family story in hindi
family story in hindi
लेखक- राम महेंद्र राय
तुषार ने अपनी योजना दीपिका को बताई तो वह सकते में आ गई. दरअसल तुषार ब्रोकर के माध्यम से फरजी कागजात पर होम लोन लेना चाहता था. इस में उसे 3 महीने बाद पूरे रुपए कैश में मिल जाता. बाद में ब्रोकर अपना कमीशन लेता. दीपिका ने इस काम के लिए मना किया तो तुषार ने उसे अपनी कसम दे कर कर अंतत: मना लिया.
तुषार ने 4-5 दिनों में पेपर तैयार कर के दीपिका को दिए तो वह धर्मसंकट में पड़ गई कि सिग्नेचर करूं या न करूं. इसी उधेड़बुन में 3 दिन बीत गए तो घर में झाड़ूपोंछा लगाने वाली सरोजनी अचानक उस से बोली, ‘‘मेमसाहब, सुना है कि आप बैंक से लोन ले कर तुषार बाबू को देंगी?’’
‘‘तुम्हें किस ने बताया?’’ दीपिका ने हैरत से पूछा.
‘‘कल आप के घर से काम कर के जा रही थी तो बरामदे में तुषार बाबू और उस की मां के बीच हुई बात सुनी थी. तुषार बाबू कह रहे थे, ‘चिंता मत करो मां. लोन ले कर दीपिका रुपए मुझे दे देगी तो उसे घर में रहने नहीं दूंगा. उस पर तरहतरह के इल्जाम लगा कर घर से बाहर कर दूंगा.’’
सरोजनी चुप हो गई तो दीपिका को लगा उस के दिल की धड़कन बंद हो जाएगी. पर जल्दी ही उस ने अपने आप को संभाल लिया. सरोजनी को डांटते हुए कहा, ‘‘बकवास बंद करो.’’
सरोजनी डांट खा कर पल दो पल तो चुप रही. फिर बोली, ‘‘कुछ दिन पहले मेरे बेटे की तबीयत बहुत खराब हुई थी तो आप ने रुपए से मेरी बहुत मदद की थी. इसीलिए मैं ने कल जो कुछ भी सुना था, आप को बता दिया.’’
वह फिर बोली, ‘‘मेमसाहब, तुषार बाबू से सावधान रहिएगा. वह अच्छे इंसान नहीं हैं. उन की नजर हमेशा अमीर लड़कियों पर रहती थी. उन्होंने आप से शादी क्यों की, मेरी समझ से बाहर की बात है. इस में भी जरूर उन का कोई न कोई मकसद होगा.’’
शक घर कर गया तो दीपिका ने अपने मौसेरे भाई सुधीर से तुषार की सच्चाई का पता लगाने का फैसला किया. सुधीर पुलिस इंसपेक्टर था. सुधीर ने 10 दिन में ही तुषार की जन्मकुंडली खंगाल कर दीपिका के सामने रख दी.
पता चला कि तुषार आवारा किस्म का था. प्राइवेट जौब से वह जो कुछ कमाता था, अपने कपड़ों और शौक पर खर्च कर देता था. वह आकर्षक तो था ही, खुद को ग्रैजुएट बताता था. अमीर घर की लड़कियों को अपने जाल में फांस कर उन से पैसे ऐंठना वह अच्छी तरह जानता था.
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दीपिका को यह भी पता चल चुका था कि उस से 50 लाख रुपए ऐंठने का प्लान तुषार ने अपनी मां के साथ मिल कर बनाया था.
मां ऐसी लालची थी कि पैसों के लिए कुछ भी कर सकती थी. उस ने तुषार को दीपिका से शादी करने की इजाजत इसलिए दी थी कि तुषार ने उसे 2 लाख रुपए देने का वादा किया था. विवाह के एक साल बाद तुषार ने अपना वादा पूरा भी कर दिया था.
तुषार पर दीपिका से किसी भी तरह से रुपए लेने का जुनून सवार था. रुपए के लिए वह उस के साथ कुछ भी कर सकता था.
तुषार की सच्चाई पता लगने पर दीपिका को अपना अस्तित्व समाप्त होता सा लगा. अस्तित्व बचाने के लिए कड़ा फैसला लेते हुए दीपिका ने तुषार को कह दिया कि वह बैंक से किसी भी तरह का लोन नहीं लेगी.
तुषार को बहुत गुस्सा आया, पर कुछ सोच कर अपने आप को काबू में कर लिया. उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘मुझे तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी.’’
कुछ दिन खामोशी से बीत गए. तुषार और उस की मां ने दीपिका से बात करनी बंद कर दी.
दीपिका को लग रहा था कि दोनों के बीच कोई खिचड़ी पक रही है. पर क्या, समझ नहीं पा रही थी.
एक दिन सास तुषार से कह रही थी, ‘‘दीपिका को कब घर से निकालोगे? उस ने तो लोन लेने से भी मना कर दिया है. फिर उसे बरदाश्त क्यों कर रहे हो?’’
‘‘उस से तो 50 लाख ले कर ही रहूंगा मां.’’ तुषार ने कहा.
‘‘पर कैसे?’’
‘‘उस का कत्ल कर के.’’
उस की मां चौंक गई, ‘‘मतलब?’’
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‘‘मुझे पता था कि फरजी कागजात पर वह लोन नहीं लेगी. इसलिए 7 महीने पहले ही मैं ने योजना बना ली थी.’’
‘‘कैसी योजना?’’
‘‘दीपिका का 50 लाख रुपए का जीवन बीमा करा चुका हूं. उस का प्रीमियम बराबर दे रहा हूं. उस की हत्या करा दूंगा तो रुपए मुझे मिल जाएंगे, क्योंकि नौमिनी मैं ही हूं.’’
तुषार की योजना पर मां खुश हो गई. कुछ सोचते हुए बोली, ‘‘अगर पुलिस की पकड़ में आ जाओगे तो सारी की सारी योजना धरी की धरी रह जाएगी.’’
‘‘ऐसा नहीं होगा मां. दीपिका की हत्या कुछ इस तरह से कराऊंगा कि वह रोड एक्सीडेंट लगेगा. पुलिस मुझे कभी नहीं पकड़ पाएगी. बाद में गौरांग का भी कत्ल करा दूंगा.’’
कुछ देर चुप रह कर तुषार ने फिर कहा, ‘‘दीपिका की मौत के बाद अनुकंपा के आधार पर बैंक में मुझे नौकरी भी मिल जाएगी. फिर किसी अमीर लड़की से शादी करने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’
दीपिका ने दोनों की बात मोबाइल में रिकौर्ड कर ली थी. मांबेटे के षडयंत्र का पता चल गया था. अब उस का वहां रहना खतरे से खाली नहीं था.
इसलिए एक दिन वह बेटे गौरांग को ले कर किसी बहाने से मायके चली गई. सारा घटनाक्रम मम्मीपापा को बताया तो उन्होंने तुषार से तलाक लेने की सलाह दी.
दीपिका तुषार को सिर्फ तलाक दे कर नहीं छोड़ना चाहती थी. बल्कि वह उसे जेल की हवा खिलाना चाहती थी. यदि उसे यूं छोड़ देती तो वह फिर से किसी न किसी लड़की की जिंदगी बरबाद कर देता.
फिर थाने जा कर दीपिका ने तुषार के खिलाफ रिपोर्ट लिखाई. सबूत में मोबाइल में रिकौर्ड की गई बातें पुलिस को सुना दीं. तब पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर तुषार को गिरफ्तार कर लिया.
कुछ महीनों बाद ही दीपिका ने तुषार से तलाक ले लिया. इस के बाद पापा ने उसे फिर से शादी करने का सुझाव दिया.
शादी के नाम का कोई ठप्पा अब दीपिका नहीं लगाना चाहती थी. पापा को समझाते हुए बोली, ‘‘मुझे किस्मत से जो मिलना था, मिल चुका है. फिलहाल जिंदगी से बहुत खुश भी हूं. फिर शादी क्यों करूं. आप ही बताइए पापा कि इंसान को जीने के लिए क्या चाहिए? खुशी और संतुष्टि, यही न? बेटे की परवरिश करने से जो खुशी मिलेगी, वही मेरी उपलब्धि होगी. फिर मैं बारबार किस्मत आजमाने क्यों जाऊं?’’
पापा को लगा कि दीपिका सही रास्ते पर है. फिर वह चुप हो गए.
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विशाल ने घुटनों पर बैठते हुए उसे प्रोपोज किया तो लक्षिता समझ नहीं पा रही थी कि सौगात पर हंसे या रोए. असमंजस में उलझ वह विशाल को भी असमंजस में उलझ छोड़ कर डाइनिंगहौल से बाहर निकल आई.
‘यह आज की पीढ़ी भी न. सपनों में ही जीती है. अरे सपनों से परे समाज भी तो होता है न? उस ने भी तो संसार के सफल संचालन के लिए कुछ नियम बनाए ही हैं. हां, जरूरी नहीं कि ये नियम सब को रास आएं ही, लेकिन नियम किसी एक व्यक्ति की खुशी या सुविधा को
ध्यान में रख कर तो नहीं बनाए जा सकते न?’ लक्षिता कैब में बैठी मन ही मन खुद को
समझने का प्रयास कर रही थी. रातभर विशाल के प्रश्नों के जवाब ही तैयार करती रही. वह जानती थी कि विशाल सवालों की लिस्ट लिए उसे औफिस के मुख्य दरवाजे पर ही खड़ा मिलेगा. लेकिन विशाल को इतना चैन कहां.
उस ने तो सुबहसवेरे ही लक्षिता के घर की घंटी बजा दी.
‘‘आज के दौर के बदलाव को देखते हुए बात करें तो मेरे और तुम्हारे बीच पूरी एक पीढ़ी का फासला कहा जा सकता है. समझ रहे हो न तुम? उम्र का यह फासला बहुत माने रखता है विशाल,’’ लक्षिता ने उसे चाय का कप पकड़ाते हुए कहा, लेकिन उस के तो रोमरोम पर जैसे इश्क तारी था.
लक्षिता से झगड़ ही पड़ा, ‘‘प्यार हर फासले को पाट देता है,’’ कुछ संयत होने के बाद उसने लक्षिता के दोनों हाथ पकड़ लिए.
लक्षिता उन आंखों की तरलता को सहन नहीं कर सकी. वह पिघलने लगी. न केवल पिघली बल्कि वह तो विशाल के प्रेम प्रवाह में बह ही गई. बहतीबहती इतनी दूर निकल आई कि किनारे न जाने कहां पीछे छूट गए.
वह तो विशाल ने ही प्रेम के चरम को छूने के बाद उस की अधमुंदी आंखों को चूम कर
उसे इस स्वप्नलोक से बाहर निकाला वरना उस का मन तो चाह रहा था कि बस विशाल प्रेम की नैया को खेता रहे और वह बहती रहे.
लक्षिता ने विशाल का प्रेम स्वीकार कर लिया, लेकिन वह जानती थी कि अभी उम्र और जन्म के बंधन को भी पार पाना पड़ेगा. अभी तो शुरुआत हुई है. इस कहानी को अंजाम तक पहुंचाने में बहुत सी बाधाओं का सामना करना पड़ेगा. हो सकता है कि शुरुआत घर से ही हो. उस ने अपनी मां को विशाल के बारे में बताया.
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जैसाकि उसे अंदेशा था, स्वीकार तो मां को भी नहीं था यह रिश्ता लेकिन ‘‘चलो, देर से ही सही. बेटी का घर तो बस जाएगा. बड़ी बहू, बड़े भाग,’’ कहते हुए किसी तरह उन्होंने खुद को समझ लिया था, मगर विशाल के मातापिता को यह रिश्ता जरा भी नहीं सुहाया था.
‘‘मति मारी गई है लड़के की. अरे 16 की उम्र में तो मैं अपनी मां की गोद में थी. साथ चलोगे तो लोग पतिपत्नी नहीं बल्कि बूआभतीजा सम?ोंगे. ऊपर से ब्राह्मण खानदान की अलग. जिन के पुरखे हमारे यजमान होते हैं हम उन्हें दान दें या उन से बेटी लें?’’ मां ने सख्ती से इस बेमेल जोड़ी की खिलाफत की.
‘‘औरतों के शरीर पर उम्र जल्दी झलकने लगती है. आगे की सोचो. जब इस लड़की की उम्र ढलने लगेगी तब क्या तुम्हारी हमउम्र तुम्हें ललचाएंगी नहीं? फिर अपने होने वाले बच्चों की भी तो सोचो. रिटायरमैंट की उम्र में यह पोतड़े धोएगी क्या?’’ यह कहते हुए पिता ने भी समझया था. लेकिन विशाल के भी अपने अलग तर्क थे.
‘‘अमृता सिंह से ले कर प्रियंका चोपड़ा तक… और शिखर धवन से ले कर सचिन तेंदुलकर तक… किसी को भी देख लो सब अपनी बड़ी पत्नियों के साथ खुश हैं. आप लोग पता नहीं क्यों उम्र के फासले को इतना तूल दे रहे हैं,’’ विशाल ने कई बड़ी हस्तियों के उदाहरण अपने पक्ष में दिए.
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‘‘वे सब बड़े लोग हैं. उन्हें समाज से कोई विशेष मतलब नहीं होता, लेकिन हमें तो सब सोचना पड़ेगा न? लोग तुम्हीं में खोट निकालेंगे कि कोई मिली नहीं तो जो मिली उसी को ब्याह लिया,’’ मां ने अपना प्रतिरोध जारी रखा.
मगर विशाल तो सचमुच दीवाना हो उठा था. उस
ने उन की हर दलील को खारिज करते हुए जब कोर्ट मैरिज और घर छोड़ने की धमकी दी तो मन मार कर घर वालों को उस की सनक के सामने झकना पड़ा और तानोंतंजों के मध्य लक्षिता विशाल की ब्याहता बन कर उस के घर आ गई.
किसी आम फिल्मी कहानी की तरह इस दास्तान की कोई हैप्पी ऐंडिंग नहीं हुई थी बल्कि यहां से तो हैप्पीनैस की ऐंडिंग शुरू हुई थी.
‘‘उम्र में जितनी तुम विशु से बड़ी हो, लगभग उतनी ही बड़ी मैं तुम से हूं. मेरी सहेलियां कहती हैं कि बहू से मांजी नहीं बल्कि दीदी कहलवाया करो,’’ सास बातों ही बातों में लक्षिता को उस की उम्र जता देती थी.
‘‘ये तो छोटा है लेकिन तुम तो बड़ी हो न. तुम से तो समझदारी की उम्मीद की ही जा सकती है,’’ कहते हुए विशाल के पिता भी जबतब उस पर बड़प्पन लाद देते.
लक्षिता क्या करती. कट कर रह जाती.
कभीकभी तो शाकाहारमांसाहार को ले कर घर में ऐसी बहस छिड़ती कि लक्षिता को सचमुच यह शादी जल्दबाजी में लिया गया फैसला लगने लगती.
‘विशाल को भी बारबार खुरचने से क्या फायदा. खून का रिश्ता है, किसी दिन उबाल खा गया तो बेवजह बतंगड़ बन जाएगा और लोगों को अपनी आशंका सही साबित होने का दावा करने का मौका मिल जाएगा,’ यही सोच कर लक्षिता चुप्पी साध लेती.
मां से मन की कही तो उन्होंने भी, ‘‘यह तो एक दिन होना ही था,’’ कह कर उसे ही कठघरे में खड़ा कर दिया.
लक्षिता को जब कुछ नहीं सूझ तो उस ने यहां मुंबई यानी अपने मायके में ट्रांसफर ले लिया. इधर मां भी अकेली थी, इसलिए लक्षिता और उन्हें दोनों को ही यह व्यवस्था रास आ गई. काम की अधिकता का बहाना बना कर वह ससुराल जाना टालती रहती. विशाल ही हफ्ते 10 दिन में उस से मिलने आ जाता. गनीमत कि विशाल की उस के प्रति दीवानगी और प्यार अभी भी बरकार थी, इसलिए यह रिश्ता जुड़ा हुआ था. रोज उस से फोन पर बात होती रहती. एक दिन उसी से पता चला कि उस के पापा कोरोना पौजिटिव हो गए हैं. 3 ही दिन में इतने गंभीर हो गए कि उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा.
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कहने को तो मरीज की पूरी देखभाल अस्पताल के जिम्मे ही थी, लेकिन अस्पताल के बाहर भी सैकड़ों काम होते हैं यह विशाल को इसी दौरान पता चला. बेचारा विशाल उन के लिए आवश्यक दवाओं, औक्सीजन और आईसीयू बेड की व्यवस्था करता हकलान हुआ जा रहा था. कभी इस डाक्टर से राय लेता तो कभी उस डाक्टर से. विशाल को समझ में नहीं आ रहा था कि जिंदगी में आए इस भूचाल को कैसे व्यवस्थित करे. इस से पहले तो कभी पापा ने उसे इस उलझन में आने ही नहीं दिया.
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लेखक- डा. भारत खुशालानी
अधिकारी दोनों को एक बड़े कमरे में ले कर गया, जो एक प्रतीक्षालय कमरे की तरह था. गरिमा उसी कमरे में बैठी रही, जबकि मिन अस्पताल में अपने दूसरे काम से निकल गया. गरिमा को चीनी भाषा अब अच्छे से समझ आने लगी थी. उस को अधिकारी और रिसैप्शनिस्ट की बातों से समझ आ गया था कि मामला गंभीर है. उस ने हिंदुस्तान फोन लगाने की सोची, लेकिन फिर स्काइप करना ज्यादा उचित समझा. भारत में अभी दोपहर हो रही होगी और मम्मी खाना बना रही होगी, यह सोच कर उस ने स्काइप करने का विचार भी त्याग दिया. उस के बदले उस ने विश्वविद्यालय में अपनी सहेली शालिनी को फोन लगाया. ‘‘शालिनी, तेरे को विश्वास नहीं होगा. हम लोगों को अभी अस्पताल से निकलने नहीं दिया जा रहा है.’’शालिनी बोली, ‘‘क्या बात कर रही है?’’ गरिमा ने कहा, ‘‘किसी वायरस की बात कर रहे थे. शायद मेरी जांच भी करें कि किसी ऐसे व्यक्ति से संपर्क तो नहीं हो गया है.’’शालिनी ने पूछा, ‘‘वान ने अच्छे से बात की तुझ से?’’गरिमा ने जवाब दिया, ‘‘नहीं, उस से मुलाकात नहीं हो पाई. शायद वह व्यस्त है.
कहीं. उस के बदले मिन झोउ नाम के लड़के ने प्रयोगशालाएं दिखाईं.’’शालिनी ने आगे पूछा, ‘‘सभी को रखा है या सिर्फ तेरे को रखा है भारतीय जान कर?’’गरिमा ने यहांवहां देखा, ‘‘अच्छा प्रश्न किया है तू ने. अभी मुझे मालूम नहीं है. और एक हाथ की दूरी पर भी रहने को बोल रहे हैं.’’शालिनी ने कहा, ‘‘देख, थोड़ी देर रुक. फिर कोई परेशानी आए तो मुझे बताना.’’गरिमा बोली, ‘‘ठीक है, चल.’’गरिमा ने फोन रख दिया. इस बात का संदेह करना जरूरी था कि सिर्फ भारतीय समझ कर उस को रखा गया था या सब के ऊपर यह लागू था. यह सोच कर गरिमा ने प्रतीक्षालय कमरे से निकल कर थोड़ी तहकीकात करना उचित समझा. थोड़ी देर के बाद उस ने शालिनी को फिर फोन लगाया, ‘‘शालिनी, मेरे खयाल से ये लोग किसी को भी बाहर नहीं जाने दे रहे हैं, सिर्फ मैं ही इस में शामिल नहीं हूं.’’शालिनी बोली, ‘‘मैं आ जाऊं वहां पर?’’गरिमा ने कहा, ‘‘नहीं, यहां मत आ. तेरे को अंदर नहीं आने देंगे. कुछ घंटों के लिए इन्होंने पूरी जगह की ही तालाबंदी कर दी है. शायद सिर्फ सावधानी बरत रहे हैं. जहां मुझे रखा है, वह अस्पताल के पुराने हिस्से में है. कोई प्रतीक्षालय कमरा लगता है, लेकिन यहां गोदाम की तरह सामान भी रखा है.’’शालिनी ने चिंता जाहिर की, ‘‘तू ठीक है?’’गरिमा ने कहा, ‘‘अभी तक तो ठीक हूं. चल, मैं बाद में कौल करती हूं.’’ अचानक गरिमा को उन चूहों के डब्बे की याद आई जिसे आज उस ने एक बूढ़े को संक्रामक रोग विभाग की ओर ले जाते हुए देखा था. चूहों तक पहुंचने की इजाजत तो आज शायद उस को कोई नहीं देगा, यही सोच कर गरिमा ने महसूस किया कि आज के दिन ही उन चूहों का आना कोई विशेष महत्त्व की बात थी.
जिज्ञासावश, गरिमा उस विभाग को ढूंढ़ने के लिए इस गोदाम से दिखने वाले प्रतीक्षालय कमरे से निकल कर गलियारे में आ गई. दोचार गलियारे पार करने के बाद वह सहम गई क्योंकि वहां पर पुलिसवाले रक्षात्मक कपड़े पहने हुए खड़े थे. उन के पुलिस वाले होने का अंदेशा इसी से लगाया जा सकता था कि उन के पास कमर में पिस्तौल और बैटन मौजूद थे, और उन के पुलिस वाले बिल्ले उन की छाती पर लगे हुए थे. वे ठीक उसी प्रकार के कमरे के बाहर खड़े थे जिस प्रकार के कमरे में डा. वान लीजुंग को रखा गया था. इस कमरे में हुआनान सी फूड वाले आदमी को उस के घर से पुलिस वालों ने ला कर रखा था. 4 दिन पहले उस को सिर्फ हलके रोगलक्षण थे. आज उस की स्थिति इतनी गंभीर थी कि वह मरणासन्न नजर आ रहा था. शायद यहां से उस को तुरंत आईसीयू में ले जाया जाए, पुलिस वालों को भी यह बात पता नहीं थी. इस आदमी के परिवार वालों को, वहीं उस के घर में, संगरोध करने की प्रक्रिया, स्वास्थ्य विभाग के लोगों ने शुरू कर दी थी. कमसेकम 3 लोगों के साथ उस के सीधे संपर्क बने थे – उस की मां, उस की पत्नी और उस का बेटा. तीनों को उन के घर पर ही स्पर्शवर्जन करने की हिदायत, स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों को दी गई थी. उन में से एक उस की पत्नी को खांसी और बुखार के लक्षण नजर आ रहे थे. पुलिस वालों ने उस के पास से वह सीफूड माल भी जब्त कर लिया था जो वह हुआनान मार्केट से खरीद कर लाया था. यह माल पुलिस वालों ने अस्पताल के डाक्टरों को दे दिया था. एक पुलिस वाले ने दूसरे से कहा, ‘‘डा. मू का कहना है कि यह सिर्फ तरल पदार्थों से ही फैलता है – खून, पसीना, पेशाब, सीमन.’’दूसरे ने कहा, ‘‘मैं ने तो इस के घर की किसी भी चीज को छुआ तक नहीं. इस को भी जब हम ले कर आए तो मैं ने पूरा गियर पहना हुआ था.’’पहले वाले ने कहा,
‘‘हम को वापस पुलिस स्टेशन लौट जाना चाहिए.’’दूसरा बोला, ‘‘इस की हालत तो देखो. तुम को ऐसा नहीं लगता कि भले ही पूरा गियर पहन रखा था, लेकिन इस के संपर्क में आने के कारण हम को यहां थोड़े समय रहना चाहिए निरीक्षण में?’’पहले वाला बोला, ‘‘किसी तरल पदार्थ का तो आदानप्रदान हुआ नहीं.’’दूसरा बोला, ‘‘मुझे मालूम है कि फिक्र की कोई बात नहीं है, फिर भी …’’पहले वाले की नजर अचानक गरिमा पर पड़ी. उस ने गरिमा से कहा, ‘‘यह निजी रोगीकक्ष है. आप यहां नहीं आ सकतीं.’’वुहान में, और अस्पताल में, अकसर विदेशी अच्छीखासी संख्या में दिखते थे, इसीलिए उन पुलिस वालों को भारतीय युवती को अस्पताल में देख कर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. वह यहां क्या कर रही थी, इस बात को जानने में उन की कोई रुचि नहीं दिखाई दी. गरिमा ने सकपका कर कहा, ‘‘आज एक व्यक्ति चूहे ले कर संक्रामक रोग विभाग में गया है. वहां मेरा शोधकार्य है. मैं उसी को ढूंढ़ रही हूं.’’ यह बोलतेबोलते जब गरिमा ने कांच से उस कमरे के अंदर नजर डाली जिस में सीफूड वाले व्यक्ति को रखा गया था, तो उस की मरणासन्न हालत देख कर और पुलिस वालों के रक्षात्मक कवच देख कर उस को एक ही झटके में समझ में आ गया कि किसी भयंकर और संक्रामक वायरस वाला किस्सा है. पहले पुलिस वाले ने दूसरे से कहा, ‘‘मैं इस लड़की की मदद करता हूं.’’दूसरे ने हिदायत दी, ‘‘एक हाथ की दूरी पर रखना. और इस को भी मास्क और ग्लव्स दे दो.’’पहले वाले ने अपने कवच में से मास्क और ग्लव्स निकाल कर गरिमा को दे दिए जिन्हें गरिमा ने पहन लिए. मास्क पहनने के बाद यह बताना नामुमकिन था कि वह भारतीय है या चीनी. पुलिस वाला गरिमा को रास्ता दिखाते हुए ले चला. रास्ते में गरिमा ने कहा, ‘‘वह आदमी, जिस के कमरे के बाहर तुम खड़े थे, बहुत गंभीर हालत में दिख रहा था.’’पुलिस वाला शायद अपने स्टेशन वापस जाने की जल्दी में था, इसीलिए उस ने गरिमा से बिना कुछ कहे उस को अस्पताल के अंदर के रास्ते से संक्रामक रोग विभाग तक पहुंचा दिया और चला गया. विभाग के बाहर बोर्ड लगा था, ‘प्रवेश निषेध.’ अंदर जाने के लिए कीकार्ड की जरूरत थी. इतने में अंदर से एक नीले रंग का कोट पहने व्यक्ति बाहर आया. उस ने गरिमा को वहां खड़ा हुआ पाया और कहा, ‘‘यह क्षेत्र वर्जित है.’’गरिमा ने हिम्मत जुटा कर कहा,
‘‘मैं डा. वान लीजुंग की सहायिका हूं. मुझे अंदर चूहों पर हो रही रिसर्च के सिलसिले में जाना है.’’गरिमा को इंग्लिश में बोलता सुन और विदेशी समझ कर नीले कोटवाले ने इज्जत से अपने कीकार्ड से दरवाजा खोल कर गरिमा को अंदर जाने दिया और खुद दूसरी ओर चला गया. थोड़ी ही आगे जाने पर गरिमा को वह कमरा दिखा जिस में 2-3 लंबी टेबलें पड़ी थीं और जिन पर तरहतरह के उपकरण रखे थे. वह डब्बा भी था जिस में सफेद चूहे सूखी पत्तियों के ऊपर आतुरता से यहांवहां घूम रहे थे. पास ही सीरिंज का डब्बा था. नोटिसबोर्ड पर अलगअलग रिसर्चपेपर के पहले पन्ने लगे हुए थे जिन में चूहों से हुई रिसर्च के प्रकाशन को दर्शाया गया था. बूढ़ा व्यक्ति वहां नहीं था, वह चूहों को रख कर चला गया था. गरिमा ने चूहों के झांपे को गौर से देखा. इन चूहों पर अभी प्रशिक्षण होना बाकी था. कमरे में रोशनी ज्यादा तेज नहीं थी. चूहों के ऊपर हैंडलैंप से पीली रोशनी पड़ रही थी. एक ओर मेज पर टैलीफोन रखा हुआ था और कुछ कागजात बिखरे हुए थे. अचानक अपने पीछे से आई आवाज से गरिमा हड़बड़ा गई. उस ने पीछे मुड़ कर देखा तो वही युवक खड़ा था जिस ने उसे अस्पताल की अन्य प्रयोगशालाएं दिखाई थीं. मिन झोउ ने कड़की से पूछा, ‘‘तुम यहां क्या कर रही हो?’’गरिमा चूहों की तरफ इशारा करना चाहती थी मानो पूछना चाहती हो कि इन चूहों पर कौन सा प्रयोग हो रहा है. लेकिन मिन ने उस को पूछने का अवसर नहीं दिया. मिन ने फिर सख्ती से कहा, ‘‘पूरा अस्पताल तालेबंदी में कर दिया गया है. यह नियम सब के ऊपर लागू होता है.’’गरिमा ने झेंप कर कहा, ‘‘हां.’’मिन ने कहा, ‘‘अब वे लोग किसी को भी इस अस्पताल से 48 घंटों तक बाहर नहीं जाने देंगे.’’गरिमा के मुंह से जैसे चीख ही निकल गई, ‘‘48 घंटे? पूरे 2 दिन?’’मिन ने बताया, ‘‘मैं ने पता कर लिया है, यह खबर झूठी नहीं है.’’गरिमा बोली, ‘‘यह कैसे हो सकता है?’’
लेखक- डा. भारत खुशालानी
वान के नाक का निचला हिस्सा लाल हो चुका था. उस ने अपनी आंखें जमीन पर गड़ा दीं, बोली, ‘‘दस्तखत करते वक्त उस को छींक आई थी. उस छींक के कण कौपी पर और पैन पर आ गए थे.’’मू को मसला समझ में आ गया. उस ने वान को सांत्वना दी और तुरंत उस ओर चल दिया जहां सिक्योरिटी कैमरा से रिकौर्डिंग रखी जाती थी. रिकौर्डिंग कमरे में पहुंच कर उस ने वहां टैक्नीशियन से 4 दिन पहले की सुबह की रिकौर्डिंग मांगी. रिकौर्डिंग पर उसे डा. वान लीजुंग के कक्ष में घटित होने वाली वही घटना दिखी जिस में बीमार से दिखने वाले, समुद्री खाद्य को ले कर जाने वाले व्यक्ति ने पैन से कौपी पर हस्ताक्षर करते हुए छींका था. रिकौर्डिंग कमरे से ही मू ने रजिस्ट्रेशन कक्ष को फोन लगाया और बाद में डाक्टरपेशेंट रिपोर्ट रूम से डा. वान लीजुंग की कौपी मंगाई. वुहान, हूबे प्रांत के अंतर्गत आने वाला शहर है.
वुहान में ही, हूबे के सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग में उस रोज जब पुलिसकर्मी भी थोड़ी तादाद में नजर आने लगे, तो स्वास्थ्य विभाग के बाकी कर्मचारी उन को देखने लगे. एक बड़े सम्मलेन कक्ष में स्वास्थ्य विभाग के बड़े ओहदे वाले 15-20 कर्मचारी बैठे थे और उन के पीछे पुलिसवाले खड़े हो कर आने वाले समाचार की प्रतीक्षा कर रहे थे. सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के अध्यक्ष ने तेजी से प्रवेश किया और मुख्य कुरसी पर बैठते ही पौलीकौम का बटन दबाया और पौलीकौम में बात करना शुरू किया. पौलीकौम के दूसरे छोर पर डा. चाओ मू मौजूद थे. पौलीकौम से डा. मू की आवाज पूरे कमरे में गूंजी, ‘‘हुआनान समुद्री खाद्य मार्केट से आमतौर पर सी फूड खरीदने वाले व्यक्ति का नाम, पता और मोबाइल नंबर शेयर कर रहा हूं. तुरंत इस का पता लगा कर इस को अस्पताल ले कर आना है पूरे निरीक्षण के लिए. साथ ही, सिक्योरिटी फुटेज भी शेयर कर रहा हूं कि वह कैसा दिखता है.’’अध्यक्ष ने कहा, ‘‘डा. मू, यहां बैठे सब अधिकारी यह जानना चाहते हैं कि क्या चल रहा है? उन के हिसाब से यह संभावित फ्लू के प्रकोप का मामला है. यहां पूरे प्रांत के और शहर के अधिकारी मौजूद हैं. केंद्रीय शासन वाले अभी पहुंचे नहीं हैं.’’
डा. मू ने दूसरी ओर से चिंतापूर्ण लहजे में कहा, ‘‘इतने सारे महत्त्वपूर्ण लोगों को सिर्फ फ्लू का इंजैक्शन दिलाने के लिए नहीं बुलाया गया है. जिस व्यक्ति का फुटेज मैं भेज रहा हूं, वह व्यक्ति संक्रामक है. उस के छूने से ही रोग लगने के बेहद आसार हैं.’’अध्यक्ष ने मुख्य पुलिस अधिकारी को संबोधित किया, ‘‘चीफ, स्थानीय पुलिस की मदद ले कर इस आदमी का पता लगाओ और इस से पहले कि वह शहर में प्लेग फैला दे, इसे वुहान शहरी अस्पताल में डा. मू के पास ले कर जाओ.’’चीफ ने हामी भरी.डा. मू ने चीफ और अध्यक्ष को अधिक जानकारी देना उचित समझा, ‘‘पेशेंट उत्तेजित था, आप सिक्योरिटी फुटेज में भी देख सकते हैं. वह ग्रसनी शोथ से पीडि़त है और खांस रहा है. उस को सांस की तकलीफ हो रही है. कौपी में लिखा है कि उस ने सिरदर्द की भी शिकायत की है. ‘‘डा. वान की जांच कौपी में यह भी लिखा हुआ है कि उस के लसिका गांठ सूजे हुए हैं. उस समय राउंड पर डा. वान लीजुंग थी और वह ही पेशेंट देख रही थी. उस व्यक्ति का निरीक्षण करने के 4 दिनों के अंदर डा. लीजुंग रोगसूचक हो गई है और उस में उसी रोग के लक्षण नजर आ रहे हैं. इस से पता चलता है कि जो वायरस सी फूड वाला व्यक्ति ले कर घूम रहा है, वह वायरस चंद दिनों के भीतर ही अपनेआप को दोहरा सकता है.’’अध्यक्ष ने पूछा, ‘‘डा. मू, आप को लगता है कि सी फूड वाला यह व्यक्ति इस वायरस का पहला शिकार है? या आप की नजर में इस से पहले भी ऐसे लक्षणों वाला इस या दूसरे अस्पताल में आया था?’’चीफ ने आश्चर्य जताते हुए कहा, ‘‘फ्लू जैसी आम बीमारी के लिए तो कोई भी पहले पेशेंट को ढूंढ़ने की इतनी तकलीफ नहीं करता है.’’डा. मू ने दुख से कहा,
‘‘इस के बाद अस्पताल की 2 और नर्सें, और डा. लीजुंग के पति भी इस वायरस का शिकार हो गए हैं. दोनों नर्सों और उन के पतियों को यह वायरस डा. लीजुंग के संपर्क में आने की वजह से हुआ है.’’चीफ ने कहा, ‘‘इस घटना को 4 दिन हो गए, और आप हमें आज बता रहे हैं?’’ अध्यक्ष ने चीफ से कहा, ‘‘स्थानीय पुलिस को प्रोटोकौल के अनुसार तब ही शामिल किया जा सकता है जब उस की जरूरत महसूस हो,’’ फिर डा. मू से कहा, ‘‘डा. मू, आप क्या सुझाव देंगे?’’बहुत ही गंभीरता से डा. मू ने कहा, ‘‘जब तक हम इस सी फूड वाले व्यक्ति का निरीक्षण कर के यह नहीं पता लगा लेते कि उस से पहले कोई और इस वायरस से संक्रमित नहीं था, तब तक वुहान शहरी अस्पताल की तालाबंदी कर देनी चाहिए.’’यह सुनते ही वहां बैठे सब अधिकारी आपस में फुसफुसाने लगे. डा. मू ने उन की फुसफुसाहट को नजरअंदाज करते हुए अपना सुझाव जारी रखा, ‘‘इस प्रकोप को नियंत्रण में लाने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि वह किसकिस के संपर्क में आया है और वे लोग कहां हैं जिन के संपर्क में वह आया है. ऐसे लोगों को भी अस्पताल में जल्दी से जल्दी ले कर आना है. अस्पताल में डा. लीजुंग के संपर्क में और कौनकौन आया है, इस की पूरी तहकीकात की जरूरत है, इसीलिए अस्पताल की तुरंत तालाबंदी की इजाजत चाहिए.’’अध्यक्ष बोले, ‘‘डा. मू, मैं तुम्हारी राय से सहमत हूं.’’चीफ बोले, ‘‘हम लोग किस वायरस के बारे में बात कर रहे हैं?
’’डा. मू ने बताया, ‘‘अभी तक तो यह वायरस सिर्फ श्वसन प्रणाली पर हमला करते हुए दिख रहा है. वर्तमान में यह ऐसे कुछ खास लक्षण नहीं प्रस्तुत कर रहा है जिस से हम इस की पहचान कर सकें.’’थोड़ी ही देर में गरिमा के साथ चल रहे युवक मिन झोउ का मोबाइल फोन बजा. उस ने फोन पर बात की जिस के बाद उस के हावभाव पूरी तरह बदल गए. पिछले 2 घंटों में मिन ने गरिमा को अस्पताल का निरीक्षण करवाया था और दोचार चुनिंदा प्रयोगशालाएं दिखाई थीं. आने वाले कुछ वर्षों के दौरान गरिमा इन्हीं प्रयोगशालाओं में कुछ शोधकार्य करने की सोच रही थी. इस के लिए आज उस की मुलाकात डा. वान लीजुंग से थी, लेकिन शायद वह व्यस्त थी, इसीलिए उस की जगह मिन झोउ ने ले ली थी.फोन जेब में रख कर मिन ने गरिमा से कहा, ‘‘थोड़ी सी समस्या है.’’गरिमा ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्या?’’ अब उस के वापस अपने विश्वविद्यालय लौटने का समय आ गया था, जहां होस्टल में एक कमरे में वह रहती थी. वुहान वाएरोलौजी विश्वविद्यालय, चीन का सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय है जहां उच्चकोटि की पढ़ाई तथा शोधकार्य होता है. वुहान शहरी अस्पताल की प्रयोगशालाओं का शोधकार्य, गरिमा को अपनी डाक्टरेट डिग्री के लिए जरूरी था. किसी अनुमानित परिप्रश्न के बदले वह एक व्यावहारिक और प्रयोगात्मक प्रश्न का हल अपने शोधकार्य में निकालना चाहती थी, इसीलिए उस ने विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों की मदद से वुहान शहरी अस्पताल में संपर्क किया था. विश्वविद्यालय के प्राध्यापक, अकसर अस्पताल के डाक्टरों के साथ मिल कर शोधकार्य करते थे. अपने ज्यादातर डेटा के लिए प्राध्यापक अस्पताल के मरीजों के डेटा पर निर्भर रहते थे. मिन ने गरिमा को अपने फोनकौल के बारे में बताया, ‘‘ऐसा लगता है कि अभी हम लोग इस अस्पताल से नहीं जा सकते.’’गरिमा ने कहा, ‘‘क्या मतलब?’’दोनों वापस जाने के लिए तकरीबन मुख्यद्वार तक पहुंच ही गए थे कि एक अधिकारी सा दिखने वाला व्यक्ति उन के पीछे दौड़ता हुआ आया. दोनों ने पलट कर उस को देखा. अधिकारी ने रुक कर शिष्टाचारपूर्वक कहा, ‘‘माफी चाहता हूं, लेकिन आप दोनों को वापस अंदर आना पड़ेगा.’’मिन ने एक कोशिश की, ‘‘मुझे पहले ही देरी हो रही है.’’लेकिन उस अधिकारी ने फिर शिष्टाचार लेकिन दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘मुझे मालूम है, लेकिन मैं अभी आप लोगों को यहां से नहीं जाने दे सकता हूं. आप कृपया अंदर आ जाएं, फिर मैं सब समझा दूंगा.’’
मिन ने गरिमा से कहा, ‘‘डाक्टरों से ज्यादा अस्पताल प्रशासन की चलती है. इसलिए इन की बात हमें माननी ही पड़ेगी.’’गरिमा बोली, ‘‘ऐसा लगता है मेरा आज का दौरा पूरा नहीं हुआ है. अब तो यह और बढ़ गया है. आज शायद पूरा अस्पताल ही देखने को मिलेगा मुझे.’’अधिकारी ने एक और बात कही, जिस से दोनों चौंक गए, ‘‘तुम दोनों को कम से कम एक पूरे हाथ की दूरी पर रहना पड़ेगा.’’ यह सुन कर दोनों ने अपने बीच थोड़ी दूरी बना ली. अधिकारी ने मुख्यद्वार पर मौजूद 2 रिसैप्शनिस्ट्स को थोड़ी हिदायतें दीं. दोनों रिसैप्शनिस्ट्स ने बहुत ही गंभीरताभरी निगाहों से अधिकारी की बात सुनी और माना.
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लेखक- डा. भारत खुशालानी
सुबह का चमकता हुआ लाल सूरज जब चीन के वुहान शहर पर पड़ा, तो उस की बड़ीबड़ी कांच से बनी हुई इमारतें सूरज की किरणों को प्रतिबिंबित करती हुई नींद से जागने लगीं.
मुंबई जितना बड़ा, एक करोड़ की आबादी वाला यह शहर अंगड़ाई ले कर उठने लगा, हालांकि मछली, सब्जी, फल, समुद्री खाद्य बेचने वालों की सुबह 2 घंटे पहले ही हो चुकी थी. आसमान साफ था, लेकिन दिसंबर की ठंड चरम पर थी. आज फिर पारा 5 डिग्री सैल्सियस तक गिर जाने की संभावना थी, इसीलिए लोगों ने अपने ऊनी कपडे़ और गरम जैकेट बाहर निकाल कर रखे थे. वैसे भी वहां रहने वालों को यह ठंड ज्यादा महसूस नहीं होती थी. इस ठंड के वे आदी थे. और ऐसी ठंड में सुहानी धूप सेंकने के लिए अपने जैकेट उतार कर बाहर की सैर करते और सुबह की दौड़ लगाते अकसर पाए जाते थे. दूर से, गगनचुंबी इमारतों के इस बड़े महानगर के भीतर प्रवेश करने वाला सड़कमार्ग पहले से ही गाडि़यों से सज्जित हो चुका था. सुबह के सूरज से हुआ सुनहरा पानी ले कर यांग्त्जी नदी, और इस की सब से बड़ी सहायक नदी, हान नदी, शहरी क्षेत्र को पार करती हुई शान से वुहान को उस के 3 बड़े जिलों वुचांग, हानकोउ और हान्यांग में विभाजित करते हुए उसी प्रकार बह रही थी जैसे कल बह रही थी.कुछ घंटों के बाद जब शहर पूरी तरह से जाग कर हरकत में आ गया, तो वुहान शहरी अस्पताल के बाहर रोड पर जो निर्माणकार्य चल रहा था,
उस पर दोनों तरफ ‘रास्ता बंद’ का चिह्न लगा कर कामगार मुस्तैदी से अपने काम में जुट गए थे. पीली टोपी और नारंगी रंग के बिना आस्तीन वाले पतले जैकेट पहने कामगार फुरती से आनेजाने वाले ट्रैफिक को हाथों से इशारा कर दिशा दे रहे थे. हालांकि, अस्पताल के अंदर आनेजाने वाले रास्ते पर कोई पाबंदी नहीं थी. गरिमा जब अस्पताल के पास के बसस्टौप पर बस से उतरी, तो काफी उत्साहित थी. उस का काम अस्पताल के बीमार मरीजों को अच्छा करना नहीं था, यह काम वहां के डाक्टरों और उन की नर्सों का था. गरिमा ने अस्पताल की लौबी में जाने वाले चबूतरे में प्रवेश किया तो तकरीबन 60 बरस के एक बूढ़े चीनी व्यक्ति को अपने सामने से गुजरते हुए पाया. बूढ़े के हाथ में कांच का एक थोड़ा सा बड़ा डब्बा था, जिस में करीब 10-12 सफेद चूहे तेजी से यहांवहां घूम रहे थे. उन चूहों की बेचैनी शायद इस बात का हश्र थी कि उन को अंदेशा था कि उन के साथ क्या होने वाला है.अस्पताल की प्रयोगशाला में इस्तेमाल हो कर, अपनी कुर्बानी दे कर, मानव के स्वास्थ्य को और उस की गुणवत्ता को बढ़ाने का जिम्मा, जैसे प्रयोगकर्ताओं ने सिर्फ उन की ही प्रजाति पर डाल दिया हो. चबूतरे से निकल कर, एक ढलान, लौबी के अंदर न जाती हुई, उस ओर जा रही थी जहां बाहर से आने वाला सामान अस्पताल के अंदर जाता था. ढलान की शुरुआत पर लिखा हुआ था.
‘यहां सिर्फ सामान पहुंचाने वाली गाडि़यां और ट्रक’ और इस के ऊपर एक बोर्ड लगा था जिस पर अस्पताल के ‘प्लस’ चिह्न के साथ बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था ‘संक्रामक रोग विभाग’ और उस के नीचे छोटे अक्षरों में ‘वुहान शहरी अस्पताल.’ बूढ़ा आदमी चूहों का डब्बा ले कर उस ढलान से विभाग के अंदर प्रवेश कर गया. गरिमा ने लौबी में प्रवेश किया. लौबी में सामने ही एक 28-30 बरस का चीनी युवक खड़ा था, जिस ने शायद गरिमा को देखते ही पहचान लिया और गरिमा से पूछा, ‘‘गरिमा?’’गरिमा ने चौंक कर उसे देखा, फिर इंग्लिश में कहा, ‘‘हां.’’चीनी युवक ने कहा, ‘‘मेरा नाम मिन झोउ है.’’गरिमा ने पूछा, ‘‘डाक्टर वान लीजुंग से मुझे मुलाकात करनी थी. वे नहीं आईं?’’मिन ने सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘पता नहीं वे कहां हैं. खैर, मुझे मालूम है आज क्या करना है.’’ मिन ने सफेद कोट पहन रखा था, जो दर्शाता था कि वह भी डाक्टर है. गरिमा ने सोचा शायद मिन भी डा. वान लीजुंग के साथ काम करता हो. डा. लीजुंग खुद भी कम उम्र की थीं. उन की भी उम्र 32-35 से ऊपर की नहीं होगी. मिन ने कहा, ‘‘इस अस्पताल के अंदर कहीं हैं वे.’’गरिमा ने मुसकरा कर कहा, ‘‘एक डाक्टर तो अस्पताल में गायब नहीं हो सकता.’’मिन भी मुसकरा दिया. दोनों लौबी की ओर बढ़ चले. डा. लीजुंग ने अभी भी सफेद कोट पहना हुआ था. उस का चेहरा गंभीर था. माथा तना हुआ था. चेहरे पर पसीने की बूंदें थीं. वह एक ऐसे कमरे में थी जो छोटा और तंग तो था लेकिन जिस में एक बिस्तर डला हुआ था. कोने में लोहे की टेबल थी जिस पर पानी का जार रखा हुआ था.
ऊपर सफेद ट्यूबलाइट जल रही थी. कमरे का दरवाजा अच्छे से बंद था, लेकिन दरवाजे पर छोटी खिड़की जितना कांच लगा होने से बाहर दिखता था और बाहर से अंदर दिखता था. बाकी दरवाजा मजबूत प्लाईवुड का बना था. वान की आंखें लाल होती जा रही थीं. बाहर से एक तकरीबन 40 वर्ष के डाक्टर ने दरवाजे के कांच तक आ कर वान को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘तुम को मालूम है कि ये सब एहतियात बरतना क्यों जरूरी है?’’वान ने बिना उस की तरफ देखे धीरे से हामी भरी.दरवाजे के बाहर खड़े डा. के सफेद कोट पर बाईं ओर छाती के ऊपर एक आयाताकार बिल्ला लगा था जिस पर लिखा था ‘डा. चाओ मू.’डा. मू ने गंभीरता से वान से प्रश्न किया, ‘‘मुझे थोड़ा समझाओ कि क्या कारण हो सकता है?’’वान ने आंखें मीचीं. जिस कुरसी पर वह बैठी थी, उस पर थोड़ा घूम कर कहा, ‘‘मैं ने जितने भी राउंड लगाए हैं अस्पताल के पिछले कई दिनों में, उन में 4 दिन पहले का सुबह वाला राउंड मुझे सब से ज्यादा संदिग्ध लगता है. उस दिन के मेरे सब से पहले वाले पेशेंट को एक्सरेरूम ले जाया गया था, इसलिए उस से मेरी मुलाकात नहीं हुई थी उस सुबह. दूसरा पेशेंट सोया पड़ा था, उस से भी मेरा कोई संपर्क नहीं बना. तीसरा पेशेंट …,’’ वान ने रुक कर गहरी आंखों से डा. मू को देखा, ‘‘तीसरा पेशेंट थोड़ा मोटा सा था. उस के हाथ में सामान का एक थैला था. उस को बुखार लग रहा था और सर्दीजुकाम था. मैं ने बात करने के लिए उस से पूछा था कि थैले में क्या ले जा रहा है. उस ने बताया था कि हमेशा की तरह हुआनान यानी सीफूड (समुद्री खाद्य) मार्केट से खरीदारी कर के अपने घर जा रहा था.’’ वान ने याद करते हुए कहा, ‘‘मैं ने उस के बाएं कंधे को अपने दाएं हाथ से पकड़ कर स्टेथोस्कोप को पहले उस के दाईं ओर रखा, उस ने गहरी सांस खींची. फिर मैं ने स्टेथोस्कोप बाईं ओर रखा. मुझे ऐसा कुछ याद नहीं आ रहा है जो ज्यादा जोखिम वाला संपर्क हो.
किसी भी द्रव्य पदार्थ से संपर्क नहीं बना.’’मू बोला, ‘‘तुम्हें पूरा विश्वास है?’’वान ने कहा, ‘‘ऐसा लगता तो है.’’ वान का इतना कहना ही था कि उसे जोरों की छींक आ गई. उस ने तुरंत अपनी कुहनी से नाक और मुंह ढकने की कोशिश की तो उसे 3-4 बार जोर से खांसी आ गई. हड़बड़ाहट में वह कुरसी से उठ कर दरवाजे के कांच तक आ पहुंची. उस ने एक हाथ से दरवाजे को थाम कर खांसी रोकने का प्रयास किया. उस ने कांच के दूसरी ओर डा. मू की तरफ पहले तो दयनीय दृष्टि से देखा, फिर अपनेआप को संभालते हुए कहा, ‘‘उस से कहा था कि थोड़ी देर और रुक जाए वह, ताकि मैं उस का और परीक्षण कर सकूं. लेकिन वह बोला कि उस को जल्दी घर जाना है.‘‘रजिस्ट्रेशन करते समय उस ने अपना नामपता लिखा होगा. मेरी कौपी में उस के परीक्षण का ब्योरा लिखा है. मेरी कौपी…’’ वान ने थोड़ा जोर दे कर फिर सोचा और कहा, ‘‘मैं ने अपनी कौपी पर उस को अस्पताल से बरखास्त किए जाने के लिए दस्तखत करने के लिए अपना पैन दिया. उस ने अपना समुद्री खाद्य वाला थैला नीचे रखा, पैन ले कर कौपी पर दस्तखत किए. मैं ने कौपी और पैन दोनों वापस ले लिए.’’
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नर्सरी में देखो तो पौधे कितने खिलेखिले रहते हैं. मगर गमलों में शिफ्ट करते ही मुरझने लगते हैं. बराबर खादपानी देती हूं, सीधी धूप से भी बचाती हूं, फिर भी पता नहीं क्यों मिट्टी बदलते ही पौधे कुछ दिन तो ठीक रहते हैं, लेकिन फिर धीरेधीरे जल जाते हैं,’’ मां अपने टैरेस गार्डन में उदास खड़ी बड़बड़ा रही थी. आज फिर उस का जतन से लगाया एक प्यारा पौधा मुरझ गया था.
खिड़की में खड़ी लक्षिता अपनी मां को देख रही थी. खुद वह भी तो इन गमलों के पौधों जैसी ही है. शादी से पहले मायके में कितनी खिलीखिली रहती थी. ससुराल जाते ही मुरझ गई. हर समय चहकने वाली लक्षिता शादी के 2 साल बाद ही अपना घर छोड़ कर मायके आ गई थी. नहींनहीं, यह कोई व्यक्तिगत, सामाजिक या कानूनी अलगाव नहीं था, बस लक्षिता विशाल और अपने रिश्ते को थोड़ा और समय देना चाह रही थी.
ऐसा नहीं था कि उस ने अपनी जड़ों को पराई जमीन में रोपने में कोई कसर छोड़ी हो. भरसक प्रयास किया था नई मिट्टी के मुताबिक ढलने का… लेकिन पता नहीं मिट्टी में ही कीड़े थे या फिर धूप इतनी तेज कि उस पर तनी विशाल के प्रेम वाली हरी नैट भी बेअसर हो गई. लक्षिता अपनी असफल शादी को याद कर भर आई आंखें पोंछने लगी.
‘न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन. जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन…’ कितना झठ कहते है ये शायर लोग भी. कौन कहता है कि प्यार उम्र के फासले को पाट सकता है? यह तो वह खाई है जिसे लांघने की कोशिश करने वाले को अपने हाथपांव तुड़वाने ही पड़ते हैं. और यदि इस राह में जन्म का बंधन यानी जातिधर्म की चट्टान भी आ जाए तो फिर इन फासलों को पाटना किसी साधारण व्यक्ति के बस की बात तो नहीं हो सकती, लक्षिता मोबाइल की स्क्रीन पर लगी अपनी और विशाल की शादी की तसवीर को देख कर फीकी सी मुसकरा दी.
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पूरे 10 वर्ष का फासला था दोनों की उम्र में. इस के साथसाथ विजातीय होने की अड़चन थी सो अलग… समाज में कैसे स्वीकार होता? स्वीकार होने की प्राथमिकता बढ़ भी जाती यदि विशाल की उम्र लक्षिता से अधिक होती क्योंकि प्रचलित सामाजिक धारणा के अनुसार पुरुष और घोड़े कभी बूढ़े नहीं होते बशर्ते उन्हें अच्छी खुराक दी जाए. शायद इसीलिए लड़कों को लड़कियों से अच्छा खानापीना दिए जाने का रिवाज चल पड़ा होगा. एक बात की कड़ी से कड़ी जोड़ती लक्षिता दूर तक सोच आई.
लक्षिता पुणे की एक मल्टी नैशनल कंपनी में मैनेजर थी और विशाल एक
मैनेजमैंट ट्रेनी… लक्षिता विशाल की बौस थी. 35 वर्षीय लक्षिता देखने में किसी मौडल सी लगती है जिसे देख कर उस की उम्र का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. चेहरे की स्किन ऐसी पारदर्शी है कि जरा नाखून भी लग जाए तो गाल कई दिनों तक लाल दिखाई दे. बाल बेशक कंधे तक कटे थे, लेकिन लेयर में होने के कारण चेहरे पर नहीं आते. हां, गरदन झकाने पर चेहरे को ढांप जरूर लेते थे जैसे बरसाती दिनों में चांद के चारों तरह घिरा सुनहरा आवरण. लक्षिता अपने चेहरे पर मेकअप नहीं पोतती, लेकिन कुछ तो ऐसा लगाती कि चेहरा हर समय दमकता रहता है. लिपस्टिक का शेड भी न्यूड सा ही रहता और आंखें हमेशा गोल्डन फ्रेम के चश्मे में कैद…
ऐसा नहीं है कि 35 वर्षीय इस युवती को अविवाहित रहने का कोई शौक या शगल था. कुछ मजबूरियां ही ऐसी रहीं कि सही उम्र में विवाह कर ही नहीं पाई. यों तो आजकल 35 में कोई बुढ़ाता नहीं है, लेकिन हां, युवाओं वाले मिजाज तो नर्म पड़ने ही लगते हैं. ऐसी ही ठंडी पड़ती चिनगारी को सुलगाने विशाल उस की जिंदगी में आया था.
विशाल ने जब उस का विभाग जौइन किया तो वह भी लक्षिता को एक आम ट्रेनी जैसा ही लगा था, लेकिन धीरेधीरे विशाल उस के वजूद को स्क्रब की तरह सहलातारगड़ता गया और वह निखरीनिखरी एक नए आकर्षक रूप में खिलती गई.
कभी ‘‘यह रोजरोज सलवारकमीज क्यों पहनती हैं? कभी कुरती के साथ जीन्स भी ट्राई कीजिए,’’ कह कर तो कभी ‘‘बालों को बांधना क्या औफिस के प्रोटोकाल में आता है? चलो मान लिया कि आता होगा, लेकिन औफिस टाइम के बाद तो इन्हें भी आजाद किया जाना चाहिए न?’’ जैसे जुमले वह लक्षिता के पास से गुजरते हुए फुसफुसा देता था. चेहरे पर भोलापन इतना कि लक्षिता चाह कर भी उसे लताड़ नहीं पाती थी.
कब लक्षिता के वार्डरोब में जीन्स और आधुनिक पैंट्स की संख्या बढ़ने लगी, कब औफिस बिल्डिंग के मुख्य दरवाजे से बाहर निकलते ही उस के बालों का कल्चर निकल
कर हैंडबैग के स्ट्रैप में लगने लगा वह जान ही नहीं पाई.
राजपूती कदकाठी को जस्टिफाई करता लंबे कद और चौड़े कंधों वाला विशाल अपने घुंघराले बालों के कारण पीठ पीछे से भी पहचाना जा सकता था. विशाल में गजब की ड्रैस सैंस थी. उस की शर्ट के रंग इतने मोहक और कूल होते कि उस की उपस्थिति एक ठंडक का एहसास दिला देती थी. भीनीभीनी महकती बगलें जैसे अपनी तरफ खींचती थीं. लक्षिता के पास आ कर किसी काम के लिए जब विशाल अपनी दोनों बांहें टेबल पर रख कर फाइलों पर झक जाता तो लक्षिता एक लंबी सांस लेने को मजबूर हो जाती थी. आंखें खुदबखुद मुंद जातीं और विशाल का पसीने मिला डीयो नाक से होता हुआ रूह तक अपना एहसास छोड़ जाता. विशाल एक कुहरे की तरह उसे ढकता गया और जब यह कुहांसा छंटा तो लक्षिता ने पाया कि प्रेम की धुंध उस के भीतर तक उतर चुकी है.
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लक्षिता ने इस प्रेम को बहुत नकारा, लेकिन वह प्रेम ही क्या जो दीवानगी ले कर न आए. सच ही कहा है किसी ने कि प्रेम करना किसी समझदार के बस की बात नहीं है. यह तो एक फुतूर है जिसे कोई जनूनी ही निभा सकता है. लक्षिता हालांकि बहुत समझदारी दिखाने की कोशिश कर रही थी. जितना हो सके उतना वह विशाल को नजरअंदाज करने का प्रयास भी करती, लेकिन राजस्थान से आया यह नया ट्रेनी बिलकुल रेगिस्तानी धूल की तरह था. कितने भी खिड़कीदरवाजे बंद कर लो, इस का प्रवेश रोकना नामुमकिन था. अलमारी में रखी साडि़यों की भीतरी तह तक पहुंच जाने वाली गरद की तरह विशाल भी हर परत को बेधता हुआ आखिर लक्षिता के मन के गर्भगृह तक जा ही पहुंचा था.
अपने जन्मदिन पर विशाल ने लक्षिता को डिनर के लिए आमंत्रित किया तो वह इनकार नहीं कर सकी. अंधेरे में भी हाथ बढ़ाते ही हाथ में आने वाली ड्रैस पहनने वाली बेपरवाह लक्षिता को उस दिन अपने लिए ड्रैस का चुनाव करने में
2 घंटे लग गए. जब भी किसी कुरते या साड़ी पर हाथ रखती, पीछे खड़ा विशाल न में गरदन हिला देता. अंत में उसे चुप रहने की सख्त हिदायत देते हुए लक्षिता ने हलके हरे रंग का टौप और औरिजनल डैनिम की पैंट चुनी. गले में फंकी सा लौकेट डालते समय अपनी 35 की उम्र को याद करती वह हिचकी तो थी, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों कानों में भी झलते से लटकन डाल ही लिए थे. लिपस्टिक लगाते समय दिमाग ने पूछा भी था कि आज यह इतना रोमांटिक सा गुलाबी रंग क्यों? लेकिन तु?ो इस से क्या? अपने काम से काम रखा कर कहते हुए दिल ने दिमाग को ऐसा करारा जवाब दिया कि शेष समय दिमाग ने अपने होंठ सिल लिए. लक्षिता को उस का फायदा भी हुआ. पूरी मुलाकात के दौरान दिमाग ने कोई रायता नहीं फैलाया. बस, जो दिल ने कहा लक्षिता करती गई.
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लेखक- राम महेंद्र राय
विक्रम से शादी कर दीपिका ससुराल आई तो खुशी से झूम उठी. यहां उस का इतना भव्य स्वागत होगा, इस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.
सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक ससुराल में रस्में चलती रहीं. इस के बाद वह कमरे में आराम करने लगी. शाम करीब 4 बजे कमरे में विक्रम आया और दीपिका से बोला, ‘‘मेरा एक दोस्त बहुत दिनों से कैंसर से जूझ रहा था. उस के घर वालों ने फोन पर अभी मुझे बताया है कि उस का देहांत हो गया है. इसलिए मुझे उस के घर जाना होगा.’’
दीपिका का ससुराल में पहला दिन था, इसलिए उस ने पति को रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन विक्रम उसे यह समझा कर चला गया, ‘‘तुम चिंता मत करो, देर रात तक वापस आ जाऊंगा.’’
विक्रम के जाने के बाद उस की छोटी बहन शिखा दीपिका के पास आ गई और उस से कई घंटे तक इधरउधर की बातें करती रही. रात के 9 बजे दीपिका को खाना खिलाने के बाद शिखा उस से यह कह कर चली गई कि भाभी अब थोड़ी देर सो लीजिए. भैया आ जाएंगे तो फिर आप सो नहीं पाएंगी.
ननद शिखा के जाने के बाद दीपिका अपने सुखद भविष्य की कल्पना करतेकरते कब सो गई, उसे पता ही नहीं चला.
दीपिका अपने मांबाप की एकलौती बेटी थी. उस से 3 साल छोटा उस का भाई शेखर था. वह 12वीं कक्षा में पढ़ता था. पिता की कपड़े की दुकान थी.
ग्रैजुएशन के बाद दीपिका ने नौकरी की तैयारी की तो 10 महीने बाद ही एक बैंक में उस की नौकरी लग गई थी.
2 साल नौकरी करने के बाद पिता ने विक्रम नाम के युवक से उस की शादी कर दी. विक्रम की 3 साल पहले ही रेलवे में नौकरी लगी थी. उस के पिता रिटायर्ड शिक्षक थे और मां हाउसवाइफ थीं.
विक्रम से 3 साल छोटा उस का भाई तुषार था, जो 10वीं तक पढ़ने के बाद एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करने लगा था. तुषार से 4 साल छोटी शिखा थी, जो 11वीं कक्षा में पढ़ रही थी.
पति के जाने के कुछ देर बाद दीपिका गहरी नींद सो रही थी, तभी ननद शिखा उस के कमरे में आई. उस ने दीपिका को झकझोर कर उठाया. शिखा रो रही थी. रोतेरोते ही वह बोली, ‘‘भाभी, अनर्थ हो गया. विक्रम भैया दोस्त के घर से लौट कर आ रहे थे कि रास्ते में उन की बाइक ट्रक से टकरा गई. घटनास्थल पर उन की मृत्यु हो गई. पापा को थोड़ी देर पहले ही पुलिस से सूचना मिली है.’’
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यह खबर सुनते ही दीपिका के होश उड़ गए. उस समय रात के 2 बज रहे थे. क्या से क्या हो गया था. पति की मौत का दीपिका को ऐसा गम हुआ कि वह उसी समय बेहोश हो गई.
कुछ देर बाद उसे होश आया तो अपने आप को उस ने घर के लोगों से घिरा पाया. पड़ोस के लोग भी थे. सभी उस के बारे में तरहतरह की बातें कर रहे थे. कोई डायन कह रहा था, कोई अभागन तो कोई उस का पूर्वजन्म का पाप बता रहा था.
रोने के सिवाय दीपिका कर ही क्या सकती थी. कुछ घंटे पहले वह सुहागिन थी और कुछ देर में ही विधवा हो गई थी. खबर पा कर दीपिका के पिता भी वहां पहुंच गए थे.
अगले दिन पोस्टमार्टम के बाद पुलिस ने विक्रम का शव घर वालों को सौंप दिया था. तेरहवीं के बाद दीपिका मायके जाने की तैयारी कर रही थी कि अचानक सिर चकराया और वह फर्श पर गिर कर बेहोश हो गई. ससुराल वालों ने उठा कर उसे बिस्तर पर लिटाया. मेहमान भी वहां आ गए.
डाक्टर को बुलाया गया. चैकअप के बाद डाक्टर ने बताया कि दीपिका 2 महीने की प्रैग्नेंट है. पर वह बेहोश कमजोरी के कारण हुई थी.
2 सप्ताह पहले ही तो दीपिका बहू बन कर इस घर में आई थी तो 2 महीने की प्रैग्नेंट कैसे हो गई. सोच कर सभी लोग परेशान थे. दीपिका के पिता भी वहीं थे. वह सकते में आ गए.
दीपिका को होश आया तो सास दहाड़ उठी, ‘‘बता, तेरे पेट में किस का पाप है? जब तू पहले से इधरउधर मुंह मारती फिर रही थी तो मेरे बेटे से शादी क्यों की?’’
दीपिका कुछ न बोली. पर उसे याद आया कि रोका के 2 दिन बाद ही विक्रम ने उसे फोन कर के मिलने के लिए कहा था. उस ने विक्रम से मिलने के लिए मना करते हुए कहा, ‘‘मेरे खानदान की परंपरा है कि रोका के बाद लड़की अपने होने वाले दूल्हे से शादी के दिन ही मिल सकती है. मां ने आप से मिलने से मना कर रखा है.’’
विक्रम ने उस की बात नहीं मानी थी. वह हर हाल में उस से मिलने की जिद कर रहा था. तो वह उस से मिलने के लिए राजी हो गई.
शाम को छुट्टी हुई तो दीपिका ने मां को फोन कर के झूठ बोल दिया कि आज औफिस में बहुत काम है. रात के 8 बजे के बाद ही घर आ पाऊंगी. फिर वह उस से मिलने के लिए एक रेस्टोरेंट में चली गई.
उस दिन के बाद भी उन के मिलनेजुलने का कार्यक्रम चलता रहा. विक्रम अपनी कसम देदे कर उसे मिलने के लिए मजबूर कर देता था. वह इतना अवश्य ध्यान रखती थी कि घर वालों को यह भनक न लगे.
एक दिन विक्रम उसे बहलाफुसला कर एक होटल में ले गया. कमरे का दरवाजा बंद कर उसे बांहों में भरा तो वह उस का इरादा समझ गई.
दीपिका ने शादी से पहले सीमा लांघने से मना किया लेकिन विक्रम नहीं माना. मजबूर हो कर उस ने आत्मसमर्पण कर दिया.
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गलती का परिणाम अगले महीने ही आ गया. जांच करने पर पता चला कि वह प्रैग्नेंट हो गई है. विक्रम का अंश उस की कोख में आ चुका था. वह घबरा गई और उस ने विक्रम से जल्दी शादी करने की बात कही.
‘‘देखो दीपिका, सारी तैयारियां हो चुकी हैं. बैंक्वेट हाल, बैंड वाले, बग्गी आदि सब कुछ तय हो चुके हैं. एक महीना ही तो बचा है. घर वालों को सच्चाई बता दूंगा तो तुम ही बदनाम होगी. तुम चिंता मत करो. शादी के बाद मैं सब संभाल लूंगा.’’
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दिल्ली से तबादला हो कर जालंधर आना हुआ तो सहज सुखद एहसास से मनभर आया. अभय ने पुराने साथियों के बारे में बताया.
‘‘वे जो मेहरा साहब अहमदाबाद में थे न, अरे, वही जो अपनी बेटी को ‘मिस इंडिया’ बनाना चाहते थे…’’
‘‘गुप्ता साहब याद है, जिन के बच्चे बहुत गाली बकते थे. अंबाला में हमारे साथ थे…’’
‘‘जयपुर में थे. हमारे साथ, वह शर्माजी…’’
इस तरह के जाने कितने ही नाम अभय ने गिना दिए. 10 साल का समय और बीत चुका है, कौन क्या से क्या हो गया होगा. और होगा क्यों न जब मैं ही 10 साल में इतनी बदल गई हूं तो प्रकृति के नियम से वे सब कहां बच पाए होंगे.
10 साल पहले जब हम अहमदाबाद में थे तब एक मेहराजी हमारे साथ थे. उन की बेटी बहुत सुंदर थी. कदकाठी भी अच्छी थी. वह अपनी बेटी को बिलकुल मौड कपड़े पहनाते थे. इस बारे में आज से 10 साल पहले भी मेरी सोच वही थी जो आज है कि कदकाठी और रूपलावण्य तो प्रकृति की देन है. जिस रूप के होने न होने पर अपना कोई बस ही न हो उसी को ले कर इतनी स्पर्धा किसलिए? इनसान स्पर्धा भी करे तो उस गुण को ले कर जिस को विकसित करने में हमारा अपना भी कोई योगदान हो.
मैं किसी की विचारधारा को नकारती नहीं पर यह भी तो एक सत्य है न कि हम मध्यवर्गीय लोगों में एक ही तो एहसास जिंदा बच पाया है कि केवल हम ही हैं जो शायद लज्जा और शरम का लबादा ओढ़े बैठे हैं.
10 साल पहले जब मैं उन की बेटी को निकर और टीशर्ट में देखती थी तब अच्छा नहीं लगता था. 17-18 साल की सुंदर, सजीली, प्यारी सी बच्ची जब खुली टांगें, खुली बांहें लिए डोलती फिरेगी तो किसकिस की नजर को आप रोक पाओगे. अकसर जब हमारे संस्कार उस बच्ची को सलवारसूट पहनाना चाह रहे होते थे तब उस के मातापिता नजरों में गौरव लिए सिर उठा कर सब के चेहरे पर पता नहीं क्या पढ़ना चाहते थे.
‘‘शुभा, तुम तो पुराने जमाने की बातें करती हो. ग्लैमर और चकाचौंध की दुनिया में शोहरत और पैसा दोनों हैं. अगर हम ऐसा सोचते हैं तो इस में बुरा क्या है?’’ अकसर श्रीमती मेहरा कह देतीं.
मेरी सोच मेरी है और उस का दायरा केवल मेरा घर, मेरी गृहस्थी और मेरा परिवार है. भला समय से पहले किसी को गलत या सही कहने का मुझे क्या अधिकार था जो मैं किसी पर कोई मोहर लगाती.
कुछ दिन घर को और खुद को व्यवस्थित करने में लग गए.
मेरे दोनों बच्चे पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनेअपने लिए अच्छी नौकरी की तलाश में थे सो अकसर कभी कहीं और कभी कहीं साक्षात्कार के लिए जाते रहते थे. एक शाम सोचा, क्यों न नजदीक के बाजार में जा कर थोड़ीबहुत घूम लूं. इस से पता तो चल ही जाएगा कि कहां क्या सामान मिलता है.
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तबादले की नौकरी वालों का कोई संबंध स्थायी नहीं रह पाता. किसी के प्रति संजोया स्नेह और अपनत्व मात्र यादों में सिमट जाता है या हमारे मन के किसी कोने में दुबक कर हमें कभी पुलकित करता है तो कभी रुलाता है.
दोस्ती द्वारा रोपित रिश्ते आधे भारत में बिखरे पड़े हैं. कहने को हर शहर अपना है, यादों में है लेकिन अब इस उम्र में जब बच्चों के अपनीअपनी दिशा में चले जाने के बाद हमें सुखदुख का साथी चाहिए तो हम खाली हाथ हैं. कभी चाहें भी किसी से बात करना तो किस से करें.
नजदीक में छोटी सी मार्केट की 20-25 दुकानों में जरूरत का सब सामान उपलब्ध था. सोचा अगर मार्केट मिल गई है तो कोई अच्छी सी सखी भी मिल ही जाएगी.मैं ने कुछ जरूरी सामान खरीदा और वापसी पर दुकानों के पीछे से निकली तो सामने दर्जी और ब्यूटी पार्लर की दुकान देख कर सोचा, चलो, अच्छा है यह भी यहीं हैं. तभी एकाएक टांगों में कुछ लिपट सा गया. किसी तरह खुद को संभाल कर देखा तो 3-4 साल का प्यारा सा बच्चा मेरी टांगों में लिपटा नानीनानी की गुहार लगाने लगा.
मैं ने आगेपीछे देखा, किस का होगा यह नन्हा सा रूई का गोले सा बच्चा. दुकानों के पीछे कोई घर भी नहीं था जहां से इस के आने की संभावना हो. सामने दर्जी की 2-3 दुकानें थीं और ब्यूटी पार्लर, कहीं वहीं से तो नहीं आया.
हाथ में खरीदे हुए सामान को किसी तरह संभाल कर मैं ने बच्चे का हाथ पकड़ा. शायद ब्यूटी पार्लर में आई किसी महिला का हो यह प्यारा सा बच्चा. यही सोच कर मैं ने किसी तरह उसे धीरेधीरे पैरों से चलाते हुए अपने साथ ब्यूटी पार्लर तक ले गई और दरवाजा खोल कर पूछा, ‘‘सुनिए, यह बच्चा आप का है क्या? बाहर भटक रहा था.’’
‘‘ओहो, यह फिर बाहर निकल गया. मोनू के बच्चे, मैं तेरी पिटाई कर दूंगी. काम करना मुश्किल हो गया है. मुंह से धागा खींचखींच कर किसी महिला की भवें संवारती युवती की आवाज आई, ‘‘कृपया इसे यहीं छोड़ दीजिएगा.’’
बच्चे को भीतर धकेल कर मैं ने दरवाजा बंद कर दिया लेकिन जो थोड़ी सी झलक मैं ने उस लड़की की देखी थी उस ने विचित्र सी जिज्ञासा मन में भर दी. इसे कहीं देखा सा लगता है.
एक दिन अभय बोले, ‘‘सुनो, तुम बता रही थीं न कि यहां मार्केट में एक ब्यूटी पार्लर भी है जहां वह प्यारा सा बच्चा देखा था. जरा जा कर बालों को रंगवा लो न, सफेदी बहुत ज्यादा झलकने लगी है.’’
‘‘क्यों, इस की क्या जरूरत है. चेहरे का ढलका मांस और काले बाल दोनों साथसाथ कितने बेतुके लगते हैं. क्या आप नहीं जानते… मुझे बाल काले नहीं कराने.’’
‘‘अरे बाबा, आजकल, कोई सफेद बालों वाला नजर नहीं आता. समझा करो न…’’
‘‘न आए, हम तो आएंगे न. जवान बच्चे अगलबगल खड़े हों तो क्या पता नहीं चलता कि हम 50 पार कर चुके हैं. फिर इस सत्य को छिपाने की क्या जरूरत है.’’
जब हम दिल्ली में थे तो मेहंदी लगे काले सुंदर बालों का एक किस्सा मैं आज भी भूली नहीं हूं. मेरी एक हमउम्र सखी जो पलपल खुद को जवान होना मानती थी, इसी बात पर कितने दिन सदमे में रही थी कि बेटे की उम्र का लड़का उसे लगातार छेड़ता रहा था. वह तो उसे बच्चा समझ कर नजरअंदाज करती रही थी, लेकिन एक शाम जब उस युवक ने हद पार कर दी तब सखी से रहा नहीं गया और बोली थी, ‘मेरे बेटे, तुम्हारी उम्र के हैं. शरम नहीं आई तुम्हें ऐसा कहते हुए. तुम्हारी मां की उम्र की हूं मैं.’
‘तो नजर भी तो आइए न मुझे मां की उम्र की. आप तो मेरी उम्र की लगती हैं. मुझ से गलती हो गई तो मेरा क्या कुसूर है.’
वह बेचारी तो झंझावात में थी और हम सुनने वाले न रो पा रहे थे और न ही हंसी आ रही थी. बच्चे तो सफेद बालों से ही उम्र का अंदाजा लगाएंगे न.
एक शाम मेहरा साहब के घर गए तब वास्तव में मिसेज मेहरा को देख कर यही लगा कि उन की उम्र तो वहीं की वहीं खड़ी है जहां आज से 10 साल पहले खड़ी थी.
‘‘अरे शुभा, कितनी बूढ़ी लगने लगी हो,’’ श्रीमती मेहरा ने कहा था.
‘‘बूढ़ी नहीं, बड़ी कहिए श्रीमती मेहरा,’’ और खिलखिला कर हंस पड़ी मैं. कंधों तक कटे बाल और उन पर सफेदी की जगह चमकता भूरा रंग, खुली बांहें और चुस्तदुरुस्त कपड़े. अभय की नजरें मुझ से टकराईं तो मुसकराने लगे, मानो कह रहे हों कि देखा न.
‘‘भई, मेरी बात छोडि़ए न कि मैं कैसी लगती हूं. आप बच्चों के बारे में बताइए कि बेटी क्या करती है और बेटा…’’
अभय और मेहराजी तो बातों में व्यस्त हो गए लेकिन श्रीमती मेहरा की बातों की सूई मेरी बड़ी उम्र पर आ कर रुक गई.
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‘‘नहीं शुभा, इस तरह हार मान लेना अच्छा नहीं लगता.’’
‘‘मैं ने कब कहा कि मैं ने हार मान ली है. हार तो वह मान रहे हैं जो उम्र का बढ़ना स्वीकार ही करना नहीं चाहते. अरे, यह शरीर जिसे हम सब 50 सालों से इस्तेमाल कर रहे हैं, धीरेधीरे कमजोर हो रहा है, इस सत्य को हम लोग मानना ही नहीं चाहते. भई, हम सब बड़़े हो गए हैं. इस सत्य को पूरी इज्जत और सम्मान के साथ हमें मानना चाहिए. बालों का सफेद होना शरम की नहीं गरिमा की बात है, ऐसा मेरा विचार है.’’
‘‘तुम्हारा मतलब है कि मैं सत्य को झुठला रही हूं?’’ सदा की तरह अपनी ही बात को दबाना चाह रही थीं श्रीमती मेहरा. जिस पर सदा की तरह मैं ने भी झुंझलाना चाहा लेकिन किसी तरह खुद को रोक लिया.
‘‘अरे, छोड़ो भी श्रीमती मेहरा, हमारी बीत गई अब बच्चों की सोचो. बताओ न बच्चे क्या कर रहे हैं? आप की वह प्यारी सी बिटिया क्या कर रही है? अब तक उस की तो शादी भी हो गई होगी? बेटा क्या करता है?’’
मेरे सवालों का कोई ठोस उत्तर नहीं दिया श्रीमती मेहरा ने. बस, गोलमोल सा बता कर बहला दिया मुझे भी.
‘‘हां, ठीक हैं बच्चे. मिनी की शादी कर दी है. आशु भी अपना काम करता है.’’
घर चले आए हम. मुझे तो लगा वास्तव में श्रीमती मेहरा की उम्र रुकी ही नहीं, काफी पीछे लौट गई है. इस उम्र में भी वह स्वयं को 25-30 से ज्यादा का मानना नहीं चाहती रही थीं. बातों की धुरी को बस, अपने ही हावभाव और रूपसज्जा के इर्दगिर्द घुमाती रही थीं. जबकि इस उम्र में हमारी सोच पर बच्चों की चर्चा प्रभावी होनी चाहिए और वह अपना ही साजशृंगार कर रही थीं.
‘‘देखा न, श्रीमती मेहरा आज भी वैसी ही लगती हैं,’’ अभय बोले.
‘‘अरे भई, वैसी ही कहां, वह तो और भी छोटी हो गई हैं. लगता है बहुत मेहनत करती हैं अपनेआप पर.’’
‘‘हां, तभी तो आशु एक वर्कशाप में नौकरी करता है और मिनी भी यहीं कहीं किसी ब्यूटी पार्लर में काम करती है,’’ दुखी मन से अभय ने उत्तर दिया.
सहसा मुझे याद आया कि वह नन्हा सा बच्चा और वह काम करती लड़की… कहीं मिनी तो नहीं थी. मेहरा साहब ने बातोंबातों में अभय को सब बताया होगा जिस से वे काफी उदास थे.
‘‘शुभा, अपना बनावशृंगार बुरी बात नहीं है लेकिन जीवन में एक उचित तालमेल, एक उचित सामंजस्य होना बहुत जरूरी है. मिसेज मेहरा को ही देख लो. 50 की होने को आईं पर अभी भी एक किशोरी सी दिखने की उन की चाह कितनी छिछोरी सी लगती है. मिनी को शुरू से बस, सुंदर ही दिखना सिखाया उन्होंने, कोई भी और गुण विकसित नहीं होने दिया. न पढ़ाईलिखाई न कामकाज. नतीजा क्या निकला? यही न कि वह मिस इंडिया तो बन नहीं पाई और जो होना चाहिए था वह भी न हुई.
यही हाल आशु का है. वह भी ज्यादा पढ़लिख नहीं पाया. तो अब किसी मोटर वर्कशाप में काम करता है. ऐसा ही तो होता है. जिन मांबाप को आज तक अपने ही शौक पूरे करने से फुरसत नहीं वे बच्चों का कब और कैसे सोचेंगे.’’
कहतेकहते अभय चुप हो गए और मैं उन की बातें सुन कर असमंजस में रह गई. एकाएक फिर बोले, ‘‘बच्चों को कुछ बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है, शुभा. एक मध्यवर्गीय परिवार को तो बहुत ही ज्यादा. सच है, तुम ने अपने बच्चों को बड़ी मेहनत से पाला है.’’
2 दिन के बाद फुरसत में मैं उसी ब्यूटी पार्लर में जा पहुंची. गौर से उस युवती को देखा तो लगा वही तो थी वह प्यारी सी बच्ची, मिनी.
‘‘आइए मैडम, क्या कराएंगी?’’ यह पूछते हुए उस युवती ने भी गौर से मेरा चेहरा देखा. सामने सोफे के एक किनारे पर उस का बच्चा सो रहा था.
‘‘मुझे पहचाना नहीं, बेटा, मैं शुभा आंटी हूं… याद है, हम अहमदाबाद में साथसाथ रहते थे. तुम मेहरा साहब की बेटी हो न… मिनी?’’
अवाक् सिर से ले कर पैर तक वह बारबार मुझे ही देख रही थी. तभी उस का बच्चा जाग गया. लपक कर उसे थपकने लगी ताकि वह एकाग्र मन से काम कर सके. शायद वह मुझे पहचान नहीं पा रही थी. उस का रूई सा गोरागोरा बच्चा जाग उठा था.
‘‘आजा बेटा, मेरे पास आ. अरे, मैं नानी हूं तुम्हारी,’’ ढेर सारा प्यार उमड़ आया था उस पर. मेरी अपनी बेटी होती तो शायद मैं भी अब तक नानी बन चुकी होती.
पहले ही दिन इस बच्चे ने मुझे नानी मान लिया था न. बच्चा मेरी गोद में चला आया लेकिन मिनी जड़वतसी खड़ी रही.
‘‘बेटा, क्या मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं जो पहचान में ही नहीं आती?’’
उस का सकपकाया सा चेहरा बता रहा था कि मेरे सामने वह खुद को सामान्य नहीं कर पा रही थी. क्याक्या सपने थे मिनी के? भारत सुंदरी, विश्व सुंदरी के बाद सारे संसार पर छा जाने जैसा कुछ. तब मिनी के जमीन पर पैर कहां थे. उस का भी क्या दोष था? जिस आकार में उस की मां उसे ढाल रही थी उसी में तो मिनी की गीली मिट्टी ढल रही थी. बेचारी, न पढ़ती थी और न ही कोई अन्य काम सीखने की उस में ललक थी तब.
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उस का सत्य यही था कि भला एक सुपर माडल को हाथपैर गंदे करने की क्या जरूरत थी. हम सब के जीवन में न जाने कितने पड़ाव आते हैं जिन में हर पड़ाव का अपना ही सत्य होता है. उस पल का सत्य वह था और आज का सत्य यह कि वही मिनी कुछ नहीं बन पाई और मुझ से यों नजरें चुरा रही थी जैसे मैं उस पर अभी यह प्रश्न दाग दूंगी कि क्या हुआ मिनी, तुम भारत सुंदरी बनना चाहती थीं तो बनी क्यों नहीं?
‘‘मैं शुभा आंटी हूं न, सौरभगौरव की मम्मी.’’
मिनी का स्वर तो नहीं फूटा पर मेरा हाथ उस ने कस कर पकड़ लिया. उस की आंखों में कितना कुछ तैरने लगा था. तभी उस की 2-3 महिला ग्राहक चली आईं और मैं अपने घर का पता उसे दे कर चली आई.
अगले दिन सुबह ही मिनी अपने बेटे को कंधे से लगाए मेरे सामने खड़ी थी.
लपक कर उस का सोया बच्चा मैं ने बिस्तर में सुला दिया और मिनी की बांह पकड़ कर सस्नेह सहला दिया तो मेरे कंधे से लग कर रो पड़ी मिनी.
मैं जानती थी कि मिनी के भीतर बहुत कुछ होगा जिसे वह मुझ से बांटना चाहती होगी क्योंकि 10 साल पुरानी हमारी मुलाकातों में विषय अकसर यही होता था. मैं कहा करती थी कि तुम्हें पढ़ाईलिखाई और दूसरे कामों में भी रुचि लेनी चाहिए. खूबसूरती कोई स्थायी विशेषता नहीं है जिसे कोई सारी उम्र भुना सके.
‘‘आप सच कहती थीं, आंटी,’’ मिनी मेरे कंधे से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने जीवन में कुछ भी नहीं बन पाई. मेरी खूबसूरती ने मुझे कहीं का नहीं रखा. अगर सुंदर न होती तो ही अच्छा होता.’’
‘‘जो बीत गया सो बीत गया. अब आगे का सोचो. तुम्हारे पति क्या काम करते हैं?’’
‘‘वह भी मेरी तरह ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं हैं. किसी जगह छोटी सी नौकरी करते हैं. हम दोनों काम न करें तो हमारा गुजारा नहीं चलता.’’
क्या कहती मैं. किसी के हालात बदल पाना भला मेरे हाथ में था क्या? मिनी का रोना ही सारी कथा का सार था.
‘‘आंटी, मैं ज्यादा पढ़ीलिखी होती तो किसी स्कूल में नौकरी कर लेती. ट्यूशन का काम भी मिल जाता. सिलाईकढ़ाई आती तो किसी बुटीक में काम मिल जाता. मुझे तो कुछ भी नहीं आता.’’
‘‘खूबसूरती संवारना तो आता है न पगली, जो काम कर रही हो उसी में तरक्की कर लो, क्या बुरा है? कुछ न आने से कुछ तो आना ज्यादा अच्छा है.’’
‘‘मम्मी से कहा था कि थोड़ी देर मोनू को संभाल लिया करें, मम्मी के पास समय ही नहीं है… मेरी मां ने मुझे यह कैसा जीवन दिया है, आंटी, कैसी शिक्षा दी है जिस से मैं अपनी गृहस्थी भी नहीं चला सकती.’’
‘‘मोनू के लिए अगर मैं ठीक लगती हूं तो बेशक इसे कुछ घंटे मेरे पास छोड़ जाया करो. तुम्हारे अंकल से बात करती हूं, बैंक से कर्ज ले कर तुम पतिपत्नी अगर छोटा सा काम खोल सको तो…’’
मैं नहीं जानती कि मिनी का भविष्य संवार पाऊंगी या नहीं क्योंकि भविष्य संवारना तो बचपन से ही शुरू किया जाता है न. अब पीछे लौटा नहीं जा सकता. आज तो मिनी की जरूरत
सिर्फ इतनी सी है कि कुछ समय के लिए उस का बच्चा कोई अपने पास रख लिया करे. अफसोस हो रहा है मुझे श्रीमती मेहरा की बुद्धि पर, कम से कम बच्ची का इतना सा साथ तो दे दें कि वह अपना गुजारा चलाने लायक कुछ कर सके.
इस उम्र में मुझे उन के चेहरे पर न बुढ़ापा नजर आया था और न ही संतान के अस्तव्यस्त जीवन के प्रति पैदा हुआ कोई दर्द या पश्चात्ताप. समझ नहीं पा रही हूं कि मेहरा जैसे दंपती किस सोच में जीते हैं, किस सत्य को अपना सत्य मानते हैं और सत्य उन का अपना सत्य होता भी है या नहीं. श्रीमती मेहरा जैसी औरतें न जवानी में बच्चों के लिए बड़प्पन का एहसास करती हैं और न ही बुढ़ापे में खुद को बड़ा मानने को तैयार होती हैं, न ही अच्छी मां बनना चाहती हैं और न ही नानी कहलाना उन्हें पसंद है.
‘‘मोनू को आप रख लेंगी तो बड़ा उपकार होगा, आंटी. सिर्फ 3-4 महीने के लिए. उस के बाद नर्सरी में डाल दूंगी. मोनू नानी कह सकता है न आप को?’’
आंखें भर आईं मेरी. उम्र के साथ कानों के परदे भी यह शब्द सुनना चाहते हैं, दादी, नानी.
‘‘हांहां क्यों नहीं, बेटी, मुझे तो इस से खुशी ही होगी. तुम चिंता न करो, समय एक समान नहीं रहता. सब ठीक हो जाएगा.’’
कुछ घंटे हर रोज के लिए एक प्यारा सा खिलौना मिल गया मुझे. इतवार को अभय के लिए मेहंदी घोलने लगी तो टोक दिया अभय ने, ‘‘रहने दो, शुभा, सफेद बाल अब अच्छे लगने लगे हैं. हर उम्र का अपना ही रंगरूप, अपना ही सत्य होता है और होना भी चाहिए.’’
अवाक् मैं अभय का चेहरा देखती रही. अभय अखबार के पन्ने पलटते रहे और मेरे होंठों पर मुसकान चली आई. अभय भी समझने लगे थे अपना सत्य.
लेखक- निर्मल कुमार
‘‘अच्छा मां, माफ कर दो,’’ कहते हुए पिंकी की आंखें भर आईं और वह अपने कमरे में चली गई. पिंकी के आंसू देख सोमांश के मन में परिवर्तन आ गया. अब पिंकी का पलड़ा भारी हो गया. अब पूरी घटना उन्हें एक मामूली सी बात लगने लगी जिसे कजली अकारण तूल दे बैठी थी. अब उन का गुस्सा धीरेधीरे कजली की तरफ मुड़ रहा था कि कजली कुछ नहीं समझती. ग्रेजुएट होते हुए भी अपने जमाने से आगे नहीं बढ़ना चाहती. समझती है कि जो भी अच्छाई है, सारी उस की पीढ़ी की लड़कियों में थी. जरा भी लचीलापन नहीं. समझने को तैयार नहीं कि अब पिंकी नए जमाने की युवती है, जो उस की परछाईं नहीं हो सकती. रात को बिस्तर पर काफी देर तक उन्हें नींद नहीं आई. वे यही बातें सोचते रहे. उधर कजली उन का इंतजार करती रही. कोई एक स्पर्श या कोई प्रेम की एक बात. यह इंतजार करतेकरते उस की कितनी रातें वीराने में लुटी थीं. मगर यह हसरत जैसे पूरी न होने के लिए ही उस की जिंदगी में अब दफन होती जा रही थी. शायद औरतों का मिजाज इसीलिए कड़वा हो जाता है कि वह कभी भी अपने भीतर की युवती को भुला नहीं पाती. वह उस का अभिमान है. देह ढल जाती है मगर वह अभिमान नहीं ढलता. यदि उस का पति उसे थोड़ा सा एहसास भर कराता रहे कि उस की नजरों में वह सब से पहले प्रेमिका है, फिर पत्नी और फिर बाद में किसी की मां, तो उस का संतुलन शायद कभी न बिगड़े मगर पति तो उसे मातृत्व का बोझ दे कर प्रेमिका से अलग कर देता है.
कजली सिसकने लगी. सोमांश झुंझला उठे. वे पहले से ही गुस्से में थे. उन की समझ में नहीं आया कि वह चाहती क्या है. पिंकी पर पूरी विजय पा लेने के बाद भी अभी कुछ कसर रह गई, शायद तभी वह रो रही है. पिंकी को यह अपनी नासमझी से कुचल देगी. वह भी एक भयभीत, दबी, कुचली भारतीय नारी बन कर रह जाएगी. वे कजली की ओर मुड़े मगर उन्हें बोलने से पहले अपने गुस्से पर काबू पाना पड़ा क्योंकि वे जानते थे कि यदि गुस्से में बोला तो कजली सारी रात रोरो कर गुजार देगी. न सोएगी न सोने देगी. कठोर शब्द उस से बरदाश्त नहीं होते और असुंदर परिस्थितियां सोमांश से बरदाश्त नहीं होतीं.
‘‘देखो कजली,’’ सोमांश अपनी आवाज को संयत करते हुए बोले, मगर कजली की नारी सुलभ प्रज्ञा फौरन समझ गई कि वे वास्तव में कु्रद्ध हैं, ‘‘हमें समझना होगा कि यह एक नई पीढ़ी है, कुछ पुराने मूल्य हमारे पास हैं, कुछ नए मूल्य इन के पास हैं. अगर मूल्य इसी तरह आपस में टकराते रहे तो वे विध्वंसक हो जाएंगे. हमें नए और पुराने मूल्यों के बीच समझ पैदा करनी होगी.’’
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‘‘कैसे?’’ कजली ने पूछा.
‘‘मान लो, पिंकी कहती है कि यह क्या फूहड़पन है मां. अब पुराने मूल्यों से देखो तो यह एक गाली है और यदि नए मूल्यों से देखो तो स्पष्ट अभिव्यक्ति. स्पष्ट अभिव्यक्ति की खूबी यह होती है कि वह मन में कोई जहर पलने नहीं देती. स्पष्ट अभिव्यक्ति के कारण ही अमेरिका में लोग स्पष्ट सुनने और कहने के आदी हैं. वहां कोई ऐसी बातों का बुरा नहीं मानता. सब जानते हैं कि स्पष्टता की तलाश में अभिव्यक्ति इतनी कड़वी हो ही गई है. इस में दिल की कड़वाहट नहीं है. ‘‘इस के विपरीत मेरा और अपना जमाना लो. बहुत सी कड़वी बातें जबान पर आ कर रह जाती थीं. वे कहां जाती थीं, सब की सब दिल में. जब कड़वी बात जबान से दिल में लौट आती है तो वह दिल में लौट कर गाली बन जाती है.’’
‘‘मैं समझती हूं,’’ कजली बोली, ‘‘मगर क्या करूं, मेरे दिमाग को यह सूझता ही नहीं. जब तुम कहते हो तो दूसरा पहलू दिखता है वरना मुझे लगता है, बच्चे बड़े हो गए हैं, किसी को मेरी जरूरत नहीं अब. बस, कोको है. यह भी बड़ा हो जाएगा. फिर मैं क्या करूंगी? इतनी अकेली होती जाऊंगी मैं…’’
‘‘ऐसा क्यों सोचती हो?’’ सोमांश का हृदय करुणा से भर आया. कजली को उस ने बांहों में भर लिया. तब तक चांद पेड़ों पर चढ़ताचढ़ता खिड़की के सामने आ गया था. चांदनी पेड़ों से छनती कुछ शय्या पर आ रही थी. उस उजाले में कजली का आधा मुंह दमक रहा था और आधे पर स्वप्निल साए थे. उस की विशाल आंखों में न आंसू थे न थकान और न ही निराशा. उन की जगह थी एक स्निग्ध चमक, वासना का वह पवित्र आलोक जो कामकलुषित मन से नहीं, शरीर के अंग गहन स्रोतों से निकलता है. यह वह साफ पाशविकता थी जो प्रकृति को दोनों हाथों से पकड़ कर बरसता नभ उमड़उमड़ कर उस के असंख्य गर्भकोषों में उतार देता है. सोमांश को लगा, यौन की पूर्णता के सर्वथा दैहिक होने में है. मन इस का साक्षी न बने, लजा कर छिप जाए अन्यथा मन इसे देख कर कामकलुषित हो जाता है. विप्लव नहीं, एक संयमित, यौन सुरभ्य क्रिया थी, उम्र ने कामविप्लव को झेल कर सुंदर बनाना सिखा दिया था. जो यौवन में उन्मुक्त मद था, प्रौढ़ावस्था में एक कोमल अनुराग विनिमय बन गया था. तृप्ति दोनों में है मगर यह तृप्ति प्रवृत्त होने वालों पर आश्रित है जो प्रौढ़ता को यौवन का अभाव नहीं, एक परिपक्वता की प्राप्ति समझाते हैं, वे इस की देन से जीवन संवारते हैं. सौंदर्य के तार चांद की किरणों के साथ यौनकर्म भी शय्या पर बुन रहा था. आकाश पर दूर छितरे बादलों को देख अब कजली के मन में उठते विचार बदल गए थे. इतनी पीड़ा थी बादलों के मन में, उस ने सोचा गरजगरज कर जी खोल कर आंसू बहाए थे उन्होंने, मगर अब वे दूरदूर थके बच्चों की तरह सो रहे थे. सफेद बादलों से दुख के श्यामल स्पर्श दूर नहीं हुए थे किंतु उन के पाश से अब बादल बेखबर थे. चांदनी में चमकती उन की रुई जैसी सफेदी को श्यामलता का अब जैसे कोई एहसास ही नहीं था.
दुखों से निकलने की राह क्या यही ह? दुखों से लड़ी तो दुख अनंत लगे और दुखों पर साहसपूर्वक आत्मबलि दी तो वे निष्प्रभ हो गए. उधर सोमांश मूल्यों के इस संघर्ष में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने में असमर्थ थे. न तो पत्नी को दबा सकते थे न बेटी को. एक के साथ शताब्दियां थीं, संस्कृति थी तो दूसरी के साथ वह ताजगी, वह चिरनूतन जीवन था जिस से मूल्य और संस्कृति जन्म लेते हैं. दोनों में संघर्ष अनिवार्य है क्योंकि यह दौर अनिश्चितता के नाम है. जब काल के ही तेवर ऐसे हैं तो मैं संभावनाओं के कालरचित खेल को एक निश्चित हल दे कर रोकने वाला कौन हूं. ये छोटेछोटे पारिवारिक संघर्ष ही नए मूल्यों को जन्म देंगे शायद. अपने छोटे से परिवार का हर सदस्य उन की आंखों के आगे अपनी सारी शरारत के साथ आया. हम सब अंधेरे के हमसफर हैं. रोशनी कहां है? कभीकभी इतिहास में ऐसा दौर भी आता है जब पूरी श्रद्धा से अपनेअपने अंधेरे के सहारे चलना पड़ता है.
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अगली सुबह चारों एकसाथ मानो किसी अज्ञात प्रेरणा के अधीन नाश्ता करने बैठे, ‘‘पिताजी, आज आप ने ब्रिल क्रीम लगाई है या तेल?’’ कोको ने पूछा.
‘‘ब्रिल क्रीम.’’
‘‘बहुत सारी लगाई होगी,’’ कोको बोला, ‘‘तभी तो चेहरा इतना चमक रहा है.’’
पिंकी हंसने लगी. कजली भी हंसने लगी और बोली, ‘‘या तो लगाते नहीं और जब लगाते हो तो थोक के भाव.’’ सोमांश की ऐसी बचकानी हरकतों पर अकसर घर में हंसी बिखर जाती थी. पुराने मूल्यों और नए मूल्यों के बीच अमूल्य कोको भी था जिस के मूल्य अभी प्रकृति ने समन्वित कर रखे थे, जो सनातन थे कालजन्य नहीं. उस के बचपन का भोलापन अकसर दोनों मूल्यों के बीच ऐसे संगम अकसर रच दिया करता था. कुछ देर में ही कोको और पिंकी की लड़ाई होने लगी, ‘‘देखो मां,’’ पिंकी बोली, ‘‘अब की बार जो रस्कीज (शकरपारे) लाई हो, सब कोको ने छिपा लिए हैं. हमें भी दिलवाओ.’’
‘‘मांमां…’’ कोको बोला, ‘‘पहले दीदी से मेरे 30 रुपए दिलवाओ.’’
‘‘वाह, इसे मैं कहीं ले जाऊं तो ठंडा पिलवाऊं और आइसक्रीम खिलवाऊं…’’
‘‘जो खिलाते हैं, उस के दाम क्या छोटे भाई से वसूल किए जाते हैं?’’ कजली बोली.
‘‘मां, मेरे रुपए दिलवाओ,’’ कोको फिर बोला.
‘‘मैं नहीं दूंगी,’’ कहती हुई पिंकी कमरे में भागी और उस के पीछेपीछे कोको.