अंतर्भास: भाग 3- आखिर क्या चाहती थी कुमुद

बदले में कुमुद के लिए उस अफसर से उस ने सरकारी दफ्तर में कंप्यूटर क्लर्क की नौकरी मांग ली. इस तरह कुमुद को वहां फिट करवा दिया. इस अहसान के बदले कुमुद की मां से अपने लिए उस का हाथ मांग लिया. जयेंद्र कहां गलत है इस में? सौदों की दुनिया में हर कोई नफा का सौदा करना चाहता है. तुम ठहरे नासमझ और कल्पनाओं की दुनिया में जीने वाले.’’ इतना कह कर वह बेशर्मी से मुसकराया और बोला, ‘‘जिस दिन तुम कुमुद के लिए कंप्यूटर ले जा रहे थे, उस दिन मैं तुम से कहना चाहता था कि कुमुद तुम्हारे हाथ नहीं आएगी, बेकार उस पर अपना वक्त और पैसा बहा रहे हो पर तुम्हें बुरा लगेगा, इसलिए चुप रह गया था. आखिर तुम हमारे साइबर कैफे को पुलिस से बचाने में मेरी मदद करते हो, मैं तुम्हें नाराज क्यों करता?’’

‘‘तुम्हारी इस सिलसिले में कुमुद से कभी बात हुई क्या?’’ मैं ने कुछ सोच कर पूछा. मैं जानना चाहता था, आखिर कुमुद ने उस बदसूरत आदमी को क्यों पसंद कर लिया, जबकि मैं अपनेआप को उस से हजार गुना बेहतर समझता हूं. ‘‘वह तुम्हें सिर्फ एक अच्छा दोस्त मानती है. तुम्हारी इज्जत करती है. एक भला और सही आदमी मानती है. पढ़ालिखा और समझदार व्यक्ति भी मानती है. पर इस का मतलब यह तो नहीं कि वह तुम्हें अपना जीवनसाथी भी मान ले? वह जानती है कि तुम्हारा अर्थतंत्र टूटा हुआ है. तुम इस शहर को छोड़ कर कहीं बाहर जाने का जोखिम नहीं लेना चाहते. कुछ नया और अच्छा करने का हौसला तुम में नहीं है. आजकल पैसा बनाने के लिए आदमी क्या नहीं कर रहा? गलाकाट प्रतिस्पर्धा का जमाना है मित्र. लोग अपने हित के लिए दूसरे का गला बेहिचक काट रहे हैं.’’

मैं कसमसाता चुप बना रहा तो कंप्यूटर मालिक कुछ संभल कर फिर बोला, ‘‘चींटियां वहीं जाती हैं जहां गुड़ होता है. जरा सोच कर देखो, उस का फैसला कहां गलत है? तुम्हारे साथ जुड़ कर उसे क्या वह सबकुछ मिलता जो जयेंद्र से जुड़ कर मिला है…सरकारी नौकरी, 10 लाख उस के नाम बैंक में जमा. अच्छा- खासा सारी सुखसुविधाओं से युक्त मकान…तुम उसे क्या दे पाते यह सब?’’

एक दिन अचानक कुमुद मेरे चबूतरे पर चढ़ आई. उस के स्वागत में मुसकरा कर खड़ा हो गया, ‘‘आओ, कुमुद…अब तो तुम ने इधर आना ही छोड़ दिया,’’ स्वर में शिकायत भी उभर आई. ‘‘नौकरी की व्यस्तता समझिए इसे और कुछ नई जिम्मेदारियां भी,’’ उस का इशारा संभवत: अपने विवाह की तरफ था. उस के बैठने के लिए भीतर से कुरसी ले आया. ‘‘चाय पीना पसंद करोगी मेरे साथ?’’ मुसकरा रहा था. पता नहीं चेहरे पर व्यंग्य था या रोष.

‘‘चाय पीना ही पसंद नहीं करती बल्कि आप से बातचीत करना भी बहुत पसंद करती हूं पर आज चाय आप नहीं, मैं बनाऊंगी आप के किचन में चल कर,’’ वह बेहिचक घर में आई. उसे किचन बताना पड़ा. सारा सामान चाय के लिए निकाल कर उस के सामने रखना पड़ा. चाय के दौरान उस ने सधे स्वर में कहा, ‘‘मेरी एक बात मानेंगे?’’ ‘‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैं तुम्हारी किसी बात को इनकार नहीं कर सकता,’’ मैं ने सिर झुका लिया. ‘‘हां, इस का एहसास है मुझे. इसी विश्वास के बल पर आज आई हूं आप से कुछ कहने के लिए,’’ उस ने कहा. ‘‘कहो,’’ मैं ने उस की तरफ देखा.

‘‘अपने अफसर को राजी किया है. वह आप को अखबार के कारण जानता है. हालांकि हिचक रहा था, अखबार में काम करते हो, कहीं सरकारी दफ्तर के जो ऊंचेनीचे काम होते हैं उन की पोल तुम कभी अखबार में न खोल डालो. पर मैं ने उन्हें तुम्हारी तरफ से विश्वास दिला दिया है कि तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, चुपचाप अपनी नौकरी करोगे.’’

‘‘मतलब यह कि तुम ने मेरी नौकरी की बात पक्की कर ली वहां. वह भी बिना मुझ से पूछे? बिना यह सूचना दिए कि मुझे वह नौकरी रास भी आएगी या नहीं? मैं कर भी पाऊंगा या नहीं? निभा भी सकूंगा सरकारी दफ्तरों के भ्रष्टाचार के साथ या नहीं?’’ मैं सवाल पर सवाल दागता चला था. ‘‘हां, बिना आप से पूछे. बिना आप को सूचित किए ही यह बात कर ली मैं ने, और मुझे इस के लिए उस अफसर को थोड़ीबहुत छूटें भी देनी पड़ीं, इतनी नहीं कि मेरी अस्मिता पर आंच आती पर किसी से हंसबोल लेना, दिखावटी थोड़ाबहुत फ्लर्ट कर लेना…अपना काम निकालने के लिए बुरा नहीं मान पाई मैं… और वह भी अपने इतने अच्छे दोस्त के लिए, अपनी दोस्ती के लिए इतना तो कर ही सकती थी न मैं,’’ वह मुसकरा रही थी.

फिर बोली, ‘‘मेरा मन कह रहा था कि मैं तुम से कहूंगी तो तुम मना नहीं करोगे. मैं जानती हूं तुम्हारे मन को…और न जाने क्यों, इतना हक भी मानती हूं तुम पर अपना कि मैं कहूंगी तो तुम मेरी बात मानोगे ही.’’ चुप रह गया मैं और दंग भी. अपलक उस के मुसकराते और गर्व से चमकते चेहरे की तरफ देखता रहा. ‘‘सरकारी दफ्तरों में हर काम गलत नहीं होता जनाब, हर आदमी भ्रष्ट नहीं होता. ऐसे बहुत से लोग हैं जो पूरी ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करते हैं. इतने दिन काम कर के मैं भी कुछ समझ पाई हूं उस तिलिस्म में घुस कर,’’ वह बोलती जा रही थी

‘‘क्या करना होगा मुझे?’’ मैं ने उस से पूछा. ‘‘टे्रजरी दफ्तर में तमाम बिल कंप्यूटरों पर तैयार होते हैं. वेतन बिल, पेंशन बिल, सरकारी खर्चों के लेनदेन के हिसाबकिताब…उन की टे्रनिंग चलेगी आप की 6 महीने…उस के बाद स्थायी पद दिया जाएगा. शुरू में 10 हजार रुपए मिलेंगे, इस के बाद क्षमता के आधार पर संविदा पर नियुक्ति की जाएगी.’’

‘‘संविदा का मतलब हुआ, अगर काम ठीक से नहीं कर पाया तो बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा,’’ मैं ने शंका जाहिर की. ‘‘हमेशा हर काम को करने से पहले आप उस के बुरे पक्ष के बारे में ही क्यों सोचते हैं? यह क्यों नहीं मानते कि 6 महीने की टे्रनिंग में आप जैसा प्रतिभावान और होनहार व्यक्ति बहुतकुछ सीख लेगा और संविदा पर ही सही, अच्छा काम कर के अफसरों को अपनी उपयोगिता सिद्ध करा देगा…आप की 2 हजार रुपए की नौकरी से तो यह हजारगुनी बेहतर नौकरी रहेगी…अगर नहीं कर पाएंगे तो अखबार तो आप के लिए हमेशा रहेंगे. पत्रकारिता आप को आती है, वह कहीं भी कर लेंगे आप…परेशान क्यों हैं?’’

उम्मीद नहीं थी कि कुमुद इतनी समझदार और संवेदनशील होगी. मैं चकित, अचंभित उस के चेहरे को देखता रह गया, उसे इनकार करता तो किस मुंह से और क्यों?

सीख: भाग 3- क्या सुधीर को कभी अपनी गलती का एहसास हो पाया?

बरात विदा होने के दूसरे दिन जया का वापस जाने का प्रोग्राम था, परंतु लता ने मम्मीजी को फोन कर के जया को कुछ दिन रोकने का आग्रह किया तो मम्मीजी मान गई. दो दिन में सब मेहमान विदा हो गए.

अब जया को सुधीर के कटाक्ष रहरह कर याद आने लगे थे और उन्हें सीख देने

की उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. लता के साथ जया ने कनाट प्लेस जा कर जींस, ट्राउजर, लो कट टौप, कमीज आदि खरीदे. सैलून में जा कर फेशियल कराया और बाल सेट कराए.

लता ने उसे बताया कि जींसटौप पहन कर जया खूब सुंदर व मौडर्न लग रही थी. शाम को लता के साथ जया क्लब गई. क्लब में जब स्त्रीपुरुष एकदूसरे के गले में बांहें डाल कर उन्मुक्त डांस करने लगे, तो कुछ लड़कों ने जया के साथ डांस करने की इच्छा प्रकट की. तब सिरदर्द होने का बहाना बना कर जया अपनी कुरसी पर बैठी रही, परंतु वह डांस करते हुए जोड़ों के हावभाव एवं पदसंचालन को भलीभांति देखती रही. जरूरत पड़ने पर वह सुधीर के सामने डांस भी कर सकने हेतु अपने को तैयार कर रही थी. यह काम लगभग प्रतिदिन चलता रहा.

पहले दिन से ही जया लता की फैमिली में घुलमिल गई थी और जल्द ही उस के भाइयों के साथ उस ने खुल कर बात करना सीख लिया था. जल्द ही आधुनिक सोशल लाइफ लीड करने को उस ने अपने को तैयार कर लिया.

लता के पति शैलेंद्र ने जया को लखनऊ वापस जाने के लिए एसी में बर्थ रिजर्व करा दी.

2 सप्ताह बीत जाने पर लता और शैलेंद्र जया को ट्रेन में बैठा आए.

जया ने बादामी ट्राउजर व मैचिंग टौप पहना हुआ था, उस के घुंघराले बाल कंधों तक लटक रहे थे. चेहरे पर हलका मेकअप था. इस ड्रैस में जया बेहद आकर्षक लग रही थी. ट्रेन में बर्थ पर अधलेटी सी वह इंगलिश का एक नावेल पढ़ने लगी कि दूसरी बर्थ पर एक नवयुवक कब आ गया, उस ने ध्यान ही नहीं दिया.

‘‘आप लखनऊ में ही रहती हैं?’’ आवाज सुन कर जया चौंक गई.

‘‘हां, मैं पिछले कई सालों से लखनऊ में ही हूं,’’ जया ने निर्भीक हो कर उत्तर दिया.

‘‘मेरा नाम विजयेंद्र कुमार शुक्ला है,

आप चाहें तो मुझे विजय कह सकती हैं.

मैं आर्मी में कैप्टन हूं. मेरी पोस्टिंग आजकल देहली में है. मैं 1 महीने की छुट्टी पर अपने घर जा रहा हूं. मेरा घर लखनऊ में गोमतीनगर में है,’’ कहतेकहते विजय ने अपना विजिटिंग कार्ड जया के आगे बढ़ा दिया.

‘‘धन्यवाद,’’ कह कर जया ने कार्ड ले लिया. कैप्टन शुक्ला उसे कुछ बातूनी तो लगा, परंतु उस का बेझिझक एवं निर्भीक व्यवहार अच्छा भी लगा.

‘‘क्या आप का परिचय जान सकता हूं?’’ विजय ने पूछा.

‘‘मैं सीतापुर की रहने वाली हूं, लखनऊ यूनिवर्सिटी से होस्टल में रह कर मैं ने एम.ए. पास किया है. इस समय अपनी बहन के पास निरालानगर में रह कर कंपिटिशन की तैयारी कर रही हूं. इसी सिलसिले में दिल्ली गई थी,’’ जया ने सफेद झूठ बोला था. आज उसे अपनी वैवाहिक स्थिति छिपाने में बच्चों द्वारा किए जाने वाले खेल जैसा मजा आ रहा था.

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई,’’ विजय ने प्रसन्न मुद्रा में कहा.

‘‘मुझे भी,’’ जया ने मन ही मन मुसकराते हुए उत्तर दिया.

फिर रास्ते में विजय तमाम बातें करता रहा और जया उत्सुकता से सुनती रही. जब लखनऊ स्टेशन आ गया, ट्रेन रुकी तो जया ने सिर उठाया. देखा कि सुधीर डब्बे के पास खड़ा है, उसे लेने आया था.

‘‘विजय, तुम्हारे साथ रास्ता कितनी जल्दी पार हो गया, पता ही नहीं चला,’’ जया ने इतनी जोर से कहा कि सुधीर सुन ले.

‘‘अभी तो 1 महीना लखनऊ में ही हूं, मुलाकातें होती रहनी चाहिए,’’ विजय ने अभी तक सुधीर की तरफ ध्यान नहीं दिया था.

‘‘हां, आप का फोन नंबर पास है, फोन करती रहूंगी, अब तो मिलनाजुलना होता ही रहेगा,’’ जया जानबूझ कर खूब जोरजोर से बोल रही थी.

जया ने बड़ी आत्मीयता प्रदर्शित करते हुए विजय से हाथ मिलाया और अटैची हाथ में ले कर खटाखट नीचे उतर गई. सुधीर आश्चर्य से कभी जया को तो कभी विजय को देख रहा था. उस के बोलने की शक्ति समाप्तप्राय हो गई थी.

‘‘अरे भई जल्दी चलो, क्या सोचने लगे? बड़ी गरमी है,’’ प्लेटफार्म पर आते ही जया ने सुधीर का हाथ खींचते हुए कहा.

सुधीर की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. जया के रंगढंग देख कर वह भौचक्का हो रहा था. चुपचाप चल दिया और जया के साथ कार में बैठ कर घर आ गया.

‘‘जया बेटी, 2 हफ्ते में तुम इतनी बदल गई?’’ मम्मीजी ने जया को देख कर आश्चर्य से कहा.

‘‘और मम्मी इन से पूछो कि ट्रेन में इन के साथ वह कौन युवक था, जिस से ये हंसहंस कर बातें कर रही थीं और हाथ मिला कर फिर मिलने का वादा कर के आई हैं,’’ सुधीर गुस्से में बोला.

‘‘अरे मम्मीजी, वे विजय थे, आर्मी में कैप्टन हैं और देहली में पोस्टेड हैं. यहां गोमतीनगर में अपने घर 1 महीने की छुट्टी पर आए हैं. मम्मीजी, वे एक चित्रकार भी हैं, अपनी बनाई हुई कितनी सुंदर पेंटिंग उन्होंने मुझे प्रैजेंट की है. वे प्रतिभावान होने के साथसाथ बहुत सोशल भी हैं, उन के साथ रास्ता कब कट गया, पता ही नहीं चला,’’ यह कहते हुए जया ने कनाट प्लेस से खरीदी हुई एक पेंटिंग मम्मीजी के सामने रख दी.

‘‘अच्छा तो अब आप उन का प्रैजेंट भी लेने लगीं?’’ सुधीर अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा था.

‘‘अरे भई, पत्नी तो हम आप की ही रहेंगी. घड़ी दो घड़ी किसी से हंसबोल कर मन बहला लिया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा?’’ जया ने सुधीर द्वारा कहे शब्दों को दोहरा दिया.

सुधीर गुस्से से पागल हो रहा था, उस से आगे कुछ बोला नहीं गया, वह उठ कर दूसरे कमरे में चला गया.

‘‘जया बेटी, शंभू ने खाना मेज पर लगा दिया है, नहाधो कर कपड़े चेंज कर लो, फिर कुछ खापी लो,’’ मम्मीजी ने उस समय बात को टालते हुए कहा.

जया बाथरूम में चली गई. नहाधो कर साड़ी पहन कर बाहर निकली. तब मम्मीजी उस की ओर देख कर बोलीं, ‘‘जया, साड़ी पहन कर तुम कितनी सुंदर लगती हो, ये मौडर्न कपड़े अपनी बहूबेटियों को शोभा नहीं देते. अपने देश का पहनावा तो साड़ी ही है.’’

‘‘मम्मीजी, मेरी समझ में नहीं आता मैं उन को कैसे खुश करूं? इतने दिनों से वे मुझे दकियानूसी, अनसोशल कहते रहे और अब जब कुछ नया सीखा है तो भी खुश नहीं हैं,’’ जया ने अपने मन की बात कही.

सुधीर आज जया को विजय के साथ घुलमिल कर बोलते देख कर उद्विग्न था और बगल के कमरे में उस की और मम्मी की बातें सुन रहा था. जया की बातें सुन कर वह वहीं आ गया और अपनी सफाई देता हुआ और मम्मी की ओर देखते हुए बोला, ‘‘मम्मी, मेरा मतलब यह थोड़े ही था कि जया जींस और लो कट टौप पहन कर अल्ट्रा मौडर्न बन जाए और गैरमर्दों के साथ दोस्ती करती फिरे.’’

सुधीर का रोंआसा सा मुंह देख कर जया समझ गई कि सुधीर को अपनी गलती का एहसास हो रहा था, ‘‘अच्छा मम्मीजी, मुझे बड़ी भूख लगी है, थोड़ा खापी लूं, तब बात करेंगे,’’ कहतेकहते जया डाइनिंगरूम की ओर चल दी. वह अपनी सफलता पर मन ही मन फूली नहीं समा रही थी.

यह कैसा प्रेम: आलिया से क्यों प्यार करता था वह

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वसीयत: भाग 2- भाई से वसीयत में अपना हक मांगने पर क्या हुआ वृंदा के साथ?

अफसोस, मैं चाह कर भी रातों में उन के दर्द के साथ जागने के और कुछ न कर सकी. बस पैरों को हलकेहलके दबाती रहती. जब हाथों का स्पर्श ढीला पड़ जाता तो वरुण समझ जाते कि मैं थक गई हूं, तब मेरा मन रखने को कह देते कि अब आराम है. सो जाओ. इंदौर तक डाक्टरों से इलाज कराया, मगर रोग था कि पकड़ में ही नहीं आ रहा था.

फिर मित्रों के कहने पर कि बाहर किसी स्पैशलिस्ट को दिखाया जाए. अत: मुंबई दिखाने का तय हुआ. प्रियांश अभी 6-7 माह का ही था. मुझे छोटे बच्चे के साथ परेशानी होगी, इसलिए वरुण के एक मित्र अखिलेशजी और मांजी दोनों ही साथ मुंबई आए. मेरे लिए आदेश था कि तुम चिंता न करो. फोन से सूचना देते रहेंगे. उन्हें गए 2-3 दिन हो गए, मगर कोई खबर नहीं.

मैं रोज पूछती कि क्या कहा डाक्टर ने तो मांजी का यही जवाब होता कि अभी डाक्टर टैस्ट कर रहे हैं, रिपोर्ट नहीं आई है. आने पर पता चलेगा.

5वें दिन मांजी, अखिलेशजी और वरुण तीनों ही बिना किसी सूचना के घर आ गए. मैं तो अचंभित ही रह गई.

‘‘यह क्या मांजी? न कोई फोन न खबर… आप तो इलाज के लिए गए थे न? क्या कहा डाक्टर ने? सब तो ठीक है?’’

मगर सभी एकदम खामोश थे.

‘‘कोई कुछ बताता क्यों नहीं?’’

कोई क्या कहता. सभी सदमे में जो थे.

वरुण का चेहरा भी उतरा था. मांजी को तो मानो किसी ने निचोड़ दिया हो. सब भी था. वह मां भला क्या जवाब देती जिस ने पति के न रहने पर जाने कितनी जिल्लतों को सह कर अपने बेटे को इस उम्मीद पर बड़ा किया कि उस का हंसताखेलता परिवार देख सके. जीवन के अंतिम क्षणों में उस की अर्थी को कंधा देने वाला कोई है तो मौत से भी बेपरवाही थी. मगर आज उसी मां के इकलौते बेटे को डाक्टर ने चंद सांसों की मोहलत दे कर भेजा है.

जी हां, डाक्टर ने बताया कि वरुण को लंग्स कैंसर है जो अब लाइलाज हो चुका है. दुनिया का कोई डाक्टर अब कुछ नहीं कर सकता. उन के अनुसार 4-5 महीने जितने भी निकल जाए बहुत हैं.

जो घर कभी प्रियांश की किलकारियों से गूंजता था वहां अब वरुण के दर्द की कराहें और एक बेबस मां की आंहें ही बस सुनाई देती थीं. मैं उन दोनों के बीच ऐसी पिस कर रह गई थी कि खुल कर रो भी नहीं पाती थी. घर का जब मजबूत खंभा भरभरा कर गिरने लगे तो कोई तो हो जो अंतिम पलों तक उसे इस उम्मीद पर टिकाए रखे कि शायद कोई चमत्कार हो जाए.

घर में अब हर समय मायूसी छाई रहती. किसी काम में मन न लगता, जिंदगी के दीपक की लौ डूबती सी लगती. डाक्टरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए थे. फिर भी ममता की डोर और

7 फेरों के अटूट बंधन में अब भी आशा का एक नन्हा दीपक टिमटिमा रहा था.

मगर धर्म और आस्था नाम की तो कोई चीज है नहीं दुनिया में, फिर भी जब व्यक्ति संसार से हताश हो जाता है तो इसी आखिरी छलावे के पीछे भागता है. यों तो कैंसर नाम ही इतना घातक है कि मरीज उस के सदमे से ही अपनी जीजिविषा खो बैठता है.

डाक्टर भी अपनी जगह गलत नहीं थे, मगर बावरा मन भला कैसे मानता? अत: जो जहां भी रोशनी की किरण दिखाता हम वरुण को ले कर दौड़ पड़ते. प्रेम और ममता के आगे विज्ञान का ज्ञान भी धरा रह जाता है.

हम सभी जानते थे कि वरुण एक लाइलाज बीमारी से जूझ रहे हैं. मगर फिर भी कीमो थेरैपी कराई कि कहीं कोई चमत्कार हो जाए, पैसा पानी की तरह बह रहा था. व्यापार तो लगभग ठप्प ही समझो. इधर वरुण की भागमभाग में प्रियांश की अनदेखी होने से वह भी बीमार हो गया. सच जिंदगी हर तरफ से इम्तिहान ले रही थी. हम वरुण को 6 माह से ज्यादा न जिला पाए.

मांजी तो एक जिंदा लाश बन कर रह गईं. अगर प्रियांश न होता हमारे पास, तो शायद हम दोनों भी उस दिन ही मर गई होतीं. मगर जिंदा थे, इसलिए आगे की चिंता सताने लगी. व्यापार खत्म हो चुका था, घर बैंक के लोन से बना था. अभी तो मात्र एकचौथाई किश्तें ही भर पाए थे और अब यह क्रम जारी रहे, उस की कोई संभावना नहीं थी. अत: मकान भी हाथ से जाता रहा.

किसी ने सच कहा है बुरे वक्त पर ही अपनेपराए इनसानों की परख होती है. इस मुश्किल घड़ी में दोनों बहनों ने अपने अनुसार बहुत मदद की, मगर अमृत भैया कुछ मुंह चुराने लगे हैं, यह खयाल एक पल को मन में आया अवश्य था, मगर अचानक परेशानियों के हमले से इतनी विचलित थी कि इस बारे में गंभीरता से सोच सकूं, इतना समय ही नहीं मिला. जबकि मां अभी जिंदा थीं. किंतु शायद मां की हुकूमत नहीं रह गई थी अब घर में, भुक्तभोगी थीं.

अत: समझ पा रही थी कि हमारे समाज में आज भी वैधव्य के आते औरत का रुतबा कम हो जाता है. बचपन वाली वे मां कहीं खो गई थीं, जो मेरे जरा से रोने पर दोनों बहनों कृष्णा व मृदुला और अमृत भैया से उन की चीजें भी मुझे दिला दिया करती थीं.

मन में कहीं कुछ कसकता था तो वह यह कि वरुण के अभाव में प्रियांश को वह खुशी, वह सुख नहीं दे पाई जिस का कि वह हकदार था. हालांकि बहनें उस के खिलौनों और कपड़ों का पूरापूरा ध्यान रखतीं, मगर यह तो स्नेहा था उन का. हक तो फिर भी नहीं. हालात कुछ ऐसे बने कि गृहस्थी, किराए के एक छोटे से मकान में सिमट कर रह गई. हालात इजाजत न देते कि घर से बाहर जा कर कोई नौकरी करती, क्योंकि मांजी और प्रियांश की देखभाल ज्यादा जरूरी थी.

सामने एक तरफ दिशाहीन जीवन था, तो दूसरी ओर प्रियांश का अंधकारमय भविष्य. क्या होगा? चिंता में सीढि़यों पर बैठी थी कि अचानक कृष्णा दीदी को करीब पा कर चौंक गई, ‘‘अरे दीदी आप? कब आईं? पता ही नहीं चला.’’

‘‘अभी आई हूं. तुम शायद किसी सोच में खोई थीं.’’

‘‘हां दीदी, यह बेल देख रही थी, कितने जतन से इसे लगाया था. रोज सींचती थी. देखो कैसे अब फूलों से लद गई है. मन को बहुत सुकून देती यह. मैं ने इसे उस पेड़ के सहारे ऊपर चढ़ा दिया था… देखो न कल रात तेज आंधी से वह पेड़ धराशायी हो गया. अपना आश्रय छिनते ही देखो कैसे जमीन पर आ गिरी है, एकदम निर्जीव… असहाय बिलकुल हमारी तरह… एक आलंबन के बिना हमारी जिंदगी भी तो ऐसी ही हो कर रह गई है… बिलकुल असहाय… है न दीदी?’’

लौट जाओ सुमित्रा: भाग 3- उसे मुक्ति की चाह थी पर मुक्ति मिलती कहां है

‘‘लेकिन विवाद के बाद मैं ने तो जानबूझ कर अपने अंदर की प्रतिभा को दफना दिया ताकि दोनों के अहं का टकराव न हो और पुरुषत्व हीनभावना का शिकार न हो जाए. अकसर पढ़ीलिखी बीवी की कामयाबी पति को चुभती है.’’

‘‘सही कह रही हो, ऐसा हो सकता है पर सब के साथ एक ही पैमाना लागू नहीं होता है. वह तुम्हें कामयाब देखना चाहता था, इसलिए छोटीछोटी अड़चनों से तुम्हें दूर रखना चाहा होगा और तुम स्वामित्व व अधिकार में ऐसी उलझी कि न सिर्फ अपनों से दूर होती चली गईं बल्कि यह भी मान लिया कि तुम्हारी वहां कोई जरूरत नहीं है. भूल तेरी ही है.’’

‘‘लेकिन संवेदनाओं को साझा करना क्या स्वामित्व के दायरे में आता है?’’

‘‘नहीं, वह तो जीवन का हिस्सा है, पर शायद शुरुआत ही कहीं से गलत हुई है. एक बार फिर शुरू कर के देख, तू तो कभी इतने उल्लास से भरी थी, फिर जीने की कोशिश कर.’’ समझाने की प्रक्रिया जारी थी.

‘‘कोशिशकोशिश, पर कब तक?’’ सुमित्रा त्रस्त हो उठी थी.

‘‘तू ने कभी कोशिश की?’’

‘‘बहुत की, तभी तो पराजय का अनुभव होता है.’’ सुमित्रा का मन हो रहा था कि वह झ्ंिझोड़ डाले उन्हें, क्यों बारबार उसी से समस्त उम्मीदें रखीं उन्होंने.

‘‘वह तो होगा ही, जब तब प्यार नहीं करती अपने पति से.’’

उथलपुथल सी मच गई उस के भीतर. कहीं यही तो ठीक नहीं है, पति को प्यार नहीं करती पर उस ने बेहद कोशिश की थी पूर्ण समर्पण करने की. बस, एक बार उसे यह एहसास करा दिया जाता कि वह घर की छोटीछोटी बातों का निर्णय ले सकती है. उसे चाबी का वह गुच्छा थमा दिया जाता जो हर पत्नी का अधिकार होता है तो वह उस आत्मसंतोष की तृप्ति से परिपूर्ण हो खुद ही प्यार कर बैठती. पर उसे उस तृप्ति से वंचित रखा गया जो मन को कांतिमय कर एक दीप्ति से भर देती है चेहरे को.

शरीर की तृप्ति ही काफी होती है, क्या, बस. वहीं तक होता है पत्नी का दायरा, उस के आगे और कुछ नहीं. फिर वह तो बलात्कार हुआ. इच्छा, अनिच्छा का प्रश्न कब उस के समक्ष रखा गया है. प्यार कोई निर्जीव वस्तु तो नहीं जिसे एक जगह से उठा कर दूसरी जगह फिट कर दिया जाए.

‘‘मैं ने बहुत कोशिश की और साथ रहतेरहते एक लगाव भी उत्पन्न हो जाता है, पर दूसरा इंसान अगर दूरी बनाए रखे तो कैसे पनपेगा प्यार?’’

‘‘फिर बच्चे?’’ उन्होंने तय कर लिया था कि चाहे आज सारी रात बीत जाए पर वे सुमित्रा के मन की सारी गांठें खोल कर ही दम लेंगे, चाहे उन के ध्यान का समय भी क्यों न बीत जाए.

यह कैसा प्रश्न पूछा? स्वयं इतने ज्ञानी होते हुए भी नहीं जानते कि बच्चे पैदा करने के लिए शारीरिक सान्निध्य की जरूरत होती है, प्यार की नहीं. उस के लिए मन मिलना जरूरी नहीं होता. क्या बलात्कार से बच्चे पैदा नहीं होते? मन का मिलाप न हो तो अग्नि के समक्ष लिए हुए फेरे भी बेमानी हो जाते हैं. गठजोड़ पल्लू बांधने से नहीं होता. दोनों प्राणियों को ही बराबर से प्रयास कर मेल करना होता है. एक ज्यादा करे, दूसरा कम, ऐसा नहीं होता. फिर विवाह सामंजस्य न हो कर बोझ बन जाता है जिसे मजबूरी में हम ढोते रहते हैं.

बस, बहुत हो चुका, अब चली जाएगी यहां से वह. कितना उघाड़ेगी वह अपनेआप को. नग्नता उसे लज्जित कर रही है और वे अनजान बने हुए हैं. उसे क्या पता था कि जिन से वह मुक्ति का मार्ग पूछने आई है, वे उन्हें हराने पर तुले हुए हैं.

‘‘मैं जानती हूं कि बड़ा व्यर्थ सा लगेगा यह सुनना कि मेरा पति मुझे रसोई तक का स्वामित्व नहीं देता, वहां भी उस का दखल है, दीवारों से ले कर फर्नीचर के समक्ष मैं बौनी हूं. दीवारें जब मैली हो जाती हैं तो नए रंगरोशन की इच्छा करती हैं, फर्नीचर टूट जाता है तो उसे मरम्मत की जरूरत पड़ती है, पर मैं तो उन निर्जीव वस्तुओं से भी बेकार हूं. मुझे केवल दायित्व निभाने हैं, अधिकार की मांग मेरे लिए अवांछनीय है. हैं न ये छोटीछोटी व नगण्य बातें?’’

‘‘हूं.’’ वे गहन सोच में डूब गए. ‘समस्या साफ है कि वह स्वामित्व की भूखी है ताकि घर को अपनी तरह से परिभाषित कर उसे अपना कह सके. हर किसी को अपनी छोटी सी उपलब्धि की चाह होती है. चाहे स्त्री कितनी ही सुरक्षित व आधुनिक क्यों न हो, वह भी छोटेछोटे सुख और उन से प्राप्त संतोष से युक्त साधारण जिंदगी की अपेक्षा करती है, चाहे वह दूसरों को बाहर से देखने पर कितनी ही सामान्य क्यों न लगे.’

‘‘फिर भी बेटी…’’ इतने लंबे संवाद के बाद अब उन्होंने इस संबोधन का प्रयोग किया था. वे तो समझ रहे थे कि बेकार ही घबरा कर यह पलायन करने निकल पड़ी है वरना सुखसाधनों के जिस अंबार पर वह बैठी है, वहां आत्मसंतुष्टि की कैसी कमी…सुशिक्षित, विवेकी पति, आचरण भी मर्यादित है…फिर दुख का सवाल कहां उठता है.

‘‘लौटना तो तुझे होगा ही, धैर्य रख और अपने आत्मविश्वास को बल दे. किसी रचनात्मक कार्य को आधार बना ले. ध्यान बंटा नहीं कि सबकुछ सहज हो जाएगा. तूने भी खुद को केंचुल में बंद कर के रखा हुआ है. अध्ययन, अध्यापन सब चुक गए हैं तेरे. उन्हें फिर आत्मसात कर,’’ कहते हुए शब्दों में कुछ अवरोध सा था.

पश्चात्ताप तो नहीं कहीं…

चलो बेटी तो कहा, यह सोच कर सुमित्रा थोड़ी आश्वस्त हुई. ‘‘मैं चाहती हूं आप एक बार फिर पिता बन कर देखें, तभी पुत्री की मनोव्यथा का आभास होगा. ज्ञानी, महात्मा का चोला कुछ क्षणों के लिए उतार फेंकें, बाबूजी,’’ सुमित्रा समुद्र में पत्थर मार उफान लाने की कोशिश कर रही थी, ‘‘ध्यान मग्न हो सबकुछ भुला बैठे, पलायन तो आप ने किया है, बाबूजी. माना मैं ही एकमात्र आप की जिम्मेदारी थी जिसे ब्याह कर आप अपने को मुक्त मान संसार से खुद को काट बैठे थे.

‘‘12 वर्षों तक आप ने सुध भी न ली यह सोच कर कि धनसंपत्ति के जिस अथाह भंडार पर आप ने अपनी बेटी को बैठा दिया है, उसे पाने के बाद दुख कैसा. ज्ञानी होते हुए भी यह कैसे मान लिया कि आप ने सुखों का भंडार भी बेटी को सौंप दिया है. यह निश्चितता भ्रमित करने वाली है, बाबूजी.’’ सुमित्रा का स्वर बीतती रात की भयावहता को निगलने को आतुर था. बवंडर सा मचा है. हाहाकार, सिर्फ हाहाकार.

‘‘अब इतने सालों बाद क्यों चली आई हो मेरी तपस्या भंग करने, क्या मुझे दोषी ठहराने के लिए…मैं नियति को आधार बना दोषमुक्त नहीं होना चाहता. हो भी नहीं सकता कोई पिता, जिस की बेटी संताप लिए उस के पास आई हो. लौट जाओ सुमित्रा और संचित करो अपनेआप को, अपने भीतर छिपे बुद्धिजीवी से मिलो, जिसे तुम ने 12 सालों से कैद कर के रखा है. वापस अध्यापन कार्य शुरू करो. पर दायित्व निभाते रहना, अधिकार तुम से कोई नहीं छीन पाएगा. समय लग सकता है. उस के लिए तुम्हें अपने प्रति निष्ठावान होना पड़ेगा.

‘‘संबल अंदरूनी इच्छाओं से पनपता है. यहांवहां ढूंढ़ने से नहीं. तुम्हें लौटना ही होगा, सुमित्रा. अपने घर को मंजिल समझना ही उचित है वरना कहीं और पड़ाव नहीं मिलता. तुम कहोगी कि बाबूजी आप भी घर छोड़ आए, लेकिन मेरे पीछे कोई नहीं था, सो, चिंतन करने को एकांत में आ बसा. ध्यान कर अकेलेपन से लड़ना सहज हो जाता है. संघर्ष कर हम एक तरह से स्वयं को टूटने से बचाते हैं, तभी तो रचनाक्रम में जुटते हैं, इसी से गतिशीलता बनी रहती है.’’

एक ताकत, एक आत्मविश्वास कहां से उपज आए हैं सुमित्रा के अंदर. लौटने को उठे पांवों में न अब डगमगाहट है न ही विरोध. क्षमताएं जीवंत हो उठें तो असंतोष बाहर कर संतोष की सुगंध से सुवासित कर देती हैं मनप्राणों को.

गांठ खुल गई- भाग 2 : क्या कभी जुड़ पाया गौतम का टूटा दिल

पहले छुट्टियों में पिता की दुकान संभालता था. अब पिता के कहने पर भी दुकान पर नहीं जाता था. उसे लगता था कि दुकान पर जाएगा तो महल्ले की लड़कियां उस पर छींटाकशी करेंगी तो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगा.

इसी तरह घटना को 2 वर्ष बीत गए. इषिता ने ग्रैजुएशन कर ली. जौब की तलाश की, तो वह भी मिल गई. बैक में जौब मिली थी. पोस्टिंग मालदह में हुई थी.

जाते समय इषिता ने उस से कहा, कोलकाता से जाने की इच्छा तो नहीं है पर सवाल जिंदगी का है. जौब तो करनी ही पड़ेगी, पर 6-7 महीने में ट्रांसफर करा कर आ जाऊंगी. विश्वास है कि तब तक श्रेया को दिल से निकाल फेंकने में सफल हो जाओगे.

इषिता मालदह चली गई तो गौतम पहले से अधिक अवसाद में आ गया. तब उस के मातापिता ने उस की शादी करने का विचार किया.

मौका देख कर मां ने उस से कहा, ‘‘जानती हूं कि इषिता सिर्फ तुम्हारी दोस्त है. इस के बावजूद यह जानना चाहती हूं कि यदि वह तुम्हें पसंद है तो बोलो, उस से शादी की बात करूं?’’

‘‘वह सिर्फ मेरी दोस्त है. हमेशा दोस्त ही रहेगी. रही शादी की बात, तो कभी किसी से भी शादी नहीं करूंगा. यदि किसी ने मुझ पर दबाव डाला तो घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

गौतम ने अपना फैसला बता दिया तो मां और पापा ने उस से फिर कभी शादी के लिए नहीं कहा. उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

लेकिन एक दोस्त ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘श्रेया से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती, यह अच्छी तरह जानते हो. फिर जिंदगी बरबाद क्यों कर रहे हो? किसी से विवाह कर लोगे तो पत्नी का प्यार पा कर अवश्य ही उसे भूल जाओगे.’’

‘‘जानता हूं कि तुम मेरे अच्छे दोस्त हो. इसलिए मेरे भविष्य की चिंता है. परंतु सचाई यह है कि श्रेया को भूल पाना मेरे वश की बात नहीं है.’’

दोस्त ने तरहतरह से समझाया. पर वह किसी से भी शादी करने के लिए राजी नहीं हुआ.

इषिता गौतम को सप्ताह में 2-3 दिन फोन अवश्य करती थी. वह उसे बताता था कि जल्दी ही श्रेया को भूल जाऊंगा. जबकि हकीकत कुछ और ही थी.

हकीकत यह थी कि इषिता के जाने के बाद उस ने कई बार श्रेया को फोन लगाया था. पर लगा नहीं था. घटना के बाद शायद उस ने अपना नंबर बदल लिया था.

न जाने क्यों उस से मिलने के लिए वह बहुत बेचैन था. समझ नहीं पा रहा था कि कैसे मिले. अंजाम की परवा किए बिना उस के घर जा कर मिलने को वह सोचने लगा था.

तभी एक दिन श्रेया का ही फोन आ गया. बहुत देर तक विश्वास नहीं हुआ कि उस का फोन है.

विश्वास हुआ, तो पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘तुम से मिल कर अपना हाल बताना चाहती हूं. आज शाम के 7 बजे साल्ट लेक मौल में आ सकते हो?’’ उधर से श्रेया ने कहा.

खुशी से लबालब हो कर गौतम समय से पहले ही मौल पहुंच गया. श्रेया समय पर आई. वह पहले से अधिक सुंदर दिखाई पड़ रही थी.

उस ने पूछा, ‘‘मेरी याद कभी आई थी?’’

‘‘तुम दिल से गई ही कब थीं जो याद आतीं. तुम तो मेरी धड़कन हो. कई बार फोन किया था, लगा नहीं था. लगता भी कैसे, तुम ने नंबर जो बदल लिया था.’’

उस का हाथ अपने हाथ में ले कर श्रेया बोली, ‘‘पहले तो उस दिन की घटना के लिए माफी चाहती हूं. मुझे इस का अनुमान नहीं था कि मेरे झूठ को पापा और भैया सच मान कर तुम्हारी पिटाई करा देंगे.

‘‘फिर कोई लफड़ा न हो जाए, इस डर से पापा ने मेरा मोबाइल ले लिया. अकेले घर से बाहर जाना बंद कर दिया गया.

‘‘मुंबई से तुम्हें फोन करने की कोशिश की, परंतु तुम्हारा नंबर याद नहीं आया. याद आता तो कैसे? घटना के कारण सदमे में जो थी.

‘‘फिलहाल वहां ग्रैजुएशन करने के बाद 3 महीने पहले ही आई हूं. बहुत कोशिश करने पर तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा नंबर मिला, तो तुम्हें फोन किया. मेरी सगाई हो गई है. 3 महीने बाद शादी हो जाएगी.

‘‘यह कहने के लिए बुलाया है कि जो होना था वह हो गया. अब मुद्दे की बात करते हैं. सचाई यह है कि हम अब भी एकदूसरे को चाहते हैं. तुम मेरे लिए बेताब हो, मैं तुम्हारे लिए.

‘‘इसलिए शादी होेने तक हम रिश्ता बनाए रख सकते हैं. चाहोगे तो शादी के बाद भी मौका पा कर तुम से मिलती रहूंगी. ससुराल कोलकाता में ही है. इसलिए मिलनेजुलने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’

श्रेया का चरित्र देख कर गौतम को इतना गुस्सा आया कि उस का कत्ल कर फांसी पर चढ़ जाने का मन हुआ. लेकिन ऐसा करना उस के वश में नहीं था. क्योंकि वह उसे अथाह प्यार करता था. उसे लगता था कि श्रेया को कुछ हो गया तो वह जीवित नहीं रह पाएगा.

उसे समझाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे इतना प्यार करती हो तो शादी मुझ से क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘इस जमाने में शादी की जिद पकड़ कर क्यों बैठे हो? वह जमाना पीछे छूट गया जब प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी एकदूसरे से कहते थे कि जिंदगी तुम से शुरू, तुम पर ही खत्म है.

‘‘अब तो ऐसा चल रहा है कि जब तक साथ निभे, निभाओ, नहीं तो अपनेअपने रास्ते चले जाओ. तुम खुद ही बोलो, मैं क्या कुछ गलत कह रही हूं? क्या आजकल ऐसा नहीं हो रहा है?

‘‘दरअसल, मैं सिर्फ कपड़ों से ही नहीं, विचारों से भी आधुनिक हूं. जमाने के साथ चलने में विश्वास रखती हूं. मैं चाहती हूं कि तुम भी जमाने के साथ चलो. जो मिल रहा है उस का भरपूर उपभोग करो. फिर अपने रास्ते चलते बनो.’’

श्रेया जैसे ही चुप हुई, गौतम ने कहा, ‘‘लगा था कि तुम्हें गलती का अहसास हो गया है. मुझ से माफी मांगना चाहती हो. पर देख रहा हूं कि आधुनिकता के नाम पर तुम सिर से पैर तक कीचड़ से इस तरह सन चुकी हो कि जिस्म से बदबू आने लगी है.

‘‘यह सच है कि तुम्हें अब भी अथाह प्यार करता हूं. इसलिए तुम्हें भूल जाना मेरे वश की बात नहीं है. लेकिन अब तुम मेरे दिल में शूल बन कर रहोगी, प्यार बन कर नहीं.’’

श्रेया ने गौतम को अपने रंग में रंगने की पूरी कोशिश की, परंतु उस की एक दलील भी उस ने नहीं मानी.

उस दिन से गौतम पहले से भी अधिक गमगीन हो गया.

इस तरह कुछ दिन और बीत गए. अचानक इषिता ने फोन पर बताया कि उस ने कोलकाता में ट्रांसफर करा लिया है. 3-4 दिनों में आ जाएगी.

गांठ खुल गई- भाग 1 : क्या कभी जुड़ पाया गौतम का टूटा दिल

श्रेया से गौतम की मुलाकात सब से पहले कालेज में हुई थी. जिस दिन वह कालेज में दाखिला लेने गया था, उसी दिन वह भी दाखिला लेने आई थी.

वह जितनी सुंदर थी उस से कहीं अधिक स्मार्ट थी. पहली नजर में ही गौतम ने उसे अपना दिल दे दिया था.

गौतम टौपर था. इस के अलावा क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. बड़ेबड़े क्लबों के साथ खेल चुका था. उस के व्यक्तित्व से कालेज की कई लड़कियां प्रभावित थीं. कुछ ने तो खुल कर मोहब्बत का इजहार तक कर दिया था.

उस ने किसी का भी प्यार स्वीकार नहीं किया था. करता भी कैसे? श्रेया जो उस के दिल में बसी हुई थी.

श्रेया भी उस से प्रभावित थी. सो, उस ने बगैर देर किए उस से ‘आई लव यू’ कह दिया.

वह कोलकाता के नामजद अमीर परिवार से थी. उस के पिता और भाई राजनीति में थे. उन के कई बिजनैस थे. दौलत की कोई कमी न थी.

गौतम के पिता पंसारी की दुकान चलाते थे. संपत्ति के नाम पर सिर्फ दुकान थी. जिस मकान में रहते थे, वह किराए का था. उन की एक बेटी भी थी. वह गौतम से छोटी थी.

अपनी हैसियत जानते हुए भी गौतम, श्रेया के साथ उस के ही रुपए पर उड़ान भरने लगा था. उस से विवाह करने का ख्वाब देखने लगा था.

कालांतर में दोनों ने आधुनिक रीति से तनमन से प्रेम प्रदर्शन किया. सैरसपाटे, मूवी, होटल कुछ भी उन से नहीं छूटा. मर्यादा की सारी सीमा बेहिचक लांघ गए थे.

2 वर्ष बीत गए तो गौतम ने महसूस किया कि श्रेया उस से दूर होती जा रही है. वह कालेज के ही दूसरे लड़के के साथ घूमने लगी थी. उसे बात करने का भी मौका नहीं देती थी.

बड़ी मुश्किल से एक दिन मौका मिला तो उस से कहा, ‘‘मुझे छोड़ कर गैरों के साथ क्यों घूमती हो? मुझ से शादी करने का इरादा नहीं है क्या?’’

श्रेया ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘कभी कहा था कि तुम से शादी करूंगी?’’

वह तिलमिला गया. किसी तरह गुस्से को काबू में कर के बोला, ‘‘कहा तो नहीं था पर खुद सोचो कि हम दोनों में पतिपत्नी वाला रिश्ता बन चुका है तो शादी क्यों नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘मैं ऐसा नहीं मानती कि किसी के साथ पतिपत्नी वाला रिश्ता बन जाए तो उसी से विवाह करना चाहिए.

‘‘मेरा मानना है कि संबंध किसी से भी बनाया जा सकता है, पर शादी अपने से बराबर वाले से ही करनी चाहिए. शादी में दोनों परिवारों के आर्थिक व सामाजिक रुतबे पर ध्यान देना अनिवार्य होता है.

‘‘तुम्हारे पास यह सब नहीं है. इसलिए शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि अब मेरा पीछा करना बंद कर दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा.’’

श्रेया की बात गौतम को शूल की तरह चुभी. लेकिन उस ने समझदारी से काम लेते हुए उसे समझाने की कोशिश की पर वह नहीं मानी.

आखिरकार, उसे लगा कि श्रेया किसी के बहकावे में आ कर रिश्ता तोड़ना चाहती है. उस ने सोचा, ‘उस के घर वालों को सचाई बता दूंगा तो सब ठीक हो जाएगा. परिजनों के कहने पर उसे मुझ से विवाह करना ही होगा.’

एक दिन वह श्रेया के घर गया. उस के पिता व भाई को अपने और उस के बारे में सबकुछ बताया.

श्रेया अपने कमरे में थी. भाई ने बुलाया. वह आई. भाई ने गौतम की तरफ इंगित कर उस से पूछा, ‘‘इसे पहचानती हो?’’

श्रेया सबकुछ समझ गई. झट से अपने बचाव का रास्ता भी ढूंढ़ लिया. बगैर घबराए कहा, ‘‘यह मेरे कालेज में पढ़ता है. इसे मैं जरा भी पसंद नहीं करती. किंतु यह मेरे पीछे पड़ा रहता है. कहता है कि मुझ से शादी नहीं करोगी तो इस तरह बदनाम कर दूंगा कि मजबूर हो कर शादी करनी ही पड़ेगी.’’

वह कहता रहा कि श्रेया झूठ बोल रही है परंतु उस के भाई और पिता ने एक न सुनी. नौकरों से उस की इतनी पिटाई कराई कि अधमरा हो गया. पैरों की हड्डियां टूट गईं.

किसी पर किसी तरह का इलजाम न आए, इसलिए गौतम को अस्पताल में दाखिल करा दिया गया.

थाने में श्रेया द्वारा यह रिपोर्ट लिखा दी गई, ‘घर में अकेली थी. अचानक गौतम आया और मेरा रेप करने की कोशिश की. उसी समय घर के नौकर आ गए. उस की पिटाई कर मुझे बचा लिया.’

थाने से खबर पाते ही गौतम के पिता अस्पताल आ गए. गौतम को होश आया तो सारा सच बता दिया.

सिर पीटने के सिवा उस के पिता कर ही क्या सकते थे. श्रेया के परिवार से भिड़ने की हिम्मत नहीं थी.

उन्होंने गौतम को समझाया, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ. अस्पताल से वापस आ कर पढ़ाई पर ध्यान लगाना. कोशिश करूंगा कि तुम पर जो मामला है, वापस ले लिया जाए.’’

उन्होंने सोर्ससिफारिश की तो श्रेया के पिता ने मामला वापस ले लिया.

अस्पताल में गौतम को 5 माह रहना पड़ा. वे 5 माह 5 युगों से भी लंबे थे. कैलेंडर की तारीखें एकएक कर के उस के सपनों के टूटने का पैगाम लाती रही थीं.

उसे कालेज से निकाल दिया गया तो दोस्तों ने भी किनारा कर लिया. महल्ले में भी वह बुरी तरह बदनाम हो चुका था. कोई उसे देखना नहीं चाहता था.

श्रेया के आरोप पर किसी को विश्वास नहीं हुआ तो वह थी इषिता. वह उसी कालेज में पढ़ती थी और गौतम की दोस्त थी. वह अस्पताल में उस से मिलने बराबर आती रही. उसे हर तरह से हौसला देती रही.

गौतम घर आ गया तो भी इषिता उस से मिलने घर आती रही. शरीर के घाव तो कुछ दिनों में भर गए पर आत्मसम्मान के कुचले जाने से उस का आत्मविश्वास टूट चुका था.

मन और आत्मविश्वास के घावों पर कोई औषधि काम नहीं कर रही थी. गौतम ने फैसला किया कि अब आगे नहीं पढ़ेगा.

परिजनों तथा शुभचिंतकों ने बहुत समझाया लेकिन वह फैसले से टस से मस

नहीं हुआ.

इस मामले में उस ने इषिता की भी नहीं सुनी. इषिता ने कहा था, ‘‘ पढ़ना नहीं चाहते हो तो कोई बात नहीं. क्रिकेट में ही कैरियर बनाओ.’’

‘‘मेरा आत्मविश्वास टूट चुका है. कुछ नहीं कर सकता. इसलिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ उस ने दोटूक जवाब दिया था.

वह दिनभर चुपचाप घर में पड़ा रहता था. घर के लोगों से भी ठीक से बात नहीं करता था. किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर भी नहीं जाता था. हर समय चिंता में डूबा रहता.

सोने की सास: भाग 2- क्यों बदल गई सास की प्रशंसा करने वाली चंद्रा

नई ओर बहू सुष्मिता मेरी अचरज से देख रही थी कि मैं मां हो कर भी अपनी ही बेटी के विरुद्ध बोल रही थी.

चंद्रा और श्रीकांतजी को 2 दिनों के बाद कोलकाता लौटना था. उन के लौटने से पहले मैं ने समधनजी से कहा, ‘‘चंद्रा में अभी थोड़ा बचपना है. आप उस की बातों पर ध्यान मत दिया कीजिए.’’

वे हंसती हुई बोलीं, ‘‘वह जैसी भी है, अब मेरी बेटी है. आप उस की चिंता मत कीजिए.’’

मुझे लगा, जैसे मुझ पर से कोई बोझ उतर गया. फिर सोचा, चंद्रा तो कोलकाता जा रही है और उस की सास यहां रहेंगी. धीरेधीरे संबंध खुदबखुद सुधर जाएंगे.

दिन बीत रहे थे. बिटिया ने कोलकाता से फोन किया, ‘‘पापा के साथ आओ न मेरा घर देखने.’’

मैं बोली, ‘‘अभी तेरे पापा को दफ्तर से छुट्टी नहीं मिलेगी. हम फिर कभी आएंगे. पहले तुम अपने सासससुर को बुलाओ न अपना घर देखने के लिए? अब तो वहां का घर संभालने तुम्हारी देवरानी भी आ गई है.’’

‘‘नहीं मां, वे आएंगी तो मेरी गृहस्थी में 100 तरह के नुक्स निकालेंगी. मैं नहीं बुलाऊंगी उन्हें.’’

‘‘अरे, बिटिया रानी, कैसी बात कर रही हो? वे आखिर तुम्हारे पति की मां हैं.’’

‘‘हुंह मां. तुम नहीं जानतीं कैसे पाला है उन्होंने इन को. तुम्हें पता है, वे इन्हें बासी रोटियों का नाश्ता करा कर स्कूल भेजती थीं.’’

‘‘अरे पगली, बासी रोटियों का नाश्ता करने में क्या बुराई है? राजस्थानी घरों में बासी रोटियों का नाश्ता ही किया जाता है. बचपन में हम भाईबहन भी बासी रोटियों का नाश्ता कर के ही स्कूल जाते थे. सच कहूं, तो मुझे तो अभी भी बासी रोटियां खूब अच्छी लगती हैं पर तुम्हारे पापा बासी रोटियां नहीं खाना चाहते, इसीलिए यहां नाश्ते में ताजा रोटियां बनाती हैं.’’

‘‘एक यही बात नहीं और भी बहुत बातें हैं, फोन पर क्याक्या बतलाऊं?’’

‘‘सुनो चंद्रा, कोई भी मांबाप अपनी संतान को अपने जमाने के चलन और अपनी सामर्थ्य के अनुसार बेहतर से बेहतर ढंग से पालना चाहता है.’’

‘‘तुम फिर उन्हीं का पक्ष लेने लगीं.’’

‘‘अच्छा, बाद में मिलने पर सुनूंगी और सब. अभी फोन रखती हूं. श्रीकांतजी के आने का समय हो रहा है, तुम भी चायनाश्ते की तैयारी करो,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया.

समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे समझाऊं अपनी इस नादान बिटिया को. जमाईजी भी ऐसी बातें क्यों बताते हैं इस नासमझ लड़की को.

 

कुछ दिनों बाद आखिर अपर्णाजी अपने बेटेबहू के घर गईं. जितने दिन वे वहां रहीं, शिकायतों का सिलसिला थमा रहा. सासूजी वापस गईं, तब चंद्रा और श्रीकांतजी भी उन के साथ गए, क्योंकि वहां एक चचेरे देवर का विवाह था. उस के बाद जब चंद्रा लौटी, तो फिर उस की शिकायतों का सिलसिला शुरू हो गया. एक दिन कहने लगी, ‘‘मां तुम्हें पता है, मेरी सासूजी मेरी देवरानी को कितना दबा कर रखती हैं?’’

मैं चौंकी, ‘‘लेकिन वे तो फोन पर तुम्हारी और तुम्हारी देवरानी की भी सदा तारीफ ही किया करती हैं.’’

‘‘तारीफ करकर के ही तो उस बेचारी का सारा तेल निकाल लेती हैं.’’

‘‘देखो बिटिया, गृहस्थी में काम तो सभी के घर रहता है. तुम्हारी 2 जनों की गृहस्थी में भी काम तो होंगे ही.’’

वह चिढ़ कर बोली, ‘‘उन्हें प्यारी भी तो वही लगती है. असल में जो पास रहता है, वही  प्यारा भी लगता है. दूर वाला तो मन से भी दूर हो जाता है.’’

‘‘क्या कह रही हो चंद्रा, मांबाप के लिए तो उन के सभी बच्चे बराबर होते हैं. वैसे, मुझे तो लगता है कि दूर रहने वालों की याद मांबाप को अधिक सताती है.’’

उस ने कहा, ‘‘अच्छा, छोड़ो यह सब. अब बतलाओ, तुम लोग कब आ रहे हो?’’

‘‘तुम्हारे पापा से बात करती हूं.’’

आखिर हम ने चंद्रा के यहां जाने का कार्यक्रम बना ही लिया. वहां जा कर 4-5 दिन तो ठीकठाक गुजरे. उस के बाद देखा कि वह हमेशा श्रीकांतजी पर रोब जमाती रहती. जबतब मुंह फुला कर बैठ जाती. वे बेचारे खुशामद करते आगेपीछे घूमते रहते. उसके झगड़े की मुख्य वजह होती थी कि वे दफ्तर देर से लौटते समय उस का बताया सामान लाना क्यों भूल गए या देर से क्यों आए अथवा अमुक काम उस के मनमुताबिक क्यों नहीं किया?

हम लोग उसे समझाने की कोशिश करते कि नौकरी वाले को तो काम अधिक होने की वजह से देर हो ही जाती है, इस में उन का भला क्या दोष. घर आने की हड़बड़ी में कभीकभी बाजार का भी कोई काम छूट सकता है, इस बात के लिए इतना गुस्सा करना भी ठीक नहीं. लेकिन श्रीकांत अपने भुलक्कड़ स्वभाव से मजबूर थे, तो वह अपने गुस्सैल स्वभाव से.

एक दिन मैं ने उसे फिर समझाना चाहा, तो वह बिगड़ कर बोली, ‘‘अब तुम भी मेरी सास की तरह बातें करने लगीं. वे हम दोनों के बीच पड़ती हैं, तो मुझे एकदम अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘जैसे मैं तुम्हारी मां हूं, वैसे ही वे दामादजी की मां हैं. बच्चों को आपस में लड़तेझगड़ते देख कर मांबाप को तकलीफ तो होती ही है. फिर इस झगड़े का तुम दोनों के स्वास्थ्य पर भी तो बुरा असर पड़ सकता है. समझाना हमारा फर्ज है बाकी तुम जानो.’’

मेरी इस बात का चंद्रा पर कुछ प्रभाव तो पड़ा. अब वह जमाईजी पर कम ही नाराज होती है पर सास की बुराई का सिलसिला चलता रहा. श्रीकांतजी के सामने भी वह उन की मां की निंदा करती. जब अपने बारे में कहने को अधिक नहीं बचता, तो अपनी देवरानी को माध्यम बना कर वह सास में खोट निकालती रहती. एक दिन कहने लगी, ‘‘उस बेचारी को तो सब के खाने के बाद अंत में बचाखुचा खाना मिलता है.’’

मैं ने सोचा, इस की हर बात तो झूठ नहीं हो सकती. मैं इस की सास से मिली ही कितना हूं, जो उन्हें पूरी तरह से जान सकूं.

आखिर हमारी छुट्टी पूरी हुई और हम दोनों अपने घर लौट आए.

कुछ ही दिनों बाद सूचना मिली कि बिटिया की सास अपर्णाजी बीमार हैं. चंद्रा और श्रीकांतजी उन्हें देखने गए थे. हमारा कार्यक्रम देर से बना इसलिए जब हम पहुंचे तब तक वे दोनों वापस जा चुके थे. अपर्णाजी की तबीयत भी कुछ सुधर गई थी, पर कमजोरी काफी थी और डाक्टर ने अभी उन्हें कुछ दिन आराम करने की सलाह दी थी.

मैं ने गौर किया, चंद्रा की देवरानी जितनी हंसमुख है, उतनी ही कर्मठ भी. वह बड़े मन से अपनी सास अपर्णाजी की सेवा में लगी रहती. मैं ने यह भी देखा कि वह खाना सब से आखिर में खाती. सास बिस्तर पर पड़ीपड़ी उसे पहले खाने के लिए कहती रहतीं.

एक दिन मैं ने भी टोका, ‘‘सुष्मिता बेटा, तुम भी सब के साथ खा लिया करो न. रोजरोज देर तक भूखे रहना ठीक नहीं है.’’

वह हंसती हुई बोली, ‘‘बच्चे स्कूल से देर से आते हैं इसलिए उन्हें खिलाए बिना मुझ से खाया ही नहीं जाता. कभी ज्यादा भूख लग जाए, तो उन से पहले खाने बैठ जाऊं तो ग्रास मेरे गले से नीचे नहीं उतरता.’’

‘‘हां, मां का मन तो कुछ ऐसा ही होता है,’’ मैं बोली.

बच्चे खाने में देर भी बहुत लगाते. दोनों ही छोटे थे और उन्हें बहलाफुसला कर खिलाने में काफी समय लग जाता था.

बिटिया रानी को यह सब बतलाती, तो वह कहती, ‘‘अरे, तुम नहीं जानतीं मेरी सास का असली रूप. उन के डर से ही तो वह बेचारी दिनरात भूखीप्यासी लगी रहती है और सब से आखिर में खाती है.’’

बहुओं के प्रति उस की सास के निश्छल स्नेह में मुझे तो कोई बनावट नजर नहीं आई थी, लेकिन मेरी बिटिया रानी को कौन समझाए, वह तो अपने पति श्रीकांतजी के कान भी उन की मां के विरुद्ध झूठीसच्ची बातें कह कर भरती रहती. नमकमिर्च लगा कर कही गई उस की झूठी बातों पर धीरेधीरे जमाईजी यकीन भी करने लगे थे.

जमाईजी और बच्चे सुबह के गए शाम को घर लौटते थे. चंद्रा अकेली घर पर ऊबती रहती थी. एक दिन मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम भी कहीं कोई काम क्यों नहीं खोज लेतीं. इस से वक्त तो अच्छा कटेगा ही, तुम्हारी पढ़ाईलिखाई भी काम में आ जाएगी.’’

मेरी बात उसे जंच गई. वह अखबारों में विज्ञापन देख कर नौकरी के लिए आवदेन करने लगी. संयोगवश उसे उस की योग्यता के अनुरूप नौकरी मिल गई.

अब वह व्यस्त हो गई. चुगलीचर्चा का वक्त उसे कम ही मिलता था. अपने पति से

भी उस की अच्छी पटने लगी. निंदा के बदले उन की प्रशंसा ही करती कि वे घर के कामों में भी उस की मदद करते हैं, क्योंकि सुबह दोनों को लगभग साथ ही निकलना होता है.

Raksha Bandhan: बहनें- भाग 3-रिश्तों में जलन का दर्द झेल चुकीं वृंदा का बेटिंयों के लिए क्या था फैसला?

वृंदा ने बात को जल्दी ही समाप्त किया और लगभग भागती हुई अपने घर आ गई. घंटेभर शांति से बैठने के बाद जब उस की सांसें स्थिर हुईं तब उसे घर छोड़ कर बाहर अकेले रहने का अपना फैसला गलत लगने लगा. कितना कहा था रवि ने कि इसी घर में पड़ी रहो, पर वह कहां मानी. स्वाभिमान और आत्मसम्मान आड़े आ रहा था. पता नहीं क्या हो गया था उसे. भूल गई थी कि औरतों का भी कहीं सम्मान होता है. पर उसे तो स्वयं पर भरोसा था, समाज पर विश्वास था. सुनीसुनाई बातें वह मानती नहीं थी.

उस के अनुभव में भी अब तक ऐसी कोई घटना नहीं थी कि वह डरती. किंतु अब तक वह पति के द्वारा छोड़ी भी तो नहीं गई थी. पति ने छोड़ा है उसे? नहीं, वृंदा स्वाभिमान से घिर जाती. वह पति के द्वारा छोड़ी गई नहीं है बल्कि उस ने अपने पति को छोड़ा था. जब वह अपने पति द्वारा दिए अपमान को न सह सकी तब डा. निगम से इतना डर क्यों? इसी साहस के बल पर वह अकेले रहने निकली है? डा. निगम जैसे तो अब पगपग पर मिलेंगे. कब तक डरेगी?

अंधेरा घिर आया था. किसी ने दरवाजा फिर खटखटाया. वृंदा फिर भयभीत हुई. भय अंदर तक समाने की कोशिश कर रहा था, किंतु वृंदा ने उठ कर पूरे साहस के साथ दरवाजा खोल दिया. दरवाजे के सामने पड़ोस में रहने वाली मिसेज श्रीवास्तव खड़ी थीं. वृंदा को उदास देख उन्हें शंका हुई. उन्होंने कारण पूछा तो वृंदा रो पड़ी तथा शाम को घटी घटना का बयान ज्यों का त्यों उन के सामने कर दिया. फिर मिसेज श्रीवास्तव के प्रयास से ही 15 दिन के भीतर उसे यह कमरा मिला था.

वृंदा ने एक गहरी सांस ली. कमरे में रखे सामान पर उस की नजर गई. इस कमरे में तमाम सामान के साथ एक अटैची भी थी, जिस में सब से नीचे एक तसवीर रखी थी. तसवीर में रवि मुसकरा रहा था. वृंदा जब उस अटैची को खोलती तो उस तसवीर को जरूर देख लेती. क्या था इस तसवीर में? क्यों इसे इतना संभाल कर रखती है वह? बारबार इसे देखने की उस की इच्छा क्यों उमड़ती है? वह तो रवि से नफरत करती है. इतनी नफरत के बाद भी वह तसवीर उस की अटैची में कैसे है? उस ने महसूस किया कि न सिर्फ अटैची में है उस की तसवीर बल्कि अपनी हर छोटीमोटी परेशानी में वह सब से पहले रवि को ही याद करती है. क्या उस के हृदय में रवि के प्रति प्रेम जैसा कुछ अब भी है?

जितनी बार वृंदा के मन में ये विचार, ये प्रश्न उठते, उतनी ही बार वह मन को विश्वास दिलाती कि ऐसा कुछ नहीं है. यह तसवीर तो वह अपनी बेटियों के लिए लाई है, खुद अपने लिए नहीं. बेटियां पूछेंगी अपने पापा के बारे में तो वह बता सकेगी कि देखो, ये हैं तुम्हारे पापा, यह चेहरा है उन का, इस चेहरे से करो नफरत कि इस चेहरे ने किया है अनाथ तुम्हें. उस की बच्चियां और अनाथ? वह क्या कर रही है फिर? उस ने अपने अस्तित्व को नकार दिया है क्या? बस रवि ही सब कुछ था क्या? दुख में रवि, खुशी में रवि, नफरत में रवि. उलझ गई है वृंदा. वह रवि को जितना नकारती है, रवि उतना ही उसे याद आता है तभी तो अटैची खोलते ही वह सामान बाद में निकालती है तसवीर को पहले देखती है.

वृंदा अब लेटी नहीं रह पा रही थी. वह उठ कर खिड़की के पास तक आई. बाहर अभी भी अंधेरा था किंतु सुबह होने में अब अधिक देर नहीं थी. सरसराती हवा कमरे में आ रही थी. वृंदा ने अपने माथे को खिड़की से टिका दिया और एक लंबी सांस ली, चलो किसी तरह एक रात और बीती.

आज बच्चों के स्कूल में ऐनुअल फंक्शन था. उस ने बच्चियों को जगाया और अपने काम में लग गई. प्राची अपने कपड़ों को उलटनेपलटने लगी. गिनती के कपड़ों में वह यह देख रही थी कि अब तक कौन सी ड्रैस पहन कर स्कूल नहीं गई है. किंतु बारबार पलटने पर भी उसे एक भी ऐसी ड्रैस नहीं मिल रही थी. इन सब कपड़ों को एक बार तो क्या कईकई बार पहन कर वह स्कूल गई है. हार कर उस ने एक पुरानी फ्रौक निकाल ली और नहाने के लिए बाथरूम में घुसी.

रश्मि अभी तक बिस्तर पर लेटी थी. प्राची को बाथरूम में जाते देख चिल्लाने लगी कि पहले वह नहाएगी. रश्मि का रोना सुन कर प्राची बाथरूम से बाहर आ गई ताकि रश्मि ही पहले नहा ले. प्राची के हाथ में फ्रौक थी. रश्मि फ्रौक को खींचती हुई बोली, ‘‘इसे मैं पहनूंगी, तुम दूसरी पहन लेना. फ्रौक बड़ी है इस बात की चिंता उसे नहीं थी. वह तो खुश थी कि प्राची यह फ्रौक नहीं पहन पाई, बस.

इधर, कुछ दिनों से वृंदा रश्मि की इन आदतों, जिस में प्राची की चीजों को छीन लेना और उसे हरा देना शामिल होता जा रहा था, से परेशान थी. और शायद इसलिए आजकल उसे डरावने सपने भी अधिक आने लगे थे. वृंदा को रश्मि के जन्म के समय मैटरनिटी होम में कहे गए उस बंगाली महिला के शब्द याद आ गए. उस के दोनों बच्चों में मात्र सालभर का अंतर है, यह जानते ही बंगाली महिला ने उसे सलाह दी थी, ‘इस को, इस के हाथ से केला खिला देना. तब वह बहन से हिंसा नहीं करेगी.’

हिंसा शब्द ईर्ष्या शब्द के पर्याय में बोला गया था. यह तो वृंदा भलीभांति समझ गई थी, किंतु केला बड़ी बेटी के हाथ से छोटी को खिलाए या छोटी बेटी के हाथ से बड़ी बेटी को, यह नहीं समझ पाई थी. समझने का प्रयास भी नहीं किया था, कहीं केला खिलाने से प्रेम और द्वेष हो सकता है भला.

पर अब उस के मन में कभीकभी आता है कि वह पूरी तरह क्यों नहीं उस बंगाली महिला की बात को समझी. समझ कर वैसा कर लेती तो शायद रश्मि प्राची से इतनी ईर्ष्या न करती. लेकिन प्राची इतनी उदार कैसे हो गई? कहीं अनजाने में उस ने रश्मि को केला खिला तो नहीं दिया था. वृंदा झुंझला उठी, क्या हो गया है उसे? किनकिन बातों में विश्वास करने लगी है वह?

स्कूल के स्टेज पर एक कार्यक्रम के बाद दूसरा कार्यक्रम था. तालियों पर तालियां बज रही थीं, किंतु वृंदा का मन अपने ही द्वारा बुने गए विचारों में उलझा था. समारोह समाप्त होने पर सब बच्चों को स्कूल की तरफ से एकएक पैकेट चिप्स और चौकलेट दी गई.  बच्चे खुश हो कर घर लौटे.

वृंदा का मन अब तक उदास था. वह बेमन से घर के कामों को निबटाने लगी.

प्राची ने रश्मि से पूछा, ‘‘रश्मि चौकलेट का स्वाद कैसा था?’’

‘‘अच्छा, बहुत अच्छा,’’ रश्मि ने इठलाते हुए जवाब दिया.

‘‘तुम्हें नहीं मिली थी क्या?’’ वृंदा के काम करते हाथ रुक गए.

‘‘हां, मिली थी.’’

‘‘फिर तुम ने भी तो खाई होगी?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘रश्मि ने मांग ली थी.’’

‘‘उसे भी तो मिली होगी?’’

‘‘हां, उसे मिली थी, पर उसे और खानी थी.’’

‘‘आधी दे देनी थी, पूरी क्यों दी?’’

‘‘रश्मि रोने लगी थी, मम्मी.’’

प्राची के जवाब से वृंदा का धैर्य थर्रा कर टूट गया. उस ने प्राची के गाल पर तड़ातड़ कई थप्पड़ जड़ दिए, ‘‘उस ने मांगी और तुम ने दे दी, अपनी चीजों को बचाना नहीं आता तुम्हें? तुम दादी बन रही हो? तुम्हें क्या लगता है कि रश्मि तुम्हारा बड़ा मानसम्मान करेगी कि तुम ने हर पल अपने हिस्से को उसे दिया है…अरे, यों ही देती रहोगी तो एक दिन वह तुम से तुम्हारा जीवन भी छीन लेगी…अब उसे कुछ दोगी, बोलो, अब दोगी अपनी चीजें उसे…’’ वृंदा प्राची को मारे जा रही थी और बोले जा रही थी.

मां का रौद्र रूप देख कर रश्मि डर के मारे एक कोने में दुबक गई थी. वृंदा के मारते हाथ जब थोड़े रुके तो वह स्वयं फूटफूट कर रोने लगी और वहीं दीवार के सहारे जमीन पर बैठ गई.

घंटों रो लेने के बाद उस ने कमरे में नजर दौड़ाई. खिड़की के बाहर एक स्याह परदा पड़ गया है. भीतर की पीली रोशनी में कमरा कुछ उदास और खोयाखोया सा लग रहा था. उस की दोनों बेटियां रोतेरोते वहीं उस के पास जमीन पर ही सो गई थीं. रश्मि प्राची की गोद में दुबक गई थी और प्राची का हाथ रश्मि के सिर पर था. वृंदा का मन विह्वल हो गया. वह क्यों पिछली जिंदगी की गुत्थियों में उलझी है? 10 साल पहले घटी एक घटना का अब तक इतना गहरा प्रभाव? वह गलत राह पर है. उसे इस छाया को अपनी जिंदगी से मिटाना पड़ेगा. कितना प्रेम तो है दोनों में? वह क्यों अलगाव के बीज बो रही है. उस के इस व्यवहार से तो दोनों एकदूसरे से बहुत दूर हो जाएंगी. उस ने तय किया कि अब वह कभी पीछे लौट कर नहीं देखेगी. वह काली छाया अपनी बेटियों पर नहीं पड़ने देगी. उस ने बारीबारी से दोनों के सिर पर हाथ फेरा और आश्चर्य उसे यह हुआ कि आज इस अवसाद की स्थिति में भी उस ने रवि को याद नहीं किया.

Raksha Bandhan: बहनें- भाग 1- रिश्तों में जलन का दर्द झेल चुकीं वृंदा का बेटिंयों के लिए क्या था फैसला?

स्वप्न इतना डरावना तो नहीं था किंतु न जाने कैसे वृंदा पसीने से तरबतर हो गई. गला सूख गया था उस का. आजकल अकसर ऐसा होता है. स्वप्न से?डरना. यद्यपि वह इन मान्यताओं को नहीं मानती थी कि स्वप्न किसी शुभाशुभ फल को ले कर आता है, पर पता नहीं क्यों, आजकल वह उस कलैंडर की तलाश में रहने लगी है जिस में स्वप्न के शुभाशुभ फल दिए रहते हैं. क्या करे, सहेलियां डरा जो देती हैं उसे.

कभीकभी जब वह अपना कोई स्वप्न बता कर पूछती है कि मरा हाथी देखने से क्या होता है? या फिर मकान गिरते हुए देखने का क्या फल मिलता है? तब सहेलियां चिंतित हो कर अपनी बड़ीबड़ी आंखें घुमा कर उस का भविष्य बताने लगतीं, ‘लगता है, अभी तुम्हारी मुसीबत खत्म नहीं हुई है. कोई बहुत बड़ी विपत्ति आने वाली है तुम पर. अपनी बेटियों की देखभाल जरा ध्यान से करना.’

तब वृंदा मारे डर के कांपने लगती है. अब ये मासूम बेटियां ही तो उस की सबकुछ हैं. कैसे नहीं ध्यान रखेगी इन का? दोनों कितनी गहरी नींद में सो रही हैं? वृंदा अरसे से ऐसी गहरी नींद के लिए तरस रही है. यदि किसी रात नींद आ भी जाती है तो कमबख्त डरावने स्वप्न आ धमकते हैं और नींद छूमंतर हो जाती है.

वृंदा ने घड़ी की तरफ देखा, रात के 3 बज रहे थे. स्वप्न की बेचैनी और घबराहट से माथे पर पसीने की बूंदें छलछला आई थीं. वह बिस्तर से उठी, मटके से गिलास भर पानी निकाला व एक ही सांस में गटागट पी गई. माथे पर आए पसीने को साड़ी के आंचल से पोंछती हुई वह फिर बिस्तर पर आ कर लेट गई. वृंदा ने पूरे कमरे में नजर घुमाई. यह छोटा सा कमरा ही अब उस का घर था. न अलग से रसोई, न स्टोर, न बैठक. सबकुछ इसी कमरे में था. गैस चूल्हे की आंच से जो गरमी निकलती वह रातभर भभकती रहती.

कमरे से लगा एक छोटा सा बाथरूम था और एक छोटी सी बालकनी भी. वृंदा का मन हुआ कि बालकनी का दरवाजा खोल दे, बाहर की थोड़ी हवा तो अंदर आएगी, किंतु उस की हिम्मत नहीं पड़ी. रात के 3 बजे सवेरा तो नहीं हो जाता. वृंदा मन मार कर लेटी रही.

उस का ध्यान फिर से स्वप्न पर गया. एक बड़े से गड्ढे में गिर कर उस की बड़ी बेटी प्राची रो रही थी और रश्मि बड़ी बहन को रोता देख कर खिलखिला रही थी. यह भी कोई स्वप्न है? इतना डरने लायक? वह डरी क्यों? इस स्वप्न के किस हिस्से ने उसे डराया? प्राची का गड्ढे में गिरना या रश्मि का किनारे खड़े हो कर खिलखिलाना? रश्मि हंस क्यों रही थी? शायद प्राची को गड्ढे में उस ने ही धकेला था. वृंदा फिर कांप गई.

स्वप्न, स्वप्न था. आया और चला गया. किंतु उस की परछाईं किसी सच्ची घटना की तरह उसे डरा रही थी. वह इस प्रकार डरी मानो अभी घर में तूफान आया हो और घर की दीवारें तक हिल गई हों.

यह स्वप्न उसे अतीत के बिंबों की तरफ ले जा रहा था जिस में न जाने की उस ने सैकड़ों बार प्रतिज्ञा की थी.

बिंब अभी थोड़े धुंधले थे. उसे थोड़ा संतोष हुआ. वह इन्हें और चटक नहीं होने देगी. यहीं से उबर जाएगी. किंतु उस का प्रयास अधिक देर तक टिक नहीं पाया. शीघ्र ही एक के बाद एक सारे बिंब चमकदार होने लगे हैं जिन्हें देखते ही उस की धड़कनें अधिक तेज हो गईं.

उस की भी एक छोटी बहन थी, कुंदा. हमेशा उस के चौकलेट, खिलौनों तथा कपड़ों को हथिया लेती थी. वृंदा या तो उस से जीत नहीं पाती थी या जीतने का भाव मन में लाती ही नहीं थी. छोटी बहन से क्या जीतना और क्या हारना? खुशीखुशी अपने चौकलेट, खिलौने और कपड़े कुंदा को दे देती थी. कुंदा विजयी भाव से उस की चीजों का इस्तेमाल करती थी. वृंदा को बस उस का यह विजयभाव ही खटकता था. वह सोचती, ‘काश, कुंदा समझ पाती कि उस की विजय का कारण मेरी कमजोरी नहीं बल्कि प्रेम है, छोटी बहन के प्रति प्रेम.’ पर कुंदा को न समझना था, न ही समझी.

बचपन छूटता गया पर कुंदा का स्वभाव न बदला. रश्मि के जन्म के समय वृंदा के घर आई कुंदा ने उस से उस का पति भी छीन लिया. वृंदा हतप्रभ थी. 5 वर्ष के संबंध चंद दिनों की परछाईं में दब कर सिसकने लगे.

वृंदा का विश्वास टूटा था, वह स्वयं नहीं. उस ने अपने घर को संभालने का पूरा प्रयास किया. सब से पहले उस ने अपने पति से बात की.

‘यह सब क्यों हुआ रवि…बोलो, ऐसा क्यों किया तुम ने? तुम्हारे जीवन में मैं इतनी महत्त्वहीन हो गई? इतनी जल्दी? मात्र 5 वर्षों में?’

‘ऐसी बात नहीं है वृंदा, तुम्हारा महत्त्व तनिक भी कम नहीं है,’ एकदम सपाट और भावशून्य शब्दों में जवाब दिया था रवि ने. वृंदा कुछ संतुष्ट हुई, ‘तो फिर यह महज भूल थी जो हो गई होगी. कोई बात नहीं, सब ठीक हो जाएगा,’ मन में सोचा था उस ने, पर ऊपर से कठोर बनी प्रश्न करती रही.

‘जब तुम्हारे जीवन में मेरा महत्त्व कम नहीं हुआ है तो तुम ने ऐसा क्यों किया…? कुंदा तो नासमझ है, पर तुम्हें तो कुछ सोचना था?’

‘तुम इतनी छोटी बात का बतंगड़ बना रही हो?’ रवि की आवाज में खीज थी. वृंदा सब्र खो बैठी. क्षणभर पहले उस के मन में रवि के लिए उठे विचार विलीन हो गए.

‘मैं बतंगड़ बना रही हूं…? मैं? तुम्हारी नजर में यह इतनी छोटी बात है? अरे, तुम ने मेरे विश्वास का गला घोंटा है रवि, जिंदगीभर की चुभन दी है तुम ने मुझे. समय बीत जाएगा, ये बातें समाप्त हो जाएंगी लेकिन मेरे दिल में पहले जैसे भाव कभी नहीं आएंगे. हमेशा एक अविश्वास घेरे रहेगा मुझे. मुझे तो तुम ने जिंदगीभर की पीड़ा दी ही, साथ ही मेरी बहन को भी बेवकूफ बनाया.’

‘क्या बकवास कर रही हो? मैं ने किसी को बेवकूफ नहीं बनाया है…किसी को कोई पीड़ा नहीं दी है,’ क्रोध में रवि चिल्ला पड़े थे. फिर थोड़ी देर बाद संयत हो कर अपने एकएक शब्द पर जोर देते हुए बोले, ‘कुंदा से मेरी बात हो चुकी है. मैं उस से शादी करूंगा. वह भी राजी है. हां, तुम इस घर में पूरे मानसम्मान के साथ रह सकती हो. अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम बात का बतंगड़ बनाती हो या अपना और कुंदा का जीवन बरबाद करती हो,’ रवि ने बेपरवाह उद्दंडता से जवाब दिया.

वृंदा अवाक् रवि का मुंह ताकती रह गई. हाथपैर जम गए उस के. मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे. बात यहां तक बढ़ गई और वह कुछ जान ही न पाई. किस दुनिया में रहती है वह.

छत पर पंखा धीमी गति से घूम रहा है. दोनों बेटियां अब भी गहरी नींद में सो रही हैं. वृंदा ने पंखे को कुछ तेज किया किंतु उस की रफ्तार ज्यों की त्यों रही. बेटियों के माथे पर उभर आई पसीने की बूंदों को वृंदा ने अपने आंचल से थपथपा कर सुखाया, फिर छत निहारती हुई लेट गई.

पति के जवाब से आहत वृंदा के मन में उम्मीद की डोर अभी बाकी थी. सास से उम्मीद. वे कुछ करेंगी. वैसे थीं वे कड़क गुस्से वाली. वृंदा को उन के साथ रहते हुए 5 वर्ष बीत चुके थे किंतु हिम्मत थी कि उन के सामने सिकुड़ कर रह जाती थी. मुंह ही नहीं खुलता था. पर बात तो करनी थी, आखिर उसे इस घर से अलगथलग कर देने का षड्यंत्र रचा जा रहा है.

इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. यह उस के अस्तित्व का प्रश्न है. वह बात करेगी. अनुचित के विरोध में बोलना अपने अस्तित्व को बनाए रखने की बुनियादी जरूरत है. कुंदा के साथ अपने खिलौनों को बांटना छोटी बहन के प्रति प्यार है, बड़ी बहन का बड़प्पन है. पति खिलौना नहीं है, वह उसे कैसे बांटेगी? कैसे बंट जाने देगी? पर क्या करे वह, जब पति खुद ही बंटना चाहता हो. बंटना ही नहीं पूरी तरह से निकल जाना चाहता हो. फिर भी वह प्रयास करेगी.

मौका देख कर वृंदा ने सास से बात शुरू की, ‘मां, रवि कुंदा से शादी करने की सोच रहे हैं.’

‘हां, कह तो रहा था,’ एकदम ठंडी आवाज में जवाब दिया था सास ने.

‘तो मां, आप को पता है?’ वृंदा की आवाज में आश्चर्य समाया था.

‘हां, पता है.’

‘तो क्या आप यह सब होने देंगी?’

‘क्या करूंगी मैं? तुम देखो. तुम्हारी ही तो बहन है…उसे नहीं सोचना था तुम्हारे बारे में? चौबीस घंटे आगेपीछे नाचेगी तब तो यही होगा न?’ 

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