दिल्लगी बन गई दिल की लगी: भाग 4- क्यों शर्मिंदा थी साफिया

परवेज अपनी कोशिश में लगे रहे आखिर उन्हें दुबई की एक अच्छी कंपनी में शानदार जौब मिल गई. वह साफिया बेगम को लाने उन के मायके गए. साफिया के भाई उन से बड़ी बदतमीजी से पेश आए. उन्होंने परवेज को साफिया से मिलने भी नहीं दिया और घर से निकाल दिया. भाइयों ने कुछ अरसे तो साफिया बेगम को अच्छे से खूब लाड़प्यार से रखा, फिर उन की आंखें बदलने लगीं.

मांबाप के मरते ही हालात और बुरे हो गए. भाभियां उन से जुबान चलाने लगीं. उन्हें मनहूस कह कर पुकारने लगीं. एक दिन घर में भाभियों का साफिया से झगड़ा हुआ. भाई वहां होते हुए भी तटस्थ रहे. बीवियों ने साफिया को तमाचे भी मारे.

इसे साफिया बरदाश्त नहीं कर सकीं. अपना सामान समेटा और बच्चे को ले कर कराची का रुख कर गईं. फिर हमारे मुहल्ले में एक कमरा किराए पर ले कर रहने लगीं. गुजारे के लिए वह सिलाईकढ़ाई करने लगीं. जल्द ही उन का काम अच्छा चलने लगा.

उन्हें अब अपनी गलती पर खूब पछतावा हो रहा था. वह समझ गई थीं कि बिना पति के औरत की कद्र नहीं रहती. उन्हें यह शिकायत थी कि दुबई जाते वक्त परवेज ने उसे नहीं पूछा. उसे यह पता ही नहीं चला कि परवेज उन्हें लेने आया था. पर गलती उन के भाइयों की थी, जिन्होंने परवेज को उन से मिलने तक नहीं दिया बल्कि बदतमीजी कर उसे घर से निकाल दिया.

दुबई आने के बाद वह फिर से साफिया के मायके गए. वहां पता चला कि भाइयों ने उसे निकाल दिया. तब उन्होंने साफिया को तमाम जगहों पर खोजा. इतना ही नहीं उन्होंने अखबार तक में इश्तहार निकलवाया पर साफिया का कहीं पता नहीं लगा.

परवेज ने थक के तलाश बंद कर दी और जो कुछ दुबई से कमा कर लाए, उस से एक बिजनैस शुरू कर दिया. रातदिन की मेहनत और ईमानदारी से बिजनैस खूब फैल गया. उन के एक अच्छे दोस्त ने उन की बहुत मदद की. उसी की बहन शमा से परवेज ने दूसरी शादी कर ली.

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कराची में एक टेक्सटाइल मिल खरीद ली और बीवी और बेटे समेत कराची शिफ्ट हो गए. यहीं एक शानदार कोठी ले कर चैन से रहने लगे. उन की बीवी बहुत अच्छी समझदार व प्यार करने वाली थी. परवेज ने उसे सब कुछ बता दिया था. परवेज को साफिया याद आती तो वह बेचैन हो जाते क्योंकि वह उन की मोहब्बत थीं.

इतने अरसे के बाद साफिया को सामने देख कर वह हैरान हो गए. अब वह खुद पर काबू न रख सके. दूसरे दिन वह साफिया के घर पहुंच गए. साफिया अपने किए पर शर्मिंदा थीं. वह क्या गिला करतीं. उन्हें सब मालूम हो चुका था. परवेज ने कहा, ‘‘पुरानी बातें दोहराने से कोई फायदा नहीं है. मैं ने तुम्हें लाने की, तुम्हें ढूंढने की बड़ी कोशिश की थी, पर सारी कोशिशें नाकाम रहीं. तुम्हारे भाइयों ने मेरे साथ बड़ा बुरा सलूक किया था. मजबूरन मैं ने दूसरी शादी कर ली. क्या अब भी तुम मुझे कसूरवार ठहराओगी. अब चलो हमारे साथ चल कर रहो.’’

‘‘सच, इस में आप की कोई गलती नहीं है. मैं आप के साथ कैसे रह सकती हूं. आप की बीवी एतराज करेगी और फिर मुझे मंसूर से भी पूछना पड़ेगा, वह राजी होता है या नहीं.’’

‘‘कुछ सोचना नहीं है. फराज की मां को कोई एतराज नहीं होगा. मैं ने बात कर ली है उन से. तुम कल मंसूर के साथ तैयार रहना, मैं लेने आऊंगा.’’

शाम को जब मंसूर घर आया तो साफिया ने उसे सब कुछ बता दिया. पहले तो वह आपे से बाहर हो गया, पर जब साफिया ने उसे समझाया कि भूल उसी की थी, परवेज तो बेकसूर है. मां के बहुत मिन्नत करने पर मंसूर साथ जाने को राजी हो गया.

दूसरे दिन सुबह ही परवेज अपनी बीवी व फराज के साथ पहुंच गए. बहुत मोहब्बत से सब मंसूर व साफिया से मिले. उन्हें मिन्नत कर के अपने साथ घर ले गए. उन दोनों के लिए पहले से ही शानदार कमरे तैयार थे. परवेज ने मंसूर से कहा कि वह फौरन अपनी जौब छोड़ दे और फराज के साथ दफ्तर का काम संभाले. मंसूर तैयार न था, पर बाप ने उस के आगे हाथ जोड़ दिए. इतने अरसे के बाद बाप की चाहत मिली तो वह इनकार नहीं कर सका.

अगले हफ्ते मैं फराज से मिलने दफ्तर गई तो देखा कि फराज की कुरसी पर मंसूर बैठा था. फराज एक छोटी टेबल पर था. मुझे देखते ही मंसूर उठ कर चला गया.

फराज ने कहा, ‘‘शीना तुम हमारे लिए बहुत लकी हो, तुम्हारी मंगनी पर ही मुझे मेरी मां और भाई मिला.’’

इस के बाद मुझे फराज ने सारी कहानी सुनाई. मैं ये सब सुन कर भौचक्का रह गई. क्या किस्मत के खेल हैं, जिस कुरसी की वजह से मैं ने फराज पर डोरे डाले थे आज उसी कुरसी पर मंसूर बैठा था, जिस का प्यार मैं ने ठुकरा दिया था. 2 महीने बाद मेरी शादी थी. अब मुझे ये सोच कर डर लग रहा था कि मैं एक ही घर में मंसूर के साथ कैसे रहूंगी. अगर फराज को इस बात की भनक भी लग गई तो गजब हो जाएगा. वह तो मंसूर से बेहद प्यार करता है.

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शादी हो कर मैं फराज की आलीशान कोठी में पहुंच गई. अब मेरा मंसूर से रातदिन का सामना था. मैं उसे इग्नोर नहीं कर सकती थी. हालांकि मेरे दिल में कोई चोर न था पर मैं मंसूर के दिल का हाल खूब समझ रही थी. क्योंकि उस के दिल में मेरी मोहब्बत एक नासूर बन कर पल रही थी.

रिसैप्शन पार्टी के दूसरे दिन जब फराज मेहमानों को छोड़ने स्टेशन गए थे तो मंसूर ने मुझे बुलाया. मुझे बैठने को कह कर गंभीर लहजे में कहने लगा,  ‘‘जानता हूं, हम दोनों एक मुश्किल सूरतेहाल से गुजर रहे हैं. मैं ने इस बारे में बहुत सोचा और इस नतीजे पर पहुंचा कि मुझे मंजर से हट जाना चाहिए. अब तुम मेरे भाई की अमानत हो. मैं तुम्हारे बारे में कोई गलत बात नहीं सोचना चाहता.

‘‘पर इस दिल का क्या करूं, जहां आज भी तुम्हारी तसवीर सजी हुई है. इस से पहले कि कभी कोई ऐसी बात हो जाए कि मैं अपनी ही नजरों में गिर जाऊं. मैं 2 दिनों में कतर की तरफ निकल जाऊंगा. वहां मेरा एक दोस्त अच्छी नौकरी बता रहा है.

‘‘मेरे जाने के बाद तुम सुकून से जिंदगी गुजारना. ये मेरी बदनसीबी है कि लंबे समय के बाद बाप का प्यार मिला पर तुम्हारे सुकून की खातिर ये नए रिश्ते ये बेपनाह प्यार ये दौलत ये दफ्तर सब छोड़ना पड़ेगा. मेरी अम्मी और अब्बा नहीं मानेंगे पर मैं मिन्नत कर के उन्हें मना लूंगा. मोहब्बत की खातिर मुझे इतनी कुर्बानी तो देनी पड़ेगी.

‘‘भले ही मेरी जिंदगी बरबाद हो जाए पर मेरी दुआ है कि तुम हमेशा खुश रहो, आबाद रहो. मेरे भाई को खूब खुश रखना. एक इल्तजा है कि अब ऐसा मजाक किसी और बदनसीब से नहीं करना, वरना मेरी तरह वह भी सारी उम्र का रोगी बन जाएगा.

‘‘मैं बरसों के बाद मिलने वाली खुशी को अधूरा छोड़ कर पराए देश चला जाऊंगा. अगर मुझ से कोई गुस्ताखी हुई हो तो दीवाना समझ कर माफ कर देना.’’ इतना कह कर वह खामोश हो गया. कुछ पल तो मैं सुन्न सी बैठी रही फिर उठ कर कमरे से बाहर आ गई. मेरे पास कहने को कुछ न था. मेरी शरारत ने मंसूर की जिंदगी तबाह कर दी. मैं उसे किस मुंह से रोकती. अब सिवाय पछतावे के कुछ हासिल नहीं है. अब मैं इस अहसास के साथ जिंदगी बसर करूंगी कि मेरी वजह से एक मासूम शख्स बनवास लेने पर मजबूर हो गया. काश! मैं ने वो दिल्लगी न की होती.

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दिल्लगी बन गई दिल की लगी: भाग 3- क्यों शर्मिंदा थी साफिया

सैलरी मिलने पर मैं ने कुछ नए कपड़े खरीदे. उन्हें सिलवाने के लिए मैं साफिया खाला के घर गई. क्योंकि मैं उन्हीं से कपड़े सिलवाती थी. जब मैं उन के घर गई तो खाला पड़ोस में गई थीं.

मंसूर ने मुझे बिठा लिया और कोल्डड्रिंक पेश करते हुए बोला, ‘‘अच्छा हुआ तुम आ गई. मैं तुम्हारे इंस्टीट्यूट के चक्कर काटकाट कर परेशान हो गया. तुम से एक जरूरी बात करनी थी.’’

‘‘कैसी जरूरी बात?’’ मैं चौंकते हुए बोली, ‘‘मैं ने फराज के यहां जौब कर ली है.’’

‘‘दरअसल, बात यह है कि अम्मी मेरी शादी करना चाह रही हैं. उन्होंने मुझ से मेरी पसंद पूछी है. तुम से पूछे बगैर भला मैं उन्हें तुम्हारा नाम कैसे बता देता.’’ वह बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी? तुम कहो तो, मैं अम्मी को तुम्हारे घर भेजूं?’’

उस की यह बात सुनते ही मैं एकदम घबरा गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘ये तुम क्या कह रहे हो मंसूर? मैं ने कभी तुम्हें इस नजर से देखा ही नहीं.’’

‘‘फिर वह सब क्या था? वह लगावट और प्यार, मीठे अंदाज में बातें करना, मुझ से चूडि़यां मंगवाना, पहनना, मेरे साथ चलना?’’ वह चौंकते हुए बोला, ‘‘क्या तुम मुझे बेवकूफ बना रही थी?’’

‘‘माफ करना मंसूर, मैं ने तुम्हें बेवकूफ नहीं बनाया, मैं तुम्हें केवल अपना दोस्त समझती हूं.’’

‘‘दोस्ती का नाम ले कर तुम मुझ से आसानी से दामन नहीं छुड़ा सकतीं. तुम्हारे रवैये से साफ जाहिर था कि तुम मुझे पसंद करती हो. अगर ऐसा न था तो तुम मुझे पहले ही दिन रोक देती. बात इतनी आगे न बढ़ती?’’

‘‘हां, ये मुझ से गलती हो गई, मुझे माफ कर दो. मेरे दिल में तुम्हारे लिए ऐसा कोई जज्बा नहीं है. अब इस बात को यहीं खत्म कर दो. तुम भी कोई अच्छी सी लड़की देख कर उस से शादी कर लो. थोड़े दिनों में सब भूल जाओगे.’’ मेरी बात सुन कर उस का चेहरा धुआंधुआं हो गया.

वह मुरझाए लहजे में बोला, ‘‘यह तुम्हारे लिए एक खेल हो सकता है पर मेरे लिए जिंदगी और मौत का सवाल है. तुम्हें भूलना मेरे लिए नामुमकिन है.’’

उसी समय साफिया खाला भी आ गईं. मुझे देख कर वह बहुत खुश हुईं. उन्होंने मुझे नौकरी की मुबारकबाद दी, उन्होंने खुशीखुशी सीने के लिए मेरे कपड़े ले लिए और फिर मैं घर आ गई.

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मंसूर की बातें सुन कर मैं परेशान हो गई. मैं ने सोचा भी न था कि मेरा मजाक, एक छोटी सी शरारत किसी की जिंदगी का रोग बन जाएगी. मैं ने अपने जेहन में जिस जीवन साथी की तसवीर बनाई थी, मंसूर उस में फिट नहीं बैठता था. मेरा आइडियल एक खूबसूरत, हैंडसम व अमीर शख्स था, जिस के साथ मैं ऐशभरी जिंदगी गुजार सकूं. अचानक जेहन की स्क्रीन पर एक नाम चमका फराज. हां, वह मेरा मनपसंद साथी हो सकता है.

दूसरे दिन से ही मैं ने अपने मंसूबे पर काम करना शुरू कर दिया. खूबसूरत तो मैं थी ही अब मैं ने बन संवर कर औफिस जाना शुरू कर दिया था. उस दिन मैं हलका गुलाबी सूट और मैचिंग की चूडि़यां और ज्वैलरी पहन कर औफिस गई. फराज मुझे एक लम्हा देखता रहा फिर पूछा, ‘‘क्या आज कोई खास बात है?’’

मैं ने अदा से सिर झटकते हुए कहा, ‘‘हां, मुझे अपनी सहेली की बर्थडे पार्टी में जाना है.’’

उस ने मुझे देखते हुए कहा, ‘‘अच्छी लग रही हो. ऐसे ही रहा करो.’’ फिर मुझे कुछ लेटर टाइप करने को दे दिए. उस दिन जब मैं दोबारा उस के केबिन में गई तो उस ने साथ बिठा कर चाय पिलवाई. मैं धीरे से मुसकुरा दी, किरन ने मुझे फराज के बारे में बताया था कि वह इंतहाई मजबूत कैरेक्टर का बंदा है. कई लड़कियां उस पर मरती थीं, पर उस ने किसी को लिफ्ट नहीं दी. पर मेरा प्लान कामयाबी की मंजिल तय करने लगा था.

कुछ दिनों बाद किरन खास तौर पर मुझ से मिलने घर आई. वह बहाने से मुझे फराज के घर ले गई. उस की महल जैसी कोठी देख कर मैं दंग रह गई. उस के अम्मीअब्बा बहुत प्यार से मिले.

किरन मुझे घर छोड़ने आई तो बोली, ‘‘शीना, तुम ने फराज पर क्या जादू कर दिया? जो बंदा अभी शादी नहीं करना चाहता था, अब वह जल्दी शादी करना चाहता है और पता है तुम उस की पसंद हो. क्या तुम भी उसे पसंद करती हो? बता दो मैं उस की वालिदा के साथ तुम्हारा रिश्ता मांगने तुम्हारे घर आ जाऊं.’’

मैं सिर नीचा कर के धीरे से मुसकरा दी. किरन ने खुश हो कर मुझे गले लगा लिया. 2-3 दिन बाद साफिया खाला हमारे घर आईं. बेहद परेशान थीं.

पूछने पर कहने लगीं, ‘‘क्या बताऊं बेटा मैं मंसूर की वजह से बहुत दुखी हूं. उस ने अजीब हाल बना लिया है. न ढंग से खातपीता है और न किसी से मिलताजुलता है. हंसी तो जैसे उस से रुठ गई है. चुपचाप कमरे में पड़ा रहता है. न जाने क्या रोग लग गया है, उसे तुम जरा उस से पूछो तो कि बात क्या है.’’

मैं उन्हें क्या कहती कि परेशानी की वजह मैं ही हूं. दूसरे दिन किरन और फराज के अम्मीअब्बा रिश्ता ले कर घर आए. फराज के बारे में सारी जानकारी दी. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि मेरा ख्वाब इतनी जल्दी पूरा हो जाएगा. मेरे अब्बा फराज के वालिद को अच्छी तरह जानते थे उन्होंने रिश्ता कुबूल कर लिया. फिर सारे मामलात तेजी से तय हो गए. उन्होंने खबर दी कि अगले इतवार को वह लोग तारीख तय करने आएंगे, साथ ही अंगूठी भी पहना देंगे.

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इतवार को किरन, फराज के अम्मीअब्बा आए. अम्मी ने शानदार इंतेजाम किया था. अपनी मदद के लिए साफिया खाला को उन्होंने बुला लिया था. खाने के बाद फराज की अम्मी ने हीरे की बहुत खूबसूरत अंगूठी पहनाई. उस वक्त साफिया खाला भी हौल में आ गईं.

साफिया खाला की नजर ज्यों ही फराज के वालिद पर पड़ी, वह पत्थर के बुत की तरह खड़ी रह गईं. फराज के वालिद का भी यही हाल था. हमें समझ न आया कि माजरा क्या है. जो दोनों इस तरह हैरान व परेशान हैं? साफिया खाला फौरन किचन में चली गईं. फराज के वालिद परवेज खान भी जल्दी ही उठे और वो सब निकल गए.

यहां कहानी में एक ऐसा मोड़ आया जिस ने मुझे हिला कर रख दिया. दरअसल साफिया खाला फराज के वालिद परवेज खान की पहली बीवी थीं. जब शादी हुई परवेज खान लाहौर में थे और एक फर्म में अच्छी पोस्ट पर काम करते थे. शुरू के चंद साल बड़े अच्छे गुजरे. मंसूर की पैदाइश के कुछ अरसे बाद फर्म बंद हो गई और परवेज खान की नौकरी चली गई. इस के बाद वह काफी अरसे तक रोजगार ढूंढते रहे.

उन्हें कोई जौब नहीं मिली, इस बीच सारी जमापूंजी भी खत्म हो गई. पेट का दोजख भरने को एक प्राइवेट फर्म में क्लर्क की नौकरी कर ली. इतनी कम तनख्वाह में गुजारा मुश्किल था. साफिया बेगम इस गरीबी की आदी न थीं. वह दौलतमंद बाप की बेटी थीं. शौहर की गरीबी की हालत में वह अपने बाप के घर चली गईं. परवेज खां रोकते रह गए पर वह नहीं मानीं. परवेज खान को भी गुस्सा आ गया उन्होंने तय कर लिया कि जब तक अच्छा कमाएंगे नहीं बीवी को नहीं लाएंगे.

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दिल्लगी बन गई दिल की लगी: भाग 2- क्यों शर्मिंदा थी साफिया

मन मार कर मैं मंगनी में पहुंची. जब मैं अपनी कार से उतर रही थी. मैं ने मंसूर को देखा. मेरे दिमाग में बिजली सी चमकी. मैं चेहरे पर वही दिखावे का प्यार लिए मंसूर के पास जा पहुंची. मैं ने उस से कहा, ‘‘प्लीज मंसूर, मेरा एक काम कर दो.’’

‘‘तुम एक नहीं सौ काम बोलो, बंदा हाजिर है.’’ उस ने आशिकाना अंदाज में कहा.

‘‘मेरे पास अंगूरी रंग की चूडि़यां नहीं थीं. अम्मी ने मुझे बाजार जाने नहीं दिया. अभी मंगनी में वक्त है, तुम मुझे बाजार से मेरे सूट के कलर की चूडि़यां ला दो.’’ मैं ने कहा.

मैं पैसे निकालने लगी, पर उस ने मना कर दिया. मेरे सूट को गौर से देखते हुए कहा, ‘‘मैं चूडि़यां तो ला दूंगा, पर एक शर्त पर.’’

‘‘कैसी शर्त?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह मैं चूडि़यां लाने के बाद ही बताऊंगा.’’ इतना कह कर वह फौरन मोटरसाइकिल ले कर चला गया. मैं अंदर आ कर किरण से मिली. हमारे सभी दोस्त थे, मैं बातों में लग गई कि कानों में हल्की सी आवाज आई, ‘‘शीना.’’

मैं ने मुड़ कर देखा मंसूर था. मैं फौरन उस के पास गई. वहां से दूर हट कर उस ने चूडि़यों का पैकेट मेरे हाथों पर रख दिया. परफेक्ट मैचिंग की बेहद खूबसूरत चूडि़यां लाया था.

जैसे ही मैं चूडि़यां पहनने लगी, उस ने मेरे हाथ से चूडि़यां लेते हुए कहा, ‘‘इन्हें मैं पहनाऊंगा, यही तो मेरी शर्त थी.’’

कुछ कहने की गुंजाइश न थी. उस ने बड़े प्यार से चूडि़यां पहनाईं. मैं उस की आंखों की चमक से डर गई. मैं ने उस से मीठे लहजे में मिन्नत की, ‘‘देखो मंसूर, तुम्हारे साथ मोटरसाइकिल पर जाना या कहीं बैठना ठीक नहीं है. किसी जानने वाले ने देख लिया तो मेरी मुसीबत आ जाएगी. आइंदा मुझे मोटरसाइकिल पर बैठने को मत कहना.’’

‘‘ठीक है, पर तुम अम्मी से मिलने मेरे घर आती रहोगी.’’ उस ने कहा.

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मेरे पास सिवाय वादा करने के और कोई रास्ता नहीं था. मैं ने किरण को मजे ले कर सारा किस्सा सुनाया. वह नाराज हो कर बोली, ‘‘किसी के दिल के साथ इस तरह खेलना अच्छी बात नहीं है. क्या तुम उस गरीब से शादी करोगी? नहीं न. जानती है, यह खेल उस की जान का रोग बन जाएगा. इतनी आसानी से वह तुम्हें नहीं छोड़ेगा.’’

मैं ने किरण को यकीन दिलाया कि आगे से ध्यान रखूंगी. मुझे किरण की बात सही लग रही थी, पर मैं अपनी फितरत से मजबूर थी. मुझे इस खेल में मजा आ रहा था. कोई मुझे सराहे, मुझे चाहे, मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाए. यह बात भला किसे बुरी लग सकती है.

अपना वादा निभाने के लिए मैं 2 सूट ले कर उस की अम्मी के पास सिलाने गई. मैं ने कहा, ‘‘खाला, मैं ये 2 सूट सिलवाने आई हूं.’’

उसी वक्त मंसूर कमरे से बाहर आ गया. मुझे देख कर वह खुश हो गया. कहने लगा, ‘‘अब अम्मी ने सिलाई का काम बंद कर दिया है. पर ये तुम्हारे सूट हैं, इसलिए जरूर सिलेंगी.’’

उस ने चाहतभरी नजर मुझ पर डाली. खाला ने जल्दी से कहा, ‘‘मेरी बेटी के सूट मैं खूब अच्छे से सीऊंगी, मंसूर जाओ, जल्दी से बेटी के लिए गरम समोसे और जलेबी ले आओ. तब तक मैं चाय बनाती हूं.’’

मेरे ना करने पर भी मंसूर चला गया. हम ने साथ बैठ कर मजे से समोसेजलेबी खाई और चाय पी. मंसूर मुझे देखता रहा. मेरी खातिरदारी करता रहा. जब मैं वापस आने लगी तो वह मुझे दरवाजे तक छोड़ने भी आया. उस ने धीमे से कहा, ‘‘शीना, कल इंस्टीट्यूट के बाहर मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा, मुझे तुम से एक जरूरी बात करनी है.’’

जिस अंदाज में उस ने मुझ से यह बात कही थी मैं चौंक गई. मैं ने कहा, ‘‘मंसूर वह कौन सी जरूरी बात है जो तुम यहां नहीं कर सकते?’’

‘‘नहीं, यहां मुमकिन नहीं है, तुम परेशान न हो, मैं लंबी बात नहीं करूंगा.’’

दूसरे दिन मैं अपने वक्त पर इंस्टीट्यूट से निकली तो मंसूर इंतजार करते हुए मुझे बाहर मिला. उस ने मुझ से रेस्टोरेंट में चलने के लिए कहा तो मैं ने रेस्टोरेंट में जाने से मना कर दिया. वह मुझे एक करीबी पार्क में ले गया. वहां सन्नाटा था. वहां पहुंच कर उस ने एक पैकेट मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘कल मुझे पहली सैलरी मिली. ये गिफ्ट तुम्हारे लिए है.’’

मैं ने कहा, ‘‘मेरे तुम्हारे बीच ऐसा कोई रिश्ता नहीं है कि मैं ये गिफ्ट ले लूं.’’

‘‘रिश्ता भी बन जाएगा. फिलहाल इसे स्वीकार कर लो.’’ वह बोला.

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मैं ने पैकेट रख लिया. जब मैं अपने घर की तरफ मुड़ी तो उस ने मेरी तरफ अपनेपन की तरह देखते हुए कहा, ‘‘मुझे उस दिन का इंतजार है जब तुम जिद कर के हक जताते हुए मुझ से तोहफे मांगा करोगी.’’

मुझे यूं लगा जैसे किसी ने मेरे कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया है. यानी वह मुझ से शादी करने के ख्वाब देख रहा था. दिल तो चाहा कि उस का गिफ्ट उस के मुंह पर मार दूं, मगर मैं चुपचाप गिफ्ट लिए घर आ गई. कमरा बंद कर के मैं बिस्तर पर लेट गई. सोचने लगी कि मैं ने मजाकजाक में एक जंजाल पीछे लगा लिया. लेकिन अब इस से छुटकारा पाना बहुत जरूरी था.

मंसूर के दिल में ये बात बैठ गई है तो वह अपनी मां को रिश्ता ले कर भी भेज सकता है. रिश्ता आने पर मेरी अम्मी और अब्बू जो भी फैसला करें पर मेरे इनकार से मंसूर और साफिया खाला के दिल जरूर टूट जाएंगे. अब मुझे महसूस हो रहा था कि मुझे मंसूर को इस तरह बढ़ावा नहीं देना चाहिए था. मेरे प्यार मेरे व्यवहार से ही वह मेरी तरफ आकर्षित हुआ, वरना पहले तो उस से केवल हायहैलो ही होती थी.

मेरा कंप्यूटर का कोर्स भी 2 दिन में पूरा होने वाला था. इसलिए मैं ने किरण को फोन किया कि वह अपने दोस्त फराज से मेरी जौब की बात करे. उस के वालिद की 2-3 कंपनियां हैं. उस में कहीं मुझे रख ले.

किरण ने कहा, ‘‘फराज मेरा दोस्त ही नहीं कजिन भी है. एक हफ्ते में मैं तुम्हें औफिस में सेट कर दूंगी.’’

उसी की बात से मुझे थोड़ी तसल्ली हुई. पता नहीं क्यों मेरे मेरे दिमाग में बारबार फराज का खयाल आने लगा. मैं अब जौब करना चाहती थी, पर घर का माहौल ऐसा था कि वह जौब नहीं करने देते. मैं ने बड़ी मुश्किल से अपनी अम्मी से जौब करने की इजाजत ली.

मेरे वालिद फराज के वालिद व उन के कारोबार को जानते थे. 3 दिन बाद मुझे कंपनी से अपाइंटमेंट लेटर मिल गया. फराज का औफिस किलीकटन पर था. मैं ने रिसेप्शन पर अपने बारे में बताया तो मुझे फौरन ही बुलाया गया. फराज बेहद स्मार्ट और खूबसूरत था. उस ने इंटरकाम के जरिए एक लड़की को बुलाया और कहा, ‘‘मिस शीना, ये मिस तबंदा हैं. ये जौब से रिजाइन कर रही हैं इन्हीं की जगह पर आप यहां मेरी प्राइवेट सेक्रेटरी का काम करेंगी. मिस तबंदा आप इन्हें काम के बारे में सब बातें अच्छे से समझा दीजिए.’’

वह मुझे ले कर बाहर आ गई. उस ने बताया कि मेरी शादी हो गई और मैं दुबई जा रही हूं. उस ने मुझे अच्छे से सारा काम समझा दिया. वह दिन भर मेरे साथ रही, मुझे गाइड करती रही. दूसरे रोज भी वह मेरे साथ रही. उस के बाद मैं ने बखूबी सारा काम संभाल लिया. मुझे एक केबिन मिला था. मेरी टेबल पर कंप्यूटर भी था, जो मुझे अच्छे से आता था और अपनी काबीलियत के बल पर मैं जल्द ही अच्छे से एडजस्ट हो गई.

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इस बीच मेरी फराज से 2-3 मुलाकातें हुईं. उस के औफिस का रास्ता मेरे केबिन से हो कर गुजरता था. वह केवल काम से काम रखने वाला शख्स था. किसी से ज्यादा बात नहीं करता. काम होने पर ही केबिन में बुलाता था. अब उस ने मुझे अपने बिजनेस लेटर्स टाइप करने को दे दिए.

महीना खत्म होने पर मुझे अच्छीखासी सैलरी मिली. मैं खुश हो गई. मुझे फराज बहुत पसंद आया. वह मेरी ख्वाहिश के मुताबिक खूबसूरत होने के साथसाथ दौलतमंद भी था. धीरेधीरे मेरे हुस्न मेरी अदाओं से वह मेरी तरफ आसक्त होने लगा. फराज के वालिद कभीकभार ही औफिस आते थे, वह मुझ से बड़े प्यार से बात करते थे.

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दिल्लगी बन गई दिल की लगी: भाग 1- क्यों शर्मिंदा थी साफिया

मैं बचपन से आजादखयाल, शोख व चंचल थी. हंसीमजाक, छेड़छाड़ और शरारत करना मेरा शौक था. हमारा  परिवार काफी खुशहाल था. पैसे की कोई कमी नहीं थी. घर से मुझे जेब खर्च के लिए अच्छीखासी रकम मिलती थी. मेरा अच्छा रहनसहन देख कर लोग जल्द ही मुझे तवज्जो देने लगे थे.

कालेज में मैं जल्द ही बहुत पापुलर हो गई. अच्छेअच्छे लड़के मुझ से दोस्ती करने आने लगे. मेरी ऐसी आदत थी कि मैं हर एक से दोस्ती कर लेती थी. किसी का दिल तोड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं सब के साथ घुलमिल कर खुश रहती थी.  सभी दोस्तों के साथ हंसतेखेलते 3 साल गुजर गए. मेरी ग्रैजुएशन की पढ़ाई पूरी हो गई.

मैं पोस्ट गै्रजुएशन करना चाहती थी, पर आगे पढ़ने की इजाजत अम्मी ने नहीं दी. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा अब तुम घर पर रह कर घर के कामकाज सीखो. जल्द ही अच्छा लड़का देख कर तुम्हारी शादी कर देंगे.’’

एक दिन मैं दोपहर के समय शौपिंग कर के लौट रही थी, तभी रास्ते में औटो खराब हो गया. मैं दूसरे औटो के आने का इंतजार करने लगी. जब कोई औटो नहीं मिला तो सामान उठा कर मैं पैदल ही घर के लिए चल पड़ी.

मैं थोड़ी दूर चली थी कि अचानक मंसूर आ गया. मुझे देख कर वह रुक गया. मुझे पसीने से भीगा देख कर बोला, ‘‘इतनी तेज धूप में सामान लिए पैदल कहां जा रही हो?’’

मैं ने कहा, ‘‘औटोरिक्शा खराब हो गया था, इसलिए पैदल ही घर जा रही हूं.’’

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‘‘लाओ सामान मुझे दो. मैं पहुंचाए देता हूं.’’ उस ने कहा.

मैं ने आवाज में मोहब्बत भर कर कहा, ‘‘आप को हमारी इतनी फिक्र कब से होने लगी.’’

उस ने मुझे हैरानी से देखा तो मैं ने रोमांटिक होते हुए कहा, ‘‘आप को देख लिया, यही काफी है. सामान रहने दो.’’

इस के बाद उस ने मुझे कुछ उलझन भरी नजरों से देखा. उस के बाद मेरे हाथ से सामान ले कर साथ चलने लगा. घर पहुंचने पर वह बरामदे में सामान रख कर जाने लगा तो मैं ने कहा, ‘‘शुक्रिया, आओ बैठो, चाय पी कर जाना.’’

‘‘नहीं, रहने दो. फिर कभी पी लूंगा.’’ कह कर वह चला गया.

मंसूर हमारे मोहल्ले की एक गरीब औरत साफिया का एकलौता बेटा था. मोहल्ले के सभी लोग साफिया को खाला कहते थे. साफिया खाला के बारे में हम बस इतना जानते थे कि वह सिलाई कर के गुजरबसर करती हैं. आर्थिक तंगी के बावजूद उन्होंने मंसूर को अच्छी तालीम दिलवाई थी. अब वह नौकरी की तलाश में था.

खाला को उम्मीद थी कि मंसूर की नौकरी लगने के बाद उस के बुरे दिन दूर हो जाएंगे. आज मैं ने मजाक में उस के दिल में गलतफहमी डाल दी थी. मेरी दोस्त किरण यूनिवसिर्टी में पढ़ रही थी. उस का घराना लखपति था, बाप के कारखाने थे, पर उसे एक लड़के जमील से मोहब्बत हो गई थी, जबकि जमील ने उस की मोहब्बत को कबूल नहीं किया था.

उस ने कहा था, ‘‘आज जज्बात और मोहब्बत के जोश में आ कर तुम मुझ से शादी कर लोगी. तुम्हारे मांबाप हरगिज मुझे कबूल नहीं करेंगे और मेरी गरीबी से तुम जल्द ही तंग आ जाओगी, क्योंकि तुम जिस तरह ऐशोइशरत में रहती हो, वह तुम्हारी आदत बन चुकी है. इसलिए बेहतर है कि तुम मुझे भूल जाओ और मुझे मेरी मंजिल तलाश करने दो.’’

किरण अपनी नाकाम मोहब्बत की कहानी मुझे सुनाती रहती थी. इस के अलावा फराज और मीना भी. घर के कामकाज निपटाने के बाद मैं खाली हो जाती तो मेरा मन नहीं लगता था. किरण, मीना, फराज मेरे अच्छे दोस्त थे. यह सभी अमीर घरानों से ताल्लुक रखते थे. जब मुझे पता चला कि फराज के बाप की कई कंपनियां हैं तो मैं ने किरण से कहा कि वह फराज से बात कर के कहीं मेरी भी नौकरी लगवा दे.

किरण ने मुझे कंप्यूटर का कोर्स करने की सलाह दी. कोर्स पूरा होने के बाद वह फराज से बात कर लेगी. मैं ने कंप्यूटर कोर्स करने के बारे में अम्मी से बात की. वह मना कर रही थीं, पर मैं ने उन्हें मना लिया और एक अच्छे कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में दाखिला ले लिया.

एक दिन मैं जब इंस्टीट्यूट से लौट रही थी तो मुझे मंसूर मिल गया. वह मोटरसाइकिल पर था. उस दिन वह अच्छे और महंगे कपडे़ पहने था. उस ने मोटरसाइकिल रोक कर मुझ से कहा, ‘‘आओ मोटरसाइकिल पर बैठ जाओ, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’’

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‘‘इंकार कर के क्यों गरीब का दिल तोड़ती हो.’’ कह कर उस ने बेतकल्लुफी से मेरा हाथ पकड़ कर मुझे पीछे बैठने पर मजबूर कर दिया. मैं अंदर ही अंदर गुस्सा हुई. मंसूर के इस व्यवहार से मुझे लगा कि उस दिन जो मैं ने इस से मुसकरा कर बात की थी, कहीं उस का इस ने गलत मायने तो नहीं निकाल लिया.

अब मुझे अपनी शरारत और दिखावे की मोहब्बत बहुत बुरी लग रही थी. मैं ने मन ही मन सोच लिया कि अब मैं मंसूर को जरा भी लिफ्ट नहीं दूंगी, वरना यह मेरे पीछे ही पड़ जाएगा.

रास्ते में मंसूर ने मुझे बताया कि उस की एक अच्छी कंपनी में नौकरी लग गई है. यह मोटरसाइकिल उसे कंपनी से ही मिली है. मोटरसाइकिल एक स्टाल के सामने रोक कर उस ने कहा, ‘‘आओ, एकएक कोल्डड्रिंक हो जाए.’’

वहां कुछ अन्य लोग खड़े थे. मैं इंकार कर के उन सब के सामने तमाशा नहीं बनना चाहती थी, इसलिए उस के साथ चली गई. मैं ने उसे जौब की मुबारकबाद दी तो उस ने कहा, ‘‘जौब की मुझे सख्त जरूरत थी. अम्मी बीमार रहती हैं और अब वह अकेले रहतेरहते तंग आ गई हैं. उन्हें किसी के साथ की जरूरत है.’’

यह कह कर मंसूर ने प्यार से मुझे देखा. मैं परेशान हो गई. घर पहुंच कर मैं ने बहुत सोचा. पहले दिन शरारत में मैं ने मंसूर से जो प्यार जताया था, यह उसी का नतीजा था. वह मुझे अपनी मोहब्बत समझ बैठा था. मेरे जमीर ने मुझे चेताया, ‘‘अगर मोहब्बत जताई है तो उसे निभाओ. अब उस का दिल न तोडो. साथ निभाओ.’’

मैं ने सोचा कि मैं जिस तरह की ऐशोआराम की जिंदगी की आदी हूं, लगीबंधी तनख्वाह और छोटे से घर में खुश नहीं रह सकती. माना कि मंसूर एक अच्छा लड़का है, पर उस के पास इतना पैसा नहीं है कि उस के साथ मैं खुश रह सकूंगी. इसलिए मैं ने मन ही मन तय किया कि मैं मंसूर को नहीं अपनाऊंगी.

दिन गुजरते रहे. काफी दिनों तक मंसूर मुझे नजर नहीं आया. बात मेरे दिमाग से निकल गई. मेरी सहेली किरण की मंगनी थी. उस ने बडे़ प्यार से मुझे बुलाया. उस की मंगनी में ग्रुप के सभी दोस्त आने वाले थे. मैं ने अंगूरी कलर का नया सूट पहना था, जो मुझ पर खूब फब रहा था. उसी रंग की ज्वैलरी पहन कर मैं और ज्यादा खूबसूरत लग रही थी, पर मेरे पास अंगूरी रंग की चूडि़यां नहीं थीं. जिस की वजह से सारा शृंगार अधूरा लग रहा था.

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10 साल: भाग 3- नानी से क्यों परेशान थे सभी ?

लेखिका- लीला रूपायन

दादी बनने का हक हम ने पूरी तरह निभाया. न तो हम ने अपने कपड़ों का ध्यान रखा, न ही चश्मे का. गीता हम इसलिए नहीं पढ़ते थे कि असली गीतापाठ तो यही है, सारा परिवार हमारे कर्मों से खुश रहे. हम पूरी तरह बच्चों को संभालने में रम गए. बहुओं को यह कह कर छुट्टी दे दी, ‘‘अभी तुम लोगों के खानेपीने के दिन हैं, मौज करो, बालगोपाल को हम संभाल लेंगे.’’ हम ने इस बात का बहुत खयाल रखा कि हम बच्चों को इतना प्यार भी न दें कि वे बिगड़ जाएं और हमारे बेटों को सुनना पड़े, ‘तुम्हारी मां ने तुम लोगों को तो इंसान बना दिया था, पर हमारे बच्चों को क्यों जानवर बना डाला?’ बच्चे बड़े हुए तो बहुत डर लगा, अब तक तो सब ठीक था. अब हुआ हमारे बुढ़ापे का कबाड़ा, न चश्मा मिलेगा, न कोई किताब, न ही चप्पलें. मसलन, हमें दिनभर अपने सामान की चिंता करनी पड़ेगी. अब सास की बड़ी याद आई, जिस ने हमारे बच्चों से परेशान हो कर हमें कहा था, ‘जब तुम सास बनो तो तुम्हारी भी ऐसी ही दुर्गति हो.’

हम ने सास के अनुभव को याद कर के बड़ा फायदा उठाया. सास बच्चों को ले कर हमें कोसती थी. लेकिन मैं ने सोचा, ‘मैं बहुओं को नहीं कोसूंगी. उन से प्यार करूंगी. वे स्वयं अपने बालगोपाल को संभाल लेंगी.’ मेरा नुस्खा कारगर साबित हुआ. मैं कहीं भी चीज रख कर भूल जाती तो बच्चों से उन की मां कहती, ‘‘देखें, दादी मां को चीज ढूंढ़ कर कौन देता है.’’ असर यह हुआ कि वे हमारी चीज बिना गुमे ही ढूंढ़ने लगते. तुतला कर पूछते, ‘‘दादी मां, तुच्छ दुमा तो नहीं. धूंध लाऊं.’’ मुझे खानेपीने में देर हो जाती तो वे हम से रूठ जाते. हमारे मुंह में बिस्कुट डाल कर कहते, ‘‘पहले हमाला बिचकत था लो, नहीं तो हम तुत्ती कल देंगे.’’ और अपना हिस्सा खुशीखुशी हमारे पोपले मुंह में डाल देते. मैं खुश हो कर सोचती, ‘अब यह वृद्धावस्था बनी ही रहे तो अच्छा है. कहीं जल्दी चली न जाए.’ अब तो विजयश्री पूरी तरह मेरे हाथ थी. छोटे से ले कर बड़े तक हमारे गुण गाते नहीं थकते थे. आतेजाते के सामने हमारी प्रशंसा होती. पतिदेव की खुशी का ठिकाना नहीं था. हमेशा याद दिलाते, ‘‘तुम्हारी बुद्धिमत्ता से अपनी वृद्धावस्था बड़े मजे में कट रही है.’’ हम ने भी बच्चों को खुश रखने का गुण सीख लिया है. रात को सोने से पहले उन्हें कहानी जरूर सुनाता हूं.

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अब घर में कुछ भी आता, हमारा हिस्सा जरूर होता. सब के कपड़ों के साथ हमारे कपड़े भी बनते, जिसे हम खुशी से बहुओं में ही बांट देते. हमारे बालगोपाल तो हमारा इतना ध्यान रखते कि हमें अकेला छोड़ कर वे अपने मांबाप के साथ भी कहीं जाने को तैयार नहीं होते थे.

हम नन्हेमुन्नों को कहानियां ही ऐसी सुनाते थे कि फलां परी का पोता, अपनी दादी से इतना प्यार करता था, उस का इतना खयाल रखता था कि सब उस की तारीफ करते थे. सभी उस बच्चे को बहुत प्यार करते थे. अब बच्चों में होड़ लग जाती कि कौन हमारा सब से अधिक खयाल रखता है ताकि आनेजाने वालों के सामने उस की प्रशंसा की जाए और उसे शाबाशी मिले. दूसरा काम मैं ने यह किया कि बच्चों को यह सिखा दिया कि अपने मम्मीडैडी का सब से पहले कहना मानना चाहिए. हमें डर था कि कहीं बच्चे सिर्फ हमारा ही कहना मानते रहे तो हो सकता है, हमारे खिलाफ बगावत हो जाए और हम मोरचा हार जाएं. गजब तो उस दिन हुआ, जब इतना ज्यादा प्यार हमारे दिल को सदमा दे गया. हुआ यह कि हमारे नन्हेमुन्नों की मां एक बहुत सुंदर साड़ी लाई थी. वह हमें भी दिखाई गई. उस समय नन्हा भी मौजूद था. यह तो मैं बताना भूल ही गई कि घर में जो कुछ भी आता था, सब से पहले हमें दिखाया जाता था, क्योंकि हम ने अपनी बहुओं को बातोंबातों में कई बार जता दिया था कि हम तो अपनी सासजी को दिखाए बगैर कुछ पहनते ही नहीं थे. जब वे देख लेतीं तब हम उस वस्तु को अपनी अलमारी में शरण देते थे. सो, बहुओं की भी यह आदत बन गई थी. हमें पता था, हमारी सास तो जिंदा है नहीं, जो वे उस से वास्तविकता पूछने जाएंगी.

मैं बता रही थी न कि हमें साड़ी बहुत पसंद आई थी. नन्हा बोला, ‘‘दादी मां, यह तुम्हें अच्छी लगी है?’’

‘‘हां, बेटा, बहुत अच्छी है,’’ हम ने प्यार करते हुए कहा.

‘‘तो यह तुम ले लो,’’ वह हमारे गले में बांहें डालता हुआ बोला.

‘‘मेरे तो बाल सफेद हो गए, बेटा. मैं इसे अब क्या पहनूंगी,’’ मैं ने मायूसी से कहा.

‘‘तो ऐसा करते हैं, दादी मां, इसे हम तुम्हारे लिए रख लेते हैं,’’ प्यार से बोला वह.

‘‘मेरे लिए क्यों रख लोगे?’’ मैं ने विस्मय से पूछा.

‘‘हम तुम्हारे ऊपर कफन डालेंगे,’’ वह भोलेपन से बोला था.

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‘‘क्या बकवास कर रहा है, जानता है कफन क्या होता है?’’ मम्मी ने उसे डांटा.

‘‘हांहां, जानता हूं, सोमू की दादी मरी थी तो तुम ने डैडी से नहीं कहा था, ‘बहूबेटे ने अपनी मां पर बहुत अच्छा कफन डाला था.’ नन्हा झिड़की खा कर रोंआसा हो गया था. बस, इसी बात का सदमा मेरे मन में बैठ गया है. मैं सोचती हूं इतना प्यार भी किस काम का, जो मरने से पहले कफन भी संजो कर रखवा दे. मुन्ने ने जब से अपनी मां से साड़ी का कफन बनाने के लिए कहा था, वह साड़ी रख दी गई थी, शायद मुन्ने की मां के मन में कफन का नाम सुन कर वहम आ गया था. शायद इसीलिए उस ने उसे नहीं पहना. मेरी परेशानी का अंत नहीं है. मैं अब किस से कहूं, किस नीति का सहारा लूं? कहने से भी डरती हूं. परिवार वाले तो अलग, अपने पति से भी नहीं कह सकती कि मेरा कफन आ गया है. सोचती हूं, क्या कहेंगे, ‘कहां वृद्धावस्था आने से पहले ही मरना चाहती थी. अब जीवन से इतना मोह हो गया है कि मरना ही नहीं चाहती.’  अब तो मुन्ने पर गुस्सा कर के मन ही मन यही कहती हूं. ‘तेरा इतना प्यार भी किस काम का. काश, तू 10 साल बाद पैदा होता ताकि इतनी जल्दी मेरे कफन की व्यवस्था तो न होती.’

10 साल: भाग 1- नानी से क्यों परेशान थे सभी ?

लेखिका- लीला रूपायन

जब से होश संभाला था, वृद्धों को झकझक करते ही देखा था. क्या घर क्या बाहर, सब जगह यही सुनने को मिलता था, ‘ये वृद्ध तो सचमुच धरती का बोझ हैं, न जाने इन्हें मौत जल्दी क्यों नहीं आती.’ ‘हम ने इन्हें पालपोस कर इतना बड़ा किया, अपनी जान की परवा तक नहीं की. आज ये कमाने लायक हुए हैं तो हमें बोझ समझने लगे हैं,’ यह वृद्धों की शिकायत होती. मेरी समझ में कुछ न आता कि दोष किस का है, वृद्धों का या जवानों का. लेकिन डर बड़ा लगता. मैं वृद्धा हो जाऊंगी तो क्या होगा? हमारे रिश्ते में एक दादी थीं. वृद्धा तो नहीं थीं, लेकिन वृद्धा बनने का ढोंग रचती थीं, इसलिए कि पूरा परिवार उन की ओर ध्यान दे. उन्हें खानेपीने का बहुत शौक था. कभी जलेबी मांगतीं, कभी कचौरी, कभी पकौड़े तो कभी हलवा. अगर बहू या बेटा खाने को दे देते तो खा कर बीमार पड़ जातीं. डाक्टर को बुलाने की नौबत आ जाती और यदि घर वाले न देते तो सौसौ गालियां देतीं.

घर वाले बेचारे बड़े परेशान रहते. करें तो मुसीबत, न करें तो मुसीबत. अगर बच्चों को कुछ खाते देख लेतीं तो उन्हें इशारों से अपने पास बुलातीं. बच्चे न आते तो जो भी पास पड़ा होता, उठा कर उन की तरफ फेंक देतीं. बच्चे खीखी कर के हंस देते और दादी का पारा सातवें आसमान पर पहुंच जाता, जहां से वे चाची के मरे हुए सभी रिश्तेदारों को एकएक कर के पृथ्वी पर घसीट लातीं और गालियां देदे कर उन का तर्पण करतीं. मुझे बड़ा बुरा लगता. हाय रे, दादी का बुढ़ापा. मैं सोचती, ‘दादी ने सारी उम्र तो खाया है, अब क्यों खानेपीने के लिए सब से झगड़ती हैं? क्यों छोटेछोटे बच्चों के मन में अपने प्रति कांटे बो रही हैं? वे क्यों नहीं अपने बच्चों का कहना मानतीं? क्या बुढ़ापा सचमुच इतना बुरा होता है?’ मैं कांप उठती, ‘अगर वृद्धावस्था ऐसा ही होती है तो मैं कभी वृद्धा नहीं होऊंगी.’

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मेरी नानी को नई सनक सवार हुई थी. उन्हें अच्छेअच्छे कपड़े पहनने का शौक चर्राया था. जब वे देखतीं कि बहू लकदक करती घूम रही है, तो सोचतीं कि वे भी क्यों न सफेद और उजले कपड़े पहनें. वे सारा दिन चारपाई पर बैठी रहतीं. आतेजाते को कोई न कोई काम कहती ही रहतीं. जब भी मेरी मामी बाहर जाने को होतीं तो नानी को न जाने क्यों कलेजे में दर्द होने लगता. नतीजा यह होता कि मामी को रुकना पड़ जाता. मामी अगर भूल से कभी यह कह देतीं, ‘आप उठ कर थोड़ा घूमाफिरा भी करो, भाजी ही काट दिया करो या बच्चों को दूधनाश्ता दे दिया करो. इस तरह थोड़ाबहुत चलने और काम करने से आप के हाथपांव अकड़ने नहीं पाएंगे,’ तो घर में कयामत आ जाती.

‘हांहां, मेरी हड्डियों को भी मत छोड़ना. काम हो सकता तो तेरी मुहताज क्यों होती? मुझे क्या शौक है कि तुम से चार बातें सुनूं? तेरी मां थोड़े हूं, जो तुझे मुझ से लगाव होता.’ मामी बेचारी चुप रह जातीं. नौकरानी जब गरम पानी में कपड़े भिगोने लगती तो कराहती हुई नानी के शरीर में न जाने कहां से ताकत आ जाती. वे भाग कर वहां जा पहुंचतीं और सब से पहले अपने कपड़े धुलवातीं. यदि कोई बच्चा उन्हें प्यार करने जाता तो उसे दूर से ही दुत्कार देतीं, ‘चल हट, मुझे नहीं अच्छा लगता यह लाड़. सिर पर ही चढ़ा जा रहा है. जा, अपनी मां से लाड़ कर.’ मामी को यह सुन कर बुरा लगता. मामी और नानी दोनों में चखचख हो जाती. नानी का बेटा समझाने आता तो वे तपाक से कहतीं, ‘बड़ा आया है समझाने वाला. अभी तो मेरा आदमी जिंदा है, अगर कहीं तेरे सहारे होती तो तू बीवी का कहना मान कर मुझे दो कौड़ी का भी न रहने देता.’

मेरी नानी से सभी बहुत परेशान थे. मैं तो डर के मारे कभी नानी के पास जाती ही नहीं थी. मुझे देखते ही उन के मुंह से जो स्वर निकलते, वे मैं तो क्या, मेरी मां भी नहीं सुन सकती थीं. कहतीं, ‘बेटी को जरा संभाल कर रख. कमबख्त, न छाती ढकती है न दुपट्टा लेती है. क्या खजूर की तरह बढ़ती जा रही है. बड़ी जवानी चढ़ी है, न शर्म न हया.’ बस, इसी तरह वृद्धों को देखदेख कर मेरे कोमल मन में वृद्धावस्था के प्रति भय समा गया था. वृद्धों को प्यार करो तो चैन नहीं, उन से न बोलो तो भी चैन नहीं. बीमार पड़ने पर उन्हें पूछने जाओ तो सुनने को मिलता, ‘देखने आए हो, अभी जिंदा हूं या मर गया.’ उन्हें किसी भी तरह संतोष नहीं.हमारे पड़ोस वाले बाबाजी का तो और भी बुरा हाल था. वे 12 बजे से पहले कुछ नहीं खाते थे. बेचारी बहू उन के पास जा कर पूछती, ‘बाबा, खाना ले आऊं?’

‘यशवंत खा गया क्या?’ वे पूछते.

‘नहीं, 1 बजे आएंगे,’ बहू उत्तर देती.

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‘अरे, तो मैं क्या उस से पहले खा लूं? मैं क्या भुक्खड़ हूं? तुम लोग सोचते हो मैं ने शायद जिंदगी में कभी खाना नहीं खाया. बडे़ आए हैं मुझे खाना खिलाने वाले. मेरे यहां दसियों नौकर पलते थे. तुम मुझे क्या खाना खिलाओगे.’ बहू बेचारी मुंह लटकाए, आंसू पोंछती हुई चली आती. कुछ दिन ठीक निकल जाते. बेटे के साथ बाबा खाना खाते. फिर न जाने क्या होता, चिल्ला उठते, ‘खाना बना कि नहीं?’

‘बस, ला रहा हूं, बाबा. मैं अभी तो आया हूं,’ बेटा प्यार से कहता. ‘हांहां, अभी आया है. मैं सब समझता हूं. तुम मुझे भूखा मार डालोगे. अरे, मैं ने तुम लोगों के लिए न दिन देखा न रात, सबकुछ तुम्हारे लिए जुटाता रहा. आज तुम्हें मेरी दो रोटियां भारी पड़ रही हैं. मेरे किएकराए को तुम लोगों ने भुला दिया है. बीवियों के गुलाम हो गए हो.’ फिर तो चुनचुन कर उन्हें ऐसी गालियां सुनाते कि सुनने वाले भी कानों में उंगली लगा लेते. बहूबेटे क्या, वे तो अपनी पत्नी को भी नहीं छोड़ते थे. उन के पांव दबातेदबाते बेचारी कभी ऊंघ जाती तो कयामत ही आ जाती. बच्चे कभी घर का सौदा लाने को पैसे देते तो अपने लिए सिगरेट की डब्बियां ही खरीद लाते. न जाने फिर मौका मिले कि नहीं. सिगरेट उन के लिए जहर थी. बच्चे मना करते तो तूफान आ जाता.

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10 साल: भाग 2- नानी से क्यों परेशान थे सभी ?

लेखिका- लीला रूपायन

यह वृद्धावस्था सचमुच ही बड़ी बुरी है. मालूम नहीं लोगों की उम्र इतनी लंबी क्यों होती है? अगर उम्र लंबी ही होनी हो तो उन में कम से कम सामंजस्य स्थापित करने की तो बुद्धि होनी चाहिए? ‘अगर मेरी भी उम्र लंबी हुई तो क्या मैं भी अपने घरवालों के लिए सनकी हो जाऊंगी? क्या मैं अपनी मिट्टी स्वयं ही पलीद करूंगी?’ हमेशा यही सोचसोच कर मैं अपनी सुंदर जवानी को भी घुन लगा बैठी थी. बारबार यही खयाल आता, ‘जवानी तो थोड़े दिन ही अपना साथ देती है और हम जवानी में सब को खुश रखने की कोशिश भी करते हैं. लेकिन यह कमबख्त वृद्धावस्था आती है तो मरने तक पीछा नहीं छोड़ती. फिर अकेली भी तो नहीं आती, अपने साथ पचीसों बीमारियां ले कर आती है. सब से बड़ी बीमारी तो यही है कि वह आदमी को झक्की बना देती है.’

इसी तरह अपने सामने कितने ही लोगों को वृद्धावस्था में पांव रखते देखा था. सभी तो झक्की नहीं थे, उन में से कुछ संतोषी भी तो थे. पर कितने? बस, गिनेचुने ही. कुछ बच्चों की तरह जिद्दी देखे तो कुछ सठियाए हुए भी.देखदेख कर यही निष्कर्ष निकाला था कि कुछ वृद्ध कैसे भी हों, अपने को तो समय से पहले ही सावधान होना पड़ेगा. बाकी वृद्धों के जीवन से अनुभव ले कर अपनेआप को बदलने में ही भलाई है. कहीं ऐसा न हो कि अपने बेटे ही कह बैठें, ‘वाह  मां, और लोगों के साथ तो व्यवहार में हमेशा ममतामयी बनी रही. हमारे परिवार वाले ही क्या ऐसे बुरे हैं जो मुंह फुलाए रहती हो?’ लीजिए साहब, जिस बात का डर था, वही हो गई, वह तो बिना दस्तक दिए ही आ गई. हम ने शीशे में झांका तो वह हमारे सिर में झांक रही थी. दिल धड़क उठा. हम ने बिना किसी को बताए उसे रंग डाला. मैं ने तो अभी पूरी तरह उस के स्वागत की तैयारी ही नहीं की थी. स्वभाव से तो हम चुस्त थे ही, इसीलिए हमारे पास उस के आने का किसी को पता ही नहीं चला. लेकिन कई रातों तक नींद नहीं आई. दिल रहरह कर कांप उठता था.

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अब हम ने सब पर अपनी चुस्ती का रोब जमाने के लिए अपने काम की मात्रा बढ़ा दी. जो काम नौकर करता था, उसे मैं स्वयं करने लगी. डर था न, कोई यह न कह दे, ‘‘क्या वृद्धों की तरह सुस्त होती जा रही हो?’’ज्यादा काम करने से थकावट महसूस होने लगी. सोचा, कहीं ऐसा न हो, अच्छेखासे व्यक्तित्व का ही भुरता बन कर रह जाए. फिर तो व्यक्तित्व का जो थोड़ाबहुत रोब है, वह भी छूमंतर हो जाएगा. क्यों न कोई और तरकीब सोची जाए. कम से कम व्यक् तित्व तो ऐसा होना चाहिए कि किसी के बाप की भी हिम्मत न हो कभी हमें वृद्धा कहने की. अब मैं ने व्यायाम की कई किताबें मंगवा कर पढ़नी शुरू कर दीं. एक किताब में लिखा था, कसरत करने से वृद्धावस्था जल्दी नहीं आती और काम करने की शक्ति बढ़ जाती है. गुस्सा भी अधिक नहीं करना चाहिए. बस, मैं ने कसरत करनी शुरू कर दी. गुस्सा भी पहले से बहुत कम कर दिया.पूरा गुस्सा इसलिए नहीं छोड़ा ताकि सास वाली परंपरा भी न टूटे. हो सकता है कभी इस से काम ही पड़ जाए. ऐसा न हो, छोड़ दिया और कभी जरूरत पड़ी तो बुलाने पर भी न आए. फिर क्या होगा? परंपरा है न, अपनी सास से झिड़की खाओ और ज ब सास बनो तो अपनी बहू को बीस बातें सुना कर अपना बदला पूरा कर लो. फिर मैं ने तो कुछ ज्यादा ही झिड़कियां खाई थीं, क्योंकि हमें दोनों लड़कों को डांटने की आदत नहीं थी. यही खयाल आता था, ‘अपने कौन से 10-20 बच्चे हैं. लेदे कर 2 ही तो लड़के हैं. अब इन पर भी गुस्सा करें तो क्या अच्छा लगेगा? फिर नौकर तो हैं ही. उन पर कसर तो पूरी हो ही जाती है.’

मेरे बच्चे अपनी दादी से जरा अधिक ही हिलमिल जाते थे. यही हमारी सास को पसंद नहीं था. एक उन का चश्मा छिपा देता तो दूसरा उन की चप्पल. यह सारा दोष मुझ पर ही थोपा जाता, ‘‘बच्चों को जरा भी तमीज नहीं सिखाई कि कैसे बड़ों की इज्जत करनी चाहिए. देखो तो सही, कैसे बाज की तरह झपटते हैं. न दिन को चैन है न रात को नींद. कमबख्त खाना भी हराम कर देते हैं,’’ और जो कुछ वे बच्चों को सुनाती थीं, वह इशारा भी मेरी ओर होता था, ‘‘कैसी फूहड़ है तुम्हारी मां, जो तुम्हें इस तरह ‘खुला छोड़ देती है.’’ मेरी समझ में यह कभी नहीं आया, न ही पूछने की हिम्मत हुई कि ‘खुला छोड़ने से’ आप का क्या मतलब है, क्योंकि इंसान का बच्चा तो पैदाइश से ले कर वृद्धावस्था तक खुला ही रहता है. हां, गायभैंस के बच्चे की अलग बात है.

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तो साहब, मुसीबत आ ही गई. इधर परिवार बढ़ा, उधर वृद्धावस्था बढ़ी. हम ने अपनेआप को बिलकुल ढीला छोड़ दिया. सोचा, जो कुछ किसी को करना है, करने दो. अच्छा लगेगा तो हंस देंगे, बुरा लगेगा तो चुप बैठ जाएंगे. हमारी इस दरियादिली से पति समेत सारा परिवार बहुत खुश था. बेटेबहुएं कुछ भी करें, हम और उत्साह बढ़ाते. हुआ यह कि सब हमारे आगेपीछे घूमने लगे. हमारे बिना किसी के गले के नीचे निवाला ही नहीं उतरता था. हम घर में न हों तो किसी का मन ही नहीं लगता था. हम ने घर की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी और पति के साथ घूमने की, पति को खुश करने की पूरी आजादी उन्हें दे दी थी. नौकरों से सब काम वक्त पर करवाती और सब की पसंद का खयाल रखती. हमारा खयाल था, यही तरीका है जिस से हम, सब को पसंद आएंगे. प्रभाव अच्छा ही पड़ा. हमारी पूछ बढ़ गई. हम ने सोचा, लोग यों ही वृद्धावस्था को बदनाम करते हैं. उन्हें वृद्ध बन कर रहना ही नहीं आता. कोई हमें देखे, हम कितने सुखी हैं. सोचती हूं, वृद्धावस्था में कितना प्यार मिलता है. कमबख्त 10 साल पहले क्यों नहीं आ गया.

हमारे व्यवहार और नीति से हमारे बेटे बेहद खुश थे. वे बाहर जाते तो अपनी बीवियों को कह कर जाते, ‘‘अजी सुनती हो, मां को अब आराम करने दो. थक जाएंगी तो तबीयत बिगड़ जाएगी. मां को फलों का रस जरूर पिला देना.’’ और हमारी बहुएं सारा दिन हमारी वह देखभाल करतीं कि हमारा मन गदगद हो जाता. ‘सोचती, ‘हमारी सास भी अपनी आंखों से देख लेतीं कि फूहड़ बहू सास बन कर कितनी सुघड़ हो गई है.’ हमारा परिवार बढ़ने लगा. हम ने सोचा, अब फिर समय है मोरचा जीतने का. अपनी बढ़ती वृद्धावस्था को बालाए ताक रख कर हम ने फिर से अपनी मोरचाबंदी संभाल ली. बहू से कहती, ‘‘मेहनत कम करो, अपना खयाल अधिक रखो.’’ थोड़ा नौकरों को डांटती, थोड़ा बेटे को समझाती, ‘‘इस समय जच्चा को सेवा और ताकत की जरूरत है. अभी से लापरवाही होगी तो सारी जिंदगी की गाड़ी कैसे खिंचेगी?’’ और हम ने बेटे के हाथ में एक लंबी सूची थमा दी. मोरचा फिर हमारे हाथ रहा. बेटे ने सोचा, मां बहू का कितना खयाल रखती हैं.

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ताईजी: भाग 3- क्या रिचा की परवरिश गलत थी

लेखिका- सरला अग्रवाल

विभा ने जब रिचा से इस विषय पर बात की तो पहले तो वह सकपका गई, फिर बोली, ‘‘रोज ही कोई न कोई समस्या घेरे रहती है, समझ में नहीं आता, कब क्या करूं. पर 6 महीने वाली बात गलत है, मुश्किल से महीनाभर पहले ही तो कपड़ा आया है.’’

‘‘तुम अपने कार्यों को व्यवस्थित कर के किया करो. गृहिणी दफ्तर नहीं जाती, किंतु उस का कार्यक्षेत्र तो सब से अधिक विस्तृत होता है. इस में कहीं अधिक योजना की आवश्यकता होती है, ताकि हर कार्य समय से कुछ पूर्व ही हो जाए और घर के सदस्यों को किसी प्रकार की परेशानी या तनाव गृहिणी के प्रति न रहे.’’विभा ने यह भी देखा था कि हर रोज सुबह नहाने के बाद अलमारी में से कपड़े निकालते समय भी मां और बेटे में अकसर तकरार होती है. उस ने रिचा से इस समस्या को सुलझाने की भी हिदायत दी.एक दिन दोपहर को जब विक्की खेलने की जिद करने लगा तो विभा ने उसे 2 घंटे का गणित का पेपर सैट कर के दे दिया. जब 2 घंटे बाद उस ने विक्की की कौपी जांची तो यह देख कर बहुत प्रसन्न हुई कि विक्की ने 50 में से 50 अंक प्राप्त किए हैं. वह बोली, ‘‘बहुत बढि़या, शाबाश विक्की, पढ़ाई में तो तुम अच्छे हो, तो परीक्षा में इतने कम नंबर क्यों आए?’’

विक्की हंसता हुआ ताईजी से लिपट गया और उन की पप्पी लेता हुआ बोला, ‘‘मुझे अपने साथ ले चलिए, प्लीज ताईजी.’’ विभा उस की मानसिकता देख कर सोच में पड़ गई थी, ‘यह बच्चा अपने मातापिता से दूर क्यों जाना चाहता है? और अपने साथ ले जाना ही क्या इस समस्या का सही निदान है?’

दिन के 12 बजे का समय था. विक्की रिचा के पास जा कर चिल्लाया, ‘‘बड़ी जोर की भूख लगी है. खाना कब दोगी?’’

‘‘क्या खाएगा? मुझे खा ले तू तो, सारा दिन बस ‘भूखभूख’ चिल्लाता रहता है. अभी सुबह तो पेट भर कर नाश्ता किया है, कुछ देर पहले ही फ्रिज में से मिठाई के 3 टुकड़े निकाल कर खा चुका है. मैं सब देख रही थी बच्चू, अब फिर भूखभूख. मुझे भी तो नहानाधोना होता है. चल जा कर पढ़ कुछ देर,’’ रिचा विक्की पर झल्ला पड़ी.

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‘‘हमेशा डांटती रहती हो, अब भूख लगी है तो क्या करूं? पैसे दे दो, बाजार से समोसे खा कर आऊंगा.’’

‘‘यह कह न, कि समोसे खाने का मन है,’’ रिचा चिल्लाई, ‘‘देखिए न दीदी, कितना चटोरा हो गया है. पिछली बार जब मां के पास गई थी तो वहां पर छोटी बहन अपने घर से समोसे बना कर लाती थी. यह अकेला ही खाली कर देता था. देखो न, कितना मोटा होता जा रहा है, खाखा कर सांड हो रहा है.’’

‘‘रिचा, अपनी जबान पर लगाम दो. बच्चे के लिए कैसेकैसे शब्द मुंह से निकालती हो. यह यही सब सीखेगा. जो सुनेगा, वही बोलेगा. जो देखेगा, वही करेगा. पढ़ाई की जो बात तुम ने इस से कही है, वह सजा के रूप में कही है. इसे स्वयं ले कर बैठो, रोचक ढंग से पढ़ाई करवाओ. कैसे नहीं पढ़ेगा? दिमाग तो इस का अच्छा है,’’ विभा दबे स्वर में बोली ताकि विक्की उस की बात सुन न सके. पर इतनी देर में विक्की अपने लिए मिक्सी में मीठी लस्सी बना चुका था. वह खुशी से बोला, ‘‘ताईजी, लस्सी पिएंगी?’’ वह गिलास हाथ में लिए खड़ा था.

‘‘नहीं बेटे, मुझे नहीं पीनी है, तुम पी लो.’’

‘‘ले लीजिए न, मैं अपने लिए और बना लूंगा, दही बहुत सारा है अभी.’’

‘‘नहीं विक्की, मेरा मन नहीं है,’’ विभा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘दीदी, मेरी बहनों के बच्चों के साथ रह कर इसे भी बाजार के छोलेभटूरे, आलू की टिकिया, चाट, समोसे वगैरा खाने की आदत पड़ गई है. उन के बच्चे हर समय ही वीडियो गेम खेलते हैं, अनापशनाप खर्च करते हैं, पर हम तो इतना खर्च नहीं कर सकते. इतना समझाती हूं, पर यह माने तब न. इसी कारण तो अब मैं दिल्ली जाना ही नहीं चाहती.’’ ‘‘बस, शांत हो जाओ. विक्की को चैन से लस्सी पीने दो. उसे समझाने का तुम्हारा तरीका ही गलत है,’’ विभा चिढ़ कर बोली.

‘‘अब आप भी मेरे ही पीछे लग गईं?’’ रिचा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मेरा बच्चा ही जब मेरा नहीं रहा तो मैं औरों से क्या आशा करूं?’’ विभा ने सोचा, ‘इसी प्रकार तो नासमझ माताएं अपने बच्चों से हाथ धो बैठती हैं. बच्चों का मनोविज्ञान, उन की इच्छाअनिच्छा, उन के आत्मसम्मान व स्वाभिमान के विषय में तो कुछ समझती ही नहीं हैं. बस, अपनी ही हांकती रहती हैं. सोचती यही हैं कि उन के बच्चे को घर के और लोग ही बिगाड़ रहे हैं, जबकि इस कार्य में उन का स्वयं का हाथ भी कुछ कम नहीं होता.’ ‘‘बढ़ता बच्चा है, छुट्टियों के दिनों में कुछ तो खाने का मन करता ही है. कुछ नाश्ते का सामान, जैसे लड्डू, मठरी, चिड़वा वगैरा बना कर रख लो,’’ विभा ने अगले दिन कहा.

‘‘तो क्या मैं उसे खाने को नहीं देती? जब कहता है, तुरंत ताजी चीज बना कर खिलाती हूं.’’

‘‘वह तो ठीक है रिचा, पर हर समय तो गृहिणी का हाथ खाली नहीं होता न, फिर बनाने में भी कुछ देर तो लग ही जाती है. नाश्ता घर में बना रखा हो तो वह स्वयं ही निकाल कर ले सकता है. मैं आज मठरियां बनाए देती हूं.’’

‘‘अभी गैस खाली है नहीं, खाना भी तो बनाना है,’’ रिचा ने बेरुखी से कहा.

‘‘ठीक है, जब कहोगी तभी बना दूंगी,’’ विभा रसोई से खिसक ली. व्यर्थ की बहसबाजी में पड़ना उस ने उचित न समझा. वैसे भी अगले दिन तो उसे अपने घर जाना ही था. कौन कब तक किसी की समस्याओं से जूझ सकता है? पर जब कोई व्यक्ति हठधर्मी पर ही उतर आए और अपनी ही बात पर अड़ा रहे तो उस का क्या किया जा सकता है?

‘बच्चे तो ताजी मिट्टी के बने खिलौने होते हैं, उन पर जैसे नाकनक्शे एक बार बना दो, हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं. संस्कार डालने का कार्य तो केवल मां ही करती है. चंचल प्रकृति के बच्चों को कैसे वश में रखा जा सकता है, यह भी केवल मां ही अधिक समझ सकती है,’ विभा ने सोचा. ‘‘ताईजी, मुझे पत्र लिखोगी न?’’ विक्की ने प्यार से विभा के गले में बांहें डालते हुए पूछा.

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‘‘हां, अवश्य,’’ विभा हंस पड़ी.

‘‘वादा?’’ प्रश्नवाचक निगाहों से विक्की ने उन की ओर देखा.

‘‘वादा. पर तुम अब खूब मन लगा कर पढ़ोगे, पहले यह वादा करो.’’

‘‘वादा, ताईजी, आप बहुत अच्छी हैं. अब मैं मन लगा कर पढ़ूंगा.’’

‘‘खूब मन लगा कर पढ़ना, अच्छे नंबर लाना, मां का कहना मानना और अगली छुट्टियों में हमारे घर जरूर आना.’’

‘‘ठीक,’’ विक्की ने आगे बढ़ कर ताईजी की पप्पी ली. आने वाले निकट भविष्य के सुखद, सुनहरे सपनों की दृढ़ता व आत्मविश्वास  उस के नेत्रों में झलकने लगा था. ‘‘मेरे बच्चे, खूब खुश रहो,’’ विभा ने विक्की को गले से लगा लिया. तभी रेलगाड़ी ने सीटी दी. विक्की के पिताजी ने उसे ट्रेन से नीचे उतर आने के लिए आवाज दी.

‘‘ताईजी, आप मत जाइए, प्लीज,’’ विक्की रो पड़ा.

‘‘बाय विक्की,’’ विभा ने हाथ हिलाते हुए कहा. गाड़ी स्टेशन से खिसकने लगी थी. विक्की प्लेटफौर्म पर खड़ा दोनों हाथ ऊपर कर हिला रहा था, ‘‘बाय, ताईजी,  बाय.’’ उस की आंखों से आंसू बह रहे थे.

‘‘विक्की, अपना वादा याद रखना,’’ ताईजी ने जोर से कहा.

‘‘वादा ताईजी,’’ उस ने प्रत्युत्तर दिया. गाड़ी की गति तेज हो गई थी. विभा अपने रूमाल से आंसुओं को पोंछने लगी.

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ताईजी: भाग 1- क्या रिचा की परवरिश गलत थी

लेखिका- सरला अग्रवाल

‘‘मां, मेरा टेपरिकौर्डर दे दो न, कब से मांग रहा हूं, देती ही नहीं हो,’’ विक्की ने मचलते हुए कहा.

‘‘मैं ने कह दिया न, टेपरिकौर्डर तुझे हरगिज नहीं दूंगी, बारबार मेरी जान मत खा,’’ रिचा ने लगभग चीखते हुए कहा.

‘‘कैसे नहीं दोगी, वह मेरा है. मैं ले कर ही रहूंगा.’’

‘‘बड़ा आया लेने वाला. देखूंगी, कैसे लेता है,’’ रिचा फिर चिल्लाई.

रिचा का चीखना सुन कर विक्की अपने हाथपैर पटकते हुए जोरजोर से रोने लगा, ‘‘देखो ताईजी, मां मेरा टेपरिकौर्डर नहीं दे रही हैं. आप कुछ बोलो न?’’ वह अनुनयभरे स्वर में बोला.

‘‘रिचा, क्या बात है, क्यों बच्चे को रुला रही हो, टेपरिकौर्डर देती क्यों नहीं?’’

‘‘दीदी, आप बीच में न बोलिए. यह बेहद बिगड़ गया है. जिस चीज की इसे धुन लग जाती है उसे ले कर ही छोड़ता है. देखिए तो, कैसे बात कर रहा है. तमीज तो इसे छू नहीं गई.’’

‘‘पर रिचा, तुम ने बच्चे से वादा किया था तो उसे पूरा करो,’’ जेठानी ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘मत रो बच्चे, मैं तुझे टेपरिकौर्डर दिला दूंगी. चुप हो जा अब.’’

‘‘दीदी, अब तो मैं इसे बिलकुल भी देने वाली नहीं हूं. कैसे बदतमीजी से पेश आ रहा है. सच कह रही हूं, आप बीच में न पडि़ए,’’ रिचा बोली.

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रिचा की बात सुन कर विभा तत्काल कमरे से बाहर चली गई. विक्की उसी प्रकार रोता, चीखता रहा. दोपहर के खाने से निबट कर देवरानी, जेठानी शयनकक्ष में जा कर लेट गईं. बातोंबातों में विक्की का जिक्र आया तो रिचा कहने लगी, ‘‘दीदी, मैं तो इस लड़के से परेशान हो गई हूं. न किसी का कहना मानता है, न पढ़ता है, हर समय तंग करता रहता है.’’

‘‘कैसी बातें करती हो, रिचा. तुम्हारा एक ही बेटा है, वह भी इतना प्यारा, इतना सुदर्शन, इतना कुशाग्र बुद्धि वाला, तिस पर भी तुम खुश नहीं हो. अब उसे तुम कैसा बनाती हो, कैसे संस्कार प्रदान करती हो, यह तो तुम्हारे ही हाथ में है,’’ विभा ने समझाया.

‘‘क्या मेरे हाथ में है? क्या यहां मैं अकेली ही बसती हूं?’’ रिचा तैश में आ गई, ‘‘मैं जो उसे समझाती हूं, दूसरे उस की काट करते हैं. ऐसे में बच्चा भी उलझ जाता है, क्या करे, क्या न करे. अभी परसों की ही बात है, इन के बौस के बच्चे आए थे. ये उन के लिए रसगुल्ले व नमकीन वगैरा ले कर आए थे. सब को मैं ने प्लेटें लगा कर 2-2 रसगुल्ले व नमकीन और बिस्कुट रख कर दिए. इसे भी उसी तरह प्लेट लगा कर दे दी. मैं रसोईघर में उन के लिए मैंगोशेक बना रही थी कि यह आ कर कहने लगा, ‘मां, मैं रसगुल्ले और खाऊंगा.’

‘‘मैं ने कहा, ‘खा लेना, पर उन के जाने के बाद. अब इतने रसगुल्ले नहीं बचे हैं कि सब को 1-1 और मिल सकें.’ तब विक्की तो मान सा रहा था पर मांजी तुरंत मेरी बात काटते हुए बोलीं, ‘अरी, क्या है? एक ही तो बच्चा है, खाने दो न इसे.’

‘‘अब बोलिए दीदी. यह कोई बात हुई? जब मैं बच्चे को समझा रही हूं सभ्यता की बात, तो वे उसे गलत काम करने के लिए शह दे रही हैं. मैं भी मना तो नहीं कर रही थी न, बस यही तो कह रही थी कि अतिथियों के जाने के बाद और रसगुल्ले खा लेना. बस, इसी तरह कोई न कोई बात हो जाती है. जब मैं इसे ले कर पढ़ाने बैठती हूं, तब भी वे टोकती रहती हैं. बस, दादी की तरफ देखता हुआ वह झट से उठ कर भाग लेता है. लीजिए हो गई पढ़ाई. अब तो पढ़ाई से इतना कतराने लगा है कि क्या बताऊं, किसी समय भी पढ़ना नहीं चाहता.’’

‘‘स्कूल की परीक्षाओं में कैसे नंबर ला रहा है? वहां की प्रोग्रैस रिपोर्ट कैसी है?’’ विभा ने पूछा.

‘‘अरे, बस पूछो मत कि क्या हाल है. अब तो झूठ भी इतना बोलने लगा है कि क्या बताऊं.’’

‘‘जैसे?’’ विभा ने हैरानी दर्शाई.

‘‘पिछली बार कई दिनों तक पूछती रही, ‘बेटे, तुम्हारे यूनिट टैस्ट की कौपियां मिल गई होंगी, दिखाओ तो सही.’ तब बोला, ‘अभी कौपियां नहीं मिली हैं. जब मिलेंगी तो मैं खुद ही आप को दिखा दूंगा.’ जब 15 दिन इसी प्रकार बीत गए तो हार कर एक दिन मैं इस की कक्षा के एक लड़के संजय के घर पहुंची तो पता चला कि कौपियां तो कब की मिल चुकी थीं.

‘‘‘क्यों, विकास ने अपनी कौपियां दिखाई नहीं क्या?’ संजय ने हैरानी से पूछा.

‘‘‘नहीं तो, वह तो कह रहा था कि मैडम ने अभी कौपियां दी ही नहीं हैं,’ मैं ने उसे बताया तो वह जोरजोर से हंसने लगा, ‘विक्की तो इस बार कई विषयों में फेल हो गया है, इसी कारण उस ने आप को कौपियां नहीं दिखाई होंगी.’

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‘‘मुझे बहुत क्रोध आया, खुद को अपमानित भी महसूस किया. उस की मां के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हंसी देख कर मैं फौरन घर आ गई. ‘‘जब इसे खूब पीटा, तब जा कर इस ने स्वीकार किया कि झूठ बोल रहा था. अब बताइए, मैं क्या कर सकती हूं? यही नहीं, रिपोर्टकार्ड तक इस ने छिपा कर रख दिया था. कई हफ्तों के बाद वाश्ंिग मशीन के नीचे पड़ा मिला. अरे, क्याक्या खुराफातें हैं इस की, आप को क्याक्या बताऊं, यह तो अपनी मासिक रिपोर्टबुक पर अपने पिता के नकली हस्ताक्षर कर के लौटा आता है. अब बोलिए, क्या करेंगी आप ऐसे लड़के के साथ?’’ रिचा गुस्से में बोलती जा रही थी.

‘‘पिछले वर्ष तक तो इस के काफी अच्छे नंबर आ रहे थे, अब अचानक क्या हो गया?’’ विभा ने पूछा.

‘‘इस के पिता तो इस से कभी पढ़ने को कहते नहीं हैं, न ही कभी खुद पढ़ाने के लिए ले कर बैठते हैं. केवल मैं ही कहती हूं तो इसे अब फूटी आंखों नहीं सुहाती. क्या मां हो कर भी इस का भविष्य बिगाड़ दूं, बताओ, दीदी?’’

‘‘पर रिचा, बच्चों को केवल प्यार से ही वश में किया जा सकता है, मार या डांट से नहीं. तुम जितना अधिक उसे मारोगी, डांटोगी, वह उतना ही तुम से दूर होता जाएगा. पढ़ाई से भी इसीलिए दिल चुराता है, तुम पढ़ाती कम हो और डांटती अधिक हो. कल तुम कह रही थीं, ‘अरे, यह तो निकम्मा लड़का है, यह जीवन में कुछ नहीं कर सकता. यह तो जूते पौलिश करेगा सड़क पर बैठ कर…’ ‘‘कहीं ऐसे शब्द भी कहे जाते हैं? तुम ने तो साधारण तौर पर कह दिया, पर बच्चे का कोमल हृदय तो टूट गया न,  बोलो?’’ विभा ने कहा.

‘‘ताईजी, ताईजी, शतरंज खेलेंगी मेरे साथ?’’ अचानक विक्की ने विभा का हाथ पकड़ते हुए पूछा. संभवतया वह इस लज्जाजनक प्रसंग को अब बंद करवाना चाहता था.

‘‘बेटा, मुझे तो शतरंज खेलना नहीं… तुम अपने ताऊजी के साथ खेलते तो हो न?’’

‘‘पर अभी तो वे कहीं गए हैं, आप खेलो न.’’

‘‘पर जब आता ही नहीं तो कैसे खेलूंगी?’’

‘‘अच्छा, तो ताश खेलते हैं.’’

‘‘ले आओ, कुछ देर खेल लेती हूं,’’ विभा ने हंसते हुए विक्की को गुदगुदाया तो वह दौड़ कर ताश की गड्डी ले आया.

‘‘कौन सा खेल खेलोगे, विक्की?’’ विभा ने पूछा.

‘‘रमी खेलें, ताईजी?’’

‘‘ठीक है, पर बांटोगे हर बार तुम ही, मैं नहीं बाटूंगी, मंजूर?’’ विभा ने शर्त रखी. उस की तबीयत ठीक नहीं थी, वह लेटेलेटे ही खेलना चाहती थी.

‘‘मंजूर, आप तकिए के सहारे लेट जाइए,’’ विक्की ने पत्ते बांटे. ताईजी के साथ खेलने में उसे इतना अधिक आनंद आ रहा था कि बस पूछो मत.

‘‘ताश के अलावा तुम और कौनकौन से खेल खेलते हो?’’ विभा ने पूछा.

‘‘बहुत सारे खेल हैं, ताईजी,’’ विक्की खुश होता हुआ बोला, ‘‘लूडो, सांपसीढ़ी, शतरंज, ट्रबल, व्यापार, स्क्रैबल, स्कौटलैंड यार्ड, मकैनो, कार रेस…’’

‘‘अरे, बसबस, इतने सारे खेल हैं तुम्हारे पास? बाप रे, किस के साथ खेलते हो?’’

‘‘किसी के भी नहीं.’’

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‘‘अरे, यह क्या बात हुई, फिर खरीदे क्यों हैं?’’

‘‘कुछ मौसी लाई थीं, कुछ बड़ी ताईजी लाई थीं, कुछ जन्मदिन पर आए तो कुछ पिताजी दौरे पर गए थे, तब ले कर आए थे. ताईजी, पड़ोस के रवींद्र के घर खेलने जाता हूं तो मां कहती हैं कि अपने इतने महंगे खेल वहां मत ले जाया करो. जब उन्हें मैं अपने घर पर खेलने के लिए बुलाता हूं तो मां कहती हैं कि कितना हल्ला मचा रखा है, बंद करो खेलवेल, हर समय खेल ही खेल, कभी पढ़ भी लिया करो.’’

‘‘और घर में कौनकौन खेलता है तुम्हारे साथ? मातापिता खेलते हैं कभी?’’ विभा ने पूछा तो वह कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा, फिर ताश बंद कर के उठ कर चला गया.

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ट्रस्ट एक कोशिश: भाग 1- क्या हुआ आलोक के साथ

लेखिका- अर्चना वाधवानी   

अंगरेजी के शब्द ट्रस्ट का हिंदी में अर्थ है ‘विश्वास’ और इस छोटे से शब्द में कितना कुछ छिपा हुआ है. उफ, कितनी आहत हुई थी, जब अपनों से ही धोखा खाया था.

आलोक मेरे सामने खडे़ थे. मैं अभीअभी रजिस्ट्रार आफिस से सब बंधनों से मुक्त हो कर आई थी.

‘‘नैना, क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?’’

‘‘आलोक, मुझे आप पर पूरा विश्वास है लेकिन हालात ही कुछ ऐसे हो गए थे.’’

मेरी आंखों के सामने बाऊजी का चेहरा आ रहा था और उन्हें याद करतेकरते वे फिर भर आईं.

मेरी आंखें गंगायमुना की तरह निरंतर बह रही थीं तो मन अतीत की गलियों में भटक रहा था जो भटकतेभटकते एक ऐसे दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से मायके के लिए कोई रास्ता जाता ही नहीं था.

मेरा विवाह कुछ महीने पहले ही हुआ था. शादी के कुछ समय बाद आलोक और मैं सिंगापुर गए हुए थे. आलोक का यह बिजनेस ट्रिप था. हम दोनों काफी समय से सिंगापुर में थे. बाऊजी से फोन पर मेरी बात होती रहती थी. अचानक एक दिन बड़े भैया का होटल में फोन आया, ‘नैना, बाऊजी, नहीं रहे.’

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मुझे नहीं पता कब आलोक ने वापसी की टिकटें बुक कराईं और कब हम लोग सिंगापुर से वापस भारत आए.

बरामदे में दरी बिछी हुई थी. बाऊजी की तसवीर पर माला चढ़ी हुई थी. उन के बिना घर कितना सूनासूना लग रहा था. पता लगा कि भाई हरिद्वार उन की अस्थियां प्रवाहित करने गए हुए थे.

‘नैना, तू आ गई बेटी,’ पीछे पलट कर देखा तो वर्मा चाचा खडे़ थे. उन्हें देख मैं फूटफूट कर रो पड़ी.

‘चाचाजी, अचानक बाऊजी कैसे चले गए.’

‘बेटी, वह काफी बीमार थे.’

‘लेकिन मुझे तो किसी ने नहीं बताया. यहां तक कि बाऊजी ने भी नहीं.’

‘शायद वह नहीं चाहते थे कि तुम बीमारी की खबर सुन कर परेशान हो, इसलिए नहीं बताया.’

लेकिन भाइयों ने भी मुझे उन के बीमार होने की खबर देने की जरूरत नहीं समझी थी. मैं पूछना चाहती थी कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया गया? लेकिन शब्द थे कि जबान तक आ ही नहीं रहे थे. वर्मा चाचाजी ने बताया कि आखिरी समय तक बाऊजी की आंखें मुझे ही ढूंढ़ रही थीं.

घर वापस आ कर मैं चुपचाप लेटी रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि बाऊजी अब इस दुनिया में नहीं रहे.

बाऊजी मेरे लिए सबकुछ थे क्योंकि होश संभालने के बाद से मैं ने उन्हें ही देखा था. बडे़ भाई विजय और अजय दोनों मुझ से उम्र में काफी बडे़ थे. बेहद सरल स्वभाव के बाऊजी डी.ए.वी. स्कूल की एक शाखा में प्रिंसिपल थे और स्कूल से लौटने के बाद का सारा समय वह मेरे साथ बिताते थे.

मां को तो मैं बचपन में ही खो चुकी थी लेकिन बाऊजी ने मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी. वह कहानियां भी लिखा करते थे. उन की उपदेशात्मक कहानियां मुझे आज भी याद हैं. एक बार उन्होंने मुझे कृष्ण की जन्मकथा सुनाई और पूछा कि नैना, बताओ, कृष्ण पर किस का ज्यादा हक है? यशोदा का या देवकी का? मेरे द्वारा यशोदा का नाम लेते ही उन का चेहरा खुशी से खिल उठा था.

उस समय तो नहीं लेकिन कुछ वर्षों के बाद बाऊजी ने एक रहस्य से परदा उठाया था. वह नहीं चाहते थे कि मुझे किसी और से पता चले कि मैं उन की गोद ली हुई बेटी हूं. हां, मैं उन की सगी संतान नहीं थी लेकिन शायद उन्हें अपने प्यार व मुझे दिए हुए संस्कारों पर पूरापूरा विश्वास था. इसीलिए मेरे थोड़ा समझदार होते ही उन्होंने खुद ही मुझे सच से अवगत करा दिया था.

अतिशयोक्ति नहीं होगी, मैं कुछ देर के लिए सकते में अवश्य आ गई थी लेकिन बाऊजी के प्यार व उन की शिक्षा का ऐसा असर था कि मैं बहुत जल्द सामान्य हो गई थी.

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खुद से ही यह सवाल किया था कि क्या कभी उन के प्यार में बनावट या पराएपन का आभास हुआ था? नहीं, कभी नहीं. कितने स्नेह से उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, ‘मेरी बेटी, तुम तो मेरे लिए इस दुनिया का सब से नायाब तोहफा हो. तुम मेरी बेटी हो इसलिए नहीं कि तुम्हें हमारी जरूरत थी बल्कि इसलिए क्योंकि हमें तुम्हारी जरूरत थी. तुम्हारे आने के बाद ही हमारा परिवार पूर्ण हुआ था.’

बाऊजी को सब लोग बाबूजी या लालाजी कह कर पुकारते थे लेकिन मैं अपनी तोतली बोली में उन्हें बचपन में ‘बाऊजी’ कहा करती थी और जब बड़ी हुई तो उन्होंने बाबूजी की जगह बाऊजी ही कह कर पुकारने को कहा. उन्हें मेरा बाऊजी कहना बहुत अच्छा लगता था.

बाऊजी ने बताया था कि मां हर त्योहार या किसी भी खुशी के मौके पर अनाथाश्रम जाया करती थीं. एक बार उन्होंने आश्रम में एक छोटी सी बच्ची को रोते देखा. इतना छोटा बच्चा, आज तक आश्रम में नहीं आया था. रोती हुई वह बच्ची मात्र कुछ हफ्तों की थी और उसे अपनी मां की गोद भी नसीब नहीं हुई थी. पता नहीं किस निर्मोही मां ने अपनी बच्ची का त्याग कर दिया था.

‘पता नहीं क्या सम्मोहन था उस बच्ची की आंखों में कि प्रकाशवती यानी तुम्हारी मां अब हर रोज उस बच्ची को देखने जाने लगीं और किसी दिन न जा पातीं तो बेचैन हो जाती थीं. एक दिन मैं और तुम्हारी मां आश्रम पहुंचे. जैसे ही बच्ची आई उन्होंने उसे उठा लिया. बच्ची उन की गोद से वापस आया के पास जाते ही रोने लगी. यह देख कर मैं चकित था कि इतनी छोटी सी बच्ची को ममता की इतनी सही पहचान.

‘प्रकाशवती अब मुझ पर उस बच्ची को गोद लेने के लिए जोर डालने लगीं. दरअसल, उन्हें बेटी की बहुत चाह थी, जबकि मैं  ‘हम दो हमारे दो’ का प्रण ले चुका था. बच्ची को देखने के बाद उन की बेटी की इच्छा फिर से जागने लगी थी. मैं ने प्रकाशवती को समझाया कि बच्ची बहुत छोटी है. बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होगा. लेकिन वह टस से मस न हुईं. आखिर मुझे उन की जिद के आगे झुकना ही पड़ा. वैसे एक बात कहूं, बेटी, मन ही मन मैं भी उस बच्ची को चाहने लगा था. बस, वह बच्ची कुछ ही दिनोें में नैना के रूप में हमारी जिंदगी में बहार बन कर मेरे घर आ गई.’

मैं डबडबाई नजरों से बाऊजी को निहारती रही थी.

‘लेकिन ज्यादा खुशी भी कभीकभी रास नहीं आती. तुम अभी 2 साल की भी नहीं हुई थीं कि तुम्हारी मां का निधन हो गया. दोनों बेटे बडे़ थे, खुद को संभाल सकते थे लेकिन जब तुम्हें देखता था तो मन भर आता था.

‘एक बार किसी जानकार ने तुम्हें ‘बेचारी बिन मां की बच्ची’ कह दिया. मुझे बहुत खला था वह शब्द. बस, मैं ने उस दिन से ही फैसला कर लिया था कि प्रकाशवती की बेटी को किसी भी तरह की कमी नहीं होने दूंगा. कोई उसे बेचारी कहे, ऐसी नौबत ही नहीं आने दूंगा. उस के बाद से ही तुम्हारे भविष्य को ले कर बहुत कुछ सोच डाला.’

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