रीते हाथ: क्या था उमा का सपना

अपनी बातों का सिलसिला खत्म कर उमा घर से निकली तो मैं दरवाजा बंद कर अंदर आ गई. आंखों में अतीत और वर्तमान दोनों आकार लेने लगे. मैं सोफे पर चुपचाप बैठ कर अपने ही खयालों में खोई अपनी सहेली के रीते हाथों के बारे में सोचती रही.

क्यों उमा से मेरी दोस्ती मां को बिलकुल पसंद नहीं थी. सुंदर, स्मार्ट, हर काम में आगे, उमा मुझे बहुत अच्छी लगती थी. वह मुझ से एक क्लास आगे थी और रास्ता एक होने के कारण हम अकसर साथ स्कूल आतेजाते थे. तब मैं भरसक इस कोशिश में रहती कि मां को हमारे मिलने का पता न चले, पर मां को सब पता चल ही जाता था.

उमा स्कूल से कालिज पहुंची तो दूसरे ही साल मेरा भी दाखिला उसी कालिज में हो गया. कालिज के उमड़ते सैलाब में तो उमा ही मेरा एकमात्र सहारा थी. यहां उस का प्रभाव स्कूल से भी ज्यादा था. कालिज का कोई भी कार्यक्रम उस के बगैर अधूरा लगता था. नाटक हिंदी का हो या अंगरेजी का उमा का नाम तो होता ही, अभिनय भी वह गजब का कर लेती थी.

लड़कों की एक  लंबी फेहरिस्त थी, जो उमाके दीवाने थे. वह भी तो कैसे बेझिझक उन सब से बात कर लेती थी. बात भी करती और पीठ पीछे उन का मजाक भी उड़ाती. कालिज से लौटते समय एक बार उमा ने मुझे बताया था कि अभी तो ये ग्रेजुएशन ही कर रहे हैं और इन को कुछ बनने में, कमाने में सालों लगेंगे. मैं तो किसी ऐसे युवक से विवाह करूंगी जिस की अच्छी आमदनी हो ताकि मैं आराम से रह सकूं.

इसलिए मैं किसी के प्यार के चक्कर में नहीं पड़ती. मैं उस की दूरदर्शी बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. मुझ में झिझक थी. मैं अपनी किताबी दुनिया से बाहर कुछ नहीं जानती थी और उमा ठीक मेरे विपरीत थी. क्या यही कारण था, जो मुझे उस के व्यक्तित्व की ओर आकर्षित करता था? मन में छिपी एक कसक थी कि काश, मैं भी उस की जैसी बन पाती लेकिन मां क्यों…?

संयोग देखो कि उस की आकांक्षाओं पर जो युवक खरा उतरा वह मेरा ही मुंहबोला भाई विकास था. विकास से हमारा पारिवारिक रिश्ता इतना भर था कि उस के और मेरे पिता कभी साथसाथ पढ़ते थे पर इतने भर से ही विकास ने कभी हम बहनों को भाई की कमी महसूस नहीं होने दी.

अपने घर की एक पार्टी में मैं ने विकास का परिचय उमा से कराया था और यह परिचय दोस्ती का रूप धर धीरेधीरे प्रगाढ़ होता चला गया था. मगर उस के पिता का मापतौल अलग था, उमा की आकांक्षाओं पर विकास भले ही खरा उतरा था. उमा की मां किसी राजघराने से संबंधित थीं और इस बात का गरूर उमा की मां से अधिक उस के पिता को था.

एक साधारण परिवार में वह अपनी बेटी ब्याह दें, यह नामुमकिन था. इसलिए उन्होंने एक खानदानी रईस परिवार में उमा का रिश्ता कर दिया. ऐसी बिंदास लड़की पर भी मांबाप का जोर चलता है, सोच कर मुझे आश्चर्य हुआ पर यही सच था.

उमा के विवाह के 2 महीने बाद ही मेरा भी विवाह हो गया. पहली बार मायके आने पर पता चला कि उमा भी मायके आई हुई है, हमेशा के लिए. ‘लड़का नपुंसक है,’ यही बात उमा ने सब से कही थी. यह सच था अथवा उस ने अपने डिक्टेटर पिता को उन्हीं की शैली में जवाब दिया था, वही जाने.

बहरहाल, पिता अपना दांव लगा कर हार चुके थे. इस बार मां ने दबाव डाला. उमा एक बार फिर दुलहन बनी और इस बार दूल्हा विकास था. प्यार की आखिरकार जीत हुई थी. एक असंभव सी लगने वाली बात संभव हो गई. हम सभी खुश थे. विकास की खुशी हम सब की खुशी थी. बस, मां ही केवल औपचारिकता निभाती थीं उमा से.

साल दर साल बीत रहे थे. अब शादीब्याह जैसे पारिवारिक मिलन के अवसरों पर उमा से मुलाकात हो ही जाती. एकदूसरे की हमराज तो हम पहले से ही थीं, अब और भी करीब हो गई थीं. एक बात सोचती हूं कि मनचाहा पा कर भी व्यक्ति संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता? और ऊंचे उड़ने की अंधी चाह औंधेमुंह पटक भी तो सकती है. उमा यही बात समझ नहीं पा रही थी. उसे अपनी महत्त्वा- कांक्षाओं के आगे सब बौने लगने लगे थे.

विकास से उस की शिकायतों की फेहरिस्त हर मुलाकात में पहले से लंबी हो रही थी, वह महत्त्वाकांक्षी नहीं, पार्टियों, क्लबों का शौकीन नहीं, उसे अंगरेजी फिल्में पसंद नहीं, वह उमा के लिए महंगेमहंगे उपहार नहीं लाता…और भी न जाने क्याक्या? मैं भी अब पहले जैसी नादान नहीं रही थी. दुनियादारी सीख चुकी थी और मुझ में इतना आत्मविश्वास आ चुका था कि उमा को अच्छेबुरे की, गलतसही की पहचान करा सकूं.

‘देख उमा, मैं जानती हूं कि विकास बहुत महत्त्वाकांक्षी नहीं है पर तुम तो आराम से रहती हो न, और सब से बड़ी बात, वह तुम्हें कितना प्यार करता है. इस से बड़ा सौभाग्य क्या और कुछ हो सकता है? बताओ, कितनों को मनपसंद साथी मिलता है. फिर भी तुम्हें शिकायतें हैं, जबकि ज्यादातर औरतें एक अजनबी व्यक्ति के साथ तमाम उम्र गुजार देती हैं, बिना गिलेशिकवों के.’

‘मैं यह नहीं कहती कि पुरुष की सब बदसलूकियां चुपचाप सह लो, उस के सब जुल्म बरदाश्त कर लो पर जीवन में समझौते तो सभी को करने पड़ते हैं. यदि औरत घरपरिवार में तो पुरुष भी घर से बाहर दफ्तर में, काम में समझौते करता ही है.

‘मुझे ही देखो. मेरे पति अपने पैसे को दांत से पकड़ कर रखते हैं. अब इस बात पर रोऊं या इस बात पर तसल्ली कर लूं कि फुजूलखर्ची की आदत नहीं है तो दुखतकलीफ में किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे. दूसरे, कंजूस व्यक्ति में बुरी आदत जैसे सिगरेटशराब की लत पड़ने का भय नहीं रहता. अब यह तो जिस नजर से देखो नजारा वैसा ही दिखाई देगा.’

‘समझौता करना, कमियों को नजरअंदाज कर देना, यह सब तुम जैसे कमजोर लोगों का दर्शन है सुधा, सो तुम्हीं करो. यह समझौते मेरे बस के नहीं. मुझे जो एक जीवन मिला है मैं उसे भरपूर जीना चाहती हूं. शादी का मतलब यह तो नहीं कि मैं ने जीवन भर की गुलामी का बांड ही भर दिया है. ठीक है, गलती हो गई मेरे चयन में तो उसे सुधारा भी तो जा सकता है. मैं तुम्हारी तरह परंपरावादी नहीं हो सकती, होना भी नहीं चाहती और विकास को तो मैं सबक सिखा कर रहूंगी. इसी के लिए तो मैं पहले पति को छोड़ आई थी.’

विकास को सबक सिखाने का उमा ने नायाब तरीका भी ढूंढ़ निकाला. उस के काम पर जाते ही वह अपने पुरुष मित्रों से मिलने चल पड़ती. उस का व्यक्तित्व एक मैगनेट की तरह तो था ही जिस के आकर्षण में पुरुष स्वयं ख्ंिचे चले आते थे. क्या अविवाहित और क्या विवाहित, दोनों ही.

उमा अब विकास के स्वाभिमान को, उस के पौरुष को खुलेआम चुनौती दे रही थी. उसे लगता था कि इस से अच्छा तो तलाक ही हो जाता. कम से कम वह चैन से तो जी पाएगा.

उमा की यह इच्छा भी पूरी हो गई. उस का विकास से भी तलाक हो गया और वह अपनी 5 वर्षीय बेटी को भी छोड़ने को तैयार हो गई, क्योंकि इस बीच उस ने नवीन पाठक को पूरी तरह अपने मोहजाल में फंसा कर विवाह का वादा ले लिया था.

मैं उस के नए पति से कभी मिली नहीं थी और न ही मिलने की कोई उत्सुकता थी. बस, इतना जानती थी कि वह किसी उच्च पद पर है और प्राय: ही विदेश जाता रहता है.

कुछ दिन के बाद उमा दूसरे शहर चली गई तो हम सब ने राहत की सांस ली. बस, विकास को देख कर मन दुखी होता था. इस रिश्ते का टूटना विकास के लिए महज एक कागजी काररवाई न थी. उस में अस्वीकृति का बड़ा एहसास जुड़ा था और उस जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह गहरा धक्का था. वैरागी सा हो गया था वह. कम ही किसी से मिलता और काम के बाद का सारा समय वह अपनी बेटी के संग ही बिताता.

लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर उमा अचानक मिल गई. इस बीच हम भी अनेक शहर घूम दिल्ली आ कर बस गए थे. हुआ यों कि एक शादी के रिसेप्शन में शामिल होने हम जिस होटल में गए थे, होटल की लौबी में अचानक ही उमा मुझे दिख गई. उस ने भी मुझे देख लिया और फौरन हम एकदूसरे की तरफ लपके.

उमा अब 50 को छू रही थी किंतु उस के साथ जो पुरुष था वह उस से काफी बड़ा लग रहा था. उस समय तो अधिक बातचीत नहीं हो पाई पर उसे देख कर सब पुरानी यादें उमड़ पड़ी थीं. मैं ने फौरन उसे अगले ही दिन घर आने और पूरा दिन संग बिताने के लिए आमंत्रित कर लिया. आश्चर्य, अब भी उस के प्रति मेरा अनुराग बना हुआ था.

उमा समय पर पहुंची. मैं ने खाना तो तैयार कर ही रखा था, काफी भी बना कर थर्मस भर दिया था ताकि इत्मीनान से बैठ कर हम बातचीत कर सकें.

मेरे पहले प्रश्न का उत्तर ही मुझे झटका दे गया, महज बात शुरू करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पाठक साहब कैसे मिजाज के हैं? मैं ने कल पहली बार उन्हें देखा.’’

उमा के चेहरे पर एक बुझी हुई और उदास सी मुसकान दिखाई दी और पल भर में वह गायब भी हो गई, कुछ पल खामोश रही वह, पर मेरी उत्सुक निगाहों को देख टुकड़ोंटुकड़ों में बोली, ‘‘वह पाठक नहीं था. हम दोनों अब एकसाथ रहते हैं. दरअसल, पाठक सही आदमी नहीं था. बहुत ऐयाश किस्म का आदमी था वह. तुम सोच नहीं सकतीं कि मैं किस तनाव से गुजरी हूं. जी चाहता है जान दे दूं. एंटी डिपे्रशन की दवाई तो लेती ही हूं.’’

विकास के साथ किए गए उस के पुराने व्यवहार को भूल कर मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सांत्वना देने का प्रयत्न किया.

‘‘कई औरतों के साथ पाठक के संबंध थे और विवाह के एक साल बाद से ही वह खुलेआम अपने दफ्तर की एक महिला के संग घूमने लगा था. जब जी चाहता वह घर आता, जब चाहता रात भी उसी के संग बिता देता. अपनी ऐसी तौहीन, मेरे बरदाश्त के बाहर थी.’’

‘हमारे किए का फल कई बार कितना स्पष्ट होता है’ कहना चाह कर भी मैं कह नहीं पाई. मुझे उस से हमदर्दी हो रही थी. एक औरत होने के नाते या पुरानी दोस्ती के नाते? जो भी मान लो.

‘‘फिर अब कहां रहती हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एक फ्लैट पाठक ने विवाह के समय ही मेरे नाम कर दिया था. मैं उसी में रहती हूं. बाकी मैं रीयल एस्टेट का अपना व्यवसाय करती हूं ताकि उस से और किसी सहायता की जरूरत न पड़े.’’

बच्चों की बात हुई तो मैं ने उसे बताया कि मेरे दोनों बच्चे ठीक से सैटल हो चुके हैं. बेटे ने अहमदाबाद से एम.बी.ए. किया है और बेटी ने बंगलौर से. बेटी का तो विवाह भी हो चुका है और अब बेटे के विवाह की सोच रहे हैं.

जानती तो मैं भी थी उस की बिटिया के बारे में पर वह कितना जानती है पता नहीं. यही सोच कर मैं कुछ नहीं बोली. उस ने स्वयं ही बेजान सी आवाज में कहा, ‘‘सुना है, अलग अपनी किसी सहेली के साथ रहती है. कईकई दिनों घर नहीं जाती. मुझ से तो ठीक से बात करने को भी तैयार नहीं. फोन करूं तो एकदो बात का अधूरा सा जवाब दे कर फोन रख देती है,’’ यह कहतेकहते वह रोंआसी हो गई. मैं उस की ओर देखती रही, लेकिन ढूंढ़ नहीं पाई जीवन से भरपूर, अपनी ही शर्तों पर जीने वाली उमा को.

‘‘सिर पर छत तो है पर सोच सकती हो, उस घर में अकेले रहना कितना भयावना हो जाता है? लगता है दीवारें एकसाथ गिर कर मुझे दबोच डालने का मनसूबा बनाती रहती हैं. शाम होते ही घर से निकल पड़ती हूं. कहीं भी, किसी के भी साथ… मैं तुम्हें पुरातनपंथी कहती थी, मजाक उड़ाती थी तुम्हारा. पर तुम ही अधिक समझदार निकलीं, जो अपना घर बनाए रखा, बच्चों को सुरक्षात्मक माहौल दिया. बच्चे तुम्हारे भी तुम से दूर हैं, फिर भी वह तुम्हारे अपने हैं. पूर्णता का एहसास है तुम्हें, कैसा भी हो तुम्हारा पति तुम्हारे साथ है, उस का सुरक्षात्मक कवच है तुम्हारे चारों ओर. जानती हो, मुझे कैसीकैसी बातें सुननी पड़ती हैं. मेरी ही बूआ का दामाद एक दिन मुझ से बोला, कोई बात नहीं यदि पाठक चला गया तो हम तो हैं न.

‘‘उस की बात से अधिक उस के कहने का ढंग, चेहरे का भाव मुझे आज भी परेशान करता है पर चुप हूं. मुंह खोलूंगी तो बूआ और उन की बेटी दोनों को दुख पहुंचेगा. और फिर अपने ही किए की तो सजा पा रही हूं…’’

उमा को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था. ठोकरें खा कर दूसरों के दुखदर्द का खयाल आने लगा था पर अब बहुत देर हो चुकी थी. मैं उस की सहायता तो क्या करती, सांत्वना के शब्द भी नहीं सोच पा रही थी. वही फिर बोली, ‘‘सुधा, घर तो खाली है ही मेरा मन भी एकदम खाली है. लगता है घनी अंधेरी रात है और मैं वीरान सड़क पर अकेली खड़ी हूं… रीते हाथ.

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काश: क्या दूर हुई कुसुम की शिकायत

‘‘नहीं, पापाजी नहीं, आप ने गलत चाल चली है. यह तो चीटिंग है. गुलाम घोड़े की चाल नहीं चल सकता,’’ मैं जोरजोर से चिल्ला रही थी. जबकि, पापाजी अपनी चाल पर अड़े हुए थे.

वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘तो क्या हो गया बेटा, चाल तो चाल है, घोड़ा चले या गुलाम.’’

दूर खड़े प्रवीण अंकल पास आते हुए बोले, ‘‘सही बात है, अनुराग. अब लाड़ली को हराना है तो कुछ हथकंडे तो अपनाने ही होंगे, वरना वह कहां जीतने देगी आप को? आप दोनों झगड़ते खूब हो, पर जानता हूं मैं, आप प्यार भी उसे बहुत करते हो.’’

‘‘क्या करूं प्रवीण, एक यही तो है जो बिलकुल मेरे जैसी है. मुझे समझती भी है और मेरे साथ मस्ती भी कर लेती है. वरना, आज के बच्चों के पास बुजुर्गों के लिए समय ही कहां है.’’

‘‘यह लीजिए पापाजी, शह. बचाइए अपना राजा,’’ मैं खुशी से तालियां बजाती हुई बोली. फिर सहसा खयाल आया कि पापाजी और प्रवीण अंकल को चाय देने का समय हो गया है.

‘‘पापाजी, चाय बना लाती हूं,’’ मैं उठती हुई बोली तो पापाजी प्रवीण अंकल से फिर मेरी तारीफ करने लगे.

वाकई, मैं और पापाजी बिलकुल एक से हैं. हमारी पसंदनापसंद हमारी सोच या कहिए पूरा व्यक्तित्व ही एकसा है. पापाजी मुझे बहुत प्यार करते हैं. मैं जहां उन के साथ मस्ती करती हूं, तरहतरह के गेम्स खेलती हूं तो वहीं गंभीर विषयों पर चर्र्चा भी करती हूं. वे मुझे हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं, मेरी केयर करते हैं.

वैसे, बता दूं, हमारा कोई खून का रिश्ता नहीं और न ही उन्होंने मुझे गोद लिया है. अब आप सोच रहे होंगे कि वे मेरे पापा कैसे हुए? दरअसल, ‘पापाजी’ मैं अपने ससुर को कहती हूं. वे भी मुझे बेटी से कम नहीं समझते. बहू और ससुर का हमारा रिश्ता बापबेटी के रिश्ते सा मधुर और खूबसूरत है.

मैं जब इस घर में ब्याह कर आईर् थी तो असमंजस में थी कि इस नए घर में ऐडजस्ट कैसे कर पाऊंगी? तब जेठजेठानी ऊपर के फ्लोर पर रहते थे और देवर व सासससुर हमारे साथ थे. जेठजेठानी कुछ माह बाद ही दूसरे शहर में शिफ्ट हो गए थे.

सासुमां का स्वभाव थोड़ा अलग था. वे अपने रिश्तेदारों, महल्ले वालों, पूजापाठ वगैरह में ही लगी रहतीं. पति और बच्चों के लिए वक्त नहीं था उन के पास. देवर पढ़ाई और दोस्तों में व्यस्त रहते तो मेरे पति यानी कुणाल औफिस के कामों में ओवरबिजी थे. मेरे पति स्वभाव से अपनी मां की तरह ही रूखे थे. रह गए मैं और पापाजी. पापाजी रिटायर हो चुके थे. सासुमां के विपरीत पूजापाठ और पोंगापंथी में उन का जरा सा भी विश्वास नहीं था. वे अपना समय पढ़नेलिखने और हलकेफुलके मनोरंजन करने में बिताते.

मैं तब बीए पास थी. पापाजी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं प्राइवेट एमए की परीक्षा दूं. घर में इस बात को ले कर काफी हंगामा हुआ. सासुमां ने भुनभुनाते हुए कहा था, ‘क्या करेगी पढ़ाई कर के? आखिर, घर ही तो संभालना है.’

मेरे पति ने भी टोका था, ‘कुसुम, तू ग्रेजुएट है. यही काफी है मेरे लिए. बेकार झंझट क्यों पाल रही है?’

मगर पापाजी मुझे पढ़ा कर आगे बढ़ाने को कृतसंकल्प थे. वे मानते थे कि ज्ञान कभी व्यर्थ नहीं जाता. उन के प्रयत्नों से मैं ने एमए पास कर लिया. इस बीच, मैं ने बेबी कंसीव कर लिया था. घर में खुशियां उमड़ पड़ीं. सब खुश थे. उन दिनों सास भी मेरी खास देखभाल करने लगी थीं. मगर ऐनवक्त पर मेरा छोटा ऐक्सिडैंट हुआ और मिसकैरिज हो गया. इस घटना के बाद कुणाल मुझ से कटेकटे से रहने लगे. मेरी सास ने भी मुझे ही दोषी ठहराया. मगर पापाजी ने मुझे संभाला, ‘‘बेटा, इस तरह की घटनाएं कभी भी हो सकती हैं. इस की वजह से स्वयं को टूटने नहीं देना. रास्ते फिर निकलेंगे. वक्त जैसी परिस्थितियां सामने लाता है, उसी के हिसाब से सब मैनेज करना होता है. तुम केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान रखो. बाकी चीजें स्वयं सुधर जाएंगी.’’

मुझे पापाजी के शब्दों से ताकत मिलती. पापाजी को मेरे प्रति असीम स्नेह की एक वजह यह भी थी कि उन की कोई बहन नहीं थी. वे 4 भाई थे. उन की कोई बेटी भी नहीं हुई. 2 बेटे ही थे. शायद यही वजह थी कि वे मुझ में अपनी बेटी देखते थे. एक वजह यह भी थी कि कुछ समय पहले जब वे बीमार पड़े तो मैं ने जीजान से उन की देखभाल की थी. तब से वे मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार रहते. उन्होंने मुझे पीएचडी करने की सलाह दी तो मैं सोच में पड़ गई. उन्होंने आश्वासन दिया कि वे मेरी हर संभव सहायता करेंगे. वे स्वयं इंटर कालेज में लैक्चरर हो कर रिटायर हुए थे. निश्ंिचत हो कर मैं ने फौर्म भर दिया.

समय यों ही गुजरता जा रहा था. देवर को बेंगलुरु में नौकरी मिल गई. वह वहां चला गया. सासुमां अपनी कीर्तनमंडली में और भी ज्यादा व्यस्त रहने लगीं जबकि मेरा ज्यादा समय पापाजी के साथ बीतता. इधर, मेरा रूटीन चेंज होने लगा था. सुबहसुबह मैं पापाजी के साथ जौगिंग के लिए जाती. दिन में उन की मदद से प्रोजैक्ट का काम करती और शाम को हम कभी बैडमिंटन, कभी चैस तो कभी ताश खेलते.

हम दोनों का प्रिय खेल शतरंज, प्रिय पेय ग्रीन टी, प्रिय भोजन कढ़ीचावल, प्रिय टाइमपास किताबें, प्रिय म्यूजिक गायक मुकेश के गाने थे. कुछ वे मौडर्न सोच वाले थे और कुछ मैं ‘ओल्ड इज गोल्ड’ में विश्वास रखने वाली. इसलिए हमारी खूब बन रही थी.

सासुमां भले ही हर मामले में पारंपरिक सोच रखती थीं पर परदा प्रथा पर ऐतबार नहीं था उन का. मुझे घर में किसी से परदा नहीं कराया जाता. कभीकभी जींस पहन लेने पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. पर मुझे कभीकभी लगता कि सासुमां और कुणाल के बीच कोई खिचड़ी पक रही है.

मैं दोबारा कंसीव नहीं कर पा रही थी. इस बात को ले कर वे दोनों उखड़ेउखड़े रहते. सासुमां अकसर मुझे इस के लिए बातें सुनातीं. उन की जिद पर मेरी मैडिकल जांच हुई. रिपोर्ट आई तो मेरी जिंदगी में हलचल मच गई. मैं कभी मां नहीं बन सकती थी.

इस खबर ने सब को गम के सागर में डुबो दिया. मैं स्वयं अंदर से टूट रही थी पर मुझे संभालने के बजाय उलटा कुणाल मेरा बातबेबात पर अपमान करने लगा. पापाजी इस बात पर कुणाल से नाराज रहने लगे. पर सासुमां कुणाल का ही पक्ष लेतीं.

इस बीच, कुणाल ने यह खबर दे कर सब को अचंभित कर दिया कि उसे कंपनी की तरफ से 2 सालों के लिए बेंगलुरु भेजा जा रहा है. मैं कुछ कहती, इस से पहले ही वह फैसला सुनाता हुआ बोला, ‘‘कुसुम, तुम मेरे साथ नहीं चल रहीं. मैं अकेला ही जाऊंगा. तुम मम्मीपापा की देखभाल करो.’’

मैं चुप रह गई. वैसे भी कुणाल के दिल में अब मुझे अपने लिए खास जगह नहीं दिखती थी. कुणाल चला गया. मैं अपनी पीएचडी पूरी करने में व्यस्त हो गई. महीनों बीत गए. कुणाल का फोन गाहेबगाहे ही आता और बहुत संक्षेप में हालसमाचार पूछ कर रख देता. मैं फोन करती तो कहता कि अभी व्यस्त हूं या रास्ते में हूं वगैरह.

एक दिन मेरी बेंगलुरु की एक सहेली ने फोन किया और बताया कि कुणाल आजकल एक लड़की के साथ बहुत घूमफिर रहा है. पापाजी ने सुना तो तुरंत फोन उठा कर उसे डांट लगाई पर कुणाल और भी भड़क गया.

उधर, सासुमां भी बेटे का पक्ष ले कर भुनभुनाती रहीं. उस रात मैं ने पहली बार देखा कि पापाजी रातभर जागते रहे हैं. बारबार दरवाजा खोल कर आंगन में टहलने लगते या किचन में जा कर कभी कौफी बनाते तो कभी पानी ले कर आते. मैं खुद भी जागी हुई थी और मेरे कमरे तक ये सारी आवाजें आती रहीं.

सुबह उठ कर उन्होंने जो फैसला सुनाया वह हतप्रभ करने वाला था. पापाजी सासुमां से कह रहे थे, ‘‘आशा, मैं अपना यह घर बहू के नाम कर रहा हूं. मेरे और तुम्हारे बाद इस पर कुणाल का नहीं, बल्कि बहू का अधिकार होगा.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो? कुणाल हमारा बेटा है,’’ सासुमां ने प्रतिरोध किया पर पापाजी अपनी बात पर अड़े रहे.

मैं ने तुरंत आगे बढ़ कर उन से ऐसा करने को मना किया, मगर पापाजी नहीं माने. वकील बुला कर सारी कागजी कार्यवाही पूरी कर ली. मैं समझ रही थी कि पापाजी आने वाले तूफान से लड़ने के लिए मुझे मजबूत बना रहे हैं. सचमुच

2-3 माह बाद ही कुणाल ने मुझे तलाक के कागजात भेज दिए.

पहले तो मैं कुणाल के आगे रोईगिड़गिड़ाई, पर फिर पापाजी के कहने पर मैं ने सहमति से तलाक दे दिया.

जल्द ही खबर आ गई कि कुणाल ने दूसरी शादी कर ली है. पापाजी ने कुणाल से सारे संबंध काट लिए थे. जबकि, मैं बापबेटे को फिर से मिलाना चाहती थी. पापाजी इस बात के लिए कतई तैयार न थे. वे मुझे अपनी बेटी मानते थे. इस बात पर सासुमां ने कई दिनों तक बखेड़े किए. वे बीमार भी रहने लगी थीं. मैं समझ नहीं पाती कि क्या करूं? मेरे घर में मां,

2 बहनें और एक छोटा भाई है. घरवालों ने मुझे पापाजी के हिसाब से चलने की सलाह दी थी. उन्हें पापाजी का नजरिया बहुत पसंद था. वैसे भी, तलाकशुदा बन कर वापस मायके में रहना मेरे लिए आसान नहीं था. ऐसे में पापाजी की बात मान कर मैं इसी घर में रहती रही. सासुमां अब ज्यादा ही बीमार रहने लगी थीं. एक दिन तेज बुखार में उन्होंने सदा के लिए आंखें बंद कर लीं. अब तक देवर की भी शादी हो चुकी थी. वह बेंगलुरु में ही सैटल हो चुका था.

मैं और पापाजी बिलकुल अकेले रह गए. मैं ने पीएचडी पूरी कर ली और पापाजी की प्रेरणा से एक कालेज में लैक्चरर भी बन गई. इधर, कुणाल से हमारा संपर्क न के बराबर था. कभी होलीदीवाली वह फोन करता तो पापाजी औपचारिक बातें कर के फोन रख देते.

वक्त इसी तरह गुजरता रहा. कुणाल पापाजी से इस बात पर नाराज था कि उन्होंने अपनी संपत्ति मेरे नाम कर दी थी और मेरी वजह से उस से नाता तोड़ दिया. उधर, पापाजी कुणाल से इस वजह से नाराज थे कि उन की बात न मानते हुए कुणाल ने मुझे तलाक दे कर दूसरी शादी की.

एक दिन शाम के समय कुणाल का फोन आया. पापाजी ने फोन मुझे थमा दिया. कुणाल भड़क उठा और मुझे जलीकटी सुनाने लगा. पापाजी ने फोन स्पीकर पर कर दिया था. हद तो तब हुई जब उत्तेजित कुणाल मेरे और पापाजी के संबंधों पर कीचड़ उछालने लगा. कुणाल कह रहा था, ‘मैं समझ रहा हूं, पापाजी ने मुझे घर से बेदखल कर तुम्हें क्यों रखा हुआ है. तुम दोनों के बीच क्या चक्कर चल रहा है, इन सब की खबर है मुझे. ससुर के साथ ऐसा रिश्ता रखते हुए शर्म नहीं आई तुम्हें?’

वह अपना आपा खो चुका था. पापाजी के कानों में उस की ये बातें पहुंच रही थीं. उन्होंने मोबाइल बंद करते हुए उसे उठा कर फेंक दिया. मैं भी इस अप्रत्याशित इलजाम से सदमे में थी और मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. पापाजी ने मुझे सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, जमाना जो कहे, जितना भी कीचड़ उछाले, मैं ने तुझे अपनी बेटी माना है और अंतिम समय तक एक बाप का दायित्व निभाऊंगा.’’

अगले ही दिन से उन्होंने मुझे वास्तव में दत्तक पुत्री बनाने की कागजी कार्यवाही शुरू कर दी. रिश्ते को कानूनी मान्यता मिलने के बाद उन्होंने फाइनल डौक्यूमैंट्स की एक कौपी कुणाल को भी भेज दी.

अब मैं भी निश्ंिचत हो कर पूरे अधिकार के साथ अपने पिता के साथ रहने लगी. इधर, घर का ऊपरी हिस्सा पापाजी ने पेइंगगैस्ट के तौर पर

4 लड़कियों को दे दिया. उन लड़कियों के साथ मेरा मन लगा रहता और मेरे पीछे वे लड़कियां पापाजी की सहायता करतीं.

वक्त का चक्का अपनी गति से चलता रहा. मैं ने अपनी जिंदगी से समझौता कर लिया था. पर शायद कुणाल की जिंदगी के इम्तिहान अभी बाकी थे. कुणाल की बीवी की एक ऐक्सिडैंट में मौत हो गई. उस के 5 साल के बच्चे की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा. ऐसे में कुणाल को मेरी और पापाजी की याद आई. उस ने मुझे फोन किया, ‘‘प्लीज कुसुम, तुम्हीं इस बिन मां के बच्चे को संभाल सकती हो. मैं तो पूरे दिन बाहर रहता हूं. रात में लौटने का भी कोई टाइम नहीं है. श्रुति के घरवालों में भी कोई ऐसा नहीं जो इस की देखभाल करने को तैयार हो. अब मेरा बच्चा तुम्हारे आसरे ही है. इसे मां का प्यार दे दो. तुम्हें ही पापाजी से भी बात करनी होगी.’’

मैं ने उसे ऊपरी तौर पर तो हां कह दिया पर अंदर से जानती थी कि पापाजी कभी तैयार नहीं होंगे. मेरे अंदर की औरत उस बच्चे को स्वीकारने को व्यग्र थी. सो, मैं ने पापाजी से इस संदर्भ में बात की. वे भड़क उठे, ‘‘नहीं, यह मुमकिन नहीं. उसे अपने किए की सजा पाने दो.’’

‘‘मैं मानती हूं पापाजी कि कुणाल ने हमारे साथ गलत किया. उस ने आप का दिल दुखाया है. पर पापाजी उस नन्हे से बच्चे का क्या कुसूर? उसे किस बात की सजा मिले?’’

पापाजी के पास मेरी इस बात का कोई जवाब नहीं था. मैं ने भीगी पलकों से आगे कहा, ‘‘पापाजी, मुझे जिंदगी ने बच्चा नहीं दिया है. पर क्या कुणाल के इस बच्चे को अस्वीकार कर मैं आने वाली खुशियों के दरवाजे पर ताला नहीं लगा रही?’’

‘‘ठीक है बेटी,’’ पापाजी का गंभीर स्वर उभरा, ‘‘तुम उस बच्चे को रखना चाहती हो तो रख लो. जिंदगी तेरी गोद में खुशियां डालना चाहती है तो मैं कतई नहीं रोकूंगा, वैसे भी, वह मेरा पोता है. उस का हक है इस घर पर. मगर याद रखना कुणाल ने मुझ पर और मेरे घर पर अपना हक खो दिया है.’’

मैं ने यह बात कुणाल से कही तो वह खामोश हो गया. मैं समझ रही थी कि किसी भी बाप के लिए अपना बच्चा किसी और को सौंप देना आसान नहीं होता. कुणाल ऐसे मोड़ पर था जहां वह अपना पिता तो खो ही चुका था, अब बच्चे को भी पूर्व पत्नी के हाथ सौंप कर क्या वह बिलकुल अकेला नहीं हो जाएगा?

मैं कुणाल की मनोदशा समझ रही थी. 2-3 दिन बीत गए. फोन कर कुणाल से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हुई. उस दिन इतवार था. मैं घर पर थी और पापाजी के लिए दलिया बना रही थी. पापाजी कमरे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे. अचानक दरवाजे की घंटी बजी.

दरवाजा खोला तो चौंक पड़ी. सामने कुणाल खड़ा था, 5 साल के प्यारे से बच्चे के साथ.

‘‘कुसुम, यह है मेरा बेटा नील. आज से मैं इस की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपता हूं. तुम ही इस की मां हो और तुम्हें ही इस का खयाल रखना होगा. हो सके तो मुझे माफ कर देना. पापाजी से कहना कि कुणाल माफी के लायक तो नहीं, फिर भी मांग रहा था,’’ यह कहते हुए उस ने नील का हाथ मेरे हाथों में थमाया और तेजी से बाहर निकल गया.

मैं नील को लिए अंदर पहुंची तो पापाजी को सामने खड़ा पाया. वे भीगी पलकों से एकटक नील की तरफ ही देख रहे थे. उन्होंने बढ़ कर नील को गले लगा लिया.

मैं सोच रही थी, काश, पापाजी के इन आंसुओं के साथ कुणाल के प्रति उन की नाराजगी भी धुल जाए और काश, नील बापबेटे के बीच सेतु का काम करे. काश, हमारी बिखरी खुशियां फिर से हमें मिल जाएं.

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दर्द का रिश्ता: क्या हुआ अमृता के साथ

‘‘अरेअमृता, सभी लड़कियां दीवाली मनाने अपनेअपने घर चली गईं, तुम क्यों नहीं गईं? दीवाली की तो तुम्हारे औफिस में भी छुट्टी होती होगी?’’ पेइंगगैस्ट हाउस की मालकिन मालती सभी लड़कियों के घर जाने के बाद अमृता के कमरे में बत्ती जली देख कर उस के कमरे में जा कर चौंक कर बोलीं.

‘‘नहीं आंटी, बस ऐसे ही मन नहीं हुआ जाने का… कोई खास बात नहीं… मैस बंद हो गया है तो भी कोई बात नहीं, मैं बाहर खाना खा लूंगी. 1 हफ्ते के अंदर तो सभी लड़कियां आ ही जाएंगी… आप चिंता मत करिए,’’ अमृता ने बुझे मन से बात टालने के लिए कहा.

मगर अमृता का उदास चेहरा देख कर मालती भांप गईं कि कोई बात जरूर है, जिस ने इसे इतने बड़े त्योहार पर भी घर जाने से रोक लिया.

‘‘बेटा, साथ रहतेरहते हम सभी एक परिवार की तरह हो गए हैं. मैस बंद हो गया तो क्या… मैं अपने लिए तो खाना बनाऊंगी ही न और फिर अब मुझे तुम सब के साथ खाना खाने की आदत भी पड़ गई है. अकेले खाना मुझे अच्छा नहीं लगेगा, इसलिए हम दोनों साथ खाना खाएंगी. मैं तुम्हारी मां की तरह हूं… यदि तुम्हें उचित लगे तो मुझ से तुम कुछ भी मत छिपाओ… शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं. मुझ से तुम्हारा इस तरह उदास रहना नहीं देखा जा रहा,’’ मालती ने उस के पास बैठते हुए उस की पीठ पर हाथ रख कर कहा तो उन का ममता भरा स्पर्श पा कर अमृता की आंखों में रुके आंसू बह निकले.

‘‘मेरी मां मुझे पैदा करते ही अकेला छोड़ चल बसी थीं, मेरी मौसी ही मेरी सौतेली मां हैं. घर पर रहती हूं तो वे मुझे कोसने का कभी

कोई मौका नहीं छोड़तीं कि पैदा होते ही मैं ने मां को खा लिया, यदि ऐसा नहीं होता तो उन्हें मुझे पालने के लिए अपनी बड़ी बहन की जगह नहीं लेनी पड़ती. उस जमाने में मातापिता का वर्चस्व ही सर्वोपरि होता था. मेरे नानानानी ने सोचा कि मौसी से अधिक अच्छी तरह और कौन मेरी देखभाल कर सकता है. पापा ने भी

यह सोच कर मौसी से विवाह कर लिया कि वे अपनी बहन की बेटी को अपनी बेटी की तरह पालेंगी, लेकिन इस के विपरीत उन्होंने अपना सारा आक्रोश मुझ पर ही निकालना शुरू कर दिया.

आप बताइए मैं अपनी मां की मृत्यु का कारण कैसे हो सकती हूं…? मेरा इस में क्या दोष है और यदि उन का विवाह मेरे पापा से हुआ तो उस में मेरी क्या गलती है? इसीलिए मेरे पापा ने मुझे होस्टल में रख कर ही पढ़ाया और मुझे वे कभी घर नहीं आने देना चाहते ताकि मुझे अकारण मौसी के व्यंग्यबाण न सहने पड़ें. जब उन का मन होता है, वे स्वयं मुझ से मिलने आ जाते हैं,’’ अमृता ने सुबकते हुए बिना किसी भूमिका के सब कह डाला.

मालती उस की बात सुन कर उसे अपने गले से लगाते हुए बोलीं, ‘‘मुझे बहुत दुख हुआ ये सब जान कर, लेकिन तुम दुखी मत हो… किसी भी चीज की जरूरत हो तो मुझे बताना,’’ कह वे चली गईं.

मालती के जाते ही अमृता सोच में पड़ गई कि कितना विरोधाभास है उस की मौसी और मालती आंटी के स्वभाव में. उस के मानसपटल पर 6 महीने पहले की घटना तैरने लगी. तबवह नौकरी के सिलसिले में पहली बार दिल्ली आई थी और एक पेइंगगैस्ट हाउस में रहना शुरू किया था. आते ही उसे वायरल बुखार ने अपनी चपेट में ले लिया. मैस में बना खाना उसे नहीं खाना था. फिर उस के अनुरोध  करने पर भी जब मैस चालक ने उसे उस की पसंद का खाना देने से इनकार कर दिया तो वह पास की दुकान पर ब्रैड लेने पहुंच गई. लेकिन जब दुकानदार ने ब्रैड नहीं है कहा तो वह बड़बड़ाई कि तबीयत ठीक नहीं है. लगता है मुझे मैस का तलाभुना खाना ही खाना पड़ेगा.

दुकान पर ही पास खड़ी मालती ने उस की बात सुन ली और फिर उस का हाथ छूते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है, तुम्हें तो तेज बुखार है. मेरे घर चलो, पास में ही है. तुम्हें तुम्हारी पसंद का खाना बना कर खिलाऊंगी.’’

अनजान शहर में एक अनजान औरत से ऐसी आत्मीयता भरी बात सुन

कर वह हत्प्रभ रह गई. उसे वे पढ़ीलिखी और संभ्रांत परिवार की लग रही थीं, लेकिन प्रतिदिन इतनी वारदातें सुनने में आती हैं… एकदम से किसी पर भी विश्वास करना उसे ठीक नहीं लगा, इसलिए उस ने जवाब देते हुए कहा, ‘‘नहीं आंटी, मैं मैनेज कर लूंगी. आप परेशान न हों.’’

‘‘इस में परेशानी की कोई बात नहीं. तबीयत खराब हो तो खाना भी ठीक से मिलना जरूरी है वरना तबीयत और बिगड़ सकती है.’’

‘‘उन की बात बीच में ही काट कर दुकानदार बोला, ‘‘अरे, ये पास में ही तो रहती हैं. बहुत अच्छी हैं. मैं इन्हें 20 सालों से जानता हूं.’’

मालती के आत्मीयता भरे आमंत्रण पर दुकानदार के आश्वासन की मुहर लगते ही अमृता के नानुकुर करने की गुंजाइश ही नहीं रही. अत: बोली, ‘‘ठीक है,’’ और फिर उन के साथ उन के घर पहुंच गई.

एक बड़ी सी दोमंजिला कोठी के सामने जा कर दोनों रुक गईं. मालती उसे एक बड़े ड्राइंगरूम में ले गईं. सामने दीवार पर प्रौढ़ावस्था के पुरुष का माला पहने हुए बड़ा सा फोटो लगा था. उस ने अनुमान लगाया कि वह फोटो उन के पति का ही होगा.

मालती ने उसे दीवान पर आराम करने के लिए कहा और फिर अंदर जा कर तुरंत चाय बना लाईं. उस के साथ ब्रैडस्लाइस भी थे. अमृता को बहुत संकोच हो रहा था, उन्हें ये सब करते देख कर.

उस ने सकुचाते हुए पूछा, ‘‘आंटी, आप यहां अकेली रहती हैं?’’

‘‘हां, एक बेटा है… इंजीनियर है वह. पुणे में नौकरी करता है.’’

‘‘आंटी एक बात कहूं… यदि बुरा लगे तो प्लीज मुझे माफ कर दीजिएगा.’’

‘‘नहीं बेटा, बोलो क्या कहना चाहती हो? निस्संकोच कहो.’’

उन के उत्तर से अमृता की हिम्मत बढ़ गई. बोली, ‘‘आंटी, आप का इतना बड़ा घर

है, आप को अकेलापन भी लगता होगा, आप क्यों नहीं ऊपर की मंजिल पर कुछ कमरे हम जैसी लड़कियों को रहने के लिए दे देतीं?’’ आंटी प्लीज यह मत सोचिएगा कि मैं आप की स्थिति का फायदा उठाना चाहती हूं. छोटे मुंह बड़ी बात तो नहीं कह दी मैं ने?’’ इतना बोलते ही अमृता को अपराधभावना ने घेर लिया.

लेकिन तुरंत ही मालती के उत्तर से वह उस से बाहर आ गई. मालती बोली, ‘‘नहीं बेटा, तुम ने बहुत अच्छी सलाह दी है… इस से मेरा अकेलापन भी दूर हो जाएगा और यह मकान भी जरूरतमंदों के काम आ जाएगा.’’

‘‘सच आंटी?’’ उस ने खुशी जताते हुए कहा. फिर थोड़ी तटस्थ हो कर उन्हें और सोचने का मौका न देते हुए बोली, ‘‘तो फिर देर किस बात की… मैं शाम को ही अपनी रूममेट्स को ले कर आती हूं.’’

‘‘ठीक है, लेकिन अभी लंच कर के जाना और वादा करो कि जब तक तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं हो जाती, यहीं खाना खाओगी. मुझे भी कंपनी मिल जाएगी.’’

‘‘अब तो मुझे यहीं रहना है, बहुतबहुत धन्यवाद आंटी…’’ अमृता उन से लिपट कर भावातिरेक में और बहुत कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन पहली मुलाकात में इतना अनौपचारिक होने में उसे संकोच हुआ और मालती की भी शायद यही स्थिति थी. लंच कर के शाम को फिर आने का वादा कर के वह चली गई.

शाम को अमृता अपने साथ 4 लड़कियों को ले कर मालती के घर पहुंच गई. मालती उन लोगों को देख कर बहुत खुश हुईं और फिर बोलीं, ‘‘ठीक है, मुझे 1 हफ्ते का समय दो ताकि ऊपर मैं किसी को बुला कर तुम लोगों के रहने का इंतजाम करा सकूं… जब तक मैस का इंतजाम नहीं होता, तुम लोग मेरी किचन में ही खाना खाना.’’

‘‘अरे वाह आंटी, लेकिन किसी को बुलाने की आवश्यकता क्या है? हम चारों ही मिल कर सारी व्यवस्था कर लेंगे. मैस जब तक नहीं बनेगा, हम आप को आप की किचन में खाना बना कर खिलाएंगे, हमें खाना बनाना आता है. आप जो चार्ज करेंगी हम दे देंगे…’’ दूसरी लड़की प्रियंका ने थोड़ा अनौपचारिक होते हुए कहा.

‘‘पैसे की तो मेरे पास कोई कमी नहीं है. बस थोड़ा अकेलापन रहता है… वह तुम लोगों के रहने से दूर हो जाएगा. लेकिन एक बात का ध्यान रखना मैं थोड़ी अनुशासनप्रिय हूं… टीचर थी न. बहुत ऊंची आवाज में म्यूजिक सुनना और लेट नाइट आनाजाना मुझे पसंद नहीं… कोई मजबूरी हो तो बात अलग है.’’

सारी बातें तय हो गईं और उस के बाद उन लड़कियों ने मिल कर ऊपर के 2 कमरों को व्यवस्थित किया. देखने से लग रहा था कि महीनों से उन कमरों की किसी ने खोजखबर नहीं ली है. ऊपर 5 कमरे थे. बाकी के कमरों में भी महीनेभर के अंदर ही और लड़कियां आ गई थीं.

यह सत्र की शुरुआत थी, इसलिए उन में से कुछ पढ़ने वाली लड़कियां थीं. मैस का

भी इंतजाम हो गया था, लेकिन मालती खाना अपने सुपरविजन में ही बनवाती थीं. कुल मिला कर 10 लड़कियां थीं. हरेक के खाने की पसंद का खयाल रखा जाता था.

कोई बीमार पड़ती तो उस के लिए अलग से खाना बनता था. सभी लड़कियां मालती के व्यवहार से बहुत खुश रहती थीं और जल्दी उन से घुलमिल गई थीं. उन्हें अपने घर की कमी नहीं महसूस होती थी. मालती भी अपना खाना मैस में ही खाती थीं.

एक बात सब ने महसूस की थी कि मालती का व्यवहार सामान्य औरतों से कुछ हट कर था. एक गहरी उदासी की परत उन के चेहरे पर छाई रहती थी. कभी किसी ने उन्हें खुल कर हंसते नहीं देखा था. लड़कियों का अनुमान था कि शायद पति की मृत्यु हो जाने और बेटे के दूर रहने पर बुझीबुझी रहती हैं.

अमृता के मोबाइल की घंटी बजी तो उस की विचारतंद्रा को झटका लगा. मालती का फोन था, उन्होंने डिनर के लिए उसे नीचे बुलाया था. वह तुरंत नीचे पहुंच गई और फिर सकुचाते हुए बोली, ‘‘सौरी आंटी, मुझे खाना बनाना चाहिए था… मैं आ ही रही थी. आप क्यों परेशान हुईं?’’

‘‘कोई बात नहीं, तुम्हारी मां होतीं तो क्या तुम्हें बना कर नहीं खिलातीं? आज के बाद मुझे अपनी मां ही समझो. वैसे भी तुम्हें एक प्यार करने वाली मां चाहिए और मुझे एक बेटी. फिर क्यों न हम दोनों मिल कर एकदूसरे के जीवन की इस कमी को पूरी कर दें?’’

अमृता उन की बात सुन कर अवाक रह गई. आज मालती बहुत खुश दिखाई दे रही थीं. उन का यह नया रूप देख कर वह हैरान हो रही थी. उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. अपने कमरे में आ कर भी वह मालती के कथन के बारे में ही सोचती रही. उस की स्थिति जानने के बाद मालती की उस के प्रति प्रतिक्रिया उसे असमंजस की स्थिति में डाल रही थीं.

दीवाली के अगले दिन अमृता के पापा उस से मिलने आए तो हमेशा की तरह उस के कमरे में न आ कर उसे नीचे ही मिलने के लिए बुलाया. वह नीचे ड्राइंगरूम के बाहर मालती की आवाज सुन कर ठिठक कर खड़ी हो गई.

मालती कह रही थीं, ‘‘मेरी मां भी मुझे पैदा करते ही चल बसी थीं… अमृता की मनोस्थिति को मुझ से अधिक और कौन समझ सकता है? मैं उस की मां का स्थान तो नहीं ले सकती, लेकिन उस के जीवन की इस कमी को तो कुछ हद तक उस की सास बन कर जरूर पूरा कर सकती हूं… अमृता जैसी लड़की मुझे बहू के रूप में मिल जाएगी तो मुझे बेटी की भी कमी नहीं खलेगी. मैं ने कल अपने बेटे रोहित से भी बात की थी, उस ने मेरी पसंद पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी है. किसी प्रकार का दबाव आप या आप की बेटी पर नहीं है. आप दोनों को ठीक लगे तो मैं बात आगे बढ़ाऊं.’’

यह सुन कर अमृता के पांव जमीन में जैसे जम से गए. उसे समझने में देर नहीं लगी कि उस दिन आंटी उस पर इतनी ममता क्यों उड़ेल रही थीं. अभी वह सोच ही रही थी कि मालती की नजर उस पर पड़ गई. वे बाहर आ कर उस का हाथ पकड़ कर अंदर ले गईं.

उस के चेहरे की लजीली मुसकान से वे समझ गईं कि उस ने उन की सारी बातें सुन ली हैं और उसे इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं है. अत: बोंली, ‘‘अभी तक तो तुम ने एक गैस्ट के तौर पर मेरे घर में रौनक की है, अब मेरी बहू बन कर मेरे बेटे की और मेरी जिंदगी में रौनक कर दो. तुम्हें मेरी बहू बनना था, इसीलिए उस दिन तुम मुझे दुकान पर मिली थी. अमृता भावातिरेक में उन के पांव छूने के लिए झुकी तो मालती ने उसे उठा कर अपने गले से लगा लिया.’’

अमृता बोली, ‘‘मैं ने मां को तो नहीं देखा, लेकिन होतीं तो आप जैसी हीं होतीं.’’

अमृता के पापा मूकदर्शक बने इस दर्द के रिश्ते को देख रहे थे. उन की आंखों से खुशी के आंसू बह निकले.

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औरों से आगे: अम्मा का दहेज को लेकर क्या था कहना

‘‘अंतर्जातीय विवाहों से हमारे आचारविचार में छिपी संकीर्णता खत्म हो जाती है. अंधविश्वासों व दकियानूसीपन के अंधेरे से ऊपर उठ कर हम एक खुलेपन का अनुभव करते हैं. विभिन्न प्रांतों की संस्कृति तथा सभ्यता को अपनाकर भारतीय एकता को बढ़ावा देते हैं…’’ अम्मां किसी से कह रही थीं.

मैं और छोटी भाभी कमरे से निकल रहे थे. जैसे ही बाहर बरामदे में आए तो देखा कि अम्मां किसी महिला से बतिया रही हैं. सुन कर एकाएक विश्वास होना कठिन हो गया. कल रात ही तो अम्मां बड़े भैया पर किस कदर बरस रही थीं, ‘‘तुम लोगों ने तो हमारी नाक ही काट दी. सारी की सारी बेटियां विजातियों में ब्याह रहे हो. तुम्हारे बाबूजी जिंदा होते तो क्या कभी ऐसा होता. उन्होंने वैश्य समाज के लिए कितना कुछ किया, उन की हर परंपरा निभाई. सब बेटाबेटी कुलीन वैश्य परिवारों में ब्याहे गए. बस, तुम लोगों को जो अंगरेजी स्कूल में पढ़ाया, उसी का नतीजा आज सामने है.

‘‘अभी तक तो फिर भी गनीमत है. पर तुम्हारे बेटेबेटियों को तो वैश्य नाम से ही चिढ़ हो रही है. बेटियां तो परजाति में ब्याही ही गईं, अब बेटे भी जाति की बेटी नहीं लाएंगे, यह तो अभी से दिखाई दे रहा है.’’

बड़े भैया ने साहस कर बीच में ही पूछ लिया था, ‘‘तो क्या अम्मां, तुम्हें अपने दामाद पसंद नहीं हैं?’’

‘‘अरे, यह…यह मैं ने कब कहा. मेरे दामाद तो हीरा हैं. अम्मांअम्मां कहते नहीं थकते?हैं, मानो इसी घर के बेटे हों.’’

‘‘तो फिर शिकायत किस बात की. यही न कि वह वैश्य नहीं हैं?’’

2 मिनट चुप रह कर अम्मां बोलीं, ‘‘सो तो है. पर ब्राह्मण हैं, बस, इसी बात से सब्र है.’’

‘‘अगर ब्राह्मण की जगह कायस्थ होते तो?’’

‘‘न बाबा न, ऐसी बातें मत करो. कायस्थ तो मांसमछली खाते हैं.’’

धीरेधीरे घर के अन्य सदस्य भी वहां जमा होने लगे थे. ऐसी बहस में सब को अपनाअपना मत रखने का अवसर जो मिलता था.

‘‘क्या मांसमछली खाने वाले आदमी नहीं होते?’’ छोटे भैया के बेटे राकेश ने पूछा.

अम्मां जैसे उत्तर देतेदेते निरुत्तर होने लगीं. शायद इसीलिए उन का आखिरी अस्त्र चल गया, ‘‘मुझ से व्यर्थ की बहस मत किया करो. तुम लोगों को न बड़ों का अदब, न उन के विचारों का आदर. चार अक्षर अंगरेजी के क्या पढ़ लिए कि अपनी जाति ही भूलने लगे.’’

ऐसे अवसरों पर मझले भैया की बेटी स्मिता सब से ज्यादा कुछ कहने को उतावली दिखती थी, जो समाजशास्त्र की छात्रा थी. आखिर वह समाज के विभिन्न वर्गों को भिन्नभिन्न नजरिए से देखसमझ रही थी.

भैया भले ही कम डरते थे, पर भाभियां तो अपनेअपने बेटेबेटियों को आंखों के इशारों से तुरंत वहां से हटा कर दूसरे कामों में लगा देने को उतारू हो जाती थीं. जानती?थीं कि आखिर में उन्हें ही अम्मां की उस नाराजगी का सामना करना पड़ेगा. भाभियों के डर को भांपते हुए मैं ने सोचा, ‘आज मैं ही कुछ बोल कर देखूं.’

‘‘अम्मां, यह तो कोई बात न हुई कि उत्तर देते न बन पड़ा तो आप ने कह दिया, ‘व्यर्थ की बहस मत करो.’ राकेश ने तो सिर्फ यही जानना चाहा है कि क्या मांसमछली खाने वाले भले आदमी नहीं होते?’’

अम्मां हारने वाली नहीं थीं. उन्हें हर बात को अपने ही ढंग से प्रस्तुत करना आता था. हारी हुई लड़ाई जीतने की कला में माहिर अम्मां ने झट बात बदल दी, ‘‘अरे, दुनिया में कुछ भी हो, मुझे तो अपने घर से लेनादेना है. मेरे घर में यह अधर्म न हो, बस.’’

मेरा समर्थन पा कर राकेश फिर पूछ बैठा, ‘‘अम्मां, जो लोग मांसमछली खाते हैं, उन्हें आप वैश्य नहीं मानतीं. यदि कोई दूसरी जाति का आदमी वैश्य जैसा रहे तो आप उसे क्या वैश्य मान लेंगी?’’

‘‘फिर वही बहस. कह दिया, हम वैश्य हैं.’’

कमरे में बैठी अपने स्कूल का पाठ याद करती रीना दीदी की 6 वर्षीय बेटी बोल उठी, ‘‘नहीं, नानीजी, हम लोग हिंदुस्तानी हैं.’’

अम्मां ने उसे पास खींच कर पुचकारा. फिर बोलीं, ‘‘हां बेटा, हम हिंदुस्तानी हैं.’’

अम्मां को समझ पाना बहुत कठिन था. कभी तो लगता था कि अम्मां जमाने के साथ जिस रफ्तार से कदम मिला कर चल रही हैं वह उन की स्कूली शिक्षा न होने के बावजूद उन्हें अनपढ़ की श्रेणी में नहीं रखता. औरों से कहीं आगे, समय के साथ बदलतीं, नए विचारों को अपनातीं, नई परंपराओं को बढ़ावा देतीं, अगली पीढ़ी के साथ ऐसे घुलमिल जातीं मानो वह उन्हीं के बीच पलीबढ़ी हों.

लेकिन कभीकभी जब वह अपने जमाने की आस्थाओं की वकालत कर के उन्हें मान्यता देतीं, अतीत की सीढि़यां उतर कर 50 वर्ष पीछे की कोठरी का दरवाजा खोल देतीं और रूढि़वादिता व अंधविश्वास की चादर ओढ़ कर बैठ जातीं तो हम सब के लिए एक समस्या सी बन जाती. शायद हर मनुष्य दोहरे व्यक्तित्व का स्वामी होता है या संभवत: अंदर व बाहर का जीवन अलगअलग ढंग से जीता है.

पिताजी उत्तर प्रदेश के थे और इलाहाबाद शहर में जन्मे व पलेबढ़े थे. बाद में नौकरी के सिलसिले में उन्होंने अनेक बार देशविदेश के चक्कर लगाए थे. कई बार अम्मां को भी साथ ले गए. लिहाजा, अम्मां ने दुनिया देखी. बहुत कुछ सीखा, जाना और अपनी उम्र की अन्य महिलाओं से ज्ञानविज्ञान व आचारविचारों में कहीं आगे हो गईं.

पिताजी विदेशी कंपनी में काम करते थे. ऊंचा पद, मानमर्यादा और हर प्रकार से सुखीसंपन्न, उच्चविचारों व खुले संस्कारों के स्वामी थे. अम्मां उन की सच्ची जीवनसंगिनी थीं.

वर्षों पहले हमारे परिवार में परदा प्रथा समाप्त हो गई थी. स्त्रीपुरुष सब साथ बैठ कर भोजन करते थे. यह सामान्य सी बात थी, पर 35-40 वर्ष पूर्व यह हमारे परिवार की अपनी विशेषता थी, जिसे कहने में गर्व महसूस होता था. हमें लगता था कि हमारी मां औरों से आगे हैं, ज्यादा समझदार हैं. परदा नहीं था, पर इस का तात्पर्य यह नहीं था कि आदर व स्नेह में कमी आ जाए.

भाभियों को घूमनेफिरने की पूरी स्वतंत्रता थी. यहां तक कि उन का क्लब के नाटकों में भाग लेना भी मातापिता को स्वीकार था.

इतना सब होते हुए भी अपने समाज के प्रति पिताजी कुछ ज्यादा ही निष्ठावान थे. ऐसा नहीं था कि वह देश या अन्य जातियों के प्रति उदासीन थे, पर शादीब्याह के मामले में उन्हें अंतर्जातीय विवाह उचित नहीं लगे. हम सब को भी उन्हीं के विचारों के फलस्वरूप अपने समाज के प्रति आस्था जैसे विरासत में मिली थी. शायद अम्मां ने तो कभी अपना विचार या अपना मत जानने की कोशिश नहीं की.

समय के साथ सभी मान्यताएं बदल रही थीं. फिर भी मेरा मन मानता था, ‘यदि आज पिताजी जिंदा होते तो शायद उन की पोतियां स्वयं वर चुन कर गैरजाति में न ब्याही जातीं.’ लेकिन यह भी लगता?था, ‘यदि उन्हें दुख होता तो यह उन की संकीर्णता का द्योतक होता है,’ और हो सकता है, जिस रफ्तार से वह समय के साथसाथ चले और समय के साथसाथ बदलने की वकालत करते रहे थे, शायद ऐसे विवाहों को सहर्ष स्वीकर कर लेते.

आज वह नहीं हैं. अम्मां का अपना मत क्या है, वह स्वयं नहीं जानतीं. जो हो रहा?है, उन्हें कहीं अनुचित नहीं लग रहा. परंतु पिताजी का खयाल आते ही इन विवाहों को ले कर उन का मन कहीं कड़वा सा हो जाता है. प्रतिक्रियास्वरूप उन के अंतर्मन का कहीं कोई कोना उन्हें कचोटने लगता है. शायद वह उन की अपनी प्रतिक्रिया भी नहीं है, बल्कि पिताजी के विचारों के समर्थन का भावनात्मक रूप है.

5-6 बरस पहले कनु का सादा सा ब्याह और अब रिंकू के ब्याह का उत्सव कैसा विपरीत दृश्य था. कनु ने जब कहा था, ‘‘मैं सहपाठी राघवन से ब्याह करूंगी और वह भी अदालत में जा कर.’’

अम्मां सन्न रह गई थीं. जब उन का मौन टूटा तो मुंह से पहला वाक्य यही निकला?था, ‘‘आज तुम्हारे पिताजी जिंदा होते तो क्या घर में ऐसा होता? उन्हें बहुत दुख होता. जमाने की हवा है. मैं तो तभी जान गई थी जब तुम ने इसे बाहर पढ़ने भेजा. लड़कियों की अधिक स्वतंत्रता अच्छी नहीं.’’

यह अम्मां की विशेषता थी कि उन्हें हर बात पहले से ही पता रहती थी. पर वह घटना घटने के बाद ही कहती थीं. अम्मां ही क्या, कई लोग इस में माहिर होते हैं.

अम्मां के प्रतिकूल रवैए से बड़े भैया का मन भी अशांत हो उठा था. किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि वैश्य परिवार की लाड़ली, भोलीभाली एवं प्रतिभाशाली कन्या ऐसा कदम उठाएगी, जबकि परिवार के लोग घरवर खोजने में लगे थे.

वह तो एकाएक विस्फोट सा लगा. पर जब शुद्ध दक्षिण भारतीय राघवन से परिचय हुआ तो उस सौम्यसुदर्शन चेहरे के सम्मोहन ने कहीं सब के मन को छू लिया. सभी को लगा कि लड़का लाखों में एक है.

अम्मां ने कहा, ‘‘हिंदी तो ऐसे बोलता है, जैसे हमारे बीच ही रहता आया हो.’’

अम्मां का अनुकूल रुख देख कर बड़े भैया भी बदले थे. भाभी तो ऐसे अवसरों पर सदा तटस्थ रहती थीं. फिर भी बेटी को मनचाहा घरवर मिल रहा था, इस बात की अनुभूति उन के तटस्थ चेहरे को निखार गई थी. वह मन की प्रसन्नता मन तक ही रख कर अम्मां और भैया के सामने कुछ कहने का दुस्साहस नहीं कर पा रही थीं. बस, दबी जबान से इतना ही कहा, ‘‘आजकल तो वैश्यों में कितने ही अंतर्जातीय विवाह हो रहे हैं और सभी सहर्ष स्वीकार किए जा रहे हैं. जाति की संकुचित भावना का अब उतना महत्त्व नहीं है, जितना 15-20 वर्ष पहले था.’’

इतना सुनते ही अम्मां और भैया साथसाथ बोल उठे थे, ‘‘तुम्हारी ही शह है.’’

उस के बाद जब तक विवाह नहीं हुआ, भाभी मौन ही रहीं. वैसे यह सच था कि भाभी के बढ़ावे से ही कनु ने जाति से बाहर जाने की जिद की थी. सम्मिलित परिवार में रहीं भाभी नहीं चाहती थीं कि उन की बेटी सिर्फ आदर्श बहू बन कर रह जाए. वह चाहती थीं कि वह स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वामिनी बने.

कनु और राघवन विवाह के अवसर पर फुजूलखर्ची के खिलाफ थे. इसलिए बहुत सादी रीति से ब्याह हो गया, जो बाद में सब को अच्छा लगा.

जैसेजैसे समय बीतता गया, राघवन का सभ्य व्यवहार, दहेज विरोधी सुलझे विचार और स्वाभिमानी व्यक्तित्व की ठंडी फुहार तले भीगता सब का मन शांत व सहज हो गया था. दोनों परिवारों में आपसी सद्भाव, प्रेम व स्नेह के आदानप्रदान ने प्रांतीयता व भाषा रूपी भेदभावों को पीछे छोड़, कब स्वयं को व्यक्त करने के लिए नई भाषा अपना ली, पता ही नहीं लगा. वह थी, हिंदी, अंगरेजी, तमिल मिश्रित भाषा.

हमारे परिवार में भी तमिल समझने- सीखने की होड़ लग गई थी. यह जरूरी भी था. एक भाषाभाषी होने पर जो आत्मीयता व अपनेपन के स्पर्श की अनुभूति होती है, वह भिन्नभिन्न भाषाभाषी व्यक्तियों के साथ नहीं हो पाती. संभवत: यही कारण है कि अंतर्जातीय विवाहों में दूरी का अनुभव होता है. भाषा भेद हमारी एकता में बाधक है. नहीं तो भारत के हर प्रांत की सभ्यता व संस्कृति एक ही है. प्रांतों की भाषा की अनेकता में भी एकता गहरी है या शायद विशाल एकता की भावना ने रंगबिरंगी हो भिन्नभिन्न भाषाओं के रूप में प्रांतों में विविधता सजा दी है.

कनु के ब्याह के बाद स्मिता का ब्याह गुजराती परिवार में हुआ. मझली भाभी व भैया के लाख न चाहने पर भी वह ब्याह हुआ. सब से आश्चर्यजनक बात यह थी कि किसी को उस विवाह पर आपत्ति नहीं हुई. जैसे वह रोज की सामान्य सी बात थी. साथ ही रिंकू के लिए वर खोजने की आवश्यकता नहीं है, यह भी सोच लिया गया.

अनिल व स्मिता को जैसे एकदूसरे के लिए ही बनाया गया था. दोनों की जोड़ी बारबार देखने को मन करता था.

अम्मां इस बार पहले से कुछ अधिक शांत थीं. अनिल डाक्टर था, इसलिए आते ही अम्मां की कमजोर नब्ज पहचान गया था. जितनी देर रहता, ‘अम्मांअम्मां’ कह कर उन्हें निहाल करता रहता.

एक बार जब अम्मां बीमार पड़ीं, तब ज्यादा तबीयत बिगड़ जाने पर अनिल सारी रात वहीं कुरसी डाले बैठा रहा. सवेरे आंख खुलने पर अम्मां ने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी थी. बेटी से ज्यादा दामाद जिगर का टुकड़ा बन चला था. अम्मां ने अनिल के पिता से बारबार कहा था, ‘‘हमारी स्मिता के दिन फिर गए, जो आप के घर की बहू बनी. हमें गर्व है कि हमें ऐसा हीरा सा दामाद मिला.’’

अनिल के मातापिता ने अम्मां का हाथ पकड़ कर गद्गद कंठ से सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘आप घर की बड़ी हैं. बस, सब को आप का आशीर्वाद मिलता रहे.’’

सुखदुख में जाति भेद व भाषा भेद न जाने कैसे लुप्त हो जाता है. सिर्फ भावना ही प्रमुख रह जाती है, जिस की न जाति होती है, न भाषा. और भावना हमें कितना करीब ला सकती है, देख कर आश्चर्य होता था.

अब रिंकू का ब्याह था. घर के कोनेकोने में उत्साह व आनंद बिखरा पड़ा था. जातीयविजातीय अपनेअपने तरीके से, अपनीअपनी जिज्ञासा लिए अनेक दृष्टिकोणों से हमारे परिवार को समझने का प्रयास कर रहे थे. रिंकू बंगाली परिवार में ब्याही जा रही थी. कहां शुद्ध शाकाहारी वैश्य परिवार की कन्या रिंकू और कहां माछेर झोल का दीवाना मलय. पर किसी को चिंता नहीं थी, अम्मां उत्साह से भरी थीं. उन की बातों से लगता था कि उन्हें अपने विजातीय दामादों पर नाज है. अम्मां का उत्साह व रवैया देख कर जातीय भाईबंधु, जो कल तक अम्मां को ‘इन बेचारी की कोई सुनता नहीं’ कह कर सहानुभूति दर्शा रहे थे, अब चकित हो पसोपेश में पड़े क्या सोच रहे थे, कह पाना मुश्किल था. रिंकू का विवाह सानंद संपन्न हो गया. वह विदा हो ससुराल चली गई.

दूसरे दिन मन का कुतूहल जब प्रश्न बन कर अम्मां के आगे आया तो पहले तो अम्मां ने टालना चाहा, लेकिन राकेश, विवेक, कनु, राघवन, स्मिता, अनिल सभी उन के पीछे पड़ गए, ‘‘अम्मां, सचसच बताइएगा, अंतर्जातीय विवाहों को आप सच ही उचित नहीं समझतीं या…’’

प्रश्न पूरा होने से पहले ही अम्मां सकुचाती सी बोल उठीं, ‘‘मेरे अपने विचार में इन विवाहों में कुछ भी अनुचित नहीं. पर हम जिस समाज में रहते हैं, उस के साथ ही चलना चाहिए.’’

‘‘पर अम्मां, समाज तो हम से बनता है. यदि हम किसी बात को सही समझते हैं तो उसे दूसरों को समझा कर उन्हें भी उस के औचित्य का विश्वास दिलाना चाहिए न कि डर कर स्वयं भी चुप रह जाना चाहिए.’’

अब स्मिता को बोलने का अवसर भी मिल गया था, ‘‘अम्मां, जातिभेद प्रकृति की देन नहीं है. यह वर्गीकरण तो हमारे शास्त्रों की जबरदस्ती की देन है. लेकिन अब तो हर जाति का व्यक्ति शास्त्र के विरुद्ध व्यवसाय अपना रहा है. अंतर्मन सब का एक जैसा ही तो है. फिर यह भेद क्यों?’’

राकेश ने अम्मां को एक और दृष्टिकोण से समझाना चाहा, ‘‘अम्मां, हम लोगों में शिक्षा की प्रधानता है. और शिक्षित व्यक्ति ही आगे बढ़ सकता है, ऐसा करने से हम आगे बढ़ते हैं. हमें जाति से जरा भी नफरत नहीं है. आप ऐसा क्यों सोचती हैं?’’

सब बातों में इतने मशगूल थे कि पता ही नहीं लगा, कब भैयाभाभी इत्यादि आ कर खड़े हो गए थे.

अम्मां कुछ देर चुप रहीं, फिर बोलीं, ‘‘सच है, यदि हमारे परिवार की तरह ही हर परिवार अंतर्जातीय विवाहों को स्वीकार करे तो किसी हद तक तलाक व दहेज की समस्या सुलझ सकती है और बेमानी वैवाहिक जिंदगी जीने वालों की जिंदगी खुशहाल हो सकती है.’’ अम्मां के पोतेपोतियों ने उन्हें झट चूम लिया. एक बार फिर हमें गर्व की अनुभूति ने सहलाया, ‘हमारी अम्मां औरों से आगे हैं.’

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ईर्ष्या: क्या निशा को हुआ गलती का एहसास

निशा को डाक्टर ने जब यह बताया कि पेट में ट्यूमर है तथा आपरेशन कराना बेहद जरूरी है वरना वह कैंसर भी बन सकता है तो पति आयुष के साथ वह भी काफी घबरा गई थी. सारी चिंता बच्चों को ले कर थी. वरुण और प्रज्ञा काफी छोटे थे, उस की इस बीमारी का लंबे समय तक चलने वाला इलाज तो उस के पूरे घर को अस्तव्यस्त कर देगा.

सच पूछिए तो जब यह महसूस होता है कि हम अपाहिज होने जा रहे हैं या हमें दूसरों की दया पर जीना है तो मन बहुत ही कुंठित हो उठता है.

परिवार में सास, ननद, देवर, जेठ सभी थे पर एकाकी परिवारों में सब के सामने उस जैसी ही समस्या उपस्थित थी. कौन अपना घरपरिवार छोड़ कर इतने दिनों तक उस के घर को संभालेगा?

अपने आपरेशन से भी अधिक निशा को अपने घरसंसार की चिंता सता रही थी. यह भी अटल सत्य है कि पैर चाहे चिता में रखे हों पर जब तक सांस है तब तक व्यक्ति सांसारिक चिंताओं से मुक्त नहीं हो पाता.

आसपड़ोस के अलावा निशा ने अखबार में भी विज्ञापन देखने शुरू कर दिए तथा ‘आवश्यकता है एक काम वाली की’ नामक विज्ञापन अपना पता देते हुए प्रकाशित भी करवा दिया. विज्ञापन दिए अभी हफ्ता भी नहीं बीता था कि एक 21-22 साल की युवती घर का पता पूछतेपूछते आई. उस ने अपना परिचय देते हुए काम पर रखने की पेशकश की थी और अपने विषय में कुछ इस प्रकार बयां किया था :

‘‘मेरा नाम प्रेमलता है. मैं बी.ए. पास हूं. 3 साल पहले मेरा विवाह हुआ था पर पिछले साल मेरा पति एक दुर्घटना में मारा गया. संतान भी नहीं है. ससुराल वालों ने मुझे मनहूस समझ कर घर से निकाल दिया है. परिवार में अन्य कोई न होने के कारण मुझे भाई के पास रहना पड़ रहा है पर भाभी अब मेरी उपस्थिति सह नहीं पा रही है…वहां तिलतिल कर मरने की अपेक्षा मैं कहीं काम करना चाह रही हूं…1-2 स्कूलों में पढ़ाने के लिए अरजी भी दी है पर बात बनी नहीं, अब जब तक कोई अन्य काम नहीं मिल जाता, यही काम कर के देख लूं सोच कर चली आई हूं… भाई के घर नहीं जाना चाहती…काम के साथ रहने के लिए घर का एक कोना भी दे दें तो मैं चुपचाप पड़ी रहूंगी.’’

उस की साफगोई निशा को बहुत पसंद आई. उस ने कुछ भी नहीं छिपाया था. रुकरुक कर खुद ही सारी बातें कह डाली थीं. निशा को भी जरूरत थी तथा देखने में भी वह साफसुथरी और सलीकेदार लग रही थी. अत: उस की शर्तों पर निशा ने हां कर दी.

निशा को जब महसूस हुआ कि अब इस के हाथों घर सौंप कर आपरेशन करवा सकती हूं तब उस ने आपरेशन की तारीख ले ली.

नियत तिथि पर आपरेशन हुआ और सफल भी रहा. सभी नातेरिश्तेदार आए और सलाहमशवरा

दे कर चले गए. प्रेमलता ने सबकुछ इतनी अच्छी तरह से संभाल लिया था कि किसी को उस ने जरा भी शिकायत का मौका नहीं दिया. जातेजाते सब उस की तारीफ ही करते गए. फिर भी कुछ ने यह कह कर नाराजगी जाहिर की कि ऐसे समय में भी तुम ने हमें अपना नहीं समझा बल्कि हम से ज्यादा एक अजनबी पर भरोसा किया.

वैसे भी आदरयुक्त, प्रिय और आत्मीय संबंध तो आपसी व्यवहार पर आधारित रहते हैं पर परिवार में सब से बड़ी होने के नाते किसी को भी खुद के लिए कष्ट उठाते देखना निशा के स्वभाव के विपरीत था अत: अपनी तीमारदारी के लिए किसी को भी बुला कर परेशान करना उसे उचित नहीं लगा था पर वे ऐसी शिकायत करेंगे, उसे आशा नहीं थी. शायद कमियां निकालना ही ऐसे लोगों की आदत रही हो.

ऐसी शिकायत करने वाले यह भूल गए थे कि ऐसी स्थिति आने पर क्या वह सचमुच अपना घर छोड़ कर महीने भर तक उस के घर को संभाल पाते…जबकि डाक्टरों के मुताबिक उसे 6 महीने तक भारी सामान नहीं उठाना था क्योंकि गर्भाशय में संक्रमण के कारण ट्यूमर के साथ गर्भाशय को भी निकालना पड़ गया था. ऐसे वक्त में लोगों की शिकायत सुन कर एकाएक ऐसा लगा कि वास्तव में रिश्तों में दूरी आती जा रही है, लोग करने की अपेक्षा दिखावा ज्यादा करने लगे हैं.

सच, आज की दुनिया में कथनी और करनी में बहुत

अंतर आ गया है…कार्य व्यस्तता या दूरी के कारण संबंधों में भी दूरी आई है…इस में कोई संदेह नहीं है…उन के व्यवहार से मन खट्टा हो गया था.

प्रेमलता की उचित देखभाल ने निशा को घर के प्रति निश्ंिचत कर दिया था. वरुण और प्रज्ञा भी उस से हिल गए थे. शाम को उस को पार्क में घुमाने के साथ उन का होमवर्क भी वह पूरा करा दिया करती थी.

जाने क्यों निशा प्रेमलता के प्रति बेहद अपनत्व महसूस करने लगी थी… आयुष के आफिस जाने के बाद वह साए की तरह उस के आगेपीछे घूमती रहती, उस की हर आवश्यकता का खयाल रखती. एक दिन बातोंबातों में प्रेमलता बोली, ‘‘दीदी, आप के पास रह कर लगता ही नहीं है कि मैं आप के यहां नौकरी कर रही हूं. सास और भाई के घर मैं इस से ज्यादा काम करती थी पर फिर भी उन्हें मैं बोझ ही लगती थी…दीदी, वे मेरा दर्द क्यों नहीं समझ पाए, आखिर पति के मरने के बाद मैं जाती तो जाती कहां? सास तो मुझे हर वक्त इस तरह कोसती रहती थी मानो उस के बेटे की मौत का कारण मैं ही हूं. दुख तो इस बात का था कि एक औरत हो कर भी वह औरत के दुख को क्यों नहीं समझ पाई?’’

आंखों में आंसू भर आए थे…रिश्तों में आती संवेदनहीनता ने प्रेमलता को तोड़ कर रख दिया था…यहां आ कर उसे सुकून मिला था, खुशी मिली थी अत: उस की पुरानी चंचलता लौट आई थी. शरीर भी भराभरा हो गया था. निशा भी खुश थी, चलो, जरूरत के समय उसे अच्छी काम वाली के साथसाथ एक सखी भी मिल गई है.

बीचबीच में प्रेमलता का भाई उस की खोजखबर लेने आ जाया करता था. बहन को अपने साथ न रख पाने का उस को बेहद दुख था पर पत्नी के तेज स्वभाव के चलते वह मजबूर था. यहां बहन को सुरक्षित हाथों में पा कर वह निश्चिंत हो चला था. प्रेमलता का पति जो बैंक में नौकर था, उस के फंड पर अपना हक जमाने के लिए ससुराल के लोग उसे घर से बेदखल कर उस पैसे पर अपना हक जमाना चाहते थे. भाई उसे उस का हक दिलाने की कोशिश कर रहा था. भाई का अपनी बहन से लगाव देख कर ऐसा लगता था कि रिश्ते टूट अवश्य रहे हैं पर अभी भी कुछ रिश्तों में कशिश बाकी है वरना वह बहन के लिए दफ्तरों के चक्कर नहीं काटता.

प्रेमलता को इतनी ही खुशी थी कि भाभी नहीं तो कम से कम उस का अपना भाई तो उस के दुख को समझता है. कोई तो है जिस के कारण वह जीवन की ओर मुड़ पाई है वरना पति की मौत के बाद उस के जीवन में कुछ नहीं बचा था और ऊपर से ससुराल वालों की प्रताड़ना से बेहद टूटी प्रेमलता आत्महत्या करने के बारे में सोचने लगी थी.

उस का दुख सुन कर मन भर आता था. सच, आज भी हमारा समाज विधवा के दुख को नहीं समझ पाया है, जिस पति के जाने से औरत का साजशृंगार ही छिन गया हो, भला उस की मौत के लिए औरत को दोषी ठहराना मानसिक दिवालिएपन का द्योतक नहीं तो और क्या है? सब से ज्यादा दुख तो उसे तब होता था जब स्त्री को ही स्त्री पर अत्याचार करते देखती.

एक दिन रात में निशा की आंख खुली, बगल में आयुष को न पा कर कमरे से बाहर आई तो प्रेमलता का फुस- फुसाता स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘नहीं साहब, मैं दीदी का विश्वास नहीं तोड़ सकती.’’

सुन कर निशा की सांस रुक गई. समझ गई कि आयुष की क्या मांग होगी.

वितृष्णा से भर उठी थी निशा. मन हुआ, मर्द की बेवफाई पर चीखेचिल्लाए पर मुंह से आवाज नहीं निकल पाई. लगा, चक्कर आ जाएगा. उस ने वहीं बैठना चाहा, तो पास में रखा स्टूल गिर गया. आवाज सुन कर आयुष आ गए. उसे नीचे बैठा देख बोले, ‘‘तुम यहां कैसे? अगर कुछ जरूरत थी तो मुझ से कहा होता.’’

निशब्द उसे बैठा देख कर आयुष को लगा कि शायद निशा पानी पीने उठी होगी और चक्कर आने पर बैठ गई होगी. वह भी ऐसे आदमी से उस समय क्या तर्कवितर्क करती जिस ने उस के सारे वजूद को मिटाते हुए अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए दूसरी औरत से सौदा करना चाहा.

दूसरे दिन आयुष तो सहज थे पर प्रेमलता असहज लगी. बच्चों और आयुष के जाने के बाद वह निशा के पास आ कर बैठ गई. जहां और दिन उस के पास बातों का अंबार रहता था, आज शांत और खामोश थी…न ही आज उस ने टीवी खोलने की फरमाइश की और न ही खाने की.

‘‘क्या बात है, सब ठीक तो है न?’’ उस का हृदय टटोलते हुए निशा ने पूछा.

‘‘दीदी, कल बहुत डर लगा, अगर आप को बुरा न लगे तो कल से मैं वरुण और प्रज्ञा के पास सो जाया करूं,’’ आंखों में आंसू भर कर उस ने पूछा था.

‘‘ठीक है.’’

निशा के यह कहने पर उस के चेहरे पर संतोष झलक आया था. निशा जानती थी कि वह किस से डरी है. आखिर, एक औरत के मन की बातों को दूसरी औरत नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा? पर वह सचाई बता कर उस के मन में आयुष के लिए घृणा या अविश्वास पैदा नहीं करना चाहती थी, इसलिए कुछ कहा तो नहीं पर अपने लिए सुरक्षित स्थान अवश्य मांग लिया था.

आयुष के व्यवहार ने यह साबित कर दिया था कि पुरुष के लिए तो हर स्त्री सिर्फ देह ही है, उसे अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए सिर्फ देह ही चाहिए…इस से कोई मतलब नहीं कि वह देह किस की है.

अब निशा को खुद ही प्रेमलता से डर लगने लगा था. कहीं आयुष की हवस और प्रेमलता की देह उस का घरसंसार न उजाड़ दे. प्रेमलता कब तक आयुष के आग्रह को ठुकरा पाएगी…उसे अपनी बेबसी पर पहले कभी भी उतना क्रोध नहीं आया जितना आज आ रहा था.

प्रेमलता भी तो कम बेबस नहीं थी. वह चाहती तो कल ही समर्पण कर देती पर उस ने ऐसा नहीं किया और आज उस ने अपनी निर्दोषता साबित करने के लिए अपने लिए सुरक्षित ठिकाने की मांग की.

प्रश्न अनेक थे पर निशा को कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था. दोष दे भी तो किसे, आयुष को या प्रेमलता की देह को. मन में ऊहापोह था. सोच रही थी कि यह तो समस्या का अस्थायी समाधान है, विकट समस्या तो तब पैदा होगी जब आयुष बच्चों के साथ प्रेमलता को सोता देख कर तिलमिलाएंगे या चोरी पकड़ी जाने के डर से कुंठित हो खुद से आंखें चुराने लगेंगे. दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं.

निशा ने सोचा कि आयुष के आने पर प्रेमलता के सोने की व्यवस्था बच्चों के कमरे में रहने की बात कह वह उन के मन की थाह लेने की कोशिश करेगी. पुरुष के कदम थोड़ी देर के लिए भले ही भटक जाएं पर अगर पत्नी थोड़ा समझदारी से काम ले तो यह भटकन दूर हो सकती है. अभी तो उसे पूरी तरह से स्वस्थ होने में महीना भर और लगेगा. उसे अभी भी प्रेमलता की जरूरत है पर कल की घटना ने उसे विचलित कर दिया था.

आयुष आए तो मौका देख कर निशा ने खुद ही प्रेमलता के सोने की व्यवस्था बच्चों के कमरे में करने की बात की तो पहले तो वह चौंके पर फिर सहज स्वर में बोले, ‘‘ठीक ही किया. कल शायद वह डर गई थी. उस के चीखने की आवाज सुन कर मैं उस के पास गया, उसे शांत करवा ही रहा था कि स्टूल गिर जाने की आवाज सुनी. आ कर देखा तो पाया कि तुम चक्कर खा कर गिर पड़ी हो.’’

आयुष के चेहरे पर तनिक भी क्षोभ या ग्लानि नहीं थी. तो क्या प्रेमलता सचमुच डर गई थी या जो उस ने सुना वह गलत था. अगर उस ने जो सुना वह गलत था तो प्रेमलता की चीख उसे क्यों नहीं सुनाई पड़ी. खैर, जो भी हो जिस तरह से आयुष ने सफाई दी थी, उस से हो सकता है कि वह खुद भी शर्मिंदा हों.

प्रेमलता अब यथासंभव आयुष के सामने पड़ने से बचने लगी थी. अब निशा स्वयं आयुष के खानेपीने, नाश्ते का खयाल रखने की कोशिश करती.

अभी महीना भर ही बीता होगा कि प्रेमलता का भाई आया और एक लिफाफा उस को पकड़ाते हुए बोला, ‘‘तू ने जहां नौकरी के लिए आवेदन किया था वहां से इंटरव्यू के लिए काल लेटर आया है. जा कर साक्षात्कार दे आना पर आजकल बिना सिफारिश के कुछ नहीं हो पाता. नौकरी मिल जाए तो अच्छा ही है, कम से कम तुझे किसी का मुंह तो नहीं देखना पड़ेगा.’’

एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका के पद के लिए इंटरव्यू काल थी. निशा ने जब काल लेटर पढ़ा तो याद आया कि इसी ग्रुप के एक स्कूल में उस की मित्र शोभना की भाभी प्रधानाचार्या हैं. निशा ने उन से बात की. नौकरी मिल गई. अगले सत्र से उसे काम करना था. डेढ़ महीना और बाकी था.

प्रेमलता की निशा को ऐसी आदत पड़ गई थी कि अब उस के बिना वह कैसे सबकुछ कर पाएगी, यह सोचसोच कर वह परेशान होने लगी थी. इस अजनबी लड़की ने उस के दुख और परेशानी के क्षणों में साथ दिया है. उस की जगह अगर कोई और होता तो भावावेश में उस का घरसंसार ही बिखेर देता…खासकर तब जब गृहस्वामी विशेष रुचि लेता प्रतीत हो. पर उस ने ऐसा न कर के न केवल अपने अच्छे चरित्र की झलक दिखाई थी बल्कि उस की गृहस्थी को टूटनेबिखरने से बचा लिया था.

स्कूल का सेशन शुरू हो गया था. घर न मिल पाने के कारण प्रेमलता उस के घर से ही आनाजाना कर रही थी. स्कूल जाने से पहले वह नाश्ता और खाना बना कर जाती थी तथा शाम का खाना भी वही आ कर बनाती. लगता ही नहीं था कि वह इस परिवार की सदस्य नहीं है…पर अब प्रेमलता को जाना ही है, सोच कर निशा भी धीरेधीरे घर का काम करने की कोशिश करने लगी थी.

‘‘दीदी, स्कूल के पास ही घर मिल गया है. अगर आप इजाजत दें तो मैं वहां रहने के लिए चली जाऊं,’’ एक दिन प्रेमलता स्कूल से आ कर बोली.

‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझो. अब तो मैं काफी ठीक हो गई हूं. धीरेधीरे सब करने लगूंगी.’’

वरुण को पता चला तो वह बहुत उदास हो कर बोला, ‘‘आंटी, आप यहीं रह जाओ न. आप गणित पढ़ाती थीं तो बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘दीदी, आप चली जाओगी तो मुझे आलू के परांठे कौन बना कर खिलाएगा… आप जैसे परांठे तो ममा भी नहीं बना पातीं,’’ प्रज्ञा ने आग्रह करते हुए कहा.

‘‘कोई बात नहीं, बेबी, मैं दूर थोड़े ही जा रही हूं, हर इतवार को मैं मिलने आऊंगी, तब आप को आप का मनपसंद आलू का परांठा बना कर खिला दिया करूंगी,’’ प्रेमलता ने प्यार से प्रज्ञा को गोदी में उठाते हुए कहा.

निशा ने भी प्रेमलता को सदा नौकरानी से ज्यादा मित्र समझा था पर वरुण और प्रज्ञा का उस से इतना भावात्मक लगाव उस के अहम को हिला गया. अचानक उसे लगा कि इस लड़की ने कुछ ही दिनों में उस से उस की जगह छीन ली है…वह जगह जो उस ने 10 वर्षों में बनाई थी, इस ने केवल 5 महीनों में ही बना ली. बच्चे भी अब उस के बजाय प्रेमलता से ही अपनी फरमाइशें करते और वह भी हंसतेहंसते उन की हर फरमाइश पूरी करती, चाहे वह खाना हो, पढ़ना हो या बाहर पार्क में उस के साथ जाना.

‘‘क्या प्रेमलता घर छोड़ कर जा रही है?’’ शाम को चाय पीतेपीते आयुष ने पूछा था.

‘‘हां, कोई परेशानी?’’ निशा ने एक तीखी नजर से उन्हें देखा.

‘‘मुझे क्या परेशानी होगी. बस, ऐसे ही पूछ लिया था. कुछ दिन और रुक जाती तो तुम्हें थोड़ा और आराम मिल जाता,’’ निशा की तीखी नजर से अपनी आंखें चुराते हुए आयुष ने जल्दीजल्दी कहा.

पहले तो निशा सोच रही थी कि प्रेमलता से कुछ दिन और रुकने का आग्रह वह करेगी पर आयुष और बच्चों की सोच ने उसे कुंठित कर दिया. अब उसे वह एक पल भी नहीं रोकेगी. कल जाती हो तो आज ही चली जाए. जिस की वजह से उस की अपनी गृहस्थी पराई हो चली है, भला उसे अपने घर में वह क्यों शरण दे?

ईर्ष्यारूपी अजगर ने उसे बुरी तरह जकड़ लिया था. जब वह उस से विदा मांगने आई तब कोई उपहार देना तो दूर उस से इतना भी नहीं कहा गया कि छुट्टी के दिन चली आया करना जबकि बच्चों को रोते देख प्रेमलता खुद ही कह रही थी, ‘‘रोओ मत, मैं कहीं दूर थोड़े ही जा रही हूं, जब मौका मिलेगा तब मिलने आ जाया करूंगी.’’

जहां कुछ समय पहले तक निशा स्वयं आपसी रिश्तों में आती संवेदनहीनता के लिए दूसरों को दोषी ठहरा रही थी, आज वह स्वयं ईर्ष्या के कारण उसी जमात में शामिल हो गई थी. तभी तो उस अजनबी लड़की के अपार प्रेम के बावजूद, उस का प्रतिदान देने में कंजूसी कर गई थी.

 

प्रायश्चित्त: कौनसी गलती कर बैठा था वह

‘‘रोहिणी नामक कोई महिला आप से मिलने का समय तय करना चाहती हैं,’’ निजी सहायक ने इंटरकौम पर बताया.

‘‘मेरा कार्यक्रम देख कर जो भी समय तुम्हें उपयुक्त लगता हो, उन्हें दे दो,’’ सौरभ ने कागजों पर नजर गड़ाए हुए कहा.

‘‘जी, वे कहती हैं कि उन्हें कोई व्यक्तिगत काम है और वे ऐसा समय चाहती हैं जब आप औफिस की चिंताओं से मुक्त हो कर ध्यान से उन की बात सुन सकें.’’ सौरभ को लगा जैसे फोन के दूसरे छोर पर उस का निजी सहायक व्यंग्य से मुसकरा रहा हो.

‘‘ठीक है, मुझ से बात कराओ.’’

लाइन मिलते ही सौरभ ने बात शुरू की, ‘‘हैलो, रोहिणीजी, मैं सौरभ बोल रहा हूं. कहिए, आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

‘‘नमस्कार, सौरभजी. क्या आज शाम या कल किसी समय आप समय निकाल सकते हैं 1-2 घंटे का?’’ दूसरी ओर से एक संयत और सौम्य स्वर आया.

‘‘लेकिन आप मुझ से किस सिलसिले में मिलना चाहती हैं?’’

‘‘कुछ निहायत व्यक्तिगत काम है, जो फोन पर बताया नहीं जा सकता. कहिए, कब और कहां मिलेंगे?’’

‘‘आज शाम को 6 बजे के बाद आप मेरे घर पर आ जाइए. पता तो…’’

‘‘जी नहीं, आप के घर पर ठीक नहीं रहेगा,’’ रोहिणी ने उस की बात काटी, ‘‘जो बात मैं करना चाह रही हूं, वह शायद आप अपने परिवार को न बताना चाहें और अपनी पुरानी जिंदगी के बारे में बीवीबच्चों को बताना ठीक नहीं.’’

‘‘क्या कह रही हैं आप? मैं ने अपनी जिंदगी में आज तक ऐसा कोई काम नहीं किया जिस के लिए मुझे पछतावा हो या जिसे किसी से छिपाना पड़े,’’ सौरभ ने बड़े गर्व से उस की बात काटी.

‘‘सिवा एक हरकत के. डरिए नहीं, मैं आप को ब्लैकमेल नहीं कर रही, न पैसा हथियाने के चक्कर में हूं. सिर्फ एक सवाल आप के सामने रख कर उसे ठंडे दिमाग से हल करने को कहूंगी. हां तो कहिए, कहां मिलेंगे? आप के दफ्तर में आ जाऊं?’’

‘‘इस समय तो मुझे फुरसत नहीं है और दफ्तर के समय के बाद तो ठीक नहीं लगेगा,’’ वह कुछ हिचकिचाया.

‘‘तो ठीक है, मेरे दफ्तर में आ जाइए. हमारा दफ्तर तो अकसर सारी रात ही चलता रहता है. आप को फेमस पब्लिसिटी का दफ्तर तो मालूम ही होगा. मैं यहां पर कला निर्देशिका हूं और पहली मंजिल पर पहला कमरा मेरा ही है. तो फिर आ रहे हैं न आप?’’

‘‘जी हां,’’ सौरभ के स्वर में अब औपचारिकता से ज्यादा उत्सुकता थी, ‘‘आप कब तक वहां होंगी? मेरा मतलब है शाम को आप की छुट्टी कब होती है?’’

‘‘दफ्तर का समय तो 10 से 5 ही है, लेकिन हमारे यहां काम इतना ज्यादा है कि 9 बजे से पहले तो शायद ही कोई अपनी कुरसी छोड़ता हो. आप को जब भी सुविधा हो, आ जाइए.’’ फिर दूसरी ओर से लाइन कट गई.

सौरभ साढ़े 5 बजे ही रोहिणी के दफ्तर में पहुंच गया. रोहिणी की उम्र 50-55 वर्ष के बीच की थी. आधुनिक ढंग से सजी उस सौम्य महिला ने बड़ी नम्रता से सौरभ का स्वागत किया.

‘‘माफ कीजिए, मैं समय से कुछ पहले ही आ गया हूं. आप ने कुछ ऐसा रहस्य का जाल बुन दिया कि काम में दिल ही नहीं लगा. आधा दिन खराब कर दिया आप ने मेरा,’’ सौरभ कह कर मुसकराया.

‘‘और आप ने जो मेरी आधी जिंदगी खराब कर दी, उस की शिकायत मैं किस से करूं?’’ रोहिणी ने एक दर्दभरी मुसकान के साथ कहा.

‘‘क्या कह रही हैं आप? जहां तक मेरा खयाल है इस से पहले हम कभी मिले भी नहीं,’’ सौरभ अप्रतिम हो कर बोला.

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, लेकिन कई बार अनजाने में ही इंसान अपनी जिंदगी संवारने के चक्कर में दूसरों की जिंदगी उजाड़ देता है,’’ रोहिणी के स्वर में कसक थी.

‘‘माफ करिएगा, आप को कुछ गलतफहमी हो रही है. मैं ने आज तक किसी का कुछ नुकसान नहीं किया है. मैं जो आज इस ओहदे पर हूं…’’

‘‘ओह, मैं आप के व्यक्तिगत जीवन की बात कर रही हूं, औफिस की नहीं.’’

‘‘उस में भी मैं दावे से कह सकता हूं कि मैं ने कभी किसी लड़की को बुरी नजर से नहीं देखा. न किसी को सब्जबाग दिखाए और न ही मेरी शक्लसूरत ऐसी है कि जिसे देख कर किसी की नींद उड़े.’’ सौरभ के कहने के ढंग पर रोहिणी खिलखिला कर हंस पड़ी.

सौरभ ने आगे कहा, ‘‘हां, तो बताइए न, किस तरह मैं ने आप की जिंदगी खराब की?’’ सौरभ के स्वर में चुनौती थी.

‘‘आप पूनम को तो नहीं भूले होंगे?’’

‘‘जी नहीं. मानता हूं कि मेरी और पूनम की शादी होने वाली थी, लेकिन पूनम का ही इरादा शादी करने का नहीं था. मेरी तरफ से ऐसी कोई बात नहीं हुई, जिस से पूनम की जिंदगी खराब होती.’’

‘‘जानती हूं. आप ने अपनी और पूनम की जिंदगी अपने मनमुताबिक चलाने के लिए मेरी गाड़ी पटरी पर से उतार दी.’’ रोहिणी के स्वर में पीड़ा थी.

‘‘मैं आप की बात बिलकुल नहीं समझ पा रहा, रोहिणीजी. समझाने की कोशिश करेंगी?’’

‘‘जी हां, वही तो बता रही हूं. पूनम पति नहीं, बल्कि एक ऐसा साथी चाहती थी जो उस के जीवन में एक पुरुष की कमी को तो पूरा कर सके, पर उसे किसी बंधन में न बांधे.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कह रही हैं. उसे पति नहीं, मात्र एक ऐसे पुरुष की आवश्यकता थी जो उस की शारीरिक भूख को मिटा सके. यह मुझे कतई मंजूर नहीं था.’’

‘‘इसलिए आप ने उस की मुलाकात सुमित से करवा दी, जिस से आप के भागने का रास्ता आसान हो गया.’’

‘‘उस की सुमित से मुलाकात मैं ने जरूर करवाई थी, लेकिन बगैर किसी मतलब के. सुमित और मैं बचपन के दोस्त थे, पर पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में अलग हो गए थे. एक बार वर्षों बाद मिलने पर बातचीत के दौरान उस ने पूछा कि मेरी शादी हो गई क्या, मैं ने उसे पूनम की शादी के बारे में जो हिचकिचाहट थी वह बता दी. वह मानने को तैयार ही नहीं हुआ कि अपने देश में भी ऐसे विचारों की लड़कियां हो सकती हैं.

सुमित ने एक बार पूनम से मिलने की इच्छा जाहिर की और मैं ने एक रोज दोनों की मुलाकात करा दी. उस के बाद तो उन दोनों की घनिष्ठता इतनी तेजी से बढ़ी कि उन की दोस्ती करवाने वाला मैं बहुत पीछे छूट गया. खैर, इस सब से आप को क्या फर्क पड़ा?’’

‘‘सिर्फ मुझे ही तो फर्क पड़ा क्योंकि मैं सुमित की बीवी हूं,’’ रोहिणी ने एक सफल खिलाड़ी की तरह अपना तुरुप का इक्का चल दिया.

सौरभ हक्काबक्का रह गया और बोला, ‘‘मैं वाकई बहुत शर्मिंदा हूं कि मैं ने इस तरह आप की जिंदगी बरबाद की, लेकिन सच कहता हूं कि उस समय मुझे यह मालूम नहीं था कि सुमित शादीशुदा है.’’

‘‘और जब मालूम भी हुआ तो क्या उस समय आप को सुमित की पत्नी से कुछ हमदर्दी हुई थी?’’ रोहिणी ने सीधे उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

सौरभ उस नजर का सामना न कर सका, ‘‘मेरा खयाल था कि शायद सुमित की पत्नी उस के उपयुक्त न हो, मगर आप को देख कर तो ऐसा नहीं लगता. क्या आप का दांपत्य जीवन सुखी नहीं था?’’

‘‘बहुत ज्यादा, लेकिन उस मनहूस शाम से पहले तक जब सुमित और पूनम मिले थे. वैसे, अब भी अपनी तरफ से तो सुमित मुझे खुश ही रखने की कोशिश करता है.’’

‘‘लेकिन इस सब के बावजूद सुमित पूनम के चक्कर में पड़ा कैसे?’’

‘‘ये काजू देख रहे हैं न आप. इन्हें खाने की इच्छा न आप को थी न मुझे, लेकिन प्लेट सामने रखी है तो मैं भी बराबर खा रही हूं और आप भी. मेरा मतलब है कि अगर एक आधुनिक पढ़ीलिखी स्त्री का सहवास सहज ही मिल जाए तो किसे आपत्ति होगी? और फिर मेरी ओर से भी कोई विरोध नहीं हुआ,’’ रोहिणी चाय का एक घूंट भर कर बोली, ‘‘अब आप पूछेंगे कि मैं ने एतराज क्यों नहीं किया?

मैं कमा कर खुद अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी. मैं ने सुमित को छोड़ा क्यों नहीं? महज अपनी बेटी के लिए. मैं नहीं चाहती थी कि मेरी बेटी तलाकशुदा मांबाप की औलाद कहलाए और समाज में तिरस्कृत हो.

सुमित ने भी उसे भरपूर प्यार दिया और चाहे हम शारीरिक व मानसिक रूप से वर्षों से अलग हो चुके हों, पर अभी भी अपनी बेटी के लिए, दुनिया के सामने हम एक सफल पतिपत्नी का नाटक करते हैं.’’

‘‘काफी मुश्किल काम है यह,’’ सौरभ सहानुभूति से बोला.

‘‘बेहद. पर अब तो खैर आदत पड़ गई है, लेकिन यह जान कर कि इतने दिनों का यह नाटक और मेहनत बेकार गई, मेरी हिम्मत ही टूट गई थी. तभी मुझे आप के बारे में पता चला और मेरी हिम्मत कुछ बढ़ी,’’ रोहिणी कहतेकहते रुक गई.

‘‘हां, कहिए मैं आप की क्या मदद कर सकता हूं?’’ सौरभ की आंखें चमकीं.

‘‘कुछ रोज पहले आप को एक नंबर से गुमनाम एसएमएस मिला था कि आप के बेटे सुनील की दोस्ती एक आवारा खानदान की लड़की के साथ है और आप ने उसे उस बेबुनियाद एसएमएस से डर उस लड़की से संबंध तोड़ लेने को कहा है.’’

‘‘तो क्या रश्मि आप की बेटी है? मुझे मालूम नहीं था,’’ सौरभ खिसिया कर बोला, ‘‘मैं ने रश्मि को देखा है, बड़ी प्यारी लड़की है. देखिए, मुझे इस बारे में ज्यादा तो कुछ पता ही नहीं था. ऐसा एसएमएस देख कर घबराना तो लाजिमी ही था, पर अब खैर बात ही दूसरी है. आप बेफिक्र रहें. मैं बच्चों की खुशी के बीच में नहीं आऊंगा. वैसे, इस एसएमएस के विषय में आप को किस ने बताया?’’

‘‘सुनील ने, रश्मि को अभी कुछ मालूम नहीं है.’’

‘‘तो उसे कुछ भी मालूम न होने दीजिए. आप जब भी कहें, मैं और मेरी पत्नी बाकायदा शादी का प्रस्ताव ले कर आप के यहां आ जाएंगे.’’

‘‘वह तो सुनील और रश्मि की मरजी पर है कि वे कब शादी करना चाहते हैं, फिर मैं और सुमित स्वयं ही आप के यहां आएंगे,’’ रोहिणी ने घड़ी देखी, ‘‘अब चलें, काफी समय हो गया है.’’

‘‘हां, चलिए. अब तो खैर मुलाकात होगी ही.’’

‘‘लेकिन आज की मुलाकात को भूल कर.’’

‘‘आप मुझ पर विश्वास कर सकती हैं,’’ सौरभ विनम्रता से बोला.

सुनील अपने कमरे की छत पर नजर गड़ाए अनमना सा लेटा था.

‘‘सुनील, तुम जब चाहो रश्मि से शादी कर सकते हो, लेकिन एक शर्त है, तुम्हें रश्मि की मां की बहुत इज्जत करनी होगी और उन्हें बहुत प्यार देना होगा.’’

‘‘यह कोई मुश्किल बात नहीं है, पापा. वे बहुत ही अच्छी महिला हैं. उन्हें प्यार करना या इज्जत देना मेरे लिए स्वाभाविक ही होगा.’’

‘‘बुढ़ापे में कई बार इंसान का स्वभाव बदल जाता है. बेटे, वादा करो चाहे वे कैसी भी हों, तुम उन का निरादर या तिरस्कार तो नहीं करोगे. एक बार चाहे मुझे और अपनी मां को मत पूछना, लेकिन अपनी सास का खयाल हमेशा रखना. वादा करते हो.’’

‘‘वादा रहा, पापा. लेकिन आप उन के बारे में इतने फिक्रमंद क्यों हैं? कल तक तो आप उस खानदान से कोई ताल्लुक नहीं रखने को कह रहे थे और आज उन के लिए इतनी हमदर्दी हो रही है,’’ सुनील हंसा.

‘‘एक लंबी कहानी है, बेटे,’’ सौरभ ने सुनील को पूरा किस्सा सुनाया और

बोला, ‘‘रोहिणीजी के प्रति जो गलती  मुझ से अनजाने में हो गई, बेटे, उस का प्रायश्चित्त अब तुम्हें करना है, रश्मि और रोहिणीजी को सदा खुश रख कर.’’

‘‘वादा करता हूं,’’ सुनील के चेहरे का विश्वास साफ झलक रहा था.

 

ऊंची उड़ान: स्नेहा को क्या पता चली दुनिया की सच्चाई

‘‘दीदी, तुम्हारे लिए जतिन का फोन है,’’ कह कर मैं हंसती हुई दीदी के हाथ में फोन दे कर बाहर चली गई.

तभी पिताजी की आवाज आई, ‘‘किस का फोन है इतनी रात में?’’ ‘‘जी पापा, वो…. दीदी की एक सहेली का.’’

‘‘पर मैं ने तुम दोनों से क्या कह रखा है?’’ पापा चिल्लाए तो उन की ऊंची आवाज सुन कर मैं सहम गई. मुझे लगा आज तो दीदी की खैर नहीं. वह हमारे कमरे में चले आए और दीदी को फोन पर हंसते हुए देख कर गरज पड़े.

‘‘स्नेहा, क्या हो रहा है?’’पापा की आवाज से दीदी के हाथ से रिसीवर छूट गया. पापा ने रिसीवर उठाया और उसी लहजे में बोले, ‘‘हैलो, कौन है वहां?’’

उधर से कोई आवाज न पा कर उन्होंने रिसीवर पटक दिया.

‘‘बताओ कौन था?’’

‘‘कोई नहीं पापा. नीरज भैया थे. आप उन से हमेशा नाराज रहते हैं न. इसलिए उन्होंने आप से बात नहीं की,’’ दीदी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने बड़ी मौसी के बेटे का नाम ले लिया.

नीरज भैया पढ़ाई पर जरा कम ध्यान देते थे. इस वजह से पापा उन्हें पसंद नहीं करते थे.

‘‘इस समय क्यों फोन किया था उस नालायक ने?’’

‘‘पापा, उन्हें मेरी कुछ पुरानी किताबें चाहिए थीं.’’

‘‘उसे कब से किताबें अच्छी लगने लगीं? 11 बज गए हैं घड़ी में अलार्म लगाओ और बत्ती बंद कर सो जाओ.’’

पापा के जाते ही मेरे मुंह से निकला, ‘‘बच गए दीदी.’’

बस, यही थी हमारी जिंदगी. मम्मीपापा, दोनों के अनुशासन के बीच झूठ के सहारे हमारी जिंदगी कट रही थी. मम्मी तो कभीकभी मनमानी करने भी देती थीं पर पिताजी, वह तो लगता था कि पूर्वजन्म के हिटलर थे.

हम दोनों बहनों पर वे ऐसी नजर रखते थे जैसे जेलर कैदियों पर रखता है. घर से बाहर हमें सिर्फ कालिज जाने की इजाजत थी. हमारे हर फोन, हर चिट्ठी, हर दोस्त पर उन की निगाह रहती और हमारे दिलों में उन का एक अजीब सा खौफ बैठ गया था. अकसर जब हम दोनों बहनें दूसरी लड़कियों को फिल्म देखने या घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते देखते तो हमें बहुत दुख होता पर इस के अलावा हमारे बस में कुछ था भी नहीं.

इस सब के बावजूद हम दोनों बहनें एकदूसरे के बहुत करीब थीं. मैं तो फिर भी इस सब के बारे में ज्यादा नहीं सोचती थी और खुश रहती थी पर दीदी अपनों का यह व्यवहार देख कर दुखी होती थीं और उन्हें गुस्सा भी बहुत आता था. उन्हें इस बात पर बहुत हैरानी होती थी कि हमारे अपने इतना मानसिक कष्ट कैसे दे सकते हैं.

अगली सुबह जब हम कालिज जा रहे थे तो रास्ते में दीदी ने मुझ से पूछा, ‘‘नेहा, मातापिता इतना दुख क्यों देते हैं?’’

मैं कुछ पल सोचती रही कि क्या कहूं फिर चलतेचलते रुक कर बोली, ‘‘दीदी, पालने वाले जो भी दें, ले लेना चाहिए.’’

‘‘नेहा, तुम्हें इतने अच्छे खयाल कहां से आते हैं?’’ दीदी ने मेरी तरफ देखकर पूछा.

मैं ने आसमान की तरफ देखा और फिर हम हंस पड़े.

ऐसे ही खट्टेमीठे लम्हों के बीच दीदी का बी.ए. हो गया. उन दिनों मेरे पेपर चल रहे थे. जब मैं आखरी पेपर दे कर घर लौटी तो दीदी के बारे में ऐसी बातें सुनने को मिलीं जिस की कल्पना मैं ने सपने में भी नहीं की थी. मम्मीपापा दोनों मुझ पर सवाल बरसाए जा रहे थे.

‘‘बताती क्यों नहीं, किस के साथ भाग गई वह? इसी दिन के लिए पढ़ालिखा रहा था तुम दोनों को.’’

मम्मी बैठेबैठे रोए जा रही थीं. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं.

उन के पास जा कर मैं ने कहा, ‘‘मम्मी, दीदी यहीं कहीं होंगी. आप रो क्यों रही हैं?’’

‘‘उस की सब सहेलियों से पूछ लिया है, कहीं नहीं है वह,’’ मम्मी ने रोते हुए बस, इतना ही कहा था कि पापा फिर चिल्ला पड़े, ‘‘कालिख पोत दी हमारे मुंह पर.’’

इतना कह कर वह अपने कमरे में गए और दरवाजा बंद कर लिया. मैं दौड़ कर अपने कमरे में गई और हर चीज को उठाउठा कर देखा. फिर जतिन को फोन मिलाया तो उसे भी दीदी के बारे में कुछ मालूम नहीं था. मैं पलंग पर बैठ कर रोने लगी. तभी मेज पर रखी दीदी की डायरी पर नजर पड़ी. मैं ने उस के पन्ने पलटे तो एक कागज मिला जिस पर लिखा था :

प्रिय नेहा,

तुम्हें याद होगा, कुछ दिनों पहले कालिज में कैंपस इंटरव्यू हुए थे. इस के कुछ दिनों बाद ही मुझे एक कंपनी की ओर से ‘कस्टमरकेयर एग्जिक्यूटिव’ का नियुक्ति पत्र मिला था. मैं मम्मीपापा से इजाजत मांगती तो वे मुझे यह नौकरी नहीं करने देते, इसलिए बिना बताए जा रही हूं.

मुझे मालूम है, उन्हें दुख होगा पर नेहा थोड़े दिन ही सही, मैं खुली हवा में सांस लेना चाहती हूं. यह मत करो, वह मत करो, यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, यह मत पहनो, ये बातें सुनसुन कर मैं थक गई हूं. मुझे वहां अच्छा नहीं लगा तो मैं वापस लौट आऊंगी. तुम अपना और मम्मीपापा का ध्यान रखना.

तुम्हारी दीदी,

स्नेहा

इस खत को पढ़ने के बाद मुझे बहुत सुकून मिला. मैं ने पत्र ले जा कर मम्मी को थमा दिया.

‘‘अरे, उसे इस तरह जाने की क्या जरूरत थी? हम से पूछा तो होता…’’

‘‘अगर दीदी पूछतीं तो क्या आप उन्हें जाने देतीं?’’

उन के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था. वह बुत सी बैठी रहीं और फिर रोने लगीं.

दीदी के जाने के बाद मैं ने मम्मीपापा का एक नया ही रूप देखा. दोनों हमेशा उदास रहते थे. ऐसा लगता था जैसे अंदर ही अंदर टूट रहे हों. जबकि पहले लगता था कि उन के दिल पत्थर के हैं पर अब पता चला कि ऐसा नहीं है. मम्मी की सेहत गिरती जा रही थी और पापा भी घंटों चुपचाप कमरे में बैठे रहते.

उन की तकलीफ इस बात से और बढ़ती जा रही थी कि दीदी ने जाने के बाद कोई खबर नहीं भेजी. मेरी बड़ी अजीब सी स्थिति थी. मम्मीपापा के दुख से दुखी थी पर दिल में दीदी के लिए खुशी भी थी. उन के न होने से अकसर अपनेआप से बातें कर लिया करती कि अगर मम्मीपापा दीदी से इतना ही प्यार करते थे तो उन्हें इतना दुखी क्यों किया जाता था.

कभीकभी लगता कि अच्छा ही हुआ जो दीदी चली गईं. कम से कम थोड़ा सुकून तो पाया उन्होंने.

फिर ऐसे ही एक शाम बैठेबैठे दीदी की बात याद आने लगी.

‘नेहा, एक दिन मैं पर लगा कर आसमान के उस पार उड़ जाऊंगी और सितारों से दोस्ती करूंगी.’

‘फिर मेरा क्या होगा?’

‘तुझे भी अपने साथ ले जाऊंगी.’

‘और जतिन का क्या होगा?’

‘वह…वह तो बस, मेरा दोस्त है जो पता नहीं कैसे बन गया? उसे धरती पर ही रहने दो. आसमान पर सिर्फ हम दोनों चलेंगे.’

और फिर हम जोर से हंस पड़े थे.

वक्त अच्छा हो या बुरा, थमता नहीं है. मेरे आसपास सबकुछ ठहर गया था. मुझे अब दीदी की चिंता होने लगी थी. 3 महीने गुजर जाने के बाद भी उन्होंने कोई खबर नहीं भेजी. इस बीच मुझे यह भी एहसास हो गया कि मातापिता भले ही पत्थर से लगते हों, उन का दिल तितली के पंखों से भी नाजुक होता है.

रविवार के दिन मम्मीपापा को चाय दे कर मैं बरामदे में बैठी ही थी कि गेट खुलने की आवाज आई. देखा तो दीदी थीं. मैं दौड़ कर उन के पास  गई. जब हम गले मिले तो हमारी आंखें भर आईं. मैं ने वहीं से मम्मीपापा को बाहर आने की आवाज दी.

दोनों जब बाहर आए तो दीदी उन के सामने हाथ जोड़ कर रोने लगीं. दोनों ने कुछ भी नहीं कहा. मैं ने उन का सामान उठाया और हम अंदर आ गए.

दीदी को मैं ने पानी दिया. थोड़ा सा पानी पी कर वह पापा से बोलीं, ‘‘आप बहुत नाराज हैं न पापा मुझ से?’’

‘‘नहीं…हां, बच्चे गलती करेंगे तो मांबाप नाराज नहीं होंगे?’’

‘‘होंगे न पापा. होना भी चाहिए. वहां हास्टल में आप तीनों को मैं बहुत मिस करती थी. सितारों से दोस्ती करने गई थी पर उन के पास जा कर पता चला कि वे सिर्फ धरती से ही खूबसूरत दिखाई देते हैं. उन्हें छूना चाहो तो हाथ जल जाता है. मैं अपनी जमीन पर लौट आई हूं पापा. मुझे माफ करेंगे न?’’

पापा ने प्यार से दीदी के सिर पर हाथ फेरा. उस के बाद दीदी ने मम्मी से भी माफी मांगी. उस रात हम लोग चैन से सोए.

‘‘मैं तुम दोनों को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए ही पढ़ा रहा हूं. तुम्हें नौकरी करनी है तो कर लेना पर पहले अच्छी तरह से पढ़ तो लो, बेटा. उच्च शिक्षा लोगे तो और भी अच्छी नौकरी मिलेगी,’’ नाश्ते की मेज पर पापा की यह बात सुन कर हमें बहुत अच्छा लगा.

दीदी ने एम.ए. में एडमिशन लिया. अब घर में ज्यादा सुकून था. हमारे सारे दोस्त व सहेलियां घर आजा सकते थे और कभीकभी हमें भी उन के साथ बाहर जाने की इजाजत मिल जाती. दीदी को यकीन हो गया था कि सच्ची खुशियां अपनों के ही बीच मिलती हैं.

ऐसे ही एक खुशी के पल में दीदी के साथ मैं एक पार्क के बाहर खड़ी हो कर नारियल पानी पी रही थी. अचानक मुझे एक खयाल आया तो बोल पड़ी, ‘‘दीदी, क्या आप को नहीं लगता कि मांबाप नारियल की तरह होते हैं या ये कहें कि कुछ रिश्ते नारियल जैसे होते हैं, यानी अंदर से मीठे और बाहर से रूखे.’’

दीदी ने मुझे अपने पुराने अंदाज में देखा और बोलीं, ‘‘नेहा, तुम्हें इतने अच्छे खयाल कहां से आते हैं?’’

और इसी के साथ हम दोनों आसमान की ओर देख कर हंस पड़े.

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बुलावा आएगा जरूर : भाग्यश्री का मायका

तबीयत कैसी है मां?’’ दयनीय दृष्टि से देखती भाग्यश्री ने पूछा.

मां ने सिर हिला कर इशारा किया, ‘‘ठीक है.’’ कुछ पल मां जमीन की ओर देखती रही. अनायास आंखों से आंसू की  झड़ी  झड़ने लगी. सुस्त हाथों को धीरेधीरे ऊपर उठा कर अपने सिकुड़े कपोलों तक ले गई. आंसू पोंछ कर बोली, ‘‘प्रकृति की मरजी है बेटा.’’

परिवार के प्रति आक्रोश दबाती हुई भाग्यश्री ने कहा, ‘‘प्रकृति की मरजी कोई नहीं जानता, किंतु तुम्हारे लापरवाह बेटे को सभी जानते हैं और… और पिताजी की तानाशाही. दोनों के प्रति तुम्हारे समर्पित भाव का प्रतिदान तुम्हें यह मिला कि तुम दोनों की मानसिक चोट से आहत हो कर यहां तक  पहुंच गईं? जिंदगी जकड़ कर रखना चाहती है, लेकिन मौत तुम्हें अपनी ओर खींच रही है.’’

मां ने आहत स्वर में कहा, ‘‘क्या किया जाए, सब समय की बात है.’’

भाग्यश्री ने अपनी आर्द्र आंखों को पोंछ कर कहा, ‘‘दवा तो ठीक से ले रही हो न, कोई कमी तो नहीं है न?’’

पलभर मां चुप रही, फिर बोली, ‘‘नहीं, दवा तो लाता ही है.’’

‘‘कौन? बाबू?’’ भाग्यश्री ने पूछा.

‘‘और नहीं तो कौन, तुम्हारे पिताजी लाएंगे क्या, गोबर भी काम में आ जाता है, गोथठे के रूप में. लेकिन वे? इस से भी गएगुजरे हैं. वही ठीक रहते तो किस बात का रोना था?’’ कुछ आक्रोश में मां ने कहा.

भाग्यश्री सिर  झुका कर बातें सुनती रही.

‘‘और एक बेटा है, वह अपनेआप में लीन रहता है, कमरे में  झांक कर भी नहीं देखता. आने में देरी हो जाए, तो मन घबराता है. देरी का कारण पूछती हूं, तो बरस पड़ता है. घर में नहीं रहने पर इधर बाप की चिल्लाहट सुनो और आने पर कुछ पूछो, तो बेटे की  िझड़की सुनो. बस, ऐसे ही दिन काट रही हूं,’’ आंसू पोंछती हुई मां ने कहा, ‘‘हां, लेकिन सेवा तुम्हारे पिताजी करते हैं मूड ठीक रहा तो, ठीक नहीं तो चार बातें सुना कर ही सही, मगर करते हैं.’’

भाग्यश्री ने कई बार सोचा कि मां की सेवा के लिए एक आया रख दे, मगर इस में भी समस्याएं थीं. एक तो यह कि इस माहौल में आया रहेगी नहीं, हरवक्त तनाव की स्थिति, बापबेटे के बीच वाकयुद्ध, अशांति ही अशांति. स्वयं कुछ भी खा लें, मगर आया को तो ढंग से खिलाना पड़ेगा न. दूसरा यह कि भाग्यश्री की सहायता घरवाले स्वीकार करेंगे? इन सब कारणों से वह लाचार थी. वह मां के पास बैठी थी, तभी उस के पिताजी आए. औपचारिकतावश भाग्यश्री ने प्रणाम किया. फिर चुपचाप बैठी रही.

भाग्यश्री ने अपने पिताजी की ओर देखा. उन के चेहरे पर क्रोध का भाव था. निसंदेह वह भाग्यश्री के प्रति था.

पिछले 10 वर्षों में वह बहुत कम यहां आईर् थी. जब उस ने अपनी मरजी से शादी की, पिताजी ने उसे त्याग दिया. मां भी पिताजी का समर्थन करती, किंतु मां तो मां होती है. मां अपना मोह त्याग नहीं पाई थी. शादी भी एक संयोग था. स्नेहदीप के बिना जीवन अंधकारमय रहता है. प्रकाश की खोज करना हर व्यक्ति की प्रवृत्ति है.

व्यक्ति को यदि अपने परिवेश में स्नेह न मिले तो बूंदभर स्नेह की लालसा लिए उस की दृष्टि आकाश को निहारती है, शायद स्वाति बूंद उस पर गिर पड़े. जहां आशा बंधती है, वहां वह स्वयं भी बंध जाता है. भाग्यश्री के साथ भी ऐसी ही बात थी. नाम के विपरीत विधाता का लिखा. दोष किस का है- इस सर्वेक्षण का अब समय नहीं रहा, लेकिन एक ओर जहां भाग्यश्री का खूबसूरत न होना उस के बुरे समय का कारण बना, वहीं, दूसरी ओर पिता का गुस्सैल स्वभाव भी. कभी भी उन्होंने घर की परिस्थिति को देखा ही नहीं, बस, जो चाहिए, मिलना चाहिए अन्यथा घर सिर पर उठा लेते.

घर की विषम परिस्थितियों ने ही भाग्यश्री को सम झदार बना दिया. न कोई इच्छा, न शौक. बस, उदासीनता की चादर ओढ़ कर वह वर्तमान में जीती गई. परिश्रमी तो वह बचपन से ही थी. छोटे बच्चों को पढ़ा कर उस ने अपनी पढ़ाई पूरी की. उस का एक छोटा भाई था. बहुत मन्नत के बाद उस का जन्म हुआ था. इसलिए उसे पा कर मातापिता का दर्प आसमान छूने लगा था. पुत्र के प्रति आसक्ति और भाग्यश्री के प्रति विरक्ति यह इस घर की पहचान थी.

लेकिन, उसे अपने एकांत जीवन से कभी ऊब नहीं हुई, बल्कि अपने एकाकीपन को उस ने जीवन का पर्याय बना लिया था. कालांतर में हरदेव के आत्मीय संसर्ग के कारण उस के जीवन की दिशा ही नहीं बल्कि परिभाषा भी बदल गई. बहुत ही साधारण युवक था वह, लेकिन विचारउदात्त था. सादगी में विचित्र आकर्षण था.

भाग्यश्री न तो खूबसूरत थी, न पिता के पास रुपए थे और न ही वह सभ्य माहौल में पलीबढ़ी थी. किंतु पता नहीं, हरदेव ने उस के हृदय में कौन सा अमृतरस का स्रोत देखा, जिस के आजीवन पान के लिए वह परिणयसूत्र में बंध गया. हरदेव के मातापिता ने इस रिश्ते को सहर्ष स्वीकार किया. भाग्यश्री के मातापिता ने उस के सामने कोई आपत्ति जाहिर नहीं की, मगर पीठपीछे बहुत कोसा. यहां तक कि वे लोग न इस से मिलने आए, न ही उन्होंने इसे घर बुलाया. खुश रह कर भी भाग्यश्री मायके के संभावित दुखद माहौल से दुखी हो जाती. उपेक्षा के बाद भी वह अपने मायके के प्रति लगाव को जब्त नहीं कर पाती और यदाकदा मांपिताजी, भाई से मिलने आती, किंतु लौटती तो अपमान के आंसू ले कर.

कुछ माह बाद ही भाग्यश्री को मालूम हुआ कि उस की मां लकवे का शिकार हो गई है. घबरा कर वह मायके आई. अपाहिज मां उसे देख कर रोने लगी, मानो बेटी के प्रति जितना भी दुर्भाव था, वह बह रहा हो. किंतु, पिताजी की मुद्रा कठोर थी. मां अपनी व्यथा सुनाती रही, लेकिन पिताजी मौन थे. आर्थिक तंगी तो घर में पहले से ही थी, अब तो कंगाली में आटा भी गीला हो गया था. मां के पास वह कुछ देर बैठी रही, फिर बहुत साहस जोड़ कर, मां को रुपए दे कर कहने लगी, ‘इलाज में कमी न करना मां. मैं तुम्हारा इलाज कराऊंगी, तुम चिंता न करना.’

उस की बातों को सुनते ही पिताजी का मौन भंग हुआ. बहुत ही उपेक्षित ढंग से उन्होंने कहा, ‘हम लोग यहां जैसे भी हैं, ठीक हैं. तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. मिट्टी में इज्जत मिला कर आई है जान बचाने.’ विकृत भाव चेहरे पर आच्छादित था. कुछ पल चुप रहे, फिर उन्होंने कहा, ‘तुम्हारे आने पर यह रोएगी ही, इसलिए न आओ तो अच्छा रहेगा.’

घर में उस की उपेक्षा नई बात नहीं थी. आंसूभरी आंखों से मां को देखती हुई उदासी के साथ वह लौट गई. मातापिता ने उसे त्याग दिया. मगर वह त्याग नहीं पाई थी. इस बार 5वीं बार वह सहमीसहमी मां के घर आई थी. इस बार न उसे उपेक्षा की चिंता थी, न पिताजी के क्रोध का भय था. और न आने पर संकोच. मां के दुख के आगे सभी मौन थे.

उसे याद आई. छोटे भाई के प्रति मातापिता का लगाव देख कर वह यही सम झ बैठी थी कि यह घर उस का नहीं. खिलौने आए तो उस भाई के लिए ही. उसे याद नहीं कि उस ने कभी खिलौने से खेला भी था. खीर बनी, तो पहले भाई ने ही खाई. उस के खाने के बाद ही उसे मिली. मां से पूछती, ‘हर बार उसी की सुनी जाती, मेरी बात क्यों नहीं? गलती अगर बाबू करे तो दोषी मैं ही हूं, क्यों?’

लापरवाही के साथ बड़े गर्व से मां कहती, ‘उस की बराबरी करोगी? वह बेटा है. मरने पर पिंडदान करेगा.’ मां के इस दुर्भाव को वह नहीं भूली. पति के घर में हर सुख होने के बाद भी वह अतीत से निकल नहीं पाई. बारबार उसे चुभन का एहसास होता रहा. लेकिन अब? मां की विवशता, लाचारी और कष्ट के सामने उस का अपना दुख तुच्छ था.

कुछ पल वह मां के पास बैठी रही. फिर बोली, ‘‘बाबू कहां है?’’ बचपन से ही, वह भाई को बाबू बोलती आई थी. यही उसे सिखाया गया था.

‘‘होगा अपने कमरे में,’’ विरक्तभाव से मां ने कहा.

भाग्यश्री कमरे में जा कर बाबू के पास बैठ गई. पत्थर पर फूल की क्यारी लगाने की लालसा में उसे कुछ पल अपलक देखती रही. फिर साहस समेट कर बोली, ‘‘आज तक इस घर ने मु झे कुछ नहीं दिया है. बहनबेटी को देना बड़ा पुण्य का काम होता है.’’

बाबू आश्चर्य से उसे देखने लगा, क्योंकि किसी से कुछ मांगना उस का स्वभाव नहीं था.

‘‘क्या कहती हो दीदी? क्या दूं,’’ बाबू ने पूछा.

‘‘मन का चैन,’’ याचक बन कर उस ने कहा.

बाबू चुप रहा. बाबू के चेहरे का भाव पढ़ कर उस ने आगे कहा, ‘‘देखो बाबू, हम दोनों यहीं पलेबढ़े. लेकिन, तुम्हें याद है? मांपिताजी का सारा ध्यान तुम्हीं पर रहता था. तुम्हीं उन के लिए सबकुछ हो. उन के विश्वास का मान रख लो. मु झे मेरे मन का चैन मिल जाएगा.’’ बोलतेबोलते उस का गला भर आया. कुछ रुक कर फिर बोली, ‘‘याद है न? मां तुम्हें छिप कर पैसा देती थीं जलेबियां खाने के लिए. मैं मांगती, तो कहतीं ‘इस की बराबरी करोगी? यह बेटा है, आजीवन मु झे देखेगा.’  और मैं चुप हो जाती. मां के इस प्रेम का मान रख लो बाबू. पहले उस के दुर्भाव पर दुख होता था और अब उस की विवशता पर. दुख मेरे समय में ही रहा.’’

‘‘तुम क्या कह रही हो, मैं सम झ नहीं पा रहा हूं,’’ कुछ खी झ कर बाबू ने कहा, ‘‘क्या कमी करता हूं? दवा, उचित खानापीना, सभी तो हो रहा है. क्या कमी है?’’

‘‘आत्मीयता की कमी है,’’ भाग्यश्री का संक्षिप्त उत्तर था. ‘चोर बोले जोर से’ यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है. खी झ कर बाबू बोला, ‘‘हांहां, मैं गलत हूं. मगर तुम ने कौन सी आत्मीयता दिखाई? आज भी कोई पूछता है कि भाग्यश्री कैसी है, तो लगता है कि व्यंग्य से पूछ रहा है.’’

बाबू की यह बात उसे चुभ गई. आंखें नम हो गईं. मगर धीरे से कहने लगी, ‘‘हां, मैं ने गलत काम किया है. तुम लोगों के सताने पर भी मैं ने आत्माहत्या नहीं की, बल्कि जिंदगी को तलाशा है, यही गलती हुई है न?’’

बाबू चुप रहा.

‘‘देखो बाबू,’’ भरे हुए कंठ से उस ने कहा, ‘‘बहस नहीं करो. मैं इतना ही जानती हूं कि मांपिताजी, मांपिताजी होते हैं. मैं ने इतना अन्याय सह कर भी मन मैला न किया. फिर तुम्हें क्या शिकायत है कि इन के दुखसुख में हाल भी न पूछो? दवा से ज्यादा सद्भाव का असर होता है.’’

‘‘कौन कहता है?’’ बात का रुख बदलते हुए बाबू ने कहा, ‘‘कौन शिकायत करता है? क्या नहीं करता? तुम्हें पता है सारी बातें? कौन सा ऐसा दिन है, जब पिताजी मु झे नहीं कोसते? एक सरकारी नौकरी न मिली कि नालायक, निकम्मा विशेषणों से अलंकृत करते रहते हैं. बीती बातों को उखाड़उखाड़ कर घर में कुहराम मचाए रहते हैं. घर की शांति भंग हो गई है.’’ वह अपने आंसू पोंछने लगा.

बात जब पिताजी पर आई, तो कमरे में आ कर चीखते हुए भाग्यश्री को बोलने लगे, ‘‘हमारे घर के मामले में तुम कौन हो बोलने वाली? कौन तुम्हें यहां की बातें बताता है? यह मेरा बेटा है, मैं इसे कुछ बोलूं तो तुम्हें क्या? यह हमें लात मारे, तुम्हें क्या मतलब?’’

बात कहां से कहां पहुंच गई. भाग्यश्री को भी क्रोध आ गया. वह कुछ बोली नहीं, बस, आक्रोश से अपने पिताजी को देखती रही. पिताजी का चीखना जारी था, ‘‘तुम अपने घर में खुश रहो. हमारे घर के मामले में तुम्हें बोलने का अधिकार नहीं है.’’

‘हमारा घर?

‘पिताजी का घर?

‘बाबू का घर? मेरा नहीं? हां, पहले भी तो नहीं था. और अब? शादी के बाद?’ भाग्यश्री मन में सोच रही थी.

पिताजी को बोलते देख, मां ने आवाज लगाई. भाग्यश्री मां के पास चली गई. मां ने रोते हुए कहा, ‘‘समय तो किसी का कोई बदल नहीं सकता न बेटा? मेरे समय में ही दुख लिखा है, इसलिए तो बापबेटे की मत मारी गई. आपस में भिड़ कर एकदूसरे का सिर फोड़ते रहते हैं. तुम बेकार मेरी चिंता करती हो. तुम्हें यहां कोई नहीं सराहता, फिर क्यों आती हो.’’ यह कहती हुई वह फूटफूट कर रो पड़ी.

पिताजी के प्रति उत्पन्न आक्रोश ममता में घुल गया. कुछ देर तक भाग्यश्री सिर नीचे किए बैठी रही. आंखों से आंसू बहते रहे. अचानक उठी और बाबू से बोली, ‘‘मां, मेरी भी है. इस की हालत में सुधार यदि नहीं हुआ, तो बलपूर्वक मैं अपने साथ ले जाऊंगी,’’ कहती हुई वह चली गई.

महल्ले में ही उस का मुंहबोला एक भाई था, कुंदन. वह बाबू का दोस्त भी था. उदास हो कर लौटती भाग्यश्री को देख कर वह उस के पीछे दौड़ा, ‘‘दीदी, ओ दीदी.’’

भाग्यश्री ने पीछे मुड़ कर देखा. बनावटी मुसकान अधरों पर बिखेर कर हालचाल पूछने लगी. उसे मालूम हुआ कि फिजियोथेरैपी द्वारा वह इलाज करने लगा है. उस की उदास आंखें चमक उठीं. याचनाभरी आवाज में कहा, ‘‘भाई, मेरी मां को भी देख लो.’’

‘‘चाचीजी को? हां, स्थिति ठीक नहीं है, यह सुना, लेकिन किसी ने मु झ से कहा ही नहीं,’’ कुंदन ने कहा.

‘‘मैं कह रही हूं न,’’ व्यग्र होते हुए भाग्यश्री ने कहा.

दो पल दोनों चुप रहे. कुछ सोच कर भाग्यश्री ने फिर कहा, ‘‘लेकिन भाई, यह बताना नहीं कि मैं ने तुम्हें भेजा है. नहीं तो मां का इलाज करवाने नहीं देंगे सब.’’

‘‘लेकिन, लेकिन क्या कहूंगा?’’

‘‘यही कि, बाबू के मित्र हो, इसलिए इंसानियतवश. और हां,’’ भाग्यश्री ने अपने बटुए में से एक हजार रुपया निकाल कर देते हुए कहा, ‘‘तुम मेरा पता लिख लो, मेरे घर आ कर ही अपना मेहनताना ले लेना.’’

कुंदन उसे देखता रहा. भाग्यश्री की आंखों में कृतज्ञता छाई थी, बोली, ‘‘भाई, तुम्हारा एहसान मैं याद रखूंगी. बस, मेरी मां को ठीक कर दो.’’

कुंदन सिर हिला कर कह रहा था, ‘‘ठीक है.’’

दो माह बाद वह फिर से मायके आई. हालांकि कुंदन से उसे मालूम हो गया था कि मां की स्थिति में बहुत सुधार है, फिर भी वह देखना चाहती थी. भाग्यश्री के मन में एक अज्ञात भय था. जैसे कोई किसी दूसरे के घर में प्रवेश कर रहा हो वह भी चोरीचोरी. जैसेजैसे घर निकट आ रहा था, उस के कदम की गति धीमी होती जा रही थी और हृदय की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

वहां पहुंच कर उस ने बरामदे में  झांका. मां, पिताजी और बाबू तीनों बैठ कर चाय पी रहे थे. सभी प्रसन्न थे. आपस में बातें करते हुए हंस रहे थे. भाग्यश्री ने शायद ही कभी ऐसा दृश्य देखा होगा. भाग्यश्री वहीं ठहर गई. उस ने अपने भाई से ‘मन का चैन’ मांगा था, भाई ने उसे दे दिया. मायके से प्राप्त उपेक्षा, तो उस का दुख था ही, लेकिन यह ‘मन का चैन’ उस का सुख था.

‘ठीक ही है,’ उस ने सोचा, मैं तो इस घर के लिए कभी थी ही नहीं. फिर अपना स्थान क्यों ढूढ़ूं? आज मन का चैन मिला, इस से बड़ा मायके का उपहार क्या होगा. मन का चैन ले कर वह वहीं से लौट आई, बिन बुलाए कभी न जाने के लिए.

बाहर निकल कर नम आंखों से अपने मायके का घर देख रही थी. अनायास उस के अधरों पर वेदना के साथ एक मुसकान दौड़ आई. उंगली से इशारा करती हुई, भरे हुए कंठ से वह बुदबुदाई, ‘मुझे पता है पिताजी, एक दिन आप मु झे बुलाएंगे जरूर. मन का चैन पा कर वह प्रसन्न थी, किंतु मायके के विद्रोह से उस का अंतर्मन बिलख रहा था. उस ने मन से पूछा, ‘लेकिन कहां बुलाएंगे?’ मन ने उत्तर भी दे दिया, ‘जल्द ही बुलाएंगे.’

अपनी आंखों को पोंछती हुई वह एकाएक मुड़ी और अपने घर की ओर चल दी. मन में विश्वास था कि एक दिन बुलावा आएगा, हां, बुलावा आएगा जरूर.

नथ: क्या हो पाई मुन्नी की शादी

उस दिन बैंक से नोटिस आया कि बैंक की शाखा का स्थानांतरण हो रहा है. जिन ग्राहकों के लौकर हैं वे उसे खाली कर दें. सो पतिदेव लौकर से सारा सामान उठा कर घर ले आए. जैसे वेतनयाफ्ता, पेंशनप्राप्ता 60-70 वर्षीय बूढ़े के लौकर में कुछ फिक्स डिपौजिट के कागज तथा 2 बेटियों के विवाह उपरांत कुछ बचेखुचे गहनों के नाम पर टूटे कंगन, कान का एक बुंदा या फिर चांदी के सिक्के, इतना ही पड़ा था. उन दिनों, टिन के बने टौफी के डब्बे आया करते थे और वे बड़े उपयोगी सिद्ध होते थे, हमारे पिताजी तथा जेठ आदि सब की शेविंग का सामान उन्हीं डब्बों में सदियों रखा जाता रहा है, आज भी जंग लगे उन डब्बों से बिछुड़ना उन्हें पीड़ा पहुंचा जाता है, और उन्हीं डब्बों में सुरक्षित रखे जाते थे गहनेजेवर. वैसा ही डब्बा, जिस में सफेद रुई, जो अब पीली पड़ गई थी और लाल पतंगी कागज (फटा हुआ), ‘गुदड़ी में लाल’ मुहावरे को चरितार्थ करता हुआ, घर लाया गया तो हम ने अपनी जायदाद के मनोहारी दर्शन किए. एक गले की हंसली, जिस में सोना कम पीतल ज्यादा थी, सुनार ने बेईमानी की थी, कान के 2 झुमके अलगअलग भांति के, एकआध चूड़ी, दोचार अजीबोगरीब दिखने वाली अंगूठियां और अचानक दिखी 9 नगीनों जडि़त नाक की समूची नथ.

‘‘अरे, यह तो वही नथ है जोे रश्मि भाभी ने मेरी शादी पर पहनी थी,’’ अपनी हथेली पर उस को बड़े दुलार से लिटाया, उस का सौंदर्य निहारा. अनुपम रूपमति नथ. उस डब्बे की एकमात्र शोभा. अचानक यादों की बरात हमारी अपनी बरात के साथ, बैंडबाजे के साथ, मानस पर उमड़ पड़ी. याद आया वह दिन जब हमें दुलहन बनाया जा रहा था, नातेरिश्तेदारों से घर भरा था. दादीजी तो रही नहीं थीं, सो घर की सब से बड़ी या यों कहिए चौधराहट छांटने वाली बड़ी ताईजी, पुरखों के गांव से स्पैशली बुलाई गई थीं क्योंकि उन की सब से छोटी देवरानी यानी कि हमारी अम्मा को तो शादीब्याह करने की अक्ल नहीं थी. 7 बच्चों को जन्म देने वाली, उन्हें उच्चतम शिक्षा से पारंगत करने की क्षमता तो अम्मा कर सकती थीं किंतु शादीब्याह में ऊंचनीच का उन्हें क्या ज्ञान धरा था भला? रस्मों की भरमार, दिनभर में पच्चीसों रस्में, उन रस्मों में तो जैसे ताईजी ने पीएचडी कर रखी थी और मजाल कि उन की बात कोई टाल दे. अच्छेभले शिक्षित पिताजी, जो भौतिक शास्त्र के प्रोफैसर थे, न कोई देवीदेवता को मानते थे न किसी प्रपंच में पड़ते थे किंतु उस समय बेटी के ब्याह पर जैसा ताईजी ने कहा उन्होंने भी वैसा ही किया, शायद शिष्टतावश. लेकिन 21 वर्षीय, अंगरेजी में एमए पास मौडर्न कन्या को ताईजी की कोई बात फूटी आंख नहीं सुहाती थी.

गौर पूजा के समय ताईजी ने हुक्म दिया, ‘सिर धो कर नहाओ और सीधा बिना किसी को छुए, आंगन में बनी वेदी के पटरे पर बैठ जाओ.’ कन्या यानी मैं ने विद्रोह किया, शोर मचाया, ‘कल ही सिर धोया था.’  परंतु ताईजी ने एक नहीं सुनी, अम्मा सिर पर पल्ला रखे मुझे घूर रही थीं, मानो कह रही हों – मेरी इज्जत का फालूदा मत बना. झक मार कर मुझे दोबारा सिर धोना पड़ा और सफेद तौलिया बालों में लपेट कर आज्ञाकारी पुत्री का सा रोल अदा करने आंगन में बिछे पटरे पर बैठने का उपक्रम करने लगी. अभी आधी ही बैठी थी कि ताईजी ने झपट कर मेरे सिर पर बंधा तौलिया खींच कर खोल दिया, ‘अरे, घोर अपशुगन, सिर पर सफेद कपड़ा बांध कर क्यों बैठ गई?’ काटो तो खून नहीं, क्रोध से भुनभुनाती हुई कन्या वेदी से उठ खड़ी हुई,  ‘नहीं करनी मुझे ऐसी शादी, यह भी कोई तरीका है, कोई मैनर्स नहीं है? एक हजार टोनेटोटके लगा रखे हैं, तंग कर दिया.’

रिश्तेदारों में फुसफुसाहट शुरू हो गई, ‘हाय कैसी बेहया लड़की है,’  चाची, बूआ, पड़ोसिनों में यह ‘बे्रकिंग न्यूज’ की भांति करंट सी दौड़ गई. बड़ी मुश्किल से मौसी ने समझाबुझा कर गौरी पूजा की रस्म करवाई, सिर के गीले बालों पर गुलाबी दुपट्टा डाल कर. ऐसा लग रहा था जैसे सफेद तौलिया बांधने मात्र से मैं विधवा हो जाऊंगी. रीतिरिवाज, विवाहित जीवन में मंगल लाने वाली ‘इंश्योरैंस कंपनियों’ जैसी हैं कि प्रीमियम नहीं भरा तो विवाह टूट जाएगा. 33 करोड़ देवीदेवताओं को मनाना क्या इतना सरल होता है? कभी चंद्रमा को प्रसन्न किया जाता, कभी पुरखों को, कभी दीवार पर थापे, कभी गेहूं, हल्दी, चावल की शामत आती, शुभअशुभ नेग. पता नहीं कौन सी किताबों में ये सब लिखा था. और ताईजी को इतना याद कैसे रहता था? गांव से ताईजी बड़ेबडे पतीले, कड़ाही, ढेरों बरतनों के साथ रिकशा पर लद कर आई थीं.

मिसरानीजी, जिन का काम रसोई में चूल्हा मैनेज करना था और दूसरा उन का परमप्रिय काम था जब कोई शगुन का समय आया वे बेसुरी ढोलक बजाने बैठ जातीं. वे अपनी सफेद किनारी वाली धोती का पल्ला मुंह में दबा कर इतना बेसुरा गातीं कि उपस्थित श्रोता हंसी नहीं दबा पाते  मिसरानीजी से मजा लेने के लिए लड़केलड़कियां मनोरंजन करने की खातिर उन से फरमाइश करते. ‘मिसरानीजी, वह वाला गीत गाना.’ ले दे कर उन्हें एक ही तो ‘बन्नी’ आती थी और वे बड़ी खुश हो कर राग अलापने लगतीं. ‘पटरे पे बैठी लाड़ो भजन करे…’ और सब का हंसहंस कर बुरा हाल हो जाता. आखिर ‘लाड़ो’ अपनी शादी पर भजन क्यों कर रही होगी? कोई सोचे क्या संन्यास लेने जा रही थी? आखिर बरात आने का समय हुआ. दुलहन का इंस्पैक्शन करने ताईजी तथा पूरा प्रपंची स्त्री समाज नख से शिख तक बारीकी से जांच करने कमरे में आया. बड़े यत्न से मेरी प्रिय सखी ने मेरा शृंगार किया था. उस ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी थी किंतु उसे क्या पता कि कमी किस कोने से टपक पड़ेगी.

देखते ही ताईजी गरजीं, ‘नथ कहां है? नाक सूनी क्यों है? मामा के यहां से नथ आनी चाहिए थी?’ अब तो मानो कोहराम मच गया, एक बार फिर खुसुरफुसुर होने लगी, ‘हाय, नथ नहीं आई भात में?’ अम्मा के पीहर वालों को नीचा दिखाने का इस से बढि़या मौका और क्या हो सकता था. बेचारी अम्मा का चेहरा फक पड़ गया. अपनी सास को संकट में देख कर, रश्मि भाभी भाग कर अपनी नथ ले आईं और दुलहन को यानी मुझे पहना दी. सब ने राहत की सांस ली. उधर बैंडबाजे की आवाज कानों में पड़ते ही सब के सब बरात देखने भाग खड़े हुए. जैसेतैसे ब्याह पूर्ण हुआ और विदाई के गमगीन वातावरण के चलते जिसे देखो वही टसुए बहा रहा था. हमारे यहां लोगों को झूठमूठ का रोना खूब आता है. क्षणभर में रोने लगते हैं, क्षणभर में हंसने. विदा होती कन्या ने भी कुछ आंसू ताईजी के डर के मारे अपने नेत्रों से टपकाए. सोचा, रोना तो पड़ेगा वरना ताईजी कहेंगी, कैसी बेशर्म है. विदाई की तमाम रस्में खत्म हो चुकीं और मेरे पैर घर की दहलीज पार करने ही वाले थे कि एक क्षीण सी आवाज में किसी ने टोका, ‘रश्मि की नाक की नथ तो निकाल लो.’ यह सुनते ही ताईजी एकदम मैदानेजंग में आ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘इस नथ में मुन्नी की भांवर पड़ गई है, अब यह इस की नाक से नहीं उतारी जा सकती.’

किस में इतना दमखम था कि हिटलरी ताईजी की अवज्ञा कर सकता. सो, मुन्नी यानी मेरी विदाई उसी नथ में हो गई. आज नथ को देखते ही मुन्नी को पूरी दास्तान-ए-नथ याद हो आई. व्यंग्य करते हुए मैं ने पति से कहा, ‘‘वाह रे ताईजी, वाह, आप का तर्क. इसी नथ में तो रश्मि भाभी के भी फेरे हुए होंगे, तब उसे पहनाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हुई?’’ पति उवाच, ‘‘होती भी क्यों? रश्मि भाभी तो बहू ठहरीं. बहू का जेवर बेटी को पहनाने में उन्हें क्यों और कैसे एतराज होता?’’ मुझे अपने पर क्रोध आया. क्या मैं भी इन दकियानूसी अंधविश्वासों से ग्रसित थी? मैं ने तब क्यों विरोध नहीं किया था और अब तक क्यों नहीं नथ वापस की? ढेरों प्रश्न मुझे विचलित करने लगे. मेरे विवाह को आज 47 वर्ष हो गए हैं, आज उस नथ का खयाल आया? आज मैं चेती हूं? अपने को धिक्कारते हुए मैं ने निश्चय किया कि अगली बार जब भी रश्मि भाभी से मिलूंगी तो उन की नथ उन्हें लौटा दूंगी. कथा का समापन पतिदेव ने यों कह कर किया कि पिछले 47 वर्षों से रश्मि भाभी का और तुम्हारा, ‘सुहाग’ बैंक के घटाटोप छोटे से लौकर में बंद पड़ा रहा.

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