देर से ही सही: क्या अविनाश और सीमा की जिंदगी खुशहाल हो पाई

सीमा को लगा कि घर में सब लोग चिंता कर रहे होंगे. लेकिन जब वह घर पहुंची तो किसी ने भी उस से कुछ नहीं पूछा, मानो किसी को पता ही नहीं कि आज उसे आने में देर हो गई है. पिताजी और बड़े भैया ड्राइंगरूम में बैठे किसी मुद्दे पर बातचीत कर रहे थे. छोटी बहन रुचि पति रितेश के साथ आई थी. वह भी बड़ी भाभी के कमरे में मां के साथ बड़ी और छोटी दोनों भाभियों के साथ बैठी गप मार रही थी. सीमा ने अपने कमरे में जा कर कपड़े बदले, हाथमुंह धोया और खुद ही रसोई में जा कर चाय बनाने लगी. रसोई से आती बरतनों की खटपट सुन कर छोटी भाभी आईं और औपचारिक स्वर में पूछा, ‘‘अरे, सीमा दीदी…आप आ गईं. लाओ, मैं चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, मैं बना लूंगी,’’ सीमा ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया तो छोटी भाभी वापस चली गईं.

सीमा एक गहरी सांस ले कर रह गई. कुछ समय पहले तक यही भाभी उस के दफ्तर से आते ही चायनाश्ता ले कर खड़ी रहती थीं. उस के पास बैठ कर उस से दिन भर का हालचाल पूछती थीं और अब…

सीमा के अंदर से हूक सी उठी. वह चाय का कप ले कर अपने कमरे में आ गई. अब चाय के हर घूंट के साथ सीमा को लग रहा था कि वह अपने ही घर में कितनी अकेली, कितनी उपेक्षित सी हो गई है.

चाय पीतेपीते सीमा का मन अतीत की गलियों में भटकने लगा.

सीमा के पिताजी सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. स्कूल के बाद ट्यूशन आदि कर के उन्होंने अपने चारों बच्चों को जैसेतैसे पढ़ाया और बड़ा किया. चारों बच्चों में सीमा दूसरे नंबर पर थी. उस से बड़ा सुरेश और छोटा राकेश व रुचि थे, क्योंकि एक स्कूल के अध्यापक के लिए 6 लोगों का परिवार पालना और 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना आसान नहीं था अत: बच्चे ट्यूशन कर के अपनी कालिज की फीस और किताबकापियों का खर्च निकाल लेते थे.

सीमा अपने भाईबहनों में सब से तेज दिमाग की थी. वह हमेशा कक्षा में प्रथम आती थी. उस का रिजल्ट देख कर पिताजी यही कहते थे कि सीमा बेटी नहीं बेटा है. देख लेना सीमा की मां, इसे मैं एक दिन प्रशासनिक अधिकारी बनाऊंगा.

अपने पिता की इच्छा को जान कर वह दोगुनी लगन से आगे की पढ़ाई जारी करती. बी.ए. करने के बाद सीमा ने 3 वर्षों के अथक परिश्रम से आखिर अपनी मंजिल पा ही ली. और आज वह महिला एवं बाल विकास विभाग में उच्च पद पर कार्यरत है. सीमा के मातापिता उस की इस सफलता से फूले नहीं समाते.

‘सीमा की मां, अब हमारे बुरे दिन खत्म हो गए. मैं कहता था न कि सीमा बेटी नहीं बेटा है,’ उस की पीठ थपथपाते हुए जब पिताजी ने उस की मां से कहा तो वह गर्व से फूल गई थीं. वह अपना पूरा वेतन मांपिताजी को सौंप देती. अपने ऊपर बहुत कम खर्च करती. मांपिताजी ने बहुत तकलीफें सह कर ही गृहस्थी चलाई थी अत: वह चाहती थी कि अब वे दोनों आराम से रहें, घूमेंफिरें. अकसर वह दफ्तर से मिली गाड़ी में अपने परिवार के साथ बाहर घूमने जाती, उन्हें बाजार ले जाती.

समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. सुरेश और राकेश पढ़लिख कर नौकरियों में लग गए थे. उन की नौकरी के लिए भी सीमा को अपने पद, पहचान और पैसे का भरपूर इस्तेमाल करना पड़ा था. सीमा की सारी सहेलियों की शादी हो गई. जब भी उन में से कोई सीमा से मिलती तो उस का पहला सवाल यही रहता, ‘सीमा, तुम शादी कब कर रही हो? नौकरी तो करती रहोगी लेकिन अब तुम्हें अपना घर जल्दी बसा लेना चाहिए.’

सुरेश का विवाह हुआ फिर कुछ समय बाद राकेश का भी विवाह हुआ. तब भी मांपिताजी ने उस के विवाह की सुध नहीं ली. समाज में और रिश्तेदारों में कानाफूसी होने लगी. रिश्तेदार जो भी रिश्ता सीमा के लिए ले कर आते, मांपिताजी या सुरेश उन सब में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा देते. इसी तरह समय बीतता रहा और घर में रुचि के विवाह की बात चलने लगी, लेकिन बड़ी बहन कुंआरी रहने के कारण छोटी के विवाह में अड़चन आने लगी. तभी सीमा के लिए अविनाश का रिश्ता आया.

अविनाश भी उसी की तरह प्रशासनिक अधिकारी था. उस में ऐसी कोई बात नहीं थी कि सीमा के घर वाले कोई कमी निकाल कर उसे ठुकरा पाते. रिश्तेदारों के दबाव के आगे झुक कर आखिर बेमन से उन्हें सीमा की शादी अविनाश से करनी पड़ी.

दोनों की छोटी सी गृहस्थी मजे से चल रही थी. शादी के बाद भी सीमा अपनी आधी से ज्यादा तनख्वाह अपने मातापिता को दे देती. एक ही शहर में रहने की वजह से अकसर ही वह मायके चली आती. घर में खाना बनाने के लिए रसोइया था ही इसलिए वह अविनाश के लिए ज्यादा चिंता भी नहीं करती थी. पर अविनाश को उस का यों मायके वालों को सारा पैसा दे देना या हर समय वहां चला जाना अच्छा नहीं लगता था. वह अकसर सीमा को समझाता भी था लेकिन वह उस की बातों पर ध्यान नहीं देती थी. आखिरकार, अविनाश ने भी उसे कुछ कहना छोड़ दिया.

अतीत की यादों से सीमा बाहर निकली तो देखा कमरे में अंधेरा हो आया था. पर सीमा ने लाइट नहीं जलाई. अब उसे एहसास हो रहा था कि उस के मातापिता ने अपने स्वार्थ के लिए उस की बसीबसाई गृहस्थी को उजाड़ने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

सीमा के मातापिता को हर समय यही लगता कि आखिर कब तक सीमा उन की जरूरतें पूरी करती रहेगी. कभी तो अविनाश उसे रोक ही देगा. सीमा की मां और भाभियां हमेशा अविनाश के खिलाफ उस के कान भरती रहतीं. उसे कभी घर के छोटेमोटे काम करते देख कहतीं, ‘‘देखो, मायके में तो तुम रानी थीं और यहां आ कर नौकरानी हो गईं. यह क्या गत हो गई है तुम्हारी.’’

मातापिता के दिखावटी प्यार में अंधी सीमा को तब उन का स्वार्थ समझ में नहीं आया था और वह अविनाश को छोड़ कर मायके आ गई. कितना रोया था अविनाश, कितनी मिन्नतें की थीं उस की, कितनी बार उसे आश्वासन दिया था कि वह चाहे उम्र भर अपनी सारी तनख्वाह मायके में देती रहे वह कुछ नहीं बोलेगा. उसे तो बस सीमा चाहिए. लेकिन सीमा ने उस की एक नहीं सुनी और उसे ठुकरा आई.

भाभी के कमरे से अभी भी हंसीठहाकों की आवाजें आ रही थीं. सीमा को याद आया कि जब 4 साल पहले वह अविनाश का घर छोड़ कर हमेशा के लिए मायके आ गई थी तब सब काम उस से पूछ कर किए जाते थे, यहां तक कि खाना भी उस से पूछ कर ही बनाया जाता था.

और अब…अंधेरे में सीमा ने एक गहरी सांस ली. धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. रुचि की शादी हो गई. उस की शादी में भी उस ने अपनी लगभग सारी जमापूंजी पिता को सौंप दी थी. आज वही रुचि मां और भाभियों में ही मगन रहती है. अपने ससुराल के किस्से सुनाती रहती है. दोनों भाभियां, भैया, मां और पिताजी बेटी व दामाद के स्वागत में उन के आगेपीछे घूमते रहते हैं और सीमा अपने कमरे में उपेक्षित सी पड़ी रहती है.

रुचि के नन्हे बच्चे को देखते ही उस के दिल में एक टीस सी उठती. आज उस का भी नन्हा सा बच्चा होता, पति होता, अपना घर होता. सीमा दीवार से सिर टिका कर बैठ गई. तभी मां कमरे में आईं.

‘‘अरे, अंधेरे में क्यों बैठी है?’’ मां ने बत्ती जलाते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं मां, बस थोड़ा सिर में दर्द है,’’ सीमा ने दूसरी ओर मुंह कर के जल्दी से अपने आंसू पोंछ लिए.

‘‘सुन बेटी, मुझे तुझ से कुछ काम था,’’ मां ने अपने स्वर में मिठास घोलते हुए कहा.

‘‘बोलो मां, क्या काम है?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘रुचि दीवाली पर मायके आई है तो मैं सोच रही थी कि उसे एकाध गहना बनवा दूं. दामाद और नन्हे के लिए भी कपड़े लेने हैं. तुम कल बैंक से 15 हजार रुपए निकलवा लाना. कल शाम को ही बाजार जा कर गहने व कपड़े ले आएंगे.’’

‘‘ठीक है, कल देखेंगे,’’ सीमा ने तल्ख स्वर में कहा.

सीमा ने मां से कह तो दिया पर उस का माथा भन्ना गया. 15 हजार रुपए क्या कम होते हैं. कितने आराम से कह दिया निकलवाने को. इतने सालों से वह अपने पैसों से घरभर की इच्छाओं की पूर्ति करती आ रही है लेकिन आज तक इन लोगों ने उस के लिए एक चुनरी तक नहीं खरीदी. मां को रुचि के लिए गहनेकपड़े खरीदने की चिंता है लेकिन उस के लिए दीवाली पर कुछ भी खरीदना याद नहीं रहता.

दूसरे दिन दफ्तर में सीमा का मन पूरे समय अविनाश के इर्दगिर्द घूमता रहा. उसे अपने किए पर आज पछतावा हो रहा था. लंच में उस की सहेली अनुराधा उस के कमरे में आ बैठी. अकसर दोनों साथसाथ लंच करती थीं.

‘‘क्या बात है, सीमा?’’ अनुराधा ने कहा, ‘‘मैं कुछ दिनों से देख रही हूं कि तू बहुत ज्यादा परेशान लग रही है.’’

अनुराधा ने लंच करते समय जब अपनेपन से पूछा तो सीमा अपनेआप को रोक नहीं पाई. घर वालों के उपेक्षापूर्ण व स्वार्थी रवैए के बारे में उसे सबकुछ बता दिया.

‘‘देख सीमा, मैं ने तो पहले भी तुझे समझाया था कि अविनाश को छोड़ कर तू ने अच्छा नहीं किया पर तू मायके वालों के स्वार्थ को प्यार समझे बैठी थी और मेरी एक नहीं मानी. अब हकीकत का तुझे भी पता चल गया न.’’

‘‘मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया है. मेरी आंखें खुल गई हैं,’’ सीमा की आंखों से आंसू ढुलक पड़े.

‘‘अब जा कर आंखें खुली हैं तेरी लेकिन जब अविनाश ने तुझे मनाने और घर वापस ले जाने की इतनी बार कोशिशें कीं तब तो…बेचारा मनामना कर थक गया,’’ अनुराधा का स्वर कड़वा सा हो गया.

‘‘मैं अपनी गलती मानती हूं. अब बहुत सजा भुगत चुकी हूं मैं. मेरे पास अपना कहने को कोई नहीं रहा. मैं बिलकुल अकेली रह गई हूं, अनु,’’ इतना कह सीमा फफक पड़ी.

सीमा को रोते देख अनुराधा का मन पिघल गया. उसे चुप कराते हुए वह बोली, ‘‘देख, सीमा, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. हां, देर तो हो गई है लेकिन इस के पहले कि और देर हो जाए तू अविनाश के पास वापस चली जा. तेरा पति होगा, अपना घर, अपना बच्चा, अपना परिवार होगा,’’ अनुराधा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे समझाया.

‘‘लेकिन क्या अविनाश मुझे माफ कर के फिर से अपना लेगा?’’ सीमा ने सुबकते हुए पूछा.

‘‘वह करे या न करे पर तुझे अपनी ओर से पहल तो करनी ही चाहिए और जहां तक मैं अविनाश को जानती हूं वह तुझे दिल से अपना लेगा, क्योंकि यह तो तुम भी जानती हो कि उस ने अब तक शादी नहीं की है,’’ अनुराधा ने कहा.

सीमा ने आंसू पोंछ लिए. आखिरी बार जब अविनाश उसे समझाने आया था तब जातेजाते उस ने सीमा से यही कहा था कि मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे और मैं जिंदगी भर तुम्हारा इंतजार करूंगा.

अनुराधा ने सीमा के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा, ‘‘जा, खुशीखुशी जा, बिना संकोच के अपने घर वापस चली जा. बाकी तेरी बहन की शादी हो चुकी है, भाई कमाने लगे हैं, पिताजी को पेंशन मिलती है. उन लोगों को अपना घर चलाने दे, तू जा कर अपना घर संभाल. एक नई जिंदगी तेरी राह देख रही है.’’

क्या करे क्या न करे? इसी ऊहापोह में दीवाली बीत गई. त्योहार पर घर वालों के व्यवहार ने सीमा के निर्णय को और अधिक दृढ़ कर दिया.

छुट्टियां बीत जाने के बाद जब सीमा आफिस गई तो मन ही मन उस ने अपने फैसले को पक्का किया. अपने जो भी जरूरी कागजात व अन्य सामान था उसे सीमा ने आफिस के अपने बैग में डाला और आफिस चली गई. आफिस में अनुराधा से पता चला कि अविनाश शहर में ही है टूर पर नहीं गया है. शाम को घर पर ही मिलेगा.

शाम को आफिस से निकलने के बाद सीमा ने ड्राइवर को अविनाश के घर चलने के लिए कहा. हर मोड़ पर उस का दिल धड़क उठता कि पता नहीं क्या होगा. सारे रास्ते सीमा सुख और दुख की मिलीजुली स्थिति के बीच झूलती रही. 10 मिनट का रास्ता उसे 10 साल लंबा लगा था. गाड़ी अविनाश के घर के सामने जा रुकी. धड़कते दिल से सीमा ने गेट खोला और कांपते हाथों से दरवाजे की घंटी बजाई. थोड़ी देर बाद ही अविनाश ने दरवाजा खोला.

‘‘सीमा, तुम…आज अचानक. आओआओ, अंदर आओ,’’ अविनाश सीमा को देखते ही खुशी से कांपते स्वर में बोला. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि सीमा को देख कर वह कितना खुश है.

‘‘मुझे माफ कर दो, अविनाश. घर वालों के झूठे मोह में पड़ कर मैं ने तुम्हें बहुत तकलीफ पहुंचाई है, बहुत दुख दिए हैं, पत्नी होने का कभी कोई फर्ज नहीं निभाया मैं ने, लेकिन आज मेरी आंखें खुल गई हैं. क्या तुम मुझे फिर से…’’ सीमा ने अपना बैग नीचे रखते हुए पूछा तो आगे के शब्द आंसुओं की वजह से गले में ही फंस गए.

‘‘नहींनहीं, सीमा, गलती सभी से हो जाती है. जो बीत गया उसे बुरा सपना समझ कर भूल जाओ. यह घर और मैं आज भी तुम्हारे ही हैं. देखो, तुम्हारा घर आज भी वैसे का वैसा ही है,’’ अविनाश ने सीमा को अपने सीने से लगा लिया.

सीमा का जब सारा गुबार आंसुओं में बह गया तो वह अविनाश से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने मायके वालों के प्रति अपना आखिरी कर्तव्य पूरा कर आती हूं.’’

‘‘वह क्या, सीमा?’’ अविनाश ने आश्चर्य और आशंका से पूछा.

‘‘उन्हें फोन तो कर दूं कि मैं अपने घर आ गई हूं, वे मेरी चिंता न करें,’’ सीमा ने हंसते हुए कहा तो अविनाश भी हंसने लगा.

‘‘हैलो, कौन…मां?’’ सीमा ने मायके फोन लगाया तो उधर से मां ने फोन उठाया.

‘‘हां, सीमा, तुम कहां हो…अभी तक घर क्यों नहीं पहुंचीं?’’

‘‘मां, मैं घर पहुंच गई हूं, अपने घर…अविनाश के पास.’’

‘‘यह क्या पागलपन है, सीमा,’’ यह सुनते ही सीमा की मां बौखला गईं, ‘‘इस तरह से अचानक ही तुम…’’

मां और कुछ कहतीं इस से पहले ही सीमा ने फोन काट दिया. अपने नए जीवन की शुरुआत में वह किसी से उलटासीधा सुन कर अपना मूड खराब नहीं करना चाहती थी. उसे प्यास लगी थी. पानी पीने के लिए सीमा रसोई में गई तो देखा एक थाली में अविनाश दीपक सजा रहा है.

‘‘यह क्या कर रहे हो, अविनाश?’’ सीमा ने कौतूहल से पूछा.

‘‘दीये सजा रहा हूं.’’ अविनाश ने उत्तर दिया.

‘‘लेकिन दीवाली तो बीत चुकी है.’’

‘‘हां, लेकिन मेरे घर की लक्ष्मी तो आज आई है, तो मेरी दीवाली तो आज ही है. इसलिए उस के स्वागत में ये दीये जला रहा हूं,’’ अविनाश ने सीमा की तरफ प्यार से देखते हुए कहा तो सीमा का मन भर आया.

अब वह पतिपत्नी के इस अटूट स्नेह संबंध को हमेशा हृदय से लगा कर रखेगी, यह सोच कर वह भी दीये सजाने में अविनाश की मदद करने लगी. देर से ही सही लेकिन आज उन के जीवन में प्यार और खुशहाली के दीये झिलमिला रहे थे.

लंबी रेस का घोड़ा: अंबिका ने क्यों मांगी मां से माफी

‘‘हर्षजी, टीवी आप का ध्यान दर्द से हटाने के लिए चल रहा है पर मेरा ध्यान तो न बटाएं. आप को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए यह कसरतें दवा से भी अधिक आवश्यक हैं,’’ डा. अनुराधा अनमने स्वर में बोलीं.

‘‘सौरी, अनुराधाजी, कसरतों की जरूरत मैं भली प्रकार समझता हूं. मैं तो आप को केवल यह बताना चाह रहा था कि कभी मैं भी मैराथन रनर था.’’

‘‘अच्छा तो फिक्र मत करें, आप एक बार फिर दौड़ेंगे,’’ डा. अनुराधा मुसकराई थीं.

‘‘क्यों मजाक करती हैं, डा. साहिबा, उठ कर खडे़ होने का साहस भी नहीं है मुझ में और आप मैराथन दौड़ने की बात करती हैं. आप मेरे बारे में ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं,’’ हर्ष दर्द से कराहते हुए बोले.

‘‘मिस्टर हर्ष, कोई लक्ष्य सामने हो तो व्यक्ति बहुत जल्दी प्रगति करता है.’’

‘‘मेरे हाथों का हाल देखा है आप ने, कलाई से बेजान हो कर लटके हैं. अब तो मैं ने इन के ठीक होने की उम्मीद भी छोड़ दी है,’’ हर्ष ने एक मायूस दृष्टि अपने बेजान हाथों पर डाली.

‘‘जानती हूं मैं, आज आप छोटेछोटे कामों के लिए भी दूसरों पर निर्भर हैं पर पहले से आप की हालत में सुधार तो आया है, यह तो आप भी जानते हैं. छोटी दौड़ में हाथों का प्रयोग करने की तो आप को जरूरत नहीं होगी,’’ डा. अनुराधा इतना कह कर हर्ष को सोचता छोड़ चली गई.

‘‘क्या हुआ? कहां खोए हैं आप?’’ पत्नी टीना की आवाज से हर्ष की तंद्रा टूटी.

‘‘कहीं नहीं, टीना, अपनी यादों में खोया था. मेरे जैसे दीनहीन, अपाहिज के पास सोचने के अलावा

दूसरा विकल्प भी क्या है.

डा. अनुराधा ने कहा कि मैं भी अर्द्धमैराथन में भाग ले सकता हूं, जबकि मैं जानता हूं कि यह संभव नहीं,’’ हर्ष के स्वर में पीड़ा थी.

‘‘खबरदार, जो कभी स्वयं को दीनहीन और अपाहिज कहा तो. याद रखो, तुम्हें एक दिन पूरी तरह स्वस्थ होना ही होगा. वैसे भी डा. अनुराधा उन लोगों में से नहीं हैं जो केवल मरीज का मन रखने के लिए झूठे आश्वासन दें.’’

‘‘अच्छा छोड़ो यह सब और बताओ, बीमा एजेंट ने क्या कहा?’’ हर्ष ने टीना के चेहरे की गंभीरता को देख कर पूछा था.

‘‘वह कह रहा था, आप का व्यापार और उस में काम करने वाले कर्मचारी तो बीमा पालिसी के दायरे में आते हैं पर इस तरह असामाजिक तत्त्वों द्वारा किया गया हमला बीमा के दायरे में नहीं आता.’’

‘‘यानी बीमा से हमें फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी?’’ हर्ष उत्तेजित हो उठे.

‘‘लगता तो ऐसा ही है हर्ष,’’ टीना बोली, ‘‘वैसे गलती हमारी ही है जो हम ने समय रहते मेडीक्लेम पालिसी नहीं ली.’’

‘‘मुझे क्या पता था कि मेरे साथ ऐसा भयंकर हादसा…’’ हर्ष का स्वर टूट गया.

‘‘छोड़ो, यह सब. आज की एक्सरसाइज पूरी हो गई हो तो घर चलें?’’ टीना ने बात टालते हुए कहा.

‘‘हां, डा. अनुराधा कह रही थीं कि आप अब एक दिन छोड़ कर आ सकते हैं, रोज आने की जरूरत नहीं.’’

टीना पहिए वाली कुरसी ले आई और उस की सहायता से हर्ष को कार में बैठाया फिर दूसरी ओर बैठ कर कार चलाने लगी. हर्ष पत्नी को सजल नेत्रों से कार चलाते देखता रहा.

ये भी पढ़ें- एक मुलाकात: क्या नेहा की बात समझ पाया अनुराग

हर्ष ने अपने दोनों हाथों पर एक नजर डाली जो आज दैनिक जरूरत के काम भी पूरा करने के लायक नहीं थे. अब तो खाने और बटन लगाने से ले कर जूतों के फीते बांधने में भी दूसरों की सहायता लेनी पड़ती थी. कार चलाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था. ऐसे अपाहिज जीवन का भी भला कोई मतलब है और कुछ नहीं तो कम से कम अपनी जीवन- लीला समाप्त कर के वह अपने परिवार को मुक्ति तो दे ही सकता है.

दूसरे ही क्षण हर्ष चौंक गए कि यह क्या सोचने लगे वह. अपने परिवार को वह और दुख नहीं दे सकते.

‘‘क्या हुआ? बहुत दर्द है क्या?’’ टीना ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं, आज दर्द कम है. मैं तो बस, यह सोच रहा हूं कि मेरे इलाज में ही 6 लाख से ऊपर खर्च हो गए हैं. जमा पूंजी तो इसी में चली गई अब बीमे की राशि मिलेगी नहीं तो काम कैसे चलेगा? फ्लैट की किस्त, बच्चों की पढ़ाई, कार की किस्त और सैकड़ों छोटेबडे़ खर्चे कैसे पूरे होंगे?’’

‘‘मैं शाम को ट्यूशन ले लिया करूंगी. कुछ न कुछ पैसों का सहारा हो ही जाएगा.’’

‘‘ट्यूशन कर के कितना कमा लोगी तुम?’’

‘‘फिर तुम ही कोई रास्ता दिखाओ,’’ टीना मुसकराई.

‘‘मेरे विचार से तो हमें अपना फ्लैट बेच देना चाहिए. जब मैं ठीक हो जाऊंगा तो फिर खरीद लेंगे,’’ हर्ष ने सुझाव दिया.

उत्तर में टीना ने बेबसी से उस पर एक नजर डाली. उस की नजरों में जाने क्या था जिस ने हर्ष को भीतर तक छलनी कर दिया. इसी के साथ बीते समय की कुछ घटनाएं सागर की लहरों की भांति उस के मानसपटल से टकराने लगी थीं.

‘क्यों भाई, तुम्हारा मीटर तो ठीकठाक है?’ उस दिन आटोरिकशा से उतरते हुए हर्ष ने मजाक के लहजे में कहा था.

‘कैसी बातें कर रहे हैं साहब. मीटर ठीक न होता तो मैं गाड़ी सड़क पर उतारता ही नहीं,’ चालक ने जवाब दिया.

हर्ष ने अपना बटुआ खोल कर 75 रुपए 50 पैसे निकाले. इस से पहले कि वह किराया चालक को  दे पाते, किसी ने उन की कमर पर खंजर सा कुछ भोंक दिया.

दर्द से तड़प कर वह पीछे की ओर पलटे कि दाएं हाथ और फिर बाएं हाथ पर भी वार हुआ. वह कराह उठे. दायां हाथ तो कलाई से इस तरह लटक गया जैसे किसी भी क्षण अलग हो कर गिर पडे़गा.

हर्ष छटपटा कर जमीन पर गिर पडे़ थे. धुंधलाई आंखों से उन्होंने 3 लोगों को दौड़ कर कुछ दूर खड़ी कार में बैठते देखा.

‘नंबर….नंबर नोट करो,’ असहनीय दर्द के बीच भी वह चिल्ला पडे़े. आटोचालक, जो अब तक भौचक खड़ा था, कार की ओर लपका. उस ने तेजी से दूर जाती कार का नंबर नोट कर लिया.

‘मेरा बैग,’ कटे हाथों से हर्ष ने कार की तरफ संकेत किया. पर वे जानते थे कि इस से उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा.

‘चलिए, आप को पास के दवाखाने तक छोड़ दूं,’ चालक ने सहारा दे कर हर्ष को आटोरिकशा में बैठाया तो उन्होंने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि चालक पर डाली और पीछे की सीट पर ढेर हो गए.

दिव्या नर्सिंग होम के सामने आटो रिकशा रुका तो उस से बाहर निकलने के लिए हर्ष को पूरी शक्ति लगानी पड़ी. उन को डर लग रहा था कि कहीं उन का दायां हाथ शरीर से अलग ही न हो जाए. आखिर बाएं हाथ से उसे थाम कर वे नर्सिंग होम की सीढि़यां चढ़ गए थे.

‘क्या हुआ? कैसे हुआ यह सब?’ आपातकक्ष में डाक्टर के नेत्र उन्हें देखते ही विस्फारित हो गए थे.

‘गुंडों ने हमला किया…तलवार और चाकू से.’

‘तब तो पुलिस केस है. हम आप को हाथ तक नहीं लगा सकते. आप प्लीज, सरकारी अस्पताल जाइए.’

हर्ष उलटे पांव नर्सिंग होम से बाहर निकल आए और सरकारी अस्पताल तक छोड़ने की प्रार्थना करते हुए उन्होंने आतीजाती गाडि़यों से लिफ्ट मांगी पर किसी ने मदद नहीं की.

वह अपने को घसीटते हुए कुछ दूर चले पर इस अवस्था में सरकारी अस्पताल पहुंच पाना उन के लिए संभव नहीं था.

तभी एक पुलिस जीप उन के पास आ कर रुकी. उन्होंने सहायता के लिए प्रार्थना नहीं की क्योंकि जिस से आशा ही न हो उस से मदद की भीख मांगने से क्या लाभ?

‘क्या हुआ?’ जीप के अंदर से प्रश्न पूछा गया. उत्तर में हर्ष ने अपना बायां हाथ ऊपर उठा दिया.

दूसरे ही क्षण कुछ हाथों ने उठा कर उन्हें जीप में बैठा दिया. बेहोशी की हालत में भी उन्होंने टूटेफूटे शब्दों में अनुनय किया था, ‘मुझे अस्पताल ले चलो भैया…’

जीप में बैठे सिपाही गणेशी ने न केवल उन्हें सरकारी अस्पताल पहुंचाया बल्कि उन की जेब से ढूंढ़ कर कार्ड निकाला और उन के घर फोन भी किया.

‘आप हर्षजी की पत्नी बोल रही हैं क्या?’

गणेशी का स्वर सुन कर टीना के मुख से निकला, ‘देखिए, हर्षजी अभी घर नहीं लौटे हैं. आप कल सुबह फोन कीजिए.’

‘आप मेरी बात ध्यान से सुनिए. हर्षजी यहां उस्मानिया अस्पताल में भरती हैं. वे घायल हैं और यहां उन का इलाज चल रहा है. उन के पास न तो पैसे हैं और न कोई देखभाल करने वाला.’

‘क्या हुआ है उन्हें और उन के पैसे कहां गए?’ टीना बदहवास सी हो उठी थी. रिसीवर उस के हाथ से छूट गया. अपने को किसी तरह संभाल कर टीना लड़खड़ाते कदमों से पड़ोसी दवे के घर तक पहुंची तो वह तुरंत साथ चलने को तैयार हो गए. टीना ने घर में रखे पैसे पर्स में डाल लिए. मन किसी अनहोनी की आशंका से धड़क रहा था.

अस्पताल पहुंच कर हर्ष को ढूंढ़ने में टीना को अधिक समय नहीं लगा. घायल अवस्था में अस्पताल आने वाले वही एकमात्र व्यक्ति थे.

‘आप के पति की किसी से दुश्मनी है क्या?’ टीना को देखते ही गणेशी ने प्रश्न किया.

‘नहीं तो, वह बेचारे सीधेसादे इनसान हैं. मैं ने तो उन्हें कभी ऊंची आवाज में किसी से बात करते भी नहीं सुना,’ उत्तर दवे साहब ने दिया था.

ये भी पढ़ें- देर से ही सही: क्या अविनाश और सीमा की जिंदगी खुशहाल हो पाई

‘तो क्या बहुत रुपए थे उन के पास?’

‘नहीं, उन का अधिकतर लेनदेन तो बैंकों के माध्यम से होता है.’

‘तो फिर ऐसा क्यों हुआ इन के साथ…?’ गणेशी ने प्रश्न बीच में ही छोड़ दिया था.

‘पर हुआ क्या है आप बताएंगे…?’ टीना अपना आपा खो रही थी.

‘गुंडों ने आप के पति पर जानलेवा हमला किया है. वह अभी तक जीवित हैं आप के लिए यह एक अच्छी खबर है,’  गणेशी ने सीधे सपाट स्वर में कहा.

हर्ष की दशा देख कर टीना और दवे दंपती सकते में आ गए थे.

‘गुंडों ने तलवार और छुरों से हमला किया था. कमर में बहुत गहरा जख्म है. हाथों को भारी नुकसान पहुंचा है. दायां हाथ तो कलाई से लगभग अलग ही हो गया है. मांसपेशियां, रक्तवाहिनियां सब कट गई हैं, इन का तुरंत आपरेशन करना पडे़गा,’ चिकित्सक ने सूचना दी थी.

हर्ष के मातापिता कुछ ही दूरी पर रहते थे. पिता को 2-3 वर्ष पहले पक्षाघात हुआ था पर मां अंबिका समाचार मिलते ही दौड़ी आईं.

‘मां, हर्ष को दूसरे अस्पताल ले जाएंगे, वहां के डा. मनुज रक्तवाहिनियों के कुशल शल्य चिकित्सक हैं,’ टीना बोली.

आपरेशन 4 घंटों से भी अधिक समय तक चला. 5 दिनों के बाद ही हर्ष को अस्पताल से छुट्टी भी मिल गई थी. पट्टियां खुलने के बाद भी दोनों हाथ बेकार थे. छोटेमोटे कामों के लिए भी हर्ष दूसरों पर निर्भर हो गए.

कुछ ही दिनों में हर्ष के पैरों में इतनी ताकत आ गई कि वह बिना किसी सहारे के अस्पताल चले जाते थे. टीना के वेतन पर ही सारा परिवार निर्भर था अत: सुबह 10 से 3 बजे तक वह हर्ष के साथ नहीं रह पाती थी.

कार झटके से रुकी तो हर्ष वर्तमान में आ गया.

‘‘क्या बात है, ऐसी रोनी सूरत क्यों बना रखी है?’’ कार से उतरते टीना ने कहा, ‘‘क्या हुआ जो बीमे की राशि नहीं मिलेगी. कुछ ही दिनों में तुम पूरी तरह स्वस्थ हो जाओगे और अपना व्यापार संभाल लोगे.’’

हर्ष और टीना घर पहुंचे तो हर्ष की मां अंबिका वहां आई हुई थीं.

‘‘तुम्हारी पसंद का भोजन बनाया है आज. याद है न आज कौन सा दिन है?’’ टिफिन खोल कर स्वादिष्ठ भोजन मेज पर सजाते हुए मां अंबिका बोलीं, ‘‘हर्ष, आज मैं ने तेरी पसंद की मखाने की खीर और दाल की कचौडि़यां बनाई हैं.’’

हर्ष और टीना को याद आया कि वह अपने विवाह की वर्षगांठ तक भूल गए थे.

‘‘अच्छा, मैं चलूंगी, घर में तेरे पापा अकेले हैं,’’  खाने के बाद चलने के लिए तैयार अंबिका ने कहा, ‘‘सब ठीक है ना हर्ष. तुम्हारा इलाज ठीक से चल रहा है न?’’

‘‘हां, सब ठीक है मां,’’ हर्ष ने जवाब दिया.

‘‘फिर तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है?’’

‘‘मां, मैं जिस बीमे की रकम की उम्मीद लगाए बैठा था वह अब नहीं मिलेगी,’’  इस बार उत्तर टीना ने दिया.

‘‘तो क्या सोचा है तुम ने?’’ अंबिका ने पूछा.

‘‘सोचता हूं मां, यह फ्लैट बेच दूं. बाद में फिर खरीद लेंगे,’’  हर्ष ने कहा.

‘‘मैं कई दिनों से एक बात सोच रही थी,’’  अंबिका गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘क्यों न तुम सपरिवार हमारे पास रहने आ जाओ. अपने फ्लैट को किराए पर उठाओगे तो किस्तों की समस्या हल हो जाएगी.’’

एकाएक सन्नाटा पसर गया था.

‘‘क्या हुआ?’’ मौन अंबिका ने ही तोड़ा. हर्ष ने कुछ नहीं कहा पर टीना रो पड़ी थी.

‘‘हम इस योग्य कहां मां, जो आप के साथ रह सकें. याद है जब पापा पर लकवे का असर हुआ था तो हम आप को अकेला छोड़ कर यहां रहने चले आए थे. तब लगा था कि वहां रहने पर हमें दिनरात की कुंठा और निराशा का सामना करना पडे़गा,’’  हर्ष ने ग्लानि भरे स्वर में कहा.

‘‘बेटा, मैं यह नहीं कहूंगी कि उस वक्त मुझे बुरा नहीं लगा था. पर मुसीबत का सामना करने के लिए मैं ने खुद को पत्थर सा कठोर बना लिया था. तुम लोग आज भी मेरे परिवार का हिस्सा हो और आज फिर मेरे परिवार पर आफत आई है,’’  अंबिका सधे स्वर में बोलीं.

‘‘मां, हो सके तो मुझे क्षमा कर देना. जो कुछ हुआ उस के लिए हर्ष से अधिक मैं दोषी हूं,’’ यह कह कर टीना अपनी सास के चरणों में झुक गई.

‘‘नदी हमेशा ऊपर से नीचे की ओर बहती है बेटी. मातापिता कभी अपनी ममता का प्रतिदान नहीं चाहते. हम जितना अपनी संतान के लिए करते हैं मातापिता के लिए कहां कर पाते,’’ यह कहते हुए अंबिका ने टीना को गले से लगा लिया.

ये भी पढ़ें- प्यार और समाज: क्या विधवा लता और सुशील की शादी हो पाई

‘‘आप जैसे मातापिता हों तो कोई भी औलाद बडे़ से बडे़ संकट से जूझ सकती है,’’  टीना बोली.

‘‘यह मत सोचना कि मेरा बेटा किसी से कम है. मैराथन का धावक रहा है मेरा बेटा. लंबी रेस का घोड़ा है यह,’’ अंबिका मुसकराईं.

‘‘अरे, हां, अच्छा याद दिलाया आप ने. शहर में अर्द्धमैराथन होने को है और हर्ष ने उस में भाग लेने का फैसला किया है,’’  टीना बोली.

‘‘सच? पर इस के लिए कडे़ अभ्यास की जरूरत होगी,’’ अंबिका ने कहा.

‘‘चिंता मत कीजिए दादी मां, हम दोनों भी पापा के साथ अभ्यास करेंगे,’’ कहते हुए ऋचा और ऋषि ने हाथ हवा में लहराए. आगे की बात उन सब की सम्मिलित हंसी में खो गई थी.

तजरबा: कैसे जाल में फंस कर रह गई रेणु

अगले मुलाकाती का नाम देखते ही ऋषिराज चौंक पड़ा. ‘डा. धवल पनंग.’ इस से पहले कि वह अपनी सेक्रेटरी सीपा से कुछ पूछता, उस ने आगंतुक के आने की सूचना दे दी. सीपा के सामने वह गाली तो दे नहीं सकता था फिर भी कहे बिना न रह सका, ‘‘तू अपना नर्सिंग होम छोड़ कर मेरे आफिस में क्या कर रहा है?’’

‘‘मास्टर डिटेक्टिव ऋषिराज से मुलाकात का इंतजार. भाई, क्लाइंट हूं आप का, बाकायदा फीस भर कर समय लिया…’’

‘‘मगर क्यों? घर पर नहीं आ सकता था?’’ ऋषि ने बात काटी.

‘‘जैसे मरीज के रोग का इलाज डाक्टर नर्सिंग होम में करते हैं वैसे ही मैं समझता हूं कि जासूस समस्या का सही समाधान अपने आफिस में करते होंगे,’’ धवल बोला.

‘‘वह तो है पर तू अपनी समस्या बता?’’

‘‘पिछले सप्ताह की बात है. एक दिन नर्सिंग होम में मोबाइल पर बात करते वक्त रेणु ने घबराए स्वर में कहा था, ‘कहा न मैं आऊंगी, फिर बारबार फोन क्यों…हां, जितना भी हो सकेगा करूंगी.’ रेणु के मायके वाले अपनी हर छोटीबड़ी घरेलू समस्या में रेणु को जरूर उलझाते हैं. सो यह सोच कर कि वहीं से फोन होगा, मैं ने कुछ नहीं पूछा. फिर मैं ने गौर किया कि रेणु काफी कोशिश कर के भी अपनी घबराहट छिपा नहीं पा रही है और अपने कुछ खास मरीज भी उस ने अपनी सहायक डा. सुरेखा के सिपुर्द कर दिए.

‘‘भले ही एकसाथ काम करते हैं, मगर मैं और रेणु अपनीअपनी गाड़ी से जाते हैं ताकि जिसे जब फुरसत मिले वह बच्चों को देखने घर आ जाए. उस दिन रेणु ने कहा कि उस का गाड़ी चलाने का मन नहीं है सो वह मेरे साथ चलेगी. मैं ने कहा कि शौक से चले, मगर वापस कैसे आएगी क्योंकि मुझे तो एक आपरेशन करने जल्दी आना है तो उस ने कहा कि सुरेखा से पिकअप करने को कह दिया है. रास्ते में मैं ने उस से पूछा कि किस का फोन था तो उस के चेहरे पर ऐसे डर के भाव आए जैसे कोई खून करते हुए वह रंगेहाथों पकड़ी गई हो.

ये भी पढ़ें- बुड्ढा कहीं का: शीतला सहाय को कैसे हुआ बुढ़ापे का एहसास

‘‘वह सकपका कर बोली, ‘यहां तो सारे दिन ही फोन आते रहते हैं, आप किस की बात कर रहे हो?’ मैं चाह कर भी नहीं कह सका कि जिसे सुन कर तुम्हारा हाल बेहाल हो गया है, लेकिन ऋषि, घर पहुंचने पर रेणु के बाथरूम जाते ही मैं ने उस के मोबाइल में वह नंबर ढूंढ़ लिया. वह रेणु के मायके वालों का नंबर नहीं था…’’

‘‘नंबर बता, अभी नामपता मंगवा देता हूं,’’ ऋषि ने बात काटी.

‘‘तेरा खयाल है, मैं नंबर पता लगवाने तेरे पास आया हूं?’’ धवल सूखी सी हंसी हंसा. फिर कहने लगा, ‘‘खैर, अगली सुबह मैं तो जल्दी निकल गया और आपरेशन से फुरसत मिलने पर जब बाहर आया तो देखा कि रेणु आज नर्सिंग होम आई ही नहीं है. घर पर फोन किया तो पता चला कि मैडम वहां भी नहीं है और गाड़ी नर्सिंग होम में खड़ी है. उस के मोबाइल पर फोन किया तो बोली कि किसी जरूरी काम से सिविल लाइन आई थी, अब ट्रैफिक में फंसी हुई हूं. सिविल लाइन में मेरी ससुराल है सो सोचा कि मायके की परदादारी रखना चाह रही है तो रखे.

‘‘मगर परसों शाम जब रेणु एक डिलीवरी केस में व्यस्त थी, मैं बच्चों को ले कर डिजनी वर्ल्ड चला गया. वहां जिस बैंक में हमारा खाता है उस के मैनेजर भी सपरिवार घूम रहे थे. उन्होंने मजाक में पूछा कि क्या डाक्टर साहिबा अभी भी खरीदारी में व्यस्त हैं, कल उन्होंने खरीदारी करने के लिए 1 लाख रुपए निकलवाए थे.

‘‘मैं यह सुन कर स्तब्ध रह गया. रेणु जो घरखर्च के लिए भी मुझ से पूछ कर पैसे निकलवाती थी, चुपचाप 1 लाख रुपए निकलवा ले, यकीन नहीं आया. अभी इस उलझन से उबर नहीं पाया था कि मेरी छोटी साली और साला मिल गए. वह हमारे घर गए थे, पता चलने पर कि हम यहां हैं, वह भी यहीं आ गए. बच्चों को उन के मामा को सौंप कर मैं साली के साथ बैठ गया और पूछा कि घर में ऐसी क्या परेशानी है जिसे फोन पर सुनते ही रेणु भी परेशान हो जाती है.

‘‘सुनते ही मीनू चौंक पड़ी. बोली, ‘क्या कह रहे हैं, जीजाजी? दीदी को घर पर आए 15 रोज से ज्यादा हो गए हैं और पिछले 4-5 रोज से उन्होंने फोन भी नहीं किया. तभी तो मां ने हमें उन का हालचाल जानने को भेजा है क्योंकि हमें फोन करने को तो जीजी ने मना कर रखा है.’

‘‘अब चौंकने की मेरी बारी थी, ‘रेणु ने कब से तुम्हें फोन करने को मना किया हुआ है?’

‘‘‘हमेशा से बहुत ही जरूरी काम होने पर हम उन्हें फोन करते हैं, फुरसत मिलने पर वह खुद ही रोज सब से बात कर लेती हैं, कभीकभी तो दिन में 2 बार भी. सो 4-5 रोज से फोन न आने पर सब को चिंता हो रही है.’

‘‘‘चिंता की कोई बात नहीं है, रेणु आजकल थोड़ी व्यस्त है,’ अपनी चिंता को दरकिनार करते हुए मैं ने मीनू की चिंता दूर की. वह अनजान फोन नंबर जो मैं ने अपने मोबाइल में नोट कर लिया था, दिखा कर मीनू से पूछा कि यह किस का नंबर है?

‘‘‘यह तो अपने पड़ोसी डा. शिवमोहन चाचा का नंबर है. छोटीमोटी बीमारी में हम उन्हीं के पास जाते हैं. समझ में आ गया जीजाजी, इस नंबर से फोन आने पर जीजी क्यों परेशान हुई थीं और क्यों काम छोड़ कर उन से मिलने गई थीं. डा. चाचा का एक डाक्टर बेटा रतन मोहन है. भोपाल के सरकारी अस्पताल में पोस्टमार्टम करता था. एक गलत रिपोर्ट देने के सिलसिले में नौकरी से निलंबित कर दिया गया सो यहां आ गया है. चाचाजी जीजी के पीछे पड़े होंगे कि उसे अपने नर्सिंग होम में रख लें और जीजी परेशान होंगी कि पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर का नर्सिंग होम में क्या काम?’

ये भी पढ़ें- आत्मबोध: क्या हुआ था सुनिधि के साथ

‘‘मैं ने जब मीनू से पूछा कि रतन की उम्र क्या है? तो वह बताने लगी कि वह मेडिकल कालिज में रेणु दीदी से 2 साल सीनियर था. पहले उस का घर में बेहद आनाजाना था लेकिन फिर मां ने मुर्दे चीरने वाले रतन के घर में आनेजाने पर रोक लगा दी.

‘‘मैं बुरी तरह आहत हो गया. साफ जाहिर था कि रेणु ने वह 1 लाख रुपए रतन को पुरानी दोस्ती की खातिर दिए थे. जब किसी अपने से किसी गैर के लिए धोखा मिले तो बहुत तकलीफ होती है, ऋषि. खैर, जब मैं बच्चों के साथ घर पहुंचा तो रेणु आ चुकी थी. बच्चों से यह सुन कर कि उन्हें डिजनी वर्ल्ड में बड़ा मजा आया, रेणु के चेहरे पर अजीब से राहत और संतुष्टि के भाव उभरे और मैं ने उसे बुदबुदाते हुए सुना, ‘चलो, यह तसल्ली तो हुई कि मेरे जाने के बाद धवल बच्चों को बहला लेंगे.’ उस की यह बात सुनते ही मैं स्तब्ध रह गया. ऋषि, रेणु मुझे छोड़ने की सोच रही है.’’

‘‘तू ने भाभी से इस बुदबुदाने का मतलब नहीं पूछा?’’ ऋषि ने धवल से पूछा.

‘‘नहीं, ऋषि, मैं उस से अभी कुछ भी पूछना नहीं चाहता. तू मुझे रेणु और रतन के सही संबंधों के बारे में जो भी पता लगा कर दे सकता है, दे. उस के बाद मैं सोचूंगा कि क्या करना है. कितना समय लगेगा यह सब पता लगाने में?’’

‘‘अगर रतन के कालिज का नाम, किस साल से किस साल तक उस ने पढ़ाई की और उस के अन्य सहपाठियों के नाम का पता चल जाए तो 2-3 रोज में गड़े मुर्दे उखड़ जाएंगे और फिलहाल क्या हो रहा है, यह जानने के लिए भाभी और रतन की गतिविधियों पर पहरा बैठा देता हूं. रतन का अतापता मालूम है?’’

धवल को जो भी मालूम था वह ऋषि को बता कर थके कदमों से लौट आया. उस का खयाल था कि ऋषि 2-3 रोज से पहले क्या फोन करेगा लेकिन ऋषि ने उसी शाम फोन किया.

‘‘धवल, या तो अभी मेरे आफिस में आजा या फिर रात में खाने के बाद मेरे घर पर आ जाना.’’

‘‘अभी आया,’’ कह कर धवल ने फोन रख दिया. काम में दिल नहीं लग रहा था सो उस ने कल से ही नए मरीजों को समय देने से मना किया हुआ था.

ऋषि रिपोर्ट ले कर बैठा हुआ था. ‘‘रेणु और रतन मोहन में आज कोई संपर्क नहीं हुआ है,’’ ऋषि ने बताया, ‘‘पुराने सहपाठियों को कभी रेणु और रतन का रिश्ता आपत्तिजनक नहीं लगा. पड़ोसियों और पारिवारिक जानपहचान वालों में जैसा व्यवहार होता है वैसा ही था. रेणु अपनी और अपने सहपाठियों की समस्याएं ले कर रतन के पास जाया करती थी. वह कोई बहुत काबिल डाक्टर नहीं था, लेकिन सीनियर होने के नाते सुझाव तो दे ही देता था.

‘‘रतन जिस अस्पताल में काम कर रहा था वहीं रेणु और उस के साथ की कुछ लड़कियों ने इंटर्नशिप की थी और तब रतन ने उन सब की बहुत मदद की. उसी दौरान रेणु के साथ इंटर्नशिप कर रही एक लड़की डाक्टर रैचेल का अचानक हार्ट फेल हो गया. रेणु सहेली की मौत के बाद ज्यादा सहमी सी लगने लगी और रतन को देखते ही और ज्यादा सहम जाती थी. इंटर्नशिप खत्म होते ही रेणु तुझ से शादी कर के विदेश चली गई. जब तुम लोग विदेश से लौटे तब तक रतन कहीं और नौकरी पर जा चुका था. अच्छा, यह बता धवल, जब तुम लोग लंदन में थे तो रतन के साथ संपर्क थे भाभी के?’’

‘‘मुझे तो रतन के अस्तित्व के बारे में अभी पता चला है, रहा सवाल लंदन का तो उस जमाने में ई-मेल और एसएमएस जैसी सुविधाएं तो थीं नहीं और चिट्ठी लिखने की रेणु को फुरसत नहीं थी.’’

‘‘अब तक जो सूत्र हाथ लगे हैं उन से तो नहीं लगता कि भाभी और रतन में प्रेम या अनैतिक संबंध हैं. हां, ब्लैकमेल का मामला हो सकता है लेकिन किस बिना पर इस का पता लगवा रहा हूं.’’

‘‘रैचेल की मौत से कुछ संबंध हो सकता है?’’

‘‘खैर, मैं रैचेल की मौत की सही वजह पता लगाता हूं. तू यह पता कर सकता है कि रतन अभी तक कुंआरा क्यों है?’’

धवल कुछ देर सोचता रहा फिर बोला, ‘‘मैं बच्चों को नानी से मिलवाने ले जाता हूं और फिर किसी तरह रतन का जिक्र चला कर उस के बारे में मालूम करूंगा.’’

धवल की उम्मीद के मुताबिक उस की सास ने उसे बच्चों के साथ अकेला देख कर पूछा, ‘‘रेणु आजकल इतनी व्यस्त कैसे हो गई?’’

ये भी पढ़ें- परिवार: क्या हुआ था सत्यदेव के साथ

‘‘कुछ तो रोज ही 1-2 डिलीवरी के मामले आ जाते हैं, मां. दूसरे, जब से उसे डा. रतन मोहन ने फोन किया है वह न जाने क्या सोचती रहती है.’’

‘‘उस कफन फाड़ रतन की इतनी हिम्मत कि रेणु को फोन करे?’’ मां चिल्लाईं, ‘‘मीनू, लगा तो फोन अपने बाबूजी को, पूछती हूं उन से कि उन्होंने रेणु का नंबर रतन को दिया क्यों?’’

‘‘बाबूजी से जवाबतलब करने से क्या फायदा, मां,’’ मीनू ने कहा, ‘‘अब तो आप डा. रतन मोहन को बुला कर फटकारिए कि आइंदा जीजी को परेशान न करे.’’

‘‘मैं मुंह नहीं लगती उस मरघट के ठेकेदार के. तेरे बाबूजी के आते ही उन से फोन करवाऊंगी.’’

‘‘अरे, नहीं मां, इस सब की कोई जरूरत नहीं है. मगर यह रतन है कौन और रेणु से क्या चाहता है?’’ धवल ने पूछा.

जो कुछ मां ने बताया, वह वही था जो मीनू बता चुकी थी.

धवल के यह पूछने पर कि रतन के बीवीबच्चे कहां हैं? मां ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘उस आलसी निखट्टू से शादी कौन करेगा? किसी तरह लेदे कर डाक्टरी तो बाप ने पास करवा दी लेकिन बेटे ने मरीज देखने की सिरदर्दी से बचने के लिए पोस्टमार्टम करना आसान समझा. बगैर मेहनत के काम में इतना पैसा तो मिलने से रहा कि कोई अपनी बेटी का हाथ थमा दे.’’

‘‘खैर, ऐसी बात तो नहीं है, मांजी, सरकारी डाक्टर को भी अच्छी तनख्वाह मिलती है. हो सकता है वह खुद ही शादी न करना चाहता हो. क्या नाम था रेणु की उस सहेली का, जिस की मौत हो गई थी?’’ धवल ने कुरेदा.

‘‘रैचेल. उस से रतन का क्या लेनादेना? उस आलसी को लड़कियों में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही. उसे तो दिन भर लेट कर टीवी देखने या उपन्यास पढ़ने का शौक है. सरकारी नौकरी में भी दुर्घटना की रिपोर्ट पर हार्ट फेल लिख दिया. वह किसी नेता के बेटे की लाश थी. उन का मुआवजा मारा गया सो उन्होंने उस की छुट्टी करवा दी,’’ मां ने कहा, ‘‘रेणु भी इसीलिए परेशान होगी कि इसे क्या काम दे.’’

सास से यह कह कर कि वह बच्चों को खाने के बाद घर छोड़ आएं और इसी बहाने रेणु से भी मिल लें, धवल ऋषि के घर आया. इस से पहले कि उस से सब सुन कर ऋषि कोई प्रतिक्रिया जाहिर करता, एक फोन आ गया.

‘‘रेणु भाभी पर नजर रख रही लड़की का फोन था. भाभी इस समय एडवोकेट कादिरी के चैंबर में हैं,’’ ऋषि ने फोन सुनने के बाद बताया, ‘‘घबरा मत यार, कादिरी तलाक के नहीं फौजदारी के मुकदमे का वकील है.’’

‘‘यह तो और भी घबराने की बात है. रेणु किस गुनाह में फंसी हुई है?’’

‘‘यह अगर तू खुद भाभी से पूछे तो बेहतर रहेगा. यह तो पक्का है कि वह तेरे से बेवफाई नहीं कर रही हैं सो वह जिस परेशानी में हैं उस में से उन्हें निकालना तेरा फर्ज है. अगर समस्या सुलझाने में कहीं भी मेरी जरूरत हो तो बताना.’’

जब धवल घर पहुंचा तो रेणु अपने मातापिता के साथ बैठी अनमने ढंग से बात कर रही थी. कुछ देर के बाद वे लोग उठ खड़े हुए और उस के पिता ने चलतेचलते कहा, ‘‘तू बेफिक्र रह बेटी, मैं रतन को आश्वासन दे देता हूं कि मैं उस की नौकरी लगवा दूंगा, वह तुझे परेशान न करे.’’

रेणु चुप रही मगर उस के चेहरे पर अविश्वास की मुसकान थी. सासससुर के जाते ही धवल ने मौका लपका.

‘‘यह डा. रतन मोहन है कौन, रेणु, जो सभी उस के लिए इतने परेशान हैं?’’

पहले तो रेणु सकपकाई फिर संभल कर बोली, ‘‘बाबूजी के करीबी दोस्त का बेटा है.’’

‘‘तब तो मेरा साला हुआ न, उसे तो अपने यहां काम मिलना ही चाहिए. भई, बाबूजी को फोन कर देता हूं कि उसे कल ही भेज दें, मरीज की केस हिस्ट्री नोट करने के लिए मुंहमांगी तनख्वाह पर रख लूंगा. बाबूजी का मोबाइल नंबर बोलो?’’

‘‘रहने दो, धवल. रतन को नौकरी नहीं चाहिए,’’ रेणु थके स्वर में बोली.

‘‘तो फिर क्या चाहिए?’’ धवल ने लपक कर रेणु को बांहों में भर लिया. धवल के स्पर्श की ऊष्मा से रेणु पिघल कर फूटफूट कर रोने लगी. धवल पहले तो चुपचाप उस की पीठ सहलाता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘बताओ न, रेणु, रतन क्यों परेशान कर रहा है तुम्हें, क्या चाहिए उसे?’’

‘‘मेरी जान.’’

‘‘वह किस खुशी में, भई?’’

‘‘मेरी बेवकूफी की.’’

‘‘ऐसी कैसी बेवकूफी जिस की भरपाई जान दे कर हो? अगर तुम को मुझ पर भरोसा है तो मुझे सबकुछ खुल कर बताओ.’’

‘‘कैसी बात करते हो, धवल. तुम पर नहीं तो और किस पर भरोसा करूंगी? तुम्हें बेकार में परेशान नहीं करना चाहती थी सो अब तक चुप थी पर अब सहन नहीं होता,’’ रेणु ने सुबकते हुए कहा, ‘‘मैं ने गांधी अस्पताल में इंटर्नशिप की थी और उन दिनों रतन की नियुक्ति भी उसी अस्पताल में थी.

‘‘एक रोज मैं और मेरी सहेली रैचेल रतन के कमरे में बैठे हुए आपस में बात कर रहे थे कि नींद की गोलियों में कौन से ब्रांड की गोली सब से असरदायक होती है. रतन ने कहा कि किसी भी ब्रांड की गोली खाने से पहले अगर 1-2 घूंट ह्विस्की पी लो तो गोली जबरदस्त असर करती है. मेरे पूछने पर कि उसे कैसे मालूम, रतन ने कहा कि उस ने किसी उपन्यास में पढ़ा है और रासायनिक तथ्यों को देखते हुए बात ठीक भी हो सकती है.

‘‘रैचेल ने कहा कि अनिंद्रा की बीमारी से पीडि़त लोगों के लिए तो यह नुस्खा बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है लेकिन बगैर आजमाए तो किसी को बताना नहीं चाहिए. मुझे पता था कि रैचेल के घर में शराब का कोई परहेज नहीं है और ज्यादा थके होने पर रैचेल भी 1-2 घूंट लगा लेती है. मैं ने उस से कहा कि वह खुद पर ही यह फार्मूला आजमा के देख ले. भरपूर नींद सो लेगी तो अगले दिन तरोताजा हो जाएगी. रैचेल बोली कि ह्विस्की की तो कोई समस्या नहीं है लेकिन नींद की गोली बगैर डाक्टर के नुस्खे के नहीं मिलती, रतन अगर नुस्खा लिख दे तो वह तजरबा करने को तैयार है.

‘‘रतन ने कहा कि नुस्खे की क्या जरूरत है. रेणु की नाइट ड्यूटी आजकल आरथोपीडिक वार्ड में है, जहां आमतौर पर सब को ही गोली दे कर सुलाना पड़ता है. सो इस से कह, यह किसी मरीज के नाम पर तुम्हें भी एक गोली ला देगी. उस रात बहुत से मरीजों के लिए एक ही ब्रांड की गोली लिखी गई थी सो नर्स स्टोर से पूरी शीशी ले आई. आधी रात को सब की नजर बचा कर मैं ने वह शीशी अपने पर्स में रख ली और मौका मिलते ही रैचेल को दे दी.

‘‘अगले दिन हमारी छुट्टी थी. रात के 10 बजे के करीब रैचेल के पिता का फोन आया कि बहुत पुकारने पर भी रैचेल जब रात का खाना खाने नहीं आई तो उन्होंने उस के कमरे में जा कर देखा कि वह एकदम बेसुध पड़ी है. मैं ने उन्हें रैचेल को फौरन अस्पताल लाने को कहा और आश्वासन दिया कि मैं भी वहां पहुंच रही हूं. संयोग से रतन की उस रात नाइट ड्यूटी थी, मैं ने तुरंत उसे फोन पर सब बता कर कहा कि मुझे लगता है कि रैचेल ने तजरबा कर लिया. मैं ने उसे वार्ड से चुरा कर नींद की गोलियों की शीशी दी थी.

‘‘रतन बोला कि वह तो उसे मालूम है. आधी शीशी नींद की गोलियां गायब होने से वार्ड में काफी शोर मचा हुआ था, जिसे सुनते ही वह समझ गया था कि यह किस का काम है. खैर, चिंता की कोई बात नहीं, उसे बता दिया है सो वह सब संभाल लेगा और उस ने संभाला भी. अस्पताल पहुंचने से पहले ही रैचेल की मौत हो चुकी थी. रतन ने मौत की वजह मैसिव हार्ट अटैक बता कर किसी और डाक्टर के आने से पहले आननफानन में पोस्टमार्टम कर बौडी रैचेल के घर वालों को दे दी.

‘‘अगले रोज उस ने मुझे अकेले में बताया कि उस ने मुझे बचा लिया है. रैचेल ने काफी मात्रा में नींद की गोलियां खाई थीं. पलंग के पास पड़ी नींद की गोलियों की खाली शीशी भी उस के बाप को मिल गई थी, मगर रतन के समझाने पर कि आत्महत्या का पुलिस केस बनने पर उन की बहुत बदनामी होगी, उन्होंने चुपचाप रैचेल का जल्दी से अंतिम संस्कार कर दिया. यही नहीं जच्चाबच्चा वार्ड जहां रैचेल की ड्यूटी थी, वहां भी एक नर्स ने मुझे अचानक वार्ड में आ कर हंसते हुए रैचेल को कुछ पकड़ाते हुए देखा था. रतन ने उसे भी डांट कर चुप करा दिया कि सब के सामने हंसते हुए च्युंगम दी जाती है चुराई हुई नींद की गोलियों की शीशी नहीं.

‘‘मेरे आभार प्रकट करने पर रतन ने कहा कि खाली धन्यवाद कहने से काम नहीं चलेगा. जब वह किसी परेशानी में होगा तो वह जो कहेगा मुझे उस के लिए करना पड़ेगा. हामी भरने के सिवा कोई चारा भी नहीं था. उस के बाद से मैं रतन से डरने लगी थी, हालांकि उस ने दोबारा वह विषय कभी नहीं छेड़ा.

‘‘कुछ अरसे के बाद रैचेल की गोलियां खाने की वजह भी समझ में आ गई. डा. राममूर्ति ने एक रोज बताया कि वह और रैचेल एकदूसरे से प्यार करते थे और जल्दी ही शादी करने वाले थे लेकिन उस के घर वालों ने उस की शादी कहीं और तय कर दी थी.

राममूर्ति ने रैचेल को आश्वासन दिया था कि छुट्टी मिलते ही चेन्नई जा कर अपने घर वालों को सब बता कर वह रिश्ता खत्म कर देगा, लेकिन काफी कोशिश के बाद भी उसे छुट्टी नहीं मिल रही थी और रैचेल इसे उस की टालमटोल समझ कर काफी बेचैन थी. शायद इसी वजह से उस का हार्ट फेल हो गया. यह जान कर मेरे मन से एक बोझ उतर गया कि रैचेल की जान मेरे मजाक के कारण नहीं गई. वह आत्महत्या करने का फैसला कर चुकी थी. फिर मैं तुम से शादी कर के लंदन चली गई. वापस आने पर भी रतन से कभी मुलाकात नहीं हुई.

‘‘अब अचानक इतने साल बाद उस ने मुझे ब्लैकमेल करना शुरू किया है कि रैचेल की सही पोस्टमार्टम रिपोर्ट और विसरा वगैरा उस के पास सुरक्षित है, जिस के बल पर वह मुझे कभी भी सलाखों के पीछे भेज सकता है. अपना मुंह बंद रखने की कीमत उस ने 1 लाख रुपए मांगी थी जो मैं ने चुपचाप उसे दे दी. आसानी से मिले पैसे ने उस की भूख और भी बढ़ा दी. उस ने मुझे कहा कि मैं और भी मेहनत कर के पैसे कमाऊं क्योंकि अब वह अपनी नहीं मेरी कमाई पर जीएगा…’’

‘‘जुर्म के सुबूत छिपाने वाला जुर्म करने वाले जितना ही अपराधी होता है सो रतन तुम्हें फंसाने की कोशिश में खुद भी पकड़ा जाएगा,’’ धवल ने रेणु की बात काटी.

‘‘यह बात मैं ने रतन से कही थी तब वह बोला, ‘कह दूंगा कि तुम्हारे रूपजाल में फंस कर मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी लेकिन अब विवेक जागा है तो मैं आत्मसमर्पण करना चाहता हूं. मुझे थोड़ीबहुत सजा हो जाएगी, तुम शायद सुबूतों के अभाव में बरी भी हो जाओ लेकिन यह सोचो कि तुम्हारी कितनी बदनामी होगी, तुम्हारे नर्सिंग होम की ख्याति और पति की प्रतिष्ठा पर कितना बुरा असर पड़ेगा?’

‘‘उस की दलील में दम था, फिर भी मैं ने एक जानेमाने वकील से सलाह ली तो उन्होंने भी यही कहा कि सजा तो मुझे नहीं होने देंगे लेकिन बदनामी और उस से होने वाली हानि से नहीं बचा सकते. अब तुम ही बताओ, धवल, मैं क्या करूं?’’ रेणु ने पस्त मन से पूछा.

‘‘अब तुम्हें कुछ करने या परेशान होने की जरूरत नहीं है. जो भी करना है, अब मैं सोचसमझ कर करूंगा. फिलहाल तो चलो, आराम किया जाए,’’ धवल ने रेणु को बांहों में भर कर पलंग पर लिटा दिया.

अगले रोज धवल ऋषि से मिला.

‘‘भाभी को कह कि यह टेप रिकार्डर हरदम अपने पास रखें और जब भी रतन का फोन आए, इसे आन कर दें, ताकि वह जो भी कहे इस में रिकार्ड हो जाए,’’ ऋषि ने सब सुन कर एक छोटी सी डिबिया धवल को पकड़ाई, ‘‘फिर रतन को देने के लिए जो भी पैसा बैंक से निकाले उन नोटों के नंबर वहां दर्ज करवा दे जिन की बुनियाद पर हम पुलिसकर्मी बन कर उसे ब्लैकमेल के जुर्म में गिरफ्तार करने का नाटक कर के उसे इतना डराएंगे कि वह फिर कभी भाभी के सामने आने की हिम्मत नहीं करेगा. उस के पकड़े जाने पर उस के डाक्टर बाप की इज्जत या प्रेक्टिस की साख पर असर नहीं पड़ेगा?’’

‘‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. रेणु के तजरबे के सुझाव ने खुद रेणु को फंसा दिया था पर लगता है तुम्हारा रतन को डराने का तजरबा सफल रहेगा.’’

‘‘होना भी चाहिए, यार. भाभी अपने गलत सुझाव के लिए काफी आर्थिक और मानसिक यातना भुगत चुकी हैं.’’

 

 

वृक्ष मित्र: क्यों पति से ज्यादा उसे पेड़ से था प्यार

ससुराल में पति, सास और ससुरजी के बाद मुझेचौथे सब से प्रिय अपनी छत पर दाना चुगने आने वाले मुक्त मेहमान तोते और गौरैया थे. उस के बाद 5वें नंबर पर यह नीम का पौधा था. यह मेरा इकलौता पुरुष मित्र है.

इस पौधे को मैं ने नीम के बीज से अपने गमले में तैयार किया था. मैं प्रतिदिन इसे अपना स्पर्श और पानी देती हूं, इस की सुखसुविधा का खयाल रखती हूं.

6 माह पहले हमारी शादी हुई थी. यह समय हम ने रूठनेमनाने में बरबाद कर दिया. कोरोना महामारी के कारण पिछले 1 माह से अपने डाक्टर पति योगेश से एक क्षण के लिए नहीं मिली थी. कोरोना के मरीजों की देखभाल में व्यस्त थे.

आज मुझेअपना अकेलापन बहुत बुरा लग रहा था. मैं अपनी विरहपीढ़ा सह नहीं पा रही थी. अपने अकेलेपन से ऊब कर ही मैं ने नीम के इस पौधे से दोस्ती की थी.

यह पौधा मुझेप्रतिदिन ताजा, मुलायम,

हरी पत्तियां देता है. उन्हें चबा कर मैं अपने

शरीर से जहरीले पदार्थों को निकाल कर

तरोताजा महसूस करती हूं. नीम एक अच्छा ऐंटीऔक्सीडैंट है. अब यह बड़ा हो रहा था. कुछ दिनों में यह गमला और घर उस के लिए छोटा पड़ने लगेगा.

शादी के तुरंत बाद पहले भी  मैं ने एक नीम का एक पौधा तैयार किया था. मेरे पति ने उसे मुझ से मांग कर मैडिकल कालेज में अपने औफिस के प्रांगण में लगा दिया था. कुछ दिनों तक उस के हालचाल मुझेदेते रहे, पर अब उस नीम के पौधे से मेरा कोई संपर्क नहीं है.

इस बार अपने वृक्ष मित्र को अपने से

अलग नहीं होने दूंगी. पुरुष अपनी पत्नी के

पुरुष मित्रों के प्रति कुछ ज्यादा ही शंकालू होते

हैं. मेरे इकलौते पुरुष मित्र को मुझ से अलग

करने के कारण मुझेअपने पति योगेश पर बहुत गुस्सा आ रहा था. यदि वे अभी मेरे निकट होते तो मुझेउन को अभी के अभी कमरे में ले जा कर बिस्तर पर पटक देना था और फिर उन से बदला लेना था. आगे की घटना के बारे में कल्पना करते हुए मेरा चेहरा रोमांच से लाल पड़ गया.

अगली सुबह अपने वृक्ष मित्र नीम के

पौधे की अतिरिक्त टहनियों को मैं ने काट दिया और उस को बोनसाई बनाना शुरू कर दिया. इस बार मैं नीम के पौधे को बड़ा होने से रोकूंगी. अपनी हैसियत और आकार के बराबर रहने दूंगी दोस्ती के लिए समानता बहुत आवश्यक है.

मेरे पति योगेश झंसी मैडिकल कालेज के कोरोना वार्ड के इंचार्ज थे. ड्यूटी खत्म होने पर भी उन्हें होटल के कमरे में क्वारंटीन रहना पड़ता था. मैं बेसब्री से उन की ड्यूटी खत्म होने का इंतजार कर रही थी. जैसे ही वे होटल के कमरे में आते थे, हमारी वीडियो चैट शुरू हो जाती. मेरी कोशिश होती थी कि उन्हें जल्द से जल्द सैक्सुअली रिलीज कर दूं. मुझेडर था कि कहीं मेरी अनुपस्थिति के कारण वे किसी खूबसूरत नर्स के प्रेमजाल में न पड़ जाएं.

मेरी एक सहेली ने लंबे समय के लिए पति से दूर अपने मायके आते समय पति को व्यस्त रखने के लिए ‘फ्लैश लाइट बाइब्रेटर’ गिफ्ट दिया था. मैं ने भी और्डर कर दिया था, लेकिन आने में अभी देर लग रही थी.

आज सुबह मुझेनीम की पत्तियों को मुंह में रखते ही थूक देना पड़ा. आज नीम की पत्तियों का स्वाद कुछ ज्यादा कड़वा प्रतीत हो रहा था. जब मैं ने यह बात योगेश को बताई तो उन्होंने इसे मेरा वहम बताया. उन का कहना था कि एक पौधा कैसे इतनी जल्दी पत्तियों का स्वाद परिवर्तित कर सकता है?

हमारे शहर में भयावह तरीके से कोरोना फैला हुआ था. किसी न किसी कारण योगेश

की रोज अखबार में फोटो के साथ तारीफ

छपती थी. ससुरजी तुरंत उस अखबार को मेरे पास भेज देते. शाम होने पर उन की तसवीर को काट कर मैं 2 बार चूमती हूं, फिर उसे अपने ब्लाउज में रख लेती.

आज योगेश को कोरोना वार्ड में इलाज करते हुए 50 दिन हो चुके थे. पूरा स्टाफ 15 दिन काम कर के बदल हो जाता था, पर योगेश ने छुट्टी लेने से साफ इनकार कर दिया था. सिद्धांतवादी जो ठहरे मानो इन के बिना कोरोना के मरीजों का ठीक से इलाज नहीं हो पाएगा.

हमारे जिले की कोरोना प्रभावितों की मृत्यु दर पूरे प्रदेश में सब से कम थी, इस बात से खुश हो कर मुख्यमंत्री महोदय ने उन की प्रशंसा की थी. अखबार में उन का फोटो छपा था. उन्होंने वही नेवी ब्लू शर्ट पहनी थी जो मैं ने हनीमून पर उन्हें नैनीताल के माल रोड पर अपनी विदाई के पैसों से खरीद कर दी थी. मैं खुशी से फूली न समा रही थी.

नहाते हुए मुझेअपने हनीमून के मजे याद आ गए. मेरी मां कहा करती हैं कि हमें पूर्णत: नग्न हो कर स्नान नहीं करना चाहिए, जल देवता का अपमान होता है. शादी से पहले मैं गाउन पहन कर ही नहाती थी, लेकिन शादी के बाद हनीमून पर योगेश ने मेरी यह प्रतिज्ञा तुड़वा दी. कड़कड़ाती सर्दी में हम लोग बहुत ही बेशर्मी से 1 घंटा बाथटब में नहाए थे.

साबुन की धार वक्ष पर गोलगोल घूम कर नीचे बढ़ते हुए नाभि को भरने लगी. 10 सैकंड तक नाभि को भरने के पश्चात जांघों की ओर बहने लगी. योगेशजी कहते हैं कि मेरी बैलीबटन मेरे शरीर का सब से आकर्षक हिस्सा है.

बाहर मुख्य दरवाजे पर ससुरजी राहुल से बात कर रहे थे. ससुरजी कालेज में कैमिस्ट्री के प्रोफैसर पद से रिटायर्ड हुए थे. उन का एक पुराना छात्र राहुल इन दिनों हमारी जरूरत का सामान बाजार से खरीद कर हमें दे जाता था. राहुल और उस के दोस्त लोगों की सहायता के लिए यह काम स्वेच्छा से कर रहे थे. आज राहुल ससुरजी से किसी परिचित के लिए मैडिकल कालेज में वैंटिलेटर के लिए सिफारिश करने के लिए कह रहा था.

ससुरजी ने उसे प्यार से समझया, ‘‘लोगों को जरूरत के हिसाब से उन की स्थिति और बचने की उम्मीद को देख कर वैंटिलेटर दिया जा रहा है, फिर भी तुम्हारी बात मैं योगेश तक पहुंचा दूंगा.’’

ससुरजी और मुझेराहुल की यह सिफारिश के लिए कहना बिलकुल अच्छा नहीं लगा. योगेश तो सोर्ससिफारिश की बात सुनते ही उसी प्रकार भड़क जाते हैं जैसे सांड़ लाल कपड़े को देख भड़कता है. सांड़ की बात से ध्यान आया कि योगेश भी कई दिनों बाद मिलें तो सांड की तरह हो जाते थे. यह सोचते हुए मेरे गाल शर्म से लाल पड़ गए.

आज मैं ने नीम के पत्तियों के और अधिक कड़वा हो जाने की बात अपनी सासूमां को बताई. मां मुझेयोगेश की तुलना में ज्यादा अच्छे से जानती हैं. योगेश के साथ ज्यादा वक्त मैं या तो सिर्फ सोई थी या रोमांटिक बातें होती थीं. हम एकदूसरे के लिए चांदसितारे तोड़ लाने के झठे वादे करने में समय बरबाद करते थे.

वे सासूमां थीं जिन के साथ लोकाचार या व्यावहारिक बातें होती थीं. लौकडाउन ने सासूमां को मेरा और अच्छा दोस्त बना दिया था. हम एकदूसरे को भलीभांति जानने लगे थे. मां जानती थीं कि न तो मैं झठ बोलती हूं और न ही मेरे अवलोकन गलत होते हैं. वे हमेशा मेरे पक्ष में बोलती थीं. यहां तक कि उस के लिए वे अपने डाक्टर बेटे को भी डांट देती थीं.

योगेश का ध्यान आते ही एक बार फिर

मेरे जिस्म में करंट फैल गया. बुरा सा मुंह बना कर मैं मन ही मन बड़बड़ाई कि अपनी पत्नी की फिक्र नहीं हैं उन्हें… आने दो अच्छा मजा चखाऊंगी. यह योजना बनाते हुए मुझेगुदगुदी

होने लगी.

एक बार मां ने कह दिया, ‘‘यह नीम का पौधा तुझ से नाराज है. तुझेउसे गमले या अपने छोटे से घर में कैद रखने की योजना नहीं बनानी चाहिए.’’

उन का कहना था कि नीम को भी अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने देना चाहिए.

उन्होंने आदेश दिया, ‘‘दूर से दोस्ती रखो इस विशाल वृक्ष से. इस की सुंदरता इस की विशालता में है.’’

आज 65वां दिन था, भोजन के अतिरिक्त टीवी देखने के लिए मैं बैठक में सासससुर के पास कुछ वक्त गुजारती थी. ससुरजी आज के समाचार को ले कर पत्रकार के साथसाथ योगेश पर भी बहुत नाराज थे कि ऐसी समाजसेवा किस काम की?

किसी पत्रकार ने योगेश पर आरोप लगाया था कि रेमडेसिविर, प्लाज्मा, फेवी

फ्लू और वैंटिलेटर में गोलमाल हो रहा है, औक्सीजन खरीदने में घपला हो रहा है.

आज ससुरजी ने बहुत ही गंभीर हो कर मुझ से कहा, ‘‘पूर्णिमा, तुम योगेश से छुट्टी लेने को क्यों नहीं कहती?’’

ससुरजी ने बताया, ‘‘तुम्हारी सासूमां शादी के बाद मुझेविश्वविद्यालय के 30 दिन के ओरिएंटेशन कार्यक्रम और 15 दिन के रिफ्रैश कार्यक्रम भी अटैंड नहीं करने देती थीं और एक तुम हो योगेश 70 दिनों से बाहर है, फिर भी तुम वापस नहीं बुला पाई.’’

मैं ने बहुत ही धीमे स्वर में कहा, ‘‘मैं

मां की तरह खूबसूरत नहीं हूं… वे मेरे बस में

नहीं हैं.’’

मेरे जबाब पर सभी हंसने लगे. हम सभी जानते हैं कि इस का कारण मेरे रूपयौवन की कमी नहीं है.

योगेश को पकड़ कर घर खींच लाने की पापाजी की बात ने मुझेबहुत ही रोमांचित कर दिया था. मैं स्वयं को इंग्लिश मूवी की लड़कियों की तरह अनुभव करने लगी जो काले चमड़े की चोली और हाफ पैंट में एक हंटर लिए रहती हैं, गोल टोपी पहनती हैं, उन के पुरुषों के गले में गुलामी का पट्टा होता है. वे पुरुष उन के सैक्स स्लैव (काम नौकर) होते हैं. उन पुरुषों का कार्य सिर्फ अपनी मालकिन को खुश रखना है.

आजकल में योगेश आ जाएंगे, यह सोच कर आज मैं ने बैक्सिंग का प्लान बनाया था. दोपहर का भोजन जल्दी निबटा कर शक्कर, शहद, नीबू के रस और रोजिन को धीमी आंच में पका कर मैं कमरे में आ गई. हाथपैरों के बाल मैं वैक्सिंग से हटाती हूं और कांख तथा अन्य कोमल जगहों के बाल रेजर से हटा देती हूं. यदि योगेश  होते तो वे अपने ट्रिमर से पहले उन्हें कम कर देते. ट्रिमर का कंपन मुझेउत्तेजित कर देता और हम बैक्सिंग छोड़ प्यार करने लगते. ऐसा दसियों बार हो चुका होगा.

सासूमां नीम के पौधे को बोनसाई बनाने की मेरी योजना के सख्त खिलाफ थीं. शाम को सासूमां के बालों में नारियल के तेल की मालिश करते समय उन्होंने मुझेफिर से समझया कि विशाल वृक्ष के विकास को बाधित करने से मुझेप्रकृति का श्राप मिलेगा. उन की बात से मैं जरा भी सहमत नहीं थी. मैं ने उपेक्षा में सिर हिलाया तो मां होने के नाते तुरंत उन्होंने इस बात को समझ लिया होगा.

रात को बेलबूटे लगी हुई बेहद वल्गर नाइटी में मैं ने योगेश से वीडियो कौल चालू की. मैं योगेश को अपने चमकदार नितंब, रेजर फेरी हुई घाटी और फीते से बंधे हुए उभारों के दर्शन करा रही थी कि मां अचानक से कमरे में आ गईं. मैं ने बड़ी मुश्किल से तौलिए से अपने को ढकते हुए काल बंद कर दी.

मां ने बहुत ही प्यार से मुझेसहलाते हुए कहा, ‘‘रागिनी, एक तरफ तुम छत पर पक्षियों को दानापानी रख कर इतना नेक काम करती हो तो दूसरी ओर एक विशाल वृक्ष को अपना गुलाम बना कर क्यों रखना चाहती हो?’’

जातेजाते मुसकराते हुए उन्होंने मुझेडांटा, ‘‘योगेश से बात करते वक्त दरवाजा बंद रखा करो. पतिपत्नी की बातें चारदीवारी से बाहर नहीं निकलनी चाहिए.’’

लौकडाउन को आज 3 महीने हो चुके थे. मेरे जिस्म का 1-1 हिस्सा योगेश के स्पर्श को तरस रहा था. अपनी उंगलियों और कृत्रिम उपकरणों के झठे स्पर्श में अब मन नहीं लगता था. शादी के बाद हम ने अब तक गर्भनिरोधक उपाय किया था. सुहागरात के दिन योगेश भूखेप्यासे की तरह मुझ पर टूट पड़े थे. आज के आधुनिक युग में लड़केलड़कियां स्कूल छोड़ने तक अपने कौमार्य को सुरक्षित नहीं रख पाते, लेकिन हम दोनों अपवाद थे. हम अपना कौमार्य अपने जीवनसाथी के लिए बचा कर रखे थे और अब अपनी सारी आकांक्षाओं को पूरा करना चाहते थे.

आज मुझेहमारी परिवार नियोजन योजना का पछतावा हो रहा था. कोरोना का

इलाज करते हुए योगेश को यदि कुछ हो गया तो क्या होगा?  इस लौकडाउन से पहले काश मैं ने गर्भधारण कर लिया होता. इन बातों को सोचते हुए मेरी आंखों से आंसू टपकने लगे.

उस शाम योगेश ने मेरे संशय को भांप कर  मुझेआश्वासन दिया, ‘‘मैं अपने शुक्राणुओं को कल ही सीमन बैंक में सुरक्षित करवा दूंगा. मम्मीपापा के आशीर्वाद के कारण मुझेकुछ नहीं हो सकता. तुम निश्चिंत रहो. तुम्हारा प्यार मुझेयमराज के दरबार से वापस खींच लाएगा. हम पूरी सावधानी रखते हैं. पूरा समय पीपीई किट पहने होते हैं. समयसमय पर सैनिटाइज करते हैं, भाप लेते हैं.’’

आज के समाचार के अनुसार, ‘‘मैडिकल कालेज के कोरोना वार्ड के इंचार्ज डा. योगेश ने समस्त मैडिकल स्टाफ के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत करते हुए 15 दिन का ब्रेक लेने से लगातार इनकार करते रहे हैं. लगातार इलाज करते हुए आज उन का 100वां दिन है.’’

मुझेयोगेश पर बहुत गुस्सा आ रहा था, ‘‘इन जनाब को हीरो बनने का चसका लगा हुआ है.’’

मुझेसमझ नहीं आ रहा था कि अपने इन हीरो के लिए अपनी जान दूं या इन की जान ले लूं. योगेश यदि मेरे पास होते तो मैं उन के गालों को प्यार से ही सही पर काट लेती.

आज मैं ने अपने बाल धोए थे. सासससुर को पनीर के पकौड़े और चाय बनाने

के बाद नाइटगाउन में छत पर टहल रही थी. माटी की महक के साथ ठंडी हवा चल रही थी. लगता था आसपास कहीं मौनसूनपूर्व बारिश हुई है.

हवा का झंका गाउन को उड़ाता हुआ एक तरफ ले गया. हवा के तेज झंके मेरे कांख, वक्ष, कलाई, पेट, कूल्हों, कटि प्रदेश, जांघों और पिंडलियों को इस प्रकार सहला रहे थे जैसे योगेशजी की हथेली मुझेस्पर्श कर रही हो.

हवा के एक बेहद तेज झंके ने मुझेअनावृत कर दिया. मैं लगभग अर्द्धनग्न हो घूमतेघूमते मैं अपने पुरुष मित्र नीम के पौधे के पास आ गई. आज मुझेयह मुसकराता हुआ महसूस हो रहा था. मुझेलगता है कि इसे साथ रखने की मेरी योजना के चलते अब यह मुझ से खुश है. अफसोस कि लौकडाउन खुलते ही इस नीम के पौधे को भी मुझेयोगेश के साथ भेज देना होगा. हमारे घर में मां के आदेश का आंख बंद कर पालन जो किया जाता है.

मैं ने निश्चय किया कि योगेश के वापस आने के बाद एक बार फिर मां को समझने की कोशिश करूंगी कि पत्तियों की यह बढ़ी हुई कड़वाहट उस की खुशी का प्रतीक है. नीम की पहचान उस की कड़वाहट ही है न कि मिठास. यह नीम के पौधे के द्वारा अधिक लीमोनौयड  बनाने के कारण हुआ होगा. नीम अपने लीमोनौयड रसायन के कारण ही इतना उपयोगी है. नीम, लीमोनौयड के कारण ऐंटीऔक्सीडैंट का काम करता है, जिस से यह हानिकारक पदार्थों से मानवशरीर को मुक्त करता है. मेरी इन तर्कपूर्ण बातों को जान कर शायद सासूमां नीम का पौधा घर पर रखने को मान जाएं. यह सोचते हुए मैं ने अपने शयनकक्ष में प्रवेश किया और कलैंडर पर 105वें दिन को चिह्नित कर दिया.

108वां दिन, आज कूरियर से मेरा खिलौना, जीस्पौट, रेविट बाईब्रेटिंग डेल्डो आया था. पैकेट से निकाल कर बेसब्री से योगेश की वीडियो कौल का इंतजार करने लगी.

आज 111वां दिन, हमारे घर उत्सव जैसा माहौल था. मैं, मां और पापाजी घर के कोनेकोने को साफ कर रहे थे. शहर में कोरोना के गंभीर मरीज अब कम होने लगे थे. आईसीयू की वेटिंग खत्म हो गई थी. दोपहर में फोन आया था कि योगेशजी 2-4 दिनों में लौट रहे हैं.

मैं ने मन ही मन संकल्प किया कि योगेश के घर लौटने के बाद 1 हफ्ते तक मैं उन्हें अपना शरीर छूने नहीं दूंगी. हालांकि उन का पूरा खयाल रखूंगी, उन के पैर दबाऊंगी, उन के सिर की मालिश करूंगी, उन की हर फरमाइश पूरी करूंगी, लेकिन सैक्स नहीं करने दूंगी.

जब वे अपनी गलती 10 बार मानेंगे, 10 बार मुझेमनाएंगे तो ही उन्हें अपने कपड़े उतारने दूंगी.

शाम को फोन आया कि योगेशजी घर आने के बाद 5 दिनों तक घर के पीछे नौकर के लिए बने हुए कमरे में रहेंगे. उन से शारीरिक दूरी बना कर रखनी होगी, 5 दिन कोई भी उन के पास नहीं जाएगा. उन्होंने बताया कि शहर में कोरोना भले कम हुआ है, लेकिन कोरोना के खिलाफ जंग अभी खत्म नहीं हुई है.

125वें दिन योगेश से मेरा मिलन ठीक उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार मैं ने चाहा था. नीम का पेड़ थोड़ा जैलसी में मुरझ सा गया लग रहा था. कोविड में जो बीमार हुए उन्होंने तो बहुत सहा पर जिन्होंने अस्पतालों में उन की देखभाल की उन के बारे में उन की मेरी जैसी युवा नईनवेली पत्नियां ही जानती हैं.

जैसा भी था, था तो: क्या हुआ था सुनंदा के साथ

एकएककर लगभग सभी मेहमान जा चुके थे. बस सुनंदा की रमा मामी रुकी थीं. वे भी कल सुबह चली ही जाएंगी. रमा मामी से उसे शुरू से विशेष स्नेह रहा है. मामा की मृत्यु के बाद भी रमा ने सब से वैसा ही स्नेह और सम्मानभरा रिश्ता रखा है जैसा मामा के सामने था. मामी अपने विवाहित बेटे के साथ सहारनपुर में रहती हैं. अब भी रमा मामी ने ही आलोक की मृत्यु के समाचार सुनने से ले कर आज सब मेहमानों के जाने तक सब संभाल रखा था.

आलोक के भाईबहन आधुनिक व्यस्त जीवन की आपाधापी में से समय निकाल कर जितनी देर भी आ पाए, सुनंदा को उन से कोई गिलाशिकवा है भी नहीं. आलोक का जाना तय था. यह तो 1 महीने से उस के हौस्पिटल में रहने से समझ तो आ ही रहा था पर जैसा कि इंसान मृत्यु को चुनौती देने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देता है पर जीत थोड़े ही कभी पाता है, वैसे ही सुनंदा ने रातदिन आलोक के स्वस्थ होने की आशा में पलपल बिता दिया था.

अंतिम दिनों में ही पता चला था कि आलोक कैंसर की चपेट में है और लास्ट स्टेज है. उन के दोनों बच्चे शाश्वत और सिद्धि मां का मुंह ही देखते रहते थे. समझ गए थे कि मां ऐसे ही परेशान नहीं हैं, इस बार कुछ होने ही वाला है और हो भी तो गया था.

आलोक को गए 2 सप्ताह हो चुके हैं. सुनंदा ने बच्चों के कमरे में झांका. रात के 11 बज रहे थे. रमा ने दोनों बच्चों को खाना खिला कर सुला दिया था.

रमा ने कहा था, ‘‘बच्चो, कल से स्कूल जाना… पढ़ने में मन लगाना. मम्मी का ध्यान भी रखना और मेहनत करना. सुनंदा अपनी परेशानी जल्दी नहीं कहेगी पर तुम लोग अब उस का ध्यान जरूर रखना.’’

उन के स्कूल के सामान की व्यवस्था बच्चों के साथ मिल कर रमा ने देख ली थी.

रमा जब सुनंदा के कमरे में आई तो देखा, सुनंदा आरामकुरसी पर आंखें बंद किए लेटी सी थी. आहट पर सुनंदा ने आंखें खोलीं. रमा वहीं उस के पास बैठते हुए कहने लगी, ‘‘सुनंदा,

कल सुबह मैं चली जाऊंगी, तुम से कुछ बात करनी है.’’

‘‘हां, मामी, बोलो न.’’

‘‘तुम ने आलोक के रहते हुए भी क्याक्या झेला है, मुझ से कुछ भी छिपा नहीं है, सब जानती हूं. यह तो अच्छा रहा कि तुम अपने पैरों पर खड़ी थी. आज प्रिंसिपल हो, अपनी और बच्चों की, घर की जिम्मेदारी पहले भी तुम ही उठा रही थी, अब भी तुम ही उठाओगी, पर जैसा भी था, आदमी तो था,’’ कहतेकहते रमा की आवाज में नमी आ गई, गला भी रूंध सा गया.

सुनंदा ने बस गरदन हिलाई, हां में या न में, उसे खुद ही पता नहीं चला.

मामी ने उस के सिर पर हाथ फेर कहा, ‘‘चलो, अब सो जाओ. कल स्कूल जाओगी?’’

‘‘हां, आप के जाने के बाद चली

जाऊंगी, बहुत काम इकट्ठा हो गया होगा,

आप आती रहना.’’

‘‘हां, जरूर.’’

रमा के जाने के बाद सुनंदा उठ कर बैड पर लेट गई, ‘आदमी तो था’ भाभी के इन शब्दों पर अंदर से मन कहीं अटक गया. आंखें तो बंद थीं पर मन ही मन अतीत की परत दर परत खुलने लगी.

सुनंदा को अपने विवाह के पिछले 20 बरस आंखों के आगे इतना स्पष्ट दिखे कि उन्हें महसूस करते ही उस ने अपने माथे पर पसीना सा महसूस किया.

विवाह के कुछ दिनों बाद ही उस ने अनुभव कर लिया था कि मातापिता ने बेटी को बोझ मानते हुए जितना जल्दी यह बोझ कैसे भी उतर जाए की चाह में एक निहायत कामचोर व्यक्ति के पल्ले उसे बांध दिया है. सुनंदा ने गर्ल्स स्कूल में नौकरी अपनी योग्यता के दम पर हासिल की थी और आज वह प्रिंसिपल के पद तक पहुंच गई है. दोनों बच्चों के जन्म के बाद तो वही जैसे पुरुष थी घर के लिए. आलोक उस के समझाने पर अगर कोई काम शुरू भी करता तो जल्द ही काम में कमियां निकाल उसे छोड़ देता. उसे घर में रहना, सुनंदा की तनख्वाह की पाईपाई का हिसाब रखना ही आता था.

आलोक को गांव में रह रहे अपने मातापिता से न कोई लगाव था, न भाईबहन से, क्योंकि वे सब उसे कुछ काम कर मेहनत करने की सलाह देते थे और वह उन से दूर ही रहता था. सब उसे कामकाजी पत्नी के सुपुर्द कर जैसे निश्चिंत हो गए थे. कुछ साल पहले आलोक के मातापिता भी नहीं रहे थे. सुनंदा का भी अब कोई अपना नहीं था.

सुनंदा कई बार सोचती कि इस से अच्छा तो वह कहीं अविवाहित ही जी लेती पर जब बच्चों का मुंह देखती तो इस विचार को जल्द ही दिल से दूर कर देती.

आलोक ने कई बार सुनंदा की जमापूंजी से, लोन से कई बार काम शुरू भी किया जिस में हमेशा नुकसान ही हुआ और अब सुनंदा की रहीसही जमापूंजी भी आलोक के इलाज में खत्म हो चुकी थी. घर देखना है, बच्चों का कैरियर बनाना है, कल से स्कूल जा कर पैडिंग पड़ा काम देखना है. आलोक था तब भी सब काम वही देखती थी, अब भी उसे ही देखने हैं, नया क्या है? सोचतेसोचते उस की आंख लग ही गई. काफी लंबे समय से थका तनमन भी तो आराम मांग रहा था.

अगले दिन रमा चली गई. सुनंदा ने बच्चों को स्कूल भेजते हुए बहुत कुछ

समझाया. बच्चे समझदार थे. सुनंदा भी स्कूल के लिए तैयार होने लगी. शामली की इस कालोनी की दूरी स्कूल से पैदल 20 मिनट की ही थी. आलोक उसे स्कूटर पर छोड़ आता था. आज

घर की गैलरी में खड़े स्कूटर को देख कर सुनंदा के कदम तो ठिठके पर वह रुकी नहीं, पैदल ही बढ़ गई. रिकशा लेने का मन ही नहीं हुआ. सोचा, थोड़ा चलना हो जाएगा. इतने दिन घर में शोक प्रकट करने आनेजाने वालों के साथ बैठी ही रही थी. औफिस में भी जा कर बैठना ही है. आज देर भी होगी आने में. बच्चों के लिए रमा ने याद से घर की चाबियां भी अलग से बनवा दी थीं.

स्कूल पहुंच कर वह अपने औफिस में बैठी ही थी कि 1-1 कर के टीचर्स, बाकी सहयोगी उस से मिलने आते रहे. सब शोक प्रकट करने घर आ चुके थे पर आज भी सब उस के पास आते रहे. वह गंभीर ही थी, फिर कई काम देखे. परीक्षा आने वाली थी. वाइस प्रिंसिपल गीता को बुला कर उस से काफी विचारविमर्श करती रही.

मन बीचबीच में बच्चों की तरफ भाग रहा था. घर पहुंच गए होंगे? रखा हुआ खाना खा लिया होगा होगा? गरम किया होगा या नहीं? अंदर से दरवाजा तो बंद कर लिया होगा न? जमाना बहुत खराब है. बच्चों के पास अभी मोबाइल नहीं था. आलोक बच्चों के पास फोन होने का पक्षधर नहीं था. बच्चे भी जिद्दी नहीं थे. फिर उस ने लैंडलाइन पर फोन किया. बच्चे आ चुके थे. उन से बात कर के सुनंदा को तसल्ली हुई, फिर वह अपने ही काम में व्यस्त रही.

सुनंदा जब घर पहुंची, बच्चों की आंख लग गई थी. उस की आहट से बच्चे उठ बैठे और उस से लिपट गए. सुनंदा ने दोनों को बांहों में भर लिया, ‘‘तुम लोग ठीक हो न?’’

आलोक के जाने के बाद तीनों के स्कूल का पहला दिन था. शाश्वत ने उदासी से कहा, ‘‘ठीक हैं मम्मी, पर पापा के बिना अच्छा नहीं लग रहा कुछ.’’

सिद्धि भी सुबक उठी, ‘‘पापा की बहुत याद आ रही है मम्मी.’’

‘‘हां, बेटा,’’ कहते हुए सुनंदा ने बच्चों को बहुत प्यार किया. उन के साथ ही बैठ कर स्कूल की बातें करने लगी पर घूमफिर कर बच्चे इसी विषय पर आ रहे थे, ‘‘आज सब पूछ रहे थे पापा के बारे में.’’

‘‘टीचर्स भी पूछ रही थीं, मम्मी.’’

‘‘घर अच्छा नहीं लग रहा न, मम्मी?’’

हां में गरदन हिलाती रही सुनंदा. तीनों अपनेअपने रूटीन में धीरेधीरे व्यस्त होते चले गए. समय अपनी रफ्तार से चल रहा था. आलोक के बारे में तीनों अकसर बातें करने बैठ जाते. किसी की भी आंख भरती तो विषय बदल कर उसे हंसाने की कोशिश शुरू हो जाती.

एक दिन सुनंदा औफिस में व्यस्त थी. सिद्धि का उस के मोबाइल पर फोन आया, ‘‘मम्मी, उमेश अंकल आए हैं.’’

सुनंदा का माथा ठनका, ‘‘क्यों आए हैं?’’

‘‘पता नहीं मम्मी, मैं ने तो उन्हें पानी पिलाया… वे बस मेरे साथ ही बातें किए जा रहे हैं…कुछ काम तो नहीं लग रहा है.’’

‘‘शाश्वत कहां है?’’

‘‘सो रहा है.’’

‘‘ओह, उठा दो उसे फौरन.’’

‘‘पर वह उठाने पर गुस्सा करेगा.’’

‘‘उठाओ और उसे कहो इस अंकल के पास वही बैठे और तुम अपने रूम में होमवर्क कर लो. इसे चायवाय पूछने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मम्मी.’’

उमेश के आने की बात सुन कर सुनंदा बहुत परेशान हो गई. आलोक उमेश को बिलकुल पसंद नहीं करता था. उमेश था तो आलोक का पुराना दोस्त पर बेहद चरित्रहीन. आलोक उसे हमेशा घर के बाहर ही रखता था.

उसने सुनंदा को उमेश की चरित्रहीनता के सारे किस्से सुनाए हुए थे. सिद्धि बड़ी हो रही है, अकेली है. सुनंदा को आज चैन नहीं आ रहा था. उमेश उस के घर में बैठा हुआ है. उमेश कई बच्चियों के साथ कुकर्म करते हुए पकड़ा गया था. उस की पत्नी उसे छोड़ कर जा चुकी थी.

सुनंदा गीता तो बुला कर बोली, ‘‘बहुत जरूरी काम है, जाना पड़ेगा, हो सकेगा तो लौट आऊंगी,’’ कह कर निकलने लगी तो गीता ने सम्मानपूर्वक कहा, ‘‘आप जाइए, मैम. मैं संभाल लूंगी. आप को दोबारा आने की परेशानी उठाने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘थैंक्यू गीता,’’ कहते हुए सुनंदा अपना पर्स उठा कर स्कूल से निकल गई, रिक्शा पकड़ घर पहुंची.

उमेश शाश्वत के साथ बैठा था. शाश्वत के माथे पर नींद से उठाए जाने पर झुंझलाहट थी. उमेश उसे देख कर चौंक गया, ‘‘अरे भाभी, आप इस समय कैसे आ गईं?’’

काफी कटु और गंभीर स्वर में सुनंदा ने कहा, ‘‘आप बताइए, आप इस समय यहां क्यों आए?’’

‘‘बस, ऐसे ही, सोचा आप लोगों के हालचाल ले लूं.’’

‘‘आगे से आप हालचाल के लिए परेशान न हों, हम ठीक हैं.’’

‘‘अरे भाभी, दोस्त था मेरा. मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है. बच्चे वैसे काफी समझदार हैं.’’

‘‘भाईसाहब, आप आगे से तकलीफ न उठाएं.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं तो आता रहूंगा, आप मुझे पराया न समझें.’’

सुनंदा के कड़े तेवर देख कर उमेश उस समय हाथ जोड़ कर बाहर निकल गया. सुनंदा सोफे पर ढह सी गई. सिद्धि भी मां की आवाज सुन कर अपने रूम से निकल कर आ गई थी. सुनंदा ने दोनों बच्चों को अपने पास बैठाया और कहने लगी, ‘‘बच्चो, जमाना बहुत खराब है. आगे से अगर मैं घर पर न होंऊ तो किसी के लिए भी दरवाजा न खोलना, इस आदमी के लिए तो बिलकुल नहीं.’’

‘‘ठीक है, मम्मी. हम ध्यान रखेंगे,’’ कह सिद्धि फिर सुनंदा के लिए चाय बनाने चली गई.

सुनंदा शाम को घर का सामान लेने मार्केट के लिए निकल गई. सारा सामान आलोक ही लाता था. छोटी जगह थी, कई लोग जानपहचान के मिलते चले गए. एक पड़ोसिन भी मिल गई. हालचाल पूछने के बाद कहने लगी, ‘‘आप ने तो हमेशा बाहर की लाइफ ही ऐंजौय की. अब तो आप पर घर के भी काम आ गए होंगे, आप को भी अब दालसब्जी का आइडिया हो जाएगा.’’

बात सुनंदा का दिल दुखा गई. वह लाइफ ऐंजौय कर रही थी अब तक? घरबाहर के कामों के लिए जीवनभर मशीन ही बनी रही. हम औरतें ही क्यों औरतों का दिल दुखाने में पीछे नहीं हटतीं?

पड़ोसी जगदीश भी सब्जी के ठेले पर मिल गए. सुनंदा को ऊपर से नीचे तक चमकती आंखों से देख मुसकराए, ‘‘बड़ी मैंटेंड हैं आप भाभीजी.’’

सुनंदा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी फिर जबरदस्ती उस के हाथ से थैला लेते हुए उस का हाथ छू लिया.

सुनंदा के तनमन में क्रोध की एक ज्वाला सी धधक उठी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘आप की हैल्प कर रहा हूं, भाभीजी.’’

‘‘मैंने आप से हैल्प मांगी क्या?’’

‘‘मांगी नहीं तो क्या हुआ? पड़ोसी हूं, मेरा भी कुछ फर्ज है. चलिए, आप को घर तक छोड़ आता हूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए. यहां मुझे अभी और भी काम है,’’ कह कर सुनंदा ने अपना थैला वापस झपटा और बाकी का समान लेने इधरउधर हो गई.

मन अजीब से गुस्से से भर उठा था. घर आ कर सामान रख अपने बैडरूम में जा कर आंखें बंद कर लेट गई. दोनों बच्चे टीवी में कुछ देख रहे थे. सुनंदा का दिल मिश्रित भावों से भर उठा था. माथे पर हाथ रखे सुनंदा ने अपनी कनपटियों तक बहते आंसुओं की नमी को चुपचाप ही महसूस किया. धीरेधीरे इस नमी का वेग बढ़ता जा रहा था.

आज, अभी, आलोक की याद शिद्दत से आने लगी. जब तक आलोक था तीनों के इर्दगिर्द एक सुरक्षा का घेरा तो था. एक आलोक के जाते ही वह कितनी असुरक्षा से चिंतित रहने लगी थी. उस ने तो हमेशा यही महसूस किया था कि इस पति से उसे क्या मिला? कुछ नहीं. वही तो सालों से कमा कर घर चला रही थी.

आज लगा पैसे जरूर वह कमा रही थी पर जो आलोक के रहने पर जीवन में था, आज नहीं है. ‘जैसा भी था आदमी तो था’ रमा भाभी के ये शब्द याद आए तो पहली बार सुनंदा की आलोक की याद में इतनी तेज सिसकियों से कमरा गूंज उठा.

वनवास: क्या सिया को आसानी से तलाक मिल गया?

बाहर ड्राइंगरूम में नितिन की जोरजोर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी, “मैं क्या पागल हूं, बेवकूफ हूं, जो पिछले 5 सालों से मुकदमे पर पैसा फूंक रहा हूं. और सिया पीछे से राघव
के साथ प्रेम की पींगें बढ़ा रही है.”

तभी नितिन की मम्मी बोली, “बेटा, पिछले 5 सालों से तो वनवास भुगत रही है तेरी बहन. जाने दे, अब अगर उसे जाना है…”

नितिन क्रोधित होते हुए बोला, “पहले किसने रोका था?”

सिया अंदर कमरे में बैठेबैठे घबरा रही थी. उस ने फैसला तो ले लिया था, पर क्या यह उस के लिए सही साबित होगा, उसे खुद पता नही था.

सिया 28 वर्ष की एक आम सी नवयुवती थी. 5 वर्ष पहले उस की शादी आईटी इंजीनियर राघव से हुई थी.

सिया के पिता की बहुत पहले ही मृत्यु हो गई थी. सिया के बड़े भाई नितिन और रौनक ने ही सिया के लिए राघव को चुना था. जब राघव सिया को देखने आया था, तो दुबलापतला राघव सिया को थोड़ा अटपटा लगा था. राघव और सिया के बीच कोई बातचीत नहीं हुई थी. सिया की बड़ीबड़ी आंखें और शर्मीली मुसकान राघव के दिल को दीवाना बना गई थी.

राघव ने रिश्ते के लिए हां कर दी थी. मम्मी सिया की किस्मत की तारीफ करते नहीं थक रही थी. एक सिंपल ग्रेजुएट को इतना पढ़ालिखा पति जो मिल गया था.

सिया को विवाह के समय भी लग रहा था कि उस का ससुराल पक्ष अधिक खुश नही है. सिया को लगा, शायद राघव के घर वालों को उन की आशा के अनुरूप उपहार नहीं मिले थे.

जब सिया जयमाला लिए राघव की तरफ जा रही थी, तभी उस के कानों में ताईजी की फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी, ‘अरे, लड़का तो बौना है और इतना पतला जैसे कोई बच्चा हो.’

राघव वास्तव में सिया के बराबर ही था और सिया भी कौन सी लंबी थी. 5 फीट की हाइट जहां सिया
का कद छोटा दर्शाता था, वहीं राघव का 5 फीट का कद उसे एकदम से बौना सा दिख रहा था.

जूते छुपाई की रस्म के समय चचेरी बहन पीहू बोली, “अरे, जीजाजी के जूतों में तो शायद हील होगी. बड़े ध्यान से देखना पड़ेगा.”

यह लतीफा जहां सिया को शर्मसार कर गया था, वहीं राघव का चेहरा अपमान से
लाल हो गया था.

जब सिया विदा हो कर राघव के घर आई, तो वहां का माहौल काफी तनावग्रस्त लग रहा था. उड़तीउड़ती बातें सिया के कानों में भी पहुंची थीं कि उस के दोनों बड़े भाइयों ने उन्हें धोखा दिया है. अच्छी शादी की बोल कर अपनी मामूली सी पढ़ीलिखी बहन उन के पल्ले बांध दी थी.

राघव की मम्मी अपनी देवरानी से कह रही थीं, ‘अरे राघव के तो बहुत अच्छेअच्छे पैसे वाले रिश्ते आ रहे थे. बस, थोड़ा कद ही तो छोटा है, नहीं तो लाखों में एक है मेरा बेटा.

‘अरे, मैं क्या अपने बेटे के लिए ऐसी लड़की ले कर आती, जो साधारण ग्रेजुएट हो.’

सिया अपने आंसू जज्ब करे बैठी थी. उसे नहीं पता था कि असलियत क्या है. क्या सच में उस के भाइयों ने
ऐसा किया होगा?

रात में राघव भी सिया से बड़ी रुखाई से पेश आया. उस ने सिया को आंख उठा कर देखा भी नहीं. दूध पीने के बाद राघव सिया से बोला, “जब मैं तुम्हें बौना या अजूबा लगता था, तो किसने कहा था मुझ से विवाह करने के लिए?”

सिया की आंखों से झरझर आंसू बहने लगे. वह हकलाते हुए बोली, “क्या लड़की की कभी राय पूछी जाती है?”

राघव व्यंग्य करते हुए बोला,”तो तुम हकलाती भी हो. जाहिर है, तभी तुम्हारा परिवार तुम्हारे लिए वर खोज नहीं रहा था, बल्कि खरीद रहा था. पर, दाम भी कहां चुकाया उन्होंने मेरा पूरा?”

सिया बोली, “आप अपना गुस्सा मुझ पर क्यों उतार रहे हैं?”

राघव चिढ़ते हुए बोला, “महारानी, तो फिर मेरी जिंदगी क्यों बरबाद की तुम ने? किसी लंबे लड़के को खरीद लेते.”

सिया को समझ नहीं आ रहा था कि क्यों राघव उस से ऐसी बात कर रहा है?
जब अधिक और कुछ समझ नहीं आया, तो वह रोने लगी और राघव तकिया उठा कर बराबर में चादर तान कर सो गया था.

सुबह सिया की बड़ी ननद पूजा मीठी मुसकान के साथ चाय की ट्रे ले कर आई और सिया की जवाफूल सी
लाल आंख देख कर सकपका गई.

बस सिया से पूजा इतना ही बोल पाई, “थोड़ा सब्र रखो सिया. सबकुछ ठीक हो जाएगा.”

मगर, सबकुछ ठीक कहां हो पाया था. पगफेरे के लिए जब सिया के भाई नितिन और रौनक आए, तो बात
बहुत बढ़ गई थी.

पूजा ने ही सिया को बताया कि राघव को इस बात का गुस्सा था कि उस के मातापिता ने ही उस से झूठ
बोला था कि सिया ग्रेजुएट जरूर है, मगर वह सिविल सर्विस की तैयारी कर रही है.

राघव को विवाह के दिन
ही पता चला था कि सिया एक घरेलू लड़की है और राघव के परिवार ने अच्छी शादी की एवज में सिया को
चुना था.

सिया की सास कल्पना सिया के परिवार वालों को धोखेबाज और भी ना जाने क्याक्या बोल रही थी. वहीं सिया का भाई नितिन बोला, “आप ने अच्छी शादी कही थी, तो हम ने बजट से बढ़ कर खर्च किया था. आप को अगर कैश चाहिए था, तो मुंह खोल कर बोल देते. हम जेवर, कपड़े पर कम खर्च करते.”

इस पर राघव बोला, “बहन के लिए दूल्हा खरीदने से अच्छा आप उसे ढंग से पढ़ालिखा देते. कम से कम ऐसे मोलतोल तो न करना पड़ता.”

बहरहाल, सिया अपने ससुराल से खोटे सिक्के की तरह वापस भेज दी गई थी.

दोनों भाभियों ने लैक्चर देने आरंभ कर दिए थे. पहले ही पढ़ाई में दिल लगाया होता तो ये नौबत नहीं आती.

सिया कोई अनपढ़ नहीं थी. मगर, उस के पास कोई ऐसी प्रोफेशनल डिगरी नहीं थी, जिस के बलबूते पर उसे
नौकरी मिल सके. ग्रेजुएशन के बाद सिया ने बेकरी, टैक्सटाइल डिजाइनिंग, बेसिक मेकअप जैसे कोर्स अवश्य किए थे. मगर उस के पास कोई ऐसा डिप्लोमा या डिगरी नहीं थी.

सिया को आए हुए 2 महीने बीत गए थे. वह चुपचाप अपने कमरे में घुसी रहती थी. नितिन और रौनक ने
सिया की नामर्जी के बावजूद राघव के ऊपर भरणपोषण, घरेलू हिंसा और तलाक का मुकदमा दायर कर दिया था.

दोनो भाभियों ने भी अपने पति की हां में हां मिलाते हुए कहा, “ये तो राघव को करना ही पड़ेगा. सिया को उस रूखे और पत्थरदिल इनसान से कुछ नहीं चाहिए था, मगर वो मजबूर थी.”

सिया मन ही मन सोचती, ‘कम से कम एक बार राघव उस से बात तो कर लेता, मगर नहीं. उस ने तो अपनेआप ही उसे मुजरिम करार कर के फैसला सुना दिया था. वह भी उस अपराध के लिए, जो कभी उस ने किया ही नहीं था.’

कोर्ट में केस चल रहा था, हर तारीख के बाद अगली तारीख दे दी जाती थी. भाइयों का जोश और गुस्सा
दोनो ही कम हो गए थे. उधर भाभियों ने भी धीरेधीरे अपने काम सिया की तरफ खिसकाने शुरू कर दिए
थे.

सिया की मां की चिंता बढ़ती जा रही थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उन के बाद सिया का क्या होगा? वो बेटों पर इल्जाम लगाती कि उन्हें रिश्ते से पहले ही खुल कर बात करनी चाहिए थी. बेटे अपनी सफाई में कहते, “मां सबकुछ तो आप से पूछ कर ही किया था. अब आप हमें ही दोषी ठहरा रही हो.

सिया को लगता, मानो उस के कारण ही घर के वातावरण में तनाव रचबस गया है.

ऐसे ही एक दिन सिया के
कारण सिया की भाभी और मां में तूतूमैंमैं हो गई थी.
सिया ने ना जाने क्या सोचते हुए फेसबुक पर राघव को मैसेज कर दिया था, ‘मुझे आप से मिलना है. मैं केस के बारे में कुछ डिस्कस करना चाहती हूं.’

सिया ने एक घंटे बाद देखा कि राघव ने अब तक भी मैसेज नहीं पढ़ा था. उसे लगा शायद वो फेसबुक पर
अधिक आता नही है. तभी उधर से मैसेज आया कि ठीक है, संडे में मिल लेते हैं. टाइम तुम बता देना.

सिया ने मैसेज भेजा, दोपहर 12 बजे रंगोली रेस्तरां में मिलते हैं.’

राघव ने कहा, ‘ठीक है.

सिया ने मैसेज भेजा, ‘और ये मेरा नंबर सेव कर लेना. अगर ढूंढ़ने में दिक्कत हो, तो फोन कर लेना.’

सिया ने कह तो दिया था, मगर अब उसे डर लग रहा था. वह मन ही मन सोच रही थी कि अगर राघव अपने घर वालों के साथ आया, तो उस की अच्छी फजीहत हो जाएगी.

कभी सिया सोचती कि वह वहां जाएगी ही नही. कभी सिया को लगता, अगर राघव उस के मैसेज का स्क्रीन शाट उस के भाइयों को भेज दे, तो ना जाने क्या होगा.

शनिवार की पूरी रात सिया करवट बदलती रही. रविवार में उस ने घर वालों को कह दिया था कि वह एक सहेली
के घर जा रही है लंच पर.

जब सिया तैयार होने लगी, तो उसे समझ ना आया कि वो क्या पहने? पहले मेहरून रंग का पहना तो उसे बेहद तेज रंग लगा, फिर सफेद रंग पहना तो लगा कि कहीं राघव ऐसा न सोचे कि वो उसे खोने का शौक मना रही है. फिर बहुत सोचसमझ कर सिया ने हलके आसमानी रंग का कुरता पहना, साथ में चांदी की बालियां, काली छोटी सी बिंदी और हलका सा मेकअप जो सिया को सौम्यता प्रदान कर रहा था.

जब सिया रंगोली रेस्तरां पहुंची तो राघव पहले से ही बैठा था. सिया को देखते ही वह खड़ा हो गया.

सिया मुसकराते हुए उस के पास आई. दोनों 5 मिनट तक चुपचाप बैठे रहे. दोनों को ही समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे आरंभ करें?

तभी वेटर ने आ कर मौन को तोड़ा और मेनू कार्ड दे दिया. राघव ने सिया से कहा कि तुम और्डर कर दो.

सिया ने वेजिटेबल इडली और कोल्ड कौफी और्डर कर दी थी.

राघव गला खंखारते हुए बोला, “आगे क्या सोचा है?”

सिया बोली, “पता नहीं. पहले बहुतकुछ सोचा करती थी, अब कुछ नहीं सोचती हूं.”

राघव बोला, “देखो, हम चाहे कागजों पर ही सही, अभी भी पतिपत्नी ही हैं. तुम्हारे भाइयों ने जो मुझ पर मुकदमे दर्ज किए हैं, सब झूठ हैं.

“क्या तुम्हें बुरा नहीं लगता कि वे मुझे बेवजह परेशान कर रहे हैं. उन के कारण मेरी अच्छीखासी नौकरी चली गई है.”

सिया बोली, “राघव, मैं क्या करूं? मेरे भाई ही हैं, जो मेरे साथ खड़े हैं.”

राघव बोला, “तुम्हारे साथ नहीं, अपने अहंकार के साथ खड़े हैं.”

सिया बोली, “कोई तो सहारा चाहिए मुझे?”

राघव आक्रोश में बोला, क्यों? अपाहिज हो क्या? अच्छीखासी हो, दिखती भी ठीकठाक हो.”

सिया बोली, “पर, तुम्हारी तरह पढ़ीलिखी नहीं हूं कि कोई नौकरी कर सकूं.”

राघव बोला, “ग्रेजुएट हो. कुछ न कुछ तो कर सकती हो. मैं ने तो सुना था कि तुम बेहद प्रतिभाशाली हो.”

सिया ने कहा, “मैं ने बेकरी, मेकअप इत्यादि के कोर्स कर रखे हैं, पर इस से मुझे क्या नौकरी मिलेगी?”

राघव ने कहा, “सिया बचपन से मैं अपने छोटे कद के कारण इतना हीनभावना से भर गया था कि पढ़ाई के
अलावा अपने को आगे रखने का मुझे कोई और रास्ता नजर नहीं आया.

“मैं तो बस एक पढ़ीलिखी, प्यार करने वाली साथी चाहता था, मगर मेरे परिवार वालों ने और तुम्हारे परिवार वालों ने मेरी जिंदगी को बरबाद कर दिया है.”

सिया बोली, “तुम सही कह रहे हो, मेरी जिंदगी तो आबाद है.”

राघव बोला, “तुम्हारे साथ तुम्हारा परिवार तो है. मेरे साथ तो कोई भी नहीं है. बिलकुल अकेला पड़ गया हूं. दोस्तों के बीच मजाक बन कर रह गया हूं.

“सब को लगता है कि मेरे छोटे कद के कारण मेरी बीवी भी मुझे छोड़ कर चली गई है.”

सिया बोली, “ये बिलकुल झूठ है. मैं तो पूरे ड्रामा में कठपुतली हूं.”

राघव बोला, “क्यों? हां सिया, उठो और अपने लिए खड़ी होना सीखो.”

जब सिया के घर से फोन आया, तो दोनों को समय का अंदाजा हुआ.

उस मुलाकात के बाद सिया और राघव की अकसर बात होने लगी थी.

सिया को राघव में एक अच्छा दोस्त मिल गया था, वहीं राघव को लगा कि वो सिया के बारे में कितना गलत था.

सिया के पास भले ही इंजीनियरिंग की डिगरी नहीं थी, पर वो बेहद टैलेंटेड थी.

राघव की सलाह पर सिया ने घर से ही बेकिंग क्लासेस शुरू कर दी थी. इनकम कम थी, पर आत्मसम्मान
अधिक था. सिया को ये विश्वास हो गया था कि वो एक स्वतंत्र जीवन जी सकती है. परजीवी की तरह उसे किसी और के सहारे की आवश्यकता नहीं है.

सिया का मन राघव के प्रति झुका जा रहा था, मगर उसे अच्छे से पता था कि वो राघव के लायक नहीं है. उधर राघव जितना सिया से मिलता उतना ही उस की तरफ खिंचा जा रहा था.

राघव ने एक दिन सिया को मैसज किया और लंच के लिए बुलाया. लंच करते हुए राघव हंसते हुए बोला, “सिया, घर पर क्या बोल कर आती हो?”

सिया शर्माते हुए बोली, “सहेली के यहां जा रही हूं.”

राघव फिर थोड़ा रुक कर बोला, “क्या वापस इस रिश्ते को एक मौका देना चाहती हो, अगर तुम्हें ठीक लगे. मैं तुम्हारे बारे में गलत था. तुम बेहद जहीन और टैलेंटेड लड़की हो. क्या मेरी जिंदगी की साथी बनना पसंद करोगी?”

सिया बोली, “राघव, मगर, जो मेरे भाइयों ने केस कर रखा है?”

राघव बोला, “तुम अगर तैयार हो तो बाकी सब मैं संभाल लूंगा.”

सिया ने अपनी मम्मी को जब यह बात बताई, तो वे बोलीं, “तुझे विश्वास है कि राघव तेरा साथ देगा. अभी तो तेरे भाई तेरे साथ खड़े हैं. बाद में अगर कुछ ऊंचनीच हुई तो तू खुद जिम्मेदार है.”

सिया ने फैसला ले लिया था. पहले घर वालों ने बिना उस से पूछे राघव को उस के लिए चुना था. आज उस ने राघव को अपने लिए चुना था.

यह बात सुनते ही सिया के दोनों भाई भड़क उठे थे. मगर, सिया टस से मस नहीं हुई थी.

राघव का परिवार भी इस बात के लिए तैयार नहीं था.
मगर राघव ने किसी की परवाह नहीं की और सिया के घर पहुंच गया था.

दोनों भाइयों के आगे हाथ जोड़ते हुए राघव बोला, “मेरी गलती थी कि मैं ने सिया से बिना बात करे उसे घर भेज दिया था.

“हम दोनों पिछले 5 सालों से वनवास झेल रहे हैं. आज आप मेरी सिया को विदा कर दीजिए, ताकि हम वनवास से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर सकें.”

अभी नहीं तो कभी नहीं: क्या सुमेधा को गिरीश की मां ने स्वीकार किया

‘‘मुझे यह बात सम झ नहीं आती कि मैं ने इतनी बड़ी गलती कैसे कर दी? सच कहती हूं प्रीतो, अब मैं इस रिश्ते को और नहीं निभा सकती. दे दूंगी तलाक गिरीश को, फिर सारा  झं झट खत्म हो जाएगा मेरी जिंदगी से,’’ अपनी दोस्त प्रीतो के घर आते ही सुमेधा ने बोलना शुरू कर दिया.

‘‘हूं, लगता है तेरी सासुमां पधार चुकी है तुम्हारे घर?’’ गैसचूल्हे पर चाय का पानी चढ़ाते हुए प्रीतो ने उसे कनखियों से देख कर मुसकराहट के साथ पूछा.

‘‘हां, अब तुम्हें तो सब पता ही है कि उन के यहां आते ही मैं अपने ही घर में बेगानी हो जाती हूं और दुख तो मु झे इस बात पर होता है कि गिरीश क्यों कुछ नहीं कहते? क्या उन्हें अपनी मां की गलती दिखाई नहीं देती. मेरे कुछ कहने से पहले ही मेरी सास उन के कान भर चुकी होती है मेरे खिलाफ. लेकिन इंसान में अपनी अक्ल तो होनी चाहिए न, पर नहीं. अरे, शादी ही क्यों की जब उन्हें अपनी पत्नी पर विश्वास ही नहीं है तो. रहते अपनी मां के पल्लू में ही छिप कर.

‘‘जानती हो प्रीतो, मेरी सास हमेशा यह कह कर मु झे ताना मारती रहती है कि मुसलमान के घर तो वह अपना पैर भी नहीं धरना चाहती, पर बेटे के मोह से खिंची चली आती है और मैं ने उन के बेटे पर कोई काला जादू कर दिया है वगैरहवगैरह. गिरीश से कहा मैं ने कि सम झाओ अपनी मां को कि वह मु झे मुसलिम लड़की कह कर संबोधित न करे. लेकिन वह कहता है कि बोलने दो, जो उन की मरजी है. ऐसे कैसे बोलने दूं, बता तो? क्या मेरा दिल छलनी नहीं होता उन की ऐसीवैसी बातों से?’’ एक सांस में ही सुमेधा इतनाकुछ बोल गई.

‘‘वैसे, यह बता कि चाय कैसी बनी, चीनी तो सही से है न?’’ बात को बदलने और माहौल को हलका करने के खयाल से प्रीतो ने कहा.

‘‘देख, तुम भी वैसी ही हो. सच कहते हैं लोग, जो दुखदर्द से गुजरता है वही दूसरे के दुखों का अंदाजा सही से लगा पाता है. लेकिन तुम क्या जानो मेरे दुखों को, क्योंकि तेरी तो कोई सास है ही नहीं न. तुम्हें अपना सम झ कर मैं यहां तुम से अपने दिल की बात कहने आई हूं और तुम हो कि… चल जाने दे, मैं चलती हूं,’’ कह कर वह जाने को उठने ही लगी कि प्रीतो ने उस का हाथ खींच कर फिर से सोफे पर बैठा दिया और कहने लगी, ‘‘तू क्या सम झती हो, मैं तुम्हारी पीड़ा नहीं सम झती. सब सम झती हूं, पर तुम्हें यह सम झाने की कोशिश कर रही हूं कि चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, अगर तुम पतिपत्नी एक हो कर रहो तो फिर क्या मजाल जो कोई तुम्हारी जिंदगी में जहर घोल दे.

‘‘मैं कहती हूं कि क्यों तुम हमेशा गिरीश से उस को तलाक देने की बात करती रहती है? उस ने किया क्या है? क्या उसे बुरा नहीं लगता होगा जब उस की मां तुम्हारी इंसल्ट करती होगी. पर क्या करे बेचारा. लेकिन तुम सतर्क हो जाओ, क्योंकि तुम्हारी सास यही चाहती है कि किसी भी तरह तुम गिरीश को तलाक दे दो और फिर वह अपने बेटे की शादी अपनी पसंद की लड़की से और अपनी जात में करवा सके और इसलिए वह गिरीश की नजरों में तुम्हें नीचा व खुद को ऊंचा दिखाने की कोशिश करती रहती है. लेकिन तुम हो कि यह बात सम झती ही नहीं हो. अगर तुम्हारा यही रवैया रहा न, तो सच में गिरीश तुम्हें ही गलत सम झ कर तलाक की बात पर हामी भर देगा एक दिन, देखना तुम.

‘‘सच बताओ, क्या तुम दिल से चाहती हो कि तुम्हारा और गिरीश का तलाक हो जाए. नहीं न? तो फिर इग्नोर करो न अपनी सास की बातों को. जाने दो, वह जो करती है करने दो. अगर वह तुम्हारे हाथ का पानी तक नहीं पीना चाहती, तो न पिए, तुम्हें क्या. वह नहीं चाहती न कि उन के रहते तुम किचन में या पूजाघर में जाओ या उन का कोई भी काम करो? तो मत करो न.’’

‘‘तो फिर मैं क्या करूं प्रीतो, आखिर मैं भी तो इंसान हूं न. मु झे चिढ़ होती है. कितना, आखिर कितना बरदाश्त करूं मैं, बताओ? जब भी मेरी सास आती है गिरीश मु झ से दूरदूर रहने लगते हैं. कुछ कहतीपूछती हूं तो ठीक से जवाब नहीं देते. जाने क्या हो जाता है उन्हें अपनी मां के आने पर? लेकिन अपनी मां से तो प्यार से ही बातें करते हैं, फिर मु झ से ही उखड़ेउखड़े से क्यों रहते हैं?’’

‘‘हो सकता है वे अपनी मां के सामने तुम्हें वह प्यार न देना चाहते हों जो वे देते आए हैं. यह तो बताओ कि उन के जाने के बाद तो सब ठीक हो जाता है न? और फिर. तुम ने ही बताया था मु झे कि कितनी मुश्किल से तुम दोनों एक हो पाए हो. एक होने के लिए तुम दोनों ने अपने परिवार, यहां तक कि समाज की नाराजगी  झेली. क्या इसलिए कि छोटीछोटी बातों पर  झगड़ा करो, तलाक ले कर अलग हो जाओ? तुम्हारी सास का क्या है, वह तो आतीजाती रहती है. लेकिन जीवनभर साथ तो तुम्हीं दोनों को रहना है, तो फिर अनसुना कर दिया करो उन की बातों को. हो सके तो जीत लो अपनी सास के मन को, फिर देखना कैसे गिरीश को भी तुम ही सही लगने लगोगी,’’ प्रीतो ने जब सुमेधा को ये सब बातें सम झाईं तो उसे भी वही सही लगा और उस ने उस की कही बातें अपने मन में बैठा लीं.

सुमेधा एक सिंधी परिवार से है और गिरीश बिहार के ब्राह्मण परिवार का बेटा. दोनों के रहनसहन, खानपान बिलकुल भिन्न हैं. कोई समानता नहीं थी दोनों के बीच. लेकिन कहते हैं न, दिल लगे गधी से, तो फिर परी किस काम की. गिरीश के लिए उस की जाति ही से कितनी लड़कियों का रिश्ता आया पर उस का दिल तो सुमेधा से जा टकराया था. ऐसे में वह कैसे किसी और का बन सकता था.

एक दिन मैं ने सुमेधा से पूछा भी कि आखिर तुम दोनों कैसे मिले और कैसे प्यार पनपा तुम दोनो के बीच? तो वह बताने लगी कि कालेज के दौरान उस की मुलाकात गिरीश से हुई थी. वे यहां गुजरात के ही एक कालेज में प्रोफैसर की पोस्ट पर चयनित हुए थे और सुमेधा उसी कालेज में अंतिम वर्ष की छात्रा थी. अकसर सुमेधा पढ़ाई के सिलसिले में गिरीश से मिलती रहती थी. गिरीश भी सुमेधा को इसलिए पसंद करता था क्योंकि उसे पढ़ने और किसी चीज को जानने की बहुत जिज्ञासा रहती थी और यही बात गिरीश को अच्छी लगती थी.

फिर कैरियर और जिंदगी के शुरुआती दिनों में उस ने एक अच्छे दोस्त की तरह सुमेधा की काफी मदद भी की. वह गिरीश को ले कर बेकरार तो नहीं थी, पर एक सौफ्ट कौर्नर बनता जा रहा था उसे ले कर. शायद गिरीश भी सुमेधा की ओर आकर्षित होने लगा था, पर कहने में सकुचाता था. फिर एक दिन आगे बढ़ कर सुमेधा ने ही उसे प्रपोज कर दिया जिसे गिरीश ने तुरंत स्वीकार कर लिया. लेकिन जब दोनों के परिवारों को उन के प्यार की भनक लगी तो उन के घर में बवाल मच गया.

‘दिमाग खराब हो गया है इस लड़की का. अरे, तुम ने सोच भी कैसे लिया कि हम तुम्हारी शादी एक दूसरी जाति के लड़के से करने की इजाजत दे देंगे. समाज में हम कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे. निकाल देंगे लोग हमें सिंधी समाज से तो फिर हम कहां जाएंगे बताओ? गलती हो गई, गलती हो गई हम से जो हम ने तुम्हें इतनी छूट दे दी,’ कह कर सुमेधा के मातापिता ने उस का घर से निकलना बंद करवा दिया और उधर, गिरीश के मातापिता ने भी इस बात को सुन कर पूरा घर अपने सिर पर उठा लिया.

कहने लगे, ‘अरे, कौन सा पाप हो गया हम से जो तुम ऐसे दिन दिखा रहे हो? एक ब्राह्मण के घर मुसलिम लड़की. छीछीछी… सुनने से पहले मर क्यों नहीं गए, बहरे क्यों नहीं हो गए.’

‘पर मांपापा सुनो तो, वह लड़की मुसलिम नहीं है, सिंधी है. हां, उस के कुछ रिश्तेदारों ने मजबूरीवश ही मुसलिम धर्म अपना लिया पर उन के साथ तो अब इन का कोई संबंध ही नहीं रहा,’ गिरीश अपने मातापिता को सम झाते हुए बोला.

‘अब तुम मु झे सम झाओगे कि वह लड़की किस जात से है और अपने परिवार से संबंध रखती है या नहीं? हम ब्राह्मण हैं जो प्याजलहसुन भी हाथ नहीं लगाते और वह मांसमच्छी खाने वाली लड़की, छी… तुम ने सोच भी कैसे लिया कि हम उसे अपने घर की बहू बनाएंगे?’  िझड़कते हुए गिरीश के पिता बोले.

‘मां सम झाओ न पिताजी को कि वह लड़की शादी के बाद मांसमच्छी खाना छोड़ देगी और शादी के बाद तो वैसे भी वह हमारे कुल की बहू बन जाएगी न?’

‘नहीं बेटा, इस बार तुम्हारे बाबूजी सही हैं,’ कह कर गिरीश की मां ने भी अपना मुंह फेर लिया.

‘तो फिर ठीक है. अब मेरा भी फैसला सुन लीजिए आप दोनों, अगर मेरी शादी सुमेधा से नहीं हुई तो मैं किसी से भी शादी नहीं करूंगा और न ही कभी यहां आऊंगा,’ गुस्से से भर कर गिरीश ने भी अपना फैसला सुना दिया और उसी दिन ट्रेन पकड़ कर गुजरात आ गया. उधर सुमेधा की शादी के लिए लड़के देखे जाने लगे. सम झ नहीं आ रहा था उसे कि करे तो क्या करे? किसी तरह एक दिन मिलने पर दोनों ने विचार किया कि अभी नहीं तो कभी नहीं. ठान लिया उन्होंने कि चाहे परिवार की मरजी हो या न हो, वे एक हो कर ही रहेंगे. फिर क्या था, तय अनुसार उस रोज सुमेधा किसी जरूरी काम का बहाना बना कर घर से निकल गई और फिर दोनों ने कोर्ट में जा कर शादी कर ली. लेकिन उन्हें अपने परिवार से यह बताने की हिम्मत नहीं हो रही थी कि उन्होंने कोर्ट में शादी कर ली, पर बताना तो था ही.

सुनते ही गिरीश के मातापिता आगबबूला हो गए और उधर सुमेधा के परिवार ने भी कह दिया कि अब उन्हें अपनी बेटी से कोई लेनादेना नहीं है. इधर सिंधी समाज भी इस शादी का विरोध करने लगा. समाज वाले कहने लगे कि या तो सुमेधा के मातापिता लिखित में अपनी बेटी से रिश्ता तोड़ दें, या फिर सिंधी समाज से अलग हो जाएं. कोई भी मातापिता अपने बच्चे से गुस्सा तो हो सकते हैं पर उन से कभी रिश्ता तोड़ने की नहीं सोच सकते. सो कह दिया उन्होंने कि चाहे जो हो जाए, वे अपनी बेटी के साथ हैं और रहेंगे हमेशा.

भले ही पिता कितना भी सख्त हो जाए पर मां तो मां होती है न, गिरीश की मां ने भी सबकुछ भुला कर अपने बेटे को माफ कर दिया. लेकिन सुमेधा को नहीं, क्योंकि उसे लगता है कि उस ने ही बापबेटे के बीच खाई का काम किया है. आज तक उस ने सुमेधा को अपनी बहू के रूप में नहीं स्वीकारा है. लेकिन मैं जानती हूं कि सुमेधा भी एक ब्राह्मण परिवार से है, पर उस की सास यह मानने को कतई तैयार नहीं है.

सिंधियों का इतिहास पढ़ा है मैं ने, जानती हूं कि कैसे सिंधी से जबरन उन्हें मुसलमान बनाया गया. 700 ईस्वी में हिंदूब्राह्मण राजा दाहिर, सिंध के शासक थे. अरबी लुटेरों से लड़ते हुए वे शहीद हो गए. इस के बाद सिंध में इसलाम की घुसपैठ शुरू हो गई. अधिसंख्यक सिंधी मुसलमान बन गए. ब्राह्मण दाहिर के पुत्र भी मुसलिम बन गए. भयांक्रांतता के चलते हिंदू इसलाम को मानने के लिए मजबूर हो गए. ब्राह्मणवाद, इसलामाबाद हो गया. अरबी बहुत दिनों तक सिंध में रहे और हिंदुओं को इसलाम में लाते रहे. सिंध से ले कर बलूचिस्तान तक जितने शोषित, पीडि़त और दलित वर्ग के लोग थे, अरबों ने उन्हें मुसलमान बना दिया.

हिंदुओं में फूट, आपसी कलह और भेदभाव के चलते आखिरकार वे मतांतरित हुए. धीरेधीरे सिंध में मुसलमान अधिसंख्यक हो गए और बचेखुचे हिंदू अल्पसंख्यक हो गए. अब जो अल्पसंख्यक हिंदू बचे, वे या तो इसलाम धर्म कुबूल कर लें या फिर यह देश छोड़ कर चले जाएं. यही 2 विकल्प बचे थे उन के पास और तभी शायद सुमेधा के पूर्वज सिंध प्रांत छोड़ कर 1947 के बाद यहां भारत के गुजरात में आ बसे.

आज भी देश में हिंदुओं में पारस्परिक एकता का अभाव है. देश में जातपांत का बोलबाला है. अनेक जातिवादी घटक हैं. दलगत नीतियों का वर्चस्व है. ऐसी ही स्थिति सिंध में थी और इन्हीं दुर्बलताओं का फायदा अरबी लुटेरों ने उठाया था. जाति का कहर सहती जनता ने इसलाम धर्म कुबूलना ही सही सम झा और कुछ वहां से हिंदू राजाओं की शरण में भाग आए.

उफ्फ. मैं भी न, कौन से इतिहास के पन्ने पलटने लग गई. प्रीतो खुद से ही कहने लगी, चलो जल्दी करो प्रीतो, बच्चे स्कूल से आते ही होंगे और अगर उन्हें खाना नहीं मिला तो फिर तेरी खैर नहीं. और वह किचन में चली गई.

वैसे तो सुमेधा अकसर प्रीतो के घर आतीजाती रहती थी और वह भी, लेकिन अभी उस की सास आई हुई है, इस कारण प्रीतो उस के घर नहीं जाती थी. पर सुमेधा क्यों नहीं आ रही थी उस के घर, इस बात की उसे चिंता होने लगी. ‘कहीं उस दिन सुमेधा को मेरी बात बुरी तो नहीं लग गई होगी और इसी कारण वह…’ उस ने अपनेआप से कहा.

इतने दिन बाद सुमेधा को अपने घर आए देख प्रीतो बहुत खुश हो गई. कहने लगी, ‘‘अरे, सुमेधा, आआ, वैसे भी कहां थी इतने दिनों से? बड़ी मुसकरा रही है, लगता है तेरी सास चली गई.’’

‘‘नहीं प्रीतो, मेरी सास यहीं है और एक बात बताऊं, उन्होंने मु झे अपना लिया.’’

‘‘अच्छा, पर यह सब हुआ कैसे?’’ आश्चर्य से प्रीतो ने पूछा तो वह कहने लगी कि उस ने सास की फुजूल की बातों को दिल से लगाना छोड़ दिया. वह जो कहती, सुन लेती, उस की बातों पर कोई प्रतिक्रिया न देती. तो उस ने बोलना कम कर दिया और इस कारण घर में कलह होना बंद हो गया. कोई कारण ही नहीं होता उन्हें अपने बेटे से सुमेधा की शिकायत करने का. फिर एक रात उस की तबीयत बहुत खराब हो गई. सुबह जब डाक्टर से दिखाया तो डाक्टर ने बताया कि उस की सास को डेंगू हो गया और प्लेटलेट्स भी बहुत कम हो गए हैं. यह सुन कर गिरीश बहुत घबरा गए.

लेकिन सुमेधा ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए कहा कि सब ठीक हो जाएगा. इस दौरान उस ने अपनी सास की बहुत सेवा की. 4-5 दिनों तक उस के साथ अस्पताल में ही रही और सुमेधा की सेवासुश्रूषा से उस की सास जल्द ही ठीक हो कर घर आ गई. अपनी आंखों में आंसू लिए वह कहने लगी कि उस ने अपनी बहू को पहचानने में गलती कर दी थी और अब उसे उस से कोई शिकायत नहीं है.

‘‘चलो, अच्छा हुआ. अंत भला सो सब भला, लेकिन अब तो तू गिरीश से तलाक नहीं लेगी न?’’

सुमेधा को छेड़ते हुए प्रीतो ने कहा तो वह भी हंस पड़ी,  ‘‘नहीं, कभी नहीं.’’

काश, आप ने ऐसा न किया होता: कैसे थे बड़े भैया

‘‘भैया, वह आप के साथ इतनी बदतमीजी से बात कर रहा था…क्या आप को बुरा नहीं लगा? आप इतना सब सह कैसे जाते हैं. औकात क्या है उस की? न पढ़ाईलिखाई न हाथ में कोई काम करने का हुनर. मांबाप की बिगड़ी औलाद…और क्या है वह?’’

‘‘तुम मानते हो न कि वह कुछ नहीं है.’’

भैया के प्रश्न पर चुप हो गया मैं. भैया उस की गाड़ी के नीचे आतेआते बड़ी मुश्किल से बचे थे. क्षमा मांगना तो दूर की बात बाहर निकल कर इतनी बकवास कर गया था. न उस ने भैया की उम्र का खयाल किया था और न ही यह सोचा था कि उस की वजह से भैया को कोई चोट आ जाती.

‘‘ऐसा इनसान जो किसी लायक ही नहीं है वह जो पहले से ही बेचारा है. अपने परिवार के अनुचित लाड़प्यार का मारा, ओछे और गंदे संस्कारों का मारा, जिस का भविष्य अंधे कुएं के सिवा कुछ नहीं, उस बदनसीब पर मैं क्यों अपना गुस्सा अपनी कीमती ऊर्जा जाया करूं? अपने व्यवहार से उस ने अपने चरित्र का ही प्रदर्शन किया है, जाने दो न उसे.’’

अपनी किताबें संभालतेसंभालते सहसा रुक गए भैया, ‘‘लगता है ऐनक टूट गई है. आज इसे भी ठीक कराना पड़ेगा.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ, सस्ते में छूट गया मैं,’’ सोम भैया बोले, ‘‘मेरी ही टांग टूट जाती तो 3 हफ्ते बिस्तर पर लेटना पड़ता. मुझ पर आई मुसीबत मेरी ऐनक ने अपने सिर पर ले ली.’’

‘‘मैं जा कर उस के पिता से बात करूंगा.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं किसी से कुछ भी बात करने की. बौबी की जो चाल है वही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाली है. जो लोग जीवन में बहुत तेज चलना चाहते हैं वे हर जगह जल्दी ही पहुंचते हैं…उस पार भी.’’

कैसे विचित्र हैं सोम भैया. जबजब इन से मिलता हूं, लगता है किसी नए ही इनसान से मिल रहा हूं. सोचने का कोई और तरीका भी हो सकता है यह सोच मैं हैरान हो जाता हूं.

‘‘अपना मानसम्मान क्या कोई माने नहीं रखता, भैया?’’

‘‘रखता है, क्यों नहीं रखता लेकिन सोचना यह है कि अपने मानसम्मान को हम इतना सस्ता भी क्यों मान लें कि वह हर आम आदमी के पैर की जूती के नीचे आने लगे. मैं उस की गाड़ी के नीचे आ जाता, आया तो नहीं न. जो नहीं हुआ उस का उपकार मान क्या हम प्रकृति का धन्यवाद न करें?’’

‘‘बौबी की बदतमीजी क्या इतनी बलवान है कि हमारा स्वाभिमान उस के सामने चूरचूर हो जाए. हमारा स्वाभिमान बहुत अमूल्य है जिसे हम बस कभीकभी ही आढ़े लाएं तो उस का मूल्य है. जराजरा सी बात को अपने स्वाभिमान की बलि मानना शुरू कर देंगे तो जी चुके हम. स्वाभिमान हमारी ताकत होना चाहिए न कि हमारी कमजोर नस, जिस पर हर कोई आताजाता अपना हाथ धरता फिरे.’’

अजीब लगता है मुझे कभीकभी भैया का व्यवहार, उन का चरित्र. भैया बंगलौर में रहते हैं. एक बड़ी कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं. मैं एम.बी.ए. कर रहा हूं और मेरी परीक्षाएं चल रही हैं. सो मुझे पढ़ाने को चले आए हैं.

‘‘इनसान अगर दुखी होता है तो काफी सीमा तक उस की वजह उस की अपनी ही जीवनशैली होती है,’’ भैया मुझे देख कर बोले, ‘‘अगर मैं ही बच कर चलता तो शायद मेरा चश्मा भी न टूटता. हमें ही अपने को बचा कर रखना चाहिए.’’

‘‘तुम्हें अच्छे नंबरों से एम.बी.ए. पास करना है और देश की सब से अच्छी कुरसी पर बैठना है. उस कुरसी पर बैठ कर तुम्हें बौबी जैसे लोग बेकार और कीड़े नजर आएंगे जिन के लिए सोचना तुम्हें सिर्फ समय की बरबादी जैसा लगेगा. इसलिए तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो.’’

मैं ने वैसा ही किया जैसा भैया ने समझाया. शांत रखा अपना मन और वास्तव में मन की उथलपुथल कहीं खो सी गई. मेरी परीक्षाएं हो गईं. भैया वापस बंगलौर चले गए. घर पर रह गए पापा, मां और मैं. पापा अकसर भैया को साधुसंत कह कर भी पुकारा करते हैं. कभीकभी मां को भी चिढ़ा देते हैं.

‘‘जब यह सोमू पैदा होने वाला था तुम क्या खाया करती थीं…किस पर गया है यह लड़का?’’

‘‘वही खाती थी जो आप को भी खिलाती थी. दाल, चावल और चपाती.’’

‘‘पता नहीं किस पर गया है मेरा यह साधु महात्मा बेटा, सोम.’’

इतना बोल कर पापा मेरी तरफ देखने लगते. मानो उन्हें अब मुझ से कोई उम्मीद है क्योंकि भैया तो शादी करने को मानते ही नहीं, 35 के आसपास भैया की उम्र है. शादी का नाम भी लेने नहीं देते.

‘‘यह लड़का शादी कर लेता तो मुझे भी लगता मेरी जिम्मेदारी समाप्त हो गई. हर पल इस के खानेपीने की चिंता रहती है. कोई आ जाती इसे भी संभालने वाली तो लगता अब कोई डर नहीं.’’

‘‘डर काहे का भई, मैं जानता हूं कि तुम अपने जाने का रास्ता साफ करना चाहती हो मगर यह मत भूलो, हम दोनों अभी भी तुम्हारी जिम्मेदारी हैं. विजय के बालबच्चों की चिंता है कि नहीं तुम्हें…और बुढ़ापे में मुझे कौन संभालेगा. आखिर उस पार जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है तुम्हें कि जब देखो बोरियाबिस्तर बांधे तैयार नजर आती हो.’’

मां और पापा का वार्त्तालाप मेरे कानों में पड़ा, आजकल पापा इस बात पर बहुत जल्दी चिढ़ने लगे हैं कि मां हर पल मृत्यु की बात क्यों करने लगी हैं.

‘‘मैं टीवी का केबल कनेक्शन कटवाने वाला हूं,’’ पापा बोले, ‘‘सुबह से शाम तक बाबाओं के प्रवचन सुनती रहती हो,’’ और अखबार फेंक कर पापा बाहर आ कर बैठ गए…बड़ाबड़ा रहे थे. बड़बड़ाते हुए मुझे भी देख रहे थे.

‘‘क्या जरूरत है इस की? क्या मेरे सोचने से ही मैं उस पार चली जाऊंगी. संसार क्या मेरे चलाने से चलता है? आप इस बात पर चिढ़ते क्यों हैं,’’ शायद मां भी पापा के साथसाथ बाहर चली आई थीं. बचपन से देख रहा हूं, पापा मां को ले कर बहुत असुरक्षित हैं. मां क्षण भर को नजर न आईं तो पापा इस सीमा तक घबरा जाते हैं कि अवश्य कुछ हो गया है उन्हें. इस के पीछे भी एक कारण है.

हमारी दादी का जब देहांत हुआ था तब पापा की उम्र बहुत छोटी थी. दादी घर से बाहर गईं और एक हादसे में उन की मौत हो गई. पापा के कच्चे मन पर अपनी मां की मौत का क्या प्रभाव पड़ा होगा वह मैं सहज महसूस कर सकता हूं. दादी के बिना पता नहीं किस तरह पापा पले थे. शायद अपनी शादी के बाद ही वह जरा से संभल पाए होंगे तभी तो उन के मन में मां उन की कमजोर नस बन चुकी हैं जिस पर कोई हाथ नहीं रख सकता.

‘‘मैं ने कहा न तुम मेरे सामने फालतू बकबक न किया करो.’’

‘‘मेरी बकबक फालतू नहीं है. आप अपना मन पक्का क्यों नहीं करते? मेरी उम्र 55 साल है और आप की 60. एक आदमी की औसत उम्र भी तो यही है. क्या अब हमें धीरेधीरे घरगृहस्थी से अपना हाथ नहीं खींच लेना चाहिए? बड़ा बेटा अच्छा कमा रहा है…हमारा मोहताज तो नहीं. विजय भी एम.बी.ए. के बाद अपनी रोटी कमाने लगेगा. हमारा गुजारा पेंशन में हो रहा है. अपना घर है न हमारे पास. अब क्या उस पार जाने का समय नहीं आ गया?’’

पापा गरदन झुकाए बैठे सुन रहे थे.

‘‘मैं जानता हूं अब हमें उस पार जाना है पर मुझे अपनी परवा नहीं है. मुझे तुम्हारी चिंता है. तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा.’’

‘‘इसीलिए तो कह रही थी कि सोम की शादी हो जाती तो बहू आप सब को संभाल लेती. कोई डर न होता.’’

बात घूम कर वहीं आ गई थी. हंस पड़ी थीं मां. माहौल जरा सा बदला. पापा अनमने से ही रहे. फिर धीरे से बोले, ‘‘पता चल गया मुझे सोमू किस पर गया है. अपनी मां पर ही गया है वह.’’

‘‘इतने साल साथ गुजार कर आप को अब पता चला कि मैं कैसी हूं?’’

‘‘नौकरी की आपाधापी में तुम्हारे चरित्र का यह पहलू तो मैं देख ही नहीं पाया. अब रिटायर हो गया हूं न, ज्यादा समय तुम्हें देख पाता हूं.’’

सच कह रहे हैं पापा. भैया बड़े हैं. लगता है मां का सारा का सारा चरित्र उन्हें ही मिल गया. जो जरा सा बच गया उस में कुछ पापा का मिला कर मुझे मिल गया. मैं इतना क्षमावादी नहीं हूं जितने भैया और मां हैं. हो सकता है जरा सा बड़ा हो जाऊं तो मैं भी वैसा ही बन जाऊं.

भैया मुझ से 10 साल बड़े हैं. हम दोनों भाइयों में 10 साल का अंतर क्यों है? मैं अकसर मां से पूछता हूं.

कम से कम मेरा भाई मेरा भाई तो लगता. वह तो सदा मुझे अपना बच्चा समझ कर बात करते हैं.

‘‘यह प्रकृति का खेल है, बेटा, इस में हमारा क्या दोष है. जो हमें मिला वह हमारा हिस्सा था, जब मिलना था तभी मिला.’’

अकसर मां समझाती रहती हैं, कर्म करना, ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाना हमारा कर्तव्य है. उस के बाद हमें कब कितना मिले उस पर हमारा कोई बस नहीं. जमीन से हमारा रिश्ता कभी टूटना नहीं चाहिए. पेड़ जितना मरजी ऊंचा हो जाए, आसमान तक उस की शाखाएं फैल जाएं लेकिन वह तभी तक हराभरा रह सकता है जब तक जड़ से उस का नाता है. यह जड़ हैं हमारे संस्कार, हमारी अपने आप को जवाबदेही.

समय आने पर मेरी नियुक्ति भी बंगलौर में हो गई. अब दोनों भाई एक ही शहर में हो गए और मांपापा दिल्ली में ही रहे. भैया और मैं मिल गए तो हमारा एक घर बन गया. मेरी वजह से भैया ने एक रसोइया रख लिया और सब समय पर खानेपीने लगे. बहुत गौर से मैं भैया के चरित्र को देखता, कितने सौम्य हैं न भैया. जैसे उन्हें कभी क्रोध आता ही नहीं.

‘‘भैया, आप को कभी क्रोध नहीं आता?’’

एक दिन मेरे इस सवाल पर वह कहने लगे, ‘‘आता है, आता क्यों नहीं, लेकिन मैं सामने वाले को क्षमा कर देता हूं. क्षमादान बहुत ऊंचा दान है. इस दान से आप का अपना मन शांत हो जाता है और एक शांत इनसान अपने आसपास काम करने वाले हर इनसान को प्रभावित करता है. मेरे नीचे हजारों लोग काम करते हैं. मैं ही शांत न रहा तो उन सब को शांति का दान कैसे दे पाऊंगा, जरा सोचो.’’

एक दोपहर लंच के समय एक महिला सहयोगी से बातचीत होने लगी. मैं कहां से हूं. घर में कौनकौन हैं आदि.

‘‘मेरे बड़े भाई हैं यहां और मैं उन के साथ रहता हूं.’’

भैया और उन की कंपनी का नाम- पता बताया तो वह महिला चौंक सी गई. उसी पल से उस का मेरे साथ बात करने का लहजा बदल गया. वह मुझे सिर से पैर तक ऐसे देखने लगी मानो मैं अजूबा हूं.

‘‘नाम क्या है आप का?’’

‘‘जी विजय सहगल, आप जानती हैं क्या भैया को?’’

‘‘हां, अकसर उन की कंपनी से भी हमारा लेनदेन रहता है. सोम सहगल अच्छे इनसान हैं.’’

मेरी दोस्ती उस महिला के साथ बढ़ने लगी. अकसर वह मुझ से परिवार की बातें करती. अपने पति के बारे में, अपने बच्चों के बारे में भी. कभी घर आने को कहती, मेरे खानेपीने पर भी नजर रखती. एक दिन नाश्ता करते हुए उस महिला का जिक्र मैं ने भैया के सामने भी कर दिया.

‘‘नाम क्या है उस का?’’

अवाक् रह गए भैया उस का नाम सुन कर. हाथ का कौर भैया के हाथ से छूट गया. बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगे.

‘‘क्या बात है भैया? आप का नाम सुन कर वह भी इसी तरह चौंक गई थी.’’

‘‘तो वह जानती है कि तुम मेरे छोटे भाई हो…पता है उसे मेरा?’’

‘‘हां पता है. आप की बहुत तारीफ करती है. कहती है आप की कंपनी के साथ उस की कंपनी का भी अच्छा लेनदेन है. मेरा बहुत खयाल रखती है.’’

‘‘अच्छा, कैसे तुम्हारा खयाल रखती है?’’

‘‘जी,’’ अचकचा सा गया मैं. भैया के बदले तेवर पहली बार देख रहा था मैं.

‘‘तुम्हारे लिए खाना बना कर लाती है या रोटी का कौर तुम्हारे मुंह में डालती है? पहली बार घर से बाहर निकले हो तो किसी के भी साथ दोस्ती करने से पहले हजार बार सोचो. तुम्हारी दोस्ती और तुम्हारी भावनाएं तुम्हारी सब से अमूल्य पूंजी हैं जिन का खर्च तुम्हें बहुत सोच- समझ कर करना है. हर इनसान दोस्ती करने लायक नहीं होता. हाथ सब से मिला कर चलो क्योंकि हम समाज में रहते हैं, दिल किसीकिसी से मिलाओ…सिर्फ उस से जो वास्तव में तुम्हारे लायक हो. तुम समझदार हो, आशा है मेरा इशारा समझ गए होगे.’’

‘‘क्या वह औरत दोस्ती के लायक नहीं है?’’

‘‘नहीं, तुम उसी से पूछना, वह मुझे कब से और कैसे जानती है. ईमानदार होगी तो सब सचसच बता देगी. न बताया तो समझ लेना वह आज भी किसी की दोस्ती के लायक नहीं है.’’

भैया मेरा कंधा थपक कर चले गए और पीछे छोड़ गए ढेर सारा धुआं जिस में मेरा दम घुटने लगा. एक तरह से सच ही तो कह रहे हैं भैया. आखिर मुझ में ही इतनी दिलचस्पी लेने का क्या कारण हो सकता है.

दोपहर लंच में वह सदा की तरह चहचहाती हुई ही मुझे मिली. बड़े स्नेह, बड़े अपनत्व से.

‘‘आप भैया से पहली बार कब मिली थीं? सिर्फ सहयोगी ही थे आप या कंपनी का ही माध्यम था?’’

मुसकान लुप्त हो गई थी उस की.

‘‘नहीं, हम सहयोगी कभी नहीं रहे. बस, कंपनी के काम की ही वजह से मिलनाजुलना होता था. क्यों? तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘नहीं, आप मेरा इतना खयाल जो रखती हैं और फिर भैया का नाम सुनते ही आप की दिलचस्पी मुझ में बढ़ गई. इसीलिए मैं ने सोचा शायद भैया से आप की गहरी जानपहचान हो. भैया के पास समय ही नहीं होता वरना उन से ही पूछ लेता.’’

‘‘अपनी भाभी को ले कर कभी आओ न हमारे घर. बहुत अच्छा लगेगा मुझे. तुम्हारी भाभी कैसी हैं? क्या वह भी काम करती हैं?’’

तनिक चौंका मैं. भैया से ज्यादा गहरा रिश्ता भी नहीं है और उन की पत्नी में भी दिलचस्पी. क्या वह यह नहीं जानतीं, भैया ने तो शादी ही नहीं की अब तक.

‘‘भाभी बहुत अच्छी हैं. मेरी मां जैसी हैं. बहुत प्यार करती हैं मुझ से.’’

‘‘खूबसूरत हैं, तुम्हारे भैया तो बहुत खूबसूरत हैं,’’ मुसकराने लगी वह.

‘‘आप के घर आने के लिए मैं भाभी से बात करूंगा. आप अपना पता दे दीजिए.’’

उस ने अपना कार्ड मुझे थमा दिया. रात वही कार्ड मैं ने भैया के सामने रख दिया. सारी बातें जो सच नहीं थीं और मैं ने उस महिला से कहीं वह भी बता दीं.

‘‘कहां है तुम्हारी भाभी जिस के साथ उस के घर जाने वाले हो?’’

भाभी के नाम पर पहली बार मैं भैया के होंठों पर वह पीड़ा देख पाया जो उस से पहले कभी नहीं देखी थी.

‘‘वह आप में इतनी दिलचस्पी क्यों लेती है भैया? उस ने तो नहीं बताया, आप ही बताइए.’’

‘‘तो चलो, कल मैं ही चलता हूं तुम्हारे साथ…सबकुछ उसी के मुंह से सुन लेना. पता चल जाएगा सब.’’

अगले दिन हम दोनों उस पते पर जा पहुंचे जहां का श्रीमती गोयल ने पता दिया था. भैया को सामने देख उस का सफेद पड़ता चेहरा मुझे साफसाफ समझा गया कि जरूर कहीं कुछ गहरा था बीते हुए कल में.

‘‘कैसी हो शोभा? गिरीश कैसा है? बालबच्चे कैसे हैं?’’

पहली बार उन का नाम जान पाया था. आफिस में तो सब श्रीमती गोयल ही पुकारते हैं. पानी सजा लाई वह टे्र में जिसे पीने से भैया ने मना कर दिया.

‘‘क्या तुम पर मुझे इतना विश्वास करना चाहिए कि तुम्हारे हाथ का लाया पानी पी सकूं?

‘‘अब क्या मेरे भाई पर भी नजर डाल कुछ और प्रमाणित करना चाहती हो. मेरा खून है यह. अगर मैं ने किसी का बुरा नहीं किया तो मेरा भी बुरा कभी नहीं हो सकता. बस मैं यही पूछने आया हूं कि इस बार मेरे भाई को सलाखों के पीछे पहुंचा कर किसे मदद करने वाली हो?’’

श्रीमती गोयल चुप थीं और मुझ में काटो तो खून न था. क्या भैया कभी सलाखों के पीछे भी रहे थे? हमें क्या पता था यहां बंगलौर में भैया के साथ इतना कुछ घट चुका है.

‘‘औरत भी बलात्कार कर सकती है,’’ भैया भनक कर बोले, ‘‘इस का पता मुझे तब चला जब तुम ने भीड़ जमा कर के सब के सामने यह कह दिया था कि मैं ने तुम्हें रेप करने की कोशिश की है, वह भी आफिस के केबिन में. हम में अच्छी दोस्ती थी, मुझे कुछ करना ही होता तो क्या जगह की कमी थी मेरे पास? हर शाम हम साथ ही होते थे. रेप करने के लिए मुझे आफिस का केबिन ही मिलता. तुम ने गिरीश की प्रमोशन के लिए मुझे सब की नजरों में गिराना चाहा…साफसाफ कह देतीं मैं ही हट जाता. इतना बड़ा धोखा क्यों किया मेरे साथ? अब इस से क्या चाहती हो, बताओ मुझे. इसे अकेला लावारिस मत समझना.’’

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं चाहती सिर्फ माफी चाहती हूं. तुम्हारे साथ मैं ने जो किया उस का फल मुझे मिला है. अब गिरीश मेरे साथ नहीं रहता. मेरा बेटा भी अपने साथ ले गया…सोम, जब से मैं ने तुम्हें बदनाम करना चाहा है एक पल भी चैन नहीं मिला मुझे. तुम अच्छे इनसान थे, सारी की सारी कंपनी तुम्हें बचाने को सामने चली आई. तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा…मैं ही कहीं की नहीं रही.’’

‘‘मेरा क्या नहीं बिगड़ा…जरा बताओ मुझे. मेरे काम पर तो कोई आंच नहीं आई मगर आज किसी भी औरत पर विश्वास कर पाने की मेरी हिम्मत ही नहीं रही. अपनी मां के बाद तुम पहली औरत थीं जिसे मैं ने अपना माना था और उसी ने अपना ऐसा रूप दिखाया कि मैं कहीं का नहीं रहा और अब मेरे भाई को अपने जाल में फंसा कर…’’

‘‘मत कहो सोम ऐसा, विजय मेरे भाई जैसा है. अपने घर बुला कर मैं तुम्हारी पत्नी से और विजय से अपने किए की माफी मांगनी चाहती थी. मेरी सांस बहुत घुटती है सोम. तुम मुझे क्षमा कर दो. मैं चैन से जीना चाहती हूं.’’

‘‘चैन तो अपने कर्मों से मिलता है. मैं ने तो उसी दिन तुम्हारी और गिरीश की कंपनी छोड़ दी थी. तुम्हें सजा ही देना चाहता तो तुम पर मानहानि का मुकदमा कर के सालों अदालत में घसीटता. लेकिन उस से होता क्या. दोस्ती पर मेरा विश्वास तो कभी वापस नहीं लौटता. आज भी मैं किसी पर भरोसा नहीं कर पाता. तुम्हारी सजा पर मैं क्या कह सकता हूं. बस, इतना ही कह सकता हूं कि तुम्हें सहने की क्षमता मिले.’’

अवाक् था मैं. भैया का अकेलापन आज समझ पाया था. श्रीमती गोयल चीखचीख कर रो रही थीं.

‘‘एक बार कह दो मुझे माफ कर दिया सोम.’’

‘‘तुम्हें माफ तो मैं ने उसी पल कर दिया था. तब भी गिरीश और तुम पर तरस आया था और आज भी तुम्हारी हालत पर अफसोस हो रहा है. चलो, विजय.’’

श्रीमती गोयल रोती रहीं और हम दोनों भाई वापस गाड़ी में आ कर बैठ गए. मैं तो सकते में था ही भैया को भी काफी समय लग गया स्वयं को संभालने में. शायद भैया शोभा से प्यार करते होंगे और शोभा गिरीश को चाहती होगी, उस का प्रमोशन हो जाए इसलिए भैया से प्रेम का खेल खेला होगा, फिर बदनाम करना चाहा होगा. जरा सी तरक्की के लिए कैसा अनर्थ कर दिया शोभा ने. भैया की भावनाओं पर ऐसा प्रहार सिर्फ तरक्की के लिए. भैया की तरक्की तो नहीं रुकी. शोभा ने सदा के लिए भैया को अकेला जरूर कर दिया. कब वह दिन आएगा जब भैया किसी औरत पर फिर से विश्वास कर पाएंगे. यह क्या किया था श्रीमती गोयल आप ने मेरे भाई के साथ? काश, आप ने ऐसा न किया होता.

उस रात पहली बार मुझे ऐसा लगा, मैं बड़ा हूं और भैया मुझ से 10 साल छोटे. रो पड़े थे भैया. खाना भी खा नहीं पा रहे थे हम.

‘‘आप देख लेना भैया, एक प्यारी सी, सुंदर सी औरत जो मेरी भाभी होगी एक दिन जरूर आएगी…आप कहते हैं न कि हर कीमती राह तरसने के बाद ही मिलती है और किसी भी काम का एक निश्चित समय होता है. जो आप की थी ही नहीं वह आप की हो कैसे सकती थी. जो मेरे भाई के लायक होगी कुदरत उसे ही हमारी झोली में डालेगी. अच्छे इनसान को सदा अच्छी ही जीवनसंगिनी मिलनी चाहिए.’’

डबडबाई आंखों में ढेर सारा प्यार और अनुराग लिए भैया ने मुझे गले लगा लिया. कुछ देर हम दोनों भाई एकदूसरे के गले लगे रहे. तनिक संभले भैया और बोले, ‘‘बहुत तेज चलने वालों का यही हाल होता है. जो इनसान किसी दूसरे के सिर पर पैर रख कर आगे जाना चाहता है प्रकृति उस के पैरों के नीचे की जमीन इसी तरह खींच लेती है. मैं तुम्हें बताना ही भूल गया. कल पापा से बात हुई थी. बौबी का बहुत बड़ा एक्सीडेंट हुआ है. उस ने 2 बच्चों को कुचल कर मार दिया. खुद टूटाफूटा अस्पताल में पड़ा है और मांबाप पुलिस से घर और घर से पुलिस तक के चक्कर लगा रहे हैं. जिन के बच्चे मरे हैं वे शहर के नामी लोग हैं. फांसी से कम सजा वे होने नहीं देंगे. अब तुम्हीं बताओ, तेज चलने का क्या नतीजा निकला?’’

वास्तव में निरुत्तर हो गया मैं. भैया ने सच ही कहा था बौबी के बारे में. उस का आचरण ही उस की सब से बड़ी सजा बन जाने वाला है. मनुष्य काफी हद तक अपनी पीड़ा के लिए स्वयं ही जिम्मेदार होता है.

दूसरे दिन कंपनी के काम से जब मुझे श्रीमती गोयल के पास जाना पड़ा तब उन का झुका चेहरा और तरल आंखें पुन: सारी कहानी दोहराने लगीं. उन की हंसी कहीं खो गई थी. शायद उन्हें मुझ से यह भी डर लग रहा होगा कि कहीं पुरानी घटना सब को सुना कर मैं उन के लिए और भी अपमान का कारण न बन जाऊं.

पहली बार लगा मैं भी भैया जैसा बन गया हूं. क्षमा कर दिया मैं ने भी श्रीमती गोयल को. बस मन में एक ही प्रश्न उभरा :

आप ने ऐसा क्यों किया श्रीमती गोयल जो आज आप को अपनी नजरें शर्म से झुकानी पड़ रही हैं. हम आज वह अनिष्ट ही क्यों करें जो कब दुख का तूफान बन कर हमारे मानसम्मान को ही निगल जाए. इनसान जब कोई अन्याय करता है तब वह यह क्यों भूल जाता है कि भविष्य में उसे इसी का हिसाब चुकाना पड़ सकता है.

काश, आप ने ऐसा न किया  होता.

 

अस्तित्व: क्या प्रणव को हुआ गलती का एहसास

लेखक- नीलमणि शर्मा

का लिज पहुंचते ही तनु ने आज सब से पहले स्टाफ क्वार्टर के लिए आवेदन किया. इतने साल हो गए उसे कालिज में पढ़ाते हुए, चाहती तो कभी का क्वार्टर ले सकती थी पर इतना बड़ा बंगला छोड़ कर यों स्टाफ क्वार्टर में रहने की उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. फिर प्रणव को भी तनु के घर आ कर रहना पसंद नहीं था. उन का अभिमान आहत होता था. उन्हें लगता कि वहां वह  ‘मिस्टर तनुश्री राय’ बन कर ही रह जाएंगे. और यह बात उन्हें कतई मंजूर न थी.

आज सुबह ही प्रणव ने उसे अपने घर से निकल जाने को कह दिया जबकि तनु को इस घर में 30 साल गुजर चुके हैं. कहने को तो प्रणव ने उसे सबकुछ दिया है, बढि़या सा घर, 2 बच्चे, जमाने की हर सुखसुविधा…लेकिन नहीं दिया तो बस, आत्मसम्मान से जीने का हक. हर अच्छी बात का श्रेय खुद लेना, तनु के हर काम में मीनमेख निकालना और बातबात पर उस को  ‘मिडिल क्लास मानसिकता’ का ताना देना, यही तो किया है प्रणव ने शुरू से अब तक. पलंग पर लेटेलेटे तनु अपने ही जीवन से जुड़ी घटनाओं का तानाबाना बुनने लगी.

इतने वर्षों से तनु को लगने लगा था कि उसे यह सब सहने की आदत सी हो गई है पर आज सुबह उस का धैर्य जवाब दे गया. जैसेजैसे उम्र बढ़ रही थी प्रणव का कहनासुनना बढ़ता जा रहा था और तनु की सहनशीलता खत्म होती जा रही थी.

तनु जानती है कि अमेरिका में रह रहे बेटे के विवाह कर लेने की खबर प्रणव बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि उन के अहम को चोट पहुंची है. अब तक हर बात का फैसला लेने का एकाधिकार उस से छिन जो गया था. प्रणव की नजरों में इस के  लिए तनु ही दोषी है. बच्चों को अच्छे संस्कार जो नहीं दे पाई है…यही तो कहते हैं प्रणव बच्चों की हर गलती या जिद पर.

जबकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि बच्चों के बारे में किसी भी तरह का निर्णय लेने का कोई अधिकार उन्होंने तनु को नहीं दिया. यहां तक कि उस के गर्भ के दौरान किस डाक्टर से चैकअप कराना है, क्या खाना है, कितना खाना है आदि बातों में भी अपनी ही मर्जी चलाता. शुरू में तो तनु को यह बात अच्छी लगी थी कि कितना केयरिंग हसबैंड मिला है लेकिन धीरेधीरे पता चला यह केयर नहीं, अपितु स्टेटस का सवाल था.

कितना चाहा था तनु ने कि बेटी कला के क्षेत्र में नाम कमाए पर उसे डाक्टर बनाना पड़ा, क्योंकि प्रणव यही चाहते थे. बेटे को आई.ए.एस. बनाने की चाह भी तनु के मन में धरी की धरी रह गई और वह प्रणव के आदेशानुसार वैज्ञानिक ही बना, जो आजकल नासा में कार्यरत है.

ऐसा नहीं कि बच्चों की सफलता से तनु खुश नहीं है या बच्चे अपने प्राप्यों से संतुष्ट नहीं हैं लेकिन यह भी सत्य है कि प्रणव इस सब से इसलिए संतुष्ट हैं कि बच्चों को इन क्षेत्रों में भेजने से वह और तनु आज सोसाइटी में सब से अलग नजर आ रहे हैं.

पूरी जिंदगी सबकुछ अपनी इच्छा और पसंद को ही सर्वश्रेष्ठ मानने की आदत होने के कारण बेटे की शादी प्रणव को अपनी हार प्रतीत हो रही है. यही हार गुस्से के रूप में पिछले एक सप्ताह से किसी न किसी कारण तनु पर निकल रही है. प्रणव को वैसे भी गुस्सा करने का कोई न कोई कारण सदा से मिलता ही रहा है.

प्रणव यह क्यों नहीं समझते कि बेटे के इस तरह विवाह कर लेने से तनु को भी तो दुख हुआ होगा. पर उन्हें उस की खुशी या दुख से कब सरोकार रहा है. जब बेटे का फोन आया था तो तनु ने कहा भी था,  ‘खुशी है कि तुम्हारी शादी होगी, लेकिन तुम अगर हमें अपनी पसंद बताते तो हम यहीं बुला कर तुम्हारी शादी करवा देते. सभी लोगों को दावत देते…वहां बहू को कैसा लगेगा, जब घर पर नई बहू का स्वागत करने वाला कोई भी नहीं होगा.’

‘क्या मौम आप भी, कोई कैसे नहीं होगा, दीदी और जीजाजी आ रहे हैं न. आप को तो पता है कि अपनी पसंद बताने पर पापा कभी नहीं होने देते यह शादी. दीदी की बार का याद नहीं है आप को. डा. सोमेश को तो दीदी ने उस तरह पसंद भी नहीं किया था. बस, पापा ने उन्हें रेस्तरां में साथ बैठे ही तो देखा था. घर में कितने दिनों तक हंगामा रहा था. दीदी ने कितना कहा था कि डा. सोमेश केवल उन के कुलीग हैं पर कभी पापा ने सुनी? उन्होंने आननफानन में कैसे अपने दोस्त के डा. बेटे के साथ शादी करवा दी. यह ठीक है कि  जीजाजी भी एकदम परफेक्ट हैं.

‘सौरी मौम, मेरी शादी के कारण आप को पापा के गुस्से का सामना करना पडे़गा. रीयली मौम, आज मैं महसूस करता हूं कि आप कैसे उन के साथ इतने वर्षों से निभा रही हैं. यू आर ग्रेट मौम…आई सेल्यूट यू…ओ.के., फोन रखता हूं. शादी की फोटो ईमेल कर दूंगा.’

तनु बेटे की इन बातों से सोच में पड़ गई. सच ही तो कहा था उस ने. लेकिन वह गुस्सा एक बार में खत्म नहीं हुआ था. पिछले एक सप्ताह से रोज ही उसे इस स्थिति से दोचार होना पड़ रहा है. सुबह यही तो हुआ था जब प्रणव ने पूछा था, ‘सुना, कल तुम निमिषा के यहां गई थीं.

‘हां.’

‘मुझे बताया क्यों नहीं.’

‘कल रात आप बहुत लेट आए तो ध्यान नहीं रहा.’

‘‘ध्यान नहीं रहा’ का क्या मतलब है, फोन कर के बता सकती थीं. कोई काम था वहां?’

‘निमिषा बहुत दिनों से बुला रही थी. कालिज में कल शाम की क्लास थी नहीं, सोचा उस से मिलती चलूं.’

‘तुम्हें मौका मिल गया न मुझे नीचा दिखाने का. तुम्हें शर्म नहीं आई कि बेटे ने ऐसी करतूत की और तुम रिश्तेदारी निभाती फिर रही हो.’

‘निमिषा आप की बहन होने के साथसाथ कालिज के जमाने की मेरी सहेली भी है…और रही बात बेटे की, तो उस ने शादी ही तो की है, गुनाह तो नहीं.’

‘पता है मुझे, तुम्हारी ही शह से बिगड़ा है वह. जब मां बिना पूछे काम करती है तो बेटे को कैसे रोक सकती है. भूल जाती हो तुम कि अभी मैं जिंदा हूं, इस- घर का मालिक हूं.’

‘मैं ने क्या काम किया है आप से बिना पूछे. इस घर में कोई सांस तो ले नहीं सकता बिना आप की अनुमति के…हवा भी आप से इजाजत ले कर यहां प्रवेश करती है…जिंदगी की छोटीछोटी खुशियों को भी जीने नहीं दिया…यह तो मैं ही हूं कि जो यह सब सहन करती रही….’

‘क्या सहन कर रही हो तुम, जरा मैं भी तो सुनूं. ऐसा स्टेटस, ऐसी शान, सोसाइटी में एक पहचान है तुम्हारी…और कौन सी खुशियां चाहिए?’

तनु तंग आ गई इन बातों से. हार कर उस ने कह दिया,  ‘देखो प्रणव, यह रोज की खिचखिच बंद करो. अब इस उम्र में मुझ से और सहन नहीं होता. मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता.’

‘नहीं सहन होता तो चली जाओ यहां से, जहां अच्छा लगता है वहां चली जाओ. क्यों रह रही हो फिर यहां.’

‘चली जाऊं, छोड़ दूं, उम्र के इस पड़ाव पर, आप को बेशक यह कहते शर्म नहीं आई हो, पर मुझे सुनने में जरूर आई है. इस उम्र में चली जाऊं, शादी के 30 साल तक सब झेलती रही, अब कहते हो चली जाओ. जाना होता तो कब की सबकुछ छोड़ कर चली गई होती.’

तनु तड़प उठी थी. जिंदगी का सुख प्रणव ने केवल भौतिक सुखसुविधा ही जाना था. पूरी जिंदगी अपनेआप को मार कर जीना ही अपनी तकदीर मान जिस के साथ निष्ठा से बिता दी, उसी ने आज कितनी आसानी से उसे घर से चले जाने को कह दिया.

‘हां, आज मुझे यह घर छोड़ ही देना चाहिए. अब तक पूरी जिंदगी प्रणव के हिसाब से ही जी है, यह भी सही.’ सारी रात तनु ने इसी सोच के साथ बिता दी.

शादी के बाद कितने समय तक तो तनु प्रणव का व्यवहार समझ ही नहीं पाई थी. किस बात पर झगड़ा होगा और किस बात पर प्यार बरसाने लगेंगे, कहा नहीं जा सकता. कालिज से आने में देर हो गई तो क्यों हो गई, घरबार की चिंता नहीं है, और अगर जल्दी आ गई तो कालिज टाइम पास का बहाना है, बच्चों को पढ़ाना थोड़े ही है.

दुनिया की नजर में प्रणव से आदर्श पति और कोई हो ही नहीं सकता. मेरी हर सुखसुविधा का खयाल रखना, विदेशों में घुमाना, एक से एक महंगी साडि़यां खरीदवाना, जेवर, गाड़ी, बंगला, क्या नहीं दिया लेकिन वह यह नहीं समझ सके कि सुखसुविधा और खुशी में बहुत फर्क होता है.

तनु की विचारशृंखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी…मैं इन की बिना पसंद के एक रूमाल तक नहीं खरीद सकती, बिना इन की इच्छा के बालकनी में नहीं खड़ी हो सकती, इन की इच्छा के बिना घर में फर्नीचर इधर से उधर एक इंच भी सरका नहीं सकती, नया खरीदना तो दूर की बात… क्योंकि इन की नजर में मुझे इन चीजों की, इन बातों की समझ नहीं है. बस, एक नौकरी ही है, जो मैं ने छोड़ी नहीं. प्रणव ने बहुत कहा कि सोसाइटी में सभी की बीवियां किसी न किसी सोशल काम से जुड़ी रहती हैं. तुम भी कुछ ऐसा ही करो. देखो, निमिषा भी तो यही कर रही है पर तुम्हें क्या पता…पहले हमारे बीच खूब बहस होती थी, पर धीरेधीरे मैं ने ही बहस करना छोड़ दिया.

आज मैं थक गई थी ऐसी जिंदगी से. बच्चों ने तो अपना नीड़ अलग बना लिया, अब क्या इस उम्र में मैं…हां…शायद यही उचित होगा…कम से कम जिंदगी की संध्या मैं बिना किसी मानसिक पीड़ा के बिताना चाहती हूं.

प्रणव तो इतना सबकुछ होने के बाद भी सुबह की उड़ान से अपने काम के सिलसिले में एक सप्ताह के लिए फ्रैंकफर्ट चले गए. उन के जाने के बाद तनु ने रात में सोची गई अपनी विचारधारा पर अमल करना शुरू कर दिया. अभी तो रिटायरमेंट में 5-6 वर्ष बाकी हैं इसलिए अभी क्वार्टर लेना ही ठीक है, आगे की आगे देखी जाएगी.

तनु को क्वार्टर मिले आज कई दिन हो गए, लेकिन प्रणव को वह कैसे बताए, कई दिनों से इसी असमंजस में थी. दिन बीतते जा रहे थे. प्रोफेसर दीप्ति, जो तनु के ही विभाग में है और क्वार्टर भी तनु को उस के साथ वाला ही मिला है, कई बार उस से शिफ्ट करने के बारे में पूछ चुकी थी. तनु थी कि बस, आजकल करती टाल रही थी.

सच तो यह है कि तनु ने उस दिन आहत हो कर क्वार्टर के लिए आवेदन कर दिया था और ले भी लिया, पर इस उम्र में पति से अलग होने की हिम्मत वह जुटा नहीं पा रही थी. यह उस के मध्यवर्गीय संस्कार ही थे जिन का प्रणव ने हमेशा ही मजाक उड़ाया है.

ऐसे ही एक महीना बीत गया. इस बीच कई बार छोटीमोटी बातें हुईं पर तनु ने अब खुद को तटस्थ कर लिया, लेकिन वह भूल गई थी कि प्रणव के विस्फोट का एक बहाना उस ने स्वयं ही उसे थाली में परोस कर दे दिया है.

कालिज से मिलने वाली तनख्वाह बेशक प्रणव ने कभी उस से नहीं ली और न ही बैंक मेें जमा पैसे का कभी हिसाब मांगा पर तनु अपनी तनख्वाह का चेक हमेशा ही प्रणव के हाथ में रखती रही है. वह भी उसे बिना देखे लौटा देते हैं. इतने वर्षों से यही नियम चला आ रहा है.

तनु ने जब इस महीने भी चेक ला कर प्रणव को दिया तो उस पर एक नजर डाल कर वह पूछ बैठे, ‘‘इस बार चेक में अमाउंट कम क्यों है?’’

पहली बार ऐसा सवाल सुन कर तनु चौंक गई. उस ने सोचा ही नहीं था कि प्रणव चेक को इतने गौर से देखते हैं. अब उसे बताना ही पड़ा,  ‘‘अगले महीने से ठीक हो जाएगा. इस महीने शायद स्टाफ क्वार्टर के कट गए होंगे.’’

अभी उस का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था, ‘‘स्टाफ क्वार्टर के…किस का…तुम्हारा…कब लिया…क्यों लिया… और मुझे बताया भी नहीं?’’

तनु से जवाब देते नहीं बना. बहुत मुश्किल से टूटेफूटे शब्द निकले,  ‘‘एकडेढ़ महीना हो गया…मैं बताना चाह रही थी…लेकिन मौका ही नहीं मिला…वैसे भी अब मैं उसे वापस करने की सोच रही हूं…’’

‘‘एक महीने से तुम्हें मौका नहीं मिला…मैं मर गया था क्या? यों कहो कि तुम बताना नहीं चाहती थीं…और जब लिया है तो वापस करने की क्या जरूरत है…रहो उस में… ’’

‘‘नहीं…नहीं, मैं ने रहने के लिए नहीं लिया…’’

‘‘फिर किसलिए लिया है?’’

‘‘उस दिन आप ने ही तो मुझे घर से निकल जाने को कहा था.’’

‘‘तो गईं क्यों नहीं अब तक…मैं पूछता हूं अब तक यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप की वजह से नहीं गई. समाज क्या कहेगा आप को कि इस उम्र में अपनी पत्नी को निकाल दिया…आप क्या जवाब देंगे…आप की जरूरतों का ध्यान कौन रखेगा?’’

‘‘मैं समाज से नहीं डरता…किस में हिम्मत है जो मुझ से प्रश्न करेगा और मेरी जरूरतों के लिए तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है…जिस के मुंह पर भी चार पैसे मारूंगा…दौड़ कर मेरा काम करेगा…मेरा खयाल कर के नहीं गई…चार पैसे की नौकरी पर इतराती हो. अरे, मेरे बिना तुम हो क्या…तुम्हें समाज में लोग मिसिज प्रणव राय के नाम से जानते हैं.’’

तनु का क्रोध आज फिर अपना चरम पार करने लगा, ‘‘चुप रहिए, मैं ने पहले ही कहा था कि अब मुझ से बरदाश्त नहीं होता. ’’

‘‘कौन कहता है कि बरदाश्त करो…अब तो तुम ने मकान भी ले लिया है. जाओ…चली जाओ यहां से…मैं भूल गया था कि तुम जैसी मिडिल क्लास को कोठीबंगले रास नहीं आते. तुम्हारे लिए तो वही 2-3 कमरों का दड़बा ही ठीक है.’’

तनु इस अपमान को सह नहीं पाई और तुरंत ही अंदर जा कर अपना सूटकेस तैयार किया और वहां से निकल पड़ी. आंखों में आंसू लिए आज कोठी के फाटक को पार करते ही तनु को ऐसा लगा मानो कितने बरसों की घुटन के बाद उस ने खुली हवा में सांस ली है.

सारी रात आंखों में ही काट दी तनु ने अपने नए घर में…सुबह ही झपकी लगी कि डोरबेल से आंख खुल गई. सोचा, शायद प्रणव होंगे पर प्रोफेसर दीप्ति थी.

‘‘बाहर से ताला खुला देखा इसलिए बेल बजा दी. कब आईं आप?’’ शालीनता से पूछा था दीप्ति ने.

‘‘रात ही में.’’

‘‘ओह, अच्छा…पता ही नहीं चला. और मिस्टर राय?’’

‘‘वह बाहर गए हैं…तब तक दोचार दिन मैं यहां रह कर देखती हूं, फिर देखेंगे.’’

दीप्ति भेदभरी मुसकान से ‘बाय’ कह कर वहां से चल दी.

पूरा दिन निकल गया प्रतीक्षा में. तनु को बारबार लग रहा था प्रणव अब आए, तब आए. पर वह नहीं ही आए.

रात होतेहोते तनु ने अपने मन को समझा लिया था कि यह किस का इंतजार था मुझे? उस का जिस ने घर से निकाल दिया. अगर उन्हें आना ही होता तो मुझे निकालते ही क्यों…सचमुच मैं उन की जिंदगी का अवांछनीय अध्याय हूं. लेकिन ऐसा तो नहीं कि मैं जबरदस्ती ही उन की जिंदगी में शामिल हुई थी…

कालिज में मैं और निमिषा एक साथ पढ़ते थे. एक ही कक्षा और एक जैसी रुचियां होने के कारण हमारी शीघ्र ही दोस्ती हो गई. निमिषा और मुझ में कुछ अंतर था तो बस, यही कि वह अपनी कार से कालिज आती जिसे शोफर चलाता और बड़ी इज्जत के साथ कार का गेट खोल कर उसे उतारताबैठाता, और मैं डीटीसी की बस में सफर करती, जो सचमुच ही कभीकभी अंगरेजी भाषा का  ‘सफर’ हो जाता था. मेरा मुख्य उद्देश्य था शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना और निमिषा का केवल ग्रेजुएशन की डिगरी लेना. इस के बावजूद वह पढ़ाई में बहुत बुद्धिमान थी और अभी भी है…

ग्रेजुएशन करने तक मैं कभी निमिषा के घर नहीं गई…अच्छी दोस्ती होने के बाद भी मुझे लगता कि मुझे उस से एक दूरी बनानी है…कहां वह और कहां मैं…लेकिन जब मैं ने एम.ए. का फार्म भरा तो मुझे देख उस ने भी भर दिया और इस तरह हम 2 वर्ष तक और एकसाथ हो गए. इस दौरान मुझे दोचार बार उस के घर जाने का मौका मिला. घर क्या था, महल था.

मेरी हैरानी तब और बढ़ गई जब एम.फिल. के लिए मेरे साथसाथ उस ने भी आवेदन कर दिया. मेरे पूछने पर निमिषा ने कहा था, ‘यार, मम्मीपापा शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं, जब तक नहीं मिलता, पढ़ लेते हैं. तेरे साथसाथ जब तक चला जाए…’ बिना किसी लक्ष्य के निमिषा मेरे साथ कदम-दर-कदम मिलाती हुई बढ़ती जा रही थी और एक दिन हम दोनों को ही लेक्चरर के लिए नियुक्त कर लिया गया.

इस खुशी में उस के घर में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था. उसी पार्टी में पहली बार उस के भाई प्रणव से मेरी मुलाकात हुई. बाद में मुझे पता चला कि उस दिन पार्टी में मेरे रूपसौंदर्य से प्रभावित हो कर निमिषा के मम्मीपापा ने निमिषा की शादी के बाद मुझे अपनी बहू बनाने पर विचार किया, जिस पर अंतिम मोहर मेरे घर वालों को लगानी थी जो इस रिश्ते से मन में खुश भी थे और उन की शानोशौकत से भयभीत भी.

इस सब में लगभग एक साल का समय लगा. प्रणव कई बार मुझ से मिले, वह जानते थे कि मैं एक आम भारतीय समाज की उपज हूं…शानोशौकत मेरे खून में नहीं…लेकिन शादी के पहले मेरी यही बातें, मेरी सादगी, उन्हें अच्छी लगती थी, जो उन की सोसाइटी में पाई जाने वाली लड़कियों से मुझे अलग करती थी.

तनु को यहां रहते एक महीना हो चुका था. कुछ दिन तो दरवाजे की हर घंटी पर वह प्रणव की उम्मीद लगाती, लेकिन उम्मीदें होती ही टूटने के लिए हैं. इस अकेलेपन को तनु समझ ही नहीं पा रही थी. कभी तो अपने छोटे से घर में 55 वर्षीय प्रोफेसर डा. तनुश्री राय का मन कालिज गर्ल की तरह कुलाचें मार रहा होता कि यहां यह मिरर वर्क वाली वाल हैंगिंग सही लगेगी…और यह स्टूल यहां…नहीं…इसे इस कोने में रख देती हूं.

घर में कपडे़ की वाल हैंगिंग लगाते समय तनु को याद आया जब वह जनपथ से यह खरीद कर लाई थी और उसे ड्राइंग रूम में लगाने लगी तो प्रणव ने कैसे डांट कर मना कर दिया था कि यह सौ रुपल्ली का घटिया सा कपडे़ का टुकड़ा यहां लगाओगी…इस का पोंछा बना लो…वही ठीक रहेगा…नहीं तो अपने जैसी ही किसी को भेंट दे देना.

तनु अब अपनी इच्छा से हर चीज सजा रही थी. कोई मीनमेख निकालने वाला या उस का हाथ रोकने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी जीवन को किसी रीतेपन ने अपने घेरे में घेर लिया था.

कालिज की फाइनल परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं. सभी कहीं न कहीं जाने की तैयारियों में थे. प्रणव के साथ मैं भी हमेशा इन दिनों बाहर चली जाया करती थी…सोच कर अचानक तनु को याद आया कि बेटा  ‘यश’ के पास जाना चाहिए…उस की शादी पर तो नहीं जा पाई थी…फिर वहीं से बेटी के पास भी हो कर आऊंगी.

बस, तुरतफुरत बेटे को फोन किया और अपनी तैयारियों में लग गई. कितनी प्रसन्नता झलक रही थी यश की आवाज में. और 3 दिन बाद ही अमेरिका से हवाई जहाज का टिकट भी भेज दिया था.

फ्लाइट का समय हो रहा था… ड्राइवर सामान नीचे ले जा चुका था, तनु हाथ में चाबी ले कर बाहर निकलने को ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई, उफ, इस समय कौन होगा. देखा, दरवाजे पर प्रणव खड़े हैं.

क्षण भर को तो तनु किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गई. उफ, 2 महीनों में ही यह क्या हो गया प्रणव को. मानो बरसों के मरीज हों.

‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ प्रणव ने उस की तंद्रा तोड़ते हुए पूछा.

‘‘हां, यश के पास…पर आप अंदर तो आओ.’’

‘‘अंदर बैठा कर तनु प्रणव के लिए पानी लेने को मुड़ी ही थी कि उस ने तनु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तनु, मुझे माफ नहीं करोगी. इन 2 महीनों में ही मुझे अपने झूठे अहम का एहसास हो गया. जिस प्यार और सम्मान की तुम अधिकारिणी थीं, तुम्हें वह नहीं दे पाया. अपने  ‘स्वाभिमान’ के आवरण में घिरा हुआ मैं तुम्हारे अस्तित्व को पहचान ही नहीं पाया. मैं भूल गया कि तुम से ही मेरा अस्तित्व है. मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं…यह सच है तनु, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं…पहले भी करता था पर अपने अहम के कारण कहा नहीं, आज कहता हूं तनु, तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा…मुझे माफ कर दो और अपने घर चलो. बहू को पहली बार अपने घर बुलाने के लिए उस के स्वागत की तैयारी भी तो करनी है…मुझे एक मौका दो अपनी गलती सुधारने का.’’

तनु बुढ़ापे में पहली बार अपने पति के प्यार से सराबोर खुशी के आंसू पोंछती हुई अपने बेटे को अपने न आ पाने की सूचना देने के लिए फोन करने लगा.

 

 

तलाक के बाद: क्या स्मिता को मिला जीवनसाथी

family story in hindi

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें