Serial Story: भागने के रास्ते (भाग-1)

एक

उन दिनों हम ऊटी में रहते थे. एक शाम मेरे पति राम, मेरी 10 वर्षीय बेटी प्रियंवदा के साथ कहीं से वापस आए.

‘‘यह देखो तो…हमारे साथ कौन आया है!’’

प्रियंवदा ने एक गत्ते का डब्बा पकड़ रखा था, उसे मेज पर रख दिया. ढक्कन को हलके से खोला तो अंदर बिना दुम वाला एक छोटा सा चूहेनुमा जानवर था. ‘‘मम्मी, देखिए, यह तारा है.’’

हम उसे देख रहे थे, तारा हमें देख रही थी. वह एक टशनदार हैम्स्टर थी. चौकस, उत्सुक और हद दरजे की फौर्वड. शर्मीलापन का ‘श’ भी नहीं समझ रही थी. घबरा तो बिलकुल नहीं रही थी.

कुछ साल पहले भीमसेन ने एक जरबिल पाली थी. बड़ी प्यारी सी. ऐलिस नाम था उस का. उस बेचारी का तो देहांत हो चुका था. उसी का तीनमंजिला पिंजरा अब भी पड़ा था घर में. सो पिंजरा साफ कर के तारा के लिए तैयार कर लिया गया. पिंजरे में घुसते ही तारा की छानबीन भी शुरू हो गई. कुछ ही देर में उस ने पिंजरे का कोनाकोना समझ लिया. अंदर रखी हर चीज को वह सूंघ चुकी थी, खाने की डिब्बी को छान चुकी थी. प्रियंवदा ने उसे व्यस्त रखने के लिए लकड़ी के जो टुकड़े रखे थे उन्हें वह दांत से दबा कर देख चुकी थी. पानी की बोतल चूस चुकी थी. सब जांचपड़ताल पूरी होने के बाद वह पहियादौड़ लगा रही थी. सिर्फ वह ‘सीरियल बार’ अनछुआ छोड़ दिया जो उस के लिए पैट शौप से ये दोनों लोग खरीद के लाए थे.

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मुझे लगता है, उस रात बिस्तर में नींद का इंतजार करते हुए हम सभी के चेहरों पर मुसकान चिपकी हुई थी, एक प्यारी सी बढ़ोतरी जो हो गई थी हमारे परिवार में.

हमारे यहां सुबह सब से पहले राम ही उठते हैं. अगली सुबह कौफी का पानी रख हीटर को औन कर के वे टौयलेट चले गए. आंखों में नींद अब भी भरी थी. टौयलेट सीट पर बैठेबैठे वे नींद के कुछ आखिरी पल चुरा रहे थे, जब उन्हें अपने दिन का पहला ‘गुड मौर्निंग’ मिला. देखा कि तारा उन के पांव का अंगूठा कुतर रही थी.

‘‘आप इतनी सुबह उठ कर क्या कर रही हैं, मैडम? और वह भी अपने पिंजरे के बाहर?’’ राम ने उसे संभाल कर उठा लिया. टौयलेट सीट के पीछे देखा तो वहां उस का नया बसेरा पाया. जिस सीरियल बार में वह बिलकुल रुचि नहीं दिखा रही थी उसे वह रातभर में कई टुकड़ों में तोड़तोड़ कर एकएक कर वहां ले आई थी. बार ने अब एक ढेर का रूप धारण कर लिया था.

‘‘अरे मेरी बुद्धू चुहिया, तुम यहां कैसे रह सकती हो?’’ यह कह कर राम ने उसे वापस पिंजरे में पहुंचा दिया.

सब नाश्ता कर रहे थे और तारा पिंजरे में रखे इगलू, यानी अलास्का में बर्फ के बने गोलघर, जिन के अंदर लोग बंद हो जाते हैं और बाहर की दुनिया से उन का कोई वास्ता नहीं रहता, के अंदर मुंह फुलाए बैठी थी. बाहर निकल कर तभी आई जब बच्चे स्कूल चले गए थे. बड़ी बगावती मूड में थी. पिंजरे की कडि़यां पासपास ही थीं, मगर कोनों से बाहर निकलने की थोड़ी गुंजाइश थी. वहीं से, थोड़ा ऐंठ कर, थोड़ा खुद को सिकोड़ कर, अपने को पतला कर के जैसेतैसे वह फिर बाहर निकल आई और घर के दूसरे कोने में स्थित टौयलेट की तरफ भागने लगी. राम फिर उसे वापस ले आए.

‘अब इस आफत की पुडि़या के लिए नया पिंजरा लाना पड़ेगा,’ ऐसा सोचतेसोचते मैं कोनों की कडि़यों को कस के तार से बांधने लग गई. तारा ने फिर कडि़यों के बीच चौड़ा गैप ढूंढ़ना शुरू कर दिया.

नखरे उस के तब शुरू हुए जब उस ने अपने भागने के सारे रास्ते बंद पाए. पागल हो गई वह और बेतहाशा पिंजरे की सलाखों पर चढ़ने लगी. तीसरी मंजिल पर चढ़ कर, कभी मेरी, कभी राम की आंखों में आंखें डाल कर उस ने पिंजरे की दीवार पर सिर मारना शुरू कर दिया. गुस्से में पास रखे लकड़ी के टुकड़े को लात मारी. दोनों हाथों से सलाखें पकड़ कर जोरजोर से हिलाईं. इतनी छोटी सी चुहिया का इतना बड़ा संग्राम. हम दोनों को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मुझे डर था, उस का यह आवेग कहीं उसे बीमार न कर दे, सो पास पड़ी भीमसेन की कमीज से उस के पिंजरे को ढक दिया. तब जा कर वह कुछ शांत हो पाई.

ऐसा ही कुछ तो मेरे साथ हुआ.

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दो

कुछ साल बाद, जब मैं ने अपने 46 साल पूरे किए और मेरे दोनों बच्चे कालेज के लिए घर छोड़ कर चले गए थे, मुझे वैसी ही व्याकुलता महसूस होने लगी जैसी उस दिन तारा ने जाहिर की थी. राम को छोड़ कर और अपनी सालों की सफल साइकाइटरी की प्रैक्टिस को डंप कर के, अपनी जवानी के खोए हुए प्यार, जुल्फी, को ढूंढ़ने के लिए मैं भोपाल निकल पड़ी.

तीन

तारा पिंजरे से एक बार और निकल गई थी, पर कुछ घंटों में ही उस के सामने आ कर बैठ गई थी. पिंजरा ही उस का घर जो था.

चार

पता नहीं कहां से स्कूल के आखिरी सालों में जुल्फिकार आ कर भरती हो गया. आर्ट्स स्टूडैंट था. कुछ ही हफ्तों में ऐसा लोकप्रिय हो गया कि बच्चे तो बच्चे, शिक्षक भी उस के जादू में आ गए थे और यह जानते हुए भी कि स्कूल कैप्टन के ओहदे के लिए मैं सालों से कामना, तैयारी और इंतजार कर रही थी, उन्होंने यह पद उस बंदर को दे दिया.

‘‘तुम को तो इस साल अपने ऐंट्रैंस एग्जाम्स के बारे में सोचना है, बेटा,’’ मैथ्स के टीचर ने ये ढाढ़स भरे सादेसूखे शब्द कह कर मुझे किनारे खिसका दिया.

क्या मालूम, वह जुल्फिकार का बच्चा लंगड़ा था या डरपोक, मैं ने उसे कभी अकेले चलते हुए नहीं देखा. हमेशा उस के साथ लड़कों का एक झुंड चलता था. सब चमचे थे उस के. उसे देखते ही मुझे जबरदस्त चिढ़ मचती थी, मेरा खून खौलने लगता था. मैं रास्ता बदल देती थी. उस की तरफ देखती भी नहीं थी.

इस का मतलब यह नहीं कि मुझे यह जान कर हैरानी हुई हो कि जनाब को इश्क हो गया था मुझ से. मेरा मतलब है, ऐसे कम ही हैं जो मुझ पर फिदा नहीं हुए हैं.

रोजाना लंच में और जब भी थोड़ा अवकाश मिलता, मैं और मेरी सब से प्यारी सहेली रत्ना हाथों में हाथ डाल, जाड़ों की गुलाबी धूप में स्कूल के ग्राउंड में घूमा करते थे, गप मारते थे, अपने पसंदीदा गीत गुनगुनाते थे. बहुत गहरी थी हमारी दोस्ती. अकसर यों टहलतेटहलते मेरी नजर क्लास की तरफ जाती और मैं हंस देती. ‘‘वह देखो, वहां कौन खड़ा है! बेवकूफ, तुम सब का हीरो!’’ खोयाखोया सा अपने साथियों से टिक कर खड़ा खिड़की से मुझे घूरघूर कर देखता था वह पागल जुल्फी. ‘लूजर’, सीधीसादी रत्ना कभी किसी का बुरा न सोचने, न चाहने वाली लड़की थी. वह चुप ही रहती.

रत्ना से मैं फिर तब मिली जब मैं मैडिकल कालेज के सेकंड ईयर में थी. स्कूल छोड़ने के बाद हमारे संपर्क टूट गए थे. अजीब बात थी, क्योंकि स्कूल में हम दोनों को अलग करना असंभव ही था.

उस के पहले वाक्य ने ही मुझे हिला कर रख दिया.

‘‘हम भागने की सोच रहे हैं. तुम्हारी राय चाहिए, मुनमुन.’’

कुछ देर तक मैं ‘क्याक्या’ ही करती रही. ये भागनेवागने की बातों की तो मैं बस स्पोर्ट्स में ही कल्पना कर सकती थी.

‘‘भागने की सोच रही हो, किस के साथ?’’ मैं बड़ी मुश्किल से पूछ पाई.

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अंतर्मुखी स्वभाव की थी मेरी रत्ना. उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि हमेशा उस के कान मेरी बातों के लिए तैयार रहते थे. आज पहली बार गीयर उलटा लगा था.

वह रोने लगी, ‘‘मैं उस से प्यार करती हूं, मुनमुन. हम दोनों एकदूसरे को बेहद चाहते हैं.’’

सिसकियों के बीच वह बोलती गई, ‘‘लेकिन वह…वह मुसलमान है, और मेरे मम्मीपापा को तो तुम जानती ही हो. कभी नहीं मानेंगे…उफ, कितनी दुखी हूं मैं! अब तुम ही मुझे बताओ, मैं क्या करूं?’’

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बदलता नजरिया

दीपिका औफिस से लौट रही थी, तो गाड़ी की तेज गति के साथ उस के विचार भी अनियंत्रित गति से भागे जा रहे थे. आज उसे प्रमोशन लैटर मिला था. 4 लोगों को सुपरसीड कर के उसे ब्रांच मैनेजर के पद के लिए चुना गया था. उसे सफलता की आशा तो थी पर पूरी भी होगी, इस बात का मन में संशय था, क्योंकि उस से भी सीनियर औफिसर इस पद के दावेदार थे. उन सब को सुपरसीड कर के इस पद को पाना उस की अपनेआप में बहुत बड़ी उपलब्धि थी. इस उपलब्धि पर औफिस में सभी लोगों ने बधाई तो दी ही थी, ट्रीट की मांग भी कर डाली थी. उस ने उसी समय अपने चपरासी को बुला कर मिठाई लाने के लिए पैसे दिए थे तथा सब का मुंह मीठा करवाया था. यह खुशखबरी वह सब से पहले जयंत को देना चाहती थी, जिस ने हर अच्छेबुरे पल में सदा उस का साथ दिया था. चाहती तो फोन के द्वारा भी उसे यह सूचना दे सकती थी पर ऐसा करने से सामने वाले की प्रतिक्रिया तो नहीं देखी जा सकती थी.

बहुत पापड़ बेले थे उस ने. घरबाहर हर संभव समझौता करने का प्रयत्न किया था. एकमात्र पुत्र की पुत्रवधू होने के कारण सासससुर को जहां उस से बहुत अरमान थे, वहीं कर्तव्यों की अनेकानेक लडि़यां भी उसे लपेटने को आतुर थीं. विवाह से पूर्व सास अमिता ने उस से पूछा था, ‘‘अगर जौब और फैमिली में तुम्हें कोई एक चुनना पड़े, तो तुम किसे महत्त्व दोगी?’’

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‘‘फैमिली को,’’ मां के सिखाए शब्द उस के मुंह से अनायास ही निकल गए थे, क्योंकि मां नहीं चाहती थीं कि उस की किसी बेवकूफी के कारण इतना अच्छा घर व वर हाथ से निकल जाए. उन्होंने उसे पहले ही नपातुला तथा सोचसमझ कर बोलने की चेतावनी दे दी थी.

उस के ममापापा को जयंत बहुत पसंद आया था. उस का स्वभाव, अच्छा ओहदा उस से भी अधिक उस का सुदर्शन व्यक्तित्व. जयंत एक मल्टीनैशनल कंपनी में प्रोजैक्ट मैनेजर था. जबकि वह स्वयं बैंक में प्रोबेशन अधिकारी थी. वह किसी हालत में अपनी नौकरी नहीं छोड़ना चाहती थी, लेकिन सास तो सास, मां का भी यही कहना था कि एक लड़की के लिए उस का घरपरिवार उस की महत्त्वाकांक्षा से अधिक होना चाहिए. हम चाहे स्वयं को कितना भी आधुनिक क्यों न मानने लगें पर मानसिकता नहीं बदलने वाली. स्त्री चाहे पुरुष से अधिक ही क्यों न कमा रही हो पर उस का हाथ और सिर सदा नीचे ही रहना चाहिए. यह बात और है कि एक स्त्री अपनी इसी विशेषता और विनम्रता के बल पर एक दिन सब के दिलों पर राज करने में सक्षम हो सकती है. बस इसी मानसिकता के तहत ममा ने सोचसमझ कर उत्तर देने के लिए कहा था और उस ने वही किया भी था.

सासूमां दीपिका के उत्तर से बेहद संतुष्ट हुई थीं और उन्होंने उसे अपनी बहू बनाने का फैसला कर लिया था. विवाह के बाद धीरेधीरे उस के लिए भी अपने कैरियर से अधिक घरपरिवार महत्त्वपूर्ण हो गया था, क्योंकि उस का मानना था कि अगर घर में सुखशांति रहे तो औफिस में भी ज्यादा मनोयोग से काम किया जा सकता है. उस की ससुराल में संयुक्त परिवार और अच्छा व बड़ा 4 बैडरूम का घर था. उस के विवाह के 2 महीने बाद ही ससुरजी रिटायर हो गए थे और ननद विभा का विवाह हो गया था. पर उसी शहर में रहने के कारण उस का आनाजाना लगा रहता था. विवाह के बाद सारी जिम्मेदारी सासूमां ने उसे सौंप दी थीं. इस बात से जहां उसे खुशी का अनुभव होता था, वहीं कभीकभी कोफ्त भी होने लगती थी, क्योंकि सुबह से ले कर देर रात तक वह किचन में ही लगी रह जाती थी. कहने को तो खाना बनाने के लिए नौकरानी थी, पर उसे सुपरवाइज तथा गाइड करना, सब के मनमुताबिक नाश्ताखाना बनवा कर सर्व करना उस का ही काम था. सुबहसुबह सब को बैडटी तथा रात में गरमगरम दूध देना तो उसे ही करना पड़ता था, वह भी सब के समय के अनुसार. विवाह से पूर्व जिस लड़की ने कभी एक गिलास पानी भी खुद ले कर न पिया हो, सिर्फ पढ़ना ही जिस का मकसद रहा हो, दोहरी जिम्मेदारी निभाना तथा साथ में सब को खुश रखना किसी चुनौती से कम नहीं था. पर जहां चाह हो वहां राह निकल ही आती है.

दीपिका जब गर्भवती हुई तो घर भर में खुशियों के फूल खिल गए थे. सासूमां ने उस की कुछ जिम्मेदारियां शेयर कर ली थीं. डिनर अब वे अपनी देखरेख में बनवाने लगी थीं. उस दिन रविवार था. शाम की चाय सब एकसाथ बैठे पी रहे थे कि अचानक ससुरजी आलोकनाथ ने चाय का कप टेबल पर रख दिया तथा बेचैनी की शिकायत की. जब तक कोई कुछ समझ पाता वे अचेत हो गए. जयंत ने आननफानन गाड़ी निकाली और उन्हें अस्पताल ले गए. पर वे बचे नहीं. सासूमां अचानक हुई इस दुर्घटना को सह नहीं पाईं. बारबार अचेत होने लगीं, तो डाक्टर ने उन्हें नींद का इंजैक्शन दे कर सुला दिया. उस के बाद विधिविधान से सारे काम हुए पर सासूमां सामने रहते हुए भी नहीं थीं. आखिर 34 वर्षों का साथ भुलाना आसान नहीं होता. फिर वे सब से कटीकटी रहने लगीं और घर में सब कुछ बिखराबिखरा सा लगने लगा. ऐसे में दीपिका कभीकभी यह सोचती कि वह नौकरी छोड़ दे. लेकिन थोड़ी देर में उसे लगता कि ऐसी कठिनाइयां तो हर किसी की जिंदगी में आती हैं तो क्या हर कोई पलायन कर जाता है? नहीं, वह नौकरी नहीं छोड़ेगी.

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फिर वक्त गुजरता गया और दीपिका को बेटी हुई. उस का नाम कविता रखा गया. दीपिका ने 6 महीने का ब्रेक लिया. फिर औफिस जाना शुरू किया तो कविता के लिए नौकरानी की व्यवस्था कर दी. उस पर भी सासूमां के ताने कि जरा भी आराम नहीं करने देती. हर समय चिल्लपों. क्या जिंदगी है, अपने बच्चे भी पाले और अब बच्चों के बच्चे भी पालो. दीपिका यह सब सुनती पर यह सोच कर मन को शांत करने का प्रयत्न करती कि वे अभी भी अपने दुख से उबर नहीं पाई हैं. पर फिर भी मन अशांत रहने लगा था. औफिस पहुंचने में जरा भी देरी होने पर सहकर्मी ताने कसते कि ये औरतें काम करने के लिए नहीं मस्ती करने के लिए आती हैं. धीरेधीरे समय गुजरता गया और कविता ने स्कूल जाना शुरू कर दिया. सासूमां ने भी स्वयं को संभाल लिया. कविता के स्कूल से आने पर जहां वे कविता का खयाल रखती थीं, वहीं उस के साथ बाहर भी आनेजाने लगी थीं.

घर का वातावरण सामान्य होने और कविता के बड़ा और समझदार होने पर जयंत को उस की कंपनी के लिए एक और बच्चे की चाहत हुई. चाहत तो उसे भी थी पर फिर वही परेशानी और अस्तव्यस्त जिंदगी, यह सोच कर वह इतना बड़ा निर्णय लेने में झिझक रही थी. फिर सोचा कि अगर प्लानिंग करनी है तो अभी ही क्यों नहीं? जैसेजैसे समय गुजरता जाएगा कठिनाइयां और बढ़ती जाएंगी. उस की कोख में फिर हलचल हुई तो नवागंतुक के आने की सूचना मात्र से सासूमां चहक उठीं, लेकिन कहा, ‘‘दीपिका इस बार लड़का ही होना चाहिए, बस इतना ध्यान रखना.’’

मांजी यह मेरे बस में नहीं है, यह कहना चाह कर भी नहीं कह पाई थी दीपिका. पर इतना अवश्य मन में आया था कि हम चाहे कितना भी क्यों न पढ़लिख जाएं, आधुनिक होने का दम भर लें पर लड़कालड़की में अभी भी भेद कायम है. संयोग से इस बार उसे बेटा ही हुआ, लेकिन पहले की तरह इस बार भी अड़चनें बहुत आईं. पर अपने लक्ष्य से वह नहीं भटकी. क्योंकि उस ने मन ही मन यह फैसला किया था कि अपने कार्य और कर्तव्य का निर्वहन वह पूरी ईमानदारी से करेगी. दूसरा क्या कहता है इस पर ध्यान नहीं देगी. शायद उस की एकाग्रता और सफलता का यही मूलमंत्र था.  चौराहे पर लालबत्ती के साथ ही उस के विचारों पर भी ब्रेक लग गया. यहां से घर तक का सिर्फ 10 मिनट का रास्ता था. 4 लोगों को सुपरसीड कर के ब्रांच मैनेजर बनना उस के कैरियर का अहम मोड़ था. वह इस खुशी को सब के साथ शेयर करना चाहती थी, चाहे प्रतिक्रियास्वरूप कुछ भी क्यों न सुनना पड़े.

दीपिका के घर के अंदर प्रवेश करते ही जयंत ने कहा, ‘‘दीपिका तुम आ गईं…कल मुझे कंपनी के काम से मुंबई जाना है. सुबह 6 बजे की फ्लाइट है. प्लीज, मेरा सूटकेस पैक कर देना… और हां कल मां को डा. पीयूष को शाम 6 बजे दिखाना है. तुम ले जाना… और प्लीज, मुझे डिस्टर्ब मत करना. कल के लिए मुझे प्रैजेंटेशन तैयार करना है.’’ जयंत का तो यह रोज का काम था… औफिस तो औफिस, वे घर में भी हमेशा ऐसे ही व्यस्त रहा करते हैं. कभी प्रैजेंटेशन, कभी कौन्फ्रैंसिंग तो कभी टूअर. और कुछ नहीं तो उन का फोन से ही पीछा नहीं छूटता. सीईओ जो हैं कंपनी के. आज वह अपने लिए उन से समय का एक टुकड़ा चाह रही थी पर वह भी नहीं मिला.

‘‘दीपिका आ गई हो तो जरा मेरे लिए अदरक वाली चाय बना देना. सिर में बहुत दर्द हो रहा है,’’ सासूमां की आवाज आई. दीपिका सासूमां को चाय दे कर लौट ही रही थी कि पल्लव ने कहा, ‘‘ममा, आज मेरे मित्र रवीश का बर्थडे है. वह होटल ग्रांड में ट्रीट दे रहा है, देर हो जाए तो चिंता मत कीजिएगा.’’ उस का लैटर पर्स में ही पड़ा रह गया. सब को व्यस्त देख कर तथा सासूमां की पिछली बातों को याद कर मन का उत्साह ठंडा पड़ गया था. अब अपनी सफलता का लैटर किसी को भी दिखाने का उस का मन नहीं हो रहा था. उस की सारी खुशियों पर मानों किसी ने ठंडा पानी डाल दिया था. बुझे मन से उस ने किचन की ओर कदम बढ़ाया. आखिर डिनर की तैयारी के साथ जयंत का सूटकेस भी तो उसे लगाना था.

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‘‘ममा, पापड़ रोस्ट करने जा रही हूं, आप लेंगी?’’ कविता ने दीपिका से पूछा. लेकिन दीपिका के कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न करने पर कविता ने उसे झकझोरते हुए फिर अपना प्रश्न दोहराया. फिर भी जवाब में सूनी आंखों से उसे अपनी ओर देखता पा कर उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है ममा, क्या तबीयत ठीक नहीं है?’’

‘‘ठीक है. तुम अपने लिए पापड़ रोस्ट कर लो, मेरा खाने का मन नहीं है.’’

‘‘ममा, कुछ बात तो है वरना रोस्टेड पापड़ के लिए आप कभी मना नहीं करती हो.’’

‘‘कोई बात नहीं है.’’

‘‘कुछ तो है जो आप मुझे भी नहीं बताना चाहतीं. आफ्टर औल वी आर फ्रैंड… आप ही तो कहती हो.’’ कविता के इतने आग्रह पर आखिर दीपिका से रहा नहीं गया. उस ने प्रमोशन लैटर की बात उसे बता दी.

‘‘वाऊ ममा, कौंग्रैचुलेशन. यू आर ग्रेट. वी औल आर प्राउड औफ यू. मैं अभी डैड को बता कर आती हूं.’’ ‘‘उन्हें डिस्टर्ब मत करना बेटा. जरूरी काम कर रहे हैं, कल उन्हें मुंबई जाना है.’’

‘‘पल्लव…’’

‘‘वह अपने मित्र की बर्थडे पार्टी में गया है.’’

‘‘तब ठीक है, दादी को बता कर आती हूं.’’

‘‘नहीं बेटा, उन के सिर में दर्द हो रहा है. उन्हें चाय और दवा दे कर आई हूं. वे आराम कर रही होंगी.’’ ‘‘ठीक है, डिनर के समय यह खुशखबरी सब के साथ शेयर करूंगी. मैं अभी आई.’’

जब तक दीपिका कुछ कहती तब तक वह जा चुकी थी. डिनर की सब्जियां बना कर रख दीं तथा जयंत का सूटकेस लगाने चली गई. लगभग 1 घंटे बाद लौट कर डिनर के लिए डाइनिंग टेबल अरेंज करने जा रही थी कि कविता को एक बड़ा सा पैकेट हाथ में ले कर अंदर प्रवेश करते हुए देखा.

‘‘यह क्या है बेटा?’’

‘‘एक सरप्राइज.’’

‘‘कैसा सरप्राइज?’’

‘‘वेट ममा, वेट.’’

‘‘ममा, दीदी ने मुझे फोन कर के जल्दी घर आने के लिए कहा था पर कारण नहीं बताया. क्या बात है ममा, सब ठीक है?’’ थोड़ी ही देर बाद पल्लव ने अंदर आते हुए कहा. उस के चेहरे पर चिंता की झलक थी. ‘‘ममा, आप अंदर जाइए. जब मैं बुलाऊं तब आइएगा,’’ उस के हाथ से डिनर प्लेट लेते हुए कविता ने कहा, ‘‘ममा प्लीज, बस थोड़ी देर,’’ दीपिका को आश्चर्य में पड़ा देख कविता ने कहा. वह अंदर चली गई. थोड़ी देर बाद कविता ने सब को बुलाया.

‘‘केक, किस का जन्मदिन है आज?’’ डाइनिंग टेबल पर केक रखा देख कर सासूमां ने प्रश्न दागा. जयंत और पल्लव भी कविता की ओर आश्चर्य से देख रहे थे. ‘‘वेट… वेट… वेट… ममा, प्लीज आप इधर आइए,’’ कहते हुए कविता दीपिका का हाथ पकड़ कर उसे डाइनिंग टेबल के पास ले गई तथा हाथ में चाकू पकड़ाते हुए कहा, ‘‘ममा, केक काटिए.’’

कविता की बात सुन कर सासूमां, जयंत और पल्लव कविता को आश्चर्य से देखने लगे. ‘‘आज मेरी ममा का जन्मदिन है. आई मीन मेरी ममा के कैरियर का नया जन्मदिन,’’ उस ने सब के आश्चर्य को देखते हुए कहा.

‘‘कैरियर का नया जन्मदिन… क्या कह रही हो दीदी?’’  आश्चर्य से पल्लव ने पूछा.

‘‘हां, मैं ठीक कह रही हूं. आज मेरी ममा का प्रमोशन हुआ है. वे ब्रांच मैनेजर बन गई हैं. ममा प्लीज, इस खुशी के अवसर पर केक काट कर हम सब का मुंह मीठा करवाइए,’’ कविता ने दीपिका से आग्रह करते हुए कहा.

‘‘कौंग्रैचुलेशन ममा… वी औल आर प्राउड औफ यू…’’ पल्लव ने उस के गले लग कर बधाई देते हुए कहा.

‘‘तुम ने बताया नहीं कि तुम्हारा प्रमोशन हो गया है,’’ जयंत बोले.

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‘‘तुम बिजी थे.’’

‘‘बधाई… कब जौइन करना है?’’

‘‘कल ही अलीगंज ब्रांच में.’’

‘‘बधाई बहू… बड़ा पद, बड़ी जिम्मेदारी. पर औफिस में ही इतना मत उलझ जाना कि घर अस्तव्यस्त हो जाए. घर में तू बहू के रूप में भी सफल हो कर दिखाना.’’ ‘‘मांजी, आप निश्चिंत रहें. मैं औफिस में ही ब्रांच मैनेजर हूं, घर में तो आप की बहू ही हूं,’’ दीपिका ने उन के कदमों में झुकते हुए कहा. ‘‘वह तो मैं ने ऐसे ही कह दिया था दीपिका. सच तो यह है कि तू ने घर की सारी जिम्मेदारियों के साथ बाहर की जिम्मेदारियां भी बखूबी निभाई हैं. मुझे तुझ पर गर्व है. और मेरी जितनी सेवा तू ने की है, उतनी तो मेरी बेटी भी नहीं कर पाती.’’ ‘‘ऐसा मत कहिए मांजी, आप मां हैं मेरी. अगर आप पगपग पर मेरे साथ खड़ी न होतीं, तो शायद न मैं सफलता प्राप्त कर पाती और न ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन सही ढंग से कर पाती.’’

‘‘ममा, केक,’’ कविता ने कहा.

‘हां बेटा.’’ मांजी और जयंत की आंखों में स्वयं के लिए सम्मान देख कर दीपिका के मन में जमी बर्फ पिघलने लगी थी. हर उत्तरदायित्व को निभाते जाना ही एक बार फिर उस के जीवन का लक्ष्य बन गया था.

मौसमें गुल भी: ऐसा क्या हुआ कि खालिद की बांहों में लिपटी गई गजल

‘‘खालिद साहब, एक गलती तो मैं ने आप से शादी कर के की ही है, लेकिन अब आप के साथ जीवनभर सिसकसिसक कर दूसरी गलती नहीं करूंगी. बस, आप मुझे तलाक दे दें,’’ गजल बोलती रही और खालिद सुनता रहा.

थोड़ी देर बाद खालिद ने संजीदगी से समझाते हुए कहा, ‘‘गजल, तुम ठीक कह रही हो, तुम ने मुझ से शादी कर के बहुत बड़ी गलती की है. तुम्हें पहले ही सोचना चाहिए था कि मैं किसी भी तरह तुम्हारे काबिल न था. लेकिन अब जब एक गलती हो चुकी है तो तलाक ले कर दूसरी गलती मत करो. जानती हो, एक तलाकशुदा औरत की समाज में क्या हैसियत होती है?’’ खालिद ने चुभते हुए शब्दों में कहा, ‘‘गजल, उस औरत की हैसियत नाली में गिरी उस चवन्नी जैसी होती है, जो चमकतीदमकती अपनी कीमत तो रखती है, मगर उस में ‘पाकीजगी’ का वजूद नहीं होता.’’

‘‘बस या कुछ और?’’ गजल ने यों कहा जैसे खालिद ने उस के लिए नहीं किसी और के लिए यह सब कहा हो.

‘‘गजल,’’ खालिद ने हैरत और बेबसी से उस की तरफ देखा. गजल उस की तरफ अनजान नजरों से देख रही थी. जिन आंखों में कभी प्यार के दीप जलते थे, आज वे किसी गैर की लग रही थीं.

‘‘गजल, तुम्हें कुछ एहसास है कि तुम क्या चाहती हो? तुम जो कदम बिना सोचेसमझे उठाने जा रही हो उस से तुम्हारी जिंदगी बरबाद हो जाएगी.’’

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‘‘मैं अच्छी तरह से जानती हूं कि मैं कौन सा कदम उठाने जा रही हूं और मेरे लिए क्या सही और क्या गलत है. मैं अब इस घुटन भरे माहौल में एक पल भी नहीं रह सकती. रोटी, कपड़ा और एक छत के सिवा तुम ने मुझे दिया ही क्या है? जब से हमारी शादी हुई है, कभी एक प्यार भरा शब्द भी तुम्हारे लबों से नहीं फूटा. शादी से पहले अगर मुझे मालूम होता कि तुम इस तरह बदल जाओगे तो हरगिज ऐसी भूल न करती.’’

‘‘क्या?’’ हैरत से खालिद का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘तुम्हारे खयाल में यह मेहनत, दिनरात की माथापच्ची मैं किसी और के लिए करता हूं? यकीन मानो, यह सब मैं तुम्हारी खुशी की खातिर ही करता हूं, वरना दालरोटी तो पहले भी आराम से चलती थी. रही बात शादी से पहले की, तो शादी से पहले तुम मेरी महबूबा थीं, पर अब तुम मेरी जिंदगी का एक हिस्सा हो, मेरी बीवी हो. मेरे ऊपर तुम्हारा अधिकार है, मेरा सबकुछ तुम्हारा है और तुम पर मेरा पूरा अधिकार है.’’

‘‘लेकिन औरत सिर्फ एक मशीन से मुहब्बत नहीं कर सकती, उसे जज्बात से भरपूर जिंदगी की जरूरत होती है,’’ गजल ने गुस्से से कहा.

‘‘तो यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’’ खालिद ने दुख भरे लहजे में कहा.

‘‘हां.’’

‘‘ठीक है, फैसले का हक तुम्हें जरूर हासिल है, लेकिन मेरी एक बात मानना चाहो तो मान लो वरना तुम्हारी मरजी. शायद अभी भी तुम पर मेरा इतना हक तो बाकी होगा ही कि मैं तुम से कुछ गुजारिश कर सकूं.

‘‘तुम्हें तलाक चाहिए, इसलिए कि मैं तुम्हें जिंदगी से भरपूर व्यक्ति नजर नहीं आता. तुम्हारी हर शाम क्लबों और होटलों के बजाय घर की चारदीवारी में गुजरती है. तुम्हारी नजर में घर में रहने वाली हर औरत बांदी होती है, जबकि ऐसा हरगिज नहीं है. वैसे अगर तुम्हारा यही खयाल है तो फिर मैं कर ही क्या सकता हूं. मगर मेरी तुम से हाथ जोड़ कर विनती है कि तुम तलाक लेने से पहले कुछ दिन के लिए मुझ से अलग हो जाओ और यह महसूस करो कि तुम मुझ से तलाक ले चुकी हो, भले ही दुनिया वालों पर भी यह जाहिर कर दो.’’

कुछ क्षण रुक कर खालिद ने आगे कहा, ‘‘सिर्फ चंद माह मुझ से अलग रह कर जहां दिल चाहे रहो. जहां दिल चाहे आओजाओ. जिस से तुम्हारा मन करे मिलोजुलो और फिर लोगों का रवैया देखो. उन की निगाहों की पाकीजगी को परखो. अगर तुम्हें कहीं मनचाही पनाहगाह मिल जाए, एतबार की छांव और जिंदगी की सचाइयां मिल जाएं तो मैं अपनी हार मान कर तुम्हें आजाद कर दूंगा.

‘‘वैसे आजाद तो तुम अभी भी हो. मगर गजल, मैं तुम्हें भटकने के लिए दुनिया की भीड़ में अकेला कैसे छोड़ दूं. तलाक मांग लेना बहुत आसान है, मगर सिर्फ मुंह से तीन शब्द कह देना ही तलाक नहीं है. तलाक के भी अपने नियम, कानून होते हैं और इस तरह छोटीछोटी बातों पर न तो तलाक मांगे जाते हैं और न ही दिए जाते हैं.’’

गजल खालिद द्वारा कही बातों पर गहराई से मनन करती रही. उसे लगा कि खालिद का विचार ऐसा बुरा भी नहीं है. वह आजादी से तजरबे करेगी. वह खालिद की ओर देखते हुए बोली, ‘‘ठीक है खालिद, मैं जानती हूं कि हमें हर हाल में अलग होना है. मगर मैं जातेजाते तुम्हारा दिल तोड़ना नहीं चाहती, लेकिन मेरा तलाक वाला फैसला आज भी अटल है और कल भी रहेगा. फिलहाल, मैं तुम से बिना तलाक लिए अलग हो रही हूं.’’

‘‘ठीक है,’’ खालिद ने डूबते मन से कहा, ‘‘तुम जाना चाहती हो तो जाओ. अपना सामान भी लेती जाओ, मुझे कोई आपत्ति नहीं है. जितना रुपयापैसा भी चाहिए, ले जाओ.’’

‘‘शुक्रिया, मेरे वालिद मेरा खर्च उठा सकते हैं,’’ गजल ने अकड़ कर कहा और खालिद के पास से उठ गई.

खालिद खामोशी से गजल को सामान समेटते हुए देखता रहा.

शीघ्र ही गजल ने सूटकेस उठाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, मैं चलती हूं.’’

‘‘गजल, तुम सचमुच जा रही हो?’’ खालिद ने दर्द भरे स्वर में पूछा.

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‘‘हां…’’ गजल ने सपाट लहजे में कहा और बाहर निकल गई.

उस के जाते ही खालिद के दिलोदिमाग में हलचल सी मच गई. उस का दिल चाहा कि दौड़ कर गजल का रास्ता रोक ले, उसे अपने प्यार का वास्ता दे कर घर में रहने के लिए विवश कर दे. उस ने गेट के बाहर झांका, लेकिन गजल उस की आंखों से ओझल हो चुकी थी. उसे घर काटने को दौड़ने लगा. वहां की प्रत्येक चीज से दहशत सी होने लगी. वह आराम से कुरसी पर अधलेटा सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहा.

उधर जैसे ही गजल मायके पहुंची, उस के वालिद ने चौंक कर कहा, ‘‘अरे बेटी तुम…क्या इस बार तीनचार दिन तक रहोगी?’’ उन की नजर सूटकेस की तरफ गई.

‘‘जी हां, मेरा अब हमेशा के लिए यहां रहने का इरादा है,’’ उस ने लापरवाही से कंधे उचकाए.

‘‘मैं कुछ समझा नहीं.’’

‘‘ओह, आप तो बस पीछे ही पड़ जाते हैं. दरअसल, मैं ने आप की बात न मान कर अपनी मरजी से खालिद से शादी की थी, लेकिन यह मेरी बहुत बड़ी भूल थी, अब मैं ने खालिद से अलग होने का फैसला कर लिया है. बहुत जल्दी तलाक भी हो जाएगा.’’

‘‘क्या तुम तलाक लोगी?’’

‘‘जी हां, अब मैं घुटघुट कर नहीं जी सकती. काश, मैं ने पहले ही आप की बात मान ली होती. खैर, तब न सही अब सही.’’

‘‘देखो गजल, जिंदगी के कुछ फैसले जल्दबाजी में नहीं किए जाते. एक भूल तुम ने पहले की थी और अब जिंदगी का इतना बड़ा फैसला भी जल्दबाजी में करने जा रही हो. ऐसा न हो कि तुम्हें सारी जिंदगी रोना पड़े और तुम्हारे आंसू पोंछने वाला भी कोई न हो.

‘‘देखो बेटी, मैं ने खालिद से शादी के लिए तुम्हें क्यों मना किया था, शायद तुम उस हद तक कभी सोच नहीं सकती. दरअसल, हर मांबाप अपने बच्चे की आदत से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं. वे बखूबी जानते हैं कि उन का बच्चा किस माहौल में, किस तरह और कब तक सामंजस्य बैठा सकता है.

‘‘मैं जानता था कि तुम एक आजाद परिंदे की मानिंद हो, तुम्हारे और खालिद के खयालात में जमीनआसमान का फर्क है. तुम्हारा नजरिया ‘दुनिया मेरी मुट्ठी में’ जैसा है, जबकि खालिद समाज के साथ उस की ऊंचनीच देख कर फूंकफूंक कर कदम रखने वाला है. मैं जानता था कि जब जज्बात का नशा उतर जाएगा, तब तुम पछताओगी. वैसे खालिद में कोई कमी नहीं थी. लेकिन मैं नहीं चाहता था कि तुम्हें शादी के बाद पछताना पड़े.’’

‘‘ओह, आप बिना वजह मुझे परेशान कर रहे हैं. मैं ने अपना फैसला आप को सुना दिया है और यही मेरे हक में सही है. पर अभी मैं रिहर्सल पर हूं, मैं अभी कुछ माह तक तलाक नहीं लूंगी. बस, उस से अलग रह कर खुशी के लिए तजरबे करूंगी.’’

‘‘तो गोया तुम्हारे दिल में उस की चाहत है, पर तुम अपने वालिद की दौलत के नशे में चूर हो.’’

‘‘अब्बाजान, आप भी कैसी दकियानूसी बातें करने लगे हैं. मुझे बोर मत कीजिए. अब मैं आजादी से चैन की सांस लूंगी.’’

दिन गुजरने लगे. घर में रोज गजल के दोस्तों की महफिलें जमतीं, उस ने भी क्लब जाना शुरू कर दिया था. भैया और भाभी अब उस से खिंचेखिंचे से रहने लगे थे. उन के प्यार में अब पहले जैसी गर्मजोशी नहीं थी, लेकिन गजल ने इन बातों पर खास ध्यान नहीं दिया. वह दोनों हाथों से दौलत लुटा रही थी. अपने पुरुष मित्रों को अपने आसपास देख कर वह खुशी से फूली न समाती.

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रात देर गए जब गजल घर लौटती तो कभीकभी जेहन के दरीचों में खालिद का वजूद अठखेलियां करने लगता. वह अकसर बगैर तकिए के सो जाती. सुबह उसे ध्यान आता कि खालिद हर रोज उस के सिर के नीचे तकिया रख देते थे.

एक दिन गजल अपनी जिगरी दोस्त निशा के घर गई. थोड़ी देर बाद एकांत में वह उस से बोली, ‘‘यह क्या, हमेशा बांदियों की तरह अपने पति के इर्दगिर्द मंडराती रहती हो?’’

‘‘यही तो जिंदगी की असली खुशी है, गजल,’’ निशा ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘ऊंह, यह असली खुशी तुम्हीं को मुबारक हो.’’

जब वह लौटने लगी तो निशा ने कहा, ‘‘हम चारपांच सहेलियां अपनेअपने परिवार के साथ पिकनिक पर जा रही हैं… जूही, शैल, कल्पना, गजला आदि चल रही हैं. तुम भी चलो न…कल सुबह चलेंगे.’’

‘‘हांहां, जरूर जाऊंगी,’’ गजल ने मुसकराते हुए कहा.

पिकनिक पर गजल अपनेआप को बहुत अकेला महसूस कर रही थी. उस की सहेलियां अपने पति और बच्चों के साथ हंसखेल रही थीं. उसे पहली बार खालिद की कमी का एहसास हुआ. उस की सहेलियों के शौहर उसे अजीब नजरों से देख रहे थे, जैसे वह कोई अजूबा हो.

वापसी पर गजल बहुत खामोश थी. घर आ कर भी वह बुझे मन से अपने कमरे में पड़ी रही. वह एकटक छत को घूरते कुछ सोचती रही. अब भैयाभाभी का सर्द रवैया भी उसे अखरने लगा था. वालिद भी उस से बहुत कम बातें करते थे. एक दिन अचानक गम का पहाड़ गजल पर टूट पड़ा. उस के पिता को दिल का दौरा पड़ा और वे हमेशाहमेशा के लिए उसे अकेला छोड़ कर चले गए.

कुछ दिन इसी तरह बीत गए. अब जब वह भैया से पैसों की मांग करती तो वे चीख उठते, ‘‘यह कोई धर्मशाला या होटल नहीं है. एक तो तुम अपना घरबार और इतना अच्छा पति छोड़ कर चली आई, दूसरे, हमें भी तबाह करने पर तुली हो.

‘‘कान खोल कर सुन लो, अब तुम्हें फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी,’’ तभी भाभी की कड़क आवाज उस के कानों में पड़ी, ‘‘और तुम्हारे लफंगे दोस्त भी इस घर में कदम नहीं रखेंगे. यह हमारा घर है, कोई तफरीहगाह नहीं.’’

‘‘भाभी…’’ वह चीख पड़ी, ‘‘अगर यह आप का घर है तो मेरा भी इस में आधा हिस्सा है.’’

‘‘इस भ्रम में मत रहना गजल बीबी, तुम्हारा इस घर में अब कोई हक नहीं. यह घर मेरा है, तुम तो अपना घर छोड़ आई हो. औरत का असली घर उस के पति का घर होता है और फिर जायदाद का तुम्हारे पिता बंटवारा नहीं कर गए हैं. जाओ, मुकदमा लड़ कर जायदाद ले लो.’’

गजल हैरत से भैयाभाभी को देखती रही. फिर शिथिल कदमों से अपने कमरे तक आई और बिस्तर पर गिर कर फूटफूट कर रोने लगी. आज उसे एहसास हुआ कि यह घर उस का अपना नहीं है. इस घर में वह पराई है. यह तो भाभी का घर है. वह देर तक आंसू बहाती रही. रोतेरोते उस की आंख लग गई. तभी टैलीफोन की घंटी से वह हड़बड़ा कर उठ बैठी. न जाने क्यों, उस के जेहन में यह खयाल बारबार आ रहा था कि हो न हो, खालिद का फोन ही होगा. उस ने कांपते हाथों से रिसीवर उठा लिया, ‘‘हैलो, मैं गजल…’’

‘‘गजल, मैं निशान बोल रहा हूं. तुम जल्दी से तैयार हो कर होटल ‘बसेरा’ में आ जाओ. हम आज बहुत शानदार पार्टी दे रहे हैं. तुम मुख्य मेहमान हो, आ रही हो न?’’

‘‘हां, निशान, मैं तैयार हो कर फौरन पहुंच रही हूं,’’ गजल ने घड़ी पर नजर डाली, शाम के 6 बज रहे थे, वह स्नानघर में घुस गई.

होटल के गेट पर ही उसे निशान, नदीम, अभय और संदीप खड़े मिल गए. चारों दोस्तों ने उस का गर्मजोशी से स्वागत किया, गजल ने चारों तरफ नजर दौड़ाई, ‘‘अरे, और सब कहां हैं? शैला, जूही, निशा, कल्पना, गजला वगैरह कहां हैं?’’

‘‘गजल, किन लोगों का नाम गिनवा रही हो. क्योें उन दकियानूसी औरतों की बात कर रही हो. अरे, वे सब तुम्हारी तरह स्मार्ट और निडर नहीं हैं. वे तो इस समय अपनेअपने पतियों की मालिश कर रही होंगी या फिर बच्चों की नाक साफ कर रही होंगी. वे सब बुजदिल हैं, उन में जमाने से टकराने का साहस नहीं है.’’

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गजल दिल ही दिल में अपनी तारीफ सुन कर बहुत खुश हो रही थी.

‘‘संदीप हाल में बैठोगे या फिर यहीं लौन में,’’ गजल ने चलतेचलते पूछा.

‘‘ओह गजल, यहां बैठ कर हम बोर नहीं होना चाहते. हम ने एक कमरा बुक करवाया है, वहीं चल कर पार्टी का आनंद लेते हैं.’’

‘‘पर तुम लोगों ने किस खुशी में पार्टी दी है?’’

‘‘तुम्हें आश्चर्यचकित करने के लिए क्योंकि आज तुम्हारी शादी की वर्षगांठ है.’’

चलतेचलते गजल के कदम रुक गए, उस के अंदर कहीं कुछ टूट कर बिखर गया.

कमरे में पहुंचते ही खानेपीने का कार्यक्रम शुरू हो गया

‘‘गजल, एक पैग तुम भी लो न,’’ निशान ने गिलास उस की ओर बढ़ाया.

‘‘नहीं, धन्यवाद. मैं पीती नहीं.’’

‘‘ओह गजल, तुम तो आजाद पंछी हो, कोई दकियानूसी घरेलू औरत नहीं…लो न.’’

‘‘नहीं निशान, मुझे यह सब पसंद नहीं.’’

‘‘घबराओ मत बेबी, सब चलता है, आज के दिन तो तुम्हें एक पैग लेना ही चाहिए वरना पार्टी का रंग कैसे आएगा?’’ संदीप ने बहकते हुए कहा. तभी अभय ने बढ़ कर गजल को अपनी बांहों में जकड़ लिया. नदीम ने भरा गिलास उस के मुंह से लगाना चाहा तो वह तड़प कर एक ओर हट गई, ‘‘मुझे यह सब पसंद नहीं, तुम लोगों ने मुझे समझ क्या रखा है…’’

‘‘बेबी, तुम क्या हो, यह हम अच्छी तरह जानते हैं. ज्यादा नखरे मत करो, इस मुबारक दिन को मुहब्बत के रंगों से भर दो. तुम भी खुश और हम भी खुश,’’ अभय ने उस की ओर बढ़ते हुए कहा,

‘‘1 साल से तुम अपने पति से दूर हो, हम तुम्हारी रातें रंगीन कर देंगे.’’

गजल थरथर कांप रही थी. वह दौड़ती हुई दरवाजे की तरफ बढ़ी, पर उसे निशान ने बीच में ही रोक लिया. वह चीखने लगी, ‘‘छोड़ दो मुझे, मैं कहती हूं छोड़ दो मुझे.’’ तभी दरवाजे का हैंडल घूमा. सामने खालिद को देख कर सब को सांप सूंघ गया. गजल दौड़ कर उस से लिपट गई, ‘‘खालिद, मुझे इन दरिंदों से बचाओ…ये मेरी इज्जत…’’ आगे उस की आवाज गले में अटक गई.

वे चारों मौका देख कर खिसक गए थे.  ‘‘घबराओ नहीं गजल, मैं आ गया हूं. शायद अब तुम्हारा तजरबा भी पूरा हो गया होगा? 1 साल का समय बहुत होता है. वैसे अगर अभी भी तुम और…?’’

गजल ने खालिद के मुंह पर अपनी हथेली रख दी. वह किसी बेल की भांति खालिद से लिपटी हुई थी. खालिद धीरे से बोला, ‘‘वह तो अच्छा हुआ कि मैं ने तुम्हें कमरे में दाखिल होते हुए देख लिया था वरना आज न जाने तुम पर क्या बीतती? मैं एक मीटिंग के सिलसिले में यहां आया था. तभी इन चारों के साथ तुम पर नजर पड़ गई.’’

‘‘मुझे माफ नहीं करोगे, खालिद?’’ गजल ने नजरें झुकाए हुए कहा, ‘‘मैं बहुत शर्मिंदा हूं. मैं ने तुम्हें जानने की कोशिश नहीं की. झूठी आन, बान और शान में मैं कहीं खो गई थी. तुम ने सही कहा था, बगैर शौहर के एक औरत की समाज में क्या इज्जत होती है, यह मैं ने आज ही जाना है.’’

‘‘सुबह का भूला  शाम को घर लौट आए तो हर हालत में उस का स्वागत करना चाहिए.’’

‘‘तो क्या तुम ने मुझे माफ कर दिया?’’

‘‘हां, गजल, तुम मेरी अपनी हो और अपनों से गलतियां हो ही जाती हैं.’’

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कायापलट: हर्षा को नकारने वाले रोहित को क्यों हुआ पछतावा

‘बैस्टकपल’ की घोषणा होते ही अजय ने हर्षा को अपनी बांहों में उठा लिया. हर्षा भी छुईमुई सी उस की बांहों में समा गई. स्टेज का पूरा चक्कर लगा कर अजय ने धीरे से उसे नीचे उतारा और फिर बेहद नजाकत से झुकते हुए उस ने सभी का शुक्रिया अदा किया. पिछले साल की तरह इस बार भी इंदौर के लायंस क्लब में थीम पार्टी ‘मेड फौर ईचअदर’ में वे दोनों बैस्ट कपल चुने गए थे. लोगों की तारीफ भरी नजरें बहुत देर तक दोनों का पीछा करती रहीं. क्लब से बाहर आ कर अजय गाड़ी निकालने पार्किंग में चला गया. बाहर खड़ी हर्षा उस का इंतजार करने लगी. तभी अचानक किसी ने धीरे से उसे पुकारा. हर्षा मुड़ी पर सामने खड़े इंसान को यकायक पहचान नहीं पाई. लेकिन जब पहचाना तो चीख पड़ी, ‘‘रोहित… तुम यहां कैसे और यह क्या हालत बना ली है तुम ने?’’

‘‘तुम भी तो बिलकुल बदल गई हो… पहचान में ही नहीं आ रही,’’ रोहित की हंसी में कुछ खिन्नता थी, ‘‘यह है मेरी पत्नी प्रीति,’’ कुछ झिझक और सकुचाहट से उस ने पीछे खड़ी पत्नी का परिचय कराया. सामने खड़ी थुलथुल काया में हर्षा को

कहीं कुछ अपना सा नजर आया. उस ने आगे बढ़ कर प्रीति को गले लगा लिया, ‘‘नाइस टू मीट यू डियर.’’

तभी अजय गाड़ी ले कर आ गया. हर्षा ने अजय को रोहित और प्रीति से मिलवाया. कुछ देर औपचारिक बातों के बाद अजय ने उन्हें अगले दिन अपने यहां रात के खाने पर आमंत्रित किया. अजय और हर्षा के घर में घुसते ही डेढ़ वर्षीय आदी दौड़ कर मां की गोदी में आ चढ़ा. हर्षा भी उसे प्यार से दुलारने लगी. 2 घंटे से आदी अपनी दादी के पास था. हर्षा अजय के साथ क्लब गई हुई थी.

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हर्षा और अजय की शादी 4 साल पहले हुई थी. खूबसूरत शख्सियत की मालकिन हर्षा बहुत ही हंसमुख और मिलनसार थी. इस समय वह पति अजय और अपने डेढ़ साल के बच्चे आदी के साथ खुशहाल और सफल दांपत्य जीवन जी रही थी. लेकिन कुछ साल पहले उस की स्थिति ऐसी न थी. हालांकि तब भी उस की जिंदादिली लोगों के लिए एक मिसाल थी.

90 किलोग्राम वजनी हर्षा अपनी भारीभरकम काया के कारण अकसर लोगों की निगाहों का निशाना बनती थी. लेकिन अपने जानने वालों के लिए वह एक सफल किरदार थी, जो अपनी मेहनत और हौसले के बल पर बड़ी से बड़ी चुनौतियों का मुकाबला करने की हिम्मत रखती थी. अपने कालेज में वह हर दिल अजीज और हर फंक्शन की जान थी. उस के बगैर कोई भी प्रोग्राम पूरा नहीं होता था.

हर्षा दिखने में भले मोटी थी, पर इस से उस की फुरती व आत्मविश्वास में कोई कमी नहीं आई थी. वह और उस का बौयफ्रैंड रोहित एकदूसरे की कंपनी बहुत पसंद करते थे. बिजनैसमैन पिता ने अपनी इकलौती बेटी हर्षा को बड़े नाजों से पाला था. वह अपने मातापिता की जान थी. बिस्तर पर लेटी हर्षा रोहित से हुई आज अचानक मुलाकात के बारे में सोच रही थी. थका अजय बिस्तर पर लेटते ही नींद के आगोश में जा चुका था. हर्षा विचारों के भंवर में गोते खातेखाते 4 साल पहले अपने अतीत से जा टकराई…

‘‘रोहित क्या यह तुम्हारा आखिरी फैसला है? क्या तुम मुझ से शादी नहीं करना चाहते?’’ फाइनल ईयर में वेलैंटाइन डे की कालेज पार्टी में उस ने रोहित को झंझोड़ते हुए पूछा था. दरअसल, उस ने उसी शाम रोहित से बाकायदा अपने प्यार का इजहार कर शादी के बारे में पूछा था. मगर रोहित की नानुकुर से उसे बड़ी हताशा हाथ लगी थी.

‘‘देखो हर्षा, यारीदोस्ती की बात अलग है, क्योंकि दोस्ती कइयों से की जा सकती है, पर शादी तो एक से ही करनी है. मैं शादी एक लड़की से करना चाहता हूं, किसी हथिनी से नहीं. हां, अगर तुम 2-4 महीनों में अपना वजन कम कर सको तो मैं तुम्हारे बारे में सोच सकता हूं,’’ रोहित बेपरवाही से बोला. हर्षा को रोहित से ऐसे जवाब की बिलकुल उम्मीद नहीं थी. बोली, ‘‘तो ठीक है रोहित, मैं अपना वजन कम करने को कतई तैयार नहीं… कम से कम तुम्हारी इस शर्त पर तो हरगिज नहीं, क्योंकि मैं तुम्हारी दया की मुहताज नहीं हूं, तुम शायद भूल गए कि मेरा अपना भी कोई वजूद है. तुम किसी भी स्लिमट्रिम लड़की से शादी के लिए आजाद हो,’’ कह बड़ी सहजता से बात को वहीं समाप्त कर उस ने गाड़ी घर की दिशा में मोड़ ली थी. मगर रोहित को भुलाना हर्षा के लिए आसान न था. आकर्षक कदकाठी और मीठीमीठी बातों के जादूगर रोहित को वह बहुत प्यार करती थी. लोगों की नजरों में भले ही यह एक आदर्श पेयर नहीं था, लेकिन ऐसा नहीं था कि यह चाहत एकतरफा थी. कई मौकों पर रोहित ने भी उस से अपने प्यार का इजहार किया था.

वह जब भी किसी मुश्किल में होता तो हर्षा उस के साथ खड़ी रहती. कई बार उस ने रुपएपैसे से भी रोहित की मदद की थी. यहां तक कि अपने पापा की पहुंच और रुतबे से उस ने कई बार उस के बेहद जरूरी काम भी करवाए थे. तो क्या रोहित के प्यार में स्वार्थ की मिलावट थी? हर्षा बेहद उदास थी, पर उस ने अपनेआप को टूटने नहीं दिया. अगर रोहित को उस की परवाह नहीं तो वह क्यों उस के प्यार में टूट कर बिखर जाए? क्या हुआ जो वह मोटी है… क्या मोटे लोग इंसान नहीं होते? और फिर वह तो बिलकुल फिट है. इस तरह की सोच से अपनेआप को सांत्वना दे रही हर्षा ने आखिरकार पापा की पसंद के लड़के अजय से शादी कर ली, जो उसी की तरह काफी हैल्दी था.

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स्टेज पर उन दोनों की जोड़ी देख किसी ने पीठपीछे उन का मजाक उड़ाया तो किसी ने उन्हें यह कह कर दिली मुबारकबाद दी कि उन की जोड़ी बहुत जम रही है. बहरहाल, अजय से शादी कर हर्षा अपनी ससुराल इंदौर आ गई. शादी के बाद अजय के साथ हर्षा बहुत खुश थी. अजय उसे बहुत प्यार करता था और साथ ही उस का सम्मान भी. रोहित को वह एक तरह से भूल चुकी थी.

एक दिन अजय को खुशखबरी देते हुए हर्षा ने बताया कि उन के यहां एक नन्हा मेहमान आने वाला है. अजय इस बात से बहुत खुश हुआ. अब वह हर्षा का और भी ध्यान रखने लगा. 10-15 दिन ही बीते थे कि अचानक एक शाम हर्षा को पेट में भयंकर दर्द उठा. अजय उस वक्त औफिस में था. फोन पर हर्षा से बात होते ही वह घर रवाना हो गया. लेकिन अजय के पहुंचने तक हर्षा का बच्चा अबौर्ट हो चुका था. असीम दर्द से हर्षा वाशरूम में ही बेहोश हो चुकी थी और वहीं पास मुट्ठी भर भू्रण निष्प्राण पड़ा था. अजय के दुख का कोई ठिकाना न था. बड़ी मुश्किल से बेहोश हर्षा हौस्पिटल पहुंचाई गई.

हर्षा के होश में आने के बाद डा. संध्या ने उन्हें अपने कैबिन में बुलाया, ‘‘अजय और हर्षा मुझे बेहद दुख है कि आप का पहला बच्चा इस तरह से अबौर्ट हो गया. दरअसल, हर्षा यह वह वक्त है जब आप दोनों को अपनी फिटनैस पर ध्यान देना होगा, क्योंकि अभी आप की उम्र कम है. यह उम्र आप के वजन को आप की शारीरिक फिटनैस पर हावी नहीं होने देगी, पर आगे चल कर आप को इस वजह से काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है. इसलिए सही यह होगा कि नए मेहमान को अपने घर लाने से पहले आप अपने वजन को न सिर्फ नियंत्रित करें, बल्कि कम भी करें.’’ डा. संध्या ने उन्हें एक फिटनैस ट्रेनर का नंबर दिया. शुरुआत में हर्षा को यह बेहद मुश्किल लगा. वह अपनी पसंद की चीजें खाने का मोह नहीं छोड़ पा रही थी और न ही ज्यादा ऐक्सरसाइज कर पाती थी. थोड़ा सा वर्कआउट करते ही थक जाती. पर अजय के साथ और प्यार ने उसे बढ़ने का हौसला दिया.

कहना न होगा कि संयमित खानपान और नियमित ऐक्सरसाइज ने चंद महीनों में ही अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया. करीब 6 महीनों में दोनों पतिपत्नी का कायापलट हो गया. अजय जहां 75 किलोग्राम का रह गया वहीं हर्षा का वजन 60 किलोग्राम पर आ गया. हर्षा की खुशी का ठिकाना न था. प्यारी तो वह पहले भी बहुत लगती थी, पर अब उस का आत्मविश्वास और सुंदरता दोगुनी हो उठी. अपनी ड्रैसिंगसैंस और हेयरस्टाइल में चेंज कर वह और भी दमक उठी. डेढ़ साल पहले नन्हे आदी ने उस की कोख में आ कर उस के मातृत्व को भी महका दिया. संपूर्ण स्त्री की गरिमा ने उस के व्यक्तित्व में चार चांद लगा दिए. पर यह रोहित को क्या हुआ, उस की पत्नी प्रीति भी इतनी हैल्दी कैसे हो गई… हर्षा सोचती जा रही थी. नींद अभी भी उस की आंखों से कोसों दूर थी.

सुबह 9 बजे आंख खुलने पर हर्षा हड़बड़ा कर उठी. उफ कितनी देर हो गई, अजय औफिस चले गए होंगे. रोहित और उस की वाइफ शाम को खाने पर आएंगे. अभी वह इसी सोचविचार में थी कि चाय की ट्रे ले कर अजय ने रूम में प्रवेश किया.

‘‘गुड मौर्निंग बेगम, पेश है बंदे के हाथों की गरमगरम चाय.’’ ‘‘अरे, तुम आज औफिस नहीं गए और आदी कहां है? तुम ने मुझे जगाया क्यों नहीं?’’ हर्षा ने सवालों की झड़ी लगा दी. ‘‘अरे आराम से भई… एकसाथ इतने सवाल… मैं ने आज अपनी प्यारी सी बीवी की मदद करने के लिए औफिस से छुट्टी ले ली है. आदी दूध पी कर दादी के साथ बाहर खेलने में मस्त है… मैं ने आप को इसलिए नहीं उठाया, क्योंकि मुझे लगा आप देर रात सोई होंगी.’’

सच में कितनी अच्छी हैं अजय की मां, जब भी वह व्यस्त होती है या उसे अधिक काम होता है वे आदी को संभाल लेती हैं. उसे अजय पर भी बहुत प्यार आया कि उस ने उस की मदद के लिए औफिस से छुट्टी ले ली. लेकिन भावनाओं को काबू करती वह उठ खड़ी हुई, शाम के मेहमानों की खातिरदारी की तैयारी के लिए. सुबह के सभी काम फुरती से निबटा कर मां के साथ उस ने रात के खाने की सूची बनाई. मेड के काम कर के जाने के बाद हौल के परदे, सोफे के कवर वगैरह सब अजय ने बदल दिए. गार्डन से ताजे फूल ला कर सैंटर टेबल पर सजा दिए.

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शाम को करीब 7 बजे रोहित और प्रीति आ गए. हर्षा और अजय ने बहुत आत्मीयता से उन का स्वागत किया. दोनों मां और आदी से मिल कर बहुत खुश हुए. खासकर प्रीति तो आदी को छोड़ ही नहीं रही थी. आदी भी बहुत जल्दी उस से घुलमिल गया. हर्षा ने उन दोनों को अपना घर दिखाया. प्रीति ने खुल कर हर्षा और उस के घर की तारीफ की. खाना वगैरह हो जाने के बाद वे सभी बाहर दालान में आ कर बैठ गए. देर तक मस्ती, मजाक चलता रहा. पर बीचबीच में हर्षा को लग रहा था कि रोहित उस से कुछ कहना चाह रहा है. अजय की मां अपने वक्त पर ही सोती थीं. अत: वे उन सभी से विदा ले कर सोने चली गईं. इधर आदी भी खेलतेखेलते थक गया था. प्रीति की गोद में सोने लगा.

‘‘क्या मैं इसे तुम्हारे कमरे में सुला दूं? प्रीति ने पूछा. हर्षा ने अपना सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘श्योर.’’

तभी अजय अपनी किसी जरूरी फोनकौल पर ऐक्सक्यूज मी कहते हुए बाहर निकल गया. रोहित ने हर्षा की ओर बेचारगी भरी नजर डाली, ‘‘हर्षा मैं तुम्हारा गुनहगार हूं, तुम्हारा मजाक उड़ाया, दिल दुखाया. शायद उसी का सिला है कि आज तुम दोनों हमारी तरह हो और हम तुम्हारी तरह. बहुत गुरूर था मुझे अपनी डैशिंग पर्सनैलिटी पर. लेकिन अब देखो मुझे, कहीं का नहीं रह गया. शादी के वक्त प्रीति भी स्लिमट्रिम थी, पर वह भी बाद में ऐसी बेडौल हुई कि अब हम सोशली अपने यारदोस्तों और रिश्तेदारों से कम ही मिलते हैं.’’

कुछ देर रुक कर रोहित ने गहरी सांस ली, ‘‘सब से बड़ा दुख मुझे प्रीति की तकलीफ देख कर होता है. 2 मिस कैरेज हो चुके हैं उस के. डाक्टर ने वजन कम करने की सलाह दी है, मगर हम दोनों की हिम्मत नहीं होती कि कहां से शुरुआत करें. बहुत इतराते थे अपनी शादी के बाद हम, पर वह इतराना ऐसा निकला कि अच्छीखासी हैल्थ को मस्तीमजाक में ही खराब कर लिया और अब… जानती हो घर से दूर जैसे ही इंदौर आने का चांस मिला तो मैं ने झट से हां कह दी ताकि लोगों के प्रश्नों और तानों से कुछ तो राहत मिले. पर जानते नहीं थे कि यहां इतनी जल्दी तुम से टकरा जाएंगे. कल पार्टी में तुम्हें देख काफी देर तक तो पहचान ही नहीं पाया. लेकिन जब नाम सुना तब श्योर हो गया और फिर बड़ी हिम्मत जुटा कर तुम से बात करने की कोशिश की,’’ रोहित के चेहरे पर दुख की कोई थाह नहीं थी.

रोहित और प्रीति की परेशानी जान हर्षा की उस के प्रति सारी नाराजगी दूर हो गई. बोली, ‘‘रोहित, यह सच है कि तुम्हारे इनकार ने मुझे बेहताशा दुख पहुंचाया था, पर अजय के प्यार ने तुम्हें भूलने पर मुझे मजबूर कर दिया. आज मेरे मन में तुम्हारे लिए तनिक भी गुस्सा बाकी नहीं है.’’

तभी सामने से आ रहे अजय ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘भई कौन किस से गुस्सा है?’’ ‘‘कुछ नहीं अजय,’’ कह कर हर्षा ने अजय को रोहित और प्रीति की परेशानी के बारे में बताया. ‘‘अरे तुम दोनों हर्षा के साथ जा कर डा. संध्या से मिल लो. जरूर तुम्हें सही सलाह देंगी,’’ अजय ने कहा. तब तक प्रीति भी आदी को सुला कर आ गई थी. ‘‘हां रोहित, तुम बिलकुल चिंता न करो, मैं कल ही प्रीति और तुम्हें अपनी डाक्टर के पास ले चलूंगी… बहुत जल्दी प्रीति की गोद में भी एक नन्हा आदी खेलेगा,’’ कहते हुए हर्षा ने प्रीति को गले लगा लिया.

उन दोनों के जाने के बाद हर्षा देर तक रोहित और प्रीति के बारे में सोचती रही. वह प्रीति की तकलीफ समझ सकती थी, क्योंकि वह खुद भी कभी इस तकलीफ से गुजर चुकी थी. उस ने तय किया कि वह उन दोनों की मदद जरूर करेगी. हर्षा इसी सोच में गुम थी कि पीछे से आ कर अजय ने उसे अपनी बांहों में भर लिया और उस ने भी हंसते हुए रात भर के लिए अपनेआप को उन बांहों की गिरफ्त के हवाले कर दिया.

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Serial Story: ज्योति से ज्योति जले

Serial Story: ज्योति से ज्योति जले (भाग-1)

मैं रश्मि को पिछले 7 सालों से जानती हूं. मेरा बेटा मिहिर जब उस की कक्षा में पढ़ता था तब वह स्कूल में नईनई थी. उस का परिवार मुंबई से उसी वर्ष बोरीवली आया था.

हमारी पहचान भी बड़े नाटकीय एवं दिलचस्प अंदाज में हुई थी. मिहिर का पहली यूनिट परीक्षा का परिणाम कुछ संतोषजनक नहीं था. ‘ओपन हाउस’ के दिन की बात है.

जब सभी विद्यार्थियों के अभिभावक जा चुके और मैं भी जाने लगी तो उस ने इशारे से मुझे रुकने के लिए कहा था. उस के अंदाज में अदृश्य सा आदेश पा कर मेरे बढ़ते कदम रुक गए थे.

‘‘आप, मिहिर की मदर हैं?’’ बेहद नाराजगी के स्वर में उस ने मुझ से पूछा था.

‘‘जी हां.’’

‘‘मैं आप को क्या कह कर पुकारूं?’’ उस ने फिर पूछा, ‘‘नाम ले कर या फिर मिहिर की दुश्मन कह कर… वैसे मैं आप का नाम जानती भी तो नहीं…’’

‘‘जी…वर्षा,’’ मैं ने अपना नाम बताया.

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‘‘तो वर्षाजी, आप ही बताइए, क्या आप अपने बच्चे पर हमेशा इसी तरह, गुस्से से बरसती हैं या फिर कभी स्नेह की बारिश भी उस पर करती हैं?’’

‘‘म…मैं समझी नहीं…’’ मैं स्तब्ध सी उस के सुंदर चेहरे को देखती रह गई, ‘‘दरअसल, बात यह है कि…’’ मेरा वाक्य अधूरा रह गया.

‘‘इतना गुस्सा भी किस काम का कि नन्हे बच्चे को यों बेलन से मारना पड़े?’’ रश्मि ने नसीहत देते हुए कहा, ‘‘वर्षाजी, इनसान को हमेशा, हर हाल में अपने पर काबू पाना सीखना चाहिए. गुस्से में तो खासकर. मेरी बात मानिए, जब कभी भी आप को गुस्सा आए तब आप अपनी सूरत आईने में देख लें. इस सूरत में यदि आप अपने गुस्से पर काबू पाने में सफल न हुईं तो फिर बताइएगा.’’

‘‘मैडम, आप ही बताइए, मैं क्या करूं? मिहिर पढ़ाई में ज्यादा ध्यान नहीं देता. हर वक्त उस के सिर पर सिर्फ क्रिकेट का ही जनून सवार रहता है. अभी से यह हाल है तो आगे जा कर उस का भविष्य क्या होगा? आज परिणाम आप के सामने ही है.’’

‘‘तो उसे समझाने का आप कोई और तरीका अपनातीं. क्या आप के हाथों बेलन की मार से वह रातोंरात बदल जाएगा? माफ कीजिए, आप तो बेलन का सही उपयोग और मां शब्द का सही अर्थ दोनों बदलने पर तुली हुई हैं.’’

मैं चुपचाप उस की नसीहत सुनती रही.

‘‘वर्षाजी, बच्चों के मन और शरीर दोनों गूंधे हुए आटे की तरह नम होते हैं, उसे जैसा आकार देना चाहें हम दे सकते हैं, पर मैं ने अकसर देखा है, हर मातापिता अपने बच्चों को अपनी अपेक्षाओं के अनुसार ढालना चाहते हैं. वे एक बात भूल जाते हैं कि बच्चों की भी अपनी पसंदनापसंद हो सकती है. खैर, आप ‘मां’ के आगे एक अक्षर ‘क्ष’ और जोड़ दीजिए.’’

‘‘क्ष…मा…’’ मेरे मुंह से निकल पड़ा.

‘‘यही ‘मां’ शब्द का सही अर्थ है, समझीं?

‘‘क्रोध से अकसर बनती बात बिगड़ जाती है. अगर आप अपने मातृत्व को जीवित रखना चाहती हैं तो अपने गुस्से को मारना सीखिए, क्षमा करना सीखिए. इसे टीचर का भाषण नहीं, मित्र की नसीहत समझ कर याद रखिएगा.’’

मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा थी. सच ही तो कह रही थी वह, मुझे गुस्से में बेकाबू हो कर अपने बच्चे को यों बेलन से नहीं मारना चाहिए था. मिहिर की पिंडली बेलन की मार से इस कदर सूज गई थी कि वह सही ढंग से चल भी नहीं पा रहा था.

‘मुझे क्षमा करना मेरे बच्चे. आज के बाद फिर कभी नहीं,’ मन ही मन निर्णय कर मैं सचमुच रो पड़ी.

और आज उसी की बदौलत मेरा बेटा न सिर्फ पढ़ाई में ही आगे है बल्कि क्रिकेट में भी खूब आगे निकल गया है. पहले अंकुर 12 फिर 14 और अब अंडर 19 के बैच में खेलता है. कई बार अखबार में उस की टीम के अच्छे प्रदर्शन के समाचार भी छपे हैं. मुझे अपने बेटे पर नाज है.

उस पल से ही हमारे बीच सच्ची मित्रता का सेतु बंध गया था. मैं हैरान थी उसे देख कर. सुंदरता, बुद्धिमत्ता और सहृदयता का संगम किसी एक ही शख्स में मिल पाना वह भी आज के दौर में किसी चमत्कार से कम नहीं लगा.

यह अनुभव सिर्फ मेरा ही नहीं, प्राय: उन सभी का है जो रश्मि को करीब से जानते हैं. पिछले 7 साल में उस ने न जाने कितने बच्चों पर ज्ञान का ‘कलश’ छलकाया होगा. वे सभी बच्चे और उन के मातापिता…सब के मुंह से, उस की सिर्फ प्रशंसा ही सुनी है, वह सब की प्रिय टीचर है.

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वह है भी तो तारीफ के काबिल. वह अपनी कक्षा में पढ़ने वाले तकरीबन हर बच्चे की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में जानने का प्रयास करती है. जैसे ही उसे पता चलता है कि किसी के परिवार में कोई समस्या है, वह झट से उस का हल ढूंढ़ने को तत्पर हो जाती है, उन की मदद करने के लिए कुछ भी कर गुजरती है.

सभी बच्चों की अकसर एक ही तकलीफ होती, पैसों का अभाव. हर साल वह न जाने कितने विद्यार्थियों की फीस, किताबें, यूनिफार्म आदि का इंतजाम करती है, जिस का कोई हिसाब नहीं. नतीजतन, वह खुद हमेशा पैसों के अभाव में रहती है.

एक दिन उस की आंखों में झांकते हुए मैं ने पूछा, ‘‘रश्मि, सच बताना, तुम्हारा बैंक बैलेंस कितना है?’’

‘‘सिर्फ 876 रुपए,’’ वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘वर्षा दीदी, मेरा बैंक बैलेंस कम है तो क्या हुआ? इतने सारे लोगों के आशीर्वाद का बैलेंस मेरे जीवनखाते में इतना तगड़ा है, ये क्या कम है? मरते वक्त मैं अपना बैंक बैलेंस साथ ले कर जाऊंगी क्या? मैं तो इसी में खुश हूं. आप मेरी चिंता मत कीजिए.’’

‘‘नहीं रश्मि, तुम गलत सोचती हो. इस बात से मुझे इनकार नहीं कि मृत्यु के बाद इनसान सभी सांसारिक वस्तुओं को यहीं छोड़ जाता है, लेकिन यह बात भी इतनी ही सच है कि जब तक जिंदा होता है, मनुष्य को संसार के सारे व्यवहारों को भी निभाना पड़ता है और उन्हें निभाने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है…यह बात तुम क्यों नहीं समझतीं?’’

‘‘मैं बखूबी समझती हूं पैसों का महत्त्व लेकिन दीदी, मैं ने हमेशा अनुभव किया है कि जब कभी भी मुझे पैसों की जरूरत होती है, कहीं न कहीं से मेरा काम बन ही जाता है. यकीन कीजिए, पैसों के अभाव में आज तक मेरा कोई भी काम, कभी भी अधूरा नहीं रहा.’’

मैं समझ गई कि इस नादान को समझाना और पत्थर से सिर टकराना एक ही बात थी. मेरे लाख समझाने के बावजूद वह मेरी सलाह को अनसुना कर पुन: अपने उसी स्वभाव में लौट आती है.

वह भोलीभाली नहीं जानती कि कभीकभी कुछ लोग उस की इस उदारता को मूर्खता में शामिल कर उसे धोखा भी देते हैं.

ऐसा ही एक किस्सा 6 साल पहले हुआ था. यश नाम का एक लड़का पहली कक्षा में पढ़ता था. उस की मां को किसी ने बताया होगा कि रश्मि टीचर सब की मदद करती हैं.

स्कूल छूटने का वक्त था. मैं रश्मि के इंतजार में खड़ी थी. मुझे देख कर जब वह मुझ से मिलने आई तब यश की मम्मी शांति भी अपने मुख पर बनावटी चिंता ओढ़ कर हमारे पास आ कर खड़ी हो गईं.

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‘‘टीचर, यश के पापा का पिछले साल वड़ोदरा में अपैंडिक्स का आपरेशन हुआ था. वह किसी काम से वहां गए थे. अचानक दर्द बढ़ जाने पर आपरेशन करना जरूरी था, वरना उन की जान को खतरा था. आपरेशन का कुल खर्च सवा लाख रुपए हुआ था. मेरे मायके वालों ने कहीं से कर्ज ले कर किसी तरह वह बिल भर दिया था, पर उस में से 17 हजार रुपए भरने बाकी रह गए थे जोकि आजकल में ही मुझे भेजने हैं, क्या आप मेरी मदद करेंगी?’’ वे रो पड़ीं.

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Serial Story: ज्योति से ज्योति जले (भाग-4)

महेंद्र का आपरेशन डा. खांडेपारकर के हाथों सफलता से संपन्न हुआ. महेंद्र के हृदय के दाएं हिस्से का शुद्ध रक्त बाहर ले जाने वाली नलिका में रुकावट पैदा हो गई थी जिसे दूर करने के लिए पहली बार और कमजोर पड़ गए वाल्व को ठीक करने के लिए दूसरी बार सर्जरी की गई. आपरेशन के कुछ दिन बाद जब उसे डिस्चार्ज किया गया तब हम उसे टैक्सी से घर तक ले गए. उस दिन सारे महल्ले वालों ने रश्मि का इतना शानदार स्वागत किया कि जिस का वर्णन शब्दों में करने के लिए शब्दकोष के सारे अच्छे शब्द भी शायद कम पड़ें. उस दिन का नजारा मेरे लिए एक कभी न भूलने वाला अनुभव बन गया. मुझे लगा मैं ने अपने समय का सब से बेहतरीन उपयोग उस दिन किया.

लेकिन रश्मि की यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई. घर आने के 10 दिन बाद ही महेंद्र को अचानक पैरों की तकलीफ शुरू हो गई. वह दिनरात पीड़ा से कराहता रहता. उस का बदन बुखार से तपता रहता और दर्द असहनीय होने पर वह तड़प उठता. रश्मि तब बिना समय गंवाए महेंद्र को के.ई.एम. ले गई जहां उसे फिर भरती किया गया और शुरू हुआ एक नया सिलसिला…ब्लड कल्चर, हड्डियों का एक्सरे, एम.आर.आई., सोनोग्राफी और न जाने क्याक्या.

एक्सरे और एम.आर.आई. की रिपोर्ट से पता चला कि महेंद्र को बोन टी.बी. है. उसे ठीक करने के लिए ढेरों रुपए और एक लंबे समय की जरूरत है. पिछले 8 महीने से यही भागदौड़ चली आ रही है. इस दौरान रश्मि के हिस्से में बेहिसाब तकलीफें आईं तो मैं ने उसे समझाया कि देखो रश्मि, तुम महेंद्र के लिए जितना कर सकती थीं, किया, अब तुम इस मामले से बाहर निकल जाओ, प्लीज…

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‘‘दीदी, प्लीज,’’ वह लगभग चीख उठी, ‘‘जब परिवार का एक सदस्य गंभीर रूप से बीमार होता है तब उस के साथसाथ घर के दूसरे सदस्यों का जीवन किस हद तक बिखर जाता है इस का एहसास आप को है? महेंद्र की बड़ी बहन आरती पढ़ना चाहती है लेकिन उस ने पढ़ाई छोड़ कर अपनी किशोरावस्था को गृहस्थी की आग में झोंक दिया. सब से छोटी बहन नीलम की आंखें आप ने नहीं देखीं न? लेकिन मैं ने उस की आंखों में बसे सतरंगी सपनों को राख में बदलते देखा है. तीनों बहनें हर पल अपनी जिंदगी के साथ समझौता करती हुई जीए जा रही हैं. उन का क्या भविष्य? ‘‘नहीं, दीदी, मैं अगर अपने हाथ खींच लूं तो उन की मदद कौन करेगा? कहां से लाएंगे वे इलाज के लिए इतना सारा पैसा?’’

उस दिन वह बेहद व्यथित थी. वह जैसे जिंदगी की जंग हार गई थी. अपनी मजबूरी में फंसी वह, अब क्या होगा, सोच कर चिंतित हो उठी थी. ‘‘दिव्येशजी, कैसे हैं आप?’’ ज्यों ही उन्होंने दरवाजा खोला मैं ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘मैं ठीक हूं. आप बैठिए, मैं रश्मि को जगाता हूं. वह अभीअभी सोई है.’’ ‘‘नहीं, आप उसे सोने दीजिए. कैसी है अब उस की तबीयत?’’ मैं ने सोफे पर बैठते हुए चिंतित लहजे में पूछा.

‘‘आज ठीक है. 2 दिन से वह बुखार से तड़प रही थी. न जाने अचानक उसे क्या हो गया? वह डाक्टर के पास इलाज भी नहीं करवाना चाहती. उस की वजह से मैं भी 2 दिन से घर पर हूं.’’ मैं उन्हें देखती रह गई कि क्या वाकई में कोई पति अपनी पत्नी से इस कदर मोहब्बत करता होगा?

दिव्येशजी ने गरम कौफी का प्याला मुझे देते हुए कहा, ‘‘वर्षाजी, मेरी रश्मि कुछ अलग ही मिट्टी की बनी है. उस के भोलेपन एवं निर्दोषिता ने ही मुझे उस की ओर आकर्षित किया था. हम ने प्रेम विवाह किया था. शुरुआत का हमारा जीवन काफी संघर्षमय रहा. उस का आर्थिक एवं भावनात्मक सहारा पा कर ही मैं अपना पारिवारिक जीवन स्थिर कर पाया हूं?

‘‘नौकरी और घर की जिम्मेदारियां, बच्चों की पढ़ाई तीनों मोर्चों पर वह बिना थकेहारे लड़ती रही. अब जा कर हमारा जीवन स्थिर हो पाया है. हमारे दोनों बच्चे अपना उज्ज्वल कैरियर बनाने के लायक बने, सब रश्मि की बदौलत…’’ मैं स्तब्ध हो कर उन की बातें सुनती रही.

‘‘वर्षाजी, सच कहूं तो आदित्य की विदेश शिक्षा को ले कर हम ने बैंक से 15 लाख का कर्ज न लिया होता तो महेंद्र के आपरेशन को ले कर रश्मि को इधरउधर भटकना न पड़ता…काश, 2 साल पहले वह हमें मिला होता,’’ फिर थोड़ा रुक कर वे बोले, ‘‘रश्मि को तो आटेदाल का भाव तक नहीं मालूम. सच तो यह है कि मैं ने उसे बाजार के धक्के न खाने की हिदायत दे रखी है. मैं नहीं चाहता कि धूप में बाजार के चक्कर काट कर वह अपनी सेहत खराब करे.’’

सच ही तो कहते हैं दिव्येशजी. दोपहर की कड़ी धूप में उस की गौर त्वचा ताम्रवर्ण हो जाती है. तब मैं उसे ‘लाली लाली’ कह कर चिढ़ाती हूं और वह खिलखिला कर हंस पड़ती है. तब उसे देख कर भी मेरे मन में खयाल आ जाता है, ‘काश, मिहिर की एक बहन भी होती, रश्मि जैसी…’ ‘‘कहां खो गईं आप? क्या नीरज भाई की याद सताने लगी?’’ वह मेरे कान के पास आ कर फुसफुसाई तब मुझे होश आया.

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‘‘मेरे दोनों दुश्मन साथ बैठ कर, मेरे खिलाफ किस जंग की तैयारी कर रहे हैं?’’ उस के होंठों पर शरारत भरी मुसकान उभर आई. ‘‘हां, हम दोनों रश्मिपुराण पढ़ रहे थे,’’ मैं ने उसे चिढ़ाने के लिए कहा.

‘‘जहे नसीब, हम इतने, महान कब से बन गए कि हमारे नाम का पुराण बन गया और हमें पता तक न चला?’’ वह नाटकीय अंदाज में बोली. ‘‘रश्मि, बस, अब बहुत हो चुका. इस से ज्यादा कुरबानी मैं तुझे नहीं देने दूंगी क्योंकि अब उन की मदद करने की न तो तुझ में सामर्थ्य ही रही है और न ही तुझे समझाने की शक्ति मुझ में रही.’’

‘‘नहीं दीदी, ऐसा नहीं कहते. जब तक दिल में हौसला है और हाथों में दम, मैं उस की मदद करती रहूंगी और आप ने शायद यह सुना भी हो कि प्रार्थना में उठने वाले हाथ से ज्यादा मदद में उठने वाले हाथ महत्त्वपूर्ण होते हैं.’’ एक दिन रश्मि आई तो मुझे उस सुनार के बारे में याद दिलाने लगी जिस की दुकान से मैं ने स्नेह के बेटे के लिए एक बे्रसलेट और स्नेह के लिए एक जोड़ी बाली बनवाई थीं.

रश्मि अपने कुछ जेवर ले कर आई थी और चाहती थी कि उन गहनों को बेच कर मैं उसे कुछ पैसे ला दूं. ‘‘दीदी, प्लीज, आप मना करेंगी तो मैं कहां जाऊंगी? मैं किसी को जानती भी तो नहीं.’’

‘‘तो क्या हुआ? मैं क्यों करूं तुम्हारा यह काम? क्या दिव्येशजी यह जानते हैं?’’ उस ने अपनी पलकें झुका दीं. ‘‘नहीं, और आप उन से कहेंगी भी नहीं, आप को मेरी कसम,’’ और उस ने मेरा दायां हाथ उठा कर अचानक अपने सिर पर रख दिया.

‘‘रश्मि, यह सब गलत हो रहा है और गलत काम में मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सकती.’’ ‘‘दीदी, प्लीज, आखिरी बार.’’

आखिर उस की जिद के सामने मैं ने घुटने टेक दिए. अपने ज्वैलर्स के पास से 15 हजार रुपए ले कर जब मैं ने उस के हाथ में थमाए तो वह फूल सी खिल उठी, पर मेरा हृदय मुरझा गया. उन पैसों से वह महेंद्र के इलाज, दवाइयां, इंजेक्शन, हेल्थड्रिंक आदि तथा अस्पताल में रहते हुए उस के मम्मीपापा के लिए खाना लाने के लिए खर्च करती रही. आखिरकार, महेंद्र ठीक हो कर घर आ गया. पहले से वह बेहतर था. उस की जान पर मंडराता हुआ खतरा टल गया था. अपने सहकार की ज्योति जला कर रश्मि ने महेंद्र की बुझती हुई जीवन ज्योति को पुन: प्रज्वलित करने का एक अद्भुत प्रयास किया जिसे डा. पांडे तथा डा. दलवी जैसी कई सिद्ध हस्तियों ने सराहा. उस ने मेरे मन में दबी नेकी की उदात्त भावना को भी तो बखूबी उजागर किया. उस की ज्येति में मैं ने अपनी ज्योति को भी शामिल कर लिया. ज्योति से ज्योति जलाने का सिलसिला आगे भी चलता रहे, यही मेरी कामना है.

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Serial Story: ज्योति से ज्योति जले (भाग-3)

पूर्व कथा

रश्मि की सोच है कि किसी भी बच्चे का भविष्य खराब न हो. जैसे ही उसे पता चलता कि किसी बच्चे के परिवार में समस्या है, वह उस की मदद करने को तैयार हो जाती. न जाने कितने ही विद्यार्थियों की फीस, किताबें, यूनीफार्म आदि का वह इंतजाम करती, जिस का हिसाब नहीं. नतीजतन, वह स्वयं पैसों के अभाव में रहती.
एक दिन रश्मि ने मिहिर की मां वर्षा को नसीहत दी तो उस ने बेटे को पीटना बंद कर दिया और वह आदर्श मां बन गई. रश्मि से प्रभावित हो कर वर्षा उस के काफी करीब हो गई. वर्षा ने रश्मि को दूसरे बच्चों, परिवारों के लिए पैसा खर्च करने से बारबार रोका लेकिन रश्मि अपनी धुन में बढ़ती ही रही.

अब आगे…

रुद्र से ही जाना था कि रश्मि ने अपनी जिंदगी में कभी भी अपने दोनों बच्चों पर हाथ नहीं उठाया. हाथ उठाने की बात तो दूर, कभी ऊंची आवाज में डांटा तक नहीं. शायद यही वजह थी कि उस के दोनों बेटे रुद्र और आदित्य शांत प्रकृति के साथ ही साथ पढ़ने में होनहार और तेजस्वी विद्यार्थी हैं. रुद्र वाणिज्य में स्नातक बनने के बाद एम.बी.ए. कर रहा है. आदित्य गत 2 साल से आस्टे्रलिया में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है.

शायद ये सब उस की नेकनियती की ही बदौलत है कि वह आर्थिक, सामाजिक एवं पारिवारिक दृष्टिकोण से एकदम सुखी है. उस के घर में उसे किसी बात की कमी नहीं. शायद उस ने अपने हिस्से का सारा अभाव भरा जीवन पहले ही जी लिया था और यही वजह है कि वह दूसरों की मदद करने को सदा तत्पर रहती है. मेरी सास के अचानक गुजर जाने के कारण कुछ दिन तक मेरा रश्मि से मिलना नहीं हो सका. वैसे वह उन दिनों मुझे सांत्वना देने के लिए कम से कम 4 बार मेरे घर आई लेकिन उस माहौल में उस से ज्यादा बातचीत नहीं हो पाई थी.

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धीरेधीरे मेरा जीवन सामान्य हुआ तो मैं उस से मिलने स्कूल पहुंची. तब वह कुसुम के साथ किसी गंभीर विषय पर चर्चा कर रही थी. मुझे देख कर रश्मि हौले से मुसकराई, लेकिन उस के चेहरे के भाव मैं बखूबी पढ़ सकती हूं. मुझे लगा जरूर वह किसी विषय को ले कर बेहद चिंतित है. मैं ने कुसुमजी से ही पूछना ठीक समझा, जो उसी स्कूल की अध्यापिका व रश्मि की सहेली थीं.

कुसुमजी ने बताया, ‘‘मोहिनी की क्लास में एक बच्चा महेंद्र पढ़ता है. वह बहुत गंभीर रूप से बीमार है. डेढ़ साल पहले उस के हृदय की सर्जरी की गई थी पर उस की तबीयत फिर बिगड़ जाने पर डाक्टर ने हिदायत दी है कि जल्द से जल्द फिर हार्ट सर्जरी नहीं की गई तो उस के साथ कुछ भी हो सकता है. महेंद्र की मम्मी रेखाजी रश्मि से मिल कर अभीअभी गई हैं. उन से बातचीत करने के बाद से ही वह कुछ परेशान नजर आ रही है.’’ यह जान कर मेरी छठी इंद्रिय ने मुझे चेतावनी दी कि रश्मि फिर किसी मुसीबत में फंसने वाली है. मैं ने उसे कड़क लहजे में कहा, ‘‘देखो रश्मि, मैं जान गई हूं कि तुम महेंद्र का केस सुन कर उस की मदद जरूर करना चाहोगी लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, दीदी? रेखाजी कितनी उम्मीदें ले कर मेरे पास आई थीं. उन्हें मैं नाउम्मीद कैसे करती? आप कहां जानती हैं कि महेंद्र उन का इकलौता बेटा है? 3 बेटियों के बाद न जाने कितनी मन्नतों के बाद रेखाजी ने उसे पाया है. वे क्या उसे यों ही गंवा दें? ‘‘इस सब से परे, एक हकीकत और भी है कि उस के पापा जन्म से ही अपाहिज हैं. महेंद्र उन के बुढ़ापे का एकमात्र सहारा है. मैं उन की मदद जरूर करूंगी और प्लीज…आप मुझे रोकिएगा भी मत.’’

उस दिन के बाद हमारा मिलना कुछ अनिश्चित सा होता चला गया. कुसुमजी से ही मुझे पता चला था कि रश्मि महेंद्र के आपरेशन को ले कर पैसा जमा करने में लगी हुई है. मैं उस के घर हर रोज फोन करती. रुद्र या दिव्येशजी से मुझे एक ही जवाब मिलता कि वह महेंद्र के आपरेशन के सिलसिले में किसी से मिलने गई है.

एक शाम रश्मि घर पर मिल गई. वह बहुत खुश थी. चहकती आवाज में ही मुझे बताया, ‘‘दीदी, महेंद्र के आपरेशन के लिए विविध सामाजिक संस्थाओं से हमें मदद मिल गई है. उन में से एक संस्था मेस्को, एक मुसलिम ट्रस्ट है, जो जाति- पांति के भेदभाव से परे सभी की सहायता करता है. उस संस्था की कार्यकर्ता से मैं बेहद प्रभावित हूं. दीदी, जहांआरा नाम है उन का और उन से मिल कर ही मैं ने जाना कि हम दोनों धर्मों के लोग नाहक ही नदी के दो किनारों की तरह आमनेसामने रहते हैं. हकीकत यह है कि आम हिंदू और आम मुसलमान दुश्मनी नहीं दोस्ती चाहते हैं.

‘‘खैर, आगे समाचार यह है कि अब महेंद्र का आपरेशन हो जाएगा और वह फिर पहले की तरह स्वस्थ बन जाएगा. आप हमारे साथ के.ई.एम. अस्पताल चलेंगी?’’ ‘‘ना बाबा ना…सामाजिक कार्य का ठेका तुम ने ले रखा है, मैं ने नहीं. मेरे पास इतना समय और पैसा नहीं है जिसे मैं दूसरों के पीछे बरबाद करती रहूं. मैं भली, मेरा परिवार भला.’’

‘‘आप को तो कुछ भी कहना बेकार है. जाइए, मैं आप से बात नहीं करती,’’ इतना कह कर उस ने फोन काट दिया. उस दिन आते ही रश्मि बोली, ‘‘दीदी, आज मैं आप को अपने साथ ले जाना चाहती हूं. देखिए, आप मना नहीं करेंगी,’’ उस ने विनती भरे स्वर में मुझ से कहा तो मैं तुरंत उस के साथ हो ली.

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महेंद्र का परिवार एक कमरे के छोटे से घर में रहता है, छोटेछोटे घरों से बनी एक विशाल बस्ती, आंबावाड़ी है, हम वहीं जा रहे थे. महेंद्र के मम्मीपापा एवं तीनों बहनों ने बड़ी ही गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया. जब रश्मि ने चंदे की नकद राशि एवं धनादेश महेंद्र के पापा के हाथों में थमाए तो विजयभाई का समग्र अस्तित्व गद्गद हो उठा. उन के चेहरे पर रश्मि के प्रति कृतज्ञता के जो भाव थे, उन्हें पढ़ कर एवं महेंद्र की स्थिति देख कर मुझे पहली बार लगा कि रश्मि ने इस बार सच में ही सही काम किया है. सभी के चेहरे पारदर्शिता और खुद्दारी के मिलेजुले भावों से चमक रहे थे.

महेंद्र अपनी मम्मी के कान में कुछ कह रहा था. रश्मि उसे देख कर बोली, ‘‘बेटे, मम्मी से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं. देखो, मैं आप की चीज ले कर ही आई हूं. मैं ने अपना वादा निभाया, अब आप भी अच्छे, बहादुर बच्चे की तरह सर्जरी के लिए तैयार रहना.’’ रश्मि ने अपने बैग से वीडियो गेम निकाल कर उस के हाथ में थमा दिया तब उस नन्हे बालक की आंखें दुनिया भर की रोशनी से जगमगा उठीं.

‘‘टीचर, हमारी आंखों से बहने वाले आंसू, हम गरीबों की ओर से आप के चरणों में सच्ची श्रद्धा बन कर अर्पित हैं क्योंकि हमारे पास कोई भी तोहफा देने की सामर्थ्य नहीं, इसे स्वीकार करें,’’ रेखाजी अपने आंसुओं को पोंछती हुई बोलीं. मेरी जैसी पत्थर दिल स्त्री भी तब रोए बिना न रह सकी. रश्मि की तो बात ही क्या कहूं? जब हम वहां से वापस हो रहे थे तब मैं एक अजीब सा आत्मसंतोष महसूस कर रही थी.

रश्मि ने अपनी ओर से जो दान का सिलसिला शुरू किया था, वही पलट कर उसे मिलता रहा, उस की जानपहचान से ले कर कई गरीब अभिभावकों तक, सब ने कुछ न कुछ उसे दिया. इस बात का मुझे बेहद दुख था कि उस के इस नेक काम में उस के अपने स्टाफ के लोगों ने कोई मदद नहीं की थी.

‘‘रश्मि, कल रात को कहां रह गई थी? मैं ने तुम्हारे घर फोन किया तब रुद्र ने बताया कि तुम रेखाजी के साथ किसी डाक्टर से मिलने गई हो.’’ ‘‘दीदी, महेंद्र की मम्मी आपरेशन से पहले दूसरे डाक्टरों से भी राय लेना चाहती थीं. डा. कौशल पांडे मुंबई के मशहूर हार्ट सर्जन हैं. उन से मिल कर लगा कि संसार में आज भी इनसानियत जिंदा है. जब डा. पांडे को पता चला कि मैं अध्यापिका की हैसियत से महेंद्र की मदद कर रही हूं तब उन्होंने हमें वचन दिया कि यदि हम आपरेशन के.ई.एम. में न करवा कर उन के अस्पताल में करवाना चाहें तो वह अपनी पूरी टीम के साथ, निशुल्क उस का आपरेशन करेंगे. उन्होंने हम से अपनी सलाह की फीस भी लेने से मना कर दिया.’’

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यह सोच कर रश्मि बेहद खुश थी कि उसी की तरह, दुनिया में और भी लोग हैं, जो गरीब और लाचार लोगों का दुखदर्द समझते और बांटते हैं. मैं इस कल्पना मात्र से ही खुश थी कि डा. कौशल पांडे जैसे मशहूर हार्ट सर्जन से उतना सम्मान पाना रश्मि के लिए निसंदेह एक अद्भुत अनुभव रहा होगा.

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Serial Story: ज्योति से ज्योति जले (भाग-2)

रश्मि ने यश की मम्मी की पूरी बात धैर्य से सुनी फिर बिना मेरी ओर देखे ही उन को वचन दे दिया कि वह यथाशक्ति उन की मदद करेगी. रश्मि जानती थी कि अगर वह मेरी ओर देखती तो शांतिजी को मदद करने का वचन नहीं दे पाती क्योंकि मैं उसे ऐसा करने से जरूर रोकती.

मुझे विश्वास था कि उसे कुछ भी कहना व्यर्थ था. फिर सोचा, एक आखिरी कोशिश कर लूं, शायद सफलता मिल जाए.

तब प्रत्युत्तर में उस ने जो कुछ कहा, वह मेरे लिए अप्रत्याशित था.

‘‘वर्षा दीदी, मैं अपना दर्द सीने में दबा कर सिर्फ खुशियां बांटने में विश्वास करती हूं. इसीलिए अपने गमों से न तो कभी आप का परिचय करवाया, न ही किसी और का, पर आज ऐसा करना मेरे लिए जरूरी हो गया है.

‘‘दीदी, मैं ने बचपन और जवानी के चंद वर्षों का हर पल अभावों में गुजारा है. कभीकभी तो हमारे घर खाने को भी कुछ नहीं होता था. मैं भूखी रहती, पर कभी भी अपने ही पड़ोस में रहने वाले अपने सगे चाचा के घर जा कर रोटी का एक निवाला तक पाने की कोशिश नहीं की. धन के अभाव में मैं ने अपनी मां को तिलतिल मरते देखा है. मेरा इकलौता छोटा भाई इलाज के अभाव में मर गया. उस के हृदय में सुराख था.

‘‘ऐसी बात नहीं थी कि हम गरीब थे. पापामम्मी दोनों अध्यापक थे लेकिन पापा अपने वेतन का अधिकतर हिस्सा जरूरतमंदों की मदद में खर्च करते तब मां के सामने घर खर्च चलाने में कितनी दिक्कतें आती होंगी.’’

मैं सांस रोके उस की आपबीती सुनती रही.

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‘‘मम्मी खुद भी अपने कर्तव्य एवं अपने विद्यार्थियों के प्रति पूर्णतया समर्पित एक आदर्श शिक्षिका थीं. वह हमेशा कहतीं, ‘बेटी, एक शिक्षिका के तौर पर मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि किसी भी विद्यार्थी की असफलता के पीछे शिक्षक की नाकामयाबी छिपी होती है. इसलिए मैं हमेशा इसी प्रयास में रहती हूं कि विद्यार्थियों को मैं अपनी तरफ से बेहतरीन शिक्षा दूं.’ मम्मी का जीवन मंत्र था, ‘प्यार, विद्या और खुशियां बांटने से बढ़ते हैं.’ उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी इस मंत्र को आत्मसात करने में गुजार दी.

‘‘वर्षा दीदी, अब आप ही बताइए कि ऐसे आदर्श मातापिता की बेटी हो कर अगर मैं उन की राह न चलूं तो क्या यह उन के प्रति अन्याय नहीं होगा? मेरा हर कार्य मम्मी के प्रति मेरी श्रद्धांजलि है.’’

मैं रश्मि की जिंदगी का यह पन्ना आज ही पढ़ सकी. जब मातापिता इतने उदार और आदर्श शिक्षक थे तब बेटी का भी ऐसा होना स्वाभाविक ही था. शायद यही राज है उस की कुशाग्र बुद्धि व प्रतिभा का. वह भी एक तेजस्वी और निष्ठावान शिक्षिका है. जब भी वह किसी विद्यार्थी के लिए किसी प्रसंग, किसी विषय पर भाषण या फिर वादविवाद के लिए निबंध तैयार करती तो उस विद्यार्थी का पहला पुरस्कार निश्चित होता.

उस की बातें सुनने के बाद मैं ने अपनेआप को वचन दिया कि मैं कभी भी उसे दूसरों की मदद करने की बात को ले कर टोकूंगी नहीं.

यश की मम्मी शांति को उस ने बाद में भी 15 हजार रुपए दिए थे क्योंकि उस के पापा की बीमारी ने उन्हें घर बेच कर एक गंदी बस्ती में रहने पर मजबूर किया था. वहां उस की जवानी में कदम रख रही बहन सुरक्षित नहीं थी. यह बात जब शांति ने रश्मि को बताई तो उस ने खुद का फिक्स्ड डिपाजिट तुड़वा कर उन्हें पैसे दे कर अच्छी सी बस्ती में किराए पर कमरा दिलवाया था.

जब मुझे इस बात का पता चला तब न चाहते हुए भी मैं अपनी नाराजगी जाहिर कर बैठी, ‘‘मेरी अच्छी रश्मि, तुम कब सुधरोगी? तुम नहीं जानतीं, यश की मम्मी निहायत ही झूठी औरत है. सच बताना, इतनी तकलीफों के बावजूद क्या तुम ने शांति के चेहरे की चमक में रत्तीभर भी फर्क महसूस किया? वह बेहतरीन कपड़े पहनती है और बुरा मत मानना मेरी बहना, वह तुम से भी ज्यादा सजसंवर कर रहती है. क्या इतना काफी नहीं उस का झूठ पकड़ने के लिए?’’

वह निर्विकार नजरों से मुझे ताकती रही, फिर बोली, ‘‘दीदी, आप ही सोचिए, किसी को मुझ से झूठ बोल कर क्या हासिल होगा?’’

आखिरकार मैं ने उस की आंखें खोलने के लिए मामले की तह तक पहुंचना जरूरी समझा. किसी तरह समझाबुझा कर मैं ने शांति से उस के पति की मेडिकल फाइल हासिल की, वडोदरा के डाक्टर का फोन नंबर प्राप्त किया और एक सुबह उन से बात की.

उस के बाद मैं ने तय किया कि मैं अब रश्मि को और ज्यादा मूर्ख नहीं बनने दूंगी. जब हम मिले तब मैं ने उस से कहा, ‘‘रश्मि, मैं ने आज ही सुबह वडोदरा में डा. शाह से बात की. उन्होंने क्या कहा, सुनना चाहोगी?’’

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‘‘दीदी, मैं ने आप से कहा था न कि इस मामले में हमारी कोई बहस नहीं होगी…’’

मैं ने उसे बीच में ही टोका, ‘‘नहीं रश्मि, आज तो मैं अपनी बात पूरी कर के ही रहूंगी और तब तक तुम एक शब्द भी बोलोगी नहीं, समझीं.

‘‘सुन, डा. शाह का कहना है कि शांति के पति के आपरेशन का कुल खर्च 17 हजार नहीं, सिर्फ 11,500 रुपए ही आया था. शांति ने उन से प्रार्थना की थी कि अगर वह बिल बढ़ा कर बनाएं तो अतिरिक्त पैसों से वह अपने पति की दवाइयों का खर्च निकालेगी, इसलिए… खैर, ऐसे चंद खुदगर्ज लोग ही डाक्टर के व्यवसाय को बदनाम करते हैं. उन्हें खेद है कि अनजाने में उन्होंने किसी धोखेबाज का साथ दिया.’’

रश्मि स्तब्ध थी. उस दिन उस के चेहरे पर पहली बार व्यथा के भाव देख कर मेरा मन आर्तनाद कर उठा. वह पीड़ा उस धोखेबाज औरत की देन थी.

उस घटना के बाद मैं ने उसे धमकाया, ‘‘देख रश्मि, अब बहुत हो चुका, आगे से ‘आ बैल, मुझे मार’ करेगी तो मैं दिव्येशजी को सबकुछ बता दूंगी. उन से कह दूंगी कि वह तुम्हें ऐसा पागलपन करने से रोकें, समझीं.’’

रश्मि ने तब झट से कहा, ‘‘मेरी प्रिय दीदी, कोई भी कार्य करने से पहले मैं दिव्येश से इजाजत जरूर लेती हूं, फिर उस पर अमल करती हूं…आज तक मैं ने उन से कोई भी बात नहीं छिपाई क्योंकि मैं जानती हूं कि वह मेरी हर खुशी में खुश हैं.’’

‘‘क्या?’’ मेरा मुंह मारे आश्चर्य के खुला का खुला रह गया. सचमुच रश्मि बेहद खुशनसीब है. दिव्येशजी भी ऐसे हैं तो फिर क्या कहना?

‘‘दीदी, दिव्येश बखूबी जानते हैं कि गरीबी और लाचारी इनसान के हौसलों को किस कदर तोड़ कर रख देती है. सिर्फ 17 वर्ष की आयु में ही उन्होंने बैंक की नौकरी कर पूरे परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली थी. अपनी पढ़ाई उन्होंने नौकरी के साथ ही संपन्न की.’’

‘‘मैं उन से मिलना चाहती हूं, क्या तुम्हारे घर आ सकती हूं?’’ अब तक हम दोनों पक्की सहेलियां बन गई थीं.

दिव्येशजी से मिलने पर मैं उन के स्वभाव की भी कायल हो गई. जितनी देर मैं उन के साथ रही, सिवा रश्मि की तारीफ के उन के मुंह से कुछ नहीं निकला.

जब वह मेरे लिए जलपान की व्यवस्था करने गई तब उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘वर्षाजी, रश्मि आप की बेहद तारीफ करती है. जैसा सुना था वैसा ही आप को पाया. आप से मिल कर मुझे बेहद खुशी हुई, यकीन कीजिए.

‘‘रश्मि इतने बड़े बेटों की मां है, फिर भी उस में बचपना पहले जैसा ही है. वह बहुत ही भोली और सरल है. जल्द ही दूसरों की बातों में आ जाती है. दूसरों को खुशियां बांट कर उसे खुशी मिलती है और उस की खुशी में हमसब खुश हैं,’’ दिव्येशजी यह बतातेबताते बेहद भावुक हो उठे.

तभी उन का बड़ा बेटा रुद्र भी आ गया, ‘‘नमस्ते, आंटीजी…’’ उस ने अपना बैग टेबल पर रख दिया और हमारे सामने आ कर बैठ गया.

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‘‘आप…वर्षा आंटी हैं न. मिहिर की मम्मी…आप की पहली मुलाकात का किस्सा सुना कर मम्मी आज भी हंसती हैं, फिर अपनेआप पर हैरान भी होती हैं, यह सोच कर कि कैसे वह आप को इतना लंबाचौड़ा भाषण सुना बैठीं,’’ रुद्र हंसते हुए बोला.

‘‘बेटे, सच कहूं तो…तुम्हारी मम्मी की इन्हीं बातों ने मेरा मन मोह लिया. मैं आज तक किसी से भी इतनी प्रभावित नहीं हुई जितनी कि तुम्हारी मम्मी से.’’

‘‘एक राज की बात कहूं?’’ मैं मुसकराई, ‘‘तुम्हारे अंकल से भी नहीं.’’

हम सब हंस पड़े.

क्रमश: 

मीठा जहर: रोहित को क्यों थी कौलगर्ल्स से संबंध बनाने की आदत

रविवार की सुबह 6 बजे अलार्म की आवाज ने मेरी नींद खोल दी. मेरा पार्क में घूमने जाने का मन तो नहीं था पर मानसी और वंदना के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के मजबूत इरादे ने मुझे बिस्तर छोड़ने की प्रेरणा दी. करीब 4 महीने पहले वंदना के पति रोहित से मेरा परिचय एक पार्टी में हुआ था. वह बंदा ऐसा हंसमुख और जिंदादिल निकला कि उसी दिन से हम अच्छे दोस्त बन गए थे. जल्द ही मानसी और वंदना भी अच्छी सहेलियां बन गईं. फिर हमारा एकदूसरे के घर आनाजाना बढ़ता चला गया.

करीब 2 हफ्ते पहले रोहित को अपने एक सहयोगी दोस्त की बरात में शामिल हो कर देहरादून जाना था. तबीयत ढीली होने के कारण वंदना साथ नहीं जा रही थी. ‘‘मोहित, तुम मेरे साथ चलो. हम 1 दिन के लिए मसूरी भी घूमने चलेंगे.’’ सारा खर्चा मैं करूंगा. यह लालच दे उस ने मुझ से साथ चलने की हां करवा ली थी.

घूमने के लिए अकेले उस के साथ घर से बाहर निकल कर मुझे पता लगा कि वह एक खास तरह की मौजमस्ती का शौकीन भी है. दिल्ली से बरात की बस चलने के थोड़ी देर बाद ही मैं ने नोट कर लिया था कि निशा नाम की एक स्मार्ट व सुंदर लड़की के साथ उस की दोस्ती कुछ जरूरत से ज्यादा ही गहरी है वे दोनों एक ही औफिस में काम करते थे.

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‘‘इस निशा के साथ तुम्हारा चक्कर चल रहा है न?’’ रास्ते में एक जगह चाय पीते हुए मैं ने उसे एक तरफ ले जा कर पूछा. ‘‘मैं तुम्हें सच बात तभी बताऊंगा जब वापस जा कर तुम वंदना से मेरी शिकायत नहीं लगाओगे,’’ उस ने मेरी पीठ पर दोस्ताना अंदाज में 1 धौल जमा कर जवाब दिया.

‘‘तुम्हारा सीक्रेट मेरे पास सदा सेफ रहेगा,’’ मैं भी शरारती अंदाज में मुसकराया. ‘‘थैंकयू. आजकल इस शहंशाह की खिदमत यह निशा नाम की कनीज ही कर रही है. तुम्हारा भी इस की सहेली के साथ चक्कर चलवाऊं?’’

‘‘अरे, नहीं. ऐसे चक्कर चलाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है,’’ मैं ने घबरा कर जवाब दिया. ‘‘चक्कर मत चलाना पर हंसबोल तो लो उस रूपसी के साथ,’’ शरारती अंदाज में मेरी कमर पर 1 और धौल जमाने के बाद वह निशा और उस की सहेली की तरफ चला गया.

निशा की सहेली शिखा ज्यादा सुंदर तो नहीं थी पर उस में गजब की सैक्स अपील थी. यात्रा के दौरान वह बहुत जल्दी खुल कर मेरी दोस्त बन गई तो बरात में शामिल होने का मेरा मजा कई गुना बढ़ गया. अगले दिन सुबह बरात के साथ वापस न लौट कर हम दोनों टैक्सी से मसूरी पहुंच गए. जिस होटल में हम रूके वहां निशा और शिखा को पहले से ही मौजूद देख कर मैं बहुत हैरान हो उठा.

‘‘इन दोनों के साथ मसूरी में घूमने का मजा ही कुछ और होगा,’’ ऐसा कह कर रोहित ने मेरे सामने पहली बार निशा को अपनी बांहों में भरा.

दोस्तों की सोच और व्यवहार का हमारे ऊपर बहुत प्रभाव पड़ता है. अपनी पत्नी मानसी को धोखा दे कर कभी किसी और लड़की के साथ चक्कर चलाने का विचार मेरे मन में नहीं आया था. यह रोहित की कंपनी का ही असर था कि शिखा के साथ की कल्पना कर मेरे मन में गुदगुदी सी होने लगी थी. हम दिन भर उन दोनों साथ मसूरी में घूमे. रात को रोहित उन दोनों के कमरे में चला गया. फिर शिखा मेरे कमरे में आ गई.

रोहित के साथ मैं ने जो शराब पी थी उस के नशे ने मेरे मन की सारी हिचक और डर को गायब कर दिया. उस पल ये विचार मेरे मन में नहीं उठे कि मैं कोई गलत काम कर रहा हूं या मानसी को धोखा दे रहा हूं.

शिखा ने पूर्ण समर्पण से पहले ही अपने पर्स से 1 कंडोम निकाल कर मुझे थमा दिया. उस की इस हरकत से मुझे तेज झटका लगा. मेरे मन में फौरन यह विचार उठा कि वह कौलगर्ल है और फिर देखते ही देखते उस के साथ मौजमजस्ती करने का भूत मेरे सिर से उतर गया.

‘‘मेरा मन बदल गया है. प्लीज, तुम सो जाओ,’’ पलंग से उतर मैं बालकनी की तरफ चल पड़ा. ‘‘आर यू श्योर?’’ वह मुझे विचित्र सी नजरों से देख रही थी.

‘‘बिलकुल.’’ ‘‘सुबह रोहित से किसी तरह की शिकायत तो नहीं करोगे?’’

‘‘अरे, नहीं.’’ ‘‘ वैसे मन न माने तो मुझे कभी भी उठा लेना.’’

‘‘श्योर.’’ ‘‘पैसे वापस मांगने का झंझट तो नहीं खड़ा करोगे?’’

‘‘नहीं,’’ उस के प्रोफैशनल कौलगर्ल होने के बारे में मेरा अंदाजा सही निकला.

अगली सुबह मेरी प्रार्थना पर शिखा हमारे बीच यौन संबंध न बनने की बात रोहित व निशा को कभी न बताने के लिए राजी हो गई.

सुबह उठ कर रोहित ने आंखों में शरारती चमक भर कर मुझ से पूछा, ‘‘कैसा मजा आया मेरे यार? मसूरी से पूरी तरह तृप्त हो कर चल रहा है न?’’ ‘‘बिलकुल,’’ मैं ने कुछ शरमाते हुए जवाब दिया तो उस के ऊपर हंसी का दौरा ही पड़ गया.

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‘‘अपना इस मामले में नजरिया बिलकुल साफ है, दोस्त महीने में 1-2 बार मुंह का स्वाद बदल लो तो पत्नी से ऊब नहीं होती है.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो, गुरूदेव.’’ ‘‘चेले, एक बात साफ कह देता हूं. अगली बार ऐसी ट्रीट तुम्हारी तरफ से रहेगी.’’

‘‘श्योर, पर…’’ ‘‘पर क्या?’’

‘‘मुझे इस रास्ते पर नहीं चलना हो तो तुम नाराज तो नहीं हो जाओगे न?’’ ‘‘अब तो तुम्हारे मुंह खून लग गया है. तुम मेरे साथ मौजमस्ती करने निकला ही करोगे,’’ अपने इस मजाक पर उस का ठहाका लगा कर हंसना मुझे अच्छा नहीं लगा.

हम दोनों वापस दिल्ली आए तो पाया कि वंदना की तबीयत ज्यादा बिगड़ गई थी. ‘‘खांसीबुखार अभी भी था. रात से पेट भी खराब होने के कारण बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी,’’ अपने रोग के लक्षण बताते हुए वंदना की आवाज बहुत कमजोर लगा रही थी.

‘‘तुम ने जरूर कुछ गड़बड़ खा लिया होगा,’’ रोहित ने उस का माथा चूमते हुए कहा. ‘‘आप मेरी खराब तबीयत को हलके में ले रहो हो…. आप को मेरी चिंता है भी या नहीं?’’ कहतेकहते वंदना रो पड़ी.

‘‘मैं आराम करने से पहले तुम्हें डाक्टर को दिखा लाता हूं.’’ रोहित का यह आदर्श पति वाला बदला रूप देख कर मैं ने मन ही मन उस के कुशल अभिनय की दाद दी.

वंदना की तबीयत सप्ताह भर के इलाज के बाद भी नहीं सुधरी तो मैं उन दोनों को अपने इलाके के नामी डाक्टर उमेश के पास ले गया. डाक्टर उमेश ने वंदना की जांच करने के बाद कुछ टैस्ट लिखे और फिर गंभीर लहजे में रोहित से बोले, ‘‘एचआईवी का टैस्ट आप को भी कराना पड़ेगा.’’

डाक्टर की बात सुन कर वंदना ने जिस डर, गुस्से व नफरत के मिलेजुले भाव आंखों में ला कर रोहित को घूरा था, उस रोंगटे खड़े करने वाले दृश्य को मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकूंगा. मैं तो डाक्टर की बात सुन कर मन ही मन बहुत बुरी तरह से डर गया था. मैं ने उसी रात मन ही मन कभी न भटकने का वादा खुद से कर लिया.

क्षणिक मौजमस्ती के लिए अपनी व अपनों की जान को दांव पर लगाना कहां की समझदारी हुई? रोहित और वंदना दोनों की एचआईवी की रिपोर्ट नैगेटिव आई थी. इस कारण उन के 3 साल के बेटे राहुल की एचआईवी जांच नहीं करानी पड़ेगी.

वंदना के लगातार चल रहे बुखारखांसी का कारण उसे टीबी हो जाना था. अंदाजा यह लगाया गया कि यह बीमारी उसे अपने ससुरजी से मिली थी, जिन का देहांत कुछ महीने पहले ही हुआ था. यह देख कर मुझे बहुत अफसोस होता है कि रोहित ने पूरे घटनाक्रम से कोई सीख नहीं ली. कई बार शादी के बाद पतिपत्नी के रिश्ते बहुत ज्यादा मजबूत नहीं होते पर रोहित यह समझने को तैयार नहीं कि कौलगर्ल से संबंध बना कर अपनी व अपने जीवनसाथी की जिंदगी को दांव पर लगाना बहुत खतरनाक है.

आजकल वंदना से उस का बहुत झगड़ा होता है. ‘‘मैं इधरउधर मुंह मारने वाले इस इंसान को अपने साथ सोने का अधिकार अब कभी नहीं दूंगी.

मानसी से मुझे पता चला है कि वंदना अपने इस कठोर फैसले से हिलने को कतई तैयार नहीं है.

रोहित मुझ से मिलते ही वंदना की शिकायत करने लगता है, ‘‘वह मुझे अपने पास नहीं आने देती है. बेड़ा गर्क हो इस डाक्टर उमेश का जिस ने वंदना के मन में एचआईवी का वहम डाला. मेरी कमअक्ल पत्नी की जिद है कि मैं हर महीने उसे एचआईवी से मुक्त होने की रिपोर्ट ला कर दिखाऊं, नहीं तो अलग कमरे में सोऊं.’’ ‘‘उस का डरना व गुस्सा करना अपनी जगह ठीक है. एचआईवी का संक्रमण तुम्हारी पत्नी को ही नहीं, बल्कि आने वाली संतान को भी यह खतरनाक बीमारी दे सकता है.’’

‘‘तुम्हें तो पता ही है कि इस मामले में मैं बचाव का पूरा ध्यान रखता हूं.’’ ‘‘गलत काम करना पूरी तरह से छोड़ ही दो न.’’ ‘‘तुम ऐसे दूध के धुले नहीं हो जो मुझे लैक्चर दो,’’ वह चिढ़ कर नाराज हो गया तो मैं ने चुप्पी साथ ली.

अब वंदना का स्वास्थ्य धीरेधीरे सुधर रहा था. वह अब हमारे साथ घूमने जाने लगी थी. मैं ने मानसी के व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया है. मोटापा कम करने के लिए मैं उसे सदा उत्साहित करता रहता हूं. नियमित रूप से ब्यूटीपार्लर जाया करे, ऐसी जिद भी मैं करने लगा हूं.

अलार्म की आवाज सुन कर मानसी उठना चाहती थी पर मैं ने उसे बांहों में कैद कर के अपनी छाती से लगा लिया. कुछ मिनट के रोमांस के बाद ही मैं ने उसे बिस्तर छोड़ने की इजाजत दी. मानसी ने मेरे कान से मुंह सटा कर प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘आप बहुत बदल गए हो.’’

‘‘मुझ में आया बदलाव तुम्हें पसंद है न?’’ मैं ने शरारती लहजे में पूछा तो वह शरमाती हुई बाथरूम में चली गई. मानसी की बात में सचाई है. उसे देखते ही मेरा मन भावुक हो जाता है. फिर उसे छाती से लगाए बिना मन को चैन नहीं मिलता है.

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मौजमस्ती का शौकीन रोहित परस्त्री से यौन संबंध बनाने से बाज नहीं आ रहा है. मेरे लाख समझाने के बावजूद वह इस मीठे जहर के खतरे को देखना ही नहीं चाहता है. जिस दिन उस की एचआईवी की रिपोर्ट पौजिटिव आ गई, उस दिन क्या वह बुरी तरह नहीं पछताएगा? उस जैसे जिंदादिल आदमी का एड्स का शिकार बन अपनी जिम्मेदारियां अधूरी छोड़ कर दुनिया से विदा हो जाना सचमुच एक बहुत बड़ी ट्रैजेडी होगी.

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