मैं वह नहीं: भाग 3- आखिर पाली क्यों प्रेम करने से डरती थी

तभी वहां मौली आ गई. उसे देख कर वह बोली, ‘‘दी, तुम ने कभी बताया नहीं तुम्हारा कोई बौयफ्रैंड भी है?’’

‘‘कैसी बात करती हो मौली यह मेरा बौयफ्रैंड नहीं है.’’

‘‘झूठ बोल रही है तुम्हारी दी. यह भी मु?ो प्यार करती है लेकिन कहने से डरती

है. इस के मन में पता नहीं क्या है जिस से यह उबर नहीं पा रही है.’’

‘‘दी, तुम किस्मत वाली हो जो तुम्हें इतना चाहने वाले दोस्त मिले हैं. आज के जमाने में रिश्ते कपड़ों की तरह हो गए हैं. इस्तेमाल करो और फेंक दो. दी मु?ो लगता है तुम्हें इन्हें सम?ाना और कुछ वक्त देना चाहिए.’’

‘‘तुम कुछ नहीं सम?ाती मौली.’’

‘‘दी, मैं इतनी छोटी भी नहीं हूं. मु?ा से भी कई युवा दोस्ती करना चाहते हैं. देख रही हूं ये तुम्हारे लिए दूसरे शहर से यहां आए हैं. कोई किसी के लिए इतना वक्त नहीं निकालता जितना इन्होंने निकाला है. होश में आओ दी और इन्हें पहचानने की कोशिश करो. कब तक इसी तरह खुद से भागती रहोगी?’’

‘‘मैं भी यही सम?ा रहा हूं. जिंदगी में हादसे होते रहते हैं. उन का हिस्सा बन जाना कहां की सम?ादारी है? जो बीत गया उसे भूलने की कोशिश करो. जिंदगी को खुले दिल से अपना लो तो वह जन्नत बन जाती है.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं. बड़ी मम्मी के चले जाने का दी पर बहुत बड़ा असर पड़ा है और उस के बाद वह किसी को अपना नहीं सकी.

सब दी को खुश देखना चाहते हैं लेकिन यह अपनी ही दुनिया में रहती है,’’ मौली बोली तो पाली को लगा जैसे किसी ने उस की चोरी पकड़ ली हो.

पहली बार पाली को एहसास हुआ कि वह मम्मी की मौत को भुला नहीं पाई और खो जाने के डर से कभी किसी को अपने जीवन का हिस्सा न बन सकी.

‘‘मैं तुम्हारे फोन का इंतजार करूंगा पाली और तब तक इसी शहर में रहूंगा जब तक तुम

मेरे प्यार को स्वीकार नहीं कर लेती,’’ कह कर वह चला गया. मौली और पाली भी चुपचाप घर चली आईं.

दोनों की बातों ने आज पाली को ?ाक?ार कर रख दिया था. पहली बार वह अपना आत्मविश्लेषण करने के लिए मजबूर हो गई. उसे लगा मौली ठीक कहती है. यह तो खुशी की बात है कि उसे इतने अच्छे पापा, नई मम्मी और छोटी बहन के रूप में मौली मिली लेकिन उस ने कभी उन्हें दिल से स्वीकार ही नहीं किया. दोस्त और प्रेमी के रूप में भी पार्थ जैसा हैंडसम लड़का उस के जीवन में आना चाहता है और वह उसे नकारते चली जा रही थी.

सारी रात पाली सो नहीं सकी. मौली उस की बेचैनी को महसूस कर रही थी लेकिन कुछ कह कर उस के विचारों की डोर को तोड़ना नहीं चाहती थी. सुबह वह देर से उठी.

मौली ने पूछा, ‘‘दी, तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘हां ठीक हूं. रात देर तक नींद आई… सुबह आंख लग गई.’’

‘‘दी, बुरा मत मानना पार्थ बहुत अच्छ हैं. उन्हें अपना लो. मु?ो यकीन है वे कभी शिकायत का मौका नहीं देंगे.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो मौली. मैं ही स्वार्थी हो गई थी. खोने के डर से मैं कभी किसी को अपना ही नहीं सकी. कुदरत न करे कभी किसी बच्चे को मांबाप के बगैर रहना पड़े.’’

‘‘बीमारी पर किसी का बस नहीं है. बड़ी मम्मी को पापा ने बचाने की बहुत कोशिश की थी लेकिन उन का साथ इतना ही लिखा था. वे तुम्हें छोड़ कर चली गईं. उसी का बदला तुम पूरी दुनिया से ले रही हो और वह भी अपनेआप से लड़ कर.’’

‘‘तुम ठीक कह रही हो. मैं खुद इस बात

को नहीं सम?ा सकी. बस अंदर एक खालीपन था. लगता था उसे मम्मी के अलावा कोई नहीं

भर सकता. उसी ने मु?ो सब से दूर कर दिया.’’

‘‘अभी भी देर नहीं हुई है दी. तुम्हें पार्थ को अपना लेना चाहिए.’’

‘‘तुम उस का नाम कैसे जानती हो?

मैं ने तो कभी उस का जिक्र भी नहीं किया?’’ पाली बोली तो मौली खिलखिला कर हंसने

लगी.

‘‘दी, तुम्हें भले ही यह जिंदगी अपनी

लगती रही हो लेकिन उस पर हमारा भी उतना

ही हक है दी. यही सोच कर पार्थ परसों मु?ा

से मिले थे. वे तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जानना चाहते थे. मैं ही किसी अजनबी को बताने में हिचक रही थी. कल उन के कहने पर ही मैं कौफीहाउस आई थी.’’

‘‘तो यह सब तुम्हारी शरारत थी.’’

‘‘मु?ो भी एक हैंडसम जीजू चाहिए

इसीलिए मैं ने पार्थ का साथ दिया,’’ मौली बोली.

यह सुन पाली भी हंसने लगी. पहली बार उस ने उसे खिलखिलाते हुए देखा.

‘‘देर किस बात की है दी? पार्थ को फोन मिलाइए और मिलने के लिए बुला लो. मैं भी देखना चाहती हूं तुम कैसे अपने प्यार का इजहार करती हो?’’

‘‘सच कहूं कुदरत ने मु?ा से मम्मी छीन कर बहन के रूप में तुम्हें लौटा दिया. एक तुम ही हो जिसे मैं अपना सम?ाती हूं.’’

‘‘सब अपने हैं दी. तुम मम्मी से बात कर के तो देखो उन्होंने कभी हम दोनों में कोई भेद नहीं किया. वे बहुत अच्छी हैं.’’

‘‘जानती हूं उन्हें खोने के डर से मैं उन के पास कभी गई ही नहीं. सोचती थी कहीं तुम्हें भी मेरी जैसी स्थिति से न गुजरना पड़े.’’

‘‘ऐसा कभी नहीं होगा दी,’’ कह कर मौली पाली से लिपट गई.

दोपहर में पाली ने पार्थ को फोन कर मिलने के लिए बुला लिया. पार्थ की खुशी का ठिकाना न था. वह निर्धारित समय से पहले कौफीहाउस पहुंच गया.

आज पाली बिलकुल बदली हुई थी. उस का चेहरा खुशी से चमक रहा था. खुले बाल और टाइट जींस में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी.

आते ही पाली ने पार्थ का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘‘चलो, घूमने चलते हैं. आज मैं अपना समय इस जगह पर नहीं तुम्हारे साथ किसी खुली जगह बिताना चाहती हूं.’’

दोनों एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले कौफीहाउस से बाहर चले गए. मौली उन्हें दूर तक जाते हुए देखती रही और दी के सुनहरे भविष्य की कल्पना में खो गई.

मम्मियां: आखिर क्या था उस बच्चे का दर्द- भाग 2

अक्षय सभी बच्चों में अलग ही दिखता था. वह खूब शरारत करता. कभी मिट्टी किसी के ऊपर फेंकता, कभी अपने मित्रों के साथ दौड़ लगाता अब वह आता तो था किंतु खेलता नहीं था. कई बार तो शाम तक स्कूल यूनिफौर्म ही पहने होता. दूर से ही खेलते मित्रों को देखता, तो कभी पास बैठा उन सब की मम्मियों को देखता रहता.

अभी परसों शाम की ही बात है. चिरायु ने अपनी दोनों मुट्ठियों में रेत भर कर अक्षय पर उछाल दी. प्रत्युत्तर में अक्षय ने न तो रेत उस पर उछाली न ही उस से पहले की तरह ?ागड़ा किया. किसी परिपक्व व्यक्ति की तरह अपना सिर नीचा किया और रेत ?ाड़ दी अपने नन्हे हाथों से. न जाने क्यों उस का इस तरह अचानक सम?ादार हो जाना तनूजा को हिला गया भीतर तक. मन ही मन उस ने ठान लिया कि वह पता
लगा कर रहेगी कि आखिर इस की मम्मी को हुआ क्या है? क्यों यह 4 वर्ष का बच्चा परिपक्व व्यवहार कर रहा है?

इस की जानकारी के लिए शांति और नमिता सर्वश्रेष्ठ स्रोत थीं. अगली सुबह 6 बजे ही तनूजा नीचे आ गई. बच्चे चिढ़ रहे थे, ‘‘मां, इतनीजल्दी क्यों ले आईं आप हमें? अभी तो पूरे 15 मिनट हैं.’’
‘‘थोड़ा पहले आ गए तो क्या हो गया? देखो, कितनी फ्रैश हवा है इस समय. थोड़ा वाक करो, तुम्हें अच्छा लगेगा.’’

तभी तन्मयी बोली, ‘‘देखो भैया, सनराइज हो रहा है. कितना अच्छा लग रहा है न?’’
‘‘हां तन्मयी. और उधर देखो मून अब भी दिखाई दे रहा है, सन ऐंड मून टुगैदर… अमेजिंग न?’’
तनूजा का ध्यान उन की बातों पर नहीं गया. उस की आंखें तो शांति और नमिता को खोज रही थीं. उस ने बच्चों को गाड़ी में बैठाया और लौट चली. थोड़ी ही दूर बढ़ी थी कि देखा शांति सामने ही खड़ी थीं. उन से 10 कदम ही पीछे थीं नमिता. उन के बच्चे स्कूल बस में बैठ चुके थे.

तनूजा फुरती से उन की ओर बढ़ी और अभिवादन किया, ‘‘हैलो, गुडमौर्निंग शांतिजी.’’
‘‘गुडमौर्निंग, हम तो हर रोज आप को देखते हैं, आप से बात भी करना चाहते हैं पर आप इतना तेज चलती हो कि…’’ शांति ने कहा.

‘‘अगर वाक के दौरान बातें करने लगो तो वाक तो रह ही जाती है,’’ तनूजा ने शीघ्रता से उन की बात के प्रवाह को काट दिया, नहीं तो अनवरत बहता रहता.

नमिता के तेज गंध वाले डिओ से छींकने लगी तनूजा, तो नमिता ने अपने मिठासयुक्त धीमे स्वर में कहा, ‘‘आप को जुकाम हो गया है न?’’

‘‘हां बस हलका सा.’आज उसे भी मंथर गति से वाक करना था उन के साथ. लेकिन किसी के निजी जीवन में ताक?ांक करना उस का स्वभाव नहीं था, इसलिए जो जानना चाहती थी पूछ नहीं पा रही थी. अभी सोच ही रही थी कि कैसे पूछूं कि सामने से अक्षय आता दिखा. उस के पापा उत्तम सिब्बल उस के साथ आ रहे थे और वह सुबक रहा था.

तनूजा से रहा नहीं गया. उस ने सुबकते अक्षय को थपथपा कर पूछा, ‘‘क्या हो गया बेटा, क्यों रो रहे हो?’’ उस की थपकी शायद उत्तम सिब्बल को नागवार गुजरी. अक्षय की बांह पकड़ कर उसे लगभग घसीटते हुए वे बोले, ‘‘चल जल्दीजल्दी, वैन छूट गई तो 2 ?ापड़ दूंगा खींच कर.’’ आग्नेय नेत्रों से वे तनूजा को भी घूर रहे थे.

पास खड़ी शांति ‘च्च, च्च, च्च…’ करती हुई बोली, ‘‘बेचारे… मम्मी तो भाग गई, इस बेचारे को छोड़ गई.’’
‘‘यू मीन कहीं चली गई है?’’ तनूजा व्यग्र थी.

‘‘नहीं जी, भाग गई.’’

तनूजा विस्मित सी खड़ी रह गई, ‘‘भाग गई, कहां…?’’

शांतिजी शांति से बोलीं, ‘‘आप को तो कुछ पता नहीं. बच्चाबच्चा जानता है कि वह बदमाश अर्चना सामने वाले चोपड़ाजी के लड़के के साथ…,’’ फिर अपनी तर्जनी को हवा में एक चक्र की भांति घुमा कर बोलीं, ‘‘सम?ा गईं न आप? ये उस को एसएमएस करती, वह इसको… पता नहीं कहांकहां घूमने जाते थे. घर पर पता चला तो अक्षय के पापा ने बहुत पीटा अर्चना को.’’

नमिता जो अब तक शांत थीं, बोल पड़ीं, ‘‘उन्होंने तो चोपड़ा साहब के घर जा कर उन के बेटे को भी बहुत मारा, गाली दी, तोड़फोड़ की.

फिर अर्चना पता नहीं कहां चली गई और यह बेचारा बच्चा…’’

शांतिजी अपने माथे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘ये बेचारा तो यहां मां के कुकर्मों की सजा भुगत रहा है.’’
उन के शब्दों के चयन पर तनूजा को घृणा हो आई. वह वहीं खड़ी रह गई. वे दोनों आगे जा चुकी थीं. उसे इस बात पर विश्वास करना कठिन जान पड़ रहा था. अर्चना इतनी सुसंस्कृत… ऐसा कैसे कर सकती है? और चोपड़ाजी का लड़का तो 22-23 वर्ष का ही है. नहींनहीं, ऐसा हो नहीं सकता, सोचतेसोचते सिर भारी हो गया उस का.

गरमी की छुट्टियां चल रही थीं. तनूजा का आजकल सुबह नीचे आना नहीं होता था. तन्मयी और तनिष्क ने स्विमिंग क्लासेज जाना शुरू किया था. सुबह 9.30 बजे जाते और आतेआते 12 बज जाते. थके हुए वे दोनों खापी कर जो सोते तो शाम को ही नींद खुलती उन की. वह भी अकसर उन के पास सो जाती थी. उस दिन वह बहुत देर तक सोती रही तो उस के बेटे तनिष्क ने उसे उठाया. वह उठी तो उसे याद आया कि आज दिव्यांशु की बर्थडे पार्टी में जाना है. सलिल सुबह कह गए थे तैयार रहने को और गिफ्ट भी लाना है. वह फुरती से उठी और तैयार हो कर बाजार चली गई.

10 वर्ष के दिव्यांशु के लिए कोई गिफ्ट तनूजा को सू?ा नहीं रहा था. 3 गिफ्ट शौप्स छान मारी थीं. बस अब एक और देख लेती हूं और वहीं से कुछ न कुछ ले लूंगी, तय किया उस ने. सेल्समैन को गिफ्ट दिखाने को कह वह स्वयं भी रखी हुई चीजें देखने लगी. सेल्समैन ने दर्जनों चीजें दिखाईं किंतु एक न जंची उसे. तभी पिछले काउंटर से एक महिला स्वर उभरा, ‘‘मैडम, आप इधर आइए. यहां कुछ गेम्स ऐसे
हैं, जो इस ऐज ग्रुप के लिए काफी इंटरैस्टिंग और इन्फौर्मेटिव हैं.’’

तनूजा ने पीछे मुड़ कर देखा तो चौंक गई. वह अर्चना थी, अक्षय की मम्मी.

‘‘ओह आप, नमस्ते,’’ हाथ जोड़ कर बड़ी नम्रता से उस ने कहा.

‘‘तुम यहां कैसे अर्चना?’’

‘‘ये मेरे अंकल की शौप है. घर पर बैठी बोर हो रही थी, सोचा यहां थोड़ा टाइमपास हो जाएगा, बस इसीलिए चली आई.’’

पिछले कुछ समय से नन्हे अक्षय की उदासी से हो रही घुटन से तनूजा ने उसी क्षण मुक्त होना चाहा, इसलिए वह बोली, ‘‘टाइमपास? तुम यहां टाइमपास कर रही हो और वहां तुम्हारा बच्चा किस हाल में है, जानती हो? छोटा सा बच्चा न हंसता है, न खेलता है, न शरारत करता है. बस चुपचाप सब को देखता रहता है. आखिर बच्चों को जन्म क्यों देती हैं तुम्हारे जैसी औरतें…?’’

बीच में ही बात काटते हुए अर्चना बोली, ‘‘ऐक्सक्यूज मी, तुम्हारे जैसी औरतों से आप का क्या तात्पर्य है?’’ और तनूजा के कुछ कहने से पहले ही फिर बोली वह, ‘‘मैं आप की रिस्पैक्ट करती हूं, इसीलिए कुछ नहीं कहूंगी… प्लीज आप यहां से चली जाएं. और हां, मेरे बेटे के लिए आप परेशान न हों.’’

‘मेरा बेटा’ सुन कर एक आशा जागी तनूजा के मन में. साथ ही शर्मिंदगी भी हो आई कि आखिर क्या जरूरत थी मु?ो इस सब में पड़ने की?

फिर उस ने गाड़ी स्टार्ट की ही थी कि एक प्रौढ महिला को अपनी ओर आते देखा. वे उसे हाथ से रुकने का इशारा कर रही थीं. पास आने पर वे बोलीं, ‘‘अर्चना के व्यवहार के लिए मैं आप से माफी मांगती हूं. मैं उस की मां हूं. वह जब से अपने घर से आई है बहुत चिड़चिड़ी हो गई है.’’

क्या फर्क पड़ता है: भाग 3

सोम के प्यार की गहराई समझ सकता हूं मैं. बहुत प्यार करता है वह अपनी मां से, तभी तो मेरे साथ बांट नहीं पाया. पहली बार सोम का मन समझा मैं ने, क्योंकि इस से पहले मुझे यथार्थ का पता नहीं था.

संतान की चाह में मौसी ने सोम को गोद लिया था, अधूरेअधूरे आपस में मिल जाएं तो संपूर्ण होने का सुख पा सकते हैं, यही समझ पा रहा हूं मैं. इन 2 अधूरों में एक अधूरा मैं भी आ मिला था जिस की वजह से जरा सी हलचल हो गई थी.

‘‘अपनापराया वास्तव में हमारे मन की ही समझ और नासमझ होती है अजय. मन जिसे अपना माने वही अपना. अपना होने के लिए खून के रिश्ते की जरूरत नहीं होती. सोम अनाथ था, मेरी गोद खाली थी… मिल कर पूरे हो गए न दोनों. मेरा जीना, मेरा मरना, मेरी विरासत… आज मेरा जो भी है सोम का ही है न. हर जगह सोम का नाम है, लेकिन इस के बावजूद मैं सोम की कैदी तो नहीं हूं न. मुझे जो प्यारा लगेगा, जो मेरे मन को छू लेगा, वह मेरा होगा. मुझे किसी सीमा में बांधना सोम को शोभा नहीं देता.’’

‘‘मां, सच तो यह है कि मैं तो यह सचाई ही नहीं सहन कर पा रहा हूं कि तुम ने मुझे जन्म नहीं दिया. तुम ने भी कभी नहीं बताया था न.’’

‘‘उस से क्या फर्क पड़ गया, जरा सोच ठंडे दिमाग से. अजय का खून मेरे खून से मिल गया. इस की जात भी हमारी जात से मिल गई, तो तुम्हें लगा अब यह तुम्हारी जगह ले लेगा? इतनी असुरक्षा भर गई तुम्हारे मन में.

‘‘अरे, यह बच्चा क्या छीनेगा तेरा. यह भूखानंगा है क्या. इसे पालने वाले हैं इस के पास. भाईबहन हैं इस के. इसे कोई कमी नहीं है, जो यह तेरा सब छीन ले जाएगा, लावारिस नहीं है तुम्हारी तरह.’’

‘‘मैं ने ऐसा नहीं सोचा था, मां.’’

‘‘अगर नहीं सोचा था तो भविष्य में सोचना भी मत. इतनी ही तकलीफ हो रही है तो बेशक चले जाओ अपने घर. शराबी पिता और सौतेली मां हैं वहां. अनपढ़गंवार भाईबहन हैं. तुम भी वैसे ही होते अगर मैं न उठा लाती, आज इतनी बड़ी कंपनी में अधिकारी नहीं होते. सच पता चल गया तो मेरे शुक्रगुजार नहीं हुए तुम, उलटा मुझ पर पहरे बिठाने शुरू कर दिए. बातबात पर ताना देते हो. क्या पाप कर दिया मैं ने? तुम को जमीन से उठा कर गोद में पालापोसा, क्या यही मेरा दोष है?’’

‘‘मौसी, ऐसा क्यों कह रही हैं आप? आप का बेटा है सोम.’’

‘‘मेरा बेटा है तो मेरे मरने का इंतजार तो करे न मेरा बेटा. यह तो चाहता है कि आज ही अपना सब इस के नाम कर दूं. अगर यह मेरी कोख का जाया होता तो क्या तब भी ऐसा ही करता? जानते हो, तुम्हारे घर किस शर्त पर लाया है मुझे कि भविष्य में मैं तुम से कभी नहीं मिलूंगी. घर के कागज भी तैयार करवा रखे हैं. अगर सचमुच इस से प्यार करती हूं तो सब इस के नाम कर दूं, वरना मुझे छोड़ कर ही चला जाएगा…तुम्हारे मौसा ने समझाया भी था कि किसी रिश्तेदार का ही बच्चा गोद लेना चाहिए. तब भी अपनी गरीब बाई का नवजात बच्चा उठा लिया था मैं ने. सोचा था, गीली मिट्टी को जैसा ढालूंगी, ढल जाएगी. नहीं सोचा था, मेरी शिक्षादीक्षा का यह इनाम मिलेगा मुझे.’’

सोम चुप था और उस की गरदन झुकी थी. मैं भी स्तब्ध था. यह क्याक्या भेद खोलती जा रही हैं मौसी.

‘‘अब मैं इस के साथ घर नहीं जाऊंगी, अजय. आज रात अपने घर रहने दो. सुबह 10 बजे की गाड़ी से मैं इलाहाबाद चली जाऊंगी. यह क्या छोड़ेगा मुझे, मैं ही इसे छोड़ कर जाना चाहती हूं.’’

सोम मौसी के पैर पकड़ कर रोने लगा था.

‘‘मुझे अब तुम पर भरोसा नहीं रहा. रात में गला दबा कर मार डालो तो किसे पता चलेगा कि तुम ने क्या किया. जब से अजय हम से मिलनेजुलने लगा है, तुम्हारे चरित्र का पलपल बदलता नया ही रूप मैं हर रोज देखती हूं…इस बच्चे को मुझ से क्या लालच है. जब भी मिलता है मुझे कुछ दे कर ही जाता है. कभी अपना खून देता है और कभी यह कीमती शाल. बदले में क्या ले जाता है, जरा सा प्यार.’’

नहीं मानी थीं मौसी. सोम चला गया वापस. रात भर मौसी मेरे घर पर रहीं.

‘‘मेरी वजह से आप दोनों में इतनी दूरी चली आई.’’

‘‘सोम ने अपना रंग दिखाया है, अजय. तुम नहीं आते तो कोई और वजह होती लेकिन ऐसा होता जरूर. तुम्हारे मौसाजी कहते थे, ‘मांबाप के खून का असर बच्चे में आता है. मनुष्य के चरित्र की कुछकुछ बुराइयां या अच्छाइयां पीढ़ी दर पीढ़ी सफर करती हैं. सोम के पिता ने शराब पी कर जिस तरह इस की मां को मार डाला था, ऐसा लगता है उसी चरित्र ने सोम में भी अपना अधिकार जमा लिया है. कल इस लड़के ने जिस बदतमीजी से मुझ से बात की, बरसों पुराना इस के पिता का वह रूप मुझे इस में नजर आ रहा था.’’

भर्रा गया था मौसी का स्वर.

सुबह मैं मौसी को इलाहाबाद की गाड़ी में चढ़ा आया. वहां मौसी का मायका है और मौसाजी की विरासत भी.

आफिस में सोम से मिला. क्या कहतासुनता मैं उस से. वह घर की बाई का बच्चा है, इसी शर्म में वह डूबा जा रहा था. कल को सब को पता चला तो आफिस के लोग क्या कहेंगे.

‘‘शर्म ही करनी है तो उस व्यवहार पर करो जो तुम ने अपनी मां के साथ किया. इस सत्य पर कैसी शर्म कि तुम बाई के बच्चे हो.’’

मैं ने समझाना चाहा सोम को. मांबेटा मिल जाएं, ऐसा प्रयास भी किया लेकिन ममता का धागा तो सोम ने खुद ही जला डाला था. मौसी ने सोम से हमेशा के लिए अपना रिश्ता ही तोड़ लिया था.

वास्तव में नाशुक्रा है सोम, जिसे ममता का उपकार ही मानना नहीं आया. धीरेधीरे हमारी दोस्ती बस सिर हिला देने भर तक ही सीमित हो गई. बहुत कम बात होती है अब हम दोनों में.

होली की छुट्टियों में घर गया तो मौसी का रंगरूप चाची में घुलामिला नजर आया मुझे. अगर मेरी भी मां होतीं तो चाची से हट कर क्या होतीं.

‘‘कैसी हो, मां? अब चाची नहीं कहूंगा तुम्हें. मां कहूं न?’’

सदा की तरह चाची मेरे बिना उदास थीं. क्याक्या बना रखा था मेरे लिए. नमकीन मठरी, गुझिया और शक्करपारे.

मेरा चेहरा चूम कर रो पड़ीं चाची.

‘‘क्या फर्क पड़ता है. कुछ भी कह ले. हूं तो मैं तेरी मां ही. इतना सा था जब गोद में आया था.’’

सच कहा चाची ने. क्या फर्क पड़ता है. हम मांबेटा गले मिल कर रो रहे थे और शिखा मां की टांग खींच रही थी.

‘‘मां, कल गाजर का हलवा बनाओगी न. अब तो भैया आ गए हैं.’’

गोरी बहू: कैथरीन की सास ने बहू की तारीफ कभी सामने क्यों नहीं की

‘‘अरे देखदेख लंगूर को कैसी हूर की परी मिली है.’’

‘‘सच यार, गोरी मेम को बगल में लिए कैसे शान से घूम रहा है. काश…’’

इस से पहले कि बोलने वाले की बात पूरी होती, अखिलेश ने पलट कर उन्हें घूरा तो यह सोच कर कि कहीं पिटाई न हो जाए, वे दोनों वहां से तुरंत खिसक लिए.

‘‘अकी, आई बिलीव दीज पीपल वेयर कमैंटिंग औन अस,’’ कैथरीन के कहने पर अखिलेश बोला, ‘‘नहींनहीं ऐसा कुछ नहीं है. डोंट थिंक अबाउट इट.’’

इस समय दोनों कनाट प्लेस घूम रहे थे. डेढ़ महीने पहले ही उन की शादी हुई थी. इंडिया आए 1 महीना ही हुआ था. शुरूशुरू में तो अखिलेश को बहुत गुस्सा आता था कि आखिर क्यों लोग कैथरीन को उस के साथ देख कमैंट करते हैं. लेकिन अब यह सुनने की आदत सी हो गई थी. उन दोनों को साथ देख कर देखने वाला कैथरीन को आश्चर्य से जरूर देखता था.

अखिलेश को लोगों का इस तरह रिएक्ट करना अजीब नहीं लगता था, क्योंकि उस ने अंतर्जातीय नहीं, बल्कि दूसरे देश की संस्कृति में पलीबढ़ी कैथरीन से विवाह किया था. वह अमेरिका से थी और एकदम दूध जैसी सफेद जबकि अखिलेश सांवला था. संस्कृति, भाषा और रंगरूप में इतना अंतर होने के कारण ऐसे कमैंट्स मिलने स्वाभाविक थे. ऐसे रिश्तों को आसानी से नहीं स्वीकारा जाता है. ऐसे विवाह पर लोगों के मन में अनेक सवाल उठते हैं कि आखिर क्यों इस अंगरेज लड़की ने एक भारतीय से शादी की? देखने में उस के सामने एकदम मामूली लगता है. शायद उस के पैसे के लिए की होगी या फिर उसी में कोई खामी होगी? हो सकता है तलाकशुदा हो या लड़के ने उसे फंसा लिया हो? भारत में कहां ऐडजस्ट कर पाएगी… देखना थोड़े ही दिनों में भाग जाएगी. वहां की लड़कियां बेहद तेज होती हैं. इंडिया में उस का मन लगने से रहा.

अपरिचितों की बात छोड़ दो, घर वालों ने भी उसे अभी तक कहां स्वीकारा है. कैथरीन जितनी देर तक घर में होती है, एक मातम सा छाया रहता है. जबकि वह अपनी तरफ से सब के हिसाब से पूरी तरह से ढलने की कोशिश कर रही है. पर अम्मां, बाबूजी और दोनों भाभियां उस से सीधे मुंह बात तक नहीं करती हैं. कैथरीन के टूटीफूटी हिंदी बोलने का मजाक उड़ाती हैं. हालांकि दोनों भाइयों ने कभी उस से गलत तरीके से बात नहीं की, पर वे भी अकसर कैथरीन को अवाइड ही करने की कोशिश करते हैं.

कैथरीन हालांकि साड़ी भी पहनने लगी है और शाकाहारी खाना ही खाती है, फिर भी अम्मां जबतब कहती रहती हैं कि अंगरेज का क्या भरोसा… कहीं तु  झे धोखा न दे दे.

यह सुन कर अखिलेश खून का घूंट पी कर रह जाता. उस में मां से कुछ कहने की हिम्मत नहीं. कैथरीन को ठीक से उन की बातें सम  झ नहीं आतीं तो वह उस से पूछती. तब वह हंस कर टाल जाता कि सब कुछ ठीक चल रहा है. घबराओ नहीं… थोड़ा संयम रखो. मु  झे यकीन है एक दिन तुम सब का दिल जीत लोगी.

अखिलेश कैथरीन से इतना प्यार करता कि उसे उदास होते नहीं देख सकता था. वह भी तो उस पर जान देती थी. उस की हर बात को ध्यान से सुन कर उस पर अमल करती थी. वह चाहती थी कि घर के सभी लोग उस से बात करें, उसे घर के काम में शामिल करें, लेकिन वे लोग उस से दूरी ही बनाए रखते.

कई बार अखिलेश ने कैथरीन से कहा भी कि वे अलग हो जाते हैं. तब वह कहती, ‘‘मैं नहीं चाहती कि तुम अपने परिवार से दूर रहो… मैं जानती हूं कि तुम अपने परिवार से बहुत घुलेमिले हो.’’

तब अखिलेश का मन होता कि वह अम्मां को बताए कि सुन लो. तुम जिस गोरी बहू से चिढ़ती हो, वह क्या सोचती है. दूसरी ओर भाभियां हैं, जो दिनरात भाइयों को अलग हो जाने के लिए उकसाती रहती हैं. जबतब बीमारी का बहाना कर अपने कमरों में चली जाती हैं. उधर कैथरीन हर काम खुशीखुशी करने की कोशिश करती है. वह रैसिपी बुक ला कर नईनई डिशेज बनाती पर उसे कोई सराहना नहीं मिलती. अम्मां ने तो एक बार भी उस के सिर पर ममता का हाथ नहीं फेरा. हां, बाबूजी बेशक थोड़े नरम पड़े हैं और कैथरीन को हिंदी सिखाने की कोशिश करते हैं.

‘‘उधर देखो वह क्या कर रही है,’’ कह कैथरीन ने उस का ध्यान भंग किया.

अब तक वे जनपथ पर आ गए थे. फुटपाथों पर अनेक चीजें बिक रही थीं.

‘‘मैं इन्हें खरीदना चाहती हूं,’’ कह कैथरीन ने 4-5 पोटलीनुमा पर्स उठा लिए और फिर बोली, ‘‘घर में सब को दूंगी.’’

वे वापस जाने के लिए जैसे ही कार में बैठने लगे कि तभी एक पुलिस वाले ने उन्हें रोक लिया कि गाड़ी गलत जगह पार्क की है. कैथरीन उस से बात करने लगी. अंगरेज महिला से बात करते हुए पुलिस वाले की बोलती बंद हो गई. बोला, ‘‘मैडम कोई बात नहीं… इस बार जाओ, अगली बार ध्यान रखना.’’

‘‘कई बार तुम्हारा गोरे होने का मु  झे बहुत फायदा मिल जाता है. उस दिन तुम फिल्म के टिकट खरीदने गईं तो विंडो बंद होने पर भी मैनेजर ने तुम्हें टिकट दे दिए. तुम्हारी वजह से भारत में मु  झे भी हाई स्टेटस मिलने लगा है. आई एम ऐंजौइंग दिस स्टेटस,’’ अखिलेश हंसते हुए बोला.

मुझे भरोसा है कि तुम दूसरों की तरह बुरा फील नहीं करते वरना कुछ हसबैंड्स को कौंप्लैक्स हो जाता है,’’ कैथरीन ने रात को सोते समय अपना डर प्रकट किया तो अखिलेश ने उसे बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मु  झ से ज्यादा रिस्पैक्ट मिल रही है तो अच्छी बात है… आज ही देखो फाइन लगतेलगते बच गया. चाहे रैस्टोरैंट हो या कोई मौल, तुम्हारी वजह से हमें स्पैशल अटैंशन मिलती है. गोरे लोगों को आज भी हिंदुस्तान में मान दिया जाता है. देखा नहीं उस दिन कितने अदब से होटल का मैनेजर तुम्हें ग्रीट कर रहा था मानों तुम्हारे आने से उस के होटल की रौनक बढ़ गई हो.’’

‘‘तुम्हारा मतलब कि मेरी वजह से तुम्हारे कई काम बन जाते हैं… स्पैशल अटैंशन मिलती है?’’ कैथरीन ने हैरानी से पूछा. उसे इस बात की खुशी थी कि उस की वजह से उस के पति को देश में ज्यादा सम्मान मिल रहा है.

उस दिन भी तो ऐसा ही हुआ था. बड़ी भाभी के बेटे को स्कूल में परीक्षा में बैठने नहीं दिया जा रहा था, क्येंकि वह बहुत दिन गैरहाजिर रहा था. तब कैथरीन ही जा कर उन से मिली थी और बात बन गई थी. यहां तक कि कई बार बाबूजी उसे बैंक ले जाते तो काम चुटकियों में हो जाता था.

अखिलेश ने एक गोरी मेम से शादी की है, इसलिए औफिस में भी उस का ओहदा ऊंचा हो गया था. कोई उस से कहता कि उस की भी अंगरेज लड़की से शादी करा दे, तो कोई कहता कि विदेश भेजने का जुगाड़ करा दे. अकसर उन्हें कोई न कोई घर पर खाने के लिए आमंत्रित करता रहता. सब कैथरीन से बातें करने को इच्छुक रहते और सब से ज्यादा आश्चर्य तो उन्हें कैथरीन के व्यवहार पर होता, जो बहुत ही सहज होता. वह सब से घुलनेमिलने की कोशिश करती, जिस से सब को लगता कि वह उन्हीं में से एक है.

 

धीरेधीरे घर के लोगों का रवैया उस के प्रति कुछ नरम होने लगा था.

अम्मां उस से बात करने लगी थीं. वह भी दिनरात उन की सेवा में लगी रहती. एक बार अखिलेश की चाची आईं तो उन्होंने बहुत कुहराम मचाया कि गोरी बहू घर आ गई है, सब अपवित्र हो गया है, घर में हवन करा कर बहू का धर्म बदलो तभी शुद्धि होगी वरना सब तहसनहस हो जाएगा.

‘‘बेटा अखिलेश यह तूने क्या कर डाला? क्या हमारे देश में लड़कियों की कमी थी? तू विदेश क्या गया… विदेशी मेम के चक्कर में फंस गया,’’ वे अखिलेश से बोलीं.

‘‘चाची, बहुत हुआ,’’ पहली बार अखिलेश ने इस तरह आवाज उठाई थी. कैथरीन को ही नहीं, घर के बाकी सभी लोगों को भी उस के इस तरह रिएक्ट करने पर आश्चर्य हुआ.

‘‘मु  झे कैथरीन ने फंसाया नहीं है… हम दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं… इतना तो मु  झ पर विश्वास किया होता आप लोगों ने कि कैथरीन में कोई तो खूबी होगी, जिस की वजह से मैं ने उस से विवाह किया है… सिर्फ उस के गोरे रंग के कारण क्यों इतना बवाल मचाया हुआ है आप ने?’’

अखिलेश की बात सुन कर कैथरीन भी

अड़ गई कि वह इन अंधविश्वासों पर यकीन नहीं करती है.

‘‘धर्म के नाम पर आप यह पाखंड नहीं कर सकती हैं. शादी के बाद हम ने यह तय किया था कि न तो अखिलेश हिंदू है और न मैं कैथोलिक… हम बस इंसान हैं. हम ने तय किया है कि हमारे बच्चे भी किसी धर्म के नाम पर   झगड़ा नहीं करेंगे. हवन कराने से मैं और यह घर पवित्र कैसे हो जाएंगे, क्या मैं गंदी रहती हूं?’’ कैथरीन की आवाज में मासूमियत के साथसाथ विरोध भी था.

तभी पैसा कमाने के लालच में वहां पहुंचे पंडित राम शंकर यह सुन भड़क उठे, ‘‘रामराम, इस कलयुग में धर्म कैसे बचेगा? मांसमछली खाने वाले लोगों को घर में रखा जा रहा है और उस पर हवनपूजा करवाने से भी इनकार किया जा रहा है. अम्मांजी, अब मैं इस घर में पैर नहीं रखूंगा,’’ पंडित ने अपना   झोला संभालते हुए कहा तो अखिलेश तुरंत बोला, ‘‘पंडितजी अगर आप ऐसा करेंगे तो बहुत मेहरबानी होगी… आप जैसे लोगों से जितना दूर रहा जाए उतना ही अच्छा. धर्म के नाम पर लोगों के घरों में दरारें डालने में आप जैसे पंडित ही अहम भूमिका निभाते हैं.’’

पंडित के जाते ही चाची को लगा कि अब यहां उन की दाल नहीं गलने वाली है. उन्होंने एक बार अपनी जेठानी की ओर देखा, पर वहां से कोई जवाब न आने पर वह बोलीं, ‘‘मेरा क्या जाता है, जो होगा खुद भुगत लेना. मैं तो अच्छा ही करने आई थी. अब मैं यहां एक पल भी नहीं ठहरने वाली.’’

‘‘चाचीजी, हम आप का निरादर नहीं करना चाहते… हम तो केवल यही कह रहे हैं कि हम धर्म से जुड़े किसी भी तरह के पागलपन में साथ नहीं देंगे. हम लोग इस समाज में ऐसे नागरिक बनना चाहते हैं, जो पूरे सोचविचार के साथ निर्णय लेते हैं और जाति या धर्म के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं करना चाहते,’’ कैथरीन ने उन्हें सम  झाना चाहा, पर वे बिना कुछ और कहे चली गईं.

परिवार में तनाव न हो, इस वजह से कैथरीन विवाद से दूर ही रहना चाहती थी, पर धर्म के नाम पर होने वाले पाखंडों का विरोध किए बिना न रह सकी. अम्मां ने कुछ कहा तो नहीं, पर वे वहां से अपने कमरे में चली गईं. बाबूजी ने अवश्य उस की ओर प्रशंसा से देखा था.

भाभियों ने मुंह बनाया, ‘‘अब तो इसी की चलेगी घर में… हमें नए तौरतरीके सीखने पड़ेंगे.’’ मगर भाइयों ने उन्हें डांट दिया, ‘‘क्या गलत किया कैथरीन ने?’’

बड़े भैया तो तभी कैथरीन के कायल हो गए थे जब उस ने उन के बिजनैस में उन्हें सही राय दी थी और अमेरिका में भी उन के बिजनैस का रास्ता खोल दिया था.

उस दिन कैथरीन सुबह से देख रही थी कि अम्मां कुछ कमजोरी महसूस कर रही हैं. पिछले दिनों में उन्होंने मठरियां, पापड़ और न जाने क्याक्या चीजें बना डाली थीं, जिस से वे थक गई थीं. जोड़ों का दर्द सर्दियों में वैसे भी ज्यादा परेशान करता है. ऊपर से डायबिटीज की मरीज भी थीं. कैथरीन ने उन्हें बिस्तर पर जा कर लिटा दिया. फिर खुद उन के लिए सूप बनाया. फिर डाक्टर को दिखाने ले गई तो पता चला कि कोलैस्ट्रौल बढ़ गया है. उस के बाद तो मां का पूरापूरा खयाल रखने लगी. भाभियां कहतीं कि चमचागीरी कर रही है. पर वह कहां परवाह करने वाली थी.

एक दिन बीपी बढ़ जाने से अम्मां चक्कर खा कर गिर गईं तो बड़ी भाभी देवरानी से बोलीं, ‘‘लो, बढ़ गया काम. मैं तो सोच रही थी कि कुछ दिनों के लिए मायके हो आऊं पर अब सब चौपट हो गया. अम्मां को भी अभी बीमार पड़ना था. अब करो इन की सेवाटहल.’’

छोटी भाभी भी मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘सच, इतने दिनों से ये बाहर घूमने जाने का

प्रोग्राम बना रहे थे… अब तो लगता है टिकट वापस करने पड़ेंगे.’’

मगर उन्हें क्या पता था कि कैथरीन ही नहीं, अम्मां ने भी उन की बातें सुन ली हैं. अम्मां को डाक्टर ने पूरा आराम करने की हिदायत दी थी, क्योंकि उन्हें हलका सा हार्टअटैक भी आ चुका था. भाभियों ने घर में अम्मां के लिए नर्स रखने की सलाह दी तो कैथरीन अड़ गई.

‘‘नर्स रखने की क्या जरूरत है…मैं हूं न… और इतना परेशान होने की जरूरत नहीं… वे जल्दी ठीक हो जाएंगी.’’

उस के बाद कैथरीन ने अम्मां की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. डाक्टर से खुद बात करती, चैकअप कराने उन्हें खुद अस्पताल ले जाती. उन की बीमारी से संबंधित जानकारी इंटरनैट से हासिल कर उस पर अमल करती. उन की डाइट से ले कर उन के नहाने और दवा समय पर देने का खयाल रखती. दोनों भाभियों ने तो जैसे राहत की सांस ली थी. बड़ी भाभी तो इस बीच मायके भी रह आई थीं. अम्मां सब देखतीं, पर कहतीं कुछ नहीं. इसी कैथरीन का कितना अपमान किया था उन्होंने… मन ही मन वे उसे ढेरों आशीष दे डालतीं.

अम्मां कैथरीन की सेवा से ठीक होने लगी थीं, पर अचानक एक रात उन्हें फिर दिल का दौरा पड़ा और उन की मृत्यु हो गई. कैथरीन अवाक रह गई. उसे लगा कि उसी की सेवा में कुछ कमी रह गई होगी, पर अखिलेश और बाबूजी ने उसे संभाला. खबर सुनते ही चाची दौड़ी आईं और सलाह दी कि गोदान कराया जाए और पूरे कर्मकांड के साथ दाहसंस्कार किया जाए. फिर धीमे स्वर में बड़ी बहू से बोलीं, ‘‘यह सब इस गोरी बहू के घर में पैर पड़ने का नतीजा है वरना क्या अभी दीदी की जाने की उम्र थी? अभी भी   झाड़फूंक करा लो… और घर में गंगाजल छिड़को.’’

कैथरीन यह कतई नहीं चाहती थी, लेकिन चाचा पंडित को घर ले आए थे. गोदान कराने पर भी वे जोर दे रहे थे ताकि अम्मां की आत्मा को शांति मिल सके. इस बात पर अखिलेश और कैथरीन के साथ उन का बहुत   झगड़ा हुआ. बाबूजी एकदम शांत थे. कैथरीन ने किस तरह अखिलेश की मां की सेवा की थी, उन्होंने खुद अपनी आंखों से देखा था. जमा भीड़ अपनीअपनी राय दे रही थी और कैथरीन अम्मां के शव के सामने बैठी रो रही थी. इस समय भी ऐसा   झगड़ा उसे दुखी कर रहा था.

तभी अम्मां की बहन हाथ में एक कागज लिए दौड़ीदौड़ी आई, बोली, ‘‘देखो, मु  झे दीदी की अलमारी से क्या मिला है. दीदी को शायद अपनी मौत का अहसास हो गया था. करीब

10 दिन पहले लिखा था उन्होंने शायद यह कागज… लिखा है कि मेरे मरने के बाद कैथरीन जैसा कहे, वैसा ही करना. मैं ने उसे गलत सम  झा, यह मेरी भूल थी… सच में वह मेरी बाकी दोनों बहुओं से अधिक सम  झदार है. जितना प्यार और सम्मान उस ने मु  झे इन कुछ महीनों में दिया, वह मेरी दोनों बहुओं ने 10 सालों में भी नहीं दिया. उन्होंने हमेशा एक बो  झ सम  झ मेरा काम किया, पर कैथरीन ने दिल से मेरी सेवा की. उस की तर्कसंगत बातें कड़वी बेशक लगें, पर वह जो भी कहती है, वह सही होता है. इसलिए वह जिस तरह से मेरा दाहसंस्कार करना चाहे, उसे करने दिया जाए. मेरी गोरी बहू को मेरा ढेरों आशीर्वाद.’’

कैथरीन ने आगे बढ़ कर वह कागज अपने हाथों में ले लिया और बेतहाशा उसे चूमने लगी मानों अम्मां के हाथों को चूम रही हो. उस के आंसू लगातार अम्मां के शव को भिगो रहे थे.

क्या फर्क पड़ता है: भाग 2

कभी मेरा चेहरा और कभी शाल को देखने लगीं सोम की मां. सोम की मां ही तो हैं ये…मैं इन का क्या चुरा ले जाता हूं, अगर कुछ पल इन से मिल लेता हूं? जिस के पास समूल होता है उस का दिल इतना छोटा तो नहीं होना चाहिए न. मां तो सोम की ही हैं, वे मेरी थोड़े न हो जाएंगी.

‘‘आज इतने दिनों बाद आया है, बात भी नहीं कर रहा. क्या हुआ है तुझे? बात तो कर बच्चे.’’

सोम सामने चला आया. उस के चेहरे पर विचित्र भाव है.

‘‘बस, मौसीजी…आप को यह शाल देने आया था. अब चलता हूं नहीं तो 7 वाली बस निकल जाएगी.’’

‘‘बैठ, बैठ…हलवा तो खा कर जा. मां ने खास तेरे लिए बनाया है. दिनरात मां तेरे ही नाम की माला जपती हैं. अब आया है तो बैठ जा न,’’ सोम ने कहा, ‘‘इतनी ही देर हो रही है तो आए ही क्यों. मेरे हाथ ही शाल भेज देते न.’’

विचित्र सा अवसाद होने लगा मुझे. जी चाहा, कमरे की छत ही फाड़ कर बाहर निकल जाऊं. और वास्तव में ऐसा ही हुआ. पलक झपकते ही मैं सड़क पर था. सोम मेरे पीछे लपका था और मौसी आवाजें देती रही थीं पर मैं पीछे पलटा ही नहीं.

किसी तरह अपने कमरे में पहुंचा. न जाने कितनी बार मोबाइल पर सोम की कौल आई लेकिन बात नहीं की मैं ने. मैं क्या इतना कंगाल हूं जो किसी की भीख पर जीने लगूं. ऐसी भी क्या कमी है मुझे जो सोम की मां में अपनी ही मां की सूरत तलाशती  रहें मेरी आंखें. मां का प्यार तो अथाह सागर होता है जिस में समूल संसार को समेट ले जाने की शक्ति होती है. चाची हैं न मेरे पास जो मुझे इतना प्यार करती हैं. क्यों चला गया मैं सोम के घर पर? क्या जरूरत थी मुझे?

2 दिन की छुट्टी थी. अपना घर संवारने में ही मैं व्यस्त रहा. सोमवार सुबह आफिस जाते ही सोम सामने पड़ गया.

‘‘अजय, उस दिन तुम्हें क्या हो गया था. मां कितनी परेशान हैं तुम्हें ले कर. मोबाइल भी नहीं उठा रहे हो तुम.’’

‘‘वे तुम्हारी मां हैं. उन की परेशानी तुम समझो. भला मैं उन का क्या लगता हूं जो…’’

‘‘ऐसा मत कहो, अजय,’’ बीच में बात काटते हुए सोम बोला, ‘‘तुम्हारा ही खून तो बहता है उन के शरीर में. उस दिन तुम न होते तो क्या होता.’’

‘‘मैं न होता तो कोई और होता. सोम, इनसानियत के नाते मैं ने खून दिया. इस से कोई रिश्ता थोड़े न बन जाता है.’’

‘‘बन जाता है कभीकभी. खून से भी रिश्ता बनता है. अब देखोे न मेरा खून उन से नहीं मिला. रिश्ता नहीं है तभी तो खून नहीं मिला. मैं उन का अपना होता तो क्या खून न मिलता.’’

‘‘तुम्हारा खून उन से नहीं मिला उस से क्या फर्क पड़ता है. कभीकभी मांबच्चे का खून नहीं भी मिलता. मेरा खून उन से मिल गया इस से वे मेरी मां तो नहीं न हो जातीं. अरे, भाई, वे तुम्हारी मां हैं और तुम्हारी ही रहेंगी. तुम्हारा खून उन से नहीं मिला उस की खीज तुम मुझ पर तो मत उतारो. जा कर किसी डाक्टर से पूछो… वह तुम्हें बेहतर समझा पाएगा.’’

लंच बे्रक में भी मैं सोम को टाल गया और शाम को घर आते समय भी उस से किनारा कर लिया. मुझे क्या जरूरत है किसी के घर में अशांति, खलबली पैदा करने की. मैं अपने को भावनात्मक रूप से इतना अतृप्त मानूं ही क्यों कि किसी की थाली में परोसा भोजन देख मेरी भूख जाग जाए जबकि सोचूं तो मेरा मन गले तक भरा होना चाहिए. चाची के रूप में ऐसी मां मिली हैं जो मुझे मेरी खुशी में ही अपने बच्चों की भी खुशी मानती हैं.

चाची न पालतीं तो मेरा क्या होता. सोचा जाए तो बड़े होतेहोते किसे याद रहता है अपना बचपन. जिसे मां के रूप में देखता रहा वही मां हैं और अगर मां को देखा भी था तो कहां वह सूरत आज मुझे याद है. होश संभाला तो चाची को देखा और चाची ही याद हैं मुझे. तो मेरी मां कौन हुईं? चाची ही न?

पागल और नाशुक्रा तो मैं हूं न, जिस ने आज तक चाची को चाची ही कह कर पुकारा. चाची कबकब मेरी मां नहीं थीं जो मैं अपने मन में उम्र भर एक शूल सा चुभोता रहा कि बिन मां का हूं.

शाम को घर पहुंचा और अभी खाने की तैयारी कर रहा था कि दरवाजे पर सोम और उस की मां को खड़े पाया. मेरी दी हुई शाल ओढ़ रखी थी उन्होंने.

‘‘क्या बात है बेटा, मां से नाराज है. सोम तो नादान है. उस की वजह से अपना मन मैला मत कर.’’

‘‘नहीं तो, मौसी…’’

क्या कहता मैं. मौसी मुझे गले लगा कर रोने लगी थीं और अपराधी सा सोम सामने खड़ा था.

‘‘जन्म दे देने से ही कोई मां नहीं बन जाती बेटे, इस सोम को ही देख. मैं ने इसे जन्म नहीं दिया… मैं ने कभी किसी संतान को जन्म नहीं दिया, तो क्या मैं इस की मां नहीं हूं. क्या बांझ हूं मैं?’’

यह सुन कर मेरा सर्वांग कांपने लगा. यह क्या कह रही हैं मौसी. उन का चेहरा सामने किया. कितनी प्यारी कितनी पवित्र हैं मौसी. पुन: वही इच्छा सिर उठाने लगी… मेरी भी मां होतीं तो कैसी होतीं.

‘‘सोम हमारा गोद लिया बच्चा है. उसी तरह प्रकृति ने तुम्हें मुझ से मिला दिया. मेरे मन ने तुम्हें अपना बेटा माना है बेटे. मैं 2-2 बेटों की मां हूं. क्या तुम्हें लगता है मेरी गोद इतनी छोटी है जिस में तुम दोनों नहीं समा सकते. क्या सचमुच मैं बांझ ही हूं जिसे अपनी ममता पर सदा एक प्रश्नचिह्न ही सहना पड़े.’’

गूंगा सा हो गया मैं. क्या सच में मौसी ऐसा सोच रही हैं?

‘‘ऐसा नहीं है मां. मैं मानता हूं कि मुझ से गलती हुई है, लेकिन मैं ने ऐसा तो कभी नहीं कहा कि तुम मुझ से प्यार नहीं करती हो,’’ सोम रोंआसा हो गया था.

‘‘यही सच है सोम. जब से तुम्हें पता चला है कि मैं तुम्हारी जन्मदात्री मां नहीं हूं तभी से तुम्हारा रवैया मेरे प्रति बदल गया है. जरा सी बात पर भी तुम्हारा व्यवहार इतना पराया हो जाता है मानो कोई रिश्ता ही न हो हम में. न तुम स्वयं जीते हो न ही मुझे जीने देते होे, क्या अब मेरी बाकी की उम्र यही प्रमाणित करने में बीत जाएगी कि मेरी ममता में खोट नहीं है. मैं तो भूल ही गई थी कि तुम्हें गोद लिया था.’’

सारी की सारी कथा का सार पानी जैसा साफ हो गया मेरे सामने. रिश्तों के दांवपेच कितने मुश्किल होते हैं न जिन्हें समझने का दावा नहीं किया जा सकता. सोम रो पड़ा था अपनी मां को मनातेमनाते. किसी भी औरत के लिए ‘बांझ’ शब्द कितनी तकलीफ देने वाला है. मेरी तरफ अपनी मां का झुकाव सहा नहीं गया होगा सोम से क्योंकि रिश्ते की कमजोर नस यही है कि मौसी ने उसे जन्म नहीं दिया.

‘‘ऐसा मत सोचिए मौसी. कौन आप से आप की ममता का प्रमाण मांग सकता है. 2-2 बच्चों की मां हैं न आप. आप की गोद में तो हजारों बच्चों के लिए जगह है. हमारी तो कोई बिसात ही नहीं जो…’’ मौसी का चेहरा अपने सामने किया मैं ने.

डर: क्या वृद्ध दंपती ने अंजान लड़की की मदद की

‘‘पता नहीं कैसेकैसे बेवकूफ लोग हैं. अखबार नहीं पढ़ते या पढ़ कर भी नहीं समझते अथवा समझ कर भी भूल जाते हैं और हर बार एक ही तरह से बेवकूफ बनते जाते हैं,’’ मेज पर अखबार पटकते हुए पति झल्लाए.

‘‘ऐसा क्या हुआ?’’ चाय के कप समेटते हुए मैं ने पूछा.

‘‘होना क्या है, फिर किसी बुजुर्ग महिला को कुछ लोगों ने लूट लिया, यह कह कर कि आगे खून हो गया है… मांजी अपने गहने उतार दीजिए…अरे खून होने से गहने उतारने का क्या संबंध और फिर खून तो हो चुका…उस के बाद खूनी वहां थोड़े खड़ा होगा. पता नहीं लोग लौजिकली क्यों नहीं सोचते? बस, आ गई बातों में और गहने उतार कर दे दिए.’’

‘‘अरे, वे तो बूढ़ी महिलाओं को निशाना बनाते हैं… घबरा जाती हैं बेचारी और फिर झांसे में आ जाती हैं.’’

‘‘अरे, बूढ़ी नहीं 35-40 साल की कामकाजी महिलाएं भी नहीं समझ पातीं. खैर मान लिया महिलाएं हैं लेकिन कितने ही आदमी भी तो ठगे जाते हैं… लड़कियां लिफ्ट लेती हैं और फिर सुनसान रास्ते पर गाड़ी रुकवा कर लूट लेती हैं…जब पता है कि आप का रास्ता सुनसान है तो क्यों देते हैं लोग लिफ्ट?’’

‘‘अब बेचारे मना नहीं कर पाते लड़कियों को मदद करने से…क्या करें,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां तुम्हें तो मौका मिल गया न हम मर्दों को कोसने का. हम तो बस…’’

‘‘अरे, आप इतना नाराज क्यों होते हैं? शायद हालात ही ऐसे होते होंगे… इंसानियत भी तो कोई चीज है. फिर किसी के माथे पर थोडे़ लिखा होता है कि जिस की आप मदद करने जा रहे हैं वह धोखेबाज है. चलिए, अब नहा लीजिए औफिस के लिए देर हो जाएगी,’’ मैं ने बात खत्म करते हुए कहा.

वैसे बात सही है. रोज तो एकजैसी घटनाएं होती हैं, पैदल चलती महिलाओं की चेन ?ापटना, मोबाइल छीन लेना, गहने उतरवा लेना, लिफ्ट ले कर लूट लेना…लेकिन पता नहीं क्यों लोग इस के बावजूद सीख नहीं लेते?

‘‘देर हो रही है, जल्दी चलिए न…हौस्पिटल दूर है. किसी को देखने जाना हो और वह भी इतनी देर से, ठीक नहीं लगता. फिर लौटने में भी देर हो जाएगी,’’ मैं ने जल्दी मचाते हुए कहा.

‘‘हां भई, चलो, अभी बहुत देर भी नहीं हुई है,’’ पति गाड़ी स्टार्ट करते हुए बोले.

घर से थोड़ी ही दूर मोड़ पर एक लड़की खड़ी थी. लगभग गाड़ी के सामने ही खड़े हो कर उस ने हाथ दिया तो गाड़ी रोकनी पड़ी.

‘‘अंकल प्लीज मेरी मदद कीजिए…प्लीज मेरी गाड़ी स्टार्ट नहीं हो रही है.’’

सड़क के किनारे एक कार खड़ी थी. ऐसा लगा कि कच्ची सड़क की गीली मिट्टी में फंस गई है. अब मना तो किया नहीं जा सकता था. अत: पति तुरंत गाड़ी से उतर गए और उस की गाड़ी में बैठ कर गाड़ी स्टार्ट कर दी. गाड़ी निकालने की बड़ी कोशिश की लेकिन गाड़ी नहीं निकली. अब तक मैं भी गाड़ी से उतर आई थी. इस सुनसान रास्ते पर एक अकेली लड़की की मदद करने का एहसास सुखद था. वह लड़की भी मेरे पास आ कर खड़ी हो गई. तभी उस के मुंह से आई शराब की गंध से मैं 2 कदम पीछे हट गई. उफ, इस ने तो शराब पी रखी है. अब मैं ने गाड़ी को ध्यान से देखा तो पता चला कि गाड़ी का अगला हिस्सा दबा हुआ है, जिस की वजह से पहिया आगे को नहीं घूम पा रहा है. तभी एक गाड़ी वहां से निकली. हमारी गाड़ी बीच में खड़ी थी. खैर, गाड़ी को साइड में कर के मैं फिर जल्दी से बाहर आ गई. तब तक पति भी उस लड़की की गाड़ी से बाहर आ गए थे.

‘‘कहां रहती हो? कहां जाना है?’’ मैंने पूछा.

‘अब यह गाड़ी नहीं निकल सकती, बिना क्रेन के यह तो तय है. समय निकला जा रहा है. हमें तो हौस्पिटल जाना है…यह किस मुसीबत में फंस गए हम,’  मैं ने मन ही मन सोचा.

‘‘अंकल, प्लीज कुछ करिए न…मुझे मूसाखेड़ी जाना है… मेरी गाड़ी को पता नहीं क्या हो गया है.’’

‘‘लेकिन तुम यहां आई किस के घर हो? मूसाखेड़ी तो यहां से बहुत दूर है?’’

‘‘आंटी मैं अपनी एक सहेली के यहां आई थी. वह इसी कालोनी में रहती है.’’

‘‘तो तुम उसी के यहां चली जाओ. गाड़ी लौक कर दो. सुबह को फोन कर के क्रेन मंगवा लेना,’’ मैं ने किसी तरह पीछा छुड़ाने की गरज से कहा.

‘‘आंटी, मेरा उस सहेली से झगड़ा हो गया है. अब मैं उस के घर नहीं जा सकती. आप लोग कहां जा रहे हैं? आंटी प्लीज मुझे लिफ्ट दे दीजिए.’’

‘‘कहां रहती है तुम्हारी सहेली?’’ मैं ने पूछा तो उस ने दूर एक घर की तरफ इशारा कर दिया.

‘‘बेटा, सहेलियों में झगड़ा होता ही रहता है…वह सहेली है तुम्हें परेशानी में देख कर

जरूर मदद करेगी,’’ मैं ने फिर पीछा छुड़ाने की कोशिश की.

‘‘आंटी, मैं अच्छे घर से हूं…मेरे पापा बहुत बड़ी पोस्ट पर हैं. प्लीज आंटी मेरी मदद करिए…मैं यहां से कैसे जाऊंगी?’’

‘‘अपने घर से किसी को बुला लो,’’ मैं किसी भी तरह से इस बिन बुलाई मुसीबत से पीछा छुड़ाना चाहती थी.

‘‘आंटी, मैं होस्टल में रहती हूं. यहां कोई फैमिली मैंबर नहीं है… आप कहां तक जा रहे हैं? मु?ो किसी टैक्सी स्टैंड तक छोड़ दीजिए, प्लीज.

उफ, वही हुआ जिस का डर था. कालोनी के बाहर सुनसान रास्ता…रात का समय…एक अकेली लड़की को लिफ्ट देना…अखबार में पढ़ी खबरें… जानबू?ा कर बेवकूफ बनना… बहुत सारी बातें एकसाथ दिमाग में घूम गईं. पर फिर मन पिघलने लगा कि लड़की रात के समय अकेली कहां जाएगी? लेकिन सुनसान रास्ते पर उसे गाड़ी में बैठा कर ले जाना भी तो खतरे से खाली नहीं है. कहीं कुछ हो गया तो? घर में बच्चे इंतजार कर रहे हैं. लेकिन अगर इसे अकेले यहां छोड़ दिया तो? नहींनहीं यह तो कोई बात नहीं कि अपने डर की वजह से किसी अकेली लड़की की मदद न की जाए. अत: हम ने मदद की हामी भर दी.

गाड़ी ठीक से लौक कर वह हमारी गाड़ी में बैठ गई. पूरी गाड़ी शराब की गंध से भर गई. शीशे खोलने पड़े. मैं ने पति की तरफ देखा. सम?ा तो वे भी रहे थे, लेकिन बिना मदद किए वहां से आगे बढ़ जाना ठीक भी नहीं था.

गाड़ी ने कालोनी का रास्ता तय कर मोड़ लिया तो सुनसान रास्ता शुरू हो गया. इसी के साथ मेरे दिल की धड़कनें भी तेज हो गईं कि अगर 3-4 लोग रास्ता रोक लें तो कुछ नहीं किया जा सकता. उन पर गाड़ी तो नहीं चढ़ाई जा सकती…पता नहीं हम सही कर रहे हैं या नहीं?

जैसेजैसे रास्ता सुनसान होता गया मैं और अधिक चौकन्नी हो कर बैठ गई. मोबाइल हाथ में ले लिया. साइड मिरर से उस लड़की पर नजर रखे थी. तभी अचानक गाड़ी के सामने एक कुत्ता आ गया. गाड़ी के ब्रेक लगते ही मेरे नकारात्मक विचारों को भी विराम लग गया. मन ने खुद को धिक्कारा कि छि: यह क्या सोच रही हूं…11 साल पहले जब हम इस कालोनी में रहने आए थे तब कितनी ही बार इसी सड़क पर रात के समय लोगों को लिफ्ट दी थी. और आज एक लड़की से इतना डर? दुनिया इतनी भी बुरी नहीं है. फिर कर भला हो भला का यह विश्वास आज डगमगा क्यों रहा है? लेकिन मन यों ही तो हार नहीं मानता…जब उस के डर पर प्रहार होता है तो उस के अपने तर्क शुरू हो जाते हैं. संभल कर चलना और दूसरों की गलतियों से सीख लेना कोई बुरी बात तो नहीं है. फिर रोज इतनी खबरें पढ़ते हैं, दूसरों को कोसते हैं. आज जानबूझ कर खुद को मुसीबत में फंसा देना कहां की अकलमंदी है? फिर इस लड़की ने शराब पी रखी है. भले यह भले घर की हो, लेकिन शराब का शौक पूरा करने के लिए तो मातापिता पैसे नहीं भेजते होंगे न? जब घर से भेजे पैसों में खर्चे पूरे नहीं होते तो ये कोई शौर्टकट अपना लेते हैं.

अब तक हम तीनों ही खामोश बैठे थे. पति गाड़ी चला रहे थे, मैं विचारों के झंझवात में फंसी थी और पिछली सीट के अंधेरे में मैं देख नहीं पा रही थी कि वह लड़की क्या कर रही है या उस के क्या हावभाव हैं. लेकिन मुझे लगा शायद वह कुछ सोच रही है या शायद इतने नशे में है कि कुछ सोच नहीं पा रही है.

टैक्सी स्टैंड आने को था. तभी उस ने अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘‘अंकल प्लीज, आप मुझे घर तक छोड़ दीजिए.’’

शायद उसे भी अब इतनी रात अकेले टैक्सी से जाने में डर लग रहा था.

मैं ने उस से कहा, ‘‘बेटा हमें पास ही कुछ काम है…तुम टैक्सी से चली जाओ…वह तुम्हें घर तक छोड़ देगा.’’

अब तक हम चौराहे पर आ गए थे. उस का चेहरा देख कर एक मन तो हुआ कि उसे उस के घर तक छोड़ दिया जाए, लेकिन उस का घर

10 किलोमीटर दूर था और पूरा रास्ता भी सुनसान था.

टैक्सी स्टैंड पर गाड़ी रुकते ही वह उतर गई. मैंने उस का पता पूछ टैक्सी वाले को समझाया और उस से कहा कि भैया इसे ठीक से इस के घर पहुंचा देना. उस की चिंता भी हो रही थी. अजीब उलझन थी. टैक्सी वाला भी भला आदमी लगा. उस ने पता समझ का मुझ आश्वस्त किया कि वह जगह मुझे पता है. मैं भी उसी इलाके में रहता हूं…आप चिंता न करें…मैं इन्हें सुरक्षित छोड़ दूंगा.

मैं ने उस से कहा, ‘‘जाओ बेटा, आराम से चली जाओगी’’

वह गाड़ी के बिलकुल करीब आ गई. मेरा हाथ खिड़की पर रखा था. मेरा हाथ पकड़

कर वह रो पड़ी. फिर बोली, ‘‘थैंक्यू आंटी, आई एम सौरी… मैं ने आप को बहुत परेशान किया. मेरा अपने पति से झगड़ा हो गया था…सौरी आंटी मैं ने शराब पी हुई है…आप बहुत अच्छी हैं… आप ने मेरी इतनी मदद की…’’

तभी मेरे पति भी वहां आ गए. वह उन की ओर मुखातिब हुई, ‘‘अंकल प्लीज, मुझे माफ कर दीजिए… मैं ने आप को बहुत तकलीफ दी.’’

‘‘बेटा, अगर आप की कोई परेशानी है तो आप अपने मातापिता को क्यों नहीं बतातीं?’’

‘‘आंटी, वे मुझ से बहुत नाराज होंगे…मैं उन्हें नहीं बता सकती.’’

‘‘नहीं ऐसा नहीं है. चाहे कितने भी नाराज हों, हैं तो मातापिता…उन से ज्यादा आप का भला और कोई नहीं सोच सकता. इस तरह अकेले रह कर शराब पी कर खुद को परेशानी में डालने से तो कोई हल नहीं निकलने वाला. तुम मेरी बेटी जैसी हो…तुम्हें इस तरह शराब के नशे में देख कर दुख हो रहा है. बेटा, कोई भी परेशानी हो अपने मातापिता को जरूर बताओ. हो सकता है वे गुस्से में तुम्हें डांट दें, शायद थप्पड़ भी लगा दें, लेकिन फिर भी तुम्हारी परेशानी को दूर करने के लिए कुछ न कुछ जरूर करेंगे.’’

वह मेरा हाथ पकड़े हुए थी. मैं ने उसे गले लगा लिया. 20 मिनट की असमंजस के बाद मात्र

3 मिनट में उस से ऐसी आत्मीयता हो गई कि उस का अकेलापन महसूस कर के दुख होने लगा था. मुझे नहीं पता था कि उस की असली परेशानी क्या है?

मैं ने एक बार पति की तरफ देखा. आंखों ही आंखों में बात हुई और फिर मैं ने उस से कहा, ‘‘अच्छा गाड़ी में बैठो, हम तुम्हें छोड़ देते हैं,’’ फिर टैक्सी वाले से कहा कि माफ करना भैया अब हमारा प्रोग्राम चेंज हो गया है हम ही उस तरफ जा रहे हैं.

हमारी गाड़ी अब नए रास्ते पर मुड़ चुकी थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘अब सचसच बताओ क्या हुआ है?’’

थोड़ी सी हिचक के बाद वह कहने लगी, ‘‘आंटी, मैं ने अपने पापा को बताए बिना शादी कर ली, लेकिन अब वह लड़का बातबात पर मुझ से झगड़ा करता है. वह कोई काम भी नहीं करता, अब तो अपने खर्चे के पैसे भी वह मुझ से मांगता है. आंटी, मैं अपने मम्मीपापा की अकेली लड़की हूं. पापा भी अच्छी पोस्ट पर हैं, लेकिन फिर भी मैं उन से कितना मांगू? मुझे अच्छा नहीं लगता. जब मना करती हूं तो झगड़ा करता है.’’

‘उफ, यह लड़की कहां फंस गई’ मैं ने मन ही मन सोचा. फिर पूछा, ‘‘उस लड़के के घर वालों को पता है तुम लोगों की शादी के बारे में?

‘‘नहीं आंटी, अभी किसी को पता नहीं है.’’

‘‘कोर्ट मैरिज की है?’’

‘‘नहीं आंटी हम ने मंदिर में की थी. बस हमारे 1-2 दोस्त आए थे.’’

‘‘तो शादी के बाद तुम लोग साथसाथ रहे भी नहीं हो?’’

‘‘शादी के बाद हम लोग 2 दिन के लिए बाहर गए थे. उस के बाद यहां जिस मकान में वह रहता है वहां मैं उस से मिलने आती हूं…लेकिन अब तो झगड़ा ज्यादा होता है.’’

उस लड़की का भविष्य खाली सड़क सा दिखाई दे रहा था. मैं ने कहा, ‘‘अच्छा, अगर वह लड़का कल तुम्हें छोड़ कर भाग जाए तो क्या करोगी? कोई सुबूत है कि उस से तुम्हारी शादी हुई है?’’

‘‘नहीं आंटी मैं उस से कहती हूं कि अब सब को बता देते हैं तो वह मना कर देता है. कहता है कि अभी समय नहीं आया’’, और वह सुबकने लगी.

मेरा मन बेचैन हो गया. साफसाफ दिखाई दे रहा था कि वह लड़का सिर्फ अपना उल्लू सीधा कर रहा है.

‘‘यहां किस के साथ रहती हो?’’ मुझे उस की होस्टल वाली कहानी भी झूठी लगी.

‘‘मम्मीपापा के साथ.’’

‘‘इतनी देर तक घर से बाहर रहने पर वे नाराज नहीं होते?’’

‘‘मैं कह देती हूं कि फ्रैंड के यहां पढ़ रही थी. आंटी, मुझे झूठ बोलना अच्छा नहीं लगता, लेकिन क्या करूं, कुछ समझ नहीं आता. सच बात बताऊंगी तो मम्मीपापा बहुत नाराज होंगे शायद घर से भी निकाल दें… मेरा हसबैंड तो

खुद का खर्च भी नहीं उठा पाता…मैं कहां जाऊंगी? क्या करूं? अभी तो मेरी पढ़ाई भी बाकी है.’’

‘‘बेटा, अगर मेरी बात मानों तो तुम आज ही अपने मम्मीपापा को सब कुछ सचसच बता दो,’’ अब मेरे पति ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘वे मांबाप हैं सुन कर गुस्सा होंगे…शायद 1-2 थप्पड़ भी मार दें, फिर भी उन से ज्यादा कोई और इस दुनिया में नहीं है जो तुम्हारा भला चाहे. तुम चाहो तो हम तुम्हारी मदद कर सकते हैं.’’

मैं अवाक उन का मुंह देखने लगी कि ये मदद कैसे करेंगे? मैं ने प्रश्न वाचक नजरों से उन की ओर देखा.

‘‘अंकल यहां से राइट फिर एक और राइट.’’

‘‘देखो यहां से सब राइट होने लगा है तो तुम भी अब अपनी जिंदगी को राइट मोड़ दे दो,’’ उन्होंने कहा.

‘‘लेकिन कैसे अंकल?’’

‘‘अपने घर जाओ और अपने मम्मीपापा को सारी बात बता दो, हम लोग बाहर गाड़ी में रुकेंगे. अगर जरूरत पड़ी तो तुम्हारे पापा से बात कर लेंगे.’’

‘‘लेकिन अंकल मुझे डर लगता है. वे बहुत गुस्सा होंगे…मुझे मारेंगे.’’

‘‘मारता तो तुम्हारा पति भी है न तुम्हें? तुम ने बताया नहीं लेकिन यही सही है, है न? तो जब उस से मार खा सकती हो तो पापा से 1-2 थप्पड़ खा लेने में इतना डर क्यों? और फिर हो सकता वे न मारें. लेकिन कोई हल जरूर निकालेंगे.’’

‘‘लेकिन अंकल मुझे डर लगता है.’’

‘‘बेटा, कभी तो इस डर का सामना तुम्हें करना ही होगा. लेकिन कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए. जाओ बेटा हिम्मत करो. हम यहीं खड़े हैं.’’

गाड़ी घर के सामने खड़ी थी. उस ने खिड़की खोल ली. नीचे उतरने को हुई तो पैर हवा में रुक गया. बोली, आंटी, ‘‘मुझे डर लग रहा है.’’

‘‘बेटा, किसी न किसी दिन तुम्हें बताना ही होगा, लेकिन उस दिन शायद हम यहां नहीं होंगे. उस दिन अकेले बताना होगा.’’

वह चली गई. 2-3 मिनट के इंतजार के बाद दरवाजा खुला. सामने एक लंबातगड़े व्यक्ति की झलक दिखी.

करीब 10 मिनट इंतजार के बाद अंदर से किसी के ऊंचे स्वर में चिल्लाने की आवाजें आने लगीं. फिर घर का दरवाजा खुल गया. वह लड़की बाहर आई. उस के पीछे वही लंबातगड़े व्यक्ति थे, जो यकीनन उस के पिता थे. दोनों के बीच

5 मिनट बात हुई. मैं धड़कते दिल से जाऊं कि न जाऊं की उधेड़बुन में थी. तभी दोनों ने हाथ मिलाया और पति ने गाड़ी स्टार्ट कर दी. उस लड़की ने मुझ देख कर हाथ हिलाया. थोड़ी ही देर में गाड़ी हवा से बातें करने लगी.

क्या फर्क पड़ता है: भाग 1

‘‘आज मेरे दोनों बेटे साथसाथ आ गए. बड़ी खुशी हो रही है मुझे तुम दोनों को एकसाथ देख कर. बैठो, मैं सूजी का हलवा बना कर लाती हूं. अजय, बैठो बेटा… और सोम, तुम भी बैठो,’’ सोम की मां ने उसे मित्र के साथ आया देख कर कहा.

‘‘नहीं, मां. अजय है न. तुम इसी को खिलाओ. मुझे भूख नहीं है.’’

मैं क्षण भर को चौंका. सोम की बात करने का ढंग मुझे बड़ा अजीब सा लगा. मैं सोम के घर में मेहमान हूं और जब कभी आता हूं उस की मां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. कभी कुछ परोसती हैं मेरे सामने और कभी कुछ. यह उन का सुलभ ममत्व है, जिसे वे मुझ पर बरसाने लगती हैं. उन की ममता पर मेरा भी मन भीगभीग जाता है, यही कारण है कि मैं भी किसी न किसी बहाने उन से मिलना चाहता हूं.

इस बार घर गया तो उन के लिए कुछ लाना नहीं भूला. कश्मीरी शाल पसंद आ गई थी. सोचा, उन पर खूब खिलेगी. चाहता तो सोम के हाथ भी भेज सकता था पर भेज देता तो उन के चेहरे के भाव कैसे पढ़ पाता. सो सोम के साथ ही चला आया. मां ने सूजी का हलवा बनाने की चाह व्यक्त की तो सोम ने इस तरह क्यों कह दिया कि अजय है न. तुम इसी को खिलाओ.

मैं क्या हलवा खाने का भूखा था जो इतनी दूर यहां उस के घर पर चला आया था. कोई घर आए मेहमान से इस तरह बात करता है क्या?

अनमना सा लगने लगा मुझे सोम. मुझे सहसा याद आया कि वह मुझे साथ लाना भी नहीं चाह रहा था. उस ने बहाना बनाया था कि किसी जरूरी काम से कहीं और जाना है. मैं ने तब भी साथ जाने की चाह व्यक्त की तो क्या करता वह.

‘तुम्हें जहां जाना है बेशक होते चलो, बाद में तो घर ही जाना है न. मैं बस मौसीजी से मिल कर वापस आ जाऊंगा. आज मैं ने अपना स्कूटर सर्विस के लिए दिया है इसलिए तुम से लिफ्ट मांग रहा हूं.’

‘वापस कैसे आओगे. स्कूटर नहीं है तो रहने दो न.’

‘मैं बस से आ जाऊंगा न यार… तुम इतनी दलीलों में क्यों पड़ रहे हो?’

‘‘घर में सब कैसे हैं, बेटा? अपनी चाची को मेरी याद दिलाई थी कि नहीं,’’ मौसी ने रसोई से ही आवाज दे कर पूछा तो मेरी तंद्रा टूटी. सोम अपने कमरे में जा चुका था और मैं वहीं रसोई के बाहर खड़ा था.

कुछ चुभने सा लगा मेरे मन में. क्या सोम नहीं चाहता कि मैं उस के घर आऊं? क्यों इस तरह का व्यवहार कर रहा है सोम?

मुझे याद है जब मैं पहली बार मौसी से मिला था तो उन का आपरेशन हुआ था और हम कुछ सहयोगी उन्हें देखने अस्पताल गए थे. मौसी का खून आम खून नहीं है. उन के ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है. सहसा मेरा खून उन के काम आ गया था और संयोग से सोम की और हमारी जात भी एक ही है.

‘ऐसा लगता है, तुम मेरे खोए हुए बच्चे हो जो कभी किसी कुंभ के मेले में छूट गए थे,’ मौसी बीमारी की हालत में भी मजाक करने से नहीं चूकी थीं.

खुश रहना मौसी की आदत है. एक हाथ से उन के शरीर में मेरा दिया खून जा रहा था और दूसरे हाथ से वे अपना ममत्व मेरे मन मेें उतार रही थीं. उसी पल से सोम की मां मुझे अपनी मां जैसी लगने लगी थीं. बिन मां का हूं न मैं. चाचाचाची ने पाला है. चाची ने प्यार देने में कभी कोई कंजूसी नहीं बरती फिर भी मन के किसी कोने में यह चुभन जरूर रहती है कि अगर मेरी मां होतीं तो कैसी होतीं.

अतीत में गोते लगाता मैं सोचने लगा. चाची के बच्चों के साथ ही मेरा लालनपालन हुआ था. शायद अपनी मां भी उतना न कर पाती जितना चाची ने किया है. 2-3 महीने के बाद ही दिल्ली जा पाता हूं और जब जाता हूं चाची के हावभाव भी वैसी ही ममता और उदासी लिए होते हैं, जैसे मेरी मां के होते. गले लगा कर रो पड़ती हैं चाची. चचेरे भाईबहन मजाक करने लगते हैं.

‘अजय भैया, इस बार आप मां को अपने साथ लेते ही जाना. आप के बिना इन का दिल नहीं लगता. जोजो खाना आप को पसंद है मां पकाती ही नहीं हैं. परसों गाजर का हलवा बनाया, हमें खिला दिया और खुद नहीं खाया.’

‘क्यों?’

‘बस, लगीं रोने. आप ने नहीं खाया था न. ये कैसे खा लेतीं. अब आप आ गए हैं तो देखना आप के साथ ही खाएंगी.’

‘चुप कर निशा,’ विजय ने बहन को टोका, ‘मां आ रही हैं. सुन लेंगी तो उन का पारा चढ़ जाएगा.’

सचमुच ट्रे में गाजर का हलवा सजाए चाची चली आ रही थीं. चाची के मन के उद्गार पहली बार जान पाया था. कहते हैं न पासपास रह कर कभीकभी भाव सोए ही रहते हैं क्योंकि भावों को उन का खादपानी सामीप्य के रूप में मिलता जो रहता है. प्यार का एहसास दूर जा कर बड़ी गहराई से होता है.

‘आज तो राजमाचावल बना लो मां, भैया आ गए हैं. भैया, जल्दीजल्दी आया करो. हमें तो मनपसंद खाना ही नहीं मिलता.’

‘क्या नहीं मिलता तुम्हें? बिना वजह बकबक मत किया करो… ले बेटा, हलवा ले. पूरीआलू बनाऊं, खाएगा न? वहां बाजार का खाना खातेखाते चेहरा कैसा उतर गया है. लड़की देख रही हूं मैं तेरे लिए. 1-2 पसंद भी कर ली हैं. पढ़ीलिखी हैं, खाना भी अच्छा बनाती हैं…लड़की को खाना बनाना तो आना ही चाहिए न.’

‘2 का भैया क्या करेंगे. 1 ही काफी है न, मां,’ विजय और निशा ने चाची को चिढ़ाया था.

क्याक्या संजो रही हैं चाची मेरे लिए. बिन मां का हूं ऐसा तो नहीं है न जो स्वयं के लिए बेचारगी का भाव रखूं. जब वापस आने लगा तब चाची से गले मिल कर मैं भी रो पड़ा था.

‘अपना खयाल रखना मेरे बच्चे. किसी से कुछ ले कर मत खाना.’

‘इतनी बड़ी कंपनी में भैया क्याक्या संभालते हैं मां, तो क्या अपनेआप को नहीं संभाल पाएंगे?’

‘तू नहीं जानती, सफर में कैसेकैसे लोग मिलते हैं. आजकल किसी पर भरोसा करने लायक समय नहीं है.’

मेरे बिना चाची को घर काटने को आता है. क्या इस में वे अपने को लावारिस महसूस करने लगी हैं? कहीं चाची मुझे बिन मां का समझ कर अपने बच्चों का हिस्सा तो मुझे नहीं देती रहीं? आज 27 साल का हो गया हूं. 4 साल का था जब एक रेल हादसे ने मेरे मांबाप को छीन लिया था. मैं पता नहीं कैसे बच गया था. चाचाचाची न पालते तो कौन जाने क्या होता. कहीं कोई कमी नहीं है मुझे. मेरे पिता द्वारा छोड़ा रुपया मेरे चाचाचाची ने मुझ पर ही खर्च किया है. जमीन- जायदाद पर भी मेरा पूरापूरा अधिकार है. मेरा अधिकार सदा मेरा ही रहा है पर कहीं ऐसा तो नहीं किसी और का अधिकार भी मैं ही समेटता जा रहा हूं.’

‘‘क्या सोच रहे हो, अजय?’’ मौसी ने पूछा तो मैं अतीत से वर्तमान में आ गया, ‘‘क्या अपनी चाची से कहा था मेरे बारे में. उन्हें बताना था न कि यहां तुम ने अपने लिए एक मां पसंद कर ली है.’’

‘‘मां भी कभी पसंद की जाती है मौसीजी, यह तो प्रकृति की नेमत है जो किस्मत वालों को नसीब होती है. मां इतनी आसानी से मिल जाती है क्या जिसे कोई कहीं भी…’’

‘‘अजय, क्या बात है बच्चे?’’ मौसी मेरे पास खड़ी थीं फिर मेरा हाथ पकड़ कर मुझे सोफे तक ले आईं और अपने पास ही बैठा लिया. बोलीं, ‘‘क्या हुआ है तुम्हें, बेटा? कब से बुलाए जा रही हूं… मेरी किसी भी बात का तू जवाब क्यों नहीं देता. परेशानी है क्या कोई.’’

‘‘जी, नहीं तो. चाची ने यह शाल आप के लिए भेजी है. बस, मैं यही देने आया था.’’

मेरे घर आई नन्ही परी: क्यों परेशान हो गई समीरा

समीरा परी को गोद में लिए शून्य में ताक रही थी. उस की आंखों से आंसुओं की ?ामा?ाम बरसात हो रही थी. उसे सम नहीं आ रहा था कि क्यों उसे परी के लिए वह ममता महसूस नहीं हो रही हैं जैसे एक आम मां को होती है. समीरा को तो यह खुद को भी बताने में शर्म आ रही थी कि उसे परी से कोई लगाव महसूस नहीं होता. तभी परी ने अचानक रोना शुरू कर दीया.

समीरा को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे रोना क्यों आ रहा है. उसे लग रहा था कि जैसे उसे किसी ने बांध दीया हो. उस की पूरी जिंदगी अस्तव्यस्त सी हो गई थी. वह अपनेआप को ही नहीं पहचान पा रही थी.

समीरा ने जैसा फिल्मों में देखा था, जैसा अपनी बहनोंभाभियों से सुना था वैसा कुछ भी महसूस नहीं कर पा रही थी. उस ने सुना था कि मां की थपकी से बच्चा सो जाता है. उस ने भी परी को थपथपाना शुरू कर दीया परंतु परी का रोना और तेज हो गया.

झंझाला कर समीरा ने परी को पलंग पर पटक दीया और खुद को आईने में निहारने लगी. आईने में खुद को देख कर उस की झंझलाहट और बढ़ गई. हर तरफ से झुलती हुई मांस की परतें, शरीर की कसावट न जाने कहां गुम हो गई थी. 55 किलोग्राम से एक झटके में वह 70 किलोग्राम की हो गई थी. कितना नाज था उसे अपनी त्वचा, बालों और फिगर पर. परी के जन्म के बाद सब एक याद बन कर रह गया.

तभी पीछे से समीरा की सास रुपाली आ गई और परी को गोद में उठाते हुए बोली, ‘‘अजीब मां हो तुम, बेटी गला फाड़फाड़ कर रो रही है और तुम्हें शीशे से फुरसत नहीं है.’’

‘‘सभी कामों के लिए तो नौकर हैं और ऊपरी काम मैं करती हूं.  कमसेकम परी का ध्यान तो रख सकती हो. कैसे लगाव होगा बेटी को तुम्हारे साथ अगर उस का सारा काम दादी या नानी ही करेगी?’’

समीरा गुस्से से परी को देख रही थी. 1 माह की परी दादी की गोद में मंदमंद मुसकरा रही थी.

बिना कोई जवाब दिए समीरा गुसलखाने में नहाने चली गई. शावर की ठंडी फुहारें सिर पर पड़ते ही उस का गुस्सा शांत हो गया और अब फिर से उस की आंखें गीली थीं परंतु इस बार कारण था परी.

समीरा सोच रही थी कि वह कितनी बुरी मां है. क्यों वह परी से कटीकटी रहती है. बालों में शैंपू लगा कर जैसे ही धोने लगी. बालों का गुच्छा हाथों में आ गया. समीरा फिर से चिंतित हो उठी कि इसी रफ्तार से बाल गिरते रहे तो जल्द ही वह टकली हो जाएगी. नहाने के बाद जैसे ही वह तौलिए से अपना शरीर पोंछने लगी तो पेट, स्तनों और जांघों पर स्ट्रैचमार्क फिर से उसे दिखाई दे गए. जल्दीजल्दी वह गाउन पहन कर गुसलखाने से बाहर आ गई.

समीरा का पूरा वार्डरोब बेकार हो गया था. कोई भी कपड़ा उसे फिट नहीं आता था.

तभी रुपाली परी को ले कर आ गई और प्यार से समीरा से बोली, ‘‘बेटा, परी को फीड करा दो.’’

समीरा के लिए यह एक समस्या थी. स्तनपान कैसे कराना है समीरा को ठीक से पता नहीं था. कभी परी के मुंह में दूध ही नही जा पाता था तो कभी परी इतना अधिक दूध पी लेती कि उसे उलटी हो जाती. समीरा सोच रही थी, दीदी बोलती थी कि बच्चे को स्तनपान कराने से मां

को बहुत संतुष्टि महसूस होती हैं पर समीरा को कितना दर्द महसूस होता है. ऊपर से समीरा के सब पसंदीदा खानपान पर स्तनपान के कारण रोक थी. 1 माह बाद भी परी को स्तनपान कराने का सही तरीका समीरा समझ नहीं पा रही थी. कभीकभी तो उसे लगता कि वह कैसे इस झंझट से बाहर भी निकल पाएगी. थोड़ी देर बाद परी सो गई. उसे बिस्तर पर लिटा कर समीरा भी आंखें बंद कर लेट गई पर नींद थी कि आंखों से कोसों दूर.

समीरा का विवाह 5 वर्ष पहले रोहिन से हुआ था. रोहिन से उस का परिचय एक मैट्रीमोनियल साइट पर हुआ था, दोनों ने लगभग 1 साल तक डेटिंग करी और फिर परिवार की सहमति से विवाह के बंधन में बंध गए. रोहिन का परिवार आधुनिक सोच का था. समीरा के सपने पंख लगा कर खुले असमान में उड़ रहे थे.

विवाह की पहली सालगिरह पर भी समीरा का परिवार ही समीरा को बच्चे के लिए छेड़ रहा था परंतु समीरा की सास रुपाली बोली, ‘‘अरे, अभी तो समीरा खुद ही बच्ची है. जब मरजी होगी कर लेंगे.’’

विवाह के समय समीरा 30 वर्ष की थी. विवाह के 3 वर्ष पूरे हो गए थे और तभी 1 माह समीरा ने अपने पीरियड्स मिस कर दिए. उसे लगा शायद वह मां बनने वाली है, इसलिए वह और रोहिन डाक्टर के पास गए. प्रैगनैंसी टैस्ट नैगेटिव आया तो डाक्टर्स ने और हारमोनल चैकअप कराए. रिपोर्ट्स निराशाजनक आई. रिपोर्ट्स के मुताबिक समीरा का फर्टिलिटी रेट तेजी से डिक्लाइन हो रहा है. उसे तो यकीन ही नहीं हो रहा था. उस का मासिकचक्र तो एकदम सामान्य था. फिर शुरू हुआ चैकअप और टैस्ट्स न कभी भी खत्म होने वाला सिलसिला. समीरा भी अब मां बनना चाहती थी इसलिए खुद को तनावमुक्त रखने के लिए उस ने अपनी नौकरी भी छोड़ दी. 1 साल की मेहनत के बाद परिणाम सकारात्मक रहा. समीरा मातृत्व की इस यात्रा को पूरी तरह से जीना चाहती थी. उस ने पूरे 9 माह भरपूर एहतियात बरती. बच्चे के लिए सारी तैयारी कर ली परंतु ना जाने आखिरी माह आतेआते उस का चिड़चिड़ापन बढ़ क्यों गया.

समीरा की दमकती त्वचा पर झइयां आ गईं. वजन भी बढ़ा जा रहा था. समीरा की मम्मी और सास ने उसे प्यार से सम?ाया, ‘‘बेटा, एक बार बच्चा हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा.’’

परी भी अब 1 माह की हो गई थी परंतु समीरा के बाल जिस तेजी से झड़ रहे थे वजन भी उसी तेजी से बढ़ रहा था. उसे लगता जैसे परी के जन्म के बाद वह एक जेलखाने में कैद हो गई है. उसे रोहिन से जलन होने लगी थी क्योंकि रोहिन तो अभी भी जस का तस था और वह बूढ़ी सी लगने लगी थी.

जब परी को देखने उस की ननद दीया आई तो मजाक में बोली, ‘‘भाभी, अब तो आप भैया की आंटी भी लगने लगी हो.’’

हालांकि रुपाली ने दीया को डांटते हुए कहा, ‘‘अपने बढ़ते वजन की चिंता करो.’’

मगर समीरा के मन में यह बात घर कर गई.

आज समीरा परी को ले कर अपने घर जा रही थी. समीरा के साथसाथ रोहिन को भी लग रहा था कि जगह बदलने से समीरा का मूड भी बदल जाएगा.

घर पहुंचते ही सब से पहले छोटी बहन बोली, ‘‘दीदी, ये बाल कैसे हो गए हैं ?ाड़ू जैसे… कितने घने और चमकीले बाल थे आप के.’’

जो भी पासपड़ोस की आंटी आती कोई उस के काले धब्बों पर तो कोई उस के बढ़ते वजन का जिक्र जरूर करती, पर जातेजाते यह तस्सली दे जाती कि जल्द ही सब ठीक हो जाएगा.

समीरा सुबह से बिना नहाएधोए टैलीविजन के आगे पसरी थी. रोहिन का फोन आते ही उस से लड़ने लगी, ‘‘अब फुरसत मिली हैं तुम्हें, रात में मैं ने तुम्हें कितनी बार फोन किया. मन भर गया न तुम्हारा मु?ा से क्योंकि मैं अब अनाकर्षक हो गई हूं.’’

रोहिन दूसरी तरफ क्या कह रहा था, समीरा की मां को पता नहीं चल पाया परंतु रोहिन के फोन रखते ही समीरा की मां ने समीरा को आड़े हाथों लिया, ‘‘अगर ऐसे ही रहोगी तुम समीरा, तो जरूर रोहिन रास्ता भटक जाएगा. क्या हाल बना रखा है तुम ने… रोनेबिसूरने के अलावा करती क्या हो तुम? वहां पर तुम्हारी सास और यहां

पर मैं परी की देखभाल करती हूं और तुम क्या करती हो. मां बनने का फैसला तुम्हारा था. तुम्हें किसी ने मजबूर नहीं किया था… मां बनना आसान नही है.’’

एकाएक समीरा के सब्र का बांध टूट गया. बोली, ‘‘यह अकेला मेरा नहीं रोहिन का भी फैसला था पर उस की जिंदगी पर क्या फर्क

पड़ा. मेरी आजादी छिन गई है. मेरी अपनी पहचान मुझ से छूट गई है. परी की नींद सोती हूं और उस की नींद जागती हूं, बाहर की दुनिया से कट सी गई हूं.

‘‘मेरा अपना पति जो कभी मेरा दीवाना था मुझ से दूरी बना कर रखता है. एकाएक उम्र से 10 वर्ष बड़ी हो गई हूं. हरकोई मां के फर्ज के ऊपर नसीहत देता है पर यह मां भी एक इंसान है, हरकोई भूल जाता है,’’ दिल का गुबार निकाल कर समीरा फूटफूट कर रोने लगी.

समीरा की मां को समीरा का यह व्यवहार समझ नहीं आ रहा था. उसे लगता था कि समीरा कामचोर और आलसी मां है. रातदिन समीरा की मम्मी उसे यही बताती रहती कि मां बनने का दूसरा नाम त्याग और बलिदान है. समीरा को न ठीक से भूख लगती और न ही नींद आती थी. सारा दिन सब को काटने के लिए तैयार रहती.

जब रोहिन समीरा को लेने आया तो उसे देख कर दंग रह गया. समीरा का वजन

और भी बढ़ गया था. रोहिन को देखते ही वह उस के गले लग कर रोने लगी. रोहिन को समीरा के मूक रुदन में उस की छटपटाहट समझ आ रही थी.

अगले रोज उस ने दफ्तर से छुट्टी ले ली और समीरा को डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने चैकअप कर के रोहिन से कहा, ‘‘देखो, शारीरिक रूप से समीरा ठीक है परंतु उस के अंदर पोस्टपार्टम डिप्रैशन के लक्षण नजर आ रहे हैं.

‘‘आमतौर पर हर 5 में से 1 महिला बच्चे के जन्म के पश्चात ऐसे दौर से गुजरती है. इसके लिए उसे दवा की नहीं तुम्हारे साथ की जरूरत है. तुम्हें समीरा को वापस यह एहसास दिलाना होगा कि वह अब भी उतनी ही

आकर्षक है. उस के अंदर हीनभावना घर कर गई है. तुम लोगों ने आखिरी बार संबंध कब बनाया था?’’

रोहिन अचकचाते हुए बोला, ‘‘अभी तो परी 1 माह की हुई है और समीरा तो अभी शायद इस के लिए तैयार नहीं है.’’

डाक्टर बोली, ‘‘बिना पूछे ही तुम ने तय कर लिया… शायद यह भी समीरा के पोस्टपार्टम का कारण हो सकता है. समीरा को नौर्मल होने का एहसास कराना तुम्हारी ही जिम्मेदारी हैं. हम लोग यह भूल जाते हैं कि बच्चे के जन्म के साथसाथ मां का भी जन्म होता है. उसे भी दुलार और प्यार की आवश्यकता होती है क्योंकि उस की तो पूरी जिंदगी ही बदल जाती है और फिर डाक्टर ने रोहिन के साथसाथ समीरा को भी खुद पर ध्यान देने की सलाह दी.

रोहिन को डाक्टर से बातचीत के बाद समीरा के बदले व्यवहार का कारण काफी हद तक सम?ा आ गया था.

रात में जब रोहिन ने समीरा से प्यार करने की पेशकश करी तो वह तुरंत तैयार हो गई. परी के जन्म के बाद समीरा को पहली बार ऐसा लगा वह मां ही नहीं एक पत्नी भी है. इस प्रेमक्रीड़ा के साथ समीरा का तनाव भी कहीं धुल सा गया. रोहिन को भी बहुत दिनों के बाद समीरा खुश दिखाई दे रही थी जो उसे भी खुशी दे रहा था.

उस रात के बाद से रोहिन और समीरा हर रात साथ बिताने लगे. परी के छोटेछोटे काम रात में उठ कर रोहिन भी कर देता. समीरा को इस बात से ही बहुत मदद हो जाती थी. रोहिन फिर सुबह भी समय से उठ कर जिम जाता और फिर औफिस.

समीरा को भी अब लगने लगा था कि उसे भी अब अपने खोल से बाहर निकलना चाहिए. रात में तो उस के साथ रोहिन भी जागता है मगर फिर भी वह बिना किसी शिकायत के अपने सारे काम भी करता है.

रोहिन शनिवार को परी की पूरी जिम्मेदारी उठाता. समीरा शनिवार को कहीं भी घूमनेफिरने को आजाद थी. रोहिन की सपोर्ट के कारण अब समीरा भी अपनी पुरानी दुनिया में आने लगी.

कुछ दिनों बाद समीरा ने खुद रसोई का काम संभालना शुरू किया. वह अब अपना खाना खुद बनाने लगी थी. 1 हफ्ते में ही वह पहले से अधिक स्फूर्तिवान हो गई. उस ने यह भी विवेचना कर ली थी कि परी के काम के कारण वह घर के बाकी कामों पर ध्यान नहीं दे पा रही है. इसलिए सब के मना करने के बावजूद उस ने परी के लिए 12 घंटे के लिए एक आया रख ली. अब समीरा के पास खुद के लिए भी समय था. उस ने ऐक्सरसाइज आरंभ कर दी. धीरेधीरे सब समस्याओं का निदान हो रहा था.

अब समीरा  की चिड़चिड़ाहट पहले से बहुत कम हो गई थी. रोहिन ने भी समीरा के हर फैसले में साथ दीया. समीरा ने 7 माह बाद फिर से नौकरी करने का फैसला लिया और 1 माह के भीतर ही उसे अपनी पसंद के अनुरूप नौकरी मिल गई.

घर से बाहर निकलते ही समीरा की शिकायतें, चिड़चिड़ाहट, बढ़ता वजन, बेजान त्वचा सब एक खिड़की से बाहर निकल गए और समीरा के आत्मविश्वास को पंख लग गए थे. समीरा को समझ आ गया था कि वह पत्नी है, बेटी है, बहू है, मां भी है मगर सब से पहले एक स्त्री है. मां बनना भी जिंदगी का एक और प्यारा मोड़ ही है मगर यह जिंदगी का आखिरी पड़ाव नहीं है.

मां बनने के बाद शरीरक, मानसिक और भावनात्मक रूप से परिवर्तन तो होते हैं मगर उन्हें सहज रूप से स्वीकार कर के या  तो हम इस सफर का आनंद ले सकते हैं या फिर रोतेबिसूरते रहें.

आज परी पूरे 9 माह की हो गई थी और दीवार पकड़पकड़ कर चलने की कोशिश कर रही थी. समीरा भी खुश हो कर मोबाइल में ये पल कैद करते हुए गुनगुना रही थी, ‘‘मेरे घर आई एक नन्ही परी…’’

सही पकड़े हैं: भाग 2- कामवाली रत्ना पर क्यों सुशीला की आंखें लगी थीं

सुशीला की तेज नजरें सप्ताह बाद ही तेजी से खत्म हो रहे सामनों का लेखाजोखा किए जा रही थीं. खास चीनी, मक्खनमलाई, देशी घी, चाय, कौफी, मिठाई, बिस्कुट्स, नमकीन की खपत पर उस का शक 15 दिनों के भीतर यकीन में बदलने लगा.

एक दिन रंगेहाथ पकड़ेंगे रत्ना महारानी को. अदिति तो उस के खिलाफ सुनने वाली नहीं, तरुण को झमेले में पड़ना नहीं, भाभीजी को तो धर्मकर्म से फुरसत नहीं और भाईसाहब के तो कहने ही क्या. वे कहते हैं, ‘रत्ना के सिवा कौन ऐसा करेगा, वह काम समझ चुकी है, उस के बिना घर कैसे चलेगा, इसलिए उसे बरदाश्त तो करना ही होगा, कोई चारा नहीं. नजरअंदाज करें, बस.’ यह भी कोई बात हुई भला? बच्चों को पकड़ती हूं अपने साथ इस चोर को धरपकड़ने के मिशन में. अगले हफ्ते से ही बच्चों की गरमी की छुट्टियां शुरू होने वाली हैं. वे चोरसिपाही के खेल में खुशीखुशी साथ देंगे. तब तक हम अकेले ही कोशिश करते हैं, सुशीला ने दिमाग दौड़ाया.

रत्ना दिन में 3 बार काम करने आती थी. सुबह सफाई करती, बरतन मांजती और फिर नाश्ता बनाती. फिर 12 बजे आ कर लंच बनाती. और फिर शाम को आ कर बरतन साफ करती. शाम का चायनाश्ता, डिनर बना जाती. रत्ना के आने से पहले सुशीला तैयार हो जाती और उस के आते ही दमसाधे उस पर निगाह रखने में जुट जाती. हूं, सही पकड़े हैं, जाते समय तो बड़ा पल्ला झाड़ कर दिखा जाती है कि देख लो, जा रहे हैं, कुछ भी नहीं ले जा रहे, पर असल में वह अपना डब्बाथैला बाहर ऊपर जंगले में छिपा जाती है. काम करते समय मौका मिलते ही इधर से उधर कुछ उसी में सरका जाती है. सुशीला ने जाते वक्त उसे थैलाडब्बा जंगले से उठाते देख लिया था. कल चैक करेंगे, थैले में क्या लाती है और क्या ले जाती है,’ वह स्फुट स्वरों में बुदबुदा रही थी.

दूसरे दिन रत्ना जैसे ही आई, सुशीला मौका पाते ही बाहर हो ली. जंगले पर हाथ डाला और सामान उतार कर चैक करने लगी. ‘यह तो पहले ही इतना भरा है. दूध, कुछ आलूबैगन, 2-4 केले, आटा, थोड़ी चीनी उस ने फटाफट सामान का थैला फिर से ऊपर रख दिया और अंदर हो ली. पिछले घर से लाई होगी, आज ले जाए तो सही,’ सुशीला सोच रही थीं. रत्ना झाड़ू ले कर बाहर निकल रही थी, उस से टकरातेटकराते बची.

‘‘क्या है, थोड़ा देख कर चला कर, कोई घर का बाहर भी आ सकता है,’’ कह कर सुशीला अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराई, जैसे अब तो जल्द ही उस की करनी पकड़ी जाने वाली है. ‘‘जी अम्माजी,’’ वह अचकचा गई, उस अर्थपूर्ण मुसकराहट का अर्थ न समझते हुए वह मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘अजीब ही हैं अम्माजी.’

तेजप्रकाश आधा कटोरा मलाई खा कर प्रसन्न थे कि चलो, अच्छा है कि बहनजी का रत्ना पर शक यों ही बना रहे. जब सब सो रहे होते, वे अपनी जिह्वा और उदर वर्जित मनपसंद चीजों से तृप्त कर लिया करते. हालांकि, सुशीला की जासूसी से उन के इस क्रियाकलाप में थोड़ी खलल पैदा हो रही थी.

‘गनीमत यही हुई कि मैं ने सुशीला बहनजी और बच्चों की प्लानिंग सुन ली,’ तेजप्रकाश सतर्क हो मन ही मन मुसकरा रहे थे. ‘बच्चों की छुट्टियां क्या शुरू हुईं, जासूसी और तगड़ी हो गई. मक्खनमलाई, मीठा खाना दुश्वार हो गया. अभी तक तो एक ही से उन्हें सावधान रहना था, अब तीनतीन से,’ तेजप्रकाश के दिमाग के घोड़े दौड़ने लगे. सोचा, क्यों न बच्चों को अपनी ओर कर लिया जाए. और जो सब से छिपा कर सुशीला बहनजी अपने बैग से लालमिर्च का अचार और हरीमिर्च, नमक, खटाई अलग से खाती हैं, उस तरफ लगा देता हूं. अभी तक तो मैं ने नजरअंदाज किया था पर ये तो रत्नारत्ना करतेकरते अब मुझ तक ही न पहुंच जाएं, इसलिए जरूरी है कि मैं बच्चा पार्टी को इन की ओर ही मोड़ दूं. यह ठीक है. यह सब सोचते हुए तेजप्रकाश के चेहरे पर मुसकान फैल गई. वे शरारती योजना बुनने में लग गए.

‘‘बंटू, मिंकू इधर आओ,’’ तेज प्रकाश ने उन्हें धीरे से बुलाया. सुशीला कमरे में बैठी थीं. तारा के पैरों की मालिश वाली मालिश कर रही थी. तरुण, अदिति और रत्ना जा चुके थे. ‘‘मामा वाली चौकलेट खानी है?’’ बच्चों ने उतावले हो कर हां में सिर हिलाया.

‘‘यह जो नानी का बैग देख रहे हो, जिस में नंबर वाला लौक पड़ा है. इस में से नानी रोज निकाल कर कुछकुछ खाती रहती हैं, मुझे तो लगता है बहुत सारी इंपौर्टेड चौकलेट अभी भी हैं, जो आते ही इन्होंने तुम्हें दी थीं. तुम्हारे मामा ने तुम लोगों के लिए दी थीं इन्हें. पहले खाते हुए पकड़ लेना, फिर मांगना.’’ वे जानते थे कि बहनजी को स्वयं कहना कतई श्रेयस्कर नहीं होगा, अतएव खुद नहीं कहा. ‘‘सही में दादू, पर उन्होंने तो कहा था खत्म हो गई हैं,’’ दोनों एकसाथ बोले.

‘‘वही तो पकड़ना है. अब से जरा आतेजाते नजर रखना.’’ ‘‘ओए मिंकू, मजा आएगा. अब तो दोदो मिशन हो गए. अपनीअपनी टौयगन निकाल लेते हैं, चल…’’ दोनों उछलतेकूदते भाग जाते हैं. तेजप्रकाश मुसकराने लगे.

सुबह से दोनों बच्चों की धमाचौकड़ी होने लगती. दोनों छिपछिप कर जासूस बने फिरते. सुशीला अलग छानबीन में हैरानपरेशान थीं. आखिर मक्खनमलाई डब्बे से, कनस्तर से चीनी, मिठाई फ्रिज से, सब कैसे गायब हुए जा रहे हैं. रत्ना है बड़ी चालाक चोरनी.

रत्ना पर बेमतलब शक किए जाने से, उस की खुंदस बढ़ती ही जा रही थी. वह चिढ़ीचिढ़ी सी रहती. लगता, बस, किसी दिन ही फट पड़ेगी कि काम छोड़ कर जा रही है. कई बार अम्माजी डब्बे खोलखोल कर दिखा चुकी हैं कि ताजी निकाली सुबह की कटोराभर मलाई आधी से ज्यादा साफ, मक्खन पिछले हफ्ते आया था, कहां गया? परसों ही 2 पैकेट मिठाई के रखे थे, कहां गए? महीनेभर की चीनी 15 दिनों में ही खत्म. कितनी जरा सी बची है? मैं तो नहीं खाती, ले जाती नहीं, पर सही में ये चीजें जाती कहां हैं? वह भी सोचने लगी. कैसे पकड़ूं असली चोर, और रोजरोज के शक से जान छूटे. वह भी संदिग्ध नजरों से हर सदस्य को टटोलने लगी.

उस दिन रत्ना घर की चाबी प्लेटफौर्म पर छोड़ आई, आधे रास्ते जा कर लौटी तो तेजप्रकाश को फ्रिज में मुंह डाले पाया. वे मजे से एक, फिर दो, फिर तीन गपागप मिठाइयां उड़ाए जा रहे थे. उस का मुंह खुला रह गया. वह एक ओट में छिप कर देखने लगी. जब वह मिठाइयों से तृप्त हुए तो मलाई के कटोरे को जल्दीजल्दी आधा साफ कर, बाकी पहले की इकट्ठी मलाई के डब्बे में उलट कर अगलबगल देखने लगे. मूंछों पर लगी मलाई को देख कर रत्ना को हंसी आने लगी. जिसे एक झटके में उन्होंने हाथों से साफ करना चाहा.

‘‘सही पकड़े हैं…बाबूजी आप हैं और अम्माजी तो हमें…’’ वह हैरान हो कर मुसकराई. तेजप्रकाश दयनीय स्थिति में हो गए, चोरी पकड़ी गई. याचना करने लगे थे. ‘‘सुन, बताना मत री किसी को. सब की डांट मिलेगी सो अलग, चैन से कभी खाने को नहीं मिलेगा. यदि बीमार होऊं तो परहेज भी कर लूं, पहले से क्या, इतनी सी बात किसी के पल्ले नहीं पड़ती,’’ उन्होंने बड़ी आजिजी से कहा.

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