लेखक- डा. भारत खुशालानी
‘‘मुझे पता है कि आप दोनों मेरा रिश्ता खोजने के लिए बेताब हो. मैं भी आप दोनों को निराश नहीं करना चाहता, परंतु अपनी वर्तमान स्थिति में भी मैं वास्तव में बहुत संतुष्ट और खुश हूं,’’ दिलेंद्र की इच्छा हुई कि अपने भैयाभाभी को ऐसी जीवनशैली की खासीयतों के बारे में बताए जिन्हें वह जी रहा है लेकिन जिस के बारे में लोग बात या तो करते नहीं थे या करना पसंद नहीं करते थे.
‘‘वह कैसे?’’ भैया ने पूछा.
‘‘अपनी मरजी का टीवी प्रोग्राम देख रहा हूं, जितने पर पंखा चाहिए, उतने पर चलाता हूं, जब मन होता है तब उठता हूं,’’ दिलेंद्र बोला.
‘‘परिवार चलाने के समक्ष ये सारी बातें नगण्य हैं,’’ भैया बोले.
‘‘मेरी जितनी भी आदतें हैं, उन में से किसी से भी मैं शर्र्मिंदा नहीं हूं. पत्नी आने के बाद यह स्थिति बदल जाएगी,’’ दिलेंद्र बोला.
‘‘भैया, अपनी उम्र का भी खयाल कीजिए. 40 हो रही है और आप डांस सिखाते हो, कहीं किसी जनरल मैनेजर के पद पर नहीं हो,’’ भाभी बोली.
बात चुभने वाली थी, लेकिन एकदम सत्य.
‘‘भाभी, आप जो कह रही हो, मैं वाकई उस की सराहना करता हूं और मेरा विश्वास कीजिए कि मैं आप की बात पर अच्छे से विचार करूंगा.’’
भाभी ने उसे चिंतित नजरों
से देखा.
उसी दिन सुबह करीब 10 बजे जिव्हानी किवैदहेय के औफिस पहुंची. किवैदहेय वहीं था जिस ने उसे फ्लैट दिलाया था. संक्रांति महोत्सव के रजिस्ट्रेशन के समय जिव्हानी की उस से मुलाकात हुई थी. उस के मांबाप की पहचान का था. उम्र करीब 40 बरस होगी. जिव्हानी ज्यादा कुछ नहीं जानती थी उस के बारे में. किवैदहेय का औफिस देख कर अचरज में पड गई. इतना भव्य औफिस. महानगरों में तो ऐसा औफिस सिर्फ बड़ी कंपनियों का ही होता है. उस ने प्रवेश किया, यहांवहां देखा और रिसैप्शनिस्ट से बात कर के किवैदहेय के कक्ष तक पहुंची.
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उस ने आश्चर्य जताते हुए कहा, ‘‘आप का कार्यालय तो बहुत फैंसी है?’’
किवैदहेय ने उस का मुसकरा कर अभिवादन किया.
‘‘आप तो कह रहे थे कि मेरा छोटा सा व्यापार है. यहां तो मध्यम साइज की कंपनी दिख रही है?’’ जिव्हानी ने पूछा.
‘‘‘छोटा’ शब्द सापेक्ष है,’’ किवैदहेय बोला. फिर उस ने जिव्हानी के फ्लैट वाली फाइल निकाली और एक पेज पर उसे हस्ताक्षर करने के लिए कहा, ‘‘आप के पिताजी ने तो डिपौजिट भर ही दिया है. बस आप के हस्ताक्षर चाहिए.’’
फ्लैट के मालिक विदेश में थे और अपने फ्लैट का जिम्मा किवैदहेय को दे दिया था.
जिव्हानी ने साइन करते हुए कहा, ‘‘मैं बहुत आभारी हूं आप की. अब अपनी फीस बताइए.’’
किवैदहेय बोला, ‘‘कैसी बातें करती हैं आप.’’
महानगरों में कोई भी व्यक्ति बिना स्वार्थ भाव से किसी के लिए कोई
काम नहीं करता. इसीलिए जिव्हानी को थोड़ा अटपटा लगा, ‘‘कम से कम दलाली का तो हिस्सा बता दीजिए.’’
‘‘कुछ नहीं,’’ किवैदहेय बोला. इस तरह किसी का आर्थिक एहसान लेने में जिव्हानी को असुविधा हो रही थी, ‘‘आप के मम्मीपापा ने भी यही बात कही, लेकिन मैं उन से भी कैसे पैसे ले सकता हूं. बिलकुल सही नहीं लगेगा.’’
जिव्हानी ने कुछ कहना चाहा पर किवैदहेय ने कहने का अवसर नहीं दिया, ‘‘इसके बदले हम लोग कभी आप के बेटे के साथ मिल कर खाने पर किसी अच्छे से रैस्टोरैंट जा सकते हैं.’’
जिव्हानी को यह बात अजीब लगी, लेकिन उसने मुसकरा कर हामी भर दी, ‘‘बिलकुल.’’
किवैदहेय ने जिज्ञासा से पूछा, ‘‘अभी बेटा कहां हैं? स्कूल गया है क्या?’’
‘‘स्कूल में अभी दाखिला पूरा नहीं हुआ है. पापा की पहचान वाले हैं. कुछ ही दिन में ट्रांसफर पूरा हो जाएगा. अभी उसे उस के नए मित्र दिलेंद्रजी के पास छोड़ आई हूं.’’
किवैदहेय को सुन कर जैसे टीस लगी, ‘‘दिलेंद्र के पास वह क्या करेगा?’’
जिव्हानी ने किवैदहेय की जलन को भांप लिया, ‘‘उन के कुत्ते के साथ खेलता है. दिलेंद्र उसे डांस भी सिखाते हैं और पतंग उड़ाना भी सिखा रहे हैं.’’
दिलेंद्र को इस तरह से पूरी तरह जिव्हानी के घरपरिवार में घुसा जान कर किवैदहेय का चेहरा लाल हो गया. अपनी भावनाओं को वह अपने चेहरे पर आने से छिपा न सका. जिव्हानी चकित हो कर उसके हावभाव देखती रह गई. उसे इस बात की कतई उम्मीद नहीं थी.
दोपहर 2 बजे जब किवैदहेय भोजन करने घर पहुंचा, तो अचानक बिल्डिंग के बाहर ही उस की मुलाकात दिलेंद्र से हो गई.
‘‘क्या बात है बड़े खुशमिजाज लग रहे हो?’’ किवैदहेय ने पूछा.
दिलेंद्र को स्वयं पता नहीं था कि यह जिंदादिल मनोवृत्ति कहां से उस के अंदर इतने सालों के बाद जाग उठी है.
‘‘मेरे लिए तो यह थकाऊ दिन रहा है… औफिस का बहुत काम है,’’ किवैदहेय बोला.
दिलेंद्र ने उस का कंधा थपथपाते हुए कहा, ‘‘शाम को पार्क में पतंग उड़ा कर देखना कैसे पतंग के साथसाथ मन भी आकाश में उड़ने लगेगा.’’
‘‘वास्तव में पहले तो मैं ने कभी भाग नहीं लिया है, लेकिन सोचता हूं इस बार जरूर लूं,’’ किवैदहेय बोला.
‘‘पतंग उड़ाना अपने घावों पर मरहम लगाने जैसा है. सब दुखों को दूर करने वाला अनुभव, सब घावों को भर देने वाली दवा. हवा में उड़ती हुई किसी चीज को अपने काबू में रख पाने की अनुभूति… सच बहुत मजा आएगा तुम्हें भी,’’ दिलेंद्र बोला.
किवैदहेय ने रुक कर कहा, ‘‘जिव्हानी ने बताया कि तुम उस के बेटे के लिए आया का काम कर रहे हो जब तक उस का स्कूल में दाखिला नहीं हो जाता?’’
दिलेंद्र जैसे आसमान से नीचे गिर गया हो. बोला, ‘‘आया?’’
‘‘हां, तुम्हारे पास इतना काम नहीं है इसीलिए तुम दाई का काम करके दूसरों के बच्चों की देखभाल कर सकते हो. वैसे भी डांस क्लास के बहाने लोग अपने बच्चे तुम्हारे पास छोड़ कर ही जाते हैं.’’
किवैदहेय का मुंह ताकता रह गया.
किवैदहेय ने मोबाइल में समय देखा और कहा, ‘‘मेरा समय हो रहा है. स्वाभेश का ध्यान रखने के लिए हम दोनों की ओर से बहुत शुक्रिया.’’
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दिलेंद्र के मुंह से निकला, ‘‘हम दोनों?’’
‘‘मेरी और जिव्हानी की ओर से,’’ किवैदहेय बोला और फिर चला गया.
दिनभर दिलेंद्र को यह वार्त्तालाप परेशान करता रहा. शाम को पार्क में स्वाभेश उस का इंतजार करता रहा. सूर्यास्त हो गया, लेकिन दिलेंद्र दिखाई नहीं दिया. स्वाभेश मायूस हो कर घर लौट आया. सोफे पर हताश हो कर बैठ गया तो मां ने कारण पूछा. स्वाभेश ने बता दिया. मां को समझ आ गया कि स्वाभेश का दिल दिलेंद्र के साथ लग चुका है.
दूसरी ओर दिलेंद्र दोपहर से शाम तक अपने बिस्तर पर पड़ा रहा. दोपहर
की क्लास भी रद्द कर दी. उसे बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि अचानक उस के साथ ऐसा कैसे हो रहा है. 7 बजे उस ने अपनेआप को हिम्मत दी और निकल कर भैयाभाभी के घर पहुंचा और उन से जिक्र किया.
भैयाभाभी को एक ही क्षण में सारा मामला समझ में आ गया. दिलेंद्र के मन को गहरी चोट पहुंची थी. लेकिन यह इसीलिए था कि उस ने जिव्हानी और उस के बेटे को अपना समझा.
भाभी ने उसे समझाया, ‘‘कोई कुछ भी कहे उस की बातों का एकदम यकीन नहीं करना चाहिए जो कुछ भी किवैदहेय ने कहा है मुझे उस पर जरा भी विश्वास नहीं कि यह जिव्हानी ऐसा कह सकती हैं.’’
मकर संक्रांति का दिन आ गया. सुबह से ही लोगों में उत्साह था. येवकर्णिम पार्क को सुबह सबेरे ही खोल दिया गया. इक्कादुक्का आवारा लड़के भटक कर अपनी पतंगों के साथ 5 बजे ही आ गए. एक दिन पहले ही तिलगुड़ के लड्डू बन चुके थे. आज एकदूसरे में वितरित होंगे. आज पतंगें जब हवा में लहराएंगी, तो चोरीछिपे या ग्लानि की भावना से नहीं, बल्कि सीना तान कर आधिकारिक रूप से. आज उन्हीं का दिन है.
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