थोथी सोच: कौन थी शालिनी

सामने से तेज रफ्तार से आती हुई जीप ने उस मोटरसाइकिल सवार को जोरदार टक्कर मार दी. टक्कर इतनी जबरदस्त थी कि उस की आवाज ने हर किसी के रोंगटे खड़े कर दिए. कोई कुछ समझ पाता, इस से पहले ही जीप वाला वहां से जीप ले कर भाग निकला.

सड़क पर 23-24 साल का नौजवान घायल पड़ा था. उस के चारों तरफ लोगों की भीड़ जमा हो गई. उन में से ज्यादातर दर्शक थे और बाकी बचे हमदर्दी जाहिर करने वाले थे. मददगार कोई नहीं था.

उस नौजवान का सिर फूट गया था और उस के सिर से खून बह रहा था. तभी भीड़ में से 39-40 साल की एक औरत आगे आई और तुरंत उस नौजवान का सिर अपनी गोद में रख कर चोट की जगह दबाने लगी ताकि खून बहने की रफ्तार कुछ कम हो. पर दबाने का ज्यादा असर नहीं होता देख कर उस ने फौरन अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ कर चोट वाली जगह पर कस कर बांध दिया. अब खून बहना कुछ कम हो गया था.

उस औरत ने खड़े हुए लोगों से पानी मांगा और घूंटघूंट कर के उस नौजवान को पिलाने की कोशिश करने लगी. तब तक भीड़ में से किसी ने एंबुलैंस को फोन कर दिया.

एंबुलैंस आ चुकी थी. चूंकि उस घायल नौजवान के साथ जाने को कोई तैयार नहीं था इसलिए उस औरत को ही एंबुलैंस के साथ जाना पड़ा.

उस नौजवान की हालत गंभीर थी पर जल्दी प्राथमिक उपचार मिलने के चलते डाक्टरों को काफी आसानी हो

गई और हालात पर जल्दी ही काबू पा लिया गया.

नौजवान को फौरन खून की जरूरत थी. मदद करने वाली उस औरत का ब्लड ग्रुप मैच हो गया और औरत ने रक्तदान कर के उस नौजवान की जान बचाने में मदद की.

जिस समय हादसा हुआ था उस नौजवान का मोबाइल फोन जेब से निकल कर सड़क पर जा गिरा था, जो भीड़ में से एक आदमी उठा कर ले गया, इसलिए उस नौजवान के परिवार के बारे में जानकारी उस के होश में आने पर ही मिलना मुमकिन हुई थी.

वह औरत अपनी जिम्मेदारी समझ कर उस नौजवान के होश में आने तक रुकी रही. तकरीबन 5 घंटे बाद उसे होश आया. वह पास ही के शहर का रहने वाला था और यहां पर नौकरी करता था. उस के घर वालों को सूचित करने के बाद वह औरत अपने घर चली गई.

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दूसरे दिन जब वह औरत उस नौजवान का हालचाल पूछने अस्पताल गई तब पता चला कि वह नौजवान अपने मातापिता की एकलौती औलाद है. उस के मातापिता बारबार उस औरत का शुक्रिया अदा कर रहे थे. वे कह रहे थे कि आज इस का दूसरा जन्म हुआ है और आप ही इस की मां हैं.

कुछ महीने बाद ही उस नौजवान की शादी थी.

उस औरत का नाम शालिनी था. शादी के कुछ दिनों बाद ही एक हादसे में शालिनी के पति की मौत हो गई थी. वह पति की जगह पर सरकारी स्कूल में टीचर की नौकरी कर रही थी. नौजवान का नाम शेखर था.

अब दोनों परिवारों में प्रगाढ़ संबंध हो गए थे. शेखर शालिनी को मां के समान इज्जत देता था.

वह दिन भी आ गया जिस दिन शेखर की शादी होनी थी. शेखर का परिवार शालिनी को ससम्मान शादी के कार्यक्रमों में शामिल कर रहा था. सभी लोग लड़की वालों के यहां पहुंच

गए जहां पर लड़की की गोदभराई की रस्म के साथ कार्यक्रमों की शुरुआत होनी थी.

परंपरा के मुताबिक, लड़की की गोद लड़के की मां भरते हुए अपने घर का हिस्सा बनने के लिए कहती है. शेखर की इच्छा थी कि यह रस्म शालिनी के हाथों पूरी हो, क्योंकि उस की नजर में उसे नई जिंदगी देने वाली शालिनी ही थी. शेखर के घर वालों को इस पर कोई एतराज भी नहीं था.

पूरा माहौल खुशियों में डूबा हुआ था. लड़की सभी मेहमानों के बीच आ कर बैठ गई. ढोलक की थापों के बीच शादी की रस्में शुरू हो गईं. शेखर के पिता ने शालिनी से आगे बढ़ कर कहा कि वह गोदभराई शुरू करे.

वैसे, शालिनी इस के लिए तैयार नहीं थी और खुद वहां जाने से मना कर रही थी. पर जब शेखर ने शालिनी के पैर छू कर बारबार कहा तो वह मना नहीं कर पाई.

मंगल गीत और हंसीठठोली के बीच शालिनी गोदभराई का सामान ले कर जैसे ही लड़की के पास पहुंची, तभी एक आवाज आई, ‘‘रुकिए. आप गोद नहीं भर सकतीं,’’ यह लड़की की दादी की आवाज थी.

शालिनी को इसी बात का डर था. वह ठिठकी और रोंआसी हो कर वापस अपनी जगह पर जाने के लिए पलटी.

तभी शेखर बीच में आ गया और बोला, ‘‘दादीजी, शालिनी मम्मीजी सुलक्षणा की गोद क्यों नहीं भर सकतीं?’’

‘‘क्योंकि ब्याह एक मांगलिक काम है और किसी भी मांगलिक काम की शुरुआत किसी ऐसी औरत से नहीं कराई जा सकती जिस के पास मंगल चिह्न न हो,’’ दादी शेखर को समझाते हुए बोलीं.

‘‘आप भी कैसी दकियानूसी बातें करती हैं दादी. आप यह कैसे कह सकती हैं कि मंगल चिह्न पहनने वाली कोई औरत मंगल भावनाओं के साथ ही इस रीति को पूरा करेगी?’’

‘‘पर बेटा, यह एक परंपरा है और परंपरा यह कहती है कि मंगल काम सुहागन औरतों के हाथों से करवाया जाए तो भविष्य में बुरा होने का डर कम रहता है,’’ दादी कुछ बुझी हुई आवाज में बोलीं, क्योंकि वे खुद भी विधवा थीं.

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‘‘क्या आप भी ऐसा ही मानती हैं?’’

‘‘हां, यह तो परंपरा है और परंपराओं से अलग जाने का तो सवाल ही नहीं उठता,’’ दादी बोलीं.

‘‘इस के हिसाब से तो किसी लड़की को विधवा ही नहीं होना चाहिए क्योंकि हर लड़की की शादी की शुरुआत सुहागन औरत के हाथों से होती है?’’ शेखर ने सवाल किया.

‘‘शेखर, बहस मत करो. कार्यक्रम चालू होने दो,’’ शालिनी शेखर को रोकते हुए बोली.

‘‘नहीं मम्मीजी, मैं यह नाइंसाफी नहीं होने दूंगा. अगर विधवा औरत इतनी ही अशुभ होती तो मुझे उस समय ही मर जाना चािहए था जब मैं ऐक्सिडैंट के बाद सड़क पर तड़प रहा था और आप ने अपने कपड़ों की परवाह किए बिना ही साड़ी का पल्लू फाड़ कर मेरा खून रोकने के लिए पट्टी बनाई थी या आप के रक्तदान से आप का खून मेरे शरीर में गया.

‘‘भविष्य में होने वाली किसी अनहोनी को रोकने के लिए वर्तमान का अनादर करना तो ठीक नहीं होगा न…’’ फिर दादी की तरफ मुखातिब हो कर वह बोला, ‘‘कितने हैरानी की बात है कि जब

तक कन्या कुंआरी रहती है वह देवी रहती है, वही देवी शादी के बाद मंगलकारी हो जाती है, पर विधवा होते ही वह मंगलकारी देवी अचानक मनहूस कैसे हो जाती है? सब से ज्यादा हैरानी इस बात की है कि आप एक औरत हो कर ऐसी बातें कर रही हैं.’’

दादी की कुछ और भी दलीलें होने लगी थीं. तभी दुलहन बनी सुलक्षणा ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘दादीजी, मैं शेखर की बातों से पूरी तरह सहमत हूं और चाहती हूं कि मेरी गोदभराई की रस्म शालिनी मम्मीजी के हाथों से ही हो.’’

इस के बाद विवाह के सारे कार्यक्रम अच्छे से पूरे हो गए.

आज शेखर व सुलक्षणा की शादी को 10 साल हो चुके हैं. वे दोनों आज भी सब से पहले आशीर्वाद लेने के लिए शालिनी के पास जा रहे हैं.

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फूलप्रूफ फार्मूला: भाग 3- क्या हो पाई अपूर्वा औऱ रजत की शादी

‘‘बच्चों को तो रजत से ज्यादा शायद ही कोई और खुश रख सके अपूर्वा और फिर रजत कोई अल्हड़ छोकरा नहीं, परिपक्व पुरुष है. वह ऐसी गैर जिम्मेदाराना हरकतें नहीं करेगा जिस से बच्चों को या तुम्हें तकलीफ हो.’’

‘‘लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए मां कि रजत की यह पहली शादी होगी, उस से संयम की अपेक्षा करना उस के साथ ज्यादती होगी और यह उम्मीद रखना कि रजत के साथ न्याय करने में मैं बच्चों के साथ अन्याय करूंगी मेरे साथ ज्यादती होगी,’’ अपूर्वा ने समझाने के स्वर में कहा, ‘‘मेरे लिए तो आप बगैर बालबच्चे वाला दुहाजू ही देखिए.’’

मां अपूर्वा के तर्क को काट तो नहीं सकीं लेकिन रजत के जैसे सर्वगुण संपन्न दामाद को खोने का लोभ भी संवरण न कर सकीं. उन्होंने विद्याभूषण से बात की.

‘‘अपूर्वा बिलकुल ठीक कह रही है, शांति. और फिर इस बात की भी क्या गारंटी है कि रजत यहां अपूर्वा के लिए ही आता है, बच्चों में अपना खोया बचपन ढूंढ़ने नहीं. कभी तुम ने यह भी सोचा है कि 30 के ऊपर हो जाने के बाद भी रजत कुंआरा क्यों है? हो सकता है, शादी न करने की कोई मजबूरी हो.’’

शांति कुछ सोचने लगीं.

‘‘मजबूरी होती तो वह मुझ से कहता नहीं कि मैं उस से शादी करने को कह कर तो देखूं.’’

‘‘तो कह कर देखतीं क्यों नहीं?’’

‘‘अगर उस ने अपूर्वा का हाथ मांगा तो क्या कहूंगी?’’

‘‘वही जो अपूर्वा ने तुम से कहा है. अगर उसे अपूर्वा से शादी करनी है तो वह उस की इस शंका का निवारण करना चाहेगा और इस में मैं उस की मदद कर दूंगा.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘वह जब समय आएगा तो बता दूंगा, फिलहाल तो उस ने तुम से जो कहा है वही तुम उस से कह कर देखो.’’

अगली बार रजत के आने पर शांति ने कह ही दिया, ‘‘तुम भी अब शादी कर लो, रजत.’’

‘‘अगर आप करवा रही हैं तो कर लेता हूं, मां.’’

‘‘करवा तो दूं मगर किस से?’’

‘‘यह मैं कल बताऊंगा,’’ रजत गंभीरता से बोला.

शांति चौंक गई. कल क्यों? क्या इसे कोई और लड़की पसंद है जिसे ले कर कल उन के पास आएगा कि इस से आप मेरी शादी करवा दीजिए और वह बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन जाएगी? बापबेटी का तो हंसहंस कर बुरा हाल हो जाएगा. यही सब सोचते हुए उन्हें रात को बराबर नींद नहीं आई और सुबह उन का चेहरा उतरा हुआ सा था.

‘‘मां का ब्लड प्रैशर फिर डांवांडोल सा लग रहा है पापा,’’ अपूर्वा ने सुबह नाश्ता करते हुए कहा, ‘‘मेरी तो एक जरूरी मीटिंग है सो मैं तो रुक नहीं सकती लेकिन आप मां का ब्लड प्रैशर चैक करवाने के बाद ही आफिस जाइएगा.’’

शांति कुछ प्रतिवाद कर सकतीं इस से पहले ही विद्याभूषण ने कहा कि ब्लड प्रैशर तो मुझे भी चैक करवाना है सो दोनों चले जाएंगे. अपूर्वा के जाने के कुछ ही देर बाद रजत आ गया.

‘‘अंकल, आप थोड़ी देर रुक सकते हैं, प्लीज? मैं आप दोनों से अपूर्वाजी और बच्चों की गैरहाजिरी में बात करना चाहता हूं,’’ रजत ने विनीत स्वर में कहा.

‘‘जरूर बरखुरदार. कहो, क्या कहना चाहते हो.’’

‘‘जो कहना चाहता हूं वह तो बहुत संक्षिप्त सी बात है पर उस से पहले की भूमिका जरा लंबी है.’’

‘‘कोई बात नहीं, निसंकोच हो कर इतमीनान से बताओ,’’ विद्याभूषण ने बढ़ावा दिया, ‘‘पहले चाय हो जाए.’’

‘‘नहीं, अंकल, बाद में. असल में मैं कई वर्षों से निखिला से प्यार करता था लेकिन वह शादी करना टाल रही थी. इसीलिए मैं अपूर्वाजी से मिलने आया था कि वह निखिला को समझाएं…’’

‘‘लेकिन अपूर्वा ने साफ मना कर दिया होगा,’’ शांति ने बात काटी, ‘‘तुम्हें मुझ से कहना चाहिए था.’’

‘‘इस से पहले कि अपूर्वाजी निखिला से मिलतीं, निखिला ने मुझे बताया कि वह प्रमोशन छोड़ देगी लेकिन दिल्ली छोड़ कर और कहीं नहीं जाएगी, चूंकि मुझे प्रमोशन और यहां की नियुक्ति मिल चुकी थी इसलिए साफ जाहिर था कि वह मुझ से शादी करना नहीं चाहती. खैर, मैं यहां आ गया. प्रभवप्रणव तो मुझे पहले रोज ही अच्छे लगे थे, उस के बाद आप सब ने भी मुझे परिवार का सा स्नेह और सम्मान दिया कि अब मैं इसी परिवार का अंग बनना चाहता हूं. अपूर्वाजी के मुकाबले में मेरी नौकरी कुछ खास नहीं है लेकिन फिर भी मैं उन से शादी करना चाहता हूं…यह कहने की गुस्ताखी कर रहा हूं.’’

दोनों पतिपत्नी ने विह्वल भाव से एकदूसरे की ओर देखा.

‘‘अंतर्राष्ट्रीय बैंक में अफसर हो, भविष्य में और तरक्की करोगे और फिर मेरी बेटी इन छोटीमोटी बातों को बिलकुल तरजीह नहीं देती, मगर उसे तुम से शादी करने में एतराज है,’’ विद्याभूषण ने उसे अपूर्वा की कही बातें बता दीं.

‘‘अपूर्वाजी का ऐसा सोचना सही है और जैसा मां ने कहा कि मैं परिपक्व पुरुष हूं, बच्चों से मुझे बहुत लगाव भी है इसलिए मैं उन की उपेक्षा करने या उन की कोमल भावनाओं को आहत करने की सोच भी नहीं सकता…’’

‘‘उसी तरह अपूर्वा या हम लोगों को भी तुम्हारी भावनाआें की कद्र करनी चाहिए बरखुरदार,’’ विद्याभूषण ने बात काटी, ‘‘बच्चों ने तुम्हें बताया ही होगा कि गरमियों की छुट्टियों में वह मामा के पास लंदन जा रहे हैं?’’

‘‘जी हां,’’ रजत को इस प्रश्न का औचित्य समझ में नहीं आया.

‘‘दोनों मामामामी के पास जाने को इतने उतावले हैं कि अगर अपूर्वा साथ नहीं गई तो भी वह खुशीखुशी हमारे साथ चले जाएंगे. इस बीच तुम और अपूर्वा शादी कर लेना. अनुभव की बात बता रहा हूं कि शादी के पहले 1-2 महीने तक नितांत एकांत की चाहत रहती है फिर सब सामान्य हो जाता है और वह एकांत हम तुम्हें दे रहे हैं.’’

‘‘मैं आप के सुझाव या अनुभव को गलत नहीं बता रही,’’ शांति बोलीं, ‘‘लेकिन अपूर्वा कभी भी हमारी गैर हाजिरी में शादी करना नहीं मानेगी.’’

‘‘मैं भी नहीं मानूंगा मां, लेकिन शादी हम आप के लंदन प्रवास के दौरान ही करेंगे यानी लंदन में. वहां मेरे चाचा और कई दूसरे रिश्तेदार भी हैं. वहां के माहौल में बच्चों को मेरा उन की मां के करीब आना बुरा नहीं लगेगा और नई जगह और मामा के बच्चों के साथ घूमने में वह हम से हरदम चिपके भी नहीं रहेंगे,’’ कह कर रजत मुसकराया.

‘‘बात तो सही है लेकिन अपूर्वा को भी समझ आनी चाहिए न.’’

‘‘अपना फूलप्रूफ फारमूला है शांति, समझ कैसे नहीं आएगा, लेकिन बेटी की तसल्ली के लिए मुझे बगैर जरूरत रहना पड़ेगा.

गुरु की शिक्षा: क्या थी पद्मा की कहानी

लेखिका- करुणा मलहोत्रा

सारे घर में कोलाहल मचा हुआ था, ‘‘अरे, छोटू, साथ वाला कमरा साफ कर दिया न?’’

‘‘अरे, सुमति, देख तो खाना वगैरह सब तैयार है.’’

‘‘अजी, आप क्यों ऐसे बैठे हैं, जल्दी कीजिए.’’

पूरे घर को पद्मा ने सिर पर उठा रखा था. बड़ी मामी जो आ रही थीं दिल्ली.

वैसे तो निर्मला, सुजीत बाबू की मामी थीं, इस नाते वह पद्मा की ममिया सास हुईं, परंतु बड़े से छोटे तक वह ‘बड़ी मामी’ के नाम से ही जानी जाती थीं. बड़ी मामी ने आज से करीब 8-9 वर्ष पहले दिल्ली छोड़ कर अपने गुरुभभूतेश्वर स्वामी के आश्रम में डेरा जमा लिया था. उन्होंने दिल्ली क्यों छोड़ी, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. हां, बड़ी मामी स्वयं यही कहती थीं, ‘‘हम तो सब बंधन त्याग कर गुरुकी शरण में चले गए. वरना दिल्ली में कौन 6-7 लाख की कोठी को बस सवा 4 लाख में बेच देता.’’

जाने के बाद लगभग 4 साल तक बड़ी मामी ने किसी की कोई खोजखबर नहीं ली थी. पर एक दिन अचानक तार भेज कर बड़ी मामी आ धमकीं मामा सहित. बस, तब से हर साल दोनों चले आते थे. पद्मा पर उन की विशेष कृपादृष्टि थी. कम से कम पद्मा तो यही समझती थी.

उस दिन भी रात की गाड़ी से बड़ी मामी आ रही थीं. इसलिए सभी भागदौड़ कर रहे थे. रात को पद्मा और सुजीत बाबू दोनों उन्हें स्टेशन पर लेने गए. वैसे घर से स्टेशन अधिक दूर न था, फिर भी पद्मा जितनी जल्दी हो सका, घर से निकल गई.

पद्मा को गए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि बड़ी जोर से घर की घंटी बजी.

‘‘छोटू, देखो तो,’’ सुमति बोली.

छोटू ने दरवाजा खोला. वह हैरानी से चिल्लाया, ‘‘बहूजी, बड़ी मामी.’’

समीर और सुमति फौरन दौड़े.

‘‘मामीजी आप मां कहां है?

‘‘तो क्या पद्मा मुझे लेने पहुंची है? मैं ने तो 5-7 मिनट इंतजार किया. फिर चली आई.’’

‘‘हां, दूसरों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाती हैं. परंतु खुद…’’ समीर धीरे बोला, परंतु सुमति ने स्थिति संभाल ली.

थोड़ी देर में पद्मा और सुजीत बाबू भी हांफते हुए आ गए.

‘‘नमस्कार, मामाजी,’’

‘‘जुगजुग जिओ. देख री पद्मा, तेरे लिए घर के सारे मसाले ले आई हूं. हमें आश्रम में सस्ते मिलते हैं न.’’

पद्मा गद्गद हो गई,  ‘‘इतनी तकलीफ क्यों की, मामीजी.’’

‘‘अरी, तकलीफ कैसी? तुझे मुफ्त में थोड़े ही दूंगी. वैसे मैं तो दे दूं, पर हमारे गुरुजी कहते हैं, किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए. क्यों बेकार तुम्हें ‘पाप’ का भागीदार बनाऊं. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी तो जैसे समर्थन के लिए तैयार थे.

पद्मा का मुंह ही उतर गया.

पद्मा को छोड़ कर घर में कोई भी अन्य व्यक्ति मामी को पसंद नहीं करता था. बस, वह हमेशा अपने आश्रम की बातें करती थीं. कभी अपने गुरुकी तारीफों के पुल बांधने लगतीं परंतु उन की कथनी और करनी में जमीनआसमान का अंतर था. जितने दिन बड़ी मामी रहतीं, पूरे घर में कोहराम मचाए रखतीं. सभी भुनभुनाते रहते थे, सिर्फ पद्मा को छोड़ कर. उस पर तो बड़ी मामी के गुरुऔर आश्रम का भूत सवार था.

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दूसरे दिन सुबह 5 बजे उठ कर बड़ी मामी ने जोरजोर से मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया. सुमति को रेडियो सुनने का बहुत शौक था. उस ने देखा कि 7 बज रहे हैं. वैसे भी बड़ी मामी तो 5 बजे की उठी थीं, इसलिए उस ने रेडियो चालू कर दिया. पर बड़ी मामी का मुंह देखते ही बनता था. लाललाल आंखें ऐसी कि खा जाएंगी.

पद्मा ने देखा तो फौरन बहू को झिड़का, ‘‘बंद कर यह रेडियो, मामीजी पाठ कर रही हैं.’’

‘‘रहने दे, बहू. मेरा क्या, मैं तो बरामदे में पाठ कर लूंगी. किसी को तंग करने की शिक्षा हमारे गुरु ने नहीं दी है.’’

‘‘नहींनहीं, बड़ी मामी. चल री बहू, बंद कर दे.’’

रेडियो तो बंद हो गया पर सुमति का चेहरा उतर गया. दोपहर में छोटू ने रेडियो लगा दिया तो बड़ी मामी उसे खाने को दौड़ीं, ‘‘अरे मरे, नौकर है, और शौक तो देखो राजा भोज जैसे. चल, बंद कर इसे. मुझे सोना है.’’

छोटू बोला, ‘‘अच्छा, बड़ी मामी, फिर तुम्हारे गुरुका टेप चला दूं.’’

‘‘ठहर दुष्ट, मेरे गुरुजी के बारे में ऐसा बोलता है. आज तुझे न पिटवाया तो मेरा नाम बदल देना.’’

जब तक पद्मा को पूरी बात पता चले, छोटू खिसक चुका था.

‘‘सच बहूजी, अब तो 15 दिन तक रेडियो, टीवी सब बंद,’’ छोटू ने कहा.

‘‘हां रे,’’ सुमति ने गहरी सांस ली.

अगले दिन शाम को चाय पीते हुए बड़ी मामी बोल पड़ीं, ‘‘हमारे आश्रम में खानेपीने की बहुत मौज है. सब सामान मिलता है. समोसा, कचौरी, दालमोठ, सभी कुछ, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ सदा की भांति मामाजी ने उत्तर में सिर हिलाया.

पद्मा खिसिया गई, ‘‘बड़ी मामी, यहां भी तो सब मिलता है. जा छोटू, जरा रोशन की दुकान से 8 समोसे तो ले आ.’’

‘‘रहने दो, बहू, हम ने तो खूब खाया है अपने समय में. खुद खाया और सब को खिलाया. मजाल है, किसी को खाली चाय पिलाई हो.’’

‘‘तो मामीजी, हम ने भी तो बिस्कुट और बरफी रखी ही है,’’ सुमति ने कहा.

बस, बड़ी मामी तो सिंहनी सी गरजीं, ‘‘देखा, बहू.’’

पद्मा ने भी झट बहू को डांट दिया, ‘‘बहू, बड़ों से जबान नहीं लड़ाते. चल, मांग माफी.’’

‘‘रहने दे, बहू, हम तो अब इन बातों से दूर हो चुके हैं. सच, न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी ने खूंटे से बंधे प्यादे की तरह सिर हिलाया.

‘‘बहू, शाम को जरा बाजार तो चलना. कुछ खरीदारी करनी है,’’ सुबह- सुबह मामी ने आदेश सुनाया.

‘‘आज शाम,’’ पद्मा चौंकी.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आज मां को अपनी दवा लेने डाक्टर के पास जाना है,’’ समीर ने बताया.

‘‘मैं क्या जबरदस्ती कर रही हूं. वैसे हमारे गुरुजी ने तो परसेवा को परमधर्म बताया है.’’

‘‘हांहां, मामीजी, मैं चलूंगी. दवा फिर ले आऊंगी.’’

‘‘सोच ले, बहू, हमारा क्या है, हम तो गुरु  के आसरे चलते हैं,’’ टेढ़ी नजरों से समीर को देखती हुई मामी चली गईं.

समीर ने मां को समझाना चाहा, पर उस पर तो गुरुजी के वचनों का भूत सवार था. बोली, ‘‘ठीक ही तो है, बेटा. परसेवा परम धर्म है.’’

और शाम को पद्मा बाजार गई. पर लौटतेलौटते सवा 8 बजे गए. बड़ेबड़े 2 थैले पद्मा ने उठाए हुए थे और हांफ रही थी.

आते ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘सुनो जी, यहां आज बाजार लगा हुआ था. अच्छा किया न, चले गए. सामान काफी सस्ते में मिल गया है.’’

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सारा सामान निकाल कर मामी एकदम उठीं और बोलीं, ‘‘हाय री, पद्मा, लिपस्टिक तो लाना भूल ही गए. अब कल चलेंगे.’’‘‘मामीजी, आप और लिपस्टिक?’’ सुमति बोली.

‘‘अरे, हम तो इन बंधनों से मुक्त हो गए हैं, वरना कौन मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं. हमारे आश्रम में तो नातीपोती वाली भी लाललाल रंग की लिपस्टिक लगाती हैं. मैं तो फिर भी स्वाभाविक रंग लेती हूं. सच, क्या पड़ा है इन चोंचलों में. हमारे लिए तो गुरु ही सबकुछ हैं.’’

‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’ छोटू फुसफुसाया तो समीर और सुमति चाह कर भी हंसी न रोक सके. हालांकि बड़ी मामी ने छोटू की बात तो नहीं सुनी फिर भी उन्होंने भृकुटि तान लीं.

अगले दिन पद्मा की तबीयत खराब हो गई. इसलिए उठने में थोड़ी देर हो गई. उस ने देखा कि बड़ी मामी रसोई में चाय बना रही हैं.

‘‘मुझे उठा दिया होता, मामीजी,’’  पद्मा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, तुम सो जाओ चैन से. हमारे गुरुजी ने इतना तो सिखाया ही है कि कोई काम न करना चाहे तो उस के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘नहींनहीं, मामीजी. ऐसी बात नहीं. आज जरा तबीयत ठीक नहीं थी,’’ पद्मा मिमियाई.

‘‘तो बहू, जा कर आराम कर न. हम किसी से कुछ आशा नहीं करते. यह हमारे गुरुजी की शिक्षा है.’’

उस दिन तो पद्मा के मन में आया कि कह दे ‘चूल्हे में जाओ तुम और तुम्हारे गुरुजी.’

दोपहर को खाते वक्त बड़ी मामी ने सुमति से पूछा, ‘‘क्यों सुमति, दही नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं मामीजी. आज सुबह दूध अधिक नहीं मिला. इसलिए जमाया नहीं. नहीं तो चाय को कम पड़ जाता.’’

‘‘हमारे आश्रम में तो दूधघी की कोई कमी नहीं है. न भी हो तो हम कहीं न कहीं से जुगाड़ कर के मेहमानों को तो खिला ही देते हैं.’’

‘‘हां, अपनी और बात है. भई, हम न तो लालच करते हैं, न ही हमें जबान के चसके हैं. हमारे गुरुजी ने तो हमें रूखीसूखी में ही खुश रहना सिखाया है क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ रटारटाया उत्तर मिला.

‘‘रूखीसूखी?’’ सुमति ने मुंह बिगाड़ा, ‘‘2 सूखे साग, एक रसे वाली सब्जी, रोटी, दालभात, चटनी, पापड़ यह रूखीसूखी है?’’

शाम को बड़ी मामी ने फिर शोर मचाया, ‘‘हम ने तो सबकुछ छोड़ दिया है. अब लिपस्टिक लगानी थी. पर हमारे गुरुजी ने शिक्षा दी है, किसी की चीज मत इस्तेमाल करो. भले ही खुद कष्ट सहना पड़े.’’

‘‘लिपस्टिक न लगाने से कैसा कष्ट, मामीजी?’’ छोटू ने छेड़ा.

‘‘चल हट, ज्यादा जबान न लड़ाया कर,’’ बड़ी मामी ने उसे झिड़क दिया.

आखिर पद्मा को बड़ी मामी के साथ बाजार जाना ही पड़ा. लौटी तो बेहद थकी हुई थी और बड़ी मामी थीं कि अपना ही राग अलाप रही थीं, ‘‘जितना हो सके, दूसरों के लिए करना चाहिए. नहीं तो जीवन में रखा ही क्या है, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी के बोलने से पहले ही छोटू बोला और भाग गया.

एक दिन बैठेबैठे ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘जानती है, पद्मा, वहां अड़ोस- पड़ोस में मैं ने तेरी बहुत तारीफें कर रखी हैं. सब से कहती हूं, ‘बहू हो तो पद्मा जैसी. मेरा बड़ा खयाल रखती है. क्याक्या सामान नहीं ले कर रखती मेरे लिए.’ सच बहू, तू मेरी बहुत सेवा करती है.’’

पद्मा तो आत्मविभोर हो गई. कुछ कह पाती, उस से पहले ही बड़ी मामी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘हां बहू, सुना है यहां काजू की बरफी बहुत अच्छी मिलती है. सोच रही थी, लेती जाऊं. वैसे हमें कोई लालसा नहीं है. पर अपनी पड़ोसिनों को भी तो दिखाऊंगी न कि तू ने क्या मिठाई भेजी है.’’

पद्मा तो ठंडी हो गई, ‘इस गरमी में, जबकि पीने को दूध तक नहीं है, इन्हें बरफी चाहिए, वह भी काजू वाली. 80 रुपए किलो से कम क्या होगी?’

अभी पद्मा इसी उधेड़बुन में थी कि बड़ी मामी ने फिर मुंह खोला, ‘‘बहू, अब किसी को कोई चीज दो तो खुले दिल से दो. यह क्या कि नाम को पकड़ा दी. यह पैसा कोई साथ थोड़े ही चलेगा. यही हमारे गुरुजी का कहना है. हम तो उन्हीं की बताई बातों पर चलते हैं.’’

पद्मा को लगा कि अगर वह जल्दी ही वहां से न खिसकी तो जाने बड़ी मामी और क्याक्या मांग बैठेंगी.

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फिर बड़ी मामी ने नई बात छेड़ दी. ‘‘जानती है, बहू. हमारे गुरुजी कहते हैं कि जितना हो सके मन को संयम में रखो. खानपान की चीजों की ओर ध्यान कम दो. अब तू जाने, घर में सब के साथ मैं भी अंटसंट खा लेती हूं. पर मेरा अंतर्मन मुझे कोसता है, ‘छि:, खाने के लिए क्या मरना.’ इसलिए बहू, आज से हमारे लिए खाने की तकलीफ मत करना. बस, हमें तो रात में एक गिलास दूध, कुछ फल और हो सके तो थोड़ा मेवा दे दिया कर, आखिर क्या करना है भोगों में पड़ कर.’’

कहां तो पद्मा बड़ी मामी के गुण गाते न थकती थी, कहां अब वह पछता रही थी कि किस घड़ी में मैं ने यह बला अपने गले बांध ली थी.

बस, जैसेतैसे 20 दिन गुजरे, जब बड़ी मामी जाने लगीं तो सब खुश थे कि बला टलने को है. पर जातेजाते भी बड़ी मामी कह गईं, ‘‘बहू, अब कोई इतनी दूर से भाड़ा लगा कर आए और रखने वाले महीना भर भी न रखें तो क्या फायदा? हमारे गुरुजी तो कहते हैं, ‘घर आया मेहमान, भगवान समान’ पर अब वह बात कहां. हां, हमारे यहां कोई आए, तो हम तो उसे तब तक न छोड़ें जब तक वह खुद न जाने को चाहे.’’

यह सुन कर सुमति ने पद्मा की ओर देखा तो पद्मा कसमसा कर रह गई.

‘‘अच्छा बहू, इस बार आश्रम आना. तू ने तो देख रखा है, कैसा अच्छा वातावरण है. सत्संग सुनेगी तो तेरे भी दिमाग में गुरु के कुछ वचन पड़ेंगे, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी का जवाब था.

बड़ी मामी को विदा करने के बाद सब हलकेफुलके हो कर घर लौटे. घर आ कर समीर ने पूछा, ‘‘क्यों मां, कब का टिकट कटा दूं?’’

‘‘कहां का?’’ पद्मा ने पूछा.

‘‘वहीं, तुम्हारे आश्रम का. बड़ी मामी न्योता जो दे गई हैं.’’

‘‘न बाबा, मैं तो भर पाई उस गुरु से और उस की शिष्या से. कान पकड़ लेना, जो दोबारा उन का जिक्र भी करूं. शिष्या ऐसी तो गुरु के कहने ही क्या. सच, आज तक मैं ऊपरी आवरण देखती रही. सुनीसुनाई बातों को ही सचाई माना. परंतु सच्ची शिक्षा है, अपने अच्छे काम. ये पोंगापंथी बातें नहीं.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ आश्चर्यचकित समीर ने पूछा.

‘‘और नहीं तो क्या, क्यों जी?’’

और समवेत स्वर सुनाई दिया, ‘‘हां जी.’’

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फूलप्रूफ फार्मूला: भाग 1- क्या हो पाई अपूर्वा औऱ रजत की शादी

औफिस से लौटने में कुछ देर हो गई थी लेकिन बच्चों ने मुंह फुलाने के बजाय चहकते हुए उस का स्वागत किया.

‘‘मम्मा, दिल्ली से रजत अंकल आए हैं, हमें उन के साथ खेलने में बड़ा मजा आ रहा है. आप भी हमारे कमरे में आ जाओ,’’ कह कर प्रणव और प्रभव अपने कमरे में भाग गए.

‘‘आ गई बेटी तू, रजत बड़ी देर से तेरे इंतजार में इन दोनों की शरारतें झेल रहा है,’’ मां ने बगैर रसोई से बाहर आए कहा.

हालांकि दिल्ली रिश्तेदारों से अटी पड़ी थी लेकिन अभी तक किसी रजत से तो कोई रिश्ता जुड़ा नहीं था. पापा और बच्चों के साथ एक सुदर्शन युवक कैरम खेल रहा था. अपूर्वा को याद नहीं आया कि उस ने उसे पहले कभी देखा है. अपूर्वा को देखते ही युवक शालीनता से खड़ा हो गया लेकिन इस से पहले कि वह कुछ बोलता, प्रभवप्रणव चिल्लाए, ‘‘आप गेम बीच में छोड़ कर नहीं जा सकते, अंकल. बैठ जाइए.’’

‘‘इन की बात मान लेने में ही इज्जत है बरखुरदार. जब तक यह खेल खत्म होता है, तू भी फे्रश हो ले बेटी. रजत को हम ने रात के खाने तक रुकने को मना लिया है,’’ विद्याभूषण चहके.

‘‘वैसे मैं अपूर्वाजी का सिर खाए बगैर जाने वाला भी नहीं था,’’ रजत ने हंसते हुए कहा.

‘किस खुशी में भई?’ अपूर्वा पूछना चाह कर भी न पूछ सकी और मुसकरा कर अपने कमरे में आ गई.

जब वह फे्रश हो कर बाहर आई तो बाई चाय ले कर आ गई. चाय की प्याली ले कर वह ड्राइंगरूम की बालकनी में आ गई.

‘‘मे आई ज्वाइन यू?’’ कुछ देर के बाद रजत ने आ कर पूछा.

‘‘प्लीज,’’ अपूर्वा ने कुरसी की ओर इशारा किया.

‘‘नाम तो आप सुन ही चुकी हैं, काम निखिला के साथ करता हूं. यहां हमारे बैंक की शाखा खुल रही है इसलिए उसी सिलसिले में आया हूं. आप का पता निखिला…’’

‘‘निखिला?’’ अपूर्वा ने भौंहें चढ़ाईं.

‘‘निखिला जोशी, आप की मौसेरी बहन.’’

‘‘ओह निक्की, मधु मौसी की बेटी,’’ अपूर्वा ने खिसिया कर कहा, ‘‘कई साल हो गए मिले हुए इसलिए एकदम पहचान नहीं सकी और उस ने मेरा पता भी याद रखा.’’

‘‘अतापता ही नहीं निखिला को तो आप के बारे में सब याद है. अकसर आप लोगों की बातें करती रहती है.’’

‘‘मेरी तो खैर क्या बात करेगी, हां, बच्चों की शरारतों के बारे में शायद मां ने मौसी को बताया हो.’’

‘‘लेकिन निखिला तो आप के बचपन से चल रहे फेयरी टेल रोमांस, शादी और फिर शहजादे के मेढक बनने वाले दुखद अंत की बात करती रहती है,’’ रजत ने बेझिझक स्वर में कहा.

‘‘कमाल है, जहां हम नहीं पहुंचे, हमारे चर्चे जा पहुंचे. वैसे उसे कुछ खास मालूम नहीं होगा…’’

‘‘जितना भी मालूम है उस की वजह से उस ने कभी शादी न करने का फैसला किया है,’’ रजत ने बात काटी.

अपूर्वा ने चौंक कर रजत की ओर देखा, ‘तो यह वजह है मुझ से मिलने आने की.’

‘‘बगैर असलियत जाने या मुझ से मिले, ऐसा फैसला लेना तो सरासर हिमाकत है. मैं ने समीर को इसलिए छोड़ा था क्योंकि उस का दोमुंहा व्यक्तित्व था, सब के सामने कुछ और, और अकेले में कुछ और. अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण भी वह पूर्वाग्रहों से ग्रस्त था जो शादी के बाद एकांत मिलते ही उभरने लगे थे.

‘‘वह बेहद बददिमाग था और गुस्से में उत्तेजित हो कर कुछ भी बोल और कर सकता था. गुस्से का आवेग शांत होते ही वह अपने व्यवहार पर बहुत लज्जित होता था, पश्चात्ताप करता था लेकिन इलाज के लिए मनोचिकित्सक के पास जाने से कतराता था. यह जानने के बावजूद कि मेरे गर्भ में 2 बच्चे हैं, मैं ने गर्भपात नहीं करवाया. क्योंकि मैं ने सोचा कि बाप बनने के बाद शायद अपनी जिम्मेदारियां समझ कर वह अपना इलाज करवा ले. बच्चों से बेहद लगाव होने के बावजूद समीर का व्यवहार नहीं बदला.

‘‘इस से पहले कि बच्चे उस के गुस्से का शिकार बनते और किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते, मैं समीर से अलग हो गई. मेरी खुद की तो बढि़या नौकरी है ही और मांपापा का संरक्षण भी, इसलिए मुझे कोई परेशानी नहीं है. समीर एक मानसिक रोगी है इसलिए बजाय नफरत के मुझे उस से हमदर्दी है. न ही मेरे दिल में पुरुषों, प्यार या शादी को ले कर कोई कड़वाहट है तो फिर निक्की किस खुशी में मेरे नाम पर शहीद हो रही है?’’ अपूर्वा ने हंसते हुए पूछा.

रजत हंस पड़ा, ‘‘यह तो निखिला ही बता सकती है.’’

‘‘मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से कोई जिंदगी में गलत फैसले ले. मेरा निखिला से मिलना बहुत जरूरी है.’’

‘‘लेकिन यह जरूरी नहीं है कि निखिला आप की बातों पर विश्वास करे.’’

‘‘जरूर करेगी जब उसे पता चलेगा कि मैं दूसरी शादी करने को तैयार हूं मगर ऐसे आदमी से जो मेरे बच्चों को एक सुरक्षित, खुशहाल पारिवारिक जीवन दे सके, क्योंकि भौतिक सुविधाओं और नानानानी के लाड़प्यार के अलावा एक पिता का संरक्षण, अनुशासन और स्नेह बच्चों के व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास के लिए बहुत जरूरी है.’’

रजत ने एक गहरी सांस ली और बोला, ‘‘आप ठीक कहती हैं. पिता का अभाव क्या होता है, यह मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं. पापा मेरे जन्म से पहले ही गुजर गए थे. पैसे की कोई कमी नहीं थी, चाचा और मामा वगैरा ने संरक्षण और भरपूर प्यार दिया लेकिन जिन पापा को कभी मैं ने देखा ही नहीं उन के बगैर आज भी मुझे अपना जीवन अधूरा लगता है.’’

‘‘ऐसा लगना स्वाभाविक है क्योंकि जीवन में प्रत्येक रिश्ते की अपनी अलग ऊष्मा, अलग अहमियत होती है और कड़वाहट किस रिश्ते में नहीं आती? सगे बहनभाई एकदूसरे के जानी दुश्मन बन जाते हैं लेकिन एक भाई के धोखा देने पर दूसरे भाई से तो कोई मुंह नहीं मोड़ता, फिर पतिपत्नी के अलगाव को ले कर इतना होहल्ला क्यों?’’

‘‘निखिला का कहना है कि आप की प्रेम कहानी का दुखद अंत देख कर उस का प्यारमोहब्बत पर से विश्वास उठ गया है.’’

‘‘अकसर अखबारों में घर के पुराने नौकरों की गद्दारी की खबरें छपती रहती हैं लेकिन उन को पढ़ कर लोग नौकर रखना तो नहीं छोड़ते, न ही बीमारी के डर से बाजार का खाना?’’ अपूर्वा हंसी, ‘‘फिक्र मत करो, मैं निखिला को समीर के व्यवहार और अपने अलगाव की वजह समझा कर उस का फैसला बदलवा दूंगी.’’

‘‘कोशिश करता हूं कि अगले टूर पर निखिला को साथ ले आऊं.’’

‘‘नहीं ला सके तो बच्चों की छुट्टियों में मैं दिल्ली आ जाऊंगी.’’

तभी नौकर खाने के लिए बुलाने आ गया.

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अस्तित्व: भाग 1- क्या प्रणव को हुआ गलती का एहसास

लेखक- नीलमणि शर्मा

का लिज पहुंचते ही तनु ने आज सब से पहले स्टाफ क्वार्टर के लिए आवेदन किया. इतने साल हो गए उसे कालिज में पढ़ाते हुए, चाहती तो कभी का क्वार्टर ले सकती थी पर इतना बड़ा बंगला छोड़ कर यों स्टाफ क्वार्टर में रहने की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. फिर प्रणव को भी तनु के घर आ कर रहना पसंद नहीं था. उन का अभिमान आहत होता था. उन्हें लगता कि वहां वह  ‘मिस्टर तनुश्री राय’ बन कर ही रह जाएंगे. और यह बात उन्हें कतई मंजूर न थी.

आज सुबह ही प्रणव ने उसे अपने घर से निकल जाने को कह दिया जबकि तनु को इस घर में 30 साल गुजर चुके हैं. कहने को तो प्रणव ने उसे सबकुछ दिया है, बढि़या सा घर, 2 बच्चे, जमाने की हर सुखसुविधा…लेकिन नहीं दिया तो बस, आत्मसम्मान से जीने का हक. हर अच्छी बात का श्रेय खुद लेना, तनु के हर काम में मीनमेख निकालना और बातबात पर उस को  ‘मिडिल क्लास मानसिकता’ का ताना देना, यही तो किया है प्रणव ने शुरू से अब तक. पलंग पर लेटेलेटे तनु अपने ही जीवन से जुड़ी घटनाओं का तानाबाना बुनने लगी.

इतने वर्षों से तनु को लगने लगा था कि उसे यह सब सहने की आदत सी हो गई है पर आज सुबह उस का धैर्य जवाब दे गया. जैसेजैसे उम्र बढ़ रही थी प्रणव का कहनासुनना बढ़ता जा रहा था और तनु की सहनशीलता खत्म होती जा रही थी.

तनु जानती है कि अमेरिका में रह रहे बेटे के विवाह कर लेने की खबर प्रणव बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि उन के अहम को चोट पहुंची है. अब तक हर बात का फैसला लेने का एकाधिकार उस से छिन जो गया था. प्रणव की नजरों में इस के  लिए तनु ही दोषी है. बच्चों को अच्छे संस्कार जो नहीं दे पाई है…यही तो कहते हैं प्रणव बच्चों की हर गलती या जिद पर.

जबकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि बच्चों के बारे में किसी भी तरह का निर्णय लेने का कोई अधिकार उन्होंने तनु को नहीं दिया. यहां तक कि उस के गर्भ के दौरान किस डाक्टर से चैकअप कराना है, क्या खाना है, कितना खाना है आदि बातों में भी अपनी ही मर्जी चलाता. शुरू में तो तनु को यह बात अच्छी लगी थी कि कितना केयरिंग हसबैंड मिला है लेकिन धीरेधीरे पता चला यह केयर नहीं, अपितु स्टेटस का सवाल था.

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कितना चाहा था तनु ने कि बेटी कला के क्षेत्र में नाम कमाए पर उसे डाक्टर बनाना पड़ा, क्योंकि प्रणव यही चाहते थे. बेटे को आई.ए.एस. बनाने की चाह भी तनु के मन में धरी की धरी रह गई और वह प्रणव के आदेशानुसार वैज्ञानिक ही बना, जो आजकल नासा में कार्यरत है.

ऐसा नहीं कि बच्चों की सफलता से तनु खुश नहीं है या बच्चे अपने प्राप्यों से संतुष्ट नहीं हैं लेकिन यह भी सत्य है कि प्रणव इस सब से इसलिए संतुष्ट हैं कि बच्चों को इन क्षेत्रों में भेजने से वह और तनु आज सोसाइटी में सब से अलग नजर आ रहे हैं.

पूरी जिंदगी सबकुछ अपनी इच्छा और पसंद को ही सर्वश्रेष्ठ मानने की आदत होने के कारण बेटे की शादी प्रणव को अपनी हार प्रतीत हो रही है. यही हार गुस्से के रूप में पिछले एक सप्ताह से किसी न किसी कारण तनु पर निकल रही है. प्रणव को वैसे भी गुस्सा करने का कोई न कोई कारण सदा से मिलता ही रहा है.

प्रणव यह क्यों नहीं समझते कि बेटे के इस तरह विवाह कर लेने से तनु को भी तो दुख हुआ होगा. पर उन्हें उस की खुशी या दुख से कब सरोकार रहा है. जब बेटे का फोन आया था तो तनु ने कहा भी था,  ‘खुशी है कि तुम्हारी शादी होगी, लेकिन तुम अगर हमें अपनी पसंद बताते तो हम यहीं बुला कर तुम्हारी शादी करवा देते. सभी लोगों को दावत देते…वहां बहू को कैसा लगेगा, जब घर पर नई बहू का स्वागत करने वाला कोई भी नहीं होगा.’

‘क्या मौम आप भी, कोई कैसे नहीं होगा, दीदी और जीजाजी आ रहे हैं न. आप को तो पता है कि अपनी पसंद बताने पर पापा कभी नहीं होने देते यह शादी. दीदी की बार का याद नहीं है आप को. डा. सोमेश को तो दीदी ने उस तरह पसंद भी नहीं किया था. बस, पापा ने उन्हें रेस्तरां में साथ बैठे ही तो देखा था. घर में कितने दिनों तक हंगामा रहा था. दीदी ने कितना कहा था कि डा. सोमेश केवल उन के कुलीग हैं पर कभी पापा ने सुनी? उन्होंने आननफानन में कैसे अपने दोस्त के डा. बेटे के साथ शादी करवा दी. यह ठीक है कि  जीजाजी भी एकदम परफेक्ट हैं.

‘सौरी मौम, मेरी शादी के कारण आप को पापा के गुस्से का सामना करना पडे़गा. रीयली मौम, आज मैं महसूस करता हूं कि आप कैसे उन के साथ इतने वर्षों से निभा रही हैं. यू आर ग्रेट मौम…आई सेल्यूट यू…ओ.के., फोन रखता हूं. शादी की फोटो ईमेल कर दूंगा.’

तनु बेटे की इन बातों से सोच में पड़ गई. सच ही तो कहा था उस ने. लेकिन वह गुस्सा एक बार में खत्म नहीं हुआ था. पिछले एक सप्ताह से रोज ही उसे इस स्थिति से दोचार होना पड़ रहा है. सुबह यही तो हुआ था जब प्रणव ने पूछा था, ‘सुना, कल तुम निमिषा के यहां गई थीं.’

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‘हां.’

‘मुझे बताया क्यों नहीं.’

‘कल रात आप बहुत लेट आए तो ध्यान नहीं रहा.’

‘‘ध्यान नहीं रहा’ का क्या मतलब है, फोन कर के बता सकती थीं. कोई काम था वहां?’

‘निमिषा बहुत दिनों से बुला रही थी. कालिज में कल शाम की क्लास थी नहीं, सोचा उस से मिलती चलूं.’

‘तुम्हें मौका मिल गया न मुझे नीचा दिखाने का. तुम्हें शर्म नहीं आई कि बेटे ने ऐसी करतूत की और तुम रिश्तेदारी निभाती फिर रही हो.’

‘निमिषा आप की बहन होने के साथसाथ कालिज के जमाने की मेरी सहेली भी है…और रही बात बेटे की, तो उस ने शादी ही तो की है, गुनाह तो नहीं.’

‘पता है मुझे, तुम्हारी ही शह से बिगड़ा है वह. जब मां बिना पूछे काम करती है तो बेटे को कैसे रोक सकती है. भूल जाती हो तुम कि अभी मैं जिंदा हूं, इस- घर का मालिक हूं.’

‘मैं ने क्या काम किया है आप से बिना पूछे. इस घर में कोई सांस तो ले नहीं सकता बिना आप की अनुमति के…हवा भी आप से इजाजत ले कर यहां प्रवेश करती है…जिंदगी की छोटीछोटी खुशियों को भी जीने नहीं दिया…यह तो मैं ही हूं कि जो यह सब सहन करती रही….’

आगे पढ़ें- शादी के बाद कितने समय तक…

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फूलप्रूफ फार्मूला: भाग 2- क्या हो पाई अपूर्वा औऱ रजत की शादी

चलने से पहले रजत ने पूछा कि क्या वह कल फिर बच्चों से मिलने को आ सकता है और अपूर्वा के बोलने से पहले ही मांपापा ने सहर्ष सहमति दे दी. चूंकि उसे उसी रात वापस जाना था.

अगले रोज रजत अपूर्वा के लौटने से पहले ही आ कर चला गया.

‘‘कहता था 10-15 दिन बाद वह फिर आ सकता है,’’ मां ने बताया.

अपूर्वा कहतेकहते रुक गई कि हो सकता है तब उस के साथ निक्की का टूर नहीं बनता तो वह स्वयं उस से मिलने जाएगी. वह जानती थी, निक्की के फैसले के पीछे उस की व्यथाकथा ही नहीं, निक्की की अपनी अमेरिकन बैंक की नौकरी का दर्प भी था. उसे समझाना होगा कि चंद साल के बाद जब सब सहकर्मियों और दोस्तों की शादियां हो जाएंगी तो प्रभुत्व वाली नौकरी के बावजूद उसे लगने लगेगा कि वह नितांत अकेली, असहाय और अस्तित्वहीन है.

एक शाम घर लौटने पर अपूर्वा ने देखा रजत बच्चों के साथ क्रिकेट खेल रहा था. कुछ देर के बाद वह अंदर आया.

‘‘निक्की का टूर नहीं बनवा सके?’’ उस ने कुछ देर के बाद पूछा.

‘‘बनवाने की कोशिश ही नहीं की,’’ रजत ने उसांस ले कर कहा, ‘‘मुझे आप का यह तर्क समझ में आया कि बगैर आप के अलगाव की वजह जाने इतना अहम फैसला कैसे ले लिया और उस के घर वालों ने कैसे लेने दिया.’’

‘‘सही कह रहे हैं आप,’’ अपूर्वा ने बात काटी, ‘‘मां तो मधु मौसी को हरेक छोटीबड़ी बात बताती हैं. ऐसा हो ही नहीं सकता कि समीर की असलियत के बारे में उन्हें न बताया हो या मेरे लिए फिर से उपयुक्त वर तलाशने के लिए न कहा हो.’’

‘‘इस से तो यही जाहिर होता है कि निखिला शादी ही नहीं करना चाहती, आप का अलगाव महज बहाना है,’’ रजत हंसा.

‘‘प्रभुत्व वाली नौकरी मिलते ही कुछ लड़कियां और मांबाप घमंड में गलत सोचने लगते हैं. मैं मौसी और निक्की से बात करूंगी,’’ अपूर्वा ने आश्वासन के स्वर में कहा.

‘‘आप की मर्जी है. निखिला की बचकानी मनोस्थिति जानने के बाद मेरी अब उस में कोई दिलचस्पी नहीं रही है. वैसे भी वह कभी दिल्ली छोड़ना नहीं चाहती और मुझे तो जहां तरक्की मिलेगी, वहां जाऊंगा,’’ रजत मुसकराया.

‘‘बिलकुल सही एप्रोच यानी जिंदगी के प्रति सही रवैया है,’’ अपूर्वा बोली, ‘‘कितने दिन का टूर है?’’

‘‘अरे, मैं ने आप को बताया नहीं कि मेरी यहां यानी नई ब्रांच में पोस्ंिटग हो गई है.’’

‘‘जाहिर है तरक्की पर ही हुई होगी सो कुछ पार्टीवार्टी होनी चाहिए.’’

‘‘जरूर…अभी चलिए, किसी बढि़या जगह पर डिनर लेते हैं,’’ समीर फड़क कर बोला.

‘‘बाहर क्यों, घर पर ही बढि़या खाना बनवा लेते हैं.’’

‘‘आज तो बाहर ही खाएंगे. घर पर तो आप रोज ही खाती हैं और जब यहां आ गया हूं तो मैं भी अकसर ही खाया करूंगा बशर्ते आप को मेरे आने पर एतराज न हो.’’

‘‘अरे, नहीं, एतराज कैसा और हो भी तो मांपापा के सामने उस की कोई अहमियत नहीं होगी. यह बताइए, कहां चलना है ताकि उस के मुताबिक तैयार हुआ जाए.’’

‘‘वह तो आप को ही बताना पड़ेगा. कोई ऐसी जगह जहां बच्चे मौजमस्ती कर सकें.’’

‘‘हमारी मौजमस्ती तो जू या टै्रजर आईलैंड में होती है,’’ प्रभव बोला, ‘‘मगर वह तो अभी बंद होंगे.’’

‘‘अभी शौपर स्टौप खुला होगा, वहीं चलते हैं,’’ प्रणव ने कहा.

‘‘वहां तो कपड़े मिलते हैं भई और हम खाना खाने जा रहे हैं,’’ रजत हंसा.

‘‘नहीं अंकल, आप चलिए तो सही फिर देखिएगा कि वहां क्याक्या मिलता है,’’ प्रणवप्रभव दोनों बोले.

‘‘वहां मिलता तो बहुत कुछ है लेकिन सब इन के मतलब का,’’ अपूर्वा हंसी, ‘‘पिज्जा, बर्गर, आइसक्रीम या चाट.’’

‘‘अरे, वाह, चाट खाए मुद्दत हो गई… वही खाएंगे. आप को पसंद है न?’’

‘‘है तो, मगर बात तो कहीं बढि़या खाने की हो रही थी.’’

‘‘किसी और दिन, आज तो बच्चों की पसंद की जगह चलेंगे,’’ रजत ने दृढ़ता से कहा.

बाहर जाने और खाने के मौके तो अकसर ही आते रहते थे लेकिन अपूर्वा को बढि़या खाना खिलाने का मौका नहीं आया क्योंकि रजत बच्चों के बगैर कहीं जाता नहीं था और बच्चे फास्ट फूड वाली जगह जाने की ही जिद करते थे. धीरेधीरे रजत परिवार के सदस्य जैसा ही होता जा रहा था. विद्याभूषण सेवानिवृत्ति के बाद क्या करेंगे, पैसे को कहां निवेश करना होगा वगैरा अहम मुद्दों पर उस से सलाह ली जाती थी. एअरकंडीशनर की सर्विसिंग या वाशिंग मशीन की मरम्मत वह सामने बैठ कर करवाता था.

‘‘हम तुम्हें छुट्टी के रोज भी चैन से नहीं बैठने देते, किसी न किसी काम के लिए बुला ही लेते हैं,’’ एक रोज मां ने कहा.

‘‘अच्छा है, नहीं तो मुझे बिन बुलाए आना पड़ता,’’ रजत हंसा, ‘‘घर में अकेले बैठने के बजाय यहां आ कर बच्चों के साथ मन बहला लेता हूं. उन की छुट्टी भी हंसीखुशी से कट जाती है और मेरी भी. जानती हैं मां, बचपन में छुट्टी का दिन मेरे लिए बहुत बुरा होता था क्योंकि सभी दोस्त छुट्टी के रोज अपने पापा के साथ खेलते थे…किसी के पास मेरे लिए फुरसत नहीं होती थी.’’

‘‘यही सोच कर छुट्टी का दिन यह भी बच्चों के साथ गुजारते हैं मगर जितने खुश वे तुम्हारे साथ होते हैं हमारे नहीं. उम्र का फर्क बहुत माने रखता है,’’ मां ने उसांस ले कर कहा.

‘‘आप ठीक कह रही हैं. दादाजी के साथ उतना मजा नहीं आता जितना चाचाजी के आने पर या छुट्टियों में मामा के घर जाने पर आता था.’’

‘‘वह लोग तुम्हें शादी करने को नहीं कहते?’’

‘‘वही नहीं, अब तो यहां के पासपड़ोस वाले भी कहते हैं,’’ रजत हंसा, ‘‘बस, आप ही नहीं कहतीं.’’

‘‘अगर कहूं तो मानोगे?’’

‘‘यह तो आप को कहने के बाद ही पता चलेगा,’’ रजत हंसा.

इस से पहले कि मां कुछ कहतीं, प्रभवप्रणव पतंग ले कर आ गए और रजत उन के साथ व्यस्त हो गया.

रजत के जाने के बाद मां ने यह बात अपूर्वा को बताई.

‘‘कहने में क्या जाता है, कह देना था,’’ अपूर्वा हंसी.

‘‘कैसे कुछ नहीं जाता?’’ मां ने तुनक कर पूछा, ‘‘मेरी कोई इज्जत नहीं है क्या?’’

‘‘आप का खयाल है कि वह मना कर देता?’’

‘‘उस ने नहीं तू ने मना करना था क्योंकि उस ने तो तेरा हाथ मांगना था और मुझे कहना पड़ता कि मैं अपनी बेटी की तरफ से कोई फैसला नहीं कर सकती.’’

‘‘तुम कुछ ज्यादा ही अटकल लगाने लग गई हो मां. आप ने यह कैसे सोच लिया कि रजत को मुझ में दिलचस्पी है, मेरे से ज्यादा वह बच्चों और आप लोगों के साथ समय गुजारता है.’’

‘‘तुझे खुश करने के लिए. वैसे तू इस बात से इनकार नहीं कर सकती कि उसे बच्चों से बहुत लगाव है.’’

‘‘वह तो है मां, लेकिन अगर यह लगाव महज मेरी खुशी के लिए है तो मेरे खुश होने के बाद यानी हमारी शादी के बाद बच्चे बहुत दुखी हो जाएंगे और वह मैं कभी बरदाश्त नहीं कर सकूंगी कि शादी के बाद रजत उन के बजाय मेरे साथ ज्यादा समय बिताए यानी इस रिश्ते से उन से रजत अंकल ही नहीं उन की मां भी छिन जाए,’’ अपूर्वा बोली, ‘‘और मुझे तो शादी अपनी नहीं बच्चों की खुशी के लिए करनी है.’’

आगे पढ़ें- मां अपूर्वा के तर्क को काट तो…

हम साथ साथ हैं: भाग 3- क्या जौइंट फैमिली में ढल पाई पीहू

अगले रविवार पीहू सुबह से ही चहक रही थी. हर्ष और उस के मम्मीपापा को 11 बजे आना था. रेखा चाय, नाश्ते और लंच की तैयारी कर रही थी. घर के कामकाज के लिए तो नौकर थे लेकिन खाना बनाने का काम वह खुद करती थी. नौकरों से खाना बनाना उसे पसंद नहीं था, क्योंकि नईनई डिश बनाने का शौक उसे छुटपन से रहा है.

वैसे भी, छोटी सी फैमिली के लिए खाना बनाना उस के लिए कोई मुश्किल काम नहीं था.

रेखा ने चाय के साथ के लिए स्नैक्स तो बाजार से मंगा लिए थे जैसे रसगुल्ले, ढोकला, प्याज कचौड़ी, ड्राईफ्रूट, नमकीन, काजू बिस्कुट आदि. लंच के लिए उस ने अपने हाथों से मलाई कोफ्ते, मटर पनीर, भरवां करेले, खट्टे छोले और शाही पुलाव, दहीभल्ले बनाए थे. सब तैयारी हो गई थी.

पीहू 10 बजे तैयार होने लगी थी. उस ने अपना फेवरेट पीला सूट निकाला था. नहाने के बाद वह ड्रैसिंग टेबल के सामने बैठी ही थी कि उस का मोबाइल बजा. हर्ष की कौल थी.

‘‘बोलो हर्ष.’’

‘‘पीहू, प्रोग्राम थोड़ा चेंज है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘अरे, अभी मम्मीपापा नहीं आएंगे बल्कि मेरे साथ दोनों चाचाचाची, ताऊजीताईजी, छोटी बूआ और कुछ कजिंस भी साथ आएंगे. तुम लोगों को कोई एतराज तो नहीं?’’

‘‘अरे एतराज कैसा, यू आर मोस्ट वैलकम.’’

‘‘ओह, लव यू पीहू. ओके, तो हम 11.30 बजे तक पहुंच जाएंगे सी यू.’’

पीहू ने फटाफट से मम्मीपापा को बताया.

‘‘अरे इतने लोगों को आना था तो कल रात को बता देते, तैयारी उसी हिसाब से करते,’’ विनय झल्लाते हुए बोले.

‘‘हां, मैं खाना भी उसी हिसाब से तैयार करती,’’ रेखा भी बोली.

‘‘मम्मी और खाना बाहर से और्डर कर देना. क्या फर्क पड़ता है,’’ पीहू लापरवाही से बोली.

‘‘अच्छाअच्छा, बहस छोड़ो, सब तैयार हो जाओ. मैं देखता हूं,’’ विनय बोले.

पीहू तो अपनी मस्ती में चली गई लेकिन विनय और रेखा एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

‘‘लो, अभी तो रिश्ता जुड़ा भी नहीं और मुसीबतें शुरू हो गईं. पता नहीं पीहू को भी यही लड़का मिला था,’’ विनय बोले.

‘‘अब एक ही बेटी है. उस की खुशी के लिए तो सब करना ही पड़ेगा,’’ रेखा ने विनय को समझाते हुए कहा.

पीहू हर्ष के कजिंस के बीच घिरी हुई थी. ड्राइंगरूम सब से भरा हुआ था. ठहाकोंकहकहों से घर गूंज रहा था. चाय, कौफी, कोल्डड्रिंक के साथ स्नैक्स का दौर चल रहा था. विनय और रेखा आराम से सोफे पर बैठे थे. नौकर छोटू के साथ हर्ष के कजिंस ने रसोई का मोरचा संभाल लिया था.

रश्मि, हर्ष की बूआ की बेटी, बोली,

‘‘आंटी, बाहर से और खाना और्डर

करने की कोई जरूरत नहीं है. मैं ने छोटू को चावल उबालने के लिए बोल दिया है. मिक्स दाल मैं ने उबलने को रख दी है और आलू उबल रहे हैं. आप कोई टैंशन मत लो. आप आराम से बैठिए, हम सब देख लेंगे. हमारी वजह से आप को कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

‘‘हां आंटी, वह तो हर्ष भैया ने हमें पीहू भाभी के बारे में हवा नहीं लगने दी थी लेकिन तब भी शक तो हमें था. और जब पता चला कि आज आप के घर जा रहे हैं तो पीहू भाभी को देखने का मौका हम भला कैसे छोड़ सकते थे,’’ दीपा, हर्ष के चाचा की बेटी, बोली.

‘‘विनय भाई, हमारा परिवार ही हमारी पूंजी है. सब भाईबहनों में आपस में खूब स्नेहप्यार है. एकदूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. घर में हमारे तो इसी तरह धमाचौकड़ी चलती रहती है. पीहू को किसी बात की कोई दिक्कत नहीं रहेगी. इस बात से आप बेफ्रिक रहो,’’ हर्ष के ताऊजी बोले तो विनय ने कहा, ‘‘भाईसाहब, यह तो मैं देख ही रहा हूं. आज मेरे घर में त्योहार सा माहौल बना हुआ है. बच्चियों ने बिलकुल अपने घर की तरह रसोई संभाल ली है. हर्ष के भाइयों के साथ पीहू को हंसताबोलता देख रहा हूं तो ऐसा लग रहा है उस के जीवन में भाइयों की कमी अब पूरी हो जाएगी,’’ विनय ने कहा.

‘‘अंकलजी, अब पीहू भाभी को अपनी बोरियत दूर करने के लिए अकेले मौल घूमने नहीं जाना पड़ेगा,’’ हर्ष के छोटे चाचा के बेटे की बात सुन कर सभी हंस पड़े.

‘‘हांहां, तुम्हारी आइटम टोली के होते भला क्यों अब वह अकेली घूमेगी,’’ बूआ ने भी अपनी बात जोड़ी.

लंचटाइम में सब लोगों ने खूब मजे लेले कर खाना खाया. सब रेखा के खाने की तारीफ करते नहीं थके.

सबकुछ बहुत परफैक्ट रहा. तय हुआ कि शादी महीने के अंदरअंदर कर देते हैं क्योंकि हर्ष की कंपनी वाले उसे डेढ़ महीने बाद विदेश भेज रहे हैं एक महीने के लिए. हर्ष की मम्मी चाहती थीं कि पीहू भी हर्ष के साथ चली जाए.

सभी इस बात से राजी हो गए. बस, दोनों तरफ से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं.

‘‘हर्ष, मुझे अब पता चल रहा है कि पैरोंतले पांव न पड़ना क्या होता है. सच में मैं आजकल हवा में उड़ रही हूं. मैं इतनी खुश हूं कि बता नहीं सकती. सोचा नहीं कि मुझे तुम जैसा प्यार करने वाला इतना प्यारा जीवनसाथी मिलेगा,’’ पीहू हर्ष की बांहों में समाई जा रही थी.

‘‘पीहू, मुझे तुम मिल गईं तो ऐसा लग रहा है जैसे मैं ने दुनियाजहान की खुशियां पा ली हैं. अब तो ये थोड़े से दिन भी तुम से दूर रहना मुश्किल हो रहा है,’’ हर्ष पीहू का चेहरा अपने हाथों में ले कर बोला ही था कि अचानक पीहू का मोबाइल बज उठा.

‘‘हां, मम्मी बोलो.’’

‘‘पीहू, बेटा तू कहां है,’’ रेखा बहुत घबराई सी आवाज में बोली.

‘‘क्या बात है मम्मी, जल्दी बोलो, मुझे घबराहट हो रही है.’’

‘‘पीहू, तेरे पापा को छाती में दर्द उठा था. मैं ने डाक्टर सूरज को फोन किया तो उन्होंने एंबुलैंस भेज दी. मैं तेरे पापा को ले कर हार्टकेयर अस्पताल जा रही हूं. रास्ते में हूं, तू वहीं पहुंच.’’

‘‘मम्मी, आप घबराओ मत, पापा को कुछ नहीं होगा. मैं अभी पहुंचती हूं.’’

पूरे रास्ते हर्ष पीहू को तसल्ली देता रहा. पीहू जब अस्पताल पहुंची तब तक विनय को आईसीयू में ले जा चुके थे. सीवियर हार्टअटैक आया था. रेखा रोए जा रही थी.

‘‘आंटीजी, आप बिलकुल फिक्र मत करो. हम सब हैं न, अंकल ठीक हो जाएंगे.’’

थोड़ी देर में हर्ष के मम्मीपापा भी आ गए और हर्ष की मम्मी रेखा का हाथ अपने हाथ में ले कर उसे तसल्ली देने लगीं. रेखा को ऐसा लग रहा था जैसे उस की बहन उसे तसल्ली दे रही हो.

विनय की तीनों आर्टरी में ब्लौकेज था. तुरंत औपरेशन कर दिया गया और वह सफल रहा. अभी विनय को हफ्ताभर अस्पताल में ही रहना था.

इस दौरान हर्ष के घर वाले रेखा और पीहू के साथसाथ ही रहे. डाक्टरों से बात करना, दवाइयां लाना, जरूरी पेपर्स जमा करना, सारी भागदौड़ हर्ष और उस के भाई कर रहे थे. हर्ष की बहनें पीहू और रेखा का पूरा ध्यान रख रही थीं.

एक हफ्ते बाद विनय घर आ गए.

‘‘पापा, आप को स्ट्रैस लेने की कोई जरूरत नहीं है. सब काम हो जाएंगे,’’ पीहू पापा का तकिया ठीक करते

हुए बोली.

‘‘कैसे होगा बेटा सबकुछ, शादी की तैयारियां कम जिम्मेदारी का काम नहीं. शोरूम तो एक हफ्ते से बंद ही पड़ा होगा. कितना नुकसान हो गया,’’ विनय थोड़े चिंतित हो उठे.

‘‘विनय भाईसाहब, आप सारी चिंता हमारे ऊपर छोड़ दो,’’ हर्ष के पापा बोले. उन के साथ हर्ष के चाचा और उन के दोनों बेटे तन्मय और निखिल भी थे.

‘‘आइए, आइए, बैठिए,’’ रेखा ने खड़े हो कर सब का स्वागत किया.

‘‘भाईसाहब, आप का शोरूम चकाचक चल रहा है. तन्मय और निखिल को मैं ने वहां सुपरविजन के लिए एक हफ्ते से बैठा रखा है. पीहू भी आप की तरह शोरूम को ले कर परेशान थी.

‘‘ठीक कह रहे हैं भाईसाहब, अस्पताल में भी सारी भागदौड़ हर्ष, उस के चाचाओं और बच्चों ने की. हमें तो जरा भी तकलीफ नहीं हुई. यहां तक कि घर भी हर्ष की बूआ ने संभाला और पीहू को तो हर्ष की बहनों ने बिलकुल भी अकेला नहीं छोड़ा.’’

‘‘अरे समधनजी, आप और हम सब एक परिवार हैं. अगर आप शादी की तारीख आगे बढ़ाना चाहते हैं तो हम उस के लिए तैयार हैं. यदि नहीं, तो तैयारियों की जिम्मेदारी हम पर छोड़ दीजिए. हम हैं न सब देख लेंगे. पीहू बिटिया तो उसी दिन से हमारी हो गई थी जब से आप लोगों के घर पहले दिन आए थे.

‘‘नरेश भाईसाहब, जब आप जैसे लोग हमारे साथ हैं, आप का पूरा परिवार हमारे साथ है तो मुझे किसी बात की चिंता करने की अब जरूरत ही क्या है. आज लग रहा है कि परिवार में जब सब साथसाथ होते हैं तो कंधे अपनेआप जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूत बन

जाते हैं. मैं तो डर रहा था कि इतना

फैला हुआ परिवार, इतने रिश्तेनाते, उन्हें निभातेनिभाते मेरी पीहू घबरा जाएगी, लेकिन नहीं. इन रिश्तों से मेरी पीहू वे सब खुशियां पाएगी जो उसे बचपन से नहीं मिलीं.’’

तभी हर्ष भी आ गया, ‘‘अरे अंकलजी, यह आप क्या कर रहे हैं. डाक्टर ने आप को अभी कम बोलने को कहा है.’’

‘‘अरे भाईसाहब, अब तो घर में खुशी का माहौल होना चाहिए. बच्चों की शादी होने वाली है. नाचगाना, खानापीना सब होगा. बस, आप आराम करो और भलेचंगे हो कर सब एंजौय करो. काम हम करेंगे, क्यों बच्चो?’’ हर्ष के चाचा बोले.

खुशी के मारे पीहू और रेखा की आंखें भर आईं. हर्ष पीहू के पास आया और बोला, ‘‘तुम्हें तो पता है, मैं कितना शरीफ हूं. इस वक्त सब के सामने ज्यादा कुछ नहीं बोल सकता, न ही कर सकता हूं. पर इतना जरूर कहूंगा, हम साथसाथ हैं.’’

पीहू किसी की परवा न करते हुए हर्ष के गले लग गई.

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सुषमा: भाग 3- क्या हुआ अचला के साथ

लेखिका- लीला रूपायन

हर्ष की मां की तबीयत खराब रहने लग गई थी. मैं तो अपनी बीमारी का कंबल ओढ़े पड़ी रहती थी. किसी को क्या तकलीफ है, मुझे इस से कोई मतलब नहीं था. घर में एक औरत रखी गई, जो माताजी की दिनरात सेवा करती थी. उस का नाम था सुषमा. मैं देखती, कुढ़ती, मां के लिए हर्ष कितना चिंतित हैं, मेरी कोई परवा नहीं, लेकिन मैं यह देख कर भी हैरान होती कि यह सुषमा किस माटी की बनी है. सुबह से ले कर देर रात तक यह कितनी फुरती से काम करती है. थकती तक नहीं. मुंह पर शिकन तक नहीं आती. हमेशा  हंसती रहती.

एक दिन मैं लौन में बैठी थी तो सुषमा भी मेरे पास आ कर बैठ गई. बड़े प्यार और हमदर्दी से बोली थी, ‘आप को क्या तकलीफ है, मैडम?’

‘कुछ समझ में नहीं आता,’ मैं ने थके स्वर में कहा था.

‘डाक्टर क्या बताते हैं?’

‘किसी की समझ में कुछ आए तो कोई बताए. किसी काम में मन नहीं लगता, किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता. हर समय घबराहट घेरे रहती है.’

‘मेरी बात का बुरा मत मानना, मैडम, एक बात कहूं?’ सुषमा ने डरतेडरते पूछा था.

‘कहो.’

‘आप अपने को व्यस्त रखा करिए. कई बार इंसान के सामने कोई काम नहीं होता तो वह इसी तरह अनमना सा बना रहता है. बच्चों को भी आप ने होस्टल में भेज दिया, वरना तो उन्हीं का कितना काम हो जाता. आप अपने घर की देखभाल खुद क्यों नहीं करतीं?’

‘एक बात बता, सुषमा, तू रोज दोपहर को 2-3 घंटे के लिए कहां जाती है?’ मैं ने उत्सुकता से पूछा था.

‘कहीं भी चली जाती हूं, मालकिन. कमला को बच्चा हुआ, उस की मालिश करनी होती है. 28 नंबर वाले जगदीशजी की मां बीमार है, उस की मदद करने चली जाती हूं. निम्मी भाभी हैं न…’

‘यह निम्मी भाभी कौन हैं?’

‘जहां मैं पहले काम करती थी. उन के पास नौकरानी है तो सही, लेकिन उन्हें मुझ से बड़ा प्रेम है. उन के छोटेछोटे बालबच्चे हैं. शाम को स्कूल से आते हैं तो निम्मी भाभी की जा कर मदद कर देती हूं. वे खुद भी पढ़ाने जाती हैं, थकीहारी आती हैं.’

‘फिर ये रुपए किस के लिए ले जाती है तू?’ मैं हैरान थी.

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‘कितने ही जरूरतमंद ऐसे हैं जिन्हें सेवा और पैसे की जरूरत होती है. मेरे पीछे कौन खाने वाला है जिस के लिए इकट्ठा करूं? सोचती हूं, चार पैसे किसी जरूरतमंद के काम आ जाएं तो अच्छा ही है.’

‘तुम्हें पता रहता है किसे पैसे की या सेवा की जरूरत है?’

‘दुनिया बहुत बड़ी है, मैडम. बाहर निकल कर आप देखेंगी तो जान पाएंगी कि किस को क्या चाहिए. कौन दुख का मारा रास्ता देख रहा है कि कोई आए और उस के दुख बांट ले,’ सुषमा कितने उत्साह से बोल रही थी, ‘मैडम, बड़ा फायदा है दूसरों का दुख बांटने में. मन को कितना संतोष मिलता है, सुख मिलता है. जब हम बाहर निकल कर दूसरों की तकलीफों को देखते हैं तो सच मानिए, अपनी तकलीफ अपनेआप ठीक हो जाती है.’

‘तू थकती नहीं, सुषमा?’

‘नहीं, मैम. यह काम ही तो है जिस ने मुझे इस उम्र में भी तंदुरुस्त रखा हुआ है. फिर इस शरीर को इतना भी क्या संभाल कर रखें, यह हमारे किस काम आएगा? जानवरों का तो चाम भी काम आ जाता है. अपनी चमड़ी तो उस काम भी नहीं आती. फिर क्यों न इस से जीभर के मेहनत की जाए? संभाल कर रखने से तो इसे जंग खा जाएगा, जैसे मशीन बंद पड़ी रहे तो उस में जंग लग जाता है.’

‘सच, सुषमा?’ जैसे मैं सपने से जगी थी.

‘हां, मालकिन, दूसरों का दुख बांट लो तो अपना खुद ही कम हो जाएगा. फिर कैसी सुस्ती, कैसी उदासी और कैसी बीमारी? मैं तो अपने शरीर को हरामखोरी नहीं करने देती, मैडम,’ सुषमा कितने विश्वास से यह बात कह गई थी.

सुषमा उठ कर चली गई थी मेरे लिए प्रश्नचिह्न छोड़ कर. बिहार के उस लगभग अनपढ़ गांव की औरत ने कितने बड़े राज की बात कह दी थी. उस की बातें मुझे कहीं भीतर तक चीरती हुई निकल गई थीं. यह सुषमा, जिस के पास मुट्ठीभर पूंजी है, उसे बांट कर कितने सुखसंतोष का अनुभव करती है. दूसरों की सेवा में कितना इसे आनंद मिलता है, और मैं अपने शरीर को लिए ही चिंतित हूं. मैं क्या किसी के लिए कुछ नहीं कर सकती? अब मैं किसी निश्चय पर पहुंच चुकी थी.

हर्ष को सुबह उठते ही एक कप कौफी लेने की आदत थी. मेरी तबीयत खराब होने से यह काम नौकर करने लगा था, क्योंकि मैं तो देर तक बिस्तर पर पड़ी रहती थी. यह मेरा काम था जिसे मैं भूल गई थी. जब उस रोज सुबह में कौफी ले कर पहुंची तो हर्ष बड़ी हैरानी से मुझे देखते रह गए, ‘तुम, मनसुख कहां गया?’

‘यह मेरा काम था. मैं भूल गई थी,’ मैं ने निगाह नीची किए कहा था.

‘लेकिन तुम्हारी तबीयत?’ वे हैरान थे.

‘वह अब ठीक हो जाएगी. मुझे पता लग गया है, मुझे क्या बीमारी थी,’ मैं शरारत से मुसकरा दी थी.

‘क्या थी?’

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‘मेरी बीमारी का नाम हरामखोरी था. मेरे डाक्टर ने मुझे समझा दिया है.’

‘कौन सा डाक्टर?’ वे जानने को उत्सुक थे.

‘सुषमा…सच, मैं तो यह भूल ही गई थी कि दूसरों को भी मेरी जरूरत है. मैं इतनी स्वार्थी हो गई थी कि बस यही चाहती थी सब मेरी चिंता करें. सब का दुखदर्द समझती तो न खुद मैं परेशान रहती, न ही इतनी बोरियत सताती. सुषमा ने मुझे सोते से जगा दिया है.

‘इस के बाद वह मेरी आदर्श बन गई, मेरी गुरु, जिस ने मुझे जीने की राह बताई है, मेरी झोली में खुशियां भर दी हैं, मुझे मेरा परिवार लौटा दिया है,’ मेरी आंखों में कितनी ही खुशी के आंसू आ गए थे. मेरे बच्चे मेरे पास वापस आ गए. कहने लगे होस्टल में मन नहीं लगता. हर्ष और मां खुश हैं. मैं कितनी खुश हूं सुषमा को पा कर जिस ने मेरा इतना काम बढ़ा दिया है. लगता है, दिन खत्म हो गया पर काम तो पूरा हुआ नहीं. वह भी तो जुटी रहती है सब के दुख बांटने में. मैं ने सोच लिया है कि अब सुषमा को अपने से दूर नहीं करूंगी. कहीं मैं फिर न भटक जाऊं. उसे देख कर हमेशा यही खयाल आता है कि जो सुख दूसरों के दुख मिटाने में है वह अपने को सहेज कर रखने में कहां है. हम दूसरों का दुख कम करेंगे तो हमारा दुख अपनेआप कम हो जाएगा.

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