प्रकाश स्तंभ: भाग 2- क्या पारिवारिक झगड़ों को सुलझा पाया वह

दोनों सहेलियां भोजन करने लगी थीं पर रचना की विचारशृंखला पहले की भांति ही चलती रही. रम्या आजकल में आने ही वाली थी. दोनों बहनों में एक क्षण को भी नहीं बनती. इस समस्या को कैसे सुलझाएं इसी ऊहापोह में डूबी थी. निमिषा ठीक ही कहती है कि मेरा घर तो पूरा अजायबघर है, इसे सचमुच छोड़ कर भाग जाने का मन होता है.

रचना घर पहुंची तो रम्या आ चुकी थी. उस का पति प्रतीक टीवी देखने में व्यस्त था जबकि रम्या अपना सामान खोल रही थी.

‘मां, अच्छा हुआ आप आ गईं. अब आप ही बता दीजिए कि मैं अपना सामान कहां लगाऊं? मैं दीदी से कह रही थी कि वह ऊपर का कमरा हमारे लिए खाली कर दे. वह अकेली जान नीचे के गेस्टरूम में सरलता से रह लेंगी. हम दोनों ऊपर का कमरा ले लेंगे,’ रम्या रचना को देखते ही बदहवास हो उठी थी.

‘मैं ने पहले ही कहा था कि मैं अपना कमरा किसी को नहीं देने वाली. अतिथियों के लिए अतिथिकक्ष होता है, उन्हें वहीं रहना चाहिए,’ नंदिनी ने रचना के कुछ बोलने से पहले ही अपना निर्णय सुना दिया था.

‘रहने दे रम्या. बड़ी बहन है तेरी. क्यों छेड़ती है बेचारी को. तुम दोनों अपना सामान अतिथिकक्ष में जमा लो. थोड़ा छोटा अवश्य है पर बहुत हवादार और आरामदायक कमरा है,’ रचना ने समझौता करवा दिया था.

‘ठीक है. हमें कौन सा यहां जीवन बिताना है? कहीं भी रह लेंगे…प्रतीक का काम जमते ही हम यहां से चले जाएंगे. हमें तो बड़ा सा, खुला घर चाहिए,’ रम्या ने मुंह बनाया था.

‘छोड़ो, यह सब. इतनी छोटी सी बात के लिए क्यों अपना मन खराब करती हो. कुछ और बताओ. क्या हालचाल हैं. इतने दिनों बाद घर आई हो, इतने दिनों तक क्या किया, कहां घूमेफिरे?’

‘मां, मैं अतिथिकक्ष में अपना सामान जमा लेती हूं. बातें बाद में करेंगे. पहले कुछ खाने को दो. सामान बांधने और यहां आने के चक्कर में नाश्ता तक नहीं किया. बस, एक कप चाय पी थी.’

रम्या की बात सुन कर रचना पिघल उठी थी. बेचारी ने सुबह से कुछ नहीं खाया है.

‘नंदिनी, तुम ने छोटी बहन को खाने तक को नहीं पूछा?’ रचना आश्चर्य- चकित स्वर में पूछ बैठी थी.

‘जरूर कुछ खिलाती माताश्री, पर आप की लाड़ली ने मुझ से कहा तक नहीं कि वह भूखी है. यह शुभ समाचार तो इस ने आप के लिए ही रख छोड़ा था.’

‘चल, मैं अभी कुछ बना देती हूं,’ रचना द्रवित हो उठी थी, ‘बेचारी सुबह से भूखी है.’

रचना ने आननफानन में गरमागरम पूडि़यां और रम्या की पसंद की सब्जी बना दी थी. पिता नीरज गुलाबजामुन ले आए थे. बहुत दिनों बाद पूरा परिवार एकसाथ भोजन करने बैठा था.

‘अच्छा हुआ रम्या, तुम आ गईं, न जाने कितने दिनों बाद आज हम ढंग का भोजन कर रहे हैं…नहीं तो सूखी दालरोटी खातेखाते मन ऊब गया था,’ नंदिनी अपनी प्लेट में पूड़ी डालते हुए बोली थी.

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‘ऐसी बातें तुम्हें शोभा नहीं देतीं नंदिनी, तुम क्या अब भी छोटी बच्ची हो? जो खाने का मन हो स्वयं बना कर खा सकती हो,’ नंदिनी की बात सुन कर रचना तीखे स्वर में बोली थी.

‘हां, पता है कि मैं बच्ची नहीं हूं पर मां, हर क्षण यह बताने की आवश्यकता नहीं है. आगे से मैं अपने लिए खुद ही भोजन बना लूंगी,’ नंदिनी एकदम से भड़क उठी और अपनी प्लेट छोड़ कर वह रोती हुई ऊपर कमरे में चली गई थी.

‘तुम भी चुप नहीं रह सकतीं, रचना. रुला दिया न बेचारी को,’ नीरज बाबू रूखे स्वर में बोले और बेटी को समझाने उस के कमरे में चले गए थे.

नीरज बाबू के समझानेबुझाने से उस समय युद्धविराम अवश्य हो गया था पर दोनों बहनों के बीच शीतयुद्ध की स्थिति बनी रहती थी. रचना को हर घड़ी यही चिंता सताती थी कि कहीं स्थिति विस्फोटक न हो जाए.

‘मां, प्रतीक बहुत बुद्धिमान और परिश्रमी है,’ रम्या बोली, ‘परिवार का थोड़ा सहारा मिल जाता तो पता नहीं कहां से कहां पहुंच जाता. पर उस के पिता और भाई तो उस की शक्ल देखने को तैयार नहीं हैं.’

‘लेकिन बेटी, उसे अपनी नौकरी को कुछ अधिक गंभीरता से लेना चाहिए था कि नहीं?’ रचना ने अपनी बात स्पष्ट की थी.

‘मां, सच पूछो तो अपने पिता के भरोसे ही प्रतीक नौकरी छोड़ कर आया था पर पिता की बेरुखी  से बिलकुल टूट गया है. वैसे भी उस का दोष क्या है मां. यही न कि उस ने अपनी पसंद से विवाह किया है,’ रम्या रो पड़ी थी.

रचना प्रस्तर मूर्ति बनी बैठी रही थीं. काश, वह भी ऐसा कर पातीं, पर नहीं, चाहे कुछ हो जाए वह अपने खून का तिरस्कार करने की सामर्थ्य नहीं रखती थीं.

 

‘कितनी पूंजी चाहिए प्रतीक को?’ ‘कम से कम

15-20 लाख रुपए, मां. एक बार उन का काम चल निकला तो वह आप की पाईपाई चुका देगा.’

‘रम्या, मैं प्रतीक से बात करना चाहती हूं. उस के मुंह में तो लगता है जबान ही नहीं है.’

रम्या लपक कर प्रतीक को बुला लाई थी.

‘देखो, बेटे,’ रचना ने बात स्पष्ट की, ‘मेरी बात को अन्यथा मत लेना. मैं तो तुम्हें केवल अपनी वस्तुस्थिति से अवगत कराना चाहती हूं. हम ठहरे मध्यवर्गीय लोग. हमारा काम अवश्य चलता रहता है पर व्यापार के लिए बड़ी रकम जुटा पाना हमारे लिए संभव नहीं है. लेदे कर यह एक घर ही है. कम से कम सिर पर छत होने का संतोष तो है, जहां हर परिस्थिति में शरण ली जा सकती है.

‘मैं तो तुम्हें यही सलाह दूंगी कि एक अच्छी सी नौकरी ढूंढ़ लो तुम दोनों. थोड़ा अनुभव और पूंजी दोनों पास हों तो व्यापार करने में सरलता रहती है. तुम समझ रहे हो न?’ प्रतीक के चेहरे पर बेचैनी के भाव देख कर वह पूछ बैठी थीं.

प्रतीक कुछ क्षणों तक शून्य में ताकता चुप बैठा रह गया था. रचना मन ही मन बदहवास हो उठी थीं. प्रतीक सामान्य तो है? ऐसा क्या है इस में जिस पर रम्या रीझ गई थी. रचना ने इसे भी नियति का खेल जान कर खुद को समझाना चाहा था.

आखिर मौन रम्या ने ही तोड़ा था, ‘मां, हम आप से सलाह नहीं सहायता की उम्मीद ले कर आए थे.’

‘बेटी, मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार हर सहायता करने को तैयार हूं.’

उस दिन से रम्या ने उन से बोलचाल भी अत्यंत सीमित कर दी थी. कभी सामने पड़ जाती तो रचना ही बोल पड़ती अन्यथा रम्या और प्रतीक अपने ही कक्ष में सिमटे रहते.

ऐसे में सीशैल्स जाने का प्रस्ताव उन्हें ताजी हवा के झोंके की भांति लगा था. कुछ विशेष भत्तों के साथ उन्हें पदोन्नति दे कर भेजा जा रहा था. साथ ही नई शाखा स्थापित करने का अपना रोमांच भी था.

इसी ऊहापोह में देर तक सोचती हुई कब वह निद्रा की गोद में समा गईं उन्हें स्वयं ही पता नहीं चला था. नीरज ने जब बत्ती जलाई तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी थीं.

‘‘सो रही थीं क्या? सोना ही है तो आराम से पलंग पर सो जाओ, मैं बत्ती बुझा देता हूं,’’ नीरज बाबू धीरगंभीर स्वर में बोले थे.

‘‘थकान के कारण आंख लग गई थी. अभी सोने का मन नहीं है,’’ वह उठीं, घड़ी पर नजर डाली. अभी 9 ही बजे थे पर ऐसी शांति थी मानो आधी रात हो. चूंकि टीवी बंद था इसलिए उन्हें अजीब सा लगा.

‘‘क्या बात है नीरज, नाराज हो क्या? कुछ तो बोलो?’’

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‘‘बोलने को क्या बचा है, रचना? तुम ने फैसला लिया है तो सोचसमझ कर ही लिया होगा. मुझे तो सदा यही अपराधबोध सताता है कि मैं ने तुम्हारे साथ अन्याय किया है. पर सच मानो, मैं ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया है,’’ नीरज बाबू का स्वर बेहद उदास था.

‘‘मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. तुम ने तो हर कदम पर मुझे मजबूत सहारा प्रदान किया है. केवल तुम्हारे ही बलबूते पर तो मैं बेधड़क कोई भी निर्णय ले लेती हूं. तुम्हारा मेरे जीवन में जो महत्त्व है उसे पैसे से नहीं आंका जा सकता,’’ रचना का स्वर अनजाने ही भीग गया था.

नीरज बाबू हंस दिए थे. एक उदास खोखली सी हंसी जो रचना के दिल को छलनी करती चली गई थी.

‘‘इस तरह मन क्यों छोटा करते हो,’’ रचनाजी बोलीं, ‘‘मैं अकेली नहीं जा रही, हम दोनों साथ जा रहे हैं. नंदिनी और रम्या स्वयं को संभालने योग्य हो गई हैं.’’

‘‘लेकिन रचना, नंदिनी का हाल तो तुम जानती ही हो. हम दोनों के सहारे के बिना कैसे जीएगी वह.’’

‘‘मां हूं मैं, फिर भी मन को समझा लिया है मैं ने. शायद जो हमारी मौजूदगी से संभव नहीं हुआ वह हमारी गैरमौजूदगी में हो जाए. जब समस्या सिर पर आ खड़ी होती है तो हल ढूंढ़ने के अलावा और कौन सा रास्ता शेष रह जाता है?’’ रचना ने समझाना चाहा था.

‘‘ठीक है. मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो,’’ और कुछ दिनों की ऊहापोह के बाद वह मान गए थे. रचना ने अनेक तर्क दे कर उन्हें साथ जाने के लिए मना लिया था.

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सौतेली: भाग 1- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

जब से जानकी बूआ ने शेफाली को यह बतलाया कि उस की गैरमौजूदगी में उस के पापा ने दूसरी शादी की है तब से उस का मन यह सोच कर बेचैन हो रहा था कि जब वह घर वापस जाएगी तो वहां एक ऐसी अजनबी औरत को देखेगी जो उस की मां की जगह ले चुकी होगी और जिसे उस को ‘मम्मी’ कह कर बुलाना होगा.

पापा की शादी की बात सुन शेफाली के अंदर विचारों के झंझावात से उठ रहे थे.

मम्मी की मौत के बाद शेफाली ने पापा को जितना गमगीन और उदास देखा था उस से ऐसा नहीं लगता था कि वह कभी दूसरी शादी की सोचेंगे. वैसे भी मम्मी जब जिंदा थीं तो शेफाली ने उन को कभी पापा से झगड़ते नहीं देखा था. दोनों में बेहद प्यार था.

मम्मी को कैंसर होने का पता जब पापा को चला तो उन्हें छिपछिप कर रोते हुए शेफाली ने देखा था.

यह जानते हुए भी कि मम्मी बस, कुछ ही दिनों की मेहमान हैं पापा ने दिनरात उन की सेवा की थी.

इन सब बातों को देख कर कौन कह सकता था कि वह मम्मी की बरसी का भी इंतजार नहीं करेंगे और दूसरी शादी कर लेंगे.

अब जब पापा की दूसरी शादी एक कठोर हकीकत बन चुकी थी तो शेफाली को अपने दोनों छोटे भाईबहन की चिंता होने लगी थी. बहन मानसी से कहीं अधिक चिंता शेफाली को अपने छोटे भाई अंकुर की थी जो 5वीं कक्षा में पढ़ रहा था.

मम्मी को कैंसर होने का जब पता चला था तो शेफाली बी.ए. फाइनल में थी और बी.ए. करने के बाद बी.एड. करने का सपना उस ने देखा था. लेकिन मम्मी की असमय मृत्यु से शेफाली का वह सपना एक तरह से बिखर गया था.

शेफाली बड़ी थी. इसलिए मम्मी की मौत के बाद उस को लगा था कि छोटे भाईबहन के साथसाथ पापा की देखभाल की जिम्मेदारी भी उस के कंधों पर आ गई थी और उस ने भी अपने दिलोदिमाग से इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए खुद को तैयार कर लिया था.

मगर शेफाली को हैरानी उस समय हुई जब मम्मी की मौत के 3-4 महीने बाद ही पापा ने उस को खुद ही बी.एड. करने के लिए कह दिया.

शेफाली ने तब यह कहा था कि अगर वह भी पढ़ाई में लग गई तो घर को कौन देखेगा तो पापा ने कहा, ‘घर की चिंता तुम मत करो, यह देखना मेरा काम है. तुम अपने भविष्य की सोचो और अपनी आगे की पढ़ाई शुरू कर दो.’

‘मगर यहां बी.एड. के लिए सीट का मिलना मुश्किल है, पापा.’

‘तो क्या हुआ, तुम्हारी जानकी बूआ जम्मू में हैं. सुनने में आता है कि वहां आसानी से सीट मिल जाती है. मैं जानकी से फोन पर इस बारे में बात करूंगा. वह इस के लिए सारा प्रबंध कर देगी,’ पापा ने शेफाली से कहा था.

शेफाली तब असमंजस से पापा का मुख ताकती रह गई थी, क्योंकि ऐसा करना न तो घर के हालात को देखते हुए सही था और न ही दुनियादारी के लिहाज से. लेकिन पापा तो उस को जानकी बूआ के पास भेजने का मन बना ही चुके थे.

शेफाली की दलीलों और नानुकुर से पापा का इरादा बदला नहीं था और हमेशा दूसरों के घर की हर बात पर टीकाटिप्पणी करने वाली जानकी बूआ को भी पापा के फैसले पर कोई एतराज नहीं हुआ था. होता भी क्यों? शायद पापा जो भी कर रहे थे जानकी बूआ के इशारे पर ही तो कर रहे थे.

उसे लगा सबकुछ पहले से ही तय था. बी.एड. की पढ़ाई तो जैसे उस को घर से निकालने का बहाना भर था.

अब सारी तसवीर शेफाली के सामने बिलकुल साफ हो चुकी थी. शायद मम्मी की मौत के तुरंत बाद ही गुपचुप तरीके से पापा की दूसरी शादी की कोशिशों का सिलसिला शुरू हो गया था. शेफाली को पक्का यकीन था कि इस में जानकी बूआ ने अहम भूमिका निभाई होगी.

मम्मी की मौत पर जानकी बूआ की आंखें सूखी ही रही थीं. फिर भी छाती पीटपीट कर विलाप करने का दिखावा करने के मामले में बूआ सब से आगे थीं.

एक तो वैसे भी जानकी बूआ का रिश्ता दिखावे का था. दूसरे, मम्मी से बूआ की कभी बनी न थी. उन के रिश्ते में खटास रही थी. इस खटास की वजह अतीत की कोई घटना हो सकती थी. इस के बारे में शेफाली को कोई जानकारी न थी.

लगता तो ऐसा है कि मम्मी के कैंसर होने की बात जानते ही जानकी बूआ ने दोबारा भाई का घर बसाने की बात सोचनी शुरू कर दी थी. तभी तो जबतब इशारों ही इशारों में बूआ अपने अंदर की इच्छा यह कह कर जाहिर कर देती कि औरत के बगैर घर कोई घर नहीं होता. पापा ने भी शायद दोबारा शादी के लिए जानकी बूआ को मौन स्वीकृति दी होगी. तभी तो योजनाबद्ध तरीके से सारी बात महीनों में ही सिरे चढ़ गई थी.

चूंकि मैं बड़ी व समझदार हो गई थी. मुझ से बगावत का खतरा था इसलिए मुझे बी.एड. की पढ़ाई के बहाने बड़ी खूबसूरती से घर से बाहर निकाल दिया गया था.

पापा की दूसरी शादी करवा कर वापस आने के बाद जानकी बूआ शेफाली के साथ ठीक से आंख नहीं मिला पा रही थीं और तरहतरह से सफाई देने की कोशिश कर रही थीं.

किंतु अब शेफाली को बूआ की हर बात में केवल झूठ और मक्कारी नजर आने लगी थी इसलिए उस के मन में बूआ के प्रति नफरत की एक भावना बन गई थी.

फूफा शायद शेफाली के दिल के हाल को बूआ से ज्यादा बेहतर समझते थे इसलिए उन्होंने नपेतुले शब्दों में उस को समझाने की कोशिश की थी, ‘‘मैं तुम्हारे दिल की हालत को समझता हूं बेटी, मगर जो भी हकीकत है अब तुम्हें उस को स्वीकार करना ही होगा. नए रिश्तों से जुड़ना बड़ा मुश्किल होता है लेकिन उस से भी मुश्किल होता है पहले वाले रिश्तों को तोड़ना. इस सच को भी तुम्हें समझना होगा.’’

घर जाने के बारे में शेफाली जब भी सोचती नर्वस हो जाती. उस के हाथपांव शिथिल पड़ने लगते. कैसा अजीब लगेगा जब वह मम्मी की जगह पर एक अजनबी और अनजान औरत को देखेगी? वह औरत कैसी और किस उम्र की थी, शेफाली नहीं जानती मगर वह उस की सौतेली मां बन चुकी थी, यह एक हकीकत थी.

‘सौतेली मां’ का अर्थ शेफाली अच्छी तरह से जानती थी और ऐसी मांओं के बारे में बहुत सी बातें उस ने सुन भी रखी थीं. अपने से ज्यादा उसे छोटे भाईबहन की चिंता थी. वह नहीं जानती थी कि सौतेली मां उन के साथ कैसा व्यवहार कर रही होंगी.

जानकी बूआ शेफाली से कह रही थीं कि वह एक बार घर हो आए और अपनी नई मम्मी को देख ले लेकिन शेफाली ने बूआ की बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया, क्योंकि अब उन की अच्छी बात भी उसे जहर लगती थी. इस बीच पापा का 2-3 बार फोन आया था पर शेफाली ने उन से बात करने से मना कर दिया था.

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प्रकाश स्तंभ: भाग 3- क्या पारिवारिक झगड़ों को सुलझा पाया वह

नंदिनी के व्यवहार में अब अजीब परिवर्तन देखा था रचना ने. वह कुछ खिंचीखिंची सी रहने लगी थी और बहुत जरूरी होने पर ही उन से बात करती. ज्यादातर अपने कमरे में बैठी, स्वयं में ही व्यस्त रहने लगी थी.

एक दिन रचना बेटी के कमरे में जा बैठीं और बोलीं, ‘‘क्या बात है नंदिनी, आजकल बहुत चुप रहने लगी हो?’’

‘‘मां, आप के पास भी कहां समय है मेरे लिए? आप तो कामक ाजी महिला हैं. मेरे जैसी निठल्ली थोड़े ही हैं…फिर अब तो आप विदेश जा रही हैं,’’ नंदिनी के स्वर का व्यंग्य उन से छिप नहीं सका था.

‘‘भविष्य संवारने के लिए एक से दूसरे स्थान जाने का सिलसिला तो सालों से चल रहा है बेटी. वैसे मैं तुम लोगों का पूरा प्रबंध कर के जा रही हूं. तुम्हें किसी तरह की परेशानी नहीं होगी. यदि कभी अचानक कोई जरूरत आ पड़े तो तुम्हारे मामा हैं न यहां. वह कह भी रहे थे कि तुम दोनों बहनों का वह पूरा खयाल रखेंगे.’’

‘‘ठीक है, मां,’’ नंदिनी ने निश्वास लेते हुए कहा और बात आईगई हो गई थी.

1 माह का समय कैसे बीत गया रचना को पता भी नहीं चला. इस दौरान दफ्तर और घर दोनों ही जगहों पर उन की व्यस्तता बढ़ गई थी. जब जाने का समय आया तो रचना रो पड़ी थीं. नीरज बाबू का मन भी बोझिल हो उठा था पर वह पत्नी को ढाढ़स बंधाते रहे थे.

उधर मातापिता को विदा कर लौटी नंदिनी घर पहुंचते ही फूटफूट कर रो पड़ी थी. जब बहुत देर तक उस का रोना बंद नहीं हुआ तो रम्या के संयम का बांध टूट गया.

‘‘अब कब तक यों रोनेपीटने का कार्यक्रम चलेगा, दीदी,’’ वह बेहाल स्वर में बोली थी.?

‘‘मांपापा चले गए हैं, यह पता है मुझे. मैं तो इसलिए रो रही हूं कि मां ने एक बार भी मुझ से साथ चलने को नहीं कहा,’’ नंदिनी सुबकते हुए बोली थी.

‘‘लो और सुनो, तुम्हारे कारण ही तो मांपापा घर क्या देश भी छोड़ कर चले गए. फिर तुम्हें साथ चलने को कहने का क्या औचित्य था?’’ रम्या खिलखिला कर हंसी थी.

‘‘वे मेरे कारण नहीं तुम्हारे कारण गए हैं. जब देखो तब पैसा चाहिए. मैं पूछती हूं कि जब पूंजी नहीं है तो व्यापार करना जरूरी है क्या? प्रतीक नौकरी नहीं कर सकते?’’ नंदिनी क्रोध में आ गई थी.

‘‘दीदी, मुझे कुछ भी कहो पर प्रतीक को बीच में न ही लाओ तो अच्छा है. पूंजी के लिए मां से मैं ने कहा था प्रतीक ने नहीं,’’ रम्या ने विरोध प्रकट किया था.

सुनते ही नंदिनी भड़क उठी थी और आरोपप्रत्यारोपों का सिलसिला कुछ इस तरह चला कि प्रतीक को हस्तक्षेप करना पड़ा.

‘‘यदि आप दोनों बहनों का झगड़ा शांत हो गया हो तो हम भोजन कर लें. मुझे जोर की भूख लगी है. मैं ने मेज पर खाना लगा दिया है,’’ प्रतीक ने अनुनयपूर्ण स्वर में पूछा था.

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उस के नाटकीय अंदाज को देख कर रम्या शांत हो गई और नंदिनी रूठ कर अपने कमरे में चली गई थी.

‘‘दीदी को भी बुला लो नहीं तो वह भूखी ही सो जाएंगी,’’ प्रतीक बोला था.

‘‘मैं न कभी रूठती हूं और न रूठे हुए को मनाती हूं,’’ रम्या ने उत्तर दिया था.

‘‘ठीक है तो मैं बुला लाता हूं उन्हें,’’ प्रतीक उठ खड़ा हुआ था.

‘‘अरे, वाह, आज दीदी के लिए बड़ा प्यार उमड़ रहा है?’’

‘‘रम्या, समझ से काम लो. मम्मीपापा अब नहीं हैं यहां जो तुम्हारी दीदी को मना कर खिलापिला देंगे. तुम दोनों एकदूसरे की चिंता नहीं करोगी तो कौन करेगा?’’ प्रतीक ने समझाना चाहा था.

‘‘बड़ी वह हैं मैं नहीं. यों बातबात पर रूठना, उन्हें शोभा देता है क्या? मैं नहीं जाने वाली उन्हें मनाने,’’ रम्या ने दोटूक उत्तर दे दिया था.

प्रतीक नंदिनी को बुलाने चला गया था. वह प्रतीक के साथ आई तो तीनों भोजन करने बैठे पर दोनों बहनें बातचीत करना तो दूर एकदूसरे से नजरें मिलाने से भी कतरा रही थीं.

नंदिनी ने चुपचाप भोजन किया और फिर अपने कमरे में जा बैठी थी.

‘‘देखा तुम ने? ऐसा कितने दिन चलेगा, आईं, खाना खाया और फिर अपने कमरे में जा बैठीं. हम दोनों क्या उन के सेवक हैं जो सारा काम करते रहें.’’

‘‘वह तुम्हारी बड़ी बहन हैं, रम्या. लोग तो अनजान लोगों की भी सेवा कर देते हैं. मन शांत रखोगी तो स्वयं भी चैन से रहोगी और दूसरे भी आनंदित रहेंगे.’’

‘‘ठीक है, मैं चलती हूं. कुछ रिक्त स्थानों के विज्ञापन देखे थे, उन्हें भेजने के लिए प्रार्थनापत्र टाइप करने हैं,’’ वह उठ खड़ी हुई थी.

‘‘रम्या, तुम अपनी पुरानी कंपनी में पुन: प्रयत्न क्यों नहीं करतीं. शायद बात बन जाए,’’ प्रतीक ने सलाह दी थी.

‘‘क्या कह रहे हो? जब मैं ने अचानक नौकरी छोड़ी थी तो हमारे प्रबंध निदेशक आगबबूला हो गए थे. विवाह के लिए 2 माह का वेतन अग्रिम लिया था. उसे चुकाए बिना ही मैं छोड़ आई थी. अब क्या मुंह ले कर वहां जाऊंगी?’’ रम्या रोंआसी हो उठी थी.

‘‘तुम ने ऐसा किया ही क्यों? तुम्हारे नए नियोक्ता अवश्य उन से पूछताछ करेंगे.’’

‘‘इसीलिए तो मैं कंपनी का नाम तक नहीं ले रही.’’

‘‘ऐसा करने से कर्मचारी की साख को बट्टा लगता है. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.’’

‘‘क्या पता था, फिर से नौकरी करनी पड़ेगी,’’ रम्या बोली, ‘‘विवाह से पहले कितने सपने देखे थे, सब मिट्टी में मिल गए.’’

‘‘यों मन छोटा नहीं करते, मैं नौकरी और व्यापार दोनों के लिए प्रयत्न कर रहा हूं. कुछ मित्रों से बात की है. कुछ न कुछ हो जाएगा,’’ प्रतीक ने आश्वासन दिया था.

अगले दिन रम्या और प्रतीक सो कर उठे तो नंदिनी चाय बना रही थी. आशा के विपरीत वह टे्र में 3 प्याली चाय ले कर आई और प्रतीक और रम्या को उन की चाय थमा कर अपनी चाय पीने लगी थी.

‘‘धन्यवाद, दीदी, चाय बहुत अच्छी बनी थी,’’ प्रतीक आखिरी घूंट लेते हुए बोला था.

‘‘धन्यवाद तो मुझे देना चाहिए. रात्रि के भोजन के लिए तुम नहीं बुलाते तो शायद मैं भूखी ही सो जाती. इस घर में तो मेरे खाने न खाने से किसी को अंतर ही नहीं पड़ता,’’ नंदिनी भरे गले से बोली थी.

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रम्या ने चौंक कर नंदिनी को देखा था.

‘‘आप क्यों चिंता करती हैं, दीदी, हम हैं न. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा,’’ प्रतीक ने ढाढ़स बंधाया था.

समय अपनी गति से बढ़ता रहा. रम्या ने अनेक प्रयत्न किए पर कहीं सफलता नहीं मिली. आखिर उस ने अपनी पुरानी कंपनी में जाने का निर्णय लिया.

‘‘नमस्ते, सर,’’ रम्या ने प्रबंध निदेशक अस्थाना के कमरे में घुसते ही अभिवादन किया था.

‘‘ओह रम्या, कहो कैसी हो, तुम विवाह करते ही ऐसी गायब हुईं जैसे गधे के सिर से सींग. तुम तो यह भी भूल गईं कि तुम ने कंपनी से 2 माह का अग्रिम वेतन लिया हुआ था.’’

‘‘यह मैं कैसे भूल सकती हूं सर. सच पूछिए तो कुछ व्यक्तिगत समस्याओं में ऐसी उलझ गई कि आ ही नहीं सकी. उस के लिए क्षमा प्रार्थी हूं.’’

‘‘ओह, तो काम करने आई हो तुम? पर मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता. मेरे ऊपर भी कुछ अफसर हैं और उन से आज्ञा लिए बिना तुम्हें फिर काम पर रखना संभव नहीं हो सकेगा.’’

‘‘लेकिन सर, यदि आप ने मुझे काम पर नहीं रखा तो 2 माह का वेतन चुकाने की सामर्थ्य मुझ में कहां है?’’

‘‘ठीक है, तुम अपना प्रार्थनापत्र छोड़ जाओ. कोई निर्णय लेते ही सूचित करेंगे,’’ अस्थाना साहब ने दोटूक शब्दों में कह दिया था.

थकीहारी रम्या घर पहुंची तो वह चौंक गई. घर में तीव्र स्वर लहरियां गूंज रही थीं. अंदर पहुंची तो पाया कि नंदिनी दीदी एक लोकप्रिय गीत की धुन पर थिरक रही थीं. कुछ देर तो रम्या ठगी सी उन्हें देखती रही थी.

‘‘दीदी, तुम तो छिपी रुस्तम निकलीं. इतना अच्छा नृत्य करती हो तुम और मुझे पता तक नहीं,’’ वह बोली थी.

‘‘जब मन प्रसन्न हो तो पांव स्वयं ही थिरक उठते हैं,’’ नंदिनी भावविभोर स्वर में बोली थी और फिर एक पत्र उस की ओर बढ़ा दिया था.

‘‘ओह दीदी, एंजल कानवेंट स्कूल की ओर से भेजा गया यह तो तुम्हारा नियुक्तिपत्र है.’’

‘‘वही तो, यह मेरा पहला नियुक्ति- पत्र है. शायद मुझ अभागी का भाग्य भी करवट ले रहा है.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते दीदी. मैं जानती थी कि एक न एक दिन तुम अवश्य अपनी योग्यता के झंडे गाड़ोगी.’’

‘‘रम्या, मुझे कल से ही काम पर जाना है पर तुम चिंता मत करना. मैं सारा काम कर लूंगी,’’ नंदिनी ने रम्या का मुंह मीठा करवाया था.

‘‘रम्या, कहां हो? देखो तो, बड़ा ही सुखद समाचार है,’’ कुछ ही देर में प्रतीक ने प्रवेश किया था.

‘‘कहो न, क्या बात है?’’

‘‘मैं ने अपने 3 दोस्तों के साथ मिल कर सौफ्टवेयर कंपनी बना ली है. बैंक ने कर्ज देने की बात भी मान ली है. मेरे एक हिस्सेदार के पिता बैंक में कार्यरत हैं. उन्होंने हमारी बड़ी सहायता की. अब तुम्हें कहीं नौकरी करने की जरूरत नहीं है.’’

रचना और नीरज बाबू को फोन पर जब नंदिनी और प्रतीक ने अपनी सफलता की बात बताई तो उन की प्रसन्नता की सीमा न रही. रचना तो अपनी बेटियों को याद कर सिसक उठी थीं.

‘‘मन हो रहा है कि मैं उड़ कर अपने घर पहुंच जाऊं और दोनों बेटियों को गले से लगा लूं,’’ रचना बोली थीं.

‘‘मैं तो अगले सप्ताह ही उड़ कर अपनी बेटियों के पास जा रहा हूं, कई अधूरे काम पूरे करने हैं,’’ वह बोले थे.

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‘‘मैं भी छुट्टी ले कर चलती हूं. नंदिनी और रम्या से मिलने को बड़ा मन हो रहा है,’’ रचना ने कहा तो नीरज बाबू प्रसन्नता से झूम उठे थे.

‘‘मैं ने कई जगह नंदिनी के विवाह की बात चलाई है. 2-3 जगह से कुछ आशा बंधी है. इस बार भारत जा कर नंदिनी का विवाह कर के ही लौटेंगे,’’ रचना पुलकित स्वर में बोलीं और नंदिनी के लिए आए विवाह प्रस्तावों की पतिपत्नी मिल कर कंप्यूटर पर विवेचना करने लगे थे.

‘‘क्यों न यह विवरण और फोटो नंदिनी को भेज दें. उस की राय भी तो जान लें,’’ नीरज बाबू बोले.

‘‘नहीं, यह सुखद समाचार तो वहां पहुंच कर हम स्वयं सुनाएंगे. नंदिनी के चेहरे पर आने वाले भाव मैं स्वयं देखना चाहती हूं,’’ रचना मुसकरा दी थीं. उस प्रकाश स्तंभ की भांति जो स्वयं निश्चल खड़ा रह कर भी दूरदूर तक लोगों को राह दिखाता है.

सौतेली: भाग 2- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

जानकी बूआ ने शेफाली पर घर जाने और पापा से फोन पर बात करने का दबाव बनाने की कोशिश की तो उस ने बूआ को सीधी धमकी दे डाली, ‘‘बूआ, अगर आप किसी बात के लिए मुझे ज्यादा परेशान करोगी तो सच कहती हूं, मैं इस घर को भी छोड़ कर कहीं चली जाऊंगी और फिर कभी किसी को नजर नहीं आऊंगी.’’

शेफाली की इस धमकी से बूआ थोड़ा डर गई थीं. इस के बाद उन्होंने शेफाली पर किसी बात के लिए जोर देना ही बंद कर दिया था.

शेफाली को यह भी पता था कि वह हमेशा के लिए बूआ के घर में नहीं रह सकती थी. 5-6 महीने के बाद जब उस की बी.एड. की पढ़ाई खत्म हो जाएगी तो उस के पास बूआ के यहां रहने का कोई बहाना नहीं रहेगा.

तब क्या होगा?

आने वाले कल के बारे में जितना सोचती उतना ही अनिश्चितता के धुंधलके में घिर जाती. बगावत पर आमादा शेफाली का मन उस के काबू में नहीं रहा था.

फूफा से शेफाली कम ही बात करती थी. बूआ से तो उस का छत्तीस का आंकड़ा था लेकिन उस घर में शेफाली जिस से अपने दुखसुख की बात करती थी वह थी रंजना, जानकी बूआ की बेटी.

रंजना लगभग उसी की हमउम्र थी और एम.ए. कर रही थी.

रंजना उस के दिल के हाल को समझती थी और मानती थी कि उस के पापा ने उस की गैरमौजूदगी में शादी कर के गलत किया था. इस के साथ वह शेफाली को हालात के साथ समझौता करने की सलाह भी देती थी.

सौतेली मां के लिए शेफाली की नफरत को भी रंजना ठीक नहीं समझती थी.

वह कहती थी, ‘‘बहन, तुम ने अभी उस को देखा नहीं, जाना नहीं. फिर उस से इतनी नफरत क्यों? अगर किसी औरत ने तुम्हारी मां की जगह ले ली है तो इस में उस का क्या कुसूर है. कुसूर तो उस को उस जगह पर बिठाने वाले का है,’’ ऐसा कह कर रंजना एक तरह से सीधे शेफाली के पापा को कुसूरवार ठहराती थी.

कुसूर किसी का भी हो पर शेफाली किसी भी तरह न तो किसी अनजान औरत को मां के रूप में स्वीकार करने को तैयार थी और न ही पापा को माफ करने के लिए. वह तो यहां तक सोचने लगी थी कि पढ़ाई पूरी होने पर उस को जानकी बूआ का घर भले ही छोड़ना पडे़ लेकिन वह अपने घर नहीं जाएगी. नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ी होगी और अकेली किसी दूसरी जगह रह लेगी.

2 बार मना करने के बाद पापा ने फिर शेफाली से फोन पर बात करने की कोशिश नहीं की थी. हालांकि जानकी बूआ से पापा की बात होती रहती थी.

मानसी और अंकुर से शेफाली ने फोन पर जरूर 2-3 बार बात की थी, लेकिन जब भी मानसी ने उस से नई मम्मी के बारे में चर्चा करने की कोशिश की तो शेफाली ने उस को टोक दिया था, ‘‘मुझ से इस बारे में बात मत करो. बस, तुम अपना और अंकुर का खयाल रखना,’’ इतना कहतेकहते शेफाली की आवाज भीग जाती थी. अपना घर, अपने लोग एक दिन ऐसे बेगाने बन जाएंगे शेफाली ने कभी सोचा नहीं था.

पहले तो शेफाली सोचती थी कि शायद पापा खुद उस को मनाने जानकी बूआ के यहां आएंगे पर एकएक कर कई दिन बीत जाने के बाद शेफाली के अंदर की यह आशा धूमिल पड़ गई.

इस से शेफाली ने यह अनुमान लगाया कि उस की मम्मी की जगह लेने वाली औरत (सौतेली मां) ने पापा को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है. इस सोच में उस के अंदर की नफरत को और गहरा कर दिया.

अचानक एक दिन बूआ ने नौकरानी से कह कर ड्राइंगरूम के पिछले वाले हिस्से में खाली पड़े कमरे की सफाई करवा कर उस पर कीमती और नई चादर बिछवा दी थी तो शेफाली को लगा कि बूआ के घर कोई मेहमान आने वाला है.

शेफाली ने इस बारे में रंजना से पूछा तो वह बोली, ‘‘मम्मी की एक पुरानी सहेली की लड़की कुछ दिनों के लिए इस शहर में घूमने आ रही है. वह हमारे घर में ही ठहरेगी.’’

‘‘क्या तुम ने उस को पहले देखा है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ रंजना का जवाब था.

शेफाली को घर में आने वाले मेहमान में कोई दिलचस्पी नहीं थी और न ही उस से कुछ लेनादेना ही था. फिर भी वह जिन हालात में बूआ के यहां रह रही थी उस के मद्देनजर किसी अजनबी के आने के खयाल से उस को बेचैनी महसूस हो रही थी.

वह न तो किसी सवाल का सामना करना चाहती थी और न ही सवालिया नजरों का.

जानकी बूआ की मेहमान जब आई तो शेफाली उसे देख कर ठगी सी रह गई.

चेहरा दमदमाता हुआ सौम्य, शांत और ऐसा मोहक कि नजर हटाने को दिल न करे. होंठों पर ऐसी मुसकान जो बरबस अपनी तरफ सामने वाले को खींचे. आंखें झील की मानिंद गहरी और खामोश. उम्र का ठीक से अनुमान लगाना मुश्किल था फिर भी 30 और 35 के बीच की रही होगी. देखने से शादीशुदा लगती थी मगर अकेली आई थी.

जानकी बूआ ने अपनी सहेली की बेटी को वंदना कह कर बुलाया था इसलिए उस के नाम को जानने के लिए किसी को कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी थी.

मेहमान को घर के लोगों से मिलवाने की औपचारिकता पूरी करते हुए जानकी बूआ ने अपनी भतीजी के रूप में शेफाली का परिचय वंदना से करवाया था तो उस ने एक मधुर मुसकान लिए बड़ी गहरी नजरों से उस को देखा था. वह नजरें बडे़ गहरे तक शेफाली के अंदर उतर गई थीं.

शेफाली समझ नहीं सकी थी कि उस के अंदर गहरे में उतर जाने वाली नजरों में कुछ अलग क्या था.

‘‘तुम सचमुच एक बहुत ही प्यारी लड़की हो,’’ हाथ से शेफाली के गाल को हलके से थपथपाते हुए वंदना ने कहा था.

उस के व्यवहार के अपनत्व और स्पर्श की कोमलता ने शेफाली को रोमांच से भर दिया था.

शेफाली तब कुछ बोल नहीं सकी थी.

जानकी बूआ वंदना की जिस प्रकार से आवभगत कर रही थीं वह भी कोई कम हैरानी की बात नहीं थी.

एक ही घर में रहते हुए कोई कितना भी अलगअलग और अकेला रहने की कोशिश करे मगर ऐसा मुमकिन नहीं क्योंकि कहीं न कहीं एकदूसरे का सामना हो ही जाता है.

शेफाली और वंदना के मामले में भी ऐसा ही हुआ. दोनों अकेले में कई बार आमनेसामने पड़ जाती थीं. वंदना शायद उस से बात करना चाहती थी लेकिन शेफाली ही उस को इस का मौका नहीं देती थी और केवल एक हलकी सी मुसकान अधरों पर बिखेरती हुई वह तेजी से कतरा कर निकल जाती थी.

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सही रास्ता: आखिर चोर कौन था

लेखक- डा. गोपाल नारायण आवटे

जैसे ही जेब में रुपयों को निकालने के लिए हाथ डाला तो उसे अनुभव हुआ, जेब में कुछ भी नहीं है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. आज तक कभी ऐसा हुआ नहीं था. अभी महीना पूरा होने में 15 दिनों का समय शेष था.उस ने पत्नी को आवाज लगाते हुए कहा, ‘‘मुन्ना की अम्मा, जरा इधर आओ.’’

मुन्ना की मम्मी सुबह काम में व्यस्त थी, लेकिन हाथ का काम छोड़ कर आ कर बोली, ‘‘क्या बात हो गई?’’

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए गायब हैं,’’ उस ने क्रोध से कहा.

‘‘कहीं रख कर भूल गए होंगे, देखो, मिल जाएंगे,’’ मुन्ना की मम्मी ने उत्तर दिया.

‘‘मेरा मतलब है तुम ने तो नहीं लिए?’’

‘‘मैं क्यों लेने लगी? अगर मुझे चाहिए होते तो क्या मैं तुम्हें बताती नहीं?’’ मुन्ना की मम्मी ने कहा, फिर आगे कह उठी, ‘‘तुम्हीं ने खर्च कर दिए होंगे और यहां खोज रहे हो.’’

‘‘तुम समझने की कोशिश करो, मैं ने ऐसा कोई खर्च नहीं किया, और करता भी तो क्या मुझे याद नहीं होता?’’ उस ने प्रतिवाद किया.

‘‘मैं ने तुम्हारे रुपए नहीं निकाले,’’ कहते हुए मुन्ना की मम्मी नाश्ता बनाने के लिए अंदर चली गई.

वह परेशान हो गया. आखिर रुपए, वह भी हजारों में थे, कैसे और कहां चले गए? परिवार में केवल एक बेटा मुन्ना ही है और वह जानता है कि मुन्ना को किसी भी प्रकार की कोई गंदी या नशे की आदत नहीं है कि वह चोरी करे या जेब से रुपए निकाले. पचासों बार उसे जब भी आवश्यकता रही, मुन्ना ने कहा था, ‘पापा, मुझे 50 रुपए चाहिए, पिकनिक पर जाना है.’

उस ने उस से कहा था, ‘जा कर पैंट की जेब में से निकाल लो.’ मुन्ना ने 50 ही रुपए लिए थे. कभी भी एक रुपए के लेनदेन में गड़बड़ी नहीं की थी. कभी बाजार से सौदा लाने को भेजते तो लौटने के बाद 2 रुपए भी बचते तो वह लौटा देता था. आज तक मुन्ना ने कभी बिना पूछे रुपए नहीं लिए. अब क्यों लेगा? यदि मुन्ना को रुपए लेने ही थे तो वह इतने रुपयों को क्यों लेता? इतने रुपयों का वह करेगा भी क्या?

पिछले दिनों उस ने मोबाइल खरीदने की मांग जरूर की थी, लेकिन उस ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘मुन्ना, तुम्हारी बर्थडे पर हम गिफ्ट कर देंगे. इन दिनों तंगी है.’

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‘जी पापा,’ मुन्ना ने कहा था.

वह बहुत परेशान हो गया था. अभी महीना भी पूरा नहीं हो पाया था, इस पर आजकल कितनी महंगाई है और आमदनी कितनी कम है. दिनभर आटोरिक्शा चलाने के बाद 2-3 सौ रुपयों की बचत हो पाती है. पत्नी से तो उस ने पूछ लिया, यदि मुन्ना से पूछ लें तो क्या हर्ज है? लेकिन बेटा क्या सोचेगा? उस को पूरे महीने की चिंता थी. उस ने मुन्ना को आवाज दी, जो अभी सो कर उठा था और बाथरूम में जाने की तैयारी में था. मुन्ना आ कर खड़ा हो गया.

‘‘मुन्ना, तुम ने कुछ रुपए निकाले?’’

‘‘कहां से?’’

‘‘मेरी जेब से.’’

‘‘नहीं, नहीं तो,’’ घबराए स्वर में मुन्ना ने कहा.

‘‘मेरी जेब से 2 हजार रुपए निकल गए बेटा, पता नहीं चल पा रहा कहां गए,’’ परेशानी भरे स्वर में उस ने कहा.

‘‘मैं जाऊं पापा?’’ मुन्ना का स्वर अभी तक घबराया सा था, मानो उसी ने चोरी की हो. लेकिन वह क्यों और किस काम के लिए रुपए निकालेगा? बारबार उस का शक मुन्ना पर जा कर पत्नी तक जाता और फिर वह पैंट की दूसरी जेबों में देखने लगता. अकसर इधरउधर वह जहां भी रुपयों को रख देता था, सब जगह उस ने रुपयों को देखा, लेकिन रुपयों को नहीं मिलना था, सो नहीं मिले.

हाथ से खर्च किए या किसी को दिए जाने पर रुपए कम पड़ जाने का दुख नहीं होता है, क्योंकि उस की जानकारी हमें होती है लेकिन अनायास जेब कट जाए या चोरी हो जाए या रुपए गिर जाएं तो सच में बहुत पीड़ा होती है.

आटोरिक्शा में न जाने कितनी बार किसी का मोबाइल या पर्स या थैला रह जाता तो वह यात्री को खोज कर उसे दे देता था या थाने में जा कर उस का सामान जमा करा देता था. लेकिन उस के साथ यह पहली बार ऐसी घटना घटी थी जिस की उसे कोईर् उम्मीद न थी. वह किस पर अविश्वास करे? फिर घर में कोई आयागया भी नहीं जो चोरी होती. हो सकता है कोई आया हो और उसे न पता हो. फिर उस ने पत्नी को आवाज दी. वह फिर आई.

‘‘क्या कल शाम को कोई मिलने वाली सहेली या मुन्ना के दोस्त आए थे?’’

‘‘कोई नहीं आया, तुम ही किसी को दे कर भूल गए होगे,’’ उस ने फिर पति को ही उलाहना दिया.

आखिर रुपए गए तो कहां? वह बारबार सोच रहा था. जितना सोचता उतना ही दुखी हो रहा था. बड़ी मेहनत से कमाए गए रुपए थे. उसे दुखी देख कर मुन्ना की मम्मी ने फिर कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो, मिल जाएंगे. मैं चाय लाती हूं,’’ कह कर वह चली गई. मुन्ना भी बाथरूम से निकल कर टैलीविजन के सामने बैठ कर फिल्म देखने लगा था. वह चायनाश्ता टैलीविजन के सामने बैठ कर ही करता रहा था.

यह सच था कि बहुत अधिक भौतिक वस्तुएं वह नहीं खरीद पाता था, अधिक खर्च भी नहीं कर पाता था. मुन्ना कभी आइसक्रीम या चौकलेट लेने की जिद करता तो वह खिला जरूर देता, लेकिन खिलाने के बाद उसे बता भी देता था, ‘बेटा, हम अभी इतने अमीर नहीं हुए हैं कि फालतू खानेपीने पर 100-200 रुपए खर्च कर सकें.’ मुन्ना कभी नाराज नहीं होता था. वह भी जानता था कि वह एक गरीब परिवार का बेटा है. एकदो बार उस ने अपनी मां से कहा भी था, ‘मम्मी, स्कूल से छूटने के बाद

मैं किसी दुकान पर काम करने चले जाया करूं?’

‘क्यों?’

‘हम गरीब हैं न, पापा को कुछ मदद मिल जाएगी. उस की मां ने उसे सीने से लगा लिया और बालों में हाथ फेरते हुए कह उठी, ‘अभी इस की जरूरत नहीं है, पहले पढ़लिख ले, फिर ये

सब बातें बाद में करना.’ रात में उस ने अपने पति से भी यह बात बताई थी कि मुन्ना काम करने के लिए कह रहा था.

‘मैं जिंदा हूं अभी, खबरदार जो काम करने भेजा तो.’

‘मैं ने कब कहा भेजने को?’

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‘उस से कहो, पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाए.’ बात आईगई, हो गई, लेकिन आखिर रुपए कहां गए होंगे? वह जितना सोचता उतना ही उलझता जाता था. आखिर उस ने तय कर लिया कि एकएक घंटे अतिरिक्त आटोरिक्शा चला कर कर वह इस घाटे को पूरा कर लेगा.

2-3 सप्ताह में वह रुपयों की चोरी की बात को लगभग भूल ही गया था. जीवन शांति के साथ बीत रहा था. एक शाम वह घर लौट रहा था तो रास्ते में उन के महल्ले का पोस्टमैन मिल गया. अभिवादन के बाद उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आज दिल्ली से पार्सल आया था, क्या था उस में?’’

‘‘दिल्ली से पार्सल, मतलब?’’ वह कुछ समझा नहीं, उस के कोई रिश्तेदार भी दिल्ली में नहीं थे, फिर किस ने पार्सल भेजा होगा और कैसा पार्सल? पोस्टमैन ने फिर कहा, ‘‘एक वीपीआर से पार्सल आया था तुम्हारे बेटे के नाम.’’

‘‘कितने का था?’’

‘‘2 हजार रुपयों का.’’

‘‘किस ने छुड़वाया?’’

‘‘तुम्हारे बेटे ने, लेकिन तुम यह सब क्यों पूछ रहे हो?’’

मुन्ना के पापा ने सब सूत्रों को जोड़ा तो बात समझ में आई कि मुन्ना ने कोई पार्सल मंगवाया था, रुपए भी निश्चित रूप से उस ने ही निकाले थे. उन्होंने पोस्टमैन से कहा, ‘‘वैसे ही पूछ लिया, मुन्ना बता तो रहा था पार्सल आने वाला है, लेकिन आज आया, यह मालूम नहीं था.’’

‘‘अच्छा, चलता हूं,’’ कह कर पोस्टमैन अपने घर की ओर मुड़ गया.

मुन्ना के पापा को अत्यधिक क्रोध हो आया, उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मुन्ना इस तरह चोरी करेगा. आखिर, उस ने ऐसा क्यों किया? क्रोध और दुख के मिलेजुले भाव से घर पर पहुंच कर उस ने मुन्ना को जोर से आवाज दी, ‘‘मुन्ना.’’

मुन्ना की मम्मी बाहर निकल आई, ‘‘क्या बात हो गई? इतने नाराज हो?’’

‘‘कहां है मुन्ना? 2 हजार रुपए उसी ने मेरी जेब से निकाले थे,’’ क्रोध में मुन्ना के पापा ने कहा. तब तक मुन्ना भी सामने आ गया था.

‘‘क्यों, तूने ही जेब से रुपए निकाले थे न?’’ मुन्ना ने नजरें नीची कर लीं.

‘‘क्यों चोरी किए थे तूने?’’ पापा ने क्रोध में मुन्ना से पूछा.

‘‘पार्सल में क्या आया? हम से कहता, हम तुझे बाजार से दिलवा देते,’’ पापा अभी भी चिल्ला रहे थे. मुन्ना की मम्मी बहुत आश्चर्य से सबकुछ देख रही थी.

‘‘पापा, वह यहां बाजार में नहीं मिलता,’’ मुन्ना ने घबराए स्वर में कहा.

‘‘क्या मंगवाया था, बता मुझे,’’ पापा ने क्रोध में प्रश्न किया.

मुन्ना अंदर गया, एक छोटी सी पैकिंग ले आया और पापा की ओर बढ़ा दी.

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘पापा, इस में अमीर होने का तावीज है जिस पर लक्ष्मीजी का मंत्र है, इसे धारण करने से घर में खूब रुपया आएगा. पापा, यह मैं ने आप के लिए लिया था ताकि हमारी गरीबी दूर हो सके,’’ मुन्ना ने भोलेपन से पापा के हाथों में वह तावीज देते हुए कहा.

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वह एक पेंडुलम था जिस की कुल कीमत 100 रुपए होगी लेकिन तुरंत वह अपने बेटे की भावनाओं को समझ गया और पलभर बाद ही उसे गले से लगा लिया और कहा, ‘‘बेटा, ऐसा हार पहनने से या पूजापाठ करने से कोई अमीर नहीं बनता, ईमानदारी से परिश्रम किए बिना हम कभी भी धनवान नहीं बन सकते. बेटा, यह सब तो व्यापार और पाखंड है.’’

मुन्ना सिर पकड़ कर बैठ गया. उसे समझ आ गया कि पाखंड का प्रचार कितना प्रभावशाली होता है कि पढ़ेलिखे, तर्क की भाषा जानने वाली, कौम भी ‘एक बार अपना कर देख लो’ की सोच का शिकार हो जाती है. मुन्ना तो कुछ अबोध था पर उस के पापा ने क्यों नहीं पाठ पढ़ाया कि यह पाखंड है. शायद इसलिए कि भक्ति का भय उस पर भी मन के कोने में छिपा था.

अपनी-अपनी जिम्मेदारियां: भाग 1- आशिकमिजाज पति को क्या संभाल पाई आभा

किचन में जूठे बरतनों का ढेर लगा था तो बाथरूम में कपड़ों का. घर भी एकदम अस्तव्यस्त था. आभा की समझ में नहीं आ रहा था की शुरुआत कहां से करें. कितनी बार कहा नवल से कि वाशिंग मशीन ठीक करा दो, पर सुनते ही नहीं हैं. बाई भी जबतब छुट्टी मार जाती है. लगता है जैसे मुफ्त में काम कर रही हो. निकालती इसलिए नहीं उसे, क्योंकि फिर दूसरी जल्दी मिलती नहीं है और मिलती भी है तो उस के हजार नखरे होते हैं. बाईर् आज भी न आने को कह गई है.

रिनी से तो कुछ कहना ही बेकार है. जब भी आभा कहती है कि अब बच्ची नहीं रही. कम से कम कुछ खाना बनाना तो सीख ले, तो नवल बीच में ही बोल पड़ते कि पुराने जमाने सी बात मत करो. अरे, आज लड़कियां चांद पर पहुंच गई हैं और तुम अभी भी चूल्हेचौके में ही अटकी हुई हो. मेरी बेटी कोईर् बड़ा काम करेगी. तुम्हारी तरह यह घर के कामों में थोड़े उलझी रहेगी. आभा चुप लगा जाती. इस से रिनी और ढीठ बनती गई.

उस की सास निर्मला से तो वैसे भी घर का कोई काम नहीं होता. नहींनहीं, ऐसी बात नहीं कि अब उन का शरीर काम करना बंद कर चुका है. एकदम स्वस्थ हैं अभी भी, परंतु अपने पूजापाठ, धर्मकर्म और हमउम्र सहेलियों से उन्हें वक्त ही कहां मिलता है, जो वे आभा के कामों में हाथ बटाएंगी. साफ कह दिया है कि बहुत संभाल चुकीं वे घरगृहस्थी.

आभा भी उन से मदद नहीं मांगती, क्योंकि बारबार वही बातों को दोहराना, शिकायतें करना और वे भी तब जब कोई सुनने वाला ही न हो, तो इस से अच्छा तो यही लगा आभा को कि खामोश रहा जाए. इसलिए उस ने खामोशी ओढ़ कर घरबाहर की सारी जिम्मेदारियां अपने कंधों पर ले लीं. लेकिन उस पर भी घर के लोगों को उस से कोई न कोई शिकायत रहती ही. खासकर निर्मला को. वे तो हमेशा बकबक करती रहतीं. पासपड़ोस से आभा की शिकायतें करतीं कि बहू कभी बेटी नहीं बन सकती है.

यहीं पास के ही शिव मंदिर से सटी अरविंद बाबा की कुटिया है, जहां वे अपने चेलेचपाटों के साथ निवास करते हैं. अच्छेअच्छे घरों की महिलाएं उन के चरणों में लोट कर खुद को धन्य मानती हैं और निर्मला भी. बाबा से पूछे बिना वे एक भी काम नहीं करतीं. बाबा का वचन मतलब सत्य वचन होता उन के लिए.

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आएदिन मंदिर में कोई न कोई उत्सव होता ही रहता. कभी ठाकुरजी का जन्म उत्सव, कभी ब्याह, कभी यज्ञोपवीत, कभी झूला, कभी जलविहार, कभी कुछ तो कभी कुछ लगा ही रहता. और इन अवसरों पर निर्मला भी खूब चढ़ावा चढ़ातीं. बाबा के बहाने ही तो आखिर उन्हें घर के कामों से फुरसत मिलती और दूसरी औरतों की कहानियां सुनने को मिलतीं. बाबा न होता तो जिम्मदारियों से जूझना पड़ता.

मेहनत की कमाई यों लूटे, अच्छा तो नहीं लगता पर धर्म के मामले में कौन मुंह खोले. इसलिए आभा और नवल चुप ही रहते थे. वैसे भी धर्मसंकट सब से बड़ा संकट होता है. लेकिन आभा इन कर्मकांडों का हिस्सा कभी नहीं बनी और इसीलिए निर्मला उस से क्षुब्ध रहतीं. गुस्सा तो आभा को तब आता, जब निर्मला उस अरविंद बाबा को अपने घर पर प्रवचन, भजन, कीर्तन करवाने बुला लेती थीं. महीने में यह

2-3 बार होता ही होता था. लेकिन इन सब ढकोसलों से बच्चों की पढ़ाई का नुकसान होता और यही बात आभा को बरदाश्त नहीं होती. इसलिए एक दिन आभा ने इस बात का पुरजोर विरोध किया और कहा कि जरूरत नहीं इन बाबाओं को घर बुलाने की, क्योंकि वह इन सब ढकोसलों में बिलकुल विश्वास नहीं करती है, उसे तो बस कर्म पर भरोसा है.

नवल ने कुछ कहा तो नहीं, पर लगा आभा सही कह रही है और वैसे भी घर में जवान लड़की है, तो क्या जरूरत है मां को इन्हें घर पर बुलाने की? समझ गई निर्मला कि बेटा भी बहू की बात से सहमत है. कुछ कहा तो नहीं, पर मन ही मन बड़बड़ाईं कि यहां लोग दूरदूर से बाबा के दर्शन करने आते हैं, पर इन अभागों को कौन समझाए यह बात?

इधर कुछ दिनों से आभा की तबीयत ठीक नहीं लग रही थी. बहुत थकान महसूस हो रही थी. सिर भी भारीभारी लग रहा था. हलका बुखार भी रहने लगा था. खाने की इच्छा तो होती ही नहीं थी. जबरदस्ती अगर कुछ खा भी लेती, तो पेट में दर्द होने लगता और उलटी हो जाती. समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उसे हो क्या गया है? जब नवल से कहती, तो वे चिढ़ कर कहते डाक्टर को दिखा लो. बहुत होता तो मैडिकल स्टोर से दवा ला कर पकड़ा देते और साथ में

10 बातें भी सुना देते कि उस सुमन से गप्पें मारने का समय होता है, घंटों सासबहू के सीरियल देख सकती, पर डाक्टर के पास नहीं जा सकती. घर में काम ही कितना होता है जो हर वक्त काम की दुहाईर् देती रहती है? ऐसी बातें बोल कर नवल आभा को चुप करा देता और वह बेचारी सोचती कि जाने दो ठीक हो जाएगा अपनेआप, पर मर्र्ज था कि दिनप्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था.

हमारे समाज में सदियों से औरतें खुद को इगनोर करती आई हैं. आज भी औरतों के लिए पहले पति, बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों का स्वास्थ्य सर्वोपरि होता है. आभा का भी यही हाल था. अगर घर में किसी को एक छींक भी आ जाए, तो परेशान हो उठती थी, लेकिन अपनी परेशानी ठीक हो जाएगी सोच कर टाल जाती थी.

उस दिन आभा का जी बहुत मिचला रहा था. सिर में दर्द तो इतना कि लग रहा था फट

ही जाएगा. सोचा नवल औफिस जा ही रहे हैं तो उसे डाक्टर के पास छोड़ देंगे और फिर वह दिखा कर वापस आ जाएगी. अत: बोली, ‘‘सुनिएजी, आप सिर्फ मुझे अस्पताल छोड़ दीजिए, मैं डाक्टर से दिखा कर वापस आ जाऊंगी.’’

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नवल जो गाना गुनगुनाते हुए अपनी टाई ठीक कर रहा था आभा की बात सुनते ही फूट पड़ा, ‘‘पागल हो क्या? खुद मुझे देर हो रही है और तुम और देर करवाने की फिराक में लगी हो? जाओ न खुद दिखा लो डाक्टर को. वैसे भी जब देखो, कोई न कोई बीमारी लगी ही रहती है तुम्हें… एक तो कमा कर खिलाओ और फिर ये सब लफड़े… नहीं होगा इतना मुझ से,’’ भुनभुनाते हुए नवल औफिस निकल गया और आभा हैरान सी उसे जाते देखती रह गई. लगा सब की सेवा करे तो ठीक, लेकिन अपने बारे में कुछ बोले, तो कैसे नवल खीज उठते हैं.

औरत की तो यही दशा है. सब के लिए सोचती है, लेकिन जब किसी को उस के लिए करना पड़ जाए, तो वह उकताने लगता है. बेचारी आभा, अपने दर्द को दरकिनार कर फिर घर के कामों में जुट गई.

रात में आभा को बड़ी बेचैनी होने लगी. गरम पानी के सेंक से और बाम लगा लेने से पेट दर्द और सिरदर्द तो कुछ ठीक हुआ, लेकिन सूखी खांसी बड़ी परेशान करने लगी. बुखार था सो अलग. कमजोरी से उठने का मन नहीं कर रहा था. लग रहा था कोई पानी पिला दे. इसलिए नवल को उठाया, लेकिन कैसे झल्लाते हुए उस ने उसे पानी दिया वही जानती है. बेचैनी के मारे फिर पूरी रात उसे नींद नहीं आई. सारा बदन दर्द के मारे टूट रहा था, मगर कहे तो किस से?

सुबह किसी तरह उठ चायनाश्ता बनाया. नवल को औफिस भेज कर किचन का बाकी काम अभी समेट ही रही थी कि एकदम से चक्कर आ गया और वहीं धड़ाम से गिर पड़ी. वह तो वक्त पर सुमन वहां पहुंच गईर् और उसे डाक्टर के पास ले गई वरना जाने क्या अनर्थ हो जाता. अस्पताल से ही रिनी ने पापा को फोन कर के बताया कि मां बेहोश हो गई हैं. जल्दी अस्पताल पहुंचें.

नवल आननफानन में वहां पहुंच गया. जांच कर डाक्टर ने बताया कि आभा को हैपेटाइटिस बी हुआ है और उसे अस्पताल में भरती करना पड़ेगा. सुन कर तो जैसे नवल को चक्कर ही आ गया. लगा अब घर कैसे चलेगा? आभा इतनी बीमार है इस की उसे जरा भी परवाह नहीं. चिंता होने लगी कि घर कैसे चलेगा?

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हमदर्द

कावेरी सन्न रह गई. लगा, उस के पैरों की शक्ति समाप्त हो गई है. कहीं गिर न पड़े इस डर से सामने पड़ी कुरसी पर धम से बैठ गई. 27 साल के बेटे को जो बताना था वह बता चुका  था और अब मां की पेंपें सुनने के लिए खड़े रहना उस के लिए मूर्खता छोड़ और कुछ नहीं था. फिर मां के साथ इतना लगाव, जुड़ाव, अपनापन या प्यार उस के मन में था भी नहीं जो अपनी कही हुई भयानक बात की मां के ऊपर क्या प्रतिक्रिया है उस को देखने के लिए खड़ा हो कर अपना समय बरबाद करता.

कावेरी ने उस की गाड़ी के स्टार्ट होने की आवाज सुनी और कुरसी की पुश्त से टेक लगा कर निढाल सी फैल गई. जीतेजागते बेटे से यह बेजान लकड़ी की बनी कुरसी उस समय ज्यादा सहारा दे रही थी. काम वाली जशोदा आटा पिसवाने गई थी. अत: जब तक वह नहीं लौटती अकेले घर में इस कुरसी का ही सहारा है.

पति का जब इंतकाल हुआ तो बेटा 8वीं में था. कावेरी को भयानक झटका लगा पर उस में साहस था. सहारा किसी का नहीं मिला, मायके वालों में सामर्थ्य ही नहीं थी, ससुराल में संपन्नता थी पर किसी के लिए कुछ करने का मन ही नहीं था.

वह समझ गई थी कि अब अपनी नाव को आप ही खींच कर किनारे पर लाना है. पति के फंड का पैसा ले कर मासिक ब्याज खाते में जमा किया. बीमा का जो पैसा मिला उस से आवासविकास का यह घर खरीद लिया. ब्याज जितना आता खाना और बेटे की पढ़ाई हो जाती पर कपड़ा, सामाजिकता, बीमारी आदि सब कैसे हो? उस का उपाय भी मिल गया. पड़ोस में एक प्रकाशक थे, पाठ्यक्रम की किताबें छापते थे. उन से मिल कर कुछ अनुवाद का काम मांग कर लाई. उस से जो आय होती उस का काम ठीकठाक चल जाता. अब अभाव नहीं रहा.

जशोदा को पूरे समय के लिए रख लिया. गाड़ी पटरी पर आ कर ठीकठाक चलने लगी. उस ने सोचा जीवन ऐसे ही कट जाएगा पर इनसान जो सोचता है उस के विपरीत करना ही नियति का काम है तो कावेरी के सपने भला कैसे पूरे होते.

अपने सपने पूरे नहीं होंगे इस का आभास तो बेटे के थोड़ा बडे़ होते ही कावेरी को होने लगा था. बेटा वैसे तो लोगों की नजरों में सोने का टुकड़ा है. पढ़ने में सदा प्रथम, कोई बुरी लत नहीं, बुरी संगत नहीं, रात में कभी देर से नहीं लौटता, पैसा, फैशनेबुल कपड़े या मौजमस्ती के लिए कभी मां को तंग नहीं करता पर जैसेजैसे बड़ा होता जा रहा था कावेरी अनुभव करती जा रही थी कि बेटे का रूखापन उस के प्रति बढ़़ता जा रहा था.

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कोई लगाव, प्यार तो मां के प्रति बचा ही नहीं था. तेज बुखार में भी उठ कर बेटे को खाना बनाती और बेटा चाव से खा कर घर से निकल जाता. भूल कर भी यह नहीं पूछता कि मां, कैसी तबीयत है.

कावेरी इन बातों को कहे भी तो कैसे? ऊपर को मुंह कर के थूको तो थूक अपने मुंह पर आ कर गिरता है. दुश्मन भी यह जान कर खुश होंगे कि बेटा उस के हाथ के बाहर है. दूसरी बात यह थी कि उस के मन में भय भी था कि पति का छोड़ा यह घर उन के पीछे बिना बिखरे टिका  हुआ है. लड़ाईझगड़ा करे और बेटा घर छोड़ कर चला जाए तो एक तो घर घर नहीं रहेगा, दूसरी और बड़ी बात होगी कम उम्र की कच्ची बुद्धि ले घर से निकल वह अपना ही सर्वनाश कर लेगा.

बेटा कैसा भी आचरण क्यों न करे वह तो मां है. बेटे को सर्वनाश के रास्ते में नहीं धकेल सकती, अवहेलना अनादर सह कर भी नहीं. इन सब परिस्थितियों के बीच भी एक आशा की किरण टिमटिमा रही थी कि बेटा बिल्लू एम.बी.ए. कर एक बहुत अच्छी कंपनी में उच्च पद पर लग गया है. सुना है ऊंचा वेतन है. हां, यह जरूर है कि वेतन का बेटे ने एक 10 का नोट भी उस के हाथ पर रख कर नहीं कहा, ‘मां, यह लो, अपने लिए कुछ ले लेना.’

घर जैसे पहले वह चलाती थी वैसे ही आज भी चला रही है. अब तो बड़ेबड़े घरों से अति सुंदर लड़कियों के रिश्ते भी आ रहे हैं. कावेरी खुशी और गर्व से फूली नहीं समा रही. इन में से छांट कर एक मनपसंद लड़की को बहू बना कर लाएगी तो घर का दरवाजा हंस उठेगा. बहू उस के साथसाथ लगी रहेगी. बेटे से नहीं पटी तो क्या? पराई बेटी अपनी बेटी बन जाएगी पर बेटे ने उस की उस आशा की किरण को बर्फ की सिल्ली के नीचे दफना दिया और वह खबर सुना कर चला गया था जिस से उस के शरीर में जितनी भी शक्ति थी समाप्त हो गई थी और बेजान कुरसी ने उसे सहारा दिया.

आज कावेरी को पहली बार लगा कि जीवन उस के लिए बोझ बन गया है क्योंकि इनसान जीता है किसी उद्देश्य को ले कर, कोई लक्ष्य सामने रख कर. जिस समय पति की मृत्यु हुई थी तब भी उसे लगा था कि जीवन समाप्त हो गया पर उस को जीना पड़ेगा, सामने उद्देश्य था, लक्ष्य था, बेटा छोटा है, उस को बड़ा कर उस का जीवन प्रतिष्ठित करना है, उस का विवाह कर के घर बसाना है. मौत भी आ जाए तो उस से कुछ सालों की मोहलत मांग बेटे के जीवन को बचाना पड़ेगा पर आज तो सारे उद्देश्य की समाप्ति हो गई, जीवन का कोई लक्ष्य बचा ही नहीं पर बुलाने से ही मौत आ खड़ी हो इतनी परोपकारी भी नहीं.

जशोदा लौटी. आटे का कनस्तर स्टोर में रख कर साड़ी झाड़ती हुई आ कर बोली, ‘‘आंटी, नाश्ता बना लूं? भैया चला गया क्या? बाहर गाड़ी नहीं है.’’

‘‘रहने दे, मेरा मन नहीं है. तू कुछ खा ले फिर भैया का कमरा ठीक से साफ कर दे, आता ही होगा.’’

‘‘फिर कुछ हुआ? अरे, बिना खाए मर भी जाओ तो भी बेटा पलट कर नहीं देखने या पूछने वाला. तुम इतनी बीमार पड़ीं पर कभी बेटे ने पलट कर देखा या हाल पूछा?’’

‘‘बात न कर के कमरा साफ कर… आता ही होगा.’’

‘‘कहां गया है?’’

‘‘ब्याह करने.’’

इतना सुनते ही जशोदा धम से फर्श पर बैठ गई.

‘‘जल्दी कर, रजिस्ट्री में समय ही कितना लगता है…बहू ले कर आता होगा.’’

‘‘बेटा नहीं दुश्मन है तुम्हारा. कब से सपने देख रही हो उस के ब्याह के.’’

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‘‘सारे सपने पूरे नहीं होते. उठ, जल्दी कर.’’

‘‘कौन है वह लड़की?’’

‘‘मैं नहीं जानती, नौकरी करती है कहीं.’’

‘‘तुम भी आंटी, जाने क्यों बेटे के इशारे पर नाचती हो? अपना खाती हो अपना पहनती हो…उलटे बेटे को खिलातीपहनाती हो. सुना है मोटी तनख्वाह पाता है पर कभी 10 रुपए तुम्हारे हाथ पर नहीं रखे और अब ब्याह भी अपनी मर्जी का कर रहा है. ऐसे बेटे के कमरे की सफाई के लिए तुम मरी जा रही हो.’’

गहरी सांस ली कावेरी ने और बोली, ‘‘क्या करूं, बता. पहले ही दिन, नई बहू सास को बेटे से गाली खाते देख कर क्या सोचेगी.’’

‘‘यह तो ठीक कह रही हो.’’

जब बड़ी सी पहिए लगी अटैची खींचते बिल्लू के साथ टाइट जींस और टीशर्ट पहने और सिर पर लड़कों जैसे छोटेछोेटे बाल, सांवली, दुबलीपतली लावण्यहीन युवती को ले कर आया तब घड़ी ठीक 12 बजा रही थी. एक झलक में ही लड़की का रूखा चेहरा, चालचलन की उद्दंडता देख कावेरी समझ गई कि उसे अब पुत्र मोह को एकदम ही त्याग देना चाहिए. यह लड़की चाहे जो भी हो उस की या किसी भी घर की बहू नहीं बन सकती. पता नहीं बिल्लू ने क्या सोचा? बोला, ‘‘रीटा, यह मेरी मां है और मां यह रीटा.’’

जरा सा सिर हिला या नहीं हिला पर वह आगे बढ़ गई. कमरे में जा कर बिल्लू ने दरवाजा बंद कर लिया. हो गया नई बहू का गृहप्रवेश. और नई चमचमाती जूती के नीचे रौंदती चली गई थी वह कावेरी के वे सारे सपने जो जीवन की सारी निराशाओं के बीच बैठ कर देखा करती थी. सुशील बहू, प्यारेप्यारे पोतेपोती के साथ सुखद बुढ़ापे का सपना.

जशोदा लौट कर रसोई की चौखट पर खड़ी हुई और बोली, ‘‘आंटी, यह औरत है या मर्द, समझ में नहीं आया.’’

जशोदा इतनी मुंहफट है कि उस की हरकतों से डरती है कावेरी. पता नहीं नई बहू के लिए और क्याक्या कह डाले. पहले दिन ही वह बहू के सामने बेटे से अपमानित नहीं होना चाहती. पर यह तो सच है कि अब उस को कुछ सोचना पड़ेगा. देखा जाए तो बेटे का जो बरताव उस के साथ रहा उस से बहुत पहले ही उस को अलग कर देना चाहिए था पर अनजान मोह से वह बंध कर रह गई.

‘‘अब तो मां के सहारे की उसे कोई जरूरत नहीं…अब क्यों साथ रहना.’’

जशोदा ने खाना बना कर मेज पर लगा दिया. न चाहते हुए भी कावेरी ने थोड़ी खीर बनाई. जशोदा फिर बौखलाई.

‘‘अब ज्यादा मत सिर पर चढ़ाओ.’’

‘‘नई बहू है, उसे तो पूरी खिलानी चाहिए. मीठा कुछ मंगाया नहीं, थोड़ी खीर ही सही.’’

‘‘अब तुम रहने दो. कहां की नई बहू? पैंट, जूता, बनियान में आई है, सास के पैर छूने तक का ढंग नहीं है. लगता है कि घाटघाट का पानी पी कर इस घाट आई है.’’

कंधे झटक जशोदा चली गई. थोड़ी देर में दोनों अपनेआप खाने की मेज पर आ बैठे. बेटा तो कुरतापजामा पहने था. बहू घुटनों से काफी ऊंचा एक फ्राक जैसा कुछ पहने थी और ऊपर का शरीर आधा नंगा था.

बेटे से एक शब्द भी बोले बिना कावेरी ने बहू को पारखी नजर से देखा. दोनों चुपचाप खाना खा रहे थे. उस के मुख पर भले घर की छाप एकदम नहीं थी और संस्कारों का तो जवाब नहीं. सास से एक बार भी नहीं कहा कि आप भी बैठिए. और तो और, खाने के बाद अपनी थाली तक नहीं उठाई और दरवाजा फिर से बंद हो गया.

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घर का वातावरण एकदम बदल गया. यह स्वाभाविक ही था. घर में जब बहू आती है तो घर का वातावरण ही बदल जाता है. उसे भोर में उठने की आदत है. फ्रेश हो कर पहले चाय बनाती, आराम से बैठ कर चाय पीती, तब दिनचर्या शुरू होती. तब कभीकभी बेटा भी आ बैठता और चाय पीता, दोचार बातें न होती हों ऐसी बात नहीं, मामूली बातें भी होतीं पर अब तो साढ़े 8 बजे जशोदा चाय की टे्र ले कर दरवाजा पीटती तब दरवाजा खोल चाय ले कर फिर दरवाजा बंद हो जाता. खुलता 9 बजने के बाद फिर तैयार हो, नाश्ता करने बैठते दोनों और फौरन आफिस निकल जाते.

दोपहर का लंच आफिस में, शाम को लौटते, ड्रेस बदलते फिर निकल जाते तो आधी रात को ही लौटते. बाहर ही रात का खाना खाते तो नाश्ता छोड़ घर में खाने का और कोई झंझट ही नहीं रहता. छुट्टी के दिन भी कार्यक्रम नहीं बदलता. नाश्ता कर दोनों घूमने चले जाते…रात खापी कर लौटते.

बहू से परिचय ही नहीं हुआ. बस, घर में रहती है तो आंखों में परिचित है, संवाद एक भी नहीं. खाना खाने के बाद ऐसे उठ जाती जैसे होटल में खाया हो. न थाली उठाती न बचा सामान समेट फ्रिज में रखती. कावेरी हैरान होती कि कैसे परिवार में पली है यह लड़की? संस्कार दूर की बात साधारण सी तमीज भी नहीं सीखी है इस ने और यह सब छोटीमोटी बातें तो बिना सिखाए ही लड़कियां अपनी सहज प्रवृत्ति से सीख जाती हैं. इस में तो स्त्रीसुलभ कोई गुण ही नहीं है…पता नहीं इस के परिवार वाले कैसे हैं, कभी बेटी की खोजखबर लेने भी नहीं आते?

कावेरी ने अब अपने को पूरी तरह समेट लिया है. जो मन में आए करो, मुझ से मतलब क्या? कुछ इस प्रकार के विचार बना लिए उस ने. सोचा था घर छोड़ ‘हरिद्वार’ जा कर रहेगी पर इस घर की एकएक चीज उस की जोड़ी हुई, सजाई हुई है. बड़ी ममता है इस सजीसजाई गृहस्थी के प्रति, फिर यह घर भी तो उस के नाम है…वह क्यों अपना घर छोड़ जाएगी…जाना है तो बहूबेटे जाएंगे.

जशोदा भी यही बात कहती है. इस समय उस का अपना कोई है तो बस, जशोदा है. महीने का वेतन और रोटीकपड़े पर रहने वाली जशोदा ही एकमात्र अपनी है…बहुत दिनों की सुखदुख की गवाह और साथी.

बेटे ने घर के लिए कभी पैसा नहीं दिया और आज भी नहीं देता है. कावेरी ने भी यह सोच कर कुछ नहीं कहा कि ये लोग घर पर केवल नाश्ता ही तो करते हैं. बहू तो कमरे से बाहर आती ही नहीं है. कभीकभी चाय पीनी हो तो बेटा रसोई में जा कर चाय बना लेता है. 2 कप कमरे में ले जाते हुए मां को भी 1 कप चाय पकड़ा जाता है. बस, यही सेवा है मां की.

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अपनी-अपनी जिम्मेदारियां: भाग 2- आशिकमिजाज पति को क्या संभाल पाई आभा

रिनी को घर भेज कर वह आभा के पास ही रुक गया. सोचने लगा कि बैठेबैठाए यह कौन सी मुसीबत आन पड़ी? अब घरबाहर के काम कौन करेगा? आभा पर ही गुस्सा आने लगा उसे कि अगर खुद पर ध्यान देती तो यह मुसीबत न आती. अब क्या करेगा वह? घर, औफिस और अस्पताल के चक्कर में तो मर ही जाएगा.

‘‘पहले वहां जा कर पैसे जमा कर आइए,’’ जब नर्स ने कहा, तो नवल का ध्यान टूटा. लगा अब 4-6 हफ्तों का चक्कर तो लग ही गया, क्योंकि डाक्टर कह रहा था कि इलाज में वक्त लगेगा. सोचसोच कर नवल का माथा घूम रहा था, जो आभा से छिपा न रह सका. वह समझ रही थी कि नवल पर कैसी मुसीबत आन पड़ी. घरबाहर सब कैसे मैनेज होगा? अगर जल्दी अस्पताल से छुट्टी मिल जाए तो अच्छा है. बेचारी को अब भी नवल की ही फिक्र हो रही थी और वह मन ही मन आभा को ही कोसे जा रहा था जैसे उस ने खुद बीमारी को बुलावा दिया हो. वह बेचारी तो खुद दर्द से तड़प रही थी, लेकिन फिर भी नवल का मुंह देखे जा रही थी. अब भी उसे घर की ही चिंता लगी थी कि वहां सब कैसे होगा.

‘‘सुनिएजी, सुमन है मेरे पास, तो आप घर जाइए. वहां भी सब परेशान हो रहे होंगे. जल्द ही ठीक हो जाऊंगी. आप चिंता मत कीजिए,’’ दर्द से कहराते हुए आभा ने कहा.

मगर नवल उस की बातों पर ऐसा झल्ला उठा कि पूछो मत. मुंह बनाते हुए बोला, ‘‘क्या चिंता न करूं? अगर तुम खुद का ध्यान रखती, तो आज यह दिन न आता?’’

मगर वह भूल गया कि एक वही है जो घर में सब का ध्यान रखती है. घरबाहर के कामों से ले कर सब की छोटीबड़ी जरूरतों तक की जिम्मेदारी उसी की है, तो कहां बेचारी को समय मिलता है जो अपना ध्यान रखे.

आभा के अस्पताल में रहने से हफ्तेभर में ही घर की हालत बिगड़ने लगी. इधर नवल औफिस और अस्पताल के चक्कर में पिस रहा था और उधर रिनी और निर्मला घर के कामों को ले कर उलझ पड़तीं. सोनू भी अपनी मनमानी करने लगा था. आभा थी तो डांटडपट कर उसे पढ़ने बैठा दिया करती थी, लेकिन उस के न रहने से वह एकदम लापरवाह हो गया था. दिनभर दोस्तों के साथ घूमताफिरता. जब पूछो, तो सोनू घर पर नहीं है, सुनने को मिलता और नवल का माथा गरम हो जाता. लेकिन किसेकिसे देखे वह?

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तभी सुमन आ कर बोली कि उस का पति 14 दिनों के लिए औफिस के काम से बाहर जा रहा है, तो आज रात से वह आभा के पास रुक जाया करेगी. सुन कर नवल ने राहत की सांस ली, क्योंकि वह कई दिनों से ठीक से सो भी नहीं पा रहा था. लगा, जिस सुमन को वह चुगलखोर औरत कह कर संबोधित करता रहा, जिसे देखते ही उसे चिढ़ होने लगती थी आज वही सुमन उस के काम आ रही है. एक वही थी जो आभा के पास जा कर बैठती थी, जब नवल औफिस में होता तब.

आभा के लिए सुबह का चायनाश्ता, दोपहर का खाना ज्यादातर वही तो बना कर ले जाती थी. अपनी करनी पर पछतावा कर मन ही मन वह सुमन का शुक्रगुजार होने लगा. नवल को अब आभा की चिंता सताने लगी थी, क्योंकि डाक्टर कह रहा था कि अगर हैपेटाइटिस बीमारी लंबे समय तक रहे तो लिवर काम करना बंद कर सकता है या फिर कैंसर अथवा घाव हो सकते हैं. कहीं आभा को ऐसा कुछ हो गया तो बिस्तर पर पड़ेपड़े ही वह सोचने लगा. चिंता के मारे उसे नींद नहीं आ रही थी.

नवल जैसे ही अस्पताल पहुंचा तो आभा का मृत शरीर बैड पर पड़ा दिखा.

दोनों बच्चे बिलख रहे थे. निर्मला भी एक कोने में दुबकी यह कहकह कर सिसक रही थीं कि उस के मरने की उम्र न थी. फिर आभा क्यों चली गई? उधर सुमन उसे धिक्कार रही थी कि वही आभा की मौत का जिम्मेदार है. उसी ने उस की जान ली. कहती रही तबीयत ठीक नहीं है दिखा दो डाक्टर को पर नहीं दिखाया. लो देखो मर गई न… मौज करो अब. तभी अचानक हवा का झोंका आया और खिड़की का पल्ला धड़ाम से बंद हुआ तो नवल घबरा कर उठ बैठा. देखा, वहां कोई न था सिवा उस के.

‘उफ, तो यह सपना था?’ अपने दिल पर हाथ रख नवल ने एक गहरी सांस ली और फिर आभा की याद सताने लगी. मन हुआ फोन कर ले, पर लगा नहीं, अस्पताल है. लेकिन आभा को ले कर उस के मन में बुरेबुरे विचार आने लगे. ऐसा ही होता है, मुसीबत के वक्त नकारात्मक बातें दिमाग पर ज्यादा हावी हो जाती है. चाह कर भी इंसान अच्छी बातें सोच नहीं पाता. घबराहट के मारे वह पसीने से तरबतर हो गया. प्यास के मारे गला भी सूखने लगा. देखा, तो जग खाली पड़ा था. आभा थी तो रोज पानी भर कर रख दिया करती थी.

जैसे ही नवल पानी लेने किचन की तरफ जाने लगा, देखा, रिनी के कमरे की लाइट औन है. लगा भूल गई होगी, लेकिन जब कमरे से फुसफुसाने की आवाज आई, तो वह उस ओर बढ़ गया.

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वह फोन पर किसी से कह रही थी, ‘‘अरे, समझो, पापा घर पर ही हैं तो कैसे आऊं?’’

उधर से फिर उस ने कुछ बोला, तो रिनी कहने लगी, ‘‘कहा न नहीं आ सकती, अब फोन रखो कोई सुन लेगा… हांहां कल देखती हूं.’’

‘‘रिनी…’’ नवल जोर से चीखा. उस के हाथ से फोन खींच कर अभी कुछ बोलता कि तभी उधर से उस ने फोन काट दिया. दोबारा

फोन मिलाया, पर स्विच औफ आने लगा. जाहिर सी बात थी उस ने अपना फोन स्विचऔफ कर दिया था. लेकिन इतना तो पता चल गया नवल को कि रिनी किसी लड़के से बात कर रही थी. गुस्से से पापा को लाल होते देख रिनी डर के मारे थरथराने लगी.

‘‘किस से बात कर रही थी? कौन था यह लड़का?’’ नवल ने गुस्से में पूछा.

‘‘क… क कौन लड़का… कोई तो नहीं पापा,’’ रिनी साफ झूठ बोल गई.

‘‘चुप, झूठ मत बोल… अभी मैं ने सुना तुम किसी लड़के से मिलने की बात कर रही थी, पर पापा घर पर हैं इसलिए नहीं आ सकती… यही कहा न तुम ने उस लड़के से? बोलो कौन है वह?’’ नवल चीखते हुए बोला.

‘‘कोई तो न था पापा,’’ रिनी बोली.

नवल ने एक जोर का चांटा रिनी के मुंह पर मारते हुए कहा, ‘‘खबरदार जो आज के बाद बिना मेरे पूछे घर से बाहर कदम भी निकाला.’’

आगे पढ़ें- नवल की नींद और उड़ गई….

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नए रिश्ते: भाग 1- क्या हुआ था रानो के साथ

लेखिका- शशि जैन

रानो घर में दौड़ती हुई घुसी. बस्ता एक तरफ पटक कर वह सरला से लिपट गई. ‘‘दादी बूआ, दादी बूआ, आज हमें मम्मी मिली थीं. हमें मम्मी मिली थीं, दादी बूआ.’’

रानो बड़े उत्तेजित स्वर में बताती जा रही थी कि मम्मी ने उसे क्याक्या खिलाया, क्याक्या कहा.

सरला उस की बातें सुनती रही, उस के सिर और शरीर को सहलाती रही. न रानो के स्वर की उत्तेजना कम हुई थी और न ही सरला के शरीर पर उस के नन्हे हाथों की पकड़ ढीली पड़ी थी. वह अपनी समस्त शक्ति से दादी बूआ के शरीर से चिपटी रही जैसे वही एकमात्र उस का सहारा थी. कुछ ही देर में रानो की उत्तेजना आंसू बन कर टपकने लगी.

‘‘मम्मी घर क्यों नहीं आतीं, दादी बूआ? वे दूसरे घर में क्यों रहती हैं? सब की मम्मी घर में रहती हैं, मेरी मम्मी क्यों नहीं रहतीं? मैं भी यहां नहीं रहूंगी, मैं भी मम्मी के पास जाऊंगी, दादी बूआ.’’

रानो का रोना बढ़ता ही जा रहा था. सरला की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसे कैसे चुप कराए. वह उसे चिपटाए हुए उस का शरीर सहलाती रही. रानो की व्यथा उस की स्वयं की व्यथा बनती जा रही थी. उस की आंखें रहरह कर भरी आ रही थीं. रानो की मम्मी घर पर क्यों नहीं रहतीं, यह क्या वह स्वयं ही समझ सकी थी?

जब वह बूढ़ी होने पर यह बात नहीं जान पाई थी कि रानो की मम्मी उस के साथ क्यों नहीं रहती तो बेचारी रानो ही कैसे समझ सकती थी. वह और रानो तो अल्पबुद्धि थे, यह सब नहीं समझ सकते थे, परंतु प्रदीप तो अपने को बड़ा बुद्धिमान समझता था. क्या उस के पास ही इस बात का कोई उत्तर था और नंदा ही क्या इस का उत्तर जानती थी? वे दोनों समझते हैं कि वे जानते हैं, पर शायद वे भी नहीं जानते कि वे दोनों मिल कर क्यों नहीं रह सके.

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वह रानो को कस कर छाती में दबाए रही, जैसे इसी से वह उसे दुनिया के सारे दुखों से बचा लेगी. उस के हाथों के नीचे नन्हा सा शरीर सुबकता हुआ हिचकोले ले रहा था. वह मन ही मन अपना सारा स्नेह और ममता रानो पर उड़ेल रही थी. धीरेधीरे रानो शांत होने लगी और कुछ ही देर में वह बचपन की शांत गहरी नींद में खो गई. उस का आंसुओं की लकीरों से भरा मासूम चेहरा वेदना की साकार मूर्ति लग रहा था.

जिस नन्ही सी कोमल कली को मां की छाया में पलना चाहिए था, उसे मांविहीना कर के कड़ी धूप में झुलसने को छोड़ दिया गया था.

सरला किचन की टेबल पर सब्जी काटने लगी. मन बहुत सी उलझी हुई गुत्थियों में उलझने लगा.

सत्य क्या है, कौन जान सकता है? वह जीवन में बहुत सी कमियों को झेलती रही थी. उस ने विवाह नहीं किया था. एक छोटी नौकरी के चक्कर में कितने ही लड़कों को न कर दिया था. बाद में मातापिता की मृत्यु के बाद वह इन अभावों को सहती हुई अकेली जीवन व्यतीत करती रही थी. परंतु नंदा को तो सबकुछ मिला था – एक स्वस्थ, सुंदर पति तथा फूल सी प्यारी बिटिया. उस ने किस तरह, कैसे उन्हें हाथ से निकल जाने दिया, क्या उस के लिए पति तथा पुत्री का कोई महत्त्व नहीं था? कुछ तो होगा बहुत ही बड़ा, बहुत ही महत्त्वपूर्ण, जो इन अभावों की पूर्ति कर सका होगा.

वह तो अपने पतिविहीन तथा संतानहीन जीवन को एक यातना समझ कर जी रही थी, परंतु नंदा के लिए इन दोनों का होना ही शायद यातना बन गया था, तभी वह अपने खून और जिगर के टुकड़े को छोड़ कर जा सकी थी. अन्य दिनों की तरह वह आज भी इस प्रश्न को टटोलती रही, पर कोई उत्तर न पा सकी.

प्रदीप आ गया था.

‘‘रानो कहां है, बूआ? दिखाई नहीं दे रही, क्या बाहर खेलने गई है?’’

‘‘सो रही है.’’

‘‘इस समय? तबीयत तो ठीक है?’’ प्रदीप चिंतातुर हो उठा.

‘‘तबीयत तो ठीक है पर उस का मन ठीक नहीं है,’’ बूआ की बात सुन कर प्रदीप प्रश्नचिह्न बना उसे देखता रहा.

‘‘आज उसे उस की मम्मी मिली थी.’’

‘‘क्या नंदा यहां आई थी?’’

‘‘नहीं. वह स्कूल के बाद उसे मिली थी. रानो लौटी तो बेहद उत्तेजित थी. घर आ कर मम्मी को याद करती रोतेरोते सो गई.’’

‘‘कैसी नादानी है नंदा की. बच्ची से मिल कर उसे इस तरह हिला देने का क्या मतलब है? यह तय हो चुका है कि बिना मेरी अनुमति के वह रानो से मिलने की चेष्टा नहीं करेगी. उस ने ऐसा क्यों किया?’’ क्रोध के मारे प्रदीप की कनपटी की नसें फड़क रही थीं.

सरला चुपचाप बैठी सब्जी काटती रही. वह क्या उत्तर दे इन प्रश्नों का. या तो वह पागल है या ये लोग, प्रदीप और नंदा, जो प्राकृतिक सत्य को झुठला कर कोई दूसरा सत्य स्थापित करने की चेष्टा कर रहे हैं. मां अपनी कोखजायी बेटी से बिना अनुमति नहीं मिल सकती? यह कैसा और कहां का नियम है? क्या खून के रिश्तों को कानून के दायरे से घेरा जा सकता है?

प्रदीप दनदनाता हुआ बाहर जाने लगा.

बूआ ने रोका, ‘‘प्रदीप, कहां जा रहा है? चाय तो पी ले, सुबह का भूखाप्यासा है.’’

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‘‘नहीं, बूआ, भूख नहीं है. जरा काम से जा रहा हूं.’’

‘‘मुझे पता है तू कहां जा रहा है. क्रोध कर के मत जा, प्रदीप. सब संबंध तोड़ देने के बाद तुझे क्रोध करने का हक भी कहां रह गया है?’’

‘‘नहीं बूआ, अब चुप रहने से काम नहीं चलेगा. वह एकदो बार पहले भी ऐसा कर चुकी है. खुशी से रह रही रानो से मिल कर वह उसे कितने दिनों के लिए तोड़ जाती है, रानो अपनी जिंदगी से दूर जा कर अलग हो जाती है. रानो के दिमाग पर इस का कितना गहरा और स्थायी असर पड़ सकता है. मैं ऐसा नहीं होने दे सकता.’’

सरला बड़ी अनमनी सी हो उठी.

‘‘तुम लोग पढ़ेलिखे हो और होशियार, पर मैं इतना जरूर कह सकती हूं कि रानो की जिंदगी आज नहीं, तुम और नंदा दोनों मिल कर बहुत पहले ही तोड़ चुके हो. जिस पौधे को कुशल माली की देखरेख में यत्नपूर्वक सुरक्षित रख कर पाला जाना चाहिए था उसे तो तुम झंझावात में अकेला छोड़ चुके हो. मां से मिलने पर कुछ नया घटित नहीं होता, केवल उस के अंदर दबाढंका विद्रोह ही उभरता है. बच्चा चाहे कुछ और न समझे, पर मां से गहरे लगाव की बात उसे समझनी नहीं पड़ती. इस बेचारी की तो मां है, यह कैसे भूल सकती है? तेरी मां तो तुझे 10-12 साल का छोड़ कर इस लोक से चली गई थी, क्या तुझे कभी उस की याद नहीं आई?’’

आगे पढें- सरला चुप हो गई. बहस…

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अपनी-अपनी जिम्मेदारियां: भाग 3- आशिकमिजाज पति को क्या संभाल पाई आभा

नवल का गुस्सा देख रिनी सहम गई कि मां ने तो समझा कर छोड़ दिया पर पापा तो जान ही ले लेंगे उस

की, क्योंकि नवल का गुस्सा वह अच्छी तरह जानती थी.

अब नवल की नींद और उड़ गई. सोचने लगा जवान लड़की है. अगर कदम

बहक गए तो क्या होगा? सचेत तो किया था आभा ने कितनी बार, पर वही उस की बात को आईगई कर दिया करता था. पता चला कि रिनी अपने ही कालेज के एक लड़के से प्यार करती है और उस से छिपछिप कर मिलती है. आभा के समझाने के बाद भी जब वह लड़का रिनी से मिलता रहा, तो वह उस के घर जा कर वार्निंग दे आईर् कि अगर फिर कभी दोबारा वह रिनी से मिला या फोन किया, तो पुलिस में शिकायत कर देगी. रिनी को भी उस ने खूब फटकार लगाई थी. कहा था कि अगर नहीं मानी, तो नवल को बता देगी. तब रिनी का ध्यान उस लड़के से हट गया था, लेकिन आभा के न रहने पर वह फिर मनमानी करने लगी थी.

जो बाबा आभा के डर से घर में आना बंद कर चुका था, क्योंकि वह अंधविश्वास विरोधी थी, वह फिर से उस के घर में डेरा जमाने लगा. घर की सुखशांति के नाम पर वह हर दिन कोई न कोई पूजापाठ, जपतप करवाता रहता और निर्मला से पैसे ऐंठता. समझाता कि उस के घर पर किसी का बुरा साया है. कितनी बार कहा नवल ने कि ये सब फालतू की बातें हैं. न पड़ें वे इन बाबाओं के चक्कर में. मगर निर्मला कहने लगी कि वह तो घर की सुखशांति और आभा के अच्छे स्वास्थ्य के लिए ही ये सब कर रही है.

इधर सोनू का मन भी पढ़ाईलिखाई से उचटने लगा था. जब देखो, मोबाइल, लैपटौप में लगा रहता. और तो और दोनों भाईबहन छोटीछोटी बातों पर लड़ पड़ते और ऐसे उठापटक करने लगते कि पूरा घर जंग का मैदान नजर आता. औफिस से आने के बाद घर की हालत देख नवल का मन करता उलटे पांव बाहर चला जाए. एक आभा के न रहने से घर में सब अपनीअपनी मनमानी करने लगे थे. घर की हालत ऐसी बद से बदतर हो गई कि क्या कहें. ऐसी विकट समस्या आन खड़ी हुई थी जिस का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था नवल को.

उधर औफिस में भी कुछ ठीक नहीं चल रहा था. नवल के औफिस में ही एक दोस्त थी रंभा. खूब पटती थी दोनों की. साथ में खानापीना हंसनाबोलना होता था. भले ही घर में आभा इंतजार कर आंखें फोड़ लें, मगर जब तक रंभा मैडम जाने को न कहती, नवल हिलता तक नहीं. रंभा को देखदेख कर ही वह रसिकभाव से कविताएं बोलता और वह इठलाती, मचलती. चुटकी लेते हुए दूसरे कुलीग कहते कि क्या भाभीजी को देख कर भी मन में कविताएं उत्पन्न होने लगती हैं नवल भाई?

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तब बेशर्मों की तरह हंसते हुए कहता नवल, ‘‘अब भाभी तो घर की मुरगी है न, दाल बराबर.’’

उस की बात पर जहां सब ठहाके लगा

देते, वहीं रंभा और उस के करीब सरक आती. लेकिन आज वही रंभा उसे छोड़ कर दीपक से मन के तार जोड़ बैठी थी. मुंह से चाहे कुछ

न कहे, पर उस के व्यवहार से तो रोज यही झलकता था कि अब नवल में उसे कोई दिलचस्पी नहीं रह गई.

अब नवल भी इतना बेहया तो था नहीं, जो उस के पीछेपीछे चल पड़ता. रंभा का कुछ साल पहले अपने पति से तलाक हो चुका था और अब वह सिंगल थी. वैसे भी ऐसी औरतों का क्या भरोसा, जो वक्त देख कर दोस्त बदल लें.

‘भाड़ में जाए मेरी बला से’, मन में सोच उसी दिन से नवल ने रंभा से किनारा कर लिया, क्योंकि अब उसे अपने घरपरिवार को देखना था. अपनी पत्नी को समय देना था.

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कितनी बार आभा ने चेताया था कि रिनी पर ध्यान दो, लड़की है. जरा भी पैर फिसला, तो बदनामी हमारी होगी. मगर हर बार ‘पागलों सी बातें मत करो’ कह कर नवल उसे ही चुप करा दिया करता था. कहता, वह बच्चों के पीछे पड़ी रहती है. क्या कोई मां अपने बच्चों के पीछे पड़ सकती है कभी? वह तो बच्चों के भले के लिए ही उन्हें डांटतीफटकारती थी. परंतु यह बात आज नवल को समझ में आ रही थी कि आभा कितनी सही थी और वह कितना गलत. सुविधाएं और आजादी तो दी उस ने बच्चों को, पर वह नहीं दे पाया जो उन्हें देना चाहिए था. संस्कार, अच्छी सीख, जिम्मेदारी.

पूछने पर डाक्टर ने बताया कि अब आभा पहले से काफी बेहतर है और

2-4 दिन में उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. लेकिन उस का पूरा खयाल रखना पड़ेगा, क्योंकि अभी भी बहुत कमजोर है.

जब वार्ड में गया, तो आभा सो रही थी, सो उसे जगाना सही नहीं लगा. धीरे से स्टूल खींच कर बैड के समीप ही नवल बैठ गया और एकटक आभा को निहारने लगा. बेजान शरीर, पीला पड़ा चेहरा, धंसी आंखें देख कर सोचने लगा कि क्या यह वही आभा है जिसे कभी वह ब्याह कर लाया था. कैसा फूल सा मुखड़ा था इस का और आज देखो, कैसा मलिन हो गया है. अगर आज मैं इस की जगह होता, तो यह दिनरात एक कर देती. पागल हो जाती मेरे लिए लेकिन मैं क्या कर पा रहा हूं इस के लिए, कुछ भी तो नहीं? सोच कर नवल की आंखें सजल हो गईं.

जब आभा की आंखें खुलीं और सामने नवल को देखा, तो उस के चेहरे पर ऐसा तेज आ गया जैसे अग्नि में आहुति पड़ गई हो. इधरउधर देखने लगी. लगा बच्चे भी आए होंगे. कितने दिन हो गए थे उसे अपने बच्चों को देखे हुए. लग रहा था एक बार आंख भर कर बच्चों को देखे. उठने की कोशिश करने लगी, पर कमजोरी के कारण उठ नहीं पा रही थी.

नवल ने उसे सहारा दे कर बैठाया और पूछा, ‘‘कैसी तबीयत है अब?’’

उस ने इशारे से कहा कि ठीक है.

‘‘डाक्टर कह रहे थे 2-4 दिन में अब तुम घर जा सकती हो.’’

नवल की बात पर वह मुसकराई.

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‘‘कुछ खाओगी?’’ नवल ने पूछा, तो उस ने न में सिर हिला दिया.

‘‘सब ठीक है तुम चिंता मत करो,’’ यह भी नहीं कह सकता था कि तुम ने ही सब को बिगाड़ा है, क्योंकि बिगाड़ा तो उस ने ही है. अब सब को ठीक करना पड़ेगा, समझानी पड़ेगी उन्हें अपनीअपनी जिम्मेदारी, यह बात नवल ने मन में ही कही.

‘‘तुम अब ज्यादा चिंताफिकर करना छोड़ दो. खुद पर ध्यान दो. यह लो सुमन भाभी भी आ गईं. तो तुम दोनों बातें करो. तब तक मैं घर हो आता हूं,’’ कह कर नवल उठ खड़ा हुआ तो आभा उसे प्रेमभाव से देखते हुए बोली कि वह अपन ध्यान रखे. नवल को लगा कि अभी भी इसे मेरी ही चिंता है.

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