story in hindi
सुधा कसेरा मंदबुद्धि था. अपने मन के जज्बात व्यक्त करता भी कैसे जब समझ ही कुछ नहीं आता था. लोगों की तिरस्कृत नजरों को झेलता हुआ मैं अब बस दूसरे के हाथों की कठपुतली मात्र रह गया था… पिता की गलतियों के कारण ही मैं मंदबुद्धि बालक पैदा हुआ. जब मैं मां के गर्भ में था तो मेरी मां को भरपूर खाना नहीं मिलता था. उन को मेरे पिता यह कह कर मानसिक यंत्रणा देते थे कि उन की जन्मपत्री में लिखा है कि उन का पहला बच्चा नहीं बचेगा. वह बच्चा मैं हूं. जो 35 वर्षगांठ बिना किसी समारोह के मना चुका है.
पैदा होने के बाद मैं पीलिया रोग से ग्रसित था, लेकिन मेरा इलाज नहीं करवाया गया. मेरी मां बहुत ही सीधी थीं मेरे पापा उन को पैसे नहीं देते थे कि वे अपनी मरजी से मेरे लिए कुछ कर सकें. सबकुछ सहते हुए वे अंदर से घुटती रहती थीं. वह जमाना ही ऐसा था जब लड़कियां शादी के बाद अपनी ससुराल से अर्थी में ही निकलती थीं. मायके वाले साथ नहीं देते थे. मेरी नानी मेरी मां को दुखी देख कर परेशान रहती थीं. लेकिन परिवार के अन्य लोगों का सहयोग न मिलने के कारण कुछ नहीं कर पाईं. मैं 2 साल का हो गया था, लेकिन न बोलता था, न चलता था. बस, घुटनों चलता था.
मेरी मां पलपल मेरा ध्यान रखती थीं और हर समय मु झे गोदी में लिए रहती थीं. शायद वे जीवनभर का प्यार 2 साल में ही देना चाहती थीं. मेरे पैदा होने के बाद मेरे कार्यकलाप में प्रगति न देख कर वे बहुत अधिक मानसिक तनाव में रहने लगीं. जिस का परिणाम यह निकला कि वे ब्लडकैंसर जैसी घातक बीमारी के कारण 3 महीने में ही चल बसीं. लेकिन मैं मंदबुद्धि बालक और उम्र भी कम होने के कारण सम झ ही नहीं पाया अपने जीवन में आए इस भूचाल को. सूनी आंखों से मां को ढूंढ़ तो रहा था, लेकिन मु झे किसी से पूछने के लिए शब्दों का ज्ञान ही नहीं था.
मुझे अच्छी तरह याद है जब मेरी मां का क्रियाकर्म कर के मेरे मामा और नाना दिल्ली लौटे तो मु झे एक बार तो उन्होंने गोद में लिया, लेकिन मेरी कुछ भी प्रतिक्रिया न देख कर किसी ने भी मेरी परवाह नहीं की. बस, मेरी नानी ने मु झे अपने से बहुत देर तक चिपटाए रखा था. मेरे पापा तो एक बार भी मु झ से मिलने नहीं आए. मां ने अंतिम समय में मेरी जिम्मेदारी किसी को नहीं सौंपी. लेकिन मेरे नानानानी ने मु झे अपने पास रखने का निर्णय ले लिया. उन का कहना था कि मेरी मां की तरह मेरे पापा मु झे भी यंत्रणा दे कर मार डालेंगे. वे भूले नहीं थे कि मेरी मां ने उन को बताया था कि गलती से मेरी बांह पर गरम प्रैस नहीं गिरी थी, बल्कि मेरे पिता ने जानबू झ कर मेरी बांह पर रख दी थी, जिस का निशान आज तक मेरी बांह पर है. एक बार सीढ़ी से धकेलने का प्रयास भी किया था.
इस के पीछे उन की क्या मानसिकता थी, शायद वे जन्मपत्री की बात सत्य साबित कर के अपना अहं संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे थे. वे मु झे कभी लेने भी नहीं आए. मां की मृत्यु के 3 महीने के बाद ही उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया. यह मेरे लिए विडंबना ही तो थी कि मु झे मेरी मां के स्थान पर दूसरी मां नहीं मिली, लेकिन मेरे पिता को दूसरी पत्नी मिलने में देर नहीं लगी. पिता के रहते हुए मैं अनाथ हो गया. मैं मंदबुद्धि था, इसलिए मेरे नानानानी ने मु झे पालने में बहुत शारीरिक, मानसिक व आर्थिक कष्ट सहे. शारीरिक इसलिए कि मंदबुद्धि होने के कारण 15 साल की उम्र तक लघु और दीर्घशंका का ज्ञान ही नहीं था, कपड़ों में ही अपनेआप हो जाता था और उन को नानी को साफ करना पड़ता था.
रात को बिस्तर गीला हो जाने पर नानी रात को उठ कर बिस्तर बदलती थीं. ढलती उम्र के कारण मेरे नानानानी शारीरिक व मानसिक रूप से बहुत कमजोर हो गए थे. लेकिन मोहवश वे मेरा बहुत ध्यान रखते थे. मैं स्कूल अकेला नहीं जा पाता था, इसलिए मेरे नाना मु झे स्कूलबस तक छोड़ने जाते थे. मु झे ऐसे स्कूल में भेजा जहां सभी बच्चे मेरे जैसे थे. उन्होंने मानसिक कष्ट सहे, इसलिए कि मेरे मंदबुद्धि होने के कारण नानानानी कहीं भी मु झे ले कर जाते तो लोग परिस्थितियों को नजरअंदाज करते हुए मेरे असामान्य व्यवहार को देख कर उन को ताने देते. उस से उन का मन बहुत व्यथित होता. फिर वे मु झे कहीं भी ले कर जाने में कतराने लगे. उन के अपने बच्चों ने भी मेरे कारण उन से बहुत दूरी बना ली थी.
कई रिश्तेदारों ने तो यहां तक भी कह दिया कि मु झे अनाथाश्रम में क्यों नहीं डाल देते? नानानानी को यह सुन कर बहुत दुख होता. कई बार कोई घर आता तो नानी गीले बिस्तर को जल्दी से ढक देतीं, जिस से उन की नकारात्मक प्रतिक्रिया का दंश उन को न झेलना पड़े. मैं शारीरिक रूप से बहुत तंदुरुस्त था. दिमाम का उपयोग न होने के कारण ताकत भी बहुत थी, अंदर ही अंदर अपनी कमी को सम झते हुए सारा आक्रोश अपनी नानी पर निकालता था. कभी उन के बाल खींचता कभी उन पर पानी डाल देता और कभी उन की गोदी में सिर पटक कर उन को तकलीफ पहुंचाता. मातापिता के न रहने से उन के अनुशासन के बिना मैं बहुत जिद्दी भी हो गया था. मैं ने अपनी नानी को बहुत दुख दिया.
लेकिन इस में मेरी कोई गलती नहीं थी क्योंकि मैं मंदबुद्धि बालक था. नानानानी ने आर्थिक कष्ट सहे, इस प्रकार कि मेरा सारा खर्च मेरे पैंशनधारी नाना पर आ गया था. कहीं से भी उन को सहयोग नहीं मिलता था. उन्होंने मेरा अच्छे से अच्छे डाक्टर से इलाज करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वैसे भी मु झे कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने दी. नानी मेरे भविष्य को ले कर बहुत चिंतित रहती थीं और मेरे कारण मानसिक आघात सहतेसहते थक कर असमय ही 65 वर्ष की उम्र में ही सदा के लिए विदा हो गईं. उस समय मेरी उम्र 18 वर्ष की रही होगी. अब तक मानसिक और शारीरिक रूप से मैं काफी ठीक हो गया था. अपने व्यक्तिगत कार्य करने के लिए आत्मनिर्भर हो गया था. लेकिन भावाभिव्यक्ति सही तरीके से सही भाषा में नहीं कर पाता था. टूटीफूटी और कई बार निरर्थक भाषा ही बोल पाता था.
मेरे जीवन की इस दूसरी त्रासदी को भी मैं नहीं सम झ पाया और न परिवार वालों के सामने अभिव्यक्त ही कर पाया, इसलिए नानी की मृत्यु पर आए परिवार के अन्य लोगों को मु झ से कोई सहानुभूति नहीं थी. वैसे भी, अभी नाना जिंदा थे मेरे पालनपोषण के लिए. औपचारिकता पूरी कर के सभी वापस लौट गए. नाना ने मु झे भरपूर प्यार दिया. उन के अन्य बच्चों के बच्चों को मु झ से ईर्ष्या भी होती थी कि उन के हिस्से का प्यार भी मु झे ही मिल रहा है. लेकिन उन के तो मातापिता भी थे, मैं तो अनाथ था. मेरी मंदबुद्धि के कारण यदि कोईर् मेरा मजाक उड़ाता तो नाना उन को खूब खरीखोटी सुनाते, लेकिन कब तक…? वे भी मु झे छोड़ कर दुनिया से विदा हो गए. उस समय मैं 28 साल का था, लेकिन परिस्थिति पर मेरी प्रतिक्रिया पहले जैसी थी. मेरा सबकुछ लुट चुका था और मैं रो भी नहीं पा रहा था. बस, एक एहसास था कि नाना अब इस दुनिया में नहीं हैं. इतनी मेरे अंदर बुद्धि नहीं थी कि मैं अपने भविष्य की चिंता कर सकूं. मु झे तो पैदा ही कई हाथों की कठपुतली बना कर किया गया था. लेकिन अभी तक मैं ऐसे हाथों के संरक्षण में था, जिन्होंने मु झे इस लायक बना दिया था
कि मैं शारीरिक रूप से बहुत सक्षम और किसी पर निर्भर नहीं था और कोई भी कार्य, जिस में बुद्धि की आवश्यकता नहीं हो, चुटकियों में कर देता था. वैसे भी, जो व्यक्ति दिमाग से काम नहीं करते, शारीरिक रूप से अधिक ताकत वाले होते हैं. मेरी मनोस्थिति बिलकुल 2 साल के बच्चे की तरह थी, जो उस के साथ क्या हो रहा है, उस के लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है, सम झ ही नहीं पाता. लेकिन मेरी याद्दाश्त बहुत अच्छी थी. गाडि़यों के नंबर, फोन नंबर तथा किसी का घर किस स्थान पर है. मु झे कभी भूलता नहीं था. कहने पर मैं कोई भी शारीरिक कार्य कर सकता था, लेकिन अपने मन से कुछ नहीं कर पाता था. नाना की हालत गंभीर होने पर मैं ने अपने पड़ोस की एक आंटी के कहने पर अपनी मौसी को फोन से सूचना दी तो आननफानन मेरे 2 मामा और मौसी पहुंच गए और नाना को अस्पताल में भरती कर दिया. डाक्टरों ने देखते ही कह दिया कि उन का अंतिम समय आ गया है. उन के क्रियाकर्म हो जाने के बाद सब ने घर की अलमारियों का मुआयना करना शुरू किया. महत्त्वपूर्ण दस्तावेज निकाले गए. सब की नजर नाना के मकान पर थी. मैं मूकदर्शक बना सब देखता रहा. भरापूरा घर था. मकान भी मेरे नाना का था. मेरे एक मामा की नजर आते ही मेरे हृष्टपुष्ट शरीर पर टिक गई.
उन्होंने मेरी मंदबुद्धि का लाभ ले कर मु झे मेरे मनपसंद खाने की चीजें बाजार से मंगवा कर दीं और बारबार मु झे उन के साथ भोपाल जाने के लिए उकसाते रहे. मु झे याद नहीं आता कि कभी उन्होंने मेरे से सीधेमुंह से बात भी की हो. तब तो और भी हद हो गई थी जब एक बार मैं नानी के साथ भोपाल उन के घर गया था और मेरे असामान्य व्यवहार के लिए उन्होंने नानी को दोषी मानते हुए बहुत जलीकटी सुनाई. उन को मामा की बातों से बहुत आघात पहुंचा. जिस कारण नानी निश्चित समय से पहले ही दिल्ली लौट गई थीं. अब उन को अचानक इतना प्यार क्यों उमड़ रहा था. यह सोचने की बुद्धि मु झ में नहीं थी. इतना सहयोग यदि नानी को पहले मिलता तो शायद वे इतनी जल्दी मु झे छोड़ कर नहीं जातीं. पहली बार सब को यह विषय विचारणीय लगा कि अब मैं किस के साथ रहूंगा? नाना से संबंधित कार्यकलाप पूरा होने तक मेरे मामा ने मेरा इतना ब्रेनवौश कर दिया कि मैं कहां रहना चाहता हूं?
किसी के भी पूछने पर मैं झट से बोलता, ‘मैं भोपाल जाऊंगा,’ नाना के कई जानने वालों ने मामा को कटाक्ष भी किया कि कैसे सब खत्म हो जाने के बाद उन का आना हुआ. इस से पहले तो उन को वर्षों से कभी देखा नहीं. इतना सुनते ही ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ मुहावरे को सार्थक करते हुए वे उन पर खूब बरसे. परिणाम यह निकला कि बहुत सारे लोग नाना की तेरहवीं पर बिना खाए ही लौट गए. आखिरकार, मैं मामा के साथ भोपाल पहुंच गया. मेरी दाढ़ी और बाल बहुत बड़ेबड़े हो गए थे. सब से पहले मेरे मामा ने उन्हें संवारने के लिए मु झे सैलून भेजा, फिर मेरे लिए नए कपड़े खरीदे, जिन को पहन कर मेरा व्यक्तित्व ही बदल गया था. मेरे मामा की फैक्ट्री थी, जिस में मैं उन के बेटे के काम में हाथ बंटाने के लिए जाने लगा. जब मैं नानी के साथ एक बार यहां आया था, तब मु झे इस फैक्ट्री में घुसने की भी अनुमति नहीं थी. अब जबकि मैं शारीरिक श्रम करने के लायक हो गया तो उन के लिए मेरे माने ही बदल गए थे. धीरेधीरे मु झे सम झ में आने लगा कि उन का मु झे यहां लाने का उद्देश्य क्या था? मैं चुपचाप एक रोबोट की तरह सारा काम करता. मु झे अपनी इच्छा व्यक्त करने का तो कोई अधिकार ही नहीं था. दिल्ली के जिस मकान में मेरा बचपन गुजरा, उस में तो मैं कभी जा नहीं सकता था क्योंकि प्रौपर्टी के झगड़े के कारण उस में ताला लग गया था. और मैं भी मामा की प्रौपर्टीभर बन कर रह गया था, जिस में कोई बंटवारे का झं झट नहीं था. उन का ही एकछत्र राज्य था. मैं अपने मन से किसी के पास जा नहीं सकता था, न किसी को मु झे बुलाने का अधिकार ही था. मेरा जीवन टुकड़ों में बंट गया था.
मेरा अपना कोई अस्तित्व नहीं था. मैं अपना आक्रोश प्रकट भी करता तो किस के सामने करता. कोई नानानानी की तरह मेरी भावना को सम झने वाला ही नहीं था. मैं तो इस लायक भी नहीं था कि अपने पिता से पूछूं कि मेरे इस प्रकार के टुकड़ों में बंटी जिंदगी का उत्तरदायी कौन है? उन को क्या हक था मु झे पैदा करने का? मेरी मां अंतिम समय में, मेरे पिता की ओर इशारा कर के रोते हुए मामा से कह रही थीं, ‘इस ने मु झे बीमारी दी है, इस को मारो…’ लेकिन प्रतिक्रियास्वरूप किसी ने कुछ नहीं किया, करते तो तब जब उन को मेरी मां से प्यार होता. काश, मु झे इतनी बुद्धि होती कि मैं अपनी मां का बदला अपने पिता से लेता. लेकिन काश ऐसा कोई होता जो मेरा बदला जरूर लेता. जिस के पास बुद्धि है. मेरी कथा को शब्दों का जामा पहनाने वाली को धन्यवाद, कम से कम उन को मु झ से कुछ सहानुभूति तो है, जिस के कारण मु झ मंदबुद्धि बालक, जिस को शब्दों में अभिव्यक्ति नहीं आती, की मूकभाषा तथा भावना को सम झ कर उस की आत्मकथा को कलमबद्ध कर के लोगों के सामने उजागर तो किया.
family story in hindi
मां के कमरे से जोरजोर से चिल्लाने की आवाज सुन कर नीरू ने किताबें टेबल पर ही एक किनारे खिसकाईं और मां के कमरे की ओर बढ़ गई. कमरे में जा कर देखा तो मां कस कर अपने होंठ भींचे और आंखें बंद किए पलंग पर बैठी थीं. आया हाथ में मग लिए उन से कुल्ला करने के लिए कह रही थी. नीरू के पैरों की आहट पा कर मां ने धीरे से अपनी आंखें खोलीं और फिर आंखें बंद कर के ऐसे बैठ गईं जैसे कुछ देखा ही न हो.
नीरू को देखते ही आया दुखी स्वर में बोली, ‘‘देखिए न दीदी, मांजी कितना परेशान कर रही हैं. एक घंटे से मग लिए खड़ी हूं पर मांजी अपना मुंह ही नहीं खोल रही हैं. मुझे दूसरे काम भी तो करने हैं. आप ही बताइए अब मैं क्या करूं?’’
मां की मुखमुद्रा देख कर नीरू को हंसी आ गई. उस ने हंस कर आया से कहा, ‘‘तुम जा कर अपना काम करो, मां को मैं संभाल लूंगी,’’ और यह कहतेकहते नीरू ने मग आया के हाथ से ले कर मां के मुंह के सामने लगा कर मां से कुल्ला करने के लिए कहा. पर मां छोटे बच्चे के समान मुंह बंद किए ही बैठी रहीं. तब नीरू ने उन्हें डांट कर कहा, ‘‘मां, जल्दी करो मुझे औफिस जाना है.’’
नीरू की बात सुन कर मां ने शैतान बच्चे की तरह धीरे से अपनी आधी आंखें खोलीं और मुंह घुमा कर बैठ गईं. परेशान नीरू बारबार घड़ी देख रही थी. आज उस के औफिस में उस की एक जरूरी मीटिंग थी. इसलिए उस का टाइम पर औफिस पहुंचना बहुत जरूरी था. पर मां तो कुछ भी समझना ही नहीं चाहती थीं.
थकहार कर नीरू ने उन के दोनों गाल प्यार से थपथपा कर जोर से कहा, ‘‘मां, मेरे पास इतना समय नहीं है कि तुम्हारे नखरे उठाती रहूं. अब जल्दी से मुंह खोलो और कुल्ला करो.’’
नीरू की बात सुन कर इस बार जब मां ने कुल्ला करने के लिए चुपचाप मुंह में पानी भरा तो नीरू ने चैन की सांस ली. थोड़ी देर तक नीरू इंतजार करती रही कि मां कुल्ला कर के पानी मग में डाल देंगी पर जब मां फिर से मुंह बंद कर के बैठ गईं तो नीरू के गुस्से का ठिकाना न रहा.
गुस्से में नीरू ने मां को झकझोर कर कहा, ‘‘मां, क्या कर रही हो? मैं तो थक गई हूं तुम्हारे नखरे सहतेसहते…’’ नीरू की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि मां ने थुर्र कर के अपने मुंह का पूरा पानी इस प्रकार बाहर फेंका कि एक बूंद भी मग में न गिर कर नीरू के मुंह पर और कमरे में फैल गया. यह देख कर नीरू को जोर से रुलाई आ गई.
रोतेरोते उस ने मां से कहा, ‘‘क्यों करती हो तुम ऐसा, क्या बिगाड़ा है मैं ने तुम्हारा? मैं अभी नहा कर साफ कपड़े पहन कर औफिस जाने के लिए तैयार हुई थी और तुम ने मेरे कपड़े और कमरा दोनों ही फिर से गंदे कर दिए. तुम दिन में कितनी बार कमरा गंदा करती हो, कुछ अंदाजा है तुम्हें? आज आया 5 बार पोंछा लगा चुकी है. अगर आया ने काम छोड़ दिया तो? मां तुम समझती क्यों नहीं, मैं अकेली क्याक्या करूं?’’ कहती हुई नीरू अपनी आंखें पोंछती मां के कमरे से बाहर चली गई.
अपने ही कहे शब्दों पर नीरू चौंक गई. उसे लगा उस ने ये शब्द पहले किसी और के मुंह से भी सुने हैं. पर कहां?
औफिस पहुंच कर नीरू मां और घर के बारे में ही सोचती रही. पिताजी की मृत्यु के बाद मां ने अकेले ही चारों भाईबहनों को कितनी मुश्किल से पाला, यह नीरू कभी भूल नहीं सकती. नौकरी, घर, हम छोटे भाईबहन और अकेली मां. हम चारों भाईबहन मां की नाक में दम किए रहते. कभीकभी तो मां रो भी पड़ती थीं. कभी पिताजी को याद कर के रोतेरोते कहती थीं, ‘‘कहां चले गए आप मुझे अकेला छोड़ कर. मैं अकेली क्याक्या करूं.’’
अरे, मां ही तो कहती थीं, ‘मैं अकेली क्याक्या करूं,’ मां तो सचमुच अकेली थीं. मेरे पास तो काम वाली आया, कुक सब हैं. बड़ा सा घर है, रुपयापैसा और सब सुविधाएं मौजूद हैं. तब भी मैं चिड़चिड़ा जाती हूं. अब मैं मां पर अपनी चिढ़ कभी नहीं निकालूंगी. मां की मेहनत से ही तो मुझे ये सबकुछ मिला है वरना मैं कहां इस लायक थी कि आईआईटी में नौकरी कर पाती.
कितनी मेहनत की, कितना समय लगाया मेरे लिए. अभी दिन ही कितने हुए हैं जब छोटी बहन मीतू ने मुझ से कहा था, ‘मां की वजह से तुम इस मुकाम तक पहुंची हो वरना हम सभी तो बस किसी तरह जी रहे हैं. हम तो चाह कर भी मां को कोई सुख नहीं दे सकते. वैसे तुम ने बचपन में मां को कितना परेशान किया है, तुम भूली नहीं होगी. अब मां इसी जन्म में अपना हिसाब पूरा कर रही हैं.’ आज लगता है कि सच ही तो कहती है मेरी बहन.
शाम को नीरू मां की पसंद की मिठाई ले कर घर गई. घर में कुहराम मचा था. आया मां के कमरे के बाहर बैठी रो रही थी और अंदर कमरे में मां जोरजोर से चिल्ला रही थीं. नीरू को देखते ही आया दौड़ कर उस के पास आई और रोतेरोते बोली, ‘‘दीदी, अब आप दूसरी आया रख लीजिए, मुझ से आप का काम नहीं हो पाएगा.’’
‘‘क्या हुआ?’’ नीरू ने परेशान हो कर पूछा, ‘‘काम छोड़ने की बात क्यों कर रही हो. मां पहले से ऐसी नहीं थीं. तुम बरसों से हमारे यहां काम कर रही हो. अच्छी तरह से जानती हो कि मां कुछ सालों से बच्चों जैसा व्यवहार करने लगी हैं. अब इस कठिन समय में अगर तुम चली जाओगी तो मैं क्या करूंगी? तुम्हारे सहारे ही तो मैं घर और औफिस दोनों संभाल पाती हूं. अच्छा चलो, मैं तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी पर काम मत छोड़ना, प्लीज. मैं मां को भी समझाऊंगी.
उसका दिल जोरजोर से धड़कने लगा जब उस ने प्लास्टिक की छोटी सी पेशाबभरी कटोरी में स्टिक डाल दी और 10 सैकंड तक इंतजार करने लगी.
सिर्फ एक लकीर नीली गहरी हुई थी. इस का मतलब उसे अच्छी तरह से मालूम था. पिछले 9 साल से हर महीने यही करती आई थी और दोनों लकीरों के गहरे होने के इंतजार में जाने और कितने महीने वह इसी तरह अकेली यों ही सिसकती रहेगी.
उस ने गहरा सांस छोड़ी. फिर बाथरूम की खिड़की से बाहर झांकने लगी. इस साल भारी वर्षा होने के कारण दूर तक पहाड़ों पर हरियाली जमी हुई थी और हवा के झोंके अंदर के ताप को कुछ सुकून पहुंचा रहे थे. थोड़ी देर यों ही खड़ी रह कर उस ने खिड़की जोर से बंद कर दी. आज उस का मूड फिर से उखड़ा हुआ था. मूड उस का ऐसे ही रहता है जिस दिन वह यह परीक्षण करती है.
शाम को डेविड से भी जलीकटी बातें करती रही और इन सब का जिम्मेदार उसे ही ठहराती रही क्योंकि डेविड ने शुरू के 10 सालों तक उसे गर्भनिरोधक गोलियां खिलाखिला कर खोखला कर दिया था. दरअसल, डेविड सैटल होने तक बच्चे का रिस्क नहीं लेना चाहता था.
जब भी मौली बच्चे के लिए कहती तो वह यही जवाब देता, ‘‘बच्चों को गरीब मांबाप पसंद नहीं होते. क्या तुम चाहोगी कि हमारे बच्चे हमें ही न पसंद करें?’’
डेविड को नहीं मालूम था और कितने साल सैटल होने में लग जाएंगे. शुरू के 10 साल तो यों ही पंख लगा कर उड़ गए. लेकिन डेविड बच्चे की बात भूल कर भी नहीं करता और अब तो मौली की किसी बात का डेविड पर कोई असर नहीं होता था.
सालों से वह यही सुनता आया था, ‘‘हमारा बच्चा कब होगा? तुम कभी खुद बच्चे की बात क्यों नहीं छेड़ते?’’
मजाल है जो इतना होने पर भी डेविड ने कभी बच्चे की बात शुरू की हो. उस के मन की बात कोई नहीं जानता, शायद वह खुद भी नहीं. हां, इतना जरूर था जब मौली रोने लगती तो वह कहता, ‘‘मैं भी वही चाहता हूं जो तुम चाहती हो. बताओ मैं क्या करूं?’’
यह सुन कर मौली और भड़क उठती और कहती, ‘‘मु झ से बात मत करो.’’
वह खुद भी 20 साल की अल्हड़ युवती थी जब वे प्रणयसूत्र में बंधे थे. कितने साल तो पढ़ाईलिखाई डिगरी पाने और फिर नौकरी की तलाश में ही गुजर गए, फिर भी हमेशा एक कोने में बच्चे की चाह कुलबुलाती रहती.
पिछले 9 सालों से वे दोनों बच्चे के लिए भरपूर ट्राई कर रहे थे और 2 साल पहले तो उन्होंने डाक्टर से अपना ट्रीटमैंट भी कराने की सोची. सभी रिपोर्ट नौर्मल निकलीं तो डाक्टर ने कहा, ‘‘अब 40 की उम्र में अपनेआप बच्चे होने से रहे इसलिए ‘आईवीएफ’ करवाने की सोचो.
इस के लिए वे आर्थिक रूप से तैयार न थे लेकिन कुछ सस्ते ट्रीटमैंट जैसे ‘आईयूआई’ उन्होंने जरूर ले लिए थे. इस से उन्हें अंदाजा हो गया था कि इस आग के दरिए में डूब के ही जाना पड़ेगा. हर महीने टैबलेट लेना, फिर अपने पेट में खुद ही सीरिंज घोंपना मौली के लिए आसान काम न था. इस के बाद नियत समय पर मौली को क्लीनिक बुलाया जाता और हर बार जाने कौनकौन सी मशीनें उस के अंदर डाल दी जातीं. हाथ की मुट्ठियों को कस कर बंद कर वह सिर्फ अपने शरीर के अंदर की जा रही प्रक्रिया को महसूस कर पाती. दर्द से कई गरम धाराएं उस की आंखों से यों पड़तीं जो कई दिनों तक उस के बदन में सिहरन पैदा करती रहती थीं.
इस के अलावा हर बार क्लीनिक में जाने का खर्च 1 हजार डालर के ऊपर चला जाता. 5 बार ‘आईयूआई’ करवा कर तो दोनों ने तोबा कर ली. इस के ऊपर खर्च करना उन के बस का न था. अभी तक तो स्टूडैंट लोन भी नहीं चुकाया था. फिर दोनों की नौकरियों से कुछ खास बचता भी नहीं था इसलिए तन, मन और धन से निचुड़ चुके मौली और डेविड ने सोच लिया था कि अब अगर बच्चे होंगे तो अपनेआप नहीं तो नहीं.
खैर, अब मौली घर में ही हर महीने गर्भपरीक्षण करती और हर बार नैगेटिव रिपोर्ट आने से परेशान हो कर 2-4 दिन बाद फिर अपनेआप सामान्य हो जाती थी. और अपने अगले मासिकचक्र में गर्भवती होने के सपने देखने लगती जिस के लिए उसे खुश रहना बेहद जरूरी था.
उस के बदलते मूड से तो सभी परिचित थे. आज अपने दफ्तर में बैठी वह बहुत खुश लग रही थी. इश्योरैंस क्लेम की सभी फाइलें जल्दीजल्दी निबटाते हुए कुछ गुनगुना रही थी.
उस के सामने बैठी लौरा ने पूछ ही लिया, ‘‘कुछ खास है क्या?’’
वह अपनी मेज पर लगे हुए गुलदस्ते से फूल तोड़ते हुए बड़े ही सैक्सी अंदाज में बोली, ‘‘हां, आज की रात डेविड और मैं, मैं और डेविड बहुत बिजी होंगे,’’ लौरा खिलखिला कर हंसने लगी, तभी विक्टर आ टपका और दोनों की हंसी बिला गई.
विक्टर बोला, ‘‘जब भी मैं आता हूं तुम दोनों चुप क्यों हो जाती हो? लगता है कुछ मेरे ही बारे में बातें कर रही थीं.’’
मौली हाथ नचाते हुए बोली, ‘‘बस और कोई काम नहीं है हमें, तुम्हारे बारे में बात करने के. तुम क्या स्पैशल हो?’’
‘‘तो हंस क्यों रही थीं?’’
‘‘हंसना मना है क्या?’’
‘‘जब मैं आता हूं तुम लोग चुप क्यों हो जाती हो? अब तक तो बड़े कहकहे छूट रहे थे. मु झे बताओ न, क्या चल रहा था?’’ विक्टर थोड़ी मिन्नत वाली टोन में बोला.
‘‘ये औरतों की बात है तुम नहीं सम झोगे,’’ लौरा अपने एक हाथ को आगे मेज पर रखते हुए स्टाइल से बोली.
‘‘ऐसी क्या बात है जो मैं नहीं सम झ सकता, एक बार बताओ तो सही.’’
मौली ने झटके से क्लेम की कुछ फाइलें उठाईं और विक्टर की मेज पर पटक दीं.
‘‘पहले इन फाइलों का काम खत्म करो फिर बताऊंगी.’’
अगले ही क्षण मौली को लगने लगा जैसे उसे बुरी तरह से चक्कर आ गए. शायद वह झटके से उठी इसी से चक्कर आए होंगे.
उस ने सोचा पिछला परीक्षण तो नैगेटिव आया था लेकिन उस की माहवारी अभी तक नहीं हुई. आज घर जा कर फिर से परीक्षण करना चाहिए.
वैसे इस तरह तो पहले भी कई बार हो गया है जब उस की माहवारी 15-15 दिन देर से हुई और वह हर बार यही आशा पाल लेती कि शायद इस बार वह गर्भवती हो गई है.
यह परीक्षण उस के तन के लिए तो नहीं, लेकिन मन के लिए बहुत दर्दनाक था. फिर भी हर महीने करना तो पड़ता था.
घर जा कर उस ने सब से पहले परीक्षण की वही प्रक्रिया दोहराई लेकिन परीक्षण स्टिक ने आज वही परिणाम नहीं दोहराया बल्कि दोनों लकीरें नीली हो गईं. उसे विश्वास नहीं हो रहा था. यह उस की 40 साल की जिंदगी में पहली बार हुआ था. उस ने सोचा कि कल नर्सिंगहोम में टेस्ट करवा लूंगी. इन स्टिकों का क्या भरोसा, शायद इन की ऐक्सपाइरी डेट निकल गई हों.
अगले दिन खून की जांच से भी जब यह खबर पक्की हो गई तो वह तेज कदमों से बिल्डिंग के बाहर निकल आई और एक कौफी हाउस में जा कर बैठ गई. वह कुछ पल किसी से कोई बात नहीं करना चाहती थी बस अपने साथ रहना चाहती थी.
अब तक इस एक क्षण का उसे 2 दशकों से इंतजार था. कैसा लगता है जब आंखों में पला बरसों का सपना एक झटके में पूरा हो जाता है और मन असीम आनंद के हिंडोले में डोलने लगता है. वह भी इसी हिंडोले में बैठ कर कहीं दूर उड़ना चाहती थी.
शायद इसी दिन के लिए यह गाना बना है, ‘आजकल पांव जमीन पे नहीं पड़ते मेरे, बोलो देखा है तुम ने मु झे उड़ते हुए…’
पूरी तरह से आश्वस्त हो कर वह डेविड को फोन मिलाने लगी. उस के चेहरे पर मुसकराहट रहरह कर अपने आप चढ़ जाती शायद इतनी बड़ी खबर सुन कर सभी का यही हाल होता होगा.
“हैलो, कौन?” “पहचानो…””कौन है?””अरे यार, भुला दिया हमें?” और एक खिलखिलाती हुई हंसी फोन पर सुनाई पड़ी. “अरे स्नेहा, तुम, इतने दिनों बाद, कैसी हो?” नेहा पहचान कर खुशी ज़ाहिर करते हुए बोली.
“नेहा, यार, तुम तो मेरी पक्की सहेली हो, तुम से कैसे दूर रह सकती थी. ऐसे भी दोस्ती निभाने में हम तो नंबर वन हैं. बहुत सारी बातें करनी है मुझे तुम से. अच्छा, मेरा फोन नंबर लिख लो. अभी मुझे हौस्पिटल जाना है, कल बात करते है,” और स्नेहा ने फ़ोन रख दिया.
“हौस्पिटल…” बात अधूरी रह गई. नेहा कुछ चिंतित हो उठी, ‘आख़िर, उसे हौस्पिटल क्यों जाना था…’ नेहा बुदबुदा रही थी.
नेहा के मन में स्नेहा की स्मृतियां चलचित्र की तरह तैर गईं… कालेज में फौर्म भरने की लाइन में नेहा खड़ी थी लाल रंग के पोल्का डौट का सूट पहने और उसी लाइन मे स्नेहा काले रंग के पोल्का डौट का सूट पहने खड़ी थी. उन दिनों पोल्का डौट का फैशन चल रहा था.
“गम है किसी के पास,” स्नेहा ज़ोर से बोली. स्नेहा को फौर्म पर फोटो चिपकानी थी.”हां है, देती हूं,” नेहा ने मुसकराते हुए गम की छोटी सी शीशी स्नेहा को थमा दी. बदले में स्नेहा ने मुसकान बिखेर दी.
फौर्म जमा कर बाहर निकलते हुए स्नेहा चपल मुसकान के साथ नेहा की ओर मुखातिब हुई, “थैंक्यू सो मच, फौर्म से मेरी फोटो निकल गई थी, मैं तो घबरा गई थी कि क्या होगा अब…”
“थैंक्यू कैसा, चलो आओ, उधर सीढ़ियों पर थोड़ी देर बैठते हैं,” नेहा बीच में ही बोल पड़ी.नेहा, स्नेहा दोनों वहां अकेली थीं. दोनों को, शायद, इसीलिए एकदूसरे का साथ मिल गया था.”अच्छा, तुम्हारा नाम क्या है?”
“स्नेहा ढोले.”“और तुम्हारा?””नेहा खरे. अरे वाह, हम दोनों के नाम कितने मिलते हैं… और हमारी ड्रैसेस भी,” नेहा आश्चर्यमिश्रित खुशी के साथ बोली, वैसे, ढोले…क्या?”
“हम गढ़वाल के हैं,” स्नेहा ने उत्तर दिया.नेहा गौर से स्नेहा को निहार रही थी. बड़ीबड़ी आंखें, तीखी नाक, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, दमकता हुआ रंग मतलब सुंदरता के पैमाने पर तराशा हुआ चेहरा थी स्नेहा और पहाड़ी निश्च्छलता से सराबोर उस का व्यक्तित्व.
“क्या हुआ?”, स्नेहा ने टोका.”न…न…नहीं, बस, ऐसे ही,” नेहा मुसकरा कर रह गई.”तुम कितने भाईबहन हो? स्नेहा ने पूछा.”एक भाईबहन.”“हम भी एक भाईबहन हैं. कितना कुछ मिलता है हम में न,” स्नेहा ज़ोर से खिलखिलाते हुए बोल पड़ी.
“हां, सच में,” नेहा भी आश्चर्य से भर गई थी.”तो आज से हम दोनों दोस्त हुए,” दोनों ने एकसाथ हाथ पकड़ कर हंसते हुए कहा था.
लखनऊ अमीनाबाद कालेज से निकल कर दोनों ने पाकीज़ा जूस सैंटर पर ताज़ाताज़ा मौसमी का जूस पिया. दोनों को ही मौसमी का जूस बहुत पसंद था और इस तरह शुरू हुई दोनों की दोस्ती.
लोग कहते हैं, दोस्त हम चुनते हैं. पर नेहा का मानना है कि दोस्ती भी हो जाती है जैसे उस दिन स्नेहा से उस की दोस्ती हो गई थी.
नेहा स्नेहा की यादों को एक सिरे से समेट रही थी. उस ने पुराने अलबम निकाले. एक फोटो थी एनसीसी कैंप की, जिस में वह खुद और स्नेहा पैरासीलिंग कर रही थीं. नेहा को कैंप की याद आई…’यार, वह लड़का कितना हैंडसम है. बस, एक नज़र देख ले,’ स्नेहा ने चुहलबाज़ी करते नेहा से कहा था.
‘क्या स्नेहा, हर समय लड़कों को देखती रहती हो,’ नेहा गंभीरता ओढ़ कर बोली थी.‘अरे यार, एनसीसी में हमारे कैंप लड़कों से अलग हो जाते हैं, तो नैनसुख तो ले ही सकते हैं न,” स्नेहा बोलतेबोलते ज़ोर से हंस पड़ी थी.
नेहा और स्नेहा दोनों ने ही ग्रेजुएशन में एनसीसी ली थी और पहली बार दोनों घर से दूर कैंप गई थीं. साथसाथ खाना, साथसाथ रहना, साथसाथ परेड करना…लगभग सारे काम साथ. उन की दोस्ती गहरी होती जा रही थी.
‘कितने गंदे पैर ले कर आई हो,’ स्नेहा ने डांटते हुए कहा था.‘अरे यार, आज मेरी सफाई की ड्यूटी थी, सो पैर में कीचड़ लग गया,” नेहा ने गुस्साते हुए कहा था.‘ह्म्म्म्मम, कैंप की सफाई कर खुद को गंदा कर लिया,’ स्नेहा बड़बड़ाती जा रही थी.
स्नेहा तुरंत उठी और एक तौलिया ले कर नेहा का पैर बड़ी ही तन्मयता के साथ साफ करने लगी. नेहा स्नेहा का यह रूप देख कर हैरान थी. स्नेहा को उस का पैर साफ करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ. एक मातृवत भाव के साथ वह यह सब कर रही थी. कहां से आई उस के अंदर यह भावना, शायद उस की परिस्थितियां…, नेहा सोच में मे पड़ गई थी.
एक दिन पाकीज़ा जूस सैंटर पर जूस पीतेपीते नेहा ने कहा, ‘स्नेहा, आज चलो मेरे घर, मेरे मांपापा से मिलो.’ स्नेहा उस दिन नेहा के घर गई. उसे नेहा के यहां बहुत अच्छा लगा. ‘कितने अच्छे हैं तुम्हारे मांपापा और तुम्हारी प्यारी सी दादी. मां ने कितने अच्छे पकौड़े बनाए,’ स्नेहा बिना रुके बोले जा रही थी, अचानक मुसकराई, ‘और तुम्हारा भाई भी बहुत अच्छा है.’ शरारत के साथ आंखें मटकाते अपने चिरपरिचित अंदाज़ में स्नेहा बोली थी.
स्नेहा के इस अंदाज़ को नेहा बखूबी समझ चुकी थी, वह भी हंस पड़ी.‘अब मुझे भी अपने घर ले चलो,’ नेहा ने स्नेहा से कहा. ‘मेरे घर…,’ स्नेहा कुछ हिचकिचा गई‘ले चल स्नेहा, तुम्हारा घर तो सीतापुर रोड पर खेतखलिहानों के पास है, बहुत मज़ा आएगा.”‘ह्म्म्म्म, अच्छा, कल चलना,’ स्नेहा का स्वर कुछ धीमा पड़ गया था.
‘कितनी सुंदर जगह है तुम्हारा घर, हरेभरे खेतों के बीच,’ नेहा, स्नेहा का घर देख कर खुशी से झूमी जा रही थी. स्नेहा का घर कच्चे रास्तों से गुज़रता था. घर पहुंचते ही स्नेहा ने अपनी दादीमां से मिलवाया, ये हैं मेरी सब से प्यारी दादी तुम्हारी दादी की तरह. और दादी, यह है मेरी पक्की वाली दोस्त नेहा.” स्नेहा ने फिर गरमागरम छोलेचावल खिलाए.
‘स्नेहा, छोले तो बहुत टैस्टी हैं, आंटी ने बनाए होंगे,’ नेहा खातेखाते बो ‘नहीं, मैं ने बनाए हैं,” स्नेहा कुछ गंभीर हो गई थी. ‘तुम ने! यार स्नेहा, यू आर ग्रेट कुक. वैसे आंटी कहां हैं?’ नेहा ने पूछा. ‘मम्मी…’ स्नेहा की बात अधूरी रह गई. पीछे वाले कमरे से सांवली, साधारण सी बिखरे बालों के साथ एक महिला वहां आ गई. नेहा कुछ आश्चर्य से उन्हें देखने लगी. फिर ‘मेरी मम्मी’ कह स्नेहा ने उस महिला का परिचय कराया.
नेहा सोच में पड़ गई. स्नेहा तो कितनी सुंदर और उस की मम्मी साधारण सी, बिखरे बाल, दांत भी कुछ टूटे हुए… यह कैसे? कई सारे सवालों से नेहा घिर गई थी. स्नेहा की मम्मी कुछ अलग सी मुसकान के साथ अंदर चली गई.
‘नेहा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा न. मेरी मम्मी ऐसी… दरअसल, मम्मी पहले बहुत अच्छी दिखती थीं लेकिन जब मेरा भाई किडनैप हुआ तब से मम्मी की हालत ऐसी हो गई. भाई तो वापस मिला लेकिन मम्मी तब तक मैंटल पेशेंट हो चुकी थीं,’ स्नेहा धीरेधीरे बोल रही थी.
‘उफ्फ़…’ नेहा ने एक लंबी सांस भरी. कितना दुख है जीवन में. मां होते हुए भी मां का प्यारदुलार न मिले. स्नेहा तो अपनी मां से कोई ज़िद भी न कर पाती होगी. नेहा का मन भरा जा रहा था.
“चलो नेहा, मैं तुम्हें अपना स्कूल दिखाती हूं. हमारा स्कूल कोएजुकेशन था, एक से एक स्मार्ट लड़के पढ़ते थे. अब तो हम गर्ल्स कालेज में आ गए,’ स्नेहा ने शायद नेहा के माथे पर पड़ी सलवटों को देख लिया था और वह माहौल को कुछ हलका करना चाहती थी.
‘स्नेहा, तुम भी न,” नेहा ने यह कह कर हंसी तो स्नेहा भी खिलखिला पड़ी थी.नेहा उस अलबम की हर फोटो को बड़े गौर से देख रही थी. वेलकम पार्टी, टीचर्स डे, फेयरवैल, ऐनुअल फंक्शन… हर फोटो में नेहा और स्नेहा छाई हुई थीं. दिन हंसतेगाते, पाकीज़ा जूस सैंटर का जूस पीते हुए बीत रहे थे. पर दिन हमेशा एक से नहीं रहते. ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर के आख़िरी दिनों में स्नेहा कालेज में लगातार गैरहाजिर हो रही थी. नेहा चिंतित थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आ रही है स्नेहा? पता चला, स्नेहा बहुत दिनों से हौस्पिटल में एडमिट है. स्नेहा को क्या हो गया, नेहा परेशान हो उठी.
नेहा हौस्पिटल पहुंची जहां स्नेहा एडमिट थी. स्नेहा का चेहरा स्याह पड़ चुका था, आंखें गड्ढे में चली गई थीं, चेहरा फीकाफीका सा लग रहा था, देह जैसे हड्डी का ढांचा. नेहा को स्नेहा का वह पहले वाला दमकता सौंदर्य याद आ गया. और अब…
‘आओ नेहा,’ एक कमज़ोर सी आवाज़ और फीकी मुसकान के साथ स्नेहा बोली. नेहा उस के पास रखे स्टूल पर बैठ गई. नेहा ने स्नेहा का हाथ पकड़ते हुए पूछा, ‘क्या हो गया स्नेहा? किसी को कुछ बताया भी नहीं, अकेलेअकेले ही सारे दुख़ झेलती रही?’
नहीं, नहीं नेहा, कुछ पता ही नहीं चला. पहले फीवर और हलकी कमज़ोरी थी, फीवर की दवा ले लेती थी, पर घर का काम भी रहता था और वीकनैस बढ़ने लगी. और एक दिन खून की बहुत सारी उलटियां हुईं. मेरे पापा तो बहुत घबरा गए. यहां हौस्पिटल में एडमिट करा दिया,’ स्नेहा धीरेधीरे सारी बातें नेहा को बताती जा रही थी.
‘और तुम्हारी मम्मी?’ नेहा ने तुरंत ही पूछा.‘मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं चलता. वे तो…’ बोलतेबोलते स्नेहा रुक गई और एक गहरी सांस अंदर खींच कर रह गई.
‘पर खून की उलटियां क्यों हुईं तुम्हें?’ नेहा अगले प्रश्न के साथ तैयार थी. ‘दरअसल, मुझे सीवियर ट्यूबरकुलोसिस है. पूरे लंग्स में इन्फैक्शन है. थोड़ा मुझ से दूर ही रहो,’ स्नेहा पहले तो कुछ गंभीर थी, फिर हंस दी.
‘पर स्नेहा, तुम्हारा इलाज तो सही हो रहा है न, यहां के डाक्टर्स अच्छे हैं न? नेहा ने चिंतित स्वर में पूछा. स्नेहा के चेहरे पर शरारत टपक गई, बोली, ‘अरे यार नेहा, डाक्टर्स तो अच्छे हैं, एक नहीं दोदो अच्छे हैं, एक सीनियर डाक्टर और एक जूनियर डाक्टर. सीनियर वाला न, मेरे गढ़वाल का ही है. पर, सूरत जूनियर वाले की ज़्यादा अच्छी है.’ ‘स्नेहा, तुम नहीं सुधरोगी, इतनी बीमार हो, फिर भी…’ नेहा हंसते हुए उस का गाल सहलाते हुए बोली.
नेहा, तो क्या रोती रहूं हर समय. अब तुम ने ही पूछा कि डाक्टर्स कैसे हैं तो मैं ने बताया,’ स्नेहा हलके गुस्से से बोली. इतने में एक साधारण नयननक्श का सांवला डाक्टर आया, उसे एग्जामिन किया और पूछा, ‘स्नेहा जी, अब वौमिटिंग बंद हुई, फीलिंग बेटर नाउ?’
‘हां डाक्टर,’ स्नेहा ने धीमे से जवाब दिया. पीछे एक हैंडसम सा जूनियर डाक्टर साथ था. उस ने स्नेहा को कुछ दवाएं दी और मुसकराते हुए चला गया. ‘देखा स्नेहा, दोनों डाक्टर अच्छे हैं न,’ स्नेहा चहक कर बोली. नेहा प्यार से स्नेहा को सहलाने लगी और बोली, ‘स्नेहा, जल्दी से ठीक हो जाओ, परीक्षाएं पास आ रही हैं, मैं तुम्हें नोट्स दे दूंगी, ओके.’
स्नेहा ने भी नेहा का दूसरा हाथ अपने हाथों से कस के पकड़ लिया और अंसुओं की दो बूंदें उस की आंखों से ढ़ुलक गईं. नेहा अपनी आंखों को छलकने से बचाने के लिए तेज़ आवाज़ में बोली, ‘माय डियर, गेट वैल सून.’ नेहा भीगी पलकों के साथ वहां से चली आई.
परीक्षाएं पास आ गई थीं. स्नेहा की तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं हो पाई थी. वह फाइनल एग्ज़ाम नहीं दे सकी. स्नेहा हौस्पिटल से डिस्चार्ज हो कर अपनी दादी के साथ पहाड़ चली गई. इधर नेहा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गई. वहीं होस्टल ले कर पोस्टग्रेजुएशन करने लगी और साथ में सिविल सर्विसेज़ की भी तैयारी कर रही थी. उसे बिलकुल भी फुरसत न मिलती. मोबाइल उन दिनों था नहीं जो हर समय दोस्तों से वह बात कर सके.
लखनऊ घर बात करने के लिए हफ्ते में एक बार होस्टल के पीसीओ जा पाती थी. नेहा स्नेहा को याद करती, पर बात नहीं हो पाती. ‘पता नहीं स्नेहा कैसी होगी, उस की तबीयत… उस की मां का क्या हाल होगा…’ एक लंबी सांस खींच कर नेहा किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाती.
स्नेहा से मिले हुए नेहा को 10-11 महीने हो रहे थे. नेहा दिल्ली से छुट्टियों में अपने घर आई हुई थी. कहते हैं, किसी को शिद्दत से याद करो तो वह मिल ही जाता है. उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ. स्नेहा ने नेहा को अचानक ही फ़ोन लगा दिया था.
अब नेहा दूसरे दिन स्नेहा के फ़ोन का इंतज़ार कर रही थी और साथ ही चिंतित भी थी क्योंकि स्नेहा ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. कुछ देर बाद फ़ोन की घंटी बजी. नेहा ने पहली घंटी बजते ही रिसीवर उठा लिया.
“हैलो, स्नेहा?” “हां नेहा, मैं स्नेहा बोल रही हूं.”
“स्नेहा, कल तुम ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. क्या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं हुई?” नेहा ने कुछ घबराते हुए पूछा. “नेहा, मुझे कल जाना था हौस्पिटल डाक्टर से मिलने.”
“वही तो मैं पूछ रही हूं स्नेहा. डाक्टर से मिलने तुम्हें क्यों जाना था”? नेहा लगभग झुंझला कर बोली.”नेहा, जब तुम मुझ से मिलने हौस्पिटल आई थीं, तो याद है तुम्हें 2 डाक्टर्स मुझे एग्ज़ामिन करने आए थे.”
“हांहां, याद है मुझे. एक तो तुम्हारे पहाड़ के थे और दूसरे एक जूनियर डाक्टर थे.””हां, पहाड़ वाले डाक्टर स्वप्निल जोशी. उन्होंने मुझे बुलाया था,” स्नेहा बताने लगी, “नेहा, तुम्हें याद है न, मेरी तबीयत कितनी खराब थी, खून की उलटियां हो रही थीं, मेरा चेहरा कैसा स्याह पड़ चुका था. मम्मी की हालत तो तुम जानती ही हो. जब मुझे हौस्पिटल में एडमिट कराया तो मेरी हालत बहुत खराब थी. ऐसे में डा. स्वप्निल ने ही मुझे एग्ज़ामिन किया. उन की ही दवाओं से मेरी उलटियां रुकीं. थोड़ी तबीयत हलकी हुई. अब जब भी डा. स्वप्निल मेरा चैकअप करने आते, मुझे आदतन हंसी आ जाती. तुम्हें तो पता है, मुझ से ज़्यादा देर सीरियस नहीं रहा जाता. उस दिन भी डा. स्वप्निल को देख मैं यों ही हंस पड़ी. डा. ने पूछा, “हैलो स्नेहा, फीलिंग बेटर नाऊ?”
“या डाक्टर,” मैं ने मुसकराते हुए उत्तर दिया. “पूरा आराम कीजिए स्नेहा आप और मेडिसिन्स टाइम से लीजिए पूरे 6 महीने का कोर्स है.”जी डाक्टर,” मैं फिर मुसकरा उठी. डा. स्वप्निल भी मुसकरा पड़े.
एक दिन मैं ने शीशे में में अपना चेहरा गौर से देखा तो मैं खुद घबरा गई. आंखें धंसी, चेहरा पीला, सारी रंगत चली गई थी. बस. नहीं कुछ गया था तो वह थी मेरी हंसी. मम्मी की चिंता, पापा की चिंता, दादी भी बूढ़ी हो चली हैं…कैसे क्या होगा? और मेरी भी तबीयत…भाई भी छोटा है… क्या ज़रूरत थी कुदरत को मुझे इस तरह बीमार करने की. बहुत गुस्सा आता मुझे. पर इन सब के बीच ज़िंदगी से नफ़रत नहीं कर पाती. कुछ भी अच्छा एहसास होता, तो बरबस ही होंठों पर मुसकान आ जाती. सो, डा. स्वप्निल का एहसास भी कुछ अच्छा सा था. डा. स्वप्निल से मैं धीरेधीरे खुलने लगी. उन्हें अपने घर के बारे में, मम्मी के विषय में बताया. डा. स्वप्निल गंभीरता से मेरी बातें सुनते. मुझे भी उन से बातें करना अच्छा लगता. उस दिन 25 अगस्त को मेरा बर्थडे था. डा.
स्वप्निल मुझे चैक करने आए तो स्टेथोस्कोप के साथ उन के हाथों में लाल गुलाब के फूलों का बुके भी था. उन्होंने बुके पकड़ाते हुए कहा, “हैप्पी बर्थडे स्नेहा.” “पर आप को कैसे पता चला?” मैं ने चौंकते हुए पूछा.
“ह्म्म्म्म, स्नेहा, वह दरअसल, मैं ने तुम्हारी फ़ाइल देखी थी. उस में बर्थडे की एंट्री थी. वहीं से पता चला,” डा. स्वप्निल मुसकराते हुए बोले”अच्छा, तो डाक्टर साहब मरीज़ की सारी अनोट्मी देखते हैं,” मैं ने भवें तिरछी कर हंसते हुए कहा.
डा. स्वप्निल कुछ औकवर्ड फील करने लगे, फिर कुछ सीरियस हो कर मेरी ओर मुखातिब हुए, “स्नेहा, आज तुम्हारा बर्थडे है, उपहार तो मुझे देना चाहिए. पर एक उपहार मैं तुम से मांगना चाहता हूं.” “क्या, क्या?” मैं ने हैरानी और आशंका से प्रश्न किया.डा. स्वप्निल बिना एक पल की देरी किए हुए कह उठे, “स्नेहा, मुझ से शादी करोगी?”
मैं आश्चर्य में पड़ गई. समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूं. मेरे कानों से ऐसा लगा मानो गरम हवा निकल रही हो. दिल बैठा जा रहा था. सुन्न सी हालत हो गई थी मेरी.
मैं ने लड़खड़ाती ज़बान से कहा, “पर डाक्टर, मेरी बीमारी…मेरी मां की हालत… आप कैसे…” आवाज़ मानो घुट कर गले में ही अटक गई.
डा. स्वप्निल ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगे, “स्नेहा, तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाएगी, मुझ पर विश्वास करो. मैं तुम्हारे घर की स्थिति को जानता हूं. ये सब जानते हुए भी मुझे तुम्हारा ही हाथ थामना है. पता है क्यों, क्योंकि तुम से मिल कर मेरी दवाओं, इंजैक्शन, औपरेशन से भारी रूखी ज़िंदगी में मुसकराहट आ जाती है. मेरी सीरियसनैस में चंचलता आ जाती है. तुम से मिल कर ज़िंदगी से प्यार होने लगता है. मेरा ख़ालीपन भरने लगता है. बोलो स्नेहा, मेरा साथ तुम्हें पसंद है.”
डा. स्वप्निल इतना कह कर नम आंखों से मुझे देखने लगे. मेरी पलकें अनायास ही झुक गईं. डा. स्वप्निल की बातों में, उन के हाथों के स्पर्श में भरोसे की खुशबू को मैं ने खूब महसूस किया और…”
“और, फिर क्या हुआ?” नेहा ने उछलते हुए पूछा. “फिर क्या हुआ?? हुआ यह कि इस संडे को मेरी एंग़ेज़मैंट है डा. स्वप्निल के साथ और उस दिन मुझे उन्होंने रिंग पसंद करवाने के लिए हौस्पिटल बुलाया था. तुम्हें ज़रूर आना है, ” स्नेहा बोलते हुए अपनी स्वाभाविक हंसी के साथ हंस पड़ी.
नेहा बड़ी गर्मजोशी से बोली, “ओह स्नेहा, तुम ने अपनी हंसी में डाक्टर को फंसा ही लिया. सच, मैं बहुत खुश हूं तुम्हारे लिए. वैसे, डाक्टर साहब ने ठीक ही कहा कि तुम से मिल कर वीरान ज़िंदगी में बहार आ जाती है, बोरिंग ज़िंदगी रंगीन लगने लगती है और ज़िंदगी से प्यार होने लगता है. आख़िर प्यार है नाम तुम्हारा, स्नेहा डियर.”
“और तुम्हारा भी,” स्नेहा खनकती आवाज़ में बोल पड़ी. दोनों सहेलियां एकदूसरे को फोन पर ही मनभर कर महसूस करती हुईं ज़ोर से खिलखिला पड़ीं.
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