मेरी जीवनसाथी- भाग 1: नवीन का क्या था सच

घड़ी ने टिकटिक कर के 2 का घंटा बजाया. आरामकुरसी पर पसरी मैं शून्य में देखती ही रहती यदि घड़ी की आवाज ने मुझे चौंकाया न होता. उठ कर नवीन के पास आई. बरसों पुराना वही तरीका, पुस्तक अधखुली सीने पर पड़ी हुई और चश्मा आंखों पर लगा हुआ.

चश्मा उतार कर सिरहाने रखा. पुस्तक बंद कर के रैक में लगाई और लैंप बुझा कर बाहर आ गई. अब तो यह प्रतिदिन की आदत सी हो गई है. जिस दिन बिना दवा खाए नींद आ जाती, वह चमत्कारिक दिन होता.

बालकनी में खड़ी मैं अपने बगीचे और लौन को देखती रही. अंदर आ कर फिर कुरसी पर पसर गई. घड़ी की टिकटिक हर बार मुझे एहसास करा रही थी कि इस पूरे घर में इस समय वही एकमात्र मेरी सहचरी और संगिनी है.

बड़ी सी कोठी, 2-2 गाडि़यां, भौतिक सुविधाओं से भरापूरा घर, समझदार पति और 2 खूबसूरत होनहार बेटे, एक नेवी में इंजीनियर, दूसरा पायलट. ऐसे में मु झे बेहद सुखी होना चाहिए लेकिन स्थिति इस के बिलकुल विपरीत है.

घड़ी की टिकटिक मेरी सहचरी है और मेरे अतीत की साक्षी भी. मेरा अतीत, जो समय की चादर से लिपटा था, आज फिर खुलता गया.

तब पूरा शहर ही नहीं, समूचा देश हिंसा की आग में जल रहा था. 2 संप्रदायों के लोग एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे. बहूबेटियों की इज्जत लूट कर उन्हें गाजरमूली की तरह काटा जा रहा था. चारों तरफ सांप्रदायिकता की आग नफरत और हिंसा की चिनगारियां उगल रही थी.

हमारा घर मुसलमानों के महल्ले के बीच अकेला था. सांप्रदायिक हिंसा की लपटें फैलते ही लोगों की आंखें हमारे घर की तरफ उठ गई थीं.

एक रात मैं, अम्मा और बाबूजी ठंडे चूल्हे के पास बैठे सांस रोके बाहर का शोरशराबा सुन रहे थे. अचानक पीछे का दरवाजा किसी ने खटखटाया. अम्मा ने मुझे अपने सीने से चिपटा कर बाबूजी से कहा था, ‘नहीं, मत खोलना. पहले मैं इसे जहर दे दूं.’

तभी बाहर से रहीम चाचा की आवाज आई थी, ‘संपत भैया, मैं हूं रहीम. दरवाजा खोलो.’ सांस रोके हम खड़े रहे. बाबूजी ने दरवाजा खोला तो रहीम चाचा ने  झटपट मेरा और अम्मा का हाथ थामा, ‘चलो भाभी, मेरे घर. अब यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. इंसानियत पर हैवानियत का कब्जा हो गया है. चलो.’

जेवर, पैसा, कपड़े सब छोड़ कर हम रहीम चाचा के घर आ गए. पूरा दिन हम वहां एक कमरे में छिप कर बैठे रहे. लोग पूछपूछ कर लौट गए पर रहीम चाचाजी और फरजाना ने जबान नहीं खोली.

तीसरे दिन रहीम चाचा ने बाबूजी को 3 टिकट दिल्ली के पकड़ाए थे, ‘सुबह 4 बजे टे्रन जाती है. बाहर गाड़ी खड़ी है. तुम लोग चले जाओ, रात का सन्नाटा है. बड़ी मुश्किल से टिकट और गाड़ी का इंतजाम हो सका है.’

एक अटैची पकड़ाते हुए चाची ने कहा था, ‘इस में थोड़े पैसे और कपड़े हैं. माहौल ठंडा पड़ते ही तुम वापस आ जाना. हम हैं न.’

उस समय मैं फरजाना से, अम्मा चाची से और बाबूजी रहीम चाचा से मिल कर कितना रोए थे. होली, ईद संगसंग मनाने वाला महल्ला कितना बेगाना हो गया था हमारे लिए.

टे्रन में बैठने के बाद अम्मा ने राहत की सांस ली थी. बाबूजी ने बेबसी से शहर को निहारा था.

टे्रन अभी जालंधर ही पहुंची थी कि अचानक बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा. खामोशी से सबकुछ सहते बाबूजी को देख मैं ने सोचा था, सबकुछ सामान्य है पर यह हादसा उन्हें घुन की तरह खा रहा था. लगीलगाई दुकान, मकान और जोड़ा हुआ बेटी के लिए ढेरों दहेज…सब छोड़ कर आना उन्हें तोड़ कर रख गया.

चलती हुई ट्रेन में हम करते भी क्या? तभी सामने बैठे एक सज्जन ने हमें ढाढ़स बंधाया था, ‘देखिए, मैं डाक्टर हूं. आप इन्हें यहीं उतार लें, आगे तक जाना इन की जान के लिए खतरनाक हो सकता है.’

‘आप…’

‘हां, मैं, यहीं सैनिक अस्पताल में डाक्टर हूं.’

मैं ने अम्मा की तरफ देखा और उन्होंने मेरी तरफ. उस समय 17 वर्षीया मैं अपने को बहुत बड़ी समझने लगी थी.

अस्पताल में नवीन नाम के उस डाक्टर ने हमारी बड़ी मदद की. बाबूजी को सघन चिकित्सा कक्ष में रखा. हमें भी वहीं रहने का स्थान मिल गया. मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया.

एक हफ्ते के अंदर ही नवीन ने एक कमरा दिलवा दिया जिस में एक अटैची के साथ हम सब को गृहस्थी शुरू करनी थी. थोड़े से बरतन, चूल्हा और राशन नवीन ने भिजवाए थे. मना करने पर कहा था उन्होंने, ‘मुफ्त में नहीं दे रहा हूं. बाबूजी ठीक हो जाएंगे तो उन्हें नौकरी दिलवा दूंगा.’

एक दिन बाबूजी को मैं देखने गई. वे ठीक लगे. मैं उन्हें घर ले जाना चाहती थी पर डा. नवीन उस समय ड्यूटी पर नहीं थे. घर पास ही था, पता पूछ कर जब मैं उन के घर पहुंची तो वहां गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था.

नौकर ने बताया था, ‘डाक्टर साहब स्टेशन गए हैं, अपने बेटे को लेने. वह शिमला में पढ़ता है. छुट्टियों में आ रहा है.’

डाक्टर साहब की पत्नी कहां हैं, पूछने से पूर्व मेरी दृष्टि फ्रेम में जड़ी एक तसवीर पर चली गई. सुहागन स्त्री की तसवीर जिस पर फूलों की माला पड़ी थी. बगल में ही डा. नवीन की भी फोटो रखी थी.

नौकर की खामोशी मुझे नवीन की उदासी समझा गई. उस दिन पहली बार नवीन के प्रति एक सहानुभूति की लहर ने मेरे अंदर जन्म लिया था.

2-4 दिनों के बाद ही बाबूजी घर आ गए. मैं ने 2 बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. खुद 11वीं तक पढ़ी थी. कुछ पैसे आने लगे. मां ने अचार, बडि़यां, पापड़ और मसाले बनाने का काम शुरू किया.

बाबूजी दुकानदारी के साथ प्रैस के काम का भी अनुभव रखते थे. इसलिए नवीन ने उन्हें एक प्रैस में छपाई का काम दिलवा दिया. फिर तो डुगडुग करती हमारी गृहस्थी चल निकली.

एक दिन एक खूबसूरत युवक हमारे घर का पता पूछता आ गया. उसे बाबूजी से काम था, लेकिन मु झे देखते ही बोला, ‘आप संगीता हैं न?’

‘हां, पर आप?’

‘मैं चंदन हूं, नवीन भैया का छोटा भाई.’

‘ओह, नमस्ते,’ मैं ने नजरें नीची कर के कहा तो वह मुसकरा दिया. उस की वह मुसकराहट मुझे अंदर तक छू गई. नवीन के लिए एक बार मेरे मन में सहानुभूति की लहर उठी थी, पर दिल कभी नहीं धड़का था. किंतु आज चंदन की काली आंखों के आकर्षण से न केवल मेरा दिल धड़कने लगा, बल्कि मैं स्वयं मोम सी पिघलने लगी.

नवीन दूसरे दिन आ कर हमें निमंत्रणपत्र दे गए थे. चंदन ने डाक्टरी पूरी कर ली थी. उन के बेटे मोहित का जन्मदिन भी था. उन दोनों की खुशी में वे एक पार्टी दे रहे थे.

फरजाना का सितारों से जड़ा गुलाबी सूट, जो अच्छे लिबास के नाम पर एकमात्र पहनावा था, पहन कर और नकली मोतियों का सैट गले में डाल कर मैं तैयार हो गई थी. मां ने मु झे गर्व से ऊपर से नीचे तक निहारा था. मैं लजा गई थी. बाबूजी के साथ मैं नवीन के घर पहुंची.

दरवाजे पर ही चंदन अपने दोस्तों के बीच खड़ा दिख गया. मेरी तरफ उस की पीठ थी लेकिन मैं चाहती थी कि वह मेरी तरफ देखे. मेरी सुंदरता उस पर असर करे.

बिचौलिए- भाग 2: क्यों मिला वंदना को धोखा

सीमा के अत्यधिक गुस्से की जड़ में उस के अपने अतीत का अनुभव था. विनोद नाम के एक युवक से उस का प्रेमसंबंध 3 वर्षों तक चला था. कभी उस का साथ न छोड़ने का दम भरने वाला उस का वह प्रेमी अचानक हवाई जहाज में बैठ कर विदेश रवाना हो गया था. उस धोखेबाज, लालची व अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी इंसान को विदेश भेजने का खर्चा उस के भावी ससुर ने उठाया था. यह दुखद घटना सीमा की जिंदगी में 2 वर्ष पूर्व घटी थी. वह अब 28 वर्ष की हो चली थी. विनोद की बेवफाई ने उस के दिल  को गहरा आघात पहुंचाया था. अपने सभी हितैषियों के लाख समझाने के बावजूद उस ने कभी शादी न करने का फैसला अब तक नहीं बदला था. समीर की राजेशजी की लड़की देखने जाने वाली हरकत ने उस के अपने दिल का घाव हरा कर दिया था. वंदना को वह अपनी छोटी बहन मानती थी. अपनी तरह उसे भी धोखे का शिकार होते देख उसे समीर पर बहुत गुस्सा आ रहा था. कुछ देर बाद वंदना के आंसू थम गए. फिर उदास खामोशी ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया था. भोजनावकाश तक इस उदासी की जगह क्रोध व कड़वाहट ने ले ली थी. यह देख कर उस के तीनों सहयोगियों को काफी आश्चर्य हुआ.

‘‘मैं समीर के सामने रोनेगिड़गिड़ाने वाली नहीं,’’ वंदना ने तीखे स्वर में सब से कहा, ‘‘वह मुझ से कटना चाहता है, तो शौक से कटे. ऐसे धोखेबाज के गले मैं जबरदस्ती पड़ भी गई, तो कभी सुखी नहीं रह पाऊंगी. वह समझता क्या है खुद को?’’ वंदना के बदले मूड के कारण उसे समझानेबुझाने के बजाय उस के तीनोें सहयोगियों ने समीर को पीठ पीछे खरीखोटी सुनाने का कार्य ज्यादा उत्साह से किया. भोजनावकाश की समाप्ति से कुछ पहले वंदना ने सीमा को अकेले में ले जा कर उस से प्रार्थना की, ‘‘सीमा दीदी, मेरा एक काम करा दो.’’

‘‘मुझ से कौन सा काम कराना चाहती है तू?’’ सीमा ने उत्सुक स्वर में पूछा.

‘‘दीदी, मैं कुछ दिनोें के लिए इस कमरे में नहीं बैठना चाहती.’’

‘‘तो कहां बैठेगी तू?’’

‘‘बड़े साहब दिनेशजी की पीए छुट्टी पर गई हुई है न. आप दिनेश साहब से कह कर कुछ दिनों के लिए वहां पर मेरी बदली करा दो. मैं कुछ दिनों तक समीर की पहुंच व नजरों से दूर रहना चाहती हूं.’’

‘‘ऐसा करने से क्या होगा?’’ सीमा ने उलझनभरे स्वर में पूछा.

‘‘दीदी, समीर के सदा आगेपीछे घूमते रह कर मैं ने उसे जरूरत से ज्यादा सिर पर चढ़ा लिया है. वह मुझे प्यार करता है, यह मैं बखूबी जानती हूं, पर उस के सामने मेरे सदा बिछबिछ जाने के कारण उस की नजरों में मेरी कद्र कम हो गई है.’’ ‘‘तो तेरा यह विचार है कि अगर तू कुछ दिन उस की नजरों व पहुंच से दूर रहेगी तो समीर का तेरे प्रति आकर्षण बढ़ जाएगा?’’ ‘‘यकीनन ऐसा ही होगा, सीमा दीदी. हमारे कमरे में शादीशुदा बड़े बाबू और महेशजी के अलावा समीर की टक्कर का एक अविवाहित नवयुवक और होता तो मैं उस से ‘फ्लर्ट’ करना भी शुरू कर देती. ईर्ष्या का मारा समीर तब मेरी कद्र और ज्यादा जल्दी समझता.’’ कुछ पल सीमा खामोश रह वंदना के कहे पर सोचविचार करने के बाद गंभीर लहजे में बोली, ‘‘मैं तेरे कहे से काफी हद तक सहमत हूं, वंदना. मैं तेरी सहायता करना चाहूंगी, पर सवाल यह है कि दिनेश साहब मेरे कहने भर से तुझे अपनी पीए भला क्यों बनाएंगे?’’

‘‘दीदी, यह काम तो आप को करना ही पड़ेगा. आप उन को विश्वास में ले कर मेरी सोच और परिस्थितियों से अवगत करा सकती हैं. मैं समीर से बहुत प्यार करती हूं, सीमा दीदी. उसे खोना नहीं चाहती मैं. उस से दूर होने का सदमा बरदाशत नहीं कर पाएगा मेरा दिल,’’ वंदना अचानक भावुक हो उठी थी.

‘‘ठीक है, मैं जा कर दिनेशजी से बात करती हूं,’’ कह कर सीमा ने वंदना की पीठ थपथपाई और फिर दिनेश साहब के कक्ष की तरफ बढ़ गई. वंदना की समस्या के बारे में पूरे 10 मिनट तक दिनेश साहब सीमा की बातें बड़े ध्यान से सुनने के बाद गंभीर स्वर में बोले, ‘‘अगर समीर के मन में खोट आ गया है तो यह बहुत बुरी बात है. वंदना बड़ी अच्छी लड़की है. मैं उस की हर संभव सहायता करने को तैयार हूं. तुम बताओ कि मुझे क्या करना होगा?’’ वंदना कुछ दिन उन की पीए का कार्यभार संभाले, इस बाबत उन को राजी करने में सीमा को कोई दिक्कत नहीं आई. ‘‘वंदना की बदली के आदेश मैं अभी निकलवा देता हूं. सीमा, और क्या चाहती हो तुम मुझ से?’’

‘‘समीर, मुझे कुछ दिनों के लिए बिलकुल मत छेड़ो. तुम्हारी लड़की देखने जाने की हरकत के बाद मैं तुम्हारे व अपने प्रेमसंबंध के बारे में बिलकुल नए सिरे से सोचने को मजबूर हो गई हूं. मैं जब भी किसी फैसले पर पहुंच जाऊंगी, तब तुम से खुद संपर्क कर लूंगी,’’ वंदना की यह बात सुन कर समीर नाराज हालत में पैर पटकता उस के केबिन से निकल आया था. सीमा से वह वैसे ही नहीं बोल रहा था. महेश और ओमप्रकाश भी उस से खिंचेखिंचे से बातें करते. उस ने इन दोनों को समझाया भी था कि वह वंदना को प्यार में धोखा देने नहीं जा रहा, पर इन के शुष्क व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया था. औफिस में वह सब से अलगथलग तना हुआ सा बना रहता. काम के 7-8 घंटे औफिस में काटना उसे भारी लगने लगे थे. चिढ़ कर उस ने सभी से बात करना बंद कर दिया था. अगले सप्ताह उस की चिंता में और बढ़ोतरी हो गई. सोमवार की शाम वंदना दिनेशजी के साथ उन के स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ कर औफिस से गई है, यह उस ने अपनी आंखों से देखा था.

‘‘सीमा, यह वंदना दिनेश साहब के साथ कहां गई है?’’ बगल से गुजर रही सीमा से समीर ने विचलित स्वर में प्रश्न किया.‘‘मुझे नहीं मालूम, समीर. वैसे तुम ने यह सवाल क्यों किया?’’ सीमा के होंठों पर व्यंग्यभरी मुसकान उभरी.

‘‘यों ही,’’ कह कर समीर माथे पर बल डाले आगे बढ़ गया. सीमा मन ही मन मुसकरा उठी. वंदना के सिर में दर्द था, भोजनावकाश में यह उस के मुंह से सुन कर वह सीधी दिनेश साहब के कक्ष में घुस गई.

‘‘सर, आज शाम वंदना को आप अपने स्कूटर से उस के घर छोड़ देना. उस की तबीयत ठीक नहीं है,’’ उन से ऐसा कहते हुए सीमा की आंखों में उभरी चमक उन की नजरों से छिपी नहीं रही.

‘‘सीमा, तुम्हारी आंखें बता रही हैं कि तुम्हारे इस इरादे के पीछे कुछ छिपा मकसद भी है,’’ उन्होंने मुसकरा कर टिप्पणी की.

‘‘आप का अंदाजा बिलकुल ठीक है, सर. आप के ऐसा करने से समीर ईर्ष्या महसूस करेगा और फिर उसे सही राह पर जल्दी लाया जा सकेगा.’’

‘‘यानी कि तुम चाहती हो कि समीर वंदना और मेरे बीच के संबंध को ले कर गलतफहमी का शिकार हो जाए?’’ दिनेश साहब फौरन हैरानपरेशान नजर आने लगे.

दत्तक बेटी: घनश्यामभाई को क्या सलाह दे रहे थे लोग

लंदन के वेंबली इलाके में ज्यादातर गुजराती रहते हैं. नैरोबी से लंदन आ कर बसे घनश्याम सुंदरलाल अमीन भी अपनी पत्नी सुनंदा के साथ वेंबली में ही रहते थे. वे लंदन में अंडरग्राउंड ट्रेन के ड्राइवर थे. नौकरी से रिटायर होने के बाद वे पत्नी के साथ आराम से रह रहे थे.

घनश्यामभाई को सोशल स्कीम के तहत अच्छा पैसा मिल रहा था. इस के अलावा उन की खुद की बचत भी थी. उन्हें किसी चीज की कमी नहीं थी. बस, एक कमी के अलावा कि वे बेऔलाद थे. गोद में खेलने वाला कोई नहीं था, जिस का पतिपत्नी को काफी दुख था.

किसी दोस्त ने घनश्यामभाई को सलाह दी कि वे कोई बच्चा गोद ले लें. ब्रिटेन में बच्चा गोद लेना बहुत मुश्किल है, वह भी भारतीय परिवार के लिए तो और भी मुश्किल है, इसलिए घनश्यामभाई ने अपने किसी भारतीय दोस्त की सलाह पर कोलकाता की एक स्वयंसेवी संस्था से बात की. उस संस्था ने एक अनाथाश्रम से उन का परिचय करा दिया.

अनाथाश्रम वालों ने घनश्यामभाई से कोलकाता आने को कहा. वे पत्नी के साथ कोलकाता आ गए.

कोलकाता के उस अनाथाश्रम में उन्हें सुचित्र नाम की एक लड़की पसंद आ गई. वह 15 साल की थी. जन्म से बंगाली और महज बंगाली व हिंदी बोलती थी. देखने में एकदम भोली, सुंदर और मुग्धा थी.

पतिपत्नी ने सुचित्र को पसंद कर लिया. सुचित्र भी उन के साथ लंदन जाने को तैयार हो गई. घनश्यामभाई ने सुचित्र को गोद लेने की तमाम कानूनी कार्यवाही पूरी कर ली. सुचित्र को वीजा दिलाने में तमाम मुश्किलों का सामना करना पड़ा. तरहतरह के प्रमाणपत्र देने पड़े. आखिरकार 6 महीने बाद सुचित्र को वीजा मिल गया.

सुचित्र अब लंदन पहुंच गई. उस के लिए वहां सबकुछ नया नया था. देश नया, दुनिया नई, भाषा नई, लोग नए. वहां उस का एक स्कूल में दाखिल करा दिया गया. उस ने जल्दी ही इंगलिश भाषा सीख ली. वह गोरी थी और छोटी भी, इसलिए जल्दी से गोरे बच्चों के साथ घुलमिल गई. स्कूल में गुजराती, पंजाबी और बंगलादेश से आए परिवारों के तमाम बच्चे पढ़ते थे.

सुचित्र अब बड़ी होने लगी. वह अकेली लंदन में अंडरग्राउंड ट्रेन में सफर कर सकती थी. वह बिलकुल अकेली पिकाडाली तक जा सकती थी. वह पढ़ने में भी अच्छी थी.

सुचित्र को गोद लेने वाले घनश्यामभाई और उन की पत्नी सुनंदा खुश थे अपनी इस बेेटी से. छुट्टी के दिनों में वे कभी उसे मैडम तुसाद म्यूजियम दिखाने ले जाते तो कभी उसे हाइड पार्क घुमाने ले जाते. दोस्तों के घर पार्टी में भी वे सुचित्र को हमेशा साथ रखते. सुचित्र सुनंदा को ‘मम्मी’ कहती तो वे खुश हो जातीं. उन्हें ऐसा लगता कि सुचित्र उन्हीं की बेटी है. वह स्कूल तो जा ही रही थी, अब कभीकभार अपनी सहेली के घर रुक जाती. समय के साथ अब वह हर शनिवार को सहेली के घर रुकने की बात करने लगी थी. अभी वह 17 साल की ही थी.

एक दिन सुनंदा को पता चला कि सुचित्र घर से तो अपनी सहेली के घर जा कर रुकने की बोल कर गई थी, पर वह सहेली के घर गई नहीं थी. उन्होंने सुचित्र से सख्ती से पूछताछ की तो सुचित्र खीज कर बोली, “मैं कहीं भी जाऊं, इस से आप को क्या मतलब…”

सुचित्र की इस बात से घनश्यामभाई और सुनंदा को गहरा धक्का लगा. कुछ दिनों बाद एक दूसरी घटना घटी. सुचित्र अकसर स्कूल नहीं जाती थी. घनश्यामभाई और सुनंदा ने जब उस से पूछा तो उस ने कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया.

पतिपत्नी ने सुचित्र की सहेलियों से पूछताछ की तो पता चला कि सुचित्र सुखबीर नाम के एक पंजाबी लड़के के साथ घूमती है. वह स्कूल छोड़ कर उस के साथ बाहर घूमने चली जाती है.

घनश्यामभाई ने शाम को सुचित्र से पूछा, “मुझे पता चला है कि तुम सुखबीर नाम के किसी लड़के के साथ घूमती हो, क्या यह सच है?”

यह सुन कर सुचित्र ने कहा, “मैं कहां जाती हूं और बाहर जा कर क्या करती हूं, यह आप को बिलकुल नहीं पूछना चाहिए.”

सुनंदा ने कहा, “तुम हमारी बेटी हो. हमें चिंता होती है. तुम अभी 17 साल की ही तो हो.”

“मैं आप की बेटी नहीं हूं. आप ने अपने फायदे के लिए मुझे गोद लिया है. मैं आप की कोख से पैदा नहीं हुई हूं. मेरे ऊपर आप के बहुत कम अधिकार हैं, समझीं?”

“मतलब?” सुनंदा ने पूछा.

“मैं तुम्हारे शरीर का कोई भी हिस्सा नहीं हूं. मेरे शरीर पर मेरा ही अधिकार है?”

सुचित्र की बात सुन कर घनश्यामभाई को गुस्सा आ गया. उन्होंने सुचित्र को एक तमाचा मार दिया.

सुचित्र चिल्लाई, “अगर दूसरी बार आप ने ऐसा किया तो मैं पुलिस बुला लूंगी.”

घनश्यामभाई ने कहा, “मैं खुद ही पुलिस को बताऊंगा कि मेरे द्वारा गोद ली गई बेटी पढ़ने की उम्र में गलत काम करती है. तुम्हें सामाजिक काउंसलिंग में भेज दूंगा।. उस के बाद भी नहीं सुधरी तो फिर भारत वापस भेज दूंगा.”

भारत वापस भेजने की बात सुन कर सुचित्र सोच में पड़ गई. वह एकदम चुप हो गई और अपने बैडरूम में चली गई. अगले दिन उठ कर उस ने मम्मीपापा से माफी मांगी. यह सुन कर घनश्यामभाई और सुनंदा शांत हो गए.

सुनंदा ने कहा, “देखो बेटा, यह तुम्हारी पढ़नेलिखने की उम है. तुम अच्छी तरह पढ़लिख कर अपना कैरियर बना लो. अभी तुम टीनएज हो. जिस लड़के के साथ मन हो, नहीं घूम सकती हो.”

सुचित्र ने सिर झुका कर कहा, “मम्मी, इस तरह की गलती अब दोबारा नहीं करूंगी.”

इस के बाद सुचित्र नियमित रूप से स्कूल जाने लगी. धीरेधीरे इस बात को काफी समय बीत गया.

एक दिन घनश्यामभाई और सुनंदा के पड़ोसियों ने पुलिस से शिकायत की कि हमारे बगल वाले घर से बहुत तेज बदबू आ रही है. तुरंत पुलिस आ गई. घर का दरवाजा बंद था, पर अंदर से ताला नहीं लगा था. पुलिस ने धक्का मारा तो दरवाजा खुल गया.

पुलिस ने अंदर जा कर देखा तो बैडरूम में घनश्यामभाई और उन की पत्नी की लाशें पड़ी थीं. पूछताछ में पड़ोसियों ने बताया कि इन के साथ गोद ली गई एक बेटी भी रहती थी. उस समय वह घर में नहीं थी.

दोनों लाशों को पुलिस ने पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया. उन की गोद ली गई बेटी गायब थी. पता चला कि वह कई दिनों से स्कूल भी नहीं गई थी. पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई तो पता चला कि पतिपत्नी की मरने से पहले खाने मेेें नींद की दवा दी गई थी. उस के बाद घनश्यामभाई की हत्या चाकू से और सुनंदा की हत्या मुंह पर तकिया रख कर की गई थी.

पुलिस का पहला शक मारे गए पतिपत्नी की गोद ली गई बेटी सुचित्र पर गया. उन्होंने घनश्यामभाई और सुचित्र के मोबाइल का काल रिकौर्ड चैक किया. 2 ही दिनों में पुलिस सुचित्र के बौयफ्रैंड सुखबीर के घर पहुंच गई.

सुखबीर अकेला ही अपनी विधवा मां के साथ रहता था. सुचित्र भी उसी के घर पर मिल गई. पुलिस ने दोनों से सख्ती से पूछताछ की तो सुचित्र और सुखबीर ने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने प्रेम का विरोध करते की वजह से घनश्यामभाई और सुनंदा की हत्या की है.

सुचित्र ने बताया, “उस रात मैं ने ही अपने मम्मीपापा के खाने में नींद की गोलियां मिला दी थीं, जिस से वे जाग न सकें. दोनों गहरी नींद सो गए तो मैं ने सुखबीर को बुला लिया. उस के बाद मम्मी के मुंह पर तकिया रख कर पूरी ताकत से दबाए रखा तो उन की सांसों की डोर टूट गई.

“मम्मी के छटपटाने की आवाज सुन कर मेरे पापा जाग गए. सुखबीर अपने साथ चाकू लाया था. उसी चाकू से उस ने पापा पर ताबड़तोड़ वार कर के उन्हें बुरी तरह घायल कर दिया. उस के बाद हम दोनों भाग गए.”

दोनों के बयान सुन कर पुलिस हैरान रह गई. सुचित्र अभी नाबालिग थी. पुलिस ने उस की मैडिकल जांच कराई तो पता चला कि वह पेट है. सुचित्र ने जो किया, उसे सुन कर तो अब यही लगता है कि इस तरह बच्चे को गोद लेने में भी कई बार सोचना पड़ेगा.

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ऐसा भी होता है बौयफ्रैंड: प्रिया के साथ दीपक ने क्या किया

सफेद कपड़े पहने होने के बावजूद उस का सांवला रंग छिपाए नहीं छिप रहा था. करीब जा कर देखने से ही पता चलता था कि उस के गौगल्स किसी फुटपाथी दुकान से खरीदे गए थे. बालों पर कई बार कंघी फिरा चुका वह करीब 20-22 साल की उम्र का युवक पिछले एक घंटे से बाइक पर बैठा कई बार उठकबैठक लगा चुका था यानी कभी बाइक पर बैठता तो कभी खड़ा हो जाता. काफी बेचैन सा लग रहा था. इस दौरान वह गुटके के कितने पाउच निगल चुका, उसे शायद खुद भी न पता होगा. गहरे भूरे रंग के गौगल्स में छिपी उस की निगाहों को ताड़ना आसान नहीं था. अलबत्ता जब भी उस ने उन्हें उतारने की कोशिश की, तो साफ जाहिर था कि उस की निगाहें गर्ल्स स्कूल की इमारत के दरवाजे से टकरा कर लौट रही थीं. तभी उस दरवाजे से एक भीड़ का रेला निकलता नजर आया. अब तक बेपरवाह वह युवक बाइक को सीधा कर तन कर खड़ा हो गया.

इंतजार के कुछ ही पल बेचैनी में गुजरे, तभी पसीनापसीना हुए उस लड़के के चेहरे पर मुसकराहट खिल उठी. उस ने एक बार फिर बालों पर कंघी फिराई और गौगल्स ठीक से आंखों पर चढ़ाए. मुंह की आखिरी पीक पिच्च से थूकते हुए होंठों को ढक्कन की तरह बंद कर लिया.

तेजी से अपनी तरफ आती लड़की को पहचान लिया था, वह प्रिया ही थी. प्रिया खूबसूरत थी और उस के चेहरे पर कुलीनता की छाप थी. खूबसूरत टौप ने उस में गजब की कशिश पैदा कर दी थी. बाइक घुमाते हुए उस ने पीछे मुड़ कर देखने की कोशिश नहीं की, लेकिन उसे एहसास हो गया था कि प्रिया बाइक की पिछली सीट पर बैठ चुकी है. तभी उसे अपनी पीठ पर पैने नाखून चुभने का एहसास हुआ और हड़बड़ाया स्वर सुनाई दिया, ‘‘प्लीज, जल्दी करो, मेरी सहेलियों ने देख लिया तो गजब हो जाएगा?’’

‘‘बाइक पर किक मारते ही लड़के ने पूछा, ‘‘कहां चलना है, सिटी मौल या…’’

फर्राटा भरती बाइक के शोर में लड़के को सुनाई दे गया था, ‘‘कहीं भी…जहां तुम ठीक समझो?’’

‘‘कहीं भी?’’ प्रिया की आवाज में घुली बेचैनी को वह समझ गया था. फिर भी मजाकिया लहजे में बोला. ‘‘तो चलें वहीं, जहां पहली बार…’’ बाकी शब्द पीठ पर चुभते नाखूनों की पीड़ा में दब गए. लेकिन इस बार उस के कथन में मजाक का पुट नहीं था… ‘‘तो फिर सिटी मौल चलते हैं?’’

‘‘नहीं, वहां नहीं,’’ प्रिया जैसे तड़प कर बोली, ‘‘तुम समझते क्यों नहीं दीपक, मुझे तुम से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

तभी दीपक ने अपना एक हाथ पीछे बढ़ा कर लड़की की कलाई थामने की कोशिश की तो उस ने अपना गोरा नाजुक हाथ उस के हाथ में दे दिया और उस की पीठ से चिपक गई? दीपक को बड़ी सुखद अनुभूति हुई, तभी बाइक जोर से डगमगाई. उस ने फौरन लड़की का हाथ छोड़ दिया और बाइक को काबू करने की कोशिश करने लगा.

‘‘क्या हुआ?’’ लड़की घबरा कर बोली. अब वह दीपक की पीठ से परे सरक गई.

‘‘बाइक का पहिया बैठ गया मालूम होता है,’’ दीपक बोला, ‘‘शायद पंचर है,’’ उस ने बाइक को सड़क के किनारे लगाते हुए खड़ी कर दी. अब तक वे शहर से काफी दूर आ चुके थे. यह जंगली इलाका था और आसपास घास के घने झुरमुट थे.

तब तक प्रिया उस के करीब आ गई थी. उस ने आसपास नजर डालते हुए कहा, ‘‘अब वापस कैसे चलेंगे?’’ उस के स्वर में घबराहट घुली थी. लड़के ने एक पल चारों तरफ नजरें घुमा कर देखा, चारों तरफ सन्नाटा पसरा था. दीपक ने प्रिया की कलाई थाम कर उसे अपनी तरफ खींचा. प्रिया ने इस पर कोई एतराज नहीं जताया, लेकिन अगले ही पल अर्थपूर्ण स्वर से बोली, ‘‘क्या कर रहे हो?’’

‘‘तनहाई हो, लड़कालड़की दोनों साथ हों और मिलन का अच्छा मौका हो तो लड़का क्या करेगा?’’ उस ने हाथ नचाते हुए कहा.

प्रिया छिटक कर दूर खड़ी हो गई. ‘‘ये सब गलत है, यह सबकुछ शादी के बाद, अभी कोई गड़बड़ नहीं. अभी तो वापसी की जुगत करो,’’ प्रिया ने बेचैनी जताई, ‘‘कितनी देर हो गई? घर वाले पूछेंगे तो उन्हें क्या जवाब दूंगी?’’

दीपक ने बेशर्मी से कहा, ‘‘यह तुम सोचो,’’ इस के साथ ही वह ठठा कर हंस पड़ा और लपक कर प्रिया को बांहों में भर लिया, ‘‘ऐसा मौका बारबार नहीं मिलता, इसे यों ही नहीं गंवाया जा सकता?’’

‘‘लेकिन जानते हो, अभी मेरी उम्र शादी की नहीं है. अभी मैं सिर्फ 15 साल की हूं, इस के लिए तुम्हें 3 साल तक  इंतजार करना होगा,’’ प्रिया ने उस की गिरफ्त से मुक्त होने की कोशिश की.

‘‘लेकिन प्यार करने की तो है,’’ और उस की गिरफ्त प्रिया के गिर्द कसती चली गई. प्रिया का शरीर एक बार विरोध से तना, फिर ढीला पड़ गया. घास के झुरमुटों में जैसे भूचाल आ गया. करीब के दरख्तों पर बसेरा लिए पखेरू फड़फड़ कर उड़ गए.

करीब एक घंटे बाद दोनों चौपाटी पहुंचे और वहां बेतरतीब कतार में खड़े एक कुल्फी वाले से फालूदा खरीदा. गिलास से भरे फालूदा का हर चम्मच निगलने के बाद प्रिया दीपक की बातों पर बेसाख्ता खिलखिला रही थी. उन के बीच हवा गुजरने की भी जगह नहीं थी, क्योंकि दोनों एकदूसरे से पूरी तरह से सटे बैठे थे.

सलमान खान बनने की कोशिश में दीपक आवारागर्दी पर उतर आया था और उस ने प्रिया के गले में अपनी बांह पिरो दी थी. लेकिन इस पर प्रिया को कोई एतराज नहीं था. उस ने फालूदा खा कर गिलास ठेले वाले की तरफ बढ़ा दिया. प्रिया के पर्स निकालने और भुगतान करने तक दीपक कर्जदार की तरह बगलें झांकता रहा. उस ने ऐसे मौकों पर मर्दों वाली तहजीब दिखाने की कोई जहमत नहीं उठाई.

3 युवक एक मोटरसाइकिल पर आए और प्रिया के पास आ कर रुके. शायद ये दीपक के यारदोस्त थे. उन्होंने हाथ तो उस की तरफ हिलाया, लेकिन असल में सब प्रिया की तरफ देख रहे थे. प्रिया ने उड़ती सी नजर उन पर डाली और दूसरी तरफ देखने लगी.

उन्होंने दीपक का हालचाल पूछा तो वह उन की तरफ बढ़ा और दांत निपोरने के साथ ही मोटरसाइकिल पर पीछे बैठे लड़के की पीठ पर धौल जमाया, ऐसे ही मूड बन गया था यार, आइसक्रीम खाने का..’’

‘‘बढि़या है…बढि़या है यार…’’ इस बार वह लड़का बोला जो बाइक चला रहा था. वह प्रिया से मुखातिब हो कर बोला, ‘‘मैं, आप के फ्रैंड का जिगरी दोस्त.’’

यह सुन प्रिया मुसकराई. उस के चेहरे पर आए उलझन के भाव खत्म हो गए. लड़के ने उस की तरफ बढ़ने के लिए कदम बढ़ाए, लेकिन एकाएक ठिठक कर रह गया. प्रिया कंधे पर रखा बैग झुलाती हुई सामने पार्किंग में खड़ी अपनी स्कूटी की तरफ बढ़ी. उस लड़के ने खास अदा के साथ हाथ हिलाया. प्रिया एक बार फिर मुसकराई और स्कूटी से फर्राटे से आगे बढ़ गई.

यह देख चंदू निहाल हो गया. उस ने हकबकाए से खड़े दीपक पर फब्ती कसी. ‘‘अबे, क्यों बुझे हुए हुक्के की तरह मुंह बना रहा है? लड़की तू ने फंसाई तो क्या हुआ? दावत तो मिलबैठ कर करेंगे न?’’ तब तक दीपक भी कसमसा कर उन के बीच में सैंडविच की तरह ठुंस गया. बाइक फौरन वहां से भाग निकली. चंदू के ठहाके बाइक के शोर में गुम हो चुके थे.

2 महीने बाद… पुलिस स्टेशन के उस कमरे में गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था. पैनी धार जैसी नीरवता पुलिस औफिसर के सामने बैठी एक कमसिन लड़की की सिसकियों से भंग हो रही थी. उस का चेहरा आंसुओं से तरबतर था. वह कहीं शून्य में ताक रही थी. शायद कुरसी पर बैठे उस के मातापिता थे, उन के चेहरे सफेद पड़ चुके थे. शर्म और ग्लानि के भाव उन पर साफ दिखाई दे रहे थे. पुलिस औफिसर शायद प्रिया की आपबीती सुन चुका था. उस का चेहरा गंभीर बना हुआ था. उन्होंने सवालिया निगाहों से प्रिया की तरफ देखा, ‘‘तुम्हारी उस लड़के से जानपहचान कैसे हुई?’’

प्रिया का मौन नहीं टूटा. इस बार औफिसर की आवाज में सख्ती का पुट था, ‘‘जो कुछ हुआ तुम्हारी नादानी से हुआ, लेकिन अब मामला पुलिस के पास है तो तुम्हें सबकुछ बताना होगा कि तुम्हारी उस से मुलाकात कैसे हुई?’’

प्रिया ने शायद पुलिस औफिसर की सख्ती भांप ली थी. एक पल वह उलझन में नजर आई, फिर मरियल सी आवाज में बोली, ‘‘एक बार मैं शौप पर कुछ खरीद रही थी, लेकिन जब पैसे देने लगी तो हैरान रह गई, मेरा पर्स मेरी जेब में नहीं था. उधर, दुकानदार बारबार तकाजा कर कह रहा था, ‘कैसी लड़की हो? जब पैसे नहीं थे तो क्यों खरीदा यह सब.’ मुझे याद नहीं रहा कि पर्स कहां गिर गया था, लेकिन दुकानदार के तकाजे से मैं शर्म से गड़ी जा रही थी. तभी एक लड़का, मेरा मतलब, दीपक अचानक वहां आया और दुकानदार को डांटते हुए बोला, ‘कैसे आदमी हो तुम?’ लड़की का पर्स गिर गया तो इस का मतलब यह नहीं हुआ कि तुम उसे इस तरह बेइज्जत करो? अगले ही पल उस ने जेब से पैसे निकाल कर दुकानदार को थमाते हुए कहा, ‘यह लो तुम्हारे पैसे.’ इस के साथ ही वह मुझे हाथ पकड़ कर बाहर ले आया.’’

प्रिया ने डबडबाई आंखों से पुलिस औफिसर की तरफ देखा और बात को आगे बढ़ाया, ‘‘यह सबकुछ इतनी अफरातफरी में हुआ कि मैं उसे न तो पैसे देने से रोक सकी और न ही उस से अधिकारपूर्वक हाथ पकड़ कर खुद को शौप से बाहर लाने का कारण पूछ सकी.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’ पुलिस औफिसर ने सांत्वना देते हुए पूछा, ‘‘फिर अगली मुलाकात कब हुई और यह मुलाकातों का सिलसिला कैसे चल निकला.’’

इस बार वहां बैठे दंपती एकटक बेटी की ओर देख रहे थे. उन की तरफ से आंखें चुराते हुए प्रिया ने बातों का सूत्र जोड़ा, ‘‘फिर यह अकसर स्कूल की छुट्टी के बाद मुझ से मिलने लगा. हम कभी आइसक्रीम शौप जाते, कभी मूवी या फिर घंटों गार्डन में बैठे बतियाते रहते.’’

‘‘मतलब वह लड़का पूरी तरह तुम्हारे दिलोदिमाग पर छा गया था?’’

प्रिया ने एक पल अपने मातापिता की तरफ देखा. उन का हैरत का भाव प्रिया से बरदाश्त नहीं हुआ, लेकिन पुलिस औफिसर की बातों का जवाब देते हुए उस ने कहा, ‘‘हां, मुझे यह अच्छा लगने लगा था. वह जब भी मिलता, मुझे गिफ्ट देता और कहता, ‘बड़ी हैसियत वाला हूं मैं, शादी तुम्हीं से करूंगा.’’

‘‘अभी शादी की उम्र है तुम्हारी?’’ पुलिस औफिसर के स्वर में भारीपन था. प्रिया चाह कर भी बहस नहीं कर सकी. उस ने सिर झुकाए रखा, ‘‘दरअसल, सहेलियां कहती थीं कि जिस का कोई बौयफ्रैंड नहीं उस की कोई लाइफ नहीं. बस, मुझे दीपक को पा कर लगा था कि मेरी लाइफ बन गई है.’’

‘‘क्योंकि तुम्हें बौयफ्रैंड मिल गया था, इसलिए,’’ पुलिस औफिसर ने बीच में ही बात काटते हुए कहा, ‘‘क्या उस से फ्रैंडशिप का तुम्हारे मातापिता को पता था? जब तुम देरसवेर घर आती थी तो क्या बहाने बनाती थी?’’ पुलिस औफिसर ने तीखी निगाहों से दंपती की तरफ भी देखा, लेकिन वे उन से आंख नहीं मिला सके.

उस की मम्मा ने अपना बचाव करते हुए कहा, ‘‘हम से तो इतना भर कहा जाता था कि आज सहेली की बर्थडे पार्टी थी या ऐक्स्ट्रा क्लास में लेट हो गई या फिर…’’ लेकिन पति को घूरते देख उस ने अपने होंठ सी लिए.

पुलिस औफिसर ने बात काटते हुए कहा, ‘‘कैसे गैरजिम्मेदार मांबाप हैं आप? लड़की जवानी की दहलीज पर कदम रख रही है, उस के आनेजाने का कोई समय नहीं है, और आप को उस की कतई फिक्र नहीं है, लड़की की बरबादी के असली जिम्मेदार तो आप हैं. मेरी नजरों में तो सजा के असली हकदार आप लोग हैं.’’

लड़की को घूरते हुए पुलिस औफिसर ने बोला, ‘‘बौयफ्रैंड का मतलब भी समझती हो तुम? बौयफ्रैंड वह है जो हिफाजत करे, भलाई सोचे. तुम पेरैंट्स को बेवकूफ बना रही थी और लड़का तुम को  इमोशनली बेवकूफ बना रहा था.’’

पुलिस औफिसर के स्वर में हैरानी का गहरा पुट था, ‘‘कैसा बौयफ्रैंड था तुम्हारा कि उस ने तुम्हारे साथ इतना बड़ा फरेब किया? तुम्हें बिलकुल भी पता नहीं लगा. विश्वास कैसे कर लिया तुम ने उस का कि उस ने तुम्हारी आपत्तिजनक वीडियो क्लिपिंग बना ली और तुम्हें जरा भी भनक नहीं लगी?’’

‘‘वह कहता था कि मेरा फिगर मौडलिंग लायक है, मुझे विज्ञापन फिल्मों में मौका मिल सकता है, लेकिन इस के लिए मुझे बस थोड़ी झिझक छोड़नी पड़ेगी. काफी नर्वस थी मैं, लेकिन कोल्डड्रिंक पीने के बाद कौन्फिडैंस आ गया था.’’

झल्लाते हुए पुलिस औफिसर ने कहा, ‘‘नशा था कोल्डड्रिंक में क्या, और उस कौन्फिडैंस में तुम ने क्या कुछ गंवा दिया, पता नहीं है तुम्हें?’’ क्रोध से बिफरते हुए पुलिस औफिसर ने लड़की को खा जाने वाली नजरों से देखा.

खुश्क होते गले में प्रिया ने जोर से थूक निगला. उस ने बेबसी से गरदन हिलाई और चेहरा हथेली से ढांप कर फफक पड़ी. उस की सिसकियां तेज होती चली गईं. अपनी ही बेवकूफी के कारण उसे यह दिन देखना पड़ा था. दीपक पर उस ने आंख मूंद कर भरोसा कर लिया था, इसलिए उस के इरादे क्या हैं, यह नहीं समझ सकी. काश, उस ने समझदारी से काम लिया होता. पर अब क्या हो सकता था.

पथभ्रष्ठा- भाग 5: बसु न क्यों की आत्महत्या

थोड़ा माहौल बदला तो उस ने मुझ से प्रश्न किया, ‘‘शुभेंदु से भेंट हुई? आजकल देहरादून में ही अपनी भवननिर्माण कंपनी खोली है उन्होंने.’’

मैं ने विस्तार से वहां की समृद्धि, शुभेंदु की ख्याति और काम का वर्णन किया तो उस की आंखें नम हो गईं.

‘‘इतनी सुखी गृहस्थी को लात मार कर क्यों चली आई तू? आज भी शुभेंदु की हर सांस में तेरी यादें हैं, मुसकराहटें हैं. घर के हर कोने में तेरी अमिट छाप आज भी दिखाई देती है. क्या मिला तुझे अपना नीड़ तोड़ कर?’’

विरह की अग्नि में उस का हृदय मानों जल उठा हो. ‘‘गणित नहीं है जिंदगी जिस के हर सूत्र का एक स्पष्ट उत्तर हो. न जाने कौन सा झंझावात आया और उड़ा ले गया मेरी गृहस्थी का सुखचैन. वह घटना कीचड़ की तरह मेरे मनमस्तिष्क से चिपक गई और आज तक मेरा पीछा नहीं छोड़ती.’’

वह अंदर से टूट गई थी. स्मृतियों के नाग उस के मस्तिष्क पर फूंफूं कर रेंगने लगे थे.

‘‘कितना विचित्र है इंसान का स्वभाव. जो सरलता से प्राप्त हो जाता है, उस की कोई कीमत नहीं होती उस की नजर में और जो कुछ नहीं मिलता उस की तलाश में वह हर पल भटकता रहता है. काश मैं मृग की तरह अंदर छिपी कस्तूरी की सुगंध से सराबोर होने के बजाय सुगंध कहीं और ढूंढ़ने की कोशिश न करती.’’

अपनी ही नजरों में गिरना कितना कष्टप्रद होता है, इस का एहसास मुझे बसु की बातों से हो गया था. अचानक बसु विद्रोह पर उतर आई थी. उस का पूरा शरीर अपमान की ज्वाला से दग्ध था.

‘‘चारु, क्या सारा दोष मेरा ही है? शुभेंदु पूरी तरह निर्दोष हैं? क्यों मुझे अजगर के मुंह में अकेला छोड़ गए? मैं ने उन से जो चाहा, जो मांगा उन्होंने मुझे दिया. न कभी रोका, न टोका. कभी तो विरोध प्रकट करते, समझाते कि इच्छाओं और आकांक्षाओं का समुंदर आंधीतूफान से भरा होता है. कहीं विराम भी लगाना चाहिए. उन्होंने न कभी अपना क्रोध प्रकट किया न प्रतिवाद. न ही अभियोग लगाया, बल्कि मुझे देख कर आंखें झुका लीं. उन आंखों पर जो पलकें तनी थीं, वे भांपने ही नहीं देती थीं कि उन आंखों में क्या ठहरा हुआ है? कोई कसक, कोई चुभन, अफसोस या पीछे छूट गई कोई स्मृति?’’

‘‘पर, तू तो अब भी उस दलदल से निकल सकती है. तोड़ दे उस बंधन को और लौट जा अपने पुराने नीड़ में जहां शुभेंदु और तेरे बच्चे, आज भी तेरी राह देख रहे हैं. ये कसैली यादें बुरे सपने की तरह धीरेधीरे मिटती चली जाएंगी.’’

‘‘इतना आसान नहीं है यह सब… मार डालेगा वह मेरी बच्ची को.’’

मातृत्वबोध उस के चेहरे पर मुखर हो उठा था. मेरे सामने वह बरसों पुरानी आत्मीयता की तरह खुल गई थी.

उस ने बताया, ‘‘रवि से ब्याह करने के बाद जब मेरी आंखों से परदा हटा तो मैं बहुत रोई, गिड़गिड़ाई. रवि के सामने घुटने टेक कर विनती भी की कि मुझे इस नारकीय जीवन से मुक्त कर दे. तब उस ने मेरे सामने एक शर्त रख दी कि अगर बेटा होगा तो लौट जाना शुभेंदु के पास और अगर बेटी हुई तो तुम्हें मेरे ही साथ रहना होगा. मेरी गोद में मुसकान आ गई.’’

बसु की अश्रुधारा बह चली थी. कैसी लाचारी, कैसी विडंबना थी? डूबते को किश्ती की तलाश भी थी और किश्ती से दूर रहने की मजबूरी भी.

‘‘रवि ने दो टूक फैसला कर मुझे एक अंधेरी सीलन भरी सुरंग में धकेल दिया था, जहां मेरा दम घुटता था. मुझे चुटकी भर उजाला चाहिए था ताकि मैं बाहर निकलने का रास्ता खोज सकती. कई बार शुभेंदु का खयाल आया. सोचा दौड़ कर जाऊं और उन से अमर बेल की तरह लिपट जाऊं. लेकिन इतना गिरने के बाद उन से नजरें मिलाने का साहस नहीं था मुझ में.’’

‘‘कब तक जीएगी ऐसा जीवन?’’ मेरे मुंह से निकला.

‘‘मुझे कोई रास्ता दिखाई नहीं देता. मैं हर दिन घुलती हूं… हर रात मरती हूं… फिलहाल ये बच्चे छोटे हैं, नासमझ हैं. कल को बड़े होंगे, तो इन की आंखों में तिरते अनुत्तरित प्रश्नों के तीर झेल पाना क्या सहज होगा मेरे लिए?’’

बसु रोने लगी थी. उसे सांत्वना देने का मन किया पर मानो मेरे शब्द ही खत्म हो गए हों. अगर पुरुष आकाश है तो स्त्री धरती. बादल का कोई टुकड़ा ऊपर से गिरता है तो धरती उसे सहेज लेती है और सोख भी लेती है. पर जब धरती फटती है, तो कहीं कोई सहेजने वाला नहीं होता. यह बोध भी मुझे तब हुआ जब बसु नहीं रही.

बसु ने रवि की हत्या कर दी और स्वयं नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या करने का प्रयास किया. 2 दिन पहले ही तो मिली थी मैं उस से. ऐसा लगता था जैसे वह मानसिक अवसाद से घिरती जा रही है. बात करतेकरते चुप हो जाती या शून्य में निहारने लगती.

‘‘जिंदगी बोझ सी बनती जा रही है. नहीं जी पाऊंगी मैं… सोचती हूं अपनेआप को खत्म कर लूं या कहीं दूर चली जाऊं,’’ कह वह पुन: शून्न्य में निहारने लगी थी.

‘‘आत्महत्या कायर करते हैं,’’ मैं ने उसे समझाया था. पर उस ने कहां मानी थी मेरी बात? हमेशा जो मन में आता वही तो करती थी. फिर चाहे बाद में पछताना ही क्यों न पड़े… वह आज भी पछता रही थी.

अस्पताल का कमरा दवा की गंध से भरा था. उस के मुंह पर औक्सीजन मास्क लगा था और ग्लूकोज चढ़ रहा था. दौड़तीभागती नर्सें, डाक्टर उसे जीवन दान देने का प्रयास कर रहे थे. आसपास बिखरे सन्नाटे को चीरते हुए उस के अस्फुट स्वरों को सुनते ही पुलिसकर्मी बसु का बयान लेने उस तक पहुंचते उस से पहले ही उस की सांसें बंद हो गईं.

मैं वार्ड के बाहर आ गई थी. थोड़ी ही देर में पुलिस अधिकारी तेजतेज कदमों में चलते हुए कमरे तक आए और अपनी गोद में उस 1 साल की बच्ची मुसकान को ले कर कमरे से बाहर निकल गए. मन हुआ झपट कर मुसकान को उन से छीन लूं, पर यह मैं कैसे करती किस अधिकार से करती? मैं तो सोचती भर रह जाने वाली चारु थी.

अतुल से मैं ने तब मुसकान को गोद लेने का आग्रह किया था. वैसे भी हमारी बेटी नहीं थी लेकिन उन्होंने अपनी स्वीकृति नहीं दी. बोले, ‘‘हर जगह मुसकान, चरित्रहीन और हत्यारिन की बेटी के नाम से जानी जाएगी. इस बच्ची को क्या समाज स्वीकारेगा?’’

उन के तर्क के सामने मैं चुप हो गई थी. लेकिन खुद को दोषी पाती थी. इस पूरे प्रसंग में उस बच्ची का क्या कुसूर था? अपनी मां के गुनाहों की सजा वह क्यों भुगते? पर तब मेरा बस नहीं चला था. घटनाएं और हालात इंसान के अपने वश में कहां होते हैं?

लेकिन अब मुसकान मेरे घरआंगन में आने को बेताब है. ऐसा लग रहा है, जैसे टेढ़ेमेढ़े रास्तों को पार कर वह मेरे द्वार पर दस्तक दे रही है और कह रही है कि अब तो स्वीकार करेंगी न मुझे?

परंतु यदि अतुल को मुसकान के अतीत के बारे में पता चला तो हो सकता है वे इनकार कर दें या संभव है कुछ कह दें. नहीं, मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगी.

मन में संकल्प ले कर सुबह उठी तो अतुल मौर्निंगवाक से लौट आए थे. मुझे चुपचाप देख कर बोले, ‘‘कल कहां गई थीं? बच्चे कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे थे.’’

मैं शांत भाव से उन्हें निहारने लगी थी. संभव कमरे से गया तो अतुल ने मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘उस सुदूर अतीत की स्मृतियां ताजा करने गई थीं? मैं जानता हूं मुसकान बसु की बेटी है. बसु और रवि की संतान है.’’

‘‘तुम्हें कैसे मालूम?’’ भविष्य की दुश्चिंताओं से घिरी मेरी जबान लड़खड़ने लगी थी.

‘‘बसु की छवि स्पष्ट झलक रही है उस के मुखमंडल पर… मैं तो उसी दिन जान गया था जिस दिन हम शुभेंदु से मिलने गए थे.’’

‘‘इस विषय में संभव से कुछ मत कहिएगा.’’

‘‘नहीं, उसे कभी कुछ मालूम नहीं होगा. वह मुसकान और उस की मां का भूला हुआ अतीत होगा.’’

आज संभव और मुसकान के ब्याह का निमंत्रणपत्र मेरे हाथ में है. मुसकान आज खुश है. बेहद खुश. अब तो मुझे विवाह की मधुर बेला का बेसब्री से इंतजार है.

कविता: क्यों विभाष ने की अपनी पत्नी कि हत्या

विभाष ने पक्का निश्चय कर लिया कि भले ही उसे नौकरी छोड़नी पड़े, लेकिन अब वह दिल्ली में बिलकुल नहीं रहेगा. संयोग अच्छा था कि उसे नौकरी नहीं छोड़नी पड़ी. मैनेजमेंट ने खुद ही उस का लखनऊ स्थित ब्रांच में ट्रांसफर कर दिया.

विभाष के लिए यह दोहरी खुशी इसलिए थी, क्योंकि उस की पत्नी लखनऊ में ही रहती थी. ट्रांसफर का और्डर मिलते ही विभाष जाने की तैयारी में जुट गया, उस ने पैकिंग शुरू कर दी. वह एकएक कर के सामान बैग में रख रहा था. उस के पास एक दरजन से भी ज्यादा शर्ट थीं. उन्हें रखते हुए उसे अंदाजा हो गया कि उस के पास लगभग हर रंग की शर्ट है. लेकिन उन में नीले रंग की शर्टें कुछ अधिक ही थीं. क्योंकि अवी यानी अवनी को नीला रंग ज्यादा अच्छा लगता था.

शुरूशुरू में जब वह अवनी से मिलने जाता था, हमेशा नई शर्ट पहन कर जाता था. अवनी उस के सिर के बालों में अंगुलियां फेरते हुए कहती थी, ‘‘विभाष, नीली शर्ट में तुम बहुत स्मार्ट लगते हो.’’

अवनी के बारबार कहने की वजह से ही नीला रंग उस की पसंद बन गया था. शर्टों को देखतेदेखते उस ने अपना हाथ सिर पर फेरा तो उसे अजीब सा लगा. वह अपना घर खाली कर रहा था, वह रसोई का सारा सामान समेट चुका था. फ्रीज में रखा जूस और ब्रेड भी खत्म हो गई थी. डाइनिंग टेबल पर रखी फलों की टोकरी भी खाली थी.

सब चीजों को खाली देख कर उस से अपने भरे हुए बैग की ओर देखा. उस के मन में आया कि घर खाली करने में वह जितना समय लगाएगा, उसे उतनी ही देर होगी. अभी उस के बहुत काम बाकी था, जिस के लिए उसे काफी दौड़भाग करनी थी.

अभी उस ने बैंक का अपना खाता भी बंद नहीं कराया था. लेकिन इस के लिए वह परेशान भी नहीं था. क्योंकि उस में कोई ज्यादा रकम नहीं थी. थोड़े पैसे पडे़ थे. लेकिन एक बार बैंक मैनेजर से मिलने का उस का मन हो रहा था. बैंक मैनेजर से ही नहीं, अवनी से भी. दिल्ली आ कर उस ने नोएडा में अपनी नौकरी जौइन की थी. तब फाइनेंस मैनेजर गुप्ताजी ने उसे बैंक के खासखास कामों की जिम्मेदारी सौंप दी थी, जो उस ने बखूबी निभाई थी.

विभाष की कार्यकुशलता देख कर ही उसे बैंक के बड़े काम सौंपे गए थे. बैंक मैनेजर मि. शर्मा से उस की अच्छी पटती थी. शर्माजी ने ही उस का परिचय अवनी से कराया था. इस के बाद बैंक के कामों को ले कर उस की अवनी से अकसर मुलाकात होने लगी, जो धीरेधीरे बढ़ती गई.

विभाष और बैंक अधिकारी अवनी की ये मुलाकातें जल्दी ही दोस्ती में बदल गईं. कभीकभी दोनों बैंक के बाहर भी मिलने लगे. उन की इन मुलाकातों में अवनी की अधिक उम्र, 3 साल के बेटे की मां होना और विधवा होने के साथसाथ लोगों की कानाफूसी भी आड़े नहीं आई. उन की दोस्ती और प्यार गंगा में तैरते दीए की तरह टिमटिमाता रहा.

मजे की बात यह थी कि दोनों का एक शौक मेल खाता था, कौफी पीने का. उन्हें जब भी मौका मिलता, अट्टा मार्केट स्थित कौफीहाउस में कौफी पीने पहुंच जाते. कौफी पीते हुए दोनों न जाने कितनी बातें कर डालते. उन में मनीष की यादें भी होती थीं. मनीष यानी अवनी का पति.

ध्रुव की मस्ती का खजाना भी कौफी की सुगंध में समाया होता था. मनीष के साथ शादी और उस की छोटीछोटी आदतों का विश्लेषण भी कौफी की मेज पर होता था. कभीकभी दोनों चुपचाप एकदूसरे को ताकते हुए कौफी की चुस्की लेते रहते.

उस समय दोनों के बीच भले ही मौन छाया रहता, लेकिन दिल कोई मधुर गीत गाता रहता. अवनी के गालों पर आने वाली लटों को विभाष एकटक ताकता रहता. उन लटों से वह कब खेलने लगा उसे पता ही नहीं चला.

मनीष की बातें करते हुए अवनी के चेहरे पर जो भाव आते, वे विभाष को बहुत अच्छे लगते थे. ऐसे में एक दिन उस ने कहा भी था, ‘‘अवनी, तुम्हारी बातों और आंखों में बसे मनीष को मैं अच्छी तरह पहचान गया हूं. लेकिन अब तुम्हारे जीवन में विभाष धड़कने लगा है.’’

यह सुन कर अवनी की आंखों में अनोखी चमक आ गई थी. उस ने कहा था, ‘‘विभाष, मेरी और मनीष की शादी घर वालों की मरजी से हुई थी. पर हमारे प्यार के लय में लैला मजनूं जैसी धड़कनें थीं.’’ यह कहतेकहते उस की आवाज गंभीर हो गई थी. उस ने आगे कहा था, ‘‘मेरा ध्रुव मेरे लिए मनीष के प्यार की भेंट है. अब वही मेरे जीवन का आधार है.’’

विभाष की शादी कुछ दिनों पहले ही हुई थी. उस की पत्नी लखनऊ यूनिवर्सिटी से बीएड कर रही थी. इसलिए वह विभाष के साथ दिल्ली नहीं आ सकी थी. वैसे भी यहां विभाष की नईनई नौकरी थी. वह यहां अच्छी तरह जम कर, अपना फ्लैट ले कर पत्नी को लाना चाहता था.

अब उसे पत्नी के बिना एक पल भी रहना मुश्किल लगने लगा था. एक दिन अवनी ने उस से पूछा भी था, ‘‘तुम यहां से पत्नी के लिए क्या ले जाओगे?’’

जवाब देने के बजाए विभाष अवनी को एकटक ताकता रहा. उसे इस तरह ताकते देख अवनी खिलखिला कर हंसते हुए बोली, ‘‘अरे मेरे बुद्धू राम, तुम यहां से जा रहे हो तो पत्नी के लिए कुछ तो ले जाओगे. उसे क्या पसंद है?’’

‘‘उसे रसगुल्ला बहुत पसंद है.’’ विभाष ने कहा.

अवनी और जोर से हंसी, किसी तरह हंसी को रोक कर उस ने कहा, ‘‘अरे रसगुल्ला तो पेट में जा कर हजम हो जाएगा. तुम्हें नहीं लगता कि कोई ऐसी चीज ले जानी चाहिए, जो महिलाओं को अच्छी लगती हो.’’

विभाष को असमंजस में फंसा देख कर अवनी मुसकरा कर रह गई. कुछ दिनों बाद अवनी ने एक बढि़या सी हरे रंग की साड़ी ला कर विभाष को देते हुए कहा, ‘‘इसे अपनी पत्नी के लिए ले जाइए, उन्हें बहुत अच्छी लगेगी.’’

विभाष कुछ देर तक उस साड़ी को हैरानी से देखता रहा. उस के बाद अवनी पर नजरें जमा कर पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि यह रंग मेरी पत्नी को बहुत पसंद है?’’

‘‘तुम्हारी बातों से.’’ अवनी ने सहज भाव से कहा.

थोड़ी देर तक विभाष कभी साड़ी को तो कभी अवनी को देखता रहा. वह अवनी की दी गई भेंट को लेने से मना नहीं कर सकता था, इसलिए साड़ी ले कर अपने औफिस बैग में रख ली. धीरेधीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ती गईं. यह नजदीकी कोई और रूप लेती, उस के पहले ही विभाष ने वह समाचार ‘प्रेमिका के लिए पत्नी की हत्या’ पढ़ा. ऐसे में उस का घर ही नहीं जिंदगी भी बिखर सकती थी.

वह भूल गया था कि यहां रह कर वह अवनी से दूर नहीं रह सकता. इसीलिए उस ने वापस जाने का निर्णय लिया था. उस के बौस उस के काम से खुश थे. इसलिए उसे अपने लखनऊ स्थित औफिस में शिफ्ट कर दिया था. इस तरह उस की नौकरी भी बची रहती और वह अपनी पत्नी के पास भी पहुंच जाता.

उस ने अलमारी से अवनी द्वारा दी गई साड़ी निकाली. कुछ देर तक साड़ी को देखने के बाद उस ने जैसे ही बैग में रखी, डोरबेल बजी. कौन हो सकता है. उस ने सब के पैसे तो दे दिए थे. अपने जाने की बात भी बता दी थी.

उस ने दरवाजा खोला तो सामने अवनी को खड़ा देख हैरान रह गया. वह इस वक्त आ सकती है, उसे जरा भी उम्मीद नहीं थी, इसीलिए वह उसे अंदर आने के लिए भी नहीं कह सका. अवनी उस का हाथ पकड़ कर अंदर ले आई. विभाष उसे देखने के अलावा कुछ कह नहीं सका.

अवनी के अंदर आते ही जैसे एक तरह की सुगंध ने उसे घेर लिया. उस सुगंध ने उस के मन को ही नहीं, बल्कि देह को. खास कर आंखें को घेर लिया था. उस का मन अभी भी मानने को तैयार नहीं था कि अवनी उस के कमरे में उस के साथ मौजूद है. जबकि अवनी उस का हाथ थामे उस के समने खड़ी थी.

सुगंध उस की आंखों में भरी थी, जो मन को लुभा रही थी. क्योंकि अवनी एक मस्ती भरे झोंके की तरह थी. वह कब खुश हो जाए और कब नाराज, अंदाजा लगाना मुश्किल था. तभी उसे कुछ दिनों पहले की बात याद आ गई.

अचानक एक दिन अवनी ने कौफी पीने जाने से मना कर दिया था. ऐसा क्यों हुआ, विभाष अंदाजा भी नहीं लगा सका. उस ने भी अवनी से कौफी पीने चलने का आग्रह नहीं किया. कुछ कहे बगैर वह वहां से चला गया. जहां वह हमेशा कौफी पीता था, वहीं गया.

अवनी ने कौफी पीने से मना कर दिया था, इसलिए कौफी पीने का उस का भी मन नहीं हुआ. आखिर में बगैर कौैफी पिए ही वह घर लौट आया. विभाष इतना ही सोच पाया था कि अवनी रसोई के पास आ कर बोली, ‘‘कौफी है या वो भी खत्म कर दी?’’

अब तक विभाष को घेरने वाली मनपसंद सुगंध हट गई थी. उस ने आंखें झपकाते हुए कहा, ‘‘नहीं…नहीं, कौफी की शीशी अपनी जगह पर रखी है.’’

कहता हुआ विभाष अवनी के पीछेपीछे किचन में आ गया. उस ने किचन की छोटी सी अलमारी से सारा सामान समेट लिया था.

लेकिन कौफी की शीशी और चीनी रखी थी. उस में से कौफी की शीशी निकाल कर अवनी के हाथ में रख दी. अवनी कौफी बनाने लगी तो वह बाहर आ गया. अवनी कौफी के कप ले कर कमरे में आई तो विभाष वहां नहीं था. उसे कौफी की सुगंध बहुत पसंद थी. वह वहां से चला गया, यह सोचते हुए अवनी कौफी से निकलती भाप को देखती रही.

पलभर बाद विभाष हांफता आया तो उस के हाथों में मोनेको और मेरी गोल्ड बिस्किट के पैकेट थे. अवनी ने कहा, ‘‘आज तो बिना बिस्किट के भी चल जाता.’’

‘‘जो आदत है, वह है. उस के बिना कैसे चलेगा?’’ विभाष ने कहा.

‘‘तुम्हारे बिना तो अब चलाना ही पड़ेगा.’’ अवनी ने कहा.

इसी के साथ दोनों की नजरें मिलीं, जैसे बिना गिरे कोई चीज व्यवस्थित हो जाए. उसी तरह उन की नजरें व्यवस्थित हो गई थीं. अवनी ने पूछा, ‘‘अभी तुम्हारी कितनी पैकिंग बाकी है?’’

‘‘लगभग हो ही गई है.’’

‘‘तो आज आखिरी बार साथ बैठ कर कौफी पी लेते हैं.’’ कहते हुए अवनी कौफी के दोनों कप ले कर बालकनी में आ गई. वहां पड़ी प्लास्टिक की कुरसी पर बैठते हुए अवनी ने कहा, ‘‘तुम्हें यहां आए कितने दिन हुए?’’

विभाष ने कौफी की चुस्की लेते हुए कहा, ‘‘करीब 1 साल.’’

‘‘मुझे अच्छी तरह याद है. तुम्हें यहां आए 11 महीने 10 दिन हुए हैं.’’ अवनी ने कहा.

विभाष ने कोई जवाब नहीं दिया. क्योंकि वह जानता था कि बैंक अधिकारी अवनी का जोड़नाघटाना गलत नहीं हो सकता. अवनी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम जब भी आए, अपनी जानपहचान को गिनो तो एक लंबा अरसा हो गया, लेकिन देखा जाए तो यह कोई बहुत लंबा अरसा भी नहीं है.

‘‘तुम्हारे आने से जिंदगी जीने के लिए मुझे एक साथी मिल गया था. मैं मनीष की यादों के साथ जी रही थी और आज भी जी रही हूं. पर तुम से दोस्ती होने के बाद हमारी यानी मेरी और मनीष की यादों का बुढापा जाता रहा. हम कितनी बार कौफी हाउस में साथसाथ बैठे, ध्रुव को ले कर पार्क में बैठे. वहां बैठ कर डूबते सूरज को साथसाथ देखते रहे. कितने मनपसंद काम साथसाथ किए.’’

‘‘अवनी, तुम यह बातें इस तरह बता रही हो, जैसे कविता पढ़ रही हो.’’ विभाष ने कहा. उसे अवनी के मुंह से यह सब कहना अच्छा लग रहा था.

‘‘अपनी दोस्ती भी तो एक कविता की ही तरह है.’’ अवनी ने आंख बंद कर के कहा.

‘‘मुझे लगता है कि अपनी इस दोस्ती को कविता की ही तरह रखना है तो हमारा अलग हो जाना ही ठीक है.’’

इतना कह कर अवनी खड़ी हो गई. विभाष ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘मैं तुम्हारी बात को ठीक से समझ नहीं सका. जरा अपनी बात को इस तरह कहो कि समझ में आ जाए.’’

‘‘विभाष, तुम ने मुझे जितने भी दिन दिए, वे मेरे लिए यादगार रहेंगे. मैं ने तुम्हें अपने मन मंजूषा में संभाल कर रख लिया है. यह थोड़ा मनपसंद समय और लंबा खिंचता तो उसे समय की नजर लग सकती थी. उस में न जाने कितनी झूठी सच्ची बातों और घटनाओं का टकराव होता. तुम्हारी शादी अनीशा से हुई है. तुम सुख से उस के साथ अपना जीवन व्यतीत करो. मैं अपनी जिंदगी मनीष की यादों और ध्रुव को पालने- पोसने में बिता लूंगी.

‘‘वादा करो कि तुम मुझे कभी ईमेल नहीं करोगे. जब कभी मेरी याद आए, अनीशा का हाथ पकड़ कर अस्त होते सूर्य को देखना और प्यार की छोटीछोटी कविताएं पढ़ कर सुनाना. अपना जीवन सुखमय बनाना.’’ इतना कह कर अवनी ने विभाष के गाल पर हल्के से चुंबन करते हुए कहा, ‘‘विभाष, मुझे तो प्यार की मीठी कविता होना है, महाकाव्य नहीं.’’

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पथभ्रष्ठा- भाग 3: बसु न क्यों की आत्महत्या

1 वर्ष बाद शुभेंदु ने दिल्ली पहुंचते ही कई प्रतिष्ठित कंपनियों में अपना आवेदनपत्र भेजना शुरू कर दिया. साक्षात्कार के लिए उन्हें बुलाया भी गया. शुभेंदु की शिक्षा और खाड़ी देश के अनुभव को देखते हुए कंपनियां उन्हें मोटी पगार के साथ, दुबई जैसी सारी सुविधाएं भी देने को तैयार थीं, किंतु बसु नोएडा स्थित बुटीक को छोटे से कारखाने में बदल कर रेडीमेड कपड़ों के आयातनिर्यात का काम शुरू करने की योजना बना चुकी थी.

निर्यात किए गए माल की देखभाल करने के लिए बसु ने दुबई में एक औफिस खोलने की बात पर जोर दिया तो शुभेंदु घबरा गए. बोले, ‘‘पेशे से इंजीनियर हूं. मैं ने बिजनैस कभी नहीं किया है. मैं ने जो कुछ कमाया है. कहीं ऐक्सपोर्ट और दुबई औफिस के चक्कर में उसे भी न गंवा दूं.’’

लेकिन बसु को ठहराव से नफरत थी. उसे तो आंधीतूफान की तरह बहना और उड़ना ही रुचिकर लगता था. अपने रूपजाल से शुभेंदु को ऐसा दिग्भ्रमित किया कि वे भी मान गए.

नोएडा, में कारखाने के नियंत्रण और संचालन का कार्यभार रवि ने अपने ऊपर ले लिया था. वह स्मार्ट तो था ही, चतुर भी था. पुलिस से ले कर, राजनेताओं तक उस की पहुंच थी, शुभेंदु को भी उस ने आश्वस्त किया कि जब तक बसु बिजनैस संभालने में पूर्णरूप से सक्षम नहीं हो जाती वह तब तक बसु के साथ रहेगा.

शुभेंदु निश्चिंत हो कर दुबई चले गए. अपना व्यवसाय आगे बढ़ाने के लिए बसु ने अपनी चालढाल बदली, वेशभूषा बदली, अंगरेजी बोलना सीखा. रवि हमेशा, साए की तरह उस के साथ रहता. उसे, अपनी कार में बैठा कर ले जाता. शाम ढलने के बाद छोड़ जाता. कभीकभी रात में भी वह उस के घर ठहर जाता था. जब तक रवि घर से बाहर नहीं निकलता था. महल्ले वालों की निगाहें बसु के घर पर ही चिपकी रहती थीं. महिलाएं बसु के विरुद्ध खूब विष उगलतीं, ‘‘कैसी बेहया औरत है? अपने मर्द को विदेश भेज कर दूसरे मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है.’’

लोगों की आलोचनाएं मां को दंश सी पीड़ा देतीं. बेटी मानती थीं वे बसु को. उदास मन से कहतीं, ‘‘इस का यह बिजनैस प्रेम इसे कहीं का नहीं छोड़ेगा.’’

भैया शुरू से ही इस लाइन में थे. अत: मां को दिलासा देते, ‘‘बिजनैस बढ़ाने के लिए लोगों से मेलजोल बढ़ाना ही पड़ता है न. बुरे खयाल मन से निकाल दीजिए.’’

मां फिर भी परेशान दिखतीं, ‘‘मजबूत पांव उड़ान भरने के लिए लालायित रहते हैं. यह तो मैं भी समझती हूं, लेकिन परिंदे को इतना ध्यान तो रखना ही पड़ता है कि थक जाने पर पांव टिकाने लायक जमीन को न तरस जाए.’’

भाभी भी मां का समर्थन करतीं, ‘‘समाज का डर न सही. फिर भी, क्या यह सब खुद अपने लिए ठीक है? पति है, बेटे हैं… रवि भी तो शादीशुदा है… बसु 1 नहीं, 2 गृहस्थियां बरबाद कर रही है.’’

‘‘तेरी तो मित्र है बसु. तू क्यों नहीं समझाती उसे?’’ मां ने मुझ से कहा, तो मैं संकोच से घिर गई किसी के निजी जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार मुझे नहीं है. किंतु मां और भाभी के बारबार उकसाने पर मैं ने यह प्रसंग बसु के सामने छेड़ दिया था.

सुनते ही बसु सुलग उठी थी, ‘‘तू भी आ गई लोगों की बातों में.’’

‘‘बसु, समझने की कोशिश कर. यह इस जमाने की सोने की लंका है. जिस पर सोने का मुलम्मा चढ़ा होता है. पर यह मुलम्मा उतरता है तो पीतल ही निकलता है.’’

लेकिन मेरी बात उस के सिर के ऊपर से निकल गई थी. उस ने तो हिमपात में घोंसला बनाने का संकल्प ले लिया था.

कुछमहीनों बाद शुभेंदु दिल्ली लौटे, ढेर सारे उपहार लिए. जितने दिन दिल्ली रहे रवि कम आता था. उन दिनों बसु भी अनमनी सी रहती थी. ऐसा लगता जैसे वह बेसब्री से उन के लौटने की राह देख रही हो. शुभेंदु जितना उस के करीब आने की कोशिश करते बसु उन से उतनी ही दूर रहती थी. सहृदय, सरल स्वभाव वाले शुभेंदु एक पल के लिए भी समझ नहीं पाए थे कि कुछ अनर्थ घटने वाला है. बसु ने अपनी वाक्पटुता से बच्चों को भी होस्टल भेज दिया था.

3 हफ्ते रह कर शुभेंदु दुबई लौट गए. धीरेधीरे उन का बिजनैस पूरे दुबई में फैलता जा रहा था. शुभेंदु का दिल्ली बहुत कम आना हो पाता था. अब महीनों  बसु का चेहरा भी दिखाई नहीं देता था. मां ने मेरे विवाह के बहाने उस से अपना मकान खाली करवा लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि मेरी भावी ससुराल में किसी को इस बात की भनक भी लगे कि हमारा उठनाबैठना बसु जैसी महिला के साथ है.

बिजनैस के सिलसिले में जमती कौकटेल पार्टियां और कौकटेल के बीच उठते ठहाके… समय चुपचाप रिसता चला गया. चौंकी तो वह तब थी जब रवि का अंश उस की कोख में पलने लगा था.

हमारी शादी को अभी कुछ महीने ही हुए थे कि अतुल को 1 माह के टूर पर चैन्नई जाना पड़ा. मैं उस समय गर्भवती थी. कमरे में झांक कर देखा तो मां के पास बसु बैठी थी. मांग में सिंदूर, हाथों में लाल चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी. सभी सुहागचिह्नों से सजी बसु ने जैसे ही रवि के साथ अपने ब्याह और गर्भवती होने की सूचना दी मैं जड़ हो गई. उस के चेहरे पर कुतूहल था. मां ने बसु को घूरा, फिर मुझे निहारा. उस के सामने अब मेरा ठहरना उन के लिए असुविधाजनक हो गया था, जिसे बसु जैसी व्यवहारकुशल स्त्री भांप चुकी थी. अत: चुपचाप वहां से चली गई.

‘‘न जाने क्यों चली आती है? महल्ले भर में इस की चर्चा है. इसीलिए तो मैं ने इसे तेरे ब्याह पर भी नहीं बुलाया था. कलंकिनी ने अपने पति को ही नहीं, अपने पितृकुल और ससुरकुल तक को कीचड़ में घसीट दिया,’’ मां की बड़बड़ाहट शुरू हो गई.

मैं अपने कमरे में आ गई. शुभेंदु का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ गया. तिनकातिनका कर के उन्होंने घोंसला बनाया. प्यार और विश्वास से सींचा और यह मृगमरीचिका सी चिडि़या फुर्र से उड़ गई. सम्मान, गौरव, आभिजात्य, कोई भी बंधन इसे रोक नहीं पाया. जब सब कुछ मिल जाए तो उस की अवमानना में ही सुख मिलता है. इन्हीं विचारों की गुत्थियों में उलझतेसुलझते मैं ने पूरी रात काट दी.

एक दिन मैं मां और भाभी के साथ लौनमें बैठी सुबह की चाय का आनंद ले रही थी. भैया अपने लैपटौप पर काम कर रहे थे कि तभी चीखपुकार, मारपीट के स्वर सुनाई दिए. नजर सामने के जंग खाए फाटक के भीतर चली गई जहां टूटेफूटे पीले मकान में तमाम आलोचनाओं की केंद्र बसु अपने दूसरे पति के साथ रह रही थी.

मैं ने मां से उस के विषय में पूछा तो वे गहरी सांस भर कर बोलीं, ‘‘यह सब तो रोज का काम है. पाप पेट में पलता है तो उस की यही परिणति होती है. बस यह समझ ले कारावास की सजा भुगत रही है.’’

कुछ समय बाद भैया दफ्तर के लिए निकले ही थे कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो द्वार पर बसु की कामवाली घबराई हुई खड़ी थी. साथ में छोटी सी बच्ची भी थी. मांबेटी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

जब मैं ने पूछा कि क्या हुआ तो कांपते स्वर में बाई ने बताया, ‘‘बसु सीढि़यों से गिर पड़ी है.’’

तभी उस की बच्ची बोल पड़ी, ‘‘झूठ मत बोलो मां, बाबूजी ने धक्का दिया है. पीठ पर भी मारा है.’’

पथभ्रष्ठा- भाग 2: बसु न क्यों की आत्महत्या

मुझे यों अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के अपने घर पर देख कर शुभेंदु अचरज में पड़ गए. राजेश और महेश अपनीअपनी पत्नी को ले कर काम पर निकल गए थे. इसीलिए मुझे अपने मन की बात कहने के लिए विशेष भूमिका नहीं बांधनी पड़ी. बातचीत को लंबा न खींच कर मैं ने शुभेंदु से मुसकान के बारे में प्रश्न किया, तो उन्होंने मुझे बताया कि मुसकान उन की गोद ली हुई बेटी है. यह बात तो मैं भी जानती थी, पर किस की बेटी है. मैं यह जानना चाह रही थी.

‘‘मुसकान, बसु की बेटी है… बसु और रवि…’’ उन्होंने नजरें नीची कर के बताया. तो ऐसा लगा, मानो एकसाथ कई हथौड़ों ने मेरे सिर पर प्रहार कर दिया हो. सब कुछ तो सामने था. उजली धूप सा. कुछ देर के लिए हम दोनों के बीच मौन सा छा गया.

शुभेंदु ने धीमे स्वर में अपनी बात कही, ‘‘तुम जानती हो, बसु ने रवि की हत्या कर के खुद भी नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या कर ली थी… इस बच्ची को पुलिस अपने साथ ले गई और नारी सेवा सदन में डाल दिया. ऐसे बच्चों का आश्रय स्थल ये अनाथाश्रम ही तो होते हैं. समझ में नहीं आता इस पूरी वारदात में मुसकान का क्या दोष था. मैं अनाथाश्रम संचालक से बातचीत कर के मुसकान को अपने घर ले आया. थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर शुभेंदु ने मुझे आश्वस्त किया. चारु मुसकान की रगों में मेरा खून प्रवाहित नहीं हो रहा है. पर उस में मेरे ही संस्कार हैं. वह मेरी देखरेख में पली है. उस के अंदर तुम्हें अंगरेजी और हिंदू संस्कृति का सम्मिश्रण मिलेगा. संभव और मुसकान का विवाह 2 संस्कृतियों, 2 विचारधाराओं का सम्मिश्रण होगा. मुझे पूरा विश्वास है, मुसकान एक आदर्श बहू और पत्नी साबित होगी.’’

मैं ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘मुसकान को यह सब मालूम है?’’

‘‘नहीं. शुरू में मुसकान हर समय डरीसहमी रहती थी. उस ने अपनी आंखों के सामने हत्या और अगले ही दिन मां की मौत देखी थी. वह कई बार रात में भी चिल्लाने लगती थी. उस के मन से उस भयानक दृश्य को मिटाने में मुझे काफी परिश्रम करना पड़ा था. इसीलिए पहले मैं ने शहर छोड़ा और फिर देश. लंदन में आ कर बस गया. नन्हे बच्चों का दिल स्लेट सा होता है. जरा सो पोंछ दो तो सब कुछ मिट जाता है.’’

उस के बाद वे नन्ही मुसकान की कई तसवीरें ले आए जिन से स्पष्ट हो गया कि मुसकान बसु की ही बेटी है. घटनाएं यों क्रम बदलेंगी, किस ने सोचा था?

उस रात मैं सो नहीं पाई थी. मन परत दर परत अतीत में विचर रहा था. बसु मेरी आंखों के सामने उपस्थित हो गई थी. जिस के साथ मेरा संबंध सगी बहन से भी बढ़ कर था.

30 वर्ष पूर्व बसु मां के पास मकान किराए पर लेने आई थी. साथ में शुभेंदु भी थे. वह सुंदर थी, स्मार्ट थी. मृदुभाषिणी इतनी कि किसी को भी अपना बना ले. शुभेंदु सिविल इंजीनियर थे. स्वभाव से सहज सरल थे और सलीकेदार भी थे. थोड़ीबहुत बातचीत के बाद पुरानी जानपहचान भी निकल आई तो मां पूरी तरह आश्वस्त हो गई थीं और मकान का पिछला हिस्सा उन्होंने किराए पर दे दिया था.

शुभेंदु सुबह 8 बजे दफ्तर के लिए निकलते तो शाम 8 बजे से पहले नहीं लौटते थे. बसु अपने दोनों बेटों को स्कूल भेज कर हमारे घर आ जाती थी. मां से पाक कला के गुर सीखती. नएनए डिजाइन के स्वैटर बनाना सीखती. बसु कुछ ही दिनों में हमारे परिवार की सदस्य जैसी बन गई थी. मां उसे बेटी की तरह प्यार करतीं. मुझे भी उस के सान्निध्य में कभी बहन की कमी महसूस नहीं होती थी.

कुछ ही दिनों के परिचय में मैं इतना जान गई थी कि बसु बेहद महत्त्वाकांक्षी है. उस में आसमान को छूने की ललक है. जो कुछ अब तक जीवन में नहीं मिला था, उसे वह अब किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहती थी. चाहे इस के लिए उसे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े.

एक दिन बसु बहुत खुश थी. पूछने पर उस ने बताया कि शुभेंदु को दुबई में नौकरी मिल रही है. 50 हजार प्रतिमाह तनख्वाह मकान, गाड़ी, बोनस सब अलग. लेकिन शुभेंदु जाना नहीं चाहते. कह रहे हैं कि कभी तो यहां भी नहीं है. अच्छी गुजरबसर हो ही रही है.

‘‘सिर ढको तो पैर उघड़ जाते हैं और पैर ढको तो सिर उघड़ जाता है,’’ बसु ठठा कर हंस दी थी, ‘‘बच्चे बड़े हो रहे हैं. धीरेधीरे खर्चे भी बढ़ेंगे. इस मुट्ठी भर तनख्वाह से क्या होगा?’’ फिर गंभीर स्वर में से मां बोली, ‘‘चाची आप ही समझाइए इन्हें. ऐसे मौके जिंदगी में बारबार नहीं मिलते.’’

‘‘तुम भी जाओगी शुभेंदु के साथ?’’ मां के चेहरे पर चिंता के भाव दिखाई दिए थे.

‘‘नहीं, सब के जाने से खर्च ज्यादा होगा… बचत कहां हो पाएगी?’’ यह सुन मां के मन का कच्चापन सख्त हो उठा. बोलीं, ‘‘भरी जवानी में पति को अकेले विदेश भेजना कहां की समझदारी है?’’

लेकिन बसु अपनी ही बात पर अटल थी, ‘‘जवानी में ही तो इंसान चार पैसे जोड़ सकता है. एक बार आमदनी बढ़ी तो जीवन स्तर भी बढ़ेगा. सुखसुविधा के सारे साधन जुटा सकेंगे हम… छोटीछोटी चीजों के लिए तरसना नहीं पड़ेगा.’’

शुभेंदु चुपचाप पत्नी की बातें सुनते रहे. बसु की धनलोलुपता के कारण अकसर उन के आपसी संबंधों में कड़वाहट आ जाती थी. शुभेंदु तीव्र विरोध करते. अपनी सीमित आय का हवाला देते. पर बसु निरंतर उन पर दबाव बनाए रखती थी.

आखिर शुभेंदु दफ्तर से इस्तीफा दे कर दुबई चले गए. उन का फोन हमेशा ही घर आता था. उन की बातों में ऐसा लगता था जैसे दुबई में उन का मन नहीं लग रहा है.

बसु उन्हें समझाती, दिलासा देती, ‘‘अपने परिवार से दूर, नए लोगों के साथ तालमेल स्थापित करने में कुछ समय तो लगता ही है. 1 साल का ही तो प्रोजैक्ट है. देखते ही देखते समय बीत जाएगा.’’

शभेंदु नियमित पैसा भेजने और बसु बड़ी ही समझदारी से उस पैसे को विनियोजित करती. कुछ ही दिनों में उन की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गई. नोएडा में उन्होंने 200 गज का एक प्लाट भी खरीद लिया.

एक दिन अचानक बसु निर्णयात्मक स्वर में बोली, ‘‘पूरा दिन बोर होती रहती हूं. सोच रही हूं, आधे प्लाट पर शेड डाल कर एक छोटा सा बुटीक खोल लूं.’’

‘‘बच्चे बहुत छोटे हैं बसु. उन्हें छोड़ कर इतनी दूर कैसे संभाल पाओगी बुटीक? आनेजाने में ही अच्छाखासा समय निकल जाएगा,’’ मां ने अपने अनुभव से उसे सलाह दी.

‘‘मैं तो हफ्ते में 2-3 दिन ही जाऊंगी. बाकी दिन काम रवि संभाल लेंगे?’’

‘‘कौन रवि,’’ मां की भृकुटियां तन गईं, माथे पर बल पड़ गए.

‘‘मेरे राखी भाई. दरअसल, उन्हीं के प्रोत्साहन से मैं ने यह काम शुरू करने की योजना बनाई है?’’

‘‘शुभेंदु से अनुमति ले ली है?’’ मां ने पूछा.

मां शुरू से ही शंकालु स्वभाव की थीं. उन्हें इन राखी भाइयों पर विश्वास नहीं था. बसु ने मां को आश्वस्त किया था, ‘‘चाची, आप क्यों घबरा रही हैं? रवि शुभेंदु के भी परिचित हैं और शादीशुदा भी… मैं जानती हूं इस काम के लिए कभी मना नहीं करेंगे.’’

जाल: अनस के साथ क्या हुआ था

लल्लन मियां ने बहुत मेहनत से यह गैराज बनाया था और आज उन का यह काम इतना बढ़ गया था कि लल्लन मियां के सभी बेटे भी इसी काम में लग गए थे.

पर आजकल गैराज के काम में भी कंपीटिशन बहुत बढ़ गया था. ग्राहक भी यहांवहां बंट गए थे, जिस के चलते धंधा थोड़ा मंदा हो गया था. इस से लल्लन मियां थोड़ा परेशान भी रहते थे. उन की परेशानी की वजह थी कि उन का मकान अभी पूरी तरह से बन नहीं पाया था.  2 कमरे और एक रसोईघर ही थी.

लल्लन मियां के 3 बेटे थे, जिन में से 2 बेटों की शादी हो चुकी थी और तीसरा बेटा अनस अभी तक कुंआरा था.

दोनों बहुओं का दोनों कमरों पर कब्जा हो गया. अम्मीअब्बू बरामदे में सो जाते और अनस आंगन में.

पता नहीं क्यों, पर जब भी अनस के अब्बू उस से रिश्ते की बात करते, तो वह उन की बात सिरे से ही खारिज कर देता.

‘‘अब अनस से क्या कहूं…? तुम्हीं बताओ अनस की अम्मी कि वह अब  25 बरस का हो चुका है… शादी करने की सही उम्र है और फिर फरजाना जैसी अच्छी लड़की भी तो न मिलेगी… पर यह मानता ही नहीं,’’ लल्लन मियां अनस की अम्मी से मशवरा कर रहे थे.

‘‘अजी, आप इतनी गरमी से बात मत करो… जवान लड़का है… क्या पता, कहीं उस के दिमाग में किसी और लड़की का खयाल बसा हो…? मैं अपने हिसाब से पता लगाती हूं,’’ अनस की अम्मी ने शक जाहिर करते हुए कहा.

जुम्मे वाली रात को अम्मी ने अनस को अपने पास बिठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए कहने लगीं, ‘‘देख अनस, तेरे अब्बू ने बड़ी मेहनत से इस परिवार की खुशियों को संजोया है. यह छोटा सा मकान बनवा कर उन्होंने अपने सपनों में सुनहरे रंग भरे हैं और अब हम दोनों ही यह चाहते हैं कि तेरी शादी अपनी इन आंखों से देख लें.’’

‘‘पर अम्मी, मैं तो अभी निकाह करना ही नहीं चाहता,’’ अनस बोला.

‘‘देख बेटा, हर चीज की एक उम्र होती है और तेरी शादी कर लेने की उम्र हो गई है. हां, अगर कोई लड़की खुद  के लिए पसंद कर रखी हो, तो मुझे बेफिक्र हो कर बता सकता है. मैं किसी से नहीं कहूंगी.’’

‘‘नहीं अम्मी, ऐसी तो कोई बात नहीं है,’’ इतना कह कर अनस चला गया.

अगले दिन ही अनस ने शमा से मुलाकात की.

‘‘सब लोग मेरे पीछे पड़े हैं…  शादी कर लो, शादी कर लो,’’ अनस परेशान हालत में कह रहा था.

‘‘तो कर लो शादी… इस में हर्ज ही क्या है?’’ शमा ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम अच्छी तरह से जानती हो शमा कि अब्बू ने बड़ी मुश्किल से 2 कमरे का मकान बनवाया है. उन दोनों कमरों में दोनों बड़े भाई रह रहे हैं. अब तुम ही बताओ कि मैं शादी कर के भला क्या तुम्हें आंगन में बिठा दूं…’’ अनस काफी गुस्से में था.

‘‘अब तो ऐसे में हमारे सामने सिर्फ 2 ही रास्ते हैं… पहला रास्ता यह है कि हम शादी कर लें और उसी घर में जैसेतैसे गुजारा करें. दूसरा रास्ता यह है कि हमतुम पैसे जमा करें और जो छोटीमोटी रकम जमा हो सके, उस  से एक छोटा सा कमरा बनवा लें,’’ शमा ने कहा.

दरअसल, अनस ने अपनी जिंदगी में एक वह समय भी देखा था, जब अब्बू ने प्लाट खरीदने के बाद दीवारें तो खड़ी कर ली थीं, पर पैसों की तंगी के चलते कमरे बनवा पाना उन के बस में नहीं रह गया था.

इस से अनस के दोनों बड़े भाइयों कमर और जफर को दिक्कत हुई, क्योंकि दोनों शादीशुदा थे और दिनभर के काम के बाद अपनी बीवियों के साथ रात गुजारें भी तो कैसे?

हालात कुछ ऐसे बने कि दोनों भाइयों की चारपाई अलग और उन की बीवियों की चारपाई अलग पड़ने लगी.

पर भला ऐसा कब तक चलता? उन सभी की जिस्मानी जरूरत उन लोगों को एकसाथ रात गुजारने को कहती थी, पर हालात के चलते ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं लग रहा था.

अपनी जिस्मानी जरूरत और रात गुजारने की मुहिम की शुरुआत करने में पहला कदम बड़े भाई कमर ने उठाया. बड़े ही करीने से कमर ने अपनी चारपाई को दीवार से सटा कर डाल दिया और उस के ऊपर आड़ेतिरछे बांस अड़ा कर एक खाका बनाया और उस के ऊपर से एक बेहतरीन टाट का परदा डाल दिया. अब यह जगह ही कमर और बीवी का ड्राइंगरूम थी और यही जगह उन का बैडरूम भी.

छोटे भाई जफर को यह सब थोड़ा अजीब भले ही लगा हो, पर उस ने कभी हावभाव से कुछ जाहिर नहीं होने दिया. अलबत्ता, कुछ दिनों के बाद उस ने भी दूसरी दीवार के पास अपनी चारपाई डाल कर उसे भी टाट से कवर कर के अपना बैडरूम बना लिया.

कमर और जफर और उन की बीवियां तो अब टाट के परदे के अंदर सोते और बाकी सब लोग आंगन में,

अनस के दोनों बड़े भाई बेफिक्री से रात में अपनी शादीशुदा जिंदगी का मजा लूटते, पर उन लोगों की चारपाई की चूंचूं की आवाज अनस की नींद खराब करने को काफी होती. भाभियों की खनकती चूडि़यां अनस को बिना कुछ देखे ही टाट के अंदर का सीन दिखा जातीं.

कुंआरा अनस आंगन में लेटेलेटे ही बेचैन हो उठता. कुछ समय तक एक खास अंदाज में चारपाई की चूंचूं होती और उस के बाद एक खामोशी छा जाती. कहने को तो हर काम परदे में हो रहा था, पर हर चीज बेपरदा हो रही थी.

अगर किसी रात में कमर की चारपाई पर खामोशी रहती, तो जफर की चारपाई पर आवाजें शुरू हो जातीं. अनस अकसर सोचता कि भला ये आवाजें अम्मीअब्बू को सुनाई नहीं देती होंगी क्या? क्या वे लोग जानबूझ कर इन आवाजों को अनसुना कर देते हैं?

रात में होने वाली इन आवाजों से अनस परेशान हो जाता. उस के भी कुंआरे मन में कई उमंगें जोर मारने लगतीं और वह कभीकभार तो अपने बिस्तर पर ही उठ कर बैठ जाता और जब सुबह के समय गैराज में नींद न पूरी होने के चलते काम में उस का मन नहीं लगता, तब अब्बू और उस के बड़े भाई उसे डांटते.

ये सारी परेशानियां कम जगह और पैसे की तंगी के चलते ही तो थीं. अनस हमेशा ही एक अलादीन के चिराग की खोज में रहता, जिस से उस की सारी माली तंगी दूर हो जाती.

हालांकि वक्त हमेशा एकजैसा नहीं रहता. कमर और जफर ने खूब मेहनत कर के पैसा इकट्ठा किया और छोटेछोटे 2 कमरे बनवा लिए, जिन्हें दोनों शादीशुदा भाइयों ने आपस में बांट लिया.

पर, अनस और अम्मीअब्बू के लिए अब भी कमरा नहीं था. वे सब अब भी बाहर बरामदे में ही सोते थे.

पैसे और जगह की तंगी के चलते ही अनस ने अपने मन में यह फैसला ले लिया था कि जब तक घर में रहने के लिए एक कमरा नहीं बनवा लेगा, तब तक वह शादी के लिए हामी नहीं भरेगा और इसीलिए अनस ने अब तक शादी के लिए हामी नहीं भरी थी.

उस दिन पता नहीं क्यों शमा फोन पर बहुत घबराई हुई थी, ‘हां अनस… आज ही तुम से मिलना जरूरी है… बताओ, कहां और कितनी देर में मिल सकोगे?’

‘‘हां… मिल तो लूंगा… पर सब खैरियत तो है?’’

पर उस की इस बात का शमा ने कोई जवाब नहीं दिया. फोन काटा जा चुका था.

दोपहर को 2 बजे शमा और अनस उसी पार्क में एकसाथ थे, जहां वे अकसर मिला करते थे.

‘‘अब्बू मेरा निकाह कहीं और करने जा रहे हैं… अगर मुझ से निकाह  नहीं करना है तो कोई बात नहीं,’’ शमा ने कहा.

‘‘अरे, ऐसी कोई बात नहीं है. पर जब तक मैं अपने घर में एक कमरा न बनवा लूंगा, तब तक कैसे निकाह कर लूं, तुम्हीं बताओ?’’ अनस ने अपनी परेशानी जाहिर की.

‘‘हां… मैं तुम्हारे घर की परेशानी समझती हूं, पर एक कमरा न सही तो क्या हुआ, जहां दिलों में गुंजाइश होती है वहां सबकुछ हो जाता है… और फिर मेरे हाथों में भी हुनर है. शादी के बाद मैं भी कशीदाकारी का काम करूंगी और हम दोनों मिल कर पैसे कमाएंगे तो हम एक कमरा बहुत जल्दी ही बनवा लेंगे,’’ शमा ने राह सुझाई.

अनस बेचारा दोराहे पर फंस गया था. अगर वह शमा से निकाह करता है, तो उस के घर में कमरे की परेशानी है. और अगर यह बात सोच कर वह शादी नहीं करता है, तो शमा ही उस की जिंदगी से चली जाएगी… क्या करे और क्या न करे?

इसी ऊहापोह में अनस गैराज में आ कर काम करने लगा, पर उस का मन काम में न लगता था. बारबार उस की आंखों के सामने शमा का चेहरा घूम जाता था और वह खुद को एक हारा हुआ खिलाड़ी महसूस करने लगता था.

एक दिन जब अनस को और कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उस ने अपनी और शमा की मुहब्बत के बारे में अम्मी को सबकुछ बता दिया.

अम्मी को अनस की यह साफगोई पसंद आई और उन्होंने भी अब्बू से बात कर के शमा के घर पैगाम भिजवा दिया.

शमा के घर वाले भी सुलझे हुए लोग थे. उन्होंने भी रिश्ता पक्का करने में कोई देरी नहीं की और अनस का निकाह शमा के साथ कर दिया गया.

घर के दोनों कमरों में बड़े भाईभाभियों का कब्जा था. लिहाजा, अपनी शादी की पहली रात में अनस को भी एक दीवार का ही सहारा लेना पड़ा. उस ने अपनी चारपाई एक दीवार के सहारे लगा कर उस पर एक सुनहरे रंग का परदा लगा दिया.

‘‘नई दुलहन के लिए कोई भाभी अपना कमरा 2-4 दिन के लिए खाली नहीं कर सकती थी क्या? पर नहीं… यहां तो बूढ़ों के भी रंगीन ख्वाब हैं,’’ भनभना रहा था अनस.

पूरी रात अनस ने शमा को हाथ भी नहीं लगाया, क्योंकि वह चारपाई से निकलने वाली आवाजों से अनजान न था. अपने मन को कड़ा किए वह चारपाई के एक कोने में बैठा रहा, जबकि शमा दूसरी तरफ. 2 दिल कितने पास थे, पर उन के जिस्म एकदूसरे से कितनी दूर.

अगले दिन से ही अनस को पैसे कमाने की धुन लग गई थी. वह जल्दी से जल्दी पैसे कमा कर अपने और शमा के लिए एक कमरा बनवा लेना चाहता था, इसीलिए गैराज में 12-12 घंटे काम करने लगा था.

एक दिन की बात है, अनस जब गैराज में काम कर रहा था, तभी एक बड़े आदमी की गाड़ी वहां आ कर रुकी. उस गाड़ी के एयरकंडीशनर की गैस निकल जाने के चलते एयरकंडीशनर नहीं चल रहा था और उस में बैठा हुआ आदमी बेहाल हुआ जा रहा था.

अनस ने उस की परेशानी समझी और फटाफट काम में लग गया. तकरीबन आधा घंटे में उस की गाड़ी का एयरकंडीशनर ठीक कर दिया.

‘‘बड़े मेहनती लगते हो… मुझे मेरे काम में भी तुम्हारे जैसे जवान और मेहनती लोगों की जरूरत रहती है… अगर तुम चाहो, तो मेरे साथ जुड़ सकते हो. मैं तुम्हें तुम्हारे काम की अच्छी कीमत दूंगा.’’

‘‘पर, मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘एक गाड़ी वाले से गाड़ी का ही काम तो लूंगा न… उस की चिंता मत करो… अगर मन करे, तो मेरे इस पते  पर आ जाना,’’ इतना कह कर वह सेठ चला गया.

यह एजाज खान का कार्ड था, जो दवाओं का होलसेलर था.

अनस पैसे के लिए परेशान तो था ही, इसलिए एक दिन एजाज खान के पते पर जा पहुंचा और काम मांगा.

‘‘ठीक है, तुम्हें काम मिलेगा… पर, मैं तुम से कुछ छिपाऊंगा नहीं. मुझे तुम्हारे जैसे तेज ड्राइवर की जरूरत है, जो रात में ही इस गाड़ी को शहर के बाहर ले जा सके और सुबह होने से पहले वापस भी आ सके.’’

शहर के बाहर वाले पैट्रोल पंप पर एक आदमी तुम्हारे पास आएगा, जिसे तुम्हें ये दोनों डब्बे देने होंगे और वापस यहीं आना होगा.’’

‘‘पर, इन डब्बों में क्या है?’’

‘‘इन डब्बों में ड्रग्स हैं… मैं ड्रग्स का काम करता हूं और इस के शौकीन लोगों को इस की डिलीवरी करवाना मेरी जिम्मेदारी है.’’

अनस अच्छी तरह समझ गया था कि एजाज खान उस से गैरकानूनी काम कराना चाहता?है, पर अपनी शादीशुदा जिंदगी में रंग घोलने के लिए अनस को भी पैसे की जरूरत थी.

अनस को यह काम करने में थोड़ी हिचक तो हुई, पर उस ने इसे करना मंजूर कर लिया. उस ने एजाज खान की गाड़ी शहर से बाहर ले जा कर पैट्रोल पंप पर खड़ी कर के वे डब्बे एक शख्स को दे दिए और वापस आ गया.

एजाज खान ने उसे इस जरा से काम के 25,000 रुपए दिए, तो अनस बहुत खुश हुआ.

‘‘बस शमा… अब देर नहीं है… ये देखो 25,000 रुपए… मुझे एक नया काम मिल गया?है, जिस के जरीए मैं खूब सारे पैसे कमा लूंगा और फिर अपना एक अलग कमरा होगा, जिस में हम दोनों खूब प्यार कर सकेंगे,’’ घर आ कर अनस ने शमा के हाथ को हलके से दबाते हुए कहा. यह सुन कर एक अच्छे भविष्य की कल्पना से शमा की आंखें भी छलछला आईं. 2 दिन बाद अनस के मोबाइल  पर एजाज खान का फोन आया, जिस  में उस ने एक बार और गाड़ी से दवा  की डिलीवरी करने के लिए अनस  को बुलाया.

हालांकि इस बार दवाओं के डब्बों की मात्रा ज्यादा थी, लेकिन पिछली बार की तरह अनस इस बार भी आराम से दवाएं डिलीवर कर आया था और इस के बदले में एजाज खान ने उसे 40,000 रुपए दिए.

अनस से ज्यादा खुश आज कोई नहीं था. वह पैसे ले कर सीधा बाजार पहुंचा और वहां से एक मिस्त्री की सलाह से ईंट, सीमेंट और मौरंग का और्डर कर दिया. वह जल्द से जल्द अपना कमरा बनवा लेना चाहता था.

अनस बिस्तर पर लेटा हुआ था. उस के नथुने में सीमेंट और मौरंग की महक रचबस जाती थी. वह सोच रहा था कि जिंदगी में सारी तकलीफें पैसे की कमी से आती?हैं, पर आज अनस के पास पैसा भी था और मन ही मन में ये सुकून भी था कि अब उसे और शमा को टाट के साए में नहीं सोना पड़ेगा.

रात के 11 बजे होंगे कि अचानक अनस का मोबाइल बजा, उधर से  एजाज खान बोल रहा था, ‘तुम अभी  मेरे पास चले आओ और एक गाड़ी दवा की ले कर तुम्हें शहर के बाहर जाना  है. वहां पर एक आदमी तुम से माल  ले लेगा.’

‘‘पर, अभी तो आधी रात हो रही है. और फिर मैं सोया भी नहीं हूं… मैं कैसे जा सकता हूं.’’

‘ज्यादा चूंचपड़ मत करो और चले आओ… पिछली बार से दोगुना दाम दूंगा… और वैसे भी हमारे धंधे में आने का रास्ता तो है, पर जाने का कोई रास्ता नहीं,’

कह कर एजाज खान ने फोन  काट दिया.

‘‘इतनी रात गए जाना पड़ेगा…?’’ शमा ने पूछना चाहा.

‘‘बस मैं यों गया और यों आया.’’

एजाज खान से गाड़ी ले कर अनस चल पड़ा. हाईवे पर उस की कार तेजी से भागी जा रही थी. अचानक अनस चौंक पड़ा था. सामने पुलिस की

2 जीपें रोड के बीचोंबीच खड़ी थीं. न चाह कर भी अनस को अपनी कार रोकनी पड़ी.

‘‘हमें तुम्हारी गाड़ी चैक करनी है… पीछे का दरवाजा खोलो,’’ एक पुलिस वाले ने कहा.

अनस के माथे पर पसीना आ गया, ‘‘पीछे कुछ नहीं है सर… दवाओं के डब्बे हैं. बस इन्हें ही पहुंचाने जा रहा हूं,’’ अनस ने कहा.

‘‘हां तो ठीक है… जरा हम भी तो देखें कि कौन सी दवाएं हैं, जिन्हें तू इतनी रात को ले जा रहा हैं,’’ पुलिस वाला बोला.

अनस को अब भी उम्मीद थी कि वह बच जाएगा, पर शायद ऐसा नहीं था. पुलिस ने दवा के डब्बे में छिपी हुई चरस बरामद कर ली थी. अनस को गिरफ्तार कर लिया गया.

अनस के हाथपैर फूल गए थे.

अगले दिन खुद पुलिस वालों ने अनस के मोबाइल से उस के घर वालों को सारी सूचना दी. शमा यह खबर सुन कर बेहोश हो गई.

अब अनस को किसी कमरे की जरूरत नहीं थी. उस की बाकी की जिंदगी के लिए तो जेल का ही कमरा काफी था, क्योंकि ड्रग्स के जाल में वह फंस चुका था.

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