सुषमा: भाग 2- क्या हुआ अचला के साथ

लेखिका- लीला रूपायन

हर्ष ने कभी ऐसी कोई हरकत नहीं की थी जिस से मेरे मन को ठेस लगे, कोई मर्यादा भंग हो या हम किसी के उपहास का पात्र बनें.

एक दिन मेरी तबीयत बहुत खराब थी. दफ्तर का काम निबटाना जरूरी था, इसीलिए मैं चली गई थी. मैं कुछ पत्र टाइप कर रही थी और मुझे महसूस हो रहा था कि हर्ष की निगाहें बराबर मेरा पीछा कर रही हैं. मैं घबराहट से सुन्न होती जा रही थी. तभी उन्होंने पुकारा था, ‘अचला, लगता है आज तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं. तुम्हें नहीं आना चाहिए था. जाओ, घर जाओ. यह काम इतना जरूरी नहीं है, कल भी हो सकता है.’

‘बस, सर, थोड़ा काम और रह गया है, फिर चली जाऊंगी.’

‘जरा इधर आओ. यहां बैठो,’ उन्होंने सामने वाली कुरसी की ओर इशारा किया.

मेरे बैठने पर पहले तो वे कुछ देर चुप रहे, लेकिन थोड़ी देर बाद सधे स्वर में बोले थे, ‘बहुत दिनों से मैं तुम्हें एक बात कहने की सोच रहा था. मैं जो कुछ भी कहूंगा, भावुकता में नहीं कहूंगा और इस का गलत अर्थ भी मत लगाना. मैं ने तुम से शादी करने का निश्चय किया है. तुम से ‘हां’ या ‘न’ में उत्तर नहीं चाहता, बात तुम्हारे पापा से होगी. केवल अपना परिचय देना चाहता था, ताकि तुम उस पर गौर से सोच सको और जब तुम्हारे पापा तुम से शादी के विषय में बात करें तो अपना निर्णय दे सको.

‘यह तो तुम ने देख ही लिया है, मेरा बिजनैस है और परिवार के नाम पर सिर्फ मेरी मां हैं. मां को भी तुम ने देखा है, बीमार रहती हैं. तुम सोच रही होगी कि मैं ने अभी तक शादी क्यों नहीं की. मैं चाहता था, मुझे ऐसी लड़की मिले, जो विनम्र हो, कर्तव्यनिष्ठ हो, जिस में हर काम कर गुजरने की लगन हो, जो विवेकशील हो, तब शादी करूंगा. कभी यह इच्छा नहीं हुई कि संपन्न घराने की लड़की मिले. इतना तो हमारे पास है ही कि सारी उम्र किसी के आगे हाथ पसारने की जरूरत नहीं. इतने दिनों में मैं ने तुम्हें बहुत परखा है. मैं जान गया हूं, तुम्हीं वह लड़की हो, जिस की मुझे तलाश थी. तुम्हारे साथ शादी मैं दयावश नहीं कर रहा हूं. मुझे तुम्हारी जरूरत है. मैं तुम्हारे पापा से जल्दी ही बात करूंगा. ‘हां’ या ‘न’ का फैसला तुम्हें करना है और उस के लिए तुम स्वतंत्र हो.’

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पापा से उन्होंने बाद में बात की थी. मैं ने पहले ही सबकुछ बता दिया था, क्योंकि मैं पापा से कभी कोई बात नहीं छिपाती थी.

पापा ने उन की आयु का सवाल उठाया था. लेकिन मां ने यही कहा था, ‘आयु तो गौण बात है. जीनामरना किसी के हाथ में थोड़े ही है.’

जब हर्ष ने बाबा से बात की तो बाबा ने बस यही कहा था, ‘मेरी परिस्थिति से आप परिचित हैं. इस के बाद भी आप अचला का हाथ मांग रहे हैं तो मुझे इनकार नहीं है. कौन मांबाप अपनी संतान को सुखी नहीं देखना चाहता?’

हमारी शादी हो गई थी. एक साल कैसे निकल गया, पता ही नहीं लगा. मैं ने घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लीं. हर्ष और मां मेरे व्यवहार से बहुत खुश थे. मेरे पापा हमेशा कहते, ‘बेटी, तू बड़े घर ब्याही गई है, लेकिन बाप की हालत को मत भूलना. पुराने दिन याद रहें तो आदमी भटकन से बचा रहता है. अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहोगी तो सब से प्यार और सम्मान मिलता रहेगा.’

मेरा पहला बेटा जब हुआ था तब तक तो सब ठीक था. लेकिन दूसरे बेटे के पैदा होने पर न जाने मुझे क्या हो गया था कि मैं बीमार रहने लग गई थी. तबीयत की वजह से मेरा किसी काम में मन नहीं लगता था. हर्ष के और मां के जिस काम को करने से मुझे हार्दिक संतोष मिलता था, अब मैं उस से भी कतराने लग गई थी.

कभी हर्ष कहते, ‘यह तुम्हें क्या होता जा रहा है? तुम पहले तो ऐसी नहीं थीं?’ तो बजाय सीधी बात करने के, मैं गुस्सा करने लगती.

कितने ही डाक्टरों को दिखाया गया. सब का एक ही उत्तर होता, ‘शरीर तो बिलकुल स्वस्थ है, कोई बीमारी नजर ही नहीं आती, क्या इलाज किया जाए? हां, इन्हें अपनेआप को व्यस्त रखना चाहिए.’

जब यही बात हर्ष मुझ से कहते तो मैं बिगड़ उठती, ‘मैं और कैसे व्यस्त रहूं? जितना काम हो सकता है, करती हूं. तुम सोचते हो, मैं झूठ बोलती हूं. तुम्हारे पास तो इतना भी वक्त नहीं, जो आराम से पलभर मेरे पास बैठ कर मेरा सुखदुख जान सको.’

‘तुम क्या चाहती हो, दफ्तर का काम छोड़ कर तुम्हारे दुख में आंसू बहाया करूं? पहले क्या मैं सारा दिन तुम्हारे पास बैठा करता था, जो अब तुम्हें शिकायत है कि मैं बैठता नहीं? मेरे लिए मेरा काम पहला फर्ज है, बाकी सबकुछ बात में, इसे तुम अच्छी तरह जानती हो,’ वे सख्त आवाज में बोले थे, ‘और फिर तुम्हें बीमारी क्या है?’

‘बस, अमीर लोगों के यही तो चोंचले होते है. गरीब की लड़की ले आना ताकि ईमानदार नौकरानी बनी रहे. गरीब की सांस भी उखड़ने लगे तो अमीर समझता है, तमाशा कर रहा है,’ मैं सुबक पड़ी थी.

‘अचला, इस से पहले कि मैं कोई सख्त बात कहूं, तुम यह याद रखना आज के बाद तुम्हारे मुंह से कोई गलत बात न निकले. तुम जानती हो बदतमीजी मुझे बिलकुल पसंद नहीं है,’ और वे गुस्से में चले गए थे.

हर्ष ने मुझ से बोलना कम कर दिया था. मैं और कुढ़ने लग गई थी. बदतमीजी भी मैं ही करती थी और उन से शिकायत भी मुझे ही रहती थी. यह तो मैं आज सोचती हूं न. तब किसे जानने की फुरसत थी? पापा के समझाने पर उन से भी तो मैं ने अनापशनाप कह दिया था.

मेरा चिड़चिड़ापन बढ़ता गया था. बच्चों पर गुस्सा निकालती थी. नौकर की जरा सी लापरवाही पर उसे फटकार देती. हर्ष देर से आते तो तकरार करने लग जाती. एक दिन मैं ने कितने अविश्वास से उन से बात की थी. आज सोचती हूं तो लज्जित हो उठती हूं. कितनी नीचता थी मेरे शब्दों में. शायद उस दिन हर्षजी को कुछ ज्यादा देर हो गई थी. मैं ने उन से कहा था, ‘आज नई कंप्यूटर औपरेटर के साथ कोई प्रोग्राम था?’

‘क्या कहना चाहती हो?’ वे कठोरता से बोले थे.

‘यही कि इतनी देर फिर तुम्हें कहां हो जाती है?’

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‘मैं नहीं समझता था, तुम इतनी नीच भी हो सकती हो. देर क्यों होती है. सब सुनना चाहती हो? इस घर में आने की बात दूर, इस घर की याद भी जाए, अब यह भी मुझ से बरदाश्त नहीं होता. मैं ने क्या सोचा था, क्या हो गया. मेरे सपनों को तुम ने चूरचूर कर दिया है,’ वे तड़प कर बोले थे.

कभीकभी मुझे अपने व्यवहार पर बहुत पछतावा होता. मैं सोचती, ‘ये सब लोग क्या कहते होंगे? आखिर है तो छोटे घर की. स्वभाव कैसे बदलेगी,’ लेकिन यह विचार बहुत थोड़ी देर रहता.

बच्चों को हर्ष ने होस्टल में डाल दिया था. अब वे मेरी ओर से और भी लापरवाह हो गए थे. मैं अब कितना अकेलापन महसूस करने लगी थी. एक दिन मैं ने उन से कहा था, ‘तुम दिनभर औफिस में रहते हो. बच्चों को तुम ने होस्टल में डाल दिया है. दिनभर अकेली मैं बोर होती रहती हूं. इस तरह मैं पागल हो जाऊंगी.’

‘बच्चों को इस उम्र में अपने घर से दूर रहना पड़ा है, इस की वजह भी तो तुम्हीं हो. पहले अपनेआप को बदलो, बच्चे फिर घर आ जाएंगे. जिंदगी में कितने काम होते हैं, आदमी करने लगे तो यह जिंदगी छोटी पड़ जाए उन कामों के लिए, और एक तुम हो जो यह सोचे बैठी हो, कितना काम करूं,’ वे तलखी से बोले थे.

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सुषमा: भाग 1- क्या हुआ अचला के साथ

लेखिका- लीला रूपायन

मेरी कोठी की तीसरी मंजिल की बरसाती आज एक फ्लैट का रूप ले चुकी है. यह वही छत है जिस पर मैं अपना बोनसाई गार्डन प्लान कर रही थी पर कभी बनाया नहीं था. मैं वहां किसी को पांव नहीं रखने देती थी, इसलिए कि यह अपनी खूबसूरती न खो बैठे. आज उसी के एक तरफ मैं ने एक छोटा सा फ्लैट, इस को मैं ने खुद पास खड़े हो कर बनवाया है. सुषमा से मैं ने कितनी बार पूछा था, ‘‘सुषमा, तू भी तो कुछ बता, इस में कोई और काम करवाना हो तो? वरना जब मिस्त्री लोग चले जाएंगे तो कुछ भी नहीं हो सकेगा.’’

‘‘बस, मैडम, बहुत हो गया. कहां हम लोग झुग्गीझोंपड़ी में खस्ताहाल जीवन जीने वाले और कहां आप ने अपने घर की छत पर मेरे लिए कमरा बनवा दिया,’’ वह हाथ जोड़ कर बोली थी.

‘‘हाथ मत जोड़ा कर, सुषमा, मैं ने कितनी बार कहा है. यह तो मेरे लिए खुशी की बात है कि मुझे तुझ जैसी नेक, रहमदिल, समझदार साथिन मिली. नरक तो मैं भुगत रही थी. अगर तू मेरे जीवन में न आती तो ये महकी हुई बहारें मेरे जीवन में कहां से आतीं?’’ मैं ने सुषमा के हाथ पकड़ लिए थे.

‘‘आप तो मुझे शर्मिंदा करती हैं, मैडम. मैं ने ऐसा क्या किया है आप के लिए? बाकी सब बात छोडि़ए, इन हाथों से आप की सेवा तक नहीं कर पाई,’’ सुषमा नतमस्तक हो गई थी.

‘‘तू कभी नहीं जान सकेगी, सुषमा कि तू ने मेरे लिए क्या किया है, और जब जान जाएगी तो उसे छोटी सी बात कह कर तू उस का महत्त्व कम कर देगी. बस, अब तो यही वादा कर कि तू मुझे छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी. मेरी बात को गलत मत समझना, सुषमा. तू अपने कर्तव्य को पूरी तरह निभाएगी, उस के लिए तू स्वतंत्र है. अब तो मैं भी तेरे साथ हूं न,’’ मैं ने हंसते हुए उस के कंधे पर हाथ रख दिया था.

‘‘मेरी दुनिया में और है ही कौन, मालकिन. न बालबच्चा, न पति. न पीहर, न ससुराल. किसी की झोंपड़ी में किराया दे कर रहती थी. सारे दिन की मेहनतमजदूरी कर के वापस आ कर वहां पड़ जाती थी. बस, इसी तरह जिंदगी की गाड़ी खिंच रही थी. न जाने कैसे आप के पांवों तक पहुंच गई. अब आप के कदमों में प्राण निकल जाएं, बस यही इच्छा है. चार बालिश्त कफन तो मिल जाएगा. झुग्गीझोंपड़ी में मरती तो पासपड़ोस वाले पुलिस की गाड़ी में मेरी लाश अस्पताल में चीरफाड़ के लिए भेज देते. जिन्हें एक जून पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता, वे कहां से मेरे लिए लकड़ी का जुगाड़ करते?’’ सुषमा की आंखें भर आई थीं.

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18 साल पहले मेरी खुद की शादी हुई थी. अच्छे खातेपीते परिवार में डोली से जब उतरी थी तो अपनेआप से स्वयं ही वह ईर्ष्या करने लग गई थी. मांबाप की खुशी का ठिकाना ही नहीं था. उन्होंने कभी सपने में भी न सोचा होगा कि उन की बेटी इस तरह राजरानी बन जाएगी.

जैसे ही मैं ने बीए किया था, पिताजी ने आगे पढ़ाने से इनकार कर दिया था. मैं ने नौकरी के लिए हाथपांव मारने शुरू कर दिए थे, ताकि घर के खर्चों में हाथ बंटा सकूं. वह किसी भी तरह का काम करने को तैयार थी. भले ही वह ट्यूशन हो या कोई और छोटामोटा काम. जैसे ही पता चलता कि अमुक जगह काम मिल सकता है, वह वहां जा कर हाथ पसार कर खड़ी हो जाती. कितने ही दिन ठोकरें खाने के बाद जब सफलता मिली तो ऐसे रूप में कि नौकरी तो मिली ही, बाद में पति भी मिल गया.

एक दिन मेरे पिता ने ही कहा था, ‘हमारे डायरैक्टर के कोई रिश्तेदार हैं. उन का अपना व्यापार है. उन्हें एक कंप्यूटर औपरेटर की जरूरत है. तू तो कंप्यूटर भी सीख रही है, बेटी. मैं ने डायरैक्टर से आग्रह तो किया है. अगर वे सिफारिश कर देंगे तो शायद यह नौकरी तुम्हें मिल जाए. तुम दफ्तर में काम कर सकोगी?’

‘हां, पापा, जरूर करूंगी,’ मैं ने बड़े विश्वास से कहा.

सेठजी ने पत्र दे दिया था. जब उस फर्म के मालिक ने उस पत्र को पढ़ा था तो मुझे सिर से ले कर पांवों तक गौर से देखा था. जैसे मुझे तौला जा रहा हो, इतनी छोटी उम्र में मैं क्या नौकरी कर सकूंगी? जाने वह कैसी दृष्टि थी जिसे मैं सहन नहीं कर पा रही थी. और मेरी आंखें जमीन की ओर झुकती ही चली गई थीं. तभी मेरे कानों में उन की गंभीर आवाज पड़ी थी, ‘बहुत जरूरत है इस नौकरी की?’

‘जी हां,’ मैं ने डरतेडरते कहा था.

‘घर में और कौन है कमाने वाला?’

‘केवल मेरे पापा. हम 3 भाईबहन हैं. सब से बड़ी मैं ही हूं. पापा के वेतन से घर का पूरा खर्चा नहीं चलता. इसी लिए मेरी पढ़ाई भी रुक गई है. आप मुझे यह नौकरी दे देंगे तो मेरे पापा की बहुत सहायता हो जाएगी,’ मेरी आवाज भय से कांप रही थी.

‘तुम जानती हो यहां देर तक काम होता है. इसीलिए ज्यादा पुरुष हैं. इतने पुरुषों में काम कर सकोगी? देर हो जाने पर डरोगी तो नहीं?’

‘जी नहीं. आदमी अपने चरित्र पर दृढ़ रहे, कर्तव्य का बोझ कंधों पर हो तो उसे किसी से डर नहीं लगता. मैं आप को वचन देती हूं, मैं आप का काम लगन और ईमानदारी से करूंगी. आप को मुझ से कभी कोई शिकायत नहीं होगी,’ मैं ने दृढ़ता से कहा था.

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‘ठीक है, तुम कल से आ सकती हो,’ और उन्होंने अपने अधीनस्थ कर्मचारी को बुला कर कहा था, ‘यह अचला है. कल से इन की मेज इसी कमरे के बाहर करनी होगी. मुझे उम्मीद है यह मेरा काम संभाल लेगी.’

मुझे वह नौकरी मिल गई थी. आमतौर पर मैं सलवारसूट या साड़ी पहनती थी. एक दिन टौप व जींस पहन कर गई थी तो उन्होंने यह कह कर मुझे दफ्तर से वापस भेज दिया, ‘ऐसा लिबास पहन कर आया करो जिस में गंभीर और शालीन नजर आओ. ऐसा नहीं कि सब लोगों के लिए तुम तमाशा बन जाओ.’

‘साड़ी एक ही थी, छोटी बहन पहन कर कालेज फंक्शन में गई. सलवारकमीज के दोनों जोड़े धुलने गए थे इसीलिए,’ मैं घबरा गई थी.

‘जाओ, कैशियर से एडवांस ले लो और एक और साड़ी खरीद लो. मुझे उम्मीद है भविष्य में तुम हर बात का ध्यान रखोगी. मुझे सस्तापन बिलकुल पसंद नहीं,’ और मुझे एडवांस देने के लिए उन्होंने कैशियर को टैलीफोन कर दिया था.

फिर मैं ने उन्हें शिकायत का कभी मौका नहीं दिया था. मैं बड़ी लगन और मेहनत से काम करती थी. वे मेरा काम देखते और मुसकरा देते. इस से मेरा उत्साह बढ़ जाता.

उन का नाम हर्ष था. वे मेरे काम से इतने खुश थे कि अब वे कई कामों में मेरी सलाह भी ले लेते थे. उन के मोबाइल का नंबर सेव रहता था मेरे दिल में. घर में एक ही मोबाइल था जिसे सब इस्तेल करते थे. हमारे बीच चुप्पी की वह दीवार न जाने कब गिर गई थी जो नौकर और मालिक के बीच होती है. कई बार वे हंस कर कहते, ‘अचला, तुम तो अब मेरी सलाहकार हो गई हो, और सलाहकार अच्छे दोस्त भी होते हैं.’

मेरे सुखदुख और जरूरत का वे हमेशा ध्यान रखते थे. एकदो बार मुझे वे अपने घर भी ले गए थे. वहां उन की मम्मी का मुझे भरपूर स्नेह मिला था. वे ब्लडप्रैशर की मरीज थीं, लेकिन बहुत हंसमुख थीं और यह महसूस ही नहीं होने देती थीं कि वे बीमार हैं.

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हम साथ साथ हैं: भाग 1- क्या जौइंट फैमिली में ढल पाई पीहू

‘‘बताओ न हर्ष, तुम मुझ से कितना प्यार करते हो?’’

‘‘पीहू, रोजरोज यह सवाल पूछ कर क्या तुम मेरा प्यार नापती हो,’’ हर्ष ने पीहू की आंखों में आंखें डाल कर जवाब दिया.

‘‘यस मिस्टर, मैं देखना चाहती हूं कि जैसेजैसे हमारी रोज की मुलाकातें बढ़ती जा रही हैं वैसेवैसे मेरे लिए तुम्हारा प्यार कितना बढ़ रहा है.’’

‘‘क्या तुम्हें नजर नहीं आता कि मैं तुम्हारे लिए पागल हुआ रहता हूं. तुम्हारे ही बारे में सोचता रहता हूं. अब तो यारदोस्त भी कहने लगे हैं कि तू पहले वाला हर्ष नहीं रहा. कुछ तो बात है. पहले तो तू व्हाट्सऐप ग्रुप में सब के साथ कितना ऐक्टिव रहता था. इंस्टाग्राम पर रोज तेरी स्टोरी होती थी.’’

‘‘तो तुम उन्हें क्या जवाब देते हो?’’ पीहू हर्ष के बालों में उंगलियां फेरते

हुए बोली.

हर्ष ने पीहू की कमर में हाथ डाला और उसे अपने और करीब लाते हुए बोला, ‘‘क्या जवाब दूं कि आजकल मेरे ध्यान में, बस, कोई एक छाई रहती है, जिस की कालीकाली आंखों ने मुझे दीवाना बना दिया है. जिस की हर अदा मुझे मदहोश कर देती है. अब तुम्हारा दोस्त किसी काम का नहीं रहा.’’

हर्ष का यह फिल्मी अंदाज पीहू के मन को गुदगुदा गया. हर्ष की ये प्यारभरी बातें उसे बहुत भातीं. मन करता था कि वह उस की तारीफ करता रहे और वह सुनती रहे. एक अजीब से एहसास से सराबोर हो जाता था उस का तनमन.

वाकई हर्ष ने उस की जिंदगी में आ कर उसे जीने का नया अंदाज सिखा दिया था. जिंदादिल, दूसरों की मदद करने में हमेशा आगे, दोस्तों का चहेता, दिल से रोमांटिक, स्मार्ट, इंटैलिजैंट, कितनी खूबियां हैं उस में. बहुत खुशनसीब समझती है वह अपनेआप को कि हर्ष जैसा लवर उसे मिला.

वह अकसर सीमा को थैंक्यू कहती है कि उस दिन उस ने घर में बोर होती उसे मौल घूमने का आइडिया दिया था. तभी तो हर्ष उस की जिंदगी में आया था. कुछ महीने पहले की बात है…

‘यार पीहू, मैं तेरे साथ चलती लेकिन पापा टूर पर गए हैं और मम्मी को ले कर डाक्टर के पास जाना है,’ सीमा ने अपनी मजबूरी जताई.

‘कोई बात नहीं, टेक केयर औफ आंटी. वैसे, तेरा आइडिया बुरा नहीं है कि मौल में शौपिंग करो क्या फर्क पड़ता है, अकेले हैं या किसी के साथ.’

‘वही तो, अब जल्दी तैयार हो जा. कुछ अच्छा दिखे तो मेरे लिए भी ले लेना. समझी,’ सीमा हंसते हुए बोली.

‘हां, बस, तू पहले अपना शुरू कर दे, फैशन की मारी,’ पीहू ने सीमा की टांग खींची और ‘बाय’ कह कर फटाफट तैयार हो कर अपनी कार स्टार्ट की व मौल की तरफ गाड़ी मोड़ दी.

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गाड़ी चलाते हुए अचानक उसे ध्यान आया कि शायद पर्स में कैश तो है ही नहीं. डैबिट कार्ड तो दोदो रखे थे लेकिन कैश तो होना ही चाहिए. ‘कोई बात नहीं एटीएम से निकाल लेती हूं,’ सोचते हुए एक एटीएम के आगे गाड़ी रोक दी. एटीएम के अंदर गई. नई एटीएम मशीन थी, टच स्क्रीन थी. पीहू ने 2 बार ट्राई किया लेकिन ट्रांजैक्शन नहीं हो पाया.

‘उफ, अब क्या करूं’ सोचतेसोचते उस ने एटीएम का दरवाजा जैसे ही खोला वैसे ही एक लड़का उस से ‘एक्सक्यूज मी’ कहता हुआ फटाफट अंदर घुस गया.

पीहू ने बाहर से ही देखा. लड़का बड़ा ही स्मार्टली मशीन औपरेट कर रहा था और उस ने कैश भी निकाल लिया.

‘क्यों न इस से मदद ले लूं,’ वह अभी सोच ही रही थी कि वह लड़का एटीएम से बाहर निकल कर अपनी बाइक पर बैठ गया.

‘एक्सक्यूज मी, कैन यू डू मी अ फेवर, आप जरा देखेंगे. मेरा ट्रांजैक्शन नहीं हो रहा है.’

‘ओह श्योर, चलिए,’ लड़के ने कहा.

पीहू ने उसे अपना कार्ड पकड़ाया तो वह बोला, ‘मैडम, इस तरह किसी को अपना कार्ड नहीं देते.’

‘यू आर राइट. लेकिन आप मुझे शरीफ लगते हैं, इसलिए आप पर भरोसा कर रही हूं,’ पीहू भी जवाब देने में पीछे नहीं रही.

लड़का मुसकरा पड़ा. फिलहाल उस लड़के की मदद से कैश उस के हाथ में आ गया और उसे ‘थैंक्स’ बोल कर वह जल्दी से अपनी गाड़ी में बैठ कर मौल की पार्किंग की तरफ निकल पड़ी व सीधा वहीं जा कर गाड़ी रोकी.

मौल में खासी रौनक थी. पीहू को वहां बहुत अच्छा महसूस हो रहा था. लोगों की चहलपहल, खूबसूरत शोरूम, फूडकोर्ट से आती तरहतरह की डिशेज की महक, सब उसे बेहद पसंद था. पीहू ने पहले शौपर्स स्टौप से अपने लिए टीशर्ट ली. एक सीमा के लिए भी ले ली, वरना ताने देदे कर वह उस की जान खा जाती.

शौपिंग करतेकरते और घूमते हुए फूडकोर्ट तक पहुंच गई तो भला अपनी पसंदीदा कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम कैसे न लेती.

कौफी हाथ में लिए वह बैठने के लिए खाली टेबल देखने लगी. कोने में एक छोटी टेबल खाली थी. पीहू फटाफट वहां जा कर बैठ गई. इत्मीनान से कौफी का मजा लेने लगी.

‘हाय, इफ यू डोंट माइंड, मे आइ सिट हियर?’ आवाज सुन कर पीहू ने मुंह ऊपर उठाया तो वही लड़का हाथ में अपनी ट्रे लिए खड़ा था.

‘ओह, यू. प्लीज. आप को भी मौल आना था?’ पीहू को उस लड़के को देख कर न जाने कुछ अच्छा सा लगा.

‘मैं ने तो आप को शौपिंग करते हुए भी देखा था,’ उस लड़के के मुंह से अचानक निकल गया तो पीहू हलका सा हंस दी और वह लड़का कुछ झेंप सा गया.

‘अच्छा, तो फिर मेरा पीछा करते हुए आप यहां आए हैं?’ पीहू को उस लड़के से बात करना अच्छा लग रहा था.

‘मैडम, मैं शरीफ लड़का हूं, और आप ने खुद यह बात कही थी,’ वह लड़का भोला सा मुंह बनाते हुए बोला.

‘आई एम जस्ट किडिंग, आप तो सीरियस हो गए. एनी वे आई एम पीहू.’

‘पीहू मल्होत्रा, डैबिट कार्ड पर पढ़ लिया था,’ उस लड़के के मुंह से फिर निकला तो पीहू इस बार जोर से हंस पड़ी.

इस बार वह लड़का भी हंस दिया और बोला, ‘हर्ष, हर्ष नाम है मेरा. जनकपुरी में रहता हूं. एमबीए इसी साल कंप्लीट किया और पिछले महीने ही हिताची कंपनी में प्रोडक्ट मैनेजर की पोस्ट मिली है और…’

‘अरे बसबस, तुम तो अपना पूरा प्रोफाइल बताने लगे.’

इस तरह दोनों के बीच बातों का सिलसिला चल पड़ा. पीहू की कौफी खत्म हो गई तो वह बोली, ‘अच्छा हर्ष, अच्छा लगा तुम से मिल कर.’

‘सेम हियर. प्लीज कीप इन टच,’ हर्ष पीहू को गहरी नजरों से देखता हुआ बोला.

पीहू ने कुछ जवाब नहीं दिया. बस, मुसकरा भर दी.

घर पहुंचतेपहुंचते 8 बज गए थे. जैसे ही घर पहुंची, मम्मी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी, ‘कहां, क्यों, किस के साथ, अचानक कैसे, क्या खरीदा?’

‘मम्मी प्लीज, मैं बहुत थक गई हूं. भूख बिलकुल नहीं है, इसलिए डिनर नहीं करूंगी. बस, चेंज कर के मैं सोने जा रही हूं.’

‘लेकिन बेटा, कुछ तो खा ले. तेरा मनपसंद पुलाव बनाया है,’ रेखा मनुहार करती पीहू से बोली.

‘अच्छा, थोड़ी देर बाद भूख लगी, तो खा लूंगी, पर अभी मुझे रैस्ट करने दो.’

‘बड़ी अजीब लड़की है. कभी भी, कहीं भी चल देती है. बड़ी जल्दी बोर हो जाती है. हमेशा लोगों के बीच रहना चाहती है. अब जब फैमिली ही छोटी है तो क्या करूं,’ रेखा मन ही मन बुदबुदाती रही.

मम्मी रेखा और पापा विनय की इकलौती संतान है पीहू. दिल्ली के कीर्तिनगर बाजार में फर्नीचर का अच्छा शोरूम है उन का. कीर्तिनगर में ही 300 गज की दोमंजिली कोठी है उन की. कुल मिला कर पीहू अमीरी में पलीबढ़ी है. सारे ऐशोआराम मिले हैं उसे. मम्मीपापा की तो जान है वह.

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पीहू पढ़ाईलिखाई में ठीकठाक थी. रचनात्मकता की उस में कमी नहीं थी. इसलिए स्कूली शिक्षा पूरी होने के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए के बाद जेडी इंस्टिट्यूट औफ फैशन टैक्नोलौजी से उस ने 2 साल का इंटीरियर डिजाइन का पीजी डिप्लोमा किया.

पीहू ने कई बड़ी कंपनियों में अपना सीवी पोस्ट किया था. अगले हफ्ते के लिए उसे गुरुग्राम स्थित एक बड़ी फर्म से इंटरव्यू कौल आई हुई थी. पीहू ने अभी तक तय नहीं किया कि वह जाएगी भी या नहीं.

खैर, पीहू ने अपने कमरे में आ कर कपड़े चेंज किए और बैड पर लेट गई. सच में, मौल घूम कर वह काफी थक गई थी. पता नहीं क्यों उस की आंखों के आगे बारबार हर्ष का चेहरा आ रहा था. थकावट के मारे नींद नहीं आ रही थी. वह उठ कर बैठ गई और अपना मोबाइल चैक करने लगी. मोबाइल पर ही फेसबुक देखने लगी. हर्ष ने फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी हुई थी. पीहू ने झट एक्सैप्ट कर ली. उस के बाद वह मोबाइल साइड में रख कर सो गई.

आगे पढें- घर लौटते हुए उस के पांव जमीं पर…

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नीड़ का निर्माण फिर से: भाग 3- क्या मानसी को मिला छुटकारा

लेखक- श्रीप्रकाश

एक रोज किसी बात पर दोनों में तकरार हो गई. पतिपत्नी की रिश्ते के लिहाज से ऐसी तकरार कोई माने नहीं रखती. मानसी के सासससुर दिल्ली गए थे. मनोहर को बहाना मिला. वह बाहर निकला तो देर रात तक आया नहीं. उस रात मानसी बेहद घबराई हुई थी. ‘अचला, मनोहर अभी तक घर नहीं आया. वह शाम से निकला है,’ वह फोन पर सुबकने लगी.

‘अकेली हो?’ अचला ने पूछा.

‘हां, घबराहट के मारे मेरी जान सूख रही है. उसे कुछ हो गया तो?’

अचला ने अपने पति को जगा कर सारा वाकया सुनाया तो वह कपड़े पहन कर मनोहर की तलाश में बाहर निकला. 10 मिनट बाद मानसी का फिर फोन आया, ‘अचला, मनोहर घर के बाहर गिरा पड़ा है. मुझे लगता है कि वह नशे में धुत्त है. अपने पति से कहो कि वह आ कर किसी तरह उसे अंदर कर दें.’

अगली सुबह मानसी आफिस आई तो वह अंदर से काफी टूटी हुई थी. मनोहर ने उस के विश्वास के साथ छल किया था जिस का उसे सपने में भी भान न था. कुछ कहने से पहले ही मानसी की आंखें डबडबा गईं. ‘बोल, अब मैं क्या करूं. सब कर के देख लिया. 5 साल कम नहीं होते. ठेकेदारी के चलते मेरे सारे गहने बिक गए. जिस पर मैं ने उसे अपनी तनख्वाह से मोटरसाइकिल खरीद कर दी कि कोई कामधाम करेगा…’

अचला विचारप्रक्रिया में डूब गई, ‘तुम्हें परिस्थिति से समझौता कर लेना चाहिए.’

अचला की इस सलाह पर मानसी बिफर पड़ी, ‘यानी वह रोज घर बेच कर पीता रहे और मैं सहती रहूं. क्यों? क्योंकि एक स्त्री से ही समझौते की अपेक्षा समाज करता है. सारे सवाल उसी के सामने क्यों खड़े किए जाते हैं?’

‘क्योंकि स्त्री की स्थिति दांतों के बीच फंसी जीभ की तरह होती है.’

‘पुरुष की नहीं जो स्त्री के गर्भ से निकलता है. स्त्री चाहे तो उसे गर्भ में ही खत्म कर सकती है,’ मानसी की त्योरियां चढ़ गईं.

‘हम ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि कोई भी स्त्री अपनी कृति नष्ट नहीं कर सकती.’

‘यही तो कमजोरी है हमारी जिस का नाजायज फायदा पुरुष उठाता रहा.’

‘तलाक ले कर तुझे मिलेगा क्या?’

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‘एक स्वस्थ माहौल जिस की मैं ने कामना की थी. अपनी बेटी को स्वस्थ माहौल दूंगी. उसे पढ़ाऊंगी, स्वावलंबी बनाऊंगी,’ मानसी के चेहरे से आत्म- विश्वास साफ झलक रहा था.

‘कल वह भी किसी पुरुष का दामन थामेगी?’ अचला ने सवालिया निगाह से देखा.

‘पर वह मेरी तरह कमजोर नहीं होगी. वह झूठे आदर्श, प्रथा, परंपरा ढोएगी नहीं, बल्कि उस का आत्मसम्मान सर्वोपरि होगा.’

‘मानसी, तू जवान है, खूबसूरत है, कैसे बच पाएगी पुरुषों की कामुक नजरों से? भूखे भेडि़यों की तरह सब मौका तलाशेंगे.’

‘ऐसा कुछ नहीं होगा. अगर हम अंदर से अविचलित रहें तो मजाल है जो कोई हमारी तरफ नजर उठा कर भी देखे,’ मानसी के दृढ़निश्चय के आगे अचला निरुत्तर थी.

अदालत में मानसी ने जब तलाक की अरजी दी तो एक पल के लिए सभी स्तब्ध रह गए. किसी को भरोसा नहीं था कि मानसी इतने बड़े फैसले को साकार रूप देगी. उधर जब मनोहर को तलाक का नोटिस मिला तो वह भी सकते में आ गया.

‘आखिर उस ने अपनी जात दिखा ही दी. मैं तो पहले ही इस शादी के खिलाफ थी. जिस लड़की का माथा चौड़ा हो उस के पैर अच्छे नहीं होते,’ मनोहर की मां मुंह बना कर बोलीं.

‘तुम्हारे बेटे ने कौन सा अपनी जात का मान रखा,’ मनोहर के पिता उसी लहजे में बोले.

‘तुम तो उसी कुलकलंकिनी का पक्ष लोगे,’ वह तत्काल असलियत पर आ गई, ‘अच्छा है, इसी बहाने चली जाए. बेटे की शादी धूमधाम से करूंगी. मेरा बेटा उस के साथ कभी भी सुखी नहीं रहा,’ टसुए बहाते मनोहर की मां बोलीं.

‘इस गफलत में मत रहना कि तुम्हारा बेटा पुरुष है इसलिए उस के हर गुनाह को लोग माफ कर देंगे. मानसी पर उंगली उठेगी तो मनोहर भी अछूता नहीं रहेगा,’ मनोहर के पिता बोले.

‘मैं यह सब नहीं मानती. बेटा खरा सोना होता है. लड़की वाले दरवाजा खटखटाएंगे,’ मनोहर की मां ऐंठ कर बोलीं.

‘शादी तो बाद में होगी पहले इस नोटिस का क्या करें,’ मनोहर की ओर मुखातिब होते हुए उस के पिता बोले.

मनोहर किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहा.

‘यह क्या बोलेगा?’ मनोहर की मां तैश में बोलीं.

‘तुम चुप रहो,’ मनोहर के पिता ने डांटा, ‘यह मनोहर और मानसी के बीच का मामला है.’

मनोहर बिना कुछ बोले ऊपर कमरे में चला गया. कदाचित वह भी इस अनपेक्षित स्थिति के लिए तैयार न था. रहरह कर उस के सामने कभी मानसी तो कभी चांदनी का चेहरा तैर जाता. उसे मानसी खुदगर्ज और घमंडी लगी. जिसे अपनी कमाई पर गुमान था. जब मानसी अलग रहने के लिए जाने लगी थी तो मनोहर और उस के पिता ने उसे काफी समझाया था. परिवार की मानमर्यादा का वास्ता दिया पर वह टस से मस न हुई.

10 रोज बाद मनोहर मानसी के घर आया.

‘मानसी, मैं तुम्हारे पैर पड़ता हूं. घर चलो. लोग तरहतरह की बातें करते हैं.’

मनोहर के कथन को नजरअंदाज करते हुए मानसी की त्योरियां चढ़ गईं, ‘तुम यहां भी आ गए. मैं अब उस घर में कभी नहीं जाऊंगी.’

‘मैं शराब को हाथ तक नहीं लगाऊंगा.’

‘तुम ने आज भी पी है.’

‘क्या करूं, तुम सब के बगैर जी नहीं लगता,’ उस का स्वर भीग गया.

‘मैं हर तरह से देख चुकी हूं. अब कोई गुंजाइश नहीं,’ मानसी ने नफरत से मुंह दूसरी तरफ फेर लिया.

‘तो ठीक है, देखता हूं कैसे लेती हो तलाक,’ मनोहर पैर पटकते हुए चला गया.

कोर्ट के कई चक्कर काटने के बाद जिस दिन मानसी को फैसला मिलने वाला था उस रोज दोनों ही पक्ष के लोग थे. मनोहर व उस के मांबाप. इधर मानसी के मम्मीपापा. मनोहर की मां को छोड़ कर सभी के चेहरे लटके हुए थे. जज ने कहा, ‘अभी भी मौका है, आप अपने फैसले पर फिर से विचार कर सकती हैं.’

मानसी ने कोई जवाब नहीं दिया.

‘सर, यह क्या बोलेगी. औरत पर हाथ उठाने वाला आदमी पति के नाम पर कलंक है. बेहतर होगा आप अपना फैसला सुनाएं,’ मानसी का वकील बोला.

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‘आप थोड़ी देर शांत हो जाइए. मुझे इन के मुख से सुनना है,’ जज ने हाथ से इशारा किया.

क्षणांश चुप्पी के बाद मानसी बोली, ‘सर, मनोहर और मेरे बौद्धिक स्तर नदी के दो किनारों की तरह हैं जो कभी भी एक नहीं हो सकते.’

जज ने अपना फैसला सुना दिया. यानी तलाक. मनोहर इस फैसले से खुश न था. उस का जी हुआ कि मानसी का गला घोंट दे. वह मानसी को थप्पड़ मारने जा रहा था कि उस के पिता बीच में आ गए. ‘खबरदार, जो हाथ लगाया. तेरा और उस का रिश्ता खत्म हो चुका है.’

तलाक की खबर पा कर मनोहर के बड़े भाईबहन, जो दूसरे शहरों में थे, आ गए.

‘तू ने जीतेजी हम सब को मार डाला,’ भाई राकेश बोला, ‘क्या मुंह दिखाएंगे समाज में.’

मनोहर की बहन प्रतिमा मानसी के घर आई. मानसी ने उन्हें ससम्मान बिठाया.

‘मानसी, मुझे इस फैसले से दुख है. न मेरा भाई ऐसा होता न ही तुम्हें ऐसा कठोर कदम उठाने के लिए विवश होना पड़ता. मैं उस की तरफ से तुम से माफी मांगती हूं,’ प्रतिमा भरे मन से बोली.

‘दीदी, आप दिल छोटा मत कीजिए. मुझे किसी से कोई गिलाशिकवा नहीं.’

‘मुझे चांदनी की चिंता है. मेरा तो उस से रिश्ता खत्म नहीं हुआ,’ चांदनी के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए प्रतिमा बोली.

‘दीदी, खून के रिश्ते क्या आसानी से मिटाए जा सकते हैं,’ मानसी भी भावुक हो उठी.

प्रतिमा उठ कर जाने लगी तो मानसी बोली, ‘चांदनी के लिए आप हमेशा बूआ ही रहेंगी.’

दरवाजे तक आतेआते भरे मन से प्रतिमा बोली, ‘मानसी, कागज पर लिख या मिटा देने से रिश्ते खत्म नहीं हो जाते. तुम्हारे और मनोहर के बीच रिश्तों की एक कड़ी है जिसे मिटाया नहीं जा सकता.’

मनोहर प्राय: अपने कमरे में गुमसुम पड़ा रहता. न समय पर खाता न पीता. अब उस ने ज्यादा ही शराब पीनी शुरू कर दी. पैसा पिता से लड़झगड़ कर ले लेता. पहले जब कभी मानसी रोकटोक लगाती थी तो वह पीना कम कर देता. अब तो वह भी न रही. निरंकुश दिनचर्या हो गई थी उस की. एक दिन शराब पी कर आया तो अपनी मां से उलझ गया :

‘तुम ने मेरी जिंदगी बरबाद की है. तुम ने हमेशा मानसी से नफरत की है. उस के खिलाफ मुझे भड़काया.’

‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे. मानसी मेरी नहीं तेरी वजह से गई है. बेटा, जो औरत ससुराल की देहरी लांघती है वह औरत नहीं वेश्या होती है. तेरे सामने तो एक लंबी जिंदगी पड़ी है. तेरा ब्याह अच्छे घराने में कराऊंगी,’ मनोहर की मां की आंखों में अजीब सी चमक थी.

‘नहीं करना है मुझे ब्याह,’ मनोहर धम्म से सोफे पर गिर पड़ा.

आगे पढ़ें- राकेश के कथन पर मनोहर बोला…

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आखिरी दांव

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लड़ाई जारी है: भाग 1- सुकन्या ने कैसे जीता सबका दिल

‘बुआ, दादीं की तबियत ठीक नहीं है. वह तो एम्बुलेंस मिल गई वरना लॉक डाउन के कारण आना भी कठिन हो जाता. उन्हें मेडिकल कॉलेज में एडमिट करवा दिया है. पल्लव भी नहीं आ पा रहा है, माँ को तो आप जानती ही है, ऐसी स्थिति में नर्वस हो जाया करती हैं, यदि आप आ जायें तो….’ फोन पर परेशान सी सुकन्या ने कहा.

क्या, माँ बीमार है…पहले क्यों नहीं बताया ? शब्द निकलने को आतुर थे कि मनीषा ने अपनी शिकायत मन में दबाकर कहा …

‘ तू चिंता मत कर, मैं शीध्र से शीध्र पहुँचने का प्रयत्न करती हूँ….’

सुदेश जो आफिशियल कार्य से विदेश गये थे,  कल ही लौटे थे. उन्हें चौदह दिन का क्वारेंन्टाइन पूरा करना है. मनीषा ने उनके लिये खाना, पानी तथा फल इत्यादि कमरे के दरवाजे पर रखे स्टूल पर रख दिया तथा सुकन्या की बात उन्हें बताते हुये उनसे कहा कि वह जल्दी से जल्दी घर लौटने का प्रयत्न करेगी. आवश्यकता के समय लॉक डाउन में एक व्यक्ति तो जा ही सकता है…सोचकर उसने गाड़ी निकाली और चल पड़ी…. गाड़ी के चलने के साथ ही बिगड़ैल बच्चे की तरह मन अतीत की ओर चल पड़ा….

सुकन्या, उसकी पुत्री न होकर भी उसके दिल के बहुत करीब है. वह उसके भाई शशांक और अनुराधा भाभी की पहली संतान है. घर में बीस वर्ष पश्चात् जब बेटी ने जन्म लिया तो सिवाय माँ के सबने उसका उत्साह से स्वागत किया था. भाई की तो वह आँखों का तारा थी….नटखट और चुलबुली….अनुप्रिया भाभी के लिये वह खिलौना थी. माँ की एक ही रट थी कि उन्हें घर का वारिस चाहिये. उनकी जिद का परिणाम था कि एक वर्ष पश्चात् वारिस आ भी गया. माँ तो पल्लव के आने से अत्यंत प्रसन्न हुई. भाभी पल्लव का सारा काम करके यदि सुकन्या की ओर ध्यान देती तो माँ खीज कर कहती, ‘न जाने कैसी माँ है, जो बेटे पर ध्यान ही नहीं देती है, अरे, बेटी तो पराया धन है, ज्यादा लाड़ जतायेगी तो बाद में पछतायेगी….’

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‘ माँ इसीलिये तो इसे ज्यादा प्यार देना चाहती हूँ. बेटा तो सदा मेरे पास रहेगा…तब इसके हिस्से का प्यार भी तो वही पायेगा….’ कहकर वह मुस्करा देती और माँ खीजकर रह जाती.

कहते हैं कि खुशी की मियाद कम होती है, यही भाभी के साथ हुआ…तीस वर्ष की कमसिन उम्र में ही राजन भइया दो फूल उनकी झोली में डाल कर, एक एक्सीडेंट में चल बसे. भाभी की अच्छी भली जिंदगी बदरंग हो गई थी. कच्ची उम्र में विवाह हो जाने के कारण, भाभी की शिक्षा अधूरी रह गई थीं. मामूली नौकरी कर शहर में रहना पिताजी, उनके ससुरजी को नहीं भाया था. वैसे भी वे उन लोगों में थे जिन्हें औरतों का घर से निकलना पसंद नहीं था.

पिताजी भाभी और बच्चों को अपने साथ गाँव ले आये. यह सच है कि उन्होने भाभी को किसी तरह की कमी नहीं होने दी किन्तु माँ उन्हें सदा भाई की मृत्यु का दोषी मानतीं रहीं इसलिये उनके कोप का भाजन भाभी के साथ नन्हीं सुकन्या भी होती. यह सब पापा की अनुपस्थिति में होता…नतीजा यह हुआ कि भाभी तो चुप हो ही गई जबकि नन्हीं दस वर्षीया सुकन्या डरी-डरी अपने ही अंतःकवच में कैद होने लगी थी.

पिताजी के सामने खुश रहने का नाटक करते-करते भाभी थक गई थीं. रात के अँधेरे में मन चीत्कार कर उठता तो वह अवश बैठी चीत्कार को मन ही मन में दबाते हुए अपनी खुशी सुकन्या और पल्लव में ढूँढने का प्रयास करती. उसकी जिंदगी एक ऐसी कटी पतंग के समान बन गई थी जिसकी कोई मंजिल नहीं थी…बस दूसरों की सोच एवं सहारे जीना ही उनका आदि और अंत हो चला था. ससुराल के अलावा उनका कोई और था भी नहीं, माता पिता बचपन में चल बसे थे, जिन चाचा ने उन्हें पाला पोसा, विवाह किया, वे भी नहीं रहे थे. चाची अपने बेटों के सहारे जीवन बसर कर रही थीं. शशांक भाई की मृत्यु पर वह शोक जताने आई थीं…साथ में अपनी विवशता भी जता गईं. आज के युग में जब अपने भी पराये हो जाते हैं तो किसी अन्य से क्या आशा…!! भाभी ने स्वयं को वक्त के हाथों सौंप दिया था.

जब भी मनीषा जाती तो भाभी दिल का दर्द उसके साथ बाँटकर हल्की हो लेती थी. भाभी के लाइलाज दर्द को वह भी कैसे कम कर पाती…? माँ से इस संदर्भ में बात करती तो वह कह देतीं कि तू अपना घर देख, मुझे अपना घर देखने दे. वह पापा को सारी बातें बताकर घर में दरार नहीं डालना चाहती थी अतः चुप ही रहती.

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माँ सदा से ही डोमिनेंटिग थी. उन्हीं की इच्छा के कारण वह भी ज्यादा नहीं पढ़ पाई थी किन्तु उसका भाग्य अच्छा था जो पिता की मजबूत स्थिति के कारण उसके ससुर ने अपने आई.आई.टियन बेटे के लिए न केवल उसे चुना वरन उसकी इच्छानुसार पढ़ने की इजाजत भी दी थी. आज वह पी.एच.डी करके महिला विद्यालय में प्रोफेसर है.

पल्लव अपने पिता के समान तीक्ष्ण बुद्धि का था. वह इंजीनियर बनना चाहता था. जब वह पढ़ने बैठता तो दादी का प्यार उस पर उमड़ आता. वह स्वयं उसे अपने हाथ से खिलातीं जबकि सुकन्या को कुछ खिलाना तो दूर, जब भी वह पढ़ने बैठती, माँ कहतीं,‘ अरे, घर का काम सीख, किताबों में आँखें न फोड़, हमारे घर की लड़कियाँ नौकरी नहीं करतीं, हाँ, ससुराल वाले करवाना चाहें तो बात दूसरी है.’

एक बार मनीषा घर गई…सुकन्या सो गई थी तथा ननद भाभी अपने सुख-दुख बाँट रहीं थीं तभी सुकन्या बड़बड़ाने लगी…मुझे कोई प्यार क्यों नहीं करता…मुझे कोई प्यार नहीं करता… है भगवान मुझे पैदा ही क्यों किया…इसके साथ ही उसका पूरा शरीर पसीने से लथ-पथ हो गया था…. अस्फुट स्वर में कहे उसके शब्द मनीषा के मर्म को चोट पहुंचाने लगे. उसकी ऐसी हालत देखकर मनीषा ने अनुराधा से पूछा तो उसने कहा पिछले एक वर्ष से इसकी यही हालत है दीदी…शायद माँजी के व्यवहार ने इसे भयभीत कर दिया है. यह डरपोक और दब्बू बनती जा रही है…अब तो बात करने में हकलाने भी लगी है.

सुकन्या की हालत देखकर मनीषा ने माँ को समझाते हुये कहा, ‘ माँ तुम्हारा अपने प्रति ऐसा रवैया मैं आज तक नहीं भूली हूँ…. सुकन्या तुम्हारी पोती है तुम्हारे बेटे का अंश…. क्या तुम उसे दुख पहुँचकर अपने बेटे की स्मृतियों के साथ छल नहीं कर रही हो…? अगर भइया आज जीवित होते तो क्या वह अपनी बेटी के साथ तुम्हारा व्यवहार सह पाते ?  इस बच्ची से तुमने इसकी सारी मासूमियत छीन ली है…देखो कैसी डरी, सहमी रहती है. भाई की असामयिक मृत्यु तथा तुम्हारी प्रताड़ना से भाभी का जीवन तो बदरंग बन ही गया है, अब इस मासूम का जीवन बदरंग मत बनाओ.’

‘ तू अपनी सीख अपने पास ही रख, मुझे शिक्षा मत दे….’ तीखे स्वर में माँ ने कहा.

‘ माँ अब मैं पहले वाली मनीषा नहीं हूँ, मुझे पता है पापा को कुछ पता नहीं होगा…मैं तुम्हारी सारी बातें पापा को बता दूँगी.’

मनीषा की धमकी काम आई थी. माँ का सुकन्या के प्रति रवैया बदला था किन्तु अनु भाभी पर माँ बेटी में दरार डालने का आरोप भी लगा दिया.

मनीषा ने जाते हुए पल्लवी से कहा था, ‘बेटा, रो-रोकर जिंदगी नहीं जीई जाती…मेहनत कर…पढ़ाई में मन लगा, अच्छे नम्बर ला…. जब तू कुछ बन जायेगी तो तेरी यही दादी तुझे प्यार करेंगी. वह तुझे कमजोर करने के लिये नहीं वरन् मजबूत बनाने के लिये डाँटती हैं.’

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मनीषा ने उसके नन्हें दिल में विश्वास की नन्हीं लौ जगाई थी. वह जानती थी कि वह झूठ बोल रही है पर सुकन्या में आशा का संचार करने के लिये उसे यही उपाय समझ में आया था. सुकन्या ने उसकी बात कितनी समझी किन्तु अनुराधा कहती कि अब वह पढ़ाई में मन लगाने लगी है.

परिस्थतियों ने पल्लव को समय से पहले परिपक्व बना दिया था. पल्लव अपने पापा के समान इंजीनियर बनना चाहता था अतः दादाजी ने उसका दाखिला शहर के बोर्डिंग स्कूल में करवा दिया था. सुकन्या भी धीरे-धीरे अपने डर से निजात पाकर पढाई में मन लगाने की कोशिश करने लगी थी.

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नीड़ का निर्माण फिर से: भाग 2- क्या मानसी को मिला छुटकारा

लेखक- श्रीप्रकाश

मानसी कहती रही, ‘किसी औरत के लिए पहला प्यार भुला पाना कितना मुश्किल होता है, शायद तुम सोच भी नहीं सकते हो. वह भी तुम्हारा अचानक चले जाना…कितनी पीड़ा हुई मुझे…क्या तुम्हें इस का रंचमात्र भी गिला है?’ ‘मानसी, परिस्थिति ही ऐसी आ गई कि मुझे एकाएक चेन्नई नौकरी ज्वाइन करने जाना पड़ा. फिर भी मैं ने अपनी बहन कविता से कह दिया था कि वह तुम्हें मेरे बारे में सबकुछ बता दे.’ थोड़ी देर बाद राज ने सन्नाटा तोड़ा, ‘मानसी, एक बात कहूं. क्या हम फिर से नई जिंदगी नहीं शुरू कर सकते?’ राज के इस अप्रत्याशित फैसले ने मानसी को झकझोर कर रख दिया. वह खामोश बैठी अपने अतीत को खंगालने लगी तो उसे लगा कि उस के ससुराल वाले क्षुद्र मानसिकता के हैं. सास आएदिन छोटीछोटी बातों के लिए उसे जलील करती रहती हैं, वहीं ससुर को उन की गुलामी से ही फुर्सत नहीं. कौन पति होगा जो बीवी की कमाई खाते हुए लज्जा का अनुभव न करता हो.

‘क्या सोचने लगीं,’ राज ने तंद्रा तोड़ी. ‘मैं सोच कर बताऊंगी,’ मानसी उठ कर जाने लगी तो राज बोला, ‘मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा.’ आज मानसी का आफिस में मन नहीं लग रहा था. ऐसे में उस की अंतरंग सहेली अचला ने उस का मन टटोला तो उस के सब्र का बांध टूट गया. उस ने राज से मुलाकात व उस के प्रस्ताव की बातें अचला को बता दीं. ‘तेरा प्यार तो मिल जाएगा पर तेरी 3 साल की बेटी का क्या होगा? क्या वह अपने पिता को भुला पाएगी? क्या राज को सहज अपना पिता मान लेगी?’ इस सवाल को सुन कर मानसी सोच में पड़ गई.  ‘आज तुम भावावेश में फैसला ले रही हो. कल राज कहे कि चांदनी नाजायज औलाद है तब. तब तो तुम न उधर की रहोगी न इधर की,’ अचला समझाते हुए बोली.

‘मैं एक गैरजिम्मेदार आदमी के साथ पिसती रहूं. आफिस से घर आती हूं तो घर में घुसने की इच्छा नहीं होती. घर काट खाने को दौड़ता है,’ मानसी रोंआसी हो गई. ‘तू राज के साथ खुश रहेगी,’ अचला बोली. ‘बिलकुल, अगर उसे मेरी जरूरत न होती तो क्यों लौट कर आता. उस ने तो अब तक शादी भी नहीं की,’ मानसी का चेहरा चमक उठा. ‘मनोहर के साथ भी तो तुम ने प्रेम विवाह किया था.’ ‘प्रेम विवाह नहीं समझौता. मैं ने उस से समझौता किया था,’ मानसी रूखे मन से बोली. ‘मनोहर क्या जाने, वह तो यही समझता होगा कि तुम ने उसे चाहा है. बहरहाल, मेरी राय है कि तुम्हें उसे सही रास्ते पर लाने का प्रयास करना चाहिए. वह तुम्हारा पति है.’

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‘मैं ने उसे सुधारने का हरसंभव प्रयास किया. चांदनी की कसम तक दिलाई.’ ‘हताशा या निराशा के भाव जब इनसान के भीतर घर कर जाते हैं तो सहज नहीं निकलते. तू उसे कठोर शब्द मत बोला कर. उस की संगति पर ध्यान दे. हो सकता है कि गलत लोगों के साथ रह कर वह और भी बुरा हो गया हो.’ ‘आज तू मेरे घर चल, वहीं चल कर इत्मीनान से बातें करेंगे.’

इतना बोल कर अचला अपने काम में जुट गई. अचला के घर आ कर मानसी ने देर से आने की सूचना मनोहर को दे दी. ‘राज के बारे में और तू क्या जानती है?’ अचला ने चाय का कप बढ़ाते हुए पूछा. ‘ज्यादा कुछ नहीं,’ मानसी कप पकड़ते हुए बोली. ‘सिर्फ प्रेमी न, यह भी तो हो सकता है कि वह तेरे साथ प्यार का नाटक कर रहा हो. इतने साल बाद वह भी यह जानते हुए कि तू शादीशुदा है, क्यों लौट कर आया? क्या वह नहीं जानता कि सबकुछ इतना आसान नहीं. कोई विवाहिता शायद ही अपना घर उजाड़े?’ अचला बोली, ‘जिस्म की सड़न रोकने के लिए पहले डाक्टर दवा देता है और जब हार जाता है तभी आपरेशन करता है. मेरा कहा मान, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है.

अपने पति, बच्चों की सोच. शादी की है अग्नि के सात फेरे लिए हैं,’ अचला का संस्कारी मन बोला. मानसी की त्योरियां चढ़ गईं, ‘क्या निभाने की सारी जिम्मेदारी मेरी है, उस की नहीं. क्या नहीं किया मैं ने. नौकरी की, बच्चे संभाले और वह निठल्लों की तरह शराब पी कर घर में पड़ा रहता है. एक गैरजिम्मेदार आदमी के साथ मैं सिर्फ इसलिए बंधी रहूं कि हमारा साथ सात जन्मों के लिए है,’ मानसी का गला भर आया. ‘मैं तो सिर्फ तुम्हें दुनियादारी बता रही थी,’ अचला ने बात संभाली.

‘मैं ने मनोहर को तलाक देने का मन बना लिया है,’ मानसी के स्वर में दृढ़ता थी. ‘इस बारे में तुम अपने मांबाप की राय और ले लो. हो सकता है वे कोई बीच का रास्ता सुझाएं,’ अचला ने कह कर बात खत्म की.  मानसी के मातापिता उस के फैसले से दुखी थे.

‘बेटी, तलाक के बाद औरत की स्थिति क्या होती है, तुम जानती हो,’ मां बोलीं. ‘मम्मी, इस वक्त मेरी जो मनोस्थिति है, उस के बाद भी आप ऐसा बोल रही हैं,’ मानसी दुखी होते हुए बोली. ‘क्या स्थिति है, जरा मैं भी तो सुनूं,’ मानसी की सास तैश में आ गईं. वहीं बैठे मनोहर के पिता ने इशारों से पत्नी को चुप रहने के लिए कहा. ‘तलाक से तुम्हें क्या हासिल हो जाएगा,’ मानसी के पापा बोले. ‘सुकून, शांति…’ दोनों शब्दों पर जोर देते हुए मानसी बोली. ‘अब आप ही समझाइए भाई साहब,’ मानसी के पापा उस के ससुर से हताश स्वर में बोले. ‘मैं ने तो बहुत कोशिश की.

पर जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो कोई क्या कर सकता है,’ उन्होंने एक गहरी सांस ली. मनोहर वहीं बैठा सारी बातें सुन रहा था. ‘मनोहर तुम क्या चाहते हो? मानसी के साथ रहना या फिर हमेशा के लिए अलगाव?’ मानसी के पापा वहीं पास बैठे मनोहर की तरफ मुखातिब हो कर बोले. क्षणांश वह किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहा फिर अचानक बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगा. उस की दशा पर सब का मन द्रवित हो गया.

‘मैं क्या हमेशा से ऐसा रहा,’ मनोहर बोला, ‘मैं मानसी से बेहद प्यार करता हूं. अपनी बेटी चांदनी को एक दिन न देखूं तो मेरा दिल बेचैन हो उठता है.’

‘जब ऐसी बात है तो उसे दुख क्यों देता है,’ मानसी की मां बोलीं.

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‘मम्मी, मैं ने कई बार कोशिश की पर चाह कर भी अपनी इस लत को छोड़ नहीं पाया.’

मनोहर के इस कथन पर सब सोच में पड़ गए कि कहीं न कहीं मनोहर के भीतर भी अपराधबोध था. यह जान कर सब को अच्छा लगा. मनोहर को अपने परिवार से लगाव था. यही एक रोशनी थी जिस से मनोहर को पुन: नया जीवन मिल सकता था.

मानसी की मां उसे एकांत में ले जा कर बोलीं, ‘बेटी, मनोहर उतना बुरा नहीं है जितना तुम सोचती हो. आज उस की जो हालत है सब नशे की वजह से है. नशा अच्छेअच्छे के विवेक को नष्ट कर देता है. मैं तो कहना चाहूंगी कि तुम एक बार फिर कोशिश कर के देखो. उस की जितनी उपेक्षा करोगी वह उतना ही उग्र होगा. बेहतर यही होगा कि तुम उसे स्नेह दो. हो सके तो मां जैसा अपनत्व दो. एक स्त्री में ही सारे गुण होते हैं. पत्नी को कभीकभी पति के लिए मां भी बनना पड़ता है.’

मानसी पर मां की बातों का प्रभाव पड़ा. इस बीच उस की सास ने कुछ तेवर दिखाने चाहे तो मनोहर ने रोक दिया, ‘आप हमारे बीच में मत बोलिए.’

‘क्या तुम शराब पीना छोड़ोगे?’ अपने पिता के यह पूछने पर मनोहर ने सिर झुका लिया.

‘तुम्हारे गुरदे में सूजन है. तुम्हें इलाज की सख्त जरूरत है. मैं तुम्हें दिल्ली किसी अच्छे डाक्टर को दिखाऊं तो तुम मेरा सहयोग करोगे?’ वह आगे बोले.

मनोहर मानसी की तरफ याचना भरी नजरों से देख कर बोला, ‘बशर्ते मानसी भी मेरे साथ दिल्ली चलेगी.’

‘मेरे काम का हर्ज होगा,’ मानसी बोली.

‘देख लिया पापा. इसे अपने काम के अलावा कुछ सूझता ही नहीं,’ मनोहर अपने ससुर की तरफ मुखातिब हो कर कुछ नाराज स्वर में बोला.

‘बेटी, उसे तुम्हारा सान्निध्य चाहिए. तुम पास रहोगी तो उसे बल मिलेगा,’ मानसी के पिता बोले.

मानसी 10 दिन दिल्ली रह कर आई तो मनोहर काफी रिलेक्स लग रहा था. उस ने शराब पीनी छोड़ दी थी. ऐसा मानसी का मानना था लेकिन हकीकत कुछ और थी. मनोहर अब चोरी से नशा करता था.

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Holi Special: वह राज बता न सकी

लीलाबाई ने जिस लड़की को उस के पास भेजा था, उस की खूबसूरती देख कर ग्राहक गोविंदराम दंग रह गया था और बोला, ‘‘तुम चांद से भी ज्यादा खूबसूरत हो?

‘‘ठीक है, ठीक है. तारीफ करने का समय नहीं है. मैं एक धंधे वाली हूं और धंधे वाली ही रहूंगी. आप कितनी भी तारीफ कर लो.’’

‘‘लगता है, तुम कोठे पर अपनी मरजी से नहीं आई हो?’’ गोविंदराम ने सवाल पूछा.

‘‘देखिए मिस्टर, फालतू सवाल  मत पूछो.’’

‘‘ठीक है नहीं पूछूंगा, मगर मैं नाम तो जान सकता हूं तुम्हारा?’’

‘‘आप को नाम से क्या है? लीलाबाई ने जिस काम से भेजा है, वह करो और भागो.’’

‘‘फिर भी मैं तुम्हारा नाम जानना चाहता हूं.’’

‘‘मेरा नाम जमना है.’’

‘‘क्या तुम अब भी शादी करने की इच्छा रखती हो?’’

‘‘अब कौन करेगा मुझ से शादी?’’

‘‘अगर कोई तुम से शादी करने को तैयार हो तो शादी कर लोगी?’’

‘‘मैं इन मर्दों को अच्छी तरह से जानती हूं. ये सब केवल औरत के जिस्म से खेल कर इस गंदगी में धकेलना जानते हैं.’’

‘‘तुम्हें मर्दों से इतनी नफरत क्यों?’’

‘‘मगर आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं? आप अभी धंधे वाली के पास हैं. आप अपना काम कीजिए और यहां से जाइए.’’

‘‘मैं ने अभी तुम से कहा था कि अगर कोई शादी करने को तैयार हो जाए, क्या तब तुम तैयार हो जाओगी?’’

‘‘ऐसा कौन बदनसीब होगा, जो मुझ से शादी करने को तैयार होगा?’’

‘‘क्या तुम मुझ से शादी करने के लिए तैयार हो?’’ कह कर गोविंदराम ने अपना फैसला सुना दिया.

यह सुन कर जमना हैरान रह गई और बोली, ‘‘आप करेंगे?’’

‘‘हां, तुम्हें यकीन नहीं है?’’

‘‘मैं कैसे यकीन कर सकती हूं… दरअसल, मुझे मर्द जात पर ही भरोसा नहीं रहा.’’

‘‘लगता है, तुम ने किसी मर्द से चोट खाई है, इसलिए हर मर्द से अब नफरत करने लगी हो.’’

‘‘बस, ऐसा ही समझ लो.’’

‘‘अपनी कहानी बताओ कि वह कौन था, जिस ने आप के साथ धोखा किया?’’

‘‘क्या करेंगे जान कर? सुन कर क्या आप मेरे घाव भर देंगे?’’ जमना ने जब यह सवाल उछाला, तब गोविंदराम सोच में पड़ गया. थोड़ी देर बाद इतना ही कहा, ‘‘अगर तुम बताना नहीं चाहती?हो तो मत बताओ, मगर इतना तो बता सकती हो कि यहां तुम अपनी मरजी से आई हो या कोई जबरन लाया है?’’

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‘‘प्यार में धोखा खाया है मैं ने,’’ कह कर जमना ने अपनी नजरें नीचे झुका लीं. मतलब, जमना के भीतर गहरी चोट लगी हुई थी.

‘‘साफ है कि जिस लड़के में तुम ने प्यार का विश्वास जताया, वही तुम्हें यहां छोड़ गया?’’

‘‘छोड़ नहीं गया, लीलाबाई को बेच गया,’’ बड़ी तल्खी से जमना बोली.

‘‘प्यार करने के पहले तुम ने उसे परखा क्यों नहीं?’’

‘‘एक लड़की क्याक्या करती? मैं अपनी सौतेली मां के तानेउलाहनों से तंग आ चुकी थी. ऐसे में महल्ले का ही कालूराम ने मुझ पर प्यार जताया. वह कभी मोबाइल फोन, तो कभी दूसरी चीजें ला कर देता रहा. मेरे ऊपर खर्च करने लगा, तो मैं भी उस के प्रेमजाल में उलझती गई.

‘‘जब सौतेली मां को हमारे प्यार का पता लगा, तब वे चिल्ला कर मारते हुए बोलीं, ‘नासपीटी, चोरीछिपे क्या गुल खिला रही है. तेरी जवानी में इतनी आग लगी है तो उस कालूराम के साथ भाग क्यों नहीं जाती है. खानदान का नाम रोशन करेगी.

‘‘‘खबरदार, जो अब उस के साथ गई तो… टांगें तोड़ दूंगी तेरी. तेरी मां ऐसी बिगड़ैल औलाद पैदा कर गई. अगर तुझ से जवानी नहीं संभल रही है, तो किसी कोठे पर बैठ जा. वहां पैसे भी मिलेंगे और तेरी जवानी की आग भी मिट जाएगी.’

‘‘इस तरह आएदिन सौतेली मां सताने लगीं. पर मैं कालूराम से बातें कहती रही. वह कहता रहा,  ‘घबराओ मत जमना,  मैं तुम से जल्दी शादी  कर लूंगा.’

‘‘मैं ने उस से पूछा, ‘मगर, कब करोगे? मेरी सौतेली मां को हमारे प्यार का पता चल गया है. उन्होंने मुझे खूब पीटा है.’

‘‘यह सुन कर वह बोला, ‘ऐसी बात है, तब तो एक ही काम रह गया है.’

‘‘मैं ने हैरान हो कर पूछा, ‘क्या काम रह गया है?’

‘‘उस ने धीरे से कहा, ‘तुम्हें हिम्मत दिखानी होगी. क्या तुम घर से भाग सकती हो?’

‘‘यह सुन कर मैं ने कहा, ‘मैं तुम्हारे प्यार की खातिर सबकुछ कर सकती हूं.’

‘‘मेरी यह बात सुन कर कालूराम बहुत खुश हुआ और बोला, ‘चलो, आज रात को भाग चलते हैं. जबलपुर में मेरी लीला मौसी हैं. वहां हम दोनों मंदिर में शादी कर लेंगे. तुम घर से भागने के लिए तैयार हो न?’

‘‘मैं ने बिना कुछ सोचेसमझे कह दिया, ‘हां, मैं तैयार हूं.’

‘‘कालूराम जबलपुर में मुझे लीला मौसी के यहां ले गया. फिर वह यह कह कर वहां से चला गया कि मंदिर में पंडितजी से शादी की बात कर के आता हूं. पर वह मुझे छोड़ कर जो गया, फिर आज तक नहीं आया. बाद में पता चला कि वह औरत उस की लीला मौसी  नहीं थी, बल्कि उसे तो वह मुझे बेच गया था.’’

‘‘सचमुच तुम ने प्यार में धोखा खाया है,’’ अफसोस जाहिर करते हुए गोविंदराम बोला, ‘‘फिर कभी तुम्हारी सौतेली मां ने तुम्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘की होगी, मगर मुझे नहीं मालूम. उस के लिए तो अच्छा ही था कि एक बला टली. अगर मैं जाती भी तब मुझे  नहीं अपनाती.’’

‘‘अब तुम ने क्या सोचा है?’’ गोविंदरम ने कुरेदा.

‘‘सोचना क्या है, अब लीलाबाई ने कोठे को ही सबकुछ मान लिया है,’’ जमना ने साफ कह दिया.

‘‘मतलब, तुम मुझ से शादी नहीं करना चाहती हो?’’

‘‘हम एकदूसरे को नहीं जानते हैं. फिर मैं औरत जात ठहरी, आप जैसे पराए मर्द पर कैसे यकीन कर लूं. कहीं दूसरे कालूराम निकल जाओ…’’

‘‘तुम्हारे भीतर मर्दों के लिए नफरत बैठ गई है. मगर मैं वैसा नहीं हूं जैसा तुम समझ रही हो.’’

‘‘एक ही मुलाकात से मैं कैसे  मान लूं?’’

‘‘ठीक है. मैं कल फिर आऊंगा, तब तक अच्छी तरह सोच लेना,’’ कह कर गोविंदराम उठ कर चला गया.

जमना को यह पहला ऐसा मर्द मिला था, जो उस के शरीर से खेल कर नहीं गया था. 3-4 दिन तक गोविंदराम लगातार आता रहा, मगर कभी जमना के शरीर से नहीं खेला.

तब जमना बोली, ‘‘आप रोज आते हैं, पर मेरे शरीर से खेलते नहीं… क्यों?’’

‘‘जब तुम से मेरी शादी हो जाएगी, तब रोज तुम्हारे शरीर से खेलूंगा.’’

‘‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने मत देखो. जब तक लीलाबाई के लिए मैं खरा सिक्का हूं, वह मुझे नहीं छोड़ेगी.’’

‘‘यह बात है, तो मैं लीलाबाई से बात करता हूं.’’

‘‘कर के देख लो, वह कभी राजी  नहीं होगी.’’

‘‘मैं लीलाबाई को राजी कर लूंगा.’’

‘‘मगर, मैं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘देखो जमना, तुम्हारी जिंदगी का सवाल है. क्या जिंदगीभर इसी दलदल में रहोगी? अभी तुम्हारी जवानी बरकरार है, इसलिए हर कोई मर्द तुम से खेल कर चला जाएगा. तुम्हें तम्हारे शरीर की कीमत भी दे जाएगा, मगर जब उम्र ढल जाएगी, तब तुम्हारे पास कोई नहीं आएगा.

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‘‘तुम चाहती हो कि इतना पैसा कमा लूंगी… फिर बैठेबैठे वह पैसा भी खत्म हो जाएगा…’’ समझाते हुए गोविंदराम बोला, ‘‘इसलिए कहता हूं कि अपना फैसला बदल लो.’’

‘‘ऐ, तू रोजरोज आ कर जमना को क्यों परेशान करता है?’’ खुला दरवाजा देख कर लीलाबाई कमरे में घुसते  हुए बोली.

गोविंदराम बोला, ‘‘लीलाबाई, मैं जमना से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘शादी… अरे, शादी की तो तू सोच भी मत. अभी जमना मेरे लिए सोने का अंडा देने वाली मुरगी है. मैं इसे कैसे छोड़ दूं,’’ लीलाबाई बोली.

‘‘यही सोचो कि यह मुरगी एक दिन सोने का अंडा देना बंद कर देगी, तब क्या करोगी इस का?’’

‘‘मगर, मुझे एक बात बताओ कि तुम जमना से शादी करने के लिए ही क्यों पीछे पड़े हो? इस कोठे में दूसरी लड़कियां भी तो हैं,’’ लीलाबाई ने पूछा.

‘‘दूसरी लड़कियों की बात मैं नहीं करता लीलाबाई. जमना मुझे पसंद है. मैं इसी से शादी करना चाहता हूं. आप अपनी रजामंदी दीजिए,’’ एक बार फिर गोविंदराम ने कहा.

‘‘ऐसे कैसे इजाजत दे दूं? तुम कौन हो? तुम्हारा खानदान क्या है? अपने बारे में कुछ बताओ?’’

‘‘अगर मैं अपना खानदान बता दूंगा, तब क्या तुम जमना से मेरी शादी के लिए तैयार होगी?’’

‘‘मुमकिन है कि मैं तैयार हो भी जाऊं,’’ लीलाबाई ने कहा.

‘‘देखो लीलाबाई, मरने से पहले मेरे पापा कह गए थे कि तुम अपनी  मां नहीं धंधे वाली से पैदा औलाद  हो. तुम्हारी मां तो बांझ है.’’

लीलाबाई खामोश हो गई. थोड़ी देर बाद वह बोली, ‘‘तुम्हारे पिता ने यह नहीं बताया कि वह धंधे वाली कौन थी?’’

‘‘बताना तो चाहते थे, मगर तब तक उन की मौत हो गई,’’ गोविंदराम ने कहा.

लीलीबाई ने पूछा, ‘‘अच्छा, तुम अपने पिता का नाम तो बता सकते हो?’’

‘‘गोपालराम.’’

तब लीलाबाई कुछ नहीं बोली. वह अपने अतीत में पहुंच गई. बात उन दिनों की थी, जब लीलाबाई जवान थी.

एक दिन गोपालराम का एक अधेड़ कोठे पर आया था और बोला, ‘देखो लीलाबाई, मैं तुम्हारे पास इसलिए आया हूं कि मुझे तुम्हारे पेट से बच्चा चाहिए.

‘मैं एक धंधे वाली हूं. मैं बच्चा नहीं चाहती हूं,’ लीलाबाई ने इनकार करते हुए कहा कि अगर बच्चा ही चाहिए तो किसी और से शादी क्यों नहीं कर लेते.

‘मेरी शादी के 10 साल गुजर गए हैं, मगर पत्नी मां नहीं बन पाई है.’

‘तब दूसरी शादी क्यों नहीं कर  लेते हो?’ ‘कर सकता हूं, मगर मैं अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता हूं. उस की खातिर दूसरी शादी नहीं कर सकता…’ गोपालराम ने कहा, ‘मैं इसी उम्मीद से तुम्हारे पास आया हूं.’

तब लीलाबाई सोच में पड़ गई कि क्या जवाब दे? बच्चा देना मतलब  9 महीने तक धंधा चौपट होना.

उसे चुप देख कर गोपालराम ने पूछा, ‘क्या सोच रही हो लीलाबाई?’

‘देखो, मैं तो आप का नाम भी नहीं जानती हूं.’

‘मुझे गोपालराम कहते हैं. इस शहर से 30 किलोमीटर दूर रहता हूं. कपड़े की दुकान के साथ पैट्रोल पंप भी है. मेरे पास खूब पैसा है और अब मुझे अपना वारिस चाहिए.’

‘देखो, मेरे पेट में अगर आप का बच्चा आ गया, तो 9 महीने तक मेरा धंधा चौपट हो जाएगा. मैं अपना धंधा चौपट नहीं कर सकूंगी. आप कोई अनाथ बच्चा गोद ले लीजिए.’

‘अगर मुझे गोद ही लेना होता, तब मैं तुम्हारे पास क्यों आता?’ कह कर गोपालराम ने आगे कहा, ‘जब तुम्हारे पेट में बच्चा ठहर जाएगा, तब सालभर तक सारा खर्चा मैं उठाऊंगा.’

जब लीलाबाई ने यकीन कर लिया, तब गोपालराम अपनी गाड़ी ले कर रोज उस के कोठे पर आने लगा. महीनेभर के भीतर उस के बच्चा ठहर गया. वह सालभर तक रखैल बन कर रही. उस की सारी सुखसुविधाओं का ध्यान रखा जाने लगा.

9 महीने बाद लीलाबाई के लड़का हुआ, तब सारी बस्ती में मिठाई बांटी गई. 6 महीने के भीतर जब तक मां का दूध बच्चा पीता रहा, तब तक गोपालराम उसे अपने साथ नहीं ले गया.

बच्चा गोपालराम को सौंपने के बाद लीलाबाई अपने पुराने ढर्रे पर आ गई. जब शरीर ढलने लगा, ग्राहक कम आने लगे, तब वह कोठा चलाने वाली बन गई.

‘‘ओ लीलाबाई, कहां खो गई?’’ कह कर गोविंदराम ने उसे झकझोरा, तब वह अतीत से वर्तमान में लौटी.

गोविंदराम को अपने सामने देख कर लीलाबाई ने मन ही मन सोचा, अब बता दूं कि मैं इस की मां हूं? मगर यह राज राज ही रहेगा. मैं तो इसे जन्म दे कर अपनी गोद में खिलाना चाहती थी. रातरात भर तड़पती थी, ग्राहकों को भी संतुष्ट करती थी…

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‘‘अरे, आप फिर कहां खो गईं?’’ गोविंदराम ने एक बार फिर टोका.

‘‘तुम्हारी मां तो हैं न?’’

‘‘हां, मां हैं, मगर आप को यकीन दिलाता हूं कि जमना को मैं खुश रखूंगा. किसी तरह की तकलीफ नहीं होने दूंगा.’’

‘‘हां बेटे, जमना को ले जा. इस से शादी कर ले.’’

‘‘अरे, आप ने मुझे बेटा कहा,’’ गोविंदराम ने जब यह पूछा, तब लीलाबाई बोली, ‘‘अरे, उम्र में तुम से बड़ी हूं, इसलिए तू मेरा बेटा हुआ कि नहीं…

‘‘देख जमना, मैं तुझे आजाद करती हूं. तू इस के साथ शादी रचा ले. मेरी अनुभवी आंखें कहती हैं कि यह तुझे धोखा नहीं देगा.’’

‘‘मगर, मैं एक धंधे वाली हूं. यह दाग कैसे मिटेगा?’’ जमना ने पूछा, ‘‘क्या इन की मां एक धंधे वाली को अपनी बहू बना लेगी?’’

‘‘देखो जमना, मैं ने अपनी मां से इजाजत ले ली है, बल्कि मां ने ही मुझे यहां भेजा है,’’ कह कर गोविंदराम ने एक और राज खोल दिया.

‘‘जा जमना जा, कुछ भी मत सोच. इस गंदगी से निकल जा तू. वहां महारानी बन कर रहेगी,’’ दबाव डालते हुए लीलाबाई बोली.

‘‘ठीक है. आप कहती हैं तो मैं चली जाती हूं,’’ उठ कर जमना अपनी कोठरी में गई. मुंह से पुता पाउडरलाली सब उतार कर साड़ी पहन कर एक साधारण औरत का रूप बना कर जब गोविंदराम के सामने आ कर खड़ी हुई, तो वह देखता रह गया.

बाहर कार खड़ी थी. वे दोनों तो कार में बैठ गए.

लीलाबाई सोचती रही, ‘कभी इस का बाप भी इसी तरह कार ले कर आता था…’

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नीड़ का निर्माण फिर से: भाग 5- क्या मानसी को मिला छुटकारा

लेखक- श्रीप्रकाश

चांदनी के कथन पर मानसी एकाएक चिल्लाई. मां का रौद्र रूप देख कर वह बच्ची सहम गई. मानसी की आंखों से अंगारे बरसने लगे. उसे लगा जैसे किसी ने भरे बाजार में उसे नंगा कर दिया हो. गहरी हताशा के चलते उस के सामने अंधेरा छाने लगा. उसे सपने में भी उम्मीद न थी कि चांदनी से यह सुनने को मिलेगा. जिसे खून से सींचा, जिस के लिए न दिन देखा न रात, जो जीने का एकमात्र सहारा थी, उसी ने उसे अपनी नजरों से गिरा दिया. मनोहर उसे इतना प्रिय लगने लगा और आज मैं कुछ नहीं.

मानसी यह नहीं समझ पाई कि मनोहर से उस के संबंध खराब थे बेटी के नहीं. मनोहर उसे पसंद नहीं आया तो क्या चांदनी भी उसी नजरों से देखने लगे. बच्चे तो सिर्फ प्रेम के भूखे होते हैं. चांदनी को पिता का प्यार चाहिए था बस.

रात को मनोहर का फोन आया, ‘‘मानसी, मैं मनोहर बोल रहा हूं.’’

सुन कर मानसी का मन कसैला हो गया.

‘‘मिल गई तसल्ली,’’ वह चिढ़ कर बोली.

‘‘मुझे गलत मत समझो मानसी. मैं चाह कर भी तुम लोगों को भुला नहीं पाया. चांदनी मेरी भी बेटी है.’’

‘‘शराब पी कर हाथ छोड़ते हुए तुम्हें अपनी बेटी का खयाल नहीं आया,’’ मानसी बोली.

‘‘मैं भटक गया था,’’ मनोहर के स्वर में निराशा स्पष्ट थी.

‘‘नया घर बसा कर भी तुम्हें चैन नहीं मिला.’’

‘‘घर, कैसा घर…’’ मनोहर जज्बाती हो गया, ‘‘मानसी, सच कहूं तो दोबारा घर बसाना आसान नहीं होता. अगर होता तो क्या अब तक तुम नहीं बसा लेतीं. सिर्फ कहने की बात है कि पुरुष के लिए सबकुछ सहज होता है. उन्हें भी तकलीफ होती है जब उन का बसाबसाया घर उजड़ता है.’’

मनोहर के मुख से ऐसी बातें सुन कर मानसी का गुस्सा ठंडा पड़ गया. मनोहर काफी बदला लगा. उस ने अब तक शादी नहीं की. यह निश्चय ही चौंकाने वाली बात थी. मनोहर के साथ बिताए मधुर पल एकाएक उस के सामने चलचित्र की भांति तैरने लगे. कैसे उस ने अपनी पहली कमाई से उस के लिए कार खरीदी थी. तब उसे मनोहर का पीना बुरा नहीं लगता था. अचानक वक्त ने करवट ली और सब बदल गया. अतीत की बातें सोचतेसोचते मानसी की आंखें सजल हो उठीं.

‘‘मम्मी, आप को मेरे साथ पापा के पास चलना होगा वरना मैं उन्हें यहीं बुला लूंगी,’’ चांदनी ने बालसुलभ हठ की.

तभी मनोहर की बहन प्रतिमा आ गईं. 10 साल के बाद पहली बार वह आई थीं. उन्हें आया देख कर मानसी को अच्छा लगा. दरवाजे पर आते समय प्रतिमा ने चांदनी की कही बातें सुन ली थीं.

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‘‘तलाक ले कर तुम ने कौन सा समझदारी का परिचय दिया था?’’

‘‘दीदी, आप तो जानती थीं कि तब मैं किन परिस्थितियों से गुजर रही थी,’’ मानसी ने सफाई दी.

‘‘और आज, क्या तुम उस से मुक्त हो पाई हो. औरत के लिए हर दिन एक जैसे होते हैं. सब उसी को सहना पड़ता है,’’ प्रतिमा ने दुनियादारी बताई.

‘‘दीदी, आप कहना क्या चाहती हैं?’’

‘‘बाप के साए से बेटी महरूम रहे, क्या यह उस के प्रति अन्याय नहीं,’’ प्रतिमा बोली.

‘‘मैं ने कब रोका था,’’ कदाचित मानसी का स्वर धीमा था.

‘‘रोका है, तभी तो कह रही हूं. 10 साल मनोहर ने अकेलेपन की पीड़ा कैसे झेली यह मुझ से ज्यादा तुम नहीं जान सकतीं. मैं ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि वह तुम से न मिले, न ही फोन पर बात करे. जैसा किया है वैसा भुगते.’’

‘‘दूसरी शादी कर लेते. क्या जरूरत थी अकेलेपन से जूझने की,’’ मानसी बोली.

‘‘यही तो हम औरतें नहीं समझतीं. हम हमेशा मर्द में ही खोट देखते हैं. जरा सी कमी नजर आते ही हजार लांछनों से लाद देते हैं,’’ प्रतिमा किंचित नाराज स्वर में बोलीं. एक पल की चुप्पी के बाद उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘‘आज उस ने अपनी बेटी के लिए मेरी हिदायतों का उल्लंघन किया. जीवन एक बार मिलता है. हम उसे भी ठीक से नहीं जी पाते. अहं, नफरत और न जाने क्याक्या विकार पाले रहते हैं अपने दिलों में.’’

‘‘मुझ में कोई अहं नहीं था,’’ मानसी बोली.

‘‘था तभी तो कह रही हूं कि प्यार, मनुहार और इंतजार से सब ठीक किया जा सकता है. आखिर मनोहर रास्ते पर आ गया कि नहीं. अब वह शराब को हाथ तक नहीं लगाता. अपने काम के प्रति समर्पित है,’’ प्रतिमा बोलीं.

‘‘काम तो पहले भी वह अच्छा करते थे,’’ मानसी के मुख से अचानक निकला.

‘‘तब कहां रह गई कसर. क्या छूट गया तुम दोनों के बीच जिस की परिणति अलगाव के रूप में हुई. तुम ने एक बार भी नहीं सोचा कि बच्ची बड़ी होगी तो किसे गुनहगार मानेगी. तुम ने सोचा बाप को शराबी कह कर बेटी को मना लेंगे… पर क्या ऐसा हुआ? क्या खून के रिश्ते आसानी से मिटते हैं? मांबाप औलाद के लिए सुरक्षा कवच होते हैं. इस में से एक भी हटा नहीं कि असुरक्षा की भावना घर कर जाती है बच्चों में. ऐसे बच्चे कुंठा के शिकार होते हैं.’’

‘‘आप कहना चाहती हैं कि तलाक ले कर मैं ने गलती की. मनोहर मेरे खिलाफ हिंसा का सहारा ले और मैं चुप बैठी रहूं…यह सोच कर कि मैं एक औरत हूं,’’ मानसी तल्ख शब्दों में बोली.

‘‘मैं ऐसा क्यों कहूंगी बल्कि मैं तुम्हारी जगह होती तो शायद यही फैसलालेती पर ऐसा करते हुए हमारी सोच एकतरफा होती है. हम कहीं न कहीं अपनी औलाद के प्रति अन्याय करते हैं. दोष किसी का भी हो पर झेलना तो बच्चों को पड़ता है,’’ प्रतिमा लंबी सांस ले कर आगे बोलीं, ‘‘खैर, जो हुआ सो हुआ. वक्त हर घाव को भर देता है. मैं एक प्रस्ताव  ले कर आई हूं.’’

मानसी जिज्ञासावश उन्हें देखने लगी.

‘‘क्या तुम दोनों पुन: एक नहीं हो सकते?’’

एकबारगी प्रतिमा का प्रस्ताव मानसी को अटपटा लगा. वह असहज हो गई. दोबारा जब प्रतिमा ने कहा तो उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘मुझे सोचने का मौका दीजिए,’’

प्रतिमा के जाने के बाद वह अजीब कशमकश में फंस गई. न मना करते बन रहा था न ही हां. बेशक 10 साल उस ने सुकून से नहीं काटे सिर्फ इसलिए कि हर वक्त उसे अपनी और चांदनी के भविष्य को ले कर चिंता लगी रहती. एक क्षण भी चांदनी को अपनी आंखों से ओझल होने नहीं देती. उसे हमेशा इस बात का भय बना रहता कि अगर कुछ ऊंचनीच हो गया तो किस से कहेगी? कौन सहारा बनेगा? कहने को तो तमाम हमदर्द पुरुष हैं पर उन की निगाहें हमेशा मानसी के जिस्म पर होती. थोड़ी सी सहानुभूति जता कर लोग उस का सूद सहित मूल निकालने पर आमादा रहते.

अंतत: गहन सोच के बाद मानसी को लगा कि अपने लिए न सही, चांदनी के लिए मनोहर का आना उस की जिंदगी में निहायत जरूरी है. हां, थोड़ा अजीब सा मानसी को अवश्य लगा कि जब मनोहर फिर उस की जिंदगी में आएगा तो कैसा लगेगा? लोग क्या सोचेंगे? कैसे मनोहर का सामना करूंगी. क्या वह सब भूल जाएगा? क्या भूलना उस के लिए आसान होगा? टूटे हुए धागे बगैर गांठ के नहीं बंधते. क्या यह गांठ हमेशा के लिए खत्म हो पाएगी?

एक तरफ मनोहर के आने से उस की जिंदगी में अनिश्चितता का माहौल खत्म होगा, वहीं भविष्य को ले कर उस के मन में बुरेबुरे खयाल आ रहे थे. कहीं मनोहर फिर से उसी राह पर चल निकला तो? तब तो वह कहीं की नहीं रहेगी. प्रतिमा से उस ने अपनी सारी दुश्ंिचताओं का खुलासा किया. प्रतिमा ने उस से सहमति जताई और बोलीं, ‘‘मैं तुम से जबरदस्ती नहीं करूंगी. मनोहर से मिल कर तुम खुद ही फैसला लो.’’

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मनोहर आया. दोनों में इतना साहस न था कि एकदूसरे से नजरें मिला सकें. मानसी की मां और प्रतिमा दोनों थीं पर वे उन दोनों को भरपूर मौका देना चाहती थीं, दोनों दूसरे कमरे में चली गईं.

‘‘मानसी, मैं ने तुम्हारे साथ अतीत में जो कुछ भी सलूक किया है उस का मुझे आज भी बेहद अफसोस है. यकीन मानो मैं ने कोई पहल नहीं की. मैं आज भी तुम्हारे लायक खुद को नहीं समझता. अगर चांदनी का मोह न होता…’’

‘‘उस के लिए विवाह क्या जरूरी है,’’ मानसी ने उस का मन टटोला.

‘‘बिलकुल नहीं,’’ वह उठ कर जाने लगा. कुछ ही कदम चला होगा कि मानसी ने रोका, ‘‘क्या हम अपनी बच्ची के लिए नए सिरे से जिंदगी नहीं शुरू कर सकते?’’

मानसी के अप्रत्याशित फैसले पर मनोहर को क्षणांश विश्वास नहीं हुआ. वह एक बार पुन: मानसी के मुख से सुनना चाहता था. मानसी ने जब अपनी इच्छा फिर दोहराई तो उस की भी आंखों से खुशी के आंसू बह निकले.

जिस दिन दोनों एक होने वाले थे अचला भी आई. उसे तो विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि ऐसा भी हो सकता है. सुबह का भूला शाम को लौटे तो उसे भूला नहीं कहते. दरअसल, सब याद कर के ही नहीं, कुछ भूल कर भी जिंदगी जी जा सकती है.

मनोहर और मानसी ने उस अतीत को भुला दिया, जिस ने उन दोनों को पीड़ा दी. चांदनी इस अवसर पर ऐसे चहक रही थी जैसे नवजात परिंदा अपनी मां के मुख में अनाज का दाना देख कर.

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लड़ाई जारी है: भाग 2- सुकन्या ने कैसे जीता सबका दिल

मेट्रिक में सुकन्या के 95 प्रतिशत अंक आये तो उसने भी डाक्टर बनने की अपनी इच्छा दादाजी के सामने प्रकट की. दादाजी जब तक कुछ कहते दादी कह उठीं,‘ लड़कियों को शिक्षा इसलिये दी जाती है जिससे उनका विवाह उचित जगह हो सके. कोई आवश्यकता नहीं डाक्टरी पढ़ने की…घर के काम में मन लगा, घर संभालने में तेरी पढ़ाई नहीं वरन् तेरी घर संभालने की योग्यता ही काम आयेगी.’

‘अरे भाग्यवान, अब समय बदल गया है, आजकल लड़कियाँ भी लड़कों की तरह पढ़ रही हैं और घर भी संभाल रही हैं. मनीषा तेरी वजह से ज्यादा नहीं पढ़ पाई किन्तु ससुराल में अपनी पढ़ाई पूरी कर कितने ही छात्रों को विद्यादान दे रही है. अपनी बहू की देख अगर यह पढ़ी होती तो क्या तेरे कटु वचन सुनती !! यह भी मनीषा की तरह ही नौकरी करते हुये अपने बच्चों का भविष्य संवार रही होती. मेट्रिक में हमारे घर में किसी के इतने अच्छे अंक नहीं आये जितने मेरी पोती के आये हैं…इसके बावजूद तुम ऐसा कह रही हो.’

‘ लड़की जात है ज्यादा सिर पर मत चढ़ाओ, बाद में पछताओगे.’ दादी बड़बड़ाती हुई अंदर चली गईं.

दादाजी बहुत दिनों से अम्माजी का सुकन्या के साथ रूखा व्यवहार देख रहे थे आज वह स्वयं पर संयम न रख पाये तथा दिल की बात जुबां पर आ ही गई. उन्होंने सुकन्या को उसकी इच्छानुसार मेडिकल में जाने के लिये अपनी स्वीकृति दे दी.

दादाजी से हरी झंडी मिलते ही सुकन्या ने बारहवीं की पढ़ाई करते हुये मेडिकल की तैयारी प्रारंभ कर दी. इसके लिये शहर से किताबें भी मँगवा लीं थीं. समय पर फार्म भी भर दिया. आखिर वह दिन भी आ गया जब उसे परीक्षा देने जाना था. वह अपने दादाजी के साथ परीक्षा देने जाने वाली थी कि अचानक दादी की तबियत खराब हो गई, आखिर दादाजी ने मनीषा को फोन कर अपने नौकर के साथ अनुराधा और सुकन्या को भेज दिया. साथ ही कहा बेटा, अगर तू न होती तो ऐसे अकेले इतने बड़े शहर में बहू को कभी अकेला न भेजता. उसने भी उन्हें चिंता न करने का आश्वासन दे दिया.

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परीक्षा वाले दिन मनीषा उसे परीक्षा सेंटर पर छोड़ने जाने लगी तो अनुराधा ने सुकन्या को दही चीनी खिलाते हुए  कहा,‘  बड़ा शहर है, अकेले इधर-उधर मत जाना…परीक्षा के बाद भी जब तक चंद्रेश, न पहुँच जाये तब तक इंतजार करना.’

मनीषा की एक मीटिंग थी जिसकी वजह से उसने चंद्रेश, अपने पुत्र को सुकन्या को एक्जामिनेशन सेंटर से लाने के लिये कह दिया था. शाम को परीक्षा समाप्त होने पर सुकन्या नियत स्थान पर खड़ी हो गई. लड़के-लड़कियाँ अपने-अपने घरों की ओर चल दिये. दस मिनट बीता, पंद्रह मिनट बीते…यहाँ तक कि आधा घंटा बीत गया. स्कूल का परिसर खाली होने लगा था…सूना परिसर उसे डराने लगा था. सुकन्या ने सोचा कि लगता हैं भइया किसी काम में फँस गये होंगे आखिर कब तक वह इसी तरह खडी रहेगी…!! शहर की भीड़-भाड़, चकाचौंध उसे आश्चर्यचकित कर रहे थे. गाँव से अलग एक नई दुनिया नजर आ रही थी. यहाँ लड़के -लड़कियाँ अपने स्कूटर से स्वयं आना जाना कर रहे थे जिनके पास स्वयं के वाहन नहीं थे ,वे आटो से जा रहे थे. अचानक उसे लगा अगर वह शहर की आत्मनिर्भर लड़कियों की तरह नहीं बन पाई तो पिछड़ जायेगी. कुछ हासिल करना है, तो हर परिस्थिति का मुकाबला करना होगा…  डर-डर कर नहीं वरन् हिम्मत से काम लेना होगा तभी वह जीवन में अपना लक्ष्य प्राप्त कर पायेगी.

बुआ का पता उसके पास ही था उसने आटो किया और चल दी. चंद्रेश वहाँ पहुँचा , सुकन्या को नियत स्थान पर न पाकर पूरे कालेज का चक्कर लगाकर घर पहुँचा.  उसे अकेले आया देखकर अनुराधा भाभी के तो होश ही उड़ गये. पहली बार सुकन्या घर से बाहर निकली है…इतना बड़ा शहर, पता नहीं कहाँ चली गई…? परीक्षा में मोबाइल ले जाना मना था अतः वह मोबाइल भी नहीं ले गई थी.

सुदेश चंद्रेश को डाँटने लगे कि वह समय पर क्यों नहीं पहुँचा. वह बेचारा भी सिर झुकाये बैठा था. वह करता भी तो क्या करता, ट्रेफिक जाम में ऐसा फँसा कि चाहकर भी समय पर नहीं पहुँच पाया. उसने तो सुकन्या से कहा भी था कि अगर देर भी हो जाये तो उसका इंतजार कर लेना पर उसके पहुँचने से पूर्व ही चली गई. इसी बीच मनीषा आ गई. मनीषा ने चंद्रेश को एक बार फिर सुकन्या को देखकर आने के लिये कहा. अनुराधा भाभी रोये जा रही थी…मनीषा भी डर गई थी पर भाभी को समझाने के अतिरिक्त कर भी क्या सकती थी. चंद्रेश जाने ही वाला था कि घंटी बजी. दरवाजा खोलते ही सुकन्या ने अंदर प्रवेश किया उसे देखकर भाभी तो मानो पागल हो उठी…

वह उसे मारती जा रही थीं तथा कह रही थीं,‘ अकेले क्यों आई ? कुछ और देर इंतजार नहीं कर सकती थी…कहीं कुछ हो जाता तो मैं क्या जबाब देती तेरे दादाजी को….बस हो गई पढ़ाई, नहीं बनाना तुझे डाक्टर, बस तेरा विवाह कर दूँ , मुझे मुक्ति मिल जाए.’

सुदेश अनुराधा के इस अप्रत्याशित रूप को देखकर अवाक् थे वहीं मनीषा ने भाभी की मनःस्थिति समझकर उन्हें शांत कराने का प्रयत्न करने लगी…इसके बावजूद भाभी स्वयं पर काबू नही रख पा रही थीं.

सुकन्या उससे लिपटकर रोती हुई कह रही थी,‘ बुआ, आखिर गलती क्या है मेरी, कब तक मैं किसी की बैसाखी के सहारे चलती रहूँगी…? आखिर ये बंदिशें सिर्फ लड़की के लिये ही क्यों हैं..? क्यों उसे ही सदा अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है…? मैं लड़की हूँ इसलिये मुझे शहर पढ़ने के लिये नहीं भेजा गया…गाँव के ही स्कूल में मैंने जैसे तैसे पढ़ा जबकि मुझसे दो वर्ष छोटा भाई, उसे इंजीनियर बनना है इसलिये उसका शहर के अच्छे स्कूल दाखिला करवा दिया. वह हॉस्टल में रहता है, अकेले आता जाता है, उस पर तो कोई बंदिश नहीं है….फिर मुझ पर क्यों ?’

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‘ भाभी, सुकन्या छोटी नहीं है, उसे अच्छे, बुरे का ज्ञान है. कब तक उसे अपने आँचल से बाँधकर रखोगी ? मुक्त कर दो उसे इन बंधनों से…तभी वह जीवन में कुछ कर पायेगी. क्या तुम चाहती हो कि वह भी तुम्हारी तरह ही घुट-घुट कर जीये…जिसके पल्लू से तुम उसे बाँध दो, उसी पर अपनी पूरी जिंदगी अर्पित कर दे. अपना अच्छा बुरा भी न सोच पाये. भाभी तुमने तो अपनी जिंदगी काट ली पर भगवान न करे इसकी जिंदगी में कोई हादसा हो जाए तो….उसे आत्मनिर्भर बनने दो.’ कहकर मनीषा ने सुकन्या को अपनी बाहों में भर लिया था.

भाभी की परेशानी वह समझ सकती थी. वह उन्हें ठेस नहीं पहुँचना चाहती थी पर उस समय अगर भाभी का पक्ष लेती तो सुकन्या के आत्मविश्वास और भावना को ही चोट पहुँचती जिससे वह अपने लक्ष्य से भटक सकती थी. वह उसे टूटते हुये नहीं वरन् सफल होते देखना चाहती थी तथा यह भी जानती थी कि सुकन्या का पक्ष लेना भाभी को खटकेगा, हुआ भी यही…अनुराधा भाभी आश्चर्य से उसकी ओर देखती रह गई, फिर धीरे से बोली,‘ दीदी, आपके दोनों बेटे हैं, आप नहीं समझ पाओगी, लड़की की माँ का दिल…..’

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