आज का सच : भाग 3- कौनसा सच छिपा रहा था राम सिंह

रामसिंह धीरेधीरे मुसाफिर बन गया. अब उस की रोटी बड़ी दूरदूर बिखर गई थी, जिसे चुनने उसे दूरदूर जाना पड़ता था. लंबी सवारी मिल जाती तो अकसर हफ्ताहफ्ता वह आता ही नहीं था और जब भी आता अपनी सारी कमाई मेरे हवाले कर लौट जाता. उस की जमीन के कागज भी मेरे ही पास पडे़ थे. धीरेधीरे वह हमारे परिवार का ही सदस्य बन गया. वह जहां भी होता हमें अपना अतापता बताता रहता. जिस दिन उसे आना होता था मेरी पत्नी उस की पसंद का ही कुछ विशेष बना लेती.

हमारी बेटियां भी धीरेधीरे उसे अपना भाई मान चुकी थीं. मेरे पैर का टूटना और रामसिंह का जीजान से मेरी सेवा करना भी उन्हें अभिभूत कर गया था.

एक शाम वापस आया तो वह बेहद थका सा लगा था. उस शाम उस ने अपने पैसे भी मुझे नहीं दिए और कुछ खा भी नहीं पाया. पिछले 3-4 महीने में आदत सी हो गई थी न रामसिंह की बातें सुनने की, उस की बड़ीबड़ी बातों पर जरा रुक कर पुन: सोचने की. आधी रात हो गई थी, खटका सा लगा बाहर बरामदे में. कौन हो सकता है यही देखने को मैं बाहर गया तो बरामदे की सीढि़यों पर रामसिंह चुपचाप बैठा था.

‘‘क्या बात है, बेटा? बाहर सर्दी में क्यों बैठा है? उठ, चल अंदर चल,’’ और हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ ले आया.

मेरी पत्नी भी उठ कर बैठ गई. अपना शाल उस पर ओढ़ा कर पास बिठा लिया. रो पड़ा था रामसिंह. पत्नी ने माथा सहला दिया तो सहसा उस की गोद में समा कर वह चीखचीख कर रोने लगा और हम दोनों उस की पीठ सहलाते रहे. पहली बार इस तरह उसे रोते देख रहे थे हम.

‘‘कोई नुकसान हो गया क्या, बेटा? किसी ने तुम्हारे पैसे छीन लिए क्या? क्या हुआ मेरे बच्चे बता तो मुझे,’’ मैं ने माथा सहला कर पूछा तो कुछ कह नहीं पाया राम.

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‘‘अच्छा, सुबह बताना, अभी सो जा. यहीं सो जा हमारे पास.’’

पत्नी ने जरा सा आगे सरक कर अपने पास ही जगह बना दी.

रामसिंह वहीं हम दोनों के बीच में चुपचाप छोटे बच्चे की तरह सो गया. सुबह हम दोनों जल्दी उठ जाते हैं न. सैर आदि के बाद पिछवाड़े गया तो देखा राम सब्जियों में पानी लगा रहा था.

‘‘देखिए तो चाचाजी, गोभी फूटने लगी है. गाजर और मूली भी. इस सर्दी में हमें सब्जी बाजार से नहीं लानी पडे़गी.’’

मस्त था रामसिंह. कुरता उतार कर तार पर टांग रखा था और गले में मेरी पत्नी की चेन चमचमा रही थी. एक किसान का बलिष्ठ शरीर, जो तृप्ति मिट्टी के साथ मिट्टी हो कर पाता है, वह गाड़ी के घूमते चक्कों के साथ कहां पा सकता होगा, मैं सहज ही समझने लगा. कुदाल और खुरपी उसे जो सुख दे पाती होगी वह गाड़ी का स्टेयरिंग कैसे दे पाता होगा. अपार सुख था राम के चेहरे पर, जब वह गोभी और गाजर की बात कर रहा था.

पत्नी चाय की टे्र हाथ में लिए हमें ढूंढ़ती हुई पीछे ही चली आई थी.

‘‘चाचीजी, देखिए तो, नन्हीनन्ही गोभियां फूट रही हैं?’’

हाथ धो कर चाय पीने लगा रामसिंह, तब सहसा मैं ने पूछ लिया, ‘‘इन 2 दिनों में जो कमाया वह कहां है, रामसिंह, किसी बुरी संगत में तो नहीं उड़ा दिया?’’

एक बार फिर चुप सा हो गया रामसिंह. एक विलुप्त सी हंसी उस के होंठों पर चली आई.

‘‘बुरी संगत में ही उड़ा दिया चाचाजी…जो गया सो गया. अब भविष्य के लिए मैं ने दुनिया से एक और सबक सीख लिया है. सब रिश्ते महज तमाशा, सच्चा है तो सिर्फ दर्द का रिश्ता…खून का रिश्ता तो सिर्फ खून पीता है, सुख नहीं देता.

‘‘परसों रात एअरपोर्ट पर से एक परिवार मिला जिसे मेरे ही गांव जाना था. मैं खुशीखुशी मान गया. सुबह गांव पहुंचा तो सोचा कि सवारी छोड़ कर एक बार अपना बंद घर और जमीन भी देख आऊंगा.

‘‘सवारी छोड़ी और जब उन का सामान निकालने पीछे गया तो उन के साथ ब्याही दुलहन को देख हैरान रह गया. वह लड़की वही थी जो कभी मेरी मंगेतर थी और आज अपने विदेशी पति के साथ गांव आई थी.

‘‘सामान उतार कर मैं वापस चला आया. उस के परिवार से रुपए लिए ही नहीं…आज वह मेरी कुछ नहीं लेकिन मेरे गांव की बेटी तो है. मन ही नहीं हुआ उस से पैसे लेने का.

‘‘अफसोस इस बात का भी हुआ कि उस ने मुझे पहचाना तक नहीं. यों देखा जैसे जानती ही नहीं, क्या विदेश जा कर इनसान इतना बदल जाता है? कभीकभी सोचता हूं, मेरा प्यार, मेरी संवेदनाएं इतनी सस्ती थीं जिन का सदा निरादर ही हुआ. बाप भूल गया, पीछे एक परिवार भी छोड़ा है और यह लड़की भी भूल गई जिस के लिए कभी मैं उस का सबकुछ था.

‘‘गांव का ही समझ कर इतना तो पूछती कि मैं कैसा हूं, उस के बिना कैसे जिंदा हूं…कोई ऐसा भाव ही उस के चेहरे पर आ जाता जिस से मुझे लगता उसे आज भी मुझ से जरा सी ही सही हमदर्दी तो है.’’

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रामसिंह की बात पर हम अवाक् रह गए थे, उस के जीवन के एक और कटु अनुभव पर. जमीनें छूटीं तो क्याक्या छूट गया हाथ से. मंगेतर भी और उस का प्यार भी. कौन एक खाली हाथ इनसान के साथ अपनी लड़की बांधता.

‘‘वह बहुत सुंदर थी, चाचाजी, पर मेरा नसीब उतना अच्छा कहां था जो वह मुझे मिल जाती. मैं ने जीवन से समझौता कर लिया है. किसकिस से माथा टकराता फिरूं. सब को माफ करते चले जाओ इसी में सुख है.’’

मेरी पत्नी रो पड़ी थी रामसिंह की अवस्था पर. कैसी मनोदशा से गुजर रहा है यह बच्चा…उस के समीप जा कर जरा सा माथा सहला दिया.

‘‘मैं निराश नहीं हूं, चाचीजी, सबकुछ छीन लिया मुझ से मेरे पिता ने तो क्या हुआ, आप का पता तो दे दिया. आप दोनों मिल गए मुझे…आज मैं कहीं भी जाऊं  मुझे एक उम्मीद तो रहती है कि एक घर है जहां मेरी मां मेरा इंतजार करती है, उसे मेरी भूखप्यास की चिंता रहती है. एक ऐसा परिवार जो मेरे साथ हंसता है, मेरे साथ रोता है. मुझे सर्दी लगे तो अपने प्यार से सारी पीड़ा हर लेता है. मुझे गरमी लगे तो अपना स्नेह बरसा कर ठंडक देता है. एक इनसान को जीने के लिए और क्या चाहिए? कल तक मैं लावारिस था, आज तो लावारिस नहीं हूं…मेरी 2 बहनें हैं, उन का परिवार है. मेरे मांबाप हैं. कल मैं जमीन से उखड़ा था. आज तो जमीन से उखड़ा नहीं हूं. मुझे आप लोगों के रूप में वह सब मिला है जो किसी इनसान को सुखी होने के लिए चाहिए. मैं आप को एक अच्छा बेटा बन कर दिखाऊंगा. चाचाजी, क्या आप मुझे अपना मान सकते हैं?’’

रो पड़ा था मैं. अपना और किसे कहते हैं, अब मैं कैसे उसे समझाऊं. जो पिछले 4 महीने से अंगसंग है वही तो है हमारा अपना. मेरी पत्नी ने रामसिंह को गले लगा कर उस का माथा चूम लिया.

इस छोटी सी उम्र में क्याक्या देख चुका रामसिंह, यह कब तक हमारा बन हमारे पास  रहेगा मैं नहीं जानता. मेरी पत्नी की गोद में समाया राम कब तक हमें हमारी खोई संतान भूली रहने देगा, मैं यह भी नहीं जानता. कल क्या होगा मैं नहीं जानता मगर आज का सच यही है कि राम हमारा है, हमारा अपना.

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आज का सच : भाग 2- कौनसा सच छिपा रहा था राम सिंह

उसी सुबह बिस्तर से उठते ही मेरा पैर जरा सा मुड़ा और कड़क की आवाज आई. सूज गया पैर. मेरी चीख पर राम भागा चला आया. आननफानन में राम ने मुझे  गाड़ी में डाला और लगभग 2 घंटे बाद जब हम डाक्टर के पास से वापस लौटे, मेरे पैर पर 15 दिन के लिए प्लास्टर चढ़ चुका था. पत्नी रोने लगी थी मेरी हालत पर.

‘‘रोना नहीं, चाचीजी, कुदरती रजा के आगे हाथ जोड़ो. कुदरत जो भी दे दे हाथ जोड़ कर ले लो. उस ने दुख दिया है तो सुख भी देगा.’’

रोना भूल गई थी पत्नी. मैं भी अवाक्  सा था उस के शब्दों पर. अपनी पीड़ा कम लगने लगी थी सहसा. यह लड़का न होता तो कौन मुझे सहारा दे कर ले जाता और ले आता. दोनों बेटियां तो बहुत दूर हैं, पास भी होतीं तो अपना घर छोड़ कैसे आतीं.

‘‘मैं हूं न आप के पास, चिंता की कोई बात नहीं.’’

चुप थी पत्नी, मैं उस का चेहरा पढ़ सकता हूं. अकसर पीड़ा सी झलक उठती है उस के चेहरे पर. 10 साल का बेटा एक दुर्घटना में खो दिया था हम ने. आज वह होता तो रामसिंह जैसा होता. एक सुरक्षा की अनुभूति सी हुई थी उस पल रामसिंह के सामीप्य में.

रामसिंह हमारे पास आश्रित हो कर आया था पर हालात ने जो पलटा खाया कि उस के आते ही हम पतिपत्नी उस पर आश्रित हो गए? पैर की समस्या तो आई ही उस से पहले एक और समस्या भी थी जिस ने मुझे परेशान कर रखा था. मेरी वरिष्ठता को ले कर एक उलझन खड़ी कर दी थी मेरे एक सहकर्मी ने. कागजी काररवाई में कुछ अंतर डाल दिया था जिस वजह से मुझे 4 महीने पहले रिटायर होना पडे़गा. कानूनी काररवाई कर के मुझे इनसाफ लेना था, वकील से मिलने जाना था लेकिन टूटा पैर मेरे आत्मविश्वास पर गहरा प्रहार था. राम से बात की तो वह कहने लगा, ‘‘चाचाजी, 4 महीने की ही तो बात है न. कुछ हजार रुपए के लिए इस उम्र में क्या लड़ना. मैं भागने के लिए नहीं कह रहा लेकिन आप सोचिए, जितना आप को मिलेगा उतना तो वकील ही खा जाएगा…अदालतों के चक्कर में आज तक किस का भला हुआ है. करोड़ों की शांति के लिए आप अपने सहकर्मी को क्षमा कर दें. हजारों का क्या है? अगर माथे पर लिखे हैं तो कुदरत देगी जरूर.’’

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विचित्र आभा है रामसिंह की. जब भी बात करता है आरपार चली जाती है. बड़ी से बड़ी समस्या हो, यह बच्चा माथे पर बल पड़ने ही नहीं देता. पता नहीं चला कब सारी चिंता उड़नछू हो गई.

अन्याय के खिलाफ न लड़ना भी मुझे कायरता लगता है लेकिन सिर्फ कायर नहीं हूं यही प्रमाणित करने के लिए अपना बुढ़ापा अदालतों की सीढि़यां ही घिसने में समाप्त कर दूं वह भी कहां की समझदारी है. सच ही तो कह रहा है रामसिंह कि  करोड़ों का सुखचैन और कुछ हजार रुपए. समझ लूंगा अपने ही कार्यालय को, अपने ही कालिज को दान कर दिए.

पत्नी पास बैठी मंत्रमुग्ध सी उस की बातें सुन रही थी. स्नेह से माथा सहला कर पूछने लगी, ‘‘इतनी समझदारी की बातें कहां से सीखीं मेरे बच्चे?’’

हंस पड़ा था रामसिंह, ‘‘कौन? मैं समझदार? नहीं तो चाचीजी, मैं समझदार कहां हूं. मैं समझदार होता तो अपने पिता से झगड़ा करता, उन से अपना अधिकार मांगता, विलायत चला जाता, डालर, पौंड कमाता, मैं समझदार होता तो आज लावारिस नहीं होता. मैं ने भी अपने पिता को माफ कर दिया है.’’

‘‘कुदरत का सहारा है न तुम्हें, लावारिस कैसे हुए तुम?’’

पत्नी ने ममत्व से पुचकारा. रामसिंह की गहरी आंखें तब और भी गहरी लगने लगी थीं मुझे.

‘‘मन से तो लावारिस नहीं हूं मैं, चाचीजी. 2 हाथ हैं न मेरे पास, एक दिन फिर से वही किसान बन कर जरूर दिखाऊंगा जो सब को रोटी देता है.’’

‘‘वह दिन अवश्य आएगा रामसिंह,’’ पत्नी ने आश्वासन दिया था.

15 दिन कैसे बीत गए पता ही न चला. रामसिंह ही मुझे कालिज से लाता रहा और कालिज ले जाता रहा. उस ने चलनेफिरने को मुझे बैसाखी ला कर नहीं दी थी. कहता, ‘मैं हूं न चाचाजी, आप को बैसाखी की क्या जरूरत?’

24 घंटे मेरे संगसंग रहता रामसिंह. मेरी एक आवाज पर दौड़ा चला आता. घर के पीछे की कच्ची जमीन की गुड़ाई कर रामसिंह ने सुंदर क्यारियां बना कर उस में सब्जी के बीज रोप दिए थे. बाजार का सारा काम वही संभालता रहा. पत्नी के पैर अकसर शाम को सूज जाते थे तो हर शाम पैरों की मालिश कर रामसिंह थकान का निदान करता था. प्लास्टर कटने पर भी रामसिंह ही गाड़ी चलाता रहा. मैं तो उस का कर्जदार हो गया था.

एक महीने के लिए कोई ड्राइवर रखता और घर का कामकाज भी वही करता तो 5 हजार से कम कहां लेता वह मुझ से. महीने भर बाद मैं ने रामसिंह के सामने उस की  पगार के रूप में 5 हजार रुपए रखे तो विस्मित भाव थे उस की आंखों में.

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‘‘यह क्या है, चाचाजी?’’

‘‘समझ लो तुम्हारा काम शुरू हो चुका है. तुम गाड़ी बहुत अच्छी चला लेते हो. आज से तुम ही मेरी गाड़ी चलाओगे.’’

‘‘वह तो चला ही रहा हूं. आप के पास खा रहा हूं, रह रहा हूं, क्या इस का कोई मोल नहीं है? आप का अपना बच्चा होता मैं तो क्या तब भी आप मुझे पैसे देते?’’

जड़ सी रह गई थी मेरी पत्नी. पता ही नहीं चला था कब उस ने भी रामसिंह से ममत्व का गहरा धागा बांध लिया था. हमारी नाजुक और दुखती रग पर अनजाने ही राम ने भी हाथ रख दिया था न.

‘‘हमारा ही बच्चा है तू…’’

अस्फुट शब्द फूटे थे मेरी पत्नी के होंठों से. अपने गले से सोने की चेन उतार कर उस ने रामसिंह के गले में डाल दी. आकंठ आवेग में जकड़ी वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी. उसे पुन: खोया अपना बेटा याद आ गया था. पत्नी द्वारा पहनाई गई चेन पर भी रामसिंह असमंजस में था.

आंखों में प्रश्नसूचक भाव लिए वह बारीबारी से हमें देख रहा था. डर लगने लगा था मुझे अपनी अवस्था से, हम दोनों पराया खून कहीं अपना ही तो नहीं समझने लगे. मैं तो संभल जाऊंगा लेकिन मेरी पत्नी का क्या होगा, जिस दिन रामसिंह चला जाएगा.

उस पल वक्त था कि थम गया था. रामसिंह भी चुप ही रहा, कुछ भी न पूछा न कहा. रुपए वहीं छोड़ वह भी बाहर चला गया. कुछ एक प्रश्न जहां थे वहीं रहे.

अगले 2 दिन वह काफी दौड़धूप में रहा. तीसरे दिन उस ने एक प्रश्न किया.

‘‘चाचाजी, क्या आप बैंक में मेरी गारंटी देंगे? मैं गाड़ी अच्छी चला लेता हूं, आप ने ऐसा कहा तो मुझे दिशा मिल गई. मैं टैक्सी तो चला ही सकता हूं न, आप गारंटी दें तो मुझे कर्ज मिल सकता है. मैं टैक्सी खरीदना चाहता हूं.’’

5 लाख की गाड़ी के लिए मेरी गारंटी? कल को रामसिंह गाड़ी ले कर फरार हो गया तो मेरी सारी उम्र की कमाई ही डूब जाएगी. बुढ़ापा कैसे कटेगा. असमंजस में था मैं. कुछ पल रामसिंह मेरा चेहरा पढ़ता रहा फिर भीतर अपने कमरे में चला गया और जब वापस लौटा तो उस के हाथ में कुछ कागज थे.

‘‘यह गांव की जमीन के कागज हैं, चाचाजी. जमीन पंजाब में है इसलिए बैंक ने इन्हें रखने से इनकार कर दिया है. बैंक वाले कहते हैं कि किसी स्थानीय व्यक्ति की गारंटी हो तो ही कर्ज मिल सकता है. आप मेरी जमीन के कागज अपने पास रख लीजिए और अगर भरोसा हो मुझ पर तो…’’

मैं ने गारंटी दे दी और रामसिंह एक चमचमाती गाड़ी का मालिक बन गया. पहली कमाई आई तो रामसिंह ने उसे मेरे हाथ पर रख दिया.

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‘‘अपने पैसे अपने पास रख, बेटा.’’

‘‘अपने पास ही तो हैं. आप के सिवा मेरा है ही कौन जिसे अपना कहूं.’’

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आज का सच : भाग 1- कौनसा सच छिपा रहा था राम सिंह

‘माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे,

इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोहे.’

मेरी पत्नी रसोई में व्यस्त गुनगुना रही थी और बीचबीच में आवाज भी लगा रही थी, ‘‘रामजी, बेटा आ जाओ और अपने चाचाजी से भी कहो कि जल्दी आ जाएं वरना वह कहेंगे कि रोटी अकड़ गई.’’

‘‘चाचीजी, आप को नहीं लगता कि आप अभीअभी जो गा रही थीं वह कुछ ठीक नहीं था?’’

‘‘अरे, कबीर का दोहा है. गलत कैसे हुआ?’’

‘‘गलत है, मैं ने नहीं कहा, जरा एकपक्षीय है, ऐसा लगता है न कि मिट्टी अहंकार में है, कुम्हार उसे रौंद रहा है और वह उसे समझा रही है कि एक दिन वह भी इसी तरह मिट्टी बन जाएगा.’’

‘‘सच ही तो है, हमें एक दिन मिट्टी ही तो बन जाना है.’’

‘‘मिट्टी बन जाना सच है, चाचीजी, मगर यह सच नहीं कि कुम्हार से मिट्टी ने कभी ऐसा कहा होगा. कुम्हार और मिट्टी का रिश्ता तो बहुत प्यारा है, मां और बच्चे जैसा, ममता से भरा. कोई भी रिश्ता अहंकार की बुनियाद पर ज्यादा दिन नहीं टिकता और यह रिश्ता तो बरसों से निभ रहा है, सदियों से कुम्हार और मिट्टी साथसाथ हैं. यह दोहा जरा सा बदनाम नहीं करता इस रिश्ते को?’’

चुप रह गई थी मेरी पत्नी रामसिंह के सवाल पर. मात्र 26-27 साल का है यह लड़का, पता नहीं क्यों अपनी उम्र से कहीं बड़ा लगता है.

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60 साल के आसपास पहुंचा मैं कभीकभी स्वयं को उस के सामने बौना महसूस करता हूं. राम के बारे में जो भी सोचता हूं वह सदा कम ही निकल पाता है. हर रोज कुछ नया ही सामने चला आता है, जो उस के चरित्र की ऊंचाई मेरे सामने और भी बढ़ा देता है.

‘‘तुम्हारा क्या कहना है इस बारे में?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘अहंकार के दम पर कोई भी रिश्ता देर तक नहीं निभ सकता. लगन, प्रेम और त्याग ही हर रिश्ते की जरूरत है.’’

मुसकरा पड़ी थी मेरी पत्नी. प्यार से राम के चेहरे पर चपत लगा कर बोली, ‘‘इतनी बड़ीबड़ी बातें कैसे कर लेता है रे तू?’’

‘‘हमारे घर के पास ही कुम्हार का घर था जहां मैं उसे रोज बरतन बनाते देखता था. मिट्टी के लोंदे का पल भर में एक सुंदर आकार में ढल जाना इतना अच्छा लगता था कि जी करता था सारी उम्र उसी को देखता रहूं… लेकिन मैं क्या करता? कुम्हार न हो कर जाट था न, मेरा काम तो खेतों में जाना था, लेकिन वह समय भी कहां रहा…आज न तो मैं किसान हूं और न ही कुम्हार. बस, 2 हाथ हैं जिन में केवल आड़ीतिरछी लकीरें भर हैं.’’

‘‘हाथों में कर्म करने की ताकत है बच्चे, चरित्र में सच है, ईमानदारी है. तुम्हारे दादादादी इतनी दुआएं देते थे तुम्हें, उन की दुआएं हैं तुम्हारे साथ…’’ मैं बोला.

‘‘वह तो मुझे पता है, चाचाजी, लेकिन रिश्तों पर से अब मेरा विश्वास उठ गया है. लोग रिश्ते इस तरह से बदलने लगे हैं जैसे इनसान कपड़े बदल लेता है.’’

खातेखाते रुक गया था राम. उस का कंधा थपथपा कर पुचकार दिया मैं ने. राम की पीड़ा सतही नहीं जिसे थपकने भर से उड़ा दिया जाए.

बचपन के दोस्त अवतार का बेटा है राम. अवतार अपने भाई को साथ ले कर विलायत चला गया था. तब राम का जन्म नहीं हुआ था इसलिए पत्नी को यहीं छोड़ कर गया. राम को जन्म देने के बाद अवतार की पत्नी चल बसी थी. इसलिए दादादादी के पास ही पला रामसिंह और उन्हीं के संस्कारों में रचबस भी गया.

अवतार कभी लौट कर नहीं आया, उस ने विलायत में ही दोनों भाइयों के साथ मिल कर अच्छाखासा होटल व्यवसाय जमा लिया.

रामसिंह तो खेतों के साथ ही पला बढ़ा और जवान हुआ. मुझे क्या पता था कि दादादादी के जाते ही अवतार सारी जमीन बेच देगा. राम को विलायत ले जाएगा, यही सोच मैं ने कोई राय भी नहीं मांगी. हैरान रह गया था मैं जब एक पत्र के साथ रामसिंह मेरे सामने खड़ा था.

पंजाब के एक गांव का लंबाचौड़ा प्यारा सा लड़का. मात्र 12 जमात पास वह लड़का आगे पढ़ नहीं पाया था, क्योंकि बुजुर्ग दादादादी को छोड़ कर वह शहर नहीं जा सका था.

गलत क्या कहा राम ने कि जब तक मांबाप थे 2 भाइयों ने उस का इस्तेमाल किया और मरते ही उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया. जमीन का जरा सा टुकड़ा उस के लिए छोड़ दिया. जिस से वह जीविका भी नहीं कमा सकता. यही सब आज पंजाब के हर गांव की त्रासदी होती जा रही है.

‘‘तुम भी विलायत क्यों नहीं चले गए रामसिंह वहां अच्छाखासा काम है तुम्हारे पिता का?’’ मैं ने पूछा.

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‘‘मेरे चाचा ने यही सोच कर तो सारी जमीनें बेच दीं कि मैं उन के साथ चलने को तैयार हो जाऊंगा. मुझ से मेरी इच्छा पूछी ही नहीं…आप बताइए चाचाजी, क्या मैं पूरा जीवन औरों की उंगलियों पर ही नाचता रहूंगा? मेरा अपना जीवन कब शुरू होगा? दादादादी जिंदा थे तब मैं ही जमीनों का मालिक था, कम से कम वह जमीनें ही वह मुझे दे देते. उन्हें भी चाचा के साथ बांट लिया…मैं क्या था घर का? क्या नौकर था? कानून पर जाऊं तो बापू की आधी जमीन का वारिस मैं था. लेकिन कानून की शरण में क्यों जाऊं मैं? वह मेरे क्या लगते हैं, यदि जन्म देने वाला पिता ही मेरा नहीं तो विलायत में कौन होगा मेरा, वह सौतेली मां, जिस ने आज तक मुझे देखा ही नहीं या वे सौतेले भाई जिन्होंने आज तक मुझे देखा ही नहीं, वे मुझे क्यों अपनाना चाहेंगे? पराया देश और पराई हवा, मैं उन का कौन हूं, चाचाजी? मेरे पिता ने मुझे यह कैसा जीवन दे दिया?’’

रोना आ गया था मुझे राम की दशा पर. लोग औलाद को रोते हैं, नाकारा और स्वार्थी औलाद मांबाप को खून के आंसू रुलाती है और यहां स्वार्थी पिता पर औलाद रो रही थी.

‘‘वहां चला भी जाता तो उन का नौकर ही बन कर जीता न…मेरे पिता ने न अपनी पत्नी की परवा की न अपने मांबाप की. एक अच्छा पिता भी वह नहीं बने, मैं उन के पास क्यों जाता, चाचाजी?’’

गांव में हमारा पुश्तैनी घर है, जहां हमारा एक दूर का रिश्तेदार रहता है. कभीकभी हम वहां जाते थे और पुराने दोस्तों की खोजखबर मिलती रहती थी. अवतार  के मातापिता से भी मिलना होता था. रामसिंह बच्चा था, जब उसे देखा था. मुझे भी अवतार से यह उम्मीद नहीं थी कि अपने मांबाप के बाद वह अपनी औलाद को यों सड़क पर छोड़ देगा. गलती अवतार के मातापिता से भी हुई, कम से कम वही अपने जीतेजी रामसिंह के नाम कुछ लिख देते.

‘‘किसी का कोई दोष नहीं, चाचाजी, मुझे वही मिला जो मेरी तकदीर में लिखा था.’’

‘‘तकदीर के लिखे को इनसान अपनी हिम्मत से बदल भी तो सकता है.’’

‘‘मैं कोशिश करूंगा, चाचाजी, लेकिन यह भी सच है, न आज मेरे पास ऊंची डिगरी है, न ही जमीन. खेतीबाड़ी भी नहीं कर सकता और कहीं नौकरी भी नहीं. मुझे कैसा काम मिलेगा यही समझ नहीं पा रहा हूं.’’

काम की तलाश में मेरे पास दिल्ली में आया रामसिंह 2 ही दिन में परेशान हो गया था, मैं भी समझ नहीं पा रहा था उसे कैसा काम दिलाऊं, कोई छोटा काम दिलाने को मन नहीं था.

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समाधान: भाग 3- अनुज और अरुण ने क्या निकाला अंजलि की तानाशाही का हल

वह दोनों करीब 2 घंटे बाद लौटे. डाक्टर ने अंजलि को उलटियां बंद करने का इंजेक्शन दिया था. वह कुछ बेहतर महसूस कर रही थी. इसी कारण उस की नाराजगी और शिकायतें  लौटने लगीं.

‘‘बूआ, यह सब लोग 3 घंटे से कहां गायब हैं?’’ उस ने नाराजगी भरे लहजे में अपने  भाई व भाभियों के बारे में सवाल पूछा.

‘‘वे सब सीमा की बड़ी बहन के घर चले गए हैं,’’ मैं ने उसे सही जानकारी दे दी.

‘‘क्यों?’’

‘‘मेरे खयाल से सीमा का मूड ठीक करने के इरादे से.’’

‘‘और मैं यहां मर रही हूं, इस की किसी को चिंता नहीं है,’’ वह भड़क उठी, ‘‘अपने घर वाले मस्ती मारते फिरें और एक बाहर का आदमी मुझे डाक्टर के पास ले जाए…मेरे लिए दवाइयां खरीदे… मारामारा फिरे…क्या मैं बोझ बन गई हूं उन सब पर? और आप क्यों नहीं हमारे साथ आईं?’’

मैंने विषय बदलने के लिए आक्रामक रुख अपनाते हुए जवाब दिया, ‘‘अंजलि, जो तुम्हारे सुखदुख में साथ खड़ा है, उस नेकदिल इनसान को बाहर का आदमी बता कर उस की बेइज्जती करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है.’’

मेरा तीखा जवाब सुन कर अंजलि पहले चौंकी और फिर परेशान नजर आती राकेश से बोली, ‘‘आई एम सौरी. गुस्से में मैं गलत शब्द मुंह से निकाल गई.’’

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‘‘इसे आसानी से माफ मत करना, राकेश. मेरी कोई बात नहीं सुनती है यह जिद्दी लड़की. इसे माफी तभी देना जब यह तुम्हारे कहने से कुछ खा ले. मैं तुम दोनों का खाना यहीं लाती हूं,’’ अंजलि से नजरें मिलाए बिना मैं मुड़ी और कमरे से बाहर निकल कर रसोई में आ गई.

आज सारी परिस्थितियां मेरे पक्ष में थीं. बिस्तर में लेटी बीमार अंजलि न कहीं भाग सकती थी, न जोर से झगड़ा करने की हिम्मत उस में थी. राकेश की मौजूदगी में अंजलि को अपना व्यवहार सभ्यता की सीमा के अंदर रखना ही था. मैं उस के सामने पड़ने से बच भी रही थी. राकेश ने जब भी जाने की इच्छा जाहिर की, मैं ने या तो उसे कोई काम पकड़ा दिया या प्यार से डपट कर चुप कर दिया.

वैसे अंजलि ने पहले जो नाराजगी भरी खामोशी अपनाई हुई थी, वह भी कुछ देर सोने के बाद चली गई.

जागने के बाद अंजलि ने राकेश के साथ एक लोकप्रिय हास्य धारावाहिक देखा. फिर दोनों हलकेफुलके अंदाज में बातचीत करने लगे. मैं ने नोट किया कि अंजलि मुझे देख कर गुस्सा आंखों में भर लाती थी, पर राकेश के साथ उस का व्यवहार दोस्ताना था. ऐसा शायद पहली बार हो रहा था. उन के बीच बने इस नए संबंध को फलनेफूलने का अवसर देने के इरादे से मैं अंदर के कमरे में जा कर लेट गई. मेरी आंख कब लग गई, मुझे पता ही नहीं चला.

करीब 2 घंटे बाद मेरी नींद खुली. अंजलि के कमरे में पहुंच कर मैं ने देखा कि मेरी भतीजी पलंग पर और राकेश पास पड़ी कुरसी में बैठ कर सो रहे थे.

आने की मेरी आहट सुन कर राकेश जाग गया. हम दोनों कम से कम आवाजें पैदा करते हुए ड्राइंगरूम में आ गए.

‘‘तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद, राकेश बेटा. अब मैं संभाल लूंगी, तुम घर जाओ,’’ मैं ने उस की पीठ प्यार से थपथपाई.

‘‘मैं कपड़े बदल कर आता हूं,’’ उस की यह बात सुन कर मैं ने नोट किया कि उस के कपड़ों से उलटी की बदबू आ रही थी.

‘‘अब कल आ जाना. थक भी गए होगे…’’

‘‘नहीं, मैं बिलकुल थका हुआ नहीं हूं, मौसीजी. अंजलि एक उपन्यास पढ़ना चाहती है. मैं वह भी उसे आज ही उपहार में देना चाहता हूं.’’

‘‘वह स्वीकार कर लेगी तुम्हारा उपहार?’’ मेरी आंखों में शरारत के भाव उभरे.

‘‘हां, मौसीजी. उस ने मुझे आज अच्छा इनसान बताया है…अब मैं उस का अच्छा मित्र बनने का प्रयास करूंगा,’’ वह शरमाता सा बोला.

‘‘तब एक काम और करना, बीमार आदमी के कमरे में फूलों का सुंदर गुलदस्ता…’’

‘‘मैं समझ गया,’’ उस ने उत्साहित अंदाज में मुझे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और अपने घर चला गया.

उसे लौटने में करीब 2 घंटे लगे. इस सारे समय में अंजलि अपने भाईभाभियों के व्यवहार की लगातार आलोचना करती रही. उस ने इन सब के लिए अब तक जो भी अच्छा किया था, उन कामों का राग अलापती रही.

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मैं ने जानबूझ कर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की. सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘कई बार अपने काम नहीं आते, अंजलि. इस समस्या का समाधान यही है कि उस दिल के अच्छे इनसान को तुम अपनों की सूची में शामिल कर लो, जो सुखदुख में तुम्हारा साथ खुशीखुशी देने को तैयार है.’’

मेरा इशारा राकेश की तरफ है, इस बात को उस ने बखूबी समझा, पर हमारे बीच राकेश को ले कर कोई चर्चा नहीं छिड़ी. मैं ने इस मामले में अपनी टांग अड़ाने की मूर्खता नहीं की.

राकेश ने बाहर से जब घंटी बजाई, तब मैं ने अंजलि का हाथ पकड़ कर भावुक स्वर में सिर्फ इतना कहा, ‘‘बेटी, अपने भाई और भाभियों के परिवारों से भावी सुख और सुरक्षा पाने की नासमझी मत कर, इन के दिमाग में तेरे बलिदान और त्याग की यादें वक्त धुंधली कर देगा. तू ने जो भी इन सब के लिए किया है, वह वक्त की जरूरत थी. अब उन बलिदानों की कीमत मत मांग. जिंदगी में सुखशांति, सुरक्षा और प्यार भरा सहारा सभी को चाहिए. अपनी घरगृहस्थी बसा ले. यह सब चीजें तुझे वहीं मिलेंगी.’’

मेरी इस सलाह को अंजलि ने गंभीरता से लिया है, इस का एहसास मुझे उस के राकेश द्वारा लाए गुलदस्ते को स्वीकार करने के अंदाज से हुआ.

राकेश के हाथों से गुलाब के फूलों का वह छोटा सा गुलदस्ता लेते हुए अंजलि शरमा उठी थी. उसे किसी आम लड़की की तरह यों शरमाते हुए मैं ने पहली बार देखा था.

उन दोनों को अकेला छोड़ कर मैं ड्राइंगरूम में चली आई. वहां से मैं ने फोन पर सीमा और प्रिया से बातें कीं.

‘‘किला फतह हो गया. अब तुम लौट आओ,’’ मेरी यह बात सुन कर वह दोनों खुशी भरी उत्तेजना का शिकार बन गई थीं.

आज जो भी घटा था वह सीमा, प्रिया और मेरी मिलीभगत का नतीजा था. अंजलि की बीमारी का फायदा उठा कर हम तीनों ने राकेश और उसे पास लाने की योजना पिछली रात ही बनाई थी. अरुण और अनुज इस योजना का हिस्सा नहीं थे. जानबूझ कर ऐसी परिस्थितियां पैदा की गईं कि वह चारों घर से बाहर चले जाएं. सीमा ने अरुण के साथ जबरदस्ती झगड़े को बढ़ाया था. प्रिया ही जोर दे कर अनुज को साथ में घर से बाहर ले गईर् थी.

अंजलि राकेश के साथ अपनी घर- गृहस्थी बसा लेगी, इस आशा की जड़ें आज काफी मजबूत हो गई थीं. घर में बढ़ते झगड़ों की समस्या को हल करने की दिशा में हम ने सही कदम उठाया है, इस का भरोसा मेरे मन में पक्का होने लगा था.

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समाधान: भाग 2- अनुज और अरुण ने क्या निकाला अंजलि की तानाशाही का हल

अंजलि खुद को घर की मुखिया मानती थी. हर किसी को आदेश देना उसे अपना हक लगता. सब उस के ढंग से उस के कहे पर चलें, यह इच्छा उस के मन में गहरी जड़ें जमाए हुए थी.

सीमा और प्रिया बाहर से आ कर परिवार का अंग बनी थीं. अंजलि सब की शुभचिंतक है, इस का एहसास सभी को था, पर उस के तानाशाही व्यवहार के चलते घर का माहौल तनावपूर्ण रहता. पूरी स्थिति अनुज की शादी के बाद ज्यादा बिगड़ी थी. सीमा और प्रिया को एकदूसरे के सामने अंजलि से दबनाडरना जरा भी नहीं भाता था. बड़ी ननद का व्यवहार दोनों को धीरेधीरे असहनीय होता जा रहा था.

घर में बढ़ती कलह व असंतोष की खबरें मुझे रोज ही फोन पर मिल जाती थीं. घर की तीनों स्त्रियां मुझे अपनेअपने पक्ष में करने के लिए एक ही घटना को अलगअलग रंग दे कर सुनातीं. दोनों भाई इन परिस्थितियों से बेहद दुखी व परेशान थे.

अपने दिवंगत भैयाभाभी के परिवार को यों दुखी, परेशान व तनावग्रस्त देख मैं अकसर आंसू बहाने लगती. इस समस्या के समाधान की जरूरत मुझे शिद्दत से महसूस होने लगी थी.

समस्या का समाधान करीब 3 महीने पहले राकेश के रूप में सामने आया था. वह मेरी बहुत पुरानी सहेली सुषमा का बड़ा बेटा था. उस की पत्नी सड़क दुर्घटना में करीब 3 साल पहले चल बसी थी. कोई संतान न होने के कारण राकेश बिलकुल अकेला रह गया था. अपने दोनों छोटे भाइयों के परिवारों के साथ रहते हुए भी अकेलापन दर्शाने वाली उदासी उस के चेहरे पर बनी ही रहती थी.

मेरी समझ से जीवनसाथी को ढूंढ़ निकालना अंजलि और राकेश दोनों की भावी खुशियां व सुखशांति सुनिश्चित करने के लिए जरूरी था. इसी सोच के तहत मैं ने अलगअलग बहाने बना कर राकेश और अंजलि की आपस में मुलाकात कई बार कराई थी.

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आज भी राकेश आएगा, मुझे पता था. कल शाम मैं ने ही फोन पर अंजलि को बुखार होने की सूचना दी थी. राकेश अंजलि में दिलचस्पी ले रहा है, यह मेरी और दूसरे लोगों की आंखों से छिपा नहीं था.

लेकिन अंजलि की प्रतिक्रिया से मुझे खासी निराशा मिली थी.

‘‘मीना बूआ, किस कोण से यह राकेश आप को मेरे लिए उपयुक्त जीवनसाथी लग रहा है?’’ कुछ दिनों पहले ही अंजलि ने बुरा सा मुंह बना कर मुझे अपनी राय बताई थी, ‘‘मैं भी कोई रूप की रानी नहीं हूं, पर उस की पर्सनेल्टी तो बिलकुल ही फीकी है.’’

‘‘मुझे तो ऐसा नहीं लगता…लंबा कद है…काना, बहरा, लंगड़ा या गूंगा नहीं है. हां, दुबलापतला जरूर है पर शादी के बाद सुकड़े लड़कों की अकसर तोंद निकल आती है,’’ मैं ने राकेश के पक्ष में उसे समझाने का प्रयास शुरू किया.

‘‘मुझे न किसी तोंदू में दिलचस्पी है, न भोंदू में.’’

‘‘वह सीधा है, भोंदू नहीं. पूरे घर में अपनी बीमार मां का वही सब से ज्यादा ध्यान रखता है.’’

‘‘मैं उस से बंध गई तो उस की यह जिम्मेदारी भी मेरे गले पड़ जाएगी. उस के घर में 10  लोग तो होंगे ही. मेरी अब वह उम्र नहीं रही कि इतने बड़े संयुक्त परिवार में जा कर मैं खट सकूं.’’

‘‘हम किसी दूसरे के काम नहीं आएंगे…किसी का सहारा नहीं बनेंगे तो हमारे काम भी कोई नहीं आएगा,’’ मेरे इस तर्क को सुनने के बाद अंजलि कुछ उदास जरूर हो गई पर राकेश से संबंध जोड़ने में मैं उस की दिलचस्पी पैदा नहीं कर पाई.

मैं राकेश को ले कर जब अंजलि के कमरे में पहुंची, तो वह खस्ता हालत में नजर आ रही थी. उस का सिर पहले ही दर्द से फट रहा था. अब उलटियां भी शुरू हो गईं.

उन दोनों के बीच औपचारिक बातचीत शुरू हुई और मैं पलंग पर लेटी अंजलि के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखने लगी.

कुछ देर बाद मैं ने यह काम राकेश को सौंपा और अदरक वाली चाय बनाने के लिए रसोई में चली आई. अंजलि के अंदर शायद इतनी ताकत नहीं थी कि वह राकेश द्वारा पट्टियां रखे जाने का विरोध कर पाती.

हमारे बहुत जोर देने पर अंजलि ने दो घूंट चाय ही पी थी कि फिर उस का जी मिचलाने  लगा और 2 मिनट बाद उलटी हो गई.

‘‘इस का बुखार कम नहीं हो रहा है. कोई लौट आता तो इसे डाक्टर को दिखा लाते,’’ मेरी आवाज चिंता से भरी थी.

‘‘हम दोनों ले चलते हैं इन्हें डाक्टर के पास,’’  राकेश ने सकुचाए अंदाज में सुझाव पेश किया.

‘‘गुड आइडिया. मैं कपड़े बदल कर आती हूं,’’ अंजलि के कुछ कहने से पहले ही मैं कमरे से बाहर निकल आई थी.

अंजलि को राकेश की उपस्थिति असहज बना रही थी. वह उस की किसी भी तरह की सहायता लेना नहीं चाहती थी पर कमजोरी ने उसे मजबूर कर दिया था.

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मेरी एक आवाज पर राकेश भागभाग कर काम कर रहा था. घर बंद करने में उस ने मेरी सहायता की. अंजलि को सहारा दे कर बाहर लाया. फिर डाक्टर के क्लिनिक तक जाने के लिए 2 रिकशे लाया.

‘‘मुझ से अंजलि नहीं संभलेगी,’’ ऐसा कहते हुए मैं ने राकेश को अंजलि के साथ रिकशे में बिठा दिया.

इस बार बीमार अंजलि की आंखों में मैं ने नाराजगी के भाव साफ देखे, पर उस की परवा न कर मैं दूसरे रिकशे की तरफ चल दी.

उन का रिकशा चल पड़ा. सड़क  के कोने पर जा कर जब वह मेरी आंखों से ओझल हो गया तो मैं ने अपने रिकशा वाले को 5 रुपए दे कर खाली वापस भेज दिया.

मेरा राकेश और अंजलि के साथ क्लिनिक तक जाने का कोई इरादा न था. ताला खोल कर मैं घर में घुसी और टीवी खोल कर देवआनंद की सदाबहार फिल्म ‘ज्वैल थीफ’ देखने का आनंद लेने लगी.

राकेश से अंजलि हर बार कटीकटी सी मिलती आई थी. मैं ने इस बार उन दोनों का काफी समय एकसाथ गुजरे, इस का इंतजाम कर दिया था. अब आगे जो होगा देखा जाएगा, ऐसा सोच कर मैं आराम से फिल्म देखने में मग्न हो गई.

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दूसरी पारी: भाग 3- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

महीने के इन 2 दिनों में पिता से मिलना बेटे के लिए ‘मूल्यवान भीख’ के समान लगती है. दीपा को अब समझ आ रहा है कि वह… कहीं तो गलत थी. लोगों ने बहुत समझाया था, ‘दीपा, सोच ले. जिस सुरंग में बेटे को ले कर सफ़र पर जा रही है उस के दूसरे छोर पर ख़ुशी का सूरज है भी या नहीं, कौन जाने…’

पर उस ने किसी की न सुनी. सिर पर जनून सवार था, ‘अलग रहूंगी.’

आज 2 साल बाद इस तरह एक छत के नीचे क़ानून के दायरे में रहना, संभवतया मजबूरी है. यह कब तक चलेगा, नहीं जानती? वह मर्द, जिसे वह पति कहती थी, से बात करते झिझकती है, सामना करते घबराती है. बेटा, दोनों के बीच पहले की तरह बातचीत हो, मन से चाहता है.

ये बातें सोमू भी समझता है. दोनों के बीच संभवतया समझौतों की दीवार है. तलाक़ के बाद उसे यह नया जीवन जरा भी रास नहीं आ रहा. रोहिणी में 2 कमरों के फ्लैट में निपट अकेला रहता है.

शराब बिलकुल छोड़ दी थी. घर में चाय तक नहीं बनती. अब खाना होटल से आता है. घर में सफ़ाई हफ्ते में एक बार होती थी. कुरसी पर कपड़ों का ढेर लगा होता है. कामवाली कपड़े धो व सुखा कर प्रैस भी करा लाती. कई बार टोक भी देती, ‘साब जी, प्रैस किए कपड़े तो संभाल लिया करो. और अपने को भी संभालो.’ फिर हंस पड़ती, ‘बहू जी को ले आओ. क्यों अकेले रहते हो?’

सोमू क्या कहता? चुपचाप बाथरूम में जा कर रो लेता. वह क्या करे? सबकुछ उस के हाथ से निकल चुका है.

आज 2 महीने से लौकडाउन के कारण सोमू यहां अटका है, अनवान्टेड गेस्ट की तरह.

घर में सारा दिन टीवी चलता है. पहले कभी कनक टीवी चलाता था, तो मम्मी घूर कर बेटे को देखती थी. वह घबरा कर टीवी ही बंद कर देता था. लेकिन अब ऐसा बिलकुल नहीं होता. टीवी का वौल्यूम फ़ुल होता है. कनक हैरान है, मम्मी अब चिल्लाती नहीं है. पर क्यों? कनक ने अनुभव किया है मां अब पहले की तरह बातबात पर ग़ुस्सा नहीं करती. मम्मी बदल रही है. अब पापा की तरफ़ देख कर हंसती भी है. माहौल सहज होता जा रहा है. जिसे सभी ने अनुभव किया है. यह बात अलग है कि पहले की तरह दोनों खुल कर बहस नहीं करते.

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एक दिन सुमित्रा बोली, “बाई सा, लगता है साब ने दारू छोड़ दी है.”

“लगता तो है. चलो, अच्छा है,” दीपा से ऐसा सुनना सुमित्रा को भा गया. भूली नहीं है वह वो सब…

यह दारू ही तो थी जिस ने दोनों के बीच दीवार खींच दी थी.

पिछले 2 महीने से कनक हर रात पापा से चिपट कर सोता है पर दीपा आधी रात में अपने बिस्तर पर ले आती है. एक रात जब सोते कनक को ले जाने आई तो सोमू ने उसे ऐसा करने से मना किया, ‘आज इसे यहीं सोने दें. सुबह देखिएगा क्या होता है?’

वह चुप चाप वापस अपने कमरे में आ कर सो गई.

सोमू ने जो कहा था वही हुआ. बिस्तर से उठते ही कनक ख़ुशी से चिल्लाया, “ये…मैं पूरी रात कल पापा के पास सोया था. वाह, मुझे रोज़ाना मम्मी आधी रात में अपने बिस्तर पर शिफ़्ट कर देती थी, कल ऐसा नहीं हुआ. माय स्वीट मम्मी, थैंक्यू. मैं पापा के पास ही सोना चाहता हूं.”

“देखिए, मैं ने यही तो कहा था, कितना ख़ुश है,” सोमू उस की तरफ़ देख कर मुसकरा पड़ा, बोला, “थैंक्यू.” दीपा को भी अच्छा लगा था.

औपचारिकता की इसी दीवार को ढाने के लिए सोमू एड़ी से चोटी तक का जोर लगा चुका है. वह दिल से चाहता है सब पहले सा हो जाए. पर ‘अहं’ है जो दोनों को रोकता है.

फिर भी उम्मीद का दामन उस ने नहीं छोड़ा है. पानी को लकड़ी मार कर 2 टुकड़ों में बांटा नहीं जा सकता.

पानी तो पानी में ही मिलेगा, यह वह जानता है.

एक रात, सोतेसोते सोमू चौंक पड़ा. कनक का तन गरम था. नहीं… हो सकता है, वैसे ही मेरा भ्रम है.

कुछ देर बाद लगा तेज़ बुखार से कनक का तन तप रहा है. घबरा गया था सोमू. कहीं…करोना…?

बारबार सांस की गति पर ध्यान जा रहा था. दीपा को उठाऊं? पर कैसे? वह तो अंदर से दरवाज़ा बंद कर के सोती है. फ़ोन किया. “कनक को तेज़ बुखार है,” उस की आवाज़ में घबराहट थी.

कुछ पल में दीपा कनक के पास थी. बेटे को देख वह भी घबरा गई. निढाल पड़े बेटे को देख अपने को रोक न पाई. सब भूल कर सोमू के क़रीब आ कर रोने लगी, “प्लीज़ सोमू, किसी डाक्टर को जल्दी से फ़ोन कर के बुलाओ.”

और न चाहते हुए भी भावुक हो उस ने सोमू को कस कर पकड़ लिया.

सोमू भी अपने को न संभाल सका. हाथपैर उस के भी कांप रहे थे. “ठहरो, मेरा एक डाक्टर मित्र यहीं पास में रहता है. उस से फ़ोन पर बात करता हूं. इस वक्त कहीं किसी हौस्पिटल में हमें कोई भी तवज्जुह नहीं देगा. यह मेरा बचपन का यार है. जरूर सहायता करेगा.” डाक्टर सुरेश को हाल बताया तो उस ने दवा बता कर कहा, “माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखो जब तक बुखार 100 पर न आ जाए. यह सीजनल है. दवा से कम न हो, तो मुझे बताना. सुबह कोरोना टैस्ट करा लेना.”

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“दीपा, तुम कनक के माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखो. मैं फ़ार्मेसी से दवा ले कर आता हूं.”

दवा देने के साथ माथे पर ठंडी पट्टी से कनक का बुखार कम हो गया. वह सो गया था. पर दीपा अभी भी अपने पल्लू से आंसू पोंछ रही थी.

सामने बैठे सोमू को देख कर सोच रही थी- आज यह न होता तो क्या करती.

पूरी रात दोनों बेटे के सिरहाने से नहीं हटे थे. “आप थक गए होंगे, कुछ देर सो लें. सुबह इसे ले कर कोविड टैस्ट के लिए जाना है.”

“नहीं, मैं यहीं ठीक हूं. मेरी चिंता न करो.”

कुछ देर बाद दीपा ने देखा, सोमू कुरसी पर सिर टिका कर सो गया था. कितने बरसों बाद यों, बच्चे की तरह सोते देखा था. कितना प्यारा दिखता है. आज उसे वह पल याद आ रहा था जब कनक का जन्म हुआ था. सोमू ने बड़े प्यार से कहा था, ‘यह कनक है. हमें कुदरत ने हमारे जीवन का सब से क़ीमती तोहफ़ा दिया है. हमें जीवनभर इस की क़द्र करनी है. वादा करो, हम कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिस से इसे दुख हो.’

आज की इस घटना ने बहुतकुछ सोचने को मजबूर कर दिया है. क्या दोनों ही उस वादे को भूल गए…?

बाई सा, अपना न सही, इस बच्चे का तो ख़याल करो. बेटा, साब को कितना प्यार करता है. और आप उन से बच्चे को दूर कर रही हो? यह बच्चे के साथ अन्याय नहीं है? न बाई सा, आप सही नहीं कर रहे हो. तब उस ने सुमित्रा को ‘अनपढ़गंवार’ कहा था. आज लगता है वही सही थी, दीपा गलत!

कनक का करोना टैस्ट नैगेटिव आया. सब ख़ुश हैं. इस खुशी में सोमू की मनपसंद मखाने की खीर दीपा ने बनाई है. कनक बोला, ‘पापा ने तो 2 कटोरी भर कर खाई और मां की प्रशंसा भी की.

अब कई बार दोनों साथ बैठ कर बातें भी करते हैं. बातों में कभी कुछ सीरियस भी होता है.

पर सब से अहम बात है, बच्चे के लिए मम्मीपापा दोनों की उपस्थिति ज़रूरी है. यह सच दोनों ने मान लिया है. परंतु इस सच को मुंह से कहने से पता नहीं क्यों दोनों झिझकते हैं. आसमान में उड़ते परिंदों को उड़ते देख सोचते हैं, इन्हें भी तो देखो… बच्चा जब तक उड़ना सीख नहीं जाता, साथ उड़ते हैं. उसे आसमान की राह दिखाने में दोनों की बेजोड़ मेहनत होती है.

लेकिन, मनुष्य कितना स्वार्थी है. अपने अहं और स्वार्थ के वश अपनी असली ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ लेता है. लानत है हम पर. कनक की बीमारी के बाद से सोमू और दीपा दोनों के बीच की दीवार हौलेहौले ढहने लगी है.

लौकडाउन ख़त्म हो रहा है. क़ानून के तहत सोमू को वापस जाना पड़ेगा. उस का औफ़िस खुल गया है.

“मुझे अब जाना होगा.”

“पापा, कहां जा रहे हो? मैं भी आप के साथ चलूंगा.”

“नहीं बेटा, मिलूंगा एक हफ्ते बाद,” कहते हुए कनक के गाल पर चुम्मी दी.

“नहीं, पापा रहो हमारे साथ ही रहो,” पापा से लिपट कर कनक सिसकी भरने लगा.

सुमित्रा सामने खड़ी मार्मिक दृष्य से अविभूत है. दीपा भी. वह तो मुंह फेर कर खड़ी हो गई थी. इस दृष्य का सामना करने की हिम्मत न थी उस में. अचानक किसी निर्णय के साथ पलटी, “बेटा, पापा को जाने दो. वैसे, पापा हमें माफ़ कर दें तो हम उन के साथ रोहिणी चल सकते हैं, पर शर्त है, उन्हें हमारे साथ वापस आना होगा.”

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“मम्मी, क्या कहा?” हैरान कनक मां को विस्फारित नेत्रों से देख रहा था.

सोमू को भी कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

यानी, मम्मी ने भी हमे माफ़ कर दिया.

दीपा ने मुसकरा कर उस को हाथों से पकड़ा. दीपा की आंखों से दो आंसू ढलक कर उस के गालों पर आ गए थे.

कनक ख़ुशी से- “ये…” कहता हुआ गाड़ी में बैठ गया था.

बालकनी में खड़ी सुमित्रा बाई सा, जो बड़ी देर से सब का हिस्सा बनी हुई थी, हाथ जोड़ कर मन ही मन कह रही थी, ‘हे माताजी महाराज, बहुतबहुत शुक्रिया. यह लौकडाउन ने दुख तो बड़े दिए पर ऐसे अंत के वास्ते हज़ार बार लौकडाउन लगे, तो भी कोई दुख नाहिं.

दूसरी पारी: भाग 2- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

सोमू की गाड़ी लगभग एक फ़र्लांग ही चली थी कि आगे से होमगार्ड वाले ने गाड़ी रोकने का सिगनल दिया.

..”कहॉ जाना है साब?”

“रोहिणी.”

“लौट जाइए. पूरे दिल्ली में आवाजाही बंद है. मैं जाने दूंगा तो आप को आगे रोक दिया जाएगा. बेहतर है वापस चले जाएं.”

समझ गया है, आगे सारे रास्ते बंद ही मिलेंगे. टीवी पर भी यही कह रहे थे- ‘कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें.’ अब जाना पड़ेगा वापस. दीपा के पास जाना तो बिलकुल नहीं चाहता, उस को बापबेटे का यों मिलना जरा भी नहीं भाता. वह तो कोर्ट की परमीशन ले कर मिलने आता है. दीपा कुछ कर नहीं सकती.

सोमू यहां आसपास काफ़ी लोगों को जानता तो है पर वह किसी के घर जाना नहीं चाहता. सब को सारी कहानी बतानी पड़ेगी. इधरउधर गाड़ी घुमाना बेकार है. चलता हूं वापस, वहीं.

कैसा अजीब सा लगेगा उस घर में दोबारा पहुंच कर. जबकि कभी यह घर उस का अपना घर था. जैसे शाम ढलते ही चिड़िया अपने घोंसले में लौटने को उतावली होती है, कभी वह भी उड़ान भरता था. गाड़ी औफ़िस से उड़ाता हुआ लाता था. आज गाड़ी उधर मोड़ना भी अच्छा नहीं लग रहा था. इस के सिवा कुछ और विकल्प है भी तो नहीं.

गाड़ी मोड़ ली.

“अरे पापा, वाह, आप वापस आ गए!” कनक को हैरानी हो रही थी. दीपा को कोई हैरानी न थी. शायद, उसे पता था, यही होगा.

सोमू को वापस आया देख सब से ज्यादा ख़ुश था कनक, मन की मुराद पूरी जो हो गई थी.

और दोंनों बड़ी रात तक लीगों टौयज जोड़ते रहे थे. ‘पापा-पापा’ की गूंज बहुत देर तक घर में गूंजती रही थी.

उस रात दोनों बापबेटे साथ में चिपक कर सोए थे.

आधी रात को सोमू को लगा, कोई बैड के पास खड़ा है.

“दीपा, आप?”

“हां, कनक के साथ सोने में आप को दिक़्क़त हो रही होगी,” दीपा ने सीधेसीधे कह दिया.

सोमू ने कहना चाहा, ‘नहीं रहने दो,’ पर कुछ न बोला. पूरा दिन बीत गया, दीपा ने सोमू से कोई बात नहीं की.

इस वक्त जी चाहा पूछे, कैसी हो दीपा.

नहीं, कुछ भी नहीं पूछेगा. क्या दीपा को नहीं पूछना चाहिए था- सोमू, कैसे जीवन कट रहा है?

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तलाक़ हुए 2 साल बीत गए हैं. कभी फ़ोन करना तो दूर, कनक से मिलने आता हूं तो मेरे यहां पहुंचने से पहले ही निकल जाती है.

कनक की पढ़ाईलिखाई व स्कूल से जुड़े सवालों का हमेशा एक ही जवाब मिलता- ‘ठीक है,’ बस. कितना जी करता है, कुछ कहे, कुछ पूछे. मकान का पिछला हिस्सा कमज़ोर हो गया है, ठीक कराना है. कौन खड़ा हो कर सब देखेगा… मैं यहां आ कर, चला जाता हूं. जैसे एक विज़िटर हूं. यह घर सोमू के नाम था. अब दीपा के नाम है. ये सब किन हालात में हुआ, यह एक अलग कहानी है.

दीपा सोए बेटे को कंधे पर उठा कर ले जा चुकी है. वह बिस्तर पर लेटा कड़ियां गिन रहा है. नींद आंखों से कोसों दूर हो गई है.

एक हफ्ते के लिए लौकडाउन लगा है. एक दोस्त बता रहा था, औफ़िस भी बंद है. हो सकता है एक हफ्ते बाद हमें घर से काम करने को कहा जाए. कैसे, क्या होगा… सोमू परेशान है.

लौकडाउन चालू है. 4 दिन बीत गए हैं. कपड़ों को ले कर परेशान है सोमू. कुछ अंदर के कपड़े पुरानी अलमारी में पड़े हैं, उसे याद है. सुमित्रा बाई सा को जरूर याद होगा. उस से पूछा तो हंस कर बोली, “साब, मुझे याद है. कुछ कपड़े तो अभी भी रखे हैं पर कपड़े छोटे न हो गए होंगे? 2 साल में आप की तोंद निकल आई है.”

बाई सा की बात पर कनक खिलखिला कर हंसा. मुह फेर कर दीपा भी मुसकरा दी थी. और सोमू शरमा कर कमरे में चला गया था.

पुराने कपड़ों का बक्सा खोला तो अंदर से एक नाइट सूट और 2 पैंटें भी निकल आईं. “साब, इन पैंटों की टांगें काट कर बरमूडा बना देती हूं. आप को कहीं जाना तो है नहीं. घर में सब चलेगा.”

लो जी, बाई सा ने बरमूडा बना डाला. पापा को बरमूडा में देख कनक ने खूब एंजौय किया.

बाथरूम में जा कर दीपा भी हंसी थी.

सोमू का ज्यादातर समय कनक के साथ बीतता है. वर्क फ्रौम होम शुरू होने से नए तरीक़े से हर कोई बिजी हो गया है.

बाई सा सुबह 8 बजे ही नाश्ता मेज पर पहुंचा देती है. सोमू, दीपा और कनक नाश्ता कर के अपनेअपने काम में लग जाते हैं. कनक की औनलाइन क्लास हो रही है.

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सोमू और दीपा अपनेअपने कमरे में लैपटौप खोल कर काम में लग जाते हैं. उस के आधे घंटे बाद कनक की क्लास शुरू हो जाती है. शुरू में कनक को औनलाइन पढ़ाई करने में बहुत दिक़्क़त आती थी. बहुत जल्दी खीझ जाता था. दीपा को भी समझ नहीं आता पढ़ाई के इस नए तरीक़े से कैसे बेटे को अवगत कराए. एक रोज सोमू ने कनक से कहा, “बेटा, मैं आप की हैल्प करूं?”

“यस पापा.”

पता नहीं कौन सा मंत्र उस ने कान में फूंका कि वह हैरान रह गई.

“अब तो होम वर्क भी पापा ही कराएंगे.” यह सुन कर दीपा मन ही मन ख़ुशी महसूस करती है.

एक दिन सोमू बोला, ” बाई सा, मैं घर का राशन ले आऊंगा. सुबह ब्रैड, बटर, सब्ज़ी और जरूरत का सामान लाने की ज़िम्मेदारी मुझ पर है. लौकडाउन जल्दी खुलने वाला नहीं है. मेम सा से उन की दवाइयों की लिस्ट ले कर मुझे पकड़ा दो. एक ही बार में सब ले आऊंगा.”

दीपा को सुन कर अच्छा लगा था. ‘बहुत ज़िम्मेदार हो गए हो सोमू.’ घर का सामान लाने पर दोनों की हमेशा लड़ाई होती थी. यह बात उस ने कोर्ट में जज साहब के सामने भी कही थी. चलो, कुछ बदलाव तो आया.

घर की छोटी से छोटी ज़िम्मेदारी को ले कर सोमू अब सजग है. बाई सा का भी हाथ बंटा देता है. बग़ैर पूछे बहुत से काम अपनेआप करते देख बाई सा मन ही मन मातारानी को धन्यवाद देती. यह जिम्मेदारी क्या सदा के लिए साब के कंधों पर नहीं आ सकती… कोई नहीं, वक्त का इतंजार करना चाहिए. ख़ुश है बाई सा इस नए माहौल से. पर सब से ज्यादा ख़ुश कनक है. शनिवार व इतवार रिलैक्स डेज हैं पूरे घर के लिए. कनक का शिड्यूल तय है. सुबह जल्दी नाश्ता कर के पापा के साथ खुले आसमान में पतंग उड़ाई जाती है. ढेरों परिंदों को ख़ूबसूरती से उड़ते देख सोमू को भी बहुत अच्छा लगता है.

परिंदों के झुंडों को बेख़ौफ़ उड़ते सभी ने पहली बार देखा था इस लौकडाउन में. कभी छत पर न आने वाली दीपा भी इस जादू से खिंची चली आती है. यहां छत से सामने के फ्लैटों की छतों पर भी लोग पतंगों का आनंद ले रहे हैं. यह अनुभव बचपन को उस के सामने ला कर खड़ा कर देता है.

दीपा को याद आता है, जब सोमू और वह छत पर छिपछिप कर मिलते थे. तब दीपा व सोमू इसी बिल्डिंग में ऊपरनीचे के फ्लैट में रहते थे. स्कूल अलग था पर क्लास एक ही थी. आज वह बीते कल को याद कर रही है.

प्यार को किसी रितु का इतंजार नहीं होता. फिर भी हर दिन दोनों को उसी प्यारे चेहरे का इतंजार रहता है जिसे वे बेहद चाहते हैं. दोनों मिले, हर दिन मिले और फिर लगने लगा कि दोनों एकदूसरे के बिना रह नहीं सकते.

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सो, दोनों ने शादी कर ली. उन की मुहब्बत पर समाज ने मुहर लगा दी. और अब छत की जरूरत न थी.

एक साल बाद कनक का जन्म हुआ. दीपा सबकुछ भूल कर बेटे में खो गई. पति को कनक से बेपनाह प्यार था. पर न जानें क्यों उसे लगा, जैसे सोमू घर और बच्चे की ज़िम्मेदारी से दूर जाता जा रहा है. वह चिड़चिड़ा होता जा रहा था. अकसर सब्ज़ी की कटोरी से दीवार पर चित्रकारी होती उस के ग़ुस्से का. या दारू के गिलासों से दीवारों पर निशाना लगाया जाता. छोटीछोटी बात पर दोनों झगड़ पड़ते.

सोमू की शराब बढ़ती जा रही थी तो, झगड़े भी.

…और फिर जो न होना था, हो गया- तलाक़! एक भयानक हादसा. शुरू में दोनों को लगा, यही ठीक है, कहीं शांति तो है. पर कैलेंडर पर तारीख़ बदल जाने से कुछ नहीं होता है. कल क्या होगा, यह चिंता वक्त के साथ उसे खा रही थी. नई जिदगी में बच्चे का उतरा चेहरा देख समझ जाती, पिता से दूर रह कर बेटा ख़ुश नहीं है.

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दूसरी पारी: भाग 1- क्यों स्वार्थी हो गए मानव के बच्चे

लेखिका- मृदुला नरुला

“कितनी अजीब बात है, मुझे औफ़िस जाना है और सोमू अभी तक नहीं पहुंचा. आज रोड पर भीड़ भी खास नहीं है.”

“बाई साब आते ही होंगे. आप को औफ़िस के लिए लेट हो रहा है, तो चली जाओ. घर पर कनक के साथ मैं तो हूं.”

“ठीक है, मैं जा रही हूं. और सुनो, हमेशा की तरह लंच वही बनाना जो दोनों को पसंद है. मैं शाम तक आऊंगी.”

दीपा के घर से जाते ही सुमित्रा ने घर का दरवाज़ा बंद कर लिया. कनक अपने खेल में व्यस्त है. 8 साल का कनक आज बहुत उत्साहित है. खेल छोड़ कर बारबार खिड़की के बाहर झांक लेता है.

आज उस के पापा उस से मिलने आ रहे हैं. महीने में सिर्फ 2 बार आते हैं. कनक को बेसब्री से पापा का इतंजार रहता है. पर मां को क़तई भी सोमू का इतंजार नहीं होता. यह बात उसे अच्छी नहीं लगती. आज भी उस ने गाड़ी की चाबी उठाती मां को टोका था.

“मम्मी, रुक जातीं. पापा से मिलने के बाद भी तो औफिस जा सकती हो,” बड़ी हिम्मत की थी कनक ने, जानता था, क्या जबाब मिलेगा.

“वह बेटा, स्पैशल मीटिंग है औफ़िस में. सो, फिर कभी,” कहती हुई दीपा ने उस के गाल पर किस किया और निकल ली थी. मां को बेटे ने ऐसे देखा जैसे कुछ गलत कर बैठी है.

कनक ने गाल को कस कर रगड़ा और मुंह मोड़ कर खेल में अपने को व्यस्त करने का प्रयत्न करने लगा. सुमित्रा से कुछ भी छिपा नहीं है. पिछले 10 वर्षों से इस घर में काम कर रही है वह. उस का पति राघव सोमू साब का ड्राइवर था. 6 वर्षों पहले उस की एक कार दुर्घटना में मौत हो गई थी. तब से सुमित्रा यहीं, इन लोगों के बीच घर के सदस्य की तरह रहती है. राघव के जाने के बाद सोमू साब ने ही उस से कहा था, “किसी के जाने से दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती. जब तक चाहो यहां रहो, यह घर पहले भी तुम ने संभाला था, अब भी तुम को ही संभालो. कनक की ज़िम्मेदारी अब तुम पर है.”

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इस बीच, बहुतकुछ बदल गया. सांब और दीपा बाई सा के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था. बात बढ़ते बढ़ते तलाक़ तक पहुंच गई.

कनक की कस्टडी मां दीपा को मिली. सुमित्रा ने बहुतकुछ देखा है. पर सब से ज्यादा दुख उसे इस मासूम को ले कर है. आज तक वह दिन नहीं भूली जब पापा से अलग होने के बाद कनक बुरी तरह रोया था. मां के साथ कोर्ट से बाहर निकलते हुए सहम गया था वह. ‘….मम्मा, पापा को भी साथ ले चलो. हम पापा और आप सब साथ रहेंगे. सुमित्रा बाई सा, आप ही पापा को ले आओ. आप के बुलाने से जरूर आ जाएंगे, मम्मी से तो नाराज़ हैं वे.’

बच्चे को इस तरह बिलखते और लोगों ने भी देखा था. सब की आंखें नम थीं. उस रोज कोर्ट से लौट कर किसी ने भी खाना नहीं खाया था. एक लंबी चुप्पी कई हफ्ते तक घर में पसरी रही थी. कनक की इतंजार करती आंखें सुमित्रा को आज भी याद है.

तब से सोमू साब महीने में दोबार कनक से मिलने आते हैं. जिस दिन पापा आते हैं उस दिन वह ख़ुश रहता है. जितनी देर सोमू बेटे के साथ रहते हैं, लगता है उस हर क्षण को जी लेना चाहता है वह. सुमित्रा भी साब व बेटे को हंसता, खिलखिलाता देख ख़ुश हो जाती है. पर वह जानती है कि यह खुशी मात्र 5 घंटे की है. फिर घर मे लंबा सन्नाटा पसर जाएगा जैसे टीवी पर चलतेचलते लाइट औफ़ हो जाती है.

“बाई सा, पापा की पसंद के सूखे आलू बनाए हैं न. देखना, 10 मिनट में पापा आ जाएंगे, फिर हम खूब खेलेंगे.”

कि तभी किर्रकिर्र घंटी बज उठी.

दरवाज़ा सुमित्रा ने खोला, “अरे, बाई सा, आप!”

दीपा को सामने देख हैरान थी. “मम्मा, आप? और पापा नहीं आए?” कनक मां को देख ख़ुश तो था पर सोच रहा था, ‘पापा भी आते ही होंगे.’

आज तो मम्मीपापा दोनों घर पर होंगे. ऐसा अवसर इतने सालों में कभी नहीं आया. हां, कई बार पापा घर में एंट्री लेते हैं, तो पापामम्मी आपस में हैलो का आदानप्रदान कर एकदूसरे को अवौइड कर के निकल जाते हैं.

कनक अब छोटा नहीं है. वक्त व हालात ने उसे बहुतकुछ सिखा दिया है तथा बहुत बड़ा बना दिया है.

मम्मी व पापा का एकदूसरे को ‘पहचानने से इनकार करना’ उसे बेहद चुभता है.

सुमित्रा बाई सा भी सब समझती है. लेकिन आज पापामम्मी दोनों घर पर होंगे. कनक कई बार सोचता है- मम्मीपापा पहले तो साथ रहते थे, पता नहीं अब पापा किसी और जगह रहते हैं. लेकिन ऐसा क्यों? दोनों आपस में बात भी नहीं करते. कभी सोचता है, मम्मी से पूछे, पर डरता है कहीं ऐसा न हो कि महीने में 2 बार पापा आते हैं वह अवसर भी उस से छिन जाए. नहीं, वह किसी से कुछ नहीं पूछेगा.

“मम्मी, आप लौट आईं, क्या हुआ?” वैसे, मम्मी की उपस्थित उसे भा रही है.

“मीटिंग कैंसिल हो गई. चौराहे तक पहुंची थी कि पुलिस वाले ने गाड़ी रोक कर कहा, ‘मेम सा, वापस जाएं, आज सभी औफ़िस बंद हैं.” मम्मी यह बता ही रही थी कि तभी डोरबैल बजी.

“ये तो पापा ही हैं. हमेशा, किर्र…किर्र 2 बार बैल बजाते हैं. पापा आ गए, पापा आ गए.”

स्टूल पर चढ़ कर दरवाज़ा खोला और हमेशा की तरह, ‘मेरे पापा’ कहता सोमू से लिपट गया वह.

रसोई की खिड़की के पार से बेटेबाप का मधुर मिलन दीपा ने देखा और मुह फेर लिया. जानती है, दोनों एकदूसरे से मिलने को कितने बेसब्र होते हैं. पर क्या करे. अब सबकुछ उस के हाथ से निकल चुका है. बेटा किसी भी हाल में पिता से दूर होना नहीं चाहता. इधर सुमित्रा से सोमू बता रहा था, “आज मुझे चौराहे पर पुलिस वाले ने रोक कर कहा, ‘बाबू जी, आगे आप नहीं जा सकते. शहर पूरा बंद है. जहां से आए हैं वहीं वापस चले जाएं.’ मैं ने कहा, मैं अपनी मां की दवा ले कर वापस घर ही जा रहा हूं. बाई सा, आज झूठ न बोलता तो यहां न पहुंच पाता. फिर हम अपने बेटे से कैसे मिलते?” और मुसकरा कर साथ लाया गिफ़्टपैक कनक को पकड़ा दिया.

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“हां पापा, लौट जाते तो मैं ग़ुस्सा हो जाता.” वह गिफ़्ट खोल कर बड़ी देर तक खेलता रहा.

उस दिन कनक को बहुत अच्छा लगा क्योंकि खाने की टेबल पर मम्मी पापा दोनों थे.

तीनों जन खाना खाते हुए 3 दिशाओं में अलगअलग सोच रहे थे.

5 बजे पापा चले जाएंगे. काश, पापा आज रुक जाते तो हम दोनों पूरी रात खूब मस्ती करते. खाना खाने के बाद छत पर हम पतंग उड़ाएंगे. पापा को अपनी नई वाली पेंटिंग भी दिखाऊंगा. पिछली बार पापा जो लीगों टौयज लाए थे, मैं ने अभी खोला भी नहीं है. आज हम दोनों मिल कर इसे जोड़ेंगे. मैं अकेला तो बना ही नहीं पाऊंगा. पापा मेरी हैल्प करेंगे.

दूसरी तरफ़, सोमू सोच रहा है- टीवी में दिखा रहे हैं करोना बीमारी के कारण शहर में लौकडाउन है. सड़कें खाली हैं. लोगों को घर से बाहर न आने की हिदायत दी जा रही है. जो घर से बाहर आ रहा है उसे पुलिस वाले वापस घर भेज रहे हैं. ये सब कब तक चलेगा? कहीं शाम को भी ऐसा रहा तो वह क्या करेगा? यहां आते वक्त तो झूठ बोल कर आ गया था लेकिन वापसी में नहीं चलेगा. यहीं रात बितानी पड़ी तो…? कहीं ऐसा न हो दीपा कुछ गलतसलत समझे. क़रार के मुताबिक़, कनक के साथ वह सिर्फ 5 घंटे बिता सकता है. जानता है, हमेशा की तरह उस की एंट्री के समय आज भी समय नोट किया गया होगा. खाने की टेबल पर बैठी दीपा उस को कनखियों से देख रही है. मेरे मन में क्या चल रहा है, जानने की पूरी कोशिश कर रही है.

और, जैसेजैसे घड़ी की सूई आगे बढ़ रही है, दीपा की बेसब्री बढ़ती जा रही है. कनक और सोमू ने पूरे दिन खूब मस्ती की. घड़ी में 5 बजते ही सोमू ने अपना बैग समेटा और बेटे को बाय कर के बाहर आ गया. नीचे गाड़ी चलाने से पहले कनक का उतरा चेहरा बालकनी से झांक रहा है. कनक का आख़िरी प्रयास- ‘पापा, प्लीज़ मत जाओ,’ सोमू के कानों को छू रहा है.

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जानता है, जैसे ही मेरी गाड़ी स्टार्ट होगी…कनक का रोना शुरू हो जाएगा. दीपा लंबी सांस खींच कर मन ही मन कहेगी, हे प्रकृति, शुक्र है दिन निकल गया. सोमू का मन भारी था.

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गुड गर्ल: ससुराल में तान्या के साथ क्या हुआ

लेखक-चिरंजीव नाथ सिन्हा

कई पीढ़ियों के बाद माहेश्वरी खानदान में रवि और कंचन की सब से छोटी संतान के रूप में बेटी का जन्म हुआ था. वे दोनों फूले नहीं समा रहे थे, क्योंकि रवि और कंचन की बहुत इच्छा थी कि वे भी कन्यादान करें क्योंकि पिछले कई पीढ़ियों से उन का परिवार इस सुख से वंचित था.

आज 2 बेटों के जन्म के लगभग 7-8 सालों बाद फिर से उन के आंगन में किलकारियां गूंजी थीं और वह भी बिटिया की.

बिटिया का नाम तान्या रखा गया. तान्या यानी जो परिवार को जोड़ कर रखे. अव्वल तो कई पीढ़ियों के बाद घर में बेटी का आगमन हुआ था, दूसरे तान्या की बोली एवं व्यवहार में इतना मिठास एवं अपनापन घुला हुआ था कि वह घर के सभी सदस्यों को प्राणों से भी अधिक प्रिय थी.

सभी उसे हाथोहाथ उठाए रखते. यदि घर में कभी उस के दोनों बड़े भाई झूठमूठ ही सही जरा सी भी उसे आंख भी दिखा दें या सताएं तो फिर पूछो मत, उस के दादादादी और खासकर उस के प्यारे पापा रण क्षेत्र में तान्या के साथ तुरंत खड़े हो जाते.

दोनों भाई उस की चोटी खींच कर उसे प्यार से चिढ़ाते कि जब से तू आई है, हमें तो कोई पूछने वाला ही नहीं है.

जिस प्रकार एक नवजात पक्षी अपने घोंसले में निडरता से चहचहाते रहता है, उसे यह तनिक भी भय नहीं होता कि उस के कलरव को सुन कर कोई दुष्ट शिकारी पक्षी उन्हें अपना ग्रास बना लेगा. वह अपने मातापिता के सुरक्षित संसार में एक डाली से दूसरी डाली पर निश्चिंत हो कर उड़ता और फुदकता रहता है. तान्या भी इसी तरह अपने नन्हे पंख फैलाए पूरे घर में ही नहीं अड़ोसपड़ोस में भी तितली की तरह अपनी स्नेहिल मुसकान बिखेरती उड़ती रहती थी. सब को सम्मान देना और हरेक जरूरतमंद की मदद करना उस का स्वभाव था.

समय के पंखों पर सवार तान्या धीरेधीरे किशोरावस्था के शिखर पर पहुंच गई, लेकिन उस का स्वभाव अभी भी वैसा ही था बिलकुल  निश्छल, सहज और सरल. किसी अनजान से भी वह इतने प्यार से मिलती कि कुछ ही क्षणों में वह उन के दिलों में उतर जाती. भोलीभाली तान्या को किसी भी व्यक्ति में कोई बुराई नहीं दिखाई देती थी.

पूरे मोहल्ले में गुड गर्ल के नाम से मशहूर सब लोग उस की तारीफ करते नहीं थकते थे और अपनी बेटियों को भी उसी की तरह गुड गर्ल बनाना चाहते थे.

हालांकि तान्या की मां कंचनजी काफी प्रगतिशील महिला थीं, लेकिन थीं तो वे भी अन्य मांओं की तरह एक आम मां ही, जिन का हृदय अपने बच्चों के लिए सदा धड़कता रहता था. उन्हें पता था कि लडकियों के लिए घर की चारदीवारी के बाहर की दुनिया घर के सुरक्षित वातावरण की दुनिया से बिलकुल अलग होती है.

बड़ी हो रही तान्या के लिए वह अकसर चिंतित हो उठतीं कि उसे भी इस निर्मम समाज, जिस में स्त्री को दोयम दरजे की नागरिकता प्राप्त है, बेईमानी और भेदभाव के मूल्यों का सामना करना पड़ेगा.

एक दिन मौका निकाल कर बड़ी होती तान्या को बङे प्यार से समझाते हुए वे बोलीं,”बेटा, यह समाज लड़की को सिर्फ गुड गर्ल के रूप में जरूर देखना चाहता है लेकिन अकसर मौका मिलने पर उन्हें गुड गर्ल में सिर्फ केवल एक लङकी ही दिखाई देती है जो अनुचित को अनुचित जानते हुए भी उस का विरोध न करे और खुश रहने का मुखौटा ओढ़े रहे. यह समाज हम स्त्रियों से ऐसी ही अपेक्षा रखता है.”

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तान्या बोलती,”ओह… इतने सारे अनरियलिस्टिक फीचर्स?”

तब कंचनजी फिर समझातीं, “हां, पर एक बात और, आज का समय पहले की तरह घर में बंद रहने का भी नहीं है. तुम्हें भी घर के बाहर अनेक जगह जाना पड़ेगा, लेकिन अपने आंखकान सदैव खुले रखना.”

तान्या आश्चर्य से बोली,”मगर क्यों?”

“बेटा, यह समाज लड़कियों को देवी की तरह पूजता तो है पर मौका पाने पर हाड़मांस की इन जीतीजागती देवियों की भावनाओं और इच्छाओं अथवा अनिच्छाओं को कुचलने से तनिक भी गुरेज नहीं करता.”

समाज के इस निर्मम चेहरे से अनजान तान्या ने कंचन जी से पूछा,”मां, लेकिन ऐसा क्यों? मैं भी तो भैया जैसी ही हूं. मैं भी एक इंसान हूं फिर मैं अलग कैसे हुई?”

“बेटा, पुरुष के विपरीत स्त्री को एक ही जीवनचक्र में कई जीवन जीना पड़ता है. पहले मांबाप के नीड़रूपी घर में पूर्णतया लाङप्यार और सुरक्षित जीवन और दूसरा घर के बाहर भेदती हुई हजारों नजरों वाले समाज के पावरफुल स्कैनर से गुजरने की चुभती हुई पीड़ा से रोज ही दोचार होते हुए सीता की तरह अग्नि परीक्षा देने को विवश.

“बेटा, एक बात और, विवाह के बाद अकसर यह स्कैनर एक नया स्वरूप धारण कर लेता है, जिस की फ्रीक्वैंसी कुछ अलग ही होती है.”

“लेकिन हम लड़कियां ही एकसाथ इतने जीवन क्यों जिएं?”

“बेटा, निश्चित तौर पर यह गलत है और हमें इस का पुरजोर विरोध जरूर करना चाहिए. लेकिन स्त्री के प्रति यह समाज कभी भी सहज या सामान्य नहीं रहा है. या तो हमें रहस्य अथवा अविश्वास से देखा जाता है या श्रद्धा से लेकिन प्रेम से कभी नहीं, क्योंकि हम स्त्रियों की जैंडर प्रौपर्टीज समाज को हमेशा से भयाक्रांत करती रही है. सभी को अपने लिए एक शीलवती, सच्चरित्र और समर्पित पत्नी चाहिए जो हर कीमत पर पतिपरायण बनी रहे लेकिन दूसरे की पत्नी में अधिकांश लोगों को एक इंसान नहीं बल्कि एक वस्तु ही दिखाई पड़ती है.”

“लेकिन मां, यह तो ठीक बात नहीं, ऐसा क्यों?”

“बेटा, हम स्त्रियों के मामले में पुरुष हमेशा से इस गुमान में जीता आया है कि यदि कोई स्त्री किसी पुरुष के साथ जरा सा भी हंसबोल ले तो कुछ न होते हुए भी वह इसे उस के प्रेम और शारीरिक समर्पण की सहमति मान लेता है.”

“तो क्या मैं किसी के साथ हंसबोल भी नहीं सकती?”

“नहीं बेटा, मेरे कहने का अभिप्राय यह बिलकुल भी नहीं है. मैं तो तुम्हें सिर्फ आगाह करना चाहती हूं कि समाज के ठेकेदारों ने हमारे चारो ओर नियमकानूनों का एक अजीब सा जाल फैला रखा है, जिस में काजल का गहरा लेप लगा हुआ है. लेकिन हमें भी अपनेआप को कभी कमजोर या कमतर नहीं आंकना चाहिए जबकि उन्हें यह एहसास करा देना चाहिए कि हम न केवल इस जाल को काट फेंकने का सामर्थ्य रखते हैं बल्कि हमारे इर्दगिर्द फैलाए गए इसी काजल को अपने व्यक्तित्व की खूबसूरती का माध्यम बना उसे आंखों में सजा लेना जानते हैं, ताकि हम सिर उठा कर खुले आकाश में उड़ सकें और अपनी खुली आंखों से अपने सपनों को पूरा होते देख सकें.”

“मां, यह हुई न झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वाली बात.”

अपनी फूल सी बिटिया को सीने से लगाती हुईं कंचनजी बोलीं,”बेटा, मैं तुम्हें कतई डरा नहीं रही थी. बस समाज की सोच से तुम्हें परिचित करा रही थी ताकि तुम परिस्थितियों का मुकाबला कर सको. तुम वही करना जो तुम्हारा दिल कहे. तुम्हारे मम्मीपापा सदैव तुम्हारे साथ हैं और हमेशा रहेंगे.”

समय अपनी गति से पंख लगा कर उड़ता रहा और देखतेदेखते एक दिन छोटी सी तान्या विवाह योग्य हो गई. संयोग से रवि और कंचनजी को उस के लिए एक सुयोग्य वर ढूंढ़ने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी.

एक पारिवारिक शादी समारोह में दिनकर का परिवार भी आया हुआ था. तान्या की निश्छल हंसी और मासूम व्यवहार पर मोहित हो कर दिनकर उसे वहीं अपना दिल दे बैठा. शादी की रस्मों के दौरान जब कभी तान्या और दिनकर की नजरें आपस में एक दूसरे से मिलतीं तो तान्या दिनकर को अपनी ओर एकटक देखता हुआ पाती. उस की आंखों में उसे एक अबोले पर पवित्र प्रस्ताव की झलक दिखाई पड़ रही थी. उस ने भी मन ही मन दिनकर को अपने दिल में जगह दे दिया.

दिनकर की मां को छोड़ कर और किसी को इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी. दरअसल, दिनकर की मां शांताजी अपने दूर के रिश्ते की एक लड़की को अपनी बहू बनाना चाहती थी जो कनाडा में रह रही थी और पैसे से काफी संपन्न परिवार की थी, दूसरे उन्हें तान्या का सब के साथ इतना खुलकर बातचीत करना पसंद नहीं था. लेकिन बेटे के प्यार के आगे उन्हें झुकना ही पड़ा और कुछ ही समय के अंदर तान्या और दिनकर विवाह के बंधन से बंध गए.

सरल एवं बालसुलभ व्यवहार वाली तान्या ससुराल में भी सब के साथ खूब जी खोलकर बातें करती, हंसती और सब को हंसाती रहती.

पति दिनकर बहुत अच्छा इंसान था. उस ने तान्या को कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह मायके में नहीं ससुराल में है. उस ने तान्या को अपने ढंग से अपनी जिंदगी जीने की पूरी आजादी दी.

दिनकर की मां शांताजी कभी तान्या को टोकतीं तो वह उन्हें बड़े प्यार से समझाता, “मां, तुम अपने बहू पर भरोसा रखो. वह इस घर का मानसम्मान कभी कम नहीं होने देगी. वह एक परफैक्ट गुड गर्ल ही नहीं एक परफैक्ट बहू भी है.”

लेकिन कुछ ही दिनों मे तान्या को यह एहसास हो गया कि उस के ससुराल में 2 लोगों का ही सिक्का चलता है, पहला उस की सास और दूसरा उस के ननदोई राजीव का.

दरअसल, उस के ननदोई राजीव काफी अमीर थे. जब तान्या के ससुर का बिजनैस खराब चल रहा था तो राजीव ने रूपएपैसे से उन की काफी मदद की थी. इसलिए राजीव का घर में दबदबा था और उस की सास तो अपने दामाद को जरूरत से ज्यादा सिरआंखों पर बैठाए रखती थी.

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राजीव का ससुराल में अकसर आना होता रहता था. अपनी निश्छल प्रकृति के कारण तान्या राजीव के घर आने पर उस का यथोचित स्वागतसत्कार करती. जीजासलहज का रिश्ता होने के कारण उन से खूब बातचीत भी करती थी. लेकिन धीरेधीरे तान्या ने महसूस किया कि राजीव जरूरत से ज्यादा उस के नजदीक आने की कोशिश कर रहा है.

उस के सहज, निश्छल व्यवहार को वह कुछ और ही समझ रहा है. पहले तो उस ने संकेतों से उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उस की बदतमीजियां मर्यादा की देहरी पार करने लगी तो उस ने एक दिन दिनकर को हिम्मत कर के सबकुछ बता दिया.

दिनकर यह सुन कर आपे से बाहर हो गया. वह राजीव को उसी समय फोन पर ही खरीखोटी सुनाने वाला था लेकिन तान्या ने उसे उस समय रोक दिया.

वह बोली,”दिनकर, यह उचित समय नहीं है. अभी हमारे पास अपनी बात को सही साबित करने का कोई प्रमाण भी नहीं है. मांजी इसे एक सिरे से नकार कर मुझे ही झूठा बना देंगी. तुम्हें मुझ पर विश्वास है, यही मेरे लिए बहुत है. मुझ पर भरोसा रखो, मैं सब ठीक कर दूंगी.”

दिनकर गुस्से में मुठ्ठियां भींच कर तकिए पर अपना गुस्सा निकालते हुए बोला, “मैं जीजाजी को छोङूंगा नहीं, उन्हें सबक सिखा कर रहूंगा.”

कुछ दिनों बाद राजीव फिर उस के घर आया और उस रात वहीं रूक गया. संयोग से दिन कर को उसी दिन बिजनैस के काम से शहर से बाहर जाना पड़ गया. राजीव के घर में मौजूद होने की वजह से उसे तान्या को छोड़ कर बाहर जाना कतई अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन बिजनैस की मजबूरियों की वजह से उसे जाना ही पड़ा. पर जातेजाते वह तान्या से बोला,”तुम अपना ध्यान रखना और कोई भी परेशानी वाली बात हो तो मुझे तुरंत बताना.”

“आप निश्चिंत रहिए. आप का प्यार और सपोर्ट मेरे लिए बहुत है.”

रात को डिनर करने के बाद सब लोग अपनेअपने कमरों में चले गए. तान्या भी अपने कमरे का दरवाजा बंद कर बिस्तर पर चली गई. दिनकर के बिना खाली बिस्तर उसे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था, खासकर रात में उस से अलग रहना उसे बहुत खलता था. जब दिनकर सोते समय उस के बालों में उंगलियां फिराता, तो उस की दिनभर की सारी थकान छूमंतर हो जाती. उस की यादों में खोईखोई कब आंख लग गई उसे पता ही नहीं चला.

अचानक उसे दरवाजे पर खटखट की आवाज सुनाई पड़ी. पहले तो उसे लगा कि यह उस का वहम है पर जब खटखट की आवाज कई बार उस के कानों में पड़ी तो उसे थोड़ा डर लगने लगा कि इतनी रात को उस के कमरे का दरवाजा कौन खटखटा सकता है? कहीं राजीव तो नहीं. फिर यह सोच कर कि हो सकता है कि मांबाबूजी में से किसी की तबियत खराब हो गई होगी, उस ने दरवाजा खोल दिया तो देखा सामने राजीव खड़ा मुसकरा रहा है.

“अरे जीजाजी, आप इतनी रात को इस वक्त यहां? क्या बात है?”

“तान्या, मैं बहुत दिनों से तुम से एक बात कहना चाहता हूं.”

कुदरतन स्त्री सुलभ गुणों के कारण राजीव का हावभाव उस के दिल को कुछ गलत होने की चेतावनी दे रहा था. उस की बातें उसे इस आधी रात के अंधेरे में एक अज्ञात भय का बोध भी करा रही थी. लेकिन तभी उसे अपनी मां की दी हुई वह सीख याद आ गई कि हमें कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए बल्कि पूरी ताकत से कठिन से कठिन परिस्थितियों का पुरजोर मुकाबला करते हुए हौसले को कम नहीं होने देना चाहिए.”

उस ने हिम्मत कर के राजीव से पूछा, “बताइए क्या बात है?”

“तान्या, तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो. आई लव यू. आई कैन डू एनीथिंग फौर यू…”

“यह आप क्या अनापशनाप बके जा रहे हैं? अपने कमरे में जाइए.”

“तान्या, आज चाहे जो कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हे अपना बना कर ही रहूंगा,” इतना कहते हुए वह तान्या का हाथ पकड़ कर उसे बैडरूम में अंदर ले जाने लगा कि तान्या ने एक जोरदार थप्पड़ राजीव के मुंह पर मारा और चिल्ला पड़ी,”मिस्टर राजीव, आई एम ए गुड गर्ल बट नौट ए म्यूट ऐंड डंब गर्ल. शर्म नहीं आती, आप को ऐसी हरकत करते हुए?”

तान्या के इस चंडी रूप की कल्पना राजीव ने सपने में भी नहीं किया था. वह यह देख कर सहम उठा, पर स्थिति को संभालने की गरज से वह ढिठाई से बोला,”बी कूल तान्या. मैं तो बस मजाक कर रहा था.”

“जीजाजी, लड़कियां कोई मजाक की चीज नहीं होती हैं कि अपना टाइमपास करने के लिए उन से मन बहला लिया. आप के लिए बेशक यह एक मजाक होगा पर मेरे लिए यह इतनी छोटी बात नहीं है. मैं अभी मांपापा को बुलाती हूं.”

फिर अपनी पूरी ताकत लगा कर उस ने अपने सासससुर को आवाज लगाई, मांपापा…इधर आइए…”

रात में उस की पुकार पूरे घर में गूंज पङी. उस की चीख सुन कर उस के सासससुर फौरन वहां आ गए.

गहरी रात के समय अपने कमरे के दरवाजे पर डरीसहमी अपनी बहू तान्या और वहीं पास में नजरें चुराते अपने दामाद राजीव को देख कर वे दोनों भौंचक्के रह गए.

कुछ अनहोनी घटने की बात तो उन दोनों को समझ में आ रही थी लेकिन वास्तव में क्या हुआ यह अभी भी पहेली बनी हुई थी.

तभी राजीव बेशर्मी से बोला, “मां, तान्या ने मुझे अपने कमरे में बुलाया था.”

“नहीं मां, यह झूठ है. मैं तो अपने कमरे में सो रही थी कि अचानक कुंडी खड़कने पर दरवाजा खोला तो जीजाजी सामने खड़े थे और मुझे बैडरूम में जबरन अंदर ले जा रहे थे.”

“नहीं मां, यह झूठी है, इस ने ही…”

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अभी वह अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाया था कि अकसर खामोश रहने वाले तान्या के ससुर प्रवीणजी की आवाज गूंज उठी,”राजीव, अब खामोश हो जाओ, तुम ने क्या हम लोगों को मूर्ख समझ रखा है? माना हम तुम्हारे एहसानों के नीचे दबे हैं, लेकिन तुम्हारी नसनस से वाकिफ हैं. तुम ने आज जैसी हरकत किया है, उस के लिए मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करूंगा. तुम ने मेरी बहू पर बुरी नजर डाली और अब उलटा उसी पर लांछन लगा रहे हो…” इतना कह कर तान्या के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,”बेटा, तुम्हारा बाप अभी जिंदा है. मैं तुम्हें  कुछ नहीं होने दूंगा. मैं अभी पुलिस को बुला कर इस को जेल भिजवाता हूं.”

अपने पिता समान ससुर का स्नेहिल स्पर्श पा कर तान्या उन से लिपट कर रो पड़ी जैसे उस के अपने बाबूजी उसे फिर से मिल गए हों. फिर थोड़ा संयत हो कर बोली, “पापा, आप का आर्शीवाद और विश्वास मेरे लिए सब कुछ है लेकिन पुलिस को मत बुलाइए. जीजाजी को सुधरने का एक मौका हमें देना चाहिए और फिर दीदी और बच्चों के बारे में सोचिए, इन के जेल जाने पर उन्हें कितना बुरा लगेगा.”

दिनकर के पिता प्रवीणजी कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले,”बेटा, तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारा नाम तान्या कुछ सोचसमझ कर ही रखा होगा. ये तुम जैसी बेटियां ही हैं, जो अपना मानसम्मान कायम रखते हुए भी परिवार को सदा जोड़े रखती हैं. जब तक तुम्हारी जैसी बहूबेटियां हमारे समाज में हैं, हमारी संस्कृति जीवित रहेगी.”

फिर अपनी पत्नी से बोले,”शांता, देखिए ऐसी होती हैं हमारे देश की गुड गर्ल. जो न अपना सम्मान खोए न घर की बात को देहरी से बाहर जाने दे.”

शांताजी के अंदर भी आज पहली बार तान्या के लिए कुछ गौरव महसूस हो रहा था. पति से मुखातिब होते हुए दामाद राजीव के विरूद्ध वे पहली बार बोलीं,”आप ठीक कहते हैं. घर की इज्जत बहूबेटियों से ही होती है. पता नहीं एक स्त्री होने के बावजूद मेरी आंखें यह सब क्यों नहीं देख पाईं…” फिर तान्या से बोलीं,”बेटा, मुझे माफ कर देना.”

“राजीव, तुम अब यहां से चले जाओ. मैं तुम्हारा पाईपाई चुका दूंगा पर अपने घर की इज्जत पर कभी हलकी सी भी आंच नहीं आने दूंगा. तान्या हमारी बहू ही नहीं, हमारी बेटी भी है और सब से बढ़ कर इस घर का सम्मान है,” प्रवीणजी बोल पङे.

सासससुर का स्नेहिल आर्शीवाद पा कर आज तान्या को उस का ससुराल उसे सचमुच अपना घर लग रहा था बिलकुल अपना जिस के द्वार पर एक सुहानी भोर मीठी दस्तक दे रही थी.

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बारिश: मां और नेहा दीदी के टेढ़े मामलों का क्या हल निकला

लेखिका- प्रियंका गुप्ता

कभी-कभी आदमी बहुत कुछ चाहता है, पर उसे वह नहीं मिलता जबकि वह जो नहीं चाहता, वह हो जाता है. नेहा दीदी द्वारा बारबार कही जाने वाली यह बात बरबस ही इस समय मृदु को याद आ गई. याद आने का कारण था, नेहा दीदी का मां से अकारण उलझ जाना. वैसे तो नेहा दीदी, उस से कहीं ज्यादा ही मां का सम्मान करती थीं, पर कभी जब मां गुस्से में कुछ कटु कह देतीं तो नेहा दीदी बरदाश्त भी न कर पातीं और न चाहने पर भी मां से उलझ ही जातीं. नेहा दीदी का यों उलझना मां को भी कब बरदाश्त था. आखिर वे इस घर की मुखिया थीं और उस से बड़ी बात, वे नेहा दीदी की सहेली या बहन नहीं, बल्कि मां थीं. इस नाते उन्हें अधिकार था कि जो चाहे, सो कहें, पलट कर जवाब नहीं मिलना चाहिए. पर नेहा दीदी जब पट से जवाब देतीं, तो मां का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचता.

उस दिन भी मां का पारा आसमान की बुलंदियों पर ही था. उन के एक हाथ में चाबियों का गुच्छा था. उन्होंने धमकाने के लिए उस गुच्छे को ही अस्त्र बना रखा था, ‘अब चुप हो जाओ, जरा भी आवाज निकाली तो यही गुच्छा मुंह में घुसेड़ दूंगी, समझी.’ मृदु को डर लगा कि कहीं सच में मां अपना कहा कर ही न दिखाएं. नेहा दीदी को भी शायद वैसा ही अंदेशा हुआ होगा. वह तुरंत चुप हो गईं, पर सुबकना जारी था. कोई और बात होती तो मां उस को चुप करा देतीं या पास जा कर खड़ी हो जातीं, पर मामला उस वक्त कुछ टेढ़ा सा था.

वैसे देखा जाए तो बात कुछ भी नहीं थी, पर एक छोटे से शक की वजह से बात तूल पकड़ गई थी. मां जब भी कभी नेहा दीदी को घर छोड़ कर मृदु के साथ खरीदारी पर चली जातीं तो दीदी का मुंह फूल जाता. वैसे भी समयअसमय वे मां पर आरोप लगाया करतीं, ‘मुझ से ज्यादा आप मृदु को प्यार करती हैं. वह जो कुछ भी चाहती है उसे देती हैं जो करना चाहती है, करती है, पर आप…’ ऐसे नाजुक वक्त पर मां अकसर हंस कर नेहा दीदी को मना लेतीं, ‘अरे, पगली है क्या  मेरे लिए तो तुम दोनों ही बराबर हो, इन 2 आंखों की तरह. मैं क्या तेरी इच्छाएं पूरी नहीं करती  मृदु तुझ से छोटी है, उसे कुछ ज्यादा मिलता है तो तुझे तो खुश होना चाहिए.’

अगर नेहा इस पर भी न मानती तो मां दोनों को ही बाजार ले जातीं. नेहा दीदी को मनपसंद कुछ खास दिलवातीं, चाटवाट खिलवातीं और फिर उन्हीं की पसंद की फिल्म का कोई कैसेट लेतीं व घर आ जातीं. मां की इस सूझ से घर का वातावरण फिर दमक उठता, पर यह चमकदमक ज्यादा दिन ठहर न पाती. नेहा दीदी उसे ले कर फिर कोई हंगामा खड़ा कर देतीं. बदले में मां थक कर उन्हें 2-4 चपत रसीद कर देतीं.मृदु को यह सब अच्छा नहीं लगता था. अपनी जिद्दी प्रवृत्ति और बचपने के कारण वह दीदी को नीचा दिखा कर खुश जरूर होती थी, पर वह उन्हें व मां को दुख नहीं देना चाहती थी.

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पर उस दिन की बात, उस की समझ में न आई. यह बात जरूर थी कि मां उस दिन भी उसे अकेली ही बाजार ले कर गई थीं. सारे रास्ते वे उस की जरूरत की मनपसंद चीजें दिलाती और खिलाती रही थीं, पर हमेशा की तरह नेहा दीदी के लिए कुछ नहीं लिया था  मृदु को आश्चर्य भी हुआ था. उस ने मां से कहा तो उन्होंने झिड़क दिया, ‘तू क्यों मरी जा रही है. तुझे जो लेना है, ले, उसे लेना होगा तो खुद ले लेगी ’ ‘पर मां,’ मृदु ने कुछ कहना चाहा तो उन्होंने आंखें तरेर कर उस की ओर देखा. घबरा कर मृदु चुप हो गई. सारे रास्ते वह फिर कुछ न बोली. पर मां बुदबुदाती रहीं, ‘अब पर निकल आए हैं न, जो चाहे, सो करेगी. जब सबकुछ छिपाना ही है तो अपना साजोसामान भी अपनेआप खरीदे. अरे, मैं भी तो देखूं कि कितनी जवान ह गई है. हम तो अभी तक बच्ची समझ कर गलतियों को माफ करते रहे, पर अब… ’

मृदु को अब भी सारी बातें अनजानी सी लग रही थीं. यों रास्ते में अपने बच्चों से दुनियाजहान की बातें करते जाना मां की आदत थी पर इस तरह गुस्से में बुदबुदाना  उस ने उन्हें दोबारा छेड़ने की हिम्मत न की. यहां तक कि घर भी आ गई, तब भी खामोश रही. अपना लाया सामान भी हमेशा की तरह चहक कर न खोला. मां काफी देर तक सुस्ताने की मुद्रा में चुप बैठी रही थीं. फिर उस का सामान खोल कर ज्यों ही उस के आगे किया, नेहा दीदी का सब्र का बांध टूट ही गया, ‘मेरे लिए कुछ नहीं लाईं  सबकुछ इसी को दिला दिया ’

‘हां, दिला दिया, तेरा डर है क्या ’ रास्ते से ही न जाने क्यों गुस्से में भरी आई मां नेहा द्वारा उलाहना दिए जाने पर फूट पड़ीं, ‘क्या जरूरत है तुझे अब मुझ से सामान लेने की  अरे, अपने उस यार से ले न, जिस के साथ घूम रही थी.’ मां की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि अचानक जैसे बिजली सी कड़क उठी. मृदु ने नेहा दीदी की इतनी तेज आवाज कभी नहीं सुनी थी और मां को भी कभी इतने उग्र रूप में नहीं देखा था. मां की बात ने शायद नेहा दीदी को भीतर तक चोट पहुंचाई थी, तभी तो वे पूरी ताकत से चीख पड़ी थीं. ‘मां, जरा सोचसमझ कर बोलो.’ दीदी की इस अप्रत्याशित चीख से पहले तो मां भी हकबका गईं, फिर अचानक ‘चटाक’ की आवाज करता उन का भरपूर हाथ नेहा दीदी के गाल पर पड़ा. नेहा दीदी के साथसाथ मृदु भी सकपका गई थी. फिर माहौल में एक गमजदा सन्नाटा फैल गया. थोड़ी देर बाद वह सन्नाटा टूटा था, मां के अलमारी खोलने और नेहा दीदी की बुदबुदाहट से. मां अलमारी से साड़ी निकाल कर बदलने को मुड़ी ही थीं कि हिचकियों के बीच निकली नेहा दीदी की बुदबुदाहट ने उन के कदम फिर रोक लिए थे, ‘आप जितना चाहें मुझे मार लीजिए  पर आप की यह बेबुनियाद बात मैं बरदाश्त कभी नहीं करूंगी.’

‘नहीं करेगी तो क्या करेगी  मुझ से लड़ेगी  जबान लड़ाएगी  बोल, क्या करेगी ’

मां किसी कुशल योद्धा की तरह दीदी के सामने फिर जा खड़ी हुई थीं. मृदु कोे डर लगा कि इस बार अगर नेहा दीदी ने जवाब दिया तो मां जम कर उन की ठुकाई कर ही देंगी. फिर चाहे चोट भीतर लगे या बाहर, मां का गुस्सा अगर चढ़ गया तो उतरना मुश्किल है. पर उस समय ऐसा कुछ भी न हुआ. नेहा दीदी भी शायद डर के मारे बुदबुदाते हुए ही जवाब दे रही थीं. उधर, मां भी बस धमका कर रह गई थीं, वैसे भी नेहा दीदी जब होंठों में बुदबुदाती थीं तो उन की बात ही समझ में न आती थी. उस सारे गरम नजारे की गवाह वही तीनों थीं. पिताजी तो औफिस में थे. वैसे भी घर पर होते तो क्या कर लेते. अपने व दोनों बच्चों के बीच मां किसी तीसरे की दखलंदाजी पसंद नहीं करती थीं, फिर चाहे वे पिताजी ही क्यों न हों. वैसे भी उन दोनों की सारी जरूरतें, घर की देखभाल, मेहमानों की आवभगत से ले कर बीमारीहारी, सभी कुछ मां अकेली ही संभालती थीं. मृदु को आश्चर्य हुआ, शिकायत करने पर मां हमेशा मामला संभाल लेतीं या घूस के तौर पर दीदी को कुछ दे कर शांत कर देतीं. कभी बाजार जाते समय दीदी अगर मौजूद रहतीं तो उन्हें घर देखने की हिदायत दे जातीं, पर तब ऐसा कुछ नहीं हुआ था.

नेहा दीदी को बाजार न ले जाने के बाद भी अकसर जब मां उस के साथ घर लौटतीं, थोड़ी देर बाहर वाले कमरे में सोफे पर बैठ कर सुस्ताती जरूर थीं. उस वक्त थोड़ा मुंह फुलाए रहने के बावजूद दीदी, मां को बिस्कुट और पानी ला कर जरूर देतीं. वे जानती थीं कि मां उच्च रक्तचाप की मरीज हैं, और बड़ी जल्दी थक जाती हैं. पर उस दिन तो मां ने बड़ी रुखाई से नेहा को मना कर दिया. आमतौर से मां, दीदी के इस व्यवहार से अपनी सारी थकान भूल जातीं और कभीकभी पछताती भी कि बेकार में नेहा को नहीं ले गईं. पर वह पछतावा बस थोड़ी ही देर का होता. घर को अकेला छोड़ने का भय मां को फिर बाध्य कर देता कि किसी न किसी को घर छोड़ कर जाएं. मृदु छोटी थी, इसी से बाजी अकसर वही मार लेती. फिर घर लौट कर नेहा दीदी को तरहतरह से मुंह बिगाड़ कर छेड़ती, ‘लेले, तुम्हें मां नहीं ले गईं. आज बाजार में खूब चाट खाई.’

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उम्र में 4-5 साल बड़ी होने के बावजूद नेहा दीदी उस का मुंह चिढ़ाना बरदाश्त न कर पातीं. जबकि वे भी अच्छी तरह जानती थीं कि प्यार के समय मां दोनों को बराबर समझती हैं. मृदु और नेहा दोनों ही जानती थीं कि मां बहुत अच्छी हैं. उन का व्यवहार भी उन दोनों के साथ एक बहन जैसा ही होता और वह भी ऐसी बहन, जो एक अच्छी दोस्त भी हो. वे हमेशा कहतीं, ‘मां को हमेशा अपने बच्चों का दोस्त होना चाहिए, तभी तो बच्चे खुल कर अपने मन की बात कह सकते हैं.’ मृदु, नेहा और मां वीसीआर पर जब भी कोई फिल्म देखतीं तो एक दोस्त की तरह नजर आतीं. तीनों की पसंद का हीरो एक होता, हीरोइन एक होती, यहां तक कि कहानी की पसंद भी लगभग एकजैसी होती.लेकिन यह बात दूसरी थी कि जब कोई अश्लील सीन फिल्म में आता तो मां उसे रिमोट से आगे कर देतीं. यद्यपि भीतर से मृदु और नेहा दीदी का मन होता कि देखें, उस सीन में आखिर ऐसा क्या है.

एक बार नेहा दीदी ने मां को काफी खुश देख कर पूछ भी लिया था, ‘आप तो आधुनिका हैं और यह भी कहती हैं कि आप अपने बच्चों की अच्छी दोस्त हैं और दोस्त से कुछ छिपावदुराव नहीं होता. फिर आप ये सब दृश्य आगे क्यों कर देती हैं ’नेहा दीदी की बात सुन कर मां काफी देर असमंजस की स्थिति में बैठी रहीं. फिर बोलीं, ‘हां, मैं काफी उदार हूं. तुम दोनों की अच्छी दोस्त भी हूं पर यह मत भूलो कि तुम्हारी मां भी हूं. दोस्त बनने के समय भला ही चाहूंगी, पर मेरे भीतर की मां यह तय करेगी कि तुम्हारे लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा.’

‘पर इन दृश्यों में ऐसी क्या बुराई है, मां ’ नेहा दीदी की नकल मृदु ने भी की तो मां ने उस के गाल पर हलकी चपत लगाई पर संबोधित दीदी को किया, ‘देखो, वक्त से पहले कुछ बातें जानना ठीक नहीं होता. अभी तुम दोनों काफी छोटी हो, बड़ी हो जाओगी तो ये दृश्य भी आगे करने की जरूरत नहीं रहेगी.’ आगे नेहा दीदी ने कुछ नहीं पूछा था. जानती थीं कि मां को ज्यादा बहसबाजी पसंद नहीं. मजाक में बहस हो जाए, यह बात अलग थी पर किसी गंभीर मसले पर बहस हो तो बाप रे बाप, तुरंत उन के भीतर की ‘मां’ जाग जाती. फिर उन के उपदेश में कोई बाधा डालता तो उस को डांटफटकार सुननी पड़ती. मां के इस अजीब रूप की मृदु को ज्यादा समझ नहीं थी, पर नेहा दीदी अकसर हतप्रभ रहतीं. खूब जी खोल कर बातें करने वाली, बातबात पर खिलखिलाने वाली मां को यह अकसर क्या हो जाता है  पिताजी के अनुसार, उन दोनों के बिगड़ जाने का भय मां को सताता है, जबकि मां इस बात को साफ नकार जातीं, ‘इस तरह की बातें बच्चों के सामने मत किया करो. अभी इन की उम्र ही क्या है. मृदु अभी 12 की भी नहीं हुई और नेहा तो 16 ही पूरे कर रही है.’

‘तो क्या हुआ ’ पिताजी बीच में ही उन की बात काट देते, ‘इस उम्र में तो तुम्हारी शादी हो गई थी और तुम…’

पिताजी की बात पर मृदु और नेहा दीदी हंसने लगतीं और फिर मां के पीछे पड़ जातीं कि वे अपनी पुरानी बातें बताएं. मां भी सारी बहस भूल कर पुरानी बातों में खो जातीं और फिर धाराप्रवाह वह सब भी बता जातीं, जिसे न बताने की हिदायत थोड़ी ही देर पहले उन्होंने पति को ही दी होती थी. मां की कहानी पर वे दोनों भी खूब मजे लेतीं. मसलन, उन्होंने कैसे चुपके से साड़ी पहन कर अपनी सहेलियों के साथ एक बालिग फिल्म देखी, किसी लड़के को छेड़ा, कौन सा लड़का उन के पीछे पड़ा था, और भी बहुत सी मजेदार बातें…

मां के सुनाने का ढंग इतना मजेदार होता था कि वे दोनों तो एकदम ही भूल जाती थीं कि वे उन्हीं की बेटियां हैं. मां भी शायद उस वक्त भूल ही जातीं, पर थोड़ी देर बाद जब याद आता तो तुरंत चेहरे पर कठोरता का आवरण डाल देतीं, ‘अरे, मैं भी कैसी भुलक्कड़ हूं, तुम दोनों से तो बिलकुल सहेलियों की ही तरह बात करने लगी. चलो, भागो यहां से.’ वे शायद झेंप भी जातीं, ‘अरे, इस तरह तो तुम बिगड़ ही जाओगी ’ वे दोनों भी हंसती हुई भाग खड़ी होतीं और फिर समयसमय पर मां को छेड़तीं. एक बार मृदु ने अपनी मां के बारे में अपनी सहेलियों को बताते हुए कहा था, ‘मेरी मां तो बहुत अच्छी हैं, वे हम से दोस्तों जैसा व्यवहार करती हैं.’

‘अरे यार, फिर तो तू बहुत सुखी है. मेरी मां तो पूरी जेलर हैं,’ निशा ने निराश स्वर में कहा था. मृदु सोच रही थी कि वह जेलर वाला रूप मां के भीतर कैसे समा गया  वे नेहा दीदी से किसी जेलर की तरह ही तो जिरह कर रही थीं. हाथ में डंडे की जगह चाबियों का गुच्छा था, पर उस से कहीं खतरनाक अस्त्र, ‘‘बोल, कौन था वह मुस्टंडा  किस के साथ गई थी कल स्कूल से ’’ मां के अप्रत्याशित गुस्से की वजह अब शायद नेहा दीदी की समझ में आई थी. दरअसल, दीपा को एक समारोह के लिए सूट खरीदना था. उस ने नेहा दीदी से भी बाजार चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया. मां से पूछे बगैर नेहा दीदी कभी कहीं अकेली नहीं गई थीं, पर दीपा की जिद के कारण वे छुट्टी के बाद चलने को तैयार हो गईं, सोचा, उधर से ही घर चली जाएंगी और मां को सब बता देंगी तो वे कुछ नहीं कहेंगी.

सूट खरीद कर दीपा अपने घर चली गई तो नेहा दीदी रिकशा का इंतजार करने लगीं. पर चिलचिलाती धूप में कोई रिकशा नजर नहीं आ रहा था. नेहा को सड़क के किनारे खड़े करीब आधा घंटा हो गया था. आखिर निराश हो कर वे पैदल ही आगे बढ़ीं कि तभी स्कूटर पर शक्ति आता दिखा. वह नेहा दीदी से एक क्लास आगे था और पढ़ाई में तेज होने के कारण अकसर उन की मदद कर दिया करता था. बातोंबातों में नेहा दीदी ने मृदु और मां को एक बार शक्ति के बारे में बताया भी था. तब मां ने कहा था, ‘लड़कों से एक सीमा के भीतर बोलना बुरा नहीं है, पर उस से आगे…’

परंतु मां उस बात को कैसे भूल गईं, जबकि नेहा दीदी बारबार उन की ही बात को दोहरा रही थीं, ‘‘आप ही ने तो कहा था…’’

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‘‘हां, कहा था,’’ गुस्से में मां का चेहरा एकदम लाल हो रहा था, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि तू मेरी ही बात को बड़ा कर के मेरे ही मुंह पर दे मारे.’’ ‘‘पर मैं ने ऐसा तो नहीं किया है,’’ नेहा दीदी किसी तरह मां को अपनी बात समझाना चाह रही थीं, ‘‘धूप में कहीं रिकशा नहीं मिल रहा था, सो उस के स्कूटर पर बैठ गई. मैं ने तो कल आप को बताना भी चाहा था, पर…’’

‘‘और उस की कमर में हाथ क्यों डाल रखा था ’’ मां दीदी की बात काट कर इतनी जोर से चीखीं कि मृदु की धड़कनें भी तेज हो गईं. मां की तेज आवाज से पलभर के लिए शायद नेहा दीदी भी सकपका गईं, पर जल्दी ही संभल भी गईं, ‘‘मैं गिरने लगी थी, इसीलिए उसे पकड़ लिया था. भूल हो गई, आइंदा ऐसा नहीं होगा.’’ दीदी ने कातर निगाहों से मां की ओर देखा पर वे तो उस वक्त बिलकुल पत्थर बन गई थीं. वही तो अकसर कहती थीं, ‘कभीकभी मुझे न जाने क्या हो जाता है. मेरे आधुनिक रूप पर अनजाने ही एक पारंपरिक मां ज्यादा हावी हो जाती है. शायद, अपने बच्चों का भविष्य बिगड़ने के भय से.’ मां अपने उस रूप के हाथों जैसे अवश हो गई थीं. तभी तो नेहा दीदी की दी गई सफाई भी उन्हें आश्वस्त नहीं कर पा रही थी. नेहा दीदी के बारबार माफी मांगने, रोने के बावजूद उन पर आरोप लगाए जा रही थीं.

‘‘तो ठीक है,’’ नेहा दीदी भी जैसे आखिर थक ही गईं, ‘‘आप जो चाहें, समझ लीजिए. मैं यही समझूंगी कि मैं ने कोई गलती नहीं की. हां, सच में, कुछ गलत नहीं किया मैं ने. मैं ने वही किया जो आप ने अपनी जवानी में किया.’’ मृदु एकदम सन्नाटे में आ गई. जैसे बरसों से दबी कोई चिनगारी सहसा भड़क कर बाहर निकले और सीधे सूखी घास पर जा गिरे, उसे कुछ ऐसा ही लगा. मां पथराई सी चुपचाप पलंग के एक कोने में बैठी बेमकसद एक दिशा में ताक रही थीं. मृदु ने मां के कंधों पर सांत्वना भरा हाथ रखना चाहा, पर उन्होंने आहिस्ता से उस का हाथ झटक दिया. दुविधाग्रस्त मृदु बिना कुछ कहे खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गई. बाहर का आकाश अपना रंग बदल चुका था. धुंधलाई नजरों को देख कर कोई भी समझ सकता था, एक धूल भरी आंधी सबकुछ अपने भीतर छिपा लेने की फिराक में है. उस ने जल्दी से आगे बढ़ कर खिड़की बंद कर दी और शीशे से ही बाहर का मंजर देखने लगी. जल्दी ही तेज, धूलभरी आंधी ने सारा माहौल अपनी गिरफ्त में ले लिया. उस पार स्पष्ट देख पाने में असमर्थ मृदु को सबकुछ साफ करने के लिए बड़ी शिद्दत से बारिश की जरूरत महसूस हो रही थी.

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