जूही ने सब के साथ ही नंदा को भी मांजी की लाई मिठाई और फल वगैरह दिए. मगर इतने सवालों के साथ मिठाई और फलों की मिठास जैसे गायब हो गई थी. वह साफ देख रही थी कि नरेंद्र मां के सामने आंख उठा कर उस की ओर देख भी नहीं पा रहा है. वह बिलकुल मेमने जैसा लग रहा है. जिस नरेंद्र ने उस से प्रेम किया था, उस के साथ जीनेमरने की कसमें खाई थीं, वह एक जिंदादिल इंसान था. उस का यह रूप तो रीढ़हीन केंचुए जैसा है. यह रूप ले कर क्या वह समाज से टक्कर ले सकेगा? उसे लगा, कम से कम मांजी के यहां रहते तो नहीं?
वह चुपचाप वहां से खिसकना चाहती थी कि मांजी ने कहा, ‘‘अभी इतनी जल्दी भी क्या है जाने की, बैठो.’’
फिर उन्होंने नरेंद्र से कहा, ‘‘बनियाइन, कमीज उतार…’’
कपड़े उतारने पर नरेंद्र पर ऐक्सरे जैसी नजर डाल कर बोलीं, ‘‘इसी सुख के लिए यहां रह रहा है, एकएक पसली गिन लो. बहू, तूने इसे यही खिलायापिलाया है? अब जब तक तू अपने जिले में तबादला नहीं करा लेता, मैं यहीं रहूंगी. अपना घर अपना ही होता है. इस बड़े शहर की फिजा में जहरीले मच्छर घूमते हैं. यहां से लाख दर्जा अच्छा अपना कसबा है, जहां हर चीज सस्ती है.’’
नरेंद्र और नंदा इस प्रवचन के बंद होने के इंतजार में जैसे जमीन में आंखें गड़ाए बैठे थे. मां फिर नरेंद्र से बोलीं, ‘‘देख, ये हरीश और नवल तुझ से कितने छोटे हैं और कैसे खिले पट्ठे हो गए हैं. तेरे बापू की पैंशन और गांव की खेती के सहारे हम ने मकान को दोमंजिला कर दिया है और 2 भैंसें भी पाल रखी हैं.’’
नंदा का मन पूरी तरह से बुझ गया था. वह मांजी और उन के साथ आए हट्टेकट्टे बेटों को देख कर घबरा उठी कि यह औरत उस की कामनाओं की कृषि पर मानो पाला बन कर पड़ गई है. निराशा से लंबी सांस ले कर वहां से चल दी.
बाहर निकल कर वह इस आशा से घूम कर पीछे देखने लगी कि शायद नरेंद्र उसे इशारों में ही कुछ दिलासा दे. मगर उस की आंखें उठ नहीं रही थीं.
अगले दोचार दिन नरेंद्र बड़ा व्याकुल रहा. रमाबाबू के घर चाय के बहाने नंदा से थोड़ी देर के लिए मुलाकात हो जाती थी, लेकिन इतने भर से प्यासे हृदयों को तसल्ली कैसे मिलती? रमाबाबू के सामने वे एकदूसरे को अधिक से अधिक देख ही सकते थे. दोनों के शरीर एकदूसरे से मिलने को तड़प रहे थे.
एक दिन रमाबाबू के न होने पर नंदा ने कहा था, ‘‘इसी बूते पर प्यार की कसमें खाते थे, संसार से टकराने की बात करते थे. अब मां के सामने भीगी बिल्ली बन गए.’’
नंदा के उत्तेजित करने से नरेंद्र का अहं जागृत हुआ, ‘‘मैं अब दूधपीता बच्चा नहीं हूं जो हर काम के लिए मां की मरजी का मुंह ताकूं…खुद कमाता हूं, खाता हूं, किसी से मांगने नहीं जाता हूं. अपनी जिंदगी अपनी मरजी से जीऊंगा,’’ उस ने नंदा को दिलासा देते हुए कहा, ‘‘तुम घबराओ मत. मैं मां से साफसाफ बात कर लूंगा. तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता.’’
नंदा को हालांकि भरोसा नहीं था, फिर भी वह उसे उत्साहित करती हुई बोली, ‘‘तुम हिम्मत से काम लो, सब काम बन जाएगा.’’
‘‘हां, जानेमन, मेरी हिम्मत देखनी हो तो शाम को घर चली आना,’’ नरेंद्र ने नंदा के हाथ पर हाथ मार कर कहा.
उस दिन शाम को औफिस से लौटने पर नरेंद्र, नंदा के साथ आया था. लाल साड़ी में नंदा बड़ी फब रही थी और नरेंद्र भी अकड़ाअकड़ा दिखाई दे रहा था. उन दोनोें को देख कर जूही के उन अरमानों पर पानी जैसा पड़ गया था जिन के साथ उस ने गोभी और प्याज की पकौडि़यां चाय के साथ तैयार की थीं, रसोई में जा कर वह आंसू बहाने लगी.
बहू के आंसू देख कर सास ने पूछा, ‘‘यह क्या, फिर टेसुए बहाने लगीं.’’
जूही सुबकती हुई बोली, ‘‘वह फिर आ गई है.’’
‘‘तो क्या हुआ? तू चुप बैठ, बाकी जिम्मा मेरा,’’ वे जूही की पीठ ठोंकने लगीं.
नंदा नरेंद्र के पास ही कुरसी पर बैठी थी. मांजी ने उन दोनों को घूरते हुए हरीश और नवल को भी वहीं बुला लिया. जूही ने प्यालों में चाय डाली, तो पहला घूंट ले कर ही मांजी नरेंद्र से बोलीं, ‘‘आज तुम कुछ भरेभरे लग रहे हो. मुझे आए इतने दिन हो गए. मगर तुम्हारे साथ कोई बात ही नहीं हो सकी. आज कुछ बातें करेंगे.’’
‘‘हांहां, यही मैं भी चाहता था. पहली बात तो यह कि आप कल घर को रवाना हो जाएं. खेतीबाड़ी और भैंसें देखना अकेले बापू के बस की बात नहीं है,’’ नरेंद्र बोला.
‘‘ठीक है, आई हूं तो चली भी जाऊंगी. आखिर यह भी मेरा घर है. मगर यह लड़की कौन है? अकेली तुम्हारे साथ इस के आने का कौन सा तुक है? जवान लड़कियां इस तरह घूमें, यह अच्छा नहीं है,’’ मांजी बोलीं.
‘‘मैं तो सोचता था, आप का अदब कायम रहे. पर जब आप ही नहीं चाहती हैं, तो सुनिए, यह नंदा है और मैं इस के बिना रह नहीं सकता. इस से शादी करूंगा. अब यही इस घर की मालकिन बनेगी,’’ जी कड़ा कर के नरेंद्र कह गया.
नंदा गर्वभरी दृष्टि से उसे देख रही थी.
‘‘लेकिन बहू का क्या होगा? जिस के साथ सात भांवरें ले कर तुम ने अग्नि के सामने जीवनभर साथ निभाने की प्रतिज्ञा की थी?’’ मांजी ने ठंडेपन से उसे तोला.
नरेंद्र की हिम्मत बढ़ गई, वह बोला, ‘‘वह ब्याह तुम लोगों की मरजी से हुआ था, तुम्हीं जानो. प्रतिज्ञा जैसे शब्द आज की दुनिया में बेमानी हो गए हैं.’’
‘‘ठीक है, कोई बात नहीं. फिर भी यह शादी न हो, तो अच्छा है. यही जूही के साथसाथ तुम्हारे और नंदा के लिए भी भला होगा,’’ मांजी ने उसी तरह कहा.
‘‘हम अपना भलाबुरा सब समझते हैं. मैं आप की यह राय मानने को मजबूर नहीं हूं,’’ नरेंद्र ने दृढ़ता से कहा.
‘‘हां, हम किसी के लिए अपनी तमन्नाओं का गला तो घोंट नहीं सकते,’’ नंदा ने पहली बार हिम्मत की.
‘‘तू चुप रह. तेरी दवा तो मैं यों कर दूंगी,’’ मांजी ने चुटकी बजाई.
उन के चुटकी बजाने से स्वयं को अपमानित अनुभव कर नंदा ने नरेंद्र की ओर देखा और कहा, ‘‘यदि मैं शादी कर ही लूं तो आप क्या कर लेंगी? अब तो शादी हो कर रहेगी.’’
‘‘मैं क्या कर लूंगी? सुन,’’ इस के साथ ही उन की त्योरियां बदलीं और वे नरेंद्र से बोलीं, ‘‘पहले तो तुझे घर की जायदाद से वंचित कर दूंगी. दूसरे रमाबाबू से कह कर इस लौंडिया की लगाम कसूंगी. तब भी न मानी, तो इस की चोटी का एकएक बाल उखाड़ लूंगी और धक्के दे कर इसे घर से बाहर कर दूंगी. मेरी राय में इतने में सही हो जाएगी,’’ तीखी आवाज में बोलती मांजी ने नंदा के उतरे चहरे की ओर देखा.
नंदा सोच रही थी, जायदाद के लिए नरेंद्र शायद दब जाए, लेकिन उस पर इस का असर आंशिक ही पड़ा. नंदा के साथ वह नौकरी में भी गुजर कर सकता था. सो, बोला, ‘‘आप अपनी जायदाद ले जाइए, मुझे नहीं चाहिए. मगर शादी होगी.’’
‘‘शादी तो किसी कीमत पर नहीं होगी. जायदाद जाने से भी तुझ पर असर नहीं होगा तो थानाकचहरी बना है. एक रिपोर्ट में लैलामजनूं दोनों जेल में नजर आओगे. फिर नौकरी भी नहीं बचेगी. पहली बीवी के रहते दूसरी शादी करने पर 7 साल की सजा होती है,’’ मांजी का गंभीर स्वर गूंजा.
अब नंदा का हौसला भी पस्त हो चुका था. मां ने उसे जाने को कहा तो नरेंद्र बोला, ‘‘अब जो भी हो, यह जाएगी नहीं.’’
मांजी ने नंदा का झोंटा पकड़ कर उसे ऊंचे उठा दिया. वह चीख कर गालियां बक रही थी और उसे छुड़ाने को आगे बढ़े नरेंद्र को हरीश और नवल ने पकड़ लिया था. अब नंदा मांजी से रहम की भीख मांग रही थी. उन्होंने उसे धक्के दे कर दरवाजे से निकाल कर कहा, ‘‘देह दर्द करे, तो फिर आ जाना, मरम्मत कर दूंगी.’’
छूटने पर नरेंद्र ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘रुको तो, नंदा.’’
पर वह कह रही थी, ‘‘नौकरी जाने के बाद तुम्हारे पास रह क्या जाएगा? मेरी इज्जत तक तो उतरवा दी. ऐसे कायर पर मैं थूकती हूं.’’
नरेंद्र को लग रहा था, वह वास्तव में नौकरी जाने के बाद कुछ भी नहीं रह जाएगा. जेल की कठोर यातनाएं सह कर वहां से छूटने के बाद दुनिया बदल चुकी होगी. वह धम्म से चारपाई पर बैठ गया.
मांजी जूही से कह रही थीं, ‘‘देखना, जो यह कलमुंही दोबारा घर की दहलीज पर पैर तक रखे. साहबजादे भी कुछ दिनों में ठीक हो जाएंगे. तुम मियांबीवी एक हो जाओगे, मैं ही कड़वी दवा रहूंगी.’’
मांजी का हाथ बहू की पीठ सहला रहा था और बहू को लग रहा था, जैसे उस की बिछुड़ी सगी मां एक हाथ में छड़ी और दूसरे में दूध का गिलास लिए हो, नारियल के फल की तरह ऊपर से कठोर, भीतर से नर्म.