एक किताब सा चेहरा: कौन थी गीतिका

वह अकसर मुझे दिखाई देती थी, जब मैं अपनी साइकिल से सूनीसूनी सड़कों पर शिमला की ठंडक को मन में लिए जब भी निकला हूं मैं… बर्फीले हवा के झेंके सी गुजर जाती है वह. नहीं, वह नहीं गुजरती मैं ही गुजर जाता हूं. उस के पास धीमीधीमी साइकिल पर चलतेचलते मेरा मन होता है कि मैं रुक जाऊं उसे देखने के लिए. कभी तो ऐसा भी लगा साइकिल पर ही रुक कर पलट कर देख लूं. पर शायद यह लुच्चापन लगेगा, वह मुझे लोफर या बदमाश भी समझ सकती है. मैं नहीं कहलाना चाहता बदमाश उस की नजरों में. इसलिए सीधा ही चला जाता हूं. मन में कसक लिए उसे अच्छी तरह देखने की.

वह मुझे आजकल की लड़कियों सी नहीं दिखती थी. अगर तुम पूछोगे कि आजकल की लड़कियां तो मैं बिलकुल पसंद नहीं करूंगा. आज की लड़कियों को पसंद करता भी नहीं क्यों एक फूहड़पन सा झलकता है इन लड़कियों में. अजीब सा चेहरा बना कर बात करना, सैल्फी खींचखींच कर चेहरे और विशेषकर होंठों को सिकोड़े रहने की आदत की शिकार नहीं बीमार कहिए बीमार हो गई हैं आज की लड़कियां.

पहनावा सोचते ही उबकाई आने लगती है. मुझे जीरो साइज के पागलपन में पागल लड़कियां अपने शरीर की गोलाइयों को पूरा सपाट बना देती हैं. इस से जो आकर्षण होना चाहिए वह बचता ही नहीं. अब आप कहेंगे मैं पागल हूं जो आज के माहौल के लिए, आधुनिक युग के लिए ऐसा बोल रहा हूं.

तो साहब, ऐसा नहीं शरीर को प्रयोगशाला बनाने के साथ ही कपड़ों की तो बात ही क्या है? घुटनों के पास से फटी जींस, कमर, पेट दिखाता टौप, कहींकहीं तो पिडलियों के पास से भी फटी जींस के भीतर से झंकते शरीर को देख कर मुझे तो घिन आती है. कहीं से भी सुंदर नहीं दिखती ऐसी लड़कियां. आगे भी सुन लीजिए. बालों को भी नहीं छोड़ा, नीले, लाल कलर के रंग में रंग बाल देख कर मसखरी करने वाले जोकरों की याद आ जाती है.

अब आप बोलें या सोचें क्या इन से प्रेम किया जा सकता है? दिल में बसाया जा सकता है लंबे प्रेम संबंध चलें ऐसी कोई कल्पना की जा सकती है? नहीं साहब, बिलकुल नहीं. एक बात तो बताना ही भूल गया जनाब कि इन का प्रेम भी फास्ट फूड जैसा होने लगा है. विश्वास ही नहीं होता ये कितनों के साथ एकसाथ प्रेम करती हैं. एक से ब्रेकअप हुआ तो दूसरा रैडी है. दूसरे के साथ ब्रेकअप हुआ तो तीसरा तैयार है… नुक्कड़ पर फोन करने की देर है.

अब ऐसे फास्ट फूड के जमाने में कोई शीतल झरने सी लड़की. जी हां लड़की, दिख जाए तो मन बावला हो उठता है. मेरा भी मन बावला हो उठा उस लड़की को देख कर.

घर पर जा कर मैं ने प्रण किया अब तो मैं कुछ दिनों में उस लड़की से जरूरजरूर बात करूंगा. मैं शिमला की ठंडक को मन में संजोए सो गया. कमरे के दरवाजे और खिड़की पर बर्फ की परतें जमनी शुरू हो गई थीं. गरम रजाई के भीतर उस लड़की की सांसों की गरमी मैं महसूस कर रहा था, बर्फ से ढकी पहाडि़यों के पीछे से लड़की का चेहरा बारबार झंक कर मुझे रातभर परेशान करता रहा और मैं जागता रहा, सोता रहा.

सुबह जब नींद खुली तो देखा 9 बजने जा रहे थे. बर्फ की परतें जो रात से

खिड़की और दरवाजे पर लिपटी थीं. हलकीहलकी पिघलने लगी थीं. हलकी सी धूप पहाडि़यों से अंगड़ाई लेते हुए पहाडि़यों की गोद में बसे कौटेजों पर बिखरने लगी थी. क्या करूं? मन नहीं कर रहा था उठने का. चाय पी लेता हूं. नाश्ते के बाद निकलूंगा. आज संडे है पर संडे को भी लाइब्रेरी खुलती है. नाश्ते के बाद 11 साढ़े 11बजे तक लाइब्रेरी पहुंच जाऊंगा. रास्ते में फिर मिलेगी वह लड़की. मैं आज पक्का उस से बात करूंगा, चाहे जो हो. यही सोच कर मैं ने चाय पी पर चाय ठंडी हो गई थी.

गरम करने के लिए दोबारा केतली उठाई. चाय के बाद मैं ने गाम पानी के गीजर को औन किया. तब तक कपड़ों की तैयारी में लग गया कि आज कौन से कपड़े पहनूं जिन से वह लड़की इंप्रैस हो जाए. सोचतेसोचते सब्ज कलर की जींस और ब्लैक टीशर्ट निकाली. हलकेहलके गरम पानी की उड़ती भाप में भी लड़की का चेहरा बनता रहा बिगड़ता रहा, पहाडि़यों से भी वह झंकती रही. मैं उसे देखता रहा.

नहा कर जब बाहर आया तो भूख सी महसूस हो रही थी मुझे. फ्रिज देखा तो कुछ अंडे थे, लेकिन ब्रैड नहीं थी. अब क्या करूं? केसरोल देखा तो कल का एक परांठा बचा पड़ा था. चलो हो गया नाश्ते का इंतजाम. बासी परांठा और ताजा आमलेट. फटाफट मैं प्याज, हरीमिर्च और धनियापत्ती काट कर अंडे फेंटने लगा. नाश्ता भी मैं ने गरम कंबल में लिपटे हुए खाया. नाश्ते के बाद आदमकद आइने के सामने खड़ा हुआ. खुद को आईने में देख कर सोचने लगा कि क्या वह मुझे पसंद करेंगी? बुरा तो नहीं मैं 5 फुट 11 इंच की हाइट, हलकेहलके कर्ली बाल, लंबी नाक, घनी मूंछें, खिलता रंग. पसंद करेगी बात भी करेगी. चेहरे से कुछकुछ शायर सा लगता हूं जैसेजैसे याद नहीं आ रहा, किस ने कहा था? शायद किसी दोस्त ने. ‘वह उस गीत सा…’ कौन सा गीत हां याद आया:

‘किसी नजर को तेरा इंजतार आज भी है…’ सुरेश वाडकर पर फिल्माया गया था यह गीत. डिंपल कपाडि़या बेचैन सी हो कर आती है. चलो देखते हैं…

तैयार हो कर कौटेज से बाहर निकला. धूप अच्छी लग रही थी. हलकीहलकी कुनकुनी सी. जींसब्लेजर में भी इंतजार वाले गीत सा महसूस कर रहा था. फिर सोचा साइकिल आज ठीक रहेगी. काश बाइक ले कर आता घर से, घर तो दिल्ली था, जौब शिमला में थी. साइकिल पसंद थी, इसलिए साइकिल उठा लाया. पर साइकिल से क्या वह इंप्रैस होगी? ऐसा करता हूं मकानमालिक से बाइक ले लेता हूं आज. बाइक ठीक रहेगी.

मकानमालिक ने दे दी बाइक की चाबी. वे आज रैस्ट के मूड में थे. शाम को ही निकलने के मूड में थे. संडे जो था. खैर मैं ने बाईक निकाली और चल दिया शिमला की अजगर जैसी सड़कों पर. सर्पीली सड़कों के जाल, पहाडि़यों की गगन चूमती चोटियां, हंसता सूरज, मुसकराती धूप, पौधोंफूलों से टपकती बर्फ, पिघलती बर्फ की खामोशियां, हवाओं में बहती खुशबू, गरमगरम कपड़ों में कौटेजों से निकल कर धूप को पीते लोग.

हरियाली की चूनर, चिनार के पेड़ों की वे कतारें, कौटेज से उठता धुआं. सबकुछ कितना मनमोहक है, कितना सुंदर, प्यारा और जीवन से प्यार करना सिखाता. ये प्रकृति का अद्भुत चित्र. एक अनदेखे चित्रकार की खूबसूरत कलाकृति यह सृष्टि. बाइक पर उसे याद आया सड़क के किनारे एक छोटा सा देव स्थान है. वह तुंरत उस जगह पहुंच गया.

जूते खोल कर वह आगे बढ़ा. देखा तो घना वटवृक्ष है, उस ने ध्यान से देखा तो पाया बरसों पुराना है शायद सैकड़ों साल पुराना. बहुत घना. उस के नीचे पक्के चबूतरे पर एक देव प्रतिमा थी. सामने एक दीपक जल रहा था. बरगद के पीछे बड़ी काली पहाड़ी थी, पहाड़ी से लगा था छोटा सा तालाब. दीपक जल रहा है. मतलब कोई जला कर गया है. बरगद पर सैकड़ों धागे बंधे थे. शायद मन्नत के धागे… मैं ने पास के तालाब में हाथ धो कर जेब से रूमाल निकाल कर माथे को ढका. देव प्रतिमा के सामने जा कर अपना शीश झका कर जैसे ही आंखें बंद कीं, फिर उस लड़की का चेहरा नाच उठा.

मैं नहीं जानता मुझे क्या हुआ. क्यों आया मैं तेरे द्वार पर इस दौर में मुझे सुकून से भरे कुछ पल दे दे. ऐसा सुकून, शांति जिस की मेरे देश को भी जरूरत हैं. अमनशांति से भर दे सब की झली. कुछ पल तक मैं दीपक की जादू भरी लौ को देखता रहा. फिर न जाने क्या सोच कर वहां पूजा की थाली में रखा रंगीन कलावा ले कर वृक्ष के दामन में बांध कर वापस आ गया.

बाइक स्टार्ट कर के वापस अपनी मंजिल लाइब्रेरी की तरफ चला. अफसोस सारे रास्ते मुझे वह लड़की नहीं दिखी. मन उदास हो चला, दुखी हो गया.

लाइब्रेरी के बाहर बाइक खड़ी करतेकरते भी मन उदास और निराश था, जल्दी से बुक्स ले कर वापस हो जाऊंगा, क्या पता, वह बीमार हो गई हो. आज कुछ ज्यादा ही लोग थे. लाइब्रेरी में. यह एक मात्र लाइब्रेरी थी, जिस में दिन भर पढ़ने के शौकीन विद्यार्थी आते रहते थे. मुझे भी किताबों का शौक था.

बड़े दिनों से टौलस्टौय की बुक ‘इंसान और हैवान’ की तलाश में था. मैं ने अपनी

बुक के लिए शैल्फ पर नजरें दौड़ानी शुरू कीं. आधा घंटा हो गया था. दूसरी वाली शैल्फ में देखता हूं, यह सोच कर मैं ने पलट कर देखा तो सामने से कोई टकरा गया. मेरी बुक जमीन पर मैं ने जल्दी से बुक उठाई और सौरी कहा. यह क्या… सामने तो वही लड़की थी, जिसे मैं देखा करता था.

अरे यह. चमत्कार हो गया. दिल इतनी तेजी से धड़कने लगा जैसे लो बाहर ही आ जाएगा. सौरी बोलने के बाद मैं अपलक उसे निहारता ही रह गया.

‘‘क्या हुआ आप को? सौरी बोल तो दिया आप ने. अब क्या हुआ,’’ लड़की की आवाज मेरे कानों तक पहुंची.

‘‘जीजी हां, वह मैं थोड़ा जल्दी में था,’’ मैं ने अपनी धड़कनों पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘कोई बात नहीं… देख ली आप ने?’’ लड़की बोली.

‘‘जी देखी तो लेकिन उस शैल्फ में तो नहीं मिली… इस में देख लेता हूं.’’

‘‘कौन सी बुक है?’’ वह पूछने लगी.

मैं ने कहा, ‘‘टौलस्टौय की बुक ‘इंसान और  हैवान.’’

‘‘अच्छा… कहीं यह तो नहीं,’’ कह कर उस ने बुक अपने हाथ में रख कर मेरी नजरों के सामने की.

‘‘अरे हां ये ही… मैं खुशी से बोला, ‘‘लेकिन आप ने तो अपने नाम से इशू करवाई होगी? आप पढ़ लीजिए. मैं फिर ले लूंगा,’’ मेरा स्वर उदासी भरा था.

‘‘अरे नहीं, आप पढ़ लीजिए मैं फिर पढ़ लूंगी,’’ वह बोली.

मैं खुश हो गया. मैं ने उसे थैंक्स कहा.

‘‘ओकेजी,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा आप अभी रुकेंगी या जाएंगी,’’ मैं ने हिम्मत जुटाई.

‘‘मैं अब निकलूंगी,’’ वह बोली.

‘‘अगर आप चाहें तो मैं आप को छोड़ दूं? मैं ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं चलिए साथ चलते हैं,’’ वह बोली.

मैं बाहर आ गया. वह भी साथ थी. मैं ने बाइक निकाली.

‘‘अरे यह क्या… बाइक,’’ वह बोली.

‘‘जी बाइक. बाइक पर नहीं बैठोगी?’’ मैं ने थोड़े आश्चर्य से पूछा.

‘‘नहींनहीं ऐसा कुछ नहीं, लेकिन आप की तो साइकिल ही अच्छी है,’’ वह बोली. ‘‘फिर इन खूबसूरत नजारों को देखने के लिए मुझे पैदल जाना ही पसंद है,’’ वह मुसकराती बोली.

‘उफ, कितनी कातिल मुसकान है,’ मैं ने सोचा, ‘लुट जाते होंगे न जाने कितने इस मुसकान पर.’

‘‘चलिए बाइक यहीं छोडि़ए हम कुछ देर घूम लेते हैं,’’ वह बोली.

‘‘ओके,’’ मैं ने कहा फिर बाइक वहीं छोड़ी और उस के साथ चल दिया.

घुमावदार सड़कें, बर्फ से छिपतेढकते, पेड़, बर्फ

कहींकहीं पिघल कर पैरों को छू कर ठंड भर देती शरीर में. कुछ दूरी पर छोटा सा कौफीहाउस था पहाड़ी के दामन में. मैं ने कहा, ‘‘अगर एतराज न हो तो 1-1 कौफी पी लें?’’

‘‘जरूर,’’ वह बोली.

बड़े दिनों बाद आज धूप निकली थी इस बर्फीले हिल स्टेशन पर. गरम कपड़ों में लोग जगहजगह धूप का आनंद ले रहे थे.

कौफीहाउस में कुछ लोग थे, मैं ने खिड़की के पास वाली टेबल पसंद की. लकड़ी के कौटेज मुझे बहुत पसंद है. कौफीहाउस की डैकोरेशन बड़ी प्यारी थी.

वह मेरे सामने थी, बीच में थी टेबल, टेबल पर था पीले, सफेद, पिंक गुलाबों का गुलदस्ता, जो शायद कुछ देर पहले ही सजाया गया था.

‘क्या बात शुरू करूं?’ मैं ने सोचा. फिर ध्यान आया. अरे नाम…

‘‘हम लाइब्रेरी से इतनी देर से साथ हैं… हम ने एकदूसरे का नाम भी नहीं पूछा,’’ मैं ने कहा.

‘‘ओह,’’ कह कर वह मुसकरा दी. मुसकराते ही दाएं गाल का डिंपल भी मुसकरा दिया.

‘‘मैं आकाश हूं. मतलब मेरा नाम आकाश है. मैं जौब करता हूं. घर मेरा इंदौर में है. शिमला की बर्फ और खूबसूरती मुझे पंसद है. यहां का औफर आया तो तुरंत हां कर दी,’’ अपनी बात समाप्त कर के मैं उसे देखने लगा.

‘‘मैं गीतिका हूं. मुझे भी पहाडि़यों और चर्च से घिरा शिमला पसंद है. मेरे मामा यहां रहते हैं, पापामम्मी भोपाल में हैं. पापा सरकारी जौब में हैं. मम्मी हाउसवाइफ हैं. मुझे पढ़ने का शौक है तो मामा के यहां रह कर पढ़ाई भी करती हूं और अच्छे साहित्यकारों को भी पढ़ती हूं.’’

‘‘साहब, और्डर,’’ तभी वेटर ने आ कर हमारे बातचीत के क्रम को भंग किया.

‘‘कौफी के साथ क्या लोगी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जो आप का मन करे,’’ कह गीतिका मुसकरा दी.

‘‘ओके,’’ कह कर मैं ने पनीर सैंडवीच और कौफी का और्डर कर दिया.

सूर्य की किरणें कौटेज की दरारों से अंदर आ कर शैतानियां कर रही थीं. बर्फ की धुंध को चीर कर बड़े दिनों बाद धूप निकली थी जो अच्छी लग रही थी. धूप की शैतानियों को देखतेदेखते मैं ने गीतिका को देखा जो खिड़की से फूलों को देख रही थी.

मैं ने उसे देखा कि खिलता हुआ रंग, होंठों की बाईं तरफ तिल जो सौंदर्य पर पहरा दे रहा था, कमल सी आंखें, जो खामोशखामोश सी कोई कहानी छिपाए हैं. मुझे पसंद हैं सुंदर आंखें. लंबा कद, मांसलता लिए शरीर, ब्लैक कलर का सूट, उस पर पिंक कलर का ऐंब्रौयडरी वाला दुपट्टा, हलकाहलका काजल. काश, मेरी लाइफपार्टनर बने. मैं कल्पना में खो गया.

‘‘साहब, कौफी,’’ तभी वेटर की आवाज सुनाई दी.

‘‘गीतिका, क्या सोचती हो मेरे बारे में? मैं ने पूछा, मैं तो अकसर ही तलाशता था जब मैं लाइब्रेरी आता था,’’ कह उस के चेहरे के भाव देखने लगा.

‘‘जी मैं ने भी कई बार देखा था आप को. आप मुझे देखने के लिए साइकिल धीमी कर देते थे,’’ कह गीतिका खिलखिला दी. हंसतेहंसते ही उस ने अपने आंखों पर हाथ रख लिए. यह अंदाज मेरे दिल में उतर गया. ऐसा लगा जैसे नन्हेनन्हे घुंघरू बज उठे हों.

‘‘हां गीतिका मैं भी तुम से बात करना चाहता था, पर कर नहीं पाता था. मुझे ओवरस्मार्ट बनने वाली लड़कियां पसंद नहीं हैं. शरीर दिखाऊ कपड़े, अजीब सा हेयरस्टाइल, सिगरेट का धुआं उड़ाती लड़कियों का मानसिक दीवालिया समझता हूं मैं.’’

‘‘अच्छाजी,’’ गीतिका बोली, ‘‘कौफी

खत्म हो गई है. अब चलते हैं मामा इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘गीतिका थोड़ी देर प्लीज,’’ मैं रिकवैस्ट के अंदाज में बोला.

‘ओके,’’ कह कर वह बैठ गई.

‘‘एक कौफी और मंगा लें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मंगा लीजिए.’’

‘‘गीतिका तुम्हारी हौबी क्या है?’’

‘‘पढ़ना. बताया तो था आप को. इस के अलावा प्रकृति की सुंदरता को निहारना पसंद है. भीड़ से मुझे घबराहट होती,’’ गीतिका शिमला की पहाडि़यों को निहारती हुई बोली.

‘‘सच, कितनी सुंदर हौबीज हैं तुम्हारी.’’ मैं बहुत खुश हो उठा. मन ही मन उस देव स्थान पर मेरा सिर झकने लगा.

‘‘गीतिका हम फिर मिलेंगे न?’’ मैं ने उस की तरफ देख कर पूछा.

‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘मुझे यह बुक पढ़ कर वापस कर देना मुझे भी पढ़नी है.’’

‘‘ओके बाय,’’ मैं ने हाथ हिला कर कहा.

‘‘बाय फिर मिलते हैं,’’ कह कर वह चली गई. मैं उसे जाते देखता रहा दूर तक.

मन में उस की सूरत बसाए जब अपने रूम पहुंचा तो देखा कि मेरे मकानमालिक एक

बड़ा सा लिफाफा लिए मेरा इंतजार कर रहे थे. मुझे देखते ही बोले, ‘‘तुम्हारे घर से आया है.’’

मैं लिफाफा ले कर रूम में पहुंचा. जैसे ही लिफाफा खोला तो कई फोटो नीचे गिर पड़े, हाथ में ले कर जैसे ही फोटो पर नजर गई, तो आंखों को विश्वास ही नहीं हुआ. गीतिका के फोटो थे, पापामम्मी ने मेरे लिए लड़की पसंद की थी. मोबाइल के फोटो देखने को खुद मैं ने ही मना किया हुआ था. नहीं समझ आता फोटो फिल्टर हैं या औरिजनल. सामने हो तो बात ही अलग होती है मैं ने तुंरत घर फोन किया.

‘‘बेटा देख ले लड़की को,’’ पापा बोले. ‘‘गीतिका भी शिमला में ही है. पता कर के मुलाकात कर ले.’’

मैं क्या बोलता पापा को कि मैं तो मिल कर देख चुका हूं गीतिका को. मैं ने तुरंत हां कर दी शादी के लिए मेरे सपनों का चेहरा अब मेरा जीवनसाथी बनने जा रहा था.

तेरी सुरमई सूरत जब फूल बन जाए,

किताबी आंखों पर मेरी गजल हो जाए,

बन कर मैं देखूं तुझे रांझे की नजर से,

मेरे प्रेम के एहसास में तू हीर बन जाए.

यही थी मेरे गुलाबी सपनों का गुलाबी सपना किताब सा चेहरा.

मुसकान : क्यों टूट गए उनके सपने

romantic story in hindi

जो बीत गई सो बात गई

अपनेमोबाइल फोन की स्क्रीन पर नंबर देखते ही वसंत उठ खड़ा हुआ. बोला, ‘‘नंदिता, तुम बैठो, वे लोग आ गए हैं, मैं अभी मिल कर आया. तुम तब तक सूप खत्म करो. बस, मैं अभी आया,’’ कह कर वसंत जल्दी से चला गया. उसे अपने बिजनैस के सिलसिले में कुछ लोगों से मिलना था. वह नंदिता को भी अपने साथ ले आया था.

वे दोनों ताज होटल में खिड़की के पास बैठे थे. सामने गेटवे औफ इंडिया और पीछे लहराता गहरा समुद्र, दूर गहरे पानी में खड़े विशाल जहाज और उन का टिमटिमाता प्रकाश. अपना सूप पीतेपीते नंदिता ने यों ही इधरउधर गरदन घुमाई तो सामने नजर पड़ते ही चम्मच उस के हाथ से छूट गया. उसे सिर्फ अपना दिल धड़कता महसूस हो रहा था और विशाल, वह भी तो अकेला बैठा उसे ही देख रहा था. नंदिता को यों लगा जैसे पूरी दुनिया में कोई नहीं सिवा उन दोनों के.

नंदिता किसी तरह हिम्मत कर के विशाल की मेज तक पहुंची और फिर स्वयं को सहज करती हुई बोली, ‘‘तुम यहां कैसे?’’

‘‘मैं 1 साल से मुंबई में ही हूं.’’

‘‘कहां रह रहे हो?’’

‘‘मुलुंड.’’

नंदिता ने इधरउधर देखते हुए जल्दी से कहा, ‘‘मैं तुम से फिर मिलना चाहती हूं, जल्दी से अपना नंबर दे दो.’’

‘‘अब क्यों मिलना चाहती हो?’’ विशाल ने सपाट स्वर में पूछा.

नंदिता ने उसे उदास आंखों से देखा, ‘‘अभी नंबर दो, बाद में बात करूंगी,’’ और फिर विशाल से नंबर ले कर वह फिर मिलेंगे, कहती हुई अपनी जगह आ कर बैठ गई.

विशाल भी शायद किसी की प्रतीक्षा में था. नंदिता ने देखा, कोई उस से मिलने आ गया था और वसंत भी आ गया था. बैठते ही चहका, ‘‘नंदिता, तुम्हें अकेले बैठना पड़ा सौरी. चलो, अब खाना खाते हैं.’’

पति से बात करते हुए नंदिता चोरीचोरी विशाल पर नजर डालती रही और सोचती रही अच्छा है, जो आंखों की भाषा पढ़ना मुश्किल है वरना बहुत से रहस्य खुल जाएं. नंदिता ने नोट किया विशाल ने उस पर फिर नजर नहीं डाली थी या फिर हो सकता है वह ध्यान न दे पाई हो.

आज 5 साल बाद विशाल को देख पुरानी यादें ताजा हो गई थीं. लेकिन वसंत के सामने स्वयं को सहज रखने के लिए नंदिता को काफी प्रयत्न करना पड़ा.

वे दोनों घर लौटे तो आया उन की 3 वर्षीय बेटी रिंकी को सुला चुकी थी. वसंत की मम्मी भी उन के साथ ही रहती थीं. वसंत के पिता का कुछ ही अरसा पहले देहांत हो गया था.

उमा देवी का समय रिंकी के साथ अच्छा कट जाता था और नंदिता के भी उन के साथ मधुर संबंध थे.

वसंत भी सोने लेट गया. नंदिता आंखें बंद किए लेटी रही. उस की आंखों के कोनों से आंसू निकल कर तकिए में समाते रहे. उस ने आंखें खोलीं. आंसुओं की मोटी तह आंखों में जमी थी. अतीत की बगिया से मन के आंगन में मुट्ठी भर फूल बिखेर गई विशाल की याद जिस के प्यार में कभी उस का रोमरोम पुलकित हो उठता था.

नंदिता को वे दिन याद आए जब वह अपनी सहेली रीना के घर उस के भाई विशाल से मिलती तो उन की खामोश आंखें बहुत कुछ कह जाती थीं. वे अपने मन में उपज रही प्यार की कोपलों को छिपा न सके थे और एक दिन उन्होंने एकदूसरे के सामने अपने प्रेम का इजहार कर दिया था.

लेकिन जब वसंत के मातापिता ने लखनऊ में एक विवाह में नंदिता को देखा तो देखते ही पसंद कर लिया और जब वसंत का रिश्ता आया तो आम मध्यवर्गीय नंदिता के मातापिता सुदर्शन, सफल, धनी बिजनैसमैन वसंत के रिश्ते को इनकार नहीं कर सके. उस समय नौकरी की तलाश में भटक रहे विशाल के पक्ष में नंदिता भी घर में कुछ कह नहीं पाई.

उस का वसंत से विवाह हो गया. फिर विशाल का सामना उस से नहीं हुआ, क्योंकि वह फिर मुंबई आ गई थी. रीना से भी उस का संपर्क टूट चुका था और आज 5 साल बाद विशाल को देख कर उस की सोई हुई चाहत फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थी.

नंदिता ने देखा वसंत और रिंकी गहरी नींद में हैं, वह चुपचाप उठी, धीरे से बाहर आ कर उस ने विशाल को फोन मिलाया. घंटी बजती रही, फिर नींद में डूबा एक नारी स्वर सुनाई दिया, ‘‘हैलो.’’

नंदिता ने चौंक कर फोन बंद कर दिया. क्या विशाल की पत्नी थी? हां, पत्नी ही होगी. नंदिता अनमनी सी हो गई. अब वह विशाल को कैसे मिल पाएगी, यह सोचते हुए वह वापस बिस्तर पर आ कर लेट गई. लेटते ही विशाल उस की जागी आंखों के सामने साकार हो उठा और बहुत चाह कर भी वह उस छवि को अपने मस्तिष्क से दूर न कर पाई.

वसंत के साथ इतना समय बिताने पर भी नंदिता अब भी रात में नींद में विशाल को सपने में देखती थी कि वह उस की ओर दौड़ी चली जा रही है. उस के बाद खुले आकाश के नीचे चांदनी में नहाते हुए सारी रात वे दोनों आलिंगनबद्ध रहते. उन्हें देख प्रकृति भी स्तब्ध हो जाती. फिर उस की तंद्रा भंग हो जाती और आंखें खुलने पर वसंत उस के बराबर में होते और वह विशाल को याद करते हुए बाकी रात बिता देती.

आज तो विशाल को सामने देख कर नंदिता और बेचैन हो गई थी.

अगले दिन वसंत औफिस चला गया और रिंकी स्कूल. उमा देवी अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थीं. नंदिता ने फिर विशाल को फोन मिलाया. इस बार विशाल ने ही उठाया, पूछा, ‘‘क्या रात भी तुम ने फोन किया था?’’

‘‘हां, किस ने उठाया था?’’

‘‘मेरी पत्नी नीता ने.’’

पल भर को चुप रही नंदिता, फिर बोली, ‘‘विवाह कब किया?’’

‘‘2 साल पहले.’’

‘‘विशाल, मुझे अपने औफिस का पता दो, मैं तुम से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘यह तुम मुझ से पूछ रहे हो?’’

‘‘हां, अब क्या जरूरत है मिलने की?’’

‘‘विशाल, मैं हमेशा तुम्हें याद करती रही हूं, कभी नहीं भूली हूं. प्लीज, विशाल, मुझ से मिलो. तुम से बहुत सी बातें करनी हैं.’’

विशाल ने उसे अपने औफिस का पता बता दिया. नंदिता नहाधो कर तैयार हुई. घर में 2 मेड थीं, एक घर के काम करती थी और दूसरी रिंकी को संभालती थी. घर में पैसे की कमी तो थी नहीं, सारी सुखसुविधाएं उसे प्राप्त थीं. उमा देवी को उस ने बताया कि उस की एक पुरानी सहेली मुंबई आई हुई है. वह उस से मिलने जा रही है. नंदिता ने ड्राइवर को गाड़ी निकालने के लिए कहा. एक गाड़ी वसंत ले जाता था. एक गाड़ी और ड्राइवर वसंत ने नंदिता की सुविधा के लिए रखा हुआ था. नंदिता को विशाल के औफिस मुलुंड में जाना था. जो उस के घर बांद्रा से डेढ़ घंटे की दूरी पर था.

नंदिता सीट पर सिर टिका कर सोच में गुम थी. वह सोच रही थी कि उस के पास सब कुछ तो है, फिर वह अपने जीवन से पूर्णरूप से संतुष्ट व प्रसन्न क्यों नहीं है? उस ने हमेशा विशाल को याद किया. अब तो जीवन ऐसे ही बिताना है यही सोच कर मन को समझा लिया था. लेकिन अब उसे देखते ही उस के स्थिर जीवन में हलचल मच गई थी.

नंदिता को चपरासी ने विशाल के कैबिन में पहुंचा दिया. नंदिता उस के आकर्षक व्यक्तित्व को अपलक देखती रही. विशाल ने भी नंदिता पर एक गंभीर, औपचारिक नजर डाली. वह आज भी सुंदर और संतुलित देहयष्टि की स्वामिनी थी.

विशाल ने उसे बैठने का इशारा करते हुए पूछा, ‘‘कहो नंदिता, क्यों मिलना था मुझ से?’’

नंदिता ने बेचैनी से कहा, ‘‘विशाल, तुम ने यहां आने के बाद मुझ से मिलने की कोशिश भी नहीं की?’’

‘‘मैं मिलना नहीं चाहता था और अब तुम भी आगे मिलने की मत सोचना. अब हमारे रास्ते बदल चुके हैं, अब उन्हीं पुरानी बातों को करने का कोई मतलब नहीं है. खैर, बताओ, तुम्हारे परिवार में कौनकौन है?’’ विशाल ने हलके मूड में पूछा.

नंदिता ने अनमने ढंग से बताया और पूछने लगी, ‘‘विशाल, क्या तुम सच में मुझ से मिलना नहीं चाहते?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्या तुम मुझ से बहुत नाराज हो?’’

‘‘नंदिता, मैं चाहता हूं तुम अपने परिवार में खुश रहो अब.’’

‘‘विशाल, सच कहती हूं, वसंत से विवाह तो कर लिया पर मैं कहां खुश रह पाई तुम्हारे बिना. मन हर समय बेचैन और व्याकुल ही तो रहा है. हर पल अनमनी और निर्विकार भाव से ही तो जीती रही. इतने सालों के वैवाहिक जीवन में मैं तुम्हें कभी नहीं भूली. मैं वसंत को कभी उस प्रकार प्रेम कर ही नहीं सकी जैसा पत्नी के दिल में पति के प्रति होना आवश्यक है. ऐसा भी नहीं कि वसंत मुझे चाहते नहीं हैं या मेरा ध्यान नहीं रखते पर न जाने क्यों मेरे मन में उन के लिए वह प्यार, वह तड़प, वह आकर्षण कभी जन्म ही नहीं ले सका, जो तुम्हारे लिए था. मैं ने अपने मन को साधने का बहुत प्रयास किया पर असफल रही. मैं उन की हर जरूरत का ध्यान रखती हूं, उन की चिंता भी रहती है और वे मेरे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण भी हैं, लेकिन तुम्हारे लिए जो…’’

उसे बीच में ही टोक कर विशाल ने कहा, ‘‘बस करो नंदिता, अब इन बातों का कोई फायदा नहीं है, तुम घर जाओ.’’

‘‘नहीं, विशाल, मेरी बात तो सुन लो.’’

विशाल असहज सा हो कर उठ खड़ा हुआ, ‘‘नंदिता, मुझे कहीं जरूरी काम से जाना है.’’

‘‘चलो, मैं छोड़ देती हूं.’’

‘‘नहीं, मैं चला जाऊंगा.’’

‘‘चलो न विशाल, इस बहाने कुछ देर साथ रह लेंगे.’’

‘‘नहीं नंदिता, तुम जाओ, मुझे देर हो रही है, मैं चलता हूं,’’ कह कर विशाल कैबिन से निकल गया.

नंदिता बेचैन सी घर लौट आई. उस का किसी काम में मन नहीं लगा. नंदिता के अंदर कुछ टूट गया था, वह अपने लिए जिस प्यार और चाहत को विशाल की आंखों में देखना चाहती थी, उस का नामोनिशान भी विशाल की आंखों में दूरदूर तक नहीं था. वह सब भूल गया था, नई डगर पर चल पड़ा था.

नंदिता की हमेशा से इच्छा थी कि काश, एक बार विशाल मिल जाए और आज वह मिल गया, लेकिन अजनबीपन से और उसे इस मिलने पर कष्ट हो रहा था.

शाम को वसंत आया तो उस ने नंदिता की बेचैनी नोट की. पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है?’’

नंदिता ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया. रिंकी से भी अनमने ढंग से बात करती रही.

वसंत ने फिर कहा, ‘‘चलो, बाहर घूम आते हैं.’’

‘‘अभी नहीं,’’ कह कर वह चुपचाप लेट गई. सोच रही थी आज उसे क्या हो गया है, आज इतनी बेचैनी क्यों? मन में अटपटे विचार आने लगे. मन और शरीर में कोई मेल ही नहीं रहा. मन अनजान राहों पर भटकने लगा था. वसंत नंदिता का हर तरह से ध्यान रखता, उसे घूमनेफिरने की पूरी छूट थी.

अपने काम की व्यस्तता और भागदौड़ के बीच भी वह नंदिता की हर सुविधा का ध्यान रखता. लेकिन नंदिता का मन कहीं नहीं लग रहा था. उस के मन में एक अजीब सा वीरानापन भर रहा था.

कुछ दिन बाद नंदिता ने फिर विशाल को फोन कर मिलने की बात की. विशाल ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह उस से मिलना नहीं चाहता. नंदिता ने सोचा विशाल को नाराज होने का अधिकार है, जल्द ही वह उसे मना लेगी.

फिर एक दिन वह अचानक उस के औफिस के नीचे खड़ी हो कर उस का इंतजार करने लगी.

विशाल आया तो नंदिता को देख कर चौंक गया, वह गंभीर बना रहा. बोला, ‘‘अचानक यहां कैसे?’’

नंदिता ने कहा, ‘‘विशाल, कभीकभी तो हम मिल ही सकते हैं. इस में क्या बुराई है?’’

‘‘नहीं नंदिता, अब सब कुछ खत्म हो चुका है. तुम ने यह कैसे सोच लिया कि मेरा जीवन तुम्हारे अनुसार चलेगा. पहले बिना यह सोचे कि मेरा क्या होगा, चुपचाप विवाह कर लिया और आज जब मुझे भूल नहीं पाई तो मेरे जीवन में वापस आना चाहती हो. तुम्हारे लिए दूसरों की इच्छाएं, भावनाएं, मेरा स्वाभिमान, सम्मान सब महत्त्वहीन है. नहीं नंदिता, मैं और नीता अपने जीवन से बेहद खुश हैं, तुम अपने परिवार में खुश रहो.’’

‘‘विशाल, क्या हम कहीं बैठ कर बात कर सकते हैं?’’

‘‘मुझे नीता के साथ कहीं जाना है, वह आती ही होगी.’’

‘‘उस के साथ फिर कभी चले जाना, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रही थी, प्लीज…’’

नंदिता की बात खत्म होने से पहले ही पीछे से एक नारी स्वर उभरा, ‘‘फिर कभी क्यों, आज क्यों नहीं, मैं अपना परिचय खुद देती हूं, मैं हूं नीता, विशाल की पत्नी.’’

नंदिता हड़बड़ा गई. एक सुंदर, आकर्षक युवती सामने मुसकराती हुई खड़ी थी. नंदिता के मुंह से निकला, ‘‘मैं नंदिता, मैं…’’

नीता ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जानती हूं, विशाल ने मुझे आप के बारे में सब बता रखा है.’’

नंदिता पहले चौंकी, फिर सहज होने का प्रयत्न करती हुई बोली, ‘‘ठीक है, आप लोग अभी कहीं जा रहे हैं, फिर मिलते हैं.’’

नीता ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘नहीं नंदिता, हम फिर मिलना नहीं चाहेंगे और अच्छा होगा कि आप भी एक औरत का, एक पत्नी का, एक मां का स्वाभिमान, संस्कारों और कर्तव्यों का मान रखो. जो कुछ भी था उसे अब भूल जाओ. जो बीत गया, वह कभी वापस नहीं आ सकता, गुडबाय,’’ कहते हुए नीता आगे बढ़ी तो अब तक चुपचाप खड़े विशाल ने भी उस के पीछे कदम बढ़ा दिए.

नंदिता वहीं खड़ी की खड़ी रह गई. फिर थके कदमों से गाड़ी में बैठी तो ड्राइवर ने गाड़ी आगे बढ़ा दी.

वह अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही. सोच रही थी जिस की छवि उस ने कभी अपने मन से धूमिल नहीं होने दी, उसी ने अपने जीवनप्रवाह में समयानुकूल संतुलन बनाते हुए अपने व्यस्त जीवन से उसे पूर्णतया निकाल फेंका था.

जिस रिश्ते को कभी जीवन में कोई नाम न मिल सका, उस से चिपके रहने के बदले विशाल को जीवन की सार्थकता आगे बढ़ने में ही लगी, जो उचित भी था जबकि वह आज तक उसी टूटे बिखरे रिश्ते से चिपकी थी जहां से वह विशाल से 5 साल पहले अलग हुई थी.

नंदिता अपना विश्लेषण कर रही थी, आखिरकार वह क्यों भटक रही है, उसे किस चीज की कमी है? एक सुसंस्कृत, शिक्षित और योग्य पति है जो अच्छा पिता भी है और अच्छा इंसान भी. प्यारी बेटी है, घर है, समाज में इज्जत है. सब कुछ तो है उस के पास फिर वह खुश क्यों नहीं रह सकती?

घर पहुंचतेपहुंचते नंदिता समझ चुकी थी कि वह एक मृग की भांति कस्तूरी की खुशबू बाहर तलाश रही थी, लेकिन वह तो सदा से उस के ही पास थी.

घर आने तक वह असीम शांति का अनुभव कर रही थी. अब उस के मन और मस्तिष्क में कोई दुविधा नहीं थी. उसे लगा जीवन का सफर भी कितना अजीब है, कितना कुछ घटित हो जाता है अचानक.

कभी खुशी गम में बदल जाती है तो कभी गम के बीच से खुशियों का सोता फूट पड़ता है. गाड़ी से उतरने तक उस के मन की सारी गांठें खुल गई थीं. उसे बच्चन की लिखी ‘जो बीत गई सो बात गई…’ पंक्ति अचानक याद हो आई.

औप्शंस: क्या शैली को मिला उसका प्यार

कभी-कभी जिंदगी में वही शख्स आप को सब से ज्यादा दुख पहुंचाता है, जिसे आप सब से ज्यादा प्यार करते हैं. विसंगति यह कि आप उस से कुछ कह भी नहीं पाते, क्योंकि आप को हक ही नहीं उस से कुछ कहने का. जब तक रिश्ते को नाम न दिया जाए कोई किसी का क्या लगता है? कच्चे धागों सा प्यार का महल एक झटके में टूट कर बिखर जाता है.

‘इन बिखरे एहसासों की किरचों से जख्मी हुए दिल की उदास दहलीज के आसपास आप का मन भटकता रह जाता है. लमहे गुजरते जाते हैं पर दिल की कसक नहीं जाती.’ एक जगह पढ़ी ये पंक्तियां शैली के दिल को गहराई से छू गई थीं. आखिर ऐसे ही हालात का सामना उस ने भी तो किया था. किसी को चाहा पर उसी से कोई सवाल नहीं कर सकी. चुपचाप उसे किसी और के करीब जाता देखती रही.

‘‘हैलो आंटी, कहां गुम हैं आप? तैयार नहीं हुईं? हमें चलना है न मंडी हाउस, पेंटिंग प्रदर्शनी में मम्मी को चीयर अप करने?’’ सोनी बोली.

‘‘हां, बिलकुल. मैं आ रही हूं मेरी बच्ची’’, शैली हड़बड़ा कर उठती हुई बोली.

आज उस की प्रिय सहेली नेहा के जीवन का बेहद खास दिन था. आज वह पहली दफा वर्ल्ड क्लास पेंटिंग प्रदर्शन में हिस्सा ले रही थी.

हलके नीले रंग का सलवार सूट पहन कर वह तैयार हो गई.

अब तक सोनी स्कूटी निकाल चुकी थी. बोली, ‘‘आओ आंटी, बैठो.’’

वह सोनी के पीछे बैठ गई. स्कूटी हवा से बातें करती मिनटों में अपने नियत स्थान पर

पहुंच गई.

शैली बड़े प्रेम से सोनी को देखने लगी. स्कूटी किनारे लगाती सोनी उसे बहुत स्मार्ट और प्यारी लग रही थी.

सोनी उस की सहेली नेहा की बेटी थी. दिल में कसक लिए घर बसाने की इच्छा नहीं हुई थी शैली की. तभी तो आज तक वह तनहा जिंदगी जी रही थी. नेहा ने सदा उसे सपोर्ट किया था. नेहा तलाकशुदा थी, दोनों सहेलियां एकसाथ रहती थीं. नेहा का रिश्ता शादी के बाद टूटा था और शैली का रिश्ता तो जुड़ ही नहीं सका था.

पेंटिंग्स देखतेदेखते शैली नेहा के साथ काफी आगे निकल गई. नेहा की एक पेटिंग क्व1 लाख 70 हजार में बिकी तो शैली ने हंस कर कहा, ‘‘यार, मुझे तो इस पेटिंग में ऐसा कुछ भी खास नजर नहीं आ रहा.’’

‘‘वही तो बात है शैली,’’ नेहा मुसकराई, ‘‘किसी शख्स को कोई पेंटिंग अमूल्य नजर आती है तो किसी के लिए वही आड़ीतिरछी रेखाओं से ज्यादा कुछ नहीं होती. जरूरी है कला को समझने की नजरों का होना.’’

‘‘सच कहा नेहा. कुछ ऐसा ही आलम जज्बातों का भी होता है न. किसी के लिए जज्बातों के माने बहुत खास होते हैं तो कुछ के लिए इन का कोई मतलब ही नहीं होता. शायद जज्बातों को महसूस करने वाला दिल उन के पास होता ही नहीं है.’’

शैली की बात सुन कर नेहा गंभीर हो गई. वह समझ रही थी कि शैली के मन में कौन सा तूफान उमड़ रहा है. यह नेहा ही तो थी जिस ने सालों विराज के खयालों में खोई शैली को देखा था और दिल टूटने का गम सहती शैली को फिर से संभलने का हौसला भी दिया था. शैली ने आज तक अपने जज्बात केवल नेहा से ही तो शेयर किए थे.

नेहा ने शैली का कंधा थपथपाते हुए कहा, ‘‘नो शैली. उन यादों को फिर से खुद पर हावी न होने दो. बीता कल तकलीफ देता है. उसे कभी याद नहीं करना चाहिए.’’

‘‘कैसे याद न करूं नेहा जब उसी कल ने मेरे आज को बेस्वाद बना दिया. उसे

कैसे भूल सकती हूं मैं? जानती हूं कि जिस विराज की खातिर आज तक मैं सीने में इतना दर्द लिए जी रही हूं, वह दुनिया के किसी कोने में चैन की नींद सो रहा होगा, जिंदगी के सारे मजे ले रहा होगा.’’

‘‘तो फिर तू भी ले न मजे. किस ने मना किया है?’’

‘‘वही तो बात है नेहा. उस ने हमारे इस प्यार को महसूस कर के भी कोई अहमियत नहीं दी. शायद जज्बातों की कोई कद्र ही नहीं थी. मगर मैं ने उन जज्बातों की बिखरी किरचों को अब तक संभाले रखा है.’’

‘‘तेरा कुछ नहीं हो सकता शैली. ठंडी सांस लेती हुई नेहा बोली तो शैली मुसकरा पड़ी.

‘‘चल, अब तेरी शाम खराब नहीं होने दूंगी. अपनी प्रदर्शनी की सफलता का जश्न मना ले. आखिर रिश्तों और जज्बातों के परे भी कोई जिंदगी होती है न,’’ नेहा ने कहा.

शैली और नेहा बाहर आ गईं. सोनी किसी लड़के से बातें करने में मशगूल थी. मां को देख उस ने लड़के को अलविदा कहा और इन दोनों के पास लौट आई.

‘‘सोनी, यह कौन था?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘ममा, यह मेरा फ्रैंड अंकित था.’’

‘‘खास फ्रैंड?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है ममा. बट हां, थोड़ा खास है,’’ कह कर वह हंस पड़ी.

तीनों ने रात का खाना बाहर ही खाया.

रात में सोते वक्त शैली फिर से पुरानी यादों में खो गई. एक समय था जब उस के सपनों में विराज ही विराज था. शालीन, समझदार और आकर्षक विराज पहली नजर में ही उसे भा गया था. मगर बाद में पता चला कि वह शादीशुदा है. शैली क्या करती? उस का मन था कि मानता ही नहीं था.

नेहा ने तब भी उसे टोका था, ‘‘यह गलत है शैली. शादीशुदा शख्स के बारे में तुम्हें कुछ सोचना ही नहीं चाहिए.’’

तब, शैली ने अपने तर्क रखे थे, ‘‘मैं क्या करूं नेहा? जो एहसास मैं ने उसे के लिए

महसूस किया है वह कभी किसी के लिए नहीं किया. मुझे उस के विवाहित होने से क्या वास्ता? मेरा रिश्ता तो भावनात्मक स्तर पर है दैहिक परिधि से परे.’’

‘‘पर यह गलत है शैली. एक दिन तू भी समझ जाएगी. आज के समय में कोई इस तरह के रिश्तों को नहीं मानता.’’

नेहा की यह बात आज शैली के जीवन की हकीकत थी. वह वाकई समझ गई थी. कितने अरसे तक दिलोदिमाग में विराज को सजाने के बाद शैली को महसूस हुआ था कि भले ही विराज को उस की भावनाओं का एहसास था, प्यार के सागर में उस ने भी शैली के साथ गोते लगाए थे, मगर वह इस रिश्ते में बंधने को कतई तैयार नहीं था. तभी तो बड़ी सहजता से वह किसी और के करीब होने लगा और ठगी सी शैली सब चुपचाप देखती रही, न वह कुछ बोल सकी और न ही सवाल कर सकी. बस उदासी के साए में गुम होती गई. अंत में उस ने वह औफिस भी छोड़ दिया.

आज इस बात को कई साल बीत चुके थे, मगर शैली के मन की कसक नहीं गई थी. ऐसा नहीं था कि शैली के पास विकल्पों की कमी थी. नए औफिस में पहली मुलाकात में ही उस का इमीडिएट बौस राजन उस से प्रभावित हो गया था. हमेशा उस की आंखें शैली का पीछा करतीं. आंखों में प्रशंसा और आमंत्रण के भाव होते पर शैली सब इगनोर कर अपने काम से काम रखने का प्रयास करती. कई बार शैली को लगा जैसे वह कुछ कहना चाहता है. मगर शैली की खामोशी देख ठिठक जाता. उधर शैली का कुलीग सुधाकर भी शैली को प्रभावित करने की कोशिश में लगा रहता था. मगर दिलफेंक और बड़बोला सुधाकर उसे कभी रास नहीं आया.

शैली के पड़ोस में रहने वाला आजाद जो विधुर था, मगर देखने में स्मार्ट लगता

था, अकसर शैली से मिलने के बहाने ढूंढ़ता. कभी भाई की बच्ची को साथ ले कर घर आ धमकता तो कभी औफिस तक लिफ्ट देने का आग्रह करता. एक दिन जब शैली उस के घर गईं तो संयोगवश वह अकेला था. उसे मौका मिल गया और उस ने शैली से अपनी भावनाओं का इजहार कर दिया.

शैली कुछ कह नहीं सकी. आजाद की कई बातें वैसे भी शैली को पसंद नहीं थीं. उस पर विराज को भूल कर आजाद को अपनाने का हौसला उस में बिलकुल भी नहीं था. मन का वह कोना अब भी किसी गैर को स्वीकारने को तैयार नहीं था. शैली कुछ बोली नहीं, मगर उस दिन के बाद वह आजाद के सामने पड़ने से बचने का प्रयास जरूर करने लगी.

वक्त ऐसे ही गुजरता जा रहा था. शैली कभी आकर्षण की

नजरों से तो कभी ललचाई नजरों से पीछा छुड़ाने का प्रयास करती रहती.

कुछ दिन बाद जब राजन ने उस से 2 दिनों के बिजनैस ट्रिप पर साथ चलने को कहा तो शैली असमंजस में पड़ गई. वैसे इनकार करने का मन वह पहले ही बना चुकी थी, पर सीनियर से साफ इनकार करते बनता नहीं. सो सोमवार तक का समय मांग लिया. वह जानती थी कि इस ट्रिप में भले ही कुछ लोग और होंगे, मगर राजन को उस के करीब आने का मौका मिल जाएगा. उसे डर था कि कहीं राजन ने भी आजाद की तरह उस का साथ मांग लिया तो वह क्या जवाब देगी?

देर रात तक शैली पुरानी बातें सोचती रही. फिर पानी पीने उठी तो देखा बाहर बालकनी में सोनी खड़ी किसी से मोबाइल पर बातें कर रही है. थोड़ी देर तक वह उसे बातें करता देखती रही, फिर आ कर सो गई.

अगली रात फिर शैली ने गौर किया कि

11 बजे के बाद सोनी कमरे से बाहर निकल कर बालकनी में खड़ी हो कर बातें करने लगी. शैली समझ रही थी कि ये बातें उसी खास फ्रैंड के साथ हो रही हैं.

सोनी के हावभाव और पहनावे में भी बदलाव आने लगा था. कपड़ों के मामले में वह काफी चूजी हो गई थी. अकसर मोबाइल पर लगी रहती. अकेली बैठी मुसकराती या गुनगुनाती रहती. शैली इस दौर से गुजर चुकी थी, इसलिए सब समझ रही थी.

एक दिन शाम को शैली ने देखा कि सोनी बहुत उदास सी घर लौटी और फिर कमरा बंद कर लिया. वह फोन पर किसी से जोरजोर से बातें कर रही थी. नेहा उस दिन रात में देर से घर लौटने वाली थी. शैली को बेचैनी होने लगी तो वह सोनी के कमरे में घुस गई, देखा सोनी उदास सी औंधे मुंह बैड पर पड़ी हुई है. प्यार से माथा सहलाते हुए शैली ने पूछा, ‘‘क्या हुआ डियर, परेशान हो क्या?’’

सोनी ने उठते हुए न में सिर हिलाया.

शैली ने देखा कि उस की आंखें आंसुओं से

भरी है. अत: शैली ने उसे सीने से लगाते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ, किसी फ्रैंड से झगड़ा हो गया है क्या?’’

सोनी ने हां में सिर हिलाया.

‘‘उसी खास फ्रैंड से?’’

‘‘हां. सिर्फ झगड़ा नहीं आंटी, हमारा ब्रेकअप भी हो गया है, फौरएवर. उस ने मुझे

डंप किया… कोई और उस की जिंदगी में आ गई और मैं…’’

‘‘आई नो बेटा, प्यार का अकसर ऐसा ही सिला मिलता है. अब तुझ से कैसे

कहूं कि उसे भूल जा? यह भी मुमकिन कहां

हो पाता है? यह कसक तो हमेशा के लिए रह जाती है.’’

‘‘नो वे आंटी, ऐसा नहीं हो सकता. उसे मेरे बजाय कोई और अच्छी लगने लगी है, तो क्या मेरे पास औप्शंस की कमी है? बस आंटी, आज के बाद मैं दोबारा उसे याद भी नहीं करूंगी. हिज चैप्टर हैज बीन क्लोज्ड इन माई लाइफ. आप ही बताओ आंटी, यदि वह मेरे बगैर रह सकता है तो क्या मैं किसी और के साथ खुश नहीं रह सकती?’’

शैली एकटक सोनी को देखती रही. अचानक लगा जैसे उसे अपने सवाल का

जवाब मिल गया है, मन की कशमकश समाप्त हो गई है.

अगले दिन उस का मन काफी हलका था. वह जिंदगी का एक बड़ा फैसला ले चुकी थी. उसे अब अपनी जिंदगी में आगे बढ़ना था. औफिस पहुंचते ही राजन ने उसे बुलाया. शैली को जैसे इसी पल का इंतजार था.

राजन की आंखों में सवाल था. उस ने पूछा, ‘‘फिर क्या फैसला है तुम्हारा?’’

शैली ने सहजता से मुसकरा कर जवाब दिया, ‘‘हां, मैं चलूंगी.’’

चिड़िया हुई फुर्र: शेखर और शिवानी के बीच क्यों आई दूरियां

शिवानी ने औफिस से आ कर ड्राइंगरूम में अपना बैग रखा. उस की मम्मी राधा और छोटा भाई विपिन अपनेअपने मोबाइल में लगे थे. दोनों ने थकीहारी शिवानी पर नजर भी नहीं डाली.

राधा ने मोबाइल से नजरें हटाए बिना ही कहा, ‘‘शिवानी, वंदना से कहना चाय मेरे लिए भी बनाए.’’

शिवानी को कोफ्त सी हुई. वह किचन में गई, तो खाना बनाने वाली मेड वंदना ने पूछा, ‘‘दीदी, चाय बना लूं?’’

‘‘हां, मां के लिए भी. खाने में क्या बना

रही हो?’’

‘‘भैया ने छोलेभूठरे बनाने के लिए कहा है.’’

‘‘क्या? फिर?’’

तभी राधा उठ कर किचन में आ गई, ‘‘क्यों वंदना क्या चुगलखोरी कर रही है? खाना बनाना ही तेरा काम है… जो कहा जाएगा चुपचाप

बनाना पड़ेगा.’’

‘‘हां मांजी, बना तो रही हूं.’’

शिवानी ने विपिन के पास जा कर कहा, ‘‘रोज इतना हैवी खाना बनवाते हो, कुछ अपनी हैल्थ का ध्यान करो. पेट देखा है अपना, कितना बढ़ रहा है. यह नुकसानदायक है, 25 के भी नहीं हो… रोज इतना हैवी खाना मुझ से भी नहीं खाया जाता है. कभी तो हलकी दालसब्जी बन सकती है.’’

राधा गुर्राई, ‘‘शिवानी, सुनाने की जरूरत नहीं है, पता है तेरा घर है, तेरी कमाई से चलता है तो इस का मतलब यह नहीं है कि हम अपनी मरजी से खापी नहीं सकते.’’

‘‘मां, हर बात का गलत मतलब निकालती हो आप, उस के भले के लिए ही कह रही हूं.’’

‘‘तू अपना भला कर, हम अपना देख लेंगे,’’ कह कर पैर पटकती हुई राधा घर से बाहर सैर करने चली गई.

शिवानी जानती थी अब वे रोज की तरह

1 घंटा अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ गुप्पें मार कर आएंगी. आजकल जमघट तो जमता नहीं पर 1-2 तो मिल ही जाती हैं. थोड़ी देर बाद शिवानी का 7 साल का बेटा पार्थ खेल कर आ गया. शिवानी उसे फ्रैश होने के लिए कह कर उस का दूधनाश्ता अपने बैडरूम में ही ले गई. पार्थ को अपने पास ही बैठा कर वह अपनी कमर सीधी करने लेट गई, पार्थ से स्क्ूल और उस के दोस्तों की बातें करती रही.

थोड़ी देर बाद शिवानी ने विपिन से जा कर कहा, ‘‘कल पार्थ का मैथ का टैस्ट है. आज जरा उस की पढ़ाई देख लो. मैं आज बहुत थक गई हूं. औफिस में बहुत काम था आज.’’

‘‘नहीं दीदी, मैं मोबाइल पर फिल्म देख रहा हूं, मेरा मूड नहीं है.’’

शिवानी चुपचाप किचन में गई. वंदना काम खत्म कर ही चुकी थी, कहने लगी, ‘‘दीदी, मैं यहां ज्यादा दिन काम नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘क्यों, वंदना? क्या हुआ?’’

‘‘मांजी बहुत किटकिट करती हैं, भैया बहुत काम बताते हैं. सुबह आप के औफिस जाने के बाद कि फालतू काम करवाती हैं. भैया के लिए दिनभर के नाश्ते बनवा कर रखती हैं. यहीं बहुत टाइम चला जाता है मेरा, दूसरे घरों के लिए रोज लेट होती हूं.’’

‘‘नहीं वंदना, तुम्हें काम तो यहां करना ही है. बस जो कहें करती रहो, मैं तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी. यही कर सकती हूं मैं.’’

वंदना कुछ नहीं बोली. उसे शिवानी से मन ही मन सहानुभूति थी. शिवानी आ कर फिर लेट गई. पार्थ ने अपना स्कूल बैग खोल लिया था. उस का स्कूल अब पहले की तरह चलने लगा था और औनलाइन क्लासें कभीकभार ही होती थीं. वह सोच रही थी, उस के अपने मां, भाई से ज्यादा तो घर में काम करने वाली मेड उस की स्थिति समझती है.

वह वंदना जैसी ईमानदार मेड को हटाने की स्थिति में नहीं थी. उसे औफिस में देर हो जाती है तो वही पार्थ का खानापीना मन से देखती है. राधा और विपिन तो घर में रहने के बावजूद अपनी एक भी जिम्मेदारी नहीं समझते.

वह सोच रही थी जीवन में कुछ गलत तो हो ही गया है, अब वह कैसे ठीक करे उसे.

3 साल पहले वह और शेखर अलग हो गए थे. शेखर पार्थ से मिलने उस की अनुपस्थिति में आता रहता था या वीडियो चैट करता रहता था जो राधा और विपिन को सहन नहीं होता था. लेकिन शिवानी ने स्पष्ट और कड़े शब्दों में कह रखा था कि शेखर के साथ कोई दुर्व्यवहार न हो. लौकडाउन के बाद जब शेखर पार्थ को बाहर घुमानेफिराने, खिलानेपिलाने ले जाता था, दोनों मुंह बना कर बस बैठे रहते थे. शिवानी को अच्छा लगता था जब वह पार्थ को शेखर के साथ समय बिताने के बाद खुश देखती थी.

शेखर के साथ उस का वैवाहिक जीवन बहुत अच्छा बीता था. फिर कुछ

समय पहले जब उस के पिता की अचानक हृदयाघात से मृत्यु हो गई तो वह अपनी जिम्मेदारी समझ कर मां और भाई के खर्चे उठाने लगी थी. विपिन तब पढ़ रहा था. शिवानी और शेखर दोनों ही अच्छे पदों पर कार्यरत थे. दोनों ही खूबसूरत फ्लैट में अपना जीवन हंसीखुशी जी रहे थे. राधा स्वभाव से लालची किस्म की महिला थीं. उन्होंने बिना शिवानी से पूछे अपना दादर स्थित फ्लैट किराए पर दे दिया और अपने अकेलेपन की दुहाई दे कर शिवानी के साथ ही रहना शुरू कर दिया.

शेखर ने इस में भी कोई आपत्ति नहीं की. उसके मातापिता लखनऊ में रहते थे. साल में एकाध बार मुंबई आते थे और एक बार जब वे आए, राधा उन के साथ बहुत ही रुखाई और बदतमीजी से पेश आई… अपनी बेटी की कमाई की चर्चा करती रही.

शेखर के मातापिता चुपचाप जल्दी लौट गए. वे बेटे के घर में कोई लड़ाईझगड़ा नहीं चाहते थे, पर शेखर का मूड बहुत खराब हुआ. शेखर और शिवानी की आपस में बहुत बहस हुई. यह बात एक दिन में खत्म नहीं हुई, अकसर ऐसा होने लगा. राधा जब अपने सामान की लिस्ट शिवानी को पकड़ातीं, शेखर शिवानी से कहता, ‘‘शिवू, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पर क्या तुम्हें नहीं लगता तुम्हारी मां और भाई तुम्हारी शराफत का फायदा उठाने लगे हैं?’’

शिवानी ने कहा था, ‘‘पर मैं क्या करूं, उन का ध्यान रखना फर्ज है न मेरा.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम्हें ठीक लगे पर जब भी हम दोनों की बहस होती है तुम्हारी मां के चेहरे पर एक विजयी मुसकान दिखती है मुझे.’’

‘‘नहीं शेखर, ऐसा कैसे हो सकता है?’’

शेखर ने फिर कुछ नहीं कहा था, लेकिन यह सच था कि राधा और विपिन ने घर के माहौल में इतनी कड़वाहट भर दी थी कि एक दिन शेखर घर से यह कह कर चला गया, ‘‘शिवू, मैं तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों से भागने को नहीं कहता पर ये दोनों अब हमें बेवकूफ समझने लगे हैं जो तुम्हें नहीं दिख रहा है. उन की मांगें दिनबदिन बढ़ती जा रही हैं. मैं उन के हाथों बेवकूफ नहीं बन सकता, अपना घर किराए पर दे कर यहां क्यों रहते हैं? वहीं रहें. तुम आर्थिक सहायता करती रहो, तुम्हारे पिता का पैसा भी मिला है तुम्हारी मां को… वे आर्थिक रूप से इतनी भी बुरी हालत में नहीं हैं और विपिन चाहे तो अब कुछ कर सकता है… मेरा अपने ही घर में दम घुटता है… मैं किराए के फ्लैट में शिफ्ट कर रहा हूं, तुम्हें मेरी जब भी जरूरत हो, मैं यहीं हूं,’’ शेखर अपना सामान ले कर चला गया.

शेखर अपना सामान ले कर चला गया था. राधा ने चहकते स्वर में कहा था, ‘‘गया घमंडी आदमी, अब हम सब चैन से रहेंगे. तुम अकेली नहीं हो, तुम्हारी मां, भाई, बेटा है तुम्हारे साथ.’’

उसे भी उस समय शेखर पर गुस्सा आया था कि क्या होता अगर वह साथ रह कर एडजस्ट कर लेता. अगर शेखर के मातापिता, बहनभाई ऐसे साथ में रहते तो क्या वह तब भी सब के साथ एडजस्ट न करती, सह सोच कर उसे भी बहुत गुस्सा आ गया था.

दोनों फोन पर कभीकभी एकदूसरे का हाल पता कर लेते थे और पार्थ से मिलने शेखर आता रहता था. पता नहीं कितनी बातें सोच कर शिवानी की आंखों से आंसू अकसर बहते रहते थे. वह अच्छे पद पर थी, उस के पास पैसे भी थे. उसे किसी चीज की कमी नहीं थी पर एक उदासी उस के मन पर हर समय छाई रहती थी. राधा और विपिन की एकएक हरकत अब वह नोट करने लगी थी.

उसे साफ समझ आने लगा था कि मां की नजर में वह एक सोने की चिडि़या है जिस के पैसों पर मांबेटा बस ऐश कर रहे हैं. राधा खूब औनलाइन शौपिंग करती थी, और विपिन भी. उसे कोई काम करने का शौक नहीं था. वह एक नंबर का कामचोर और आलसी लड़का था. नहीं, वह सारा जीवन ऐसे तो नहीं बिता सकती, अपनी लालची मां और कामचोर भाई के हाथों बेवकूफ बनते हुए. कुछ तो करना पड़ेगा, पर क्या करे, राधा तो कुछ कहने से पहले ही रोनाधोना शुरू कर देती थीं, इमोशनल ब्लैकमेलिंग में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं.

अगले दिन शिवानी औफिस से लेट आई तो उस ने पूछा, ‘‘पार्थ कहां है?’’

राधा ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘वह आया था, ले गया है पार्थ को बाहर, हुंह.’’

शिवानी को अच्छा लगा. आज उसे आने में बहुत देर हो गई थी. अच्छा हुआ पार्थ बाहर है अपने पिता के साथ.

राधा के साथ विपिन भी शुरू हो गया, ‘‘दीदी, बंद कर दो पार्थ का उस के साथ जाना. पता नहीं पार्थ को क्याक्या सिखाता होगा वह आदमी.’’

शिवानी को भाई पर बहुत तेज गुस्सा आया पर वह बोली कुछ नहीं. पार्थ जब आया तो उस के हाथों में खूब सारे शौपिंग बैग्स थे. शेखर पार्थ को बिल्डिंग के नीचे ही छोड़ कर चला गया.

शिवानी के दिल में शेखर को देखने की एक हूक सी उठी. उस ने बालकनी से झंका पर वह जा चुका था. पार्थ के शौपिंग बैग्स टेबल पर रखते ही राधा उन्हें खोलखोल कर देखने लगीं. शिवानी भी वहीं खड़ी थी.

पार्थ चहकचहक कर बता रहा था, ‘‘मम्मी, बहुत मजा आया. अगली बार आप भी साथ चलना.’’

शिवानी की नजर आइसक्रीम पर पड़ी, मैंगो डिलाइट. शेखर को उस की पसंद का ध्यान था. उस की आंखें भर आईं. राधा और विपिन खानेपीने की चीजों पर हाथ साफ करने में जुटे थे. अब शिवानी को दोनों को देख कर कुछ नफरत सी हुई, लालची, खुदगर्ज, स्वार्थी मां और भाई. वह पार्थ के साथ अपने रूम में चली गई और देर रात तक पता नहीं क्याक्या सोचती रही.

अगली सुबह राधा ने कहा, ‘‘आज विपिन के साथ दादर जा रही हूं, वहां का

किराएदार खाली कर रहा है फ्लैट. एक चक्कर लगाती हूं कि अगली बार देने से पहले कुछ काम तो नहीं करवाना है.’’

शिवानी ने राहत की सांस ली. उन काजाना उसे आज कुदरत का दिया मौका लगा. दोनों चले गए.

शिवानी ने अपना और पार्थ का कुछ जरूरी सामान पैक किया. पार्थ के स्कूल जा कर उस की क्लासटीचर अनुपमा से मिली. अनुपमा शिवानी की सारी स्थिति से परिचित थी. शिवानी अनुपमा से कुछ देर बातें करती रही, फिर अपनी कार में पार्थ को बैठा कर आगे बढ़ गई.

शाम तक बाहर खापी कर, बाजारों में घूम कर मांबेटा आए तो घर में ताला लगा था, राधा बड़बड़ाईं, ‘‘उफ, अब क्या करें? आज तो शिवानी सुबह घर पर थी, मैं चाबी ले जाना ही भूल गई… और वैसे भी विपिन देख यह कोई दूसरा ताला है न?’’

‘‘हां मां, यह दूसरा ताला है. सामने वाले फ्लैट की आंटी से पूछ लो क्या पता दीदी ने चाबी वहां दी हो.’’

सामने वाले फ्लैट की डोरबैल बजाई. नेहा जिसे हमेशा शिवानी से सहानुभूति भी, जो उस के जीवन की हर उठापटक से परिचित थी, ने रुखे स्वर में राधा को बताया, ‘‘शिवानी ने कहा है, आप अपने दादर वाले फ्लैट में पहुंच जाइए. वह आप दोनों का सामान वहीं पहुंचवा देगी, वह पार्थ के साथ चली गई है.’’

राधा को तेज झटका लगा. पूछा, ‘‘कहां चली गई? किस के पास?’’

‘‘यह तो मुझे नहीं पता.’’

राधा ने विपिन को हैरानी से देखा… स्वार्थी रिश्तों का पिंजरा तोड़ कर सोने की चिडि़या तो फुर्र हो गई थी.

संकल्प: क्या था कविता का प्लान

उसशनिवार की शाम मुंबई में रहने वाली मेरी पुरानी सहेली शिखा अचानक मेरे घर आई, तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. अपनी सास की बीमारी के चलते वह मेरी शादी में शामिल होने दिल्ली नहीं आ सकी थी. इस कारण मेरे पति मोहित उस दिन पहली बार शिखा से मिले.

जब तक मैं चायनाश्ता तैयार कर के लाई, तब तक वे दोनों एकदूसरे से काफी खुल गए थे. मोहित के चेहरे पर छाई खुशी व पसंदगी के भाव बता रहे थे कि वे शिखा के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हैं.

मैं ने नोट किया कि पिछले 6 सालों में वह काफी बदल गई है. वार्त्तालाप करते हुए वह बारबार अच्छी अंगरेजी बोल रही थी. उस के कीमती सैट की महक से मेरा ड्राइंगरूम भर गया था. 2 बेटों की मम्मी होने के बावजूद वह नीली जींस और लाल टौप में सैक्सी और स्मार्ट लग रही थी.

मेरे 5 साल के बेटे मयंक के लिए शिखा रिमोट कंट्रोल से चलने वाली कार लाईर् थी. अपनी शिखा मौसी के गाल पर आभार प्रकट करने वाली बहुत सारी पुच्चियां कर वह कार से खेलने में मस्त हो गया.

मेरे बनाए पकौड़ों के स्वाद की तारीफ करने के बाद शिखा बोली, ‘‘मेरे घर में 3 नौकर काम करते हैं. जो थोड़ाबहुत किचन का काम मैं शादी होने से पहले करना जानती थी अब वह भी भूल गई हूं.’’

‘‘जब नौकर घर में हैं तो तुझे काम करने की जरूरत ही क्या है? तू तो खूब ऐश कर,’’ मैं ने हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘ऐश तो मैं वाकई बहुत कर रही हूं, कविता. किसी चीज की कोई कमी नहीं है मेरी जिंदगी में. आधी से ज्यादा दुनिया घूम चुकी हूं और अगले महीने हम चीन घूमने जा रहे हैं.’’

‘‘अमीर होने का मेरी नजरों में सब से बड़ा फायदा यही है कि बंदा जब चाहे देशविदेश भ्रमण करने निकल सकता है. कहांकहां घूम आए हो तुम दोनों?’’ मैं ने उत्साहित लहजे में पूछा.

‘‘अपने देश के लगभग सारे हिल स्टेशन हम ने देख लिए हैं. यूरोप घूमने 3 साल पहले गए थे. उस से पिछले साल केन्या में सफारी का मजा लिया था.’’

मेरा कोई सपना है तो वह देशविदेश में खूब घूमने का. तभी पूरी दिलचस्पी दिखाते हुए उस के देशविदेश भ्रमण के अनुभव मैं ने काफी देर तक सुने.

‘‘मुझे यह तो बता कि तुम दोनों कहांकहां घूमे हो?’’ काफी देर तक अपनी सुनाने के बाद शिखा को हमारे बारे में कुछ पूछने का खयाल आया.

समस्या यह पैदा हुई कि हमारे पास बताने को ज्यादा कुछ नहीं था और इस बात ने मेरे अंदर अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी.

‘‘हम हनीमून मनाने शिमला गए थे. उस शानदार और यादगार ट्रिप के बाद कहीं घूमने जाने का कार्यक्रम चाह कर भी नहीं बना सके हैं,’’ मैं ने यों तो मुसकराते हुए जवाब दिया, पर न चाहते हुए भी मेरी आवाज में उदासी के भाव उभर आए थे.

‘‘अरे, उस हनीमून ट्रिप के अलावा पिछले 6 सालोें में क्या तुम सचमुच कहीं और घूम कर नहीं आए हो?’’ शिखा हैरान हो उठी.

‘‘नहीं यार,’’ मैं ने गहरी सांस खींच कर सफाई दी, ‘‘शादी के बाद से कोई न कोई बड़ा खर्चा हमारे सिर पर हमेशा खड़ा रहा है. पहले ननद की शादी की. छोटे देवर की इंजीनियरिंग की पढ़ाई इसी साल पूरी हुई है. पिछले 2 सालों से इस फ्लैट की किस्त हर महीने चुकानी पड़ती है. यों तो हम दोनों कमा रहे हैं, पर कहीं घूमने जाने के लिए बचत हो ही नहीं पाती है.’’

मुझे हर साल कहीं न कहीं घुमा कर लाने के लिए शिखा मोहित को प्रेरित करने लगी, पर मैं ने अपने मन को दुखी न करने के इरादे से वार्त्तालाप में हिस्सा लेना बंद कर दिया.

शिखा के साथ हंसनाबोलना मोहित को खूब अच्छा लगा. वह करीब 2 घंटे हमारे साथ रही और फिर लौटते हुए शिखा मुझ से बोली, ‘‘जब भी मौका लगेगा, मैं अपने पति को मोहित से मिलाने जरूर लाऊंगी. सच कविता तेरी शादी बहुत हंसमुख और दिल के अच्छे इंसान के साथ हुईर् है.’’

मोहित को छेड़ने के लिए मैं ने मजाकिया लहजे में जवाब दिया, ‘‘तेरा साथ इन्हें कुछ ज्यादा ही पसंद आया है, वरना ये इतने ज्यादा हंसमुख नहीं हैं. ये अपनी छोटी साली के साथ भी इतना ज्यादा समय नहीं गुजारते हैं जितना तेरे साथ गुजारा है.’’

‘‘मैं छोटी नहीं बल्कि बड़ी साली हूं, इसलिए मुझे पूरा सम्मान देते हुए मेरा ज्यादा खयाल रखा है. मेरे साथ खूब मजेदार गपशप करने के लिए थैंकयू, मोहित,’’ शिखा ने मुड़

कर पीछे आ रहे मोहित से बड़ी गर्मजोशी से

हाथ मिलाया.

न जाने क्यों शिखा की ‘बड़ी साली’ वाली बात मेरे मन को चुभ गई. वह मुझ से साल भर बड़ी है, पर अब मैं उस से काफी ज्यादा बड़ी लगने लगी हूं, इस एहसास ने मेरा मन एकाएक खिन्न कर दिया.

अपनी कार के पास पहुंच कर शिखा संजीदा लहजे में बोली, ‘‘कविता, तू कुछ ज्यादा मोटी हो गई है. मैं जानती हूं कि तुझे चौकलेट और आइसक्रीम बहुत पसंद हैं, पर अब कुछ समय के लिए उन्हें खाना बंद कर दे.’’

‘‘यार, इन दोनों चीजों को खाना कम तो कर सकती हूं, पर बिलकुल बंद करना मुश्किल है,’’ मैं ने नकली हंसी हंसते हुए जवाब दिया.

‘‘देख, अगर तू ऐसे ही फूलती चली गई, तो मोहित की जिंदगी में कोई दूसरी औरत आ जाएगी.’’

‘‘मैं कितनी भी मोटी हो जाऊं, पर ये मुझे छोड़ कर किसी की तरफ कभी नहीं देखेंगे,’’ मैं ने प्यार से मोहित का हाथ पकड़ कर कुछ तीखे लहजे में जवाब दिया.

‘‘सहेली, यों आंखें मूंद कर जीना बंद कर,’’ शिखा गंभीर हो कर मुझे समझने लगी, ‘‘पत्नियों के लिए अपने व्यक्तित्व को आकर्षक बनाए रखने में लापरवाही करना उन के सुखी दांपत्य जीवन के लिए खतरा बन सकता है. मेरी तरह सुंदर और फिट दिखने की कोशिश तुझे भी दिल से करनी चाहिए.’’

‘‘कमर में दर्द रहने की वजह से इस का वजन कुछ बढ़ गया है, पर यह ‘मोटो’ मुझे अभी भी बहुत सुंदर लगती है,’’ मोहित ने मेरी तरफदारी करने की कोशिश जरूर करी, पर उन का मेरे लिए ‘मोटो’ शब्द का प्रयोग करना मुझे अच्छा नहीं लगा.

‘‘तुम सचमुच बहुत समझदार और दिल

के अच्छे इंसान हो,’’ मोहित की फिर से तारीफ करने के बाद वह मुझ से गले मिली और कार में बैठ गई.

शिखा के जाने के बाद मैं ने मोहित को बुझ हुआ सा देखा. मेरे लिए उन के  मनोभावों को समझना मुश्किल नहीं था. शिखा ने जातेजाते मेरी तुलना अपने साथ कर के मोहित का मूड खराब कर दिया था.

डिनर करते हुए भी हमारे बीच अजीब सी दूरी और खिंचाव बना रहा. मैं ने उन की सुखसुविधा का खयाल रखने में कभी कोई कमी नहीं रखी, पर आज उन का मुंह फुला कर घूमना मुझे मेरी अपनी नजरों में गिराने की कोशिश करने जैसा था. यह बात मेरे मन को बहुत दुखी कर रही थी.

उस रात मेरे मन में मोहित के साथ अपने दांपत्य संबंधों की मजबूती को ले कर असुरक्षा का भाव पहली बार उठा. हमारे यौन संबंधों में अब पहले जैसा जोश नहीं रहा है, यह एहसास मेरे मन को और ज्यादा परेशान कर रहा था.

वे सोने से पहले नहाने के लिए जब बाथरूम में जा रहे थे, तो मैं ने उन्हें रोक कर भावुक लहजे से पूछ ही लिया, ‘‘आज बहुत देर से यों उदास हो कर क्यों घूम रहे हो?’’

‘‘मैं ठीक हूं,’’ मुझ से नजरें चुराते हुए उन्होंने बुझे से लहजे में जवाब दिया.

‘‘क्या अपने मन की बात मुझ से नहीं कहोगे?’’ मैं एकदम से रोंआसी हो उठी.

‘‘हम अमीर न होने के कारण अभावों से भरी जिंदगी जी रहे हैं, इस कारण क्या तुम मन ही मन दुखी रहती हो?’’ उन की आवाज में मौजूद पीड़ा के भाव मुझे अंदर तक हिला गए.

‘‘ऐसा अजीब सवाल क्यों पूछ रहे हो?’’ मैं ने उन से उलटा सवाल किया.

‘‘शिखा जब अपनी देशविदेश की यात्राओं के विवरण तुम्हें सुना रही थी, तब मैं ने तुम्हारी आंखों में गहरे अफसोस के भाव साफ देखे थे. अपने खूब घूमने के सपनों को पूरा न कर पाने का तुम्हें क्या बहुत दुख है?’’

‘‘बच्चों जैसी बात मत करो,’’ मैं ने उन्हें प्यार से डपट दिया, ‘‘मैं पहले तुम्हारी सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने के महत्त्व को समझती हूं और अपने हालात से पूरी तरह सुखी और संतुष्ट हूं, माई डियर हस्बैंड.’’

‘‘तुम सच बोल रही हो?’’ उन की आंखों में कुछ राहत के भाव उभरे.

‘‘मैं बिलकुल सच बोल रही हूं. आई एम वैरी हैप्पी विद यू,’’ मैं भावविभोर हो उन से लिपट गई.

‘‘मैं वादा करता हूं कि तुम्हें एक बार पूरे यूरोप की सैर जरूर कराऊंगा,’’ उन्होंने मेरे माथे को चूमा और फिर जोशीली आवाज में बोले, ‘‘हम कल ही बैंक में एक अकाउंट खोलेंगे. उस में जो रकम जमा होगी, वह सिर्फ तुम्हारे घूमने के शौक को पूरा करने के काम आएगी.’’

‘‘तुम सचमुच बहुत अच्छे हो,’’ उन के गाल पर प्यार भरा चुंबन अंकित करने के बाद मैं ने उन्हें बाथरूम में जाने की इजाजत दे दी.

पलंग पर लेट कर मैं अपने मानोभावों को समझने की कोशिश में लग गई.  मोहित शिखा के साथ मेरे रंगरूप की तुलना कर के शाम से दुखी हो रहे हैं, मेरा यह अंदाजा पूरी तरह से गलत निकला था.

सुंदर स्त्री का साथ सब पुरुष चाहते हैं और मैं ने मोहित की आंखों में भी आज खूबसूरत और स्मार्ट शिखा के लिए प्रशंसा के भाव कई बार साफ देखे थे. मेरी जिम्मेदारी बनती थी कि मोहित को एक खूबसूरत व आकर्षक जीवनसाथी का साथ हमेशा मिले.

मयंक के होने के बाद से अपने रंगरूप व फिगर का ढंग से रखरखाव न कर पाने के लिए मैं ने खुद को दोषी माना और फौरन इस कमी को दूर करने का फैसला मन ही मन कर लिया.

मैं जिंदगी की चुनौतियों के सामने हार मानने वालों में से नहीं हूं. अपने जीवन में कई महत्त्वपूर्ण कार्यों को मैं ने अकेले अपने बलबूते पर पूरा किया था.

मैं ने अपनी एमए की पढ़ाई बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर पूरी करी थी. अपने लिए मोहित का रिश्ता मैरिज साइट पर जा कर खुद ढूंढ़ा था. शादी के बाद मुझे जल्दी समझ में आ गया था कि अगर मैं ने नौकरी नहीं करी तो हमें हमेशा आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ेगा. घर के कामकाज में उलझे रह कर पढ़ाई करना कठिन था, पर मैं ने लगन और मेहनत के बल पर बीएड की डिगरी हासिल करी थी.

उसी जोशीले जलबे के साथ अपने दांपत्य संबंधों में जोश और खुशियां भरने का संकल्प मैं ने उसी पल कर लिया. हम शिखा की तरह अमीर नहीं थे, पर हमें आपस में साथ रहने को बहुत समय मिलता था. मैं ने फैसला किया कि अपने दांपत्य जीवन में हंसीखुशी और मौजमस्ती बढ़ाने के लिए मैं अब से इस समय का सदुपयोग बखूबी करूंगी.

मोहित ने मेरी खुशियों की खातिर नया अकाउंट खोलने का फैसला किया. इसी तर्ज पर 3 महीने बाद आ रही शादी की सालगिरह पर मैं ने खुद को ज्यादा फिट, आकर्षक और सुंदर बना कर उन्हें खास उपहार देने का पक्का मन बना लिया.

मैं ने उसी वक्त उठ कर सुबह 5 बजे का अलार्म लगाया. सुबह जल्दी उठ कर पार्क में घूमने जाने का मेरा पक्का इरादा था. मेरी कमर का दर्द अब मेरा वजन कम करने में कोई रुकावट खड़ी नहीं कर सकेगा. वैसे डाक्टर का कहना भी यही था कि नियमित रूप से व्यायाम करने से ही दर्द जड़ से जाएगा.

वे नहा कर बाहर आए तो खुल कर मुसकरा रहे थे. मुझे उन की आंखों में जी भर कर प्यार करने वाले भाव दिखे, तो मेरे दिल की धड़कनें एकदम से बढ़ गईं.

मुझे लगा कि स्मार्ट और सैक्सी शिखा के साथ गुजारा वक्त टौनिक की तरह काम करते हुए मोहित को रोमांटिक बना रहा है, पर यह विचार मुझे परेशान नहीं कर सका. जल्द ही मैं खुद उन्हें ऐसा टौनिक भरपूर मात्रा में पिलाया करूंगी, अपने इस संकल्प को फिर से दोहरा कर मैं उन की मजबूत बांहों के घेरे में कैद हो गई. मन में एक डर था कि कहीं शिखा की बात सही न निकले. कोई मोहित को ले न उड़े.

3 माह बाद शिखा अचानक पहले की तरह बिना बताए आ धमकी. इन दिनों में मैं ने अपना वजन 3 किलोग्राम कम कर लिया था. बदन चुस्त हो गया था. मार्क्स ऐंड स्पैंसर से सेल में कुछ अपने लायक ड्रैसें भी ले आई थी जो लेटैस्ट डिजाइन की तो न थीं पर पहले वाले बहनजी रूप से मुझे बदलने लायक तो थी हीं. मेरा बेटा मयंक अब गंभीर हो कर पढ़ने लगा था और मोहित का रुख और ज्यादा प्यारा हो गया था. जब वह आई तो मैं ने देखा कि वह पहले की तरह चुस्त तो थी पर चेहरे पर उदासी की परत बिखरी थी.

बनावटी ठहाके से उस ने मोहित को पुकारा. ‘‘हाय जीजू कहां हो… देखो तो बड़ी साली आई है.’’

मोहित तुरंत कमरे से निकले पर इस बार वह गर्भजोशी नहीं थी जो पिछली बार शिखा के साथ 2 घंटे बाद हुई थी. उन्होंने हंस कर स्वागत किया और कहा, ‘‘सालीजी, यह क्या हुआ? इतने दिनों से कोई मैसेज नहीं, कोई हाय नहीं, कोई तुम्हारी सलोनी तसवीर नहीं.’’

मैं ने पूछा, ‘‘चीन कैसा रहा? रोज कोविड की वजह से चीन के बंद होने की खबरें आ रही थीं.’’

शिखा ने कहा, ‘‘अरे कहां का चीन? हम जा ही नहीं पाए. मेरे पति तो  आजकल भाइयों के विवाह में बुरी तरह फंस गए हैं. कहीं आनाजाना हो ही नहीं पा रहा. मैं दिल्ली उन्हीं के साथ आई हूं, एनसीएलएटी में इन की अपील है. अकेले आने की सोच रहे थे पर 3 वकीलों से कौंन्फ्रैंस तय हो गई.

‘‘उन के मन पर हरदम बोझ रहता है. वजन बढ़ने लगा है. बहुत टैंस रहते हैं. अब कंपनी के कामों के सिलसिले में बाहर जाना बंद सा हो गया है. जब हालत सुधरेंगे तब देखेंगे. मेरी छोड़ अपनी सुना कविता. स्मार्ट लग रही है. वजन भी कम हो गया है. लगता है जीजू कुछ ज्यादा खयाल रख रहे हैं.’’

वह 2 घंटे रुकी पर पिछली बार की तरह ठहाके नहीं लगा पा रही थी. चलते हुए बोली, ‘‘जो हाथ में है उसी को ऐंजौय कर कविता. मेरी अपनी फिलौसफी इन के मुकदमों ने बदल दी है,’’ फिर मयंक के लिए चौकलेट का डब्बा देते हुए बोली, ‘‘मयंक ट्यूशन से आए तो देना न भूलना.’’

उस के जाने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी खुश हूं. बेकार में कंपीटिशन करने लगी थी. हरेक के जीवन में उतारचढ़ाव आते हैं. दूसरों को ऊंचे जाते देख अपनी हार नहीं माननी चाहिए, अपना काम अपनी गति से करते रहना चाहिए वरना दुख कब पिछले दरवाजे से घुस जाए. पता नहीं.

अब मेरा डर गायब हो गया था. मैं ने मोहित की एक जोर की पप्पी ली और बरतन समेटने लगी. मोहित सोच रहे थे कि अचानक यह बारिश क्यों और कैसे हुई?

मुसकान : भाग 2- क्यों टूट गए उनके सपने

लेखिका- निर्मला कपिला

राजकुमार को एंबुलेंस में डाला गया तो सभी उन के साथ जाना चाहते थे पर सुनील नहीं माना. सुनील, अनिल और मुसकान साथ गए.

पटियाला पहुंच कर जल्दी ही सारे टेस्ट हो गए. डाक्टर ने रात को ही उन की बाईपास सर्जरी करने को कहा. 2 बोतल खून का भी प्रबंध करना था, जिस के लिए सुनील और अनिल अपना खून का सैंपल मैच करने के लिए दे आए थे. बेशक दोनों डाक्टर थे पर मुसकान बहुत घबराई हुई थी. लोगों को बीमारी में देखना और बात है पर अपनों के लिए जो दर्द, घबराहट होती है, यह मुसकान आज जान पाई.

सुनील उसे ढाढ़स बंधा रहा था. उसे यह सोच कर दुख हो रहा था कि उस के सपनों की राजकुमारी, जिस ने जीवन में दुख का एक क्षण नहीं देखा, आज इतना बड़ा दुख…वह भी उस रात में जिस में इस समय उस की बांहों में लिपटी सुहागरात की सेज पर बैठी होती.

‘‘मुसकान, मैं हूं न तुम्हारे साथ. मेरे होते तुम चिंता क्यों करती हो.’’

‘‘मुझे आप के लिए दुख हो रहा है कि मेरे पापा के कारण आप को अपनी खुशी छोड़नी पड़ी,’’ मुसकान की आंखों में आंसू आ गए.

‘‘पगली, यह हमारे बीच में मेरे-तुम्हारे कहां से आ गया. यह मेरे भी पापा हैं. कल को मुझ पर या घर के किसी दूसरे सदस्य पर कोई मुसीबत आ जाए तो क्या तुम साथ नहीं दोगी?’’

‘‘मेरी तो जान भी हाजिर है.’’

‘‘मुझे जान नहीं, बस, मुसकान चाहिए,’’ कहते हुए सुनील ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर दबाया.

सुनील को डाक्टर ने बुलाया था. अनिल बाजार सामान लेने गया हुआ था. मुसकान पापा के पास बैठ गई. पूरे एक घंटे बाद सुनील आया तो उदास और थकाथका सा था.

‘‘क्या खून दे कर आए हैं?’’ मुसकान घबरा गई.

‘‘हां,’’ जैसे कहीं दूर से उस ने जवाब दिया हो.

‘‘आप थोड़ी देर कमरे में जा कर आराम कर लें, अभी भैया भी आ जाएंगे. मैं पापा के पास बैठती हूं.’’

मुसकान के मन में चिंता होने लगी. सुनील को क्या हो गया. शायद थकावट और परेशानी है और ऊपर से खून भी देना पड़ा. चलो, थोड़ा आराम कर लेंगे तो ठीक हो जाएंगे.

उधर सुनील पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा था. किसे बताए, क्या बताए. मुसकान का क्या होगा. फिर डाक्टर परमिंदर सिंह का चेहरा उस की आंखों के सामने घूमने लगा और उन के कहे शब्द दिमाग में गूंजने लगे :

‘‘सुनील बेटा, तुम  मेरे छात्र रह चुके हो, मेरे बेटे जैसे हो. कैसे कहूं, क्या बताऊं मैं 2 घंटे से परेशान हूं.’’

‘‘सर, मैं बहुत स्ट्रांग हूं, कुछ भी सुन सकता हूं, आप निश्ंिचत हो कर बताइए,’’ सुनील सोच भी नहीं सकता था, वह क्या सुनने जा रहा है.

‘‘तुम एच.आई.वी. पौजिटिव हो. जांच के लिए भेजे गए तुम्हारे ब्लड से पता चला है.’’

‘‘क्या? सर, यह कैसे हो सकता है? आप तो मुझे जानते हैं. कितना सादा और संयमित जीवन रहा है मेरा.’’

‘‘बेटा, मैं जानता हूं और तुम डाक्टर हो, जानते हो कि देह व्यापार और नशेबाजों के मुकाबले में डाक्टर को एड्स से अधिक खतरा है. खुदगर्ज, निकम्मे व भ्रष्ट लोगों की वजह से अनजाने में ही मेडिकल स्टाफ इस बीमारी की गिरफ्त में आ जाता है. सिरिंजों, दस्तानों की रिसाइक्ंिलग, हमारी लापरवाही, अस्पतालों में आवश्यक साधनों की कमी जैसे कितने ही कारण हैं. लोग ब्लड डोनेट करते हैं, समाज सेवा के लिए मगर उसी सेट और सूई को दोबारा इस्तेमाल किया जाए तो क्या होगा? शायद वही सूई पहले किसी एड्स के मरीज को लगी हो.’’

‘‘सर, मुझे अपनी चिंता नहीं है. मैं मुसकान से क्या कहूंगा? वह तो जीते जी मर जाएगी,’’ सुनील की आवाज कहीं दूर से आती लगी.

‘‘बेटा, हौसला रखो. अभी किसी से कुछ मत कहो. आज पापा का आपरेशन हो जाने दो. 15 दिन तो अभी यहीं लग जाएंगे. घर जा कर मांबाप की सलाह से अगला कदम उठाना. जीवन को एक चुनौती की तरह लो. सकारात्मक सोच से हर समस्या का हल मिल जाता है. मुसकान से मैं बात करूंगा पर अभी नहीं.’’

‘‘सर, उसे अभी कुछ मत बताइए, मुझे सोचने दीजिए,’’ कह कर सुनील अपने कमरे में आ गया था.

पर वह क्या सोच सकता है? एड्स. क्या मुसकान सुन सकेगी? नहीं, वह सह नहीं सकेगी. मैं उसे तलाक दे दूंगा, कहीं दूर चला जाऊंगा, नहीं…नहीं…वह तो अपनी जान दे देगी…नहीं…इस से अच्छा वह मर जाएगा पर मांबाप सह नहीं पाएंगे. नहीं…विपदा का हल मौत नहीं. सर ने ठीक कहा था कि सब को एक न एक दिन मरना है पर मरने से पहले जीना सीखना चाहिए.

अचानक उसे ध्यान आया, आपरेशन का टाइम होने वाला है. मुसकान परेशान हो रही होगी…कम से कम जब तक पापा ठीक नहीं होते, मैं उस का ध्यान रख सकता हूं…इतने दिन कुछ सोच भी सकूंगा.

वह जल्दी कमरा बंद कर के वार्ड में आ गया.

‘‘अब कैसी तबीयत है?’’ उसे देखते ही मुसकान पूछ बैठी.

‘‘मैं ठीक हूं. मुसकान, तुम थोड़ी स्ट्रांग बनो. मैं तुम्हें परेशान देख कर बीमार हो जाता हूं.’’

12 बजे राजकुमार को आपरेशन के लिए ले गए. वह तीनों आपरेशन थियेटर के बाहर बैठ गए. मुसकान को सुनील की खामोशी खल रही थी पर समय की नजाकत को देखते हुए चुप थी. शायद पापा के कारण ही सुनील परेशान हों.

आपरेशन सफल रहा. अगले दिन घर से भी सब लोग आ गए थे. मां ने दोनों को गेस्ट रूम में आराम करने को भेज दिया.

कमरे में जाते ही सुनील लेट गया.

‘‘मुसकान, तुम भी थोेड़ी देर सो लो, रात भर जागती रही हो. मुझे भी नींद आ रही है,’’ कहते हुए वह मुंह फेर कर लेट गया. मुसकान भी लेट गई.

शादी के बाद पहली बार दोनों अकेले एक ही कमरे में थे. इस घड़ी में सुनील का दिल जैसे अंदर से कोई चीर रहा हो. उस का जी चाह रहा था कि मुसकान को बांहों में भर ले पर नहीं, वह उसे और सपने नहीं दिखाएगा. वह उस की जिंदगी बरबाद नहीं होने देगा.

मुसकान मायूस सी किसी हसरत के इंतजार में लेट गई. कुछ कहना चाह कर भी कह नहीं पा रही थी. सुनील पास हो कर भी दूर क्यों है? शायद कई दिनों से भागदौड़ में ढंग से सो नहीं पाया. पर दिल इस पर यकीन करने को तैयार नहीं था. उस ने सोचा, सुनील थोड़ी देर सो ले तब तक मैं वार्ड में चलती हूं. जैसे ही वह दरवाजा बंद करने लगी कि सुनील उस का नाम ले कर चीख सा पड़ा.

‘‘क्या हुआ,’’ वह घबराई सी आई तो देखा कि सुनील का माथा पसीने से भीगा हुआ था.

‘‘एक गिलास पानी देना.’’

उस ने पानी दिया और उसे बेड पर लिटा दिया.

‘‘कहीं मत जाओ, मुसकान. मैं ने अभीअभी सपना देखा है. एक लालपरी बारबार मुझे दिखाई देती है. मैं उसे छूने के लिए आगे बढ़ता हूं पर छू नहीं पाता, एक पहाड़ आगे आ जाता है. वह उस के पीछे चली जाती है. मैं उस पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश करता हूं तो नीचे गिर जाता हूं,’’ इतना कह कर सुनील मुसकान का हाथ जोर से पकड़ लेता है.

‘‘कैसी बहकीबहकी बातें कर रहे हो? सपने भी क्या सच होते हैं? चलो, चुपचाप सो जाओ. तुम्हारी लालपरी तुम्हारे पास बैठी है.’’

वह धीरेधीरे उस के माथे को सहलाने लगी. सुनील ने आंखें बंद कर लीं. थोड़ी देर बाद मुसकान ने सोचा, वह सो गया है. वह चुपके से उठी और वार्ड की तरफ चल पड़ी. वह उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहती थी.

आगे पढ़ें- कुछ देर के लिए वहां…

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मुसकान : भाग 1- क्यों टूट गए उनके सपने

लेखिका- निर्मला कपिला

आज आसमान से कोई परी उतरती तो वह भी मुसकान को देख कर शरमा जाती, क्योंकि मुसकान आज परियों की रानी लग रही है. नजाकत से धीरेधीरे पांव रखती शादी के मंडप की ओर बढ़ रही मुसकान लाल सुर्ख जरी पर मोतियों से जड़ा लहंगाचोली पहने जेवरों से लदी, चूड़ा, कलीरे और पांव में झांजर डाले हुए है. उस के भाई उस के ऊपर झांवर तान कर चल रहे हैं. झांवर भी गोटे और घुंघरुओं से सजी है. उस का सगा भाई अनिल उस के आगेआगे रास्ते में फूल बिछाते हुए चल रहा है.

शादी के मंडप की शानोशौकत देखते ही बनती है. सामने स्टेज पर सुनील दूल्हा बना बैठा है. वहां मौजूद सभी एकटक मुसकान को आते हुए देख रहे हैं जो अपने को आज दुनिया की सब से खुशनसीब लड़की समझ रही है. आज मुसकान अपने सपनों के राजकुमार की होने जा रही है. सुनील के पिता सुंदरलालजी जिस फैक्टरी में लेखा अधिकारी हैं उसी में मुसकान के पिता राजकुमार सहायक हैं.

दोनों परिवार 20 साल से इकट्ठे रह रहे हैं. दोनों के घरों के बीच में दीवार न होती तो एक ही परिवार था. राजकुमार के 2 बच्चे थे, जबकि सुंदरलाल का इकलौता बेटा सुनील था. यह छोटा सा परिवार हर तरह से खुशहाल था. सुंदरलाल, मुसकान को अपनी बेटी की तरह मानते थे. तीनों बच्चे साथसाथ खेले, बढ़े और पढ़े.

मुसकान, अनिल से 5 वर्ष छोटी थी. सुनील और मुसकान हमउम्र थे. दोनों पढ़ने में होशियार थे. जैसेजैसे बड़े होते गए उन में प्यार बढ़ता गया. मन एक हो गए, सपने एक हो गए और लक्ष्य भी एक, दोनों डाक्टर बनेंगे.

राजकुमार की हैसियत मुसकान को डाक्टरी कराने जितनी नहीं थी मगर सुनील के मांबाप ने मन ही मन मुसकान को अपनी बहू बनाने का निश्चय कर लिया था इसलिए उन्होंने यथासंभव सहायता का आश्वासन दे कर मुसकान को डाक्टर बनाने का फैसला कर लिया था. अनिल भी इंजीनियरिंग कर के नौकरी पर लग गया. वह भी चाहता था कि मुसकान डाक्टर बने.

सुनील को एम.बी.बी.एस. में दाखिला मिल गया. मुसकान अभी 12वीं में थी. जब सुनील पढ़ने के लिए पटियाला चला गया तब दोनों को लगा कि वे एकदूसरे के बिना जी नहीं सकेंगे. मुसकान को लगता कि उस का कुछ कहीं खो गया है पर वह चेहरे पर खुशी का आवरण ओढ़े रही ताकि मन की पीड़ा को कोई दूसरा भांप न ले. दाखिले के 7 दिन बाद सुनील पटियाला से आया तो सीधा मुसकान के पास ही गया.

‘लगता है 7 दिन नहीं सात जन्म बाद मिल रहा हूं. मुसकान, मैं तुम्हें बहुत मिस करता हूं.’

मुसकान कुछ कह न पाई पर उस के आंसू सबकुछ कह गए थे.

‘मुसकान, आंसू कमजोर लोगों की निशानी है. हमें तो स्ट्रांग बनना है, कुछ कर दिखाना है, तभी तो हमारा सपना साकार होगा,’ सुनील ने उसे हौसला दिया.

अब दोनों ही अपना कैरियर बनाने में जुट गए. सुनील जब भी घर आता मुसकान के लिए किताबें, नोट्स ले कर आता. वह चाहता था कि मुसकान को भी उस के ही कालिज में दाखिला मिल जाए. मुसकान उसे पाने के लिए कुछ भी कर सकती थी. सुनील मुसकान की पढ़ाई की इतनी चिंता करता कि फोन पर उसे समझाता रहता कि कौन सा विषय कैसे पढ़ना है, टाइम मैनेज कैसे करना है.

सुनील एक हफ्ते की छुट्टी ले कर घर आया और मुसकान से टेस्ट की तैयारी करवाई. दोनों ने दिनरात एक किया. अगर लक्ष्य अटल हो, प्रयास सबल हो तो विजय निश्चित होती है. मुसकान को भी पटियाला में ही प्रवेश मिल गया. मुसकान को दाखिल करवाने दोनों के ही मांबाप गए थे. वापसी से पहले सुनील की मां ने मुसकान से कहा था, ‘बेटा, हमें उम्मीद है तुम दोनों अपने परिवार की मर्यादा का ध्यान रखोगे तो हम सब तुम्हारे साथ हैं.’

‘मां, जितना प्यार मुझे मेरे मांबाप ने दिया है उस से अधिक आप लोगों ने दिया है. मैं आप से वादा करती हूं कि मेरा जीवन इस परिवार और प्यार के लिए समर्पित है,’ मुसकान मम्मी के गले लग गई.

दोनों ने बड़ी मेहनत की और अपने मांबाप की आशाओं पर फूल चढ़ाए. सुनील ने एम.डी. की और उसे पटियाला में ही नौकरी मिल गई. दोनों के मांबाप चाहते थे अब सुनील व मुसकान की शादी हो जानी चाहिए पर दोनों ने फैसला किया था कि जब मुसकान भी एम.डी. हो जाए उस के बाद ही वे शादी करेंगे.

आज उन की मेहनत और सच्चे प्यार का पुरस्कार शादी के रूप में मिला था. सुनील हाथ में जयमाला लिए मंडप की ओर आती मुसकान को देख रहा था.

मुसकान की विदाई एक तरह से अनोखी ही थी. न किसी के चेहरे पर उदासी न आंखों में आंसू. सभी लोग शादी के मंडप से निकले और गाडि़यों में बैठ कर जहां से चले थे वहीं वापस आ गए. दुलहन के रूप में मुसकान सुनील के घर चली गई. दोनों घरों के बीच एक दीवार ही तो थी. जब सब के दिल एक थे तो मायका क्या और ससुराल क्या.

आज सुनील से भी अपनी खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी. आज वह अपनी लाल परी को छुएगा.

‘‘मां, हमें जल्दी फारिग करो, हम थक गए हैं,’’ सुनील बेसब्री से बोला.

‘‘बस, बेटा, 10 मिनट और लगेंगे. मुसकान कपड़े बदल ले.’’

मम्मी मुसकान को एक कमरे में ले गईं और एक बड़ा सा पैकेट दे कर बोलीं, ‘‘बेटा, यह सुनील ने अपनी पसंद से तुम्हारे लिए खरीदा है आज रात के लिए.’’

मम्मी के जाने के बाद मुसकान ने कमरा अंदर से बंद किया और जैसे ही उस ने पैकेट खोला, वह उसे देख कर हैरान रह गई. पैकेट में सुर्ख रंग का जरी, मोतियों की कढ़ाई से कढ़ा  हुआ कुरता, हैवी दुपट्टा पटियाला सलवार, परांदा आदि निकला था. उस ने तो बचपन से ही पैंटजींस पहनी थी. कपड़ों की तरफ दोनों ने पहले कभी ध्यान ही नहीं दिया था. सुनील ने भी कभी उस के कपड़ों पर कोई टिप्पणी नहीं की थी.

वह बड़े सलीके से तैयार हुई. अपने केशों में परांदी, सग्गीफूल लगाया, मैच करती लिपस्टिक लगाई, माथे पर मांग टीका लटक रहा था, फिर दुपट्टा पिनअप कर के जैसे ही शीशे के सामने खड़ी हुई सामने पंजाबी दुलहन के रूप में खुद को देख मुसकान हैरान रह गई. सुनील की पसंद पर उसे नाज हो आया और दिल धड़क उठा रात के उस क्षण के लिए जब उस का राजकुमार उसे अपनी बांहों में भर कर उस की कुंआरी देहगंध से रात को सराबोर करेगा.

किसी ने दरवाजा खटखटाया. मुसकान ने दरवाजा खोला तो सामने मम्मी और मां घबराई सी खड़ी थीं.

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा की तबीयत खराब हो गई थी. सुनील और अनिल उन्हें अस्पताल ले कर गए हैं. पर घबराने की बात नहीं है, अभी आते होंगे,’’ कह कर मां और मम्मी दोनों उस के पास बैठ गईं.

मुसकान एकदम घबरा गई. अभी 1 घंटा पहले तो पापा ठीक थे, हंसखेल रहे थे. उस ने जल्दी से मोबाइल उठाया, ‘‘सुनील, कैसे हैं पापा, क्या हुआ उन्हें?’’

‘‘मुसकान, देखो घबराना नहीं,’’ सुनील बोला, ‘‘मेरे होते हुए चिंता मत करो. पापा को हलका हार्ट अटैक पड़ा है. हमें इन्हें ले कर पटियाला जाना होगा. तुम जरूरी सामान और कपड़े ले कर डैडी के साथ यहीं आ जाओ. तुम भी साथ चलोगी. मेरे वाला पैकेट अभी संभाल कर रख लो.’’

‘‘मम्मी, सुनील ने मुझे अस्पताल बुलाया है. पापा को पटियाला ले कर जाना पड़ेगा,’’ और फिर जितनी हसरत से उस ने सुनील वाले कपड़े पहने थे, उतने ही दुखी मन से उन्हें उतार दिया. हलके रंग का सूट पहना और यह सोच कर कि इस लाल सूट को तो वह सुहागरात को ही पहनेगी उसे बड़े प्यार से उसी तरह अलमारी में रख दिया.

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हमारा कालेज- क्या पुनीत की हुई स्नेहा

पुनीतअग्रवाल आज अपनी बीए प्रथम वर्ष की परीक्षा के बाद पहली बार अपने डिग्री कालेज गया था. वह बीए द्वितीय वर्ष में पहुंच चुका था. पुनीत बहुत ही मिलनसार और व्यवहारिक छात्र था. अपने कालेज में वह सबसे तेज था. पढ़ने में और खेलने में उसका शानी नहीं था. उसी दिन उसी के कालेज में उस दिन प्रोफेसरों/टीचरों की 26 जनवरी के संबंध में एक बैठक प्रिंसिपल साहब ने बुलाई थी. उसमें कुछ होशियार बच्चों को भी बुलाया गया था जिनमें पुनीत का भी नाम था.

लगभग 2 बजे आहूत किए गए लड़कों ने पुनीत के साथ ही कालेज के मीटिंग हाल में प्रवेश किया. सभी अध्यापकगण भी धीरेधीरे आ गए और 26 जनवरी को भव्य तरीके से मनाने की बात प्रिंसिपल को बताकर उस पर चर्चा की. कई अध्यापकों ने अपनेअपने मन्तक दिए. प्रिंसिपल साहब ने पुनीत का नाम लेकर कहा कि पुनीत बेटा तुम भी अपनी राय दो. पुनीत ने खड़े होकर कहा कि इस बार सर ?ांडा अवरोहण के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम पहले कराया जाए फिर लोग उस के बाद अपनी कविताएं एवं वक्तव्य दें.

वहां कई लड़कियों को भी बैठक में आहूत किया गया था जिनमें स्नेहा अग्रवाल जो बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी उसको उसकी बीए द्वितीय वर्ष की सहेलियां अपने साथ लेकर लाई थीं. सभी से स्नेहा का परिचय कराया गया और उसे भी अपनी राय गणतंत्र दिवस के मौके पर कार्यक्रम के लिए देने को कहा गया. स्नेहा भी तेजतर्रार मेधावी छात्रा थी. उसने इंटर कालेज में प्रथम और अपने कालेज में टौप किया था तथा वह संगीत व नृत्य की भी छात्रा थी. उसने कहा कि सर ठीक है. हम लोग भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम 26 जनवरी पर प्रस्तुत करेंगे.

बात तय हो गई और सभी उपस्थितजनों का आभार प्रिंसिपल साहब ने कह कर कहा कि अभी एक माह है आप लोग तैयारी प्रारम्भ कर दें. कालेज की पढ़ाई भी प्रारम्भ हो चुकी थी और संगीत की क्लास भी चलने लगी थी. स्नेहा ने पहली बार संगीत की क्लास में एक बहुत ही सुंदर गीत प्रस्तुत कर संगीत की टीचर का मन मोह लिया. उनकी क्लास जब समाप्त हुई तो लड़कियां बाहर निकलने लगीं.

स्नेहा जैसे ही बाहर निकली, पुनीत अपने मित्रों के साथ सामने आ गया. स्नेहा ने नमस्ते की तो पुनीत ने पूछा आप बीए प्रथम वर्ष में हैं क्या? स्नेहा ने हां में अपना सिर हिला दिया और मुड़कर अपनी सहेलियों के साथ चली गई. स्नेहा बहुत खूबसूरत थी और पढ़ने में भी बहुत तेज थी. थोड़ी दूर अपनी सहेलियों के साथ आगे बढ़ कर स्नेहा ने ऐसे ही पलटकर एक बार पुनीत को देखना चाहा तो जैसे ही वह पलटी देखा पुनीत मुड़ कर उसे ही देख रहा था, अचानक उसे अपनी तरफ देखते हुए स्नेहा हड़बड़ा गई और आगे की तरफ गिरतेगिरते बची. सहेलियों ने क्या हुआ कहते हुए उसे संभाला.

धीरेधीरे पुनीत और स्नेहा की मुलाकात लगभग रोजाना ही कालेज में जाती थी और कुछ वार्त्तालाप भी हो जाया करता था. अकसर दोनों की मुलाकात कालेज लाइब्रेरी में हो जाया करती. आखिर दोनों ही पढ़ने में मेधावी थे. स्नेहा ने भी पुनीत के बारे में पता लगाया तो उसे मालूम हुआ कि पढ़ाई में पुनीत भी बहुत तेज है और अपने कालेज की वौलीबाल टीम का कैप्टन भी है तथा बैडमिंटन भी बहुत अच्छा खेलता है. स्नेहा भी बैडमिंटन प्लेयर थी. कभीकभी स्नेहा भी बैडमिंटन फील्ड पर चली जाती थी.

एक दिन स्नेहा को बैडमिंटन फील्ड में खड़े होकर मैच देखते हुए पुनीत ने देखा जो बैडमिंटन फील्ड में अपने दोस्तों के साथ बैडमिंटन खेल रहा था, तो खेल छोड़कर स्नेहा के पास आ गया. आते ही स्नेहा से पुनीत ने पूछ ही लिया कि स्नेहाजी आप भी बैडमिंटन खेलती हैं क्या?

स्नेहा ने हां में जबाव दिया तो पुनीत के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उसने कहा कि अरे वाह यह तो बहुत अच्छा है पढ़ाई के साथसाथ खेल में भी रुचि गुड और मुसकराते हुए उसे भी एक राकेट थमा दिया. अब सिंगल प्लेयर के रूप में दोनों खेलने लगे. स्नेहा का गेम देखकर पुनीत सम?ा गया कि स्नेहा भी बैडमिंटन की बारीकियां व नियम जानती है. उस दिन स्नेहा का पहला दिन था, अपने नए कालेज में गेम के मैदान में, जिससे वह थोड़ी नर्वस थी. पुनीत ने तीसरा गेम भी जीत लिया.

दूसरा स्नेहा ने जीता था. पहला और तीसरा गेम जीतने के कारण पुनीत को विजयी घोषित किया गया. स्नेहा ने भी उन्हें शाबासी दी और चली गई. 26 जनवरी करीब आ गयी थी. आज 23 जनवरी थी. सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी पूर्णरूप से स्नेहा के ऊपर थी. उस दिन उसने लगभग 7 लड़कियों के साथ मिलकर अपना प्रदर्शन संगीत टीचर के सामने बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया. उधर पुनीत ने अपने दोस्तों को 26 जनवरी पर एक अच्छाखासा भाषण क्लास में दिया जिस पर खूब तालियां बजीं और दोतीन दोस्तों ने भी अपनाअपना भाषण तैयार कर लिया था.

इसी बीच कक्षा में प्रोफेसर मिश्राजी का आगमन हुआ. किसी को याद ही नहीं रहा कि यह पीरियड प्रोफेसर मिश्राजी का है. सभी उनको देखते ही अपनीअपनी जगह पर बैठ गए. आधी क्लास होने के बाद सबने अपनेअपने भाषण का प्रदर्शन अपने प्रोफेसर साहब के सामने किया.

प्रोफेसर मिश्राजी ने सभी को बधाईयां दी. आज शाम को दोपहर बाद कालेज में वौलीबाल का मैच होना था. सभी विद्यार्थी धीरेधीरे वौलीबाल का मैच देखने के लिए मैदान में एकत्रित होने लगे. पुनीत भी सभी लड़कों के साथ बौलीबाल मैदान में पहुंच गया. बरसात लगभग समाप्त हो चुकी थी इसलिए फील्ड पर दूरदूर तक कहीं पानी नहीं भरा था. सभी खिलाड़ी कपड़े उतार कर हाफ पैंट और बनियान में फील्ड पर उतर गए. दोनों तरफ से 6-6 लड़के अपनीअपनी टीम घोषित कर खड़े हो गए. एम.ए. के छात्र रामनगीना सिंह ने सीटी लेकर पोल की बगल में खड़ा होकर सीटी बजाई.

इतने में स्नेहा भी अपनी सहेलियों के साथ गेम देखने आ गई. पुनीत से आंखों ही आंखों में नमस्ते हुई और फिर वह सीमेंट की बनी बेंच पर बैठ गई. गेम प्रारंभ हो गया. दोनों टीमों के खिलाड़ी बड़ी मेहनत से खेल रहे थे. मौका मिलते ही पुनीत स्नेहा की तरफ देख लेता था. तीन गेम हुए जिनमें एक वीरेंद्र सिंह की टीम जीती और 2 गेम पुनीत की टीम ने जीत लिए. बाहर निकल कर सभी छात्र अपनेअपने कपड़े पहनने लगे. पुनीत के कपड़े उसी बेंच पर रखे थे जहां स्नेहा बैठी थी. उस की सहेलियां जा चुकी थीं, मगर स्नेहा अब भी वहीं बैठी थी.

पुनीत को बिना शर्ट के अपनी तरफ आता देखकर स्नेहा लजा गई. उसे नहीं पता था कि जिस बेंच पर वह बैठी है उसी पर पुनीत के कपड़े रखे हैं. पुनीत ने पास आकर कपड़ों की तरफ इशारा किया और फिर बेंच पर रखे अपने कपड़े उठाकर पहनने लगा. पुनीत ने कपड़े पहन कर  स्नेहा से चलने को कहा. दोनों बात करतेकरते हुए कालेज के गेट के करीब आ गए और वहां से अपनेअपने घर की तरफ रवाना हो गए.

आज मौसम में ठंडक थी. धूप नहीं निकली थी. ज्यादा विद्यार्थी कालेज में नहीं दिखाई दे रहे थे. कक्षाएं भी कम लगीं. पुनीत आज अकेला था.

उधर से स्नेहा भी आज अकेली ही आ रही थी. दोनों ने एकदूसरे को देखा तो पता चला कि दोनों की ही कक्षाएं नहीं हैं. दोनों बात करते हुए कालेज की कैंटीन में चाय पीने आ गए. पुनीत ने स्नेहा से उस के घर का हालचाल पूछा और घर में कितने मेम्बर हैं आदि की जानकारी लेने लगा.

स्नेहा ने बताया कि मेरे मांपिताजी के अलावा एक छोटा भाई और एक छोटी बहन और है. इस प्रकार सब 5 लोग घर में रहते हैं और उन की कपड़ों की चौक में बहुत बड़ी दुकान विजय वस्त्रालय के नाम से है.

पुनीत ने बताया कि आप की दुकान से ही हम लोगों के यहां कपड़े खरीदे जाते हैं. दुकान के ऊपर ही स्नेहा का घर भी बना था जहां वह रहती थी. पुनीत के पिता भी एजी आफिस में सेक्सन औफिसर थे. यह जानकर स्नेहा को बड़ी खुशी हुई और पुनीत के भाईबहनों के बारे में पूछा तो पुनीत ने बताया कि एक छोटा भाई व एक छोटी बहन और हैं जो जूनियर हाई स्कूल की छात्रा व छात्र हैं.

पुनीत और स्नेहा दोनों एक ही जाति के थे यानी दोनों अग्रवाल फैमिली से थे इसलिए उनमें और ज्यादा घनिष्ठता से बात होने लगी. पुनीत कैंटीन की पेमेंट कर स्नेहा के साथ ही घर चल दिया क्योंकि दोनों के घर में आधा किलोमीटर का ही अंतर था. पहले स्नेहा का घर था बाद में पुनीत का. स्नेहा का घर आ गया था. स्नेहा की दुकान की बगल से ही ऊपर जाने की सीढि़यां बनी थीं.

स्नेहा ने पुनीत को मां से मिलवाने का आफर दिया तो पुनीत इनकार न कर सका और स्नेहा के साथ वह भी ऊपर चला गया. ऊपर पहुंचते ही स्नेहा ने पुनीत का परिचय अपने कालेज के मेधावी छात्र के रूप में कराया.

स्नेहा की मां ने पुनीत की काफी अवभगत की और चायनाश्ता बड़े चाव से कराया. उस के बाद स्नेहा की मां ने पुनीत से उस के पिताजी एवं माताजी का नाम पूछा. जब पुनीत ने पिताजी व माताजी का नाम बताया तो स्नेहा की मां ने कहा कि आपकी मां तो समाजसेविका हैं, मैं उन्हें बहुत दिनों से जानती हूं और आपके पिताजी एजी औफिस में औफिसर हैं व वसंत पंचमी भी कुछ दिन बाद आने होने वाली थी तो स्नेहा की मां ने कहां कि मैं वसंत पंचमी वाले दिन आपके घर आऊंगी. आप अपनी मां को बता देना. पुनीत ने उन के पैर छुए और स्नेहा के साथ नीचे सड़क पर आ गया. पुनीत ने स्नेहा से कहा कि मां के साथ आप भी आना. उस दिन रविवार रहेगा. स्नेहा ने कहा ठीक है और फिर पुनीत पैदल ही घर के लिए चल पड़ा.

26 जनवरी को सुबह 7 बजे ही पुनीत और स्नेहा कालेज पहुंच गए. सुबह 9 बजे ?ांडा फहराया गया और फिर सब हाल में आ गए. हाल काफी बड़ा था. सारी कुर्सियां भर गई थीं पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम आरंभ हुआ. स्नेहा व उसकी सहेलियों ने बहुत सुंदर देशभक्ति का गीत सुनाया. उस के पश्चात भाषणबाजी का कार्यक्रम आरम्भ हुआ. पुनीत ने बहुत सुन्दर और अद्भुत भाषण गणतंत्र दिवस पर दिया जिसके लिए उसे भी प्रतीकचिह्न से सम्मानित किया गया. तदोपरान्त वौलीबाल का मैच प्रारम्भ हुआ और पुनीत की टीम ने लगातार तीनों मैच जीते.

सभी प्रतिभागियों को प्रिंसिपल साहब ने शाबाशी दी और प्रतीकचिह्न देकर सम्मानित किया. इस प्रकार 26 जनवरी का दिन बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया. दोपहर बाद कालेज की छुट्टी हो गई. सभी अध्यापक व बच्चे अपनेअपने घर चले गए. पुनीत और स्नेहा भी पैदल साथसाथ घर चल पड़े.

रास्ते में स्नेहा ने पुनीत से कहा कि बहुत अच्छा कालेज है और प्रिंसिपल साहब व अध्यापकगण बहुत ही अच्छा व्यवहार छात्रछात्राओं से करते हैं. पुनीत ने कहा कि हमारा कालेज प्रदेश का एक अच्छा कालेज माना जाता है. स्नेहा ने घर पहुंच कर पुनीत से कहा कि आओ चाय पीकर चले जाना, लेकिन काफी देर हो गई थी तो पुनीत ने कहा कि फिर कभी और अपने घर चला गया. पुनीत रास्ते में सोचता हुआ जा रहा था.

उसे स्नेहा का गीत बहुत मधुर लगा था. कहीं न कहीं पुनीत स्नेहा को मन ही मन चाहने लगा था क्योंकि उसकी नजर में स्नेहा एक मेधावी छात्रा के साथसाथ बहुत ही सुल?ो विचारों की भी थी.

आज रविवार का दिन था यानी वसंत पंचमी का. सभी अपने कार्यों में व्यस्त थे. लगभग 11 बजे स्नेहा अपनी मां के साथ पुनीत के घर आ गई. गेट पर घंटी बजी तो पुनीत के छोटे भाई ने गेट खोला और उन्हें हाल में ले गया. पुनीत की मां ने आकर प्रसन्नतापूर्वक नमस्कार किया और हालचाल पूछने के साथ अपनी बेटी को चायपानी आदि लाने को कहा.

स्नेहा ने बड़े आदर के साथ पुनीत की मां के पैर छूकर आशीर्वाद लिया. थोड़ी देर में पुनीत भी हाल में आ गया. न चाहते हुए भी पुनीत की नजर स्नेहा पर से हट नहीं रही थी. आज स्नेहा बहुत सुंदर लग रही थी. पीले सलवार सूट में थोड़ी देर बाद पुनीत की मां ने पुनीत से कहा स्नेहा को अपने कमरे में ले जाओ, घर आदि दिखाओ. स्नेहा पुनीत के साथ चली गई.

इधर बातचीत के दौरान स्नेहा की मां ने हाथ जोड़ कर कहा कि बहनजी हम लोग बहुत दिनों से एकदूसरे को जानते है एकदूसरे की सहेलियां हैं, अब हम चाहते हैं कि यह रिश्ता संबंधी बन कर निभाया जाए. मैं आपनी बिटिया स्नेहा की शादी आपके पुनीत बेटे के साथ करना चाहती हूं.

इतने में पुनीत के पिताजी भी हाल में आ गए और नमस्ते करने के बाद वे भी बैठकर उन लोगों के साथ चाय पीने लगे. पुनीत की मां ने उस के पिता को स्नेहा की मां की मंशा बताई तो वे यह बात सुनकर बहुत खुश हुए क्योंकि वे भी पुनीत के लिए एक सुंदरसुशील पढ़ीलिखी लड़की ढूंढ़ रहे थे. स्नेहा को पहले भी अपने मुहल्ले में देखा था. पुनीत की मां की बात सुनकर तो तुरंत ही हां कर दी और हाथ जोड़कर स्नेहा की मां की तरफ देखते हुए बोले कि बहनजी हमें अपने बेटे पुनीत के लिए आपकी स्नेहा जैसी ही बहू चाहिए थी. हमें यह रिश्ता मंजूर है.

बात हो रही थी कि पुनीत और स्नेहा भी कमरे में आ गए और कमरे में आते समय उन लोगों ने शादी की बात सुन ली थी दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा स्नेहा मानो शर्म से लाल हो गयी. दोनों ने भी एकदूसरे को अपनी रजामंदी दे दी और एकदूसरे को देखकर मुसकरा दिए.

नवरात्रि में ही परीक्षा आदि की कार्यवाही पूर्ण कर ली गई और नवंबर में दोनों की शादी भी धूमधाम से संपन्न हो गई. पुनीत और स्नेहा की इस प्यार भरी शादी में उन के कालेज के सभी दोस्त, अध्यापकगण, प्रोफेसर सर आदि सभी सम्मिलित हुए. पुनीत और स्नेहा वरवधू के रूप में बहुत ही ज्यादा खूबसूरत लग रहे थे. दोनों बहुत खुश थे. उन की इसी खुशी को देखते हुए वहां एकत्रित कालेज के सभी लोगों के बीच में से प्रोफेसर मिश्रा सर ने कहा कि किसी भी कालेज को आदर्श कालेज बनाने में छात्रछात्राओं का बहुत बड़ा योगदान होता है.

उन की इस बात को सुनकर पुनीत और स्नेहा एकसाथ बोल पड़े कि सर हमारा कालेज है ही अच्छा, जहां इतने अच्छे लोग मिलते हैं. कहते हुए पुनीत ने मुसकरा कर स्नेहा की तरफ देखा. उस की इस बात पर वहां उपस्थित सभी लोग हंस पड़े. स्नेहा भी मंदमंद मुसकरा उठी.

मीठी परी: भाग 2- सिम्मी और ऐनी में से किसे पवन ने अपनाया

संजना के मायके वाले उसे डिलीवरी के लिए अपने पास रखना चाहते थे. पर नयन यह कह कर कि उसे यहां हर तरह का आराम है और फिर मां भी गोदभराई की रस्म के लिए आएंगी, तो रुकेंगी, उस का जाना टाल दिया. सब ठीक रहा और संजना ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया. सब ओर से बधाई का आदानप्रदान हुआ. चाचा पवन को नई पदवी की विशेष बधाई मिली. बच्चे के 4 महीने के होते ही मां असम से लौट आईं, नयन स्वयं छोड़ने आया.

‘यह कैसे हो गया, कहां गलती हुई, क्यों नहीं ध्यान दिया?’ ऐनी यह सब सोचते हुए परेशान थी. वह प्रैग्नैंट थी. ‘नहीं, वह झंझट नहीं ले सकती, उसे नौकरी करनी है.’ सब आगापीछा सोचते हुए पवन से अबौर्शन की जिद करने लगी. पवन थोड़ा तो परेशान हुआ पर तसल्ली दी कि वह पूरी तरह से सहयोग करेगा ऐनी व बच्चे का ध्यान रखने में.

ऐनी की मां अब अपनी छोटी बेटी के पास स्कौटलैंड में रहती थी. समय पर मां को बुलाने पर बात अटकी तो पवन ने कहा, ‘देखेंगे.’ पहले वाले लड़के ने मां के कारण ही ऐनी से किनारा किया था और अब वह वही मुसीबत मोल ले ले, नहीं. ऐनी को यह मंजूर न था.

अपनी गर्भावस्था के दौरान ऐनी स्वस्थ व चुस्त रही और काम पर जाती रही. बस, डिलीवरी होने से पहले 3 दिन ही घर पर रही थी और 9 महीने पूरे होते ही उस ने सुंदर, स्वस्थ बेटे को जन्म दिया. उस के गोल्डन, ब्राउन, घुंघराले बालों को देखते ही चहकी, ‘‘यह तो अपने नाना जैसा है.’’ अपने पिता की याद में उस की आंखें भर आईं. वे दोनों बहनें छोटी ही थीं जब उस के पिता का कार दुर्घटना में निधन हो गया था और पिता के काम की जगह ही मां को काम दे दिया गया था.

ऐनी को नौकरी से 3 महीने की छुट्टी मिल गई और पवन भी कोशिश कर उस की हर संभव सहायता करता. छोटे बेबी को पालना आसान नहीं. मां के फोन आते रहते. पर इस बार पवन ने पक्का इरादा कर ऐनी के बारे में बता दिया, लेकिन बच्चे का जिक्र नहीं किया.

मां यह सुन सन्नाटे में आ, पूछना भूल गई कि कौन है, कब यह सब हुआ? पवन हैलोहैलो ही कहता रह गया, फोनलाइन कट गई. बिना शादी एकसाथ रहना, बच्चे होना और फिर साथ रहने की गारंटी, क्या कहा जा सकता है.

पवन दोबारा फोन करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया. लेकिन, भाभी का फोन आ गया. ‘‘मां अस्पताल में हैं. उन की अचानक तबीयत खराब होने की खबर सुनते ही वे लोग फौरन मां के पास पहुंच गए. अभी नयन मां के पास अस्पताल में हैं.’’

भाभी ने उस की शादी के बारे में पूछा तो पवन ने रोंआसा हो बताया कि यह अचानक किया फैसला है और झूठ का सहारा ले यह कह दिया कि यहां सैटल होने के लिए यहां की लड़की से शादी करने से मदद मिल जाती है.

पवन का मन परेशान हुआ कि बच्चे के बारे में जानेंगे तो क्या सोचेंगे. भाभी ने कहा कि मां उस के लिए यहां लड़कियां देख रही थीं. अचानक खबर से उन्हें काफी धक्का लगा है. पर अब क्या हो सकता है. तसल्ली दी कि जब तक मां पूरी तरह ठीक नहीं हो जाएंगी, वह यहां रह उन की देखभाल करेगी. नयन भी आतेजाते रहेंगे. बाद में वे मां को अपने साथ असम ले जाएंगे.

पिछली बार जब रमा असम गई थी तो कुछ दिनों के बाद ही कहना शुरू कर दिया था कि यहां बहुत अकेलापन है. वह वापस जाना चाहती है. नयन ने समझाने की बहुत कोशिश भी की थी कि आप की बहू, बेटा, पोता हैं, यहां अकेलापन कैसा और फिर यह भी आप का घर है. पर नहीं, वह जल्दी लौट आई थी.

इधर, ऐनी बच्चे क्रिस को अकेले संभालने में परेशान हो जाती थी. पवन रात में बच्चे के लिए कई बार जागता था. अब ऐनी के काम पर वापस जाने का समय हुआ. क्रिस को घर से दूर एक डेकेयर में छोड़ना तय हुआ. क्रिस को सुबह पवन छोड़ आता था, शाम को ऐनी ले आती थी. आसान नहीं था यह सब. अब आएदिन दोनों में किसी न किसी बात पर बहस होने लगी. बच्चे के कारण दोनों का बाहर घूमनाफिरना, मौजमस्ती कम हो गई थी. ऐनी जैसी मौजमस्ती में रहने वाली के लिए यह सब बदलाव मुश्किल सा हो गया था जबकि पवन ने बहुत सी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी.

अचानक एक दिन ऐनी को पता नहीं क्या सूझी, जो सीधा ही पवन से कह दिया कि वह नौकरी छोड़ बेबी क्रिस को ले अपनी मांबहन के पास स्कौटलैंड चली जाएगी.

पवन हैरत में था कि अपनी ओर से वह और क्या करे कि ऐनी अपना इरादा बदल ले. अभी इस बात को एक सप्ताह ही बीता था कि पवन को डेकेयर से फोन पर बताया गया कि मिस ऐनी का उन्हें फोन आया था कि आज आप क्रिस को लेने आएं, वे नहीं आ पाएंगी. ‘‘ठीक है,’’ कह कर पवन ने सोचा कि ऐनी यह बात सीधे उस से भी कह सकती थी. फिर यह सोच कर मन को तसल्ली दी कि वह आजकल बहुत परेशान व नाराज सी रहती है. इसलिए शायद उस से नहीं कहा.

पवन औफिस से जल्दी निकल, क्रिस को डेकेयर से घर लाया, उसे दूध पिलाया. ऐनी को कई बार फोन किया पर उस का फोन स्विच औफ था. उस का मन भयभीत होने लगा कि कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया. जब ऐसे करते रात के 12 बजने को आए तो चिंतित पवन कहां फोन करे, उस के पास तो ऐनी के किसी जानपहचान वाले या उस की मांबहन का नंबर तक नहीं था. कैसा बेवकूफ है वह, कभी उन से बात ही नहीं हुई.

रात 2 बजे फोन बजा तो उस ने लपक कर फोन उठाया, फोन ऐनी का ही था. उस ने सीधा कहा, ‘‘मैं अपनी मां के पास आ गई हूं. तुम्हें क्रिस को स्वयं पालना है, मुझे कुछ नहीं चाहिए. मेरा कोई पता या फोन नंबर नहीं है.’’

‘‘ऐनीऐनी’’ कहता रह गया पवन, और फोन कट गया. सिर धुन लिया पवन ने और सोते क्रिस को देख बेहाल हो गया. क्या कुसूर है उस का या इस नन्हे बच्चे का.

दिन बीतते गए. सब रोज के ढर्रे पर चलता रहा. ऐसा कब तक चलेगा? हताश हो कर सोचा, मां या भाई को बताऊं. पहले ऐनी के साथ रहने का बता मां को सदमा दिया था, अब उस से बड़ा सदमा देने के बारे में सोच कर ही डर गया.

कुछ तो करना होगा, यह सोच कर हिम्मत जुटा भाई को फोन किया तो पता चला वह 1 महीने के लिए दूसरी जगह पोस्ंिटग पर है. फोन पर पवन के रोने की आवाज सुन, भाभी डर गई, ‘‘पवन, क्या हुआ, ऐनी तो ठीक है?’’

‘‘भाभी, ऐनी मुझे छोड़ कर चली गई.’’

भाभी ने कुछ और समझा, ‘‘कैसे हुआ, क्या हुआ, तुम साथ नहीं थे क्या?’’

‘‘भाभी, वो अब मेरे साथ रहना नहीं चाहती. अपने बेटे को छोड़ कर, अपनी मां के पास चली गई है.’’

‘‘बेटे को, यानी तुम्हारा बेटा या केवल उस का?’’ भाभी कुछ अंदाजा लगा चुकी थी, ‘‘तुम ने पहले क्यों नहीं बताया?’’

‘‘जब पहली बार ऐनी के बारे में बताया था, तब हमारा बेटा क्रिस 2 महीने का था.’’

‘‘अब क्या करोगे?’’

‘‘भाभी, कुछ समझ नहीं आ रहा.’’

संजना ने कहा, ‘‘सुनो, बच्चे को ले सीधा हमारे पास चले आओ, तब तक तुम्हारे भाई भी आ जाएंगे. सब मिल कर कुछ उपाय सोचेंगे.’’

तुरंत बच्चे का पासपोर्ट बनवा, वीजा लगवा, काम से एक महीने की छुट्टी ले पवन वापस इंडिया चल पड़ा. भाई के घर वापस आने से 4 दिन पहले पहुंच गया. भाभी को पूरी बात बता, थोड़ा सहज हुआ.

‘‘कुछ गलत तो नहीं किया तुम ने ऐनी से शादी कर. अगर बच्चा पैदा हो गया तो विदेश में ऐसी बातें होती ही हैं.’’

‘‘भाभी, शादी नहीं की थी, सोचा था, कुछ समय इकट्ठा गुजारेंगे. पर उसी बीच वह प्रैग्नैंट हो गई. उस के बाद भी शादी कर लेता तो ठीक होता.’’

भाभी ने कहा, ‘‘अब अपने देश में भी अजीब सा चलन हो गया है लिवइन रिलेशनशिप का. लगता है लगाव, जिम्मेदारी, ममता केवल शब्द ही रह गए हैं, कोई भावना नहीं.’’

अगली सुबह नयन आ गए. अचानक पवन को वहां देख हैरान हुए और फिर घर में बच्चे के रोने की आवाज सुन और भी हैरान से हो गए. संजना ने जल्दी से कहा, ‘‘मैं चाय बनाती हूं. आप पहले अपने बेटे रोहन को जगाएं, आप को आया देख खुश होगा. फिर सब बात होगी.’’

नयन कुछ समझ नहीं पा रहा था. रोहन उठ, पापा से मिला और फिर भाग, दूसरे कमरे में ताली बजा नन्हे क्रिस को रोते से चुप कराने की कोशिश करने लगा. पवन ये सब देख अपने आंसू नहीं रोक पाया.

पत्नी संजना से सब जान नयन ने किसी को कुछ नहीं कहा.

नाश्ता करते नयन ने देखा पवन चुपचाप खाने की कोशिश कर रहा पर जैसे खाना उस के गले से नहीं उतर रहा था. नयन के कहने पर कि नाश्ते के बाद हमारे कमरे में मिलते हैं,

उस की घबराहट और बढ़ गई. क्रिस दूध पीने के बाद सो गया. रोहन को उस की पसंद का टीवी पर प्रोग्राम लगा दूसरे कमरे में बिठाया और फिर तीनों कमरे में मिले.

आगे पढ़ें- पवन ने वापस लौट कुछ समय के बाद…

लेखिका- वीना त्रेहन

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