सैक्स पर चर्चा: वर्जित क्यों

महानगर में रहने वाली अधेड़ मानसी मध्यवर्गीय गृहिणी है. अपने फक्कड़ प्रोफैसर पति की सीमित आमदनी से उस की और घर की जरूरतें तो जैसेतैसे पूरी हो जाती हैं, लेकिन इच्छाएं और शौक पूरे नहीं होते. पैसों की तंगी अकसर इतनी रहती है कि वह अपनी 8 वर्षीय बेटी के स्कूली जूते भी फटने पर तुरंत नहीं खरीद पाती. इस के बाद भी उसे अपने सीधेसादे पति से कोई शिकवाशिकायत नहीं.

मगर मन में जो असंतुष्टियां पनप रही थीं वे उस वक्त उजागर होती हैं जब अपनी एक परिचित के जरीए वह पैसा कमाने की गरज से शौकिया देह व्यापार करने लगती है. सोचने में यह बेहद अटपटी सी बात लगती है कि सिंदूर से लंबी सी मांग भरने वाली एक भारतीय नारी यह तथाकथित गंदगी भरा रास्ता पैसा कमाने के लिए चुनेगी. वह भी खासतौर से 90 के दशक में जब सामाजिक खुलापन, उदारता या आजादी आज के मुकाबले 25 साल पिछड़े ही थे.

1997 में मशहूर निर्मातानिर्देशक बासु भट्टाचार्य ने एक ऐसी बात ‘आस्था’ फिल्म के जरीए कहने का जोखिम उठाया था जिसे उम्मीद के मुताबिक दर्शकों ने पसंद नहीं किया था, लेकिन कोई बात तो थी ‘आस्था’ में जो लोग उसे एकदम खारिज भी नहीं कर पाए थे और न ही असहमत हो पाए थे.

मानसी की भूमिका में रेखा ने जितनी गजब की ऐक्टिंग की थी उतनी ही अमर के रोल में ओम पुरी ने भी की थी. अभावों से जू?ाते मिडल क्लास पतिपत्नी के तमाम तरह के द्वंद्व उजागर करती इस फिल्म की एक अहम बात सैक्स उन्मुक्तता भी थी. मिस्टर दत्त के रोल में नवीन निश्छल थे जो मानसी के ग्राहक हैं. उन से मानसी की आर्थिक जरूरतें तो पूरी होने लगती हैं, लेकिन हैरतअंगेज तरीके से सैक्स संबंधी जरूरतें कई जिज्ञासाओं के साथ सिर उठाने लगती हैं. असल में दत्त सैक्स के मामले में काफी प्रयोगवादी और सब्र वाला मर्द है. वह मानसी पर भूखे भेडि़ए की तरह टूटता या ?ापटता नहीं है बल्कि बेहद कलात्मक ढंग से सैक्स करता है.

सैक्स पर चुप्पी क्यों

दत्त मानसी को नख से ले कर शिख तक चूमता है, उसे इत्मीनान से उत्तेजित करता है तो सैक्स सुख के समंदर में गोते लगाती मानसी को एहसास होता है कि इस मामले में अमर परंपरावादी और अनाड़ी है. लिहाजा वह दत्त से जो सीखती है उसे अमर पर आजमाने लगती है, जिसे इस तरह के लंबे फोर प्ले वाले सैक्स का कोई खास तजरबा नहीं है. लिहाजा आनंद के क्षणों में वह पत्नी से निहायत भोलेपन और मासूमियत से पूछ बैठता है कि तुम ने ये सब कहां से सीखा. मानसी इस सवाल को टाल जाती है और फिल्म इसी तरह आगे बढ़ती रहती है.

तब फिल्म समीक्षक और बुद्धिजीवी दर्शक यह तय नहीं कर पाए थे कि आखिर इस फिल्म के जरीए बासु भट्टाचार्य असल में कहना या बताना क्या चाह रहे हैं. एक पत्नी की सैक्स सीमाएं और दबी असंतुष्टि या एक गृहिणी का पार्टटाइम कौलगर्ल बन जाना. मुमकिन है ये दोनों ही बातें रही हों, लेकिन यह पहली फिल्म थी जिस में यह प्रमुखता से बताया गया कि एक पत्नी की भी सैक्स संबंधी अपनी चौइस और इच्छाएं होती हैं जो अकसर अव्यक्त रह जाती हैं. इस की अपनी पारिवारिक और सामाजिक वजहें भी हैं जो आखिरकर साबित यह करती हैं कि औरत सैक्स के मामले में भी शोषित और पुरुष पर निर्भर है.

समाज में गुनाह है

दौर कहने को ही नारी सशक्तीकरण का नहीं है बल्कि इस दिशा में बीते सालों में थोड़ा कुछ हुआ भी है. महिलाओं को अधिकार मिले हैं. मिले क्या हैं उन्होंने अपने दम पर हासिल किए हैं, वे अपने पैरों पर खड़ी हुई हैं, जायदाद और अपनी अलग पहचान भी बना रही हैं, अपने फैसले भी खुद ले रही हैं, लेकिन ये सब आधाअधूरा और एक वर्ग विशेष तक सीमित है जिस में सैक्स की चर्चा तक नहीं होती गोया कि वर्जनाओं से भरे समाज में यह अभी भी गुनाह है.

भोपाल की 55 वर्षीय एक सरकारी अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताती हैं कि उन की शादी को 28 साल हो गए हैं. अब तो बेटी की भी शादी होने वाली है, लेकिन इन सालों में वे कभी पति को खुल कर अपनी सैक्स इच्छाएं नहीं बता पाईं कि उन्हें किस तरह से सैक्स पसंद है और आनंद देता है.

इन साहिबा को पति से कोई शिकायत नहीं है जो इन्हें बहुत चाहते हैं पर सैक्स के मामले में कुछ ऐसा हुआ कि अकसर सबकुछ पति की मरजी से हुआ और आज भी यही हालत है. ?ि?ाक की मारी औरत तो क्या इन की हालत मानसी जैसी है? तो कहा जा सकता है कि कम से कम पैसों के मामले में तो नहीं है, लेकिन इन्हें बिना किसी बाहरी जानकारी या दखल के यह एहसास तो है कि जिंदगी भले अच्छीखासी गुजरी पर कहीं एक अधूरापन रह गया जिसे पूरा करने के लिए न तो इन्होंने पहल की और न ही पति ने जरूरत महसूसी. इन्हें इस बात का डर था कि अगर सैक्स संबंधी इच्छा जताई तो पति इसे अन्यथा ले सकता है और शक भी कर सकता है.

वह अमर की तरह सहज भाव से नहीं पूछेगा कि ये सब कहां से सीखा बल्कि ताना मार सकता है कि तुम तो बिना मेरे बताए बहुत ऐक्सपर्ट हो गई हो. कोई भी पत्नी अपने वैवाहिक जीवन में इस तरह की कटुता नहीं चाहती इसलिए मशीनी ढंग के सैक्स का शिकार होती रहती है जिसे कहने वाले ड्यूटी सैक्स भी कहते हैं. इसे आनंददायक कहने की कोई वजह नहीं.

समाज की ज्यादती का शिकार तय है ऐसी लगभग 90% महिलाएं रूढि़वादी और सैक्स के मामले में भी पूर्वाग्रही समाज की ज्यादती का शिकार हैं जो महिलाओं को सैक्स संतुष्टि का उन का हक नहीं देता ठीक वैसे ही जैसे कभी शादी, तलाक, जायदाद और वोटिंग तक का नहीं देता था. सैक्स संतुष्टि पर कभी खुल कर बात न होने देना पुरुषों के दबदबे वाले समाज का एक और उदाहरण और मनमानी रही है जो सशक्तीकरण के फैशन और अनुष्ठान से कतई मेल नहीं खाती.

अधिकांश पुरुष भी सैक्स पोर्न फिल्मों से सीखते हैं जिन का सार यह होता है कि महिला आक्रामक और ताबड़तोड़ सैक्स से संतुष्ट होती है इस गलत धारणा का किसी मंच से कोई खंडन आज तक नहीं हुआ.

धर्म की तरह सैक्स भी निहायत जाति मसला है, फर्क इतना है कि धर्म का विस्तार किसी सुबूत का मुहताज नहीं लेकिन सैक्स का सिकुड़ापन कभी विस्तार ले पाएगा ऐसा लगता नहीं. कोई महिला अगर इस बाबत खुल कर बात करेगी तो उसे बिना किसी लिहाज के चालू, बेशर्म और चरित्रहीन तक करार दिया जा सकता है, जबकि दूसरे मामलों पर बोलने में पुरुषों के पास सिवा खामोश रह जाने या सम?ाता कर लेने के कोई और रास्ता नहीं रह जाता. सैक्स पर हल्ले का मकसद सच यह भी है कि तरक्की और अधुनिकता के तमाम दावों के बाद भी परिवारों और समाज में सैक्स पर चर्चा वर्जित है और अगर कोई लीक से हट कर कायदे की या नई पीढ़ी के लिए शिक्षाप्रद बात करता भी है तो उसे समाज संस्कृति और धर्म का दुश्मन घोषित करते हुए लोग उस पर मधुमक्खियों की तरह टूट पड़ते हैं.

इस की ताजी मिसाल सांसद और अपने दौर की कामयाब अभिनेत्री जया बच्चन हैं जिन्होंने एक शो के जरीए अपनी नातिन नव्या नवेली नंदा से यह कहा कि मु?ो कोई समस्या नहीं है अगर तुम्हारे बच्चे बिना शादी के हों. इतना कहना भर था कि भक्तों की नजर में वे धर्म और संस्कृति को नष्टभ्रष्ट करने वाली हो गईं.

सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियोज की बाढ़ आ गई जिन में उन्हें पानी पीपी कर कोसा गया. ये सनातनी लोग कुंती और कर्ण जैसे दर्जनों पौराणिक किस्से और उदाहरण भूल गए जिन में कुंआरी मां बनना आम बात थी. यही बात महिलाओं की सैक्स इच्छाओं पर लागू होती है जिस के तहत उन का अपनी इच्छा जताना एक तरह की घोषित निर्लज्जता है. उन्हें बचपन से ही सिखा दिया जाता है कि सैक्स बुरी बात है और पति के अलावा किसी और से सैक्स करना तो और भी बुरी बात है. यह भी मान लिया गया है कि सैक्स की पहल करना और उस के तरीके तय करना मर्दों की जिम्मेदारी है, फिर चाहे महिला इस से संतुष्ट हो या न हो पर संतुष्टि प्रदर्शित करना ही उस का धर्म है

बराबरी की बात और दर्जा सशक्तीकरण का अहम हिस्सा है, लेकिन सैक्स में इस का न मिलना महिलाओं के पिछड़ेपन की बड़ी वजह है जिस के चलते उन में अपेक्षित आत्मविश्वास नहीं आ पाता. नए कपल्स एक हद तक इस का अपवाद कहे जा सकते हैं, लेकिन उन की संख्या अभी इतनी नहीं है कि किसी क्रांति का जनक उसे कहा जा सके.

जनसुनवाई में दिया कंबल

गोंडा । ज़िले में जनसुनवाई के दौरान जब एक बुजुर्ग आया तो वहाँ के डीएम उज्ज्वल कुमार ने ना केवल बुजुर्ग की समस्या का समाधान किया बल्कि बुजुर्ग को जाड़ा ना लग जाये इसलिए एक कंबल भी दिया. उज्ज्वल कुमार बेहद संवेदनशील अधिकारी है जहां भी उनको इस तरह की सेवा का मौक़ा मिलता है आगे बढ़ कर समाज की सेवा करते है.

सावधान! खतरा है खतरा! ‘ज़ूम’ से प्राइवेसी हो जाएगी जूम

कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए लागू किए गए लौकडाउन के चलते तकरीबन पूरी दुनिया के इंसान घरों में कैद की सी हालत में हैं. कर्मचारी वर्क फ्रौम होम कर रहे हैं. औफिसों के बौस अपने अधिकारियों व कर्मचारियों से वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के जरिए जुड़ते हैं, रणनीति पर चर्चा करते हैं और दिशानिर्देश देते हैं.

स्टाफ के घर से ड्यूटी करने के चलते वीडियो कौन्फ्रैंसिंग ऐप की डिमांड बहुत बढ़ गई है. इस बाबत सभी देशों के ज्यादातर संस्थान ज़ूम ऐप का इस्तेमाल कर रहे हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, ज़ूम ऐप भारत में सबसे ज्यादा बार डाउनलोड किया जाने वाला ऐप बन गया है.

लेकिन, ज़ूम ऐप पर प्राइवेसी को लेकर आजकल कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं. ऐप की प्राइवेसी और सिक्योरिटी में कई खामियां देखी गई हैं. ब्लीपिंग कंम्पयूटर की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक तो पांच लाख से ज्यादा ज़ूम अकाउंट्स को हैक कर डार्कवैब पर बेचा जा रहा है.

ये कोई आरोप नहीं हैं. ज़ूम के सीईओ एरिक एस. युआन ने स्वीकार करते हुए कहा है, “हमने कुछ गलतियां की थीं लेकिन हमने इससे सीख ले ली है और अब हम प्राइवेसी और सिक्योरिटी पर ध्यान दे रहे हैं”. वे आगे कहते हैं, “यह एक कौमन वैब सर्विस है जिसकी मदद से कंज्यूमर को टारगेट किया जा रहा है.”

इसी बीच, भारत के गृह मंत्रालय ने साफ ऐलान कर दिया है कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ऐप ज़ूम सेफ नहीं है. कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम (सीईआरटी) की ओर से ज़ूम ऐप को लेकर आगाह किए जाने के बाद सरकार ने एडवाइजरी जारी की है. सीईआरटी भारत की राष्ट्रीय साइबर सिक्योरिटी एजेंसी है.

सीईआरटी ने इससे पहले भी कहा था कि डिजिटल एप्लीकेशन के बहुत ज़्यादा इस्तेमाल से आप साइबर हमले के शिकार हो सकते हैं और आपके ऑफ़िस की अहम जानकारियां अपराधियों के हाथ लग सकती हैं. गौरतलब है कि दुनियाभर की तरह ही भारत में भी बड़ी संख्या में लोग इस ऐप का इस्तेमाल कर रहे हैं. कोरोना वायरस के कारण लागू किए गए लॉकडाउन की वजह से प्रोफ़ेशनल घर से काम कर रहे हैं, ऐसे में बीते कुछ दिनों में बड़ी संख्या में लोगों ने इस ऐप को डाउनलोड किया है.

मालूम हो कि टिकटौक ऐप की तरह ज़ूम ऐप का सर्वर भी चीन में है. लौकडाउन के दौरान ज़ूम की तरह कुछ दूसरी ऐप का भी इस्तेमाल किया जा रहा है.

15 पैसे में बेची जा रही है जानकारी:

साइबर सिक्योरिटी इंटेलिजेंस फर्म साइबल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एक हैकर फोरम पर 1 अप्रैल को कई जूम अकाउंट्स डीटेल्स को बेचने के लिए अपलोड किया गया था. साइबल के मुताबिक, 5.30 लाख यूजर्स की डीटेल्स 0.002 डॉलर (करीब 15 पैसे) प्रति यूजर के हिसाब से बेची जा रही थीं. हैरानी की बात तो यह है कि कई अकाउंट डीटेल्स को फ्री में भी शेयर किया जा रहा था. इन जूम अकाउंट्स में ईमेल ऐड्रेस, पासवर्ड्स, पर्सनल मीटिंग यूआरएल, होस्टकीज समेत अन्य कई डीटेल्स शामिल हैं.

रिपोर्ट के मुताबिक, इनमें से 290 अकाउंट कॉलेज और यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं. जिन यूजर्स का डाटा लीक हुआ है उनमें यूनिवर्सिटी ऑफ वर्मोंट, डार्टमाउथ, लाफयेते, फ्लोरिडा विश्वविद्यालय, कोलोराडो विश्वविद्यालय और सिटीबैंक जैसी कंपनियों के नाम शामिल हैं.

राष्ट्रीय चिंता की बात यह है कि देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक अप्रैल को जूम ऐप से ही चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ जनरल बिपिन रावत के अलावा आर्मी, नेवी और एयरफोर्स के चीफ से मीटिंग की थी. ऐसे में हालात बेहद चिंताजनक हो जाते हैं. यह बात केवल राजनाथ सिंह ही नहीं, उन सभी भारतीयों पर लागू होती है जो इसका इस्तेमाल करते हैं. वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल भी एप्पल के मैकबुक एयर लैपटौप से इसी ऐप से वीडियो कान्फ्रेंसिंग करते दिखे थे.

एक ब्रिटिश रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एंजेसी के पूर्व हैकर पैट्रिक वार्डले ने बताया है कि इस ऐप को इस्तेमाल करने वाले मैक यूजर्स का वैबकैम और माइक्रोफोन तक हैक किया जा सकता है.

यह भी जान लें कि हाल ही में गूगल, नासा, स्पेस एक्स, ऐपल समेत कई बड़ी दिग्गज कंपनियों ने जूम ऐप को बैन किया है. कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को जूम ऐप का इस्तेमाल नहीं करने का आदेश दिया है.

देश के गृह मंत्रालय की ओर से कहा गया है कि जो लोग ज़ूम ऐप का इस्तेमाल करना चाहते हैं उन्हें कुछ बातों का ध्यान रखना होगा, जैसे कि अपने कौन्फ्रैन्सरूम में किसी को भी बिना इजाजत के न आने दें. मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि ज़ूम ऐप में यूज़र की प्राइवेसी और उनकी सुरक्षा को ख़तरा है.

समस्याओं को हल करने से मिलती है खुशी

अनीता एक 32 साल की महिला है जो एक प्राइवेट कंपनी में काम करती है. वह और उस के पति रोज सुबह ही काम पर निकल जाते थे. पति दिन भर ऑफिस में अपनाटारगेट पूरा करने की डेडलाइन से जूझता था. कंपनी में सब ठीक नहीं चल रहाथा इसलिए उसे अक्सर बॉस और कुलीग्स की तीखी आलोचनाएं भी सुनने को मिलजाती. इस वजह से शाम को वह बहुत थकाहारा और परेशान सा लौटता. अनीता भीअपने ऑफिस में दिन भर काम करती थी. शाम को थकी हुई घर लौटती तो किसी नकिसी बात पर बच्चों पर बरस पड़ती. फिर खाना बनाने में जुट जाती. पति कामूड भी खराब रहता. छोटी छोटी सी बात पर दोनों के बीच झगड़े भी हो जाते.पति और बच्चों की अलग अलग फरमाइशें पूरी करते करते वह चिड़चिड़ी हो गईथी. घर में पैसों की कमी नहीं थी मगर रातदिन की कलह ने घर का माहौल बिगाड़ रखा था. पति का व्यवहार रुखा रहने की वजह से बच्चे भी विद्रोही हो चले थे. अनीता अपने जीवन से निराश रहने लगी थी. उसे लगता जैसे उस के जीवन कीसमस्याएं कभी ख़त्म ही नहीं हो सकतीं और जिंदगी ने उसे बहुत दुःख दिए हैं.एक दिन अनीता ने एक कामवाली रखी जो सुबहसुबह आ जाती और उस के घरेलू कामोंमें मदद कर देती थी. कामवाली यानी अंजू के दो छोटे बच्चे थे. पति पेंटरथा जिसे कभी कभी ही काम मिलता था. अंजू खुद 3 घरों में काम करने जाती थी.वह पूरे दिन काम करती और शाम में घर पहुँचती. उस के पास एक कमरे का छोटासा घर था और कोई बैंक बैलेंस भी नहीं था. फिर भी वह बहुत खुश रहती. किसीदिन थोड़ी परेशान दिखती भी तो अगले दिन मुस्कुराती हुई नजर आती. अनीता जब भी उसे गौर से देखती तो उस के चेहरे की संतुष्टि और ख़ुशी सेचकित रह जाती. वह उस से अपनी तुलना करती तो लगता जैसे इतनी गरीबी में भ वह उस से बहुत ज्यादा खुश है. एक दिन अंजू बारिश में भीगती काम करने आ तो उसे सर्दी लग गई. तब अनीता ने उसे अपना पुराना छाता दे दिया और चाय

पीने को दी. अंजू काफी खुश हो गई. तब अनीता ने उस से मन की बात करते हुए पूछा, ” अंजू तेरे पास कोई सुविधा नहीं. तेरी जिंदगी में इतनी समस्याएं हैं. फिर भी तू इतनी खुश कैसे रह लेती है? अंजू मुस्कुराती हुई बोली, ” दीदी समस्याएं आती हैं तभी तो उन्हें सुलझाने का मजा है. मैं अपनी तरफ से इन समस्याओं से लड़ने की पूरी कोशिश करती हूँ. समस्याएं सुलझ जाती हैं तो मैं खुश हो जाती हूँ. अब यदि परेशानियां ही न हों तो उन्हें हराने का आनंद कैसे मिलेगा? देखो दीदीमुझे यह पता है कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं. हमारी समस्याएं भी हमेशा नहीं रहने वाली. फिर ऐसी समस्याओं का बोझ हम दिमाग पर क्यों रखें. एक समय था जब मेरे कोई औलाद नहीं थी. हम ने दवाई करवाई और हमारे बच्चे हुए. अब बच्चों को देख खुश हो लेते हैं. वे भूखे न सोयें इसलिए दिनरात काम करती हूँ. वे खा पी कर हँसते खेलते हैं तो बहुत ख़ुशी मिलती है. पति को भले ही ज्यादा काम नहीं मिलता मगर जब कमा कर लाते हैं तो हम खुश हो जाते हैं. येछोटी छोटी खुशियां ही बहुत हैं जीने के लिए. ” अंजू की बातें सुन कर अनीता को अहसास हुआ कि वह आज तक कितनी गलत थी.खुशियां समेटने की जगह समस्याओं पर ही ध्यान देती रही. वह समझ ही नहींसकी कि समस्याएं ही तो खुशियों का दरवाजा खोलती हैं. अक्सर हम सोचते हैं कि समस्याएं हमें खुश रहने से रोकती हैं. लेकिन क्याआप ने सोचा है कि वे खुशी के लिए कितनी जरूरी हैं? हमें अपने जीवन में खुशियां कहाँ से मिलती हैं? आनंद कब महसूस होता है ? दरअसल आनंद का स्रोसमस्याएँ हैं. अमेरिकन बेस्टसेलिंग ऑथर और ब्लॉगर मार्क मैनसन का कहना है कि समस्याओं को सुलझाने से खुशी मिलती है. अब जरा इस तथ्य को गहराई से समझते हैं. जब हम किसी समस्या का समाधान करते हैं तो हमें खुशी होती है. माना आप को भूख लगी थी. आप ने खाना खा लिया तो आप को अच्छा लगा. अगर आप के पास पैसा नहीं तो आप ने इसे कमाया. इसी तरह अगर आप बीमार हो जाते हैं तो आप डॉक्टर के पास जाते हैं. दवा खा कर आप अच्छा फील करते हैं. इस के विपरीत जब आप को थोड़ी थोड़ी देर में खिलाया जाता है, आप के पास भरपूर पैसे होते हैं या आप बिलकुल स्वस्थ होते हैं तो आप आनन्दित नहीं होते. आप बोर होने लगते हैं. जीवन में कुछ भी एक्साइटमेंट नहीं रह जाता. न कुछ पाने की इच्छा रहती है और न कुछ पा कर ख़ुशी होती है क्योंकि आप के पास ऑलरेडी सब कुछ है. एक पल के लिए रुकें और अपनी सब से सुखद यादों के खजाने में से एक याद केबारे में सोचें. आप पाएंगे कि वह ख़ुशी देने वाली याद किसी बड़ी चुनौती कोपार कर के पाई गई थी. दरअसल समस्याओं के समाधान से ही हमें खुशी मिलतीहै. किसी मुसीबत में सफलता पाने या किसी को हरा कर जीतने में ही ख़ुशी है.आनंद मन की स्थिति है. खोतेखोते कुछ पा लेने की ख़ुशी, मेहनत कर के कुछकमाने का आनंद या फिर तेज भूख लगी हो तब कुछ मनपसंद खा लेने की तृप्तिबहुत अलग होतीहै. आनंद समस्याओं को हल करने में है. अपने जीवन की कोई भीसमस्या ले लीजिए. जब आप इसे हल करने का प्रयास करते हैं तो आप आनंद काअनुभव करेंगे. अधिक वजन होना एक बड़ी समस्या है और इस से छुटकारा पाने काआनंद भी उतना ही बड़ा होगा. समस्याएं आप को मजबूत बनाती हैं आप के जीवन में जितनी ज्यादा समस्याएं होंगी आप के लिए उतना ही ज्यादा आगे बढ़ने की संभावनाएं होंगी. चुनौतियों की आग में तप कर आप कुंदन की तरह निखरेंगे. इस का मतलब यह है कि जीवन में समस्याएं कम नहीं होनी चाहिए बल्कि ज्यादा से ज्यादा समाधान होना चाहिए. यही नहीं आप को अपने तनाव के स्तर को सही तरीके से मैनेज करने की आवश्यकता भी है. याद रखें तनाव हमेशा बुरा नहीं होता. सकारात्मक तनाव आप को खुद को बेहतर बनाने के लिए या जरूरत पड़ने पर मदद पाने के लिए प्रेरित कर सकता है. यह आप को अपनी परिस्थितियों को बदलने के लिए प्रेरित करता है. तनाव आप को प्रॉब्लम सॉल्वर में बदल देता है ताकि आप मुश्किल के समय बिना विचलित हुए समाधान निकाल सकें. संकट का समय आप को बेहतर बनाता है. अच्छा प्रदर्शन कर अपनी समस्या को सुलझाने का मौका देता है. समस्याओं का समाधान इन के साथ ही आता है. कुछ लोग यह मानते हैं कि वे अपनी समस्याओं को हल नहीं कर सकते हैं. वे अपनी समस्याओं के लिए दूसरों को या बाहरी परिस्थितियों को दोष देना चाहते हैं. यह सोच उन्हें क्रोध, लाचारी और निराशा के जीवन की ओर ले जाता है. ज्यादातर लोग अपनी समस्याओं के लिए दूसरों को नकारते हैं और दोष देते हैं. क्योंकि यह करना आसान है और दूसरों को आरोपी बनाना अच्छा लगता है. जबकि हमें समस्याओं को हल करना कठिन लगता है. मगर ऐसा करने से हमें ख़ुशी नहीं मिलती. हमारे अंदर नकारात्मक भावनाएँ आती हैं मगर उल्लास नहीं. इस के विपरीत सच्ची खुशी तभी मिलती है जब हम उन समस्याओं को खोज लेते हैं जिन का हल करने से हमें आनंद मिलता है.

समस्याएं कभी नहीं रुकतीं

जीवन में समस्याएं हमेशा ही आती रहती हैं. मान लीजिए आप ने कोई जिम ज्वाइन किया है ताकि आप अपनी सेहत से जुड़ी समस्याओं का समाधान कर सकें. मगर क्या आप ने ध्यान दिया है कि इस तरह आप ने अपने लिए नई समस्याएं खड़ी की हैं. जैसे समय पर जिम जाने के लिए जल्दी उठना, जिम में पसीना बहाना और फिर नहाना और कपड़े बदलना. इन सब कामों में आप का काफी समय भी जाता है. इसी तरह अपनी पत्नी या गर्लफ्रेंड के साथ समय न बिता पाने की समस्या के समाधान के लिए जब आप संडे का दिन फिक्स करते हैं तो आप के जीवन में नई समस्याएं आती हैं कि कैसे उस दिन फ्री रहा जाए, फिर अच्छे रेस्टुरेंट जा कर और रूपए खर्च कर लजीज चीज़ें मंगाई जाएं. पार्टनर के साथ अच्छा समय बिताने की कोशिश में आप उस के तंज भरे शब्दों को सहते हैं और माहौल खुशनुमा बनाए रखने की कोशिश करते हैं. कभी कभी ये समस्याएं सरल होती हैं जैसे अच्छा खाना खाना, किसी नई जगह की यात्रा करना, आप के द्वारा अभी अभी खरीदे गए नए वीडियो गेम में जीतना. दूसरी तरफ कुछ समस्याएं अमूर्त और जटिल होती हैं जैसे अपनों के साथ रिश्ते को ठीक करना, एक ऐसा करियर खोजना जिस के बारे में आप अच्छा महसूस कर सकें, बेहतर दोस्ती विकसित करना. जाहिर है समस्याएं कभी नहीं रुकतीं. वे केवल अपग्रेड हो जाती हैं. समस्याओं के समाधान से खुशी मिलती है. यदि आप अपनी समस्याओं से बच रहे हैं या ऐसा महसूस करते हैं कि आप को कोई समस्या नहीं है तो आप स्वयं को दुखी और बोर करते हो. अगर आप को लगता है कि आप के पास ऐसी समस्याएं हैं जिन का आप समाधान नहीं कर सकते हैं तो आप खुद को और भी दुखी और निराश कर लेंगे. ख़ुशी जीवन की समस्याएं सुलझाने में मिलती हैं

 

समस्या है तो समाधान भी है

जीवन में संघर्ष से ऊबे नहीं. दुख हमें जगाए रहता है. विपत्ति या प्रतिकूलताएं हमें जागृत रखती हैं. जैसे गुलाब के साथ कांटे प्रकृति द्वारा गुलाब के लिए की गई सुरक्षा व्यवस्था है वैसे ही जीवन में आने वाली प्रतिकूलताएं विपत्ति, दुख, वास्तव में हमारे खुद की सुरक्षा के लिए प्रकृति द्वारा की गई व्यवस्थाएं हैं. हम परिस्थितियों को बदल तो नहीं सकते परन्तु अपनी व्यवस्था तो कर ही सकते हैं. गर्मी को आने से रोक नहीं सकते परन्तु पंखे तो लगा ही सकते हैं. समस्याएं हैं तो उनके समाधान भी हैं. भूख बाद में लगती है अन्न पहले से तैयार है. प्रत्येक समस्या अपने गर्भ में समाधान को लिए रहती है. हमें बस थोड़ा धैर्य रखने की जरूरत है. थोड़े से समर्पण, थोड़ा सा त्याग करने के लिए तैयार रहने की आवश्यकता है. जिन लोगों ने ऊंचाइयां छुई हैं उस के पीछे उन की मेहनत और पुरुषार्थ है. आप भी पूरी लगन और मेहनत से समस्याओं का सामना करें. रॉबर्ट कॉलियर कहते हैं कि हमारे काम में देरसवेर संकट आते ही हैं. जीवन का कोई भी क्षेत्र संकट से अछूता नहीं है. इसका सामना किए बगैर और इस से निजात पाए बिना आप कुछ हासिल नहीं कर सकते. इसलिए समस्याओं को देखने का अपना नजरिया बदलें. इन से डरें नहीं. जो समस्याओं से डर कर भागने लगते हैं समस्याएं दोगुनी तेजी से उन का पीछा करने लगती हैं. समस्याओं से भागना वह दौड़ है जो व्यक्ति कभी नहीं जीत सकता क्योंकि समस्याएं हमेशा आएंगी ही. हमेशा यही देखें कि कांटों के बीच गुलाब कैसे मुस्कुरा रहा है. जीवन है तो समस्याएं हैं और समस्याएं हैं तो जीवन है. जीवन और समस्याएं एकदूसरे से गुंथे हुए हैं और इन के साथ गुंथे रह कर चलने से ही जीवन का आनंद आता है.

 

समस्याओं को सुलझाने के लिए;

– सब से पहले किसी एक समस्या पर फ़ोकस करें. किसी एक समस्या का हल आप को टेंशन से या फिर दूसरी समस्याओं पर होने वाले स्ट्रेस से बचा सकता है. अतः पहले एक को हल करें फ़िर दूसरे के बारे में सोचें.

– प्राथमिकताएं तय करें. यदि आप के पास सुलझाने के लायक बहुत सारी समस्याएं हैं तो आप को पहले यह तय करना है कि कौन सी समस्या को पहले सुलझाया जाए. एक बार निर्णय ले लेने के बाद शक न करें.

– हमें परिस्थिति नहीं बदलनी है बल्कि मन:स्थिति बदलनी है. जिस दिन आप मन बदल लेंगे उसी दिन सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी . समाधान इसलिए नहीं निकल पाता क्योंकि हम सही समस्या की ओर ध्यान नहीं देते. जरूरी है कि हम समस्या की सही पहचान करें .

– जीवन है तो समस्याएं रहेंगी ही लेकिन समस्याओं को ले कर दिन भर चिंतामग्न रहने से कुछ हासिल नहीं होगा. समस्याओं के खत्म होने का इन्तजार करना समझदारी नहीं. हमें समस्याओं का समाधान ढूंढना होगा.

युवा पीढ़ी और पढ़ाई

प्यार करने में कितने जोखिम हैं, यह शीरीं फरहाद, लैला मंजनू से ले कर शंकुलता दुष्यंन, आहिल्या इंद्र, हिंदी फिल्म ‘संगम’ जैसे तक बारबार सैंकड़ों हजार बार दोहराया गया है. मांबाप, बड़ों, दोस्तों, हमदर्दों की बात ठुकरा कर दिल की बात को रखते हुए कब कौन किस गहराती से प्यार कर बैठे यह नहीं मालूम. दिल्ली में लिवइन पार्टनर की अपनी प्रेमिका की हत्या करने और उस के शव के 30-35 टुकड़े कर के एकएक कर के कई दिनों तक फेंकने की घटना पूरे देश को इसी तरह हिला दिया है जैसा निर्भया कांड में जबरन वहशी बलात्कार ने दहलाया था.

इस मामले में लडक़ी के मांबाप की भी नहीं बनती और लडक़ी बिना बाप को बताए महीनों गायब रही और बाप ने सुध नहीं ली. इस बीच यह जोड़ा मुंबई से दिल्ली आ कर रहने लगा और दोनों ने काम भी ढूंढ़ लिया पर निरंतर ङ्क्षहसा के बावजूद लडक़ी बिना किसी दबाव के बावजूद प्रेमी को छोड़ कर न जा पाई.

ज्यादा गंभीर बात रही कि लडक़े को न कोई दुख या पश्चाताप था न ङ्क्षचता. लडक़ी को मारने के बाद, उस के टुकड़े फ्रिज में रख कर वह निश्ङ्क्षचतता से काम करता रहा.

जो चौंकाने वाला है, वह यह व्यवहार है. अग्रेजी में माहिर यह लडक़ा आखिर किस मिट्टी का बना है कि उसे न हत्या करने पर डर लगा, न कई साल तक जिस से प्रेम किया उस का विद्रोह उसे सताया. यह असल में इंट्रोवर्ट होती पीढ़ी की नई बिमारी का एक लक्षण है. केवल आज में और अब में जीने वाली पीढ़ी अपने कल का सोचना ही बंद कर रही है क्योंकि मांबाप ने इस तरह की प्रोटेक्शन दे रखी थी कि उसे लगता है कि कहीं न कहीं से रुपए का इंतजाम हो ही जाएगा.

जब उस बात में कुछ कमी होती है, जब कल को सवाल पूछे जाते हैं, कल को जब साथी कुछ मांग रखता है जो पूरी नहीं हो पाती तो बिफरता, आपा खोता, बैलेंस खोना बड़ी बात नहीं, सामान्य सी है. जो पीढ़ी मांबाप से जब चाहे जो मांग लो मिल जाएगा की आदी हो चुकी हो, उसे जरा सी पहाड़ी भी लांघना मुश्किल लगता है, उसे 2 मंजिल के लिए भी लिफ्ट चाहिए, 2 मील चलने के लिए वाहन चाहिए, और न मिले तो वह गुस्से में कुछ भी कर सकती है.

यह सबक मांबाप पढ़ा रहे हैं. मीडिया सिखा रहा है. स्कूली टैक्सट बुक्स इन का जवाब नहीं है. रिश्तेनातेदार हैं नहीं जो जीवन के रहस्यों को सुलझाने की तरकीब सुझा सकें. और कुछ है तो गूगल है. व्हाट्सएप है, फेसबुक है, इंस्टाग्राम है. ट्विटर है जिन पर समझाने से ज्यादा भडक़ाने की बातें होती है.

पिछले 20-25 सालों से धर्म के नाम पर सिर फोड़ देने का रिवाज सरकार का हिस्सा बन गया है. हिंसक देवीदेवताओं की पूजा करने का हक पहला बन गया है. जिन देवताओं के नाम पर हमारे नेता वोट मांगते हैं, जिन देवताओं के चरणों में मांबाप सिर झुकाते हैं, जिन देवीदेवताओं के जुलूस निकाले जाते हैं सब या तो हिंसा करने वाले हैं या हिंसा के शिकार हैं.

ऐसे में युवा पीढ़ी का विवेक, डिस्क्रीशन, लौजिक दूसरे के राइट्स के बारे में सोचने की क्षमता आएगी कहां से आखिर? न मांबाप कुछ पढऩे को देते है, न बच्चे कुछ पढ़ते हैं. न मनोविज्ञान के बारे में पक जाता है न जीवन जीने के गुरों के बारे में. नेचुरल सैक्स की आवश्यकता को संबंधों का फेवीफौल मान कर साथ सोना साथ निभाने और लगातार साथ रातदिन महीनों सालों तक रहने से अलग है.

युवाओं को दोष देने की हमारी आदत हो गई है कि वे भटक गए हैं. जबकि असलियत यह है कि भटकी वह जैनरेशन है जिस ने एमरजैंसी में इंदिरा गांधी के गुणगान किया, जिस ने ओबीसी रिजर्वेशन पर हल्ला किया, जिस के एक धड़े ने खालिस्तान की मांग की और फिर दूसरे धड़े ने मांगने वालों को मारने में कसर न छोड़ी. भटकी वह पीढ़ी है जिस ने हिंदू मुसलिम का राग अलापा, जिसने बाबरी मसजिद बनवाई. जिस ने हर गली में 4-4 मंदिर बनवा डाले जिस ने लाईब्रेरीज को खत्म कर दिया, जिस ने बच्चों के हाथों में टीवी का रिमोट दिया.

आज जो गुनाह हमें सता रहा है, परेशान कर रहा है वह इन दोने उस पीढ़ी से सीख कर किया जो देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार है, जो बाबरी मसजिद तोडऩे की जिम्मेदार है, जो करप्शन की गुलाम है. जो पैंपरिंग को पाल देना समझती है. जरा सा कुरेदेंगे तो सदा बदबूदार मैला अपने दिलों में दिखने लगेगा, इस युवा पीढ़ी में नहीं जिसे जीवन जीने का पाठ किसी ने पढ़ाया ही नहीं.

देश में महंगी होती शिक्षा

दिल्ली विश्वविद्यालय के अच्छे पर सस्ते कालेजों में एडमीशन पाना अब और टेढ़ा हो गया है क्योंकि केंद्र सरकार ने 12वीं की परीक्षा लेने वाले बोर्डों को नकार कर एक और परीक्षा कराई. कौमन यूनिवर्सिटी एंट्रैस टैस्ट और इस के आधार पर दिल्ली विश्वविद्यालय और बहुत से दूसरे विश्वविद्यालयों के कालेजों में एडमीशन मिला. इस का कोई खास फायदा हुआ होगा यह कहीं से नजर नहीं आ रहा.

दिल्ली विश्वविद्यालय में 12वीं परीक्षा में बैठे सीबीएसई की परीक्षा के अंकों के आधार पर पिछले साल 2021, 59,199 युवाओं को एडमिशन मिला था तो इस बार 51,797 को. पिछले साल 2021 में बिहार पहले 5 बोटों में शामिल नहीं था पर इस बार 1450 स्टूडेंट के रहे जिन्होंने 12वीं बिहार बोर्ड से की और फिर क्यूइटी का एक्जाम दिया. केरल और हरियाणा के स्टूडेंट्स इस बार पहले 5 में से गायब हो गए.

एक और बदलाव हुआ कि अब आट्र्स, खासतौर पर पौलिटिकल साइंस पर ज्यादा जोर जा रहा है बजाए फिजिक्स, कैमिस्ट्री, बायोलौजी जैसी प्योर साइंसेस की ओर यह थोड़ा खतरनाक है कि देश का युवा अब तार्किक न बन कर मार्को में बहने वाला बनता जा रहा है.

क्यूयूइटी परीक्षा को लाया इसलिए गया था कि यह समझा जाता था कि बिहार जैसे बोर्डों में बेहद धांधली होती है और जम कर नकल से नंबर आते हैं. पर क्यूयूइटी की परीक्षा अपनेआप में कोई मैजिक खजाना नहीं है जो टेलेंट व भाषा के ज्ञान को जांच सके. औवजैक्टिव टाइप सवाल एकदम तुक्कों पर ज्यादा निर्भर करते हैं.

क्यूयूइटी की परीक्षा का सब से बड़ा लाभ कोचिंग इंडस्ट्री को हुआ जिन्हे पहले केवल साइंस स्टूडेंट्स को मिला करते थे तो नीट की परीक्षा मेडिकल कालेजों के लिए देते थे और जेइई की परीक्षा इंजीनियरिंग कालेजों के लिए. अब आर्ट्स कालेजों के लाखों बच्चे कोचिंग इंडस्ट्री के नए कस्टमर बन गए हैं.

देश में शिक्षा लगातार मंहगी होती जा रही है. न्यू एजूकेशन पौलिसी के नाम पर जो डौक्यूमैंट सरकार ने जारी किया है उस में सिवाए नारों और वादों के कुछ नहीं है ओर बारबार पुरातन संस्कृति, इतिहास, परंपराओं का नाम ले कर पूरी युवा कौम को पाखंड के गड्ढ़े में धकेलने की साजिश की गई है. शिक्षा को एक पूरे देश में एक डंडे से हांकने की खातिर इस पर केंद्र सरकार ने कब्जा कर लिया है. देश में विविधता गायब होने लगी है. लाभ बड़े शहरों को होने लगा है, ऊंची जातियों की लेयर को होने लगा है.

क्यूयूइटी ने इसे सस्ता बनाने के लिए कुछ नहीं किया. उल्टे ऊंची, अच्छी संस्थाओं में केवल वे आए जिन के मांबाप 12वीं व क्यूयूइटी की कोचिंग पर मोटा पैसा खर्च कर सकें. यह इंतजाम किया गया है. अगर देशभर में इस पर चुप्पी है तो इसलिए कि कोचिंग इंडस्ट्री के पैर गहरे तक जम गए हैं और सरकारें खुद कोचिंग आस्सिटैंस चुनावी वायदों में जोडऩे लगी हैं.

12वीं के बोर्ड ही उच्च शिक्षा संस्थानों के एडमीशन के लिए अकेले मापदंड होने चाहिए. राज्य सरकारों को कहा जा सकता है कि वे बोर्ड परीक्षा ऐसी बनाएं कि बिना कोचिंग के काम चल सके. आज के युवा को मौर्टक्ट की औवजैक्टिव टैस्ट नहीं दिया जाए  बल्कि उन की समझ, भाषा पर पकड़, तर्क की शक्ति को परखा जाए. आज जो हो रहा है वह शिक्षा के नाम पर रेवड़ी बांटना है जो फिर अपनों को दी जा रही है.

बढ़ती जीएसटी और महंगाई

नरेंद्र मोदी सरकार बढ़ते जीएसटी कलेक्शन पर बहुत खुश हो रही है. 2017 में जीएसटी लागू होने के कई सालों तक मासिक कलेक्शन 1 लाख करोड़ के आसपास रही थी पर इस जूनजुलाई से उस में उछाल आया है और 1.72 लाख करोड़ हो गई है. 1.72 लाख करोड़ मिलने होते हैं यह भूल जाइए, यह याद रखिए कि जीएसटी अगर ज्यादा है तो मतलब है कि सरकार जनता से ज्यादा टैक्स वसूल कर रही है. अगर साल भर में टैक्स 25-35 बढ़ता है और लोगों की आमदनी 2-3′ भी नहीं बढ़ती तो मतलब है कि हर घरवाली अपने खर्च काट रही है.

निर्मणा सीतारमन ने नरेंद्र मोदी की तर्ज पर एक आम गृहिणी की तरह अपना वीडियो एक सब्जी की दुकान पर सब्जी खरीदते हुए खिंचवाया. और इसे भाजपा आईटी सेल वायरल किया कि देखो वित्त मंत्री भी आम औरत की तरह हैं. पर यह नहीं समझाया गया कि सब्जी पर भी भारी टैक्स लगा हुआ या चाहे वह उस मिडिल एज्ड दुकानदार महिला ने चार्ज वहीं किया हो.

सब्जी आज दूर गांवों से आती है और ट्रक पर लद कर आती है. इस ट्रक पर जीएसटी, डीजल पर केंद्र सरकार का टैक्स है. सब्जी जिस खेत में उगाई जाती है उस पर चाहे लगान न हो पर जिस पंप से पानी दिया जाता है उस पर टैक्स है, जिस बोरी में सब्जी भरी गई, उस पर टैक्स है, जिस केब्रिज पर बोली गई उस पर टैक्स है.

उस एज्ड दुकानदार ने जिन इस्तेमाल किए लकड़ी के तख्तों पर अपनी दुकान लगाई, उन पर टैक्स है, जीवनी उस ने चलाई उस पर टैक्स है, जिस थैली, चाहे कागज की हो या पौलीथीन की हो, उस पर टैक्स है. निर्मला सीतारमन 100-200 रुपए की जो सब्जी खरीदी थी उस पर कितना है या इस का अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल नहीं है.

बढ़ता जीएसटी देश के बढ़ते उत्पादन को नहीं जानता यह महंगार्ई को भी बताता है. पिछले एक साल से हर चीज का दाम बढ़ रहा है. दाम बढ़ेंगे तो टैक्स भी बढ़ेगा. हर घर वेसे ही बढ़ती कीमत से परेशान है पर वह इस के लिए जिम्मा दुकानदार या बनाने वाले को ठहराता है जबकि कच्चे माल से दुकान तक बढ़ी कीमत वाले मौल पर कितना ज्यादा जीएसटी देना पड़ा. यह नहीं सोचता.

वह इसलिए नहीं सोचता क्योंकि उसे पट्टी पढ़ा दी गई है कि उस के आकाओं ने उसे राममंदिर दिला दिया, चारधाम का रास्ता साफ कर दिया, महाकाल के मंदिर को ठीक कर दिया तो सभी भला करेगा. वह मंदिरों को अपनी झोली खुदबखुद खाली कर के देता है और सरकार उस की झोली से बंदूक के बल पर छीन लेती है.

प्रकृति की मार झेलता उत्तराखंड का छोटा गांव सेमला

गांव की व्यवस्था तभी किसी को समझ में आती है, जो गाँव से निकले है और वहां की मिटटी और वनस्पति से आती खुश्बू को महसूस किया हो. शहरों में रहने वालों को इसकी कीमत को समझना नामुमकिन होता है, उन्हें बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स में रहने की आदत होती है, सड़के और उनपर दौड़ती हुई कारें ही उन्हें डेवेलपमेंट का आभास कराती है, लेकिन इस आधुनिकरण की होड़ में वे भूल जाते है कि ये तभी संभव होगा, जब क्लाइमेट चेंज को रोका जाय, पर्यावरण में रहने वाले जीव-जंतु, पेड़-पौधे और मानव जीवन का संतुलन सही हो, नहीं तो धरती इसे खुद ही संतुलित कर लेती है मसलन कहीं बाढ़, कही सूखा तो कही खिसकते ग्लेशियर जिसमे हर साल लाखों की संख्या में लोग इन हादसों का शिकार हो रहे है, लेकिन कैसे संभव हो सकता है? इसी बात को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड के सेमला गांव में पली-बड़ी हुई निर्देशक और पटकथा लेखक सृष्टि लखेरा ने अपनी एक डोक्युमेंट्री फिल्म ‘एक था गांव’ के द्वारा समझाने की कोशिश की है, उनकी इस फिल्म ने कई अवार्ड जीते है.

क्लाइमेट चेंज को सम्हालने के लिए जमीनी स्तर पर काम जरुरी

गाँववालों की समस्या के बारें में सृष्टि कहती है किटिहरी गढ़वाल के गांव सेमला में काम करने वाली 80 साल की लीला ने अपना पूरा जीवन यहाँ बिताया है. उनके साथ रहने वालों की मृत्यु होने के बाद उन्हें अपना जीवन चलाना मुश्किल हो रहा है, फिर भी वह इस गांव को छोड़ना नहीं चाहती. इस गांव में गोलू ही ऐसी यूथ है, जो इस परित्यक्त गांव में रह गई है.अभी उनके साथ रहने वाले केवल घोस्ट ही है, क्योंकि पहले 50 परिवार के इस गांव में रहते थे, अब केवल 5 लोग इस गांव में रह गए है. इससे घाटी में जन-जीवन धीरे-धीरे ख़त्म होने लगा है. क्लाइमेट चेंज को लेकर बहुत बात होती है, लेकिन इसे रोकने के लिए जमीनी स्तर पर काम नहीं हो रहा है.

असंतुलित मौसम

स्टोरी की कांसेप्ट के बारें में सृष्टि बताती है कि उत्तराखंड के गाँव बहुत अधिक खाली हो रहे है, मेरे पिता भी गाँव से है, टिहरीगढ़वाल में स्थित सेमला से लोगों का पलायन हो रहा है, अभी केवल दो परिवार ही बचे है, इसे लेकर एक नोस्टाल्जिया, जो मेरे परिवार के अंदर है, उन्हें गांव खाली होने का डर सता रहा है,इसे हमेशा सुनते हुए और उनके दुखी मन को सांत्वना देने के लिए कोई शब्द नहीं थे,इसलिए इसे लेकर मैंने कुछ करने के बारें में सोचा, जिसमे खासकर पर्यावरण था. जब कोई खेत और जंगल छोड़ देता है, तो उसपर उगने वाले घासफूंस को जानवर भी नहीं चरना चाहते. अभी वहां पर चीर के पेड़ों की संख्या बहुत अधिक हो चुकी है, जिसका अधिक होना मिटटी और ग्राउंड वाटर के लिए खतरा होता है. इसका प्रभाव पर्यावरण संतुलन पर पड़ता है. ऐसे में इंसान का गाँव में रहना और खेती करना आवश्यक है, जिससे एक अच्छा जंगल पनप सकें. पानी जमीन में रहे. उपजाऊपन में कमी न हो. आज जंगल बन चुके स्थान ऐसा नहीं था. यहाँ लोग हज़ार साल से रह रहे थे उन्होंने खेती की और अपना जीवन निर्वाह किया. इस प्रकार परिवार के दुःख और पर्यावरण को देखते हुए मैंने ये फिल्म बनाई. सभी का गाँव से भागने की वजह से शहरों की भी हालत ख़राब है, वहां जनसंख्याँ का दबाव अधिक बढ़ रहा है. गांव में यूथ के लिए नौकरी नहीं है.

सामाजिक असामनता

तकनीक का प्रयोग इन गांवों में अधिक नहीं हो सकता, क्योंकि ये पहाड़ी क्षेत्र है और यहाँ सीढ़ीनुमा खेतों में फार्मिंग की जाती है. सृष्टि आगे कहती है कि पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से यहाँ की मिटटी पथरीली होती है. इसके अलावा शहर में रहकर भी खेती नहीं की जा सकती,लेकिन कॉपरेटिव फार्मिंग हो सकता है, जिसमें एक साथ 5 से 6 गांव साथ आकर पूरी जमीन को शेयर कर सकते है, लेकिन समाज टूटा हुआ होने की वजह से ऐसी फार्मिंग नहीं हो सकती. अधिकतर उच्च वर्ग के लोग पलायन करते है, दलित को जमीन की मालिकाना हक नहीं है, उनका उच्च वर्ग के साथ बनती नहीं है. दलितों के पास बहुत कम जमीन है. ऐसी कई समस्याएं है और इसका सीधा असर सामाजिक और पर्यावरण पर पड़ रहा है. भाई-चारा होने पर ऐसी स्थिति नहीं होती. जाति की समस्या और आपसी मनमुटाव ही इसकी जड़ है. यहाँ के बचे हुए लोग मनरेगा के अंतर्गत और पंचायत की टीम में मुर्गी पालन, पशुपालन आदि काम करते है, इससे थोड़ी आमदनी हो जाती है, लेकिन वे लोग अभी भी गरीबी रेखा के नीचे है. इसके अलावा शहरों में रहने वाले पुरुषों की महिलाएं अधिकतर गाँव में रहती है, उन्हें समस्या अधिक होती है.

मिली प्रेरणा

सृष्टि इस फील्ड में पिछले 10 साल से निर्देशक के रूप में काम कर रही है, उन्होंने छोटी-छोटी प्रेरणादायक फिल्में दिल्ली में कई एनजीओ के लिए बनायीं है. इसके बाद उन्होंने अपने गांव के लिए फिल्म बनाई, क्योंकि वह इससे बहुत कनेक्ट रही. पर्यावरण के साथ समाज परिवार और जीव-जंतु सभी का एक जुड़ाव होता है. उसे उन्होंने सबके सामने रखने की कोशिश की है. इसे करने में अधिक मुश्किल उन्हें नहीं आई, क्योंकि ये उनके पिता की गांव है. 5 साल की मेहनत के बाद उन्होंने एक घंटे की फिल्म बनाई है.

 

करप्शन कम होती नहीं दिखती

सृष्टि आगे कहती है कि रिसर्च के दौरान मैंने काफी समय वहां बिताया है, लेकिन वहां किसी प्रकार की स्कीम या योजना गांववालों के लिए सरकार की तरफ से नहीं देखा. वहां रहने वालें दलित बहुत कम पढ़े-लिखे है. इससे उनको किसी बात की जानकारी नहीं होती. अपर कास्ट के लोग इनका शोषण करते है. इसे मैंने देखा और बहुत ख़राब लगा. पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए एक अच्छी कम्युनिटी का क्रिएट करना जरुरी है. वे संगठित तरीके से रह नहीं सकते,जिसमे औरतों का बहुत शोषण होता है. आपस में प्यार से न रह पाना ही पर्यवरण के लिए क्षति है और इसका असर सबको दिख रहा है. संगठित तरीके से काम अपनाने पर ही पर्यावरण का संरंक्षण हो सकता है. इसके अलावा उत्तराखंड में पहाड़ो को डायनामाईट से ब्लास्ट कर उस क्षेत्र में बिल्डिंग बनाई जा रही है, जो कानूनन मान्यता न होने पर भी हो रहा है, क्योंकि करप्शन बहुत अधिक है. यहाँ देखा गया है कि पर्यावरण से सम्बंधित कानून को लोग आसानी से तोड़ देते है, जो दुःख की बात है. उत्तराखंड में ये अधिक हो रहा है, ऐसे में पढ़े-लिखे संगठित समाज ही इन गलत चीजों के लिए अपनी आवाज उठा सकते है.

कौल सैंटर: विवाहित महिलाओं का बढ़ता दबदबा

कौल सैंटर का जिक्र आते ही जेहन में कौंध जाते हैं हैडफोन लगाए, धाराप्रवाह अंगरेजी बोलते, खास शैली व अंदाज में ग्राहकों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए, उन्हें उत्पाद की खूबियों का यकीन दिलाने में माहिर युवा लड़केलड़कियों के चेहरे.

कौल सैंटर को ले कर हमेशा मन में एक ही धारणा व्याप्त रहती है कि कालेज से निकले छात्रों को पैसा कमाने के लिए पार्टटाइम नौकरी करने की चाह यहां खींच लाती है. कौल सैंटरों में मिलने वाली सुविधाएं व पैसा दोनों उन्हें चकाचौंध करते हैं. यही वजह है कि नियमित काम के घंटे न होने पर भी युवाओं की एक बड़ी जमात को वहां काम करते देखा जा सकता है.

मगर अब कौल सैंटर का स्वरूप बदलने लगा है. किसी भी कौल सैंटर में अब आसानी से विवाहित महिलाओं को भी कंप्यूटर के आगे कान पर हैडफोन लगाए ग्राहकों से बातचीत करते देखा जा सकता है. विवाहित महिलाओं द्वारा कौल सैंटर में काम कराने का ट्रैंड मार्च, 2004 से शुरू हुआ था.

हालांकि पहले भी विवाहित महिलाएं काम कर रही थीं पर उन की तादाद ज्यादा नहीं थी. गृहिणियों को ले कर इस तरह का प्रयोग पहली बार विप्रो कंपनी ने किया. इस क्षेत्र में महिलाओं का दखल अभी सिर्फ 5 फीसदी तक ही है, लेकिन इस क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञ मानते हैं कि इस में अप्रत्याशित वृद्धि होने की संभावना है.

एक अनोखा प्रयोग

अभी तक कौल सैंटर में कार्य करने वालों की उम्र 18 से 25 साल के बीच निर्धारित होती थी. विकसित उम्र के इस दौर में काम सीखने के बाद कंपनी बदलने का औसत इन के बीच पिछले वर्ष तक 33 फीसदी तय था. इस साल यह बढ़ कर 40 फीसदी पहुंच गया है. एक से दूसरी कंपनी में पलायन के बढ़ते इस औसत पर लगाम लगाने के लिए अब विवाहित महिलाओं को हैडफोन पहनाया जा रहा है खासकर 5 आईटी कंपनियों- विप्रो, आईगेट, सौफ्टवेयर पार्क, जी कैपिटल, और ई फंड्स ने एक और नया प्रयोग इस में किया है कि वे उन महिलाओं को अधिक प्रमुखता देंगे जिन के बच्चे स्कूल जाने लायक हों तथा उन का संयुक्त परिवार हो.

उत्पादन के तौर पर कौग्निजैंट कंपनी विवाहित महिलाओं को जो दिन या रात में कभी भी अपना समय दे सकती हैं नौकरी दे रही है जिस में बोलना आना ज्यादा जरूरी है. 12 से 15 हजार की सैलरी का वादा किया जा रहा है जो बाद में कार्यकुशलता को देख कर बढ़ाया जा सकता है.

विप्रो स्थित कौल सैंटर में कार्यरत केरल की 29 वर्षीय शशिकला कंपनी के इस नए रवैए से काफी खुश है क्योंकि शादी के बाद उसे एक अच्छी नौकरी मिली है. उस की एक 4 साल की बेटी है. वह कहती है कि कंपनियों द्वारा विवाहिताओं को नौकरी देने के चलन में 30 से 40 वर्ष के बीच की महिलाओं में कैरियर बनाने की आस दोबारा जगाई है. बेशक मेरे साथ मेरे सासससुर नहीं करते हैं, लेकिन कंपनी ने मु  झे सुविधानुसार जौब टाइमिंग दिया हुआ है. विवाह के बाद नौकरी करने का यह अद्भुत अनुभव है.

अद्भुत क्षमता

विवाहित महिलाओं की उम्र 27 से 40 वर्ष तय की गई है. ऐसा इसलिए क्योंकि इस उम्र की कामकाजी विवाहित महिलाओं में इस रखाव की अद्भुत क्षमता होती है. वे हर काम जिम्मेदारी से निभाने में सक्षम होती हैं जबकि इस के विपरीत फ्रैशर्स में चाहत की लालसा अधिक होती है, इसलिए टिकते नहीं हैं. उन में अनुभव की कमी तो होती ही है, साथ ही काम के प्रति जिम्मेदारी की भावना भी काम होती है. अधिक पैसा मिलते ही वे दूसरी कंपनियों में चले जाते हैं जिन में अधिक नुकसान के साथसाथ प्रशिक्षण के लिए कंपनियों को रोज नए कर्मियों को ढूंढ़ना पड़ता है.

काम के प्रति ज्यादा समर्पित

नोएडा स्थित एक कंपनी से कौल सैंटर में टीम लीडर के रूम में कार्यरत पुष्पांजलि का कहना है कि मैं 3 साल से इस कौल सैंटर में काम कर रही हूं. मु  झे कभी यहां काम करना इसलिए मुश्किल नहीं लगा क्योंकि मैं विवाहित हूं. पहले मैं यूएस शिफ्ट में काम करती थी जो रात की थी पर अब यूके शिफ्ट में हूं जो दिन के ढाई बजे से रात साढ़े बारह तक होती है. आराम से परिवार भी संभाल लेती हूं.

मु  झे लगता है कि युवाओं की अपेक्षा परिपक्व औरतें काम के प्रति ज्यादा समर्पित होती हैं क्योंकि वे एक जगह टिक कर काम करती हैं और प्रलोभन उन्हें लुभाते नहीं हैं. इतवार के अलावा सप्ताह में एक दिन और छुट्टी मिलती है, इसलिए परिवार में तालमेल बैठाने में भी कोई दिक्कत नहीं आती है.

मेरे पति बिजनैसमैन हैं और मु  झे पूरा सहयोग देते हैं. रात की शिफ्ट में काम करने वाला औरतों को ले कर जो नजरिया है, वह बदल रहा है. गंदगी फैलाने वाले हर जगह होते हैं.

इस से हर औरत खराब नहीं हो जाती.

यहां अच्छा वेतन है, ड्रौप और पिक की सुविधा है, खाना मिलता है और इस के अलावा अन्य इंसैटिव भी मिलते हैं. मु  झे लगता है कि कौल सैंटर में काम कर के कैरियर बनाने के

विवाहित महिलाओं के संभावनाओं के नए

द्वार खुल गए हैं.

भारत में आज विदेशी कंपनियां कौल सैंटर खोल रही हैं. इस के पीछे मुख्य वजह बेरोजगारी और वहां के हिसाब से कम वेतन में लोग मिल जाते हैं. विवाहित महिलाओं के लिए जिस उन्मुकता के साथ कौल सैंटरों ने दरवाजे खोले हैं, वे सराहनीय कदम तो है ही, साथ ही इस से काम में भी वृद्धि होगी.

कौल सैंटर में जरूरत होती है ऐसे लोगों की जिनकी आवाज तो अच्छी हो, लेकिन इस के साथ ही वे ग्राहकों के साथ संवाद स्थापित करने में भी कुशल हों, धाराप्रवाह और स्पष्ट अंगरेजी, सही दृष्टिकोण व सीखने की अद्भुत क्षमता का समन्वय भी आवश्यक होता है. यह कैरियर जो अब तक युवाओं के लिए सीमित था, गृहिणियों के लिए भी खुल गया है. ऐसा इसलिए क्योंकि फ्लैक्सी टाइम होने की वजह से विवाहित महिलाएं अब कौल सैंटरों में काम करना पसंद करने लगी हैं.

अचानक कौल सैंटरों में गृहिणियों की

वृद्धि हुई है क्योंकि अब परिवार ज्यादा सुल  झे व खुले विचारों के हो गए हैं और रात को काम करना भी टैबू नहीं रहा है. अच्छा वेतन तथा पिक ऐंड ड्रौप की सुविधा ने काम करना आसान बना दिया है.

समस्याओं को सुलझाने की क्षमता

कौल सैंटर कंपनियां अब ऐसी औरतों को प्राथमिकता दे रही हैं जो परिपक्व व निष्ठावान हों, विवाहित महिलाएं परिपक्व होती हैं और

उन्हें निरंतर पारिवारिक दबावों से गुजरते रहना होता है. इस वजह से उन में घंटों के साथ समस्याओं को सुल  झाने की क्षमता अविवाहिताओं से बेहतर होती है.

कई लोगों का मानना है कि कौल सैंटर की नौकरी बहुत ही उबाऊ और बोरियत भरी होती है और इस में विकास के विकल्प कम होते हैं पर यह बात अब गलत साबित हो चुकी है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण नौकरी होती है.

5-10 वर्ष पहले कौल सैंटर उद्योग बिलकुल शिशु अवस्था में था. कालेज से निकले फ्रैशर इस की ओर आकर्षित होते थे. पढ़ने के साथसाथ वे अपना कैरियर बनाने को भी इच्छुक रहते थे, पर चूंकि वह उन की शुरुआत होती थी इसलिए उस के प्रति गंभीर नहीं रहते थे. इस से कंपनियों को उन के चले जाने से फिर नए सिरे से नए लोगों को प्रशिक्षण देना पड़ता था.

विश्वास व दूरदृष्टि

हालांकि काबिलीयत इस बात पर निर्भर नहीं करती कि महिला विवाहित है या अविवाहित पर यह जरूर है कि विवाहित महिलाएं एक जगह टिक कर काम करना पसंद करती हैं. ज्यादातर युवा औफिस के माहौल में कालेज का वातावरण उत्पन्न करने की कोशिश करते हैं, पर विवाहित महिलाएं निष्ठा, विश्वास व एक दूरदृष्टि रखते हुए काम करती हैं.

उन के लिए नौकरी पार्टटाइम नहीं होती वरन घर चलाने के लिए जरूरत होती है. एक सही कैरियर के साथ वे इस का चुनाव करती हैं. अनुभवी होने के कारण काम के दबाव को आसानी से बरदाश्त कर लेती हैं.

घर में चकलाबेलन चलाने वाले हाथ, अब दिनरात तेजी से कंप्यूटर पर ऊंगलियां चलाते हैं. पति, सासससुर व बच्चों की शिकायतें और मांगें सुनने वाले कान अब हैडफोन लगा ग्राहकों के अंदर उत्पाद के प्रति विश्वसनीयता पैदा करते हैं. नतीजा उत्पाद की बेहतर बिक्री के रूप में सामने आता है. गृहिणियां विदेशी बाजार की मार्केटिंग क्षमता का विस्तार करने में जुट गई हैं. वे जानती हैं कि उन के पास अपार क्षमता है और विभिन्न आईटी कंपनियों ने उन की क्षमताओं को पहचान भी लिया है.

वर्क फ्रौम होम और नई मोबाइल टैक्नोलौजी के कारण अब डिस्टैंड कौल सैंटर भी चल सकते हैं जिन में घरेलू महिलाएं घर बैठे कंप्यूटर और फोन की सहायता से काम कर रही हैं. कोविड-19 का एक लाभ यह हुआ है कि लोगों को अब फेस टू फेस काम कराने की आदत कम होने लगी है और वे घर बैठे काम करना चाहते हैं. जूम मीटिंगों की तरह दसियों तरह के प्लेटफौर्म इन औरतों को ट्रेन भी कर सकते हैं.

बेजबानों को भी जीने का हक है

मीट खाना अपनी पसंदनापसंद पर निर्भर करता है और जिंदा पशुओं के प्रति दया या क्रूरता से इस का कोई मतलब नहीं है. मुंबई हाई कोर्ट ने कुछ जैन संगठनों की इस अर्जी को खारिज कर दिया कि मीट के खाने के विज्ञापन छापें भी न जाएं और टीवी पर भी न दिखाए जाएं क्योंकि ये मीट न खाने वालों की भावनाओं को आहत करते हैं.

पशु प्रेम वाले ये लोग वही हैं जो गौपूजा में भी विश्वास करते हैं पर उस के बछड़े का हिस्सा छीन कर उस का दूध पी जाते हैं. ये वही लोग हैं जो वह अन्न खाते हैं जो जानवरों के प्रति क्रूरता बरतते हुए किसानों द्वारा उगाया जाता है. ये वही लोग हैं जो पेड़ों से उन फलों को तोड़ कर खाते हैं जिन पर हक तो पक्षियों का है और उन की वजह से पक्षी कम हो रहे हैं.

यह विवाद असल में बेकार का है कि मीट खाने या न खाने वालों में से कौन बेहतर है या कौन नहीं. अगर एक समाज या एक व्यक्ति मीट नहीं खाता तो यह उस की निजी पसंद पर टिका है और हो सकता है कि यह पसंद परिवार और उस के समाज ने उसे विरासत में दी हो. पर इस जने को कोई हक नहीं कि दूसरों को अपनी पसंद के अनुसार हांकने कीकोशिश करे.

पिछले सालों में सभी में एक डंडे से हांकने की आदत फिर बढ़ती जा रही है. पहले तो धर्म हर कदम पर नियम तय किया करते थे और किसी को एक इंच भी इधरउधर नहीं होने देते थे, पर जब से स्वतंत्रताओं का युग आया लोगों को छूट मिली है कि वे तर्क, तथ्य और सुलभता के आधार पर अपनी मरजी से अपने फैसले करें और तब तक आजाद हैं जब तक दूसरे के इन्हीं हकों को रोकते हैं, तब से समाज में विविधता बढ़ी है.

आज खाने में शुद्ध वैष्णव भोजनालय और चिकन सैंटर बराबर में खुल सकते हैं और खुलते हैं पर कुछ कंजर्वेटिव धर्म के गुलाम दूसरों पर अपनी भक्ति थोपने की कोशिश करने लगे हैं. भारत को तो छोडि़ए, स्वतंत्रताओं का गढ़ रहा अमेरिका भी चर्च के आदेशों के हिसाब से गर्भपात को रोकने की कोशिश कर रहा है, जिस का असल में अर्थ है औरत की कोख पर बाहर वालों का हमला.

मीट खाना अच्छा है या बुरा यह डाक्टरों का फैसला होना चाहिए धर्म के ठेकेदारों का नहीं, जो हमेशा सूंघते रहते हैं कि किस मामले में दखल दे कर अपना  झंडा ऊंचा किया जा सकता है. यह तो पक्की बात है कि जब भी कोई धार्मिक मुद्दा बनता है, चंदे की बरसात होती है. यही तो धर्म को चलाता है और यही मीट खाने वालों को रोकने के प्रयासों के पीछे है.

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