जड़ों से जुड़ा जीवन: भाग 4- क्यों दूर गई थी मिली

कहानी- वीना टहिल्यानी

मिली के मन से एक आह सी निकली, ‘तो आखिर, मैं आ ही गई अपने नगर, अपने शहर.’ जौन ने भारत के बारे में लाख पढ़ रखा था पर जो आंखों से देखा तो चकित रह गया. ज्योंज्यों गंतव्य नजदीक आ रहा था, मिली के दिल की धुकधुकी बढ़ती जा रही थी. कई सवाल मन में उठ रहे थे.

कैसी होंगी फरीदा अम्मां? पहचानेंगी तो जरूर. एकाएक ही सामने पड़ कर चौंका दूं तो? तुरंत न भी पहचाना तो क्या…नाम सुन कर तो सब समझ जाएंगी…मृणाल…मृणालिनी कितना प्यारा लग रहा था आज उसे अपना वह पुराना नाम.

लोअर सर्कुलर रोड के मोड़ पर, जिस बड़े से फाटक के पास टैक्सी रुकी वह तो मिली के लिए बिलकुल अजनबी था पर ऊपर लगा नामपट ‘भारती बाल आश्रम’ बिलकुल सही.

टैक्सी के रुकते ही वर्दीधारी वाचमैन ने दरवाजा खोला और सामान उठवाया.

अंदर की दुनिया तो मिली के लिए और भी अनजानी थी. कहां वह लाल पत्थर का एकमंजिला भवन, कहां यह आधुनिक चलन की बहुमंजिला इमारत.

सामने ही सफेद बोर्ड पर इमारत का इतिहास लिखा था. साथ ही साथ उस का नक्शा भी बना था. मिली ठहर कर उसे पढ़ने लगी.

सिर्फ 5 वर्ष पहले ही, केवलरामानी नाम के सिंधी उद्योगपति के दान से यह बिल्ंिडग बन कर तैयार हुई थी. मिली भौंचक्क सी रह गई. लाल गलियारे और हरे गवाक्ष, ऊंची छतों वाला शीतल आवास काल के गाल में समा चुका था. मिली अनमनी हो उठी.

रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने रजिस्टर में उन का नाम पता मिलाया. गेस्ट हाउस में उन की बुकिंग थी. कमरे की चाबी निकाल कर जब लड़की उन का लगेज लिफ्ट में लगवाने लगी तो मिली ने डरतेडरते पूछा, ‘‘क्या मैं पहली मंजिल पर बनी नर्सरी को देखने जा सकती हूं?’’

लड़की ने बहुत शिष्टता से कहा, ‘‘मैम, उस के लिए आप को आफिस से अनुमति लेनी होगी. और आफिस शाम को 5 बजे के बाद ही खुलेगा.’’

‘‘तो आप ऊपर से फरीदा अम्मां को बुलवा दीजिए, प्लीज,’’ मिली ने हिचक के साथ अनुरोध किया.

लड़की ने जब यह कहा कि वह यहां की किसी फरीदा अम्मां को नहीं जानती तो मिली निराश सी हो गई. उस का लटका चेहरा देख कर जौन ने लिफ्ट में उसे टोकते हुए कहा, ‘‘चीयर अप सिस्टर, वी आर इन इंडिया…’’

मिली बेमन से हंस दी.

मिली ने विशेष आग्रह कर के अपने लिए मछली का झोल और भात मंगवाया. पहले उसे यह बंगाली खाना पसंद था पर आज 2 चम्मच से अधिक नहीं खा पाई, जीभ जलने लगी. आंखों में जल भर आया.

ये भी पढ़ें- तेजतर्रार तिजोरी: क्या था रघुवीर का राज

मिली की हताशा पर जौन हंस कर बोला, ‘‘चलो, चलो, पानी पियो…मुंह पोंछो… यह लो, मेरे सैंडविच खाओ.’’

जौन की लाख कोशिशों के बाद भी मिली अधीर और उदास ही बनी रही. इतने बदलावों ने उस के मन में इस शंका को भी जन्म दिया कि कहीं अगर फरीदा अम्मां भी…और इस के आगे वह और कुछ नहीं सोच सकी.

मिली के लिए 2 घंटे 2 युगों के बराबर गुजरे. 5 बजे कार्यालय खुला और जैसे ही संचालक महोदय आए मिली सब को पीछे छोड़ती हुई जौन को साथ ले कर उन के पास पहुंच गई.

संचालक, मिलन मुखर्जी आश्रम की बाला को बरसों बाद वापस आया जान खूब खुश हुए और आदरसत्कार कर मिली से इंगलैंड के बारे में, उस के परिवार के बारे में बात करते रहे. मिली ने अधीरता से जब नर्सरी देखने के लिए आज्ञापत्र मांगा तो मुखर्जी महोदय होहो कर हंस दिए और बोले, ‘‘अरे, तुम्हारे लिए कैसा आज्ञापत्र? तुम तो हमारी अपनी हो…यह तो तुम्हारा अपना घर है…चलो…मैं दिखाता हूं तुम्हें नर्सरी.’’

बड़ा सा हौल. छोटेछोटे पालने. नन्हेमुन्ने बच्चे. कितने सलोने, कितने सुंदर. वह भी तो ऐसे ही पलीबढ़ी है, यह सोचते ही मिली का मन फिर उमड़ने- घुमड़ने लगा.

हौल में बच्चों को पालनेपोसने वाली मौसियां उत्सुकता से मिलीं. वे सब जौन को देखे जा रही थीं. मुखर्जी बाबू ने बड़े अभिमान से मिली का परिचय दिया कि यहीं की बच्ची है मृणालिनी, अब लंदन से अपने भाई के साथ आई है.

हौल में हलचल सी मच गई. खूब मान मिला. मिली के साथसाथ लंबे जौन ने भी सब को बड़ा प्रभावित किया.

मिली बच्चों से मिली. बड़ों से मिली लेकिन उस फरीदा अम्मां से नहीं मिल पाई जिस के लिए समंदर पार कर वह भारत आई थी.

‘‘बाबा, फरीदा अम्मां कहां हैं?’’ उसे याद है बचपन में संचालक को सभी बच्चे बाबा ही कह कर बुलाते थे. आज मुखर्जी बाबू के लिए भी मिली के पास वही संबोधन था.

‘‘कौन? फरीदा बेग? अरे, वह 4-5 साल पहले तक यहीं थी. उस की नजर कमजोर हो गई थी. मोतियाबिंद का आपरेशन भी हुआ पर अधिक उम्र होने के कारण वह काम नहीं कर पाती थी, लेकिन रहती यहीं थी. फिर एक दिन उस का बेटा सेना से स्वैच्छिक अवकाश ले कर आ गया और वह अपने साथ फरीदा को भी ले गया,’’ मुखर्जी ने पूरी जानकारी एकसाथ दे दी.

अम्मां चली गई हैं, यह जानते ही मिली का चेहरा सफेद पड़ गया. उस के निरीह चेहरे को देख कर जौन ने एक और प्रयत्न किया, ‘‘आप के पास उन का कोई पता तो होगा ही मिस्टर मुखर्जी?’’

‘‘हां…हां, क्यों नहीं. आप उन से मिलने जाएंगे? खूब खुश होंगी वह अपनी पुरानी बच्ची से मिल कर.’’ मुखर्जी बाबू आनंदित हो उठे. मिली की जाती जान जैसे वापस लौट आई.

पुराने खातों की खोज हुई. कोलकाता के उपनगर दमदम से भी आगे, नागेर बाजार के किसी पुराने इलाके का पता लिखा था.

अगले दिन, संचालक ने उन के जाने के लिए टूरिस्ट कार की व्यवस्था कर दी.

अम्मां के लिए फलफूल लिए गए. चौडे़ पाड़ वाली बंगाली धोती खरीदी गई. मिली बहुत खुश थी. आखिर दूरियां नापतेनापते जब वे दिए गए पते पर पहुंचे तो पता चला कि वहां तो कोई और परिवार रहता है. पड़ोसियों से पूछताछ की लेकिन पक्के तौर पर कोई कुछ कह न सका. शायद वे अपने गांव उड़ीसा चले गए थे, जहां उन की जमीन थी. पर वहां का पता किसी को मालूम न था.

मिली की तो जैसे सुननेसमझने की शक्ति ही जाती रही. फिर रुलाई का ऐसा आवेग उमड़ा कि उस की हिचकियां बंध गईं. जौन ने उसे संभाल लिया. बांहों में उसे बांध कर उस का सिर सहलाया. स्नेह से समझाया पर मिली तो जैसे कुछ सुननेसमझने के लिए तैयार ही न थी.

उस का कातर कं्रदन जारी रहा तो जौन घबरा उठा. कंधे झकझोर कर उस ने मिली को जोर से डांटा, ‘‘मिली, बहुत हुआ…अंब बंद करो यह नादानी.’’

‘‘यहां आना तो बेकार ही हो गया न जौन,’’ मिली रोंआसे स्वर से बोली.

ये भी पढ़ें- बदला व्यवहार: क्या हुआ था जूही के साथ

‘‘यह तो बेवकूफों वाली बात हुई,’’ जौन फिर नाराज हुआ, ‘‘अरे, अपने भाई के साथ तुम वापस अपने देश आई हो. मैं तो पहली बार ही इंडिया देख रहा हूं और इसे तुम बेकार कहती हो. असल में मिली, तुम्हारी अपेक्षाएं ही गलत हैं. तुम ने सोचा, तुम जो जैसा जहां छोड़ गई हो वह वैसा का वैसा वहीं पाओगी. बीच के समय का तुम्हें जरा भी विचार नहीं…तुम्हें तुम्हारा पुराना भवन न दिखा तो तुम निराश हो गईं. फरीदा अम्मां न मिलीं तो तुम हताश हो उठीं. तनिक यह भी सोचो कि बिल्ंिडग कितनी सुविधामयी है. फरीदा अम्मां अपने परिवार के साथ सुख से हैं. यह    दुख की बात है कि तुम उन से नहीं मिल पाईं पर इस बात को दिल से तो न लगाओ. जिन को चाहती हो, प्यार करती हो उन को अपना आदर्श बनाओ. जुझारू, बहादुर और सेवामयी बनो, फरीदा अम्मां जैसे.’’

भाई की बातों को ध्यान से सुनती मिली एकाएक ही बोल पड़ी, ‘‘जौन, मैं तो अभी कितनी छोटी हूं…मैं भला क्या कर सकती हूं.’’

‘‘तुम क्याक्या कर सकती हो, समय आने पर सब समझ जाओगी. फिलहाल तो तुम इस संस्था को कुछ दान दो जिस ने तुम्हें पाला, पोसा, बड़ा किया, प्यार दिया. मौम तुम्हें कितना सारा पैसा दे कर गई हैं…आओ, मैं तुम्हें चेक भरना बताऊं.’’

दोनों भाईबहनों ने ‘भारती बाल आश्रम’ के नाम एक चेक बनाया जिसे चुपचाप गलियारे में रखे दानपात्र में डाल दिया.

‘‘कोलकाता घूम कर शांतिनिकेतन चलेंगे फिर नालंदा और बोधगया देखेंगे. उस के बाद आगरा का ताज देख कर दिल्ली पहुंचेंगे और दिल्ली दर्शन के बाद वापस लंदन लौट चलेंगे. इस ट्रिप में तो बस, इतना ही घूमा जा सकता है.’’

आंख खुली तो मिली ने देखा एक सितारा अभी भी अपनी पूरी निष्ठा से दमक रहा था. मिली इस सितारे को पहचानती है यह भोर का तारा है.

फरीदा अम्मां कहती थीं, भोर का यह तारा भूलेभटकों को राह दिखाता है, दिशाहारों की उम्मीद जगाता है. बड़ा ही हठीला है पूरब दिशा का यह सितारा. किरणें उसे लाख समझाएं पर जबतक सूरज खुद नहीं आ जाता यह जिद्दी तारा जाने का नाम ही नहीं लेता. इसी हठी सितारे के आकर्षण में बंधी मिली बिस्तर से उठ खड़ी हुई.

पिछवाड़े की बालकनी खोल मिली ने बाहर कदम रखा ही था कि सहसा ठिठक गई. सामने जटाजूटधारी बरगद खड़ा था. वही वैभवशाली वटवृक्ष. पहले से कहीं ऊंचा, उन्नत, विराट और विशाल.

मिली ने हाथ आगे बढ़ा कर हौले से पेड़ के पत्तों को सहलाया, धीरे से उस की डालों को छुआ, मानो पूछ रही हो कि  पहचाना मुझे? मैं मिली हूं जो कभी तुम्हारी छांव में खेलती थी, तुम्हारी जटाओं पर झूलती थी. और इस तरह एक बार फिर मिली बचपन में भटकने लगी थी.

अचानक मसजिद से अजान की आवाज उभरी तो किसी मंदिर के घंटे घनघना उठे. और यह सब सुनते ही मिली को अभिमान हो आया कि कैसी विशाल, विराट, भव्य और उदार है उस की मातृभूमि.

मौम सच कहती थीं, हर जीवन अपनी जड़ों से जुड़ा होता है. मनुष्य अपनी माटी से अनायास ही आकर्षित होता है. अपनी जमीन और अपनी मिट्टी ही देती है व्यक्ति को असीम ऊर्जा और अलौकिक आनंद.

दिन चढ़ने लगा था. कोलकाता शहर के विहंगम विस्तार पर सूरज दमक रहा था. सड़कों पर गलियों में धूप पसर रही थी. सूरज की किरणों के साथ ही जैसे संपूर्ण शहर जाग उठा था.

मिली को अचानक ही लंदन की याद हो आई. शांत, सौम्य लंदन. लंदन उस का अपना नगर, अपना शहर, जहां बर्फ भी गिरती है तो चुपचाप बेआवाज. सर्द मौसम में, पेड़ों की फुनगियों पर, घरों की छतों पर, सड़कों और गलियों में. यहां से वहां तक बस चांदी ही चांदी, बर्फ की चांदी. मिली के मन में जैसे बर्फ की चांदी बिखर गई. मिली अकुला उठी. उसे अपना घर याद हो आया. भोर का सितारा तो न जाने कब, कहां निकल गया था. अब तो उसे भी जाना था, वापस अपने घर.

ये भी पढ़ें- घुट-घुट कर क्यों जीना

लड़ाई जारी है: भाग 3- सुकन्या ने कैसे जीता सबका दिल

‘भाभी, अगर आपके ऐसे ही विचार हैं तो क्यों यहाँ इसे लेकर डाक्टरी की परीक्षा दिलवाने लाई, अरे, कोई भी लड़का देखकर बाँध देती उससे…वह इसे चाहे जैसे भी रखता….’ मन कड़ा करके मनीषा ने कहा था.

भाभी कुछ बोल नहीं पाई थीं पर उस दिन के बाद से सुकन्या उसके और करीब आ गई थी, कोई भी परेशानी होती, उससे सलाह लेती. बाद में उसने सुकन्या को समझाते हुए कहा था,‘ बेटा, औरत का चरित्र एक ऐसा शीशा है जिस पर लगी जरा सी किरच पूरी जिंदगी को बदरंग कर देती है और फिर तेरी माँ तो गाँव की भोली-भाली औरत है, दुनिया की चकाचौंध से दूर…अपने आँचल के साये में फूल की तरह सहेज कर तुझे पाला है, तभी तो जरा से झटके से वह विचलित हो उठी हैं…. तू उसे समझने की कोशिश कर.’

भाभी सुकन्या को लेकर चली गईं. दादी ने जब सुकन्या के विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह मना नहीं कर पाईं. सुकन्या अपनी लड़ाई अपने आप लड़ रही थी. इसी बीच रिजल्ट निकल आया. सुकन्या का नाम मेडिकल के सफल प्रतियोगी की लिस्ट में पाकर दादाजी बेहद प्रसन्न हुये. दादी के विरोध के बावजूद उन्होंने उन्हें यह कर मना लिया,‘ जरा सोचो हमारी सुकन्या न केवल हमारे घर वरन् हमारे गाँव की पहली डाक्टर होगी. मेरा सीना तो गर्व से चौड़ा हो गया है.’

पिताजी के मन में द्वन्द था तो सिर्फ इतना कि सुकन्या शहर में अकेली कैसे रहेगी ? तब उसने कहा था,‘ सुकन्या गैर नहीं, मेरी भी बेटी है, अगर आप सबको आपत्ति है तो उसकी जिम्मेदारी मैं लेती हूँ .’

संयोग से उसके शहर के मेडिकल कालेज में ही सुकन्या का एडमीशन हो गया. अनुराधा भी सुकन्या का हौसला बढ़ाने लगी पर माँ का वही हाल रहा.

ये भी पढ़ें- किस गुनाह की सजा: रजिया आपा ने क्यों मांगी माफी

इसी बीच पिताजी चल बसे….सुकन्या टूट गई थी. एक वही तो थे जो उसका हौसला बढ़ाते थे वरना माँ के व्यंग्य बाण तो उसके कोमल मन को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे. पता नहीं किस जन्म का बैर वह उसके साथ निकाल रही थीं. उन्हें लगता था कि घर की सारी परेशानी की जड़ सुकन्या ही है, पढ़ लिख कर नाक ही कटवायेगी….. अनुराधा असमंजस में थी न वह सास को कुछ कह पाती थी और न ही बेटी का पक्ष ले पाती थी क्योंकि अगर वह ऐसा करती तो सुकन्या के साथ सास के व्यंग्यबाणों का शिकार उसे भी होना पड़ता था…. जल में रहकर मगर से बैर कैसे लेती…? धीरे-धीरे सुकन्या ने घर जाना बंद कर दिया जब भी छुट्टी मिलती वह उसके पास आ जाती थी.

‘ आपका गंतव्य आ गया.’  जी.पी.एस. ने सूचना दी.

मनीषा कार पार्क करके रिसेप्शनिस्ट से जानकारी लेकर, आई़.सी.यू. में पहुँची. उसे देखकर सुकन्या उसके पास आई तथा रूआँसे स्वर में बोली,‘ बुआ मेरी वजह से दादी की आज ये हालत है….’

‘ ऐसा नहीं सोचते बेटा, अगर तू नहीं होती तो हो सकता है, उनकी हालत और भी ज्यादा खराब हो जाती.’

विजिंटग आवर था अतः सुकन्या उसे लेकर आई.सी.यू में गई…

‘ पानी….’ दादी की आवाज सुनकर सुकन्या उन्हें चम्मच से पानी पिलाने लगी….

उसे देखकर माँ ने कुछ बोलना चाहा तो सुकन्या ने कहा,‘ दादी, आपकी तबियत ठीक नहीं है, आप कुछ मत बोलिये…. बुआ आप दादी के पास रहिये, मैं जरा डाक्टर से मिलकर आती हूँ.’

माँ की आँखों से बहते आँसू न चाहते हुये भी बहुत कुछ कह गये थे वरना जिस तरह का सीवियर अटैक आया था, अगर उन्हें तुरंत सहायता नहीं मिली होती तो न जाने क्या होता… जो माँ  कभी उसकी पढ़ाई की विरोधी थीं वही आज उसे दुआयें देती प्रतीत हो रही थीं.

विजिटिंग आवर समाप्त होते ही वह बाहर आई तथा अनुराधा भाभी के पास बैठ गई.

‘ दीदी, अगर सुकन्या न होती तो पता नहीं क्या हो जाता.’

‘ माँ दवा ले लो वरना तुम्हारी तबियत भी खराब हो जायेगी.’ सुकन्या पानी की बोतल के साथ माँ को दवाई देती हुई बोली. अनुराधा भाभी उसे ममत्व भरी निगाहों से देख रही थीं.

‘ लेकिन यह हुआ कैसे ?’ मनीषा ने पूछा.

‘ दीदी, माँ ने सुकन्या को बुलाया था. इस बार वह उनकी बात मानकर आ भी गई. उसके आते ही माँ ने उसके विवाह की बात छेड़ दी. जब उसने कहा कि अभी मैं तीन चार वर्ष विवाह के लिये सोच भी भी नहीं सकती क्योंकि मुझे पी.जी. करनी है. उसकी बात सुनकर वह बहुत नाराज हुईं. अचानक उनका शरीर पसीने से लथपथ हो गया तथा वह अपना सीना कसकर दबाने लगीं. सुकन्या उनकी दशा देखकर घबड़ा गई, उसने उन्हें चैक कराना चाहा तो माँ ने उसे झटक दिया…. तब सुकन्या ने रोते हुये कहा दादी प्लीज मुझे अपना इलाज करने दीजिये, अगर आपको कुछ हो गया तो मैं स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाऊँगी.

माँ को हार्ट अटैक आया है. सुकन्या ने उन्हें वहीं दवा देकर स्थिति पर काबू पाया. उसने तुरंत हेल्पलाइन नम्बर मिलाकर अपनी परेशानी फोन उठाने वाले व्यक्ति को बताकर तुरंत एम्बुलेंस भिवानी की प्रार्थना की. उस भले मानस ने एम्बुलेंस भेज दी वरना कोरोना वायरस द्वारा हुये लॉक  डाउन के कारण आना ही मुश्किल हो जाता. जैसे ही हम चले , सुकन्या ने अस्पताल में किसी से बात की, उसकी पहचान के कारण तुरंत माँजी को एडमिट कर डाक्टरों ने उनकी चिकित्सा प्रारंभ कर दी. दीदी, सुकन्या ने तबसे पलक भी नहीं झपकाई है. समय पर दवा देना, लाना सब वही कर रही है. दीदी, उचित चिकित्सा के अभाव में पिताजी को तो बचा नहीं पाये पर माँ को नहीं खोना चाहती हूँ.’ भाभी के दिल का दर्द जुबान पर आ गया था.

ये भी पढे़ं- Women’s Day: आशियाना- अनामिका ने किसे चुना

सुदेश की वजह से उसका रोज जाना तो नहीं हो पा रहा था पर फोन से हालचाल लेती रहती थी.  माँ ठीक हो रही हैं, सुनकर उसे संतोष मिलता. आखिर  सुदेश का क्वारेंन्टाइन भी पूरा हो गया था. सब ठीक रहा. माँ को भी अस्पताल से छुट्टी मिल गईं. माँ अभी काफी कमजोर थीं. सुकन्या को अपनी सेवा करता देख एक दिन वह उसका हाथ पकड़कर बोलीं,‘ बेटी मुझे क्षमा कर दे. मैंने तुझे सदा गलत समझा, बार-बार तुझे रोका टोका….’

‘ दादी प्लीज, आप दिल पर कोई बात न लें, अभी आप कमजोर हैं, आप आराम करें.’

‘ मुझे कुछ नहीं होगा बेटा, गलती मेरी ही है जो सदा अपने विचार तुझ पर थोपती रही…मैंने क्या-क्या नहीं कहा तुझे, पर तूने मेरी जान बचाई…मुझे नाज है तुझ पर….’ माँ ने कमजोर आवाज में उसे देखते हुये कहा.

‘ प्लीज दादी, अभी आपको आराम की विशेष आवश्यकता है….यह दवा ले लीजिए और सोने की कोशिश कीजिये.’ हाथ के सहारे माँ को उठाकर दवा खिलाते हुये सुकन्या ने कहा

माँ की तीमारदारी के साथ, इधर-उधर भागदौड़ करती, गाँव की भोली -भाली लड़की सुकन्या को अदम्य आत्मविश्वास से माँ की सेवा करते देख मनीषा सोच रही थी कि अगर मन में लगन हो तो औरत क्या नहीं कर सकती…!! उसे दया आती है उन दम्पत्तियों पर जो बेटों के लिये बेटियों का गर्भ में ही नाश कर देते हैं. वह क्यों भूल जाते हैं…बचपन से लेकर मृत्यु तक विभिन्न रूपों में समाज की सेवा में लगी नारी  हर रूप में अतुलनीय है. बदलते समय के साथ  सुकन्या जैसी नारियाँ अपने आत्मबल से आज समाज द्वारा निर्मित लक्ष्मण रेखा को तोड़ने में काफी हद तक कामयाब हो रही हैं…यह बात अलग है कि आज भी पुरूष तो पुरूष स्वयं स्त्रियाँ भी, ऐसी स्त्रियों के मार्ग में काँटे बिछा रही हैं….फिर भी लड़ाई जारी है की तर्ज पर ये लड़कियाँ आज अपना अस्तित्व कायम करने के लिये तत्पर हैं और करती रहेंगी…

ये भी पढे़ं- कालिमा: कैसे बेटे-बहू ने समझी अम्मां-बाबूजी की अहमियत

जड़ों से जुड़ा जीवन: भाग 3- क्यों दूर गई थी मिली

कहानी- वीना टहिल्यानी

इधर मौम का इलाज चलता रहा. उधर अमेरिका के फ्लोरिडा विश्व- विद्यालय में पढ़ाई पूरी होते ही जौन को नौकरी मिल गई. यह जानने के बाद कि उसे फौरन नौकरी ज्वाइन करनी है, मौम ने उसे घर आने के लिए और अपने से मिलने के लिए साफ और सख्त शब्दों में मना करते हुए कह दिया कि उसे सीधा वहीं से रवाना होना है.

उस दिन बिस्तर में बैठेबैठे ही मौम ने पास बैठी मिली का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच रख लिया फिर धीरे से बहुत प्रयास कर उसे अपने अंक में भर लिया. मिली डर गई कि मौम को अंत की आहट लग रही है. मिली ने भी मौम की क्षीण व दुर्बल काया को अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘मर्लिन मेरी बच्ची, मैं तेरे लिए क्याक्या करना चाहती थी लेकिन लगता है सारे अरमान धरे के धरे रह जाएंगे. लगता है अब मेरे जाने का समय आ गया है.’’

‘‘नहीं, मौम…नहीं, तुम ने सबकुछ किया है…तुम दुनिया की सब से अच्छी मां हो…’’ रुदन को रोक, रुंधे कंठ से मिली बस, इतना भर बोल पाई और अपना सिर मौम के सीने पर रख दिया.’’

कांपते हाथों से मिसेज ब्राउन बेटी का सिर सहलाती रहीं और एकदूसरे से नजरें चुराती दोनों ही अपनेअपने आंसुओं को छिपाती रहीं.

मिली भाई को बुलाना चाहती तो मौम कहतीं, ‘‘उसे वहीं रहने दे…तू है न मेरे पास, वह आ कर भी क्या कर लेगा. वह कद से लंबा जरूर है पर उस का दिल चूहे जैसा है…अब तो तुझे ही उस का ध्यान रखना होगा, मर्लिन.’’

मौम की हालत बिगड़ती देख अकेली पड़ गई मिली ने एक दिन घबरा कर चुपचाप भाई को फोन लगाया और उसे सबकुछ बता दिया.

आननफानन में जौन आ पहुंचा और फिर देखते ही देखते सबकुछ बीत गया. मौम चुपके से सबकुछ छोड़ कर इस दुनिया को अलविदा कह गईं.

उस रात मां के चेहरे पर और दिनों सी वेदना न थी. कैसी अलगअलग सी दिख रही थीं. मिली डर गई. वह समझ गई कि मौम को मुक्ति मिल गई है. मिली ने उन को छू कर देखा, वे जा चुकी थीं. मिली समझ ही न पाई कि वह हंसे या रोए. अंतस की इस ऊहापोह ने उसे बिलकुल ही भावशून्य बना दिया. हृदय का हाहाकार कहीं भीतर ही दब कर रह गया.

लोगों का आनाजाना, अंतिम कर्म, चर्च सर्विस, मिली जैसे सबकुछ धुएं की दीवार के पार से देख रही थी. होतेहोते सबकुछ हो गया. फिर धीरेधीरे धुंधलका छंटने लगा. कोहरा भी कटने लगा. मिली की भावनाएं पलटीं तो मां के बिना घर बिलकुल ही सूना लगने लगा था.

ये भी पढ़ें- Holi Special: गुप्त रोग: क्या फंस गया रणबीर

कुछ ही दिन के बाद डैड अपनी एक महिला मित्र के साथ कनाडा चले गए. जैसे जो हुआ उन्हें बस, उसी का इंतजार था.

सत्र समाप्ति पर था. मिली नियमित स्कूल जाती और मेहनत से पढ़ाई करती पर एक धुकधुकी थी जो हरदम उस के साथसाथ चलती. अब तो जौन भी चला जाएगा, फिर कैसे रहेगी वह अकेली इस सांयसांय करते सन्नाटे भरे घर में.

मौम क्या गईं अपने साथसाथ उस का सपना भी लेती गईं. सपना अपने देश जा कर अपने शहर कोलकाता देखने का था. सपना अपनी फरीदा अम्मां से मिल आने का था. टूट चुकी थी मिली की आस. अब कोई नहीं करेगा इंडिया जाने की बात. काश, एक बार, सिर्फ एक बार वह अपना देश और कोलकाता देख पाती.

स्कूल का सत्र समाप्त होने पर जौन उसे अपने साथ ले जाने की बात कर रहा था. अब वह कैसे उस से कहे कि मुझे इंडिया ले चलो. देश दिखा लाओ.

मौम के जाने पर ही भाईबहन ने जाना कि वह बिन बोले, बिन कहे कितना कुछ सहेजेसंभाले रहती थीं. अब वह चाहे जितना कुछ करते, कुछ न कुछ काम रह ही जाता.

उस दिन जौन मां के कागज सहेजनेसंभालने में व्यस्त था. बैंक पेपर, वसीयत, रसीदें, टैक्स पेपर तथा और भी न जाने क्या क्या. इतने सारे तामझाम के बीच जौन एकदम से बोल पड़ा, ‘‘मर्लिन, इंडिया चलोगी?’’

मिली हैरान, क्या कहती? ओज के अतिरेक में उस की आवाज ही गुम हो गई और आंखों में आ गया अविश्वास और आश्चर्य.

‘‘यह देखो मर्लिन, मौम तुम्हारे भारत जाने का इंतजाम कर के गई हैं, पासपोर्ट, टिकट, वीसा और मुझे एक चिट्ठी भी, छुट्टियां शुरू होते ही बहन को इंडिया घुमा लाओ…और यह चिट्ठी तुम्हारे लिए.’’

मिली ने कांपते हाथों से लिफाफा पकड़ा और धड़कते दिल से पत्र पढ़ना शुरू किया:

‘‘प्यारी बेटी, मर्लिन,

कितना कुछ कहना चाहती हूं पर अब जब कलम उठाई है तो भाव जैसे पकड़ में ही नहीं आ रहे. कहां से शुरू करूं और कैसे, कुछ भी समझ नहीं पा रही हूं्. कुछ भावनाएं होती भी हैं बहुत सूक्ष्म, वाणी वर्णन से परे, मात्र मन से महसूस करने के लिए. कैसेकैसे सपनों और अरमानों से तुम्हें बेटी बना कर भारत से लाई थी कि यह करूंगी…वह करूंगी पर कितना कुछ अधूरा ही रह गया… समय जैसे यों ही सरक गया.

कभीकभी परिस्थितियां इनसान को कितना बौना बना देती हैं. मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है. फिर भी हम सोचते हैं, समय से सब ठीक हो जाएगा पर समय भी साथ न दे तो?

मैं तुम्हारी दोषी हूं मर्लिन. तुम्हें तुम्हारी जड़ों से उखाड़ लाई…तुम्हारी उमर देखते हुए साफ समझ रही थी कि तुम्हें बहलाना, अपनाना कठिन होगा पर क्या करती, स्वार्थी मन ने दिमाग की एक न सुनी. दिल तुम्हें देखते ही बोला, तुम मेरी हो सिर्फ मेरी. तब सोचा था तुम्हें तुम्हारे देश ले जाती रहूंगी और उन लोगों से मिलवाती रहूंगी जो तुम्हारे अपने हैं. पर जो चाहा कभी कर न पाई. तुम्हारे 18वें जन्मदिन का यह उपहार है मेरी ओर से. तुम भाई के साथ भारत जाओ और घूम आओ…अपनी जननी जन्मभूमि से मिल आओ. मैं साथ न हो कर भी सदा तुम्हारे साथ चलूंगी. तुम दोनों मेरे ही तो अंश हो. ऐसी संतान भी सौभाग्य से ही मिलती है. जीवन के बाद भी यदि कोई जीवन है तो मेरी कामना यही रहेगी कि मैं बारबार तुम दोनों को ही पाऊं. अगली बार तुम मेरी कोख में ही आना ताकि फिर तुम्हें कहीं से उखाड़ कर लाने की दोषी न रहूं.

ये भी पढे़ं- यह जरूरी था: शैनल ने क्या कहा था विवेक से

तुम पढ़ोलिखो, आगे बढ़ो, यशस्वी बनो, अपने लिए अच्छा साथी चुनो. घरगृहस्थी का आनंद उठाओ, परिवार का उत्सव मनाओ. तुम्हारे सारे सुख अब मैं तुम्हारी आंखों से ही तो देखूंगी. इति…

मंगलकामनाओं के साथ तुम्हारी मौम.’’

मौम बिन बताए उस के लिए कितना कुछ कर गई थीं. उसे घर, धनसंपत्ति और सब से ऊपर जौन जैसा प्यारा भाई दे गई थीं.

मौम की अंतिम इच्छा को कार्यरूप देने में जौन ने भी कोई कोरकसर न छोड़ी.

स्कूल का सत्र समाप्त होते ही रोमांच से छलकती मिली हवाई यात्रा कर रही थी. जहाज में बैठी मिली को लग रहा था कि बचपन जैसे बांहें पसारे खड़ा हो. गुजरा, भूला समय किसी चलचित्र की तरह उस की आंखों के सामने चल रहा था.

पिछवाड़े का वह बूढ़ा बरगद जिस की लंबी जटाओं से लटक कर वह हमउम्र बच्चों के साथ झूले झूलती थी, और वेणु मौसी देख लेती तो बस, छड़ी ले कर पीछे ही पड़ जाती. बच्चों में भगदड़ मच जाती. गिरतेपड़ते बच्चे इधरउधर तितरबितर हो जाते पर मौसी का कोसना देर तक जारी रहता.

विमान ने कोलकाता शहर की धरती को छुआ तो मिली का मन आकाश की अनंत ऊंचाइयों में उड़ चला.

बाहर चटकचमकीली धूप पसरी पड़ी थी. विदेशी आंखों को चौंध सी लगी. बाहर निकलने से पहले काले चश्मे चढ़ गए. चौडे़ हैट लग गए. पर मान से भरी मिली यों ही बाहर निकल गई मानो कह रही हो कि अरे, धूप का क्या डर? यह तो मेरी अपनी है.

आगे पढ़ें- लोअर सर्कुलर रोड के मोड़ पर, जिस…

ये भी पढ़ें- दुख भरे दिन बीत रे

यह जरूरी था: शैनल ने क्या कहा था विवेक से

कहानी- साधना जैन

वापसी में रात के 11 बज गए थे. निपुण कार से उतर कर सीधा अपने कमरे में भागा. आज वह शैनल को अपनी यादों में बसा कर सारी रात उस के ही सपनों के साथ गुजारना चाहता था. सीढि़यां चढ़ते समय मां पूछ बैठीं, ‘‘कैसी लगी लड़की?’’

‘‘मां, सुबह बात करेंगे,’’ छोटा सा उत्तर दे कर निपुण ने बिस्तर पर जा कर ही दम लिया.

आज भैयाभाभी निपुण को ले कर लड़की देखने गए थे. 4-5 रिश्ते आए थे जिन में सब से अच्छा रिश्ता शैनल का ही था. अच्छा परिवार, उच्च शिक्षा और खूबसूरत लड़की.

निपुण ने पहली बार शैनल को देखा तो बस, देखता ही रह गया. दूध की तरह सफेद व बड़ीबड़ी आंखों वाली, हवा सी चंचल और फूल की डालियों सी लचीली शैनल सारी रात उस के साथ सपनों में खेलती रही. शैनल ही उस की हमसफर होगी, निपुण ने मन में तय कर लिया.

सुबह से ही घर में हलचल थी. बड़े भैया, भाभी व मां सभी अपनाअपना चाय का प्याला ले कर बैठक में जुटे हुए शैनल के बारे में चर्चा कर रहे थे. निपुण भी आफिस के लिए जल्दी से तैयार होने का नाटक करतेकरते उन की बातों का जायजा ले रहा था. शैनल सब को पसंद है यह जान कर निपुण के दिल ने राहत की सांस ली.

तभी फोन की घंटी बजी तो फोन निपुण ने ही रिसीव किया.

‘‘आप जो लड़की कल देख कर आए हैं उस का चालचलन ठीक नहीं, वह चरित्रहीन है,’’ एक सांस में ही यह सब कोई कह गया, आवाज मर्दाना थी.

‘‘आप कौन बोल रहे हैं, अपना नाम बताएं,’’  निपुण चिल्लाया.

‘‘आप की वैवाहिक जिंदगी को जहन्नुम बनने से बचाने आया एक मददगार, आप का शुभचिंतक,’’ इतना कह कर उस व्यक्ति ने रिसीवर रख दिया, तो भी निपुण बहुत देर तक हैलो…हैलो चिल्लाता रहा.

शैनल, चरित्रहीन…नहीं, निपुण का दिल यह मानने को तैयार नहीं था पर तभी दिमाग ने प्रश्न किया, क्यों नहीं? अच्छी- खासी, पढ़ीलिखी आधुनिक लड़की, फिर कालिज में तो ज्यादातर लड़कियां टिशु पेपर की तरह बौय फ्रैंड बदलती हैं. कोई ताज्जुब नहीं कि शैनल भी इसी तरह की लड़की हो.

उस शुभचिंतक के फोन ने निपुण के दिमाग को झकझोर दिया था. एक ओर शैनल की खूबसूरती उस के दिमाग में दस्तक दे रही थी तो दूसरी ओर वह फोन. बहुत बार उस ने अपने दिमाग को झटका लेकिन कोई फायदा न हुआ. शैनल के विचार बादलों की तरह उमड़घुमड़ कर आते ही रहे.

निपुण ने तो कभी कहीं दिल नहीं लगाया. अपना कैरियर, अच्छा भविष्य और लेदे कर 2-3 अच्छे दोस्त. 7 साल की कालिज लाइफ में ये सब ही उस के साथी थे. उस के दोस्त उसे छेड़ा करते थे और अकसर लड़कियों से दोस्ती के लिए उसे उकसाते रहते थे. सारे कालिज में वह ‘कोल्ड बैचलर’ के नाम से जाना जाता था. इस के बावजूद निपुण के कदम कभी नहीं बहके.

ये भी पढ़ें- Women’s Day: अकेली लड़की- कैसी थी महक की कहानी

‘‘क्या बात है निपुण, आज बहुत खोयेखोये से लग रहे हो,’’ लंच में विवेक ने आते ही टोका. फिर खुद ही उसे छेड़ते हुए बोला, ‘‘क्यों नहीं, अपने लिए लड़की देखने जो गए थे जनाब. लगता है मेरे यार की दिल देने की बारी आ ही गई. कैसी है वह? पसंद आई या नहीं?’’

बस…बस, सांस तो लेले. एक ही बार में सारा कुछ जान लेगा क्या?’’ निपुण ने उसे बीच में रोक लिया.

‘‘तो जल्दी बता वहां का आंखों देखा हाल,’’ विवेक उस के सामने वाली कुरसी पर जम गया.

काफी पीतेपीते शैनल के बारे में सबकुछ बता कर निपुण कुछ उदास सा हो गया.

‘‘जब इतनी सुंदर और सुशील लड़की है वह और तेरे पसंद की फ्रेम में बिलकुल फिट बैठती है तो फिर यह उदासी कैसी?’’

‘‘विवेक, आज तक मैं ने तुझ से कुछ छिपाया नहीं है,’’ इतना कह कर निपुण ने उस अजनबी के फोन के बारे में विवेक को सबकुछ बता दिया.

‘‘बस, इतनी सी बात? कहां दिल से लगा बैठा तू भी. आजकल मसखरे, दिलफें क, दिलजले बहुत चक्कर लगाते फिरते हैं. कोई अपने दिल की भड़ास तेजाब फेंक कर तो कोई इस तरह फोन कर के निकालता है. किसी ने यों ही मजाक किया होगा. फिर शैनल में कुछ बात तो होगी ही जिस ने मेरे दोस्त के विश्वामित्री आसन को पहली नजर में ही हिला दिया है.’’

‘‘देख, खूबसूरत लड़की से हर कोई लड़का जुड़ना चाहता है. हो सकता है शैनल तेरी तरह ही प्यार में विश्वास न करने वाली लड़की हो, इसीलिए किसी लड़के ने उस से बदला लेने को ऐसा किया हो. सिर्फ किसी के फोन से किसी लड़की के चरित्र पर शक करना मेरी राय में ठीक नहीं,’’ विवेक ने उसे समझाया.

‘‘मेरा दिल नहीं मानता विवेक, इधर घर वाले जल्द ही रस्म करने को उतावले हो रहे हैं. मैं ने फोन वाली बात किसी को नहीं बताई पर जाने क्यों उस शुभचिंतक की बातें सुनने के बाद दिल में फांस सी चुभ रही है. तू ही बता, भला क्यों कोई बेवजह किसी को बदनाम करेगा, वह भी इतने विश्वास के साथ. बहुत पजेसिव हूं इस रिश्ते के लिए मैं. अपनेआप को अच्छी तरह जानता हूं कि शैनल को खो कर दोबारा किसी और से जुड़ना मेरे लिए आसान नहीं, पर जानते हुए नासमझी करना…मान ले, वाकई शादी के बाद शैनल वैसी ही निकली जैसा उस अजनबी ने कहा है तो मेरे पास 2 ही रास्ते होंगे, आत्महत्या या फिर उस की हत्या.’’

‘‘इतनी दूर की मत सोच यार, क्या करना है बता, बंदा तेरे लिए हाजिर है,’’ विवेक को निपुण की चिंता व्यर्थ ही लगी.

‘‘मैं एक बार शैनल को परखना चाहता हूं और मेरे इस काम में तू ही मेरी मदद कर सकता है, विवेक. एक अजनबी बन कर तू शैनल से मिल और कोशिश कर कि वह तेरे जाल में फंस जाए. यदि वाकई वह तेरे साथ प्रेम करने लगती है तो मैं समझूंगा कि शैनल मेरे प्यार के काबिल नहीं है,’’ निपुण ने विवेक को समझाया.

मेरे लिए यह बाएं हाथ का काम न सही पर मुश्किल भी नहीं क्योंकि अपने काम के लोग तो हर जगह फैले हैं. उस का अतापता दे, कोई न कोई गोटी तो फिट कर ही लेंगे. उस से दोस्ती करना मुश्किल नहीं.

‘‘पर दोस्त, सचमुच उस के साथ दिल न लगा बैठना,’’ निपुण की इस संजीदगी पर विवेक हंस पड़ा.

अब निपुण हर रोज विवेक से मिलते ही शैनल के बारे में पूछता. एक दिन निपुण ने उसे बताया कि शैनल से उस का परिचय हो गया है और कुछ ही दिनों में शायद वह उस के विश्वास को जीत भी लेगा. दिन बीत रहे थे, निपुण हर रोज विवेक से शैनल के साथ हुए घटनाक्रम को विस्तारपूर्वक सुनता.

इस दौरान निपुण ने मां से भी झूठ बोल दिया कि कंपनी उसे 6 महीने के लिए टूर पर भेजना चाहती है अत: वह आ कर सगाई करेगा.

उस दिन विवेक ने उसे खासतौर से फोन कर के शैनल के बारे में बात करने के लिए बुलाया था.

‘‘निपुण, वह लड़की तेरे जैसे भावुक और रिश्तों के प्रति ईमानदार इनसान के लायक नहीं है. सचमुच वह बहुत महत्त्वाकांक्षी है. ऊंचाई पर पहुंचने के लिए वह अपनी प्रतिभा से अधिक एक खूबसूरत लड़की होने का इस्तेमाल करना अच्छी तरह से जानती है. वह तभी तो इतनी छोटी सी उम्र में ही उस प्राइवेट कंपनी में उच्च अधिकारी है,’’ और फिर एक लंबीचौड़ी कहानी विवेक ने उसे सुनाई.

निपुण के पास विवेक पर शक करने की कोई वजह नहीं थी. पिछले 6-7 साल से दोनों पक्के दोस्त हैं. बहुत टूटे और उदास मन से निपुण ने शैनल से विवाह न करने का मन बना लिया. घर पर सब को क्या वजह बताता. बस, लड़की उसे पसंद नहीं यह कह कर उस ने मां को न करने के लिए राजी कर लिया. सब ने बहुत जोर लगाया कि उन दोनों का रिश्ता हो जाए पर विवेक द्वारा शैनल के दिए चरित्र प्रमाणपत्र को अपने दिमाग में रख वह अपने फैसले पर अडिग रहा.

उन्हीं दिनों कंपनी ने निपुण की पोस्टिंग 2 साल के लिए आस्ट्रेलिया में की तो उस ने राहत की सांस ली. 2 साल किसी को भुला कर संभलने के लिए बहुत होते हैं अत: काम में व्यस्त निपुण भी सारी बातें भूल कर अपनी मेहनत और लगन से कैरियर की नई ऊंचाइयों को छूने लगा.

निपुण भारत वापस लौटा तो उस ने पाया सबकुछ जैसे बदल गया था. यहां की आबोहवा, लोग और विवेक से भी पिछले ढाई साल में एक बार भी संपर्क नहीं हुआ.

मम्मीपापा के बहुत जोर देने पर उसे घर बसाने का फैसला लेना ही पड़ा पर निपुण की नजरें थीं कि हर लड़की में शैनल की छवि ढूंढ़ती. उस से नाता तोड़ने के बाद भी दिल के कोने में उस के होने के एहसास को वह भूल नहीं सका था. फिर भी सब की पसंद से उस ने आखिर में नीमा को सगाई की अंगूठी पहना दी. शादी का मुहूर्त जानबूझ कर देर से निकलवाया ताकि अपनी होने वाली जीवनसाथी के प्रति ईमानदार रह सके. निपुण के बेहतरीन काम को देख कंपनी ने उसे प्रमोट कर अपने हेड आफिस दिल्ली ट्रांसफर कर दिया.

नए आफिस में वह पहला दिन था. नए एम.डी. के स्वागत में सारे स्टाफ ने मिल कर वेलकम पार्टी दी. परिचय का दौर चल ही रहा था कि उस खुशनुमा माहौल में एक आवाज ने उसे चौंका दिया. निगाह डाली तो एक अजीब सी सिहरन तनबदन में दौड़ गई. हां, वह शैनल ही थी. उस के अरमानों के साथ खेलने वाली, उस के विश्वास को छलने वाली शैनल भी उसी की कंपनी में प्रमुख अधिकारी थी.

ये भी पढ़ें- बीजी यहीं है: क्या सही था बापूजी का फैसला

शैनल अपना परिचय दे कर जा चुकी थी पर वह था कि जैसे अतीत में खो गया. समय के इतने लंबे अंतराल के बाद भी शैनल से जुड़ी तमाम पुरानी बातें पल भर में ही उस के सामने फिल्म के दृश्य की तरह गुजर गई.

शैनल का खयाल निपुण के मन को दुख और गुस्से के सिवा कुछ नहीं देता, फिर भी सारी रात वह उन से पीछा नहीं छुड़ा पाया. फिर तो जैसे यह सिलसिला ही चल पड़ा. सारे दिन किसी न किसी बहाने शैनल को देखना और बस, देखते ही रह जाना. काम छोड़ खुद ही तर्कों के जाल में फंस जाना, मन ही मन कभी उसे सही तो कभी गलत ठहराना निपुण की दिनचर्या में शामिल हो गया था.

उधर शैनल भी निपुण को पहचान गई थी पर उस ने कभी कुछ जाहिर नहीं होने दिया. बिलकुल सामान्य हो अपने काम में व्यस्त रहती. पुरुषों से उस का शालीन व्यवहार, उस के चेहरे पर छाई पारे के मानिंद पवित्रता देख निपुण को शक होने लगा था कि क्या शैनल वैसी नहीं है जैसा विवेक ने उसे बताया था या उस के सामने वह अच्छे होने का नाटक कर रही है? लेकिन कोई कब तक झूठी जिंदगी जी सकता है किसी के सामने? मन अनेक सवालों से घिर गया और इसी में 3 महीने गुजर गए.

इनसान मन की कारस्तानी से बेबस है, चाह कर भी निपुण शैनल को अपनी जिंदगी से निकाल नहीं पा रहा था. दोबारा मिलने के बाद तो शैनल की निर्मलता उस पर हावी होती जा रही थी.

क्यों न शैनल को वह खुद ही दोबारा से परख कर देख ले? आखिर वह बौस है, मेहरबान हो जाए तो उसे कहां से कहां पहुंचा सकता है. यदि इस बार भी वही सबकुछ, जैसा विवेक ने कहा था, हुआ तो वह हमेशा के लिए शैनल को भूल कर अपना घर बसा लेगा.

निपुण ने मन ही मन एक प्लान बनाया. अकसर वह आफिस का समय खत्म होते ही जानबूझ कर कभी रास्ते में तो कभी आफिस के बाहर उसे घर तक छोड़ने का आग्रह कर देता, लेकिन शैनल का विनम्रतापूर्वक इनकार निपुण को अजीब सी खुशी के साथ रोमांचित कर देता.

उस दिन निपुण आफिस से लौट रहा था कि अचानक बादल घिर आए. मूसलाधर बारिश, उस पर घनघोर अंधेरा इतना कि गाड़ी की हेडलाइट में भी रास्ता नहीं सूझ रहा था. सामने बौछारों से अपने आप को बचाती हुई शैनल बस के न आने पर किसी आटो के इतंजार में खड़ी थी. निपुण ने गाड़ी रोक शैनल को घर तक छोड़ देने के लिए कहा.

‘‘लेकिन सर…’’

शैनल की बात को बीच में काट कर निपुण बोला, ‘‘सर वर कुछ नहीं, तुरंत बैठिए, आप के लिए मैं कोई अजनबी तो नहीं जो इतनी तकल्लुफ?’’

अपने कपड़ों से टपकती पानी की बूंदों से गाड़ी की सीट को बचाती वह गाड़ी में बैठ गई. आधा रास्ता खामोश ही गुजर गया पर निपुण जानता था, अपनी बात कहने का इस से अच्छा अवसर उसे शायद ही मिले. यह सोच कर उस ने पहल की, ‘‘तुम से बहुत दिनों से कुछ कहना चाह रहा था. देखिए, शायद कुदरत को हमारा रिश्ता मंजूर नहीं था इसीलिए सारी रजामंदी के बाद भी यह रिश्ता बन नहीं पाया पर तुम को इतने लंबे समय के बाद भी भूल पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं. आज भी अकेले में तुम्हें अपने तसव्वुर में पाता हूं. मैं चाहता हूं कि तुम मेरी जिंदगी में लौट आओ, फिर देखना, मैं तुम्हें कहां से कहां पहुंचा देता हूं,’’ अपनी बात रखते हुए निपुण ने अपना हाथ शैनल के कंधे पर रख दिया.

पल दो पल वह उसे अजीब सी नजरों से देखती रही फिर निपुण के हाथ को झिटकते हुए बोली, ‘‘मुझे कम से कम तुम से तो यह उम्मीद नहीं थी पर तुम भी औरों की तरह सामान्य पुरुष ही निकले.’’

‘‘ओह, मैं ने ऐसा क्या गलत कह दिया तुम से? दुनिया में जो चलता आया है बस, वही. बौस और उस के मातहत के बीच मधुर संबंध. और कोई हो तो शायद सोचता भी पर तुम्हारे लिए तो यह कोई नई बात नहीं.’’

‘‘क्या बकवास कर रहे हो निपुण?’’ वह जोर से चीखी.

‘‘ताज्जुब है, ऊपर चढ़ने के लिए अपनी सुंदरता को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने वाली, तुम्हारे लिए इस तरह मेरे प्रस्ताव पर यों बौखलाना? शैनल, तुम्हारी कोई बात मुझ से छिपी नहीं है. भूल गई उस इलेक्ट्रानिक कंपनी में मैनेजर बनने के लिए विवेक का वह आमंत्रण और तुम्हारा उसे स्वीकार करना?’’

शैनल अचानक शांत हो गई. उस ने अपनेआप को कुछ संभाला, फिर पूरे आत्मविश्वास के साथ बोली, ‘‘निपुण, मैं नहीं जानती कि मेरे बारे में ये तमाम जानकारियां तुम ने कहां से हासिल कीं पर तुम्हें बात दूं कि मैं एक स्वाभिमानी, अपनी मेहनत के बल पर मंजिल तक पहुंचना जानती हूं. गलत रास्तों पर चल कर ऊपर जाने से बेहतर वापस घर लौट जाना ही होता है.’’

‘‘तो क्या विवेक झूठ बोल रहा था?’’ गुस्से से तमतमाए शैनल के चेहरे को देख निपुण कुछ कमजोर पड़ गया.

‘‘विवेक, कौन विवेक?’’

निपुण ने कम शब्दों में फोन से ले कर विवेक और आज तक की सारी बातें बेहिचक शैनल को बता दीं. वह भौचक्क सी चुपचाप सुनती रही फिर बोली, ‘‘तुम्हें सफाई दे कर अपनेआप को अच्छी साबित करने की मुझे कोई जरूरत नहीं पर तुम कभी किसी लड़की की योग्यता और मेहनत को नकार, बिना सोचेसमझे नादानी में ऐसे प्रस्ताव रख जलील न करो इसीलिए आज तुम मेरे घर चलो और सबकुछ अपनी आंखों से देख लो.’’

कुछ ही पलों में वह शैनल के घर पर थे, अपनी चाबी से दरवाजा खोल उस ने निपुण को बिठाया, कपड़े बदल कर आई तो उस के साथ कोई और भी था.

‘‘इन से मिलो, यह मेरे पति विवेक हैं, आप रास्ते में शायद इन्हीं का जिक्र कर रहे थे?’’ शैनल ने परिचय करवाया तो निपुण को अपनी आंखों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. सामने विवेक खड़ा था, उस का जिगरी दोस्त.

ये भी पढ़ें- किस गुनाह की सजा: रजिया आपा ने क्यों मांगी माफी

निपुण के दिमाग में बारबार यह प्रश्न उठ रहा था कि मेरे लिए गलत लड़की विवेक के लिए इतनी सही कि उस ने दोस्त से धोखा कर स्वयं शादी कर ली? पर यह शिकायत अब वह किस से करता? वह कहां गलत था? क्या उसे शैनल पर आंख बंद कर विश्वास कर शादी कर के खुद को तकदीर के हवाले कर देना चाहिए था? कहनेसुनने को बहुत कुछ था किंतु व्यर्थ. सचाई यही थी कि वह आज शैनल को पूरी तरह खो चुका था.

विवेक को सामने देख आगे क्या हुआ, शैनल ने उस से क्या कहा? सब जैसे वह सुन कर भी समझ नहीं पाया. अपनी ही दुनिया में खुद से सवालजवाब करता निपुण डगमगाते कदमों से अपनी कार तक वापस लौट आया.

आज शैनल को खोने का एहसास आंखों से पानी की बूंदें बन बरस पड़ी था.

मां की पसंद से नीमा से हुए रिश्ते को वह ईमानदारी से निभा पाए. इस के लिए सोचना जरूरी था.

दुख भरे दिन बीत रे

वरुण समुद्र के किनारे पत्थर पर बैठा विचारों में डूबा हुआ चुपचाप अंधेरे में समुद्र के ठाठें मारते पानी को घूर रहा था. समुद्र की लहरें जब किनारे से टकरातीं तो कुछ क्षण उस के विचारों का तारतम्य अवश्य टूटता मगर विचार थे कि बारबार उसे अपने पंजों में जकड़ लेते. वह सोच रहा था, आखिर, कैसे पार पाए वह अपने जीवन की इस छोटी सी साधारण लगने वाली भीषण समस्या से.

बात बस, इतनी सी थी कि उस की मां व पत्नी में जरा भी नहीं बनती थी. आएदिन छोटीछोटी बातों पर घर में महाभारत होता. कईकई दिन तक शीतयुद्ध चलता और वह घड़ी के पेंडुलम की तरह मां व पत्नी के बीच में झूलता रहता.

दोनों ही न समझ पातीं कि उस के दिल पर क्या गुजर रही है. दोनों ही रिश्ते उसे कितने प्रिय हैं. मां जब सुमी के लिए बुराभला कहतीं तो उसे मां पर गुस्सा आता और सुमी जब मां के लिए बुराभला कहती तो उसे उस पर गुस्सा आता. मगर वह दोनों पर ही गुस्सा न निकाल पाता और मन ही मन घुटता रहता. उस के मानसिक तनाव व आफिस की परेशानियों से किसी को कोई मतलब न था.

सासबहू के झगड़े का मुद्दा अकसर बहुत साधारण होता. हर झगड़े की जड़ में बस, एक ही बात मुख्य थी और वह थी अधिकार की.

मां अपना अधिकार छोड़ना नहीं चाहती थीं और सुमी आननफानन में, कम से कम समय में अपना अधिकार पा लेना चाहती थी. दोनों आपस में जुड़ने के बजाय वरुण से ही जुड़ी रहना चाहती थीं. न मां बड़ी होने के नाते उदारता से काम लेतीं न सुमी छोटी होने के नाते मां के अहं को मान देती.

आज भी वह दोनों के झगड़ों से तंग आ कर यहां आ बैठा था. उस का मन घर जाने को बिलकुल नहीं हो रहा था. उस ने घड़ी पर नजर डाली. रात के 10 बज रहे थे. क्या करे क्या न करे…वह गहरी उधेड़बुन में था. कुछ तो करना ही होगा. सारी जिंदगी ऐसे तो नहीं गुजारी जा सकती. कल उस का बेटा सोनू बड़ा होगा तो क्या संस्कार सीखेगा वह…

इसी उधेड़बुन में डूबताउतराता हुआ वरुण घर आ गया. उसे घर आतेआते 11 बज गए. देर से आने के कारण मां व सुमी दोनों ही चिंतित थीं.

दोनों का एक ही संबल, एक ही आधार फिर भी एकदूसरे से न जाने क्यों प्रतिस्पर्धा है इन्हें. यही सब सोचता हुआ वरुण दोनों के चिंतित चेहरों पर एकएक नजर डालता हुआ सोने चला गया.

सुमी एक बार उस के बेडरूम में आई थी लेकिन आज उस की बदली हुई कठोर मुखमुद्रा देख कर वह लौट गई. वरुण चादर तान कर भूखा ही सो गया.

थोड़ी देर बाद सुमी बेडरूम में चुपचाप आ कर लेट गई. उस का रोज का क्रम था कि वह बेडरूम में आ कर दिन भर की घटना पर चर्चा करती, रोती, ताने कसती. वरुण उसे मनाता, समझाता. लेकिन आज उस का सुमी से बात करने का बिलकुल भी मन नहीं था. सोचने लगा, आखिर कब तक वह यही सब करता रहेगा. 5 साल पूरे हो गए उस के विवाह को, अब तो मां व सुमी को आपस में समझौता करना आ जाना चाहिए.

ये भी पढ़ें- घुट-घुट कर क्यों जीना: क्यों पवन जिम्मेदार बाप ना बन सका

मगर आज वरुण को एक बात का एहसास हो गया था कि उस की कठोर मुखमुद्रा देख कर मां व सुमी दोनों ने ही उस से एक भी शब्द नहीं कहा था. वह आत्मविश्लेषण करने लगा कि कहीं यह उस की स्वयं की कमजोरी तो नहीं, जिस की वजह से बात बिगड़ रही है.

वह दोनों को एकसाथ खुश रखना चाहता

है. इसलिए वह मां की सुख- सुविधाओं का खुद ध्यान रखता है. मां की सेवा व उन्हें खुश रखना वह अपना फर्ज भी समझता है. शायद इसलिए मां के प्रति सुमी के हृदय में कर्तव्य व जिम्मेदारी

की भावना विकसित नहीं हो पाई बल्कि उस का स्थान ईर्ष्याजनित प्रतिस्पर्धा ने ले लिया.

सुमी भी उस की कमजोर रग है. वह उस की नाराजगी ज्यादा दिन बरदाश्त नहीं कर पाता इसलिए मां की तरफ से वह उसे खुद ही मनाता रहता है.

मगर मां चाहती हैं कि वह सुमी की गलतियों के कारण उस के प्रति उदासीन रहे, उसे टोके. जबकि वह उस की कमियों के साथ समझौता करना चाहता है. दोनों में उसे अपने पक्ष में करने की होड़ सी है.

लेकिन आज की घटना व अपने रुख से उसे लग रहा था कि उसे दोनों के बीच से हट जाना चाहिए. उस का दोनों को खुश करने की कोशिश करने वाला रुख उन्हें एकदूसरे से अलग करता है. जब वह दोनों के प्रति एकसाथ तटस्थ हो जाएगा तो शायद दोनों उस से जुड़ने के बजाय एकदूसरे से जुड़ने की कोशिश करेंगी. बहाव जब एक तरफ रुकेगा तो दूसरी तरफ बहेगा ही.

इसी उधेड़बुन में रात बीत गई. सुबह चाय का इंतजाम किए बिना वह उठ कर बाथरूम चला गया और नित्यकर्म से निबट कर अखबार पढ़ने लगा. अखबार पढ़ कर वह तैयार होने चला गया और तैयार हो कर आया तो सुमी ने मेज पर नाश्ता लगा दिया. उस ने चुपचाप नाश्ता किया मगर सुमी की तरफ देखा तक नहीं. फिर अपना बैग उठाया और दोनों से कोई बात किए बिना आफिस चला गया.

दूसरा दिन भी ऐसा ही बीता. सुमी ने सोचा, शायद रात को शारीरिक इच्छा के हाथों वह मजबूर हो जाएगा. लेकिन उस ने अपनी इच्छाशक्ति से स्वयं को तटस्थ बनाए रखा.

4-5 दिन इसी तरह बीत गए. उसकी तरफ से बातचीत के कोई आसार न देख कर सासबहू दोनों ने आपस में अब थोड़ा- बहुत बातचीत करना शुरू कर दिया था.

अगले दिन आफिस जाने से  पहले वह नाश्ता कर रहा था कि मां उस की बगल वाली कुरसी पर आ कर बैठ गईं और कराहती हुई बोलीं, ‘‘वरुण, डाक्टर से समय ले लेता तो मुझे डाक्टर को दिखा देता. मेरी तबीयत ठीक नहीं है. लगता है बुखार है.’’

‘‘बुखार है…’’ वरुण के मुंह से तुरंत निकला लेकिन दूसरे ही पल उस ने अपनी आवाज संयत कर ली. माथा छू कर देखा, मां को सचमुच बुखार था.

वरुण का मन छटपटा उठा. मन में आया कि दफ्तर से आधे दिन की छुट्टी ले कर मां को डाक्टर को दिखा लाए, लेकिन मन मजबूत कर लिया. वह चाहता था कि मां की तबीयत खराब है तो उन्हें डाक्टर को दिखाना चाहिए, उन की देखभाल होनी चाहिए, यह जिम्मेदारी की भावना सुमी के मन में आए.

‘‘बुखार तो नहीं है, मां,’’ वरुण लापरवाही से बोला, ‘‘यों ही सर्दीजुकाम हो गया होगा. काम वाली आएगी तो उस से सर्दीजुकाम की कोई टेबलेट मंगवा लेना.’’

मां चौंक कर उसे देखने लगीं. बुखार से भी ज्यादा शायद बेटे का व्यवहार उन्हें आहत कर गया था. वरुण ने किचन के दरवाजे पर खड़ी सुमी के चेहरे को पढ़ने की कोशिश की जिस से उसे साफ नजर आ रहा था, मानो वह कह रही हो कि कितने लापरवाह हो, लेकिन उस ने कहा कुछ नहीं.

ये भी पढ़ें- कोई फर्क नहीं है: श्वेता के पति का क्या था फैसला

शाम को वह जब आफिस से आया तो सीधे अपने कमरे में चला गया. रात के खाने तक उस ने मां की तबीयत के बारे में नहीं पूछा. मां अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी थीं. रात में जब वह खाने के लिए नहीं आईं तब उस ने जैसे अचानक याद आने वाले अंदाज में सुमी से पूछा, ‘‘मां का बुखार कैसा है?’’

‘‘वैसा ही है,’’ उस ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

वह देखना चाहता था कि आखिर सुमी मां की बीमारी कब तक देख सकती है. रात जब बिस्तर पर लेटा तो पलकें नहीं झपक पा रही थीं. बारबार मां पर ध्यान जा रहा था. सुमी कुहनी से आंखें ढके चुपचाप लेटी थी. मां के कमरे से कराहने की हलकी सी आवाज आ रही थी.

वरुण सोच रहा था कि अब तो मां को सुबह डाक्टर के पास ले जाना ही पड़ेगा. इधर सुमी के प्रति उस के मन में वितृष्णा का भाव जागा, ‘कितनी कठोर है यह.’

थकान के कारण वरुण को झपकी लगी ही थी कि किसी के बात करने की आवाज से आंखें खुल गईं. पलट कर देखा तो सुमी पलंग पर नहीं थी. वह धीरे से उठ कर मां के कमरे की ओर गया. मां के कमरे में रोशनी हो रही थी. उस ने परदे की ओट से अंदर झांका. देखा, सुमी मां का माथा सहला रही है.

‘‘आप का बुखार तो काफी तेज हो गया है, मांजी. यह गोली ले लीजिए,’’ कह कर सुमी ने मां को हाथ के सहारे से उठाया, गोली खिलाई और लिटा दिया. फिर खुद बगल में बैठ कर धीरेधीरे सिर दबाने लगी.

‘‘ये भी तो इतने लापरवाह हैं. ऐसी भी क्या नाराजगी है मां से. नाराज हैं तो नाराज रहते पर कम से कम डाक्टर को तो दिखा लाते,’’ सुमी कह रही थी.

‘‘ऐसा पहले तो कभी नहीं किया वरुण ने. पता नहीं इतनी नाराजगी किस बात की है. तुम से कुछ कहा?’’ मां नेपूछा.

‘‘नहीं, मुझ से तो आजकल बात ही नहीं करते. मेरे से न सही कम से कम आप से तो बात करते. मां से कहीं कोई ऐसे नाराज होता है.’’

वरुण को बेहद सुखद आश्चर्य हुआ. वह लौट कर पलंग पर आ लेटा. सोचने लगा कि पिछले 5 सालों में ऐसा कभी हुआ नहीं कि सुमी ने मां के सिरहाने बैठ कर उन का हालचाल पूछा हो. खाना, नाश्ता, चाय जैसे उस के लिए बनाया वैसे ही मां को दे दिया और बस, कर्तव्यों की इतिश्री हो गई.

वरुण सुबह जब अखबार पढ़  रहा था तो सुमी उस के पास आ कर बैठ गई और बोली, ‘‘सुनो, आप आफिस जाने से पहले मां को डाक्टर को दिखा लाओ. उन का बुखार बढ़ रहा है. सर्दी लग गई है शायद…’’

‘‘मुझे फुरसत नहीं है. बदलता मौसम है,’’ वह लापरवाही से बोला, ‘‘सर्दी- जुकाम 2-4 दिन में अपनेआप ठीक हो जाएगा. मां भी तो बस, छोटीछोटी बातों से परेशान हो जाती हैं.’’

‘‘कैसे बेटे हो तुम,’’ सुमी रोष से बोली, ‘‘उन का बुखार पूरी रात नहीं उतरा. बूढ़ा शरीर कब तक इतना बुखार सहन करता रहेगा.’’

‘‘मुझे आज आफिस जल्दी जाना है. शाम को जल्दी आ गया तो दिखा दूंगा,’’ कह कर वरुण ने अखबार फेंका और उठ खड़ा हुआ.

‘‘कैसी बात कर रहे हैं आप. मां को डाक्टर को दिखाना क्या जरूरी काम नहीं?’’ सुमी सख्ती से बोली.

‘‘मेरा सिर मत खाओ. वैसे ही आफिस की सौ परेशानियां हैं. जल्दी से नाश्ता लगाओ, मुझे आफिस जाना है,’’ कह कर वरुण बाथरूम में घुस गया.

सुमी का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. उस ने उलटासीधा नाश्ता बना कर मेज पर लगा दिया.

तैयार हो कर वरुण नाश्ता कर के आफिस चला गया, मगर ध्यान मां पर ही लगा हुआ था. आफिस पहुंच कर उस ने फोन पर डाक्टर से समय लिया.

आफिस से घंटे भर की छुट्टी ले कर वह घर आ गया.

अपने फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच कर वह जैसे ही कालबेल बजाने को हुआ कि बगल वाले फ्लैट का दरवाजा खुल गया. पड़ोसिन शालिनी बोली, ‘‘भाई साहब, सुमी तो माताजी को ले कर डाक्टर के पास गई है.’’

‘‘डाक्टर के पास…’’ वरुण चकित रह गया, ‘‘सोनू को भी ले गई?’’

‘‘नहीं, सोनू तो मेरे पास सो रहा है.’’

वरुण पल भर खड़ा रहा. फिर जैसे ही चलने को हुआ वह बोल पड़ी, ‘‘आप चाहें तो अंदर बैठ कर इंतजार कर लीजिए.’’

‘‘नहींनहीं, बस, ठीक है. मैं आफिस जा रहा हूं. मुझे कुछ जरूरी कागज लेने थे,’’ कह कर वरुण सीढि़यां उतर गया.

वरुण पता नहीं क्यों आज खुद को इतना हलकाफुलका महसूस कर रहा था. सुमी को अपनी जिम्मेदारियां निभानी आती हैं, पर शायद मां के प्रति उस के बेहद समर्पित भाव ने उसे अलग छिटका दिया था. जब वरुण की लापरवाही देखी तो उसे अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हो गया.

शाम को जब वरुण घर आया तो मां आराम से अपने कमरे में सो रही थीं. उस ने अपनी तरफ से कुछ न पूछा. वह तटस्थ ही बना रहा. 3-4 दिन में मां बिलकुल ठीक हो गईं. इस दौरान सुमी ने मां की बहुत देखभाल की. रात में जागजाग कर वह मां का कई बार बुखार देखती थी. एक तरफ छोटा सोनू उसे चैन न लेने देता, दूसरी तरफ मां की देखभाल, सुमी पर काम का बहुत बोझ बढ़ गया था.

ये भी पढ़ें- Women’s Day: प्यार की जीत: निशा ने कैसे जीता सोमनाथ का दिल

वरुण का दिल करता उसे सीने से लगा ले. उस पर बहुत प्यार आता. उस के मन से सुमी के प्रति सारी नफरत खत्म हो गई थी लेकिन उस ने भरसक प्रयास कर खुद को तटस्थ ही बनाए रखा.

एक शाम मां सत्संग में गई हुई थीं. वह आफिस से आ कर बालकनी में बैठा ही था कि सुमी चाय ले कर आ गई. दोनों चुपचाप बैठ कर चाय पीने लगे.

सुमी बीचबीच में छिटपुट बात करने की कोशिश कर रही थी, पर वह ‘हूं…हां’ में ही जवाब दे रहा था.

‘‘सुनो,’’ अचानक सुमी बोली, ‘‘मुझ से बहुत नाराज हो क्या?’’

उस की आवाज नम थी. उस ने अचकचा कर सुमी के चेहरे पर नजर डाली, आवाज की नमी आंखों में भी तैर रही थी लेकिन चेहरा अपनी जिम्मेदारियां निभाने के कारण आत्म- विश्वास से दमक रहा था. बहू की तरफ से इतनी देखभाल होने के कारण मां से जो प्यार व स्नेह उसे मिल रहा था उस से वह खुश थी और उसे पूर्ण विश्वास था कि वरुण भी मन ही मन उस से जरूर खुश हुआ होगा. लेकिन शायद इस बात को वह उसी के मुंह से सुनना चाहती थी, मगर प्रत्यक्ष में वरुण ने स्वयं को अप्रभावित ही दिखाया.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘तो फिर ऐसे क्यों रहते हो. आप ऐसे अच्छे नहीं लगते,’’ भरी आंखों से उस की तरफ देख कर सुमी मुसकरा पड़ी.

‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ न. आगे से नहीं होगा,’’ वरुण ने धीरे से उस के हाथों के ऊपर अपना हाथ रख दिया और प्यार से सुमी की तरफ देखा. वह आगे कुछ कहता इस से पहले ही कालबेल बज उठी.

‘‘लगता है मां आ गईं,’’ कह कर सुमी दरवाजा खोलने चली गई.

मां आ गई थीं. उन्हें शायद पता नहीं था कि वरुण आफिस से आ गया है. वह सुमी को सत्संग का विवरण सुनाने लगीं. सुमी भी पूरी दिलचस्पी से सुन रही थी, साथ ही साथ चाय बना रही थी.

वरुण के विवाह के बाद शायद यह पहला मौका था जब उस ने मां व सुमी को ऐसे मांबेटी की तरह घुलमिल कर बातें करते देखा होगा. उस की नाराजगी व तटस्थता की वजह से दोनों एकदूसरे के नजदीक आ गई थीं.

वरुण चाहता था कि जैसे सुमी को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हुआ है वैसे ही मां को भी एहसास हो कि सुमी उन की बेटी है. उस के सुखदुख की परवा करना उन का कर्तव्य है. एक मां की तरह उसे बेटी समझ कर उस की कमजोरियों व गलतियों को नजरअंदाज करना भी उन के लिए जरूरी है. समय के साथ सुमी कई काम अपनेआप सीख जाएगी. सभी धीरेधीरे परिपक्व हो जाते हैं, वह भी हो जाएगी.

जल्दी ही वह क्षण भी आ गया. वरुण आफिस के लिए निकल रहा था. सुमी सोनू के साथ बाथरूम में थी.

बाहर निकलते हुए उसे किचन में गैस पर रखी दूध की पतीली दिख गई. दूध उबलउबल कर फैलता जा रहा था.

सुमी अकसर ही दूसरे कामों में उलझ कर या सोनू के साथ उलझ कर गैस पर रखे दूध का खयाल भूल जाती थी और वरुण देख कर भी नजरअंदाज कर देता था, लेकिन मां देख लेतीं तो कुहराम मचा देतीं. ऐसी छोटीमोटी गलतियों पर सुमी को कोसने का मौका वह कभी नहीं चूकतीं. वह तब तक कोसती रहतीं जब तक झगड़ा नहीं हो जाता.

किसी और दिन की बात होती तो वरुण गैस बंद कर के सुमी को बता कर चुपचाप आफिस चला जाता और सुमी भी चुपचाप किचन साफ कर देती, लेकिन उस दिन वह जोर से चिल्ला पड़ा, ‘‘सुमी…’’

वरुण की आवाज इतनी तेज थी कि सुमी व मां एकसाथ आ कर उस के सामने खड़ी हो गईं.

‘‘क्या हुआ?’’ दोनों एकसाथ बोल  पड़ीं.

‘‘वहां किचन में देखो क्या हुआ. तुम रोजाना ही गैस पर कुछ न कुछ रख कर भूल जाती हो. तुम्हारी लापरवाही से तो मैं तंग आ गया. अगर थोड़ी देर और रह जाता तो आग लग जाती. पतीली का दूध सारा का सारा उबल कर गिर गया. क्या करती रहती हो दिन भर…बाकी काम तुम बाद में नहीं कर सकतीं.’’

सुमी के मुंह से एक शब्द भी न निकला. उस ने 5 साल में पहली बार वरुण की इतनी ऊंची व क्रुद्ध आवाज सुनी थी. वह बुरी तरह से अपमानित हो उठी. मां के सामने तो और भी ज्यादा.

उमड़ते हुए आंसुओं को दबाते हुए वह किचन में चली गई और दूध साफ करने लगी, लेकिन सुमी की हर गलती व लापरवाही पर हमेशा बखेड़ा खड़ा करने वाली मां चुप रह गईं और उलटा वरुण पर ही बरस पड़ीं.

‘‘कैसे चिल्ला कर बात कर रहा है, वरुण. ऐसे कोई बोलता है पत्नी से. अरे, छोटे बच्चे के साथ इतने काम होते हैं कि लापरवाही हो ही जाती है. तुझे तो आजकल पता नहीं क्या हो गया है. न सीधे मुंह बात करता है न हंसताबोलता है, जब देखो, गुस्से में भरा बैठा रहता है. एक औरत के लिए दिन भर के घरगृहस्थी के कितने काम होते हैं आदमी क्या जाने…’’ मां बड़बड़ाती जा रही थीं और साथ ही सुमी की मदद भी करती जा रही थीं.

ये भी पढ़ें- शीतल फुहार: अमीर परिवार में क्या मिला दिव्या को प्यार

मां की तरफदारी से सुमी रो पड़ी. वह उस के आंसू पोंछती हुई बोलीं, ‘‘तू इस की परवा मत किया कर. इसे तो सचमुच कुछ हो गया है. दिन भर बीवी घरगृहस्थी में खटती रहती है पर यह नहीं होता कि हंस कर जरा दो बात कर ले, शाम को थोड़ी देर बीवीबच्चे को कहीं घुमा लाए.’’

यह सुन कर तो वरुण चकित रह गया. कुछ सोचता हुआ सा सीढि़यां उतरने लगा.

यही मां उन दोनों के घूमने जाने पर अकसर कोई न कोई ताना मार देती थीं और उन का मूड खराब हो जाता था, आज वही मां उसे बीवी को न घुमाने के लिए डांट रही थीं. उसे लगा उस का जीवन खुशियों के इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर हो गया.

सीढि़यों से उतरते हुए उस का ध्यान एक पुराने गीत ‘दुख भरे दिन बीते रहे भैया…’ के बजने की आवाज में खो कर रह गया जो किसी फ्लैट से आ रही थी.

कुछ पल का सुख: क्यों था ऋचा के मन में आक्रोश- भाग 1

मालती ने घड़ी देखी. सुबह के साढ़े 5 बजे थे. इतनी सर्दी में मन नहीं हुआ कि रजाई छोड़ कर उठे लेकिन फिर तुरंत ध्यान आया कि बगल के कमरे में बहू लेटी है, उस का हुक्म है कि जब ताजा पानी बहुत धीमा आ रहा हो तो उसी समय भर लेना चाहिए इसलिए मन और शरीर के साथ न देने पर भी वह उठ कर रसोई की ओर चल दी.

धीमी धार के नीचे बालटी लगा कर मालती खड़ी हो गई. पानी की धार के साथसाथ ही उस के विचारों की शृंखला भी दौड़ने लगी. वह सोचने लगी कि किस तरह उस की बहू ने बड़ी चालाकी और होशियारी से उस के घर और बेटे पर पूर्ण अधिकार कर लिया और उसे खबर भी न होने पाई.

राजीव उस की इकलौती संतान है. विवाह के 10 वर्ष बाद जब राजीव ने जन्म लिया तो मालती और उस के पति सुधीर की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा. दोनों अपने बेटे को देख कर खुशी से फूले न समाते थे. धीरेधीरे राजीव बड़ा होने लगा. जब वह स्कूल जाने लगा तो मालती के आंचल में मुंह छिपा कर कहता, ‘मां, मैं इतनी देर तक स्कूल में तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा, मुझे तुम्हारी याद आती है.’

उस की भोली बातें सुन कर मालती को हंसी आ जाती, ‘स्कूल में और भी तो बच्चे होते हैं, राजू, वे भी तो अपनी मम्मियों को छोड़ कर आते हैं.’

‘आते होंगे, उन की मम्मियां उन से प्यार ही नहीं करती होंगी.’

‘अच्छा, तो क्या दुनिया में आप की मम्मी ही आप से प्यार करती हैं और आप अपनी मम्मी को,’ कह कर मालती प्यार से राजीव को अपने आंचल में समा लेती.

फिर जब राजीव की नौकरी लगी तो उसे एक ही रट लगी रहती कि अब तू जल्दी से शादी कर ले. वह चाहती थी कि जल्द से जल्द घर में बहू आ कर उस के सूनेपन को भर दे लेकिन राजीव सदा ही इनकार कर देता. जब मालती के लाए सभी रिश्तों के लिए वह मना करता गया तो उसे कुछ शक हुआ. उस ने पूछा, ‘देख, अगर तू ने खुद ही कोई लड़की देख ली है तो बता दे, मैं बेकार ही बहू ढूंढ़ने की परेशानी उठाती फिर रही हूं.’

आखिर राजीव ने उसे अपने मन की बात बता दी कि वह लड़की उस के साथ ही आफिस में काम करती है.

‘कब से जानता है तू उसे?’

‘यही कोई 6-7 महीने से.’

‘दिखने में कैसी है?’

‘बहुत सुंदर है मां, और बहुत ही अच्छी,’ राजीव बोला, ‘तुम पापा से बात करो न.’

सुन कर मालती मुसकरा दी पर साथ ही हृदय में हौले से कहीं कुछ कचोट गया. जीवन में पहली बार उस के बेटे ने कोई बात उस से छिपाई थी पर क्षमा करने का अद्भुत गुण भी  था उस के भीतर. उस ने सुधीर से इस बारे में बात की तो वह भी इस रिश्ते के लिए तैयार हो गए. आखिर राजीव और ऋचा का विवाह संपन्न हो गया.

राजीव के विवाह के बाद मालती की प्रसन्नता का ठिकाना न था. ऋचा का स्वभाव भी ठीक था. मालती का जीवन बड़े ही शांतिपूर्ण ढंग से कट रहा था कि तभी सुधीर का हार्ट फेल होने से देहांत हो गया.

खुशियों की उम्र इतनी छोटी होगी उस ने सोचा भी न था. बेटे के प्रेम में वह कब पति को भूल गई थी इस का अनुभव उसे सुधीर से बिछड़ने के बाद हुआ. व्याकुल हो कर वह सुधीर की एकएक बात याद करती. उसे याद आता सुधीर हंस कर कहा करते थे, ‘हर समय बेटाबहू के आगेपीछे घूमती रहती हो, कभी दो घड़ी मेरे पास भी बैठ जाया करो. ऐसा न हो कि बाद में पछताती फिरो.’

मालती उन बीते हुए क्षणों को लौटा लेने के लिए विकल हो उठती मगर अब यह संभव नहीं था.

फिर ऋचा ने धीरेधीरे बड़ी चालाकी से उस से काम लेना शुरू किया, ‘मां, मैं नहाने जा रही हूं. आप जरा राजीव का टिफिन तैयार कर देंगी.’

सरल स्वभाव की मालती, ऋचा की बातों को समझ नहीं पाती. खुद ही कह देती, ‘तुम नहा लो, बहू, खाना मैं बना देती हूं.’

फिर उसे पता ही नहीं चला और रसोई की सारी जिम्मेदारी धीरेधीरे उस के ऊपर ही आ गई. सुबह नाश्ता बनाने से ले कर रात का खाना तक वही बनाती है. जब सुधीर थे तब परिस्थिति ऐसी कभी नहीं थी. काम तो वह तब भी करती थी पर कभी ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि वह किसी के अधीन है. पहले यहां जो कुछ था उस का अपना था. अब वह जो भी काम करती है उस में ऋचा जानबूझ कर मीनमेख निकाल कर उसे अपमानित करती रहती है.

जब से राजीव का प्रमोशन हुआ है तब से वह काम में अधिक व्यस्त रहने लगा है. मालती को बेटे से कोई शिकायत नहीं है. बस, है तो केवल यह दुख कि जो बेटा बचपन में उस से एक पल भी दूर नहीं रह पाता था, आज उसी के पास उस से बात तक करने का समय नहीं रह गया है. इस कमी को वह अपने 5 वर्षीय पोते रमन के साथ खेल कर पूरा कर लेती है लेकिन ऋचा को दादी का यह स्नेह भी अच्छा नहीं लगता.

जिस घर के बनने पर उस ने पति का हाथ थाम कर गृहस्वामिनी बन कर प्रवेश किया था आज उसी घर में उस की स्थिति एक नौकरानी जैसी हो गई है.

‘‘मां,’’ तभी ऋचा ने उसे आवाज दी और वह अतीत की यादों से वर्तमान में लौट आई. उस ने घबरा कर पानी भरना छोड़ चाय का पानी गैस पर रख दिया.

ऋचा का मायका उसी शहर में होने के कारण वह कभी अपने घर रहने नहीं जाती थी. यदि सुबह गई तो शाम तक वापस आ जाती थी. एक दिन उस की बूआ के बेटे की शादी का दिल्ली से निमंत्रणपत्र आया. ऋचा ने राजीव से कहा तो राजीव बोला, ‘‘मैं तो नहीं जा पाऊंगा, तुम रमन को ले कर चली जाओ.’’

‘‘ठीक है. फिर मेरा 2 दिन बाद का रिटर्न टिकट भी यहीं से करा देना.’’

अगले हफ्ते ऋचा, रमन को ले कर दिल्ली चली गई. ट्रेन में बिठा कर राजीव लौटा तो काफी रात हो गई थी. थका हुआ राजीव आ कर तुरंत सो गया.

मालती का प्रतिदिन का यह नियम है कि उसे सुबह ठीक साढ़े 5 बजे उठ कर पीने का पानी भरना होता था. अगले दिन सुबह उसी समय उस की आंख खुल गई लेकिन फिर उस ने आराम से रजाई में मुंह ढक लिया.

जड़ों से जुड़ा जीवन: भाग 2- क्यों दूर गई थी मिली

कहानी- वीना टहिल्यानी

आखिर फरीदा ने ही धीरज धरा. अपनी पकड़ को शिथिल किया. फिर आंचल से आंसू पोंछे. भरे गले से बच्ची को समझाया, ‘जा बेटी, जा…बीती को भूल जा…अब यही तेरे मातापिता हैं… बिलकुल सच्चे…बिलकुल सगे. तू तो बड़ी तकदीर वाली है बिटिया जो तुझे इतना अच्छा घर मिला, अच्छा परिवार मिला… यहां क्या रखा है? वहां अच्छा खाएगी, अच्छा पहनेगी, खूब पढ़ेगी और बड़ी हो कर अफसर बनेगी…मेरी बच्ची यश पाए, नाम कमाए, स्वस्थ रहे, सुखी रहे, सौ बरस जिए…जा बिटिया, जा…मुड़ कर न देख, अब निकल ही जा…’ कहतेकहते फरीदा ने उसे गोद से उतारा और मिली उर्फ मृणाल की उंगली मिसेज ब्राउन को पकड़ा दी.

नई मां की उंगली पकड़ कर मिली, मृणाल से मर्लिन बन गई. नया परिवार पा कर कितना कुछ पीछे छूट गया पर यादें हैं कि आज भी साथ चलती हैं. बातें हैं कि भूलती ही नहीं.

घर के लाल कालीन पर पैर रखते ही मिली को लाल फर्श वाले बाल आश्रम के लंबे गलियारे याद आ जाते जिन पर वह यों ही पड़ी रहती थी…बिना चादरचटाई के. उन गलियारों की स्निग्ध शीतलता आज भी उस के पोरपोर में रचीबसी है.

मिली को शुरुआत में लंदन बड़ा ही नीरव लगा था. सड़कों पर कोलकाता जैसी भीड़ नहीं थी और पेड़ भी वहां जो थे हरे भरे न थे. सबकुछ जैसे स्लेटी. मिली को कुछ भी अपना न दिखता. दिल हरदम देश और अपनों के छूटने के दर्द से भरा रहता. मन करता कि कुछ ऐसा हो जाए जो फिर वह वापस वहीं पहुंच जाए.

मौम उस का भरसक ध्यान रखतीं. खूब दुलार करतीं. डैड कुछ गंभीर से थे. कुछकुछ विरक्त और तटस्थ भी. उसे गोद लेने का मौम का ही मन रहा होगा, ऐसा अब अनुमान लगाती है मिली.

यहां सब से भला उस का भाई जौन है. उस से 8 साल बड़ा. खूब लंबा, ऊंचा, गोराचिट्टा. मिली ने उसे देखा तो देखती ही रह गई.

पहले परिचय पर घुटनों के बल बैठ कर जौन ने उस के छोटेछोटे हाथों को अपने दोनों हाथों में ले लिया फिर हौले से उसे अंक में भर लिया. कैसा स्नेह था उस स्पर्श में, कैसी ऊष्मा थी उस आलिंगन में, मानो पुरानी पहचान हो.

ये भी पढे़ं- Holi Special: मौन निमंत्रण- क्या अलग हो गए प्रशांत और प्राची

मिली के मन में आता कि वह उसे दादा कह कर बुलाए. अपने देश में तो बड़े भाई को दादा कह कर ही पुकारते हैं. पर यहां संभव न था. यहां और वहां में अनेक भेद गिनतेबुनते मिली हर पल हैरानपरेशान रहती.

अपनी अलग रंगत के कारण मिली स्कूल में भी अलग पहचानी जाती. सहज ही सब से घुलमिल न पाती. कैसी दूरियां थीं जो मिटाए न मिटतीं. सबकुछ सामान्य होते हुए भी कुछ भी सहज न था. मिली को लगता, चुपचाप कहीं निकल जाए या फिर कुछ ऐसा हो जाए कि वह वापस वहीं पहुंच जाए पर ऐसा कुछ भी न हुआ. मिली धीरेधीरे उसी माहौल में रमने लगी. मां के स्नेह के सहारे, भाई के दुलार के बल पर उस ने मन को कड़ा कर लिया. अच्छी बच्ची बन कर वह अपनी पढ़ाई में रम गई.

अंधेरा घिरने लगा था. गुडनाइट बोल कर मिसेज स्मिथ कब की जा चुकी थीं और मिली स्थिर सी अब भी वहीं डाइनिंग टेबल पर बैठी थी…अपनेआप में गुमसुम.

दरवाजे में चाबी का खटका सुन मिली अतीत की गलियों से निकल कर वर्तमान में आ गई…

एक हाथ में बैग, दूसरे में कापीकिताबों का पुलिंदा लिए ब्राउन मौम ने प्रवेश किया और सामने बेटी को देख मुसकराईं.

मिली के सामने खाली प्लेट पड़ी देख वह कुछ आश्वस्त सी हुईं.

‘‘ठीक से खाया… गुड, वैरी गुड…’’

इकतरफा एकालाप. फिर बेटी के सिर में हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘मर्लिन, मैं ऊपर अपने कमरे में जा रही हूं, बहुत थक गई हूं…नहा कर कुछ देर आराम करूंगी… फिर पेपर सैट करना है…डिनर मैं खुद ले लूंगी…मुझे डिस्टर्ब न करना. अपना काम खत्म कर सो जाना,’’ कहतेकहते मिसेज ब्राउन सीढि़यां चढ़ गईं और मिली का दिल बैठ गया.

‘काम…काम…काम…जब समय ही न था तो उसे अपनाया ही क्यों? साल पर साल बीत गए फिर भी यह सवाल बारबार सामने पड़ जाता. समाज सेवा करेंगी, सब की समस्याएं सुलझाती फिरेंगी पर अपनी बेटी के लिए समय ही नहीं है. यह सोच कर मिली चिढ़ गई.

जब से जौन यूनिवर्सिटी गया था मिली बिलकुल अकेली पड़ गई थी. सुविधासंपन्न परिवार में सभी सदस्यों की दुनिया अलग थी. सब अपनेआप में, अपने काम में व्यस्त और मगन थे.

पहले ऐसा न था. लाख व्यस्तताओं के बीच भी वीकएंड साथसाथ बिताए जाते. कभी पिकनिक तो कभी पार्टी, कभी फिल्म तो कभी थिएटर. यद्यपि मूड बनतेबिगड़ते रहते थे फिर भी वे हंसते- बोलते रहते. हंसीखुशी के ऐसे क्षणों में मौम अकसर ही कहती थीं, ‘मर्लिन थोड़ी और बड़ी हो जाए, फिर हम सब उस को इंडिया घुमाने ले जाएंगे.’

मिली सिहर उठती. उसे रोमांच हो आता. उस का मन बंध जाता. उसे मौम की बात पर पूरा यकीन था.

डैड भी तब मां को कितना प्यार करते थे. उन के लिए फूल लाते, उपहार लाते और उन्हें कैंडिल लाइट डिनर पर ले जाते. मौम खिलीखिली रहतीं लेकिन डैड के एक अफेयर ने सबकुछ खत्म कर दिया. घर में तनातनी शुरू हो गई. मौम और डैड आपस में लड़नेझगड़ने लगे. परिवार का प्रीतप्यार गड़बड़ा गया. उन्हीं दिनों जौन को यूनिवर्सिटी में प्रवेश मिल गया और भाई के दूर जाते ही अंतर्मुखी मिली और भी अकेली पड़ गई.

मौम और डैड के बीच का वादविवाद बढ़ता गया और एक दिन बात बिगड़ कर तलाक तक जा पहुंची. तभी डैड की गर्लफ्रेंड ने कहीं और विवाह कर लिया और मौमडैड का तलाक टल गया. उन्होंने आपस में समझौता कर लिया. बिगड़ती बात तो बन गई पर दिलों में दरार पढ़ गई. अब मौम और डैड 2 द्वीप थे जिन्हें जोड़ने वाले सभी सेतु टूट चुके थे.

उन के रिश्ते बिलकुल ही रिक्त हो चुके थे. मन को मनाने के लिए मौम ने सोशल सर्विस शुरू कर ली और डैड को पीने की लत लग गई. कहने को वे साथसाथ थे, पर घर घर न था.

ये भी पढ़ें- Holi Special: मीठी परी- सिम्मी और ऐनी में से किसे पवन ने अपनाया

मिली को अब इंतजार रहता तो बस, जौन के फोन का लेकिन जब उस का फोन आता तो वह कुछ बोल ही न पाती. भरे मन और रुंधे गले से बोलती उस की आंखें…बोलते उस के भाव.

जौन फोन पर झिड़कता, ‘‘मर्लिन… मुंह से कुछ बोल…फोन पर गरदन हिलाने से काम नहीं चलता,’ और मिली हंसती. जौन खिलखिलाता. बहुत सी बातें बताता. नए दोस्तों की, ऊंची पढ़ाई की. वह मिली को भी अच्छाअच्छा पढ़ने को प्रेरित करता. खुश रहने की नसीहतें देता. मिली उस की नसीहतों पर चल कर खूब पढ़ती.

मिसेज ब्राउन ने अपने को पूरी तरह से काम में झोंक कर अपनी सेहत को खूब नकारा था. अचानक वह बीमार पड़ीं और डाक्टर को दिखाया तो पता चला कि उन्हें कैंसर है और वह अंतिम स्टेज में है. मिली ने सुना तो सकते में आ गई. लेकिन मौम बहादुर बनी रहीं. जौन मिलने आया तो उसे भी समझाबुझा कर वापस भेज दिया. उस की पीएच.डी. पूरी होने वाली थी. मां के लिए उस की पढ़ाई का हर्ज हो यह मिसेज ब्राउन को मंजूर न था.

मां के समझाने पर मिली सामान्य बनी रहती और रोज स्कूल जाती. बीमार अवस्था में भी मौम अपना और अपने दोनों बच्चों का भी पूरा खयाल रखतीं. डैड अपनेआप में ही रमे रहते. पीते और देर रात गए घर लौटते थे.

आगे पढ़ें- मौम ने पास बैठी मिली का हाथ…

ये भी पढ़ें- Holi Special: समानांतर- क्या सही था मीता का फैसला

जड़ों से जुड़ा जीवन: भाग 1- क्यों दूर गई थी मिली

कहानी- वीना टहिल्यानी

मुख्य सड़क से घर की ओर मुड़ते ही मिली सहसा ठिठक गई. दूर से ही देखा कि पोर्च में डैड की गाड़ी खड़ी थी. ‘डैड इस समय घर में,’ यह सोच कर ही मिली का दिल बैठ गया. स्कूल से घर लौटने का सारा उत्साह जाता रहा. दिन के दूसरे पहर में, डैड का घर में होने का मतलब है वह बैठ कर पी रहे होंगे.

शराब पी लेने के बाद डैड और भी अजनबी हो जाते हैं. उन के मन के भाव उन की आंखों में उतर आते हैं. तब मिली को डैड से बहुत डर लगता है. सामने पड़ने में उलझन होती है.

मिली ने धीरे से दरवाजा खोला. दरवाजे की ओर डैड की पीठ थी. हाथ में गिलास थामे वह टेलीविजन देख रहे थे. दबेपांव मिली सीढि़यां चढ़ कर अपने कमरे में पहुंच गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. बैग को कमरे में एक ओर पटका और औंधेमुंह बिस्तर पर जा पड़ी. कितनी देर तक मिली यों ही लस्तपस्त पड़ी रही.

अचानक मिली को हलका सा शोर सुनाई दिया तो वह चौंक कर उठ बैठी. शायद आंख लग गई थी. नीचे वैक्यूम क्लीनर के चलने की धीमी आवाज आ रही थी.

‘अरे हां,’ मिली के मुंह से अपनेआप बोल फूट पड़े, ‘आज तो फ्राइडे है… साप्ताहिक सफाई का दिन.’ उस ने खिड़की से नीचे झांका तो पोर्च  में मिसेज स्मिथ की छोटी कार खड़ी थी. डैड की गाड़ी गायब थी, शायद वह कहीं निकल गए थे.

मिली ने झटपट ब्लेजर हैंगर में टांगा. जूते रैक पर लगाए और गरम पानी के  बाथटब में जा बैठी.

नहाधो कर मिली नीचे पहुंची तो मिसेज स्मिथ डिशवाशर और वाशिंग मशीन लगा कर साफसफाई में लगी थी.

शुक्रवार को मिसेज स्मिथ के आने से मिली डिशवाशिंग से बच जाती है वरना स्कूल से लौट कर लंच के बाद डिशवाशर लगाना, बरतन पोंछना व सुखाना उसी का काम है.

ये भी पढ़ें- Holi Special: वह राज बता न सकी

मिली को बड़े जोर से भूख लग आई तो उस ने फ्रिज खोल कर अपनी प्लेट सजाई और माइक्रोवेव में उसे लगा कर खिड़की के पास आ कर खड़ी हो गई. सुरमई सांझ बिलकुल बेआवाज थी.

ऐसी खामोशी में मिली का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा और गुजरा समय कितना कुछ आंखों के आगे तिर आया.

बरसों बीत गए. मिली तब यही कोई 5 साल की रही होगी. सब समझते हैं कि मिली सबकुछ भूल चुकी है पर मिली कुछ भी तो नहीं भूल पाई है.

वह देश, वह शहर और उस की गलियां व घर और इन सब के साथ फरीदा अम्मां की यादें जुड़ी हैं. और उस के ढेरों साथी, बालसखा, उस की यादों में आज भी बने हुए हैं.

तब वह मिली नहीं, मृणाल थी. उस के हुड़दंग करने पर फरीदा अम्मां उसे लंबेलंबे बालों से पकड़तीं और उस की पीठ पर धौल जड़ देतीं. बचपन की बातें सोचते ही मिली को पीठ पर दर्द का एहसास होने लगा और अनायास ही उस का हाथ अपने बौबकट बालों पर जा पड़ा. डाइनिंग टेबल पर मुंह में फिश-चिप्स का पहला टुकड़ा रखते ही मिली की जबान को माछेरझोल का स्वाद याद हो आया और याद आ गईं कोलकाता की छोटीछोटी शामें, बाल आश्रम के गलियारों में गुलगपाड़ा मचाते हमजोली, नाराज होती फरीदा अम्मां, नन्हेमुन्नों को पालने में झुलाती, सुलाती वेणु मौसी.

तब लंबेलंबे गलियारों व बरामदों वाला बाल आश्रम ही उस का घर था. पहली बार स्कूल गई तो घर और आश्रम में अंतर का भेद खुला. साथ ही उसे यह भी पता चला कि उस के मातापिता नहीं थे, वह अनाथ थी.

उस दिन स्कूल से लौट कर अबोध मिली ने पहला प्रश्न यही पूछा था, ‘फरीदा अम्मां, मेरी मां कहां हैं?’

फरीदा बरसों से अनाथाश्रम में काम कर रही थीं. एक नहीं अनेक बार वह इस सवाल का पहले भी सामना कर चुकी थीं. मिली के इस प्रश्न से वह एक बार फिर दुखी व बेचैन हो उठीं. उन के उस मौन पर मिली ने अपने सवाल को नए रूप में दोहराया, ‘फरीदा अम्मां, मेरा घर कहां है? मां मुझे यहां क्यों छोड़ गईं?’

नन्हे सुहेल को गोद में थपकी देते हुए फरीदा ने सहजता से उत्तर दिया, ‘रही होगी बेचारी की कोई मजबूरी…’

‘यह मजबूरी क्या होती है, अम्मां?’ उलझन में पड़ी मिली ने एक और प्रश्न किया.

मिली के एक के बाद एक प्रश्नों से फरीदा अम्मां झल्ला पड़ीं. तभी सुहेल जाग कर जोरजोर से रोने लगा था. सहम कर मृणाल ने अपना मुंह फरीदा की गोद में छिपा लिया और सुबकने लगी.

फरीदा ने पहले तो सुहेल को चुप कराया फिर मिली को बहलाया और उस के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, ‘रो मत, बिटिया…मैं जो हूं तेरी मां…चलोचलो, अब हम दोनों मिल कर तुम्हारी किताब का नया पाठ पढ़ेंगे…’

मृणाल को अब खेलतेखाते उठते- बैठते बस एक ही इंतजार रहता कि मां आएगी…उसे दुलार कर गोद में बिठाएगी. स्कूल तक छोड़ने भी चलेगी-सोहम की मां जैसे. विदुला की मम्मी तो उस का बस्ता भी उठा कर लाती हैं…उस की भी मां होतीं तो यही सब करतीं न…पर…पर…वह मुझे छोड़ कर गईं ही क्यों?

ये भी पढे़ं- Holi Special: अगर वह उसे माफ कर दे

फिर एक दिन लंदन से ब्र्र्राउन दंपती एक बच्चा गोद लेने आए और उन्हें मिली उर्फ मृणाल पसंद आ गई. सारी औपचारिकताएं पूरी होने पर काउंसलर उसे पास बैठा कर सबकुछ स्नेह से समझाती हैं:

‘मिली, तुम्हारे मौमडैड आए हैं. वह तुम्हें अपने साथ ले जाएंगे, खूब प्यार करेंगे. खेलने के लिए तुम्हें ढेरों खिलौने देंगे.’

मिली चौंक कर चुपचाप सबकुछ सुनती रही थी. फरीदा अम्मां भी यही सब दोहराती रहीं पर मिली खुश नहीं हो पाई. बाहर से देख कर लगता, मिली बहल गई है पर भीतर ही भीतर तो वह बहुत भयभीत है.

ऐसा पहले भी हो चुका है, कुछ लोग आ कर अपना मनपसंद बच्चा अपने साथ ले जाते हैं. अभी कुछ महीने पहले ही कुछ लोग नन्ही ईना को ले गए थे. ईना कितनी छोटी थी, बिलकुल जरा सी. वह हंसीखुशी उन की गोद में बैठ कर हाथ हिलाती चली गई थी पर मिली तो बड़ी है. सब समझती है कि उस का सबकुछ छूट रहा था. फरीदा अम्मां, घर, स्कूल संगीसाथी.

मृणाल का रोना फरीदा अम्मां सह नहीं पातीं. आतेजाते अम्मां उसे बांहों में भर कर गले से लगाती हैं, फिर जोर से खिलखिलाती हैं. मिली भी उन का भरपूर साथ देती है, आतेजाते उन की गोद में छिपती है, उन के आंचल से लिपटती है.

जाने का दिन भी आ गया. सारी काररवाई  पूरी हो गई. अब तो बस, नए देश, नए नगर जाना था.

चलने से पहले अंतिम बार फरीदा ने मृणाल को गोद में बैठा कर गले से लगाया तो मिली फुसफुसाते, गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘फरीदा अम्मां, जब मेरी असली वाली मां आएंगी तो तुम उन्हें मेरा पता जरूर दे देना…’ इतना कहतेकहते मिली का गला रुंध गया था.

मिली का इतना कहना था कि फरीदा अम्मां का सब्र का बांध टूट गया और दोनों मांबेटी एकदूसरे से लिपट कर रो पड़ी थीं.

आगे पढें- घर के लाल कालीन पर पैर…

ये भी पढे़ं- Holi Special: न्याय- क्या हुआ था रुकमा के साथ

फिर क्यों: भाग 2- क्या था दीपिका का फैसला

लेखक- राम महेंद्र राय 

जब सास उसे तरहतरह के ताने देने लगी तो दीपिका ने आखिर चुप्पी तोड़ दी. उस ने सभी के सामने सच्चाई बता दी. पर उस का सच किसी ने स्वीकार नहीं किया. सभी ने उस की कहानी मनगढ़ंत बताई.

आखिर अपने सिर बदचलनी का इलजाम ले कर दीपिका मातापिता के साथ मायके आ गई.

वह समझ नहीं पा रही थी कि अब क्या करे. भविष्य अंधकारमय लग रहा था. होने वाले बच्चे की चिंता उसे अधिक सता रही थी.

5 दिन बाद दीपिका जब कुछ सामान्य हुई तो मां ने उसे समझाते हुए गर्भपात करा कर दूसरी शादी करने की सलाह दी.

कुछ सोच कर दीपिका बोली, ‘‘मम्मी, गलती मैं ने की है तो बच्चे को सजा क्यों दूं. मैं ने फैसला कर लिया है कि मैं बच्चे को जन्म दूंगी. उस के बाद ही भविष्य की चिंता करूंगी.’’

दीपिका को ससुराल आए 20 दिन हो चुके थे तो अचानक तुषार आया. वह बोला, ‘‘मुझे विश्वास है कि तुम बदचलन नहीं हो. तुम्हारे पेट में मेरे भाई का ही अंश है.’’

‘‘जब तुम यह बात समझ रहे थे तो उस दिन अपना मुंह क्यों बंद कर लिया था, जब सभी मुझे बदचलन बता रहे थे?’’ दीपिका ने गुस्से में कहा.

‘‘उस दिन मैं तुम्हारे भविष्य को ले कर चिंतित हो गया था. फिर यह फैसला नहीं कर पाया था कि क्या करना चाहिए.’’ तुषार बोला.

दीपिका अपने गुस्से पर काबू करते हुए बोली, ‘‘अब क्या चाहते हो?’’

‘‘तुम से शादी कर के तुम्हारा भविष्य संवारना चाहता हूं. तुम्हारे होने वाले बच्चे को अपना नाम देना चाहता हूं. इस के लिए मैं ने मम्मीपापा को राजी कर लिया है.’’

औफिस और मोहल्ले में वह बुरी तरह बदनाम हो चुकी थी. सभी उसे दुष्चरित्र समझते थे. ऐसी स्थिति में आसानी से किसी दूसरी जगह उस की शादी होने वाली नहीं थी, इसलिए आत्ममंथन के बाद वह उस से शादी के लिए तैयार हो गई.

दीपिका बच्चे की डिलीवरी के बाद शादी करना चाहती थी, लेकिन तुषार ने कहा कि वह डिलीवरी से पहले शादी कर के बच्चे को अपना नाम देना चाहता है. ऐसा ही हुआ. डिलीवरी से पहले उन दोनों की शादी हो गई.

जिस घर से दीपिका बेइज्जत हो कर निकली थी, उसी घर में पूरे सम्मान से तुषार के कारण लौट आई थी. फलस्वरूप दीपिका ने तुषार को दिल में बसा कर प्यार से नहला दिया और पलकों पर बिठा लिया.

तुषार भी उस का पूरा खयाल रखता था. घर का कोई काम उसे नहीं करने देता था. काम के लिए उस ने नौकरी रख दी थी.

ये भी पढे़ं- Holi Special: वह राज बता न सकी

तुषार का भरपूर प्यार पा कर दीपिका इतनी गदगद थी कि उस के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

डिलीवरी का समय हुआ तो बातोंबातों में तुषार ने दीपिका से कहा, ‘‘तुम अपने बैंक की डिटेल्स दे दो. डिलीवरी के समय अगर मेरे एकाउंट में रुपए कम पड़ जाएंगे तो तुम्हारे एकाउंट से ले लूंगा.’’

दीपिका को उस की बात अच्छी लगी. बैंक की पासबुक, डेबिट कार्ड और ब्लैंक चैक्स पर दस्तखत कर के पूरी की पूरी चैकबुक उसे दे दी.

नौरमल डिलीवरी से बेटा हुआ तो उस का नाम गौरांग रखा गया. 6 महीने बाद तुषार ने हनीमून पर शिमला जाने का प्रोग्राम बनाया तो दीपिका ने मना नहीं किया.

वहां से लौट कर आई तो बहुत खुश थी. तुषार का अथाह प्यार पा कर वह विक्रम को भूल गई थी.

गौरांग एक साल का हो गया था. फिर भी दीपिका ने तुषार से डेबिट कार्ड और दस्तखत किए हुए चैक्स वापस नहीं लिए थे. इस की कभी जरूरत महसूस नहीं की थी. तुषार ने उस के अंधकारमय जीवन को रोशनी से नहला दिया था. ऐसे में भला वह उस पर अविश्वास कैसे कर सकती थी.

जरूरत तब पड़ी, जब एक दिन दीपिका के पिता को बिजनैस में कुछ नुकसान हुआ और उन्होंने उस से 3 लाख रुपए मांगे. तब दीपिका ने पिता का एकाउंट नंबर तुषार को देते हुए कहा, ‘‘तुषार, मेरे एकाउंट से पापा के एकाउंट में 3 लाख रुपए ट्रांसफर कर देना.’’

इतना सुनते ही तुषार ने दीपिका से कहा, ‘‘डार्लिंग, तुम्हारे एकाउंट में रुपए हैं कहां. मुश्किल से 2-4 सौ रुपए होंगे.’’

दीपिका को झटका लगा. क्योंकि उस के एकाउंट में तो 12 लाख रुपए से अधिक थे. आखिर वे पैसे गए कहां.

उस ने तुषार से पूछा, ‘‘मेरे एकाउंट में उस समय 12 लाख रुपए से अधिक थे. इस के अलावा हर महीने 40 हजार रुपए सैलरी के भी आ रहे थे. सारे के सारे पैसे कहां खर्च हो गए?’’

तुषार झुंझलाते हुए बोला, ‘‘कुछ तुम्हारी डिलीवरी में खर्च हुए, कुछ हनीमून पर खर्च हो गए. बाकी रुपए घर की जरूरतों पर खर्च हो गए. तुम्हारे पैसों से ही तो घर चल रहा है. मेरी सैलरी और पापा की पेंशन के पैसे तो शिखा की शादी के लिए जमा हो रहे हैं.’’

तुषार का जवाब सुन कर दीपिका खामोश हो गई. पर उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उस के साथ कहीं कुछ न कुछ गलत हो रहा है.

डिलीवरी के समय उसे छोटे से नर्सिंगहोम में दाखिल किया गया था. उस का बिल मात्र 30 हजार रुपए आया था. हनीमून पर भी अधिक खर्च नहीं हुआ था. जिस होटल में ठहरे थे, वह बिलकुल साधारण सा था. उन का खानापीना भी सामान्य हुआ था.

जो होना था, वह हो चुका था. उस पर बहस करती तो रिश्ते में खटास आ जाती. लिहाजा उस ने भविष्य में सावधान रहने की ठान ली.

तुषार से अपनी बैंक पास बुक, चैकबुक और डेबिट कार्ड ले कर उस ने कह दिया कि वह घर खर्च के लिए महीने में सिर्फ 10 हजार रुपए देगी. सैलरी के बाकी पैसे गौरांग के भविष्य के लिए जमा करेगी और शिखा की शादी में 2 लाख रुपए दे देगी.

दीपिका के निर्णय से तुषार को दुख हुआ, लेकिन वह उस समय कुछ बोला नहीं.

ये भी पढ़े़ं- Holi Special: अगर वह उसे माफ कर दे

अगले दिन ही दीपिका ने बैंक से ओवरड्राफ्ट के जरिए पैसे ले कर अपने पिता को दे दिए. पर उन्हें यह नहीं बताया कि तुषार ने उस के सारे रुपए खर्च कर दिए हैं.

कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा. उस के बाद अचानक तुषार ने उस से कहा, ‘‘मैं ने नौकरी छोड़ दी है.’’

‘‘क्यों?’’ दीपिका ने पूछा.

‘‘बिजनैस करना चाहता हूं. इस के लिए तैयारी कर ली है, पर तुम्हारी मदद के बिना नहीं कर सकता.’’

‘‘तुम्हारी मदद हर तरह से करूंगी. बताओ, मुझे क्या करना होगा?’’ दीपिका ने पूछा.

‘‘तुम्हें अपने नाम से 50 लाख रुपए का लोन बैंक से लेना है. उसी रुपए से बिजनैस करूंगा. मेरा कुछ इस तरह का बिजनैस होगा कि लोन 5 साल में चुकता हो जाएगा.’’

‘‘इतने रुपए का लोन मुझे नहीं मिलेगा. अभी नौकरी लगे 5 साल ही तो हुए हैं.’’

‘‘मैं ने पता कर लिया है. होम लोन मिल जाएगा.’’

‘‘होम लोन लोगे तो बिजनैस कैसे करोगे. इस लोन में फ्लैट या कोई मकान लेना ही होगा.’’ दीपिका ने बताया.

‘‘इस की चिंता तुम मत करो. मैं ने सारी व्यवस्था कर ली है. तुम्हें सिर्फ होम लोन के पेपर्स पर दस्तखत कर बैंक में जमा करने हैं.’’

‘‘मैं कुछ समझी नहीं, तुम करना क्या चाहते हो. ठीक से बताओ.’’

आगे पढ़ें- तुषार ने 4-5 दिनों में पेपर…

ये भी पढ़ें- Holi Special: न्याय- क्या हुआ था रुकमा के साथ

उम्र का फासला: भाग 3- क्या हुआ लक्षिता के साथ

दूसरी तरफ मां का हाल अलग ही बुरा था. वह बारबार अस्पताल जाने और पापा को देखने की जिद किए जा रही थी. विशाल अपनी सारी परेशानी लक्षिता को सुना कर हलका हो लिया करता था. लक्षिता भी कभी केवल सुन कर तो कभी सलाह दे कर उस का हौसला बढ़ाती रहती.

अगले 2 दिन विशाल का फोन नहीं आया. ‘व्यस्त होगा,’ सोच कर लक्षिता ने भी उसे डिस्टर्ब नहीं किया. आज रविवार की छुट्टी थी. लक्षिता को विशाल के आने की उम्मीद थी. जब से वह यहां शिफ्ट हुई है, एक छोड़ एक रविवार को विशाल आता है उस से मिलने.

शाम ढलने को थी, लेकिन विशाल नहीं आया. उस के इंतजार में लक्षिता ने लंच भी नहीं किया. सोचा साथ ही करेंगे, लेकिन अब तो वह शाम की चाय भी पी चुकी थी. मां ने जिद की तो चाय के साथ 2 बिस्कुट ले लिए.

‘‘आज विशाल नहीं आया?’’ मां ने पूछा.

लक्षिता सिर्फ ‘‘हम्म’’ कह कर रह गई.

‘‘क्यों?’’ मां ने फिर पूछा तो लक्षिता ने ससुरजी के कोरोना ग्रस्त और विशाल के परेशानी में होने की जानकारी दी. लक्षिता ने महसूस किया कि उस के हर वाक्य के साथ मां की आंखें आश्चर्य से फैलतीं और माथे की लकीरें तनाव से सिकुड़ती जा रही थीं.

‘‘अरे, विशाल तो छोटा है, लेकिन तु?ो भी अकल क्यों नहीं आई. कम से कम ऐसे समय तो सासससुर को बहू से सेवा की आशा रहती ही है. मैं तो कहती हूं कि तुझे कल ही वहां चले जाना चाहिए. तू ऐसा कर, अभी विशाल को फोन कर. उसे हिम्मत बंधा और अपना सामान पैक कर. और सुन, औफिस से कम से कम 15 दिन की छुट्टी ले कर जाना.’’

मां ने लक्षिता को दुनियादारी सिखाई.

लक्षिता को हालांकि मां का उम्र का हवाला देना अखरा, लेकिन उसे अपनी गलती भी महसूस हुई.

‘अकेला लड़का, बेचारा परेशान हो रहा है. न घरबाहर संभल रहा होगा… मुझ से भी तो आने को कह सकता था न,’’ सोचतेविचारते हुए उस ने विशाल को फोन किया.

ये भी पढ़ें- अस्तित्व: क्या प्रणव को हुआ गलती का एहसास

‘‘क्या बताता तुम्हें? पापा को संभालतेसंभालते मैं खुद संक्रमित हो गया. तुम्हें बताता तो तुम आने की जिद करती और तुम्हारे लिए मैं कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता. फिलहाल तो लक्षण गंभीर नहीं दिख रहे इसलिए घर पर ही क्वारंटीन हूं, लेकिन मु?ो बहुत डर लग रहा है. पता नहीं क्या होगा,’’ लक्षिता का फोन सुनते ही विशाल छोटे बच्चे की तरह बिलखने लगा.

इधर लक्षिता के पांवों तले से भी जमीन दरक गई. उसे पति पर दया भी आई और लाड़ भी. अगले दिन सुबह लक्षिता विशाल के घर अपनी सास के पास थी.

घर पहुंचते ही लक्षिता ने सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. साफसफाई से ले कर पौष्टिक खाने तक सभी काम वह अपनी निगरानी में ही करवाती. विशाल एक अलग कमरे में क्वारंटीन था. लक्षिता उस की हर जरूरत का खयाल रख रही थी. वह विशाल की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर अपनी नजर बनाए हुए थी. विशाल को अकेलापन न खले इस का भी उसे पूरा खयाल था. लगातार वीडियो कौल पर बातों के साथसाथ कुछ अच्छी पुस्तकों और कई ओटीटी प्लेटफौर्म उसे सब्सक्राइब करवा दिए ताकि उस का मन बहलता रहे.

लक्षिता की सास उस की हर गतिविधि का अवलोकन कर रही थी. हालांकि लक्षिता ऐसा कुछ भी विशेष नहीं कर रही थी जो कोई अन्य नहीं कर सकता, लेकिन उस ने महसूस किया कि लक्षिता के हर क्रियाकलाप में एक गंभीरता है, परिपक्वता है. वह कोई भी काम चाहे किसी डाक्टर से परामर्श लेना हो या कोई घरेलू उपाय, हड़बड़ी या घबराहट में नहीं करती बल्कि पूरी तरह से विचार कर, आगापीछा सोच कर करती है. इस दौरान उसे एक बार भी यह विचार नहीं आया कि यदि बहू विशाल की हमउम्र होती तो ऐसी परिस्थति में कैसे रिएक्ट करती. शायद मुसीबतों का भी व्यक्ति की उम्र से कुछ लेनादेना नहीं होता.

डाक्टर की दवाओं के साथसाथ लक्षिता एक वैद्य के संपर्क में भी थी.

ऐलोपैथी और आयुर्वेद के साथसाथ लक्षिता की मेहनत भी मिल गई थी. तीनों ने मिल कर उम्मीद से कहीं अधिक अच्छे परिणाम दिए. विशाल अब पहले से काफी बेहतर महसूस कर रहा था. सप्ताह भर बाद उस की कोरोना रिपोर्ट भी नैगेटिव आ गई और इधर विशाल के पापा को भी अस्पताल से छुट्टी मिल गई. वे भी लक्षिता की समझदारी की तारीफ करते नहीं थक रहे थे.

इन दिनों लक्षिता की सास के चेहरे पर संतुष्टि की चमक उत्तरोत्तर गहराने लगी थी. उस ने यह भी लक्ष्य किया कि लक्षिता के सलीके और सुघड़ता को देख कर उस की और विशाल की उम्र के अंतर को भांप पाना आसान नहीं लगता.

विशाल अब पूरी तरह से स्वस्थ था. पापा की रिकवरी भी बहुत अच्छी हो रही थी. 2 दिन बाद लक्षिता की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. लक्षिता ने घर में साफसफाई और खाने की व्यवस्था करवा दी. कपड़े धोने के लिए औटोमैटिक वाशिंग मशीन भी खरीद लाई. एकबारगी काम चलाने लायक जुगाड़ हो गया था. यह भी तय हुआ कि जब तक पापा पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते तब तक लक्षिता हर सप्ताह उन्हें देखने आएगी. यही सब बताने के लिए लक्षिता अपनी सास के कमरे की तरफ जा रही थी कि भीतर से आते संवाद में अपने नाम का जिक्र सुन कर दरवाजे पर ही ठिठक गई.

‘‘लक्षिता, सचमुच बहुत समझदार है. उस के व्यवहार ने मेरी उस धारणा को गलत साबित कर दिया कि अधिक उम्र की लड़की अपने पति को बच्चा समझ कर उस के साथ मां की तरह पेश आती है बल्कि अब तो मु?ो लग रहा है कि विशाल से तो लक्षिता जैसी समझदार पत्नी ही निभा सकती थी. कितना बचपना है विशाल में. एकदम अनाड़ी है दुनियादारी में.’’

ये भी पढ़ें- मिसेज अवस्थी इज प्रैग्नैंट: क्यों परेशान थी मम्मी

अपने बारे में सास के विचार जान कर लक्षिता चौंक गई.

‘‘यानी तुम इस बात को स्वीकार करती

हो कि विवाहित जोड़े में किसी एक की उम्र

दूसरे से इतनी ही अधिक होनी चाहिए. तुम्हारे हिसाब से उम्र का यह फासला जायज है?’’ यह ससुर की आश्चर्य भरी प्रतिक्रिया थी. लक्षिता

इस प्रतिक्रिया का जवाब सुनने के लिए उतावली हो उठी. उस ने अपने कान सास के जवाब पर टिका दिए.

‘‘हर जोड़े में ऐसा ही हो यह जरूरी नहीं. इस बात में भी दोराय नहीं कि उम्र का

अधिक फासला रिश्तों में पेचीदगी लाता है, लेकिन हां, इस बात को मैं खुले दिल से स्वीकार करती हूं कि प्रेम उम्र के फासले को पाट सकता है,’’ सास ने कहा तो लक्षिता के चेहरे की मुसकान और भी अधिक गहरी हो गई. वह सास के कमरे में जाने के बजाय रसोई की तरफ मुड़ गई. आज मन कुछ खास बनाने को हो आया.

‘‘लक्षिता, वैसे तो यह फैसला पतिपत्नी का होता है, लेकिन फिर भी मैं सलाह देना चाहूंगी कि तुम दोनों को अपना परिवार बढ़ाने में देर नहीं करनी चाहिए. उम्र बढ़ने पर कोई कौंप्लिकेसी आ सकती है,’’ सास ने रात को खाने की मेज पर सब के सामने कहा तो निवाला मुंह की तरफ बढ़ाते विशाल का हाथ रुक गया. वह कभी अपनी मां तो कभी लक्षिता की तरफ देखने लगा.

सब्जी परोसती लक्षिता के हाथ भी ठिठक गए. आज उसे सास का बड़ी उम्र का ताना देना भी बुरा नहीं लगा. रिश्ते को स्वीकृति देने के इस अनोखे अंदाज को समझते ही लक्षिता की आंखें शर्म से झक गईं.

‘‘मैं तो कहता हूं कि कोशिश कर के तुम अपना ट्रांसफर यहीं करवा लो, कम से कम परिवार एकसाथ तो रहेगा,’’ कहते हुए ससुरजी ने उस की तरफ देखा.

विशाल और लक्षिता एकदूसरे को चोर निगाहों से देखते हुए मंदमंद मुसकरा रहे थे.

ये भी पढ़ें- नीड़ का निर्माण फिर से: क्या मानसी को मिला छुटकारा

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें