Storytelling : अतृप्त प्यास

“तूने क्या सोच कर अपनी मां से मेरी शादी कराई ? जब देखो मैडम साधू माता के चरणों में पड़ी रहती है. दिन भर काम कर के मैं थकामांदा घर लौटता हूं कि चलो अब बीवी के साथ समय बिताऊंगा पर नहीं. बीवी तो कभी फ्री मिलती ही नहीं. कभी बाबा के आश्रम में तो कभी साधू माता के साथ फोन पर, कभी अपनी आश्रम की सहेलियों के साथ गायब रहती है तो कभी तुझ से बातें करने में मगन. मेरे पास आने का तो कभी समय ही नहीं है उस के पास. फिर क्यों मुझ से शादी कर मेरी जिंदगी खराब की?” निशा का तथाकथित डैडी यानी सौतेला पिता गुस्सा में बोले जा रहा था.

निशा कोई जवाब देने में असमर्थ थी. क्या करती? बातें तो उस की सही ही थीं। अपने पापा के मरने के बाद निशा ने काफी समय तक मां को अकेला और उदास देखा था. कॉलेज से उस के लौटने के बाद ही मां के चेहरे पर खुशी की चमक दिखाई पड़ती थी. वह कॉलेज के बाद का अपना सारा समय इसी प्रयास में निकाल देती कि किसी तरह मां खुश रहे. उन के होठों पर मुस्कान आ सके.

निशा का प्रयास रंग लाता। मां उस के साथ दुनिया के गम भुला कर खिलखिलाने लगतीं। तब उसे लगता जैसे वह दुनिया की सब से खुशहाल बेटी है. आखिर मां को मिला ही क्या था जीवन में? दिनरात ताने सुनाने वाली सास, हुक्का गुड़गुड़ ने वाले बीमार ससुर ,किशोर बेटे की असामयिक मौत का गम और फिर कम उम्र में ही विधवा हो जाने का दंश. आज के समय में मां के पास उस के सिवा अपना कहने वाला कौन था? मायके में भी एक भाई के सिवा कोई नहीं था और उस भाई का होना न होना बराबर था. वह सिंगापुर में रहता था और सालों में कभी मुलाकात होती थी.

ऐसे में अपनी शादी के बाद मां के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए निशा ने उन से दूसरी शादी की बात छेड़ी थी,”मां मेरी मानो अब आप भी शादी कर लो. अकेले जिंदगी कैसे गुजरेगी आप की ?”

मां एकदम से नाराज हो गई थी,” यह क्या कह रही है तू ?होश में तो है? इस उम्र में शादी करूंगी मैं? रमेश क्या सोचेंगे? मैं उन के सिवा किसी और के साथ….  नहींनहीं। कभी नहीं। कल्पना भी मत करना ऐसी बातों की.”

मां के साफ इनकार करने पर निशा का मुंह उतर गया था. निशा ने उन्हें फिर से समझाने का प्रयास किया था,” जरा ध्यान से सुनो आप मेरी बात. आप अब 50 साल से ऊपर की हो. पूरे घर में अकेली हो. कल को अचानक कोई तकलीफ हुई तो मेरे पहुंचतेपहुंचते तो बहुत देर हो जायेगी न. और फिर मेरे सासससुर का मिजाज तो जानती ही हो आप। उन्हें तो यही डर लगा रहता है कि कहीं मैं अपनी मां को हमेशा के लिए उन के घर ले कर न पहुँच जाऊँ. मेरे हाथ बंधे हुए हैं मां। वैसे भी मेरे घर आप की कोई इज्जत नहीं होगी तो फिर अपना घर ही बसा लो न. यही उपाय सब से बेहतर है. बी प्रैक्टिकल मॉ और पापा क्या सोचेंगे इस की चिंता आप बिलकुल भी मत करो. एक तो पापा अब इस दुनिया में है नहीं और यदि रहते भी तो आप को दुखी तो नहीं ही देखना चाहते।”

” पर बेटी इस उम्र में कोई और पुरुष?”

“तो क्या हुआ मां ? अपने बारे में सोचो आप. कोई बहुत बड़ा बैंकबैलेंस नहीं है आप के पास. बड़ा सा बंगला भी नहीं है. अकेली रहती हैं आप इस छोटे से घर में. नौकरचाकर भी नहीं हैं. आगे आप की उम्र बढ़ेगी. उम्र के साथ बीमारियां भी आती है. मैं आप की जिम्मेदारी उठाना भी चाहूं तो भी पति की मर्जी के खिलाफ ऐसा नहीं कर सकती। इसलिए शादी ही सब से अच्छा उपाय है. आप हां बोल दो मां। आप का जीवन सुरक्षित हो जाएगा। मैं भी निश्चिंत हो सकूंगी आप की तरफ से.”

“ठीक है बेटा। तुझे सही लगता है तो ऐसा ही सही,” बुझे मन से मा ने स्वीकृति दी थी पर निशा बहुत खुश थी. जल्दी से जीवनसाथी मेट्रोमोनियल साइट में मां की प्रोफाइल बनाने लगी , ‘ 50 साल की स्वस्थ, खूबसूरत और संस्कारी बहू…. ‘

मां यह पढ़ कर बहुत हंसी थी. फिर दोनों ने मिल कर प्रोफाइल तैयार की। पहला इंटरेस्ट भेजा था निशा के प्रेजेंट डैडी यानी कमल कुमार सिंह ने. 55 साल के बिजनेसमैन। बेटाबहू लंदन में सेटलड। नोएडा में अपना बंगलागाड़ी। निशा ने पहली नजर में ही यह रिश्ता पसंद कर लिया था. मां ने भी ज्यादा आनाकानी नहीं की और उन की शादी हो गई.

मां की शादी करा कर निशा बड़ी खुश थी. अपनी जिम्मेदारियां किसी और के माथे सौंप कर निशा को सुकून मिल रहा था पर उसे कहां पता था कि यह सुकून कुछ पलों का साथी है.

अगले दिन ही कमल कुमार निशा के आगे उस की मां की शिकायत का पिटारा खोल कर बैठ गए,”कल रात तुम्हारी मां ने बड़ा अजीब व्यवहार किया. मुझे करीब भी नहीं आने दिया. बस कहने लगी कि थोड़ा समय दो. मैं रमेश के साथ ऐसा नहीं कर सकती. रमेश जो जिन्दा भी नहीं उसी के ख्यालों में खोई रही कि कहीं उसे बुरा न लग जाए. यदि ऐसा था तो मुझ से शादी ही क्यों की उस ने ?”

निशा ने किसी तरह कमल कुमार को समझाया,” आप बस थोड़ा समय दो. ममा नॉर्मल हो जाएंगी. धीरेधीरे इस नई जिंदगी की आदी बन जाएंगी. ”

मगर ऐसा हुआ नहीं. 2-3 माह गुजर गए मगर निशा की मा ने कमल कुमार को करीब नहीं आने दिया. उल्टा अब तो वह एक बाबा की शिष्या भी बन गई थी. जब देखो भजनकीर्तन के प्रोग्राम में चली जाती. वहां की सहेलियों के साथ बातों में लगी रहती. कमल कुमार इंतजार में ही रह जाता मगर निशा की मां अपना बहुत कम समय ही उसे देती. कमल कुमार को यही शिकायत रहती कि वह पत्नी की तरह व्यवहार नहीं करती और उस की शारीरिक आवश्यकता को सिरे से नकार देती है.

निशा की एक सहेली थी, कुसुम. कुसुम के 2 किशोर उम्र के बच्चे थे. पति से तलाक हो चुका था. वह अक्सर निशा के घर आतीजाती रहती थी. उस दिन भी निशा मां के पास आई हुई थी और कुसुम उस के साथ बैठी चाय पी रही थी. निशा उस से अपने सौतेले पिता कमल कुमार और मां के बीच की दूरियों का जिक्र कर रही थी. तभी कमल कुमार ने घर में प्रवेश किया. सामान्य अभिवादन के बाद भी उस की नजरें कुसुम पर टिकी रहीं. “तेरा बाप तो बड़ा ठरकी लग रहा है,” कुसुम ने आहिस्ते से कहा.

यह बात निशा को भी महसूस हुई कि वह कुसुम को ऐसे देख रहा था जैसे कोई कामुक व्यक्ति किसी खूबसूरत स्त्री को घूरता है. इस के बाद तो निशा ने और भी 2 -3 बार नोटिस किया कि कमल कुमार की नजरें कुसुम में वह स्त्री ढूंढ रही हैं जो उस की अतृप्त प्यास को बुझा सके.

एक दिन कमल कुमार के कहने पर निशा ने सब के साथ शिमला घूमने का प्रोग्राम बनाया. कुसुम और मां भी साथ थीं. निशा ने 2 कमरे बुक कराए. एक मां और कमल कुमार के लिए और दूसरा अपने और कुसुम के लिए.

शाम का समय था. निशा की मां कुछ शॉपिंग के लिए बाहर निकली हुई थी. आते समय उन्होंने खानेपीने की चीजें भी रख लीं. कमरे में निशा और कुसुम दोनों ही नहीं थे पर दरवाजा खुला हुआ था. मां ने बेटी को आवाज लगाई तो अंदर वॉशरूम से निशा चिल्ला कर बोली, “मां 2 मिनट में आ रही हूं.”

“अच्छा तू आराम से आ… ,” कहते हुए मां ने दूसरे कमरे की चाबी ली और दरवाजा खोलने लगी. दरवाज़ा खुलते ही एकदम सामने का दृश्य देख कर वह भौंचक्की रह गई.

सामने कमल कुमार बेड पर कुसुम के साथ थे. कुसुम कमल कुमार से लिपटी जा रही थी. कमल कुमार कुसुम के होंठों का चुंबन लेने में व्यस्त थे. उन दोनों को अहसास ही नहीं हुआ कि कब रीता देवी दरवाजा खोल कर सामने खड़ी हो गईं हैं. रीता देवी से यह दृश्य देखा नहीं गया और वह उलटे पांव निशा के कमरे में आ कर चीखचीख कर रोने लगी.

निशा घबराती हुई बाहर निकली और मां से वजह पूछने लगी. रीता देवी रोते हुए केवल यही कहे जा रही थी ,” मैं नहीं जानती थी कि तेरी सहेली मेरे घर में डाका डालेगी. हाय ! कितनी बेशर्मी से दोनों … मैं यह देखने से पहले मर क्यों नहीं गई…..  निशा मैं फिर अकेली हो गई….”

निशा लगातार मां को संभालने की नाकाम कोशिश कर रही थी,” मां बात सुनो मेरी… ”

पर रीता देवी आप से बाहर हुए जा रही थी, ” तेरी सहेली ने मेरी खुशियां लूट लीं.. मैं ने सोचा भी नहीं था कि तेरी सहेली ऐसा करेगी… ”

हल्ला सुन कर कमल कुमार और कुसुम भी भी नजरें चुराते कमरे में आ कर खड़े हो गए. उन्हें देख कर रीता देवी दहाड़ उठीं, ” मुझे क्या पता था कि मेरे पीठ पीछे यह सब होता है? मेरी बेटी की सहेली मेरे पति के साथ….. ? हाय मैं मर क्यों नहीं गई यह सब देखने से पहले….. ” कहतेकहते वह जमीन पर गिर पड़ीं और फूटफूट कर रोने लगीं.

रोतेरोते भी वह कुसुम को भलाबुरा सुनाती रहीं ,”मैं ने सोचा था कि मेरी बेटी मेरी खुशियों की चिंता कर रही है इसलिए मेरी शादी कराई पर मुझे क्या पता था कि इस सब के पीछे वह अपनी सहेली की खुशियां ढूंढ रही थी. मेरी अपनी बेटी की सहेली मेरे पति के प्यार पर डाके डाल रही है. तुझे लाज नहीं आई कुसुम अपने बच्चों को छोड़ कर उस शख्स के साथ मुंह काला कर रही है जो रिश्ते में तेरे बाप जैसा है और लानत है ऐसे मर्द पर भी जिस ने एक विधवा से केवल इस लिए शादी की ताकि उस की जवान बेटी की सहेली को अपने झांसे में ले कर मजे उड़ा सके…”

“बस करो रीता। किन रिश्तो की बात कर रही हो तुम? मेरे साथ अपना रिश्ता भला कब निभाया तुम ने? हमारी शादी को 5 महीने बीत चुके हैं पर आज तक 1 दिन भी मुझे अपने करीब नहीं आने दिया। जब साथ में बैठती हो, रमेश की बातें करने लगती हो. जब मैं प्यार करना चाहता हूं तो भी रमेश बीच में आ जाता है. तुम आज भी रमेश के लिए जीती हो , रमेश के लिए सजती हो और रमेश के लिए ही रोतीहंसती हो. तो फिर मैं कहां हूं? जब तुम्हें मेरी खुशियों की परवाह नहीं तो फिर मैं तुम्हारी परवाह क्यों करूं ? हो कौन तुम मेरी जिंदगी में ? क्या दिया है तुम ने मुझे ? क्यों की थी मैं ने शादी ? एक ऐसी औरत को अपने घर में लाने के लिए जिस के पास मेरे लिए कभी समय ही नहीं? अपने बेटे को छोड़ कर मैं यहां आ कर क्यों बसा? अगर ऐसे ही रहना था तो उसी के साथ क्यों न रहूं? “कमल कुमार का गुस्सा भी भड़क उठा था.

अब तक निशा भी संभल चुकी थी. मां के कन्धों को झकझोरते हुए बोली, “मां यह पुरुष जो सामने खड़ा है, इस से मैं ने आप की शादी कराई थी ताकि आप को इस के जरिए सुरक्षा मिल सके.आप का भविष्य सुरक्षित हो जाए. आप का अपना घर हो, पति हो. जरूरत के वक्त आप को किसी अपने या पैसों के लिए मेरे मोहताज न रहना पड़े। जब कि मैं जानती थी कि मैं आप के लिए कुछ नहीं कर सकूंगी। पर आप ने इन्हें अपनाया ही नहीं। मिस्टर कमल कुमार ने कितनी दफा मुझ से अपने दुखड़े रोए. मैं ने आप को समझाया पर आप नहीं समझी और फिर धीरेधीरे मिस्टर कमल की नजरें कुसुम पर गईं . उन्हें लगा लगा कि कुसुम वह स्त्री बन सकती है जो उन्हें प्यार और साथ देगी. उन की शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकेगी. मैं चाहती तो साफ इंकार कर सकती थी. कुसुम को उन से दूर कर सकती थी. पर हर बार इन्होने यह धमकी दी कि वह तुम्हें छोड़ कर चले जाएंगे. यह बात मुझे बैचैन कर देती थी. मैं गिड़गिड़ ई। आप का साथ न छोड़ने की विनती की और तब बदले में उन्होंने कीमत के तौर पर कुसुम का साथ मांगा। कुसुम भी पहले तैयार नहीं थी पर बाद में उस ने इस रिश्ते के लिए स्वीकृति दे दी. ”

“तो क्या उस ने इस वजह से…. ” रीता देवी के शब्द गले में अटक कर रह गए.

“हां मां,  आप ही बताओ क्या करती मैं? आप इन के और अपने बीच से न तो दूरियां हटने दे रही थी और न पापा को बीच में लाने से रुकी. बहुत समय तक मैं कशमकश में रही. पर अंत में यह सोच कर कि शायद समय के साथ आप बदल जाओ मैं ने इन का कहा मान लिया. इन्हें आप की जिंदगी में रोके रखने के लिए वह सब किया जो इन्होंने कहा. मैं मानती हूं कि मैं गलत हूं. कुसुम भी गलत है और मिस्टर कुमार भी गलत हैं. पर क्या अपने सीने पर हाथ रख कर आप कह सकती है कि आप गलत नहीं? गलती की शुरुआत तो आप ने ही की थी न. तो फिर हमारी तरफ उंगली उठाने से पहले अपने अंदर झांक कर देखो. अब सब आप के सामने है. आप को मिस्टर कुमार से रिश्ता रखना है या नहीं और कितना रिश्ता रखना है यह सब आप के ऊपर छोड़ कर जा रही हूं मैं. कुसुम भी कभी आप की जिंदगी में दोबारा नहीं आएगी. अब मैं आप की जिंदगी में कोई दखल भी नहीं दूंगी. पर अपना कल आप को खुद देखना है. पापा लौट कर नहीं आएंगे आप को संभालने….. इस लिए फैसला आप का है कि आप मिस्टर कुमार को माफ कर नया जीवन शुरू करेगी या तलाक ले कर … ,” अपनी बात अधूरी छोड़ते हुए निशा ने बैग उठाया और कुसुम के साथ जाने लगी. रीता देवी ने हाथ बढ़ा कर निशा को रोका और निढाल सी सोफे पर बैठती हुई बोली, “सॉरी मिस्टर कुमार…”

Best Family Drama : अपने हिस्से की धूप

 Best Family Drama : कुहरे में लिपटी एक नई सुबह नए जीवन में नूपुर का स्वागत कर रही थी. खेतों की तरफ किसान राग मल्हार गाते चले जा रहे थे. गेहूं और सरसों की फसलें फरवरी की इस गुलाबी ठंड में हलकीहलकी बहती शीतल, सुगंधित बयार के स्पर्श को पा कर खिलखिलाने लगी थीं. नूपुर की आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं. इन सब के बीच 2 मन आपस में चुपकेचुपके कार की पहली सीट पर लगे बैक मिरर में एकदूसरे को देख आंखों ही आंखों में बतियाने  का प्रयास कर रहे थे. शरीर थकान से टूट रहा था, विदाई का मुहूर्त सुबह का ही था. ससुराल में पहला दिन था उस का. टिटपुट रीतिरिवाजों के बाद उसे कमरे में बैठा दिया गया था. उस की आंखें उनींदी हो रही थीं. कितने दिन हो गए थे उसे मन भर सोए हुए. सोती भी कैसे घर रिश्तेदारों से जो भरा हुआ था.

‘‘नूपुर. सो जा वरना चेहरा सोयासोया लगेगा. फोटो अच्छे नहीं आएंगे,’’ कहते सब जरूर थे पर कैसे? इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था. जिसे देखो वही हाथ में ढोलक ले कर उस के सिर पर आ कर बैठ जाता.

‘‘इन्हें देखो महारानी की खुद की शादी है और यह फुर्रा मार कर सो रही हैं. अरे भाई शादीब्याह रोजरोज थोड़े होता है. अभी मजे ले लो फिर तो बस यादें ही रह जाती हैं.’’

मन मार कर उसे भी शामिल होना ही पड़ता. अभी तो ससुराल के रीतिरिवाज बाकी थे.

उस ने खिड़की के बाहर झंक कर देखा, सड़कें सो रही थीं और वह जाग रही थी. दबेदबे पांवों से वह हौलेहौले एक नई जिंदगी में प्रवेश कर रही थी. एक ही मासमज्जा से बने हर इंसान की देह में एक अलग खुशबू होती है जो उसे दूसरों से अलग करती है. शायद घरों की भी अपनी एक देह और एक अलग खुशबू होती है जो उन्हें दूसरों से अलग करती है. नूपुर इस खुशबू से बिलकुल अपरिचित और अनजान थी. उस के घर खुशबू उस के पीहर से बिलकुल अलग थी जिसे उसे अपनाना और अपना बनाना था.

‘‘अरे भई कोई अपनी भाभी का सामान कमरे में पहुंचा दो,’’ सासूमां ने आवाज लगाई.

नूपुर की आंखें तेजी से अपने सामान को ढूंढ़ रही थीं. कल रात से 15 किलोग्राम का लहंगा पहनेपहने अब तो उस का शरीर भी जवाब देने लगा था. कितने शौक से लिया था उस ने.

‘‘जितना तेरा खुद का वजन नहीं है जितना लहंगे का है. कैसे संभालेगी?’’ पापा ने चिंतित स्वर में कहा था.

‘‘अरे पापा लेटैस्ट फैशन है.’’

‘‘लेटैस्ट… यह भी कोई रंग है. मरामरा सा रंग लाई हो. अरे लेना ही था तो लालमैरून लेती, दुलहन का रंग. तुम्हारी मां ने भी अपनी शादी में लाल रंग की साड़ी पहनी थी,’’ पापा ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘अब ये सब रंग कौन पहनता है… यह एकदम लेटैस्ट और ट्रैडी कलर है. आलिया भट्ट ने भी यही रंग अपनी शादी में पहना था.’’

‘‘वे सब हीरोइनें हैं, कुछ भी पहनें सब अच्छा लगता है पर अपने समाज में तो दुलहन का रंग वही सब माना जाता है.’’

‘‘पापा शादी कोई रोजरोज थोड़ी होती है.’’

‘‘मैं भी तो नहीं कह रहा हूं कि शादी रोजरोज होती है. कम से कम शादी के दिन सुहाग का रंग तो पहनना चाहिए.’’

‘‘इतना महंगा लहंगा सिर्फ एक दिन के लिए तो नहीं खरीद सकती थी. ऐसा रंग लिया है कि आगे भी यूज में आ जाए,’’ नूपुर ने दलील दी.

‘‘सुन रही हो नूपुर की मां तुम्हारी बिटिया की पंचवर्षीय योजना है. यहां जिंदगी का भरोसा नहीं और यह आगे तक की योजना बना कर चल रही है.’’

मम्मी चुपचाप बापबेटी की चिकचिक सुनती रही. जानती थी कुछ भी बोलने का कोई फायदा नहीं है. अभी आपस में लड़ेंगे, बहस करेंगे और फिर खुद ही एक हो जाएंगे और वह विलेन बन कर रह जाएगी.

तभी किसी के कदमों की आहट से नूपुर का ध्यान टूटा. उस के दोनों देवर हाथ में ब्रीफकेस ले कर कमरे में घुसे.

‘‘कितना भारी है भाभी, पत्थर भर कर लाई है क्या?’’

नूपुर मुसकरा दी. क्या कहती महीनों से खरीदारी की थी. कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर सामान इकट्ठा किया था. उस ने तेजी से सामान को

गिनना शुरू किया. 3 ब्रीफकेस, 1 एअर बैग और 1 वैनिटी बैग और वह गुलाबी वाला ब्रीफकेस. वह नदारद था. पापा से कहा तो था कि उसे भी अपने साथ ले कर जाएगी. जीवन की नई शुरुआत हुई थी, हर तरह के रंग और स्वाद से भर गई थी उस की जिंदगी. सबकुछ तो ले कर आई थी वह पर क्या सबकुछ पीछे बहुत कुछ छूट गया था.

‘‘भैया एक पिंक कलर का ब्रीफकेस भी होगा.’’

‘‘पिंक?’’

छोटे देवरों के चेहरे पर शरारत उभर आई,

‘‘आप को भी पिंक कलर पसंद है? वह तो पापा की परियों को पसंद होता है?’’

‘‘तुम लोग फिर से शुरू हो गए,’’ मम्मीजी ने दोनों की मीठी ?िड़की देते हुए कहा.

‘‘भाभी. उस पर बार्बी डौल बनी हुई थी क्या?’’

‘‘हांहां वही. देखा क्या आप ने?’’ उस की आंखों में जुगनू चमक उठे.

‘‘कब से पूरे घर में टहल रहा था समझ ही नहीं आ रहा था कि पता नहीं किस का सामान भाभी के सामान के साथ चला आया है.’’

‘‘जी, वह मेरा ही है,’’ नूपुर ने संकुचाते हुए कहा.

वे दोनों उस भीड़ में कहीं खो गए और थोड़ी देर में अलादीन के चिराग की तरह उस का वह पिंक ब्रीफकेस ले कर हाजिर हो गए.

‘‘यह लीजिए आप की अमानत और कोई आदेश?’’ दोनों ने सीने पर हाथ रख बांएं पैर को पीछे मोड़ सिर को हलका सा झुका कर बड़ी अदा से कहा.

‘‘भाभी को बड़ा मक्खन लगाया जा रहा है. इन की सेवा करोगे तभी तुम्हारा कल्याण होगा,’’ सिद्धार्थ ने कमरे में घुसते हुए कहा.

वैसे तो सिद्धार्थ से शादी से पहले नूपुर की 2-4 बार ही मुलाकात और टेलीफोन पर बातें हुई थीं पर उन अनजान चेहरों के बीच नूपुर को वह चेहरा बहुत अपना सा लगा.

‘‘अपनी भाभी को कुछ खाने को पूछा या बस बातें ही बना रहे हो,’’ सिद्धार्थ ने शेरवानी उतारते हुए कहा, ‘‘इन से बातें बनवा लो, काम धेले भर का नहीं करते.’’

मम्मीजी ने कहा, ‘‘नूपुर तुम जल्दी से नहा लो. मेहमानों का आना शुरू हो जाएगा, कुछ रीतिरिवाज भी करने हैं और यह मायके से जो तुम्हारे लिए सामान आया है उसे भी दो.’’

‘‘क्या मां आप से कहा था न मुझे यह सब पसंद नहीं. उस का सामना है, किसी से क्या मतलब है. नूपुर के घर वालों ने दिया उस ने लिया, उस से हमें क्या?’’ सिद्धार्थ के चेहरे पर नाराजगी साफ झलक रही थी.

नुपुर चुपचाप मांबेटे की बहस सुन रही थी. ‘‘बात तुम्हारी पसंद या नापसंद की नहीं, परंपरा की है. तुम्हारी दादी और बूआ को तुम्हारी बातें समझ आएंगी. कौन नूपुर से कुछ ले लेगा, बस मान देने की बात है. नूपुर तुझे कोई दिक्कत तो नहीं? यह तो कुछ समझता ही नहीं. चार अक्षर क्या पढ़ लिए मां को ही पढ़ाने लगे.’’

नूपुर ने मम्मीजी की आवाज में एक खलिश महसूस की थी. वह समझ नहीं पा रही थी. वह अपनी नईनवेली सास और नएनवेले पति के बीच फंस गई थी.

‘‘नूपुर, इस की छोड़ इसे दुनियादारी समझ नहीं आती. तू तो समझदार है तुझे कोई दिक्कत तो नहीं?’’

‘‘जी कोई बात नहीं,’’ नूपुर ने मद्धिम स्वर में कहा.

सिद्धार्थ नूपुर के इस फैसले से कुछ खास खुश नजर नहीं आ रहा था. बोला, ‘‘जो मन में आए करो फिर मुझ से कोई कुछ मत कहना.’’

‘‘नूपुर मैं सब को इसी कमरे में बुला लूंगी, तुम नहाधो कर तैयार हो जाओ. रात में रिसैप्शन भी है. सिद्धार्थ तू मेरे कमरे में नहा ले, बहू को तैयार होने दे,’’ मम्मीजी कमरे से बाहर जाने लगी, तभी उन्हें कुछ याद आया. बोली, ‘‘आज दिनभर पूजापाठ और रीतिरिवाज में ही निकल जाएगा. हलवाई को अभी सब का नाश्ता बनाने में समय लगेगा. तुम कुछ खा लो, तुम्हारे लिए चायनाश्ता भेजती हूं.’’

‘‘जी,’’ नूपुर ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

अब कमरे में सिद्धार्थ और नूपुर ही रह गए थे. उस की चूडि़यों की खनखनाहट के अलावा कोई आवाज नहीं आ रही थी. नूपुर ने पर्स खोला और ब्रीफकेस की चाबी निकाली.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’ सिद्धार्थ ने कहा.

नूपुर कुछ कहती उस से पहले ही सिद्धार्थ ने ब्रीफकेस उठा कर बैड पर रख दिया. नूपुर ने ब्रीफकेस खोला और घाटचोला की साड़ी, उसी का मैचिंग ब्लाउज और पेटीकोट निकाला. फिर उस ने धीरे से सिद्धार्थ की ओर देख कर वाशरूम पूछा.

सिद्धार्थ ने उंगली से इशारा किया. वाशरूम से ताजा पेंट और सीमेंट की खुशबू आ रही थी. उस ने वाशरूम में कदम बढ़ाया ही था कि सिद्धार्थ ने पीछे से आवाज दी, ‘‘एक मिनट रुको,’’ सिद्धार्थ ने उस का रास्ता रोक लिया और वाशरूम में घुस गया, ‘‘नूपुर इधर आओ यह गीजर का पौइंट है, यहां से औन होगा.’’

सबकुछ नयानया सा लग रहा था जिसे नूपुर को अपना बनाना था. नया टूथपेस्ट, 2 टूथब्रश, शैंपू, तेल की शीशी, क्रीम, कपड़े धोने और नहाने के नए साबुन के पैकेट. उस ने हाथ में पकड़े शैंपू और साबुन के पैकेट को अपने कपड़ों में छिपा लिया, मैं ने 1-1 चीज याद करकर के रखी है. ससुराल में किस से मांगने जाएगी, खुद इंतजाम कर के चलो. धीरेधीरे जब समझ में आने लगेगा, तब मंगवा लेना.’’

मां ने 1-1 चीज वैनिटी बौक्स में कितने जतन से सजो कर रखी थी. मां को याद कर उस का मन भारी हो गया. नए घर में अपना कहने वाला कोई नहीं था पर उन नए लोगों को अब अपना बनाना था.

‘‘तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, मैं भी नहा कर आता हूं. कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लेना कोई तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करेगा,’’ सिद्धार्थ ने बड़ी सहजता से कहा.

नूपुर के चेहरे पर एक मुसकान आ गई. उस ने दरवाजा बंद करने के लिए ऊपर की ओर हाथ बढ़ाया. वहां चिटकनी नहीं थी. ओह, आदत भी कितनी खराब चीज है… नूपुर तू ससुराल में है उस ने आप से कहा. सागौन की पौलिश से दरवाजे पर औटोमैटिक लौक लगा हुआ था. एक, दो और तीन उस ने 3 बार उस के कान उमेठ दिए और बैड पर आ कर बैठ गई. कितनी देर से गला सूख रहा था. रात में खाना खाते वक्त ही पानी पीया था. उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई, बैड के सिरहाने जग और स्टील के

2 गिलास उलटे रखे थे. बहुत तेज प्यास लगी थी. उस ने गिलास को झट से भर लिया और होंठों को तेजी से लगाया. जितना तेजी से उस ने होंठों को गिलास से लगाया था उतनी ही तेजी से उस ने गिलास से हटा भी लिए. उस के चेहरे का रंग बदल गया था, ‘‘कैसा स्वाद है इस का.’’

2 घूंट पानी पीने के बाद नूपुर ने गिलास वैसे ही छोड़ दिया. जीवन के साथसाथ अब उसे उस पानी के साथ भी एडजस्ट करना था. उस ने कपड़े समेटे और वाशरूम की ओर बढ़ गई.

नूपुर ने वाशरूम में कपड़े टांगने के लिए खूंटी ढूंढ़ी, किसी नामी कंपनी की रैक वाली स्टील की खूंटी टाइल्स पर चमचमा रही थी. ऊपरी हिस्से पर नरम, नए और मुलायम 2 तौलिए रखे थे. उसे अपना वाशरूम याद आ गया, बुध बाजार से वह पूरे घर के वाशरूम के लिए कार्टून और दिल के आकार की कई चिपकाने वाली खूंटियां ले आई थी तब पापा ने कितना डांटा था, ‘‘ताड़ की तरह बड़ी हो गई पर अभी बचपना नहीं गया. तुम ही लगाओ अपने वाशरूम में कीड़ेमकोड़े वाली खूंटियां हमारे लिए तो ये स्टील वाली ही ठीक हैं.’’

न जाने क्या सोच कर नूपुर की आंखें मुसकराने लगीं. अब सिद्धार्थ की पसंद ही उस की पसंद है. एक अपरिचित लड़के का हाथ पकड़ेपकड़े वह दूसरे संसार में प्रवेश कर गई थी इस उम्मीद के साथ कि अब जीवन भर उस के साथ रहना है. उस के सुख और दुख मेरे होंगे और मेरे सुख और दुख उस के  वह शावर के नीचे खड़ी हो गई. शावर की तेज धार से उस के मनमस्तिष्क की सारी उलझनें सुलझती चली गईं.

अब यही घर उस का है. अब इस घर में ही उसे रहना है और इस घर को भी उस घर की तरह अपनाना, सजाना और संवारना है. कमरे में ड्रैसिंग टेबल रखी थी. उस पर गिनती का कुछ सामान था. उस के चेहरे पर मुसकान आ गई. सिद्धार्थ भी और लड़कों की तरह ही थे. एक महीन दांत वाली कंघी, एक डिओड्रैंट, क्रीम और तेल की शीशी उन के वैनिटी बौक्स के नाम पर बस इतनी ही जमा पूंजी थी.

वह सोच रही थी कि शृंगार के नाम पर उस ने न जाने कितनी चीजें जुटाई थीं इन 6 महीनों में. लिपस्टिक के न जाने कितने शेड और न जाने कितने प्रकार थे. उस की पिटरिया में लिक्विड, मैट, पैंसिल, क्रीम बेस्ड. इसी तरह कंघियां भी विभिन्न प्रकार और साइज की थीं. महीन दांत वाली, बाल सुलझने के लिए चौड़े दांत वाली ब्रश, रोलर और नोक वाली.

नूपुर ने ड्रैसिंग टेबल के शीशे के सामने अपनेआप पर एक भरपूर नजर डाली. मांग में लाल सिंदूर चमक रहा था. कितनी सुंदर दिख रही थी वह शायद यह सिंदूर का ही कमाल था. खिड़की पर मोटेमोटे परदे पड़े थे. नूपुर ने इधरउधर देखा और परदे को खींच कर एक तरफ कर दिया. खिड़की के शीशों पर हलकी गुलाबी धूप चमक रही थी. उस ने हाथों का दबाव दे शीशे को पीछे की तरफ धकेल दिया. शायद खिड़कियां काफी दिनों से नहीं खुली थीं.

कमरे की खिड़कियों को खोल उस ने धूप को आने दिया जैसे वह अपने हिस्से की धूप को इकट्ठा कर लेना चाहती हो. कहीं न कहीं जिंदगी का फलसफा भी तो नहीं है. खुशियां भी तो कुछ ऐसी ही होती हैं अपनेअपने हिस्से की खुशियां. उस ने एक गहरी सांस ली और साफ हवा को अपने मनमस्तिष्क में भरने दिया. कितनी अलग थी इस कमरे की दीवारें एकदम शांत नए रंगरूटों की तरह जिन की उंगलियां कुछ करने को छटपटा रही हों.

नूपुर ने दीवारों पर हाथ फेर कर अपनेपन की खुशबू को महसूस करने की कोशिश की. कितना अलग था उस का यह कमरा उस के पीहर के कमरे से. उस ने औनलाइन अपने कमरे की दीवार के लिए स्टिकर मंगवाए थे. पिंजरे से निकल कर उड़ती ढेर सारी चिडि़यांएं. अजीब सी खुशी मिलती थी उसे उन्हें देख कर. पापा हमेशा कहते हैं लड़कियां भी तो चिडि़यों की तरह होती हैं. एक दिन उड़ जाती हैं. तू भी उड़ जाएगी इन की तरह छत पर रेडियम के चमकते सितारे अंधेरे में कितने टिमटिमाते थे मानो खुले आसमान के नीचे सो रहे हों. कभीकभी लगता जैसे वह खुली आंखों से सपने देख रही हो.

नूपुर ने एक गहरी सांस ली. पीछे बगीचा था. हलवाई के बरतनों के आवाज उसे अब साफसाफ सुनाई दे रही थी. उस ने खिड़की को खुला ही रहने दिया और परदों को खींच कर हलका बंद कर दिया.

तभी दरवाजे पर किसी ने धीरे से खटखटाया, ‘‘नूपुर… नूपुर.’’

‘‘कौन?’’ नूपुर ने पूछा और यह सवाल कर के वह खुद ही अचकचा गई. वह इस वक्त सिद्धार्थ के घर में थी और वह उन्हीं से पूछ रही थी.

‘‘नूपुर मैं हूं सिद्धार्थ,’’ एक भारी आवाज आई. आवाज में नूपुर के लिए हक था.

‘‘जी, आती हूं,’’ वह खुद ही कह कर शरमा गई, उस ने अपनेआप को समझाया कि अब उसे इन सब चीजों की आदत डालनी होगी.

‘‘तैयार हो गई तुम?’’ सिद्धार्थ ने एक भरपूर नजर उस पर डाली. उस की आंखों में ऐसा कुछ था कि नूपुर की आंखें नीचे गईं.

‘‘ये परदे किस ने खोल दिए?’’ सिद्धार्थ का ध्यान परदों की ओर गया.

‘‘वह बड़ा स्फोकेशन हो रहा था. मैं ने खिड़कियां खोल दी थीं. औक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रौस वैंटिलेशन भी तो जरूरी है. मुझे उलझन होने लगती है,’’ नूपुर एक सांस में बोल गई.

‘‘तुम दोनों तैयार हो गए? लो जल्दीजल्दी नाश्ता कर लो दादी और बूआजी तुम लोगों को पूछ रही थी,’’ मम्मीजी हाथ में चायनाश्ते की ट्रे ले कर कमरे में घुसीं, ‘‘कुछ हुआ है क्या? तुम दोनों ऐसे शांत क्यों खड़े हो?’’

‘‘कुछ नहीं मम्मी नूपुर को बंद कमरे में उल?ान हो रही थी. उस ने खिड़की खोल दी, कह रही थी औक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रौस वैंटिलेशन भी तो जरूरी है. उसे उलझन होने लगती है.’’

मम्मी ठहाका मार कर हंस पड़ी, ‘‘अब इस घर में एक नहीं 2 लोग हो गए खिड़की खोल कर सोने वाले मैं और नूपुर.’’

नूपुर को मांबेटे की बात समझ नहीं आ रही थी.

‘‘जानती हो नूपुर सिद्धार्थ और उस के पापा को खिड़की खोलना बिलकुल पसंद नहीं कहते हैं बाहर का शोर अंदर आता है. मुझे तो बंद कमरे में बिलकुल नींद नहीं आती. लगता है सांस घुट रही है. अब तो तेरी बीवी भी मां के रंग में रंगी आ गई है. अब तू क्या करेगा सिद्धार्थ?’’ मम्मी मंदमंद मुसकरा रही थी और उन की बात सुन नूपुर भी मुसकराने लगी.

‘‘चलो अब समय बरबाद मत करो और जल्दी से नाश्ता कर लो. तेरी बूआ और दादी भी उठ गए हैं. तुम लोग कमरा ठीक कर लो. मैं भी काम देख कर आती हूं, हलवाई ने नाश्ता बनाना शुरू किया या नहीं.’’

‘‘मम्मी आप ने नाश्ता किया या नहीं. अभी बीपी लो हो जाएगा, तबीयत खराब हो जाएगी,’’ सिद्धार्थ के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ पढ़ी जा सकती थीं.

‘‘सुन रही हो नूपुर इस की बात. अभी पूरा घर मेहमानों से भरा पड़ा है और सब से पहले मैं ही नाश्ता करने बैठ जाऊं लोग क्या कहेंगे.’’

सिद्धार्थ ने मम्मीजी का हाथ पकड़ कर उन्हें जबरदस्ती अपने पास बैठा लिया, ‘‘कोई कुछ नहीं कहेगा. नूपुर तुम भी जल्दी से नाश्ता कर लो. मम्मी तुम भी साथ खा लो, कौन देखने आ रहा है सब सो रहे हैं.’’

मम्मीजी ने कैशरोल से पोहा निकाल कर प्लेट में परोस दिया और सिद्धार्थ ने चाय का प्याला नूपुर की ओर बढ़ा दिया. नूपुर बैड के एक कोने में बैठ चाय पीने लगी.

‘‘चाय ठीक बनी है न? मीठा ज्यादा तो नहीं हो गया? इतना सामान फैला हुआ है कुछ मिल ही नहीं रहा था.’’

‘‘जी ठीक है मैं थोड़ा चीनी हलकी पीती हूं,’’ कहने को तो नूपुर ने कह दिया पर वह कशमकश में पड़ गई कि पता नहीं उसे यह बात कहनी भी चाहिए थी या नहीं. मम्मी ने कितनी बार समझाया था वह ससुराल है कुछ भी मुंह में आए तो बोल मत देना पर वह भी तो आदत से मजबूर थी. कहने से पहले एक बार भी नहीं सोचती.

‘‘ओह? मुझे पता नहीं था बेटा दूसरी बना देती हूं.’’

‘‘नहींनहीं आंटीजी. इस की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘आंटी नहीं मम्मी कहना सीखो,’’ मम्मीजी की आवाज में एक मनुहार के साथ एक आदेश भी था. नूपुर का चेहरा उतर गया. बोली, ‘‘मुश्किल है पर धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी,’’ मां के अलावा कभी किसी को मां नहीं कहा तो़…’’ मां को याद कर उस की आंखें सजल हो आईं.

‘‘समझ सकती हूं कि इतना आसान नहीं है पर धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी,’’ मम्मीजी ने धैर्य बंधाया, ‘‘तुम लोग जल्दी से नाश्ता खत्म कर लो और अपना सामान बैड पर सजा दो. मैं पहले देख लूंगी, उस के बाद दादी और सारे लोगों को भी बुला कर दिखा देती हूं.’’

सिद्धार्थ के चेहरे पर अभी भी नाराजगी थी पर अब वह इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाह रहा था.

‘‘सिद्धार्थ जरा नूपुर की मदद कर दे, मुझे और भी काम हैं.’’

सिद्धार्थ की मदद से नूपुर ने सारे ब्रीफकेस के सामान को बैड पर सजा दिया.

‘‘नूपुर, क्या इस अटैची का सामान भी सजाना है?’’ सिद्धार्थ ने पिंक ब्रीफकेस की ओर इशारा करते हुए कहा.

नूपुर समझ नहीं पा रही थी सिद्धार्थ की बात का वह क्या जवाब दे.

उसे असमंजस में देख सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘क्या हुआ कुछ खास है क्या इस में कुछ कीमती?’’

‘‘खास. मेरे दिल के बहुत करीब है पर क्या इसे भी लगाना जरूरी है?’’

तभी मम्मीजी ने कमरे में प्रवेश किया, ‘‘क्या हुआ सब लगा दिया न बेटा?’’

‘‘मम्मी बस यह एक ब्रीफकेस रह गया है. शायद कुछ पर्सनल सामान है नूपुर का.’’

‘‘नहीं पर्सनल जैसा कुछ भी नहीं है पर…’’ नूपुर की आवाज में संकोच उभर आया.

मम्मीजी की आंखों में प्रश्न तैर रहे थे. नूपुर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे. शायद इसी स्थिति से बचाने के लिए पापा ने उसे इस ब्रीफकेस को ले जाने के लिए मना किया था. क्या नए घर में नए लोगों के बीच इस ब्रीफकेस को खोलना ठीक होगा पर अगर नहीं खोला तो उन की आंखों में उग आए प्रश्नों के जवाब उन्हें कैसे मिलेंगे.

‘‘मम्मी रहने दो. अगर नूपुर नहीं चाहती है कि इस ब्रीफकेस को खोला जाए तो हरज क्या है?’’

मम्मीजी खुद असमंजस की स्थिति में थीं. बात बिगड़ते देख नूपुर ने उस ब्रीफकेस को खोल दिया और एक किनारे खड़ी हो गई. अटैची में कुछ किताबें, हाथ से बनी हुई गुडि़या, टैडी बियर, दिल के आकार का पैन स्टैंड, मम्मीपापा का फोटो, कुछ गुलाबी लिफाफे और एक फीरोजी दुपट्टा मुसकरा रहा था.

सिद्धार्थ उस के सामान को देख कर हंसने लगा, ‘‘बहुत कीमती सामान है इस में, सच कहा था तुम ने.’’

मम्मीजी घुटने के बल बैठ गईं और उन्होंने उस सामान पर बड़े प्यार से हाथ फेरा. वे भी तो अपने ब्याह के समय एक ऐसा ही ब्रीफकेस ले कर आई थीं.

‘‘सिद्धार्थ सचमुच बहुत कीमती सामान है

इस अटैची में. इस में नूपुर की नादानियां हैं, खामियां हैं, चुलबुलापन है. बेबाकपन है और हां अल्हड़पन है. सच कहूं तो वह इस ब्रीफकेस में अपने साथ अपने अंदर की लड़की को ले कर भी आई है. नूपुर अपने हिस्से की धूप ले कर आई है,’’ मां बोली.

नूपुर की आंखों में खुशी के आंसू थे. खुली खिड़कियों से धूप बैडरूम के फर्श पर दस्तक दे रही थी. धूप की इस कुनकुनी गरमाहट में सारे सवाल और गलतफहमियां भाप बन कर उड़ रही थीं.

Emotional Hindi Story : सुहानी गुड़िया

लेखिका -वीना  उदयमो

Emotional Hindi Story : आज मेरा जी चाह रहा है कि उस का माथा चूम कर मैं उसे गले से लगा लूं और उस पर सारा प्यार लुटा दूं, जो मैं ने अपने आंचल में समेट कर जमा कर रखा था. चकनाचूर कर दूं उस शीशे की दीवार को जो मेरे और उस के बीच थी. आज मैं उसे जी भर कर प्यार करना चाहती हूं.

मुझे बहुत जोर की भूख लगी थी. भूख से मेरी आंतें कुलबुला रही थीं. मैं लेटेलेटे भुनभुना रही थी, ‘‘यह मरी रेनू भी ना जाने कब आएगी. सुबह के 10 बजने को हैं, पर महारानी का अतापता ही नहीं. यह लौकडाउन ना होता तो ना जाने कब का इसे भगा देती और दूसरी रख लेती. जब इसे काम की जरूरत थी तो कैसे गिड़गिड़ा मेरे पास आई थी और अब नखरे देखो मैडम के.’’

अरविंद सुबहसुबह मुझे चाय के साथ ब्रेड या बिसकुट दे कर दवा खिलाते और खुद दूध कौर्नफ्लैक्स खा कर अस्पताल चले जाते हैं. डाक्टरों की छुट्टियां कैंसिल हैं, इसलिए ज्यादा मरीज ना होने पर भी उन्हें अस्पताल जाना ही पड़ता है.

मैं डेढ़ महीने से टाइफाइड के कारण बिस्तर पर पड़ी हूं. घर का सारा काम रेनू ही देखती है. मैं इतनी कमजोर हो गई हूं कि उठ कर अपने काम करने की भी हिम्मत नहीं होती. पड़ेपड़े न जाने कैसेकैसे खयाल मन में आ रहे थे, तभी सुहानी की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘मां आप जाग रही हैं क्या? मैं आप के लिए चाय बना लाऊं.’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, चाय और दवा तो तेरे बड़े पापा दे गए हैं, पर बहुत जोर की भूख लगी है. रेनू भी ना जाने कब आएगी. कितना भी डांट लो, इस पर कोई असर नहीं होता.’’

सुहानी बोली, ‘‘मां, आप उस पर चिल्लाना मत, आप की तबीयत और ज्यादा खराब हो जाएगी.’’

उस ने टीवी औन कर के लाइट म्यूजिक चला दिया. मैं गाने सुन कर अपना ध्यान बंटाने की कोशिश करने लगी.

थोड़ी ही देर में सुहानी एक प्लेट में पोहा और चाय ले कर मेरे पास खड़ी थी. मैं हैरानी से उसे देख कर बोली, ‘‘अरे, यह क्या किया तुम ने, अभी रेनू आ कर बनाती ना.’’

सुहानी ने बड़े धीमे से कहा, ‘‘मां, आप को भूख लगी थी, इसीलिए सोचा कि मैं ही कुछ बना देती हूं.’’

मेरा पेट सच में ही भूख के कारण पीठ से चिपका जा रहा था, इसलिए मैं प्लेट उस के हाथ से ले कर चुपचाप पोहा खाने लगी. उस ने मुझ से पूछा, ‘‘मां, पोहा ठीक से बना है ना?’’

नमक थोड़ा कम था, पर मैं मुसकरा कर बोली, ‘‘हां, बहुत अच्छा बना है, तुम ने यह कब बनाना सीखा.’’

यह सुन कर उस की आंखों में जो संतोष और खुशी की चमक मुझे दिखी, वह मेरे मन को छू गई.

जब से मैं बीमार पड़ी हूं, मेरे पति और बच्चों से भी ज्यादा मेरा ध्यान सुहानी रखती है. मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह समझ जाती है कि मुझे क्या चाहिए.

मुझे याद आने लगा वह दिन, जब मेरे देवरदेवरानी अपनी नन्ही सी बिटिया के साथ शौपिंग कर के लौट रहे थे. सामने से आती एक तेज रफ्तार कार ने उन की कार में टक्कर मार दी. वे दोनों बुरी तरह घायल हो गए.

देवर ने तो अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही दम तोड़ दिया था और देवरानी एक हफ्ते तक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझने के बाद भगवान को प्यारी हो गई.

अस्पताल में जब अर्धचैतन्य अवस्था में देवरानी ने नन्ही सलोनी का हाथ अरविंद के हाथों में थमाते हुए कातर निगाहों से देखा तो वह फफकफफक कर रो पड़े. उन की मृत्यु के बाद लखनऊ में उन के घर, औफिस, फंड, ग्रेच्युटी वगैरह के तमाम झमेलों का निबटारा करने के लिए लगभग 2 महीने तक अरविंद को लखनऊ में काफी भागदौड़ करनी पड़ी. सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद सलोनी की कस्टडी का प्रश्न उठा.

देवरानी का मायका रायबरेली में 3 भाइयों और मातापिता का सम्मिलित परिवार और व्यवसाय था. वे चाहते थे कि सलोनी की कस्टडी उन्हें दे दी जाए. उन के बड़े भैया बोले, ‘‘सलोनी हमारी बहन की एकमात्र निशानी है, हम उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं.’’

इस पर अरविंद ने कहा कि सलोनी मेरे भाई की भी एकमात्र निशानी है. वहीं अरविंद के पिताजी बोले, ‘‘सलोनी कहीं नहीं जाएगी. मेरे बेटे अनिल की बिटिया हमारे घर में ही रहेगी.”

इस पर देवरानी का छोटा भाई बिगड़ कर बोला, ‘‘मैं अपनी भांजी का हक किसी को नहीं मारने दूंगा. आप लोग मेरे बहनबहनोई की सारी संपत्ति पर कब्जा करना चाहते हैं, इसीलिए सलोनी को अपने पास रखना चाहते हैं.’’

इस विषय पर अरविंद और मांबाबूजी की उन से बहुत बहस हुई. अरविंद और बाबूजी जानते थे कि उन लोगों की नजर मेरे देवर के लखनऊ वाले मकान और रुपयोंपैसों पर थी. सलोनी के नानानानी बहुत बुजुर्ग थे, वे उस की देखभाल करने में सक्षम नहीं थे. अंत में अरविंद ने सब को बैठा कर निर्णय लिया कि अम्मांबाबूजी बहुत बुजुर्ग हैं और गांव में सलोनी की पढ़ाईलिखाई का उचित इंतजाम नहीं हो सकता, इसलिए सलोनी मेरे साथ रहेगी. अनिल का लखनऊ वाला मकान सलोनी के नाम पर कर दिया जाएगा और उसे किराए पर उठा दिया जाएगा. उस का जो भी किराया आएगा, उसे सलोनी के अकाउंट में जमा कर दिया जाएगा.

अनिल के औफिस से मिला फंड वगैरह का रुपया भी सलोनी के नाम से फिक्स कर दिया जाएगा, जो उस की पढ़ाईलिखाई और शादीब्याह में खर्च होगा.

अरविंद के इस फैसले से मैं सहम गई. उस समय तो कुछ न कह पाई, पर अपने 2 छोटे बच्चों के साथ एक और बच्चे की जिम्मेदारी उठाने के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी. अभी तक जिस सहानुभूति के साथ मैं उस की देखभाल कर रही थी, वह विलुप्त होने लगी.

मैं ने डरतेडरते अरविंद से कहा, ‘‘सुनिए, मुझे लगता है कि आप को सलोनी को उस के नानानानी को दे देना चाहिए. नानानानी और मामा के बच्चों के साथ वह ज्यादा खुश रहेगी.’’

अरविंद शायद मेरी मंशा भांप गए और मेरे कंधे पर सिर रख कर रो पड़े. कातर नजरों से मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘रंजू, अनिल मेरा एकलौता भाई था. वह मुझे इस तरह छोड़ जाएगा, यह सपने में भी नहीं सोचा था. सलोनी मेरे पास रहेगी तो मुझे लगेगा मानो मेरा भाई मेरे पास है.’’

मैं ने उन्हें जीवन में पहली बार इतना मायूस और लाचार देखा था. वह बच्चों की तरह बिलखते हुए बोले, ‘‘रंजू, मेरे मातापिता और सलोनी को अब तुम्हें ही संभालना है.’’

उन को इतना व्यथित देख मैं ने चुपचाप नियति को स्वीकार कर लिया. बाबूजी इस गम को सह न पाए. हार्ट पेशेंट तो थे ही, महीनेभर बाद दिल का दौरा पड़ने से परलोक सिधार गए.

बाबूजी के जाने के बाद तो अम्मां मानो अपनी सुधबुध ही खो बैठीं, न खाने का होश रहता, न नहानेधोने का. हर समय पूजापाठ में व्यस्त रहने वाली अम्मां अब आरती का दीया भी ना जलाती थीं. वे कहतीं, ‘‘बहू, अब कौनो भगवान पर भरोसा नाही रही गओ है, का फायदा ई पूजापाठ का जब इहै दिन दिखबे का रहै.’’

उन्हें कुछ भी समझाने का कोई फायदा नहीं था. वे अंदर ही अंदर घुलती जा रही थीं. एक बरस बाद वे भी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं.

अरविंद अपने काम में बहुत व्यस्त रहने लगे. सामान्य होने में उन्हें दोतीन वर्ष का समय लग गया.

नन्ही सलोनी मुझे मेरे घर में सदैव अवांछित सदस्य की तरह लगती थी. उस के सामने न जाने क्यों मैं अपने बच्चों को खुल कर न तो दुलरा ही पाती और न ही खुल कर गले लगा पाती थी. मैं अपने बच्चों के साथसाथ उसे भी तैयार कर के स्कूल भेजती और उस की सारी जरूरतों का ध्यान रखती, पर कभी गले से लगा कर दुलार ना कर पाती.

समय कब हथेलियों से सरक कर चुपकेचुपके पंख लगा कर उड़ जाता है, इस का हमें एहसास ही नहीं होता. कब तीनों बच्चे बड़े हो गए और कब मैं सलोनी की बड़ी मां से सिर्फ मां हो गई, मुझे पता ही ना चला. मैं उसे कुछ भी नहीं कहती थी, पर सुमित और स्मिता को जो भी इंस्ट्रक्शंस देती, वह उन्हें चुपचाप फौलो करती. उन दोनों को तो मुझे होमवर्क करने, दूध पीने और खाने के लिए टोकना पड़ता था, पर सलोनी अपना सारा काम समय से करती थी.

मुझे पेंटिंग्स बनाने का बड़ा शौक था. घर की जिम्मेदारियों की वजह से मैं अपने इस शौक को आगे तो नहीं बढ़ा पाई, पर बच्चों के प्रोजैक्ट में और जबतब साड़ियों, कुरतों और कपड़ों के बैग वगैरह पर अपना हुनर आजमाया करती थी.

जब भी मैं कुछ इस तरह का काम करती, तो सुहानी भी अपनी ड्राइंग बुक और कलर्स के साथ मेरे पास आ कर बैठ जाती और अपनी कल्पनाओं को रंग देने का प्रयास करती. यदि कहीं कुछ समझ में ना आता, तो बड़ी मासूमियत से पूछती, ‘‘बड़ी मां, इस में यह वाला रंग करूं अथवा ये वाला ज्यादा अच्छा लगेगा.’’ उस की कला में दिनोंदिन निखार आता गया. विद्यालय की ओर से उसे सभी प्रतियोगिताओं के लिए भेजा जाने लगा और हर प्रतियोगिता में उसे कोई ना कोई पुरस्कार अवश्य मिलता. पढ़ाई में भी अव्वल सलोनी अपने सभी शिक्षकशिक्षिकाओं की लाड़ली थी.

जब कभी सुमित, स्मिता और सुहानी तीनों आपस में झगड़ा करते, तो सुहानी समझदारी दिखाते हुए उन से समझौता कर लेती. मैं बच्चों के खेल और लड़ाई के बीच में कोई दखलअंदाजी नहीं करती थी.

डेढ़ महीने पहले जब डाक्टर ने मेरी रिपोर्ट देख कर बताया कि मुझे टाइफाइड है तो सभी चिंतित हो गए. सुमित, स्मिता और अरविंद हर समय मेरे पास ही रहते और मेरा बहुत ध्यान रखते थे, पर धीरेधीरे सब अपनी दिनचर्या में बिजी हो गए.

अभी परसों की ही बात है, मैं स्मिता को आवाज लगा रही थी, ‘‘स्मिता, मेरी बोतल में पानी खत्म हो गया है, थोड़ा पानी कुनकुना कर के बोतल में भर कर रख दो.”

इस पर वह खीझ कर बोली, ‘‘ओफ्फो मम्मा, आप थोड़ा वेट नहीं कर सकतीं. कितनी अच्छी मूवी आ रही है, आप तो बस रट लगा कर रह जाती हैं.’’

इस पर सुहानी ने उठ कर चुपचाप मेरे लिए पानी गरम कर दिया. मेरी खिसियाई सी शक्ल देख कर वह बोली, ‘‘मां क्या आप का सिरदर्द हो रहा है, लाइए मैं दबा देती हूं.”

मैं ने मना कर दिया. सुमित बीचबीच में आ कर मुझ से पूछ जाता है, ‘‘मां, आप ने दवा ली, कुछ खाया कि नहीं वगैरह.”

स्मिता भी अपने तरीके से मेरा ध्यान रखती है और अरविंद भी, किंतु सलोनी उस के तो जैसे ध्यान में ही मैं रहती हूं.

आज मुझे आत्मग्लानि महसूस हो रही है. 11वीं कक्षा में पढ़ने वाली सलोनी कितनी समझदार है. मैं सदैव अपने घर में उसे अवांछित सदस्य ही मानती थी, कभी मन से उसे बेटी न मान पाई. लेकिन वह मासूम मेरी थोड़ी सी देखभाल के बदले में मुझे अपना सबकुछ मान बैठी. कितने गहरे मन के तार उस ने मुझ से जोड़ लिए थे.

मुझे याद आ रहा है उस का वह अबोध चेहरा, जब सुमित और स्मिता स्कूल से आ कर मेरे गले से झूल जाते और वह दूर खड़ी मुझे टुकुरटुकुर निहारती तो मैं बस उस के सिर पर हाथ फेर कर सब को बैग रख कर हाथमुंह धोने की हिदायत दे देती थी.

उस ने मेरी थोड़ी सी सहानुभूति को ही शायद मेरा प्यार मान लिया था. अपनी मां की तो उसे ज्यादा याद नहीं, पर मुझे ही मानो मां मान कर चुपचाप अपना सारा प्यार उड़ेल देना चाह रही है.

आज मेरा जी चाह रहा है कि मैं उसे अपने गले से लगा कर फूटफूट कर रोऊं और अपने मन का सारा मैल और परायापन अपने आंसुओं से धो डालूं. मैं उसे अपने सीने से लगा कर ढेर सारा प्यार करना चाह रही हूं. मैं उस से कहना चाहती हूं, ‘‘मैं तेरी बड़ी मां नहीं सिर्फ मां हूं. मेरी एक नहीं दोदो बेटियां हैं. अपने और सलोनी के बीच जो कांच की दीवार मैं ने खड़ी कर रखी थी, वह आज भरभरा कर टूट गई है. सलोनी मेरी गुड़िया मुझे माफ कर दो.‘‘

Kahani 2025 : मेरी बेचारी वाचलिस्ट

Kahani 2025 : आजघर के काम से थोड़ा जल्दी फ्री हो गई तो सोचा, चलो अब आराम से लेट कर आईपैड पर ‘मैरिड वूमन’ देखूंगी. जैसे ही कानों में इयरफोन लगा कर आराम से लेट कर पोज बनाया, शिमोली अंदर आई. मैं इसी घड़ी से बच रही थी. पता नहीं कैसे सूंघ लेते हैं ये बच्चे कि मां कुछ देखने लेटी है.

उस ने बहुत ही ऐक्ससाइटेड हो कर पूछा, ‘‘वाह मम्मी, क्या देखने लेटीं?’’

‘‘मैरिड वूमन.’’

शिमोली को करंट सा लगा, ‘‘क्या? आप ‘मेड’ नहीं देखेंगी जो मैं ने आप को बताई थी?’’

‘‘देखूंगी बाद में.’’

‘‘मुझे पता था जो आदिव बताता है वह तो फौरन देख लेती हैं आप.’’

‘‘अरे, फौरन कहां देखती हूं कुछ? इतना टाइम मिलता है क्या?’’

‘‘मम्मी, मुझे कुछ नहीं पता, आप पहले ‘मेड’ देखो. इतने सारे शोज बता रखे हैं आप को, आप को उन की वैल्यू ही नहीं. एक तो अच्छेअच्छे शोज बताओ, ऊपर से आप देखने के लिए तैयार ही नहीं होतीं. मैं ही आप को बताने में अपना टाइम खराब करती हूं.’’

‘‘शिमो बेटा, मेरी सारी फ्रैंड्स ने ‘मैरिड वूमन’ शो देख लिया है, मुझे भी देखनी है.’’

‘‘मतलब मेरे बताए शोज की कोई वैल्यू

ही नहीं?’’

‘‘अरे, देख लूंगी बाद में.’’

‘‘मुझे पता है अभी आदिव आप को कोई शो बताएगा, आप देखने बैठ जाएंगी.’’

वहशिमोली ही क्या जो मुझे अपनी पसंद का शो दिखाए बिना चैन से बैठ जाए, मेरे हाथ से आईपैड ले कर फौरन ‘मेड’ का पहला ऐपिसोड लगा कर दे दिया और बोली, ‘‘पहले यह देखो.’’

अब जितना टाइम था मेरे पास, उस में से काफी तो इस बातचीत में खत्म हो चुका था. मैं ‘मेड’ देखने लगी. ‘मैरिड वूमन’ आज फिर रह गया था. यह कोई आज की बात ही थोड़े ही है. यह तो मेरे मां होने के रोज के इम्तिहान हैं जो मेरे दोनों बच्चे शिमोली और आदिव लेते रहते हैं.

मैं ने अनमनी सी हो कर शो रोका और सोचने लगी कि मेरी वाचलिस्ट में कितने शोज हो चुके हैं जो मुझे देखने हैं पर कितने दिनों से देख ही नहीं पा रही. होता यह है कि आदिव और शिमोली जो शोज देखते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, दोनों चाहते हैं कि मैं भी जरूर देखूं. पसंद दोनों की अलगअलग है.

दोनों यही चाहते हैं कि मैं उन्हीं का बताया शो देखूं और सितम यह भी कि मुझे उस शो की तारीफ भी करनी है जो उन्हें पसंद आया हो. अगर कभी कह दो कि उतना खास तो नहीं लगा मुझे तो सुनने को मिलता है कि आप की पसंद ही नीचे की हो गई है, पता नहीं अपनी फ्रैंड्स के बताए हुए कौनकौन आम से शोज देखने लगी हूं. मतलब तुम्हारी पसंद खास, मेरी आम.

बहुत नाइंसाफी है, भई. इंसान बाहर वालों से ज्यादा अच्छी तरह निबट लेता है पर शिमोली और आदिव से डील करना मैनेजमैंट के एक पूरे कोर्स को पास करना है.

पिछले दिनों आदिव के कहने पर ‘कोटा फैक्टरी’ के दोनों सीजन देखे, उसे जीतेंद्र पसंद है तो मां का फर्ज बनता है कि वे भी शो देखे और हर ऐपिसोड पर वाहवाह करें और बेटे को थैंक्स बोल कर कहें कि वाह बेटा, तुम ने मुझे कितना अच्छा शो दिखाया नहीं तो मैं दुनिया से ऐसे ही चली जाती.

मेरी सहेली रोमा का एक दिन फोन आया. बोली, ‘‘‘बौलीवुड बेगम’  देखा? नहीं देखा तो फौरन देख ले… मजा आ गया.’’

मैं जब यह शो देखने बैठी, एक ही ऐपिसोड देखा था कि आदिव आया, बोला, ‘‘छोड़ो मम्मी, मैं बताता हूं आप को एक अच्छा शो.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह भी अच्छा

है, अभी शुरू किया है, अच्छा लग रहा है.’’

‘‘अरे, नहीं मम्मी, आप के पास टाइम है तो देखो. रुको, मैं ही लगा कर देता हूं.’’

देखते ही देखते ‘बौलीवुड बेगम’ चला गया और सामने था ‘जैकरायान.’

यह टाइम भी तो वर्कफ्रौम होम का है, सब बाहर जाएं तो

कुछ अपनी पसंद का चैन से देखा जाए पर नहीं, पता नहीं कैसे कुछ भी देखना शुरू करते ही सब अपनीअपनी पसंद बताने आ जाते हैं. अरे, भई, मेरी भी एक बेचारी वाचलिस्ट है जो मुझे आवाजें देती रहती है. बच्चों की तो छोड़ो, बच्चों के पापा वीर भी कहां कम हैं.

उन्हें ऐक्शन फिल्म्स पसंद हैं तो वे चाहते हैं कि जब वे देखें तो मैं उन की पसंद की मूवी देखने में अपनी हसीं कंपनी दूं, उन्हें अच्छा लगता है अपनी पसंद की मूवी में मेरा साथ. जब गाडि़यां हवा में उड़ रही होती हैं, मेरा मन करता है कि किसी कोने में बैठ कर कानों में इयरफोन लगाऊं और आराम से कोई अपनी पसंद का शो देख लूं. कोशिश भी की तो वीर ने फरमाया, ‘‘अरे, नैना आओ न, तुम ने सुना नहीं? साथ मूवी देखने से प्यार बढ़ता है, एकदूसरे के साथ टाइम बिताने का यह अच्छा तरीका है, आओ न.’’

मन कहता है अरे, वीर इंसान. अकेले क्यों नहीं देख लेते एक्शन फिल्म. इस में भी कंपनी चाहिए? कोविड के टाइम रातदिन साथ बिता कर साथ रहने में कोई कसर रह गई है क्या? मुझे सस्पैंस वाली मूवीज या रोमांटिक कौमेडी अच्छी लगती है, बच्चे ऐसी मूवीज के नाम भी बताते हैं पर दोनों के बीच यह कंपीटिशन खूब चलता  है कि मम्मी किस के बताए हुए शो को देख रही हैं.

यह अच्छा नया तरीका है सिबलिंगरिवेलरी का. पुराना तरीका अच्छा नहीं था जहां बस इतने में निबट जाता था कि मम्मी ने किसे 1 लगाया, किसे 2? किसे ज्यादा डांट पड़ी, किसे कम. अब उस दिन मुझे ‘होस्टेजिस’ देखना था, हाय. रानितराय. जमाने से फैन हूं उस की. पर इतनी आसानी से कहां देख पाई, दोनों से प्रौमिस करना पड़ा कि ‘होस्टेजिस’ खत्म करते ही ‘अवेंजर्स’ और ‘द इंटर्न’ देखूंगी. देखे भी. अच्छे थे. पर मेरी अपनी लिस्ट का क्या? जब रानितराय का ‘कैंडी’ आया, मुझे न चाहते हुए भी साफसाफ कहना ही पड़ा कि अब मैं इसे देख कर ही कुछ और देखूंगी, जब तक वे शो खत्म नहीं किए, दोनों मुझे ऐसे देख रहे थे कि कोई गुनाह कर रही हूं.

अपना टाइम खराब कर रही हूं, परेशानी असल में इस बात की है कि बच्चे बड़े हो जाएं तो उन से इन छोटीछोटी बातों के लिए उलझा नहीं जाता. लगता है कि छोटी सी फरमाइस ही तो कर रहे हैं कि हमारी पसंद का शो देख लो पर इस चक्कर में अपनी वाचलिस्ट तो लंबी होती जा रही है न.

देखिए, जितनी छोटी यह प्रौब्लम सुनने में लग रही है न, उतनी है नहीं. देखने का टाइम कम हो, शोज की लिस्ट लंबी हो, दूसरों की लिस्ट उस से भी लंबी हो कि मुझे क्याक्या दिखाना है, बताइए, कितना मुश्किल है मैनेज करना. अपनी लिस्ट, शिमोली की लिस्ट, आदिव की लिस्ट, वीर की लिस्ट. मेरी अपनी बेचारी लिस्ट.

मैं यही सब सोच रही थी कि शिमोली की आवाज आई, ‘‘मम्मी, यह क्या आंखें बंद किएकिए क्या सोचने में अपना टाइम खराब कर दिया? एक भी ऐपिसोड खत्म नहीं किया ‘मेड’ का? ओह. सो डिसअपौइंटिंग. आप से एक शो ठीक से नहीं देखा जाता.’’

मैं ने कहा, ‘‘बस, मूड ही

नहीं हुआ. पता नहीं क्याक्या सोचती रह गई.’’

वह मेरे पास ही लेट गई, पूछा, ‘‘क्या सोचने लगीं मम्मी?’’

‘‘बेचारी के बारे में सोच

रही थी.’’

‘‘कौन बेचारी?’’

‘‘मेरी बेचारी वाचलिस्ट.’’

उस ने पहले मुझे घूरा, फिर हम दोनों एकसाथ जोर से हंस पड़ीं.

New Year Special Story : कितने दूर कितने पास

New Year Special Story : सरकारी सेवा से मुक्त होने में बस, 2 महीने और थे. भविष्य की चिंता अभी से खाए जा रही थी. कैसे गुजारा होगा थोड़ी सी पेंशन में. सेवा से तो मुक्त हो गए परंतु कोई संसार से तो मुक्त नहीं हो गए. बुढ़ापा आ गया था. कोई न कोई बीमारी तो लगी ही रहती है. कहीं चारपाई पकड़नी पड़ गई तो क्या होगा, यह सोच कर ही दिल कांप उठता था. यही कामना थी कि जब संसार से उठें तो चलतेफिरते ही जाएं, खटिया रगड़ते हुए नहीं. सब ने समझाया और हम ने भी अपने अनुभव से समझ लिया था कि पैसा पास हो तो सब से प्रेमभाव और सुखद संबंध बने रहते हैं. इस भावना ने हमें इतना जकड़ लिया था कि पैसा बचाने की खातिर हम ने अपने ऊपर काफी कंजूसी करनी शुरू कर दी. पैसे का सुख चाहे न भोग सकें परंतु मरते दम तक एक मोटी थैली हाथ में अवश्य होनी चाहिए. बेटी का विवाह हो चुका था. वह पति और बच्चों के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रही थी. जैसेजैसे समय निकलता गया हमारा लगाव कुछ कम होता चला गया था. हमारे रिश्तों में मोह तो था परंतु आकर्षण में कमी आ गई थी. कारण यह था कि न अब हम उन्हें अधिक बुला सकते थे और न उन की आशा के अनुसार उन पर खर्च कर सकते थे. पुत्र ने अवसर पाते ही दिल्ली में अपना मकान बना लिया था. इस मकान पर मैं ने भी काफी खर्च किया था.

आशा थी कि अवकाश प्राप्त करने के बाद इसी मकान में आ कर पतिपत्नी रहेंगे. कम से कम रहने की जगह तो हम ने सुरक्षित कर ली थी. एक दिन पत्नी के सीने में दर्द उठा. घर में जितनी दवाइयां थीं सब का इस्तेमाल कर लिया परंतु कुछ आराम न हुआ. सस्ते डाक्टरों से भी इलाज कराया और फिर बाद में पड़ोसियों की सलाह मान कर 1 रुपए की 3 पुडि़या देने वाले होमियोपैथी के डाक्टर की दवा भी ले आए. दर्द में कितनी कमी आई यह कहना तो बड़ा कठिन था परंतु पत्नी की बेचैनी बढ़ गई. एक ही बात कहती थी, ‘‘बेटी को बुला लो. देखने को बड़ा जी चाह रहा है. कुछ दिन रहेगी तो खानेपीने का सहारा भी हो जाएगा. बहू तो नौकरी करती है, वैसे भी न आ पाएगी.’’ ‘‘प्यारी बेटी,’’ मैं ने पत्र लिखा, ‘‘तुम्हारी मां की तबीयत बड़ी खराब चल रही है. चिंता की कोई बात नहीं. पर वह तुम्हें व बच्चों को देखना चाह रही है. हो सके तो तुम सब एक बार आ जाओ. कुछ देखभाल भी हो जाएगी. वैसे अब 2 महीने बाद तो यह घर छोड़ कर दिल्ली जाना ही है. अच्छा है कि तुम अंतिम बार इस घर में आ कर हम लोगों से मिल लो. यह वही घर है जहां तुम ने जन्म लिया, बड़ी हुईं और बाजेगाजे के साथ विदा हुईं…’’ पत्र कुछ अधिक ही भावुक हो गया था.

मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी, पर कलम ही तो है. जब चलने लगती है तो रुकती नहीं. इस पत्र का कुछ ऐसा असर हुआ कि बेटी अपने दोनों बच्चों के साथ अगले सप्ताह ही आ गई. दामाद ने 10 दिन बाद आने के लिए कहा था. न जाने क्यों मांबेटी दोनों एकदूसरे के गले मिल कर खूब रोईं. भला रोने की बात क्या थी? यह तो खुशी का अवसर था. मैं अपने नातियों से गपें लगाने लगा. रचना ने कहा, ‘‘बोलो, मां, तुम्हारे लिए क्या बनाऊं? तुम कितनी दुबली हो गई हो,’’ फिर मुझे संबोधित कर बोली, ‘‘पिताजी, बकरे के दोचार पाए रोज ले आया कीजिए. यखनी बना दिया करूंगी. बच्चों को भी बहुत पसंद है. रोज सूप पीते हैं. आप को भी पीना चाहिए,’’ फिर मेरी छाती को देखते हुए बोली, ‘‘क्या हो गया है पिताजी आप को? सारी हड्डियां दिखाई दे रही हैं. ठहरिए, मैं आप को खिलापिला कर खूब मोटा कर के जाऊंगी. और हां, आधा किलो कलेजी- गुर्दा भी ले आइएगा. बच्चे बहुत शौक से खाते हैं.’’ मैं मुसकराने का प्रयत्न कर रहा था, ‘‘कुछ भी तो नहीं हुआ. अरे, इनसान क्या कभी बुड्ढा नहीं होता? कब तक मोटा- ताजा सांड बना रहूंगा? तू तो अपनी मां की चिंता कर.’’ ‘‘मां को तो देख लूंगी, पर आप भी खाने के कम चोर नहीं हैं. आप को क्या चिंता है? लो, मैं तो भूल ही गई. आप तो रोज इस समय एक कप कौफी पीते हैं. बैठिए, मैं अभी कौफी बना कर लाती हूं. बच्चो, तुम भी कौफी पियोगे न?’’ मैं एक असफल विरोध करता रह गया. रचना कहां सुनने वाली थी. दरअसल, मैं ने कौफी पीना अरसे से बंद कर दिया था. यह घर के खर्चे कम करने का एक प्रयास था. कौफी, चीनी और दूध, सब की एकसाथ बचत. पत्नी को पान खाने का शौक था. अब वह बंद कर के 10 पैसे की खैनी की पुडि़या मंगा लेती थी, जो 4 दिन चलती थी. हमें तो आखिर भविष्य को देखना था न.

‘‘अरे, कौफी कहां है, मां?’’ रचना ने आवाज लगा कर पूछा, ‘‘यहां तो दूध भी दिखाई नहीं दे रहा है? लो, फ्रिज भी बंद पड़ा है. क्या खराब हो गया?’’ मां ने दबे स्वर में कहा, ‘‘अब फ्रिज का क्या काम है? कुछ रखने को तो है नहीं. बेकार में बिजली का खर्चा.’’ ‘‘पिताजी, ऐसे नहीं चलेगा,’’ रचना ने झुंझला कर कहा, ‘‘यह कोई रहने का तरीका है? क्या इसीलिए आप ने जिंदगी भर कमाया है? अरे ठाट से रहिए. मैं भी तो सिर उठा कर कह सकूं कि मेरे पिताजी कितनी शान से रहते हैं. ए बिट्टू, जा, नीचे वाली दुकान से दौड़ कर कौफी तो ले आ. हां, पास ही जो मिट्ठन हलवाई की दुकान है, उस से 1 किलो दूध भी ले आना. नानाजी का नाम ले देना, समझा? भाग जल्दी से, मैं पानी रख रही हूं.’’ किट्टू बोला, ‘‘मां, मैं भी जाऊं. फाइव स्टार चाकलेट खानी है.’’ ‘‘जा, तू भी जा, शांति तो हो घर में,’’ रचना ने हंस कर कहा, ‘‘चाकलेट खाने की तो ऐसी आदत पड़ गई है कि बस, पूछो मत. इन की तो नौकरी भी ऐसी है कि मुफ्त देने वालों की कमी नहीं है.’’ मैं मन ही मन गणित बिठा रहा था. 5 रुपए की चाकलेट, 6 रुपए का दूध, 15 रुपए की कौफी, 16 रुपए की आधा किलो कलेजी, ढाई रुपए के 2 पाए…’’ कौफी पी ही रहा था कि रचना का क्रुद्ध स्वर कानों में पड़ा, ‘‘मां, तुम ने घर को क्या कबाड़ बना रखा है. न दालें हैं न सब्जी है, न मसाले हैं. आप लोग खाते क्या हैं? बीमार नहीं होंगे तो क्या होंगे? छि:, मैं भाभी को लिख दूंगी. आप की खूब शिकायत करूंगी. दिल्ली में अगर आप को इस हालत में देखा तो समझ लेना कि भाभी से तो लड़ाई करूंगी ही, आप से भी कभी मिलने नहीं आऊंगी.’

रचना जल्दी से सामान की सूची बनाने लगी. मेरी पत्नी का खाना बनाने को मन नहीं करता था. उसे अपनी बीमारी की चिंता अधिक सताती थी. पासपड़ोस की औरतें भी उलटीसीधी सीख दे जाया करती थीं. मैं ने भी समझौता कर लिया था. जो एक समय बन जाता था वही दोनों समय खा लेते थे. आखिर इनसान जिंदा रहने के लिए ही तो खाता है. अब इस उम्र में चटोरापन किस काम का. यह बात अलग थी कि हमारा खर्च आधा रह गया था. बैंक में पैसे भी बढ़ रहे थे और सूद भी. पत्नी ने धीरे से कहा, ‘‘यह तो पराया समझ कर घर लुटा रही है. सामान तुम ही लाना और मुझे यखनीवखनी कुछ नहीं चाहिए. कलेजी भी कम लाना. अगर बच्चों को खिलाना है तो सीधी तरह से कह देती. लगता है मुझे ही रसोई में लगना पड़ेगा. हमें आगे का देखना है कि अभी का?’’ फिर सिर पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘अभी तो दामाद को भी आना है. उन्हें तो सारा दिन खानेपीने के सिवा कुछ सूझता ही नहीं.’’ ‘‘तुम ने ही तो कहा था बुलाने को.’’ ‘‘कहा था तो क्या तुम मना नहीं कर सकते थे. ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि जो मैं ने कहा वह पत्थर की लकीर हो गई,’’ पत्नी ने उलाहना दिया. ‘‘अब तो भुगतना ही पड़ेगा. अब देर हो गई. कल सुबह बैंक से पैसे निकालने जाना पड़ेगा,’’ मैं ने दुखी हो कर कहा. इतने में रचना आ गई, ‘‘मां, देसी घी कहां है? दाल किस में छौंकूंगी? रोटी पर क्या लगेगा?’’ मां ने ठंडे दिल से कहा, ‘‘डाक्टर ने देसी घी खाने को मना किया है न. चरबी वाली चीजें बंद हैं. तेरे लिए आधा किलो मंगवा दूंगी.’’ मैं ने खोखली हंसी से कहा, ‘‘कोलेस्टेराल बढ़ जाता है न, और रक्तचाप भी.’’ ‘‘भाड़ में गए ऐसे डाक्टर. हड्डी- पसली निकल रही है, सूख कर कांटा हो रहे हैं और कोलेस्टेराल की बात कर रहे हैं. आप अभी 5 किलोग्राम वाले डब्बे का आर्डर कर आइए. मेरे सामने आ जाना चाहिए,’’ रचना ने धमकी दी. मेरे और पत्नी के दिमाग में एक ही बात घूम रही थी, ‘कितना खर्च हो जाएगा इन के रहते. सेवा से अवकाश लेने वाला हूं. कम खर्च में काम चलाना होगा. बेटे के ऊपर भी तो बोझ बन कर नहीं रहना है.’ सुबह ही सुबह रचना दूध वाले से झगड़ा कर रही थी, ‘‘क्यों, पहलवान, मैं क्या चली गई, तुम ने तो दूध देना ही बंद कर दिया.’’ ‘‘बिटिया, हम क्यों दूध बंद करेंगे? मांजी ने ही कहा कि बस, आधा किलो दे जाया करो. चाय के लिए बहुत है. क्या इसी घर में हम ने 4-4 किलो दूध नहीं दिया है?’’ ‘‘देखो, जब तक मैं हूं, 3 किलो दूध रोज चाहिए. बच्चे दोनों समय दूध लेते हैं. जब मैं चली जाऊं तो 2 किलो देना, मां मना करें या पिताजी.

यह मेरा हुक्म है, समझे?’’ ‘‘समझा, बिटिया, हम भी तो कहें, क्यों मांजी और बाबूजी कमजोर हो रहे हैं. यही तो खानेपीने की उम्र है. अभी दूध नहीं पिएंगे तो कब पिएंगे?’’ 18 रुपए का दूध रोज. मैं मन ही मन सोच रहा था कि पत्नी इशारे से दूध वाले को कुछ कहने का असफल प्रयत्न कर रही थी. ‘‘अंडे भी नहीं हैं. न मक्खन न डबल रोटी,’’ रचना चिल्ला रही थी, ‘‘आप लोग बीमार नहीं पड़ेंगे तो क्या होगा. बिट्टू, जा दौड़ कर नीचे से एक दर्जन अंडे ले आ और 500 ग्राम वाली मक्खन की टिकिया, नानाजी का नाम ले देना.’’ ‘‘मां, मैं भी जाऊं,’’ किट्टू बोला, ‘‘टाफी लाऊंगा. तुम्हारे लिए भी ले आऊं न?’’ ‘‘जा बाबा, जा, सिर मत खा,’’ रचना ने हंसते हुए कहा. हाथ दबा कर खर्च करने के चक्कर में बहुत मना करने पर भी पत्नी ने रसोई का काम संभाल लिया. जब दामाद आए तब तो किसी को फुरसत ही कहां. रोज बाजार कुछ न कुछ खरीदने जाना और नहीं तो यों ही घूमने के लिए. रिश्तेदार भी कई थे. कोई मिलने आया तो किसी के यहां मिलने गए. परिणाम यह हुआ कि पत्नी के लिए रसोई लक्ष्मण रेखा बन गई. दामाद की सारी फरमाइशें रचना मां को पहुंचा देती थी, ‘‘सास के हाथ के कबाब तो बस, लाजवाब होते हैं. उफ, पिछली दफा जो कीमापनीर खाया था, आज तक याद है. मुर्गमुसल्लम तो जो मां के हाथ का खाया था अशोक होटल में भी क्या बनेगा.’’ जब तक रचना पति और बच्चों के साथ वापस गई, मेरी पत्नी के सीने का दर्द वापस आ गया था, लेकिन दर्द के बारे में सोचने की फुरसत कहां थी. घर छोड़ कर दिल्ली जाने में 1 महीना रह गया था. कुछ सामान बेचा तो कुछ सहेजा. एक दिन 20-25 बक्सों का कारवां ले कर जब दिल्ली पहुंचे तो चमचमाते मुंह से पुत्र ने स्वागत किया और बहू ने सिर पर औपचारिक रूप से साड़ी का पल्ला खींचते हुए सादर पैर छू कर हमारा आशीर्वाद प्राप्त किया. पोता दादी से चिपक गया तो नन्ही पोती मेरी गोदी में चढ़ गई. सुबह जल्दी उठने की आदत थी. पुत्र का स्वर कानों में पड़ा, ‘‘सुनो, दूध 1 किलो ज्यादा लेना. मां और पिताजी सुबह नाश्ते में दूध लेते हैं.’’ बहू ने उत्तर दिया, ‘‘दूध का बिल बढ़ जाएगा. इतने पैसे कहां से आएंगे? और फिर अकेला दूध थोड़े ही है. अंडे भी आएंगे. मक्खन भी ज्यादा लगेगा…’’ पुत्र ने झुंझला कर कहा, ‘‘ओहो, वह हिसाबकिताब बाद में करना. मांबाप हमारे पास रहने आए हैं. उन्हें ठीक तरह से रखना हमारा कर्तव्य है.’’ ‘‘तो मैं कोई रोक रही हूं? यही तो कह रही हूं कि खर्च बढ़ेगा तो कुछ पैसों का बंदोबस्त भी करना पड़ेगा. बंधीबंधाई तनख्वाह के अलावा है क्या?’’ ‘‘देखो, समय से सब बंदोबस्त हो जाएगा. अभी तो तुम रोज दूध और अंडों का नाश्ता बना देना.’’ ‘‘ठीक है, बच्चों का दूध आधा कर दूंगी. एक समय ही पी लेंगे. अंडे रोज न बना कर 2-3 दिन में एक बार बना दूंगी.’’

‘‘अब जो ठीक समझो, करो,’’ बेटे ने कहा, ‘‘सेना के एक कप्तान से मैं ने दोस्ती की है. एक दिन बुला कर उसे दावत देनी है.’’ ‘‘वह किस खुशी में?’’ ‘‘अरे, जानती तो हो, आर्मी कैंटीन में सामान सस्ता मिलता है, एक दिन दावत देंगे तो साल भर सामान लाते रहेंगे.’’ ‘‘ठीक तो है, रंजना के यहां तो ढेर लगा है. जब पूछो, कहां से लिया है तो बस, इतरा कर कहती है कि मेजर साहब ने दिलवा दिया है.’’ जब नाश्ता करने बैठे तो मैं ने कहा, ‘‘अरे, यह दूध मेरे लिए क्यों रख दिया. अब कोई हमारी उम्र दूध पीने की है. लो, बेटा, तुम पी लो,’’ मैं ने अपना आधा प्याला पोते के आधे प्याले में डाल दिया. पत्नी ने कहा, ‘‘यह अंडा तो मुझे अब हजम नहीं होता. बहू, इन बच्चों को ही दे दिया करो. बाबा, डबल रोटी में इतना मक्खन लगा दिया…मैं तो बस, नाम मात्र का लेती हूं.’’ बहू ने कहा, ‘‘मांजी, ऐसे कैसे होगा? बच्चे तो रोज ही खाते हैं. आप जब तक हमारे पास हैं अच्छी तरह खाइए. लीजिए, आप ने भी दूध छोड़ दिया.’’ ‘‘मेरी सोना को दे दो. बच्चों को तो खूब दूध पीना चाहिए.’’ ‘‘हां, बेटा, मैं तो भूल ही गया था. तुम्हारी मां के सीने में दर्द रहता है. काफी दवा की पर जाता ही नहीं. अच्छा होता किसी डाक्टर को दिखा देते. है कोई अच्छा डाक्टर तुम्हारी जानपहचान का?’’ बेटे ने सोच कर उत्तर दिया, ‘‘मेरी जानपहचान का तो कोई है नहीं पर दफ्तर में पता करूंगा. हो सकता है एक्सरे कराना पड़े.’’ बहू ने तुरंत कहा, ‘‘अरे, कहां डाक्टर के चक्कर में पड़ोगे, यहां कोने में सड़क के उस पार घोड़े की नाल बनाने वाला एक लोहार है. बड़ी तारीफ है उस की. उस के पास एक खास दवा है. बड़े से बड़े दर्द ठीक कर दिए हैं उस ने. अरे, तुम्हें तो मालूम है, वही, जिस ने चमनलाल का बरसों पुराना दर्द ठीक किया था.’’

‘‘हां,’’ बेटे ने याद करते हुए कहा, ‘‘ठीक तो है. वह पैसे भी नहीं लेता. बस, कबूतरों को दाना खिलाने का शौक है. सो वही कहता है कि पैसों की जगह आप आधा किलो दाना डाल दो, वही काफी है.’’ मैं ने गहरी सांस ली. पत्नी साड़ी के कोने से मेज पर पड़ा डबल रोटी का टुकड़ा साफ कर रही थी. मेरी मुट्ठी भिंच गईं. मुझे लगा मेरी मुट्ठी में इस समय अनगिनत रुपए हैं. सोचने की बात सिर्फ यह थी कि इन्हें आज खत्म करूं या कल, परसों या कभी नहीं. बेटा दफ्तर जा रहा था. ‘‘सुनो,’’ उस ने बहू से कहा, ‘‘जरा कुछ रुपए दे दो. लौटते हुए गोश्त लेता आऊंगा, और रबड़ी भी. पिताजी को बहुत पसंद है न.’’ बहू ने झिड़क कर कहा, ‘‘अरे, पिताजी कोई भागे जा रहे हैं जो आज ही रबड़ी लानी है? रहा गोश्त, सो पाव आध पाव से तो काम चलेगा नहीं. कम से कम 1 किलो लाना पड़ेगा. मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं. अब खाना ही है तो अगले महीने खाना.’’ ‘‘ठीक है,’’ कह कर बेटा चला गया. मुझे एक बार फिर लगा कि मेरी मुट्ठी में बहुत से पैसे हैं. मैं ने मुट्ठी कस रखी है. प्रतीक्षा है सिर्फ इस बात की कि कब अपनी मुट्ठी ढीली करूं. पत्नी ने कराहा. शायद सीने में फिर दर्द उठा था.

Short Stories in Hindi : अतीत की पगडंडियां

लेखिका- कृतिका गुप्ता

Short Stories in Hindi : अलका यानी श्रीमती रंजीत चौधरी से मेरा परिचय सिर्फ एक साल पुराना है, पर उन के प्रति मैं जो अपनापन महसूस करता हूं, वह इस परिचय को पुराना कर देता है. आज अलकाजी जा रही हैं. उन के पति रंजीत चौधरी नौकरी से रिटायर हो गए हैं इसलिए अब वह सपरिवार अपने शहर इलाहाबाद वापस जा रहे हैं.

मैं उदास हूं, उन से आखिरी बार मिलना चाहता हूं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं. उन्हें जाते हुए देखना मेरे लिए कठिन होगा फिर भी मिलना तो है ही. यही सोच कर मेरे कदम उन के घर की ओर उठ गए.

मैं जितने कदम आगे को बढ़ाता था मेरा अतीत मुझे उतना ही पीछे ले जाता था. आखिर मेरे सामने वह दिन आ ही गया जब मैं पहली बार चौधरी साहब के  घर गया था. वैसे मेरा श्रीमती चौधरी से सीधे कोई परिचय नहीं था, मेरा परिचय तो उन के घर रह कर पढ़ने वाले उन के भतीजे प्रभात से था.

मैं स्कूल में अध्यापक था, अत: प्रभात ने मुझे अपनी चाची के बच्चों को पढ़ाने के काम में लगा दिया था. इसी सिलसिले में मैं उन के घर पहली बार गया था. दरवाजा प्रभात के चाचा यानी चौधरी साहब ने खोला था.

सामान्य कद, गोरा रंग, उम्र कोई 55 साल, सिर पर बचे आधे बाल जोकि सफेद थे और आंखें ऐसी मानो मन के भीतर जा कर आप का एक्सरे उतार रही हों. प्रभात से अकसर उस की चाची की जो तारीफ मैं ने सुनी थी उस से अंदाजा लगाया था कि उस की चाची बहुत प्यारी और ममतामयी महिला होंगी.

चौधरी साहब ने प्रभात के साथसाथ अपने बच्चों गौरवसौरभ को भी बुलाया, साथ में आई एक बहुत ही खूबसूरत महिला.

प्रभात ने बताया कि यह उस की चाची हैं. मैं चौंक पड़ा. मैं ने उन्हें ध्यान से देखा. लंबा कद, गोरा रंग, छरहरा बदन, आकर्षक चेहरे पर स्मित मुसकान और उम्र रही होगी कोई 30-32 साल. अगर प्रभात मुझे पहले न बताता तो मैं उन्हें चौधरी साहब की बेटी ही समझता.

पहली बार उन्हें देख कर उन के प्रति एक अजीब सी दया और सहानुभूति का भाव मेरे मन में उमड़ आया था. और उमड़ भी क्यों न आता, 30 साल की खूबसूरत महिला को 55 साल के आदमी की पत्नी के रूप में देखना, इस के अलावा और क्या भाव ला सकता था.

मुझे उन के बच्चों को पढ़ाने का काम मिल गया. मैं हर दोपहर, स्कूल के बाद उन्हें पढ़ाने के लिए जाने लगा था. उस समय चौधरी साहब आफिस गए होते थे और प्रभात कालिज.

बच्चों को पढ़ाते समय वह अकसर मेरे लिए चायनाश्ता दे जाया करती थीं. पहली बार मैं ने मना किया तो वह बोली थीं, ‘कालिज से सीधे यहां पढ़ाने आ जाते हो, भूख तो लग ही आती होगी. थोड़ा खा लोगे तो तुम्हारा भी मन पढ़ाने में ठीक से लगने लगेगा.’

मैं ने फिर कभी उन का चायनाश्ते के लिए प्रतिवाद नहीं किया था.

श्रीमती चौधरी बहुत ही स्नेही और लोकप्रिय महिला थीं. मुझे उन के घर अकसर उन की कोई न कोई पड़ोसिन बैठी मिलती थी, कभी किसी व्यंजन की रेसिपी लिखती तो कभी कोई नया व्यंजन चखती.

एक बार उन्होंने मुझ से कहा था, ‘तुम मुझे बारबार श्रीमती चौधरी कह कर यह न याद दिलाया करो कि मैं रंजीत चौधरी की पत्नी हूं. तुम मुझे अलका कह कर बुला सकते हो.’ तब से मैं उन्हें अलकाजी ही कहने लगा था.

एक रोज मैं ने उन से पूछा, ‘अलकाजी, आप की शादी आप से दोगुने उम्र के इनसान से क्यों हुई?’ मेरे इस सवाल के जवाब में उन्होंने जो कुछ कहा उसे सुन कर मैं झेंप सा गया था. वह बोली थीं, ‘यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है, जो सच है वह सच है. मैं एक छोटे से गांव की रहने वाली हूं. मैं तब बहुत छोटी थी, जब मेरे मांबाप गुजर गए थे. मेरे चाचाचाची ने मुझे पालापोसा था. उन्होंने ही मेरी शादी चौधरी साहब से तय की थी. उन्होंने यह तो देखा कि लड़का अच्छी नौकरी में है, अच्छा घर है पर यह नहीं देखा कि वह मुझ से उम्र में कितना बड़ा है और तब मैं इतनी समझ भी नहीं रखती थी कि इस का विरोध कर सकूं.

‘तुम यह भी कह सकते हो कि मुझ में विरोध कर सकने की हिम्मत ही नहीं थी. अपनी किस्मत समझ कर मैं ने इसे स्वीकार कर लिया था. फिर जब मेरे जीवन में गौरवसौरभ आ गए तो लगा कि मुझे फिर से जीने का मकसद मिल गया है और अब तो इतना समय बीत गया है कि मुझे लोगों की घूरती निगाहों, पीठपीछे की कानाफूसी, इस सब की आदत हो गई है.

‘हां, बुरा तब लगता है जब लोग मेरे और प्रभात के रिश्ते पर उंगलियां उठाते हैं. तुम्हीं कहो, अनुपम, क्या मैं इतनी गिरी हुई लगती हूं कि अपने रिश्ते के बेटे के साथ…छी, मुझे तो सोच कर भी शरम आती है. फिर लोग कहते हुए क्यों नहीं झिझकते? तो क्या उन का चरित्र मुझ से भी गयाबीता नहीं है? प्रभात को मैं ने सदा अपना बड़ा बेटा, गौरवसौरभ का बड़ा भाई समझ कर ही स्नेह दिया है.’

इतना कहते हुए उन की आंखों में छलक आई दो बूंदों को मैं ने देख लिया था, जिसे वह जल्दी से छिपा गई थीं. मैं जानता था कि उन के महल्ले में श्रीमती चौधरी और प्रभात को ले कर तरहतरह की बातें कही जाती थीं. कोई कहता कि उन का रिश्ता चाचीभतीजे से बढ़ कर है, कोई कहता, प्रभात उन का पे्रमी है. जितने मुंह उतनी बातें होती थीं.

लोग मुझ से भी पूछते थे, ‘तुम से श्रीमती चौधरी कैसा व्यवहार करती हैं?’ मैं झुंझला जाता था. कभी तो इतना गुस्सा आता था कि जी करता एकएक को पीट डालूं. पर कभीकभी मैं खुद इन्हीं बातों को सोचने के लिए मजबूर हो जाता था.

श्रीमती चौधरी, प्रभात को बहुत महत्त्व देती थीं. हर एक बात पर उस की राय लेती थीं, कभीकभी तो चौधरी साहब की बात को भी काट कर वह प्रभात की ही बात मानती थीं.

कभीकभी मैं सोचने लगता कि यह कैसा रिश्ता है उन दोनों का? पर फिर मुझे लगता कि अगर अलका चौधरी 30 साल की न हो कर 50 साल की होतीं और प्रभात से ऐसा ही बरताव करतीं तो शायद सब उन्हें ममतामयी मां कहते. पर आज वह किसी और ही संबोधन से जानी जाती थीं.

आज मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गए थे. मैं ने अलकाजी से कहा, ‘मैं आज तक आप को सिर्फ पसंद करता था, पर अब मैं आप का आदर भी करने लगा हूं. जो आप ने किया वह करना सच में सब के बस की बात नहीं है.’

उस दिन मैं ने एक नई अलका को जाना था, जो अकारण ही मुझे बहुत अच्छी लगने लगी थीं. मैं उन के आकर्षण में खोने लगा था, जिसे मैं चाह कर भी रोक नहीं पा रहा था. मैं जानता था कि वह शादीशुदा हैं और 2 बच्चों की मां हैं, पर इस से मेरी भावनाओं के आवेगों में कोई कमी नहीं आ रही थी. वह मुझ से उम्र में 4-5 साल बड़ी थीं फिर भी मैं अपनेआप को उन के बहुत करीब पाता था.

वह भी मेरा बहुत खयाल रखती थीं. कभीकभी तो मुझे लगता था कि वह भी मुझे पसंद करती हैं. फिर अपनी ही सोच पर मुझे हंसी आ जाती और मैं इस विचार को अपने मन से परे धकेल देता.

वक्त अपनी गति से बीत रहा था. शरद ऋतु के बाद अचानक ही कड़ाके की ठंड पड़ने लगी थी. मैं बैठा बच्चों को पढ़ा रहा था. उस दिन चौधरीजी भी घर पर ही थे. अलकाजी मुझे नाश्ता देने आईं तो मैं ने पाया कि उन के बालों से पानी टपक रहा था, वह शायद नहा कर आई थीं. भरी ठंड में शाम ढले उन का नहाना मुझे विचलित कर गया. मैं कुछ सोचता उस से पहले ही मेरे कानों में चौधरीजी की आवाज पड़ी, ‘इतनी ठंड में नहाई क्यों?’

अलकाजी ने जवाब दिया, ‘जो आग बुझा नहीं सकते उसे भड़काते ही क्यों हैं? इस जलन को पानी से न बुझाऊं तो क्या करूं?’

चौधरीजी ने क्या जवाब दिया मैं सुन नहीं पाया, शायद उन्होंने टेलीविजन चला दिया था. अगले दिन जब मैं उन के घर पहुंचा तो गौरवसौरभ पड़ोस के घर खेलने गए हुए थे. वह मुझ से बोलीं, ‘तुम बैठो, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’

वह जाने को मुड़ीं तो मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘आप बैठो जरा.’

फिर मैं ने उन्हें बिठा कर पानी का गिलास थमाया, जिसे वह एक ही सांस में पी गईं. मैं ने उन से पूछा, ‘आप ठीक तो हैं, अलकाजी? आप की आंखें इतनी लाल क्यों हैं? और यह आप के चेहरे पर चोट का निशान कैसा है?’

मेरी बात सुनते ही वह फफक कर रो पड़ीं. मैं इस के लिए तैयार नहीं था. समझ नहीं पाया कि क्या करूं, उन्हें रोने दूं या चुप कराऊं? फिर कुछ पल रो लेने के बाद उन की आंखों से बरसाती बादल खुद ही तितरबितर हो गए. वह कुछ संयत हो कर बोलीं, ‘परेशान कर दिया न तुम्हें?’

‘कैसी बातें कर रही हैं?’ मैं ने कहा, ‘आप बताएं, आप परेशान क्यों हैं?’ वह बुझे स्वर में बोलीं, ‘तुम नहीं समझ पाओगे, अनुपम?’ मैं ने थोड़ा रुक कर कहा, ‘अलकाजी मैं ने कल आप की और चौधरीजी की सारी बातें सुन ली थीं.’

अलकाजी ने मुझे चौंक कर ऐसे देखा मानो मैं ने उन्हें चोरी करते रंगेहाथों पकड़ लिया हो. वह एक बार फिर सिसक उठीं.

मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘अलकाजी, परेशान या दुखी होने की जरूरत नहीं. आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं. अगर चाहें तो मुझ से बात कर सकती हैं, इस से आप का मन हलका हो जाएगा. पर आप ने बताया नहीं, यह चोट…क्या आप को किसी ने मारा है?’

अलकाजी ने व्यंग्य से होंठ टेढ़े करते हुए कहा, ‘चौधरी साहब को लगता है कि पड़ोस में रहने वाले श्रीवास्तवजी से मेरा कुछ…’

उन की बात सुन मैं ने सिहर कर पूछा, ‘वह ऐसा कैसे सोच सकते हैं?’

‘वह कुछ भी सोच सकते हैं अनुपम. किसी 56 साल के पुरुष की पत्नी अगर जवान हो तो वह उस के बारे में कुछ भी सोच सकता है.’ श्रीवास्तवजी तो फिर भी ठीक हैं, वह तो दूध वाले तक के लिए मुझ पर शक करते हैं.’

अलकाजी की बातें सुन कर मैं चौधरीजी के प्रति घृणा से भर उठा, ‘आप उन्हें समझाती क्यों नहीं?’ वह झुंझला कर बोलीं, ‘क्या समझाऊं और कब तक समझाऊं? हमारी शादी को 9 साल हो गए हैं. 2 बच्चे हैं हमारे, फिर भी वह मुझ पर शक करते हैं. मैं ही क्यों बारबार अपनी पवित्रता का सुबूत दूं, क्यों मैं ही अग्निपरीक्षा से गुजरूं? क्या मेरा कोई आत्मसम्मान नहीं है?’

उन की बातों ने मुझे झकझोर डाला था. मैं अब तक यही समझता था कि वह एक सुखी गृहस्थी की मालकिन हैं पर आज जब मैं ने उन की हंसती हुई दुनिया का रोता हुआ सच देखा तो जाना कि वह कितनी अकेली और परेशान हैं.

देखतेदेखते एक साल बीत गया. गौरवसौरभ की परीक्षाएं हो चुकी थीं और अब उन्हें मेरी जरूरत न थी. फिर भी मैं किसी न किसी बहाने अलकाजी से मिलने चला ही जाता था. जब कभी प्रभात से मुलाकात होती तो वह कहता, ‘आप को चाचीजी पूछ रही थीं.’

बस, इतनी सी बात का सूत्र पकड़ कर मैं उन के घर पहुंच जाता. पर मन में कहीं एक डर भी था कि कहीं मेरा अधिक आनाजाना अलकाजी के लिए किसी परेशानी का कारण न बन जाए.

फिर एक दिन मुझे प्रभात मिला. उस ने मुझे बताया कि हम सब यह शहर छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इलाहाबाद जा रहे हैं. मैं चौंक पड़ा, यह खबर मेरे लिए बहुत ही अप्रत्याशित और तकलीफदेह थी.

अतीत की पगडंडियों पर चलतेचलते मैं अलकाजी के दरवाजे तक पहुंच चुका था. हिम्मत कर मैं ने दरवाजा खट- खटाया, दरवाजा अलकाजी ने ही खोला. मुझे देख कर उन की आंखों में एक अनोखी सी खुशी तैर गई थी जिसे छिपाती हुई वह बोलीं, ‘‘अनुपम, आओआओ? मिल गई फुरसत आने की?’’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह शिकायत किसलिए? शिकायत तो मुझे करनी चाहिए थी कि आप जा रही हैं मुझे छोड़ कर…मेरा मतलब हमारा शहर छोड़ कर?’’ अंदर घुसते ही मैं ने देखा, बैठक का सारा सामान खाली हो चुका था, सिर्फ दीवान पड़ा था. मैं ने बैठते हुए कहा, ‘सामान से खाली घर कैसा लगता है न?’

ठीक वैसा ही जैसा भावनाओं और संवेदनाओं से खाली मन लगता है,’’ अलकाजी ने अर्थ भरे नयनों से देखते हुए कहा. बात की गंभीरता को कम करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘सब लोग कहां हैं?’’

‘‘प्रभात, बच्चों को ले कर आज ही गया है. थोड़ी पैकिंग बाकी है, जिसे पूरा कर के मैं और चौधरीजी भी कल निकल जाएंगे,’’ अलकाजी ने बताया. फिर कुछ रुक कर अपने पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदती हुई बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ अनुपम, जो तुम आज आ गए. बहुत इच्छा थी आखिरी बार तुम से मिलने की.’’

मैं ने उत्सुक हो कर पूछा, ‘‘क्यों, कोई खास काम था क्या मुझ से?’’

‘‘काम…काम तो कुछ नहीं था, पर कुछ है जो तुम्हें बताना शेष रह गया था. न बताऊंगी तो जीवन भर मन ही मन उन्हीं बातों से घुटती रहूंगी.

‘‘तुम जानना चाहते हो कि मैं यहां से क्यों जा रही हूं? डरती हूं कि जिस आग को अब तक अपने मन में दबा कर रखा था वह मुझे ही न जला डाले. अनुपम, मैं यह तो जानती हूं कि तुम मुझ से प्यार करते हो पर शायद तुम नहीं जानते कि मैं भी तुम से प्यार करने लगी हूं.’’

उन की यह बात सुन कर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा था. अपने प्यार की स्वीकृति मिलते ही मेरा मन अचानक उन्हें अपनी बांहों में लेने को मचल उठा. मैं ने तरल निगाहों से उन की ओर देखा, अलका के होंठ खामोश थे पर उन में उठता कंपन बता रहा था कि वे प्रतीक्षित हैं.

मैं अपनी जगह से उठ कर उन की ओर बढ़ा ही था कि उन्होंने कहा, ‘‘अब तक तो चौधरीजी को शक ही था पर डरती हूं कि मेरे मन में फूट आई तुम्हारे प्यार की कोंपल, उन का शक यकीन में न बदल दे, इसीलिए यहां से पलायन कर रही हूं क्योंकि यहां रहते हुए मैं खुद को तुम से मिलने से रोक नहीं पाऊंगी. और अगर ऐसा हुआ तो मेरी अब तक की सारी तपस्या और आत्मसम्मान मिट्टी में मिल जाएगा. तुम्हें यह सब बताना जरूरी भी था क्योंकि इस अनकहे प्यार का अंतर्दाह अब मुझ से और सहन नहीं हो रहा था.’’

इतना कह कर वह चुप हो मेरी ओर देखने लगीं. उन की बातें सुन कर मैं उन के पास गया और उन का चेहरा अपने हाथों में ले कर माथा चूम कर बोला, ‘‘आप का आत्मसम्मान और प्यार दोनों ही मेरे लिए सहेजने और पूजा करने के योग्य हैं. आप से दूर होना मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, पर शायद यही सही है. यह अंतर्दाह हमारी नियति है.’’

Online Hindi Story : गलती का एहसास

Online Hindi Story : सुबह से ही घर का माहौल थोड़ा गरम था. महेश की अपने पिता से रात को किसी बात पर अनबन हो गई थी. यह पहली बार नहीं हुआ था.

ऐसा अकसर ही होता था। महेश के विचार अपने पिता के विचारों से बिलकुल अलग थे पर महेश अपने पिता को ही अपना आदर्श मानता था और उन से बहुत प्रेम भी करता था.

महेश बहुत ही साफदिल इंसान था. किसी भी तरह के दिखावे या बनावटीपन की उस की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी.

महेश के पिता मनमोहन राव लखनऊ के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. बड़ेबड़े लोगों के साथ उन का उठनाबैठना था. उन्होंने अपनी मेहनत से कपड़ों का बहुत बड़ा कारोबार खड़ा किया था. इस बात का उन्हें बहुत गुमान भी था और होता भी क्यों नहीं, तिनके से ताज तक का सफर उन्होंने अकेले ही तय किया था.

महेश को इस बात का बिलकुल घमंड नहीं था. अपने मातापिता की इकलौती संतान होने का फायदा उस ने कभी नहीं उठाया था. महेश की मां रमा ने उस की बहुत अच्छी परवरिश की थी. उस में संस्कारों की कोई कमी नहीं थी. हर किसी का आदरसम्मान करना और जरूरतमंदों के लिए दिल में दया रखना उस का स्वभाव था. वह घर के नौकरों से भी बहुत तमीज और सलीके से बात करता था. उस के स्वभाव के कारण वह अपने दोस्तों में भी बहुत प्रिय था.

आधी रात को भी अगर कोई परेशानी में होता था तो एक फोन आने पर महेश तुरंत उस की मदद के लिए पहुंच जाता था. किसी के काम आ कर उस की सहायता कर के महेश को बहुत सुकून मिलता था.

11 दिसंबर का दिन था. दोहरी खुशी का अवसर था. महेश के पिता मनमोहन राव का जन्मदिन था और साथ में उन की नई फैक्टरी का उद्घाटन भी था. इस अवसर पर घर में बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन किया गया था.

महेश की मां ने सुबह ही उस को चेतावनी देते हुए कहा,”शाम को मेहमानों के आने से पहले घर जल्दी आ जाना.”

महेश देर से घर नहीं आता था, पर औफिस के बाद दोस्तों के साथ कभी इधरउधर चला भी गया तो घर आने में थोड़ी देर हो जाती थी.

अपने पिता का इतना बड़ा कारोबार होने के बाद भी महेश एक मैगजीन के लिए फोटोग्राफी का काम करता था. उसे इस काम में शुरू से ही दिलचस्पी थी और उस ने तय किया था कि अपने काम से ही एक दिन खुद की एक पहचान बनाएगा.

उस की सैलरी बहुत ज्यादा नहीं थी पर महेश को बहुत ज्यादा की ख्वाहिश कभी रही भी नहीं. वह बहुत थोड़े में ही संतुष्ट होने वाला इंसान था.

शाम होने को आई थी. मेहमानों का आगमन शुरू हो गया था. महेश भी औफिस से आ कर अपने कमरे में तैयार होने चला गया था.

मनमोहन राव और उन की पत्नी रमा मुख्यद्वार पर मेहमानों का स्वागत करने के लिए खड़े थे. महेश भी तैयार हो कर आ गया था. थोड़ी ही देर में उन का बगीचा मेहमानों की उपस्थिति से रौनक हो चुका था. महेश की मां के बहुत जोर दे कर बोलने पर भी महेश ने अपने किसी दोस्त को पार्टी में आने का आमंत्रण नहीं दिया था.

टेबल पर केक रख दिया गया था. महेश के पिता ने केक काट कर पहला टुकड़ा अपनी पत्नी रमा को खिलाया फिर दूसरा टुकड़ा ले कर वह बेटे को खिलाने लगे तो महेश ने उन के हाथ से केक ले लिया और उन्हें खिला दिया.

फिर अपने पिता के पैर छू कर बोला,”जन्मदिन की बहुतबहुत शुभकामनाएं पिताजी.”

मनमोहन राव ने बेटे को सीने से लगा लिया. महेश की मां यह सब देख कर बहुत खुश हो रही थीं.

बहुत कम ही अवसर होते थे जब बापबेटे का यह स्नेह देखने को मिलता था, नहीं तो विचारों में मतभेद के कारण दोनों में बात करतेकरते बहस शुरू हो जाती थी और बातचीत का सिलसिला कई दिनों तक बंद रहता था.

वेटर स्नैक्स और ड्रिंक्स ले कर घूम रहे थे. अकसर बड़ीबड़ी पार्टियां और समारोहों में ऐसा ही होता है और इस तरह की पार्टीयों को ही आधुनिकता का प्रतीक माना जाता है.

इस तरह की पार्टियां महेश ने बचपन से ही अपने घर में देखी थी, इस के बावजूद भी वह इस तरह की पार्टियों का आदी नहीं था. ऐसे माहौल में उसे बहुत जल्द घुटन महसूस होने लगती थी.

महेश के पिता ने उस को आवाज दे कर बुलाया,”महेश, इधर आओ. विजय अंकल से मिलो, कब से तुम्हें पूछ रहे हैं.” विजय अंकल मनमोहन राव के बहुत करीबी मित्रों में से एक थे और उन का भी लखनऊ में अच्छाखासा कारोबार फैला था.

महेश ने “हैलो अंकल” बोल कर उन के पैर छुए तो वह बोलने लगे,”यार मनमोहन तुम्हारा बेटा तो हाईफाई करने के जमाने में भी पैर छूता है, आधुनिकता से कितनी दूर है. तुम्हें कितनी बार समझाया था कि इकलौता बेटा है तुम्हारा, इसे अमेरिका भेजो पढ़ाई के लिए, थोड़ा तो आधुनिक हो कर आता.”

महेश चुपचाप मुसकराता हुआ खड़ा था.

विजय अंकल फिर बोलने लगे,”और बताओ कैसी चल रही है तुम्हारी फोटोग्राफी की नौकरी? अब छोड़ो भी यह सब. क्या मिलता है यह सब कर के?

“अब अपने पिता के कारोबार की डोर संभालो. जितनी सैलरी तुम्हें मिलती है उतनी तो तुम्हारे पिता घर के नौकरों में बांट देते हैं. अपने पिता की शख्सियत का तो खयाल रखो.”

पिता की शख्सियत की बात सुन कर महेश ने अपनी चुप्पी तोड़ने का निर्णय ले लिया था.

महेश बोला,”अंकल, काम को ले कर मेरा नजरिया जरा अलग है. काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता और मुझे नहीं लगता कि मैं ने आज तक ऐसा कोई भी काम किया है जिस से
मेरे पिताजी की छवि या उन की शख्सियत को कोई हानि पहुंची हो.

“फोटोग्राफी मेरा शौक है. इस काम को करने से मुझे खुशी मिलती है और रही बात पैसों की, तो ज्यादा पैसों की ना मुझे जरूरत है और ना ही कोई चाह,” बोलतेबोलते महेश की आवाज ने जोर पकड़ लिया था.

मनमोहन राव को महेश का इतने खुले शब्दों में बात करना पसंद नहीं आया.

उन्होंने लगभग चिल्लाने के लहजे में बोला,”चुप हो जाओ महेश. यह कोई तरीका है बात करने का? अपनी इस बदतमीजी के लिए तुम्हें अभी माफी मांगनी होगी.”

महेश ने साफ इनकार करते हुए कहा,”माफी किस बात की पिताजी?
मैं ने कोई गलती नहीं करी है, सिर्फ अपनी बात रखी है.

“आप ही बताइए कि मैं ने आज तक ऐसा कौन सा काम किया है जिस की वजह से आप को शर्मिंदा होना पड़ा हो.”

मनमोहन राव बोले,”मैं कुछ नहीं सुनना चाहता महेश, मेरे प्रतिद्वंदी भी इस पार्टी में मौजूद हैं. सब के सामने मेरा मजाक मत बनाओ.”

महेश बोला,”मुझे किसी की परवाह नहीं है, पिताजी कि कौन देख रहा है और कौन क्या सोच रहा है? मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप मुझे समझो.

“मैं ने जब से होश संभाला है तब से आज तक उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब आप मुझे समझोगे. इंसान बड़ा काम या बड़ा कारोबार कर के ही बड़ा नहीं होता पिताजी. छोटेछोटे काम कर के भी इंसान अपनी एक पहचान बना सकता है. बड़े बनने का सफर भी तो छोटे सफर से ही तय होती है. इस बात का उदाहरण तो आप खुद भी हैं पिताजी, फिर आप क्यों नहीं समझते?”

मनमोहन राव का सब्र खत्म हो चुका था. अब बात उन्हें अपनी प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचने जैसी लग रही थी.

उन्होंने महेश से कहा,”तुम या तो विजय अंकल से माफी मांगो या अभी इसी वक्त घर से निकल जाओ.”

महेश की मां रमा जो इतनी देर से दूर खड़े हो कर सब देखसुन रही थीं, सोचने लगीं कि पति की प्रतिष्ठा का खयाल रखना जरूरी है पर बेटे के आत्मसम्मान को चोट पहुंचा कर नहीं।

वे पति से बोलीं,”यह क्या बोल रहे हो आप? इतनी सी बात के लिए कोई अपनी इकलौती औलाद को घर से जाने के लिए कहता है क्या?”

मनमोहन राव को जब गुस्सा आता था तब वे किसी की भी नहीं सुनते थे. हमेशा की तरह उन्होंने रमा को बोल कर चुप करा दिया था.

महेश बोला,”मुझे नहीं पता था पिताजी की आप को अपने बेटे से ज्यादा इन बाहरी लोगों की परवाह है,
जो आज आप के साथ सिर्फ आप की शख्सियत की वजह से हैं.

“यहां खड़ा हुआ हरएक इंसान आप के लिए अपने दिल में इज्जत लिए नहीं खड़ा है, बल्कि अपने दिमाग में आप से जुड़ा नफा और नुकसान लिए खड़ा है. इस सचाई को आप स्वीकार नहीं करना चाहते,” ऐसा बोल कर महेश मां के पास आया और पैर छू कर बोला,”चलता हूं मां, तुम अपना खयाल रखना.”

रमा पति से गुहार लगाती रही मगर मनमोहन राव ने एक नहीं सुनी.

वे चिल्लाते हुए बोले,”जाओ तुम्हारी हैसियत ही क्या है मेरे बिना. 4 दिन में वापस आओगे ठोकरें खा कर.”

हंसीखुशी भरे माहौल का अंत इस तरह से होगा यह किसी ने कल्पना नहीं करी थी.

इस घटना को पूरे 5 वर्ष बीत चुके थे पर ना महेश वापस आया था और ना ही उस की कोई खबर आई थी. बेटे के जाने के गम में रमा की तबीयत दिनबदिन खराब होती जा रही थी. वे अकसर बीमार रहती थीं. उन की जिंदगी से खुशी और चेहरे से हंसी हमेशा के लिए चली गई थी.

मनमोहन राव को भी बेटे के जाने का बहुत अफसोस था. उस दिन की घटना के लिए उन्होंने अपनेआप को ना जाने कितनी बार कोसा था.

एक मां को उस के बेटे से दूर करने का दोषी भी वे खुद को ही मानते थे. अकेले में महेश को याद कर के कई बार वे रो भी लेते थे.

एक मां के लिए उस की औलाद का उस से दूर जाना बहुत बड़े दुख का कारण बन जाता है पर एक पिता के लिए उस के जवान बेटे का घर छोड़ कर चले जाना किसी सदमे से कम नहीं होता.

रमा और कमजोर ना पड़ जाए इसीलिए उस के सामने मनमोहन राव खुद को कारोबार में व्यस्त रखने का दिखावा करते थे. वे अकसर रमा को यह बोल कर शांत कराते थे कि आज नहीं तो कल आ ही जाएगा तुम्हारा बेटा.

रमा अपने मन में सोचती कि मैं मां हूं उस की, मुझे पता है वह स्वाभिमानी और दृढ़निश्चयी है. एक बार जो ठान लेता है वह कर के ही शांत होता है.

अचानक एक दिन फोन की घंटी बजी। सुबह के 10 बज रहे थे. रमा दूसरे कमरे में थीं।

नौकर ने फोन उठाया और जोर से चिल्लाया,”मैडममैडम…”

रमा एकदम से चौंक गईं। दूसरे कमरे से ही नौकर को चिल्लाते हुए बोलीं,”क्यों चीख रहे हो? किस का फोन है?”

“छोटे साहब का फोन है मैडम,”नौकर बोला.

रमा को अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था.

वे फोन की तरफ लपकीं और नौकर के हाथ से फोन लगभग छीनते हुए ले कर बोलीं,”हेलो, महेश बेटा… कैसे हो बेटे? 5 साल लगा दी अपनी मां को याद करने में? घर वापस कब आ रहे हो बेटा? तू ठीक तो है ना?”

महेश बोला,”बसबस मां, तुम रुकोगी तब तो कुछ बोल पाऊंगा ना मैं. पिताजी कैसे हैं मां? आप दोनों की तबीयत तो ठीक है ना?

“आप दोनों की खबर लेता रहता था मैं, पर आज इतने सालों बाद आप की आवाज सुन कर मन को बहुत तसल्ली हो गई मां…

“पिताजी से बात कराओ ना,”महेश ने आग्रह किया तो रमा बोलीं,”वे औफिस में हैं बेटा.

“तू सब कुछ छोड़, पहले बता घर वापस कब आ रहा है? कहां है तू ?
मैं अभी ड्राइवर को भेजती हूं तुझे लाने के लिए…”

महेश हंसते हुए बोला,”मैं लंदन में हूं मां.”

“लंदन में…” आश्चर्य से बोलीं रमा,”बेटा, वहां क्यों चला गया?
तू ठीक तो है ना? किसी तकलीफ में तो नहीं हो ना?”

अकसर जब औलादें अपने मातापिता से दूर हो जाती हैं किसी कारण से तो ऐसी ही चिंता उन्हें घेरे रहती हैं कि वे किसी गलत संगत में ना पड़ जाएं, अकेले खुद को कैसे संभालेंगे? रमा के बारबार बीमार रहने की वजह भी यही सब चिंताएं थीं.

महेश सोचने लगा कि मां ने 5 साल मेरे बिना कैसे निकाले होंगे पता नहीं. मां की बातों से उस की फिक्र साफ झलक रही थी.

“मेरी बात सुनो मां,” महेश बोला,”घर से निकलने के बाद मैं 2 साल लखनऊ में ही था. जिस मैगजीन के लिए मैं काम करता था, उस की तरफ से ही मुझे 3 साल पहले एक प्रोजैक्ट के लिए लंदन भेजा गया था. मेरा प्रोजैक्ट बहुत ही सफल रहा.

“यहां लंदन में मेरे काम को बहुत ही सराहा गया और अगले महीने यहां एक पुरस्कार समारोह का आयोजन
है जिस में तुम्हारे बेटे को ‘बैस्ट फोटोग्राफर औफ द ईयर’ का पुरस्कार मिलने वाला है.

“मां, आप के और पिताजी के आशीर्वाद और मेरी इतनी सालों की मेहनत का परिणाम मुझे इस पुरस्कार के रूप में मिलने जा रहा है. मेरी बहुत इच्छा है कि इस अवसर पर मेरा परिवार मेरे मातापिता मेरे साथ रहें.

“मेरी जिंदगी की इतनी बड़ी खुशी को बांटने के लिए आज मेरे साथ यहां कोई नहीं है मां,” बोलतेबोलते महेश का गला भर आया था.

उधर रमा की आंखों से निकले आंसूओं ने भी उस के आंचल को भिगो दिया था और उन का दिल खुशी से चिल्लाने को कर रहा था कि मेरे बेटे की हैसियत देखने वालो देखो, आज अपनी मेहनत से मेरा बेटा किस मुकाम पर पहुंचा है. दूसरे देश में जा कर दूसरे लोगों के बीच में अपने काम से अपनी पहचान बनाना अपनेआप में बहुत बड़ी जीत का प्रमाण है.

महेश ने आगे बोला,”मां, आप के और पिताजी के लिए लंदन की टिकट भेज रहा हूं. पिताजी को ले कर जल्दी यहां आ जाओ मां.”

“हां बेटा, हम जरूर आएंगे,” रमा ने कहा,”कौन से मातापिता नहीं चाहेंगे कि दुनिया की नजरों में अपने बेटे के लिए इतना मानसम्मान और इज्जत देखना. तू ने हमें यह अवसर दिया है, हम जरूर आएंगे बेटा, जरूर आएंगे,”ऐसा कह कर रमा
ने फोन रख दिया।

आज रमा को अपनी परवरिश पर बहुत नाज हो रहा था. 5 साल की जुदाई का दर्द आज बेटे की सफलता के आगे उसे बहुत छोटा लग रहा था।

वे बहुत बेसब्री से महेश के पिता के घर वापस आने का इंतजार कर रही थीं. फोन पर इतनी बड़ी खुशखबरी वे नहीं देना चाहती थीं। वे चाह रही थीं कि बेटे की सफलता की खुशी को अपनी आंखों से उस के पिता के चेहरे पर देखें।

दरवाजे की घंटी बजी तो नौकर ने जा कर दरवाजा खोला। महेश के पिता जैसे ही घर के अंदर दाखिल हुए तो उन्होंने जो देखा उस की कल्पना नहीं की थी. रमा अपनी खोई हुई मुसकान चेहरे पर लिए हुए खड़ी थीं.

देखते ही बोले मनमोहन राव,”इतने साल बाद तुम्हारे चेहरे पर खुशी देख कर बहुत सुकून मिल रहा है. इस की वजह पता चलेगी कि नहीं? तुम्हारा बेटा वापस आ गया क्या?”

रमा बोलीं,”जी नहीं, बेटा नहीं आया पर आज दोपहर में उस का फोन आया था.”

इस खबर को सुनने का इंतजार वे भी
ना जाने कब से कर रहे थे।

“अच्छा कैसा है वह? मेरे बारे में पूछा कि नहीं उस ने? नाराज है क्या अब तक मेरे से?” उन की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी.

रमा बोलीं,”बिलकुल नाराज नहीं है और बारबार आप को ही पूछ रहा था। और सुनिए, लंदन में है हमारा बेटा.”

बेटा लंदन में है, सुन कर महेश के पिता सोफे से उठ खड़े हुए थे.

“जी हां, लंदन में और अगले महीने वहां एक बहुत बड़े पुरस्कार से सम्मानित होने जा रहा है आप का बेटा,” बोलते हुए मिठाई का एक टुकड़ा रमा ने ममनमोहन राव के मुंह
में डाल दिया था.

उन की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था.

“तुम सच कह रही हो ना रमा?”

रमा बोलीं,”जी हां, बिलकुल सच.”

मनमोहन राव ने रमा को सीने से लगा लिया और दोनों अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए.

रमा ने खुद को संभालते हुए कहा,”आगे तो सुनिए, हमारे लिए लंदन की टिकट भेज रहा है. पुरस्कार समारोह में वह हम दोनों के साथ शामिल होना चाहता है.”

मनमोहन राव के आंसुओं का बहाव और तेज हो चुका था. जिस बेटे को 5 साल पहले उन्होंने बोला था कि तुम्हारी हैसियत क्या है मेरे बिना, उस ने अपनी हैसियत से शख्सियत तक का सफर क्या बखूबी पूरा किया था.

आंसुओं ने उन के चेहरे को पूरी तरह से भिगो दिया था और बेटे से मिलने की तड़प में दिल मचल उठा था.

Best Family Drama : सत्ता की भूख में जब टूटा परिवार

Best Family Drama: रिटायरमैंट के बाद अपने ही जन्मस्थान में जा कर बसने का मेरा अनमोल सपना था. जहां पैदा हुआ, जहां गलियों में खेला व बड़ा हुआ, वह जगह कितनी ही यादों को जिंदा रखे है. कक्षा 12 तक पढ़ने के बाद जो अपना शहर छोड़ा तो बस मुड़ कर देख ही नहीं पाया. नौकरी सारा भारत घुमाती रही और मैं घूमता रहा. जितनी दूर मैं अपने शहर से होता गया उतना ही वह मेरे मन के भीतर कहीं समाता गया. छुट्टियों में जब घर आते तब सब से मिलने जाते रहे. सभी आवभगत करते रहे, प्यार और अपनत्व से मिलते रहे. कितना प्यार है न मेरे शहर में. सब कितने प्यार से मिलते हैं, सुखदुख पूछते हैं. ‘कैसे हो?’ सब के होंठों पर यही प्रश्न होता है.

रिटायरमैंट में सालभर रह गया. बच्चों का ब्याह कर, उन के अपनेअपने स्थानों पर उन्हें भेज कर मैं ने गंभीरता से इस विषय पर विचार किया. लंबी छुट्टी ले कर अपने शहर, अपने रिश्तेदारों के साथ थोड़ाथोड़ा समय बिता कर यह सर्वेक्षण करना चाहा कि रहने के लिए कौन सी जगह उपयुक्त रहेगी, घर बनवाना पड़ेगा या बनाबनाया ही कहीं खरीद लेंगे.

मुझे याद है, पिछली बार जब मैं आया था तब विजय चाचा के साथ छोटे भाई की अनबन चल रही थी. मैं ने सुलह करवा कर अपना कर्तव्य निभा लिया था. छोटी बूआ और बड़ी बूआ भी ठंडा सा व्यवहार कर रही थीं. मगर मेरे साथ सब ने प्यार भरा व्यवहार ही किया था. अच्छा नहीं लगा था तब मुझे चाचाभतीजे का मनमुटाव.

इस बार भी कुछ ऐसा ही लगा तो पत्नी ने समझाया, ‘‘जहां चार बरतन होते हैं तो वे खड़कते ही हैं. मैं तो हर बार देखती हूं. जब भी घर आओ किसी न किसी से किसी न किसी का तनाव चल रहा होता है. 4 साल पहले भी विजय चाचा के परिवार से अबोला चल रहा था.’’
‘‘लेकिन हम तो उन से मिलने गए न. तुम चाची के लिए साड़ी लाई थीं.’’

‘‘तब छोटी का मुंह सूज गया था. मैं ने बताया तो था आप को. साफसाफ तो नहीं मगर इतना इशारा आप के भाई ने भी किया था कि जो उस का रिश्तेदार है वह चाचा से नहीं मिल सकता.’’
‘‘अच्छा? मतलब मेरा अपना व्यवहार, मेरी अपनी बुद्धि गई भाड़ में. जिसे छोटा पसंद नहीं करेगा उसे मुझे भी छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘और इस बार छोटे का परिवार विजय चाचा के साथ तो घीशक्कर जैसा है. लेकिन बड़ी बूआ के साथ नाराज चल रहा है.’’
‘‘वह क्यों?’’

‘‘आप खुद ही देखसुन लीजिए न. मैं अपने मुंह से कुछ कहना नहीं चाहती. कुछ कहा तो आप कहेंगे कि नमकमिर्च लगा कर सुना रही हूं.’’

पत्नी का तुनकना भी सही था. वास्तव में आंखें बंद कर के मैं किसी भी औरत की बात पर विश्वास नहीं करता, वह चाहे मेरी मां ही क्यों न हो. अकसर औरतें ही हर फसाद और कलहक्लेश का बीज रोपती हैं. 10 भाई सालों तक साथसाथ रहते हैं लेकिन 2 औरतें आई नहीं कि सब तितरबितर. मायके में बहनों का आपस में झगड़ा हो जाएगा तो जल्दी ही भूल कर माफ भी कर देंगी और समय पड़ने पर संगसंग हो लेंगी लेकिन ससुराल में भाइयों में अनबन हो जाए तो उस आग में सारी उम्र घी डालने का काम करेंगी. अपनी मां को भी मैं ने अकसर बात घुमाफिरा कर करते देखा है.

नौकरी के सिलसिले में लगभग 100-200 परिवारों की कहानी तो बड़ी नजदीक से देखीसुनी ही है मैं ने. हर घर में वही सब. वही अधिकार का रोना, वही औरत का अपने परिवार को ले कर सदा असुरक्षित रहना. ज्यादा झगड़ा सदा औरतें ही करती हैं.

मेरी पत्नी शुभा यह सब जानती है इसीलिए कभी कोई राय नहीं देती. मेरे यहां घर बना कर सदा के लिए रहने के लिए भी वह तैयार नहीं है. इसीलिए चाहती है लंबा समय यहां टिक कर जरा सी जांचपड़ताल तो करूं कि दूर के ढोल ही सुहावने हैं या वास्तव में यहां पे्रम की पवित्र नदी, जलधारा बहती है. कभीकभी कोई आया और उस से आप ने लाड़प्यार कर लिया, उस का मतलब यह तो नहीं कि लाड़प्यार करना ही उन का चरित्र है. 10-15 मिनट में किसी का मन भला कैसे टटोला जा सकता है. हमारे खानदान के एक ताऊजी हैं जिन से हमारा सामना सदा इस तरह होता रहा है मानो सिर पर उन की छत न होती तो हम अनाथ  ही होते. सारे काम छोड़छाड़ कर हम उन के चरणस्पर्श करने दौड़ते हैं. सब से बड़े हैं, इसलिए छोटीमोटी सलाह भी उन से की जाती है. उम्रदराज हैं इसलिए उन की जानपहचान का लाभ भी अकसर हमें मिलता है. राजनीति में भी उन का खासा दखल है जिस वजह से अकसर परिवार का कोई काम रुक जाता है तो भागेभागे उन्हीं के पास जाते हैं हम, ‘ताऊजी यह, ताऊजी वह.’

हमें अच्छाखासा सहारा लगता है उन का. बड़ेबुजुर्ग बैठे हों तो सिर पर एक आसमान जैसी अनुभूति होती है और वही आसमान हैं वे ताऊजी. हमारे खानदान में वही अब बड़े हैं. उन का नाम हम बड़ी इज्जत, बड़े सम्मान से लेते हैं. छोटा भाई इस बार कुछ ज्यादा ही परेशान लगा. मैं ताऊजी के लिए शाल लाया था उपहार में. शुभा से कहा कि वह शाम को तैयार रहे, उन के घर जाना है. छोटा भाई मुझे यों देखने लगा, मानो उस के कानों में गरम सीसा डाल दिया हो किसी ने. शायद इस बार उन से भी अनबन हो गई हो, क्योंकि हर बार किसी न किसी से उस का झगड़ा होता ही है.

‘‘आप का दिमाग तो ठीक है न भाई साहब. आप ताऊ के घर शाल ले कर जाएंगे? बेहतर है मुझे गोली मार कर मुझ पर इस का कफन डाल दीजिए.’’
स्तब्ध तो रहना ही था मुझे. यह क्या कह रहा है, छोटा. इस तरह क्यों?
‘‘बाहर रहते हैं न आप, आप नहीं जानते यहां घर पर क्याक्या होता है. मैं पागल नहीं हूं जो सब से लड़ता रहता हूं. मुकदमा चल रहा है विजय चाचा का और मेरा ताऊ के साथ. और दोनों बूआ उन का साथ दे रही हैं. सबकुछ है ताऊ के पास. 10 दुकानें हैं, बाजार में 4 कोठियां हैं, ट्रांसपोर्ट कंपनी है, शोरूम हैं. औलाद एक ही है. और कितना चाहिए इंसान को जीने के लिए?’’

‘‘तो? सच है लेकिन उन के पास जो है वह उन का अपना है. इस में हमें कोई जलन नहीं होनी चाहिए.’’
‘‘हमारा जो है उसे तो हमारे पास रहने दें. कोई सरकारी कागज है ताऊ के पास. उसी के बल पर उन्होंने हम पर और विजय चाचा पर मुकदमा ठोंक रखा है कि हम दोनों का घर हमारा नहीं है, उन का है. नीचे से ले कर ऊपर तक हर जगह तो ताऊ का ही दरबार है. हर वकील उन का दोस्त है और हर जज, हर कलैक्टर उन का यार. मैं कहां जाऊं रोने? बच्चा रोता हुआ बाप के पास आता है. मेरा तो गला मेरा बाप ही काट रहा है. ताऊ की भूख इतनी बढ़ चुकी है कि …’’

आसमान से नीचे गिरा मैं. मानो समूल अस्तित्व ही पारापारा हो कर छोटेछोटे दानों में इधरउधर बिखर गया. शाल हाथ से छूट गया. समय लग गया मुझे अपने कानों पर विश्वास करने में. क्या कभी मैं ऐसा कर पाऊंगा छोटे के बच्चों के साथ? करोड़ों का मानसम्मान अगर मुझे मेरे बच्चे दे रहे होंगे तो क्या मैं लाखों के लिए अपने ही बच्चों के मुंह का निवाला छीन पाऊंगा कभी? कितना चाहिए किसी को जीने के लिए, मैं तो आज तक यही समझ नहीं पाया. रोटी की भूख और 6 फुट जगह सोने को और मरणोपरांत खाक हो जाने के बाद तो वह भी नहीं. क्यों इतना संजोता है इंसान जबकि कल का पता ही नहीं. अपने छोटे भाई का दर्द मैं ही समझ नहीं पाया. मैं भी तो कम दोषी नहीं हूं न. मुझे उस की परेशानी जाननी तो चाहिए थी.
मन में एक छोटी सी उम्मीद जागी. शाल ले कर मैं और शुभा शाम ताऊजी के घर चले ही गए, जैसे सदा जाते थे इज्जत और मानसम्मान के साथ. स्तब्ध था मैं उन का व्यवहार देख कर.
‘‘भाई की वकालत करने आए हो तो मत करना. वह घर और विजय का घर मेरे पिता ने मेरे लिए खरीदा था.’’
‘‘आप के पिता ने आप के लिए क्या खरीदा था, क्या नहीं, उस का पता हम कैसे लगाएं. आप के पिता हमारे पिता के भी तो पिता ही थे न. किसी पिता ने अपनी किस औलाद को कुछ भी नहीं दिया और किस को इतना सब दे दिया, उस का पता कैसे चले?’’
‘‘तो जाओ, पता करो न. तहसील में जाओ… कागज निकलवाओ.’’
‘‘तहसीलदार से हम क्या पता करें, ताऊजी. वहां तो चपरासी से ले कर ऊपर तक हर इंसान आप का खरीदा हुआ है. आज तक तो हम हर समस्या में आप के पास आते रहे. अब जब आप ही समस्या बन गए तो कहां जाएंगे? आप बड़े हैं. मेरी भी उम्र  60 साल की होने को आई. इतने सालों से तो वह घर हमारा ही है, आज एकाएक वह आप का कैसे हो गया? और माफ कीजिएगा, ताऊजी, मैं आप के सामने जबान खोल रहा हूं. क्या हमारे पिताजी इतने नालायक थे जो दादाजी ने उन्हें कुछ न दे कर सब आप को ही दे दिया और विजय चाचा को भी कुछ नहीं दिया?’’
‘‘मेरे सामने जबान खोलना तुम्हें भी आ गया, अपने भाई की तरह.’’
‘‘मैं गूंगा हूं, यह आप से किस ने कह दिया, ताऊजी? इज्जत और सम्मान करना जानता हूं तो क्या बात करना नहीं आता होगा मुझे. ताऊजी, आप का एक ही बच्चा है और आप भी कोई अमृत का घूंट पी कर नहीं आए. यहां की अदालतों में आप की चलती है, मैं जानता हूं मगर प्रकृति की अपनी एक अदालत है, जहां हमारे साथ अन्याय नहीं होगा, इतना विश्वास है मुझे. आप क्यों अपने बच्चों के लिए बद्दुआओं की लंबीचौड़ी फेहरिस्त तैयार कर रहे हैं? हमारे सिर से यदि आप छत छीन लेंगे तो क्या हमारा मन आप का भला चाहेगा?’’
‘‘दिमाग मत चाटो मेरा. जाओ, तुम से जो बन पाए, कर लो.’’
‘‘हम कुछ नहीं कर सकते, आप जानते हैं, तभी तो मैं समझाने आया हूं, ताऊजी.’’
ताऊजी ने मेरा लाया शाल उठा कर दहलीज के पार फेंक दिया और उठ कर अंदर चले गए, मानो मेरी बात भी सुनना अब उन्हें पसंद नहीं. हम अवाक् खड़े रहे. पत्नी शुभा कभी मुझे देखती और कभी जाते हुए ताऊजी की पीठ को. अपमान का घूंट पी कर रह गए हम दोनों.
85 साल के वृद्ध की आंखों में पैसे और सत्ता के लिए इतनी भूख. फिल्मों में तो देखी थी, अपने ही घर में स्वार्थ का नंगा नाच मैं पहली बार देख रहा था. सोचने लगा, मुझे वापस घर आना ही नहीं चाहिए था. सावन के अंधे की तरह यह खुशफहमी तो रहती कि मेरे शहर में मेरे अपनों का आपस में बड़ा प्यार है.
उस रात बहुत रोया मैं. छोटे भाई और विजय चाचा की लड़ाई में मैं भावनात्मक रूप से तो उन के साथ हूं मगर उन की मदद नहीं कर सकता क्योंकि मैं अपने भारत देश का एक आम नागरिक हूं जिसे दो वक्त की रोटी कमाना ही आसान नहीं, वह गुंडागर्दी और बदमाशी से सामना कैसे करे. बस, इतना ही कह सकता हूं कि ताऊ जैसे इंसान को सद्बुद्धि प्राप्त हो और हम जैसों को सहने की ताकत, क्योंकि एक आम आदमी सहने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता.

Hindi Story- रिश्तों का सच : क्या सुधर पाया ननदभाभी का रिश्ता

Hindi Story : घर में घुसते ही चंद्रिका के बिगड़ेबिगड़े से तेवर देख रवि भांपने लगा था कि आज कुछ हुआ है, वरना रोज मुसकरा कर स्वागत करने वाली चंद्रिका का चेहरा यों उतरा हुआ न होता. ‘‘लो, दीदी का पत्र आया है,’’ चंद्रिका के बढ़े हुए हाथों पर सरसरी सी नजर डाल रवि बोला, ‘‘रख दो, जरा कपड़ेवपड़े तो बदल लूं, पत्र कहीं भागा जा रहा है क्या?’’

चंद्रिका की हैरतभरी नजरों का मुसकराहट से जवाब देता हुआ रवि बाथरूम में घुस गया. चंद्रिका के उतरे हुए चेहरे का राज भी उस पर खुल गया था. रवि मन ही मन सोच कर मुसकरा उठा, ‘सोच रही होगी कि आज मुझे हुआ क्या है, दीदी का पत्र हर बार की तरह झपट कर जो नहीं लिया.’ हर साल गरमी की छुट्टियों में दीदी के आने का सिलसिला बहुत पुराना था. परंतु विवाह के 5 वर्षों में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो जब उन के आने को ले कर चंद्रिका से उस की जोरदार तकरार न हुई हो. बेचारी दीदी, जो इतनी आस और प्यार के साथ अपने एकलौते, छोटे भाई के घर थोड़े से मान और सम्मान की आशा ले कर आती थीं, चंद्रिका के रूखे बरताव व उन दोनों के बीच होती तकरार से अब चंद दिनों में ही लौट जाती थीं.

दीदी से रवि का लगाव कम होता भी, तो कैसे? दीदी 10 वर्ष की ही थीं, जब मां रवि को जन्म देते समय ही उसे छोड़ दूसरी दुनिया की ओर चल दी थीं. ‘दीदी न होतीं तो मेरा क्या होता?’ यह सोच कर ही उस की आंखें भर उठतीं. दीदी उस की बड़ी बहन बाद में थी, मां जैसी पहले थीं. कैसे भूल जाता रवि बचपन से ले कर जवानी तक के उन दिनों को, जब कदमकदम पर दीदी ममता और प्यार की छाया ले उस के साथ चलती रही थीं.

दीदी तो विवाह भी न करतीं, परंतु रिश्तेदारों के तानों और बेटी की बढ़ती उम्र से चिंतित पिताजी के चेहरे पर बढ़ती झुर्रियों को देखने के बाद रवि ने अपनी कसम दे कर दीदी को विवाह के लिए मजबूर कर दिया था. उन के विवाह के समय वह बीए में आया ही था. विवाह के बाद भी बेटे की तरह पाले भाई की तड़प दीदी के अंदर से गई नहीं थी, उस की जरा सी खबर पाते ही दौड़ी चली आतीं. वह भी उन के जाने के बाद कितना अकेला हो गया था. यह तो अच्छा हुआ कि जीजाजी अच्छे स्वभाव के थे. दीदी की तड़प समझते थे, भाईबहन के प्यार के बीच कभी बाधा नहीं बने थे.

चंद्रिका को भी तो वह ही ढूंढ़ कर लाई थीं. उन दिनों की याद से रवि मुसकरा उठा. दीदी उस के विवाह की तैयारी में बावरी हो उठी थीं. ऐसा भी नहीं था कि चंद्रिका को इन बातों की जानकारी न हो, विवाह के शुरुआती दिनों में ही सारी रामकहानी उस ने सुना दी थी. विवाह के बाद जब पहली बार दीदी आईर् थीं तो चंद्रिका भी उन से मिलने के लिए बड़ी उत्साहित थी और स्वयं रवि तो पगला सा गया था. आखिर उस के विवाह के बाद वह पहली बार आ रही थीं. वह चाहता था भाई की सुखी गृहस्थी देख वह खिल उठें.

पति के ढेरों आदेशनिर्देश पा कर चंद्रिका का उत्साह कुछ कम हो गया था, वह कुछ सहम सी भी गई थी. परंतु रवि तो अपनी ही धुन में था, चाहे कुछ हो जाए, दीदी को इतना सम्मान और प्यार मिलना चाहिए कि उन की ममता का जरा सा कर्ज तो वह उतार सके.

दीदी के आने के बाद उन दोनों के बीच चंद्रिका कहीं खो सी गई थी. उन दोनों को अपने में ही मस्त पा उन के साथ बैठ कर स्वयं भी उन की बातों में शामिल होने की कोशिश करती, पर रवि ऐसा मौका ही न देता. तब वह खीज कर रसोई में घुस खाना बनाने की कोशिश में लग जाती. मेहनत से बनाया गया खाना देख कर भी रवि उस पर नाराज हो उठता, ‘यह क्या बना दिया? पता नहीं है, दीदी को पालकपनीर की सब्जी अच्छी लगती है, शाही पनीर नहीं.’ फिर रसोई में काम करती चंद्रिका का हाथ पकड़ कर बाहर ला खड़ा करता और कहता, ‘आज तो दीदी के हाथ का बना हुआ ही खाऊंगा. वे कितना अच्छा बनाती हैं.’

तब भाईबहन चुहलबाजी करते हुए रसोई में मशगूल हो जाते और चंद्रिका बिना अपराध के ही अपराधी सी रसोई के बाहर खड़ी उन्हें देखती रहती. दीदी जरूर कभीकभी चंद्रिका को भी साथ लेने की कोशिश करतीं, लेकिन रवि अनजाने ही उन के बीच एक ऐसी दीवार बन गया था कि दोनों औपचारिकता से आगे कभी बढ़ ही न पाई थीं. उस समय तो किसी तरह चंद्रिका ने हालात से समझौता कर लिया था, लेकिन उस के बाद जब भी दीदी आतीं, वह कुछ तीखी हो उठती. सीधे दीदी से कभी कुछ नहीं कहा था, लेकिन रवि के साथ उस के झगड़े शुरू हो गए थे. दीदी भी शायद भांप गई थीं, इसीलिए धीरेधीरे उन का आना कम होता जा रहा था. इस बार तो पूरे एक वर्ष बाद आ रही थीं, पिछली बार उन के सामने ही चंद्रिका ने रवि से इतना झगड़ा किया कि वे बेचारी 4 दिनों में ही वापस चली गई थीं. जितने भी दिन वे रहीं, चंद्रिका ने बिस्तर से नीचे कदम न रखा, हमेशा सिरदर्द का बहाना बना अपने कमरे में ही पड़ी रहती.

एक दोपहर दीदी को अकेले काम में लगा देख भनभनाता हुआ रवि, चंद्रिका से लड़ पड़ा था. तब वह तीखी आवाज में बोली थी, ‘तुम क्या समझते हो, मैं बहाना कर रही हूं? वैसे भी तुम्हें और तुम्हारी दीदी को मेरा कोई काम पसंद ही कब आता है, तुम दोनों तो बातों में मशगूल हो जाओगे, फिर मैं वहां क्या करूंगी?’ बढ़तेबढ़ते बात तेज झगड़े का रूप ले चुकी थी. दीदी कुछ बोलीं नहीं, पर दूसरे ही दिन सुबह रवि द्वारा मिन्नतें करने के बाद भी चली गई थीं. उन के चले जाने के बाद भी बहुत दिनों तक उन दोनों के संबंध सामान्य न हो पाए थे, दीदी के इस तरह चले जाने के कारण वह चंद्रिका को माफ नहीं कर पाया था.

दोनों के बीच बढ़ते तनाव को देख अभी तक खामोशी से सबकुछ देख रहे पिताजी ने आखिरकार एक दिन रात को खाने के बाद टहलने के लिए निकलते समय उसे भी साथ ले लिया था. वे उसे समझाते हुए बोले थे, ‘पतिपत्नी के संबंध का अजीब ही कायदा होता है, इस रिश्ते के बीच किसी तीसरे की उपस्थिति बरदाश्त नहीं होती है…’ ‘लेकिन दीदी कोई गैर नहीं हैं,’ बीच में ही बात काटते हुए, रवि का स्वर रोष से भर उठा था.

‘बेटा, विवाह के बाद सब से नजदीकी रिश्ता पतिपत्नी का ही होता है. बाकी संबंध गौण हो जाते हैं. माना कि सभी संबंधों की अपनीअपनी अहमियत है, लेकिन किसी भी रिश्ते पर कोई रिश्ता हावी नहीं होना चाहिए, वरना कोई भी सुखी नहीं रहता. तुम्हीं बताओ, इतनी कोशिशों के बाद भी क्या तुम्हारी दीदी खुश है?’ समझातेसमझाते पिताजी सवाल सा कर उठे थे. ‘तो मैं क्या करूं? चंद्रिका की खुशी के लिए उन से सारे संबंध तोड़ लूं या फिर दीदी के लिए चंद्रिका से,’ रवि असमंजस में था, ‘आप तो जानते ही हैं कि दोनों ही मुझे कितनी प्रिय हैं.’

‘संबंध तोड़ने के लिए कौन कहता है,’ पिताजी धीरे से हंस पड़े थे, फिर गंभीर हो, बोले, ‘यह तो तुम भी मानते ही होगे कि चंद्रिका मन से बुरी या झगड़ालू नहीं है. मेरा कितना खयाल रखती है, तुम्हारे लिए भी आदर्श पत्नी सिद्ध हुई है.’ ‘फिर दीदी से ही उस की क्या दुश्मनी है?’ रवि के इस सवाल पर थोड़ी देर तक उसे गहरी नजरों से देखने के बाद वे बोले ‘कोई दुश्मनी नहीं है. याद करो, पहली बार वह भी कितनी उत्साहित थी. इस सब के लिए. अगर कोई दोषी है तो वह स्वयं तुम हो.’

‘मैं?’ सीधेसीधे अपने को अपराधी पा रवि अचकचा उठा था. ‘हां, तुम उन दोनों के बीच एक दीवार बन कर खड़े हो. कुछ करने का मौका ही कहां देते हो. आखिर वह तुम्हारी पत्नी है, वह तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, लेकिन तुम हो कि अपनी बहन के आते ही उस के पूरे के पूरे व्यक्तित्व को ही नकार देते हो,’ पिताजी सांस लेने के लिए तनिक रुके थे.

रवि सिर झुकाए चुप बैठा किसी सोच में डूबा सा था. ‘बेटा, मुझे बहुत खुशी है कि तुम्हारी दीदी और तुम में इतना स्नेह है. भाईबहन से कहीं अधिक तुम दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त हो, पर अपनी दोस्ती की सीमाओं को बढ़ाओ. अब चंद्रिका को भी इस में शामिल कर लो. यह उस का भी घर है. उसे तय करने दो कि वह अपने मेहमान का कैसे स्वागत करती है. विश्वास मानो, इस से तुम सब के बीच से तनाव और गलतफहमियों के बादल छंट जाएंगे. और तुम सब एकदूसरे के अधिक पास आ जाओगे.’

‘‘अंदर कितनी देर लगाओगे?’’ चंद्रिका की आवाज सुन वह चौंक उठा, ‘अरे, इतनी देर से मैं बाथरूम में ही बैठा हूं.’ झटपट नहा कर वह बाहर निकल आया. चाय और गरमागरम नाश्ते की प्लेट उस का इंतजार कर रही थी. इस दौरान वे खामोश ही रहे. जूठे कप व प्लेटें समेटती चंद्रिका की हैरत यह देख और बढ़ गई कि रवि पत्र को हाथ लगाए बगैर ही एक पत्रिका पढ़ने लगा है.

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’ चंद्रिका का चिंतित चेहरा देख कर अपनी हंसी को रवि ने मुश्किल से रोका, ‘‘हां, ठीक है, क्यों?’’ ‘‘फिर अभी तक दीदी का पत्र क्यों नहीं पढ़ा?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में वह लापरवाही से बोला, ‘‘तुम ने तो पढ़ा ही होगा, खुद ही बता दो, क्या लिखा है?’’

‘‘वे कल दोपहर की गाड़ी से आ रही हैं.’’ ‘‘अच्छा,’’ कह वह फिर पत्रिका पढ़ने में मशगूल हो गया. कुछ देर तक चंद्रिका वहीं खड़ी गौर से उसे देखती रही, फिर कमरे से बाहर निकल गई.

दूसरे दिन रविवार था. सुबहसुबह रवि को अखबार में खोया पा कर चंद्रिका बहुत देर तक खामोश न रह सकी, ‘‘दीदी आने वाली हैं. तुम्हें कुछ खयाल भी है?’’ ‘‘पता है,’’ अखबार में नजरें जमाए हुए ही वह बोला.

‘‘खाक पता है,’’ चंद्रिका झुंझला उठी थी, ‘‘कुछ सामान वगैरह लाना है या नहीं?’’ ‘‘घर तुम्हारा है, तुम जानो,’’ उस की झुंझलाहट पर वह खुद मुसकरा उठा.

कुछ देर तक उसे घूरने के बाद पैर पटकती हुई चंद्रिका थैला और पर्स ले बाहर निकल गई. ?जब वह लौटी तो भारी थैले के साथ पसीने से तरबतर थी. रवि आश्चर्यचकित था. वह दीदी की पसंद की एकएक चीज छांट कर लाई थी.

‘‘दोपहर के खाने में क्या बनाऊं?’’ सवालिया नजरों से उसे देखते हुए चंद्रिका ने पूछा. ‘‘तुम जो भी बनाओगी, लाजवाब ही होगा. कुछ भी बना लो,’’ रवि की बात सुन चंद्रिका ने उसे यों घूर कर देखा, जैसे उस के सिर पर सींग उग आए हों.

दोपहर से काफी पहले ही वह खाना तैयार कर चुकी थी. रवि की तेज नजरों ने देख लिया था कि सभी चीजें दीदी की पसंद की ही बनी हैं. वास्तव में वह मन ही मन पछता भी रहा था. उसे महसूस हो रहा था कि उस के बचकाने व्यवहार की वजह से ही दीदी और चंद्रिका इतने समय तक अजनबी बन परेशान होती रहीं.

‘‘ट्रेन का टाइम हो रहा है. स्टेशन जाने के लिए कपड़े निकाल दूं?’’ चंद्रिका अपने अगले सवाल के साथ सामने खड़ी थी. अपने को व्यस्त सा दिखाता रवि बोला, ‘‘उन्हें रास्ता तो पता है, औटो ले कर आ जाएंगी.’’ ‘‘तुम्हारा दिमाग तो सही है?’’ बहुत देर से जमा हो रहा लावा अचानक ही फूट कर बह निकला था, ‘‘पता है न कि वे अकेली आ रही हैं. लेने नहीं जाओगे तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. आखिर, तुम्हें हुआ क्या है?’’

‘‘अच्छा बाबा, जाता हूं, पर एक शर्त पर, तुम भी साथ चलो.’’ ‘‘मैं?’’ हैरत में पड़ी चंद्रिका बोली, ‘‘मैं तुम दोनों के बीच क्या करूंगी.’’

‘‘फिर मैं भी नहीं जाता.’’ उसे अपनी जगह से टस से मस न होते देख आखिर, चंद्रिका ने ही हथियार डाल दिए, ‘‘अच्छा उठो, मैं भी चलती हूं.’’

चंद्रिका को साथ आया देख दीदी पहले तो हैरत में पड़ीं, फिर खिल उठीं. शायद पिछली बार के कटु अनुभवों ने उन्हें भयभीत कर रखा था. स्टेशन पर चंद्रिका को भी देख एक पल में सारी शंकाएं दूर हो गईर्ं. वे खुशी से पैर छूने को झुकी चंद्रिका के गले से लिपट गईं.

रवि सोच रहा था, इतनी अच्छी तरह से तो वह घर में भी कभी नहीं मिली थी. ‘‘किस सोच में डूब गए?’’ दीदी का खिलखिलाता स्वर उसे गहरे तक खुशी से भर गया. सामान उठा वह आगेआगे चल दिया. चंद्रिका और दीदी पीछेपीछे बतियाती हुई आ रही थीं.

खाने की मेज पर भी रवि कम बोल रहा था. चंद्रिका ही आग्रह करकर के दीदी को खिला रही थी. हर बार चंद्रिका के अबोलेपन की स्थिति से शायद माहौल तनावयुक्त हो उठता था, इसीलिए दीदी अब जितनी सहज व खुश लग रही थीं, उतनी पहले कभी नहीं लगी थीं. खाने के बाद वह उठ कर अपने कमरे में आ गया. वे दोनों बहुत देर तक वहीं बैठी बातों में जुटी रहीं. कुछ देर बाद चंद्रिका कमरे में आ कर दबे स्वर में बोली, ‘‘यहां क्यों बैठे हो? जाओ, दीदी से कुछ बातें करो न.’’

‘‘तुम हो न, मैं कुछ देर सोऊंगा…’’ कहतेकहते रवि ने करवट बदल कर आंखें मूंद लीं. रात के खाने की तैयारी में चंद्रिका का हाथ बंटाने के लिए दीदी भी रसोई में ही आ गईं. रवि टीवी खोल कर बैठा था.

‘‘रवि की तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ रसोईघर से आता दीदी का स्वर सुन रवि के कान चौकन्ने हो गए. पलभर की खामोशी के बाद चंद्रिका का स्वर उभरा, ‘‘नहीं तो, आजकल औफिस में काम अधिक होने से ज्यादा थक जाते हैं, इसलिए थोड़े खामोश हो गए हैं. आप को बुरा लगा क्या?’’

‘‘अरे नहीं, इस में बुरा मानने की क्या बात है? वैसे भी तुम्हारा साथ ज्यादा भला लग रहा है. पहली बार ऐसा लग रहा है कि अपने मायके आई हूं. मां तो थीं नहीं, जिन से यहां आने पर मायके का एहसास होता. पिताजी और भाई का मानदुलार था तो, पर असली मायके का एहसास तो मां या भौजाई के प्यार और मनुहार से ही होता है.’’

‘‘दीदी, मुझे माफ कर दीजिए,’’ चंद्रिका ने हौले से कहा, ‘‘मैं ने आप के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया…’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है, हम ने तुम्हें अवसर ही कहां दिया था कि तुम अपना अच्छा या बुरा व्यवहार सिद्ध कर सको. खैर छोड़ो, इस बार जैसा सुकून मुझे पहले कभी नहीं मिला,’’ दीदी का स्वर संतुष्टिभरा था.

टीवी के सामने बैठे रवि का मन भी दीदी की खुशी और संतुष्टि देख चंद्रिका के प्रति प्यार और गर्व से भर उठा था. सुबह उस के उठने से पहले ही दीदी और चंद्रिका उठ कर काम के साथसाथ बातों में व्यस्त थीं. रात भी रवि तो सो गया था, वे दोनों जाने कितनी देर तक एकसाथ जागती रही थीं. जाने उन के अंदर कितनी बातें दबी पड़ी थीं, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं. रवि को एक बार फिर अपनी मूर्खता पर पछतावा हुआ. बिस्तर से उठ कर वह औफिस जाने की तैयारी में लग गया.

‘‘कहां जा रहे हो?’’ शीशे के सामने बाल संवार रहे रवि के हाथ अचानक चंद्रिका को देख रुक गए. ‘‘औफिस.’’

‘‘दीदी आई हैं, फिर भी?’’ चंद्रिका की हैरानी वाजिब थी. दीदी के लिए रवि पहले पूरे वर्ष की छुट्टियां बचा के रखता था. जितने भी दिन वह रहतीं, वे उन्हें घुमानेफिराने के लिए छुट्टियां ले कर घर बैठा रहता था. ‘‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेते? हम सब घूमने चलेंगे,’’ चंद्रिका जोर देते हुए बोली.

‘‘नहीं, इस बार छुट्टियां बचा रहा हूं, शरारतभरी नजर चंद्रिका के चेहरे पर डालता हुआ रवि बोला.’’ ‘‘क्यों?’’ चंद्रिका के सवाल के जवाब में उस ने उसे अपने पास खींच लिया, ‘‘क्योंकि इस बार मैं तुम्हें मसूरी घुमाने ले जा रहा हूं. अभी छुट्टी ले लूंगा, तो बाद में नही मिलेंगी.’’

चंद्रिका की आंखें भीग उठी थीं, शायद वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि रवि की जिंदगी और दिल में उस के लिए भी इतना प्यार छिपा हुआ है. अपने को संभाल आंखें पोंछती वह लाड़भरे स्वर में बोली, ‘‘मसूरी जाना क्या दीदी से अधिक जरूरी है? मुझे कहीं नहीं जाना, तुम्हें छुट्टी लेनी ही पड़ेगी.’’

‘‘अच्छा, ऐसा करता हूं, सिर्फ आज की छुट्टी ले लेता हूं,’’ वह समझौते के अंदाज में बोला. ‘‘लेकिन इस के बाद जितने भी दिन दीदी रहेंगी, तुम्हीं उन के साथ रहोगी.’’

‘‘मैं, अकेले?’’ चंद्रिका घबरा रही थी, ‘‘मुझ से फिर कोई गलती हो गई तो?’’ ‘‘तो क्या, उसे सुधार लेना. मुझे तुम पर पूरा विश्वास है,’’ मन ही मन सोचता जा रहा था रवि, ‘मैं भी तो अपनी गलती ही सुधार रहा हूं.’

वह रवि की प्यार और विश्वासभरी निगाहों को पलभर देखती रही, फिर हंस कर बोली, ‘‘अच्छा, अब छोड़ो, चल कर कम से कम आज की पिकनिक की तैयारी करूं.’’ दीदी पूरे 15 दिनों के लिए रुकी थीं, चंद्रिका और उन के बीच संबंध बहुत मधुर हो गए थे. इस बार पिताजी भी अधिक खुश नजर आ रहे थे. दीदी के जाने का दिन ज्योंज्यों नजदीक आ रहा था, चंद्रिका उदास होती जा रही थी.

आखिरकार, जीजाजी के बुलावे के पत्र ने उन के लौटने की तारीख तय कर दी. दौड़ीदौड़ी चंद्रिका बाजार जा कर दीदी के लिए साड़ी और जीजाजी के लिए कपड़े खरीद लाई थी. तरहतरह के पापड़ और अचार दीदी के मना करने के बावजूद उस ने बांध दिए थे. शाम की ट्रेन थी. चंद्रिका दीदी के साथ के लिए तरहतरह की चीजें बनाने में व्यस्त थी. रवि सामान पैक करती दीदी के पास आ बैठा. दीदी ने मुसकरा कर उस की तरफ देखा, ‘‘अब तुम कब आ रहे हो चंद्रिका को ले कर?’’

‘‘आऊंगा दीदी, जल्दी ही आऊंगा,’’ बैठी हुई दीदी की गोद में वह सिर रख लेट गया था, ‘‘तुम नाराज तो नहीं हो न?’’ ‘‘किसलिए?’’ उस के बालों में हाथ फेरती हुई दीदी एकाएक ही उस की बात सुन हैरत में पड़ गईं.

‘‘मैं तुम्हारे साथ पहले जितना समय नहीं बिता पाया न?’’ रवि बोला. ‘‘नहीं रे, बल्कि इस बार मैं यहां जितनी खुश रही हूं, उतनी पहले कभी नहीं रही. चंद्रिका के होते मुझे किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं हुई. एक बात बताऊं, मुझे बहुत डर लगता था. तेरे इतने प्यार जताने के बाद भी लगता था, मेरा भाई मुझ से अलग हो जाएगा. कभीकभी सोचती, शायद मेरे आने की वजह से ही चंद्रिका और तुम्हारे बीच झगड़ा होता है. तुझे देखने के लिए मन न तड़पता तो शायद यहां कभी आती ही नहीं.

‘‘चंद्रिका के इस बार के अच्छे व्यवहार ने मुझे एहसास दिलाया है कि भाई तो अपना होता ही है, पर भौजाई को अपना बनाना पड़ता है, क्योंकि वह अगर अपनी न बने तो धीरेधीरे भाई भी पराया हो जाता है. आज मैं सुकून महसूस कर रही हूं. चंद्रिका जैसी अच्छी भौजाई के होते मेरा भाई कभी पराया नहीं होगा. इस सब से भी बढ़ कर पता है, उस ने क्या दिया है मुझे?’’ ‘‘क्या?’’

‘‘मेरा मायका, जो मुझे पहले कभी नहीं मिला था. चंद्रिका ने मुझे वह सब दे दिया है,’’ दीदी की आंखें बरस उठी थीं, ‘‘चंद्रिका ने यह जो एहसान मुझ पर किया है, इस का कर्ज कभी नहीं चुका पाऊंगी.’’ ‘‘खाना तैयार है,’’ चंद्रिका कब कमरे में आई, पता ही न चला. लेकिन उस की भीगीभीगी आंखें बता रही थीं कि वह बहुतकुछ सुन चुकी थी. गर्व से निहारती रवि की आंखों में झांक चंद्रिका बोली, ‘‘कैसे भाई हो, पता नहीं, आज सुबह से दीदी ने कुछ नहीं खाया. चलो, खाना ठंडा हो रहा है.’’

दीदी को ट्रेन में बिठा रवि उन का सामान व्यवस्थित करने में लगा हुआ था. चंद्रिका दीदी के साथ ही बैठी उन्हें दशहरे की छुट्टियों में आने के लिए मना रही थी. हमेशा उतरे मुंह से वापस होने वाली दीदी का चेहरा इस बार चमक रहा था. ट्रेन की सीटी की आवाज के साथ ही रवि ने कहा, ‘‘उतरो चंद्रिका, ट्रेन चलने वाली है.’’

चंद्रिका दीदी से लिपट गई, ‘‘जल्दी आना और जाते ही पत्र लिखना.’’ ‘‘अब पहले तुम दोनों मेरे घर आना,’’ भीगी आंखों के साथ दीदी मुसकरा रही थीं.

उन के नीचे उतरते ही ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया. ‘‘दीदी, पत्र जरूर लिखना,’’ दोनों अपनेअपने रूमाल हिला रही थीं. ट्रेन गति पकड़ स्टेशन से दूर होती जा रही थी. चंद्रिका ने पलट कर रवि की तरफ देखा. रवि की गर्वभरी आंखों को निहारती चंद्रिका की आंखें भी चमक उठी थीं.

Best Family Drama : खुशहाल जिंदगी हुई बदहाल

‘‘मैं सोच रही हूं कि हमें अपने पहले के विचार पर पुनर्विचार करना चाहिए,’’ सोमा ने कुछ  झिझकते हुए विनोद से कहा.

‘‘किस विचार पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता महसूस हो रही है तुम्हें?’’ विनोद ने आश्चर्य से पूछा. बात उस के पल्ले नहीं पड़ रही थी.

‘‘वह बच्चे वाली. अब मु   झे लग रहा है कि हमारा जीवन नीरस हो रहा है. बिलकुल सूनासूना सा जीवन हो गया है. एक बच्चे के आ जाने से तबदीली आ जाएगी जिंदगी में,’’ सोमा ने कहा और उत्तर की आशा में विनोद को देखने लगी. वह सोच कर घबरा रही थी कि न जाने क्या प्रतिक्रिया होगी विनोद की.

‘‘क्या कह रही हो सोमा? हम ने तो इसी शर्त पर शादी की थी कि हमें बच्चा नहीं चाहिए. बच्चा पालने में बड़े    झमेले हैं, इसे तुम भी मानती थी और मैं भी. सच पूछा जाए तो हमारे विचार की समानता के कारण ही तो हम शादी के बंधन में बंधे थे,’’ विनोद ने हैरत के साथ कहा.

उस का व्यवहार सोमा की अपेक्षा के अनुरूप ही था. यह सच था कि वह भी प्रारंभ में बच्चा पालने के     झंझट में नहीं पड़ना चाह रही थी. उस ने कई महिलाओं को देखा था बच्चे के झमेले में पड़ कर अपना कैरियर और शांति नष्ट होते हुए.

‘‘बात तुम्हारी बिलकुल ठीक है. इसीलिए तो मैं पुनर्विचार की बात कर रही हूं. मैं कहां कोई एकतरफा निर्णय थोप रही हूं तुम्हारे ऊपर?’’ सोमा ने शांत स्वर में कहा.

‘‘सोचना भी मत. इसी शर्त पर हम ने शादी की थी. जब शर्त ही नहीं रहेगी तो शादी टूटने से कोई नहीं रोक पाएगा,’’ विनोद आगबबूला हो गया.

‘‘मैं तो बस पुनर्विचार के लिए कह रही हूं. दोबारा इस बात की चर्चा तब तक नहीं चलाऊंगी जब तक तुम न कहो,’’ सोमा ने मानो आत्मसमर्पण कर दिया.

बात आईगई हो गई. पर कहीं न कहीं यह विनोद के मन को मथ रही थी. आज विनोद तीस वर्ष का है. उस की पत्नी सोमा भी लगभग इसी उम्र की है. कई वर्षों से एकदूसरे को जानते थे. सोमा शादी नहीं करना चाहती थी क्योंकि वह बच्चा पालने के    झं   झट में नहीं पड़ना चाहती थी. उस ने कई लड़कियों के कैरियर को बच्चा पालने के कारण बरबाद होते देखा था और उसी राह पर नहीं चलना चाहती थी.

विनोद भी इसी विचार का था. उसे भी लगता था कि बच्चा होने के बाद इतनी जिम्मेदारियां हो जाती हैं कि अपना जीवन जी नहीं पाता आदमी. वैसे तो दोनों एकदूसरे से प्रेम करते थे. दोनों ने एकदूसरे के विचारों के मेल के कारण ही शादी करने का निर्णय लिया था. दोनों खुश थे. किसी प्रकार का तनाव न था और जिंदगी बहुत ही सुचारु गति से चल रही थी. पर सोमा के पुनर्विचार वाले प्रस्ताव से वह कुछ असहज महसूस कर रहा था. सहमति से लिए गए निर्णय पर पुनर्विचार की बात कर के बहुत बड़ा सदमा दिया था सोमा ने. पर विनोद ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी.

इस के बाद कई महीनों तक सोमा ने इस बारे में कोई बात नहीं की. पर कहीं न कहीं सोमा के व्यवहार से उसे लग रहा था कि बच्चे की चाहत उस के मन में बहुत अधिक है. उसे यह डर भी सता रहा था कि सोमा फिर से इस बात की चर्चा न करने लगे और उस पर कोई दबाव न बनाए. साथ ही उसे यह भी लग रहा था कि कहीं बच्चे की चाहत पूरी न होने पर वह नाराज न हो जाए और आगे चल कर तलाक न ले ले.

तो क्या एक बच्चा हो जाने दे वह? इस प्रश्न का जवाब उसे नहीं मिल पा रहा था. क्या वह इस शर्त पर बच्चा होने के लिए तैयार हो जाए कि वह बच्चे की देखभाल में कोई मदद नहीं करेगा और यह सोमा के अकेले की जिम्मेदारी होगी. पर घर में बच्चा रहेगा तो कैसे वह एकदम से उस से दूरी बना कर रख पाएगा. इस प्रश्न का कोई हल उसे नजर नहीं आ रहा था.

सिर्फ इस कारण से पिता बनना कि उस की पत्नी इस के लिए एकतरफा चाहत रखती है, उचित नहीं होगा. यह न सिर्फ उस के लिए उचित नहीं होगा बल्कि बच्चे के लिए भी उचित नहीं होगा. वैसे सोमा भी गलत नहीं है क्योंकि अगर उस का विचार बदल गया है तो वह उस के लिए स्वतंत्र है क्योंकि अपने निर्णय पर, अपने शरीर पर उस का अधिकार होना ही चाहिए. अब पतिपत्नी के विचार में ऐसा विरोध है तो फिर क्या किया जाए?

कई सप्ताह इसी उधेड़बुन में फंसा रहा विनोद. सोमा ने उस के बाद कुछ कहा नहीं और हमेशा सहज रहने की कोशिश करती रही. पर कहीं न कहीं उस के चेहरे पर उदासी के भाव दिख जाते थे. शादी इसी शर्त पर होने के कारण सोमा उस से इस बारे में बात नहीं करती थी. धीरेधीरे विनोद पर सोमा की उदासी का प्रभाव पड़ने लगा. उस का दिल कहीं न कहीं सोमा की उदासी का जिम्मेदार खुद को मानने लगा.

यह ठीक है कि शादी की शर्त पर कायम रहना चाहिए पर परिवर्तन तो जीवन का नियम है. किसी के विचार में समय के साथ परिवर्तन होना स्वाभाविक है और ऐसी कोई विशेष मांग नहीं थी सोमा की जिसे पूरा नहीं किया जा सकता और सब से बड़ी बात यह कि सोमा इस के लिए कोई जिद नहीं कर रही. पर क्या पति का दायित्व नहीं होता पत्नी की खुशी का खयाल रखने का? वैसे वह तो सोमा को खुश रखने का हरसंभव प्रयास करता रहा है.

एक रविवार को विनोद और सोमा नाश्ता करने के बाद बैठे हुए थे. थोड़ी देर टीवी देखने के बाद विनोद बैडरूम में जा कर लेट गया. टीवी पर चुनाव से संबंधित और इसराईलईरान, रूसयूके्रन के    झगड़े से संबंधित चर्चा अधिक हो रही थी जिस में दोनों की कोई रुचि नहीं थी. सोमा भी उस की बगल में आ कर लेट गई.

विनोद ने सोमा को अपनी ओर खींचते हुए कहा, ‘‘मुझ से तुम्हारा उदास चेहरा देखा नहीं जाता.’’

‘‘उदास चेहरा? मैं कब उदास रहती हूं?’’ सोमा ने विनोद के कंधे पर सिर रख कर कहा.

‘‘   झूठ मत बोलो. जब से मैं ने तुम्हारे पुनर्विचार के प्रस्ताव को ठुकराया है तुम बुझीबुझी सी रहती हो,’’ विनोद ने अपनी बांहों में सोमा को कसते हुए कहा.

‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं है. तुम इस की बिलकुल फिक्र न करो. बस ऐसे ही मन में बात आ गई थी. बेशक बच्चा पालने में काफी    झं   झट है. मैं भी इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहती,’’ सोमा ने अपनी बांहों में विनोद के लपेटते हुए कहा.

‘‘बच्चा पालने के  झंझट से बड़ा एक और  झंझट है,’’ विनोद ने कहा.

‘‘क्या?’’ सोमा चौंक गई.

‘‘अपनी पत्नी को उदास देखना,’’ विनोद ने मुसकरा कर कहा.

‘‘अरे ऐसा कुछ भी नहीं है,’’ सोमा ने कहा ‘‘मान लिया कुछ भी नहीं है, यदि मेरा विचार बदल कर एक बच्चा पैदा करने का हो जाए तब तो तुम मानोगी?’’ विनोद ने कहा.

सोमा ने विनोद की आंखों में    झांकते हुए हामी में सिर हिला दिया और मुसकरा पड़ी. आज कई दिनों के बाद विनोद ने सोमा के चेहरे पर उन्मुक्त हंसी देखी.

दोनों ने शादी इस शर्त पर की थी कि बच्चा नहीं चाहिए. आज दोनों इस बात पर सहमत थे कि बच्चा चाहिए. दोनों ने एकदूसरे की भावना का खयाल रख कर यह निर्णय ले लिया कि एक बच्चा होना ही चाहिए. छुट्टी का दिन था और दोनों एकदूसरे से लिपटे हुए थे. थोड़ी ही देर में दोनों उत्तेजित हो गए और फिर एकदूसरे की बांहों में खो गए. हमेशा की तरह आज विनोद को कंडोम की आवश्यकता नहीं थी.

दोनों जब एकदूसरे से अलग हुए तो हांफते हुए विनोद ने कहा, ‘‘बिना कंडोम के आनंद थोड़ा बढ़ जाता है न?’’

सोमा ने शरमा कर कहा, ‘‘धत्त.’’

इस के बाद से उन दोनों के बीच कंडोम कभी नहीं आया. पहले कभी बिना कंडोम के साथ हो भी लेते थे तो सोमा 24 घंटे के अंदर पिल ले लेती थी ताकि गर्भ न ठहरे. दोनों अब बिना किसी सावधानी के खुल कर सहवास का आनंद ले रहे थे और अपेक्षा कर रहे थे की शीघ्र ही सोमा गर्भवती हो जाएगी.

दिन, महीने, साल गुजर गए और सोमा गर्भवती नहीं हुई तब उन्हें चिंता हुई. अब तक दोनों ने एक बच्चा होने का मन बना लिया था. इशारों ही इशारों में घर वालों को भी बता दिया गया था. यह योजना भी बना ली गई थी कि प्रसव के लिए सोमा अपने मायके जा कर 2-3 महीने रहेगी और फिर यहां विनोद के मातापिता आ जाएंगे बच्चे के लालनपालन में सहायता करने के लिए.

दोनों ने अपनेअपने स्तर से गर्भ ठहरने के उपाय शुरू कर दिए. इस से संबंधित जानकारी साहित्य, गूगल आदि से लेना शुरू कर दिया. कहीं से पता चला कि मासिकधर्म के कुछ दिनों बाद संभोग करने से गर्भ ठहरता है. कई महीने यह कर के भी देख लिया. फिर चक्कर शुरू हुआ डाक्टरों का. सारे टैस्ट हुए और कहीं कोई कमी नहीं मिली. डाक्टर भी हैरान थे कि आखिर कमी कहां है. दोनों पतिपत्नी अवसादग्रस्त हो गए. सोमा को खुद से ज्यादा विनोद की चिंता होती थी. उसे लगता था कि उस ने यह बात नहीं उठाई होती तो शायद इस मानसिक अवसाद से विनोद न गुजरता.

कृत्रिम गर्भधारण, आईवीएफ? और न जाने क्या क्या उपाय किए गए पर कुछ भी काम न आया. डाक्टर न कोई कमी बता पा रहे थे, न कोई उपाय कर पा रहे थे. इस अवसाद का प्रभाव उन के सैक्स जीवन पर भी पड़ने लगा और विनोद चिड़चिड़ा होता चला गया. पहले वह सैक्स का खुल कर आनंद लेता था. अब सैक्स का एक ही मकसद रह गया था, गर्भधारण. सैक्स का आनंद जाता रहा.

कभीकभी सोमा को यह भी लगता कि बारबार पिल लेने से नुकसान हुआ है. शुरू के दिनों में अकसर बिना प्लान के सैक्स हो जाता था जिस के कारण उसे पिल लेनी पड़ती थी.

एक दिन विनोद उदास सा बैठा हुआ था. सोमा उस की बगल में आ कर बैठ गई. उस के कंधे पर सिर रख कर बोली, ‘‘सौरी विनोद, मैं ने बच्चे वाली बात उठा कर खुद को और तुम्हें नाहक परेशान कर दिया.’’

विनोद उस का सिर सहला कर रह गया. उस की आंखें डबडबा गईं. अब कोई उपाय भी तो नहीं बचा था.

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