क्यों कठपुतली बन रही हैं महिलाएं

लगता है कि इंग्लैंड के बुरे दिन बुरी तरह आ गए है. लिज इस कंजर्वेटिव पार्टी का चुनाव बड़ी शिद्दोशहत से जीता था, केवल कुछ सप्ताहों में रिजाइन करने को मजबूर हो गई क्योंकि उस ने ब्रिटेन की ब्रैकिएट के बाद फसी दलदल में से निकालने के जो भी कदम उठाए वे आलू उबालने के लिए 5 पेज की रैसिपी की तरह के थे. उस से एक बहुत ही सीधासादा काम नहीं हुआ और उस ने नाहक महिला नेताओं के अगले कई सालों के लिए दरबाजे बंद कर दिए हैं.

इटली की जिर्योरियो मेलोनी, अमेरिका की हेनरी क्लिंटन और कमला हैरिस, भारत की मायावती, सुषमा स्वराज, प्रतिभा पाटिल, म्यांमार की आंग सान सू की तेजी से उभरी पर फिर गीले बारूद की तरह फुस्स हो गई. इंग्लैंड की मार्गरेट थैचर को आयरन लेडी कहा जाता था पर उन्हें भी बड़ी बेमुख्वती से निकाला गया. पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो बड़ी उम्मीदों से प्रधानमंत्री बनी पर थोड़े दिनों में अपनी चमक को खो बैठी थी. और हत्या नहीं हुई होती तो चुनावों में हार ही जातीं.

लिज ट्रस का कुछ ही दिनों में रिजाइन करना साबित करता हैै कि सत्ता के कैरीडोरों को संभालना किचन शैल्फ से कहीं ज्यादा उलझा हुआ है. सदियों से औरतों को इस तरह थोड़े से काम दिए गए हैं कि वे अंदर तक उतनी मजबूत नहीं बन पातीं जो एक शासक को होना चाहिए.

इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, जर्मनी की एंजेला मार्केल, न्यूजीलैंड जेङ्क्षसडा आर्डन, बांग्लादेश की शेख हसीना कुछ ऐसी हैं जिन्होंने अपनी जमीन बनाई पर इन में से कई को पद विरासत में मिला, अपनेआप उन्होंने जमीन से लड़ कर नहीं पाया.

ब्रिटेन आज आर्थिक संवाद में तो है ही, अब पौलिटिक उलझन में भी फंसा रहेगा क्योंकि जो भी प्रधानमंत्री बनेगा उसे अगले साल चुनाव लडऩे पड़ेंगे और इतने से दिनों में वह अपना काम कर पाएगा, उस का भरोसा नहीं है. अब ब्रिटेन के पौसीबल प्राइम मिनिस्टर पद के कैंडीडैटों में काफी सालों तक औरतों का नाम नहीं होगा, यह पक्का है.

दूसरे देशों में भी लिज इस का इस तरह की इंसल्ट के बाद पद छोडऩे का असर पड़ेगा और मीडिया नेताओं के रास्ते मुश्किल हो जाएंगे. जहां भी महिलाओं को चुना जाएगा अपने पिता, पति या रिश्तेदारों की वजह से या फिर एक कठपुतली की तरह. दुनिया में जो थोड़ेबहुत देशों में औरतें राजनीति में दबदबा बनाए रख रही हैं, उन में ज्यादातर सरोगैंट डाटर इनला या मदर इनला की तरह हैं जिन का रौब उन के चिकचिक करते  और हर काम में कमी निकालने और कोई एक स्ट्रीम व्यू रखने पर है. लिज ट्रस ने भी अपनी इकोनोमिक पौलिसी को एकदम एक्स्ट्रीय बिना सोचेसमझे बनाया था जो उन्हें ले डूबी.

फ्रांसीसी औरतें और रूस

रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन के फ्रांसीसी औरतें कर्स कर रही हैं क्योंकि अब वे स्विमिंग पूल में अपनी सुंदर काया नहीं दिखा पाएंगी. दोनों का आपस में क्या रिलेशन है भई. असल में जब से भारत के प्रेसिडेंट ने अपनी पौवर दिखाने के लिए बिना बात के यूक्रेन पर अटैक किया है, यूरोप और अमेरिका ने रूस से ट्रेड पर पूरी सेंकशनें लगा दी हैं. बदले में रूस ने अपनी गैस यूरोप को बेचने पर रोक लगा दी है और धीरेधीरे यूरोप के घर ठंडे होते जा रहे हैं और इन सर्दियों में उन के ठिठुरने की नौबत आने वाली है.

इसी चक्कर में फ्रांस ने डिवाटड किया है कि पब्लिक स्वीङ्क्षमग पूलों में अब बहुत गर्भ पानी नहीं मिलेगा और यंग, स्लिम को मोटा, फुलबौडी स्विमिंग सूट पहनना होगा.

यह प्यार टौर्चर है. लड़कियां खाने में भरपूर डाइटिंग करती हैं, जौङ्क्षगग करती हैं, जिम जाती है. वर्क आउट करती हैं पर अब उन की स्लिम ट्रिस बौडी को कोई देख न सके तो सब करने का फायदा क्या.

हमारे यहां खातेपीते घरों की औरतें मोटी होती ही इसलिए हैं कि साड़ी और सलवारकमीज सूट में फैट लेयर काफी छिप जाती है और फिर बदन के बारे में लापरवाह हो जाती हैं. जहां बदन दिखाने की छूट होती है वहां लड़कियां अवेयर रहती हैं कि वे कैसी लग रही हैं.

पब्लिक गार्डन की तरह पब्लिक स्वीङ्क्षमग पूल सब से बड़े इंसैंटिव हो सकते हैं लड़कियों के फिट रखने के. यूरोप अमेरिका की लड़कियां इसीलिए ज्यादा फिट होती है क्योंकि वहां स्विमिंग पूल की भरमार है. हमारे यहां यह सिर्फ 5 स्टार कल्चर का हिस्सा है. होना तो यह चाहिए कि औरतों को केवल उस पार्टी को वोट देना चाहिए जो अपने मैनिफैस्टों में जौब्स दे या न दे, बहुत से स्विमिंग पुल जरूर दे. यह तो बेसिक वुमन राइट है न.

पहाड़ों पर क्यों हो रहे हैं हादसे

केदारनाथ के दर्शन करने गए हेलीकौप्टर से 7 यात्री स्वर्ग दर्शन के लिए पहुंच गए क्योंकि धुंध में हैलीकौप्टर एक पहाड़ी से टकरा गया और जल कर गिर गया. जब से चार धामों में हैलीकौप्टरों की सेवाएं शुरू हुई हैं हैलीकौप्टर सडक़ पर आटो  की तरह चलने लगे हैं और उन अंधविश्वासी भक्तों को ढो रहे हैं जो पुण्य कमाने तो जाना चाहते हैं पर पैदल चलता नहीं चाहते.

हिमाचल की पहाडिय़ों पर तो धर्म प्रसिद्ध इसलिए रहे हैं क्योंकि पहले इन तक पहुंचना कठिन था और न रास्ते बने हुए थे, न कोई सुविधाएं थीं. पुराणों में इन का महत्व और मनमोहक निय……..बारबार किया गया है और इसलिए भक्त सदियों से इन छात्रों में रहने वाले पंडितों की तब खूब सेवा करते थे जब वे भीहड़ जंगलों से होते हुए सर्दियों में मैदानी इलाको में आते थे.

अब महंत वहीं रहते हैं क्योंकि बिजली, पानी, हीटरों, एयर कंडीशनरों, खाने की सुविधा उन सडक़ों के द्वारा पहुंचने लगी है जो पहाड़ों को काट कर इस धर्म के व्यापार को चमकाने के लिए बनी हैं. यात्रा को आसान करने के लिए अंतिम खंड जहां चढ़ाई बहुत अधिक होती है हैलीकौप्टर चलने लगे जो दुर्गम पहाडिय़ों के बीच में से धामों में भक्तों को पहुंचाते हैं. मई से ले कर अक्तूबर तक हर रोज कई दर्जन उड़ानें भरी जाने लगी है और एक्एिशन कंपनियां भरपूर कमाई कर रही हैं. चूंकि यात्रा कुछ मिनटों की होती है. मंडगा टिकट भी यात्रियों को अखरता नहीं है. 18 अक्तूबर को हुई दुर्घटना में 20 वर्ष की पूर्वा, 30 वर्ष की कृति, 25 वर्ष का उॢव भी थीं जो 2 प्रौढ़ो के साथ थीं, सवाल उठता है कि  युवावस्था में जब एडवेंचर खून में होता है और शरीर में दम होता है तो हैलीकौप्टर लेने की जरूरत क्या थी. जब अंधविश्वास इतना है कि केदारनाथ जाना ही हैं तो क्यों न पैदल पूरा रास्ता तय किया जाए.

पैदल चलना मुश्किल नहीं है, यह राहुल गांधी सिद्ध कर रहे हैं जो शहरी, ग्रामीण और पहाड़ी इलाकों से होते हुए इन शब्दों के लिखे जाने तक……….किलोमीटर चल चुके हैं एक अच्छा आदर्श पेश कर रहे हैं कि  पैदल चलने से घबराएं नहीं. ट्रैकिंग आज के युवाओं का फेवरिट पैशन है तो 30, 26 और 25 साल की लड़कियों को क्या हुआ कि उन्होंने हैलीकौप्टर लिया.

शायद यह बढ़ते पैसे की वजह से हुआ है जो कुछ हाथों में सिमट रहा है और वे लोग हर तरह की सुविधा बिना हाथ पैर हिला लाना चाह रहे हैं. ट्रैकिंग में धर्म से पर हैलीकौप्टर से जाने से ज्यादा मजा है, ज्यादा रिस्क है, ज्यादा देखने को मिलता है, ज्यादा अच्छा एक्सीपीरियंस होता है. क्या यंग जेनरेशन इस एक्साइटमैंट को आपने मांबाप के पैसों के बल पर गंगा में वहा रही है.

दिल्ली एम्स का सर्कुलर

अपना कोर्ई अजीज बीमार हो और सरकारी आल इंडिया इंस्टीट्यूट औफ मैडिसिन जैसे सरकारी अस्पताल में जा पहुंचा हो और न डाक्टर बात करने को तैयार हो, न लैब अस्सिटैंट तो कितनी घुटन और परेशानी होती है यह युक्तभोगी ही जानते है. देशभर में सरकारी अस्पतालों का जाल बिछा है पर जहां मंदिर में जाने पर तुरंत प्रवेश मिल जाता है (या कुछ घंटों में सही) अस्पताल अभी भी इतने कम हैं कि उन में बैड मिलना और इलाज का समय निकालना एवेस्ट पर चढऩे समान होता है.

दिल्ली एम्स ने सर्कुलर जारी किया है कि वहां कौरीडोरों में मरीजो, उन के रिश्तेदारों के अलावा जो भी उसे यूनिफौर्म और आईडी का डिस्पले करते रहना होगा क्योंकि कौरीडोर प्राइवेट लैबों, क्लीनिकों के एजेंटों से भरे हैं. ये लोग पहले मरीज में रिजल्ट सप्ताहों में आएगा, सर्जरी महीनों में होगी, डाक्टर के लिए नंबर दिनों में आएगा तो क्यों न प्राइवेट जगह चला जाए.

यह बहुत बड़ी देश की दुर्गति है कि हर नागरिक को समय पर इलाज न मिल पाए. गरीब को अनाज मिले, सही इलाज मिले और जेंब में पैसे हो या न हों, इलाज हो ही, यह तय करना सरकार का पहला काम न कि फला जगह मंदिर के लिए कौरीडोर बनाना और फलां जगह दूसरे धर्म स्वाच को ले कर डिस्प्यूट खड़ा करना. सरकार को 4 लेन, 6 लेन सडक़ों से ज्यादा अस्पतालों को ठीक करना होगा.

आज जो भी मेडिकल इलाज वैज्ञानिकों की शोध से मिल रहा है, वह कुछ को 5 स्टार के पैसे देने पर ही मिले, देश के लिए सब से ज्यादा दर्दनाक स्थिति है.

केंद्र सरकार अपनी नाक के नीचे एम्स को दलालों से मुफ्त नहीं करा सकती तो इडी (एनफोर्समैड डायरक्योरेट) सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) एनआईए (नैशन इंटैलिजैंस एजेंसी) जैसी संस्थाएं जनता के लिए बेकार हैं जब अपना कोई मर रहा हो, कराह ही रहा हो सिर पर पैसे बनाने वाले दलाल चढ़ हो क्योंकि सरकारी इलाज न जाने कब मिलेगा. सरकार को ईडीफीडी पर गर्व नहीं करना चाहिए, सरकारी अस्पतालों में घूम रहे दलालों पर शर्म से गढ़ जाना चाहिए.

प्रैग्नेंसी एक महिला के शरीर में महत्वपूर्ण परिवर्तनों का समय है, पढ़ें खबर

गीता बाफना

फाउंडर, हॉलिस्टिक प्रेगनेंसी

मैं बच्चों के माटेसरी हाउस, वीस्कूल की निदेशक और संस्थापक हूं. मैंने वाणिज्य में विशेषज्ञता रखते हुए चेन्नई से स्नातक की पढ़ाई पूरी की है. इसके अलावा, मैंने बच्चों को उनकी अधिकतम क्षमता तक बढ़ने में मदद करने की इच्छा के साथ भारतीय माँटेसरी प्रशिक्षण केंद्र (आईएमटीसी) से प्राथमिक मोंटेसरी डिप्लोमा भी उत्तीर्ण किया है.

बच्चों की व्यापक सीखने की प्रक्रिया को बदलना और शैक्षिक विधियों में प्रारंभिक दृष्टिकोण विकसित करने, हमने एक ऑनलाइन गर्भावस्था का कोर्स बनाया है. गर्भावस्था, प्रसव और पितृत्व जीवन के प्रमुख विकल्प हैं जो चीजों को कई तरह से बदलते हैं. जब आप माता-पिता बनते हैं तो जीवन नाटकीय रूप से बदल जाता है, इसलिए केवल यह सम झ में आता है कि जब आप प्रसव पूर्व देखभाल के बारे में सोच रहे हों तो आप गर्भावस्था के भौतिक पक्ष से अधिक पर विचार करना चाहेंगे. समग्र दृष्टिकोण वह है जिस पर महिलाएं बढ़ती संख्या में विचार कर रही हैं, क्योंकि इस दृष्टिकोण में शरीर, मन और आत्मा शामिल है, जिससे महिलाओं को एक से अधिक तरीकों से स्वस्थ गर्भावस्था का आनंद लेने में मदद मिलती है.

कॉन्शियस कॉन्सेप्शन

‘कॉन्शियस कॉन्सेप्शन’ शब्द आपके बच्चे को बुलाने के लिए एक प्यार भरा स्थान बनाने और धारण करने के इरादे को स्थापित करने का विचार रखता है. यह विचार इस बात को स्वीकार करता है कि आज हम जिन बच्चों का सपना देखते हैं- हमारे पूर्वज और भविष्य के नेता, कार्यकर्ता, माता-पिता और कल के पृथ्वी प्रबंधक, हमारे वर्तमान विकल्पों से प्रभावित हैं. यह भोजन से लेकर भागीदारों तक, विचारों से लेकर पर्यावरण तक और उससे आगे तक होता है. हमारा मानना है कि जब आप गर्भधारण की तैयारी के बारे में सोचते हैं, तो आपको अपने शरीर, दिमाग और आत्मा को और भी अधिक परिवर्तनकारी अनुभव के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण अपनाने के लिए तैयार करने पर ध्यान देना चाहिए.

‘हमारा आदर्श वाक्य’, ‘चेतना मानवता का निर्माण’ है और हम आप में सर्वश्रेष्ठ लाने का प्रयास करते हैं, यह सुनिश्चित करने के लिए कि आपके गर्भ में आत्मा शारीरिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ है. हमारा लक्ष्य आपकी गर्भावस्था के दौरान आपका अच्छी तरह से मार्गदर्शन करना है, और वास्तव में हम मानते हैं कि गर्भावस्था की अवधि ठीक उसी दिन से शुरू होती है जब आप माता-पिता बनने के बारे में सोचते हैं. हमारा मानना है कि प्लानिंग या प्री-कॉन्सेप्शन बहुत जरूरी है.

जैसा कि हम स्वस्थ शरीर बनाने के लिए खुद को समर्पित करते हैं, अपने आंतरिक और बाहरी वातावरण की देखभाल करते हैं, यह गर्भसंस्कार पाठ्यक्रम आपको यह सम झने में मदद करेगा कि शारीरिक रूप से गर्भधारण करने से पहले भी प्रसव पूर्व देखभाल समान रूप से महत्वपूर्ण है. हमारे वीडियो पाठों के माध्यम से, आप प्रसवपूर्व संबंध के महत्व को सम झ सकेंगे, हम सा झा करते हैं कि अंदर रहने वाली नई जान से कैसे जुड़ना है.

गर्भावस्था के दौरान

आपको यह सोचने की ज़रूरत है कि आप क्या खा रहे हैं, आप कैसा महसूस कर रहे हैं और आपका शरीर आपको क्या बता रहा है. एक सचेत गर्भावस्था के दौरान, आप अपने बच्चे से जुड़ती हैं और आप अपने भावनात्मक जीवन को सम झने में सक्त्रिय भूमिका निभा रही हैं क्योंकि आप स झती हैं कि यह न केवल आपको, बल्कि आपके जन्म के अनुभव और बच्चे को कैसे प्रभावित कर सकता है.

गर्भ संस्कार के अनुसार (संस्कृत में गर्भ का अर्थ है भ्रूण और संस्कार का अर्थ है मन की शिक्षा), आपका बच्चा बाहरी प्रभावों को सम झने और प्रतिक्रिया करने में सक्षम है. इसलिए, हम आपको यह सम झाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं कि अपने शरीर, आदतों और उन परिवर्तनों का अध्ययन कैसे करें जो आपको एक स्वस्थ जीवन शैली के लिए हर तरह से लाने की आवश्यकता है.

मन और आत्मा के विषहरण पर ध्यान केंद्रित करने से लेकर अपने भावनात्मक भागफल में सुधार करने तक, सही आहार योजना बनाने से लेकर स्वस्थ वजन सीमा बनाए रखने तक, हर मुद्दे की पहचान करने से लेकर सभी संभावित समाधानों को सूचीबद्ध करने तक, स्वस्थ आदतों के निर्माण से लेकर चिंतन अभ्यास में संलग्न होने तक खेती करने के लिए अपने स्वयं के अस्तित्व, तनाव से निपटने के तरीके खोजने से लेकर दिमाग को मजबूत बनाने तक, हम आपको शुरुआती और जन्म से पहले के अनुभवों की सराहना करने के लिए और अधिक खोलने के लिए सचेत करते हैं.

हम, एक टीम के रूप में, भावी माता-पिता में सर्वोत्तम प्रथाओं को आत्मसात करने की इच्छा रखते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि नवजात शिशु एक आदर्श बच्चा बन सके जो माता-पिता चाहते हैं. हमारी दृष्टि समग्र गर्भावस्था की अवधारणा पर हमारे वीडियो पाठों के

माध्यम से माता-पिता का मार्गदर्शन करना है. हमारा दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य की शिक्षा जन्म से पहले शुरू होनी चाहिए और जीवन भर जारी रहनी चाहिए. और हम जो विश्वास करते हैं उसे हासिल करने के लिए आपका मार्गदर्शन करने के लिए हम यहां हैं.

जब बच्चा गर्भ में हो

आपको एक गहरे और व्यक्तिगत परिवर्तन में बुलाया गया है क्योंकि गर्भ में नई जान आपको महसूस करने और उन चीजों को सीखने में सक्षम होगी जो आप पहले से कर रहे हैं. जब बच्चा गर्भ में होता है तो आप जो करते हैं वह मायने रखता है और इसलिए गर्भाधान से पहले ही अवचेतन रूप से अतिरिक्त देखभाल विकसित करने से हमारे हावभाव अपने आप गिर जाएंगे.

आपकी सहायता टीम आपके प्रसवपूर्व और जन्म के अनुभव को बढ़ाने के लिए यहां है. हमारा मिशन है कि आप अपने, अपने बच्चे और अपने परिवार के लिए सबसे अच्छा काम करने के लिए सशक्त महसूस करें.

अपनी सुविधानुसार किसी भी समय, किसी भी उपकरण से संपूर्ण पाठ्यक्रम देखें. ठीक वहीं से फिर से शुरू करें जहां आपने छोड़ा था. गर्भावस्था मॉड्यूल के माध्यम से, हम आपके बीजों को उनकी लंबी उम्र, स्वास्थ्य, सद्भाव और उद्देश्य की स्पष्टता के लिए पोषण देना चाहते हैं.

‘‘हम अपने बच्चों के लिए किस तरह की दुनिया छोड़ रहे हैं’’ के बारे में जागरूक होना न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सम झना और विचार करना भी महत्वपूर्ण है कि हम इस दुनिया के लिए किस तरह के बच्चे छोड़ रहे हैं.

जिस 9-10 महीने में शिशु मां के गर्भ में भू्रण के रूप में रहता है, वह मानव-जाति का आधार है. हर इंसान की पहली पाठशाला उसकी मां की कोख होती है. सबसे बड़ी शिक्षक अपेक्षित मां है. हमारे पाठ्यक्रम वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हैं, समकालीन प्रथाओं के साथ प्राचीन पद्धति शामिल हैं. हमारा विजन 11 मिलियन जोड़ों तक पहुंचकर जागरूक मानवता का निर्माण करना है और इसे आगे बढ़ाना है.

हम नियमित रूप से गर्भ संस्कार कार्यशालाएं आयोजित करते हैं, ज्यादातर हर पखवाड़े, जहां कई जोड़े आध्यात्मिकता का अनुभव करने के लिए जुड़ते हैं. हम 21 दिनों की दिनचर्या कार्यशाला भी आयोजित करते हैं जो एक 6 सप्ताह का कार्यक्रम है जिसमें एक गर्भवती जोड़े के आवश्यक कार्यान्वयन सिखाया जाता है. हमारे द्वारा समग्र पाठशाला ‘‘हर घर में गुरुकुल’’ एक 30 सप्ताह का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जिसमें सभी नामांकित गर्भवती जोड़े सप्ताह में एक बार विशेष रूप से एक साथ शामिल होते हैं.

हम ‘माइंड मैप’ नाम से एक कार्यक्रम भी आयोजित करते हैं जिसमें सभी व्यक्ति जो अपने भावनात्मक और आध्यात्मिक कल्याण के लिए उत्कृष्टता प्राप्त करना चाहते हैं, भाग लेते हैं और बेहतर व्यक्ति बनने का प्रयास करते हैं.

‘स्वच्छ सर्वेक्षण’ अवार्ड और सफाई

केंद्र सरकार अपने ‘स्वच्छ सुर्वेक्षण’ अवाड्र्स से देश के शहरों को सफाई के लिए हर साल अवार्ड देती है और इस बार फिर इंदौर (मध्य प्रदेश) व सूरत (गुजरात) पहले दूसरे नंबर पर आए हैं. 4534 शहरों में होने वाले इस सर्वे में छोटे शहरों में पंचगनी (महाराष्ट्र) व पाटन (छत्तीसगढ़) पहले व दूसरे नंबर पर  पाए गए.

यह अवार्ड सैरीकौनी एक अच्छा प्रयास है कि शहर का एडमिनिस्ट्रेशन कुछ करे कि हर साल उस की रैंङ्क्षकग बढ़े. आम आदमी को जो लाभ इन सर्वे की रैंङ्क्षकग से मिलता है वह भगत की तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था बनने की रैंकिंग से कहीं ज्यादा सुखद है. लोग अपने आसपास का माहौल सही चाहते हैं न कि देश की राजधानी के राजपथ पर 20000-30000 करोड़ खर्च कर के नए भवन देखना. लोगों को असली प्राइड तब तक होता है जब पता चले कि वे देश के सब से साफ  शहर या सब से गंदे शहर में रहते हैं.

कानपुर का रैंक 4320वां है, झूंझूड का 4304, देवप्रयास का 4095, भीमताल जैसे पर्यटकों के शहर का रैंक 4077 है, शिवकाशी का रैंक 3949 है, बचाकर 3912 स्थान पर है.

पूर्वी दिल्ली शहर 34वें नंबर पर है जो थोड़ा साप्राइङ्क्षजग है. दक्षिणी दिल्ली जो जरा अमीरों की है 28वां स्थान पा सकी है. दिल्ली से सटा गुडगांव 19वें स्थान पर है. पर फरीदाबाद 36वें पर है.

इस तरह की रिपोर्ट हर शहर के एडमिनिस्ट्रेशन को चौकन्ना रखती है और यदि शहर साफ शहरों में गिना जाए तो वहां संपत्ति का दाम तो अपनेआप बढ़ जाता है. वहां नौकरी करने या शादी करने के बाद जुडऩे वालों की लाइन भी बढ़ जाती है. कोई भी न तो चाहकर गंदे शहर में नौकरी करना चाहता है और न ही वहां के लडक़े या लडक़ी से शादी करना.

गंदे शहरों के लोगों को सिर झुका कर चलना होता है जबकि शहरों को गंदा करने में एडमिनिस्टे्रशन से ज्यादा गलती शहरीयों की अपनी होती है.

किसी भी शहर, कस्बे को साफ रखना सिर्फ रैंकिंग के लिए जरूरी नहीं है, यह स्वास्थ्य और कमाई के मौकों के लिए भी जरूरी है. गंदे शहर में रहना ज्यादा मंहगा पड़ता है क्योंकि वहां बिमारियां ज्यादा फैलती हैं, लोग तनाव में रहते हैं, कमाई कम होती है, वाहन खराब ज्यादा होते हैं.

शहरों की साफसफाई से घर को साफ रखने की आदत पड़ती है अगर शहर साफ हो, सडक़ें ठीक हों, बाग हरेभरे हो तो लोग अपनेआप अपने घरों को भी साफ रखने लगती हैं कि कहीं मोहल्ले का या कालोनी का सब से गंदा मकान का खिताब न मिलने लगे. आप के शहर की रैंकिंग क्या है तुरंत ढूंढिए और कुछ वारिस.

Diwali Special: हैप्पी दीवाली के सुझाव

दीवाली यानी धूमधड़ाका, हुड़दंग और ढेर सारी मौजमस्ती. बच्चे और युवा ब्रिगेड पूरे जोश में होती है. उसे काबू में करना काफी मुश्किल हो जाता है. मगर घर की परिस्थितियों और समय की नजाकत को देखते हुए युवा ब्रिगेड को भलाबुरा समझाना बड़ों का फर्ज बनता है. यदि आप अपने परिवार के साथ हैप्पी दीवाली मनाना चाहती हैं तो ये 9 भूलें न करें, जिन्हें हम अकसर कर बैठते हैं-

द्य दीवाली पर सब से ज्याद दुर्घटनाएं आतिशबाजी छोड़ते समय होती हैं. बच्चे जब अनार, फुलझडि़यां चलाते हैं तो बड़ों का उन के साथ होना बहुत जरूरी होता है ताकि उन्हें चलाने का सही तरीका बताया जा सके. फिर भी कुछ गलत घट जाए तो संभालने में सहूलियत रहती है. यदि कोई पटाखा या बम नहीं चल रहा है तो उसे पास जा कर न देखें और न ही उस में दोबारा आग लगाने की गलती करें. घर के अंदर, तंग गलियों आदि में आतिशबाजी न करें. आतिशबाजी करते समय देख लें कि पास में आग को पकड़ने वाली चीजें न हों. जैसे वाहन, सूखी लकड़ी, गैस आदि. आतिशबाजी छोड़ते समय रेशमी और ढीलेढाले कपड़े जैसे लहंगाचुन्नी आदि पहनने की गलती भी न करें.

– बीमार, बुजुर्गों, शिशुओं, पालतू जानवरों के आसपास पटाखे न छोड़ें. तेज आवाज और रोशनी से उन्हें परेशानी हो सकती है. जानवर बेकाबू हो कर किसी दुर्घटना का कारण बन सकते हैं.

– मुसीबत कभी दरवाजा खटखटा कर नहीं आती, बल्कि बिन बुलाए मेहमान की तरह हमारे सामने आ खड़ी होती है. तब किसी न किसी तरह हमें उस से निबटना पड़ता है. दीवाली पर दुर्घटना की संभावना का प्रतिशत काफी बढ जाता है. इन आपदाओं से निबटने के लिए प्राथमिक उपचार हेतु आप के घर में पर्याप्त दवा, भरी पानी की टंकी, फ्रिज में बर्फ आदि अवश्य होनी चाहिए. बुजुर्गों और बच्चों वाले घर में तो प्राथमिक उपचार की व्यवस्था बेहद जरूरी है.

– दीवाली की खुशियों को सब से ज्यादा प्रभावित करता है तलाभुना खाना और बाहर की मिठाई. अत: स्वादस्वाद में इन्हें ज्यादा खाने की गलती न करें. खासतौर पर यदि आप के घर में कोई बुजुर्ग, परहेजी खाना खाने वाला, डायबिटीज, अस्थमा आदि बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति हो तो उस का स्वास्थ्य बिगड़ सकता है. फिर अस्पताल के चक्कर में आप की सारी दीवाली का रंग फीका हो सकता है. साथ ही बजट भी बिगड़ सकता है.

– अकसर दीवाली की व्यस्तता में शौपिंग हम बाद में करने की गलती करते हैं. ऐन वक्त पर जरूरत का सामान हर हालत में खरीदने की मजबूरी होती है, जिस से महंगाई के इस दौर में बजट काफी बढ़ जाता है. यदि कुछ समय पहले ही उपहार, घर का सामान आदि की खरीदारी कर ली जाए तो काफी बचत हो सकती है. बाजार में भीड़भाड़ और भागदौड़ से होने वाली थकान से भी बचा जा सकता है और आप दीवाली पर तरोताजा महसूस कर सकती हैं.

– दीवाली पर बाजार में सेल और सस्ती चीजों की जैसे बाढ़ सी आ जाती है. 1 के साथ 1 फ्री के औफर से खुद को बचाना काफी मुश्किल होता है. ग्राहकों को ललचाने के लिए बाजार में बहुत कुछ होता है. दीवाली की बंपर सेल की भीड़भाड़ में तसल्ली से कुछ भी देखनासमझना मुश्किल होता है और अकसर हम लुट कर ही घर आते हैं. फिर त्योहार पर वैसे भी काफी अतिरिक्त खर्च हो जाता है. अत: बजट से बाहर खर्च करने की गलती न करें वरना महीनों हाथ तंग रह सकता है.

 दीयों को जला कर परदों, ज्लवलनशील चीजों आदि से दूर रखें.

– दीवाली पर शराब, जूआ आदि खेलने को धर्म से जोड़ कर न देखें. किसी भी धर्म में ऐसे बेकार के घर फूंकने, मनमुटाव पैदा करने वाले खेलों को कोई बढ़ावा नहीं दिया गया है. अत: अपनी मेहनत की कमाई को जूआ, शराब में बरबाद न कर के किसी योजना में लगाएं ताकि भविष्य में आय में बढ़ोतरी हो सके.

– आज इंसान ऊपरी चमकदमक में ज्यादा विश्वास करने लगा है. न चाहते हुए भी वही सब करता है, जो पड़ोसी कर रहा हो. कोई भी किसी से अपने को कम नहीं मानता. फिर चाहे इस के लिए जेब पर कितना ही दबाव क्यों न पड़े. अत: उपहारों के आदानप्रदान और सजावट, आतिशबाजी की खरीदारी वगैरह में अपने बजट से बाहर जाने की गलती न करें. वक्त का तकाजा यही है कि सादगी से परिजनों, पड़ोसियों, मित्रों के साथ मिलजुल कर ज्योतिपर्व मनाया जाए.

किट्टी पार्टी: समय और पैसे की बरबादी

रेस्तरां पूरा खाली था. एक तरफ कुछ मेजों को जोड़ कर 15 से 20 लोगों के बैठने की व्यवस्था बना दी गई थी. दोपहर के 2 बजे थे. 1-1 कर वहां महिलाओं का आना शुरू हुआ. सभी सीटें भर गईं. सीटो पर सजीधजी महिलाएं बैठी थीं, जिन की उम्र 30 से 35 साल के बीच थी. सभी युवा थीं. पढ़ीलिखी दिख रही थीं. ये सभी हाउसवाइफ थीं. इन की किट्टी का थीम स्कूल ड्रैस था, इसलिए सभी अपनेअपने हिसाब से स्कूल गर्ल्स की तरह बन कर आई थीं.

कई महिलाओं की फिटनैस ऐसी थी कि वे स्कूल तो नहीं पर कालेज जाने वाली लड़कियां जरूर लग रही थीं. सभी एकदूसरे की तारीफ कर रही थीं.

इस के बाद एकदूसरे के साथ मोबाइल सैल्फी लेने का दौर शुरू हो गया. होड़ इस बात की थी कि सैल्फी लेते समय सब से अच्छा ‘पाउट’ कौन बना लेता है? ‘सैल्फी पाउट’ का क्रेज महिलाओं में बहुत अधिक है. मोबाइल से सैल्फी लेते समय वे मुंह को पतला करती हैं, जिस की वजह से सैल्फी सुंदर आती है.

नैचुरल पाउट बेहद सुंदर दिखते हैं. जिन महिलाओं के लिप्स उतने भरे नहीं होते वे पाउट के जरीए खुद से बनाने का काम करती हैं. कुछ महिलाएं इन को सही से बना लेती हैं. उन का चेहरा सुंदर लगता है. सैल्फी पाउट ले कर सोशल मीडिया खासकर इंस्ट्राग्राम और फेसबुक पर पोस्ट कर दी जाती हैं.

सैल्फी के बाद सब से पसंद किया जाने वाला टें्रड रील बनाने का हो गया है. महिलाएं एकदूसरे के छोटेछोटे वीडियो क्लिप मोबाइल से बनाती हैं जिन्हें फेसबुक, इंस्ट्राग्राम और यूट्यूब के माध्यम से पोस्ट किया जाता है. यह आजकल सब से पौपुलर ट्रैंड बन चुका है. इस के लिए अच्छी लोकेशन की तलाश रहती है. किट्टी पार्टी जिस होटल में होती है वहां ऐसी जगह तलाशी जाती है. इस के बाद गु्रप फोटो अलगअलग स्टाइल में क्लिक कराया जाता है. कई बार तो इस के लिए प्रोफैशनल फोटोग्राफर भी बुलाया जाता है.

गौसिप, डांस, गेम्स और खाना

फोटोग्राफी के बाद डांस, गेम्स और खाना किट्टी पार्टी का प्रिय शगल होता है. यही वजह है कि हर बार पार्टी के लिए नई लोकेशन की तलाश होती है. कोई भी किट्टी पार्टी बिना गौसिप के पूरी नहीं होती. हर पार्टी में कोई न कोई ऐसा जरूर होता है जो किसी न किसी कारण से पार्टी का हिस्सा नहीं बन पाता. इस की ही सब से अधिक गौसिप होती है. गौसिप भी निजी संबंधों, व्यवहार, घरपरिवार और दोस्त को ले कर होती है. कई बार सैक्स संबंधों पर भी खुल कर बातें होती हैं. इस तरह से 4-5 घंटे की किट्टी पार्टी पूरी हो जाती है.

कई महिलाएं ऐसी हैं जो 3-4 किट्टी तक में हिस्सा लेती हैं. किट्टी पार्टी में हिस्सा लेने के लिए सब से पहले उतने पैसे रखने होते हैं जितने की किट्टी होती है. 2 हजार की किट्टी के लिए पार्टी के लिए पैसा अलग से देना पड़ता है. यह भी किट्टी की रकम के ही बराबर होती है. इस के अलावा कपडे़, मेकअप और स्टाइल के लिए भी खर्च करना पड़ता है. 2 हजार की किट्टी के लिए होने वाली पार्टी में हिस्सा लेने के लिए 2 से 4 हजार के बीच में अलग खर्च हो जाता है.

ऐसे में किट्टी के जरीए फंड जुटाने वाली बात बेमकसद हो जाती है. अगर पैसा जुटाना मकसद होता तो पैसे का भुगतान औनलाइन किया जा सकता था, जिस से बाकी के खर्च बच जाते. किट्टी में यह नियम होता है कि अगर आप को पार्टी में शामिल नहीं भी होना है तो भी किट्टी के खर्च वाले पैसे देने ही पड़ेंगे. ऐसे में किट्टी के जरीए पैसे की बचत वाली बात बेमकसद लगती है.

समय का नुकसान

किट्टी पार्टी में 3-4 घंटे का समय लगता है. इस के साथ ही आनेजाने और तैयारी करने में समय अलग से लगता है. जो महिलाएं 3-4 किट्टी हर माह करती हैं वे पूरा माह इस की तैयारी करती रहती हैं. अत: जो समय महिलाओं को किसी उत्पादक काम में लगाना चाहिए उसे किट्टी पार्टी में लगाना पैसे के साथसाथ समय की भी बरबादी होती है. इस समय का उपयोग वे किसी उत्पादक काम में लगा सकती है, जिस से न केवल उन का भला होगा बल्कि घरपरिवार और समाज का भी भला होगा. किट्टी करने वाली महिलाओं का कहना है कि इस के जरीए वे अपने जैसी महिलाओं के साथ मिलजुल लेती हैं, जिस से उन को खुशी मिलती है.

महिलाएं समाज का एक बड़ा हिस्सा है. लेकिन इन में से कुछ महिलाएं जो कुछ अच्छा काम कर सकती हैं वे किट्टी में अनुत्पादक काम कर के अपना समय खराब करती हैं, अपनी सोच के दायरे को भी कम करने लगती हैं.

ये महिलाएं पढ़ीलिखी होती हैं. इन के घरपरिवार के लोग इन्हें सहयोग करते हैं. मातापिता ने बेटों की तरह ही पढ़ाने का काम किया होता है, पर इन के बाद भी ये बेटों की तरह कमाई वाले काम करने की जगह किट्टी पार्टी करने लगती हैं. अत: महिलाएं जब तक पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर काम नहीं करेंगी देश और समाज के साथसाथ घरपरिवार का भी भला नहीं होगा.

स्कूलकौलेज की फीस बेकार

एक लड़की को अगर अच्छी शिक्षा दी जाती है, प्रोफैशनल डिगरी लेती है तो 8 से 10 लाख रुपए कम से कम उस की शिक्षा पर खर्च हो जाते हैं. इतनी पढ़ाई के बाद इन की शादी हो जाती है. इस के बाद ये ससुराल जा कर पहले तो घर में कैद हो जाती हैं. इस के कुछ सालों के बाद कुछ करने लायक नहीं रह जातीं. फिर समय व्यतीत करने के लिए किट्टी पार्टी करने लगती हैं. अगर पढ़ाई के बाद शादी और शादी के बाद किट्टी जैसे ही काम करने थे तो किसी भी नौर्मल स्कूल से पढ़ाई कर सकती थीं जो 2 से 3 लाख में पूरी हो जाती.

महिलाओं की खुद की तरक्की तब तक नहीं होगी जब तक वे पढ़लिख कर आत्मनिर्भर नहीं बनती. इस के लिए मातापिता की सोच, मेहनत और खर्च करने के साथ ही साथ लड़कियों को खुद भी अपने समय की कीमत पहचाननी पड़ेगी. 25 साल से ले कर 45 साल तक 20 साल ऐसे होते हैं, जिन में महिलाएं मेहनत कर सकती हैं. ऐसे समय में मेहनत कर के खुद को आत्मनिर्भर बना सकती हैं. पढ़ाई से जो हासिल किया है उस को अगर देश, समाज और घर के विकास में नहीं लगाएंगी तो किसी का कोई भला नहीं होगा.

जिस देश की आधी आबादी अनुत्पादक काम करेगी वह देश विकास नहीं कर सकता. शिक्षित हो रही लड़कियों को यह जिम्मेदारी लेनी पडे़गी कि वे खुद आत्मनिर्भर बनें. घरपरिवार देश समाज को मजबूत बनाएं. अगर वे अपनी पढ़ाई करने के बाद खाली हैं, समय गुजारने के लिए किट्टी पार्टी का हिस्सा बन रही हैं तो किसी का कोई भला नहीं होने वाला. पढ़ाई पर खर्च किया गया पैसा बेकार चला जाएगा.

प्रोडक्टिविटी में पिछड़ क्यों गई आधी आबादी

हाल ही में एक ईकौमर्स कंपनी ने अपने विज्ञापन के लिए अलगअलग उम्र की 30 महिलाओं और पुरुषों के साथ एक सोशल ऐक्सपैरिमैंट किया, जिस में उन से कई तरह के सवाल पूछे गए. इस के तहत अगर जवाब ‘हां’ होता तो उन्हें एक कदम आगे बढ़ाना था और अगर ‘न’ होता तो एक कदम पीछे जाना था.

जब तक उन से सामान्य सवाल जैसे साइकिल चलाने, खेल खेलने, संगीत, कपड़े प्रैस करने या फिर चायनाश्ता बनाने से जुड़े सवाल पूछे गए तब तक महिलाएं पुरुषों के मुकाबले में बराबरी पर थीं, लेकिन जब बिल पेमैंट, सैलरी ब्रेकअप, बीमा पौलिसी, बजट, निवेश, म्यूचुअल फंड, इनकम टैक्स से जुड़े सवाल पूछे गए तो महिलाओं और पुरुषों के बीच का फासला इतना बढ़ गया कि अंत में केवल पुरुष ही अगली कतार में खड़े नजर आए.

भारतीय शेयर बाजार में बाकी देशों की तुलना में पुरुषों और महिलाओं के बीच फासला साफ नजर आएगा. ब्रोकरचूजर के आंकड़ों में पाया गया कि भारत में हर 100 निवेशकों में से सिर्फ 21 निवेशक ही महिलाएं हैं यानी उन की तादाद 21% ही है. वैसे भी पारंपरिक रूप से परिवारों में जो भी आर्थिक मामले होते हैं ज्यादातर उन का फैसला घर के पुरुष सदस्य ही करते हैं.

दरअसल, इस की वजह महिलाओं द्वारा इन विषयों में रुचि नहीं लेना है. बचपन से ही घर का माहौल कुछ ऐसा रहता है कि लड़कियां आर्थिक मसलों से जुड़े कामों या फैसलों से दूर ही रहती हैं. वे इन का दारोमदार पूरी तरह अपने पिता, भाइयों या फिर शादी के बाद पति पर छोड़ कर निश्चिंत हो जाती हैं. अपनी, घर की या देश की इनकम बढ़ाने के बारे में सामान्यतया ज्यादातर महिलाएं सोचती भी नहीं. वे खुद को घरगृहस्थी के कामों में उलझए रखती हैं और इस तरह कहीं न कहीं वे खुद के साथ ही नाइंसाफी करती हैं.

रोजगार की स्थिति

इस मामले में यह समझना भी जरूरी है कि देश में महिलाओं के रोजगार की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है. वर्ल्ड बैंक के 2020 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट सिर्फ 18.6 फीसदी है. लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन यानी कामकाजी उम्र की कितनी फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं या काम की तलाश में हैं.

अगर महिलाओं के आसपास ऐसे लोग हों जो ‘ये सब तुम से नहीं होगा’ कहने की जगह उन का समर्थन करें, उन्हें जौब या बिजनैस करने को प्रेरित करें और उन के सारे सवालों के जवाब दें तो महिलाएं सबकुछ ज्यादा बेहतर समझ पाएंगी और संभाल पाएंगी. पर आम घरों में होता कुछ और है. लड़कियों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि औरतों का काम घर, किचन और बच्चे संभालना है.

धीरेधीरे उन के दिमाग में यही बात बैठ जाती है और वे इस से ऊपर कुछ सोचना ही नहीं चाहतीं. उन्हें लगता है कि घर के कामों के साथ वे औफिस के काम नहीं संभाल सकतीं, इसलिए जौब की बात सोचना भी बेमानी है. वे अपना समय घरगृहस्थी और इधरउधर की बातों में ही व्यतीत करने की आदी हो जाती हैं और बेमतलब के कामों में अपना समय बरबाद करती रहती हैं.

किस काम की शिक्षा

बलविंदर कौर एक स्मार्ट और खूबसूरत महिला हैं. उम्र 45 साल है, 2 जवान बच्चों की मां हैं, लेकिन कोई उन्हें 30 साल से ज्यादा का नहीं कहता. वह रोज सुबह 6 बजे नहाधो कर, बढि़या से तैयार हो कर, फुल मेकअप में खुद कार ड्राइव कर के गुरुद्वारे जाती हैं. करीब घंटाभर वहां सिर पर दुपट्टा रख कर श्रद्धाभाव से सामने गाए जा रहे भजनों को सुनती हैं और फिर प्रसाद ले कर घर आ जाती हैं.

सालों से उन का यही रुटीन है. शादी हो कर आई थीं तो यह नियम उन की सास ने बंधवाया था. पहले सास के साथ गुरुद्वारे जाती थीं, उन की मृत्यु के बाद अब अकेले जाती हैं. वही रास्ता, वही गुरुद्वारा और वही 4-5 भजन जो उलटपलट कर गाए जाते हैं. इस में उन के सुबह के 3-4 घंटे बरबाद हो जाते हैं.

बलविंदर कौर अपने स्वास्थ्य के प्रति काफी सचेत रहती हैं, इसलिए शाम का समय उन का पार्क में सहेलियों के साथ व्यायाम करते हुए बीतता है. दिन में उन का समय टीवी पर मनपसंद फैमिली ड्रामा देखते या किसी किट्टी पार्टी में गुजर जाता है. उन के पति का चांदनी चौक में कपड़ों का बड़ा व्यापार है. पैसे की कमी नहीं है. घर में 3 गाडि़यां हैं, 2 फुलटाइम नौकर हैं. बलविंदर कौर को घर का कोई काम नहीं करना पड़ता है.

वे एमए पास हैं. कालेज खत्म करते ही शादी हो गई. शादी के बाद न तो उन से किसी ने नौकरी करने के लिए कहा और न उन की खुद की इच्छा नौकरी करने की हुई.

सवाल यह कि बलविंदर कौर ने उच्च शिक्षा क्यों प्राप्त की? क्यों अपनी शिक्षा में मातापिता का लाखों रुपया खर्च करवाया जब उस शिक्षा से कोई प्रोडक्टिव कार्य नहीं होना था? जब उस शिक्षा से समाज और देश को कोई फायदा नहीं होना था?

सरकारी योजनाओं का क्या लाभ

दिल्ली की पौश कालोनियों के फ्लैट सिस्टम में रह रही महिलाओं की दिनचर्या पर नजर दौड़ाएं तो 10 में से कोई एक महिला मिलेगी जो किसी संस्थान में कार्यरत होगी, जिस की शिक्षा का सही उपयोग हो रहा होगा वरना बाकी 9 महिलाओं का सारा समय पूजापाठ, व्रतत्योहार, शौपिंग या किट्टी पार्टियों में ही जाया होता है.

उच्च मध्यवर्गीय परिवार की ये तमाम महिलाएं उच्च शिक्षा प्राप्त होती हैं. देश के तमाम प्रशासनिक अधिकारियों, मंत्रियों की पत्नियां बड़ीबड़ी शैक्षणिक डिगरियों के बावजूद पूरा जीवन घर की चारदीवारी में परिवार और बच्चों की देखभाल में बिता देती हैं. उन की शिक्षा का कोई फायदा देश को नहीं हो रहा है.

सरकारी आंकड़ों की मानें तो वर्तमान समय में देश में महिलाओं की साक्षरता दर 70.3% है. शहरी क्षेत्रों की ही नहीं बल्कि गांवदेहात की लड़कियां भी अब स्कूल जा रही हैं. शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियां लड़कों से अच्छा प्रदर्शन भी करती हैं. 2-3 दशकों के हाई स्कूल और इंटरमीडिएट के रिजल्ट उठा कर देख लें लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों से बेहतर ही रहा है.

लेकिन उन की शिक्षा से देश या समाज को क्या फायदा हो रहा है? लड़कियों को शिक्षा क्यों दी जा रही है? लड़कियां ऊंची डिगरियां क्यों प्राप्त कर रही हैं? शिक्षा का उन के आने वाले जीवन में क्या उपयोग हो रहा है? ऐसे बहुतेरे सवाल हैं जिन के जवाब हतोत्साहित करने वाले हैं.

शिक्षा का मतलब शादी नहीं

भारत में आमतौर पर सामान्य मध्यवर्गीय परिवार अपनी बेटी को ग्रैजुएट इसलिए बनाते हैं ताकि उस की किसी अच्छे परिवार में शादी हो सके. 10 में से 7 परिवारों की लड़कियों की शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ अच्छी शादी तक ही सीमित होता है.

गांवदेहात की लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो सरकारी प्रयास से आंगनबाड़ी केंद्रों और प्राथमिक शिक्षा संस्थानों में अब लड़कियों की तादाद बढ़ रही है. यह इस कारण भी है क्योंकि सरकार स्त्री शिक्षा का आंकड़ा बढ़ाने और अपनी पीठ थपथपाने के लिए अनेक योजनाएं चला रही है जिस के लालच में बच्चियां स्कूल आने लगी हैं.

गरीब बच्चों को मिड डे मील का लालच, फ्री यूनिफौर्म, फ्री किताबें, फ्री स्टेशनरी बैग, छात्रवृत्ति का पैसा, इन के लालच में मांबाप अब बेटियों को भी स्कूल भेजने लगे हैं. कन्याश्री योजना में 13 वर्ष से 18 वर्ष के बीच की लड़कियों के लिए 750 रुपए की छात्रवृत्ति दी जाती है. 18 से 19 वर्ष के बीच की लड़कियों के लिए 25 हजार रुपए का एकमुश्त अनुदान दिया जाता है.

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, बालिका समृद्धि योजना, धनलक्ष्मी योजना, लाड़ली स्कीम, भाग्यश्री योजना, कन्याश्री प्रकल्प योजना जैसी सैकड़ों योजनाएं देशभर में चल रही हैं जिन के माध्यम से लड़की के खाते में सरकार पैसे डालती है. यह लालच लड़कियों को स्कूल तक लाता है. मगर ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियां 8वीं या 10वीं तक पहुंच पाती हैं कि उन की शादियां हो जाती है.

पढ़ालिखा सब भूल जाती हैं

शादी के बाद उन्हें खेतों में वही काम करना है जो उन की ससुराल की अन्य अनपढ़ औरतें कर रही हैं. ससुराल जा कर वे अपनी शिक्षा को आगे नहीं बढ़ा पातीं हैं बल्कि चूल्हाचौका करने, बच्चे पैदा करने और उन की परवरिश में अगले कुछ सालों में वह पढ़ालिखा सब भूल जाती हैं. तो ऐसी शिक्षा देने का क्या फायदा? सरकार जो करोड़ों रुपए तमाम योजनाओं पर लुटा रही है उस से देश को क्या मिल रहा है?

आखिर क्या वजहें हैं जो लड़कियों को काम करने से रोकती हैं?

धर्म और कर्मकांड: लड़कियों की शिक्षा पर हुए निवेश को उत्पादन में नहीं बदला जा पा रहा है, इस की सब से बड़ी बजह है धर्म. धर्म ने भारतीय समाज को इतना कुंठित और संकीर्ण बना दिया है कि वह स्त्री को आजादी नहीं देना चाहता है. धर्म, कर्मकांड, व्रत, पूजा, त्योहार की ऐसी बेडि़यां उस के पैरों में डाल दी हैं कि पढ़लिख कर भी वह उन से मुक्त नहीं हो पा रही है. सारे धार्मिक कर्मकांड उस के सिर मढ़ दिए गए हैं. सारे व्रत उसे ही करने हैं.

मंदिर के भगवान से ले कर घर के बुजुर्गों तक की सेवा की जिम्मेदारी उसी की है. सालभर होने वाले त्योहारों में बढि़याबढि़या पकवान बनाने की जिम्मेदारी उसी की है. शादी के बाद वंश बढ़ाने की जिम्मेदारी उस की है. पति की सेवा उसे करनी है. बच्चों की परवरिश उसे करनी है. सारे संस्कार उसे निभाने हैं.

ऐसे में एक पढ़ीलिखी महिला घर से निकल कर नौकरी करने और अपनी शिक्षा के सदुपयोग करने के बारे में सोच भी नहीं पाती. सिर्फ उन्हीं परिवारों की महिलाएं घर और बाहर दोनों जगहों पर काम करने की जिम्मेदारी उठाती हैं जहां पैसे की कमी होती है. तब वहां उन के पैरों में डाली गई धार्मिक बेडि़यों को थोड़ा ढीला कर दिया जाता है.

औरत को जिम्मेदारी से दूर रखना: बचपन से ही परिवार के लोग लड़कियों और लड़कों से अलगअलग व्यवहार करते हैं. लड़कों को पढ़ाई के लिए डांटाफटकारा जाता है. उन्हें यह एहसास कराया जाता है कि अगर अच्छे नंबर नहीं आए तो आगे चल कर अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और तुम घर की जिम्मेदारी ठीक से नहीं उठा पाओगे. समाज में खानदान में क्या मुंह दिखाओगे?

लड़कों को इस भावना के साथ बड़ा किया जाता है कि परिवार को पालना उन का फर्ज है. मगर लड़की को कभी यह नहीं कहा जाता है कि तुम्हें परिवार की जिम्मेदारी उठानी है, इसलिए अच्छी तरह पढ़ाई करो ताकि अच्छी नौकरी मिलें. लड़कियों को इस भावना के साथ बड़ा किया जाता है और पढ़ाया जाता है कि उन की अच्छे परिवार में शादी हो जाए. लड़का और लड़की दोनों की पढ़ाई पर बराबर का खर्च करने के बावजूद लड़के की शिक्षा उत्पादन में बदल जाती है, मगर लड़की की शिक्षा बेकार चली जाती है.

औरत को आश्रित बनाए रखना: भारतीय समाज में धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष के अधीन रहने और उस पर आश्रित रहने के लिए मजबूर किया है. भारतीय परिवार अपनी बेटियों को बेटों के समान शारीरिक रूप से बलिष्ठ होने का अवसर नहीं देते हैं. वे उन्हें कसरत करने के लिए कभी उत्साहित नहीं करते. आउटडोर गेम्स में उन्हें हिस्सा नहीं लेने देते हैं, बल्कि वे लड़कियों को दुबलापतला, शर्मीला, संकोची, कम बोलने वाली, गऊ समान भोली और दबीढकी बनाना चाहते हैं ताकि ससुराल में वे तमाम जिम्मेदारियां उठाने और प्रताडि़त करने पर भी आवाज न निकालें बल्कि चुपचाप सबकुछ सहन करें.

औरत के काम को महत्त्व न देना: आदमी कोई छोटीमोटी नौकरी ही करता हो, कम कमाता हो, मगर जब वह शाम को घर लौटता है तो उस को टेबल पर चाय मिलती है, बनाबनाया खाना मिलता है, धुले कपड़े मिलते हैं और मांबाप गाते हैं कि उन का बेटा कितनी मेहनत करता है. वहीं घर की बहू जब दफ्तर से लौटती है तो कोई उस को एक गिलास पानी भी नहीं पूछता. घर लौट कर वह सब के लिए चायनाश्ता बनाती है, खाना बनाती है, पति और बच्चों के कपड़े प्रैस करती है आदिआदि अनेक काम निबटाती है, लेकिन उस की तारीफ में कोई एक शब्द नहीं कहता. कहने का मतलब यह कि भारतीय समाज, परिवार में औरत के काम को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है.

दोहरी जिम्मेदारी: जो महिलाएं पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती हैं और कर रही हैं, वे अगर शादीशुदा हैं तो घर के कामों से और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हैं. औफिस जाने से पहले और औफिस से आने के बाद घर के सारे काम उन्हें ही करने होते हैं. पति अगर पहले आ गया है तो उस से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह खाना बनाएगा या बच्चों का होमवर्क कराएगा. दोहरी जिम्मेदारी ढोने वाली वर्किंग वूमन एक समय के बाद औफिस के काम में पिछड़ने लगती है और कई बार नौकरी छोड़ देती है. इस तरह उस की पढ़ाई समाज को वह नहीं दे पाती जो देने का सपना उस ने देखा था.

‘नैशनल स्टैटिस्टिकल औफिस’ (एनएसओ) की ओर से हाल में जारी पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे जारी किया गया है. सर्वे के अनुसार देश में 15 वर्ष से ऊपर की कामकाजी जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी मात्र 28.7% है, जबकि पुरुषों की भागीदारी 73% है. यह स्थिति तब है जब सरकार की ओर से महिलाओं को कई तरह की सुविधाएं दी रही हैं. जैसे पेड मैटरनिटी लीव, सुरक्षा के साथ नाइट शिफ्ट में काम करने की अनुमति आदि.

भले औरतों को संविधान के तहत शिक्षा और काम का अधिकार मिला है पर उन की पढ़ाई का कोई फायदा देश या समाज को नहीं हो रहा है. उन की डिगरियां सिर्फ चूल्हा फूंकने के काम आ रही हैं. औरत की शिक्षा और उस की काबिलीयत का देश को फायदा तभी होगा जब उस के प्रति समाज की संकीर्ण सोच बदलेगी.

आइए, जानते हैं कि किन वजहों से महिलाओं का टाइम बरबाद होता है और उसे बरबाद होने से कैसे बचा सकते हैं:

बेकार के मुद्दों पर ध्यान देना: अकसर महिलाएं दूसरी महिलाओं की चुगली, ताकाझंकी या फिर बुराइयां करने में घंटों समय बरबाद कर देती हैं. संभ्रांत घर की महिलाएं अकसर अपना समय किट्टी पार्टी या फिर धार्मिक कार्यक्रमों को अटैंड करने जैसे गैरजरूरी कामों में बरबाद करती हैं. बेकार के मुद्दों के चक्कर में भी उन का बहुत सा टाइम बेकार चला जाता है और वे जरूरी और प्रोडक्टिव काम पर ध्यान नहीं दे पातीं.

पूजापाठ में समय की बरबादी: एक और चीज जिस में महिलाएं ही सब से ज्यादा समय बरबाद करती हैं या फिर यह कहिए कि उन से करवाया जाता है वह है पूजापाठ के तमाम तामझम. महीने में 10 दिन तो कोई न कोई व्रत ही रहता है. करीब 20 दिन कुछ न कुछ स्पैशल पूजा करनी होती है. कभी व्रत, कभी उपवास, कभी मंदिर जाना, कभी पंडित को खाना खिलाना, कभी घर में यज्ञ करवाना, कभी पारंपरिक तरीके से दिनभर की पूजा, कभी पूजा सामग्री ले कर आना, कभी पूजा की तैयारियां करनी और कभी पूजा में बैठना यानी इस पूजा के चक्कर में वे जीना या कुछ उपयोगी काम करना ही भूल जाती हैं.

कैसे बढ़ाएं प्रोडक्टिविटी

औफिस और घर के कामों को मैनेज करने में और अपनी प्रोडक्टिविटी बढ़ाने में ये टिप्स बेहद कारगर साबित होंगे:

तनावमुक्त रहें: तनाव में काम करने से हमारी प्रोडक्टिविटी क्वालिटी और क्वांटिटी दोनों मोरचों पर गिरती है. इसलिए जब भी काम करें तो तनावमुक्त रहें. अगर आप तनावमुक्त नहीं हो पा रही हैं तो काम से कुछ दिनों की छुट्टी ले लें.

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में साइकोलौजी के प्रोफैसर मैथू किलिंजवोर्थ कहते हैं कि दिमाग की शांति हमारे मूड से जुड़ी होती है. हमारा दिमाग जितना शांत रहेगा, हम उतने ही खुश रहेंगे. हम जितना खुश रहेंगे हमारी प्रोडक्टिविटी उतनी ही बेहतर होगी.

बेहतर होगा की महिलाएं घर के तनाव घर में ही छोड़ कर आएं और मन में किसी तरह की गिल्ट न रखें. आखिर बच्चों को बेहतर भविष्य देने और अपना कैरियर बनाने के लिए ही वे बाहर आई हैं तो उस समय का भरपूर उपयोग करें.

पहले से कर लें प्लानिंग: जीवन में आगे बढ़ने के लिए टाइम मैनेजमैंट बहुत जरूरी है. अपना वक्त कहीं भी जाया न करें और अपने काम और टारगेट पर ध्यान दें. वर्कप्लेस पर सोशल मीडिया या अपने साथियों के साथ बातों में ज्यादा समय न गंवाएं. इसी तरह घर में भी फालतू के सीरियल्स देखने, सहेलियों से फोन पर बातें करने या छोटीछोटी बातों पर तनाव लेने और लड़नेझगड़ने के बजाय दिमाग को काम पर फोकस रखें. आप टाइम मैनेजमैंट कर के अपने समय को बचा सकती हैं और अपनी प्रोडक्टिविटी बढ़ा सकती हैं.

जिम्मेदारियां बांटें: अपनी जिंदगी को आसान बनाने और औफिस में प्रेजैंटेबल रहने के लिए घर के काम और जिम्मेदारी को अपने पार्टनर के साथ बांट लें. सिर्फ पार्टनर ही नहीं घर के सभी सदस्यों में अपने काम खुद निबटाने की आदत डलवाएं. इस से आप पर काम का बोझ नहीं पड़ेगा, आप का काम बंट जाएगा और आप को कुछ समय खुद के लिए मिल जाएगा, साथ ही एकदूसरे की फिक्र का जज्बा आप को एकदूसरे के और करीब लाएगा.

जो जरूरी हो उसे पहले करें: जो काम बहुत जरूरी हो उसे पहले करें. अगर औफिस की ओर से कोई नया प्रोजैक्ट मिला हो तो इसे पहले अहमियत दें. यानी औफिस के काम के दबाव के बीच आप इस दिन समय बचाने के लिए खाना बाहर से और्डर कर सकती हैं. वहीं अगर घर में आप के बच्चे को आप की ज्यादा जरूरत है तो इस दिन आप औफिस से जल्दी छुट्टी ले कर घर आ सकती हैं.

विकल्प ढूंढें़: आज के समय में महिला चाहे तो किचन के काम करने और गप्प मारने के अलावा भी उन के पास अनगिनत काम हैं. नैट और टैक्नोलौजी का जमाना है. औनलाइन तरहतरह के कोर्स सीख सकती हैं, अपना बिजनैस शुरू कर सकती हैं, औनलाइन क्लासैज ले सकती हैं, जौब कर सकती हैं, घर बैठे पत्रिकाएं और किताबें पढ़ कर हर तरह का ज्ञान अर्जित कर सकती हैं. फोन पर या किसी सहेली के सामने दूसरों की निंदा, चुगली कर के मन की भड़ास निकालने और व्यर्थ गप्पें मार कर समय बरबाद करने से बेहतर है काम कर के इनकम बढ़ाना.

यही नहीं वे खुद के लिए समय निकाल सकती हैं. मनन, चिंतन और आत्मविश्लेषण से अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी सुधारा जा सकता है जो उन के जीवन को साधारण से असाधारण बनाने की दिशा में उत्तम कदम है. शौपिंग, गपशप और घूमना तो क्षणिक खुशी का साधन है. आजकल तो नैट के अलावा घर के आसपास ही दुनियाभर की दिलचस्प व सार्थक गतिविधियां होती रहती हैं. नजर और नजरिए का दायरा खोलने की ही तो देर है.

स्वावलंबी बनना है जरूरी

बढ़ती महंगाई और कोविड-19 ने सब को जता दिया कि नौकरी या व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनना आज के दौर में बहुत जरूरी है. महिलाएं आज उच्च शिक्षित और रोजगारपरक हो गई हैं, ऐसे में उन के सपनों को वे आत्मनिर्भर बन कर खुद को साबित करना चाहती हैं. इस में किसी तरह की दखलंदाजी उन्हें पसंद नहीं. इस के अलावा नौकरी करने वाली महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से अप टू डेट रहती हैं. वे खुद का बेहतर खयाल शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से रख पाती हैं.

इतना ही नहीं आर्थिक रूप से सशक्त महिलाओं ने पुरुषों के महिलाओं के प्रति व्यवहार को भी काफी हद तक प्रभावित किया है और पुरुषों के पैसों की धौंस भी कम हुई है. घरेलू महिलाओं की तरह उन्हें अपनी पसंद की चीजें लेने में किसी तरह का कोई समझता नहीं करना पड़ता. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होने की स्थिति में बहुत बार महिलाओं को परिवार का दुर्व्यवहार सहने के लिए विवश होना पड़ता है, जबकि नौकरी वाली महिलाएं ऐसे समय में सबल होती हैं और अपने जीवन का निर्णय खुद ले सकती हैं.

महिलाओं में उच्च शिक्षा

साइकोलौजिस्ट राशीदा कपाडिया इस बारे में कहती हैं कि अभी अधिकतर महिलाएं उच्च शिक्षित हो रही हैं, ऐसे में उन की भागीदारी समाज, परिवार और आर्थिक व्यवस्था पर काफी पड़ी है. आज विश्व की तुलना में भारत में सब से अधिक महिला पायलट हैं. इस के अलावा कई बड़ी कंपनियों में भी महिलाएं सीईओ की भूमिका सफलतापूर्वक निभा रही हैं. स्पेस में महिला जा चुकी हैं.

आज महिलाएं संपूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हैं, लेकिन समस्या यह है कि अगर वे शादी करती हैं, तो उन पर परिवार की सारी जिम्मेदारी डाल दी जाती है. मेरे पास ऐसी कई क्लाइंट आती हैं, जो सफलता हासिल करना चाहती हैं, लेकिन घर में सासससुर, खाना बना कर काम पर जाने की सलाह देते हैं, जो काफी मुश्किल होता है. पूरा दिन औफिस में काम कर सुबह 5 बजे उठना संभव नहीं होता, थकान होती है.

अगर आप की कमाई अच्छी है, तो किसी की हैल्प लेने से परहेज नहीं करना चाहिए. इस से महिला अपने कैरियर पर अच्छी तरह से फोकस्ड रहती है. आज ट्रैंड बदला है, कई कार्यालयों में भी बेबी सिटर्स मिलते हैं. कौरपोरेट वर्ल्ड ने महिलाओं के कंट्रीब्यूशन को समझ है, इसलिए सारी सुविधाएं वे देने की कोशिश करते हैं और महिलाओं के काम करने पर ही तेजी से विकास संभव है क्योंकि उन के काम का स्टाइल पुरुषों से अलग होता है. महिलाओं में मल्टीटास्किंग स्किल्स, अंडरस्टैंडिंग, टीम वर्क, टफ टाइम में निर्णय लेना आदि कई बातें हैं, जो देश को एक वंडरफुल नेशन बनाने में सक्षम होती हैं.

क्या कहते हैं आंकड़े

अगर आज आर्थिक ग्रोथ में महिलाओं की भागीदारी की बात की जाए तो दुनियाभर के देशों में अभी भी भारत काफी पीछे है. लेकिन अब महिलाएं खुद को आगे बढ़ा रही हैं, जो काफी अच्छा कदम है. आंकड़ों के अनुसार यह भी पता चला है कि जब लड़कियों का कैरियर बनाने का समय होता है तब उन की शादी कर दी जाती है.

वर्ल्ड बैंक के मुताबिक भारत में महिलाओं की नौकरी छोड़ने की दर बहुत अधिक है और एक बार पारिवारिक कारणों से नौकरी छोड़ने के बाद वे दोबारा नौकरी नहीं कर पाती हैं. अगर भारत में महिलाएं आर्थिक ग्रोथ के मामले में पुरुषों के बराबर भागीदारी दे दें तो निश्चित रूप से भारत की जीडीपी में 27% तक की वृद्धि हो जाएगी.

मैकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में आर्थिक स्तर पर बराबरी के बाद तो 2025 तक जीडीपी में 770 अरब डौलर की बढ़ोत्तरी होगी. लेकिन यह तभी संभव है जब महिलाएं खुद को आर्थिक मोरचे पर पुरुषों के बराबर ले कर आएंगी.

करवाचौथ: परंपरा के नाम पर यह कैसा अंधविश्वास

आजकल महिलाओं के बीच दशहरादीवाली से ज्यादा करवाचौथ के चर्चे हैं. ज्यादातर विवाहित और अविवाहितों ने अभी से ही 1-2 दिनों की छुट्टियां लेने का मन बना लिया है.

कहते हैं, करवाचौथ का व्रत महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए रखती हैं और इस दिन वे सुबह से रात चांद निकलने तक कुछ नहीं खाती पीती हैं. रात को चांद देखने के बाद पति के हाथों पानी पी कर ही व्रत समाप्त करती हैं.

दक्षिण भारत में ज्यादा प्रचलित क्यों नहीं

आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि करवाचौथ का त्योहार ज्यादातर उत्तर भारत में ही मनाया जाता है. दक्षिण भारत के कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना आदि राज्यों में यह न के बराबर मनाया जाता है.

सवाल है कि जब दक्षिण भारत में इसे नहीं मनाया जाता है फिर वहां के पुरूषों की उम्र उत्तर भारतीयों की अपेक्षा कम होनी चाहिए?

नहीं, बिलकुल नहीं. आपको यह जान कर हैरानी होगी कि दक्षिण भारतीय पुरूषों की उम्र उत्तर भारतीय पुरूषों की तुलना में अधिक होती है और वे यहां के पुरूषों की अपेक्षा स्वस्थ भी होते हैं.

अंधविश्वास की पराकाष्ठा

करवाचौथ को आस्था कहें या अंधविश्वास, सच तो यह है कि यह भी एक गुलाम परंपरा की तरह ही है, जिसकी बेड़ियों में आज भी महिलाएं बंधी हैं.

गुरूग्राम में एक मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत इंजीनियर संदीप भोनवाल बताते हैं,”यह एक ऐसा त्योहार है, जिस में महिलाएं दिन भर भूखीप्यासी रह कर पति की लंबी उम्र और स्वस्थ जीवन की कामना करती हैं.

“अगर इस त्योहार को करने से पति स्वस्थ जीवन बिताए और लंबी उम्र का हो जाए तो फिर अस्पतालों में भीङ दिखनी बंद हो जाए. मेरा मानना है कि करवाचौथ का व्रत रखने से पति की आयु लंबी होती हो तो फिर पतियों की उम्र तो सैकड़ों साल लंबी होनी चाहिए.”

संदीप कहते हैं,”पतिपत्नी जीवनरूपी गाङी के 2 पहिए हैं, जिन का साथ एकदूसरे के सुखदुःख में साथ निभाने की होनी चाहिए. गृहस्थ जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए पतिपत्नी के बीच आपसी अंडरस्टैंडिंग जरूरी है न कि करवाचौथ का व्रत.”

सिर्फ अंधविश्वास है

समाजसेवी अनिता शर्मा मानती हैं कि इस व्रत की कहानी अंधविश्वासपूर्ण भय उत्पन्न करती है न कि पति की उम्र बढाती है.

वे कहती हैं,”क्या पत्नी के भूखे रहने से पति की लंबी आयु हो सकती है? दरअसल, यह अंधविश्वास और आत्मपीङन की बेडियों में जकङने की एक साजिश है, जिसकी शुरूआत ही महिलाओं को परंपरा के नाम पर शोषित करना है.”

आस्था के नाम पर यह कैसी मानसिकता

धर्म और आस्था के नाम पर महिलाओं पर शुरू से ही अत्याचार किए जाते रहे हैं. पति की लंबी आयु के लिए पत्नी व्रत करेगी, बच्चों की सुखद भविष्य के लिए मां यानी एक महिला व्रत करेगी, वह घर के लिए त्याग करेगी, सब से अंत में खाना खाएगी.

क्या पति अपनी पत्नी के लिए व्रत रखता है? पत्नी की लंबी आयु के लिए समाज में कोई व्रत निर्धारित है?

माना कि नारी प्रकृति की अनमोल कृति है, त्याग की मूर्ति है, कोमल हृदय की है पर क्या यही अपेक्षा पुरूषों से नहीं की जानी चाहिए?

औरत से ही अपेक्षा क्यों

हकीकत तो यह है कि भारतीय समाज सिर्फ एक औरत से ही सब कुछ पाने की उम्मीद करता है पर नारी को आज भी वह सम्मान नहीं मिल पाया  जिस की वह हकदार है.

इस समाज में कुछ आतातायी पुरूष मासूम बच्चियों तक को हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकते. क्या उन्हें यह पता नहीं कि उस को शरीर देने वाली उस की माता भी एक औरत है, तो कम से कम औरतों की सम्मान करना तो सीखे.

अच्छा तो यह है कि-

  • पति और पत्नी में जीवनभर सामंजस्य रहे.
  • पति पत्नी पर अत्याचार न करे.
  • पत्नी पर घरेलू हिंसा न हो.
  • पत्नी को घर के सभी लोग सम्मान दें.
  • पति नशा न करे और न ही पत्नी पर कभी हाथ उठाए.
  • पत्नी के सपनों और आजादी को कुचला न जाए.
  • घर के कामकाज में पति पत्नी का हाथ बंटाए.
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