एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 5- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

‘समय के साथ हम में एक सहज सी दोस्ती हो गई थी. हम दोनों एकदूसरे के साथ जब कभी बैठते या 2 कप कौफी के लिए कैंटीन ही जाते, हम अच्छा सा महसूस करते, जैसे एकदूसरे के लिए हम कोई टौनिक थे.

‘कालेज से निकलते वक्त पल्लव मुझे अपना फोन नंबर और पता दे गए थे.

यह छोटा सा आदानप्रदान लगातार जारी रहा. और हम जैसेतैसे इस महीने से संपर्कसूत्र को बनाए रखने में सफल हुए. कह लो, एक सीधीसादी, अच्छी दोस्ती जहां कुछ न हो कर भी बहुतकुछ… चलो छोड़ो, तुम लोग अपनी खबर सुनाओ.’

मेरा दिल धुकपुक कर रहा था. भाई के चेहरे पर डर, कुंठा, असमंजस सब झलक आया था.

आखिर ममा हमें क्या कहते रुक गई थी.

हम दोनों मां की खुशियां चाहते थे. लेकिन कहीं यह खुशी परिवार टूटने से ही जुड़ी हो, तो?

परिवार टूटने का ग़म कम तो नहीं होता.

ममा इस बीच पल्लव जी के पास गई और रसोइए ने जो खाना पहुंचाया, उसे उन्हें खिला कर हमारे पास आ गई.

हम तीनों आज बड़े दिनों बाद साथ खाना खा रहे थे और पुराने दिनों से कहीं बेहतर मनोदशा में.

तब तो खाने पर मां के बैठते ही पापा की कटूक्ति और ताने शुरू हो जाते.

आज हमारा खाना हम दोनों भाईबहनों की अपनी पसंद का था. भाई की पसंद का छोलेभटूरे, मेरी पसंद की वेज बिरयानी, पनीर दोप्याजा.

‘ममा, यह मकान तो पल्लव जी का होगा, है न?’ मेरे इतना पूछते ही ममा ने कहना शुरू किया-

‘मेरे बच्चे, मैं अभी यहां फिलहाल 25 हजार रुपए प्रतिमाह की नौकरी करती हूं. तुम्हें लगता है कि सालभर में मैं 2 करोड़ रुपए का यह दोमंजिला मकान खरीद पाऊंगी? बच्चे, यह पल्लव जी का ही मकान है.’

‘ममा, इन की पत्नी? परिवार…?’

‘इन की कोई संतान नहीं. पत्नी है, लेकिन…’

‘लेकिन, क्या ममा?’

‘शायद इन की पत्नी के बारे में मेरा कुछ भी कहना सही नहीं होगा.’

एक कशमकश सी भर रही थी मेरी सांसों में.

आखिर पल्लव जी और मेरी मां का रिश्ता कैसा था? हमारा भविष्य क्या था? क्या हमें पापा के पास लौट कर फिर से उन्हीं जिल्लतों में जीना होगा? पल्लव जी और ममा साथ हों, तो क्या यह सही निर्णय होगा?

मैं यही सब सोच रही थी. ममा हमारे पास वाले कमरे में सोने चली गई. कुंदन ने पूछा धीरे से- ‘दीदी, ममा अगर पल्लव जी से शादी कर लें तो तुम्हें कैसा लगेगा?’

‘देख भाई, ममा को कभी वह प्यार व सम्मान मिला नहीं, जिन की वह हकदार थी. आज अगर पल्लव जी से मां को वह सब मिल सकता है जिस से उस की बाकी जिंदगी सुख से बीते, तो इस में हमें भी खुश ही होना चाहिए. हमारी ममा ऐसी नहीं कि वह हमारी फिक्र न करे.’

‘ममा तो कुछ बताएंगी नहीं. क्या कल जब ममा कालेज चली जाएं तो हम पल्लव जी से बात करें?’

सुबह ममा के कालेज जाने के बाद हम दोनों को पल्लव जी ने अपने साथ नाश्ते पर बुलाया. उन की देखभाल में शुभा और रसोइए के साथ एक और लड़का था जो शायद रात को उन के कमरे में देखभाल के लिए रहता था.

पल्लव जी उसे कविराज बुला रहे थे. मैं ने पूछा- ‘अंकल, यह कैसा नाम है?’

‘यह नाम मैं ने दिया है बेटा. वह, दरअसल, बहुत बढ़िया कविता लिखता है. मैं ने सोचा है यह मन भर कर लिख ले, फिर इस की कविताओं की किताब छपवा दूंगा. इस का नाम तो वैसे रतन है.’

‘वाकई, आप सभी का बहुत ख़याल रखते हैं अंकल. ममा आप की बहुत तारीफ कर रही थी.’

‘अच्छा, किस बारे में?’ पल्लव जी के चेहरे पर सौ दीए एकसाथ जल उठे जैसे.

‘वही, शुभा और उन की मां के बारे में,’ मैं ने अपनी झिझक संभाली.

पल्लव जी ने कुछ और सुनने की उम्मीद रखी थी शायद. उन्होंने ‘अच्छा’ कह कर अपने नाश्ते की प्लेट पर खुद को केंद्रित किया.

भाई ने अपनी कुहनी से मुझ पर दबाव बनाते हुए मुझे संकेत देना चाहा कि मैं इस मौके का जल्द सदुपयोग करूं.

‘अंकल, दरअसल, मैं आप से कुछ कहना चाहती हूं. समझ नहीं आता इतनी सारी बातें आप से…’

‘अरे बेटा, आप लोग मुझे अपने पापा की जगह पर रख कर कहो. मतलब, अंकल हूं न?’ पल्लव जी अपनी बात का मर्मार्थ समझ कर झेंपते हुए संभल से गए.

भाई का सब्र जाता रहा था. वह बिना देर किए तुरंत कह पड़ा- ‘अंकल, हमें कुछ समझ नहीं आ रहा. हम तो पापा से बिना कुछ कहे ही यहां आ गए. बाद में पापा के दीदी को संदेश भेजने पर दीदी ने कहा कि हम ममा के पास चले आए हैं. पापा ने हमें दोबारा न लौटने की धमकी दी. इधर ममा ठीक से कुछ बता नहीं रही हैं. हम बहुत परेशान हैं.’

पल्लव जी अत्यंत कुशाग्र थे. वे समझ रहे थे हम कहना क्या चाहते हैं, जानना क्या चाहते हैं.

उन्होंने शांत स्वर में कहना शुरू किया और हम उन की कहानी में डूबते चले गए.

‘मैं कई सारी बातें आप को साफ ही कहूंगा. आप अब बड़े हो गए हो, चिंतित होना वाजिब है. जिंदगी को आप समझते हो.

‘मैं अकेला अब भी हूं, तब भी था जब मेरी शादी हुई थी.’

हम दोनों की चौड़ी हुई आंखों को देख पल्लव जी कुछ पल को रुक गए. वे समझ गए थे कि हम क्यों उत्सुक हैं.

उन्होंने फिर बोलना शुरू किया- ‘मेरी पूर्व पत्नी ने मेरी खानदानी धनसंपत्ति देख मुझ से शादी की और मेरे मातापिता की मृत्यु के बाद मेरा ही अकेला वारिस रह जाना उसे बड़ा आल्हादित किया.

‘लेकिन कुछ समय बाद से ही उसे महसूस होने लगा कि उस ने अपने क्लर्क प्रेमी को छोड़ मुझ से शादी कर के बड़ी गलती कर दी है. उस का क्लर्क प्रेमी भले ही उस की शादी से पहले छोटी सी नौकरी की वजह से वर की लिस्ट से निकाला गया था, लेकिन उस की मेरे साथ 4 साल की शादी में जब मैं दुनियाभर के लोगों की मदद में उस की समझ से पैसे उड़ा रहा था, उस के प्रेमी ने अपनी नौकरी के सदुपयोग द्वारा लोगों के काम कर देने के बदले यानी पब्लिक सर्विस के एवज में उलटे हाथ से न सिर्फ दोगुने पैसे कमाए, बल्कि खुद का फ्लैट और गाड़ी भी ले ली.

‘मेरी पत्नी को खुद के ठगे जाने का ज्ञान हुआ और अपनी ग़लती सुधारने के लिए उस ने अपने पूर्व प्रेमी से धीरेधीरे संपर्क बढ़ाया. उस का प्रेमी क्लर्क कह कर दुत्कारे जाने से अब गजब की इच्छाशक्ति से भर गया था. और जब उस की पूर्व प्रेमिका ने उस के आगे नाक रगड़ी, तो मेरी पत्नी को दोबारा जीत ले जाने का लोभ वह न संभाल सका. जबकि, मैं ऐसी प्रतियोगिता वाले दृश्य में कभी था ही नहीं. मेरी पूर्व पत्नी और उस के प्रेमी को एक बार फिर से साथ हो कर मुझे सबक सिखाने का बराबर का आंनद आया. प्रेमी ने अपने चोट खाए अहं पर मलहम लगा सा लिया. और पत्नी ने मेरे पैसे उड़ाने जैसी गलत आदत के एवज में मुझे सबक सिखाया. वैसे, मैं ने सीखा नहीं सबक, मेरे लिए मेरे पैसे मेरे अकेले के सुखभोग के लिए नहीं हैं. जब भी मैं ऐसे किन्हीं को देखूंगा जिन्हें मेरी या मेरे पैसों की जरूरत होगी, मैं नहीं रुकूंगा.

मैं खुश हूं कि हेमा, माफ़ करना तुम्हारी ममा, मुझे समझती है. और वह खुद भी वैसी ही स्त्री है जिसे मैं चाह सकता हूं. मतलब…’

एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 3- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

‘कहीं तुम्हारी पढ़ाई की फीस पर रोक लगाई तो?’ ममा चिंतित थी.

‘इतना भी न डरो. नानाजी का दिया 10 लाख रुपए तुम्हारे और मेरे नाम से जौइंट अकाउंट में है न ममा.’

‘हां, बस. अब डर की नहीं, हिम्मत की बात करूंगी,’ ममा की आंखों में विश्वास की ज्योति दिख रही थी मुझे.

जब उपयोगी शिक्षा हो, चाह हो, चेष्टा हो, प्रकृति की शक्ति साथ हो लेती है.

ममा को उस के दोस्त पल्लव ने अपने ही कालेज में इकोनौमिक्स के लैक्चरर के लिए बुला लिया.

रातोंरात ममा ने पैकिंग की, हमें खूब प्यार किया और भोपाल के लिए ट्रेन पकड़ने खंडवा स्टेशन जाने से पहले शायद आखरी बार के लिए पापा के पास गई.

घर में होते, तो पापा को इंटरनैट का एक ही प्रयोग आता था- चैटिंग और पोर्न फिल्मों का आदानप्रदान.

ममा के सामने खड़े होने के बावजूद उन्होंने फोन में अतिव्यस्तता दिखाते हुए लापरवाही से कहा, ‘कहो?’

सोचा ही नहीं था ममा कहेगी. लेकिन उस ने कहा, ‘मैं ने नौकरी ढूंढ ली है. इकोनौमिक्स में लैक्चरर का पद है. बाहर जाना है. अगर आप चाहें तो छुट्टी मिलने पर आ जाया करूंगी.’

पापा फोन छोड़ उठ बैठे थे, ‘मेरी नाक के नीचे यह क्या हो रहा है?’

‘यह नाक के ऊपर की बात है. आप नहीं समझेंगे. आप ने जितना समझा, या नहीं भी समझा, काफी है. आप ने जो इज्जत और प्यार दिया उस के तो क्या ही कहने. अब नौकरी करना ही आखरी विकल्प है.’

‘ऐसा? तुम कभी लौट कर आ नहीं पाओगी, समझ रही हो न? बच्चों से मिलना तो आसमानी ख्वाब ही समझ लो.’ शायद पापा को गुलामी करवाना पसंद था, इसलिए एक गुलाम को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते थे, पूरी ठसक के साथ.

‘सब जानती हूं. आप को समझना बाकी नहीं रहा.’

‘कहां चली? जगह कौन सी है?’

खोजखबर रखने की मंशा साफ झलक रही थी. हम दोनों मांबेटी पापा की रगरग पहचानते थे.

‘क्यों, क्या करेंगे जान कर जब कोई मतलब रखना ही नहीं है,’

‘घटिया स्वार्थी औरत, तुम्हें अपने बच्चों की भी फिक्र नहीं.’

‘क्यों? बच्चे अपने पापा के पास हैं, अपने दादा के घर में, जिन पर उन का भी पूरा हक है. आप कहना क्या चाहते हैं कि मेरे जाते ही आप उन पर अत्याचार करेंगे? उन्हें खाना नहीं देंगे? उन की पढ़ाई की फीस नहीं भरेंगे? पलपल पर नजर रखूंगी मैं. उन्हें जरा भी तकलीफ़ हुई, तो आप की भली प्रकार खबर लूंगी.’

पापा क्रोध से लाल हो गए थे. अब तक उन की जूती में दबी पत्नी उन की तौहीन कर रही थी और वे चाह कर भी अपना राक्षसी रूप नहीं दिखा पा रहे थे. खूंखार आदमी तब डराता है जब सामने वाला डरने के लिए तैयार हो या मजबूरी में बंधा हो.

हम भाईबहनों को आज पहली बार अपनी इज्जत वापस मिली महसूस हो रही थी.

ममा निकल गई.

भोपाल जा कर ममा अच्छी तरह व्यवस्थित हो गई थी. पल्लव जी ने ममा को कालेज होस्टल में ही रहने का इंतजाम कर दिया था.

ममा रोज रात को हमारी खबर लेती, वीडियो कौल करती. उस ने अपने कालेज और होस्टल का पता दे दिया था और हम हमारी परीक्षाएं समाप्त होने तक दोगुनी गति से पढ़ाई कर रहे थे.

पापा अपनी ही रौ में थे. वही, ममा को ले कर हमें खिझाना, व्यंग्य कसना, घर में कई तरह की औरतों को ला कर मौजमस्ती करना, देररात घर आना. यह अध्याय हमारे लिए बहुत दुखदाई था. बेसब्री से अपनी परीक्षाएं ख़त्म होने का हम इंतजार कर रहे थे.

आखिर इंतजार ख़त्म हुआ. अगर इस बारे में हम पापा से बात करते तो वे हम से ऐसी सख्ती करते कि शायद दोनों भाईबहन ही अलग कर दिए जाते. बिना मुरव्वत के हमारे साथ कुछ भी हो सकता था अगर उन्हें हमारी मंशा पता चलती.

तो, पापा के औफिस जाते ही हम भोपाल की उपलब्ध ट्रेन में बैठ गए. इस के लिए हमें बड़ी जुगत लगानी पड़ी. हम ने अपने साथ वे सामान रख लिए थे जिन से इस घर में जल्द वापस आए बिना हमारा काम चल जाए. ममा को हम ने इत्तला कर दिया था.

शाम 5 बजे हम ममा के होस्टल के दरवाजे पर थे. पर यहां, यह क्या, दरवाजे पर बड़ा सा ताला? नसों में हमारा खून जम सा गया. भाई घबरा गया था. उस की रोनी सूरत देख मेरा भी दिल बैठ गया. हम तो पापा को बिना बताए आ गए थे. कहीं ममा नहीं मिली तो? इतने बड़े शहर में हम दोनों रात कैसे बिताएंगे? फिर पापा के पास वापस जाना… मैं ने ममा को फोन लगाया. दो बार, तीन बार… लगातार बजती रही घंटी. शाम का डूबता सा सूरज हमें डराने लगा. भाई और हम एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे. दिमाग को डर के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था.

अचानक सामने से एक लड़की को आते देखा. होगी कोई 16-17 साल की.

रेगिस्तान में जैसे जल का सोता. काश, इसे ही कुछ मालूम हो. पर ऐसा क्यों होगा भला. दुखी और निराश मन से हम उस लड़की को देख रहे थे और वह हमारे पास आ कर खड़ी हो गई.

‘मुझे आप की मां ने भेजा है. उधर औटो खड़ा है, आप लोग मेरे साथ चलिए.’

हमारे हाथों में चांदतारे आ गए थे.

मैं ने फिर भी उस से कुछ पूछना चाहा, तब तक लड़की ने कहा- ‘मैडम से यह लीजिए बात कर लीजिए,’ उस ने फोन लगा कर मुझे दिया.

‘ममा,’ मेरी टूटी हुई आवाज के बावजूद ममा ने जल्दीबाजी में कहा- ‘तुम लोग आओ पहले, फिर सब बताती हूं. तुम्हें जो ला रही है वह शुभा है, बहुत अच्छी है, बेटी जैसी. मिलते हैं.’

यह दोमंजिला बंगलानुमा बड़ा सा मकान था. अगलबगल 2 दरवाजे थे. बड़ा दरवाजा गैरेज के सामने खुलता था. मध्यम आकार का यह दरवाजा, जिस से हम अपने 2 सूटकेस के साथ अंदर आए थे, मकान के बरामदे के सामने था. गेट की सीध में पत्थर की बंधी सड़क थी, दोनों ओर फूलों के पेड़पौधे थे. हम इन्हें बाजू में छोड़ते हुए मकान के बरामदे पर स्थित दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे.

ममा से मिलने की अथाह उछाह में डूबते सूरज की सुरमई शाम ने अनिश्चित का जराजरा सा कंपन भर दिया था. मगर विश्वास का संबल भी साथ ही था.

आगे पढें- अब तक ममा बाहर आ गई थी. पूरे…

एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 2- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

मैं ममा की जिंदगी करीब से भोग रही थी. कहें तो भाई भी. शायद इसलिए उस में पिता की तरह न होने का संकल्प मजबूत हो रहा था.

लेकिन ममा? क्या मैं जानती नहीं रातें उस की कितनी भयावह होती होंगी जब वह अकेली अपनी यातनाओं को पलकों पर उठाए रात का लंबा सफ़र अकेली तय करती होगी.

इकोनौमिक्स में एमए कर के उस की शादी हुई थी. पति के रोबदाब और स्वेच्छाचारी स्वभाव के बावजूद जैसेतैसे उस ने डाक्ट्रेट की, नेट परीक्षा भी पास की जिस से कालेज में लैक्चरर हो सके. और तब. पलपल सब्र बोया है.

दुख मुझे इस बात का है कि इतना भी क्या सब्र बोना कि फसल जिल्लत की काटनी पड़े.

पापा चूंकि बेहद स्वार्थी किस्म के व्यक्ति हैं, ममा पर हमारी जिम्मेदारी पूरी की पूरी थी.

याद आती है सालों पुरानी बात. नानी बीमार थीं, ममा को हमें 2 दिनों के लिए पापा के पास छोड़ कर उन्हें मायके जाना पड़ा. तब भाई 6ठी और मैं 10वीं में थी. हमारी परीक्षाएं थीं, इसलिए हम ममा के साथ जा न पाए.

2 दिन हम भाईबहनों ने ठीक से खाना नहीं खाया. जैसेतैसे ब्रैडबिस्कुट से काम चलाते रहे. ममा को याद कर के हम एकएक मिनट गिना करते और पहाड़ सा समय गुजारते.

पापा होटल से अपनी पसंद का तीखी मसालेदार सब्जियां मंगाते जबकि हम दोनों मासूम बच्चों के होंठ और जीभ भरपेट खाना खाने की आस में जल कर भस्मीभूत हो जाते. आश्चर्य कि मेरे पापा हमारा बचा खाना भी खा लेते, लेकिन कभी पूछते भी नहीं कि हम ने फिर खाया क्या?

ममा हमारे लिए छिपा कर अलग खाना बनाती थी, ताकि पापा के लिए बना तीखा मसालेदार खाना हमें रोते हुए न खाना पड़े. शायद ममा जानती थी, बच्चों को अभी संतुष्ट हो कर भरपेट खाना खाना ज्यादा जरूरी है. और ऐसे भी ममा हमें खाना बनाना भी सिखाती चलती ताकि बाहर जा कर हमें दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े.

मैं बड़ी हो रही थी, मुझ में सहीगलत की परख थी. ताज्जुब होता था पापा के विचारों पर. वे मौकेबेमौके खुल कर कहते थे कि अगर उन के घर में रहना है तो किसी और की पसंद का कुछ भी नहीं चलेगा, सिवा उन की पसंद के.

इंसान एक टुकड़ा जमीन के लिए आधा इंच आसमान को कब तक भुलाए रहे?

उसे जीने को जमीन चाहिए तो सांस लेने को आसमान भी चाहिए.

भले ही हम छोटे थे, ममा के होंठ कई सारी मजबूरियों की वजह से सिले थे. लेकिन हम अपनी पीठ पर लगातार आत्महनन का बोझ महसूस करते. क्या मालूम क्यों पापा को ममा के साथ प्रतियोगिता महसूस होती. ममा की शिक्षा, उन के विचार और भाव से पापा खुद को कमतर आंकते, फिर शुरू होती पापा की चिढ़ और ताने. जब भी वह नौकरी के लिए छटपटाती, पापा उसे दबाते. जब चुप बैठी रहती, उसे अपनी अफसरी दिखा कर कमतर साबित करते. यह जैसे कभी न ख़त्म होने वाला नासूर बन गया था.

भाई अब 10वीं देने वाला था और मैं स्नातक द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने वाली थी. बहुत हुआ, और कितना सब्र करे. आखिर कहीं ममा की भी धार चूक न जाए.

आज जो कुछ हुआ वह एक लंबी उड़ान से पहले होना ही था. ममा को अब खुद की जमीन तलाश करनी ही होगी. तभी हमें भी अपना आसमान मिलेगा. मुझे अब ममा का इस तरह पैरोंतले रौंदा जाना कतई पसंद नहीं आ रहा था.

दूसरे दिन औफिस से आते वक्त पापा के साथ औफिस की एक कलीग थीं.

हम तो यथा संभव उस के साथ औपचारिक भद्रता निभाते रहे, लेकिन वे दोनों अपनी अतिअभद्रता के साथ ममा का मजाक बनाते रहे.

मेरे 48 वर्षीय पिता अचानक ही अब अपने सौंदर्य के प्रति अतियत्नवान हो गए थे. सफेद होती जा रही अपनी मूंछों को कभी रंगते, कभी सिर के बालों को. कुल मिला कर वयस्क होते जा रहे शरीर के साथ युद्ध लड़ रहे थे, ताकि ममा की जिंदगी में तूफान भर सकें.

मुझे और ममा को ले कर उन्हें एक असहनीय कुतूहल होता और हम अयाचित विपत्तियों के डर से बचने के लिए अपनी आंखें ही बंद कर लेते.

हम बच्चे ऐसे भी पापा से कतराने लगे थे, और पढ़ाई हो न हो, अपने कमरे में बंद ही रहते. रह जाती ममा, जिस की आंखों के सामने अब नित्य रासलीला चलती.

भाई मेरा चिंतित था. और मैं भी. यह घर नहीं, एक टूटती दीवार थी. हर कोई इस से दूर भागता है. और हम थे कि इसी टूटती दीवार को पकड़ कर गिरने से बचने का भ्रम पाले थे. करते भी क्या, यही तो अपना था न.

कहना ही पड़ता है, जिस पति के सान्निध्य में प्रेम और भरोसे की जगह गुलामी का एहसास हो, बिस्तर पर सुकून की नींद की जगह रात बीत जाने की छटपटाहट हो, उस स्त्री के जीवन में कितनी उदासी भर चुकी थी, यह कहने भर की बात नहीं थी.

मेरे पापा एक सरकारी मुलाजिम थे. ठीकठाक देखने में, अच्छी तनख्वाह, एक ढंग का पैतृक घर. उच्चशिक्षित सीधी सरल सुंदर पत्नी, 2 आज्ञाकारी बच्चे. इस के बावजूद पापा में क्या कमी थी कि हमेशा ममा को कमतर साबित कर के ही खुद को ऊंचा दिखाने का प्रयास करते रहते. हम सब के अंदर धुंएं की भठ्ठी भर चुकी थी.

पापा घर पर नहीं थे. ममा हमारे कमरे में आई, बोली, ‘मेरा एक दोस्त है भोपाल के कालेज में प्रिंसिपल. मैं उसे अपनी नौकरी के सिलसिले में मेल करना चाहती हूं. अगर तुम दोनों भाईबहन हिम्मत करो, तो मैं नौकरी के लिए कोशिश करूं. हां, हिम्मत तुम्हें ही करनी होगी. मैं इस घर में रह कर नौकरी कर नहीं पाऊंगी, तुम जानते हो. और बाहर गई, तो घर नहीं आ पाऊंगी.

‘क्या तुम दोनों अपनीअपनी परीक्षाएं होने तक यहां किसी तरह रह लोगे? जैसे ही तुम्हारी परीक्षाएं हो जाएंगी, मैं तुम दोनों को अपने पास बुला लूंगी. और कितना सहुं, कहो? यह तुम्हारे व्यक्तित्व पर भी बुरा प्रभाव डाल रहा है. मैं एक अच्छी गृहस्थी चाहती थी, प्यार और समानता से परिपूर्ण. मगर तुम्हारे पापा का मानसिक विकार यह घर तोड़ कर ही रहेगा. तुम दोनों अब बड़े हो चुके हो, विपरीत परिस्थिति की वजह से परिपक्व भी. इसलिए तुम जो कहोगे…?’

ममा ने सारी बातें एकसाथ हमारे सामने रखीं. फिर स्थिर आंखों से हमें देखने लगीं. कोई आग्रह या दबाव नहीं था. ममा की यही बातें उन्हें पापा से अलग ऊंचाई देती थीं.

भाई ने कहा- ‘मुझे तो लगता है हम अपनी जिंदगी में बदलाव खुद ही ला सकते हैं. अगर बैठे रहे तो कुछ भी नहीं बदलेगा. हम हमेशा यों ही दुखी ही रह जाएंगे.’

‘मुझे भी यही लगता है, भाई सही कह रहा है. तुम पापा के अनुसार ही तो चल रही हो, वे तब भी नाखुश हैं. और तो और, अपनी मनमरजी से ऐसी हरकत कर रहे हैं जिस से हम सभी परेशान हैं. भला यही होगा तुम नौकरी ढूंढ कर बाहर चली जाओ.’

 

एक सांकल सौ दरवाजे: भाग 1- सालों बाद क्या अजितेश पत्नी हेमांगी का कर पाया मान

19 साल की लड़की 43 साल की स्त्री को भला क्या समझेगी, ऐसा सोच कर मेरी समझ पर आप की कोई शंका पनप रही है तो पहले ही साफ कर दूं कि जिस स्त्री की चर्चा करने जा रही हूं, उस की यात्रा का एक अंश हूं मैं. उसी पूर्णता, उसी उम्मीद की किरण तक बढ़ती हुई, चलती हुई हेमांगी की बेटी हूं मैं.

43 साल की हेमांगी व्यक्तित्व में शांत, समझ की श्रेष्ठता में उज्ज्वल और कोमल है. वह विद्या और सांसारिक कर्तव्य दोनों में पारंगत है. तो, हो न. तब फिर क्यों भला मैं उस की महानता का बखान ले कर बैठी? यही न, इसलिए, कि 19 साल की उस की बेटी अपने जीवनराग में गहरी व अतृप्त आकांक्षाएं देख रही है, एक छटपटाहट देख रही है अपने जाबांज पंख में, जो कसे हैं प्रेम और कर्तव्य की बेजान शिला से. यह बेटी साक्षी है दरवाजे के पीछे खड़े हो कर उस के हजारों सपनों के राख हो कर झरते रहने की.

तो फिर, नहीं खोलूं मैं सांकल? नहीं दूं इस अग्निपंख को उड़ान का रास्ता?

आइए, समय के द्वार से हमारे जीवनदृश्य में प्रवेश करें, और साक्षी बनें मेरे विद्रोह की अग्निवीणा से गूंजते प्रेरणा के सप्तस्वरों के, साक्षी बनें मेरे छोटे भाई कुंदन के पितारूपी पुरुष से अपनी अलग सत्तानिर्माण के अंतर्द्वंद्व के, मां के चुनाव और पिता के असली चेहरे के.

हम मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के रामनगर कालोनी के पैतृक घर में रहते हैं. इस एकमंजिले मकान में 2 कमरे, एक सामान्य आकार का डाइनिंग हौल और एक ड्राइंगरूम है. बाहर छोटा सा बरामदा और 4र सीढ़ी नीचे उतर कर छोटेछोटे कुछ पौंधों के साथ बाहरी दरवाजे पर यह घर पूरा होता है.

48 साल के मेरे पापा अजितेश चौधरी सरकारी नौकरी में हैं. उन का बेटा कुंदन यानी मेरा भाई अभी 10वीं में है. मैं, कंकना, उन की बेटी, स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्रा. हम दोनों भाईबहनों का शारीरिक गठन, नैननक्श मां की तरह है. सधे हुए बदन पर स्वर्णवर्णी गेहुंएपन के साथ तीखे नैननक्श से छलकता सौम्य सारल्य. यह है हमारी मां हेमांगी. 43 की उम्र में जिस ने नियमित व्यायाम से 32 सा युवा शरीर बरकरार रखा है. हमेशा मृदु मुसकान से परिपूर्ण उस का चेहरा जैसे वे अपनी विद्वत्ता को विनम्रता से छिपाए रहती हो.

मेरी ममा हम दोनों भाईबहनों के लिए हमेशा खास रही. ममा को हम मात्र स्त्री के रूप में ही नहीं समझते बल्कि एक पूर्ण बौद्धिक व्यक्तित्व के रूप में.

सुबह 9 बजे का समय था. कालेज के लिए निकल रही थी मैं. घर में रोज की तरह कोलाहल का माहौल था.

पापा सरकारी कार्यालय में सहायक विकास अधिकारी थे. वे अपने बौस के अन्य 10 मातहतों के साथ उन के अधीन काम करते थे. लेकिन घर पर मेरी ममा पर उन का रोब किसी कलैक्टर से कम न था.

‘हेमा, टिफिन में देर है क्या? यार, घर पर और तो कुछ करती नहीं हो, एक यह भी नहीं हो रहा है, तो बता दो,’ पापा बैडरूम से ही चीख रहे थे.

‘दे दिया है टेबल पर,’ ममा ने बिना प्रतिक्रिया के सूचना दी.

‘दे दिया है, तो जबान पर ताले क्यों पड़े थे?’

‘चाय ला रही थी.’

‘लंचबौक्स भरा बैग में?’

‘रख रही हूं.’

‘सरकारी नौकरी है, समझ नहीं आता तुम्हें? यह कोई चूल्हाचौका नहीं है. मिनटमिनट का हिसाब देना पड़ता है.’

ममा टिफिन और पानी की बोतल औफिस के बैग में रख नियमानुसार पापा की कार भी पोंछ कर आ गई थी. और पापा टिफिन के लिए बैठे रहे थे.

यह रोज की कहानी थी, यह जतलाना कि मां की तुलना में पापा इस परिवार के ज्यादा महत्त्वपूर्ण सदस्य हैं. उन का काम ममा की तुलना में ज्यादा महत्त्व का है. यह दृश्य हमारे ऊपर विपरीत ही असर डालता था. इस बीच भाई और हम अपना टिफिन ले कर चोरों की तरह घर से निकल जाते.

रात को पापा की गालीगलौज से मेरी नींद उचट गई. रात 12 बजे की बात होगी. मैं शोर सुन ममा की चिंता में अपने कमरे के दरवाजे के बाहर आ कर खड़ी हो गई. ममा पापा के साथ बैडरूम में थी. ममा शांत लेकिन कुछ ऊंचे स्वर में कह रही थी- ‘आप के हाथपैर अब से मैं नहीं दबा पाऊंगी.

‘आप की करतूतों ने बरदाश्त की सारी हदें तोड़ दी हैं. आप की जिन किन्हीं लड़कियों और महिलाओं से संपर्क हैं, वे आप की कमजोरियों का फायदा उठा रही हैं. आप अपने औफिस की महिला कलीग को अश्लील वीडियो साझा करते थे, मैं ने सहा. किस स्त्री को क्या गिफ्ट दिया, बदले में आप को क्याक्या मिला, मैं ने अनदेखा किया और चुप रही. लेकिन अब आप सीमा से आगे निकल कर उन्हें घर तक लाने लगे हैं. क्या संदेश दे रहे हैं हमें? घर पर ला कर उन महिलाओं के साथ आप का व्यवहार कितना भौंडा होता है, क्या बच्चों से छिपा है यह?’

आज पहली बार ममा ने हिम्मत कर अपना विरोध दर्ज कराया था. पहली बार उस ने पापा के हुक्म को अमान्य कर के अपनी बात रखी थी. लेकिन यह इतना आसान नहीं था.परिणाम भयंकर होना ही था. मेरे पापा ऐसे व्यक्ति थे जो उन की गलती बताने वाले का बड़ा बुरा हश्र करते थे, और तब जब उन के कमरे में ममा का सोना उन की सेवा के लिए ही था.

झन से जिंदगी कांच की तरह टूट कर बिखर गई. आशा, भरोसा, उम्मीद का दर्पण चकनाचूर हो गया.

पापा ने ममा को जोरदार तमाचे मारे, ममा दर्द से बिलख कर उन्हें देख ही रही थी कि पापा ने ममा के पेट पर जोर का एक पैर जमाया. ममा ‘उफ़’ कह कर जमीन पर बैठ गई.

मैं जानती हूं यह दर्द उस के शरीर से ज्यादा मन पर था. आत्मसम्मान और आत्महनन की चोट वह नहीं सह पाती थी.

‘अब एक भी आवाज निकाली तो जबान खींच लूंगा. मैं कमाता हूं, तुम लोग मेरे पैसे पर ऐश करते हो, औकात है नौकरी कर के पैसे घर लाने की? जिस पर आश्रित हो, उसी को आंख दिखाती हो? जो मरजी होगी वह करूंगा मैं. अफसर हूं मैं. तुम क्या हो, एक नौकरी कर के दिखाओ तो समझूं.’

‘मेरी नौकरी पर पाबंदी तो आप ने ही लगा रखी है?’

‘अच्छा? नौकरी करना क्यों चाहती हो मालूम नहीं है जैसे मुझे. सब बहाने हैं गुलछर्रे उड़ाने के. तुम्हें लगता है नौकरी के बहाने मैं मौज करता हूं, तो तुम भी वही करोगी?’ पापा के पास जबरदस्त तर्क थे, जिसे सौफिस्ट लौजिक कहा जा सकता है. ग्रीक दर्शन में सौफिस्ट तार्किक वाले वे हुआ करते थे, जो निरर्थक और गलत बौद्धिक तर्कजाल से सामने वाले को बुरी तरह बेजबान कर देते थे.

 

दाग: भाग 3- माही ने 2 बच्चों के पिता के साथ अफेयर के क्यों किया?

 

बड़े बेटे ने देखा कि पापा और मैडम बातें कर रहे हैं, तो वह फुर्र से बाहर भाग गया.

‘‘अरे…रे…रे… अमृत…’’

माही कप रख हड़बड़ी में उसे पकड़ने के लिए दौड़ी कि अचानक उस का पैर फिसल गया.

वह गिरती उस से पहले ही चंदन ने उसे थाम लिया, ‘‘क्या मुहतरमा, मेरे ही घर में अपने हाथपैर तुड़वाने के इरादे हैं?’’ कह उस ने उसे पलंग पर बैठाया.

जब चंदन ने माही को थामा तो उस के दिल की धड़कनें जोरजोर से चलने लगी थीं. वह मुंह पर हाथ रख अपनेआप को नौर्मल करती हुई उस से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस के पैर की अनामिका उंगली में थोड़ी चोट लग गई थी, जिसे वह सहलाने लगी थी.

‘‘उंगली दर्द कर रही है क्या?’’ चंदन ने पूछा.

‘‘हां.’’

‘‘लाओ ठीक कर दूं,’’ चंदन ने उंगली पकड़ कर एक झटके में खींची. माही की हलकी चीख निकली और उंगली बजी.

‘‘लो ठीक हो गई. तुम्हारे चेहरे से ज्यादा खूबसूरत तुम्हारे पैर हैं. बिलकुल रुई की तरह नर्म और सफेद,’’ पंजे पर हाथ फेरते हुए चंदन ने कहा.

माही सिहर गई और कुछ बोल भी गई वह, ‘‘आप की भी तो छाती के ये कालेकाले घने बाल आसमान में छाए काले बादलों की तरह सलोने हैं.’’

जब उसे इस बात का एहसास हुआ कि वह गलत बोल गई तो मारे शर्म के पानीपानी हो गई. बोली, ‘‘सौरीसौरी. मैं ने गलत… गलत…’’

चंदन के लिए यह तारीफ मौन प्रेम निवेदन के लिए काफी थी. उस ने उसे चूम लिया. आग के सामने घी कब तक जमा रहता? पिघल गई माही. दोनों जानसमझ रहे थे कि यह गलत है, मगर दोनों के दिल बेकाबू थे और…

जब प्रेम के बादल छंटे तो दोनों को अपनीअपनी गलती का एहसास हुआ. माही होस्टल चली आई. पर मन में डर बुरी तरह समा गया कि यह उस ने क्या कर दिया.

उस ने बच्चों को पढ़ाना छोड़ दिया. रीता जब मायके से आई तो पूछा. उस ने तबीयत खराब होने का बहाना बना दिया.

चंदन अपनेआप को अपराधी मानने लगा था और माही पश्चात्ताप की आग में जलने लगी थी. रातरात भर जगी रह कर अपनी गलती को याद कर आंसू बहाती. उस ने मम्मीपापा के विश्वास को तोड़ दिया. छोटी बहनों पर इस का क्या असर होगा? यह बात जानने पर उस की कितनी बदनामी होगी.

‘‘मामीजी, प्लीज यह बात मेरे मम्मीडैडी…’’ माही ने रोते हुए मेरे हाथ पकड़ लिए.

‘‘तुम मुझ पर विश्वास रखो. तुम्हारी यह बात मुझ तक ही सीमित रहेगी. इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता. अभी कोई गड़बड़ वाली बात नहीं है न?’’ मैं आशंकित थी.

‘‘नहीं.’’

‘‘अब तुम इस बात को पूरी तरह से दिल से निकाल दो. हां, तुम ने बहुत बड़ी गलती की है, पर आगे से सचेत रहना नहीं तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. तुम जल्दी से अपने 2-4 कपड़े बैग में रख लो. मेरे घर चलो.’’

‘‘पर…’’

‘‘परवर कुछ नहीं. मैं वार्डन से तुम्हारी 4-5 दिन की छुट्टी ले कर आ रही हूं. कल तुम्हें ले कर एक जगह जाना भी है. आज देर हो गई है, इसलिए कल चलेंगे,’’ कह कर मैं नीचे चली आई.

वार्डन ने कोई आपत्ति नहीं की.

रास्ते में मैं ने माही से मना कर दिया कि वह कोई भी बात माधवी पल्लवी से नहीं कहेगी, क्योंकि तीनों बैस्ट फ्रैंड थीं. सारी बातें शेयर करती थीं. हम जैसे ही घर पहुंचे मेरे तीनों बच्चे माही को देख खुशी से उछल पड़े.

सब ने उस की तबीयत के बारे में पूछा. उस ने मेरी तरफ ताकते हुए पढ़ाई की टैंशन का बहाना बनाया.

लेकिन मेरे पति कुछ भांप गए थे. मैं ने झूठ को इतने सच की चाशनी में डाल कर उन के सामने परोसा कि उन्हें विश्वास करना ही पड़ा, ‘‘तुम ने माही को यहां ला कर बहुत अच्छा किया.’’

झूठ बोलने के लिए मैं ने मन ही मन पति से माफी मांगी. क्या करती माही की जिंदगी बचाने के लिए मैं एक क्या हजार झूठ बोलने के लिए तैयार थी.

फोन कर दीदी से उस की पढ़ाई का बोझ बता दिया. मेरा पूरा ध्यान उसी पर था. वह बच्चों से बातें करते हुए उदास हो जाती थी. उस की उदासी गई नहीं थी.

सत्यम उसे खींचते हुए अपने कमरे में ले गया ताकि वह उस के मैथ के सारे प्रश्नों को हल कर दे. उस से बातें करने में तीनों बच्चों को खाने की सुध नहीं थी. फिर वह माधवीपल्लवी के साथ सोने चली गई.

मेरा दिल बहुत भारी हो गया था. नींद की जगह मेरी आंखों में माही ही घूमती रही. उस के और चंदन के बारे में ही सोचती रही. आजकल क्या हो गया है हमारी इस युवा पीढ़ी को? कुछ सोचविचार नहीं और झट से…

कहीं न कहीं हम मांएं भी तो दोषी हैं, जो अपनी बेटियों के साथ खुल कर बात नहीं करतीं और समस्या खड़ी हो जाने पर समाधान ढूंढ़ती हैं.

 

मेरी भी तो 2 बेटियां हैं. उन से खुल कर उन के दोस्तों या दूसरे पुरुषों के बारे में पूछना ही पड़ेगा. शर्म और संकोच करूंगी तो शायद माही से भी बढ़ कर ये दोनों ज्यादा गलत कर बैठेंगी. पहले की अपेक्षा अब मुझे अपने बच्चों से बहुत गहरी दोस्ती रखनी पड़ेगी ताकि वे छोटी से छोटी बात भी मुझ से शेयर करें.

मुझे या दूसरों को माही पर हंसने की क्या जरूरत? यह कोई नहीं जानता कि भविष्य में किस पर कितना बड़ा दाग लगेगा?

सुबह तीनों बच्चे स्कूलकालेज जाने से मना करने लगे कि वे दिन भर माही के साथ मस्ती करेंगे. मगर मैं ने उन्हें समझाबुझा कर भेज दिया.

सब के जाने के बाद मैं ने माही से कहा, ‘‘बेटा, जल्दी से तैयार हो जा. हमें लेडी डाक्टर के पास चलना है.’’

‘‘लेडी डाक्टर… क्यों मामीजी…?’’ लगा कि उसे चक्कर आ जाएगा.

‘‘मैं ने कल तुम से कहीं चलने के लिए कहा था न? मैं तुम्हारी हंसतीखेलती जिंदगी को ले कर कोई रिस्क नहीं लेना चाहती.’’

लेडी डाक्टर ने उस की पूरी जांच कर कहा, ‘‘सविताजी, घबराने वाली कोई बात नहीं है. अकसर युवावस्था में माहवारी अनियमित हो जाती है. मैं दवा लिख देती हूं… सब ठीक हो जाएगा. आप की भानजी कुछ कमजोर भी है. थोड़ा इस के खानेपीने पर ध्यान दीजिए.’’

खुशी के मारे मैं ने उन्हें बारबार धन्यवाद कहा. मेरे मन की सारी कुशंका दूर हो गई थी, इसलिए मैं बहुत खुश थी.

रास्ते में मैं ने माही के पसंद के पर्स और जूते खरीदे. उसे होटल में खाना खिलाया. उस की मनपसंद चौकलेट, आइसक्रीम खिलाई. मैं उस बुरी घटना से उस का पीछा छुड़ाने का प्रयास कर रही थी. वह भी अब खुश लग रही थी. खूब सारी शौपिंग कर हम घर पहुंचे.

अचानक माही मेरे गले से झूल गई, ‘‘थैंक्स मामीजी, आप से कल से बात करने से ले कर अब तक मैं बहुत हलकी लग रही हूं.

‘‘सच अगर आप मुझ से डांटडपट कर बात पूछतीं तो मैं अपने दिल की गहरी बात आप से कभी नहीं बताती. मन ही मन घुटती रहती और पता नहीं खुद को कितना नुकसान पहुंचाती.

‘‘आप ने बहुत अच्छे से मुझे संभाल लिया. आज मैं तनावमुक्त महसूस कर रही हूं.

‘‘मगर कभीकभी मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा है या यों कहिए अभी भी मैं अपनेआप को बहुत बड़ा गुनहगार मान रही हूं…’’ कहतेकहते उस की आंखें नम हो आईं.

‘‘बेटा, तू ने गलती तो बहुत बड़ी की है, जो माफी के भी काबिल नहीं है, फिर भी तुम्हें उस गलती का एहसास है, पश्चात्ताप हो रहा है, यह बहुत बड़ी बात है.

‘‘हां, एक बात और. ठीक है, तुम्हारी नादानी से संबंध बन गया, मगर उसी बात को ले कर हरदम दुख के सागर में डूबे रहना उदासपरेशान रहना, यह गलत है. भविष्य में ऐसी गलती न हो, बस इतना ध्यान रखना.

‘‘संबंधों का जुड़ाव तन से न हो कर मन से होता है. पतिपत्नी का रिश्ता हो या प्रेमीप्रेमिका का उन का पहला रिश्ता मन की गहराई से होता है, भावनात्मक रूप से होता है.

‘‘तुम्हारा चंदन के साथ ऐसा कोई भी रिश्ता नहीं था, तो फिर उसी बात पर झींकते रहने से क्या फायदा?

‘‘बस, तुम जल्दी से इस मानसिक व्यथा से निकलो और पूरे तनमन से पढ़ाई में जुट जाओ. मुझे इतना तो विश्वास है कि अब आगे तुम से ऐसी गलती नहीं होगी,’’ कह मैं ने उस के गाल थपथपाए.

‘‘एक बार फिर आप को थैंक्स, मामीजी. मुझे इस भंवरजाल से बाहर निकालने के लिए,’’ कहते हुए वह मुझ से लिपट गई.

तभी उस का मोबाइल बजा.

‘‘हाय ममा, मेरी बीमारी तो मामीजी ने चुटकी बजाते ठीक कर दी…’’ प्यार से मेरी तरफ ताकते हुए माही की खनकदार हंसी पूरे घर में गूंज गई.

दाग: भाग 2- माही ने 2 बच्चों के पिता के साथ अफेयर के क्यों किया?

पर पता नहीं क्यों आज का माहौल कुछ बदलाबदला था. वह जवाब दे कर चुप हो जाती. लगता कहीं खो गई है. उसे देखने से ही पता चल रहा था कि हो न हो ऐसीवैसी जरूर कोई बात है, पर इस के दिल की बात जानूं कैसे, समझ में नहीं आ रहा था. तभी उस की रूमपार्टनर भारती आ गई.

‘‘मामीजी, इसे साथ ले जाइए. रात भर कमरे में टहलती रहती है. पूछने पर कहती है कि नींद नहीं आती. बेचैनी होती है. मैं ने ही इसे नींद की दवा खाने को कहा. ढंग से खाना नहीं खाती. पढ़नालिखना भी पूरी तरह से ठप कर बैठी है. लग रहा है इसे लवेरिया हो गया है,’’ कह भारती हंसी.

 

‘‘चुप भारती, जो मुंह में आ रहा है, बकती जा रही है,’’ माही का चेहरा तमतमा गया.

‘‘अरे, मुझ से नहीं कम से कम मामीजी से उस लवर का नाम बता दे ताकि इस लगन में ये तेरा बेड़ा पार करवा दें,’’ हंसते हुए भारती बैडमिंटन ले बाहर निकल गई. मैं मुसकरा पड़ी.

‘‘ईडियट कहीं की,’’ माही भुनभुनाई.

शायद यही बात हो. यह सोच कर मैं ने उस के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा, ‘‘कोई लड़का है तो बोलो. मैं दीदी से बात करूंगी.’’

‘‘कोई नहीं है,’’ उस ने हाथ खींच लिए.

मैं ने उस की ठुड्डी ऊपर उठाई, ‘‘सचसच बता आखिर बात क्या है? मैं तुम्हारी मामी हूं. कोई बात तेरे दिल में घर कर गई है, इसलिए तू नींद की गोलियां खाती है. बता क्या बात है? मुझ पर विश्वास कर मैं तेरी हर बात अपने दिल में दफन कर लूंगी. तू मुझे दोस्त मानती है न… बता मेरी बेटी, तू ने कोई गलती की है, जो आज तेरी यह हालत हो गई है? देख, कहने से दुख हलका होता है. शायद मैं तेरी कुछ मदद करूं. बता न प्यारव्यार का चक्कर है या कोई होस्टल की प्रौब्लम…’’ मैं 10-15 मिनट तक यही दोहराती रही ताकि वह अपने दिल की बात बता दे.

फिर भी माही कुछ नहीं बोली तो मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया, ‘‘जब तू मुझे कुछ बताएगी नहीं तो ठीक है मैं जा रही हूं. तुम्हें मुझ पर विश्वास ही नहीं, तो मैं चली,’’ कह कर मैं उठ गई.

‘‘मामी…’’ माही ने सिर उठा कर कहा. उस की आंखों में आंसू तैर रहे थे. आंसू देख मैं घबरा गई. मगर उस की जबान खुलवाने के लिए बोली, ‘‘मैं जा रही हूं…’’ कह फिर आगे बढ़ी.

वह उठ कर मुझ से लिपट गई और बिलखबिलख कर रोने लगी, ‘‘मुझ से एक गलती हो गई है…’’

‘‘कैसी गलती?’’

‘‘एक आदमी से संबंध…’’

लगा कि मैं चक्कर खा कर गिर पड़ूंगी. मेरा दिमाग एक क्षण के लिए सन्न हो गया. हाथपांव कांपने लगे कि यह इस ने क्या कर दिया. मैं ने सोचा था किसी लड़के से प्यार होगा, पर यहां तो… मैं खुद अपनेआप को संभाल नहीं पा रही थी. मुझे माही पर हद से ज्यादा गुस्सा आ रहा था, पर उसे काबू में कर उस से सारी सचाई जानना मैं ने जरूरी समझा.

उसे पलंग पर बैठा मैं खुद भी बैठ गई. वह फूटफूट कर रो रही थी. मैं ने सोचा अगर मैं अभी इसे बुराभला कहूंगी तो हो सके मेरे जाने के बाद यह कहीं गले में फंदा डाल फांसी पर न लटक जाए या होस्टल की छत से ही कूछ जाए. अत: मैं ने उस से सारी बातें कोमलता से पूछीं.

माही ने बताया कि वह अकसर होस्टल की बगल में चंदन स्टेशनरी में फोटो कौपी कराने जाती थी. नोट्स या सर्टिफिकेट को हमेशा फोटोस्टेट कराने की जरूरत पड़ती ही रहती. होस्टल की सारी लड़कियां उसी दुकान पर जातीं. स्टेशनरी और फोटोस्टेट के साथसाथ मेल, कुरियर, बूथ और स्टूडियो को मिला कर 4-5 बिजनैस एक ही में थे.

मालिक चंदन के घर में ही दुकान थी. उस ने एक नौकर रखा था. चंदन की पत्नी रीता भी दुकान देखती.

रोज आतेजाते सभी लड़कियों के साथ माही की भी दोस्ती रीता और चंदन से हो गई थी. कभीकभी रीता उसे चायनाश्ता भी करा देती. उस के 4 और 6 साल के 2 बेटे थे. जिन्हें ट्यूशन पढ़ाने के लिए वह एक अच्छा टीचर ढूंढ़ रही थी.

रीता ने भारती से बात की. पढ़ाई से शाम को जो भी 1-2 घंटे फुरसत के मिलते थे उन्हें भारती बच्चों को पढ़ा कर अपनी उछलकूद बंद नहीं करना चाहती थी. अत: उस ने माही को राजी किया. उसे बच्चों को पढ़ाने का शौक था. वह पढ़ाने लगी. रीता और चंदन से हंसीमजाक होता. बच्चों को पढ़ाने के कारण उस में और इजाफा हुआ.

चंदन था तो 2 बच्चों का पिता, मगर वह बिलकुल नौजवान और हैंडसम लगता था. माही भी 20-21 साल की यौवन की दहलीज पर खड़ी छरहरे बदन की खूबसूरत लड़की थी. माही जब बच्चों को पढ़ाती या चंदन ग्राहकों के बीच रहता तो दोनों एकदूसरे को चोर निगाहों से देख लेते.

दोनों अपनी उम्र और स्थितियों से अवगत थे, मगर फिर भी विपरीत लिंगी आकर्षण की तरफ बढ़ चुके थे.

एक दिन अचानक रीता के पास फोन आया कि उस की मां की तबीयत बहुत खराब है. हौस्पिटल में ऐडमिट हैं. वह घबराई सी छोटे बेटे को ले कर अकेले ही मायके चली गई.

शहर के एक विधायक के बच्चे का किसी ने अपहरण कर लिया था. फिर क्या था? उस के चमचों ने शहर की सभी दुकानों को बंद करवा दिया और जलूस निकाल कर अपहरणकर्ताओं को पकड़ने के लिए पुलिस से उलझ पड़े.

चंदन अपनी दुकान बंद कर घर के कामों में जुट गया. रीता रसोई और कपड़ेलत्ते बिखेर गई थी. वह उन्हें समेटने लगा.

शाम को माही बच्चों को पढ़ाने आई. उस ने दुकान बंद होने का कारण पूछा. छोटे भाई के नानी गांव जाने पर बड़ा भाई पढ़ना नहीं चाहता था. माही किसी तरह उसे पढ़ा रही थी.

बनियान और लुंगी पहने चंदन चाय ले कर आया, ‘‘लो माही, चाय पीयो.’’

‘‘दीदी कब आएंगी?’’ कप लेते हुए माही की उंगलियां चंदन से छू गईं. दिल धड़क गया उस का.

‘‘कलपरसों तक आ जाएगी,’’ चंदन वहीं बैठ कर खुद भी चाय पीने लगा.

‘‘चाय बहुत अच्छी है,’’ माही मुसकराई.

‘‘शुक्र है आप जैसी मैडम को मेरी बनाई चाय अच्छी लगी, नहीं तो…’’ चंदन हंसा.

दाग: भाग 1- माही ने 2 बच्चों के पिता के साथ अफेयर के क्यों किया?

सुबह सुबह मेरा 2 कमरों वाला घर कचरे का ढेर दिखता है. पति को औफिस, बेटे को स्कूल और दोनों बेटियों को कालेज जाने की हड़बड़ी रहती है, इसलिए वे सारे सामान को जैसेतैसे फेंक कर चले जाते हैं. उन के जाने के बाद मैं घर की साफसफाई करती हूं. रात में खाई मूंगफली के छिलकों को उठा कर डस्टबिन में डालने जा ही रही थी कि मेरा मोबाइल बज उठा. सुबहसुबह घर के इतने सारे काम ऊपर से ये मोबाइल कंपनी वाले लेटैस्ट गानों की सुविधाओं के साथ फोन करकर के परेशान कर देते हैं. मैं ने थोड़े गुस्से से फोन पर नजर डाली, तो गुस्सा जले कपूर की तरह उड़ गया. फोन बड़ी ननद का था. मन में थोड़ा डर समा गया कि क्या बात हो गई, जो दीदी ने इतनी सुबह फोन किया? वे ज्यादातर फोन दोपहर में करतीं.

‘‘हां, प्रणाम दीदी, सब ठीक तो है?’’

‘‘नहीं कविता, कुछ ठीक नहीं है.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ मैं घबरा गई कि कोई बुरी खबर न सुनने को मिले, क्योंकि ज्यादातर दिल दहला देने वाली खबरें सुबह ही मालूम पड़ती हैं.

खैर, दीदी बताने लगीं, ‘‘देखो न कविता, माही की तबीयत खराब है. उस की सहेली बता रही थी कि वह रातरात भर जगी रहती है. पूछने पर कहती है कि उसे नींद नहीं आती. बेचैनी होती है.’’

‘‘उसे कब से ऐसा हो रहा है?’’

‘‘2-3 महीनों से,’’ दीदी सुबक पड़ीं.

‘‘अरे दीदी, आप रोती क्यों हैं? मैं हूं न. मैं आज उस से मिल लूंगी,’’ कह मैं ने घड़ी देखी. 9 बज रहे थे, ‘‘अब तो वह कालेज चली गई होगी. आप चिंता न कीजिए. शाम को उस से मिल कर मैं आप को फोन करूंगी. चायनाश्ता किया आप ने?’’

‘‘नहीं…’’

‘‘अभी तक आप भूखी हैं? जाइए, नाश्ता कीजिए. मैं भी सारे काम कर के नहाने जा रही हूं. टैंशन न लीजिए,’’ कह मैं ने फोन बंद कर दिया.

घर के काम करने के साथ माही मेरे दिमाग में घूमने लगी. अच्छीभली लड़की को यह क्या हो गया? हमारे सभी रिश्तेदारों के बच्चों में वह सब से तेजतर्रार है. पढ़नेलिखने, खेलकूद सब में अव्वल. अभी वह इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में है. हमेशा अपने बेटे और दोनों बेटियों को उस से कुछ सीख लेने की बात कहती हूं, पर वे तीनों बहरे हो जाते हैं. मैं फालतू में उन पर हर महीने 8-10 हजार रुपए खर्च करती हूं.

दोपहर में चावलदाल बना कर सत्तू की पूरियां और चने की सब्जी बनाई ताकि माही भी खा ले. उसे सत्तू की पूरियां बहुत पसंद हैं. होस्टल में ये सब कहां मिलता है. मैं ने फोन कर के उसे अपने आने का प्रोग्राम नहीं बताया. एक तरह से उसे सरप्राइज देना था. घर बंद कर के चाबी बगल वाली आंटी को दे दी. पति और बच्चों के पास फोन कर दिया.

होस्टल शहर से 27-28 किलोमीटर दूर है. वहां जाने में 2 बसें बदलनी पड़ती

हैं. बस के भरने में घंटों लग जाते हैं. यही कारण था कि मैं माही से मिलने जल्दी नहीं जाती थी.

करीब 4 बजे मैं होस्टल पहुंची. लड़कियां ट्यूशन के लिए जा रही थीं.

‘‘नमस्ते मामीजी,’’ माही की सहेली भारती मुसकराई.

‘‘खुश रहो बेटा, माही कहां है?’’

‘‘अपने कमरे में.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर मैं वार्डन रमा के कैबिन में चली गई.

रजिस्टर में साइन कर सीढि़यां चढ़ माही के कमरे में दाखिल हुई. देखा लाइट बंद थी. वह छत पर टकटकी लगाए पलंग पर लेटी थी. मैं दबे पांव पीछे से उस के पास गई और उस की आंखों को अपने हाथों से ढक दिया.

‘‘कौन है?’’ वह हड़बड़ाई.

‘‘पहचानो…’’

‘‘अरे, मामीजी आप…’’ आवाज पहचान कर उस के सूखे अधरों पर मुसकान फैल गई. उस ने लाइट जलाई.

मैं पलंग पर बैठ गई. मेरे हाथों में उस के आंसू लग गए थे, ‘‘रो रही थी क्या?’’

‘‘नहीं तो?’’ उस ने आंखें पोंछ लीं.

मैं ने उसे ध्यान से देखा. सूखे फूल की तरह मुरझा गई थी वह. आंखें लाल थीं. बाल भी बिखरे थे.

‘‘क्या हो गया है तुम्हें? बिलकुल मरियल दिख रही हो. सुबह में दीदी मतलब तुम्हारी मम्मी का फोन आया कि तुम्हारी तबीयत खराब है. तुम मेरे पास चली आती या अपने घर चली जाती. डाक्टर को दिखाया? क्या बोला? दवा ले रही हो?’’ एक ही बार में मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी.

‘‘अरे मामी, मैं ठीक हूं. आप परेशान न होइए. रुकिए, आप के लिए चाय लाती हूं,’’ माही अपने हलके भूरे बालों को समेटते हुए पलंग से उतरने लगी.

‘‘मैं चाय पी कर आई हूं. कहीं मत जा. तुम्हारे लिए सत्तू की पूरियां लाई हूं. खा लो,’’ मैं ने उसे लंचबौक्स पकड़ाया. यह सोच कर कि अभी वह खा लेगी. जैसे पहले मेरे सामने ही निकाल कर खाती और मेरी तारीफ करती कि मामीजी, आप कितना अच्छा खाना बनाती हैं. साथ में यह फरमाइश भी करती कि अगली बार गुझिया लाना. मैं भी उस की फरमाइश पूरी करती.

पर यह क्या, बाद में खा लूंगी कह कर उस ने लंचबौक्स बगल के स्टूल पर रख दिया. लंचबौक्स रखते हुए एक किताब नीचे गिर गई. किताब के अंदर रखी दवा फर्श पर बिखर गई. मैं ने उसे झट से उठा लिया, ‘‘यह तो नींद की दवा है. क्या तुम्हें नींद नहीं आती?’’ मैं ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा.

वह नजरें नहीं मिला पाई, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. आप बैठिए न. मैं चाय ले कर आ रही हूं.’’

‘‘तुम पीओगी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तो बस, मेरे पास बैठो. मुझे जल्दी निकलना होगा. पढ़ाईलिखाई कैसी चल रही है?’’

‘‘कुछ खास नहीं.’’

पता नहीं क्यों माही मुझ से नजरें मिला कर बातें नहीं कर रही थी. मैं जब इस से पहले मिलने आती थी, तो चहक कर मुझ से मिलती. एक दोस्त की तरह होस्टल और सहेलियों की हर छोटीबड़ी बातें मुझ से शेयर करती. शुरू से ही यह मेरे करीब रही है और मैं भी इसे उतना ही प्यार करती हूं.

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सही पकड़े हैं: भाग 3- कामवाली रत्ना पर क्यों सुशीला की आंखें लगी थीं

रत्ना उन की हालत देख कर हंसने लगी, ‘‘ठीक है, नहीं कहूंगी बाबूजी, पर एक शर्त है, अम्माजी को तो आप समझाओ कैसे भी कर के, हर वक्त वे मेरे पीछे पड़ी रहती हैं.’’ ‘‘तू चिंता मत कर उस का बंदोबस्त हो जाएगा.’’

उन के दिमाग में शरारती योजना घूम ही रही थी पर अब बच्चों को नहीं शामिल कर सकते, बच्चे तो सब को ही बता देंगे. फिर मैं सुशीला बहन को ब्लैकमेल कैसे कर पाऊंगा कि रत्ना को इन से बचा सकूं और रत्ना से अपने को. वरना तरुण, अदिति, तारा सब तक मेरी बात पहुंच गई तो मेरा जीना मुहाल हो जाएगा. सिर्फ परहेजी खाना, उफ्फ… क्यों बढि़याबढि़या मिठाईरबड़ी न खाऊं, मरे हुए सा सौ साल जियूं इसलिए… तो जीने का फायदा क्या?’ मनपसंद चीजों का दिमाग में खुला इंसायक्लोपीडिया देशी घी के बेसन के लड्डू, चमचम, रसमलाई… उन्हें बेचैन किए जा रहा था.

‘कुछ भी हो, सुशीला बहन को मुझे जल्दी, अकेले ही रंगेहाथ पकड़ना होगा. वरना रत्ना, बहनजी से तंग आ कर सब को मेरा सच बता देगी और मैं सूक्ष्म फलाहारी, परहेजी बाबा बन कर कहीं का नहीं रहूंगा.’ दिन में खाने के बाद एक घंटे बच्चों का सोने का टाइम और रात के खाने के बाद 9 बजे के बाद का समय, जब सुशीला बहन सब से नजरें बचा, अपना मिर्चखटाईर् का शौक पूरा करती होंगी क्योंकि नाश्ता भले ही साथ कर लेती हैं पर आदत का बहाना बता कर रात के खाने का अपना अलग ही टाइम बना रखा है, तभी पकड़ता हूं. अपने को बचाने का यही एक चारा है,’ तेजप्रकाश दिमाग की धार तेज किए जा रहे थे. आखिरकार दूसरे दिन ही सुशीला जैसे ही अपना खाना परोस कर कमरे में ले गईं, तेजप्रकाश दबेपांव उन के पीछे हो लिए. सुशीला ने पास पड़े स्टूल पर अपना खाना, पानी रखा, दरवाजा भेड़ा और परदा खींच कर तसल्ली से बैग का लौक खोल कर पसंदीदा लालमिर्च का अचार बड़े प्रेम से निकाला और साथ में चटपटी पकी इमली भी. प्लेट में नमक के ऊपर सजी बड़ीबड़ी 2 हरीमिर्चें देख परदे के पीछे खड़े तेजप्रकाश के मुंह से सीसी निकल रही थी, उस पर से यह और कि कैसे खा पाती हैं ये सब.’

सुशीला के खाना शुरू करते ही तेजप्रकाश सामने आ गए, ‘‘सही पकड़े हैं बहनजी, इतना सारा मिर्चखटाई. अदिति सही कहती है इतना मना है आप को पर चुपकेचुपके… बहुत गलत बात है.’’ वे उन का तकियाकलाम बोल कर उन्हीं के अंदाज में आंखें नचा रहे थे. सुशीला उन्हें सामने पा घबरा कर कातर हो उठीं. लिहाजन, तेजप्रकाश उन के कमरे में कभी वैसे आते न थे.

‘‘अअआप भाईसाहब, यहां, कैसे, बब…बैठिए. प्लीज, अदिति को कुछ मत कहिएगा,’’ वे खिसियाई सी बोलीं. ‘‘सही तो नहीं, पर इस उम्र में मन का खाएगा नहीं, तो आदमी करे क्या?’’

इस बात पर सुशीला थोड़ी हैरान हुईं, फिर सहज हो कर मुसकराती हुई बोलीं, ‘‘आप भी ऐसा ही मानते हैं. मैं तो घबरा ही गई थी. आप प्लीज, बताना नहीं किसी को.’’ ‘‘ठीक है, नहीं बोलूंगा, पर एक शर्त है. आप भी मेरे बारे में नहीं कहेंगी किसी से.’’

‘‘पर क्या?’’ वे सोच में पड़ गईं, ऐसा क्या है जो… ‘‘दरअसल, वह जो आप मलाई, मिठाई, चाय, चीनी सब के गायब होने के पीछे रत्ना को कारण समझती हैं, वह रत्ना नहीं, बल्कि मैं हूं.’’

‘‘क्या?’’ सुशीला का मुंह खुला रह गया. फिर वे मुंह दबा कर हंसने लगीं. ‘‘तारा, तरुण, अदिति सब मेरी जान खा जाएंगे, प्लीज.’’

‘‘फिर ठीक.’’ वे चटखारे ले कर अपना खाना खाने लगीं. ‘‘आप खाओगे?’’

‘‘नहीं बहनजी, आप मजे लो, मैं रसोई में जा कर अपनी तलब पूरी करता हूं, खौला कर स्ट्रौंग चाय बनाता हूं.’’ ‘‘इस समय?’’

‘‘आप पियोगी, बहुत बढि़या पकाने वाली मसालेदार मीठी कड़क?’’ उन के चेहरे पर राहत की मुसकान थी. ‘‘अरे नहीं, आप ही मजे लो,’’ कहती हुई उन्होंने लालमिर्च, अचार मुंह में भर लिया और हंसने लगीं.

‘‘यह भी खूब रही. और हां, बच्चों को जो चोर पकड़ने के लिए लगाया है, मना कर देना.’’ मुसकराते हुए तेजप्रकाश राहत से रसोई की ओर बढ़ गए. सोचते जा रहे थे कि ‘मैं भी कल बच्चों को कोई कहानी बना कर बहनजी को पकड़ने से मना कर दूंगा.’

इधर आंखें बंद किए बंटू और मिंकू दादू की स्टोरी से आज सो नहीं पाए थे. दादू उन्हें सोया जान कर अपने रूम में चले गए. काफी देर तक यों ही पड़े रहे. खट से हलकी सी आवाज क्या हुई, आंखें खोल कर दोनों ने एकदूसरे को कोहनी मारी. ‘‘उठ न, नींद नहीं आ रही. कोई है, लगता है.’’

‘‘हां, दादू की कहानी आज बहुत शौर्ट थी.’’ ‘‘दादू तो सोने गए, अब क्या करें?’’

‘‘सब सो गए हैं लगता है, रसोई में छोटी लाइट जल रही है. चल चोर को पकड़ते हैं.’’ दोनों पलंग से उतर कर अपनीअपनी टौयगन थाम लीं और सधे कदमों से कहतेफुसफुसाते हुए नन्हे जासूस मिशन पर चल पड़े. ‘‘तू इधर से जा बंटू, मैं उधर से, अकेला डरेगा तो नहीं?’’

‘‘बिलकुल भी नहीं.’’ ‘‘अच्छा, तो यह मम्मी का स्टौल पकड़, अगर चोरी करते कोई दिखे, पीठ पर गन लगाना और झट से स्टौल में फंसा कर चिल्लाना. सही पकड़े हैं नानी के जैसे. खूब मजा आएगा.’’

‘‘रात के एक बज रहे थे. ताली मार कर दोनों अलगअलग दिशाओं में चल पड़े.

तेजप्रकाश और सुशीला स्वाद व खुशबू का पूरा मजा ले भी न पाए कि बच्चों ने अलगअलग पर लगभग एकसाथ उन्हें धर पकड़ा और खुशी से चिल्लाए, ‘‘सही पकड़े हैं दादू…, पापा…, मम्मी…सही पकड़े हैं नानी…, मम्मी… पापा…, सब जल्दी आओ.’’

घबराए से तेजप्रकाश किचन में मलाई की चोरी बयान करती अपनी मूंछों के साथ खौलती मसालेदार कड़क चाय को देख रहे थे तो कभी सामने गुस्से में खड़े तरुण को और सुशीला अपने खुले हुए बैग से झांकती लालमिर्च, अचार और मसालेदार इमली की खुली शीशियों को, तो कभी आगबबूला हुई नजरों से उन्हें देखती अदिति को देख कर नजरें चुरा रही थीं. ‘‘अदिति, देखो अपने लाड़ले पापाजी क्या कर रहे हैं, बड़ा विश्वास है न तुम्हें इन पर?’’

‘‘शांत हो जाओ तरु, आगे से ऐसा नहीं होगा.’’ ‘‘और तुम अपनी चहेती मम्मीजी को देखो, डाक्टर ने सख्त मना किया है पर मानना ही नहीं, बच्ची बनी हुई हैं, मुझ से छिपा कर रखा था, छिपा कर, देखो ये…’’ वह एक हाथ में शीशी दूसरे से मम्मीजी को थामे रसोई में आ गई.

‘‘अदिति, सुन तो, अब ऐसा नहीं होगा.’’ तेजप्रकाश और सुशीला के हाथ बरबस अपनेअपने कानों तक चले गए, ‘‘देखो, इस बार हम सही पकड़े हैं… पर अपनेअपने कान…’’ सुशीला ने गोलगोल आंखें नचा कर कुछ यों कहा कि तरुण, अदिति की हंसी छूट गई.

‘‘कोई हमें भी तो बताए क्या हुआ,’’ दादी तारा की आवाज सुन बंटू, मिंकू भागे कि उन्हें कौन पहले बताएगा कि आज वे कैसे दादू, नानी की चोरी सही पकड़े हैं.

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