जैसा भी था, था तो: क्या हुआ था सुनंदा के साथ

एकएककर लगभग सभी मेहमान जा चुके थे. बस सुनंदा की रमा मामी रुकी थीं. वे भी कल सुबह चली ही जाएंगी. रमा मामी से उसे शुरू से विशेष स्नेह रहा है. मामा की मृत्यु के बाद भी रमा ने सब से वैसा ही स्नेह और सम्मानभरा रिश्ता रखा है जैसा मामा के सामने था. मामी अपने विवाहित बेटे के साथ सहारनपुर में रहती हैं. अब भी रमा मामी ने ही आलोक की मृत्यु के समाचार सुनने से ले कर आज सब मेहमानों के जाने तक सब संभाल रखा था.

आलोक के भाईबहन आधुनिक व्यस्त जीवन की आपाधापी में से समय निकाल कर जितनी देर भी आ पाए, सुनंदा को उन से कोई गिलाशिकवा है भी नहीं. आलोक का जाना तय था. यह तो 1 महीने से उस के हौस्पिटल में रहने से समझ तो आ ही रहा था पर जैसा कि इंसान मृत्यु को चुनौती देने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देता है पर जीत थोड़े ही कभी पाता है, वैसे ही सुनंदा ने रातदिन आलोक के स्वस्थ होने की आशा में पलपल बिता दिया था.

अंतिम दिनों में ही पता चला था कि आलोक कैंसर की चपेट में है और लास्ट स्टेज है. उन के दोनों बच्चे शाश्वत और सिद्धि मां का मुंह ही देखते रहते थे. समझ गए थे कि मां ऐसे ही परेशान नहीं हैं, इस बार कुछ होने ही वाला है और हो भी तो गया था.

आलोक को गए 2 सप्ताह हो चुके हैं. सुनंदा ने बच्चों के कमरे में झांका. रात के 11 बज रहे थे. रमा ने दोनों बच्चों को खाना खिला कर सुला दिया था.

रमा ने कहा था, ‘‘बच्चो, कल से स्कूल जाना… पढ़ने में मन लगाना. मम्मी का ध्यान भी रखना और मेहनत करना. सुनंदा अपनी परेशानी जल्दी नहीं कहेगी पर तुम लोग अब उस का ध्यान जरूर रखना.’’

उन के स्कूल के सामान की व्यवस्था बच्चों के साथ मिल कर रमा ने देख ली थी.

रमा जब सुनंदा के कमरे में आई तो देखा, सुनंदा आरामकुरसी पर आंखें बंद किए लेटी सी थी. आहट पर सुनंदा ने आंखें खोलीं. रमा वहीं उस के पास बैठते हुए कहने लगी, ‘‘सुनंदा,

कल सुबह मैं चली जाऊंगी, तुम से कुछ बात करनी है.’’

‘‘हां, मामी, बोलो न.’’

‘‘तुम ने आलोक के रहते हुए भी क्याक्या झेला है, मुझ से कुछ भी छिपा नहीं है, सब जानती हूं. यह तो अच्छा रहा कि तुम अपने पैरों पर खड़ी थी. आज प्रिंसिपल हो, अपनी और बच्चों की, घर की जिम्मेदारी पहले भी तुम ही उठा रही थी, अब भी तुम ही उठाओगी, पर जैसा भी था, आदमी तो था,’’ कहतेकहते रमा की आवाज में नमी आ गई, गला भी रूंध सा गया.

सुनंदा ने बस गरदन हिलाई, हां में या न में, उसे खुद ही पता नहीं चला.

मामी ने उस के सिर पर हाथ फेर कहा, ‘‘चलो, अब सो जाओ. कल स्कूल जाओगी?’’

‘‘हां, आप के जाने के बाद चली

जाऊंगी, बहुत काम इकट्ठा हो गया होगा,

आप आती रहना.’’

‘‘हां, जरूर.’’

रमा के जाने के बाद सुनंदा उठ कर बैड पर लेट गई, ‘आदमी तो था’ भाभी के इन शब्दों पर अंदर से मन कहीं अटक गया. आंखें तो बंद थीं पर मन ही मन अतीत की परत दर परत खुलने लगी.

सुनंदा को अपने विवाह के पिछले 20 बरस आंखों के आगे इतना स्पष्ट दिखे कि उन्हें महसूस करते ही उस ने अपने माथे पर पसीना सा महसूस किया.

विवाह के कुछ दिनों बाद ही उस ने अनुभव कर लिया था कि मातापिता ने बेटी को बोझ मानते हुए जितना जल्दी यह बोझ कैसे भी उतर जाए की चाह में एक निहायत कामचोर व्यक्ति के पल्ले उसे बांध दिया है. सुनंदा ने गर्ल्स स्कूल में नौकरी अपनी योग्यता के दम पर हासिल की थी और आज वह प्रिंसिपल के पद तक पहुंच गई है. दोनों बच्चों के जन्म के बाद तो वही जैसे पुरुष थी घर के लिए. आलोक उस के समझाने पर अगर कोई काम शुरू भी करता तो जल्द ही काम में कमियां निकाल उसे छोड़ देता. उसे घर में रहना, सुनंदा की तनख्वाह की पाईपाई का हिसाब रखना ही आता था.

आलोक को गांव में रह रहे अपने मातापिता से न कोई लगाव था, न भाईबहन से, क्योंकि वे सब उसे कुछ काम कर मेहनत करने की सलाह देते थे और वह उन से दूर ही रहता था. सब उसे कामकाजी पत्नी के सुपुर्द कर जैसे निश्चिंत हो गए थे. कुछ साल पहले आलोक के मातापिता भी नहीं रहे थे. सुनंदा का भी अब कोई अपना नहीं था.

सुनंदा कई बार सोचती कि इस से अच्छा तो वह कहीं अविवाहित ही जी लेती पर जब बच्चों का मुंह देखती तो इस विचार को जल्द ही दिल से दूर कर देती.

आलोक ने कई बार सुनंदा की जमापूंजी से, लोन से कई बार काम शुरू भी किया जिस में हमेशा नुकसान ही हुआ और अब सुनंदा की रहीसही जमापूंजी भी आलोक के इलाज में खत्म हो चुकी थी. घर देखना है, बच्चों का कैरियर बनाना है, कल से स्कूल जा कर पैडिंग पड़ा काम देखना है. आलोक था तब भी सब काम वही देखती थी, अब भी उसे ही देखने हैं, नया क्या है? सोचतेसोचते उस की आंख लग ही गई. काफी लंबे समय से थका तनमन भी तो आराम मांग रहा था.

अगले दिन रमा चली गई. सुनंदा ने बच्चों को स्कूल भेजते हुए बहुत कुछ

समझाया. बच्चे समझदार थे. सुनंदा भी स्कूल के लिए तैयार होने लगी. शामली की इस कालोनी की दूरी स्कूल से पैदल 20 मिनट की ही थी. आलोक उसे स्कूटर पर छोड़ आता था. आज

घर की गैलरी में खड़े स्कूटर को देख कर सुनंदा के कदम तो ठिठके पर वह रुकी नहीं, पैदल ही बढ़ गई. रिकशा लेने का मन ही नहीं हुआ. सोचा, थोड़ा चलना हो जाएगा. इतने दिन घर में शोक प्रकट करने आनेजाने वालों के साथ बैठी ही रही थी. औफिस में भी जा कर बैठना ही है. आज देर भी होगी आने में. बच्चों के लिए रमा ने याद से घर की चाबियां भी अलग से बनवा दी थीं.

स्कूल पहुंच कर वह अपने औफिस में बैठी ही थी कि 1-1 कर के टीचर्स, बाकी सहयोगी उस से मिलने आते रहे. सब शोक प्रकट करने घर आ चुके थे पर आज भी सब उस के पास आते रहे. वह गंभीर ही थी, फिर कई काम देखे. परीक्षा आने वाली थी. वाइस प्रिंसिपल गीता को बुला कर उस से काफी विचारविमर्श करती रही.

मन बीचबीच में बच्चों की तरफ भाग रहा था. घर पहुंच गए होंगे? रखा हुआ खाना खा लिया होगा होगा? गरम किया होगा या नहीं? अंदर से दरवाजा तो बंद कर लिया होगा न? जमाना बहुत खराब है. बच्चों के पास अभी मोबाइल नहीं था. आलोक बच्चों के पास फोन होने का पक्षधर नहीं था. बच्चे भी जिद्दी नहीं थे. फिर उस ने लैंडलाइन पर फोन किया. बच्चे आ चुके थे. उन से बात कर के सुनंदा को तसल्ली हुई, फिर वह अपने ही काम में व्यस्त रही.

सुनंदा जब घर पहुंची, बच्चों की आंख लग गई थी. उस की आहट से बच्चे उठ बैठे और उस से लिपट गए. सुनंदा ने दोनों को बांहों में भर लिया, ‘‘तुम लोग ठीक हो न?’’

आलोक के जाने के बाद तीनों के स्कूल का पहला दिन था. शाश्वत ने उदासी से कहा, ‘‘ठीक हैं मम्मी, पर पापा के बिना अच्छा नहीं लग रहा कुछ.’’

सिद्धि भी सुबक उठी, ‘‘पापा की बहुत याद आ रही है मम्मी.’’

‘‘हां, बेटा,’’ कहते हुए सुनंदा ने बच्चों को बहुत प्यार किया. उन के साथ ही बैठ कर स्कूल की बातें करने लगी पर घूमफिर कर बच्चे इसी विषय पर आ रहे थे, ‘‘आज सब पूछ रहे थे पापा के बारे में.’’

‘‘टीचर्स भी पूछ रही थीं, मम्मी.’’

‘‘घर अच्छा नहीं लग रहा न, मम्मी?’’

हां में गरदन हिलाती रही सुनंदा. तीनों अपनेअपने रूटीन में धीरेधीरे व्यस्त होते चले गए. समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. आलोक के बारे में तीनों अकसर बातें करने बैठ जाते. किसी की भी आंख भरती तो विषय बदल कर उसे हंसाने की कोशिश शुरू हो जाती.

एक दिन सुनंदा औफिस में व्यस्त थी. सिद्धि का उस के मोबाइल पर फोन आया, ‘‘मम्मी, उमेश अंकल आए हैं.’’

सुनंदा का माथा ठनका, ‘‘क्यों आए हैं?’’

‘‘पता नहीं मम्मी, मैं ने तो उन्हें पानी पिलाया… वे बस मेरे साथ ही बातें किए जा रहे हैं…कुछ काम तो नहीं लग रहा है.’’

‘‘शाश्वत कहां है?’’

‘‘सो रहा है.’’

‘‘ओह, उठा दो उसे फौरन.’’

‘‘पर वह उठाने पर गुस्सा करेगा.’’

‘‘उठाओ और उसे कहो इस अंकल के पास वही बैठे और तुम अपने रूम में होमवर्क कर लो. इसे चायवाय पूछने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मम्मी.’’

उमेश के आने की बात सुन कर सुनंदा बहुत परेशान हो गई. आलोक उमेश को बिलकुल पसंद नहीं करता था. उमेश था तो आलोक का पुराना दोस्त पर बेहद चरित्रहीन. आलोक उसे हमेशा घर के बाहर ही रखता था.

उसने सुनंदा को उमेश की चरित्रहीनता के सारे किस्से सुनाए हुए थे. सिद्धि बड़ी हो रही है, अकेली है. सुनंदा को आज चैन नहीं आ रहा था. उमेश उस के घर में बैठा हुआ है. उमेश कई बच्चियों के साथ कुकर्म करते हुए पकड़ा गया था. उस की पत्नी उसे छोड़ कर जा चुकी थी.

सुनंदा गीता तो बुला कर बोली, ‘‘बहुत जरूरी काम है, जाना पड़ेगा, हो सकेगा तो लौट आऊंगी,’’ कह कर निकलने लगी तो गीता ने सम्मानपूर्वक कहा, ‘‘आप जाइए, मैम. मैं संभाल लूंगी. आप को दोबारा आने की परेशानी उठाने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक्यू गीता,’’ कहते हुए सुनंदा अपना पर्स उठा कर स्कूल से निकल गई, रिक्शा पकड़ घर पहुंची.

उमेश शाश्वत के साथ बैठा था. शाश्वत के माथे पर नींद से उठाए जाने पर झुंझलाहट थी. उमेश उसे देख कर चौंक गया, ‘‘अरे भाभी, आप इस समय कैसे आ गईं?’’

काफी कटु और गंभीर स्वर में सुनंदा ने कहा, ‘‘आप बताइए, आप इस समय यहां क्यों आए?’’

‘‘बस, ऐसे ही, सोचा आप लोगों के हालचाल ले लूं.’’

‘‘आगे से आप हालचाल के लिए परेशान न हों, हम ठीक हैं.’’

‘‘अरे भाभी, दोस्त था मेरा. मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है. बच्चे वैसे काफी समझदार हैं.’’

‘‘भाईसाहब, आप आगे से तकलीफ न उठाएं.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं तो आता रहूंगा, आप मुझे पराया न समझें.’’

सुनंदा के कड़े तेवर देख कर उमेश उस समय हाथ जोड़ कर बाहर निकल गया. सुनंदा सोफे पर ढह सी गई. सिद्धि भी मां की आवाज सुन कर अपने रूम से निकल कर आ गई थी. सुनंदा ने दोनों बच्चों को अपने पास बैठाया और कहने लगी, ‘‘बच्चो, जमाना बहुत खराब है. आगे से अगर मैं घर पर न होंऊ तो किसी के लिए भी दरवाजा न खोलना, इस आदमी के लिए तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘ठीक है, मम्मी. हम ध्यान रखेंगे,’’ कह सिद्धि फिर सुनंदा के लिए चाय बनाने चली गई.

सुनंदा शाम को घर का सामान लेने मार्केट के लिए निकल गई. सारा सामान आलोक ही लाता था. छोटी जगह थी, कई लोग जानपहचान के मिलते चले गए. एक पड़ोसिन भी मिल गई. हालचाल पूछने के बाद कहने लगी, ‘‘आप ने तो हमेशा बाहर की लाइफ ही ऐंजौय की. अब तो आप पर घर के भी काम आ गए होंगे, आप को भी अब दालसब्जी का आइडिया हो जाएगा.’’

बात सुनंदा का दिल दुखा गई. वह लाइफ ऐंजौय कर रही थी अब तक? घरबाहर के कामों के लिए जीवनभर मशीन ही बनी रही. हम औरतें ही क्यों औरतों का दिल दुखाने में पीछे नहीं हटतीं?

पड़ोसी जगदीश भी सब्जी के ठेले पर मिल गए. सुनंदा को ऊपर से नीचे तक चमकती आंखों से देख मुसकराए, ‘‘बड़ी मैंटेंड हैं आप भाभीजी.’’

सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी फिर जबरदस्ती उस के हाथ से थैला लेते हुए उस का हाथ छू लिया.

सुनंदा के तनमन में क्रोध की एक ज्वाला सी धधक उठी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘आप की हैल्प कर रहा हूं, भाभीजी.’’

‘‘मैंने आप से हैल्प मांगी क्या?’’

‘‘मांगी नहीं तो क्या हुआ? पड़ोसी हूं, मेरा भी कुछ फर्ज है. चलिए, आप को घर तक छोड़ आता हूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए. यहां मुझे अभी और भी काम है,’’ कह कर सुनंदा ने अपना थैला वापस झपटा और बाकी का समान लेने इधरउधर हो गई.

मन अजीब से गुस्से से भर उठा था. घर आ कर सामान रख अपने बैडरूम में जा कर आंखें बंद कर लेट गई. दोनों बच्चे टीवी में कुछ देख रहे थे. सुनंदा का दिल मिश्रित भावों से भर उठा था. माथे पर हाथ रखे सुनंदा ने अपनी कनपटियों तक बहते आंसुओं की नमी को चुपचाप ही महसूस किया. धीरेधीरे इस नमी का वेग बढ़ता जा रहा था.

आज, अभी, आलोक की याद शिद्दत से आने लगी. जब तक आलोक था तीनों के इर्दगिर्द एक सुरक्षा का घेरा तो था. एक आलोक के जाते ही वह कितनी असुरक्षा से चिंतित रहने लगी थी. उस ने तो हमेशा यही महसूस किया था कि इस पति से उसे क्या मिला? कुछ नहीं. वही तो सालों से कमा कर घर चला रही थी.

आज लगा पैसे जरूर वह कमा रही थी पर जो आलोक के रहने पर जीवन में था, आज नहीं है. ‘जैसा भी था आदमी तो था’ रमा भाभी के ये शब्द याद आए तो पहली बार सुनंदा की आलोक की याद में इतनी तेज सिसकियों से कमरा गूंज उठा.

वनवास: क्या सिया को आसानी से तलाक मिल गया?

बाहर ड्राइंगरूम में नितिन की जोरजोर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी, “मैं क्या पागल हूं, बेवकूफ हूं, जो पिछले 5 सालों से मुकदमे पर पैसा फूंक रहा हूं. और सिया पीछे से राघव
के साथ प्रेम की पींगें बढ़ा रही है.”

तभी नितिन की मम्मी बोली, “बेटा, पिछले 5 सालों से तो वनवास भुगत रही है तेरी बहन. जाने दे, अब अगर उसे जाना है…”

नितिन क्रोधित होते हुए बोला, “पहले किसने रोका था?”

सिया अंदर कमरे में बैठेबैठे घबरा रही थी. उस ने फैसला तो ले लिया था, पर क्या यह उस के लिए सही साबित होगा, उसे खुद पता नही था.

सिया 28 वर्ष की एक आम सी नवयुवती थी. 5 वर्ष पहले उस की शादी आईटी इंजीनियर राघव से हुई थी.

सिया के पिता की बहुत पहले ही मृत्यु हो गई थी. सिया के बड़े भाई नितिन और रौनक ने ही सिया के लिए राघव को चुना था. जब राघव सिया को देखने आया था, तो दुबलापतला राघव सिया को थोड़ा अटपटा लगा था. राघव और सिया के बीच कोई बातचीत नहीं हुई थी. सिया की बड़ीबड़ी आंखें और शर्मीली मुसकान राघव के दिल को दीवाना बना गई थी.

राघव ने रिश्ते के लिए हां कर दी थी. मम्मी सिया की किस्मत की तारीफ करते नहीं थक रही थी. एक सिंपल ग्रेजुएट को इतना पढ़ालिखा पति जो मिल गया था.

सिया को विवाह के समय भी लग रहा था कि उस का ससुराल पक्ष अधिक खुश नही है. सिया को लगा, शायद राघव के घर वालों को उन की आशा के अनुरूप उपहार नहीं मिले थे.

जब सिया जयमाला लिए राघव की तरफ जा रही थी, तभी उस के कानों में ताईजी की फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी, ‘अरे, लड़का तो बौना है और इतना पतला जैसे कोई बच्चा हो.’

राघव वास्तव में सिया के बराबर ही था और सिया भी कौन सी लंबी थी. 5 फीट की हाइट जहां सिया
का कद छोटा दर्शाता था, वहीं राघव का 5 फीट का कद उसे एकदम से बौना सा दिख रहा था.

जूते छुपाई की रस्म के समय चचेरी बहन पीहू बोली, “अरे, जीजाजी के जूतों में तो शायद हील होगी. बड़े ध्यान से देखना पड़ेगा.”

यह लतीफा जहां सिया को शर्मसार कर गया था, वहीं राघव का चेहरा अपमान से
लाल हो गया था.

जब सिया विदा हो कर राघव के घर आई, तो वहां का माहौल काफी तनावग्रस्त लग रहा था. उड़तीउड़ती बातें सिया के कानों में भी पहुंची थीं कि उस के दोनों बड़े भाइयों ने उन्हें धोखा दिया है. अच्छी शादी की बोल कर अपनी मामूली सी पढ़ीलिखी बहन उन के पल्ले बांध दी थी.

राघव की मम्मी अपनी देवरानी से कह रही थीं, ‘अरे राघव के तो बहुत अच्छेअच्छे पैसे वाले रिश्ते आ रहे थे. बस, थोड़ा कद ही तो छोटा है, नहीं तो लाखों में एक है मेरा बेटा.

‘अरे, मैं क्या अपने बेटे के लिए ऐसी लड़की ले कर आती, जो साधारण ग्रेजुएट हो.’

सिया अपने आंसू जज्ब करे बैठी थी. उसे नहीं पता था कि असलियत क्या है. क्या सच में उस के भाइयों ने
ऐसा किया होगा?

रात में राघव भी सिया से बड़ी रुखाई से पेश आया. उस ने सिया को आंख उठा कर देखा भी नहीं. दूध पीने के बाद राघव सिया से बोला, “जब मैं तुम्हें बौना या अजूबा लगता था, तो किसने कहा था मुझ से विवाह करने के लिए?”

सिया की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. वह हकलाते हुए बोली, “क्या लड़की की कभी राय पूछी जाती है?”

राघव व्यंग्य करते हुए बोला,”तो तुम हकलाती भी हो. जाहिर है, तभी तुम्हारा परिवार तुम्हारे लिए वर खोज नहीं रहा था, बल्कि खरीद रहा था. पर, दाम भी कहां चुकाया उन्होंने मेरा पूरा?”

सिया बोली, “आप अपना गुस्सा मुझ पर क्यों उतार रहे हैं?”

राघव चिढ़ते हुए बोला, “महारानी, तो फिर मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की तुम ने? किसी लंबे लड़के को खरीद लेते.”

सिया को समझ नहीं आ रहा था कि क्यों राघव उस से ऐसी बात कर रहा है?
जब अधिक और कुछ समझ नहीं आया, तो वह रोने लगी और राघव तकिया उठा कर बराबर में चादर तान कर सो गया था.

सुबह सिया की बड़ी ननद पूजा मीठी मुसकान के साथ चाय की ट्रे ले कर आई और सिया की जवाफूल सी
लाल आंख देख कर सकपका गई.

बस सिया से पूजा इतना ही बोल पाई, “थोड़ा सब्र रखो सिया. सबकुछ ठीक हो जाएगा.”

मगर, सबकुछ ठीक कहां हो पाया था. पगफेरे के लिए जब सिया के भाई नितिन और रौनक आए, तो बात
बहुत बढ़ गई थी.

पूजा ने ही सिया को बताया कि राघव को इस बात का गुस्सा था कि उस के मातापिता ने ही उस से झूठ
बोला था कि सिया ग्रेजुएट जरूर है, मगर वह सिविल सर्विस की तैयारी कर रही है.

राघव को विवाह के दिन
ही पता चला था कि सिया एक घरेलू लड़की है और राघव के परिवार ने अच्छी शादी की एवज में सिया को
चुना था.

सिया की सास कल्पना सिया के परिवार वालों को धोखेबाज और भी ना जाने क्याक्या बोल रही थी. वहीं सिया का भाई नितिन बोला, “आप ने अच्छी शादी कही थी, तो हम ने बजट से बढ़ कर खर्च किया था. आप को अगर कैश चाहिए था, तो मुंह खोल कर बोल देते. हम जेवर, कपड़े पर कम खर्च करते.”

इस पर राघव बोला, “बहन के लिए दूल्हा खरीदने से अच्छा आप उसे ढंग से पढ़ालिखा देते. कम से कम ऐसे मोलतोल तो न करना पड़ता.”

बहरहाल, सिया अपने ससुराल से खोटे सिक्के की तरह वापस भेज दी गई थी.

दोनों भाभियों ने लैक्चर देने आरंभ कर दिए थे. पहले ही पढ़ाई में दिल लगाया होता तो ये नौबत नहीं आती.

सिया कोई अनपढ़ नहीं थी. मगर, उस के पास कोई ऐसी प्रोफेशनल डिगरी नहीं थी, जिस के बलबूते पर उसे
नौकरी मिल सके. ग्रेजुएशन के बाद सिया ने बेकरी, टैक्सटाइल डिजाइनिंग, बेसिक मेकअप जैसे कोर्स अवश्य किए थे. मगर उस के पास कोई ऐसा डिप्लोमा या डिगरी नहीं थी.

सिया को आए हुए 2 महीने बीत गए थे. वह चुपचाप अपने कमरे में घुसी रहती थी. नितिन और रौनक ने
सिया की नामर्जी के बावजूद राघव के ऊपर भरणपोषण, घरेलू हिंसा और तलाक का मुकदमा दायर कर दिया था.

दोनो भाभियों ने भी अपने पति की हां में हां मिलाते हुए कहा, “ये तो राघव को करना ही पड़ेगा. सिया को उस रूखे और पत्थरदिल इनसान से कुछ नहीं चाहिए था, मगर वो मजबूर थी.”

सिया मन ही मन सोचती, ‘कम से कम एक बार राघव उस से बात तो कर लेता, मगर नहीं. उस ने तो अपनेआप ही उसे मुजरिम करार कर के फैसला सुना दिया था. वह भी उस अपराध के लिए, जो कभी उस ने किया ही नहीं था.’

कोर्ट में केस चल रहा था, हर तारीख के बाद अगली तारीख दे दी जाती थी. भाइयों का जोश और गुस्सा
दोनो ही कम हो गए थे. उधर भाभियों ने भी धीरेधीरे अपने काम सिया की तरफ खिसकाने शुरू कर दिए
थे.

सिया की मां की चिंता बढ़ती जा रही थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उन के बाद सिया का क्या होगा? वो बेटों पर इल्जाम लगाती कि उन्हें रिश्ते से पहले ही खुल कर बात करनी चाहिए थी. बेटे अपनी सफाई में कहते, “मां सबकुछ तो आप से पूछ कर ही किया था. अब आप हमें ही दोषी ठहरा रही हो.

सिया को लगता, मानो उस के कारण ही घर के वातावरण में तनाव रचबस गया है.

ऐसे ही एक दिन सिया के
कारण सिया की भाभी और मां में तूतूमैंमैं हो गई थी.
सिया ने ना जाने क्या सोचते हुए फेसबुक पर राघव को मैसेज कर दिया था, ‘मुझे आप से मिलना है. मैं केस के बारे में कुछ डिस्कस करना चाहती हूं.’

सिया ने एक घंटे बाद देखा कि राघव ने अब तक भी मैसेज नहीं पढ़ा था. उसे लगा शायद वो फेसबुक पर
अधिक आता नही है. तभी उधर से मैसेज आया कि ठीक है, संडे में मिल लेते हैं. टाइम तुम बता देना.

सिया ने मैसेज भेजा, दोपहर 12 बजे रंगोली रेस्तरां में मिलते हैं.’

राघव ने कहा, ‘ठीक है.

सिया ने मैसेज भेजा, ‘और ये मेरा नंबर सेव कर लेना. अगर ढूंढ़ने में दिक्कत हो, तो फोन कर लेना.’

सिया ने कह तो दिया था, मगर अब उसे डर लग रहा था. वह मन ही मन सोच रही थी कि अगर राघव अपने घर वालों के साथ आया, तो उस की अच्छी फजीहत हो जाएगी.

कभी सिया सोचती कि वह वहां जाएगी ही नही. कभी सिया को लगता, अगर राघव उस के मैसेज का स्क्रीन शाट उस के भाइयों को भेज दे, तो ना जाने क्या होगा.

शनिवार की पूरी रात सिया करवट बदलती रही. रविवार में उस ने घर वालों को कह दिया था कि वह एक सहेली
के घर जा रही है लंच पर.

जब सिया तैयार होने लगी, तो उसे समझ ना आया कि वो क्या पहने? पहले मेहरून रंग का पहना तो उसे बेहद तेज रंग लगा, फिर सफेद रंग पहना तो लगा कि कहीं राघव ऐसा न सोचे कि वो उसे खोने का शौक मना रही है. फिर बहुत सोचसमझ कर सिया ने हलके आसमानी रंग का कुरता पहना, साथ में चांदी की बालियां, काली छोटी सी बिंदी और हलका सा मेकअप जो सिया को सौम्यता प्रदान कर रहा था.

जब सिया रंगोली रेस्तरां पहुंची तो राघव पहले से ही बैठा था. सिया को देखते ही वह खड़ा हो गया.

सिया मुसकराते हुए उस के पास आई. दोनों 5 मिनट तक चुपचाप बैठे रहे. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे आरंभ करें?

तभी वेटर ने आ कर मौन को तोड़ा और मेनू कार्ड दे दिया. राघव ने सिया से कहा कि तुम और्डर कर दो.

सिया ने वेजिटेबल इडली और कोल्ड कौफी और्डर कर दी थी.

राघव गला खंखारते हुए बोला, “आगे क्या सोचा है?”

सिया बोली, “पता नहीं. पहले बहुतकुछ सोचा करती थी, अब कुछ नहीं सोचती हूं.”

राघव बोला, “देखो, हम चाहे कागजों पर ही सही, अभी भी पतिपत्नी ही हैं. तुम्हारे भाइयों ने जो मुझ पर मुकदमे दर्ज किए हैं, सब झूठ हैं.

“क्या तुम्हें बुरा नहीं लगता कि वे मुझे बेवजह परेशान कर रहे हैं. उन के कारण मेरी अच्छीखासी नौकरी चली गई है.”

सिया बोली, “राघव, मैं क्या करूं? मेरे भाई ही हैं, जो मेरे साथ खड़े हैं.”

राघव बोला, “तुम्हारे साथ नहीं, अपने अहंकार के साथ खड़े हैं.”

सिया बोली, “कोई तो सहारा चाहिए मुझे?”

राघव आक्रोश में बोला, क्यों? अपाहिज हो क्या? अच्छीखासी हो, दिखती भी ठीकठाक हो.”

सिया बोली, “पर, तुम्हारी तरह पढ़ीलिखी नहीं हूं कि कोई नौकरी कर सकूं.”

राघव बोला, “ग्रेजुएट हो. कुछ न कुछ तो कर सकती हो. मैं ने तो सुना था कि तुम बेहद प्रतिभाशाली हो.”

सिया ने कहा, “मैं ने बेकरी, मेकअप इत्यादि के कोर्स कर रखे हैं, पर इस से मुझे क्या नौकरी मिलेगी?”

राघव ने कहा, “सिया बचपन से मैं अपने छोटे कद के कारण इतना हीनभावना से भर गया था कि पढ़ाई के
अलावा अपने को आगे रखने का मुझे कोई और रास्ता नजर नहीं आया.

“मैं तो बस एक पढ़ीलिखी, प्यार करने वाली साथी चाहता था, मगर मेरे परिवार वालों ने और तुम्हारे परिवार वालों ने मेरी जिंदगी को बरबाद कर दिया है.”

सिया बोली, “तुम सही कह रहे हो, मेरी जिंदगी तो आबाद है.”

राघव बोला, “तुम्हारे साथ तुम्हारा परिवार तो है. मेरे साथ तो कोई भी नहीं है. बिलकुल अकेला पड़ गया हूं. दोस्तों के बीच मजाक बन कर रह गया हूं.

“सब को लगता है कि मेरे छोटे कद के कारण मेरी बीवी भी मुझे छोड़ कर चली गई है.”

सिया बोली, “ये बिलकुल झूठ है. मैं तो पूरे ड्रामा में कठपुतली हूं.”

राघव बोला, “क्यों? हां सिया, उठो और अपने लिए खड़ी होना सीखो.”

जब सिया के घर से फोन आया, तो दोनों को समय का अंदाजा हुआ.

उस मुलाकात के बाद सिया और राघव की अकसर बात होने लगी थी.

सिया को राघव में एक अच्छा दोस्त मिल गया था, वहीं राघव को लगा कि वो सिया के बारे में कितना गलत था.

सिया के पास भले ही इंजीनियरिंग की डिगरी नहीं थी, पर वो बेहद टैलेंटेड थी.

राघव की सलाह पर सिया ने घर से ही बेकिंग क्लासेस शुरू कर दी थी. इनकम कम थी, पर आत्मसम्मान
अधिक था. सिया को ये विश्वास हो गया था कि वो एक स्वतंत्र जीवन जी सकती है. परजीवी की तरह उसे किसी और के सहारे की आवश्यकता नहीं है.

सिया का मन राघव के प्रति झुका जा रहा था, मगर उसे अच्छे से पता था कि वो राघव के लायक नहीं है. उधर राघव जितना सिया से मिलता उतना ही उस की तरफ खिंचा जा रहा था.

राघव ने एक दिन सिया को मैसज किया और लंच के लिए बुलाया. लंच करते हुए राघव हंसते हुए बोला, “सिया, घर पर क्या बोल कर आती हो?”

सिया शर्माते हुए बोली, “सहेली के यहां जा रही हूं.”

राघव फिर थोड़ा रुक कर बोला, “क्या वापस इस रिश्ते को एक मौका देना चाहती हो, अगर तुम्हें ठीक लगे. मैं तुम्हारे बारे में गलत था. तुम बेहद जहीन और टैलेंटेड लड़की हो. क्या मेरी जिंदगी की साथी बनना पसंद करोगी?”

सिया बोली, “राघव, मगर, जो मेरे भाइयों ने केस कर रखा है?”

राघव बोला, “तुम अगर तैयार हो तो बाकी सब मैं संभाल लूंगा.”

सिया ने अपनी मम्मी को जब यह बात बताई, तो वे बोलीं, “तुझे विश्वास है कि राघव तेरा साथ देगा. अभी तो तेरे भाई तेरे साथ खड़े हैं. बाद में अगर कुछ ऊंचनीच हुई तो तू खुद जिम्मेदार है.”

सिया ने फैसला ले लिया था. पहले घर वालों ने बिना उस से पूछे राघव को उस के लिए चुना था. आज उस ने राघव को अपने लिए चुना था.

यह बात सुनते ही सिया के दोनों भाई भड़क उठे थे. मगर, सिया टस से मस नहीं हुई थी.

राघव का परिवार भी इस बात के लिए तैयार नहीं था.
मगर राघव ने किसी की परवाह नहीं की और सिया के घर पहुंच गया था.

दोनों भाइयों के आगे हाथ जोड़ते हुए राघव बोला, “मेरी गलती थी कि मैं ने सिया से बिना बात करे उसे घर भेज दिया था.

“हम दोनों पिछले 5 सालों से वनवास झेल रहे हैं. आज आप मेरी सिया को विदा कर दीजिए, ताकि हम वनवास से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर सकें.”

अभी नहीं तो कभी नहीं: क्या सुमेधा को गिरीश की मां ने स्वीकार किया

‘‘मुझे यह बात सम झ नहीं आती कि मैं ने इतनी बड़ी गलती कैसे कर दी? सच कहती हूं प्रीतो, अब मैं इस रिश्ते को और नहीं निभा सकती. दे दूंगी तलाक गिरीश को, फिर सारा  झं झट खत्म हो जाएगा मेरी जिंदगी से,’’ अपनी दोस्त प्रीतो के घर आते ही सुमेधा ने बोलना शुरू कर दिया.

‘‘हूं, लगता है तेरी सासुमां पधार चुकी है तुम्हारे घर?’’ गैसचूल्हे पर चाय का पानी चढ़ाते हुए प्रीतो ने उसे कनखियों से देख कर मुसकराहट के साथ पूछा.

‘‘हां, अब तुम्हें तो सब पता ही है कि उन के यहां आते ही मैं अपने ही घर में बेगानी हो जाती हूं और दुख तो मु झे इस बात पर होता है कि गिरीश क्यों कुछ नहीं कहते? क्या उन्हें अपनी मां की गलती दिखाई नहीं देती. मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरी सास उन के कान भर चुकी होती है मेरे खिलाफ. लेकिन इंसान में अपनी अक्ल तो होनी चाहिए न, पर नहीं. अरे, शादी ही क्यों की जब उन्हें अपनी पत्नी पर विश्वास ही नहीं है तो. रहते अपनी मां के पल्लू में ही छिप कर.

‘‘जानती हो प्रीतो, मेरी सास हमेशा यह कह कर मु झे ताना मारती रहती है कि मुसलमान के घर तो वह अपना पैर भी नहीं धरना चाहती, पर बेटे के मोह से खिंची चली आती है और मैं ने उन के बेटे पर कोई काला जादू कर दिया है वगैरहवगैरह. गिरीश से कहा मैं ने कि सम झाओ अपनी मां को कि वह मु झे मुसलिम लड़की कह कर संबोधित न करे. लेकिन वह कहता है कि बोलने दो, जो उन की मरजी है. ऐसे कैसे बोलने दूं, बता तो? क्या मेरा दिल छलनी नहीं होता उन की ऐसीवैसी बातों से?’’ एक सांस में ही सुमेधा इतनाकुछ बोल गई.

‘‘वैसे, यह बता कि चाय कैसी बनी, चीनी तो सही से है न?’’ बात को बदलने और माहौल को हलका करने के खयाल से प्रीतो ने कहा.

‘‘देख, तुम भी वैसी ही हो. सच कहते हैं लोग, जो दुखदर्द से गुजरता है वही दूसरे के दुखों का अंदाजा सही से लगा पाता है. लेकिन तुम क्या जानो मेरे दुखों को, क्योंकि तेरी तो कोई सास है ही नहीं न. तुम्हें अपना सम झ कर मैं यहां तुम से अपने दिल की बात कहने आई हूं और तुम हो कि… चल जाने दे, मैं चलती हूं,’’ कह कर वह जाने को उठने ही लगी कि प्रीतो ने उस का हाथ खींच कर फिर से सोफे पर बैठा दिया और कहने लगी, ‘‘तू क्या सम झती हो, मैं तुम्हारी पीड़ा नहीं सम झती. सब सम झती हूं, पर तुम्हें यह सम झाने की कोशिश कर रही हूं कि चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, अगर तुम पतिपत्नी एक हो कर रहो तो फिर क्या मजाल जो कोई तुम्हारी जिंदगी में जहर घोल दे.

‘‘मैं कहती हूं कि क्यों तुम हमेशा गिरीश से उस को तलाक देने की बात करती रहती है? उस ने किया क्या है? क्या उसे बुरा नहीं लगता होगा जब उस की मां तुम्हारी इंसल्ट करती होगी. पर क्या करे बेचारा. लेकिन तुम सतर्क हो जाओ, क्योंकि तुम्हारी सास यही चाहती है कि किसी भी तरह तुम गिरीश को तलाक दे दो और फिर वह अपने बेटे की शादी अपनी पसंद की लड़की से और अपनी जात में करवा सके और इसलिए वह गिरीश की नजरों में तुम्हें नीचा व खुद को ऊंचा दिखाने की कोशिश करती रहती है. लेकिन तुम हो कि यह बात सम झती ही नहीं हो. अगर तुम्हारा यही रवैया रहा न, तो सच में गिरीश तुम्हें ही गलत सम झ कर तलाक की बात पर हामी भर देगा एक दिन, देखना तुम.

‘‘सच बताओ, क्या तुम दिल से चाहती हो कि तुम्हारा और गिरीश का तलाक हो जाए. नहीं न? तो फिर इग्नोर करो न अपनी सास की बातों को. जाने दो, वह जो करती है करने दो. अगर वह तुम्हारे हाथ का पानी तक नहीं पीना चाहती, तो न पिए, तुम्हें क्या. वह नहीं चाहती न कि उन के रहते तुम किचन में या पूजाघर में जाओ या उन का कोई भी काम करो? तो मत करो न.’’

‘‘तो फिर मैं क्या करूं प्रीतो, आखिर मैं भी तो इंसान हूं न. मु झे चिढ़ होती है. कितना, आखिर कितना बरदाश्त करूं मैं, बताओ? जब भी मेरी सास आती है गिरीश मु झ से दूरदूर रहने लगते हैं. कुछ कहतीपूछती हूं तो ठीक से जवाब नहीं देते. जाने क्या हो जाता है उन्हें अपनी मां के आने पर? लेकिन अपनी मां से तो प्यार से ही बातें करते हैं, फिर मु झ से ही उखड़ेउखड़े से क्यों रहते हैं?’’

‘‘हो सकता है वे अपनी मां के सामने तुम्हें वह प्यार न देना चाहते हों जो वे देते आए हैं. यह तो बताओ कि उन के जाने के बाद तो सब ठीक हो जाता है न? और फिर. तुम ने ही बताया था मु झे कि कितनी मुश्किल से तुम दोनों एक हो पाए हो. एक होने के लिए तुम दोनों ने अपने परिवार, यहां तक कि समाज की नाराजगी  झेली. क्या इसलिए कि छोटीछोटी बातों पर  झगड़ा करो, तलाक ले कर अलग हो जाओ? तुम्हारी सास का क्या है, वह तो आतीजाती रहती है. लेकिन जीवनभर साथ तो तुम्हीं दोनों को रहना है, तो फिर अनसुना कर दिया करो उन की बातों को. हो सके तो जीत लो अपनी सास के मन को, फिर देखना कैसे गिरीश को भी तुम ही सही लगने लगोगी,’’ प्रीतो ने जब सुमेधा को ये सब बातें सम झाईं तो उसे भी वही सही लगा और उस ने उस की कही बातें अपने मन में बैठा लीं.

सुमेधा एक सिंधी परिवार से है और गिरीश बिहार के ब्राह्मण परिवार का बेटा. दोनों के रहनसहन, खानपान बिलकुल भिन्न हैं. कोई समानता नहीं थी दोनों के बीच. लेकिन कहते हैं न, दिल लगे गधी से, तो फिर परी किस काम की. गिरीश के लिए उस की जाति ही से कितनी लड़कियों का रिश्ता आया पर उस का दिल तो सुमेधा से जा टकराया था. ऐसे में वह कैसे किसी और का बन सकता था.

एक दिन मैं ने सुमेधा से पूछा भी कि आखिर तुम दोनों कैसे मिले और कैसे प्यार पनपा तुम दोनो के बीच? तो वह बताने लगी कि कालेज के दौरान उस की मुलाकात गिरीश से हुई थी. वे यहां गुजरात के ही एक कालेज में प्रोफैसर की पोस्ट पर चयनित हुए थे और सुमेधा उसी कालेज में अंतिम वर्ष की छात्रा थी. अकसर सुमेधा पढ़ाई के सिलसिले में गिरीश से मिलती रहती थी. गिरीश भी सुमेधा को इसलिए पसंद करता था क्योंकि उसे पढ़ने और किसी चीज को जानने की बहुत जिज्ञासा रहती थी और यही बात गिरीश को अच्छी लगती थी.

फिर कैरियर और जिंदगी के शुरुआती दिनों में उस ने एक अच्छे दोस्त की तरह सुमेधा की काफी मदद भी की. वह गिरीश को ले कर बेकरार तो नहीं थी, पर एक सौफ्ट कौर्नर बनता जा रहा था उसे ले कर. शायद गिरीश भी सुमेधा की ओर आकर्षित होने लगा था, पर कहने में सकुचाता था. फिर एक दिन आगे बढ़ कर सुमेधा ने ही उसे प्रपोज कर दिया जिसे गिरीश ने तुरंत स्वीकार कर लिया. लेकिन जब दोनों के परिवारों को उन के प्यार की भनक लगी तो उन के घर में बवाल मच गया.

‘दिमाग खराब हो गया है इस लड़की का. अरे, तुम ने सोच भी कैसे लिया कि हम तुम्हारी शादी एक दूसरी जाति के लड़के से करने की इजाजत दे देंगे. समाज में हम कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे. निकाल देंगे लोग हमें सिंधी समाज से तो फिर हम कहां जाएंगे बताओ? गलती हो गई, गलती हो गई हम से जो हम ने तुम्हें इतनी छूट दे दी,’ कह कर सुमेधा के मातापिता ने उस का घर से निकलना बंद करवा दिया और उधर, गिरीश के मातापिता ने भी इस बात को सुन कर पूरा घर अपने सिर पर उठा लिया.

कहने लगे, ‘अरे, कौन सा पाप हो गया हम से जो तुम ऐसे दिन दिखा रहे हो? एक ब्राह्मण के घर मुसलिम लड़की. छीछीछी… सुनने से पहले मर क्यों नहीं गए, बहरे क्यों नहीं हो गए.’

‘पर मांपापा सुनो तो, वह लड़की मुसलिम नहीं है, सिंधी है. हां, उस के कुछ रिश्तेदारों ने मजबूरीवश ही मुसलिम धर्म अपना लिया पर उन के साथ तो अब इन का कोई संबंध ही नहीं रहा,’ गिरीश अपने मातापिता को सम झाते हुए बोला.

‘अब तुम मु झे सम झाओगे कि वह लड़की किस जात से है और अपने परिवार से संबंध रखती है या नहीं? हम ब्राह्मण हैं जो प्याजलहसुन भी हाथ नहीं लगाते और वह मांसमच्छी खाने वाली लड़की, छी… तुम ने सोच भी कैसे लिया कि हम उसे अपने घर की बहू बनाएंगे?’  िझड़कते हुए गिरीश के पिता बोले.

‘मां सम झाओ न पिताजी को कि वह लड़की शादी के बाद मांसमच्छी खाना छोड़ देगी और शादी के बाद तो वैसे भी वह हमारे कुल की बहू बन जाएगी न?’

‘नहीं बेटा, इस बार तुम्हारे बाबूजी सही हैं,’ कह कर गिरीश की मां ने भी अपना मुंह फेर लिया.

‘तो फिर ठीक है. अब मेरा भी फैसला सुन लीजिए आप दोनों, अगर मेरी शादी सुमेधा से नहीं हुई तो मैं किसी से भी शादी नहीं करूंगा और न ही कभी यहां आऊंगा,’ गुस्से से भर कर गिरीश ने भी अपना फैसला सुना दिया और उसी दिन ट्रेन पकड़ कर गुजरात आ गया. उधर सुमेधा की शादी के लिए लड़के देखे जाने लगे. सम झ नहीं आ रहा था उसे कि करे तो क्या करे? किसी तरह एक दिन मिलने पर दोनों ने विचार किया कि अभी नहीं तो कभी नहीं. ठान लिया उन्होंने कि चाहे परिवार की मरजी हो या न हो, वे एक हो कर ही रहेंगे. फिर क्या था, तय अनुसार उस रोज सुमेधा किसी जरूरी काम का बहाना बना कर घर से निकल गई और फिर दोनों ने कोर्ट में जा कर शादी कर ली. लेकिन उन्हें अपने परिवार से यह बताने की हिम्मत नहीं हो रही थी कि उन्होंने कोर्ट में शादी कर ली, पर बताना तो था ही.

सुनते ही गिरीश के मातापिता आगबबूला हो गए और उधर सुमेधा के परिवार ने भी कह दिया कि अब उन्हें अपनी बेटी से कोई लेनादेना नहीं है. इधर सिंधी समाज भी इस शादी का विरोध करने लगा. समाज वाले कहने लगे कि या तो सुमेधा के मातापिता लिखित में अपनी बेटी से रिश्ता तोड़ दें, या फिर सिंधी समाज से अलग हो जाएं. कोई भी मातापिता अपने बच्चे से गुस्सा तो हो सकते हैं पर उन से कभी रिश्ता तोड़ने की नहीं सोच सकते. सो कह दिया उन्होंने कि चाहे जो हो जाए, वे अपनी बेटी के साथ हैं और रहेंगे हमेशा.

भले ही पिता कितना भी सख्त हो जाए पर मां तो मां होती है न, गिरीश की मां ने भी सबकुछ भुला कर अपने बेटे को माफ कर दिया. लेकिन सुमेधा को नहीं, क्योंकि उसे लगता है कि उस ने ही बापबेटे के बीच खाई का काम किया है. आज तक उस ने सुमेधा को अपनी बहू के रूप में नहीं स्वीकारा है. लेकिन मैं जानती हूं कि सुमेधा भी एक ब्राह्मण परिवार से है, पर उस की सास यह मानने को कतई तैयार नहीं है.

सिंधियों का इतिहास पढ़ा है मैं ने, जानती हूं कि कैसे सिंधी से जबरन उन्हें मुसलमान बनाया गया. 700 ईस्वी में हिंदूब्राह्मण राजा दाहिर, सिंध के शासक थे. अरबी लुटेरों से लड़ते हुए वे शहीद हो गए. इस के बाद सिंध में इसलाम की घुसपैठ शुरू हो गई. अधिसंख्यक सिंधी मुसलमान बन गए. ब्राह्मण दाहिर के पुत्र भी मुसलिम बन गए. भयांक्रांतता के चलते हिंदू इसलाम को मानने के लिए मजबूर हो गए. ब्राह्मणवाद, इसलामाबाद हो गया. अरबी बहुत दिनों तक सिंध में रहे और हिंदुओं को इसलाम में लाते रहे. सिंध से ले कर बलूचिस्तान तक जितने शोषित, पीडि़त और दलित वर्ग के लोग थे, अरबों ने उन्हें मुसलमान बना दिया.

हिंदुओं में फूट, आपसी कलह और भेदभाव के चलते आखिरकार वे मतांतरित हुए. धीरेधीरे सिंध में मुसलमान अधिसंख्यक हो गए और बचेखुचे हिंदू अल्पसंख्यक हो गए. अब जो अल्पसंख्यक हिंदू बचे, वे या तो इसलाम धर्म कुबूल कर लें या फिर यह देश छोड़ कर चले जाएं. यही 2 विकल्प बचे थे उन के पास और तभी शायद सुमेधा के पूर्वज सिंध प्रांत छोड़ कर 1947 के बाद यहां भारत के गुजरात में आ बसे.

आज भी देश में हिंदुओं में पारस्परिक एकता का अभाव है. देश में जातपांत का बोलबाला है. अनेक जातिवादी घटक हैं. दलगत नीतियों का वर्चस्व है. ऐसी ही स्थिति सिंध में थी और इन्हीं दुर्बलताओं का फायदा अरबी लुटेरों ने उठाया था. जाति का कहर सहती जनता ने इसलाम धर्म कुबूलना ही सही सम झा और कुछ वहां से हिंदू राजाओं की शरण में भाग आए.

उफ्फ. मैं भी न, कौन से इतिहास के पन्ने पलटने लग गई. प्रीतो खुद से ही कहने लगी, चलो जल्दी करो प्रीतो, बच्चे स्कूल से आते ही होंगे और अगर उन्हें खाना नहीं मिला तो फिर तेरी खैर नहीं. और वह किचन में चली गई.

वैसे तो सुमेधा अकसर प्रीतो के घर आतीजाती रहती थी और वह भी, लेकिन अभी उस की सास आई हुई है, इस कारण प्रीतो उस के घर नहीं जाती थी. पर सुमेधा क्यों नहीं आ रही थी उस के घर, इस बात की उसे चिंता होने लगी. ‘कहीं उस दिन सुमेधा को मेरी बात बुरी तो नहीं लग गई होगी और इसी कारण वह…’ उस ने अपनेआप से कहा.

इतने दिन बाद सुमेधा को अपने घर आए देख प्रीतो बहुत खुश हो गई. कहने लगी, ‘‘अरे, सुमेधा, आआ, वैसे भी कहां थी इतने दिनों से? बड़ी मुसकरा रही है, लगता है तेरी सास चली गई.’’

‘‘नहीं प्रीतो, मेरी सास यहीं है और एक बात बताऊं, उन्होंने मु झे अपना लिया.’’

‘‘अच्छा, पर यह सब हुआ कैसे?’’ आश्चर्य से प्रीतो ने पूछा तो वह कहने लगी कि उस ने सास की फुजूल की बातों को दिल से लगाना छोड़ दिया. वह जो कहती, सुन लेती, उस की बातों पर कोई प्रतिक्रिया न देती. तो उस ने बोलना कम कर दिया और इस कारण घर में कलह होना बंद हो गया. कोई कारण ही नहीं होता उन्हें अपने बेटे से सुमेधा की शिकायत करने का. फिर एक रात उस की तबीयत बहुत खराब हो गई. सुबह जब डाक्टर से दिखाया तो डाक्टर ने बताया कि उस की सास को डेंगू हो गया और प्लेटलेट्स भी बहुत कम हो गए हैं. यह सुन कर गिरीश बहुत घबरा गए.

लेकिन सुमेधा ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए कहा कि सब ठीक हो जाएगा. इस दौरान उस ने अपनी सास की बहुत सेवा की. 4-5 दिनों तक उस के साथ अस्पताल में ही रही और सुमेधा की सेवासुश्रूषा से उस की सास जल्द ही ठीक हो कर घर आ गई. अपनी आंखों में आंसू लिए वह कहने लगी कि उस ने अपनी बहू को पहचानने में गलती कर दी थी और अब उसे उस से कोई शिकायत नहीं है.

‘‘चलो, अच्छा हुआ. अंत भला सो सब भला, लेकिन अब तो तू गिरीश से तलाक नहीं लेगी न?’’

सुमेधा को छेड़ते हुए प्रीतो ने कहा तो वह भी हंस पड़ी,  ‘‘नहीं, कभी नहीं.’’

काश, आप ने ऐसा न किया होता: कैसे थे बड़े भैया

‘‘भैया, वह आप के साथ इतनी बदतमीजी से बात कर रहा था…क्या आप को बुरा नहीं लगा? आप इतना सब सह कैसे जाते हैं. औकात क्या है उस की? न पढ़ाईलिखाई न हाथ में कोई काम करने का हुनर. मांबाप की बिगड़ी औलाद…और क्या है वह?’’

‘‘तुम मानते हो न कि वह कुछ नहीं है.’’

भैया के प्रश्न पर चुप हो गया मैं. भैया उस की गाड़ी के नीचे आतेआते बड़ी मुश्किल से बचे थे. क्षमा मांगना तो दूर की बात बाहर निकल कर इतनी बकवास कर गया था. न उस ने भैया की उम्र का खयाल किया था और न ही यह सोचा था कि उस की वजह से भैया को कोई चोट आ जाती.

‘‘ऐसा इनसान जो किसी लायक ही नहीं है वह जो पहले से ही बेचारा है. अपने परिवार के अनुचित लाड़प्यार का मारा, ओछे और गंदे संस्कारों का मारा, जिस का भविष्य अंधे कुएं के सिवा कुछ नहीं, उस बदनसीब पर मैं क्यों अपना गुस्सा अपनी कीमती ऊर्जा जाया करूं? अपने व्यवहार से उस ने अपने चरित्र का ही प्रदर्शन किया है, जाने दो न उसे.’’

अपनी किताबें संभालतेसंभालते सहसा रुक गए भैया, ‘‘लगता है ऐनक टूट गई है. आज इसे भी ठीक कराना पड़ेगा.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, सस्ते में छूट गया मैं,’’ सोम भैया बोले, ‘‘मेरी ही टांग टूट जाती तो 3 हफ्ते बिस्तर पर लेटना पड़ता. मुझ पर आई मुसीबत मेरी ऐनक ने अपने सिर पर ले ली.’’

‘‘मैं जा कर उस के पिता से बात करूंगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं किसी से कुछ भी बात करने की. बौबी की जो चाल है वही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाली है. जो लोग जीवन में बहुत तेज चलना चाहते हैं वे हर जगह जल्दी ही पहुंचते हैं…उस पार भी.’’

कैसे विचित्र हैं सोम भैया. जबजब इन से मिलता हूं, लगता है किसी नए ही इनसान से मिल रहा हूं. सोचने का कोई और तरीका भी हो सकता है यह सोच मैं हैरान हो जाता हूं.

‘‘अपना मानसम्मान क्या कोई माने नहीं रखता, भैया?’’

‘‘रखता है, क्यों नहीं रखता लेकिन सोचना यह है कि अपने मानसम्मान को हम इतना सस्ता भी क्यों मान लें कि वह हर आम आदमी के पैर की जूती के नीचे आने लगे. मैं उस की गाड़ी के नीचे आ जाता, आया तो नहीं न. जो नहीं हुआ उस का उपकार मान क्या हम प्रकृति का धन्यवाद न करें?’’

‘‘बौबी की बदतमीजी क्या इतनी बलवान है कि हमारा स्वाभिमान उस के सामने चूरचूर हो जाए. हमारा स्वाभिमान बहुत अमूल्य है जिसे हम बस कभीकभी ही आढ़े लाएं तो उस का मूल्य है. जराजरा सी बात को अपने स्वाभिमान की बलि मानना शुरू कर देंगे तो जी चुके हम. स्वाभिमान हमारी ताकत होना चाहिए न कि हमारी कमजोर नस, जिस पर हर कोई आताजाता अपना हाथ धरता फिरे.’’

अजीब लगता है मुझे कभीकभी भैया का व्यवहार, उन का चरित्र. भैया बंगलौर में रहते हैं. एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं. मैं एम.बी.ए. कर रहा हूं और मेरी परीक्षाएं चल रही हैं. सो मुझे पढ़ाने को चले आए हैं.

‘‘इनसान अगर दुखी होता है तो काफी सीमा तक उस की वजह उस की अपनी ही जीवनशैली होती है,’’ भैया मुझे देख कर बोले, ‘‘अगर मैं ही बच कर चलता तो शायद मेरा चश्मा भी न टूटता. हमें ही अपने को बचा कर रखना चाहिए.’’

‘‘तुम्हें अच्छे नंबरों से एम.बी.ए. पास करना है और देश की सब से अच्छी कुरसी पर बैठना है. उस कुरसी पर बैठ कर तुम्हें बौबी जैसे लोग बेकार और कीड़े नजर आएंगे जिन के लिए सोचना तुम्हें सिर्फ समय की बरबादी जैसा लगेगा. इसलिए तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

मैं ने वैसा ही किया जैसा भैया ने समझाया. शांत रखा अपना मन और वास्तव में मन की उथलपुथल कहीं खो सी गई. मेरी परीक्षाएं हो गईं. भैया वापस बंगलौर चले गए. घर पर रह गए पापा, मां और मैं. पापा अकसर भैया को साधुसंत कह कर भी पुकारा करते हैं. कभीकभी मां को भी चिढ़ा देते हैं.

‘‘जब यह सोमू पैदा होने वाला था तुम क्या खाया करती थीं…किस पर गया है यह लड़का?’’

‘‘वही खाती थी जो आप को भी खिलाती थी. दाल, चावल और चपाती.’’

‘‘पता नहीं किस पर गया है मेरा यह साधु महात्मा बेटा, सोम.’’

इतना बोल कर पापा मेरी तरफ देखने लगते. मानो उन्हें अब मुझ से कोई उम्मीद है क्योंकि भैया तो शादी करने को मानते ही नहीं, 35 के आसपास भैया की उम्र है. शादी का नाम भी लेने नहीं देते.

‘‘यह लड़का शादी कर लेता तो मुझे भी लगता मेरी जिम्मेदारी समाप्त हो गई. हर पल इस के खानेपीने की चिंता रहती है. कोई आ जाती इसे भी संभालने वाली तो लगता अब कोई डर नहीं.’’

‘‘डर काहे का भई, मैं जानता हूं कि तुम अपने जाने का रास्ता साफ करना चाहती हो मगर यह मत भूलो, हम दोनों अभी भी तुम्हारी जिम्मेदारी हैं. विजय के बालबच्चों की चिंता है कि नहीं तुम्हें…और बुढ़ापे में मुझे कौन संभालेगा. आखिर उस पार जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है तुम्हें कि जब देखो बोरियाबिस्तर बांधे तैयार नजर आती हो.’’

मां और पापा का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा, आजकल पापा इस बात पर बहुत जल्दी चिढ़ने लगे हैं कि मां हर पल मृत्यु की बात क्यों करने लगी हैं.

‘‘मैं टीवी का केबल कनेक्शन कटवाने वाला हूं,’’ पापा बोले, ‘‘सुबह से शाम तक बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती हो,’’ और अखबार फेंक कर पापा बाहर आ कर बैठ गए…बड़ाबड़ा रहे थे. बड़बड़ाते हुए मुझे भी देख रहे थे.

‘‘क्या जरूरत है इस की? क्या मेरे सोचने से ही मैं उस पार चली जाऊंगी. संसार क्या मेरे चलाने से चलता है? आप इस बात पर चिढ़ते क्यों हैं,’’ शायद मां भी पापा के साथसाथ बाहर चली आई थीं. बचपन से देख रहा हूं, पापा मां को ले कर बहुत असुरक्षित हैं. मां क्षण भर को नजर न आईं तो पापा इस सीमा तक घबरा जाते हैं कि अवश्य कुछ हो गया है उन्हें. इस के पीछे भी एक कारण है.

हमारी दादी का जब देहांत हुआ था तब पापा की उम्र बहुत छोटी थी. दादी घर से बाहर गईं और एक हादसे में उन की मौत हो गई. पापा के कच्चे मन पर अपनी मां की मौत का क्या प्रभाव पड़ा होगा वह मैं सहज महसूस कर सकता हूं. दादी के बिना पता नहीं किस तरह पापा पले थे. शायद अपनी शादी के बाद ही वह जरा से संभल पाए होंगे तभी तो उन के मन में मां उन की कमजोर नस बन चुकी हैं जिस पर कोई हाथ नहीं रख सकता.

‘‘मैं ने कहा न तुम मेरे सामने फालतू बकबक न किया करो.’’

‘‘मेरी बकबक फालतू नहीं है. आप अपना मन पक्का क्यों नहीं करते? मेरी उम्र 55 साल है और आप की 60. एक आदमी की औसत उम्र भी तो यही है. क्या अब हमें धीरेधीरे घरगृहस्थी से अपना हाथ नहीं खींच लेना चाहिए? बड़ा बेटा अच्छा कमा रहा है…हमारा मोहताज तो नहीं. विजय भी एम.बी.ए. के बाद अपनी रोटी कमाने लगेगा. हमारा गुजारा पेंशन में हो रहा है. अपना घर है न हमारे पास. अब क्या उस पार जाने का समय नहीं आ गया?’’

पापा गरदन झुकाए बैठे सुन रहे थे.

‘‘मैं जानता हूं अब हमें उस पार जाना है पर मुझे अपनी परवा नहीं है. मुझे तुम्हारी चिंता है. तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा.’’

‘‘इसीलिए तो कह रही थी कि सोम की शादी हो जाती तो बहू आप सब को संभाल लेती. कोई डर न होता.’’

बात घूम कर वहीं आ गई थी. हंस पड़ी थीं मां. माहौल जरा सा बदला. पापा अनमने से ही रहे. फिर धीरे से बोले, ‘‘पता चल गया मुझे सोमू किस पर गया है. अपनी मां पर ही गया है वह.’’

‘‘इतने साल साथ गुजार कर आप को अब पता चला कि मैं कैसी हूं?’’

‘‘नौकरी की आपाधापी में तुम्हारे चरित्र का यह पहलू तो मैं देख ही नहीं पाया. अब रिटायर हो गया हूं न, ज्यादा समय तुम्हें देख पाता हूं.’’

सच कह रहे हैं पापा. भैया बड़े हैं. लगता है मां का सारा का सारा चरित्र उन्हें ही मिल गया. जो जरा सा बच गया उस में कुछ पापा का मिला कर मुझे मिल गया. मैं इतना क्षमावादी नहीं हूं जितने भैया और मां हैं. हो सकता है जरा सा बड़ा हो जाऊं तो मैं भी वैसा ही बन जाऊं.

भैया मुझ से 10 साल बड़े हैं. हम दोनों भाइयों में 10 साल का अंतर क्यों है? मैं अकसर मां से पूछता हूं.

कम से कम मेरा भाई मेरा भाई तो लगता. वह तो सदा मुझे अपना बच्चा समझ कर बात करते हैं.

‘‘यह प्रकृति का खेल है, बेटा, इस में हमारा क्या दोष है. जो हमें मिला वह हमारा हिस्सा था, जब मिलना था तभी मिला.’’

अकसर मां समझाती रहती हैं, कर्म करना, ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाना हमारा कर्तव्य है. उस के बाद हमें कब कितना मिले उस पर हमारा कोई बस नहीं. जमीन से हमारा रिश्ता कभी टूटना नहीं चाहिए. पेड़ जितना मरजी ऊंचा हो जाए, आसमान तक उस की शाखाएं फैल जाएं लेकिन वह तभी तक हराभरा रह सकता है जब तक जड़ से उस का नाता है. यह जड़ हैं हमारे संस्कार, हमारी अपने आप को जवाबदेही.

समय आने पर मेरी नियुक्ति भी बंगलौर में हो गई. अब दोनों भाई एक ही शहर में हो गए और मांपापा दिल्ली में ही रहे. भैया और मैं मिल गए तो हमारा एक घर बन गया. मेरी वजह से भैया ने एक रसोइया रख लिया और सब समय पर खानेपीने लगे. बहुत गौर से मैं भैया के चरित्र को देखता, कितने सौम्य हैं न भैया. जैसे उन्हें कभी क्रोध आता ही नहीं.

‘‘भैया, आप को कभी क्रोध नहीं आता?’’

एक दिन मेरे इस सवाल पर वह कहने लगे, ‘‘आता है, आता क्यों नहीं, लेकिन मैं सामने वाले को क्षमा कर देता हूं. क्षमादान बहुत ऊंचा दान है. इस दान से आप का अपना मन शांत हो जाता है और एक शांत इनसान अपने आसपास काम करने वाले हर इनसान को प्रभावित करता है. मेरे नीचे हजारों लोग काम करते हैं. मैं ही शांत न रहा तो उन सब को शांति का दान कैसे दे पाऊंगा, जरा सोचो.’’

एक दोपहर लंच के समय एक महिला सहयोगी से बातचीत होने लगी. मैं कहां से हूं. घर में कौनकौन हैं आदि.

‘‘मेरे बड़े भाई हैं यहां और मैं उन के साथ रहता हूं.’’

भैया और उन की कंपनी का नाम- पता बताया तो वह महिला चौंक सी गई. उसी पल से उस का मेरे साथ बात करने का लहजा बदल गया. वह मुझे सिर से पैर तक ऐसे देखने लगी मानो मैं अजूबा हूं.

‘‘नाम क्या है आप का?’’

‘‘जी विजय सहगल, आप जानती हैं क्या भैया को?’’

‘‘हां, अकसर उन की कंपनी से भी हमारा लेनदेन रहता है. सोम सहगल अच्छे इनसान हैं.’’

मेरी दोस्ती उस महिला के साथ बढ़ने लगी. अकसर वह मुझ से परिवार की बातें करती. अपने पति के बारे में, अपने बच्चों के बारे में भी. कभी घर आने को कहती, मेरे खानेपीने पर भी नजर रखती. एक दिन नाश्ता करते हुए उस महिला का जिक्र मैं ने भैया के सामने भी कर दिया.

‘‘नाम क्या है उस का?’’

अवाक् रह गए भैया उस का नाम सुन कर. हाथ का कौर भैया के हाथ से छूट गया. बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगे.

‘‘क्या बात है भैया? आप का नाम सुन कर वह भी इसी तरह चौंक गई थी.’’

‘‘तो वह जानती है कि तुम मेरे छोटे भाई हो…पता है उसे मेरा?’’

‘‘हां पता है. आप की बहुत तारीफ करती है. कहती है आप की कंपनी के साथ उस की कंपनी का भी अच्छा लेनदेन है. मेरा बहुत खयाल रखती है.’’

‘‘अच्छा, कैसे तुम्हारा खयाल रखती है?’’

‘‘जी,’’ अचकचा सा गया मैं. भैया के बदले तेवर पहली बार देख रहा था मैं.

‘‘तुम्हारे लिए खाना बना कर लाती है या रोटी का कौर तुम्हारे मुंह में डालती है? पहली बार घर से बाहर निकले हो तो किसी के भी साथ दोस्ती करने से पहले हजार बार सोचो. तुम्हारी दोस्ती और तुम्हारी भावनाएं तुम्हारी सब से अमूल्य पूंजी हैं जिन का खर्च तुम्हें बहुत सोच- समझ कर करना है. हर इनसान दोस्ती करने लायक नहीं होता. हाथ सब से मिला कर चलो क्योंकि हम समाज में रहते हैं, दिल किसीकिसी से मिलाओ…सिर्फ उस से जो वास्तव में तुम्हारे लायक हो. तुम समझदार हो, आशा है मेरा इशारा समझ गए होगे.’’

‘‘क्या वह औरत दोस्ती के लायक नहीं है?’’

‘‘नहीं, तुम उसी से पूछना, वह मुझे कब से और कैसे जानती है. ईमानदार होगी तो सब सचसच बता देगी. न बताया तो समझ लेना वह आज भी किसी की दोस्ती के लायक नहीं है.’’

भैया मेरा कंधा थपक कर चले गए और पीछे छोड़ गए ढेर सारा धुआं जिस में मेरा दम घुटने लगा. एक तरह से सच ही तो कह रहे हैं भैया. आखिर मुझ में ही इतनी दिलचस्पी लेने का क्या कारण हो सकता है.

दोपहर लंच में वह सदा की तरह चहचहाती हुई ही मुझे मिली. बड़े स्नेह, बड़े अपनत्व से.

‘‘आप भैया से पहली बार कब मिली थीं? सिर्फ सहयोगी ही थे आप या कंपनी का ही माध्यम था?’’

मुसकान लुप्त हो गई थी उस की.

‘‘नहीं, हम सहयोगी कभी नहीं रहे. बस, कंपनी के काम की ही वजह से मिलनाजुलना होता था. क्यों? तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘नहीं, आप मेरा इतना खयाल जो रखती हैं और फिर भैया का नाम सुनते ही आप की दिलचस्पी मुझ में बढ़ गई. इसीलिए मैं ने सोचा शायद भैया से आप की गहरी जानपहचान हो. भैया के पास समय ही नहीं होता वरना उन से ही पूछ लेता.’’

‘‘अपनी भाभी को ले कर कभी आओ न हमारे घर. बहुत अच्छा लगेगा मुझे. तुम्हारी भाभी कैसी हैं? क्या वह भी काम करती हैं?’’

तनिक चौंका मैं. भैया से ज्यादा गहरा रिश्ता भी नहीं है और उन की पत्नी में भी दिलचस्पी. क्या वह यह नहीं जानतीं, भैया ने तो शादी ही नहीं की अब तक.

‘‘भाभी बहुत अच्छी हैं. मेरी मां जैसी हैं. बहुत प्यार करती हैं मुझ से.’’

‘‘खूबसूरत हैं, तुम्हारे भैया तो बहुत खूबसूरत हैं,’’ मुसकराने लगी वह.

‘‘आप के घर आने के लिए मैं भाभी से बात करूंगा. आप अपना पता दे दीजिए.’’

उस ने अपना कार्ड मुझे थमा दिया. रात वही कार्ड मैं ने भैया के सामने रख दिया. सारी बातें जो सच नहीं थीं और मैं ने उस महिला से कहीं वह भी बता दीं.

‘‘कहां है तुम्हारी भाभी जिस के साथ उस के घर जाने वाले हो?’’

भाभी के नाम पर पहली बार मैं भैया के होंठों पर वह पीड़ा देख पाया जो उस से पहले कभी नहीं देखी थी.

‘‘वह आप में इतनी दिलचस्पी क्यों लेती है भैया? उस ने तो नहीं बताया, आप ही बताइए.’’

‘‘तो चलो, कल मैं ही चलता हूं तुम्हारे साथ…सबकुछ उसी के मुंह से सुन लेना. पता चल जाएगा सब.’’

अगले दिन हम दोनों उस पते पर जा पहुंचे जहां का श्रीमती गोयल ने पता दिया था. भैया को सामने देख उस का सफेद पड़ता चेहरा मुझे साफसाफ समझा गया कि जरूर कहीं कुछ गहरा था बीते हुए कल में.

‘‘कैसी हो शोभा? गिरीश कैसा है? बालबच्चे कैसे हैं?’’

पहली बार उन का नाम जान पाया था. आफिस में तो सब श्रीमती गोयल ही पुकारते हैं. पानी सजा लाई वह टे्र में जिसे पीने से भैया ने मना कर दिया.

‘‘क्या तुम पर मुझे इतना विश्वास करना चाहिए कि तुम्हारे हाथ का लाया पानी पी सकूं?

‘‘अब क्या मेरे भाई पर भी नजर डाल कुछ और प्रमाणित करना चाहती हो. मेरा खून है यह. अगर मैं ने किसी का बुरा नहीं किया तो मेरा भी बुरा कभी नहीं हो सकता. बस मैं यही पूछने आया हूं कि इस बार मेरे भाई को सलाखों के पीछे पहुंचा कर किसे मदद करने वाली हो?’’

श्रीमती गोयल चुप थीं और मुझ में काटो तो खून न था. क्या भैया कभी सलाखों के पीछे भी रहे थे? हमें क्या पता था यहां बंगलौर में भैया के साथ इतना कुछ घट चुका है.

‘‘औरत भी बलात्कार कर सकती है,’’ भैया भनक कर बोले, ‘‘इस का पता मुझे तब चला जब तुम ने भीड़ जमा कर के सब के सामने यह कह दिया था कि मैं ने तुम्हें रेप करने की कोशिश की है, वह भी आफिस के केबिन में. हम में अच्छी दोस्ती थी, मुझे कुछ करना ही होता तो क्या जगह की कमी थी मेरे पास? हर शाम हम साथ ही होते थे. रेप करने के लिए मुझे आफिस का केबिन ही मिलता. तुम ने गिरीश की प्रमोशन के लिए मुझे सब की नजरों में गिराना चाहा…साफसाफ कह देतीं मैं ही हट जाता. इतना बड़ा धोखा क्यों किया मेरे साथ? अब इस से क्या चाहती हो, बताओ मुझे. इसे अकेला लावारिस मत समझना.’’

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं चाहती सिर्फ माफी चाहती हूं. तुम्हारे साथ मैं ने जो किया उस का फल मुझे मिला है. अब गिरीश मेरे साथ नहीं रहता. मेरा बेटा भी अपने साथ ले गया…सोम, जब से मैं ने तुम्हें बदनाम करना चाहा है एक पल भी चैन नहीं मिला मुझे. तुम अच्छे इनसान थे, सारी की सारी कंपनी तुम्हें बचाने को सामने चली आई. तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा…मैं ही कहीं की नहीं रही.’’

‘‘मेरा क्या नहीं बिगड़ा…जरा बताओ मुझे. मेरे काम पर तो कोई आंच नहीं आई मगर आज किसी भी औरत पर विश्वास कर पाने की मेरी हिम्मत ही नहीं रही. अपनी मां के बाद तुम पहली औरत थीं जिसे मैं ने अपना माना था और उसी ने अपना ऐसा रूप दिखाया कि मैं कहीं का नहीं रहा और अब मेरे भाई को अपने जाल में फंसा कर…’’

‘‘मत कहो सोम ऐसा, विजय मेरे भाई जैसा है. अपने घर बुला कर मैं तुम्हारी पत्नी से और विजय से अपने किए की माफी मांगनी चाहती थी. मेरी सांस बहुत घुटती है सोम. तुम मुझे क्षमा कर दो. मैं चैन से जीना चाहती हूं.’’

‘‘चैन तो अपने कर्मों से मिलता है. मैं ने तो उसी दिन तुम्हारी और गिरीश की कंपनी छोड़ दी थी. तुम्हें सजा ही देना चाहता तो तुम पर मानहानि का मुकदमा कर के सालों अदालत में घसीटता. लेकिन उस से होता क्या. दोस्ती पर मेरा विश्वास तो कभी वापस नहीं लौटता. आज भी मैं किसी पर भरोसा नहीं कर पाता. तुम्हारी सजा पर मैं क्या कह सकता हूं. बस, इतना ही कह सकता हूं कि तुम्हें सहने की क्षमता मिले.’’

अवाक् था मैं. भैया का अकेलापन आज समझ पाया था. श्रीमती गोयल चीखचीख कर रो रही थीं.

‘‘एक बार कह दो मुझे माफ कर दिया सोम.’’

‘‘तुम्हें माफ तो मैं ने उसी पल कर दिया था. तब भी गिरीश और तुम पर तरस आया था और आज भी तुम्हारी हालत पर अफसोस हो रहा है. चलो, विजय.’’

श्रीमती गोयल रोती रहीं और हम दोनों भाई वापस गाड़ी में आ कर बैठ गए. मैं तो सकते में था ही भैया को भी काफी समय लग गया स्वयं को संभालने में. शायद भैया शोभा से प्यार करते होंगे और शोभा गिरीश को चाहती होगी, उस का प्रमोशन हो जाए इसलिए भैया से प्रेम का खेल खेला होगा, फिर बदनाम करना चाहा होगा. जरा सी तरक्की के लिए कैसा अनर्थ कर दिया शोभा ने. भैया की भावनाओं पर ऐसा प्रहार सिर्फ तरक्की के लिए. भैया की तरक्की तो नहीं रुकी. शोभा ने सदा के लिए भैया को अकेला जरूर कर दिया. कब वह दिन आएगा जब भैया किसी औरत पर फिर से विश्वास कर पाएंगे. यह क्या किया था श्रीमती गोयल आप ने मेरे भाई के साथ? काश, आप ने ऐसा न किया होता.

उस रात पहली बार मुझे ऐसा लगा, मैं बड़ा हूं और भैया मुझ से 10 साल छोटे. रो पड़े थे भैया. खाना भी खा नहीं पा रहे थे हम.

‘‘आप देख लेना भैया, एक प्यारी सी, सुंदर सी औरत जो मेरी भाभी होगी एक दिन जरूर आएगी…आप कहते हैं न कि हर कीमती राह तरसने के बाद ही मिलती है और किसी भी काम का एक निश्चित समय होता है. जो आप की थी ही नहीं वह आप की हो कैसे सकती थी. जो मेरे भाई के लायक होगी कुदरत उसे ही हमारी झोली में डालेगी. अच्छे इनसान को सदा अच्छी ही जीवनसंगिनी मिलनी चाहिए.’’

डबडबाई आंखों में ढेर सारा प्यार और अनुराग लिए भैया ने मुझे गले लगा लिया. कुछ देर हम दोनों भाई एकदूसरे के गले लगे रहे. तनिक संभले भैया और बोले, ‘‘बहुत तेज चलने वालों का यही हाल होता है. जो इनसान किसी दूसरे के सिर पर पैर रख कर आगे जाना चाहता है प्रकृति उस के पैरों के नीचे की जमीन इसी तरह खींच लेती है. मैं तुम्हें बताना ही भूल गया. कल पापा से बात हुई थी. बौबी का बहुत बड़ा एक्सीडेंट हुआ है. उस ने 2 बच्चों को कुचल कर मार दिया. खुद टूटाफूटा अस्पताल में पड़ा है और मांबाप पुलिस से घर और घर से पुलिस तक के चक्कर लगा रहे हैं. जिन के बच्चे मरे हैं वे शहर के नामी लोग हैं. फांसी से कम सजा वे होने नहीं देंगे. अब तुम्हीं बताओ, तेज चलने का क्या नतीजा निकला?’’

वास्तव में निरुत्तर हो गया मैं. भैया ने सच ही कहा था बौबी के बारे में. उस का आचरण ही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाला है. मनुष्य काफी हद तक अपनी पीड़ा के लिए स्वयं ही जिम्मेदार होता है.

दूसरे दिन कंपनी के काम से जब मुझे श्रीमती गोयल के पास जाना पड़ा तब उन का झुका चेहरा और तरल आंखें पुन: सारी कहानी दोहराने लगीं. उन की हंसी कहीं खो गई थी. शायद उन्हें मुझ से यह भी डर लग रहा होगा कि कहीं पुरानी घटना सब को सुना कर मैं उन के लिए और भी अपमान का कारण न बन जाऊं.

पहली बार लगा मैं भी भैया जैसा बन गया हूं. क्षमा कर दिया मैं ने भी श्रीमती गोयल को. बस मन में एक ही प्रश्न उभरा :

आप ने ऐसा क्यों किया श्रीमती गोयल जो आज आप को अपनी नजरें शर्म से झुकानी पड़ रही हैं. हम आज वह अनिष्ट ही क्यों करें जो कब दुख का तूफान बन कर हमारे मानसम्मान को ही निगल जाए. इनसान जब कोई अन्याय करता है तब वह यह क्यों भूल जाता है कि भविष्य में उसे इसी का हिसाब चुकाना पड़ सकता है.

काश, आप ने ऐसा न किया  होता.

 

अस्तित्व: क्या प्रणव को हुआ गलती का एहसास

लेखक- नीलमणि शर्मा

का लिज पहुंचते ही तनु ने आज सब से पहले स्टाफ क्वार्टर के लिए आवेदन किया. इतने साल हो गए उसे कालिज में पढ़ाते हुए, चाहती तो कभी का क्वार्टर ले सकती थी पर इतना बड़ा बंगला छोड़ कर यों स्टाफ क्वार्टर में रहने की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. फिर प्रणव को भी तनु के घर आ कर रहना पसंद नहीं था. उन का अभिमान आहत होता था. उन्हें लगता कि वहां वह  ‘मिस्टर तनुश्री राय’ बन कर ही रह जाएंगे. और यह बात उन्हें कतई मंजूर न थी.

आज सुबह ही प्रणव ने उसे अपने घर से निकल जाने को कह दिया जबकि तनु को इस घर में 30 साल गुजर चुके हैं. कहने को तो प्रणव ने उसे सबकुछ दिया है, बढि़या सा घर, 2 बच्चे, जमाने की हर सुखसुविधा…लेकिन नहीं दिया तो बस, आत्मसम्मान से जीने का हक. हर अच्छी बात का श्रेय खुद लेना, तनु के हर काम में मीनमेख निकालना और बातबात पर उस को  ‘मिडिल क्लास मानसिकता’ का ताना देना, यही तो किया है प्रणव ने शुरू से अब तक. पलंग पर लेटेलेटे तनु अपने ही जीवन से जुड़ी घटनाओं का तानाबाना बुनने लगी.

इतने वर्षों से तनु को लगने लगा था कि उसे यह सब सहने की आदत सी हो गई है पर आज सुबह उस का धैर्य जवाब दे गया. जैसेजैसे उम्र बढ़ रही थी प्रणव का कहनासुनना बढ़ता जा रहा था और तनु की सहनशीलता खत्म होती जा रही थी.

तनु जानती है कि अमेरिका में रह रहे बेटे के विवाह कर लेने की खबर प्रणव बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि उन के अहम को चोट पहुंची है. अब तक हर बात का फैसला लेने का एकाधिकार उस से छिन जो गया था. प्रणव की नजरों में इस के  लिए तनु ही दोषी है. बच्चों को अच्छे संस्कार जो नहीं दे पाई है…यही तो कहते हैं प्रणव बच्चों की हर गलती या जिद पर.

जबकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि बच्चों के बारे में किसी भी तरह का निर्णय लेने का कोई अधिकार उन्होंने तनु को नहीं दिया. यहां तक कि उस के गर्भ के दौरान किस डाक्टर से चैकअप कराना है, क्या खाना है, कितना खाना है आदि बातों में भी अपनी ही मर्जी चलाता. शुरू में तो तनु को यह बात अच्छी लगी थी कि कितना केयरिंग हसबैंड मिला है लेकिन धीरेधीरे पता चला यह केयर नहीं, अपितु स्टेटस का सवाल था.

कितना चाहा था तनु ने कि बेटी कला के क्षेत्र में नाम कमाए पर उसे डाक्टर बनाना पड़ा, क्योंकि प्रणव यही चाहते थे. बेटे को आई.ए.एस. बनाने की चाह भी तनु के मन में धरी की धरी रह गई और वह प्रणव के आदेशानुसार वैज्ञानिक ही बना, जो आजकल नासा में कार्यरत है.

ऐसा नहीं कि बच्चों की सफलता से तनु खुश नहीं है या बच्चे अपने प्राप्यों से संतुष्ट नहीं हैं लेकिन यह भी सत्य है कि प्रणव इस सब से इसलिए संतुष्ट हैं कि बच्चों को इन क्षेत्रों में भेजने से वह और तनु आज सोसाइटी में सब से अलग नजर आ रहे हैं.

पूरी जिंदगी सबकुछ अपनी इच्छा और पसंद को ही सर्वश्रेष्ठ मानने की आदत होने के कारण बेटे की शादी प्रणव को अपनी हार प्रतीत हो रही है. यही हार गुस्से के रूप में पिछले एक सप्ताह से किसी न किसी कारण तनु पर निकल रही है. प्रणव को वैसे भी गुस्सा करने का कोई न कोई कारण सदा से मिलता ही रहा है.

प्रणव यह क्यों नहीं समझते कि बेटे के इस तरह विवाह कर लेने से तनु को भी तो दुख हुआ होगा. पर उन्हें उस की खुशी या दुख से कब सरोकार रहा है. जब बेटे का फोन आया था तो तनु ने कहा भी था,  ‘खुशी है कि तुम्हारी शादी होगी, लेकिन तुम अगर हमें अपनी पसंद बताते तो हम यहीं बुला कर तुम्हारी शादी करवा देते. सभी लोगों को दावत देते…वहां बहू को कैसा लगेगा, जब घर पर नई बहू का स्वागत करने वाला कोई भी नहीं होगा.’

‘क्या मौम आप भी, कोई कैसे नहीं होगा, दीदी और जीजाजी आ रहे हैं न. आप को तो पता है कि अपनी पसंद बताने पर पापा कभी नहीं होने देते यह शादी. दीदी की बार का याद नहीं है आप को. डा. सोमेश को तो दीदी ने उस तरह पसंद भी नहीं किया था. बस, पापा ने उन्हें रेस्तरां में साथ बैठे ही तो देखा था. घर में कितने दिनों तक हंगामा रहा था. दीदी ने कितना कहा था कि डा. सोमेश केवल उन के कुलीग हैं पर कभी पापा ने सुनी? उन्होंने आननफानन में कैसे अपने दोस्त के डा. बेटे के साथ शादी करवा दी. यह ठीक है कि  जीजाजी भी एकदम परफेक्ट हैं.

‘सौरी मौम, मेरी शादी के कारण आप को पापा के गुस्से का सामना करना पडे़गा. रीयली मौम, आज मैं महसूस करता हूं कि आप कैसे उन के साथ इतने वर्षों से निभा रही हैं. यू आर ग्रेट मौम…आई सेल्यूट यू…ओ.के., फोन रखता हूं. शादी की फोटो ईमेल कर दूंगा.’

तनु बेटे की इन बातों से सोच में पड़ गई. सच ही तो कहा था उस ने. लेकिन वह गुस्सा एक बार में खत्म नहीं हुआ था. पिछले एक सप्ताह से रोज ही उसे इस स्थिति से दोचार होना पड़ रहा है. सुबह यही तो हुआ था जब प्रणव ने पूछा था, ‘सुना, कल तुम निमिषा के यहां गई थीं.

‘हां.’

‘मुझे बताया क्यों नहीं.’

‘कल रात आप बहुत लेट आए तो ध्यान नहीं रहा.’

‘‘ध्यान नहीं रहा’ का क्या मतलब है, फोन कर के बता सकती थीं. कोई काम था वहां?’

‘निमिषा बहुत दिनों से बुला रही थी. कालिज में कल शाम की क्लास थी नहीं, सोचा उस से मिलती चलूं.’

‘तुम्हें मौका मिल गया न मुझे नीचा दिखाने का. तुम्हें शर्म नहीं आई कि बेटे ने ऐसी करतूत की और तुम रिश्तेदारी निभाती फिर रही हो.’

‘निमिषा आप की बहन होने के साथसाथ कालिज के जमाने की मेरी सहेली भी है…और रही बात बेटे की, तो उस ने शादी ही तो की है, गुनाह तो नहीं.’

‘पता है मुझे, तुम्हारी ही शह से बिगड़ा है वह. जब मां बिना पूछे काम करती है तो बेटे को कैसे रोक सकती है. भूल जाती हो तुम कि अभी मैं जिंदा हूं, इस- घर का मालिक हूं.’

‘मैं ने क्या काम किया है आप से बिना पूछे. इस घर में कोई सांस तो ले नहीं सकता बिना आप की अनुमति के…हवा भी आप से इजाजत ले कर यहां प्रवेश करती है…जिंदगी की छोटीछोटी खुशियों को भी जीने नहीं दिया…यह तो मैं ही हूं कि जो यह सब सहन करती रही….’

‘क्या सहन कर रही हो तुम, जरा मैं भी तो सुनूं. ऐसा स्टेटस, ऐसी शान, सोसाइटी में एक पहचान है तुम्हारी…और कौन सी खुशियां चाहिए?’

तनु तंग आ गई इन बातों से. हार कर उस ने कह दिया,  ‘देखो प्रणव, यह रोज की खिचखिच बंद करो. अब इस उम्र में मुझ से और सहन नहीं होता. मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता.’

‘नहीं सहन होता तो चली जाओ यहां से, जहां अच्छा लगता है वहां चली जाओ. क्यों रह रही हो फिर यहां.’

‘चली जाऊं, छोड़ दूं, उम्र के इस पड़ाव पर, आप को बेशक यह कहते शर्म नहीं आई हो, पर मुझे सुनने में जरूर आई है. इस उम्र में चली जाऊं, शादी के 30 साल तक सब झेलती रही, अब कहते हो चली जाओ. जाना होता तो कब की सबकुछ छोड़ कर चली गई होती.’

तनु तड़प उठी थी. जिंदगी का सुख प्रणव ने केवल भौतिक सुखसुविधा ही जाना था. पूरी जिंदगी अपनेआप को मार कर जीना ही अपनी तकदीर मान जिस के साथ निष्ठा से बिता दी, उसी ने आज कितनी आसानी से उसे घर से चले जाने को कह दिया.

‘हां, आज मुझे यह घर छोड़ ही देना चाहिए. अब तक पूरी जिंदगी प्रणव के हिसाब से ही जी है, यह भी सही.’ सारी रात तनु ने इसी सोच के साथ बिता दी.

शादी के बाद कितने समय तक तो तनु प्रणव का व्यवहार समझ ही नहीं पाई थी. किस बात पर झगड़ा होगा और किस बात पर प्यार बरसाने लगेंगे, कहा नहीं जा सकता. कालिज से आने में देर हो गई तो क्यों हो गई, घरबार की चिंता नहीं है, और अगर जल्दी आ गई तो कालिज टाइम पास का बहाना है, बच्चों को पढ़ाना थोड़े ही है.

दुनिया की नजर में प्रणव से आदर्श पति और कोई हो ही नहीं सकता. मेरी हर सुखसुविधा का खयाल रखना, विदेशों में घुमाना, एक से एक महंगी साडि़यां खरीदवाना, जेवर, गाड़ी, बंगला, क्या नहीं दिया लेकिन वह यह नहीं समझ सके कि सुखसुविधा और खुशी में बहुत फर्क होता है.

तनु की विचारशृंखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी…मैं इन की बिना पसंद के एक रूमाल तक नहीं खरीद सकती, बिना इन की इच्छा के बालकनी में नहीं खड़ी हो सकती, इन की इच्छा के बिना घर में फर्नीचर इधर से उधर एक इंच भी सरका नहीं सकती, नया खरीदना तो दूर की बात… क्योंकि इन की नजर में मुझे इन चीजों की, इन बातों की समझ नहीं है. बस, एक नौकरी ही है, जो मैं ने छोड़ी नहीं. प्रणव ने बहुत कहा कि सोसाइटी में सभी की बीवियां किसी न किसी सोशल काम से जुड़ी रहती हैं. तुम भी कुछ ऐसा ही करो. देखो, निमिषा भी तो यही कर रही है पर तुम्हें क्या पता…पहले हमारे बीच खूब बहस होती थी, पर धीरेधीरे मैं ने ही बहस करना छोड़ दिया.

आज मैं थक गई थी ऐसी जिंदगी से. बच्चों ने तो अपना नीड़ अलग बना लिया, अब क्या इस उम्र में मैं…हां…शायद यही उचित होगा…कम से कम जिंदगी की संध्या मैं बिना किसी मानसिक पीड़ा के बिताना चाहती हूं.

प्रणव तो इतना सबकुछ होने के बाद भी सुबह की उड़ान से अपने काम के सिलसिले में एक सप्ताह के लिए फ्रैंकफर्ट चले गए. उन के जाने के बाद तनु ने रात में सोची गई अपनी विचारधारा पर अमल करना शुरू कर दिया. अभी तो रिटायरमेंट में 5-6 वर्ष बाकी हैं इसलिए अभी क्वार्टर लेना ही ठीक है, आगे की आगे देखी जाएगी.

तनु को क्वार्टर मिले आज कई दिन हो गए, लेकिन प्रणव को वह कैसे बताए, कई दिनों से इसी असमंजस में थी. दिन बीतते जा रहे थे. प्रोफेसर दीप्ति, जो तनु के ही विभाग में है और क्वार्टर भी तनु को उस के साथ वाला ही मिला है, कई बार उस से शिफ्ट करने के बारे में पूछ चुकी थी. तनु थी कि बस, आजकल करती टाल रही थी.

सच तो यह है कि तनु ने उस दिन आहत हो कर क्वार्टर के लिए आवेदन कर दिया था और ले भी लिया, पर इस उम्र में पति से अलग होने की हिम्मत वह जुटा नहीं पा रही थी. यह उस के मध्यवर्गीय संस्कार ही थे जिन का प्रणव ने हमेशा ही मजाक उड़ाया है.

ऐसे ही एक महीना बीत गया. इस बीच कई बार छोटीमोटी बातें हुईं पर तनु ने अब खुद को तटस्थ कर लिया, लेकिन वह भूल गई थी कि प्रणव के विस्फोट का एक बहाना उस ने स्वयं ही उसे थाली में परोस कर दे दिया है.

कालिज से मिलने वाली तनख्वाह बेशक प्रणव ने कभी उस से नहीं ली और न ही बैंक मेें जमा पैसे का कभी हिसाब मांगा पर तनु अपनी तनख्वाह का चेक हमेशा ही प्रणव के हाथ में रखती रही है. वह भी उसे बिना देखे लौटा देते हैं. इतने वर्षों से यही नियम चला आ रहा है.

तनु ने जब इस महीने भी चेक ला कर प्रणव को दिया तो उस पर एक नजर डाल कर वह पूछ बैठे, ‘‘इस बार चेक में अमाउंट कम क्यों है?’’

पहली बार ऐसा सवाल सुन कर तनु चौंक गई. उस ने सोचा ही नहीं था कि प्रणव चेक को इतने गौर से देखते हैं. अब उसे बताना ही पड़ा,  ‘‘अगले महीने से ठीक हो जाएगा. इस महीने शायद स्टाफ क्वार्टर के कट गए होंगे.’’

अभी उस का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था, ‘‘स्टाफ क्वार्टर के…किस का…तुम्हारा…कब लिया…क्यों लिया… और मुझे बताया भी नहीं?’’

तनु से जवाब देते नहीं बना. बहुत मुश्किल से टूटेफूटे शब्द निकले,  ‘‘एकडेढ़ महीना हो गया…मैं बताना चाह रही थी…लेकिन मौका ही नहीं मिला…वैसे भी अब मैं उसे वापस करने की सोच रही हूं…’’

‘‘एक महीने से तुम्हें मौका नहीं मिला…मैं मर गया था क्या? यों कहो कि तुम बताना नहीं चाहती थीं…और जब लिया है तो वापस करने की क्या जरूरत है…रहो उस में… ’’

‘‘नहीं…नहीं, मैं ने रहने के लिए नहीं लिया…’’

‘‘फिर किसलिए लिया है?’’

‘‘उस दिन आप ने ही तो मुझे घर से निकल जाने को कहा था.’’

‘‘तो गईं क्यों नहीं अब तक…मैं पूछता हूं अब तक यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप की वजह से नहीं गई. समाज क्या कहेगा आप को कि इस उम्र में अपनी पत्नी को निकाल दिया…आप क्या जवाब देंगे…आप की जरूरतों का ध्यान कौन रखेगा?’’

‘‘मैं समाज से नहीं डरता…किस में हिम्मत है जो मुझ से प्रश्न करेगा और मेरी जरूरतों के लिए तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है…जिस के मुंह पर भी चार पैसे मारूंगा…दौड़ कर मेरा काम करेगा…मेरा खयाल कर के नहीं गई…चार पैसे की नौकरी पर इतराती हो. अरे, मेरे बिना तुम हो क्या…तुम्हें समाज में लोग मिसिज प्रणव राय के नाम से जानते हैं.’’

तनु का क्रोध आज फिर अपना चरम पार करने लगा, ‘‘चुप रहिए, मैं ने पहले ही कहा था कि अब मुझ से बरदाश्त नहीं होता. ’’

‘‘कौन कहता है कि बरदाश्त करो…अब तो तुम ने मकान भी ले लिया है. जाओ…चली जाओ यहां से…मैं भूल गया था कि तुम जैसी मिडिल क्लास को कोठीबंगले रास नहीं आते. तुम्हारे लिए तो वही 2-3 कमरों का दड़बा ही ठीक है.’’

तनु इस अपमान को सह नहीं पाई और तुरंत ही अंदर जा कर अपना सूटकेस तैयार किया और वहां से निकल पड़ी. आंखों में आंसू लिए आज कोठी के फाटक को पार करते ही तनु को ऐसा लगा मानो कितने बरसों की घुटन के बाद उस ने खुली हवा में सांस ली है.

सारी रात आंखों में ही काट दी तनु ने अपने नए घर में…सुबह ही झपकी लगी कि डोरबेल से आंख खुल गई. सोचा, शायद प्रणव होंगे पर प्रोफेसर दीप्ति थी.

‘‘बाहर से ताला खुला देखा इसलिए बेल बजा दी. कब आईं आप?’’ शालीनता से पूछा था दीप्ति ने.

‘‘रात ही में.’’

‘‘ओह, अच्छा…पता ही नहीं चला. और मिस्टर राय?’’

‘‘वह बाहर गए हैं…तब तक दोचार दिन मैं यहां रह कर देखती हूं, फिर देखेंगे.’’

दीप्ति भेदभरी मुसकान से ‘बाय’ कह कर वहां से चल दी.

पूरा दिन निकल गया प्रतीक्षा में. तनु को बारबार लग रहा था प्रणव अब आए, तब आए. पर वह नहीं ही आए.

रात होतेहोते तनु ने अपने मन को समझा लिया था कि यह किस का इंतजार था मुझे? उस का जिस ने घर से निकाल दिया. अगर उन्हें आना ही होता तो मुझे निकालते ही क्यों…सचमुच मैं उन की जिंदगी का अवांछनीय अध्याय हूं. लेकिन ऐसा तो नहीं कि मैं जबरदस्ती ही उन की जिंदगी में शामिल हुई थी…

कालिज में मैं और निमिषा एक साथ पढ़ते थे. एक ही कक्षा और एक जैसी रुचियां होने के कारण हमारी शीघ्र ही दोस्ती हो गई. निमिषा और मुझ में कुछ अंतर था तो बस, यही कि वह अपनी कार से कालिज आती जिसे शोफर चलाता और बड़ी इज्जत के साथ कार का गेट खोल कर उसे उतारताबैठाता, और मैं डीटीसी की बस में सफर करती, जो सचमुच ही कभीकभी अंगरेजी भाषा का  ‘सफर’ हो जाता था. मेरा मुख्य उद्देश्य था शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना और निमिषा का केवल ग्रेजुएशन की डिगरी लेना. इस के बावजूद वह पढ़ाई में बहुत बुद्धिमान थी और अभी भी है…

ग्रेजुएशन करने तक मैं कभी निमिषा के घर नहीं गई…अच्छी दोस्ती होने के बाद भी मुझे लगता कि मुझे उस से एक दूरी बनानी है…कहां वह और कहां मैं…लेकिन जब मैं ने एम.ए. का फार्म भरा तो मुझे देख उस ने भी भर दिया और इस तरह हम 2 वर्ष तक और एकसाथ हो गए. इस दौरान मुझे दोचार बार उस के घर जाने का मौका मिला. घर क्या था, महल था.

मेरी हैरानी तब और बढ़ गई जब एम.फिल. के लिए मेरे साथसाथ उस ने भी आवेदन कर दिया. मेरे पूछने पर निमिषा ने कहा था, ‘यार, मम्मीपापा शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं, जब तक नहीं मिलता, पढ़ लेते हैं. तेरे साथसाथ जब तक चला जाए…’ बिना किसी लक्ष्य के निमिषा मेरे साथ कदम-दर-कदम मिलाती हुई बढ़ती जा रही थी और एक दिन हम दोनों को ही लेक्चरर के लिए नियुक्त कर लिया गया.

इस खुशी में उस के घर में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था. उसी पार्टी में पहली बार उस के भाई प्रणव से मेरी मुलाकात हुई. बाद में मुझे पता चला कि उस दिन पार्टी में मेरे रूपसौंदर्य से प्रभावित हो कर निमिषा के मम्मीपापा ने निमिषा की शादी के बाद मुझे अपनी बहू बनाने पर विचार किया, जिस पर अंतिम मोहर मेरे घर वालों को लगानी थी जो इस रिश्ते से मन में खुश भी थे और उन की शानोशौकत से भयभीत भी.

इस सब में लगभग एक साल का समय लगा. प्रणव कई बार मुझ से मिले, वह जानते थे कि मैं एक आम भारतीय समाज की उपज हूं…शानोशौकत मेरे खून में नहीं…लेकिन शादी के पहले मेरी यही बातें, मेरी सादगी, उन्हें अच्छी लगती थी, जो उन की सोसाइटी में पाई जाने वाली लड़कियों से मुझे अलग करती थी.

तनु को यहां रहते एक महीना हो चुका था. कुछ दिन तो दरवाजे की हर घंटी पर वह प्रणव की उम्मीद लगाती, लेकिन उम्मीदें होती ही टूटने के लिए हैं. इस अकेलेपन को तनु समझ ही नहीं पा रही थी. कभी तो अपने छोटे से घर में 55 वर्षीय प्रोफेसर डा. तनुश्री राय का मन कालिज गर्ल की तरह कुलाचें मार रहा होता कि यहां यह मिरर वर्क वाली वाल हैंगिंग सही लगेगी…और यह स्टूल यहां…नहीं…इसे इस कोने में रख देती हूं.

घर में कपडे़ की वाल हैंगिंग लगाते समय तनु को याद आया जब वह जनपथ से यह खरीद कर लाई थी और उसे ड्राइंग रूम में लगाने लगी तो प्रणव ने कैसे डांट कर मना कर दिया था कि यह सौ रुपल्ली का घटिया सा कपडे़ का टुकड़ा यहां लगाओगी…इस का पोंछा बना लो…वही ठीक रहेगा…नहीं तो अपने जैसी ही किसी को भेंट दे देना.

तनु अब अपनी इच्छा से हर चीज सजा रही थी. कोई मीनमेख निकालने वाला या उस का हाथ रोकने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी जीवन को किसी रीतेपन ने अपने घेरे में घेर लिया था.

कालिज की फाइनल परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं. सभी कहीं न कहीं जाने की तैयारियों में थे. प्रणव के साथ मैं भी हमेशा इन दिनों बाहर चली जाया करती थी…सोच कर अचानक तनु को याद आया कि बेटा  ‘यश’ के पास जाना चाहिए…उस की शादी पर तो नहीं जा पाई थी…फिर वहीं से बेटी के पास भी हो कर आऊंगी.

बस, तुरतफुरत बेटे को फोन किया और अपनी तैयारियों में लग गई. कितनी प्रसन्नता झलक रही थी यश की आवाज में. और 3 दिन बाद ही अमेरिका से हवाई जहाज का टिकट भी भेज दिया था.

फ्लाइट का समय हो रहा था… ड्राइवर सामान नीचे ले जा चुका था, तनु हाथ में चाबी ले कर बाहर निकलने को ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई, उफ, इस समय कौन होगा. देखा, दरवाजे पर प्रणव खड़े हैं.

क्षण भर को तो तनु किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गई. उफ, 2 महीनों में ही यह क्या हो गया प्रणव को. मानो बरसों के मरीज हों.

‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ प्रणव ने उस की तंद्रा तोड़ते हुए पूछा.

‘‘हां, यश के पास…पर आप अंदर तो आओ.’’

‘‘अंदर बैठा कर तनु प्रणव के लिए पानी लेने को मुड़ी ही थी कि उस ने तनु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तनु, मुझे माफ नहीं करोगी. इन 2 महीनों में ही मुझे अपने झूठे अहम का एहसास हो गया. जिस प्यार और सम्मान की तुम अधिकारिणी थीं, तुम्हें वह नहीं दे पाया. अपने  ‘स्वाभिमान’ के आवरण में घिरा हुआ मैं तुम्हारे अस्तित्व को पहचान ही नहीं पाया. मैं भूल गया कि तुम से ही मेरा अस्तित्व है. मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं…यह सच है तनु, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं…पहले भी करता था पर अपने अहम के कारण कहा नहीं, आज कहता हूं तनु, तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा…मुझे माफ कर दो और अपने घर चलो. बहू को पहली बार अपने घर बुलाने के लिए उस के स्वागत की तैयारी भी तो करनी है…मुझे एक मौका दो अपनी गलती सुधारने का.’’

तनु बुढ़ापे में पहली बार अपने पति के प्यार से सराबोर खुशी के आंसू पोंछती हुई अपने बेटे को अपने न आ पाने की सूचना देने के लिए फोन करने लगा.

 

 

तलाक के बाद: क्या स्मिता को मिला जीवनसाथी

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रीते हाथ: क्या था उमा का सपना

अपनी बातों का सिलसिला खत्म कर उमा घर से निकली तो मैं दरवाजा बंद कर अंदर आ गई. आंखों में अतीत और वर्तमान दोनों आकार लेने लगे. मैं सोफे पर चुपचाप बैठ कर अपने ही खयालों में खोई अपनी सहेली के रीते हाथों के बारे में सोचती रही.

क्यों उमा से मेरी दोस्ती मां को बिलकुल पसंद नहीं थी. सुंदर, स्मार्ट, हर काम में आगे, उमा मुझे बहुत अच्छी लगती थी. वह मुझ से एक क्लास आगे थी और रास्ता एक होने के कारण हम अकसर साथ स्कूल आतेजाते थे. तब मैं भरसक इस कोशिश में रहती कि मां को हमारे मिलने का पता न चले, पर मां को सब पता चल ही जाता था.

उमा स्कूल से कालिज पहुंची तो दूसरे ही साल मेरा भी दाखिला उसी कालिज में हो गया. कालिज के उमड़ते सैलाब में तो उमा ही मेरा एकमात्र सहारा थी. यहां उस का प्रभाव स्कूल से भी ज्यादा था. कालिज का कोई भी कार्यक्रम उस के बगैर अधूरा लगता था. नाटक हिंदी का हो या अंगरेजी का उमा का नाम तो होता ही, अभिनय भी वह गजब का कर लेती थी.

लड़कों की एक  लंबी फेहरिस्त थी, जो उमाके दीवाने थे. वह भी तो कैसे बेझिझक उन सब से बात कर लेती थी. बात भी करती और पीठ पीछे उन का मजाक भी उड़ाती. कालिज से लौटते समय एक बार उमा ने मुझे बताया था कि अभी तो ये ग्रेजुएशन ही कर रहे हैं और इन को कुछ बनने में, कमाने में सालों लगेंगे. मैं तो किसी ऐसे युवक से विवाह करूंगी जिस की अच्छी आमदनी हो ताकि मैं आराम से रह सकूं.

इसलिए मैं किसी के प्यार के चक्कर में नहीं पड़ती. मैं उस की दूरदर्शी बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. मुझ में झिझक थी. मैं अपनी किताबी दुनिया से बाहर कुछ नहीं जानती थी और उमा ठीक मेरे विपरीत थी. क्या यही कारण था, जो मुझे उस के व्यक्तित्व की ओर आकर्षित करता था? मन में छिपी एक कसक थी कि काश, मैं भी उस की जैसी बन पाती लेकिन मां क्यों…?

संयोग देखो कि उस की आकांक्षाओं पर जो युवक खरा उतरा वह मेरा ही मुंहबोला भाई विकास था. विकास से हमारा पारिवारिक रिश्ता इतना भर था कि उस के और मेरे पिता कभी साथसाथ पढ़ते थे पर इतने भर से ही विकास ने कभी हम बहनों को भाई की कमी महसूस नहीं होने दी.

अपने घर की एक पार्टी में मैं ने विकास का परिचय उमा से कराया था और यह परिचय दोस्ती का रूप धर धीरेधीरे प्रगाढ़ होता चला गया था. मगर उस के पिता का मापतौल अलग था, उमा की आकांक्षाओं पर विकास भले ही खरा उतरा था. उमा की मां किसी राजघराने से संबंधित थीं और इस बात का गरूर उमा की मां से अधिक उस के पिता को था.

एक साधारण परिवार में वह अपनी बेटी ब्याह दें, यह नामुमकिन था. इसलिए उन्होंने एक खानदानी रईस परिवार में उमा का रिश्ता कर दिया. ऐसी बिंदास लड़की पर भी मांबाप का जोर चलता है, सोच कर मुझे आश्चर्य हुआ पर यही सच था.

उमा के विवाह के 2 महीने बाद ही मेरा भी विवाह हो गया. पहली बार मायके आने पर पता चला कि उमा भी मायके आई हुई है, हमेशा के लिए. ‘लड़का नपुंसक है,’ यही बात उमा ने सब से कही थी. यह सच था अथवा उस ने अपने डिक्टेटर पिता को उन्हीं की शैली में जवाब दिया था, वही जाने.

बहरहाल, पिता अपना दांव लगा कर हार चुके थे. इस बार मां ने दबाव डाला. उमा एक बार फिर दुलहन बनी और इस बार दूल्हा विकास था. प्यार की आखिरकार जीत हुई थी. एक असंभव सी लगने वाली बात संभव हो गई. हम सभी खुश थे. विकास की खुशी हम सब की खुशी थी. बस, मां ही केवल औपचारिकता निभाती थीं उमा से.

साल दर साल बीत रहे थे. अब शादीब्याह जैसे पारिवारिक मिलन के अवसरों पर उमा से मुलाकात हो ही जाती. एकदूसरे की हमराज तो हम पहले से ही थीं, अब और भी करीब हो गई थीं. एक बात सोचती हूं कि मनचाहा पा कर भी व्यक्ति संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता? और ऊंचे उड़ने की अंधी चाह औंधेमुंह पटक भी तो सकती है. उमा यही बात समझ नहीं पा रही थी. उसे अपनी महत्त्वा- कांक्षाओं के आगे सब बौने लगने लगे थे.

विकास से उस की शिकायतों की फेहरिस्त हर मुलाकात में पहले से लंबी हो रही थी, वह महत्त्वाकांक्षी नहीं, पार्टियों, क्लबों का शौकीन नहीं, उसे अंगरेजी फिल्में पसंद नहीं, वह उमा के लिए महंगेमहंगे उपहार नहीं लाता…और भी न जाने क्याक्या? मैं भी अब पहले जैसी नादान नहीं रही थी. दुनियादारी सीख चुकी थी और मुझ में इतना आत्मविश्वास आ चुका था कि उमा को अच्छेबुरे की, गलतसही की पहचान करा सकूं.

‘देख उमा, मैं जानती हूं कि विकास बहुत महत्त्वाकांक्षी नहीं है पर तुम तो आराम से रहती हो न, और सब से बड़ी बात, वह तुम्हें कितना प्यार करता है. इस से बड़ा सौभाग्य क्या और कुछ हो सकता है? बताओ, कितनों को मनपसंद साथी मिलता है. फिर भी तुम्हें शिकायतें हैं, जबकि ज्यादातर औरतें एक अजनबी व्यक्ति के साथ तमाम उम्र गुजार देती हैं, बिना गिलेशिकवों के.’

‘मैं यह नहीं कहती कि पुरुष की सब बदसलूकियां चुपचाप सह लो, उस के सब जुल्म बरदाश्त कर लो पर जीवन में समझौते तो सभी को करने पड़ते हैं. यदि औरत घरपरिवार में तो पुरुष भी घर से बाहर दफ्तर में, काम में समझौते करता ही है.

‘मुझे ही देखो. मेरे पति अपने पैसे को दांत से पकड़ कर रखते हैं. अब इस बात पर रोऊं या इस बात पर तसल्ली कर लूं कि फुजूलखर्ची की आदत नहीं है तो दुखतकलीफ में किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे. दूसरे, कंजूस व्यक्ति में बुरी आदत जैसे सिगरेटशराब की लत पड़ने का भय नहीं रहता. अब यह तो जिस नजर से देखो नजारा वैसा ही दिखाई देगा.’

‘समझौता करना, कमियों को नजरअंदाज कर देना, यह सब तुम जैसे कमजोर लोगों का दर्शन है सुधा, सो तुम्हीं करो. यह समझौते मेरे बस के नहीं. मुझे जो एक जीवन मिला है मैं उसे भरपूर जीना चाहती हूं. शादी का मतलब यह तो नहीं कि मैं ने जीवन भर की गुलामी का बांड ही भर दिया है. ठीक है, गलती हो गई मेरे चयन में तो उसे सुधारा भी तो जा सकता है. मैं तुम्हारी तरह परंपरावादी नहीं हो सकती, होना भी नहीं चाहती और विकास को तो मैं सबक सिखा कर रहूंगी. इसी के लिए तो मैं पहले पति को छोड़ आई थी.’

विकास को सबक सिखाने का उमा ने नायाब तरीका भी ढूंढ़ निकाला. उस के काम पर जाते ही वह अपने पुरुष मित्रों से मिलने चल पड़ती. उस का व्यक्तित्व एक मैगनेट की तरह तो था ही जिस के आकर्षण में पुरुष स्वयं ख्ंिचे चले आते थे. क्या अविवाहित और क्या विवाहित, दोनों ही.

उमा अब विकास के स्वाभिमान को, उस के पौरुष को खुलेआम चुनौती दे रही थी. उसे लगता था कि इस से अच्छा तो तलाक ही हो जाता. कम से कम वह चैन से तो जी पाएगा.

उमा की यह इच्छा भी पूरी हो गई. उस का विकास से भी तलाक हो गया और वह अपनी 5 वर्षीय बेटी को भी छोड़ने को तैयार हो गई, क्योंकि इस बीच उस ने नवीन पाठक को पूरी तरह अपने मोहजाल में फंसा कर विवाह का वादा ले लिया था.

मैं उस के नए पति से कभी मिली नहीं थी और न ही मिलने की कोई उत्सुकता थी. बस, इतना जानती थी कि वह किसी उच्च पद पर है और प्राय: ही विदेश जाता रहता है.

कुछ दिन के बाद उमा दूसरे शहर चली गई तो हम सब ने राहत की सांस ली. बस, विकास को देख कर मन दुखी होता था. इस रिश्ते का टूटना विकास के लिए महज एक कागजी काररवाई न थी. उस में अस्वीकृति का बड़ा एहसास जुड़ा था और उस जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह गहरा धक्का था. वैरागी सा हो गया था वह. कम ही किसी से मिलता और काम के बाद का सारा समय वह अपनी बेटी के संग ही बिताता.

लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर उमा अचानक मिल गई. इस बीच हम भी अनेक शहर घूम दिल्ली आ कर बस गए थे. हुआ यों कि एक शादी के रिसेप्शन में शामिल होने हम जिस होटल में गए थे, होटल की लौबी में अचानक ही उमा मुझे दिख गई. उस ने भी मुझे देख लिया और फौरन हम एकदूसरे की तरफ लपके.

उमा अब 50 को छू रही थी किंतु उस के साथ जो पुरुष था वह उस से काफी बड़ा लग रहा था. उस समय तो अधिक बातचीत नहीं हो पाई पर उसे देख कर सब पुरानी यादें उमड़ पड़ी थीं. मैं ने फौरन उसे अगले ही दिन घर आने और पूरा दिन संग बिताने के लिए आमंत्रित कर लिया. आश्चर्य, अब भी उस के प्रति मेरा अनुराग बना हुआ था.

उमा समय पर पहुंची. मैं ने खाना तो तैयार कर ही रखा था, काफी भी बना कर थर्मस भर दिया था ताकि इत्मीनान से बैठ कर हम बातचीत कर सकें.

मेरे पहले प्रश्न का उत्तर ही मुझे झटका दे गया, महज बात शुरू करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पाठक साहब कैसे मिजाज के हैं? मैं ने कल पहली बार उन्हें देखा.’’

उमा के चेहरे पर एक बुझी हुई और उदास सी मुसकान दिखाई दी और पल भर में वह गायब भी हो गई, कुछ पल खामोश रही वह, पर मेरी उत्सुक निगाहों को देख टुकड़ोंटुकड़ों में बोली, ‘‘वह पाठक नहीं था. हम दोनों अब एकसाथ रहते हैं. दरअसल, पाठक सही आदमी नहीं था. बहुत ऐयाश किस्म का आदमी था वह. तुम सोच नहीं सकतीं कि मैं किस तनाव से गुजरी हूं. जी चाहता है जान दे दूं. एंटी डिपे्रशन की दवाई तो लेती ही हूं.’’

विकास के साथ किए गए उस के पुराने व्यवहार को भूल कर मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सांत्वना देने का प्रयत्न किया.

‘‘कई औरतों के साथ पाठक के संबंध थे और विवाह के एक साल बाद से ही वह खुलेआम अपने दफ्तर की एक महिला के संग घूमने लगा था. जब जी चाहता वह घर आता, जब चाहता रात भी उसी के संग बिता देता. अपनी ऐसी तौहीन, मेरे बरदाश्त के बाहर थी.’’

‘हमारे किए का फल कई बार कितना स्पष्ट होता है’ कहना चाह कर भी मैं कह नहीं पाई. मुझे उस से हमदर्दी हो रही थी. एक औरत होने के नाते या पुरानी दोस्ती के नाते? जो भी मान लो.

‘‘फिर अब कहां रहती हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एक फ्लैट पाठक ने विवाह के समय ही मेरे नाम कर दिया था. मैं उसी में रहती हूं. बाकी मैं रीयल एस्टेट का अपना व्यवसाय करती हूं ताकि उस से और किसी सहायता की जरूरत न पड़े.’’

बच्चों की बात हुई तो मैं ने उसे बताया कि मेरे दोनों बच्चे ठीक से सैटल हो चुके हैं. बेटे ने अहमदाबाद से एम.बी.ए. किया है और बेटी ने बंगलौर से. बेटी का तो विवाह भी हो चुका है और अब बेटे के विवाह की सोच रहे हैं.

जानती तो मैं भी थी उस की बिटिया के बारे में पर वह कितना जानती है पता नहीं. यही सोच कर मैं कुछ नहीं बोली. उस ने स्वयं ही बेजान सी आवाज में कहा, ‘‘सुना है, अलग अपनी किसी सहेली के साथ रहती है. कईकई दिनों घर नहीं जाती. मुझ से तो ठीक से बात करने को भी तैयार नहीं. फोन करूं तो एकदो बात का अधूरा सा जवाब दे कर फोन रख देती है,’’ यह कहतेकहते वह रोंआसी हो गई. मैं उस की ओर देखती रही, लेकिन ढूंढ़ नहीं पाई जीवन से भरपूर, अपनी ही शर्तों पर जीने वाली उमा को.

‘‘सिर पर छत तो है पर सोच सकती हो, उस घर में अकेले रहना कितना भयावना हो जाता है? लगता है दीवारें एकसाथ गिर कर मुझे दबोच डालने का मनसूबा बनाती रहती हैं. शाम होते ही घर से निकल पड़ती हूं. कहीं भी, किसी के भी साथ… मैं तुम्हें पुरातनपंथी कहती थी, मजाक उड़ाती थी तुम्हारा. पर तुम ही अधिक समझदार निकलीं, जो अपना घर बनाए रखा, बच्चों को सुरक्षात्मक माहौल दिया. बच्चे तुम्हारे भी तुम से दूर हैं, फिर भी वह तुम्हारे अपने हैं. पूर्णता का एहसास है तुम्हें, कैसा भी हो तुम्हारा पति तुम्हारे साथ है, उस का सुरक्षात्मक कवच है तुम्हारे चारों ओर. जानती हो, मुझे कैसीकैसी बातें सुननी पड़ती हैं. मेरी ही बूआ का दामाद एक दिन मुझ से बोला, कोई बात नहीं यदि पाठक चला गया तो हम तो हैं न.

‘‘उस की बात से अधिक उस के कहने का ढंग, चेहरे का भाव मुझे आज भी परेशान करता है पर चुप हूं. मुंह खोलूंगी तो बूआ और उन की बेटी दोनों को दुख पहुंचेगा. और फिर अपने ही किए की तो सजा पा रही हूं…’’

उमा को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था. ठोकरें खा कर दूसरों के दुखदर्द का खयाल आने लगा था पर अब बहुत देर हो चुकी थी. मैं उस की सहायता तो क्या करती, सांत्वना के शब्द भी नहीं सोच पा रही थी. वही फिर बोली, ‘‘सुधा, घर तो खाली है ही मेरा मन भी एकदम खाली है. लगता है घनी अंधेरी रात है और मैं वीरान सड़क पर अकेली खड़ी हूं… रीते हाथ.

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काश: क्या दूर हुई कुसुम की शिकायत

‘‘नहीं, पापाजी नहीं, आप ने गलत चाल चली है. यह तो चीटिंग है. गुलाम घोड़े की चाल नहीं चल सकता,’’ मैं जोरजोर से चिल्ला रही थी. जबकि, पापाजी अपनी चाल पर अड़े हुए थे.

वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘तो क्या हो गया बेटा, चाल तो चाल है, घोड़ा चले या गुलाम.’’

दूर खड़े प्रवीण अंकल पास आते हुए बोले, ‘‘सही बात है, अनुराग. अब लाड़ली को हराना है तो कुछ हथकंडे तो अपनाने ही होंगे, वरना वह कहां जीतने देगी आप को? आप दोनों झगड़ते खूब हो, पर जानता हूं मैं, आप प्यार भी उसे बहुत करते हो.’’

‘‘क्या करूं प्रवीण, एक यही तो है जो बिलकुल मेरे जैसी है. मुझे समझती भी है और मेरे साथ मस्ती भी कर लेती है. वरना, आज के बच्चों के पास बुजुर्गों के लिए समय ही कहां है.’’

‘‘यह लीजिए पापाजी, शह. बचाइए अपना राजा,’’ मैं खुशी से तालियां बजाती हुई बोली. फिर सहसा खयाल आया कि पापाजी और प्रवीण अंकल को चाय देने का समय हो गया है.

‘‘पापाजी, चाय बना लाती हूं,’’ मैं उठती हुई बोली तो पापाजी प्रवीण अंकल से फिर मेरी तारीफ करने लगे.

वाकई, मैं और पापाजी बिलकुल एक से हैं. हमारी पसंदनापसंद हमारी सोच या कहिए पूरा व्यक्तित्व ही एकसा है. पापाजी मुझे बहुत प्यार करते हैं. मैं जहां उन के साथ मस्ती करती हूं, तरहतरह के गेम्स खेलती हूं तो वहीं गंभीर विषयों पर चर्र्चा भी करती हूं. वे मुझे हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं, मेरी केयर करते हैं.

वैसे, बता दूं, हमारा कोई खून का रिश्ता नहीं और न ही उन्होंने मुझे गोद लिया है. अब आप सोच रहे होंगे कि वे मेरे पापा कैसे हुए? दरअसल, ‘पापाजी’ मैं अपने ससुर को कहती हूं. वे भी मुझे बेटी से कम नहीं समझते. बहू और ससुर का हमारा रिश्ता बापबेटी के रिश्ते सा मधुर और खूबसूरत है.

मैं जब इस घर में ब्याह कर आईर् थी तो असमंजस में थी कि इस नए घर में ऐडजस्ट कैसे कर पाऊंगी? तब जेठजेठानी ऊपर के फ्लोर पर रहते थे और देवर व सासससुर हमारे साथ थे. जेठजेठानी कुछ माह बाद ही दूसरे शहर में शिफ्ट हो गए थे.

सासुमां का स्वभाव थोड़ा अलग था. वे अपने रिश्तेदारों, महल्ले वालों, पूजापाठ वगैरह में ही लगी रहतीं. पति और बच्चों के लिए वक्त नहीं था उन के पास. देवर पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त रहते तो मेरे पति यानी कुणाल औफिस के कामों में ओवरबिजी थे. मेरे पति स्वभाव से अपनी मां की तरह ही रूखे थे. रह गए मैं और पापाजी. पापाजी रिटायर हो चुके थे. सासुमां के विपरीत पूजापाठ और पोंगापंथी में उन का जरा सा भी विश्वास नहीं था. वे अपना समय पढ़नेलिखने और हलकेफुलके मनोरंजन करने में बिताते.

मैं तब बीए पास थी. पापाजी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं प्राइवेट एमए की परीक्षा दूं. घर में इस बात को ले कर काफी हंगामा हुआ. सासुमां ने भुनभुनाते हुए कहा था, ‘क्या करेगी पढ़ाई कर के? आखिर, घर ही तो संभालना है.’

मेरे पति ने भी टोका था, ‘कुसुम, तू ग्रेजुएट है. यही काफी है मेरे लिए. बेकार झंझट क्यों पाल रही है?’

मगर पापाजी मुझे पढ़ा कर आगे बढ़ाने को कृतसंकल्प थे. वे मानते थे कि ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता. उन के प्रयत्नों से मैं ने एमए पास कर लिया. इस बीच, मैं ने बेबी कंसीव कर लिया था. घर में खुशियां उमड़ पड़ीं. सब खुश थे. उन दिनों सास भी मेरी खास देखभाल करने लगी थीं. मगर ऐनवक्त पर मेरा छोटा ऐक्सिडैंट हुआ और मिसकैरिज हो गया. इस घटना के बाद कुणाल मुझ से कटेकटे से रहने लगे. मेरी सास ने भी मुझे ही दोषी ठहराया. मगर पापाजी ने मुझे संभाला, ‘‘बेटा, इस तरह की घटनाएं कभी भी हो सकती हैं. इस की वजह से स्वयं को टूटने नहीं देना. रास्ते फिर निकलेंगे. वक्त जैसी परिस्थितियां सामने लाता है, उसी के हिसाब से सब मैनेज करना होता है. तुम केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान रखो. बाकी चीजें स्वयं सुधर जाएंगी.’’

मुझे पापाजी के शब्दों से ताकत मिलती. पापाजी को मेरे प्रति असीम स्नेह की एक वजह यह भी थी कि उन की कोई बहन नहीं थी. वे 4 भाई थे. उन की कोई बेटी भी नहीं हुई. 2 बेटे ही थे. शायद यही वजह थी कि वे मुझ में अपनी बेटी देखते थे. एक वजह यह भी थी कि कुछ समय पहले जब वे बीमार पड़े तो मैं ने जीजान से उन की देखभाल की थी. तब से वे मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार रहते. उन्होंने मुझे पीएचडी करने की सलाह दी तो मैं सोच में पड़ गई. उन्होंने आश्वासन दिया कि वे मेरी हर संभव सहायता करेंगे. वे स्वयं इंटर कालेज में लैक्चरर हो कर रिटायर हुए थे. निश्ंिचत हो कर मैं ने फौर्म भर दिया.

समय यों ही गुजरता जा रहा था. देवर को बेंगलुरु में नौकरी मिल गई. वह वहां चला गया. सासुमां अपनी कीर्तनमंडली में और भी ज्यादा व्यस्त रहने लगीं जबकि मेरा ज्यादा समय पापाजी के साथ बीतता. इधर, मेरा रूटीन चेंज होने लगा था. सुबहसुबह मैं पापाजी के साथ जौगिंग के लिए जाती. दिन में उन की मदद से प्रोजैक्ट का काम करती और शाम को हम कभी बैडमिंटन, कभी चैस तो कभी ताश खेलते.

हम दोनों का प्रिय खेल शतरंज, प्रिय पेय ग्रीन टी, प्रिय भोजन कढ़ीचावल, प्रिय टाइमपास किताबें, प्रिय म्यूजिक गायक मुकेश के गाने थे. कुछ वे मौडर्न सोच वाले थे और कुछ मैं ‘ओल्ड इज गोल्ड’ में विश्वास रखने वाली. इसलिए हमारी खूब बन रही थी.

सासुमां भले ही हर मामले में पारंपरिक सोच रखती थीं पर परदा प्रथा पर ऐतबार नहीं था उन का. मुझे घर में किसी से परदा नहीं कराया जाता. कभीकभी जींस पहन लेने पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. पर मुझे कभीकभी लगता कि सासुमां और कुणाल के बीच कोई खिचड़ी पक रही है.

मैं दोबारा कंसीव नहीं कर पा रही थी. इस बात को ले कर वे दोनों उखड़ेउखड़े रहते. सासुमां अकसर मुझे इस के लिए बातें सुनातीं. उन की जिद पर मेरी मैडिकल जांच हुई. रिपोर्ट आई तो मेरी जिंदगी में हलचल मच गई. मैं कभी मां नहीं बन सकती थी.

इस खबर ने सब को गम के सागर में डुबो दिया. मैं स्वयं अंदर से टूट रही थी पर मुझे संभालने के बजाय उलटा कुणाल मेरा बातबेबात पर अपमान करने लगा. पापाजी इस बात पर कुणाल से नाराज रहने लगे. पर सासुमां कुणाल का ही पक्ष लेतीं.

इस बीच, कुणाल ने यह खबर दे कर सब को अचंभित कर दिया कि उसे कंपनी की तरफ से 2 सालों के लिए बेंगलुरु भेजा जा रहा है. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही वह फैसला सुनाता हुआ बोला, ‘‘कुसुम, तुम मेरे साथ नहीं चल रहीं. मैं अकेला ही जाऊंगा. तुम मम्मीपापा की देखभाल करो.’’

मैं चुप रह गई. वैसे भी कुणाल के दिल में अब मुझे अपने लिए खास जगह नहीं दिखती थी. कुणाल चला गया. मैं अपनी पीएचडी पूरी करने में व्यस्त हो गई. महीनों बीत गए. कुणाल का फोन गाहेबगाहे ही आता और बहुत संक्षेप में हालसमाचार पूछ कर रख देता. मैं फोन करती तो कहता कि अभी व्यस्त हूं या रास्ते में हूं वगैरह.

एक दिन मेरी बेंगलुरु की एक सहेली ने फोन किया और बताया कि कुणाल आजकल एक लड़की के साथ बहुत घूमफिर रहा है. पापाजी ने सुना तो तुरंत फोन उठा कर उसे डांट लगाई पर कुणाल और भी भड़क गया.

उधर, सासुमां भी बेटे का पक्ष ले कर भुनभुनाती रहीं. उस रात मैं ने पहली बार देखा कि पापाजी रातभर जागते रहे हैं. बारबार दरवाजा खोल कर आंगन में टहलने लगते या किचन में जा कर कभी कौफी बनाते तो कभी पानी ले कर आते. मैं खुद भी जागी हुई थी और मेरे कमरे तक ये सारी आवाजें आती रहीं.

सुबह उठ कर उन्होंने जो फैसला सुनाया वह हतप्रभ करने वाला था. पापाजी सासुमां से कह रहे थे, ‘‘आशा, मैं अपना यह घर बहू के नाम कर रहा हूं. मेरे और तुम्हारे बाद इस पर कुणाल का नहीं, बल्कि बहू का अधिकार होगा.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो? कुणाल हमारा बेटा है,’’ सासुमां ने प्रतिरोध किया पर पापाजी अपनी बात पर अड़े रहे.

मैं ने तुरंत आगे बढ़ कर उन से ऐसा करने को मना किया, मगर पापाजी नहीं माने. वकील बुला कर सारी कागजी कार्यवाही पूरी कर ली. मैं समझ रही थी कि पापाजी आने वाले तूफान से लड़ने के लिए मुझे मजबूत बना रहे हैं. सचमुच

2-3 माह बाद ही कुणाल ने मुझे तलाक के कागजात भेज दिए.

पहले तो मैं कुणाल के आगे रोईगिड़गिड़ाई, पर फिर पापाजी के कहने पर मैं ने सहमति से तलाक दे दिया.

जल्द ही खबर आ गई कि कुणाल ने दूसरी शादी कर ली है. पापाजी ने कुणाल से सारे संबंध काट लिए थे. जबकि, मैं बापबेटे को फिर से मिलाना चाहती थी. पापाजी इस बात के लिए कतई तैयार न थे. वे मुझे अपनी बेटी मानते थे. इस बात पर सासुमां ने कई दिनों तक बखेड़े किए. वे बीमार भी रहने लगी थीं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या करूं? मेरे घर में मां,

2 बहनें और एक छोटा भाई है. घरवालों ने मुझे पापाजी के हिसाब से चलने की सलाह दी थी. उन्हें पापाजी का नजरिया बहुत पसंद था. वैसे भी, तलाकशुदा बन कर वापस मायके में रहना मेरे लिए आसान नहीं था. ऐसे में पापाजी की बात मान कर मैं इसी घर में रहती रही. सासुमां अब ज्यादा ही बीमार रहने लगी थीं. एक दिन तेज बुखार में उन्होंने सदा के लिए आंखें बंद कर लीं. अब तक देवर की भी शादी हो चुकी थी. वह बेंगलुरु में ही सैटल हो चुका था.

मैं और पापाजी बिलकुल अकेले रह गए. मैं ने पीएचडी पूरी कर ली और पापाजी की प्रेरणा से एक कालेज में लैक्चरर भी बन गई. इधर, कुणाल से हमारा संपर्क न के बराबर था. कभी होलीदीवाली वह फोन करता तो पापाजी औपचारिक बातें कर के फोन रख देते.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. कुणाल पापाजी से इस बात पर नाराज था कि उन्होंने अपनी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी और मेरी वजह से उस से नाता तोड़ दिया. उधर, पापाजी कुणाल से इस वजह से नाराज थे कि उन की बात न मानते हुए कुणाल ने मुझे तलाक दे कर दूसरी शादी की.

एक दिन शाम के समय कुणाल का फोन आया. पापाजी ने फोन मुझे थमा दिया. कुणाल भड़क उठा और मुझे जलीकटी सुनाने लगा. पापाजी ने फोन स्पीकर पर कर दिया था. हद तो तब हुई जब उत्तेजित कुणाल मेरे और पापाजी के संबंधों पर कीचड़ उछालने लगा. कुणाल कह रहा था, ‘मैं समझ रहा हूं, पापाजी ने मुझे घर से बेदखल कर तुम्हें क्यों रखा हुआ है. तुम दोनों के बीच क्या चक्कर चल रहा है, इन सब की खबर है मुझे. ससुर के साथ ऐसा रिश्ता रखते हुए शर्म नहीं आई तुम्हें?’

वह अपना आपा खो चुका था. पापाजी के कानों में उस की ये बातें पहुंच रही थीं. उन्होंने मोबाइल बंद करते हुए उसे उठा कर फेंक दिया. मैं भी इस अप्रत्याशित इलजाम से सदमे में थी और मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. पापाजी ने मुझे सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, जमाना जो कहे, जितना भी कीचड़ उछाले, मैं ने तुझे अपनी बेटी माना है और अंतिम समय तक एक बाप का दायित्व निभाऊंगा.’’

अगले ही दिन से उन्होंने मुझे वास्तव में दत्तक पुत्री बनाने की कागजी कार्यवाही शुरू कर दी. रिश्ते को कानूनी मान्यता मिलने के बाद उन्होंने फाइनल डौक्यूमैंट्स की एक कौपी कुणाल को भी भेज दी.

अब मैं भी निश्ंिचत हो कर पूरे अधिकार के साथ अपने पिता के साथ रहने लगी. इधर, घर का ऊपरी हिस्सा पापाजी ने पेइंगगैस्ट के तौर पर

4 लड़कियों को दे दिया. उन लड़कियों के साथ मेरा मन लगा रहता और मेरे पीछे वे लड़कियां पापाजी की सहायता करतीं.

वक्त का चक्का अपनी गति से चलता रहा. मैं ने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया था. पर शायद कुणाल की जिंदगी के इम्तिहान अभी बाकी थे. कुणाल की बीवी की एक ऐक्सिडैंट में मौत हो गई. उस के 5 साल के बच्चे की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा. ऐसे में कुणाल को मेरी और पापाजी की याद आई. उस ने मुझे फोन किया, ‘‘प्लीज कुसुम, तुम्हीं इस बिन मां के बच्चे को संभाल सकती हो. मैं तो पूरे दिन बाहर रहता हूं. रात में लौटने का भी कोई टाइम नहीं है. श्रुति के घरवालों में भी कोई ऐसा नहीं जो इस की देखभाल करने को तैयार हो. अब मेरा बच्चा तुम्हारे आसरे ही है. इसे मां का प्यार दे दो. तुम्हें ही पापाजी से भी बात करनी होगी.’’

मैं ने उसे ऊपरी तौर पर तो हां कह दिया पर अंदर से जानती थी कि पापाजी कभी तैयार नहीं होंगे. मेरे अंदर की औरत उस बच्चे को स्वीकारने को व्यग्र थी. सो, मैं ने पापाजी से इस संदर्भ में बात की. वे भड़क उठे, ‘‘नहीं, यह मुमकिन नहीं. उसे अपने किए की सजा पाने दो.’’

‘‘मैं मानती हूं पापाजी कि कुणाल ने हमारे साथ गलत किया. उस ने आप का दिल दुखाया है. पर पापाजी उस नन्हे से बच्चे का क्या कुसूर? उसे किस बात की सजा मिले?’’

पापाजी के पास मेरी इस बात का कोई जवाब नहीं था. मैं ने भीगी पलकों से आगे कहा, ‘‘पापाजी, मुझे जिंदगी ने बच्चा नहीं दिया है. पर क्या कुणाल के इस बच्चे को अस्वीकार कर मैं आने वाली खुशियों के दरवाजे पर ताला नहीं लगा रही?’’

‘‘ठीक है बेटी,’’ पापाजी का गंभीर स्वर उभरा, ‘‘तुम उस बच्चे को रखना चाहती हो तो रख लो. जिंदगी तेरी गोद में खुशियां डालना चाहती है तो मैं कतई नहीं रोकूंगा, वैसे भी, वह मेरा पोता है. उस का हक है इस घर पर. मगर याद रखना कुणाल ने मुझ पर और मेरे घर पर अपना हक खो दिया है.’’

मैं ने यह बात कुणाल से कही तो वह खामोश हो गया. मैं समझ रही थी कि किसी भी बाप के लिए अपना बच्चा किसी और को सौंप देना आसान नहीं होता. कुणाल ऐसे मोड़ पर था जहां वह अपना पिता तो खो ही चुका था, अब बच्चे को भी पूर्व पत्नी के हाथ सौंप कर क्या वह बिलकुल अकेला नहीं हो जाएगा?

मैं कुणाल की मनोदशा समझ रही थी. 2-3 दिन बीत गए. फोन कर कुणाल से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई. उस दिन इतवार था. मैं घर पर थी और पापाजी के लिए दलिया बना रही थी. पापाजी कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अचानक दरवाजे की घंटी बजी.

दरवाजा खोला तो चौंक पड़ी. सामने कुणाल खड़ा था, 5 साल के प्यारे से बच्चे के साथ.

‘‘कुसुम, यह है मेरा बेटा नील. आज से मैं इस की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपता हूं. तुम ही इस की मां हो और तुम्हें ही इस का खयाल रखना होगा. हो सके तो मुझे माफ कर देना. पापाजी से कहना कि कुणाल माफी के लायक तो नहीं, फिर भी मांग रहा था,’’ यह कहते हुए उस ने नील का हाथ मेरे हाथों में थमाया और तेजी से बाहर निकल गया.

मैं नील को लिए अंदर पहुंची तो पापाजी को सामने खड़ा पाया. वे भीगी पलकों से एकटक नील की तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने बढ़ कर नील को गले लगा लिया.

मैं सोच रही थी, काश, पापाजी के इन आंसुओं के साथ कुणाल के प्रति उन की नाराजगी भी धुल जाए और काश, नील बापबेटे के बीच सेतु का काम करे. काश, हमारी बिखरी खुशियां फिर से हमें मिल जाएं.

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खामोश जवाब: क्या है नीमा की कहानी

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नीमा एक अतिमहत्त्वकांक्षा वाली महिला थी और यही कारण था कि वह ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थी. अपनी ख्वाहिश पूरी करने के लिए उस ने पति को तलाक दे कर युवान से शादी करने की सोची. मगर क्या यह इतना आसान था…

दर्द का रिश्ता: क्या हुआ अमृता के साथ

‘‘अरेअमृता, सभी लड़कियां दीवाली मनाने अपनेअपने घर चली गईं, तुम क्यों नहीं गईं? दीवाली की तो तुम्हारे औफिस में भी छुट्टी होती होगी?’’ पेइंगगैस्ट हाउस की मालकिन मालती सभी लड़कियों के घर जाने के बाद अमृता के कमरे में बत्ती जली देख कर उस के कमरे में जा कर चौंक कर बोलीं.

‘‘नहीं आंटी, बस ऐसे ही मन नहीं हुआ जाने का… कोई खास बात नहीं… मैस बंद हो गया है तो भी कोई बात नहीं, मैं बाहर खाना खा लूंगी. 1 हफ्ते के अंदर तो सभी लड़कियां आ ही जाएंगी… आप चिंता मत करिए,’’ अमृता ने बुझे मन से बात टालने के लिए कहा.

मगर अमृता का उदास चेहरा देख कर मालती भांप गईं कि कोई बात जरूर है, जिस ने इसे इतने बड़े त्योहार पर भी घर जाने से रोक लिया.

‘‘बेटा, साथ रहतेरहते हम सभी एक परिवार की तरह हो गए हैं. मैस बंद हो गया तो क्या… मैं अपने लिए तो खाना बनाऊंगी ही न और फिर अब मुझे तुम सब के साथ खाना खाने की आदत भी पड़ गई है. अकेले खाना मुझे अच्छा नहीं लगेगा, इसलिए हम दोनों साथ खाना खाएंगी. मैं तुम्हारी मां की तरह हूं… यदि तुम्हें उचित लगे तो मुझ से तुम कुछ भी मत छिपाओ… शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं. मुझ से तुम्हारा इस तरह उदास रहना नहीं देखा जा रहा,’’ मालती ने उस के पास बैठते हुए उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा तो उन का ममता भरा स्पर्श पा कर अमृता की आंखों में रुके आंसू बह निकले.

‘‘मेरी मां मुझे पैदा करते ही अकेला छोड़ चल बसी थीं, मेरी मौसी ही मेरी सौतेली मां हैं. घर पर रहती हूं तो वे मुझे कोसने का कभी

कोई मौका नहीं छोड़तीं कि पैदा होते ही मैं ने मां को खा लिया, यदि ऐसा नहीं होता तो उन्हें मुझे पालने के लिए अपनी बड़ी बहन की जगह नहीं लेनी पड़ती. उस जमाने में मातापिता का वर्चस्व ही सर्वोपरि होता था. मेरे नानानानी ने सोचा कि मौसी से अधिक अच्छी तरह और कौन मेरी देखभाल कर सकता है. पापा ने भी

यह सोच कर मौसी से विवाह कर लिया कि वे अपनी बहन की बेटी को अपनी बेटी की तरह पालेंगी, लेकिन इस के विपरीत उन्होंने अपना सारा आक्रोश मुझ पर ही निकालना शुरू कर दिया.

आप बताइए मैं अपनी मां की मृत्यु का कारण कैसे हो सकती हूं…? मेरा इस में क्या दोष है और यदि उन का विवाह मेरे पापा से हुआ तो उस में मेरी क्या गलती है? इसीलिए मेरे पापा ने मुझे होस्टल में रख कर ही पढ़ाया और मुझे वे कभी घर नहीं आने देना चाहते ताकि मुझे अकारण मौसी के व्यंग्यबाण न सहने पड़ें. जब उन का मन होता है, वे स्वयं मुझ से मिलने आ जाते हैं,’’ अमृता ने सुबकते हुए बिना किसी भूमिका के सब कह डाला.

मालती उस की बात सुन कर उसे अपने गले से लगाते हुए बोलीं, ‘‘मुझे बहुत दुख हुआ ये सब जान कर, लेकिन तुम दुखी मत हो… किसी भी चीज की जरूरत हो तो मुझे बताना,’’ कह वे चली गईं.

मालती के जाते ही अमृता सोच में पड़ गई कि कितना विरोधाभास है उस की मौसी और मालती आंटी के स्वभाव में. उस के मानसपटल पर 6 महीने पहले की घटना तैरने लगी. तबवह नौकरी के सिलसिले में पहली बार दिल्ली आई थी और एक पेइंगगैस्ट हाउस में रहना शुरू किया था. आते ही उसे वायरल बुखार ने अपनी चपेट में ले लिया. मैस में बना खाना उसे नहीं खाना था. फिर उस के अनुरोध  करने पर भी जब मैस चालक ने उसे उस की पसंद का खाना देने से इनकार कर दिया तो वह पास की दुकान पर ब्रैड लेने पहुंच गई. लेकिन जब दुकानदार ने ब्रैड नहीं है कहा तो वह बड़बड़ाई कि तबीयत ठीक नहीं है. लगता है मुझे मैस का तलाभुना खाना ही खाना पड़ेगा.

दुकान पर ही पास खड़ी मालती ने उस की बात सुन ली और फिर उस का हाथ छूते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, तुम्हें तो तेज बुखार है. मेरे घर चलो, पास में ही है. तुम्हें तुम्हारी पसंद का खाना बना कर खिलाऊंगी.’’

अनजान शहर में एक अनजान औरत से ऐसी आत्मीयता भरी बात सुन

कर वह हत्प्रभ रह गई. उसे वे पढ़ीलिखी और संभ्रांत परिवार की लग रही थीं, लेकिन प्रतिदिन इतनी वारदातें सुनने में आती हैं… एकदम से किसी पर भी विश्वास करना उसे ठीक नहीं लगा, इसलिए उस ने जवाब देते हुए कहा, ‘‘नहीं आंटी, मैं मैनेज कर लूंगी. आप परेशान न हों.’’

‘‘इस में परेशानी की कोई बात नहीं. तबीयत खराब हो तो खाना भी ठीक से मिलना जरूरी है वरना तबीयत और बिगड़ सकती है.’’

‘‘उन की बात बीच में ही काट कर दुकानदार बोला, ‘‘अरे, ये पास में ही तो रहती हैं. बहुत अच्छी हैं. मैं इन्हें 20 सालों से जानता हूं.’’

मालती के आत्मीयता भरे आमंत्रण पर दुकानदार के आश्वासन की मुहर लगते ही अमृता के नानुकुर करने की गुंजाइश ही नहीं रही. अत: बोली, ‘‘ठीक है,’’ और फिर उन के साथ उन के घर पहुंच गई.

एक बड़ी सी दोमंजिला कोठी के सामने जा कर दोनों रुक गईं. मालती उसे एक बड़े ड्राइंगरूम में ले गईं. सामने दीवार पर प्रौढ़ावस्था के पुरुष का माला पहने हुए बड़ा सा फोटो लगा था. उस ने अनुमान लगाया कि वह फोटो उन के पति का ही होगा.

मालती ने उसे दीवान पर आराम करने के लिए कहा और फिर अंदर जा कर तुरंत चाय बना लाईं. उस के साथ ब्रैडस्लाइस भी थे. अमृता को बहुत संकोच हो रहा था, उन्हें ये सब करते देख कर.

उस ने सकुचाते हुए पूछा, ‘‘आंटी, आप यहां अकेली रहती हैं?’’

‘‘हां, एक बेटा है… इंजीनियर है वह. पुणे में नौकरी करता है.’’

‘‘आंटी एक बात कहूं… यदि बुरा लगे तो प्लीज मुझे माफ कर दीजिएगा.’’

‘‘नहीं बेटा, बोलो क्या कहना चाहती हो? निस्संकोच कहो.’’

उन के उत्तर से अमृता की हिम्मत बढ़ गई. बोली, ‘‘आंटी, आप का इतना बड़ा घर

है, आप को अकेलापन भी लगता होगा, आप क्यों नहीं ऊपर की मंजिल पर कुछ कमरे हम जैसी लड़कियों को रहने के लिए दे देतीं?’’ आंटी प्लीज यह मत सोचिएगा कि मैं आप की स्थिति का फायदा उठाना चाहती हूं. छोटे मुंह बड़ी बात तो नहीं कह दी मैं ने?’’ इतना बोलते ही अमृता को अपराधभावना ने घेर लिया.

लेकिन तुरंत ही मालती के उत्तर से वह उस से बाहर आ गई. मालती बोली, ‘‘नहीं बेटा, तुम ने बहुत अच्छी सलाह दी है… इस से मेरा अकेलापन भी दूर हो जाएगा और यह मकान भी जरूरतमंदों के काम आ जाएगा.’’

‘‘सच आंटी?’’ उस ने खुशी जताते हुए कहा. फिर थोड़ी तटस्थ हो कर उन्हें और सोचने का मौका न देते हुए बोली, ‘‘तो फिर देर किस बात की… मैं शाम को ही अपनी रूममेट्स को ले कर आती हूं.’’

‘‘ठीक है, लेकिन अभी लंच कर के जाना और वादा करो कि जब तक तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं हो जाती, यहीं खाना खाओगी. मुझे भी कंपनी मिल जाएगी.’’

‘‘अब तो मुझे यहीं रहना है, बहुतबहुत धन्यवाद आंटी…’’ अमृता उन से लिपट कर भावातिरेक में और बहुत कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन पहली मुलाकात में इतना अनौपचारिक होने में उसे संकोच हुआ और मालती की भी शायद यही स्थिति थी. लंच कर के शाम को फिर आने का वादा कर के वह चली गई.

शाम को अमृता अपने साथ 4 लड़कियों को ले कर मालती के घर पहुंच गई. मालती उन लोगों को देख कर बहुत खुश हुईं और फिर बोलीं, ‘‘ठीक है, मुझे 1 हफ्ते का समय दो ताकि ऊपर मैं किसी को बुला कर तुम लोगों के रहने का इंतजाम करा सकूं… जब तक मैस का इंतजाम नहीं होता, तुम लोग मेरी किचन में ही खाना खाना.’’

‘‘अरे वाह आंटी, लेकिन किसी को बुलाने की आवश्यकता क्या है? हम चारों ही मिल कर सारी व्यवस्था कर लेंगे. मैस जब तक नहीं बनेगा, हम आप को आप की किचन में खाना बना कर खिलाएंगे, हमें खाना बनाना आता है. आप जो चार्ज करेंगी हम दे देंगे…’’ दूसरी लड़की प्रियंका ने थोड़ा अनौपचारिक होते हुए कहा.

‘‘पैसे की तो मेरे पास कोई कमी नहीं है. बस थोड़ा अकेलापन रहता है… वह तुम लोगों के रहने से दूर हो जाएगा. लेकिन एक बात का ध्यान रखना मैं थोड़ी अनुशासनप्रिय हूं… टीचर थी न. बहुत ऊंची आवाज में म्यूजिक सुनना और लेट नाइट आनाजाना मुझे पसंद नहीं… कोई मजबूरी हो तो बात अलग है.’’

सारी बातें तय हो गईं और उस के बाद उन लड़कियों ने मिल कर ऊपर के 2 कमरों को व्यवस्थित किया. देखने से लग रहा था कि महीनों से उन कमरों की किसी ने खोजखबर नहीं ली है. ऊपर 5 कमरे थे. बाकी के कमरों में भी महीनेभर के अंदर ही और लड़कियां आ गई थीं.

यह सत्र की शुरुआत थी, इसलिए उन में से कुछ पढ़ने वाली लड़कियां थीं. मैस का

भी इंतजाम हो गया था, लेकिन मालती खाना अपने सुपरविजन में ही बनवाती थीं. कुल मिला कर 10 लड़कियां थीं. हरेक के खाने की पसंद का खयाल रखा जाता था.

कोई बीमार पड़ती तो उस के लिए अलग से खाना बनता था. सभी लड़कियां मालती के व्यवहार से बहुत खुश रहती थीं और जल्दी उन से घुलमिल गई थीं. उन्हें अपने घर की कमी नहीं महसूस होती थी. मालती भी अपना खाना मैस में ही खाती थीं.

एक बात सब ने महसूस की थी कि मालती का व्यवहार सामान्य औरतों से कुछ हट कर था. एक गहरी उदासी की परत उन के चेहरे पर छाई रहती थी. कभी किसी ने उन्हें खुल कर हंसते नहीं देखा था. लड़कियों का अनुमान था कि शायद पति की मृत्यु हो जाने और बेटे के दूर रहने पर बुझीबुझी रहती हैं.

अमृता के मोबाइल की घंटी बजी तो उस की विचारतंद्रा को झटका लगा. मालती का फोन था, उन्होंने डिनर के लिए उसे नीचे बुलाया था. वह तुरंत नीचे पहुंच गई और फिर सकुचाते हुए बोली, ‘‘सौरी आंटी, मुझे खाना बनाना चाहिए था… मैं आ ही रही थी. आप क्यों परेशान हुईं?’’

‘‘कोई बात नहीं, तुम्हारी मां होतीं तो क्या तुम्हें बना कर नहीं खिलातीं? आज के बाद मुझे अपनी मां ही समझो. वैसे भी तुम्हें एक प्यार करने वाली मां चाहिए और मुझे एक बेटी. फिर क्यों न हम दोनों मिल कर एकदूसरे के जीवन की इस कमी को पूरी कर दें?’’

अमृता उन की बात सुन कर अवाक रह गई. आज मालती बहुत खुश दिखाई दे रही थीं. उन का यह नया रूप देख कर वह हैरान हो रही थी. उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. अपने कमरे में आ कर भी वह मालती के कथन के बारे में ही सोचती रही. उस की स्थिति जानने के बाद मालती की उस के प्रति प्रतिक्रिया उसे असमंजस की स्थिति में डाल रही थीं.

दीवाली के अगले दिन अमृता के पापा उस से मिलने आए तो हमेशा की तरह उस के कमरे में न आ कर उसे नीचे ही मिलने के लिए बुलाया. वह नीचे ड्राइंगरूम के बाहर मालती की आवाज सुन कर ठिठक कर खड़ी हो गई.

मालती कह रही थीं, ‘‘मेरी मां भी मुझे पैदा करते ही चल बसी थीं… अमृता की मनोस्थिति को मुझ से अधिक और कौन समझ सकता है? मैं उस की मां का स्थान तो नहीं ले सकती, लेकिन उस के जीवन की इस कमी को तो कुछ हद तक उस की सास बन कर जरूर पूरा कर सकती हूं… अमृता जैसी लड़की मुझे बहू के रूप में मिल जाएगी तो मुझे बेटी की भी कमी नहीं खलेगी. मैं ने कल अपने बेटे रोहित से भी बात की थी, उस ने मेरी पसंद पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी है. किसी प्रकार का दबाव आप या आप की बेटी पर नहीं है. आप दोनों को ठीक लगे तो मैं बात आगे बढ़ाऊं.’’

यह सुन कर अमृता के पांव जमीन में जैसे जम से गए. उसे समझने में देर नहीं लगी कि उस दिन आंटी उस पर इतनी ममता क्यों उड़ेल रही थीं. अभी वह सोच ही रही थी कि मालती की नजर उस पर पड़ गई. वे बाहर आ कर उस का हाथ पकड़ कर अंदर ले गईं.

उस के चेहरे की लजीली मुसकान से वे समझ गईं कि उस ने उन की सारी बातें सुन ली हैं और उसे इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं है. अत: बोंली, ‘‘अभी तक तो तुम ने एक गैस्ट के तौर पर मेरे घर में रौनक की है, अब मेरी बहू बन कर मेरे बेटे की और मेरी जिंदगी में रौनक कर दो. तुम्हें मेरी बहू बनना था, इसीलिए उस दिन तुम मुझे दुकान पर मिली थी. अमृता भावातिरेक में उन के पांव छूने के लिए झुकी तो मालती ने उसे उठा कर अपने गले से लगा लिया.’’

अमृता बोली, ‘‘मैं ने मां को तो नहीं देखा, लेकिन होतीं तो आप जैसी हीं होतीं.’’

अमृता के पापा मूकदर्शक बने इस दर्द के रिश्ते को देख रहे थे. उन की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले.

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