
पूर्व कथा
हर मातापिता की तरह सुरेश और सरला भी अपनी बेटी मासूमी को धूमधाम से विदा कर ससुराल भेजना चाहते हैं. 2 भाइयों की इकलौती बहन मासूमी खूबसूरत होने के साथ घर के कामों में दक्ष है. उस के रिश्ते भी खूब आते लेकिन जब शादी की बात पक्की होने को आती, उसे दौरे पड़ जाते. वह चीख उठती और रिश्ता जुड़ने से पहले टूट जाता. एक दिन मौसी ने मासूमी से उस के दिल की बात जाननी चाही तो वह बोली, ‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे…’ वहीं, मासूमी को कई बार विवाह की महत्ता का एहसास होता रहा. वह सोचने लगी कि उसे भी शादी कर घर बसा लेना चाहिए. 28 साल की हो चुकी मासूमी का नया रिश्ता आया तो सभी ने सोचा कि यह रिश्ता चूंकि काफी समय बाद आया है, लड़का अच्छा पढ़ालिखा व उच्च पद पर है और मासूमी ज्यादा समझदार भी हो गई है, अत: वह इस रिश्ते को हरी झंडी दे देगी लेकिन मासूमी को लगा कि वह विवाह का रिश्ता संभालने में असफल रहेगी. उधर वह अपने पापा से बेहद डरीसहमी रहती थी. स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए, राकेश भैया स्कूल गए थे या नहीं, दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’ सरला उसे परेशानी में देख कहती, ‘तू क्यों इन चिंताओं में डूबी रहती है? अरे, घर है तो लड़ाईझगड़े भी होंगे.’ इसी असमंजस में फंसी मासूमी स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था…
अब आगे…
भाई राकेश का मुकदमा मां की अदालत में था. मांपिताजी दोनों की चुप्पी आने वाले तूफान का संकेत दे रही थी. किसी भी क्षण झगड़ा होने वाला था. इसलिए मासूमी फिर पिता की ओर बढ़ कर बोली, ‘‘पापा, आप हाथमुंह धोएं, मैं चाय बनाती हूं.’’
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रसोई में जा कर भी मासूमी का मस्तिष्क उलझा रहा. पापा काम से थकेहारे आते हैं. ये बातें तो बाद में भी हो सकती हैं. भाई राकेशप्रकाश भी अब बड़े हैं, उन्हें अपनी जिम्मेदारियां समझनी चाहिए. समय से घर आना व पढ़ना चाहिए पर दोनों कुछ खयाल ही नहीं रखते. मासूमी अकसर पिता का पक्ष लेती. इस के पीछे छिपा कारण यह था कि वह मां को गुस्से से बचाना चाहती थी लेकिन सरला को शिकायत होती कि वह सबकुछ जानते हुए भी पिता का पक्ष लेती है.
पिता चाय की प्याली ले कमरे में चले गए और मासूमी से पूछा, ‘‘तुम्हारी मां को क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं, क्यों? आप से कुछ कहा?’’ मासूमी ने अनजान बन कर पूछा.
‘‘नहीं, कहा तो नहीं पर लग रहा है कुछ गड़बड़ है. जाओ, बुला कर लाओ मां को,’’ उन्होंने आदेश देने के अंदाज में मासूमी से कहा तो उस का दिल अनजानी आशंका से धड़क उठा.
दरवाजे पर खड़ी मां तमतमाए चेहरे से उसे देख कर बोलीं, ‘‘रसोई में जाओ और खाने की तैयारी करो.’’
‘‘जी,’’ कह मासूमी बाहर निकल गई पर उस के पैर कांपने लगे थे. हमेशा यही होता था. जब घर में कलह होती तो उसे रसोई में जाने का आदेश मिल जाता था. और फिर वह पल आ गया जिस से उस का मन हमेशा कांपता था. अंदर मां पापा से कह रही थीं :
‘‘देखिए, आज मैं आप से ऐसी बात कहने वाली हूं जिस में आप की, बच्चों की व इस घर की भलाई है. यह समझ लीजिए कि घर के इस माहौल ने मासूमी की जिंदगी पर गहरा असर डाला है. हमेशा एक तानाशाह बन कर घर पर राज किया है. मुझे बराबरी का दर्जा देना तो दूर, आप ने हमेशा अपने पैर की जूती समझा है. मैं ने फिर भी कुछ नहीं कहा. मासूमी भी मुझे ही चुप कराती है, क्योंकि वह लड़ाईझगड़े से डरती है लेकिन अब मामला दोनों लड़कों का है. अब राकेश ने भी कह दिया है कि पापा हमें दूसरों के सामने बेइज्जत न करें. संभालिए खुद को वरना कल प्रकाश घर से भागा था अब कहीं राकेश भी…’’
‘‘कर चुकीं बकवास. खबरदार, अब एक शब्द भी आगे बोला तो,’’ अंगारों सी लाल आंखें लिए मुट्ठियां भींचे सुरेश की कड़क आवाज दूर तक जा रही थी, ‘‘कान खोल कर सुन लो, बच्चों को बिगाड़ने में सिर्फ तुम्हारा हाथ है. तुम्हारे कारण ही वे इतनी हिम्मत करते हैं. कहां है वह उल्लू का पट्ठा, मेरे सामने कहता तो खाल खींच देता उस सूअर की औलाद की.’’
‘‘गाली देने से झूठ, सच नहीं हो जाता. तुम्हें बदलते वक्त का अंदाजा नहीं. बच्चों के साथ कदम नहीं मिला सकते तो उन का रास्ता मत रोको,’’ सरला भी तैश में आ गई थीं.
जिस बात से दूर रखने के लिए सरला ने मासूमी को रसोई में भेजा था वे सारी बातें दीवारों की हदें पार कर उस के कानों में गूंज रही थीं.
सुरेश मर्दों वाले अंदाज में सरला की कमजोरियों को गिनवा रहे थे और दोनों बेटे मां की बेइज्जती पर दुख से पहलू बदल रहे थे तो मासूमी दोनों भाइयों को फटकार रही थी :
‘‘लो, पड़ गया चैन. एक दिन भी घर में शांति नहीं रहने देते. रोज कोई न कोई हंगामा होता है. रोज के झगड़ों से मेरी जान निकल जाती है. इस से अच्छा है, मैं मर ही जाऊं. ऊपर से मौसी, बूआ रोज आ कर अपने पतियों की वीरगाथाएं सुनाती हैं कि वे उन से लड़ते हैं. क्या सारे पुरुष एक से होते हैं? उन्हें यही करना होता है तो वे शादियां ही क्यों करते हैं?’’
प्रकाश गुस्से से गुर्राया, ‘‘तुम चुप ही रहो. सारा दोष मांपिताजी का है. हर समय ये झगड़ते रहते हैं. पापा तो सारी उम्र हमें बच्चा ही समझते रहेंगे. जब मन में आया डांट दिया, जब मन आया गाली दे दी.’’
उधर मां की तेज आवाज आने पर मासूमी मां की ओर बढ़ी, ‘‘मां, रहने दो. आप ही चुप हो जाइए. आप को पता है कि पापा अपनी बात के आगे किसी की नहीं सुनते तो आप मत बोलिए.’’
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‘‘तू हट जा. आज फैसला हो कर रहेगा. मुझे गुलाम समझ रखा है. बाप रौब जमाता है तो बेटे अलग मनमानी करते हैं. तेरा क्या है, शादी के बाद अपने घर चली जाएगी, पर मेरे सामने तो बुढ़ापा है. अगर तेरे पिता का यही हाल रहा तो क्या दामाद और बहुओं के सामने भी ऐसे ही गालियां खाती रहूंगी? नहीं, आज होने दे फैसला,’’ मां बुरी तरह हांफ रही थीं और मासूमी रो रही थी.
राकेश बोला, ‘‘क्यों रोती है? हम बच्चे तो नहीं कि हर बात को सही मान लें.’’
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मासूमी चिल्लाई, ‘‘देखा प्रकाश, सारा झगड़ा इसी का शुरू किया है. बित्ते भर का है और मांबाप का मुकाबला कर रहा है.’’
‘‘चुप रह वरना एक कस कर पड़ेगा. पापा की चमची कहीं की,’’ राकेश लालपीला हो कर बोला.
प्रकाश भी तमक उठा, ‘‘दिमाग फिर गया है तुम लोगों का…उधर वे लड़ रहे हैं इधर तुम. कोई मानने को तैयार नहीं है.’’
‘‘आप माने थे…’’ राकेश ने पलट- वार किया तो प्रकाश उसे मारने दौड़ा.
उसी समय अंदर से कुछ टूटने की आवाजें आईं. मासूमी दौड़ कर अंदर गई तो देखा पिताजी हाथ में क्रिकेट का बैट लिए शो केस पर तड़ातड़ मार रहे हैं.
राकेश द्वारा पाकेटमनी जोड़ कर खरीदा गया सीडी प्लेयर और सारी सीडी जमीन पर पड़ी धूल चाट रही थीं…शोपीस टुकड़ेटुकड़े हो कर बिखरा पड़ा था.
मासूमी हाथ जोड़ कर बोली, ‘‘पापा, प्लीज, शांत हो जाएं.’’
लेकिन सुरेशजी की जबान को लगाम कहां थी, गालियों पर गालियां देते चीख रहे थे, ‘‘तू हट जा. एकएक को देख लूंगा. बहुत खिलाड़ी, गवैए बने फिरते हैं पर मैं ये नहीं होने दूंगा. इन को सीधा कर दूंगा या जान से मार डालूंगा.’’
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प्रकाश का जवान खून भी उबाल खा गया, ‘‘हां, हां, मार डालिए. रोजरोज के झगड़ों से तो अच्छा ही है.’’
सरला और मासूमी ने मिल कर प्रकाश को बाहर धकेलना चाहा और राकेश ने बाप को पकड़ा पर कोई बस में नहीं आ रहा था.
मासूमी ने घबरा कर इधरउधर देखा तो बहुत सारी आंखें उन की खिड़कियों से झांक रही थीं और कान दरवाजे से चिपके हुए थे. बस, यही वह समय था जब मासूमी का सिर चकराने लगा. उसे लगा कि वह गहरे पाताल में धंसती जा रही है, जहां न उसे मां की बेबसी का होश था न पिता के गुस्से का और न भाइयों की बगावत का.
मासूमी को होश आया तो सारा माहौल बदला हुआ था. पिता सिर झुकाए सिरहाने बैठे थे, मां पल्लू से आंखें पोंछ रही थीं, भाई हाथपैर सहला रहे थे. पिता का गुस्सा तो साबुन के बुलबुलों की तरह बैठ गया था पर मां सरला आज मौके का फायदा उठा कर फिर बोल उठी थीं, ‘‘जवान बच्चों के लिए आप को अपनी आदतों और कड़वाहटों पर काबू पाना चाहिए. यह नहीं कि घर में घुसते ही हुक्म देना शुरू कर दें.’’
प्रकाश ने उन्हें चुप कराया, ‘‘मां, बस भी करो. देख नहीं रही हैं मासूमी की हालत.’’
सुरेशजी मासूमी की हालत देख खामोश और शर्मिंदा थे तो मांबेटों की तकरार चालू थी. सब एकदूसरे को दोष दे रहे थे. पिता का कहना था कि अगर बच्चों पर लगाम न कसो तो वे बेकाबू हो जाएंगे. बच्चों का कहना था, ‘‘पापा हमें हर बात पर बस डांटते हैं. घर से बाहर रहो तो घर में रहने का आदेश, घर पर रहो तो टोकाटाकी. गाने सुनें तो हमें भांड बनाने लगते हैं. दोस्तों के साथ खेलें तो उसे आवारागर्दी कहते हैं. हम तो यहां बस मां के कारण चुप हैं वरना…’’
सरला बेटों को चुप करा रही थीं, ‘‘चुप रहो, जवान हो गए हो तो इस का मतलब यह नहीं कि पिता के सामने जबान खोलो.’’
सब मिल कर मासूमी को एहसास दिलाना चाह रहे थे कि कोई किसी का दुश्मन नहीं. हां, झगड़े तो होते ही रहते हैं. देखो, तुम्हें तकलीफ हुई तो सब तुम्हारी चिंता में बैठे हैं.
मां ने मासूमी के बाल सहलाए, ‘‘सब लड़झगड़ कर एक हो जाते हैं पर तुम बेकार में उसे दिल में पाल लेती हो…’’
मासूमी बिखर गई, ‘‘मां, आप को अच्छा लगे या बुरा पर सच यह है कि गलती आप की भी है. आप को यही लगता है कि पिताजी ने कभी आप की कद्र नहीं की लेकिन मैं जानती हूं कि पापा के मन में आप के लिए क्या है. आप घर नहीं होतीं तो आप को पूछते हैं. आप की बहुत सी बातों की सराहना निगाहों से करते हैं पर कहना नहीं आता उन्हें. लेकिन उन की तकलीफदेह बातों के कारण आप का ध्यान उन की इन बातों पर नहीं जाता. इसी कारण पापा पर गुस्सा आने पर आप बच्चों के सामने पापा की कमजोरियां गिनवाती हैं और फिर बच्चे उन को आप की पीठ पीछे बुराभला कहते हैं,’’ मासूमी बोल रही थी और सरला चोर सी बनी सब बातें सुन रही थीं.
सुरेशजी भी मासूमी की हालत से घबराए थे. हमेशा ही गुस्सा ठंडा होने पर वह एकदम बदल जाते. उन्हें बीवीबच्चों पर प्यार उमड़ आता था. आज भी यही हुआ. वे उठे और टूटा शोपीस, सीडी प्लेयर उठा कर गाड़ी में रखने लगे. टूटी सीडी के नाम, नंबर नोट करने लगे. मासूमी खामोशी से लेटी देख रही थी कि अब पापा बाजार जा कर सब नया सामान लाएंगे. आइसक्रीम, मिठाई से फ्रिज भर जाएगा. मां के लिए नई साड़ी, भाइयों को पाकेटमनी मिलेगी. प्यार से समझाएंगे कि बेटा, अभी तुम लोगों का ध्यान पढ़ने में लगना चाहिए. मैं तो चाहता हूं कि तुम लोग खाओपियो, हंसोबोलो.
पिताजी खुश होंगे तो सब के साथ बैठे दुनियाजहान की बातें करेंगे. मां भी चहकती फिरेंगी. बस, 2 दिन बाद ही जरा सी कोई बात होगी तो फिर हंगामा शुरू हो जाएगा. मासूमी का तो कालेज जाना भी बंद हो चुका था. यों वहां जाने पर भी हमेशा की तरह मन धड़कता था कि कहीं फिर दोनों भाइयों में, मांबाप में झगड़ा न हो गया हो. कहीं मौसी और बूआ अपनेअपने पतियों से झगड़ कर न आ बैठी हों. बस, यही हालात थे जिन के कारण मासूमी को पुरुषों से नफरत हो गई थी, जिस में उस के पिता, भाई, फूफा, मौसा सभी शामिल थे. सारे पुरुष उसे जल्लाद लगते थे, जो सिर्फ स्त्रियों पर अपना हक जता कर उन्हें नीचा दिखाना चाहते थे. इस से बचने के लिए वह इतना ही कर सकती थी कि मर्दों के साए से दूर रहे.
आज उस के भाई अच्छाखासा कमा कर परिवार वाले हो गए थे. एक मासूमी ही थी जिस के लिए सबकुछ बेकार हो चला था. अब यह रिश्ता फिर से हाथ आया था और मासूमी ने फिर से इनकार कर दिया था. इस बार सुरेशजी को गुस्सा तो बहुत आया फिर भी खुद पर काबू पा कर वे मासूमी को समझा रहे थे, ‘‘यह क्या नादानी है. तुम्हारी इतनी उम्र होने पर भी यह रिश्ता आया है. अब कहीं न कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा. खुशियां दरवाजे पर खड़ी हैं फिर तुम्हें क्या परेशानी है? या तो तुम्हें मुझे यह बात स्पष्ट समझानी होगी वरना मैं अपने हिसाब से जो करना है कर दूंगा.’’
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कुछ समय मासूमी सिर झुकाए खड़ी रही फिर हिम्मत कर के बोली, ‘‘आप मुझ से जवाब मांग रहे हैं तो सुनिए पापा, मैं हार गई हूं खुद से लड़तेलड़ते. बहुत सोचने के बाद मुझे विश्वास हो गया है कि मैं मां जैसी हिम्मत व सब्र नहीं रखती. मैं नहीं चाहती कि मेरे पिता द्वारा जो व्यवहार मेरी मां से किया गया वही व्यवहार कोई और व्यक्ति मेरे साथ करे.
‘‘औरत होने के नाते मैं उस औरत के दुख को महसूस कर सकती हूं जो मेरी मां है. हो सकता है कि विवाह के बाद मैं भी व्यावहारिकता में जा कर सबकुछ सह लूं पर मैं इतिहास दोहराना नहीं चाहती. आप के, मां व परिवार के बीच होने वाले झगड़ों ने मेरे अस्तित्व को ही जैसे खोखला व कमजोर बना दिया है. मुझे नहीं लगता कि मैं अब किसी परिवार का हिस्सा बनने लायक हूं. एक अनजाना सा डर मुझे हर खुशी से दूर ही रखेगा. इसलिए आप मुझे माफ कर दें और रिश्ते के लिए मना कर दें.’’
इतना कह कर वह दोनों हाथों से मुंह छिपा कर फूटफूट कर रो दी और कमरे में भाग गई. मासूमी की बात सुन कर सुरेशजी सन्न रह गए. उन्होंने सोचा भी नहीं था कि आएदिन घर में होने वाले झगड़े उन की बेटी की जिंदगी में ऐसा गहरा निशान छोड़ जाएंगे कि उस की जिंदगी की खुशियां ही छिन जाएंगी. जिंदगी के कटघरे में आज वे अपराधी बन सिर झुकाए खड़े थे.
उस दिन शन्नो ताई के आने के बाद सब के चेहरों पर फिर से उम्मीद की किरण चमकने लगी थी. ऐसा होता भी क्यों नहीं, आखिर ताई 2 साल बाद घर की बेटी मासूमी के लिए इतना अच्छा रिश्ता जो लाई थीं. लड़के ने इंजीनियरिंग और एम.बी.ए. की डिगरी ली हुई थी. 2 साल विदेश में रह कर पैसा भी खूब कमाया हुआ था. उस की 32 साल की उम्र मासूमी की 28 साल की उम्र के हिसाब से अधिक भी नहीं थी. खानदान भी उस का अच्छा था. रिश्ता लड़के वालों की तरफ से आया था, सो मना करने की गुंजाइश ही नहीं थी. सब से बड़ी बात तो यह थी कि जिस कारण से मासूमी का विवाह नहीं हो पा रहा था वह समस्या अब 2 साल से सामने नहीं आई थी.
हर मातापिता की तरह मासूमी के मातापिता भी चाहते थे कि बेटी को वे खूब धूमधाम से विदा कर ससुराल भेज सकें. फिर भी उस का विवाह नहीं हो पा रहा था. 2 भाइयों की इकलौती बहन, खातापीता घर और कम बोलने व सरल स्वभाव वाली मासूमी घर के कामों में निपुण थी. खूबसूरत लड़की के लिए रिश्तों की भी कमी नहीं थी पर समस्या तब आती थी जब कहीं उस के रिश्ते की बात चलती थी.
पहले दोचार दिन तो मासूमी ठीक रहती थी पर जैसे ही रिश्ता पक्का होने की बात होती उसे दौरा सा पड़ जाता था. उस की हालत अजीब सी हो जाती, हाथपैर ठंडे पड़ जाते, शरीर कांपने लगता और होंठ नीले पड़ जाते थे. वह फटी सी आंखों से बस, देखती रह जाती और जबान पथरा जाती थी. सब पूछने की कोशिश कर के हार जाते थे कि मासूमी, कुछ तो बोल, तेरी ऐसी हालत क्यों हो जाती है. तू कुछ बता तो सही. पर मासूमी की जबान पर जैसे ताला सा पड़ा रहता. बस, कभीकभी चीख उठती थी, ‘नहीं, नहीं, मुझे बचा लो. मैं मर जाऊंगी. नहीं करनी मुझे शादी.’ और फिर रिश्ते वालों को मना कर दिया जाता.
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शुरूशुरू में तो उस की हालत को परिवार वालों ने छिपाए रखा. सो रिश्ते आते रहे और वही समस्या सामने आती रही पर धीरेधीरे यह बात रिश्तेदारों और फिर बाहर वालों को भी पता चल गई. तरहतरह की बातें होने लगीं. कोई हमदर्दी दिखाने के साथ उसे तांत्रिकों के पास ले जाने की सलाह देता तो कोई साधुसंतों का आशीर्वाद दिलाने को कहता और कोई डाक्टरों को दिखाने की बात करता, पर कोई बीमारी होती तो उस का इलाज होता न.
एक दिन मौसी से बूआजी ने कह भी दिया, ‘‘मुझे तो दाल में काला लगता है. चाहे कोई माने न माने, मुझे तो लग रहा है कि लड़की कहीं दिल लगा बैठी है और शर्म के मारे मांबाप के सामने मुंह नहीं खोल पा रही है वरना ऐसा क्या हो गया कि इतने अच्छेअच्छे घरों के रिश्ते ठुकरा रही है. अरे, यह जहां कहेगी हम इस का रिश्ता कर देंगे. कम से कम यह आएदिन की परेशानी तो हटे.’’
‘‘हां, दीदी, लगता तो मुझे भी कुछ ऐसा ही है, लेकिन उस समय उस की हालत देखी नहीं जाती. रिश्ते का क्या, कहीं न कहीं हो ही जाएगा. इकलौती भांजी है मेरी, कुछ तो रास्ता खोजना ही पड़ेगा,’’ मौसी दुख से कहतीं.
और फिर जब मौसी ने एक दिन बातों ही बातों में बड़े लाड़ के साथ मासूमी के मन की बात जाननी चाही तो उस की आंखें फटी की फटी रह गईं, जैसे दुनिया का सब से बड़ा दोष उस के सिर मढ़ दिया गया हो. काफी देर बाद संभल कर बोली, ‘‘मौसी, आप ने ऐसा सोचा भी कैसे? क्या आप को मैं ऐसी लगती हूं कि इतना बड़ा कदम उठा सकूं?’’
‘‘नहीं बेटा, यह कोई गुनाह या अपराध नहीं है. हम तो बस, तेरे मन की बात जान कर तेरी मदद करना चाहते हैं, तेरा घर बसाना चाहते हैं.’’
‘‘क्या कहूं मौसी, मैं तो खुद हैरान हूं कि रिश्ते की बात चलते ही जाने मुझे क्या हो जाता है. बस, यह समझ लीजिए कि मुझे शादी के नाम से नफरत है. मैं सारी जिंदगी शादी नहीं करूंगी,’’ मासूमी सिर झुकाए कहती रही और फिर सच में वह 18 से 28 साल की हो गई पर उस ने शादी के लिए हां नहीं की.
हालांकि कई बार मासूमी को विवाह की अहमियत का एहसास होता था कि मातापिता नहीं रहेंगे, भाई शादी के बाद अपने घरपरिवार में व्यस्त हो जाएंगे तो उसे कौन सहारा देगा. उसे भी शादी कर के घर बसा लेना चाहिए. उस की सखीसहेलियों के विवाह हो चुके थे और कितनों के तो बच्चे भी हो गए हैं.
अब इतने लंबे समय के बाद इस उम्र में उस के लिए इतना अच्छा रिश्ता आया था. सब को यही उम्मीद थी कि अब इतना समय गुजरने के बाद वह समझदार हो गई होगी और सोचसमझ कर फैसला लेगी पर मासूमी ने फिर मना कर दिया था. पूरे हफ्ते तो इसी उधेड़बुन में लगी रही और आखिर में उसे यही लगा कि विवाह का रिश्ता संभालने में वह असफल रहेगी.
उस रात वह जी भर कर रोई. इन सब बातों में उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि उसे लगता था कि वह किसी की जिंदगी में शामिल हो कर उसे कोई खुशी देने के लायक नहीं है. रात भर अनेक विचार उस के दिमाग में आतेजाते रहे और सुबह उसे फिर दौरा पड़ गया था.
मां ने मासूमी के सिर में नारियल के तेल की मालिश की थी. उसे बादाम का दूध पिलाया था. दोनों भाई बारबार उसे आ कर देख जाते थे. पिता उस के बराबर में सिर झुकाए बैठे सोच रहे थे कि आखिर क्या दुख है मेरी बेटी को? कोई कमी नहीं है. सब लोग इसे इतना प्यार करते हैं, फिर कौन सा दुख है जो इसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा है? पर मासूमी के होंठों पर फैली उस फीकी मुसकान का राज कोई नहीं समझ सका जिस ने उस के अस्तित्व को ही टुकडे़टुकड़े कर दिया था.
मासूमी ने बहुत कोशिश की थी खुद को बहलाने की, अकेली जिंदगी के कड़वे सच का आईना खुद को दिखाने की, लेकिन हर बार मायूसी ही उस के हाथ लगी थी. बिस्तर पर लेटी आंखें छत पर जमाए वह अतीत की गलियों से गुजर रही थी कि भाई राकेश की आवाज पर ध्यान गया, जिस ने गुस्से में पहले गमले को ठोकर मारी फिर अंदर आ कर मां से बोला, ‘‘मां, आप पापा को समझा दीजिए. उन्हें कुछ तो सोचना चाहिए कि वे कहां बोल रहे हैं. हमें कहीं भी डांटना, गाली देना शुरू कर देते हैं. हमारी इज्जत का उन्हें तनिक भी खयाल नहीं है. अब हम बच्चे तो नहीं रहे न.’’
मां ने हड़बड़ाते हुए रसोई से आ कर राकेश की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उस ने मन की भड़ास निकाल दी. 16 साल का राकेश मां से अपने पिता के व्यवहार की शिकायत कर रहा था और मां मौके की नजाकत भांप कर बेटे को समझा रही थीं.
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‘‘बेटा, मैं तुम्हारे पापा से बात करूंगी कि इस बात का ध्यान रखें. वैसे बेटा, तुम यह तो समझते ही हो कि वे तुम से कितना प्यार करते हैं. तुम्हारी हर फरमाइश भी पूरी करते हैं. अब गुस्सा आता है तो वे खुद को रोक नहीं पाते. यही कमी है उन में कि जराजरा सी बात पर गुस्सा करना उन की आदत बन गई है. तुम उसे दिल पर मत लिया करो.’’
‘‘रहने दो मां, पापा को हमारी फिक्र कहां, कभी भी, कहीं भी हमारी बेइज्जती कर देते हैं. दोस्तों के सामने ही कुछ भी कह देते हैं. तब यह कौन देख रहा है कि वे हमें कितना प्यार करते हैं. लोग तो हमारा मजाक बनाते ही हैं.’’
राकेश अभी भी गुस्से से भनभना रहा था और उस की मां सरला माथा पकड़ कर बैठ गई थीं, ‘‘मैं क्या करूं, तुम लोग तो मुझे सुना कर चले जाते हो पर मैं किस से कहूं? तुम क्या जानो, अगर तुम्हारे पिता के पास कड़वे बोल न होते तो दुख किस बात का था. उन की जबान ने मेरे दिल पर जो घाव लगा रखे हैं वे अभी तक भरे नहीं और आज तुम लोग भी उस का निशाना बनने लगे हो. मैं तो पराई बेटी थी, उन का साथ निभाना था, सो सब झेल गई पर तुम तो हमारे बुढ़ापे की लाठी हो, तुम्हारा साथ छूट गया तो बुढ़ापा काटना मुश्किल हो जाएगा. काश, मैं उन्हें समझा सकती.’’
तभी परदे के पीछे सहमी खड़ी मासूमी धड़कते दिल से मां से पूछने लगी, ‘‘मां, क्या हुआ, भैया को गुस्सा क्यों आ रहा था?’’
‘‘नहीं बेटा, कोई बात नहीं, तुम्हारे पापा ने उसे डांट दिया था न, इसीलिए कुछ नाराज था.’’
‘‘मां, आप पापा से कुछ मत कहना. बेकार में झगड़ा शुरू हो जाएगा,’’ डर से पीली पड़ी मासूमी ने धीरे से कहा.
‘‘तू बैठ एक तरफ,’’ पहले से ही भरी बैठी सरला ने कहा, ‘‘उन से बात नहीं करूंगी तो जवान बेटों को भी गंवा बैठूंगी. क्या कर लेंगे? चीखेंगे, चिल्लाएंगे, ज्यादा से ज्यादा मार डालेंगे न, देखूंगी मैं भी, आज तो फैसला होने ही दे. उन्हें सुधरना ही पड़ेगा.’’
सरला जब से ब्याह कर आई थीं उन्होंने सुख महसूस नहीं किया था. वैसे तो घर में पैसे की कमी नहीं थी, न ही सुरेशजी का चरित्र खराब था. बस, कमी थी तो यही कि उन की जबान पर उन का नियंत्रण नहीं था. जराजरा सी बात पर टोकना और गुस्सा करना उन की सब से बड़ी कमी थी और इसी कमी ने सरला को मानसिक रूप से बीमार कर दिया था.
वे तो यह सब सहतेसहते थक चुकी थीं, अब बच्चे पिता की तानाशाही के शिकार होने लगे हैं. बच्चों को बाहर खेलने में देर हो जाती तो वहीं से गालियां देते और पीटते घर लाते, उन के पढ़ने के समय कोई मेहमान आ जाता तो सब को एक कमरे में बंद कर यह कहते हुए बाहर से ताला लगा देते, ‘‘हरामजादो, इधर ताकझांक कर के समय बरबाद किया तो टांगें तोड़ दूंगा. 1 घंटे बाद सब से सुनूंगा कि तुम लोगों ने क्या पढ़ा है? चुपचाप पढ़ाई में मन लगाओ.’’
उधर सरला उस डांट का असर कम करने के लिए बच्चों से नरम व्यवहार करतीं और कई बार उन की गलत मांगों को भी चुपचाप पूरा कर देती थीं. पर आज तो उन्होंने सोच रखा था कि वे सुरेशजी को समझा कर ही रहेंगी कि जब बाप का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो उस से दोस्त जैसा व्यवहार करना चाहिए. वरना कल औलाद ने पलट कर जवाब दे दिया तो क्या इज्जत रह जाएगी. औलाद भी हाथ से जाएगी और पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा.
अपने विचारों में सरला ऐसी डूबीं कि पता ही नहीं चला कि कब सुरेशजी घर आ गए. घर अंधेरे में डूबा था. उन्होंने खुद बत्ती जलाई और उन की जबान चलने लगी :
‘‘किस के बाप के मरने का मातम मनाया जा रहा है, जो रात तक बत्ती भी नहीं जलाई गई. मासूमी, कहां है, तू ही यह काम कर दिया कर, इन गधों को तो कुछ होश ही नहीं रहता.’’
फिर उन्होंने तिरछी नजरों से सरला को देखा, ‘‘और तुम, तुम्हें किसी काम का होश है या नहीं? चायपानी भी पिलाओगी या नहीं? मासूमी, तू ही पानी ले आ.’’
उधर मासूमी मां की आड़ में छिपी थी. उस का दिल आज होने वाले झगड़े के डर से कांप रहा था. फिर भी उस ने किसी तरह पिता को पानी ला कर दिया. पानी पीते उन्होंने मासूमी से पूछा, ‘‘इन रानी साहिबा को क्या हुआ?’’
मासूमी के मुंह से बोल नहीं फूटे तो हाथ के इशारे से मना किया, ‘‘पता नहीं.’’
‘‘वे दोनों नवाबजादे कहां हैं?’’
‘‘पापा, बड़े भैया का आज मैच था. वे अभी नहीं आए हैं और छोटे किसी दोस्त के यहां नोट्स लेने गए हैं,’’ किसी अनिष्ट की आशंका मन में पाले मासूमी डरतेडरते कह रही थी.
‘‘हूं, ये सूअर की औलाद सोचते हैं कि बल्ला घुमाघुमा कर सचिन तेंदुलकर बन जाएंगे और दूसरा नोट्स का बहाना कर कहीं आवारागर्दी कर रहा है, सब जानता हूं,’’ सुरेशजी की आंखें शोले बरसाने को तैयार थीं.
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बस, इसी अंदाज पर सरला कुढ़ कर रह जाती थीं. उन की आत्मा तब और छलनी हो जाती जब बच्चे पिता की इस ज्यादती का दोष भी उन के सिर मढ़ देते कि मां, अगर आप ने शुरू से पिताजी को टोका होता या उन का विरोध किया होता तो आज यह नौबत ही नहीं आती. मगर वे बच्चों को कैसे समझातीं, यहां तो पति के विरोध में बोलने का मतलब होता है कुलटा, कुलक्षिणी कहलाना.
वे तब उस इनसान की पत्नी बन कर आई थीं जब पुरुष अपनी पत्नियों को किसी काबिल नहीं समझते थे घर में उन की कोई अहमियत नहीं होती थी, न ही बच्चों के सामने उन की इज्जत की जाती थी. वरना सरला यह कहां चाहती थीं कि पितापुत्र का सामना लड़ाईझगड़े के सिलसिले में हो और इसीलिए सरला ने खुद बहुत संयम से काम ले कर पितापुत्र के बीच सेतु बनने की कोशिश की थी.
उन्होंने तो जैसेतैसे अपना समय निकाल दिया था पर अब नया खून बगावत का रास्ता अपनाने को मचल रहा था और इसी के चलते घर के हालात कब बिगड़ जाएं, कुछ भरोसा नहीं था और इन सब बातों का सब से बुरा असर मासूमी पर पड़ रहा था.
मासूमी मां की हमदर्द थी तो पिता से भी उसे बहुत स्नेह था, लेकिन जबतब घर में होने वाली चखचख उस को मानसिक रूप से बीमार करने लगी थी. स्कूल जाती तो हर समय यह डर हावी रहता कि कहीं पिताजी अचानक घर न आ गए हों क्योंकि राकेश भाई अकसर स्कूल से गायब रहते थे…और घर में रहते तो तेज आवाज में गाने सुनते थे…इन दोनों बातों से पिता बुरी तरह चिढ़ते थे.
मां राकेश को समझातीं तो वह अनसुनी कर देता. उसे पता था कि पिता ही मां की बातों पर ध्यान नहीं देते हैं इसलिए उन का क्या है बड़बड़ करती ही रहेंगी. ऐसे में किसी अनहोनी की आशंका मासूमी के मन को सहमाए रखती और स्कूल से घर आते ही उस का पहला प्रश्न होता, ‘मां, पापा तो नहीं आ गए? भैया स्कूल गए थे या नहीं? पापा ने प्रकाश भाई को क्रिकेट खेलते तो नहीं पकड़ा? दोनों भाइयों में झगड़ा तो नहीं हुआ?’
मां उसे परेशानी में देखतीं तो कह देती थीं, ‘क्यों तू हर समय इन्हीं चिंताओं में जीती है? अरे, घर है तो लड़ाईझगड़े होंगे ही. तुझे तो बहुत शांत होना चाहिए, पता नहीं तुझे आगे कैसा घरवर मिले.’
मगर मासूमी खुद को इन बातों से दूर नहीं रख पाती और हर समय तनावग्रस्त रहतेरहते ही वह स्कूल से कालेज में आ गई थी और आज फिर वह दिन आ गया था जो किसी आने वाले तूफान का संकेत दे रहा था.
-क्रमश:
प्रमाण की बात सुनते ही अल्पना गुस्से से थरथराती हुई राहुल को मारने के लिए झपटी. वह तेजी से हटा तो सामने रखी टेबल से अल्पना टकराई और जमीन पर गिर गई. असहनीय दर्द से पेट पकड़ कर वह वहीं बैठ गई.
राहुल ने उसे उठाना चाहा तो उस ने चिल्ला कर कहा, ‘मुझे छूना मत…तुम ने मुझे धोखा दिया…तुम मेरी जिंदगी में न कभी थे, न हो और न ही रहोगे…चले जाओ मेरे घर से.’
राहुल अपना सामान समेट कर चला गया…पूरी रात वह रोती रही. पेट दर्द सहा नहीं गया तो उठ कर उस ने पेन किलर खा लिया. अल्पना को बारबार यही लगता रहा कि क्यों उसे किसी का प्यार और विश्वास नहीं मिलता. पहले मातापिता और अब राहुल…खैर सुबह तक पेटदर्द तो ठीक हो गया था पर मन अभी भी ठीक नहीं हुआ था.
क्या करे इस बच्चे का…माना कि यह बच्चा उस की जिंदगी में जबरदस्ती आ गया है पर है तो उस का अपना अंश ही न, वह अकेली कैसे इस बच्चे की परवरिश कर पाएगी…क्या अपने बच्चे को वह प्यारदुलार और अपनत्व दे पाएगी जिस के लिए वह अपने मातापिता को दोष देती रही थी.
मन में अजीब सी कशमकश चल रही थी. अपने कैरियर के लिए जहां वह बच्चे का बलिदान देना चाहती थी वहीं उस के प्रति स्नेह भी जागने लगा था. वह जानती थी कि बिना विवाह के मां बनना समाज सह नहीं पाएगा…उस के मातापिता सुनेंगे तो जीतेजी ही मर जाएंगे. आज न जाने क्यों मां के शब्द उस के कानों में गूंज रहे थे, जो उन्होंने उसे राहुल के साथ रहते देख कहे थे, ‘बेटा, माना कि मैं तुझे उतना प्यार, दुलार नहीं दे पाई जिस की तू आकांक्षी थी. मैं अपराधिनी हूं तेरी…पर मेरे किए की सजा तू खुद को तो न दे. आज भी हमारा समाज विवाहपूर्व संबंधों को मान्यता नहीं देता है, ऐसे संबंध अवैध ही कहलाएंगे.’
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उस समय तो वह सिर्फ वही करना चाहती थी जिस से उस के मातापिता को चोट पहुंचे…राहुल, जिस पर उस ने विश्वास किया उस से ऐसी उम्मीद नहीं थी. बारबार राहुल के शब्द उस के दिलोदिमाग में गूंज कर उस के अस्तित्व को नकारने लगते कि मैं तुम्हारी जैसी लड़की के साथ संबंध कैसे बना सकता हूं जो विवाह जैसी संस्था में विश्वास ही न करती हो.
कभी मन करता कि आत्महत्या कर ले पर तभी मन उसे धिक्कारने लगता…उसे अपनी वार्डन के शब्द याद आते कि जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, लेकिन कुछ सार्थक करना बेहद ही कठिन, पर तुम ने तो आसान राह ढूंढ़ ली है.
वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आफिस में छुट्टी की अर्जी भिजवा दी थी. कशमकश इतनी ज्यादा थी कि उस का न बाहर निकलने का मन कर रहा था और न ही किसी से मिलने का. पेट में दर्द उठता पर वह डाक्टर को दिखाने के बजाय दर्दनाशक दवा खा कर दबाने की कोशिश करती रही.
एक दिन जब वह ऐसे ही दर्द से तड़प रही थी तभी बीना मिलने आ पहुंची, उस की ऐसी दशा देख कर वह अचंभित रह गई तथा उसे जबरन अपनी गाड़ी में बिठा कर डाक्टर के पास ले गई…
डाक्टर ने उसे चेकअप करवाने के लिए कहा.
सोनोग्राफी की रिपोर्ट देख कर डाक्टर उस पर बहुत गुस्सा हुई तथा बोली, ‘तुम ने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम गर्भवती हो.’
उस को कोई उत्तर न देते देख वह फिर बोली, ‘तुम लड़कियों की यही तो समस्या है…जरा भी सावधानी नहीं बरततीं…क्या पेट में तुम्हें कोई चोट लगी थी…अपने पति को बुलवा लो, क्योंकि तुम्हारा शीघ्र आपरेशन करना पड़ेगा. लगता है किसी चोट के कारण तुम्हारा बच्चा मर गया है और उसी के इन्फेक्शन से पेट में दर्द हो रहा है.’
डाक्टर की बात सुन कर वह दोनों चौंक गईं. बीना ने बात बनाते हुए कहा, ‘डाक्टर, आपरेशन कब करना पडे़गा. दरअसल इन के पति कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं. उन का इतनी जल्दी आना संभव नहीं है.’
‘आपरेशन कल ही करना पड़ेगा. कोई तो रिश्तेदार होंगे…उन्हें जल्द बुलवा लो…हम इन्हें आज ही एडमिट कर लेते हैं.’
बीना ने अल्पना को देखा फिर डाक्टर की ओर मुखातिब होती हुई बोली, ‘डाक्टर, मैं ही इन की जिम्मेदारी लेती हूं क्योंकि इन का कोई भी रिश्तेदार इतनी जल्दी नहीं आ सकता.’
अल्पना के मना करने पर भी बीना ने उस के मातापिता को फोन कर दिया था. उन्होंने तुरंत आने की बात कही. उन के आने से पहले ही वह आपरेशन थिएटर में जा चुकी थी. बेहोशी की हालत में भी डाक्टर के शब्द उस के कानों में पड़ ही गए, ‘इस के यूट्रस में इन्फेक्शन इतना फैल गया है कि अगर निकाला नहीं तो जान जाने का खतरा है. बाहर जा कर इन के रिश्तेदारों से इजाजत ले लो.’
उस के बाद क्या हुआ पता नहीं. सुबह जब आंख खुली तो मम्मीपापा को अपने पास बैठा पाया. उन को देखते ही उस की नफरत फिर से भड़क उठी थी, अगर उसे उन का प्यार और अपनत्व मिलता तो उस के साथ ऐसे हादसे ही क्यों होते? अगर उस समय नर्स नहीं आती तो वह पता नहीं क्याक्या कह बैठती.
‘‘बेटा, कुछ खा ले वरना ताकत कैसे आएगी?’’ आवाज सुनते ही अल्पना अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गई. नर्स पता नहीं कब चली गई थी. मां हाथ में फलों की प्लेट लिए खाने का इसरार कर रही थीं तथा उन के पास ही बैठे पापा आशा भरी नजरों से उसे देख रहे थे. उस ने बिना कुछ कहे ही मुंह फेर लिया क्योंकि वह जानती थी कि मां की आंखों से आंसू बह रहे होंगे पर वह अपने दिल के हाथों विवश थी.
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बारबार एक ही विचार उस के मन में आ रहा था कि माना मातापिता उस की उचित परवरिश न कर पाने के लिए दोषी थे पर हर सुविधा मिलने के बावजूद उस ने भी कौन सा अच्छा काम किया. दूसरों को दोष देना तो बहुत आसान है पर जिंदगी बनानाबिगाड़ना तो इनसान के अपने हाथ में है.
अल्पना समझ नहीं पा रही थी कि कुदरत ने औरत को इतना कमजोर क्यों बनाया है कि एक छोटा सा आंधी का झोंका उस के सारे वजूद को हिला कर रख देता है. सब से ज्यादा दुख तो उसे इस बात का था कि हादसे में उस के गर्भाशय को निकाल देना पड़ा…अपूर्ण औरत बन कर वह कैसे जीएगी?
मां ने तो अपने कैरियर के लिए उस की तरफ ध्यान नहीं दिया पर उस ने तो उन्हें दुख देने के लिए ही यह सब किया…उस का तो यही हश्र होना था. पर वह अभी भी नहीं समझ पा रही थी कि सजा किसे मिली?
पूर्व कथा
अस्पताल में पड़ी अल्पना की आंखों में अतीत चलचित्र की भांति घूमने लगा.
अल्पना संपन्न परिवार के कामकाजी मातापिता की इकलौती बेटी थी. मातापिता की व्यस्तता के कारण अल्पना ने बोलनाचलना दादी और आया की गोद में सीखा था.
10 वर्ष की होने पर उसे बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया. वह छुट्टियों में घर आती थी. लेकिन व्यस्तता के कारण उस के मातापिता के पास उस के लिए समय नहीं था. धीरेधीरे अल्पना के मन में अपने मातापिता के प्रति नफरत पनपने लगी.
एक बार वह छुट्टियों में अपनी सहेली स्नेहा के घर जाती है. वहां जा कर उसे घर और मां के स्नेह का एहसास होता है.
अपने घर आने पर वही सूनापन उस पर हावी होने लगता है और वह वापस होस्टल लौट जाती है.
दोबारा छुट्टियां पड़ने पर वह वार्डन को घर जाने से मना कर देती है. सभी लोग उसे समझाते हैं पर अल्पना साफ इनकार कर देती है. होस्टल में सभी लोग उस के मातापिता के बारे में पूछते हैं लेकिन अल्पना कारण पूछने पर चुप्पी साध लेती है. नतीजा यह होता है कि फर्स्ट टर्म में वह फेल हो जाती है. अब आगे…
गतांक से आगे…
अल्पना की यह दशा देख कर एक दिन मिस सुजाता ने उसे बुला कर कहा था, ‘बेटा, तुम्हें देख कर मुझे अपना बचपन याद आता है…यही अकेलापन, यही सूनापन…मैं ने भी सबकुछ भोगा है…अपने मातापिता के मरने के बाद चाचाचाची के ताने, चचेरे भाईबहनों की नफरत…सब झेली है मैं ने. पर मैं कभी जीवन से निराश नहीं हुई बल्कि जितनी भी मन में चोटें पड़ती गईं, उतनी ही विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का साहस मन में पैदा होता गया.
‘जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, लेकिन कुछ सार्थक करना बेहद कठिन…पर तुम ने तो आसान राह ढूंढ़ ली है…न जाने तुम ने यह कैसी ग्रंथि पाल ली है कि तुम्हारे मातापिता तुम्हें प्यार नहीं करते हैं…हो सकता है उन की कुछ मजबूरी रही हो जिसे तुम अभी समझ नहीं पा रही हो.
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‘तुम्हारे मातापिता तो हैं पर जरा उन बच्चों के बारे में सोचो जो अनाथ हैं, बेसहारा हैं या दूसरों की दया पर पल रहे हैं…फिर ऐसा कर के तुम किसे कष्ट दे रही हो, अपने मातापिता को या खुद को…जीवन तो तुम्हारा ही बरबाद होगा…जीवन बहुत बहुमूल्य है बेटा, इसे व्यर्थ न होने दो.’
दूसरों की तरह वार्डन का समझाना भी उसे बेहद नागवार गुजरा था…पर उन की एक बात उस के दिमाग में रहरह कर गूंज रही थी…जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, पर कुछ सार्थक करना बेहद कठिन…उस ने सोच लिया था कि अब से वह दूसरों के बारे में न कुछ कहेगी और न ही कुछ सोचेगी…जीएगी तो सिर्फ अपने लिए…आखिर जिंदगी उस की है.
सब तरफ से ध्यान हटा कर उस ने पढ़ने में मन लगा लिया…पहले जहां वह ऐसे ही पास होती रही थी अब मेरिट में आने लगी. सभी उस में परिवर्तन देख कर चकित थे. हायर सेकंडरी में उस ने अपने स्कूल में द्वितीय स्थान प्राप्त किया. इस के बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली आई. कंप्यूटर साइंस में बी.एससी. करने के बाद वहीं से एम.एससी. करने लगी पर तब भी वह अपने घर नहीं गई. इस दौरान उस के मातापिता ही मिलने आते रहे पर वह निर्विकार ही रही.
एक बार उस की मां ने कहा, ‘बेटा, 1-2 अच्छे लड़के मेरी निगाह में हैं, अगर तू देख कर पसंद कर ले तो हमारी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी पूरी हो जाएगी.’
‘किस जिम्मेदारी की बात कर रही हैं आप? अब तक आप ने कौन सी जिम्मेदारी निभाई है? जब बच्चे को मां का आंचल चाहिए तब आप ने मुझे क्रेच में डाल दिया, जब एक बेटी को मां के प्यार और अपनेपन की जरूरत थी तब होस्टल में डाल दिया…यह भी नहीं सोचा कि आप की मासूम बेटी अपने नन्हेनन्हे हाथों से खाना कैसे खाती होगी, कैसे स्कूल के लिए तैयार होती होगी…
‘आप को मुझ से नहीं, अपने कैरियर से ही प्यार था…बारबार आप क्यों आ कर मेरे दंश को और गहरा कर देती हैं…मैं ने तो मान लिया कि मेरा कोई नहीं है…आप भी यही मान लीजिए…जहां तक विवाह का प्रश्न है, मुझे विवाह के नाम से नफरत है…ऐसे बंधन से क्या लाभ जिस में 2 इनसान जकड़े तो रहें पर प्यार का नामोनिशान ही न हो…दैहिक सुख से उत्पन्न संतान के प्रति जिम्मेदारी का एहसास तक न हो.’
मां चली गई थीं. उन की आंखों से निकलते आंसू उसे सुकून दे रहे थे, मानो उस में दिल नाम की चीज ही नहीं रह गई थी…तभी तो उन्हें देखते ही न जाने उसे क्या हो जाता था कि वह जहर उगलने लगती थी…पर यह भी सच है कि उन के जाने के बाद वह घंटों अपने ही अंतर्कवच में कैद बैठी रह जाती थी.
एक ऐसे ही क्षण जब वह अपने कमरे में अकेली बैठी थी तब राहुल ने अंदर आते हुए उस से कहा, ‘अंधेरे में क्यों बैठी हो, अल्पना…याद नहीं है प्रोजेक्ट के लिए डाटा कलेक्ट करने जाना है.’
‘बस, एक मिनट रुको…ड्रेस चेंज कर लूं,’ अंतर्कवच से बाहर निकल कर उस ने कहा था.
राहुल उस का क्लासमेट था…पढ़ाई में जबतब उस की मदद किया करता था, प्रोजेक्ट भी उन्हें एक ही मिला था अत: साथसाथ आनेजाने के कारण उन में मित्रता हो गई थी.
एक दिन वे प्रोजेक्ट कर के लौट रहे थे. राहुल को परेशान देख कर उस ने परेशानी का कारण पूछा तो राहुल ने कहा, ‘मेरा मकान मालिक घर खाली करने को कह रहा है, समझ में नहीं आता कि क्या करूं, कहां जाऊं. 1-2 जगह पता किया तो किराया बहुत मांगते हैं और उतना दे पाने की मेरी हैसियत नहीं है.’
‘तुम मेरा रूम शेयर कर लो. हम दोनों साथ पढ़ते हैं, साथसाथ जाते हैं…एक जगह रहने से सुविधा हो जाएगी.’
‘पर….’
‘पर क्या? मैं किसी की परवा नहीं करती…जो मुझे अच्छा लगता है वही करती हूं.’
दूसरे दिन ही राहुल शिफ्ट हो गया था. उस की मित्र बीना ने उस के इस फैसले पर विरोध करते हुए उसे चेतावनी भी दी थी पर उस का यही कहना था कि उसे किसी की परवा नहीं है, उस की जिंदगी है, जैसे चाहे जीए. किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है.
बीना ने यह सब कुछ अल्पना की मां को बता दिया तो वह उसे समझाने आईं, फिर भी वह अपनी जिद पर अड़ी रही तो मां ने पैसा न भेजने का निर्णय सुना दिया. इस पर उस ने भी क्रोध में कह दिया था, ‘आज तक आप ने दिया ही क्या है…सिर्फ पैसा ही न, अगर वह भी नहीं देना चाहतीं तो मत दीजिए, मुझे उस की भी कोई परवा नहीं है.’
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मां रोते हुए और पापा क्रोधित हो कर चले गए थे. उस दिन उसे बेहद सुकून मिला था. पता नहीं क्यों जबजब वह मां को रोते हुए देखती, उसे लगता जैसे उस के दुखते घावों में किसी ने मरहम लगा दिया हो.
उसी दिन न जाने उसे क्या हुआ कि उस ने राहुल के सामने समर्पण कर दिया. राहुल ने आनाकानी भी की तो वह बोली, ‘जब मुझे कोई परेशानी नहीं है तो तुम्हें क्यों है? फिर मैं विवाह के लिए तो कह नहीं रही हूं. हम जब चाहेंगे अलग हो जाएंगे.’
पढ़ाई पूरी होते ही उन की नौकरी लग गई. किंतु एक ही शहर में होने के कारण उन का संबंध कायम रहा.
पूरी सावधानी बरतने के बाबजूद एक दिन अल्पना को लगा जैसे उस के शरीर में कुछ ऐसा हो रहा है जो वह पहली बार महसूस कर रही है. वह राहुल को इस बारे में बताना चाहती ही थी कि उस ने कहा, ‘अल्पना, मांपिताजी विवाह के लिए जोर डाल रहे हैं, अब मुझे दूसरा घर ढूंढ़ना होगा.’
राहुल की बात सुन कर अल्पना चौंक गई और बोली, ‘तुम ऐसा कैसे कर सकते हो. और मुझे ऐसी हालत में छोड़ कर तुम कैसे जा सकते हो?’
‘कैसी हालत?’ राहुल बोला.
‘मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं.’
‘यह तुम्हारी प्रोब्लम है, इस में मैं क्या कर सकता हूं?’
‘सहयोगी तो तुम भी रहे हो.’
‘वह तो तुम्हारी वजह से…तुम्हीं ने कहा था कि जब मुझे एतराज नहीं है तो तुम्हें क्यों है…अब तुम भुगतो?’
‘ऐसा तुम कैसे कह सकते हो…तुम तो मेरे मित्र, हमदर्द रहे हो.’
‘देखो अल्पना, पिताजी मेरा विवाह तय कर चुके हैं और उन्हें मना करना मेरे लिए संभव नहीं है. फिर मैं तुम्हारी जैसी लड़की के साथ संबंध कैसे बना सकता हूं जो विवाह जैसी संस्था में विश्वास ही न करती हो और विवाह से पहले ही अपना शरीर किसी को दे देने में उसे कुछ आपत्तिजनक नहीं लगता हो.’
‘परंपराओं की दुहाई मत दो, राहुल. तुम भी विवाह से पहले संबंध बना चुके हो. क्या तुम उस लड़की के साथ अन्याय नहीं करोगे जिस के साथ तुम विवाह कर रहे हो?’
‘मेरी बात और है, मैं पुरुष हूं… फिर तुम्हारे पास प्रमाण क्या है?’
आगे पढ़ें- प्रमाण की बात सुनते ही अल्पना गुस्से से…
नन्ही अल्पना के मातापिता के पास अपनी मासूम बेटी के लिए समय नहीं था. ऊपर से उन के द्वारा लगाई गई पाबंदियां थीं, सो अलग. अकेलेपन की शिकार अल्पना के बालमन में धीरेधीरे अपने मातापिता के प्रति नफरत के बीज अंकुरित होने लगे.
अल्पना की आंखें खुलीं तो खुद को अस्पताल के बेड पर पाया. मां फौरन उस के पास आ कर बोलीं, ‘‘कैसी है, बेटी. इतनी बड़ी बात तू ने मुझ से छिपाई… मैं मानती हूं कि अच्छी परवरिश न कर पाने के कारण तू अपने मातापिता को दोषी मानती है पर हैं तो हम तेरे मांबाप ही न…तुझे दुखी देख कर भला हम खुश कैसे रह सकते हैं…’’
‘‘प्लीज, आप इन से ज्यादा बातें मत कीजिए…इन्हें आराम की सख्त जरूरत है,’’ उसी समय राउंड पर आई डाक्टर ने मरीज से बातें करते देख कर कहा तथा नर्स को कुछ जरूरी हिदायत देती हुई चली गई.
अल्पना कुछ कह पाती उस से पहले ही नर्स आ गई तथा उस ने उस के मम्मीपापा से कहा, ‘‘इन की क्लीनिंग करनी है, कृपया थोड़ी देर के लिए आप लोग बाहर चले जाएं.’’
नर्स साफसफाई कर रही थी पर अल्पना के मन में उथलपुथल मची हुई थी. वह समझ नहीं पा रही कि उस से कब और कहां गलती हुई…उसे लगा कि मातापिता को दुख पहुंचाने के लिए ऐसा करतेकरते उस ने खुद के जीवन को दांव पर लगा दिया…अतीत की घटनाओं के खौफनाक मंजर उस की आंखों के सामने से किताब के एकएक पन्ने की तरह आ- जा रहे थे.
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वह एक संपन्न परिवार से थी. मातापिता दोनों के नौकरी करने के कारण उसे उन का सुख नहीं मिल पाया था. जब उसे मां के हाथों का पालना चाहिए था तब दादी की गोद में उस ने आंखें खोलीं, बोलना और चलना सीखा. वह डेढ़ साल की थी कि दादी का साया उस के ऊपर से उठ गया. अब उसे ले कर मम्मीपापा में खींचतान चलने लगी, तब एक आया का प्रबंध किया गया.
एक दिन ममा ने आया को दूध में पानी मिला कर उसे पिलाते तथा बचा दूध स्वयं पीते देख लिया. उस की गलती पर उसे डांटा तो उस ने दूसरे दिन से आना ही बंद कर दिया…अब उस की समस्या उन के सामने फिर मुंहबाए खड़ी थी. दूसरी आया मिली तो वह पहली से भी ज्यादा तेज और चालाक निकली. उसे अकेला छोड़ कर वह अपने प्रेमी के साथ गप लड़ाती रहती…पता लगने पर ममा ने उसे भी निकाल दिया…
वह 2 साल की थी, फिर भी उस के जेहन में आज भी क्रेच की आया का बरताव अंकित है. उस के स्वयं खाना न खा पाने पर डांटना, झल्लाना, यहां तक कि मारना…पता नहीं और भी क्याक्या… दहशत इतनी थी कि जब भी मां उसे क्रेच में छोड़ने के लिए जातीं तो वह पहले से ही रोने लगती थी पर ममा को समय से आफिस पहुंचना होता था अत: उस के रोने की परवा न कर वह उसे आया को सौंप कर चली जाती थीं.
जब वह पढ़ने लायक हुई तब स्कूल में उस का नाम लिखवा दिया गया. स्कूल की छुट्टी होती तो कभी ममा तो कभी पापा उसे स्कूल से ला कर घर छोड़ देते तथा उस से कहते कि उन के अलावा कोई भी आए तो दरवाजा मत खोलना और न ही बाहर निकलना. देखने के लिए दरवाजे में आई पीस लगवा दिया था.
एक दिन वह पड़ोस में रहने वाले सोनू की आवाज सुन कर बाहर चली गई तथा खेलने लगी तभी ममा आ गईं. खुला घर तथा उसे बाहर खेलते देख वह क्रोधित हो गईं…दूसरे दिन से वह उसे बाहर से बंद कर के जाने लगीं…एक दिन उसे न जाने क्या सूझा कि घर की पूरी चीजें जो उस के दायरे में थीं, उस ने नीचे फेंक दीं…उस दिन उस की खूब पिटाई हुई और मम्मीपापा में भी जम कर झगड़ा हुआ.
ममा की परेशानी देख कर सोनू की मम्मी ने स्कूल के बाद उसे अपने घर छोड़ कर जाने के लिए कहा तो वह बहुत खुश हुई…साथ ही मम्मीपापा की समस्या भी हल हो गई. 4 साल ऐसे ही निकल गए. पर तभी सोनू के पापा का तबादला हो गया. फिर वही समस्या.
बड़ी होने के कारण अब उस के स्कूल का समय बढ़ गया था तथा अब वह पहले से भी ज्यादा समझदार हो गई थी. उस ने अपनी स्थिति से समझौता कर लिया था, ममा के आदेशानुसार वह उन के या पापा के आफिस से आने पर उन की आवाज सुन कर ही दरवाजा खोलती, किसी अन्य की आवाज पर नहीं. एकांत की विभीषिका उसे तब भी परेशान करती पर जैसेजैसे बड़ी होती गई उसे पढ़ाने और होमवर्क कराने को ले कर मम्मीपापा में तकरार होने लगी.
अभी वह 10 वर्ष की ही थी कि उसे बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया. वहां मम्मीपापा हर महीने उस से मिलने जाते, उस के लिए अच्छीअच्छी गिफ्ट लाते, पूरा दिन उस के साथ गुजारते पर शाम को उसे जब होस्टल छोड़ कर जाने लगते तो वह रो पड़ती थी. तब ममा आंखों में आंसू भर कर कहतीं, ‘बेटा, मजबूरी है. जो मैं कर रही हूं वह तेरे भविष्य के लिए ही तो कर रही हूं.’
वह उस समय समझ नहीं पाती थी कि यह कैसी मजबूरी है. सब के बच्चे अपने मम्मीपापा के पास रहते हैं फिर वह क्यों नहीं…पर धीरेधीरे वह अपनी हमउम्र साथियों के साथ घुलनेमिलने लगी क्योंकि सब की
एक सी ही
कहानी थी…वहां अधिकांशत: बच्चों को इसलिए होस्टल में डाला गया था क्योंकि किसी की मां नहीं थी तो किसी के घर का माहौल अच्छा नहीं था, किसी के मातापिता उस के मातापिता की तरह ही कामकाजी थे तो कोई अपने बच्चों के उन्नत भविष्य के लिए उन्हें वहां दाखिल करवा गए थे.
छुट्टी में घर जाती तो मम्मीपापा की व्यस्तता देख उसे लगता था कि इस से तो वह होस्टल में ही अच्छी थी. कम से कम वहां बात करने वाला कोई तो रहता है. धीरेधीरे उस के मन में विद्रोह पैदा होता गया. उसे मम्मीपापा स्वार्थी लगने लगे. जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए उसे पैदा तो कर दिया पर उस की जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहते.
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आखिर एक बच्चे को अच्छे कपड़ों, अच्छे खिलौनों के साथसाथ और भी तो कुछ चाहिए, यह साधारण सी बात वह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं या जानतेबूझते हुए भी समझना नहीं चाहते हैं. एक बार उस ने पूछ ही लिया, ‘मैं आप की ही बेटी हूं या आप कहीं से मुझे उठा तो नहीं लाए हैं.’
उस की मनोस्थिति समझे बिना ही ममा भड़क कर बोलीं, ‘कैसी बातें कर रही है…कौन तेरे मन में जहर घोल रहा है?’
मम्मा आशंकित मन से पापा की ओर देखने लगीं. पापा भी चुप कहां रहने वाले थे. बोल उठे, ‘शक क्यों नहीं करेगी. कभी प्यार के दो बोल बोले हैं. कभी उस के पास बैठ कर उस की समस्याएं जानने की कोशिश की है…तुम्हें तो बस, हर समय काम ही काम सूझता रहता है.’
‘तो तुम क्यों नहीं उस से समस्याएं पूछते…तुम भी तो उस के पिता हो. क्या बच्चे को पालने की सारी जिम्मेदारी मां को ही निभानी पड़ती है.’
दोनों में तकरार इतनी बढ़ी कि उस दिन घर में खाना ही नहीं बना. ममा गुस्से में चली गईं. लगभग 10 बजे पापा हाथ में दूध तथा ब्रैड ले कर आए और आग्रह से खाने के लिए कहने लगे पर उसे भूख कहां थी. मन की बात जबान पर आ ही गई, ‘पापा, अगर किसी को मेरी आवश्यकता नहीं थी तो मुझे इस दुनिया में ले कर ही क्यों आए? मेरी वजह से आप और ममा में झगड़ा होता है…मुझे कल ही होस्टल छोड़ दीजिए. मेरा यहां मन नहीं लगता.’
पापा ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘ऐसा नहीं कहते बेटा, यह तेरा घर है.’
‘घर, कैसा घर, पापा…मैं पूरे दिन अकेली रहती हूं. आप और ममा आते भी हैं तो सिर्फ अपनीअपनी समस्याएं ले कर. मेरे लिए आप दोनों के पास समय ही नहीं है.’
पापा उदास मन से आफिस चले गए थे पर उस दिन उसे अपने मन में बारबार उमड़ती बात कहने पर बहुत संतोष मिला था…
इस अकेलेपन के बावजूद उस के पास कुछ खुशनुमा पल थे…गरमियों की छुट्टियों में जब वे 15 दिन किसी हिल स्टेशन पर घूमने जाते…उस के जन्मदिन पर उस की मनपसंद ड्रेस के साथ उस को उपहार भी खरीदवाया जाता…यहां तक कि होस्टल में वार्डन से इजाजत ले कर उस के जन्मदिन पर एक छोटी सी पार्टी आयोजित की जाती तथा उस के सभी दोस्तों को गिफ्ट भी दी जाती.
फिर जैसेजैसे वह बड़ी होती गई अपनों के प्यार से तरसते मन में विद्रोह का अंकुर पनपने लगा…यही कारण था कि पहले जहां वह चुप रहा करती थी, अब अपने मन की भड़ास निकालने लगी थी तथा उन की इच्छा के खिलाफ काम करने लगी थी.
ऐसा कर के वह न केवल सहज हो जाया करती थी वरन मम्मीपापा के लटके चेहरे देख कर उसे असीम आनंद मिलने लगा था. जाने क्यों उसे लगने लगा था, जब इन्हें ही मेरी परवा नहीं है तो मैं ही इन की परवा क्यों करूं.
इसी मनोस्थिति के चलते एक बार वह छुट्टियों में अपने घर न आ कर अपनी मित्र स्नेहा के घर चली गई. वहां उस की मम्मी के प्यार और अपनत्व ने उस के सूने मन में उत्साह का संचार कर दिया…वहीं उस ने जाना कि घर ऊंचीऊंची दीवारों से नहीं, उस में रहने वाले लोगों के प्यार और विश्वास से बनता है. उस का घर तो इन के घर से भी बड़ा था, सुखसुविधाएं भी ज्यादा थीं पर नहीं थे तो प्यार के दो मीठे बोल, एकदूसरे के लिए समय…प्यार और विश्वास का सुरक्षित कवच…वास्तव में प्यार से बनाए मां के हाथ के खाने का स्वाद कैसा होता है, उस ने वहीं जाना.
उन को स्नेहा की एकएक फरमाइश पूरी करते देख, एक बार उस ने पूछा था, ‘आंटी, आप ने स्नेहा को खुद से दूर क्यों किया?’
उन्होंने तब सहज उत्तर दिया था, ‘बेटा, यहां कोई अच्छा स्कूल नहीं है…स्नेहा के भविष्य के लिए हमें यह निर्णय करना पड़ा. स्नेहा इस बात को जानती है अत: इस ने इसे सहजता से लिया.’
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घर न आने के लिए मां का फोन आने पर उस ने रूखे स्वर में उत्तर दिया, ‘मैं यहीं अच्छी हूं. आप और पापा ही घूम आओ…मैं नहीं जाऊंगी क्योंकि लौट कर आने के बाद तो आप और पापा फिर नौकरी पर जाने लगोगे और मुझे अकेले ही घर में रहना पडे़गा. मैं यहां स्नेहा के पास ही अच्छी हूं. कम से कम यहां मुझे घर होने का एहसास तो हो रहा है.’
अल्पना का ऐसा व्यवहार देख कर स्नेहा की मां ने अवसर पा कर उसे समझाते हुए कहा, ‘बेटा, तुम मेरी बेटी जैसी हो, मेरी बात का गलत अर्थ मत लगाना…एक बात मैं तुम से कहना चाहती हूं, अपने मातापिता को तुम कभी गलत मत समझना…शायद उन की भी कोई मजबूरी रही होगी जिसे तुम समझ नहीं पा रही हो.’
‘आंटी, अपने बच्चे की परवरिश से ज्यादा एक मातापिता के लिए और भी कुछ जरूरी है?’
‘बेटा, सब की प्राथमिकताएं अलगअलग होती हैं…कोई घरपरिवार के लिए सबकुछ त्याग देता है तो कोई अपने कैरियर को भी जीवन का ध्येय मानते हुए घरपरिवार को सहेजना चाहता है. तुम्हारी मां कैरियर वुमन हैं, उन्हें अपने कैरियर से प्यार है पर इस का यह अर्थ कदापि नहीं कि वह तुम से प्यार नहीं करतीं. मैं जानती हूं कि वह तुम्हें ज्यादा समय नहीं दे पातीं पर क्या उन्होंने तुम्हें किसी बात की कमी होने दी?’
आंटी की बात मान कर अल्पना घर आई तो मां उसे अपने सीने से लगा कर रो पड़ीं. पापा का भी यही हाल था. हफ्ते भर मां छुट्टी ले कर उस के पास ही रहीं…उस से पूछपूछ कर खाना बनाती और खिलाती रहीं.
तब अचानक उस का सारा क्रोध आंखों के रास्ते बह निकला था. तब उसे एहसास हुआ था कि मां की बराबरी कोई नहीं कर सकता…पर जैसे ही उन्होंने आफिस जाना शुरू किया, घर का सूनापन उस के दिलोदिमाग पर फिर से हावी होता गया. अभी छुट्टी के 15 दिन बाकी थे पर लग रहा था जैसे उसे आए हुए वर्षों हो गए हैं.
शाम को मम्मीपापा के आने पर उन के पास बैठ कर वह ढेरों बातें करना चाहती थी पर कभी फोन की घंटी बज उठती तो कभी कोई आ जाता…कभी मम्मीपापा ही उस की उपस्थिति से बेखबर किसी बात पर झल्ला उठते जिस से घर का माहौल तनावपूर्ण हो उठता. यह सब देख कर मन में विद्रोह फिर पनपने लगा.
वह होस्टल जाने लगी तो ममा ने उस के लिए नई डे्रस खरीदी, जरूरत का अन्य सामान खरीदवाया, यहां तक कि उस की पसंद की खाने की कई तरह की चीजें खरीद कर रखीं, फिर भी न जाने क्यों इन चीजों में उसे मां का प्यार नजर नहीं आया. उस ने सोच लिया जब उन्हें उस से प्यार ही नहीं है, तो वही उन की परवा क्यों करे.
अब फोन आने पर वह ममा से ढंग से बातें नहीं करना चाहती थी…वह कुछ पूछतीं तो बस, हां या हूं में उत्तर देती. उस का रुख देख कर एक बार उस की ममा उस से मिलने भी आईं तो भी पता नहीं क्यों उन से बात करने का मन ही नहीं किया…मानो वह अपने मन के बंद दरवाजे से बाहर निकलना ही नहीं चाह रही हो.
छुट्टियां पड़ीं तो उस ने अपनी वार्डन से वहीं रहने का आग्रह किया. पहले तो वह मानी नहीं पर जब उस ने उन्हें अपनी व्यथा बताई तो उन्होंने उस के मम्मीपापा को सूचना दे कर रहने की इजाजत दे दी.
उस का यह रुख देख कर मम्मीपापा ने आ कर उसे समझाना चाहा तो उस ने साफ शब्दों में कह दिया, ‘घर से तो मुझे यहीं अच्छा लगता है…कम से कम यहां मुझे अपनापन तो मिलता है…मैं यहीं रह कर कोचिंग करना चाहती हूं.’
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बुझे मन से वह दोनों वार्डन को उस का खयाल रखने के लिए कह कर चले गए.
कुछ दिन तो वह होस्टल में रही किंतु सूना होस्टल उस के मन के सूनेपन को और बढ़ाने लगा…अब उसे न जाने क्यों किसी से मिलना भी अच्छा नहीं लगता था क्योंकि वह जिस से भी मिलती वही उस के घर के बारे में पूछता और वह अपने घर के बारे में किसी को क्या बताती? अब न उस का पढ़ने में मन लगता और न ही किसी अन्य काम में…यहां तक कि वह क्लास भी मिस करने लगी…नतीजा यह हुआ कि वह फर्स्ट टर्म में फेल हो गई.
जब मोहना के घरवाले लौट गए तो मोहना ने दरवाजे की ओट से रानी ओर किशोरजी बातें सुनीं.
‘‘मैं ने सोचा था कि शादी के बाद विलास ठीक हो जाएगा… सभी हो जाते हैं. पर ये तो अब तक वहीं अटका हुआ है,’’ किशोरजी कह रहे थे.
‘‘हां, मुझे भी कहां लगा था कि बहू इस का मन नहीं बदल पाएगी,’’ रानी भी हां में हां मिला रही थीं.
मोहना को अब यह बात बिलकुल स्पष्ट हो चुकी थी कि जो करना है उसे ही करना पड़ेगा. विलास एक बहुत अच्छा पति है, सुलझा हुआ, संवेदनशील और प्यार करने वाला किंतु जीवन में शारीरिक सामीप्य की जो खाई थी, क्या मोहना उस के साथ अपना पूरा जीवन काट सकेगी? अब इस प्रश्न का उत्तर उसे स्वयं ही देना था. बात थी भी इतनी कि किस से कहती वह?
घर पर त्योहार मनाने का सब से बड़ा फायदा जो मोहना को हुआ वह यह रहा कि अब उस ने
अपने जीवन की बागडोर अपने हाथों में लेने का निर्णय कर लिया. वापस मुंबई लौट कर मोहना ने विलास के आगे एक छोटी सी ट्रिप पर चलने का प्रस्ताव रखा. कई बार जो बातें रोजमर्रा के माहौल में नहीं हो पातीं वह पर्यटन स्थलों पर फ्रैश मूड में बहुत अच्छे से हो जाती हैं. इसी सोच से मोहना ने ये बात कही जो विलास ने सहर्ष स्वीकार कर ली.
आने वाले वीकैंड पर दोनों ने पंचगनी का ट्रिप बनाया. जहां मुंबई का तापमान हमेशा एकसा रहता है वहीं पंचगनी की हलकी ठंड से लिपटी शामें विलास और मोहना के लिए एक अच्छा बदलाव थीं. शौल ओढ़े, बोनफायर के आसपास बैठे दोनों ने अपने रिजार्ट में एक अच्छा दिन बिताया. अगले दिन दोनों ने यहां के प्रसिद्ध पर्यटक स्थलों को देखने का मन बनाया. आर्थर सीट की ऊंचाई से कोइना वैली का अद्भुत नजारा देखा, एल्फिंस्टन पौइंट पर पहुंच कर दोनों ने गरमगरम मैगी खाई और मसाला छास पी, टेबल लैंड का विशाल क्षेत्र उन्होंने घुड़सवारी कर पूरा किया और वेणा लेक में बोटिंग कर एक यादगार दिन बिताया.
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‘‘यहां की प्रसिद्ध स्ट्राबेरी तो ले लो. रूम में चल कर खाएंगे,’’ मोहना ने कहा.
‘‘सिर्फ स्ट्राबेरी?’’ मैं तो यहां की स्ट्राबेरी वाइन भी लेने वाला हूं,’’ हंस कर विलास ने कहा.
दोनों काफी खुश थे. यही सही मौका है, आज ही विलास से अपने दिल की बात करनी होगी, मोहना ने सोच रखा था. रूम में पहुंच कर दोनों ने वाइन ले चीयर्स किया. मोहना का गंभीर चेहरा देख विलास ने कारण जानना चाहा, ‘‘क्या घर की याद आ रही है?’’
‘‘नहीं… लेकिन एक अत्यंत गंभीर विषय पर बात करनी है तुम से… सोच नहीं पा रही कैसे कहूं…’’ मोहना की हिचकिचाहट देख विलास को बात का अंदेशा होने लगा. आखिर अपनी कमी किसे पता नहीं होती. उस ने बात को आगे न बढ़ाते हुए दूसरी बात शुरू करनी चाही, ‘‘मोहना, छोड़ो ये गंभीर बातें. आज का दिन कितना अच्छा बीता, अब मूड मत औफ करो.’’
‘‘विलास, तुम क्या चाहते हो कि मैं केवल ऊपर से हंसती रहूं या अंदर से भी खुश रहूं?’’ मोहना आज इस विषय पर बात करने की ठान चुकी थी. आखिर कब तक इस रिश्ते को यों अधूरा सा जीती रहेगी वह, ‘‘प्लीज मुझे बताओ कि आखिर बात क्या है. मैं असली कारण जानना चाहती हूं. आखिर हम जीवनसाथी हैं, सारी उम्र हमें एकदूसरे का साथ निभाना है, चाहे सुख हो या दुख, चाहे तकलीफ हो या आनंद. अगर हम ही अपने दिलों की परतें हटा कर एकदूसरे से अपने मन की बात नहीं कह सकते तो फिर कैसा रिश्ता है यह? मैं तुम्हें अपना सब कुछ मान चुकी हूं और मैं जानती हूं कि तुम भी मुझ से प्यार करते हो. ये रिश्ता केवल सतही नहीं अपितु हम दोनों के दिलों को एक सूत्र में बांधता है. क्या तुम मुझ से अपने मन की व्यथा नहीं कह सकते? क्या रोकता है तुम्हें? क्या मैं तुम्हें पसंद नहीं? क्या तुम्हारा प्यार मेरी गलतफहमी है या फिर केवल परिवार के लिए लिया गया एक फैसला?’’ मोहना कहती चली गई. आज उस ने स्वयं को रोका नहीं. जो पीड़ा उस के मन में आज तक मरोड़ रही थी, उस ने आज उसे विलास के सामने उघाड़ कर रख दिया.
मोहना की आंतरिक तकलीफ ने विलास को भी विचलित कर दिया. उस ने सोचा न था कि ऊपर से हमेशा हंसती रहने वाली मोहना हृदय की गहराइयों में इतनी व्यथित होगी. किंतु अपने दिल की असलियत बयान करने से वह अभी भी हिचकिचा रहा था, ‘‘क्या बताऊं, मोहना… ऐसी कोई बात नहीं है. बस, यों ही कभी कुछ तो कभी कुछ कारणों की वजह से… तुम व्यर्थ ही इतना परेशान हो रही हो.’’
‘‘ठीक है. जैसा तुम चाहो. यदि तुम मुझे अपनी संगिनी नहीं मानते तो कोई बात नहीं. पर यदि कल को मेरे कदम बहक जाएं तो प्लीज मुझे दोष मत देना. तब यह न सोचना कि मैं चरित्रहीन निकली. मैं ने सब से पहले तुम्हारे आगे अपने मन की बात कही. एक लड़की होते हुए भी मैं ने ऐसे कठिन विषय पर बात करने की पहल की. पर अगर तुम मुझ से परदा रखना चाहते हो, तो हमारी शादीशुदा जिंदगी में आगे जो कुछ भी होगा उस के जिम्मेदार तुम ही रहोगे, मेरी यह बात याद रखना,’’ आज मोहना काफी अडिग थी.
नींद आंखों से कोसों दूर भटकती रही और सारी रात विलास, मोहना द्वारा कही बातों पर विचार करता रहा. सच ही तो कह रही है वह. आखिर वह जीवनसंगिनी है, यदि विलास उस के आगे अपना मन नहीं खोल सकता तो फिर किस से कहेगा? पौ फटने के समय जब आकाश में लालिमा छाई, तब विलास के मस्तिष्क में भी रोशनी होने लगी. उस ने सोच लिया कि आज वह मोहना को सब कुछ बता देगा.
‘‘नाश्ते के लिए चलें?’’ नहा कर आई मोहना ने पूछा.
‘‘हां, संक्षिप्त सा उत्तर दे विलास उस के साथ चल दिया. गहरी सोच में था वह. आखिर आज वह अपने अंदर दबी उलझनों की गांठों को खोलने की कोशिश करने वाला था.
नाश्ते के बाद आज कुछ शौपिंग का प्रोग्राम था. लेकिन विलास के कहने पर पहले दोनों ने केट्स पौइंट जाने का निश्चय किया. पहाड़ की ऊंचाई पर पहुंच कर विलास ने एक एकांत कोना तलाशा और मोहना से वहां बैठने का आग्रह किया, ‘‘तुम जानना चाहती हो न कि मैं क्यों तुम्हारे पास नहीं आता? आज मैं तुम्हें अपने अतीत का वह राज बताने जा रहा हूं जिसे मैं कभी भी कुरेदना नहीं चाहता. लेकिन अगर आज नहीं कहा तो शायद फिर कभी कह न सकूंगा…’’
‘‘विलास, तुम बेझिझक मुझ से अपनी बात कह सकते हो. तुम जो भी कहोगे, वह केवल हम दोनों के बीच रहेगा,’’ मोहना की बात से विलास आश्वस्त हो गया. उस ने 1 गिलास पानी पिया. कुछ सोच कर उस ने आगे बात कहनी शुरू की…
जब विलास केवल 12 वर्ष का था तब उस के साथ एक हादसा गुजरा था. उस के मौसाजी
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जोकि उसी शहर नौकरी करने आए थे. उस के घर में रहने आए. अगले कुछ महीनों जब तक उस की मौसीजी की नौकरी का तबादला उसी शहर में न हो जाता, उन्हें इसी के घर में रहना था. एक बार मौसीजी आ जाए, तब ये अपना घर ले लेंगे, ऐसा विचार था. सब कुछ अच्छे ढंग से व्यवस्थित हो गया. किशोरजी अपनी दुकान संभालते, रानी घर संभालतीं, मौसाजी अपने दफ्तर जाते और विलास अपने स्कूल. सब की मुलाकात अकसर रात को खाने की मेज पर हुआ करती. ऐसे ही करीब 20 दिन बीत गए.
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