लौकडाउन में दिल मिल गए: भाग-1

सविता बारबार घर की बालकनी से नीचे झांक रही थी. पार्वती अभी तक आई नहीं थी. बेकार ही सामान मंगवाया, सबकुछ तो रखा था. थोड़ा कम में काम चल जाता पर बेवजह अधिक जमा करने के चक्कर में उस बेचारी को दौड़ा दिया. तभी नीचे पार्वती को आता देख उन्होंने राहत की सांस ली और लगभग दौड़ कर दरवाजा खोला.

लगभग हांफती हुई पार्वती ने दोनों थैले घर के कोने पर पड़ी एक टेबल पर रखे और नीचे बैठ गई.

“बड़ी मुश्किल से मिला है दीदी, सभी दुकानों पर भारी भीड़ थी. सोसाइटी की दुकान पर तो खड़े होने की जगह भी नहीं थी, फिर बाहर जा कर कोने वाली एक दुकान से खरीद कर ले  आई हूं.”

“ओह, इतनी दूर क्यों गईं, नहीं मिलता तो न सही, ऐसी भी क्या जरूरत थी?”

“नहीं दीदी, पता नही यह लौकडाउन कब तक चलेगा? स्थिति बहुत खराब हो चली है. बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं. बस, आप को किसी चीज की कमी नहीं होनी चाहिए.”

“कितनी चिंता करती है मेरी? चल सब से पहले हाथों और सामान को सैनेटाइज कर लें.”

रात को बिस्तर पर सोते समय सविता की आंखों से नींद कोसों दूर थी. सच में कितना करती है पार्वती उस के लिए. अगर वह नहीं होती तो उस का क्या होता? सोचते हुए सविता 2 साल पहले उन यादों के झरोखे में जा पहुंची जहां पति के अत्याचारों से तंग पार्वती से वह पहली बार अपने कालेज में मिली थी.

वह जिस कलेज में पढ़ाती थी, वहां पार्वती भी बाई का काम करती थी. लगभग रोज ही उस का सूजा चेहरा और जगहजगह पड़े नील स्याह के निशान पति के दुर्दांत जुल्मों की इंतहा की याद दिलाते रहते. उस की नौकरी के बल पर ऐयाशी करने वाला उस का शराबी पति बातबात पर उसे पीटा करता था. उन दोनों की एक ही लड़की थी जो शादी कर अपनी ससुराल जा चुकी थी.

उस वक्त उस ने आगे बढ़ कर न सिर्फ उस की मदद की थी बल्कि उस के पति को सलाखों के पीछे भी पहुंचाया था. दुखी पार्वती को घर लाते वक्त उसे बोध भी न था कि जिसे निराश्रित, निस्सहाय समझ वह मानवता के नाते आश्रय दे रही है, वही कल को उस का सब से बड़ा संबल बन जाएगी.

सविता के पति पहले ही एक सड़क दुर्घटना में उसे छोड़ कर जा चुके थे. इकलौता बेटा बहू के साथ कनाडा में रह रहा था. बेटेबहू के बहुत कहने के बावजूद वह उन के साथ कनाडा नहीं शिफ्ट हुई थीं. क्योंकि हाथपांव के चलते रहने तक वे किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थीं. वैसे भी नौकरी के 8-10 साल बचे थे और स्वावलंबी सविता अपने बल पर ही अपनी जिंदगी जीना चाहती थीं.

तब से वे अपने फ्लैट पर अकेली रहती आई थीं. वैसे तो कालेज में बच्चों के बीच वह काफी व्यस्त रहती थी, पर छुट्टी का दिन उस से काटे न कटता था.

हां, पार्वती के आने से उस की जिंदगी बेहद आसान हो चली थी. पार्वती के रूप में उसे एक सखी, सहायक और शुभचिंतक मिल गई थी, जिस ने बड़ी कुशलता से उस के घर को संभाल लिया था और इस तरह दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर अपनी जिंदगी जिए जा रही थीं. हालांकि बेटेबहू ने बारबार उसे पार्वती के लिए चेताया था.

उन का कहना था कि किसी पर इतनी जल्दी ऐसा भरोसा करना ठीक नहीं. शायद वे अपनी जगह सही भी थे. मगर कोई रिश्ता न होते हुए भी पार्वती उस की कितनी अपनी हो चुकी है यह बात सिर्फ वही समझती थी. यही सब सोचतेसोचते जाने कब सविता को नींद ने आ घेरा.

सुबह सविता की नींद कुछ देर से खुली. घर का काम निबटा कर पार्वती नहाधो चुकी थी. सविता को उठा देख वह झटपट चाय बना लाई. बालकनी में बैठे वे दोनों चाय की चुसकियां ले ही रही थीं कि दरवाजे की बेल बजी.

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लौकडाउन के दौरान किसी के कहीं भी आनेजाने पर पूर्णतः पाबंदी लगी हुई है. फिर कौन हो सकता है?

“दीदी, मैं देखती हूं, जो भी होगा बाहर से चलता कर दूंगी,” चेहरे पर मास्क लगाए पार्वती ने उठ कर दरवाजा खोला.

“माफ कीजिएगा, थोड़ी शक्कर मिल सकती है क्या?”

“आप यहीं ठहरिए, मैं दीदी से पूछ कर बताती हूं,” कह कर पार्वती ने दरवाजा चिपका दिया.

“दीदी, सामने वाले फ्लैट में जो नए किराएदार आए हैं उन्हें शक्कर चाहिए,” पार्वती ने सविता पर प्रश्नवाचक नजर डाली.

“मना कर दूं क्या, कल ही लौकडाउन की घोषणा हुई है, तो क्या ला कर नहीं रख सकते थे? एक बार दिया तो बारबार किसी भी चीज को मांगने आ जाएंगे.”

“नहींनहीं… ऐसा कर, एक डब्बे में आधा किलोग्राम के करीब दे दे. अपने पास कोई कमी नहीं, बहुत रखी है,” सविता ने चाय का कप उसे पकड़ाते हुए कहा.

“लेकिन दीदी…”

“अरे जितना कहा है उतना कर दे न,” सविता ने झूठमूठ की त्योरियां चढ़ाईं.

“यह लीजिए शक्कर…” पार्वती ने आगंतुक को घूरा.

“आप की मैडम नहीं दिखाई नहीं दे रहीं?”

“आप को मैडम चाहिए या शक्कर?” पार्वती ने अपनी खीझ उतारी. हाथ में शक्कर की थैली लिए वे महानुभाव जैसे आए थे वैसे ही अपने फ्लैट में वापस लौट गए.

“बड़ा अजीब था. आप के बारे में पूछने लगा. भला यह क्या बात हुई? ऐसे लोगों से तो थोड़ी दूरी ही अच्छी है,” पार्वती के स्वर में झल्लाहट थी.

“जाने दे पार्वती, अभी नएनए आए हैं. ज्यादा किसी को जानते नहीं होंगे इसलिए पूछे होंगे,” कह कर सविता ने बात खत्म की.

सरकार द्वारा लौकडाउन का दूसरा चरण और भी सख्ती से लागू कर दिया गया था. कुछ दिन बाद शाम के वक्त सविता और पार्वती टीवी पर कोरोना के बारे में न्यूज देख रही थीं कि तभी बेल बजी. चिटकनी खोलते ही फिर वही सज्जन दरवाजे पर खड़े दिखाई दिए.

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“ओहो… चाय का दौर चालू है.” कह कर बड़ी ही बेतकल्लुफी से वे सामने वाले सोफे पर जा विराजे.

“अभी बस पी कर खत्म ही की है. आप चाहें तो आप के लिए भी…” अभी सविता की बात पूरी भी न होने पाई थी कि आगंतुक ने कहा, “हांहां… क्यों नहीं, चाय के लिए मना मैं कभी कर ही नहीं सकता… हाहाहाहाहा….”

आगे पढ़ें- उन के जाने के बाद पार्वती ने…

प्यार को प्यार ही रहने दो : भाग-5

 आजकल घर में भी रजत पहले से अधिक प्रसन्न रहने लगा. थोड़ीबहुत चुहल निरंजना से भी करता रहता. यही तो एक अच्छा साइड इफैक्ट है फ्लर्टिंग का. पति महोदय बाहर फ्लर्टिंग करते हैं और घर में पत्नी को भी खुश रखते हैं. उन का अपना दिल जो उत्साहित रहता है.

प्रसन्नचित्त तो आजकल निरंजना भी बहुत रहने लगी है. सोशल मीडिया साइट पर आखिर उस ने नसीम को खोज जो निकाला. नसीम आजकल दूसरे शहर में रहता है, किंतु काम के चलते उस का दिल्ली आना होता रहता है. दोनों ने मिल कर यह तय किया कि अगली बार जब वह दिल्ली आएगा, तब दोनों मुलाकात अवश्य करेंगे.

और बहुत जल्दी वह दिन भी आ गया, जब नसीम का दिल्ली आना हुआ. सुबह से फटाफट सारा काम निबटा कर, स्वयं पर मेकअप की पूरी मेहरबानी करने के बाद निरंजना उस से मिलने तय रैस्टोरैंट के लिए घर से चल पड़ी.

रास्ते से ही उस ने रजत को एसएमएस भेज दिया कि वह अपने ओल्ड टाइम फ्रैंड से मिलने जा रही है. हो सकता है कि शाम को थोड़ी देर हो जाए.

उधर, रजत ने साक्षात्कार के लिए श्वेता को कंपनी द्वारा बुलावा भिजवा दिया था. उस से मिलने के लिए औफिस नहीं, बल्कि रैस्टोरैंट में मुलाकात तय की गई. इस का कारण श्वेता को यह बताया गया कि जिन सर को इंटरव्यू लेना है, वह उस दिन किसी मीटिंग के लिए औफिस में उपस्थित नहीं होंगे. सो, जहां वे उपस्थित होंगे, आप वहीं पहुंच जाइए.

श्वेता को भी इस में कुछ अटपटा नहीं लगा, क्योंकि आजकल कई साक्षात्कार औफिस के बाहर भी होते हैं.

तय समय से पहले रजत उस रैस्टोरैंट में पहुंच कर श्वेता की प्रतीक्षा करने लगा.

नसीम को रैस्टोरैंट में पहले से अपने लिए प्रतीक्षारत पा कर निरंजना का दिल एकबारगी जरा जोर से उछला. तो क्या आज भी नसीम उसी से प्यार करता है?

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अपने पहले प्यार को सामने पा कर निरंजना कभी उत्तेजना से भरने लगी, तो कभी विवाहिता होने के कारण संकोच से अपने रेशमी बालों को बारबार अपने गुलाबी गालों पर गिरने से रोकने के लिए अपनी कोमल उंगलियों से कानों के पीछे धकेलने लगी.

‘‘रहने दो ना इन जुल्फों को अपने सुंदर चेहरे पर. तुम भूल गई क्या कि मुझे तुम्हारी यह जुल्फें कितनी पसंद हैं,‘‘ नसीम के कहने पर निरंजना केवल मुसकरा कर नजरें नीचे किए रह गई.

फिर बातों का दौर चला. कुछ नसीम ने अपनी कही, तो कुछ निरंजना ने अपनी सुनाई. आज उस से अपने दिल की बात कह कर निरंजना काफी हलका महसूस कर रही थी. इसी पल के लिए वह ना जाने कितने समय से तरस रही थी.

‘‘मुझे यह जान कर अत्यंत अफसोस हो रहा है, नसीम, कि तुम ने अभी तक शादी नहीं की. काश, मैं तुम्हें उस समय मिल पाती. बस एक बार तुम्हें अपनी मजबूरी बता देना चाहती थी… आज वह बोझ भी दिल से उतर गया. पर समय निकल गया इस बात का. अफसोस शायद हमेशा खलेगा,‘‘ निरंजना ने अपनी बात पूरी की.

नसीम खामोशी से निरंजना के चेहरे को निहारता रहा, फिर हौले से कहने लगा, ‘‘समय तो अपने हाथ में होता है. अगर सोचो कि बीत गया तो अलग बात है. वरना आज भी समय हमारे साथ ही है. देखो, हम आज भी एकसाथ हैं. यदि तुम चाहो तो…‘‘

‘‘लेकिन, अब मेरी शादी हो चुकी है,‘‘ निरंजना उस की बात बीच में ही काटते हुए बोली, ‘‘यदि मेरी शादी ना हुई होती तब बात अलग थी, पर अब मैं रजत की पत्नी हूं. ऐसे में हमारा रिश्ता पाप कहलाएगा.‘‘

‘‘ऐसा क्यों कहती हो भला. पहले हम दोनों ने प्यार किया, रजत तो तुम्हारी जिंदगी में बाद में आया. सो, इस रिश्ते में तीसरा वो है. अगर तुम्हारे और मेरे घर वाले धर्म के चक्कर में ना पड़ कर हमारे प्यार के लिए राजी हो गए होते और आननफानन तुम्हारी शादी दूसरी जगह ना करवा दी होती, तो आज हम एकसाथ होते.‘‘

जब श्वेता आरक्षित टेबल पर पहुंची, तो वहां रजत को बैठा देख उस का चौंकना स्वाभाविक था, ‘‘रजत तुम यहां?‘‘

‘‘हां श्वेता, मैं ही हूं, जिस के साथ आज तुम्हारा साक्षात्कार है. हो गई ना सरप्राइज… मैं तो तुम्हारा बायोडाटा पढ़ते ही तुम्हें पहचान गया था. और तुम से मिलने के इस मौके को मैं किसी भी कीमत पर गंवा नहीं सकता था.‘‘

सारी स्थिति समझने के बाद श्वेता और रजत हंसहंस कर एकदूसरे के साथ आज तक बीती जिंदगी के अनुभव बांटने लगे.

‘‘कितना अच्छा लग रहा है तुम से मिल कर. न जाने क्यों इतने समय से हम मिले नहीं. तुम तो मेरे बीएफएफ (बैस्ट फ्रैंड फार ऐवर) रहे हो.‘‘

श्वेता उसे अपनी शादी, गृहस्थी, बच्चों के किस्से सुनाने लगी. वह काफी खुश लग रही थी. जाहिर था कि अपनी जिंदगी में श्वेता अच्छी तरह रम चुकी है और उसे कोई शिकायत भी नहीं.

प्यार हमारा दिल नहीं तोड़ सकता. वह तो अधूरी ख्वाहिशों और निराश सपनों के कारण टूटता है. रजत को समझ आ रहा था कि उस का प्यार वाकई एकतरफा था. तभी उस की नजर रैस्टोरैंट के दूसरे कोने में बैठी निरंजना पर पड़ी.

निरंजना को देखते ही वह असहज हो उठा. यदि उस ने रजत को यहां किसी अन्य महिला के साथ बैठे देख लिया तो…? ना जाने उस के बारे में क्या सोचने लगे. उसे याद आया कि आज निरंजना भी अपने एक पुराने दोस्त से मिलने गई है. इत्तेफाक देखिए, दोनों एक ही रैस्टोरैंट में पहुंच गए. लेकिन मौजूदा स्थिति में रजत उस चोर की तरह था, जो अपनी दाढ़ी के तिनकों को छिपाने के प्रयास में जुटा हो.

वह आगे कुछ कहता, इस से पहले ही श्वेता बोल पड़ी, ‘‘रजत, मैं ने नौकरी के लिए आवेदन अवश्य दिया था, किंतु कल ही मेरे पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया है. इस कारण यह नौकरी मैं कर नहीं पाऊंगी.

‘‘मैं यहां यही बताने आई थी, लेकिन कितना अच्छा हुआ, जो तुम से मुलाकात हो गई. आगे भी हम टच में रहेंगे.‘‘

घर लौटते समय कैब में बैठी निरंजना आज नसीम के साथ बिताई दुपहरी को रिवाइंड करने लगी. नसीम आज भी उसे चाहता है. आज भी उस की राह देख रहा है, शायद… अगर वह चाहे तो नसीम के पास जा सकती है. पर क्या वह ऐसा चाहती है? क्या रजत के साथ बिताए शादीशुदा जिंदगी के पांच साल इतने हलके हैं कि उन से हाथ छुड़ाना उस के लिए संभव है?

इस सारे प्रकरण में रजत कहां खड़ा होता है? उस की क्या गलती है? निरंजना दोनों पलड़ों के बीच झूलने लगी. जेहन के कांपते हुए पानी पर असमंजस की नाव बह निकली. तभी एफएम पर गाना बजने लगा, ‘प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो ‘

नहीं, वह रजत को नहीं छोड़ सकती. जिस के साथ उस ने अपनी गृहस्थी बसाई, जिस ने उस का हमेशा ध्यान रखा, उसे पूरा प्यार दिया, अपने परिवार में सम्मान दिया, उसे वह कैसे बिसरा दे.

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यदि उस ने एक गलत कदम उठाया तो रजत का प्यार पर से विश्वास उठ जाएगा. अपनी जिंदगी में रंग भरने के लिए वह अपने पति की जिंदगी को स्याहा नहीं कर सकती.

कई बार हमारे जीवन के कुछ ऐसे अंश होते हैं, जिन्हें हम न भूल सकते हैं और न मिटा सकते हैं. जो हमें सुकून भी देते हैं और कष्ट भी. परंतु उन्हें हम अपने दिल के कोनों में हिफाजत से संजो कर रखना चाहते हैं. पहला प्यार इस सूची में संभवतः सब से ऊपर आता है.

रजत की कार में भी एफएम पर गाना बज रहा था, ‘सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो…‘

Serial Story: गुंडा (भाग-2)

पूर्वकथा :

मेरी की सभी सहेलियां और चंदू व आनंद कालेज की गतिविधियों में भाग लेते थे. आनंद जहां गंभीर और काफी अमीर था वहीं चंदू एक नरमदिल इंसान था. हर कार्य वह निस्वार्थ भाव से करता था जबकि आनंद अपना बुराभला देख कर ही काम करता था. नीरू आनंद की दीवानी हो गई थी लेकिन कालेज में घटी एक घटना ने उस की सोच ही बदल दी.

अब आगे…

कालेज चुनाव में शीतल जीत गई थी. जीत की पार्टी वह अपने सारे दोस्तों को कैंटीन में दे कर लौटी थी. नीरू के लिए विशेष निमंत्रण था. वैसे भी अब वह उन के घर  लगी थी, क्योंकि उन के साथ एक अनकहा सा रिश्ता बन गया था. आनंद का व्यवहार ऐसा होता जैसे उस का उस पर कोई हक हो.

शीतल भी ऐसा ही व्यवहार करती थी, क्योंकि वह समझ गई थी कि उस का भाई नीरू को बहुत पसंद करता है. तीनों कार की ओर जा ही रहे थे कि इतने में जोर की चीख सुनाई पड़ी. चारों ओर से सारे विद्यार्थी उस ओर दौड़ पड़े. माली का बेटा जो अकसर अपने पिता के साथ काम करने आया करता था जोरजोर से रो रहा था. कुदाल लग जाने से उस का पैर लहूलुहान हो गया था. घाव कुछ ज्यादा ही गहरा था. सभी लोग तरहतरह के सुझाव दे रहे थे. कोई आटो बुलाने जा रहा था, कोई प्रिंसिपल के कमरे की ओर दौड़ रहा था तो कोई कह रहा था कि डाक्टर को ही यहां बुला लो.

नीरू को लगा आनंद उसे अपनी कार से डाक्टर के पास ले जाएगा, मगर वह मौन खड़ा तमाशा देख रहा था. पता नहीं कहां से चंदू आया उस ने माली के सिर का साफा निकाला और बच्चे के पैर में बांध दिया. फिर 10-12 साल के बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और कहा, ‘‘चलो यार, कोई मेरे साथ. मेरी जेब से मेरी बाइक की चाबी निकाल कर गाड़ी चलाओ. मैं इसे ले कर पीछे बैठता हूं.’’ फाटक काफी दूर था अगर कोई आटो ले कर आता तो तब तक काफी खून बह जाता.

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इस के बाद शीतल के घर जा कर भी नीरू अनमनी सी ही रही. न उसे वहां पैस्ट्रीज अच्छी लगीं न कोल्डड्रिंक्स.

‘‘क्या हो गया नीरू तुम्हें, क्या तुम मेरी जीत से खुश नहीं हो?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है…’’

‘‘शायद माली के बेटे वाली घटना से विचलित है. दिल इतना कमजोर होगा तो कैसे चलेगा. यह तो उन के जीवन का भाग है,’’ आनंद हंसा.

उसे लगा वह उस की हिम्मत नहीं बंधा रहा है बल्कि हंसी उड़ा रहा है.

‘‘मैं तो उस घटना को वहीं भूल गई. नीरू तुम्हें सख्त होना पड़ेगा, नहीं तो तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल होगी,’’ शीतल ने कहा.

‘‘सख्त, यह तो संवेदनहीनता है. एक गरीब, निसहाय आदमी को भी बच्चा उतना ही प्यारा होता है जितना एक करोड़पति को. ऊपर से अस्पताल का खर्च. कैसे झेल पाएगा वह?’’ उस का हृदय भीग गया.

‘‘छोड़ो यार, तुम तो ऐसे डिस्टर्ब हो जैसे वह तुम्हारा अपना हो. यह सब तो चलता रहता है. ठीक है तुम्हारा मूड ठीक करने का उपाय मैं जानती हूं.’’

‘‘अच्छा शीतल, मुझे कुछ काम है. अभी आता हूं,’’ कह कर आनंद वहां से

चला गया.

‘‘सुनो नीरू, पापा बाहर गए हुए हैं. शायद 2-3 दिन में वापस आएंगे. उन के वापस आते ही भैया तुम्हारी बात चलाएंगे,’’ उस ने बड़ी अपेक्षा से नीरू की ओर देखा. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह स्वयं बोली, ‘‘अरे यार, मैं तो समझी थी कि तुम खुशी से उछल पड़ोगी. भैया को तो कोई पसंद ही नहीं आती थी. कितनी लकी हो तुम, जिस के पीछे लड़कियां लाइन लगाती हों, वे स्वयं तुम्हारे पीछे हैं.’’

नीरू का वहां और रुकने का मन नहीं हुआ. वह जाने को उठी, तो शीतल ने कहा, ‘‘अरे रुको, भैया पहुंचा देंगे. यहींकहीं गए हैं, आ जाएंगे.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे एक जगह और जाना है, अच्छा बाय.’’

‘‘मगर भैया…’’ शीतल पुकारती रह गई. उस रात उसे नींद नहीं आई. खून से लथपथ माली के बेटे का पांव, उस का आसुंओं से भीगा चेहरा और माली की दैन्य स्थिति उसे कचोट रही थी. बारबार एक ही सवाल उस के मन में उठ रहा था, ‘क्या आनंद की परिपक्वता, शालीनता, बड़प्पन केवल एक ढकोसला है? सब के सामने अपनेआप को कितना अच्छा दिखाता है. गाड़ी है, पैसा है, मगर दिल में…’ नीरू का मन खट्टा हो गया.

नीरू सुबह तैयार हो कर कालेज जाने को निकल तो पड़ी पर उस का जाने का मन न हुआ. मेरी ने तो कल ही कह दिया था कि अब कम से कम 4-5 दिन पढ़ाई नहीं होगी, इसलिए वह अपनी दीदी के यहां चली जाएगी. उस के मन में विचार आया कि क्यों न माली के बेटे को देख आऊं. माली का घर उस के कालेज के रास्ते में ही पड़ता था. छोटी सी झोंपड़ी थी उस की. वह सकुचाती हुई उस की झोंपड़ी में घुस गई.

माली शायद काम पर जा चुका था और लड़का एक पुरानी सी खाट पर गुदडि़यों में लिपटा पड़ा था. किसी की आहट सुन कर उस ने आंखें खोलीं. नीरू ने उसे अपना परिचय दिया और उस की खाट पर बैठ कर उस से बातें करने लगी. पहले तो वह बहुत सकुचाया पर बाद में नीरू से प्रोत्साहन और अपनेपन से खुल कर बातें करने लगा.

उस ने बताया कि उस की मां 4-5 घरों में बरतनचौका करती हैं, इसलिए इस समय वहीं गई हुई हैं. पौलीथिन बैग में से नीरू ने बड़ा सा फ्रूट ब्रैड और बिस्कुट का पैकेट निकाला और खोल कर उस के सामने रख दिया.

‘‘आप यह सब क्यों लाई हैं, अभी अम्मां आएंगी तो हम लोग खाना खा लेंगे.’’

‘‘मुझे पता है भैया, अभी थोड़ा खा लो. बाकी बाद में सब मिल कर खाना.’’

उस ने एक ब्रैड का पीस उस की ओर बढ़ाया, जिस तरह से उस ने उसे खाया उस से पता चल गया कि वह वास्तव में भूखा था. उस का मन भर आया. कितना आत्मसम्मान है इस बच्चे में. उसे 2 बिस्कुट खिला कर पानी पिलाया. फिर आने का वादा कर के वह बाहर निकल ही रही थी कि चंदू और मेघा ने अंदर प्रवेश किया. वे एकदूसरे को देख कर चौंके.

उन से 2 मिनट बातें कर के नीरू निकलने ही वाली थी कि मेघा ने कहा, ‘‘नीरूजी, 2 मिनट रुक जाइए. मंगल की मां आती ही होगी. उस से मिल कर हम भी चलते हैं.’’ दूसरा तो कोई काम था नहीं, वह रुक गई.

वे लोग अभी बातें ही कर रहे थे कि मंगल की मां और एक 9-10 साल की लड़की आ गई. मेघा ने बताया कि यह लड़की मंगल की छोटी बहन लक्ष्मी है. मेघा ने एक थैला उस स्त्री के हाथ में दिया और बोली, ‘‘खाना है, सब लोग खा लेना और हां, डब्बों की चिंता मत करो, हम बाद में ले जाएंगे.’’

वह महिला नहीं मानी और बोली, ‘‘नहीं बेटा, रुक जाओ, 2 मिनट का काम है,’’ कहती हुई उस ने फटाफट डब्बों को खाली किया. नीरू ने देखा सब के लिए खाने के साथसाथ मिठाई और समोसे भी थे.

‘‘इतना सारा खाना क्यों ले आए बेटा? रूखासूखा खाने वाले गरीब आदमी हैं हम,’’ उस की आंखें भर आईं. वह डब्बे धोने बाहर चली गई. मेघा को जैसे कुछ याद आया.

‘‘अरे भैया, दवाइयां…’’

‘‘हां, वे तो डिक्की में रह गईं. मैं ले आता हूं.’’

‘‘रुको, बहुत सारे पैकेट्स हैं. मुझे आना ही पड़ेगा.’’ दोनों बाहर चले गए.

दवाइयों के पैकेट के साथ जब वापस आए तो मेघा कह रही थी, ‘‘क्यों बताया आप ने?’’ वह कुछ नाराज लग रही थी.

‘‘नहीं बताता तो निवाला उस के गले से नहीं उतरता. अब जल्दी कर. ये दवाइयां कब, कैसे लेनी हैं, 2 बार अच्छे से समझा कर चल. मां राह देख रही होंगी.’’ नीरू को उन की बातें समझ में नहीं आईं.

दोनों ने अच्छी तरह से दवाइयों के बारे में समझाया और फिर से आने को कह कर बाहर निकल आए.

मेघा ने कहा, ‘‘नीरू एतराज न हो तो थोड़ी देर के लिए मेरे घर चलो, मुझे अच्छा लगेगा. चाहो तो मैं घर आ कर आंटी को बता दूंगी.’’

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‘‘तुम कभी भी मेरे घर आ सकती हो, मुझे भी अच्छा लगेगा. इस वक्त केवल मां की इजाजत के लिए आने की जरूरत नहीं है. मैं घर जा कर बताने ही वाली थी कि मैं कालेज नहीं गई थी. रास्ते में मन बदल गया था और मंगल के घर चली गई थी,’’ नीरू ने हंसते हुए कहा.

‘‘मेघा, तुम मां से कह देना कि मैं एक जरूरी काम से जा रहा हूं. आधे घंटे में घर पहुंच जाऊंगा.’’ चंदू उछल कर गाड़ी में बैठ गया. मेघा नीरू के साथ आटो में बैठ गई.

नीरू को देख कर मेघा की मां बहुत खुश हुई, ‘‘अच्छा किया बेटा, जो अपनी सहेली को साथ ले आई, मंगल कैसा है?’’

‘‘ठीक हो रहा है मां, नीरू भी वहीं थी. हम लोग उस की मां और छोटी बहन से भी मिले.’’

‘‘नीरू बेटे, मुझे बहुत अच्छा लगा. इस के पिता के जाने के बाद इस ने अपना जन्मदिन मनाना ही छोड़ दिया. आज सालों बाद इस ने जन्मदिन पर कम से कम अपनी एक सहेली को तो बुलाया है. मैं तुम्हें यों ही नहीं जाने दूंगी.

‘‘मेघा बेटी, जरा आंटीजी को फोन कर के बता दे कि नीरू आज यहां तुम्हारे साथ खाना खाएगी, वे इस का इंतजार न करें.’’

‘‘नहीं आंटीजी, मुझे मीठा खिला दीजिए, मैं कालेज जाने के लिए घर से खाना खा कर निकली थी, मगर मैं कालेज न जा कर मंगल को देखने चली गई थी.’’

‘‘मेघा, तुम ने मुझे बताया ही नहीं कि आज तुम्हारा जन्मदिन है,’’ नीरू ने कहा.

‘‘इस में जन्मदिन वाली कोई बात नहीं है और कोई दिन होता तो भी मैं यही करती. मंगल के यहां हमारा मिलना एक सुखद संयोग है.’’

उस दिन मेघा के घर से लौटने के बाद नीरू का मन बिलकुल स्थिर और शांत हो गया था. उस ने सोचा, ‘कितना प्यारा घर है, शांत और सुकून देने वाला. कितना प्यार और अपनापन था वहां. उस की सारी बेचैनी दूर हो गई थी.’

इस के बाद उस का मेघा से मेलजोल बढ़ा. वे दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करती थीं. मेघा बहुत कम बोलती थी, मगर जो बोलती थी उस में सार, समझदारी, कोमलता, आर्द्रता आदि होती थी. वह बिना बोले दूसरों की बात समझ जाती थी और उसी के अनुसार काम करती थी. उस के पास आ कर लोगों का आत्मबल बढ़ता था.

धीरेधीरे नीरू को महसूस होने लगा कि उस घर में जब भी जाती है उसे एक शीतल, सुगंध छू जाती है. मन को सुकून मिलता है जैसे वहां स्नेह का मलयानिल बह रहा हो.

आनंद के साथ नीरू की सगाई तय हो गई. एक बार आनंद के कहने पर मेघा ने नीरू की मां को फोन किया कि वह आनंद की बहन है.

नीरू और आनंद एकदूसरे को पसंद करते हैं, पर दोनों इस बात को घर बताने में शरमाते हैं. वे लोग उस के घर आ कर रिश्ते की बात उस के मम्मीपापा से करें.

वह अपने भाई से बहुत प्यार करती है. इसलिए फोन कर रही है. यह बात वे किसी से न कहें, यहां तक कि नीरजा या आनंद से भी नहीं.

‘अंधा क्या चाहे दो आंखें,’ ऐसा रईस और शहर में प्रतिष्ठित खानदान नीरजा को मिले, इस से बढ़ कर उन्हें क्या चाहिए था, वह भी बिना प्रयास के. उस की पढ़ाई भी अब समाप्त होने वाली है. बात आगे बढ़ी और तारीख भी पक्की हो गई. फिर तो आएदिन नीरू के लिए तोहफे आने लगे. कभी कपड़े, कभी सैंडल तो कभी सौंदर्य प्रसाधन.

एक बार नीरू ने आनंद से कहा, ‘‘आप लोग बातबेबात मुझे तोहफे क्यों भेजते हैं? मुझे बड़ा संकोच होता है. प्लीज…’’

‘‘इस बारे में तुम बहुत मत सोचा करो. ऐसे छोटेमोटे तोहफे देना हमारे लिए बहुत बड़ी बात नहीं है. धीरेधीरे तुम्हें आदत पड़ जाएगी,’’ आनंद ने कहा.

उस दिन उन के कालेज के सहपाठी अनुरूप का जन्मदिन था. वह भी शहर के बहुत बड़े उद्योगपति का बेटा था. नीरू अपने मित्रों के साथ शीतलपेय लेते हुए बातें कर रही थी कि पीछे से कंधे पर हाथ पड़ा. उस दबाव से उसे पीड़ा हुई. वह गुस्से से पलटी, सामने आनंद खड़ा था.

‘‘वन मिनट प्लीज,’’ उस के मित्रों से कह कर आनंद उसे हाथ पकड़ कर एक ओर ले गया.

‘‘क्या अजीब से कपड़े पहन लिए हैं तुम ने, इसीलिए तो तोहफे भेजता हूं कि कुछ ढंग का पहनो,’’ उस ने फुसफुसाते हुए कहा.

वह जानती थी कि सारी सहेलियों की नजरें उन्हीं पर टिकी हुई थीं. वह स्तब्ध रह गई. चेहरा लाल हो गया. तोहफों का यह अर्थ उस ने कभी नहीं लगाया था. उसे तो लगा था कि अपना प्यार जताने के लिए वह तोहफे देता है.

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उसे क्या पता था कि वह अपने साथ खड़े होने के लायक बनाने के लिए उसे तोहफे देता है. उस ने आंखों में आने को आतुर आंसुओं को रोका. उसे घिन आ रही थी अपनेआप पर कि इंसान को पहचानने में इतनी बड़ी गलती कैसे

हो गई?

वापस आने पर जीना ने कहा, ‘‘अरे वाह, सब के बीच रोमांस?’’

‘‘नहीं यार, वे लोग अपनी शादी के बाद की पार्टी का प्लान कर रहे थे.’’ यह रूमा थी.

‘‘ठीक कहा तू ने. आनंद कोई भी काम करता है तो सब देखते रह जाते हैं. भई, अपनी नीरू भी तो लकी है.’’ कौन थी ये जो उस के भाग्य की हंसी उड़ा रही थी.

आगे पढ़ें- मेरी ने उस का हाथ थामा….

Serial Story: गुंडा (भाग-1)

तेज रफ्तार से आती बाइक को देख कर लोग तितरबितर हो गए.

‘‘अरे ओ, रुक जाओ. कैसे चला रहे हो गाड़ी? ऊपर चढ़े जा रहे हो, दिखता नहीं है क्या? थोड़े में बच गई, वरना आज तो रामप्यारी हो जाती.’’ हाथ नचाती जोरजोर से चिल्लाती लड़की को साथ चलने वाली लड़की ने हाथ पकड़ कर कुछ समझाना चाहा, मगर उस ने अपना हाथ छुड़ा लिया. बाइक वाला अचानक ब्रेक मार कर सर्र से पीछे मुड़ा और इन के सामने आ कर एक पैर जमीन पर रख कर रुक गया.

‘‘अरे, रामप्यारी मैडम, दूसरों को कुछ कहने से पहले जरा खुद को देखो. बीच सड़क पर ऐसे चल रही हो जैसे पियक्कड़ चलते हैं. यह आम रास्ता है, आप की खुद की जागीर नहीं.’’

‘‘हां, यह हमारी ही जागीर है. तुम कौन होते हो मना करने वाले, चोरी और सीना जोरी.’’

‘‘सही कहा मेरीरानी. तुम ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली. अच्छा, यह सब छोड़ो. यह तो बताओ कि तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है? आज क्लास नहीं है, फिर क्यों सड़क नाप रही हो?’’

‘‘तुम्हें इस से क्या? मैं चाहे पढूं या सड़कें नापूं, मेरी मरजी. तुम्हें इस से क्या लेनादेना मिस्टर चंदूलाल?’’

‘‘ठीक है, समझ गया. लगता है बहुत दिन से शाहरुख खान की कोई फिल्म नहीं देखी. इसलिए आग उगल रही हो.’’

‘‘अरे जा, ऐसा कभी हो सकता है कि शाहरुख की फिल्म लगी हो और मैं न देखूं. अभी पिछले हफ्ते तो ‘माई नेम इज खान’ लगी थी और तुरंत मैं ने देख ली.’’

‘‘कैसी लगी? अच्छी है न?’’

‘‘अच्छी… महाबोर. उस की सारी फिल्में एक से एक हैं, मगर ये…’’

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ उस ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘बिलकुल थर्ड क्लास. नहीं देखती तो अच्छा था, अब पछता रही हूं.’’

‘‘ऐसा क्या?’’ उस की हंसी छिपाए नहीं छिप रही थी, मगर मेरी अपनी ही धुन में बोले जा रही थी.

‘‘और क्या? बिलकुल शाहरुख की पिक्चर नहीं लगी. इतनी बोर तो उस की कोई पिक्चर नहीं है.’’

‘‘समझा. लड़कियों की आंखों में आंखें डाल कर रोमांटिक डायलौग्स बोलता हुआ, नाचतागाता, उन के दिलों पर राज करते रोमांटिक हीरो की छवि इस फिल्म में नहीं है. शायद इसलिए यह तुम्हें पसंद नहीं आई,’’ वह हंसता हुआ बोला.

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‘‘अरे, मैं तो भूल ही गई. यह मेरी सहेली नीरजा है. इस शहर और कालेज में नई आई है. मेरी ही कक्षा में है,’’ उस ने अपने साथ खड़ी लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा.

‘‘जी, हां. मेरे पापा बैंक में हैं. इसलिए 3-4 साल से ज्यादा हम एक जगह रह ही नहीं सकते.’’

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं. मेरी क्लास है बाय,’’ कह कर वह चला गया.

‘‘बड़ी अच्छी लगी आप लोगों की चुहलबाजी, बिलकुल बच्चों जैसी. तकरार तो है ही साथ में अपनापन भी है,’’ नीरजा ने हंसते हुए कहा.

‘‘ठीक कहा तुम ने नीरजा. देखा नहीं, कितने हक से वह इसे मेरीरानी कह रहा था,’’ पता नहीं रूमा कब आ गई थी साथ चलते हुए बोली, ‘‘अच्छा, यह तो बता मेरीरानी की च…’’

‘‘बस, रूमा बहुत हुआ. सीधीसादी बात को गोलगोल घुमाना, उस में अपने मन से रंग भर कर रंगीला, चटकीला बनाना कोई तुझ से सीखे.’’ लाख कोशिश करने पर भी मेरी अपने गुस्से पर परदा नहीं डाल सकी.

‘‘इस में इतना भड़कने की क्या जरूरत है? क्या केवल वही मेरीरानी कह सकता है, हम नहीं.’’ उस के स्वर में व्यंग्य नहीं था. वह हंसते हुए चली गई.

‘‘क्या हुआ मेरी? रूमा तो मजाक कर रही थी. तुम बुरा क्यों मान गई?’’ नीरजा उसे समझाने के अंदाज में बोली.

‘‘तुम नहीं जानती नीरू कि रूमा कितनी खतरनाक है. तुम अभी नई हो. यहां सबकुछ इतना सीधा नहीं है जितना दिखता है. वास्तव में यह रूमा चंदू के पीछे पड़ी थी.’’

‘‘पड़ी क्या थी, वह तो अब भी उस की दीवानी है. चंदू हां करे तो वह उस के पैरों में बिछ जाए, मगर वह ऐसी लड़कियों को भाव ही नहीं देता, तो यह चिढ़ती है और उसे बदनाम करने की कोशिश करती है,’’ मेरी बोली.

‘‘यह तो लड़केलड़कियों में आम बात है. यहां से निकलते ही सब लोग पिछली बातें भूल कर अपनीअपनी जिंदगी जीते हैं, लेकिन तुम पर वह क्यों व्यंग्यबाण चला रही थी?’’ नीरजा ने कहा.

‘‘उस की आदत है. छोटी सी बात को ले कर भी उसे लोगों की खिंचाई करना अच्छा लगता है. वास्तव में चंदू मेरे स्कूल का सहपाठी है. हम दोनों साथ खेलतेकूदते और लड़तेझगड़ते बड़े हुए हैं. एक बात बताऊं? स्कूल में मेरा नाम मेरीरानी ही था. कालेज में मैं ने रानी हटा कर मेरी रखा.’’

‘‘अच्छा, यह बात है? मगर रानी क्यों हटा लिया? मेरीरानी अच्छा तो लग रहा है.’’

‘‘तुम तो मुझे बनाने लगी. यह नाम बंगालियों में अकसर सुनने में आता है, मगर मुझे बड़ा अटपटा लगता था, क्योंकि स्कूल में मुझे सब लोग मेरीरानी कह कर चिढ़ाया करते थे, खासकर लड़के. इसीलिए मैं ने अपने नाम से रानी हटा लिया, केवल चंदू जानता है, इसीलिए कभीकभी अकेले में छेड़ता है.’’

‘‘और उस का नाम चंदूलाल… आज के जमाने में…’’

‘‘अबे, नहीं. उस का नाम तो चंद्रभान है.’’

‘‘यानी चांद और सूरज साथसाथ.’’

‘‘अरे हां, सच है. मैं ने तो आज तक गौर ही नहीं किया. सब उसे बचपन में चंदू कह कर बुलाते थे. हम जब लड़ते थे तब वह गाता था, ‘मेरीरानी बड़ी सयानी…’ और मैं गाती ‘चंदूलाल चने की दाल…’’ दोनों सहेलियां हंस पड़ीं.

नीरजा ने कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा और उछल पड़ी. 5 मिनट की देरी हो चुकी थी. ‘‘अरे, बाप रे, अंगरेजी की मैम तो बहुत स्ट्रिक्ट हैं. वे तो कक्षा में घुसने नहीं देंगी. मेरी, जल्दी चलो.’’ दोनों कक्षा की ओर भागीं. अभी मैडम क्लास में नहीं आई थीं. क्लास में काफी शोर हो रहा था. दोनों बैठ गईं.

पीछे बैठी शीतल ने ‘हाय’ किया, लेकिन जवाब देने से पहले ही मैडम आ गईं. पीरियड समाप्त होते ही मेरी फ्रैंच क्लास में चली गई.

नीरजा की अब कोई क्लास नहीं थी. इसीलिए वह किताबें समेट कर घर जाने के लिए निकल पड़ी. शीतल भी साथ चलते हुए बोली, ‘‘चलो, नीरजा कैंटीन में चाय पीते हैं.’’

‘‘नहीं शीतल, मुझे जाना होगा. मम्मी राह देखती होंगी, बाय,’’ कह कर वह निकल गई. इतने दिन में वह समझ गई थी कि शीतल की पढ़ाई में कम और कालेज में भीड़ इकट्ठी करने, पार्टियों और फिल्म देखने में ज्यादा रुचि थी. शायद वह किसी करोड़पति से शादी कर के ऐशोआराम की जिंदगी जीने के इंतजार में थी.

उस दिन तो नीरू का मूड ही खराब हो गया. आखिर उस के मुंह से निकल गया, ‘‘सर, कितने दिन से मैं इस किताब के लिए लाइब्रेरी के चक्कर लगा रही हूं. किस के पास है यह किताब?’’

‘‘बेटा, मुझे याद नहीं है कि किस के पास है, जरा 2 मिनट रुक जाओ. मैं देख कर बताता हूं.’’

‘‘सर, यह किताब मेरे पास है. कल लौटा दूंगा,’’ सामने से आवाज आई. नीरू ने पलट कर देखा तो कोई लड़का पास ही मेज पर बैठा कुछ पढ़ रहा था. उस ने इस की बातें सुन ली थीं.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. आप पढ़ने के बाद ही उसे वापस कीजिए. मैं सर से ले लूंगी,’’ नीरू ने सकुचाते हुए कहा.

‘‘मैं ने पढ़ ली है. मैं वापस देने ही वाला था, पर जरा लापरवाही हो गई. आई एम सौरी. कल ला दूंगा. आप ले लीजिएगा.’’

इस प्रकार हुआ था उस का आनंद से परिचय. बाद में पता चला कि वह शीतल का भाई है. कितना अंतर था उन दोनों में. शीतल जहां एक चंचल तितली की तरह थी, वहीं वह चरित्रवान आदर्श व्यक्ति का स्वरूप.

ऐसे व्यक्ति के पास लड़कियां अपनेआप को बिलकुल सुरक्षित महसूस करती हैं. वह नीरू को भा गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

उस दिन क्लास खत्म होने के बाद जब नीरजा घर जाने के लिए निकली तो आकाश काले बादलों से ढका हुआ था.

4 बजे ही अंधेरा छा गया था. बूंदाबांदी शुरू हो गई थी. पता नहीं क्यों आज मेरी भी नहीं आई थी. हमेशा दोनों पैदल ही जाती हैं, क्योंकि दोनों के घर कालेज से ज्यादा दूर नहीं थे. वह जल्दीजल्दी घर की ओर जाने लगी. इतने में एक बाइक उस के पास आ कर रुकी.

‘‘बहुत तेज बरसात होने वाली है. आप को एतराज न हो तो मैं आप को घर छोड़ दूं?’’ यह चंदू की आवाज थी.

‘‘जी, नहीं. मैं चली जाऊंगी. घर पास में ही है,’’ वह दनदनाती हुई आगे बढ़ गई. अभी दो कदम भी नहीं  चली थी कि तेज बरसात हो गई.

‘अब क्या करूं?’ नीरजा सोचने लगी, ‘चंदू के साथ चली जाती तो अच्छा था. किताबें भीग रही हैं.’ चंदू के बारे में लोगों की विरोधाभासी बातें सुन कर वह अब तक अपनी कोई राय नहीं बना पाई थी. पीछे से जोरजोर से कार के हौर्न की आवाज सुन कर वह पलटी.

‘‘नीरू, जल्दी अंदर आ जाओ,’’ शीतल ने आवाज दी. कार का दरवाजा खुला और वह लपक कर कार में बैठ गई. उस ने देखा अंदर रूमा भी बैठी थी. कार आनंद चला रहा था.

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‘‘क्या कह रहा था हीरो,’’ रूमा ने हंसते हुए पूछा.

नीरू ने कहा, ‘‘यही कि आइए, तेज बरसात होने वाली है. आप भीग जाएंगी. मैं अपने खटारे पर आप को घर छोड़ दूंगा.’’

‘‘लड़कियां पटाना तो कोई इस से सीखे,’’ दोनों जोरजोर से हंस पड़ीं. सामने लगे आईने में आनंद की मंदमंद मुसकराहट भी नीरू देख रही थी.

‘‘देखो नीरू, इस भंवरे से दूर ही रहना. चंदू मवाली, गुंडा और आवारा है. तुम्हारी सहेली मेरी तो उस की हिमायती है. कभी उस की बातों में न आना,’’ रूमा ने बड़ी आत्मीयता जताते हुए कहा.

‘‘बरसात बढ़ रही है, हम ने आप का घर देख लिया है फिर कभी जरूर आएंगे,’’ कह कर आनंद ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

2 दिन बाद मेरी कालेज आई. बहुत कमजोर हो गई थी. उसे मलेरिया हो गया था. वह आ तो गई थी मगर बैठ नहीं पा रही थी. बड़ी मुश्किल से 2 पीरियड निकालने के बाद उस ने घर जाने का निश्चय कर लिया. नीरू उसे रिकशे में बैठाने साथ गई. कालेज के मुख्य फाटक पर पहुंचने से पहले ही नीरू ने देखा कि एक पेड़ के नीचे चंदू, रूमा और अन्य 2-3 लड़कियां जोरजोर से हंस रही थीं. इतने में रूमा ने अपने हाथ से चंदू के बाल बिखेर दिए और उस का हाथ पकड़ कर जब चंदू ने उसे रोकना चाहा तो रूमा ने दूसरे हाथ से चिकोटी काट ली और सब  हंसने लगे. नीरू ने सोचा, ‘अजीब लड़का है. कालेज में कृष्ण कन्हैया बना फिरता है. पढ़ता कब होगा.’

कालेज का युवा सम्मेलन कार्यक्रम बहुत अच्छा होता है. उस में तरहतरह के रंगारंग कार्यक्रम होते हैं. मेरी ने एक अंगरेजी नाटक में मुख्य भूमिका निभाई. शीतल, रूमा और कुछ अन्य लड़कियों ने मिल कर एक पश्चिमी नृत्य पेश किया. इसी कार्यक्रम में घोषणा की गई कि आनंद ने कालेज के पुस्तकालय के लिए 10 हजार रुपए का अनुदान दिया है.

पिछले वर्ष विभिन्न विभागों में प्रथम और द्वितीय स्थान प्राप्त करने वालों को इनाम दिए गए. अंत में खेल विभाग का नंबर आया. सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और खेल सचिव के रूप में चंद्रभान शर्मा का नाम घोषित किया गया. जितनी तालियां उस के लिए बजीं उतनी तो शायद किसी और के लिए नहीं बजी थीं.

भीड़ को चीरते हुए चंद्रभान आगे आ रहा था. नीरू ने देखा, वह हमेशा की तरह बिंदास था. बाल बिखरे, कमीज कुछ अंदर, कुछ बाहर. हवा के झोंके की तरह चला आ रहा था वह.

एक अध्यापक ने उसे पकड़ा. उस की कमीज ठीक की, बाल संवारे और कहा, ‘‘तुम कहां रह गए थे? स्टेज के पीछे रहने को कहा गया था न? बाकी सारे इनाम के हकदार वही हैं.’’

‘‘जी, सर पीछे बैठा एक वृद्ध व्यक्ति बेहोश हो गया था. उसे अस्पताल पहुंचा कर आ रहा हूं,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘सर, यह हमारे कालेज का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी और खेल सचिव है. हमें दोतिहाई पुरस्कार इसी की वजह से मिले हैं,’’ प्रिंसिपल साहब ने मुख्य अतिथि से परिचय कराते हुए कहा.

शीतल के बुलावे पर 3-4 बार नीरू को उस के घर जाना पड़ा. शीतल कालेज के चुनावों में सांस्कृतिक सचिव के पद के लिए चुनाव लड़ रही थी. वह यह कह कर नीरू को अपने घर ले जाती कि तेरे आइडियाज बहुत अच्छे हैं, तेरी प्लानिंग भी अच्छी है. चुनाव में जीतने के लिए तुम्हारी मदद की मुझे काफी जरूरत है.

नीरू किसी को भी ना नहीं कर सकती थी. मगर शीतल के नीरू को पटाने के और भी कारण थे, क्योंकि नीरू पढ़ने में अच्छी थी. वह चुनाव में व्यस्त होने के बहाने उस के नोट्स ले कर फोटोकौपी करवा लेती. दूसरा और जरूरी कारण यह था कि वह जानती थी कि आनंद की नीरू में रुचि है और आनंद ने ही उन दोनों की दोस्ती को प्रोत्साहित किया था.

पहली बार उन के घर को देख कर नीरू चकित रह गई. वे बहुत पैसे वाले लोग थे. सब के अलगअलग कमरे, अलगअलग गाडि़यां, अलग जीने के तरीके थे. किसी को दूसरे के बारे में पता नहीं, न ही वे एकदूसरे के जीवन में दखल देते थे. नीरू जब भी वहां जाती आनंद से अवश्य मिलती. वैसे भी आनंद का शालीन, संतुलित व्यवहार उसे भाने लगा था.

आजकल नीरू को शीतल के साथ चुनाव प्रचार के लिए कालेज के छात्रछात्राओं के घर जाना पड़ता था. दोनों कार से जाते, वापसी में शीतल उसे घर छोड़ देती. उस दिन शीतल की कार खराब हो गई थी इसलिए आनंद ने शीतल को एक घर के सामने छोड़ दिया.

‘‘यह किस का घर है?’’ नीरू ने पूछा.

‘‘मेघा का.’’

‘‘मेघा… हां, याद आया. परिचय तो नहीं है पर शायद आर्ट फैकल्टी में है.’’

‘‘हां, ठीक पहचाना. क्या करें, जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है,’’ कार लौक करते हुए शीतल ने कहा.

‘‘क्या?’’

‘‘कुछ नहीं. चलोचलो. आज हमें 3 घर निबटाने हैं.’’

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कार की आवाज सुन कर कोई बाहर आया. नीरू ने सोचा यही मेघा है, वह मुसकरा दी.

‘‘मेघा, यह नीरजा है, मेरी ही क्लास में है.’’

‘‘जानती हूं और मैं मेघा, जर्नलिज्म की छात्रा हूं. मैं आप को अकसर शीतल के साथ देखती हूं या पुस्तकालय में,’’ नीरू मुसकराते हुए सुन तो रही थी मगर उस का दिमाग तेजी से विचारों में उलझा हुआ था. इसे तो मैं अच्छी तरह जानती हूं. यह मेरी आंखों में बसी हुई है. कालेज में तो कई छात्र हैं उस लिहाज से नहीं. फिर… अचानक उसे याद आया, ‘‘हां, यह तो अकसर चंदू के स्कूटर पर नजर आती है.’’

‘‘आइए न अंदर,’’ उस के पीछे शीतल और नीरजा अंदर चल दीं. वहां एक प्रौढ़ा कुछ पढ़ रही थीं. मेघा ने अपनी मां से दोनों का परिचय कराया. उन्होंने बड़े प्यार से दोनों लड़कियों से बात की. थोड़ी देर बाद एक स्कूटर घर के आगे रुका, जिस से चंदू उतरा और घर के अंदर आ गया.

नीरजा देखती रह गई, ‘‘चंदू यहां…’’

‘‘नीरजा, यह मेरा भाई चंद्रभान है. मैं इन की छोटी बहन हूं, कोई मुझे जाने या न जाने इन्हें तो हर कोई जानता है.’’

‘‘शीतल आज तुम यहां… हमारा घर पवित्र हो गया. अरे, भई मेघा, इन लोगों को कुछ खिलायापिलाया या नहीं?’’

‘‘नहीं भैया, अभीअभी तो आए हैं,’’ इतने में मेघा की मां एक ट्रे ले कर आईं, जिस में पकौडे़ थे.

‘‘मां, मुझे बुला लेतीं. आप अब बैठिए, मैं चाय बना लूंगी.’’

‘‘ठीक है, ठीक है, पहले इन्हें खाने तो दे,’’ मां ने कहा.

मेघा ने उठ कर पकौड़ों की प्लेट शीतल के आगे बढ़ाई.

चंदू बोला, ‘‘लो शीतल, मां बहुत स्वादिष्ठ पकौड़े बनाती हैं. एक बार खाओगी तो बारबार मेरे घर आओगी, इन्हें खाने के लिए.’’

‘‘नहीं मेघा, पहले ही मेरा गला बहुत खराब है. ऐसावैसा कुछ खा लिया तो हालत और खराब हो जाएगी.’’

चंदू पकौड़ों की प्लेट ले कर खुद खाने लगा. ‘‘अरे भैया, नीरजा को दो,’’ मेघा ने टोका.

‘‘नहीं मेघा, क्यों उन्हें परेशान करती हो. जैसे ध्यानचंद वैसे मूसर चंद. मुझे अच्छे लगते हैं इसलिए मैं खा रहा हूं.’’

क्रमश:

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जरा सी आजादी: भाग-2

पिछले अंक में आप ने पढ़ा कि सबकुछ होने के बावजूद न जाने क्यों नेहा खुल कर सांस नहीं ले पाती थी. कई बार उस के मन में आत्महत्या करने तक का खयाल आया. पढि़ए अब आगे…

नेहा के ढेर सारे प्रतिरोध थे जिन्हें शुभा ने माना ही नहीं. हाथ पकड़ कर अपने साथ अपने घर ले आई और ड्राइंगरूम में बैठा दिया. नेहा ने देखा कमरा पूरी तरह से व्यवस्थित था.

‘‘आराम से बैठो. आजकल मेरे पतिदेव भी किसी काम से शहर से बाहर गए हुए हैं. मैं भी अकेली ही हूं. अगर भाईसाहब ज्यादा देर से आएं तो तुम यहीं सो जाना.’’

‘‘सोना क्या है, दीदी. मुझे तो सोए हुए हफ्तों बीत चुके हैं. जागना ही है. यहां जागूं या वहां जागूं.’’

‘‘तो अच्छी बात है न. हम गपशप करेंगे.’’ शुभा ने हंस कर उत्तर दिया.

उस के बाद शुभा ने टीवी चालू कर दिया पर नेहा ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. किताबें लगी थीं रैक में. उस का ध्यान उधर ही था. नेहा की कटी कलाई पर शुभा की पूरी चेतना टिक चुकी थी. अगर वह उस के घर न गई होती तो क्या नेहा अपनी कलाई काट चुकी होती? उस के पति तो शायद रात 12 बजे आ कर उस का शव ही देख पाते. संयोग ही तो है हमारा जीवन.

वह भी आराम करने के लिए लेट ही चुकी थी. पता नहीं क्या हुआ था उसे जो वह सहसा उस के घर जाने को उठ पड़ी थी. शायद वक्त को नेहा को बचाना था इसलिए शुभा तुरंत उठ कर नेहा के घर पहुंच गई. शुभा ने घंटी बजा दी. शायद उसी पल नेहा का क्षणिक उन्माद चरम सीमा पर था.

क्षणिक उन्माद ही तो है जो मानवीय और पाशविक दोनों ही तरह के भावों के लिए जिम्मेदार है. क्षणिक सुख की इच्छा ही बलात्कारी बना डालती है और क्षणिक उन्माद ही हत्या और आत्महत्या तक करवा डालता है. कितना अच्छा हो अगर मनुष्य चरमसीमा पर पहुंच कर भी स्वयं पर काबू पा ले और अमूल्य जीवन नष्ट न हो. न हमारा न किसी और का.

रात 11:30 बजे नेहा के पति आए और उसे ले गए. विचित्र धर्मसंकट में थी शुभा. नेहा की हरकत उस के पति को बता दे तो शायद वे उस की मनोस्थिति की गंभीरता को समझें. कैसे समझाए वह उस के पति को कि उस की पत्नी की जान को खतरा है. किसी के घर का निहायत व्यक्तिगत मसला अनायास ही उस के सामने चला आया था जिस से वह आंखें नहीं मूंद पा रही थी. जीवनमरण का प्रश्न हो जहां वहां क्या अपना और क्या पराया.

दूसरे दिन करीब 11-12 बजे शुभा ने नेहा के घर पर कई बार फोन किया पर नेहा ने फोन नहीं उठाया. विचित्र सी कंपकंपी उस के शरीर में दौड़ गई. किसी तरह अपना घर बंद किया और भागीभागी नेहा के घर पहुंची. बेतहाशा उस के घर की घंटी बजाई.

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दरवाजा खुला और सामने उस के पति खड़े थे. अस्तव्यस्त कपड़ों में. नाराजगी थी उन के चेहरे पर. शायद उस ने ही बेवक्त खलल डाल दिया मगर सच तो सच था जिसे वह छिपा नहीं पाई थी.

‘‘आप घर पर होंगे, मुझे पता नहीं था. फोन क्यों नहीं उठाते आप? मैं समझी उस ने कुछ कर लिया. आप उस का खयाल रखिएगा. माफ कीजिएगा, कहां है नेहा?’’

सांस धौंकनी की तरह चल रही थी शुभा की. मन भर आया  था. पता चला, नेहा को नींद की दवा दे कर सुलाया है. आदि से अंत तक शुभा ने सब बता दिया ब्रजेश को. काटो तो खून नहीं रहा ब्रजेश में.

‘‘इसीलिए मैं कल अपने साथ ले गई थी. आप ने उस का घाव देखा क्या?’’

‘‘हां, देखा था मगर हैरान था कि सोने की चूड़ी से हाथ कैसे कट गया. कांच की चूड़ी तो उस ने कभी पहनी ही नहीं,’’ धम्म से बैठ गए ब्रजेश, ‘‘क्या करूं मैं इस का?’’

नजर दौड़ाई शुभा ने. सब खिड़कियां बंद थीं, जिन्हें कल खोला था.

‘‘बुरा न मानें तो मैं एक सुझाव दूं. आप उसे उस की मरजी से जीने दें कुछ दिन. जैसा वह चाहे उसे करने दें.’’

‘‘मैं ने कब मना किया है उसे. वह जो चाहे करे.’’

‘‘ये खिड़कियां कल खुलवाई थीं मैं ने, आप ने शायद आते ही पहला काम इन्हें बंद करने का किया होगा. क्या आप ने सोचा, शायद उसे ताजी हवा पसंद हो?’’

‘‘अरे, खुली खिड़की से अंदर का नजर आता है.’’

‘‘क्या नजर आता है. आप की पत्नी कोई अपार सुंदरी है क्या जिसे देखने को सारा संसार खिड़की से लगा खड़ा है. अरे, जिंदा इंसान है वह, जिसे इतना भी अधिकार नहीं कि ताजी हवा ही ले सके. परदे हैं न…उसे उस के मन से करने दीजिए कुछ दिन. वह ठीक हो जाएगी. उस का दम घुट रहा है, जरा समझने की कोशिश कीजिए. नींद की दवा खिलाखिला कर सुलाने से उस का इलाज नहीं होगा. उसे जागी हालत में वह करने दीजिए जिस से उसे खुशी मिले,’’ स्वर कड़वाहट से भर उठा था शुभा का, ‘‘उस के मालिक मत बनिए. साथी बनिए उस के.’’

ब्रजेश सकपका से गए शुभा के शब्दों पर.  शुभा बोलती रही, ‘‘आप समझदार हैं. 55 साल तक पहुंचा इंसान बच्चा नहीं होता, जिसे कान पकड़ कर पढ़ाया जाए. अपनी गृहस्थी उजाड़ना नहीं चाहते तो एक बार नेहा का चाहा भी कर के देखिए. बताना मेरा फर्ज था और इंसानी व्यवहार भी. मैं चाहती हूं आप का घर फलेफूले. मैं चलती हूं.’’

ब्रजेश सकपकाए से खड़े रहे और शुभा घर लौट आई, पूरा दिन न कुछ खापी सकी न ठीक से सो सकी. नेहा एक प्रश्न बन कर सामने चली आई है जिस का उत्तर उसे पता तो है मगर लिख नहीं सकती. किसी का जीवन उस के हाथ का पन्ना नहीं है न, जिस पर वह सही या गलत कुछ भी लिख सके. उत्तर उसे शायद पता है मगर अधिकार की स्याही नहीं है उस के पास. क्या होगा नेहा का?

आत्महत्या का प्रयास भी तो एक जनून है जिसे अवसादग्रस्त इंसान बारबार कार्यान्वित करता है. बच जाने की अवस्था में उसे और अफसोस होता है कि वह बच क्यों गया? जीने में भी असफल रहा और अब मरने में भी असफल. जब वह फिर प्रयास करता है तब असफल हो जाने के सारे कारण बड़ी समझदारी से निबटा देता है. शुभा को डर है कि अब अगर नेहा ने कोई दुस्साहस फिर किया तो शायद सफल हो जाए.

पिछली बालकनी में खड़ी रही शुभा देर तक. नजर नेहा के घर पर थी. रोशनी जल रही थी. वहां क्या हाल है क्या नहीं, यह उसे बेचैन कर रहा था. तभी उस के पतिदेव विजय का फोन आया तो सहसा सारा किस्सा उन्हें सुना दिया.

‘‘मुझे बहुत डर लग रहा है, विजय. अगर नेहा ने कुछ…’’

‘‘ब्रजेश को सब बताया है न तुम ने. अब वह देख लेगा न.’’

‘‘नहीं देखेगा. मुझे लगता है उसे पता ही नहीं कि उसे क्या करना चाहिए.’’

‘‘देखो शुभा, तुम अपना दिमाग खराब मत करो. तुम्हारा ब्लड प्रैशर बढ़ जाएगा और मैं भी वहां नहीं हूं. तुम कोई झांसी की रानी नहीं हो जो किसी की भी जंग में कूदना चाहती हो.’’

‘‘सवाल उस के जीनेमरने का है, विजय. अगर मेरे कूदने से वह बच जाती है तो मेरे मन पर कोई बोझ नहीं रहेगा और अगर उस ने कुछ कर लिया तो जीवनभर अफसोस रहेगा.’’

‘‘तुम ने ठेका ले रखा है क्या सब का? न जान न पहचान.’’

‘‘हम जिंदा इंसान हैं, विजय. क्या मरने वाले को लौटा नहीं सकते? मुझे लगता है मैं उसे मरने से रोक सकती हूं. आप एक बार ब्रजेश से बात कीजिए न. उस का फोन नंबर है मेरे पास, मैं आप को लिखवा देती हूं.’’

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मंदमंद मुसकराने लगे विजय. जानते हैं अपनी पत्नी को. समस्या को सुलझाए बिना मानेगी नहीं और सच भी तो कह रही है. खिलौना टूट जाने के बाद कोई कर भी क्या लेगा? प्रयास का कोई भी औचित्य तभी तक है जब तक प्राण हैं. पखेरू के उड़ जाने के बाद वास्तव में उन्हें भी अफसोस होगा. शुभा का कहा मान लेना चाहिए, किसी के जीवन से बड़ा क्या होगा भला?

‘‘अच्छा बाबा, तुम जैसे कहो. नंबर दे दो, मैं एक बार ब्रजेश से बात करता हूं. शायद कोई रास्ता निकल ही आए.’’

विजय ने आश्वासन दिया और उस का रंग उसे दूसरी सुबह नजर भी आ गया. पूरे 10 बजे ब्रजेश नेहा को उस के पास छोड़ते गए.

‘‘आप पर भरोसा करना चाहता हूं जिस में मेरा ही फायदा होगा.’’

नेहा भीतर जा चुकी थी और जातेजाते कहा ब्रजेश ने, ‘‘शायद कहीं मैं ही सही नहीं हूं. आप मेरी बहन जैसी हैं. वह भी इसी तरह अधिकार से कान मरोड़ देती है. आप जैसा चाहें करें. मैं दखल नहीं दूंगा. बस, मेरा घर बच जाए. मेरी नेहा जिंदा रहे.’’

आभार व्यक्त किया ब्रजेश ने और यह भी बता दिया कि नेहा ने नाश्ता नहीं किया है अभी. एक पीड़ा अवश्य नजर आई उसे ब्रजेश के चेहरे पर और एक बेचारगी भी. ब्रजेश चले गए और शुभा भीतर चली आई.

‘‘नाश्ता क्यों नहीं किया तुम ने?’’

‘‘आप ने कर लिया क्या?’’

‘‘अभी नहीं किया. बोलो, क्या खाएं? तुम्हारा क्या मन है, वही खाते हैं.’’

‘‘मैं बनाऊं क्या? आप पसंद करेंगी?’’

‘‘अरे बाबा, नेकी और पूछपूछ. ऐसा करती हूं, मैं जरा अपनी अलमारी ठीक कर लेती हूं. तुम्हारा मन जो चाहे बना लो.’’

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जरा सी आजादी: भाग-1

‘‘आखिर क्या कमी है जो तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. दिमाग तो ठीक है न तुम्हारा. तुम तो मुझे भी पागल कर के छोड़ोगी, नेहा. इतना समय नहीं है मेरे पास जो हर समय तुम्हारा ही चेहरा देखता रहूं.’’

एक कड़वी सी मुसकान चली आई नेहा के होंठों पर. बोली, ‘‘समय तो कभी नहीं रहा तुम्हारे पास. जब जवानी थी तब समय नहीं था, अब तो बुढ़ापा सिर पर खड़ा है जब अपने पेशे के शिखर पर हो तुम. इस पल तुम से समय की उम्मीद तो मैं कर भी नहीं सकती.’’

‘‘क्या चाहती हो? क्या छुट्टी ले कर घर बैठ जाऊं? माना आज बैठ भी गया तो कल क्या होगा. कल फिर तुम्हारा मन नहीं लगेगा, फिर क्या करोगी? कोई ठोस हल है?’’

तौलिया उठा कर ब्रजेश नहाने चले गए. आज एक मीटिंग भी थी. नेहा ने उन्हें जरूरी तैयारी भी करने नहीं दी. वे समझ नहीं पा रहे थे आखिर वह चाहती क्या है. सब तो है. साडि़यां, गहने, महंगे साधन जो भी उन की सामर्थ्य में है सब है उन के घर में. अभी इकलौते बेटे की शादी कर के हटे हैं. पढ़ीलिखी कमाऊ बहू भी मिल चुकी है. जीवन के सभी कोण पूरे हैं, फिर कमी क्या है जो दिल नहीं लगता. बस, एक ही रट है, दिल नहीं लगता, दिल नहीं लगता. हद होती है हर चीज की.

जीवन के इस पड़ाव पर परेशान हो चुके हैं ब्रजेश. रिटायरमैंट को 3 साल रह गए हैं. कितना सब सोच रखा है, बुढ़ापा इस तरह बिताएंगे, उस तरह बिताएंगे. जीवनभर की थकान धीरेधीरे अपनी मरजी से जी कर उतारेंगे. आज तक अपनी इच्छा से जिए कब हैं? पढ़ाई समाप्त होते ही नौकरी मिल गई थी. उस के बाद तो वह दिन और आज का दिन.

पिताजी पर बहनों की जिम्मेदारी थी इसलिए जल्दी ही उन का सहारा बन जाना चाहते थे ब्रजेश. अपना चाहा कभी नहीं किया. पिता की बहनें और फिर अपनी बहनें… सब को निभातेनिभाते यह दिन आ गया. अपना परिवार सीमित रखा, सब योजनाबद्ध तरीके से निबटा लिया. अब जरा सुख की सांस लेने का समय आया है तो नेहा कैसी बेसिरपैर की परेशानी देने लगी है. नींद नहीं आती उसे, परेशान रहती है, अकेलेपन से घबराने लगी है. बारबार एक ही बात कहती है, उस का दिल नहीं लगता. उस का मन उदास होने लगा है.

कुछ दिन के लिए मायके भी भेज दिया था उसे. वहां से भी जल्दी ही वापस आ गई. पराए घर में वह थोड़े न रहेगी सारी उम्र. उस का घर तो यह है न, जहां वह रहती है. कुछ दिन बहू के पास भी रहने गई. वह घर भी अपना नहीं लगा. वह तो बहू का घर है न, वह वहां कैसे रह सकती है.

रिटायरमैंट के बाद एक जगह टिक कर बैठेंगे तब शायद साथसाथ रहने के लिए बड़ा घर ले लें. अभी जब तक नौकरी है हर 3-4 साल के बाद उन्हें तो शहर बदलना ही है. उस शहर में आए मात्र  4 महीने हुए हैं. यह नई जगह नेहा को पसंद नहीं आ रही. नया घर ही मनहूस लग रहा है.

‘‘अड़ोसपड़ोस में आओजाओ, किसी से मिलोजुलो. टीवी देखो, किताबें पढ़ो. अपना दिल तो खुद ही लगाना है न तुम्हें, अब इस उम्र में मैं तुम्हें दिल लगाना कैसे सिखाऊं,’’ जातेजाते ब्रजेश ने समझाया नेहा को.

हर रोज यही क्रम चलता रहता है. जीवन एकदम रुक जाता है जब ब्रजेश चले जाते हैं, ऐसा लगता है हवा थम गई है, इतनी भारी हो कर ठहर गई है कि सांस भी नहीं आती. छाती पर भी हवा ही बोझ बन कर बैठ गई है.

बेमन से नहाई नेहा, तौलिया सुखाने बालकनी में आई. सहसा आवाज आई किसी की.

‘‘नमस्कार, भाभीजी. इधर देखिए, ऊपर,’’ ताली बजा कर आवाज दी किसी ने.

नेहा ने आगेपीछे देखा, कोई नजर नहीं आया तो भीतर जाने लगी.

‘‘अरेअरे, जाइए मत. इधर देखिए न बाबा,’’ कह कर किसी ने जोर से सीटी बजाई.

सहसा ऊपर देखा नेहा ने. चौथे माले पर एक महिला खड़ी थी.

‘‘क्या हैं आप भी. इस उम्र में मुझ से सीटी बजवा दी. कोई अड़ोसीपड़ोसी देखता होगा तो क्या कहेगा, बुढि़या का दिमाग घूम गया है क्या. नमस्कार, कैसी हैं आप?’’

हंस रही थी वह महिला. नेहा से जानपहचान बढ़ाना चाह रही थी. कहां से आए हैं? नाम क्या है? पतिदेव क्या काम करते हैं?

‘‘आप से पहले जो इस फ्लैट में थे उन से मेरी बड़ी दोस्ती थी. उन का तबादला हो गया. आप से रोज मिलना चाहती हूं मैं, आप मिलती ही नहीं. वाशिंग मशीन पिछली बालकनी में रख लीजिए न. इसी बहाने सूरत तो नजर आएगी.

‘‘अरे, कपड़े धोते समय ही किसी का हालचाल पूछा जाता है. सारा दिन बोर नहीं हो जातीं आप? क्या करती रहती हैं? आज क्या कर रही हैं?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. आप आइए न मेरे घर.’’

‘‘जरूर आऊंगी. आज आप आ जाइए. एक बार बाहर तो निकल कर देखिए, आज मेरे घर किट्टी पार्टी है. सब से मुलाकात हो जाएगी.’’

कुछ सोचा नेहा ने. किट्टी डालना ब्रजेश को पसंद नहीं है. बिना किट्टी डाले वह कैसे चली जाए. चलती किट्टी में जाना अच्छा नहीं लगता.

‘‘आप मेरी मेहमान बन कर आइए न. इधर से घूम कर आएंगी तो फ्लैट नं. 22 सी नजर आएगा. चौथी मंजिल. जरूर आइएगा, नेहाजी.’’

हाथ हिला दिया नेहा ने. मन ही नहीं कर रहा था. साड़ी निकाल कर रखी थी कि चली जाएगी मगर मन माना ही नहीं, सो, वह नहीं गई. वह दिन बीत गया और भी कई दिन. एक शाम वही पड़ोसन दरवाजे पर खड़ी नजर आई.

‘‘आइए,’’ भारी मन से पुकारा नेहा ने.

‘‘अरे भई, हम तो आ ही जाएंगे जब आ गए हैं तो. आप क्यों नहीं आईं उस दिन? मन नहीं घबराता क्या? एक तरफ पड़ेपड़े तो रोटी भी जल जाती है. उसे भी पलटना पड़ता है. आप कहीं बाहर नहीं निकलतीं, क्या बात है? सामने निशा से पूछा था मैं ने, उस ने बताया कि आप उस से भी कभी नहीं मिलीं.’’

आने वाली महिला का व्यवहार नेहा को इतना अपनत्व भरा लगा कि सहसा आंखें भर आईं. रोटी भी एक ही तरफ पड़ेपड़े जल जाती है तो वह भी जल ही तो गई है न. क्या फर्क है उस में और एक जली रोटी में. जली रोटी भी कड़वी हो जाती है और वह भी कड़वी हो चुकी है. हर कोई उस से परेशान है.

‘‘नेहाजी, क्या बात है? कोई परेशानी है?’’

गरदन हिला दी नेहा ने, न ‘न’ में न ‘हां’ में. कंधे पर हाथ रखा उस ने. सहसा रोना निकल गया. उस के साथ ही चली आई वह भीतर.

‘‘घर इतना बंदबंद क्यों रखा है? खिड़कियांदरवाजे खोलो न. ताजी हवा अंदर आने दो. उस दिन आईं क्यों नहीं?’’ सहसा थोड़ा रुक कर पूछा.

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आंखें मिलीं नेहा से. भीगी आंखों में न जाने क्या था, न कुछ कहा न कुछ सुना. नेहा ने नहीं, शायद आने वाली महिला ने ही एक नाता सा बांध लिया.

‘‘मेरा नाम शुभा है. तुम मुझे जैसे चाहो पुकार सकती हो. दीदी कहो, भाभी कहो, नाम भी ले सकती हो. मेरी उम्र 53 साल है, हिसाब लगा लो, कैसे बुलाना चाहती हो. तुम छोटी लग रही हो मुझ से.’’

‘‘जी, मेरी उम्र 50 साल है.’’

‘‘वैसे किसी खूबसूरत महिला से उस की उम्र पूछनी तो नहीं चाहिए थी मगर महिला तुम जैसी हो तो कहना ही क्या, जो खुद अपने को 50 की बता रही हो. तुम इतनी बड़ी तो नहीं लगती हो. मैं नाम ले कर पुकारूं? नेहा पुकारूं तुम्हें?’’

‘‘जी, जैसा आप को अच्छा लगे.’’

‘‘मुझे अच्छा लगे क्यों. तुम्हें क्या अच्छा लगता है, यह तो बताओ.’’

चुप रही नेहा. शुभा ने कंधे पर हाथ रखा. झिलमिलझिलमिल करती आंखों में ढेर सारा नमकीन पानी शुभा को न जाने क्याक्या बता गया.

‘‘जो तुम्हें अच्छा लगे मैं वही पुकारूंगी तुम्हें. तुम से पहले जो इस घर में रहती थी उस से मेरा बहुत प्यार था. यह घर मेरे लिए पराया नहीं है, उसी अधिकार से चली आई हूं. मीरा नाम

था उस का जो यहां रहती थी. बहुत प्यारी सखी थी वह मेरी. तुम भी

उतनी ही प्यारी हो. जरा दरवाजे- खिड़कियां तो खोलो.’’

‘‘उन को दरवाजेखिड़कियां खोलना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘उन को किसी के साथ हंसनाबोलना भी पसंद है कि नहीं? उस दिन तुम किट्टी पार्टी में भी नहीं आईं.’’

‘‘उन्हें किट्टी डालना पसंद नहीं.’’

‘‘तुम्हारे बच्चे कहां हैं. बाहर होस्टल में पढ़ते हैं क्या?’’

‘‘एक ही बेटा है. अभी 4 महीने पहले ही उस की शादी हुई है.’’

‘‘अरे वाह, सास हो तुम. सास हो कर भी उदास हो. भई, बहू को 2-4 जलीकटी सुनाओ, अपनी भड़ास निकालो और खुश रहो. टीवी सीरियल में यही तो सिखाते हैं. शादी होती है, उस के बाद एक तो रोती ही रहती है, या बहू रुलाती है या सास. तुम्हारे यहां क्या सीन है?’’

‘‘मैं तो यहां अकेली हूं. बहू आगरा में है. दूरदूर रहना है जब, तब लड़ाई कैसी?’’

‘‘बहू तुम ने पसंद की थी या भाईसाहब ने?’’

‘‘किसी ने भी नहीं. उन दोनों ने ही एकदूसरे को पसंद कर लिया था.’’

‘‘चलो, मेहनत कम हुई. मुझे तो अपने बच्चों के लिए साथी ही ढूंढ़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी. कहीं परिवार अच्छा नहीं था, कहीं लड़की पसंद नहीं आती थी.’’

शुभा ने धीरेधीरे घर की खिड़कियां खोलनी शुरू कर दीं. ताजी हवा घर में आने लगी.

‘‘आज खाने में क्या बनाया था तुम ने?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘कुछ नहीं, मतलब. भूखी हो सुबह से? अभी शाम के 6 बज रहे हैं. तुम ने कुछ भी खाया नहीं है.’’

शुभा ने हाथ पकड़ा नेहा का. रोक कर रखा बांध बह निकला. एक अनजान पड़ोसन के गले लग नेहा फूटफूट कर रो पड़ी. शुभा भी उस का माथा सहलाती रही.

‘‘चलो, तुम्हारी रसोई में चलें. बेसन है न घर में. पकौड़े बनाते हैं. आटा तो गूंध रखा होगा, चपाती के साथ पकौड़े और गरमगरम चाय पीते हैं.’’

आननफानन ही सब हो गया. आधे घंटे के बाद ही दोनों मेज पर बैठी चाय पी रही थीं.

‘‘क्यों इतना उदास हो, नेहा? खुश होना चाहिए तुम्हें. नए शहर में आई हो, उदासी स्वाभाविक है, मैं मानती हूं मगर इतनी नहीं कि भूखे ही मरने लगो. एक ही बच्चा है जिसे पालपोस दिया, उस का घर बसा दिया. तुम्हारा कर्तव्य पूरा हो गया, और क्या चाहिए?’’

‘‘बहुत खालीपन लगता है, दीदी. जी चाहता है कि अपने साथ कुछ कर लूं. जीवन और क्यों जीना, अब क्या करना है मुझे, किसे मेरी जरूरत है?’’

‘‘अपने साथ कुछ कर लूं, क्या मतलब?’’ शुभा का स्वर तनिक ऊंचा हो गया.

‘‘कुछ खा कर मर जाऊं.’’

‘‘क्या?’’ अवाक् रह गई शुभा. अनायास उस के सिर पर चपत लगा दी.

‘‘पागल हो क्या. अपने परिवार और अपनी बहू को सजा देना चाहती हो क्या? मर कर उन का क्या बिगाड़ लोगी. तुम्हें क्या लगता है वे उम्रभर रोते रहेंगे? जो जाएगा तुम्हारा जाएगा, किसी का क्या जाएगा.

खालीपन लगता है तो क्या मर कर भरोगी उसे? पति, बेटा और बहू के सिवा भी तुम्हारे पास कुछ है, नेहा. तुम्हारे पास तुम हो, अपनी इज्जत करना सीखो. पति को खिड़की खोलना पसंद नहीं तो तुम खिड़कीदरवाजे बंद कर के बैठी हो. पति को किट्टी डालना पसंद नहीं तो उस दिन तुम मेरे घर ही नहीं आईं. इतना कहना क्यों मान रही हो कि घुट कर मर जाओ?’’

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‘‘शुरू से… शुरू से ऐसा ही है. मैं चाहती थी दूसरा बच्चा हो, ये माने ही नहीं. जीवन में मैं ने तो कभी सांस भी खुल कर नहीं ली. सोचा था मनपसंद लड़की को बहू बना कर लाऊंगी, सोचा था बेटी की इच्छा पूरी हो जाएगी. बेटे ने अपनी पसंद की ढूंढ़ ली. मेरी पसंद मन में ही रह गई.’’

‘‘अच्छा किया बेटे ने. अपनी पसंद से तो जी रहा है न. क्या चाहती हो कि आज से 20-30 साल बाद वह भी वही भाषा बोले जो आज तुम बोल रही हो. तुम आज कह रही हो न अपने तरीके से जी नहीं पाई, क्या चाहती हो कि तुम्हारा बच्चा भी तुम्हारी तरह अपना जीवन खालीपन से भरा पाए. अपनी पसंद से जी नहीं पाई और मर जाना चाहती हो. क्या तुम्हारा बच्चा भी…’’

‘‘नहीं… नहीं तो दीदी,’’ सहसा जैसे कुछ कचोटा नेहा को, ‘‘मेरे बच्चे को मेरी उम्र भी लग जाए.’’

‘‘अपने बच्चे को अपनी उम्र देना चाहती हो लेकिन चैन से जीने देना नहीं चाहती. कैसी मां हो? मर कर उम्रभर का अपराधबोध देना चाहती हो. तुम तो मर कर चली जाओगी लेकिन तुम्हारा परिवार चेहरे पर प्रश्नचिह्न लिए उम्रभर किसकिस के प्रश्न का उत्तर देता रहेगा. अरे, मन में जो है आज ही कह कर भड़ास निकाल लो. सुन लो, सुना दो, किस्सा खत्म करो और जिंदा रहो.’’

सहसा शुभा का हाथ नेहा के हाथ पर पड़ा. कलाई में रूमाल बांध रखा था नेहा ने.

‘‘यह क्या हुआ, जरा दिखाना तो,’’ झट से रूमाल खींच लिया. हाथ सीधा किया, ‘‘अरे, यह क्या किया? यहां काटा था क्या? कब काटा था? ताजे खून के निशान हैं. क्या आज ही काटा? क्या अभी यही काम कर रही थीं जब मैं आई थी?’’

काटो तो खून नहीं रहा शुभा में. यह क्या देख लिया उस ने. यह अनजानी औरत जिस से वह पड़ोसी धर्म निभाने चली आई, क्या भरोसे लायक है? अभी अगर इस के जाने के बाद इस ने यह असफल प्रयास सफल बना लिया तो क्या से क्या हो जाएगा? आत्महत्या या हत्या, इस का निर्णय कौन करेगा? वही तो होगी आखिरी इंसान जो नेहा से मिली. कहीं उसी पर कोई मुसीबत न आ जाए.

‘‘नहीं तो दीदी. चूड़ी टूट कर लग गई थी.’’

‘‘भाईसाहब वापस कब आते हैं औफिस से?’’

‘‘वे तो 9-10 बजे से पहले नहीं आते. आजकल ज्यादा काम रहता है, मार्च का महीना है न.’’

‘‘तुम चलो मेरे साथ, मेरे घर. जब वे आएंगे, तुम्हें उधर से ही लेते आएंगे. तुम अकेली मत रहो.’’

‘‘मैं तो पिछले कई सालों से अकेली हूं. अब थक गई हूं. एक ही बेटे में सब देखती रही. आज वह भी मुझे एक किनारे कर पराई लड़की का हो गया. मैं खाली हाथ रह गई हूं, दीदी. पति तो पहले ही अपने परिवार के थे. मेरी इच्छा उन के लिए न कल कोई मतलब रखती थी न आज रखती है. बेटा अपनी पत्नी की इच्छा पर चलता है, पति अपने तरीके से चलते हैं. दम घुटता है मेरा. सांस ही नहीं आती. इन से कुछ कहती हूं तो कहते हैं, मेरा घर है, जैसा मैं कहता हूं वैसा ही होगा. बहू का घर उस का घर होना ही चाहिए. तो फिर मेरा घर कहां है, दीदी?

‘‘मायके जाती हूं तो वहां लगता है यह भाभी का घर है. वहां मन नहीं लगता. पति कहते हैं कि क्या कमी है, साडि़यां हैं, गहने हैं. भला साडि़यां, गहनों से क्या कोई सुखी हो जाता है? मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता. मैं तो अपने घर में एक पत्ता भी हिला नहीं सकती. यह सोफासैट इधर से उधर कर लूंगी तो भी तूफान आ जाएगा. बेजान गुडि़या हूं मैं, जिसे चूं तक करने का अधिकार नहीं है.’’

अवाक् रह गई शुभा. नेहा की परेशानी समझ रही थी वह. इस की जगह अगर वह भी होती तो शायद उस की भी यही हालत होती.

‘‘कल सोफासैट से ही शुरुआत करते हैं.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब यह कि अभी खिड़कियां खोली हैं न. इन्हें आज बंद मत करना. कहना मेरा दम घुटता है इसलिए इन्हें बंद मत करो. थोड़ा सा विरोध भी करो. कल बाई के साथ मिल कर जरा सा सामान अपनी मरजी से सजाना. कुछ कहेंगे तो कहना, तुम्हें इसी तरह अच्छा लगता है. अपनी भी कहना सीखो, नेहा. कई बार ऐसा भी होता है, हम ही अपनी बात नहीं कहते या हम ही अपनी इच्छा का सम्मान किए बिना दूसरे की हर इच्छा मानते चले जाते हैं, जिसे सामने वाला हमारी हां ही मानता है. इस में उन का भी क्या दोष.

‘‘इतने सालों में तुम ने अपने पति को कभी ‘न’ नहीं कहा और उन का अधिकार क्षेत्र तुम्हारी सांस तक पहुंच गया. 12 घंटे तुम इस बंद घर में इतनी भी हिम्मत नहीं कर सकती कि खिड़कियां ही खोल पाओ. जिंदा इंसान हो, तुम कोई मृत काया नहीं जिसे ताजी हवा नहीं चाहिए. सारा दोष तुम्हारा अपना है, तुम्हारे पति का नहीं. जिस की सांस घुटती है, विरोध भी उसी को करना पड़ता है. 4 दिन घर में अशांति होगी, होने दो मगर अपना जीवन समाप्त मत करो. शांति पाने के लिए कभीकभी अशांति का सहारा भी लेना पड़ता है. तुम्हारे पति को परेशानी तो होगी क्योंकि उन्होंने कभी तुम्हारी ‘न’ नहीं सुनी. इतने बरसों में न की गई कितनी सारी ‘न’ हैं जिन का उन्हें एकसाथ सामना करना होगा. अब जो है सो है. तब नहीं तो अब सही, जब जागे तभी सवेरा. अपना घर अपने तरीके से सजाओ.’’

नेहा आंखें फाड़े उस का चेहरा देखती रही.

‘‘घर में वह सामान जो बेकार पड़ा है, सब निकाल दो. कबाड़ी वाला मैं ले आऊंगी. गति दो हर चीज को. तुम भी रुकी पड़ी हो, सामान भी रुका पड़ा है. तुम मालकिन हो घर की, जैसा चाहो, सजाओ.’’

‘‘वही तो मैं भी सोचती हूं.’’

‘‘कुछ भी गलत नहीं सोचती हो तुम. इस घर में पतिदेव सिर्फ रात गुजारते हैं. तुम्हें तो 24 घंटे गुजारने हैं. किस की मरजी चलनी चाहिए?’’

शुभा को नेहा के चेहरे का रंग बदलाबदला नजर आया. आंखों में बुझीबुझी सी चमक, जराजरा हिलती सी नजर आई.

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‘‘अच्छा, भाईसाहब का बिजनैस कार्ड देना जरा. मेरे पतिदेव को इनकम टैक्स की कोई सलाह लेनी थी. तुम चलो, अभी मेरे साथ. आज 31 मार्च है न. क्या पता रात के 12 ही बज जाएं. जब आएंगे, तुम्हें बुला लेंगे. अरे, फोन पर बात कर लेंगे न हम,’’ कहते हुए शुभा उस का हाथ थाम चलने के लिए खड़ी हो गई.

– क्रमश:  

क्या नेहा अपनी मरजी के मुताबिक खुली हवा में सांस ले पाएगी? क्या वह अपने मन में दबी इच्छाओं को पूरा कर पाएगी? कौन उस का हाथ थामेगा? पढि़ए अगले अंक में.

दहकता पलाश: भाग-2

पूर्व कथा

प्रवीण से अचानक मुलाकात होते ही अर्पिता की कालेज के दिनों की यादें ताजा हो गईं. तब वह प्रवीण को चाहने लगी थी. उधर प्रवीण के दिल में भी उस के लिए प्यार उमड़ने लगा था. मगर प्रवीण के पिता के ट्रांसफर की खबर ने 2 दिलों को एक होने से पहले ही जुदा  कर दिया. कालेज की पढ़ाई के बाद अर्पिता की शादी आनंद के साथ हो गई. शादी के बाद आनंद का अकसर टुअर पर रहना उसे बेहद खलता था. मगर प्रवीण से मिल कर उस के दिल में दबी प्यार की चिनगारी भड़क उठी. एक रोज प्रवीण ने उसे सांस्कृतिक कार्यक्रम में आमंत्रित किया तो वह मना न कर पाई. प्रवीण का साथ पा कर वह बेहद खुश थी.

– अब आगे पढ़ें:

उस रात पलंग पर लेटी अर्पिता देर तक प्रवीण के बारे में और उस शाम के बारे में सोचती रही. उस के मन की गहराई में एक कसक सी उठी कि काश, उस समय वह अपनी भावनाओं को प्रवीण के सामने व्यक्त कर देती तो आज प्रवीण के बगल में वह अधिकारपूर्वक बैठी होती. आज तो यह जाहिर ही है कि जल्दी ही उस की भी शादी हो जाएगी और फिर उस के साथ उस की पत्नी बैठा करेगी.

अर्पिता हमेशा चाहती थी कि उस की शादी किसी ऊंचे पद वाले सरकारी अधिकारी से हो और बड़ा बंगला, नौकरचाकर, गाड़ी हो. अर्पिता खिड़की से झांकते चांद में अपने सपनों का चेहरा तलाशती पता नहीं कब गहरी नींद में सो गई.

दूसरे दिन प्रवीण की छुट्टी थी. वह सुबह ही अर्पिता को लेने आ पहुंचा. सिर से पैर तक सादगी में लिपटी वह इतनी सुंदर लग रही थी कि प्रवीण उसे देखता ही रह गया. अर्पिता का दिल जोर से धड़क गया. उस ने तुरंत ही प्रवीण के चेहरे से अपनी नजरें हटा लीं और दूसरी ओर देखने लगी. प्रवीण मुसकरा दिया.

दिन भर प्रवीण और अर्पिता आसपास की जगहों में घूमतेफिरते रहे. दोनों एक जगह लगी चित्र प्रदर्शनी भी देखने गए. शाम को दोनों ने भारत भवन में नाटक देखा. लंच और डिनर भी बाहर ही किया. चित्र प्रदर्शनी व नाटक देखते और साथ में घूमते जब प्रवीण की बांह अर्पिता की बांह से छू जाती तब अर्पिता के शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती.

आनंद के साथ उसे यह अनुभूति कभी नहीं हो पाई थी, क्योंकि आनंद के मन ने आज तक उस के मन की कोमल अभिरुचियों को छुआ ही नहीं था. आनंद का साहचर्य अर्पिता के तनमन के पलाश को आज तक खिला नहीं पाया था.

चित्र प्रदर्शनी में दोनों देर तक 1-1 चित्र के ऊपर आपस में चर्चा करते रहे. एक जैसी रुचियां बातचीत के कितने मार्ग प्रशस्त कर देती हैं, अर्पिता को पहली बार लगा.

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डिनर के बाद प्रवीण अर्पिता को घर तक छोड़ने आया तो अर्पिता ने उस से बहुत आग्रह किया कि वह कौफी पी कर जाए लेकिन प्रवीण बाहर से ही चला गया.

अर्पिता कपड़े बदल कर पलंग पर लेट गई. आज उसे लग रहा था कि वह एक सुंदर बगीचे में खड़ी है और उस के चारों ओर सुर्ख पलाश खिल रहा है. देर तक वह फूलों की मादक गंध से सराबोर हो कर मन ही मन महकती रही.

2 दिनों तक अर्पिता स्वप्नलोक में खोई उन्हीं भावनाओं में विचरती रही. तीसरे दिन आनंद टुअर से वापस आ गया तो अर्पिता भी स्वप्नलोक से निकल कर यथार्थ में आ गई. जीवन अपनी गति से चलता रहा. लेकिन अर्पिता के लिए जीवन में एक नया रोमांच भर गया था. घर और बुटीक्स से उसे जब भी समय मिलता और प्रवीण को फुरसत होती, दोनों कहीं न कहीं घूमने चले जाते. कभी चित्रों की तो कभी फूलों की या क्राफ्ट की प्रदर्शनी में. कभी किसी नाटक का मंचन देखने तो कभी किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम या मेले में.

अर्पिता के तनमन में प्रवीण की नजदीकियों से एक अलग ही खुमारी छाती जा रही थी. वह प्रवीण के चेहरे पर भी अपने प्रति आकर्षण के विशिष्ट भाव ढूंढ़ने का प्रयास करती, लेकिन प्रवीण उसे बिलकुल सहज व संतुलित नजर आता. अर्पिता समझ नहीं पा रही थी कि प्रवीण उसे बस एक बहुत अच्छी दोस्त भर समझता है या फिर उस का उस से खास लगाव भी है. अर्पिता देर तक अकेले में इसी ऊहापोह में पड़ी रहती पर समझ नहीं पाती तब सिर को झटका दे कर अपनेआप को यही समझाती कि मुझे क्या करना, प्रवीण का साथ और अटैंशन मिल रहा है यही बहुत है.

इस तरह 6-7 महीने बीत गए. आनंद इतने महीनों में काम में अधिक व्यस्त हो गया था और अर्पिता अकेली होती चली गई थी.

घर का अकेलापन अर्पिता को काट खाने को दौड़ता था. ऐसे में प्रवीण का साथ ही था जिस ने उसे संबल दिया हुआ था. कभीकभी अर्पिता के मन के साथसाथ तन भी प्रवीण की नजदीकियां पाने के लिए मचल उठता था. खासतौर पर तब, जब आनंद कईकई दिनों कंपनी के काम की वजह से शहर से बाहर रहता था.

पलंग पर करवटें बदलती अर्पिता सोचने लगती कि काश… लेकिन प्रवीण का संतुलित व्यवहार और अर्पिता के संस्कार अर्पिता को मर्यादा की सीमा पार नहीं करने देते थे. कभीकभी आनंद के साथ रहते हुए अर्पिता को अचानक ग्लानि और अपराधबोध सा महसूस होने लगता था कि वह उस के साथ विश्वासघात तो नहीं कर रही? ऐसे में वह आनंद से सहज हो कर आंखें नहीं मिला पाती थी. उसे लगता था कि कहीं वह उस का चेहरा देख कर मन के भावों को पढ़ न ले. पर आनंद के टुअर पर जाते ही अर्पिता निश्चिंत हो जाती और अपनी भावनाओं की मादकता में खोई रहती.

इसी बीच प्रवीण के पिताजी रिटायर हो गए तो वे और प्रवीण की मां प्रवीण के पास ही आ कर रहने लगे. प्रवीण की मां जोरशोर से प्रवीण के लिए लड़की तलाशने लगीं ताकि उस का विवाह हो जाए. अर्पिता ऐसी खबरों पर ऊपर से तो सहज रहती लेकिन अंदर ही अंदर अत्यंत चिंतित हो जाती. पर जब सुनती किसी कारण बात नहीं बन पाई तो चैन की सांस लेती.

तभी प्रवीण के लिए एक बहुत ही अच्छा रिश्ता आया. घरपरिवार भी बहुत अच्छा था और लड़की भी बहुत योग्य थी. प्रवीण की मां की इच्छा थी कि उस का रिश्ता यहां पक्का हो जाए. बस प्रवीण ही था, जो आनाकानी कर रहा था. अर्पिता भी मन ही मन बेचैन थी. वह जानती थी कि उस का सोचना गलत है पर प्रवीण की शादी हो जाएगी यह बात सोच कर वह मन ही मन एक पीड़ा का अनुभव करती थी. इस बात को ले कर उस का मन उदास सा रहता था.

प्रवीण अर्पिता को उदास देख कर उस से पूछता रहता था कि उस की उदासी का क्या कारण है पर अर्पिता क्या बताती, कैसे बताती. कैसे कहती प्रवीण से कि वह शादी न करे. उसे उदास देख कर अपनी व्यस्तता के बावजूद प्रवीण समय निकाल कर उस से बराबर संपर्क बनाए रखता और उसे खुश रखने का प्रयत्न करता रहता. अर्पिता आनंद और प्रवीण की तुलना कर के एक गहरी सांस भर कर रह जाती. प्रवीण व्यस्त रहते हुए भी उस का हालचाल पूछने के लिए समय निकाल लेता था, लेकिन आनंद कभी भी काम के बीच में से समय निकाल कर पूछताछ नहीं करता था कि वह कैसी है, उसे कोई परेशानी तो नहीं है.

आनंद की कंपनी उसे ट्रेनिंग के लिए कैलिफोर्निया भेज रही थी. उसे साल भर के लिए वहां ठहरना था और 15 दिन के भीतर ही दिल्ली से फ्लाइट पकड़नी थी. आनंद के जाने के नाम से अर्पिता एक ओर जहां खुद को दुखी महसूस कर रही थी वहीं दूसरी ओर खुश भी थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि प्रवीण के साथ घूमते हुए जो थोड़ीबहुत झिझक होती थी, वह अब नहीं रहेगी.

‘‘तुम अकेली कैसे रहोगी साल भर? अपने मम्मीपापा के यहां शिफ्ट हो जाओ,’’ आनंद ने कहा.

‘‘मम्मी का घर तो शहर के दूसरे कोने में है. वहां से तो मुझे बुटीक काफी दूर पड़ेंगे. फिर बेवजह घर को साल भर बंद रखने से क्या फायदा? इतने सारे सामान की देखभाल कौन करेगा? कभीकभी मैं वहां चली जाया करूंगी या बीचबीच में उन्हें यहां बुला लिया करूंगी. आप मेरी चिंता मत कीजिए,’’ अर्पिता ने आनंद को आश्वस्त कर दिया.

वैसे आनंद के साथ रहते हुए भी एक तरह से अर्पिता अकेली ही रहती आई है. फिर मम्मीपापा के यहां रहे तो प्रवीण से मिलना कहां हो पाएगा? मम्मी के सामने वह प्रवीण से बात भी नहीं कर पाएगी. यह सब सोच कर उस ने अपने घर पर ही रहना ठीक समझा. अर्पिता के पिताजी अभी रिटायर नहीं हुए थे, उन का औफिस घर के पास ही था. इसलिए वे लोग साल भर के लिए अर्पिता के पास आ कर रह पाएंगे, इस की भी संभावना कम थी.

15 दिनों बाद आनंद कैलिफोर्निया चला गया. अर्पिता के मातापिता 5-6 दिन उस के साथ रह कर अपने घर चले गए. अब अर्पिता के सामने अपनी खुशियों का उन्मुक्त और विस्तृत खुला आसमान था. अब वह अपने पंख फैला कर इस आसमान में जी भर कर उड़ लेना चाहती थी. वर्षों से मन में दबा कर रखी इच्छाएं पंख फड़फड़ाने लगी थीं. प्रवीण का ठाटबाट, प्रतिष्ठा और आनबान देख कर अर्पिता की आंखें चौंधियाने लगी थीं. काश पिताजी उस की शादी की इतनी जल्दी न करते, तो आज उस के पास सब कुछ होता. वह भी सरकारी गाडि़यों में घूमती. बड़े सरकारी बंगले में रहती. नौकरचाकर दिन भर उस की जी हुजूरी करते.

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प्रवीण की जिस दिन छुट्टी रहती, वह कभीकभी अर्पिता को अपने घर भी ले जाता था. अर्पिता प्रवीण की मां से बातें करती रहती. प्रवीण के मातापिता को पता था कि अर्पिता और प्रवीण कालेज में साथ पढ़े हैं, इसलिए वे दोनों उन की मित्रता को सहज रूप से लेते थे.

अर्पिता को कभीकभी मन ही मन ग्लानि होती थी अपनेआप पर कि वह आनंद को धोखा दे रही है. कितना विश्वास करता है आनंद उस पर. लेकिन जीवन में सुख की और भी कई इच्छाएं होती हैं. सिर्फ विश्वास के बल पर रिश्ते उम्र भर नहीं ढोए जा सकते. प्रवीण से उस की इच्छाएं, उस की रुचियां उस के विचार मेल खाते हैं, तभी उस का साथ इतना अच्छा लगता है.

‘‘पचमढ़ी चलोगी 2 दिनों के लिए?’’ कौफी हाउस में जब एक दिन दोनों कौफी पी रहे थे तो प्रवीण ने अर्पिता से पूछा.

‘‘अचानक पचमढ़ी?’’ अर्पिता ने आश्चर्यमिश्रित खुशी से पूछा.

‘‘हां, वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत लोकरंग का कार्यक्रम होने वाला है, इसलिए मुझे 2 दिनों के लिए वहां जाना है,’’ प्रवीण ने बताया.

‘‘तुम्हारे साथ और कौन जा रहा है?’’ अर्पिता ने थोड़ी मायूसी से पूछा.

‘‘कोई नहीं. मम्मीपापा तो उस समय इंदौर जा रहे हैं शादी में. बस तुम और मैं चलेंगे,’’ प्रवीण ने कौफी खत्म करते हुए कहा.

अर्पिता के मन की कली खिल उठी. 2 दिन वह पूरा समय प्रवीण के साथ बिताएगी. उसे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई. अगले हफ्ते दोनों पचमढ़ी रवाना हो गए. दिन भर दोनों पचमढ़ी के दर्शनीय स्थलों पर घूमते रहे. शाम 5-6 बजे दोनों गैस्ट हाउस में वापस आए. चाय पी और अपनेअपने कमरों में तैयार होने चले गए. शाम 7 बजे से सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू होने वाला था.

शाम को 7 बजे के पहले प्रवीण ने दरवाजे पर नौक कर के उसे आवाज दी. अर्पिता ने दरवाजा खोला तो वह अर्पिता को देखता रह गया.

‘‘बहुत खूबसूरत लग रही हो अर्पिता,’’ प्रवीण ने उस के गाल से बालों की लट को पीछे हटाते हुए प्रशंसात्मक स्वर में उस की तारीफ की.

यह पहली बार हुआ था कि प्रवीण ने मुक्त कंठ से उस की सुंदरता की तारीफ की थी और उस के गालों को छुआ था. अर्पिता का रोमरोम सिहर गया.

‘‘चलो न,’’ अर्पिता ने आगे बढ़ते हुए कहा.

‘‘2 मिनट रुको तो सही तुम्हें जी भर कर देख तो लूं,’’ प्रवीण ने बांह पकड़ कर अर्पिता को अपने सामने खड़ा कर लिया.

अर्पिता नई दुलहन की तरह शरमा गई. बंधनरहित मुक्त वातावरण में आ कर प्रवीण की झिझक भी दूर हो गई थी. वह मुग्ध भाव से उसे ऊपर से नीचे तक निहारता रहा.

गाड़ी में प्रवीण पिछली सीट पर अर्पिता के साथ ही बैठा. दोनों के बीच की दूरियां सिमट गई थीं. प्रवीण अर्पिता से सट कर बैठा था. अर्पिता की देह की सिहरन पलपल बढ़ती जा रही थी.

आयोजन स्थल पर पहुंच कर प्रवीण थोड़ा अलग हट कर बैठ गया. वहां दूसरे पहचान वालों के साथ प्रवीण ने अर्पिता की मुलाकात अपने दोस्त की पत्नी के रूप में करवाई. मेल मुलाकात के समय ही एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी ने रायपुर से हाल ही में भोपाल ट्रांसफर हो कर आए चौधरीजी से प्रवीण को मिलवाया.

‘‘इन्हें तो तुम जानते ही होगे. चौधरीजी और उन की पत्नी नीलांजना चौधरी. 8 दिन ही हुए हैं इन्हें भोपाल आए हुए. परसों ही जौइन किया है.’’

नीलांजना को देखते ही प्रवीण अचानक सकपका गया. उन्होंने एक भरपूर नजर प्रवीण पर डाली और फिर उस के पास खड़ी अर्पिता को अजीब सी नजरों से देखने लगीं. अर्पिता को उन का देखने का अंदाज अच्छा नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि नीलांजना की आंखें उस की आंखों से होती हुईं उस के मन में छिपे हुए चोर का भेद पा गई हैं. कुछ देर बाद नीलांजनाजी के मुख पर एक तिरछी व्यंग्यात्मक मुसकान तैरने लगी.

अर्पिता अपना ध्यान हटा कर दूसरी ओर देखने लगी. प्रवीण भी जल्दी ही वहां से चला गया. कुछ ही देर में कार्यक्रम शुरू हो गया और सब लोग अपनीअपनी जगह बैठ गए.

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अर्पिता को लग रहा था मानो वह स्वप्नलोक में पहुंच गई है. सामने खुले आकाश के नीचे भव्य मंच पर नर्तकों द्वारा नृत्य की प्रस्तुति. वह स्वप्नलोक के सुखसागर में तैरने लगी.

कार्यक्रम समाप्त होने पर वहीं रात के खाने का इंतजाम था. प्रवीण और अर्पिता भी वहीं डिनर करने लगे. खाना खाते हुए जब भी नीलांजना से आमनासामना होता वे अजीब नजरों से घूरघूर कर प्रवीण और अर्पिता को देखने लगतीं. अर्पिता को अच्छा नहीं लग रहा था और प्रवीण भी उन्हें देखते ही अर्पिता को ले कर उन के सामने से हट जाता था.

 – क्रमश:

दहकता पलाश: भाग-1

‘‘अरे अर्पिता तुम?’’

अपना नाम सुन कर अर्पिता पीछे मुड़ी तो देखा, एक गोरा स्टाइलिश बालों वाला लंबा व्यक्ति उस की ओर देख कर मुसकरा रहा था. अर्पिता ने उसे गौर से देख कर पहचाना तो उत्साह से चहक कर बोली, ‘‘अरे प्रवीण तुम… यहां कैसे?’’

‘‘3 महीने पहले ही मेरी यहां पोस्टिंग हुई है और तुम अब भी यहीं हो?’’ प्रवीण ने उस से पूछा.

‘‘हां, मैं तो यहीं हूं. बस घर का पता बदल गया है,’’ अर्पिता ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां उस की निशानी तो मैं देख रहा हूं,’’ प्रवीण ने मंगलसूत्र की तरफ इशारा किया तो दोनों हंस पड़े.

‘‘आओ न, यहां पास के रैस्टोरैंट में चल कर बैठते हैं,’’ प्रवीण ने सुझाव दिया तो अर्पिता इनकार नहीं कर पाई. फिर दोनों रैस्टोरैंट में एक कोने वाली टेबल पर जा कर बैठ गए.

‘‘तुम तो अब भी पहले जैसी हो, जरा भी नहीं बदलीं,’’ बेयरे को कौफी का और्डर देते हुए प्रवीण बोला.

‘‘वैसी कहां हूं मैं, थोड़ी मोटी तो हो ही गई हूं. हां, तुम जरूर बिलकुल पहले जैसे ही हो,’’ अर्पिता ने कहा.

‘‘मैं कहना चाह रहा था कि तुम्हारा चेहरा आज भी वैसा ही नाजुक और मासूम है, जैसा 7-8 साल पहले था. तभी तो मैं तुम्हें देखते ही पहचान गया…’’ प्रवीण ने अर्पिता को भरपूर नजर से देखते हुए कहा तो वह शरमा गई.

‘‘चलो छोड़ो, तुम क्या मेरे चेहरे को ले कर बैठ गए. यह बताओ कि आज भरी दोपहरी में बाजार में क्या कर रहे थे?

कालेज छोड़ने के बाद क्या किया? तुम तो आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे थे न, क्या हुआ? और इतने दिन कहां रहे? अभी क्या काम कर रहे हो?’’ अर्पिता ने एक के बाद एक इतने सारे सवाल कर डाले कि प्रवीण हड़बड़ा गया.

‘‘तुम ने तो प्रैस वालों की तरह एक के बाद एक ढेर सारे सवाल कर डाले. पहले किस सवाल का जवाब दूं यही समझ में नहीं आ रहा,’’ फिर हंसते हुए बोला, ‘‘मैं बी.ए. करने के बाद आई.ए.एस. की कोचिंग करने इंदौर चला गया था, यह तो तुम्हें पता ही है. 2 साल जम कर मेहनत की पर पहली बार में सिलैक्शन नहीं हुआ. पर दूसरे अटैंप्ट में मैं सिलैक्ट हो ही गया. फिर मेन ऐग्जाम फिर इंटरव्यू. 6-7 साल के बाद अब जा कर मनचाही पोस्ट मिली है और चार इमली पर एक घर भी अलौट हुआ है.’’

‘‘अरे वाह,’’ अर्पिता के चेहरे पर प्रशंसा के भाव आ गए, ‘‘वहां के मकान तो बहुत बड़े और सुंदर है.’’

‘‘हां, उसी के लिए थोड़ाबहुत फर्नीचर देखने आया था. अब तो पापा का भी ट्रांसफर फिर से यहां हो गया है. अगले हफ्ते वे लोग भी यहां आ जाएंगे,’’ प्रवीण ने बताया.

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‘‘और तुम्हारी पत्नी? शादी की या नहीं की अब तक?’’ अर्पिता ने पूछा.

‘‘नहीं, अभी तक तो नहीं की. 1-2 साल जरा सर्विस में जम जाऊं फिर सोचूंगा. अब

मैं तुम्हारी तरह सवालों की झड़ी नहीं लगाऊंगा, तुम खुद ही अपने बारे में बता दो,’’ प्रवीण ने कौफी का खाली प्याला नीचे रखते हुए कहा.

‘‘कुछ खास नहीं. बी.ए. करने के बाद मैं ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया. अभी शहर के 4-5 बुटीक्स के लिए सूट्स डिजाइन करती हूं. रोजरोज आनेजाने की झंझट नहीं है. जब उन को जरूरत होती है बुला लेते हैं. बस कमाई भी हो जाती है और शौक भी पूरा हो जाता है. अगर मन हुआ तो अपना एक बुटीक भी खोल लूंगी. बस मेरी तो सीधीसादी छोटी सी कहानी है,’’ अर्पिता ने बताया.

‘‘और तुम्हारे पतिदेव क्या करते हैं?’’ प्रवीण ने पूछा.

‘‘वे एक प्राइवेट कंपनी में हैं और अकसर टूर पर रहते हैं,’’ अर्पिता के मुंह पर पति के टूर पर रहने की बात कहने पर हलकी सी मायूसी छा गई जिसे प्रवीण ने भांप लिया. वह तुरंत ही बातचीत का विषय कालेज के दिनों और पुराने साथियों की तरफ ले गया. फिर 2 घंटे कब निकल गए पता ही नहीं चला. फिर दोनों ने एकदूसरे के फोन नंबर लिए और अपनेअपने घरों की ओर लौट गए.

अर्पिता जब घर पहुंची तब तक उस के पति आनंद घर नहीं पहुंचे थे. बाजार से लाया सामान टेबल पर रख कर वह टीवी औन कर के बैठ गई, लेकिन आज उस का मन टीवी देखने में नहीं लग रहा था. वह तो प्रवीण के बारे में सोच रही थी.

वह और प्रवीण 8वीं कक्षा से साथसाथ पढ़े थे. कालेज में भी दोनों एक ही सैक्शन में थे. अन्य लड़कों की अपेक्षा प्रवीण अंतर्मुखी और मेधावी लड़का था. वह फ्री पीरियड में भी बाकी लड़कों की तरह ऊधम, मस्ती न करते हुए कुछ न कुछ पढ़ता रहता था. क्लास के अन्य लड़कों से अलग प्रवीण को स्कूल या कालेज की किसी भी लड़की में दिलचस्पी लेते हुए कभी किसी ने नहीं देखा था. प्रवीण के स्वभाव की इसी खूबी से अर्पिता मन ही मन उस से प्रभावित थी. फर्स्ट ईयर के अंत तक जहां क्लास के प्रत्येक लड़के की क्लास की या दूसरे क्लास की या महल्ले की किसी लड़की के साथ अफेयर की बातें सुनाई देती थीं, वहीं प्रवीण के बारे में अर्पिता ने कभी भी ऐसी कोई बात नहीं सुनी.

प्रवीण दिखने में बहुत अच्छा था. ऊंचा कद, हलके घुंघराले बाल, गोरा रंग, तीखी नाक. वह क्लास में ही क्या कालेज में सब से स्मार्ट लड़के के रूप में मशहूर हो गया था. पास से गुजरती लड़की चाहे जूनियर हो चाहे सीनियर एक बार तो भरपूर नजर से उसे देखती जरूर थी. प्रवीण के रंगरूप और बुद्धि पर फिदा बहुत सी लड़कियां उस पर मरती थीं, लेकिन वह आंख उठा कर भी किसी की ओर नहीं देखता था.

फाइनल तक पहुंचतेपहुंचते अर्पिता से उस की अच्छी पटने लगी थी, क्योंकि क्लास में प्रवीण के बाद अर्पिता ही पढ़ाई में तेज थी. विभिन्न चैप्टर्स और किस किताब में कौन सा चैप्टर कितना अच्छा है इस विषय पर क्लास में या लाइब्रेरी में दोनों देर तक बातें करते रहते थे. प्रवीण से दोस्ती की वजह से कई लड़कियां अर्पिता से ईर्ष्या करने लगी थीं. वर्ष के अंत तक अर्पिता भी प्रवीण के प्रति एक अलग ही आकर्षण महसूस करने लगी थी. उसे यह भी लगने लगा था कि प्रवीण का उसे देखने का अंदाज भी कुछ बदल सा गया है.

एक दिन फ्री पीरियड में दोनों लाइब्रेरी में बैठे थे. अर्पिता किताब पढ़ने में तल्लीन थी. बीच में इतिहास की एक तारीख समझ में न आने के कारण उस ने प्रवीण से पूछने के लिए सिर ऊपर उठाया तो देखा वह किताब टेबल पर रख कर खोईखोई सी नजरों से उसे देख रहा था.

अर्पिता का दिल बड़ी जोर से धड़कने लगा. वह भी बिना कुछ कहे अपनी किताब देखने लगी, लेकिन बड़ी देर तक उस के मन में एक हलचल सी होती रही.

इस के बाद अर्पिता को लगने लगा कि वह शायद धीरेधीरे प्रवीण की ओर आकर्षित होती जा रही थी. कालेज में प्रवेश करते ही उस की नजरें प्रवीण को खोजती रहतीं.

क्लास में बैठे हुए भी अर्पिता की नजरें दरवाजे पर ही टिकी रहतीं और जैसे ही प्रवीण अंदर आता अर्पिता का दिल बड़ी जोरजोर से धड़कने लगता.

अर्पिता के मन में भावनाओं के कई नएनए, अनजाने मगर अपने से लगने वाले रंग तैरने लगे थे. लेकिन दोनों ही ओर से ये रंग भावनाओं का रूप ले कर शब्दों में अभिव्यक्त हो पाते, फाइनल ऐग्जाम सिर पर आ गए और फिर लास्ट पेपर जिस दिन था उसी दिन प्रवीण अपने मातापिता के साथ इंदौर चला गया, क्योंकि उस के पिता का वहां ट्रांसफर हो चुका था. वे तो बस प्रवीण के पेपर की खातिर ही रुके थे. प्रवीण एक ख्वाहिश भरी नजर अर्पिता पर डाल कर चला गया.

दोनों के बीच जो भी था बस मूक ही रहा. कभी शब्दों या भावनाओं के रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाया, इसलिए कोई किसी का इंतजार भी क्या करता. अर्पिता ने फैशन डिजाइनर का कोर्स किया और जब उस के मातापिता ने आनंद को उस के जीवनसाथी  के रूप में चुना तो उस ने भी उन की इच्छा का सम्मान करते हुए अपनी स्वीकृति दे दी.

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आनंद के साथ उस का जीवन आराम से गुजर रहा था. आनंद अर्पिता का बहुत ध्यान रखता था, लेकिन उस के बारबार टूर पर जाने और काम में अत्यधिक व्यस्त रहने से अर्पिता अकेलापन महसूस करती थी. दिन तो घर के काम और बुटीकों के डिजाइन वगैरह तैयार करने में कट जाता, लेकिन उदास शामें और तनहा रातें उसे काट खाने को दौड़तीं. आनंद के बगैर वह सारीसारी रातें पलंग पर करवटें बदलते हुए गुजार देती. महीनों वह आनंद के साथ पिक्चर देखने या कहीं बाहर घूमने जाने को तरस जाती. लेकिन फिर भी आनंद की भी मजबूरी समझ कर वह अपने मन को समझा लेती.

अर्पिता एक गहरी सांस ले कर उठी. आज प्रवीण से मिल कर न जाने क्यों वह अपने अंदर बहुत खुशी महसूस कर रही थी. मन के कोने में बरसों से दबे हुए जिन रंगों पर समय की धूल पड़ गई थी, उन्हें जैसे किसी ने पानी की कुनकुनी फुहारें बरसा कर धो दिया था. और फीके पडे़ रंग धुल जाने से ताजे हो कर चमचमाने लगे थे.

2 दिन बाद बुटीक से आ कर अर्पिता चाय पीते हुए एक फैशन मैगजीन में कपड़ों के लेटैस्ट डिजाइन देख रही थी कि फोन बज उठा. अर्पिता ने फोन उठाया, ‘‘हैलो…’’

‘‘हैलो, क्या कर रही हो अर्पिता?’’ उधर से प्रवीण का स्वर सुनाई दिया.

‘‘अरे, तुम?’’ अर्पिता का स्वर और चेहरा दोनों खिल गए.

‘‘हां सुनो, संग्रहालय में मणिपुरी कलाकारों की बहुत अच्छी प्रस्तुति है. सारा इंतजाम मेरी ही देखरेख में चल रहा है. तुम लोग आ जाओ,’’ प्रवीण ने कहा.

‘‘आनंद तो टूर पर बैंगलुरु गए हुए हैं. मैं अगर आई तो लौटते वक्त रात हो जाएगी. मैं अकेली इतनी दूर रात में वापस कैसे आऊंगी?’’ अर्पिता के स्वर में मायूसी छा गई.

‘‘बस इतनी सी बात,’’ प्रवीण हंसते हुए बोला, ‘‘अरे पगली मेरे होते हुए तुम्हें अकेले आने की क्या जरूरत है? तुम ठीक 5 बजे तैयार रहना, मैं ड्राइवर को भेज दूंगा तुम्हें ले आने को. मैं बहुत बिजी हूं नहीं तो खुद आ जाता,’’ इतना कह कर बिना जवाब का इंतजार किए प्रवीण ने फोन काट दिया. अर्पिता मुसकरा दी.

प्रवीण ने उस दिन बताया कि वह संस्कृति विभाग में एग्जीक्यूटिव डायरैक्टर है. उसे यों भी भारतीय लोक संस्कृति से बहुत लगाव था. स्कूल, कालेज में भी वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन व संचालन करने में हमेशा आगे रहता था.

अर्पिता को भी सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रदर्शनियां आदि देखने का बहुत शौक था लेकिन आनंद को कभी भी टाइम नहीं मिलता. संडे को भी आनंद अकसर या तो औफिस में या फिर घर पर ही कोई न कोई काम करता रहता था. 4 साल पहले 10 दिनों के लिए वे हनीमून पर गए थे. उस के बाद से आनंद लगातार अपने काम में व्यस्त ही रहा है.

5 बजे बाहर गाड़ी का हौर्न सुन कर अर्पिता ने खिड़की से झांक कर देखा. बाहर एक गाड़ी खड़ी थी. अर्पिता समझ गई कि यह गाड़ी प्रवीण ने ही भेजी होगी. वह ताला लगा कर बाहर आ गई.

‘‘आप अर्पिताजी हैं?’’ ड्राइवर ने गाड़ी से उतरते हुए पूछा. और अर्पिता के ‘हां’

कहते ही दरवाजा खोल दिया. अर्पिता गाड़ी में बैठ गई. संग्रहालय पहुंच कर ड्राइवर ने उसे प्रवीण के पास पहुंचा दिया और वापस चला गया.

‘‘आओ अर्पिता,’’ प्रवीण ने आगे बढ़ कर उस का स्वागत किया और उसे ले कर आगे चल कर सब से आगे के एक सोफे पर बैठा कर बोला, ‘‘तुम थोड़ी देर यहां बैठो मैं जरा व्यवस्था देख कर आता हूं. कार्यक्रम बस 10 मिनट में शुरू हो जाएगा.’’

10 मिनट बाद ही प्रवीण आ कर उस के बगल बैठ गया. कार्यक्रम शुरू हुआ और कलाकार अपनी मनोरम प्रस्तुतियां देने लगे. बेयरे पानी, चाय, कौफी और स्नैक्स वगैरह सर्व कर रहे थे. प्रवीण अर्पिता को अपने विभाग और विभाग के अन्य लोगों के बारे में बताता जा रहा था.

सुरमई शाम, सुहावना मौसम, सामने नृत्य व संगीत की प्रस्तुति. अर्पिता को लग रहा था कि वह सपनों के लोक में पहुंच गई है. कुछ बात कहने के लिए जब प्रवीण उस की ओर झुका तो उस का कंधा अर्पिता के कंधे से छू गया. अर्पिता का दिल अचानक वैसे ही जोर से धड़कने लगा जैसे कालेज के दिनों में प्रवीण को पहली बार अपनी ओर देखता पा कर धड़का था.

दिल में सालों से दबी हुई कोई कुंआरी अनछुई सी अनुभूति अचानक ही जाग गई. मन में न जाने कब से सोए पड़े एहसास अंगड़ाई ले कर जाग गए. अर्पिता को लग रहा था जैसे वह कुंआरी है और उस के कुंआरे मन में आज पहली बार किसी के प्रति कोई अनजानी सी कशिश, अनजाना सा रोमांच महसूस किया है. प्रवीण के साथ पहली पंक्ति में बैठी वह और चारों ओर बड़ेबड़े सरकारी अफसर और गणमान्य अतिथि. सब कुछ कितना भव्य लग रहा था.

तालियों की गड़गड़ाहट से अर्पिता की तंद्रा भंग हुई. कार्यक्रम समाप्त हो चुका था. प्रवीण ने अपने साथी अफसरों और उन की पत्नियों से अर्पिता की पहचान कराई. देर तक सब से बातें होती रहीं फिर डिनर के बाद प्रवीण उसे घर पहुंचा कर चला गया. विवाह के बाद शायद यह पहली शाम थी, जो अर्पिता अपनी मरजी से अपनी खुशी के लिए इतनी अच्छी तरह से बिताई थी.

– क्रमश:

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सांझ की दुलहन: भाग-3

लेखिका- मीना गुप्ता

अब तक आप ने पढ़ा:

अपनी भाभी राधिका से, जिन की राजन बहुत इज्जत करता था, एक दिन अपने मन की बात कहते हुए स्वप्न सुंदरी से शादी करने की बात कह दी. भाभी राधिका परेशान थीं कि कहां और कैसे देवर राजन की शादी इतनी खूबसूरत लड़की से कराई जाए.

तब दूर की एक रिश्तेदारी में जिस स्वप्न सुंदरी की तलाश थी वह मिल गई. मगर जब शादी हो कर वह घर आई तो घर का अच्छाभला माहौल बिगड़ने लगा, जबकि राजन इस ओर से अनजान था. सुंदरी काफी खुले विचारों वाली थी.

कुछ दिनों बाद सुंदरी ने बताया कि उस की शादी राजन से जबरदस्ती उस के घर वालों ने करा दी, लेकिन वह शुरू से ही किसी और को चाहती है.

अब वह यदाकदा अपने प्रेमी को घर पर भी बुलाने लगी. अंतत: आपसी रजामंदी से दोनों ने तलाक ले लिया.

राजन अब दोबारा शादी नहीं करना चाहता था. पर भाभी और अन्य लोगों के दबाव के आगे उसे झुकना पड़ा और उस ने शादी करने की रजामंदी दे दी. राजन की शादी बेहद साधारण और कम पढ़ीलिखी लड़की के साथ हुई. नई बहू ने राजन का घर भी जल्द संभाल लिया. घर के लोग भी उस से खुश थे.

– अब आगे पढ़ें:

राजन दूसरी शादी से बहुत खुश था. पहली बार उस ने अनु को उस नजर से देखा था जिस नजर से सुंदरी को देखा करता था. आज वह उसे वह प्यार दे सकेगा, जो सुंदरी को देने चला था. मगर उस ने उस की कीमत नहीं समझी थी.

रात राजन और अनु की थी. राधिका तो माध्यम बनी थी, जो इस वक्त दोनों की हंसी से गूंज रहे माहौल में खुद को हलका महसूस कर रही थी.

सुबह उठ कर राधिका ने ही चाय बनाई और दरवाजे पर रख कर बोली, ‘‘आप लोगों की चाय आप को बुला रही है.’’

अनु ने चाय सर्व करते हुए कहा, ‘‘सुनो, आज मुझे थोड़ी शौपिंग करनी है. तुम चलोगे?’’

‘‘हां, क्यों नही?’’

अनु तैयार हो कर राधिका से कह कर शौपिंग के लिए निकल गई. राधिका खुश थी.

जब अनु और राजन घर लौटे राधिका रात के खाने पर दोनों का इंतजार कर रही थी. खाना खा कर दोनों अपने कमरे में, बाबूजी अपने कमरे में, राधिका अपने कमरे में. राधिका जाग रही थी. शिब्बू बिजनैस के सिलसिले में बाहर था. उसे नींद नहीं आ रही थी.

8 साल हो गए थे शादी को. उसे कोईर् संतान नहीं थी. वह इस अकेलेपन को अकसर जाग कर काट लिया करती थी. डाक्टर ने कहा था कोई संभावना नहीं है. फिलहाल बहू में कोई कमी नहीं. राधिका उस की भरपाई में शिब्बू और बाबूजी को खुश करने में लगी रहती. शिब्बू को इस बात का अफसोस नहीं था. मगर वह इस अफसोस में अकसर खिलौनों और गुड्डों से बातें करती रहती और इस प्रकार अपने मातृत्व की पूर्ति करती. तभी किचने से आवाज आई. राधिका ने देखना चाहा क्या हुआ. शायद बिल्ली होगी. लेकिन घर में बिल्ली के आने का कोई रास्ता नहीं था. बाहर आ कर देखा राजन के कमरे से लगी छत का दरवाजा खुला था.

‘तो क्या देवरजी दरवाजा खोल कर सो गए?’ सोच राधिका ने टौर्च की रोशनी से देखना चाहा.

छत पर उसे बात करने की आवाज सुनाई दी. सोचने लगी इतनी रात गए कौन हो सकता है. लगता है दोनों अभी तक जाग रहे हैं. फिर मन ही मन मुसकराई और तसल्ली के लिए पूछा, ‘‘छत पर कौन है?’’

‘‘मैं हूं भाभीजी अनु… लाइट चली गई थी न, तो गरमी के कारण छत पर आ गई.’’

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‘‘ठीक है. मगर दरवाजा बंद कर के सोया करो… किचन में बिल्ली आ गई थी.’’

‘‘ठीक है भाभीजी, आप सो जाइए मैं देख लेती हूं किचन में कौन है… चूहा भी हो सकता है… आप सोई नहीं अभी तक?

‘‘नहीं. नींद नहीं आ रही है.’’

‘‘जाइए, अब सो जाइए.’’

राधिका ने बेचैनी से टहलते हुए बाबूजी के कमरे में झांक कर देखा. वे सो रहे थे.

सभी इतमीनान में हैं, फिर वह क्यों परेशान है? इस बेचैनी का कारण क्या है? शिब्बू का न होना या उस का निस्संतान होना या फिर कुछ और?

देर रात तक जागने पर भी भोर में ही राधिका की नींद खुल गई. देखा राजन का कमरा खुला था. लगता है राजन आज जल्दी उठ गया. अनु को आवाज देती हूं, बाबूजी को चाय दे देगी. आज तबीयत भारी हो रही है. रात भर नींद नहीं आई.

नीचे से ही आवाज दी, ‘‘अनु, नीचे आ जाओ. बाबूजी को चाय दे दो.’’

राजन बाहर आते हुए बोला, ‘‘भाभी, अनु यहां नहीं है. नीचे चली गई है.’’

राधिका ने फिर आवाज दी, ‘‘अनु कहां हो?’’ मगर उस के कहीं भी होने की आहट सुनाई नहीं दी. शायद बाथरूम में होगी. लेकिन वहां तो बाबूजी हैं. फिर कहां होगी? किचन में जा कर देखा वहां भी नहीं. शायद बाहर बगीचे में होगी. वहां भी नहीं. आखिर इतनी सुबह कहां जाएगी?

राधिका ने आवाज दी, ‘‘देवरजी देवरानी को नीचे भेज दो, मजाक मत करो.’’

‘‘भाभीजी मैं मजाक नहीं कर रहा. सच में अनु यहां नहीं है.’’

‘‘नहीं है?’’

बाबूजी बाथरूम से निकले तो बोले,

‘‘अरे बहू, आज तुम घर का दरवाजा बंद करना भूल गईं?’’

‘‘क्या घर का दरवाजा… छत का दरवाजा… अनु घर में नहीं है बाबूजी… यह सब क्या है? देवरजी, अनु घर पर नहीं है.’’

‘‘क्या तुम दोनों के बीच रात में कोई झगड़ा हुआ है?’’

‘‘नहीं.’’

कमरे में जा कर देखा तो अनु का सामान भी नहीं था. घर की तिजोरी भी खुली और खाली थी.

बहू घर छोड़ कर जा चुकी थी… ज्यादा ही समझदार निकली.

राधिका को रात की बिल्ली… छत का खुला दरवाजा… अनु का आश्वासन… सब कुछ बिजली की तरह कौंध गया. वह चकरा गई. बोली, ‘‘देवरजी, यह तो बहुत समझदार निकली.’’

राजन जो अब तक सब समझ चुका था, सिर थामे बैठा था.

देर तक घर में फैली खामोशी को कौन तोड़ता? किस में हिम्मत थी? भाभी में जिस ने राजन को दूसरी शादी के लिए प्रेरित किया था या बाबूजी में, जिन्होंने उस की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए थे या फिर राजन जिस ने दोनों के निर्णय पर बंद आंखों से अपनी सहमति का अंगूठा लगा दिया था? कौन था समझदार? राधिका जिस ने राजन की गृहस्थी फिर से बसानी चाही, बाबूजी जो अपने आंगन में खेलताकूदता छोटा राजन चाहते थे या फिर राजन जिस के स्वभाव की सरलता ने अनु की बढ़ी समझदारी का कारण नहीं समझना चाहा. शायद इन तीनों से ज्यादा समझदार वह थी जिस ने तीनों की समझदारी पर पानी फेर दिया… सब कुछ ले गई… कुछ नहीं बचा.

रात में फोन आया, ‘‘मैं दूसरा विवाह करने जा रही हूं. उस दमघोंटू माहौल में मैं नहीं रह सकती थी और नई जिंदगी की शुरुआत के लिए पैसा तो चाहिए था सो मैं ले आई. मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत कीजिएगा. आखिर मैं आप के घर की बहू थी.

बाबूजी को काटो तो खून नहीं. राधिका भी जड़वत कि यह सब क्या हुआ? हमारे साथ इतना बड़ा धोखा? यह नजरों का धोखा था या फिर हमारी समझदारी का?

राजन दोनों के बीच मूकदर्शक था. भाभी क्या कहती हैं या बाबूजी क्या कहते हैं उस ने नहीं सुना. उसे लगा उस ने गलत सपना फिर देख लिया. हर बार रो कर चुप होना और फिर रोना. पहले सुंदरी के सौंदर्य ने धोखा दिया. इस बार समझदारी के बड़े भ्रम ने धोखा दिया. धोखा… धोखा… धोखा… कब तक? वह टूट चुका था. घर आने में भी उसे हिचक होती. उसे देखते ही राधिका हिचक जाती. सब एकदूसरे से नजर यों चुराते जैसे वे एकदूसरे के गुनहगार हैं और जिन की सजा यही है कि खुद को एकदूसरे से अलग कर लें. कहीं गुनाह का परदाफाश न हो जाए और ठीकरा किसी एक के सिर फोड़ दिया जाए.

इस बार बाबूजी का चोटिल सम्मान रहरह कर चटक उठता. समाज में उठनेबैठने और तन कर चल सकने की सारी हिम्मत जाती रही. रिश्तेदारी में जहां जाओ एक ही चर्चा. बहू क्यों चली गई? जरूर इस परिवार में ही कोई कमी है, जो दूसरी भी छोड़ कर चली गई. अनेक इलजाम जमाने ने लगाए. खुद को इतना छोटा महसूस करते कि जिस टोपी को उन्होंने कभी नहीं भुलाया था उसे लगाना भी उन्हें याद नहीं रहता. वे बिना टोपी के ही निकल जाते. राधिका याद दिलाती, ‘‘बाबूजी, टोपी…’’

विश्रुतिजी निरुत्साहित से उसे पकड़ते, मगर टोपी लगा कर खुद को निहारने का दुस्साहस अब नहीं करते.

इधर समय की कमी ने शिब्बू और राधिका के बीच जो रिक्तता पैदा की थी उस

जगह अब एक लंबी दीवार खड़ी हो रही थी. अकसर वह बिजनैस के सिलसिले में देर रात तक बाहर होता और जब आता थकान से चूर होता. उस थकान के बीच राधिका उस की जिंदगी में अगर कुछ भरना चाहती तो वह यह कह कर सो जाता, ‘‘राधिका, मैं थक गया हूं, तुम से कल बात करता हूं.’’ और कल थकान बेहिसाब बढ़ी होती. राधिका पास जाने की हिम्मत भी न जुटा पाती.

वह उस टूटी नाव की पतवार थामे चल रही थी, जिस पर अनजाने, अनचाहे अनेक गड्ढे बन चुके थे, जिन्हें पाटते उस की उम्र बीत रही थी.

बाबूजी अपने आहत सम्मान और दम तोड़ती इच्छाओं के बीच खुद को अकेला पाते और सब से अलग रहने के प्रयास में अपने कमरे से बाहर नहीं आते.

राजन अपनी खिड़की में ढलती शाम से ले कर ढलती रात तक न जाने किस का इंतजार करता. उसे घर में क्या चल रहा है, पता भी नहीं रहता. राधिका घर में फैली इस खामोशी में कभी खुद को ढूंढ़ती तो कभी खुद को भुला देती तो कभी राजन और बाबूजी की खामोशी को तोड़ने की हिम्मत करती. कभीकभी उन 4 आंखों में तलाश करती कि वह कहां है?

क्या बाबूजी की इस हिदायत में कि बहू तुम मेरी नहीं इस घर की बहू हो और इस घर को जो तुम दोगी वही पाओगी या फिर शिब्बू की उन हिदायतों में जब वह राधिका के हाथों में रुपयों से भरा बैग थमाते हुए कहता, ‘‘यह घर तुम्हारा है जैसा चाहो चलाओ. मैं कभी नहीं पूछूंगा. मगर इस की खुशियों की परवाह तुम्हें ही करनी होगी.’’

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कागज के टुकड़ों को देख सोचती, ‘काश, मैं इन से इस घर की सारी खुशियां, बाबूजी का खोया सम्मान, उन के कुल के दीपक राजन भैया की उजड़ी गृहस्थी सब खरीद सकती. शिब्बू जिसे खुशी कहता है क्या उसी खुशी की तलाश है सभी को? शायद नहीं. मैं कब तक इन कागज के टुकड़ों को संभालती रहूंगी? ये मुझे चिढ़ाते से नजर आते हैं.

उस ने जब भी कुछ मांगा अपने बाबूजी और भाईर् की खुशी. कभी उस ने पूछा कि राधिका इन पैसों से तुम्हारी खुशी मिल सकेगी? रात का अकेलापन और जिंदगी का सूनापन अकसर उसे डसने लगता. शिब्बू तो बस आगे बढ़ने की धुन में बढ़ता जा रहा है. इस बढ़ने में उस के अपने पीछे छूट रहे हैं, उस ने भूल से भी यह नहीं सोचा. मुड़ कर ही नहीं देखना चाहा. कोई आवाज दे भी तो कैसे? वह तो ऐसी मंजिल को थामे चल रहा था, जिस के छूट जाने से वह बिखर जाता. महत्त्वाकांक्षा में वह भूल गया कि वह एक बेटा भी है, भाई भी है और एक पति भी है.

राजन भी अपनी तनख्वाह भाभी को देते हुए कहता, ‘‘भाभी, अब आप संभालो इसे भी. मैं नहीं संभाल सकता… क्या करूंगा मैं इस का?’’

‘‘और कितनी जिम्मेदारियों के बोझ तले मुझे दबना पड़ेगा? क्या इन कागज के टुकड़ों से घर की रौनक और खुशियां मैं ला सकूंगी? फिर मैं इन का क्या करूं? इन कागज के टुकड़ों में दबी कामनाएं दम तोड़ रही हैं देवरजी. मैं इन से बेजार सी हो रही हूं… अब और नहीं.’’

राधिका बोले जा रही थी और राजन सुनता जा रहा है. आज भाभी को उस ने पहली बार ऊबता महसूस किया था. उन की बातों में सदियों की तलखी थी. यह तलखी शायद हम से थी? नहीं तो फिर जिंदगी से? कब तक झेलेंगी? कौन है जिस से वे अपनी बात कहतीं? सोचता हुआ राजन राधिका के कमरे के सामने से गुजरा तो उसे सिसकने की आवाजें आईं. उस ने बाहर से ही आवाज दी, ‘‘भाभी…’’

‘‘हां, आती हूं,’’ कहते हुए बाहर आने का प्रयास किया मगर राजन उस से पहले ही अंदर पहुंच चुका था. पहली बार इस कमरे में आया था वह. भाभी का कमरा अपनी व्यवस्था से अव्यवस्थित सा लग रहा था. कांच का एक बड़ा सा शोकेस तरहतरह की गुडि़यों और गुड्डों से भरा था. बगल की ड्रैसिंगटेबल पर एक खूबसूरत परदा जो शायद ही कभी उठाया जाता होगा.

बिस्तर की चादर ठीक करते हुए राधिका बोली, ‘‘आइए देवरजी, आज कैसे इधर भटक गए?’’

‘‘यों ही भाभी… दिल किया आ गया.’’ तभी बिस्तर के सिरहाने रखी जापानी गुडि़या बोल पड़ी कि मम्मा, आई लव यू. राधिका ने उसे चुप कराया.

राजन ने कहा, ‘‘बोलने दीजिए अच्छा लग रहा है… भाभी एक बात पूछूं?’’

‘‘हां क्या पूछेंगे पूछिए. वैसे आप जो जानना चाहते हैं वह मुझे मालूम है. देवरजी, इस घर से खुशियों ने हमेशा के लिए मुंह फेर लिया है…

घर अब घर नहीं एक सरायखाना लगता है, जिस में सभी रह तो रहे हैं, मगर अजनबियों की तरह… कौन कब रोया, कब हंसा, किसे मालूम? किस की रात आंसुओं से भीगती रही या किस की शाम आंखों को धुंधला कर गई, किस ने जानना चाहा?’’

‘‘तो शिब्बू भैया…?’’ बेचैनी ने उसे वहां रुकने न दिया.

देर तक भाभी के आंसुओं में भीगे लफ्ज उस के जेहन में गूंजते रहे… मैं भी हूं इस घर

में. यह किसे पता है… सब अपने में गुम… मैं ने क्या पाया… कौन है मेरा… किसे फुरसत है मेरी खातिर?

शाम ढल रही थी, फिर भी राजन ने आज खिड़की नहीं खोली, न ही शाम ने खिड़की से दस्तक दी. बारबार राधिका का कुम्हलाया चेहरा याद आ रहा था कि उम्र में मुझ से सिर्फ 2 माह ही बड़ी हैं, मगर जिम्मेदारियों के बोझ ने उन्हें समय से पहले ही बहुत बड़ा कर दिया. बड़प्पन के एहसास तले उन्होंने खुद को भुला दिया और घर के 3-3 बड़े बच्चों को संभालती रहीं.

बाबूजी कमरे से बाहर नहीं आए थे. अब अकसर वे शाम के धुंधलके में ही घर से निकलते थे. राधिका ने शाम की रसोई शुरू कर दी.

बाबूजी घूम कर आए. बोले, ‘‘बहू खाना दे दो. जल्दी सो जाऊंगा,’’ और फिर खाना खा कर अपने कमरे में चले गए.

राधिका ने रसोई समेटी. किचन का दरवाजा बंद किया. जैसे ही अपने कमरे में जाना चाहा देखा राजन छत पर है. आवाज दी, ‘‘देवरजी.’’

कोई जवाब नहीं मिला… खुद जा कर देखना चाहा. राजन अपनी ही परछाईं के साथ आंखमिचौली कर रहा था. छत में फैली चांदनी सारी चीजों को स्पष्ट कर रही थी. फिर भी न जाने क्यों राजन कुछ ढूंढ़ता सा नजर आ रहा था.

‘‘क्या खो गया?’’ राधिका ने आज बहुत दिनों बाद छत पर कदम रखे थे. कभीकभी अनु के साथ आया करती थी.

अचानक भाभी को छत पर आया देख राजन बोला, ‘‘अरे भाभी आप? कुछ नहीं यों ही मेरी अंगूठी कहीं गिर गई है.’’

‘‘यहीं कहीं होगी,’’ कह राधिका ने छत से घर के अंदर जा रही सीढि़यों की तरफ झांकने का प्रयास किया. 2-3 सीढि़यां नीचे उतर कर देखा तो अंगूठी दिखाई दे गई. बोलीं, ‘‘देखिए देवरजी मिल गई.’’

‘‘अरे मैं कब से खोज रहा था. मिल ही नहीं रही थी.’’

‘‘पकडि़ए,’’ राधिका ने वहीं से देनी चाही. मगर उस का पैर डगमगा गया. चांदनी रात का उजाला सीढि़यों के अंधेरे को मिटा न सका था और राधिका उस अंधेरे से भिड़ने की कोशिश में डगमगा गई.

राजन भी तो राधिका को सीधे हाथ नहीं थाम सका उलटा हाथ पकड़ाया. संभल नहीं सका… लड़खड़ा गया. दूधिया चांदनी में राधिका के उजले चेहरे पर खुदी उदासी की गहरी रेखाएं भर आईं… सूखे और बिखरे बालों के बीच से झांकती आंखों का सूनापन महक उठा… बदन में वर्षों की सोई लचक जाग गई…

राजन ने देखा क्या ये वही राधिका भाभी हैं जिन्हें वर्षों से सिर्फ औरों के लिए खुश रहते देखा. आज पहली बार उन महकी आंखों में उन की ही खुशी तैरती दिखाई दी… इतना आवेग और इतना आकर्षण राधिका के सान्निध्य में? वह संभाल न सका था उस रूप को. राधिका के उस लड़खड़ा कर गिरने में सारा समर्पण समा गया और सारे आकाश ने उस समर्पण को अपनी बांहों में भर लिया कभी न छोड़ने के लिए और बोल पड़ा, ‘‘इन आंखों की खुशी मैं कभी सूखने नहीं दूंगा. परिवार की सारी खुशियां इन में भर दूंगा… यह मेरा वादा है… आखिर भैया को भी परिवार की खुशियां ही तो अजीज हैं.’’

तभी अचानक दरवाजे पर किसी ने आवाज दी, ‘‘भाभी,’’

‘‘अरे, यह तो सुंदरी की आवाज लग रही है.’’

‘‘मैं सुंदरी हूं. दरवाजा खोलिए,’’ फिर आवाज आई.

‘‘यह क्या, आज तो राजन ने खिड़की भी नहीं खोली फिर कौन सी सुंदरी आ गई…’’ सुंदरी यानी? राजन की पहली… नहींनहीं… अब नहीं.

बाबूजी ने कह दिया कि अब किसी सुंदरी की जगह हमारे यहां नहीं है.

दरवाजे पर हुई दस्तक को राजन ने भी सुना था और राधिका ने भी, लेकिन धोखा समझ कर कहा, ‘‘सुंदरी के लिए अब कोई दरवाजा नहीं… सांझ की दुलहन रात ढले घर नहीं आती… मेरी सांझ की दुलहन मुझे मिल गई है.’’

तभी दूर रेडियो पर गाना बज उठा, ‘कहीं तो ये दिल कभी मिल नहीं पाते, कहीं से निकल आए जन्मों के नाते, घनी थी उलझन बैरी अपना मन अपना ही हो कर सहे दर्द पराए, कहीं दूर जब दिन ढल जाए.’

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सुखद मरीचिका: भाग-2

लेखिका- सिंधु मुरली

पूर्व कथा

डा. शांतनु के अस्पताल में अंजलि एक ऐसी मरीज बन कर आई थी, जिस का सामूहिक बलात्कार किया गया था. अंजलि से मिलने के बाद डा. शांतनु का ब्रह्मचर्य का प्रण डगमगाने लगा था. लेकिन अंजलि हादसे के बाद बिलकुल टूट चुकी थी. वह मर जाना चाहती थी. ऐसे में डा. शांतनु ने एक अच्छे सलाहकार की भूमिका निभाई और अंजलि का खोया आत्मविश्वास उसे वापस लौटा दिया. अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद अंजलि मुंबई वापस लौट आई. मगर उस का डा. शांतनु से संपर्क लगातार बना रहा.

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शांतनु और अंजलि के बीच फोन पर संपर्क बना रहा. दोनों के स्वर में एकदूसरे के लिए अपार ऊर्जा थी. शांतनु के मन ने तो अब अंजलि से विवाह की बात भी सोचनी शुरू कर दी थी, परंतु जबान तक आतेआते मन ही उन्हें खामोश कर देता.

शांतनु यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि सिर्फ उन्हीं के हृदय में अंजलि के लिए ऐसी भावनाएं हैं. यह भी एक कारण था उन की झिझक का और शायद उन का मन अंजलि को विवाह जैसे गंभीर मामले पर बातचीत के लिए और समय देना चाहता था.

‘‘सर, अगले महीने 15 डाक्टरों का दल एक सेमिनार में भाग लेने के लिए दिल्ली

जा रहा है. 7 दिनों का प्रोग्राम है. चीफ पूछ रहे थे कि क्या आप भी जाना चाहेंगे?’’

एक सुबह जूनियर डाक्टर मनु ने शांतनु से पूछा, तो उन का हृदय तो कुछ और ही

सोचने लगा.

‘‘तुम जा रहे हो क्या?’’ उन्होंने डा.

मनु से पूछा.

‘‘औफकोर्स, अपने देश जाने का मौका भला कौन छोड़ना चाहेगा सर,’’ डा. मनु बहुत उत्साहित लग रहे थे.

‘‘तो ठीक है. चीफ से कहो मेरा भी नाम लिख लें,’’ शांतनु ने भी उसी उत्साह से कहा. वे शायद एक फैसला ले चुके थे.

उस दल में 10 विदेशी व 5 भारतीय डाक्टर थे. शांतनु ने अंजलि को अपने आने की सूचना दे दी. वैसे उन का भारत में कोई नहीं था. पिता की मृत्यु के साथ ही सारे रिश्ते भी समाप्त हो चुके थे.

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शांतनु ने दिल्ली पहुंच कर जब अंजलि को फोन किया तो उस ने उन से पूछा, ‘‘आप भारत कब पहुंचे सर?’’ शांतनु ने उस के स्वर में पहले वाला दर्द और गंभीरता का थोड़ा अंश अभी भी महसूस किया.

‘‘बस आधा घंटा हुआ है.’’

‘‘मैं और बूआजी आप से मिलना चाहते हैं,’’ अंजलि ने इच्छा व्यक्त की.

‘‘अभी 5 दिन का सेमिनार है. फिर मैं ही मुंबई आ जाऊंगा तुम से मिलने. मेरी अमेरिका की फ्लाइट भी वहीं से है,’’ शांतनु ने उसे अपना कार्यक्रम बताया.

‘‘सर, यदि बुरा न मानें तो 2 दिन हमारे यहां ठहर जाइएगा,’’ अंजलि ने निवेदन किया तो शांतनु ने हंस कर स्वीकृति दे दी.

5 दिनों तक चलने वाला अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार किन्हीं कारणों से जब 4 दिन में ही समाप्त हो गया तो सभी की खुशी का ठिकाना न रहा. भारतीय मूल के सभी डाक्टर अपनेअपने शहरों की ओर गए तो शांतनु ने मुंबई का रास्ता पकड़ा.

आज सुबह ही अंजलि से उन्हें पता चला कि फैंसी ड्रैस कंपीटिशन में भाग लेने वह

2 दिनों से पूना में है. अंजलि के मुंबई पहुंचने से पहले ही वे स्वयं उस के घर पहुंच कर उसे आश्चर्यचकित करना चाहते थे.

शाम 7 बजे वे अंजलि द्वारा दिए गए पते के अनुसार उस के घर के सामने थे. बूआजी ने उन का स्वागत किया. एकदूसरे को फोटो द्वारा पहले से ही पहचानने के कारण दोनों खुले दिल से मिले.

अंजलि के कंपीटिशन में भाग लेने की बात से डा. शांतनु संतुष्ट थे कि अंजलि ने जीवन की ओर सकारात्मक रुख कर लिया है. इस बार वे अंजलि व बूआजी से अपने मन की बात साफसाफ कहने ही आए थे. जो अंजलि उन्हें अमेरिका में नहीं मिल

पाई वह शायद भारत में मिल जाए, यही सोच रहा था उन का मन. वे मन से अंजलि के जितने करीब जाते, अजंलि फिर उन्हें उतनी ही दूर लगती. शायद इस बार उन के हृदय की मरीचिका का अंत हो जाए, ऐसी उन्हें उम्मीद थी.

‘‘आप जैसे योग्य आदमी के हमारे यहां आने से हमारी तो इज्जत ही बढ़ गई.’’ चाय का कप शांतनु की ओर बढ़ाते हुए बूआजी बोलीं.

उत्तर में शांतनु बस मुसकरा दिए. चायनाश्ते के बाद फ्रैश हो शांतनु ऊपर छत पर टहलने चले गए. बूआजी रसोई में आया को रात के खाने का कार्यक्रम बताने चली गईं.

मुंबई उन्हें पसंद आ गई. उस पर हलकी हवा और चांदनी रात. शांतनु अपने वतन की खुशबू को अपने अंदर बसा कर ले जाना चाहते थे.

थोड़ी देर बाद बूआजी ऊपर आ गईं. कुछ देर इधरउधर की बातें करने के बाद बूआजी शांतनु के पास आईं और हाथ जोड़ते हुए बोलीं, ‘‘मुझे अंजलि ने अपने साथ हुई दुर्घटना के बारे में सब कुछ बता दिया और साथ ही यह भी बताया कि वहां किस तरह अपनों से भी बढ़ कर आप ने उसे संभाला. आज आप की वजह से ही मेरी बच्ची जिंदा है.’’

‘‘ओह, तो उस ने आप को बता दिया. चलिए, एक तरह से अच्छा ही हुआ. उस का भी मन हलका हो गया होगा,’’ शांतनु ने कहा.

‘‘आप ने उस की शादी के बारे में कुछ सोचा है?’’ थोड़ी देर की चुप्पी के बाद शांतनु ने पूछा.

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‘‘अंजलि अभी भी इस सदमे से बाहर नहीं आई है. और जहां तक में उसे जानती हूं, वह शायद इस बात को राज रख कर किसी से भी शादी के लिए तैयार नहीं होगी. और सच जान कर कोई आगे आएगा भी नहीं,’’ बूआजी भरे गले से बोलीं.

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. मेरी नजर में एक लड़का है, जो अंजलि के बारे में सब कुछ जानते हुए भी उस से शादी करने का इच्छुक है. हां, उम्र थोड़ी ज्यादा है. मेरा जूनियर है वह, अंजलि को बहुत खुश रखेगा,’’ शांतनु न चाहते हुए भी झूठ बोल गए.

‘‘सच, क्या अमेरिका में है ऐसा कोई?’’ बूआजी की आंखों में चमक आ गई, ‘‘आप मुझे थोड़ा वक्त दीजिए. मैं अंजलि को समझाऊंगी.’’

‘‘बड़ी अभागन है मेरी अंजलि,’’ थोड़ी देर बाद बूआजी बोलीं.

‘‘आप ऐसा मत सोचिए,’’ शांतनु ने उन का धीरज बंधाया.

‘‘मेरी अंजलि भी एक बलात्कार की ही पैदाइश है.’’ बूआजी ने बिना रुके शून्य की ओर देखते हुए कहा.

‘‘क्या?’’ शांतनु चौंके.

‘‘हां, पता नहीं क्यों मैं आप को यह बता रही हूं. आप मेरी बच्ची की जिंदगी बनाने की सोच रहे हैं, इसलिए आप से यह कहने की हिम्मत हुई,’’ बूआजी ने शांतनु से नजरें मिलाते हुए कहा.

‘‘अंजलि की मां और मैं पक्की सहेली थीं. हम दोनों एक ही अस्पताल में स्टाफ नर्स थीं. हमारी दोस्ती के 5 साल बाद वह मेरी भाभी बनी. कविता नाम था उस का. उस की शादी के कई साल गुजर गए लेकिन औलाद न होने का दुख पतिपत्नी दोनों को था. कमी मेरे ही भाई में थी, लेकिन यह बात हम ने उसे कभी पता नहीं चलने दी थी, इसलिए शादी के 17 वर्षों बाद भी मेरे भाई ने औलाद की आस नहीं छोड़ी,’’ बूआजी आज अतीत के सारे पन्ने उलटना चाहती थीं.

उन्होंने आगे कहा, ‘‘एक रात ड्यूटी के समय, उसी के कमरे में किसी ने क्लोरोफार्म सुंघा कर उस के साथ कुकर्म किया था. उस ने यह बात सिर्फ मुझे बताई. शिकायत करती भी तो किस की. चेहरा तो अंधेरे में देखा ही नहीं था. उस समय मेरा भाई भी अपने व्यवसाय के सिलसिले मुंबई में था, इसलिए मैं ने कविता को अंदरूनी सफाई के लिए कहा, पर उस ने तो घर से निकलना ही बंद कर दिया था. मैं भी चुप हो गई. परंतु 1 महीने बाद उस के गर्भवती होने की खबर ने हम दोनों को चौंका दिया.

‘‘कविता गर्भपात कराना चाहती थी, मगर अपने भाई की आस और इस घर में नन्ही जान की उपस्थिति के आभास ने मुझे कठोर बना दिया. यह जानते हुए भी कि उस का इस उम्र में गर्भधारण खतरे से खाली नहीं, मैं ने उसे आखिरकार अपने भाई की खुशियों का वास्ता दे कर मना ही लिया.

‘‘9 महीने बाद अंजलि आई तो भाई की तो खुशी का ठिकाना न रहा. कविता को

पूरे समय परेशानी रही. फिर 4-5 सप्ताह बाद बच्चेदानी में सूजन के कारण उस की

मौत हो गई. यह जानते हुए भी कि अंजलि मेरे भाई का खून नहीं है, मैं ने उसे सीने से लगा लिया,’’ कह कर बूआजी फूटफूट कर रोने लगीं.

अब शांतनु का अस्तित्व हिलने लगा. खुद के आश्वासन के लिए उन्होंने पूछा, ‘‘यह घटना मुंबई की नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं, विशाखापट्टनम की है. कविता की मौत के बाद ही हम मुंबई आए थे,’’ बूआजी ने आंसू पोंछते हुए कहा. आज उन के मन का जैसे सारा बोझ उतर गया था.

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विशाखापट्टनम का नाम सुनते ही डा. शांतनु के जीवन की सब से बड़ी परीक्षा का फल घोषित हो चुका था. वे हार गए थे. उन की वर्षों की सज्जनता भी आज उन के पुराने पाप के आगे सिर झुकाए खड़ी थी. उन का सिर घूमने लगा. मुश्किल से वे दीवार के सहारे खड़े रहे.

उन की हालत देख बूआजी चौंकी, ‘‘क्या हुआ आप को?’’

‘‘एक गिलास पानी…’’ यही कह पाए वे.

बूआजी पानी लाने नीचे दौड़ीं. पानी पिला कर बूआजी उन्हें सहारा दे कर नीचे कमरे में ले आईं.

शांतनु को बुरी तरह पसीना आ रहा था. बूआजी उन के पास ही बैठी रहीं. फिर थोड़ी देर बाद वे शांतनु से अंजलि को कुछ न बताने का वादा ले कर बाहर आ गईं.

शांतनु आंखें मूंदे लेटे रहे. उन्हें याद आती रही अपने जीवन की वह एकमात्र गलती, जिस ने उन की जिंदगी के माने ही बदल दिए थे. यही तो थी वह गलती.

अपने दोस्तों की जबान से रोज नएनए रंगीन किस्से सुनने वाले मैडिकल प्रथम वर्ष के छात्र शांतनु ने अपने से 10-11 वर्ष बड़ी स्टाफ नर्स कविता को ही तो क्लोरोफार्म सुंघा कर अपनी वासना का शिकार बनाया था.

अगले ही दिन मुंह छिपा कर वह पिता के पास लौट आया. कोई हल्ला नहीं, शोरशराबा नहीं. कालेज से कोई बुलावा नहीं. करीब 1 महीने तबीयत खराब होने का बहाना कर वह घर पर ही रहा.

फिर अपने ही शहर में रह कर पढ़ाई की. परंतु उस दिन के बाद से वह चैन की नींद नहीं सो पाया. फिर मन लगा कर पढ़ाई में जुट गया और साथ ही साथ अपने जीवन के कई पन्नों को भी पढ़ डाला. फिर 3 वर्ष बाद पिता के न रहने पर मां के पास आ गया.

‘‘बूआजी, आज 10 बजे की फ्लाइट से डा. शांतनु आ रहे हैं याद है न? हम उन्हें लेने एयरपोर्ट चलेंगे,’’ सुबह 6 बजे मुंबई लौटी अंजलि ने गाड़ी से सामान उतारते हुए कहा.

‘‘क्या बताऊं बेटी, वे तो तुझे सरप्राइज देने कल ही यहां आ गए थे, परंतु तबीयत ज्यादा खराब हो जाने से आज सुबह की 4 बजे की इमरजैंसी फ्लाइट से ही वापस लौट गए.’’ बूआजी मायूसी से बोलीं.

‘‘ओह, ऐसा अचानक क्या हो गया उन्हें?’’ अंजलि चिंतित स्वर में बोली, ‘‘चलो, फोन कर के पता करूंगी.’’

‘मैं स्वयं को अध्यात्म ज्ञान में सर्वोपरि समझता था परंतु अपने ही खून को न पहचान पाया. जिस तरह रेगिस्तान में जल होने का एहसास मुसाफिर को थकने नहीं देता है, उसी तरह शायद मेरी मरीचिका मेरी बेटी अंजलि है. अब जो रूपरेखा मैं ने बूआजी के सामने बांधी थी, उस से भी अच्छा लड़का ढूंढ़ना है अपनी अंजलि के लिए.’

विमान में सीट बैल्ट को कसते हुए शांतनु ने अपने मन को और ज्यादा कस लिया. इस नए उद्देश्य की पूर्ति के लिए.

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