पहेली: क्या ससुराल में शिखा को प्रताड़ित किया जाता था

मैं शनिवार की शाम औफिस से ही एक रात मायके में रुकने आ गई. सीमा दीदी भी 2 दिनों के लिए आई हुई थी. सोचा सब से जी भर कर बातें करूंगी पर मेरे पहुंचने के घंटे भर बाद ही रवि का फोन आ गया.

मैं बाथरूम में थी, इसलिए मम्मी ने उन से बातें करीं.

‘‘रवि ने फोन कर के बताया है कि तेरी सास को बुखार आ गया है,’’ कुछ देर बाद मुझे यह जानकारी देते हुए मां साफतौर पर नाराज नजर आ रही थीं.

मैं फौरन तमतमाती हुई बोली, ‘‘अभी मुझे यहां पहुंचे 1 घंटा भी नहीं हुआ है कि बुलावा आ गया. सासूमां को मेरी 1 दिन की आजादी बरदाश्त नहीं हुई और बुखार चढ़ा बैठीं.’’

‘‘क्या पता बुखार आया भी है या नहीं,’’ सीमा दीदी ने बुरा सा मुंह बनाते हुए अपने मन की बात कही.

‘‘मैं ने जब आज सुबह सासूमां से यहां 1 रात रुकने की इजाजत मांगी थी, तभी उन का मुंह फूल गया था. दीदी तुम्हारी मौज है, जो सासससुर के झंझटों से दूर अलग रह रही हो,’’ मेरा मूड पलपल खराब होता जा रहा था.

‘‘अगर तुझे इन झंझटों से बचना है, तो तू अपनी सास को अपनी जेठानी के पास भेजने की जिद पर अड़ जा,’’ सीमा दीदी ने वही सलाह दोहरा दी, जिसे वे मेरी शादी के महीने भर बाद से देती आ रही हैं.

‘‘मेरी तेजतर्रार जेठानी के पास न सासूमां जाने को राजी हैं और न बेटा भेजने को. तुम्हें तो पता ही है पिछले महीने सास को जेठानी के पास भेजने को मेरी जिद से खफा हो कर रवि ने मुझे तलाक देने की धमकी दे दी थी. अपनी मां के सामने उन की नजरों में मेरी कोई वैल्यू नहीं है, दीदी.’’

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‘‘तू रवि की तलाक देने की धमकियों से मत डर, क्योंकि हम सब को साफ दिखाई देता है कि रवि तुझ पर जान छिड़कता है.’’

‘‘सीमा ठीक कह रही है. तुझे रवि को किसी भी तरह से मनाना होगा. तेरी सास को दोनों बहुओं के पास बराबरबराबर रहना चाहिए,’’ मां ने दीदी की बात का समर्थन किया.

मैं ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘मां, फिलहाल मुझे वापस जाना होगा.’’

‘‘पागलों जैसी बात न कर,’’ मां भड़क उठीं, ‘‘तू जब इतने दिनों बाद सिर्फ 1 दिन को बाहर निकली है, तो यहां पूरा आराम कर के जा.’’

‘‘मां, मेरी जिंदगी में आराम करना कहां लिखा है? मुझे वापस जाना ही पड़ेगा,’’ कह अपना बैग उठा कर मैं ड्राइंगरूम की तरफ चल पड़ी.

‘‘शिखा, तू इतना डर क्यों रही है? देख, रवि ने तेरे फौरन वापस आने की बात एक बार भी मां से नहीं कही है,’’ दीदी ने मुझे रोकने को समझाने की कोशिश शुरू की.

‘‘दीदी, अगर मैं नहीं गई, तो इन का मूड बहुत खराब हो जाएगा. तुम तो जानती ही हो कि ये कितने गुस्से वाले इनसान हैं.’’

उन सब का समझाना बेकार गया और करीब घंटे भर बाद मुझे दीदी व जीजाजी कार से वापस छोड़ गए. अपनी नाराजगी दर्शाने के लिए दोनों अंदर नहीं आए.

मुझे अचानक घर आया देख रवि चौंकते हुए बोले, ‘‘अरे, तुम वापस क्यों आ गई हो?

मैं ने तुम्हें बुलाने के लिए थोड़े ही फोन किया था.’’

मेरे लौट आने से उन की आंखों में पैदा हुई खुशी की चमक को नजरअंदाज करते हुए मैं ने शिकायत की, मुझे 1 दिन भी आप ने चैन से अपने मम्मीपापा के घर नहीं रहने दिया. क्या 1 रात के लिए आप अपनी बीमार मां की देखभाल नहीं कर सकते थे?

‘‘सच कह रहा हूं कि मैं ने तुम्हारी मम्मी से तुम्हें वापस भेजने को नहीं कहा था.’’

‘‘वापस बुलाना नहीं था, तो फोन क्यों किया?’’

‘‘फोन तुम्हें सूचना देने के लिए किया था, स्वीटहार्ट.’’

‘‘क्या सूचना कल सुबह नहीं दी जा सकती थी?’’ मेरे सवाल का उन से कोई जवाब देते नहीं बना.

उन के आगे बोलने का इंतजार किए बिना मैं सासूमां के कमरे की तरफ चल दी.

सासूमां के कमरे में घुसते ही मैं ने तीखी आवाज में उन से एक ही सांस में कई सवाल पूछ डाले, ‘‘मम्मीजी, मौसमी बुखार से इतना डरने की क्या जरूरत है? क्या 1 रात के लिए आप अपने बेटे से सेवा नहीं करा सकती थीं? मुझे बुलाने को क्यों फोन कराया आप ने?’’

‘‘मैं ने एक बार भी रवि से नहीं कहा कि तुझे फोन कर के बुला ले. इस मामले में मेरे ऊपर चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं है, बहू,’’ सासूमां फौरन मुझ से भिड़ने को तैयार हो गईं.

‘‘इन के लिए तो मैं खाना साथ लाई हूं. आप ने क्या खाया है? मैं सुबह जो दाल बना कर…’’

‘‘मेरा मन कोई दालवाल खाने का नहीं कर रहा है,’’ उन्होंने नाराज लहजे में जवाब दिया.

‘‘तो बाजार से टिक्की या छोलेभठूरे मंगवा दूं?’’

‘‘बेकार की बातें कर के तू मेरा दिमाग मत खराब कर, बहू.’’

‘‘सच में मेरा दिमाग खराब है, जो आप की बीमारी की खबर मिलते ही यहां भागी चली आई. जिस इनसान के पास इतनी जोर से चिल्लाने और लड़ने की ऐनर्जी है, वह बीमार हो ही नहीं सकता है,’’ मैं ने उन के माथे पर हाथ रखा तो मन ही मन चौंक पड़ी, क्योंकि मुझे महसूस हुआ मानो गरम तवे पर हाथ रख दिया हो.

‘‘तू मुझे और ज्यादा तंग करने के लिए आई है क्या? देख, मेरे ऊपर किसी तरह का एहसान चढ़ाने की कोशिश मत कर.’’

उन की तरफ से पूरा ध्यान हटा कर मैं रवि से बोली, ‘‘आप खड़ेखड़े हमें ताड़ क्यों रहे हो? गीली पट्टी क्यों नहीं रखते हो मम्मीजी के माथे पर? इन्हें तेज बुखार है.’’

‘‘मैं अभी गीली पट्टी रखता हूं,’’ कह वे हड़बड़ाए से रसोई की तरफ चले गए.

‘‘मैं आप के लिए मूंग की दाल की खिचड़ी बनाने जा रही….’’

‘‘मैं कुछ नहीं खाऊंगी. मेरे लिए तुझे कष्ट करने की जरूरत नहीं है,’’ वे नाराज ही बनी रहीं.

मैं भी फौरन भड़क उठी, ‘‘आप को भी मुझे ज्यादा तंग करने की जरूरत नहीं है. पता नहीं मैं क्यों आप के इतने नखरे उठाती हूं? बड़े भाईसाहब के पास जा कर रहने में पता नहीं आप को क्या परेशानी होती है?’’

‘‘तू एक बार फिर कान खोल कर सुन ले कि यह मेरा घर है और मैं हमेशा यहीं रहूंगी. तुझ से मेरे काम न होते हों, तो मत किया कर.’’

‘‘बेकार की चखचख से मेरा समय बरबाद करने के बजाय यह बताओ कि क्या चाय पीएंगी?’’ मैं ने अपने माथे पर यों हाथ मारा मानो बहुत तंग हो गई हूं.

‘‘तू मेरे साथ ढंग से क्यों नहीं बोलती है, बहू?’’ यह सवाल उन्होंने कुछ धीमी आवाज में पूछा.

‘‘अब मैं ने क्या गलत कहा है?’’

‘‘तू चाय पीने को पूछ रही है या लट्ठ मार रही है?’’

‘‘आप को तो मुझ से जिंदगी भर शिकायत बनी रहेगी,’’ मैं अपनी हंसी नहीं रोक पा रही थी, इसलिए तुरंत रसोई की तरफ चल दी.

मैं रसोई में आ कर दिल खोल कर मुसकराई और फिर खिचड़ी व चाय बनाने में लगी.

कुछ देर बाद पीछे से आ कर रवि ने मुझे अपनी बांहों में भर लिया और भावुक हो कर बोले, ‘‘मां का तेज बुखार देख कर मैं घबरा गया था. अच्छा हुआ जो तुम फौरन चली आईं. वैसे वैरी सौरी कि तुम 1 रात भी मायके में नहीं रह पाई.’’

‘‘तुम ने कब मेरी खुशियां की चिंता की है, जो आज सौरी बोल रहे हो?’’ मैं ने उचक कर उन के होंठों को चूम लिया.

‘‘तुम जबान की कड़ी हो पर दिल की बहुत अच्छी हो.’’

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‘‘मैं सब समझ रही हूं. अपनी बीमार मां की सेवा कराने के लिए मेरी झूठी तारीफ करने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘नहीं, तुम सचमुच दिल की बहुत अच्छी हो.’’

‘‘सच?’’

‘‘बिलकुल सच.’’

‘‘तो कमरे में मेरे लौटने से पहले सो मत जाना. अपने प्रोग्राम को गड़बड़ कराने की कीमत तो पक्का मैं आज रात को ही वसूल करूंगी,’’ मैं ने उन से लिपट कर फटाफट कई सारे चुंबन उन के गाल पर अंकित कर दिए.

‘‘आजकल तुम्हें समझना मेरे बस की तो बात नहीं है,’’ उन्होंने कस कर मुझे अपनी बांहों में भींच लिया.

‘‘तो समझने की कोशिश करते ही क्यों हो? जाओ, जा कर अपनी मम्मी के पास बैठो,’’ कह मैं ने हंसते हुए उन्हें किचन से बाहर धकेल दिया.

वे ठीक कह रहे हैं. महीने भर से अपने व्यवहार में आए बदलाव के कारण मैं अपनी सास और इन के लिए अनबूझ पहेली बन गई हूं.

अपनी सास के साथ वैसे अभी भी मैं बोलती तो पहले जैसा ही तीखा हूं पर अब मेरे काम हमेशा आपसी रिश्ते को मजबूती देने व दिलों को जोड़ने वाले होते हैं. तभी मैं बिना बुलाए अपनी बीमार सास की सेवा करने लौट आई.

कमाल की बात तो यह है कि मुझ में आए बदलाव के कारण मेरी सासूमां भी बहुत बदल गई हैं. अब वे अपने सुखदुख मेरे साथ सहजता से बांटती हैं. पहले हमारे बीच नकली व सतही शांति कायम रहती थी पर अब आपस में खूब झगड़ने के बावजूद हम एकदूसरे के साथ खुश व संतुष्ट नजर आती हैं.

सब से अच्छी बात यह हुई है कि अब हमारे झगड़ों व शिकायतों के कारण रवि टैंशन में नहीं रहते हैं और उन का ब्लडप्रैशर सामान्य रहने लगा है. सच तो यही है कि इन की खुशियों व विवाहित जीवन की सुखशांति बनाए रखने के लिए ही मैं ने खुद को बदला है.

‘‘मम्मी और मेरे बीच हो रहे झगड़े में कभी अपनी टांग अड़ाई, तो आप की खैर नहीं,’’ महीने भर पहले दी गई मेरी इस चेतावनी के बाद वे मंदमंद मुसकराते हुए हमें झगड़ते देखते रहते हैं.

‘‘जोरू के गुलाम, कभी तो अपनी मां की तरफ से बोला कर,’’ मम्मीजी जब कभी इन्हें उकसाने को ऐसे डायलौग बोलती हैं, तो ये ठहाका मार कर हंस पड़ते हैं.

सासससुर से दूर रह रही अपनी सीमा दीदी की मौजमस्ती से भरी जिंदगी की तुलना अपनी जिम्मेदारियों भरी जिंदगी से कर के मेरे मन में इस वक्त गलत तरह की भावनाएं कुलबुला रही हैं. सासूमां के ठीक हो जाने के बाद पहला मौका मिलते ही किसी छोटीबड़ी बात पर उन से उलझ कर मैं अपने मन की सारी खीज व तनाव बाहर निकाल फेंकूंगी.

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पिकनिक: सुप्रिया को क्यों अमित की रईसी में अहंकार की बू आती थी

लेखक- राजेंद्र कुमार पाण्डेय

सुप्रिया ने कंप्यूटर औन कर के इंटरनैट से कनैक्ट किया. अभी सुबह के 4 बजने में 1 मिनट शेष था. शीघ्र ही कंप्यूटर स्क्रीन पर बीकौम का परिणाम उस की आंखों के समक्ष उभर आया. मैरिट लिस्ट देखते ही वह सब से पहले उसे गौर से पढ़ने लगी, लेकिन आशा के विपरीत मैरिट लिस्ट में चौथे स्थान पर अपना रोल नंबर देखते ही वह प्रसन्नता से झूम उठी.

एक ही सांस में वह पूरी लिस्ट पढ़ती चली गई, लेकिन यह क्या? दुनिया का 8वां आश्चर्य, अमित, जिसे वह अकसर ‘बुद्धू’ व ‘नालायक’ कह कर पुकारती रही, का नाम भी मैरिट लिस्ट में 11वें स्थान पर नजर आया तो सहसा उसे विश्वास ही नहीं हुआ. उसे यह उम्मीद तो थी कि शायद उस का प्रेमी जो उस की प्रेरणा के कारण दिनरात पढ़ाई में जुटा रहता है, जीवन में पहली बार प्रथम श्रेणी अवश्य प्राप्त कर लेगा, परंतु वह एकदम सोच से परे छलांग लगा कर मैरिट लिस्ट में अपना नाम लिखवा लेगा, यह उसे एकदम स्वप्न सा प्रतीत हो रहा था.

सुप्रिया ने उसी समय अमित को फोन लगाया. उधर से ‘हैलो डार्लिंग’ का मधुर स्वर सुनते ही वह खुशी से बोल उठी, ‘‘क्यों बुद्धूराम, तुम मैरिट लिस्ट में आ गए हो, लेकिन कैसे?’’

‘‘मुझे मालूम है, मैं भी परीक्षा परिणाम ही देख रहा हूं.’’

‘‘सचसच बताओ, यह चमत्कार कैसे हुआ?’’

‘‘जानेमन, तुम्हारी जिद थी कि अगर इस परीक्षा में मैं ने प्रथम श्रेणी प्राप्त नहीं की तो तुम न तो मेरी गुस्ताखी को कभी माफ करोगी और न ही भविष्य में मेरे संग प्रेमपथ पर अपने कदम आगे बढ़ाओगी. बस, तभी से मैं ने भी तुम्हारी तरह जिद पकड़ ली कि प्रथम श्रेणी तो ले कर ही रहूंगा. यही समझ लो कि तुम्हारी इच्छा और मेरी जिद ने यह करिश्मा कर दिखाया. अच्छा, अब सो जाओ और मुझे भी सोने दो. बहुत गहरी नींद आ रही है,’’ कहते हुए अमित ने फोन काट दिया.

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सुप्रिया की सारी सोच इस समय अमित के इर्दगिर्द ही चक्कर काट रही थी. उस की आंखों से नींद मानो कोसों दूर थी. उस के कमरे, मनमस्तिष्क और स्मृतियों में अमित का हंसमुख, खूबसूरत चेहरा बारबार नजर आ रहा था. बीते वर्ष की यादें उस के भीतर उथलपुथल मचाए हुए थीं.

कालेज के प्रथम वर्ष में तो सबकुछ सामान्य ही रहा. हालांकि धनी परिवार के अमित की इश्कमिजाजी और स्वच्छंद प्रवृत्ति के कई किस्से सुप्रिया के सुनने में आए थे, परंतु उस ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया था, लेकिन दूसरे वर्ष में उस ने महसूस किया कि कक्षा की अन्य 12-13 छात्राओं में से अमित सिर्फ उसी में विशेष दिलचस्पी ले रहा है.

कई बार उस ने साधारण बातचीत से हट कर इशारोंइशारों में सुप्रिया के समक्ष बाजारू शैली में उस की खूबसूरती की प्रशंसा की और अपनी चाहत का इजहार भी किया, परंतु उन दिनों न जाने क्यों अमित की खूबसूरती, उस की गाड़ी और रईसी अंदाज में सुप्रिया को हमेशा अहंकार की बू आती थी. उस की हलकीफुलकी चुहलबाजी कभीकभार सुप्रिया को आत्मविभोर तो कर देती, परंतु फिर भी वह उसे घटिया स्तर का युवक ही समझती थी.

इस दौरान अमित ने इसी कालेज में पढ़ रही अपनी मौसेरी बहन प्रतिभा के माध्यम से अपना प्रेम संदेश भी सुप्रिया तक पहुंचाया, परंतु उस ने नकारात्मक उत्तर ही दिया.

सुप्रिया के उत्तर से अमित के दिल को शायद चोट पहुंची. अपने मस्तमौला स्वभाव के चलते वह ईर्ष्यावश बदला लेने के लिए उसे चिढ़ाने और तंग करने लगा. कभीकभी समीप से गुजरते हुए वह सुप्रिया को ‘छमिया’ व ‘नखरे वाली’ कह कर संबोधित करता, परंतु वह उस की इन घटिया हरकतों को अनसुना व अनदेखा करती रही.

कालेज के तृतीय वर्ष के आरंभ में ही पूरी कक्षा ने शहर से 20-25 किलोमीटर दूर पुराने किले के समीप नदी किनारे पिकनिक मनाने का कार्यक्रम बनाया. प्रोफैसर आशीष भी परिवार सहित इस पिकनिक पार्टी में शामिल होने के लिए तैयार हो गए.

रविवार प्रात: 10 बजे सभी छात्रछात्राएं बस में सवार हो कर लगभग पौने घंटे में किले के समीप पहुंचे. सभी अपनेअपने टिफिन साथ लाए थे क्योंकि इस वीरान स्थान पर नजदीक कोई होटल या ढाबा नहीं था.

प्रोफैसर आशीष के आदेशानुसार किले के भीतर एक चबूतरे पर 2 दरियां बिछा दी गई थीं और सभी उन पर बैठ गए थे. थोड़ी देर की गपशप के बाद गीत प्रतियोगिता आरंभ हुई. पहले प्रोफैसर आशीष ने गायक मुकेश का एक पुराना गीत सुनाया. गीत समाप्त होने पर उन्होंने अपनी पत्नी को संकेत किया तो उन्होंने एक भोजपुरी लोकगीत गा कर खूब प्रशंसा बटोरी. इस के बाद 5-6 अन्य छात्रछात्राओं ने भी नएपुराने फिल्मी गीत गाए. फिर भाषण प्रतियोगिता आरंभ हुई, जिस में सिर्फ 3 छात्रों ने ही भाग लिया. थोड़ी देर बाद ही प्रोफैसर ने सब को किला देखने व नदी किनारे घूमने की आज्ञा दे दी.

किले के दाईं ओर नदी के किनारेकिनारे घने वृक्षों का सिलसिला आरंभ हो गया था. सुप्रिया अपनी 3 सहेलियों के साथ नदी किनारे टहलने चल पड़ी जबकि परिवार सहित प्रोफैसर आशीष और अन्य सभी छात्रछात्राएं किले के भीतर ही घूमने का आनंद लेने लगे.

‘‘ऐ छमिया, हमें भी साथ ले लो. नदी किनारे घूमने का मजा दोगुना हो जाएगा,’’ पुरुष स्वर सुन कर सुप्रिया और उस की सखियों ने मुड़ कर पीछे देखा तो उन्हें अमित के संग 2 अन्य सहपाठी भी नजर आए. वे चारों सखियां कुछ सोचतींसमझतीं, इस से पहले ही अमित ने आगे बढ़ कर सुप्रिया की दाईं कलाई कस कर पकड़ ली, ‘‘क्यों छमिया, बहुत नखरे दिखाती हो. हमारे रहते कालेज के किसी दूसरे छोकरे से इश्क लड़ा रही हो?’’

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‘‘बकवास बंद करो,’’ कहते हुए सुप्रिया ने अपनी कलाई छुड़ाने का प्रयास किया, परंतु अमित की पकड़ काफी मजबूत थी, अत: वह क्षणभर बेबस सी उसे घूरती ही रही. उसी समय उस ने देखा कि भयभीत सी उस की तीनों सखियां तेजी से किले की ओर जा रही हैं. उन में से एक ऊंची आवाज में चिल्लाई, ‘‘सुप्रिया, इस बदमाश ने शायद शराब पी रखी है. हम अभी जा कर प्रोफैसर सर को बताते हैं. डरो मत, अभी इस लफंगे की अच्छीखासी पिटाई हो जाएगी.’’

उसी क्षण सुप्रिया ने देखा कि अमित के संग आए अन्य दोनों छात्र भी पीछे मुड़ कर तेजी से किले की ओर चले जा रहे हैं, तभी उस ने आव देखा न ताव, अमित के हाथ पर जोर से दांतों से काटा तो इस आकस्मिक आक्रमण से उस ने चीखते हुए फौरन सुप्रिया की कलाई छोड़ दी.

सुप्रिया को बस इन्हीं क्षणों की प्रतीक्षा थी. अमित उस के सामने किले की तरफ पीठ किए खड़ा था, अत: वह तेजी से नदी के किनारेकिनारे भागने लगी.

अमित पहले तो किंकर्तव्यविमूढ़ सा सुप्रिया को भागते हुए देखता रहा, फिर न जाने क्या सोच कर वह भी उस के पीछे भागने लगा. अब सुप्रिया ने महसूस किया कि उस ने इस तरफ भाग कर भयंकर भूल की है, क्योंकि आगे ऊंचे, घने पेड़ों की शृंखला आरंभ हो गई थी. जंगल के खौफनाक खतरे ने उसे और भी भयभीत कर दिया था.

कुछ दूर भागने पर सुप्रिया जब पेड़ों के झुरमुट के पीछे जा खड़ी हुई तो उसे सामने थोड़ी दूरी पर एक जगह धुआं उठता दिखाई दिया और साथ ही 2-3 झोंपडि़यां भी दिखाई दीं. पेड़ों के झुरमुट के पीछे छिपी होने के कारण सुप्रिया जब अमित को नजर न आई तो उस ने ठिठक कर स्थिति को समझने का प्रयास किया, लेकिन शीघ्र ही उसे जब सुप्रिया का हवा में लहराता दुपट्टा नजर आया तो वह दोगुने जोश से उसी ओर दौड़ पड़ा. उस के भागते कदमों की आवाज सुनते ही सुप्रिया भी तेजी से सामने नजर आ रही झोंपडि़यों की दिशा में भागने लगी.

भागते कदमों की आहट सुनते ही एक झोंपड़ी से एक वृद्ध और एक युवक बाहर निकले. जब उन्होंने एक युवती और उस का पीछा कर रहे युवक को तेजी से दौड़ते देखा तो हैरानी से दोनों उन की ओर देखने लगे. उन्हें देखते ही सुप्रिया चिल्लाई, ‘‘बचाओ, बचाओ, यह गुंडा मेरा पीछा कर रहा है,’’ और शीघ्र ही वह उन दोनों के समक्ष जा पहुंची.

तभी वृद्ध सारी स्थिति को भांपते हुए जोर से चिल्लाया, ‘‘शेरू… शेरू… पकड़ उस बदमाश को.’’

वृद्ध का संकेत मिलते ही झाडि़यों के पीछे से काले रंग का एक कुत्ता भौंभौं करता हुआ तेजी से जीभ लपलपाता हुआ अमित की ओर भागा. इस से पहले कि वह संभल पाता, कुत्ते ने उछल कर उस पर झपट्टा मारा और उस की दाईं टांग पर अपने पैने दांत गड़ा दिए. दर्द से कराहता अमित जोर से चिल्लाया, ‘‘हाय…मार डाला… इस कुत्ते को दूर भगाओ. सुप्रिया, इन से कहो, कुत्ते को वापस बुला लें,’’ कहते हुए वह स्वयं को कुत्ते से बचाने का प्रयास भी कर रहा था.

अमित की दर्दभरी आवाज सुनते ही सुप्रिया का नाजुक दिल पिघल गया. वह वृद्ध से बोली, ‘‘बाबा, कुत्ते को अपने पास बुला लो. उस का नशा शायद अब उतर गया है. ऐसा लगता है, कुत्ते ने उसे जोर से काटा है.’’

‘‘शेरू…शेरू… इधर आओ,’’ वृद्ध के पुकारते ही भौंभौं करता, उछलताकूदता कुत्ता उस के पास आ खड़ा हुआ.

वृद्ध के समीप खड़ा युवक तेजी से आगे बढ़ कर अमित के पास पहुंचा और उस की दाईं टांग देखते ही बोला, ‘‘जींस पहनी होने के कारण मामूली जख्म ही हुआ है. क्यों हीरो, लड़की के पीछे भागते हुए बड़ी जवांमर्दी दिखा रहे थे. जरा हमारे शेरू से भिड़ते तो तुम्हें ऐसा मजा चखाता कि उम्रभर याद रखते.’’

‘‘बाबा, बहुतबहुत धन्यवाद,’’ सुप्रिया वृद्ध के पांव छूने को झुकी तो उस ने मुसकराते हुए संकेत से ऐसा करने से रोका.

उधर शोरशराबा सुन कर अन्य झोंपडि़यों में से भी अन्य पुरुष, महिलाएं और बच्चे बाहर निकल कर हैरानी से उन की ओर देखने लगे.

‘‘हाय, बहुत पीड़ा हो रही है,’’ तभी अमित की दर्दनाक आवाज सुन कर सब का ध्यान उस की ओर गया.

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वृद्ध शीघ्र ही एक झोंपड़ी में गया और एक मैला सा थैला निकाल कर ले आया. उस में रखी एक बोतल में से कोई दवा निकाल कर पहले तो उस ने अमित के जख्म पर एक लेप लगाया और फिर पुराने कपड़े को झाड़ कर पट्टी बांध दी. तभी झोंपडि़यों की ओर कुछ लोगों के तेजतेज कदमों की आवाजें सुनाई दीं. उसी समय कोई जोर से चिल्लाया, ‘‘सुप्रिया…सुप्रिया… तुम कहां हो?’’

‘‘अमित के बच्चे, सुप्रिया का पीछा करना छोड़ दे. जल्दी से उसे ले कर हमारे पास लौट आ,’’ तभी किसी दूसरे व्यक्ति की आवाज सुनाई दी.

शीघ्र ही प्रोफैसर आशीष के साथ 8-10 छात्र झोंपडि़यों के समीप आ पहुंचे. वे सभी भयभीत सुप्रिया, घायल अमित और तेजी से पूंछ हिलाते शेरू को देखते ही सारा माजरा समझ गए. प्रोफैसर ने क्रोधभरी नजरों से अमित की ओर देखा, ‘‘उठो, अब आंखें फाड़फाड़ कर हमारी ओर क्या देख रहे हो? सुमित, राजेश, तुम दोनों इसे सहारा दे कर किले की तरफ ले चलो. आओ सुप्रिया, तुम्हारे साथ जो हुआ, उस का हमें बहुत खेद है… और बाबा,’’ उन्होंने वृद्ध की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आप ने इस बच्ची की इज्जत बचाई, इस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद. वैसे आप लोग कौन हैं और इस जंगल में क्या करने आए हैं?’’

‘‘हम गायभैंसों को पालते हैं और उन का दूध पास के कसबे में बेचने के लिए ले जाते हैं. यही व्यवसाय हमारे जीने का सहारा है.’’

‘‘अच्छा बाबा. बहुतबहुत शुक्रिया,’’ सुप्रिया ने जातेजाते कृतज्ञ नजरों से वृद्ध की ओर देखा.

अमित का सिर लज्जा और ग्लानि से झुका हुआ था. वह सुमित और राजेश के सहारे ‘हाय…हाय…’ करता, लंगड़ाता हुआ धीरेधीरे किले की ओर बढ़ रहा था. आधे घंटे में सभी किले के बाहर खड़ी बस के समीप जा पहुंचे. वहां मौजूद छात्रछात्राओं में खलबली मची हुई थी.

सभी अमित और सुप्रिया के बारे में पूरी कहानी सुनने को उत्सुक थे, परंतु बस में सवार होते ही प्रोफैसर ने सब को यह कह कर शांत कर दिया कि सारी बात पहले प्रिंसिपल साहब के समक्ष रखी जाएगी.

शहर पहुंचते ही अमित और सुप्रिया के अभिभावकों को इस घटना के बारे में सूचित कर दिया जाएगा. इन दोनों से उन के समक्ष ही पूरी पूछताछ की जाएगी. तब तक आप सभी शांत रहें, बात का बतंगड़ न बनाएं, इस से हमारे कालेज की बदनामी होगी.

कालेज के समीप ही हिमालय नर्सिंग होम के समक्ष बस रोक दी गई. कुछ छात्र अमित के साथ वहीं उतर गए. प्रोफैसर आशीष ने अमित से मोबाइल नंबर पूछ कर उस के पापा को पूरी घटना से अवगत कराया.

दूसरे दिन अमित की तबीयत काफी संभल गई थी. इलाज के बाद वह स्वयं को काफी स्वस्थ महसूस कर रहा था. सुबह 8 बजे प्रोफैसर आशीष, कालेज के प्रिंसिपल दामोदरनाथ, अमित के पापा निकलराज और सुप्रिया के पापा देवेंद्र सिंह नर्सिंग होम के प्राइवेट कक्ष में अमित के समक्ष खामोश बैठे थे. सभी को दुर्घटना की पूरी जानकारी मिल चुकी थी. सुप्रिया एक कोने में चुपचाप बैठी थी. प्रिंसिपल ने उस की ओर देखते हुए हौले से पूछा, ‘‘बेटी, तुम इस दुर्घटना के बारे में कुछ कहना चाहती हो?’’

सभी की नजरें सुप्रिया के चेहरे पर जा टिकी थीं. उस ने एक नजर पीड़ा और अपमान से लज्जित अमित पर डाली, ‘‘क्यों श्रीमान, आप अपने बचाव में कुछ कहना चाहेंगे?’’

अमित को सुप्रिया की तरफ से ऐसी नम्रता और हमदर्दी की आशा नहीं थी, अत: वह धीमे स्वर में बोला, ‘‘लोग समझ रहे हैं कि मैं ने शराब पी रखी थी, लेकिन मैं ने बस बीयर पी थी.’’

‘‘उल्लू की दुम, बीयर भी तो हलकी शराब ही होती है,’’ अमित के पापा ने गुस्से से उस की ओर देखा.

‘‘मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूं. इस बारे में कोई सफाई भी नहीं देना चाहता. मैं हाथ जोड़ कर आप सब से यही विनती करता हूं कि मेरी इस भूल को आप सब और विशेष कर सुप्रियाजी क्षमा कर दें.’’

‘‘अगर भविष्य में फिर कभी ऐसी ओछी हरकत दोहराई तो?’’ सुप्रिया ने कृत्रिम रोषभरी नजरों से अमित की ओर देखा.

‘‘मेरी तोबा. मैं अपनी उस घटिया हरकत पर बहुत शर्मिंदा हूं.’’

‘‘ठीक है, इस बार इसे माफ कर दिया जाए. क्यों, आप भी शायद ऐसा ही सोच रहे हैं?’’ सुप्रिया ने अपने पापा की ओर देखा.

‘‘बेटी, युवावस्था में अकसर ऐसी नादानियां हो ही जाती हैं. मैं प्रिंसिपल साहब से भी यही प्रार्थना करता हूं कि इस प्रकरण को यहीं समाप्त कर दिया जाए. वैसे अमित से पहले इस के पापा भी मुझ से क्षमा मांग चुके हैं. बेटी, अब तुम भी इस नालायक को माफ कर दो. इस नादान से थोड़ी सहानुभूति जताओ. तुम्हारा बदला तो उस कुत्ते ने जख्म दे कर इस से पहले ही ले लिया है.’’

सुप्रिया के पापा की बात सुनते ही कमरे में हंसी की लहर दौड़ गई.

तभी सुप्रिया ने अमित की ओर देखा, ‘‘तुम दोस्तों के संग जितना समय आवारागर्दी में बरबाद करते हो, उसे अपनी पढ़ाई में क्यों नहीं लगाते? आज तक तुम ने कभी प्रथम श्रेणी प्राप्त की है?’’

‘‘नहीं,’’ अमित ने शर्म से सिर झुका लिया.

‘‘तुम अगर यह ठान लो कि इस वर्ष बीकौम की फाइनल परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त करोगे तो मैं तुम्हें इसी समय क्षमा कर दूंगी.’’

‘‘मैं पूरापूरा प्रयास करूंगा. तुम्हारी इच्छा और अपने भविष्य के साथ कभी खिलवाड़ नहीं करूंगा,’’ अमित का स्वर सुनते ही सुप्रिया मुसकराई, ‘‘जाओ, अब घर जा कर आराम करो और फिर पढ़ाई में जुट जाओ. मैं तुम्हें क्षमा करती हूं.’’

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कुछ दिन तक इस प्रकरण की कालेज में काफी चर्चा होती रही, परंतु वक्त के साथसाथ सभी इसे भूलते चले गए. अमित की सोच व व्यवहार में काफी परिवर्तन आ गया था. सुप्रिया से क्षमा मांगते समय किए गए वादे के अनुसार उसे हर हालत में प्रथम श्रेणी प्राप्त करनी ही थी, अत: अब वह हमेशा पढ़ाई में व्यस्त रहता. अमित में आए परिवर्तन से सुप्रिया के मन में भी उस के प्रति भरी कड़वाहट धीरेधीरे समाप्त होती चली गई. जानेअनजाने पिकनिक और उस दिन जंगल में घटी घटना को याद कर के जहां वह पहले भयभीत हो जाती थी, अब रोमांचित होने लगी थी. उधर अमित भी उसे दिल से चाहने लगा था.

लगभग 2 माह बाद अमित की मौसेरी बहन प्रतिभा के माध्यम से उस के घर पर होने वाली मुलाकात में अमित और सुप्रिया के बीच साधारण बातचीत ही हुई. लेकिन अगली 2-3 मुलाकातों में दोनों ने अपनीअपनी चाहत को खुले मन से एकदूसरे के समक्ष प्रकट कर दिया, लेकिन अमित के बारबार अनुरोध करने पर भी सुप्रिया ने उसे अपने बदन को स्पर्श नहीं करने दिया.

मैरिट लिस्ट में अमित का नाम देख कर सुप्रिया का मन नाच उठा था. अगले दिन जब प्रतिभा के घर पर दोनों की फिर से मुलाकात हुई तो अमित ने खुशी से झूमते हुए सुप्रिया को बांहों में लेना चाहा लेकिन उस ने कृत्रिम क्रोध से आंखें तरेरीं, ‘‘इतना उतावलापन ठीक नहीं, इश्क करने को पूरी उम्र पड़ी है.’’

‘‘जानेमन, कुछ तो इस गरीब पर तरस खाओ. इस खुशी की वेला में जरा तो मेरे करीब आओ,’’ अमित बोला.

‘‘बुद्धूराम, इस शानदार सफलता की बहुतबहुत बधाई, लेकिन याद रखो, न तो यह पिकनिक स्थल है और न ही नदी किनारे का जंगल. यह तुम्हारी मौसी का सुरक्षित घर है. ज्यादा शरारत की तो दोनों कान खींच लूंगी,’’ कहतेकहते सुप्रिया ने आगे बढ़ कर अमित का माथा चूम लिया और फिर स्वयं ही उस की बांहों में समाती चली गई.

वॉचपार्टी: शोभा और विनय की जिंदगी में कैसा तूफान मचा गई एक पार्टी

अपने पति विनय के जाने के बाद शोभा बार बार कभी समय देखती,कभी हिसाब लगाती कि कौनसा काम करेगी तो समय अच्छी तरह बीत  जायेगा,आज लाइफ में पहली बार वह रात को अकेली घर में रहने वाली थी,कभी ससुराल के लोग,फिर बच्चे,रिनी और मयंक!कभी अकेले रहने की नौबत ही नहीं आयी थी,विनय के टूरिंग जॉब का पूरा टाइम ऐसे ही निकल गया था,पता ही नहीं चला कि कब कितने टूर हो जाते,अकेलापन कभी लगा ही नहीं था,पर अब बच्चों के विदेश में  बसने के बाद यह पहला टूर था,इतने दिन से लॉक डाउन में वर्क फ्रॉम होम कर रहे थे तो पूरा दिन ही व्यस्त बीतता रहा.

पर अब दिल्ली में अचानक एक मीटिंग में विनय को जाना ही पड़ा,उसे काफी समझा बुझा कर विनय तीन दिनों के लिए दिल्ली चले गए तो शोभा ने दिन में कई काम निपटा लिए,कभी अलमारी साफ़ करती,कभी कोई बुक उठा लेती,फिर डिनर भी जल्दी करके सोसाइटी में टहल भी आयी,आजकल किसी से मिलने जुलने का टाइम तो रहा ही नहीं था,मास्क लगाए ज्यादा देर तक यूँ ही टहलते रहने में उसे उलझन होने  लगती तो जल्दी ही घर भी लौट आती. विनय और बच्चे व्हाट्सएप्प पर टच में थे,रोजाना की तरह उसने ग्यारह बजे सोने से पहले गुड नाईट का मैसेज फॅमिली ग्रुप पर लिखा,सबका रिप्लाई भी आ गया,अकेले फिर डर सा लगा तो उसने ड्राइंग रूम की लाइट जलती छोड़ दी और बैडरूम में जाकर सोने के लिए लेट गयी.पचास वर्षीया शोभा कोमल स्वभाव की पति और बच्चों के साथ खुश रहने वाली शांत,अंतर्मुखी महिला थी,दोनों बच्चों को विदेश में जॉब मिल गया था,विनय एक प्राइवेट कंपनी में उच्च पद पर काम करते थे,वैसे तो विनय और शोभा लखनऊ के थे पर अब बीस  साल से मुंबई में रह रहे थे. बीस साल पहले उनका ट्रांसफर लखनऊ से  मुंबई हुआ था.

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शोभा कुछ देर अपनी सोचों में खोयी रही फिर उसकी आँख लगी ही थी कि डोरबेल की आवाज से वह बुरी तरह डर कर उठी,जाकर की होल से झांका,नींद भरी आँखें हैरत के जोरदार   झटके से खुल गयीं,समीर खड़ा था ,उसने पल भर में ही दरवाजा खोल दिया,अपने पुराने अंदाज में समीर ने पूछा‘’मैंने किसी को डिस्टर्ब तो नहीं किया ?”

”अब भी ड्रामा करना नहीं छोड़ा तुमने?”शोभा खिलखिला उठी,कहा,”आओ. ”

”हाँ,आ ही गया हूँ,”कहते हुए समीर ने अपना बैग एक तरफ रखा और कहा,”शोभा,पहले मेरे हाथ सेनिटाइज़ करवा दो,यार,फ्लाइट कैंसिल हो गयी,होटल्स बंद हैं,तुम्हारा घर तो याद था,पर फोन नंबर भूल चूका हूँ,इसलिए बिना बताये इस टाइम पहुँच गया,इतना भरोसा था कि तुम लोग मुझे पहचान तो लोगे.‘’

शोभा ने उसके हाथ सेनिटाइज़ करवाते हुए कहा,”बकवास मत करो,अच्छा हुआ तुम्हारी फ्लाइट  कैंसिल हुई,मतलब यहाँ से चोरी चोरी निकल जाते हो न,अच्छा हुआ तुम्हारे साथ,मुझे जल्दी दरवाजा  खोलना ही नहीं चाहिए था,जो दोस्त भूल जाएँ,उन्हें पहचानना ही नहीं चाहिए था मुझे. ”

”अरे,वाह,आज भी तुम गुस्सा तो बड़े प्यार से ही दिखाती हो. ”

दोनों खुल कर हंस दिए,दोनों ने एक दूसरे को इतने सालों बाद भी मेंटेंड रहने पर कॉम्प्लिमेंट्स दिए,समीर ने कहा,यार कहाँ है मेरा,इतने घोड़े बेच कर सो रहा है क्या कि उसकी पत्नी रात में घर में किसी से बातें कर रही है और उसे पता ही नहीं चल रहा ?”

”आज ही दिल्ली गए हैं.तीन दिनों के लिए,एक जरुरी मीटिंग थी. ”

”ओह्ह,नो,मतलब उससे नहीं मिल पाउँगा?”

”रुक जाना,मिलकर चले जाना. ”

”नहीं,नहीं,रुक नहीं सकता,कल ही निकलना है.

”तुम फ्रेश  हो लो,क्या पीओगे?खाना खाओगे?”

”हाँ,कुछ है?”

”सब्जी रखी  है,रोटी बना दूँ?”

”हाँ,दो रोटी,और एक कप चाय,मैं फ्रेश होकर आया. ”

समीर वाशरूम में चला गया,शोभा किचन में आ गयी,सुबह की ही दाल सब्जी रखी थी,गर्म करके रोटी बनायीं और चाय चढ़ा दी,मन अतीत में लखनऊ पहुँच गया,बीस साल पहले चारों  का,समीर और उसकी पत्नी,मधु और दो बच्चे और शोभा का परिवार ! बहुत बढ़िया ग्रुप था,एक ही कॉलोनी में दस साल साथ रहे,बहुत मस्ती करते,साथ साथ घूमते,लाइफ को मिलकर एन्जॉय करते. बच्चों को भी आपस में अच्छा साथ मिलता. फिर विनय का ट्रांसफर मुंबई हो गया,एक बार समीर सपरिवार आया,फिर धीरे धीरे मिलना जुलना कम  होता गया,समीर भी फिर ऑस्ट्रेलिया चला गया तो संपर्क कम होता गया. समीर फ्रेश होकर आया,थोड़ी दाल और आलू गोभी के साथ रोटी खाना शुरू किया तो बोल उठा,तुम्हारे हाथ में तो आज भी स्वाद है. ”

”तुम आज भी खूब झूठ बोल लेते हो,”शोभा ने छेड़ा और फिर कहा,”ये तुम लोग गायब क्यों हो गए ?”

”हम कहाँ गायब हुए,आजकल तो सोशल मीडिया है एक दूसरे से जुड़े रहने के लिए पर पता चला तुम सोशल मीडिया पर कहीं भी नहीं हो,ऐसी भी क्या सबसे दूरी !”

”हाँ,समीर,मुझे तो बस किताबों का ही साथ भाता है,और कहीं हाथ मारने की जरूरत ही नहीं होती,मेरी किताबों की दुनिया ही मुझे ख़ुशी देती है,बस जब खाली होती हूँ,किताबे उठा लेती हूँ,टाइम का फिर पता ही नहीं लगता और सुनाओ,हेल्थ कैसी रहती है,मधु कैसी है,बच्चे कहाँ हैं ?”

”बैंगलोर शिफ्ट होने की तैयारी है,यहाँ एक प्रोजेक्ट पर काम करने आ रहा हूँ,बच्चे वहीँ सेट होना चाहते हैं,पर मधु अब इंडिया आना चाहती है,उसके पेरेंट्स अकेले  बैंगलोर में हैं,वह उनके आसपास रहना चाहती है,जब तक प्रोजेक्ट है,बंगलौर रहना ही है,फिर देखते हैं,हेल्थ तो टाइम के साथ कभी ऊपर नीचे रहती ही है पर हाँ,तुम आज भी उतनी ही फिट लग रही हो जैसे पहले लगती थी,”कहते हुए समीर ने शोभा को शरारती नजरों से देखा तो वह मुस्कुरा दी ,समीर ने कहा,पर शोभा,तुम थोड़ा बहुत तो दोस्तों से जुड़ने के लिए फेसबुक पर रह सकती हो न,हम कितने पुराने दोस्तों से फेसबुक से ही जुड़ते चले गए,फिर व्हाट्सएप्प ग्रुप बन गया,अब तो ज़ूम पर भी दोस्तों की महफिलें जमने लगी हैं,तुम कौनसी दुनिया में रहती हो,भाई. ”

शोभा ने कुछ कहा नहीं,समीर का खाना ख़तम हो चुका था,शोभा प्लेट्स उठा कर ले गयी और चाय भी ले आयी,समीर ने पूछा,”तुम नहीं पियोगी?”

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”नहीं,इस टाइम पी लूंगी तो नींद नहीं आएगी. ”

”अच्छा,तुम आज भी सो जाओगी ?”

”हाँ,रात को ज्यादा अब जागा  ही नहीं जाता,तुम भी आराम कर लो. ”

”कर लूँगा,पर मुझे सुबह जल्दी निकलना है,ये विनय की मीटिंग दिल्ली में ही है ?”

”हाँ. ”

”विनय के हालचाल तो मुझे मिलते रहते हैं,हम सोशल मीडिया पर भी कभी कभी टकरा जाते हैं,हाय हेलो हो जाती है,बस,वह भी काफी बिजी रहता है पर तुमने तो सबसे बिना बात के संन्यास ले रखा है,बस मैं और मेरा पति टाइप कैसी हो गयी तुम ?”

शोभा हंस दी ,”पर तुम लोगों की कमी मुझे हमेशा खली,यहाँ मुंबई में तुम्हारे जैसे दोस्त कभी नहीं मिले,तुम लोगों को हमेशा याद किया मैंने. विनय काफी बिजी होते गए,टूर पर जाते रहते हैं  इस बार बहुत दिन बाद गए,तुम्हे याद है हमने कितनी मस्तियाँ की हैं,हम कितना घूमे फिरे,सच,बहुत अच्छे दिन बीते तुम लोगों के साथ. और बाकी दोस्त कैसे हैं,किसके टच में हो ?”

”आओ,तुम्हे दिखाता हूँ,”कहते कहते ही समीर ने अपने बैग से अपना लैपटॉप निकाल लिया,फेसबुक खोला,और अपने कॉमन फ्रेंड्स की फोटो दिखा दिखा कर सबके बारे में बताता रहा,शोभा को सबके बारे में जान कर अच्छा लगने लगा,अब रात के दो बज रहे थे,अचानक समीर बुरी तरह चौंका,एक जगह क्लिक करता हुआ बोला,”अरे,ये गीता की  आज वॉच पार्टी चल रही है,देखो,शोभा,इसकी पार्टी लाइव देख सकते हैं,गीता याद है न तुम्हे ?”

शोभा ने धीरे से बस हूँ ही कहा,समीर ने कहा,”हाँ,भाई,तुम  कैसे भूल सकती हो अपने पति की इस दोस्त को जिसे देख कर ही तुम्हारा पारा हाई हो जाता था,सुना है,इसने अपने पति से तलाक ले लिया था,दोनों की बनी नहीं. ”

”मुझे ये कभी पसंद आयी ही नहीं,समीर !”

”हाँ,जानता हूँ,विनय पर खूब डोरे डालती थी यह,किसी भी पार्टी में इसे देख कर तुम्हारा मूड ही खराब हो जाता थाऔर मैं और मधु तुम्हे फिर कितना चिढ़ाते थे !’

”हाँ,यह तो अच्छा है कि पति शरीफ था मेरा वरना हमारे झगडे तुम दोनों को ही सुलझाने पड़ते,”शोभा ने हँसते हुए कहा ,फिर आगे बोली ,”हम भी किसकी बात लेकर बैठ गए,अब तो हमारे बच्चों की पार्टियों के दिन हैं. ”

”अजी हाँ,ये देखो,आओ,देखते हैं मैडम की पार्टी में कौन कौन है. ”

शोभा भी थोड़ा और झुक कर लैपटॉप में देखने लगी,अचानक दोनों को एक करंट सा लगा,समीर के मुँह से निकला,ये विनय ही है क्या?”

शोभा कुछ बोली नहीं,उसने  अपनी नजरें लैपटॉप पर जमा दीं,”ये कैसे हो सकता है ?”वॉचपार्टी में साफ़ साफ़ दिख रहा था कि विनय और गीता एक दूसरे के काफी करीब हैं,म्यूजिक के साथ दोनों के पैर थिरक रहे थे,हाथों में हाथ थे ,शोभा जैसे पत्थर की हो गयी थी,उसके मुँह से इतना ही निकला,पार्टी में जाने को भी मैं बुरा नहीं कहूँगी पर दोनों की बॉडी लैंग्वेज कैसे इग्नोर करूँ?समीर,कहते कहते शोभा का गला रुंध गया,फिर बोली,मुझे तो पता भी नहीं कि विनय उसके टच में हैं !”

”शोभा,आई एम वैरी सॉरी,मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी,बेकार में लैपटॉप खोल कर बैठ गया !बहुत शर्मिंदा हूँ,शोभा ,बड़ी भूल हुई मुझसे !”

”नहीं,समीर,तुम इससे अच्छा कुछ मेरे लिए कर ही नहीं सकते थे कि मेरी आँखें खोल जाओ,विनय ने आज तक मुझे यह नहीं बताया कि ये दिल्ली जाने पर कभी किसी से मिलते हैं,मैं इतना ही जानती हूँकि काम  फिर होटलऔर बस फिर यहाँ घर,पर नहीं,इसके अलावा भी विनय की लाइफ में बहुत कुछ  है,मुझे जानना ही चाहिए था. ”

शोभा ने उठते हुए कहा ,समीर,तुम भी अब आराम कर लो,आओ,बच्चों का रूम दिखा देती हूँ,”कहकर शोभा  उठी तो समीर भी गंभीर सा उसके पीछे पीछे उठ गया. शोभा अपने रूम में आ कर तकिये पर गिरते ही फफक पड़ी,उसे उसके कजिन रवि ने एक बार दिल्ली से फोन कर कहा था कि  उसने विनय को एक होटल में किसी लेडी के साथ देखा है,हुलिया गीता से ही मिलता जुलता बताया था,पर शोभा ने उसे यही कहा था कि ऑफिस की कोई कलीग होगी,उसने कभी किसी को अपने मन का यह दुःख नहीं बताया कि  वह कई बार विनय की आशिकमिजाजी से तंग हो जाती है,सब मन में ही रखती रही,उसने इसीलिए किसीदोस्त से कभी सम्बन्ध रखे ही नहीं,सबसे कटी जीती रही ,आज उसने अपनी आँखों से दोनों को जिस तरह पास देखा था,वह कोई बच्ची नहीं थी कि न समझे,ये सिला मिला है उसे एक अच्छी पत्नी बनकर रहने का,सारे कर्तव्य पूरे करने का,विनय के साथ हर सुख दुःख में कदम से कदम मिला कर चलने का कि विनय आज भी उससे बहुत कुछ छुपा जाते हैं,उसने न कभी विनय से कोई झगड़ा किया है ,न कोई शिकवा,फिर आज उसने यह सब क्या देखा,उसकी आँखों से आंसू बह निकले,इतने आंसूकि उसकी हिचकियाँ बंध गयीं,वह पेट के बल उल्टा लेटी थी,अचानक उसे अपनी गर्दन पर किसी का गर्म  स्पर्श महसूस हुआ ,आँख खोली,लेटे लेटे ही गर्दन घुमाई,समीर उसके पास बैठा था,वह उठने लगी तो समीर ने उसकी पीठ थप थपा दी,कहा,”लेटी रहो,शोभा ,दुखी मत हो,ऐसा भी हो सकता है कि ऐसा कुछ न हो जो हमें लगा है. ”

करवट लेकर शोभा ने कहा,”समीर,मुझे मेरे भाई ने,और भी कई लोगों ने इस तरह की बातें बताई हैं पर मैंने उन पर कभी विश्वास नहीं किया पर अब बहुत हो गया ,”शोभा सिसकने लगी.पर्दे के पीछे से  खिड़की से आती मंद मंद रौशनी में आंसुओं से भरा शोभा का चेहरा देख समीर अपनी सुध बुध अचानक खोने लगा,उसने खुद को संभालने की कोशिश की पर शोभा से इस समय की नजदीकी उसे कहीं और ले जाने लगी,अपनी और शोभा की दोस्ती,विश्वास,उम्र सब की चिंता रखी रह गयी और उसने शोभा के होंठ चूम लिए,शोभा जैसे किसी और ही मानसिक यंत्रणा में जी रही थी,समीर का स्पर्श उसे अपना सा भला सा ही लगा,फिर भी उसने उठने की कोशिश की तो समीर उसके ऊपर धीरे धीरे जैसे जैसे झुकता गया,सब कुछ पल भर ही लगा बदलने में,और फिर अचानक सचमुच बहुत कुछ बदल गया,शोभा का विद्रोही ,घायल मन अचानक समीर का साथ देने लगा,उसके कानों में समीर नेसॉरी तो बार बार  कहा पर इस समय पति की बेवफाई से क्षुब्ध मन इन अनुचित  ही सही पर  कुछ पलों के अपनेपन की धारा में बहने लगा,शोभा ने अपने आप को रोकने की तमाम कोशिशें भी की पर कुछ हठ होता है ऐसे अनचाहे पलों का जिनसे इंसान चाह कर भी जीत नहीं सकता.

जो कभी दोनों ने सोचा भी नहीं था,वह हो गया था,थोड़ी देर बाद समीर फिर उसे एक बार चूम कर रूम से निकल गया,शोभा की कब आँख लगी,उसे पता ही नहीं चला,सुबह वह देर से उठी,आँख खुली तो रात की पूरी बात याद कर एक झटके से उठ बैठी,वह बहुत देर सोई रही थी,उसने टाइम देखा,नौ बज रहे थे,इतना लेट तो वह कभी नहीं उठती,वह फौरन समीर के रूम में गयी,समीर जा चुका था,उसने अपना फोन चेक किया,फॅमिली के ग्रुप पर कई मैसेज थे,फिर समीर के मैसेज थे,लिखा था,जो भी हो गया,शोभा,सॉरी,पर अब तुम हमेशा मेरे टच में रहना,हम आगे भी अच्छे दोस्त बन कर रह सकते हैं,मेरी कोई भी जरुरत हो,मुझे कहना,तुम्हे उठाया नहीं,तुम्हे आराम की जरुरत थी,मेरी फ्लाइट टाइम पर है,बात जरूर करते रहना,विनय से क्या बात करनी है,अच्छी तरह सोच लेना.‘’

फ्रेश होकर शोभा ने चाय बनायीं,ग्रुप पर बस गुड मॉर्निंग का मैसेज डाल कर इतना ही लिख दिया कि  ठीक हूँ,आज लेट सोकर उठी,”

विनय का फौरन मैसेज आया,”अरे,वाह,मेरे बिना इतनी बढ़िया नींद आयी तुम्हे. ”

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शोभा ने और कोई जवाब नहीं दिया,वह समीर के बारे में सोचने लगी,क्या हो गया था उसे रात,क्यों नहीं रोका समीर को,यह क्या कर बैठी,समीर क्या सोचता होगा !अब आगे क्या करना चाहिए,क्या विनय से बात करे?नहीं,वह बेशर्मी पर उतर आया तो ?अभी तो बच्चे अपना एक आदर्श परिवार मानते हैं,उनका यह भ्रम तोड़ देन !क्या चुप रहे ?वैसे ही जैसे  हजारों महिलाएं चुप रह जाती हैं ! क्या करे ? और जो समीर के साथ हुआ,उसका गिल्ट रखे मन में ?नहीं,दिल नहीं कर रहा इसे  अपराधबोधमानने केलिए! हाँ,जी ली वह भी कुछ पल किसी के साथ !ठीक नहीं भी है तो भी जी ली !किसी से कुछ नहीं कहेगी,न विनय से ,न बच्चों से !पर क्या यह बात ऐसे ही जाने दे कि विनय उससे झूठ बोलते रहे हैं ! हाँ, फिलहाल कुछ नहीं कहेगी,अभी उसने भी समीर के साथ एक रात बितायी है,शायद अभी वह कुछ नहीं कह पाएगी,उसे भी अभिनय करना होगा विनय की तरह कि वह उनसे कुछ नहीं छुपाती. उसने चाय की घूँट ली ,चाय ठंडी हो चुकी थी,वह चाय गर्म करने किचन की तरफ बढ़ी तो अब मन काफी हल्का हो चुका था. अचानक उसे ख्याल आया कि एक वॉच पार्टी सबकी लाइफ में ऐसा  तूफ़ान मचा कर गयी है कि कोई भी किसी से कुछ कह नहीं पायेगा.पहली बार ही वॉचपार्टी देखी थी और वह भी ऐसी जो भुलाये न भूलेगी.

कल आज और कल: आखिर उस रात आशी की मां ने ऐसा क्या देखा

Serial Story: कल आज और कल (भाग-2)

मैं ने मम्मी की ओर देखते हुए कहा, ‘‘क्या बुराई है इस में यदि कोई दंपती बच्चा पैदा करने में असक्षम हो और इस में दूसरे की मदद ले?’’ मम्मी ने भी मुझे करारा जवाब देते हुए कहा, ‘‘पर उस बच्चे की रगों में खून तो उस मां का ही दौड़ रहा है न जो कोख किराए पर देती है?’’

मैं समझ गई थी कि मम्मी से इस वक्त बहस करना ठीक नहीं. सो मैं ने कहा, ‘‘हां मम्मी, आप बात तो ठीक ही कह रही हैं.’’

वे धीरेधीरे बुदबुदाने लगीं, ‘‘हर इनसान अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी सकता है… न कोई समाज न ही कोई संस्कार… आने वाली पीढ़ी तो और भी न जाने क्या करेगी? अगर मातापिता ही ऐसे हैं तो…’’

मैं जानती थी कि मम्मी से इस विषय पर और बात करना उचित नहीं. लेकिन मेरे बच्चों को उन की बात बड़ी ही दकियानूसी लगतीं.

मेरी बेटी अकसर कहती, ‘‘मौम, दादी ऐसी बात क्यों करती हैं. यदि सब लोग अपने हिसाब से रहते हैं तो इस में क्या बुराई है?’’

मैं कहती, ‘‘बुराई तो कुछ नहीं पर मम्मी अभी यहां नईनई आई हैं न इसलिए उन्हें यह सब अजीब लगता है.’’

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ऐसा चलते कब 3 साल बीत गए पता ही न चला. मम्मी भी आशी दीदी से मिलने मुंबई जाना चाहती थीं. बच्चों की भी छुट्टियां थीं तो मैं ने बच्चों के भी टिकट ले लिए. हां, पापा नहीं जाना चाहते थे. उन के दोस्तों का यहां कुछ प्रोग्राम था.

आशी दीदी बहुत खुश थीं कि मम्मी आ रही हैं. इन 3 सालों में वे भी तो कितनी अकेली रह गई थीं. जब मम्मी और बच्चे वहां पहुंच गए तो आशी दीदी उन्हें रोज कहीं न कहीं घुमा लातीं. उन के लिए तरहतरह का खाना बनातीं. रात को दीदी की बेटियां और मेरे बच्चे एक ही कमरे में सो जाते. आशी दीदी के पति यानी मेरे ननदोई निशांत तो शिप पर ही थे. वे तो 6 महीने में मुंबई आते थे. आशी दीदी ने अपनी 2 बेटियों को पालने में जिंदगी अकेले ही बिता दी. निशांत भी आशी दीदी की इस बात की तारीफ करते नहीं थकते.

एक रात मम्मी को कुछ बेचैनी सी हुई तो लिविंगरूम में सोफे पर आ कर लेट गईं.

थोड़ी ही देर में देखती हैं कि कोई नौजवान दीदी के कमरे से बाहर निकल रहा है और दीदी अपना नाइट गाउन पहने उसे दरवाजे तक छोड़ने आईं.

जातेजाते उस नौजवान ने दीदी के होंठों को चूमते हुए कहा, ‘‘मैं कल फिर आऊंगा.’’

दीदी ने भी उसे स्वीकृति दे दी और कहा, ‘‘ओके बाय.’’

दीदी को तो मालूम भी न था कि मम्मी सोफे पर लेटीं यह सब देख रही हैं. उन्होंने उस शख्स के जाते ही लिविंगरूम की बत्ती जला कर पूछा, ‘‘कौन है यह? जंवाई बाबू की गैरहाजिरी में ये सब करते अच्छा लगता है तुम्हें? तुम्हारी 2 जवान बेटियां हैं. उन का तो लिहाज किया होता…’’

दीदी जवाब में सिर्फ इतना ही बोलीं, ‘‘जाने दीजिए मम्मी… आप नहीं समझेंगी.’’

मम्मी का तो पारा हाई था. अत: कहने लगीं, ‘‘मैं नहीं समझूंगी? ये बाल मैं ने धूप में सफेद नहीं किए हैं… मुझे लगता है तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है,’’ और मम्मी ने झट से मेरे पति आकाश को फोन कर सब बता दिया.

एक पल को तो मेरे पति सकते में आ गए, फिर अगले ही पल बोले, ‘‘मम्मी, तुम आशी को कुछ न कहो. पहले मुझे मामले की तह तक जाने दो.’’

‘‘तुम सब जल्दी मुंबई आओ और देखो यहां आशी क्या कर रही है.’’

अगले ही दिन आकाश ने भारत की फ्लाइट के टिकट बुक कराए और हम भारत पहुंच गए. आकाश और मुझे देख कर आशी दीदी बहुत डर गई थीं. एक दिन तो आकाश ने आशी दीदी से कुछ न पूछा. लेकिन जब आकाश ने आशी दीदी से सब साफसाफ बताने को कहा तो जो आशी दीदी ने बताया वह वाकई चौंकाने वाला था. वे कह रही थीं और मैं और आकाश सुन रहे थे. वे बोलीं, ‘‘भैया, आप को तो मालूम ही है कि निशांत और मेरी शादी दोनों की मरजी से हुई थी… वे मर्चेंट नेवी में होने की वजह से साल में 6 महीने बाहर ही रहते हैं. लेकिन 6 महीने बाहर रहने से निशांत के वहां लड़कियों से संबंध हैं. जब वे यहां भी आते हैं तो भी उन की रुचि मेरे में नहीं होती है… वे घर के मुखिया का दायित्व तो निभा रहे हैं, लेकिन सिर्फ हमारी 2 बेटियों के कारण.

‘‘यदि मैं निशांत को कुछ कहती हूं तो वे कहते हैं कि तुम आजाद हो… चाहे तो तलाक ले लो या तुम भी किसी गैरमर्द से संबंध रख सकती हो. बस बात घर के बाहर न जाए, क्योंकि समाज के सामने तो यह रिश्ता निभाना ही है. हमारी यह शादी तो समाज के समाने सिर्फ एक दिखावा है. अब इन 2 जवान बेटियों को छोड़ कर मैं कहां जाऊं. तलाक भी तो नहीं ले सकती… मुझे भी तो प्यार चाहिए… तन की प्यास क्या सिर्फ मर्द को ही जलाती है, औरत को नहीं?’’

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इतना सुनते ही मम्मी ने दीदी के मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया. वे चीख पड़ीं, ‘‘तुझे शर्म नहीं आई ये सब कहते?’’

आकाश ने मम्मी का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘मम्मी, आप शांत हो जाएइ. मैं आशी से अकेले में बात करता हूं.’’

अब आशी दीदी, आकाश और मैं ही कमरे में थे. लेकिन उस के बाद जो आशी दीदी ने बताया वह तो और भी चौंकाने वाला था.

वे बोलीं, ‘‘यहां भी उन के पड़ोस की महिला से संबंध हैं और इस बारे में उस के पति को भी सब मालूम है. उस महिला ने अपने पति को भी कह दिया है कि वह आजाद है, चाहे जिस स्त्री से संबंध रखे. उस रात पड़ोस की उस महिला का पति ही यहां आया था और यह बात निशांत को भी मालूम है कि मेरे उस से संबंध हैं. उन्हें इस संबंध से कोई हरज नहीं. हां, उन्होंने इतना जरूर कहा है कि यह बात घर से बाहर न जाए, क्योंकि हमारा समाज इन रिश्तों को स्वीकार नहीं करेगा,’’ और फिर आशी दीदी रोने लगीं.

मैं ने उन्हें चुप कराते हुए कहा, ‘‘दीदी, आप फिक्र न कीजिए सब ठीक हो जाएगा. आप हमें थोड़ा सोचने के लिए समय दें बस,’’ और फिर मैं और आकाश आशी दीदी के कमरे से बाहर आ कर लौन में सैर करने लगे.

मैं ने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘यदि आशी दीदी जो बता रही हैं वह सत्य है, तो इस में दीदी का क्या दोष है? अपनी पत्नी के सिवा गैरस्त्री से संबंध रखने का हक मर्द को किस ने दिया और फिर यदि यह हक निशांत को है तो फिर आशी दीदी को भी है.’’

आकाश ने भी धीरे से कहा, ‘‘हां, तुम ठीक ही कहती हो, लेकिन मम्मी को कौन समझाए? वे तो आशी को कभी माफ नहीं करेंगी.’’

मैं मन ही मन सोच रही थी कि दीदी ने ठीक ही कहा कि तन की आग क्या सिर्फ मर्द को ही जलाती है? कुदरत ने औरत को भी तो शारीरिक उत्तेजना दी है और यदि उस का पति उस में रुचि न ले तो वह अपनी शारीरिक उत्तेजना कैसे शांत करे? सच तो यह है कि इस में दीदी की कोई गलती नहीं है. पर चूंकि हमारे समाज के नियम इन संबंधों को नहीं स्वीकारते, इसलिए सब कुछ चोरीछिपे चल रहा है यहां. सिर्फ दीदी व निशांत ही क्यों उन के पड़ोसी दंपती को भी तो वही समस्या है. तब ही तो वह उस रात दीदी के पास आया था. उस की पत्नी को भी तो इस रिश्ते से कोई ऐतराज नहीं. न जाने ऐसे कितने लोग होंगे जिन के ऐसे ही संबंध होंगे.

बात मेरे पति आकाश के दिमाग में ठीक बैठ रही थी. वे कहने लगे, ‘‘तुम ठीक ही कहती हो. लेकिन अब मम्मी को समझाना होगा, जोकि बहुत मुश्किल काम है.’’

आगे पढें- खैर एक बार तो हम मम्मी को ले कर…

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Serial Story: कल आज और कल (भाग-3)

खैर एक बार तो हम मम्मी को ले कर वापस अमेरिका आ गए, लेकिन मेरे ननदोई निशांत के शिप से वापस आने पर हम फिर भारत आए और मम्मी को भी साथ ले आए. वहां आकाश ने निशांत से उन के दूसरी स्त्रियों से संबंध के बारे में पूछा तो निशांत ने उन संबंध को खुले शब्दों में स्वीकारते हुए कहा, ‘‘आकाश आप तो इतने सालों से अमेरिका में रह रहे हैं. आप भी इन्हें बुरा समझते हैं? मेरे संबंधों के बारे में आशी को सब कुछ मालूम है और मैं ने भी आशी को पूरी छूट दी है कि वह भी अगर चाहे तो किसी से संबंध रख सकती है. बस हमारे परिवार पर उन संबंधों का बुरा असर नहीं पड़ना चाहिए. आकाश आप तो पढ़ेलिखे हैं. आप को तो इन संबंधों से नाराज नहीं होना चाहिए.’’

आकाश ने कहा, ‘‘निशांत आप ठीक कहते हैं, किंतु मम्मी को कौन समझाए?’’

मैं ही समझाऊंगा मम्मी को भी. चलिए अभी बहुत रात हो गई है. कल सुबह बात करते हैं.

अगले दिन सुबह नाश्ता कर निशांत मम्मी के पास बैठ गए और बोले, ‘‘मम्मी, मुझे पता है आप बहुत नाराज हैं मुझ से और आशी से. आप का नाराज होना वाजिब भी है. आप को तो पता है आशी और मेरी शादी हमारे समाज के नियमों के अनुरूप हो गई, लेकिन हम दोनों ही कहीं एकदूसरे के लिए बने ही नहीं थे. हम दोनों ने कोशिश भी की कि हमारा रिश्ता अच्छा बना रहे, लेकिन कहीं कुछ तो कमी थी जिसे हम दोनों दूर करने में असमर्थ थे. शादी का मुख्य उद्देश्य तो शारीरिक संबंध और संतानोत्पत्ति ही होता है. अब बच्चे तो हम पैदा कर चुके हैं. लेकिन कहीं हमारे शारीरिक संबंधों में वह मधुरता नहीं है, जो एक पतिपत्नी के बीच होनी चाहिए. मैं तो वैसे भी 6 महीने शिप पर रहता हूं. ऐसे में आशी तो मेरे पास होती नहीं तो यदि वह सुख मुझे कहीं और से प्राप्त होता है तो उस में क्या बुराई है? मैं ने तो आशी को भी पूरी छूट दी है कि वह भी चाहे जिस से संबंध रख सकती है. उस की भी इच्छाएं हैं. मैं उन मर्दों में से नहीं जो स्वयं तो मौजमस्ती करें और पत्नी को समाज के नियमों की आड़ में तिलतिल मरने के लिए छोड़ दें. अगर आशी के पास वह पड़ोसी आता है तो क्या बुराई है उस में?’’

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लेकिन मम्मी कहां यह सब समझने वाली थीं. मम्मी तो वैसे ही मुंह फुला कर बैठी थीं. निशांत भी समझ गए कि मम्मी को उन की बातें अच्छी नहीं लग रही हैं. अत: उन्होंने मम्मी का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर कहा, ‘‘मम्मी, मैं समझता हूं कि आप को इन सब बातों से बहुत दुख पहुंचा है, किंतु यदि कोई नियम किसी की खुशी के आड़े आए तो उस नियम को तोड़ देना अच्छा…फिर आज ही क्यों पहले जमाने में भी तो यह सब होता था, लेकिन पहले घरपरिवार के लोग उस में साथ देते थे और अब समाज के नियमों के डर से परिवार भी अपनों की खुशियों से मुंह मोड़ लेता है… यदि मैं और आशी एकदूसरे के आचरण से खुश हैं तो दूसरों को तकलीफ क्यों?

‘‘यदि आप को लगता है ये सब इस युग में ही हो रहा है तो लाइए आप को महाभारत जिस का पाठ आप रोज नियम से करती हैं उसी में दिखा देता हूं आप को पुराने युग की सचाई,’’ कह कर निशांत ने इंटरनैट से महाभारत डाउनलोड किया और उसी समय मम्मी को पढ़वाना शुरू कर दिया, जिस में पांडु और कुंती के बारे में साफसाफ लिखा है.

‘‘पांडु को एक ऋषि से श्राप मिला था जिस के कारण वे स्त्री सहवास नहीं कर सकते थे, लेकिन वे चाहते थे कि उन की पत्नी के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो, क्योंकि वे अपने पिता के ऋण से मुक्त होना चाहते थे. अत: एक दिन पांडु ने अपनी पत्नी कुंती से कहा, ‘‘प्रिये, तुम पुत्रोत्पत्ति के लिए प्रयत्न करो.’’

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तब कुंती ने कहा, ‘‘हे आर्यपुत्र जब मैं छोटी थी तब मेरे पिता ने मुझे अतिथियों के

स्वागतसत्कार का कार्य सौंप रखा था. मैं ने उस समय दुरवासा ऋषि को अपनी सेवा से प्रसन्न कर दिया था और बदले में उन्होंने मुझे वरदानस्वरूप एक मंत्र देते हुए कहा कि हे पुत्री, इस मंत्र का उच्चारण कर तुम जिस भी देवता का आह्वान करोगी वह चाहे अथवा न चाहे तुम्हारे अधीन हो जाएगा. अत: आप की आज्ञा होने पर मैं जिस देवता का आह्वान करूंगी, उसी से मुझे संतानोत्पत्ति होगी. इस प्रकार धर्मराज से युधिष्ठिर, वायुदेव से भीमसेन, इंद्र से अर्जुन, अश्विन कुमार से जुड़वा पुत्र नकुल व सहदेव प्राप्त हुए.

‘‘मम्मी, यह तो बात हुई 5 पांडु पुत्रों की उत्पत्ति की. उस के बाद यह तो सर्वविदित है कि द्रौपदी के 5 पति थे, क्योंकि उन की माता कुंती अपने 5 बेटों को सदा कहती थीं कि कोई भी वस्तु पांचों बराबर बांट कर इस्तेमाल करो. अत: जब वे द्रौपदी को जीत कर लाए तो वही बात कुंती ने बिना द्रौपदी को देखे कह दी और तब से द्रौपदी के 5 पति थे. इस के अलावा भीम व हिडिंबा से घटोत्कच का जन्म हुआ और धृतराष्ट्र के पुत्र युयुत्सू का जन्म एक वेश्या के गर्भ से हुआ था. तो मम्मी अब देखिए आप हमारे जिस धार्मिक ग्रंथ को रोज बड़ी श्रद्धा के साथ पढ़ती हैं, उस में हमारी पुरानी संस्कृति की झलक साफ दिखाई देती है, जिस में यह बताया गया है कि जीवन को स्वेच्छा से हंसीखुशी और मौजमस्ती के साथ जीओ. लेकिन यह भी ध्यान रखो कि आप की इस मौजमस्ती का नुकसान दूसरों को न उठाना पड़े और हम किसी के साथ कोई जबरदस्ती न करें.

‘‘तो मम्मी कहां बुराई है मेरे और आशी के गैरसंबंधों में? आप को बुराई दिखाई देती है, क्योंकि हमारे समाज के नियम इन संबंधों को अस्वीकृत करते हैं. लेकिन ये समाज के नियम बनाए किस ने? समाज के चंद पहरेदारों ने. तो फिर क्यों रोक नहीं इन कोठों पर, वेश्यालयों पर, क्यों खुले हैं ये? सिर्फ उन पहरेदार मर्दों के लिए जो इन नियमों को बनाते तो हैं, किंतु स्वयं उन्हें नहीं मानते और उन मर्दों की औरतें उदासीन जिंदगी जीने के लिए मजबूर होती हैं. वे मर्द अपनी कामेच्छा की संतुष्टि तो कर लेते हैं, किंतु उन की औरतों का क्या जो उन मर्दों से विवाह कर सारी जिंदगी उन के बच्चे ही पालती रहती हैं या फिर उन पर आश्रित होती हैं कि कब उन के पति को उन पर प्यार आए जिस की बारिश में वह उन के तनमन को भिगो दे. उन्हें भी तो हक होना चाहिए अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का या फिर यदि समाज के निमय हैं तो मर्द व औरत के लिए समान रूप से होने चाहिए. मम्मी ये सब तो कल भी होता था आज भी हो रहा है और कल भी होगा. यदि समाज इन पर प्रतिबंध लगाएगा तो चोरीछिपे होगा पर होगा जरूर.’’

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मम्मी अपने जंवाई की बातें सुन कर नि:शब्द थीं. दीदी वहीं बैठ कर सुबकसुबक कर रो रही थीं. निशांत ने उन्हें गले से लगा कर चुप कराते हुए कहा, ‘‘मत रोओ आशी, इस में तुम्हारा कोई दोष नहीं. आगे भी तुम स्वेच्छा से अपनी जिंदगी जी सकती हो.’’

हालांकि मम्मी अभी भी इस तरह के संबंधों को मन से स्वीकार नहीं कर पा रही थीं, लेकिन निशांत व आशी दीदी के चेहरे पर मुसकान देख कर हम सब भी मुसकरा रहे थे.

तभी मम्मी दीदी से कहने लगी, ‘‘बेटी, मैं ने तुम्हें बहुत भलाबुरा कहा. तुम मुझे माफ कर देना.’’

मम्मी को यह सब समझाने में निशांत ने जिस धैर्य से काम लिया वह काबिलेतारीफ था.

तभी आकाश बोल उठे, ‘‘भई, भूख लग रही है. आज खाना बाहर से ही और्डर कर देते हैं.’’

सभी मम्मी से पूछने लगे कि कहिए क्या और्डर किया जाए?

माहौल हलका हो गया था. आशी दीदी व निशांत अपने कमरे में चले गए. हम अमेरिका वापसी की तैयारी में लग गए. अब वापस लौट कर मम्मी को अमेरिका में उन की सहेलियों की बातों से कोई आश्चर्य न होता और अब उन्होंने इस देश को कोसना छोड़ दिया था. मेरे दोनों बच्चे भी कहने लगे थे, ‘‘मौम, अब दादी कुछ बदली बदली लगती हैं.’’

Serial Story: कल आज और कल (भाग-1)

15 वर्षों से अमेरिका में नौकरी करते करते ऐसा लगने लगा जैसे अब हम यहीं के हो कर रह गए हैं. 3 साल में 1 बार अपनी मां के पास अपने देश भारत जाना होता है. बच्चे भी यहीं की बोली बोलने लगे हैं और यहीं का रहनसहन अपना चुके हैं. कई बार मैं अपने पति से कहती कि क्या हम यहीं के हो कर रह जाएंगे? पति कहते कि कर भी क्या सकते हैं? आजकल की नौकरियां हैं ही ऐसी. जहां नौकरी वहीं हम. पहले जमाने की तरह तो है नहीं कि सुबह 9 से शाम 5 बजे तक की सरकारी नौकरी करो और आराम से जिंदगी जीयो और न ही वह जमाना रहा कि पति की नौकरी से ही घर खर्च चल जाए और बचत भी हो जाए. अत: मुझे तो नौकरी करनी ही थी.

मेरे पति आकाश के मांबाबूजी यानी अपने सासससुर को मैं मम्मीपापा ही पुकारती हूं. वे भारत में ही हैं और उन की बहन आशी यानी मेरी ननद भी मुंबई में ही रह रही हैं. उन के पति मर्चेंट नेवी में हैं और 2 सुंदर बेटियां हैं. मम्मीपापा कहने को तो अकेले रहते हैं अपने फ्लैट में, लेकिन उन की देखभाल तो आशी दीदी ही करती हैं. मगर मम्मीपापा को कहां अच्छा लगता है कि वे अपनी बेटी पर बोझ बनें. वे तो भारत में विवाह के बाद पराया धन मानी जाती हैं. लेकिन अब तो मम्मीपापा के अकेले रहने की उम्र भी नहीं रही. अत: हम लोग बारबार उन से आग्रह करते कि हमारे पास अमेरिका में ही रहें. पर वे तो अपने देश, अपने घर के मोह में ऐसे बंधे हैं कि उन्हें छोड़ना ही नहीं चाहते.

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हर बार यही कहते हैं कि अमेरिका में मन नहीं लगेगा. भारतीय लोग भी तो नहीं हैं वहां. किस से बोलेंगे? भाषा की समस्या अलग से. लेकिन जब आशी दीदी ने उन्हें समझाया कि अब तो अमेरिका में बहुत भारतीय हैं, तो उन्होंने अमेरिका आने का मन बना लिया. फिर क्या था. आकाश भारत गए और वहां का फ्लैट बेचने की कारवाई शुरू कर दी. मम्मीपापा का तो रोमरोम घर में बसा था. बहुत प्यार था मम्मी को उस घर की हर चीज से. क्यों न हो. पापा की खूनपसीने की कमाई से बना था उन का यह घर.

मम्मी एक तरफ तो उदास थीं कि इतने वर्ष जिस घर में रहीं वह आज बिक रहा है, सब छूट रहा है, लेकिन दूसरी तरफ खुश भी थीं कि अपने बेटेपोते के साथ बुढ़ापे के बचेखुचे दिन गुजारेंगी. 2 महीने पूरे हुए. मम्मी आशी दीदी से विदाई ले कर अमेरिका के लिए रवाना हो गईं. आशी दीदी का मन भी बहुत दुखी था कि अब उन का भारत में कोई नहीं. एक मम्मी ही तो थीं जिन से वे दुखसुख की सारी बातें कह लेती थीं.

मम्मीपापा मेरे बच्चों अक्षय और अंशिका से मिल कर बहुत खुश हुए. पापा तो उन से अंगरेजी में बात करने की पूरी कोशिश करते, लेकिन मम्मी उन का अमेरिकी लहजा न समझ पातीं. आधी बातें इशारों में ही करतीं. मैं अच्छी तरह समझती थी कि शुरूशुरू में उन का यहां मन लगना बहुत मुश्किल है. अत: मैं ने उन के लिए औनलाइन हिंदी पत्रिकाएं और्डर कर दीं.

फिर एक दिन मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, शाम को कुछ भारतीय महिलाएं अपनी किट्टी पार्टी करती हैं, जिन में से कुछ आप की उम्र की भी हैं. आप रोज शाम को उन के पास चली जाया करें. आप की दोस्ती भी हो जाएगी और मन भी लग जाएगा.’’

एक दिन मैं ने उन महिलाओं से मम्मी का परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘मम्मी, ये हैं विनीता आंटी, ये कमला आंटी, ये रूपा आंटी और ये हमारी मम्मी.’’

सभी महिलाएं बड़ी खुश हुईं. रूपा आंटी कहने लगीं, ‘‘स्वागत है बहनजी हमारे समूह में आप का. बड़ी खुशी हुई आप से मिल कर. चलो, हमारे परिवार में एक सदस्य और बढ़ गया. अब हम इन्हें रोज नीचे बुला लिया करेंगी.’’

अब मम्मी शाम को 5 बजे अपनी सहेलियों के पास रोज पार्क में चली जातीं. वहां गपशप व थोड़ी इधरउधर की बातें करना उन्हें बहुत अच्छा लगता. धीरेधीरे 1 ही महीने में मम्मी का मन यहां लग गया. पापा तो रोज अपने नए मित्रों के साथ सुबहशाम सैर कर आते और बाकी खाली समय में हिंदी पत्रिकाएं पढ़ते. मम्मी सुबहशाम मेरा रसोई में हाथ बंटातीं. लेकिन अब मम्मी जब शाम को पार्क से लौटतीं, तो उन के पास हर दिन एक नया किस्सा होता, मुझे सुनाने के लिए.

फिर एक दिन मम्मी जब पार्क से लौटीं तो सेम की फलियां काटतेकाटते बोलीं, ‘‘आज मालूम है रूपा क्या बता रही थी? कह रही थी कि इधर एक हिंदुस्तानी पतिपत्नी रहते हैं. दोनों नौकरी करते हैं. उन के बच्चे नहीं हैं. सुना है पति नपुंसक है. उस की पत्नी का दफ्तर में एक अन्य आदमी से संबंध है.’’

‘‘मम्मी यहां सब चलता है और मैं भी पहचानती हूं उन्हें. अच्छे लोग हैं दोनों ही.’’

‘‘क्या खाक अच्छे लोग हैं… पति के रहते पत्नी गैरपुरुष से संबंध रखे तो क्या अच्छा लगता है?’’

मैं मम्मी के चेहरे को गौर से देख रही थी. उन की त्योरियां चढ़ी हुई थीं. सही बात तो यह है कि उन के चेहरे पर ये भाव होने वाजिब ही थे, क्योंकि हमारे हिंदुस्तान में ऐसे संबंधों को कहां मान्यता दी है? हां यह बात अलग है कि वहां चोरीछिपे सब चलता है. यदि बात खुल जाए तो स्त्री और पुरुष दोनों ही बदनाम हो जाते हैं. लेकिन हिंदुस्तान में भी तो शुरू से ही रखैल और देवदासी प्रथा प्रचलित थी. उच्च वर्ग के लोग महिलाओं को बखूबी इस्तेमाल करते थे. लेकिन उच्च वर्ग यह करे तो शानशौकत और निम्न वर्ग तो बेचारा इस्तेमाल ही होता रहा. समाज में समानता कहां है. लेकिन यहां तो समाज इन रिश्तों को खुल कर स्वीकारता है. पर मम्मी को कौन समझाए? मैं उन से इस बारे में बहस नहीं करना चाहती थी. मैं जानती थी इन सब बातों से मम्मी का दिल दुखेगा. सो मैं ने सेम की फलियां हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘लाओ मम्मी, मैं सब्जी छौंक देती हूं, आप थक गई होंगी. जाइए, आप थोड़ा आराम कर लीजिए.’’

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मम्मी भी मुसकरा कर बच्चों के पास चली गईं. मेरी बेटी अंशिका उन से बहुत खुश रहती. धीरेधीरे मम्मी अंगरेजी भी सीखने लगी थीं. अब मम्मीपापा बच्चों से अंगरेजी में ही बात करते. उन के यहां आने से मुझे बहुत सहारा मिल गया था वरना यहां तो सारा काम खुद ही करना पड़ता है, नौकरचाकर तो यहां मिलते नहीं और जिस तरह से मम्मी अपना घर समझ कर काम करती थीं, वे थोड़े ही न करेंगे?

अब मम्मी यहां पूरी तरह ऐडजस्ट हो गई थीं. महीने में 1 बार अपनी सहेलियों के साथ रेस्तरां में किट्टी पार्टी कर लेतीं. सभी महिलाओं में होड़ लगी रहती कि सब से अच्छी डिश कौन बना कर लाती है. सो मम्मी भी उस होड़ में शामिल हो नई सलवारकमीज, पर्स, मैचिंग चप्पलें आदि पहन कर बड़ी खुश होतीं. यही एक सब से अच्छा जरिया था यहां उन का मन लगाने का. सजधज कर चली जातीं. 1-2 गेम खेलतीं और एकदूसरे से अपने मन की बातें कर लेतीं.

इस बार जब वे किट्टी पार्टी से लौटीं तो सब सहेलियों से और भी नईनई बातें सुन कर आईं और बड़ी बेसब्री से मेरा इंतजार कर रही थीं कि कब मैं दफ्तर से आऊं और कब वे अपने मन की बात मुझे बताएं.

मेरे घर आते ही वे 2 कप चाय बना कर ले आईं और फिर मेरे पास आ कर बैठ गईं.

मैं ने पूछा, ‘‘कैसी रही आप की किट्टी पार्टी?’’

वे तो जैसे तैयार ही बैठी थीं सब बताने को. कहने लगीं, ‘‘किट्टी तो बहुत अच्छी थी, किंतु यहां की कुछ बातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं. आज तो सभी औरतें स्पर्म डोनेशन की बातें कर रही थीं. वे बता रही थीं कि यदि कोई मर्द बच्चा पैदा करने में असमर्थ हो तो किसी और मर्द के स्पर्म (शुक्राणु) उस की पत्नी की कोख में स्थापित कर दिए जाते हैं और उस पत्नी को यह मालूम ही नहीं होता कि स्पर्म किस मर्द के हैं. ऐसे ही यदि महिला बच्चा पैदा करने में असमर्थ हो तो दूसरी महिला की कोख में दंपती के शुक्राणु व अंडाणु निषेचित कर के स्थापित कर दिए जाते हैं और इस तरह दूसरी महिला 9 महीने के लिए अपनी कोख किराए पर दे देती है. जब बच्चा पैदा हो जाता है तो वह उस दंपती को सौंप देती है. छि…छि… कितना बुरा है ये सब?’’

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पिघलती बर्फ: क्यों स्त्रियां स्वयं को हीन बना लेती हैं?

“आज ब्रहस्पतिवार को तूने फिर सिर धो लिया. कितनी बार कहा है कि ब्रहस्पतिवार को सिर मत धोया कर, लक्ष्मीजी नाराज हो जाती हैं,” मां ने प्राची को टोकते हुए कहा.

“मां सिर चिपचिपा रहा था,” मां की बात सुन कर धीमे स्वर में अपनी बात कह प्राची मन ही मन बुदबुदाई, ‘सोमवार, बुधवार और गुरुवार को सिर न धोओ. शनिवार, मंगलवार, गुरुवार को बाल न कटवाओ क्योंकि गुरुवार को बाल कटवाने से धन की कमी तथा मंगल व शनिवार को कटवाने से आयु कम होती है. वहीं, शनि, मंगल और गुरुवार को नाखून काटने की भी मां की सख्त मनाही थी. कोई वार बेटे पर तो कोई पति पर और नहीं, तो लक्ष्मीजी का कोप… उफ, इतने बंधनों में बंधी जिंदगी भी कोई जिंदगी है.

“कल धो लेती, किस ने मना किया था पर तुझे तो कुछ सुनना ही नहीं है. और हां, आज शाम से तुझे ही खाना बनाना है.” प्राची मां की यह बात सुन कर मन के चक्रव्यूह से बाहर आई.

ओह, यह अलग मुसीबत…सोमवार से तो मेरे एक्जाम हैं. सब मैं ही करूं, भाई तो हाथ लगाएगा नहीं, यह सोच कर प्राची ने सिर पकड़ लिया.

‘अब क्या हो गया?’ मां ने उसे ऐसा करते देख कर कहा.

‘मां सोमवार से तो मेरे एक्जाम हैं,’ प्राची ने कहा.

‘तो क्या हुआ, कौन सा तुझे डिप्टी कलैक्टर बनना है?’

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‘मां, क्या जब डिप्टी कलैक्टर बनना हो, तभी पढ़ाई करनी चाहिए, वैसे नहीं. वैसे भी, मुझे डिप्टी कलैक्टर नहीं बनना, मुझे डाक्टर बनना है और मैं बन कर दिखाऊंगी,” कहते हुए प्राची ने बैग उठाया और कालेज के लिए चल दी.

‘नखरे तो देखो इस लड़की के, सास के घर जा कर नाक कटाएगी. अरे, अभी नहीं सीखेगी तो कब सीखेगी. लड़की कितनी भी पढ़लिख जाए पर रीतिरिवाजों को तो मानना ही पड़ता है.” प्राची के उत्तर को सुन कर सरिता बड़बड़ाईं.

प्राची 10वीं कक्षा की छात्रा है. वह विज्ञान की विद्यार्थी है. सो, उसे इन सब बातों पर विश्वास नहीं है. मां को जो करना है करें पर हमें विवश न करें. पापा भी उन की इन सब बातों से परेशान रहते हैं लेकिन घर की सुखशांति के लिए उन्होंने यह सब सहना सीख लिया है. ऐसा नहीं था कि मां पढ़ीलिखी नहीं हैं, वे सोशल साइंस में एमए तथा बीएड थीं लेकिन शायद उन की मां तथा दादी द्वारा बोए बीज जबतब अंकुरित हो कर उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करते थे. प्राची ने मन ही मन निर्णय कर लिया था कि चाहे जो हो जाए वह अपने मन में इन बीजों को पनपने नहीं देगी.

प्राची के एक्जाम खत्म हुए ही थे कि एक दिन पापा नई कार मारूति स्विफ्ट ले कर घर आए. अभी वह और भाई विजय गाड़ी देख ही रहे थे कि मां नीबू और हरीमिर्च हाथ में ले कर आईं. उन्होंने नीबू और हरीमिर्च हाथ में ले कर गाड़ी के चारों ओर चक्कर लगाया तथा गाड़ी पर रोली से स्वास्तिक का निशान बना कर उस पर फूल मालाएं तथा कलावा चढ़ा कर मिठाई का एक पीस रखा. उस के बाद मां ने नारियल हाथ में उठाया…

“अरे, नारियल गाड़ी पर मत फोड़ना,” अचानक पापा चिल्लाए.

“तुम मुझे बेवकूफ समझते हो. गाड़ी पर नारियल फोडूंगी तो उस जगह गाड़ी दब नहीं जाएगी,” कहते हुए मां ने गाड़ी के सामने पहले से धो कर रखी ईंट पर नारियल फोड़ कर ‘ जय दुर्गे मां’ का उद्घोष करते हुए ‘यह गाड़ी हम सब के लिए शुभ हो’ कह कर गाड़ी के सात चक्कर न केवल खुद लगाए बल्कि हम सब को भी लगाने के लिए भी कहा.

“तुम लगा ही रही हो, फिर हमारे लगाने की क्या आवश्यकता है,” पापा ने थोड़ा विरोध करते हुए कहा.

“आप तो पूरे नास्तिक हो गए हो. आप ने देखा नहीं, टीवी पर लड़ाकू विमान राफेल लाने गए हमारे रक्षामंत्री ने फ्रांस में भी तो यही टोटके किए थे.”

मां की बात सुन कर पापा चुप हो गए. सच, जब नामी व्यक्ति ऐसा करेंगे तो इन बातों पर विश्वास रखने वालों को कैसे समझाया जा सकता है.

समय बीतता गया. मां की सारी बंदिशों के बावजूद प्राची को मैडिकल में दाखिला मिल ही गया. लड़की होने के कारण मां उसे दूर नहीं भेजना चाहती थीं, किंतु इस बार पापा चुप न रह सके. उन्होंने मां से कहा, “मैं ने तुम्हारी किसी बात में दखल नहीं दिया. किंतु आज प्राची के कैरियर का प्रश्न है, इस बार मैं तुम्हारी कोई बात नहीं सुनूंगा. मेरी बेटी मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में सफल हुई है, उस ने सिर्फ हमारा ही नहीं, हमारे पूरे खानदान का नाम रोशन किया है. उसे उस की मंजिल तक पहुंचाने में सहायता करना हमारा दायित्व है.”

मां की अनिच्छा के बावजूद पापा प्राची को इलाहाबाद मैडिकल कालेज में पढ़ने के लिए ले कर गए. पापा जब उसे होस्टल में छोड़ कर वापस आने लगे तब वह खुद को रोक न पाई, फूटफूट कर रोने लगी थी.

“बेटा, रो मत. तुझे अपना सपना पूरा करना है न, बस, अपना ख़याल रखना. तुझे तो पता है तेरी मां तुझे ले कर कितनी आशंकित हैं,” पापा ने उसे समझाते हुए उस के सिर पर हाथ फेरा तथा बिना उस की ओर देखे चले गए. शायद, वे अपनी आंखों में आए आंसुओं को उस से छिपाना चाहते थे.

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पापा के जाने के बाद प्राची निशब्द बैठी थी. बारबार उस के मन में आ रहा था कि वह दुखी क्यों है? आखिर उस की ही इच्छा तो उस के पापा ने उस की मां के विरुद्ध जा कर पूरी की है. अब उसे पापा के विश्वास पर खरा उतरना होगा. प्राची ने स्वयं से ही प्रश्न किया तथा स्वयं ही उत्तर भी दिया.

“मैं, अंजली. और तुम?’ अंजली ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा.

“मैं, प्राची.”

“बहुत प्यारा नाम है. उदास क्यों हो? क्या घर की याद आ रही है?”

प्राची ने निशब्द उस की ओर देखा.

“मैं तुम्हारा दर्द समझ सकती हूं. जब भी कोई पहली बार घर छोड़ता है तब उस की मनोदशा तुम्हारी तरह ही होती है. पर धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. सारी बातों को दिल से निकाल कर बस यह सोचो, हम अपना कैरियर बनाने के लिए यहां आए हैं.”

“तुम सच कह रही हो,” प्राची ने चेहरे पर मुसकान लाते हुए कहा.

“अच्छा, अब मैं चलती हूं. थोड़ा फ्रेश हो लूं. अपने कमरे में जा रही थी कि तुम्हारा कमरा खुला देख कर तुम्हारी ओर नजर गई, सोचा मिल तो लूं अपनी नई आई सखी से. मेरा कमरा बगल वाला है. रात्रि 8 बजे खाने का समय है, तैयार रहना. अपना यह बिखरा सामान आज ही समेट लेना, कल से कालेज जाना है,” अंजली ने कहा.

अंजली के जाते ही प्राची अपना सामान अलमारी में लगाने लगी. तभी मोबाइल की घंटी बज उठी. फोन मां का था. “बेटा, तू ठीक है न? सच, अकेले अच्छा नहीं लग रहा है. बहुत याद आ रही है तेरी.”

“मां, मुझे भी…’ कह कर वह रोने लगी.

“तू लौट आ,” मां ने रोते हुए कहा.

“प्राची, क्या हुआ? अगर तू ऐसे कमजोर पड़ेगी तो पढ़ेगी कैसे? नहीं बेटा, रोते नहीं हैं. तेरी मां तो ऐसे ही कह रही है.” पापा ने मां के हाथ से फोन ले कर उसे ढाढस बंधाते हुए कहा.

“अरे, तुम अभी बात ही कर रही हो, खाना खाने नहीं चलना.”

“बस, अभी…पापा, मैं खाना खाने जा रही हूं, आ कर बात करती हूं.”

मेस में उन की तरह कई लड़कियां थीं. अंजली ने सब को नमस्ते की. उस ने भी अंजली का अनुसरण किया. सभी ने उन का बेहद अपनेपन से स्वागत करते हुए एकदूसरे का परिचय प्राप्त किया. सब से परिचय करने के बाद अंजली ने एक टेबल की कुरसी खिसकाते हुए उसे बैठने का इशारा किया और स्वयं भी बैठ गई. अभी वे बैठी ही थीं कि उन के सामने वाली कुरसी पर 2 लड़कियां आ कर बैठ गईं. अंजली और प्राची ने उन का खड़े हो कर अभिवादन किया. उन दोनों ने उन्हें बैठने का आदेश देते हुए उन का परिचय प्राप्त करते हुए तथा अपना परिचय देते हुए साथसाथ खाना खाया. रेखा और बबीता सीनियर थीं. वे बहुत आत्मीयता से बातें कर रही थीं. खाना भी ठीक लगा. खाना खा कर जब वह अपने कमरे में जाने लगी तो रेखा ने उस के पास आ कर कहा, “प्राची और अंजली, तुम दोनों नईनई आई हो, इसलिए कह रही हूं, हम सब यहां एक परिवार की तरह ही रह रहे हैं, तुम कभी स्वयं को अकेला मत समझना. हंसीमजाक में अगर कोई तुम्हें कुछ कहे तो सहजता से लेना. दरअसल, कुछ सीनियर्स, जूनियर की खिंचाई कर ही लेते हैं.”

“रेखा दी और प्राची, ये खाओ बेसन के लड्डू. मां ने साथ में रख दिए थे,” अंजलि ने एक प्लेट उन के आगे बढ़ाते हुए कहा.

“बहुत अच्छे बने हैं,” एकएक लड्डू उठा कर खाते हुए प्राची और रेखा ने कहा.

रेखा दीदी और अंजली का व्यवहार देख कर एकाएक प्राची को लगा कि जब ये लोग रह सकती हैं तो वह क्यों नहीं. मन में चलता द्वंद्व ठहर गया था. अंजली ने बताया, सुबह 8 बजे नाश्ते का समय है.

अपने कमरे में आ कर प्राची अब काफी व्यवस्थित हो गई थी. तभी मां का फोन आ गया…”मैन, चिंता मत करो, मैं ठीक हूं. यहां सब अच्छे हैं,” प्राची ने सारी घटनाएं उन्हें बताते हुए कहा.

“ठीक है बेटा, पर ध्यान से रहना. आज के जमाने में किसी पर भरोसा करना उचित नहीं है. कल तेरा कालेज का पहला दिन है. हनुमान जी की फोटो किसी उचित स्थान पर रख कर उन के सामने दिया जला कर, उन से आशीर्वाद ले कर जाना.”

“जी मां.”

ढेरों ताकीदें दे कर मां ने फोन रख दिया था. समय बीतता गया. वह कदमदरकदम आगे बढ़ती गई. पढ़ते समय ही उस की दोस्ती अपने साथ पढ़ने वाले जयदीप से हो गई. एमबीबीएस खत्म होने तक वह दोस्ती प्यार में बदल गई. लेकिन अभी उन की मंजिल विवाह नहीं थी. प्राची को गाइनोलौजिस्ट बनना था जबकि जयदीप को जरनल सर्जरी में एमएस करना था.

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उस के एमबीबीएस करते ही मां उस पर विवाह के लिए दबाव बनाने लगी किंतु उस ने अपनी इच्छा बताते हुए विवाह के लिए मना कर दिया. रैजीडैंसी करते हुए उन्होंने पीजी की तैयारी प्रारंभ कर दी. कहते हैं, जब लक्ष्य सामने हो, परिश्रम भरपूर हो तो मंजिल न मिले, ऐसा हो नहीं सकता. पीजी की डिग्री मिलते ही उन्हें दिल्ली के प्रसिद्ध अपोलो अस्पताल में जौब मिल गया.

उस के जौब मिलते ही मां ने विवाह की बात छेड़ी तो प्राची ने जयदीप से विवाह की इच्छा जाहिर की.

पहले तो मां बिगड़ीं, बाद में मान गईं लेकिन फिर भी उन के मन में संदेह था कि वह बंगाली परिवार में एडजस्ट कर पाएगी कि नहीं. उन्होंने उन दोनों को मिलने के लिए बुलाया. जयदीप आखिर उस के मांपापा को पसंद आ ही गया.

प्राची मंगली थी, सो, मां ने पंडितजी को बुलवा कर उन की कुंडली मिलवाई तो पता चला कि जयदीप मंगली नहीं है. पंडितजी की बात सुन कर मां चिंताग्रस्त हो गई थीं.

“पंडितजी, प्राची के मंगल को शांत करने का कोई उपाय है?”

“प्राची का उच्च मंगल लड़के का अनिष्ट कर सकता है. विवाह से पूर्व प्राची का पीपल के पेड़ से विवाह करा दें, तो मंगलीदोष दूर हो जाएगा या फिर वह 29 वर्ष की उम्र के बाद विवाह करे,” पंडितजी ने मां की चिंता का निवारण करते हुए कहा.

मां ने प्राची को पंडितजी की बात बताई तो वह भड़क गई तथा उस ने पीपल के वृक्ष से विवाह के लिए मना कर दिया.

“बेटी, शायद तुझे पता न हो, विश्वसुंदरी तथा मशहूर हीरोइन ऐश्वर्या राय बच्चन ने भी अपने मांगलिक दोष को दूर करने के लिए पीपल के वृक्ष से विवाह किया था,” मां ने प्राची को समझाने की कोशिश करते हुए कहा.

“मां, क्या ऐश्वर्या ने ठीक किया था? माना उस ने ठीक किया था, तो यह कोई आवश्यक नहीं कि मैं भी वही करूं जो ऐश्वर्या ने किया. मेरी अपनी सोच है, समझ है, स्वयं पर दृढ़विश्वास है. दुर्घटनाएं या जीवन में उतारचढ़ाव तो हर इंसान के जीवन में आते हैं. ऐसी परिस्थितियों से स्वयं को उबारना, जूझना तथा जीवन में संतुलन बना कर चलना ही इंसान का मुख्य ध्येय होना चाहिए, न कि टोनेटोटकों में इंसान अपनी आधी जिंदगी या ऊर्जा बरबाद कर स्वयं भी असंतुष्ट रहें तथा दूसरों को भी असंतुष्ट रखें,” प्राची ने शांत स्वर में कहा.

“बेटा, हमारे समाज में कुछ मान्यताएं ऐसी हैं जिन्हें मानने से किसी का कुछ नुकसान नहीं होता, लेकिन किसी के मन को शांति मिल जाए, तो उसे मानने में क्या बुराई है. मैं ने तेरी जिद के कारण, अपने मन को मार कर तेरी खुशी के लिए तेरे विजातीय विवाह को स्वीकार कर लिया जबकि हमारे खानदान में आज तक ऐसा नहीं हुआ. ऐसे में तू क्या अपनी मां की छोटी सी इच्छा पूरी नहीं कर सकती. मैं तेरे भले के लिए कह रही हूं. तेरा भारी मंगल तेरे जयदीप की जान भी ले सकता है,” मां ने अपना आखिरी हथियार आजमाने की कोशिश करते हुए कहा.

“मां, मैं आप से बहुत प्यार करती हूं. आप को दिल से धन्यवाद देती हूं कि आप ने मेरी खुशी के लिए हमारे विवाह की स्वीकृति दी, लेकिन जिन मान्यताओं पर मुझे विश्वास नहीं है, उन्हें मैं कैसे मान लूं. पीपल के वृक्ष से विवाह कर के क्या ताउम्र मैं अपने व्यक्तित्व के अपमान की अग्नि में नहीं जलती रहूंगी? क्या जबजब मुझे अपना यह कृत्य याद आएगा तबतब मुझे ग्लानि या हीनभावना के विषैले डंक नहीं डसेंगे? अगर जयदीप मांगलिक होता और मैं मांगलिक नहीं होती तब क्या जयदीप को भी हमारा समाज पीपल के वृक्ष से विवाह करने के लिए कहता? क्या यह स्त्री के स्त्रीत्व या उस की गरिमा का अपमान नहीं है? स्त्री के साथ कोई अनहोनी हो जाए तो कोई बात नहीं लेकिन पुरुष के साथ कोई हादसा न हो, इस के लिए ऐसे ढकोसले… हमारा समाज जीवन में आई हर विपत्ति के लिए सदा स्त्री को ही क्यों कठघरे में खड़ा करता है? स्त्री हो कर भी क्या आप ने कभी सोचा है?

“नहीं मां, नहीं. शायद, हम स्त्रियों का तो कोई आत्मसम्मान है ही नहीं. होगा भी कैसे, जब हम स्त्रियों को ही स्वयं पर विश्वास नहीं है. तभी तो हम स्त्रियां अनुमानित विपदा को टालने के लिए व्यर्थ के ढकोसलों- व्रत, उपवास, यह न करो, वह न करो आदि में न केवल स्वयं लिप्त रहतीं हैं बल्कि अपने बच्चों को भी मानने के लिए विवश कर उन के विश्वास को कमजोर करने से नहीं चूकतीं.

“मैं आप की खुशी और आप के मन की शांति के विवाह के लिए 2 वर्ष और इंतजार कर सकती हूं पर पीपल के वृक्ष से विवाह कर स्वयं को स्वयं की नजरों नहीं गिरने दूंगी. मुझे अपने प्यार पर विश्वास है, वह मेरी बात कभी नहीं टालेगा.”

“किंतु तेरे मंगली होने की बात मुझे तेरी सासससुर को बतानी होगी. कहीं ऐसा न हो कि बाद में वे हम पर इस बात को छिपाने का दोष लगा दें.”

“जैसा आप उचित समझें,” कह कर प्राची उठ कर चली गई.

“तुम्हारी जिद्दी बेटी को समझाना बहुत मुश्किल है. पंडितजी सही कह रहे हैं. इस का मंगल उच्च है, तभी इस में इतनी निडरता और आत्मविश्वास है. अगर लड़के वालों को कोई आपत्ति नहीं है, तो कर देते हैं विवाह,” पापा ने उस के उठ कर जाते ही मां से कहा.

“कहीं लड़के का अनिष्ट…” मां के चेहरे पर चिंता की लकीरें झलक आई थीं.

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“कैसी बातें कर रही हो तुम? तुम ही कहतीं थीं कि तुम्हारे पिताजी सदा कहते थे कि अच्छाअच्छा सोचो, तो अच्छा होगा. हमारे नकारात्मक विचार हमें सदा चिंतित तो रखते ही हैं, किसी कार्य की सफलता के प्रति हमारी दुविधा के प्रतीक भी हैं. वहीं, सकारात्मक विचार हमें सकारात्मक ऊर्जा से भर कर हमारे कार्य को सफल बनाने में सहायक होते हैं. तुम चिंता मत करो, हमारी प्राची में हौसला है, विश्वास है, उस का कभी अनिष्ट नहीं होगा. अब हमें विवाह की तैयारी करनी चाहिए,” पापा ने मां को समझाते हुए कहा.

“जैसा आप उचित समझें, लेकिन अगर हम जयदीप के मातापिता से इस संदर्भ में बात कर लें तो मेरी सारी दुविधा समाप्त हो जाएगी.”

ठीक है, मैं समय ले लेता हूं,” कहते हुए दिनेश फोन करने लगे.

जयदीप के मातापिता से मिलते ही सरिता ने अपने मन की बात कही.

“बहनजी, हम इन बातों को नहीं मानते. मेरा और विजय का विवाह आज से 30 वर्ष पूर्व बिना कुंडली मिलाए हुआ था. हम ने सफल वैवाहिक जीवन बिताया. मेरा तो यही मानना है अगर हमारे विचार मिलते हैं, हमें एकदूसरे पर विश्वास है तो हम जीवन में आई हर कठिनाई का सामना कर सकते हैं. जो होना होगा वह होगा ही, व्यर्थ के ढकोसलों में पड़ कर हम अपने मन को कमजोर ही करते हैं,” शीला ने कहा.

शीला की बात सुन कर सरिता के मनमस्तिष्क में प्राची के शब्द भी गूंजने लगे- ‘ममा, हम स्त्रियां स्वयं को इतना हीन क्यों बना लेती हैं? जीवन में आई हर विपदा को अपने क्रूर ग्रहों का कारण मान कर सदा कलपते रहना उचित तो नहीं है. एकाएक उस के मन में व्याप्त नकारात्मकता की जगह सकारात्मकता ने ले ली. उस की सकारात्मक सोच ने उस में उर्जा का ऐसा संचार कर दिया था कि अब उसे भी लगने लगा कि व्यक्ति अपनी निष्ठा, लगन, परिश्रम और आत्मविश्वास से कठिन से कठिन कार्य में भी सफलता प्राप्त करने के साथ जीवन में आई हर चुनौती का सामना करने में सक्षम रह सकता है. इस के साथ ही उन के मन पर वर्षो से चढ़ी ढोंग और ढकोसलों की जमी बर्फ पिघलने लगी थी. उन्होंने प्राची और जयदीप के संबंध को तहेदिल से स्वीकार कर विवाह की तैयारियां शुरू कर दीं.

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वहां आकाश और है

अचानक शुरू हुई रिमझिम ने मौसम खुशगवार कर दिया था. मानसी ने एक नजर खिड़की के बाहर डाली. पेड़पौधों पर झरझर गिरता पानी उन का रूप संवार रहा था. इस मदमाते मौसम में मानसी का मन हुआ कि इस रिमझिम में वह भी अपना तनमन भिगो ले.

मगर उस की दिनचर्या ने उसे रोकना चाहा. मानो कह रही हो हमें छोड़ कर कहां चली. पहले हम से तो रूबरू हो लो.

रोज वही ढाक के तीन पात. मैं ऊब गई हूं इन सब से. सुबहशाम बंधन ही बंधन. कभी तन के, कभी मन के. जाओ मैं अभी नहीं मिलूंगी तुम से. मन ही मन निश्चय कर मानसी ने कामकाज छोड़ कर बारिश में भीगने का मन बना लिया.

क्षितिज औफिस जा चुका था और मानसी घर में अकेली थी. जब तक क्षितिज घर पर रहता था वह कुछ न कुछ हलचल मचाए रखता था और अपने साथसाथ मानसी को भी उसी में उलझाए रखता था. हालांकि मानसी को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी और वह सहर्ष क्षितिज का साथ निभाती थी. फिर भी वह क्षितिज के औफिस जाते ही स्वयं को बंधनमुक्त महसूस करती थी और मनमानी करने को मचल उठती थी.

इस समय भी मानसी एक स्वच्छंद पंछी की तरह उड़ने को तैयार थी. उस ने बालों से कल्चर निकाल उन्हें खुला लहराने के लिए छोड़ दिया जो क्षितिज को बिलकुल पसंद नहीं था. अपने मोबाइल को स्पीकर से अटैच कर मनपसंद फिल्मी संगीत लगा दिया जो क्षितिज की नजरों में बिलकुल बेकार और फूहड़ था.

अत: जब तक वह घर में रहता था, नहीं बजाया जा सकता था. यानी अब मानसी अपनी आजादी के सुख को पूरी तरह भोग रही थी.

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अब बारी थी मौसम का आनंद उठाने की. उस के लिए वह बारिश में भीगने के लिए आंगन में जाने ही वाली थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

इस भरी बरसात में कौन हो सकता है. पोस्टमैन के आने में तो अभी देरी है. धोबी नहीं हो सकता. दूध वाला भी नहीं. तो फिर कौन है? सोचतीसोचती मानसी दरवाजे तक जा पहुंची.

दरवाजे पर वह व्यक्ति था जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

‘‘आइए,’’ उस ने दरवाजा खोलते हुए कुछ संकोच से कहा और फिर जैसे ही वह आगंतुक अंदर आने को हुआ बोली, ‘‘पर वे तो औफिस चले गए हैं.’’

‘‘हां, मुझे पता है. मैं ने उन की गाड़ी निकलते देख ली थी,’’ आगंतुक जोकि उन के महल्ले का ही था ने अंदर आ कर सोफे पर बैठते हुए कहा.

यह सुन कर मानसी मन ही मन बड़बड़ाई कि जब देख ही लिया था तो फिर क्यों चले आए हो… वह मन ही मन आकाश के बेवक्त यहां आने पर कु्रद्ध थी, क्योंकि उन के आने से उस का बारिश में भीगने का बनाबनाया प्रोग्राम चौपट हो रहा था. मगर मन मार कर वह भी वहीं सोफे पर बैठ गई.

शिष्टाचारवश मानसी ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया, ‘‘कैसे हैं आप? काफी दिनों बाद नजर आए.’’

‘‘जैसा कि आप देख ही रहीं… बिलकुल ठीक हूं. काम पर जाने के लिए निकला ही था कि बरसात शुरू हो गई. सोचा यहीं रुक जाऊं. इस बहाने आप से मुलाकात भी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक किया जो चले आए. अपना ही घर है. चायकौफी क्या लेंगे आप?’’

‘‘जो भी आप पिला दें. आप का साथ और आप के हाथ हर चीज मंजूर है,’’ आकाश ने मुसकरा कर कहा तो मानसी का बिगड़ा मूड कुछ हद तक सामान्य हो गया, क्योंकि उस मुस्कराहट में अपनापन था.

मानसी जल्दी 2 कप चाय बना लाई. चाय के दौरान भी कुछ औपचारिक बातें होती रहीं. इसी बीच बूंदाबांदी कम हो गई.

‘‘आप की इजाजत हो तो अब मैं चलूं?’’ फिर आकाश के चेहरे पर वही मुसकराहट थी.

‘‘जी,’’ मानसी ने कहा, ‘‘फिर कभी फुरसत से आइएगा भाभीजी के साथ.’’

‘‘अवश्य यदि वह आना चाहेगी तो उसे भी ले आऊंगा. आप तो जानती ही हैं कि उसे कहीं आनाजाना पसंद नहीं,’’ कहतेकहते आकाश के चेहरे पर उदासी छा गई.

मानसी को लगा कि उस ने आकाश की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो, क्योंकि वह जानती थी कि आकाश की पत्नी मानसिक रूप से अस्वस्थ है और इसी कारण लोगों से बात करने में हिचकिचाती है.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ अगले दिन भी जब उसी मुसकराहट के साथ आकाश ने पूछा तो जवाब में मानसी भी मुसकरा दी और दरवाजा खोल दिया.

‘‘चाय या कौफी?’’

‘‘कुछ नहीं… औपचारिकता करने की आवश्यकता नहीं. आज भी तुम से दो घड़ी बात करने की इच्छा हुई तो फिर चला आया.’’

‘‘अच्छा किया. मैं भी बोर ही हो रही थी,’’ मानसी जानती थी कि उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं थी कि क्षितिज कहां है, क्योंकि निश्चय ही वे जानते थे कि वे घर पर नहीं हैं.

इस तरह आकाश के आनेजाने का सिलसिला शुरू हो गया वरना इस महल्ले में किसी के घर आनेजाने का रिवाज कम ही था. यहां अधिकांश स्त्रियां नौकरीपेशा थीं या फिर छोटे बालबच्चों वाली. एक वही अपवाद थी जो न तो कोई जौब करती थी और न ही छोटे बच्चों वाली थी.

मानसी का एकमात्र बेटा 10वीं कक्षा में बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता था. अपने अकेलेपन से जूझती मानसी को अकसर अपने लिए एक मित्र की आवश्यकता महसूस होती थी और अब वह आवश्यकता आकाश के आने से पूरी होने लगी थी, क्योंकि वे घरगृहस्थी की बातों से ले कर फिल्मों, राजनीति, साहित्य सभी तरह की चर्चा कर लेते थे.

आकाश लगभग रोज ही आफिस जाने से पूर्व मानसी से मिलते हुए जाते थे और अब स्थिति यह थी कि मानसी क्षितिज के जाते ही आकाश के आने का इंतजार करने लग जाती थी.

एक दिन जब आकाश नहीं आए तो अगले दिन उन के आते ही मानसी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कल क्यों नहीं आए? मैं ने कितना इंतजार किया.’’

आकाश ने हैरानी से मानसी की ओर देखा और फिर बोले, ‘‘क्या मतलब? मैं ने रोज आने का वादा ही कब किया है?’’

‘‘सभी वादे किए नहीं जाते… कुछ स्वयं ही हो जाते हैं. अब मुझे आप के रोज आने की आदत जो हो गई है.’’

‘‘आदत या मुहब्बत?’’ आकाश ने मुसकरा कर पूछा तो मानसी चौंकी, उस ने देखा कि आज उन की मुसकराहट अन्य दिनों से कुछ अलग है.

मानसी सकपका गई. पर फिर उसे लगा कि शायद वे मजाक कर रहे हैं. अपनी सकपकाहट से अनभिज्ञता का उपक्रम करते हुए वह सदा की भांति बोली, ‘‘बैठिए, आज क्षितिज का जन्मदिन है. मैं ने केक बनाया है. अभी ले कर आती हूं.’’

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‘‘तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया.’’ आकाश फिर बोले तो उसे बात की गंभीरता का एहसास हुआ.

‘‘क्या जवाब देती.’’

‘‘कह दो कि तुम मेरा इंतजार इसलिए करती हो कि तुम मुझे पसंद करती हो.’’

‘‘हां दोनों ही बातें सही हैं.’’

‘‘यानी मुहब्बत है.’’

‘‘नहीं, मित्रता.’’

‘‘एक ही बात है. स्त्री और पुरुष की मित्रता को यही नाम दिया जाता है,’’ आकाश ने मानसी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘हां दिया जाता है,’’ मानसी ने हाथ को हटाते हुए कहा, ‘‘क्योंकि साधारण स्त्रीपुरुष मित्रता का अर्थ इसी रूप में जानते हैं और मित्रता के नाम पर वही करते हैं जो मुहब्बत में होता है.’’

‘‘हम भी तो साधारण स्त्रीपुरुष ही हैं.’’

‘‘हां हैं, परंतु मेरी सोच कुछ अलग है.’’

‘‘सोच या डर?’’

‘‘डर किस बात का?’’

‘‘क्षितिज का. तुम डरती हो कि कहीं उसे पता चल गया तो?’’

‘‘नहीं, प्यार, वफा और समर्पण को डर नहीं कहते. सच तो यह है कि क्षितिज तो अपने काम में इतना व्यस्त है कि मैं उस के पीछे क्या करती हूं, वह नहीं जानता और यदि मैं न चाहूं तो वह कभी जान भी नहीं पाएगा.’’

‘‘फिर अड़चन क्या है?’’

‘‘अड़चन मानसिकता की है, विचारधारा की है.’’

‘‘मानसिकता बदली जा सकती है.’’

‘‘हां, यदि आवश्यकता हो तो… परंतु मैं इस की आवश्यकता नहीं समझती.’’

‘‘इस में बुराई ही क्या है?’’

‘‘बुराई है… आकाश, आप नहीं जानते हमारे समाज में स्त्रीपुरुष की दोस्ती को उपेक्षा की दृष्टि से देखने का यही मुख्य कारण है. जानते हो एक स्त्री और पुरुष बहुत अच्छे मित्र हो सकते हैं, क्योंकि उन के सोचने का दृष्टिकोण अलग होता है. इस से विचारों में विभिन्नता आती है. ऐसे में बातचीत का आनंद आता है, परंतु ऐसा नहीं होता.’’

‘‘अकसर एक स्त्री और पुरुष अच्छे मित्र बनने के बजाय प्रेमी बन कर रह जाते हैं और फिर कई बार हालात के वशीभूत हो कर एक ऐसी अंतहीन दिशा में बहने लगते हैं जिस की कोई मंजिल नहीं होती.’’

‘‘परंतु यह स्वाभाविक है, प्राकृतिक है, इसे क्यों और कैसे रोका जाए?’’

‘‘अपने हित के लिए ठीक उसी प्रकार जैसे हम ने अन्य प्राकृतिक चीजों, जिन से हमें नुकसान हो सकता है, पर नियंत्रण पा लिया है.’’

‘‘यानी तुम्हारा इनकार है,’’ ऐसा लगता था आकाश कुछ बुझ से गए थे.

‘‘इस में इनकार या इकरार का प्रश्न ही कहां है? मुझे आप की मित्रता पर अभी भी कोई आपति नहीं है बशर्ते आप मुझ से अन्य कोई अपेक्षा न रखें.’’

‘‘दोनों बातों का समानांतर चलना बहुत मुश्किल है.’’

‘‘जानती हूं फिर भी कोशिश कीजिएगा.’’

‘‘चलता हूं.’’

‘‘कल आओगे?’’

‘‘कुछ कह नहीं सकता.’’

सुबह के 10 बजे हैं. क्षितिज औफिस चला गया है पर आकाश अभी तक नहीं आए. मानसी को फिर से अकेलापन महसूस होने लगा है.

‘लगता है आकाश आज नहीं आएंगे. शायद मेरा व्यवहार उन के लिए अप्रत्याशित था, उन्हें मेरी बातें अवश्य बुरी लगी होंगी. काश वे मुझे समझ पाते,’ सोच मानसी ने म्यूजिक औन कर दिया और फिर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगीं.

सहसा किसी ने दरवाजा खटखटाया. मानसी दरवाजे की ओर लपकी. देखा दरवाजे पर सदा की तरह मुसकराते हुए आकाश ही थे. मानसी ने भी मुसकरा कर दरवाजा खोल दिया. उस ने आकाश की ओर देखा. आज उन की वही पुरानी चिरपरिचित मुसकान फिर लौट आई थी.

इसी के साथ आज मानसी को विश्वास हो गया कि अब समाज में स्त्रीपुरुष के रिश्ते की उड़ान को नई दिशाएं अवश्य मिल जाएंगी, क्योंकि उन्हें वहां एक आकाश और मिल गया है.

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अपना पराया: दीपेश और अनुपमा को किसने अपने पराए का अंतर समझाया

‘‘भैया, आप तो जानते हैं कि बीना को दिल की बीमारी है, वह दूसरे का तो क्या, अपना भी खयाल नहीं रख पाती है और मेरा टूरिंग जौब है. हमारा मां को रखना संभव नहीं हो पाएगा.’’

‘‘भैया, मैं मां को रख तो लेती लेकिन महीनेभर बाद ही पिंकी, पम्मी की परीक्षाएं प्रारंभ होने वाली हैं. घर भी छोटा है. इसलिए चाह कर भी मैं मां को अपने साथ रख पाने में असमर्थ हूं.’’

दिनेश और दीपा से लगभग एक सा उत्तर सुन कर दीपेश एकाएक सोच नहीं पा रहे थे कि वे क्या करें? पुत्री अंकिता की मई में डिलीवरी है. उस के सासससुर के न होने के कारण बड़े आग्रह से विदेशवासी दामाद आशुतोष और अंकिता ने उन्हें कुछ महीनों के लिए बुलाया था, टिकट भी भेज दिए थे. अनुपमा का कहना था कि 6 महीनों की ही तो बात है, कुछ दिन अम्माजी भैया या दीदी के पास रह लेंगी.

इसी आशय से उन्होंने दोनों जगह फोन किए थे किंतु दोनों जगह से ही सदा की तरह नकारात्मक रुख पा कर वे परेशान हो उठे थे. अनु अलग मुंह फुलाए बैठी थी.

‘‘अम्माजी पिछले 30 वर्षों से हमारे पास रह रही हैं और अब जब 6 महीने उन्हें अपने पास रखने की बात आई तो एक की बीवी की तबीयत ठीक नहीं है और दूसरे का घर छोटा है. हमारे साथ भी इस तरह की अनेक परेशानियां कई बार आईं पर उन परेशानियों का रोना रो कर हम ने तो उन्हें रखने के लिए कभी मना नहीं किया,’’ क्रोध से बिफरते हुए अनु ने कहा.

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दिनेश सदा मां के प्रति अपनी जिम्मेदारी से कोई न कोई बहाना बना कर बचता और जब भी दीपेश कहीं जाने का प्रोग्राम बनाते तो वह बनने से पूर्व ही ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता था. यदि वे मां को साथ ले भी जाना चाहते तो वे कह देतीं, ‘‘बेटा, इस उम्र में अब मुझ से घूमनाफिरना नहीं हो पाएगा. वैसे भी तुम्हारे पिता की मृत्यु के पश्चात मैं ने बाहर का खाना छोड़ दिया है. इसलिए मैं कहीं नहीं जाऊंगी.’’

वे मां को कभी भी अकेला छोड़ कर कहीं जा नहीं पाए और न ही मां ने ही कभी अपने मन से उन्हें कहीं घूमने जाने को कहा. उन्हें याद नहीं आता कि वे कभी अनु को कहीं घुमाने ले गए हों. आज अंकिता ने उन्हें बुलाया है तब भी यही समस्या उठ खड़ी हुई है. पोती को ऐसी हालत में अकेली जान कर इस बार मां ने भी उन्हें जाने की इजाजत दे दी थी लेकिन दिनेश और दीपा के पत्रों ने उन की समस्या को बढ़ा दिया था.

अनु जहां इन पत्रों को पढ़ कर क्रोधित हो उठी थी वहीं मां अपराधबोध से ग्रस्त हो उठी थीं. उन की समस्या को देख कर मां ने आग्रहयुक्त स्वर में कहा था, ‘‘तुम लोग चले जाओ, बेटा, मैं अकेली रह लूंगी, 6 महीने की ही तो बात है, श्यामा नौकरानी मेरे पास सो जाया करेगी.’’

अनु और मां का रिश्ता भले ही कड़वाहट से भरपूर था पर समय के साथ उन में आपस में लगाव भी हो गया था. शायद इसीलिए मां के शब्द सुन कर पहली बार अनु के मन में उन के लिए प्रेम उमड़ आया था किंतु वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? इस उम्र में उन्हें अकेले छोड़ने का उस का भी मन नहीं था. यही हालत दीपेश की भी थी. एक ओर पुत्री का मोह उन्हें विवश कर रहा था तो दूसरी ओर कर्तव्यबोध उन के पैरों में बेडि़यां पहना रहा था.

अभी वे सोच ही रहे थे कि पड़ोसी रमाकांत ने घर में प्रवेश किया और उन की उदासी का कारण जान कर बोले, ‘‘बस, इतनी सी समस्या के कारण आप लोग परेशान हैं. हम से पहले क्यों नहीं कहा? वे जैसी आप की मां हैं वैसी ही हमारी भी तो मां हैं. आप दोनों निश्ंिचत हो कर बेटी की डिलीवरी के लिए जाइए, मांजी की जिम्मेदारी हमारे ऊपर छोड़ दीजिए. उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

6 महीने तो क्या, आप चाहें तो और भी रह सकते हैं, बारबार तो विदेश जाना हो नहीं पाता, अत: अच्छी तरह घूमफिर कर ही आइएगा.’’

रमाकांतजी की बातें सुन कर मांजी का चेहरा खिल उठा, मानो उन के दिल पर रखा बोझ उतर गया हो और उन्होंने स्वयं रमाकांत की बात का समर्थन कर उन्हें जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

पुत्री का मोह उन से वह करवा गया था जो वे पिछले 30 वर्षों में नहीं कर पाए थे. 2 दिन बाद ही वे न्यूयार्क के लिए रवाना हो गए. वे पहली बार घर से बाहर निकले पर फिर भी मन में वह खुशी और उमंग नहीं थी. उन्हें लगता था कि वे अपना मन वहीं छोड़ कर कर्तव्यों की बेडि़यों में बंधे जबरदस्ती चले आए हैं. यद्यपि वे हर हफ्ते ही फोन द्वारा मां का हालचाल लेते रहते थे लेकिन उन्हें यही बात बारबार चुभचुभ कर लहूलुहान करती रहती थी कि आवश्यकता के समय उन के अपनों ने उन का साथ नहीं दिया.

यहां तक कि उन की भावनाओं को समझने से भी इनकार कर दिया. वहीं, उन के पड़ोसी मित्र रमाकांत उन की अनुपस्थिति में सहर्ष मां की जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो गए. वे समझ नहीं पा रहे थे कौन अपना है कौन पराया, खून के रिश्ते या आपसी आवश्यकताओं को निभाते दिल के रिश्ते…

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कैसे हैं ये खून के रिश्ते जिन में एकदूसरे के लिए प्यार, विश्वास यहां तक कि सुखदुख में साथ निभाने की कर्तव्यभावना भी आज नहीं रही है. वे मानवीय संवेदनाए, भावनाएं कहां चली गईं जब एकदूसरे के सुखदुख में पूरा परिवार एकजुट हो कर खड़ा हो जाता था. दिनेश और दीपा उन की मजबूरी को क्यों नहीं समझ पाए. वे अंकिता के पास महज घूमने तो जा नहीं रहे थे कि अपना प्रोग्राम बदल देते या कैंसिल कर  देते. मां सिर्फ उन की ही नहीं, उन दोनों की भी तो हैं. जब वे पिछले 30 वर्षों से उन की देखभाल कर रहे हैं तो मात्र कुछ महीने उन्हें अपने पास रखने में उन दोनों को भला कौन सी परेशानी हो जाती? सुखदुख, हारीबीमारी, छोटीमोटी परेशानियां तो सदा इंसान के साथ लगी रहती हैं, इन से डर कर लोग अपने कर्तव्यों से मुख तो नहीं मोड़ लेते?

न्यूयार्क पहुंचने के 15 दिन बाद ही दीपेश और अनुपमा नानानानी बन सुख से अभिभूत हो उठे. अंकिता की पुत्री आकांक्षा को गोद में उठा कर एकाएक उन्हें लगा कि उन की सारी मनोकामनाएं पूरी हो गई हैं.

अंकिता उन की इकलौती पुत्री थी, उन की सारी आशाओं का केंद्रबिंदु थी. उस का विवाह आशुतोष से इतनी दूर करते हुए बहुत सी आशंकाएं उन के मन में जगी थीं पर अपने मित्र रमाकांत के समझाने व अंकिता की आशुतोष में रुचि देख कर बेमन से विवाह तो कर दिया था पर जानेअनजाने दूरी के कारण उस से न मिल पाने की बेबसी उन्हें कष्ट पहुंचा ही देती थी. लेकिन अब बेटी का सुखी घरसंसार देख कर उन की आंखें भर आईं.

आकांक्षा भी थोड़ी बड़ी हो चली थी अत: आशुतोष और अंकिता सप्ताहांत में उन्हें कहीं न कहीं घुमाने का कार्यक्रम बना लेते. स्टैच्यू औफ लिबर्टी के सौंदर्य ने उन का मन मोह लिया था, एंपायर स्टेट बिल्ंिडग को देख कर वे चकित थे, उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि 102 मंजिली इमारत, वह भी आज से 67-68 वर्ष पूर्व कोई बना सकता है और इतनी ऊंची इमारत भी कहीं कोई हो सकती है.

टाइम स्क्वायर की चहलपहल देख कर लगा सचमुच ही किसी ने कहा है कि न्यूयार्क कभी सोता नहीं है, वहीं मैडम तुसाद म्यूजियम में मोम की प्रतिमाएं इतनी सजीव लग रही थीं कि विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे मोम की बनी हैं. वहां की साफसफाई, गगनचुंबी इमारतों, चौड़ी सड़कों व ऐलीवेटरों पर तेजी से उतरतेचढ़ते लोगों को देख कर वे अभिभूत थे, वहां जीवन चल नहीं रहा था बल्कि दौड़ रहा था.

आशुतोष और अंकिता ने मम्मीपापा के लिए वाश्ंिगटन और नियाग्रा फौल देखने के लिए टिकट बुक करने के साथ होटल की बुकिंग भी करवा दी थी. उन के साथ वे दोनों भी जाना चाहते थे पर आकांक्षा के छोटी होने के कारण नहीं जा पाए. वाश्ंिगटन में जहां केनेडी स्पेस म्यूजियम देखा वहीं वाइटहाउस तथा सीनेट की भव्य इमारत ने आकर्षित किया. वार मैमोरियल, लिंकन और रूजवैल्ट मैमोरियल ने यह सोचने को मजबूर किया कि यहां के लोग इतने आत्मकेंद्रित नहीं हैं जितना कि उन्हें प्रचारित किया जाता रहा है. अगर ऐसा होता तो ये मेमोरियल नहीं होते.

नियाग्रा फौल की खूबसूरती तो देखते ही बनती थी. हमारे होटल का कमरा भी फैल व्यू पर था. यहां आ कर अनु तो इतनी अभिभूत हो गई कि उस के मुंह से बस एक ही बात निकलती थी, ‘मेरी सारी शिकायतें दूर हो गईं. जिंदगी का मजा जो हम पहले नहीं ले पाए, अब ले रहे हैं. मन करता है इस दृश्य को आंखों में भर लूं और खोलूं ही नहीं.’ उस का उतावलापन देख कर ऐसा लगता था मानो वह 20-25 वर्ष की युवती बन गई है, वैसी ही जिद, प्यार और मनुहार, लगता था समय ठहर जाए. पर ऐसा कब हो पाया है? समय की अबाध धारा को भला कोई रोक पाया है?

देखतेदेखते उन के लौटने के दिन नजदीक आते जा रहे थे. उन्होंने अपने रिश्तेदारों के लिए उपहार खरीदने प्रारंभ कर दिए. एक डिपार्टमैंटल स्टोर से दूसरे डिपार्टमैंटल स्टोर, एक मौल से दूसरे मौल के चक्कर काटने में ही सुबह से शाम हो जाती थी. सब के लिए उपहार खरीदना वास्तव में कष्टप्रद था लेकिन इतनी दूर आ कर सब के लिए कुछ न कुछ ले जाना भी आवश्यक था. वैसे भी विदेशी वस्तुओं के आकर्षण से भारतीय अभी मुक्त नहीं हो पाए हैं. यह बात अनु के बेतहाशा शौपिंग करने से स्पष्ट परिलक्षित भी हो रही थी.

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एकदो बार तो दीपेश ने उसे टोका तो वह बोली, ‘‘जीवन में पहली बार तो घर से निकली हूं, कम से कम अब तो अपने अरमान पूरे कर लेने दो, वैसे भी इतनी अच्छी चीजें भारत में कहां मिलेंगी?’’

अब उसे कौन समझाता कि विकेंद्रीकरण के इस युग में भारत भी किसी से पीछे नहीं है. यहां का बाजार भी इस तरह की विभिन्न वस्तुओं से भरा पड़ा है. लेकिन इन्हीं वस्तुओं को हम भारत में महंगी या अनुपयोगी समझ कर नहीं खरीदते हैं.

अंकिता और आशुतोष के सहयोग से खरीदारी का काम भी पूरा हो गया. अंत में रमाकांत और उन की पत्नी विभा के लिए उपहार खरीदने की उन की पेशकश पर अंकिता को आश्चर्यचकित देख कर वे बोले, ‘‘बेटी, वे पराए अवश्य हैं लेकिन तुम यह क्यों भूल रही हो कि इस समय तुम्हारी दादी की देखभाल की जिम्मेदारी निभा कर उन्होंने अपनों से अधिक हमारा साथ दिया है वरना हमारा तुम्हारे पास आना भी संभव न हो पाता. परिवार के सदस्यों के लिए उपहार ले जाना मेरी नजर में रस्मअदायगी है लेकिन उन के लिए उपहार ले जाना मेरा कर्तव्य है.’’

लौटने पर अभी व्यवस्थित भी नहीं हो पाए थे कि भाई दिनेश और बहन दीपा सपरिवार आ गए, क्रोध भी आया कि यह भी नहीं सोचा कि 6 महीने के पश्चात घर लौटने पर फिर से व्यवस्थित होने में समय लगता है. दीपेश के चेहरे पर गुस्सा देख अनु ने उन्हें किनारे ले जा कर धीरे से कहा, ‘‘गुस्सा थूक दीजिए. यह सोच कर खुश होने का प्रयत्न कीजिए कि कम से कम इस समय तो सब ने आ कर हमारा मान बढ़ाया है. आप बड़े हैं भूलचूक माफ कर बड़प्पन दिखाइए.’’

अनु की बात सुन कर दीपेश ने मन के क्रोध को दबाया सकारात्मक सोच से उन का स्वागत किया. खुशी तो उन्हें इस बात पर हो रही थी कि सदा झुंझलाने वाली अनु सब को देख कर अत्यंत खुश थी. शायद, उसे अपने विदेश प्रवास का आंखों देखा हाल सुनाने के लिए कोई तो चाहिए था या इतने दिनों तक घरपरिवार के झंझटों से मुक्त रहने तथा मनमाफिक भ्रमण करने के कारण उस का तनमन खुशियों से ओतप्रोत था और अपनी इसी खुशी में सभी को सम्मिलित कर वह अपनी खुशी दोगुनी करना चाहती थी.

‘‘मैं ने और अनु ने काफी सोचविचार के पश्चात तुम सभी के लिए उपहार खरीदे हैं, आशा है पसंद आएंगे,’’ शाम को फुरसत के क्षणों में दीपेश ने सूटकेस खोल कर प्रत्येक को उपहार पकड़ाते हुए कहा.

अटैची खाली हो चुकी थी. उस में एक पैकेट पड़ा देख कर सब की निगाहें उसी पर टिकी थीं. उसे उठा कर अनु को देखते हुए दीपेश ने कहा, ‘‘यह उपहार रमाकांत और विभा भाभी के लिए है, जा कर उन्हें दे आओ.’’

‘‘लेकिन उन के लिए उपहार लाने की क्या आवश्यकता थी?’’ अम्मा ने प्रश्नवाचक नजरों से पूछा.

‘‘अम्मा, शायद तुम भूल गईं कि तुम्हारे अपने जो तुम्हें कुछ माह भी अपने पास रखने को तैयार नहीं हुए थे, उस समय रमाकांत और उन की पत्नी विभा ने न केवल हमारी समस्या को समझा बल्कि तुम्हारी देखभाल की जिम्मेदारी उठाने को भी सहर्ष तैयार हो गए. अम्मा, तुम्हारी निगाहों में उन की भलमनसाहत की भले ही कोई कीमत न हो या तुम्हारे लिए वे आज भी पराए हों पर मेरे लिए आज रमाकांत पराए हो कर भी मेरे अपनों से बढ़ कर हैं,’’ कहते हुए दीपेश के स्वर में न चाहते हुए भी कड़वाहट आ गई.

अनु उपहार ले कर रमाकांत और विभा भाभी को देने चली गई थी. सच बात सुन कर सब के चेहरे उतर गए थे. दीपेश जानते थे कि उन के अपने उन से उपहार प्राप्त कर के भी खुश नहीं हैं क्योंकि वे उन के प्रेम से लाए उपहारों को पैसे के तराजू पर तौल रहे हैं जबकि रमाकांत और विभा उन से प्राप्त उपहारों को देख कर फूले नहीं समा रहे होंगे क्योंकि उन्हें उन से कोई अपेक्षा नहीं थी. उन्होंने एक मां की सेवा कर मानवीय धर्म निभाया है.

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