विषकन्या बनने का सपना: जब खत्म होती है रिश्ते की अहमियत

लेखक- निर्मलविक्रम

इस महीने की 12 तारीख को अदालत से फिर आगे की तारीख मिली. हर तारीख पर दी जाने वाली अगली तारीख किस तरह से किसी की रोशन जिंदगी में अपनी कालिख पोत देती है, यह कोई मुझ से पूछे.

शादीब्याह के मसले निबटाने वाली अदालत यानी ‘मैट्रीमोनियल कोर्ट’ में फिरकी की तरह घूमते हुए आज मुझे 3 साल हो चले हैं. अभी मेरा मामला गवाहियों पर ही अटका है. कब गवाहियां पूरी होंगी, कब बहस होगी, कब मेरा फैसला होगा और कब मुझे न्याय मिलेगा. यह ‘कब’ मेरे सामने नाग की तरह फन फैलाए खड़ा है और मैं बेबस, सिर्फ लाचार हो कर उसे देख भर सकती हूं, इस ‘कब’ के जाल से निकल नहीं सकती.

वैसे मन में रहरह कर कई बार यह खयाल आता है कि शादीब्याह जब मसला बन जाए तो फिर औरतमर्द के रिश्ते की अहमियत ही क्या है? रिश्तों की आंच न रहे तो सांसों की गरमी सिर्फ एकदूसरे को जला सकती है, उन्हें गरमा नहीं सकती.

आपसी बेलागपन के बावजूद मेरा नारी स्वभाव हमेशा इच्छा करता रहा सिर पर तारों सजी छत की. मेरी छत मेरा वजूद था, मेरा अस्तित्व. बेशक, इस का विश्वास और स्नेह का सीमेंट जगहजगह से उखड़ रहा था फिर भी सिर पर कुछ तो था पर मेरे न चाहने पर भी मेरी छत मुझ से छीन ली गई, मेरा सिर नंगा हो गया, सब उजड़ गया. नीड़ का तिनकातिनका बिखर गया. प्रेम का पंछी दूर कहीं क्षितिज के पार गुम हो गया. जिस ने कभी मुझ से प्रेम किया था, 2 नन्हेनन्हे चूजे मेरे पंखों तले सेने के लिए दिए थे, उसे ही अब मेरे जिस्म से बदबू आती थी और मुझे उसे देख कर घिन आती थी.

अब से कुछ साल पहले तक मैं मिसेज वर्मा थी. 10 साल की परिस्थितियों की मार ने मेरे शरीर को बज्र जैसा कठोर बना दिया. अब तो गरमी व सर्दी का एहसास ही मिटने लगा है और भावनाएं शून्यता के निशान पर अटक गई हैं. लेकिन मेरे माथे की लाल, चमकदार बिंदी जब दुनिया की नजरों में धूल झोंक रही होती, मैं अकसर अपनी आंखों में किरकिरी महसूस किया करती.

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उस दिन भी खूब जोरों की बारिश हुई थी. भीतर तक भीग जाने की इच्छा थी पर उस दिन बारिश की बूंदें, कांटों की चुभन सी पूरे जिस्म को टीस गईं और दर्द से आत्मा कराह उठी थी. मैं ने अपने बिस्तर पर, अपने अरमानों की तरह किसी और के कपड़े बिखरे देखे थे, मेरा आदमी, अपनी मर्दानगी का झंडा गाड़ने वाला पुरुष, हमेशा के लिए मेरे सामने नंगा हो चुका था.

‘‘हरामखोर तेरी हिम्मत कैसे हुई कमरे में इस तरह घुसने की?’’ शराब के भभके के साथ उस के शब्द हवा में लड़खड़ाए थे. मैं ने उन शब्दों को सुना. उस की जबान और मेरी टांगें लड़खड़ा रही थीं. मुझे लगा, जिस्म को अपने पैरों पर खड़ा करने की सारी शक्ति मुझ से किसी ने खींच ली थी. बड़ी मुश्किल से 2 शब्द मैं ने भी उत्तर में कहे थे, ‘‘यह मेरा घर है…मेरा…तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

इस से पहले कि मैं कुछ और कहती, देखते ही देखते मेरे जिस्म पर बैल्ट से प्रहार होने लगे थे. दोनों बच्चे मुझ से चिपके सिसक रहे थे, उन का कोमल शरीर ही नहीं आत्मा भी छटपटा रही थी.

इस के बाद बच्चों को सीने से लगाए मैं जिंदगी की अनजान डगर पर उतर आई थी. मेरी बेटी जो तब छठी में पढ़ती थी, आज 12वीं जमात में है, बेटा भी 8वीं की परीक्षा की तैयारी में है. उन दिनों मेरे बालों में सफेदी नहीं थी लेकिन आज सिर पर बर्फ सी गिरी लगती है. आंखों के ऊपर मोटे शीशे का चश्मा है. पीठ तब कड़े प्रहारों और ठोकरों से झुकती न थी लेकिन आज दर्द के एहसास ने ही बेंत की तरह उसे झुका दिया है. सच, यादें कितना निरीह और बेबस कर देती हैं इनसान को.

कुछ महीनों के बाद बातचीत, रिश्तेदारियां, सुलहसफाई और समझौते जैसी कई कोशिशें हुईं, पर विश्वास का कागजी लिफाफा फट चुका था, प्रेम की मिसरी का दानादाना बिखर गया था. बाबूजी का मानना कि आदमी का गुस्सा पानी का बुलबुला भर है, मिनटों में बनता, मिनटों में फूटता है, झूठ हो गया था. अकसर पुरुष स्वभाव को समझाते हुए कहते, ‘देख बेटी, मर्द कामकाज से थकाहारा घर लौटता है, न पूछा कर पहेलियां, उसे चिढ़ होती है…उसे समझने की कोशिश कर.’

मैं अपने बाबूजी को कैसे समझाती कि मैं ने इतने साल किस तरह अनसुलझी पहेलियां सुलझाने में होम कर दिए. सीने में बैठा अविश्वास का दर्द, बीचबीच में जब भी टीस बन कर उठता है तो लगता है किसी ने गाल पर तड़ाक से थप्पड़ मारा है.

मेरे, मेरे बच्चों और मेरे अम्मांबाबूजी के लंबे इंतजार के बाद भी कोई मुझे पीहर में बुलाने नहीं आया. मैं अमावस्या की रात के बाद पूर्णिमा की ओर बढ़ते चांद के दोनों छोरों में अकसर अपनी पतंग का माझा फंसा, उसे नीचे उतारने की कोशिश करती, लेकिन चांद कभी मेरी पकड़ में नहीं आया. मेरा माझा कच्चा था.

मेरी बेटी नींद से उठ कर अकसर अपनी बार्वी डौल कभी राह, कभी अलमारी के पीछे तो कभी अपने खिलौनों की टोकरी में तलाशती और पूछती, ‘‘मां, हम अपने पुराने घर कब जाएंगे?’’

उस के इस सवाल पर मैं सिहर उठती, ‘‘हाय, मेरी बेटी…भाग्य ने अब तुझ से तेरी बार्बी डौल छीन कर ऐसे अंधे कुएं में फेंक दी है, जहां से मैं उसे ढूंढ़ कर कभी नहीं ला सकती.’’

बेटी चुप हो जाती और मैं गूंगी. इसी तरह मेरी मां भी गूंगी हो जातीं जब मैं पूछती, ‘‘अम्मां, आप ने मेरे बारे में क्या सोचा? मैं क्या करूं, कहां जाऊं? मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं, इन को मैं क्या दूं? प्राइवेट स्कूल की टीचर की नौकरी के सहारे किस तरह काटूंगी पहाड़ सी पूरी जिंदगी?’’

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मां की जगह कंपकंपाते हाथों से छड़ी पकड़े, आंखों के चश्मे को थोड़ा और आंखों से सटाते हुए बाबूजी, टूटी बेंत की कुरसी पर बैठते हुए उत्तर देते, ‘‘बेटी, अब जो सोचना है वह तुझे ही सोचना है, जो करना है तुझे ही करना है…हमारी हालत तो तू देख ही रही है.’’

ठंडी आह के साथ उन के मन का गुबार आंखों से फूट पड़ता, ‘समय ने कैसी बेवक्त मार दी है तोषी की अम्मां…मेरी बेटी की जिंदगी हराम कर दी, इस बादमाश ने.’

बस, इसी तरह जिंदगी सरकती जा रही थी. एक दिन सर्द हवा के झोंकों की तरह यह खबर मेरे पूरे वजूद में सिहरन भर गईं कि फलां ने दूसरी शादी कर ली है.

‘शादी, यह कैसे हो सकता है? हमारा तलाक तो हुआ ही नहीं,’ मैं ने फटी आंखों से एकसाथ कई सवाल फेंक दिए थे. लग रहा था कि पांव के नीचे की धरती अचानक ही 5-7 गज नीचे सरक गई हो और मैं उस में धंसती चली जा रही हूं.

अम्मां और बाबूजी ने फिर हिम्मत बंधाई, ‘उस के पास पैसा है, खरीदे हुए रिश्ते हैं, तो क्या हुआ, सच तो सच ही है, हिम्मत मत हारो, कुछ करो. सब ठीक हो जाएगा.’

मैं ने जाने कैसी अंधी उम्मीद के सहारे अदालत के दरवाजे खटखटा दिए, ‘दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो, मुझे न्याय दो, मेरा हक दो…झूठ और फरेब से मेरी झोली में डाला गया तलाक मेरी शादी के जोड़े से भारी कैसे हो सकता है?’ मैं ने पूछा था, ‘मेरे बच्चों के छोटेछोटे कपड़े, टोप, जूते और गाडि़यां, तलाक के कागजी बोझ के नीचे कैसे दब सकते हैं?’

मैं ने चीखचीख कर, छाती पीटपीट कर, उन झूठी गवाहियों से पूछा था जिन्होंने चंद सिक्कों के लालच में मेरी जिंदगी के खाते पर स्याही पोत दी थी. लेकिन किसी ने न तो कोई जवाब देना था, न ही दिया. आज अपने मुकदमे की फाइल उठाए, कचहरी के चक्कर काटती, मैं खुद एक मुकदमा बन गई हूं. हांक लगाने वाला अर्दली, नाजिर, मुंशी, जज, वकील, प्यादा, गवाह सभी मेरी जिंदगी के शब्दकोष में छपे नए काले अक्षर हैं.

आजकल रात के अंधेरे में मैं ने जज की तसवीर को अपनी आंखों की पलकों से चिपका हुआ पाया है. न्यायाधीश बिक गया, बोली लगा दी चौराहे पर उस की, चंद ऊंची पहुंच के अमीर लोगों ने. लानत है, थू… यह सोचने भर से मुंह का स्वाद कड़वा हो जाता है.

भावनाओं के भंवर में डूबतीउतराती कभी सोचती हूं, मेरा दोष ही क्या था जिस की उम्रकैद मुझे मिली और फांसी पर लटके मेरे मासूम बच्चे. न चाहते हुए भी फाड़ कर फेंक देने का जी होता है उन बड़ीबड़ी, लालकाली किताबों को, जिन में जिंदगी और मौत के अंधे नियम छपे हैं, जो निर्दोषों को जीने की सजा और कसूरवारों को खुलेआम मौज करने की आजादी देते हैं. जीने के लिए संघर्ष करती औरत का अस्तित्व क्यों सदियों से गुम होता रहा है, समाज की अनचाही चिनी गई बड़ीबड़ी दीवारों के बीच?

ये प्रश्न हर रोज मुझे नाग बन कर डंसते हैं और मैं हर रोज कटुसत्य का विषपान करती, विषकन्या बनने का सपना देखती हूं.

आसमान में बादल का धुंधलका मुझे बोझिल कर जाता है लेकिन बादलों की ही ओट से कड़कती बिजली फिर से मेरे अंदर उम्मीद जगाती है जीने की, अपनी अस्मिता को बरकरार रखने की और मैं बारिश में भीतर तक भीगने के लिए आंगन में उतर आती हूं.

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दूसरी बार

आसमान से गिर कर खजूर में अटकना इसी को कहते हैं. गांव के एकाकी जीवन से ऊब कर अम्मां शहर आई थीं, किंतु यहां भी बोझिल एकांत उन्हें नागपाश की तरह जकड़े हुए था. लगता था, जहां भी जाएंगी वहां चुप्पी, वीरानी और मनहूसियत उन के साथ साए की तरह चिपकी रहेगी. गांव में कष्ट ही क्या था उन्हें? सुबह चाय के साथ चार रोटियां सेंक लेती थीं, उन के सहारे दिन मजे में कट जाता था. कोई कामधाम नहीं, कोई सिरदर्द नहीं. उलझन थी तो यही कि पहाड़ सा लंबा दिन काटे नहीं कटता था.

भूलेभटके कोई पड़ोसिन आ जाती तो कमर पर हाथ रख कर ठिठोली करती, ‘‘अम्मांजी को अपनी गृहस्थी से बड़ा मोह है. रातदिन चारपाई पर पड़ेपड़े गड़े धन की चौकसी किया करती हैं.’’

‘‘कैसा गड़ा धन, बहू?’’ वह उदासीन भाव से जवाब देतीं, ‘‘लेटना तो वक्त काटने का एक जरिया है. बैठेबैठे थक जाती हूं तो लेटी रहती हूं. लेटेलेटे थक जाती हूं तो उठ बैठती हूं.’’

पड़ोसिन सहानुभूति जताते हुए वहीं देहरी पर बैठ जाती, ‘‘जिंदगी का यही रोना है. जवानी में आदमी के पास काम ज्यादा, वक्त कम होता है. बुढ़ापे में काम कुछ नहीं, वक्त ही वक्त रह जाता है. बालबच्चे अपनी दुनिया में रम जाते हैं. बूढ़े मांबाप बैठ कर मौत का इंतजार करते हैं. उन में से अगर एक चल बसे तो दूसरे की जिंदगी दूभर हो जाती है. जब से बाबूजी गुजरे हैं, तुम्हारे चेहरे पर हंसी नहीं दिखाई दी. न हो तो कुछ दिन के लिए राकेश भैया के यहां घूम आओ. मन बदल जाएगा.’’

‘‘यही मैं भी सोचती हूं,’’ वह गंभीर भाव से सिर हिलातीं, ‘‘राकेश की चिट्ठी आई है कि वह अगले महीने आएगा. तभी उस से कहूंगी कि मुझे अपने साथ ले चले.’’

पर अम्मां को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. राकेश खुद ही उन्हें साथ ले चलने के लिए आतुर हो उठा. वजह यह थी कि बेटे के सत्कार में मां ने बड़े चाव से भोजन बनाया था…दाल, चावल, रोटी, तरकारी और चटनी.

किंतु जब थाली सामने आई तो राकेश समझ नहीं सका कि इन में से कौन सी वस्तु खाने लायक है? दाल, चावल में कंकड़ भरे हुए थे. कांपते हाथों की वजह से कोई रोटी अफगानिस्तान का नक्शा बन गई थी तो कोई रोटी कम, डबलरोटी ज्यादा लग रही थी. तरकारी के नाम पर नमकीन पानी में तैरते आलू के टुकड़े थे. कुचले हुए आम में कहने भर के लिए पुदीना था.

अम्मां ने खुद ही अपराधी भाव से सफाई दी, ‘‘यह खाना कैसे खा सकोगे, बेटा? बुढ़ापे में न हाथपांव चलते हैं, न आंखों से सूझता है. अपने लिए जैसेतैसे चार टिक्कड़ सेंक लेती हूं. तुम्हारे लायक खाना नहीं बना सकी. आज तुम भूखे ही रह जाओगे.’’

‘‘खाना बहुत अच्छा बना है, अम्मां. सालों बाद तुम्हारे हाथ की बनी रोटी खाई तो पेट से ऊपर खा गया हूं,’’ राकेश ने आधा पेट खा कर उठते हुए कहा. उस ने मन ही मन फैसला भी कर लिया कि अम्मां को इस हालत में एक दिन भी अकेला नहीं छोड़ेगा.

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भावनाओं के जोश में उस ने दूसरा फैसला यह किया कि गांव का मकान बेच देगा. वह जानता था कि अगर मकान रहा तो अम्मां कुछ ही दिनों में गांव लौटने की जिद करेंगी. कांटा जड़ से उखड़ जाए तभी अच्छा है. सदा की संकोची अम्मां बेटे के सामने अपनी अनिच्छा जाहिर न कर सकीं. नतीजा यह हुआ कि 2 दिन में मकान बिक गया. तीसरे दिन गांव के जीवन को अलविदा कह कर अम्मां बेटे के साथ शहर चली आईं.

शहर आते ही पहला एहसास उन्हें यही हुआ कि गांव का मकान बेचने में जल्दबाजी हो गई है. बहू ने उन्हें देख कर जिस अंदाज में पांव छुए और जिस तरह मुंह लटका लिया, वह उन्हें बहुत खला. आखिर वह बच्ची तो थी नहीं. अनमने ढंग से किए जाने वाले स्वागत को पहचानने की बुद्धि रखती थीं. बच्चों ने भी एक बार सामने आ कर नमस्ते की औपचारिकतावश और फिर न जाने घर के किस कोने में समा गए.

बहू ने नौकर को हुक्म दिया, ‘‘अम्मांजी के लिए पीछे वाला कमरा ठीक कर दो. गुसलखाना जुड़ा होने के कारण वहां इन को आराम रहेगा. एक पलंग बिछा दो और इन का सामान वहीं पहुंचा दो. उस के बाद चाय दे आना. मैं लता मेम साहब के यहां किटी पार्टी में जा रही हूं.’’

बहू सैंडल खटखटाती हुई चली गई और वह भौचक्की सी सोफे पर बैठी रह गईं. कुछ देर बाद नौकर ने उन्हें उन के कमरे में पहुंचा दिया. एक ट्रे में चायनाश्ता भी ला दिया. अकेले बैठ कर चाय का घूंट भरते हुए उन्होंने सोचा, ‘क्या सिर्फ इसी चाय की खातिर भागी हुई यहां आई हूं?’

पर यह चाय भी अगली सुबह कहां मिल सकी थी? रात का खाना वह नहीं खातीं, यह बात बहू जानती थी. इसलिए उस ने शाम को खाने के लिए नहीं पुछवाया. कुछ और लेंगी, यह भी पूछने की जरूरत नहीं समझी.

वह इंतजार करती रहीं कि बहूबच्चों में से कोई न कोई उन के पास अवश्य आएगा, हालचाल पूछेगा पर निराशा ही हाथ लगी.

जब बहूबच्चों की आवाजें आनी बंद हो गईं और घर में सन्नाटा छा गया तो एक ठंडी सांस ले कर वह भी लेट गई. टूटे मन को उन्होंने खुद ही दिलासा दिया, ‘मुझे सफर से थका जान कर ही कोई नहीं आया. फुजूल ही मैं बात को इतना तूल दे रही हूं.’

सुबह  जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो वह बेचैन होने लगीं. मुंह अंधेरे उठ कर उन्होंने दैनिक कार्यों से छुट्टी पा ली थी. अब चाय की तलब उन्हें व्याकुल बना रही थी. दूर से आती चाय के प्यालों की खटरपटर जब सही न गई तो उन्होंने सोचा, ‘लो, मैं भी कैसी मूर्ख हूं. यहां बैठी चाय का इंतजार कर रही हूं. आखिर कोई मेहमान तो हूं नहीं. मुझे खुद उठ कर बालबच्चों के बीच पहुंच जाना चाहिए. यहां हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना कितना बेतुका है?’

बीच के कमरों को पार कर के वह खाने के कमरे में जा पहुंचीं. वहां बड़ी सी मेज के इर्दगिर्द बैठे बहूबच्चे चायनाश्ता कर रहे थे. राकेश शायद पहले ही खापी कर उठ चुका था. अम्मां को देख कर एकबारगी सन्नाटा सा खिंच गया. अगले ही पल बहू तमक कर उठते हुए बोली, ‘‘बुढ़ापे में जबान शायद ज्यादा ही चटोरी हो जाती है.’’

अम्मां समझ नहीं सकीं कि इस बात का मतलब क्या है? भौचक्की सी बहू का मुंह ताकने लगीं.

बहू ने तीखी आवाज में बात स्पष्ट की, ‘‘इन्हें दफ्तर जाने की जल्दी थी. बच्चों के स्कूल का समय हो रहा था. मैं जल्दीजल्दी सब को खिलापिला कर आप के पास चाय भेजने की सोच रही थी पर तब तक सब्र नहीं कर सकीं आप?’’

अम्मां फीकी हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘ठीक कहती हो, बहू. अभी चाय के लिए कौन सी देर हो गई थी? मैं ही हड़बड़ी में बैठी न रह सकी.’’

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वह वापस अपने कमरे में लौट आईं. कुछ देर बाद नौकर एक गिलास में ठंडी चाय और एक तश्तरी में 2 जले हुए टोस्ट ले कर आ पहुंचा. जिस चाय के लिए वह इतनी आकुल थीं, वह चाय अब जहर का घूंट बन चुकी थी. बड़ी मुश्किल से ही अम्मां उसे गले से नीचे उतार सकीं. न चाहते हुए भी आंखों के सामने मेवे, फल और मिठाई से सजी हुई खाने की मेज बारबार घूम रही थी.

चाय पी कर गिलास रख रही थीं कि बेटा बड़े व्यस्त भाव से कमरे में आ कर बोला, ‘‘क्या हाल है, अम्मां? यहां आ कर अच्छा लगा तुम्हें?’’

‘‘हां, बेटा.’’

‘‘चायवाय पी?’’

‘‘पी ली.’’

‘‘मैं ने सुधा से कह दिया है कि तुम्हारे आराम का पूरा खयाल रखे. दोपहर के खाने में अपनी मनपसंद चीज बनवा लेना. मैं दफ्तर जा रहा हूं. शाम को देर से लौटूंगा. इस मशीनी जिंदगी में मुझे मिनट भर की फुरसत नहीं. तुम बिना किसी संकोच के अपनी हर जरूरत सुधा को बता देना.’’

‘‘ठीक है, बेटा,’’ वह प्लास्टिक के चाबी भरे बबुए की तरह नपेतुले शब्द ही बोल पाईं.

बस, दिनभर में सिर्फ यही बातचीत थी, जो किसी ने उन के साथ की. उस के बाद सारा दिन वह अकेली पड़ीपड़ी ऊबती रहीं. नौकर एक बार आ कर उन के कमरे में पानी से भरी सुराही रख गया. दोबारा आ कर उन्हें खाने की थाली दे गया.

उस के बाद कोई उन के कमरे में झांकने तक नहीं आया. सुबह का अनुभव इतना कड़वा था कि खुद उन की हिम्मत भी दोबारा बहूबच्चों के बीच जाने की नहीं हुई. बोझिल अकेलापन सांप की तरह उन को निरंतर डसता रहा.

वह पहली दफा बेटेबहू के यहां नहीं आई थीं. पहले भी तनु और सोनू के जन्म पर राकेश उन्हें लिवा लाया था. जिद कर के सालसालभर रोके रखा था. उस समय इसी बहू ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. इतना लाड़ लड़ाती थी कि अपनी सगी बेटी भी क्या दिखाएगी? दूध, फल, दवा हर चीज उन्हीं के हाथ से लेती थी. जरा देर होती नहीं कि ‘अम्मांअम्मां’ कह कर आसमान सिर पर उठा लेती थी.

राकेश हंस कर कहा करता था, ‘तुम ने इसे बहुत सिर चढ़ा रखा है, अम्मां. देखता हूं कि इस के सामने मेरी कदर घट गई है. यह पराए घर की लड़की तुम्हारी सगी हो गई है और मैं सौतेला हो गया हूं. इस चालाक बिल्ली ने सीधे मेरी दूध की हांडी पर मुंह मारा है,’ सुन कर वह भी हंस पड़ती थीं.

उन दिनों राकेश की आर्थिक स्थिति साधारण थी. घर में एक भी नौकर न था. अम्मां बहू की देखभाल करतीं, नवजात बच्ची को संभालती और घर की सारसंभाल करतीं. एक पांव बहू के कमरे में रहता था और एक रसोई में.

इन महारानी को तो बच्ची को झबला पहनाना तक नहीं आता था. बच्ची कपड़े भिगोती तो लेटेलेटे गुहार लगाती थीं, ‘अम्मांजी, जल्दी आना. अपनी नटखट पोती की कारस्तानी देखना.’

अब भी वही अम्मां थीं और वही बहूरानी. बदलाव आया था तो सिर्फ स्थितियों में. बहू अब हर महीने हजारों रुपए कमाने वाले अफसर की बीवी थी और अम्मां बूढ़ी व लाचार होने के कारण उस के किसी काम की नहीं रहीं. तभी तो घर के कबाड़ की तरह कोने में पटक दी गईं. अगर अब भी उन के बदन में अचार, मुरब्बे और बडि़यां बनाने की ताकत होती तो यह बहू अपनी मिसरी घुली आवाज में ‘अम्मांअम्मां’ पुकारते नहीं थकती.

अशक्त प्राणी को दया कर के परसी हुई थाली दे देती थी यही क्या कम था? पर बूढ़े आदमी की पेटभर रोटी के अलावा भी कोई जरूरत होती है, इसे बहू क्यों नहीं समझती? जिस अकेलेपन को भरने के लिए गांव छोड़ा, वही अकेलापन यहां भी कुंडली मार कर उन्हें अपनी गिरफ्त में लिए हुए था. इस वेदना को कौन समझता?

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अम्मां ठंडी सांस भर कर पलंग पर लेट जातीं. अपनेआप उन के कमरे में कोई नहीं आता. यदि वह उठ कर सब के बीच पहुंचतीं तो एकएक कर के सब खिसकने लगते. यों आपस में बहूबच्चे हंसते, कहकहे लगाते, पर अम्मां के आते ही सब को कोई न कोई काम जरूर याद आ जाता. सब के चले जाने पर वह अचकचाई हुई कुछ देर खड़ी रहतीं, फिर खिसिया कर अपने कमरे की तरफ चल पड़तीं.

पांव में जहर फैल जाने पर आदमी उसे काट कर फेंक देना पसंद करता है, लेकिन अम्मां तो बहूबच्चों के उल्लासभरे जीवन का जहर न थीं फिर क्यों घर वालों ने उन्हें विषाक्त अंग की भांति अलग कर दिया है, इसे वह समझ नहीं पाती थीं. वह इतनी सीधी और सौम्य थीं कि उन से किसी को शिकायत हो ही नहीं सकती थी.

बहू आधीआधी रात को पार्टियों से लौटती. तनु और सोनू अजीबोगरीब पोशाकें पहने हुए बाजीगर के बंदर की तरह भटकते. अम्मां कभी किसी को नहीं टोकतीं. फिर भी सब उन की निगाहों से बचना चाहते थे. हर एक की दिली ख्वाहिश यही रहती थी कि वह अपने कमरे से बाहर न निकलें. खानेपीने, नहानेधोने और सोने की सारी व्यवस्थाएं जब कमरे में कर दी गई हैं तो अम्मां को बाहर निकलने की क्या आवश्यकता है?

एक दिन अकेले बैठेबैठे जी बहुत ऊबा तो वह कमरे में झाड़ ू लगाने के लिए आए नौकर से इधरउधर की बातें पूछने लगीं, क्या नाम है? कहां घर है? कितने भाईबहन हैं? बाप क्या करता है?

उन का यह काम कितना निंदनीय था, इस का आभास कुछ देर बाद ही हो गया. बहू पास वाले कमरे में आ कर, ऊंची आवाज में उन्हें सुनाते हुए बोलीं, ‘‘जैसा स्तर है वैसे ही लोगों के साथ बातें करेंगी. नौकर के अलावा और कोई नहीं मिला उन्हें बोलने के लिए.’’

उत्तर में तनु की जहरीली हंसी गूंज गई. वह अपनी कुरसी पर पत्थर की तरह जड़ बैठी रह गई थीं.

गांव में भी अम्मां अकेली थीं, पर वहां यह सांत्वना थी कि सब के बीच पहुंचने पर एकाकीपन की यंत्रणा से मुक्ति मिल जाएगी. यहां आ कर वह निराशा के अथाह समुद्र में डूब गई थीं. रेगिस्तान में प्यासे मर जाना उतनी पीड़ा नहीं देता, जितना कि नदी किनारे प्यास से दम तोड़ देना.

गली का घर होता, सड़क के किनारे बना मकान होता तो कम से कम खिड़की से झांकने पर राह चलते आदमियों के चेहरे नजर आते. यहां अम्मां किसी सजायाफ्ता कैदी की तरह खिड़की की सलाखों के नजदीक खड़ी होतीं तो उन्हें या तो ऊंचे दरख्त नजर आते या फूलों से लदी क्यारियां. फिर भी वह खिड़की के पास कुरसी डाले बैठी रहती थीं. कम से कम ठंडी हवा के झोंके तो मिलते थे.

बैठेबैठे कुछ देर को आंखें झपक जातीं तो लगता जैसे बाबूजी पास खड़े कह रहे हैं, ‘सावित्री, उठोगी नहीं? देखो, कितनी धूप चढ़ आई है? चायपानी का वक्त निकला जा रहा है.’ चौंक कर आंखें खोलते ही सपने की निस्सारता जाहिर हो जाती. बाबूजी अब कहां, याद आते ही मन गहरी पीड़ा से भर उठता.

झपकी लेते हुए अम्मां खीझ जातीं, ‘ओह, यह बाबूजी इतना शोर क्यों कर रहे हैं? चीखचीख कर आसमान सिर पर उठाए ले रहे हैं. क्या कहा? राकेश ने दवात की स्याही फैला दी. अरे, बच्चा है. फैल गई होगी स्याही. उस के लिए क्या बच्चे को डांटते ही जाओगे? बस भी करो न.’

चौंक कर जाग उठीं अम्मां. बाबूजी की नहीं, यह तो खिड़की के नीचे भूंकते कुत्तों की आवाज है. वह हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुईं और ‘हटहट’ कर के कुत्तों को भगाने लगीं. बुढ़ापे के कारण नजर कमजोर थी. फिर भी इतना मालूम पड़ गया कि किसी कमजोर और मरियल कुत्ते को 3-4 ताकतवर कुत्ते सता रहे हैं. शायद धोखे से फाटक खुला ही रह गया होगा, तभी लड़ते हुए भीतर घुस आए थे.

इधरउधर देख कर अम्मां ने मच्छरदानी का डंडा निकाला और उसे खिड़की की सलाखों से बाहर निकाल कर भूंकते हुए कुत्तों को धमकाने लगीं. काफी कोशिश के बाद वह सूखे मरियल कुत्ते को आतताइयों के शिकंजे से बचा सकीं.

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हमलावरों के चले जाने पर चोट खाया हुआ कमजोर कुत्ता वहीं हांफता हुआ बैठ गया और कातर निगाहों से अम्मां की ओर देखने लगा. सब ओर से दुरदुराया हुआ वह कुत्ता उन से शरण की भीख मांग रहा था. इस गंदे, घिनौने, जख्मी और मरियल कुत्ते पर अनायास ही अम्मां सदय हो उठीं. वह खुद क्या उस जैसी नहीं थीं? बूढ़ी, कमजोर, उपेक्षिता और सर्वथा एकाकी. तन चाहे रोगी न था, पर मन क्या कम जख्मी और लहूलुहान था?

दोपहर को जब नौकर खाना लाया तो अम्मां ने बड़े प्यार से उस घायल कुत्ते को 2 रोटियां खिला दीं. भावावेश के न जाने किन क्षणों में नामकरण भी कर दिया ‘झबरा.’ झड़े हुए रोएं वाले कुत्ते के लिए यह नाम उतना ही बेमेल था, जितना किसी भिखारी का करोड़ीमल. पर अम्मां को इस असमानता की चिंता न थी. उन की निगाह एक बार भी कुत्ते की बदसूरती पर नहीं गई.

अम्मां अब काफी संतुष्ट थीं, प्रसन्न थीं. उन्हें लगता, जैसे अब वह अकेली नहीं हैं. झबरा उन के साथ है. झबरा को उन की जरूरत थी. दोएक दिन उन्हें उस के भाग जाने की चिंता बनी रही. पर धीरेधीरे यह आशंका भी मिट गई. झबरा के स्नेह दान ने अम्मां के बुझते हुए जीवन दीप की लौ में नई जान डाल दी थी.

पर घर वालों को उन का यह छोटा सा सुख भी गवारा नहीं हुआ.

एक दिन बहू तेज चाल से चलती हुई कमरे में आई और खिड़की के पास जा कर नाक सिकोड़ते हुए बोली, ‘‘छि:, कितना गंदा कुत्ता है. न जाने कहां से आ गया है. चौकीदार को डांटना पड़ेगा. उस ने इसे भगाया क्यों नहीं?’’

‘‘अम्मांजी का पालतू कुत्ता है जी. अब तो चुपड़ी रोटी खाखा कर मोटा हो गया है,’’ पीछे खड़े हुए नौकर ने पीले गंदे दांतों की नुमाइश दिखा दी.

‘‘बेशर्म, सड़क के लावारिस कुत्ते को हमारा पालतू कुत्ता बताता है. हमें पालना ही होगा तो कोई बढि़या विदेशी नस्ल का कुत्ता पालेंगे. ऐसे सड़कछाप कुत्ते पर तो हम थूकते भी नहीं हैं,’’ बहू रुष्ट स्वर में बोली.

अगले ही पल उस ने नौकर को नादिरशाही हुक्म दिया, ‘‘देखो, अंधेरा होने पर इस कुत्ते को कहीं दूर फेंक आना. इसे बोरी में बंद कर के ऐसी जगह फेंकना, जहां से दोबारा न आ सके.’’

बहू जिस अफसराना अंदाज से आई थी वैसे ही वापस चली गई.

अम्मां ने बड़े असहाय भाव से खिड़की की ओर देखा. न जाने क्यों उन का जी डूबने लगा.

पिछले साल बाबूजी के मरते समय भी उन्हें ऐसी ही अनुभूति हुई थी. लगा था, जैसे इतनी बड़ी दुनिया में अनगिनत आदमियों की भीड़ होने पर भी वह अकेली रह गई हैं.

अकेलेपन का वही एहसास इस समय अम्मां को हुआ. उन्होंने खुद को धिक्कारा, ‘छि:, कितनी ओछी हूं मैं? बेटे, बहू और चांदसूरज जैसे 2 पोतीपोते के रहते हुए मैं अकेली कैसे हो गई? यह मामूली कुत्ता क्या मुझे अपने बच्चों से भी ज्यादा अजीज है?’

पर खुद को धोखा देना आसान न था. अकेलेपन की भयावहता से आशंकित मन दूसरी बार दहशत से भर गया. पिछले साल बाबूजी के चिर बिछोह पर वह रोई थीं. हालांकि तब से मन बराबर रोता रहा था, पर आज भी आंखें दूसरी बार छलछला उठीं.

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एक भावनात्मक शून्य: क्या हादसे से उबर पाया विजय

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सौत से सहेली: भाग 1- क्या शिखा अपनी गृहस्थी बचा पाई

लेखिका-दिव्या साहनी

नीरजाने शिखा को अपने घर के गेट के पास कार से उतरते देखा तो उस की मुट्ठियां कस गईं. उन का घर दिल्ली की राजौरी गार्डन कालोनी में था जहां पुराने होते हुए मकानों में से कुछ को तोड़ कर नए फ्लोर बना कर बेचे जा रहे थे और सड़क पर आ जा रहे लोगों को पहली मंजिल से आराम से देखा जा सकता था. आजकल सड़कों पर सन्नाटा सा ज्यादा रहता है, इसलिए शिखा को कार से उतरते ही नीरजा ने देख लिया.

‘‘आजकल तेरे पति और शिखा के बीच चल रही आशिकी की औफिस में खूब चर्चा

हो रही है. तुम जल्दी से कुछ करो, नहीं तो

एक दिन पछताओगी,’’ अपने पति राजीव की सहयोगी आरती की इस चेतावनी को नीरजा पिछले 15 दिनों से लगातार याद कर रही थी.

राजीव की इस प्रेमिका से नीरजा 3 दिन पहले एक समारोह में मिली थी. वहीं पर बड़ा अपनापन जताते हुए नीरजा ने शिखा को अपने घर रविवार को लंच पर आने का निमंत्रण दिया था.

शिखा के लिए दरवाजा खोलने से पहले उस ने घर का मुआयना किया. सोफा चमचमा रहा था. सौफे पर मैचिंग कुशन तरतीब से लगे थे. दीवारों पर महंगी तो नहीं पर सुंदर पेंटिंग्स थीं. एसी चल रहा था और उस ने पंखा बंद कर रखा था ताकि कोई आवाज पंखें की घरघर में दब न जाए. वह जानती थी कि उसे आज क्या करना है.

शिखा की बेचैनी भरे सहमेपन को नीरजा ने दूर से ही भांप लिया था. घंटी का बटन दबाने से पहले शिखा को बारबार हिचकिचाते देख वह मुसकराई और फिर से दरवाजा खोलने चल पड़ी.

राजीव नहाने के बाद शयनकक्ष में तैयार हो रहा था. अपने दोनों बेटों सोनू और मोनू को नीरजा ने कुछ देर पहले पड़ोसिन अंजु के बच्चों के साथ खेलने भेज दिया था.

‘‘कितनी सुंदर लग रही हो तुम,’’ खुल

कर मुसकरा रही नीरजा दरवाजा खोलेते ही यों शिखा के गले लगी मानो दोनों बहुत पक्की सहेलियां हों.

‘‘थैंक यू,’’ जवाबी मुसकान फौरन होंठों पर सजा कर शिखा ने ड्राइंगरूम में नजरें घुमाईं और फिर प्रशंसाभरे स्वर में कहा, ‘‘बहुत अच्छ सजा रखा है ड्राइंगरूम को.’’

‘‘थैंक यू, डियर वैसे तुम्हारे कारण कमरे की सुंदरता को चार चांद लग गए हैं.’’

‘‘आप कुछ…’’

‘‘‘आप’ नहीं ‘तुम’ बुलाओ मुझे तुम, शिखा. मेरा नाम ले सकती हो तुम,’’ नीरजा ने उसे प्यार से टोक दिया.

‘‘ओ.के. मैं कह रही थी कि तुम कुछ ज्यादा ही मेरी तारीफ कर रही हो. मेरे हिसाब से तो तुम मुझ से ज्यादा सुंदर हो.’’

‘‘अरे यार, हम शादीशुदा औरतों की सुंदरता में वह कशिश कहां जो तुम कुंआरियों में होती है. देखो, मेरा कोई आशिक नहीं है और तुम्हारे चाहने वालों की पक्का एक लंबी लिस्ट होगी.’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ शिखा के मन की बेचैनी फौरन उस की आंखों से झांकने लगी थी.

नीरजा के जवाब देने से पहले ही राजीव ड्राइंगरूम में आ गया. उस ने शिखा का अभिवादन किया. नीरजा दोनों की नजरों को

पढ़ रही थी. परस्पर आकर्षण को छिपाने का प्रयास दोनों को करते देख वह मन ही मन हंस पड़ी ‘‘राजीव देखे तो शिखा मान नहीं रही है कि वह मुझ से कहीं ज्यादा सुंदर है. आप उसे इस बात का विश्वास दिलाओ. तब तक मैं चायनाश्ता तैयार कर लाती हूं,’’ नीरजा ने शिखा का कंधा बड़े प्यार से दबाया और फिर मुसकराती हुई रसोई की तरफ बढ़ चली.

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नीरजा की मुसकराहट को देख कर कोई कह नहीं सकता था कि वह अपने पति की प्रेमिका के प्रति अपने मन में रत्तीभर भी वैरभाव रखती होगी.

उसे चायनाश्ता तैयार करने में करीब

15 मिनट लगते पर उस ने जानबूझ कर कुछ ज्यादा ही देर लगाई ताकि वह राजीव और शिखा को परेशान होने दे. अंदर ड्राइंगरूम में राजीव और शिखा औफिस से संबंधित वार्त्तालाप कर रहे थे पर केवल दिखाने भर के लिए.

अचानक किचन से कई कपप्लेटों के टूटने की तेज आवाज सुन दोनों चौंक कर खड़े हो गए.

‘‘हाय, मर गई रे,’’ नीरजा की दर्द में डूबी आवाज भी जब दोनों के कानों तक पहुंची, तो लगभग भागते हुए रसोई की तरफ बढ़े.

बरामदे में कपप्लेटों के टुकड़े, चाय व नाश्ता फर्श पर बिखरा पड़ा था. फर्श पर गिरी नीरजा अपने बांएं घुटने को पकड़े कराह रही थी.

‘‘क्या हुआ?’’ नीरजा के पास बैठ कर राजीव ने चिंतित लहजे में सवाल किया.

‘‘पैर फिसल गया मेरा… बहुत दर्द है घुटने में,’’ नीरजा की लाल हो रही आंखों से आंसू बह रहे थे.

‘‘चलो, कमरे में चलो,’’ राजीव उस के कंधों को सहारा दे कर उसे उठाने की कोशिश करने लगा.

‘‘अभी नहीं उठ सकती हूं मैं. शिखा, तुम फ्रिज से बर्फ निकाल लाओ, प्लीज… हाय रे…’’ नीरजा जोर से कराही.

शिखा भागती हुई बर्फ लाने रसोई में चली गईर्. राजीव उसे हौसला रखने के लिए कह रहा था, पर नीरजा रहरहकर जोर से करा उठती.

बर्फ ला कर शिखा ने नीरजा के घुटने की ठंडी सिंकाई शुरू कर दी. राजीव फर्श की सफाई करने लग गया.

‘‘कुछ आराम पड़ रहा है?’’ कुछ देर बाद चिंतित शिखा ने प्रश्न किया तो नीरजा रो ही पड़ी.

‘‘दर्द के मारे मेरी जान निकली जा रही है, शिखा. आई एम सो सौरी… तुम्हारी खातिर करने के बजाय मैं ने तो तुम्हें इस झंझट में फंसा दिया,’’ नीरजा ने शिखा से माफी मांगी.

‘‘अरे, इंसान ही इंसान के काम आता है, नीरजा. क्या तुम बैडरूम तक चल सकोगी

सहारे से?’’ शिखा हौसला बढ़ाने वाले अंदाज

में मुसकराई.

‘‘नहीं, दर्द बहुत ज्यादा है. सुनिए, आप डाक्टर राजेश को फोन करो कि वे ऐंबुलैंस भेज दें. मुझे विश्वास है कि मेरी घुटने हड्डी जरूर ही टूटी या खिसक गई है. घुटने का ऐक्सरे होना जरूरी है… हाय रे… पता नहीं करोना के बाद इन अस्पतालों का क्या हाल होगा.’’

राजीव ने और्थोपैडिक सर्जन डाक्टर राजेश से मोबाइल पर बात करी. उन्होंने फौरन ऐंबुलैंस भेजने का वादा किया.

करीब 30 मिनट के बाद स्ट्रैचर पर लेटी नीरजा ऐंबुलैंस से डाक्टर राजीव के नर्सिंगहोम पहुंच गई. शिखा उस के साथ आईर् थी जबकि राजीव उन के पीछे अपनी कार से नर्सिंगहोम पहुंचा.

डाक्टर राजेश की फिजियोथेरैपिस्ट मीनाक्षी से नीरजा की पुरानी

जानपहचान थी. अपने कमर का दर्द दूर करने के लिए 6 महीने पहले नीरजा 3 सप्ताह के लिए उस की देखभाल में रही थी.

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मीनाक्षी ने जांचपड़ताल हो जाने के बाद डाक्टर राजेश के कक्ष से बाहर आ कर उन दोनों को बताया, ‘‘हड्डी खिसक जाने के कारण घुटने के जोड़ पर सूजन आ गई है. पूरे 3 हफ्ते का प्लस्तर चढ़ेगा. नीरजा को इतने समय तक बिस्तर में पूरा आराम करना होगा.’’

यह सुन कर राजीव चिंतित हो उठा. उस ने पहले अपनी मां को मेरठ फोन किया तो पता लगा कि वे उस के छोटे भाई के पास रहने मुंबई गई हुई हैं.

अपनी सास को कानपुर फोन किया तो मामूल पड़ा कि उस के ससुर की 2 दिन बाद ऐंजयोग्राफी होनी है. वे वर्षों से उच्च रक्तचाप के मरीज हैं और पिछले दिनों से उन की छाती में दर्द कुछ ज्यादा ही रहने लगा था.

राजीव ने सुस्त स्वर में जब यह समाचार कुछ देर बाद नीरजा को सुनाया तो उस ने फौरन शिखा का हाथ पकड़ कर उस से प्रार्थना करी, ‘‘शिखा, क्या तुम इस कठिन समय में  मेरा साथ दोगी? मेरा दिल कह रहा है कि मुझे अपनी इस छोटी बहन के होते हुए किसी भी बात की फिक्र करने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘श्योर, नीरजा. मैं संभाल लूंगी सब.

बस, तुम जल्दी से ठीक हो जाओ,’’ शिखा ने उत्साहित लहजे में नीरजा को आश्वस्त किया

तो भावविभोर हो नीरजा ने बारबार उस का हाथ चूम डाला.

अपने प्रेमी राजीव की पत्नी की ‘गुड बुक्स’ में आने की खातिर शिखा ने उस क्षण से नीरजा की घरगृहस्थी की अच्छी देखभाल करने का बीड़ा उठा लिया. वह यह सोचसोच कर प्रसन्न हो उठती कि आगामी कुछ दिनों तक उसे राजीव के करीब रहने के भरपूर अवसर प्राप्त होंगे.

अपने पैर पर प्लस्तर चढ़वा कर नीरजा ऐंबुलैंस से करीब 3 घंटे बाद घर पहुंच गई. सारे समय शिखा उस के पास रुकी थी.

‘‘तुम स्वभाव से कितनी अच्छी हो, शिखा. मैं तुम्हारे इन एहसानों का बदला कभी नहीं उतार आऊंगी,’’ आभार प्रकट करने वाले ऐसे वाक्यों को बोलते हुए नीरजा की जबान बिलकुल थक नहीं रही थी.

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कटु सत्य: भाग 2- क्या हुआ था छवि के साथ

छवि ने उस औरत को अपने हाथ में पकड़ा गन्ने का टुकड़ा देना चाहा पर वह औरत, ‘‘मैं डायन नहीं हूं, डायन नहीं हूं. मैं बड़े ठाकु र को नहीं छोड़ूंगी,’’ कहते हुए भाग कर झाडि़यों में छिप गई. उस के चेहरे पर डर स्पष्ट नजर आ रहा था.

‘बड़े ठाकुर को नहीं छोड़ूंगी,’ ये शब्द छवि के दिल पर हथौडे़ की तरह प्रहार कर रहे थे. उस ने नील की तरफ देखा. वह इस सब से बेखबर गन्ना चूस रही थी.

उस औरत की बातें तथा गांव वालों का व्यवहार देख कर वह समझ नहीं पा रही थी कि लोगों के मन में दादाजी के प्रति डर उन के प्रति सम्मान के कारण है या उन के आंतक के कारण. दादाजी गांव के सर्वेसर्वा हैं. लोग कहते हैं उन की मरजी के बिना इस गांव में एक पत्ता भी नहीं हिलता. तो क्या दादाजी का इन सब में हाथ है. अगर दादाजी न्यायप्रिय होते तो न छोटी दादी के साथ ऐसी घटना घटती और न ही लोग उस औरत को डायन कह कर मारतेपीटते. अजीब मनोस्थिति के साथ वह घर लौटी. मन की बातें मां से करनी चाही पर वे ताईजी के साथ विवाह की तैयारियों में इतना व्यस्त थीं कि बिना सुने ही कहा, ‘‘मैं बहुत व्यस्त हूं. कुछ चाहिए तो जा शिखा या नील से कह, वे दिलवा देंगी. शिखा के मेहंदी लगने वाली है, तू भी नीचे आ जा.’’

मां की बात मान कर वह नीचे आई. मेहंदी की रस्म चल रही थी. वह कैमरा औन कर वीडियो बना रही थी. तभी एक आदमी की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘माईबाप, मेरे बेटे को क्षमा कर दीजिए, वे उसे फांसी देने वाले हैं.’’

‘‘तेरे बेटे ने काम ही ऐसा किया है. उसे यही सजा मिलनी चाहिए जिस से दूसरे लोग सबक ले सकें और दोबारा इस गांव में ऐसी घटना न हो,’’ दादाजी कड़कती आवाज में बोले.

‘‘माईबाप, सूरज की कोई गलती नहीं थी. वह तो कल्लू की बेटी ने उसे फंसा लिया. इस बार उसे क्षमा कर दीजिए, आगे वह कोई ऐसा काम नहीं करेगा.’’

‘‘सिर्फ उसे ही नहीं, कल्लू की बेटी को भी फांसी देने का फैसला पंचायत सुना चुकी है. मैं उस में कोई फेरबदल कर समाज को गलत संदेश नहीं देना चाहता.’’ इतना कह कर दादाजी अंदर चले गए औैर वह आदमी वहीं सिर पटकने लगा. नौकर लोग उसे घसीट कर बाहर ले जाने लगे.

पूरा परिवार मूकदर्शक बना पूरी घटना देख रहा था. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उस आदमी के लड़के ने किया क्या है जो वह आदमी, दादाजी से अपने पुत्र का जीवनदान मांग रहा है. तभी बूआजी का स्वर गूंजा, ‘‘लड़कियो, रुक क्यों गईं, अरे भई, नाचोगाओ. ऐसा मौका बारबार नहीं आता. ’’

इतनी संवेदनहीनता, ऐसा आचरण वह भी गांव के लोगों का, जिन के  बारे में वह सदा से यही सुनती आई है कि गांव में एक व्यक्ति का दुख सारे गांव का दुख होता है. उसे लग रहा था कैसे हैं इस गांव के लोग, कैसा है इस गांव का कानून जो एक प्रेमी युगल को फांसी पर लटकाने का आदेश देता है. इस को रोकने का प्रयास करना तो दूर, कोई व्यक्ति इस के विरुद्ध आवाज भी नहीं उठाता मानो फांसी देना सामान्य बात हो.

जब उस से रहा नहीं गया तब वह नील का हाथ पकड़ कर उसे अपने कमरे में ले आई. इस पूरे घर में एक वही थी जो उस के प्रश्न का उत्तर दे सकती थी. कमरे में पहुंच कर छवि ने उस से प्रश्न किया तब नील ने उस का आशय समझ कर उस का समाधान करने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘दीदी, गांव में हम सब एक परिवार की तरह रहते हैं, उस आदमी के बेटे ने इस गांव की ही एक लड़की से प्रेम किया तथा उस के साथ विवाह करना चाहता था. उन का गोत्र  एक है. एक ही गोत्र में विवाह करना हमारे समाज में वर्जित है. उसे पता था कि उन के प्यार को गांव वालों की मंजूरी कभी नहीं मिल सकती. सो, उन दोनों ने भागने की योजना बनाई. इस का पता गांव वालों को लग गया. पंचायत ने दोनों को मौत की सजा सुना दी. अगर दादाजी चाहते तो वे बच सकते थे पर दादाजी गांव के रीतिरिवाजों के विरुद्ध नहीं जाना चाहते हैं.’’

नील ने जो कहा उसे सुन कर उस के रोंगटे खड़े हो गए. भावनाओं पर अंकुश न रख पाई और कहा, ‘‘गांव वाले कानून अपने हाथ कैसे ले सकते हैं, दादाजी ने पुलिस को क्यों नहीं बुलाया?’’

‘‘दीदी, हमारे गांव में पुलिस का नहीं, दादाजी का शासन चलता है. कोई कुछ नहीं कर सकता.’’

‘‘दादाजी का शासन, क्या दादाजी इस देश के कानून से ऊपर हैं?’’

‘‘यह तो मैं नहीं जानती दीदी, पर दादाजी की इच्छा के विरुद्ध हमारे गांव का एक पत्ता भी नहीं हिलता.’’

‘‘अरे, तुम दोनों यहां बैठी गपशप कर रही हो. नीचे तुम्हें सब ढूंढ़ रहे हैं,’’ ताईजी ने कमरे में झांकते हुए कहा.

‘‘चलो दीदी, वरना डांट पड़ेगी,’’ सकपका कर नील ने कहा.

 

छवि उस के पीछे खिंची चली गई. शिखा को मेहंदी लगाईर् जा रही थी. कुछ औरतें ढोलक पर बन्नाबन्नी गा रही थीं. सब को हंसतेगाते देख कर उसे लग रहा था कि वह भीड़ में अकेली है. गाने की आवाज के साथ हमउम्र लड़कियों को थिरकते देख उस के भी पैर थिरकने को आतुर हो उठे थे पर मन ने साथ नहीं दिया.

अवसर पा कर मन की बात मां से की तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, यह गांव है, यहां के रीतिरिवाज पत्थर की लकीर की तरह हैं. यहां हमारा कानून नहीं चलता.’’

‘‘तो क्या दबंगों का राज चलता हैं?’’ तिक्त स्वर में छवि ने कहा.

‘‘चुप रह लड़की, मुंह बंद रख. अगर तेरे दादाजी ने तेरी बात सुन ली या किसी ने उन तक पहुंचा दी तो तुझे अंदाजा भी नहीं है कि हम सब के साथ कैसा व्यवहार होगा?’’

‘‘मां, क्या इसी डर से सब उन की गलत बात का भी समर्थन करते रहें.?’’

‘‘नहीं बेटा, वे बड़े हैं, उन्होंने दुनिया देखी है. वे जो कर रहे हैं वही शायद गांव के लिए उचित हो,’’ मां ने स्वर में नरमी लाते हुए कहा.

‘‘मां कहने को तो हम 21वीं सदी में पहुंच चुके हैं पर 2 प्यार करने वालों को इतनी बेरहमी से मृत्युदंड?’’

‘‘बेटा, मैं मानती हूं यह गलत है, लेकिन जिन बातों पर हमारा वश नहीं, उन के बारे में  सोचने से कोई लाभ नहीं.’’

‘‘मां, बात हानिलाभ की नहीं, उचितअनुचित की है.’’

‘‘कहां हो छवि की मां, शिखा का सूटकेस पैक करा दो,’’ ताईजी की आवाज आई.

‘‘आई दीदी,’’ कह कर मां शीघ्रता से चली गईं.

उस के प्रश्नों का उत्तर किसी के पास नहीं है, विचारों का झंझावात उस का पीछा नहीं छोड़ रहा था. पहले सती दादी, फिर डायन और अब यह खाप पंचायत का फैसला, कहीं तो कुछ गलत हो रहा है जिसे उस का मासूम मन पचा नहीं पा रहा था. मन की शांति के लिए वह अकेली ही मंदिर की ओर चल दी.

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पुरसुकून की बारिश : मायके के कारण जब बर्बाद हुई बेटी की शादीशुदा गृहस्थी

पूरे 2 वर्षों के बाद उसे देखा, सरेराह, भीड़ भरे बाजार में, रोमरोम से मानो आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा था. बमुश्किल नयनों के कोरों पर उन्हें सहेजा. पिछली बार जब मिली थी, उसे दो बोल धन्यवाद के फूल भी अर्पित नहीं कर पाई थी. कितना एहसान था उस का मुझ पर. कालेज से लौट रही थी, जैसे ही गली की नुक्कड़ पर सहेली के अपने घर मुड़ने पर अकेली हुई थी कि इंसानी खाल में छिपे कुछ दरिंदों ने हमला कर दिया था. इस से पहले कि उन के नाखून मेरी अस्मिता को क्षतविक्षत करते, जाने कहां से यह रक्षक प्रकट हुआ था.

जहां अकेली नारी का बल कौडि़यों का मोल होता है वहीं एक पुरुष की उपस्थिति उसे दस हाथियों का बल दे जाती है. हुआ भी यही, उस के आते ही सभी नरपिशाच अपने पंजे समेट अदृश्य हो गए. जब दुपट्टा खींचा गया, किसी ने नहीं देखा, पर जब उसे ओढ़ाया गया, लोगों ने देख लिया. उस के नाम से मैं अपने दकियानूसी परिवार में बदनाम हो गई. जिस की हिम्मत और नेकदिली की ढाल ने परिवार की बेटी के स्वाभिमान की रक्षा की थी, उसी ढाल को गलत समझा गया.

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बड़ी मुश्किल से मां को सारा हाल बताया था. मां ने मेरे होंठों पर चुप्पी का ताला टांग ताकीद की कि यदि गली वाली बात का जिक्र घर में किया तो कल से ही पढ़ाई रोक दी जाएगी. बिना किसी गुनाह के अगले दिन से गुनाहगारों सरीखी सिर झुकाए कालेज जाना अनवरत चलता रहा. कभी 7 वर्षीय भाई मेरा अंगरक्षक बनता तो कभी 80 वर्षीया दादी.

हां, एक साया था जो बिला नागा, मेरा हमसाया बना चलता था. कभी नजरें भी नहीं मिलती थीं पर मालूम रहता था कि वह है. उस के होने का एहसास मात्र ही मुझे अगले कुछ महीने कालेज जाने और परीक्षा देने की हिम्मत देता रहा. नहीं जानती कि उस के लिए मेरा क्या महत्त्व था पर वह तो मेरे लिए कुछ खास ही था, जिस की उपस्थिति मात्र की परिकल्पना मुझे उन भेडि़यों व नरपिशाचों के बीच से गुजरने का हौसला देती थी.

बहरहाल, येनकेनप्रकारेण स्टडी सैशन पूरा किया, आती गरमी में मेरी शादी करा दी गई. अब गायबकरियों या भेड़ों से राय तो ली नहीं जाती है, सो मुझ से पूछने का तो कोई औचित्य ही नहीं था. सुन रही थी बड़ा ही भरापूरा परिवार है. पति का बहुत बड़ा कारोबार है. काफी संपन्न लोग हैं. रोका की रस्म के वक्त एक बड़े भारी जरीदार दुपट्टे से लंबा घूंघट कर एक वजनी सतलड़ा हार को गले में डाल दिया गया. इसी पगहे को पकड़ मायके के खूंटे से खोल ससुराल के खूंटे में बांध दी गई.

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यों कहा जाए कि एक जेल से दूसरे जेल में शिफ्ंिटग हो गई. मायके में भी सिर झुका जमीन ताकती ही चलती थी, यहां भी घूंघट से बस उतनी ही धरती दिखती थी जहां अगला पग रखना होता था. सुना था आसमान का रंग नीला होता है पर मैं ने तो आज तक कभी देखा ही नहीं था.

नए परिवार में सामंजस्य बैठाने में कोई खास समस्या नहीं आई क्योंकि बचपन से बस यही तो सिखाया गया था कि जब शादी हो, अपने घर जाऊंगी तो कैसे तालमेल बैठाना है. बस, एक बात खटकती थी, घर के पुरुषों की नीयत. मुझे हर वक्त लगता जैसे आज भी मायके की उन्हीं गलियों से कालेज जा रही हूं. हर वक्त देवर का स्पर्श गलत जगह हो जाना अनायास तो नहीं था. मानसिक रूप से अविकसित कुंआरे जेठ की लोलुपता से बचना दिनोंदिन दूभर हो रहा था. फिर सास का बारबार मुझे गाहेबगाहे बिना मतलब जेठजी के पास भेजना, अब मुझे खटकने लगा था. घर में हर वक्त लगता मैं किसी दोधारी तलवार पर चल रही थी. आज बच भी गई तो जाने कल क्या होगा.

मेरे पति का घर में बड़ा रोब था. उन के आते सब पलकपांवड़े बिछा शालीनता की प्रतिमूर्ति बन जाते. पर उन के रोब तले मेरा दम घुटता था. हमारा आपसी संबंध मित्रवत न हो कर दासी और मालिक का होता था.

मैं ने कई बार बताना चाहा कि आज देवर की दृष्टता सीमा लांघ गई या सास ने उसी वक्त मुझे जेठ के पास जाने को मजबूर किया जब वे नहा रहे थे. पर मेरे अतिसफल समृद्घ कारोबारी पति के लिए ये सारी बातें मेरी कपोलकल्पना थीं. मैं हर दिन उन गंदी कामुक निगाहों से दोचार होती, बचतीबचाती एकएक दिन काटती. इतने सफल, समृद्ध पति के होते हुए भी मुझे पुरसुकून मयस्सर नहीं था.

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उन दिनों 2 बातें हुई, एक अच्छी और एक बुरी. मैं मां बनने वाली हूं, यह मेरे लिए एक बड़ी खुशी की बात थी. नन्हे की आहट ने मुझे फिर से उसी बल से समृद्ध कर दिया जो मुझे कालेज जाते वक्त उस अनजान हमसाए से मिलती थी. एक नवीन ऊर्जा और बल से संचारित मैं, अनचाहे स्पर्शों को झटकने और कामुक नजरों को आंखें दिखाने का साहस करने लगी. मेरे बदलते अंदाज जाने किनकिन लांछनों के साथ नमकमिर्च छिड़क मेरे पति को परोसे जाने लगे. पति नाम का वह महान, बलशाली व्यक्तित्व न पहले मेरा था, न अब. उस के समक्ष मेरी हैसियत तुच्छ थी.

दूसरी बुरी बात यह हुई कि मेरे मायके में विभिन्न कारणों से द्वेष और कलह की अग्नि भड़क गई. उस की आंच से मैं भी अछूती नहीं रह पाई. यह उन दिनों की बात थी, जब मेरे बेटे के जन्म को अभी 2 महीने ही हुए थे और उस दिन मैं खुद को एक अर्धविकसित मानसिक पुरुष के पाश्विक पंजों से आजाद नहीं कर पाई थी.

पर गोद के बालक के बल से संचारित ऊर्जावान मैं ने इस बात पर बहुत कुहराम मचाया. मूक गुडि़या की जबान उस दिन देख सभी चकित थे. दुख इसी बात का था कि मेरे भगवान, मेरे देव, मेरे पतिदेव ने एक रहस्यमय चुप्पी लगा ली थी.

इस बीच, मायके में रिश्तों के बीच घमासान हुआ और आग लग गई मेरी गृहस्थी में. ताऊ के बेटे ने मेरे पति के जाने क्या कान भरे कि बीच आंगन में मेरे बेटे की वैधता को फिर उस के नाम से कलंकित किया गया, उसी के नाम से जिसे 2 सालों से देखा भी नहीं था.

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सीता, अहल्या के बाद अब मेरी बारी थी. गृह निष्कासन की सजा सुनाई गई थी. आज फिर इज्जत की चीथड़ों में लिपटी मैं जीवन के मुहाने पर खड़ी थी कि वह दिख गया. अपने आंसुओं को तो मैं ने जज्ब कर लिया पर उसी वक्त कुदरत मूसलाधार बारिश के रूप में बिलख पड़ी. दीवार की ओट में बेटे को गोद में लिए बारिश से बचने का प्रयास विफल साबित हो रहा था कि अचानक भीगना बंद हो गया. दरअसल, वह छतरी थामे, खुद भीगता, मुझे बचा रहा था. उस के एहसानों की बारिश तले मैं सुकूनमंद हो, नयनों से मोती लुटाने लगी.

सौत से सहेली: भाग 2- क्या शिखा अपनी गृहस्थी बचा पाई

लेखिका-दिव्या साहनी

उस दिन नीरजा ने छोलेभूठूरे बनाने की तैयारी करी हुई थी. चोट लगने से पहले छोले उस ने तैयार कर लिए थे. अब भठूरे बनाने की जिम्मेदारी शिखा के ऊपर आ पड़ी.

‘‘मैं ने अपनी मम्मी के साथ मिल कर ही हमेशा भठूरे बनवाए हैं. पता नहीं आज अकेले बनाऊंगी, तो कैसे बनेंगे,’’ शिखा का आत्मविश्वास डगमगा गया था.

अंजु आई ही आई, पर साथ में उस के दोनों बच्चे व पति भी लंच करने आ गए. अंजु ने एक बार शिखा को भठूरे बेलने व तलने की विधि ढंग से समझा दी और फिर किचन से गायब हो गई.

सब को छोलेभठूरों का लंच करातेकराते शिखा बहुत थक गई. राजीव को जब मौका मिलता रसोई में आ कर उस का हौसला बढ़ा जाता. जरूरत से ज्यादा थक जाने के कारण शिखा खुद अपने बनाए भठूरों का स्वाद पेटभर कर नहीं उठा सकी.

सदा बनसंवर कर रहने वाली शिखा ने अपने घर में कभी इतना ज्यादा काम नहीं किया था. उस दिन नीरजा के यहां इतना ज्यादा काम करने का उसे कोई मलाल नहीं था क्योंकि उस ने नीरजा की आंखों में अपने लिए ‘धन्यवाद’ के और राजीव की आंखों में गहरे ‘प्रेम’ के भाव बारबार पढ़े थे.

‘‘अगर नीरजा रात को रुकने के लिए कहे, तो रुक जाना. उस की अच्छी दोस्त बन जाओगी, तो हमें मिलने और मौजमस्ती करने के ज्यादा मौके मिला करेंगे,’’ राजीव की इस सलाहको शिखा ने फौरन मान लिया.

शाम को नीरजा की शह पर चारों छोटे बच्चों ने अपनी शिखा आंटी के साथ आइसक्रीम खाने जाने की रट लगा दी.

शिखा अपनी थकावट व दर्द को भुला कर उन के साथ बाजार गई. बच्चों को आइसक्रीम खिलाने के बाद उस ने घर में बचे बड़े लोगों के लिए ‘ब्रिक’ भी खरीदी. करीब 6 सौ रुपए का खर्चा कर वह घर लौट आईर्.

उस के घर में कदम रखते ही नीरज ने उसे सूचित किया, ‘‘मैं ने तुम्हारी मम्मी से फोन पर बात कर के उन की इजाजत ले ली है, शिखा.’’

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‘‘किसलिए?’’ शिखा ने चौंक कर पूछा.

‘‘तुम्हारे कुछ दिनों के लिए यहां रुकने को. उन्हें कोई एतराज नहीं है. बस, अब तुम इनकार न करना, प्लीज. तुम्हारी हैल्प के बिना तो हम सब बहुत परेशान हो जाएंगे.’’

सोनू, मोनू और अंजु के दोनों बच्चों ने फौरन ‘‘शिखा आंटी, रुक जाओ’’ का नारा बारबार लगाते हुए इतना ज्यादा शोर मचाया कि शिखा को फौरन ‘हां’ कहनी पड़ी.

राजीव के साथ शाम को शिखा अपने घर कुछ जरूरी सामान और कपड़े लाने गई. लौटते हुए उन्होंने कौफी पी. दोनों कुछ दिन एक ही छत के नीचे गुजारने की संभावना के बारे में सोच कर काफी खुश नजर आ रहे थे.

लौटते हुए दोनों ने बाजार से सप्ताहभर

के लिए सब्जी खरीदी. इस काम को करने

की याद नीरजा ने ही शिखा को फोन कर के दिलाई थी.

शिखा ने बड़े जोश के साथ सब के लिए पुलाव बनाया. कुछ होमवर्क करने में सोनू की सहायता भी खुशीखुशी करी. उस के सोने का इंतजाम गैस्टरूम में हुआ था. रात को राजीव से गैस्टरूम के एकांत में मुलाकात हुई, तो क्या होगा? इस सवाल के मन में उभरते ही शिखा के मन में अजीब सी गुदगुदी पैदा हो जाती थी.

सोनू और मोनू शिखा आंटी के जबरदस्त फैन बन गए थे. उन्होंने सोने से पहले उस से

2 कहानियां सुनीं. शिखा को अंगरेजी फिल्में देखने का शौक था. उस ने बैंक डकैती, मारधाड़ और कुछ अन्य सनसनीखेज घटनाओं को जोड़ कर जो कहानी सोनू, मोनू को सुनाई वह दोनों बच्चों को पसंद तो काफी आई पर साथ ही साथ उन्हें डर भी लगा.

इस का नतीजा यह हुआ कि दोनों रातभर अपनी शिखा आंटी से लिपट कर सोए. नींद में डूबने से पहले बेहद थकी शिखा ने राजीव के गैस्टरूम में आने का इंतजार किया, पर उस से मुलाकात किए बिना ही वह सो गई थी.

नीरजा को दर्द के कारण नींद नहीं आ रही थी. राजीव को उस के पास बैठना

पड़ा. चाह कर भी वह शिखा के साथ कुछ

समय नहीं गुजार सका. उसे भी नींद ने एक बार दबोचा तो नीरजा के जगाने पर ही नींद सुबह

6 बजे खुली.

शिखा को भी नीरजा ने ही उस के मोबाइल की घंटी बजा कर 6 बजे उठा दिया.

‘‘मेरी प्यारी बहन, सोनू और मोनू को

स्कूल भेजना है. उन्हें जरा सख्ती से उठाओ… नाश्ते में ब्रैडबटर ही दे देना. राजीव दूध लेने

जा रहे हैं. दोनों की यूनीफौर्म यहां मेरे कमरे में

है. उन्हें भेजने के बाद हम दोनों साथसाथ

तसल्ली से चाय पीएंगे, माई डियर,’’ शिखा को

ये सब हिदायतें देते हुए नीरजा की आवाज में इतनी मिठास और अपनापन था कि शिखा ने बड़े जोश के साथ मुसकराते हुए पलंग छोड़ा था.

वक्त के साथ रेस लगाते हुए शिखा ने बड़ी कठिनाई से ही सोनू और मोनू को

स्कूल भेजा. कई बार उन की लापरवाही से तंग आ कर उस ने उन्हें डांटा भी, पर दोनों डांट सुन कर बेशर्मी से हंस पड़ते थे.

नीरजा ने बाद में उस के साथ चाय पीते हुए उस की भूरिभूरि प्रशंसा करी, ‘‘तुम बड़ी कुशल गृहिणी बनोगी किसी दिन, शिखा. बच्चों का दिल जीतने की कला आती है तुम्हें.’’

नीरजा का व्यवहार शिखा के प्रति बहुत दोस्ताना और प्रेमपूर्ण था. उसे अपने पास बैठा कर नीरजा उस का प्यार से हाथ पकड़ लेती. शिखा की प्रशंसा करते हुए उस का चेहरा फूल सा खिल जाता. कभीकभी आभार प्रकट करते हुए नीरजा की आंखें डबडबा उठतीं, तो शिखा भी भावुक हो जाती. ऐसे क्षणों में शिखा को नीरजा के बहुत करीब होने का एहसास होता. फिर उसे राजीव का खयाल आता. उस के साथ अपने अवैध प्रेम संबंध का ध्यान आते ही वह अजीब सा खिंचाव महसूस करते हुए इन कोमल भावों को दबा लेती थी.

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शिखा ने नीरजा के घर की लगभग सभी जिम्मेदारियों को संभाल लिया था. शाम को वह राजीव के साथ ही घर लौटती. दोनों का दिल तो करता था कि कुछ देर किसी पार्क या रेस्तरां में साथसाथ बैठें, पर नीरजा की ‘हैल्प’ के लिए फोन शिखा को लंच के बाद से ही मिलने लगते थे.

ऐसी ही भागमभाग में पहला हफ्ता कब निकल गया, शिखा को पता ही नहीं चला. रविवार फिर से आ गया और उस दिन सुबह उठने को उस का मन ही नहीं किया. शिखा को न अपने शरीर में भागदौड़ करने की जान महसूस हो रही थी और मन में भी अजीब सी खीज का एहसास छाया हुआ था.

अपनी आदत के अनुरूप रविवार सुबह देर तक सोना चाहती थी, पर कामवाली ने न आ कर ऐसी किसी भी संभावना का अंत कर दिया.

‘‘कल दोपहर में मैं ने कामवाली को डांट दिया था. वह कामचोर सफाई से काम जो नहीं कर रही थी. उस ने काम छोड़ दिया तो बड़ी गड़गड़ हो जाएगी, शिखा तुम प्लीज उसे किसी भी तरह से मना लाओ,’’ नीरजा ने उसे जब कामवाली को मना लाने की जिम्मेदारी सौंपी, तो एक बार को शिखा का रोमरोम गुस्से की आग में सुलग उठा.

कामवाली राधा से मिलाने के लिए सोनू

उसे पड़ोस में रहने वाली निर्मल आंटी के घर ले गया. उस से बातें करते हुए शिखा को बड़ा धैर्य रखना पड़ा क्योंकि वह काफी बदतमीजी से पेश आ रही थी.

‘‘सब से कम पैसा देती हैं नीरजा मैम और सब से ज्यादा डांटती और बेकार के नुक्स निकालती हैं. बिना पगार बढ़ाए मैं नहीं आऊंगी काम पर,’’ शिखा की कोई दलील सुने बिना राधा अपनी इस जिद पर अड़ी रही.

‘‘देख, जब तक नीरजा मैम का प्लस्तर कट नहीं जाता, तुम काम पर आती रहो. मैं उन से छिपा कर तुम्हें 2 सौ रुपए दूंगी?’’ इस समस्या का यही समाधन शिखा को समझ में आया.

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‘‘आप की खातिर मैं आ जाऊंगी, पर 5 सौ रुपए अलग से लूंगी,’’ राधा ने मौके का फायदा उठाते हुए अपनी शर्त बता दी.

‘‘2 सप्ताह के लिए 5 सौ रुपए. इतना लालच ठीक नहीं है, राधा,’’ शिखा गुस्सा हो उठी.

‘‘आप को 5 सौ रुपए ज्यादा लग रहे हैं, तो कोई बात नहीं. किसी दूसरी कामवाली को ढूंढ़ लो या खुद बरतन व सफाई कर लेना.’’

खुद बरतन व घर की सफाई की बात सोच कर ही शिखा की जान निकल गई. उस ने राधा को 5 सौ रुपए अपनी तरफ से देना स्वीकार किया और मन ही मन उसे गालियां देती सोनू के साथ घर लौट आई.

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रिश्तों का कटु सत्य: अंकल को क्या मिला ईमानदारी का फल

लेखक- जसबीर कौर

उस दिन दोनों ने अपनेअपने काम से छुट्टी ली थी. कई दिनों से दोनों ने एक फैसला लिया था कि वे अपने पुश्तैनी मकान में रहेंगे, क्योंकि आंटी का रिटायरमैंट करीब था और अंकल भी अपनी सेहत के चलते कचहरी के अपने काम को ज्यादा नहीं ले रहे थे. शुगर होने के चलते थक जाते थे. अंकल और आंटी को हालांकि आंटी के अनुज के बच्चों का पूरा प्यार और अपनत्व मिल जाता था, लेकिन वास्तविकता में दोनों ही एकदूसरे का सच्चा सहारा थे.

पारिवारिक मूल्यों को बखूबी समझने वाले अंकल ने अब तक जो कमाया, सारा का सारा अपनी मां और अपने भाईभतीजों को ही दिया था. आंटी की एक निजी विद्यालय में नौकरी थी, उसी से उन का घरखर्च चल रहा था. इसी सब के चलते दोनों ने किराए के मकान को छोड़ कर अपने पुश्तैनी मकान के फर्स्टफ्लोर के अपने कमरे में जा कर रहने का फैसला लिया था.

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लगभग 30 वर्षों पहले दोनों किराए के मकान में आ गए थे. आंटी जब से ससुराल में ब्याह कर आई थीं, वहां उन्होंने कलहक्लेश, झगड़े जैसा माहौल ही देखा था. घर के किसी भी सदस्य का व्यवहार अच्छा नहीं था. ताने, उलाहने, मारपीट, भद्दी भाषा और चरित्रहीनता जैसे उन के आचरण से तंग आ कर ही अंकल और आंटी ने एक दिन अपना जरूरी सामान बांधा और एक रिकशा में सवार हो कर घर से निकल पड़े.

मानसिक अशांति से थोड़ी राहत तो पाई, लेकिन बहुत सी कठिनाइयों से उन्हें दोचार होना पड़ा, क्योंकि उन के पास पलंगबरतन कुछ भी नहीं था. हर चीज पर घरवालों ने अधिकार जमा रखा था. वह घर नहीं, मुसीबतों का एक अड्डा नजर आता था. पानी की एक बूंद को तरसते थे.

आंटी एक संपन्न परिवार से ऐसी ससुराल में आई थीं जहां तमीज और तहजीब नाम की चीज कोई नहीं जानता था. अंकल की मां को चुगलखोर औरत के रूप में सारा महल्ला जानता था. अंकल ने जब अपनी आंखों से देखा, कानों से सुना कि किस तरह घर के लोग आंटी के नाक में दम करते हैं जब वे घर पर नहीं होते हैं, तब उन्हें यकीन हुआ कि वास्तव में घरवाले बदतमीजी की सारी हदें लांघ चुके हैं.

किराए के मकान में आ जाने के बाद भी अंकलअांटी अपने पुश्तैनी मकान में बराबर आतेजाते थे, हर मौके पर मौजूद रहते. वहां अपनत्व या इज्जत नाम की कोई बात ही नहीं थी, तब भी अंकल पारिवारिक मूल्यों के पक्षधर और बेहद सरल स्वभाव के धनी होने के नाते अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी कभी नहीं करते थे.

अधिकार शब्द को तो अंकल ने जैसा भुला ही दिया था. अधिवक्ता थे तो रोजाना कचहरी आनाजाना रहता था, जाते और आते रोज अपनी मां के पास रुकते थे, हर तरह की मदद करने को तैयार रहते. खुद कितनी भी तंगी में हों, मां को हमेशा बिना मांगे ही रुपएपैसे देते थे बिजली के बिल, राशन सबकुछ के लिए. ये उन की सादगी कहें, मां की चतुराई या कहें अंकल की दूरदर्शिता.

आंटी की जहां तक बात है, ससुराल वालों के साथ रहते समय बहुत सारे कटु और कसक देने वाले अनुभव उन्हें वहां मिले थे. विवाह के कुछ समय बाद ही, अभी आंटी नईनवेली ही थीं कि, उन के सासससुर ने एक दिन उन के कमरे में आ कर उन से उन के सभी जेवर उतरवा लिए थे, जो अलमारी में थे, वे भी सारे ले लिए इस वादे के साथ कि जल्द ही लौटा देंगे. अब चूंकि आंटी का सारा स्त्रीधन वे लोग ले ही चुके थे, तो अब उन को उन से वास्ता भी क्या रखना था. अब वो देनदार थे, सो, जितना हो सकता था उतना परेशान करते थे.

इसी बीच, आंटी के पीहर पक्ष से बड़ी रकम लाखों में उधार मांग ली लौटा देने की शर्त पर आंटी ने अपने पीहर पक्ष को कभी भी अपनी आपबीती नहीं बताई थी. एक तो आंटी को संस्कार ही ऐसे मिले थे कि वे स्वभाव से ही गंभीर थीं और दे ही देंगे तो उन्हें क्यों कहना जैसा भाव भी मन में था.

अंकल को भी आंटी ने बहुत दिनों बाद बताया कि सारे जेवर आप के मातापिता ने ले लिए. अंकल ने जरा भी आशंका नहीं जताई. सोचा, कोई बात नहीं, दे देंगे वापस. उधर आंटी के मातापिता ने ताउम्र अपना धन वापस नहीं मांगा. मांग ही नहीं सके, अपने दामाद के लिए उन के मन में सम्मान और प्यार था इस कारण. आंटी का पीहर बहुत दूर था, आंटीअंकल खुद ही वर्ष में एकदो बार मिल आते थे.

बहुत आहत मन से अंकलआंटी उस घर से निकले थे, लेकिन अब समय का लंबा फर्क और मजबूरी उन्हें फिर वहां ले जा रही थी. किराया नहीं दे सकेंगे, सो, अपने कमरे में जाने का विचार किया.

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आंटी ने अंकल से कहा, ‘‘आप कल उधर जाओगे तो अपना कमरा खोल आना, मैं साफ करने के लिए जाऊंगी, फिर जरूरी सामान रख आएंगे.’’

अंकल ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

अगले दिन अंकल ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, हम ने अपने कमरे में लौटने का विचार किया है क्योंकि आप की बहू रिटायरमैंट के करीब है, मकान का किराया देना मुश्किल होगा. सेहत की वजह से मैं भी वकालत का काम कम ही लेता हूं.’’

अंकल की बात सुनते ही मां को तो जैसे सांप सूंघ गया हो. बिना जवाब दिए घर से बाहर निकल गईं.

अंकल अपने घर आ गए. आंटी ने कहा, ‘‘कमरा खोल आए क्या?’’

अंकल ने कहा, ‘‘नहीं, कल चलेंगे, तब कमरा झाड़ देना तुम.’’

अगले दिन अंकल, मां के पास रोजाना की तरह जा बैठे और कहा, ‘‘मां, आप की बहू को अभी साथ ला रहा हूं, कमरा साफ कर जाएंगे. और कल रविवार है, कल से यहीं आ जाएंगे हम आप के पास.’’

अंकल की बात सुनते ही आसपास के कमरों से सारा कुनबा ही जैसे कूद पड़ा. बरामदे में पहले से सभी जमा थे. अंकल रोजाना इसी समय आया करते थे. बेटी और दामाद को भी बुला रखा था. छोटेबड़े सभी इकट्ठा थे. कोई कुछ बोले, इस से पहले अंकल ने फिर कहा, ‘‘मां, क्या बात है, बोल नहीं रहा कोई?’’

इतने में बिजली सी कड़कती कर्कश आवाज में बोलते हुए अंकल की मां अंकल पर टूट पड़ीं. अंकल को धकियाती हुई बाहर के दरवाजे तक ले गई. बहन, जीजा ने धक्के मारे. भाइयों ने जलीकटी कहीं. भाभियां मुसकरा रही थीं.

अंकल अचानक हुए इस हमले को सह न सके, कुछ समझ न सके और लड़खड़ा कर नीचे गिर पड़े. मां व बहन ने गिरने पर भी धक्के दिए. अंकल का बाजू हिल गया, पैंट घुटने से फट गई. इस अजीब व्यवहार व अपमान ने अंकल का दिमाग घुमा दिया. पगड़ी उतर कर दूर जा गिरी. अंकल अकेले उठ पाने की हालत में नहीं थे. किसी तरह सीढ़ी पकड़ कर उठे और अपने घर पहुंचे. बदहवास, परेशान, लज्जित और चुप, वे तत्काल बोलने की स्थिति में नहीं थे. आंटी ने उन्हें देखा तो सहम गईं और प्रश्नों की झड़ी लगा दी.  किसी भी प्रश्न का कोईर् जवाब अंकल नहीं दे रहे थे.

आंटी ने खाना परोसा. अंकल ने नहीं खाया. आराम करने को कह कर करवट ले ली. आंटी को काटो तो खून नहीं. अंकल ही सेहत को ले कर वैसे भी हर वक्त चिंता में रहती थीं और आज क्या हुआ, क्यों नहीं बताते. ऐसे में स्वभाविक ही था चिंता का बढ़ना. आंटी ने देखा कुहनी तथा घुटने छिले थे, पैंट फटी थी, अब तो यही अनुमान लगाया कि स्कूटर तेज चलाया होगा. पर मन नहीं माना. अंकल कभी तेज चलाते ही न थे स्कूटर. चोट आखिर कैसे लगी होगी. कहीं खड्डों वाली सड़क पर स्कूटर फंस गया होगा.

कहते हैं कि जब स्नेह, प्रीति, लगाव का दायरा छोटा हो तो वह एक पर ही केंद्रित हो जाता है, आंटी की कुछ ऐसी ही स्थिति थी. अंकल ही उन के पास थे, जीवनसाथी से लगाव होना स्वभाविक भी है. फिर दोनों का साथ. तीसरा तो कोई जबतब ही पास आता, अधिकतर तो दोनों अकेले ही होते थे. अंकल से आंटी ने सब जानना चाहा. पर अंकल शायद सोए तो थे ही नहीं, सुबक रहे थे, रो रहे थे. तकिया आंसुओं से भीग गया था.

बहुत मनुहारें करने के बाद अंकल ने बताया, ‘‘मैं गया था उस घर में, किंतु अब हम कभी वहां नहीं जाएंगे. कभी भी नहीं.’’

‘‘आखिर क्यों?’’ आंटी ने तुरंत जानना चाहा था. अब आशंकाओं ने आंटी के मन को घेरना शुरू कर दिया था,  आशंकाओं को आधार भी मिलने लगा था भीतर ही भीतर. जिस घर में उचित सम्मान कभी नहीं मिला, बड़े होने के नाते भी नहीं, वहां तो कुछ भी गड़बड़ हो सकती है. ऐसा आंटी के मन में विचार उठ रहा था.

अब अंकल ने सारी बात बताई, लेकिन रोते हुए, सुबकते हुए. अंकल के चेहरे पर मन की पीड़ा को साफ पढ़ा जा सकता था. आंखों से मानो दिल का दर्द टपकटपक पड़ रहा था. सारी आपबीती बताई. आंटी अंकल को दुखी देख कर तड़प उठीं, किंतु खुद को रोका. यह वक्त अंकल को सहारा देने का है, सताने या सुनाने का नहीं. अब जबकि अंकल खुद भुगत कर आए हैं, तो क्या बचा है कहनेसुनने को.

अब तो उन्हें मां की भक्ति से मिले रिजल्ट का साक्षात अनुभव हुआ है. जिन भाइयों ने कभी भैया कह कर बुलाया भी नहीं, उन्हें अंकल ने कहांकहां सहारा नहीं दिया? एक को तो सरकारी नौकरी भी अपनी जानपहचान के बूते परीक्षा के प्रश्नपत्र पूर्व में ही बता कर दिलवाई जैसेतैसे. शेष की आर्थिक मदद, कानूनी मदद करते रहे. आज उन्होंने ठोकरें मार कर बाहर कर दिया था.

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आंटी ने अंकल को सहारा दिया, ‘‘हमें जाना ही नहीं वहां, आप चिंता न करें. आप के साले, साली कितना पूछते हैं आप को, हमेशा मदद के लिए खड़े रहते हैं. सो, परेशान नहीं होना है. बस, इस बात को यहीं रोको.’’ आंटी अंकल की सेहत न बिगड़ जाए, इस बात से भीतर ही भीतर डर रही थीं. इस के बाद अंकल हमेशा गुमसुम रहने लगे थे. काम पर जाते, जल्दी घर आ जाते.

फिर एक दिन बहुत कठिन घड़ी आई. अंकल कचहरी में बेहोश हो कर गिर गए. आंटी के भाई को सूचना मिली तो फौरन उन्होंने संभाला, अस्पताल पहुंचाया. सभी जांचें हुईं. अंकल को बीते दिनों अपनों से मिली प्रताड़ना के कारण गहरा आघात पहुंचा था. विश्वासघात के शिकार हुए थे वे. सूचना तो उन के घरवालों को भी दी गई किंतु किसी ने हाल जानना जरूरी नहीं समझा, वे ही तो गुनाहगार थे, वे क्यों आते पूछने. पक्षपातिनी मां, वह बेरहम बहन किसी को दुख नहीं हुआ अपने ही घर के सदस्य के बीमार होने का.

आंटी नौकरी पर थीं, लौटीं तो बहुत दुखी हुईं. उन की व्यथा का कोई पारावार न था. आते ही अंकल से लिपट गईं. सब पूछ डाला भाई से, चिकित्सक से, रिपोर्ट पढ़ी.

अंकल अपने साथ घटित उस अपमानजनक व्यवहार को याद करें भी तो कैसे? कटु सत्य से सामना हुआ था उन का. एक बहुत बड़े राज से परदा उठा था. मन में चल रही उठापटक ने अंकल को असामान्य हालत में पहुंचा दिया था. अंकल रहरह कर यही बुदबुदाते, ‘मैं ने बिगाड़ा क्या है उन का?’

लगभग 8 माह तक ससुराल वालों की सेवा से अंकल थोड़ा स्वस्थ हुए.

एक दिन अंकल के पास उन का

एक नजदीकी रिश्तेदार फुफेरा

भाई आया और कहने लगा, ‘‘तुम्हारा पुश्तैनी मकान वे लोग बेच रहे हैं, ऐसी भनक मुझे लगी है.’’ अंकल के साथ हुए अमानवीय व्यवहार का उसे पता था. उस ने आगे कहा, ‘‘तुम्हें कानूनी मदद लेनी चाहिए.’’

अब क्योंकि अपने पुश्तैनी घर में वे जा नहीं सकते थे, सो, याचिका लगा कर न्याय दिलाने की व घर में अपना हक लेने की अपील की. पहली पेशी पर ही सारा राज जाहिर हो गया. अंकल की मां, भाई सब मिल कर कचहरी में आए. वकील के माध्यम से अंकल के हाथ की लिखी दस्तबरदारी के सरकारी कागजात पेश कर दिए वह भी 15 वर्ष पूर्व की गई समस्त कार्यवाही के. केस वहीं खत्म हो गया, जब खुद ही अपना हक छोड़ने को लिख दिया तो अब  कोई प्रावधान ऐसा न बचा था कि आगे सुनवाई हो.

अंकल अनजान थे इस कटु सत्य से. यदि जानते होते तो केस ही क्यों लगाते भला? खुद अधिवक्ता हो कर भी मां की चाल न समझ सके, क्योंकि कोई मां पर ही विश्वास नहीं करेगा तो किस पर करेगा? अब सारा मामला समझ आ गया कि क्यों घर से खदेड़ा? क्यों उन्हें वापस घर आने देना नहीं चाहते थे. उन्होंने सिर्फ मिल्कीयत की खातिर यह षड्यंत्र रचा था. मिल कर आपस में बांटना था, घर की कीमत, जमीनजायदाद सब बहुत पहले ही लिखवा ली थी, बेच भी दी थी, ये राज भी खुल गए. अंकल के पास कुछ नहीं था.

ऐसे आस्तान के सांप निकले अंकल के अपने. और मां की ऐसी घिनौनी हरकत को क्या कहा जाए? क्या इस बेटे को पैदा नहीं किया था? यह आसमान से गिरा था? या इस बेटे को उस की सरलता या ईमानदारी का यह इनाम दिया गया था? अपनों द्वारा दी गई ऐसी सजा जिसे दिल पर ले लिया अंकल ने. शहरभर के शुभचिंतक अंकल का हालचात पूछते रहते हैं. आंटी के पितृगृह के भाईबहन ने तनमनधन से अंकल की सहायतासेवा की. यदि इन लोगों का सहारा न होता तो पता नहीं क्या हाल होता दोनों का? एक वे अपने हैं जिन्होंने मार कर फेंका, एक ये पराए हैं जिन्होंने संभाला ही नहीं, सहारा भी बने हैं.

अनेक लोग अंकल के परिजनों को लानतें दे चुके हैं, सामाजिक बहिष्कार कर चुके हैं उन का. तब भी धन की लालसा में घिरे वे लोग एकजुट हैं. उन के लिए तो एक ही बात अर्थ रखती है, ‘बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपैया.’ हंसतेमुसकराते दंपती की हंसी छीन कर आज वे पुश्तैनी मकान की करोड़ों की कीमत पाने को प्रयासरत हैं. भविष्य के वे लखपति अपने इस अनमोल हीरे के हृदय को चूरचूर कर के कितने आनंद में हैं, और इधर अपनों द्वारा विश्वासघात की मार सह कर न केवल घर में, बल्कि एक ही कक्ष में कैद हो कर रह गए है अंकलआंटी, यह कैसा समाज है, कैसा न्याय है.

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प्रकाश स्तंभ: भाग 1- क्या पारिवारिक झगड़ों को सुलझा पाया वह

‘‘दीदी, जरा गिलास में पानी डाल दो,’’ रम्या ने खाने की मेज के दूसरी ओर बैठी अपनी बड़ी बहन नंदिनी से कहा था.

‘‘आलस की भी कोई सीमा होती है या नहीं? तुम एक गिलास पानी भी अपनेआप डाल कर नहीं पी सकतीं,’’ नंदिनी ने टका सा जवाब दिया था.

‘‘पानी का जग तुम्हारे सामने रखा था इसीलिए कह दिया. भूल के लिए क्षमा चाहती हूं. मैं खुद ही डाल लूंगी,’’ रम्या उतने ही तीखे स्वर में बोली थी.

‘‘वही अच्छा है. तुम जितनी जल्दी अपना काम खुद करने की आदत डाल लो तुम्हारे लिए उतना ही अच्छा रहेगा,’’ नंदिनी सीधेसपाट स्वर में बोली थी.

‘‘मैं सब समझती हूं, इतनी मूर्ख नहीं हूं. ईर्ष्या करती हो तुम मुझ से.’’

‘‘लो और सुनो. मैं क्यों ईर्ष्या करने लगी तुम से?’’

‘‘बड़ी बहन कुंआरी बैठी रहे और छोटी का विवाह हो जाए, क्या यह कारण कम है?’’ रम्या तीखे स्वर में बोली थी पर इस से पहले कि नंदिनी कुछ बोल पाती, उन की मां रचना ने दोनों का ध्यान आकर्षित किया था.

‘‘तुम दोनों अपने झगड़े से थोड़ा सा समय निकाल सको तो मैं भी कुछ बोलूं?’’

‘‘क्या मां? आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं?’’ नंदिनी ने शिकायत की थी.

‘‘मैं किसी को दोष नहीं दे रही बेटी. मैं तो भली प्रकार जानती हूं कि मेरी 30-30 साल की दोनों बेटियां 5 मिनट के लिए भी आपस में लड़े बिना नहीं रह सकतीं.’’

‘‘30 साल की होने का ताना आप मुझे ही दे रही हैं न? रम्या तो मुझ से 2 साल छोटी है और मैं बड़ी हूं तो सारा दोष भी मेरा ही होगा,’’ नंदिनी ने आहत होने का अभिनय किया था.

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‘‘मेरा ऐसा कोई तात्पर्य नहीं था. मैं जो कहने जा रही हूं उस का तुम दोनों से कुछ भी लेनादेना नहीं है. मैं तो केवल यह कहना चाहती हूं कि मैं ने यह शहर या यों कहूं कि यह देश ही छोड़ कर जाने का निर्णय कर लिया है,’’ रचना ने मानो शांत जल में पत्थर दे मारा था.

‘‘क्या? कहां जा रही हैं आप?’’ खाने की मेज पर बैठे पति नीरज के विस्फारित होते नेत्रों को उस ने देखा था. रम्या के पति प्रतीक का मुंह खुला का खुला रह गया था और दोनों बेटियों की नजर मां पर ही गड़ी हुई थी.

‘‘हमारे बैंक की एक नई शाखा ‘सीशेल्स’ में खुलने जा रही है. मैं ने वहीं जा कर नई शाखा का कार्यभार संभालने की स्वीकृ ति दे दी है. हमारे बैंक से और 2-3 कर्मचारी भी साथ जा रहे हैं,’’ रचना ने अपनी बात पूरी की थी.

‘‘क्यों उपहास कर रही हैं मां? अब इस आयु में आप देश छोड़ कर जाएंगी?’’ रम्या हंस पड़ी थी पर नंदिनी केवल उन का मुंह ताकती रह गई थी.

‘‘यह उपहास नहीं वास्तविकता है बेटी. दिनरात की इस कलह में मेरा मन घुटने लगा है. मैं शायद मां की भूमिका सफलतापूर्वक नहीं निभा पाई. तुम दोनों का व्यवहार इस का प्रमाण है. फिर भी मैं कहूंगी कि मैं ने अपनी ओर से पूरा प्रयत्न किया था. नंदिनी की पढ़ाई में कभी कोई रुचि नहीं रही. फिर भी पीछे पड़ कर उसे स्नातक तक की पढ़ाई करवाई. कंप्यूटर कोर्स करवाया. एकदो जगह नौकरी भी लगवाई पर यह मेरा और उस का…या कहें हम दोनों की बदनसीबी है कि वह अब तक जीवन में व्यवस्थित नहीं हो सकी.

‘‘तुम्हारे लिए भी मैं ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार सबकुछ किया पर तुम ने अच्छीभली नौकरी छोड़ कर विवाह कर लिया और अब तुम और तुम्हारे पति प्रतीक दोनों बेकार बैठे हैं,’’ रचना का स्वर बेहद निरीह प्रतीत हो रहा था.

‘‘और ऐसे में आप ने हम सब को छोड़ कर जाने का फैसला ले लिया?’’ रम्या और नंदिनी ने समवेत स्वर में प्रश्न किया था.

‘‘यहां रह कर भी मैं तुम दोनों के लिए कहां कुछ कर पाई. वहां थोड़ा अधिक पैसा मिलेगा तो शायद मैं तुम लोगों की कुछ अधिक सहायता कर पाऊंगी. वैसे भी ऐसे अवसर कभीकभी ही मिलते हैं. वह तो सीशेल्स जैसे छोटे से द्वीप पर कोई जाना नहीं चाहता वरना तो मुझे यह भी मौका नहीं मिलता.’’

‘‘आप कब तक  जाएंगी, मम्मीजी?’’ प्रतीक ने प्रश्न किया था.

‘‘1 माह तो जाने में लग ही जाएगा, थोड़ा अधिक समय भी लग सकता है,’’ परिवार के अन्य सदस्यों को गहरी सोच में डूबे छोड़ कर रचना अपने कमरे में चली गई थीं.

आरामकुरसी पर पसर कर रचना देर तक शून्य में ताकती रही थीं. कमरे के अंधेरे में वह काल्पनिक आकृतियों को बनतेबिगड़ते देखती रही थीं. साथ ही अतीत की अनेक बातें उन के मानसपटल से टकराने लगी थीं.

‘क्या हुआ रचना? इस तरह सिर थामे क्यों बैठी हो?’ उस दिन उन की सहेली निमिषा ने रचना को आंखें मूंदे स्वयं में ही डूबे देख कर पूछा था.

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उत्तर में रचना ने अपनी आंखें खोल दी थीं. उन की डबडबाई आंखें लगातार बरसने लगी थीं.

‘क्या हुआ? कुशलमंगल तो है? मैं ने तुम्हें इस तरह स्वयं पर नियंत्रण खोते कभी नहीं देखा,’ निमिषा हैरान हो गई थी.

‘तुम स्वयं पर नियंत्रण की बात कर रही हो, मैं ने तो अपने सारे जीवन को अनियंत्रित होते देखा है.’

‘क्यों, क्या हुआ? कोई विशेष बात?’

‘सप्ताह भर से रम्या के फोन पर फोन आ रहे हैं. अपने पति के साथ यहीं हमारे पास रहना चाहती है,’ रचना धीमे स्वर में बोली थीं.

‘क्यों? प्रतीक का स्थानांतरण यहीं हो गया है क्या?’

‘किस का स्थानांतरण, निमिषा. वही हुआ जिस का डर था. फोन पर रम्या बता रही थी कि प्रतीक की नौकरी छूट गई है. मुझे तो पहले ही संदेह था कि वह नौकरी करता भी था या नहीं. अब वह नौकरी नहीं करना चाहता. व्यापार करेगा और व्यापार उसे मेरे अलावा करवाएगा कौन? एक और राज की बात बताऊं तुम्हें?’

‘क्या?’

‘प्रतीक खुद कोई बात नहीं करता. हर बात में रम्या को आगे करता है. पहले उसी की चिकनीचुपड़ी बातों में आ कर रम्या यहां अच्छीभली नौकरी छोड़ कर गुंइर चली गई. अब दिन में 2-3 बार फोन आता है. मैं सप्ताह भर से समझा रही हूं कि मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि उस की सहायता कर सकूं तो रोने लगी. बोली कि आप तो बैंक में अफसर हैं, क्या कर्ज नहीं ले सकतीं?’

‘नीरज भाई साहब क्या कहते हैं?’

‘वह क्या कहेंगे? आज तक कुछ कहा है जो अब कहेंगे? उन पर तो जीवन भर व्यापार का भूत सवार रहा. पर व्यापार में कमाया कम और गंवाया अधिक. अब तो उन का शरीर ही साथ नहीं देता. अस्थमा तो पुराना रोग है ही पर हर दिन कुछ न कुछ लगा ही रहता है. बेटीदामाद के आने के समाचार से भी उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता. वह तो, बस अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं.’

‘फिर तुम क्यों चिंता में घुली जा रही हो? आ रही है तो आने दो. उन दोनों के आने से भला कितना अंतर पड़ जाएगा,’ निमिषा ने समझाना चाहा था.

‘प्रश्न केवल भोजनकपड़े का नहीं है. व्यापार के लिए पूंजी कहां से जुटाऊं. ऊपर से मेरी दोनों बेटियों में बिलकुल नहीं पटती. नंदिनी को कोई वर अपने उपयुक्त लगता ही नहीं. संसार के सब से अधिक धनवान, सुदर्शन और प्रसिद्ध वर से ही विवाह करेगी वह. हम तो उस के विवाह की उधेड़बुन में खोए थे कि रम्या ने अपनी इच्छा से विवाह कर लिया. जगहंसाई न हो इसलिए हम ने परंपरागत रूप से विवाह करवा दिया. वर पक्ष से तो कोई औपचारिकता निभाने भी नहीं आया.’

‘विवाह के पहले तो प्रतीक बड़ी डींगें हांकता था. विवाह को 6 माह भी नहीं हुए कि नौकरी छूट गई. घर वालों ने घर से निकाल दिया. अब वह हमारी शरण में आना चाहते हैं. अब स्थिति यह है कि मेरी नौकरी न हो तो हमारा परिवार भूखों मर जाए,’ रचना अपनी रामकहानी सुनाती रही थी.

‘तुम्हारी समस्या तो वास्तव में विकट है. मैं तो केवल सलाह दे सकती हूं पर उस पर अमल तो तुम को ही करना है. मैं तुम्हारे स्थान पर होती तो कब की भाग खड़ी होती. तनिक सोचो, यदि तुम उन्हें छोड़ कर चली जाओ तो क्या वे भूखे मरेंगे? अपना पेट भरने के लिए तो हाथपैर हिलाएंगे ही न,’ निमिषा ने बात सच कही थी पर रचना को लगा कि उस की सलाह मानने की शक्ति उस में नहीं थी.

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‘तुम ठीक कहती हो. मेरी नियति ही ऐसी है. कालिज में प्रवेश लेते ही मातापिता चल बसे. अपने छोटे भाई और स्वयं को व्यवस्थित करने में मैं ने कठिन परिश्रम किया. संतोष इसी बात का है कि उस का जीवन पूरी तरह से व्यवस्थित है, व्यावसायिक रूप से भी और पारिवारिक तौर पर भी. उसे देख कर बड़ी संतुष्टि मिलती है. पर मुझे तो विवाह के बाद भी चैन नहीं मिला. मुझे तो लगता है कि मेरी दोनों बेटियां अभिशाप बन कर मेरे जीवन में आई हैं. थकीहारी घर पहुंचती हूं तो नंदिनी एक प्याली चाय को भी नहीं पूछती. सर्वगुण संपन्न वर न जुटा पाने के लिए शायद वह मुझे ही दोषी समझती है. सदा मुंह फूला ही रहता है उस का.’

‘भूल जाओ यह सब, रचना. अपनी ओर से तुम ने दोनों बेटियों के लिए कर्तव्य पूरा कर दिया. हो सके तो उन पर जिम्मेदारी डाल कर उन में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करो. कभीकभी परिस्थितियां स्वयं बदलने लगती हैं अत: प्रतीक्षा करो.’

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सौतेली: भाग 4- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

शेफाली को लग रहा था वंदना ठीक कह रही है. वह अपना घर क्यों छोडे़. उस को हालात का सामना करना चाहिए था. फिर उस औरत से नफरत कैसी जिसे अभी उस ने देखा भी नहीं था.

अगले दिन सुबह वंदना चली गई.

कुछ भी नहीं होते हुए वंदना कुछ दिनों में ही अपनेपन का जो कोमल स्पर्श शेफाली को करवा गई थी उस को भूलना मुश्किल था. यही नहीं वह शेफाली की दिशाहीन जिंदगी को एक दिशा भी दे गई थी.

परीक्षाओं के शुरू होते ही शेफाली ने जानकी बूआ से घर जाने की बात कह दी और थोड़ाथोड़ा कर के अपना सामान पैक करना शुरू कर दिया.

परीक्षाएं खत्म होते ही शेफाली अपने घर को रवाना हुई तो जानकी बूआ खुद उस को अमृतसर जाने वाली बस में बैठाने के लिए बस अड्डे पर आई थीं.

बस जब चल पड़ी तो शेफाली के मन में कई सवाल बुलबुले बन कर उभरने लगे कि पापा उस का सामना कैसे करेंगे, उस का सौतेली मां से सामना कैसे होगा? वह कैसा व्यवहार करेंगी?

शेफाली जानती थी कि उस को बस में बैठाने के बाद बूआ ने फोन पर इस की सूचना पापा को दे दी होगी. शायद घर में उस के आने के इंतजार में होंगे सभी…

सामान का बैग हाथ में लिए घर के दरवाजे के अंदर दाखिल होते एक बार तो शेफाली को ऐसा लगा था कि किसी बेगानी जगह पर आ गई है.

पापा उस के इंतजार में ड्राइंगरूम में ही बैठे थे. उन के साथ मानसी और अंकुर भी थे जोकि दौड़ कर उस से लिपट गए.

उन को प्यार करते हुए शेफाली की नजरें पापा से मिलीं. चाह कर भी शेफाली मुसकरा नहीं सकी. उस ने केवल इतना ही कहा, ‘‘हैलो पापा, कैसे हैं आप?’’

‘‘अच्छा हूं. अपनी सुनाओ. सफर में कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’’

‘‘नहीं…और होती भी तो अब कोई फर्क नहीं पड़ता. मुझ को कुछ समय से तकलीफें बरदाश्त करने की आदत पड़ चुकी है,’’ कोशिश करने पर भी अपने गुस्से और आक्रोश को छिपा नहीं सकी शेफाली.

इस पर पापा ने मानसी और अंकुर से कहा, ‘‘तुम दोनों जा कर जरा अपनी दीदी का कमरा ठीक करो, मैं तब तक इस से बातें करता हूं.’’

पापा का इशारा समझ कर दोनों तुरंत वहां से चले गए.

‘‘मैं जानता हूं तुम मुझ से नाराज हो,’’ उन के जाने के बाद पापा ने कहा.

‘‘मुझ को बहाने के साथ घर से बाहर भेज कर मेरी ममी की जगह एक दूसरी ‘औरत’ को दे दी पापा और इस के बाद भी आप उम्मीद करते हैं कि मुझ को नाराज होने का भी हक नहीं?’’

‘‘यह मत भूलो कि वह ‘औरत’ अब तुम्हारी नई मां है,’’ पापा ने शेफाली को चेताया.

इस से शेफाली जैसे बिफर गई और बोली, ‘‘मैं इस रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं करूंगी, पापा,’’

‘‘मैं इस के लिए तुम पर जोर भी नहीं डालूंगा, मगर तुम उस से एक बार मिल लो…शिष्टाचार के नाते. वह ऊपर कमरे में है,’’ पापा ने कहा.

‘‘मैं सफर की वजह से बहुत थकी हुई हूं, पापा. इस वक्त आराम करना चाहती हूं. इस बारे में बाद में बात करेंगे,’’ शेफाली ने अपने कमरे की तरफ बढ़ते हुए रूखी आवाज में कहा.

शेफाली कमरे में आई तो सबकुछ वैसे का वैसा ही था. किसी भी चीज को उस की जगह से हटाया नहीं गया था.

मानसी और अंकुर वहां उस के इंतजार में थे.

कोशिश करने पर भी शेफाली उन के चेहरों या आंखों में कोई मायूसी नहीं ढूंढ़ सकी. इस का अर्थ था कि उन्होंने मम्मी की जगह लेने वाली औरत को स्वीकार कर लिया था.

‘‘तुम दोनों की पढ़ाई कैसी चल रही है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘एकदम फर्स्ट क्लास, दीदी,’’ मानसी ने जवाब दिया.

‘‘और तुम्हारी नई मम्मी कैसी हैं?’’ शेफाली ने टटोलने वाली नजरों से दोनों की ओर देख कर पूछा.

‘‘बहुत अच्छी. दीदी, तुम ने मां को नहीं देखा?’’ मानसी ने पूछा.

‘‘नहीं, क्योंकि मैं देखना ही नहीं चाहती,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘ऐसी भी क्या बेरुखी, दीदी. नई मम्मी तो रोज ही तुम्हारी बातें करती हैं. उन का कहना है कि तुम बेहद मासूम और अच्छी हो.’’

‘‘जब मैं ने कभी उन को देखा नहीं, कभी उन से मिली नहीं, तब उन्होंने मेरे अच्छे और मासूम होने की बात कैसे कह दी? ऐसी मीठी और चिकनीचुपड़ी बातों से कोई पापा को और तुम को खुश कर सकता है, मुझे नहीं,’’ शेफाली ने कहा.

शेफाली की बातें सुन कर मानसी और अंकुर एकदूसरे का चेहरा देखने लगे.

उन के चेहरे के भावों को देख कर शेफाली को ऐसा लगा था कि उन को उस की बातें ज्यादा अच्छी नहीं लगी थीं.

मानसी  से चाय और साथ में कुछ खाने के लिए लाने को कह कर शेफाली हाथमुंह धोने और कपडे़ बदलने के लिए बाथरूम में चली गई.

सौतेली मां को ले कर शेफाली के अंदर कशमकश जारी थी. आखिर तो उस का सामना सौतेली मां से होना ही था. एक ही घर में रहते हुए ऐसा संभव नहीं था कि उस का सामना न हो.

मानसी चाय के साथ नमकीन और डबलरोटी के पीस पर मक्खन लगा कर ले आई थी.

भूख के साथ सफर की थकान थी सो थोड़ा खाने और चाय पीने के बाद शेफाली थकान मिटाने के लिए बिस्तर पर लेट गई.

मस्तिष्क में विचारों के चक्रवात के चलते शेफाली कब सो गई उस को इस का पता भी नहीं चला.

शेफाली ने सपने में देखा कि मम्मी अपना हाथ उस के माथे पर फेर रही हैं. नींद टूट गई पर बंद आंखों में इस बात का एहसास होते हुए भी कि? मम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं, शेफाली ने उस स्पर्श का सुख लिया.

फिर अचानक ही शेफाली को लगा कि हाथ का वह कोमल स्पर्श सपना नहीं यथार्थ है. कोई वास्तव में ही उस के माथे पर धीरेधीरे अपना कोमल हाथ फेर रहा था.

चौंकते हुए शेफाली ने अपनी बंद आंखें खोल दीं.

आंखें खोलते ही उस को जो चेहरा नजर आया वह विश्वास करने वाला नहीं था. वह अपनी आंखों को बारबार मलने को विवश हो गई.

थोड़ी देर में शेफाली को जब लगा कि उस की आंखें जो देख रही हैं वह सच है तो वह बोली, ‘‘आप?’’

दरअसल, शेफाली की आंखों के सामने वंदना का सौम्य और शांत चेहरा था. गंभीर, गहरी नजरें और अधरों पर मुसकराहट.

‘‘हां, मैं. बहुत हैरानी हो रही है न मुझ को देख कर. होनी भी चाहिए. किस रिश्ते से तुम्हारे सामने हूं यह जानने के बाद शायद इस हैरानी की जगह नफरत ले ले, वंदना ने कहा.

‘‘मैं आप से कैसे नफरत कर सकती हूं?’’ शेफाली ने कहा.

‘‘मुझ से नहीं, लेकिन अपनी मां की जगह लेने वाली एक बुरी औरत से तो नफरत कर सकती हो. वह बुरी औरत मैं ही हूं. मैं ही हूं तुम्हारी सौतेली मां जिस की शक्ल देखना भी तुम को गवारा नहीं. बिना देखे और जाने ही जिस से तुम नफरत करती रही हो. मैं आज वह नफरत तुम्हारी इन आंखों में देखना चाहती हूं.

‘‘हम जब पहले मिले थे उस समय तुम को मेरे साथ अपने रिश्ते की जानकारी नहीं थी. पर मैं सब जानती थी. तुम ने सौतेली मां के कारण घर आने से इनकार कर दिया था. किंतु सौतेली मां होने के बाद भी मैं अपनी इस रूठी हुई बेटी को देखे बिना नहीं रह सकती थी. इसलिए अपनी असली पहचान को छिपा कर मैं तुम को देखने चल पड़ी थी. तुम्हारे पापा, तुम्हारी बूआ ने भी मेरा पूरा साथ दिया. भाभी को सहेली के बेटी बता कर अपने घर में रखा. मैं अपनी बेटी के साथ रही, उस को यह बतलाए बगैर कि मैं ही उस की सौतेली मां हूं. वह मां जिस से वह नफरत करती है.

‘‘याद है तुम ने मुझ से कहा था कि मैं बहुत अच्छी हूं. तब तुम्हारी नजर में हमारा कोई रिश्ता नहीं था. रिश्ते तो प्यार के होते हैं. वह सगे और सौतेले कैसे हो सकते हैं? फिर भी इस हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं मां जरूर हूं, लेकिन सौतेली हूं. तुम को मुझ से नफरत करने का हक है. सौतेली मांएं होती ही हैं नफरत और बदनामी झेलने के लिए,’’ वंदना की आवाज में उस के दिल का दर्द था.

‘‘नहीं, सौतेली आप नहीं. सौतेली तो मैं हूं जिस ने आप को जाने बिना ही आप को बुरा समझा, आप से नफरत की. मुझ को अपनेआप पर शर्म आ रही है. क्या आप अपनी इस नादान बेटी को माफ नहीं करेंगी?’’ आंखों में आंसू लिए वंदना की तरफ देखती हुई शेफाली ने कहा.

‘‘धत, पगली कहीं की,’’ वंदना ने झिड़कने वाले अंदाज से कहा और शेफाली का सिर अपनी छाती से लगा लिया.

प्रेम के स्पर्श में सौतेलापन नहीं होता. यह शेफाली को अब महसूस हो रहा था. कोई भी रिश्ता हमेशा बुरा नहीं होता. बुरी होती है किसी रिश्ते को ले कर बनी परंपरागत भ्रांतियां.

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