मन के दर्पण में– भाग 2

अस्पताल पहुंच कर ललितजी से बोलीं, ‘‘यह क्या हरकत की आप ने…’’ एकदम क्रुद्ध हो उठीं मृदुला, ‘‘फौजी महोदय रोज आते हैं, उन से कहलवा नहीं सकते थे आप? फोन नहीं कर सकते थे? इतना पराया समझ लिया आप ने मुझे…’’ बरसती चली गईं मृदुलाजी.

हंस दिए ललितजी, ‘‘तुम्हें तकलीफ नहीं देना चाहता था,’’ आवाज में लापरवाही थी, ‘‘असल बात यह है कि तुम्हें पता चलता तो तुम मुझ से ज्यादा परेशान हो जातीं. तुम्हारी परेशानी से मेरा मन ज्यादा दुखी होता…अपना दुख कम करने के लिए तुम्हें नहीं सूचित किया.’’

‘‘बेटीदामाद नहीं आते यहां? उन में से किसी को यहां रहना चाहिए,’’ मृदुला बोलीं.

‘‘सुबहशाम आते हैं. जरूरत की हर चीज दे जाते हैं. नर्स और डाक्टरों से सब पूछ लेते हैं. नौकरी करते हैं दोनों. कहां तक छुट्टियां लें? फिर वे यहां रह कर भी क्या कर लेंगे? इलाज तो डाक्टरों को करना है,’’ ललितजी ने बताया.

‘‘अब मैं रहूंगी यहां…’’ मृदुलाजी बोलीं तो हंस दिए ललित, ‘‘क्या करोगी तुम यहां रह कर? नर्स साफसफाई करती है. डायटीशियन निश्चित खाना देती है. नर्सें ही डाक्टरों के बताए अनुसार वक्त पर दवाएं और इंजेक्शन देती हैं. सारा खर्च बेटीदामाद अस्पताल में जमा करते हैं…तुम क्या करोगी इस में? व्यर्थ लोगों की नजरों में आओगी और बेमतलब की बातें चल पड़ेंगी, जिन से मुझे ज्यादा तकलीफ होगी…तुम जानती हो कि मैं सबकुछ बरदाश्त कर सकता हूं पर तुम्हारी बदनामी कतई नहीं सह सकता… अपनेआप से ज्यादा मैं तुम्हें मानता हूं, यह तुम अच्छी तरह जानती हो…’’

‘‘इतना ज्यादा मानते हो कि मुझे सूचना तक देना जरूरी नहीं समझा,’’ कुपित बनी रहीं मृदुला, ‘‘आप कुछ भी कहें, मुझे आप की यह हरकत बहुत अखरी है. आप ने मुझे इस हरकत से एकदम पराया बना दिया,’’ आंसू आ गए मृदुला की पलकों पर.

‘‘सौरी, मृदुला…मैं नहीं समझता था कि तुम्हें मेरे इस व्यवहार से इतनी चोट पहुंचेगी…आइंदा ऐसा कोई काम नहीं करूंगा जो तुम्हें दुख पहुंचाए,’’ ललितजी अपलक मृदुला की तरफ ताकते हुए कहते रहे, ‘‘मुझे शायद विश्वास नहीं था कि तुम मुझ से इतनी गहराई तक जुड़ी हुई हो.’’

‘‘अगर कोई ऐसा तरीका होता कि मैं अपना कलेजा चीर कर दिखा सकती तो दिखाती कि भीतर दिल की जगह ललितजी ही धड़कते हैं, यह जानते हैं आप,’’ कहते हुए मृदुला लाल पड़ गईं. उन्हें लगा कि झोंक में क्या कह गईं.

अपना हाथ बढ़ा कर ललितजी ने मृदुला का हाथ थाम लिया, ‘‘बहुत अच्छा लगा सचमुच तुम्हारी यह अपनत्व भरी बातें सुन कर…अब तुम देखोगी कि मैं बहुत जल्दी अच्छा हो जाऊंगा. मैं समझता था कि अब मेरी किसी को जरूरत नहीं है…बेटीदामाद की अपनी दुनिया है और कोई है नहीं अपना जिसे परवा हो…आज पता चला कि कोई और भी है सगे- संबंधियों के अलावा, जिस के लिए मैं अब जरूर जिंदा रहना चाहूंगा…जल्दी से जल्दी अपनेआप को अच्छा करना और देखना चाहूंगा…जीने का मन हो गया सचमुच अब…’’

‘‘मरें आप के दुश्मन,’’ मृदुला बोलीं, ‘‘डाक्टर लोग कब छुट्टी देंगे?’’

‘‘बेटी को पता होगा. उसी से डाक्टर बात करते हैं.’’

‘‘अस्पताल से आप को सीधे मेरे घर चलना पड़ेगा,’’ कह गईं मृदुला.

‘‘पागल हो रही हो क्या? लोग क्या कहेंगे? पहले मैं बेटीदामाद के साथ जाऊंगा फिर बाद में सोचूंगा, मुझे क्या करना चाहिए…’’

‘‘पति का जी.पी.एफ. का पैसा अब तक निदेशालय से नहीं आया है,’’ ललितजी के स्वस्थ होने के बाद मृदुला ने एक दिन उन्हें बगीचे में बताया.

‘‘लखनऊ चलना पड़ेगा,’’ ललितजी बोले, ‘‘तुम उन की वास्तविक वारिस हो इस के प्रमाणपत्र दोबारा ले कर चलना होगा. तुम्हारी बेटी और बेटे ने जो अनापत्तिपत्र दिए हैं उन की मूलप्रतियां भी साथ में ले लेना.’’

‘‘हम कब चल सकेंगे?’’ मृदुलाजी ने पूछा.

ललितजी कुछ देर सोचते रहे फिर बोले, ‘‘दफ्तर से मुझे भी अपनी पैंशन संबंधी फाइल बनवा कर निदेशालय ले जानी है. तुम तो जानती ही हो कि आजकल हर दफ्तर में बाबू रूपी देवता की भेंटपूजा जरूरी हो गई है. जब तक उन्हें चढ़ावा न चढ़ाया जाए, कोई काम नहीं होता. सरकार कितने ही दावे करे पर इस देश की व्यवस्था का सब से बुरा पक्ष भ्रष्टाचार है.’’

‘‘भ्रष्टाचार नहीं, शिष्टाचार कहते थे मेरे पति,’’ हंस दीं मृदुला, ‘‘आप की फाइल कब तक तैयार हो जाएगी?’’

‘‘बहुत जल्दी है क्या तुम्हें? अगर पैसे की जरूरत हो तो मुझे बताओ…मैं इंतजाम कर दूंगा.’’

‘‘नहीं, वह बात नहीं है,’’ सकुचा गईं मृदुला, ‘‘हमारा पैसा सरकार के पास क्यों बना रहे? हमारे काम आए…अब हमारी जिंदगी ही कितनी बची है? पैसा मिल जाए तो उस का कोई सही उपयोग करूं.’’

‘‘जहां इतने महीने सब्र किया, एकडेढ़ सप्ताह और सही…फाइल ले कर तुम्हारे साथ चलूंगा तो लोगों को बातें बनाने का मौका नहीं मिलेगा…’’

‘‘लोगों को क्यों बीच में लाते हैं आप? यह क्यों नहीं कहते कि बेटीदामाद का डर है आप को. उन के कारण ही आप खुलेआम मुझ से मिलने से कतराते हैं.’’

यह सुन कर हंसते रहे ललितजी, फिर झेंप कर बोले, ‘‘जब सबकुछ जानतीसमझती हो तो पूछती क्यों हो?’’

मुसकराती रहीं मृदुलाजी, ‘‘चलिए, आप के संकोच और भय को माने लेती हूं. एकडेढ़ सप्ताह बाद क्या फिर आप से पूछना पड़ेगा?’’

‘‘नहीं. फाइल तैयार होते ही तुम्हें बता दूंगा, बल्कि शताब्दी में टिकटें भी रिजर्व करवा लूंगा…तुम सारे कागजों के साथ अपनी अटैची तैयार रखना,’’ ललितजी हंसते हुए बोले.

वह लखनऊ का एक पांचसितारा होटल था जिस में ललितजी मृदुला को ले कर पहुंचे. होटल की सजधज देख कर मृदुला सकुचा सी गईं, ‘‘इसी होटल में क्यों?’’ सहसा सवाल पूछा मृदुला ने.

‘‘दो कारणों से. एक तो यहां से निदेशालय पास है, दूसरे, जब मैं विश्व- विद्यालय में पढ़ता था और शोध कर रहा था तब इस होटल में अपनी किसी महिला दोस्त के साथ यहां आ कर ठहरा था और आज वही सब किसी दूसरे के साथ मैं दोबारा जीना चाहता हूं.’’

‘‘ऐ जनाब, बदमाशी नहीं चलेगी. गलत हरकत करेंगे तो पुलिस को फोन कर दूंगी. आप जानते हैं कि लखनऊ में एक पुलिस अफसर है मेरा रिश्तेदार. एक फोन पर आप को हवालात की हवा खानी पड़ेगी.’’

‘‘तुम्हारे लिए तो हवालात क्या, फांसी पर चढ़ने को तैयार हूं. लगवा दो फांसी. तुम्हारे सब खून माफ,’’ हंसते रहे ललितजी.

होटल के एक ही कमरे में अपना सामान रख वे जल्दी से फ्रेश हो कागजात और फाइल ले टैक्सी से निदेशालय चले गए. वहां से लौटने में शाम हो गई.

मन के दर्पण में– भाग 3

‘‘अब?’’ मृदुला ने ललितजी की आंखों में मुसकराते हुए ताका.

‘‘अपनी मुमताज बेगम के साथ अब हजरतगंज में हजरतगंजिंग करेंगे,’’ ललितजी आदत के अनुसार हंसे, ‘‘बेगम तैयार हैं गंजिंग करने के लिए या नहीं? हम लोग जब यहां पढ़ते थे तो हजरतगंज में घूमने को गंजिंग कहा करते थे.’’

‘‘टेलीविजन पर एक विज्ञापन आता है जिस में मुमताज बेगम को अपने बूढ़े शाहजहां पर विश्वास नहीं है कि वे उन के लिए ताजमहल बनवाएंगे, क्योंकि उन्होंने ताजमहल के लिए आगरा में कहीं जमीन नहीं खरीदी है,’’ मृदुलाजी ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम्हें बूढ़े शाहजहां दिखाई दिए लेकिन झुर्रियों से छुआरे की तरह सिमटीसिकुड़ी मुमताज बेगम दिखाई नहीं दी?’’ ललितजी हंस कर बोले.

‘‘औरत अपनेआप को कभी बूढ़ी नहीं मान पाती मेरे आका,’’ हजरतगंज की चौड़ी सड़क पर बिना किसी की परवा किए मृदुला ने ललितजी का हाथ थाम लिया.

मृदुला को पास खींचते हुए ललितजी मुसकराए और बोले, ‘‘उस विज्ञापन में मुमताज बूढ़ी जरूर है पर यहां इस हजरतगंज में इस हजरत के संग जो मुमताज बेगम है वह एकदम ताजातरीन और कमसिन युवती है.’’

‘‘पानी पर मत चढ़ाओ, बह जाऊंगी,’’ लज्जित सी मृदुलाजी हंस कर बोलीं, ‘‘उम्र का असर हर किसी पर होता है…आदमी पर भी, औरत पर भी.’’

‘‘पर महबूबा हमेशा जवान रहती है बेगम,’’ ललितजी बोले.

‘‘किस के साथ ठहरे थे उस होटल में?’’ अचानक मृदुला ने पूछा तो ललितजी उन के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगे…फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘सफी…उमेरा बानू सफी…कश्मीर की रहने वाली थी. मेरे साथ ही शोधकार्य कर रही थी विश्वविद्यालय में.’’

‘‘संग में शोध करतेकरते उस के संग होटल में शोध करने आ गए?’’ चुहल भरे अंदाज में पूछा मृदुला ने.

‘‘हम होटल में ही नहीं आए थे, बल्कि एक युवक युवती के साथ जो करता है वह सब भी हुआ था,’’ दंभ भरे स्वर में कहा उन्होंने.

‘‘बिलकुल गलत…एक मुसलमान लड़की, एक हिंदू के साथ इस तरह न तो होटल में जा सकती है, न इस सब के लिए राजी हो सकती है,’’ मृदुला हंसते हुए बोलीं, ‘‘मुझे तो लगता है कि तुम सचमुच डींग हांक रहे हो.’’

‘‘तो एक हिंदू पुरुष, एक हिंदू स्त्री के साथ होटल में टिक कर तो यह सब राजीबाजी से कर सकता है? बोलो?’’ शरारत थी ललितजी के चेहरे पर.

‘‘इस वक्त मैं मुसलमान मुमताज बेगम हूं और आप वे शाहजहां हैं जिन्हें ताजमहल के लिए कहीं आगरा में जमीन नहीं मिली.’’

हजरतगंज घूम कर वापस होटल के कमरे में आने पर सकुचाते हुए ललितजी ने मृदुला के सीने के उभारों को भर नजर ताकना शुरू किया तो उम्र के बावजूद मिर्च की तरह लाल पड़ गईं मृदुलाजी, ‘‘ऐसे क्या देख रहे हैं आप? जानते हैं, ऐसी प्यारी नजरों का कितना मारक असर होता है किसी औरत पर.’’

‘‘मेरे मन में अरसे से एक गहरी प्यास है मृदुला,’’ जिन तृषित शब्दों में ललितजी ने कहा उस से मृदुला का पूरा बदन सिहर उठा.

‘‘मैं बाथरूम में स्नान के लिए जा रही हूं. आप की शेष बातें शेष रहेंगी,’’ प्यार की एक चिकोटी सी मृदुला ने ललितजी के गाल पर ली और पलंग से उठ गईं.

हाथ पकड़ लिया ललितजी ने, ‘‘सुनो तो सही. नहाने जा रही हो तो यह पैकेट अपने साथ बाथरूम में लिए जाओ… मैं चाहता हूं कि यही पहन कर तुम बाथरूम से बाहर आओ जो इस पैकेट में है.’’

लजा सी गईं मृदुला, ‘‘मुझे क्या आप ने वही पुरानी उमेरा बानू सफी समझ लिया है?’’

‘‘नहीं, शाहजहां की प्यारी मुमताज. वह ताजमहल जितना कीमती तोहफा तो नहीं है, पर मैं चाहता हूं कि मेरी इच्छा की पूर्ति तुम जरूर करो.’’

पैकेट लिए, शरारती नजरों से ललितजी को देखती मृदुला बाथरूम में चली गईं. स्नान के बाद जब पैकेट खोल कर देखा तो सन्न रह गईं.

बाथरूम से बाहर आते मृदुला को अपलक ताकते रह गए ललितजी और झेंपती रहीं मृदुलाजी. उन की तरफ देखने का साहस नहीं जुटा पा रही थीं. अरसे बाद तमाम चीजें फिर से जीवन में हो रही थीं. अंधेरे में एक नई छलांग…पता नहीं क्या परिणाम होगा इस छलांग का.

‘‘गुरुदत्त की पुरानी फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ देखी होगी मृदुला तुम ने. उस का प्रसिद्ध गीत आज मुझे बरबस याद आ रहा है तुम्हें देख कर. चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो.’’

‘‘इस उम्र में हमें क्या यह सब शोभा देता है?’’ झेंप रही थीं मृदुलाजी.

‘‘इश्क कभी बूढ़ा नहीं होता मृदुला…उम्र का असर शरीरों पर हो सकता है, मन पर नहीं होता. अपने मन के दर्पण में झांक कर देखो, वहां भी यही सच होगा.’’

फिर कुछ ठहर कर ललितजी बोले, ‘‘मेरी पत्नी की मृत्यु कैंसर से हुई थी. उस के दोनों स्तन डाक्टरों ने काट कर निकाल दिए थे, जबकि मेरे लिए उत्तेजना का केंद्र स्त्री के यही जीवंत अंग हैं. सपाट सीना लिए वह कुछ ही समय जी सकी. बीमारी ने बाद में उस का पूरा शरीर ही जकड़ लिया और वह नहीं रही. बरसों पुरानी तमन्ना तुम ने पूरी की है आज मेरी लाई हुई यह ब्रा और यह झीनी रेशमी दूधिया मैक्सी पहन कर. सचमुच पूरी परी लग रही हो तुम इस वक्त मुझे.’’

पता नहीं मृदुला को क्या हुआ कि ललितजी को बांहों में समेट लिया और देर तक पागलों की तरह उन पर चुंबनों की बौछार करती रहीं.

आवेग संयत होने पर उन की आंखों में ताकती हुई बोलीं, ‘‘अकेली नहीं रह पा रही सच…मेरे साथ रहेंगे?’’ फिर कुछ सोच कर पूछा, ‘‘बेटी मानेगी आप की?’’

‘‘तुम बताओ, तुम्हारे बच्चे मानेंगे?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘लड़का तो वापस इस देश में आएगा नहीं. लड़की और दामाद अपने में मगन हैं. शायद होहल्ला न मचाएं. आप बताइए, आप की बेटी मानेगी?’’

‘‘बेटी शायद मान जाए पर दामाद को लग सकता है कि ससुर का पैसा उस के हाथ नहीं आएगा,’’ वे बोले.

‘‘हो सकता है पैसा कारण न बने, मानसम्मान आड़े आए…यहीं रहते हैं. मेरी बेटीदामाद हैदराबाद में रहते हैं. दूर रहने के कारण उन के मानसम्मान का प्रश्न नहीं उठेगा, पर आप के…’’

‘‘देखा जाएगा…अभी तो हम इस पल को जी भर कर जिएं, मृदुला,’’ ललितजी ने मृदुला को अपनी बांहों में भर लिया और पलंग पर धीरे से लिटा कर उस रूपराशि को वे अपलक ताकते रहे फिर अपनी उंगलियों से उस के तन को सहलाने लगे…मृदुला का बदन अरसे बाद सितार के तारों की तरह झनझनाता रहा…

मन के दर्पण में रहरह कर पति के साथ बिस्तर पर बिताए गए रागात्मक क्षण याद आते फिर एकाएक ललितजी को उस दर्पण में देखने लगती. ‘यह सब क्या है?’ मृदुला सोचतीं, ‘क्यों हो रहा है यह सब? क्या शरीर में स्थित मन की यह चंचल स्थिति हर किसी को ऐसे छलती है?’ वे चाहती थीं कि पति का बिंब दर्पण में स्थायी बना रहे.  पर वह धुंधला जाता और उस कुहासे में ललितजी का बिंब स्पष्ट उभर आता.

जो आज है वह सच है. जो बीत गया है, उसे वापस नहीं लाया जा सकता, न फिर पाया जा सकता है. तब…तब क्या करना चाहिए? क्या इस आज के सुखद क्षणों को जी भर जी लेना चाहिए? एक क्षण को अपराध बोध उत्पन्न होता पर दूसरे क्षण ही मन उसे झटक देता. इस में गलत क्या है? क्या ललितजी अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद औरत के इस सुख को पाने के लिए अब तक तृषित नहीं रहे? क्या उन का यह प्रेम उन की पत्नी के साथ दगा है? देहों का सच क्या सच नहीं होता?

‘‘कहां खो गईं यार?’’ ललितजी ने उन के अधर चूम लिए, ‘‘मैं समझ सकता हूं तुम्हारे मन के इस अंतर्द्वंद्व को… महिलाएं बहुत भावुक होती हैं. इस में गलत क्या है. हम कहां किसी के साथ दगा कर रहे हैं? जो इस संसार में नहीं हैं, उन के लिए जीवन भर क्यों रोतेकलपते रहें? एक वाक्य होता है नाटकों में, ‘शो मस्ट गो औन.’ लोग कहते थे, आफ्टर नेहरू हू? इंदिरा इज इंडिया…अब दोनों नहीं हैं…क्या दोनों के बाद यह देश नहीं चल रहा है? लोग नहीं जी रहे हैं? भावनाएं अपनी जगह हैं, सोचविचार और जीवन का कटु सत्य अपनी जगह है. दोनों में तालमेल बैठाना ही जीवन है.’’

सुन कर निर्द्वंद्व मन से मृदुलाजी ललितजी की बांहों में समा गईं.

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एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 6- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

पल्लव जी शायद अपने मन की बात बेतकल्लुफ से कह गए थे और तुरंत वे अपनी कुछ बातें वापस छिपाना चाहते थे. शरमा कर वे चुप से हो गए और अपनी उंगलियों को मरोड़ने लगे.

मुझे ही क्या, भाई को भी लग रहा था कि पल्लव जी ममा के साथ जिंदगी में आगे बढ़ना चाहते हैं. मैं ने जिम्मेदारी समझते हुए कहा- ‘अंकल, ममा की जिंदगी में आप जैसा कोई सीधासच्चा इंसान आ जाए, तो उन की जिंदगी संवर जाए. उन की 21 साल की शादी में…’

‘मैं जानता हूं हेमा का दुख, तुम्हारी ममा का…’

‘अंकल, आप हेमा ही कहिए, हमें अच्छा ही लगेगा.’

पल्लव जी मुसकराए, उन की दुविधा हम ने कम जो कर दी थी.

वे बोले, ‘एक दोस्त की तरह उस ने अपनी जिंदगी मुझ से कुछ हद तक साझा की है. और मैं ने भी. लेकिन बच्चो, यह खेल नहीं है. हेमा का मन मैं अब तक नहीं समझ सका. वह ऐसे विषय से अब तक बचती रही है. क्या वह तुम्हारे पापा को पाना चाहती है? क्या मालूम…’

पल्लव जी कुछ अनजानी उदासी से घिर गए थे.

मैं अचानक उठी और पल्लव जी के पैर छू लिए. भाई को यह अव्वल दर्जे की नाटकीयता लगी. वह मुंह में भोंपू ठूंसे अवाक सा मुझे निहारता रहा. अंकल भी कुछ सकपका से गए. लेकिन मेरे हाथों को अपने हाथों में ले कर मेरे प्रति उन्होंने कृतज्ञता दिखाई.

मैं ने कहा, ‘अंकल, ममा मेरे पापा के पास लौट कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारेगी. सच तो यह भी है कि हम भी अब उस नरक में कभी वापस नहीं जाना चाहेंगे. पापा खुद के सिवा किसी को नहीं जानते, अंकल. और हमें ऐसा स्वभाव फूटी आंख नहीं सुहाता.’

‘वह तो ठीक है बेटा. लेकिन आप की ममा के लिए मैं क्या हूं, जब तक न यह समझूं, कैसे आगे बढ़ें. फिर कुंदन की क्या राय है?’

भाई बेचारे ने सिर झुका लिया. उस के आगे जैसे ढेरों दृश्य एकसाथ भागे जा रहे थे और वह सकपकाया खड़ा ताक रहा था.

मैं ने कहा- ‘अंकल, भाई अभी उतना समझ नहीं सकता. मेरी राय ही उस की राय है. मैं ममा का मन पता करने का दायित्व लेती हूं, आप निश्चिंत रहें. और जैसा मैं कहूं, आप वैसा करें.’

पल्लव जी राजी हो गए. और हम अपने कमरे में आ कर मंसूबों को सच करने की हिम्मत बांधने लगे.

ममा वापस कालेज से आ कर सब की देखभाल में लग गई, जैसा घर पर भी किया करती थी.

मैं एक अवसर की तलाश में थी जब पल्लव जी को ले कर ममा का मन जान सकूं.

रात को डरडर कर छेड़ ही दिया मैं ने. ‘ममा, पल्लव अंकल बहुत अच्छे हैं.’

‘सो जाओ तुम दोनों,’ ममा रोक रही थी मुझे.

‘ममा, तुम अपनी जिंदगी से मुंह मोड़ रही हो. चलो वह भी सही लेकिन यह तो हमारी जिंदगी का भी सवाल है न.’

‘मैं तुम लोगों के साथ एक किराए के कमरे में चली जाऊंगी. तुम लोग चिंतित मत हो. मैं अलग से ट्यूशन भी कर लूंगी.’

‘ममा, तुम ने पल्लव अंकल का मन कभी पढ़ा है?’

‘कंकन, मैं ने एक का पढ़ा, तुम्हारे पापा का,बहुत पढ़ लिया. अब और नहीं. मैं खुश हूं अपनी इस जिंदगी में. मुझे ज्यादा की चाह नहीं.’

ममा तो बड़ी जिद्दी है. जो सोचेगी, वही करेगी. मगर मैं ने तो पल्लव जी को समझा है, फिर मेरी ममा को जिंदगी में कभी पति का प्रेम और सम्मान मिला नहीं, काटने को तो काट लेंगी जिंदगी, लेकिन हम दोनों भाईबहन के अपनी जिंदगी में बस जाने के बाद क्या ममा पीछे नहीं छूट जाएगी? कैसे समझूं ममा के दिल की सच्ची बात?

दूसरे दिन ममा के शाम को कालेज से वापस आने के बाद घर में कुहराम सा मचा था.

पहले तो सबकुछ शांत ही था. अचानक जैसे समंदर में ज्वार सा उठने लगा.

कालेज से आने के बाद ममा नहाधो कर पल्लव जी के कमरे में जाती थी. उन का प्लास्टर चढ़ा हुआ पैर देखती, दोपहर को नर्स या डाक्टर, जो भी आते, से फोन पर पल्लव जी का हाल पूछती, दवाई पूछती, फिर चाय के लिए जाती.

आज भी जब पल्लव जी के कमरे में गई और पलंग पर उन्हें न पा कर सोचा, नौकर कविराज की मदद से जरूर वे बाथरूम गए होंगे.

जब आधा घंटा उन के इंतजार का हो गया और पल्लव जी बाथरूम से निकले नहीं, तो वह परेशान हर ओर ढूंढने लगी.

रसोइए ने अनभिज्ञता जताई. कविराज, शुभा और उसकी मां ने भी. हम दोनों भाईबहन तो पूछने के काबिल भी कहां थे. हमें तो 2 दिन ही हुए थे यहां आए. इस घर का ओरछोर तक हमें मालूम नहीं था. आखिर थकहार कर सब ओर ढूंढ कर ममा हमारे कमरे में आई और हम से पल्लव जी के बारे में पूछा.

मैं ने उलटा पूछा- ‘क्यों, इतनी भी क्या जल्दी है उन के मिलने की? गए होंगे कहीं. बच्चे तो नहीं है न, कोई उन्हें कहीं ले गया होगा.’

‘कोई नहीं है उन का मेरे सिवा. उन की पैर की हड्डी टूटी है, कैसे जाएंगे?’

‘तुम्हारे सिवा कोई नहीं है और उन्हें छोड़ कर तुम किराए के मकान में जाना चाहती हो.’

‘कंकन, तुम नहीं समझोगी. बताओ जल्दी, गए कहां वे?’

‘मैं क्या जानूं?’

ऊपरी मंजिल पर जबकि पल्लव जी का जाना दूभर था, फिर भी ममा उधर भी देख आई. मैं कमरे से अब बाहर आ कर ममा पर नजर रखे थी.

अंत में इतनी दौड़धूप के बाद उन की आंखों में आसूं आ गए. वह निचली मंजिल में अपने कमरे में जा कर दरवाजा भिड़ा कर अंदर हो गई.

मैं ने चुपके से दरवाजे की आड़ से देखा, वह अपने बिस्तर पर बैठी लगातार बह रहे आंसुओं को क्रोध से भरी हुई पोंछ रही थी.

मैं सूचित कर आई और अपना कविराज व्हीलचेयर ठेलता पल्लव जी को ले ममा के कमरे में हाजिर हुआ. मैं अधखुली खिड़की के बाहर खड़ी देख रही थी. पल्लव जी को ममा के सामने छोड़ कविराज निकलने को हुआ ही था कि ममा की नजर पल्लव जी पर पड़ी. वह उठ कर खड़ी हो गई. पहले तो ऐसा लगा कि वह पल्लव जी से लिपट कर रो पड़ेगी लेकिन वह खड़ी की खड़ी रह गई. फिर जैसे उन्हें होश आया और वह कविराज पर बिफर पड़ी.

कविराज को स्वीकारना पड़ा कि इस मकान के पीछे बने कविराज के अपने छोटे से कमरे में पल्लव जी रुके थे. और यह कि पूरा प्लौट कंकन यानी मेरा लिखा गया है.

कविराज मुझ पर पूरा नाटक चढ़ा कर मंच से उतर गया. अभी मैं अपने आगे के किरदार को समझ पाती, मेरे सामने एक अनुपम दृश्य आया. पल्लव जी अपनी हेमा की ओर अग्रसर हुए. उन की हेमा उन्हें निहारती स्थिर चित्र की तरह अपनी जगह खड़ी रही. पल्लव ने हेमा का हाथ अपने हाथ में लिया, कहा, ‘कहो, तुम मेरी फिक्र नहीं करतीं, मेरी चिंता नहीं करतीं. मुझे हमेशा के लिए भुला कर रह पाओगी?’

‘आप क्यों गए पल्लव उधर? मुझे तकलीफ़ देने की इच्छा हुई या मुझे परखना चाहते थे?’

‘नहीं तो, कभी नहीं. बिटिया ने कहा कि ममा समझ नहीं पा रही कि वह आप के बिना एक पल भी नहीं रह सकती. उन्हें यह बात समझाना होगा. और इसलिए बिटिया की बात मुझे माननी पड़ी.’

पल्लव ने अपनी प्रेयसी के गाल पर 2 उंगलियों से छेड़ते हुए कहा, ‘अब समझ रही हो न खुद को? अब मेरे बच्चों को मुझ से दूर तो न करोगी?’

व्हीलचेयर पर बैठे पल्लव की गोद में हेमा ने अपना सिर रख दिया था. पल्लव धीरेधीरे उस के सिर पर हाथ फिराने लगे.

सांकल खुल चुकी थी.

ममा ने बिना कुछ लिएदिए हमारे पापा अजितेश को तलाक दे दिया था. और कानूनी रूप से हेमा और पल्लव एक हो गए थे.

हमें एक मनोरम आज और प्यारा निश्चित कल मिला था.

मुझे खुशी थी कि मैं ने बंद कोठरी की एक सांकल खोलने की जिद की, तो स्वतंत्रता, सम्मान और प्रेम के लिए आगे के सौ पुश्तों के सौ दरवाजे भी खुल गए. आशा की सैकड़ों रश्मियों के लिए दरवाजे खुल गए.

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