ग्रहण हट गया: भाग 3- क्या थी अभिजीत माथुर की कहानी

अखिल फिर बोले, ‘‘आप शायद नहीं जानते कि यह आप लोगों को कितना प्यार करती है? आप लोग सोचते हैं कि इस ने आप की इच्छा के खिलाफ शादी की है तो यह आप लोगों की भूल है. यह आप लोगों को उतना नहीं, उस से भी कहीं ज्यादा प्यार करती है, जितना हमारी शादी से पहले करती थी.

‘‘यह पिछले 2 साल से मेरे साथ रह रही है. मैं इसे भरपूर प्यार देता हूं, कभी किसी बात की तकलीफ नहीं होने देता, फिर भी कभीकभी यह आप लोगों की याद में इतनी बेचैन हो जाती है कि रोने लग जाती है और खानापीना छोड़ कर खुद अपने को आप का गुनाहगार मानती है. कहने को यह आप लोगों से दूर है, पर इस का दिल, इस का मन तो आप लोगों के पास ही है.

‘‘मैं आप सभी से माफी चाहता हूं कि गुस्से व भावना में आ कर मैं आप लोगों को न जाने क्याक्या कह गया. पर मैं क्या करूं…मैं मजबूर था. मैं बीना की बेइज्जती होते नहीं देख सकता क्योंकि मैं बहुत प्यार करता हूं इसे, बहुत ज्यादा. अच्छा, हम चलते हैं…बिन बुलाए आए और आप की खुशियों में खलल डाला इस के लिए माफी चाहते हैं,’’ अखिल बोले और मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘चलो, बीना.’’

हम दोनों चलने के लिए मुड़े ही थे कि शैलेंद्र भैया, जो इतनी देर से चुपचाप अखिल को बोलते देखे जा रहे थे, बोले, ‘‘ठहरो,’’ फिर घर वालों की ओर मुखातिब हो कर बोले, ‘‘पापा, ताऊजी, मैं जानता हूं कि यह बीना का दोष है कि इस ने हमारी इच्छा के खिलाफ जा कर हमारी जाति से अलग जाति के लड़के से शादी की है, पर इस का दोष इतना बड़ा तो नहीं कि हम इसे मरा समझ लें. आखिर इस ने जो भी किया, अपनी खुशी, अपनी जिंदगी के लिए किया. इस ने अपने लिए जो लड़का पसंद किया है वैसा तो शायद आपहम भी नहीं ढूंढ़ सकते थे.

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‘‘यह अपने घर वालों का…हम लोगों का प्यार पाने के लिए कितना तड़प रही है. यह हमारा प्यार पाने के लिए पति के साथ अपने मानसम्मान की परवा न करते हुए यहां आई है ताकि यह अपने भाई को दूल्हा बना देख सके. यह हमारा प्यार पाने के लिए भटक रही है और हम इसे गले लगा कर प्यार देने के बजाय दुत्कार रहे हैं, बेइज्जत कर रहे हैं. क्या हमारा फर्ज नहीं बनता कि हम इसे गले लगा कर अपने प्यार के आंचल में भींच लें. जब अखिल पराया हो कर इसे प्यार से रख सकता है, तो हम लोग इतने गएगुजरे तो नहीं हैं कि इस के अपने हो कर भी इसे प्यार नहीं दे सकते.

‘‘पापा, अगर इस ने नादानी में कोई भूल की है तो हम तो समझदार हैं, हमें इसे माफ कर के गले लगा लेना चाहिए. मैं ने तो इसे कभी का माफ कर दिया था. मैं शायद आप लोगों को यह सब कभी नहीं कह पाता, पर आज जब अखिल को बोलते देखा तो मैं ने सोचा कि जब यह आदमी अपनी पत्नी, जो मात्र 2 बरस से इस के साथ रह रही है, उस की बेइज्जती सहन नहीं कर पाया तो मैं अपनी बहन की बेइज्जती कैसे सहन कर रहा हूं, जो मेरे साथ 20 साल रही है. मैं चाहता हूं कि आप लोग भी बीना को माफ कर दें व इसे गले लगा लें.’’

मैं ने देखा भैया की आंखें भर आई हैं. फिर मैं ने अपनी ताईताऊजी, मम्मीपापा की तरफ देखा, सभी के चेहरे बुझे हुए थे व सभी की आंखों में आंसू थे. शायद उन पर अखिल की बातों का असर हो गया था. ताईजी व मम्मी, ताऊजी व पापा की तरफ याचिकापूर्ण दृष्टि से देख रही थीं.

अचानक ताऊजी मेरे पास आए और हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘बेटी, मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हें समझने में भूल की है. मैं तुम्हारी भावनाओं को नहीं समझ सका और अपनी ही शान में ऐंठा रहा, पर आज अखिल व शैलेंद्र की बातों ने मेरी आंखें खोल दी हैं. इन की बातों ने मेरी झूठी शान की अकड़ को मिटा दिया है. हमारा जीवन तुम्हारा गुनाहगार है, हमें माफ कर दो.’’

मैं ताऊजी को यों रोते देख हतप्रभ सी हो गई और मेरे मुंह से शब्द नहीं फूट रहे थे. अखिल ताऊजी और पापा के सामने आए और बोले, ‘‘ताऊजी व पापाजी, आप कैसी बातें करते हैं? बड़े क्या कभी बच्चों से माफी मांगते हैं. माफी तो हमें मांगनी चाहिए आप लोगों से कि हम ने आप को कष्ट दिया. गलती तो हम से हुई है कि हम ने आप लोगों की इच्छा के विरुद्ध कार्य किया. आप तो हम से बड़े हैं, आप का हाथ तो हमें आशीर्वाद देने के लिए है, हमारे सामने हाथ जोड़ने के लिए  नहीं.’’

ताऊजी बोले, ‘‘नहीं बेटे, मैं ने तुम्हें समझने में बड़ी भूल की है. शैलेंद्र ने सही कहा कि बीनू ने तुम्हारे रूप में जो पति पसंद किया है वैसा तो शायद हम सब मिल कर भी नहीं ढूंढ़ पाते. तुम हमारी बेटी की खुशी, उस की ख्वाहिश के लिए अपने मानसम्मान की परवा किए बगैर यहां आ गए और हम ने तुम दोनों का आदरसत्कार करने के बजाय बेइज्जत किया. तुम्हारी भावनाओं को, तुम्हारे प्रेम को नहीं समझा बल्कि अपनी रौ में बह कर तुम्हें तवज्जुह नहीं दी. हमारा परिवार वाकई तुम दोनों का गुनाहगार है. हमें माफ कर दो. मैं व हरि दोनों अपने घर वालों की तरफ से तुम दोनों से क्षमा चाहते हैं.’’

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तभी पापा बोले, ‘‘हां, अखिल बेटे, मेरी गलती को माफ कर दो और यहीं रुक जाओ. यह हमारे घरपरिवार की तरफ से प्रार्थना है. मैं तुम से हाथ जोड़ कर विनती करता हूं.’’

फिर ताऊजी, पापा, ताईजी व मम्मी सभी मेरे व अखिल के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो कर क्षमा मांगते हुए हमें रोकने लगे. यह देख अखिल बोले, ‘‘अरे, यह आप सब लोग क्या कर रहे हैं? प्लीज, आप लोग अपने बच्चों के सामने हाथ जोड़ कर खड़े न हों. आप लोग हमारे बुजुर्ग हैं. आप लोगों के हाथ तो आशीर्वाद देने के लिए हैं. मैं और बीना कहीं नहीं जाएंगे बल्कि पूरी शादी में खूब मजे करने के लिए यहीं रुकेंगे. यह तो आप लोगों का बड़प्पन है कि आप हम से बिना किसी गलती के माफी मांग रहे हैं.’’

ताऊजी यह सुन कर मुझ से बोले, ‘‘बीनू, वाकई तू ने एक हीरा पसंद किया है. हम ने इसे पहचानने में भूल कर दी थी,’’ फिर वह मेरे पास आ कर बोले, ‘‘क्यों बीना, तू ने मुझे माफ कर दिया या कोई कसर रह गई है. अगर रह गई है तो बेटी, पूरी कर ले. मैं तेरे सामने ही खड़ा हूं.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘क्या ताऊजी आप भी,’’ फिर मैं खुशी से ताऊजी के गले लग गई.

तभी पापा की आवाज आई, ‘‘अरे, बीना, जल्दी इधर आ और शैलेंद्र की आरती कर. देख, देर हो रही है. बाकी रस्में भी करनी हैं. फिर बरात ले कर तेरी भाभी को भी लेने जाना है.’’

मैं पापा की आवाज सुन कर खुशी से कूदती हुई शैलेंद्र भैया की आरती करने गई. मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे ग्रहण का हिस्सा जो मेरी जिंदगी पर लग गया.

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ग्रहण हट गया: भाग 2- क्या थी अभिजीत माथुर की कहानी

मैं ने बूआजी के लड़के राकेश को चुपचाप शैलेंद्र भैया को बुलाने भेजा. शैलेंद्र भैया 15-20 मिनट तक नहीं आए तो मैं ने सोचा शायद वह हम से मिलना नहीं चाहते हैं. मैं अपने को कोस रही थी कि क्यों मैं ने यहां आने की जिद की. मैं फालतू ही यहां अपनी व अखिल की बेइज्जती कराने आ गई. मैं तो कितना चाव ले कर यहां आई थी पर इन लोगों को हमारे आने की जरा भी खुशी नहीं है. मैं समझ गई कि यहां कोई हमारी इज्जत नहीं करेगा. मैं ने वहां से वापस जाने की सोची.

मैं हारी हुई लुटेपिटे कदमों से अखिल के पास जा ही रही थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘बीनू.’’

मैं ने पलट कर देखा तो राकेश के साथ शैलेंद्र भैया खड़े थे. मैं भैया के पांव छूने झुकी तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया. मैं रोने लगी. भैया भी रोने लगे और बोले, ‘‘कैसी है री, तू? मुझे अभीअभी पता चला कि तू आ चुकी है. मैं सब की नजर बचा कर दौड़ादौड़ा तेरे पास चला आया. अच्छा हुआ, अंजु ने तुझे सही समय पर सूचित कर दिया, नहीं तो मैं सोच रहा था कि पता नहीं अंजु तुझे कहेगी भी या नहीं.’’

मैं बोली, ‘‘तो क्या आप ने अंजु को कहा था मुझे कहने के लिए?’’

भैया बोले, ‘‘हां…तू क्या सोचती है, तेरा भाई इतना निष्ठुर है कि अपनी प्यारी बहन को भूल जाए और अकेला जा कर शादी कर आए. अंजु को मैं ने ही कहा था कि वह तुझे जरूरजरूर किसी भी हालत में आने को कहे.’’

मैं बोली, ‘‘पर मुझे अंजु ने यह तो नहीं कहा था कि उसे आप ने बोला है मुझे आने के लिए.’’

भैया बोले, ‘‘उसे मैं ने ही मना किया था कि मेरा नाम नहीं ले क्योंकि मैं तुझे कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. तेरे आने से मुझे तसल्ली है. तू मुझ से एक वादा कर, अब तुझे कोई कुछ भी कहे तू अपने भाई को छोड़ कर नहीं जाएगी.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है भैया, अब तो आप की खातिर सब सह लूंगी.’’

भैया बोले, ‘‘अखिल कहां हैं…मुझे उन से मिला तो सही.’’

भैया को मैं ने अखिल से मिलवाया तो भैया हाथ जोड़ कर अखिल से बोले, ‘‘अखिल, आप ने अच्छा किया जो मेरी बहन को आज के दिन ले आए. मैं आप का आभारी हूं. आप को शायद मैं अच्छी तरह अटेंड न कर पाऊं पर प्लीज, आप कहीं मत जाना, चाहे परिवार का कोई कुछ भी कहे.’’

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अखिल बोले, ‘‘भाई साहब, आज तो हम आए ही आप की खातिर हैं, जैसा आप कहेंगे वैसा ही करेंगे.’’

भैया बोले, ‘‘अखिल, मैं अभी आता हूं. आप लोग यहीं रुकें.’’

फिर मैं व अखिल एकांत में कुरसी पर बैठ गए. मैं अखिल को अपने घर के बारे में, अपनी बचपन में की गई शरारतों के बारे में बताने लगी.

हमारे यहां रस्म है कि दोपहर में दूल्हे की एक आरती उस की बड़ी बहन करती है. वह रस्म जब होने जा रही थी तो मैं व अखिल चुपचाप कुरसी पर बैठे उसे देख रहे थे. मेरे पापा ने उस रस्म के लिए मेरी छोटी बहन शालिनी को आवाज लगाई तो शैलेंद्र भैया बोले, ‘‘पापा, बीना के यहां होते शालिनी कैसे आरती करेगी? क्या कभी शादीशुदा बहन के होते छोटी बहन आरती करती है? आरती तो बीना ही करेगी,’’ ऐसा कह कर भैया ने मुझे आवाज दी, ‘‘बीनू, यहां आओ, तुम्हें कसम है.’’

मैं डरती हुई भैया के पास आई. भैया ने आरती की थाली मुझे सौंपनी चाही कि ताऊजी व पापा ने मुझ से वह थाली छीन ली और बोले, ‘‘यह लड़की इस घर का कोई शुभ कार्य नहीं करेगी. इस से हमारा कोई नाता नहीं है. हमारे लिए यह मर चुकी है और इस के लिए हम मर चुके हैं.’’

यह सुन कर मेरी एकदम रुलाई फूट गई. मुझे यों अपमानित होते देख अखिल मेरे पास आए और बोले, ‘‘चलो, बीना, चलो यहां से. मैं तुम्हारी और बेइज्जती होते नहीं देख सकता.’’

यह सुन कर पापा बोले, ‘‘हां, हां…चले जाओ यहां से. वैसे भी यहां तुम्हें बुलाया किस ने है?’’

अखिल बोले, ‘‘आप ने हमें नहीं बुलाया लेकिन हम यहां इसलिए आए हैं क्योंकि बीना अपने भाई को दूल्हा बने देखना चाहती थी और मैं यहां इस की वह इच्छा पूरी करने आया था, पर मुझे क्या पता था कि यहां इस की इतनी बेइज्जती होगी.

‘‘अरे, आप को बेइज्जती करनी थी तो मेरी की होती. गुस्सा निकालना था तो मुझ पर निकाला होता, दोषी तो मैं हूं. इस मासूम का क्या कुसूर है? आप लोगों के लिए पराया तो मैं हूं, यह तो आप लोगों की अपनी है. आप के घर की बेटी है, आप का खून है. क्या खून का रिश्ता इतनी जल्दी मिट जाता है कि अपनी जाई बेटी पराई हो जाती है?

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‘‘मैं इस के लिए पराया हो कर भी इसे अपना सकता हूं और आप लोग इस के अपने हो कर भी इसे दुत्कार रहे हैं. मैं पराया हो कर भी इस की खुशी, इस की इच्छा की खातिर अपनी बेइज्जती कराने यहां आ सकता हूं और आप लोग इस के अपने हो कर भी इस की बेइज्जती कर रहे हैं. इस की खुशी, इस की इच्छा की खातिर थोड़ा सा समझौता नहीं कर सकते. यह बेचारी तो कितने सपने संजो कर यहां आई है. कितने अरमान होंगे इस के दिल में अपने भाई की शादी के, पर आप लोगों को इस से क्या? आप लोग तो अपनी झूठी इज्जत, मानमर्यादा के लिए उन सब का गला घोटना चाहते हैं.

‘‘मैं पराया हो कर भी इसे 2 साल में इतना प्यार दे सकता हूं और आप जिन्होंने इसे बचपन से अपने पास रखा उसे जरा सा प्यार नहीं दे सकते. इस का गुनाह क्या है? यही न कि इस ने आप लोगों की इच्छा से, आप की जाति के लड़के से शादी न कर मुझ जैसे दूसरी जाति के लड़के से शादी की. इस का यह गुनाह इतना बड़ा तो नहीं है कि इसे हर पल, हर घड़ी बेइज्जत किया जाए. इस ने जो कुछ अपनी खुशी, अपनी जिंदगी के लिए किया वह इतना बुरा तो नहीं है कि जिस के लिए बेइज्जत किया जाए और रिश्ता तोड़ दिया जाए.’’

मैं आज अखिल को ऐसे बेबाक बोलते पहली बार देख रही थी. मैं अखिल को अपलक देखे जा रही थी.

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ग्रहण हट गया: भाग 1- क्या थी अभिजीत माथुर की कहानी

मैं घर के कामों से फारिग हो कर सोने की सोच ही रही थी कि फोन की घंटी घनघना उठी. मैं ने बड़े बेमन से रिसीवर उठाया व थके स्वर से कहा, ‘‘हैलो.’’

उधर से अपनी सहेली अंजु की आवाज सुन कर मेरी खुशी की सीमा नहीं रही.

‘‘यह हैलोहैलो क्या कर रही है,’’ अंजु बोली, ‘‘मैं ने तो तुझे एक खुशखबरी देने के लिए फोन किया है. तेरे भैया शैलेंद्र की 24 जून की शादी पक्की हो गई है. कल ही शैलेंद्र भैया कार्ड दे कर गए हैं. तुझे भी शादी में आना है, तू आएगी न?’’

यह सुन कर मैं हड़बड़ा गई और झूठ ही कह दिया, ‘‘हां, क्यों नहीं आऊंगी, मैं जरूर आऊंगी. भाई की शादी में बहन नहीं आएगी तो कौन आएगा. मैं तेरे जीजाजी के साथ जरूर आऊंगी.’’

अंजु बोली, ‘‘ठीक है, तू जरूर आना, मैं तेरा इंतजार करूंगी,’’ यह कह कर अंजु ने फोन रख दिया.

फोन रखने के बाद मैं सोच में पड़ गई कि क्या मैं वाकई शादी में जा पाऊंगी? शायद नहीं. अगर मैं जाना भी चाहूं तो अखिल मुझे जाने नहीं देंगे. हमारी शादी के बाद अखिल ने जो कुछ झेला है वह उसे कैसे भूल सकते हैं.

मैं ने व अखिल ने 2 साल पहले घर वालों की इच्छा के खिलाफ कोर्ट में प्रेमविवाह किया था. मेरे घर वाले मेरे प्रेमविवाह करने पर काफी नाराज थे. उन्होंने मुझ से हमेशा के लिए रिश्ता ही तोड़ दिया था. वे अखिल को बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे. हम विवाह के बाद घर वालों का आशीर्वाद लेने गए थे, पर हमें वहां से बेइज्जत कर के निकाल दिया गया था. तब से ले कर आज तक मैं ने व अखिल ने उस घर की दहलीज पर पैर नहीं रखा है.

मैं धीरेधीरे अपने इस संसार में रमती गई और अखिल के प्यार में पुरानी कड़वी यादें भूलती गई पर आज अंजु के फोन ने मुझे फिर उन्हीं यादों के भंवर में ला कर खड़ा कर दिया, जहां से मैं हमेशा दूर भागना चाहती थी. मैं सोच रही थी कि आखिर मैं ने ऐसा क्या किया है जो मेरे घर वाले मुझ से इतने खफा हैं कि उन्होंने मुझे शैलेंद्र भैया की शादी की सूचना तक नहीं दी. क्या मैं ने अखिल से प्रेमविवाह कर इतनी भारी भूल की है कि मेरा उस घर से रिश्ता ही तोड़ दिया, जिस घर में मैं पली और बड़ी हुई. उस भाई से नाता ही टूट गया जिसे मैं सब से ज्यादा चाहती थी, जिस से मैं लड़ कर हक से चीज छीन लिया करती थी.

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क्याक्या सपने संजोए थे मैं ने शैलेंद्र भैया की शादी के कि यह करूंगी, वह करूंगी, पर सारे सपने धराशायी हो गए. मैं भैया की शादी में जाना तो दूर, जाने की सोच भी नहीं सकती थी.

मैं दिन भर इसी ऊहापोह में रही कि इस बारे में अखिल को कहूं या नहीं.

शाम को अखिल के आने के बाद मैं ने बड़ी हिम्मत जुटा कर उन से शैलेंद्र भैया की शादी के बारे में कहा तो अखिल ने आराम से मेरी बातें सुनीं फिर मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे, वाह, मेरे साले की शादी है, तब तो हमें जरूर चलना चाहिए.’’

मैं ने कहा, ‘‘अखिल, कोई कार्ड या कोई संदेश नहीं आया है. यह तो मुझे अंजु ने फोन पर बताया है.’’

यह सुन अखिल कुछ सोच कर बोले, ‘‘तब तो हमारा न जाना ही ठीक है.’’

मैं अखिल के मुंह से यह सुन कर उदास हो गई और पूरी रात गुमसुम सी रही. अखिल कुछ कहते तो मैं केवल हूंहां में जवाब दे देती.

अगले दिन अखिल के आफिस जाने के बाद मेरा किसी काम में मन नहीं लगा और मैं घुटघुट कर रोए जा रही थी. बाहर से घंटी की आवाज सुन कर मैं दौड़ती हुई फाटक तक जाती कि शायद पोस्टमैन आया हो और शैलेंद्र भैया की शादी का कार्ड आया हो. फोन की घंटी बजने पर मैं सोचती, शायद ताऊजी या पापा का हो पर ऐसा कुछ नहीं था. मैं 3-4 दिन तक ऐसे ही रही थी. अखिल मेरा यह हाल रोज देखते और शायद परेशान होते.

एक रात अखिल मेरी उदासी से परेशान हो कर बोले, ‘‘बीना, क्या तुम शैलेंद्र भैया की शादी में शरीक होना चाहती हो?’’

मैं तो जैसे यह सुनने को तरस रही थी. बोली, ‘‘हां, अखिल, मैं अपने शैलेंद्र भैया को दूल्हा बने देखना चाहती हूं. मेरी यह दिली इच्छा थी कि मैं अपने भाई की शादी में खूब मौजमस्ती करूं. प्लीज, अखिल, शादी में चलो न. मैं एक बार भैया को दूल्हे के रूप में देखना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, फिर हम तुम्हारे शैलेंद्र भैया की शादी में जरूर शरीक होंगे,’’ अखिल बोले, ‘‘मैं तुम्हारी यह ख्वाहिश जरूर पूरी करूंगा. लेकिन बीना, मेरी एक शर्त है.’’

‘‘शैलेंद्र भैया की शादी में जाने के लिए मुझे हर शर्त मंजूर है,’’ मैं खुशी से पागल होते हुए बोली.

‘‘बीना, हम तुम्हारे घर पर नहीं बल्कि वहां किसी होटल में रुकेंगे.’’

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मैं ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

24 जून को मैं व अखिल जयपुर के लिए रवाना हो गए. मैं पूरे रास्ते सपने संजोती रही कि मैं वहां यह करूंगी, वह करूंगी. हमें देख सब खुश होंगे. खुशी के मारे मुझे पता ही नहीं चला कि रास्ता कैसे कटा.

जयपुर पहुंचते ही होटल के कमरे में सामान रखने के बाद मैं फटाफट तैयार होने लगी. अखिल मुझे यों उतावले हो कर तैयार होते पहली बार देख रहे थे. उन की आंखों में उस दिन पहली बार मैं ने दर्द देखा था. मैं इतनी जल्दी तैयार हो गई तो अखिल बोले, ‘‘हमेशा डेढ़ घंटे में तैयार होने वाली तुम आज पहली बार 10 मिनट में तैयार हुई हो, वाकई घर वालों से मिलने के लिए कितनी बेकरार हो.’’

मैं ने कहा, ‘‘अब ज्यादा बातें मत करो, प्लीज, जल्दी टैक्सी ले आओ.’’

अखिल टैक्सी ले आए. मैं पूरे रास्ते घबराती रही कि पता नहीं वहां क्या होगा. मेरा दिल आने वाले हर पल के लिए घबरा रहा था.

हम घर पहुंचे तो हमें आया देख कर सब आश्चर्यचकित हो गए. शायद किसी को हमारे आने का गुमान नहीं था. सब हमें किसी अजनबी की तरह देख रहे थे. मैं 2 साल बाद अपने घर आई थी, पर वहां मुझे कुछ भी बदलाव नजर नहीं आया. सबकुछ वैसा ही था जैसा मैं छोड़ कर गई थी. बस, बदले नजर आ रहे थे तो अपने लोग जो मुझे एक अजनबी की तरह देख रहे थे. हां, मेरे छोटे भाईबहन मुझे व अखिल को घेर कर खड़े थे. कोई कह रहा था, ‘‘दीदी, आप कहां चली गई थीं? आप व जीजाजी अब कहीं मत जाना.’’

मैं बच्चों से बातें करने में व्यस्त हो गई. अखिल मेरी तरफ देख चुपचाप एक कुरसी पर जा कर बैठ गए. मैं ने देखा वह डबडबाई आंखों से मुझे देखे जा रहे थे.

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आखिरी दांव: भाग 4- क्या हुआ देव के साथ

एक रोज देव अपना मोबाइल चार्जर में लगा कर भूल गया और उसे पता ही नहीं

चला कि कब से उस का मोबाइल बज रहा है. हार कर अनु ने ही फोन उठा लिया. लेकिन अभी वह हैलो बोलती ही कि उधर से एक औरत की आवाज ने उसे सकते में डाल दिया. कहने लगी, ‘‘मैं तुम्हें 2 दिन से कौल कर रही हूं. उठाते क्यों नहीं? देखो, मुझे मजबूर मत करो, अगर मेरा दिमाग फिर गया तो जरा भी देर नहीं लगेगी मुझे यह वीडियो वायरल करने में. फिर जानते हो न तुम्हारा क्या हश्र होगा? सीधे से कह रही हूं क्व15 लाख दे दो अभी. फिर जब भी मांगू दे देना और हां, आज रात आ जाना, बदन टूट रहा है मेरा,’’ कह कर उस औरत ने फोन रख दिया.

सुन कर तो जैसे अनु के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई. उस का पूरा शरीर थरथराने लगा. कभी वह फोन को देखती, तो कभी देव को. समझ नहीं आ रहा था कि यह औरत है कौन और किस बात के वह देव से पैसे मांग रही है व कौन से वीडियो को वायरल करने की धमकी दे रही है? ढेरों सवाल उस के दिमाग में उथलपुथल मचाने लगे. पूछना चाहा देव से, मगर उस के कदम ठिठक गए, क्योंकि पहले वह उस बात की तह तक जाना चाहती थी.

आज गौर से अनु ने देव का चेहरा देखा, कितना सूख चुका था. दुबला भी कितना हो गया था बेचारा. क्यों नहीं समझ पाई मैं उस के मन के दर्द को? क्यों लड़ती रही बेवजह उस से? पूछती तो एक बार कि आखिर परेशानी क्या है उसे. अपनेआप में ही बोल अनु रो पड़ी. कुछ देर बाद फिर देव का फोन बजा और इस बार देव ने ही फोन उठाया. अनु सुन न ले कहीं, यह सोच कर वह कमरे से बाहर चला गया.

काफी देर बाद जब वह वापस आया, तो उस का चेहरा काफी उतरा हुआ था. रातभर अनु सो नहीं पाई. देखा देव भी टकटकी लगाए छत निहार रहा था.

‘‘देव,’’ बड़ी हिम्मत कर वह देव के करीब गई, ‘‘नहीं बताओगे मुझे कि इन दिनों तुम्हारे साथ क्या हुआ? हम ने वादा किया था न देव कि कभी एकदूसरे से कोई बात नहीं छिपाएंगे, तो फिर क्यों, क्यों तुम ने मुझ से इतनी बड़ी बात छिपाई?’’

अनु की बात सुन देव सकपका गया. उसे लगा कि कहीं अनु को सब पता तो नहीं चल गया? उस के होंठ कुछ बोलने को हिले, मगर शब्द बाहर न आ सके.

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‘‘सौरी मैं तुम्हारी तकलीफों को समझ न पाई और तुम से लड़तीझगड़ती रही, पर मैं भी तो एक इंसान ही हूं न देव, तो कैसे तुम्हारे मन में छिपे दर्द को देख पाती, जब तक तुम नहीं बताते…बताओ न कौन है वह औरत, जिस ने तुम्हें परेशान कर रखा है?’’

‘‘क… कौन औरत? नहीं तो, कोई नहीं,’’ चेहरे को दूसरी ओर घुमाते हुए देव बोला.

‘‘इधर देखो देव, मेरी तरफ,’’ देव का चेहरा अपनी ओर घुमाते हुए अनु बोली, ‘‘वही जिस का सुबह फोन आया था और तुम घबरा कर घर से निकल गए? देखो देव, जो सही है बताओ मुझे. हो सकता है मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं,’’ अनु ने कहा.

देव की आंखें भर आईं और फिर उस ने सारी बात प्रिया को बता दी.

सुन कर अनु की आंखें फटी की फटी रह गई. बोली, ‘‘इतनी बड़ी बात हो गई और तुम ने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा, यह सोच कर कि मैं तुम्हें गलत समझूंगी? क्या इतना ही जाना तुम ने मुझे? मैं तुम्हारी पत्नी हूं देव, सुखदुख की साथी, तो भरोसा तो किया होगा मुझ पर? खैर, जो हो गया सो हो गया, पर अब मैं निकालूंगी तुम्हें इस भंवर से और इस के लिए हमें क्या करना होगा सुनो,’’ कह कर अनु ने देव को अपना प्लान बता दिया.

‘‘पर तुम्हें लगता है जैसा हम सोच रहे हैं वैसा हो पाएगा, क्योंकि वह बहुत ही शातिर औरत है. तुम नहीं जानती उसे,’’ शंकित होते हुए जब देव ने कहा, तो अनु ने उस के कंधे पर हाथ रख कर धैर्य बंधाया, जरूर हो पाएगा पर थोड़ा वक्त लगेगा. हम धीरज नहीं खोएंगे.’’

अपने प्लान के अनुसार कुछ ही दिनों में अनु ने प्रिया से गाढ़ी मित्रता कर ली. जब अनु को लगने लगा कि अब प्रिया उस की हर बात पर विश्वास करने लगी है, तो एक दिन उस ने अपना आखिरी दाव भी खेल डाला.

‘‘प्रिया, आज मुझे अंशुल को डाक्टर के पास ले कर जाना है शायद देर लग जाए, तो तुम मेरे घर की चाबी रखो और जब देव आए, तो उन्हें दे देना और हो सके, तो प्लीज उन्हें खाना खिला देना वरना वे भूखे रह जाएंगे, क्योंकि उन की आदत नहीं खुद से खाना निकाल कर खाने की, प्लीज,’’ हाथ जोड़ कर जब अनु ने कहा, प्रिया को तो लगा कि उसे मुंहमांगा इनाम मिल गया हो.

वह हंसते हुए बोली, ‘‘अरे, हाथ क्यों जोड़ रही हो अनु? यह तो मेरे लिए खुशी…मेरा मतलब है चाबी भी दे दूंगी और खिला भी दूंगी तेरे पिया को.’’

प्रिया को हंसते देख अनु का कलेजा जल उठा. लगा, उस के देव को रुला कर

यह चुड़ैल हंस रही है. हंस ले बेटा, कुछ समय और हंस ले, फिर मैं तुम्हें ऐसा सबक सिखाऊंगी कि जिंदगी भर याद रखेगी तू, मन ही मन बोलते हुए अनु के अधर टेढ़े हो गए.

अपने घर में प्रिया को देख देव शौक्ड हो गया. हकलाते हुए बोला, ‘‘तू… तुम यहां मेरे घर में? किसलिए आई हो?’’

पहले तो वह रहस्यमय ढंग से मुसकराई. फिर बोली, ‘‘तुम्हारी पत्नी ने अपनी सत्ता मुझे सौंप दी,’’ इठलाती हुई चाबी के गुच्छे को अपनी उंगलियों में घूमाती हुई प्रिया ने आंख मारी.’’

‘‘बंद करो अपनी बकवास… क्यों कर रही हो तुम ऐसा? आखिर बिगाड़ा क्या है मैं ने तुम्हारा? क्यों तुम मेरे पीछे हाथ धो कर पड़ी हो? प्रिया को परे धकेलते हुए देव लगभग चीख पड़ा,’’ तुम ने ही कहा था कि मुझ में तुम्हें अपने भाई का अक्स दिखाई देता है, जो अब इस दुनिया में नहीं रहा और यह सब… छि: शर्र्म नहीं आई तुम्हें ऐसा करते हुए?’’ जानबूझ कर देव ने फिर वही सब बातें दोहराईं, ‘‘उस दिन तुम ने प्लानिंग कर के मुझे अपने घर चायपकौड़े पर बुलाया था न? चाय में नशे की गोलियां भी जानबूझ कर मिलाई थीं, है न? रिश्ते के नाम पर धोखा दिया तुम ने मुझे? बलात्कार मैं ने नहीं, बल्कि तुम ने किया मेरा… बोलो क्या मैं झूठ बोल रहा हूं.’’

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‘‘नहीं, सच कह रहे हो तुम. हां, धोखे से ही मैं ने उस रात तुम्हें अपने घर बुलाया और चाय में नशे की गोलियां भी मिलाईं और फिर कमरे तक भी मैं ही तुम्हें ले कर गई. तुम्हारे कपड़े भी मैं ने ही उतारे और बिलकुल वैसा ही करवाया जैसे मैं ने चाहा. लेकिन बलात्कार… ठहाके मार कर प्रिया कहने लगी, ‘‘हां, मैं ने ही तुम्हारा बलात्कार भी किया, पर तुम साबित कैसे करोगे देव बाबू? क्योंकि जो दिखता है वही बिकता है न, जानते नहीं?

‘‘जब मैं ने तुम्हें पहली बार औडी गाड़ी से निकलते देखा तो उसी वक्त फैसला कर लिया कि इस मोटे मुरगे को फंसाना है. सच कहती हूं अब इस माचिस की डब्बी में रहने का मन नहीं करता देव. लगता है एक बड़ा घर हो, गाड़ी हो, नौकरचौकर हों और शारीरिक सुख भी. दोगे न तुम मुझे ये सब?’’ कह कर वह फिर ठहाके लगाने लगी.

‘‘अच्छा, तो इसलिए तुम ने ये सब किया. ताकि मुझे ब्लैकमेल कर पैसे ऐंठ सको.’’

‘‘हां देव, इसलिए कहती हूं मुझे 50 लाख दे दो, फिर तुम अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते हो लूंगी, लेकिन तुम हो कि पैसे देने में टालमटोल किए जा रहे हो.’’

‘‘अगर मैं और पैसे देने से इनकार कर दूं तो?’’ देव ने पूछा. यह सुन कर वह उस पर ऐसे गुर्राई जैसे देव ने उस से कर्ज ले रखा हो. बोली, ‘‘तो तुम मेरे चंगुल से कभी बच नहीं पाओगे यह भी समझ लो,’’ मगर उसे यह नहीं पता था कि अनु बाहर खड़ी उस की सारी करतूतें सुन ही नहीं रही थी, बल्कि साथ में पुलिस को भी ले कर पहुंच गई थी.

‘‘बचोगी तो अब तुम नहीं हमारे चंगुल से प्रिया,’’ अचानक पुलिस को अपने सामने देख. प्रिया के होश उड़ गए.

देव कुछ कहता उस से पहले ही वह नकली आंसू बहाते हुए पुलिस को बताने लगी कि देव ने उस का बलात्कार किया और अब उसे ब्लैकमेल कर रहा है यह कह कर कि अगर उस ने उस की बात नहीं मानी, तो वह दुनिया के सामने उस का वीडियो वायरल कर देगा.’’

‘‘कौन सा वीडियो, वही जो तुम ने बनाया था उस रात?’’ महिला पुलिस ने डंडा घुमाते हुए पूछा, तो वह थर्रा उठी, ‘‘शर्र्म नहीं आई तुम्हें एक शरीफ इंसान को परेशान करते हुए?’’ कह महिला ने एक तमाचा उस के गाल पर दे मारा.

पुलिस इंस्पैक्टर बताने लगा कि यह औरत ठग है… अब तक यह लाखों रुपयों की ठगी कर चुकी है. दिल्ली पुलिस को कब से इस की तलाश थी… इस का असली नाम प्रिया नहीं, बल्कि सोनम हैं.

जांच के बाद प्रिया के घर से लाखों रुपए और वैसे ही कई वीडियो बरामद हुए, जिन्हें पुलिस ने अपने कब्जे में कर उसे गिरफ्तार कर लिया. जातेजाते प्रिया ने देव को ऐसे देखा जैसे कह रही हो यह तुम ने अच्छा नहीं किया.

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‘‘1 मिनट इंस्पैक्टर साहब,’’ कह कर अनु ने पहले तो प्रिया को एक जोरदार तमाचा जड़ा, फिर बोली, ‘‘तुम्हें क्या लगा एक झूठे वीडियो के बल पर तुम मेरे पति को ब्लैकमेल करती रहोगी और वे होते रहेंगे? क्यों नहीं किया वायरल, कर देती? जानती थी कि ऐसा कर के तुम ही फंस जाओगी, इसलिए नहीं किया… शर्म आती है मुझे तुम जैसी औरतों पर, जो चंद रुपयों के लिए बिछ जाती हैं मर्दों के सामने और जब पकड़ी जाती हैं, तो कहती हैं कि मर्द ने ही आबरू लूटी. ले जाइए इंस्पैक्टर साहब इसे मेरी नजरों के सामने से और ऐसी सजा दीजिए ताकि फिर कभी किसी शरीफ इंसान को ठगने की सोचे तक नहीं.

‘‘थैंक्यू अनु, मुझे इस भंवर से निकालने के लिए. अगर तुम ने वह आखिरी दाव न खेला होता, तो पता नहीं मेरा क्या होता,’’ कह कर देव ने उसे अपनी बांहों में भर लिया.

अनु भी अपने देव के आगोश में समा गई.

आखिरी दांव: भाग 3- क्या हुआ देव के साथ

मेघ जैसे पूरी रात गरजबरस कर शांत हो चुके थे, वैसे ही प्रिया भी आज पूरी तरह से संतुष्ट हो चुकी थी. मगर देव के जीवन में तूफान आ चुका था. सुबह जब देव की नींद खुली और प्रिया को अपने पास निर्वस्त्र पाया, तो उस के होश उड़ गए.

‘‘म… म… मैं यहां कैसे और आ… आप…’’ हकलाते हुए देव की आधी बातें उस के मुंह में ही रह गईं.

आंसू बहाते हुए प्रिया कहने लगी कि रात को देव ने उस के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की. उस ने बहुत कहा भी कि वह उसे भाई मानती है, पर वह कहने लगा कि मानने से क्या होता है… वह उसे अच्छी लगती है. कितनी कोशिश की, पर देव की मजबूत बांहों से वह खुद को आजाद न कर पाई.

अपनी हरकतों पर देव शर्मिंदा हो गया. उसे लगा कि वह कितना नीच इंसान है, जो बहन समान औरत को अपनी वासना का शिकार बना डाला. उस ने कभी किसी औरत को नजर उठा कर भी नहीं देखा था, तो फिर इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई उससे?

जो भी हो, गलती तो हो ही चुकी थी और इस बात के लिए वह प्रिया से माफी भी मांगना चाहता था, पर उस की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि वह प्रिया को फोन करे या उस के सामने जाए. प्रिया ने भी उस के बाद से उसे फोन करना बंद कर दिया था. कहीं प्रिया मेरे ऊपर बलात्कार का केस तो नहीं कर देगी? कर दिया तो क्या होगा? क्या बताएगा वह दुनिया वालों को…अनु को कैसे मुंह दिखाएगा वह? ये सब बातें सोचसोच कर देव की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा जा रहा था. उस की ठंडी पड़ती आवाज सुन कर अनु पूछती भी कि क्या बात है सब ठीक तो है न? पर वह उसे कुछ भी बोल कर शांत कर देता.

मगर एक दिन खुद प्रिया अचानक उस के घर पहुंच गई, जिसे देख देव के पसीने छूट गए. हकलाते हुए किसी तरह उस की आवाज निकल पाई, ‘‘प्रियाजी, मैं… मैं आप से माफी मांगने ही जा…’’

‘‘किस बात की माफी देवजी? जो हुआ उस में न तो आप की गलती थी न ही मेरी. बस एक अनहोनी होनी थी सो हो गई. मिट्टी डालिए अब उस बात पर,’’ सुन कर देव की जान में जान आई. लगा उसे कि कितनी अच्छी औरत है यह.

‘‘मैं यहां किसी और काम से आई हूं देव. वह क्या है कि अचानक मुझे कुछ रुपयों की जरूरत पड़ गई है और अभी मेरे पास उतने पैसे नहीं है. आप मेरी मदद कर दें. मैं जल्द ही लौटा दूंगी,’’ कह उस ने देव की तरफ देखा.

‘‘कितने पैसे?’’ देव ने पूछा.

‘‘50 हजार. पैसे आते ही मैं आप को लौटा दूंगी,’’ देव की आंखों में झांकते हुए वह बोली.

मरता क्या न करता. लौकर में जितने भी पैसे पड़े थे उन्हें प्रिया को ला कर देते हुए बोला, ‘‘प्रियाजी, अभी तो मेरे पास 40 हजार रुपए ही हैं. आप रख लीजिए,’’ प्रिया को पैसे दे कर उसे लगा जैसे उस के मन का बोझ कुछ कम हुआ.

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मगर अब तो वह उस से कभी 10 हजार, कभी 20 हजार, तो कभी 30 हजार मांगने पहुंच जाती और देव को देने ही पड़ते. आखिर देव भी इतने पैसे कहां से लाता भला? अत: एक दिन उस ने पैसे देने से मना कर दिया. मगर यह बात प्रिया को सहन नहीं हुई. बोली, ‘‘तुम्हें क्या लगता है देव, मैं उस बात को भूल गई?’’ तुरंत ही वह आप से तुम पर आ गई.

‘‘तुम्हारी करतूतों का कच्चा चिट्ठा है मेरे पास… देखना है?’’ कह कर उस ने वह वीडियो देव को दिखा दिया जिस में देव और प्रिया एकसाथ वीडियो में साफसाफ दिख रहे थे. देव प्रिया पर सवार है और वह उस से बचने की कोशिश कर रही है. वीडियो देखते ही देव की कंपकंपी छूट गई.

‘‘क्या कहते हो, दे दूं पुलिस को या फिर सोशल मीडिया पर वायरल कर दूं? अनु भी देख लेगी, क्यों?’’

उस की हरकतें देख देव सिहर उठा. लगा, अगर यह वीडियो अनु ने देख लिया, तो अनर्थ हो जाएगा. अत: वह और पैसे देने को तैयार हो गया. वह समझ नहीं पा रहा था कि वह उस के साथ ऐसा क्यों कर रही है? वह तो उसे अपना भाई समान मानती थी, फिर? यह बात जब देव ने पूछी, तो प्रिया कहने लगी, ‘‘क्योंकि तुम मुझे पसंद आ गए?’’ हंसते हुए वह बोली, ‘‘मजाक कर रही हूं. बात दरअसल यह है कि मुझे एक बड़ा सा घर लेना है और उस के लिए मुझे क्व50 लाख की जरूरत है, तो वे मुझे तुम से चाहिए. ठीक है एक बार में नहीं, थोड़ेथोड़े कर दे दो, पर देने तो पड़ेंगे तुम्हें देव, नहीं तो मैं क्या कर सकती हूं जान चुके हो तुम.’’

समझ गया देव कि ये सब प्रिया की सोचीसमझी चाल थी. जानबूझ कर उस ने उस से दोस्ती की थी ताकि उस से पैसे ऐंठे जा सके. बोला, ‘‘तो तुम ने ये सब जानबूझ कर किया… लेकिन तुम तो मुझे अपना भाई मानती थी न, तो फिर कैसे मेरे साथ संबंध… सिर्फ पैसे के लिए तुम इतनी नीचे गिर गई. ठीक है कर लो जो करना है, पर हारोगी एक दिन तुम कह देता हूं,’’ देव भर्राए गले से बोला.

‘‘जीतहार की किसे पड़ी है देव? मुझे तो सिर्फ पैसे से मतलब है. वह मिलता रहे, फिर मुझे कोई आपत्ति नहीं. वैसे एक बात कहूं? कहीं न कहीं प्यार करने लगी हूं मैं तुम से,’’ इठलाती हुई बोल कर वह देव के गले से लटक गई और उसे चूम लिया.

‘‘ठीक है अब चलती हूं, पर जबजब मेरे हाथों में खुजली हो रही हो, पैसे रख देना जितने मैं कहूं और हां, जब कभी मन हो आ भी जाना. मैं मना नहीं करूंगी,’’ कह कर वह हंस पड़ी.

आज देव को इस बात का एहसास हो रहा था कि अनु सही कहती थी, किसी इंसान को बिना जांचेपरखे उस पर भरोसा नहीं कर लेना चाहिए. पर उस वक्त वह उस की बातों को मजाक में उड़ा देता था पर आज वह खुद की नजरों में ही मजाक बन कर रह गया था.

एक दिन फिर उस ने देव को अपने घर बुलाया. जबरन उसे संबंध बनाने पर मजबूर किया और फिर 10 लाख की डिमांड कर बैठी.

‘‘अब मैं तुम्हें एक भी पैसा नहीं दूंगा.’’ गलती मेरी थी जो मैं ने तुम्हें पहचानने में भूल की, पर अब नहीं,’’ कह कर देव वहां से निकलने लगा. तभी प्रिया की बातों ने उसे रुकने पर मजबूर कर दिया. ‘‘ठीक है तो फिर मत दो पैसे, मैं भी यह वीडियो वायरल कर रही हूं,’’ कह कर उस ने अपना फोन औन किया ही था कि देव ने उस के हाथ से फोन छीन लिया.

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‘‘क्या चाहती हो तुम?’’ देव ने अपनी आंखें तरेर कर पूछा. मन तो कर रहा था उस का कि प्रिया की जान ही ले ले, लेकिन वह ऐसा भी नहीं कर सकता था.

अपनी लटों को उंगलियों से घुमाते हुए बोली, ‘‘बस यही कि जबजब मैं पैसे मांगू, मुझे मिल जाने चाहिए और इस के लिए कोई बहाना नहीं, नहीं तो अंजाम क्या होगा जान चुके हो तुम.’’

बेचारा देव बुरी तरह से प्रिया के चंगुल में फंस चुका था. इस भंवर से निकलने का अब उसे कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था.

9 महीने पूरे होते ही अनु ने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया और यह सोच कर जल्द ही वापस देव के पास आ गई कि अब वह उसे ज्यादा तकलीफ नहीं दे सकती. लेकिन यहां आ कर देव के बदले व्यवहार से वह अचंभित थी. जहां बच्चे के नाम से ही देव रोमांचित हो उठता था और कहता था कि वह अपने बच्चे के लिए यह करेगा, वह करेगा, उसे कभी अपनी गोद से नीचे नहीं उतारेगा. अब वही देव अंशुल को गोद में लेने से भी कतराता. अंशुल के लिए खिलौनेकपड़े खरीदने की बात पर ही वह भड़क जाता और कहता कि फालतू के खर्चे बंद करो.

‘क्या हो गया है देव को? क्यों छोटीछोटी बातों पर इतना आवेग से भर जाता है? अब तो वह अनु से भी दूर भागने लगा था, क्योंकि जब भी अनु देव के करीब जाती, यह कह कर उस से दूर हट जाता कि आज नहीं, आज मैं बहुत थक गया हूं. लेकिन यह सब रोज की बातें होने लगी थीं.

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आखिरी दांव: भाग 2- क्या हुआ देव के साथ

खाना देख कर देव चौंका. फिर कुछ बोलता कि उस से पहले वह बोल पड़ी, ‘‘मैं समझ गई. आप यही कहना चाह रहे हैं न कि इस की क्या जरूरत थी? लेकिन लगा खुद के लिए बना ही रही हूं जो जरा ज्यादा बना लेती हूं. वैसे सुबह की जली ब्रैड की खुशबू उतनी भी खराब नहीं थी,’’ बोल कर जब व हंसी, तो देव को भी हंसी आ गई.

बातोंबातों में ही उस ने बताया कि वह लखनऊ से है और उस का पति दुबई में अपना व्यापार करता है. वह भी वहीं रह रही थी, पर उसे अपने देश के लोगों के लिए कुछ करना था, इसलिए वह यहां आ कर एक एनजीओ से जुड़ गई.

‘‘आज के लिए बस इतना ही और बरतन की चिंता मत कीजिएगा. सुबह आ कर ले जाऊंगी,’’ कह कर वह चली गई.

देव उसे जाते देखता रह गया. फिर सोचने लगा कि कैसी अजीब औरत है यह?

सुबह भी बरतन लेने के बहाने वह देव के लिए आलूपरांठे और दही ले कर पहुंच गई.

‘‘इस की क्या जरूरत थी प्लीज, आप नाहक परेशान हो रही हैं,’’ देव बोला.

मगर वह कहने लगी, आप में मुझे अपने भाई का अक्स दिखाई देता है जो अब इस दुनिया में नहीं रहा.

‘‘ओह, सौरी, मेरा इरादा आप का दिल दुखाने का नहीं था,’’ अफसोस जताते हुए देव बोला.

अब वह रोज देव के लिए कुछ न कुछ बना कर ले आती और देव उसे मना नहीं

कर पाता.

देव अनु को सब बताना चाहता था, पर डर भी रहा था कि वह फिर उसे डांटेगी और कहेगी कि क्यों वह इतनी जल्दी किसी पर भरोसा कर बैठता है? लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी वह चुप न रह सका और अनु को सब बता दिया.

सुनने के बाद अनु कहने लगी, ‘‘हां… याद आया. मेरे यहां आने के 1 हफ्ता पहले ही वह हमारे ऊपर वाले फ्लैट में शिफ्ट हुई थी. ज्यादा तो नहीं, पर हलकीफुलकी बातें हुई थीं उस से. बता रही थी कि  वह भी लखनऊ से है. चलो कोई नहीं, खाना तो मिल रहा है न तुम्हें घर जैसा… पर सिर्फ खाना ही खाना, कुछ और मत खाने लगना,’’ देव को छेड़ते हुए वह हंस पड़ी.

अब तो यह रोज की बात हो गई. देव के लिए वह अकसर घी, मसालों में सराबोर सब्जियां, चावल, पूरी रायता, दाल, सलाद, मिठाई आदि ले कर पहुंच जाती और जब देव कहता कि क्यों वह उस के लिए इतना परेशान होती है तो वह कहती कि उसे भी इसी तरह का खाना पसंद है, तब देव ने हैरानी से पूछा, ‘‘आप इतनी फिट कैसे हैं?’’

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वह बोली, ‘‘मैं रोज वाक पर तो जाती ही हूं, जिम जाना भी नहीं भूलती.’’

‘‘यह बात है तो फिर कल से मैं भी आप को जौइन करता हूं,’’ देव ने कहा.

प्रिया उछल पड़ी. अब रोज सुबहसवेरे दोनों वाक पर निकल जाते और शाम को जिम जाना भी दोनों के रूटीन में शामिल हो गया.

एक दिन जब देव अपने होने वाले बच्चे का जिक्र करने लगा, तो अचानक प्रिया का

चेहरा उदास हो गया.

कारण पूछने पर वह कहने लगी, ‘‘कुदरत ने उसे मां बनने का मौका ही नहीं दिया. बहुत इलाज करवाया, पर सभी डाक्टरों का यही कहना था कि मैं कभी मां नहीं बन सकती. अब मैं ने और पति ने यह तय किया है कि अनाथ बच्ची को गोद ले लेंगे.’’

देव उसे देखता रह गया. उसे लगा कि कितनी अच्छी औरत है यह जो एक अनाथ बच्ची को गोद लेने की सोच रही है. बोला, ‘‘वाह, कितना उत्तम विचार है आप का. आप को तो बच्चे का सुख मिलेगा ही, उस बच्चे को भी एक घर और मातापिता का सुख मिल जाएगा व उस की जिंदगी संवर जाएगी. अगर आप की तरह ही और लोगों की भी सोच हो जाए न, तो कोई भी बच्चा इस दुनिया में अनाथ नहीं रहेगा,’’ प्रिया के प्रति भावना से भर कर देव कहने लगा.

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‘‘देवजी, कह तो आप सही रहे हैं पर हम किसी को इस बात के लिए फोर्स तो नहीं कर सकते हैं न? फिर वैसे भी बहुत से लोग बच्चे को गोद तो ले लेते हैं, पर वह प्यार और समर्पण नहीं दे पाते, जो उस बच्चे को चाहिए होता है. इस से तो अच्छा है बच्चा गोद ही न लें.’’

‘‘हां, सही कह रही हैं आप. वैसे अब काफी जांचपरख के बाद ही जरूरतमंदों को बच्चा गोद दिया जाता है,’’ देव की बात पर प्रिया ने भी सहमति जताई.

प्रिया का साथ पा कर देव का अकेलापन कुछ हक तक दूर होने लगा था. जब भी वह घर में बोर होने लगता, प्रिया के साथ कहीं घूमने निकल जाता और खाना भी बाहर ही खा कर आता.

प्रिया कहती, ‘‘क्या जरूरत थी बाहर खाना खाने की?’’

‘‘आप अकसर अपने हाथों से बना कर खिलाती हैं, तो क्या मैं आप को कभीकभार बाहर नहीं खिला सकता?’’

‘‘अच्छा, तो बाहर खाना खिला कर आप मेरे खाने का बदला चुकाना चाहते हैं?’’ प्रिया हंसते हुए बोली.

देव झेंपते हुए कहता, ‘‘ऐसी बात नहीं है प्रियाजी, लेकिन हां, जब अनु आएगी तब एक दिन मेरे घर और दूसरे दिन आप के घर पार्टी होगी हमारी, ठीक है न?’’

प्रिया बोली, ‘‘डन.’’ प्रिया और देव की दोस्ती इतनी गहरी हो गई थी कि अब दोनों एकदूसरे पर विश्वास करने लगे थे.

सुबह से ही मौसम का मिजाज बिगड़ा लग रहा था. हवा तो नाम मात्र की भी नहीं चल रही थी. वातावरण इतना शुष्क कि पूछो मत. लेकिन कुछ देर बाद ही पूरे आकाश पर काले बादल मंडराने लगे. लग रहा था धूआंधार बारिश होगी. सच में कुछ पलों में ही बादलों की गड़गड़ाहट के साथ बूंदाबादी और फिर झमाझम बारिश शुरू हो गई जिसे देख देव के चेहरे पर मुसकान दौड़ गई. वह बालकनी में खड़ा हो गया. सोचने लगा कि काश इस बारिश में पकौड़े मिल जाते, तो मजा आ जाता.

तभी प्रिया का फोन आ गया. बोली, ‘‘मैं गरमगरम पकौड़े बना रही हूं. आप जल्दी आ जाएं.’’

‘‘सच प्रियाजी? अभी आता हूं.’’

‘‘पकौड़े बहुत ही टेस्टी बने हैं, पेट भर गया पर मन नहीं भर रहा है,’’ एक और पकौड़ा उठाते हुए देव बोला.

प्रिया ने और पकौड़े उस की प्लेट में रख दिए और बोली, ‘‘अभी तो पार्टी शुरू हुईर् है.’’

‘‘अरे, सच में प्रियाजी… अब तो पेट फट जाएगा… इतना खिला दिया आप ने,’’ कह देव ने घड़ी पर नजर डाली. 9 बज चुके थे. सोचा अब चला जाए. पर प्रिया ने एक कप चाय और पीने की बोल कर उसे रोक लिया. चाय पीतेपीते देव का सिर घूमने लगा. कुछ ही पलों बाद वह वहीं सोफे पर लुढ़क गया. जब प्रिया को लगा कि वह बेसुध पड़ गया और अब उसे कोई होश नहीं है, तो उसे किसी तरह कमरे में सुला दिया.

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अनायास ही प्रिया के होठों पर मुसकान बिखर आई. बाथरूम में जा कर वह अपने शरीर को मलमल कर नहाते हुए गुनगुनाने लगी, ‘‘सजना है मुझे सजना के लिए… जरा उलझी लटें संवार लूं… हर अंग का रंग निखार लूं कि सजना है मुझे…’’

नहा कर उस ने कपड़े ऐसे पहने कि अंदर सब साफसाफ दिखाई दे रहा था. सजसंवर कर जब उस ने आईने के सामने खड़ी हो अपना अक्स निहारा, तो खुद में ही लजा गई. फिर उस ने पलंग पर सोए देव को निहारा. उस का गठीला बदन देख उस ने अपने होंठ को दांत से ऐसे दबा लिया जैसे अब बात उस की बरदाश्त के बाहर हो गई हो. हौले से देव के पास गईर् और फिर लाइट बंद कर दी.

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आखिरी दांव: भाग 1- क्या हुआ देव के साथ

रोजसुबह उठ कर अपने लिए चायनाश्ता बनाबना कर ऊब चुका था देव. मन ही मन सोचता कि काश, अनु होती, तो वह बैड टी का मजा ले रहा होता. घड़ी पर नजर डाली, तो 9 बज चुके थे. झटपट उठ कर फ्रैश होने के बाद उस ने एक चूल्हे पर चाय रखी और दूसरे पर ब्रैड सेंकने लगा. जब से अनु मायके गई थी देव का रोज सुबह का यही नाश्ता होता था. दोपहर का खाना वह औफिस की कैंटीन में खा लेता और रात के खाने का कुछ पता नहीं होता. कभी बाहर से मंगवा लेता, तो कभी खुद कुछ बना लेता. अनु के बिना 15 दिन में ही उस की हालत खराब हो गई है, तो आगे और दिन कैसे गुजरेंगे, सोच कर ही वह सिहर उठा. तभी अनु का फोन आ गया.

‘‘गुड मौर्निंग जानू,’’ अनु पति देव को प्यार से जानू बुलाती थी, ‘‘कैसे हो? मन लग रहा है मेरे बिना?’’ हमेशा की तरह एक किस के साथ अनु ने पूछा.

‘‘अच्छा हूं पर बहुत ज्यादा नहीं. तुम बताओ क्या कर रही हो?’’ बात करते हुए जब ब्रैड जलने की बदबू आई तो अचानक देव चीख पड़ा.

‘‘क्या हुआ देव?’’ घबरा कर अनु ने पूछा.

‘‘हाथ जल गया यार,’’ देव हाथ झटकते हुए बोला, ‘‘बहुत हंसी आ रही है न? हंस लो हंस लो, अभी तुम्हारे हंसनेखेलने के दिन हैं बेबी…अभी तो तुम वहां महारानी की तरह रह रही होगी. मांभाभियां तरहतरह के व्यंजन बना कर खिला रही होंगी. और मैं यहां खुद हाथ जला रहा हूं.’’

‘‘अच्छा, और पापा कौन बनेगा? पता भी है तुम्हें कि मां बनने में कितनी तकलीफ सहनी पड़ती है औरतों को? देखा है मैं ने भाभी को, जब चिंटू पैदा होने वाला था तब उन्हें कितनी तकलीफ हुई थी. मैं तो सोच कर ही डरी जा रही हूं कि कहीं मुझे भी…’’

‘‘जरूरी तो नहीं कि भाभी की तरह तुम्हें भी तकलीफ हो… आ जाऊंगा न डिलिवरी के कुछ दिन पहले ही, अनु को धैर्य बंधाते हुए देव ने कहा और फिर फोन रख दिया.

चाय के साथ उसी जली ब्रैड को किसी तरह निगल कर औफिस चला गया. अनु थी तब न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता होती थी और न ही नाश्तेचाय की. अब उसे सब समझ में आने लगा कि अनु अपनी जगह कितनी सही थी, आज देव का वजन संतुलित है तो सिर्फ अनु की वजह से, क्योंकि वही उस के पीछे पड़ कर उसे वौक पर ले जाती और जिम भी भेजती थी. हैल्थ को ले कर जरा भी लापरवाही अनु को पसंद नहीं थी.

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उधर फोन रख कर अनु देव को ले कर चिंतित हो उठी. सोचने लगी कि अगर यहां आना जरूरी न होता, तो वह हरगिज न आती. दरअसल, शादी के 5 साल बाद अनु मां बनने जा रही थी. जब वह पहली बार मां बनने वाली थी तब उस की मां ने कहा था कि वह यहां आ जाए, क्योंकि डिलिवरी के वक्त किसी अनुभवी का साथ होना जरूरी है. लेकिन वह नहीं मानी थी और यह बोल कर आने से मना कर दिया था कि देव सब संभाल लेगा.

मगर वही हुआ जिस बात का अनु की मां को डर था. अचानक 1 दिन के लिए औफिस के जरूरी काम से देव को बाहर जाना पड़ गया. देव ने कहा भी कि वह नहीं जाएगा, चाहे कितना भी जरूरी क्यों न हो, पर अनु ने यह कर उसे भेज दिया कि काम में लापरवाही अच्छी नहीं और फिर क्या एक दिन भी वह अपना खयाल नहीं रख सकती? देव के जाने के अगले दिन वह नहाने बाथरूम गई तो उसे ध्यान ही नहीं रहा कि बाथरूम गीला है. वहां थोड़ी फिसलन भी थी. जैसे ही बाथरूम में घुसी, उस का पैर फिसल गया और वह गिर पड़ी. वह तो अच्छा था कि घर का मेन दरवाजा खुला था, तो उस के चीखने की आवाज से पड़ोसी दौड़े आए और उसे जल्दी अस्पताल ले गए. मगर लाख कोशिश के बाद भी डाक्टर अनु के बच्चे को नहीं बचा पाए. उस के बाद कई साल तक अनु मां नहीं बन पाई. डाक्टर का कहना था कि स्वास्थ्य संबंधी कुछ दिक्कते हैं इलाज के बाद ही यह मां बन पाएगी.

खैर, इस बार अनु प्रैगनैंट हो गई. डाक्टर ने अच्छी तरह समझा दिया कि इस बार कोई लापरवाही न बरती जाए. जहां तक हो सके अनु आराम करे. देव और अनु ने भी इस बार कोई रिस्क लेना नहीं चाहा. सोच लिया देव ने कि चाहे उसे कितनी भी तकलीफ क्यों न हो, वह अनु को उस की मां के घर छोड़ आएगा.

शाम को औफिस से आते ही देव सोफे पर लेट गया. थक कर इतना चूर हो गया था कि लेटते ही उसे नींद आ गई. आंखें तब खुलीं जब अनु का फोन आया.

‘‘लगता है बहुत थक गए हो? एक काम करो, बाहर से ही कुछ मंगवा लो,’’ कह अनु ने फोन रख दिया.

देव अपने लिए खाना और्डर करने जा ही रहा था कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.

‘इस वक्त कौन हो सकता है? मन ही मन सोचते हुए देव ने एक नजर दरवाजे पर और दूसरी घड़ी पर डालते हुए दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर, छरहरी, गोरी 30-32 साल की महिला खड़ी मुसकरा रही थी.

अपने घर, वह भी रात के इस वक्त किसी अनजान महिला को देख देव हकला कर बोला, ‘‘आ… आप… आप कौन?’’

‘‘जी मैं प्रिया, आप के ऊपर वाले फ्लोर में रहती हूं,’’ पूरे आत्मविश्वास से उस महिला ने जवाब दिया.

‘‘पर मैं तो आप को…’’

‘‘हां, आप मुझे नहीं जानते, पर मैं आप को जानती हूं,’’ देव की बात को काटते हुए वह महिला बोली, ‘‘अनु के हसबैंड हैं आप और अभी वे अपने मायके गई हुई हैं डिलिवरी के लिए,’’ उस ने कहा. उस की बात सुन देव हैरानी से उसे देखने लगा. फिर सोचने लगा कि इसे इतना सबकुछ कैसे पता है? और वह उसे कैसे नहीं जानता, जबकि दोनों एक ही बिल्डिंग में रह रहे हैं?

‘‘ज्यादा मत सोचिए, क्योंकि अभी 1 महीने पहले ही मैं यहां शिफ्ट हुई हूं और वैसे भी आप सुबह औफिस चले जाते हैं और आते ही माचिस की डब्बी में बंद हो जाते हैं, तो आप को कैसे पता चलेगा कि कौन नया आदमी आया और कौन पुराना आदमी चला गया?’’

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‘‘पुराना आदमी मतलब?’’ देव ने पूछा.

‘‘पुराना आदमी मतलब कि जो पहले आप के ऊपर अमन दंपती रहते थे न, उन्हीं के घर में मैं रहने आई हूं.’’

‘‘अच्छा…’’ देव ने अपनी याददाश्त पर जोर डाला. उसे याद आया कि हां ऊपर पंजाबी दंपती रहते थे.

‘‘मगर यह माचिस की डब्बी… क्या मतलब?’’ देव ने पूछा.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘क्या अपने घर के अंदर नहीं बुलाएंगे? बाहर से ही सरका देने का इरादा है?’’

‘‘अरे, प्लीज आइए न,’’ देव थोड़ा सरक गया ताकि वह घर के अंदर दाखिल हो सके.

‘‘माचिस की डब्बी का मतलब है यह अपार्टमैंट,’’ सोफे पर बैठते हुए वह महिला बोली, ‘‘देख नहीं रहे हैं कितने छोटेछोटे कमरे हैं. कभीकभी तो दम घुटने लगता है मेरा अपने घर में. बड़े शहरों की यही समस्या है. सुविधाएं तो बहुत होती हैं, पर जगह बहुत सीमित और लोग भी यहां के इतने मतलबी की किसी को किसी से लेनादेना नहीं. घर में घुसते ही ऐसे पैक हो जाते हैं जैसे माचिस की डब्बी में तीली.’’

उस की बातों पर देव को हंसी आ गई.

‘‘अरे बातोंबातों में मैं भूल ही गईर् कि मैं आप के लिए खाना ले कर आईर् हूं,’’ कहते हुए प्रिया ने उसे खाना दिया.

आगे पढ़ें- बातोंबातों में ही उस ने बताया कि वह…

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निर्णय: भाग 3- वक्त के दोहराये पर खड़ी सोनू की मां

जिज्जी ने चिढ़ कर दोनों को एक ही थैली के चट्टेबट्टे तक कह दिया था. बचपन की दबंगई गई कहां है सरिता की. बड़ी ही दुखती रग पर हाथ धर दिया था उस ने. सीधे कह दिया, ‘अपना दुख बिसरा चुकी हो जिज्जी?’ जिज्जी सन्न रह गई थीं. रोतीबिसूरती पैर पटकती जा बैठी थीं अपने कमरे में. उस की आंख के आगे अंधेरा छाने लगा था. देखा जाए तो जिज्जी के दुख की विशालता का कहां ओरछोर है. असमय ही पति की मृत्यु के बाद बेटे को अपने पास रख 6 महीने की बेटी सहित जिज्जी को नंगे पांव घर से बाहर कर दिया था उन के ससुराल वालों ने. वह समझती है जिज्जी की मनोदशा. तब की उपजी कड़वाहट ने उन का जीवन ही नहीं, दिलदिमाग तथा जबान तक को जहरीला कर दिया है. कहीं न कहीं यह बात भी थी कि मायके में अपने पांव जमाए रखने के लिए वे पूरे घर की नकेल को कस कर थामे रखना चाहती थीं. जबकि वह है कि फिसलती ही जा रही है उन के हाथों से. उस पर सरिता ने आ कर और गुड़गोबर कर दिया था. दृढ़ प्राचीर की भांति खड़ी हो गई थी सरिता उस के और मां व जिज्जी के बीच. निश्चय तो पहले से ही पक्का था, जब सरिता की बातों ने उस का हौसला और बढ़ा दिया था. दृढ़ता की अनगिनत परतें और चढ़ गई थीं उस के निश्चय पर. नीलाभ डाक्टर है. सोनू की बीमारी उन्होंने पहले भांप ली थी. उस से उखड़ेउखड़े और कटेकटे रहने लगे थे सोनू के लक्षण दूसरे साल ही प्रकट होने लगे थे. बोलता भी था दांत भी निकाल लिए थे. कूल्हों के बल घिसटता था. सहारा दे कर खड़ा करने पर भी पैर नीचे नहीं रखता था.

नीलाभ चपरासी को भेज कर अकसर सोनू को नर्सिंग होम बुलवा लेते थे. उसे पता ही न चलने दिया. पता नहीं कौनकौन से टैस्ट करवाए. दवाएं दी जाने लगीं. विटामिन एवं एनर्जी बूस्टर के नाम पर वह स्वयं न जाने कौनकौन सी दवाएं खुद अपने हाथों से देते रहे थे सोनू को. एक बार तो दिल्ली भी हो आए थे. घूमने के नाम पर. बहाने से नीलाभ सोनू को एम्स ले गए थे. गेस्ट हाउस लौटे तो चेहरा उतरा हुआ था. रोज बच्चों के साथ उसे पर्यटन विभाग की बस में बिठा देते दिल्ली दर्शन के लिए, स्वयं काम का बहाना कर फाइलें ले कर अलगअलग अस्पतालों के चक्कर काटते. शक तो उसे भी था. 3 साल का बच्चा स्वस्थ और सुंदर पर टांगें जैसे सूखी हड्डी मात्र. जान ही नहीं थी टांगों में. इस विषय में नीलाभ से बात करती तो वे खीज जाते या रूखा सा जवाब देते, ‘कुछ नहीं, सब ठीक है, कमजोरी है, ठीक हो जाएगी.’ पता नहीं ऐसा कह कर वे खुद को तसल्ली देते थे या उसे. उस ने चुपचाप कई प्रकार के आयुर्वेदिक तथा प्राकृतिक तेल व लेप मलने शुरू कर दिए थे सोनू की टांगों पर. दोनों एकदूसरे से नजरें चुराते, इस विषय में चिंतित तथा किसी अनहोनी की आशंका में घुलते रहते.

‘‘मैडम, रामबाग आ गया. अब किधर लूं?’’ टैक्सी वाले ने टोका तो सचेत हो कर उस ने इधरउधर देखा. टैक्सी वाला सोच रहा था कि सफर की थकी  सवारी शायद सो गई है. वह फिर से बोला, ‘‘उठो जी मैडमजी, बताओ कौन सी गली में लूं?’’

‘‘नीलाभ नर्सिंगहोम.’’

‘‘अच्छा जी,’’ कह कर उस ने निर्दिष्ट दिशा की ओर गाड़ी मोड़ दी. घर पहुंच कर उस की इच्छा ही नहीं हुई कि नीलाभ से कुछ पूछे या सवालजवाब करे. जो छिपी बात बाहर निकल ही गई हो उसे पुन: तो नहीं छिपाया जा  सकता. और कुछ हो न हो, पतिपत्नी के मध्य रिश्ता अवश्य ही अनाथ हो गया था. दोनों के बीच का गहन अबोला पूरे घर में सांयसांय करता डोलने लगा था. 2 छोटी बेटियां तो अबोध थीं अभी पर किशोरावस्था की ओर पग बढ़ाती बड़ी बेटी शिप्रा कुछ समझ रही थी, कुछ समझने का प्रयास कर रही थी. सोनू पता नहीं किस अज्ञात प्रेरणावश हर समय उसी के साथ चिपका रहता. अपनी सारी संचित शक्ति से वह अपने दृढ़ निश्चय, साहस तथा ममता को जागृत रखती कि कहीं किसी कमजोर पल में निष्ठुर पौरुष उसे अपने सामने घुटने टेकने को विवश न कर दे. 3 दिन का छूटा घर समेटने लगी तो उस ने नीलाभ की टेबल पर मैडिकल पत्रिका का एक अंक पड़ा देखा था. जन्मजात एवं वंशानुगत शारीरिक विसंगतियों का विशेषांक.

रात करीब 3 बजे उस की नींद खुली तो देखा नीलाभ लैपटौप पर दत्तचित्त हो कर पता नहीं क्या काम कर रहे थे. सांस रोक कर वह चुपचाप देखती रही थी. थोड़ी देर बाद लैपटौप बंद कर नीलाभ कोहनियों को मेज पर टिकाए दोनों हथेलियों में अपना झुका हुआ सिर थाम देर तक बैठे रहे थे. सुबह नर्सिंग होम नहीं गए वे. पता नहीं किस उधेड़बुन में लगे थे. कभी किसी को फोन करते, कभी कागजपत्तर फैला कर बैठ जाते. अचानक उठे और अटैची निकाल कर सोनू का सामान उस में भरने लगे. उसे लगा वह गश खा कर गिर पड़े. अपना सारा अहं, सारा मानअभिमान भूल कर वह नीलाभ के पैरों पर लोट गई.

‘‘बस करो, और मुश्किलें न बढ़ाओ ये सब कर के मेरे लिए.’’ नीलाभ तड़प कर बोले, ‘‘पत्थर नहीं हूं मैं. कोई इलाज नहीं है इस का यहां. और विदेश में इतना महंगा है कि मैं अपना सबकुछ बेच दूं तो भी पूरा न पड़ेगा, समझीं तुम. उस पर भी गारंटी कुछ नहीं.’’ पता नहीं नीलाभ की खीज, क्रोध और चिल्लाहट का मूल कारण क्या था. एक असहाय, अपाहिज बेटे के प्रति पिता का फर्ज निभा पाने की अक्षमता या एक कमजोर क्षण में एक निराश्रित को अपना मान लेने का निर्णय. शिप्रा आंसुओं में भीगी डरीसहमी दरवाजे के पीछे खड़ी सब देखसुन रही थी. दोनों छोटी बच्चियां भी डर के मारे अपने कमरे में दुबकी थीं. इस से पहले उन्होंने कभी पिता को इतने क्रोध में नहीं देखा था.

तभी डोरबैल बजी. सन्नाटा पसर गया कमरे में. क्षणभर को सब ठिठक गए. वह खुद को संभालती उठी और दरवाजा खोला. प्रजापतिजी थे. नीलाभ के मित्र एवं शिप्रा के लौंग जंप खेल के कोच. घर के असहज वातावरण को भांप कर कुछ अचकचा से गए थे. वह समझ गई थी उन के आने का कारण. अंतर विद्यालय प्रतियोगिता को कुछ ही दिन रह गए हैं पर शिप्रा का ध्यान ही नहीं है आजकल किसी चीज में. ‘‘प्रैक्टिस पर क्यों नहीं आती आजकल बेटा?’’ सीधे शिप्रा से ही पूछ लिया था प्रजापतिजी ने. शिप्रा अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करती है इस खेल में.

‘‘मुझे नहीं खेलना,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

‘‘क्यों? क्या मुसीबत आन पड़ी है, पता तो चले? गोल्ड जीत सकती हो. स्टेट लेवल पर जाओगी. दिमाग में भूसा भरा है क्या? चांस रोजरोज नहीं मिलते.’’ नीलाभ ने शिप्रा के ‘सर’ के बैठे होने का भी लिहाज न किया और अपने भीतर दबा कहीं का आक्रोश कहीं निकाला. ‘‘रेखा के पांव की हड्डी टूट गई है जंप लगाते हुए,’’ शिप्रा डर कर बोली.

‘‘तो…?’’ हैरानी से प्रजापतिजी बोले. उन की बात बीच में ही काट कर नीलाभ बिफर पड़े, ‘‘चोट उसे लगी है. तुम्हारी तो सलामत हैं न दोनों टांगें. चोट के डर से क्या घर पर बैठ जाओगी?’’ शिप्रा आंसू रोकने का भरसक प्रयास कर रही थी. आंखें जैसे जल रही थीं उस की. मुंह तमतमा गया था. उस की दृष्टि सोनू के पैरों पर जमी थी. ‘‘लग सकती है मुझे भी. कहीं मेरे पैर भी…तो आप मुझे भी सोनू की तरह…’’ रुलाई में शब्द गड्डमड्ड हो गए थे. पुत्री के टूटेफूटे अस्फुट शब्द और अधूरे वाक्यों ने अपनी पूरी बात संप्रेषित कर दी थी. नीलाभ के पैरों के नीचे की धरती घूम सी गई. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. बेदम हो कर वे पास पड़ी कुरसी पर ढेर हो गए.

बीजी यहीं है: भाग 3- क्या सही था बापूजी का फैसला

तीजत्योहार, ब्याहशादियों में बीजी बहुत याद आती. अपनी पीढ़ी के हर तीजत्योहार, पर्व के लोकगीतों का संग्रह थी वह. ऊपर से आवाज ऐसी कि जो एक बार बीजी के मुंह से कोई लोकगीत सुन ले तो सुनता ही रह जाए.

बीजी के जाने के बाद जब भी मौका मिलता बाबूजी बीजी की बातें ले

बैठते. बीजी के साथ के मेरे होने से पहले के किस्से तब मुझ से सांझ करने से नहीं हिचकते. कई बार तो बाबूजी के नकारने के बाद भी साफ लगता कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी बीजी के और नजदीक हो गए हों जैसे. पता नहीं ऐसा क्यों होता होगा कि किसी के जाने के बाद ही हम उस के पहले से और नजदीक हो आते हैं.

बाबूजी को अपने साथ यों खुलतेघुलते देख मैं हैरान था कि कहां वह बाबूजी का मेरे साथ रिजर्व से भी रिजर्व रहना और कहां आज इतना घुलमिल जाना कि… बाबूजी कभी देवानंद, कभी सुनील दत्त तो कभी किशोर कुमार भी रहे थे, धीरेधीरे वे जब खुश होते तो मेरे पूछे बिना ही अपनी परतें यों खोलते जाते ज्यों अब मैं उन का बेटा न हो कर उन का दोस्त होऊं.

बीजी के जाने के बाद मैं ने ही नहीं, राजी ने भी बाबूजी के चश्मे का नंबर 4 महीने में 4 बार बदलते देखा. हर 20 दिन बाद बाबूजी की शिकायत, मेरी आंखें कुछ देख नहीं पा रहीं. तब राजी ने मन से बाबूजी से कहा भी था कि वे हमारे साथ ही पूरी तरह से रहें. पहले तो बाबूजी माने नहीं, पर बाद में एक शर्त बीच में डाल मान गए. अवसर देख उन्होंने शर्त रखी, ‘‘तो शाम का भोजन सब के लिए नीचे की रसोई में ही बना करेगा. और…’’

‘‘और क्या बाबूजी?’’ उस वक्त ऐसा लगा था जैसे मेरे से अधिक राजी बाबूजी के करीब जा पहुंची हो.

‘‘और रात को मैं नीचे ही

सोया करूंगा.’’

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‘‘यह कैसे संभव है बाबूजी?’’ राजी ने मुझ से पहले आपत्ति जताई तो वे बोले, ‘‘देखो राजी बेटाख् वहां मेरा अतीत है, मेरा वर्तमान है. आदमी हर चीज से कट सकता है पर अपने अतीत, वर्तमान से नहीं. इसलिए… क्या तुम चाहोगी कि मैं अपने अतीत, अपने वर्तमान से कट अपनेआप से कट जाऊं, तुम सब से कट जाऊं? कभीकभी तो आदमी को अपनी शर्तों पर जी लेना चाहिए या कि आदमी को उस की शर्तों पर जी लेने देना चाहिए. इस से संबंधों में गरमाहट बनी रहती है राजी,’’ बाबूजी बाबूजी से दार्शनिक हुए तो मैं अवाक. क्या ये वही बाबूजी हैं जो पहले कभीकभी तो बाबूजी भी नहीं होते थे?

‘‘ठीक है बाबूजी. जैसे आप चाहें,’’ मैं ने और राजी ने उन के आगे ज्यादा जिद्द नहीं की यह सोच कर कि जब 2 दिन बाद ही अकेले वहां ऊब जाएंगे तो फिर जाएंगे कहां?

उस रोज मैं हाफ टाइम के बाद ही औफिस से घर आया तो बाबूजी को धूप में न बैठे देख अजीब सा लगा क्योंकि अब उन को औफिस को जाते, औफिस से आते देखना मुझे पहले से भी जरूरी सा लगने लगा था. अचानक मन में यों ही बेतुका सा सवाल पैदा हुआ कि कहीं बाबूजी से राजी की कोई… पर अब राजी और बाबूजी के रिश्ते को देख कर कहीं ऐसा लगता नहीं था जो… सो इस बेतुके सवाल को परे करते मैं ने राजी से पूछा, ‘‘आज बाबूजी धूप में नहीं आए क्या?’’

‘‘क्यों? आए तो थे. पर तुम?’’

‘‘तबीयत ढीली सी लग रही थी सो सोचा कि घर आ कर आराम कर लूं. शायद तबीयत ठीक हो जाए. कहां गए हैं बाबूजी.’’

‘‘कह गए थे जरा नीचे जा रहा हूं. कुछ देर बाद आ जाऊंगा. चाय बनाऊं क्या?’’

‘‘हां, बना दो सब के लिए. तब तक मैं बाबूजी को देख आता हूं. देखूं तो सही वे…’’ और मैं तुरंत नीचे उतर गया.

बाबूजी जब बाहर नहीं दिखे तो यों ही खिड़की से भीतर झंका यह देखने के लिए कि भीतर बाबूजी क्या कर रहे होंगे? भीतर देखा तो बाबूजी ने पहले सोफोें के कवर ठीक किए, फिर सामने बीजी की टंगी तसवीर की धूल साफ  की अपने कुरते से. उस के बाद बीजी की तरह ही टेबल साफ  करने लगे. टेबल साफ  कर हटे तो बीजी की तरह ही किचन के दरवाजे के पीछे पीछे रखे झड़ू से साफ करने लगे. यह देख बड़ा अचंभा हुआ. जिन चीजों से बाबूजी का अभी दूरदूर तक का कोई वास्ता न होता था, इस वक्त वे चीजें बाबूजी के लिए इतनी अहम हो जाएंगी, मैं ने सपने में भी न सोचा था. मैं ने तो सोचा था कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी और भी बेपरवाह हो जाएंगे.

बड़ी देर तक मैं यह सब फटी आंखों से देखता रहा. अचानक मेरी आंखों के गीलेपन के साथ मेरी सिसकी निकली तो सुन बाबूजी चौंके, ‘‘कौन? कौन?’’

‘‘मैं बाबूजी संकु.’’

‘‘तू कब आया?’’ बाबूजी ने अपने को छिपाते सामान्य हो पूछा तो मैं ने भी अपने को छिपा सामान्य होते कहा, ‘‘आज तबीयत ठीक नहीं थी, सो सोचा घर जा कर कुछ आराम कर लूं तो शायद… पर आप यहां… राजी को कह देते, नहीं तो मैं कर देता ये सब…’’

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‘‘नहीं. अपने हिस्से के कई काम कई बार खुद कर के मन को बहुत चैन मिलता है संकु. तुम्हारी बीजी के जाने के इतने महीनों बाद भी जबजब यहां आता हूं तो लगता है कि तुम्हारी बीजी यहीं कहीं है. हम सब के साथ. वह शरीर से ही हम से जुदा हुई है. तुझे ऐसा फील नहीं होता क्या?’’ बाबूजी ने मुझ से पूछा और मुंह दूसरी ओर फेर लिया.

पक्का था उन की आंखें भर आई थीं. सच पूछो तो उस वक्त मैं ने भी बाबूजी के साथ बीजी का होना महसूस किया था पूरे घर में. सोफों पर, टीवी के पास, किचन में हर जगह क्योंकि मैं जानता हूं कि जहां बीजी न हो, वहां बाबूजी एक पल भी नहीं टिकते. एक पल भी नहीं रुकते. कोई उन्हें रोकने की चाहे लाख कोशिशें क्यों न कर ले, वे अपनेआप ऐसी जगह रुकने की हजार कोशिशें क्यों न कर लें. बाबूजी आज भी कुछ मामलों में बड़े स्वार्थी हैं. ऐसे में इस वक्त जो बीजी उन के साथ न होती तो भला वे जब धूप भी धूप तापने को धूप की तलाश में दरदर भटक रही हो, उसे छोड़ बीजी के बिना यहां होते भला?

बीजी यहीं है: भाग 2- क्या सही था बापूजी का फैसला

बीजी की बात जब मौन रह कर भी नकार दी गई या राजी द्वारा ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि कुछ दिन तक तो राजी पहले नीचे सब को खाना बनाती पर बाद में बीचबीच में ऊपर की रसोई में बच्चों के लिए स्कूल का भी लंच बना लेती. फिर धीरेधीरे बच्चों के स्कूल से आने के बाद का भोजन भी ऊपर ही बनने लगा और एक दिन जब मैं और राजी नीचे बीजी वाले घर में गए थे कि बीजी ने खुद ही राजी से वह सब कह दिया जो राजी बीजी के मुंह से बहुत पहले सुनना चाहती थी. पर कम से कम बीजी से तो मुझे वह सब कहने की उम्मीद न थी क्योंकि मैं ने बीजी को 40 साल से बहुत करीब से देखा था. इतना करीब से जितना बाबूजी ने भी बीजी को न देखा हो.

बीजी ने उस दिन बिना किसी भूमिका के राजी से कहा था, ‘‘राजी, तू ऊपरनीचे दौड़ती थक जाती है. ऐसा कर, ऊपर की किचन में ही खाना बना लिया कर. मैं नीचे कर लिया करूंगी.’’

‘‘पर बीजी आप?’’

‘‘हमारा क्या? सारा दिन मैं करती भी क्या हूं? इन के और अपने लिए मैं यहीं खाना बना लिया करूंगी. जिस दिन खाना न बने उस दिन को तू तो है ही,’’ पता नहीं कैसे क्या सोच कर बीजी ने हंसते हुए राजी का स्पेस को और स्पेस दी तो मैं हत्प्रभ. आखिर बीजी भी समझौते करना सीख ही गई.

उस वक्त तब मैं ने साफ महसूस किया था कि कल तक जो बीजी उम्र की ढलान

पर बाबूजी से अधिक अपने को फिसलने से बचाए रखे थी, आज वही बीजी उम्र की ढलान से अधिक जज्बाती ढलान पर फिसली जा रही थी. जब आदमी सम?ौता करता हो तो ढलानों पर ऐसे ही फिसलता होगा शायद अपने को पूरी तरह फिसलाव के हवाले कर.

इस निर्णय के बाद से बीजी के  चेहरे पर से धीरेधीरे मुसकराहट गायब रहने लगी. यह बात दूसरी थी कि मैं और दोनों बच्चे सुबहशाम बीजी के पास जा आते. बच्चे तो कई बार वहीं से डिनर कर के आते तो राजी तुनकती भी. पर मुझे अधिक देर तक बीजी, बाबूजी के साथ बच्चों का रहना अच्छा लगता. उस वक्त कई बार तो मुझे ऐसा लगता काश मैं भी चीनू होता. काश मैं भी किट्टी होती.

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जिस बीजी के हाथों के बने खाने से रोगी भी ठीक हो जाते थे, धीरेधीरे वही बीजी अपने ही हाथों बने खाने से बीमार होने लगी.

अब मैं जब भी बीजी को अस्पताल ले जाने को कहता तो वह हंसते हुए टाल जाती, ‘‘अभी तेरे बाबूजी हैं न. वैसे भी अभी कौन सी मरी जा रही हूं. बूढ़ा शरीर है. कब तक इसे उठाए अस्पताल भागता रहेगा. जब लगेगा कि मुझे तेरे साथ अस्पताल जाना चाहिए, तुझे कह दूंगी.’’

और बीजी बिस्तर पर पड़ीपड़ी पता नहीं बड़ी देर तक किस ओर देखती रहती. मुझ से पूरी तरह बेखबर हो. जैसे में उस के पास होने के बाद भी उस के पास बिलकुल भी न होऊं. बीजी को टूटते देख तब टूट तो मैं भी रहा होता पर बीजी से कम तेजी से. कई बार हम केवल अपने को असहाय हो टूटता देखते भर हैं. अपने टूटने को रोकना न उस वक्त अपने हाथ में होता है न किसी और के हाथों में. कई बार टूटना हमारी नियति होती है और उसे चुपचाप भोगने के सिवा हमारे पास दूसरा कोई और विकल्प होता ही नहीं. फिर हम चाहे कितने ही विकल्प खोजने के लिए सैकड़ों सूरजों की रोशनी में कितने ही हाथपांवों को इधरउधर मारते रहें.

दिसंबर का महीना था. आखिर वही हुआ. बीजी ने जम कर चारपाई पकड़ ली. बीजी को जो एक बार बुखार आया तो उसे साथ ले कर

ही गया.

शायद सोमवार ही था उस दिन. सामने पेड़ के पत्ते पीले तो आसमान में सूरज पीला. एक ओर बीजी का चेहरा पीला तो दूसरी ओर बीजी को तापती धूप. बीजी ने चारपाई पर लेटेलेटे पूछा, ‘‘राजी कहां है?’’

‘‘बीजी ऊपर है, कोई गैस्ट आया है. उसे देख रही होगी. कुछ करना है क्या?’’

‘‘नहीं. तू जो पास है तो लगता है मेरे पास मेरी पूरी दुनिया है,’’ बीजी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते कहा.

बाबूजी साफ मुकर गए थे, ‘‘तेरी बीजी ने मेरा बहुत खयाल रखा है सारी उम्र, मेरे बदले खुद मरती रही. अब मैं भी चाहता हूं कि…’’

‘‘टाइम क्या हो गया?’’ बीजी ने पूछा तो मैं ने मोबाइल में टाइम देख कर कहा, ‘‘बीजी, 5 बजे रहे हैं.’’

‘‘बड़ी देर नहीं कर दी आज इन्होंने बजने में?’’ बीजी ने अपना दर्द अपने में छिपाते पूछा.

‘‘बीजी, रोज तो इसी वक्त 5 बजते हैं. हमारी जल्दी से तो समय नहीं चलेगा न?’’ मैं ने बीजी के अजीब से सवाल पर कहा तो वह बोली, ‘‘देख न, रोज 5 बजते हैं और एक दिन हम ही नहीं होते, पर 5 फिर भी बजते हैं. हमारे जाने के बाद भी सब वैसा ही तो रहता है संकु. बस कोई एक नहीं रहता. एक समय के बाद उसे क्या, किसी को भी नहीं रहना चाहिए,’’ कह बीजी ने पता नहीं क्यों दूसरी ओर मुंह फेर लिया था तब.

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और बीजी चली गई. 15 दिन तक उस के जाने के अनुष्ठान होते रहे. बाबूजी ने

मुझ से बीजी का मेरा काम भी न करने दिया. जब भी मैं कुछ कहता, वे मुझे बस चुप भर रहने का इशारा कर के रोक देते. तब पहली बार पता चला था कि बाबूजी बीजी को कितना चाहते थे? बीजी को कितनी गंभीरता से लेते थे? नहीं तो मैं ने तो आज तक यही सोचा था कि बाबूजी ने बीजी को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं. बीजी ही बाबूजी की चिंता करती रही उम्रभर और मरने के बाद भी करती रहेगी.

बीजी अपने रास्ते चली गई तो हम सब की जिंदगी बीचबीच में बीजी को याद करते अपने रास्ते चलने लगी. मैं महसूस करता कि बाबूजी को अब बीजी पहले से अधिक याद आ रही हो जैसे. जब कभी परेशान होता तो बाबूजी को कम बीजी को अपने कंधे पर हाथ रखे अधिक महसूस करता.

आगे पढ़ें- बीजी के जाने के बाद जब…

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