मम्मियां: आखिर क्या था उस बच्चे का दर्द- भाग 1

स्कूल वैन का ड्राइवर कनुभाई शायद अपनी नींद पूरी न हो पाने की खी?ा गाड़ी का हौर्न बजाबजा कर उतार रहा था. सुबह के 6 बज कर 10 मिनट हो चुके थे, दांत किटकिटा देने वाली ठंड थी और अंधेरा छंटा नहीं था. किंतु पूर्व में क्षीण लालिमा सूर्य के आने पूर्व सूचना दे रही थी. आकाश गहरा नीला था जिस में चंद्रमा और हलके होते तारे अब भी देखे जा सकते थे.

इतना सुंदर दृश्य और ये हौर्न की कर्कश आवाज, सोचते हुए तनूजा गेट की ओर जाने लगी, तो फिर हौर्न की तेज आवाज कानों में पड़ी. वह वैन के पास पहुंचते ही बोली, ‘‘अरे कनुभाई, क्यों सुबहसुबह इतनी जोरजोर से हौर्न बजा रहे हो? आ रहे हैं बच्चे.’’ ‘‘क्या करूं मैडम. अभी 5 अलगअलग जगहों से बच्चों को लेना है और 7 बजे से पहले उन्हें स्कूल पहुंचना है. नहीं तो मेन गेट बंद हो जाएगा.’’

उस का कहना भी सही था. देर से आने वाले बच्चों को पूरा 1 पीरियड, सजा के तौर पर बाहर ही खड़े रहना पड़ता है. इस से तो बेहतर है कि हौर्न से कर्णभेदी ध्वनि पैदा की जाए जिस से चौंक कर उनींदे बच्चे भी दौड़ें. तनूजा के बच्चे तन्मयी व तनिष्क फुरती से दौड़ कर वैन में बैठ
गए.

‘‘बाय मम्मी.’

‘‘बाय बच्चो, हैव ए नाइस डे.’’

फिर हाथ हिलाते हुए तनूजा वैन के ओ?ाल हो जाने तक वहीं खड़ी रही.

तन्मयी और तनिष्क ने जब से स्कूल जाना शुरू किया है तभी से तनूजा के हरेक दिन का शुभारंभ यहीं से होता है. इस के बाद 45-50 मिनट की मौर्निंग वाक और फिर वापस घर. 6.20 हो गए थे, डीपीएस की स्कूल बस के आने का समय हो गया था.

सामने से शांतिजी आ रहीं थीं, अपने पुत्र का लाल, भारीभरकम बैग दाएं कंधे पर लादे. कमर आगे को इतनी ?ाकी हुई मानो मन भर वजन रखा हो पीठ पर. गले में सामने की ओर टंगी वाटर बौटल और दूसरे हाथ में बेटे बिल्लू का हाथ कस कर पकड़े हुए.

बिल्लू को आप 3-4 साल का मुन्ना राजा सम?ाने की भूल कतई न कीजिएगा. वह 9वीं कक्षा में है और बस 3 माह बाद ही 10वीं में होगा. हलकीहलकी मूंछें आ रही हैं और डीलडौल ऐसा कि बैग सहित अपनी मम्मी को भी उठा ले. किंतु क्या करें, शांतिजी का मातृप्रेम बिल्लू की साइज से कहीं अधिक विशाल है.
वैसे शांतिजी सिर्फ नाम की ही शांति हैं. बोलती तो वे इतना हैं कि पूछिए मत.

बस 2 मिनट के अंतराल पर ही आएंगी उन की परम सखी नमिता अपनी दोनों पुत्रियों को छोड़ने के लिए जो डीपीएस में ही पढ़ती हैं. बड़े प्यारे नाम हैं दोनों के, चंद्रकला और चंद्रलक्ष्मी. नमिताजी पहले ही आ जाती हैं और बस को आता देख पूरी ताकत से अपनी बेटियों का नाम ले कर चिल्लाती हैं कि बस आ गई. मानना पड़ेगा कि दम है उन की आवाज में. नीचे से चौथी मंजिल तक आवाज पहुंच जाती है और छोटे कद की, छोटीछोटी आंखों और बड़े से चेहरे वाली, गोरीगोरी उन की बेटियां नीचे आ जाती हैं.

लेकिन नमिता शांति की तरह अपने बच्चों के बैग लादे नहीं आतीं. सिर्फ वाटर बौटल पकड़े आती हैं. उन की छोटीछोटी आंखों में काजल की गहरी रेखाएं खिंची होती हैं. साथ ही पाउडर की एक पतली परत और विचित्र सी गंध वाला डिओ जिस से पास से गुजरती तनूजा को छींक आने लगती है, तो वह तेज गति से चलने लगती है.

नमिता और शांति की गहरी मित्रता है. बच्चों को बस में बैठा कर वे निकल पड़ती हैं अपनी गप यात्रा पर, जिस के लिए उन्हें मंथर गति से मौर्निंग वाक करनी होती है. समयसमय पर उन की गति मंद से मंदतर होती रहती है.

अब तेज गति से चलेंगी तो बातें पूरी कैसे होंगी 2 राउंड लगाने में? उन्हें ऐडजस्ट भी तो करना है.
कभीकभी उन के वार्तालाप से कुछ शब्द अपने क्षेत्र से बाहर निकल तनूजा के कानों में चले आते. अभी परसों ही शांति नमिता से कह रही थीं, ‘‘हम ने तो बिल्लू के लिए ट्यूशन टीचर के यहां बुकिंग करा दी है, तुम ने करा ली?’’

‘‘बुकिंग उन के पास बुकिंग करानी पड़ती है क्या?’’ नमिता ने अचरज से पूछा. ‘‘और नहीं तो क्या, अब तो भइया बुकिंग सिस्टम है, जब बच्चा 9वीं में हो तभी से 10वीं के ट्यूशन के लिए टीचर के पास बुकिंग करानी
पड़ती है. मैं ने मैथ्स के लिए थौमस सर, साइंस के लिए हांडा मैडम और इंगलिश के लिए गौड़ मैडम के पास बिल्लू के लिए बुकिंग करा ली है,’’ शांतिजी धाराप्रवाह बोल रही थीं.

नमिता थोड़ी हताश लग रही थीं. आखिर कैसे पीछे रह गईं वे शांति से? चंद्रकला बिल्लू की ही कक्षा में थी. इतने में ही नहीं रुकी शांतिजी, ‘‘अब खाली हिंदी और सोशल साइंस का रह गया है, वह भी करा दूंगी. तुम भी चंद्रकला के लिए जल्दी से बुकिंग करा लो वरना सीट नहीं मिलेगी किसी भी ट्यूटर के पास.’’
‘‘हां शांति, आज ही जाऊंगी मैं.’’

ट्यूशन में भी सीट का रोना है सोचते हुए हंसी आ गई थी तनूजा को. यों तो ट्यूशनों से उसे कोई शिकायत नहीं थी, किंतु जिस तीव्र गति से ये ट्यूशनें बच्चों का खेलनेकूदने का समय खाए जा रहीं थीं, उन की कल्पनाशक्ति का विकास कुंद बनाए दे रहीं थीं, इस की वह घोर विरोधी थी. बच्चा 6-7 घंटे पढ़ कर स्कूल से थकामांदा लौटे, जल्दीजल्दी किसी तरह भोजन के निवाले मुंह में ठूंसे, तभी मम्मियों की चीखपुकार शुरू
हो जाती है कि जल्दी करो… ट्यूशन का टाइम हो गया. औटो वाला आता ही होगा.

बेचारे बच्चे सांस भी नहीं ले पाते. ट्यूशन पढ़ कर जब वे लौटते हैं तो शाम के 7-8 बज जाते हैं. फिर होमवर्क, ट्यूशन का होमवर्क कभीकभी कोई प्रोजेक्ट. और भी बहुत कुछ. इस सब के बाद मातापिता की ऊंची अपेक्षाओं का दबाव.

आज की जेनरेशन तो बहुत मैटीरियलिस्टिक है. बस इन्हें मोबाइल, आईपौड या लैपटौप दे दो फिर इन्हें किसी की जरूरत नहीं. ओहो, ये सब क्या सोचने लगी मैं फिर से, सिर ?ाटकते हुए कहा तनूजा ने फिर तेजी से चलने लगी.

6.45 हुआ ही चाहते थे. अब आएगी डिवाइन बड्स की पीली मिनी बस. सामने से आ रहा था प्यारा सा अक्षय अपनी मम्मी की उंगली थामे व टैडीबियर के आकार का बैग अपनी पीठ पर टांगे. गोरा, गोलमटोल, घुंघराले बालों वाला अक्षय बहुत आकर्षक था. अपनी चमचमाती सफेद यूनिफौर्म और पौलिश से दमकते काले जूतों में और भी प्यारा लगता.

अक्षय की मम्मी अर्चना ऊपर बताई गई दोनों मम्मियों से भिन्न थी. वेशभूषा से आधुनिक, गंभीर संभ्रांत महिला. तनूजा और उस के बीच एक मुसकराहट के आदानप्रदान का रिश्ता है. कभीकभी प्यार से अक्षय का कंधा थपथपा कर तनूजा कहती, ‘‘गुड मौर्निंग अक्षय,’’ तो वह शरमा कर मम्मी से लिपट जाता.
बस में बैठ अक्षय स्कूल चला गया और अर्चना घर. शांति और नमिता की मंदगति की सैर अभी चल रही थी, जिसे देख कर तनूजा को हंसी आ गई. लेकिन हंसी को बीच में ही रोकना पड़ा, क्योंकि दोनों पास आ गई थीं.

बस अब 10 मिनट ही बचे हैं तनूजा की सैर के. इस में वह ब्रिस्क वाक करती है.
6.55 हो चुके हैं, अब चिल्ड्रेंस ऐकेडमी की बस आने का समय हो गया है. सामने से आ रहे थे जुड़वां भाईबहन सुरभि व समरेश अपनी मम्मी हेमा के साथ. दोनों छठी में पढ़ते हैं. हेमा व्यस्त कामकाजी महिला है और बमुश्किल 33 साल उम्र की होगी. बच्चों को बस में बैठा उसे भी औफिस जाने की तैयारी करनी होती होगी. शायद इसीलिए कभी गाउन, कभी मिडी तो कभीकभी नाइटसूट में ही नीचे आ जाती. कभीकभी नाइटसूट पर ऐप्रन बांधे ही आ जाती. सांस लेने की भी फुरसत नहीं है, उसे देख कर यही लगता था.

सुरभि, समरेश दोनों हाथों में कभी टोस्ट, कभी सैंडविच, कभी परांठा पकड़े आते और चलतेचलते खातेखाते बस में बैठ जाते. अभी परसों ही सुरभि की बहती नाक हेमा ने बड़े ही प्रेम से अपनी स्वैटर की बांह से साफ कर दी थी. लंबे, रेशमी बालों की चोटी, तीखे नाकनक्श और सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाने वाली हेमा तनूजा को बहुत भाती थी. कोई दिखावा नहीं, कोई कृत्रिमता नहीं, सहज, सरल. साइड से कटे गाउन में से टांग दिख रही है तो दिखती रहे, कोई देख रहा है तो देखता रहे. रुमाल नहीं मिल रहा तो स्वैटर या दुपट्टे से भी नाक साफ हो सकती है.

शाम को औफिस से आ कर बच्चों का होमवर्क, डिनर निबटातेनिबटाते रात के 12 बज जाते हैं. नींद देर से खुलती है तो बच्चों को तैयार करने में देर हो जाती है. अब नाश्ता टेबल पर करें या चलतेचलते क्या फर्क पड़ता है, अकसर उस के ये अनकहे शब्द तनूजा को सुनाई दे जाते. और चिल्ड्रेंस ऐकेडमी अन्य स्कूलों से विपरीत दिशा में था, अत: सड़क पार जाना होता था उन्हें. अपनेअपने बैग अपनी पीठ पर लादे उन दोनों का हाथ पकड़ कर सड़क पार कराती हेमा बीच में रहती थी और गले में भोलेनाथ के सर्प सी लिपटी पानी की 2 बोतलें डाले रहती थी.

7 बज चुके हैं. अब अंतिम राउंड तनूजा की वाक का. और अब सिर्फ भूमिका का आना शेष था. 12वीं की छात्रा भूमिका हीरामणि विद्यालय की छात्रा. जितनी खूबसूरत उतनी ही मोटी भी. बड़ी नाइंसाफी थी ये. धीरे से तनूजा के पास से गुजरती और मुसकराते हुए ‘नमस्ते आंटीजी’ कह कर निकल जाती. उस के नमस्ते के बाद तनूजा की वाक को पूर्णविराम और वह अपने घर.

पिछले कई हफ्तों से तनूजा के इस दैनिक अध्याय में एक अधूरापन सा आ गया था. नन्हा अक्षय कई दिनों तक स्कूल जाने के लिए नहीं आया. डिवाइन बड्स की पीली मिनी बस रोज आती हौर्न बजाती 5 मिनट उस की प्रतीक्षा करती फिर उस के न आने पर चली जाती. एक दिन अक्षय आता दिखा कमजोर, पीला सा. अर्चना साथ नहीं थी. एक धीरेधीरे चल रही बुजुर्ग महिला थी साथ में. शायद उस की दादी थीं. कुछ
गुमसुम सा अक्षय उन से भी धीमी चाल से चल रहा था. उस की चमचमाती यूनिफौर्म और दमकते जूते, जिस में वह और भी प्यारा लगता था कुछ अलग ही स्थिति में थे. यूनिफौर्म मुड़ीतुड़ी बिना इस्तिरी की और धूलधूसरित जूते. शायद अर्चना बीमार है, तनूजा ने सोचा.

फिर अक्षय की पीठ थपथपा कर पूछा, ‘‘मम्मी ठीक हैं आप की?’’ प्रत्युत्तर में वह चुपचाप देखता रहा. न पहले की तरह शरमाया, न कुछ बोला. उस की दादी ने हाथ पकड़ कर खींच लिया, ‘‘छेत्ती चल पुत्तर, नई ते बस छुट जानी है,’’ कुछ अजीब व्यवहार लगा तनूजा को उन का.

फिर कई सुबहें बीत गईं. सभी बच्चे क्रमानुसार आते, अपनी मम्मियों की उंगली थामे किंतु अर्चना दिखाई नहीं दी. अक्षय कभी दादी, कभी दादाजी, तो कभी अपने पापा के साथ नीचे आता. कभीकभी 2-3 दिन स्कूल आता ही नहीं. जब भी आता अकेले ही चलता. बिना किसी की उंगली थामे. चेहरे पर खुशी नहीं, चाल में कोई उत्साह नहीं. एकदम मुर?ाया सा. उस का टैडीबियर वाला बैग मानो बहुत भारी हो गया था,
जिस का बो?ा वह उठा नहीं पा रहा था. उस की आंखों में कई प्रश्नों के साथ बहुत पीड़ा भी नजर आती. किसी के पास इतना समय नहीं था कि उस बच्चे में हो रहे परिवर्तनों पर ध्यान देता. सभी अपने में व्यस्त थे, दूसरे के विषय में कौन सोचे.

तनूजा एक संवेदनशील महिला है इसलिए अकसर सोच कर दुखी होती कि क्या हो गया है अक्षय को. अर्चना के विषय में भी कुछ पता नहीं चल रहा. धीरेधीरे 2 महीने हो गए थे. तनूजा की अब न तो शांति और नमिता की बातचीत में कोई दिलचस्पी थी न ही गांगुलीजी के विचित्र ड्रैसिंग सैंस में. तनूजा का सारा ध्यान अब अक्षय पर ही केंद्रित था. शाम को सभी छोटेबड़े बच्चे पार्क में खेलते थे. उन का खेलना, ?ागड़ना, फिर मनाना तनूजा अकसर देखा करती थी अपनी बालकनी से.

मैं चुप रहूंगी: विजय की असलियत जब उसकी पत्नी की सहेली को चली पता

पिछले दिनों मैं दीदी के बेटे नीरज के मुंडन पर मुंबई गई थी. एक दोपहर दीदी मुझे बाजार ले गईं. वे मेरे लिए मेरी पसंद का तोहफा खरीदना चाहती थीं. कपड़ों के एक बड़े शोरूम से जैसे ही हम दोनों बाहर निकलीं, एक गाड़ी हमारे सामने आ कर रुकी. उस से उतरने वाला युवक कोई और नहीं, विजय ही था. मैं उसे देख कर पल भर को ठिठक गई. वह भी मुझे देख कर एकाएक चौंक गया. इस से पहले कि मैं उस के पास जाती या कुछ पूछती वह तुरंत गाड़ी में बैठा और मेरी आंखों से ओझल हो गया. वह पक्का विजय ही था, लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो वह इन दिनों अमेरिका में है. मुंबई आने से 2 दिन पहले ही तो मैं मीनाक्षी से मिली थी.

उस दिन मीनाक्षी का जन्मदिन था. हम दोनों दिन भर साथ रही थीं. उस ने हमेशा की तरह अपने पति विजय के बारे में ढेर सारी बातें भी की थीं. उस ने ही तो बताया था कि उसी सुबह विजय का अमेरिका से जन्मदिन की मुबारकबाद का फोन आया था. विजय के वापस आने या अचानक मुंबई जाने के बारे में तो कोई बात ही नहीं हुई थी.

लेकिन विजय जिस तरह से मुझे देख कर चौंका था उस के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उस ने भी मुझे पहचान लिया था. आज भी उस की गाड़ी का नंबर मुझे याद है. मैं उस के बारे में और जानकारी प्राप्त करना चाहती थी. लेकिन उसी शाम मुझे वापस दिल्ली आना था, टिकट जो बुक था. दीदी से इस बारे में कहती तो वे इन झमेलों में पड़ने वाले स्वभाव की नहीं हैं. तुरंत कह देतीं कि तुम अखबार वालों की यही तो खराबी है कि हर जगह खबर की तलाश में रहते हो.

दिल्ली आ कर मैं अगले ही दिन मीनाक्षी के घर गई. मन में उस घटना को ले कर जो संशय था मैं उसे दूर करना चाहती थी. मीनाक्षी से मिल कर ढेरों बातें हुईं. बातों ही बातों में प्राप्त जानकारी ने मेरे मन में छाए संशय को और गहरा दिया. मीनाक्षी ने बताया कि लगभग 6 महीनों से जब से विजय काम के सिलसिले में अमेरिका गया है उस ने कभी कोई पत्र तो नहीं लिखा हां दूसरे, चौथे दिन फोन पर बातें जरूर होती रहती हैं. विजय का कोई फोन नंबर मीनाक्षी के पास नहीं है, फोन हमेशा विजय ही करता है. विजय वहां रह कर ग्रीन कार्ड प्राप्त करने के जुगाड़ में है, जिस के मिलते ही वह मीनाक्षी और अपने बेटे विशु को भी वहीं बुला लेगा. अब पता नहीं इस के लिए कितने वर्ष लग जाएंगे.

मैं ने बातों ही बातों में मीनाक्षी को बहुत कुरेदा, लेकिन उसे अपने पति पर, उस के प्यार पर, उस की वफा पर पूरा भरोसा है. उस का मानना है कि वह वहां से दिनरात मेहनत कर के इतना पैसा भेज रहा है कि यदि ग्रीन कार्ड न भी मिले तो यहां वापस आने पर वे अच्छा जीवन बिता सकते हैं. कितन भोली है मीनाक्षी जो कहती है कि जीवन में आगे बढ़ने के लिए ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना ही पड़ता है.

मीनाक्षी की बातें सुन कर, उस का विश्वास देख कर मैं उसे अभी कुछ बताना नहीं चाह रही थी, लेकिन मेरी रातों की नींद उड़ गई थी. मैं ने दोबारा मुंबई जाने का विचार बनाया, लेकिन दीदी को क्या कहूंगी? नीरज के मुंडन पर दीदी के कितने आग्रह पर तो मैं वहां गई थी और अब 1 सप्ताह बाद यों ही पहुंच गई. मेरी चाह को राह मिल ही गई. अगले ही सप्ताह मुंबई में होने वाले फिल्मी सितारों के एक बड़े कार्यक्रम को कवर करने का काम अखबार ने मुझे सौंप दिया और मैं मुंबई पहुंच गई.

वहां पहुंचते ही सब से पहले अथौरिटी से कार का नंबर बता कर गाड़ी वाले का नामपता मालूम किया. वह गाड़ी किसी अमृतलाल के नाम पर थी, जो बहुत बड़ी कपड़ा मिल का मालिक है. इस जानकारी से मेरी जांच को झटका अवश्य लगा, लेकिन मैं ने चैन की सांस ली. मुझे यकीन होने लगा कि मैं ने जो आंखों से देखा था वह गलत था. चलो, मीनाक्षी का जीवन बरबाद होने से बच गया. मैं फिल्मी सितारों के कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में व्यस्त हो गई.

एक सुबह जैसे ही मेरा औटो लालबत्ती पर रुका, बगल में वही गाड़ी आ कर खड़ी हो गई. गाड़ी के अंदर नजर पड़ी तो देखा गाड़ी विजय ही चला रहा था. लेकिन जब तक मैं कुछ करती हरीबत्ती हो गई और वाहन अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगे. मैं ने तुरंत औटो वाले को उस सफेद गाड़ी का पीछा करने के लिए कहा. लेकिन जब तक आटो वाला कुछ समझता वह गाड़ी काफी आगे निकल गई थी. फिर भी उस अनजान शहर के उन अनजान रास्तों पर मैं उस कार का पीछा कर रही थी. तभी मैं ने देखा वह गाड़ी आगे जा कर एक बिल्डिंग में दाखिल हो गई. कुछ पलों के बाद मैं भी उस बिल्डिंग के गेट पर थी. गार्ड जो अभी उस गाड़ी के अंदर जाने के बाद गेट बंद ही कर रहा था मुझे देख कर पूछने लगा, ‘‘मेमसाहब, किस से मिलना है? क्या काम है?’’

‘‘यह अभी जो गाड़ी अंदर गई है वह?’’

‘‘वे बड़े साहब के दामाद हैं, मेमसाहब.’’

‘‘वे विजय साहब थे न?’’

‘‘हां, मेमसाहब. आप क्या उन्हें जानती हैं?’’

गार्ड के मुंह से हां सुनते ही मुझे लगा भूचाल आ गया है. मैं अंदर तक हिल गई. विजय, मिल मालिक अमृत लाल का दामाद? लेकिन यह कैसे हो सकता है? बड़ी मुश्किल से हिम्मत बटोर कर मैं ने कहा, ‘‘देखो, मैं जर्नलिस्ट हूं, अखबार के दफ्तर से आई हूं, तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना चाहती हूं. क्या मैं अंदर जा सकती हूं?’’

‘‘मेमसाहब, इस वक्त तो अंदर एक जरूरी मीटिंग हो रही है, उसी के लिए विजय साहब भी आए हैं. अंदर और भी बहुत बड़ेबड़े साहब लोग जमा हैं. आप शाम को उन के घर में उन से मिल लेना.’’

‘‘घर में?’’ मैं सोच में पड़ गई. अब भला घर का पता कहां से मिलेगा?

लगता था गार्ड मेरी दुविधा समझ गया. अत: तुरंत बोला, ‘‘अब तो घर भी पास ही है. इस हाईवे के उस तरफ नई बसी कालोनी में सब से बड़ी और आलीशान कोठी साहब की ही है.’’

मेरे लिए इतनी जानकारी काफी थी. मैं ने तुरंत औटो वाले को हाईवे के उस पार चलने के लिए कहा. विजय और उस का सेठ इस समय मीटिंग में हैं. यह अच्छा अवसर था विजय के बारे में जानकारी हासिल करने का. विजय से बात करने पर हो सकता है वह पहचानने से ही इनकार कर दे.

गार्ड का कहना ठीक था. उस नई बसी कालोनी में जहां इक्कादुक्का कोठियां ही खड़ी थीं, हलके गुलाबी रंग की टाइलों वाली एक ही कोठी ऐसी थी जिस पर नजर नहीं टिकती थी. कोठी के गेट पर पहुंचते ही नजर नेम प्लेट पर पड़ी. सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘विजय’ हालांकि अब विजय का व्यक्तित्व मेरी नजर में इतना सुनहरा नहीं रह गया था.

औटो वाले को रुकने के लिए कह कर जैसे ही मैं आगे बढ़ी, गेट पर खड़े गार्ड ने पहले तो मुझे सलाम किया, फिर पूछा कि किस से मिलना है और मेरा नामपता क्या है?

‘‘मैं एक अखबार के दफ्तर से आई हूं.

मुझे तुम्हारे विजय साहब का इंटरव्यू लेना है,’’ कहते हुए मैं ने अपना पहचानपत्र उस के सामने रख दिया.

‘‘साहब तो इस समय औफिस में हैं.’’

‘‘घर में कोई तो होगा जिस से मैं बात कर सकूं?’’

‘‘मैडम हैं. पर आप रुकिए मैं उन से पूछता हूं,’’ कह उस ने इंटरकौम द्वारा विजय की पत्नी से बात की. फिर उस से मेरी भी बात करवाई. मेरे बताने पर मुझे अंदर जाने की इजाजत मिल गई.

अंदर पहुंचते ही मेरा स्वागत एक 25-26 वर्ष की बहुत ही सुंदर युवती ने किया. दूध जैसा सफेद रंग, लाललाल गाल, ऊंचा कद, तन पर कीमती गहने, कीमती साड़ी. गुलाबी होंठों पर मधुर मुसकान बिखेरते हुए वह बोली, ‘‘नमस्ते, मैं स्मृति हूं. विजय की पत्नी.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई. विजय साहब तो हैं नहीं. मैं आप से ही बातचीत कर के उन के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेती हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘जी जरूर,’’ कहते हुए उस ने मुझे सोफे पर बैठने का इशारा किया. मेरे बैठते ही वह भी मेरे पास ही सोफे पर बैठ गई.

इतने में नौकर टे्र में कोल्डड्रिंक ले आया. मुझे वास्तव में इस की जरूरत थी. बिना कुछ कहे मैं ने हाथ बढ़ा कर एक गिलास उठा लिया. फिर जैसेजैसे स्मृति से बातों का सिलसिला आगे बढ़ता गया, वैसेवैसे विजय की कहानी पर पड़ी धूल की परतें साफ होती गईं.

स्मृति विजय को कालेज के समय से जानती है. कालेज में ही दोनों ने शादी करना तय कर लिया था. विजय का तो अपना कोई है नहीं, लेकिन स्मृति के पिता, सेठ अमृतलाल को यह रिश्ता स्वीकार नहीं था. उन का कहना था कि विजय मात्र उन के पैसों की लालच में स्मृति से प्रेम का नाटक करता है. कितनी पारखी है सेठ की नजर, काश स्मृति ने उन की बात मान ली होती. वे स्मृति की शादी अपने दोस्त के बेटे से करना चाहते थे, जो अमेरिका में रहता था. लेकिन स्मृति तो विजय की दीवानी थी.

वाह विजय वाह, इधर स्मृति, उधर मीनाक्षी. 2-2 आदर्श, पतिव्रता पत्नियों का एकमात्र पति विजय, जिस के अभिनयकौशल की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. स्मृति से थोड़ी देर की बातचीत में ही मेरे समक्ष पूरा घटनाक्रम स्पष्ट हो गया. हुआ यों कि जिन दिनों स्मृति को उस के पिता जबरदस्ती अमेरिका ले गए थे, विजय घबरा कर मुंबई की नौकरी छोड़ दिल्ली आ गया था और दिल्ली में उस ने मीनाक्षी से शादी कर ली. उधर अमेरिका पहुंचते ही सेठ ने स्मृति की सगाई कर दी, लेकिन स्मृति विजय को भुला नहीं पा रही थी. उस ने अपने मंगेतर को सब कुछ साफसाफ बता दिया. पता नहीं उस के मंगेतर की अपने जीवन की कहानी इस से मिलतीजुलती थी या उसे स्मृति की स्पष्टवादिता भा गई थी, उस ने स्मृति से शादी करने से इनकार कर दिया.

स्मृति की शादी की बात तो बनी नहीं थी. अत: वे दोनों यूरोप घूमने निकल गए. उस दौरान स्मृति ने विजय से कई बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी, क्योंकि विजय मुंबई छोड़ चुका था. 6 महीनों बाद जब वे मुंबई लौटे तो विजय को बहुत ढूंढ़ा गया, लेकिन सब बेकार रहा. स्मृति विजय के लिए परेशान रहती थी और उस के पिता उस की शादी को ले कर परेशान रहते थे.

एक दिन अचानक विजय से उस की मुलाकात हो गई. स्मृति बिना शादी किए लौट आई है, यह जान कर विजय हैरानपरेशान हो गया. उस की आंखों में स्मृति से शादी कर के करोड़पति बनने का सपना फिर से तैरने लगा.

मेरे पूछने पर स्मृति ने शरमाते हुए बताया कि उन की शादी को मात्र 5 महीने हुए हैं. मन में आया कि इसी पल उसे सब कुछ बता दूं. धोखेबाज विजय की कलई खोल कर रख दूं. स्मृति को बता दूं कि उस के साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है. लेकिन मैं ऐसा न कर सकी. उस के मधुर व्यवहार, उस के चेहरे की मुसकान, उस की मांग में भरे सिंदूर ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया.

मेरे एक वाक्य से यह बहार, पतझड़ में बदल जाती. अत: मैं अपने को इस के लिए तैयार नहीं कर पाई. यह जानते हुए भी कि यह सब गलत है, धोखा है मेरी जबान मेरा साथ नहीं दे रही थी. एक तरफ पलदोपल की पहचान वाली स्मृति थी तो दूसरी तरफ मेरे बचपन की सहेली मीनाक्षी. मेरे लिए किसी एक का साथ देना कठिन हो गया. मैं तुरंत वहां से चल दी. स्मृति पूछती ही रह गई कि विजय के बारे में यह सब किस अखबार में, किस दिन छपेगा? खबर तो छपने लायक ही हाथ लगी थी, लेकिन इतनी गरम थी कि इस से स्मृति का घरसंसार जल जाता. उस की आंच से मीनाक्षी भी कहां बच पाती. ‘बाद में बताऊंगी’ कह कर मैं तेज कदमों से बाहर आ गई.

मैं दिल्ली लौट आई. मन में तूफान समाया था. बेचैनी जब असहनीय हो गई तो मुझे लगा कि मीनाक्षी को सब कुछ बता देना चाहिए. वह मेरे बचपन की सहेली है, उसे अंधेरे में रखना ठीक नहीं. उस के साथ हो रहे धोखे से उसे बचाना मेरा फर्ज है.

मैं अनमनी सी मीनाक्षी के घर जा पहुंची. मुझे देखते ही वह हमेशा की भांति खिल उठी. उस की वही बातें फिर शुरू हो गईं. कल ही विजय का फोन आया था. उस के भेजे क्व50 हजार अभी थोड़ी देर पहले ही मिले हैं. विजय अपने अकेलेपन से बहुत परेशान है. हम दोनों को बहुत याद करता है. दोनों की पलपल चिंता करता है वगैरहवगैरह. एक पतिव्रता पत्नी की भांति उस की दुनिया विजय से शुरू हो कर विजय पर ही खत्म हो जाती है.

मेरे दिमाग पर जैसे कोई हथौड़े चला रहा था. विजय की सफल अदाकारी से मन परेशान हो रहा था. लेकिन जबान तालू से चिपक गई. मुझे लगा मेरे मुंह खोलते ही सामने का दृश्य बदल जाएगा. क्या मीनाक्षी, विजय के बिना जी पाएगी? क्या होगा उस के बेटे विशु का?

मैं चुपचाप यहां से भी चली आई ताकि मीनाक्षी का भ्रम बना रहे. उस की मांग में सिंदूर सजा रहे. उस का घरसंसार बसा रहे. लेकिन कब तक?

‘सदा सच का साथ दो’, ‘सदा सच बोलो’, और न जाने कितने ही ऐसे आदर्श वाक्य दिनरात मेरे कानों में गूंजने लगे हैं, लेकिन मैं उन्हें अनसुना कर रही हूं. मैं उन के अर्थ समझना ही नहीं चाहती, क्योंकि कभी मीनाक्षी और कभी स्मृति का चेहरा मेरी आंखों के आगे घूमता रहता है. मैं उन के खिले चेहरों पर मातम की काली छाया नहीं देख पाऊंगी.

पता नहीं मैं सही हूं या गलत? हो सकता है कल दोनों ही मुझे गलत समझें. लेकिन मुझ से नहीं हो पाएगा. मैं तब तक चुप रहूंगी जब तक विजय का नाटक सफलतापूर्वक चलता रहेगा. परदा उठने के बाद तो आंसू ही आंसू रह जाने हैं, मीनाक्षी की आंखों में, स्मृति की आंखों में, सेठ अमृतलाल की आंखों में और स्वयं मेरी भी आंखों में. फिर भला विजय भी कहां बच पाएगा? डूब जाएगा आंसुओं के उस सागर में.

गहराता शक: भाग 2-आखिर कुमुद को पछतावा क्यों हुआ?

सोमेन अगले ही दिन आया. शाम को 6 बजे कुमुद, रघु, नीता सभी पिक्चर के लिए तैयार हो रहे थे कि वह आ पहुंचा. उस के आने पर नक्शा पलट गया. कुमुद को अपना पड़ोस का पुराना दोस्त बता कर रघु से उस का परिचय कराना पड़ा. फिल्म के टिकट खरीदे नहीं थे इसलिए पिक्चर जाना छोड़ सभी बैठ गए.

नाश्ते पर सोमेन कहने लगा, ‘‘कुम्मू बहुत जंचने लगी है अब तो.’’

कुमुद सिर झुकाए प्लेट में चम्मच इधरउधर करती रही. वह अपने में मस्त कहता रहा, ‘‘सच रघु, यह पहले बड़ी दुबलीपतली सी थी. अब तो काफी भर गया है बदन. लड़कियां कहती हैं न ब्याह का पानी…’’ वह कुमुद को देख कर हंसा, ‘‘यह नटखट भी कम नहीं रही है. बचपन में, खेल ही खेल में इस ने एक बार मेरी कलाई पर इतने जोर से काट लिया कि कप भर खून तो

बहा ही होगा. अभी तक दाग बना है,’’ उस ने कलाई का दाग दिखाया रघु को. फिर मजे से किलकारी सी मार कर हंसा, ‘‘घर आ कर मैं ने मां से कहा कि पड़ोस के एक साथी ने खेल में काट लिया है… ये देवीजी उस दिन पिटने से बच गईं.’’

कुमुद ने कनखियों से देखा, रघु का चेहरा भावहीन, जड़ जैसा बना था. नीता सोमेन की

बातें उत्सुकता से सुन रही थी. कुमुद की इच्छा हुई एक प्लेट नीचे गिरा दे ताकि बातों का विषय बदले.

उधर सोमेन अपनी ही रौ में कहता जा रहा था, ‘‘अब तो यह बड़ी गंभीर बन गई है. कोई शैतानी तो नहीं करती?’’

रघु के होंठ फड़फड़ाए. जैसी किसी गहरे कुएं से आवाज आई हो, ऐसे स्वर में बोला, ‘‘नहीं, बड़ी सीधी है.’’

‘‘हो सकता है, जनाब.’’ सोमेन ने बड़े दार्शनिक भाव से कहा, ‘‘विवाह चीज ही ऐसी है, बड़ेबड़े सीधे हो जाते हैं. तभी तो अभी तक शादी नहीं की, न कोई इरादा ही है.’’

फिर सोमेन एकाएक मुसकरा कर बोला, ‘‘कुमु, याद है वह बार्बी, जिसे तुम्हारे मामाजी लाए थे,’’ वह रघु और नीता से कहने लगा, ‘‘इन देवीजी को अपनी बार्बी का घर पूरा करना था. मेरे पास लीगों का सैट था. मैं ने ही बार्बी का घर बसाया, मेरा मतलब बनाया. याद है, कुमु,’’ सोमेन ने हंसते हुए पूछा.

कुमुद देख रही थी. दोनों भाईबहन खामोश हैं. उस बेवकूफ सोमेन को क्या जरा भी अक्ल नहीं? उस ने जबरन होंठों पर मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘सोमेन, तुम वैसे ही रहे नटखट. बकबक किए जा रहे हो, नाश्ता वैसे ही रखा है. इन बातों को छोड़ो, बहुत बचपन की बातें हैं.’’

‘‘हांहां,’’ कह सोमेन ने नाश्ते पर ध्यान दिया.

उस दिन किसी तरह जब सोमेन वहां से टला तो कुमुद ने चैन की सांस ली. जाते हुए वह वादा भी करता गया कि बीचबीच में मिलता रहेगा.

नीता के उठ जाने पर कुमुद ने हलके ढंग से रघु को बताया, ‘‘यह सोमेन भी बड़ा अजीब है. बचपन में उसे गरदन तोड़ बुखार हो गया था, तभी से इस के पेंच कुछ ढीले रहे हैं. मांबाप डरते रहते थे, पता नही कब क्या कर बैठे.

दिमाग की कमजोरी कभी दूर नहीं हुई. हैरानी है कि इसे बैंक में नौकरी मिल गई और यहीं की ब्रांच में.’’

रघु ने बड़े शांत भाव से कहा, ‘‘तुम्हारे तो बचपन के साथी ठहरे. यहीं नौकरी मिली तो क्या बुरा है. साथ रहेगा. तुम दोनों को खुशी होगी. कभीकभार औफिस से आतेजाते लिफ्ट भी दे दिया करेगा.’’

कुमुद ने उपेक्षा के भाव से कहा, ‘‘मुझे क्या खुशी होगी. बिना बात मिल कर बोर किया करेगा और मुझे लिफ्ट भी दे दिया करेगा पर उस की लिफ्ट की जरूरत ही क्या है जब तुम हो औफिस से पिकअप करने के लिए.’’

रघु उठ खड़ा हुआ. मोबाइल में मेल चैक करता हुआ बोला, ‘‘तो क्या हुआ, अब तो वह यहीं है, खूब देखना पिक्चर. बड़ा खुश था, तुम्हारे भरे बदन को देख कर. बेचारे ने तुम्हें हमेशा दुबलीपतली ही देखा. अब यह सुंदर दृश्य देखने बारबार न आएगा यहां तो गरीब का मन कैसे मानेगा?’’

कुमुद ने आंखें उठा कर रघू को देखा. ठहरे हुए स्वरों में पूछा, ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘मतलब?’’ रघु ने शांति से कहा, ‘‘मेरा क्या मतलब होगा. बचपन के 2 घनिष्ठ दोस्तों के बीच कुछ कहने, टांग अड़ाने वाला मैं कौन हूं?’’

‘‘रघू,’’ कुमुद ने आहत स्वरों में कहा, ‘‘तुम्हें तो ऐसा नहीं कहना चाहिए. तुम्हीं ऐसा कहोगे तो…’’

किसी को फोन करने की ऐक्टिंग करते हुए रघु बाहर निकल गया.

रात को भोजन की मेज पर दोनों परस्पर बड़े शिष्टाचार और ठंडेपन से पेश आते रहे. नीता को वातावरण कुछ ऐसा भारी और दमघोटू लगा कि वह जल्दी से अपना खाना खत्म कर पहले ही मेज से उठ खड़ी हुई.

रात को सोते समय चौड़े पलंग के किनारे पर लेटी कुमुद को लगा जैसे वह सागर के किनारे ठंडे बालू पर लेटी है. लहरें बारबार आ कर उसे भिगो देती हैं और रघु समुद्र के दूसरे किनारे पर सो रहा है. वह रघु को पुकारती पर

रघु उस की आवाज नहीं सुन पाता. लहरों की गर्जन के बीच वह जाग रही है या सोई, उसे यह भान न रहा.

आज सुबह से ही वही वातावरण बना है. नीता मन ही मन कुढ़ती रही और कुमुद…

5 बज गए थे. कुमुद अपने दफ्तर से चल दी. घर पहुंच कर कपड़े बदले, हलका सा मेकअप किया, चाय की मेज बरामदे में सजा दी और नित्य के नियमानुसार बरामदे में आ बैठी. रघु समय का पक्का है. ठीक 7 बजे घर आ पहुंचता है.

नीता आ कर बगल की कुरसी पर बैठी. कुमुद से पूछा, ‘‘रघु आए नहीं अभी?’’

कुमुद ने कलाई घड़ी देखी, 8 बजे थे. समय का पाबंद रघु अभी तक नहीं आया था. नीता ने टीकोजी उठाई और बोली, ‘‘भाभी, चाय ठंडी हो रही है.’’

कुमुद बेचैनी के साथ फाटक पर दृष्टि गड़ाए रही. धीरेधीरे 8:30 बज गए पर रघु अभी तक नहीं आया.

‘‘पता नहीं, कहां चले गए,’’ नीता ने खिन्न हो कर कहा, ‘‘दोस्तों के साथ मटरगश्ती करने चल दिए होंगे. मैं तो जाती हूं पढ़ने, भाभी. परीक्षा सिर पर है,’’ और वह भीतर चल दी.

लव यू पापा: तनु ने उस रात आखिर क्या किया

‘‘अरे तनु, तुम कालेज छोड़ कर यहां कौफी पी रही हो? आज फिर बंक मार लिया क्या? इट्स नौट फेयर बेबी,’’ मौल के रेस्तरां में अपने दोस्तों के साथ बैठी तनु को देखते ही सृष्टि चौंक कर बोली. फिर तनु से कोई जवाब न पा कर खिसियाई सी सृष्टि उस के दोस्तों की तरफ मुड़ गई. पैरों में हाईहील, स्टाइल से बंधे बाल और लेटैस्ट वैस्टर्न ड्रैस में सजी सृष्टि को तनु के दोस्त अपलक निहार रहे थे.

‘‘चलो, अब आ ही गई हो तो ऐंजौय करो,’’ कहते हुए सृष्टि ने कुछ नोट तनु के पर्स में ठूंस सब को बाय किया और फिर रेस्तरां से बाहर निकल गई. ‘‘तनु, कितनी हौट हैं तुम्हारी मौम… तुम तो उन के सामने कुछ भी नहीं हो…’’

यह सुनते ही रेस्तरां के दरवाजे तक पहुंची सृष्टि मुसकरा दी. वैसे उस के लिए यह कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि उसे अकसर ऐसे कौंप्लिमैंट सुनने को मिलते रहते थे. मगर तनु के चेहरे पर अपनी मां के लिए खीज के भाव साफ देखे जा सकते हैं. सृष्टि बला की खूबसूरत है. इतनी आकर्षक कि किसी को भी मुड़ कर देखने पर मजबूर कर देती है. उसे देख कर कोई भी कह सकता है कि हां, कुछ लोग वाकई सांचे में ढाल कर बनाए जाते हैं.

16 साल की तनु उस की बेटी नहीं, बल्कि छोटी बहन लगती है. जिस खूबसूरती को लोग वरदान समझते हैं वही सुंदरता सृष्टि के लिए अभिशाप बन गई थी. 5 साल पहले जब तनु के पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई तब इसी खूबसूरती ने 1-1 कर सब नातेरिश्तेदारों, दोस्तों और जानपहचान वालों के चेहरों से नकाब उठाने शुरू कर दिए थे.

नकाबों के पीछे छिपे कुछ चेहरे तो इतने घिनौने थे कि उन से घबरा कर सृष्टि ने यह दुनिया ही छोड़ने का फैसला कर लिया. मगर तभी तनु का खयाल आ गया. उसे लगा कि जब वही इस दुनिया का सामना नहीं कर पा रही है तो फिर यह नादान तनु कैसे कर पाएगी. फिर उन्हीं दिनों उस की जिंदगी में आए थे अभिषेक… अभिषेक सृष्टि के पति के सहकर्मी थे और उन की मृत्यु के बाद अब सृष्टि के, क्योंकि सृष्टि को उसी औफिस में अपने पति के स्थान पर अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल गई थी. अभिषेक अब तक कुंआरे क्यों थे, यह सभी के लिए कुतूहल का विषय था.

यह राज पहली बार खुद अभिषेक ने ही सृष्टि के सामने खोला था कि पिताविहीन घर में सब से बड़े होने के नाते छोटे भाईबहनों की जिम्मेदारियां निभातेनिभाते कब खुद उन की शादी की उम्र निकल गई, उन्हें पता ही नहीं चला और इन सब के बीच उन का दिल भी तो कभी किसी के लिए ऐसे नहीं धड़का था जैसे अब सृष्टि को देख कर धड़कता है. यह सुन कर एकबार को तो सृष्टि सकपका गई, मगर फिर सोचा कि क्यों कटी पतंग की तरह खुद को लुटने के लिए छोड़ा जाए… क्यों न अपनी डोर किसी विश्वासपात्र के हाथों सौंप कर निश्चिंत हुआ जाए. मगर अपने इस निर्णय से पहले उसे तनु की राय जानना बहुत जरूरी था और तनु की राय जानने के लिए जरूरी था उस का अभिषेक से मिलना और फिर उन्हें अपने पिता के रूप में स्वीकार करने को सहमत होना, क्योंकि तनु अभी तक अपने पिता को भूल नहीं पाई थी. भूली तो वह भी कहां थी, मगर हकीकत यही है कि जीवन की सचाइयों को कड़वी गोलियों की तरह निगलना ही पड़ता है और यह बात उस की तरह तनु भी जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है.

अभिषेक का सौम्य और स्नेहिल व्यवहार… नानी का तनु को दुनियादारी समझाना और थोड़ीबहुत सामाजिक सुरक्षा की जरूरत भी, जोकि शायद खुद तनु ने महसूस की थी…सभी को देखते हुए तनु ने बेमन से ही सही मगर सृष्टि के साथ अभिषेक के रिश्ते को सहमति दे दी. अभिषेक को उन के साथ रहते हुए लगभग साल भर होने को आया था, लेकिन तनु अभी भी उन्हें अपने दिल में बसी पिता की तसवीर के फ्रेम में फिट नहीं कर पाई थी. वह उन्हें अपनी मां के पति के रूप में ही स्वीकार कर पाई थी, अपने पिता के रूप में नहीं. तनु ने एक बार भी अभिषेक को पापा कह कर नहीं पुकारा था.

पिता का असमय चले जाना और मां की नई पुरुष के साथ नजदीकियां तनु को भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर कर रही थीं. बातबात में चीखनाचिल्लाना, अपनी हर जिद मनवाना, हर वक्त अपने मोबाइल से चिपके रहना, अभिषेक के औफिस से घर आते ही अपने कमरे में घुस जाना तनु की आदत बनती जा रही थी. उस की मानसिक दशा देख कर कई बार सृष्टि को अपने फैसले पर अफसोस होने लगता. मगर तभी अभिषेक तनु के इस व्यवहार को किशोरावस्था के सामान्य लक्षण बता कर सृष्टि को इस गिल्ट से बाहर निकाल देते थे.

अभिषेक का साथ पा कर सृष्टि की मुरझाती खूबसूरती फिर से खिलने लगी थी. अभिषेक भी उसे हर समय सजीसंवरी देखना चाहते थे. इसीलिए उस के कपड़ों, गहनों और अन्य ऐक्सैसरीज पर दिल खोल कर खर्च करते थे. शायद लेट शादी होने के कारण पत्नी को ले कर अपनी सारी दबी इच्छाएं पूरी करना चाहते थे. मगर इस के ठीक विपरीत तनु अपनेआप को बेहद अकेला और असुरक्षित महसूस करने लगी थी. अपनेआप से बेहद लापरवाह हो चुकी थी.

धीरेधीरे तनु के कोमल मन में यह भावना घर करने लगी थी कि मां की सुंदरता ही उस के जीवन का सब से बड़ा अभिशाप है. जब कभी कोई उस की तुलना सृष्टि से करता तो तनु के सीने पर सांप लोट जाता था. उसे सृष्टि से घृणा सी होने लगी थी. अब तो उस ने सृष्टि के साथ बाहर आनाजाना भी लगभग बंद कर दिया था. उस के दिमाग में यही उथलपुथल रहती कि अगर मां इतनी सुंदर न होती तो अभिषेक का दिल भी उन पर नहीं आता और तब वे सिर्फ तनु की मां होतीं, अभिषेक या किसी और की पत्नी नहीं.

मां को भी तो देखो. कितनी इतराने लगी हैं आजकल… पांव हैं कि जमीन पर टिकते ही नहीं… हर समय अभिषेक आगेपीछे जो घूमते रहते हैं. तो क्या यह सब अभिषेक के प्यार की वजह से है? अगर अभिषेक इन की बजाय मुझे प्यार करने लगें तो? फिर मां क्या करेंगी? कैसे एकदम जमीन पर आ जाएंगी… कल्पना मात्र से ही तनु खिल उठी. तनु के मन में ईर्ष्या के नाग ने फन उठाना शुरू कर दिया. उस के दिमाग ने तेजी से सोचना शुरू कर दिया. कई तरह की योजनाएं बननेबिगड़ने लगीं. अचानक तनु के होंठों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. आखिर उसे रास्ता सूझने लगा था.

हां, मैं अब अभिषेक को अपना बनाऊंगी… उन्हें मां से दूर कर के मां का घमंड तोड़ दूंगी… तनु ने यह फैसला लेने में जरा भी देर नहीं लगाई. मगर यह इतना आसान नहीं है, यह बात भी वह अच्छी तरह से जानती थी. अपनी योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए उस ने अभिषेक पर पैनी नजर रखनी शुरू कर दी. उस की पसंदनापसंद को समझने की कोशिश करने लगी. उस के औफिस से आते ही वह उस के लिए पानी का गिलास भी लाने लगी थी. हां, अभिषेक को देख कर प्यार से मुसकराने में उसे जरूर थोड़ा वक्त लगा था. ‘‘मां, सिर में बहुत तेज दर्द है… थोड़ा बाम लगा दो न…’’ तनु जोर से चिल्लाई तो अभिषेक भाग कर उस के कमरे में गए. देखा तो तनु बिस्तर पर औंधे मुंह पड़ी थी. शौर्ट पहने सोई तनु ने अपने शरीर पर चादर कुछ इस तरह से डाल रखी थी कि उस की खुली जांघों ने अभिषेक का ध्यान एक पल के लिए ही सही, अपनी तरफ खींच लिया. उन्हें अटपटा सा लगा तो चादर ठीक से ओढ़ा कर उस के सिर पर हाथ रखा. बुखार नहीं था. सृष्टि सब्जी लेने गई थी, अभी तक लौटी नहीं थी. इसीलिए वे तनु के सिरहाने बैठ कर उस का माथा सहलाने लगे. तनु ने खिसक कर अभिषेक की गोद में सिर रख लिया तो अभिषेक को अच्छा लगा. उन्हें विश्वास होने लगा कि शायद अब उन के रिश्ते में जमी बर्फ पिघल जाएगी.

धीरेधीरे तनु अभिषेक से खुलने लगी. कभीकभी सृष्टि की अनुपस्थिति में वह अभिषेक को जिद कर के बाहर ले जाने लगी. चलतेचलते कभी उस का हाथ पकड़ लेती तो कभी उस के कंधे पर सिर टिका लेती. अभिषेक भी पूरी कोशिश करते थे उसे खुश करने की. वे उस की जिंदगी में पिता की हर कमी को पूरा करना चाहते थे. मगर कभीकभी वे सोच में पड़ जाते थे कि आखिर तनु उन से क्या चाहती है, क्योंकि तनु ने अब तक उन्हें पापा कह कर संबोधित नहीं किया था. वह हमेशा उन से बिना किसी संबोधन के ही बात करती थी.

बाहर जाते समय कपड़ों के मामले में तनु अभिषेक के पसंदीदा रंग के कपड़े ही पहनती थी. एक दिन पार्क में बेंच पर अभिषेक के कंधे से लग कर बैठी तनु ने अचानक अभिषेक से पूछ लिया, ‘‘मैं आप को कैसी लगती हूं?’’ ‘‘जैसी हर पिता को अपनी बेटी लगती है… एकदम परी जैसी…’’ अभिषेक ने बहुत ही सहजता से जवाब दिया. मगर इसे सुन कर तनु के चेहरे की मुसकान गायब हो गई. फिर मन ही मन बड़बड़ाई कि किस मिट्टी का बना है यह आदमी… मैं तो इसे अपने मोहजाल में फंसाना चाह रही हूं और यह है कि मुझ में अपनी बेटी ढूंढ़ रहा है… या तो यह इंसान बहुत नादान है या फिर बहुत ही चालाक… कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मेरी पहल का इंतजार कर रहा है? लगता है अब मुझे अपना मास्टर स्ट्रोक खेलना ही पड़ेगा और फिर मन ही मन कुछ तय कर लिया. ‘‘अभिषेक, मां की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें मेरी जरूरत है. मुझे 2-4 दिनों के लिए वहां जाना होगा. तुम तनु का खयाल रखना प्लीज…’’ सृष्टि ने अभिषेक के औफिस लौटते ही कहा तो तनु की जैसे मन मांगी मुराद पूरी हो गई हो. वह ऐसे ही किसी मौके का तो इंतजार कर रही थी. वह कान लगा कर उन दोनों की बातें सुनने लगी. थोड़ी ही देर में सृष्टि ने कैब बुलाई और 4 दिनों के लिए अपनी मां के घर चली गई. जातेजाते उस ने तनु को गले लगा कर समझाया कि वह अपना और अभिषेक का खयाल रखे.

अभिषेक को रात में सोने से पहले शावर बाथ लेने की आदत थी. जब वह नहा कर बाथरूम से बाहर आया तो तनु को अपने बैड पर सोते देख चौंक गया. कमरे की डिम लाइट में पारदर्शी नाइटी से तनु के किशोर अंग झांक रहे थे. तनु दम साधे पड़ी अभिषेक की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही थी. अभिषेक कुछ देर तो वहां खड़े रहे, फिर धीरे से तनु को चादर ओढ़ाई और लाइट बंद कर के लौबी में आ कर बैठ गए. सुबह दूधवाले ने जब घंटी बजाई तो उसे भान हुआ कि वह रात भर यह सोफे पर ही सो रहा था. तनु हताश हो गई. अभिषेक को अपनी ओर खींचने के लिए किस डोरी से बांधे उसे… उस के सारे हथियार 1-1 कर निष्फल हो रहे थे. कल तो मां भी वापस आ जाएंगी… फिर उसे यह सुनहरा मौका नहीं मिलेगा… उसे जो कुछ करना है आज ही करना होगा. तनु ने आज आरपार का खेल खेलने की ठान ली.

रात लगभग आधी बीत चुकी थ्ीि. अभिषेक नींद में बेसुध थे. तभी अचानक किसी के स्पर्श से उन की आंख खुल गई. देखा तो तनु थी. उस से लिपटी हुई. अभिषेक कुछ देर तो यों ही लेटे रहे, फिर धीरे से करवट बदली. अभिषेक तनु के मुंह पर झुकने लगे. तनु अपनी योजना की कामयाबी पर खुश हो रही थी. अभिषेक ने धीरे से उस के माथे को चूमा और फिर अपने ऊपर आए उस के हाथ को छुड़ा तनु को वहीं सोता छोड़ लौबी में आ कर सो गए. उस दिन संडे था. सृष्टि कुछ ही देर पहले मां के घर से लौटी थी. नहानेधोने और नाश्ता करने के बाद सृष्टि अभिषेक को मां की तबीयत के बारे में बताने लगी. तनु के कान उन दोनों की बातों की ही तरफ लगे थे. वह डर रही थी कि कहीं अभिषेक उस की हरकतों की शिकायत सृष्टि से न कर दे. अचानक सृष्टि ने जरा शरमाते हुए कहा, ‘‘अभि, मां चाहती हैं किअब हम दोनों का भी एक बेबी आना चाहिए.’’

यह सुनते ही तनु को झटका सा लगा. ‘लो, अब यही दिन देखना बाकी रह गया था. अब इस उम्र में मां फिर से मां बनेंगी… हुंह,’ तनु ने सोच कर मुंह बिचका दिया.

‘‘सृष्टि मुझे तनु के प्यार में कोई हिस्सेदारी नहीं चाहिए… मैं तुम से यह बात छिपाने के लिए माफी चाहता हूं, मगर तुम से शादी करने से पहले ही मैं ने फैसला कर लिया था कि मुझे तनु अपनी एकमात्र संतान के रूप में स्वीकार है, इसलिए मैं ने बिना किसी को बताए हमारी शादी से पहले ही अपना नसबंदी का औपरेशन करवा लिया था,’’ अभिषेक ने कहा. यह सुन कर सृष्टि और तनु दोनों ही

चौंक उठीं. ‘‘हमें तनु का खास खयाल रखना होगा सृष्टि… 16 साल की तनु मन से अभी भी 6 साल की अबोध बच्ची है… यह अपनेआप को बहुत अकेला महसूस करती है… कोई भी बाहरी व्यक्ति इस के भोलेपन का गलत फायदा उठा सकता है. बिना बाप की यह मासूम बच्ची कितनी डरी हुई है. यह मुझे पिछले 3 दिनों में एहसास हो गया. तुम्हें पता है, इसे रात में कितना डर लगता है? इसे जब डर लगता था तो यह कितनी मासूमियत से मुझ से लिपट जाती थी… नहीं सृष्टि मैं तनु का प्यार किसी और के साथ नहीं बांट सकता… मैं बहुत खुशनसीब हूं कि कुदरत ने मुझे इतनी प्यारी बेटी दी है,’’ अभिषेक अपनी ही रौ में बहे जा रहे थे.

सृष्टि अपलक उन्हें निहार रही थी. और तनु? वह तो शर्म से पानीपानी हुई जैसे जमीन में गड़ जाना चाहती थी. फिर जैसे ही अभिषेक ने आ कर उसे गले से लगाया तो वह सिसक उठी. आंखों से बहते आंसुओं के साथ मन का सारा मैल धुलने लगा. सृष्टि ने पीछे से आ कर दोनों को अपनी बांहों में समेट लिया. अभिषेक ने तनु के गाल थपथपाते हुए कहा, ‘‘अब बना है यह सही माने में स्वीट होम…’’

तनु ने मुसकराते हुए धीरे से कहा, ‘‘लव यू पापा,’’ और फिर उन से लिपट गई.

संतुलित सहृदया: एक दिन जब समीरा से मिलने आई मधुलिका

गहराता शक: भाग 1-आखिर कुमुद को पछतावा क्यों हुआ?

कुमुद को पछतावा हो रहा था कि उस ने समय रहते सुमित्रा की बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया. शादी से पहले उस प्राइवेट कालेज में सुमित्रा उस की घनिष्ठ सहेली थी. कुमुद के विवाह की बात चल रही थी. सुमित्रा विवाहित थी और शादी के बाद अब फिर बीए पूरा करने कालेज जा रही थी. एक दिन खाली घंटी में लाइब्रेरी के एक कोने में बैठ कर उस ने जोजो बातें कुमुद को सम?ाई थीं, वे याद आने लगीं.

कुमुद ने करवट बदली. घड़ी में 3 बज गए पर उस का पलंग से उठने का मन नहीं हो रहा था. चाय में अभी देरी थी. वह सुमित्रा की बातें सोचने लगी…

सुमित्रा ने बड़ी गंभीरता से कहा था, ‘‘कुम, मेरी बात पर ध्यान दे. पत्रपत्रिकाओं या किताबों में पढ़ी बातें कह रही हूं, व्हाट्सऐप वाली नहीं. जो कुछ जिंदगी में थोड़ा सा देखा हुआ है, जो गंभीर पढ़ा था, जो भोगा है वही बता रही हूं कि किसी भी हालत में किसी लड़के को पत्र मत लिखना, डायरी न रखना कंप्यूटर पर चाहे पासवर्ड से सेफ क्यों न हों. डायरी रखनी हो तो बस रोजमर्रा की मामूली बातें लिखना, शरत की नायिका की तरह उस में अपनी भावुकता किसी के बारे में बघारने मत बैठ जाना, सम?ा? सब से बड़ी बात सैल्फी लेने में हिचकना. कम से कम सैल्फी या फोटो ही अच्छे रहते हैं.’’

कुमुद ने हंस कर पूछा, ‘‘तू ये बातें कैसे जानती है? क्या कोई…’’

‘‘चुप रह, बेवकूफ लड़की,’’ सुमित्रा ने गुस्से से उसे डांटा, ‘‘तुझे क्या पता. हंस रही है. उस सोमेन को ज्यादा मुंह न लगा. कोई खास

बात हो तुम लोगों के बीच, इस से बहस नहीं, पर वह नौजवान लड़का है. उस के प्रति या तो पूरी तरह समर्पित हो कर उस पर मर मिट और उस से अभी शादी कर ले या फिर उस से दूर रह.’’

कुमुद ने गंभीरता से कहा, ‘‘सुमि, सोमेन या किसी लड़के से मैं मित्र या भाई का संबंध रखूं तो क्या हो गया, लोगों की तो आदत है कि जहां किसी लड़की को किसी लड़के से मिलते देखा नहीं कि झट उन्हें प्रेमीप्रेमिका मान बैठते हैं. अपना दिल साफ रहना चाहिए, बस. प्रेम विवाह तो आज की जरूरत है.’’

‘‘भई, अब तू जाने, तेरा काम जाने,’’ सुमित्रा ने ऊब कर कहा, ‘‘मेरा काम तुझे समझना था सो समझ दिया. ये सारे किताबी सिद्धांत हैं. मेरा मतलब है जरा होशियार रह.

प्रेम विवाह पर पात्र भी तो देखा जाता है. देखसुन कर काम कर. अब मैं कुछ नहीं कहूंगी, तू बच्ची नहीं.’’

सुमित्रा की ये बातें कुमुद के कानों में लगातार गूंज रही थीं. खट की आवाज पर वह चौंकी. बाई ने  पलंग की बगल के स्टूल पर चाय की ट्रे ला कर रख दी थी.

कुमुद ने पूछा, ‘‘नीता कहां हैं, देखो.’’

तभी परदा हटा कर चमकतीदमकती नीता भीतर आई. बोली, ‘‘लो भाभी, मैं आ गई. जरा हाथमुंह धोने बाथरूम तक गई थी.’’

कुमुद ने देखा, नीता के सुंदर चेहरे पर से पानी की बूंदें टपक रही थीं. कई बड़ीबड़ी बूंदें कनपटियों के बालों में उलझ हुई थीं. उस ने प्यार से कहा, ‘‘चेहरे से पानी तो पोंछ लो.’’

कुमुद चाय बनाने लगी.

नीता ने आंचल से मुंह थपक कर पानी सुखाते हुए कहा, ‘‘भैया के आने का समय तो 5 बजे का है. तब तुम्हें चाय फिर पीनी पड़ेगी, भाभी.’’

‘‘और?’’ कुमुद मुसकराई, ‘‘बरामदे पर चाय की मेज सजाए. खुद भी सजधज कर मधुर मुसकान बिखेरते तुम्हारे भैया का स्वागत भी तो करना पड़ेगा. आखिर आजकल मैं औफिस से 10 दिन की पेड लीव पर हूं.’’

नीता हंसी, ‘‘सच भाभी, क्या वाहियात औपचारिकता है.’’

‘‘जरूरी है,’’ कुमुद ने हलके व्यंग्यात्मक भाव से कहा, ‘‘कोई बेचारा दिनभर चक्की में जुत कर घर लौटे तो दूसरा दरवाजे पर खड़ा उस का स्वागत करे, यही नया नियम बनाया है आज के मनी वैज्ञानिकों ने.’’

नीता ने बगल की बुक शैल्फ से हैराल्ड राबिंस की किताब ‘द पाइरेट’ उठाई. 1-2 पृष्ठ उलटेपलटे, फिर बोली, ‘‘फिर भी भाभी जरा उन विकसित उन्नत देशों की स्त्रियों को देखो, जो अपने को बड़ी स्वतंत्र, पुरुष की बराबरी का समझती हैं. उन्हें किस प्रकार पुरुषों की गुलामी में सामूहिक रूप से जीना पड़ रहा है, कैसे वे आर्थिक, सामाजिक चक्रव्यूह में फंसी नाचती रहती हैं. पुरुषों की नजर में उन की कीमत सिर्फ उन के शरीर की है. वहां तो सामाजिक निर्माण में स्त्रियों की अभी भी मर्दों के बराबर की भूमिका नहीं. वहां के समाज ने उन्हें फुसलाने को ऊंची पोस्टों पर रख तो लिया है, पर असल में सारे फैसले पुरुष मैजोरिटी से ही होते हैं. ऊंचे पद पर बैठी औरत पर अभी भी हर जगह पुरुष का अहं चलता है. उस का निजी सम्मान उस की गर्लफ्रैंड या पत्नी में बसता है.’’

‘‘दूसरी तरफ,’’ कुमुद बोली, ‘‘हम लोगों में भी गांव की और मजदूरपेशा स्त्रियां पुरुष के साथ ज्यादा बराबरी का दर्जा रखती हैं. हम तो कभी गृहिणी बन जाती हैं तो कभी ड्राइंग रूमी शो पीस.’’

नीता ने जरा गंभीर हो कर पूछा, ‘‘तुम्हारे वे ओल्ड फ्रैंड तो बहुत मानते हैं तुम्हें, भाभी?’’

कुमुद के हाथ का कप हौले से कांप गया. नीता का ध्यान उधर नहीं था. वह अपनी ही रौ में कहती रही, ‘‘बड़े सीधे लगते हैं.’’

‘‘हां, सीधासादा है,’’ कुमुद की आवाज जैसे कहीं दूर से आ रही हो, ‘‘छोड़ो उसे. उस से मेरा कोई विशेष संबंध नहीं है. यों ही पड़ोस के नाते दोस्ती है.’’

नीता चाय की चुसकी लेती रही. कुमुद को पहले क्या पता कि उस कमबख्त सुमित्रा की बातें कैसे आड़े आएंगी. किसे पता था उस के पड़ोस का वही सोमेन यहीं की ब्रांच में बदल कर आ पहुंचेगा और बीच बाजार में उस से भेंट भी होगी.

उस ने कभी सोमेन को एक नटखट, गैरजिम्मेदार और खिलाड़ी टाइप के नौजवान से अधिक कुछ नहीं समझ था. पड़ोस का मुंहबोला भाई होने के नाते वह प्राय: घर में आता रहता. कुमुद की मां को वह आंटी कहता. कुमुद को जरा चोर निगाहों से देखता था, जो इस अवस्था में सहज स्वाभाविक ही था. कुमुद को याद है, हर साल रक्षाबंधन पर जब वह उन के घर जाती तो प्राय: किसी जरूरी काम से वह दिनभर बाहर रहता. उसे राखीटीका सब ढोंग प्रतीत होते.

कुमुद इन बातों का अर्थ समझती थी पर उस की नई उम्र में एक कुतूहल, एक सुखद सी उत्तेजना के सिवा इन का महत्त्व कुछ और नहीं था. कभीकभार जब कई लोग कहीं जा रहे होते तो वह भी साथ रहता था. रात वाली पार्टियों के बाद उसे घर छोड़ने भी वही आता. समवयस्क किशोरियों की भांति वह भी लड़कों को अपने प्रति आकर्षित देख प्रसन्न होती. उम्र की मांग के अनुरूप इस का भी विभिन्न तरीकों से अंदाजा लगाती रहती कि उस में लड़कों को खींचने योग्य कितना आकर्षण है. वह गु्रप फोटो में अकसर साथ होता.

यही छोटा सा, नगण्य खेल उस की विवाहिता सहेली सुमित्रा की नजरों से बच न पाया. कुमुद को उस ने तभी वे बातें समझाई थीं. उस ने उसे देर रात घर छोड़ते भी देखा था और साथ में कई दोस्तों के साथ रेस्तरांओं में खातेपीते भी.

कुमुद सोचने लगी, ‘क्या किया उस ने आखिर? सोमेन को कभी कोई साहस भी न हो पाया कि उसे उस से कुछ है या उस से कोई अपेक्षा है. वही बिंदास सा सामान्य खेल था, जो घर वालों की उपस्थिति में टीनऐजर्स खेल लेते हैं. कभी भी कोई प्यारव्यार या क्रश की बात नहीं, कोई फिल्मी डायलाग नहीं? कोई व्हाट्सऐप चैंट नहीं. न ही किसी तरह की कोई रंचमात्र की हरकत, न उस की रसीद. सोमेन उन दिनों बड़े दब्बू किस्म का लड़का था.’

फिर वह क्यों डरती है सोमेन से. नहीं, वह सोमेन से नहीं डरती. वह तो डरती है खुद से, रघु की संभावित प्रतिक्रियाओं से, उस के पति के अधिकारबोध से, उस की पतिसुलभ मानसिकता से, नीता से और सब से, एक सोमेन को छोड़ वह सब से डर रही है.

नीता चाय का खाली कप रख कर जा चुकी थी. कुमुद ने विचारमग्न सा दूसरा कप तैयार किया.

आज से एक सप्ताह पहले सोमेन बाजार में अकस्मात मिल गया. कुमुद नीता के साथ एक दुकान पर खड़ी साडि़यां और रघु के लिए शर्ट देख रही थी.

बगल के काउंटर पर कपड़े पसंद करता सोमेन उसे देख लपक आया. खुशीखुशी बोला, ‘‘हैलो, कुमुद तुम हो? भई वाह, खूब मिली. मेरी बदली यहीं की ब्रांच में हुई है. परसों ही तो आया हूं. तुम से मिलने की सोच रहा था.’’

कुमुद ने नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘सोमेन भैया, यह मेरी ननद है नीता… तुम कभी घर पर आना न, पता तो जानते ही होंगे.’’

सोमेन बुजुर्गों की तरह हंसा, ‘‘पता नहीं जानूंगा. तिलक ले कर मैं भी तो आया था.’’

पता नहीं, सोमेन से यों भेंट होना कुमुद को पसंद नहीं आ रहा था. वह यह भी देख रही थी कि सालभर पहले का दब्बू सा सोमेन अब काफी तेज लग रहा है. तेजी से बोलने लगा है. पहले सा मन में बात दबाता नहीं लगा.

साठ पार का प्यार: समीर को पाने का सुहानी ने आखिर कैसा अपनाया था पैतरा

सिल्वर जुबली गिफ्ट: भाग 3- क्यों गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही सुगंधा

इधर कुछ दिनों से सुगंधा को अपने दाएं स्तन में एक ठोस गांठ सी महसूस हो रही थी. जब उस ने इंद्र से स्थिति बयां की तो उस ने पूछा, ‘‘दर्द होता है क्या उस गांठ में?’’ ‘‘नहीं, दर्द तो नहीं होता,’’ सुगंधा ने जवाब दिया.

‘‘तो शायद तुम्हें मेनोपौज होने वाला है. मैं ने पढ़ा था कि मेनोपौज के दौरान कभीकभी ऐसे लक्षण पाए जाते हैं. घबराने की कोई बात नहीं, जान. कुछ नहीं होगा तुम्हें.’’

इंसान की फितरत होती है कि वह अनिष्ट की तरफ से आंखें बंद कर के सुरक्षित होने की गलतफहमी में खुश रहने की कोशिश करता है. सुगंधा भी इस का अपवाद नहीं थी. मगर जब कुछ महीनों के बाद उस के निपल्स के आसपास की त्वचा में परतें सी निकलने लगीं और कुछ द्रव्य सा दिखने लगा तो वह घबराई. धीरेधीरे निपल्स कुछ अंदर की तरफ धंसने लगे और शुरुआत में जो एक गांठ दाएं स्तन में प्रकट हुई थी, वैसी ही गांठें अब दोनों बगलों में भी उभर आई थीं. अब झटका लगने की बारी इंद्र की थी, वह अपने हाथ लगी ट्रौफी को किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहता था. जब वह सुगंधा को फैमिली डाक्टर के पास ले कर पहुंचा तो डाक्टर ने जनरल चैकअप करने के बाद तत्काल ही मैमोग्राम कराने की सलाह दी. मैमोग्राम रिपोर्ट में स्तन कैंसर के संकेत पाए जाने पर जरूरी ब्लडटैस्ट कराए गए. स्तन से टिश्यूज ले कर टैस्ट के लिए पैथोलौजी भेजे गए. सुगंधा की सभी रिपोर्ट्स के रिजल्ट को देखते हुए अब फैमिली डाक्टर ने उसे स्तन कैंसर विशेषज्ञ औंकोलौजिस्ट के पास जाने की सलाह दी.

‘‘आप ने इन्हें यहां लाने में काफी देर कर दी है. अब तक तो कैंसरस सैल ब्रैस्ट के बाहर भी बड़े क्षेत्र में फैल चुके हैं और अब इस बीमारी को किसी भी तकनीकी सर्जरी द्वारा कंट्रोल नहीं किया जा सकता. मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है, सर, इन का कैंसर अब उस स्टेज पर पहुंच चुका है जहां कोई भी इलाज असर नहीं करता,’’ औंकोलौजिस्ट ने सारी रिपोर्ट्स का सूक्ष्म निरीक्षण और सुगंधा का पूरी तरह से चैकअप करने के बाद इंद्र से कहा. उस रात घर वापस आ कर इंद्र और सुगंधा दोनों ही न सो सके. इंद्र की नींद क्यों उड़ी हुई थी, यह तो अस्पष्ट था मगर सुगंधा एक अजब से सुकून में जागी हुई थी. उस के दिलोदिमाग में बारबार गुलजार की मशहूर गजल का शेर घूम रहा था, ‘‘दफन कर दो हमें कि सांस मिले, नब्ज कुछ देर से थमी सी है.’’ सुगंधा के लिए तो नब्ज पिछले 26 वर्षों से थमी सी थी.

उस रात सुगंधा ने निश्चय किया कि उस का तनमन उस का तनमन है, किसी नामर्द, फरेबी की मिल्कीयत नहीं. उसे खुद के सम्मान का पूरापूरा अधिकार है. जीतेजी तो वह अपना मान न रख पाई और इंद्र उस की भावनाओं से अधिकारपूर्व खेलता रहा. वह सोचता रहा उस के साथ सात फेरे ले कर सुगंधा उस की मिल्कीयत बन गई थी. मगर भूल गया था कि वह सात फेरे गृहस्थ जीवन की नींव होते हैं और वह नींव मजबूत होती है तनमन से एकदूसरे को पूर्ण समर्पित हो कर, एक दूजे का बन कर, खुशियों का आशियाना बनाने से. झूठ के जाल बिछा कर किसी के पंख काट पर उसे पिंजरे में रखने से नहीं.

सुगंधा उम्रभर चुप्पी साधे रही. जीतेजी वह इंद्र से बगावत करने का साहस नहीं कर पाई थी, मगर मौत में ही सही, वह अपना मान जरूर करेगी. वह बदला लेगी और इंद्र को दुनिया के सामने बेनकाब कर के ऐसी जिल्लत देगी जो हिंदुस्तान की किसी भी पत्नी ने अपने पति को न दी हो. ऐसी जिल्लत, जिस के बोझ से दब कर वह अपनी बाकी की जिंदगी कराहते हुए जीने को विवश हो जाएगा. वह अपने एक वार से इंद्र के अनगिनत सितम का हिसाब बराबर करेगी. वह जानती थी कि अब उस के पास ज्यादा सांसें नहीं बची हैं, इसलिए दूसरे ही दिन उस ने शहर के जानेमाने वकील सुधांशु राय को फोन लगाया, मिलने का वक्त निश्चित करने के लिए ताकि वह अपना वसीयतनामा तैयार करवा सके. वैसे भी, अभी तो उस का इंद्र को सिल्वर जुबली गिफ्ट देना भी तो बाकी था.

यह वसीयतनामा जायदाद के लिए नहीं था, बल्कि उस के अंतिम संस्कार का था. दुनिया को बताने के लिए कि उस की शादी अमान्य थी, इंद्र तो शादी के योग्य ही नहीं था. उम्रभर वह नारीत्व के लिए तरसी थी. मातृत्व की हूक कलेजे में दबाती रही थी. वह कोई हृदयरोगी नहीं थी. एक बच्चे को जन्म देने के लिए वह पूरी तरह स्वस्थ थी. रोग तो इंद्र को था नपुंसकता का. ऐसा रोग जिस से वह विवाहपूर्व पूरी तरह परिचित था. फिर भी उसे एक पत्नी चाहिए थी, घर में ट्रौफी की तरह सजाने और दुनिया से अपनी नामर्दगी छिपाने के लिए. वह अपनी वसीयत में इंद्र को अपने अंतिम संस्कार से बेदखल कर गई थी और खुद को एक विधवा की हैसियत से सुपुर्देखाक करने की जिम्मेदारी अपने बेटे समान इकलौते भतीजे को सौंप गई थी.

सुगंधा दुनिया से जा चुकी थी अतृप्त ख्वाहिशों के साथ. उस ने उम्रभर अपनी कामनाओं का गला घोंटा, अपनी इच्छाओं की जमीन को बंजर रख कर, इंद्र के कोरे अहं के पौधे को सींचा था. 26 वर्षों तक दुनियादारी के बोझ से दबी सुगंधा मौत में इंद्र को जबरदस्त तमाचा मार कर गई थी. झूठे बंधन से मुक्त हो कर वह शांति से चिरनिद्रा में सो गई थी और छोड़ गई थी इंद्र को बेनकाब कर के.

अब बाकी बची उम्र सिसकियों में काटने की बारी इंद्र की थी. वह जब भी दीवार पर लटकी सुगंधा की तसवीर को देखता तो सिहर उठता. तसवीर में उस की आंखों को देख कर उसे ऐसा प्रतीत होता मानों वे आंखें उस से पूछ रही हों, ‘एक बार मुझे मेरा दोष तो बताओ, क्या किया था मैं ने ऐसा, जिस की सजा तुम मुझे जिंदगीभर देते रहे. पूरी हो कर भी मैं ने मातृत्व का सुख न जाना. तुम अपना अधूरापन जानते थे, फिर भी तुम ने मेरी जैसी स्त्री से विवाह किया. अपराध तुम्हारा था, तुम से विवाह कर के आहें मैं भरती रही. दिल मेरा जलता रहा.’ इंद्र की रातें अब बिस्तर में करवटें बदलते हुए कटती थीं. उसे याद आतीं हर सुबह सुगंधा की रोई हुई उनींदी आंखें. काश, उस ने वक्त रहते सुगंधा का दर्द, उस की तड़प महसूस की होती तो उस की बेचैनी का आज यह आलम न होता और सुगंधा उसे ऐसा सिल्वर जुबली गिफ्ट दे कर दुनिया से अलविदा न होती.

सिल्वर जुबली गिफ्ट: भाग 2- क्यों गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही सुगंधा

केक काटने की रस्म हो चुकी थी, अब बारी थी स्पीच देने की. सुगंधा ने तो उस शाम के लिए कुछ नहीं लिखा था क्योंकि सचाई पब्लिक में सुनाने लायक नहीं थी और झूठ को शब्दों का रुपहला जामा पहनाने की हिम्मत अब शिथिल होने लगी थी. मगर इंद्र ने पिछले कई महीनों से परिश्रम कर के, चिंतनमनन करकर के शब्दों का मखमली जाल बुना था और नातेरिश्तेदारों का दिल छू लेने वाली स्पीच तैयार की थी.

उस ने बड़े आत्मविश्वास के साथ स्पीच देना शुरू किया, ‘‘सुगंधा इज माई बैटरहाफ. मैं सुगंधा के बिना अपने वजूद की कल्पना भी नहीं कर सकता. सुगंधा मेरी वाइफ ही नहीं, मेरी लाइफ हैं. सुगंधा ही हैं जिन्होंने मेरे विचारों को पंख दिए हैं. सुगंधा वे हैं जो हर अच्छेबुरे वक्त में परछाईं की तरह मेरे साथ खड़ी रह कर मेरी ताकत बनी रही हैं. सुगंधा अपने नाम को पूर्ण सार्थक करते हुए मेरे जीवन के उपवन को महका कर खुशगवार बनाती रही हैं.

‘‘जब शादी की रात सुगंधा ने डरतेडरते मुझे बताया कि उन को दिल में छेद की बीमारी है और बच्चे को जन्म देना उन के लिए खतरनाक हो सकता है तो मैं ने उन से वादा किया था कि वे जैसी हैं, मुझे स्वीकार हैं. इतना ही नहीं, उस दिन के बाद मैं ने अपने कलेजे पर पत्थर रख लिया और सुगंधा के सामने संतान की चाहत या संतान न होने का मलाल भूल कर भी नहीं जताया. मैं ने वादा किया था और जगजाहिर है कि उसे निभा कर भी दिखा दिया.

मैं ने सुगंधा को उन की हर कमी के साथ अपनाया, और अपना तनमन सबकुछ उन पर वार दिया. अब आज के इस पावन अवसर पर मेरे पास इस से ज्यादा कुछ नहीं है जो कि मैं उन्हें सिल्वर जुबली गिफ्ट के रूप में दे सकूं.’’ इंद्र ने स्पीच खत्म करते हुए सुगंधा को अपनी बांहों में भर के एक जोरदार चुंबन दे दिया, जैसे कि सिल्वर जुबली की मुहर लगा रहा हो. रिसैप्शन हौल में चीयर्स की आवाजें और तालियों की गड़गड़ाहट गूंजने लगी. सुगंधा की पलकों की कोरों से 2 आंसू उस के गालों पर लुढ़क गए, जिन्हें इंद्र ने बड़े ही प्यार से पोंछ कर उपस्थितजनों के दिमाग में खुशी के आंसुओं का खिताब दे दिया.

इस से पहले कि कोई सुगंधा की आंखों में झांक कर सचाई के दीदार कर पाता और उस के गुलाब जैसे सुंदर चेहरे पर छाती म्लानता की एक झलक भी ले पाता, इंद्र उसे अपनी आगोश में समेट कर डिनरहौल की तरफ ले गया और अपने हाथों से किसी नवविवाहित की तरह मनुहार करते हुए उसे खाना खिलाने लगा.

जिस शादी में सुगंधा की सांसें घुट रही थीं, जिंदगी ढोना मुश्किल रहा था, उस की शानदार यादगार सिल्वर जुबली मनाई जा रही थी. उस के दिल में घृणा का दरिया बह रहा था. उस की हंसी खोखली थी, मुसकराहट में दर्द की लकीरें उभर आती थीं. कोई नहीं जानता था कि सुगंधा अपनी ‘ब्यूटी विद ब्रेन’ इमेज के भीतर कितनी खोखली और कमजोर है.

इंद्र ने शादी की पहली रात को ही अपनी कमी का परदाफाश होने पर सुगंधा से स्पष्ट लहजे में कहा था, ‘किस को क्या बताओगी मेरी जान, यह हिंदुस्तान है. यहां एक बार लड़की की शादी करने में तो बाप के जूते घिस जाते हैं, फिर कोई भला तुम्हारा मुझ से तलाक करा कर क्या करेगा. माई लव, न तो तुम घर की रहोगी न घाट की. बेहतर होगा कि तुम मेरे साथ चुपचाप जिंदगी बसर कर लो. तुम क्या सोचती हो कि तुम मेरी कमजोरी का डंका दुनिया में बजाओगी और मैं चुपचाप इसे बरदाश्त कर लूंगा. अगर तुम ने यह जुर्रत की तो फिर मैं भी तुम्हारे चरित्र पर लांछन लगा कर तुम्हें सब की नजरों में गिरा दूंगा और तुम्हें कहीं का न छोड़ूंगा. अच्छे से अच्छा वकील करने की ताकत है मुझ में और उधर तुम्हारे पिताजी, वे तो तुम्हारी शादी की दावत भी ठीक से न कर पाए. फिर भला राजा भोज को गंगू तेली कैसे टक्कर दे सकता है…इसलिए माई लव, मेरी यह बेशुमार दौलत एंजौय करो और खुश रहो.

आखिर तुम शहर के जानेमाने बिजनैसमैन की पत्नी तो बनी रहोगी.’ सुगंधा की हालत उस पंछी की तरह थी जो चोट खा कर उड़ने को फड़फड़ा रहा हो. उड़ने का हर प्रयास विफल हो कर उस के दर्द में इजाफा कर रहा था, उस के आत्मविश्वास को ध्वस्त कर के उसे और कमजोर बना रहा था. शादी होते ही उस के कुंआरे सपनों की कलियां मुकम्मल फूल बनने के पहले ही मुरझा गई थीं.

सारे रिश्तेदार सिल्वर जुबली पार्टी के दूसरे ही दिन विदा हो चुके थे. आजकल किस को फुरसत होती है किसी के सुखदुख में लंबे समय तक शरीक होने की. जाते वक्त भी कइयों के चेहरे ईर्ष्या की स्याही से पुते हुए थे. रिश्तेदारी की विवाहयोग्य युवतियों के आंखों में सुगंधा जैसी शाही जिंदगी की तमन्ना का प्रतिबिंब झिलमिला रहा था. कोई नहीं सोचना चाहता कि कभीकभी ऊपर से ठीक दिखने वाला व्यक्ति अंदर से घुटघुट कर मर रहा होता है. खुशियों का पैमाना कीमती कपड़े, महंगा पर्यटन, लक्जरी कार नहीं होती. खुशी होती है मन की शांति से, संतृप्त खुशहाल जिंदगी से, मन की सुखी, चटकती धरती पर किसी के प्यार की फुहार से मिली ठंडक से, घर में गूंजती किलकारियों से.

क्या पाया है उस ने इंद्र से? नहीं पूरा कर पाया वह उस के कुंआरे सपनों को, नहीं पूर्ण कर पाया वह उस के नारीत्व को, ऐसे नाम के पति के साथ एक बच्चे का सपना संजोना तो रेगिस्तान में दूब उगाने की सोचने जैसा था.

अपनी खामी को ढांपने के लिए शादी के शुरुआती दिनों में ही उस ने रिश्तेदारों और दोस्तों में ऐलान कर दिया कि सुगंधा को हृदयरोग है और प्रैग्नैंसी उस के लिए घातक हो सकती है. संबंधों का एकतरफा निर्वाह सुगंधा ने किया था और दुनिया में उस को हृदयरोगी बता कर त्याग की मूर्ति स्वयं इंद्र बन बैठा था. यह कैसी विडंबना थी, यह कैसा न्याय था समय का, जहां गुनाहगार किसी की जिंदगी तबाह कर के इज्जतदार बना हुआ था. इंद्र के गुनाह की शिकार सुगंधा विवाहित हो कर भी उम्रभर अतृप्ति के एहसास में गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही थी.

शादी की जाती है खुशियों के लिए, खुशियों की तिलांजलि देने के लिए नहीं. सुगंधा करवाचौथ का व्रत करती आई थी दुनियादारी की मजबूरी में बिना किसी भाव, बिना किसी श्रद्धा के. उम्र बीती थी ठंडी आहें भरने में. ऐसे संबंधों में सोच ही कुचली जाती है, समर्पण नहीं होता. अब तक सिल्वर जुबली पार्टी को भी करीबकरीब 6 महीने पूरे हो चुके थे. सुगंधा के लिए खुद को संभालना मुश्किल होता जा रहा था. मन के साथ अब तन भी टूटने लगा था. चलने में कदम डगमगाने लगे थे, हाथों के कंपन से मन की कमजोरी छिपाए न छिपती थी. उस शानदार सिल्वर जुबली की शहर में चर्चा पर अब धूल जमने लगी थी. सब के लिए जिंदगी कमज्यादा बदल रही थी, मगर सुगंधा का जीवन उसी ढर्रे पर चल रहा था, सदा की तरह तनहा दिन, लंबीकाली उदास रातें.

संतुलित सहृदया: भाग 3- एक दिन जब समीरा से मिलने आई मधुलिका

जाने से पहले मयंक ने कहा कि वह कल शाम को फोन करेगा, लेकिन उस का फोन 10 दिन बाद आया, ‘‘माफ करना, मैं जाने से पहले तुम्हें फोन नहीं कर सका. बौस ने राजस्थान में लोकेशन हंटिग का प्रोग्राम बना लिया और हम लोग अगली सुबह ही निकल गए,’’ मयंक ने बताया, ‘‘वहीं से घर चला गया, प्रियंक भैया की सगाई थी. फिर मुंबई से अपना सामान भी ले आया. अब अपने फ्लैट में हूं. शाम को आऊंगा तुम्हारे घर.’’

‘‘यह किस खुशी में?’’ समीरा ने पूछा. ‘‘प्रियंक भैया की सगाई और अपनी लाइन क्लीयर होने की खुशी में.’’

उस के बाद अकसर दोनों की मुलाकातें होने लगीं. फोन पर भी लंबीलंबी बातें होतीं, लेकिन शालीनता की परिधि में. कुछ महीने बाद मयंक भाई के विवाह के लिए गया तो समीरा को 1 सप्ताह काटना असहाय हो गया. वह भी आगरा चली गई. मयंक की याद या सुनील भैया का ठंडा व्यवहार और मां की अनमयंस्कता के कारण उसे घर में अच्छा नहीं लग रहा था. ‘‘भैया के लिए कोई लड़की नहीं देख रहीं मां?’’ ‘‘देखूं तो तब जब सुनील शादी के लिए तैयार हो.’’

‘‘मैं करवाती हूं भैया को तैयार,’’ और फिर समीरा ने सुनील से बात करी. ‘‘मेरी बजाय तू अपनी शादी रचवा समीरा, फिर मैं अपनी शादी की सोचूंगा,’’ सुनील ने सपाट स्वर में कहा.

समीरा ने कहना तो चाहा कि सच भैया पर कह न पाई. ‘अब जब मयंक की लाइन भी क्लीयर हो गई है तो मैं ही अपना ब्याह रचा लेती हूं,’ समीरा सोचने लगी. मयंक के लौटने के बाद उस ने उसे बताया कि भैया उस की शादी के बाद ही शादी करेंगे. अत: अब घर वाले उस की शादी जल्दी करना चाहते हैं.

‘‘किस से?’’ ‘‘तुम चाहो तो तुम से भी हो सकती है.’’

‘‘तो करवाओ जल्दी से. मैं ने भाभी को तुम्हारे बारे में बता दिया है. उन का कहना है कि लड़की के यहां से प्रस्ताव भिजवाओ. सगाई, शादी मैं आननफानन में करवा दूंगी. भाभी बहुत ही समझदार, स्नेहमयी और सुलझी हुई हैं और मेरे खयाल में तुम भी वैसी ही हो. खूब पटेगी तुम दोनों में. लेकिन यह बात मैं स्वयं घर वालों को नहीं बता सकता. तुम्हारे घर से प्रस्ताव आने के बाद तो कह सकता हूं कि काम के सिलसिले में तुम से मिलता रहता हूं. तुम हमारे परिवार के लिए उपयुक्त हो,’’ मयंक बोला.

‘‘मैं भी स्वयं घर वालों से तुम्हारे घर प्रस्ताव भेजने को नहीं कह सकती, मगर फोन पर तुम्हारी बात सुनील भैया से करवा सकती हूं.’’

‘‘हां, करवा देना,’’ मयंक बोला. उस के बाद सब बहुत तेजी से हुआ. मोबाइल पर संपर्क, ईमेल से फोटो और विवरण और फिर मयंक के पिता जनक का फोन आया, ‘‘लड़कीलड़के की मुलाकात की जरूरत न सही, लेकिन मयंक की मां और भाभी का लड़की से मिलना तो जरूरी है. खासकर मयंक की भाभी का. देवरानीजेठानी में तालमेल होना आवश्यक है कृपाशंकरजी ताकि हमारे बाद हमारे बच्चे हिलमिल कर रहें.’’

‘‘आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं. आगरा या दिल्ली में आप का स्वागत है और अगर आप को आने में कोई परेशानी है, तो मैं सपरिवार पुणे आ जाता हूं.’’ ‘‘इतनी परेशानी उठाने की जरूरत नहीं है. मयंक की मां और भाभी दिल्ली जा रही हैं मयंक के पास. आप भी अपनी पत्नी को वहां भेज दीजिए. समीरा से मिलने के बाद अगर मेरी बड़ी बहू उसे पसंद कर लेगी तो मैं भी आ जाऊंगा और आप भी आ जाना.’’

कृपाशंकर ने यह बात समीरा को बताई. ‘‘मयंक की बेसब्री देख कर तो लग रहा था कि यह मिलनामिलाना महज एक औपचारिकता है. रिश्ता तो पक्का है, लेकिन उस के पिताश्री के अनुसार उन की बड़ी बहू की सहमति ही सर्वोच्च होगी. असलियत क्या है?’’

‘‘मयंक अपनी भाभी को मेरे बारे में बता चुका है और उन्होंने चट मंगनी पट शादी करवाने का आश्वासन दिया है,’’ समीरा ने शरमाते हुए कहा. ‘‘लेकिन किसी कारण अगर भाभी ने तुझे पसंद न किया तो मयंक क्या करेगा?’’

‘‘यह तो मयंक से पूछना पड़ेगा पापा.’’ ‘‘पूछने की क्या जरूरत है समीरा?’’ सुनील पहली बार बोला, ‘‘तू भी मधुलिका वाली हिम्मत दिखाना. भाभी के असहमत होने पर अपना प्यार ठुकराने वाले युवक से तू स्वयं ही रिश्ता तोड़ लेना,’’ सुनील तुरंत बोला.

समीरा चौंक पड़ी कि भैया अभी तक मधुलिका को भूले नहीं हैं. ‘‘सुनील ठीक कह रहा है. भाभी के आज्ञाकारी देवर से तो तेरी निभने से रही तो बेहतर रहेगा रिश्ता जुड़ने से पहले ही तोड़ ले,’’ मां ने कहा.

समीरा को उन का नकारात्मक रवैया अच्छा तो नहीं लगा लेकिन चुप ही रही. मां उस के साथ दिल्ली आ गई. शाम को मयंक मां और भाभी के साथ आने वाला था, इसलिए समीरा औफिस से जल्दी आ गई. मां मेहमानों के लिए नाश्ता लाने ड्राइवर के साथ बाजार चली गईं. तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजे पर मधुलिका को देख कर समीरा चौंक पड़ी. वेशभूषा से लग रहा था कि उस की शादी हो चुकी है. ‘‘अचानक आने के लिए माफी चाहती हूं समीरा, लेकिन तुम से अकेले में मिलना जरूरी था. मैं मयंक की भाभी हूं.’’

‘‘अच्छा… आइए बैठिए,’’ समीरा समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे. ‘‘तुम ने रोके की रस्म रविवार को इसलिए नहीं होने दी थी कि उस रोज तुम्हें दिल्ली में मयंक से मिलना था?’’ मधुलिका ने बगैर किसी भूमिका के पूछा.

‘‘जी… हां मगर आप को कैसे मालूम?’’ समीरा हकलाई. ‘‘अटकल से,’’ मधुलिका हंसी, ‘‘मयंक ने विस्तार से तुम से पहली और अगली मुलाकात का समय व तारीख बताई थी. फिर जब तुम्हारी तसवीर देखी तो 2 और 2 जोड़ कर 44 बनाना मुश्किल नहीं था. ऐनी वे, ऐवरी थिंक इज फेयर इन लव ऐंड वार वैसे भी मुझे तो इस से फायदा ही हुआ है. पुणे तो खैर आगरा से बेहतर जगह है ही और प्रियंक की कंपनी भी बड़ी है, जिस में मेरी प्रतिभा और क्षमता का पूर्णतया विकास हो सकेगा. सुनील को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती, इसलिए प्रियंक से उस की तुलना नहीं करूंगी, लेकिन प्रियंक और उस के परिवार के साथ मैं बेहद खुश हूं और इस का श्रेय तुम्हारे और मयंक के प्यार को देती हूं. मेरे दिल में तुम्हारे लिए कोई कड़वाहट नहीं है.’’

‘‘लेकिन मेरे भैया के दिल में तो मेरे लिए है,’’ समीरा ने रोंआसे स्वर में कहा और फिर सब बता दिया. ‘‘जैसी पत्नी तुम्हारे भैया चाहते हैं, वैसी ही एक सहेली है मेरी. तुम्हारी शादी में दोनों की मुलाकात करवा दूंगी…’’

‘‘लेकिन मेरी शादी होने देंगी आप मयंक से?’’ समीरा ने हैरानी से पूछा, ‘‘सब पर अपनी मरजी थोपने वाली लड़की को आप अपनी देवरानी बनाएंगी?’’

‘‘जरूर बनाऊंगी समीरा, क्योंकि मुझे मालूम है कि उस ने मनमरजी क्यों की थी और फिर मयंक भी यह विश्वास होने पर ही कि लड़की स्वर्था उस के परिवार के उपयुक्त है उस से शादी कर रहा है,’’ मधुलिका ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘जीवन में खुश रहना है समीरा तो बगैर किसी पूर्वाग्रह या कड़वी यादों के जीना सीखो. भूल जाओ तुम कभी मुझ से मिली थीं. तुम्हारी मम्मी कहां हैं उन से भी एक विनती करनी है.’’

‘‘मैं भला तुम्हारे लिए क्या कर सकती हूं?’’ मां का स्वर सुन कर दोनों चौंक पड़ीं. ‘‘तुम्हें आता देख मैं बाजार गई ही नहीं. दरवाजे के बाहर खड़ी तुम्हारी बातें सुन रही थी.’’

‘‘तो फिर तो आप समझ ही गई होंगी कि आप भी मुझ से अजनबी बन कर मिलेंगी और आप के परिवार के अन्य सदस्य भी… अपने मायके वालों को भी मैं आगरा वाली बात भूलने को कह दूंगी.’’ ‘‘ठीक है बिटिया. दुख तो रहेगा कि तुम मेरी बहू न बन सकीं, मगर यह तसल्ली भी रहेगी कि मेरी बेटी को ससुराल में तुम्हारे जैसी सहृदया जेठानी मिल रही है,’’ मां ने विह्वल स्वर में कहा.

‘‘सहृदया ही नहीं, सुलझी हुई और संतुलित भी हैं मम्मी,’’ समीरा धीरे से बोली.

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