थोड़ा दूर थोड़ा पास- भाग 3 : शादी के बाद क्या हुआ तन्वी के साथ

शुरूशुरू में तन्वी कुछ नाराजगी, कुछ डर के कारण नहीं गई. फिर धीरेधीरे उस ने भी जाना शुरू कर दिया. विजित के साथ छुट्टी के दिन या रविवार को वह भी मांपापा के पास चली जाती. ससुरजी का मूड तो कुछकुछ दिखाने के लिए सही हो गया पर सास का मूड उसे देख कर उखड़ा ही रहता. अभी उन्हें घर से अलग हुए 2 महीने भी नहीं हुए थे कि दिन वे सुबह औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहे थे कि विजित का मोबाइल बज उठा. पापा का फोन था. वे घबराए स्वर में बोल रहे थे. पापा बोल रहे थे कि मां का ऐक्सीडैंट हो गया है. जल्दी से घर आ जाओ.

‘‘हम अभी आते हैं पापा…’’ कह कर दोनों घबराए हुए दोनों जैसेतैसे घर की तरफ दौड़े… मां को उठा कर अस्पताल ले गए.

उन का ऐक्सरे हुआ तो पता चला पैर मुड़ने से पैर के बल गिरने से पैर में फ्रैक्चर हो गया है. प्लस्तर चढ़ गया. 45 दिन का प्लस्तर था. डाक्टर ने शुरू में तो पूर्ण आराम की सलाह दी थी. यहां तक कि बाथरूम तक भी व्हीलचेयर से ही ले जाना.

सबकुछ करा कर जब मां को ले कर विजित और तन्वी घर पहुंचे तो काफी देर हो गई थी.

तन्वी ने ही सब के लिए थकने के बावजूद जैसेतैसे खाना बनाया. उस रात दोनों वहीं रुक गए. रात को दोनों सोच में पड़ गए अब…?’’ पिता के बस का नहीं था मां की देखभाल करना,

‘‘मैं तो एकदम से छुट्टी भी नहीं ले सकता… कल से रिव्यू है… दिल्ली से बौस लोग आ रहे हैं… अलगे कुछ दिन मैं बहुत व्यस्त रहूंगा… इतने दिन से तैयारी कर रहा था…’’ विजित लाचारी और उल झन में बोला.

‘‘ऐसा करते हैं विजित…’’ विजित को सोच व उल झन में पड़े देख कर तन्वी बोली, ‘‘मेरी काफी छुट्टियां बाकी हैं… कल से मैं फिलहाल 15 दिन की छुट्टी ले लेती हूं… तब तक तुम्हारे रिव्यू खत्म हो जाएंगे. तब तुम छुट्टी लेने की कोशिश करना… उस के बाद दीदी को पूछ लो… यदि हफ्ते भर के लिए वे आ सकती हैं तो… फिर मैं दोबारा कोशिश करूंगी छुट्टी लेने की…’’

विजित ने चौंक कर तन्वी की तरफ देखा. उस के चेहरे पर मां की परेशानी  से उपजे चिंता के भाव थे. वह मुग्ध भाव से तन्वी को देखता रह गया कि पता नहीं मां तन्वी को क्यों नहीं सम झ पातीं. मां तन्वी की पीढ़ी की बहुओं को भी अपने जमाने की सासों के चश्मे से देखती हैं और उन की तुलना अपने जमाने की बहुओं से करती हैं. लेकिन तब से अब तक जमाने में, समाज में, शिक्षा में, लड़कियों के पालनपोषण में बहुत परिवर्तन आ चुका है, इस बात पर बिलकुल विचार करना नहीं चाहतीं.

इस घोर परेशानी व उल झन के समय में तन्वी के सहयोग से उस का दिल भर आया था, मां ने क्या कुछ नहीं कहा तन्वी को… पर प्रत्यक्ष में बोला, ‘‘ठीक है, पर तुम्हें छुट्टी लेने में दिक्कत तो नहीं होगी…’’

‘‘नहीं, मिल जाएगी… जरूरत पर नहीं मिलेंगी तो किस काम की ये छुट्टियां…’’

रात में वह निश्चिंत हो कर सो पाया. तन्वी ने छुट्टियां ले कर पूर्ण तनमन से मां की देखभाल की. चूंकि यह शुरू का समय था, इसलिए ज्यादा कष्टपूर्ण व नाजुक था. देखभाल की ज्यादा जरूरत थी. तन्वी की निश्छल देखभाल से मां का मन बारबार पिघलने को होता. हालांकि वे उन विचारों की अधिक थीं जिन में वे बहू का प्यार कम उस का फर्ज ज्यादा सम झती थीं.

15 दिन बाद तन्वी औफिस चली गई और विजित ने छुट्टियां ले ली. विजित की छुट्टियां खत्म हुईं तो 1 हफ्ते के लिए दीदी मां की देखभाल के लिए आ गई. दीदी गई तो तन्वी ने कुछ दिन की छुट्टियां दोबारा ले लीं.

मां अब काफी ठीक हो गई थीं. सहारे से बाथरूम जाने लगी थीं. तन्वी पूरी देखभाल  कर रही थी. धीरेधीरे मां पूरी तरह ठीक हो गईं.

विजित कृतज्ञ हो रहा था तन्वी के प्रति. उस ने इस परेशानी के समय मां के प्रति सभी पूर्वाग्रह भुला कर मन से उन की देखभाल व सेवा की थी और वह देख रहा था, कहीं न कहीं मां के मन को भी तन्वी की सेवा बांध गई थी.

तन्वी की जरूरतों पर कभी ध्यान न देने वाली मां उस से अब जबतब पूछ लेतीं कि उस ने खाना खा लिया या नहीं. चाय पी ली या फिर थोड़ी देर आराम कर ले तन्वी, थक गई होगी. विजित को खुशी होती यह देख कर.

कल से तन्वी की छुट्टियां भी खत्म हो रही थीं. कल से उसे औफिस जाना था. मां अब पूरी तरह से ठीक थीं. रात का खाना खिला कर खाना खाने के बाद वे अपने घर जाने के लिए तैयार हो गए. तन्वी कमरे में जा कर मां से मिल कर बाहर आ गई.

विजित भी मां से मिलने कमरे में चला गया. बोला, ‘‘अच्छा मां चलते हैं… अब आप बिलकुल ठीक हैं… अपना ध्यान रखना… हम आतेजाते रहेंगे… तन्वी की भी काफी छुट्टियां हो गई हैं, कल से वह भी औफिस जाएगी…’’

‘‘हां बेटा, बहुत सेवा की तन्वी ने मेरी…’’ मां का स्वर कुछकुछ पश्चात्ताप से भरा था, ‘‘तन्वी को सम झाने में शायद भूल कर दी मैं ने…’’

‘‘कोई बात नहीं मां…’’ वह संतुष्ट होता हुआ बोला, ‘‘आप सम झ गईं, हमारे लिए यही काफी है और मातापिता की सेवा व देखभाल करना तो हमारा फर्ज है… आप को जब भी जरूरत होगी, हम आप के पास होंगे मां…’’ वह भीगे स्वर में बोला. मां की आंखों में भी नमी तैर गई.

‘‘विजित, तन्वी अब वापस आ जाए बेटा… क्यों अलग जा रहे हो रहने… जहां दो बरतन होंगे तो थोड़ेबहुत तो बजेंगे ही… पर इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं तुम लोगों को प्यार नहीं करती… बड़ों की बातों का इतना भी क्या बुरा मानना…’’ मां का स्वर कातर हो गया था.

‘‘ओह, मां…’’ वह मां को गले लगाता हुआ बोला, ‘‘आप इतनी भावुक क्यों हो रही हैं… आप के ही तो बच्चे हैं हम… दूर थोड़े ही न हो गए हैं आप से… जरा सी दूरी पर ही तो हैं…’’ वह धीरेधीरे मां की पीठ सहलाने लगा.

‘‘मां, एक घर में एक छत के नीचे रह रहे थे… पास थे आप के, पर आप के दिल से दूर थे… जब थोड़ा दूर हैं तो दिल के पास हैं… पास रह कर दूर रहने से, दूर रह कर पास रहना ज्यादा अच्छा है मां… मु झे उम्मीद है आप मेरी बात सम झ रही होंगी…’’ वह मां से अलग होता हुआ बोला.

‘‘साथ रह कर थोड़े दिन बाद फिर वही सब शुरू हो, वही दमघोंटू वातावरण, वही रिश्तों की खींचतान, बहुत मुश्किल होती है मां मु झे… तन्वी के लिए भी ये सब मुश्किल है नौकरी के साथ  झेलना… मैं अब तन्वी के ऊपर अपनी कोई सोच लादना नहीं चाहता… अपने और तन्वी के रिश्ते को थोड़ा और समय दो… हो जाने दो इस रिश्ते को परिपक्व… बदल जाने दो अपने खुद के विचारों को आप… जैसे आप को तन्वी पर विश्वास हो गया, वैसे ही तन्वी का विश्वास भी हो जाने दो आप पर…

‘‘जब तक तन्वी मु झे स्वयं घर लौटने के लिए नहीं कहेगी, तब तक मैं यह कदम नहीं उठाऊंगा… और तब तक आप भी इंतजार करो. मैं जानता हूं तन्वी को, जिस दिन उसे अपने और आप के रिश्ते पर विश्वास हो जाएगा वह खुद ही वापस आ जाएगी…

‘‘मेरे लिए तो दोनों रिश्ते प्रिय हैं मां… मैं तो चाहूंगा ही कि आप और तन्वी के बीच प्यार और प्यारभरा रिश्ता विकसित हो…जैसे तन्वी ने आप का दिल जीता. आप का उस पर विश्वास लौटा… वैसे ही तन्वी का विश्वास भी लौट आएगा आप पर… मु झे पूरा भरोसा है… तभी साथ रहने का मजा है मां…’’ कह कर वह उठ खड़ा हुआ.

विजित पीछे मुड़ा तो पापा खड़े थे. आज पहली बार उसे पापा के चेहरे पर  अपनी कही बात पर सहमति के भाव नजर आए. उन्होंने बेहद अपनेपन व बेहद भरोसे से उस का कंधा थपथपा दिया. बाहर आया तो तन्वी उस का इंतजार कर रही थी. वह जानता था, मां अभीअभी मुश्किल दौर से निकली हैं, इसलिए इतनी बदली हुई हैं. वर्षों की आदतें और विचार 4 दिन में नहीं बदलते.

जब फिर से साथ रहना शुरू करेंगे तो फिर से उन्हें अपनी वाणी और विचारों पर अकुंश रखना मुश्किल होगा. अभी और समय देना होगा उन्हें तन्वी को सम झाने का… और उन फालतू बातों से अधिक अपने बच्चों की जरूरत अपनी जिंदगी में महसूस करने का. तब तक तन्वी भी कुछ मां के नजदीक आ जाएगी तो फिर शायद उसे उन की बात इतनी बुरी न लगे, जितनी अभी लगती है.

जैसे मातापिता की देखभाल और सेवा करना उस का फर्ज है वैसे ही तन्वी भी उस से ही बंधी हुई इस घर में आई है, उस की जिंदगी में आई है. उसे एक सुंदर, स्वच्छ, अच्छी, संतुलित जिंदगी देना भी उस का कर्तव्य है. सोचता हुआ वह तन्वी के साथ घर से बाहर निकल गया.

सोने की सास: भाग 2- क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

नई ओर बहू सुष्मिता मेरी अचरज से देख रही थी कि मैं मां हो कर भी अपनी ही बेटी के विरुद्ध बोल रही थी.

चंद्रा और श्रीकांतजी को 2 दिनों के बाद कोलकाता लौटना था. उन के लौटने से पहले मैं ने समधनजी से कहा, ‘‘चंद्रा में अभी थोड़ा बचपना है. आप उस की बातों पर ध्यान मत दिया कीजिए.’’

वे हंसती हुई बोलीं, ‘‘वह जैसी भी है, अब मेरी बेटी है. आप उस की चिंता मत कीजिए.’’

मुझे लगा, जैसे मुझ पर से कोई बोझ उतर गया. फिर सोचा, चंद्रा तो कोलकाता जा रही है और उस की सास यहां रहेंगी. धीरेधीरे संबंध खुदबखुद सुधर जाएंगे.

दिन बीत रहे थे. बिटिया ने कोलकाता से फोन किया, ‘‘पापा के साथ आओ न मेरा घर देखने.’’

मैं बोली, ‘‘अभी तेरे पापा को दफ्तर से छुट्टी नहीं मिलेगी. हम फिर कभी आएंगे. पहले तुम अपने सासससुर को बुलाओ न अपना घर देखने के लिए? अब तो वहां का घर संभालने तुम्हारी देवरानी भी आ गई है.’’

‘‘नहीं मां, वे आएंगी तो मेरी गृहस्थी में 100 तरह के नुक्स निकालेंगी. मैं नहीं बुलाऊंगी उन्हें.’’

‘‘अरे, बिटिया रानी, कैसी बात कर रही हो? वे आखिर तुम्हारे पति की मां हैं.’’

‘‘हुंह मां. तुम नहीं जानतीं कैसे पाला है उन्होंने इन को. तुम्हें पता है, वे इन्हें बासी रोटियों का नाश्ता करा कर स्कूल भेजती थीं.’’

‘‘अरे पगली, बासी रोटियों का नाश्ता करने में क्या बुराई है? राजस्थानी घरों में बासी रोटियों का नाश्ता ही किया जाता है. बचपन में हम भाईबहन भी बासी रोटियों का नाश्ता कर के ही स्कूल जाते थे. सच कहूं, तो मुझे तो अभी भी बासी रोटियां खूब अच्छी लगती हैं पर तुम्हारे पापा बासी रोटियां नहीं खाना चाहते, इसीलिए यहां नाश्ते में ताजा रोटियां बनाती हैं.’’

‘‘एक यही बात नहीं और भी बहुत बातें हैं, फोन पर क्याक्या बतलाऊं?’’

‘‘सुनो चंद्रा, कोई भी मांबाप अपनी संतान को अपने जमाने के चलन और अपनी सामर्थ्य के अनुसार बेहतर से बेहतर ढंग से पालना चाहता है.’’

‘‘तुम फिर उन्हीं का पक्ष लेने लगीं.’’

‘‘अच्छा, बाद में मिलने पर सुनूंगी और सब. अभी फोन रखती हूं. श्रीकांतजी के आने का समय हो रहा है, तुम भी चायनाश्ते की तैयारी करो,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया.

समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे समझाऊं अपनी इस नादान बिटिया को. जमाईजी भी ऐसी बातें क्यों बताते हैं इस नासमझ लड़की को.

 

कुछ दिनों बाद आखिर अपर्णाजी अपने बेटेबहू के घर गईं. जितने दिन वे वहां रहीं, शिकायतों का सिलसिला थमा रहा. सासूजी वापस गईं, तब चंद्रा और श्रीकांतजी भी उन के साथ गए, क्योंकि वहां एक चचेरे देवर का विवाह था. उस के बाद जब चंद्रा लौटी, तो फिर उस की शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया. एक दिन कहने लगी, ‘‘मां तुम्हें पता है, मेरी सासूजी मेरी देवरानी को कितना दबा कर रखती हैं?’’

मैं चौंकी, ‘‘लेकिन वे तो फोन पर तुम्हारी और तुम्हारी देवरानी की भी सदा तारीफ ही किया करती हैं.’’

‘‘तारीफ करकर के ही तो उस बेचारी का सारा तेल निकाल लेती हैं.’’

‘‘देखो बिटिया, गृहस्थी में काम तो सभी के घर रहता है. तुम्हारी 2 जनों की गृहस्थी में भी काम तो होंगे ही.’’

वह चिढ़ कर बोली, ‘‘उन्हें प्यारी भी तो वही लगती है. असल में जो पास रहता है, वही  प्यारा भी लगता है. दूर वाला तो मन से भी दूर हो जाता है.’’

‘‘क्या कह रही हो चंद्रा, मांबाप के लिए तो उन के सभी बच्चे बराबर होते हैं. वैसे, मुझे तो लगता है कि दूर रहने वालों की याद मांबाप को अधिक सताती है.’’

उस ने कहा, ‘‘अच्छा, छोड़ो यह सब. अब बतलाओ, तुम लोग कब आ रहे हो?’’

‘‘तुम्हारे पापा से बात करती हूं.’’

आखिर हम ने चंद्रा के यहां जाने का कार्यक्रम बना ही लिया. वहां जा कर 4-5 दिन तो ठीकठाक गुजरे. उस के बाद देखा कि वह हमेशा श्रीकांतजी पर रोब जमाती रहती. जबतब मुंह फुला कर बैठ जाती. वे बेचारे खुशामद करते आगेपीछे घूमते रहते. उसके झगड़े की मुख्य वजह होती थी कि वे दफ्तर देर से लौटते समय उस का बताया सामान लाना क्यों भूल गए या देर से क्यों आए अथवा अमुक काम उस के मनमुताबिक क्यों नहीं किया?

हम लोग उसे समझाने की कोशिश करते कि नौकरी वाले को तो काम अधिक होने की वजह से देर हो ही जाती है, इस में उन का भला क्या दोष. घर आने की हड़बड़ी में कभीकभी बाजार का भी कोई काम छूट सकता है, इस बात के लिए इतना गुस्सा करना भी ठीक नहीं. लेकिन श्रीकांत अपने भुलक्कड़ स्वभाव से मजबूर थे, तो वह अपने गुस्सैल स्वभाव से.

एक दिन मैं ने उसे फिर समझाना चाहा, तो वह बिगड़ कर बोली, ‘‘अब तुम भी मेरी सास की तरह बातें करने लगीं. वे हम दोनों के बीच पड़ती हैं, तो मुझे एकदम अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘जैसे मैं तुम्हारी मां हूं, वैसे ही वे दामादजी की मां हैं. बच्चों को आपस में लड़तेझगड़ते देख कर मांबाप को तकलीफ तो होती ही है. फिर इस झगड़े का तुम दोनों के स्वास्थ्य पर भी तो बुरा असर पड़ सकता है. समझाना हमारा फर्ज है बाकी तुम जानो.’’

मेरी इस बात का चंद्रा पर कुछ प्रभाव तो पड़ा. अब वह जमाईजी पर कम ही नाराज होती है पर सास की बुराई का सिलसिला चलता रहा. श्रीकांतजी के सामने भी वह उन की मां की निंदा करती. जब अपने बारे में कहने को अधिक नहीं बचता, तो अपनी देवरानी को माध्यम बना कर वह सास में खोट निकालती रहती. एक दिन कहने लगी, ‘‘उस बेचारी को तो सब के खाने के बाद अंत में बचाखुचा खाना मिलता है.’’

मैं ने सोचा, इस की हर बात तो झूठ नहीं हो सकती. मैं इस की सास से मिली ही कितना हूं, जो उन्हें पूरी तरह से जान सकूं.

आखिर हमारी छुट्टी पूरी हुई और हम दोनों अपने घर लौट आए.

कुछ ही दिनों बाद सूचना मिली कि बिटिया की सास अपर्णाजी बीमार हैं. चंद्रा और श्रीकांतजी उन्हें देखने गए थे. हमारा कार्यक्रम देर से बना इसलिए जब हम पहुंचे तब तक वे दोनों वापस जा चुके थे. अपर्णाजी की तबीयत भी कुछ सुधर गई थी, पर कमजोरी काफी थी और डाक्टर ने अभी उन्हें कुछ दिन आराम करने की सलाह दी थी.

मैं ने गौर किया, चंद्रा की देवरानी जितनी हंसमुख है, उतनी ही कर्मठ भी. वह बड़े मन से अपनी सास अपर्णाजी की सेवा में लगी रहती. मैं ने यह भी देखा कि वह खाना सब से आखिर में खाती. सास बिस्तर पर पड़ीपड़ी उसे पहले खाने के लिए कहती रहतीं.

एक दिन मैं ने भी टोका, ‘‘सुष्मिता बेटा, तुम भी सब के साथ खा लिया करो न. रोजरोज देर तक भूखे रहना ठीक नहीं है.’’

वह हंसती हुई बोली, ‘‘बच्चे स्कूल से देर से आते हैं इसलिए उन्हें खिलाए बिना मुझ से खाया ही नहीं जाता. कभी ज्यादा भूख लग जाए, तो उन से पहले खाने बैठ जाऊं तो ग्रास मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.’’

‘‘हां, मां का मन तो कुछ ऐसा ही होता है,’’ मैं बोली.

बच्चे खाने में देर भी बहुत लगाते. दोनों ही छोटे थे और उन्हें बहलाफुसला कर खिलाने में काफी समय लग जाता था.

बिटिया रानी को यह सब बतलाती, तो वह कहती, ‘‘अरे, तुम नहीं जानतीं मेरी सास का असली रूप. उन के डर से ही तो वह बेचारी दिनरात भूखीप्यासी लगी रहती है और सब से आखिर में खाती है.’’

बहुओं के प्रति उस की सास के निश्छल स्नेह में मुझे तो कोई बनावट नजर नहीं आई थी, लेकिन मेरी बिटिया रानी को कौन समझाए, वह तो अपने पति श्रीकांतजी के कान भी उन की मां के विरुद्ध झूठीसच्ची बातें कह कर भरती रहती. नमकमिर्च लगा कर कही गई उस की झूठी बातों पर धीरेधीरे जमाईजी यकीन भी करने लगे थे.

जमाईजी और बच्चे सुबह के गए शाम को घर लौटते थे. चंद्रा अकेली घर पर ऊबती रहती थी. एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम भी कहीं कोई काम क्यों नहीं खोज लेतीं. इस से वक्त तो अच्छा कटेगा ही, तुम्हारी पढ़ाईलिखाई भी काम में आ जाएगी.’’

मेरी बात उसे जंच गई. वह अखबारों में विज्ञापन देख कर नौकरी के लिए आवदेन करने लगी. संयोगवश उसे उस की योग्यता के अनुरूप नौकरी मिल गई.

अब वह व्यस्त हो गई. चुगलीचर्चा का वक्त उसे कम ही मिलता था. अपने पति से

भी उस की अच्छी पटने लगी. निंदा के बदले उन की प्रशंसा ही करती कि वे घर के कामों में भी उस की मदद करते हैं, क्योंकि सुबह दोनों को लगभग साथ ही निकलना होता है.

Raksha Bandhan: बहनें- रिश्तों में जलन का दर्द झेल चुकीं वृंदा का बेटिंयों के लिए क्या था फैसला?

Raksha Bandhan: बहनें- भाग 3-रिश्तों में जलन का दर्द झेल चुकीं वृंदा का बेटिंयों के लिए क्या था फैसला?

वृंदा ने बात को जल्दी ही समाप्त किया और लगभग भागती हुई अपने घर आ गई. घंटेभर शांति से बैठने के बाद जब उस की सांसें स्थिर हुईं तब उसे घर छोड़ कर बाहर अकेले रहने का अपना फैसला गलत लगने लगा. कितना कहा था रवि ने कि इसी घर में पड़ी रहो, पर वह कहां मानी. स्वाभिमान और आत्मसम्मान आड़े आ रहा था. पता नहीं क्या हो गया था उसे. भूल गई थी कि औरतों का भी कहीं सम्मान होता है. पर उसे तो स्वयं पर भरोसा था, समाज पर विश्वास था. सुनीसुनाई बातें वह मानती नहीं थी.

उस के अनुभव में भी अब तक ऐसी कोई घटना नहीं थी कि वह डरती. किंतु अब तक वह पति के द्वारा छोड़ी भी तो नहीं गई थी. पति ने छोड़ा है उसे? नहीं, वृंदा स्वाभिमान से घिर जाती. वह पति के द्वारा छोड़ी गई नहीं है बल्कि उस ने अपने पति को छोड़ा था. जब वह अपने पति द्वारा दिए अपमान को न सह सकी तब डा. निगम से इतना डर क्यों? इसी साहस के बल पर वह अकेले रहने निकली है? डा. निगम जैसे तो अब पगपग पर मिलेंगे. कब तक डरेगी?

अंधेरा घिर आया था. किसी ने दरवाजा फिर खटखटाया. वृंदा फिर भयभीत हुई. भय अंदर तक समाने की कोशिश कर रहा था, किंतु वृंदा ने उठ कर पूरे साहस के साथ दरवाजा खोल दिया. दरवाजे के सामने पड़ोस में रहने वाली मिसेज श्रीवास्तव खड़ी थीं. वृंदा को उदास देख उन्हें शंका हुई. उन्होंने कारण पूछा तो वृंदा रो पड़ी तथा शाम को घटी घटना का बयान ज्यों का त्यों उन के सामने कर दिया. फिर मिसेज श्रीवास्तव के प्रयास से ही 15 दिन के भीतर उसे यह कमरा मिला था.

वृंदा ने एक गहरी सांस ली. कमरे में रखे सामान पर उस की नजर गई. इस कमरे में तमाम सामान के साथ एक अटैची भी थी, जिस में सब से नीचे एक तसवीर रखी थी. तसवीर में रवि मुसकरा रहा था. वृंदा जब उस अटैची को खोलती तो उस तसवीर को जरूर देख लेती. क्या था इस तसवीर में? क्यों इसे इतना संभाल कर रखती है वह? बारबार इसे देखने की उस की इच्छा क्यों उमड़ती है? वह तो रवि से नफरत करती है. इतनी नफरत के बाद भी वह तसवीर उस की अटैची में कैसे है? उस ने महसूस किया कि न सिर्फ अटैची में है उस की तसवीर बल्कि अपनी हर छोटीमोटी परेशानी में वह सब से पहले रवि को ही याद करती है. क्या उस के हृदय में रवि के प्रति प्रेम जैसा कुछ अब भी है?

जितनी बार वृंदा के मन में ये विचार, ये प्रश्न उठते, उतनी ही बार वह मन को विश्वास दिलाती कि ऐसा कुछ नहीं है. यह तसवीर तो वह अपनी बेटियों के लिए लाई है, खुद अपने लिए नहीं. बेटियां पूछेंगी अपने पापा के बारे में तो वह बता सकेगी कि देखो, ये हैं तुम्हारे पापा, यह चेहरा है उन का, इस चेहरे से करो नफरत कि इस चेहरे ने किया है अनाथ तुम्हें. उस की बच्चियां और अनाथ? वह क्या कर रही है फिर? उस ने अपने अस्तित्व को नकार दिया है क्या? बस रवि ही सब कुछ था क्या? दुख में रवि, खुशी में रवि, नफरत में रवि. उलझ गई है वृंदा. वह रवि को जितना नकारती है, रवि उतना ही उसे याद आता है तभी तो अटैची खोलते ही वह सामान बाद में निकालती है तसवीर को पहले देखती है.

वृंदा अब लेटी नहीं रह पा रही थी. वह उठ कर खिड़की के पास तक आई. बाहर अभी भी अंधेरा था किंतु सुबह होने में अब अधिक देर नहीं थी. सरसराती हवा कमरे में आ रही थी. वृंदा ने अपने माथे को खिड़की से टिका दिया और एक लंबी सांस ली, चलो किसी तरह एक रात और बीती.

आज बच्चों के स्कूल में ऐनुअल फंक्शन था. उस ने बच्चियों को जगाया और अपने काम में लग गई. प्राची अपने कपड़ों को उलटनेपलटने लगी. गिनती के कपड़ों में वह यह देख रही थी कि अब तक कौन सी ड्रैस पहन कर स्कूल नहीं गई है. किंतु बारबार पलटने पर भी उसे एक भी ऐसी ड्रैस नहीं मिल रही थी. इन सब कपड़ों को एक बार तो क्या कईकई बार पहन कर वह स्कूल गई है. हार कर उस ने एक पुरानी फ्रौक निकाल ली और नहाने के लिए बाथरूम में घुसी.

रश्मि अभी तक बिस्तर पर लेटी थी. प्राची को बाथरूम में जाते देख चिल्लाने लगी कि पहले वह नहाएगी. रश्मि का रोना सुन कर प्राची बाथरूम से बाहर आ गई ताकि रश्मि ही पहले नहा ले. प्राची के हाथ में फ्रौक थी. रश्मि फ्रौक को खींचती हुई बोली, ‘‘इसे मैं पहनूंगी, तुम दूसरी पहन लेना. फ्रौक बड़ी है इस बात की चिंता उसे नहीं थी. वह तो खुश थी कि प्राची यह फ्रौक नहीं पहन पाई, बस.

इधर, कुछ दिनों से वृंदा रश्मि की इन आदतों, जिस में प्राची की चीजों को छीन लेना और उसे हरा देना शामिल होता जा रहा था, से परेशान थी. और शायद इसलिए आजकल उसे डरावने सपने भी अधिक आने लगे थे. वृंदा को रश्मि के जन्म के समय मैटरनिटी होम में कहे गए उस बंगाली महिला के शब्द याद आ गए. उस के दोनों बच्चों में मात्र सालभर का अंतर है, यह जानते ही बंगाली महिला ने उसे सलाह दी थी, ‘इस को, इस के हाथ से केला खिला देना. तब वह बहन से हिंसा नहीं करेगी.’

हिंसा शब्द ईर्ष्या शब्द के पर्याय में बोला गया था. यह तो वृंदा भलीभांति समझ गई थी, किंतु केला बड़ी बेटी के हाथ से छोटी को खिलाए या छोटी बेटी के हाथ से बड़ी बेटी को, यह नहीं समझ पाई थी. समझने का प्रयास भी नहीं किया था, कहीं केला खिलाने से प्रेम और द्वेष हो सकता है भला.

पर अब उस के मन में कभीकभी आता है कि वह पूरी तरह क्यों नहीं उस बंगाली महिला की बात को समझी. समझ कर वैसा कर लेती तो शायद रश्मि प्राची से इतनी ईर्ष्या न करती. लेकिन प्राची इतनी उदार कैसे हो गई? कहीं अनजाने में उस ने रश्मि को केला खिला तो नहीं दिया था. वृंदा झुंझला उठी, क्या हो गया है उसे? किनकिन बातों में विश्वास करने लगी है वह?

स्कूल के स्टेज पर एक कार्यक्रम के बाद दूसरा कार्यक्रम था. तालियों पर तालियां बज रही थीं, किंतु वृंदा का मन अपने ही द्वारा बुने गए विचारों में उलझा था. समारोह समाप्त होने पर सब बच्चों को स्कूल की तरफ से एकएक पैकेट चिप्स और चौकलेट दी गई.  बच्चे खुश हो कर घर लौटे.

वृंदा का मन अब तक उदास था. वह बेमन से घर के कामों को निबटाने लगी.

प्राची ने रश्मि से पूछा, ‘‘रश्मि चौकलेट का स्वाद कैसा था?’’

‘‘अच्छा, बहुत अच्छा,’’ रश्मि ने इठलाते हुए जवाब दिया.

‘‘तुम्हें नहीं मिली थी क्या?’’ वृंदा के काम करते हाथ रुक गए.

‘‘हां, मिली थी.’’

‘‘फिर तुम ने भी तो खाई होगी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘रश्मि ने मांग ली थी.’’

‘‘उसे भी तो मिली होगी?’’

‘‘हां, उसे मिली थी, पर उसे और खानी थी.’’

‘‘आधी दे देनी थी, पूरी क्यों दी?’’

‘‘रश्मि रोने लगी थी, मम्मी.’’

प्राची के जवाब से वृंदा का धैर्य थर्रा कर टूट गया. उस ने प्राची के गाल पर तड़ातड़ कई थप्पड़ जड़ दिए, ‘‘उस ने मांगी और तुम ने दे दी, अपनी चीजों को बचाना नहीं आता तुम्हें? तुम दादी बन रही हो? तुम्हें क्या लगता है कि रश्मि तुम्हारा बड़ा मानसम्मान करेगी कि तुम ने हर पल अपने हिस्से को उसे दिया है…अरे, यों ही देती रहोगी तो एक दिन वह तुम से तुम्हारा जीवन भी छीन लेगी…अब उसे कुछ दोगी, बोलो, अब दोगी अपनी चीजें उसे…’’ वृंदा प्राची को मारे जा रही थी और बोले जा रही थी.

मां का रौद्र रूप देख कर रश्मि डर के मारे एक कोने में दुबक गई थी. वृंदा के मारते हाथ जब थोड़े रुके तो वह स्वयं फूटफूट कर रोने लगी और वहीं दीवार के सहारे जमीन पर बैठ गई.

घंटों रो लेने के बाद उस ने कमरे में नजर दौड़ाई. खिड़की के बाहर एक स्याह परदा पड़ गया है. भीतर की पीली रोशनी में कमरा कुछ उदास और खोयाखोया सा लग रहा था. उस की दोनों बेटियां रोतेरोते वहीं उस के पास जमीन पर ही सो गई थीं. रश्मि प्राची की गोद में दुबक गई थी और प्राची का हाथ रश्मि के सिर पर था. वृंदा का मन विह्वल हो गया. वह क्यों पिछली जिंदगी की गुत्थियों में उलझी है? 10 साल पहले घटी एक घटना का अब तक इतना गहरा प्रभाव? वह गलत राह पर है. उसे इस छाया को अपनी जिंदगी से मिटाना पड़ेगा. कितना प्रेम तो है दोनों में? वह क्यों अलगाव के बीज बो रही है. उस के इस व्यवहार से तो दोनों एकदूसरे से बहुत दूर हो जाएंगी. उस ने तय किया कि अब वह कभी पीछे लौट कर नहीं देखेगी. वह काली छाया अपनी बेटियों पर नहीं पड़ने देगी. उस ने बारीबारी से दोनों के सिर पर हाथ फेरा और आश्चर्य उसे यह हुआ कि आज इस अवसाद की स्थिति में भी उस ने रवि को याद नहीं किया.

Raksha Bandhan: बहनें- भाग 2-रिश्तों में जलन का दर्द झेल चुकीं वृंदा का बेटिंयों के लिए क्या था फैसला?

वृंदा को लगा था कि शादी की बात सुनते ही सास के ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ेगा. ‘ऐसा कैसे होगा? मेरे जीतेजी ऐसा नहीं हो सकता.’ इस तरह का कोई वाक्य वे बोलेंगी. किंतु उन्होंने तो सपाट सा जवाब दे कर पल्लू झाड़ लिया.

वृंदा का गला भर्रा गया, ‘मां, आप ऐसा कैसे बोल रही हैं? आप मुझे बहू बना कर इस घर में लाई हैं. क्या आप यह सब होने देंगी? मेरे लिए कुछ भी नहीं करेंगी?’

‘मैं क्या करूंगी? तुम्हारी बहन है, तुम देखो.’

‘लाख मेरी बहन है, घुस तो आप के बेटे के संसार में रही है न. आप अपने बेटे को समझा सकती हैं. कुंदा का विरोध कर सकती हैं. मैं ने आप से कहा तो था कि मैं डिलिवरी के लिए अपनी मां के यहां चली जाती हूं, तब आप ने स्वास्थ्य की दुहाई दे कर मुझे यहीं रोक लिया था. आप के कहने पर ही मैं ने कुंदा को यहां बुलाया था.’

हमेशा उन के सामने चुप रह जाने वाली वृंदा का इतना बोलना सास से सहन नहीं हुआ और उन का क्रोध भभक पड़ा, ‘अब मुझे क्या पता था कि तुम्हारी बहन के लक्षण खराब हैं. पता नहीं कौन से संस्कार दिए थे तुम्हारी मां ने. वैसे यह कोई बड़ी बात भी नहीं हो गई है. तुम्हें कोई घर से निकाल रहा है क्या? रवि तो कहता है कि दूसरी शादी भी कर लूंगा तब भी वृंदा को इस घर से बेघर नहीं करूंगा. अपनी जिम्मेदारी की समझ है उसे.’

तो ये भी रवि की योजना में शामिल हैं. मां के दिए संस्कार की बात कर रही हैं. जो काम कुंदा कर रही है वही तो इन का बेटा भी कर रहा है बल्कि दो कदम आगे बढ़ कर अपनी पहली पत्नी और 2 बच्चियों को छोड़ कर. इन्होंने कौन से संस्कार दिए हैं अपने बेटे को. एहसान बता रही हैं कि घर से नहीं निकाला जा रहा है उसे. अरे कौन होते हैं ये लोग घर से निकालने वाले? शादी कर के आई है यहां. पूरा हक है इस घर पर. यहां से निकलना होगा तो वह खुद ही निकल जाएगी.

जिम्मेदारी की क्या खाक समझ है इन लोगों को? कोई नौकरानी है वह कि सुविधाएं दे देंगे. पगार दे देंगे. उतने से वह खुश हो जाएगी. ये सास हैं? इन के तमाम नखरों को बड़े प्रेम और आदर के साथ झेलते हुए उस ने 5 साल बिता दिए किंतु इस घर की रीतिनीति समझ ही न पाई.

ये वही सास हैं जिन को उस ने मां का दरजा दिया था. इतनी कठोर. इन से डरती रही थी वह. ये तो नफरत के काबिल भी नहीं हैं. वृंदा के सिर से पल्ला सरक कर नीचे गिर गया जिसे फिर से सिर पर रखने की जरूरत उस ने महसूस नहीं की और हिकारत भरी नजर से सास को देखती हुई उठ आई.

वृंदा के मन से सास का आदर एक झटके में ही समाप्त हो गया और इस परिस्थिति से लड़ने की हिम्मत पनपने लगी. उस ने सोचा, अब रवि के सिवा किसी से वह इस विषय पर बात नहीं करेगी. था ही कौन उस का? पिता बहुत पहले ही चल बसे थे. मां के बस का कुछ है नहीं. अब उसे खुद ही सोचना पड़ेगा. इस समस्या से उबरना तो है ही.

मां को उस ने न तो चिट्ठी लिखी, न फोन किया. कुंदा से इस विषय पर बात करने की उस की इच्छा ही नहीं हुई. किंतु रवि? रवि पर तो उस का अधिकार है. वह अपने अधिकार को नहीं छोड़ेगी.

उस दिन से कईकई बार उस ने रवि को समझाने का प्रयास किया था. अपने प्यार का हवाला दिया. बच्चों की तरफ देखने की प्रार्थना की. ‘उस के बिना नहीं रह पाएगी’ कह कर जारजार रोई भी थी, पर रवि का मन काबू में नहीं था. उस की नजरें अन्य सारी बातों को पछाड़ देतीं. बस कुंदा का चेहरा ही उसे दिखता था. वृंदा हताश हो गई थी. अब घर में चौबीसों घंटे तनाव रहने लगा था.

फिर मां आ पहुंचीं. उस की अपनी मां. बताया तो उस ने नहीं था पर मां सब जान गई थीं पर आ कर भी कर कुछ नहीं पाई थीं वे. हार कर वृंदा के आगे ही आंचल पसार दिया था उन्होंने. वृंदा समझ गई थी कि अब मां भी उन्हीं लोगों की भाषा बोलना चाह रही हैं. कोई उस की पीड़ा को नहीं समझता. मां भी नहीं. मां की 2 बेटियां एक ही सुख की कामना किए हैं, मां किस की पीड़ा समझें. अपने सामने फैले मां के आंचल को वृंदा ने अपने हाथों से नीचे किया और बोली, ‘मैं तुम्हारे आंचल में अब कुछ नहीं डाल पाऊंगी

मां. मैं यह घर छोड़ दूंगी. तुम मुझ से कुछ मत मांगो. मैं देने में असमर्थ हूं. मेरी नियति अकेले बहने की है मां. मैं बहूंगी, यहां नहीं रुकूंगी.’

‘कहां जाओगी…? अकेले रहना आसान है क्या? तुम रह भी लो, पर ये बच्चियां? इन्हें पिता से क्यों अलग कर रही हो?’

‘मैं अलग कर रही हूं मां? मैं? रवि ने सोचा इन के बारे में? इन की किस्मत में पिता का सुख नहीं है मां, अपना दम घोंट कर मैं इन्हें पिता का सुख नहीं दे सकती.’

‘बेटा, राजा दशरथ ने भी…’

‘बस करो मां, बस करो. क्या हो गया है तुम्हें? कुछ नहीं कर सकती हो तो कम से कम चुप ही रहो. अब तक मैं यहां इसलिए रही मां, क्योंकि यह मेरा घर था. पूरे हक से रहती थी यहां, अब दया पर नहीं रहूंगी. कह दो कुंदा से, मैं ने उसे अपना पति दे दिया.’

मां वृंदा से लिपट कर फूटफूट कर रोईं. मां वृंदा की मनोव्यथा समझ रही थीं. क्या करें मां. इस उम्र में किसी समस्या से जूझने की शक्ति खो चुकी हैं. वे चाहती हैं कि शांति से इस का निबटारा हो जाए तो न उन्हें कुंदा की चिंता होगी और न ही वृंदा की. दोनों बेटियों के प्रेम में पड़ी मां समझ नहीं पा रही हैं कि वृंदा आखिर पति को बांटे भी तो कैसे?

6 महीने से वृंदा स्थिति को बदलने का प्रयास कर रही है किंतु जब ज्वालामुखी फट ही चुका है तो कब तक वह इस के लावे से बचेगी. इस लावे में झुलस कर दफन नहीं होना है उसे. जानती है वृंदा कि उस का वजूद अब बिखर चुका है किंतु वह उसे समेटेगी. अपनी खातिर नहीं, अपनी बच्चियों की खातिर.

घर छोड़ कर जब वह अलग रहने के लिए निकली थी तब उसे 2 कमरों का मकान मिल गया था. जगह अच्छी थी किंतु रवि के दूसरे ब्याह की खबर उस से पहले इस घर में पहुंची थी. मिसेज निगम बड़ी नेक विचारों की थीं. हर छोटीमोटी तकलीफों में वृंदा को उन्हीं का सहारा था.

एक दिन शाम को डा. निगम ने वृंदा का दरवाजा खटखटा कर बताया कि उस के लिए फोन आया है. कई बार वृंदा की मां का फोन उन के घर आ जाता था. फोन आने पर उसे निगम की लड़कियां ही बुलाने आती थीं. आज क्या इन के घर में कोई नहीं है? वृंदा असमंजस में थी. वह फोन पर बात करने जाए या न जाए. थोड़ी देर बाद डा. निगम ने फिर आवाज लगाई. मन की तमाम उलझनों के बावजूद भी वृंदा इस बार फोन पर बात करने चली गई.

वृंदा जब तक वहां पहुंची फोन कट गया था. वह वहीं बैठ कर फोन आने का इंतजार करने लगी. डा. निगम वृंदा की बेटियों से बातें कर रहे थे पर उन की नजरें वृंदा की तरफ ही उठ आती थीं. वृंदा असहज हो गई. डर के मारे उस की सांसें चलने लगीं. वह उठ कर अपने घर लौट आना चाहती थी तभी फोन की घंटी बजी. डा. निगम ने फोन उठाया. फोन उस की मां का ही था. वृंदा रिसीवर लेने आगे बढ़ी और उस ने महसूस किया कि यह जो रिसीवर देते समय डा. निगम की उंगलियां उस के हाथों से कुछ गहराई तक छू गईं वह अनजाने में नहीं हुआ.

Raksha Bandhan: बहनें- भाग 1- रिश्तों में जलन का दर्द झेल चुकीं वृंदा का बेटिंयों के लिए क्या था फैसला?

स्वप्न इतना डरावना तो नहीं था किंतु न जाने कैसे वृंदा पसीने से तरबतर हो गई. गला सूख गया था उस का. आजकल अकसर ऐसा होता है. स्वप्न से?डरना. यद्यपि वह इन मान्यताओं को नहीं मानती थी कि स्वप्न किसी शुभाशुभ फल को ले कर आता है, पर पता नहीं क्यों, आजकल वह उस कलैंडर की तलाश में रहने लगी है जिस में स्वप्न के शुभाशुभ फल दिए रहते हैं. क्या करे, सहेलियां डरा जो देती हैं उसे.

कभीकभी जब वह अपना कोई स्वप्न बता कर पूछती है कि मरा हाथी देखने से क्या होता है? या फिर मकान गिरते हुए देखने का क्या फल मिलता है? तब सहेलियां चिंतित हो कर अपनी बड़ीबड़ी आंखें घुमा कर उस का भविष्य बताने लगतीं, ‘लगता है, अभी तुम्हारी मुसीबत खत्म नहीं हुई है. कोई बहुत बड़ी विपत्ति आने वाली है तुम पर. अपनी बेटियों की देखभाल जरा ध्यान से करना.’

तब वृंदा मारे डर के कांपने लगती है. अब ये मासूम बेटियां ही तो उस की सबकुछ हैं. कैसे नहीं ध्यान रखेगी इन का? दोनों कितनी गहरी नींद में सो रही हैं? वृंदा अरसे से ऐसी गहरी नींद के लिए तरस रही है. यदि किसी रात नींद आ भी जाती है तो कमबख्त डरावने स्वप्न आ धमकते हैं और नींद छूमंतर हो जाती है.

वृंदा ने घड़ी की तरफ देखा, रात के 3 बज रहे थे. स्वप्न की बेचैनी और घबराहट से माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आई थीं. वह बिस्तर से उठी, मटके से गिलास भर पानी निकाला व एक ही सांस में गटागट पी गई. माथे पर आए पसीने को साड़ी के आंचल से पोंछती हुई वह फिर बिस्तर पर आ कर लेट गई. वृंदा ने पूरे कमरे में नजर घुमाई. यह छोटा सा कमरा ही अब उस का घर था. न अलग से रसोई, न स्टोर, न बैठक. सबकुछ इसी कमरे में था. गैस चूल्हे की आंच से जो गरमी निकलती वह रातभर भभकती रहती.

कमरे से लगा एक छोटा सा बाथरूम था और एक छोटी सी बालकनी भी. वृंदा का मन हुआ कि बालकनी का दरवाजा खोल दे, बाहर की थोड़ी हवा तो अंदर आएगी, किंतु उस की हिम्मत नहीं पड़ी. रात के 3 बजे सवेरा तो नहीं हो जाता. वृंदा मन मार कर लेटी रही.

उस का ध्यान फिर से स्वप्न पर गया. एक बड़े से गड्ढे में गिर कर उस की बड़ी बेटी प्राची रो रही थी और रश्मि बड़ी बहन को रोता देख कर खिलखिला रही थी. यह भी कोई स्वप्न है? इतना डरने लायक? वह डरी क्यों? इस स्वप्न के किस हिस्से ने उसे डराया? प्राची का गड्ढे में गिरना या रश्मि का किनारे खड़े हो कर खिलखिलाना? रश्मि हंस क्यों रही थी? शायद प्राची को गड्ढे में उस ने ही धकेला था. वृंदा फिर कांप गई.

स्वप्न, स्वप्न था. आया और चला गया. किंतु उस की परछाईं किसी सच्ची घटना की तरह उसे डरा रही थी. वह इस प्रकार डरी मानो अभी घर में तूफान आया हो और घर की दीवारें तक हिल गई हों.

यह स्वप्न उसे अतीत के बिंबों की तरफ ले जा रहा था जिस में न जाने की उस ने सैकड़ों बार प्रतिज्ञा की थी.

बिंब अभी थोड़े धुंधले थे. उसे थोड़ा संतोष हुआ. वह इन्हें और चटक नहीं होने देगी. यहीं से उबर जाएगी. किंतु उस का प्रयास अधिक देर तक टिक नहीं पाया. शीघ्र ही एक के बाद एक सारे बिंब चमकदार होने लगे हैं जिन्हें देखते ही उस की धड़कनें अधिक तेज हो गईं.

उस की भी एक छोटी बहन थी, कुंदा. हमेशा उस के चौकलेट, खिलौनों तथा कपड़ों को हथिया लेती थी. वृंदा या तो उस से जीत नहीं पाती थी या जीतने का भाव मन में लाती ही नहीं थी. छोटी बहन से क्या जीतना और क्या हारना? खुशीखुशी अपने चौकलेट, खिलौने और कपड़े कुंदा को दे देती थी. कुंदा विजयी भाव से उस की चीजों का इस्तेमाल करती थी. वृंदा को बस उस का यह विजयभाव ही खटकता था. वह सोचती, ‘काश, कुंदा समझ पाती कि उस की विजय का कारण मेरी कमजोरी नहीं बल्कि प्रेम है, छोटी बहन के प्रति प्रेम.’ पर कुंदा को न समझना था, न ही समझी.

बचपन छूटता गया पर कुंदा का स्वभाव न बदला. रश्मि के जन्म के समय वृंदा के घर आई कुंदा ने उस से उस का पति भी छीन लिया. वृंदा हतप्रभ थी. 5 वर्ष के संबंध चंद दिनों की परछाईं में दब कर सिसकने लगे.

वृंदा का विश्वास टूटा था, वह स्वयं नहीं. उस ने अपने घर को संभालने का पूरा प्रयास किया. सब से पहले उस ने अपने पति से बात की.

‘यह सब क्यों हुआ रवि…बोलो, ऐसा क्यों किया तुम ने? तुम्हारे जीवन में मैं इतनी महत्त्वहीन हो गई? इतनी जल्दी? मात्र 5 वर्षों में?’

‘ऐसी बात नहीं है वृंदा, तुम्हारा महत्त्व तनिक भी कम नहीं है,’ एकदम सपाट और भावशून्य शब्दों में जवाब दिया था रवि ने. वृंदा कुछ संतुष्ट हुई, ‘तो फिर यह महज भूल थी जो हो गई होगी. कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’ मन में सोचा था उस ने, पर ऊपर से कठोर बनी प्रश्न करती रही.

‘जब तुम्हारे जीवन में मेरा महत्त्व कम नहीं हुआ है तो तुम ने ऐसा क्यों किया…? कुंदा तो नासमझ है, पर तुम्हें तो कुछ सोचना था?’

‘तुम इतनी छोटी बात का बतंगड़ बना रही हो?’ रवि की आवाज में खीज थी. वृंदा सब्र खो बैठी. क्षणभर पहले उस के मन में रवि के लिए उठे विचार विलीन हो गए.

‘मैं बतंगड़ बना रही हूं…? मैं? तुम्हारी नजर में यह इतनी छोटी बात है? अरे, तुम ने मेरे विश्वास का गला घोंटा है रवि, जिंदगीभर की चुभन दी है तुम ने मुझे. समय बीत जाएगा, ये बातें समाप्त हो जाएंगी लेकिन मेरे दिल में पहले जैसे भाव कभी नहीं आएंगे. हमेशा एक अविश्वास घेरे रहेगा मुझे. मुझे तो तुम ने जिंदगीभर की पीड़ा दी ही, साथ ही मेरी बहन को भी बेवकूफ बनाया.’

‘क्या बकवास कर रही हो? मैं ने किसी को बेवकूफ नहीं बनाया है…किसी को कोई पीड़ा नहीं दी है,’ क्रोध में रवि चिल्ला पड़े थे. फिर थोड़ी देर बाद संयत हो कर अपने एकएक शब्द पर जोर देते हुए बोले, ‘कुंदा से मेरी बात हो चुकी है. मैं उस से शादी करूंगा. वह भी राजी है. हां, तुम इस घर में पूरे मानसम्मान के साथ रह सकती हो. अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम बात का बतंगड़ बनाती हो या अपना और कुंदा का जीवन बरबाद करती हो,’ रवि ने बेपरवाह उद्दंडता से जवाब दिया.

वृंदा अवाक् रवि का मुंह ताकती रह गई. हाथपैर जम गए उस के. मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे. बात यहां तक बढ़ गई और वह कुछ जान ही न पाई. किस दुनिया में रहती है वह.

छत पर पंखा धीमी गति से घूम रहा है. दोनों बेटियां अब भी गहरी नींद में सो रही हैं. वृंदा ने पंखे को कुछ तेज किया किंतु उस की रफ्तार ज्यों की त्यों रही. बेटियों के माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को वृंदा ने अपने आंचल से थपथपा कर सुखाया, फिर छत निहारती हुई लेट गई.

पति के जवाब से आहत वृंदा के मन में उम्मीद की डोर अभी बाकी थी. सास से उम्मीद. वे कुछ करेंगी. वैसे थीं वे कड़क गुस्से वाली. वृंदा को उन के साथ रहते हुए 5 वर्ष बीत चुके थे किंतु हिम्मत थी कि उन के सामने सिकुड़ कर रह जाती थी. मुंह ही नहीं खुलता था. पर बात तो करनी थी, आखिर उसे इस घर से अलगथलग कर देने का षड्यंत्र रचा जा रहा है.

इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. यह उस के अस्तित्व का प्रश्न है. वह बात करेगी. अनुचित के विरोध में बोलना अपने अस्तित्व को बनाए रखने की बुनियादी जरूरत है. कुंदा के साथ अपने खिलौनों को बांटना छोटी बहन के प्रति प्यार है, बड़ी बहन का बड़प्पन है. पति खिलौना नहीं है, वह उसे कैसे बांटेगी? कैसे बंट जाने देगी? पर क्या करे वह, जब पति खुद ही बंटना चाहता हो. बंटना ही नहीं पूरी तरह से निकल जाना चाहता हो. फिर भी वह प्रयास करेगी.

मौका देख कर वृंदा ने सास से बात शुरू की, ‘मां, रवि कुंदा से शादी करने की सोच रहे हैं.’

‘हां, कह तो रहा था,’ एकदम ठंडी आवाज में जवाब दिया था सास ने.

‘तो मां, आप को पता है?’ वृंदा की आवाज में आश्चर्य समाया था.

‘हां, पता है.’

‘तो क्या आप यह सब होने देंगी?’

‘क्या करूंगी मैं? तुम देखो. तुम्हारी ही तो बहन है…उसे नहीं सोचना था तुम्हारे बारे में? चौबीस घंटे आगेपीछे नाचेगी तब तो यही होगा न?’ 

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