ़ी के बाद उस के नाम पर क्वार्टर आवंटित हुआ. विहाग झट से क्वार्टर देखने निकल पड़ा.

मध्यम आकार का चिरपरिचित रेलवे क्वार्टर.

क्वार्टर के सामने बगीचा बनाने लायक अच्छीखासी जमीन थी, लेकिन यह बिन फेंसिंग बाउंड्री वाल के पास उगे झाड़झंखाड़ तथा चूहों के बिल से पटी पड़ी थी.

आगे बढ़ते, आसपास झांकते हुए विहाग 4 ऊंची सीढि़यों से चढ़ते हुए बरामदे में पहुंचते ही बड़ीबड़ी म??????यह क्वार्टर सही मायनों में रहने लायक बनाने के लिए उस की भी हालत इन चूसे हुए कीड़ों सी हो जाएगी. व्यवस्था का मकड़जाल तो बल्कि उस से भी ज्यादा निर्मम है. खैर विहाग टोह लेता आगे बढ़ा और लकड़ी के खड़खड़ाते घुन लगे दरवाजे खोल अंदर गया. यह क्वार्टर करीबकरीब 2 साल से इस्तेमाल में नहीं था. विहाग से पहले इस स्टेशन में एक बुजुर्ग स्टेशन मास्टर बहाल थे, जो अपने घर से आ कर ड्यूटी बजाते. उन के रिटायरमैंट के बाद विहाग की नई पोस्टिंग थी. सो अब तक इस क्वार्टर को कोई पूछने वाला नहीं था.

कमरे में चारों ओर प्लास्टर उखड़ा पड़ा था, खिड़कीदरवाजे, टूटेफूटे नल, बदहाल

साफसफाई के सैकड़ों काम अलग मुंह चिढ़ा

रहे थे. विहाग ने उज्जैन वाले घर में खुद

अपनी पसंद का बाथरूम बनवाया था, एकएक सैटिंग आधुनिक.

उस ने बाथरूम का दरवाजा धकेला. दरकी हुई जमीन पर सूखी हुई काई का डेरा. पानी रखने का सीमेंटेड टैंक भी क्रैक. आंगन में दरारें आ चकी थीं और टैंक में भी कई क्रैक थे. घर में मुंह धोने को एक बेसिन तक नहीं. उज्जैन के अपने चुस्तदुरुस्त घर में रहने के आदी विहाग के लिए यहां रहना नामुमकिन था. उस ने ठान लिया कि शिफ्ट करने से पहले वह इस क्वार्टर को अपने मनमुताबिक ढालेगा. इसे आधुनिक सुविधासंपन्न करेगा, मगर कैसे? एक सुविधा संपन्न क्वार्टर के लिए इस समय खर्च तो 40 से 50 हजार का बैठता ही है. आए कहां से?

सरकार को अर्जी लगाने से ले कर उस के बनने में कम से कम 6 महीने तो आराम से लगेंगे तब भी इस से यह क्वार्टर नियमानुसार इतना ही सुधरेगा जैसे कि कोई नाकभौं सिकोड़ कर किसी नामुराद सी जगह में प्रवेश करता है और काम निबटा कर निकलते ही एक भरपूर सांस लेता है. यह विहाग का घर होगा या यह वह घर हो पाएगा जहां विहाग के छोटेछोटे सपने अंगड़ाइयां ले कर आएंगे?

अपनी नई सी गृहस्थी के फूलों वाले झूले पर अनुराग के मोती जड़ेंगे? सोच कर ही विहाग का मन उचट गया.

वह सपनों की दुनिया में खो नहीं जाता, हां, सपनों को हकीकत में बदलने के लिए वास्तव के धरातल पर कुछ ठोस कदम रखना जरूर जानता है.

तो वे कदम क्या हों जो उस की जायज मुरादों में जान फूंक दें? इस के पिताजी कुछ अलग किस्म के हैं, शायद एहसान जताने वाले कहना भी बहुत गलत नहीं होगा, विहाग उन की मदद किसी भी हाल में नहीं लेगा. रह गई बात उस की तो 25 हजार सैलरी में अभी उस के पास इतने तो हैं नहीं कि वह इस क्वार्टर को इस लायक बना ले कि शादी के बाद बीबी और उस के घरवालों के सामने वह सर उठा कर यह साबित कर दे कि स्टेशन मास्टर की नौकरी कोई ऐरेगैरे की नौकरी नहीं.

घूमफिर कर बात वही इंजीनियरिंग विभाग में अर्जी देने की आती है.

विहाग अगले दिन सुबह 6 से दोपहर 2 बजे की ड्यूटी पूरी कर सिविल इंजीनियरिंग सैक्शन में अर्जी ले कर पहुंचा. उम्मीद थी अपना परिचय देने पर यहां के कर्मचारी द्वारा तवज्जो से बात की जाएगी. लेकिन विहाग द्वारा अपना परिचय दिए जाने के बाद भी वे जिस तल्लीनता से फाइल में मुंह घुसाए मिले उस से विहाग को अंदाजा हो गया कि इन बाबुओं की जेबों की गुरुत्वाकर्षण शक्ति बड़ी तेज है और इस आकर्षण से जरूरत के मारे आगंतुकों की जेबों का बच पाना टेढ़ी

खीर है.

विहाग को यहां कई टेबल पर प्रवचन मिले तो कुछ टेबल पर प्रौपर चैनल से गुजर कर काम निकालने में लगने वाले समय की भयावहता का अंदाजा. इस तरह इस विभाग में 2 घंटे भटक कर भी नतीजा नहीं निकला. अब विहाग के पास नया काम था ‘‘मिशन क्वार्टर नंबर 5/2 बी’’.

चुपचाप रहने वाले लड़के की अब दिनचर्या बदल गई. ड्यूटी के बाद लोगों से वह मेलजोल बढ़ाता, संपर्क सूत्र ढूंढ़ता, जानकारी जुटाता, अपील करता और उदास होता रहता.

सर्दीजुकाम तो जबतब होता रहता है उसे, लेकिन अब उस का हमारे यहां आना नहीं के बराबर था.

घर से उसे उस के पिताजी का फोन आया था. उन्होंने एक लड़की देखी थी जो विहाग के

लिए माकूल यानी योग्य थी. विहाग को जल्द हां कहना था. हां कहने का कोई दूसरा विकल्प नहीं था, यह हां तो विवाह में वर के उपस्थित रहने की रजामंदी भर ही थी वरना विवाह तय ही था.

सरकारी नौकरी, पद नाम स्टेशन मास्टर. उस के पापा के अनुसार ग्रैजुएट लड़की से विवाह के लिए यह रुतबा सही था. बाकी विहाग जाने.

विहाग के लिए अपने पापा से बात करना जरूरी था. उस ने किया भी, ‘‘मुझे शादी करने में कोई आपत्ति नहीं, बल्कि मैं तो करना ही चाहता हूं, रोजरोज खाना बना कर ड्यूटी जाना अब दूभर हो चुका है. लेकिन ब्याह कर लाऊंगा तो रखूंगा कहां उसे? क्वार्टर मेरे खुद के पैर रखने की हालत में नहीं है.’’

‘‘मुझे यह सब मत सुनाओ, मकान किराए पर ले लो, तुम्हारे दायित्व से निबट कर हम दोनों तुम्हारी दीदी का घर संभालने कनाडा जाएंगे. रिटायरमैंट के बाद अब तक कहीं गया नहीं, सालभर वहां रुक कर छोटी के पास कैलिफोर्निया, उज्जैन का घर किराए पर चढ़ा कर आ रहे हैं, तुम्हारे लिए कुछ हिस्सा रखा रहेगा. 2 साल बाद जब लौटना होगा तब किराया खाली कराएंगे. शादी तय करने का इतना बड़ा काम हम ने कर दिया अब खुद संभालो.’’

‘‘शादी तो मैं भी कर लेता, ठौरठिकाने की सोचते तो बात ज्यादा भली न होती.’’ मन में सोच कर ही रह गया कोफ्त से भराभरा विहाग.

पिता ने सांत्वना के दो शब्द जोड़ते हुए कहा, ‘‘ज्यादा दिक्कत है तो लड़की के घर वालों से बात करो, मैं एक फोन नंबर दे दूंगा तुम्हें. हम ने बात पक्की कर ली है, इतना खयाल रखना.’’

फोन कट गया, विहाग भी समझ गया. बहस बेकार है, उस की मां भी जिंदगीभर

ऐसे दबंग पति के आगे गरदन झुकाने के सिवा कुछ कर नहीं पाई. वह भी तो उसी खेत की मूली है.

आगे पढ़ें- विहाग ने एक बार फिर अपनी तरफ से …

मिशन क्वार्टर नंबर 5/2बी: भाग-5

पहली बार विहाग को दो कदम आगे सोचने वाला मिला था. अमूमन आम भारतीय पुरुषवादी सोच इस ओर घूम जाती है कि लड़की शादी से पहले इतनी तेज है तो शादी के बाद जरूर पति को गुलाम बना कर छोड़ेगी, विपरीत इस के विहाग काफी प्रसन्न था कि यह लड़की जिम्मेदारी उठाने में निसंकोच है. यह मिशन सिर्फ क्वार्टर का ही तो नहीं था, मिशन जीवन को एक सशक्त आधार देने के लिए ठोस संबल के चुनाव का भी था.

यद्यपि विहाग का मुझ पर इस काम को पूरा कर लेने के संबंध में विश्वास कम ही था, लेकिन अभी उस के पास सिवा इस के कोई चारा भी नहीं था कि वह इस मामले में मुझे अपना प्रयास कर लेने दे.

घर जा कर मैं ने अपने कालेज के दोस्त का नंबर ढूंढ़ा, जो रेलवे पुलिस बल में अधिकारी था. अच्छी बात थी कि इसी शहर में उस की पोस्टिंग थी. मैं ने अपनी परेशानी बताई तो वह गुंडों को क्वार्टर से हटवाने में मेरी मदद करने को राजी तो हो गया लेकिन बात यह थी कि इस समय वह स्वयं कुछ व्यस्त और परेशान चल रहा था.

दरअसल उस की दूसरे राज्य में शादी तय हो गई थी, और उसे बारातियों के लिए ट्रेन में कोच बुक करना था, जिस में कुछ कानूनी बातें आड़े आ रही थी. मैं इन दोनों कामों के बीच सेतु बन गई और विहाग की मदद से उस दोस्त का काम और दोस्त की मदद से विहाग का काम करवा दिया. दोनों बेहद खुश हुए और विहाग के दिल में मेरे लिए एक अलग जगह बन गई.

सरकारी महकमे में बात पहुंचते ही सिविल विभाग से कुछ कर्मचारी मुयाएने को पहुंचे, फाइल निकाली गई और हफ्ते 10 दिन में रिपेयरिंग के लिए सैंक्शन भी आ पहुंचा. मोटे तौर पर रेलवे

की ओर से जो मरम्मत का काम हुआ उस से

कुछ हद तक घर रहने लायक बना ही, मैं भी अपने औफिस से छुट्टी ले कर और अपने पैसे की चिंता न कर घर के सौंदर्यीकरण पर जो दिल से लगी रही, इस से सरकारी क्वार्टर अब वाकई सपनों से सींचा स्वप्न महल बन गया था. बीचबीच में जब भी विहाग क्वार्टर आता मैं उस से उस की पसंद पूछना न भूलती, इस से विहाग को बड़ी तसल्ली होती.

मरम्मत के लिए साजोसामान से ले कर घर की फिटिंग और मिस्त्रियों से काम निकालने की कला तक में मैं ने जो छाप छोड़ी विहाग कायल हुए बिना नहीं रह सका.

बीती रात विहाग के पिताजी ने फोन किया था. कहा, ‘‘क्या बात है शादी से पहले तुम्हारे साथ कौन सी लड़की थी? रेवती को तुम ने फोन किया था, बाद में उस ने जब फोन किया तो किसी लड़की ने फोन उठाया?’’‘‘यह खबर इतनी बड़ी थी कि आप तक पहुंच गई.’’

‘‘तुम असली बात बताओ न. शादी से पहले किसी होने वाली पत्नी को यह अच्छा लगेगा क्या?’’

‘‘बुरा लगने से पहले उसे पता तो होना चाहिए कि बुरा लगने वाली बात थी भी या नहीं. ठीक है, जैसे उसे बिना जाने ही बुरा लगा और आप के पास मेरी स्थिति समझे बिना ही शिकायत चली गई, वैसे ही मैं भी बिना कुछ बताए इस रिश्ते में आगे न बढ़ पाने की अपनी असमर्थता जता रहा हूं, बता दीजिएगा.’’

विहाग के पापा तो चीख ही पड़े, अंदाजा ही नहीं था कि विहाग की इतनी हिम्मत हो जाएगी.

‘‘क्या बोल रहे हो, कुछ होश है.’’

विहाग को थोड़ी देर के लिए खुद पर आश्चर्य हुआ, कहीं इस हौंसले के पीछे मेरे प्यार की महीन सी अनुभूति तो नहीं थी. उसी रौ में कहा उस ने, ‘‘शादी में कोई समझौता नहीं पापा,यह आपसी समझ और पसंद की बात है, मुझे तब तो कोई लड़की नहीं मिली थी, जब उस ने फोन किया था, लेकिन अब बहुत ही हुनरमंद, जिम्मेदार, समझदार और खयाल रखने वाली लड़की मिल गई है और नि:संदेह मैं उसी से शादी करने वाला हूं.’’

‘‘इतनी हिम्मत मत दिखाओ, मैं बात कर चुका हूं.’’

‘‘आप मना कर दीजिए पापा, शादी सिर्फ आप की बात रखने के लिए नहीं करूंगा. बिना जाने ही जो शक कर ले उस के साथ आगे नहीं बढ़ूंगा. मेरे हिसाब से बीबी देविका जैसी होनी चाहिए, पति के हर काम में मददगार, जिम्मेदारी उठाने में समर्थ. शांत और सहज.’’

‘‘लड़की कहां की है?’’

‘‘इसी शहर की.’’

‘‘कहता था आसपास ससुराल पसंद नहीं.’’

‘‘जब लड़की भा गई तो ससुराल कहीं भी हो. फिर गैरजिम्मेदार लड़कियों का मायका नजदीक हो तो रिश्ते दरकने लगते हैं, देविका ऐसी नहीं है, उसे रिश्तों की समझ और परख दोनों हैं.’’

पापा ने फोन रख दिया था, यानी विहाग स्वतंत्र था.

और अंतत: मेरी संवाद कला ने वह समां बांध दिया कि विहाग के घरवालों का आशीष भी शहनाई के सुर में सरगम सा शामिल हो गया.

विवाह बाद नातेरिश्तेदारों के चले जाने से पसरी रिक्तता में चांदनी रात की स्वप्निल दूधिया रोशनी में आंगन वाले झूले पर बैठे हम दोनों एकदूसरे को अपलक देख रहे थे.

विहाग की आवाज शहद थी, कहा, ‘‘देविका.’’

चितवन की चपलता ने मेरा भी मधुकलश खोल दिया था, ‘‘हूं, कहो.’’

‘‘सर्दी लग जाएगी, बाहर ठंड बढ़ रही है और कल बिस्तर की चादर वगैरह धो लेना, नएपन की खुशबू से मुझे एलर्जी हो जाती है.’’

मुझे हंसी आ गई, मैं ने क्या उम्मीद की थी और यह विहाग. मैं ने उस का माथा

चूमते हुए कहा, ‘‘जरूर, मगर आज की रात कितनी खास है. क्या तुम मुझे और कुछ नहीं कहोगे.’’

विहाग को अपनी रूखी सी बात पर अफसोस हुआ, तृष्णा जड़ी दो स्वप्निल आंखों ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा, ‘‘चलोचलो, अंदर, यहां सर्दी लग जाएगी. अंदर जा कर सिर्फ कहूंगा ही नहीं…’’

ये बंदा बड़ा प्रैक्टिकल सा रोमांटिक है. थोड़ा बच्चा भी. सम्मोहित सी मैं मुसकरा कर उस के साथ चल पड़ी.

फीनिक्स: भाग-3

पिछला भाग- फीनिक्स: भाग-2

कहानी- मेहा गुप्ता

‘‘जिस समाज में और जिन लोगों के बीच उठनाबैठना है हमारा. हमें यह

स्टेटस मैंटेन करना पड़ता है. अब तुझ से क्या छिपाना है. मानसम्मान, दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक बार लत लग जाए तो आसानी से छूटती नहीं है. सुनील की यह लत तो बहुत पुरानी है. इस जन्म में तो छूटेगी नहीं’’

‘‘जब से शादी हुई है यह आर्थिक उतारचढ़ाव मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है. शादी में चढ़े मेरे जेवर भी 1-1 कर के सारे बिक गए. कभी तो ऐसा होता है हम लोग बिलकुल रोड पर आ जाते हैं और कभी अरबों में खेलने लगते हैं. यह घर, गाड़ी, मेरा बुटीक सभी कुछ लोन पर है. बच्चे भी अपने पापा की भाषा में बात करते हैं. घूमनाफिरना, लेटैस्ट गैजेट्स, शौपिंग बस यही उन की जिंदगी का ध्येय बन गया है.’’

‘‘बच्चे भी? पर उन्हें सही मार्ग दिखाना तो तेरे हाथ में है न? तू बदलेगी तभी तो तुझे देख कर तेरे बच्चे तेरा अनुसरण करेंगे.’’

‘‘छोड़ न मैं बच्चों का दिल नहीं दुखाना चाहती और सुनील को भी पसंद नहीं है कि

मैं बातबात पर रोकटोक करूं,’’ उस ने बड़ी सहजता से कहा जैसे उस के लिए ये सब बहुत सामान्य है.

‘‘12 बज गए हैं. चल अब हमें सोना चाहिए. गुड नाइट,’’ कहते हुए वह सो गई पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी.

दूसरे दिन सुबह जल्दी की फ्लाइट थी. मैं समय से काफी पहले ही उठ गई ताकि सलोनी को कुछ सांत्वना और आर्थिक सलाहकार के रूप में कुछ नेक सलाह दे पाऊं. पर मुझे एहसास हुआ कि उसे मेरी राय की विशेष आवश्यकता नहीं है. चलते हुए उस ने मुझे आकर्षक या यों कहूं महंगी पैकिंग में ढेरों उपहार दिए. उस की कल रात की बातों में और लेनदेन के व्यवहार में कोई सामंजस्य नहीं था. मुझे अपने द्वारा दिए उपहार इन सब के सामने बहुत तुच्छ लग रहे थे. एकदूसरे के संपर्क में रहने का वादा कर मैं मुंबई आ गई. अपने काम की व्यस्तताओं में से भी समय निकाल मैं उस से चैट कर लिया करती थी.

सोशल मीडिया भी एक लत है. एक बार लग जाए तो इंसान उस से दूर नहीं रह सकता. फेसबुक अकाउंट खोलते ही मुझे पता होता था उस में सलोनी का कोई न कोई नई और रोमांचक पोस्ट अवश्य होगी. इस बार उस ने स्विट्जरलैंड के बहुत ही खूबसूरत फोटो अपडेट किए थे पर इस बार मुझे रोमांच नहीं हैरानी हुई थी. हर बार की तरह मैं ने उस की पोस्ट पर लाइक्स या कमैंट्स नहीं किए. मेरी इच्छा हुई कि उसे फोन कर झंझोड़ कर पूछूं कि अचानक तेरे हाथ में क्या कुबेर का खजाना लग गया जो तू फिर घूमनेफिरने पर इतना उड़ाने लगी? मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था. गलत बात को मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाती हूं.

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मेरे पति का जयपुर में तबादला हो गया. पर मैं ने यह बात सलोनी से छिपा कर रखी. बच्चों का स्कूल में ऐडमिशन, घर ढूंढ़ने जैसी जरूरतों के चलते मेरा कई बार जयपुर जाना हुआ पर मैं ने उस से संपर्क नहीं किया. कुछ समय का भी अभाव था. महीनेभर बाद हम जयपुर रहने आ गए. धीरेधीरे मेरी जिंदगी फिर से पटरी पर आने लगी. मैं ने अपना तबादला भी अपने बैंक की जयपुर शाखा में करवा लिया.

एक दिन मेरे पास सलोनी का फोन आया, ‘‘तू जयपुर आ गई है और तूने मुझे

बताना भी जरूरी नहीं समझा?’’

एक बार तो मैं हक्कीबक्की रह गई कि कहीं उस ने मुझे किसी मौल या रास्ते में देख तो नहीं लिया… मैं उस से झूठ नहीं बोल सकती थी, इसलिए मैं ने धीरे से कहा, ‘‘हम लोग जयपुर ही शिफ्ट हो गए हैं,’’ मेरे स्वर में अपराधभाव था.

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‘‘क्या? तूने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा?’’

मैं कोई जवाब न दे पाई.

‘‘तू मुझे अपना पता सैंड कर. मैं घंटेभर में तेरे पास पहुंचती हूं… मिल कर बात करते हैं.’’

करीब घंटेभर बाद सलोनी घर पर थी. हम जब भी मिलते वह हर बार एक नई डिजाइनर ड्रैस में होती थी और वह भी लेटैस्ट और मैचिंग फुटवियर, पर्स और ऐक्सैसरीज के साथ.

‘‘अच्छा यह तो बता तुझे यह कैसे पता चला कि मैं जयपुर आ गई हूं?’’

‘‘पिछले हफ्ते मैं मुंबई आई थी. मेरी स्विट्जरलैंड की फ्लाइट वहीं से थी. मैं अचानक तेरे घर आ कर तुझे सरप्राइज देना चाहती थी पर वाचमैन ने बताया तुम जयपुर शिफ्ट हो गई हो. तू सच बता कि शिफ्ट हो जाने की बात मुझे क्यों नहीं बताई?’’

‘‘अरे तू भी न… जरा भी नहीं बदली है. सच कहूं सलोनी जब से हम दोनों मिले हैं मुझे कुछ सही नहीं लग रहा है,’’ मैं बोलने में थोड़ा हिचक रही थी, ‘‘तुझे नहीं लगता तूने जिंदगी को मजाक बना कर रख दिया है… जिंदगी को जिंदादिली से जीना अच्छी बात है पर इतनी जिंदादिली कि सारे आदर्श, सारी नीतियां ताक पर रख दो… तू थोड़ा दूरदर्शी बन कर देख. इस से तेरे बच्चों पर कितना खराब असर पड़ेगा. तू मां है उन की, उन्हें अच्छेबुरे का फर्क समझाना फर्ज है तेरा. अगर तू उन का पोषण ही सड़ी खाद से करेगी तो उन में स्वस्थ फलों का पल्लवन कैसे होगा?’’

‘‘तू गलत समझ रही है सलोनी. सुनील ने ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का नया व्यवसाय शुरू किया है और वह अच्छा चल पड़ा है. क्या पैसा कमाना गुनाह है? सुनील रिस्क लेना जानता है. फिर कौन सा ऐसा बिजनैस है जो शतप्रतिशत ईमानदारी से होता है?’’

मैं उस की नादानी पर मुसकरा भर दी. मैं समझ गई थी सलोनी को कुछ भी समझाना बेकार है. वह पूरी तरह से सुनीलमय हो गई थी. पैसों की चकाचौंध ने उस की नैतिकअनैतिक के बीच के फर्क को समझने की शक्ति खत्म कर दी थी. ऐसा कौन सा बिजनैस है, जिस में आदमी रातोंरात अमीर हो जाता है?

दूसरे दिन अमन औफिस के लिए थोड़ा जल्दी निकल गए. पर घर से निकलते ही लगातार बजते हौर्न की आवाज से मैं समझ गई जनाब आज फिर कुछ भूल रहे हैं. मैं घर से बाहर निकलती उस से पहले मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी.

‘‘हैलो सोना, मेरी स्टडीटेबल पर नीले रंग की फाइल रह गई है. जल्दी दे जाओ.’’

मैं भुनभुनाते हुए फाइल लेने ही जा रही थी कि मेरी नजर फाइल पर लिखे नाम सुनील पर पड़ी. मेरे दिमाग में बिजली का झटका सा लगा.

‘‘मैं इस केस के बारे में आप से कुछ पूछना चाहती थी.’’

‘‘क्यों इस ने तुम्हारे बैंक को भी बेवकूफ बनाया है क्या?’’

‘‘नहीं ऐसी बात नहीं है…’’

मेरी बात पूरी होने से पहले ही उन्होंने गाड़ी बढ़ा दी. पर मेरे दिल को कहां चैन था. मैं ने तुरंत इन्हें फोन लगाया, ‘‘हैलो अमन, मैं तुम्हें बताना चाहती हूं कि सुनील मेरी सब से प्यारी सहेली सलोनी का पति है. क्या आप इन के केस के बारे में कुछ बता सकते हो? ’’

‘‘सोना मैं तुम्हें ज्यादा नहीं बता सकता. यू नो, ये सब बहुत कौन्फिडैंशियल होता है. बस इतना जान लो कि हम सीधे उस के घर रेड डालने जा रहे हैं.’’

फिर थोड़ा रुक कर अमन ने पूछा, ‘‘पर तुम क्यों इतनी चिंता कर रही हो? वह आदमी इन सब बातों का आदी है.’’

मुझे कैसे भी चैन नहीं पड़ रहा था. मुझे सलोनी के लिए बहुत बुरा लग रहा था. यदि उसे पता चल गया अमन मेरे पति हैं तो उसे कितना बुरा लगेगा. मेरी प्यारी सलोनी, उस का एक नंबर भी मुझ से कम आ जाता तो उस से ज्यादा मैं दुखी हो जाती थी. आज इतने बड़े दर्द से कैसे उबर पाएगी. मेरा पूरा दिन पहाड़ सा निकला. रात को अमन के घर आते ही मैं ने प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘अमन क्या हुआ आज वहां पर?’’

‘‘तुम्हारी सहेली के पति के नाम करोड़ों की बेनाम संपत्ति है. मेरे पहुंचते ही उस ने मुझे क्व1 करोड़ की रिश्वत औफर की. किसी भी तरह से कौपरेट करने को तैयार नहीं था. वह तो मेरे साथ पुलिस थी… हमें उस के साथ सख्ती बरतनी पड़ी. मुझे शर्म आ रही है मेरी बीवी कैसे लोगों से संबंध रखती है.’’

मुझे रोना आ रहा था. इच्छा हुई कि सलोनी को फोन कर उस का हालचाल पूछूं. उस पर क्या बीत रही होगी… उन लोगों ने कुछ खायापीया होगा या नहीं. सलोनी ने तो रोरो कर अपना बुरा हाल बना लिया होगा.

मैं ने खुद को सामान्य करने की कोशिश की. मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं. कुछ दिनों बाद मैं इस बारे में भूल गई. एक दिन ऐसे ही फुरसत के क्षणों में फेसबुक अकाउंट खोलने पर सब से ऊपर सलोनी का फोटो था. किसी पांचसितारा होटल में पार्टी की थी, साथ में कैप्शन लिखी थी. ‘नेवर ऐंडिंग फन.’

मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ. सलोनी का वही खिलता चेहरा, बेफिक्र आंखें और उन में झलकते नित नए ख्वाब. उसे तो जैसे कुछ फर्क ही नहीं पड़ा था. मैं ही पागल थी जो उस के लिए अपना खून जला रही थी.

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पहले की बात और थी. अगर किसी के यहां रेड पड़ती थी तो यह उस व्यक्ति की इज्जत पर बहुत बड़ा दाग माना जाता था. वह व्यक्ति महीनों तक किसी को मुंह नहीं दिखाता था. इंसान की गांठ में क्व100 होते थे तो वह 75 खर्च करता था पर अब तो लोग आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपया की तर्ज पर चलते हैं. आज की पीढ़ी अपने भविष्य की चिंता किए बिना सिर्फ वर्तमान में जीती है और 1-1 पल जीती है. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उस की बेवकूफियों पर उसे एक तमाचा रसीद करूं या जिंदादिली पर उस की पीठ थपथपाऊं .

मुझे आज एक ग्रीक लोककथा में पढ़े फिनिक्स पक्षी की याद आ गई जो मरने के बाद भी अपनी राख से फिर जी उठता था. सलोनी भी तो ऐसी ही है. हालात के थपेड़ों से चोट खाने के बावजूद हर बार जी उठती है. एक नई सैल्फी और स्टेटस के साथ. ‘यह नहीं सुधरेगी. लैट हर लिव लाइफ.’ सोच इस बार मुझे उस की पोस्ट देख कर गुस्सा नहीं आया. मन ही मन मुसकरा उसे किस वाली स्माइली के साथ लाइक दे दिया.

फीनिक्स: भाग-2

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 कहानी- मेहा गुप्ता

मुझे, इसलिए नहीं कि वह सुंदर नहीं था, बल्कि मेरी नजर में पर्फैक्ट मैच नहीं था वह मेरी सलोनी के लिए.

करीब 20 मिनट बाद मेरी भेजी रिक्वैस्ट पर उस का रिप्लाई आया ‘ऐक्सैप्टेड.’ उस ने कीबोर्ड पर खटखट कर चैट करने के बजाय तुरंत मुझे वीडियो कौल की.

‘‘कहां खो गई थी मेरी स्वीटी, कितना ढूंढ़ा मैं ने तुझे?’’

‘‘मैं फेसबुक पर नहीं थी और मेरा मोबाइल खो जाने के कारण सारे कौंटैक्ट्स डिलीट हो गए थे,’’ मैं जानती थी कि मैं ने बड़ा घिसापिटा सा बहाना बनाया है.

‘‘तू अभी मुंबई में ही है औरकभी मुझ से संपर्क करने की कोशिश नहीं की. इतना पराया कर दिया अपनी सलोनी को?’’ उस की बातें जारी थीं. वही अदाएं, चेहरे पर वही नूर, शब्दों को जल्दीजल्दी बोलने की उस की आदत, उत्साह से लबरेज.

‘‘मैं अगले हफ्ते जयपुर आ रही हूं. मिल के बात करते हैं,’’ बस इतना कह पाई मैं. आंसुओं ने मेरे स्वर को अवरुद्ध कर दिया था.

फोन रखने के बाद भी मेरा मन उस में ही अटका रहा. शाम को भी मैं फिर उस के अकाउंट पर गई. उस ने ढेरों फोटो अपलोड कर रखे थे. उस के घूमने के, पार्टियों के, शादी समारोहों के. कुल मिला कर ये सब फोटो उस की संपन्नता और खुशी को बयां कर रहे थे.

‘‘कहां अटकी हुई है आज तू? कितनी देर से गाड़ी में तेरा इंतजार कर रही हूं,’’ मेरी कुलीग जो मेरी पूल पार्टनर भी है की आवाज ने मेरी तंद्रा को भंग किया.

‘‘तू निकल जा… मैं मार्केट से थोड़ा काम निबटाते हुए आऊंगी,’’ कह मैं ने घड़ी की तरफ नजर डाली. 5 बज रहे थे. मैं ने सलोनी के बच्चों के लिए चौकलेट्स, उस के लिए पर्स आदि लिया. घर लौटते हुए मैं ने एक थैला सब्जी भी खरीद ली, क्योंकि मुझे 2 दिनों के लिए बाहर जाना था. ऐसे में मैं कई ग्रेवी वाली सब्जियां बना कर जाती थी. रोटी अमन बना लेते थे. इस से मेरे पति और बेटे का मेरे पीछे से काम निकल जाता था.

अगले दिन मैं सुबह की फ्लाइट से जयपुर के लिए निकल गई. जयपुर एअरपोर्ट से बाहर निकलते ही अपने वादे के अनुसार सलोनी एक बड़े से गुलदस्ते के साथ खड़ी थी, जिस में मेरी पसंद के सफेद गुलाब थे. जब भी हम दोनों में अनबन हो जाती थी तो हम दोनों में से कोई भी बिना दंभ के दूसरी को सफेद गुलाब उपहार में दे अपनी लड़ाई का अंत करती थी.

‘‘सोनाली मेरी जानेमन… बिलकुल नहीं बदली है तू,’’ उस ने लगभग चिल्ला कर कहा. आसपास खड़े सभी लोग उस की तरफ देखने लगे पर दुनिया की उस ने कभी परवाह नहीं की थी. जो उसे जंचता वही करती.

वही गरमाहट थी आज भी उस के व्यवहार में. जब वह बोलती थी तो उस की जबान ही नहीं हर अंग बोल उठता था.

‘‘बिलकुल नहीं बदली सैक्सी तू तो,’’ हमेशा इस तरह के उपनामों से बुलाती थी वह मुझे. मुझ से यह कहते हुए वह मुझ से लिपट गई. अपने कंधों पर उस के आंसुओं को महसूस कर रही थी मैं.

उस ने अपनी काली चमचमाती गाड़ी निकाली, एअरपोर्ट की पार्किंग की भीड़ को चीरती हुई गाड़ी मालवीय रोड पर आगे बढ़ने लगी. जयपुर के चप्पेचप्पे से परिचित थी मैं. समय के साथ कितना कुछ बदल गया था.

गाड़ी एक बड़े बंगले के एहाते में आ कर रुकी. सफेद रंग के लैदर के आरामदायक सोफे, चमकते पीतल और कांसे के बड़ेबड़े आर्टइफैक्ट्स, दीवारों पर लगी पेंटिंग्स और परदों का चयन उस के वैभव का बखान तो कर ही रहा था, साथ में मकानमालिक की कला के प्रति रुचि और हुनर को भी दर्शा रहा था.

‘‘तूने अपने घर को बहुत ही मन से सजाया है. मुझे खुशी है कि तुझ में यह हुनर अभी भी जिंदा है.’’

सलोनी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में अपना कौलर ऊपर कर कंधे उचका दिए. शायद वह मेरे कहने का मंतव्य नहीं समझ पाई थी.

चायनाश्ते के बाद उस ने अपनी मेड को खाने का मेन्यू बताया और उस के बाद हम उस के घर के बाहर बगीचे में लगी कुरसियों पर

बैठ गए.

हमारी बातों का सिलसिला शुरू हो गया. उस ने कानों और हाथों में बड़े से सौलिटेर और हाथों में अपेक्षाकृत छोटे आकार के डायमंड के कंगन पहन रखे थे.

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‘‘तू तो जैसे किसी डायमंड की ब्रैंड ऐंबैसेडर हो… कितना चमक रही है… मैं बहुत खुश हूं तुझे देख कर. जो तूने अपनी जिंदगी से चाहा था तुझे सब

मिल गया.’’

‘‘तूने भी तो अपने सपनों को जीया है. आज अपनी मेहनत के दम पर तू इस मुकाम पर पहुंची है. एक प्रतिष्ठित बैंक में इतने उच्च पद पर कार्यरत है तू.’’

‘‘मुझे भी बहुत खुशी है तेरा यह रूप देख कर. वही आत्मविश्वास से दीप्त मुखमंडल, देहयष्टि में वही कमनीयता… कोई बोलेगा तुझे देख कर

कि एक जवान बेटे की

मां हो.’’

‘‘पर तू इतनी बेडौल क्यों हो गई है?’’

‘‘लगना चाहिए न कि खातेपीते घर के हैं. अरे भई यह तो हम मारवाडि़यों की शान है. लाखों की भीड़ में भी पहचान लिए जाते हैं,’’ उस ने अपने पेट पर हाथ फिराते हुए ऐसे नाटकीय अंदाज में कहा कि मैं खुद को हंसने से न रोक पाई.

‘‘चल अंदर चल कर बैठते हैं. अंधेरा गहराने को है और फिर सुनील भी आते ही होंगे… एसी औन कर दूं. इन्हें आने से पहले हौल चिल्ड चाहिए नहीं तो गरमी के मारे दिमाग का तापमान बढ़ जाता है.’’

कुछ ही पलों में सुनील भी घर आ गया. हम लोगों के बीच कुछ औपचारिक बातचीत हुई. डिनर के दौरान भी उस के हाथ में महंगा मोबाइल सैट था और उस की फोन कौल्स लगातार चालू थीं. वह खाना खाते हुए भी तेज आवाज में फोन पर बातें कर रहा था. मैं मन ही मन अमन की तुलना सुनील से करने लगी. अमन की आवाज इतनी धीमी होती कि पास बैठा व्यक्ति भी न सुन पाए. यही तो फर्क है कम पढ़े और पढ़ेलिखे व्यक्ति में… जाने क्या देखा सलोनी ने इस में और जाने कैसे वह इस की हरकतों को बरदाश्त करती है. मैं मन ही मन खीज उठी.

मगर मैं ने महसूस किया कि सलोनी बहुत खुश थी. उस ने मीठे में गुलाबजामुन मंगवा रखे थे. सुनील के नानुकुर करने पर भी एक गुलाबजामुन अपने हाथ से उस के मुंह में डाल दिया. शायद पैसा इंसान की सारी कमियों को ढक देता है.

सलोनी ने आज स्वयं के सोने की व्यवस्था भी गैस्टरूम में कर ली थी. करीब 9 बजे वह

2 कप कौफी के लिए कमरे में आई. कपों में कौफी और शक्कर डली थी, ‘‘चल फेंटी हुए कौफी बना कर पीते हैं. जब से तेरा साथ छूटा है मैं तो जैसे कौफी का स्वाद ही भूल गई हूं,’’ हम चम्मच से कौफी घोलते हुए पुराने दिनों को याद करने लगे.

‘‘तेरी पसंद तो बहुत लाजवाब हो गई है,’’ मैं ने उस के सुंदर मगों को देखते हुए कहा,  ‘‘तू सारा समय शौपिंग में ही लगी रहती है क्या?’’

‘‘कहां यार… बुटीक से समय ही नहीं मिल पाता है.’’

‘‘तेरा बुटीक भी है?’’ मैं उछल पड़ी.

‘‘हां, और सच पूछो तो अभी तो उस का ही सहारा है,’’ मैं ने पूरे दिन में पहली बार उस के चेहरे पर हलकी सी उदासी देखी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं सलोनी?’’

‘‘हाल ही में चल रही टी-20 सीरीज में लगाए गए सट्टे में सुनील को करोड़ों का घाटा हो गया है.’’

‘‘पर तू सुनील को सट्टा क्यों खेलने देती है? तू जानती है न सट्टा खेलने वालों का क्या हाल होता है? जानबूझ कर अपना और अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा रही हो. यह तो जुआ है. इस से तो इज्जत की दो सूखी रोटियां खानी ज्यादा बेहतर है.’’

आगे पढ़ें- दौलत भी एक नशा ही तो है डियर. एक….

फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

सूर्यकी पीली रेशमी किरणों ने पेड़ों के पत्तों के बीच से छनछन कर मेरी बालकनी में आना शुरू कर दिया है. यह मेरे लिए दिन का सब से खूबसूरत वक्त होता है. बालकनी में खड़ी हो सामने पार्क में देखती हूं तो कोई वहां बने जौगिंग पाथ पर दौड़ लगा कर पिछले दिन खाए जंक फूड से पाई कैलोरी को जलाने में जुटा है तो कोई सांसों को अंदरबाहर ले अपने जीवन की तमाम विसंगतियों से झूझने के लिए खुद को सक्षम बनाने में.

मेरी मां ने इन गतिविधियों को अमीरों के चोंचले नाम दे रखा है. कहती हैं छोटीछोटी जरूरतों के लिए अगर नौकरों पर निर्भर न रहें तो ये सब करने की नौबत ही न आए. हम लोग जब कुएं से पानी खींच कर लाया करती थीं तो वही हमारे लिए जौगिंग होती थी और चूल्हे की लौ को तेज करने के लिए जोर से फूंक देतीं तो वही प्राणायाम.

अब मां को कैसे समझाऊं कि जमाना बदल गया है, जमाने की सोच बदल गई है.जबकि मैं खुद कई मामलों में जमाने से बहुत पीछे हूं. मसलन, खाने के मामले में मैं रैस्टोरैंट जा कर पिज्जाबर्गर खाने से बेहतर घर की दालरोटी खाना पसंद करती हूं. बाहर का खाना मुझे सेहत और पैसे की बरबादी लगता है.

वैस्टर्न आउटफिट्स न पहन कर सलवारकमीज वह भी दुपट्टे के साथ पहनती हूं और सब से मुख्य बात सोशल मीडिया से गुरेज करती हूं. अब तक मुझे यह निहायत दिखावा, छलावा और समय की बरबादी लगता था पर इस बार अपनी सोलमेट से मिलने के लालच ने मुझे फेसबुक के गलियारों में भटकने को मजबूर कर ही दिया.

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मैं ने फेसबुक पर अपना अच्छा सा फोटो लगा अपना प्रोफाइल डाल दिया और सलोनी, जयपुर टाइप कर के क्लिक कर दिया. क्लिक करते ही सलोनी नाम से लगभग 50 प्रोफाइल स्क्रीन पर आ गए. मैं 1-1 कर के सारे फोटो जूम कर देखने लगी. लगभग 15वां प्रोफाइल मेरी सलोनी का था.

मैं ने बिना समय गंवाए फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी और उस के जवाब का इंतजार करने लगी. जब से मेरा जयपुर जाने का प्लान बना था मेरा मन सलोनी से मिलने को तड़प उठा था.

जयपुर का पर्याय है मेरे लिए सलोनी… सिर्फ सहेली ही नहीं सोलमेट थीं हम दोनों. जयपुर के महारानी कालेज में मेरा ऐडमिशन

हुआ था और मैं सुमेरपुर जैसे छोटे कसबे की देशी गर्ल वहां आ गई. अजनबियों की भीड़ में सलोनी ने ही मेरा संबल बन मेरा हाथ थामा था. उस की मम्मी ने कई रूम, पेइंगगैस्ट के तौर पर लड़कियों को दे रखे थे, इसलिए मैं भी होस्टल

के अत्याधुनिक माहौल को अलविदा कह वहीं रहने चली गई थी. वहीं पर सलोनी द्वारा मेरी ग्रूमिंग भी हुई थी.

सादी नहीं बोलो शादी, मैडम नहीं मैम, इस दुपट्टे को दोनो कंधों पर के दोनों तरफ नहीं, बल्कि एक पर डालो, और भी न जाने क्याक्या…

मुझ में बहुत जल्दी इतना बदलाव आया कि मेरे इस नए रूप को देख कर मुझ से ज्यादा वह प्रसन्न थी. गुरुदक्षिणा में मैं उसे फुजूलखर्ची से परहेज कर थोड़ा सेविंग करने के लिए कहती थी पर वह मेरी कही हर बात हवा में उड़ा देती थी. मुझे नहीं लगता उस ने मुझे कभी सीरियसली लिया हो. सदा एकदूसरे का साथ देने को तत्पर थीं हम, पर कोई गलत कदम उठाने पर एकदूसरे को समझाने या डांटने का पूरा हक भी दे रखा था हम ने एकदूसरे को.

नाम के अनुरूप ही वह रूप और गुणों की स्वामिनी थी. हर वक्त चहकती फिरती. फिर हम दोनों के बीच दूरी आ गई. शायद मैं ने स्वयं ही सलोनी से खुद को दूर कर लिया था. उस के लिए एक बहुत ही संभ्रांत परिवार से रिश्ता आया था. वह थी ही इतनी सुंदर कि कोई भी उस पर फिदा हो जाए. लड़का सिर्फ 12वीं कक्षा तक पढ़ा था और श्यामवर्णी होने के साथसाथ बेडौल भी था.

कितना समझाया था मैं ने उसे, ‘‘कहां गए तेरे सारे सपने? तू अपनी इंटीरियर डिजाइनर की डिगरी उस के पीछे लगाई अपनी अपार मेहनत सब यों ही बरबाद कर देगी? वहां तेरे टेलैंट की कोई कद्र नहीं होगी.’’

मगर तब शायद सुनील की चकाचौंध ने, उस की महंगी गाडि़यों ने, उस के ठाटबाट ने सलोनी और उस के परिवार वालों की अकल पर परदा डाल दिया था. हम दोनों ही साधारण परिवार से थीं पर मेरे और उस के जिंदगी के

प्रति दृष्टिकोण, खुशियों की परिभाषा में बहुत अंतर था.

‘‘सलोनी तुझे लगता है तू शादी के बाद नौकरी कर पाएगी? कितने अरमान थे तेरे अपने भविष्य को ले कर,’’ एक दिन शादी की तैयारियों के बीच उस की साडि़यों की पैकिंग करते हुए मैं ने उस से पूछा था.

‘‘इसे नौकरी करने की जरूरत क्यों पड़ेगी भला… लाखों में खेलेगी मेरी लाडो…

नौकरी तो मध्य परिवार के लोग अपनी बहुओं से करवाते हैं. ये तो खानदानी लोग हैं. शहर में नाम है इन के परिवार का. भला ये लोग अपनी नाक क्यों कटवाएंगे अपने घर की बहूबेटियों से नौकरी करवा कर.’’

मैं आंटी से कहना चाहती थी कि जरूरी नहीं है औरत आर्थिक जरूरतों के चलते कमाए. उसे अपने आत्मसम्मान के लिए, आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए, समाज में अपना वजूद बनाए रखने के लिए भी आत्मनिर्भर बनना चाहिए पर मुझे पता था आंटी के लिए इन बातों का कोई अर्थ नहीं… और सलोनी वह तो जैसे स्वप्नलोक में विचरण कर रही थी.

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मेरी शादी अपनी पसंद के इनकम टैक्स औफिसर से हुई थी. पर मेरे पति अमन अपने उसूलों के बहुत पक्के और सादा जीवन उच्च विचारों के साथ जीने में विश्वास रखते थे. हमारी शादी भी बहुत साधारण तरीके से हुई थी. शादी में आई सलोनी ने अमन से मिल कर मुझे छेड़ा भी था कि वाह, क्या जोड़ी है… अच्छा है दोनों की खूब जमेगी.

मैं विचारों में खोई स्क्रीन को स्क्रोल कर उस के नएपुराने सभी फोटो देखने में जुटी थी. उस के स्टेटस पर कपल फोटो लगा था. मुझे उस के कंधे पर हाथ रखे हुए सुनील कांटे सा चुभा था कि हु बंदर के गले में मोतियों की माला, बड़बड़ाते हुए मैं ने अपना मुंह बिचकाया. वह आदमी पहली नजर में ही बेहद नापसंद था.

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अटूट बंधन: भाग-4

विशू ने देखा, छत पर अनगिनत दरारें, कहींकहीं तो दरार इतनी चौड़ी कि धूप का कतरा नीचे आ रहा है. साथ वाले कमरे की तो आधी छत ही गिर गई है. उस के ऊपर खुला आकाश. सिहर उठा वह, वहां बैठ बाबा अध्ययन किया करते थे, दूसरे कोने में उस के पढ़ने की मेज थी.

‘‘अम्मा, छत तो कभी भी गिर सकती है.’’

‘‘हां बेटा, पर करें क्या? दीनू को लाला की चीनी मिल में काम मिला था. 10वीं भी पास न कर पाया. बल्कि मुन्नी की बुद्धि अच्छी है, 10वां पास कर लिया. सोचा था, थोड़ाथोड़ा जोड़ छत की मरम्मत करवा लेंगे पर एक ट्रक ने टक्कर मार दी, आधा पैर काटना पड़ा. बैसाखी पर चलता है वह अब. नौकरी चली गई तो दानेदाने को तरस गए. तब बहू और मुन्नी ने सलाह कर चाय की दुकान खोली. उस से रूखासूखा ही सही, दो रोटी शाम को मिल जाती हैं.’’

स्तब्ध हो गया. उस किशोरी सी बहू के प्रति मन में आदर भर उठा. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद पति को दुत्कार उस से पल्ला नहीं झाड़ा, उस के साथ रही, उस को, उस के परिवार को सहारा दिया.

अपनी छोटी सी सीमित क्षमता के अनुसार और रीमा? इतनी बड़ी नौकरी, इतनी संपन्नता, उसी का ही दिया इतना सुख, आराम, संपन्नता में जरा सा अंतराल आएगा, सोच कर ही इतनी गुस्से में आ गई कि पति को ताने देते नहीं हिचकी. और यह छोटी सी निर्धन अनपढ़ लड़की.

मुन्नी पानी ले आई. नल का ताजा पानी. वर्षों से मिनरल वाटर छोड़ सादा पानी नहीं पीता है विशू. पर आज निश्चिंत हो कर नल का पानी पी गया और लगा बहुत देर से प्यासा था.

‘‘दीनू है कहां?’’

‘‘चौधरी के बेटे ने सड़क पर पैट्रोल पंप खोला है, तेल भराने जो गाडि़यां आती हैं उन में से कोईकोई सफाई भी करवाते हैं तो उस ने दीनू को लगा दिया है. कभीकभी 30-40 रुपए कमा लेता है, कभीकभी एकदम खाली हाथ. बेटा, तू हाथमुंह धो ले. मुन्नी ताजे पानी से बालटी भर दे. धुला तौलिया निकाल दे.’’

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‘‘अम्मा, सड़क पर गाड़ी खड़ी है. मैं अंदर ले आता हूं.’’

निर्मला की आंखें फटी की फटी रह गईं, ‘‘तू गाड़ी लाया है.’’

‘‘हां, अम्मा.’’

आत्मग्लानि और अपराधबोध से विशू का मन भारी हो रहा था. आज लग रहा है कि उस दिन वह गलत था, बाबा कहते थे, ‘धनवान बनो या न बनो पर बच्चा, इंसान बनो, आदमी धन नहीं मन से बड़ा होना चाहिए.’ पर उन के दिए सारे संस्कारों को ठेंगा दिखा कर उस ने उस उपदेश को कभी न अपनाया. अपना स्वार्थ तो पूरा हो ही गया.

तभी वह सजग हुआ, सोचा, अरे, उस के पास अपना बचा ही क्या है, एक नाम और नाम के पीछे जुड़ा सरनेम ‘तिवारी’ छोड़ सारे अभ्यास, आत्मजन, घरद्वार, यहां तक कि सोच भी तो रीमा की है. उस के मम्मीपापा, उन के उपदेश, रीमा के भाईबहन, उस की आदतें, उठनाबैठना, समाज में परिचय तक रीमा का दिया है, रीमा का पति, मिस्टर सिन्हा का दामाद, गौतम साहब का जीजा.

पंडित केशवदास तिवारी का तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहा क्योंकि अपने सुपुत्र विश्वनाथ तिवारी ने स्वयं अपना अस्तित्व खो दिया. मिस्टर सिन्हा का दामाद, रीमा का पति नाम से ही तो जाना जाता है तो फिर पंडितजी का नाम चलेगा कैसे?

विशू ने गाड़ी ला कर खड़ी की. निर्मला ने आ कर गाड़ी को बड़ी ही सावधानी से छुआ, मुख पर गर्व का उजाला, ‘‘तेरे बाबा देख कर कितना खुश होते रे, मुन्ना.’’

अचानक ही विशू को लगा कि क्या होता अगर वह कैरियर के पीछे ऐसे सांस बंद कर न दौड़ता. बाबा सदा कहते थे सहज, सरल व आदरणीय बने रहने के लिए. पर उस ने तो स्वयं ही अपने जीवन को जटिल, इतना तनावपूर्ण बना लिया. वह मेधावी था, शिक्षा पूरी कर कोई नौकरी कर लेता, काम पर जाता फिर अपने आंगन में अपने प्रियजनों के बीच लौट खापी कर चैन की नींद सो जाता, खेतों की हरियाली, कोयल की कूक और माटी की सुगंध की चादर ओढ़. पर नहीं, उस ने जो दौड़ शुरू की है दूसरों को पीछे छोड़ आगे और आगे जा कर आकाश छूने की, उस में कोई विरामचिह्न है ही नहीं. बस, सांस रोक कर दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, गिर गए तो मर गए. दूसरे लोग तुम को रौंद आगे निकल जाएंगे.

आज इस निर्धन, थकेहारे परिवार को देख एक नए संसार की खोज मिली उस को. यहां पलपल जीवित रहने की लड़ाई लड़ते हुए भी ये लोग कितने सुखी हैं, कितनी शांति है आम की घनी छाया के नीचे, एकदूसरे के प्रति कितना लगाव है. कोई भी बुरा समय आए तो कैसे सब मिलजुल कर उस को मार भगाने को एकजुट हो जाते हैं. उस के जीवन में संपन्नता के साथ वह सबकुछ, सारी सफलताएं हैं जो आज के तथाकथित उच्चाकांक्षी लोगों का सपना हैं पर आज रीमा ने आंखों में उंगली डाल दिखा दिया कि उस के प्रति समर्पण किसी का भी नहीं.

‘‘चल बेटा, खाना खा ले. थोड़ा आराम कर के जाना. दिन रहते ही घर लौटना, समय ठीक नहीं. दीनू लौट कर दुखी होगा कि भैया से भेंट नहीं हुई.’’

एकएक शब्दों में उस मां, जिसे वह सौतेली मानता था, का स्नेह, ममता और संतान की चिंता देख विशू अंदर तक भीग उठा.

‘‘मैं नहीं जा रहा. कई दिनों की छुट्टी ले कर आया हूं. घर में रहूंगा.’’

बुरी तरह चौंकी निर्मला, ‘‘क्या, अरे रहेगा कहां? देख रहा है घरद्वार की दशा, कहां सोएगा, कहां उठेगाबैठेगा और नहानाधोना?’’

‘‘तुम लोग कैसे करते हो?’’

‘‘पागल मत बन. हमारी बात मान और…’’

‘‘क्यों? क्या मैं कोई आसमान से उतर कर आया हूं?’’

हंस पड़ी निर्मला. विशू ने देखा इतना आंधीतूफान झेल कर भी निर्मला की हंसी में आज भी वही शुद्ध पवित्र हृदय झांकता है, वही मीठी सहज सरल हंसी, ‘‘कर लो बात. तेरा घरद्वार है, रहेगा क्यों नहीं? पर तेरे रहने लायक भी तो हो.’’

‘‘तभी तो रहना है मुझे…इस को रहने लायक बनाने के लिए.’’

‘‘क्या कह रहा है तू?’’

‘‘अम्मा, नासमझ था जो अपनी जड़ अपने हाथों काट गया था. पर मजबूत जड़ काट कर भी नहीं कटती. एक टुकड़ा भी रह जाए तो पेड़ फिर से लहलहा उठता है. अम्मा, मैं समझ गया हूं कि मैं आज तक सोने के हिरन के पीछे दौड़ता रहा जो लुभाता जरूर है पर किसी का भी अपना नहीं होता. बस, तुम मुझे वह करने दो जो मुझे करना है.’’

‘‘वह क्या है, लल्ला?’’

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‘‘इस मकान को मजबूत, पक्का घर बनाना है, 3 कमरे, 1 हाल, बिजली, पानी की व्यवस्था, रसोई, बाथरूम की सुविधा और आज से चाय की दुकान बंद. पंडितजी की बहूबेटी सड़क चलते लोगों को चाय बेचेंगी, यह तो बड़ी लज्जा की बात है. वहां एक बहुत बड़ी परचून की दुकान होगी. एक नौकर होगा, दीनू उस में बैठेगा.’’

‘‘पर वह तो… बहुत पैसों का…’’

‘‘अम्मा, याद है तुम बचपन में कहती थीं कि तेरा बेटा लाखों का नहीं करोड़ों का है. तुम पैसों की चिंता क्यों करती हो. मैं हूं तो.’’

रो पड़ी निर्मला, ‘‘मेरे बच्चे…’’

‘‘चलो अम्मा, रोटी खिलाओ, भूख लगी है.’’

मन एकदम नीले आकाश में जलहीन छोटेछोटे बादलों के टुकड़ों जैसा हलका हो गया. उसे चिंता नहीं इस समय पर्स में 35 हजार रुपए पड़े ही हैं, काम शुरू करने में परेशानी नहीं होगी. बीमा के 20 लाख रुपए हैं ही. उसे पता है कि वह 1 हफ्ता भी खाली नहीं बैठेगा. दूसरे लोगों की नजर वर्षों से उस पर है. उस की योग्यता और काम की निष्ठा से सब ललचाए बैठे हैं.

देश और विदेश की कंपनियों के कर्णधार, कई औफर इस समय भी उस के हाथ में हैं. बस, स्वीकार करने की देर है और वह करेगा भी. पर इस बार देश नहीं विदेश में ही जाने का मन बना लिया है. जहां रीमा की परछाईं भी नहीं हो. घर के ऊपर अपने लिए एक बड़ा सा पोर्शन बना लेगा जहां से हरेहरे खेत, गाती कोयल, आम के बाग और गांव के किनारेकिनारे बहती यमुना नदी दिखाई पड़ेगी.

एक बार जिस पेड़ की जड़ काट कर गया था, उस की जड़ के बचे हुए टुकड़े से पेड़ फिर लहलहाता वटवृक्ष बन गया है. अब दोबारा से उस जड़ को नहीं काटेगा. वर्ष में एक बार मां, भाईबहन के पास अवश्य आएगा.

बहुत दिनों बाद लौकी की सब्जी, चूल्हे की आंच में सिंकी गोलमटोल करारीकरारी रोटी पेट भर खा कर वह मूंज की बनी चारपाई पर दरी और साफ धुली चादर के बिछौने पर पड़ते ही सो गया. बहुत दिनों बाद गहरी, मीठी नींद आई है उसे.

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अटूट बंधन: भाग-2

‘‘माफी मांगूंगा, मैं?’’

‘‘अरे, यह बस फौर्मेलिटी है. दो शब्द कह देने में क्या जाता है? उम्र में पिता समान हैं और मालिक हैं.’’

‘‘कभी नहीं…’’

पंडितजी का खून जाग उठा विशू की धमनियों में. वह पंडितजी जो आज भी न्याय, निष्ठा, सदाचार, सपाटबयानी व सत्यवचन के लिए जाने जाते हैं, उन की प्रथम संतान, इतना नहीं गिर सकती.

‘‘प्रश्न ही नहीं उठता माफी मांगने का. गलत वे हैं, मैं नहीं. माफी उन को मुझ से मांगनी चाहिए.’’

फिर से जल उठी रीमा, ‘‘तो तुम त्यागपत्र वापस नहीं लोगे, माफी नहीं मांगोगे?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं…’’

‘‘ठीक,’’ अनपढ़ गंवार महिलाओं की तरह मुंह बिदका कर रीमा चीखी, ‘‘तो अब मजे करो, बीवी की रोटी तोड़ो, उस की कमाई पर मौजमस्ती करो.’’

विशू का मुंह खुला का खुला रह गया. क्या स्वार्थ का नग्न रूप देख रहा है वह. पहले तो यही रीमा प्रेम में समर्पण, त्याग और मधुरता की बात करती थी पर उस के स्वार्थ पर चोट लगते ही क्या रूपांतरण हो गया. विशू की नजरों में सब से सुंदर मुख आज कितना भयंकर और कुरूप हो उठा है. वह अपलक उसे देखता रहा.

क्रोध में भुनभुनाती रीमा तैयार हुई. डट कर नाश्ता किया, गैराज से अपनी गाड़ी निकाल औफिस चली गई. अब लंच में लौटेगी बच्चों को स्कूल से ले कर 2 बजे. 3 बजे फिर जा कर फिर लौटेगी 5 बजे. रोज का यही रुटीन है उस का.

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रीमा के जाने के बाद एक अलसाई अंगड़ाई ले विशू उठ बैठा. घड़ी ठीक 10 बजा रही थी. चलो, अब पूरे 4 घंटे हैं उस के हाथ में सोचविचार कर निर्णय लेने को. फ्रैश हो कर आते ही संतो ने ताजी चाय ला कर स्टूल पर रखी. उस ने चाय पी. रीमा से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. आज वह स्वयं समझा गई उस का रिश्ता बस स्वार्थ का रिश्ता है. इन्हीं सब उलझनों में फंसा वह अतीत में खो गया.

अपने पिता को वह कभीकभी आर्थिक चिंता करते देखता था तब निर्मला यानी सौतेली मां कभी डांट कभी प्यार जता उन को साहस जुटाती थी कि चिंता क्यों करते हो जी, सब समस्या का हल हो जाएगा. कभी भी आर्थिक दुर्बलता को ले कर पिता को ताने देते या व्यंग्य करते नहीं सुना. न ही कभी अपने लिए कुछ मांग करते.

अपनी मां की तो स्मृति भी नहीं है मन में, डेढ़ वर्ष की उम्र से ही उस ने निर्मला को अपनी मां ही जाना है और निर्मला ने भी उसे पलकों पर पाला है. दीनू से बढ़ कर प्यार किया है. उस का भी तो बाबा से वही रिश्ता था जो रीमा का उस के साथ है. फिर निर्मला हर संकट में बाबा के साथ रही, साहस जुटाया, मेहनत कर के सहयोग दिया और रीमा ने आज…उस की रोटी का एक कौर भी नहीं खाया अभी, फिर भी अपनी कमाई का ताना दे गई.

पति के मानसम्मान का कोई मूल्य नहीं, जो उसे पूरी तरह मिट्टी में मिलाने, माफी मंगवाने ले जा रही थी, उस झूठे और बेईमान जालान के पास. उस ने उस के आत्मसम्मान की प्रशंसा नहीं की. एक बार भी साहस नहीं बढ़ाया कि ठीक किया, चिंता क्यों करते हो, मेरी नौकरी तो है ही. दूसरी नौकरी मिलने तक मैं सब संभाल लूंगी. वाह, क्या कहने उच्च समाज की अति उच्च पद पर कार्यरत पत्नी की.

आज रीमा ने 13 वर्ष से पति से सारे सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, अपने हर शौक की पूर्ति, आराम, विलास का जीवन सबकुछ एक झटके में उठा कर फेंक दिया, अपनी जरा सी असुविधा की कल्पना मात्र से. एक बार भी नहीं सोचा कि पति के पास कितनी योग्यता है, कितना अनुभव है, और अपने क्षेत्र में कितना नाम है. वह दो दिन भी नहीं बैठेगा. दसियों कंपनी मालिक हाथ फैलाए बैठे हैं उसे खींच लेने के लिए, देश ही नहीं विदेशों में भी. और उस की सब से प्रिय पत्नी उस की तुलना कर गई डोनेशन वाले सड़कछाप एमबीए लोगों के साथ. बस, अब और नहीं. पार्लर ने जो सुंदर मुख दिया है रीमा को वह मुखौटा हटा कर उस के अंदर का भयानक स्वार्थी, क्रूर मुख स्वयं ही दिखा गई है वह आज. उस का सारा मोह भंग हो चुका है.

अपने ही प्रोफैसर की बेटी रीमा को पाने के लिए वह स्वयं कितना स्वार्थी बन गया था, आज उस बात का उसे अनुभव हुआ. एमबीए के खर्चे के लिए उस निर्धन परिवार के मुंह की रोटी 5 बीघा खेत तक बिकवा दिया.

पिता पर दबाव डाला. अपने 2 छोटेछोटे बच्चों की चिंता कर के भी सौतेली मां निर्मला ने एक बार भी बाबा को नहीं रोका. और उस ने इन 13 वर्षों में उधर पलट कर भी नहीं देखा क्योंकि उसे बहाना मिल गया था. जब नौकरी पा कर बाबा को सहायता करने का समय आया तब सब से पहले रीमा से शादी कर के अपने परिवार से पल्ला झाड़ने का बहाना खोजने लगा और मिल भी गया.

निष्ठावान स्वात्तिक ब्राह्मण पंडितजी ने ठाकुर की बेटी को अपने घर की बहू के रूप में नहीं स्वीकारा और वह खुश हो रिश्ता तोड़ आया. असल में उस के अंतरमन में भय था, आशंका थी कि इस निर्धन परिवार से जुड़ा रहा तो कमाई का कुछ हिस्सा अवश्य ही चला जाएगा इस परिवार के हिस्से. जब कि पिता छोड़ औरों से उस का खून का रिश्ता है ही नहीं. और पिता के प्रति भी क्या दायित्व निभाया.

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दिल्ली से 40 मिनट या 1 घंटे का रास्ता है फूलपुर गांव का. ‘फूलपुर’ वह भी हाईवे के किनारे. गांव के चौधरी का बेटा महेंद्र मोटर साइकिल ले कर आया था उसे लेने. गेट पर ही मिल गया. एक जरूरी मीटिंग थी, इस के बाद ही प्रमोशन की घोषणा होने वाली थी. रीमा औफिस न जा कर घर में ही सांस रोके बैठी थी. वह औफिस ही निकल रहा था कि महेंद्र ने पकड़ा.

‘विशू, जल्दी चल पंडितजी नहीं रहे. अभी अरथी नहीं उठी, तू जाएगा तब उठेगी.’

उस के दिमाग में प्रमोशन की मीटिंग चल रही थी. इस समय यह झूठझमेला. खीज कर बोला, ‘दीनू है तो.’

मुंह खुल गया था महेंद्र का, ‘क्या कह रहा है, तू बड़ा बेटा है और तेरे पिता थे वे…’

‘देख, मेरे जीवन का प्रश्न है. आज मैं नहीं जा सकता, जरूरी काम है. आ जाऊंगा. तू जा.’

महेंद्र के खुले हुए मुंह के सामने वह औफिस चला गया था. 8 वर्ष पुरानी बात हो गई.

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